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सोमवार, 13 अगस्त 2012

' स्वामी विवेकानन्द और युवा समाज ' [ SVHS- 3.1 स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना >( तृतीय अध्याय : ' स्वामी विवेकानन्द और युवा समाज ') [Internal Engineering for Sense-Datum Restraint Trainer: [श्री तोतापुरी- गदाधर परम्परा में सेंस-डेटम संयम प्रशिक्षण के लिए आंतरिक इंजीनियरिंग:]


[ SVHS- 3.1  स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना ] 

तृतीय अध्याय :  ' स्वामी विवेकानन्द और युवा समाज '

 ('Swami Vivekananda and the Yuva Mahamandal)

1.

' स्वामी विवेकानन्द और युवा समाज '   
      
          श्रीरामकृष्ण का युवाओं के प्रति प्रेम देखकर बहुत से लोगों को आश्चर्य होता था। उन्हें तो किसी वस्तु की चाह या लालसा नहीं थी फिर वे क्यों चाहते थे कि युवा लोग उनके पास आयें? और कितने आश्चर्य की बात है, कि इसके लिये वे दक्षिणेश्वर की माँ भवतारिणी के निकट प्रार्थना भी करते थे ! भला उनका अपना कार्य  क्या हो सकता था? फिर भी वे माँ काली के निकट प्रार्थना करते हैं और व्याकुलता के साथ युवाओं के आगमन की प्रतीक्षा करते हैं।  चूँकि उनका एक उद्देश्य था , इसीलिए वह युवाओं के आने की बाट जोह रहे थे। वह उद्देश्य था विश्व- कल्याण (भक्तों के जीवन में सतयुग स्थापन)
      किन्तु वे तो, इस जगत का कल्याण (कम से कम अपने भक्तों का कल्याण ?) वैसे भी कर सकते थे, वे अपने हाथों को आशीर्वाद की मुद्रा में उठा देते और पलक झपकते सब कुछ ठीक हो जाता। पर वैसा किया क्यों नहीं ? वे कहते हैं- " विश्व संचालन का कानून ही ऐसा है ! ['आइन एरुप आचे] वे के भीतर रहते हुए कार्य करना चाहते हैं। युवाओं को वह कानून सिखाने के लिए ही उन्होंने समस्त उद्यम किया है। और इसी कार्य का उत्तरदायित्व भावी पीढ़ी को सौंपने के लिए ही वे योग्य-युवाओं के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे। 
          >>>अद्भुत शिक्षक (अवतार वरिष्ठ) श्रीरामकृष्ण के जीवन का व्रत मानो युवाओं को [ त्याग और सेवा के व्रत या Be and Make 'वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में] प्रशिक्षित करना ही था। किन्तु आगन्तुक युवाओं में जिसके भीतर वे सार (आत्मश्रद्धा और विवेकज ज्ञान से स्थितप्रज्ञ बनने की सम्भावना) देखते थे, केवल वैसे ही युवाओं का चयन करते थे। वे कहते थे-" सार-वस्तु नहीं रहने के कारण ही सभी प्रकार की लकड़ियाँ (जैसे बाँस आदि) चन्दन नहीं बन पातीं।
श्रीरामकृष्ण वास्तव में जगत गुरु थे, उनका मुख्य कार्य ही शिक्षकों को शिक्षित करना था। इसीलिए वे योग्य आधार देखकर ही युवाओं का चयन करते थे। क्योंकि उनकी शिक्षा [माँ काली-श्रीरामकृष्ण प्रशिक्षण-परम्परा] में जो शिक्षित होंगे वे ही आगे चलकर विश्व कल्याण की शिक्षा (Be and Make -का प्रशिक्षण) अगली पीढ़ी के युवाओं को देंगे। इस लिये ऐसे ही कई गुणी सन्तानों में से एक युवक को अलग से चिन्हित करते हुए (चपरास देते हुए) कहते हैं -  "नरेन्द्र शिक्षा देगा! 

           [>>> श्री तोतापुरी- गदाधर परम्परा :  में जगतजननी द्वारा निर्धारित  विश्व-कल्याण का नियम, अर्थात जगत में सतयुग स्थापन का नियम है -त्याग और सेवा।  इस त्याग के कानून को माँ काली द्वारा प्रशिक्षित और 'भावमुख-अवस्था' में रहने का चपरास प्राप्त अवतार वरिष्ठ ठाकुरदेव के लिए भी बदला नहीं जा सकता। तोतापुरी जी अद्वैत ज्ञान की दीक्षा देते समय माँ काली में आसक्ति का भी त्याग करवा लिए थे। 

श्रीरामकृष्ण द्वारा प्रशिक्षित नरेन्द्र ने सम्पूर्ण जगत को लोक-कल्याण (भारत का कल्याण-जनताजनार्दन की सेवा) के नियम (Law of Public Welfare- 'त्याग' - अर्थात निवृत्ति अस्तु महाफला ) की शिक्षा दी थी। इस कानून (Law) नियम में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता है। जबकि संसद के द्वारा पारित कानून में संशोधन हो सकता है, क्योंकि जनता द्वारा चुने गये सांसद बदलते रहते हैं और तदनुसार उनकी बुद्धि भी बदलती रहती है। किन्तु, जिन्होंने (माँ जगदम्बा/काली ने) इस ब्रह्माण्ड को संचालित करने का नियम बनाया है, न तो कभी वे बदलती हैं, और न उनकी कभी बुद्धि बदलती है। [কিন্তু জগতের আইন যিনি করেছেন , তিনিও বদলান না , তাঁর বুদ্ধিও বদলায় না। /But the one who made the laws of the world does not change, nor does her intelligence change.] जबकि कई लोग ऐसा सोंचते हैं जगत में सब कुछ (देह-मन आदि) परिवर्तनशील है, यहाँ ऐसी कोई वस्तु नहीं- जो अपरिवर्तनीय (अविनाशी) हो। वे ऐसा भी सोचते हैं कि सबकुछ बदलते- बदलते अन्त में जो कुछ शेष रह जाता है, वही अच्छा है।  किन्तु, अंत में जो शेष बचा रहेगा, वह अच्छा ही होगा- इसका क्या प्रमाण है ? ऐसा भी तो हो सकता है कि बाद में पता चले कि जो शेष रह गया था वह भी अच्छा नहीं था ? हम अभी जिसको अच्छा समझ रहे हैं, हो सकता है वह भी पुनः बदल जाये। क्योंकि कहा गया है कि ऐसा कुछ भी नहीं है जो बदलता ही न हो। इसका अर्थ यह हुआ कि इस अंतिम अच्छे के भी बदल जाने के बाद जो शेष बचेगा (M/F का अहं) उसको ही एक बार फिर से अच्छा कहेंगे। किन्तु जो परिवर्तित हो गया वह निश्चय ही अच्छा (शाश्वत -आत्मा) नहीं था। हम अभी जिसे अच्छा समझते हैं आगे चल कर पता चलता है कि वह अच्छा नहीं था। उसके बाद जिसको अच्छा कहते हैं, वह भी पुनः परिवर्तित हो जाता है।  फिर ऐसे किसी ऐसी वस्तु (नाम-रूप में अहं या देहाध्यास) को जो सतत बदल रहा है, उसे अच्छा (अविनाशी) कैसे कहा जा सकता है ? तो क्या यहाँ कुछ भी अच्छा नहीं है ? हाँ, जरुर है ! जो कभी नहीं बदलता जो 'वस्तु' (ब्रह्म -जिस पर जगत अध्यस्त है) है वास्तव में वही अच्छा है! और मानव जीवन का उद्देश्य ही है उस अच्छी वस्तु, उस अपरिवर्तनशील [अविनाशी]  ' वस्तु ' का अनुसन्धान करना ! समस्त परिवर्तनशील वस्तुओं का (नश्वर-देह-मन, मिथ्या अहं आदि का)  धीरे- धीरे त्याग करते जाने (नेति नेति) से ही वह (अविनाशी) वस्तु प्राप्त हो जाती है। निष्कर्ष यह निकला कि अच्छा या कल्याण (ब्रह्म वस्तु)  को प्राप्त करने का एकमात्र पथ या नियम  है 'त्याग', त्याग के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। जगत का कल्याण स्वयं भोगों में रत रहते हुए नहीं किया जा सकता।  [स्वयं तीनो ऐषणाओं - कामिनी-कांचन और नाम -यश में (मुकेश, सती और सुनैना) में यथार्थ mother during Knee Transplant घोर रूप से आसक्त रहते हुए जगत का कल्याण-  नहीं किया जा सकता है।] इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " अतीतकाल में त्याग ही नियम था; और 'हाय' ! भविष्य काल में भी त्याग ही नियम रहेगा ! " किन्तु स्वामी जी इसके लिए हाय ! क्यों कहते हैं? इसीलिये कहते हैं- जो ऐसा सोचते हैं, कि शायद उनके लिए यह नियम बदल जायेगा ; और वे इन्द्रिय भोगों का  त्याग किये बिना ही जगत का कल्याण कर सकेंगे, तो वे निश्चित रूप से असफल होंगे। इसीलिए स्वामीजी 'हाय' कहते है।(अर्थात जो ऐसा सोचते हैं कि प्रवृत्ति से निवृत्ति में आये बिना, वर्णाश्रम धर्म का पालन किये बिना, और मिथ्या अहं को दासोऽहं में बदले बिना ही जगत का कल्याण कर सकेंगे, तो वे निश्चित रूप से असफल होंगे।) इसीलिए स्वामीजी 'हाय' कहते है। जिस प्रकार 'त्याग' के द्वारा उस अच्छा अपरिवर्तन-शील वस्तु (अपने अविनाशी स्वरुप या अमरत्व) को स्वयं प्राप्त किया जा सकता है, उसी प्रकार दूसरों को उसे प्राप्त करने में सहायता भी दी जा सकती है। यही तो है सच्ची सेवा ! स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं 'त्याग' और 'सेवा' ! आप इन दो धाराओं में तीव्रता उत्पन्न कीजिये शेष सबकुछ अपने आप ठीक हो जायेगा। "
 >>>Determining right and wrong actions (सही और गलत कर्म का निर्धारण उसके उद्देश्य द्वारा होता है। ) मनुष्य जीवन का उद्देश्य है उस अपरिवर्तनीय अच्छा वस्तु (अपने अविनाशी स्वरुप) को प्राप्त कर लेना। उपाय है - 'प्रयत्न'।  प्रयत्न के द्वारा ही आदर्श को रूपायित किया जा सकता है तथा उद्देश्य की दिशा में अग्रसर हुआ जा सकता है।  किन्तु, जैसे ही हम किसी वस्तु को प्राप्त करने का प्रयत्न करेंगे, हमें कुछ न कुछ कार्य अवश्य करना पड़ेगा। किन्तु, क्या किसी भी तरह के कार्य में को, हमलोग सच्चा प्रयत्न कह सकते हैं ? क्या कोई भी कार्य/उपाय  आदर्श को रूपायित करने में उपयोगी सिद्ध हो सकता है ? नहीं, जिस कार्य के द्वारा  'त्याग और सेवा' का आदर्श जीवन में रूपायित हो सके, जो कार्य हमें जीवन लक्ष्य की दिशा में ले जाता हो, उसको ही प्रयत्न कहा जा सकता है। इसलिए कोई कर्म (समाज-सेवा भी) किस इच्छा से  किया जा रहा है, उसका उद्देश्य क्या है -यही सही और गलत कर्म का निर्धारण करता है।  किसी परिवर्तन-शील (नश्वर) वस्तु को प्राप्त करने की कामना रखकर किये गए कर्म को यथार्थ कर्म (कर्मयोग) नहीं कहा जा सकता है। जो अच्छा है, अपरिवर्तनीय है -केवल उसी को प्राप्त करने की कामना से  किये कर्म को ही सही प्रयत्न कहा जा सकता है। क्योंकि अच्छा (शाश्वत)  को पाने की कामना को कामना नहीं कहा जाता है। और इस प्रकार से कर्म करने को ही 'कर्मयोग' कहा जाता है। 
       >>>direction of effort (प्रयत्न की दिशा :  दृष्टा-दृश्य विवेक : 'सा चातुरी चातुरी' को ही मनीषा कहते हैं।) : सर्वप्रथम अपरिवर्तनीय वस्तु को समस्त परिवर्तनशील वस्तुओं से (जड़ वस्तुओं -देह,मन से) पृथक कर लेना पड़ता है। जो बुद्धि असत्य में से सत्य को, नश्वर वस्तुओं में से अविनाशी 'वस्तु' का अविष्कार कर सकती हो उसी को 'मनीषा' कहते हैं।  भागवत में ज्ञानी भक्त उद्धव से भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -

एषा बुद्धिमतां बुद्धिः मनीषा च मनीषिणाम्। 
 यत् सत्यम् अनृतेन/? इह मर्त्येन आप्नोति मा अमृतम् ॥

अर्थात, इसी जन्म में इस मिथ्या और नश्वर मनुष्य शरीर के द्वारा 'सत्य और अविनाशी' या अमर परमात्मा को प्राप्त कर लेने में ही बुद्धिमानों की बुद्धिमत्ता (wisdom) और चतुरों की चतुराई (cleverness) है। अतएव जो मनुष्य अविनाशी भगवान की प्राप्ति के लिये यत्न न कर केवल विषयभोगों  में ही लगा हुआ है वह न तो ज्ञानी हैं और न मनीषी है! 
                विवेक-विचार करके वही, जो अच्छा नहीं है , अर्थात जो सदा परिवर्तनशील है, नश्वर यानि क्षणभंगुर और अनित्य पदार्थ है, उसमें से जो सचमुच अच्छा है, अपरिवर्तनीय, नित्य 'वस्तु' को प्राप्त करने के लिये प्रयत्न या पुरुषार्थ करना आवश्यक है। उस अविनाशी या नित्य वस्तु को स्वयं प्राप्त करने के बाद दूसरों को भी उसे प्राप्त करने में सहायता करना आवश्यक है- ' मैं भी एक सच्चा मार्गदर्शक नेता बनूँगा---इस उद्देश्य को चुन लेने को ही 'विवेक' कहते हैं। यह भी एक प्रकार का प्रयत्न है। इस प्रयत्न का नाम ही- ज्ञानयोग है। ज्ञानयोग के धरातल पर खड़े होकर कर्म करने से वह कर्मयोग बन जाता है। 
        इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कार्य को सही मार्ग पर संचालित रखने के लिये 'विवेक-प्रयोग' सीखना अनिवार्य है। फिर विवेक-प्रयोग की क्षमता को निरंतर जाग्रत रखने के लिये एकनिष्ठता आवश्यक है। किसके प्रति ? जो सचमुच अच्छा है, हमारे भीतर जो अपरिवर्तनीय (अविनाशी) 'वस्तु' है, उसके प्रति एकनिष्ठ रहना परम आवश्यक है। क्योंकि जो सचमुच अच्छा  है, उसको एकनिष्ठ होकर प्रेम नहीं करने से {प्रेमपात्र में परिवर्तन होने से } जीवन का उद्देश्य और आदर्श कुछ भी प्राप्त नहीं होगा और सारा प्रयत्न व्यर्थ हो जायेगा। ('भालोर प्रति एई अपरिवर्तनीय भालोबासा') उस अविनाशी के प्रति ऐसा अटूट-प्रेम और अपनी अन्तर्निहित दिव्यता अभिव्यक्त करने के प्रति मन-वचन-कर्म की एकमुखीनता  --यही तो है भक्तियोग की मूल बात ! प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने मन की भावनाओं के अनुरूप अच्छा के अमूर्त विचार के विभिन्न प्रतीकों (श्रीरामकृष्ण ट्रिनिटी की प्रतिमा या ॐ) में से किसी एक का आश्रय ग्रहण कर, अपने हृदय का सम्पूर्ण प्रेम उसके चरणों में अर्पित करता है। और उसकी भक्ति का उद्देश्य होता है -समस्त प्रयत्न को, मन-वाणी-कर्म को अविनाशी वस्तु के प्रति एकोन्मुख बनाये रखना। प्रयत्न में एकनिष्ठता रखने से, लक्ष्य (ईष्ट) की प्राप्ति अवश्य होती है।
           चिंतन-मनन, इच्छा और संकल्प किये बिना कोई भी कार्य नहीं होता, तथा सभी संकल्प मन में ही होते हैं। महाभारत में कहा गया है-

'आत्मजन्या भवेदिच्छा, इच्छाजन्या कृतिभवेत।
कृतिजन्या भवेत चेष्टा, चेष्टाजन्या क्रिया भवेत ॥

'मन में ही इच्छा उत्पन्न होती है,इच्छा बलवती होकर (कृति अर्थात इच्छाशक्ति -kRuti i.e., volition- वोलिशन) संकल्प बन जाती है ।  फिर उसी दृढ़-संकल्प पर अटल रहते हुए मनुष्य प्रयत्न करता है। प्रयत्न (उद्यम) करने से क्रिया सम्पन्न हो जाती है। अतएव यह कहा जा सकता है कि सभी कर्मों में मन की शक्ति को लगाना ही पड़ता है। यह तो बिल्कुल स्पष्ट है कि निर्णय, विवेक-प्रयोग, या ज्ञान सभी मन के ही कार्य हैं। अच्छा को प्रेम करना, या भक्ति करना सब मन के द्वारा सम्पन्न होता है। अतएव उपरोक्त तीनों प्रकार के योग या प्रयत्न करने के लिये इस मन को नियंत्रण में रखना या संयिमत करना आवश्यक है। और चूँकि यह मनःसंयोग समस्त प्रयत्न या योगों का नियन्त्रक है इसीलिये इसको ' राजयोग ' कहा जाता है।        
         स्वामी विवेकानन्द ने इन्हीं चार योगों की सहायता से भारत के राष्ट्रीय आदर्श- ' त्याग और सेवा ' को कार्यान्वित करने का परामर्श दिया है। और ये दोनों गुण मानो एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। यह 'त्याग' का गुण ही व्यावहारिक जीवन में 'सेवा' के रूप में अभिव्यक्त होने लगता है। यह त्याग ही ईश्वरीय-कानून है। अर्थात इस त्याग के नियम (दैवी नियम) का उलंघन नहीं किया जा सकता है। इस कानून का उलंघन करने से अकल्याण होता है।  किन्तु कल्याण ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है ! और जो यथार्थ में अच्छा है, वह अपरिवर्तनीय, अविनाशी, नित्य, सत्य तथा  ध्रुव है- इसीलिये कल्याण है। त्याग के इस कानून के द्वारा ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य सिद्ध होता है। 'त्यागीश्वर' (त्यागियों के बादशाह) श्रीरामकृष्ण के निर्देशानुसार स्वामी विवेकानन्द  युवा समुदाय को यही  त्याग का कानून ('निवृत्ति अस्तु महफला') सिखाना चाहते हैं। 
भगिनी निवेदिता द्वारा डिजाईन किया हुआ महामण्डल का बज्राङ्कित ध्वज त्यागियों के बादशाह श्रीरामकृष्ण के 'त्याग और सेवा के कानून -निवृत्ति अस्तु महफला' का प्रतिक है, उसी त्याग के कानून को सिखाने के लिए स्वामीजी (विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make C-IN-C लीडरशिप परम्परा में) सभी युवाओं को  उसी श्रीरामकृष्ण पताका के नीचे  एकत्र करना चाहते हैं।] 
           युवा वर्ग को इस त्याग के आदर्श से उद्बुद्ध और अनुप्रेरित करने की आवश्यकता इसीलिए है क्योंकि त्याग के आलावा अन्य किसी उपाय से कल्याण नहीं हो सकता है और युवा वर्ग ही इस वृहत समाज का शक्ति-केन्द्र है।  इस "त्याग और सेवा " के आदर्श  को समस्त कल्याण साधकों के हृदय में विशेषकर शक्ति केन्द्र युवाओं के भीतर प्रविष्ट करा देना अत्यंत आवश्यक है। युवा जीवन में ही समस्त शुभ और कल्याण के बीज हैं, किन्तु वे बीज अभी सूप्त हैं। इस सूप्त बीज को अंकुरित, जाग्रत और प्रस्फुटित करा देना ही समस्त समाज-कल्याण कार्यक्रमों (Social welfare works) का प्राथमिक कार्य होना चाहिए, क्योंकि युवा-समुदाय में ही समस्त उर्जा, प्राण (जीवन) और संभावना है।  स्वामी जी इसी युवा शक्ति को जाग्रत करना चाहते थे, उनमें प्राण-शक्ति और सम्भावना के अभिव्यक्त होने पर ही समाज का यथार्थ कल्याण हो सकता है। अन्य किसी उपाय से कल्याण होना संभव ही नहीं है। इसीलिए स्वामीजी ने युवा समाज को मनुष्य जीवन का उद्देश्य और आदर्श का स्थायी-आदेश (standing order) देने के साथ साथ उसको प्राप्त करने का ' चतुर्विध उपाय' भी बता दिया था। वशीभूत मन की सहायता से, आदर्श के प्रति एकनिष्ठता और सत-असत -मिथ्या के 'विवेकज ज्ञान' को प्राप्त कर के अपना और अपने देश का कल्याण करने के लिए कार्य करने में सक्षम मनुष्य रूप में अपने जीवन को गढ़ लेना, या अपने चरित्र को उपयुक्त तरीके से गठित करना ही यथार्थ धर्म है। स्वामीजी चाहते थे युवा समुदाय उसी चरित्र-गठन रूपी धर्म को प्राप्त करे। 
                    >>>"The education of Life-Building "Religion, method or effort" (जीवन-गठन की शिक्षा, विधि या प्रयत्न) : आज के युवाओं या उनके अभिभावकों को इस प्रकार की बातों को सुनने का विशेष अवसर  नहीं मिल पाता है,  दोनों युवाओं की आम समस्या को लेकर चिन्तित रहते हैं एवं उसके समाधान के चक्कर में 'जीवन- गठन' का अवसर खो देते हैं। जबतक समाज के 'शक्तिकेंद्र' युवावर्ग के जीवन गठन की समस्या का 'उपयुक्त समाधान' नहीं निकल जाता तब तक इस अभ्यस्त युवा समस्या  [नौकरी दो! २७% आरक्षण दो!] का यदि कोई  समाधान हो भी गया तो उससे  समाज का यथार्थ कल्याण साधित नहीं होगा। इसीलिये "जीवन-गठन रूपी धर्म, पद्धति या प्रयत्न की शिक्षा" ग्रहण करना नितान्त आवश्यक है।[अर्थात विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त Be and Make परम्परा में महामण्डल का लिडरधिप ट्रेनिंग, या The education of Life-Building Religion, method or effort" ) ग्रहण करना नितान्त आवश्यक है।] जबकि प्रचलित शिक्षा-पद्धति में उसका कोई स्थान नहीं है। अतएव प्रचलित शिक्षा व्यवस्था में मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण कारी शिक्षा को जोड़े बिना आशानुरूप फल पाने की कोई सम्भावना भी नहीं है।
             युवा समुदाय की समस्या की जड़ कहीं और ही है। जीवन-गठन की समस्या ही मूल समस्या है।  प्रत्येक वस्तु की अपनी- अपनी शक्ति के साथ समग्र जगत का घात-प्रतिघात निरंतर चल रहा है। प्रत्येक व्यक्ति या युवाओं के जीवन में भी यही घटित हो रहा है। उसकी शक्ति और बाह्य जगत की शक्तियों के बीच घात-प्रतिघात चल रहा है।  किसी विशेष क्षण में इस घात-प्रतिघात (कैरमबोर्ड स्ट्राइकर)  का अंतिम परिणाम ही उस क्षण की अवस्था को निर्धारित करती है। (The end result of this ambush (carrom board striker) at a particular moment determines the state of that moment.) यदि बाह्य-जगत की शक्ति उसकी आन्तरिक शक्ति को पराजित कर देती है, तो उसके जीवन-पुष्प (दिव्यत्व) के प्रस्फुटन में बाधा पहुँचती है, और वह शक्तिहीन होकर 'परिवेश' [परिवार, जैसा भाई या दोस्त मिला] तथा ऐतिहासिक खेल की कठपुतली मात्र बनकर रह जाता है। और यही सबसे बड़ी समस्या है।  
[तीनों ऐषणाओं में आसक्ति, अविद्या शक्ति, लस्ट ऐंड लूकर का आकर्षण  या मृत्यु का भय,  उसकी आन्तरिक शक्ति (विवेक -प्रयोग जन्य संयम) को पराजित कर देती है तो उसके जीवन को प्रस्फुटित होने में बाधा पहुँचती है और वह शक्तिहीन व्यक्ति परिवेश तथा ऐतिहासिक खेल का कठपुतली मात्र बन कर रह जाता है। और यही सबसे बड़ी समस्या है। ]          
                   👉 कोई युवा यदि अपने जीवन के 'आदर्श और उद्देश्य ' से अनुप्रेरित होकर ' विवेक-प्रयोग' के साथ उद्यम करने की पद्धति से  पूर्णतया अवगत होकर (अर्थात 3H विकास के 5 अभ्यास की पद्धति से  पूर्णतया अवगत होकर), यदि बाधक शक्तियों के साथ (तीनों ऐषणाओं में आसक्ति के विरुद्ध) निरंतर संग्राम करता है, तभी उसका जीवन गठन या व्यक्तित्व-विकास संभव हो सकता है। स्वामीजी कहते हैं- "युगों युगों तक संघर्ष करने के बाद एक चरित्र का निर्माण होता है। वे कहते हैं, " कोई मनुष्य जब तक इस प्रकृति के विरुद्ध संग्राम करता रहता है, तभी तक उसको मनुष्य कहा जा सकता है। जो पराजय स्वीकार कर लेता है, वह मनुष्य नहीं रह जाता।"
       किन्तु यह प्रकृति केवल बाह्य-जगत में ही नहीं होती है। बाह्य-प्रकृति के ही सदृश हमलोगों के भीतर भी एक प्रकृति है। और उस अन्तः प्रकृति का आधार है- हमारा मन ! उस मन में ही हमलोगों की समस्त शक्तियाँ निहित हैं। हमारी 'इन्द्रियाँ' बाह्य-जगत के साथ हमारे मन को जोड़ देती हैं। हमलोग विज्ञान की सहायता से बाह्यप्रकृति की बड़ी- बड़ी शक्तियों को अपने वश में कर सकते हैं तथा  उनपर प्रभुत्व स्थापित कर अपने दैनन्दिन जीवन में उपयोग में ला सकते हैं।किन्तु, वाह्य जगत की समस्त वस्तुओं के भीतर जो इन्द्रिय विषयों के संवेदक (sense-datum) होते हैं , वे उन संवेदनाओं को नियंत्रित करने में वाह्य -विज्ञान अक्षम है। क्योंकि, पंचेन्द्रीय ग्राह्य जगत के प्रत्येक वस्तु में, पंचेन्द्रियों के पाँचो विषयों को - यथा रंगरूप (नामरूप या दृश्य) , गंध , शब्द, स्पर्श और स्वाद आदि को उत्तेजित या प्रलोभित (incitement) करने वाली शक्ति होती है, उस शक्ति को बाहरी इंजीनियरिंग (External Engineering से किसी गोली, इंजेक्शन या अन्य उपाय से) वशीभूत कर लेने की क्षमता भौतिक - विज्ञान के पास नहीं है
हम (बाह्य-जगत के विज्ञान के बलपर) उन शक्तियों को समाप्त नहीं कर सकते किन्तु, इन इन्द्रिय संवेदी विषयों से अपने मन की रक्षा अवश्य कर सकते हैं।  अन्तः प्रकृति को जीतने का कौशल सीखने का एक अलग विज्ञान है, एक भिन्न प्रकार की आंतरिक इंजीनियरिंग (Internal Engineering) है । जिन इन्द्रियों के माध्यम से वस्तुएं हमारे मन को उत्तेजित कर देती हैं, उन इन्द्रियों को संयमित करके हम बाह्य जगत के विषय-भोगों में प्रलोभित करने वाली शक्ति (ऐषणा-शक्ति) की गुलामी से अपने मन को मुक्त करके आत्मविकास कर सकते हैं। 
जब हम अपने मन को संयमित अर्थात यम-नियम का विधिवत अभ्यास सीखकर  मन की कामनाओं इत्यादि को संयमित रखने में समर्थ हो जाते हैं तब हमलोग वाह्य  और  आन्तरिक दोनों  प्रकृति की गुलामी से भी मुक्त  ( भेंड़त्व के भ्रम से मुक्त या D-hypnotized) हो जाते हैं।  फिर हमलोग परिवेश या इतिहास (जन्मजन्मांतर के अभ्यास) के कारण कामना-कांचन का दासत्व नहीं करते हैं। मन को वशीभूत करने के संग्राम में जय-पराजय की सम्भावना ही युवा-जीवन की मूल समस्या है। और युवा नेता (युवा आदर्श) स्वामी विवेकानन्द ने, इसी समस्या के समाधान का मार्ग दिखलाया है। 
                 इस समस्या के समाधान के मार्ग पर चलने वाला प्रत्येक विजयी युवा आन्तरिक अनन्त शक्ति का अधिकारी बन सकता है। वह अपने परिवेश एवं इतिहास का रचयिता हो सकता है, स्वयं अपने भाग्य का निर्माता बन सकता है। वह अपने जीवन को उदाहरण-स्वरूप गढ़कर   दूसरों को भी कल्याण या धन्यता प्राप्त करने की प्रेरणा दे सकता है। केवल ऐसा 'मनुष्य' (स्थितप्रज्ञ) बनने और बनाने से ही समाज का सच्चा भला हो सकता है। अब वह समय आ गया है, जब देश के शिक्षकों, अभिभावकों तथा वैसे लोग जो देश के कल्याण की बात सोचते हैं उन्हें इस विषय से अवगत करा दिया जाय। [अर्थात इस 'वेदान्त प्रशिक्षण पद्धति ' (3H विकास के 5 अभ्यास) में प्रशिक्षित कर दिया जाय।]  समाज में अनेकों समस्याएं हैं, निश्चित ही उसके कारण भी हैं। किन्तु उन समस्त समस्याओं के उपर उत्तेजित होकर क्षोभ व्यक्त करते हुए इसके लिये किसी व्यक्ति या दल को दोषी ठहरा कर, उनके प्रति  कटु-वाक्यों का प्रयोग करते रहने से इन समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता है। समस्या के समाधान के लिये संगठित होकर प्रयत्न करने की आवश्यकता है। और इस प्रयत्न की शुरुआत स्वयं से करनी होगी। 
        समाज में विद्यमान निराशा के बीच, बहुसंख्यक लोगों की दृष्टि से में आये बिना एक बड़ी संख्या में युवा लोग स्वामी विवेकानन्द  के ' मनुष्यत्व-उन्मेषक एवं चरित्र-निर्माणकारी'  शिक्षा, प्रयत्न, जीवन का आदर्श और उद्देश्य के प्रति आकृष्ट होते जा रहे हैं। स्वामीजी कहते हैं- " हे मानव, हम तुम्हें मृत की पूजा छोड़ कर, जीवन्त देवता की पूजा करने का आह्वान कर रहे हैं। अतीत में जो हो गया उसको लेकर सिर पीटना छोड़ कर वर्तमान में प्रयत्न करने का आह्वान करते हैं।" क्या हमारे जीवन को देखे बिना, क्या हमारे मुख से यह कह देने भर से - लोग यह मान लेंगे कि मैं उनकी शिक्षाओं को समझ गया हूँ, या विश्वास करता हूँ ? हृदय की समस्त भावनाएं हमारे  जीवन और व्यवहार में दिखनी चाहिए।  उपदेश तो तुझे अनेक दिये; कम से कम एक उपदेश को भी तो काम में परिणत कर ले। बड़ा कल्याण हो जायेगा। दुनिया भी देखे कि तेरा शास्त्र पढ़ना तथा मेरी बातें सुनना सार्थक हुआ ! "
          स्वामीजी ने भारत की वर्तमान हीन अवस्था में परिवर्तन लाने के लिए दीन-दुखी, बीमार, मूर्ख, भूखे, पददलित, उपेक्षित भारत की संतानों की मुक्ति के लिये, जगत के कल्याण के लिये, युवा समुदाय से अपना जीवन अर्पण करने का निरंतर आह्वान किया है। वर्तमान-युग में युवा समुदाय के सामने दो प्रकार के आह्वान हैं। वे इन दोनों आह्वानों में  किस आह्वान को सुनेंगे इसी के ऊपर देश का भविष्य निर्भर करता है। प्रत्येक युवा का उसके अपने अगठित, असंस्कृत मन से, तथा समाज,परिवार, यहाँ तक कि  सम्पूर्ण बाह्य जगत से भोग करने का आह्वान हो रहा है। तो दूसरा आह्वान स्वामी जी का है - " युवाओं, तुम अपने मंगल के लिये, अपनी अन्तर्निहित, अपरिवर्तनीय, अच्छा (अविनाशी वस्तु-डिविनिटी) के विकास और अभिव्यक्ति  के लिए समस्त प्रकार के भोगों के प्रलोभन को त्याग दो ! और नचिकेता के जैसी श्रद्धा और आत्मविश्वास पर दृढता पूर्वक निर्भर रहते हुए  प्रबल उत्साह के साथ सम्पूर्ण जगत के कल्याण का कानून ' त्याग और सेवा ' को  वरण कर लो । और युवा समुदाय में ही इतनी शक्ति है कि वह विवेक-प्रयोग करके इन दोनों आह्वानों- 'भोग और त्याग' में से  एक को चुन ले स्वामी विवेकानन्द युवा समाज को उसी विवेक-प्रयोग रूपी योग (राजयोग)  में दीक्षित करना चाहते थे। 
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>>>जन-शिक्षक या लोकशिक्षक का अर्थ होता है- जीवनमुक्त मनुष्य मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- सज्जन और दुर्जन  सज्जन माने जो दूर्जन नहीं है। सज्जन माने जो अच्छा या चरित्रवान मनुष्य है। अर्थात जिनके व्यवहार से 'सू-जन' होने का परिचय मिलता है उसी को सज्जन कहते हैं।  जबकि दूर्जन किसी का उपकार नहीं करना चाहते, फिर भी दूर्जनों से घृणा करना ठीक नहीं है। उसके बुद्धि का बन्धन खोल देना होगा, या अज्ञान की गाँठ (SDD-बलवंत-परिवार का Knot of Ignorance) काट देनी होगी, तब वह भी सज्जन बन जायेगा।  बोलचाल की भाषा में ' सज्जनता ' कहने से हमलोग भद्रता समझते हैं।  किन्तु यथार्थ भद्रता तभी आती है, जब मनुष्य वास्तव में अच्छा बन जाता है, सूजन या चरित्रवान मनुष्य बन जाता है। इसीलिये आचार्य शंकर समस्त मानव जाति को चरित्र-निर्माण का एक सूत्र देते हुए कहा है -

दुर्जन: सज्जनो भूयात सज्जन: शांतिमाप्नुयात्।  
शान्तो मुच्येत बंधेम्यो मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्॥

अर्थात , दूर्जन लोग पहले सज्जन बन जाएँ, क्योंकि जो सज्जन हैं, वे ही शान्ति प्राप्त कर सकते  हैं। फिर जो शान्त हो चुके हैं वे समस्त बन्धनों से मुक्त हो जायेंगे। जो स्वयं मुक्त हो चुके हों, वे दूसरों को मुक्त करने की चेष्टा  करते हैं। 

>>> बताओ धर्म क्या है ? धर्म का सार तत्व मंदिर, तीर्थ, पूजा-पाठ आदि में नहीं है, बल्कि 
अपने यथार्थ स्वरुप की अनुभूति या आत्मोलब्धि ही धर्म है।" 

क्योंकि चाणक्य नीति में कहा गया है 
-
मलयाचलसंसर्गात् न वेणुश्चन्दनायते।

अन्तःसार-विहीनानाम् रसः केनोपजायते॥

मलयपर्वत के संग मात्र से बाँस का पेड़ कभी भी चन्दन का नही बनता,क्योंकि जिनके अन्दर कोई सार ही नहीं है। उनसे रस केसे निकलेगा ? संभव ही नहीं है। ( Bamboo tree can be never made up of sandalwood with merely being with Malayaparvat, because those who don’t have essence in it. How will the juice come out of them? Is not possible.) अर्थात यदि शिष्य के हृदय में सार ही ना हो (आत्मश्रद्धा न हो) तो उपदेश से (महावाक्य सुनाने से) कुछ नहीं बनता, जैसे मलय-गिरी (malaya mountain) के संसर्ग में रहने से भी खोखला बांस चंदन नहीं बन जाता।  महाभारत में भी कहा गया है -

य आत्मनापत्रपते भृशं नर: स सर्वलोकस्य गुरुर्भवत्युत ॥ 

      अनन्त तेजाः सुमनाः समाहितः स्वतेजसा सूर्य इवावभासते ॥
 
(विदुरनीति /१०२ )

य अपत्रप् भृशं  = व्यर्थ के कार्यों पर शर्मिन्दा होने वाला,  जो मनुष्य आत्मपरीक्षण (विवेक-प्रयोग) द्वारा अपनी उन भूलों या गलतियों के लिये जो अभी तक दूसरों को अज्ञात हैं; खुद को शर्मिन्दा महसूस करता है - 'स सर्वलोकस्य गुरुर्भवत्युत !' स= वह, सर्वलोकस्य= सम्पूर्ण विश्व का, गुरुर भवत्य उत  वह व्यक्ति ही भविष्य में सम्पूर्ण विश्व का अत्यधिक सम्मानित मार्गदर्शक नेता बनता है। अर्थात जो  व्यक्ति  प्रत्येक काम से पूर्व यह देख लेता है कि इस काम के करने से मैं कहीं अपनी आत्मा के सम्मुख लज्जित तो नहीं होऊँगा?  वह व्यक्ति ही भविष्य में सम्पूर्ण विश्व का अत्यधिक सम्मानित लोक-शिक्षक (नेता) बनता है। ऐसा आत्मपरीक्षण में समर्थ व्यक्ति ही सारे संसार में अत्यधिक सम्मानित लोक-शिक्षक , मार्ग-दर्शक नेता या गुरु बनता है। 
  अनन्त तेजाः सुमनाः समाहितः स्वतेजसा सूर्य इवावभासते ---  विदुर जी कहते हैं, उस व्यक्ति का तेज बहुत बढ जाता है, उसका चित्त शान्त और प्रसन्न रहता है और वह सूर्य समान चमकता है।
          स्वामी विवेकानन्द अपने भावी लोक-शिक्षकों, जन-शिक्षकों , आध्यात्मिक -शिक्षकों का आह्वान करते हुए कहते हैं, " आगे बढ़ो ! सैकड़ो युगों तक संघर्ष करने से एक चरित्र का गठन होता है। निराश न होओ! सत्य के एक शब्द का भी लोप नहीं हो सकता। सत्य अविनाशी है, पुण्य अनश्वर है,पवित्रता अनश्वर है। मुझे सच्चे मनुष्य की आवश्यकता है, मुझे शंख-ढपोर चेले नहीं चाहिये । … सदाचार  सम्बन्धी जिनकी उच्च अभिलाषा मर चुकी है, भविष्य की उन्नति के लिए जो बिल्कुल चेष्टा नहीं करते, और भलाई करने वालों को धर दबाने में जो हमेशा तत्पर हैं- ऐसे ' मृत-जड़पिण्डों ' के भीतर क्या तुम प्राण का संचार कर सकते हो ? क्या तुम  "उस वैद्य" की जगह ले सकते हो, जो लातें मारते हुए उदण्ड बच्चे के गले में दवाई डालने कीकोशिश करता है ? भारत को उस नव-विद्युत की आवशयकता है, जो राष्ट्र की धमनियों में नविन चेतना का संचार कर सके। 'यह काम' हमेशा धीरे धीरे हुआ है, और होगा।" (३:३४४)" 
गीता ३/२१ में भगवान कहते हैं -

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरा जन: ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।।

श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है ।  इस प्रकार सज्जनो को सदैव सक्रिय रहने की आश्यकता है, क्योंकि सामान्य जन सज्जनो का ही अनुसरण करते हैं। सज्जनो के कार्य और आचरण सामान्यजनों के लिए मानक का कार्य करती है। 

          आज देश के सामने मूल समस्या यह है कि सज्जन निष्क्रिय रहते हैं और दुर्जन सदैव सक्रिय। यदि सज्जन सक्रिय हो जायें तो देश की सभी समस्याओं का निदान हो जाये। इसलिए गीता से प्रेरणा लेकर समाज को सक्रिय करने की आवश्यकता है। हमलोग दूसरों में अपने सच्चे मित्र को नहीं खोजते हैं। हमलोग केवल उन्हीं को खोजते फिर रहे हैं, कि कौन कौन लोग वास्तव में हमारे शत्रू है। जबकि वेद में प्रार्थना की गयी है- " हे ईश्वर, हमें ऐसी शक्ति दो कि हम सभी मनुष्यों को अपने मित्र के रूप में देख सकें।" और हमलोग इसके क्या ठीक इसके विपरीत शिक्षा अपने छात्रों को नहीं दे रहे हैं ? हमलोग किसी से प्रेम नहीं करते। सभी को पराया समझते हैं। इसीलिये हर समय इस बात को लेकर शंकित रहते हैं, कि वे कहीं शत्रू बन कर हमें नुकसान पहुँचा देंगे? केवल द्वैत से ही भय होता है। 
      तैत्तिरीयोपनिषद २/७/१ में कहा गया है है - " उदरम् अन्तरम् कुरुते अथ तस्य भयम् भवति।" जो व्यक्ति ब्रह्म और अपने अथवा दूसरों में -' उदरम् ' थोड़ा-सा भी, अन्तरम् कुरुते - अन्तर समझता है, उसको भय होता है।'जिनको अपना सझते हैं, उनसे कोई भय नहीं होता। इसीलिये दूसरों के भय से सदा शंकित रहने की अपेक्षा, सभी को अपना समझना, और पराये को भी अपना बना लेना -निःशंक हो जाने का सबसे अच्छा उपाय है। यदि ऐसा नहीं करते तो, शत्रुओं से अपने को बचाने की चेष्टा में ही सारी शक्ति नष्ट हो जायेगी। अपने को उन्नत बनाने, औ अधिक विकसित करने की शक्ति फिर बाकी नहीं रहेगी। और उस शक्ति का आभाव, उसको प्रदान करने की पूंजी ही नहीं बचेगी। आज के हमलोग -ऐसी शिक्षा कहीं से नहीं प्राप्त कर पाते हैं।  केनोपनिषद २. २. ५ में कहा गया है 
-
इह चेदवेदिदथ सत्यम् अस्ति, न चेत् इह अवेदीत महती विनष्टिः।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः, प्रेत्य अस्मात् लोकात् अमृताः भवन्ति ।।

' इस जगत में कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं '- इस अद्वैत निश्चय को इसी मनुष्य शरीर में रहते समय 'अवेदित् ' जान लिया, 'अथ'-तब तो 'सत्यम अस्ति ' -बहुत कुशल है। और यदि इस शरीर के रहते रहते, इस तथ्य को अपने अनुभव से नहीं जान सके, तो ' महती विनष्टिः '- यह दुर्लभ मानव-शरीर, सभी प्राणियों में स्वयं को देखने का एक अवसर है, यदि इस बार भी यह अवसर हाथसे निकल गया फिर महान विनाश हो जायेगा-बार-बार   मृत्युरूप संसार प्रवाह में बहना पड़ेगा। यही सोचकर ' धीराः ' - विवेक-प्रयोग करने में सक्षम बुद्धिमान पुरुष, ' भूतेषु भूतेषु '- प्राणी-प्राणी में या प्राणिमात्र में ' विचित्य' - अपने (ब्रह्म-स्वरुप) को समझकर, इस लोक से ' प्रेत्य ' -प्रयाण कर जाने के बाद, 'अमृताः भवन्ति '- अमर हो जाते हैं। 
यदि हमलोग मानव-मन को उन्नत बनाने वाले विज्ञान (सत-असत विवेक ) का प्रयोग करें, तो हमलोग अपनी सत्ता के यथार्थ स्वरुप को जान सकते हैं। 
और यह भी समझ सकते हैं कि समस्त चीजों के भीतर एक सत्ता या वस्तु ओतप्रोत होकर समायी हुई है। इसीलिये प्रकट रूप से (ostensibly) एक भिन्न सत्ता (दुर्जन-सज्जन या M/F) प्रतीत होने से भी, वास्तव में मैं उस सत्ता (अविनाशी) के साथ एक और अभिन्न हूँ! तथा अदृश्य रूप से होने पर भी सबों के साथ जुड़ा हुआ हूँ, क्योंकि सबों के भीतर एक ही सत्ता विद्यमान है।
जब यही विचार क्रमशः दृढ़ होता जायेगा, तो मैं दुर्जनों को भी अपने से अलग न सोच कर, उनको शत्रु नहीं समझकर अपना जानूँगा, उनसे प्रेम करूँगा। तब हमारे हृदय में -घृणा के बदले, भय के बदले, सबों के प्रति प्रेम उत्पन्न हो जायेगा। हमलोगों के भीतर ही अनन्त शक्ति विद्यमान है। उसको सही रूप में व्यवहार करना होगा, जानना होगा और उसे वास्तविकता में परिणत करके अपने जीवन से अभिव्यक्त करना होगा। इसे कार्य में उतारने के लिये हमलोगों को अपना दृष्टिकोण बदलना होगा।  

नजरें बदलीं तो नज़ारे बदल गए।
कश्ती का मुख मोड़ा तो किनारे बदल गए।

 इसीलिये मानवजाति का मार्गदर्शक नेता वही बन सकता है, जिस शिक्षक या नेता ने पहले स्वयं आत्मसाक्षात्कार कर लिया हो, वह यदि कोशिश करे तो 
दूसरों को मुक्ति का सन्देश देकर, उन्हें भी मुक्ति के आनन्द को समझा सकता है। जिस प्रकार नरेन्द्रनाथ श्री रामकृष्ण के नेतृत्व में पहले नेतृत्व का प्रशिक्षण प्राप्त कर स्वयं समस्त बन्धनों से मुक्त हो गये थे, इसीलिए वे स्वयं युवा-नेता स्वामी विवेकानन्द बनकर दूसरों को मुक्ति का सन्देश देकर, उन्हें भी मुक्ति के आनन्द को समझा सके थे।
 
हममें से कुछ लोगों ने यदि आचार्य शंकर का नाम सुना भी है, तो दूसरों की सुनी-सुनाई बातों को दुहराते हुए कहते हैं- ' शंकर ने तो जगत को बिलकुल उड़ा दिया था।' यदि उन्होंने जगत को ही उड़ा दिया था, तो अपने ज्ञान का प्रचार उनहोंने कहाँ किया था ?  उन्होंने कहा था- वेदों में दो प्रकार के धर्मों का उल्लेख है, एक है प्रवृत्ति का धर्म और दूसरा है निवृत्ति का धर्म। एक किनारे पर भोग है, तो दूसरे किनारे पर त्याग है।
 केन्द्रापसारी बल (Centrifugal force) और केंद्राभिसारी बल (centripetal force) दो प्रकार के बलों के प्रभाव से यह विश्व, समाज स्थितावस्था में बना रहता है, या यथापूर्व स्थिति (status quo) बनाये रखता है। ये दोनों हैं, इसीलिये मनुष्यों का समाज अपना संतुलन (Equilibrium) बनाये रखता है। जैसे हवाई जहाज अपने दोनों पंखों पर भारसंतुलन बना कर उड़ान भरता रहता है। 

उसी प्रकार धर्म के भी दो पक्ष हैं- 'भोग और त्याग ', इन दोनों की सहायता से मानव-समाज साम्यावस्था में रहता है। एक को भी छोड़ देने से दूसरा पक्ष या समाज चल नहीं सकता। त्यागमार्ग-विहीन समाज केवल भोग के उपर निर्भर होकर चल नहीं सकता है। उसी प्रकार सम्पूर्ण भोग-विहीन समाज भी संभव नहीं है। आवश्यकता दोनों में सामंजस्य रखने की है। इसीलिए, हमारे शास्त्रों में- 'धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ' ये चार प्रकार के पुरुषार्थ की बात कही गयी है। केवल एक ही पक्ष को लेकर चलने से नहीं होगा। जो समाज एक को ही लेकर रहता हो, उसे 'निन्दनीय' या 'जघन्य ' भी कहा गया है। 
ऐसा कहने से भी, चौथे पुरुषार्थ 'मोक्ष' के समकक्ष कोई भी नहीं है। 

भार्यावन्त: क्रियावन्त: सभार्या गृहमेधिन:।
भार्यावन्त: प्रमोदन्ते भार्यावन्त: श्रियान्विता:॥ 

महाभारतम् 1/74/42॥

पत्नी से संयुक्त मनुष्य ही यज्ञादिक धार्मिक-सामाजिक कार्य व्यवस्थित रूप से कर सकते हैं। पत्नी से संयुक्त मनुष्य ही सच्चे गृहस्थ हैं। पत्नी से संयुक्त मनुष्य ही सुखी एवं प्रसन्न रहते हैं। पत्नी से संयुक्त मनुष्य ही धन-वैभव से सम्पन्न होते हैं, क्योंकि पत्नी साक्षात् लक्ष्मी का रूप होती है।
य: सदार: स विश्वास्य: तस्मात् दारा: परा गति:॥
 महाभारतम् 1/74/44॥

लोक-व्यवहार में पत्नी से संयुक्त मनुष्य पर ही सभी लोग विश्वास करते हैं। अत: पत्नी ही पुरुष की श्रेष्ठ गति है।

भार्या श्रेष्ठतम: सखा।

पत्नी ही सर्वोत्तम मित्र है।

 महाभारत 01/74/41 ।

चित्तं चेतयते ।  यस्मान्न ऋते किं चन कर्म क्रियते, तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ॥ 
चित्त का कार्य स्मरण करना है। -The mind is alert. 'chitta remembers'.-ChAndogya upaniShad, 7.5. 
" आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् "(विदुर नीति )
स्वयं के लिये जैसा व्यवहार-आचरण पसन्द न हो, वैसा व्यवहार-आचरण स्वयं भी दूसरों के साथ नहीं करना चाहिए।
" हितं च सारं च वचो हि वाग्मिता।"
हितकारी एवं तत्वयुक्त वाणी ही वाग्मिता अर्थात् उत्तम वक्तृत्वकला कही जाती है।       
         भागवत में बहुत सुन्दर ढंग से कहा गया है-  एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण गोचारण करते हुए वृन्दावन से बहुत दूर निकल गये। ग्रीष्म ऋतु के संताप से व्यकुल होकर सभी ग्वाल-बाल घने वृक्षों की शीतल छाया में विश्राम करने लगे। वे वृक्षों की लटहनियों से पंखों का काम ले रहे थे। तबी अचानक श्रीकृष्ण अपने साथियों को सम्बोधित करते हुए कहने लगे—  हे स्तोककृष्ण हे अंशो श्रीदामन्सुबलार्जुन । विशाल वृषभौजस्विन्देवप्रस्थ वरूथप :-

" पश्यतैतान्महाभागान्परार्थैकान्तजीवितान् ।
 वातवर्षातपहिमान्सहन्तो वारयन्ति नः ॥ 

 अहो एषां वरं जन्म सर्व प्राण्युपजीवनम् । 
सुजनस्येव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः ॥"

अर्थात् हे श्रीकृष्ण ! हे अंशु ! हे श्रीदामा ! हे सुबल ! हे अर्जुन ! हे विशाल ! हे ऋषभ ! हे जसस्वी ! हे वरुथप ! (ये उनके सखाओं के नाम हैं उनमें से प्रत्येक का सम्बोधन है) इन भाग्यशाली वृक्षों को देखो जो दूसरों की भलाई के लिए ही जीवित हैं। ये वृक्ष हम सबकी आँधी, वर्षा, ओला, पाला, धूप से रक्षा करते हैं और स्वयं इनको झेलते हैं।इन (वृक्षों) का जीवन धन्य है (इन वृक्षों का जीवन ही सार्थक है) क्योंकि ये सब प्राणियों को उपजीवन (सहारा) देते हैं (मानो ये सभी प्राणियों के हित के लिए ही जीवन धारण करते हैं)। जैसे कोई सज्जन पुरुष किसी याचक को खाली नहीं लौटाता, वैसे ही ये वृक्ष भी (अपना सर्वस्व न्योछावर करके मनुष्यों के काम में आते हैं) जो भी इनसे कुछ पाने की अपेक्षा करता है, ये उसे कभी निराश नहीं करते। किसी को खाली हाथ न लौटाकर उन्हें कुछ न कुछ अवश्य देते हैं। सज्जन लोग भी ऐसे ही होते हैं, उनके पास से कोई असंतुष्ट होकर नहीं लौटता। वृक्ष हमें क्या-क्या देते हैं उनसे हमें क्या लाभ हैं? यह सब विस्तारपूर्वर समझाते हुए कृष्ण आगे कहते हैं-
पत्रपुष्पफलच्छाया मूलवल्कलदारुभिः ।
गन्धनिर्यासभस्मास्थि तोक्मैः कामान्वितन्वते ॥

एतावत् जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु ।
प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेयआचरणं सदा ॥

अर्थात् ये वृक्ष पत्र (पत्ती), पुष्प, फल, छाया, मूल (जड़), वल्कल (छाल), दारू या लकड़ी, गंध, निर्यास या गोंद, भस्म (राख), अस्थि (कोयला), तोक्म (बीज) आदि पदार्थों के द्वारा हमारा उपकार करते हैं। ‘‘प्राण, अर्थ, बुद्धि और वाणी द्वारा केवल श्रेय का ही आचरण करना देहधारियों का इस देह में जन्म साफल्य है।’’ इन वृक्षों की भाँति ही मनुष्य को अपना जीवन, तन, मन, धन, सब कुछ दूसरों की भलाई में लगा देना चाहिए। इसी में मानव जीवन की सफलता है।

नास्ति सिद्धि: अकर्मण: ॥ 
महाभारतम् शान्तिपर्व 10/26 ॥

कर्महीन व्यक्ति को कभी भी कोई सिद्धि अर्थात् सफलता नहीं प्राप्त हो सकती है।

   उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखं मृगाः ॥

कोई भी कार्य प्रयत्न करने से ही पूर्ण होता है, केवल इच्छा करते रहने से नहीं। किसी सोये हुए शेर के मुख में हिरण स्वयं चलकर प्रविष्ट नहीं होते। 

उद्योगिनं पुरुष-सिंहमुपैति लक्ष्मीर्दैवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति ।
दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्म-शक्त्या यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः
 ॥ ३३ ॥

सन्धि विग्रह : उद्योगिनं पुरुषसिंहं उपैति लक्ष्मीः दैवेन देयं इति कापुरुषा वदन्ति । दैवं निहत्य कुरु पौरुषं आत्मशक्त्या यत्ने कृते यदि न सिध्यति कः अत्र दोशः ?
एक शेर की तरह उद्द्यमी (मेहनती) आदमी के पास लक्ष्मी स्वतः चली आती है। जबकि कायर और डरपोक लोग कहते हैं, भाग्य में होगा तो न मिलेगा? तुम अपने  पौरुष ( मर्दानगी, साहस) के द्वारा अपने भाग्य के निर्माण का प्रयास करो !और  प्रयास करने के बाद भी यदि कोई उपलब्धि न हो रही हो, तो आत्मनिरीक्षण करके देखो - कि गलती कहाँ  रह गयी है? (कठोर परिश्रम के बाद भी सफलता न मिले तो यह आपकी गलती नहीं है) श्रीमद्भागवत में देवर्षि नारदजी ने कहा है—
यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्।
अधिकं योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति।।
(7/14/8)
‘‘जितने से पेट भरे—सादगी से जीवन-निर्वाह हो, उतने पर ही अधिकार है। जो उससे अधिकपर अपना अधिकार मानता है, और आवश्यकता से अधिक भोग-पदार्थों का संग्रह करता है, वह दूसरों के धन पर अधिकार मानने वाले की तरह चोर है और दण्ड का पात्र है।

येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्म:।
ते मृत्युलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति॥

जिनके पास न विद्या है, न तप (परिश्रम) है, न ज्ञान है, न शील (सदाचार) है और न ही किसी प्रकार के गुण हैं और न ही वह धर्म के मार्ग पर चलते हैं। ऐसे मनुष्य इस पृथ्वी पर बोझ हैं जो मनुष्य के रूप में जानवर की तरह विचरण करते रहते हैं।
हितोपदेश में कहा गया है -
सुखार्थी त्यजते विद्यां विद्यार्थी त्यजते सुखम् ।
सुखार्थिन: कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिन: सुखम् ॥

जो व्यक्ती सुख के पिछे भागता है उसे ज्ञान नही मिलेगा ।तथा जिसे ज्ञान प्रप्त करना है वह व्यक्ती सुख का त्याग करता है । सुख के पिछे भागनेवाले को विद्या कैसे प्राप्त होगी ? तथा जिसको विद्या प्रप्त करनी है उसे सुख कैसे मिलेगा?
👉>>>  Internal Engineering for Sense-Datum  Restraint trainer :[ संवेदना-डेटा संयम प्रशिक्षक (an immediate unanalyzable private object of sensation- सेंस डेटम के पर्यायवाची शब्द - सौंदर्यबोध, संवेदना,  इंद्रिय अनुभव, इंद्रिय प्रभाव।)  के लिए आंतरिक इंजीनियरिंग की शिक्षा  (धर्म ) का प्रशिक्षण :
  दृष्टि गोचर जगत की समस्त वस्तुओं  के भीतर जो  इन्द्रिय के विषय-संवेदक उत्पन्न करने की शक्ति रहती है, उदाहरण "रूप, रस, शब्द , गंध स्पर्श की अनुभूति।" जैसे रसगुल्ला देखकर मुँह में पानी आना होते हैं उन 'sense-datum ' या इन्द्रिय दत्त ' संवेदनाओं (Sensations- सनसनी, खलबली या उत्तेजना)  को नियंत्रित करने में विज्ञान अक्षम है। इसीलिये इस बार (अवतार वरिष्ठ ठाकुर अवतार) में अपने साथ "निवृत्तिमार्गी सप्तऋषियों" में से एक स्वामी विवेकानन्द को अपने साथ लेकर अवतरित हुए हैं। केवल मुख से नहीं कहा था, कागज के उपर लिख कर चपरास दिया था -
 " जय राधे प्रेममयी ! नरेन शिक्षे दिबे, जखन घरे बाहिरे हाँक दिबे ! जय राधे !! " 
अर्थात-" जय राधे प्रेममयी ! नरेन्द्र शिक्षा देगा, जब घर और बाहर में हूँकार देगा। जय राधे ! " नरेन्द्रनाथ को भावी लोक-शिक्षक या अधिकारी पुरुष का केवल लिखित 'चपरास' देकर ही नहीं रुके। उसी क्षण सहज भावावेग में, उन्होंने अपने हाथों से बयान के नीचे एक गूढ़ (Esoteric) रेखा-चित्र भी अंकित कर दिया। उस रेखा-चित्र में ठाकुर ने सिर से गले तक के एक मानव-मुखड़े को उकेरा था। 
       उस आवक्ष-मुखाकृति के विशाल नेत्रों की दृष्टि प्रशान्त है, और एक 'लम्बी पूंछवाला धावमान मयूर' उस मुखाकृति का अनुगमन करता हुआ उसके पीछे-पीछे चल रहा है। मानो चपरास प्रदानकर्ता त्यागीश्वर श्रीरामकृष्ण उस लोक-शिक्षक की पृष्ठभूमि में विदयमान हैं, और उस नव-निर्वाचित भावी लोक-शिक्षक नरेन्द्रनाथ के पीछे-पीछे स्वयं चल रहे हैं। वह रेखा-चित्र वास्तव में भारत के राष्ट्रीय आदर्श 'त्याग और आध्यात्मिकता' की उच्चतम अभिव्यंजनाओं से परिपूर्ण एक अत्यन्त मनोरम चित्र था।]  
ठाकुरदेव ने जैसे लिख कर कहा था-" नरेन् शिक्षा देगा" (নরেন শিক্ষা দেবে) ** अर्थात-निवृत्ति मार्ग के सप्तऋषियों में से एक नरेन् (नरेन्द्र) जगत को आंतरिक इंजीनियरिंग (Internal Engineering) की शिक्षा देगा।
 जैसे एक गुलाब के फूल मैंने अभी सूंघा तो उसके विशिष्ट गन्ध की एक छाप हमारे चित्त में संचित हो जाती है,फिर बाद में उसे दूर से देखने पर या स्मरण करने से भी उसकी विशिष्ट गन्ध मन में उभर आती है। 

अली-मृग-मीन-पतंग-गज जरै एक ही आँच !
 तुलसी वे कैसे जियें जिन्हें जरावे पाँच ?

  इन्द्रिय के विषय-संवेदक या 'sense-datum' से उत्पन्न  संवेदनाओं 'Sensations' के भँवर (whirlpool) से मन को खींच लेने में विज्ञान अक्षम है !  तीनो ऐषणाओं की 'वृत्ति ' [whirlpool- वित्तेषणा, पुत्रेष्णा, लोकेषणा या कामिनी-कांचन और नाम-यश की चाह] में से किसी 'वृत्ति ' का दासत्व करने को बाध्य नहीं किये जा सकते, क्योंकि तब हम अभीः बन जाते है।
फिर हमलोग परिवेश या इतिहास (जन्मजन्मांतर के अभ्यास) के कारण तीनो ऐषणाओं की 'वृत्ति ' [whirlpool- वित्तेषणा,पुत्रेष्णा, लोकेषणा या कामिनी-कांचन और नाम-यश की चाह] में से किसी 'वृत्ति ' का दासत्व करने को बाध्य नहीं किये जा सकते, क्योंकि तब हम अभीः बन जाते है।
अन्तः प्रकृति को जीतने का एक अलग विज्ञान है, एक भिन्न प्रकार की आंतरिक इंजीनियरिंग (Internal Engineering) है । जिन इन्द्रियों (सेन्स ऑर्गन) के माध्यम से इन्द्रियगोचर वस्तुएं हमारे मन को उत्तेजित कर देती हैं, उन इन्द्रियों को संयमित करके हम बाह्य जगत की शक्ति के प्रभाव से अपनी रक्षा कर सकते हैं तथा 'इच्छाशक्ति के विकास और प्रवाह' को अपने नियंत्रण में रखने की पद्धति -मनःसंयोग सीखकर, आत्म-विकास कर सकते हैं। मन को वशीभूत करने के संग्राम में जय-पराजय की सम्भावना ही युवा-जीवन की मूल समस्या है। और युवा नेता (युवा आदर्श) स्वामी विवेकानन्द ने, इसी समस्या के समाधान का मार्ग दिखलाया है। 
गुरु-शिष्य परम्परा या 'C-IN-C लीडरशिप Be and Make-चरैवेति-चरैवेति परम्परा" महामण्डल निवृत्ति अस्तु महाफला लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन में प्रशिक्षित भावी शिक्षकों का अभियान मंत्र है -चरैवेति,चरैवेति! में   उस अन्तःप्रकृति के विज्ञान को सीखकर (राजयोग प्रमुख चार योग-मार्ग या कोई एक योग-पद्धति को सीखकर), हम अपने मन को संयमित अर्थात यम-नियम का अभ्यास कर मन की कामनाओं इत्यादि को संयमित रखने में समर्थ हो जाते हैं, इन इन्द्रिय-संवेदी विषयों की और भागने से अपने मन को अपने वश में रख सकते हैं।   तब हमलोग क्रमशः (D-hypnotized) भ्रममुक्त  या बाह्य और आंतरिक प्रकृति की गुलामी से भी मुक्त हो जाते हैं।  वैसे ही आचार्य की छड़ी (सेंगोल Sengol)  राजयोग (पातंजल-योगसूत्र) के गुरु-शिष्य परम्परा में प्रशिक्षित 'सेन्स डेटा संयम प्रशिक्षक' (Sense Data Restraint trainer) के होने का चपरास या सेंगोल (Sengol) प्राप्त आचार्य /लोक-शिक्षक का प्रतीक है। वह छड़ी कोन्नगर महामण्डल भवन में रखी है। कैम्प शुरू होने से पहले उस छड़ी को लाकर महामण्डल ऑफिस में रखना होगा। वह छड़ी सौंदर्य-बोध, संवेदना,  इंद्रिय खलबली, इंद्रिय प्रभाव आदि पर संयम रखने में समर्थ प्रशिक्षक [C-IN-C of Sense-Datum :-सेंस डेटम में संयम का प्रतीक है]  संवेदना डेटा का   पर्यायवाची शब्द है "रूप, रस, शब्द, गंध स्पर्श की अनुभूति का संयम " या "प्रवृत्ति मार्ग के -निवृत्ति अस्तु महाफला के भावी प्रशिक्षकों को प्रशिक्षण देना "  स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर परम्परा में प्रशिक्षित और स्वामीजी से  लोकशिक्षक होने का चपरास प्राप्त  CINC नवनी दा ने 2016 के जमशेदपुर इन्टरस्टेट कैप में कुर्सी के हत्थे पर पर उसी आचार्य की छड़ी या सेंगोल को रखने के बाद, वीरेन दा, दीपक दा, प्रमोद दा, सुभाष राय के रहते हुए मुझे 'सेन्स डेटा संयम  ' (Sense Data Restraint) के  CINC का चपरास-देते समय मेरे संकोच/शर्मिन्दा होने  को देखकर झिड़कते हुए कहा था - क्यों सम्भव नहीं होगा ? तुम लोगों को आंतरिक इंजीनियरिंग/ या धर्म  (Internal Engineering- Sense Data Restraint) की शिक्षा दोगे।   धर्म का सार तत्व मंदिर, तीर्थ, पूजा-पाठ आदि में नहीं है, बल्कि अपने यथार्थ स्वरुप की अनुभूति या आत्मोलब्धि ही धर्म है।"  जैसे तोतापुरीजी ने काँच के नोक ठाकुर की आज्ञाचक्र पर गड़ाते हुए कहा था - काली की मूर्ति पर से मन को हटाकर निराकार सच्चिदानन्द स्वरुप का चिंतन क्यों सम्भव नहीं होगा ? Are you a beast ? “মন কোরবি তুমি  এক 'জন-শিক্ষক!'  --क्या तुम पशु हो , जो अपनी पाशविक वृत्ति पर (ऐषणाओं पर) संयम नहीं रख सकते ?  "मोने कोरबी तुमि एक जन-शिक्षक ! याद रखना कि तुम एक लोक-शिक्षक हो! " 
            नेता बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने के लिये - योग्य आधार का चयन इतना महत्वपूर्ण क्यों है? श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, " त्यागी हुए बिना, लोक-शिक्षा देने का अधिकार प्राप्त नहीं होता है, त्याग होगा, समग्र रूप से त्याग। मन ही मन त्याग करने से नहीं होगा। लोक-शिक्षक (नेता) बनने योग्य केवल वही मनुष्य हो सकता है, जिसने समग्र-रूप से 'कामिनी-कांचन' का त्याग कर दिया हो ! उनका जीवन आचार-व्यवहार में दूसरे सभी लोगों के लिये उदाहरण-स्वरूप होगा। तभी उनका नेतृत्व अविवादित रूप से स्वीकृत होगा।"इसीलिये जो युवा मानवजाति का नेता बनने का प्रशिक्षण (लीडरशिप ट्रेनिंग ) लेना चाहते हों, उन्हें यह स्पष्ट रूप से समझ लेना होगा कि) इन्द्रिय-भोगों में लिप्त रहते हुए, जन-शिक्षक या लोक-शिक्षक बनकर विश्व का कल्याण कभी नहीं किया जा सकता है। 
       "अगर कोई ऐसा समझे कि ' मैं महामण्डल का नेता हूँ', तो -वह ' कच्चा मैं' है। परन्तु यदि कोई जगन्माता का साक्षात्कार कर उन्हीं की आदेश से लोककल्याण के लिये प्रचार करता है, तो उसमें कोई हानि नहीं। जो स्वयं मुक्त (सिद्ध) हो जाता है, तो उसके पावन चरित्र की मधुर सुगन्ध चारों ओर फ़ैल जाती है, और उसके निकट चरित्र-निर्माण की शिक्षा ग्रहण करने के लिये, उत्सुक होकर दूर दूर से सत्य-प्राप्ति की स्पृहा रखने वाले सैकड़ो प्रशिक्षु आने लगते हैं। गुलाब के खिलने पर भौंरे अपने आप आ जुटते हैं। जब दीपक जल उठता है, तो न जाने कहाँ से पतिंगे आकर उसमें गिरते हुए अपने प्राणों का बलिदान देने लगते है; दीपक की लौ कभी पतिंगों को बुलाने नहीं जाती। सिद्ध-मुक्त-शुद्ध-बुद्ध लोक-सेवकों का प्रचार भी इसी तरह का होता है। 
     श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र को कई प्रकार से जाँच-पड़ताल करने के बाद ही अपना उत्तराधिकारी निर्वाचित किया था। कुछ लोग सोचते हैं की केवल लेक्चर देकर मैं अपने ज्ञान और विचार किसी दुर्जन मनुष्य को सज्जन बना सकता हूँ, या किसी मूर्ख व्यक्ति को बुद्धिमान बना सकता हूँ। किन्तु श्रीरामकृष्ण हमें यही सिखाना चाहते थे कि मानवजाति का मार्गदर्शक नेता या शिक्षकों के लिये ऐसा  सोचना ठीक नहीं है। लेक्चर देने से कुछ नहीं होता पहले स्वयं चरित्रवान मनुष्य बनने का प्रयत्न करना चाहिये। और सज्जनता जब हमारे व्यवहार से परिलक्षित होने लगती है, तब दूसरे लोग स्वभावतः उससे प्रभावित होकर हमारा अनुसरण करने लगते हैं।
      श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, " हे प्रचारक, क्या तुम्हें 'चपरास' (Insignia- राज-चिन्ह अंकित पट्टा/सेंगोल ) मिला है? जिस व्यक्ति को चपरास मिल जाता है, भले ही वह एक सामान्य अर्दली या चपरासी ही क्यों न हो, उसका कहना लोग भय और श्रद्धा के साथ सुनते हैं। वह व्यक्ति अपना राज-मोहर अंकित बैज दिखलाकर बड़ा दंगा भी रोक सकता है। हे प्रचारक, तुम पहले भगवान का साक्षात्कार कर उनकी प्रेरणा से दूसरों को प्रेरित करने का आदेश प्राप्त कर लो, नेतृत्व का बैज प्राप्त कर लो। बिना बैज मिले यदि तुम सारे जीवन भी प्रचार करते रहो,तो उससे कुछ न होगा, तुम्हारा श्रम व्यर्थ होगा। पहले अपने ह्रदय मन्दिर से अहंकार को हटाकर, वहाँ भगवान को प्रतिष्ठित कर लो, उनके दर्शन कर लो, बाद में यदि उनका आदेश हो तो लेक्चर देना। संसार में (कामिनी-कांचन में ) आसक्ति के रहते और विवेक-वैराग्य के न रहते सिर्फ 'ब्रह्म ब्रह्म ' कहने से क्या होने वाला है ? अपने ह्रदय-मंदिर में देवता तो हैं नहीं, व्यर्थ शंख फूँकने से क्या होगा? " 
       अनेक बार कुछ अल्पज्ञानी शिक्षक या नेता  लोगों के बीच बैठकर अपने ज्ञान का बखान सार्वजनिक रूप से, यह सोचकर  करते हैं कि वे दूसरों को सुधार लेंगे और समाज में नाम-यश (बुद्धिमान का दर्जा) पायेंगे। यह उनके (नरेन्द्र के फ्रैन्डो प्रताप चन्द्र हाजरा जैसा) अपूर्ण ज्ञान का ही परिचायक है। क्योंकि वैसे लोग पीठ पीछे लोगों की हंसी का पात्र बनते हैं। अनेक बार उनको ' ज्ञानी-जी ' या 'स्वामी-जी ' कहकर मजाक भी बनाया जाता है। जबकि सामान्यजन उनको केवल बकवादी समझते हैं।       
        दरअसल इस संसार के विषय-भोग इतने व्यापक और आकर्षक हैं कि अधिकांश लोग इन्द्रिय भोगों में रचे-पचे रहते हैं, या और अधिक मात्रा में भोग करने के लिये स्वर्ग जाना चाहते हैं उनके लिये उनका मोह, लोभ और क्रोध ही सत्य है। अल्पज्ञानी लोग इस मोह या आसक्ति के त्याग के विधान को नहीं जानते। पर तत्व-ज्ञानी श्रीमद्भागत गीता में वर्णित यह तथ्य नहीं भूलते जिसमें भगवान ने कहा है कि हजारों में भी कोई एक मुझे भजता है और उनमें भी हजारों में से कोई एक मुझे पाता है। 
     स्पष्टतः यही कहा गया है, कि सामान्य 'गृहस्थ लोगों' में (या सन्यासियों का चोंगा ओढ़ने वालों में ?) ज्ञानी उंगलियों पर गिनने लायक ही होंगे। साधारणतया गृहस्थ लोगों में काम, क्रोध, मोह और अज्ञान का ऐसा जाल छाया रहता है, इतने हिप्नोटाइज्ड हो जाते हैं कि वे अपने इन्द्रिय आसक्ति या निजी स्वार्थों से पृथक  नहीं हो सकते। जिनकी उम्र बहुत अधिक हो गयी है, जीवन के कई थपेड़े खा चुके हैं, फिर भी जो अपनी दुष्टता और मूर्खता नहीं छोड़ रहे हैं, ऐसे लोगों के साथ तो यह अपेक्षा कभी करना भी  नहीं चाहिए कि वह कभी सुधरेंगे, उन्हें उनके हाल पर ही छोड़ देना चाहिये उनको सुधारने का प्रयास करना केवल अपना समय और ऊर्जा को नष्ट करना ही है।
                  यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् ।
            लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति ॥९॥
जिसके पास अपनी कोई अकल (बुद्धि) नहीं है, उसकी वेद-शास्त्र भला क्या भलाई करेंगे ? वैसे ही जैसे अंधा व्यक्ति दर्पण का क्या करेगा ?

               दुर्जनं सज्जनं कर्तुमुपायो नहि भूतले ।

                 अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेत॥१०॥

दुर्जन व्यक्ति को सज्जन बनाने के लिये भूमि पर कोई भी उपाय नहीं है, जैसे आप पृष्ठ भाग को चाहे 
सौ प्रकार से साफ़ करे वो श्रेष्ठ भागो की बराबरी नहीं कर सकता। 

[ 'सत ' का अर्थ है-जो अविनाशी हो या चिरस्थायी हो (सत्य-वस्तु)। 'असत' का अर्थ है क्षणभंगुर या नश्वर (मिथ्या-वस्तु)। कौन सी वस्तु सत (अविनाशी) है, और कौन सी वस्तु असत (नश्वर) है- जो प्राणी चिन्तन करके इस बात को जान सकता है, उसी को मननशील जीव कहा जाता है।] 

 आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् ।
सर्वदेवनमस्कारः केशवं प्रतिगच्छति ॥

 जिस प्रकार आकाश से गिरा जल विविध नदीयों के माध्यम से अन्ततः सागर से जा मिलता है उसी प्रकार सभी देवताओं को किया हुवा नमस्कार अंत में एक ही परमेश्वर (केशव-श्रीरामकृष्ण) को प्राप्त होता है ।
 As all the water fallen from the skies goes to the sea, similarly salutations to any God finally reach Keshava.

भगवान् एक ही हैं। वे ही निर्गुण -निराकार, सगुण-निराकार और सगुण -साकार हैं। लीलाभेदसे उन एकके ही अनेक नाम, रूप तथा उपासनाके भेद हैं। जगतके सारे मनुष्य उन एक ही भगवान् की विभिन्न प्रकारसे उपासना करते हैं, ऐसा समझे। मनुष्य -जीवनका एकमात्र साध्य या लक्ष्य मोक्ष, भगवत्प्राप्ति या भगवत्प्रेमकी प्राप्ति ही है, यह दृढ़ निश्चय करके प्रत्येक विचार तथा कार्य इसी लक्ष्यको ध्यानमें रखकर इसीकी सिद्धिके लिए करे।

नाम-रूप अर्थात शरीर तथा नाम आत्मा नहीं है। अतः शरीर तथा नाममें 'अहं' भाव न रखकर यह निश्चय रखे की मैं विनाशी शरीर नहीं, नित्य आत्मा हूँ। उत्पत्ति, विनाश, परिवर्तन शरीर तथा नामके होते हैं -- आत्माके कभी नहीं।
भगवान् का साकार-सगुण स्वरुप सत्य नित्य सच्चिदानन्दमय है। उसके रूप, गुण, लीला सभी भगवत्स्वरूप हैं। वह मायाकी वस्तु नही है। न वह उत्पत्ति -विनाशशील कोई प्राकृतिक वस्तु है। किसी भी धर्म, सम्प्रदाय, मतसे द्वेष न करे; किसीकी निंदा न करे। आवश्यकतानुसार सबका आदर करे। अच्छी बात सभीसे ग्रहण करे; पर अपने धर्म तथा इष्टदेवपर अटल, अनन्य श्रद्धा रखकर उसीका सेवन करे।]
" संसार का इतिहास बुद्ध और ईसा जैसे (ड्रॉप-आउट) व्यक्तियों का इतिहास है। वासनामुक्त तथा अनासक्त व्यक्ति ही संसार का सर्वाधिक हित करते हैं। ...प्रत्येक सफल मनुष्य के स्वभाव में कहीं न कहीं असाधारण ईमानदारी और सच्चाई छिपी रहती है; और उसी के कारण उसे जीवन में इतनी सफलता मिलती है। वह पुर्णतः स्वार्थहीन भले न रहा हो,पर वह उसकी ओर अग्रसर होता रहा था। यदि वह पुर्णतः स्वार्थहीन बन गया होता, तो उसकी सफलता भी वैसी ही महान होती, जैसे बुद्ध या ईसा की। सर्वत्र निःस्वार्थता की मात्रा पर ही सफलता की मात्रा निर्भर करती है।]

>>>सेंगोल क्या है जिसे पीएम मोदी ने नए संसद भवन में स्थापित किया है?
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज 28 मई, 2023 को दिल्ली में संसद के नए भवन का उद्घाटन करने जा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार को तमिलनाडु के अधीनम मठ से सेंगोल स्वीकार किया और इसे लोकसभा अध्यक्ष के आसन के पास स्थापित किया गया है।आखिर इस खास समारोह के अनुष्ठान के लिए तमिलनाडु के अधीनम संतों को ही क्यों बुलाया गया, उनका सेंगोल से क्या नाता है? और तमिलनाडु में उनकी क्या और किस तरह की हैसियत या प्रभाव है ? तमिलनाडु में अधीनम एक तमिल शब्द है जिसका अर्थ 'शैव मठ 'है। 16 वीं शताब्दी के दौरान अधीनम की स्थापना की गई थी। मदुरै अधीनम के 293वें प्रधान पुजारी हरिहरा दास स्वामीगल ने सेंगोल प्रधानमंत्री मोदी को भेंट किया। इस बीच समाजवादी पार्टी नेअधीनम संतों को कट्टरवादी ब्राह्मण बताया गया था। सोशल मीडिया पर भी अधीनम संतों को लेकर काफी बहस चली। अधीनम के बारे में एक बात जो कम लोग जानते हैं वे संत तो हैं, लेकिन ब्राह्मण नहीं होते हैं।  अधीनम को ब्राह्मण नहीं बल्कि ओबीसी और पिछड़ा वर्ग संचालित करते हैं।
हर अधीनम की अलग ही जाति और क्षेत्रीय विशेषता है। 
 अधीनम क्या हैं?
अधीनम एक तमिल शब्द है जिसका अर्थ शैव मठ है। अधीनम तमिलनाडु में गैर-ब्राह्मण शैव मठवासी मठ हैं। लगभग 20 मुख्य अधीनम हैं। अधीनम से प्रत्येक के पास सैकड़ों करोड़ की संपत्ति है। एक अधिनम का अर्थ एक मठ या उसका पुजारी हो सकता है, जिसे अधीनकार्थर भी कहा जाता है। प्रत्येक अधीनम की एक विशिष्ट जाति और क्षेत्रीय विशेषता है। तिरुवदुथुराई और मदुरै में अधीनम के प्रमुख पारंपरिक रूप से इस क्षेत्र में प्रमुख शैवा पिल्लई या मुदलियार समुदायों से हैं। पेरूर और सिरूर में अधीनम का नेतृत्व गौंडरों द्वारा किया जाता है। यह पश्चिमी तमिलनाडु में संख्यात्मक रूप से प्रभावशाली हैं। चेट्टिनाड बेल्ट में कुंद्राकुडी अधीनम का नेतृत्व एक चेट्टियार करता है।
अलग अलग क्षेत्र के अलग तरह के अधीनम होते हैं।  पेरूर और सिरूर के अधीनम प्रमुख गौडार होते हैं पश्चिमी तमिलाडु में ये बड़ी संख्या में हं।  तिरुवदुथुरै और मदुरै के अधीनम शिव पैल्लई या मृदुलियार समाज के होते हैं।  वहीं चेट्टिनाड के कुंद्राकुडी अधीनम प्रमुख (पेरुमल?)
 चेट्टियार होते हैं। इस तरह से अधीनम का जातीय महत्व नही बल्कि सामाजिक महत्व ज्यादा दिखाई देता है।  फिर भी इनके हाथों में मठों के अलावा प्राचीन मंदिरों का संचालन है।  सदियों से ये शैव दर्शन और तमिल साहित्य को बढ़ावा देते रहे हैं।  इनकी मदद से दुर्लभ ताड़ की पत्तों की पांडलिपियों को खोजने और उन्हें प्रकाशित करवाने में काफी सफलता भी मिली है।  इनकी सम्पत्ति और जमीन इन्हें और भी शक्तिशाली बना देती है।  वे अपनी पारम्परिक मूल्यों  (राजयोग पतंजलि-योगसूत्र, भक्ति योग आदि ) को शिक्षा के जरिए अपने शिष्यों को प्रदान करते हैं और इस तरह से शैव संस्कृति और मत को कायम रखते हैं।  वे अपने इलाके के धार्मिक और सांस्कृतिक मामलों तक ही खुद को सीमित रखते हैं।  एक समय में उनका बहुत प्रभाव था। 
मंदिरों को प्रशासन कम्युनिस्ट और 'ढोंगी सेक्युलर' सरकार के हाथों में आने से अब उनकी उस तरह की आय नहीं होती है जैसी पहले हुआ करती थी।  वे खुद को सक्रिय राजनीति से दूर रखते हैं और उनके अनुयायी भी इससे दूर रहते हैं।  प्राचीन काल में चोल, चेरा और पांड्या राजाओं का इन्हें संरक्षण मिला करता था. मदुरै के अधिनम को 1300 साल पुराना माना जाता और उसके वर्तमान अधीनमकार्थर 293 वें प्रमुख माने जाते हैं. अधीनम का पुजारी कैसे चुना जाता है? एक अधीनम या अधीनाकार बनने में दशकों की कठोर गुरुकुल (पतंजलि योगसूत्र?) शिक्षा, तमिल भक्ति साहित्य पर छात्रवृत्ति और सेवा करने वाले प्रमुखों की सेवा शामिल है। भिक्षु 'पंडाराम' के रूप में शुरू करते हैं। वे सीढ़ी को 'थंबुरांस' और 'मुख्य थंबुरांस' नामित करने के लिए आगे बढ़ते हैं। राज करने वाला पुजारी आम तौर पर अपने प्रमुख शिष्यों में अपने उत्तराधिकारी का चयन करता है।
सेंगोल या राजदंड का महत्व : 
भारतीय संस्कृति में जब भी किसी राजा का राज्याभिषेक होता था तो वह एक बहुत ही पवित्र क्षण माना जाता था और उस अवसर पर राजा को तीन राजकीय चीजें प्रदान की जाती थीं।  मुकुट, शाही तलवार और सेंगोल या राजदंड राजा को दिया जाता था।  मुकुट राजा के नेतृत्व, तलवार उसके विरोधियों को रोकने का प्रतीक,  और राजदंड विधि के शासन का प्रतीक था जिससे प्रजा के अधिकारों, नैतिकता और न्याय की रक्षा हो सके।  ये तीनों प्रतीक पीढ़ी दर पीढ़ी राजवंशों में आगे दे दिए जाते थे।  सेंगोल तमिल भाषा का शब्द है और इसका अर्थ संपदा से संपन्न और ऐतिहासिक है। सेंगोल शब्द का अर्थ नेता , राजा या लोकशिक्षक के भाव और नीति का पालन करने से है।  
जब अंग्रेजों ने भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को सत्ता सौंपी तो तिरुववतु तुरई अधीनम का प्रतिनिधित्व करनने वाले तम्बीरन ने एक सेंगोल उन्हें भूमिके प्रशासन में भूमिका के प्रतीक के तौर पर प्रदान की थी.  उस समय उन्होंने ऐसे मंत्र भी पढ़े थे जिसमें विधि और न्याय  के शासन को सौंपने की बात थी. उसी परंपरा को नई संसद के उद्घाटन के दौरान फिर से स्थापित करने का कार्य किया गया है जिसे इस बार भी अधीनम के संतों ने प्रतिष्ठित किया है। 
देश के गृह मंत्री अमित शाह का दावा है कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 14 अगस्त, 1947 को तमिल पुजारियों के हाथों सेंगोल स्वीकार किया था। नेहरू ने सी. राजगोपालचारी के परामर्श पर इसे अंग्रेज़ों से भारत को सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के तौर पर स्वीकार किया था।  सेंगोल चोल साम्राज्य से संबंध रखता है और इस पर नंदी भी बने हुए हैं। बाद में इसे नेहरू ने एक म्यूज़ियम में रख दिया था और तब से सेंगोल म्यूज़ियम में ही रखा हुआ था। 
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 महामण्डल ब्लॉग /शुक्रवार, 19 मई 2017/*३' नरेन शिक्षा देगा ! 'श्री रामकृष्णदेव ने लिखा, 'नरेन पढ़ाएंगे।' ऐसा ज्ञात नहीं है कि उन्होंने कुछ और लिखा हो। हालाँकि, रानी रासमणि के मंदिर के खाते की किताब में उनके हस्ताक्षर पाए जाते हैं। अपने जीवन के अंत में एक दिन काशीपुर में उन्होंने एक कागज के टुकड़े पर लिखा "नरेन शिक्षा देबे", यानी नरेंद्र लोकगुरु, युगगुरु।/श्रीरामकृष्ण ने लिखा - नरेन शिक्षा देगा।/ / हुकुमनामा:  ११ फरवरी १८८६ श्रीरामकृष्ण ने एक पेन्सिल और कागज माँग लिया। उन्होंने एकाग्रता पूर्वक कागज के ऊपर लिखा - " जय राधे प्रेममयी नरेन शिक्षा देगा, जब घर और बहार हुँकार देगा। जय राधे। " उन्होंने बंगला भाषा में इस प्रकार लिखा था - " जय राधे प्रेममयी -नरेन शिक्षे दिबे जखन घरे बाहिरे हाँक दिबे, जय राधे।"
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 [ नेति, नेति विवेक -प्रयोग  द्वारा सर्वप्रथम 'शाश्वत-नश्वर-मिथ्या ' विवेक  करके  चेतन आत्मा यानि द्रष्टा को  जो अच्छा अर्थात अपरिवर्तनीय (अविनाशी-सत्य) वस्तु है- उसे समस्त परिवर्तनशील वस्तुओं  मिथ्या नाम-रूप आदि दृश्यों  से अलग कर लेना पड़ता है।]

" इन्द्रिय दत्त  (sense-datum) सनसनी या उत्तेजना (Sensations)" के  भँवर (whirlpool) से मन को खींचने का विज्ञान, स्थितप्रज्ञ बनने का विज्ञान है मनःसंयोग ! (खण्ड -3 'स्वामी विवेकानन्द और युवा मण्डली '

"নরেন শিক্ষা দেবে" -
রামকৃষ্ণদেব লিখে গেলেন, "নরেন শিক্ষা দেবে"। তিনি আর কিছু লিখেছেন বলে জানা যায় না। তবে রাণী রাসমণির মন্দিরের হিসাবের খাতায় তাঁর নাম সই পাওয়া যায়। তিনি জীবনের শেষ প্রান্তে একদিন কাশীপুরে একটি কাগজে লিখে দিলেন "নরেন শিক্ষা দেবে", অর্থাৎ নরেন্দ্র লোকগুরু, যুগগুরু।
স্বামী বিবেকানন্দ ভগিনী নিবেদিতাকে বলেছিলেন, "ওঃ ! মা কালী আর তাঁর লীলা-সকলকে আমি কি ঘৃণাই করতুম ! দু' বছর ধরে আমি ওই নিয়ে ধস্তাধস্তি করেছি, কিছুতে তাঁকে মানব না। কিন্তু শেষে আমাকে মানতেই হল। পরমহংসদেব আমায় তাঁর কাছে উৎসর্গ করেছিলেন, আর এখন আমি বিশ্বাস করি, অতি সামান্য সামান্য কাজেও সেই মা'ই আমাকে চালিয়ে নিয়ে যাচ্ছেন, আমায় নিয়ে যা ইচ্ছা তাই করছেন। আমার তখন অতি দুঃসময়। মা সুবিধা পেলেন। তিনি আমায় গোলাম করে ফেললেন। ঠাকুরের নিজ মুখের কথা, "তুই মায়ের গোলাম হবি"। তিনি আমায় মায়ের হাতে সমর্পণ করে দিলেন।"
ভগবান রামকৃষ্ণদেব নরেন্দ্রনাথের জীবনের উজ্জ্বল চিত্র প্রত্যক্ষ করে বলেছিলেন, "কেশব যেমন একটা শক্তির বিশেষ বৃদ্ধিতে জগদ্বিখ্যাত হয়েছে, নরেন এর ভিতর তেমন আঠারটি শক্তি পূর্ণ মাত্রায় বর্তমান"
সেদিনকার ভারতবর্ষের প্রধান সমস্যা ছিল দারিদ্র্য, অশিক্ষা ও অস্পৃশ্যতা। সমস্ত ভারতের অখণ্ডতা তার এই দারিদ্র্য, অশিক্ষা আর অস্পৃশ্যতা দ্বারাই সেদিন তছনছ হয়েছিল। স্বামী বিবেকানন্দ এই সমস্যাগুলির সেদিন শুধুমাত্র পুঁথিগত জ্ঞান থেকে সন্ধান লাভ করেননি বলেই, এ তাঁর সমস্ত জীবনের ধ্যানদৃষ্টি আচ্ছন্ন করেছিল। সেবাকর্মের সাথে একটি আধ্যাত্মিক দায়িত্ব যুক্ত করে দেবার ফলে এই সেবাকর্ম ঈশ্বরচন্দ্র বিদ্যাসাগরের সেবাকর্মের মত কেবলমাত্র একটি সামাজিক দায়িত্ব পালন মাত্র বোঝাল না, বরং তার পরিবর্তে একটি অবশ্য পালনীয় ধর্মচরণের মধ্যে তা স্থান লাভ করল। বৈদান্তিক সন্ন্যাসীর ব্রহ্মোপাসনা একদিক দিয়ে প্রত্যক্ষ 'নর নারায়ণের' সেবা আর অন্য দিক দিয়ে অপ্রত্যক্ষ ব্রহ্মচিন্তার মধ্য দিয়ে আত্মপ্রকাশ করল। নিজের জীবনে একদিন নরেন্দ্রনাথ দারিদ্র্যের জ্বালা সহ্য করেছিলেন বলেই ভারতের কোটি কোটি মানুষের দারিদ্র্যের চিন্তা তাঁর অন্তর যেভাবে অধিকার করেছিল, আর কোন বিষয় তাঁর হৃদয়ে সেভাবে স্থান লাভ করতে পারেনি। এই ভাবেই তাঁর মনে 'দরিদ্র নারায়ণের' সেবার পরিকল্পনা উদয় হয়েছিল। শ্রীরামকৃষ্ণদেব এ'কথার সারমর্ম সহজ করে বলেছিলেন, "যত জীব, তত শিব"। নরই নারায়ণ। 'নর নারায়ণ'-এর উপলব্ধিই চরম উপলব্ধি। ঈশ্বরকে খুঁজতে বনে জঙ্গলে, গিরিগুহায় বা মন্দিরে যাবার প্রয়োজন নেই। দেহালয়ের দেবালয়ে যে আত্মার অধিষ্ঠান তাই পরমাত্মা। একমাত্র বরণীয়, স্মরণীয় ও পূজনীয়। জীব যদি সত্যি সত্যিই শিব হয় তবে শিব সাধনা তো আসলে জীবের স্বরূপ উপলব্ধিরই সাধনা। তাই স্বামীজী বললেন, "জীবের অন্তর্নিহিত দেবত্বের প্রকাশই ধর্ম"। "বহুরূপে সম্মুখে তোমার, ছাড়ি কোথা খুঁজিছ ঈশ্বর ? জীবে প্রেম করে যেই জন, সেই জন সেবিছে ঈশ্বর"।
তথ্যসূত্র: বিবেকানন্দ স্মারকগ্রন্থ
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शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

' सुन्दरतर मनुष्यों का सुन्दरतर समाज ' [(SVHS-2.6 : स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना > द्वितीय अध्याय : समस्या और समाधान (Problem and Solution )] ( धर्म की अद्भुत परिभाषा _'ধর্ম মানে সার্বিক চরিত্র গড়ে তোলা।'/धर्म का अर्थ है संपूर्ण चरित्र का निर्माण।/ धर्म का अर्थ है पूर्णहृदयवान मनुष्य बन जाना !) ]

  " स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना : SVHS-2.6 "

[द्वितीय अध्याय : समस्या और समाधान ] 

(श्रीबेलपत्र-रूपी नवत्रयी  को अपने हृदय में रखने की आवश्यकता ) 

6.

 "सुन्दरतर मनुष्यों का सुन्दरतर समाज " 
      
अभी [ इस अमृतकाल में आजादी के 75 वर्ष पूरे होने पर]  भारत माता की संतानों का पहला उद्देश्य नया भारत गढ़ना होना चाहिए।  तथा यह समझ लेना चाहिए कि देश को सुन्दर ढंग से गढ़ने के लिये, पहले हमें स्वयं को सुन्दर ढंग से गढ़ लेना होगा। इसके लिए यह जानना आवश्यक है कि अपने जीवन को सुन्दर ढंग से कैसे गढ़ा जाता है ? (अर्थात स्वयं को मृगजल से स्थितप्रज्ञ मनुष्य के रूप में कैसे गढ़ा जाता है?) तत्पश्चात इस प्रयत्न में जुट जाना ही हमलोगों का एकमात्र कर्तव्य है। कोई भी स्वस्थ दिमाग का व्यक्ति इस प्रकार की कल्पना भी नहीं कर सकता कि राष्ट्र-संचालन के लिये प्रशासनिक व्यवस्था (E.D. या C.B.I) की कोई आवश्यकता नहीं है ? या राजननीतिक दलों का कोई प्रयोजन नहीं है, या समाजसेवी संस्थायें  आदि व्यर्थ हैं ! अतः हमलोगों को भी इसी प्रजातान्त्रिक परिवेश में और ऐसी ही सामाजिक संगठनों के बीच अपने कार्य-'बनो और बनाओ ' को करते जाना होगा।
             हमलोग यदि किसी व्याख्यान (गीता 2.54) को ध्यानपूर्वक सुनें तो वक्ता द्वारा कथित बातों से हम भले ही सहमत न हों पर उस विषयवस्तु के बारे में अपनी एक धारणा तो बना ही सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने भी अपने भाषण में कहा है - " यदि मुझे फिर से अपनी शिक्षा आरम्भ करनी हो और उसमें मेरा थोड़ा भी वश चले तो मैं तथ्यों का अध्यन करने से पूर्व मन की एकाग्रता के विषय में शिक्षा ग्रहण करूँगा। उसके बाद संसार में जितने भी विषय हैं, अपनी पसन्द के अनुसार उन सब विषयों  (स्थितधीः और स्थितप्रज्ञ आदि अर्जुन द्वारा पूछे गए 16 प्रश्नों के उत्तर) को जानने की चेष्टा करूँगा।" हम लोग भी यदि 'मन को एकाग्र' कर पढ़ने या सुनने को अपनी आदत बना लें तो बहुत से विषयों को बड़ी सहजता से भली-भाँति सीख सकते हैं।
      स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा [वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में मनःसंयोग/विवेक-प्रयोग /में प्रशिक्षित शिक्षकों का निर्माण करने की विचार-धारा] इस जगत की सर्वश्रेष्ठ विचारधारा है या नहीं, इसे सिद्ध करने के लिये- विभिन्न प्रकार के ढेरों युक्ति-संगत तर्क दिए जा सकते हैं। किन्तु उसी को लेकर यदि हमेशा दूसरों के साथ तर्क-वितर्क करने में ही उलझे रहें, तो उससे कोई लाभ नहीं होगा, और हमलोगों का समय तथा शक्ति व्यर्थ में ही नष्ट होगा।  यदि स्वामीजी की इस बात से सहमत हो जाएँ कि हम लोग अन्य जरुरी बातों को सुनने -समझने की चेष्टा तो करेंगे, किन्तु उससे पहले मनःसंयोग करना अवश्य सीखेंगे, तो हमलोग भी बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं। छात्र लोग यदि रीढ़ की हड्डी सीधी रखकर बैठना तथा सभी बातों को मन लगाकर पढ़ना और सुनना सीख जाएँ तो वे स्कूल में अपनी  पढाई-लिखाई भी बहुत अच्छे ढंग से कर सकेंगे। उसके साथ ही साथ यदि वे मनुष्य-जीवन का उद्देश्य भी जान लें तब तो यह 'सोने पर सुहागा' जैसी बात होगी। 
           कई अच्छे विद्यार्थी स्कूल की पढ़ाई समाप्त करने के बाद जीवन में 'बड़े' बने हैं। किन्तु 'बड़े' बनने का अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि अच्छी नौकरी प्राप्त ली , धन कमा लिया। बल्कि 'बड़े' बनने का अर्थ है सच्चा मनुष्य (स्थितप्रज्ञ?) बनना। इसीलिए हमलोगों को सभी विषयों को ध्यान से सुनने (श्रवण) और सुनी गयी बातों को याद रखने की विधि अर्थात मनःसंयोग सीखना होगा। हम यदि किसी व्याख्यान को मनोयोग पूर्वक नहीं सुनेंगे तो उसमें कौन सी बात अच्छी है, कौन सी बात बुरी है इसका निर्णय नहीं कर पायेंगे। जबकि इसी भले-बुरे के बीच निर्णय कर लेना या विवेकपूर्ण निर्णय ले पाने की क्षमता रखना ही 'मनुष्य' का विशेष गुण है।  
       धर्म की मूल बात है विवेक-प्रयोग ! विवेक का अर्थ होता है, न्याय के मार्ग पर चलना। अच्छा-बुरा, शाश्वत - क्षणभंगुर इसमें अंतर करना।  जैसे सूती कपड़ा के टिकाऊ नहीं होने के कारण आजकल हम लोग टेरीकॉटन का पैन्ट ही अधिक पहनते हैं। क्योंकि प्रत्येक अच्छी वस्तु को हम चिरस्थायी बनाना चाहते हैं। किन्तु यदि हमारे पास सत-असत (अविनाशी और नश्वर ) के बीच बीच अंतर करने वाली बुद्धि (प्रज्ञा)  ही न रहे, तो हम उस सुख को चिरस्थायी नहीं बना सकेंगे। अतः सुख को चिरस्थायी बनाने के लिये मनःसंयोग सीखना आवश्यक है। मनःसंयोग किस प्रकार किया जाता है यह जानने के लिये हमें प्राचीन काल के मनोविज्ञान ' पतंजली योगसूत्र ' या 'अष्टांग योग' के कम से कम पाँच अंगों के सम्बन्ध में विस्तार से समझना होगा।
            किन्तु, आजकल हमलोग हर बात के लिये पश्चिम की तरफ देखना जरुरी समझते हैं। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ' स्वदेश-मन्त्र  ' में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि दूसरों की ही नकल कर या परमुखापेक्षी होकर कोई मनुष्य बड़ा (स्थितप्रज्ञ) नहीं बन सकता है। किन्तु हमलोग लगातार वैसा ही करते आ रहे हैं। स्वाधीनता के पहले तो यह था ही किन्तु, स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी हमलोग दूसरों की नकल करना छोड़ कर और कुछ नहीं कर पाये हैं। प्रश्न उठता है कि हम लोग अभी तक क्यों परमुखापेक्षी बने हुए हैं ? यदि हम उन कारणों का विश्लेषण करें जिसके चलते हम दूसरों की नकल करना नहीं छोड़ पाते, तो यही देखेंगे कि हमलोगों ने अभी तक विवेकवान मनुष्य (स्थितप्रज्ञ मनुष्य) का निर्माण करने के महत्व को नहीं समझा है।  यह बात जितना सत्य है, उतना ही सत्य यह भी है कि हमने अभी तक परानुकरण करना नहीं छोड़ा है।
  स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी हमलोगों की सरकार वोट, पार्लियामेन्ट सिस्टम, संविधान, विकास  परिकल्पना आदि सभी बातों में केवल परानुकरण ही किया है। ऐसा इसीलिये किया कि हमलोगों में आत्मविश्वास नहीं है ! इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने हमलोगों से बार बार कहा था- " पहले तुम लोग आत्मविश्वासी मनुष्य बनो ! उसके बाद सबकुछ अपने आप प्राप्त हो जायेगा।
 वे कहते हैं- " कोई व्यक्ति या राष्ट्र जिस दीन से स्वयं को घृणा करना आरम्भ कर देता है, उसी दीन से उसकी मृत्यु प्रारंभ हो जाती है।' स्वाधीनता के बाद से हमलोग बार बार यही दुहराते आये हैं,कि हमलोग दुर्बल हैं, हमारा कोई अतीत नहीं है, हमारा कोई भविष्य नहीं है। इसी बात को सदियों से सुनते आये हैं, इसको सही मानने लगे हैं, स्वयं को सिखाते आये हैं, दूसरों को भी यही सिखाते आ रहे हैं। जब छात्र पहली बार विद्यालय आता है तो वह सुनता है कि उसके पिता  पागल हैं! क्योंकि वे सादगी से रहते हैं तथा ईमानदारी से जीवन व्यतीत करते हैं। वहाँ सिखाया जाता है, कि ईमानदारी से जीने का कोई अर्थ ही नहीं है। चाहे जैसे भी धन कमाओ और ऐशो-आराम से जिन्दगी व्यतीत करो। जाने-अनजाने छात्रों के सामने इसी प्रकार का आदर्श रखा जा रहा है, और यही विचारधारा सर्वत्र फैलती जा रही है। 
           यदि आज की परिस्थितियों का गहराई से विश्लेष्ण किया जाय तो हम पायेंगे कि सारा देश लोभ, इन्द्रियपरायणता, व्यक्तिगत स्वार्थ या दलगतस्वार्थ के उपर जरूरत से ज्यादा ध्यान दे रहा है। देश के स्वार्थ या साधारण जनता के स्वार्थ की ओर थोडा भी ध्यान नहीं दे रहा है। फिर देश का भला कैसे होगा ? यदि हम सम्पूर्ण देश का भला करना चाहते हों,उच्चतर स्तर की समाज-सेवा करना चाहते हों, तो इसके लिये हमें प्रारम्भ से ही मनःसंयोग एवं विवेकपूर्वक निर्णय करने की विधि सीखनी होगी। क्या हमलोगों के पास अपना सिद्धान्त और नीति नहीं होनी चाहिए? किन्तु, किसी के पास स्वतन्त्र रूप से चिन्तन करने का समय ही नहीं है, इसलिए हम केवल दूसरों की ही नकल कर रहे हैं, और परमुखापेक्षी होकर बैठे हुए हैं। इसीलिये हमारा 
सर्वांगीण विकास नहीं हो पा रहा है। हम सभी यदि मनःसंयोग का अभ्यास करें तो किसी भी समस्या या विषय के उपर मन को एकाग्र कर विचार-विश्लेष्ण द्वारा विवेकपूर्ण निर्णय लेकर सभी प्रकार समस्याओं के समाधान स्वयं कर सकते हैं। स्कूल में पढ़ते समय हम यह जानते हैं कि पुस्तकों में सब कुछ लिखा हुआ है किन्तु, हम यह भी जानते हैं कि जो तथ्य पुस्तक में लिखे हुए हैं उन तथ्यों को अपने चित्त में सँजो लेने की आवश्यकता है। 
              हमलोग जो कुछ पढ़ते हैं या सुनते हैं, उनमें से यदि  सार -असार को अलग कर लिया जाय तो उन लेखों और व्याख्यानों की बातें हमें अपने निर्णय जैसी प्रतीत होंगी। जैसे विभिन्न वक्ता यहाँ आकर स्वामीजी के संदेशों और  विचारों के उपर कई व्याख्यान दिये और चले गये। जब तक हम उन  विचारों का तार्किक विश्लेष्ण (logical analysis) कर उन्हें अपने सिद्धान्त के रूप में अपना नहीं लेते , या आत्मसात नहीं कर लेते तब तक वह स्वामीजी, वक्ता विशेष, या महामण्डल के विचार बने रहेंगे। और उन व्याख्यानों को सुनने से कोई लाभ नहीं होगा।
         स्वामीजी ने वर्तमान समाज को सुन्दर रूप से गठित करने के लिये जिस पद्धति या उपाय की बात की है वह श्रेष्ठ या सर्वोपरी इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि वे पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने अपने कार्यों को  'इहलौकिक और पारलौकिक ' कहकर दो भागों में विभक्त नहीं किया था। 
जबकि हमलोगों के सभी कार्य दो प्रकार के होते हैं- एक लौकिक (secular) और दूसरा पवित्र या धार्मिक (sacred)। जो व्यक्ति केवल सांसारिक जीवन के प्रति ध्यान केन्द्रित रखते हैं वे अपने सांसारिक जीवन को ही सुन्दर बनाने का प्रयत्न करते रहते हैं। सांसारिक जीवन को सुन्दर  बनाने के लिये अलग ढंग का परिश्रम करना होता है। जबकि जो लोग धर्म में विश्वास करते हैं वे वैसे कार्यों का चयन कर लेते हैं, जिन्हें वे धार्मिक समझते हैं। या फिर जो लोग जो धर्म में विश्वास नहीं करते हैं  वे भी अपने लिये कुछ अलग ढंग के कार्य (जैसे मरने के बाद बॉडी या आँखों को दान करना ) नियत कर लेते हैं। (वे नहीं जानते कि इससे भी पूण्य कर्म बाँधेगा। ) 
     >>>धर्म की अद्भुत परिभाषा :

किन्तु, स्वामी विवेकानन्द ही वह प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्हों ने यह कहा कि -" भारत का कार्य तो बस एक ही है- और वह है, वैश्विक कल्याण या लोकहित। लोक-हित के अतिरिक्त अन्य कोई कर्म वास्तव में कर्म है ही नहीं। हमारे (भारत के) सभी कर्मों का एक ही उद्देश्य रहना चाहिए-  लोकहित !" यह केवल स्वामी विवेकानन्द का ही विचार हो, ऐसा भी नहीं है- वेदों में भी यही कहा गया है- यह हमलोगों का शाश्वत सिद्धान्त है, यही 'सनातन धर्म' है ! महाभारत में कहा गया है -
सर्वेषां यः सुहृनित्यं सर्वेषां च हिते रताः ।
कर्मणा मनसा वाचा स धर्म वेद जाजले ॥

-अर्थात हे जाजले ! धर्म को केवल उसने ही जाना है, कि जो कर्म से , मन से और वाणी से सबका हित (अपने-पराये का भेद देखे बिना) करने में लगा हुआ है और सभी का हिताकांक्षी है।
               नींद में,सपने में, सोते-जागते, सभी अवस्थाओं में सभी कर्म प्रयासों में हमलोगों का एकमात्र कर्तव्य यही है। स्वामीजी स्वयं इसी प्रकार के मनुष्य थे और अपेक्षा करते थे कि सभी तरुण एक दिन इसी प्रकार के मनुष्य बनेंगे। यदि ऐसा ही आदर्श किसी अन्य महापुरुष का भी है तो हमलोग उनको भी श्रद्धा के साथ वरण करेंगे तथा उनके उपदेशों को कार्यान्वित करने की चेष्टा भी करेंगे। किन्तु, हमलोगों की दृष्टि जहाँ तक जाती है वहाँ, दूर-दूर तक स्वामी विवेकानन्द के अतिरिक्त अन्य किसी मनुष्य ने अपने जीवन के समस्त कर्मों का एकमात्र उद्देश्य 'लोकहित ' कभी नहीं बनाया है। 

       इस प्राचीन देश भारत में हमारे पूर्वज अपने विचारों और  दिनचर्या में ऐसे ही धर्म का पालन और चर्चा करते थे।  किन्तु समय के प्रवाह में वह नष्ट हो गया था। जिसके फलस्वरूप यहाँ भी लौकिक और परलौकिक दो अलग-अलग धर्म हो गये। इस विषय पर स्वामी जी कहते हैं - " हमारे देश में जो 'वेदान्तीक साम्यवाद ' था (सम्पूर्ण मानव-जाती को अपना कुटुंब समझने का भाव था) वह बाद में शायद व्यक्तिगत स्वार्थ के अत्यधिक बढ़ जाने के कारण  अलग-अलग धर्म में परिणत हो गया।

हमलोगों के देश में ब्राह्मण, क्षत्रिय इत्यादि नाम से गुण के अनुसार कर्मों का जो बँटवारा किया गया था (वर्णाश्रम धर्म था), उसमें से प्रत्येक ने दूसरों के अधिकार को कम करके अपने अपने समूह के अधिकार को प्रधानता देने का प्रयत्न किया है। इसीलिये अब हमलोगों के देश में जो साम्य आएगा वह ' केवल पढ़े जाने वाले वेदान्त ' से नहीं बल्कि वेदान्त के उसी प्राचीन स्वरुप को जीवन में धारण करने से आयेगा !"  हम स्वामी जी कथित जितने भी संदेशों का उल्लेख करते हैं, वे सभी - महावाक्य हैं ! अर्थात वेदान्त के ही वचन हैं। किन्तु ,हम इस बात को भूल गये थे कि वेदान्त का ऐसा सुन्दर स्वरुप कभी रहा होगा, कभी इसके अन्दर ज्ञान की ऐसी अद्भुत ज्ञान  की ज्योति रही होगी ! 
                    विशाल बुद्धि व्यासदेव ने वेदान्त के जिन समस्त सिद्धान्तों को एकत्र करके जिस वेदान्त सूत्र की रचना की थी, वे  सूत्र सम्पूर्ण मानव जाति को मोहनिद्रा से जगा सकते हैं। वेदों के जो चार महावाक्य मनुष्य को पुनरुज्जीवित कर सकते हैं, उसे वीर बना सकते हैं  [अभीः -निर्भय] बना सकते हैं, वह सब, यहाँ तक कि उसके शंकर -भाष्य को भी हमलोग  लगभग भूल ही चुके थे। धरती का प्रत्येक मनुष्य प्रत्येक दूसरे मनुष्य के लिये सहानुभूति का अनुभव करेगा, इतना ही नहीं आवश्यकता पड़ने पर दूसरों के दुःख को दूर करने के लिये अपने जीवन तक को न्योछावर कर देगा- ये सारे वेदान्ती-सिद्धान्त बाद में इसके अनेक प्रकार की भाष्यों के बाढ़ (बाहुल्य) में डूब गये थे। जिसके फलस्वरूप हमारे राष्ट्र का पतन हो गया था। और इसी का लाभ उठाकर विदेशियों ने हमें हजार वर्षों तक गुलाम बनाये रखा। समय के प्रवाह में जाती-धर्म आधारित भेदभाव की उत्पत्ति हुई, हम भारतीय आपस में लड़ने-झगड़ने लगे और मारा-मारी पर उतर कर अपना ही नुकसान करने लगे।
              यदि हम यह सब बन्द करना चाहते हों तो हमें स्वामी विवेकानन्द, श्री रामकृष्ण के पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए आना ही पड़ेगा। [या महामण्डल की सतयुग स्थापनकारी "Be and Make -चरैवेति,चरैवेति C-IN-C 'लीडरशिप ट्रेनिंग ' परम्परा में 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण ग्रहण करने के लिये आना ही पड़ेगा।] ठाकुर श्रीरामकृष्णदेव कहा करते थे- " बंधे हुए या गतिहीन जल में काई जम जाती है, किन्तु बहती हुई नदी या झरने का पानी जिसमें स्रोत है, उसमें कभी काई नहीं जमता।" हमारे वर्तमान सामाजिक जीवन में प्राण का (जीवन का)  उत्स नहीं है, इसीलिये इतनी दलबन्दी (गुटबाजी ) हो रही है। उसमें जीवन का स्रोत, प्राण का उत्स लाने के लिये क्या करना होगा ? बस इतना ही, कि हमलोगों को 'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा ' को ग्रहण करना होगा। क्योंकि उनकी भावधारा- हिन्दू, मुसलमान, बौद्ध, जैन, क्रिश्चियन, सिख सबों के लिये है, यहाँ तक कि जो कहते हैं, मैं धर्म को नहीं मानता-उन नास्तिकों के लिये भी है। ऐसे अद्भुत 'प्राणप्रद वचन' (श्रीरामकृष्ण वचनामृत) और कहीं नहीं है। एवं वेदान्त के समस्त अद्भुत सिद्धान्तों को (महावाक्यों को) श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द ने अपने जीवन में, व्यवहार करके भी दिखला दिया है !
              स्वामीजी के विचार में तथा वेदान्त मत से भी समाज में किसी को विशेषाधिकार पाने का कोई अधिकार नहीं है। किन्तु विशेषाधिकार के बल पर ही ब्राह्मणों ने वेदान्त की गलत व्याख्या कर दी, जिसके फलस्वरूप वेदान्त में जो शक्ति है, बलप्रद सन्देश है, उसे हमने व्यक्तिगत जीवन और राष्ट्रिय-जीवन से बाहर कर दिया इसीलिये अब स्वयं को उन्नत करने के लिये वेदान्त के अमृत तुल्य सिद्धान्तों (4 -महावाक्यों आदि) को दूसरों को केवल रटकर सुना देने से ही काम नहीं चलेगा; उसकी उचित व्याख्या भी करनी होगी और उन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर अपने जीवन को गढ़ कर, उदाहरण-स्वरुप बना कर तरुणों के समक्ष प्रस्तुत भी करना होगा
       उपनिषद युग के बाद, श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द के जीवन के अतिरिक्त इस प्रकार का जीवन्त वेदान्त अन्य कहीं देखने को नहीं मिलता है। इसीलिये श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द-माँ सारदा के बेलपत्र रूपी नवत्रयी को अपने हृदय में रखने की आवश्यकता है। आज हमारे व्यक्तिगत और राष्ट्रिय जीवन में जितनी भी समस्याएं दिखाई दे रही हैं, उनको दूर करने के लिये इस त्रयी को अपने शीश पर चढ़ाने अर्थात उनकी शिक्षाओं का अनुसरण करने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। धर्म या आध्यात्मिकता का अर्थ मन्दिर, मस्जिद, फूल-बेलपत्र ही नहीं है- स्वामीजी ने कभी इसको धर्म नहीं कहा है। "धर्म का अर्थ है, अपना और राष्ट्रिय-चरित्र का निर्माण करना" -(धर्म का अर्थ है संपूर्ण हृदय वाला मनुष्य बनना।) कितनी अद्भुत धर्म की परिभाषा है ! 
["धर्म का अर्थ है पूर्णहृदयवान मनुष्य बन जाना ! -Religion means becoming a whole-hearted human being. "ধর্ম বা আধ্যাত্মিকতা মানে মন্দির, মসজিদ , ফুল-বেলপাতাই নয় -স্বামীজী একে ধর্ম বলেননি। ধর্ম মানে সার্বিক চরিত্র গড়ে তোলা। কি অদ্ভুত কথা।" (आमादेर सम्भावना नया का पेज 57) Religion or spirituality does not mean temples, mosques, or flowers - Swamiji did not call it religion. Dharma means building a whole character. what a strange thing.   श्रीरामकृष्ण का चरित्र धर्म की इसी परिभाषा पर गठित है   
         श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में बोलते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, श्रीरामकृष्ण का चरित्र ही एकमात्र आदर्श पूर्ण-मानव के रूप में गठित सार्वभौमिक चरित्र है, और इस युग के प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह श्रीरामकृष्ण का अनुसरण करके अपना चरित्र गठित कर ले। इस प्रकार के चरित्रवान मनुष्य जब देश में अधिक संख्या में निर्मित कर लिये जायेंगे, तभी देश की उन्नति हो सकती है। वैसा नहीं होने तक देश के उन्नति की कोई सम्भावना नहीं है। उन्नति का अर्थ केवल अध्यात्मिक उन्नति ही नहीं है बल्कि आर्थिक उन्नति से लेकर, हर पहलु से उन्नति शामिल है।" 
            हमलोग निरन्तर अद्द्योगिक क्षेत्र में में उन्नति के आँकड़े गिनाते रहते हैं किन्तु, कुछ दिनों पूर्व बंगाल से प्रकशित होने वाले समाचार-पत्र 'अमृत-बाजार पत्रिका' में एक अवकाश प्राप्त सेना अधिकारी द्वारा लिखित  " Industrial Decline in West Bengal " शीर्षक एक लेख छपा था। इस लेख में लेखक ने पश्चिम बंगाल के उद्द्योग जगत की बिगड़ती हुई स्थिति के कारणों को किसी भी दल की चापलूसी किये बिना स्पष्ट रूप से हमलोगों के विचारार्थ - इस प्रकार रख दिया था -"देश को उन्नत बनाने के लिए औद्द्योगिक उत्पादन में भी वृद्धि करनी आवश्यक है, इसीलिये उद्द्योग जगत का भी अपना एक महत्व है। किन्तु, बहुत से लोग सोचते हैं कि केवल उद्द्योगों के विकास से ही देश भी विकसित हो जायेगा, फिर कुछ लोग ऐसी सोच को बहुत बड़ी गलती मानते हैं। जो भी हो, देश को उन्नत बनाने के लिये अन्य कई चीजों के साथ औद्द्योगिक विकास भी आवश्यक है।"  लेखक निष्पक्ष भाव से  लिखते हैं -"भारत में उद्द्योग के क्षेत्र में पहले बंगाल जहाँ प्रथम स्थान पर था, वहीं आज वह  निचले पायदान पर चला गया है। इस लेख के अन्त में अवकाश प्राप्त सैन्य अधिकारी (लेखक) कहते हैं, " हमलोगों का देश एक अध्यात्मिक देश है, यहाँ मनुष्यत्व को बहुत ऊँचा स्थान दिया जाता है तथा हमारे ही राज्य में एक ऐसे महामानव ने जन्म ग्रहण किया था जिन्होंने मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा को सम्पूर्ण देश में प्रसारित करने कि योजना बनाई थी। किन्तु हमलोग अभी तक उनकी योजना को क्रियान्वित नहीं कर सके हैं, इसीलिये आज औद्द्योगिक क्षेत्र में भी हमलोगों को ऐसी अवनति हुई है। अतः नया भारत गढ़ने के लिये हमलोगों को स्वामी विवेकानन्द के पास आना ही पड़ेगा।
               स्वामी विवेकानन्द का अर्थ स्वर्ग से उतरा कोई देवता नहीं है। स्वामी विवेकानन्द एक ऐसे मनुष्य का नाम है, जिनको यह पता ही नहीं था कि भय किस चिड़िया का नाम है ? वे एक ऐसे मनुष्य थे जिसने अपना सब कुछ त्याग दिया था तथा दूसरों की सेवा में अपना जीवन  न्योछावर/समर्पित कर दिया था। वे एक ऐसे 'Hero' थे जो ब्रह्म को जानते थे और 'ब्रह्म में ही अध्यस्त' इस जगत को भी जानते थे- अर्थात माया से होकर आने के कारण ब्रह्म ही जगत के रूप में भास रहा है। इसलिए देश के स्कूल-कॉलेजों में, खेत-खलिहानों में, कारखानों में, अर्थात जीवन के सभी क्षेत्रों में स्वामी विवेकानन्द जैसे Hero की आवश्यकता है। और आज भी  स्वामी विवेकानन्द, रामकृष्ण या नेताजी बनना सम्भव है - इसी बात को भावी पीढ़ी के युवाओं को सुनाने में समर्थ चिरयुवा नेता की आवश्यकता है। स्वामीजी एक स्थान पर कहते हैं, तुमलोग कभी-कभी पीछे मुड़ कर अपने प्राचीन-गौरवमय अतीत को भी देखो। स्वामीजी हर समय कहते हैं, " आगे बढ़ो, आगे बढ़ो ! पीछे मुड़ कर यह मत देखो कि कौन गिरा।" किन्तु दूसरे स्थान पर कहते हैं " यात्रा का प्रारंभ करने से पहले एक बार पीछे मुड़ कर देखना भी जरुरी है।" क्योंकि तुम्हारे पीछे एक मूल्यवान सांस्कृतिक विरासत है, वह इतना महा मूल्यवान है कि यदि तुम उससे आलोक ग्रहण नहीं करोगे तो मार्ग पर चलते समय अपने को दुर्बल महसूस करोगे!  ठगों का गिरोह (पाँच विषय) तुम्हारे दुर्बल शरीर को लाठी से पीट कर घायल कर देंगे, और तुम स्वयं को विकास के पथ पर आगे नहीं ले जा सकोगे और राष्ट्र को भी सही नेतृत्व नहीं दे सकोगे। आज हमारी  ऐसी अवस्था हो गयी है मानो हमारी बुद्धि के घर में ही ताला जड़ दिया गया हो। हमारे पास भी बुद्धि-विवेक सब कुछ है , किन्तु हम लोग या तो इसे जानते नहीं या इसे स्वीकार नहीं करते।  इसीलिये (रागा जैसा) बार- बार विदेश जाकर हमें बुद्धि भी उधार में लेनी पडती है! 
      स्वामी विवेकानन्द चाहते थे कि हमलोग इस खोये हुए आत्मविश्वास को जाग्रत करें। इस आत्मविश्वास को जाग्रत करने से हमलोग अच्छे डाक्टर बन सकेंगे, अच्छे इंजीनियर बन सकेंगे, चाहे जो भी कुछ क्यों न करें, अच्छी आमदनी कर सकेंगे और 'मनुष्य' कहलाने योग्य मनुष्य भी बन सकेंगे। और उसी के साथ देश को भी उन्नत बना सकेंगे, हमलोगों के देश की राजनीती भी परिवर्तित हो जायेगी।
               अभी हमारी राजनीती केवल सरकारें बदल सकती है। किन्तु इससे कोई कल्याण नहीं होने वाला है। सरकारों के बदल जाने से व्यवस्था नहीं बदल जाती। बन्दूक की नाल से सब कुछ प्राप्त नहीं हो सकता है क्योंकि अंततः मनुष्य ही व्यवस्था चलता है, बन्दूक का नाल भी मनुष्य ही तैयार करता है, और सरकार, कानून, पार्लियामेन्ट, राजनितिक दल, उद्द्योग-वाणिज्य, सब कुछ मनुष्य ही बनाता है। 
किन्तु कोई भी पदार्थ ' मनुष्य ' का निर्माण नहीं कर सकता। देश में सामाजिक, आर्थिक, हर प्रकार का विकास होना चाहिए।  किन्तु, ऐसा क्यों है कि धनी और अधिक धनवान बनते जा रहे हैं, और गरीब और अधिक गरीब होते जा रहे हैं ? कारण है असाम्य ! वेदान्तिक साम्य  का सिद्धान्त पुस्तकों (गीता और उपनिषदों ) में तो हैं, किन्तु हमने अभी तक उसे कार्य में नहीं उतारा है।
            एक शोध में पाया गया है कि ईसामसीह के जन्म से पाँच हजार वर्ष पूर्व इस देश में जो मूल्य-सूचकांक था उसके अनुसार एक दिहाड़ी मजदूर अपने भोजन में होने वाले खर्च का आधी  ही कमाई कर पाता था। और यदि आज के मूल्य-सूचकांक को देखें तो आज भी ठीक वही स्थिति बनी हुई है। कोई दिहाड़ी-मजदूर आज भी अपनी आवश्यकता भर खाद्यान्न अपनी दिहाड़ी की मजदूरी से नहीं खरीद सकता। परिवर्तन केवल रूपये की संख्या [डॉलर या सोना -रुपया सम्बन्ध]  में हुआ है अन्य किसी चीज में नहीं।  इसीलिये स्वामीजी को कहना पड़ा था कि " समस्त संसार में आज भी सभ्यता कहीं नहीं आ सकी है। " यही कारण है की आज भी यही स्थिति बनी हुई है। हम आज भी भीतर से असभ्य-बर्बर ही बने हुए हैं, किन्तु विभिन्न प्रकार के पोशाक पहन कर देश-विदेश में कई प्रकार से लोगों को झांसा देकर प्रभावित करते आ रहे हैं। तो फिर सभ्यता कहाँ है? उसे  खोजने के लिये हमें अपने भीतर झाँक कर देखना होगा। 
मनुष्य को पुर्णतः स्वार्थहीन और प्रेमी बनना होगा। सभी को समान रूप से प्रेम करना होगा । सभी को यथार्थ मनुष्य बनाने के लिए हमें क्या करना होगा ? इस बात को हमें मनःसंयोग की सहायता से जानना होगा, और स्वामीजी के सन्देश इन्हीं सब विचारों के विशाल भण्डार हैं। वहाँ से उच्च विचारों को ढूँढ -ढूँढ कर  उनकी सहायता से अपना और देश का नव-निर्माण करना होगा।  
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>>>हमें बुद्धि और प्रज्ञा का फर्क समझना होगा।  अंग्रेजी में दो शब्द हैं - इंटेलेक्ट (intelligence) और इंटेलीजेंस (wisdom.)। हिंदी में इंटेलेक्ट को बुद्धि और इंटेलीजेंस को प्रज्ञा के रूप में समझ सकते हैं। अधिकांश लोग यह समझ ही नहीं पाते कि कहां बुद्धि का दायरा खत्म होता है और कहां से प्रज्ञा का आयाम शुरू होता है। 

ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा ।। समाधिपाद : 48 ।।

शब्दार्थ :- तत्र, ( उस अध्यात्म प्रसाद के प्राप्त होने पर ) प्रज्ञा, ( साधक की बुद्धि ) ऋतम्भरा, ( केवल सत्य को ही ग्रहण करने वाली होती है । )
सूत्रार्थ :-  अध्यात्मप्रसाद का लाभ प्राप्त होने पर साधक की बुद्धि केवल सत्य को जानने वाली हो जाती है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में अध्यात्मप्रसाद को प्राप्त करने के बाद साधक की क्या स्थिति होती है ? इसका वर्णन किया गया है । अध्यात्मप्रसाद से साधक समाहित चित्त वाला बन जाता है । उस समाहित चित्त की में भी निपुणता होने पर उत्कृष्ट बुद्धि की प्राप्ति होती है । उस उत्कृष्ट बुद्धि को ही ऋतम्भरा कहा गया है ।
ऋतम्भरा बुद्धि वह होती है जो केवल सत्य को ही ग्रहण करती है । उसमें असत्य या विपरीत ज्ञान का लेश मात्र भी अंश नही होता है ।
सामान्य जीवन में व्यक्ति की बुद्धि असत्य ज्ञान को भी ग्रहण करती रहती है । जिससे वह अविद्या आदि क्लेशों में उलझा जाता है । कलेशों के कारण वह अनावश्यक अर्थात निषेध कार्यों को करता रहता है ।
लेकिन जैसे ही साधक को अध्यात्मप्रसाद की प्राप्ति होती है वैसे ही उसकी बुद्धि केवल और केवल सत्य को ही ग्रहण करने वाली बन जाती है । और सभी कलेशों का नाश हो जाता है । ऋतम्भरा प्रज्ञा के प्राप्त होने से साधक को अपने वास्तविक स्वरूप की जानकारी/स्मृति सदा बनी रहती है । जिससे वह आत्मा, चित्त, मन, शरीर व इन्द्रियों के विषयों का आत्मसात कर लेता है ।
यह ऋतम्भरा प्रज्ञा ही साधक की मुक्ति का साधन बनती है

लेकिन आज की शिक्षा व्यवस्था यही बताती है कि आप जो कुछ भी जानते हैं, उसका खूब इस्तेमाल कीजिए और खुद को और धरती को तबाह कर दीजिए। कोई आपको इस पर ध्यान देने के लिए नहीं कह रहा कि यह चाकू कैसे बना है, कैसे हम इसका इस्तेमाल कर सकते हैं और कैसे नहीं। इस दिशा में अभी तक काम नहीं हुआ है। तो इंसान अपनी  बुद्धि के चलते तकलीफ पा रहा है। बुद्धि ही है जो इस धरती पर विचरने वाले दूसरे जीवों से हमें अलग करती है और हमारे लिए एक उपहार है। लेकिन अफसोस की बात कि यही चीज हमारे दुखों का मूल बनती है। फिलहाल यह बुद्धि हमारे लिए इतनी अधिक पीड़ा व मुश्किलों का कारण इसलिए बनी हुई है, क्योंकि आप बुद्धि रूपी चाकू को गलत छोर से पकड़े हुए हैं। भारत में एक परंपरा है कि जब आप किसी को चाकू दें तो उसे एक खास तरीके से देते हैं। नहीं तो आप दूसरे को घायल कर देंगे।इसी से जुड़ी स्वामी विवेकानंद के जीवन की रोचक घटना : "  रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के बाद विवेकानंद ने उनके संदेश व शिक्षाओं को फैलाने के लिए अमेरिका जाने का फैसला किया। उन दिनों समुद्र पार कर किसी दूसरे देश जाना किसी दूसरे ग्रह पर जाने जैसा था। अगर आप भाप से चलने वाले पानी के जहाज से तीन महीने की यात्रा पर जाएं तो यह कहना मुश्किल था कि आप वापस लौटेंगे भी या नहीं। तो वे जाने से पहले परमहंस की पत्नी शारदा देवी से आशीर्वाद लेने पहुँचे। जब वह उनके पास पहुंचे और उन्होंने अपनी इच्छा उन्हें बताई तो उस वक्त वह कुछ काम कर रही थीं। शारदा देवी ने बिना सिर उठाए उनकी बातें सुनी। विवेकानंद ने कहा, ‘मैं पश्चिमी देशों में जाकर अपने गुरु की शिक्षाओं को फैलाना चाहता हूं। क्या मैं जा सकता हूं?’ अपने काम में व्यस्त, बिना अपना सिर उठाए उन्होंने विवेकानंद से कहा, ‘नरेन क्या तुम मुझे वह चाकू दे सकते हो?’ नरेन ने चाकू उठाया और गुरु मां को दे दिया। चूंकि नरेन एक खास तरीके के व्यक्ति थे, इसलिए उन्होंने एक खास तरीके से वह चाकू उन्हें दिया। नरेन ने चाकू के धार वाले सिरे को हाथ में पकडक़र मां को चाकू का हत्था पकडऩे को दिया। मां ने चाकू ले लिया और उसे एक तरफ रख दिया और बोली, ‘तुम जा सकते हो।’ तब नरेन ने इस बात पर गौर किया और फिर उन्होंने उनसे पूछा, ‘आपने मुझसे चाकू क्यों मांगा? आपको तो सब्जी काटनी नहीं थीं। जो भी काटना था, वह सब पहले ही बर्तन में कटा रखा हुआ है। फिर आपने चाकू क्यों मांगा?’ गुरु मां ने कहा, ‘मैं यह देखना चाहती थी कि तुम चाकू कैसे पकड़ाते हो। तुम अपने गुरु की शिक्षाओं को फैलाने के लिए जा सकते हो।’
[माँ काली-श्रीरामकृष्ण परम्परा में भावमुख रहने का चपरास प्राप्त गुरु श्रीरामकृष्ण -माँ सारदा वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में-'नरेन् शिक्षा देगा ' का चपरास प्राप्त शिष्य-स्वामी विवेकानन्द, क्योंकि नरेन् चाकू पकड़ाना जानता था ! को अपने हृदय में रखने की आवश्यकता है। और इसीकारण विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर Be and Make '-चरैवेति ,चरैवेति' लीडरशिप परम्परा में C-IN-C का चपरास प्राप्त नवनीदा द्वारा स्थापित महामण्डल आंदोलन-के Dy C-IN-C, बिरेन दा, दीपक दा ....आदि को "मोने कोरबी तुमि एक जन शिक्षक !" को निरंतर अपने हृदय में रखने की आवश्यकता है।और आज भी 'गुरु-शिष्य वेदान्त 'C-IN-C' Be and Make परम्परा' में स्वामी विवेकानन्द, रामकृष्ण या नेताजी जैसा  Hero अर्थात स्थितप्रज्ञ बनना सम्भव है; इसी बात को सबको सुनाने और अपने जीवन के द्वारा दिखा देने में समर्थ युवा नेता (C-IN-C नवनीदा जैसे चिरयुवा नेता) की आवश्यकता हमें है ।],


   [श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में मनुष्य बनने के लिए मनःसंयोग के प्रशिक्षण को प्रमुखता प्राप्त है।अथवा महामण्डल की "Be and Make:चरैवेति, चरैवेति" C-IN-C Leadership Training परम्परा में 'नेता' को 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण को प्रमुखता प्राप्त है।] 
>>>श्रीरामकृष्ण का चरित्र ही अनुकरणीय है !  मेरे गुरुदेव किसी को ढूंढने नहीं गये। उनका सिद्धान्त यह था कि मनुष्य को प्रथम चरित्रवान होना चाहिए तथा आत्मज्ञान प्रप्त करना चाहिए और उसके बाद फल स्वयं ही मिल जाता है। जब कमल खिलता है तो मधुमक्खियाँ स्वयं ही उसके पास मधु लेने के लिए आ जाति हैं। अतः प्रथम हमें चरित्रवान होना चाहिए और यही सबसे बड़ा कर्तव्य है, जो हमारे सामने है। ''7/260 "मेरे गुरुदेव का मानव जाति के लिए यह सन्देश है कि ' प्रथम स्वयं धार्मिक बनो और सत्य की उपलब्धी करो। तुम अपने भ्रातृ-स्वरुप मानव जाति के कल्याण के लिए सर्वस्व त्याग दो ! भ्रातृ-प्रेम के विषय में बातचीत बिल्कुल न करो, वरन अपने शब्दों को सिद्ध करके दिखाओ। अपने जीवन द्वारा यह दिखा दो कि धर्म का अर्थ न तो शब्द होता है, न नाम और न सम्प्रदाय, वरन इसका अर्थ होता है आध्यात्मिक अनुभूति। जिन्हें अनुभव हुआ है, वे ही इसे समझ सकते हैं। जिन्होंने धर्मलाभ कर लिया है, वे ही दूसरों में धर्मभाव संचारित कर सकते हैं, वे ही मनुष्य जाति के श्रेष्ठ आचार्य हो सकते हैं-केवल वे ही ज्योति कि शक्ति हैं।' जिस देश में ऐसे मनुष्य जितने ही अधिक पैदा होंगे, वह देश उतनी ही उन्नत अवस्था को पहुँच जायेगा और जिस देश में ऐसे मनुष्य बिल्कुल नहीं हैं, वह नष्ट हो जायेगा-वह किसी प्रकार नहीं बच सकता. " ७/२६७] 
 
[जबकि दूसरों के पापाजी या डैडीजी की उपरी इनकम बहुत है, इसलिए वे बड़े ठाट-बाट से रहते हैं इसीलिये कहा जाता है, तुम्हारे पिता इतनी बड़े पद पर रहकर भी कुछ नहीं बनाये, इसलिए एकदम पागल हैं।स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, "जो व्यक्ति दिन-रात अपने को दीन-हीन या अयोग्य समझे हुए बैठा रहेगा, उसके द्वारा कुछ भी नहीं हो सकता। वास्तव में अगर दिन-रात वह अपने को दीन,नीच एव, 'कुछ नहीं' समझता है तो वह 'कुछ नहीं' ही बन जाता है। हम तो उसी सर्व शक्तिमान परम पिता की सन्तान हैं, उसी अनन्त ब्रह्माग्नि की चिनगारियाँ हैं, -भला हम 'कुछ नहीं' क्योंकर हो सकते हैं ? हम सब कुछ हैं, सब कुछ कर सकते हैं, और मनुष्य को सब कुछ करना ही होगा, हमारे पूर्वजों में ऐसा ही दृढ़ आत्मविश्वास था। इसी आत्मविश्वास रूपी प्रेरणा-शक्ति ने उन्हें सभ्यता की उच्च से उच्चतर सीढ़ी पर चढ़ाया था;और जिस दिन हमारे पूर्वजों ने अपना यह आत्मविश्वास गँवाया, उसी दिन से हमारी यह अवनति, यह दुरवस्था आरम्भ हो गयी। आत्मविश्वास-हीनता का मतलब है ईश्वर में अविश्वास. " ५/२६७]
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥
अर्थात धर्म के सार को सुनों और सुनकर हृदयंगम कर लो । वह क्या है ? वह इतना ही है कि जो अपनी आत्मा के प्रतिकूल हो , वैसा आचरण दूसरों के साथ न करें । " यही है-यूनिवर्सल रिलिजन या 'वैश्विक धर्म' या सभी मनुष्यों का धर्म !  
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[Naipaul passed judgment that "Bengal was the economic and intellectual leader of India till it discovered Marxism. It discovered Marxism and like poor Russia in 1917, committed suicide. The economic lead of Bengal has vanished and so has the cultural lead.] 
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