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गुरुवार, 24 मई 2012

राष्ट्र-गठन का प्राथमिक कार्य है-चरित्र-निर्माण ! [14] परिप्रश्नेन

१४. प्रश्न : हमारे देश के बहुत से लोग ' गरीबी की सीमा-रेखा ' से नीचे (BPL) वास करते हैं, जिनको दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती, जिनके पास सिर छुपाने के लिए छत भी नहीं है. उन समस्त व्यक्तियों के लिए पहले उपयुक्त परिमाण में न्यूनतम उपभोग की वस्तुओं को उपलब्ध कराय बिना, उन्हें गरीबी रेखा से ऊपर उठाये बिना उनकी आत्मोन्नति कैसे सम्भव हो सकती है?

उत्तर : हमारा ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं है कि गरीबों की दरिद्रता को दूर करने की चेष्टा न कर, केवल  उनकी आत्मोन्नति की चेष्टा ही करनी होगी। श्रीरामकृष्ण एवं स्वामी विवेकानन्द दोनों ने कहा है- ' खाली-पेट में  धर्म नहीं होता है।' गरीबों की दरिद्रता को दूर करने की चेष्टा अवश्य करनी होगी. किन्तु यही करना महामण्डल का प्राथमिक कार्य नहीं है। हमलोगों का प्राथमिक कार्य है- युवाओं की आत्मोन्नति, जीवन-गठन, उनके चरित्र का निर्माण करना। 

यदि इसी कार्य को बहुत बड़े पैमाने पर, देश के गाँव-गाँव में फैला दिया जाय तो ऐसे बहुत से योग्य मनुष्य निर्मित हो जायेंगे, जो अपने विभिन्न कार्यों को पूरी कर्तव्यनिष्ठा के साथ सम्पादित करेंगे, उनके स्वाभाविक कार्यों के द्वारा भी देश की दरिद्रता, अज्ञानता इत्यादि बुराइयाँ बहुत हद तक दूर होंगी।हमलोगों के देश में स्वाधीनता प्राप्ति के इतने वर्षों बाद भी इस बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया है, इसीलिए देश में इतनी दरिद्रता है, समाज में अच्छाई के बदले हर क्षेत्र में अनैतिकता ही दिखाई दे रही है.

स्वामीजी ने देश की उन्नति के लिए जो परामर्श दिए थे, भारत के पुनर्निर्माण के लिए जैसी उनकी योजना (Be and Make ) थी-वह सब किसी के सिर में घुसी नहीं, या किसी ने उन्हें स्वामीजी से सीखने की भी चेष्टा नहीं की.इसीलिए यह सब घोटाला मच रहा है. दरिद्रों को उपभोग की वस्तुओं देने की योजनाओं के द्वारा भ्रष्टाचार मिटाना संभव नहीं है। यदि गरीबी दूर करने की योजनाओं (नरेगा आदि) को चलते रहने से, उस कार्य में लगे- पढ़े-लिखे, ऊँची डिग्री प्राप्त, अफसर,नेता, कर्मचारी, व्यापारी लोग भी ईमानदार भी बन जाते, तो क्या भ्रष्टाचार दूर होने में ६४ वर्ष लग जाते ? राष्ट्र-गठन का प्राथमिक कार्य है-चरित्र-निर्माण !परिप्रश्नेन 

गरीबों तक उनका हक या उचित सहायता राशी कौन पहुँचायेगा? वैसा ईमानदार मनुष्य कहाँ से आयेगा ? रुपया कहाँ से आयेगा ? सरकार के खजाने में उतना रुपया है ? भारतवर्ष तो दिवालिया होने की कगार पर खड़ा है ! देश के उपर  हजारों कड़ोड़ रुपयों के विदेशी ऋण में क्रमशः वृद्धि हो रही है. देश के लोग अपने देश के प्रति 
 कर्तव्यनिष्ठ नहीं हैं, देश से प्रेम नहीं करते, काले धन के प्रेमी हैं। इसीलिए तो ऐसी अवस्था हो गयी है. यदि किसी उपाय से देश के लोगों का, युवाओं का चरित्र निर्मित हो जाये, वे लोग यदि कर्तव्यपरायण हो, वे यदि देशवासियों से प्रेम कर सकें, और यदि ऐसे युवा हजारों की संख्या में निर्मित कर लिए जाएँ, तभी देश की दशा में परिवर्तन हो सकता है।
इस प्राथमिक कार्य (युवाओं का चरित्र-निर्माण ) को किये बिना, जिनके पास खाने के लिए नहीं है,  उनको थोडा सस्ता राशन देने, या जिनको सिर छुपाने की जगह नहीं है, उनको थोडा सस्ता आवास बना देने से, देश की कभी उन्नति नहीं होती, होना संभव भी नहीं है. यदि होना संभव होता, तो क्या ६४ वर्ष यूँ ही बीत जाते ? 

मेधा की अभिव्यक्ति में तारतम्य क्यों दिखाई देता है?[11]

११प्रश्न : यदि प्रत्येक मनुष्य के भीतर एक ही शक्ति रहती है, तो कोई व्यक्ति जन्म से ही कम शक्तिशाली या कम मेधावी एवं कोई अधिक क्यों होता है ?
उत्तर : मानलो १००० शक्ति का एक बल्ब जल रहा है. उसके उपर एक पतला सादा कागज रखो, उसका प्रकाश कुछ कम हो जायेगा. एक मोटे कागज को रखने से और भी कम हो जायेगा. एक मोटा काला कागज से ढँक  दिया जाय तो हो सकता है, प्रकाश बिल्कुल भी बाहर न निकल सके;  तो क्या हम ऐसा कह सकते हैं, कि भीतर में स्थित प्रकाश की शक्ति कम हो गयी है ? वह तो एक ही है. आन्तरिक शक्ति तो सभी मनुष्यों में एक समान है, पर उसके उपर जो आवरण (मन) पड़ा है, उसकी स्वच्छता में तारतम्य है।

उसी प्रकार हमलोगों की आन्तरिक शक्ति के उपर एक आवरण पड़ा रहता है-वह सबों में एक समान नहीं है, किसी का कम है, किसी का अधिक है. इसीलिए शक्ति या मेधा की अभिव्यक्ति में तारतम्य क्यों दिखाई देता है. किन्तु इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया जा सकता कि हमलोगों की आन्तरिक शक्ति के स्रोत के उपर आवरण  क्यों  पड़ जाता है ?  इस आवरण को ही अज्ञान (अविद्या) कहते हैं.
 तारतम्य होने का कारण है, प्रत्येक व्यक्ति इस आवरण को दूर करने की चेष्टा कर रहा है, किन्तु इसमें जो जितना सक्षम हुआ है, उसकी उतनी शक्ति या मेधा की अभिव्यक्ति हुई है. जन्म के समय से ही जो असमानता दिखाई देती है, उसका कारण है- अपने पूर्व पूर्व जन्मों में इस आवरण को उद्घाटित करने की चेष्टा में जो व्यक्ति जितना सफल हुआ है, उसका आवरण उतना ही पतला हुआ है, जिसके फलस्वरूप शक्ति या मेधा में जन्म से ही तारतम्य दिखाई देता है.
इसलिए, इस बात को जानकर,कि वास्तव में अक्षय-उर्जा (कभी न खत्म होने वाली असीम शक्ति का भण्डार ) हमारे ही भीतर है; यदि हमलोग उसको उद्घाटित करने का निरन्तर प्रयास करें तो आखरी तक (अध्याय के अंत में) हम सभी लोग अनन्त शक्ति के, अनन्त मेधा के अधिकारी हो सकते हैं.
 इस विश्वास को सम्बल बनाकर यदि हमलोग प्रयास करते रहें, तो क्रमशः आवरण झीना होता जायेगा एवं अपनी अन्तर्निहित दिव्यता की अनुभूति होते रहने से हमारा इसके उपर विश्वास क्रमशः दृढ़तर होता जायेगा.

धर्म का अर्थ है-चरित्र. [10]

१०प्रश्न : धर्म से हमलोगों का क्या उद्देश्य सिद्ध होता है ?
उत्तर : धर्म का अर्थ हमलोगों के लिए मन्दिर,मस्जिद,गिर्जा में जाना या ललाट में तिलक लगाना, या रामनवमी के दिन माथा में लाल कपड़ा बांध कर ' जय श्रीराम ' कहते हुए डण्डा-तलवार भांजना नहीं है; यहाँ जिस नये धर्म पर चर्चा हो रही है, वह धर्म कहता है कि हमलोग किस प्रकार ' पशु-मानव ' से यथार्थ मनुष्य में या ' देव-मानव ' में रूपांतरित हो सकते हैं ? स्वामीजी ने कहा है- धर्म का अर्थ है, स्वयं अच्छा बनना तथा अच्छे कार्य करना. इसीलिए धर्म के द्वारा ही हमलोगों का समस्त उद्देश्य सिद्ध हो सकता है. धर्म क्या है 
धर्म का अर्थ है-चरित्र. स्वामीजी ७ जून १८९६ को भगिनी निवेदिता को लिखित पत्र में कहते हैं- " संसार के धर्म प्राणरहित उपहास की वस्तु हो गये हैं. जगत को जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह है चरित्र ! संसार को ऐसे लोग चाहिए, जिनका जीवन स्वार्थहीन ज्वलन्त प्रेम का उदाहरण है." (४/४०८) 
स्वामीजी की उक्ति है- ' धर्म का तात्पर्य है, Be good and do good, this is the whole of religion.' धर्म का अर्थ है-स्वार्थशून्यता. वे कहते हैं- Unselfishness is God. - निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है. 
 इस प्रकार के धर्म की आवश्यकता निश्चित रूप से आज के समाज में है. धर्म का अर्थ है चरित्र अर्जन करना।
धार्मिक मनुष्य या चरित्र-वान मनुष्य बन जाने का अर्थ है- विशाल ह्रदय का अधिकारी बन जाना. पशुत्व को हटाकर, मनुष्यत्व को अर्जित करना. ऐसा बृहत,ऐसा महिमामय, ऐसा सुंदर, ऐसा उदार, ऐसा शक्तिशाली,तना तेजस्वी मनुष्य बन जाना, कि स्वयं को कभी, किसी भी परिस्थिति में मामूली  मनुष्य ( या मन का
 गुलाम मनुष्य ) जैसा अनुभव नहीं करूँगा, निरन्तर ऐसा अनुभव होगा मानों मैं देव-मनुष्य में रूपांतरित हो चुका हूँ. 
इस धर्म की आज घोर आवश्यकता है, एवं इस धर्म में कमी आने से ही आज के समाज में इतना अकल्याण दिखाई दे रहा है.

' नागरिकों का चरित्र-निर्माण किये बिना महान भारत के सपने देखना '

९प्रश्न: क्या केवल एक एक व्यक्ति की उन्नति होने से समाज की सामग्रिक उन्नति होना कभी संभव हो सकता है  ?
उत्तर : मैं थोड़े में उत्तर देने की चेष्टा करता हूँ. व्यक्ति के मन को 
परिवर्तित करने या संयमित रखने में प्रगति करने के साथ ही साथ सामाज की सामग्रिक उन्नति हो ही जाएगी, ऐसी कोई बात नहीं है। किन्तु यह बात बिलकुल तय है कि- 'व्यक्ति'  की उन्नति न होने से ' समाज ' की उन्नति कभी नहीं हो सकती है।  क्योंकि व्यक्तियों के द्वारा ही समाज बनता है. 

व्यक्ति यदि स्वयं नीचे (पशु अवस्था में ) पड़ा रहे तो समाज कभी उन्नत नहीं हो सकता है। किन्तु यदि किसी समाज में कुछ थोड़े से व्यक्ति ही उन्नत हों, तो उतने से ही समस्त समाज उन्नत होगया -ऐसा नहीं कहा जा सकता है। ' नागरिकों का चरित्र-निर्माण किये बिना महान भारत के सपने देखना ' अव्यवहारिक विचार है।

 यदि बहुत से लोग व्यक्तिगत तौर पर उन्नत हो चुके हैं, तो समाज अवश्य उन्नत हो जायेगा।क्या केवल व्यक्ति की उन्नति समाज को उन्नत बनाने में सहायक हो सकती है? अवश्य हो सकती है. क्योंकि व्यक्ति के उन्नत होने से ही उसका प्रभाव समाज के उपर अवश्य पड़ता है। तथा व्यक्ति की उन्नति नहीं होने से समाज की उन्नति कभी नहीं हो सकती. 
व्यक्ति जिस अवस्था में पड़ा हुआ है, उसे वैसा ही पड़ा छोड़ कर केवल समाज की उन्नति की परियोजना बनाना हवा में महल खड़ा करने जैसा है, पूरी तरह से ' Utopian-idea ' (अव्यवहारिक विचार) है, वैसा कभी नहीं हो सकता है।

ज्ञान के प्रति प्रेम उत्पन्न करो

८प्रश्न : मैं कभी कभी पढाई-लिखाई करने में आनन्द खो देता हूँ, ऐसा लगता है कि यदि पढाई-लिखाई नहीं करनी पड़ती तो अच्छा होता.लेकिन यह भी समझता हूँ कि पढाई-लिखाई करना आवश्यक है. इसीलिए यह जानना चाहता हूँ कि कैसे पढ़ते-लिखते समय भी आनन्द प्राप्त कर सकता हूँ, तथा कैसे पढ़ाई-लिखाई एवं समस्त कार्यों को खेल जैसा बना कर कर सकता हूँ.यदि मैं इसे जान जाऊंगा तो मेरे ही जैसा दुसरे जो लोग इस कठिनाई को भोग रहे हैं, तो उन्हें भी बता सकूँगा.
उत्तर : तुम यह बात समझते हो कि पढाई-लिखाई करना आवश्यक है. जिस कार्य कोबोझ उठाने जैसा 
मजबूरी में  आवश्यक समझ कर करना पड़ता हो, उसे करने में क्या आनन्द प्राप्त हो सकता है ? किसी प्रिय या मनचाही वस्तु को प्राप्त करने से ही आनन्द प्राप्त हो सकता है.

इसीलिए तुम यदि ज्ञानलाभ करने के प्रति लालायित हो सको, ज्ञान के प्रति प्रेम उत्पन्न कर सको, तभी तुम पढ़ने में आनन्द प्राप्त कर सकते हो. और यदि यह समझ कर पढना-लिखना जरुरी समझता हूँ कि - यदि नहीं पढूंगा तो आमदनी नहीं होगी, अच्छी कमाई नहीं होने से अच्छा खाना नहीं मिलेगा, भोग की वस्तुएं नहीं मिलेंगी; इस प्रकार की धारणा रहने से पढ़ने में आनन्द नहीं मिल सकता है. 

पहले स्वयं इस तथ्य को समझने की चेष्टा करो. जिस बात को तुम स्वयं नहीं समझते, उसे दूसरों से सुन कर, किसी अन्य को समझाने के लिए अधीर मत बनो. पढ़ने-लिखने का उद्देश्य है- ज्ञान की प्राप्ति करना. जीवन को सुगठित करना तथा उसका सदुपयोग करना चाहते हो, तो उसके लिए ज्ञान आवश्यक है. किसी उद्देश्य को सामने रख कर, उसे प्राप्त करने के लिए जो कुछ किया जाता है, उसे कार्य कहते हैं. खेलने में कोई उद्देश्य नहीं रहता. इसलिए पढ़ने का कार्य खेल के समान नहीं हो सकता है. 
 
 खेलते समय उद्देश्य के बिना भी आनन्द प्राप्त होता है. जिस कार्य का उद्देश्य महान होता है, उस कार्य में सफल होने पर आनन्द प्राप्त होता है. इसीलिए कार्य करके जो आनन्द प्राप्त होता है, वह खेल से मिलने वाला आनन्द जैसा नहीं होता. इन सब बातों को महामण्डल की पुस्तिकाओं तथा ' विवेक-जीवन ' में लगातार पढ़ते रहने से, बहुत कुछ जान सकते हो. इन सबको मन लगा कर पढना.

औचित्य-बोध को निरन्तर जागरूक रखना चाहिए

७ प्रश्न : किसी अशुभ प्रभाव (पाश्चात्य भोगवादी संस्कृति के बढ़ते प्रभाव ) से मन की रक्षा कैसे कर सकता हूँ ? 
उत्तर : महामण्डल में जीवन-गठन की पद्धति के उपर चर्चा की जाती है, उस पद्धति को धीरे धीरे जानने की चेष्टा करनी होगी. महामण्डल द्वारा प्रकाशित पुस्तकों के अध्यन से भी इन विषयों को समझा जा सकता है. इनमें बताये गये सभी अभ्यासों को समग्र रूपसे तथा नियमित रूपसे जीवन में उतारने का प्रयास करें, तभी हमलोग अशुभ प्रभाव से मन की रक्षा कर सकते हैं.
अशुभ प्रभाव से मन को बचाने का कोई एक फ़ॉर्मूला निर्धारित कर देना संभव नहीं है. यदि हमलोग सर्वदा अपने जीवन को शुभ या मंगल की ओर लेजाने के लिए प्रयासरत रहें, तभी अशुभ प्रभाव हमलोगों के उपर कम पड़ेगा. इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है.
हमलोग जो कुछ कर रहे हों, जो कुछ  सोच रहे हों, जिसकी संगति में रहते हों, जैसे परिवेश में हमें रहना पड़ता हो, वह सब यदि अच्छा नहीं हो, तो वह कहीं मेरे मन को कहीं प्रभावित न करदे -इसके लिए सर्वदा हमलोगों को अपना विवेक स्वयं जाग्रत रखना होगा, औचित्य-बोध को प्रतिमुहूर्त जगा कर रखना होगा. ऐसे सतत विवेकी मन के चारों ओर दृढ-संकल्प का एक मानसिक कवच धारण किये रहना होगा- मन को अशुभ प्रभाव से बचाने का यही उपाय है.
 इसके लिए हमलोगों के मन में एक स्पष्ट धारणा होनी चाहिए कि हमारे लिए शुभ या मंगलकर क्या है, फिर उस धारणा पर अटल रहने के लिए संकल्प में दृढ रहना भी आवश्यक है. क्योंकि कभी कभी औचित्य-बोध याद रखता हूँ, कभी कभी भूल जाता हूँ -यदि ऐसी ढुल-मुल इच्छाशक्ति हो जाती हो, तो वैसे मौके पर अशुभ प्रभाव मेरे उपर पड़ भी सकता है.
इसीलिए सर्वदा शुभ या मंगल विचारों को ही मन में प्रविष्ट होने देना चाहिए, विवेक या औचित्य-बोध को निरन्तर जागरूक रखना चाहिए, तथा अपने जीवन को सुंदर रूप से गठित करने के दैनन्दिन अभ्यास में कभी ढिलाई दिए बिना, अध्यवसाय के साथ स्वयं को मंगल की ओर ले जाने की चेष्टा करते रहने से, स्वयं को अशुभ प्रभाव से बचाया जा सकता है.

बुरी लत को छोड़ने का उपाय है-' वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम '. [***6] परिप्रश्नेन

६ प्रश्न : किन किन उपादानों के समन्वयन से चरित्र का निर्माण होता है ? यदि कोई व्यक्ति किसी खराब-आदत का अभ्यस्त हो चूका हो, तो क्या उससे छूटने का कोई उपाय है ?
उत्तर : हमलोगों की आदतों की समष्टि को चरित्र कहते हैं.विभिन्न विषयों से प्रेरित होकर हमलोग बार बार विभिन्न कार्यों को करते रहते हैं; एवं जिन क्रियाओं को हमलोग बार बार दुहराते रहते हैं, वे पहले आदत फिर रुझान या प्रवृत्ति में रूपान्तरित हो जाती हैं। 
  
 ' प्रवृत्ति में रूपान्तरित हो जाती हैं ' - से क्या अर्थ निकलता है ? अर्थात, हमलोग जो कोई भी कार्य करते हैं, हमारे मन पर उसकी एक लकीर या छाप पड़ जाती है, तथा एक ही छाप यदि बार बार पड़ती रहे, तो क्रमशः वह छाप या लकीर और अधिक गहरी होती जाती है,उसी को प्रवृत्ति (a pattern of behavior acquired through frequent repetition) कहते हैं।

 जिस प्रकार कैमरा से फ़ोटो खींचा जाता है. जैसे time देकर फ़ोटो खींचना नहीं कहते हैं ? आजकल तो एक सेकण्ड में ही फ़ोटो निकल आता है, पुराने जमाने में समय देकर खींचा जाता था. पहले से ही फोटोग्राफर अंदाज लगा लेता था कि कितना समय लगेगा- दो सेकण्ड, पाँच सेकंड, या दस सेकण्ड.जिस स्थान में रौशनी कम रहती है, वहाँ aperture को दस सेकण्ड तक खुले रखना पड़ता है. जितनी अधिक देरी तक खुला रहेगा, उतनी अधिक रौशनी पड़ेगी, फ़ोटो भी उतना ही साफ़ आएगा.
 मन एक कैमरा जिसमे पाँच लेन्स लगे हैं।
हमारा मन भी एक कैमरा के जैसा है. कैमरा में केवल प्रकाश पड़ता है, उसके सामने पाँच lens लगे हैं. पाँच प्रकार के lens से पाँच प्रकार के विषयों की छाप मन ग्रहण कर सकता है. रूप (प्रकाश), रस,गंध,शब्द, स्पर्श -इत्यादि पाँच इन्द्रियों के पाँच विषयों के बारे में तुमने पहले भी सुना होगा, जिसके चंगुल में फंस कर ' अली-मृग-मीन-पतंग-गज ' जैसे प्राणियों का जीवन नष्ट हो जाता है।

 किसी बुरी-आदत की लत या प्रवृत्ति ( tendency)  पड़ जाने का अर्थ क्या हुआ ?  कोई बुरा कार्य ( जैसे केवल भोग करने की इच्छा से आहार,निद्रा,भय,मैथुन ) - की छाप बार बार पड़ी है. विवेक-प्रयोग या औचित्य-बोध
 के साथ इन पांच विषयों का सदुपयोग न करके दुरूपयोग करने से, अर्थात अत्यधिक भोग के लालच में संयम छोड़ देने से ( अर्थात पाँच यम और पाँच नियम का पालन नहीं करने से ) किसी एक ही विषय-भोग की छाप बार बार पड़ती रहती है. 
 इसीलिए बुरे कार्यों के संस्कार (पाशविक-संस्कार)गहरे हो गये हैं, और चित्त में बैठ गये हैं, चित्त में प्रविष्ट हो जाने के कारण खराब कार्य को बार बार करने की एक (पाशविक) प्रवृत्ति ( tendency) हो गयी है। 


किसी खराब-आदत की लत लग जाने का अर्थ क्या हुआ ? किसी बुरे कार्य ( केवल भोग करने की इच्छा से आहार,निद्रा,भय,मैथुन- की छाप बार बार पड़ी है. इसीलिए खराब कार्य के संस्कार (पाशविक-संस्कार)गहरे हो गये हैं, और चित्त में बैठ गये हैं, चित्त में प्रविष्ट हो जाने के कारण खराब कार्य को बार बार करने की एक (पाशविक) प्रवृत्ति ( tendency) हो गयी है। 

पेन्सिल से कागज पर लिखने के बाद उसपर रबड़ रगड़ने से वह मिट जाता है, किन्तु पेन से लिखने के बाद स्याही मिटाने का अलग रबड़ आता है, किन्तु उससे मिटाने पर भी, अच्छी तरह से नहीं मिटता. उसी तरह Photographic  plate या film के उपर यदि प्रकाश पड़े और एक फ़ोटो यदि उस पर खिंच जाये, तो उसको फिर कितना भी eraser से रगड़ा जाये वह भी कभी नहीं मिटता. उसके उपर यदि कोई दूसरा फ़ोटो गोंद से चिपका दिया जाय तो निचले भाग पर खींचे फ़ोटो का केवल छाप पड़ता है. 

मन के क्षेत्र में भी ठीक वैसा ही होता है, कोई खराब आदत यदि एक बार मन में जाकर बैठ गयी, तो फिर उसको वहाँ से निकाल बाहर करना संभव नहीं होता.मन-वस्तु या ' चित्त ' के उपर जिन लकीरों
 की गहरी छाप एक बार पड़ जाती है, उनको फिर मिटाया नहीं जा सकता है. क्योंकि हमलोग मन के surface-में तो हम पहुँच नहीं सकते, कि हम उसको वहाँ से rub करके, या अन्य किसी तरीके से उसको बाहर निकाल सकें ! यदि हम चित्त को ही बाहर निकाल सकते, तो फिर मन को लगा कर फिर कोई कार्य करना भी संभव नहीं हो सकता.


[ Darwin has been widely acclaimed in biology because of his theory of evolution. According to him, the light of life passes over millions of years through the earliest creatures to reach the human form of present day. 

There is a wonderful mention of this long journey of creatures:

" कई जनम भये कीट पतंगा,
कई जनम गज मीन कुरंगा |
कई जनम पंखी सरप होइओ,
 कई जनम हैवर ब्रिख जोईओ|
मिलु जगदीस मिलन की बरीआ,
चिरंकाल यह देह संजरीआ |
कबीर मानुस जनमु दुर्लभ है, होय ना बारे बार..|
जिउ फ़ल पाके भुइ गिरे बहुर न लागे डार||"
 बुरी लत ( केवल खाना, सोना, डरना, और वंश-विस्तार में लगे रहने की लत) लग जाने के कारण ही हम लोग न जाने कितने जन्मों तक कीट-पतंगा के रूप में जन्म लिये है। कई जन्मों तक पंछी,सर्प, हाथी, मछली या हिरण बन कर जन्मे हैं। कई जन्मों तक घोड़ा और वृक्ष के रूप में रहना पड़ा है, इसी प्रकार चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद, यह देव-दुर्लभ मनुष्य का शरीर मिला है। 

For many lives was the form of worms and wasps. For many lives was the form of elephant, fish or deer. For many lives was the form of birds and serpents. For many lives was the form of horses and trees. For many lives was the form of vegetation and Passed through eighty-four lakhs types of lives.

 एक दिल लाखों तमन्ना ,उस पे और ज्यादा हविस ...?
फ़िर ठिकाना है कहाँ- उसके ठिकाने के लिये !
जो जीवन को 100 बरस की वह पाठशाला मानते हों जिसमें हमें न सिर्फ़ इस भवसागर से पार होने का रास्ता खोजना है बल्कि उस स्कूल में दाखिला लेकर वह पढाई ( साधना ) भी पूरी करनी है.क्योंकि ज्ञानी-जन अच्छी तरह जानते हैं कि ये मानव देह हमें चार प्रकार की (अण्डज , पिण्डज , ऊश्मज ,स्थावर ) चौरासी लाख योनियों को जो कि लगभग साढे बारह लाख साल में भोगी जाती है ,के बाद मिलता है .
इतने कष्टों और इतने समय बाद मिले उस मानव शरीर को जिसके लिये देवता भी तरसते हैं . किस्से कहानियां लिखने पढने ,चैटिंग सेटिंग करने , भोग विलास के रास्ते तलाशने , आलोचना समालोचना करने , मन और देह की आवश्यकता् पूर्ति (जो कभी पूरी नहीं होती ) हेतु लगाये रखना वैज्ञानिक बुद्धि का परिचायक तो नहीं ही है . 
इसीलिये जो व्यक्ति ' देश-काल-निमित्त ' या अज्ञान के या माया के जाल (चक्रव्यूह) को काटने की पद्धति सीख कर जीवन-मुक्त ' द्रोणाचार्य ' गुरु या मार्ग-दर्शक नेता बन चुके हों, उन्हें यह पद्धति सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों को बतलानी चाहिए।
 सो हे माया-जाल चक्रव्यूह के निपुण द्रोणाचार्यों  ! { महामण्डल के ' नेतृत्व का अर्थ एवं गुण ' पुस्तिका का अध्यन तथा लीडरशिप ट्रेनिंग प्राप्त नेताओं !}
महामण्डल के मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन को भारत के  गाँव गाँव तक फ़ैलाने में इतनी तो मदद करो कि इस विषय-जाल को काटने का प्रशिक्षण ( मानसिक-एकाग्रता और चरित्र-निर्माण की पद्धति ) देने के लिए जहाँ जहाँ पर उन लोगों का कैम्प (प्रशिक्षण-शिविर ) लगा हो, या पाठ-चक्र चलता हो - वहां छात्रों युवाओं को भेजने की चेष्टा करो। " Be and Make "  " करो भला तो होगा भला " होगा को चरितार्थ करते हुये आप इतना तो कर ही सकते हैं]

इसीलिए एकमात्र उपाय है- उस खराब आदत के प्रतिपक्षी विचारों का बारम्बार चिन्तन करना.
पतंजली योग-सूत्र साधनपाद ३३ में कहा गया है- ' वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम '. 

 इसका अर्थ है, उस दोष (केवल भोग के लिए- आहार,निद्रा,भय, मैथुन की आदत) के विपरीत किसी सद्गुण (मानसिक एकाग्रता के द्वारा इच्छाशक्ति ) को बलपूर्वक बढ़ाने का निरंतर अभ्यास करना चाहिए. एक बुरी आदत हो गयी तो यह जानने के बाद, सद्गुण को अपनाने का बारम्बार अभ्यास करना होगा. मन की शक्ति
 को प्रयोग में लाकर, दृढ-निश्चय और प्रचंड इच्छाशक्ति के बल पर जो सद्कर्म हो, केवल उसी कार्य को करते रहना होगा. मैं देख पा रहा हूँ कि मुझसे कोई खराब कार्य हुआ है, जिससे मेरा चरित्र ख़राब बनने की ओर गया है, इसीलिए उसको बचाने के लिए मन में दृढ-निश्चय करके बलपूर्वक सद्गुणों का बारम्बार अभ्यास करके उनको बढ़ाते जाना होगा. 

[ स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " प्रतिमुहूर्त (यम-नियम का) अभ्यास करने की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि प्रत्येक कार्य से मानो चित्तरूपी सरोवर के उपर एक तरंग खेल जाती है. फिर क्या शेष रहता है ?- केवल संस्कार-समूह. मन में ऐसे बहुत से संस्कार पड़ने पर वे इकट्ठे होकर आदत के रूप में परिणत हो जाते है...मनुष्य का समस्त स्वाभाव इस आदत पर निर्भर करता है.हमारे मन में जैसी विचार-तरंगें खेल जाती हैं, उनमें से प्रत्येक अपना एक चिन्ह या संस्कार छोड़ जाती है.

 हमारा चरित्र इन सब संस्कारों की समष्टिस्वरुप है...जब सद्गुण प्रबल होता है, तब मनुष्य सत हो जाता है. यदि खराब भाव प्रबल हो, तो मनुष्य खराब हो जाता है. असत अभ्यास (बुरी आदत) का एकमात्र प्रतिकार है-उसका विपरीत अभ्यास. हमारे चित्त में जितने असत अभ्यास संस्कारबद्ध हो गये हैं, उन्हें सत अभ्यास द्वारा नष्ट करना (ढँक देना) होगा. 

 केवल सत्कार्य  करते रहो, सर्वदा पवित्र चिन्तन करो, असत संस्कार रोकने का बस, यही एक उपाय है. ऐसा कभी मत कहो कि अमुक के उद्धार की कोई आशा नहीं है. क्यों ? इसलिए कि वह व्यक्ति केवल एक विशिष्ट प्रकार के चरित्र का- कुछ आदतों की समष्टि का द्योतक मात्र है, और ये अभ्यास नये और सत अभ्यास से दूर किये जा सकते हैं. चरित्र बस, पुनः पुनः अभ्यास की समष्टि मात्र है, और इस प्रकार का पुनः पुनः अभ्यास ही चरित्र का सुधार कर सकता है. " (१/१२३)]


अर्थात मन को वश में लाने के लिए जिन ५ यम और ५ नियम का अभ्यास जीवन भर प्रतिमुहूर्त करना है, 
 जैसे ' अहिंसा ' किन्तु संसार में व्यवहार करते समय यदि उसका विरोधी भाव ' क्रोध ' मन में उठे, तब उसे कैसे वश में लाया जाय? उसके विपरीत एक तरंग उठा कर. उस समय ' प्रेम ' की बात मन में लाओ. कभी कभी ऐसा होता है कि पत्नी अपने पती पर खूब गरम हो जाती है, उसी समय उसका बच्चा वहाँ आ जाता है और वह उसे गोद में उठाकर चूम लेती है; इससे उसके मन में बच्चे के प्रति प्रेमरूप तरंग उठने लगती है और वह पहले की तरंग (क्रोध) को दबा देती है.प्रेम, क्रोध का विपरीतार्थक गुण है. उसी प्रकार जब मन में भोग का भाव उठे, तो भोग के विपरीत भाव त्यागी के बादशाह ' ठाकुर '  का चिन्तन करना चाहिए.(१/१७७)]

बारम्बार सत्कर्म करने से ही सद्गुणों को बढ़ाकर अच्छी आदतों में रूपान्तरित किया जा सकता है. वैसा होने पर वह नीचे तक पड़ने वाले गहरे संस्कारों की छाप बारम्बार बारम्बार पड़ते पड़ते इस खराब संस्कार को ढँक लेगी. तब खराब विचार मन में नहीं उठ पाएंगे. इसीलिए खराब चरित्र (पाशविक प्रवृत्ति ) होने से भी, यदि मन में चरित्रवान मनुष्य बनने की दृढ इच्छा हो तो अच्छा मनुष्य बना जा सकता है.


' चरित्र-निर्माण के पाँच मौलिक अभ्यास '[***5] परिप्रश्नेन

५. प्रश्न: यदि हम अपने जीवन को आदर्श रूप (मानवजाति के
 मार्गदर्शी नेता के रूप में ) में गठित करना चाहें, तो हमारे जीवन-गठन की कार्यप्रणाली कैसी होनी चाहिए ?
उत्तर: हमलोगों के यथार्थ मनुष्य बनने (जीवन-गठन, मनुष्य-निर्माण, या चरित्र-गठन ) की सम्पूर्ण कार्यप्रणाली को एक लाइन में ही नहीं कहा जा सकता है. जिन कार्यों के करने से हमलोगों का जीवन सुंदर रूप में गठित हो जाता है, उन्हीं कार्यों को महामण्डल के प्रत्येक केन्द्रों में किया जा रहा है. युवा प्रशिक्षण शिविरों में जीवन-गठन की पद्धति को सिखाने का प्रयास किया जाता है. 

महामण्डल की पुस्तिकाओं एवं संवाद पत्रिका  " Vivek-Jivan " (विवेक-अंजन) में इन्हीं सबका विश्लेष्ण करके जीवन-गठन की व्यवहारिक कार्यप्रणाली को युवाओं के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है. तथा जो कोई भी व्यक्ति, एक योग्य जीवन गठित करने के जिन दैनिक-अभ्यासों को करना आवश्यक है, उन्हें कोई करता रहे तो निश्चित रूप से उसका फल प्राप्त होता है. 

बहुत संक्षेप में कहा जाय तो, शरीर को स्वस्थ रखने के लिए प्रतिदिन थोड़ा व्यायाम करना आवश्यक है. अत्यंत सामान्य व्यायाम, जिसे खाली हाथों ही किया जाता है. उसी तरह हमलोगों को प्रतिदिन थोड़ा मनःसंयोग का अभ्यास करना भी आवश्यक है. मनःसंयोग करने का अर्थ ध्यान करना नहीं है. बहुत से लोगों में इसको लेकर भिन्न भिन्न धारणाएं हैं. 'ध्यान' एक भिन्न वस्तु है, मनःसंयोग अलग वस्तु है.  

किन्तु छात्र-जीवन में मनःसंयोग का अभ्यास करने से हमारा मन हमारे वश में आने लगता है, हमलोग अपने मन की गुलामी करने की बाध्यता से मुक्त हो जाते हैं। इसीलिये मनःसंयोग की पद्धति को सीखना समस्त विद्यार्थियों के लिये अनिवार्य विषय होना चाहिए। क्योंकि मनःसंयोग का अभ्यास किये बिना कोई भी व्यक्ति मन लगाकर पढने का कौशल नहीं सीख सकता। इतना ही नहीं वह परिवार, समाज या देश की सच्ची सेवा भी नहीं कर सकता.

 जब हम अपनी प्रयोजनीयता के अनुसार चयनित किसी एक ही विषय के उपर मन को एकाग्र रखने का अभ्यास करते हैं, तब हम मन की शक्ति (Will Power) को अर्जित करते हैं. मनःसंयोग का नियमित अभ्यास करते रहने से हमारी इच्छाशक्ति  अत्यंत बलवान हो जाती है, और वैसा हो जाने के बाद, हमारा मन हमारे वश में आ जाता है।तब हम अपनी इच्छाशक्ति को निर्देशित
 करके अपने जीवन को सुंदर रूप में गठित कर सकते हैं। मन हमें अपना गुलाम बनाकर अपनी इच्छानुसार व्यर्थ के विषयों दौड़ाते रहने  में असमर्थ हो जाता है।  

आमतौर पर जो व्यक्ति मनःसंयोग का अभ्यास नहीं करता, उसका
 जीवन कैसा होता है? मन हमें जिस ओर खींच कर ले जाना चाहता है, हमलोग उसी ओर जाने को बाध्य हो जाते हैं. हमलोग मन के गुलाम जैसा कार्य करते हैं. किन्तु यदि हम जीवन भर वैसे ही बने रहें, तो मन की अनन्त शक्ति का सदुपयोग करना संभव नहीं होता, और हमलोग
 अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाते हैं। मैं यदि मन को तथा अपनी शक्ति को अपनी इच्छानुसार किसी चयनित कार्य में नियोजित करने में सक्षम रहूँगा, तभी मैं जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता हूँ. किन्तु यदि मेरा मन ही मेरे वश में नहीं रहता हो, तो मैं अपने जीवन में कैसे सफल हो पाउँगा ?  

किन्तु मेरा मन मेरे वश में अनायास तो नहीं चला आयेगा ! इसके लिए दीर्घ दिनों तक नियमपूर्वक प्रयास करना आवश्यक है। जैसा बताया गया है, प्रतिदिन प्रातःकाल तथा संध्या के समय पाँच मिनट चुप-चाप सीधा होकर बैठने तथा मन को लगाने और हटाने का अभ्यास करने की आवश्यकता है. महामण्डल द्वारा हिन्दी में ' मनःसंयोग ' नामक पुस्तिका प्रकाशित हुई है जिसमें इस पद्धति को अत्यन्त सरल भाषा में समझाया गया है, जिसे कोई भी व्यक्ति बड़ी आसानी से समझ सकता है. 

मनःसंयोग का अभ्यास करने के साथ साथ एक अत्यंत छोटी, किन्तु अति मूल्यवान प्रक्रिया ' सर्वमंगल की प्रार्थना ' का अनुपालन करना भी अनिवार्य है. संसार के सभी मनुष्यों के मंगल की कामना करने के उपर अब पाश्चात्य के आधुनिक मनोवैज्ञानिक भी बहुत जोर देने लगे हैं। यह पद्धति हमारे देश में तो हमेशा से थी, किन्तु पाश्चात्य देशों के मनोवैज्ञानिक इसके महत्व को अभी समझ सके हैं. 

मनःसंयोग का अभ्यास शुरू करने से पहले, पूरी ईमानदारी तथा उत्साह के साथ पुरे मन से कहना चाहिए- ' हे प्रभु, संसार के सभी मनुष्य सुखी हों, सभी शान्ति और आनंद से रहें, सबों को ईश्वर की प्राप्ति हो ! सबो का कल्याण हो ! ' कोई भी मनुष्य इसका अपवाद नहीं होगा,किसी को बहिष्कृत नहीं मानना होगा. जिसको मैं अपना शत्रु समझता हूँ, जिसने अकारण ही मेरे चरित्र पर झूठा लांछन क्यों न लगाया हो, वह भी बहिष्कृत नहीं होगा.' जगत के प्रत्येक मनुष्य का भला हो '- इस बात को सदैव याद रख पाना ही अपने आप में एक बहुत बड़ी अध्यात्मिक उपलब्धी है ! इस उपलब्धी (अद्वैत निश्चय ) के समान मनुष्य के जीवन में कोई दूसरी बड़ी उपलब्धी नहीं है. 

जो व्यक्ति पूरे हृदय से जन-कल्याण या विश्व के सभी मनुष्यों का मंगल चाह सकता है, वह स्वतः अध्यात्मिक रूप से उन्नत हो जाता है. उसका हृदय बहुत विशाल हो जाता है. स्वामीजी कहते थे, जो व्यक्ति अध्यात्मिक जीवन का अधिकारी होता है, उसका हृदय स्वाभाविक रूप से बहुत विस्तृत हो जाता है.

आमतौर पर जैसे ही हम प्रार्थना करते हैं कि संसार के सभी मनुष्यों का भला हो, उसी समय उन एक-दो व्यक्तियों का विशेष रूप से हमारी आँखों के सामने कौंध जाता है, जिनको मैं थोड़ा नापसन्द करता हूँ, या जो लोग मेरे प्रति अकारण ही शत्रुता का भाव रखते हैं, मुझे बदनाम करते हैं या हानी पहुंचाते हैं, किन्तु ये भी बहिष्कृत नहीं होंगे. मुझे उनके कल्याण के लिए भी प्रार्थना करनी होगी- जो व्यक्ति ऐसा करने में समर्थ हो जाता है, उसकी शक्ति कितनी अधिक बढ़ जाती है, इस बात को वे कभी समझ ही नहीं सकते जो ऐसा कभी नहीं किये हैं. ऐसी सर्व-मंगल की प्रार्थना के लिए कोई आपकी खिल्ली भी उड़ा सकता है. किन्तु वैसा करके वे किसी बुद्धिमानी का परिचय नहीं देते. 

यदि किसी प्रक्रिया को अपनाने से उसकी प्रभावकारिता (effectiveness) स्पष्ट दिखाई देती हो, फिर भी अपने किसी पूर्वाग्रह के कारण उसे अस्वीकार कर देना- व्यक्ति के अवैज्ञानिक मनोभाव परिचायक है. किसी प्रक्रिया को अपनाने से यदि उसका अच्छा फल प्राप्त होता हो, उस प्रक्रिया से गुजरने वाले प्रत्येक व्यक्ति को निश्चित रूप से प्राप्त होता हो, तथा जितनी भी बार उस प्रक्रिया को दुहराया जाय उतनी बार एक जैसा ही फल प्राप्त होता हो, उस प्रक्रिया को जो व्यक्ति वैज्ञानिक सत्य के रूप में स्वीकार करता है, तो वैसा करके वह अपने वैज्ञानिक मनोभाव का परिचय देता है. इसीलिए व्यायाम, मनःसंयोग, तथा ' सर्व-मंगल की प्रार्थना ' की प्रभावकारिता (effectiveness ) को प्रयोग कर के तुम स्वयं भी देख सकते हो. इन तीनों प्रक्रियाओं को अपने दैनन्दिन अभ्यास में शामिल कर लेना बिल्कुल आसान भी है.  

इसके बाद प्रतिदिन कुछ अच्छी चीजों का अध्यन या स्वाध्याय भी करना चाहिए. अच्छी चीज-से तात्पर्य है, जिसमें जीवन-गठन करने में सहायक विचार प्राप्त होते हों, समय निकल कर उन्हें भी पढना. महामण्डल की पुस्तिकाओं तथा इसके मुखपत्र ' विवेक-अंजन ' एवं Vivek-Jivan में मनुष्य के शरीर, मन और ह्रदय (3H) को उन्नत करने की व्यवहारिक पद्धति एवं चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के सार-तत्व के उपर लगातार चर्चा की जाती है. इन सबको तथा स्वामी विवेकानन्द की छोटी-बड़ी किसी भी जीवनी के कुछ अंश को नियमित रूप से प्रतिदिन पढ़ कर यह समझने की चेष्टा करनी चाहिए स्वामी विवेकानन्द का जीवन कैसे गठित हुआ था.

इसके साथ साथ हमलोगों को स्वामीजी के यथार्थ सन्देशों से भी परिचित होने की चेष्टा करनी चाहिए.क्योंकि स्वामीजी के जीवन तथा संदेश के संबन्ध में आज भी हमलोगों के मन में बहुत सारी काल्पनिक धारणायें (Utopian ideas) भरी हुई हैं. स्वामी विवेकानन्द के जन्म के 150 वर्षों बाद भी हमलोगों में से कई लोगों को (विशेष तौर से हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ) विवेकानन्दजी के संबन्ध में कोई स्पष्ट धारणा नहीं है.(विवेकानन्द साहित्य के १० खण्ड इंटरनेट पर अंग्रेजी-भाषा में उपलब्ध है, किन्तु अभी तक हिन्दी में क्यों नहीं है ? ) 

 इसीलिए आज भी हिन्दी-भाषी क्षेत्रों के अधिकांश (पढ़े-लिखे भी ) व्यक्ति यही मानते हैं कि स्वामी विवेकानन्द विदेशों में हिन्दू धर्म को स्थापित कर आये थे. कुछ लोगों को ऐसा प्रतीत होता है कि वे हिन्दू-धर्म का प्रचार करने के लिए ही विदेश गये थे. ये सब केवल मनगढ़ंत (cock and bull जैसी ) भ्रान्त धारणायें हैं. 

वास्तविकता यह है कि स्वामी विवेकानन्द के सन्देशों में हमलोगों के लिए स्वयं को उद्घाटित (Discover) करने का सूत्र (Be and Make) दिया गया है। हमलोग स्वामी विवेकानन्द के सन्देशों का अध्यन करके  अपने आत्मविश्वास को जाग्रत करने की पद्धति सीख सकते हैं, उन अभ्यासों को अपनाने से यथार्थ मनुष्य बन सकते हैं, तथा जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द के सन्देशों में हमलोग अपने जीवन की अव्यक्त संभावनाओं (Latent potential) को प्रस्फुटित करने की विधि तथा आत्मश्रद्धा, इच्छाशक्ति में वृद्धि आदि शक्तिदायी विचारों को प्राप्त कर सकते हैं. 

किन्तु विवेकानन्दजी के सन्देशों को पढ़ने के लिए, कोई छात्र या युवा यदि प्रारम्भ में ही "विवेकानन्द साहित्य" या ' श्रीरामकृष्ण वचनामृत ' को प्रारंभ में ही नवागंतुक युवा भाइयों के बीच पाठचक्र में पढ़ना आरम्भ करेंगे तो, उन्हें समझने में थोड़ी कठिनाई हो सकती है. इसी बात को ध्यान में रख कर महामण्डल के हिन्दी मुखपत्र ' विवेक-अंजन ' तथा " VIVEK-ANJAN " में कुछ चुनिन्दा पुस्तकों की सूचि दी जाती है. स्वामीजी के सन्देशों को संकलित कर जो छोटी छोटी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, पाठचक्र में उन्ही पुस्तकों को पढ़ना प्रारम्भ किया जाय तभी स्वामी विवेकानन्द के विचारों में जो कई विशेष पहलु हैं, उसके मर्म (drift) के साथ हमलोग धीरे धीरे परिचित हो सकते हैं.

इन सब पुस्तकों को पढ़ लेने के बाद यदि बड़े ग्रन्थों को पढ़ेंगे, तब हमलोग उसके मर्म को समझने में सक्षम हो जायेंगे, तथा स्वयं यह जान जायेंगे की समग्र ' विवेकानन्द -साहित्य ', उसके दसो खंड कितने व्यवहारिक एवं उपयोगी हैं ! स्वामीजी ने ऐसे एक भी तत्व की बात नहीं कही है, जो हमारे जीवन को सुंदर ढंग से गठित करने में सहायक न हो. स्वामीजी के समस्त संदेश मनुष्यों के लिए अत्यन्त उपयोगी, जो मनुष्य को उन्नति करने में सहायता करते हैं. यदि कोई अध्यात्मिक तात्विक-ज्ञान मनुष्य के विकास में सहायक नहीं हो, मनुष्य के दुखों को दूर करने में सहायता नहीं कर सकता हो- तो वैसे तत्व का कोई मूल्य नहीं है.     

बुधवार, 23 मई 2012

' दूसरों के लिए जीना ! ' [***4] परिप्रश्नेन

४.प्रश्न : हमें अपने जीवन को किस मार्गदर्शी आदर्श उदाहरण (Archetype) के अनुरुरूप
 ढाल लेना  उचित होगा?
उत्तर : यदि जीवन के आदर्श उदाहरण को इतने संक्षेप में बताना हो कि उसे याद रखा जा सके, तो  स्वामीजी जैसा कहते थे वह है- ' केवल दूसरों का हित करने के लिए ही जीवन धारण करना सीखना 
'। क्या इससे बढ़ कर भी कोई अन्य बड़ा आदर्श हो सकता है ? इससे उच्च किसी आदर्श जीवन की कल्पना भी नहीं कि जा सकती। स्वामीजी ने बार बार इस कथन को दुहराया है.सामान्य तौर पर हमलोग अपने लिए जीते हैं. किन्तु स्वामीजी, समस्त मानवता के समक्ष एक अद्भुत आदर्श प्रस्तुत करते हैं- ' दूसरों के लिए जीना '! ऐसा होने से ही हमारा जीवन सार्थक होता है. 
 स्वामीजी मैसूर के महाराज को २३ जून १८९४ को लिखित एक पत्र में कहते हैं-" दिस लाइफ इज शार्ट, दी वैनिटीज़ ऑफ़ दी वर्ल्ड आर  ट्रांजिएन्ट,बट दे अलोन लिव हु लिव फॉर अदर्स,दी रेस्ट आर मोर डेड दैन अलाइव !"
" हे राजन, यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। यथार्थ रूप से वे ही जीवित हैं जो दूसरों के लिये जीवन धारण करते हैं। (जैसे निर्विकल्प- समाधि में जाने के बाद भी ठाकुर की आज्ञां से स्वामीजी बटवृक्ष बन दूसरों को छाया देने के लिये जीवन धारण किये थे.) बाकी लोग तो मृत से भी अधम हैं ! "(२/३६८)
 अर्थात सभी मनुष्यों का जीवन क्षण स्थायी ही होता है, एवं मनुष्य के जीवन के जीवन में जो अहंभाव (M/F होने का मिथ्या गर्व), दम्भ, अर्थ, रूप, संपत्ति इत्यादि के उपर जो गुरुर होता है, वह सब व्यर्थ है.क्योंकि एक दिन ये सभी समाप्त हो जाते हैं.अतः हमलोगों के जीवन का मानदण्ड (Archetype) रहना चाहिए - दूसरों की आवश्यकताओं को अपनी आवश्यकता से बढ़कर देखने की चेष्टा करना, तथा दूसरों के कल्याण के लिए यथासंभव प्रयास करना ।
 अपने जीवन को इतने सुंदर ढंग से गठित करना चाहिए कि हम उसे देशवासियों का कल्याण करने के कार्यों में (बरगद के वृक्ष के समान फल-मूल-वल्कल-दारु आदि सबकुछ को ) न्योछावर कर सकें. यही हमारे जीवन का मुख्य आदर्श होना चाहिए.

 इसके अतिरिक्त भी जीवन-आदर्श के बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है, किन्तु वह सब केवल बड़ी बड़ी बातें होंगी, उसमें काम के लायक विशेष कुछ नहीं होगा. यदि सब बातों का सार निकाला जाय तो उस सार के अनुसार यही है जीवन का सबसे बड़ा आदर्श. समस्त शास्त्रों का निष्कर्ष भी यही है, एवं स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं में भी हम यही पाते हैं.

' सारदा नारी संगठन ' [***3]परिप्रश्नेन

३. प्रश्न : क्या स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं के अनुरूप चरित्र-गठन करने का अधिकार केवल पुरुषों को ही है? महामण्डल के प्रशिक्षण शिविर में लड़कियों को भाग लेने का अवसर क्यों नहीं मिलता ?
उत्तर: नहीं, वैसा क्यों होगा ? स्वामीजी की शिक्षा के अनुरूप सभी चरित्र-गठन कर सकते हैं, लड़कियां भी कर सकती हैं. किन्तु लड़कियों को महामण्डल के युवा प्रशिक्षण शिविर में इसलिए भाग नहीं लेने दिया जाता क्योंकि स्वामीजी का वैसा ही निर्देश है. लड़के एवं लड़कियों को एकसाथ रखकर इस प्रकार का अनुष्ठान करने से स्वामीजी ने मना किया है, क्योंकि इससे हानी होने की सम्भावना है.

कई  स्थानों में महामण्डल केन्द्रों के साथ साथ जो महामण्डल केन्द्रों के सदस्यों की मातायें, बहने, दीदी लोग इस विषय के प्रति आग्रही होकर संगठित प्रयास कर रही हैं. उनसे कह दिया गया है, कि आप अपने कार्यक्रमों को स्वयं ही संचालित करें. वे लोग स्वामीजी के विचारों से उद्बुद्ध होकर श्रीश्री माँ सारदा देवी के आदर्श के सांचे में ढाल कर अपना जीवन-गठन करने का प्रयास कर रही हैं. इस समय भारत में कई स्थानों पर इस प्रकार की संस्थाएं ' सारदा नारी संगठन ' के नाम से बहुत अच्छा कार्य कर रही हैं.
इसीलिए केवल लड़के लोग ही एकमात्र अधिकारी हैं-ऐसा नहीं कहा जा सकता, लड़कियां भी समानरूप से अधिकारी हैं. किन्तु उन्हें अपना कार्यक्रम अलग आयोजित करने होंगे, लड़कों के साथ एक ही स्थान पर एकत्र होकर नहीं. वे स्वविवेक से अपने कर्क्रमों को संचालित करेंगी, लड़के लोग उनको निर्देशित नहीं करेंगे. लड़के एवं लड़कियों को एक स्थान में रख कर कार्य करने के लिए स्वामीजी ने मना किया है, इसीलिए महामण्डल शिक्षण शिविर में लड़कियों को भाग नहीं लेने नहीं मिलता है. 

स्वामीजी ने जिस प्रकार कार्य करने का निर्देश दिया है, उनके निर्देश की अवहेलना करके दुसरे ढंग से कार्य करने का साहस हममें नहीं है, वैसी कोई इच्छा भी नहीं है. क्योंकि उसका परिणाम अच्छा नहीं होगा. इसका बहुत उपयुक्त कारण है, इसीलिए स्वामीजी ने मना किया है. किन्तु इसका तात्पर्य लड़कियों को इस आदर्श से वंचित करना नहीं है.

एक साथ कार्यक्रम नहीं करने का अर्थ है नारियों के प्रति अधिक श्रद्धा का भाव रखना। नारियों को अधिक महत्व देना है. वे लोग इतनी हेय या तुच्छ नहीं हैं कि, हमलोग उनको संचालित करेंगे, या उनको अपने संरक्षण में रखेंगे. जबतक हमलोग स्वयं अपना जीवन सुंदर ढंग से गठित नहीं कर लेते तब तक लड़कियों के प्रति दूर से ही सम्मान दिखाना अच्छा है। उनको संचालित करने की बात सोचना भी ठीक नहीं है.

इस प्रकार के जीवन-गठन को समर्पित कार्यक्रमों में लड़के-लड़कियों को एक साथ रखकर कोई अनुष्ठान करना स्वामीजी नहीं चाहते थे. इसीलिए उन्होंने जब मठ का निर्माण किया था उसी समय कह दिया था कि स्त्रियों के लिए अलग से मठ बनाने की आवश्यकता है, किन्तु उनके मठ के संचालन में पुरुषों का कोई अधिकार या सम्पर्क नहीं होगा.
 उन्हीं के विचारों के अनुसार बाद में दक्षिणेश्वर में श्री सारदा मठ स्थापित हुआ, उस मठ का संचालन  वे स्वयं ही करती हैं. ठीक उसी प्रकार महामण्डल के बीच रहे बिना, इसके बाहर रहते हुए किन्तु एक ही उद्देश्य- ' जीवन-गठन ' को प्राप्त करने के लिए लड़कियां भी संघ-बद्ध होकर ' सारदा नारी संगठन ' के झण्डे तले अपने जीवन-गठन के कार्य को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रही हैं; तथा क्रमशः उनका संगठन बहुत सुन्दर रूप ले रहा है.