१८.प्रश्न : कहा जाता है कि गौतम बुद्ध को गया में पीपल-वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था. इस ' ज्ञान ' शब्द का अर्थ क्या है ?
उत्तर : किसी वस्तु का तत्व क्या
है, इसे जान लेने का नाम ज्ञान है। किसी वस्तु की सत्ता, शक्ति, क्रिया
-इत्यादि के विषय में ठीक ठीक जानकारी प्राप्त कर लेने को, उस वस्तु का
ज्ञान प्राप्त करना कहते हैं. ज्ञान कई प्रकार का हो सकता है. जैसे भाषा का
ज्ञान, विज्ञान का ज्ञान, या विज्ञान के भीतर विभिन्न प्रकार का ज्ञान हो
सकता है. रसायन-शास्त्र का ज्ञान हो सकता है, पदार्थ-विज्ञान का ज्ञान हो
सकता है, खगोल-विज्ञान का
ज्ञान हो सकता है, संगीत-शास्त्र का ज्ञान हो सकता है, कई प्रकार के ज्ञान
हो सकते हैं।
जैसे इन लकड़ियों का ज्ञान प्राप्त हो सकता है, ईंट का ज्ञान हो सकता है, लोहा का ज्ञान हो सकता है, पृथ्वी का ज्ञान हो सकता है,भूगोल का ज्ञान हो सकता है, इतिहास का ज्ञान हो सकता है, मनुष्य के शरीर का ज्ञान हो सकता है, मनुष्य के मन का ज्ञान हो सकता है, मनुष्य की आत्मा का ज्ञान हो सकता है। अनेकों विषयों का ज्ञान हो सकता है. ज्ञान का अर्थ है, वह वस्तु वास्तव में क्या है- इसकी जानकारी प्राप्त करना.
जैसे इन लकड़ियों का ज्ञान प्राप्त हो सकता है, ईंट का ज्ञान हो सकता है, लोहा का ज्ञान हो सकता है, पृथ्वी का ज्ञान हो सकता है,भूगोल का ज्ञान हो सकता है, इतिहास का ज्ञान हो सकता है, मनुष्य के शरीर का ज्ञान हो सकता है, मनुष्य के मन का ज्ञान हो सकता है, मनुष्य की आत्मा का ज्ञान हो सकता है। अनेकों विषयों का ज्ञान हो सकता है. ज्ञान का अर्थ है, वह वस्तु वास्तव में क्या है- इसकी जानकारी प्राप्त करना.
इसी प्रकार से विभिन्न ज्ञानों के विषय में जानते जानते यह समझ में आ जाता है कि ' मूल-वस्तु ' का ज्ञान हो जाने से ही सभी वस्तुओं का वास्तविक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है. इसीलिए श्रीरामकृष्ण ने कहा है- यह बात अन्य शास्त्रों में भी है, ' एक को जान लेने का नाम ज्ञान है, अनेक को जानने का नाम अज्ञान है.' इस जान लेने का अर्थ क्या है ?
अभी जितने भी प्रकार के ज्ञान के बारे में कहा गया, उसके सबसे अन्त में कहा गया- ' आत्मज्ञान '; आत्मज्ञान हो जाने से ही, ' एक ' को जान लेना हो गया.
क्यों ? इसीलिए कि अन्य जो कुछ भी है, तथा जितना भी ज्ञान हमलोग संग्रहित
कर सकते हैं, वह सब ' अनेक ' हैं. उन सबको यदि भीतर में सही प्रकार से समझा
जाये तो हमलोग पाएँगे, कि पहले हमने जिसे ज्ञान समझ लिया था, वह सही ज्ञान
नहीं है. क्योंकि, वास्तव में वह (मनुष्य) क्या है, उसका केवल सतही
(उपर-उपर की जानकारी ) ज्ञान ही मिला है, उसके भीतर की जानकारी नहीं हुई
है.
आधुनिक युग के जितने भी प्रसिद्द भौतिकशास्त्री (Physicist)
हैं, वे स्वीकार करते हैं, कि विज्ञान की सहायता से किसी भी वस्तु का
बिल्कुल सही सही ज्ञान प्राप्त कर लेना संभव नहीं है. इस बात को वे पूरी
ईमानदारी से कबूल करते हैं. उनका कहना है कि हमलोग मनुष्य के सामने, माने
उसकी पंच-इन्द्रियों के सामने जो कुछ भी देदीप्यमान वस्तु के आकर (रूप) में
जो कुछ ज्ञात (प्रकट या प्रतिबिंबित) होता है, उसका थोड़ा सा वर्णन ही
हमलोग कर सकते है. किन्तु वास्तव में वह ' सत्ता ' मूल-वस्तु क्या है ? उसे
विज्ञान या भौतिविज्ञान कभी नहीं जान सकता है।या यूँ कहें कि उनके लिए जान पाना संभव ही नहीं है.यह कथन आज के वैज्ञानिकों का है।[केनोपनिषद का यह उद्धरण यहाँ स्मरणीय है ]
[ ''प्राचीन मिथक बहुत बार प्रतीकात्मक होते हैं। ऐसा ही मिथक केन उपनिषद् के तृतीय खंड
में आता है- देवासुर संग्राम का। एक ऐसे संग्राम का जो सात्विक और
तामसिक प्रवृत्तियां के बीच लड़ा जा रहा है। सवाल यह है कि ऐसी
परिस्थितियों में क्या विजय हमेशा सात्विक प्रवृत्तियों की ही होगी?''
'' विजय हमेशा उस प्रवृत्ति की होगी, जिसका साथ वह अतींद्रिय सत्ता देती है? ''कोई
भी प्रवृत्ति अच्छी या बुरी नहीं क्योंकि हर प्रवृत्ति उसी ईश्वर
की है। और जिसे वह विजयी बनाए ! और उस संग्राम में अतीन्द्रिय सत्ता ने देवों का साथ दिया और घमंड के कारण देव प्रजाति यह मान बैठी कि वही सर्वशक्तिमान है और उसके
अतिरिक्त कोई नहीं। यही है ब्लासफेमी। और इसी अहंकार को, गर्व को दूर करने उस वक्त, उस मिथक में उपस्थित होता है यक्ष........।''
''वह यक्ष कौन था ?''
''मिथक के अनुसार चाहे वह जो भी हो। यक्ष (ब्रह्म) हम सबके भीतर मौजूद हमारी ही वह शक्ति है, जो हमारे अहंकार से आहत होकर, समय-समय पर हमारी तद्जनित सीमाओं का अहसास कराती है।''
इंद्रिय चेतना को प्रतीकात्मक रूप में, इंद्र के रूप में चित्रित किया है। और -''दिस इज ऑल द स्ट्रगल बिटवीन सोल एंड मैटर।'' और इससे ही यक्ष आहत होता रहता है। अपनी भौतिक समृध्दि में मनुष्य जब अपने को 'ऑल परवेडिंग' मानने लगे, तो यक्ष का आहत होना स्वाभाविक ही है।
इन्हीं परिस्थितियों में जरूरत पड़ती है, एक ऐसी शक्ति की जो मन को पदार्थ से हटाकर उस असीम सत्ता की तरफ केंद्रित कर सकें यही है केन उपनिषद् का वह मिथक जो इंद्र के समक्ष ' उमा ' हेमावती को उपस्थित करता है।''
'' इंद्र के समक्ष उमा-हेमावती क्यों उपस्थित होती है और क्या पूछती है?''
''इंद्र को तो रास्ता उमा ही दे सकती है।
इन्द्र कौन है ?
(अष्टाध्यायी)
पाणिनी के इस सूत्र से इन्द्रिय शब्द सिद्ध हुआ ' इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमिन्द्रदृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्र दत्तमित्ति वा ' और 'इन्द्रस्य लिंगमिन्द्रियम्' के अनुसार इन्द्र वह है, जिसके कर्त्तव्य के साधन इन्द्रिय हैं | स्पष्ट
है कि इन्द्र जीवात्मा को कहते हैं | यद्यपि इन्द्रिय शब्द ब्रह्म, जीव,
राजा विद्युत आदि अनेक अर्थों में वैदिक साहित्य में प्रयुक्त होता है |
परन्तु यहाँ यक्ष (ब्रह्म) का ज्ञाता इन्द्र है, इसलिये यहां उचित रीति से
इन्द्र शब्द का अर्थ जीवात्मा ही किया जा सकता है |
उमा कौन है ?
विद्या उमारूपिणी प्रादुर्भूत् स्त्रीरूपा
('शांकर भाष्य; केन, मन्त्र 25)
श्रीमान् शंकराचार्य जी ने उमा को
उपर्युक्त वाक्य में स्त्री रूपा विद्या कहा है | श्री रामानुजाचार्य ने
भी शंकर ही का अनुकरण करते हुए इसी उपनिषद् की टीका में लिखा है : -
स्त्रियमतिरूपिणीं विद्यामाजगाम ||
अर्थात
स्त्री रूपा विद्या आई | इन दोनों महानुभावों ने 'उमा' (माँ ) को विद्या
कहा है।इसलिये शंकर और रामानुज महानुभावों का तात्पर्य उमा शब्द से विद्या
या ब्रह्म-विद्या (माँ सारदा ) ही स्वीकार किये जाने के योग्य है | और उचित रीति से,
जीवात्मा के लिये ब्रह्म की प्राप्ति का साधन, ब्रह्म-विद्या को कहा भी जा
सकता है | परन्तु इस पक्ष के स्वीकार करने में एक आपत्ति हो सकती है और
वह यह है कि ब्रह्म विद्या एक विस्तृत विद्या है | इसमें प्रस्थानत्रयी
(उपनिषद्, वेदान्त दर्शन और गीता) के सिवाय अन्य भी अनेक योग और सांख्यादि
विद्याओं का समावेश है |
इसलिये स्वाभाविक है कि ब्रह्मविद्या में
ब्रह्म प्राप्ति के अनेक दूर और समीप वाले सभी साधनों का संयोग हो,
परन्तु आख्यायिका में कहा है कि उमा ने बतलाया और उमा के बतलाने से इन्द्र नें जान लिया कि वह यक्ष ब्रह्म है |
इसलिये आख्यायिका का विवरण चाहता है कि ' उमा ' कोई ऐसी चीज होनी चाहिये
जो ब्रह्मप्राप्ति का दूरस्य नहीं किन्तु समीपस्थ साधन हो | इसलिए इस
समीपस्थ साधन की खोज करनी चाहिए | खोज करते हुए जब हम महामुनि पतञ्जलि की
सेवा में पहुँचते हैं तो वहाँ उत्तर मिलता है कि -
श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वकमितरेषाम् ||
(योग दर्शन 1|20)
अर्थात -
अन्यों (विदेहों और प्रकृति-लयों से भिन्नों) की श्रद्धा, वीर्य, स्मृति,
समाधि और प्रज्ञापूर्वक (उपाय प्र्त्यय नामक असंप्रज्ञात योग की सिद्धि)
होती है | भाव इसका यह है कि जब योगी उपाय-प्रत्यय नामक असंप्रज्ञातयोग
सिद्ध करना चाहता है, तब उसको प्रथम श्रद्धा-( आस्तिक्य बुद्धि या सत्य पर अटल विश्वास) सम्पन्न होना
चाहिए | यह श्रद्धा माता के समान योगी की रक्षा करती है, जिससे योगीवीर्य (इस योग को सिद्ध करनेवाला बल) सम्पन्न होता है | तब वीर्यवान् योगी को अपने स्वरुप की स्मृति उत्पन्न होती है, जिससे चित्त का स्मृति भण्डार उस पर खुल जाता है और चित्त के इस प्रकार पट खुल जाने से योगी और व्याकुलता रहित हो जाता है |
चाहिए | यह श्रद्धा माता के समान योगी की रक्षा करती है, जिससे योगीवीर्य (इस योग को सिद्ध करनेवाला बल) सम्पन्न होता है | तब वीर्यवान् योगी को अपने स्वरुप की स्मृति उत्पन्न होती है, जिससे चित्त का स्मृति भण्डार उस पर खुल जाता है और चित्त के इस प्रकार पट खुल जाने से योगी और व्याकुलता रहित हो जाता है |
यही चित्त की समाधि है, इस समाधि (समाधान) से प्रज्ञा की उपलब्धि होती है |
प्रज्ञा वह बुद्धि है, जिससे योगी पर मैं क्या हूँ, जगत् क्या है, ईश्वर
क्या है, इत्यादि सभी भेद खुल जाते हैं और वह तत्व ज्ञानी हो जाता है |
व्यास के कथनानुसार इस प्रज्ञा का निरन्तर अभ्यास करने से इस (प्रज्ञा) से
योगी को वैराग्य होकर असंप्रज्ञात योग की सिद्धी हो जाती है |
''इंद्र हमारी इंद्रियजनित चेतना का प्रतीक है और हेमावती हमारी शुध्द अंतश्चेतना का प्रतीक है। उमा है वह, उस अदृश्य परम सत्ता का हमारे अहं से संबंध हो सके, उसकी कड़ी है यह। ध्वनि है यह हमारे ही भीतर की, वाइब्रेशन है यह।
तुम
स्वयं इतने विराट हो कि मुझमें समाहित हो मुझे भी विराट बना जाते
हो। कभी मैं सोचती थी, नदी सागर में ही क्यूं विलीन होती है? वह अपना अस्तित्व खोने पर क्यूं विश्वास करती है? आज जब सागर खुद ही आ समाया है नदी में तो नदी सुंकुचित हो उठी है...... एक ही बात थी। मैं आती, तुम आते-फर्क नहीं था। पर तुमने मुझे समझा, तुम आए तो जान सकी हूं, मैं भी आती तो भी एक ही बात थी। व्याकुलता एक ही है एक दूसरे में समाहित होने की, तो, कोई भी आए, क्या फर्क पड़ता हैं?]
हो सकता है, तुममें से कोई कोई व्यक्ति यह सब सुनकर आश्चर्य-चकित भी हो गया हो, विज्ञान की प्रगति जिस शीघ्रता से हो रही है, उसकी जानकारी नहीं रखने से आश्चर्य तो होगा ही. क्योंकि, कुछ वर्षों पूर्व तक विज्ञान यह दावा करता था कि हमलोग सबकुछ जान सकते हैं. हमलोगों ने बहुत कुछ को तो जान लिया है, और जो कुछ जानना बाकी है, उसे भी हमलोग शीघ्र ही जान जायेंगे. ऐसी शेखी विज्ञान हल के दिनों तक बघारता आ रहा था.
हो सकता है, तुममें से कोई कोई व्यक्ति यह सब सुनकर आश्चर्य-चकित भी हो गया हो, विज्ञान की प्रगति जिस शीघ्रता से हो रही है, उसकी जानकारी नहीं रखने से आश्चर्य तो होगा ही. क्योंकि, कुछ वर्षों पूर्व तक विज्ञान यह दावा करता था कि हमलोग सबकुछ जान सकते हैं. हमलोगों ने बहुत कुछ को तो जान लिया है, और जो कुछ जानना बाकी है, उसे भी हमलोग शीघ्र ही जान जायेंगे. ऐसी शेखी विज्ञान हल के दिनों तक बघारता आ रहा था.
किन्तु आधुनिक समय में विज्ञान थोडा वयस्क
(परिपक्व) हो गया है. वयस्क होने के बाद, वह यह समझने लगा है कि इसकी दौड़
कहाँ तक है, तथा उसकी जो अपनी पद्धति है, अभी तक जितना जान सका है उसका
अंकगणित एवं जानने कि संभावना के विषय में उसका ज्ञान पहले की अपेक्षा थोड़ा
अच्छा हुआ है, इसलिए अब वह समझ सकता है, कि पदार्थ की वास्तविक सत्ता का
ज्ञान वैज्ञानिक प्रणाली के द्वारा प्राप्त कर पाना कभी संभव नहीं है.
क्योंकि, अब वह समझ चूका है, कि थोड़ा-कुछ जानने की क्षमता के बाहर रह ही
जायेगा. इसीलिए कहता है, जितना कुछ जाना जा सकता है, उसकी बहुत सी जानकारी
हमलोग प्राप्त कर सकते हैं. किन्तु यदि विभिन्न विषयों का ज्ञान जितना
प्राप्त कर पाना संभव है, उतना जान लेने के बाद, आत्मा के विषय में ज्ञान
प्राप्त करें, तभी सही ज्ञान मिल सकता है. क्योंकि आत्मा सर्वव्यापी
(सर्वगत) है. सभी वस्तुओं के भीतर आत्मा हैं. उनको जान लेने से सबकुछ जाना
जा सकता है !