५. प्रश्न: यदि हम अपने जीवन को आदर्श रूप (मानवजाति के
मार्गदर्शी नेता के रूप में ) में गठित करना चाहें, तो हमारे जीवन-गठन की कार्यप्रणाली कैसी होनी चाहिए ?
उत्तर:
हमलोगों के यथार्थ मनुष्य बनने (जीवन-गठन, मनुष्य-निर्माण, या चरित्र-गठन )
की सम्पूर्ण कार्यप्रणाली को एक लाइन में ही नहीं कहा जा सकता है. जिन
कार्यों के करने से हमलोगों का जीवन सुंदर रूप में गठित हो जाता है, उन्हीं
कार्यों को महामण्डल के प्रत्येक केन्द्रों में किया जा रहा है. युवा
प्रशिक्षण शिविरों में जीवन-गठन की पद्धति को सिखाने का प्रयास किया जाता
है.
महामण्डल की पुस्तिकाओं एवं संवाद पत्रिका "
Vivek-Jivan " (विवेक-अंजन) में इन्हीं सबका विश्लेष्ण करके जीवन-गठन की व्यवहारिक
कार्यप्रणाली को युवाओं के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है. तथा जो कोई भी व्यक्ति, एक
योग्य जीवन गठित करने के जिन दैनिक-अभ्यासों को करना आवश्यक
है, उन्हें कोई करता रहे तो निश्चित रूप से उसका फल प्राप्त होता है.
बहुत संक्षेप में कहा जाय तो, शरीर को स्वस्थ रखने के लिए प्रतिदिन थोड़ा व्यायाम
करना आवश्यक है. अत्यंत सामान्य व्यायाम, जिसे खाली हाथों ही किया जाता
है. उसी तरह हमलोगों को प्रतिदिन थोड़ा मनःसंयोग का अभ्यास करना भी आवश्यक
है. मनःसंयोग करने
का अर्थ ध्यान करना नहीं है. बहुत से लोगों में इसको लेकर भिन्न भिन्न
धारणाएं हैं. 'ध्यान' एक भिन्न वस्तु है, मनःसंयोग अलग वस्तु है.
किन्तु
छात्र-जीवन में मनःसंयोग का अभ्यास करने से हमारा मन हमारे वश में आने लगता है, हमलोग अपने मन की गुलामी करने की बाध्यता से मुक्त हो जाते हैं। इसीलिये मनःसंयोग की पद्धति को सीखना समस्त विद्यार्थियों के लिये अनिवार्य विषय होना चाहिए। क्योंकि मनःसंयोग का अभ्यास किये बिना कोई भी व्यक्ति मन लगाकर पढने का कौशल नहीं सीख सकता। इतना ही नहीं वह परिवार, समाज या देश की सच्ची सेवा भी नहीं कर सकता.
जब हम अपनी प्रयोजनीयता के अनुसार चयनित किसी एक ही विषय के उपर मन को एकाग्र रखने का अभ्यास करते हैं, तब हम मन की शक्ति (Will Power) को अर्जित करते हैं. मनःसंयोग का नियमित अभ्यास करते रहने से हमारी इच्छाशक्ति अत्यंत बलवान हो जाती है, और वैसा हो जाने के बाद, हमारा मन हमारे वश में आ जाता है।तब हम अपनी इच्छाशक्ति को निर्देशित
करके अपने जीवन को सुंदर रूप में गठित कर सकते हैं। मन हमें अपना गुलाम बनाकर अपनी इच्छानुसार व्यर्थ के विषयों दौड़ाते रहने में असमर्थ हो जाता है।
आमतौर
पर जो व्यक्ति मनःसंयोग का अभ्यास नहीं करता, उसका
जीवन कैसा होता है? मन हमें जिस ओर
खींच कर ले जाना चाहता है, हमलोग उसी ओर जाने को बाध्य हो जाते हैं. हमलोग मन के गुलाम जैसा कार्य करते हैं. किन्तु
यदि हम जीवन भर वैसे ही बने रहें, तो मन की अनन्त शक्ति का सदुपयोग करना संभव नहीं होता, और हमलोग
अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाते हैं। मैं यदि मन को तथा अपनी शक्ति को अपनी इच्छानुसार किसी चयनित कार्य
में नियोजित करने में सक्षम रहूँगा, तभी मैं जीवन में सफलता प्राप्त कर
सकता हूँ. किन्तु यदि मेरा मन ही मेरे वश में नहीं रहता हो, तो मैं अपने जीवन में कैसे सफल हो पाउँगा ?
किन्तु मेरा मन मेरे वश में अनायास तो नहीं चला आयेगा ! इसके लिए
दीर्घ दिनों तक नियमपूर्वक प्रयास करना आवश्यक है। जैसा बताया गया है, प्रतिदिन प्रातःकाल तथा संध्या के समय पाँच मिनट चुप-चाप सीधा
होकर बैठने तथा मन को लगाने और हटाने का अभ्यास करने की
आवश्यकता है. महामण्डल द्वारा हिन्दी
में ' मनःसंयोग ' नामक पुस्तिका प्रकाशित हुई है जिसमें इस पद्धति को
अत्यन्त सरल भाषा में समझाया गया है, जिसे कोई भी व्यक्ति बड़ी आसानी से
समझ सकता है.
मनःसंयोग
का अभ्यास करने के साथ साथ एक अत्यंत छोटी, किन्तु अति मूल्यवान प्रक्रिया ' सर्वमंगल की प्रार्थना ' का
अनुपालन करना भी अनिवार्य है.
संसार के सभी मनुष्यों के मंगल की कामना करने के उपर अब पाश्चात्य के आधुनिक मनोवैज्ञानिक भी बहुत जोर देने लगे हैं। यह पद्धति हमारे देश में तो हमेशा से थी,
किन्तु पाश्चात्य देशों के मनोवैज्ञानिक इसके महत्व को अभी समझ सके हैं.
मनःसंयोग का अभ्यास शुरू
करने से पहले, पूरी ईमानदारी तथा उत्साह के साथ पुरे मन से कहना चाहिए- ' हे प्रभु, संसार के सभी मनुष्य सुखी हों, सभी शान्ति और आनंद से रहें, सबों को ईश्वर की प्राप्ति हो ! सबो का कल्याण हो ! '
कोई भी मनुष्य इसका अपवाद नहीं होगा,किसी को बहिष्कृत नहीं मानना होगा.
जिसको मैं अपना शत्रु समझता हूँ, जिसने अकारण ही मेरे चरित्र पर झूठा लांछन
क्यों न लगाया हो, वह भी बहिष्कृत नहीं होगा.' जगत के प्रत्येक मनुष्य का भला हो '- इस बात को सदैव याद रख पाना ही अपने आप में एक बहुत बड़ी अध्यात्मिक उपलब्धी है ! इस उपलब्धी (अद्वैत निश्चय ) के
समान मनुष्य के जीवन में कोई दूसरी बड़ी उपलब्धी नहीं है.
जो व्यक्ति पूरे
हृदय से जन-कल्याण या विश्व के सभी मनुष्यों का मंगल चाह सकता है, वह स्वतः अध्यात्मिक रूप से उन्नत हो जाता है. उसका हृदय बहुत विशाल हो जाता है.
स्वामीजी कहते थे, जो व्यक्ति अध्यात्मिक जीवन का अधिकारी होता है, उसका
हृदय स्वाभाविक रूप से बहुत विस्तृत हो जाता है.
आमतौर
पर जैसे ही हम प्रार्थना करते हैं कि संसार के सभी मनुष्यों का भला हो,
उसी समय उन एक-दो व्यक्तियों का विशेष रूप से हमारी आँखों के सामने कौंध
जाता है, जिनको मैं थोड़ा नापसन्द करता हूँ, या जो लोग मेरे प्रति अकारण ही
शत्रुता का भाव रखते हैं, मुझे बदनाम करते हैं या हानी पहुंचाते हैं,
किन्तु ये भी बहिष्कृत नहीं होंगे. मुझे उनके कल्याण के लिए भी प्रार्थना
करनी होगी- जो व्यक्ति ऐसा करने में समर्थ हो जाता है, उसकी शक्ति कितनी
अधिक बढ़ जाती है, इस बात को वे कभी समझ ही नहीं सकते जो ऐसा कभी नहीं किये
हैं. ऐसी सर्व-मंगल की प्रार्थना के लिए कोई आपकी खिल्ली भी उड़ा सकता है.
किन्तु वैसा करके वे किसी बुद्धिमानी का परिचय नहीं देते.
यदि
किसी प्रक्रिया को अपनाने से उसकी प्रभावकारिता (effectiveness) स्पष्ट
दिखाई देती हो, फिर भी अपने किसी पूर्वाग्रह के कारण उसे अस्वीकार कर देना-
व्यक्ति के अवैज्ञानिक मनोभाव परिचायक है. किसी प्रक्रिया को अपनाने से
यदि उसका अच्छा फल प्राप्त होता हो, उस प्रक्रिया से गुजरने वाले प्रत्येक
व्यक्ति को निश्चित रूप से प्राप्त होता हो, तथा जितनी भी बार उस
प्रक्रिया को दुहराया जाय उतनी बार एक जैसा ही फल प्राप्त होता हो, उस
प्रक्रिया को जो व्यक्ति वैज्ञानिक सत्य के रूप में स्वीकार करता है, तो
वैसा करके वह अपने वैज्ञानिक मनोभाव का परिचय देता है. इसीलिए व्यायाम, मनःसंयोग, तथा ' सर्व-मंगल की प्रार्थना ' की प्रभावकारिता (effectiveness ) को प्रयोग कर के तुम स्वयं भी देख सकते हो.
इन तीनों प्रक्रियाओं को अपने दैनन्दिन अभ्यास में शामिल कर लेना बिल्कुल
आसान भी है.
इसके बाद प्रतिदिन कुछ अच्छी चीजों का अध्यन या स्वाध्याय भी
करना चाहिए. अच्छी चीज-से तात्पर्य है, जिसमें जीवन-गठन करने में सहायक
विचार प्राप्त होते हों, समय निकल कर उन्हें भी पढना. महामण्डल की
पुस्तिकाओं तथा इसके मुखपत्र ' विवेक-अंजन ' एवं Vivek-Jivan में मनुष्य के
शरीर, मन और ह्रदय (3H) को उन्नत करने की व्यवहारिक पद्धति एवं
चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के सार-तत्व के उपर लगातार चर्चा की जाती है. इन
सबको तथा स्वामी विवेकानन्द की छोटी-बड़ी किसी भी जीवनी के कुछ अंश को
नियमित रूप से प्रतिदिन पढ़ कर यह समझने की चेष्टा करनी चाहिए स्वामी
विवेकानन्द का जीवन कैसे गठित हुआ था.
इसके साथ साथ हमलोगों को स्वामीजी के यथार्थ सन्देशों से भी परिचित होने की चेष्टा करनी चाहिए.क्योंकि स्वामीजी के जीवन तथा संदेश के संबन्ध में आज भी हमलोगों के मन में बहुत सारी काल्पनिक धारणायें (Utopian ideas) भरी हुई हैं. स्वामी विवेकानन्द के जन्म के 150 वर्षों बाद भी हमलोगों में से कई लोगों को (विशेष तौर से हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ) विवेकानन्दजी के संबन्ध में कोई स्पष्ट धारणा नहीं है.(विवेकानन्द साहित्य के १० खण्ड इंटरनेट पर अंग्रेजी-भाषा में उपलब्ध है, किन्तु अभी तक हिन्दी में क्यों नहीं है ? )
इसीलिए आज भी हिन्दी-भाषी क्षेत्रों के अधिकांश (पढ़े-लिखे
भी ) व्यक्ति यही मानते हैं कि स्वामी विवेकानन्द विदेशों में हिन्दू धर्म
को स्थापित कर आये थे. कुछ लोगों को ऐसा प्रतीत होता है कि वे हिन्दू-धर्म
का प्रचार करने के लिए ही विदेश गये थे. ये सब केवल मनगढ़ंत (cock and bull जैसी ) भ्रान्त धारणायें हैं.
वास्तविकता
यह है कि स्वामी विवेकानन्द के सन्देशों में हमलोगों के लिए स्वयं को उद्घाटित
(Discover) करने का सूत्र (Be and Make) दिया गया है। हमलोग स्वामी विवेकानन्द के सन्देशों का अध्यन करके अपने आत्मविश्वास को जाग्रत करने की पद्धति सीख सकते हैं, उन अभ्यासों को अपनाने से
यथार्थ मनुष्य बन सकते हैं, तथा जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त
कर सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द के सन्देशों में हमलोग अपने जीवन की अव्यक्त संभावनाओं (Latent potential) को प्रस्फुटित करने की विधि तथा आत्मश्रद्धा, इच्छाशक्ति में वृद्धि आदि शक्तिदायी विचारों को प्राप्त कर सकते हैं.
किन्तु विवेकानन्दजी के सन्देशों को पढ़ने के लिए, कोई छात्र या युवा यदि प्रारम्भ में ही "विवेकानन्द साहित्य" या ' श्रीरामकृष्ण वचनामृत ' को प्रारंभ में ही नवागंतुक युवा भाइयों के बीच पाठचक्र में पढ़ना आरम्भ करेंगे तो, उन्हें समझने में थोड़ी कठिनाई हो सकती है. इसी बात
को ध्यान में रख कर महामण्डल के हिन्दी मुखपत्र ' विवेक-अंजन ' तथा "
VIVEK-ANJAN " में कुछ चुनिन्दा पुस्तकों की सूचि दी जाती है. स्वामीजी के
सन्देशों को संकलित कर जो छोटी छोटी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, पाठचक्र में उन्ही
पुस्तकों को पढ़ना प्रारम्भ किया जाय तभी स्वामी विवेकानन्द
के विचारों में जो कई विशेष पहलु हैं, उसके मर्म (drift) के साथ हमलोग धीरे धीरे परिचित हो सकते हैं.
इन
सब पुस्तकों को पढ़ लेने के बाद यदि बड़े ग्रन्थों को पढ़ेंगे, तब हमलोग
उसके मर्म को समझने में सक्षम हो जायेंगे, तथा स्वयं यह जान जायेंगे की
समग्र ' विवेकानन्द -साहित्य ', उसके दसो खंड कितने व्यवहारिक एवं उपयोगी
हैं ! स्वामीजी ने ऐसे एक भी तत्व की बात नहीं कही है, जो हमारे जीवन को
सुंदर ढंग से गठित करने में सहायक न हो. स्वामीजी के समस्त संदेश मनुष्यों
के लिए अत्यन्त उपयोगी, जो मनुष्य को उन्नति करने में सहायता करते हैं. यदि
कोई अध्यात्मिक तात्विक-ज्ञान मनुष्य के विकास में सहायक नहीं हो, मनुष्य
के दुखों को दूर करने में सहायता नहीं कर सकता हो- तो वैसे तत्व का कोई
मूल्य नहीं है.