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शनिवार, 26 मई 2012

" ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या " ? कैसे? [***24] परिप्रश्नेन

२४.प्रश्न : " ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या " यह जगत चित्रवत है, या स्वप्नवत है, इस बात को बुद्धि के द्वारा तो समझ सकता हूँ; किन्तु कितनी भी कोशिश करने पर हर समय यह विश्वास बना नहीं रह पाता, प्रलुब्ध करने वाली वस्तुओं को देखते ही, मन सर्वदा चंचल हो जाता है।  क्या करूँ ?
उत्तर : इसके लिए अनवरत मनःसंयोग का अभ्यास प्रतिदिन दो बार करते जाना होगा,इसके साथ साथ ५ यम -'सत्य, अहिंसा,ब्रह्मचर्य,आस्तेय, अपरिग्रह' और ५ नियम -'शौच, सन्तोष,तपः,स्वाध्याय,ईश्वर-प्रणिधानम् के पालन के लिये प्रतिमुहूर्त मन के साथ निरन्तर संग्राम करना होगा। विवेक-प्रयोग करने के बाद ही- कोई कार्य, सोचना, बोलना, करना होगा। अपने चरित्र-निर्माण के लिये पूरे लगन के साथ निरन्तर उद्द्य्म करना होगा। मनःसंयोग और निरंतर विवेक-प्रयोग आदि कठोर साधनाएँ जितना ही अधिक करते रहे रहोगे, उतनी ही अधिक बार यह विचार मन में उठेगा कि- वास्तव में यह जगत एक चित्रमाला के सदृश्य है:
{ नान्यदेका चित्रमाला जगदेतच्चराचरम । 
    एष   वर्णमयो वर्गो भावमेकं प्रकाशते ।। 
     मानुषाः पूर्णतां यन्ति नान्या वार्ता तु वर्तते ।
         पश्यामः केवलं तद्धि न्रनिर्माणं कथं भवेत ।।    
 श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय रचित : ' विवेकानन्द दर्शनम ' }
' After all this world is a series of pictures. ' this colorful conglomeration expresses one idea only- " Man is marching towards perfection. " that is " the great interest running through. We were all watching the making of men, and that alone. " 
[हमलोग अभी ' माइंड-बॉडी काम्प्लेक्स ' बद्ध जीव की अवस्था में जिसे जाग्रत अवस्था मानते हैं, वह अतीन्द्रिय या तुरीय ज्ञान की अपेक्षा एक विराट स्वप्न ही तो है ! जब जीवात्मा सच्चिदानन्द से 
साक्षात्कार की अवस्था में' ऐक्य' की अनुभूति प्राप्त कर लेती है, तब यह ठोस सा दिखने वाला संसार असत साबित हो जाता है। -गीता 2/16.]इसीलिए स्वामीजी कहते हैं- "यह जगत बदलते हुए चित्रों की श्रृंखला मात्र है। इसकी सतरंगी छटा एक ही उद्देश्य को अभिव्यक्त कर रही है-'मनुष्य अपने भ्रमों-भूलों को त्यागता हुआ क्रमशः पूर्णत्व-प्राप्ति (देव-मानव में रूपांतरित होने) की ओर अग्रसर हो रहा है। 
 स्वामीजी ' चित्र ' शब्द का व्यवहार करते हुए कहते हैं- " यह जगत मानो एक चित्र-श्रृंखला (रूप-राशी) है, एवं देखा जाता है कि इन चित्रों के माध्यम से केवल एक ही भाव व्यक्त हो रहे हैं. वह है,पशु-मानव का देव-मानव या सच्चे मनुष्य के रूप में रूपांतरित होता जा रहा है। इन समस्त चित्र-श्रृंखलाओं में हमलोग इस जगत में केवल एक ही घटना को पुनः पुनः घटित होते हुए देख रहे हैं,कोई व्यक्ति किस प्रकार यथार्थ मनुष्य में परिणत होता जा रहा है, इसके अतिरिक्त जगत में देखने योग्य और कुछ भी नहीं है. "
" अतेव हे नर-नारियों उठो ! आत्मा के साथ अपनी अभिन्नता को जानकार सत्य में अविचल रहने का साहस करो। संसार को कई सौ साहसी नर-नारोयों की आवश्यकता है ! " 
यह जगत निश्चित रूप से एक दृष्टान्त रूपी चित्र-शाला (picture gallery) ही है, किन्तु इन चित्रों में क्या कोई वक्तव्य अन्तर्निहित नहीं है ? क्या ये केवल चन्द भावशून्य (vacuous) छवियाँ मात्र हैं ? बिल्कुल नहीं. इन समस्त छवियों में एक मूल-तत्व को दर्शया गया है. वह केन्द्रीय विषय क्या है ?
इस जगत को यथार्थ सत्य के रूप में न देखकर, जो लोग इसे किसी चित्र-शाला के रूप में समझने की चेष्टा कर रहे हैं, वे जब इस पहेली को समझ लेते हैं,तब वे यथार्थ मनुष्य में परिणत हो जाते हैं. इसीलिए, जगतरूपी चित्र-शाला के इन चित्रों की ओर निहारने से हमलोगों को क्या जानकारी प्राप्त होती है ? इन चित्रों में झाँक कर देखने से यही दिखाई पड़ता है, कि मनुष्य यथार्थ-मनुष्य के रूप में परिणत हो रहा है. इस बात को स्वीकार करने से, इस चित्र-शाला की भी, थोड़ी-बहुत सार्थकता सिद्ध हो जाती है. जगत की भी सार्थकता है, इसका सबकुछ निरर्थक नहीं है, हमलोगों के लिए यह अवश्य ही बड़े उपयोग की वस्तु हो सकती है. 
यदि यह जगत बिल्कुल ही निरर्थक होता, तो इसे हमलोग ' आकाश-कुसुम ' जैसा बेसिर-पैर की बात (असत) कह सकते थे.यहाँ एक प्रकार का कार्य (बार बार जन्म लेना और मरना ) होता हुआ दिख रहा है, किन्तु वह कार्य ही अन्तिम बात नहीं है. यदि इस जगत की अन्तिम बात या अन्तिम स्थिति यही होती कि खेल के पीछे कोई उद्देश्य नहीं है, तबतो इसे नीरस या निरर्थक प्रक्रिया कह सकते थे. किन्तु इसी में समझ लेने योग्य कोई गूढ़ रहस्य भी छिपा हुआ है. इसीलिए इस जगत की कोई भी घटना बिल्कुल निरर्थक नहीं है. 
जगत को इस दृष्टि, या साक्षी-भाव से देखने का प्रयत्न लगातार करते जाने से एक समय अवश्य ऐसा आयेगा जब सर्वदा यही बोध बना रहेगा कि, जगत एक चित्रशाला तो है, किन्तु इसके पीछे भी एक उद्देश्य छिपा हुआ है.उस समय उस उद्देश्य को प्राप्त करने, या यथार्थ मनुष्य की मर्यादा से हमलोग कभी विच्यूत नहीं हो सकेंगे. अभी हमलोगों की क्या स्थिति है ? संभवतः समय-समय पर इसकी थोड़ी-बहुत झलक मिल जाती है. उस समय प्रतीत होता है, कि यह एक चित्र के समान है, या स्वप्नवत है. 
 इसमें कोई वास्तविक सत्ता नहीं है. किन्तु यह चित्र होने से भी, बिल्कुल जीवन्त या सत्य जैसा प्रतीत हो रहा है.किसी वस्तु का चित्र देखने से क्या होता है ? जिस वस्तु का वह चित्र है, उसकी स्मृति हमारे मन में उभर आती है. 
यह जगत किस वस्तु का चित्र है ? स्वामीजी कहते हैं- " तुम्हारा समाज उस विराट महामाया की छाया (प्रतिबिम्ब) मात्र है! "  यह जगत (हमारा समाज) यदि चित्र जैसा या प्रतिबिम्ब के जैसा है, तो यह किस वस्तु का चित्र है या किस वस्तु का प्रतिबिम्ब है ? यह उस ' महामाया ' का प्रतिबिम्ब है. महामाया कौन हैं ? वे उसी ब्रह्म की शक्ति हैं.इसीलिए यह चित्र, यह प्रतिबिम्ब- ब्रह्म का ही रूप है. इसीलिए इस चित्र को पूर्णतया शून्य या निरर्थक नहीं कह सकते. जब इस चित्र में, इस प्रतिबिम्ब में मुझे भी फेंक दिया गया है, तब इस प्रतिबिम्ब का ही उपयोग मुझे करना होगा. उनका ही प्रतिबिम्ब जैसा समझने की चेष्टा करनी होगी.
 इसी प्रकार लगातार चिन्तन करते रहने से, एक ऐसा भाव मन में बैठ जाता है, कि यह चित्र अब कभी भी और अधिक केवल एक चित्र या प्रतिबिम्ब मात्र ही नहीं रह जाता. बल्कि किसी प्रतिबिम्ब को देखने के साथ ही साथ, तत्क्षण, उस चित्र या प्रतिबिम्ब का प्रयोजन भी समझ में आ चुका होता है. क्योंकि यह चित्र (प्रतिमा ) यदि बीच में नहीं आई होती, तो यह संसार जिस वस्तु की छाया या प्रतिबिम्ब है- उनको समझा नहीं जा सकता था.एक बार यह समझ लेने के बाद, पुनः जगत को व्यर्थ समझ पाना संभव ही नहीं होता. जिन लोगों के सिर पर यह जगत एक भारी बोझ के समान थोपा हुआ है, उनके बोझ को अब हम कम करते जाने में सहायता करते रहते हैं. यही है स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त जगत के रहस्य का, अस्तित्व-अनस्तित्व के समस्या का समाधान ! 
[साधनपाद :१६ ' हेयं दुःखमनागतम ' -जो दुःख अभी तक नहीं आया, उसका त्याग करना चाहिए.
हमने जिस कर्मफल का भोग कर लिया है, वह तो अब समाप्त हो चुका. हम वर्तमान में जिसका भोग कर रहे हैं, उसका भोग तो हमें करना ही पड़ेगा; केवल जो कर्म भविष्य में फल देने के लिए बच रहा है, उसी पर हम जय प्राप्त कर सकते हैं, अर्थात उसका नाश कर सकते हैं. 
साधनपाद :१७ ' द्रष्टुदृश्ययो: संयोगो हेयहेतु: ' -जो हेय है, अर्थात जिस दुःख का त्याग करना होगा, उसका कारण है द्रष्टा और दृश्य का संयोग. द्रष्टा कौन है ? मनुष्य की आत्मा-पुरुष. दृश्य क्या है ? मन से लेकर स्थूल भूत तक सारी प्रकृति. इस पुरुष और मन का तादात्म्य हो जाने से ही समस्त दुःख उत्पन्न हुए हैं. आत्मा शुद्ध्स्वरूप है; ज्यों ही वह प्रकृति के साथ संयुक्त होता है, और प्रकृति में प्रतिबिम्बित होता है, त्यों ही सुख या दुःख का अनुभव करता हुआ प्रतीत होता है. 
पुरुष मानो अपने महान ईश्वरीय स्वभाव को भूल गया है. इस सम्बन्ध में एक बड़ी सुंदर कहानी है : किसी समय देवराज इन्द्र शूकर बन कर कीचड़ में रहते थे, उनकी एक शूकरी थी-उस शूकरी से उनके बहुत से बच्चे पैदा हुए थे. वे बड़े सुख से (नाली में पलक-पनीर खोजते हुए ) समय बिताते थे. कुछ देवता उनकी यह दुरवस्था देखकर उनके पास आकर बोले-' आप देवराज हैं, समस्त देवगण आपके शासन के अधीन हैं, फिर आप यहाँ क्यों हैं ?
परन्तु  इन्द्र ने उत्तर दिया, ' मैं बड़े मजे में हूँ. मुझे स्वर्ग की प्रवाह नहीं; यह शूकरी और ये बच्चे जब तक हैं, तब तक स्वर्ग आदि कुछ भी नहीं चाहिए. देवगण तो यह सुनकर अवाक् हो गये, उन्हें कुछ सूझ न पड़ा. कुछ दिनों बाद उन्होंने ...एक के बाद एक सब बच्चों को मार डालने का संकल्प कर लिया. जब सभी बच्चे मार डाले गये, तो इन्द्र कातर होकर विलाप करने लगे. तब देवताओं ने इन्द्र की शूकर-देह को भी चिर डाला. 
तब तो इन्द्र उस शूकर-देह से बाहर होकर हँसने लगे और सोचने लगे, ' मैं भी कैसा भयंकर स्वप्न देख रहा था ! कहाँ मैं देवराज, और कहाँ इस शूकर-जन्म को ही एकमात्र जन्म समझ बैठा था; यही नहीं, वरन सारा संसार शूकर-देह धारण करे, ऐसी कामना कर रहा था !'
पुरुष(आत्मा) भी बस, इसी प्रकार प्रकृति (मन) के साथ मिलकर भूल जाता है कि वह शुद्ध और अनन्तस्वरूप है. सत-चित-आनन्द या प्रेम, ज्ञान और अस्तित्व पुरुष के गुण नहीं हैं, वे तो उसका स्वरूप हैं. जब वे किसी वस्तु में प्रतिबिम्बित होते हैं, तब चाहो तो उन्हें उस वस्तु के गुण कह सकते हो. किन्तु वे ' प्रेम-ज्ञान-अस्तित्व ' पुरुष (आत्मा) के गुण नहीं हैं, वे तो उस महान आत्मा, उस अनन्त पुरुष के स्वरुप हैं, जिसका न जन्म है, न मृत्यु और जो अपनी महिमा में विराजमान है. किन्तु वह (महान आत्मा ) यहाँ तक स्वरूप-भ्रष्ट हो गया है कि यदि तुम उसके पास जाकर कहो कि तुम शूकर नहीं हो, तो वह चिल्लाने लगता है और काटने दौड़ता है.
इस माया के बीच, इस स्वप्नमय जगत के बीच हमारी भी ठीक वही दशा हो गयी है. यहाँ है केवल रोना, केवल दुःख, केवल हाहाकार ! अजीब तमाशा है यहाँ का ! यहाँ सोने के कुछ गोले लुढ़का दिए जाते हैं और बस, सारा संसार उनके लिए पागलों के समान छूट पड़ता है. तुम कभी किसी नियम (जन्म-मृत्यु) से बद्ध नहीं थे. योगी यह दिखा देते हैं कि पुरुष (आत्मा) किस प्रकार इस मन और जगत के साथ तादात्म्य करके अपने आपको दुःखी समझने लगता है, तथा अनुभव के माध्यम से ही इस दुःखमय संसार से छुटकारा पाने का उपाय भी है.हम स्वयं इस फन्दे में फँस गये हैं, और अब अपने ही प्रयत्न से उससे मुक्ति प्राप्त करनी पड़ेगी.
साधनपाद :१८ ' प्रकाश-क्रिया-स्थितिशीलं ' भुतेन्द्रियात्मकं भोगा पवर्गार्थं दृश्यम ।।' 
यह दृश्यमान जगत रूपी चित्र मन का ही कार्य है, परिवर्तनशील जगत के 'प्रकाश-कार्य-स्थिति ' जड़ हैं, इस बात को आत्मा अपने अनुभव से जानकर मुक्त हो सके यही इन दृश्यों की उपयोगिता है. अतएव, पति-पत्नी सम्बन्धी, मित्र-सखी सम्बन्धी तथा और भी जो सब छोटी छोटी प्रेम की आकांक्षाएँ हैं, सभी का अनुभव पा लो. 
यदि हर हाल में तुम्हें अपना स्वरूप याद रहे, तो तुम शीघ्र ही निर्विघ्न इन सब बन्धनों के पार हो जाओगे. यह कभी न भूलना कि यह अवस्था बिल्कुल अल्प समय के लिए है और हम इन अनुभवों को भुगतने के लिए बाध्य हैं. 
यह सुख-दुःख का अनुभव ही -हमारा एकमात्र महान शिक्षक है, लेकिन स्मरण रहे, ये सब केवल अनुभव मात्र हैं; वे हमें क्रमशः एक ऐसी अवस्था में ले जाते हैं, जहाँ संसार की समस्त वस्तुएँ बिल्कुल तुच्छ हो जाती हैं. तब पुरुष विश्वव्यापी विराट के रूप में प्रकाशित हो जाता है. और इसी तुच्छता के कारण जगत चित्रवत होकर न जाने कहाँ विलीन हो जाता है. सुख-दुःख का भोग तो हमें करना ही पड़ेगा, पर स्मरण रहे, हम अपना चरम लक्ष्य कभी न भूलें.(१/१६३-६५)]

मन आत्मा के साथ कुण्डलित है '[***23]परिप्रश्नेन

 २३.प्रश्न : आत्मा तथा मन के बीच क्या अंतर है ?
उत्तर : आत्मा हम सभीलोगों के भीतर हैं, केवल सबों के भीतर ही क्यों- वे तो सभी वस्तुओं, व्यक्तियों, जीवों सभी चीजों में अनुस्यूत हैं.आत्मा कहें या ब्रह्म- दोनों एक ही वस्तु है. जो समस्त वस्तुओं की सत्ता है, जो 
' प्राणस्य-प्राणः ' - सब कुछ के प्राण हैं, समस्त पदार्थों में जो मूल वस्तु हैं-वे ही ब्रह्म या आत्मा हैं. वही ब्रह्म या आत्मा जब किसी मनुष्य में, या किसी पशु में या किसी जीव में रहते हैं, तब उनको ही ' जीवात्मा ' भी कहा जाता है.
जब एक एक व्यक्ति के शरीर का अन्त या विनाश हो जाता है, तब हमलोग उसको अपनी कल्पना में एक एक अलग-अलग आत्मा के रूप की कल्पना करते हुए कहते हैं- उसकी आत्मा निकल गयी है, या ' अमुक ' 
व्यक्ति मर गया है. आत्मा तो सर्वत्र हैं. जब मनुष्य मर जाता है, तब ऐसी कल्पना की जाती है, मानो उसकी आत्मा उसे छोड़ कर निकल गयी है. परिप्रश्नेन 
मन इसी आत्मा के साथ ' कुण्डलित ' है, या घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है.हमारा मन कैसे या किस शक्ति के  कारण से आत्मा के साथ इतने घनिष्ट रूपसे जुड़ा हुआ रहता है (या कुण्डलीकृत हो गया है) यह बता पाना बहुत कठिन है। जिस प्रकार पृथ्वी के चारों ओर जैसे एक वायुमण्डल उसके साथ जड़ित रहता है, ठीक उसी प्रकार प्रत्येक के जीवात्मा के चारों ओर मानो मन-वस्तु (चित्त) का एक वायुमण्डल ( आवरण या प्रभामण्डल या aura) जड़ित रहता है.
हमलोगों के आत्मा मानो सबकुछ के द्रष्टा हैं, या सबकुछ को देखते रहते हैं. हमलोग जो कुछ भी भोग करते हैं, सबकुछ के मौलिक या आदि भोक्ता आत्मा ही हैं.हमलोग कल्पना करते हैं, कि हमारा मन किसी बात का अर्थ निकाल लेता है, आँखें देखती हैं, कान सुनते हैं, किन्तु वतुतः आँख,कान,बुद्धि आदि के द्वारा जो कुछ भी अभिज्ञता या प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, वह सब आत्मा को होता है. वे ही हमारे भीतर अवस्थित वास्तविक द्रष्टा या साक्षी हैं. 
हमलोग कहते हैं- किसी भी प्रकार का ज्ञान, किसी भी तरह की बुद्धि, समस्त प्रकार की स्मृतियाँ यह सब हमारे जिस मन में होता है; वही ' मन ' मानो आत्मा के चारों तरफ जड़ित एक आवरण है.इसीलिए आत्मा जब देह से बाहर निकल जाती है, उस समय मन भी उसके साथ ही साथ चला जाता है. पुनः वही आत्मा जब एक बार फिर शरीर धारण करता है, उस दशा में मन नये सिरे से कार्य करना आरंभ कर देता है. शरीर नहीं रहने से कोई भी कर्म नहीं हो सकता. मन उससे कुछ भिन्न या अलग वस्तु नहीं है, वह भी मानो आत्मा का ही कार्य करने वाला एक यंत्र है.यह बिल्कुल ठीक ठीक समझ में आ जाने वाला विषय नहीं है. यहीं तक समझा जा सकता है.

" प्रलय या गहरी समाधि " [ ***22] परिप्रश्नेन

२२.प्रश्न : मेरे मन में मनुष्य की आत्मा या परमात्मा के सम्बन्ध में एक धुंधली सी धारणा है; मैं इसके सम्बन्ध में कुछ सुनना चाहता हूँ. आत्मा और परमात्मा क्या है ? 
उत्तर : अन्तरात्मा या आत्मा तथा परमात्मा वस्तुतः (de facto) एक ही हैं, दोनों में कोई अन्तर नहीं है. आत्मा दो प्रकार की नहीं होती, वास्तव में आत्मा के अतिरिक्त अन्य और कुछ है ही नहीं. आत्मा कहने का तात्पर्य ही ब्रह्म होता है, आत्मा का अर्थ ही है परमात्मा.
जब तक हमलोग इस भ्रम में रहते हैं, या यह कल्पना करते हैं कि वे किसी जीव के भीतर हैं, तब उनको जीवात्मा या आत्मा कह देते हैं. और जब ऐसा जान लेते हैं कि वे सर्वव्यापी होने पर भी, सभी कुछ का अतिक्रमण कर के, सबकुछ के परे भी वे ही अवस्थित हैं; जब इस दृष्टिकोण से विचार करते हैं, तब उनको ही परमात्मा (परम+आत्मा) कहते हैं. 
हमलोगों के भीतर जो आत्मा अवस्थित हैं, उनके बारे में ठीक ठीक धारणा करना बहुत कठिन है. इसका कारण यह है कि किसी भी वस्तु की धारणा हमलोग मन के द्वारा ही करते हैं. किन्तु आत्मा मन-बुद्धि के अगोचर हैं, वे मन-बुद्धि का अतिक्रमण करके अवस्थित हैं. 
वे सुनने में बड़े अच्छे लगते हैं, इसी कारण उनको बोल कर नहीं समझाया जा सकता है. मन के भीतर उनकी धारणा - क्यों नहीं की जा सकती ? इस बात को उनके उपर बहुत परिचर्चा (शास्त्रार्थ) करके तर्कसंगत विचार करने पर ही समझा जा सकता है. क्योंकि वे रोम-रोम में व्याप्त हैं, सबकुछ में अनुस्यूत हैं, सदा साथ रहने वाले हैं,अविभाज्य हैं, इसीलिए शब्दावली के आभाव में हमलोग कह देते हैं, कि आत्मा सर्वगत हैं, वे सर्वव्यापी हैं. किन्तु वास्तव में उनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है. 
जो कुछ भी देख रहा हूँ, जो कुछ भी है, सब कुछ वे ही बने हैं, सभी कुछ ब्रह्ममय है ! इसीलिए वे सर्वव्यापी नहीं हो सकते हैं. यदि सभीकुछ वे ही हों, तो फिर वे किसी एक जगह (अपने से भिन्न पदार्थ में ) में जायेंगे कैसे ? यदि उनके अतिरिक्त अन्य कुछ हो ही नहीं, तो फिर वे सबों के भीतर प्रविष्ट कैसे होंगे ? यह सब बातें हमलोग अपने मन को समझाने के लिए कह देते हैं. अर्थात जो अस्तित्व हैं, जिनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, वे ही आत्मा हैं, वे ही परमात्मा हैं.
किन्तु उनको बुद्धि के द्वारा कभी नहीं समझा जा सकता है, वे तो अनुभव करने की वस्तु हैं ! हमलोगों
 का ' मैं-पन ' या मिथ्या अहंकार उन्हें कभी नहीं जान सकता, बस जो आत्मा हैं, वे ही स्वयं को या परमात्मा को जान सकते हैं. केवल वह ' आत्मा ' ही यह जान पाते हैं, कि ' वे ' क्या हैं ! इसी अवस्था का वर्णन करते हुए स्वामी विवेकानन्द,समाधि के उपर रचित एक कविता में कहते हैं
" प्रलय या गहरी समाधि " 
सूर्य भी नहीं है, ज्योतिर्मय सुंदर शशांक भी नहीं,
प्रतिबिम्ब-सा व्योम में यह विश्व नजर आता है।
मनो-आकाश अस्फुट..., भासमान विश्व-ब्रह्माण्ड वहाँ 
अहंकार-स्रोत ही में तिरता डूब जाता है। 
धीरे धीरे प्रतिबिम्बों का समूह प्रलय में समाया जब 
निज ' नाम-रूप ' के अहंकार की धारा उसी में लीन हो जाती है ।
रुद्ध हो गयी वह धारा, शून्य में लीन हो गया शून्य,
'अवांग-मन-सगोचरम ' को वह जाने जो ज्ञाता है ! 
इस कविता की अन्तीम पंक्ति बंगला में इस प्रकार है- ' বোঝে প্রাণ বোঝে যার । ' 
या ' बोझे प्राण बोझे जार ।' -अर्थात उनको प्राण ही समझ पाता है, ' मैं ' उनको जान गया हूँ, ऐसा मुख से कहने वाला अहं तो उस प्रलय (निर्विकल्प समाधि) में ही लीन हो गया था, अब कौन कह सकता है ? श्रीरामकृष्ण इसी बात को इस प्रकार कहते हैं- ' एकमात्र ब्रह्म ही अनुच्छिष्ट हैं, उनको कोई मुख से नहीं कह सकता है, सारे शब्द (नाम ), सारे शास्त्र जूठे हो गये हैं, किन्तु ब्रह्म अभी तक जूठा नहीं हुआ ।'
क्योंकि वे इस भौतिक जगत में दिखाई देने वाले किसी लौकिक पदार्थ के जैसा कोई वस्तु या भौतिक-पदार्थ नहीं हैं; इसीलिए उनको वाणी के द्वारा व्यक्त व्यक्त नहीं किया जा सकता, कोई हजार मुखों से भी उनका वर्णन नहीं कर सकता.
हमलोग अपनी पञ्च इन्द्रियों के माध्यम से केवल भौतिक पदार्थों की ही धारणा कर सकते हैं. जैसे इस वस्तु का इतना भार या इतना वजन होगा, इसका आकर ऐसा है,  इसका यह रूप है, इसमें ऐसे गुण हैं, इसके साथ अन्य वस्तु का सम्पर्क हो सकता है इत्यादि बातों को ही हम अपने मन के द्वारा धारणा के सकते हैं. 
मनुष्य अपने मन में जितनी बड़ी से बड़ी या सबसे वृहत वस्तु की धारणा कर सकता है, वे उन सबसे भी वृहत हैं, इसीलिए मन से विचार करके उनके बारे में धारणा बना पाना संभव नहीं है. फिरभी हताश होने की जरूरत नहीं है, कोई व्यक्ति यदि इसी प्रकार उनके बारे में सुनता रहे, या इसी विषय पर बार बार परिचर्चा करता रहे, तथा (चारो महावाक्य पर ) गहराई से मनन करता रहे, तो वैसा करते-करते उनके बारे में थोड़ी धारणा अवश्य हो सकती है. 
इसके लिए, बीच बीच में (निर्जन में- अर्थात कैम्प में जाकर) आत्मचिन्तन करते रहना चाहिए-" यह ठीक  है कि ब्रह्म क्या हैं, उनके बारे में मैं नहीं जानता. किन्तु ऐसी बात भी नहीं है, कि उनके बारे में मैं बिल्कुल कुछ भी नहीं जानता. मैं यह दावा तो नहीं कर सकता, कि मैंने ब्रह्म को पूर्ण रूप से जान लिया है, किन्तु यह भी नहीं कह सकता कि मैं ब्रह्म के बारे में कुछ भी नहीं जानता हूँ." इस प्रकार का चिन्तन-मनन, करते रहना आवश्यक है.
 यही बात प्रत्येक उपनिषद में कही गयी है. " ब्रह्म सर्वव्यापी हैं, वे सर्वदा निश्चल होते हुए भी, सर्वदा द्रूत गति से गमन करते हैं. वे यहीं हैं, वे दूर से दूर भी हैं. वे कान नहीं रहने से भी सुन सकते हैं, आँखें नहीं रहने से भी देख सकते हैं, वे जीभ के बिना होने पर भी, समस्त बातें, समस्त शब्द उन्हीं से निर्गत होते हैं, समस्त इच्छाएँ वहीँ से आ रही हैं, वे समस्त सृष्टि का मूल हैं. वे कानों के भी कान हैं, मन के भी मन हैं. सम्पूर्ण सृष्टि उन्हीं में विलीन हो जाएगी. वे मेरे भीतर भी हैं, और मेरे बाहर भी हैं. जो कुछ भी विश्व-ब्रह्माण्ड मैं देख रहा हूँ, सबके भीतर वे ही अवस्थित हैं. वे प्रत्येक जीवों में हैं, प्रत्येक प्राणी के भीतर में हैं, प्रत्येक मनुष्य में वही हैं. ऐसा कुछ भी नहीं है, जो वे नहीं हैं."
यदि कोई पूर्ण श्रद्धा के साथ इसी बात पर मन ही मन विचार करता रहे, तो उसका क्या होगा ? उसका हृदय तथा उसकी दृष्टि क्रमशः विस्तृत होती रहेगी. अब वह उनके संबन्ध में क्या सोचेगा ? यही-कि वे सच्चिदानन्द स्वरूप हैं, वे सत-चित-आनन्दमय हैं. शंकराचार्य ने कहा है- 
दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद ब्रह्ममयं जगत ।
        सा   दृष्टि   परमोदारा न नासाग्रविलोकिनी ।।
सत - का अर्थ क्या हुआ ? यही, की वे हैं. (सचमुच यह विश्वास होना कि दिन में सितारे नहीं दिखाई देने से भी वे हैं, रात्रि में अवश्य निकल आएंगे. या बाबूजी अँधेरे कमरे में सो रहे हैं, उनको ढूंढ़ते ढूंढ़ते हाथ पहले जंगला पर पड़ गया, नहीं ये बाबूजी नहीं हैं, पलंग पर पड़ा ये भी नहीं हैं, बाबूजी पर हाथ पड़ गया, तो हम निश्चिन्त हो गये कि बाबूजी हैं.) 'अस्ति ' का भाव, वे हैं के भाव को ' सत ' कहते हैं.
 असत का अर्थ है, जो तीन काल में नहीं हो सकता. वास्तव में ' सत-असत-मिथ्या ' पर चिन्तन-मनन  करने का अर्थ अच्छा-बुरा में अन्तर करना नहीं है,उसका अर्थ है- वे हैं ! वे चित स्वरुप हैं. वे ' Consciousness ' हैं, वे चैतन्य (अभिज्ञता ) हैं, वे चिति हैं. दुर्गा सप्तसती में कहा गया है- ' या देवी सर्वभूतेषु चिति-रूपेण संस्थिता ।' वे चिति या बोधस्वरूप हैं, वे सभी वस्तुओं में बोधस्वरूप हैं. एवं वे आनन्दमय हैं.
 आनन्द को कैसे समझा जाता है ? जब आनन्द का प्रवाह होता है, तो वह प्रेम के रूप में ही प्रवाहित होता है. इसीलिए हम इस प्रकार ब्रह्म के उपर चिन्तन करते रहें- कि वे सर्वत्र हैं, सर्व जीवों में हैं, वे सर्व लोकों में हैं, फिर वे ही सर्व लोकों का अतिक्रमण करके भी हैं."
" वे मेरे भीतर हैं और मेरे बाहर भी वही हैं. जो सदा-सर्वदा हैं वे सत-स्वरूप हैं, जो चिन्मय हैं, जो चितस्वरूप हैं, जो विचार स्वरूप हैं, जो बोधस्वरूप हैं, जो आनन्दमय हैं, जो कई धाराओं में प्रेमरूप से प्रवाहित होकर सबों का आलिंगन करते हैं, वे सबों के भीतर रहते हुए, मेरे भीतर भी हैं."
जो भी व्यक्ति इन बातों के उपर चिन्तन करता है, उसके भीतर घृणा नहीं रह सकती, वह किसी से  द्वेष नहीं करता,उसमें हिंसा नहीं रहती, स्वार्थपरता नहीं रहती, शक्तिहीनता नहीं रहती. उसके भीतर की शक्ति जाग्रत हो जाती है, उसके हृदय में ज्ञान का उन्मेष हो जाता है, एवं सर्वग्रासी प्रेम उसके अन्तर से प्रवाहित होकर सबों का आलिंगन करता है. 
यही है मनष्य बनने का सच्चा तरीका, एवं जगत-कल्याण का वास्तविक उपाय भी यही है. आजकल के कुछ विदेशी मनीषी, और ठेठ-विदेशि भाषा की कुछ पुस्तकों को पढ़े-लिखे तथाकथित कुछ देशी बुद्धिजीवी लोग, जिन्होंने इन बातों को कभी अपने जीवन में सुना भी नहीं है, या कभी इसके उपर परिचर्चा करने की कोई चेष्टा भी यदि नहीं किया है,और वैसे लोग ही अगर यह फतवा देने लगें, कि यह सब झूठी बात है, भ्रामक है-भ्रम में डालने वाली बातें हैं, कपोल-कल्पित बातें हैं, और उन पढ़े-लिखे मूर्खों की बातों को सुन कर हमलोग यह मानने लग जाएँ, कि सचमुच हमारे उपनिषदों में ज्ञान की बातें हैं ही नहीं, तो फिर हमलोगों के दुःख-कष्टों को दूर करने की शक्ति सम्पूर्ण त्रिलोकी में किसी के पास नहीं है. वैसे जो पढ़े-लिखे मूर्ख ऐसी बकवास करते हैं, उनके संबन्ध में शंकराचार्य ने कहा हैं-
स्वात्मानं शृणु मुर्ख त्वं श्रुत्या युक्त्या च पुरुषम ।
देहातीतं सदाकारं सुदूर्दर्शं भवादृशै : ।।
-अर्थात, हे मुर्ख ! श्रुतियों (वेद-उपनिषद आदि) में तुम्हारी अपनी आत्मा को ही पुरुष कहा गया है, उनके बारे में सुनो एवं उनको तर्क-वितर्क की सहायता जानने की चेष्टा करो. यह आत्मा देहातीत हैं (केवल शरीर नहीं हैं), अस्तित्व के आकर एवं स्वरुप को समझ पाना तुम्हारे जैसे बुद्धि-सम्पन्न व्यक्तियों के लिए समझ पाना सचमुच बहुत दुष्कर है. 
ऐसा दृढ विश्वास रखना ही यथार्थ श्रद्धा है, यही वास्तविक आध्यात्मिकता है. आत्मा पर विश्वास, अपनी शक्ति के उपर विश्वास रखो. स्वयं में जो शक्ति है, वह कहाँ से आ रही है ? मेरे भीतर आत्मा हैं, इसीलिए मैं शक्तिमान हूँ. मेरे भीतर आत्मा हैं, इसीलिए मुझमें ज्ञान का प्रस्फुटन होता है. मेरे भीतर आत्मा हैं, इसीलिए तो मैं आनन्द का अनुभव करता हूँ. मेरे भीतर आत्मा हैं, इसीलिए मैं मनुष्यों से प्रेम कर सकता हूँ. प्रेम हृदय से प्रेम प्रवहित हो सकता है. यह सच्चिदानन्दमय आत्मा मेरे भीतर हैं, इसी विश्वास को हृदय में धारण करके जीवन जीना ही आध्यात्मिकता है. 
केवल यह आध्यात्मिकता ही सच्चा साम्यवाद (Communism - या सब वस्तुओं में सबका समानाधिकार रखने का सिद्धान्त) स्थापित कर सकती है.जोलोग शोषित, मुर्ख, दरिद्र है, गरीबी से त्रस्त और पददलित हैं, सताये हुए हैं और भूखों मर रहे हैं- यह आध्यात्मिकता ही वैसे लोगों के चेहरे पर भी हँसी खिला सकती है.  
इसी ज्ञान, इसी  शक्ति, इसी आध्यात्मिकता को यदि भारत के जनसाधारण के भीतर जाग्रत नहीं कराया जा सका- तो उनके चेहरों पर हँसी खिला पाना कभी संभव नहीं होगा. एवं भारत के गाँवों की झोपड़ियों में रहने वाली आम-जनता के बीच इस प्रकार के सच्चे साम्यवाद या आध्यात्मिकता को स्थापित नहीं करने से भारतवर्ष का पुनर्निर्माण कभी संभव नहीं हो सकेगा, फलस्वरूप सम्पूर्ण पृथ्वी के मनुष्यों की उन्नति भी संभव नहीं हो सकेगी. इसीलिए समाज के नीतिनिर्धारकों को सम्पूर्ण पृथ्वी के विकास के लिए इसी आध्यात्मिकता या सच्चे साम्यवाद की शरण में जाना ही होगा.
 स्वामी विवेकानन्द, जगन्माता माँ सारदा एवं ठाकुर श्रीरामकृष्ण ने इसी सच्चाई को अपने जीवन (धन का आभाव तथा ग्रामीण परिवेश के जीवन) द्वारा प्रदर्शित किया है, अपनी अमृतमयी वाणी से इन्हीं बातों का उल्लेख कई प्रकार से किया है-और किस लिए किया है ? जगत के कल्याण के लिए किया है. इसके अलावा उनका कोई दूसरा उद्देश्य नहीं था. सम्पूर्ण जगत का कल्याण हो सके, इसीलिए हमलोगों की आँखों के सामने उन लोगो ने अपने जीवन-लीला का मंचन किया था.
हमलोग उनके इतने निकट (भारत में जन्मे हैं) रहे हैं, इसीलिए उनकी लीलाओं को विभिन्न प्रकार से सुन पा रहे हैं. यदि हमलोगों में थोड़ी सी भी सद्बुद्धि बची हुई हो, तो हमलोग इस परमसुन्दर आदर्श को अपने जीवन में धारण करने की चेष्टा अवश्य करेंगे. पर केवल अपनी मुक्ति, अपने आनन्द, अपने सुख के लिए नहीं, बल्कि भारत के जनसाधारण के लिए, विश्व के समस्त मनुष्यों का कल्याण साधित करने की इच्छा से करें.
मनुष्यों के कल्याण के लिए- हमलोग अपने जीवन की समस्त शक्तियों को उद्घाटित कर सकें, उन्हें जाग्रत कर सकें, उस अनन्त प्रेम को अनेकों धाराओं में प्रवाहित-प्रस्फुटित या अभिव्यक्त करके
अपने जीवन को सार्थक बनाकर अन्त में हँसते-हँसते इस जगत से प्रस्थान कर सकें; ठाकुर-माँ-स्वामीजी हम सभी लोगों को यही आशीर्वाद दें !                                   

परमार्थ:परम तत्व या अपरिवर्तनशील-धन ! [***21]परिप्रश्नेन

२१.प्रश्न : नरेन् माँ के सामने (दक्षिणेश्वर वाली माँ भवतारिणी के सामने ) जब गये तो उनसे अर्थ  (धन) क्यों नहीं मांग सके ? उन्होंने उनसे ज्ञान और वैराग्य की भिक्षा ही क्यों माँगी ?
उत्तर : क्यों नहीं माँग सके, इसका कारण था उनके जीवन का उद्देश्य (या जीवन-ध्येय ) उन्हें तो चाहिए
 था- 'परम+अर्थ ' या परमार्थ (परम तत्व या अपरिवर्तनशील-धन)! जिसकी शिक्षा उनको पूरे विश्व को देनी थी। इस जगत में देह्धारण का उनका उद्देश्य था परमार्थ- या सम्पूर्ण मानवता को यह उपदेश देना था कि मनुष्य इसी जीवन में सर्व-श्रेष्ठ वस्तु को किस प्रकार प्राप्त कर सकता है ? कैसे वह अपने जीवन को सुन्दर रूप से गठित कर सकता है ? यही सू-समाचार उन्हें सपूर्ण जगत में सुनाने का उत्तरदायित्व उन्हें श्रीरामकृष्ण से प्राप्त हुआ था. ठाकुर इसी कार्य को करने के लिए उनको अपने साथ लाये थे (या निर्विकल्प-समाधि में जाने के बाद भी वहाँ से वापस लौट सके थे ?)
इसीलिए जिस जीवन-ध्येय को पूरा करने के लिए जिसने मानव-शरीर धारण किया हो, (या सच्चिदानन्द के साथ एकत्व की अनुभूति में लीन हो जाने के बाद भी जिसको माँ ने पुनः शरीर में लौटा दिया हो ) उसे तो वह कार्य पूरा करना ही होगा. अवसर प्राप्त होने से भी जो महापुरुष (जो निर्विकल्प के आनन्द को भी ठाकुर के धिक्कार को सुनकर त्याग सकता हो ) भौतिक वस्तुओं की ओर नहीं जा सकता है. क्योंकि यदि वे भी भौतिक सुखों को प्राप्त कर लेते, तो पूरे विश्व को मोहनिद्रा से जाग्रत करने का मन्त्र -(नेपोलियन हिल के Law Of Success नामक पुस्तक में वर्णित सांसारिक सुखों को प्राप्त कराने वाले- " Auto  Suggestion Formula " का प्रयोग जीवन-गठन एवं चरित्र-निर्माण में प्रयोग करने का उपाय वर्तमान युग के तरुणों को कौन सुनाता ?) ' उतिष्ठत जाग्रत ' कौन सुनाता ? (मुझ जैसे प्रवृत्ति-मार्गियों का क्या हाल हो जाता ? हमसभी लोग वराह-अवतार धारण कर लिए होते !) 
 इसीलिए किसी ईश्वरीय-विधान के द्वारा पूर्वनिर्धारित प्रेरणा के अनुसार ही उनका मन प्रारंभ से ही संसारी अर्थ, सुख, सम्पदा से बहुत दूर था. इसीलिए जब उनके मन में विषय-भोगों के प्रति कोई आसक्ति थी ही नहीं, तो वे भला उस विष को पीने की इच्छा कैसे करते ? जगत में आकर देखते हैं कि यहाँ अपने घर में भी रूपये-पैसे का घोर आभाव हो गया है, परिवार के लोग भी असुविधा में हैं,कष्टपूर्ण जीवन जी रहे हैं. वह सब एक हकीकत है, किन्तु अपने गुरु से जब यह सुनते हैं कि हम जो कुछ भी बहुत सिद्दत के साथ चाहेंगे, हमें उसी वस्तु की प्राप्ति अवश्य हो जाएगी. (तुलसीदासजी ने भी कहा है- ' जाकर जापर सत्य-सनेहू, से तेहिं मिलिहैं न कछु सन्देहू ।।' ) इसीलिए जब यही ईश्वरीय-विधान है- तो जो सर्व-श्रेष्ठ वस्तु (ईश्वर) हैं, उनको ही पाने की इच्छा क्यों न की जाय ? इसीलिए वे माँ के सामने पहुँचकर भी उनसे नश्वर वस्तुओं को नहीं माँग सके थे. 
ठीक ऐसी ही परिस्थिति नचिकेता के सामने भी आई थी. नचिकेता जब यमलोक पहुँचे उस समय यमराज महोदय अपने घर पर नहीं थे,अपने काम से बाहर गए हुए थे। तीन दिनों के बाद जब उनके साथ बातचीत हुई, तो यम बड़े संतुष्ट हुए. उनहोंने नचिकेता से पूछा- ' बोलो तुम क्या वरदान चाहते हो ? मैं तुमको तीन वर दूंगा.' (माने तुम्हारी तीन सर्वोच्च मनोकामनाओं को पूर्ण कर दूंगा.) नचिकेता दो वर माँगने के बाद तीसरा वर माँगता है- ' मैं आत्मज्ञान पाना चाहता हूँ.' तब यमराज ने विचार किया कि आजतक कोई भी मनुष्य यहाँ जीवित अवस्था में तो नहीं पहुँच सका था, और यदि इसी को यह ज्ञान दे दूंगा तो यह लड़का - ' कहीं बीच-बाजार में ही ' हाँडी ' तो नहीं फोड़ देगा ? ' 
मैंने इतने दिनों तक जिस ' तत्व-ज्ञान ' को गुप्त बना रखा है, उसका तो राज ही फ़ास हो जायेगा. इसलिए यह वर देना ठीक नहीं होगा. कैसे इस बच्चे को फुसलाया जाय ? इधर उनके मुख से निकल चूका है- तुमको ' तीन ' वर दूंगा. वे अपने मुख से निकली बात को वापस तो नहीं लौटा सकते थे. तब उन्होंने उसको ' छोटा बच्चा जानकर, भरमाने के लिए ' - प्रलोभन देना शुरू कर दिया.
और बताओ तुम क्या-क्या पाना चाहते हो ? तुम जो कुछ भी चाहोगे, मैं अभी तुरन्त उसकी व्यवस्था कर दूंगा. जो चाहोगे वह तुमको अभी मिल जायेगा. धन-रत्न, गाड़ी, राजमहल, भोग-सुख बोलो क्या क्या तुमको दे दूँ ? (श्याम-कर्ण घोड़ा ले लो जिसके कान ऐंठने से वह हवा में उड़ सकता है, देवलोक की जितनी अप्सराएँ हैं, उन सबको तुम्हें दे सकता हूँ, हजार वर्षों के लिए तुमको पूरी पृथ्वी का राजा बना सकता हूँ, बोलो ! जो कुछ भी तुम अपने प्राणों से पाने की कामना करते होगे, माँग लो, जो मांगोगे वही तुमको दे दूंगा.
 नचिकेता कहता है, वह सब आपको ही मुबारक हो, आपका यह सब अप्सराओं के नृत्य-संगीत में मजे लूटना, फलाना-ढिकाना मजेदार वस्तुएँ अपने पास ही रखिये. मुझे इन नश्वर वस्तुओं की कोई आवश्यकता नहीं है. मैं तो केवल यही जानना चाहता हूँ कि मरने के बाद क्या होता है, आत्मा रहती है या नहीं, इत्यद,इत्यादि।... ?
 प्रह्लाद कितना छोटा सा लड़का था, भगवान (नरसिंह भगवान) के सामने पहुँच कर इस प्रकार से वेदान्त के तत्वों को उजागर करने लगा कि भगवान तो वह सब सुनकर दंग रह गए. इतना छोटा सा बच्चा कितनी अच्छी बातें करता है ! बहुत संतुष्ट होकर कहते हैं- ' तुम मुझसे वर माँगो '. प्रह्लाद ने कहा- मुझे कोई वर नहीं चाहिए. नारायण कहते हैं, यह क्या बात हुई ? माँगने में संकोच क्यों करते हो, तुम जो भी माँगोगे अभी तुमको मिल जायेगा. प्रह्लाद ने कहा- जब मेरी कोई भी वस्तु पाने की इच्छा ही नहीं बची है, तो मैं आपसे क्या माँगू ? मेरी कुछ भी पाने की इच्छा नहीं है. 
नारायण ने पूछा- क्या तुम्हें मुक्ति नहीं चाहिए, मोक्ष पाना भी नहीं चाहोगे ? इसी समय मैं तुमको मोक्ष दे दूंगा. तब प्रह्लाद कहता है-'नहीं, मुझे मुक्ति भी नहीं चाहिए '. जगत में इतने मनुष्य बद्ध-अवस्था में पड़े हुए हैं !! वे लोग महान दुःख-कष्टों को भोगते रहें, और मैं इसीलिए आपसे मुक्ति पा कर बड़े आनन्द के साथ यहाँ से चला जाऊं कि आपके साथ मेरी जान-पहचान है, या मैं आपके सम्पर्क में आ सका हूँ; नहीं, मैं इतना स्वार्थी नहीं बन सकूँगा. नारायण तो आश्चर्यचकित रह गये. और अधिक मान-मनौवल करने पर, प्रह्लाद ने कहा- ' यदि वर देना ही चाहते हैं, तो ऐसा वर दीजिये मानो मेरे मन में कोई कामना कभी अपना सिर भी उठा सके.' 
इसीलिए जिसको अपने छोटे से जीवन में ही बहुत बड़े बड़े कार्य करने होते हैं, वे कोई मौका पाते ही, अपने किसी क्षुद्र स्वार्थ की चीजों को माँग पाना उनके लिए संभव ही नहीं होता. एवं ज्ञान, विवेक, वैराग्य, इत्यादि सत्व गुण हैं. इसीलिए जब माँ ने उनसे कुछ माँगने को कहा तो, उनके मन में इन्हीं गुणों को प्राप्त करने की इच्छा हुई ! इसीलिए स्वामीजी ने इन सबको ही माँगा.

नरेन्द्रनाथ कौन थे ?? परिप्रश्नेन [***20]

२०.प्रश्न : कहीं पढ़ा हूँ कि स्वामी विवेकानन्द पृथ्वी पर जन्म ग्रहण करने के पहले ध्यान-मग्न सप्त ऋषियों में से एक ऋषि थे, उन सातो ऋषियों का नाम क्या है?
उत्तर : यह प्रश्न अभी तक किसी के मुख से सुना नही था. सचमुच, मन में यह प्रश्न उठाना उचित है कि वे सात ऋषि कौन थे ? कहाँ पर ध्यानस्थ थे, उनमें से फिर नरेन्द्रनाथ कौन थे ? प्रश्न स्वाभाविक होने पर भी अत्यंत कठिन है.फिर भी उत्तर देने का प्रयत्न करता हूँ. 
जब किसी व्यक्ति ने स्वयं स्वामीजी से इस प्रश्न को पूछा था, तो उन्होंने विषयवस्तु की गम्भीरता को ही उड़ाते हुए कहा था- ' मैं वह सब कुछ नहीं जानता हूँ भाई, मैं तो यही जानता हूँ, कि मैं विश्वनाथ दत्त का पुत्र हूँ. ' किन्तु ठाकुर (भगवान) श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्रनाथ के शरीर धारण के विषय में अपने एक अद्भुत दर्शन की बात को इस प्रकार कहा था- 
" एक दिन देखा - मन समाधि के मार्ग से ज्योतिर्मय पथ में उपर उठता जा रहा है. चन्द्र, सूर्य, नक्षत्रयुक्त स्थूल जगत का सहज में ही अतिक्रमण कर वह पहले सूक्ष्म भाव-जगत में प्रविष्ट हुआ. उस राज्य के ऊँचे से ऊँचे स्तरों में वह जितना ही उठने लगा, उतना ही अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियाँ पथ के दोनों ओर दिखाई पड़ने लगीं. क्रमशः उस राज्य की अन्तिम सीमा पर वह (ठाकुर का मन ) आ पहुँचा. 
वहाँ देखा, एक ज्योतिर्मय पर्दे के द्वारा खण्ड और अखण्ड राज्यों का विभाग किया गया है. उस पर्दे को लाँघकर वह क्रमशः अखण्ड राज्य में प्रविष्ट हुआ. वहाँ देखा, मूर्तरूपधारी कुछ भी नहीं है, यहाँ तक कि दिव्य देहधारी देवी-देवता भी वहाँ प्रवेश न करने का साहस न कर सकने के कारण बहुत दूर नीचे अपना अपना अधिकार फैला कर अवस्थित हैं. किन्तु दूसरे ही क्षण दिखाई पड़ा कि दिव्य ज्योतिर्घन-तनु सात प्राचीन ऋषि वहाँ समाधिस्त होकर बैठे हैं.
समझ लिया कि ज्ञान और पुण्य में तथा त्याग और प्रेम में ये लोग मनुष्य का तो कहना ही क्या, देवी-देवता तक के परे पहुंचे हुए हैं. विस्मित होकर इनके महत्व के विषय में सोचने लगा. इसी समय सामने देखता हूँ, अखण्ड भेद-रहित, समरस, ज्योतिर्मण्डल का एक अंश घनीभूत होकर एक दिव्य शिशु  के रूप में परिणत हो गया. (अन्य समय पर ठाकुर ने कहा था, ठाकुर ने स्वयं ही उस शिशु का रूप धारण किया था.) वह देवशिशु उनमें से एक के पास जाकर अपने कोमल हाथों से आलिंगन करके अपनी अमृतमयी वाणी से उन्हें समाधि से जगाने के लिए चेष्टा करने लगा. 
शिशु के कोमल प्रेम-स्पर्श से ऋषि समाधि से जागृत हुए और अधखुले नेत्रों से उस अपूर्व बालक को देखने लगे. उनके मुख पर प्रसन्नोज्जवल भाव देख कर ज्ञात हुआ, मानो वह बालक उनका बहुत दिन का परिचित हृदय का धन है. वह देवशिशु अति आनन्दित हो उनसे कहने लगा, ' मैं जा रहा हूँ, तुम्हें भी आना होगा.' उसके अनुरोध पर ऋषि के कुछ न कहने पर भी, उनके प्रेमपूर्ण नेत्रों से अंतर की सम्मति प्रकट हो रही थी. इसके बाद ऋषि बालक को प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखते हुए पुनः समाधिस्त हो गये. उस समय आश्चर्यचकित होकर मैंने देखा कि उन्हीं के शरीर-मन का एक अंश उज्ज्वल ज्योति के रूप में परिणत होकर विलोम मार्ग से धराधाम में अवतीर्ण हो रहा है. नरेन्द्र को देखते ही मैं जान गया था कि यही वह है. " 
ठाकुर का यह जो अद्भुत दर्शन हुआ था, वह क्या पूर्णतया काल्पनिक था ? नहीं, हमलोगों ने सात ऋषियों के बारे में सुना है- जिन्हें सप्तर्षि भी कहा जाता है. उत्तरी आकाश में ध्रुव तारा के नजदीक सात नक्षत्रों को सप्तर्षि मण्डल कहा जाता है. किन्तु ठाकुर ने तो देखा था- " चन्द्र, सूर्य, नक्षत्रयुक्त स्थूल जगत का सहज में ही अतिक्रमण करने के बाद..." ऐसा यदि हुआ था, तब उनहोंने कौन से सात ऋषियों को देखा था ? दो प्रकार के सात ऋषि (सप्तर्षि) की कथा पाई जाती है. शंकराचार्य ने अपने गीता भाष्य के भूमिका में कहा है- 
" स भगवान सृष्ट्वा इदं जगत तस्य च स्थितिं चीकीर्षु:
मरीच्यादीन अग्रे सृष्ट्वा प्रजापतीन

 प्रवृत्ति-लक्षणं धर्मं ग्राह्यामास वेदोक्तम।.." 
- अर्थात भगवान इस जगत की सृष्टि करने के बाद, उसकी स्थिति को निश्चित करने की कामना से मरीचि-आदि प्रजापति गण की रचना करके, उनको वेदोक्त प्रवृत्ति-लक्षण धर्म ग्रहण करवाए थे. ये सभी महर्षि के नाम से प्रसिद्द हैं. इन सबों का जन्म प्रजा का पालन करने के लिए ब्रह्मा के मन से हुआ है. ये सभी महर्षि वेदज्ञ, आचार्य एवं प्रवृत्ति मार्ग के ऋषि हैं, अर्थात काम्यकर्म-परायण हैं. शंकराचार्य उसके बाद कहते हैं- 
 " ततः अन्यान च सनक-सन्दनादीन उत्पाद्य 
निवृत्ति-धर्मं ज्ञान-वैराग्य-लक्षणं ग्राह्यामास ।
 द्विविधः हि वेदोक्त धर्मः, प्रवृत्ति-लक्षण: निवृत्ति लक्षण: च ।..." 
 तदोपरान्त अन्य सनक-सनन्दन आदि को ज्ञान-वैराग्य-लक्षण से युक्त निवृत्ति-लक्षण धर्म ग्रहण करवाए थे. ये सभी ब्रह्मर्षि के नाम से जाने जाते हैं, तथा ये निवृत्ति-मार्ग के ऋषि हैं.वेदों में प्रवृत्ति-लक्षण और निवृत्ति-लक्षण दो प्रकार के धर्म का उल्लेख है ।"
शंकराचार्य ने इन ऋषियों में से केवल एक-दो नामों का हि उल्लेख किया है. किन्तु महाभारत में इन सभी ऋषियों की उत्पत्ति एवं नाम इत्यादि का सविस्तार वर्णन किया गया है. प्रवृत्ति मार्ग के सात ऋषियों के नाम इस प्रकार हैं- मरीचि, अंगीरा, अत्री, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु एवं वशिष्ठ. नक्षत्र मण्डल में इन्हीं सात ऋषियों को देखा जाता है. 
किन्तु ठाकुर के दर्शन के अनुसार स्वामीजी (नरेन्द्रनाथ) तो ज्ञान-वैराग्यवान निवृत्ति-धर्मी सात ऋषियों में से एक थे. ठाकुर के कथनानुसार सुना जाता है कि वे नर-ऋषि या सन थे. यह बिलकुल स्पष्ट है कि प्रवृत्ति-मार्ग के सात महर्षियों में से किन्ही का भी नाम (सन) नर-ऋषि नहीं है. महाभारत के अनुसार इन सात ब्रह्मर्षियों के नाम इस प्रकार हैं- सन (नर), सनत-सुजात, सनक, सनन्दन, सनत्कुमार, कपिल और सनातन (नारायण).न सात ज्ञान-वैराग्यवान निवृत्ति-धर्मी ब्रह्मर्षियों में प्रथम ऋषि का नाम था नर एवं अन्तिम का नाम था नारायण .किन्तु ' लीलाप्रसंग ' में इस प्रकार वर्णन मिलता है- " उन्हें (श्रीरामकृष्ण को ) यह भी ज्ञात था कि उनकी लीला की पुष्टि के लिए कुछ उच्च श्रेणी के साधकों ने ईश्वरेच्छा से जन्मग्रहण किया है...उनके लिए वे उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे. माया के राज्य के भीतर रहकर इन गूढ़  रहस्यों को जो जान सके थे, उन्हें सर्वज्ञ के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है ?
... सन १८८१ का नवम्बर मास होगा. नरेन्द्रनाथ की आयु उस समय १८ वर्ष की थी तथा वे कोलकाता विश्व विद्यालय की ऍफ़.ए. परीक्षा की तैयारी कर रहे थे. वे नरेन्द्र से कहने लगे, ' तू इतने दिनों के बाद आया ? मैं तेरे लिए किस प्रकार प्रतीक्षा कर रहा था, तू सोच भी नहीं सकता ? विषयी मनुष्यों के व्यर्थ के प्रसंग सुनते-सुनते मेरे कान जले जा रहे हैं,... दुसरे ही क्षण मेरे सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये और देवता की तरह मेरे प्रति सम्मान दिखाकर कहने लगे, ' मैं जनता हूँ, प्रभु ! आप वही पुरातन ऋषि -नररुपी नारायण हैं, जीवों की दुर्गति दूर करने के लिए आप पुनः संसार में अवतीर्ण हुए हैं ! इत्यादि.'
 उनके इस कथनानुसार स्वामीजी वास्तव में ब्रह्मर्षि सनातन (नारायण) थे, और ठाकुर के आह्वान को सुनकर उनहोंने ही नरेन्द्र के नाम से मनुष्य-शरीर धारण किया था. तथा जगत का असीम कल्याण करने की कामना से ज्ञान, विवेक, वैराग्य, अभेद-दृष्टि एवं सेवा के असामान्य मनोभाव का प्रचार करके इस धराधाम से अन्तर्धान हो गये थे.

' समस्त संचय भीतर विपदा भी छुपी हुई है '[19] परिप्रश्नेन

१९.प्रश्न : वैराग्य किसे कहते हैं ? वैराग्य की प्राप्ति कैसे होती है ?
उत्तर : वैराग्य का अर्थ है, राग या आसक्ति का आभाव. आसक्ति को कम करते जाना ही मुख्य बात है. किसी विषय का सुख भोगने की प्रबल आकांक्षा हमलोगों में होती है, किसी वस्तु को पाने की बहुत तीव्र इच्छा होती है, उसे ही आसक्ति कहते हैं; तथा इस लालच को कम करने का नाम वैराग्य है. हमलोगों में सामान्यतौर से सभी वस्तुओं के प्रति एक आकर्षण होता है, प्राप्त करने की इच्छा रहती है. जैसे, खाने के लिए अच्छा-अच्छा पकवान मिलना चाहिए. जैसे अच्छी मिठाई खाऊंगा, अच्छे कपड़े पहनूंगा, अच्छे मकान में रहूँगा, अच्छी गाड़ी में घुमुंगा. 
इसप्रकार की जितनी इच्छाएँ मन में उठती रहती हैं, उसे कम उम्र में समझा नहीं जा सकता, जब हमारी उम्र थोड़ी बढ़ जाएगी, तो हम सभी लोग यह समझ जायेंगे, कि हमारी इच्छाओं का अंत नहीं है, एवं जो चाहता हूँ, वह यदि प्राप्त भी हो जाता है, तोभी संतोष नहीं होता, बहुत कुछ प्राप्त कर लेने के बाद भी, और मिलना चाहिए की प्यास बनी रहती है.
 इसीप्रकार बहुत कुछ प्राप्त करने की इच्छा करते करते एक समय ऐसा अवश्य आता है, जब यह समझ में आ जाता है, कि जिसे पाना चाहता हूँ, वह तो मिला ही नहीं. ऐसा प्रतीत हो जरुर रहा था कि यही प्राप्त कर रहा था, यही तो प्राप्त कर रहा था, यही प्राप्त कर रहा था. और जब कोई घोर-अपेक्षित वस्तु प्राप्त नहीं होती, तब मन में दुःख होता है, एक प्रकार की वेदना की अनुभूति होती है. जिस आनंद को पाना चाहता था, उसे नहीं प्राप्त कर सका, -ऐसा होने से मन में अशान्ति, बेचैनी रहने लगती है.
इसीबीच यह भी दिखाई देगा कि मुझमें अच्छा कार्य करने की जो क्षमता थी, वह सब बहुत कुछ पाने की इच्छा से नष्ट हो गयी है, मैंने अच्छे कार्यों में अपनी शक्ति का प्रयोग नहीं कर सका हूँ, एवं उसके चलते मेरा सुख नहीं बढ़ सका, असुखी ही रह गया, उल्टा बेचैनी बढ़ गयी है. जैसे किसीको मिठाइयाँ खाना बहुत पसंद है,उसने बहुत ज्यादा मिठाई खा लिया है. हमलोग अपने बचपन में सुनते थे, चीनी खाने से हड्डी मोटी हो जाती है. चीनी खाने में बहुत अच्छा लगता है, अब भी सभी जानते हैं, डाक्टर लोग भी जानते हैं, शरीर में यदि कमजोरी लग रही हो, और कुछ नहीं हो, तो जैसे ग्लूकोज पीया जाता है, थोड़ी सी चीनी घोल कर पी लो.
  अभी हाल ही में विदेशों में वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया है, कि अधिक चीनी खा लेने से, हमलोगों में कुछ बुरी प्रवृत्तियां जाग जाती हैं. हमलोगों के भीतर एक अनुचित या गलत शक्ति को उपयोग में लाने का भाव जाग उठता है.हमलोग समाजविरोधी कार्य करने पर उतारू हो जाते हैं. विदेशों में कुछ युवकों एवं किशोरों के उपर परिक्षण करके देखा गया है, वे असामाजिक कार्यों में संलग्न रहते थे, उनको सुधारने के लिए विभिन्न स्थानों में भेजा गया. 
पहले उन स्थानों को जेल कहा जाता था, आजकल उसे जेल नहीं कह कर सुधारगृह या इसी प्रकार के नाम से पुकारा जाता है, जहाँ उनको सुधारने के लिए रखा जाता है. वहां उनको सुधरने का मौका दिया जाता है, वहां उनको कुछ शिक्षा देने की चेष्टा की जाती है, खाने-पीने की व्यवस्था रहती है. वहाँ लडकों के एक समुदाय को इस प्रकार का भोजन परोसा जाने लगा, जिसमें चीनी नहीं रहती थी, बाद में देखा गया कि उनके आचरण में बहुत सुधार आ गया था. उसके बाद कुछ दिनों तक लगातार उनके सभी भोजन सामग्रियों में चीनी मिलाया जाने लगा, और कई दिनों के बाद यह पाया गया कि वे लोग फिर से शरारती बन गये थे. यह बात एक उदाहरण के रूप में रखा गया है. 
इसीप्रकार हमलोग देखेंगे कि, हम अभी जिसे बहुत आनन्ददायक या मधुर समझते हैं, किन्तु वैज्ञानिक रूप से विश्लेषण करने पर पाते हैं कि उसका दुष्परिणाम भी होता है. उसी तरह अभी हमलोग जिन वस्तुओं का संग्रह कर रहे हैं, वे सभी अच्छी हों यह नहीं होता. समस्त प्रकार के संचय भीतर विपदा भी छुपी हुई है, वह कब प्रकट होगी, अभी हमें ज्ञात नहीं है. इस प्रकार से विचार करते करते यह पता चलता है कि केवल चाहिए चाहिए करते जाने से अंतिम परिणाम अच्छा नहीं हुआ क्योंकि इसका अंतिम परिणाम कभी अच्छा नहीं होता.  इसीलिए प्राचीन काल से हमलोगों के देश में उपदेश दिया जाता रहा है कि अपनी आवश्यकताओं को कम करते जाओ, कामनाओं को कम करते रहो, आशा-तृष्णा को कम करते रहो.
 हर समय यह चाहिए, वह चाहिए- केवल चाहिए चाहिए मत करते रहो. परिवार चलाने तथा समाज में प्रतिष्ठा पाने के लिए कुछ आवश्यकताएँ होती हैं. किन्तु जितना मिल जाने से काम चल जाता हो, उतने से संतुष्ट रहो. इसीलिए कहा जाता है आशा-तृष्णा को कम करके संतोष लाने का प्रयत्न करो.जितना मिल गया है, उतने से संतुष्ट रहो. 
अच्छा जीभ उतना तृप्त नहीं हुआ हो, किन्तु पेट तो भर गया; फिर जीभ यदि तृप्त न भी हुआ तो उसकी जरूरत क्या है ? जीभ के अच्छा लगने न लगने से मुझे क्या प्रयोजन है, मेरी आवश्यकता पौष्टिक आहार लेना है. अपने शरीर को स्वस्थ रखना मेरी जरूरत है. वह जितना भोजन करने से हो जाता हो, मेरे लिए उतना ही यथेष्ट है. यदि ऐसा विचार बन जाये तो कुछ कल्याण होता है. क्योंकि कामनाओं को बहुत अधिक बढ़ा लेने से, ही भावनात्मक बेचैनी शुरू हो जाती है. यह स्पष्ट रूप से देख रहा हूँ, कि जितना प्राप्त हो गया है, उसी से बहुत हानी हो रही है. जिन वस्तुओं को पाना चाहता हूँ, उसका जो कुछ भी है, वह सब हमलोगों को सुख नहीं देता, भला नहीं करता, मंगल नहीं करता, उससे अमंगल भी प्राप्त होता है, हमलोगों को हानी पहुँचाता है. 
इसीलिए जो व्यक्ति चिन्तनशील होगा, जो दूरदर्शी या विवेकी होगा, भले-बुरे का विचार करने में सक्षम होगा, जो स्वयं के द्वारा चालित होगा, वह कहेगा- नहीं, उस वस्तु के भीतर यह झूठ है फरेब है, वह ठीक नहीं है. इस प्रकार विवेक-विचार करके जो अपनी जरूरतों को कम करता रहता है, उसे ही वैराग्य का अभ्यास करना कहते हैं. इस वैराग्य की चरम सीमा कहाँ है ? वह कुछ भी नहीं चाहता. वह अपने आप में ही संतुष्ट रहता है. अपनी आत्मा में ही स्वयं संतुष्ट रहता है. हमलोगों के शास्त्र में कहा गया है- मैं अपनी आत्मा में ही संतुष्ट हूँ. मुझे बहार की कोई भी वस्तु नहीं चाहिए, यही है चरम वैराग्य.
किन्तु हमलोगों के लिए इस कठोर वैराग्य का पालन करने या वैराग्य की चरम-सीमा तक जाने की जरूरत नहीं है. हमलोगों के लिए वैराग्य का इतना ही अर्थ है कि हमलोग अपनी आकाँक्षाओं को, अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखने की चेष्टा करेंगे. किसी भी असम्भव को पाने की इच्छा नहीं करेंगे, क्योंकि उससे दुःख की मात्र ही बढ़ने वाली है, उससे पीड़ा होती है, उससे अंत में हमलोगों का अकल्याण ही होता है. इसी को वैराग्य कहा जाता है. इसे मनुष्य कैसे प्राप्त कर सकता है? इसीप्रकार की चर्चा में भाग लेकर, इसी प्रकार से विवेक-विचार करने से.  
चर्चा करने का अर्थ प्रवचन सुनना नहीं है. यदि हम स्वयं इसी प्रकार से चिन्तन करते रहें, बार बार मनको इस प्रकार सुनाते रहें- ' दुखी मन मेरे, सुन मेरा कहना, बहुत से लोगो के जीवन में इस प्रकार का सुख देखा गया है, मैंने स्वयं भी थोडा बहुत जाना है कि इच्छाओं को बहुत अधिक बढ़ाते जाने का परिणाम अच्छा नहीं होता. ' इसप्रकार से मन को समझाते समझाते एवं उसके साथ साथ जीवन-गठन की चेष्टा करते रहने से, देखोगे कि मन अब एकाग्र रहने लगा है, नियन्त्रण में आ जायेगा, समायोजित होने लगेगा, तब कामना-वासना को कम करने में सफलता मिल रही है, तथा मन भी यह सहमती दे रहा है, कि हाँ सचमुच इन भोगों में तो कोई सुख नहीं है. इस प्रकार अभ्यास करते करते यह देखोगे कि जीवन में वैराग्य का भाव आ रहा है.

शुक्रवार, 25 मई 2012

' एक को जान लेने का नाम ज्ञान है, अनेक को जानने का नाम अज्ञान है.' [18] परिप्रश्नेन

१८.प्रश्न : कहा जाता है कि गौतम बुद्ध को गया में पीपल-वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था. इस ' ज्ञान ' शब्द का अर्थ क्या है ?
उत्तर : किसी वस्तु का तत्व क्या है, इसे जान लेने का नाम ज्ञान है। किसी वस्तु की सत्ता, शक्ति, क्रिया -इत्यादि के विषय में ठीक ठीक जानकारी प्राप्त कर लेने को, उस वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना कहते हैं. ज्ञान कई प्रकार का हो सकता है. जैसे भाषा का ज्ञान, विज्ञान का ज्ञान, या विज्ञान के भीतर विभिन्न प्रकार का ज्ञान हो सकता है. रसायन-शास्त्र का ज्ञान हो सकता है, पदार्थ-विज्ञान का ज्ञान हो सकता है, खगोल-विज्ञान का ज्ञान हो सकता है, संगीत-शास्त्र का ज्ञान हो सकता है, कई प्रकार के ज्ञान हो सकते हैं।

 जैसे इन लकड़ियों का ज्ञान प्राप्त हो सकता है, ईंट का ज्ञान हो सकता है, लोहा का ज्ञान हो सकता है, पृथ्वी का ज्ञान हो सकता है,भूगोल का ज्ञान हो सकता है, इतिहास का ज्ञान हो सकता है, मनुष्य के शरीर का ज्ञान हो सकता है, मनुष्य के मन का ज्ञान हो सकता है, मनुष्य की आत्मा का ज्ञान हो सकता है। अनेकों विषयों का ज्ञान हो सकता है. ज्ञान का अर्थ है, वह वस्तु वास्तव में क्या है- इसकी जानकारी प्राप्त करना.

इसी प्रकार से विभिन्न ज्ञानों के विषय में जानते जानते यह समझ में आ जाता है कि ' मूल-वस्तु ' का ज्ञान हो जाने से ही सभी वस्तुओं का वास्तविक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है. इसीलिए श्रीरामकृष्ण ने कहा है- यह बात अन्य शास्त्रों में भी है, ' एक को जान लेने का नाम ज्ञान है, अनेक को जानने का नाम अज्ञान है.' इस जान लेने  का अर्थ क्या है ?
अभी जितने भी प्रकार के ज्ञान के बारे में कहा गया, उसके सबसे अन्त में कहा गया- ' आत्मज्ञान '; आत्मज्ञान हो जाने से ही, ' एक ' को जान लेना हो गया. क्यों ? इसीलिए कि अन्य जो कुछ भी है, तथा जितना भी ज्ञान हमलोग संग्रहित कर सकते हैं, वह सब ' अनेक ' हैं. उन सबको यदि भीतर में सही प्रकार से समझा जाये तो हमलोग पाएँगे, कि पहले हमने जिसे ज्ञान समझ लिया था, वह सही ज्ञान नहीं है. क्योंकि, वास्तव में वह (मनुष्य) क्या है, उसका केवल सतही (उपर-उपर की जानकारी ) ज्ञान ही मिला है, उसके भीतर की जानकारी नहीं हुई है.
आधुनिक युग के जितने भी प्रसिद्द भौतिकशास्त्री (Physicist) हैं, वे स्वीकार करते हैं, कि विज्ञान की सहायता से किसी भी वस्तु का बिल्कुल सही सही ज्ञान प्राप्त कर लेना संभव नहीं है. इस बात को वे पूरी ईमानदारी से कबूल करते हैं. उनका कहना है कि हमलोग मनुष्य के सामने, माने उसकी पंच-इन्द्रियों के सामने जो कुछ भी देदीप्यमान वस्तु के आकर (रूप) में जो कुछ ज्ञात (प्रकट या प्रतिबिंबित) होता है, उसका थोड़ा सा वर्णन ही हमलोग कर सकते है. किन्तु वास्तव में वह ' सत्ता ' मूल-वस्तु क्या है ? उसे विज्ञान या भौतिविज्ञान कभी नहीं जान सकता है।या यूँ कहें कि उनके लिए जान पाना संभव ही नहीं है.यह कथन आज के वैज्ञानिकों का है।[केनोपनिषद का यह उद्धरण यहाँ स्मरणीय है ]
 [ ''प्राचीन मिथक बहुत बार प्रतीकात्मक होते हैं। ऐसा ही मिथक केन उपनिषद् के तृतीय खंड में आता है- देवासुर संग्राम का। एक ऐसे संग्राम का जो सात्विक और तामसिक प्रवृत्तियां के बीच लड़ा जा रहा है। सवाल यह है कि ऐसी परिस्थितियों में क्या विजय हमेशा सात्विक प्रवृत्तियों की ही होगी?''
 '' विजय हमेशा उस प्रवृत्ति की होगी, जिसका साथ वह अतींद्रिय सत्ता देती है? ''कोई भी प्रवृत्ति अच्छी या बुरी नहीं क्योंकि हर प्रवृत्ति उसी ईश्वर की है। और जिसे वह विजयी बनाए ! और उस संग्राम में अतीन्द्रिय सत्ता ने देवों का साथ दिया और घमंड के कारण देव प्रजाति यह मान बैठी कि वही सर्वशक्तिमान है और उसके अतिरिक्त कोई नहीं। यही है ब्लासफेमी। और इसी अहंकार को, गर्व को दूर करने उस वक्त, उस मिथक में उपस्थित होता है यक्ष........।'' 
 ''वह यक्ष कौन था ?''
 ''मिथक के अनुसार चाहे वह जो भी हो। यक्ष (ब्रह्म) हम सबके भीतर मौजूद हमारी ही वह शक्ति है, जो हमारे अहंकार से आहत होकर, समय-समय पर हमारी तद्जनित सीमाओं का अहसास कराती है।''


 इंद्रिय चेतना को प्रतीकात्मक रूप में, इंद्र के रूप में चित्रित किया है। और -''दिस इज ऑल द स्ट्रगल बिटवीन सोल एंड मैटर।'' और इससे ही यक्ष आहत होता रहता है। अपनी भौतिक समृध्दि में मनुष्य जब अपने को 'ऑल परवेडिंग' मानने लगे, तो यक्ष का आहत होना स्वाभाविक ही है।  
इन्हीं परिस्थितियों में जरूरत पड़ती है, एक ऐसी शक्ति की जो मन को पदार्थ से हटाकर उस असीम सत्ता की तरफ केंद्रित कर सकें यही है केन उपनिषद् का वह मिथक जो इंद्र के समक्ष ' उमा ' हेमावती को उपस्थित करता है।''
 '' इंद्र के समक्ष उमा-हेमावती क्यों उपस्थित होती है और क्या पूछती है?''
 ''इंद्र को तो रास्ता उमा ही दे सकती है।
    
इन्द्र कौन है ?
(अष्टाध्यायी)
पाणिनी के इस सूत्र से इन्द्रिय शब्द सिद्ध हुआ ' इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमिन्द्रदृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्र दत्तमित्ति वा ' और 'इन्द्रस्य लिंगमिन्द्रियम्' के अनुसार इन्द्र वह है, जिसके कर्त्तव्य के साधन इन्द्रिय हैं | स्पष्ट है कि इन्द्र जीवात्मा को कहते हैं | यद्यपि इन्द्रिय शब्द ब्रह्म, जीव, राजा विद्युत आदि अनेक अर्थों में वैदिक साहित्य में प्रयुक्त होता है | परन्तु यहाँ यक्ष (ब्रह्म) का ज्ञाता इन्द्र है, इसलिये यहां उचित रीति से इन्द्र शब्द का अर्थ जीवात्मा ही किया जा सकता है |
उमा कौन है ?
विद्या उमारूपिणी प्रादुर्भूत् स्त्रीरूपा
('शांकर भाष्य; केन, मन्त्र 25)
श्रीमान् शंकराचार्य जी ने उमा को उपर्युक्त वाक्य में स्त्री रूपा विद्या कहा है | श्री रामानुजाचार्य ने भी शंकर ही का अनुकरण करते हुए इसी उपनिषद् की टीका में लिखा है : -
स्त्रियमतिरूपिणीं विद्यामाजगाम ||
अर्थात स्त्री रूपा विद्या आई | इन दोनों महानुभावों ने 'उमा' (माँ ) को विद्या कहा है।इसलिये शंकर और रामानुज महानुभावों का तात्पर्य उमा शब्द से विद्या या ब्रह्म-विद्या (माँ सारदा ) ही स्वीकार किये जाने के योग्य है | और उचित रीति से, जीवात्मा के लिये ब्रह्म की प्राप्ति का साधन, ब्रह्म-विद्या को कहा भी जा सकता है | परन्तु इस पक्ष के स्वीकार करने में एक आपत्ति हो सकती है और वह यह है कि ब्रह्म विद्या एक विस्तृत विद्या है | इसमें प्रस्थानत्रयी (उपनिषद्, वेदान्त दर्शन और गीता) के सिवाय अन्य भी अनेक योग और सांख्यादि विद्याओं का समावेश है | 
इसलिये स्वाभाविक है कि ब्रह्मविद्या में ब्रह्म प्राप्ति के अनेक दूर और समीप वाले सभी साधनों का संयोग हो, परन्तु आख्यायिका में कहा है कि उमा ने बतलाया और उमा के बतलाने से इन्द्र नें जान लिया कि वह यक्ष ब्रह्म है | इसलिये आख्यायिका का विवरण चाहता है कि ' उमा ' कोई ऐसी चीज होनी चाहिये जो ब्रह्मप्राप्ति का दूरस्य नहीं किन्तु समीपस्थ साधन हो | इसलिए इस समीपस्थ साधन की खोज करनी चाहिए | खोज करते हुए जब हम महामुनि पतञ्जलि की सेवा में पहुँ‍चते हैं तो वहाँ उत्तर मिलता है कि -
श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वकमितरेषाम् ||
(योग दर्शन 1|20)
अर्थात - अन्यों (विदेहों और प्रकृति-लयों से भिन्नों) की श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञापूर्वक (उपाय प्र्त्यय नामक असंप्रज्ञात योग की सिद्धि) होती है | भाव इसका यह है कि जब योगी उपाय-प्रत्यय नामक असंप्रज्ञातयोग सिद्ध करना चाहता है, तब उसको प्रथम श्रद्धा-( आस्तिक्य बुद्धि या सत्य पर अटल विश्वास) सम्पन्न होना
 चाहिए | यह श्रद्धा माता के समान योगी की रक्षा करती है, जिससे योगीवीर्य (इस योग को सिद्ध करनेवाला बल) सम्पन्न होता है | तब वीर्यवान् योगी को अपने स्वरुप की स्मृति उत्पन्न होती है, जिससे चित्त का स्मृति भण्डार उस पर खुल जाता है और चित्त के इस प्रकार पट खुल जाने से योगी और व्याकुलता रहित हो जाता है |
 यही चित्त की समाधि है, इस समाधि (समाधान) से प्रज्ञा की उपलब्धि होती है | प्रज्ञा वह बुद्धि है, जिससे योगी पर मैं क्या हूँ, जगत् क्या है, ईश्वर क्या है, इत्यादि सभी भेद खुल जाते हैं और वह तत्व ज्ञानी हो जाता है | व्यास के कथनानुसार इस प्रज्ञा का निरन्तर अभ्यास करने से इस (प्रज्ञा) से योगी को वैराग्य होकर असंप्रज्ञात योग की सिद्धी हो जाती है |
''इंद्र हमारी इंद्रियजनित चेतना का प्रतीक है और हेमावती हमारी शुध्द अंतश्चेतना का प्रतीक है। उमा है वह, उस अदृश्य परम सत्ता का हमारे अहं से संबंध हो सके, उसकी कड़ी है यह। ध्वनि है यह हमारे ही भीतर की, वाइब्रेशन है यह। 
   तुम स्वयं इतने विराट हो कि मुझमें समाहित हो मुझे भी विराट बना जाते हो। कभी मैं सोचती थी, नदी सागर में ही क्यूं विलीन होती है? वह अपना अस्तित्व खोने पर क्यूं विश्वास करती है? आज जब सागर खुद ही आ समाया है नदी में तो नदी सुंकुचित हो उठी है...... एक ही बात थी। मैं आती, तुम आते-फर्क नहीं था। पर तुमने मुझे समझा, तुम आए तो जान सकी हूं, मैं भी आती तो भी एक ही बात थी। व्याकुलता एक ही है एक दूसरे में समाहित होने की, तो, कोई भी आए, क्या फर्क पड़ता हैं?
हो सकता है, तुममें से कोई कोई व्यक्ति यह सब सुनकर आश्चर्य-चकित भी हो गया हो, विज्ञान की प्रगति जिस शीघ्रता से हो रही है, उसकी जानकारी नहीं रखने से आश्चर्य तो होगा ही. क्योंकि, कुछ वर्षों पूर्व तक विज्ञान यह दावा करता था कि हमलोग सबकुछ जान सकते हैं. हमलोगों ने बहुत कुछ को तो जान लिया है, और जो कुछ जानना बाकी है, उसे भी हमलोग शीघ्र ही जान जायेंगे. ऐसी शेखी विज्ञान हल के दिनों तक बघारता आ रहा था. 
किन्तु आधुनिक समय में विज्ञान थोडा वयस्क (परिपक्व) हो गया है. वयस्क होने के बाद, वह यह समझने लगा है कि इसकी दौड़ कहाँ तक है, तथा उसकी जो अपनी पद्धति है, अभी तक जितना जान सका है उसका अंकगणित एवं जानने कि संभावना के विषय में उसका ज्ञान पहले की अपेक्षा थोड़ा अच्छा हुआ है, इसलिए अब वह समझ सकता है, कि पदार्थ की वास्तविक सत्ता का ज्ञान वैज्ञानिक प्रणाली के द्वारा प्राप्त कर पाना कभी संभव नहीं है. 
क्योंकि, अब वह समझ चूका है, कि थोड़ा-कुछ जानने की क्षमता के बाहर रह ही जायेगा. इसीलिए कहता है, जितना कुछ जाना जा सकता है, उसकी बहुत सी जानकारी हमलोग प्राप्त कर सकते हैं. किन्तु यदि विभिन्न विषयों का ज्ञान जितना प्राप्त कर पाना संभव है, उतना जान लेने के बाद, आत्मा के विषय में ज्ञान प्राप्त करें, तभी सही ज्ञान मिल सकता है. क्योंकि आत्मा सर्वव्यापी (सर्वगत) है. सभी वस्तुओं के भीतर आत्मा हैं. उनको जान लेने से सबकुछ जाना जा सकता है ! 

' अन्तः प्रकृति ' एवं ' वाह्य-प्रकृति ' [17] परिप्रश्नेन

१७.प्रश्न : ' अन्तः प्रकृति ' एवं ' वाह्य-प्रकृति '  क्या है ? इस प्रकृति के साथ किस प्रकार प्रति क्षण संग्राम करना पड़ेगा ?
उत्तर : जो कुछ भी हमलोग बाहर में देख पा रहे हैं- यह पृथ्वी, पेड़-पौधे बनस्पति, नदी,समुद्र, जिव-जन्तु इत्यादि सभी वस्तुएं बहार की प्रकृति या  ' वाह्य-प्रकृति 'हैं. 
हमलोगों का स्वभाव, भीतर का स्वभाव, हमलोगों का मन एवं चित्त में संचित संस्कारों की समष्टि को 
अन्तः प्रकृति कहते हैं। स्वामीजी ने बहुत सुंदर ढंग से धर्म को परिभाषित करते हुए कहा है - धर्म का अर्थ है इस बहार की प्रकृति एवं भीतर की प्रकृति को पूरी तरह से अपने वश में (काबू ) में ले आना. जिस किसी व्यक्ति ने वाह्य-प्रकृति एवं ' भीतर की प्रकृति ' (मन ) को सही रूप से अपने वश में कर लिया है, उसीने सच्चा धर्म पाया है, तथा वही जीवन मुक्त है।

इस धर्म को - नेति नेति विचार द्वारा, कर्म द्वारा, भक्ति के द्वारा-अर्थात आत्मसमर्पण के द्वारा, मन के संयम के द्वारा प्राप्त किया जाता है. इसमें से कोई भी एक, दो या उससे भी अधिक उपायों के द्वारा बाहर की प्रकृति एवं भीतर की प्रकृति को अपने वश में लाने के लिये संग्राम करने की आवश्यकता होती है, और यह संग्राम निरन्तर चलते रहना पड़ता है. एक मुहूर्त के लिये भी इससे विपरीत परामर्श मन को नहीं देना होगा, क्योंकि इस संग्राम के बंद होते ही, प्रकृति से पराजित हो जाने की संभावना बनी रहती है.
 
इसीलिए मनुष्य जीवन का उद्देश्य है, निरन्तर इसी संग्राम में लगे रहकर प्रकृति को (जड़ को) अपने वश में ले आना, उसे अपना आज्ञाकारी बना लेना, प्रकृति के वशीभूत न होना, प्रकृति (मन) की गुलामी को अस्वीकार कर देना. इसलिए स्वामीजी कहते हैं, ' मनुष्य को तभी तक मनुष्य कहा जा सकता है, जब तक वह प्रकृति से उपर उठने के लिये संग्राम करता रहता है. ' (२/१९७) जिस किसी भी दुर्बलता के क्षणों में वह इस युद्ध को बन्द कर देता है, उसी क्षण वह मनुष्य कहलाने योग्य नहीं रह जाता. प्रकृति के वशीभूत होते ही, (चेतन आत्मा होकर भी जड़ मन की गुलामी करते ही )मनुष्य अपनी महिमा खो देता है, तथा पशुओं के जैसा आहार-निद्रा-भोग-सुख का दास (राम-सुख दास बनने के बदले ' सब-सुख दास ' रूपी एक रबोट) बन जाता है.

वैसे तो मनुष्य का लगभग सबकुछ प्रकृति के ही अंतर्गत होता है.मनुष्य के तीन उपादान (मौलिक अवयव या components) हैं- शरीर, मन और आत्मा. शरीर एवं मन ये दोनों प्रकृति के उपादानों से निर्मित हैं. जिनमें केवल उसकी ' आत्मा ',  जो उसकी निर्विवाद सत्ता है, वही प्रकृति की अधीनता को अस्वीकार करके, यथार्थ मनुष्य के जीवन-गठन रूपी संग्राम के भीतर से गुजरकर वाह्यजगत एवं अपने मन की प्रकृति को जीत कर अपनी (खोई हुई ) स्वाधीन सत्ता को प्राप्त कर सकती है. 
 इसीलिए मनुष्य प्रकृति का दास होकर ही जीवनधारण करने के लिये जन्म ग्रहण नहीं करता, प्रकृति को पराजित करके स्व-महिमा को अभिव्यक्त कर देना ही उसके जीवन का उद्देश्य है.इसीलिए निरन्तर संग्राम करते रहना ही जीवन है.
यह संग्राम किस प्रकार करना होगा, इसे जानने के लिये इन चार उपायों के सम्बन्ध में भलीभांति ज्ञान प्राप्त करना होगा, एवं उन उपायों को जीवन में प्रयोग करने रूपी संग्राम में सर्वदा लगे रहना होगा.नेति नेति विचार करना या विवेक- मनुष्य को नित्य-अनित्य,शाश्वत-क्षणभंगुर, शुभ-अशुभ में अन्तर को समझने में सहायक होता है. जो अनित्य, क्षण-स्थायी, अशुभ या हानिकर है, वह कभी भी मनुष्य की नित्य,शाश्वत, पवित्र सत्ता की परिपोषक नहीं हो सकती. इसीलिए इनका वहिष्कार (व्यतिरेक) करके जो शाश्वत, अविकारी, अविनाशी सत्ता हैं, उनकी ओर अग्रसर होते रहने के लिये सदा जाग्रत विवेक के शरण में बने रहना इस मार्ग के अनुयायी के लिये प्रति मुहूर्त संग्राम करते रहने का उपाय है. इस मार्ग को ज्ञानयोग कहते हैं।

साधारण मानव विराट शक्ति की लीला रूपी इस जगत में आकर अपने को शक्तिहीन, असहाय और अकेला समझता है.इसीलिए वह स्वाभाविक रूप से किसी शक्ति के स्रोत की खोज में लग जाता है, किसी विश्वास करने योग्य सहायक स्थान, या आश्रय-स्थल, सहारा की खोज करता रहता है.किन्तु जब उसे इस जगत में वैसा कुछ भी नहीं मिलता, तब वह उनकी शरण में जाता है जो मंगलमय हैं, जो जगत के समस्त शक्तियों के अधीश्वर हैं, जो समस्त सृष्टि स्थिति पालन के विधाता हैं, और उनके चरणों में  अपने को समर्पित करके निश्चिन्त  होना चाहता है।

 उनका सहारा लेकर अपने दैन्य का अतिक्रमण करना चाहता है, बाहरी और भीतरी दोनों प्रकृति के उत्पीड़न से परित्राण पाना चाहता है. उन प्रेममय, परम करुणा-निधान, भगवान (श्रीरामकृष्ण) का थोड़ा सा कणमात्र भी कृपा प्राप्त होने से भी मनुष्य के मन में भगवान के प्रति प्रेम जाग उठता है, उसका हृदय भक्ति से आप्लूत हो उठता है. मनुष्य भक्ति-धन से धनी होकर अपनी समस्त दुर्बलता, हीनता की ग्लानी से मुक्त हो जाता है एवं  अपनी सत्ता के गौरव की उपलब्धी करता है. एवं सर्वत्र उन्हीं का दर्शन करता हुआ, विश्वमय भगवान के सानिध्य और सेवा में जीवन की सार्थकता प्राप्त करने में लग जाता है.

 इस मार्ग को भक्तियोग कहते हैं.इस पथ पर चलते हुए प्रति मुहूर्त संग्राम करते रहना भी बहुत कठिन है. समस्त सृष्टि को मैत्री भाव से, अभिन्न-दृष्टि से देखना बहुत कठिन संग्रामसाध्य होता है. किन्तु यदि वैसा नहीं कर सके तो हम यह कैसे कह सकते हैं कि मैं भक्ति के राजमार्ग पर आरूढ़ हो गया हूँ, या मैं सभी के प्रति भक्तिभाव से युक्त हो गया हूँ ?

अन्य एक मार्ग को राजयोग कहा जाता है.इसमें मन को नियंत्रण में लाकर, उसे संयत करके, एकाग्र करके, उसको शांत और स्थिर करके, निष्कम्प दीपक की लौ जैसे स्थिर मन में सत्य को प्राप्त करने की चेष्टा करना राजयोग का मार्ग है.  शांत और स्थिर चित्त में ही सत्य प्रतिबिम्बित होता है. हमलोगों का मन स्वभावतः अत्यंत चंचल है, विक्षिप्त (बिखरा हुआ) है. इसीलिए मन की तुलना किसी सरोवर से की जाती है. किसी बड़े सरोवर में हल्की सी हवा प्रवाहित होने पर भी वह तरंगायित हो उठता है, उसमें लहरें उठने लगती हैं, जिसके परिणामस्वरूप उसके उपर प्रतिबिम्ब पड़ने से, वह प्रतिबिम्ब जिसका पड़ रहा होता है, उसे ठीक से समझ नहीं पाते. किन्तु जल यदि बिल्कुल स्थिर हो तो प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखाई देता है.  उसी प्रकार मन के अशांत,
उत्तेजित या चंचल बने रहने से सत्य का जो प्रतिबिम्ब उस पर पड़ता है, वह विकृत हो जाता है, सत्य के सही रूप को हमलोग नहीं देख पाते हैं. इसीलिए मन को शान्त, समाहित, स्थिर बनाकर उसको तरंगायित होने से रोककर, स्तब्ध बनाकर सत्य को देखने का जो ' राज मार्ग ' है-उसे राजयोग कहते हैं.

और एक उपाय है-कर्मयोग या कर्म का मार्ग.आमतौर से हमलोग जोकुछ भी कर्म करते हैं, उसे स्वार्थ-बोध से प्रेरित होकर करते हैं. वैसे कर्मों से सत्य की प्राप्ति नहीं होती, मन को पवित्र एवं सुन्दर नहीं बनाया जा सकता है. केवल पवित्र मन ही सत्य का साक्षात्कार कर सकता है. इसीलिए अन्य तीन योगमार्गों के समान ही सत्य का साक्षात्कार करने के लिये हमलोगों को ' परार्थ-कर्म ' या दूसरों के मंगल के लिये, दूसरों के स्वार्थ को पूरा करने के कार्य में स्वयं को व्यस्त रखना होगा. इसी प्रकार कार्य करते रहने से मन शुद्ध हो जाता है, पवित्र हो जाता है, एवं शुद्ध या पवित्र मन से ही सत्य को जाना जा सकता है.

इस प्रकार हमलोगों की अन्तःप्रकृति है, हमारा मन. हमलोगों की कामना-वासना, हम अपने पाँच इन्द्रियों के माध्यम से जो कुछ भी अनुभव करते हैं, इन्द्रियाँ हमारे मन को कैसे प्रभावित करके बहिर्मुखी किये रखना चाहितीं हैं, यह सब अन्ततोगत्वा में मन के माध्यम से ही दिखाई देता है. अच्छा गंध, अच्छा दृश्य,  अच्छा स्वाद इन सबका अनुभव मन में ही होता है. और यही मन हमारी अंतःप्रकृति की मूल वस्तु है. यह प्रकृति यदि हमारे वश में आ जाय, तो फिर वाह्य-जगत के भोगों द्वारा मेरा मन आकृष्ट नहीं हो पायेगा. वे पाचों विषय-रूप,रस,शब्द,गंध,स्पर्श आदि हमारे मनको खीँच कर बहिर्मुखी नहीं कर पाएंगे. ऐसा कब संभव हो सकेगा ?

ऐसा तभी संभव है जब हमें अपने मन को थोड़ा संयम में रखना आ जायेगा, जब हम मन को यह आदेश दे सकेंगे कि कुछ भी ग्रहण करने के पहले विवेक-विचार करके देखो कि वह हमारे लिये मंगलकारी या हितकारी है या नहीं ? इसी प्रकार अंतःप्रकृति को वश में लाया जा सकता है. वाह्य प्रकृति को हमलोग विज्ञान के द्वारा जीतने कि चेष्टा करते हैं. वाह्य प्रकृति को विज्ञान की सहायता से हमलोगों ने काफी हद तक अपने वश में कर भी लिया है. 

प्रकृति के कितने ही पदार्थों -वन संसाधन, खनिज-सम्पदा, जल, वायु, मिट्टी इत्यादि को अपने इच्च्छानुसार उपयोग में ला सकते हैं.ठीक उसी प्रकार अंतःप्रकृति को वशीभूत करने का भी एक विज्ञान है. एक को वाह्य जगत का विज्ञान और दूसरे को आन्तरिक जगत का विज्ञान कहते हैं. इन दोनों विज्ञान का सही ढंग से उपयोग करने से हमलोग यथार्थ धर्म की प्राप्ति कर सकते हैं.स्वामीजी ने कहा है- हम अपने जीवन को तभी सार्थक बना सकेंगें.वैसा नहीं कर पाने से हमलोगों में जो संभावनाएं थीं, मानवजीवन को हम जितना अधिक सदुपयोग कर सकते थे, उतना हम नहीं कर पाएंगे, और  हम लोंगों को जीवन भर प्रकृति का गुलाम बने रहना होगा।
  वाह्य प्रकृति हमलोगों के जीवन को नष्ट कर सकती है- जैसे अचानक तूफान आ जाये, आग लग जाय, तो सब कुछ तबाह हो जाता है। ठीक उसी प्रकार अन्तः प्रकृति भी वाह्य प्रकृति के समान आंधी-तूफान में बहा कर जीवन को नष्ट कर सकती है. किन्तु हमलोग उसके तरफ उतना सतर्क नहीं रहते, उतने जागरूक नहीं हैं, इस विषय में हमलोग उतनी सावधानी नहीं बरतते, हमलोगों में यह जानने का कोई उत्साह नहीं है, आग्रह और उद्द्य्म भी नहीं कि ,अन्तःप्रकृति को आंधी-तूफान के हाथों से कैसे बचाया जाये एवं अपनी सत्ता को पूर्ण रूप से विकसित करके अपने जीवन को सार्थक बना लिया जाय.
 मनुष्य जीवन के सबसे बड़ी दुःख की बात यही है.स्वामीजी ने हमलोगों को सतर्क कर दिया है कि वाह्य प्रकृति को वशीभूत करने के विज्ञान में तुमने बहुत उन्नति कर ली है, तुमने उसको बिल्कुल अपना दास बना लिया है, उसको वश में करके सुख-वैभव, भोग-ऐश्वर्य चल रहा है. किन्तु तुम्हारी भीतरी प्रकृति में कितनी गरीबी है!
 तुमलोग तो उसके (मन के ) बिल्कुल ही गुलाम बन चुके हो. तुम वास्तव में कितने महान हो, कितने शक्तिवान हो, अपनी उस महाशक्ति का तुम्हें कुछ पता ही नहीं है. तुम्हारे भीतर जो अनंत शक्ति है, उसको अभिव्यक्त करने की अनंत संभावनाओं की तुम उपेक्षा कर रहे हो. तथा उस विषय में सावधान नहीं रहने के कारण, उसको(अन्तः प्रकृति को )  अपने वश में लाने की चेष्टा नहीं करने के कारण, केवल वह सम्पदा ही नष्ट नहीं हो रही है, तुमको भी नष्ट कर रही है.

तुम्हारी सत्ता का विकास नहीं हो रहा है, वह अपने को अभिव्यक्त नहीं कर पा रही है. तुम अपने इस महान महिमामय जीवन को प्राप्त करके भी उसे सार्थक रूप में गठित नहीं कर पा रहे हो. तुम्हारे उस सुन्दर जीवन से कितने ही लोगों का कल्याण हो सकता था, वैसा हो नहीं पा रहा है. तुम भी वंचित हो रहे हो, दूसरे मनुष्य भी वंचित हो रहे हैं. तुम्हारे पास जितनी अकूत प्राकृतिक सम्पदा थी, जिसको तुम अपने उपयोग में ला सकते थे, वह सब व्यर्थ में पड़ा रह गया, नष्ट होता जा रहा है।
इस प्रकृति के साथ युद्ध करने के लिये प्रति मुहूर्त सतर्क रहना होगा, संग्राम करते रहना होगा. सर्वदा जाग्रत रहते हुए, सचेतन होकर परिपूर्ण विकास के लिये मन के साथ निरंतर संग्राम करना होगा.

क्या भारत मर जायेगा? [16] परिप्रश्नेन

१६.प्रश्न : वेदान्त के आदर्श को " सनातन  " कहा जाता है. किन्तु वर्तमान युग के सामरिक-शक्ति का जो विध्वंशकारी रूप दिख रहा है, वह क्या सनातन भारतीय अध्यात्मिक प्रवाह को बचा रहने देगा ?
  उत्तर : इस कथन को विपरीत दिशा से देखने की चेष्टा की जाय, तो शायद सही रूप में समझा जा सकेगा. वर्तमान समय में सामरिक-शक्ति का जितना विध्वंशकारी रूप हमलोग देख पा रहे हैं, उससे भी भयंकर विनाशकारी शक्तियों का आविष्कार हमलोगों ने कर लिया है. रासायनिक हथियार, गैस एवं लेजर युक्ति (Laser Device) तो न्यूक्लिअर बम से भी अधिक विध्वंशकारी हो जायेंगे.

 जिनलोगों ने ऐटम बम का अविष्कार किया था, उन्होंने हाल में ही कुछ अपराध-स्वीकरण भी किया है। 
उनलोगों ने कहा था- ' वे लोग जैसे जैसे इस दिशा में अग्रसर हो रहे थे, उनके समक्ष इसके प्रयोग का विध्वंशकारी रूप भी प्रकट होता जा रहा था. इसके विनाशकारी दुष्परिणाम को वे लोग पहले से ही जान चुके थे. मनुष्य के जीवन पर इसका कैसा भयानक एवं कष्टदायक परिणाम होगा, इसका पूर्वानुमान उन्हें हो चूका था. उन्होंने कहा है- ' किन्तु उस समय हमलोगों के मन पर एक तरह का जूनून (passion) सवार हो गया था, कि इस इस अविष्कार को प्रोयोग करना ही होगा. इसका परिणाम समाज के लिए अत्यन्त विनाशकारी होगा, यह जानबूझ कर भी हमलोग हर हाल में इसका आखिरी पर्दा उठा कर देखने के जूनून के वशीभूत हो गये थे.' 

 उनका यह कथन मानव-चरित्र की दुर्बलता को उजागर करता है. " हमलोग मोहग्रस्त हो चुके थे, विज्ञान का बहिर्गामी परिणाम ही हमलोगों को संचालित कर रहा था. हमलोग यह समझ रहे थे कि यह अधर्म होगा, किन्तु फिर भी उस लालसा पूरी करने की मनोवृत्ति से अपने को अलग नहीं कर पा रहे थे. " जिस समय मनुष्य के चरित्र में दुर्बलता आ जाती है, उस समय यह अवस्था हो सकती है. "

इस समय के वैज्ञानिक तो ' ऐन्टी-मैटर बम ' की बात कह रहे हैं ! वह केवल जीवन ही नहीं, पुरे प्रदेश के भूखण्ड को शून्य में विलीन कर सकता है. वे वैज्ञानिक गण यदि उस समय भारत के सनातन वेदान्त आदर्श को ग्रहण कर लेते, या आजकल के वैज्ञानिक गण भी इसे ग्रहण कर लें, तभी वे इस विनाशकारी खेल से अपने को अलग हटा सकते हैं।

चरित्र के गुणों को समझाया जाय, तभी वे समझ सकेंगे कि मनुष्य का क्या कर्तव्य होता है, और वे मानवता के कल्याण के लिये कार्य करेंगे. इसीलिए वेदान्त की ' सनातन ' भावना का कोई कभी, विनाश नहीं कर सकता, बल्कि क्रमशः सम्पूर्ण विश्व इसको स्वीकार कर लेगा, तथा वेदान्त की दिशा में अग्रसर होता रहेगा. सबसे अंतिम वैज्ञानिक आविष्कार के विषय में एक सबसे आधुनिक खगोल-वैज्ञानिक (Astronomer) ने एक पुस्तक में जो कुछ लिखा है, उसमें आधुनिक वैज्ञानिकों पर वेदान्त के प्रभाव को क्रमशः स्पष्टर होते देखा जा सकता है. इसीलिए वेदान्त की महिमा और किसी बात के लिये नहीं है, केवल मानव-जाती के कल्याण के लिये है- इस बात को बहुत से वैज्ञानिक स्वीकार करने लगे हैं, तथा इसे ग्रहण भी कर रहे हैं. इस पुस्तक में वेदान्त का इतने गहराई से विश्लेषण किया गया है, कि पढ़ने से आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है.

इसीलिए जड़-शक्ति के विध्वंशकारी रूप वेदान्त के सनातन प्रवाह को कभी रुद्ध नहीं कर सकता है, बल्कि केवल उसका अभ्यास करने से ही वैज्ञानिक आविष्कार यथार्थ मानव-कल्याण में नियोजित हो सकेगा, सच्ची शुभ शक्तियों के आविष्कार से ही मानव-समाज का कल्याण साधित हो सकता है.
{ इसलिए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " क्या भारत मर जायेगा? तब तो संसार से सारी आध्यात्मिकता  का समूल नाश हो जायेगा, सारे सदाचारपूर्ण आदर्श जीवन का विनाश हो जायेगा, धर्मों के प्रति सारी मधुर सहानुभूति नष्ट हो जाएगी, सारी संवेदनशीलता का भी लोप हो जायेगा. और उसके स्थान में कामरूपी देव और विलासितारुपी देवी राज्य करेगी. धन उनका पुरोहित होगा.प्रतारणा,पाशविक बल और प्रतिद्वंद्विता, ये ही उनकी पूजा-पद्धति होगी और मानव-आत्मा उनकी बलि-सामग्री हो जाएगी. 
ऐसी दुर्घटना कभी हो नहीं सकती....क्या वह कभी मर जायेगा ?..वह देश जिसमें ऋषिगण विचरण करते रहे हैं, जिस भूमि में देवतुल्य मनुष्य अभी भी जीवित और जाग्रत हैं, क्या मर जायेगा ? ..मुझे अगर आप दिखा सकते हों तो ऐसे पुरुष (नवनीदा) दूसरे देशों में भी दिखा दीजिये;..मैं आपके पीछे पीछे ..चलूँगा. ")

प्रत्येक मनुष्य स्वरूपतः ब्रह्म ही हैं.[15] परिप्रश्नेन

१५.प्रश्न : वेदान्त दर्शन का मूल विषय क्या है ?
उत्तर : वेदान्त दर्शन का मूल विषय जानने के पहले यह जानना आवश्यक है कि वेदान्त कहते किसे हैं? ' वेद ' शब्द का अर्थ होता है-ज्ञान. आमतौर पर ऋषियों ने अपनी अनुभूति के द्वारा जिन सत्यों का अविष्कार किया है, उनको उन्होंने जिस प्रकार अभिव्यक्त किया था, उसे ही वेद समझा जाता है.
 पहले इसे गुरु-शिष्य परम्परा के अनुसार सुन सुन कर स्मृति में रख लिया जाता था, उन सबको बहुत बाद में ग्रन्थ का रूप दिया गया है. इसीलिए वेद का दूसरा नाम है-' श्रुति '. वेदों के अन्तिम भाग को वेदान्त कहा जाता है. वेद का अर्थ है ज्ञान, तथा जानने का जहाँ अन्त हो जाता हो, उस ज्ञान के अन्त या चरम ज्ञान को वेदान्त कहते हैं, फिर वेदों के अन्तिम भाग को भी वेदान्त कहा जाता है।

वेदों के दो भाग हैं-एक को कर्मकाण्ड दूसरे को ज्ञानकाण्ड कहते हैं. कर्म-काण्ड में विभिन्न प्रकार की क्रियाओं, या हवन-यज्ञ आदि की विधि दी गयी है. तथा ज्ञान-काण्ड में वास्तविक ज्ञान की, दर्शन की, तत्व की बात कही गयी है.वेद के सबसे अन्तिम भाग में ज्ञान-काण्ड के तत्वों का उल्लेख है. इसीलिए यह भी कहा जाता है कि वेदान्त या उपनिषद ही वेद के ज्ञान-काण्ड है. व्यासदेव ने युक्ति-तर्क के आधार पर वेदान्त या उपनिषदों के दार्शनिक तत्वों को संकलित करके ' वेदान्त-सूत्र ' कि रचना कि है. वेदान्त-दर्शन का यही मूल ग्रन्थ है. व्यासदेव के द्वारा रचित सूत्रों के उपर शंकर, रामानुज जैसे आचार्यों ने भाष्य या व्याख्या लिखे हैं. 

वेदान्त का कथन है,कि जगत का मूल उपादान कोई भौतिक पदार्थ नहीं है, यह जगत अचेतन जड़-प्रकृति की स्वतः परिणति मात्र नहीं है, या किसी अचेतन (Unconscious) या बेजान जड़वस्तु के उपर किसी सचेतन-वस्तु (यथा ईश्वर ) की क्रिया मात्र भी नहीं है। जगत की मौलिक वस्तु एक से अधिक नहीं हो सकती है, एवं वह मूल वस्तु है-ब्रह्म. इसीलिए यह समस्त जीव -जगत भी ब्रह्म के सिवा अन्य कुछ नहीं है.इसीलिए प्रत्येक मनुष्य स्वरूपतः ब्रह्म ही हैं. 
देखने की एक विशेष शैली को दर्शन कहते हैं. वेदान्त-दर्शन का अर्थ है- वेदान्त किस दृष्टि से देखता है,या वेदान्त इस समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड को देखने से क्या देख पता है, उसी को वेदान्त-दर्शन कहते हैं. इस विषय को अधिक विस्तार से समझने के लिये महामंडल की  - ' भारतीय संस्कृति एवं सनातन भावधारा ' तथा ' भारत की सांस्कृतिक विरासत ' एवं  ' स्वामी विवेकानन्द एवं हमारी सम्भावनाएं ' नामक पुस्तकों की सहायता ली जा सकती है।
वेदान्त दर्शन का सारांश है- समस्त सृष्टि एक और अखण्ड है। सबों के भीतर एक ही मूल वस्तु अनुस्यूत हैं, अन्तर्निहित हैं, कण-कण में व्याप्त हैं, इस जगत में जो कुछ भी (नाम-रूप) है, सब उन्हीं का आवास है। 
' ईशा वास्यम इदम सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत ' -वह वस्तु स्थावर-जंगम सभी में परिव्याप्त है, सभी कुछ के भीतर अनुप्रविष्ट है। केवल इतना ही नहीं , इन समस्त दृष्टिगोचर वस्तुओं के परे भी वही है। हमलोग जो कुछ भी देख पा रहे हैं, सबकुछ बनकर वे ही दृष्टिगोचर हो रहे हैं, पुनः वही एक वस्तु उसके बाहर भी हैं. उसको ही ब्रह्म या आत्मा कहा जाता है. सबकुछ के भीतर प्रविष्ट होने के साथ साथ उसके बाहर भी वे ही हैं. वे सभी वस्तुओं में अन्तर्निहित हैं, इसीलिए सभीकुछ वस्तुतः एक है, तथापि नाम-रूप में विभिन्नता रहने के कारण एक ही सत्ता विभिन्न रूपों दिखाई देती है।
इसीलिए वेदान्त कहता है, मेरा शत्रु कोई नहीं है. सभी मेरे लिये मित्र हैं- ' हे प्रभु, मुझे इतनी शक्ति दो कि मैं सबों को मित्र की दृष्टि से देख सकूँ '. कितनी सुंदर प्रार्थना है ! वेदान्त की जो दृष्टि है, उसे सामान्य धर्म की भाषा में व्यक्त करते हुए कह दिया जाता है कि-(' तुम में, मुझमें खड्ग-खम्भ में सब कुछ में नारायण हैं.' या) भगवान सभी कुछ में विद्यमान हैं.इस दृष्टि से तुम्हारे भीतर भी नारायण हैं, मेरे भीतर भी नारायण हैं. तुम भी अल्ला की सन्तान हो, मैं भी अल्ला की सन्तान हूँ.इसीलिए मैं और तुम दोनों परस्पर भाई-भाई हैं, कोई पराया नहीं हैं.वेदान्त इसी ऐक्य बोध को हमें प्रदान करता है. यही वेदान्त का मूल बिन्दु है।
वेदान्त मानव-मात्र को यह उपदेश देता है कि-तुम्हारे भीतर अनन्त शक्ति विद्यमान है. उसे जानने का प्रयत्न करो. तुम इस विश्व-ब्रह्माण्ड से अभिन्न हो. कोई तुम्हारा शत्रु नहीं है. सभी तुम्हारे मित्र या अपने आदमी हैं. अपने यथार्थ स्वरुप को जानने से ही यह बात समझ में आ जाएगी. तुम स्वरूपतः अनन्त शक्ति, ज्ञान एवं आनन्द या प्रेम के अधिकारी हो !
पुनः जब सभी एक हैं, तो कोई विशेषाधिकार का भोग कैसे कर सकता है? वैसा करना बहुत अनुचित है. इसीलिए भेदभाव मिथ्या है,बहुत गलत बात है. स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- हिन्दू-मुसलमान, ऊँच-नीच, धनी-निर्धन, विद्वान-मुर्ख, स्वदेशी-विदेशी इत्यादि जितने भी अलगाव का व्यवहार करते हैं, वह सब गलत या भ्रामक है, मिथ्या है. इसीलिए जिन समस्त विशेष अधिकार को भोग किया जाता है, वह ठीक नहीं है, वेदान्त उसको तोड़ देने की बात कहता है।
वेदान्त की दृष्टि में कोई अलग नहीं है. यह सिद्धान्त की बात है, एवं व्यवहार की दृष्टि से - तुम अनन्त ज्ञानसम्पन्न हो, तुम्हारे भीतर अनन्त शक्ति है; तथा अनन्त पवित्रता है, प्रेम है.इसी बल से बलवान हो जाओ. तुम्हारा शत्रु कोई नहीं है, सभी तुम्हारे मित्र हैं. तुमलोगों के बीच कोई अन्तर नहीं है, तुम सभी वास्तव में एक हो. इसीलिए किसी के पास कोई विशेषाधिकार नहीं रह सकता, इस भेद-भाव की मानसिकता को मिटा देने की आवश्यकता है, वेदान्त की यही असाधारण शिक्षा है !