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शनिवार, 26 मई 2012

नरेन्द्रनाथ कौन थे ?? परिप्रश्नेन [***20]

२०.प्रश्न : कहीं पढ़ा हूँ कि स्वामी विवेकानन्द पृथ्वी पर जन्म ग्रहण करने के पहले ध्यान-मग्न सप्त ऋषियों में से एक ऋषि थे, उन सातो ऋषियों का नाम क्या है?
उत्तर : यह प्रश्न अभी तक किसी के मुख से सुना नही था. सचमुच, मन में यह प्रश्न उठाना उचित है कि वे सात ऋषि कौन थे ? कहाँ पर ध्यानस्थ थे, उनमें से फिर नरेन्द्रनाथ कौन थे ? प्रश्न स्वाभाविक होने पर भी अत्यंत कठिन है.फिर भी उत्तर देने का प्रयत्न करता हूँ. 
जब किसी व्यक्ति ने स्वयं स्वामीजी से इस प्रश्न को पूछा था, तो उन्होंने विषयवस्तु की गम्भीरता को ही उड़ाते हुए कहा था- ' मैं वह सब कुछ नहीं जानता हूँ भाई, मैं तो यही जानता हूँ, कि मैं विश्वनाथ दत्त का पुत्र हूँ. ' किन्तु ठाकुर (भगवान) श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्रनाथ के शरीर धारण के विषय में अपने एक अद्भुत दर्शन की बात को इस प्रकार कहा था- 
" एक दिन देखा - मन समाधि के मार्ग से ज्योतिर्मय पथ में उपर उठता जा रहा है. चन्द्र, सूर्य, नक्षत्रयुक्त स्थूल जगत का सहज में ही अतिक्रमण कर वह पहले सूक्ष्म भाव-जगत में प्रविष्ट हुआ. उस राज्य के ऊँचे से ऊँचे स्तरों में वह जितना ही उठने लगा, उतना ही अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियाँ पथ के दोनों ओर दिखाई पड़ने लगीं. क्रमशः उस राज्य की अन्तिम सीमा पर वह (ठाकुर का मन ) आ पहुँचा. 
वहाँ देखा, एक ज्योतिर्मय पर्दे के द्वारा खण्ड और अखण्ड राज्यों का विभाग किया गया है. उस पर्दे को लाँघकर वह क्रमशः अखण्ड राज्य में प्रविष्ट हुआ. वहाँ देखा, मूर्तरूपधारी कुछ भी नहीं है, यहाँ तक कि दिव्य देहधारी देवी-देवता भी वहाँ प्रवेश न करने का साहस न कर सकने के कारण बहुत दूर नीचे अपना अपना अधिकार फैला कर अवस्थित हैं. किन्तु दूसरे ही क्षण दिखाई पड़ा कि दिव्य ज्योतिर्घन-तनु सात प्राचीन ऋषि वहाँ समाधिस्त होकर बैठे हैं.
समझ लिया कि ज्ञान और पुण्य में तथा त्याग और प्रेम में ये लोग मनुष्य का तो कहना ही क्या, देवी-देवता तक के परे पहुंचे हुए हैं. विस्मित होकर इनके महत्व के विषय में सोचने लगा. इसी समय सामने देखता हूँ, अखण्ड भेद-रहित, समरस, ज्योतिर्मण्डल का एक अंश घनीभूत होकर एक दिव्य शिशु  के रूप में परिणत हो गया. (अन्य समय पर ठाकुर ने कहा था, ठाकुर ने स्वयं ही उस शिशु का रूप धारण किया था.) वह देवशिशु उनमें से एक के पास जाकर अपने कोमल हाथों से आलिंगन करके अपनी अमृतमयी वाणी से उन्हें समाधि से जगाने के लिए चेष्टा करने लगा. 
शिशु के कोमल प्रेम-स्पर्श से ऋषि समाधि से जागृत हुए और अधखुले नेत्रों से उस अपूर्व बालक को देखने लगे. उनके मुख पर प्रसन्नोज्जवल भाव देख कर ज्ञात हुआ, मानो वह बालक उनका बहुत दिन का परिचित हृदय का धन है. वह देवशिशु अति आनन्दित हो उनसे कहने लगा, ' मैं जा रहा हूँ, तुम्हें भी आना होगा.' उसके अनुरोध पर ऋषि के कुछ न कहने पर भी, उनके प्रेमपूर्ण नेत्रों से अंतर की सम्मति प्रकट हो रही थी. इसके बाद ऋषि बालक को प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखते हुए पुनः समाधिस्त हो गये. उस समय आश्चर्यचकित होकर मैंने देखा कि उन्हीं के शरीर-मन का एक अंश उज्ज्वल ज्योति के रूप में परिणत होकर विलोम मार्ग से धराधाम में अवतीर्ण हो रहा है. नरेन्द्र को देखते ही मैं जान गया था कि यही वह है. " 
ठाकुर का यह जो अद्भुत दर्शन हुआ था, वह क्या पूर्णतया काल्पनिक था ? नहीं, हमलोगों ने सात ऋषियों के बारे में सुना है- जिन्हें सप्तर्षि भी कहा जाता है. उत्तरी आकाश में ध्रुव तारा के नजदीक सात नक्षत्रों को सप्तर्षि मण्डल कहा जाता है. किन्तु ठाकुर ने तो देखा था- " चन्द्र, सूर्य, नक्षत्रयुक्त स्थूल जगत का सहज में ही अतिक्रमण करने के बाद..." ऐसा यदि हुआ था, तब उनहोंने कौन से सात ऋषियों को देखा था ? दो प्रकार के सात ऋषि (सप्तर्षि) की कथा पाई जाती है. शंकराचार्य ने अपने गीता भाष्य के भूमिका में कहा है- 
" स भगवान सृष्ट्वा इदं जगत तस्य च स्थितिं चीकीर्षु:
मरीच्यादीन अग्रे सृष्ट्वा प्रजापतीन

 प्रवृत्ति-लक्षणं धर्मं ग्राह्यामास वेदोक्तम।.." 
- अर्थात भगवान इस जगत की सृष्टि करने के बाद, उसकी स्थिति को निश्चित करने की कामना से मरीचि-आदि प्रजापति गण की रचना करके, उनको वेदोक्त प्रवृत्ति-लक्षण धर्म ग्रहण करवाए थे. ये सभी महर्षि के नाम से प्रसिद्द हैं. इन सबों का जन्म प्रजा का पालन करने के लिए ब्रह्मा के मन से हुआ है. ये सभी महर्षि वेदज्ञ, आचार्य एवं प्रवृत्ति मार्ग के ऋषि हैं, अर्थात काम्यकर्म-परायण हैं. शंकराचार्य उसके बाद कहते हैं- 
 " ततः अन्यान च सनक-सन्दनादीन उत्पाद्य 
निवृत्ति-धर्मं ज्ञान-वैराग्य-लक्षणं ग्राह्यामास ।
 द्विविधः हि वेदोक्त धर्मः, प्रवृत्ति-लक्षण: निवृत्ति लक्षण: च ।..." 
 तदोपरान्त अन्य सनक-सनन्दन आदि को ज्ञान-वैराग्य-लक्षण से युक्त निवृत्ति-लक्षण धर्म ग्रहण करवाए थे. ये सभी ब्रह्मर्षि के नाम से जाने जाते हैं, तथा ये निवृत्ति-मार्ग के ऋषि हैं.वेदों में प्रवृत्ति-लक्षण और निवृत्ति-लक्षण दो प्रकार के धर्म का उल्लेख है ।"
शंकराचार्य ने इन ऋषियों में से केवल एक-दो नामों का हि उल्लेख किया है. किन्तु महाभारत में इन सभी ऋषियों की उत्पत्ति एवं नाम इत्यादि का सविस्तार वर्णन किया गया है. प्रवृत्ति मार्ग के सात ऋषियों के नाम इस प्रकार हैं- मरीचि, अंगीरा, अत्री, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु एवं वशिष्ठ. नक्षत्र मण्डल में इन्हीं सात ऋषियों को देखा जाता है. 
किन्तु ठाकुर के दर्शन के अनुसार स्वामीजी (नरेन्द्रनाथ) तो ज्ञान-वैराग्यवान निवृत्ति-धर्मी सात ऋषियों में से एक थे. ठाकुर के कथनानुसार सुना जाता है कि वे नर-ऋषि या सन थे. यह बिलकुल स्पष्ट है कि प्रवृत्ति-मार्ग के सात महर्षियों में से किन्ही का भी नाम (सन) नर-ऋषि नहीं है. महाभारत के अनुसार इन सात ब्रह्मर्षियों के नाम इस प्रकार हैं- सन (नर), सनत-सुजात, सनक, सनन्दन, सनत्कुमार, कपिल और सनातन (नारायण).न सात ज्ञान-वैराग्यवान निवृत्ति-धर्मी ब्रह्मर्षियों में प्रथम ऋषि का नाम था नर एवं अन्तिम का नाम था नारायण .किन्तु ' लीलाप्रसंग ' में इस प्रकार वर्णन मिलता है- " उन्हें (श्रीरामकृष्ण को ) यह भी ज्ञात था कि उनकी लीला की पुष्टि के लिए कुछ उच्च श्रेणी के साधकों ने ईश्वरेच्छा से जन्मग्रहण किया है...उनके लिए वे उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे. माया के राज्य के भीतर रहकर इन गूढ़  रहस्यों को जो जान सके थे, उन्हें सर्वज्ञ के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है ?
... सन १८८१ का नवम्बर मास होगा. नरेन्द्रनाथ की आयु उस समय १८ वर्ष की थी तथा वे कोलकाता विश्व विद्यालय की ऍफ़.ए. परीक्षा की तैयारी कर रहे थे. वे नरेन्द्र से कहने लगे, ' तू इतने दिनों के बाद आया ? मैं तेरे लिए किस प्रकार प्रतीक्षा कर रहा था, तू सोच भी नहीं सकता ? विषयी मनुष्यों के व्यर्थ के प्रसंग सुनते-सुनते मेरे कान जले जा रहे हैं,... दुसरे ही क्षण मेरे सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये और देवता की तरह मेरे प्रति सम्मान दिखाकर कहने लगे, ' मैं जनता हूँ, प्रभु ! आप वही पुरातन ऋषि -नररुपी नारायण हैं, जीवों की दुर्गति दूर करने के लिए आप पुनः संसार में अवतीर्ण हुए हैं ! इत्यादि.'
 उनके इस कथनानुसार स्वामीजी वास्तव में ब्रह्मर्षि सनातन (नारायण) थे, और ठाकुर के आह्वान को सुनकर उनहोंने ही नरेन्द्र के नाम से मनुष्य-शरीर धारण किया था. तथा जगत का असीम कल्याण करने की कामना से ज्ञान, विवेक, वैराग्य, अभेद-दृष्टि एवं सेवा के असामान्य मनोभाव का प्रचार करके इस धराधाम से अन्तर्धान हो गये थे.