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गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012

'शक्ति पूजा और लोकाचार' स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [33] (धर्म और समाज),

 'क्या दुर्गा पूजा एक त्यौहार मात्र है?'
स्वामी विवेकानन्द द्वारा अमृतत्व (अमरत्व) के विषय पर अमेरिका में दिये गए एक सन्देश को हमलोग थोडा ध्यान पूर्वक सुनें, और मन ही मन इसके उपर चिन्तन करते हुए इसे समझने चेष्टा करें- वे कहते हैं, " तुम, मैं अथवा ये समस्त आत्मायें क्या हैं ? तुम और हम उसी विराट विश्वव्यापी चैतन्य या प्राण या मन के अंश-विशेष हैं, जो हम में क्रमसंकुचित या अव्यक्त अवस्था में हैं। और हम घूमकर, क्रम-विकास की प्रक्रिया के अनुसार उस विश्व-व्यापी चैतन्य में पुनः वापस लौट जायेंगे। लोग उसी विश्व-व्यापी चैतन्य को प्रभु, भगवान, ईसा, बुद्ध या ब्रह्म कहते हैं- भौतिकतावादी उसीकी शक्ति (उर्जा) के रूप में उपलब्धि करते हैं। तथा अज्ञेय वादी लोग उसी की उस अनन्त अनिवर्चनीय सर्वातीत पदार्थ के रूप में धारणा करते हैं, और हम सभी लोग उसी के अंश हैं। "२/१२६ 
हमलोग भौतिक जगत के भोगों में- 'कामुकता और कमाई' में जितना अधिक मदहोश (हिप्नोटाइज्ड)रहेंगे
उस विश्व-व्यापिनी शक्ति से उतना ही अधिक विलग होते जायेंगे । और शक्ति से जितना अधिक विच्छिन्न होंगे, उतने ही अधिक दुर्बल होते जायेंगे। दुर्बल होने के कारण ही हमलोगों की ऐसा दुःख-दारिद्र्य भोगना पड़ रहा है। सुख या आनंद इन्द्रिय-विषयों के भोग करने से प्राप्त नहीं होता, वास्तव में शक्ति ही परमानन्द प्रदान करती हैं। (नशा शराब में होता -तो नाचती बोतल ! ) दुर्बल होने के कारण ही हमलोग परमानन्द प्राप्त करने के अपने जन्मसिद्ध अधिकार से वंचित हो जाते हैं।
हमलोगों के राष्ट्रीय जीवन के विकास को, भारत के जन-साधारण के निजी जीवन में शक्ति के नाश ने ही, हजारों वर्षों तक रुद्ध किये रखा है। इसीलिये स्वामीजी बार बार कहते हैं, हमलोगों के लिए इस समय शक्ति पूजा की घोर आवश्यकता है। इस शक्ति पूजा का तात्पर्य कोई पौराणिक या या तांत्रिक आचार-अनुष्ठान नहीं है, या इसके साथ 'हिन्दूओं के योग ' वाली बात भी नहीं है। [संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत के आग्रह पर २१ जून को अन्तर्राष्ट्रीय योग-दिवश घोषित कर दिया है। किन्तु योग का अर्थ केवल शरीर का रोग दूर करने वाले विभिन्न आसन ही नहीं है।] योग का वास्तविक अर्थ है, उसी विश्व व्यापिनी शक्ति के साथ योग -'एकत्व की अनुभूति' को बढ़ाने की चेष्टा करना। आज वैसी शक्ति पूजा का आयोजन कहाँ हो रहा है ?
स्वामी विवेकानन्द किस प्रकार की शक्ति पूजा का आयोजन करना चाहते थे ?  यह उन्हीं के मुख से भारती की संपादिका को २४ अप्रैल १८७९७ को लिखित पत्र से सुना जाये, " इसी जीवात्मा में अनन्त शक्ति अव्यक्त भाव से अन्तर्निहित है, चींटी से लेकर ऊँचे से ऊँचे सिद्ध पुरुष तक सभी में वह आत्मा विराजमान है, और अन्तर जो कुछ है वह केवल प्रकाश (अभिव्यक्ति) के तारतम्य में है। कैवल्यपाद में है -'वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत "- किसान जैसे खेतों की मेंड़ तोड़ देता है और एक खेत का पानी दूसरे खेत में चला जाता है , वैसे ही आत्मा भी आवरण टूटते ही प्रकट हो जाती है । उपयुक्त अवसर और उपयुक्त देश-काल मिलते ही उस शक्ति का विकास हो जाता है। परन्तु चाहे विकास हो, चाहे न हो, वह शक्ति प्रत्येक जीव में -ब्रह्मा से लेकर घास तक में - विद्यमान हैं ! इस शक्ति को, सर्वत्र  घर घर जाकर जगाना होगा । " वैसी  शक्ति पूजा कहाँ हो रही है ?
यहाँ क्या हो रहा है ? पुराने ढांचे (frame) के उपर कादो-माटी का नया लेप चढ़ाया जा रहा है। कहा जा रहा है - "दुर्गापूजा का धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है (?), यह तो एक त्यौहार है- आइये हमलोग इसको अपने मन-मर्जी के अनुसार फ़िल्मी भक्ति-गीत आदि के साथ डी.जे. के धुन पर नाचते-गाते मना लेते हैं।" इन दिनों इसी प्रकार की मानसिकता के साथ शक्ति की पूजा करने का आह्वान अधिक सुनाई देती है। किन्तु जिस प्रकार पुराने पोथी-पत्री को निचोड़ने से कोई नई वस्तु प्राप्त करना कठिन होता है,  वैसे ही अपने मनमर्जी के अनुसार दुर्गोत्सव मनाने की इस नई प्रवृत्ति से कोई शक्ति प्राप्त होने वाली नहीं है। यदि हम सचमुच मनुष्य का कल्याण करना चाहते हों, तो इस युग में हमलोगों को नये शास्त्र का अनुसरण करना ही होगा। नये रूप में शक्ति पूजा का आयोजन करना होगा, यह आयोजन किस प्रकार करना होगा ? इसका जो निर्देश विवेकानन्द ने दिया है, उसे हम उनकी रचना 'चिन्तनीय बातें' के अलोक में प्राप्त कर सकते हैं।
" सनातन हिन्दुधर्म का गगनचुम्बी मन्दिर है - उस मन्दिर के अन्दर जाने के मार्ग भी कितने हैं ! और वहाँ है  क्या नहीं ? वेदान्त के निर्गुण ब्रह्म से लेकर ब्रह्मा, विष्णु, शिव, शक्ति, सूर्य, चूहे पर सवार गणेशजी, छोटे देव-देवियाँ- जैसे षष्ठी, माकाल (सोने की ईंटें ? ) इत्यादि तथा और भी न जाने क्या क्या वहाँ मौजूद हैं। फिर वेद, वेदान्त, दर्शन, पुराण, तंत्र, में बहुत सी सामग्री है, जिसकी एक एक बात से भव-बंधन टूट जाता है। 
और लोगों की भीड़ का तो कहना ही क्या, तेंतीस करोड़ लोग उस ओर  दौड़े रहे हैं। मुझे भी उत्सुकता हुई, मैं भी दौड़ने लगा।  किन्तु यह क्या? मैं तो जाकर देखता हूँ एक अद्भुत काण्ड !! 
कोई भी मन्दिर के अन्दर नहीं जा रहा है, प्रवेश-द्वार के सामने ही एक पचास सिर वाली, सौ हाथ वाली दो सौ पेट वाली और पाँच सौ पैर वाली मूर्ति खड़ी है।  उसी के पैरों के नीचे सब लोट-पोट हो रहे हैं। एक व्यक्ति से कारण पूछने पर उत्तर मिला, " भीतर जो सब देवता हैं, उनको दूर से ही लोट-पोट लेने से ही या दो फूल फेंक देने से ही उनकी यथेष्ट पूजा हो जाती है। असली पूजा तो इनकी होनी चाहिये जो दरवाजे पर विद्यमान हैं; और जो वेद, वेदान्त, दर्शन, पुराण, और शास्त्र सब देख रहे हों, उन्हें कभी कभी सुन ले, तो भी कोई हानी नहीं, किन्तु इनका हुक्म तो मानना ही पड़ेगा। " 
तब मैंने फिर पूछा, ' इन देवताजी का भला नाम क्या है ? ' उत्तर मिला, ' इनका नाम है -लोकाचार ' और मुझे लखनऊ के ठाकुर साहब की बात याद आ गयी, " शाबाश ! भई लोकाचार !! ....शबाश ! बाबा येजिद, देवता तो तू ही है ! सरउ  का अस मार मारेउ कि ई सब अबहिन तलक रोवत है !!" १०/१४६ 
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" बीज का ही वृक्ष होता है,बालू के कण का नहीं। पिता ही पुत्र होता है, मिट्टी का ढेला नहीं। अब प्रश्न है कि यह क्रमविकास किसका होता है ? बीज क्या था ? वह बीज ही उस वृक्ष के रूप में था । इसीको क्रमसंकोच कहते हैं। जब तुम अनेक को देखते हो, तब तक तुम अज्ञानता (हिप्नोटाइज्ड स्टेट ऑफ़ माइंड) में हो। ' इस अनेकतापूर्ण जगत में जो उस एक को , इस परिवर्तनशील जगत में जो उस अपरिवर्तनशील को अपनी  आत्मा की आत्मा के रूप में देखता है, अपना स्वरूप समझता है , वही मुक्त है , वही आनंदमय है, उसीने लक्ष्य की प्राप्ति की है। अतएव यह जानलो कि तुम्हीं जगत के ईश्वर हो -तत्त्वमसि ! 
यदि सैकड़ों सूर्य पृथ्वी पर गिर  पड़ें , सैकड़ों चन्द्र चूर चूर हो जाएँ, एक के बाद एक ब्रह्माण्ड विनष्ट होते चले जाएँ , तो भी तुम्हारे लिए क्या ? पर्वत की भांति अटल रहो ; तुम अविनाशी हो । कहो "शिवोSहं ,शिवोSहं-मैं पूर्ण  
सच्चिदानन्द हूँ । " पिंजड़े को तोड़ डालने वाले सिंह की भाँति तुम अपने बन्धन (कामुकता और कमाई में आसक्ति ) को तोड़कर सदा के लिए मुक्त हो जाओ ! " २/१३१ 

" ईश्वर माँ है। हमलोग धन, सम्पत्ति और इन सभी चीजों की खोज में डूबे हुए हैं; किन्तु एक समय ऐसा आएगा, जब हम जाग उठेंगे; और जब यह प्रकृति हमें और खिलौने देने का प्रयत्न करेगी तब हम कहेंगे, ' नहीं, मैंने बहुत पाया, अब मैं ईश्वर के पास जाऊंगा।' (10/42)
" भाई, शक्ति के बिना जगत का उद्धार नहीं हो सकता। क्या कारण है कि संसार के सब देशों में हमारा देश ही सबसे अधम है, शक्तिहीन है, पिछड़ा हुआ है ? इसका कारण यही है है कि वहाँ शक्ति की अवमानना होती है। ...जीती जागती दुर्गा को छोड़ कर मिटटी की दुर्गा पूजने चले हो ? भाई, जीती जागती की पूजा कर दिखाऊंगा, तब मेरा नाम लेना 2/360  
ভালো থাকা ভালোবাশা, ভালো মনে কিছু আশা , বেদোনার দুরে থাকা, সখস্মৃতি ফিরে দেখা, বোধন থেকে বরণ -ডালা , বিজয়া মানে এগিয়ে চলা ! সুভো বিজয়া!]
["One must propitiate the Divine Mother, the Primal Energy, in order to obtain God's grace. God Himself is MahAmAyA, who deludes the world with Her illusion
 and conjures up the magic of creation, preservation and destruction." Sriramakrishna]
 




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