" स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना : SVHS-2.6 "
[द्वितीय अध्याय : समस्या और समाधान ]
(श्रीबेलपत्र-रूपी नवत्रयी को अपने हृदय में रखने की आवश्यकता )
6.
"सुन्दरतर मनुष्यों का सुन्दरतर समाज "
अभी [ इस अमृतकाल में आजादी के 75 वर्ष पूरे होने पर] भारत माता की संतानों का पहला उद्देश्य नया भारत गढ़ना होना चाहिए। तथा यह समझ लेना चाहिए कि देश को सुन्दर ढंग से गढ़ने के लिये, पहले हमें स्वयं को सुन्दर ढंग से गढ़ लेना होगा। इसके लिए यह जानना आवश्यक है कि अपने जीवन को सुन्दर ढंग से कैसे गढ़ा जाता है ? (अर्थात स्वयं को मृगजल से स्थितप्रज्ञ मनुष्य के रूप में कैसे गढ़ा जाता है?) तत्पश्चात इस प्रयत्न
में जुट जाना ही हमलोगों का एकमात्र कर्तव्य है। कोई भी स्वस्थ दिमाग का व्यक्ति इस प्रकार की कल्पना भी नहीं कर सकता कि राष्ट्र-संचालन के लिये प्रशासनिक व्यवस्था (E.D. या C.B.I) की कोई आवश्यकता नहीं है ? या राजननीतिक दलों का कोई प्रयोजन नहीं है, या समाजसेवी संस्थायें आदि व्यर्थ हैं ! अतः हमलोगों को भी इसी प्रजातान्त्रिक परिवेश में और ऐसी ही सामाजिक संगठनों के बीच अपने कार्य-'बनो और बनाओ ' को करते जाना होगा।
हमलोग यदि किसी व्याख्यान (गीता 2.54) को ध्यानपूर्वक सुनें तो वक्ता द्वारा कथित बातों से हम भले ही सहमत न हों पर उस विषयवस्तु के बारे में अपनी एक धारणा तो बना ही सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने भी अपने भाषण में कहा है - " यदि मुझे फिर से अपनी शिक्षा आरम्भ करनी हो और उसमें मेरा थोड़ा भी वश चले तो मैं तथ्यों का अध्यन करने से पूर्व मन की एकाग्रता के विषय में शिक्षा ग्रहण करूँगा। उसके बाद संसार में जितने भी विषय हैं, अपनी पसन्द के अनुसार उन सब विषयों (स्थितधीः और स्थितप्रज्ञ आदि अर्जुन द्वारा पूछे गए 16 प्रश्नों के उत्तर) को जानने की चेष्टा करूँगा।" हम लोग भी यदि 'मन को एकाग्र' कर पढ़ने या सुनने को अपनी आदत बना लें तो बहुत से विषयों को बड़ी सहजता से भली-भाँति सीख सकते हैं।
स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा [वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में मनःसंयोग/विवेक-प्रयोग /में प्रशिक्षित शिक्षकों का निर्माण करने की विचार-धारा] इस जगत की सर्वश्रेष्ठ विचारधारा है या नहीं, इसे सिद्ध करने के लिये- विभिन्न प्रकार के ढेरों युक्ति-संगत तर्क दिए जा सकते हैं। किन्तु उसी को लेकर यदि हमेशा दूसरों के साथ तर्क-वितर्क करने में ही उलझे
रहें, तो उससे कोई लाभ नहीं होगा, और हमलोगों का समय तथा शक्ति व्यर्थ
में ही नष्ट होगा। यदि स्वामीजी की इस बात से सहमत हो जाएँ कि हम लोग अन्य जरुरी बातों को सुनने -समझने की चेष्टा तो करेंगे, किन्तु उससे पहले मनःसंयोग करना अवश्य सीखेंगे, तो हमलोग भी बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं। छात्र लोग यदि रीढ़ की हड्डी सीधी रखकर बैठना तथा सभी बातों को मन
लगाकर पढ़ना और सुनना सीख जाएँ तो वे स्कूल में अपनी पढाई-लिखाई भी बहुत अच्छे ढंग से
कर सकेंगे। उसके साथ ही साथ यदि वे मनुष्य-जीवन का उद्देश्य भी जान लें तब तो यह 'सोने पर सुहागा' जैसी बात होगी।
कई अच्छे विद्यार्थी स्कूल की पढ़ाई समाप्त करने के बाद जीवन में 'बड़े' बने हैं। किन्तु 'बड़े' बनने का अर्थ केवल इतना
ही नहीं है कि अच्छी नौकरी प्राप्त ली , धन कमा लिया। बल्कि 'बड़े' बनने का अर्थ है सच्चा मनुष्य (स्थितप्रज्ञ?) बनना। इसीलिए हमलोगों को सभी विषयों को ध्यान से सुनने (श्रवण) और सुनी गयी बातों को याद रखने की विधि अर्थात मनःसंयोग सीखना होगा। हम यदि किसी व्याख्यान को मनोयोग पूर्वक नहीं
सुनेंगे तो उसमें कौन सी बात अच्छी है, कौन सी बात बुरी है इसका निर्णय
नहीं कर पायेंगे। जबकि इसी भले-बुरे के बीच निर्णय कर लेना या विवेकपूर्ण निर्णय ले पाने की
क्षमता रखना ही 'मनुष्य' का विशेष गुण है।
धर्म की मूल बात है विवेक-प्रयोग ! विवेक का अर्थ होता है, न्याय के मार्ग पर चलना। अच्छा-बुरा, शाश्वत - क्षणभंगुर इसमें अंतर करना। जैसे सूती कपड़ा के टिकाऊ नहीं होने के कारण आजकल हम लोग टेरीकॉटन का पैन्ट ही अधिक पहनते हैं। क्योंकि प्रत्येक अच्छी वस्तु को हम चिरस्थायी बनाना चाहते हैं। किन्तु यदि हमारे पास सत-असत (अविनाशी और नश्वर ) के बीच बीच अंतर करने वाली बुद्धि (प्रज्ञा) ही न रहे, तो हम उस सुख को चिरस्थायी नहीं बना सकेंगे। अतः सुख को
चिरस्थायी बनाने के लिये मनःसंयोग सीखना आवश्यक है। मनःसंयोग किस प्रकार
किया जाता है यह जानने के लिये हमें प्राचीन काल के मनोविज्ञान ' पतंजली योगसूत्र ' या 'अष्टांग योग' के कम से कम पाँच अंगों के सम्बन्ध में विस्तार से समझना होगा।
किन्तु, आजकल हमलोग हर बात के लिये पश्चिम की तरफ देखना जरुरी समझते हैं। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ' स्वदेश-मन्त्र ' में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि दूसरों की ही नकल कर या परमुखापेक्षी होकर कोई
मनुष्य बड़ा (स्थितप्रज्ञ) नहीं बन सकता है। किन्तु हमलोग लगातार वैसा ही करते आ रहे
हैं। स्वाधीनता के पहले तो यह था ही किन्तु, स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी
हमलोग दूसरों की नकल करना छोड़ कर और कुछ नहीं कर पाये हैं। प्रश्न उठता है कि हम लोग अभी तक क्यों परमुखापेक्षी बने हुए हैं ? यदि हम उन कारणों का विश्लेषण करें जिसके चलते हम दूसरों की नकल करना नहीं छोड़ पाते, तो यही देखेंगे कि हमलोगों ने अभी तक विवेकवान मनुष्य (स्थितप्रज्ञ मनुष्य) का निर्माण करने के महत्व को नहीं समझा है। यह बात
जितना सत्य है, उतना ही सत्य यह भी है कि हमने अभी तक परानुकरण करना नहीं छोड़ा है।
स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी हमलोगों की सरकार वोट, पार्लियामेन्ट सिस्टम, संविधान, विकास परिकल्पना आदि सभी बातों में केवल परानुकरण ही किया है। ऐसा इसीलिये किया कि हमलोगों में आत्मविश्वास नहीं है ! इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने हमलोगों से बार बार कहा था- "
पहले तुम लोग आत्मविश्वासी मनुष्य बनो ! उसके बाद सबकुछ अपने आप प्राप्त हो जायेगा।
वे कहते हैं- " कोई व्यक्ति या राष्ट्र जिस दीन से स्वयं को घृणा करना आरम्भ कर देता है, उसी
दीन से उसकी मृत्यु प्रारंभ हो जाती है।' स्वाधीनता के बाद से हमलोग बार बार यही दुहराते आये हैं,कि हमलोग दुर्बल हैं, हमारा कोई अतीत नहीं है, हमारा कोई भविष्य नहीं है। इसी बात को सदियों से सुनते आये हैं, इसको सही मानने लगे हैं, स्वयं
को सिखाते आये हैं, दूसरों को भी यही सिखाते आ रहे हैं। जब छात्र पहली बार विद्यालय आता है तो वह सुनता है कि उसके पिता पागल हैं! क्योंकि वे सादगी से रहते हैं तथा ईमानदारी से जीवन व्यतीत करते हैं। वहाँ सिखाया
जाता
है, कि ईमानदारी से जीने का कोई अर्थ ही नहीं है। चाहे जैसे भी धन कमाओ और ऐशो-आराम से जिन्दगी व्यतीत करो। जाने-अनजाने छात्रों के
सामने
इसी प्रकार का आदर्श रखा जा रहा है, और यही विचारधारा सर्वत्र फैलती जा रही
है।
यदि आज की परिस्थितियों का गहराई से विश्लेष्ण किया जाय तो हम पायेंगे कि सारा देश लोभ,
इन्द्रियपरायणता, व्यक्तिगत स्वार्थ या दलगतस्वार्थ के उपर जरूरत से ज्यादा ध्यान दे रहा है। देश के स्वार्थ या साधारण जनता के स्वार्थ की ओर थोडा भी
ध्यान नहीं दे रहा है। फिर देश का भला कैसे होगा ? यदि हम सम्पूर्ण देश का भला करना चाहते हों,उच्चतर स्तर की समाज-सेवा करना चाहते हों, तो इसके लिये हमें प्रारम्भ से ही मनःसंयोग एवं विवेकपूर्वक निर्णय करने की विधि सीखनी होगी। क्या हमलोगों के पास अपना सिद्धान्त और नीति नहीं होनी चाहिए? किन्तु, किसी के पास स्वतन्त्र रूप से चिन्तन करने का समय ही नहीं है, इसलिए हम केवल
दूसरों की ही नकल कर रहे हैं, और परमुखापेक्षी होकर बैठे हुए हैं। इसीलिये हमारा
सर्वांगीण विकास नहीं हो पा रहा है। हम सभी यदि
मनःसंयोग का अभ्यास करें तो किसी भी समस्या या विषय के उपर मन को
एकाग्र कर विचार-विश्लेष्ण द्वारा विवेकपूर्ण निर्णय लेकर सभी प्रकार समस्याओं के समाधान स्वयं कर सकते हैं। स्कूल में पढ़ते समय हम यह जानते
हैं कि पुस्तकों
में सब कुछ लिखा हुआ है किन्तु, हम यह भी जानते हैं कि जो तथ्य पुस्तक में लिखे हुए हैं उन तथ्यों को अपने चित्त में सँजो लेने की आवश्यकता है।
हमलोग जो कुछ पढ़ते हैं या सुनते हैं, उनमें से यदि सार -असार को अलग कर लिया जाय तो उन लेखों और व्याख्यानों की बातें हमें अपने निर्णय जैसी प्रतीत होंगी। जैसे विभिन्न
वक्ता यहाँ आकर स्वामीजी के संदेशों और विचारों के उपर कई व्याख्यान
दिये और चले गये। जब तक हम उन विचारों का तार्किक विश्लेष्ण (logical
analysis) कर उन्हें अपने सिद्धान्त के रूप में अपना नहीं लेते , या आत्मसात नहीं कर लेते तब तक वह स्वामीजी, वक्ता विशेष, या महामण्डल के विचार बने रहेंगे। और उन व्याख्यानों को सुनने से कोई लाभ नहीं होगा।
स्वामीजी ने वर्तमान समाज को सुन्दर रूप से गठित करने के लिये जिस पद्धति या उपाय की बात की है वह श्रेष्ठ या सर्वोपरी इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि वे पहले
व्यक्ति हैं जिन्होंने अपने कार्यों को 'इहलौकिक और पारलौकिक ' कहकर दो भागों में विभक्त नहीं किया था।
जबकि हमलोगों के सभी कार्य दो प्रकार के होते हैं- एक लौकिक (secular) और दूसरा पवित्र या धार्मिक (sacred)। जो व्यक्ति केवल सांसारिक जीवन के प्रति ध्यान केन्द्रित रखते हैं वे
अपने सांसारिक जीवन को ही सुन्दर बनाने का प्रयत्न करते
रहते हैं। सांसारिक जीवन को सुन्दर बनाने के लिये अलग ढंग का परिश्रम करना होता है। जबकि जो लोग धर्म में विश्वास करते हैं वे वैसे कार्यों का चयन कर लेते हैं, जिन्हें वे धार्मिक समझते हैं। या फिर जो लोग जो धर्म में विश्वास नहीं करते हैं वे भी अपने लिये कुछ अलग
ढंग के कार्य (जैसे मरने के बाद बॉडी या आँखों को दान करना ) नियत कर लेते हैं। (वे नहीं जानते कि इससे भी पूण्य कर्म बाँधेगा। )
>>>धर्म की अद्भुत परिभाषा :
किन्तु, स्वामी विवेकानन्द ही वह प्रथम
व्यक्ति हैं, जिन्हों ने यह कहा कि -" भारत का कार्य तो बस एक ही है- और वह है, वैश्विक कल्याण या लोकहित। लोक-हित के अतिरिक्त अन्य कोई कर्म वास्तव में कर्म है ही नहीं। हमारे (भारत के) सभी कर्मों का एक ही उद्देश्य रहना चाहिए- लोकहित !" यह केवल स्वामी विवेकानन्द का ही विचार हो, ऐसा भी नहीं है- वेदों में भी यही कहा गया है- यह हमलोगों का शाश्वत सिद्धान्त है, यही 'सनातन धर्म' है ! महाभारत में कहा गया है -
सर्वेषां यः सुहृनित्यं सर्वेषां च हिते रताः ।
कर्मणा मनसा वाचा स धर्म वेद जाजले ॥
कर्मणा मनसा वाचा स धर्म वेद जाजले ॥
-अर्थात हे जाजले ! धर्म को केवल उसने ही जाना है, कि जो कर्म से , मन से और वाणी से सबका हित (अपने-पराये का भेद देखे बिना) करने में लगा हुआ है और सभी का हिताकांक्षी है।
नींद में,सपने में, सोते-जागते, सभी अवस्थाओं में सभी कर्म प्रयासों में हमलोगों का एकमात्र कर्तव्य यही है। स्वामीजी स्वयं इसी प्रकार के मनुष्य थे और अपेक्षा करते थे कि सभी तरुण एक दिन इसी प्रकार के मनुष्य बनेंगे। यदि ऐसा ही आदर्श किसी अन्य महापुरुष का भी है तो हमलोग उनको भी श्रद्धा के साथ वरण करेंगे तथा उनके उपदेशों को कार्यान्वित करने की चेष्टा भी करेंगे। किन्तु, हमलोगों की दृष्टि जहाँ तक जाती है वहाँ, दूर-दूर तक स्वामी विवेकानन्द के अतिरिक्त अन्य किसी मनुष्य ने अपने जीवन के समस्त कर्मों का एकमात्र उद्देश्य 'लोकहित ' कभी नहीं बनाया है।
नींद में,सपने में, सोते-जागते, सभी अवस्थाओं में सभी कर्म प्रयासों में हमलोगों का एकमात्र कर्तव्य यही है। स्वामीजी स्वयं इसी प्रकार के मनुष्य थे और अपेक्षा करते थे कि सभी तरुण एक दिन इसी प्रकार के मनुष्य बनेंगे। यदि ऐसा ही आदर्श किसी अन्य महापुरुष का भी है तो हमलोग उनको भी श्रद्धा के साथ वरण करेंगे तथा उनके उपदेशों को कार्यान्वित करने की चेष्टा भी करेंगे। किन्तु, हमलोगों की दृष्टि जहाँ तक जाती है वहाँ, दूर-दूर तक स्वामी विवेकानन्द के अतिरिक्त अन्य किसी मनुष्य ने अपने जीवन के समस्त कर्मों का एकमात्र उद्देश्य 'लोकहित ' कभी नहीं बनाया है।
इस प्राचीन देश भारत में हमारे पूर्वज अपने विचारों और दिनचर्या में ऐसे ही
धर्म का पालन और चर्चा करते थे। किन्तु समय के प्रवाह में वह नष्ट हो गया
था। जिसके फलस्वरूप यहाँ भी लौकिक और परलौकिक दो अलग-अलग धर्म हो गये। इस विषय पर स्वामी जी कहते हैं - " हमारे देश में जो 'वेदान्तीक साम्यवाद ' था (सम्पूर्ण मानव-जाती को अपना कुटुंब समझने का भाव था) वह बाद में शायद व्यक्तिगत स्वार्थ के अत्यधिक बढ़ जाने के कारण अलग-अलग धर्म में परिणत हो गया।
हमलोगों के देश में
ब्राह्मण, क्षत्रिय इत्यादि नाम से गुण के अनुसार कर्मों का जो बँटवारा
किया गया था (वर्णाश्रम धर्म था), उसमें से प्रत्येक ने दूसरों के अधिकार को कम करके अपने
अपने समूह के अधिकार को प्रधानता देने का प्रयत्न किया है। इसीलिये अब हमलोगों के देश में जो साम्य आएगा वह ' केवल पढ़े जाने वाले वेदान्त '
से नहीं बल्कि वेदान्त के उसी प्राचीन
स्वरुप को जीवन में धारण करने से आयेगा !" हम स्वामी जी कथित जितने भी संदेशों का उल्लेख करते हैं, वे सभी - महावाक्य हैं ! अर्थात वेदान्त के
ही वचन हैं। किन्तु ,हम इस बात को भूल गये थे कि वेदान्त का ऐसा सुन्दर
स्वरुप कभी रहा होगा, कभी इसके अन्दर ज्ञान की ऐसी अद्भुत ज्ञान की ज्योति रही होगी !
विशाल बुद्धि व्यासदेव ने वेदान्त के जिन समस्त सिद्धान्तों को एकत्र करके जिस वेदान्त सूत्र की रचना की थी, वे सूत्र सम्पूर्ण मानव जाति को मोहनिद्रा से जगा सकते हैं। वेदों के जो चार महावाक्य मनुष्य को पुनरुज्जीवित कर सकते हैं, उसे वीर बना सकते हैं [अभीः -निर्भय] बना सकते हैं, वह सब, यहाँ तक कि उसके शंकर -भाष्य
को भी हमलोग लगभग भूल ही चुके थे। धरती का प्रत्येक मनुष्य प्रत्येक दूसरे
मनुष्य के लिये सहानुभूति का अनुभव करेगा, इतना ही नहीं आवश्यकता पड़ने पर
दूसरों के दुःख को दूर करने के लिये अपने जीवन तक को न्योछावर कर देगा- ये
सारे वेदान्ती-सिद्धान्त बाद में इसके अनेक प्रकार की भाष्यों के बाढ़ (बाहुल्य) में डूब गये थे। जिसके फलस्वरूप हमारे राष्ट्र का पतन हो गया था। और इसी का लाभ उठाकर
विदेशियों ने हमें हजार वर्षों तक गुलाम बनाये रखा। समय के प्रवाह में जाती-धर्म
आधारित भेदभाव की उत्पत्ति हुई, हम भारतीय आपस में लड़ने-झगड़ने
लगे और मारा-मारी पर उतर कर अपना ही नुकसान करने लगे।
यदि हम यह सब बन्द
करना चाहते हों तो हमें स्वामी विवेकानन्द, श्री रामकृष्ण के पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए आना ही पड़ेगा। [या महामण्डल की सतयुग स्थापनकारी "Be and Make -चरैवेति,चरैवेति C-IN-C 'लीडरशिप ट्रेनिंग ' परम्परा में 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण ग्रहण करने के लिये आना ही पड़ेगा।] ठाकुर श्रीरामकृष्णदेव कहा करते थे- " बंधे हुए या गतिहीन जल में काई जम जाती है, किन्तु बहती हुई नदी या झरने का पानी जिसमें स्रोत है, उसमें कभी काई
नहीं जमता।" हमारे वर्तमान सामाजिक जीवन में प्राण का (जीवन का) उत्स नहीं
है, इसीलिये इतनी दलबन्दी (गुटबाजी ) हो रही है। उसमें जीवन का स्रोत, प्राण का उत्स लाने के लिये क्या करना होगा ? बस इतना ही, कि हमलोगों को 'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा ' को
ग्रहण करना होगा। क्योंकि उनकी भावधारा- हिन्दू,
मुसलमान, बौद्ध, जैन, क्रिश्चियन, सिख सबों के लिये है, यहाँ तक कि जो कहते
हैं, मैं धर्म को नहीं मानता-उन नास्तिकों के लिये भी है। ऐसे अद्भुत 'प्राणप्रद वचन' (श्रीरामकृष्ण वचनामृत) और
कहीं नहीं है। एवं वेदान्त के समस्त अद्भुत सिद्धान्तों को (महावाक्यों को) श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द ने अपने जीवन में, व्यवहार करके भी दिखला दिया है !
स्वामीजी के विचार में तथा वेदान्त मत से भी समाज में किसी को विशेषाधिकार पाने का कोई अधिकार नहीं है। किन्तु विशेषाधिकार के बल पर ही ब्राह्मणों ने वेदान्त की गलत व्याख्या कर दी, जिसके फलस्वरूप वेदान्त में जो शक्ति है, बलप्रद सन्देश है, उसे हमने
व्यक्तिगत जीवन और राष्ट्रिय-जीवन से बाहर कर दिया। इसीलिये अब स्वयं को उन्नत करने के लिये वेदान्त के अमृत तुल्य सिद्धान्तों (4 -महावाक्यों आदि) को दूसरों को केवल रटकर सुना देने से ही काम नहीं चलेगा; उसकी उचित व्याख्या भी करनी होगी और उन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर अपने जीवन
को गढ़ कर, उदाहरण-स्वरुप बना कर तरुणों के समक्ष प्रस्तुत भी करना होगा।
उपनिषद युग के बाद, श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द के जीवन के अतिरिक्त इस प्रकार का जीवन्त वेदान्त अन्य कहीं देखने को नहीं मिलता है। इसीलिये श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द-माँ सारदा के
बेलपत्र रूपी नवत्रयी को अपने हृदय में रखने की आवश्यकता है। आज हमारे व्यक्तिगत और राष्ट्रिय जीवन में जितनी भी
समस्याएं दिखाई दे रही हैं, उनको दूर करने के लिये इस त्रयी को अपने शीश पर
चढ़ाने अर्थात उनकी शिक्षाओं का अनुसरण करने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। धर्म या आध्यात्मिकता का अर्थ
मन्दिर, मस्जिद, फूल-बेलपत्र ही नहीं है- स्वामीजी ने कभी इसको धर्म नहीं
कहा है। "धर्म का अर्थ है, अपना और राष्ट्रिय-चरित्र का निर्माण करना" -(धर्म का अर्थ है संपूर्ण हृदय वाला मनुष्य बनना।) कितनी अद्भुत
धर्म की परिभाषा है !
["धर्म का अर्थ है पूर्णहृदयवान मनुष्य बन जाना ! -Religion means becoming a whole-hearted human being. "ধর্ম বা আধ্যাত্মিকতা মানে মন্দির, মসজিদ , ফুল-বেলপাতাই নয় -স্বামীজী একে ধর্ম বলেননি। ধর্ম মানে সার্বিক চরিত্র গড়ে তোলা। কি অদ্ভুত কথা।" (आमादेर सम्भावना नया का पेज 57) Religion or spirituality does not mean temples, mosques, or flowers - Swamiji did not call it religion. Dharma means building a whole character. what a strange thing. श्रीरामकृष्ण का चरित्र धर्म की इसी परिभाषा पर गठित है ]
श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में बोलते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " श्रीरामकृष्ण का चरित्र ही एकमात्र आदर्श पूर्ण-मानव के रूप में गठित सार्वभौमिक चरित्र है, और इस युग के प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह श्रीरामकृष्ण का अनुसरण करके अपना चरित्र गठित कर ले। इस प्रकार के चरित्रवान मनुष्य जब देश में अधिक संख्या में निर्मित कर लिये जायेंगे, तभी देश की उन्नति हो सकती है। वैसा नहीं होने तक देश के उन्नति की कोई सम्भावना नहीं है। उन्नति का अर्थ केवल अध्यात्मिक उन्नति ही नहीं है बल्कि आर्थिक उन्नति से लेकर, हर पहलु से उन्नति शामिल है।"
हमलोग निरन्तर अद्द्योगिक क्षेत्र
में में उन्नति के आँकड़े गिनाते रहते हैं किन्तु, कुछ दिनों पूर्व बंगाल से प्रकशित होने वाले समाचार-पत्र 'अमृत-बाजार
पत्रिका' में एक अवकाश प्राप्त सेना अधिकारी द्वारा लिखित " Industrial
Decline in West Bengal " शीर्षक एक लेख छपा था। इस लेख में लेखक ने पश्चिम बंगाल के उद्द्योग जगत की
बिगड़ती हुई स्थिति के कारणों को किसी भी दल की चापलूसी किये बिना स्पष्ट रूप से हमलोगों के
विचारार्थ - इस प्रकार रख दिया था -"देश को उन्नत बनाने के लिए औद्द्योगिक उत्पादन में भी वृद्धि करनी आवश्यक
है, इसीलिये उद्द्योग जगत का भी अपना एक महत्व है। किन्तु, बहुत से लोग सोचते हैं कि केवल उद्द्योगों के विकास से ही देश भी विकसित हो
जायेगा, फिर कुछ लोग ऐसी सोच को बहुत बड़ी गलती मानते हैं। जो भी
हो, देश को उन्नत बनाने के लिये अन्य कई चीजों के साथ औद्द्योगिक विकास भी
आवश्यक है।" लेखक निष्पक्ष भाव से लिखते हैं -"भारत में
उद्द्योग के क्षेत्र में पहले बंगाल जहाँ प्रथम स्थान पर था, वहीं आज वह निचले पायदान पर चला गया है। इस लेख के अन्त में अवकाश प्राप्त सैन्य अधिकारी (लेखक) कहते हैं, " हमलोगों का देश एक अध्यात्मिक देश है, यहाँ मनुष्यत्व को बहुत ऊँचा स्थान दिया जाता है तथा हमारे ही राज्य में एक ऐसे महामानव ने जन्म ग्रहण किया था जिन्होंने मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा को सम्पूर्ण देश में प्रसारित करने कि योजना बनाई थी। किन्तु हमलोग अभी तक उनकी योजना को क्रियान्वित नहीं कर सके हैं, इसीलिये आज औद्द्योगिक क्षेत्र में भी हमलोगों को ऐसी अवनति हुई है। अतः नया भारत गढ़ने के लिये हमलोगों को स्वामी विवेकानन्द के पास आना ही पड़ेगा।'
स्वामी विवेकानन्द का अर्थ स्वर्ग से उतरा कोई देवता नहीं है। स्वामी विवेकानन्द एक ऐसे मनुष्य का नाम है, जिनको यह पता ही नहीं था कि भय किस चिड़िया का नाम है ? वे एक ऐसे मनुष्य थे जिसने अपना सब कुछ त्याग दिया था तथा दूसरों की सेवा में अपना जीवन न्योछावर/समर्पित कर दिया था। वे एक ऐसे 'Hero' थे जो ब्रह्म को जानते थे और 'ब्रह्म में ही अध्यस्त' इस जगत को भी जानते थे- अर्थात माया से होकर आने के कारण ब्रह्म ही जगत के रूप में भास रहा है। इसलिए देश के स्कूल-कॉलेजों में, खेत-खलिहानों में, कारखानों में, अर्थात जीवन के सभी क्षेत्रों में स्वामी विवेकानन्द जैसे Hero की आवश्यकता है। और आज भी स्वामी विवेकानन्द, रामकृष्ण या नेताजी बनना सम्भव है - इसी बात को भावी पीढ़ी के युवाओं को सुनाने में समर्थ चिरयुवा नेता की आवश्यकता है। स्वामीजी एक स्थान पर कहते हैं, तुमलोग कभी-कभी पीछे मुड़ कर अपने प्राचीन-गौरवमय अतीत को भी देखो। स्वामीजी हर समय कहते हैं, " आगे बढ़ो, आगे बढ़ो ! पीछे
मुड़ कर यह मत देखो कि कौन गिरा।" किन्तु दूसरे स्थान पर कहते हैं " यात्रा का प्रारंभ करने से पहले एक बार पीछे
मुड़ कर देखना भी जरुरी है।" क्योंकि तुम्हारे पीछे एक मूल्यवान सांस्कृतिक
विरासत है, वह इतना महा मूल्यवान है कि यदि तुम उससे आलोक ग्रहण नहीं
करोगे तो मार्ग पर चलते समय अपने को दुर्बल महसूस करोगे! ठगों का गिरोह (पाँच विषय) तुम्हारे दुर्बल शरीर को लाठी से पीट कर घायल कर देंगे, और तुम स्वयं को
विकास के पथ पर आगे नहीं ले जा सकोगे और राष्ट्र को भी सही नेतृत्व नहीं
दे सकोगे। आज हमारी ऐसी अवस्था हो गयी है मानो हमारी बुद्धि के
घर में ही ताला जड़ दिया गया हो। हमारे पास भी बुद्धि-विवेक सब कुछ है , किन्तु हम लोग या तो इसे जानते नहीं या इसे स्वीकार नहीं करते। इसीलिये (रागा जैसा) बार- बार विदेश
जाकर हमें बुद्धि भी उधार में लेनी पडती है!
स्वामी विवेकानन्द चाहते थे कि हमलोग इस खोये हुए आत्मविश्वास को जाग्रत
करें। इस आत्मविश्वास को जाग्रत करने से हमलोग अच्छे डाक्टर बन सकेंगे,
अच्छे इंजीनियर बन सकेंगे, चाहे जो भी कुछ क्यों न करें, अच्छी
आमदनी कर सकेंगे और 'मनुष्य' कहलाने योग्य मनुष्य भी बन सकेंगे। और उसी के साथ
देश को भी उन्नत बना सकेंगे, हमलोगों के देश की राजनीती भी परिवर्तित हो
जायेगी।
अभी हमारी राजनीती केवल सरकारें बदल सकती है। किन्तु इससे कोई कल्याण नहीं होने वाला है। सरकारों के बदल जाने से व्यवस्था नहीं बदल जाती। बन्दूक की नाल से सब कुछ प्राप्त नहीं हो सकता है क्योंकि अंततः मनुष्य ही व्यवस्था चलता है, बन्दूक का नाल भी मनुष्य ही तैयार करता है, और सरकार, कानून, पार्लियामेन्ट, राजनितिक दल, उद्द्योग-वाणिज्य, सब कुछ मनुष्य ही बनाता है। किन्तु कोई भी पदार्थ ' मनुष्य ' का निर्माण नहीं कर सकता। देश में सामाजिक, आर्थिक, हर प्रकार का विकास होना चाहिए। किन्तु, ऐसा क्यों है कि धनी और अधिक धनवान बनते जा रहे हैं, और गरीब और अधिक गरीब होते जा रहे हैं ? कारण है असाम्य ! वेदान्तिक साम्य का सिद्धान्त पुस्तकों (गीता और उपनिषदों ) में तो हैं, किन्तु हमने अभी तक उसे कार्य में नहीं उतारा है।
अभी हमारी राजनीती केवल सरकारें बदल सकती है। किन्तु इससे कोई कल्याण नहीं होने वाला है। सरकारों के बदल जाने से व्यवस्था नहीं बदल जाती। बन्दूक की नाल से सब कुछ प्राप्त नहीं हो सकता है क्योंकि अंततः मनुष्य ही व्यवस्था चलता है, बन्दूक का नाल भी मनुष्य ही तैयार करता है, और सरकार, कानून, पार्लियामेन्ट, राजनितिक दल, उद्द्योग-वाणिज्य, सब कुछ मनुष्य ही बनाता है। किन्तु कोई भी पदार्थ ' मनुष्य ' का निर्माण नहीं कर सकता। देश में सामाजिक, आर्थिक, हर प्रकार का विकास होना चाहिए। किन्तु, ऐसा क्यों है कि धनी और अधिक धनवान बनते जा रहे हैं, और गरीब और अधिक गरीब होते जा रहे हैं ? कारण है असाम्य ! वेदान्तिक साम्य का सिद्धान्त पुस्तकों (गीता और उपनिषदों ) में तो हैं, किन्तु हमने अभी तक उसे कार्य में नहीं उतारा है।
एक शोध में पाया गया है कि ईसामसीह के जन्म से पाँच हजार वर्ष पूर्व इस देश
में जो मूल्य-सूचकांक था उसके अनुसार एक दिहाड़ी मजदूर अपने भोजन में होने वाले खर्च का आधी ही कमाई कर पाता था। और यदि आज के मूल्य-सूचकांक को देखें
तो आज भी ठीक वही स्थिति बनी हुई है। कोई दिहाड़ी-मजदूर आज भी अपनी आवश्यकता भर खाद्यान्न अपनी दिहाड़ी की मजदूरी से नहीं खरीद सकता। परिवर्तन केवल रूपये
की संख्या [डॉलर या सोना -रुपया सम्बन्ध] में हुआ है अन्य किसी चीज में नहीं। इसीलिये स्वामीजी को कहना
पड़ा था कि " समस्त संसार में आज भी सभ्यता कहीं नहीं आ सकी है। " यही कारण है की आज भी यही
स्थिति बनी हुई है। हम आज भी भीतर से असभ्य-बर्बर ही बने हुए हैं, किन्तु विभिन्न प्रकार
के पोशाक पहन कर देश-विदेश में कई प्रकार से लोगों को झांसा देकर प्रभावित
करते आ रहे हैं। तो फिर सभ्यता कहाँ है? उसे खोजने के लिये हमें अपने भीतर
झाँक कर देखना होगा।
मनुष्य को पुर्णतः स्वार्थहीन और प्रेमी बनना होगा। सभी को समान रूप से प्रेम करना होगा । सभी को यथार्थ मनुष्य बनाने के लिए हमें क्या करना होगा ? इस बात को हमें मनःसंयोग की सहायता
से जानना होगा, और स्वामीजी के सन्देश इन्हीं सब विचारों के विशाल भण्डार हैं। वहाँ से उच्च विचारों को ढूँढ -ढूँढ कर उनकी सहायता से अपना और देश का नव-निर्माण करना होगा।
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>>>हमें बुद्धि और प्रज्ञा का फर्क समझना होगा। अंग्रेजी में दो शब्द हैं - इंटेलेक्ट (intelligence) और इंटेलीजेंस (wisdom.)। हिंदी में इंटेलेक्ट को बुद्धि और इंटेलीजेंस को प्रज्ञा के रूप में समझ सकते हैं। अधिकांश लोग यह समझ ही नहीं पाते कि कहां बुद्धि का दायरा खत्म होता है और कहां से प्रज्ञा का आयाम शुरू होता है।
ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा ।। समाधिपाद : 48 ।।
शब्दार्थ :- तत्र, ( उस अध्यात्म प्रसाद के प्राप्त होने पर ) प्रज्ञा, ( साधक की बुद्धि ) ऋतम्भरा, ( केवल सत्य को ही ग्रहण करने वाली होती है । )
सूत्रार्थ :- अध्यात्मप्रसाद का लाभ प्राप्त होने पर साधक की बुद्धि केवल सत्य को जानने वाली हो जाती है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में अध्यात्मप्रसाद को प्राप्त करने के बाद साधक की क्या स्थिति होती है ? इसका वर्णन किया गया है । अध्यात्मप्रसाद से साधक समाहित चित्त वाला बन जाता है । उस समाहित चित्त की में भी निपुणता होने पर उत्कृष्ट बुद्धि की प्राप्ति होती है । उस उत्कृष्ट बुद्धि को ही ऋतम्भरा कहा गया है ।
ऋतम्भरा बुद्धि वह होती है जो केवल सत्य को ही ग्रहण करती है । उसमें असत्य या विपरीत ज्ञान का लेश मात्र भी अंश नही होता है ।
सामान्य जीवन में व्यक्ति की बुद्धि असत्य ज्ञान को भी ग्रहण करती रहती है । जिससे वह अविद्या आदि क्लेशों में उलझा जाता है । कलेशों के कारण वह अनावश्यक अर्थात निषेध कार्यों को करता रहता है ।
लेकिन जैसे ही साधक को अध्यात्मप्रसाद की प्राप्ति होती है वैसे ही उसकी बुद्धि केवल और केवल सत्य को ही ग्रहण करने वाली बन जाती है । और सभी कलेशों का नाश हो जाता है । ऋतम्भरा प्रज्ञा के प्राप्त होने से साधक को अपने वास्तविक स्वरूप की जानकारी/स्मृति सदा बनी रहती है । जिससे वह आत्मा, चित्त, मन, शरीर व इन्द्रियों के विषयों का आत्मसात कर लेता है ।
यह ऋतम्भरा प्रज्ञा ही साधक की मुक्ति का साधन बनती है ।
लेकिन आज की शिक्षा व्यवस्था यही बताती है कि आप जो कुछ भी जानते हैं, उसका खूब इस्तेमाल कीजिए और खुद को और धरती को तबाह कर दीजिए। कोई आपको इस पर ध्यान देने के लिए नहीं कह रहा कि यह चाकू कैसे बना है, कैसे हम इसका इस्तेमाल कर सकते हैं और कैसे नहीं। इस दिशा में अभी तक काम नहीं हुआ है। तो इंसान अपनी बुद्धि के चलते तकलीफ पा रहा है। बुद्धि ही है जो इस धरती पर विचरने वाले दूसरे जीवों से हमें अलग करती है और हमारे लिए एक उपहार है। लेकिन अफसोस की बात कि यही चीज हमारे दुखों का मूल बनती है। फिलहाल यह बुद्धि हमारे लिए इतनी अधिक पीड़ा व मुश्किलों का कारण इसलिए बनी हुई है, क्योंकि आप बुद्धि रूपी चाकू को गलत छोर से पकड़े हुए हैं। भारत में एक परंपरा है कि जब आप किसी को चाकू दें तो उसे एक खास तरीके से देते हैं। नहीं तो आप दूसरे को घायल कर देंगे।इसी से जुड़ी स्वामी विवेकानंद के जीवन की रोचक घटना : " रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के बाद विवेकानंद ने उनके संदेश व शिक्षाओं को फैलाने के लिए अमेरिका जाने का फैसला किया। उन दिनों समुद्र पार कर किसी दूसरे देश जाना किसी दूसरे ग्रह पर जाने जैसा था। अगर आप भाप से चलने वाले पानी के जहाज से तीन महीने की यात्रा पर जाएं तो यह कहना मुश्किल था कि आप वापस लौटेंगे भी या नहीं। तो वे जाने से पहले परमहंस की पत्नी शारदा देवी से आशीर्वाद लेने पहुँचे। जब वह उनके पास पहुंचे और उन्होंने अपनी इच्छा उन्हें बताई तो उस वक्त वह कुछ काम कर रही थीं। शारदा देवी ने बिना सिर उठाए उनकी बातें सुनी। विवेकानंद ने कहा, ‘मैं पश्चिमी देशों में जाकर अपने गुरु की शिक्षाओं को फैलाना चाहता हूं। क्या मैं जा सकता हूं?’ अपने काम में व्यस्त, बिना अपना सिर उठाए उन्होंने विवेकानंद से कहा, ‘नरेन क्या तुम मुझे वह चाकू दे सकते हो?’ नरेन ने चाकू उठाया और गुरु मां को दे दिया। चूंकि नरेन एक खास तरीके के व्यक्ति थे, इसलिए उन्होंने एक खास तरीके से वह चाकू उन्हें दिया। नरेन ने चाकू के धार वाले सिरे को हाथ में पकडक़र मां को चाकू का हत्था पकडऩे को दिया। मां ने चाकू ले लिया और उसे एक तरफ रख दिया और बोली, ‘तुम जा सकते हो।’ तब नरेन ने इस बात पर गौर किया और फिर उन्होंने उनसे पूछा, ‘आपने मुझसे चाकू क्यों मांगा? आपको तो सब्जी काटनी नहीं थीं। जो भी काटना था, वह सब पहले ही बर्तन में कटा रखा हुआ है। फिर आपने चाकू क्यों मांगा?’ गुरु मां ने कहा, ‘मैं यह देखना चाहती थी कि तुम चाकू कैसे पकड़ाते हो। तुम अपने गुरु की शिक्षाओं को फैलाने के लिए जा सकते हो।’
[माँ काली-श्रीरामकृष्ण परम्परा में भावमुख रहने का चपरास प्राप्त गुरु श्रीरामकृष्ण -माँ सारदा वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में-'नरेन् शिक्षा देगा ' का चपरास प्राप्त शिष्य-स्वामी विवेकानन्द, क्योंकि नरेन् चाकू पकड़ाना जानता था ! को अपने हृदय में रखने की आवश्यकता है। और इसीकारण विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर Be and Make '-चरैवेति ,चरैवेति' लीडरशिप परम्परा में C-IN-C का चपरास प्राप्त नवनीदा द्वारा स्थापित महामण्डल आंदोलन-के Dy C-IN-C, बिरेन दा, दीपक दा ....आदि को "मोने कोरबी तुमि एक जन शिक्षक !" को निरंतर अपने हृदय में रखने की आवश्यकता है।] [ और आज भी 'गुरु-शिष्य वेदान्त 'C-IN-C' Be and Make परम्परा' में स्वामी विवेकानन्द, रामकृष्ण या नेताजी जैसा Hero अर्थात स्थितप्रज्ञ बनना सम्भव है; इसी बात को सबको सुनाने और अपने जीवन के द्वारा दिखा देने में समर्थ युवा नेता (C-IN-C नवनीदा जैसे चिरयुवा नेता) की आवश्यकता हमें है ।],
[श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में मनुष्य बनने के लिए मनःसंयोग के प्रशिक्षण को प्रमुखता प्राप्त है।अथवा महामण्डल की "Be and Make:चरैवेति, चरैवेति" C-IN-C Leadership Training परम्परा में 'नेता' को 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण को प्रमुखता प्राप्त है।]
>>>श्रीरामकृष्ण का चरित्र ही अनुकरणीय है ! मेरे गुरुदेव किसी को ढूंढने नहीं गये। उनका सिद्धान्त यह था कि मनुष्य को प्रथम चरित्रवान होना चाहिए तथा आत्मज्ञान प्रप्त करना चाहिए और उसके बाद फल स्वयं ही मिल जाता है। जब कमल खिलता है तो मधुमक्खियाँ स्वयं ही उसके पास मधु लेने के लिए आ जाति हैं। अतः प्रथम हमें चरित्रवान होना चाहिए और यही सबसे बड़ा कर्तव्य है, जो हमारे सामने है। ''7/260 "मेरे गुरुदेव का मानव जाति के लिए यह सन्देश है कि ' प्रथम स्वयं धार्मिक बनो और सत्य की उपलब्धी करो। तुम अपने भ्रातृ-स्वरुप मानव जाति के कल्याण के लिए सर्वस्व त्याग दो ! भ्रातृ-प्रेम के विषय में बातचीत बिल्कुल न करो, वरन अपने शब्दों को सिद्ध करके दिखाओ। अपने जीवन द्वारा यह दिखा दो कि धर्म का अर्थ न तो शब्द होता है, न नाम और न सम्प्रदाय, वरन इसका अर्थ होता है आध्यात्मिक अनुभूति। जिन्हें अनुभव हुआ है, वे ही इसे समझ सकते हैं। जिन्होंने धर्मलाभ कर लिया है, वे ही दूसरों में धर्मभाव संचारित कर सकते हैं, वे ही मनुष्य जाति के श्रेष्ठ आचार्य हो सकते हैं-केवल वे ही ज्योति कि शक्ति हैं।' जिस देश में ऐसे मनुष्य जितने ही अधिक पैदा होंगे, वह देश उतनी ही उन्नत अवस्था को पहुँच जायेगा और जिस देश में ऐसे मनुष्य बिल्कुल नहीं हैं, वह नष्ट हो जायेगा-वह किसी प्रकार नहीं बच सकता. " ७/२६७]
[जबकि दूसरों के पापाजी या डैडीजी की उपरी इनकम बहुत है, इसलिए वे बड़े ठाट-बाट से रहते हैं इसीलिये कहा जाता है, तुम्हारे पिता इतनी बड़े पद पर रहकर भी कुछ नहीं बनाये, इसलिए एकदम पागल हैं।स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, "जो व्यक्ति दिन-रात अपने को दीन-हीन या अयोग्य समझे हुए बैठा रहेगा, उसके द्वारा कुछ भी नहीं हो सकता। वास्तव में अगर दिन-रात वह अपने को दीन,नीच एव, 'कुछ नहीं' समझता है तो वह 'कुछ नहीं' ही बन जाता है। हम तो उसी सर्व शक्तिमान परम पिता की सन्तान हैं, उसी अनन्त ब्रह्माग्नि की चिनगारियाँ हैं, -भला हम 'कुछ नहीं' क्योंकर हो सकते हैं ? हम सब कुछ हैं, सब कुछ कर सकते हैं, और मनुष्य को सब कुछ करना ही होगा, हमारे पूर्वजों में ऐसा ही दृढ़ आत्मविश्वास था। इसी आत्मविश्वास रूपी प्रेरणा-शक्ति ने उन्हें सभ्यता की उच्च से उच्चतर सीढ़ी पर चढ़ाया था;और जिस दिन हमारे पूर्वजों ने अपना यह आत्मविश्वास गँवाया, उसी दिन से हमारी यह अवनति, यह दुरवस्था आरम्भ हो गयी। आत्मविश्वास-हीनता का मतलब है ईश्वर में अविश्वास. " ५/२६७]
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥
अर्थात धर्म के सार को सुनों और सुनकर हृदयंगम कर लो । वह क्या है ? वह इतना ही है कि जो अपनी आत्मा के प्रतिकूल हो , वैसा आचरण दूसरों के साथ न करें । " यही है-यूनिवर्सल रिलिजन या 'वैश्विक धर्म' या सभी मनुष्यों का धर्म !
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[Naipaul passed judgment that "Bengal was the economic and intellectual leader of India till it discovered Marxism. It discovered Marxism and like poor Russia in 1917, committed suicide. The economic lead of Bengal has vanished and so has the cultural lead.]
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