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सोमवार, 28 मई 2012

सर्वोच्च देश-सेवा क्या है ?[***34] परिप्रश्नेन

३४.प्रश्न : देश की सेवा हमलोग किस प्रकार से कर सकते हैं ?
उत्तर : देश के नागरिकों में, विशेषरूप से युवा-वर्ग में ' Correct-Outlook ' या सही-दृष्टिकोण 
संचारित कर देने से बढ़कर अन्य कोई देश-सेवा नहीं हो सकती है। उनको यह समझा देना होगा, कि देखो तुम लोग किन परिस्थितियों से घिरे हुए हो? देखो, तुम्हारे भीतर कितनी अमूल्य सत्ता है ! और वह अनमोल वस्तु प्रकार धुल-कीचड़ से सनी हुई है ! उसके रहते हुए भी, तुमलोग कैसे ठगे जा रहे हो ! देखो, तुमलोग कैसे सताये जा रहे हो !
देखो भाईयों, जिस प्रकार तुम महामण्डल से जुड़ने के बाद, स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श मानकर और उनकी छवी (Image) के उपर अपने मन को एकाग्र करना सीखकर,अपने सच्चे स्वरूप को  समझ गये हो, उसी प्रकार जो भाई अभीतक मनःसंयोग करना नहीं सीखे हैं, वे भी स्वरूपतः
आत्मा ही हैं; किन्तु उनको अभी तक इस सच्चाई का बोध नहीं है।
 क्योंकि वर्तमान शिक्षा-पद्धति में मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव (3H)- ' शरीर-मन और हृदय ' को विकसित कर यथार्थ मनुष्य बनने की शिक्षा नहीं दी जाती है, इसीलिये वे तुम्हारी तरह अपने सच्चे स्वरूप को नहीं समझ सके हैं।
इसीलिये पढ़-लिख कर उच्च पदों पर आसीन होने से भी, वे चरित्र-भ्रष्ट होकर अपने देशवासियों को ही लूट रहे हैं। क्योंकि वे नहीं जानते कि प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ! मनुष्य ही जाग्रत देवता है, यह मानव-शरीर ही देवालय है, इसमें बैठे शिव को अनदेखा करके वे, हर सावन में जल चढ़ाने देवघर तो जाते हैं, किन्तु जिन भाइयों को पीने के लिए स्वच्छ पानी भी नहीं मिलता उसके बारे में सोचकर उनका हृदय द्रवित नहीं होता है।
 वे उनको आइसक्रीम खाने और पन्द्रह रूपये बोतल पानी पीने की सलाह देते हैं, जिनके पास दाल-सब्जी खरीदने की भी ताकत नहीं है। हमारे नेता इतने हृदयहीन कैसे बन गये हैं? क्योंकि उन बेचारों के पास स्वामी विवेकानन्द को जानने समझने का समय ही नहीं है। जैसा विवेकानन्द कहते थे- ' जब सिर ही नहीं है, तो सिर-दर्द कैसा ? समझदार जनता कहाँ है ? इसीलिये कल की आशा युवावर्ग के बीच कार्य करो, उनको ही संगठित करके - हृदय का विस्तार करने वाली शिक्षा प्रदान करो।   
उसी सर्वव्यापी सत्ता को सर्वत्र देखते हुए- किसी के साथ दुश्मनी मत रखो, किसी के प्रति दुर्भावना मत रखो, किसी की भी हिंसा मत करो, किसी को नुकसान पहुँचाने की बात भी मत सोचो, तुम्हें अपनी उन्नति के लिए किसी के विरुद्ध कुछ भी नहीं करना होगा।
अपनी उन्नति के लिए तुम्हें किसी के विरुद्ध हथियार उठाने की जरुरत नहीं है, कोई हिंसा नहीं करनी है, कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखानी है।तुम्हें स्वयं क्रिया करनी होगी, प्रतिक्रिया दिखाने से कोई लाभ नहीं होगा। अपनी ओर से कार्य करो,तुम अपनी सत्ता को विकसित करने की चेष्टा करो।  स्वयं 
क्रियाशील होने की आवश्यकता है, आत्म-विकास के लिए प्रयत्न करने की जरूरत है। 
 तथा एकमात्र श्रेष्ठ कार्य है- अपने मनुष्यत्व को, निद्रित मनुष्यत्व को जाग्रत कर लेना।  इसी से देश का कल्याण हो सकता है। प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो ' मनुष्यत्व ' सोया हुआ है, उसको जाग्रत करने के कार्य में जुट जाओ ! इससे भी बढ़ कर और कोई देश-सेवा नहीं हो सकती है.
इसके बाद इसे करते समय कई कार्य आँखों के सामने दिखाई पड़ने लगेंगे, जितना तुमसे संभव होगा, दूसरों की उतनी ही सेवा करोगे। किसी व्यक्ति को खाने के लिए कुछ भी नहीं है, उसको एक दीन का भोजन करा देना।किसी के बदन पर एक वस्त्र भी नहीं है, उसको एक वस्त्र दे देना। कोई गरीब व्यक्ति अस्पताल में जाकर अपना इलाज नहीं करा पा रहा है, उसको कम से कम होमियोपैथी की दवा दे देना।  इसी तरह के कार्य कर सकते हो। 
किन्तु यह सब सेवा नहीं- सेवा के खेल हैं, यह कोई सच्ची सेवा नहीं है। क्योंकि उस समाज-सेवा का  अंततोगत्वा कोई विशेष मूल्य नहीं रह जाता, यदि वह प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो सत्ता अन्तर्निहित है, उस दिव्यता को, अंतरस्थ मनुष्य को, उसके ' पाका आमी ' या यथार्थ ' मैं ' को जाग्रत न करा सके। इस प्रकार की छोटी छोटी सेवाओं के द्वारा मनुष्यों के दुःख को कभी दूर नहीं किया जा सकता है।  इस सच्चाई को स्मरण रखते हुए भी, जब ऐसी सेवा का खेल अपने-आप कभी किसी के सिर पर थोप दिया जाये, तो उस समय वह सेवा-सेवा का खेल, खेल भी सकते है, उससे कोई हर्ज नहीं होगा।
किन्तु ' सेवा का खेल ' दिखाते रहने से देश का यथार्थ कल्याण नहीं हो सकता है। ऐसी सेवा से बहुत घुमा-फिरा कर एक दूसरे प्रकार का कार्य जरुर सिद्ध हो जाता है। ऐसी सेवा में लगे बहुत से लोग यह सोचेंगे-हमलोगों ने तो देश-सेवा में कमाल कर दिया है, देखो हमने ५०० कम्बल या १००० मच्छड़दानी बाँट दिया है, १०० गरीबों को मोतियाबिंद का आपरेशन करवा दिया है ! (या आजकल के 'बाबा-उद्द्योग ' में बुला कर मोटी मोटी सेठानियों को राधे-राधे का फूहड़ डांस करवा दिया है ! वाह रे मैं ! )
किन्तु इन सब कार्यों के द्वारा वास्तविक सेवा नहीं हो सकती है।उनके भीतर जो मनुष्यत्व है, उसको जाग्रत करने की चेष्टा नहीं करने से, जो मनुष्य अपनी अन्तर्निहित सत्ता के प्रति अचेत हैं, वे उसी बेहोशी की दशा में पड़े रह जायेंगे।
इसीलिए यदि आवश्यक प्रतीत हो, तो हमें अभी इस प्रकार की सेवा के खेल की उपेक्षा करके, मनुष्यों 
की  वास्तविक सेवा की ओर ध्यान देना उचित है। वही सेवा यथार्थ देश-सेवा है, जिससे मनुष्य के भीतर की अंतरात्मा, उसका सच्चा ' मैं ' जाग उठे, ताकि वह अपनी सत्ता को और अधिक विकसित कर सके, अपने हृदय को और अधिक विशाल बना सके। जिस सेवा को प्राप्त करके उसका शरीर और मन स्वस्थ-सबल हो जाये, वह आत्मनिर्भर बन जाये. वह सेवा ही करनीय है।
यही सबसे बड़ी देश-सेवा है। और हममें से प्रत्येक व्यक्ति को, विशेष तौर से जिनकी उम्र अभी कम है, जो छात्र हैं, इस सेवा का प्रारंभ- अपने से ही करना है।  अपने जीवन को सुन्दर रूप से गढ़ लेना- सबसे बड़ी समाज-सेवा है!
 ऐसा नहीं सोचना चाहिए, कि मैं तो एक छोटा सा छात्र हूँ, किशोर या युवा हूँ- मैं अभी ही देश की कितनी सेवा कर सकता हूँ ? हमलोगों को यही सोचना चाहिए, कि मैं भी अपने देश का ' एक बटा एक सौ कड़ोड़वाँ ' हिस्सा हूँ, मैं आत्म-विकास करके अपने देश की सेवा अवश्य कर सकता हूँ।
मैं अपने जीवन को सुन्दर रूप से गठित कर रहा हूँ, मेरे अपने भोग के लिए नहीं, बल्कि अपने सुन्दर देश के लिए, अपनी सुन्दर मातृभूमि को और सुन्दर बनाने के लिए मैं अपने चरित्र को सुन्दर ढंग से गढ़ रहा हूँ। उस देश के एक सुन्दर नागरिक को मैं अपने हाथों से इस प्रकार गढ़ लिया हूँ, जिस प्रकार कोई मूर्तिकार अपने हाथों से मूर्ति गढ़ते समय, मिट्टी को धीरे धीरे एक सुन्दर आकर में ढाल कर एक शानदार, विस्मयकारी मूर्ति बना लेता है। उसी प्रकार मैं भी अपने आप को यदि धीरे धीरे एक सुन्दर मनुष्य के रूप में गढ़ लिया हो, तो उससे बड़ी देश-सेवा और कुछ भी नहीं हो सकती है।

अपना सुंदर चरित्र गठन कर लेना ही सबसे बड़ी समाज सेवा है।[33] परिप्रश्नेन

३३.प्रश्न : हम जैसे युवाओं के लिए समाज कल्याण-मूलक बहुत से कार्यों को करने की जरूरत है। इन 
कार्य को हम सभी युवा संघबद्ध होकर कर सकते हैं, किन्तु इन सब कार्यों को करने के लिए धन की भी आवश्यकता है। अभी देश की जो आर्थिक स्थिति है, उसमें रहते हुए हम धन कैसे प्राप्त कर सकते हैं ?
उत्तर : समाज के कल्याण के लिए अनेको कार्य किये जा सकते हैं, किन्तु इस विषय के उपर हमलोग ज्यादा माथापच्ची नहीं करते हैं। समाज कल्याण-मूलक कार्य कहने से तुम क्या समझते हो, पता नहीं चलता है। 
' समाज कल्याण-मूलक ' कार्य करने का अर्थ आमतौर पर हमलोग - सड़क की सफाई करना, कोई दातव्य औषधालय खोलना, या निःशुल्क कोचिंग क्लास चलाना, कोई स्कूल खोल देना, कहीं बाढ़ आ गया, या कहीं भूकम्प से जान-माल की क्षति हो गयी हो तो वहाँ पहुँच कर रिलीफ वर्क में हिस्सा लेना इत्यादि कार्यों को हमलोग समाज कल्याण-मूलक कार्य समझते हैं। ये सभी अच्छे कार्य हैं, मौका पड़ने से हमलोग भी इन कार्यों को करते हैं। किन्तु इन्हीं कार्यों को सबसे मूल्यवान समाज कल्याण-मूलक कार्य समझ कर नहीं करते हैं। 
स्वामीजी की शिक्षा के अनुसार हमलोग भी यह मानते हैं, कि सर्वाधिक मूल्यवान समाज-सेवा है- मनुष्य के जीवन का निर्माण करना। इसी कार्य को हमलोग सबसे विलक्ष्ण और सर्वाधिक आवश्यक समाज-सेवा का कार्य समझते हैं, जिससे उनका जीवन, उनका चरित्र सही रूप में गठित हो सके।
युवाओं का चरित्र यदि सुन्दर रूप में गठित हो जाये, उनका जीवन यदि एक योग्य नागरिक के रूप में गठित हो जाये, तो वे लोग स्वाभाविक रूप से ही देश से प्रेम करेंगे, देशवासियों को प्रेम करेगें, देश के मनुष्यों के दुःख को देखने से उनके हृदय में सहानुभूति जाग्रत होगी, तब वे स्वाभाविक रूप से देश के मनुष्यों के दुःख को दूर करने के लिए अपनी सीमित क्षमता के अनुरूप जितना संभव होगा उतना प्रयत्न करेंगे।
इसीलिए, सबसे पहले से रुपया इकट्ठा करना होगा, उसके बाद समाज कल्याण-मूलक कार्य करना चाहिए - इस बात को हमलोग स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा के आलोक में, बिलकुल गलत समझते हैं। हमलोग यह मानते हैं,कि हमारा प्रथम कर्तव्य है- अपने जीवन को सुंदर ढंग से गठित करना, अपने चरित्र का 
निर्माण करना। और इसके लिए रूपये की कोई समस्या अभी दिखाई नहीं देती है। अपना जीवन गठित कर लेने के बाद हमलोगों का जितना सामर्थ्य होगा, मनुष्य के यथार्थ कल्याण के लिए उतना कार्य हम अवश्य कर सकते हैं। 
क्योंकि सबों का कल्याण इस बात पर निर्भर करता है, कि मैंने स्वयं अपने चरित्र को या अपने जीवन को कितना गठित कर लिया है ? यदि अपने चरित्र को गठित किये बिना ही, मैं समाज कल्याण के कार्य करने लगूँ, फिर जैसा आज हजारों-हजार सामाजिक संगठन कर भी रहे हैं- ढेर सारा धन एकत्र कर लूँ, तो वैसा करना केवल राख़ में घी डालने जैसी समाज-सेवा बन कर रह जाएगी। उससे देश को हानी भी उठानी पड़ेगी। इसका कारण यह है, कि जिस संगठन में सदस्यों का चरित्र-निर्माण होने के पहले ही बहुत धन प्राप्त हो जाता है, वहाँ सामान्यतः चरित्र-भ्रष्ट होने की सम्भावना बढ़ जाती है।
 उस प्रकार की समाज सेवा से बहुत से लोगों में अहंकार सीमा से बहुत अधिक बढ़ जाता है, तथा भ्रष्ट तरीके अपनाने से इनके चरित्र में भी गिरावट आ जाती है। इसीलिए बहुत सा धन इकट्ठा करके समाज-कल्याण करने का अर्थ ही अच्छा कार्य हो, ऐसी कोई बात नहीं है। स्वामीजी भी वैसा नहीं करना चाहते थे. हमारा प्रथम कार्य है, जीवन गठन- अपना सुंदर चरित्र गठन कर लेना ही सबसे बड़ी समाज सेवा है। 

उर्जा का सदुपयोग कैसे करें?[32]परिप्रश्नेन

३२.प्रश्न : हमलोग अपनी अन्तर्निहित असीम शक्ति को अपने दैनंदिन जीवन में किस प्रकार प्रयुक्त कर सकते हैं ?
उत्तर : उसी प्रकार प्रयोग करेंगे, जिस प्रकार हमलोग सर्वदा उसे अपने समस्त क्रिया-कलाप में प्रयोग कर रहे हैं. क्या हमलोग अपनी शक्ति को प्रयुक्त किये बिना एक क्षण भी जीवित रह सकते हैं ? हमलोग सो रहे हैं, जागे हुए हैं, विभिन्न प्रकार के कार्यों को कर रहे हैं, विद्या अर्जित कर रहे हैं, अर्थ उपार्जन कर रहे हैं, विभिन्न प्रकार के भोगों को भोग रहे हैं,जीवन में जो कुछ भी कर रहे हैं, वह सब हम अपनी शक्ति 
का व्यवहार करके ही कर रहे हैं। क्योंकि बिना शक्ति को खर्च किये कोई कार्य नहीं किया जा सकता है; विज्ञान के छात्र इस बात को आसानी से समझ सकते हैं।
इसी लिए हमलोग अपने जीवन में जो कुछ भी कर रहे हैं, उसमें किसी न किसी प्रकार से शक्ति खर्च हो ही 
रही है, किसी शक्ति का क्षय हो रहा है।शक्ति को सर्वदा ही हमलोग किसी न किसी क्रिया-कलाप में खर्च करते ही रहते हैं। तो कुछ लोग सोच सकते हैं, कि हमलोगों के लिये इसमें सीखने जैसी की क्या बात है ?  

हमें यही सीखना है, कि हमें अपनी शक्ति किस कार्य में खर्च करनी चाहिए, और किस कार्य में कितनी शक्ति खर्च करनी चाहिए? इसी औचित्य-बोध या विवेक-विचार का प्रयोग कैसे किया जाता है, इसी को सीखना 
होगा। इसके साथ साथ यह कौशल भी सीखना होगा कि कैसे मैं अपनी शक्ति को और अधिक प्रकट कर सकता हूँ, तथा शक्ति को और अधिक कैसे बढ़ा सकता हूँ ? 
 [ " दाद को खुजलाने समय तो आराम मालूम होता है पर बाद में उस जगह असह्य जलन होने लगती है। संसार के भोग भी ऐसे ही हैं, शुरू-शुरू में तो वे बड़े ही सुखप्रद मालूम होते हैं परन्तु बाद में उनका परिणाम अत्यन्त भयंकर और दुःख मय होता है। " ॐ तत सत ]
शक्ति को वास्तव में बढ़ाया नहीं जा सकता है। इसका रूपांतरण हो जाता है। हमलोग जो बीच बीच में कहते हैं- विदुत का निर्माण हो रहा है. क्या विद्युत् का निर्माण किया जाता है ? नहीं, इसका निर्माण नहीं किया जाता. किसी पहाड़ी झरने के मुख को खोल देने जैसा. झरने का स्रोत है, उसका प्रवाह कहीं से भी फूट सकता है, केवल उसके मुख को खोल देने की जरूरत है। 
उसी तरह हमारी शक्ति बाँधा नहीं जा सकता, हमारे भीतर में अनन्त शक्ति का स्रोत है, केवल उसके प्रस्रवण के द्वार को खोल देना है। जैसे ही हम उस द्वार को ( अहम् को) खोल देंगे, शक्ति का झरना फूट पड़ेगा. 
शक्ति को कैसे बढ़ाया जा सकता है, का अर्थ हुआ यह जान लेना कि उस प्रवाह के द्वार को किस प्रकार चौड़ा करके खोला जा सकता है? 
फिर भी यह ध्यान रखना होगा, कि उसको खोल देने पर वह कहीं अपनी इच्छा से सबकुछ को बहाती हुई न निकल जाये? इसीलिए उस शक्ति को खीँच कर बाहर प्रवाहित कराने के साथ साथ, उसको नष्ट होने से बचा कर रखना, तथा उसको औचित्य-बोध की सहायता से विवेक-विचार करके किसी विशिष्ट कार्य में कैसे नियोजित किया जाय? उर्जा का सदुपयोग कैसे करें,यही सीखने की आवश्यकता है। परिप्रश्नेन 

शनिवार, 26 मई 2012

जीवन में कोई बहुत बड़ा आदर्श अवश्य रखो ! [31] परिप्रश्नेन

३१.प्रश्न : ' सच्ची-शिक्षा ' किस प्रकार अर्जित की जा सकती है ?
उत्तर : चिन्तन-मनन के द्वारा पहले यह समझने की चेष्टा करनी होगी, कि शिक्षा कहते किसे हैं ? (क्या डिग्री लेने को ?) स्कुल -कॉलेज में दी जाने वाली शिक्षा तथा सच्ची शिक्षा या चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा में अंतर को समझने के बाद, सच्ची शिक्षा प्राप्त करने के उपाय (अपने भीतर से ज्ञान को प्रकट करने की विधि) को जान लेना चाहिए।
फिर दृढ संकल्प एवं धैर्य के साथ अध्यवसायपूर्वक उसको प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। इसके लिए सर्वप्रथम जीवन में पवित्रता  (मन की पवित्रता और दृष्टि की पवित्रता ) होनी चाहिए, यदि हमलोगों का जीवन पवित्र न बन सके, तो सूक्ष्म वस्तुओं को समझा नहीं जा सकता, तृप्त नहीं हुआ जा सकता है, किसी भी कार्य में पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हो सकती है। फिर उसके साथ साथ धैर्य और अध्यवसाय भी जरुरी है।
""""""धैर्य, अध्यवसाय एवं उसके साथ पवित्र जीवन (3P) " की सहायता से हमलोग जो कुछ भी पाने का प्रयत्न करेंगे- उसमें हमलोग अवश्य ही सफल होंगे. सच्ची शिक्षा का अर्थ क्या है ?

[ " जो व्यक्ति, सब की दृष्टि से दूर एकान्त में भी ' भगवान देख रहे हैं ! ' - इस भय से कोई अधर्म-आचरण नहीं करता, वही यथार्थ धार्मिक है। निर्जन वन में सुन्दर नवयुवती को अकेली देखकर भी जो धर्म के भय से भीत होकर उस पर कुदृष्टि नहीं डालता, वही यथार्थ धार्मिक है।...जो केवल लोगों को दिखने के लिये या ' लोग क्या कहेंगे ' इस भय से सिर्फ लोगों के सामने धर्म का अनुष्ठान करता है, उसे ठीक-ठीक धार्मिक नहीं कहा जा सकता। निर्जन,नीरव में अनुष्ठित होने वाला धर्म ही यथार्थ धर्म है, भीड़-भाड़ और कोलाहल में अनुष्ठित होनेवाला धर्म- ' धर्म ' नहीं।" ॐ तत सत {सच्ची शिक्षा और धर्म में कोई अंतर नहीं है- गुरुकुल से शिक्षा ग्रहण के बाद, दक्षिणा देने के के लिये गुरु ने सभी शिष्यों को एक--एक कबूतर देकर कहा था, ' निर्जन में जाकर इसका गला काट कर ले आना। एक शिष्य ने आ कर कहा, निर्जन मिला ही नहीं हर जगह भगवान देख रहे थे। '  } ]
 जिस शिक्षा को प्राप्त करके जीवन सही रूप में विकसित हो, जीवन सुन्दर रूप में गठित हो जाये- इसे जान लेना ही वास्तविक शिक्षा है।  सच्ची शिक्षा वह शिक्षा है, जिससे जीवन सर्वोत्कृष्ट रूप में निर्मित हो जाये, जीवन पूर्ण हो जाये। जैसे श्रीरामकृष्ण के जीवन को देखो- वहाँ शिक्षा की सम्पूर्ण पराकाष्ठ है ! ओहो, कैसा सुन्दर जीवन है ! अपनी कल्पना में ऐसे पूर्ण जीवन को आदर्श के रूप में सामने रखो। 
तुम बहुत अधिक पढ़-लिख लिए, कई पुस्तकों को कंठस्थ कर लिए,- प्रकृत शिक्षा या वास्तविक शिक्षा के उपर प्रश्न पूछा गया, लिख कर पास हो गये, किन्तु वास्तविक शिक्षा क्या है ? उससे थोडा भी परिचय नहीं हो सका। किन्तु भगवान श्रीरामकृष्ण देव के चित्र को देख कर, ठाकुर-देव के जीवन की बातों पर चिन्तन करो. कैसा असाधारण जीवन था-इसी को कहते हैं, शिक्षा !अच्छा सोचो, वास्तविक शिक्षा प्राप्त हो जाने पर कोई व्यक्ति कैसा हो जाता है ?
 मैक्स मुलर ने कहा था, स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा है - " इनके (श्रीरामकृष्ण के ) भीतर केवल भगवान ही हैं, मनुष्य सम्पूर्ण रूप से मर चूका है ! "  किंतनी अनुपम उक्ति है. ' मनुष्य मर चूका  है।'- इसका अर्थ क्या हुआ ? सामान्य मनुष्यों में जो संकीर्णता, दीनता और दरिद्रता रहती है, उसका पूर्ण अवसान हो चूका है।  
 सामान्य मनुष्य कितना दीन होता है ! कितना बेवश होता है. केवल आर्थिक रूप से गरीब व्यक्ति को ही दीन नहीं कहते, मन से भी कोई व्यक्ति अति दीन होता है, यदि उसका मन अति संकीर्ण हो, केवल कामना-वासना का दास हो, केवल बाहरी-आन्तरिक प्रकृति का दासत्व करता हो, जगत का दास हो, यह भी दीनता है, दरीद्रता है।
स्वामीजी ने कहा है न - ' हमलोग जगत के दास हैं, प्रकृति के दास हैं, जीवन के दास हैं, एक मधुर वाणी के दास  हैं, एक अपशब्द के गुलाम हैं, हमलोग अति हीन हो चुके हैं। इस हीन अवस्था को त्याग कर अपनी महिमा में उन्नत हो जाना होगा। ' वह क्या है ? यही कि समस्त प्रकार की गुलामी के बन्धनों से अपने को मुक्त कर लेना होगा। मैं किसी भी बाहरी व्यक्ति या परिस्थिति के द्वारा संचालित नहीं होता हूँ, मैं 
अपने ' स्वभाव ' के अनुसार चलता हूँ, मेरे भीतर जो मेरा भाव है, ' स्व-भाव '- जिसको ठाकुर देव
 ' पाका आमी ' या वास्तविक ' मैं ' कहते थे, उस ' मैं ' को मैंने प्रस्फुटित कर लिया है। 
 वैसा हो जाने से ही हमलोग सच्ची शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं. ठाकुर-माँ- स्वामीजी का जीवन और उपदेश, अर्थात हमारा वही सनातन आदर्श, हमारी अपनी सनातन संस्कृति की जो भावधारा है- उसी चिरन्तन प्रवाह में स्नान कर लेना होगा। वैसा करने में सक्षम होने से ही हमलोग वास्तविक शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे। हमें ठाकुर-माँ-स्वामीजी के रूप को ही हमेशा ध्यान में रखना होगा, उन्हीं के जैसा बनना होगा, उन्हीं के साँचे में अपने को ढालना होगा- वे ही हमारे आदर्श हैं !
 " The ideal if reached or not- makes great the life. "  
कोई बहुत बड़ा आदर्श (या लक्ष्य) अपने सामने रखना चाहिए-हो सकता है, या मान लो मैं वहाँ तक पहुँच नहीं सका, और जीवन की शाम हो आई- किन्तु किसी आदर्श-जीवन को अपने सामने रखने से क्या होता है ? हमलोग क्रमशः थोड़ा आगे तो अवश्य बढ़ जाते हैं। जीवन में कोई बहुत बड़ा आदर्श अवश्य रखो !
 सच्ची शिक्षा को प्राप्त करके जिस सुन्दर जीवन को गठित करने की बात कह रहे हो, उस वास्तविक शिक्षा को प्राप्त करने के लिए, पहले अपने जीवन्त आदर्श के रूप में ठाकुर-माँ-स्वामीजी को अपने सामने रखो। उसके बाद हमलोगों में से जो जितना आगे बढ़ सकता हो, उसके लिए प्रयत्न करता रहे !  
सच्ची शिक्षा मनुष्य को श्रीरामकृष्णदेव बना सकती है।परिप्रश्नेन  

चरित्र के गुणों का आत्मसातीकरण कैसे करें ? [30] परिप्रश्नेन

३०.प्रश्न : यदि यह बात सत्य है, कि सभी मनुष्यों में अच्छे-बुरे गुण सम-भाव से विद्यमान रहते हैं;  तो अच्छे-बुरे गुणों की अभ्व्यक्ति में तारतम्य क्यों रहता है ?
उत्तर :  तुमने यह बात कैसे सोचा या कहाँ पढ़ा है, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ. सभी मनुष्यों में अच्छे और बुरे गुण सम-भाव में तो विद्यमान नहीं रहते हैं। किसी व्यक्ति में अच्छे गुण अधिक होते हैं, किसी व्यक्ति में बुरे गुण अधिक होते हैं। यह हो सकता है कि किसी व्यक्ति में जैसे अच्छे गुण हों, वैसे ही उसमें कुछ बुरे गुण भी स्पष्ट दिख सकते है। किन्तु यह स्वाभाविक नहीं है। हाँ स्वाभाविक रूप से गुणों में तारतम्य तो रहता ही है। 
अभिव्यक्ति में तारतम्य क्यों होता है ?
 वह इसीलिए होता है, कि तुम जिस गुण को अधिक प्रश्रय दोगे, वही गुण तुम्हारे भीतर से अधिक अभिव्यक्त होगा। यदि तुम अच्छे गुणों (पवित्रता--धैर्य--अध्यवसाय ) से अधिक प्रेम करो, एवं अभ्यास द्वारा जीवन में 
उतारने की चेष्टा करते रहो, तो उन्हीं गुणों की अभिव्यक्ति अधिक होगी। उसी प्रकार यदि तुम्हारे भीतर जो बुरे गुण हैं, उनको यदि अधिक प्रश्रय दो, तथा उसी गुण के द्वारा संचालित होकर बीच बीच में वैसे कार्य करते रहोगे तो उसकी अधिक अभिव्यक्ति होगी।  इसीलिए गुणों की अभिव्यक्ति तुम्हारे व्यक्तिगत विवेक-प्रयोग क्षमता के उपर निर्भर करती है। 
तुम अपनी बुद्धि से भले-बुरे में अन्तर के औचित्य-बोध को कितना व्यवहार में ला पाते हो, उस पर निर्भर 
करता है, कि तुम अपने भीतर अच्छे गुणों को बढ़ा पाओगे, या तुम्हारे भीतर बुरे गुण ही बढ़ते जायेंगे ? यह तुम्हारे व्यक्तिगत-विवेक के उपर निर्भर करता है।चरित्र के गुणों का आत्मसातीकरण विवेक-प्रयोग पर निर्भर है।  

परीक्षा की घड़ी में मानसिक संतुलन कैसे बनाये रखें ?[***29] परिप्रश्नेन

२९.प्रश्न : प्रचण्ड जीवन संग्राम के भीतर रहते हुए भी कैसे कोई मानसिक साम्य बनाये रख सकता है? 
उत्तर : वास्तविकता तो यह है कि मानसिक संतुलन खो देने से, या मानसिक-साम्य नहीं रख पाने से
जीवन-संग्राम को सफलतापुर्वक चला पाना ही संभव नहीं होता; अर्थात उसमें पराजय स्वीकार करनी पड़ती है. जिसके फलस्वरूप जीवन की अनन्त संभावनाएं प्रस्फुटित ही नहीं हो पाती, और जीवन विफल हो जाता है। किन्तु उससे भी अधिक हानिकारक बात यह होती है, कि जीवन के संबन्ध में एक भ्रान्त धारणा मन में बैठ जाती है। हमारे मन में स्थायी रूप से इस ' जगत एवं जीवन ' को लेकर - नैराश्य का एक काल्पनिक विषादपूर्ण और अन्धकारमय चित्र बैठ जाता है। 
यहाँ पर साधारण बोलचाल की भाषा में ' मानसिक साम्य ' कहने से जो समझते हैं, उसी अर्थ में इसके उपर चर्चा हो रही है. जब बिल्कुल अशांत परिवेश हो, या जान का जोखिम हो, या जब सबकुछ दाव पर लगा हुआ हो, उस समय भी, विवेक-विचार तथा तत्क्षण-करनीय निर्णय की क्षमता एवं तदानुसार कार्य कर पाने की शक्ति को प्रचलित भाषा में ' मानसिक साम्य ' कहते हैं। प्रचलित भाषा में इसीको अविचलता, मानसिक भार का संतुलन या ' मानसिक भारसाम्य (Load balance )' भी कहा जाता है। जब सबकुछ दाव पर लगा हो, उस समय भी मानसिक संतुलन बनाये रखते हुए उचित निर्णय लेने की क्षमता ही यथार्थ शिक्षा है।

किसी विशेष परिस्थिति में, जब अल्प सुचना के आधार पर, तेजी से,तत्क्षण कोई निर्णय लेना हो- 
उस समय यदि यह निर्णय न ले सकें, कि क्या करना है ? अथवा जब ऐसी परिस्थिति सामने उपस्थित
हो जिसमें-ऐसे कई महत्वपूर्ण कार्य सामने दिख रहे हों, जिन्हें तत्काल करना आवश्यक लगता हो, किन्तु यह सोच-विचार करके निश्चित करने का समय न हो,कि सबसे प्रथम किस कार्य को हाथ में
 लेने से अच्छा होगा, या तत्काल  क्या करने से अच्छा होगा ? 
जब अपना सबकुछ दाव पर लगा हो, उस समय भी अपना भला सोचने के साथ-साथ दूसरों के मंगल का भी ध्यान रखते हुए तत्क्षण उचित निर्णय लेने की क्षमता ही हमें अविचल रखती है।अथवा ऐसे असमंजस की 
स्थिति में जब हम कुछ भी तय नहीं कर पा रहे हों, कि किसी कार्य को अभी तुरन्त ही न करके, भविष्य पर छोड़ कर आगे बढ़ा जाये या नहीं ? तत्काल ही ऐसा निर्णय लेना हो,उस अवस्था में हमारे
 निर्णय-क्षमता का पलड़ा एक बार इस ओर झुकता है, किन्तु तुरन्त फिर मानो उस ओर झुकना चाहता है।
 इसीको 'किंकर्तव्यविमूढ़ ' अवस्था कहते हैं। 
(जैसे एकबार नारद जी अचानक बाढ़ में फंस कर तय नहीं कर पा रहे थे कि पहले बच्चे को बचाऊं या बीबी को ?) उस समय कहते हैं- मेरा मानसिक साम्य खो गया था।
किन्तु उस समय भी पुरे धैर्य के साथ, अपने यथार्थ मंगल के साथ-साथ दूसरों के मंगल की सम्भावना को 
भी  सूनिश्चित करते हुए- स्पष्टचिन्तन क्षमता की सहायता से, प्रत्येक परिस्थिति को ध्यान से समझकर एवं विश्लेष्ण करके, अपने कर्तव्य के सम्बन्ध में तत्क्षण कोई दोषरहित निर्णय ले लेने की क्षमता रखना  आवश्यक है। 

यह नहीं रहने से जीवन-संग्राम में पराजय मिलना अनिवार्य है. इसीलिए जीवन-संग्राम में विजय को सुनिश्चित करने के लिए सदैव अपना मानसिक साम्य बनाये रखना बहुत आवश्यक है।
किन्तु,हर अवस्था में इस तत्काल-निर्णय लेने की क्षमता को हमलोग कैसे बनाये रख सकते हैं?
 जब तक जीवन में सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा होता है - मोटे तौर पर जो कुछ पाना चाहता हूँ, वह सब जब तक मिलता रहता है, खाने-पहनने-रहने में जबतक कोई व्यवधान  नहीं हो रहा है, पारिवारिक सम्बन्धों में कोई जटिलता उत्पन्न नहीं हुई हो, किसी सदस्य को कोई खतरनाक बीमारी, या कोई आकस्मिक दुर्घटना से जब तक पाला नहीं पड़ा हो, तब तक हमारा मानसिक साम्य बना रहता है, - इस बात कोई विशेष मूल्य नहीं है। ऐसी अवस्था में मानसिक साम्य को जाँचने का अवसर आया ही नहीं है, इसीलिए वह गुण मुझमें है, या नहीं- क्या इसे सही रूप से बता नहीं सकते हैं।
 परीक्षा की घड़ी उपस्थित होते हुए भी यदि साम्य बना रहे तभी कहा जा सकता है,कि-मानसिक संतुलन 
बनाये रखने की क्षमता है, या भंग हो गयी है ?
यदि भंग हो गयी है, तो पुनः उसे कैसे बहाल किया जा 
सकता है ? किन्तु यदि पहले से ही यथोचित अभ्यास द्वारा - हमने अपने मन को धीर, एकाग्र, शांत, वशीभूत रखना नहीं सीख लिया हो, तो वैसे असमंजस की परिस्थिति में लाख उपाय करने से भी मन को साम्य की अवस्था रख पाना संभव नहीं होता है। परीक्षा की घड़ी में मानसिक संतुलन कैसे बनाये  रखें ?
यदि पहले से ही मुझे चप्पू चलाने का अभ्यास नहीं हो, और जब अचानक नदी में ज्वार आ जाय, उस समय यदि मैं अपने हाथों में पतवार संभाल लूँ, तो यात्री और नाव दोनों के लिए खतरा उत्पन्न हो जाता है।  जीवन-संग्राम में भी ठीक ऐसा ही होता है। इसीलिए जीवन-नौका में चढ़ने के पहले से ही यह समझ लेना होगा, कि नदी में तूफान कभी भी आ सकता है, ऊँची ऊँची लहरें उठ सकती हैं, नदी का प्रवाह अचानक तीव्र हो सकता है, नौका भँवर में फंस भी सकती है।  उस अवस्था में क्या करना होगा- कैसे उस भँवर से बचा कर नौका को बाहर निकला जा सकता है ? यह सब कौशल समय रहते सीख लेना हमारा कर्तव्य है, वरना जीवन नदी के बीच भँवर में डूब मरने की आशंका बनी रहती है।
हम इस कौशल को कैसे सीख सकते हैं ? यदि हमलोग जीवन-संग्राम में विजयी होना चाहते हों, अर्थात प्रकृति या परिवेश के उपर विजय प्राप्त करने के इच्छुक हों, तथा अपने जीवन-पूष्प को प्रस्फुटित करके अपने चारों दिशाओं को भी आनंदित रखना चाहते हों, तो हमें युवाकाल में ही जीवन को सुंदर रूप में गढ़ने की तकनीक सीख लेनी चाहिये। 
ताकि अचानक किसी तूफान में पड़ने से हमारी जीवन-नौका एकतरफा झुक ही न सके, इसके लिए सबसे पहले जीवन में पवित्रता आनी चाहिये। काम वासना की प्रचण्डता एवं भोग-इच्छाओं  को पूर्ण करने के उतावलेपन को क्रमशः नियंत्रित करते रहना चाहिये। हिंसा-द्वेष-घृणा को दूर से ही त्याग देना चाहिए एवं भोगों को एक सीमा से अधिक नहीं बढ़ने देना चाहिए। 
इसके लिए -मन की गति को ध्यान से देखते रहना होगा, एवं नियमित अभ्यास के द्वारा उसको नियन्त्रण में रखते हुए, धीरे धीरे उसको अपने पूर्ण नियंत्रण में ले आना होगा। महामंडल द्वारा प्रकाशित
 पुस्तिका ' मनः संयोग ' इस विषय में सहायक हो सकती है. मन के उपर जैसे जैसे नियन्त्रण बढ़ता जायेगा, क्रमशः मन उतना ही धीर, शान्त और बलिष्ठ बनता जायेगा।  तब वह बाहरी पेरिवेश के दबाव में आकर बात बात पर विचलित नहीं हो सकेगा। 
 उसी वशीभूत मन रूपी सुदृढ़ पतवार के द्वारा, जीवन-नदी की  उत्ताल तरंगों को चीरते हुए, आँधी-तूफान
 के भँवर में जीवन-नौका को फंसने से बचते-बचाते, दूसरे किनारे के ठोस धरातल पर उतरा जा सकता है।  उस समय नदी में  तैरते हुए, ऊँची ऊँची लहरों को काबू में रखना एक मनोरंजक खेल में परिणत हो जाता 
है। मानसिक सन्तुल या साम्य बनाये रखने की क्षमता या अपनी ' यथार्थ-शिक्षा ' को परखने का अवसर, 
उसी समय  मिलता है, जिस समय जीवन-नदी में उत्ताल तरंगे उठ रही होती है।  यह बात ' मानसिक साम्य ' 
के किस अर्थ को सामने रख कर कही जा रही हैं, उसके सम्बन्ध में पहले ही,चर्चा हो चुकी है।  
 किन्तु ' मानसिक साम्य ' का वास्तविक अर्थ इससे कुछ अलग किस्म का होता है। किसी भी कार्य को 
हमलोग जिस प्रकार मन के माध्यम से करते हैं, उसी प्रकार उसी के माध्यम से देखते भी हैं। सामान्यतः  
हमलोग भेद-दृष्टि को लेकर ही जगत की हर वस्तु को देखते हैं, क्योंकि हम यहाँ' एक ' को न देखकर 'अनेक ' को देखते हैं।

हमलोग अभी तक यह नहीं जानते कि ' एक ' ही ' अनेक ' बन कर विद्यमान हैं (The One has become Many), इसीलिए सभी को अपने से भिन्न समझते हैं।इसीलिए यहाँ सबको भिन्न-भिन्न दृष्टि 
से देखते हैं। छोटा-बड़ा,गोरा-काला, अपना-पराया के भेद-दृष्टि से देखते हैं। किन्तु जब हमलोग प्रत्येक वस्तु के भीतर जो सत्ता अनुस्यूत है, उस सर्वव्याप्त सत्ता की अनुभूति कर लेते हैं- तब फिर अनेक नहीं रह जाता- सभी को उस ' एक ' के ही बहिरूप में स्वीकार करने लगते हैं, सभी एक हैं- ऐसा देखते हैं। भिन्नता या असामनता कहीं नहीं है, सभी एक समान हैं. इसीको साम्य-दृष्टि कहते है।
 जब हमलोग इस सार्वभौमिक -साम्य में प्रतिष्ठित हो जायेंगे, उसी को ' मानसिक-साम्य ' कहते हैं। वैसा होने पर कोई पराया नहीं रह जायेगा, किसी के प्रति मन में विद्वेष नहीं होगा, किसी के अमंगल का विचार भी  मन में नहीं उठेगा। जब कोई व्यक्ति इसी प्रकार के ' सम-दृष्टि ' से सम्पन्न हो जाता है, केवल तभी वह यथार्थ सुख का अधिकारी होता है. सार्वभौमिक साम्य में प्रतिष्ठित रहना ही मानसिक-संतुलन है।
 भागवत में कहा गया है-
यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेषु-मंगलम ।
समदृष्टि: तदा पुंसः सर्वाः सुखमया दिशः ।।
श्रीमदभगवत गीता (5/19) में कहा गया है- 
           इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन: ।
                                                  निर्दोषं हि समं ब्रह्रा तस्माद् ब्रह्राणि ते स्थिता: ।
जिनका मन सम-भाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है।  क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे भी सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही स्थित हैं। जिसका मन ऐसे साम्य में स्थित हो, उसे फिर संसार-सागर के दोनों किनारों को पार करने की आवश्यकता नहीं होती.

दूसरों के दुःख से दुःखी होना श्रेयस्कर है।[28]परिप्रश्नेन

२८. प्रश्न : जब परिवार में घोर दरिद्रता के साथ युद्ध करके सबों का भरण-पोषण करना पड़ता हो, वहाँ स्वामीजी के विचारों को कार्यान्वित करके अपना जीवन-गठन करना, क्या कभी  संभव हो सकता है ? यदि संभव हो, तो ऐसा किस प्रकार हो सकता है ? क्या परिवार के अन्य सभी सदस्यों को इसी भावधारा में लाये बिना, अकेले ही इस आदर्श के अनुसार जीवन -गठन किया जा सकता है ?

उत्तर : हमलोग तो यह मानते हैं, कि यह बिल्कुल सम्भव है. परिवार के प्रत्येक सदस्य को इस भावधारा में ला सकने से अच्छा ही है, किन्तु यदि सभी नहीं आ सकें तो मैं भी नहीं करूँगा, इसके पीछे कोई तर्क नहीं मिलता है. परिवार में केवल दरिद्रता ही क्यों, और भी कितने ही प्रकार के संघर्ष करने पड़ते हैं. किन्तु इन समस्त संघर्षों के बीच यदि हमलोग जीवन-गठन के संग्राम से मुख मोड़ लें, तो पारिवारिक दुःख-कष्ट, गृहस्ती के कई झंझटों से निज़ात तो नहीं ही मिलेगा, उल्टे उसमें वृद्धि भी हो सकती है.

 इसीलिए विभिन्न प्रकार की समस्याओं से जूझते हुए ही, यदि हम जीवन-गठन का संग्राम भी लड़ते रहें, तो वे सब दुःख तो रह सकते हैं, किन्तु वे अब हमको दुःखी नहीं कर सकेंगे.घरेलू-जीवन जैसा है, वैसा ही रहेगा. किन्तु उसमें अपने को फंसा देखकर, जैसे अभी निराश-हताश हो जाता हूँ, यदि अपने अभ्यन्तर को सक्षम तरीके से गठित कर लूँ, तो फिर वैसी हताशा कभी नहीं होगी. उसी की तो आवश्यकता है. 

घर-परिवार का संसारी जीवन तो हमेशा दुःखमय ही है. संसार के दुःख कभी दूर न हो सकेंगे. किन्तु क्या दूर हो सकता है ? हमलोग तब हम उन दुःखों को दुःख के रूप में देखना छोड़ देंगे. अब वह हमें कष्ट दे ही नहीं सकेंगे. हमलोग जान जायेंगे कि समाज की प्रकृति ही इस प्रकार की है. संसार का नियम ही ऐसा है.
संसार में दुःख तो है. किन्तु यदि हम अपने अभ्यन्तर को मजबूती से गठित कर लें, तो हमलोगों का कष्ट कम हो सकता है, और यदि दूसरों को भी यह समझा सकें, और दुसरे भी इस सत्य को समझ जाएँ, तो उनका भी दुःख दूर हो सकता है. किन्तु यदि इस बात को वे समझने को भी तैयार न हों, तो उनको थोडा अधिक कष्ट झेलना पड़ेगा; अन्य कोई उपाय ही नहीं है.
यह हो सकता है, कि मैं अपने अभ्यंतर को कठोर रूप से गठित कर, उनके समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत कर सकूँ. हो सकता है, वे मुझे देख देख कर सीख जाएँ. तो उनका कष्ट कम हो जायेगा. नहीं हो सका,तो उनके कष्ट में गिरा देखने से मुझे कुछ कष्ट अवश्य होगा, बचने का कोई उपाय नहीं है.घर-परिवार के बीच रहने, या जगत में रहने से कष्ट तो स्वीकार करना ही होगा. एक प्रकार का कष्ट होता है, अपने दुःख के लिए स्वयं कष्ट भोगना. और एक प्रकार का कष्ट होता है, दूसरों को कष्ट में पड़ा देख कर अपने हृदय में दुःख महसूस करना. 
अपने दुःख से दुखित होने की अपेक्षा, दूसरों के लिए कष्ट पाना बहुत अच्छा है.

 स्वामीजी ने कहा है न - " जत उच्च तोमार हृदय, तत दुःख जानीय निश्चय ।" -अर्थात ' जितना ही विस्तृत तुम्हारा हृदय होगा, निश्चित जानना कि उतना ही अधिक दुःख भी भोगना होगा !' तुम यदि यह सोचते हो कि बहुत महान हृदयवत्सल व्यक्ति बन जाओगे, तो तुम्हारा दुःख दूर भाग गया है, वैसा नहीं हो सकता. दूसरों को दुःख में गिरा देखने से अपने हृदय में जिस दुःख का अनुभव होता है, वह स्वीकार्य और उत्कृष्ट होता है. यह दुःख हमारे अभ्यन्तर को कष्ट नहीं देता. अपने दुःख से दुखी होकर मुँह लटकाये रहने की अपेक्षा दूसरों के दुःख से दुःखी होना श्रेयस्कर है।

बहार में कष्ट है, उसके प्रति हृदय में सहानुभूति है. किन्तु मेरी अन्तरात्मा को उससे कष्ट का अनुभव नहीं होता. मेरा अभ्यान्तर उससे पथभ्रष्ट नहीं होता, कभी निरानन्द नहीं होता. भीतर से कभी थकावट का अनुभव नहीं होता है. संसार में सामान्यतः दुःख-कष्ट मेरे भीतर एक प्रकार की थकान पैदा करती है, किन्तु दूसरों के दुःख से दुःखबोध रहने से वह दुःख अभ्यन्तर में किसी थकान या निरानन्द का संचार नहीं कर पाता. यही अंतर रहता है।

वर्णाश्रम धर्म का औचित्य [27] परिप्रश्नेन

२७.प्रश्न : क्या वर्णाश्रम धर्म की कोई उपयोगिता अब भी बची हुई है ?
उत्तर : भूतकाल में ये व्यवस्थाएँ जिन अर्थों में प्रासंगिक मानी जातीं थीं निश्चित रूप से आज वैसी नहीं हैं। किन्तु जो आदर्श इन व्यवस्थाओं के माध्यम से कार्य कर रहे थे, उनकी आवश्यकता हमारे लिए आज भी है। यह ठीक है कि आज के विद्यार्थी (शिष्य) अपने गुरु के साथ रहने (गुरु-गृह वास) के लिए अरण्यों में नहीं जा सकते। किन्तु ब्रह्मचर्य आश्रम के आदर्शों का अनुसरण करने का प्रयास उन्हें अवश्य करना चाहिए।

ब्रह्मचर्य का अर्थ है- ' जीवन में संयम रखना ' अर्थात मन, वचन और कर्म से पवित्र रहना तथा अपनी शारीरिकऔर मानसिक उर्जा को उचित प्रयोग के लिए सुरक्षित रखना। उर्जा के उचित प्रयोग का अर्थ है इसे कल्याणकारीउद्देश्य के लिए व्यवहार करना। वैसा न करने से यह उर्जा यंत्रवत, अपने आप ही ग़लत दिशा में चली जायेगी।वर्तमान युग में भी ब्रह्मचर्य के आदर्श की यही प्रासंगिकता है। बुद्धिमानी इसी बात में है कि किसी भावादर्श के उपरी रंग-रूप (गौण बातों ) पर अपना ध्यान केन्द्रित करने के बजाय उसकी मूलभावना या सारभाग पर ही करना चाहिए।

विद्यार्थी जीवन कि परिसमाप्ति हो जाने के बाद यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि बहुतेरे (अधिकांश ) छात्र गृहस्थ आश्रम या पारिवारिक जीवन में जाना पसन्द करेंगे। किन्तु नागरिकों का गृहस्थ जीवन भी (Righteousness and Discipline ) ' धार्मिकता 'और ' अनुशासन ' की नींव पर ही प्रतिष्ठित रहनी चाहिए, तभी वे अपने जीवन कोबहुत से लोगों के कल्याण में समर्पित रख पाएंगे। पर्याप्त समय तक 'गृहस्थ जीवन' व्यतीत कर लेने के बाद शायद, पारिवारिक जीवन के प्रति आसक्ति भी कम हो जायेगी। वानप्रस्थ आश्रम के पीछे का भाव या अभिप्राय यही है।

इसके और भी बहुत आगे के जीवन-मुकाम पर पहुँच कर शायद, कुछ लोगों को ऐसा महसूस होने लगे कि, मैंने कौटुम्बिक दायित्वों का भरपूर निर्वहन कर लिया है। तब पारिवारिक जीवन से एक प्रकार कि निर्लिप्तता का भावमन में उत्पन्न हो जाता है। सवार्थपर इच्छाएँ कम से कम हो जातीं हैं। जीवन के इस मुकाम पर पहुँचने के बाद, शायद कोई व्यक्ति अपने मुहल्ले के तरुणों को श्री रामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द के जीवन और शिक्षाओं केबारे में बताना शुरू करेंगे, तथा दूसरों के कल्याण ले लिए ऐसे ही अन्य परोपकारी कार्यों में स्वयं को व्यस्त रखनेकि चेष्टा करेंगे। इस प्रकार घर-गृहस्ती में रहते हुए भी,किसी व्यक्ति के ऐसे ही आचरण में संन्यास आश्रम कीझलक देखी जा सकती है।

वर्ण व्यवस्था कैसे प्रासंगिक है ?
वर्ण व्यवथा की वास्तविक अवधारणा (Actual concept) है: यदि मेरा बौद्धिक स्तर उतना विकसित नहीं है या मेरी बुद्धि उतनी सक्रिय नहीं है, यदि मैं अपनी रोजी-रोटी केवल शारीरिक श्रम करके ही कमा सकता हूँ, पर मेरी आकांक्षाएँ दिनों-दिन बढ़ती ही जातीं हों- तो मैं एक शूद्र का जीवन जी रहा हूँ। किन्तु क्या हमलोग अपना पूरा जीवन इसी प्रकार व्यतीत होने देंगे? निश्चित रूप से नहीं। मेरे भीतर भी तो शक्ति, ज्ञान और आनन्द का असीम सागर हिलोरें मार रहा है। प्रत्येक मनुष्य को मैं अपने ही जैसा देख सकता हूँ और सबों के कल्याण के कार्य कर सकता हूँ। तो फ़िर मैं केवल शारीरिक श्रम करने के बजाय उससे आगे बढ़ कर अन्य कोई कार्य क्यों नहीं कर सकता ?

कुछ स्थानों पर महामण्डल का ' जिलास्तरीय युवा प्रशिक्षण शिविर ' आयोजित करने के लिए वहां के स्थानीयलड़के दिहाड़ी पर कूली- मजदूरी का काम करके भी शिविर के लिए धन का प्रबन्ध करते हैं। इस कार्य का बाहरीस्वरूप भी शारीरिक श्रम करने के कारन शूद्र के जैसा प्रतीत होता है, किन्तु वे इसी कार्य को ब्राह्मण की बुद्धि सेसंपन्न करते हैं। आज हमारे देश को ऐसे ही कर्मियों की आवश्यकता है। प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह किसी भी तरह के कर्तव्य का निर्वहन क्यों न कर रहा हो उसे उस कर्तव्य को ब्राह्मण की बुद्धि और दृष्टिकोण रखते हुए ही संपन्न करने की चेष्टा करनी चाहए।

 इस प्रकार कार्य करने से उसमे एक नया आयाम जुट जाएगा, तथा इस दृष्टिकोण से किया गया कोई भी कार्य सबों के लिए कल्याणकारी होगा। मानव मात्र में अन्तर्निहित सत्यकी अनुभूति से ब्राह्मणों को जो शक्ति प्राप्त होती है उसे 'ब्रह्म-तेज' कहा जाता है।

क्षत्रियोचित पराक्रम और व्यावहारिक कार्यक्षमता को क्षात्र -वीर्य कहा जा सकता है। वेदों में कहा गया है कि यदिकिसी व्यक्ति में क्षात्र-वीर्य और ब्रह्म-तेज दोनों एक साथ समन्वित हो जाय तो वहाँ देवगण प्रसन्नता पूर्वकनिवास करते हैं और उसके ऊपर अपने आशीष कि वर्षा करते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ऐसे लोगों का जीवन, परिवार और समाज परोपकारिता, प्रसन्नता और समृद्धि का निकेतन (निवास-स्थान) बन जाता है।
हमारा पेशा चाहे दिहाड़ी पर कूली-मजदूरी करने का हो या किसानी का हो अथवा अन्य कोई पेशा क्यों न हो, किन्तुहम भी इसी प्रकार के बौद्धिक स्तर को क्यूँ नहीं प्राप्त कर सकते जिसमे व्यावहारिक कार्यक्षमता के साथ साथ ज्ञान, प्रज्ञा और अनुभूति भी समन्वित हो? ऐसा कोई कारण नहीं जो मनुष्य मात्र को ऐसी बुद्धि अर्जित करने से रोकसके। यदि हमलोग इसी सांचे में स्वयं को ढाल सकें तो यह देश भी उन्नत हो जाएगा। और यदि इसी दृष्टिकोण से देखा जाय तो वर्ण और आश्रम का आदर्श आज भी प्रासंगिक है।

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वर्णाश्रम धर्म पर महात्मा गाँधी के विचार  

हरिजनबन्धु, ३०-४-१९३३ 

मैं ऐसा मानता हूं कि हर एक आदमी दुनिया में कुछ स्‍वाभाविक प्रवृत्तियां लेकर जन्‍म लेता है । इसी तरह हर एक आदमी की कुछ निश्चित सीमायें होती हैं, जिन्‍हें जीतना उसके लिए शक्‍य नहीं होता । इन सीमाओं के ही अध्‍ययन और अवलोकन से वर्ण का नियम निष्‍पन्‍न हुआ है । वह अमुक प्रवृत्तियां वाले अमुक लोगों के लिए अलग-अलग कार्यक्षेत्रों की स्‍थापना करता है । ऐसा करके उसने समाज में से अनुचित प्रतिस्‍पर्धा को टाला है । वर्ण का नियम आदमियों की अपनी स्‍वाभाविक सीमायें तो मानता है, लेकिन वह उनमें ऊंचे और नीचे का भेद नहीं मानता ।

 एक ओर तो वह ऐसी व्‍यवस्‍था करता है कि हर एक को उसके परिश्रम का फल अवश्‍य मिल जाये, और दूसरी ओर वह उसे अपने पड़ोसियों पर भार रूप बनने से रोकता है । यह ऊंचा नियम आज नीचे गिर गया है और निंदा का पात्र बन गया है । लेकिन मेरा विश्‍वास है कि आदर्श समाज-व्‍यवस्‍था का विकास तभी किया जा सकेगा, जब इस नियम के रहस्‍यों को पूरी तरह समझा जायेगा और उन्‍हें कार्यान्वित किया जायेगा ।

वर्णाश्रम धर्म बताता है कि दुनिया में मनुष्‍य का सच्‍चा लक्ष्‍य क्‍या है । उसका जन्‍म इसलिए नहीं हुआ है कि रोज-रोज ज्‍यादा पैसा इकट्ठा करने के रास्‍ते खोजे और जीविका के नये-नये साधनों की खोज करें । उसका जन्‍म तो इसलिए हुआ है कि वह अपनी शक्ति का प्रत्‍येक अणु अपने निर्माता को जानने में लगाये । इसलिए वर्णाश्रम-धर्म कहता है । कि अपने शरीर के निर्वाह के लिए मनुष्‍य अपने पूर्वजों का ही धन्‍धा करे । बस, वर्णाश्रम धर्म का आशय इतना ही है ।
वर्ण-व्‍यवस्‍था में समाज की चौमुखी रचना ही मुझे तो असली, कुदरती और जरूरी चीज दीखती है । बेशुमार जातियों और उपजातियों से कभी-कभी कुछ आसानी हुई होगी, लेकिन इसमें शक नहीं कि ज्‍यादातर तो जातियों से अड़चन ही पैदा होती है । ऐसी उपजातियों जितनी एक हो जायें उतना ही उसमें समाज का भला है ।
 आज तो ब्राम्‍ह्णों, क्षत्रियों, वैश्‍यों और शूद्रों के केवल नाम ही रह गये हैं ।
 वर्ण का मैं जो अर्थ करता हूं उसकी दृष्टि से देखें, तो वर्णो का पूरा संकर हो गया है और ऐसी हालत में मैं तो यह चाहता हूं कि सब हिन्‍दु अपने को स्‍वेच्‍छापूर्वक शूद्र कहने लगें । ब्राम्‍ह्ण-धर्म की सच्‍चाई को उजागर करने और सच्‍चे वर्ण-धर्म को पुन: जीवित करने का यही एक रास्‍ता है ।
जातपांत
जातपांत के बारे में मैनें बहुत बार कहा है कि आज के अर्थ में मैं जात-पांत को नहीं मानता । यह समाज का ‘फालतू अंग’ है और तरक्‍की के रास्‍ते में रूकावट जैसा है । इसी तरह आदमी आदमी के बीच ऊंच-नीच का भेद भी मैं नहीं मानता । हम सब पूरी तरह बरार हैं । लेकिन बराबरी आत्‍मा की है, शरीर की नहीं । इसलिए यह मानसिक अवस्‍था की बात है । बराबरों की विचार करने की और इसे जोर देकर जाहिर करने की जरूरत पड़ती है, क्‍योंकि दुनिया में ऊंच-नीच के भारी भेद दिखाई देते हैं । इस बाहर से दीखने वाले ऊंच-नीचपन में से हमें बराबरी पैदा करनी है । कोई भी मनुष्‍य यदि अपने को दूसरे से ऊंचा मानता है, तो वह ईश्‍वर और मनुष्‍य दोनों के सामने पाप करता है । इस तरह जातपांत जिस हद तक दरजे का फर्क जाहिर करती है उस हद तक वह बुरी चीज है ।
लेकिन वर्ण को मैं अवश्‍य मानता हूं । वर्ण की रचना पीढ़ी-दर-पीढ़ी के धंधों की बुनियाद पर हुई है । मनुष्‍य के चार धंधे सार्वत्रिक हैं-विद्यादान करना, दिन-दुःखियों की रक्षा करना, खेती तथा व्‍यापार और शरीर की मेहनत से सेवा इन्‍हीं को चलाने के लिए चार वर्ण बनाये गये हैं। 
ये धंधे सारी मानव-जाति के लिए समान हैं, पर हिन्‍दु धर्म ने उन्‍हें जीवन-धर्म करार देकर उनका उपयोग समाज के संबंधों और आचार-व्‍यवहार का नियमन में लाने के लिए किया है । गरूत्‍वाकर्षण के कानून को हम जानें या न जानें, उसका असर तो हम सभी पर होता है । लेकिन वैज्ञानिकों ने उसके भीतर से ऐसी बातें निकाली हैं, जो दुनिया को चौंकाने वाली हैं ।
 इसी तरह हिन्‍दु धर्म ने वर्ण-धर्म की तलाश करके और उसका प्रयोग करके दुनिया को चौंकाया है । जब (विदेशी आक्रमण और विदेशियों के दमन चक्र में पिसने के कारण ) हिन्‍दु अज्ञान के शिकार हो गये, तब वर्ण के अनुचित उपयोग के कारण अनगिनत जातियां बनीं और रोटी-बेटी व्‍यवहार के अनावश्‍यक और हानिकारक बन्‍धन पैदा हो गये । वर्ण-धर्म का इन पाबन्दियों के साथ कोई नाता नहीं है । अलग-अलग वर्ण के लोग आपस में रोटी-बेटी व्‍यवहार रख सकते हैं । किन्तु चरित्र और तन्‍दुरूस्‍ती के खातिर ये बंधन जरूरी हो सकते है । लेकिन जो ब्राम्‍ह्ण शूद्र की लड़की से या शूद्र ब्राम्‍ह्ण की लड़की से ब्‍याह करता हैं वह वर्ण-धर्म को
नहीं मिटाता ।
अस्‍पृश्‍यता की बुराई से खीझकर जाति-व्‍यवस्‍था का ही नाश करना उतना ही गलत होगा, जितना कि शरीर में कोई कुरूप वृद्धि हो जाय तो शरीर का या फसल में ज्‍यादा घास-पात उगा हुआ दिखे तो फसल का ही नाश कर डालना है।
 इसलिए तो अस्‍पृश्‍यता का नाश तो जरूर करना है । सम्‍पूर्ण जाति-व्‍यवस्‍था को बचाना हो तो समाज में बढ़ी हुई इस हानिकारक बुराई को दूर करना ही होगा । अस्‍पृश्‍यता जाति-व्‍यवस्‍था की उपज नहीं है, बल्कि उस ऊंच-नीच-भेद की भावना का परिणाम है, जो हिन्‍दु धर्म में घुस गयी है और उसे भीतर-ही-भीतर कुतर रही है । इसलिए अस्‍पृश्‍यता के खिलाफ हमारा आक्रमण इस ऊंच-नीच की भावना के खिलाफ ही है । ज्‍यों ही अस्‍पृश्‍यता नष्‍ट होगी जाति-व्‍यवस्‍था स्‍वयं शुद्ध हो जायेगी ।
 यानी मेरे सपने के अनुसार वह चार वर्णो वाली सच्‍ची वर्ण-व्‍यवस्‍था का रूप ले लेगी । ये चारों वर्ण एक-दूसरे के पूरक और सहायक होंगे, उनमें से कोई किसी से छोटा-बड़ा नहीं होगा; प्रत्‍येक वर्ण हिन्‍दु धर्म के शरीर के पोषण के लिए समान रूप से आवश्‍यक होगा।
आर्थिक दृष्टि से जातिप्रथा का किसी समय बहुत मूल्‍य था । उसके फलस्‍वरूप नयी पीढि़यों को उनके परिवारों में चले आये परम्‍परागत कला-कौशल की शिक्षा सहज ही मिल जाती थी और स्‍पर्धा का क्षेत्र सीमित बनता था गरीबी और कंगाली से होने वाली तकलीफ को दूर करने का वह एक उत्‍तम इलाज थी । और पश्चिम में प्रचलित व्‍यापारियों के संधों की संस्‍था के सारे लाभ उसमें भी मिलते थे । यद्यपि यह कहा जा सकता है कि वह साहस और आविष्‍कार की वृत्ति को बढ़ावा नहीं देती थीं, लेकिन हम जानते है कि वह उनके आड़े भी नहीं आती थी ।
इतिहास की दृष्टि से जातिप्रथा को भारतीय समाज की प्रयोग-शाला में किया गया मनुष्‍य का ऐसा प्रयोग कहा जा सकता है, जिसका उद्देश्‍य समाज के विविध वर्गो का पारस्‍परिक अनुकूलन और संयोजन करना था । यदि हम उसे सफल बना सकें तो दुनिया में आजकल लोभ के कारण जो क्रुर प्रतिस्‍पर्धा और सामाजिक विघटन होता दिखाई देता है, उसके उत्‍तम इलाज के रूप में उसे दुनिया को भेंट में दिया जा सकता है ।
अंतर्जातीय विवाह और खान-पान
वर्णाश्रम में अन्‍तर-जा‍‍तिय विवाह या खान-पान का निषेध नहीं है, लेकिन इसमें कोई जो-जबरदस्‍ती भी नहीं हो सकती । व्‍यक्‍ित को इस बात का निश्‍चय करने की पूरी छूट मिलनी चाहिये कि वह कहां शादी करेगा और कहां खायेगा ।
 

शक्ति-पूजा का अर्थ [26] परिप्रश्नेन

२६.प्रश्न : मनुष्य यदि स्वयं ही अनन्त शक्ति का भण्डार है, तो उसे शक्ति की पूजा क्यों करनी चाहिए ?
उत्तर :  मनुष्य सचमुच अनन्त शक्ति का आधार है, किन्तु उसे यह रहस्य ज्ञात नहीं है, इसीलिए शक्ति की पूजा अवश्य करनी चाहिए । उसे शक्ति की पूजा इसीलिए करनी चाहिए, क्योंकि वह यह नहीं जानता, कि वह स्वयं ही अनन्त शक्ति आधार है।किन्तु शक्ति-पूजा का अर्थ काली-पूजा या दुर्गा-पूजा करके बकरे की बली चढ़ाना नहीं है।
शक्ति-पूजा का अर्थ है- शक्ति का जागरण. अपने अन्तर्निहित शक्ति के स्रोत को उद्घाटित करने की चेष्टा ही वास्तविक शक्ति-पूजा है.मुझमे शक्ति है, किन्तु अभी वह निद्रित अवस्था में है.मैं अभी अपनी उस अनन्त शक्ति से बिल्कुल अपरिचित हूँ, क्योंकि मुझे अभी तक उसकी कोई अनुभूति नहीं हुई है.इसीलिए उसकी पूजा करनी होगी. 
पूजा करते समय हम क्या करते हैं ? हमलोग पहले देवी-मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं. हम आह्वान करते हैं कि प्राण यहाँ आयें, यहाँ निवास करें. यह करने के बाद पूजा का प्रारंभ करते हैं. उसी प्रकार मैं अपनी अनन्त शक्ति का संग्राहक स्वयं हूँ, मेरे भीतर निश्चित रूप से अनन्त शक्ति है, किन्तु वह तो अभी निद्रित है, उसी निद्रित शक्ति को जाग्रत करने के लिए पूजा की जाती है. 
 पूजा करना से तात्पर्य है-उद्बोधन या उस शक्ति-स्रोत का उद्घाटन करना. जो अन्तर्निहित शक्ति अभी सोयी हुई है, उसे जाग्रत कर देना. पूजा का यही अर्थ है. यदि अपनी अन्तर्निहित अचेत शक्ति या निद्रित शक्ति को सचेत कर देना चाहते हों, उसे जाग्रत करना चाहते हों, तो हमें शक्ति-पूजा करनी ही पड़ेगी.
आत्मशक्ति का विस्मरण हो जाने के फलस्वरूप, हमलोग ' भोग एवं मुक्ति ' दोनों के अयोग्य हो गये हैं. हमारी समस्त दुर्गति का कारण-यही है कि हमलोगों ने स्वयं को शक्तिहीन मान लिया है. इसीलिए स्वामीजी ने शक्ति की पूजा, महावीर की पूजा करने का निर्देश दिया था. उनका अभिप्राय किन्तु जिस रूप से दीवाली में जूआ खेल कर और दारू पीकर  हमलोग अभी काली-पूजा, दुर्गा-पूजा कर रहे हैं, या रामनवमी के दिन शराब पीकर तलवार-लाठी भांज रहे हैं, वह सब नहीं था. हमलोगों के शक्ति पूजा
 या महावीर पूजा का लक्ष्य अपनी अन्तर्निहित शक्ति का उद्घाटन करना होगा.

' नहीं करेगा, क्या रे ? तेरी हड्डी करेगी !' [ ***25] परिप्रश्नेन

२५.प्रश्न : सफलता क्या है ? क्या स्वामीजी अपने कार्य में सफल हो सके थे ?ठाकुर ने उनको कौन सा कार्य सौंपा था ?
उत्तर : जो भी करना चाहते हो, उसके हो जाने पर, उस कार्य में सफल हो जाना कहते हैं, या सफलता मिल गयी कहते हैं. स्वामीजी सफल हुए थे, इस बात में कोई सन्देह नहीं है. उन्होंने जो करना चाहा था, उसे किया था. ठाकुर जिस कार्य को स्वामीजी से करवाना चाहते थे, उसी कार्य को पूरा करने के लिए स्वामीजी आये थे. अपनी किसी गरज या जरूरत को पूरा करने के लिए स्वामीजी नहीं आये थे।
 वे तो ठाकुर के द्वारा निर्दिष्ट होकर, प्रेरित होकर, आदिष्ट होकर, बाध्य होकर आये थे. ठाकुर ने तो स्वयं कहा है कि (स्वामीजी ) तो गहरे ध्यान में मग्न होकर बैठे हुए थे. उनकी उस ध्यानावस्था को भंग करके ठाकुर एक शिशु रूप में इतने प्रेम से पुकारे थे - ' मैं जा रहा हूँ, तुमको भी आना पड़ेगा ! ' और नरेन्द्रनाथ को आना पड़ा था, वे अपने मन से नहीं आये थे,अपना कार्य करवाने के लिये ठाकुर ही उनको अपने साथ ले आये थे। यह बात सही है या गलत - इस बात के उपर हमलोग चर्चा नहीं कर रहे हैं. ठाकुर ने स्वयं यह कहा है. इसलिए वहाँ से आने के बाद, उनके भीतर ऐसी कोई इच्छा  - ' मैं यह करूँगा, या वह बनूँगा का भाव रह ही कैसे सकता था ? स्वामीजी का इस धरती पर अपना कोई (hobby) दिल पसन्द खेल या कार्य बाकी  नहीं था. स्वामी विवेकानन्द को श्रीरामकृष्ण का कार्य करने के लिये आना पड़ा था। नरेन्द्र तो ध्यानमग्न होकर बैठे थे, ठाकुर का आदेश था या स्नेहपूर्ण मनुहार था - ' मैं जा रहा हूँ, तुमको भी आना पड़ेगा ! ' और नरेन्द्रनाथ को आना पड़ा था।
 जिस समय स्वामीजी में सच्चा ब्रह्मज्ञान जाग्रत हुआ था, तब उस ब्रह्मज्ञान के आनन्द को पाकर उसी में विभोर होकर डूबे रहने की इच्छा हुई थी. और निश्चय किये थे- अब दूसरा कोई कार्य नहीं करूँगा. किन्तु तब ठाकुर न कहा था- ' नहीं, वैसा नहीं हो सकता. जो तुमने प्राप्त किया है, उसे मैं ताले में बन्द करके रख देता हूँ.जब समय आएगा, ताला खोल दूँगा. अभी तुम जगत के लिए कार्य करो. तुम्हें यही कार्य करना होगा.' पर स्वामीजी ने उनके मुख पर ही कह दिया था- ' नहीं कर पाउँगा.' जिसके उत्तर में ठाकुर ने कहा था- ' नहीं करेगा, क्या रे ? तेरी हड्डी करेगी !' 
इसीलिए स्वामीजी की अपनी कोई इच्छा नहीं थी, या उनकी अपनी कोई योजना नहीं थी-कि ये ये कार्य करने हैं, ऐसा कुछ भी नहीं था. किन्तु ठाकुर ने उनके उपर जो कार्य सौंपा था, उसको तो उन्होंने गर्दन पकड़ कर पूरा करवा लिया था, एवं उन्होंने ने भी उनका कार्य पूरा किया था. ठाकुर ने जैसे यह आदेश दिया था, कि तुम्हें इस कार्य को करना होगा, उसी प्रकार उन्होंने यह भी कहा था, कि 'जब तुम्हारा सारा कार्य समाप्त हो जायेगा, उस समय इस ब्रह्मानन्द के ताले को खोल दूँगा. ' स्वामीजी का कार्य कब समाप्त हो गया था, उस समय उन्होंने किसी व्यक्ति को एक पत्र में लिख था, तथा उनके जीवन को देखने से ही, जो बात अपने आप समझ में आ जाती थी-वह है, ' कर्मी विवेकानन्द मर गया है, ज्ञानी विवेकानन्द मर गया है, दार्शनिक विवेकानन्द मर चुका है.'
जिन सब बातों को लेकर मनुष्य गर्व करता है, वह सब उनमें प्रचुर मात्रा में थी. किन्तु उस प्रकार के विवेकानन्द के भव्य चेहरे से जो परिचित थे, स्वामीजी अपने पत्र में लिखते हैं- ' वह विवेकानन्द जिसे लोग विश्वविजयी विवेकानन्द के रूप में जानते हैं, मर चुका है. अभी यहाँ वही तरुण बालक नरेन् है, जो उस दक्षिणेश्वर में पंचवटी के नीचे ठाकुर के चरणों में बैठा रहता था.'
कार्यनिवृत्ति हुए बिना या समस्त कार्य समाप्त हुए बिना ऐसा अवकाश (निरन्तर ठाकुर का सानिध्य लाभ) किसी को प्राप्त नहीं हो सकता. यदि उनका कार्य अधुरा ही रह गया होता, तो स्वामीजी कभी भी उस प्रकार अपना जीवन नहीं बिता सकते थे, जिस प्रकार समस्त कार्य सुलझा लेने के बाद, मनुष्य चैन से बैठकर विश्राम (हुक्का पीता है) करता है. क्योंकि स्वामीजी के सम्पूर्ण जीवन पर विहंगम दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है, कि स्वामीजी का स्वभाव वैसा था ही नहीं. स्वामीजीनेने ठाकुर के द्वारा प्रदत्त कार्य को भली-भाँति पूरा कर लिया था, और पूर्णतया समाप्त करने के बाद, उन्हों ने स्वयं ही यह अनुभव किया था, कि ' कर्मी विवेकानन्द मर चुका है .' तथा इसको दिखा भी दिया था. तथा यह भी उपलब्धी किये थे कि, मानो पहले के ही समान ठाकुर के चरणों में बालक नरेन् बैठा हुआ है, तथा इस अनुभूति के कुछ दिनों बाद ही, उनका शरीर छूट गया था. 
तुमने यह प्रश्न भी किया है कि ठाकुर ने नरेन के कंधों पर किस कार्य को सौपा था ? - यह जो प्रश्न तुमने किया है, यदि सही रूप से उसपर चर्चा की जाय तो बहुत अधिक बोलना पड़ेगा. ठाकुर ने कौन सा कार्य सौंपा था ? यही कि- ' नरेन् शिक्षा देगा ! ' जगत के मनुष्यों को-यथार्थ शिक्षा, यथार्थ ज्ञान, यथार्थ कर्म का उपदेश देगा, यह उपदेश देगा कि विश्व की मानवता या मनुष्य जाती नष्ट होने से कैसे बच सकती है. स्वामीजी ने यह उपाय बताया था, कि जीवन-गठन करके यथार्थ मनुष्य कैसे बना जा सकता है। यही स्वामीजी का कार्य था. स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, विश्वविद्यालय , रिलीफ- यही सब करते रहना उनका कार्य नहीं था. ये सभी कार्य करना उनका मूख्य उद्देश्य नहीं था, जैसे मुख्य कार्य (मनुष्य बनने ) का कुछ अनुसांगिक कार्य भी रहता है, जो उसमे सहायक सिद्ध होता है, वैसा कार्य है. 
स्वामीजी का मुख्य कार्य था, जगत के मोहनिद्रा में सोये हुए- मोहान्ध मनुष्य, अज्ञानी, अचेत, बद्ध मनुष्यों को मुक्त होने के लिए जिस ज्ञान की आवश्यकता होती है, जिस विद्या की आवश्यकता होती है, उसका उपदेश देना. वह कार्य उन्होंने पाश्चात्य जगत के समक्ष तथा भारत में भी भरपूर दिया है. यही उनका कार्य था. इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि उन्होंने अपने उपर ठाकुर द्वारा न्यस्त कार्य को पूरी ईमानदारी के साथ पूर्ण कर दिया था. 
हमलोग अभी तक यह नहीं समझ पाए हैं कि स्वामीजी-विवेकानन्द साहित्य के रूप में कितना बड़ा तोहफा हमारे लिए छोड़ गये हैं. उसका सदुपयोग करके हमलोग आज भी अपने जीवन को धन्य नहीं कर पा रहे हैं. यह हमलोगों की दरिद्रता है, हमलोगों की अक्षमता है, हमलोगों की क्षुद्रता है. यह स्वामीजी के दान का अप्राचूर्य नहीं है, उनके दान में कहीं से कोई कृपणता नहीं थी. जो कुछ भी उन्हें देना था, उसे उन्हों ने दोनों हाथों से उलीच दिया था.