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रविवार, 21 अक्टूबर 2012

' विजया-दुर्गोत्स्व ' ( शारदीय नवरात्र) स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [30] (धर्म और समाज)

' विजया का सच्चा अर्थ है- आत्मविजय!'  
' विजया-दशमी' के अवसर पर हम सभी लोग सर्वांगीन कल्याण तथा मंगलमय जीवन के लिये माँ दुर्गा से प्रार्थना करते हैं, और एक-दूसरे को अपनी शुभकामनायें तथा प्रेम देते हैं। किन्तु दुर्गोत्स्व-विजया केवल परम्परा से चले आ रहे रीति-रिवाज के पालन करने का दिन ही नहीं है। 'विजया' है मंगलमय-जीवन जीने की शक्ति प्राप्त करने के लिये माँ से प्रार्थना करने और संकल्प लेने का दिन। हमारी पौराणिक कथाओं में जो नित्य-नूतन (Perpetual) मार्गदर्शन छुपा है, उसको प्राप्त करने का एक सुअवसर है नौरात्रा !
श्रीरामचन्द्र ने माँ दुर्गा का ' समयपूर्व-आह्वान ' (अकाल बोधन) करके रावण को मार कर, माता सीता को छुड़ा लिया था। उसी विजय-दिवस का स्मरण करना ही विजया-दशमी ! जिसे हमलोग दस दिनों तक दुर्गोत्स्व के रूप में मनाते हैं। पूर्वी भारत में, विशेष रूप से बंगाल में, हिन्दू लोग माँ दुर्गा को बिल्कुल अपने अपने घर की बिटिया जैसी मानते हैं, और दसमी को उनके पती के घर लौट जाने के दुःख को विजया का आनन्द अतिक्रमण कर लेता है। क्योंकि विजया के दिन रावण का वध और सीता की रक्षा भीतर हमें माँ दुर्गा को विदाई देने की वेदना से अधिक आनन्द ही प्राप्त होता है। ऐसा कैसे हुआ? यह एक विचारणीय प्रश्न है।
सत्य का पालन (रघुकुल रीति सदा चली आई प्राण जाये पर वचन न जाई!) करने के लिये जब रामचन्द्र ब्रह्मस्वरूपिणी सीता को लेकर वनवासमें गये थे, तो वह पंचवटी का वन था। हम में से प्रत्येक व्यक्ति ब्रह्मस्वरूप है। विवेक- विद्या के रहते हुए भी जब हमलोग- 'पंचवटी' अर्थात ' पंच-भूतों ' के  पंजे में फंस जाते हैं। तब  माया के द्वारा ठग लिये जाते हैं, माया-मृग (सोने का हिरण- पांच इन्द्रियविषय) हमलोगों मे लालच उत्पन्न कर देता है। और जब हम सीता (विवेक-शक्ति रूपी विद्या) को खो कर दुःख से अभिभूत हो जाते हैं। तब बहुत प्रयास करके माँ-दशभुजा (विवेक-प्रयोग रूपी विद्या) की  पूजा करके  रावण-निधन (हृदय के अंधकार अर्थात मिथ्या-अहं) को मार कर सीता को मुक्त कराकर वापस पाना पड़ता है।  
दस-इन्द्रियों का मूर्तमान रूप ही हमलोगों का दसानन रावण है। पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ -आँख,कान, नाक, जीभ और त्वचा; तथा पाँच कर्म इन्द्रियाँ हैं- मुंह, हाथ-पैर, गुदा और प्रजनन इन्द्रिय। ये सभी अत्यन्त बलवान हैं, इनका प्रबल होना ही रावण का भय दिखाना है और विद्या-हरण का कारण है। देवी-पक्ष की षष्ठी तिथि तक मन को अपने वश लाने के बाद देवी पूजा करने का अर्थ है, मन में छुपे षड-रिपुओं का दमन करने के बाद ही देवी की पूजा में प्रवृत होना। दशानन (दस-इन्द्रियों) का दमन करने के लिए ही दशभुजा देवी का आह्वान करना पड़ता है। देवी के हाथों में जो दस अस्त्र हैं, उन्हीं के सहारे दश इन्द्रियों का दमन करना पड़ता है।
शत्रु का दमन करने के लिये कई  बार शत्रु के घर के लोगों को अपनी ओर मिला लेने से उसको हराना आसान हो जाता है। रामचन्द्र ने रावण के घर के आदमी-विभीषण को अपने पक्ष में मिला लिया था। इन्द्रियों का दमन करने के लिए भी इन्द्रिय के घर के आदमी की जरुरत होती है। दश इन्द्रियों के घर में एक आदमी ऐसा है, जिसका चरित्र शेष दश इन्द्रियों के जैसा नहीं है, उस एकादश इन्द्रिय का नाम है-मन। इसी वशीभूत मन की सहायता से दस इन्द्रियों का दमन करना पड़ता है। यह मन अत्यन्त शक्तिशाली है। यह दशभुजा के दश अस्त्रों को दशानन के दमन या अपने  इन्द्रियों के दमन के लिये प्राप्त कर सकता है। महापराक्रमी सिंह उसी शक्तिशाली मन का प्रतिक है। इसीलिये सिंह को दशभुजा माता का वाहन कहा गया है। अर्थात हमलोग मन की सहयता से दश इन्द्रियों का दमन करने के संग्राम में कूद सकते हैं। किन्तु उससे पहले मन में छुपे षडरिपु- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि को - इनके छहों तिथियों तक काट देना
अत्यंत आवश्यक है
इसीलिये विजया का सच्चा अर्थ है- आत्मविजय। मन की सहायता से आत्म-ग्लानी में फंसे आत्मा का उद्धार, खोई हुई विवेक-प्रयोग की शक्ति रूपी विद्या को वापस प्राप्त करके अपने ब्रह्मत्व में प्रतिष्ठित रहना ही -आत्मा का उद्धार या आत्मविजय है। दुर्गोत्सव या विजया उसी आनन्द की अभिव्यक्ति है। इस आत्म-प्रतिष्ठा में सिद्धि प्राप्त करने के आनन्द का अनुभव करना ही मुख्य बात है, (सिद्धि) भाँग खाकर नशे में चूर हो जाना नहीं।
भारत के युवा वृन्द यदि चन्दे में मोटी रकम इकठ्ठा  कर यदि सार्वजानिक पूजा की चकाचौन्ध को को बढ़ा देने में ही अपनी उर्जा को बर्बाद नहीं करें, तथा आत्म-प्राप्ति के आनन्द में डूब सकें, आत्मग्लानी को विसर्जित करके यदि समाज को कलंक मुक्त बना सकें, तभी उनको पूजा करना शोभा देगा। भारत के समस्त युवा-संगठन यदि इसी सच्ची विजया के मार्ग पर चल सकें, विजया की इस शुभ घड़ी में  युवाओं के अंतर में विराजित महासिंह से हमलोगों (अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल)  की यही प्रार्थना है।
[अतः इस शारदीय नवरात्र में श्रीमद् देवी भागवत महापुराण के आधार पर परम तत्व स्वरूपा भगवती के स्वरूप (बारे में) पर कुछ चर्चा करके अपनी वाणी पवित्र करें।]
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