उत्तर : देश के नागरिकों में, विशेषरूप से युवा-वर्ग में ' Correct-Outlook ' या सही-दृष्टिकोण
संचारित कर देने से बढ़कर अन्य कोई देश-सेवा नहीं हो सकती है। उनको यह समझा देना होगा, कि देखो तुम लोग किन परिस्थितियों से घिरे हुए हो? देखो, तुम्हारे भीतर कितनी अमूल्य सत्ता है ! और वह अनमोल वस्तु प्रकार धुल-कीचड़ से सनी हुई है ! उसके रहते हुए भी, तुमलोग कैसे ठगे जा रहे हो ! देखो, तुमलोग कैसे सताये जा रहे हो !
देखो भाईयों, जिस प्रकार तुम महामण्डल से जुड़ने के बाद, स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श मानकर और उनकी छवी (Image) के उपर अपने मन को एकाग्र करना सीखकर,अपने सच्चे स्वरूप को समझ गये हो, उसी प्रकार जो भाई अभीतक मनःसंयोग करना नहीं सीखे हैं, वे भी स्वरूपतः
आत्मा ही हैं; किन्तु उनको अभी तक इस सच्चाई का बोध नहीं है।
क्योंकि वर्तमान शिक्षा-पद्धति में मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव (3H)- ' शरीर-मन और हृदय ' को विकसित कर यथार्थ मनुष्य बनने की शिक्षा नहीं दी जाती है, इसीलिये वे तुम्हारी तरह अपने सच्चे स्वरूप को नहीं समझ सके हैं।
इसीलिये पढ़-लिख कर उच्च पदों पर आसीन होने से भी, वे चरित्र-भ्रष्ट होकर अपने देशवासियों को ही लूट रहे हैं। क्योंकि वे नहीं जानते कि प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ! मनुष्य ही जाग्रत देवता है, यह मानव-शरीर ही देवालय है, इसमें बैठे शिव को अनदेखा करके वे, हर सावन में जल चढ़ाने देवघर तो जाते हैं, किन्तु जिन भाइयों को पीने के लिए स्वच्छ पानी भी नहीं मिलता उसके बारे में सोचकर उनका हृदय द्रवित नहीं होता है।
वे उनको आइसक्रीम खाने और पन्द्रह रूपये बोतल पानी पीने की सलाह देते हैं, जिनके पास दाल-सब्जी खरीदने की भी ताकत नहीं है। हमारे नेता इतने हृदयहीन कैसे बन गये हैं? क्योंकि उन बेचारों के पास स्वामी विवेकानन्द को जानने समझने का समय ही नहीं है। जैसा विवेकानन्द कहते थे- ' जब सिर ही नहीं है, तो सिर-दर्द कैसा ? समझदार जनता कहाँ है ? इसीलिये कल की आशा युवावर्ग के बीच कार्य करो, उनको ही संगठित करके - हृदय का विस्तार करने वाली शिक्षा प्रदान करो।
उसी सर्वव्यापी सत्ता को सर्वत्र देखते हुए- किसी के साथ दुश्मनी मत रखो, किसी के प्रति दुर्भावना मत रखो, किसी की भी हिंसा मत करो, किसी को नुकसान पहुँचाने की बात भी मत सोचो, तुम्हें अपनी उन्नति के लिए किसी के विरुद्ध कुछ भी नहीं करना होगा।
संचारित कर देने से बढ़कर अन्य कोई देश-सेवा नहीं हो सकती है। उनको यह समझा देना होगा, कि देखो तुम लोग किन परिस्थितियों से घिरे हुए हो? देखो, तुम्हारे भीतर कितनी अमूल्य सत्ता है ! और वह अनमोल वस्तु प्रकार धुल-कीचड़ से सनी हुई है ! उसके रहते हुए भी, तुमलोग कैसे ठगे जा रहे हो ! देखो, तुमलोग कैसे सताये जा रहे हो !
देखो भाईयों, जिस प्रकार तुम महामण्डल से जुड़ने के बाद, स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श मानकर और उनकी छवी (Image) के उपर अपने मन को एकाग्र करना सीखकर,अपने सच्चे स्वरूप को समझ गये हो, उसी प्रकार जो भाई अभीतक मनःसंयोग करना नहीं सीखे हैं, वे भी स्वरूपतः
आत्मा ही हैं; किन्तु उनको अभी तक इस सच्चाई का बोध नहीं है।
क्योंकि वर्तमान शिक्षा-पद्धति में मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव (3H)- ' शरीर-मन और हृदय ' को विकसित कर यथार्थ मनुष्य बनने की शिक्षा नहीं दी जाती है, इसीलिये वे तुम्हारी तरह अपने सच्चे स्वरूप को नहीं समझ सके हैं।
इसीलिये पढ़-लिख कर उच्च पदों पर आसीन होने से भी, वे चरित्र-भ्रष्ट होकर अपने देशवासियों को ही लूट रहे हैं। क्योंकि वे नहीं जानते कि प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ! मनुष्य ही जाग्रत देवता है, यह मानव-शरीर ही देवालय है, इसमें बैठे शिव को अनदेखा करके वे, हर सावन में जल चढ़ाने देवघर तो जाते हैं, किन्तु जिन भाइयों को पीने के लिए स्वच्छ पानी भी नहीं मिलता उसके बारे में सोचकर उनका हृदय द्रवित नहीं होता है।
वे उनको आइसक्रीम खाने और पन्द्रह रूपये बोतल पानी पीने की सलाह देते हैं, जिनके पास दाल-सब्जी खरीदने की भी ताकत नहीं है। हमारे नेता इतने हृदयहीन कैसे बन गये हैं? क्योंकि उन बेचारों के पास स्वामी विवेकानन्द को जानने समझने का समय ही नहीं है। जैसा विवेकानन्द कहते थे- ' जब सिर ही नहीं है, तो सिर-दर्द कैसा ? समझदार जनता कहाँ है ? इसीलिये कल की आशा युवावर्ग के बीच कार्य करो, उनको ही संगठित करके - हृदय का विस्तार करने वाली शिक्षा प्रदान करो।
उसी सर्वव्यापी सत्ता को सर्वत्र देखते हुए- किसी के साथ दुश्मनी मत रखो, किसी के प्रति दुर्भावना मत रखो, किसी की भी हिंसा मत करो, किसी को नुकसान पहुँचाने की बात भी मत सोचो, तुम्हें अपनी उन्नति के लिए किसी के विरुद्ध कुछ भी नहीं करना होगा।
अपनी उन्नति के लिए तुम्हें किसी के विरुद्ध हथियार उठाने की जरुरत नहीं है, कोई हिंसा नहीं करनी है, कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखानी है।तुम्हें स्वयं क्रिया करनी होगी, प्रतिक्रिया दिखाने से कोई लाभ नहीं होगा। अपनी ओर से कार्य करो,तुम अपनी सत्ता को विकसित करने की चेष्टा करो। स्वयं
क्रियाशील होने की आवश्यकता है, आत्म-विकास के लिए प्रयत्न करने की जरूरत है।
तथा एकमात्र श्रेष्ठ कार्य है- अपने मनुष्यत्व को, निद्रित मनुष्यत्व को जाग्रत कर लेना। इसी से देश का कल्याण हो सकता है। प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो ' मनुष्यत्व ' सोया हुआ है, उसको जाग्रत करने के कार्य में जुट जाओ ! इससे भी बढ़ कर और कोई देश-सेवा नहीं हो सकती है.
क्रियाशील होने की आवश्यकता है, आत्म-विकास के लिए प्रयत्न करने की जरूरत है।
तथा एकमात्र श्रेष्ठ कार्य है- अपने मनुष्यत्व को, निद्रित मनुष्यत्व को जाग्रत कर लेना। इसी से देश का कल्याण हो सकता है। प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो ' मनुष्यत्व ' सोया हुआ है, उसको जाग्रत करने के कार्य में जुट जाओ ! इससे भी बढ़ कर और कोई देश-सेवा नहीं हो सकती है.
इसके
बाद इसे करते समय कई कार्य आँखों के सामने दिखाई पड़ने लगेंगे, जितना
तुमसे संभव होगा, दूसरों की उतनी ही सेवा करोगे। किसी व्यक्ति को खाने के
लिए कुछ भी नहीं है, उसको एक दीन का भोजन करा देना।किसी के बदन पर एक
वस्त्र भी नहीं है, उसको एक वस्त्र दे देना। कोई गरीब व्यक्ति अस्पताल में
जाकर अपना इलाज नहीं करा पा रहा है, उसको कम से कम होमियोपैथी की दवा
दे देना। इसी तरह के कार्य कर सकते हो।
किन्तु यह सब सेवा नहीं- सेवा के खेल हैं, यह कोई सच्ची सेवा नहीं है। क्योंकि उस समाज-सेवा का अंततोगत्वा कोई विशेष मूल्य नहीं रह जाता, यदि वह
प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो सत्ता अन्तर्निहित है, उस दिव्यता को, अंतरस्थ
मनुष्य को, उसके ' पाका आमी ' या यथार्थ ' मैं ' को जाग्रत न करा सके। इस
प्रकार की छोटी छोटी सेवाओं के द्वारा मनुष्यों के दुःख को कभी दूर नहीं
किया जा सकता है। इस सच्चाई को स्मरण रखते हुए भी, जब ऐसी सेवा का खेल
अपने-आप कभी किसी के सिर पर थोप दिया जाये, तो उस समय वह सेवा-सेवा का खेल,
खेल भी सकते है, उससे कोई हर्ज नहीं होगा।
किन्तु ' सेवा का खेल '
दिखाते रहने से देश का यथार्थ कल्याण नहीं हो सकता है। ऐसी सेवा से बहुत
घुमा-फिरा कर एक दूसरे प्रकार का कार्य जरुर सिद्ध हो जाता है। ऐसी सेवा
में लगे बहुत से लोग यह सोचेंगे-हमलोगों ने तो देश-सेवा में कमाल कर दिया
है, देखो हमने ५०० कम्बल या १००० मच्छड़दानी बाँट दिया है, १०० गरीबों को
मोतियाबिंद का आपरेशन करवा दिया है ! (या आजकल के 'बाबा-उद्द्योग ' में बुला कर मोटी मोटी सेठानियों को राधे-राधे का फूहड़ डांस करवा दिया है ! वाह रे मैं ! )
किन्तु इन सब कार्यों के द्वारा वास्तविक सेवा नहीं हो सकती है।उनके भीतर जो मनुष्यत्व है, उसको जाग्रत करने की चेष्टा नहीं करने से, जो मनुष्य अपनी अन्तर्निहित सत्ता के प्रति अचेत हैं, वे उसी बेहोशी की दशा में पड़े रह जायेंगे।
किन्तु इन सब कार्यों के द्वारा वास्तविक सेवा नहीं हो सकती है।उनके भीतर जो मनुष्यत्व है, उसको जाग्रत करने की चेष्टा नहीं करने से, जो मनुष्य अपनी अन्तर्निहित सत्ता के प्रति अचेत हैं, वे उसी बेहोशी की दशा में पड़े रह जायेंगे।
इसीलिए यदि आवश्यक प्रतीत हो, तो हमें अभी इस प्रकार की सेवा के खेल की उपेक्षा करके, मनुष्यों
की वास्तविक सेवा की ओर ध्यान देना उचित है। वही सेवा यथार्थ देश-सेवा है, जिससे मनुष्य के भीतर की अंतरात्मा, उसका सच्चा ' मैं ' जाग उठे, ताकि वह अपनी सत्ता को और अधिक विकसित कर सके, अपने हृदय को और अधिक विशाल बना सके। जिस सेवा को प्राप्त करके उसका शरीर और मन स्वस्थ-सबल हो जाये, वह आत्मनिर्भर बन जाये. वह सेवा ही करनीय है।
की वास्तविक सेवा की ओर ध्यान देना उचित है। वही सेवा यथार्थ देश-सेवा है, जिससे मनुष्य के भीतर की अंतरात्मा, उसका सच्चा ' मैं ' जाग उठे, ताकि वह अपनी सत्ता को और अधिक विकसित कर सके, अपने हृदय को और अधिक विशाल बना सके। जिस सेवा को प्राप्त करके उसका शरीर और मन स्वस्थ-सबल हो जाये, वह आत्मनिर्भर बन जाये. वह सेवा ही करनीय है।
यही सबसे बड़ी देश-सेवा है। और हममें से प्रत्येक व्यक्ति को, विशेष तौर से जिनकी उम्र अभी कम है, जो छात्र हैं, इस सेवा का प्रारंभ- अपने से ही करना है। अपने जीवन को सुन्दर रूप से गढ़ लेना- सबसे बड़ी समाज-सेवा है!
ऐसा नहीं सोचना चाहिए, कि मैं तो एक छोटा सा छात्र हूँ, किशोर या युवा हूँ- मैं अभी ही देश की कितनी सेवा कर सकता हूँ ? हमलोगों को यही सोचना चाहिए, कि मैं भी अपने देश का ' एक बटा एक सौ कड़ोड़वाँ ' हिस्सा हूँ, मैं आत्म-विकास करके अपने देश की सेवा अवश्य कर सकता हूँ।
ऐसा नहीं सोचना चाहिए, कि मैं तो एक छोटा सा छात्र हूँ, किशोर या युवा हूँ- मैं अभी ही देश की कितनी सेवा कर सकता हूँ ? हमलोगों को यही सोचना चाहिए, कि मैं भी अपने देश का ' एक बटा एक सौ कड़ोड़वाँ ' हिस्सा हूँ, मैं आत्म-विकास करके अपने देश की सेवा अवश्य कर सकता हूँ।
मैं
अपने जीवन को सुन्दर रूप से गठित कर रहा हूँ, मेरे अपने भोग के लिए नहीं,
बल्कि अपने सुन्दर देश के लिए, अपनी सुन्दर मातृभूमि को और सुन्दर बनाने के
लिए मैं अपने चरित्र को सुन्दर ढंग से गढ़ रहा हूँ। उस देश के एक सुन्दर
नागरिक को मैं अपने हाथों से इस प्रकार गढ़ लिया हूँ, जिस प्रकार कोई
मूर्तिकार अपने हाथों से मूर्ति गढ़ते समय, मिट्टी को धीरे धीरे एक सुन्दर
आकर में ढाल कर एक शानदार, विस्मयकारी मूर्ति बना लेता है। उसी प्रकार मैं
भी अपने आप को यदि धीरे धीरे एक सुन्दर मनुष्य के रूप में गढ़ लिया हो, तो
उससे बड़ी देश-सेवा और कुछ भी नहीं हो सकती है।