४१. प्रश्न : योग का क्या अर्थ होता है ?
उत्तर : योग का अर्थ है- जितना है, उसमें वृद्धि हो जाये। योग के द्वारा हमलोग दूसरे मनुष्यों के साथ जुड़ जाते हैं। रवीन्द्रनाथ ने कहा है-
विश्व साथे योगे जेथाय बिहारो,
सेईखाने योग तोमार साथे आमारो ।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में योग के विषय
में शिक्षा दी है. उसके १८ अध्यायों में से प्रत्येक अध्याय एक एक
योग ही है। उसके द्वारा हमलोग अच्छी वस्तुओं के साथ किस प्रकार युक्त हो
सकते हैं, उसका उपाय एवं उस मार्ग पर चलने या अच्छाई की दिशा में आगे बढ़ने
का उपदेश दिया गया है। योग का अर्थ हुआ वृद्धि या लाभ, अच्छी वस्तु
का लाभ। भगवान के साथ या उत्कृष्टता के साथ जुड़ जाने के कौशल को योग कहा
जाता है। तब हमलोग सभी मनुष्यों के साथ भी स्वयं को जोड़ पाने में सक्षम हो
जाते हैं.
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, अपने साथ
तुलना करके देखो, कोई दूसरा व्यक्ति किस अवस्था में पड़ा हुआ है, और मैं
किस अवस्था में हूँ, सबों के साथ अपनी तुलना करके देखो। पाओगे कि कोई
व्यक्ति दुःख में है, कोई आनन्द में है। जो व्यक्ति अन्य सभी मनुष्यों के
सुख या दुःख को बिल्कुल अपना सुख-दुःख जैसा देख सकता है, वही सबसे बड़ा
योगी है।
जो व्यक्ति अपने मन ही मन, अपनी आत्मा
में दूसरों की आत्मा को, अपने प्राणों में दूसरों के प्राण को, भीतर ही
भीतर दूसरों को और स्वयं में दूसरों को अनुभव कर पाने की योग्यता रखता है,
वही सबसे बड़ा योगी है। यह केवल कहने भर की बात नहीं है, या किसी कवि की
कल्पना नहीं है। सभी प्रकार के मनुष्यों के साथ प्रेम किया जा सकता है।
योगी के लिए - दूसरों के प्रति सहानुभूति सम्पन्न होना, करुणा का भाव रखना,
दूसरों के आनन्द में आनन्द का अनुभव करना संभव है।
इस प्रकार के योग के विषय में स्वमीजी ने
चार प्रकार के योग का उल्लेख किया है। किसी मनीषी ने स्वामीजी की
विचार-धारा को ही ' शक्ति-योग ' की संज्ञा दी है। अर्थात शक्ति के द्वारा
सभी के साथ युक्त हो जाओ, स्वामीजी ने हमलोगों को इसी शक्ति-योग की शिक्षा
दी है। शास्त्रों में इसका उल्लेख नहीं है। गीता और भागवत में चार
प्रकार के योगों के उपर ही चर्चा की गयी है। योग से तात्पर्य यहाँ उपाय या
पथ है। किस उपाय या मार्ग से चल कर हमलोग अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर हो
सकते हैं, सच्चा ज्ञान कैसे प्राप्त कर सकते हैं, सही बुद्धि कैसे प्राप्त
होती है, सही रूप से मनुष्य कैसे बन सकते है ? उसी उपाय को योग कहा गया है।
एक
मार्ग है-भक्तियोग. मन्दिर में भगवान की पूजा या उपासना की जाती है, वहाँ
बैठकर कीर्तन-भजन, जप-ध्यान इत्यादि करते हैं, इसीको भक्ति कहते हैं।
किन्तु जो भक्ति की पराकाष्ठ है, जिसको चरम-भक्ति कहते हैं, उसको स्वामीजी
भी भक्ति कहते हैं- वह भक्ति केवल कल्पना में डूबे रहने से नहीं होती, या
किसी भगवान की मूर्ति पर कुछ अर्पण करना ही पर्याप्त नहीं होता। यह भक्ति-मार्ग का प्रथम सोपान है.
मन्दिर
में जाकर भगवान को कुछ चढ़ाना या पूजा करना इत्यादि कार्य अच्छे कार्य
हैं, किन्तु यही भक्ति की अन्तिम बात नहीं है। अन्तिम स्थिति में सर्वगत
(ubiquitous) सर्वव्यापी बन जाने की आवश्यकता होती है। अर्थात जो मन्दिर
में बैठे हैं, या बद्री-केदार में बिराजमान हैं- वही भगवान प्रत्येक मनुष्य
के भीतर भी विद्यमान है- ऐसी दृष्टि प्राप्त कर लेने को ही सच्ची भक्ति
कहते हैं। मूर्ति में भगवान की उपासना तभी तक करनी है, जब तक हम स्वयं यह
उपलब्धी नहीं कर लेते कि -समस्त प्रतिमाओं में, सर्वभूतों में नारायण ही
निवास कर रहे है। ठाकुर की ही बात को स्वामीजीने इस प्रकार कहा है-
' बहूरुपे सम्मुखे तोमार, छाड़ी कोथा खूंजीछ ईश्वर ?
जीवे प्रेम करे जेई जन, सेई जन सेविछे ईश्वर ।
भगवान केवल देवालय में ही नहीं विराजमान
हैं, सभी शरीरों के भीतर भी वे ही विराज रहे हैं। सबों के भीतर जो भगवान
विद्यमान हैं, उनको अस्वीकार करके, केवल देवालय के किसी कोने में भगवान को
खोजना पर्याप्त नहीं है। जिसप्रकार से भक्ति करने का उपदेश स्वामीजी दे
रहे हैं, उसी ढंग से यदि भक्ति की जाय, तो भक्ति योग के सच्चे पथ का
अवलम्बन करने से वह एक अद्भुत आनंददायक पथ बन जायेगा। किन्तु सामान्य तौर पर यह भक्ति सबों के मन में उत्पन्न नहीं होती.
क्योंकि साधारण मनुष्यों का भीतरी भाग
(अभ्यन्तर या हृदय ) बिल्कुल सूख चूका है। जब उसका आन्तरिक प्रेम भगवान के
प्रति प्रवाहित होने लगेगा, तभी वह साधारण मनुष्यों के कल्याण की दिशा में
भी प्रवाहित होना सीख सकता है। हमलोगों का शुष्क हृदय एवं कर्कश मन जबतक
ऐसी भक्ति से भाव-विभोर नहीं हो जाता, तब तक स्वामीजी ने कहा है, तथा
शास्त्रों में भी कहा गया है- जब तक हृदय और मन भक्ति से आप्लुत नहीं हो
उठा हो, तब तक हमलोगों को कर्मयोग का आश्रय लेना चाहिये।
कर्मयोग के विषय में कुछ लोग
अपने अपने ढंग से तर्क करने लगते हैं। जैसे गीता का मूख्य शिक्षा या मर्म
क्या है- इस बात को लेकर कुछ लोग तर्क-वितर्क करने लगते हैं। किन्तु गीता
की सहज शिक्षा है- कर्म। इसीलिए स्वामीजी कहते हैं- कार्य करते रहो, कार्य
करते जाओ- इसी प्रकार कर्म करते करते तुमलोगों में एक दिन सच्चा ज्ञान जाग
उठेगा। इसप्रकार कर्म करते हुए, पहले चित्त को शुद्ध करना पड़ता है।
सच्चा ज्ञान प्राप्त करने या तत्वज्ञान प्राप्त करने की पात्रता अर्जित
करने के लिए पहले मन को स्वच्छ बना लेना पड़ता है। फिर मनुष्यों की सेवा
करते करते एक मुक्ति का भाव मन में उत्पन्न हो जाता है, मनुष्यों के प्रति
जो प्रेम उत्पन्न हो जाता है, उसी को कर्मयोग कहते हैं।
उसके बाद है-ज्ञानयोग। ज्ञानयोग के मार्ग
में मन ही मन तर्क-वितर्क या विवेक-विचार करके यह निर्णय लेना पड़ता है कि
कौन सी वस्तु शाश्वत है, कौन सी वस्तु क्षणभंगुर है ? कौन सी वस्तु
कल्याणकारी है, कौन सी वस्तु क्षतिकर है, कौन सी वस्तु नारकीय परिणाम में
ले जाने वाली है, या किसमें सबकी भलाई छिपी हुई है ? इस प्रकार से विवेचना
करते करते यह समझ में आ ही जाता है कि जगत की समस्त वस्तुएं क्षणभंगुर
हैं। कोई भी वस्तु यहाँ हमेशा नहीं रहती, इसी प्रकार से निर्णय करते करते
यह समझ में आने लगता है, कि प्रत्येक के भीतर ऐसा कुछ छुपा हुआ है, जो
शाश्वत है, सनातन है, अविकारी, अविनश्वर है तथा उसका मानो जन्म भी नहीं
होता है। वही है वास्तविक वस्तु , वही हैं -सर्वगत ब्रह्म ! वे सबों में
अनुस्यूत हैं। सबकुछ में ओतप्रोत हैं। यह तत्वज्ञान या बोध तर्क-विचार करते
करते प्राप्त हो जाता है- इस मार्ग से भी जाया जाता है। किन्तु इस मार्ग
पर चलना अत्यंत कठिन है. यह ज्ञान मार्ग है, विवेक-विचार करने का पथ है.
किन्तु किसी भी कार्य को
हम किस माध्यम से करते हैं ? वह माध्यम है- हमारा मन. यदि कर्मयोग ही करना
हो, तो निष्काम होकर करना होगा, निष्काम कर्म का तात्पर्य है, जो कार्य
अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए नहीं किया जाता हो, परार्थ के लिए किये
गये कर्म को निष्काम कर्म कहते हैं। किन्तु इस प्रकार से कर्म करने की
प्रेरणा कहाँ आ रही है ? मन में उठ रही है। मन में ही मनुष्य की भलाई
करूँगा- ऐसे विचार उठ रहे है. यदि दूसरों की सेवा करूँगा- यह विचार उठ रहा
है, अब यह किये बिना मैं रह नहीं सकता। तो ऐसा कर्मयोग मन की सहायता से ही
करना पड़ता है.
उसी प्रकार भक्तियोग मन
को प्रयोग में लाने से ही संभव है. सबों के भीतर भगवान हैं- उनके प्रति
मेरे मन में भक्ति जाग्रत नहीं हो, भगवान के चरणों में आत्म-समर्पण करने की
इच्छा उत्पन्न न होने से भक्ति योग कैसे होगा ? ऐसी प्रेरणा मन में उठेगी,
तभी तो उनकी सेवा करूँगा.
इसप्रकार हम देखते हैं कि कर्मयोग के लिए भी मन
की आवश्यकता है, भक्तियोग के लिए भी मन की आवश्यकता है. सत-असत,
शाश्वत-क्षणभंगुर, अच्छा-बुरा यह सब विवेक-विचार भी मन में ही करूँगा, तो
फिर मन के बिना ज्ञानयोग भी नहीं हो सकता है. अब प्रश्न है कि मन अच्छा
कार्य कैसे करेगा ?
भक्ति का भाव मन के भीतर
आएगा कैसे ? यदि विवेक-विचार करना है, तो कैसे कर पाउँगा, यदि मेरा मन ही
चंचल और विक्षिप्त रहता हो, यदि मेरा मन संयमित न हो, तो यह सब नहीं हो
सकेगा. इसीलिए पहले मन को अपने नियंत्रण में रखना होगा, उसको शान्त रखना
होगा, एकाग्र रखना होगा. यह जो मन को एकाग्र करना, स्थिर रखना होता है,
इसको राजयोग कहते हैं। इसीलिए राज का अर्थ है- श्रेष्ठ, उज्ज्वल, क्योंकि इसको नहीं करने से, कुछ भी करना संभव नहीं होता. इसीलिए यह श्रेष्ठ
पथ है।
यदि
हमलोग अपने विक्षिप्त मन को शान्त कर सकें, उसको यदि अपने वश में ला सकें,
एकाग्र करना सीख जाएँ, तब अन्य योग भी संभव हो जायेंगे. तथा यह बात भी कही
गयी है कि यदि हम अपने मन को इसी प्रकार शान्त और स्थिर बना सकें, तो अन्य
किसी योग का आश्रय लिए बिना ही हमलोग उसी एक सत्य पर उपनीत हो जायेंगे।अतः एकाग्रता का अभ्यास करना आत्मोन्नति का प्रथम सोपान है।