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बुधवार, 16 मई 2012

9.कवि अभेदानन्द की दृष्टि में देवी सारदा /pracharak Abhedananda

 9.कवि अभेदानन्द की दृष्टि में देवी सारदा 
 जगत-जननी श्री श्रीमाँ सारदादेवी का आविर्भाव २२ दिसम्बर १८५३ ई० को तथा उनका तिरोभाव २१ जुलाई १९२० ई० को हुआ था. इस मर्त्यलोक में उनकी देवी-लीला कुल ६७ वर्षों तक हुई है.  इतने लम्बे समय तक वे इस धरती पर रहीं फिर भी अपने स्वरुप को किसी के जानने-समझने नहीं दीं; क्योंकि श्रीरामकृष्ण की दृष्टि में वे 'अवगुण्ठनवती-देवी ' थीं. उन्होंने अपने को, जीवनभर अवगुण्ठन ( पर्दे ) में ढाके रखा था. उनका  वास्तविक स्वरुप जनमानस की आँखों से ओझल ही रह गया था. 
    शायद इस पर्दे में रहने के कारण ही उनको जानने और पहचानने में इतना बिलम्ब हो गया है. उनका प्रामाणिक जीवनचरित पाने में लभभग १०० वर्ष का समय लगा है. क्योंकि उनकी जन्मशतवार्षिकी पूरी हो जाने के बाद ही उनकी पूर्णांग-जीवनी ' श्रीश्री माँ सारदादेवी ' रचित हुई है.
 किन्तु १८८९ ई० में - उनके सशरीर उपस्थित रहते समय ही उनके अन्तर्निहित चारित्रिक वैशिष्ट का साक्षात्कार करके उनके एक योग्य संतान (स्वामी अभेदानन्द) ने संस्कृत भाषा की काव्यमय वाणी में उनके  स्वरुप उद्घाटित करते हुए ' सारदा-स्त्रोत्रम ' की रचना की थी। इतना ही नहीं श्रीश्री माँ ने, इस स्त्रोत्र को स्वयं सुना भी था, तथा यह बिलकुल ठीक रचित हुआ है, कह कर अपनी स्वीकृति भी दी थी. इसके बावजूद उनका  स्वरुप आज भी मानों अवगुन्ठित (आवरण के भीतर ) ही है, इसका कारण यह है कि आमतौर से लोग इस संस्कृत-रचना को केवल एक स्त्रोत्र, या प्रार्थना-संगीत के रूप में ही पाठ करके संतुष्ट हो जाते हैं। 
किन्तु जैसे जैसे दिन बीतते जा रहे हैं, एक एक करके उतना ही उनका स्वरूप उद्घाटित हो रहा है, वे नित्य नूतन स्वरूप मे उद्भाषिता हो रही हैं. तो फिर उनका वास्तविक स्वरूप क्या है? यह कौन बता सकता है कि इनमे से उनका वास्तविक स्वरूप कौन सा है? शायद केवल श्रीश्री माँ ही जानती हैं कि उनका सच्चा स्वरूप क्या है ? यदि कृपा करके वे स्वयम् नहीं समझा दें तो हम अपनी इस ससीम बुद्धि से उनके अनंत स्वरूप को किस उपाय से समझ सकते हैं ? वास्त्व में जो ' अरूपा ' हैं, वे  ' रूप ' धारण कर लेने के बाद भी, क्या किसी एक ही रूप में आबद्ध रह सकती हैं ?
उनके तो कितने शत-शत उनका रूप हैं ! ह्मलोग उनके कितने रूपों की पहचान रख सकते हैं ? या किसी एक रूप को पहचान लेने के बाद भी, जो मन-बुद्धि के अगोचर हैं, क्या उनके संपूर्णतः समझ पाना 
संभव है ? यदि वे स्वयम् अपने को पकड़ने नहीं दें, उनको पकड़ना संभव ही नहीं है.यदि वे स्वयं अपने को जानने ना दें कौन उन्हें जान सकता है? वे कृपा करके जिसको पहचनवा देती हैं, दया करके जिसको अपने गोद में 
उठा लेती हैं एवम् जीसको वे शक्ति देतीं हैं- केवल वही उनके  स्वरूप का उन्मोचन और उद्घाटन कर सकता है। या वे उनको माध्यम बना कर स्वप्रकाशित होती हैं।
                        जिनके माध्यम से वे पहली बार उन्मोचित तथा प्रकाशित हुईं थीं,  वे उन्हीं की स्नेह्धन्य सन्तान स्वामी अभेदानन्द जी थे. श्रीश्री माँ की कृपा से वे ही उनके उस  ' अवगुन्ठित स्वरुप ' ( या आवरण में छुपे-स्वरुप ) को उन्मोचित करने में समर्थ हो सके थे। जिस स्वरुप में रहते हुए, वे आज भी हमलोगों को नये नये तत्व से समृद्ध करती रहतीं  हैं। वे एक दिव्यदर्शी थे यह इस अन्तर्निहित स्वरुप-वर्णन से ही प्रमाणित होता है, तथा उनके भीतर एक विशेष शक्ति थी वह भी इस स्तुति के द्वारा स्पष्ट हो जाता है।
         इस अमितवीर्य के अधिकारी अभेदानन्द की काव्यप्रज्ञा के बारे में विचार करने से अवाक् हो जाना पड़ता है. जहाँ आध्यात्मसाधना और काव्य-साहित्य साधना समान रूप से प्रतिफलित है. उनकी यह विशिष्ट प्रतिभा आश्चर्य पैदा करती है. उनकी इतनी शक्तिशाली रचना के प्रभाव को देख कर, यह जानने की ईच्छा होती है कि आखिर वे किसकी शक्ति को प्राप्त करके इतने शक्तिशाली हुए थे ? उसी विस्मित करने वाली स्तुति-कविता का अवलम्बन करते हुए, इस निबन्ध को लिखने का प्रयास किया जा रहा है :
स्वामी अभेदानन्द भगवान श्री रामकृष्ण के अंतरंग लीला पार्षदों मे श्रेष्ठ थे. वे एक ही आधार मे तपस्वी, कवि, वक्ता, प्रचारक और लेखक थे. सन्यासी होकर भी उनकी दृष्टि किसी कवि के जैसी स्वच्छ, सलिल और अंतर्भेदी थी. उनकी कवि दृष्टि में ' देवी सारदा ' ही समस्त शक्तियों की मूल - 'परमा-प्रकृति' हैं.  
           श्रीश्री माँसारदा का यह रूप साधारण मनुष्यों के लिए प्रकाशित नहीं था, किन्तु कवि अभेदानन्द की दृष्टि में वह रूप पकड़ मे आगया है. उन्होने एकादश श्लोकों के मध्यम से अपने स्त्रोत्र में श्रीश्रीमाँ के उसी चित्र को अंकित किया है. श्रीश्रीमाँ वहाँ पर शक्ति स्वरूपिणी  हैं. इस स्तुति के भीतर से शक्तिमयी सारदा का यही स्वरुप प्रस्फुटित हुआ है.  
 मातृ-प्रकृति सारदा इस स्तुति को इसके रचयिता के मुख से सुन कर दिव्य भाव मे समाधिस्त हो गयीं थीं. इस काव्य चित्र में देवी का स्वरूप उद्घाटित हुआ है, एवम् देवी भी मानो इस स्त्रोत्र को सुन कर अपने वास्तविक रूप को पुनः  प्राप्त की थीं. इसीलिए वे अपने स्वरूप में अवस्थान करते हुए इसके रचयिता अभेदानन्दजी   को एक जप की माला देते हुए आशीर्वाद की थीं, तथा बोली थीं- ' तुम्हारे मुख में सरस्वती का वास हो! ' 
 स्त्रोत्र को पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है मानो सचमुच देवी का आशीर्वाद कवि के उपर वर्षित हुआ था. जिस प्रकार द्रष्टा ऋषियों ने देवी सूक्त में देवी-वन्दना की है, ठीक उसी प्रकार ऋषितुल्य अभेदानन्द भी ' सारदा-स्त्रोत्र ' में देवी सारदा  की अर्चना किये हैं.  कवि-अभेदानन्द की काव्यप्रज्ञा में भक्तिविगलित देवी ' सारदा ' की प्रतिमा इस प्रकार वर्णित हुई हैं-
" प्रकृतिम परमामभयां  वरदां, नररूपधरां जनतापहराम |
   शरणागतसेवकतोषकरीं, प्रणमामि परां जननीं जगताम || "१||
                         - परमाप्रकृतिस्वरूपा आद्या-शक्ति अपनी दिव्यसत्ता को ले कर स्वयं मानवी का रूप धारण करके इस जगत में आविर्भूत हुई थीं. उनका यह मातृरूप धारण - जगत के समस्त मनुष्यों के कल्याणार्थ हुआ था. लोकदुःखहारिणी के रूप में वे मनुष्य को अभय प्रदान करतीं हैं, इसीलिए उनका एक नाम है- ' अभया '.वही अभयप्रदा देवी पुनः लोक कल्याण कारिणी - वरदायिनी भी हैं, इसीलिए वे ' वरदा ' हैं. वे अपने शरणागत सेवक-भक्तों की आश्रयदाता-संतोषविधायनी जननी हैं.
कवि ऋषि अभेदानन्द ने साहित्यिक चेतना के साथ भाव की गंभीरता के साथ काव्य मंडित भाषा में इसी प्रकार इस प्रणम्य जननी के एक एक स्वरूप को उद्घाटित किया है. इस कविता की एक एक पंक्ति में तपस्या  से प्राप्त ध्यान-धारणा एवम् संस्कृत-साहित्यरस से स्निग्ध रसबोध का परम स्पर्श अनुभव किया जा सकता है.
       इस भावुक कवि की कवि सत्ता से उत्सारित अत्यन्त मनोहर सुषमा मंडित काव्य-प्रतिभा की तुलना कविश्रेष्ठ कालिदास के साथ करने की इच्छा होती है. इस भाव कवि ने भाषा के भीतर से अपनी श्रद्धा-भक्ति को पूरी तरह से उड़ेल कर रख दिया है.
अनुप्रासा अलंकार  के तारतम्यपूर्ण उच्चारण की उपस्थिति में. मूल ललित छन्द माधुर्य से देवी की करुणा  मूर्ति उद्भषित हो उठी है. अभेदानन्द  रचित स्त्रोत्र के आलोक में परम आराध्या जननी सारदा का  विश्व-जनीन मातृरूप इसी प्रकार पुनः पुनः उद्भाषित हो उठता है.उनकी कवि मानस में जगत् जननी का एक अन्य रूप इस प्रकार कौंध उठा है-
गुणहीनसुतानपराधयुतान,  कृपयाद्य समूद्धर मोहगतान् |
 तरनीं भवसागरपारकरीम, प्राणमामी पराम जननीम जगताम  ||
2||
     यहाँ पर शर्वशक्तिमयी देवी करुणामयी हैं. कृपा करके गोद मे उठा लेने के कारण उन्हें  कृपामयी कहा गया है. अपने गुणहीन सन्तान को भी गुणमय बना देती हैं. मोहाछ्न्न अज्ञानी मानव का उद्धार करने के लिए ही उन्होने मातृरूप में अवतार लिया है. अपराधी के दोष-त्रुटिको धोपोछ कर अपने गुण के अनुसार, वे उसे क्षमा कर देतीं हैं.  इसीलिए वे क्षमा-रूपा जननी  हैं.

इस भवसागर से नैया को पार कर देने वाली खेवैीया वे ही हैं. उनकी कृपा के बिना इस जगत-संसार रूपी समुद्र के पार उतरना असंभव है. इसीलिए उनसे प्रार्थना करते हैं- हे तरणी स्‍वरूपिनी जगत-जननी सारदा, कृपा कर के मुझे भी इस भव संसार-सागर के उसपार पहुँचा दो. साधक कवि अभेदानन्द भक्त के रूप में देवी-आराधना के व्रती हुए हैं. 
  महाशक्ति स्वरूपिणी देवी के शरण में जाना होगा, तभी कृपार्थी सन्तान उनकी करुणा से वंचित नहीं होंगे. वे करुणा की सागर हैं. उनके कृपा धारा की तरंग राशि निरन्तर निःसृत होती रहती है. उसमे अभिस्नात होने के लिए अनन्य शरणागति चाहिए. योगी-कवि अभेदानन्द इसीलिए इस स्तव-कविता की हरेक पंक्ति में स्मरण-मनन करके देवी-अर्चना का आभास दिए हैं. उन्होंने ध्वनि सुषमा के कवि चेतना से इस प्रकार स्तव साहित्य की रचना की है- 
विषयं कुसुमं परिह्रित्य सदा, चरणाम्बूरुहाआमृतशान्तिसुधां |
  पिव भृंगमनो भवरोगहरां, प्राणमामी परां जननीं  जगताम ||३||  
           कवि दृष्टि यहाँ पर भक्ति भाव से आप्लूत हो उठी है.  स्थूल विषयों पर से ध्यान हटा कर मन को सूक्ष्म परम तत्व मे परिलूप्त रखना चाहते है. यहाँ पर मन की तुलना भ्रमर के साथ की गयी है. विषय रूपी पुष्प का परित्याग कर के मातृ-श्रीचरण-पद्म मे मन भ्रमर का आश्रय स्थल निर्मित हुआ है. मन रूपी भंवरे से अनुरोध करते हैं, हे मनभ्रमर, चरण पुष्पों अमृत रस रूपी भवरोगनाशक शान्तिसुधा का पान करने मे सर्वदा मग्न रहो. मधुकर (मधुमक्खी )फूल के मधु बिंदू को छोड़ कर और कुछ आहार नहीं करती है, किन्तु अन्य मक्खियाँ सभी प्रकार के रसों को ग्रहण करती हैं.
 उसि प्रकार जिनका मन ईश्वर को समर्पित है, वे अन्य किसी संसारी वस्तुओं में अपना मनोनिवेश नहीं कर सकते. अर्थात भगवत् -तत्व का आस्वदन कर लेने के बाद इन्द्रिय-विषय तूच्छ हो जाते हैं। क्योंकि श्री माँ का  अमृतस्वरूप-तत्व, सर्वरोग-हरण करके मन को प्रशान्ति के कान्ति से परिपूर्ण कर देता है. साधक-कवि अभेदानन्द आत्म-चिन्तन करने मे मग्न एक मधुकर के जैसे हैं. नये नये तरीके से बार बार कविता-कली के छन्द-वैचित्र्य से केवल शरणागती के महत्व को ही प्रकाशित कर रहे हैं. फिर कभी ध्यानमग्न दृष्टि से कवि, इस प्रकार देवी की चरण-वन्दना करते हैं- 
 कृपां कूरु महादेवी सूतेषु प्रणतेषु च |
 चरणाश्रयदानेन कृपामयी नमोस्तुते  || ४||
     यहाँ पर पूर्ण शरणागती देखी जा सकती है. कवि देवी के श्री चरण कमलों के प्रति अपनी भक्ति को पूरी तरह से उड़ेल रहे हैं. व्यक्ति-सत्ता विकसित हो उठी है. उनके आत्मगत भावोच्छ्वास का विकिरण हो रहा है, अहम्-रन्जित शरणागती की स्पर्श से, मातृ-चरणों में अपनी भक्ति निवेदित करते हुए कह रहे हैं-हे महादेवी तुम्हारे श्रीचरणपद्म में नमस्कार है, ह्मलोगों की ओर अपनी कृपा दृष्टि फेरो - अपने श्रीचरणों में हमें आश्रय दो.यह छन्द मानो श्रीश्रीचण्डी में उक्त महामाया के प्रति देवताओं की स्तुति जैसा प्रतीत होता है, और   अभेदानन्द भी अपनी स्तुति-कविता में उसी घराने के ऋषि जैसे प्रतीत होते हैं। ठीक उसी प्रकार से  दया की प्रार्थना कर रहे हैं जिस प्रकार देवता लोग प्रार्थना करके देवी-अर्चना किए थे-
  " या देवी सर्वभूतेषु दया रूपेण संस्थिता |
                        नमस्तस्यै, नमस्तस्यै,  नमस्तस्यै नमो नमः || ( श्रीश्रीचण्डी, ५/६७ )
           सन्यासी के ध्यान नेत्रों के सामने मानवी सारदा का अंतर्निहित देवीत्व मानो उन्मोचित हो उठा है. ध्यानी अभेदानन्द की यह दृष्टि ईश्वरीय सायूजज्ता को प्रमाणित करता है. इस कवित्वपूर्ण रचना-शैली में उनके मनोमय अन्तरंगता के साथ देवी की भावतन्मयता की प्रज्ञा-मूर्ति प्रस्फुटित हो उठी है. कवि इस लेखनी-चित्र में श्रीश्रीमाँ की परम पवित्र भगवती तनु की दिव्य कांति को उकेर दिया है. उनका कवि जीवन् सार्थक है. किसी स्तव काव्य को इस प्रकार साहित्यरस के संयोग से पद-लालित्य में सराबोर कर ऐसा लीलाविलास-चित्र प्रस्फुटित  किया जा सकता है, यह अभेदानांदजी के ' सारदा-स्त्रोत्र ' को पढ़े बिना समझा नहीं जा सकता है. निःसंदेह रामकृष्ण-वेदान्त साहित्य के इतिहास मे, यह एक अमूल्य संयोजन है.
कवि अभेदानन्द की सूक्ष्म-भेदी मानसिकता के सामने एक और रूप प्रस्फुटित हो जाता है-
http://i.ytimg.com/vi/h8YteYRhGeM/0.jpg 
" लज्जापटावृते  नित्यं सारदे ज्ञानदायिके ||
        पापेभ्यो नः  सदा रक्ष कृपामयि नमोस्तु ते || ५||
 देवी सारदा लज्जावती थीं. स्वयम् को हर समय आवरण के पीछे रखती थीं. वे कभी अपनेको सबके सामने दिखाना नहीं चाहतीं थीं,लोगों की आखों से ओझल रहते हुए ही उन्होने देवी लीला की है. क्योंकि लोग यदि उनको पहचान लेते तो दिव्य लीला मे व्यवधान पड़ सकता था. इसीलिए वे सब किसी को अपना स्वरुप चट से समझने नहीं देतीं थीं.  श्री रामकृष्ण की भाषा में - ' वे रूप ढक कर आईं थीं.' बाद में कोई उनको पहचान सके, इसीलिए उनका यह छ्द्म्वेश था.
     रूपवती सारदा का वास्तविक रूप अप्रकाशित है. फिर भी अपरूपा सारदा इतने अलग अलग रूपों में रह कर भी अरूपा बनी हुई हैं. क्योंकि उन्हीं की एक अन्य देवी लीला में घोषणा की हैं-" मद्रुपा सकला स्त्रियः। " समस्त स्त्री-जाति उनका ही एक एक रूप है. जगत की प्रत्येक नारी के भीतर उन्ही की शक्ति प्रकाशित है. लज्जा शीला देवी अपने को लज्जा के आभूषण में ढके रखने पर भी, नारी रूप में वे सभी के सामने उद्भाषित हैं. इसी लिए श्री श्री चण्डी में देवता लोग श्री श्री देवी की स्तुति करते हुए कहते हैं-
" या देवी सर्व भूतेशु लज्ज़रूपेण संस्थिता|
                              नमस्तस्यै , नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः || (श्रीश्री चण्डी, ५/४६ )
    समस्त प्राणियों के भीतर देवी लज्जा रूप मे अवस्थित हैं. विशेष तौर से नारी का अर्थ ही लज्जा आवरण है. लज्जा ही नारी जाती का अलंकार है. यह अलंकार नारी के ' मातृत्व-व्यक्तित्व ' को सुन्दर से सुन्दरतर बना कर प्रस्फुटित कर देता है. यह लज्जा रूपी आवरण ही वह सर्वोत्कृष्ट शोभा है, जो नारित्व को मातृत्व में और, मातृत्व को देवीत्व में उन्नत कर देता है।
 रमणी सारदा लज्जा के आवरण में आवृता हैं. इस लज्जा अलंकार के भीतर से ही उनका विश्वजननी-रूप प्रकाशित होता है. इसी जगन-मातृत्व की शक्ति से वे अपने संतानों की पाप-राशि का हरण करके उन्हें ज्ञान दान करतीं हैं. वे लज्जा रूपी वस्त्र से स्वयं को ढांक कर, संतानों के मन में पवित्र मातृ भाव जाग्रत करा देतीं हैं। जिसके फलस्वरूप उनके उस रूप से ह्मलोग मातृ ज्ञान प्राप्त करते हैं.  
  द्रष्टा अभेदानन्द उनके इस मातृरूप पर मुग्ध होकर स्रष्टा- कवि में रूपांतरित हो गये हैं. इसीलिए यह मातृभावना उनके हृदय से काव्य रूप मे प्रस्फुटित हो रही है. मातृ वंदनाको परिपूर्ण रूप देने के लिए ही उन्होने इस स्तव गीत की रचना की है. यह केवल एक रचना ही नहीं है, यह मानो सूर-कवियों की देवी-अर्चना है:
 " या देवी सर्व भूतेशु मातृ रूपेण संस्थिता |
                          नमस्तस्यै, नमस्तस्यै,  नमस्तस्यै नमो नमः || ( श्रीश्रीचण्डी, ५/७३ )
  श्री श्री माँ सारदा देवी आज ह्मलोगों के लिए जगत जननी हैं. किंतु वे श्री रामकृष्ण की साधना-संगिनी बन  कर आईं थीं. याद्दपि वे सामाजिक रीति-नीति के अनुसार उनकी सहधर्मिणि हैं, तथापि वे श्री रामकृष्ण के ध्यान नेत्रों में जगन-मातृ स्वरूपिनी हैं. उनका विश्व जननी रूप एक एक क्षण में अलग अलग रूप प्रकाशित है.कवि दृष्टि लेकर स्रष्टा अभेदानन्द ने ' अनन्त रूपिणी सारदा ' का और एक रूप को छन्दों में इस प्रकार व्यक्त किए हैं-
 http://www.belurmath.org/style_script/site_images/thakur_hriday1.jpg
" रामकृष्णगतप्राणं तन्नामश्रवणप्रियां |
       तद्भावरंजिताकारां  प्रणमामि मुहुर्मू:  || ६||
      जननी सारदामणि का तन-मन-प्राण श्री रामकृष्ण में समाहित था. उनका चित्त सदा श्री रामकृष्ण में ही लिप्त रहता है. श्री रामकृष्ण का नाम सुनने से वे आनन्द का अनुभव करती हैं. उनकी श्रवण-इंद्रिय  श्री रामकृष्ण-नाम श्रवण करते ही आल्हदित हो जाता हैं. वे सर्वदा श्री रामकृष्ण-भाव में भाविता हैं. श्री रामकृष्ण के त्याग-रंग में रंजीता सारदा को बार बार प्रणाम निवेदन कर रहे हैं अभेदानन्द.
                   मौलिक-चिन्तन प्रसूत अनुभूति की प्रेरणा से अनुप्रेरित होकर वे काव्य-पूर्ण छन्दों में उनके स्वरूप का उद्घाटन कर रहे हैं. किन्तु रचयिता के सूललित कंठ-स्वर में छान्दिक-वन्दना के माधुर्य में, देवी सारदा इतना  खो जातीं हैं, कि केवल देवी-स्वरूप ही उद्घाटित नहीं होता; बल्कि वे अपने स्वरूप में ही अवस्थित हो गयी हैं. 
         साक्षात सारदा देवी के भीतर ही कवि की कल्पना का वास्तविक चित्र प्रस्फुटित हो जाता है. जैसे ही कवि अभेदानन्द अपनी जलद-गंभीर स्वर में आवृति शुरू करते हैं - " रामकृष्णगतप्राणं तन्नामश्रवणप्रियां | 
 उसे सुनते ही श्रोता सारदा समाधिस्ता हो जाती हैं.  स्तव-पाठ करते करते कवि जिस प्रकार रामकृष्ण-नाम में तन्मय हो गये हैं, ठीक उसी प्रकार माँ सारदा भी स्त्रोत्र सुनते सुनते रामकृष्णमय हो उठती हैं.
      उनका हृदय श्री रामकृष्ण-भाव सागर में प्लावित होने लगता है- वे अपने को और अधिक देर तक सम्हाले नहीं रख पातीं, स्वयम को भी भूल जाती  हैं. विश्व-जुड़ा उनके मातृ-हृदय मंदिर में स्वयम् श्री रामकृष्ण समाहित हो जाते हैं.कवि के अनुभूति-लब्ध भाषा में किया गया वह ' चरित्र-चित्रण', यथार्ततः ' चित्रायित ' हो उठा है; अनुभूति के परम-स्पर्श से- रूपक ने रूप धारण कर लिया है. 
कवि अभेदानन्द ने में अपनी लेखनी-चित्र में ऐसी एक निर्दोष  जीवन्त छवि को उकेरा था कि इस काव्य-चित्र में देवी की अंतर्निहित ध्यानमूर्ति- सचमुच व्यक्त रूप में प्रकट हो जाती है. इसिप्रकार अनुभूति के आलोक में अभेदानन्दजी के मानस नेत्रों के आगे विश्व रूपिनी सारदा मणि की एक एक माधुर्य मंडित मूर्ति उद्भासित हो उठी है,-
 
 पवित्रं चरितं यस्याः पवित्रं जीवनं तथा|
    पवित्रतास्वरुपिनैय तस्ययी देव्यो  नमो नमः || 

          द्रष्टा कवि यहाँ पर स्रष्टा बन जाते हैं. उनके ध्यान मानस में देवी का परम पवित्र जीवनचित्र झलक उठता है. इस स्तव-चित्र में शुद्धसत्व दिव्यसत्ता मे गठित मानवी-विग्रह सारदा देवी की पूत-तपः मूर्ति उन्मोचित हो उठी  है. कवि के ध्यान नेत्रों के सम्मुख तपस्विनी- जननी की पूत-पवित्र भावपूर्ण बना देने वाली ममतामयी ओजःशक्ति विकसित हो उठती है.
 तपस्विनी सारदा की हित-एषणा से समृद्ध होकर स्त्रोत्रकार बारम्बार  कृतज्ञता स्वीकार करते हैं. क्षमारूपा श्वेतशुभ्रा सारदा-सरस्वती के आगे वे खुद को दोषपूर्ण  सन्तान कह कर घोषित किए हैं. उनके सत्वगुण के पवित्र परम स्पर्श से सबकुछ विशुद्ध-पवित्र बन जाता है.वे शरणागत संतानों को तो ऐश्वर्य से भरपूर कर देतीं हैं. जबकि स्वयम उनमें ( माँ सरदा में ) ऐश्वर्य का लेशमात्र भी नहीं था.
  श्री रामकृष्ण की दृष्टि में पवित्रता-रूपिनी ये जननी- ' साक्षात सरस्वती ज्ञानदायनी थीं.' सारदा रूपिणी सरस्वती समस्त ज्ञान और समस्त विद्या की अधिकरिणी थीं. किन्तु उनकी यह विद्या और ज्ञान शास्त्र-अध्यन द्वारा अर्जित नहीं हुई थी, यह विद्या तो पराविद्या थी- जो उनके हृदयपद्म से उत्सारित हुई थी.
         http://farm1.static.flickr.com/79/224264354_b08efe89a5.jpg    
 त्याग और वैराग्य के आलोक से आलोकित, तपस्या रूप साध्य-साधना द्वारा अर्जित एवं  उत्सारित- स्वतः सिद्ध अपने उस ज्ञान भण्डार को माँ सरस्वती के जैसा ही वे भी इस म्रत्यलोक में पूरी तरह से वितरित कर देती हैं. काली-तपस्वी के ज्ञाननेत्रों में- तपस्विनी सारदा की प्रज्ञा मूर्ति इसी रूप में में दिखाई देती हैं, और वही छवि लेखनी-चित्र में उकेरी हुई है.
         प्रज्ञादीप्त काली-वेदान्ती की दृष्टि मानों सर्वयापी थी - उनके चक्षु उन्नत और उन्मुख थे. एक  ही आधार में वे साधक होने के साथ साथ शिल्पी भी थे. उनमें शिल्पकार-चेतना और श्रुतिनन्दन से भरपूर काव्यिक संवेदनशील मानसिकता थी.
षोड़शी सारदा को वर्णमाधुर्य के वैशिष्ट में शान्त-स्निग्ध-कमनीय-नमनीय रूप में व्यक्त करते हैं. इन छन्दों में जिस प्रकार देवी की लालित्यपूर्ण प्राणवंत मातृसत्ता प्रकट होती है, उसी प्रकार कवि की भावस्निग्ध शैल्पिक-सत्ता भी उज्जवल से उज्जवलतर रूप में प्रस्फुटित हुई है. काव्य रचना में उनका छ्न्द माधुर्य और सौन्दर्यबोध है, वह भी शिल्पी मन को भावुक बना देता है.
छन्दमय देवी वहाँ छन्द-छन्द वंदिता हैं. छन्दपथ में अबाध विचरण है, कहीं एक रत्ती भर छन्द पतन नहीं हुआ है. कहीं अनुष्टप छन्द में तो कहीं त्रिपदि, एकावली छन्द में सारदामाता का क्षमासुन्‍दर प्रसन्नोजज्वल त्यागदीप्त अंतर की शुचिता को व्यक्त किए हैं. देवी-वंदना करते हुए द्रष्टा अभेदानन्द की कविसत्ता आगे भी इस प्रकार व्यक्त होती है-
 
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 देवीं प्रसन्नम प्रणतान्त्रिहन्त्रीं, योगीन्द्रपूज्यां  युगधर्मपात्रीं |
 तां सारदां  भक्तिविज्ञानदात्रीं दयास्वरुपाम प्रणमामि  नित्यं || ८ || 
       माँ सारदा को श्री रामकृष्ण कहते थे,- ' तुम मेरी आनन्दमयी हो '. प्रसन्नमयी सारदामयी श्रीरामकृष्ण की दिव्य अनुभूति में जिस प्रकार माँ आनन्दमयी रूप में आविर्भूत हुई हैं, ठीक उसी प्रकार अभेदानन्द की सूक्ष्म कविदृष्टि में भी वह मातृरूप पकड़ में आ गया है. इसीलिए अभेदानन्द की यह काव्य प्रज्ञा ऋषियों के जैसा आध्यात्मिक अनुभूति के आलोक में समृद्ध है.
            उपनिषदों के कवि-ऋषियों जैसा उनको भी त्रिकालदर्शी, त्रिकालज्ञ कहा जा सकता है. उनकी छन्दस्पन्द रचनाशैली के भीतर ज्ञाननिष्ट भक्ति संजात मौलिकता की छाया है. उनके स्तव साहित्य में ज्ञान-भक्ति-प्रेम-योग समस्त भावों का सम्मिलन हुआ है. फिर कभी उनकी स्त्रोत्र-प्रतिभा में अंतर की अंतर्लीन फल्गु धारा निःशब्द मिलजुल कर एककार हो गयी है, तथा भक्ति निष्णात मनन और लेखनी में प्रवाहित हुई है. स्तव गाथा रचना अभेदानन्द मानस भक्तनिष्ठ भाव तन्मयता में परिपूर्ण रूप धारण कर लिया है. 
स्तव साहित्य रचना के इतिहास का पर्यवेक्षण करने पर देखा जाएगा कि आचार्य शंकर, श्री चैतन्यदेव, कवि जयदेव, विल्वमंगल, और पुष्पदन्त के नामों के आसपास ही स्वतः स्फूर्त रूप से उनके सुयोग्य उत्तराधिकारी आचार्य अभेदानन्द का नाम भी आ जाता है.
इनमें से प्रत्येक की रचनाओं के भीतर एक सुषम माधुर्य परिलक्षित होता है. किन्तु अभेदानन्द की रचनाओं में यह माधुर्य और मौलिकता और भी अधिक प्रबलतर हो उठी है. इसी वैचित्र्य और वैशीष्ठ के गुण के कारण वे और भी उज्ज्वलतर बन कर संस्कृत स्त्रोत्र काव्य रचयिता के आसन पर सुशोभित हो उठते हैं. स्तवगीत के कमलवन में वे मानो एक प्र्सफुटित सह्स्रदल कमल हैं.
     किन्तु इस विकसित रूप अंकन के पिछे करुणामयी जननी सारदामणि की अशेष कल्याणमयी भूमिका है. इस तथ्य को स्वीकार करते हुए, वे कहते थे- ' माँ ' ठाकुर से भी अधिक दयालु हैं '. स्वयम् विवेकानन्द भी यही बात कहते थे. इसका तात्पर्य यह हुआ कि उन्होने ठाकुर श्री रामकृष्ण से भी अधिक श्रीश्रीमाँ सारदा का कृपा-सानिध्य प्राप्त किया था. वे लोग मातृशक्ति के बल से ही शक्तिमान हो उठे थे.  
 अभेदानन्दजी देवी सारदा की छन्दबद्ध स्तव-कविता के बीच में कृपामयी कह कर वंदना किए हैं. वे कृपा कर के शरणागत संतानों को विपत्ति से तार देतीं हैं. इसीलिए वे विपद-तारिणी हैं. इसीलिए तो देवताओं की श्रीश्रीदेवी से कातर प्रार्थना है-
  ' शरणगतदीनार्तपरित्राणपरायेणे,
                                  सर्वस्यार्तिहरे  देवी नारायणी नमोस्तुते || (श्रीश्रीचण्डी, ११/१२ ) 
वे शरणार्थी, दीन और आर्त जनों का परित्राण परायण करती है तथा सभी के दुख का नाश करती हैं. इसीलिए तो देवी विपद नाशिणी और दुख हरिणी हैं.
 देवी का और भी अनेको रूप है. वे मानो यहाँ पर रूप रूप में अरूपा होकर अवस्थित हैं. सभी कुछ के भीतर उन्हीं का अस्तित्व ओतप्रोत है. युगों युगों से वे धर्मपालिका के रूप में आविर्भुत होतीं हैं. भटके हुए मानव कुल को वे युगधर्म पालन में प्रबुद्ध करतीं हैं, एवम् सभी के लिए श्रद्धा की पात्री बन जातीं हैं. यहाँ तक कि योगियों के लिए भी परम पूजनिया हैं.
 वास्तव में वे साधक-संतान योगियों की जननी- महयोगिनी हैं. हर समय वे योग के भीतर ही अवस्थित रहतीं हैं. उनके भीतर समस्त योग मिलजुल कर एककार हो गये हैं. किन्तु कृपा मूर्ति के अंतराल में रहते हुए वे सदा भक्ति योग प्रदान करतीं थी, उनके जीवन-चरित के मध्यम से भक्ति की पराकाष्ठा प्रकट हो उठी है. इसीलिए अभेदानन्दजी उनको ' भक्ति-विज्ञानदात्री ' कह कर अभहित किए हैं.
 सारदादेवी भक्तिरूपी विशेष-ज्ञान की विधायनी हैं. भक्तिमती जननी के भीतर कवि इसबार स्नेहमय ममतामय मातृसुलभ करुणा चित्र एवम् वह भाषा शैली की नैवेद्द् से भरा अर्ध्य इस प्रकार सज़ा देते हैं-
 
' स्नेहेन वध्नासि मनोस्मदीयम, दोषान शेषान सगुणी  करोषी  |
  अहेतूना नो दयसे सदोषान,  स्वांके गृहीत्वा यदिदं  विचित्रं   || ९ || 
इस बार कवि स्नेहशीला सारदामाता की अहेतुक स्नेह को देख कर आश्चर्यचकित हो गये हैं. मातृस्नेह के डोरी से स्वयम् को आबद्ध कर लिए हैं. वे यह सोच कर अवाक हो गये हैं कि देवी अपने संतान के अशेष दोषों को मिटा कर गुणमय किस प्रकार बना देतीं हैं!वे बहुत खोजने से भी इस बात का कोई कारण न्हीं खोज पा रहे हैं कि जननी दुष्ट संतान से भी तुष्ट होकर उसे अपनी गोद में कैसे उठा लेतीं हैं ?  इसीलिए तो संतानों के लिए माँ की यह गोद एक अति विस्मयकारी स्नेहनीड़  है, एक प्राणों को जुड़ा देने वाला स्निग्ध शीतल आवासस्थल है.
देवी की अपार अपार्थिव स्नेहशक्ति को देख कर कवि की चेतना में उनकी प्रशान्त मातृमूर्ति प्रकट हो उठती है. लावण्यमयी सारदा का जो अंतर्निहित स्नेहमंडित लालित्यपूर्ण स्वरूप जो अब तक  छुपा हुआ था, वह काव्यशिल्पी रचित इस नवम सूक्त में प्रकाशित हुआ है. अभेदानन्दजी की काव्ययीक सत्ता यहाँ शैल्पिकसत्ता में उन्नीत हो गयी है.
 यह ठीक है कि किसी शिल्पी के जैसा उन्होंने रंग-तुलिका का प्रयोग कर चित्रांकित नहीं किया है, किन्तु काव्यशिल्पी की लेखनी से उन्होंने जैसा वर्णमाधुर्य के वैचित्र्य से देवी का जो रूपचित्र प्रस्फुटित कर दिया है वह किसी चित्र-शिल्पी की तुलना में किसी भी अंश मे कम नहीं है. यहीं पर कवि के शिल्पिकार भी होने का विशेषत्व प्रकाशित हो उठा है.
वे रंग के बदले भाषा का प्रयोग कर छवी उतार लेते थे. उनके मननशीलता की गहराई इसी उच्च कोटि की थी. किसी अंतरद्रष्टा ऋषि के समान उन्होंने देवी की अन्तहप्रकृति को प्रत्यक्ष किया था; तथा वह इस काव्यचित्रमें परिपूर्णता के साथ विकसित हो उठा है.
               सारदास्त्रोत्र का यह सूक्त देवी की कल्याणमयी भावमूर्ति को और भी अधिक कमनिय-नमनीय बना देता है. मातृ-भक्त सन्तान जब पाठ करते करते यहाँ पहुँच जाता है, तो वह भावविह्वल हो कर मातृसानिध्य-सुखानुभव  में खो जाता है. श्री श्री माँ की क्षमा सुन्दर करूणाधारा स्वतःस्फूर्त रूप से उसके हृदय को आप्लावित कर देती है.
     इसी श्रेणी के पाठक रसराज अमृतलाल बासू के दोनों  नयन पढ़ते समय अश्रुसिक्त हो उठे थे. रसराज अमृतलाल ने पाठ करते हुए जब सूक्त के इस अंश ' दोषानशेषान् सगुणीकरोशी ' का पाठ किया, तो वे मातृभाव में विभोर हो कर छलकते हुए नेत्रों से रचयिता अभेदानन्दजी से कहे थे -' महाराज, श्रीश्रीमाँ के प्रति रचित आपके स्त्रोत्र का कम से कम यह( ' दोषानशेषान् सगुणीकरोशी ')  अंश चिर दिनों तक अमर रहेगा.'( विश्वरूपिनी माँ सारदा,पृष्ठ ९०) 
 वास्तव में इस स्त्रोत्र रचना के भीतर जो मातृतत्व- चिंतन समाहित था, वह यहाँ पहुँच कर जीवन्त हो उठा है. स्तव-विग्रह यहाँ प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगोचर होने लगता है. मातृशक्ति प्राणवंत हो उठती है. यदि इस नवम सूक्त को निकाल दिया जाय तो देवी-वन्द्ना अधूरी रह जाएगी. और देवी की एक प्राणहीन स्तुतिविग्रह निर्मित होती. इसीलिए प्राणवन्त देवी को प्राणमय बना देने के लिए इस स्तवकाव्य का यह अपरिहार्य सूक्त है. 
    स्तुति-कविता के सभी एग्यारह स्त्रोत्र अलंकार के अभिनवत्व की दृष्टि से अतुलनीय है. रचना शैली के वैचित्र्य और निपुण शिल्पी के प्रभाव से प्रत्येक श्लोक ही मर्मस्पर्शी हो उठा है. काव्यरचना की भाषाशैली के प्रयोग विधि के चमत्करित्व में अभेदानन्दजी का अवदान अतुलनीय है. इस स्तव चित्र में वाक्यलावण्य से शिल्पमाधुर्य का परमस्पर्श परिपूर्ण रूप से प्र्सफुटित हुआ है. 
 अभेदानन्दजी की स्तवरचना में यह शिल्पिक वैशिष्ट विशेष रूप से दर्शनीय है. शायद इसीलिए नाट्य-आचार्य अमृतलाल बसु ने कहा है- ' आचार्य शंकर के बाद इतने सूललित छन्दों  की स्त्रोत्र रचना और कहीं  सुनाई नहीं देती है.'
 इसके पहले भी अनेको स्त्रोत्र काव्य रचित हुए हैं, वर्तमान में भी अनेको स्त्रोत्र रचे जा रहे हैं, एवम् आने वाले दिनों में भी कितने ही स्त्रोत्र रचे जाएँगे. किन्तु कितने स्त्रोत्र मानव हृदय में स्थान बना पाते हैं ? या पाठक समाज में कितने स्त्रोत्र चिर-काल तक अमर रह पाते हैं ? वही रचनाएँ चिर-काल तक जीवित-स्मृत रहतीं हैं, जहाँ हार्दिक अनुभूति का स्पर्श दिख पड़ता है, और जहाँ कवि द्रष्टा होते हैं।
उनके ध्याननेत्र में दर्शन के जैसा स्पष्ट चित्र झलक उठता है. या कभी वह वाणी उनके कानों में सुनाई दे जाती है. यह भाषासाहित्य तपस्यालब्ध ध्यानमग्नता में स्वतःउत्सारित नीनादध्वनि  ही तो है. जिसको पढ़ने मात्र से ही वह पाठक के हृदय को स्पर्श करती है, और चिंतन को अतिन्द्रिय जगत् में पहुँचा देती है.
इसी ईश्वरीय जगत् में बैठ कर साधनाजन्य ध्यानगंभीर भाषाशैली के माध्यम से अभेदानन्दजी ने इस स्तव-साहित्य को रचा है. इसीलिए साधक कवियों की रचनाओं में अन्य साधारण कवियों की अपेक्षा एक वैशिष्ट परिलक्षित होता है. इसी वैशिष्ट और वैचित्रपूर्ण लेखनी से अभेदानन्दजी आगे लिखते हैं-
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    " प्रसीद मातर्विनयेन् याचे, नित्यं भव स्नेहवती सूतेषू   |
                     प्रेमैकबिन्दुम  चिरदग्धचित्ते, विषिंच चित्तम कुरू नः सुशान्तम   || १० ||
  यहाँ पर विनय के साथ मातृचरण-वंदना कर रहे हैं. पूर्ण शरणागती है. सविनय प्रार्थना कर रहे हैं- हे देवी प्रसन्न होओ; संतानों के प्रति स्नेह-वत्सला होओ; हे स्नेहमयी, स्नेह-वारि वर्षन करो, ह्मलोगों के तप्तहृदय को अपना स्निग्ध शान्ति-वारि की एक बूँद छीड़क कर शान्त करो. इस दुःखमय संसार में आकर ह्मलोग दग्धचित्त हैं, तुम एक बूँद स्नेह-वारि छिड़क कर ह्मलोगों को शान्त करो.
    प्रशान्तमयी स्नेहशीला सारदा, अपने संतानों के प्रति सदा प्रसन्ना हैं. उनकी करुणा अहेतुक है. प्रसन्न चित्त हो कर वे सभी को कृपा वितरण करतीं हैं. किसी से भी वे रुष्ट नहीं होतीं. वे क्षमाशीला हैं. क्षमा ही उनका आभूषण है. क्षमा रूप तपस्या में वे सिद्ध हैं. इसीलिए उनको ' क्षमारूपा-तपस्विनी ' कहा जाता है. उनका स्नेह-प्रेम अपार असीम है. इसीलिए अभेदानन्दजी कहते हैं, ' प्रेमैकबिन्दुम चिरदग्धचित्ते '.
दग्धहृदय सन्तान को वे प्रेमवारि से सिंचन कर के सांत्वना देती हैं. वे परम शान्तिमयी जननी हैं. सदा सन्तान के कल्याण-कामना में ही रत रहतीं हैं. सन्तान की व्यथा को देख कर समव्यथी हो उठती हैं. उनके सुख को देखकर वे भी सुखी होती हैं. 
सन्तानगतप्राणा सारदा देवी के भीतर अतुलनीय मातृस्नेह था. जिस प्रकार अपने सेवक-सन्तान अभेदानन्द के प्रति उनमें अशेष करुणा थी, उसी प्रकार अभेदानन्दजी में भी आश्चर्यजनक मातृभक्ति थी. इस स्तव-वंदना में उनके हृदय की संपूर्ण भक्ति प्रकाशित हुई है. इस स्त्रोत्र-चरित्र में मातृभक्ति का एक अनन्य निर्देशन प्रतिफलित होता है. अभेदानन्दजी द्वारा रचित यह मातृस्तुति सुकवियो के देवी-स्तुति के समान चिर-काल तक स्मरणीय बनी रहेगी. 
यह मातृसूक्त मातृ-आशीष की परिपूर्ण अभिव्यक्ति से समृद्ध है. माता सारदा मानो इसके भीतर से कृपापूर्वक  स्वयम् ही प्रकाशित हो रही हैं. स्तव-रचयिता अभेदानन्द की लेखनी से यही मातृकरुणा-धारा प्रवाहित हुई है. सारदा-सरस्वती उनके कंठ में आरोपित होकर लेखनी-चित्र में अभिव्यक्त हुई हैं.
            निःसन्देह व्याख्यान देने के समय भी वाग्देवी सारदा उनके कंठ में वाणी देती थीं, एवम् इसी शक्ति से शक्तिमान होकर वे विश्ववासियों के हृदय को जीत लेने में समर्थ हुए थे. पाश्चात्य के बड़े बड़े सभाओं  में माँ का दिया हुआ वही आशीर्वाद ' তোমার মুখে সরস্বতী বসুক ' - ' तुम्हारे मुख में सरस्वती का वास हो ' वास्तविकता में रुपयित हुआ था, एवम् स्वर्ण कंठ से निसृत वह वाणी विश्ववासियों के कर्ण-गुहाओं में प्रविष्ट हो गयी थी. उनकी वही स्वर्ण-वर्षा करने वाली वाणीकंठ की बात आज भी प्रत्यक्ष दर्शियों के मुख से सुनी जाती है.
  कोई कोई तो उस वीणापाणि के वरदान से शक्तिमान वाणीकंठ की बातों का उल्लेख करते समय भावविह्वल भी हो जाते हैं. वाग्देवी की कृपा से वे एक असाधारण वाणी-शिल्पी बन गये थे. सरस्वती रुपिणी सारदा कभी उनकी वाणीमूर्ति में तो कभी वाणी कंठ  के भीतर से प्रकाशित हुई हैं.
यह मानो अपनी ही शक्ति से स्वयम् ही प्रकाशित होने जैसी बात है. किन्तु स्त्रोत्रकार अभेदानन्दजी केवल वाणीचित्र गढ़ते हों, या कंठशिल्प के माधुर्य प्रकाश से ही उन्होंने  देवी का आशीर्वाद प्राप्त कर लिया था, वैसी बात नहीं है, उन्होंने उनकी अशेष करुणा से समृद्ध होकर जो विश्वरुपिणी मातृशक्ति का प्रकाश प्रत्यक्ष किया था, उसका वर्णन वे इस प्रकार करते हैं :-
" श्रीश्री माँ की अजस्र करुणा और आशीर्वाद मेरे उपर था। श्रीश्री माँ सबों की करुणामयी माँ थीं. वे बिल्कुल एक सरल बालिका के जैसी थीं. बाहरी लोगों के सामने वे नितांत लज्जाशीला थीं, किन्तु भक्त-संतानों के निकट सर्वदा ही हास्यमयी थीं. श्रीश्री माँ स्वाभाविक रूप से ही अति साधारण स्त्रियों के जैसे रहतीं थीं, देखने से ऐसा मालूम पड़ता- मानो वे दुनिया की कोई भी बात नहीं जानती हों. किन्तु उनकी आँखें त्रिकाल दर्शी थीं. वे अपनी ज्ञान-चक्षुओं से भूत, भविष्य, वर्तमान सबकुछ देख सकतीं थीं. असामान्य बुद्धिमती और महीयसी नारी थीं श्रीश्रीमाँ, किन्तु बाहर से समस्त ऐश्वर्य-आडंबरहिना हैं.
   थोड़ा सा भी अलौकिक या विभूति का विकास उनके भीतर नहीं देखा जा सकता है. वे बिल्कुल किसी सीधी-साधी गाँव की ( देहाती) ग्रामीण महिला जैसी सरला थीं, फिर सर्वज्ञानमयी और करुणामयी साक्षात -जगत् जननी हैं। श्री श्री ठाकुर के जीवन् में हाँलाकि थोड़ा थोड़ा ऐश्वर्य का प्रकाश था किन्तु श्रीश्रीमाँ सर्वऐश्वर्य- विहीना थीं. सकल ऐश्वर्य और शक्ति को वे अपने भीतर गुप्त करके रखे हुए थीं. क्या ही महीयसी नारी थीं श्रीश्रीमाँ ! शास्त्र की भाषा में उनकी महिमा का बखान करें तो कहना होगा-   ' तं दूर्ददर्श्म निगुढ्म ' - श्रीश्रीमाँ का भाव और प्रकृति दुर्विज्ञेय और अति निगूढ थी |" (विश्वरूपिणी माँ सारदा, पृष्ठ ८२-८३ )!
       मातृगत प्राण अभेदानन्द जी कहा करते थे- " मेरे जैसे गूंगे को भी श्रीश्री माँ ने वाचाल बना दिया था. नहीं तो इंग्लैंड और अमेरिका के शिक्षा-संस्कृति सम्पन्न विदग्ध पंडित समाज और ईसाई-पादरियों के  सम्मुख मेरे जैसा एक नगण्य भारतवासी की क्या कभी सफलता का विजय-तिलक लगा पाने में समर्थ हो सकता था. यह सब कुछ करुणामयी श्रीश्रीमाँ और श्रीश्री ठाकुर की कृपा है. " (वही, पृष्ठ ८२-८३ )
 श्रीश्रीठाकुर और श्रीश्रीमाँ का आशीर्वाद प्राप्त करके ही उन्होंने अपने जीवन में विजय-यात्रा का प्रारम्भ किया था. वे उन दोनों की करुणा को प्राप्त करके धन्य हुए थे. उन्होने जिस प्रकार श्री श्री माँ का स्तवचित्र अंकन किया था, उसी प्रकार प्रकार श्री श्री ठाकुर की पूर्ण अवतार लीला को भी स्त्रोत्र रचना के माध्यम से चित्र रूप में प्रासफुटित किया था. उनकी कवि दृष्टि में ठाकुर और माँ अभिन्न थे. 
एक दूसरे से अ पृथक थे. एक ही सिक्के के दो पहलू जैसे समान मूल्यवान थे. ब्रह्म और शक्ति के बीच उन्होंने कोई अंतर नहीं देखा था. ब्रह्मरूपी श्री रामकृष्ण और शक्तिरूपिणी  माँ सारदा को उन्होंने अभेद दृष्टि से देखा था. दोनो ही उनके लिए आराध्य देव-देवी थे. इसीलिए युगल-जोड़ी को निवेदित उनकी प्रार्थना है-


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          " जननीं सारदाम देवीं रामकृष्णम जगदगुरुम |
                      पादपद्मे त्यो: श्रितवा प्रणमामि  मुहुर्मूह: || " ११|| 
सारदा-स्त्रोत्र का अंतिम श्लोक विशेष तातपर्यपूर्ण है. इस एक ही सूक्त में अभेदानन्दजी ने रामकृष्ण-सारदा की युगल-वंदना किए हैं. उनकी दृष्टि में जिस प्रकार शिव और शक्ति अभेद हैं, ठीक उसी प्रकार श्रीश्री ठाकुर और श्रीश्री माँ एक और अभिन्न हैं. 
 श्रीश्रीमाँ और श्रीश्रीठाकुर नाम और रूप में भिन्न होने पर भी स्वरूपतः वे अभिन्न हैं. इसीलिए वे एक ही मन्त्र में  उन दोनो को प्रणाम निवेदन कर रहे हैं. पहले वे माता सारदा को प्रणाम निवेदित करते हैं, उसके बाद जगत्- गुरु श्रीश्रीरामकृष्ण के पादपद्मों की वन्दना करते हैं. यहाँ पर जननी सारदा देवी गुरुदेव रामकृष्ण से पहले वंदिता हुई हैं.
भारतीय आध्यात्मिक शास्त्रो में पिता की अपेक्षा माता का स्थान अग्रगण्य  माना गया है. इस रीति के अनुसार अभेदानन्दजी के आध्यात्मिक जगत् के पिता भगवान श्री रामकृष्ण का स्थान माता सारदा के बाद ही आता है. 
इसीलिए सरदा-स्त्रोत्र के अंतिम चरण में माता सारदा देवी को पिता श्रीरामकृष्ण के पहले स्थापित करके उन्होंने  मातृशक्ति और श्रद्धा को और भी अधिक उज्ज्वल तर किए हैं. निःसंदेह श्री रामकृष्ण के प्रति भी उनमें समान श्रद्धा थी, इसीलिए बारंबार दोनों को प्रणाम निवेदित किए हैं.
 अभेदानन्दजी केवल कविदृष्टि लेकर स्तव-कविता के माध्यम से देवी सारदा की वंदना किए हैं, ऐसा कहने से उनका यथार्थ मूल्यांकन नहीं होगा. यद्दपि इस वंदना गिति में उनकी  शिल्पी-मानसिकता का स्पष्ट परिचय मिल जाता है, एवम् सर्वजन परिचित इस स्त्रोत्र-चित्र के अनुकूल ही ह्मलोग आसानी से उनका मूल्यांकन कवि और लेखक के रूप में कर सकते हैं.
किन्तु इस सारदा-स्त्रोत्र के आलोक में ही उनके मातृसानिध्य को सीमाबद्ध कर देना उचित नहीं होगा. कारण, केवल तात्विक मानस-सानिध्य ही नहीं, व्यावहारिक सानिध्य अर्थात देवी सारदा की सेवा करने का सूअवसर और उनके पवित्र-सानिध्य को प्राप्त करने का सौभाग्य भी विभिन्न समय पर अभेदानन्दजी को मिला था. वे श्रीश्री माँ के विशेष स्नेहधन्य और आशीर्वादपूत सन्तान थे.
उनको यह विशेष मातृ-आशीष प्राप्तकरने का कारण था की वे सेवक-संतानों के बीच अपेक्षाकृत कनिष्ठ थे. और श्रीश्री माँलज्जावती थीं. वे हरसमय स्वयम् को लज्जा रूपी आभूषण में आवृत रखतीं थीं. किसी के भी सामने वे झट से अपना घुंघट नहीं उठा देतीं थीं. किन्तु छोटे बच्चों के सामने उनका यह लज्जा आवरण उन्मुक्त रहता था।  उनके साथ घुल-मिल कर बातचीत करने में उनको दुविधा नहीं  होती थी. और अपेक्षाकृत बड़े बुजुर्गों के सामने वे पर्दे के भीतर रह कर ही लज्जाशीला होकर धीरे धीरे बातचीत किया करतीं थीं. इसीलिए अभेदानन्दजी दूसरों की तुलना में, अपेक्षाकृत छोटा रहने के कारण माँ सरदा उनके साथ निःसंकोच बातचीत करतीं थीं, एवम् कोई दुविधा बोध नहीं करती थीं. 
स्नेह-वत्सला श्रीश्रीमाँ उस समय अपने अन्तरंग अभेदानन्दजी इतना स्नेह करतीं थीं, कि उनको अपने हाथों से दैनन्दिन कार्यों में सहयोगी होने का भी सुयोग कर दी थी. इस बात को स्वामी अभेदानन्दजी ने अपने सुयोग्य शिष्य स्वामी प्रज्ञानन्दजी से अपनी स्मृति के परतों को खोलते हुए कहा था- " श्यामपूकूर वाले गृह में जब श्रीश्री ठाकुर के पेट में रोग होने पर डाक्टर लोग पथ्य देने की व्यवस्था किए तो उसमें भात और उगली का झोल खाने को बोले थे. उस समय श्रीश्रीमाँ मुझको उगलो खरीद कर लाने के लिए बाजार भेजती थी. मैं बाजार से उगली खरीद कर लाता और ईंट से उसका छिल्का तोड़ कर तैयार कर देता था, और श्रीश्रीमाँ झोल पका कर श्रीश्री ठाकुर को खाने के लिए देती थीं." ( 'मन और मनुष्य', ३रा, पृष्ठ८९)   
उनका मातृ-सानिध्य सिर्फ़ इतना ही नहीं था. उन्होंने श्रीश्रीमाँ के अन्नपूर्णा रूप का भी दर्शन किया था, एवम् उस दिन श्रीश्रीमाँ भी अन्नपूर्णा हो कर उनकी वांच्छा को पूर्ण कर दिया था. उस समय श्रीरामकृष्ण बीमार होने पर काशीपुर में रह रहे थे. एकदिन उन्होंने मधुकरी का अन्न ग्रहण की इच्छा व्यक्त किए. उनकी इस इच्छा को साकार करने के लिए उनकी त्यागी-संतानें भिक्षाटन करने को बाहर निकले तो, उन्होंने सबसे पहले अन्नपूर्णा रूपिणी  माँ से भिक्षा-प्रार्थना इस प्रकार किए थे-
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  " अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकर-प्राणवल्भे |
ज्ञानविज्ञान सिद्धार्थम भिक्षाम देहि में पार्वति || "  
- हे शंकरप्राणप्रिया पार्वती अन्नपूर्णा, ज्ञानविज्ञान में सिद्धि के लिए मुझे भिक्षा दीजिए माँ! श्रीश्री माँ ही तो अन्नपूर्णा हैं! इसीलिए उनलोगों ने पहली भिक्षा उनसे ही प्राप्त की. अन्नपूर्णा-सारदा के हाथ से मुष्टि-भिक्षा लेकर उनलोगों की यात्रा शुरू हुई थी. उस दिन श्रीमाँ अन्नपूर्णा रूप में आविर्भुता हुई थीं. 
भगवान श्रीरामकृष्ण की अवतारलीला समाप्त हो जाने जननी सारदा कुछ समय तक वृंदावन में अवस्थान की थीं. उनके इस वृंदावन यात्रा में तीन स्न्यासी सेवक भी उनके साथ थे. वृंदावन के वंशीवट स्थित कालीबाबू के कुंज में श्रीश्रीमाँ प्रायः एक वर्ष तक थीं, एवम् उस समय अभेदानन्दजी श्रीश्री माँ की बहुत सेवा किए थे. वहीं पर अभेदानन्दजी ने श्रीश्रीमाँ के एक अन्य रूप का दर्शन किया था.
सारदा-रूपिणी श्रीराधिका किस प्रकार प्रकाशित हुई थीं; इस बात को अपनी स्मृति-भण्डार के झरोखे का मन्थन कर अपनी आत्मजीवनी में इस प्रकार वर्णन किया है - " ..एक दिन श्रीमाँ श्रीराधा के विरह-भाव में आविष्ट हुईं थीं. श्रीराधा जिस प्रकार अपने प्राण-सखा के विरह में व्याकुल रहतीं थीं, उसी प्रकार श्रीमाँ भी श्रीश्री ठाकुर के विरह में व्याकुल होकर;  श्री कृष्ण के विभिन्न लीलास्थलों - निधूबन के निकट राधारमण-मंदिर, यमुना-पुलिन आदि का दर्शन करते करते प्रेमाश्रु-धारा वर्षण करती थीं. (आमार जीवनकथा, १म, पृष्ठ१०९)
अभेदानन्दजी इसी प्रकार श्रीश्रीमाँ के भीतर श्रीराधा का एक एक भाव और रूप को प्रत्यक्ष देखने के बाद ही स्त्रोत्रचित्र अंकन किए हैं. वृंदावन में अभेदानन्दजी को जो मातृसंग का सुअवसर मिला था और माँ के स्वरूप को प्रत्यक्ष किया था उसीका परिपूर्ण लेखाचित्र इस सारदास्त्रोत्र में प्रसफुटित हुआ है.
अभेदानन्दजी ने जब स्त्रोत्र को रचा था, उस समय श्रीश्रीमाँ सारदा बेलूड़ के नीलाम्बरबाबू के बगीचा-गृह अवस्थान कर रही थीं. उस समय वे श्रीराधिका के जैसा भाव में विभोर रहती थीं; क्योंकि वे उसी समय वृंदावन् तीर्थ से वापस लौटी थीं. इसि प्रकार राधा-भाव में भाविता सारदा को अभेदानन्दजी ने स्तवचित्र में वंदना किए हैं, और उनके अंतर्निहित स्वरूप को व्यक्त किए हैं.
किन्तु इस सारदा-स्वरूप का उद्घाटन ठीक ढंग से हुआ है, या विकृत रूप से हुआ है इसका फ़ैसला कौन करेगा? इसीलिए अभेदानन्दजी ने निश्चय किया की जिसके उद्देश्य से यह स्त्रोत्र रचा गया है, पहले उन्हीं को स्तव को गा कर सुनाउँगा, और वे यदि सम्मति दें कि स्तव-रचना ठीक हुई है, तभी ठीक- नहीं, तो ग़लत.
इसके बाद क्या हुआ, उस घटना के प्रत्यक्ष प्रतिवेदक लावण्यकुमार चक्रवर्ती से जैसा सुने थे, वैसा संकलन किए थे स्वामी अभेदानन्द के शिष्य श्री नारायणचंद्र गुहाराय महाशय. उसमे लिखा गया है-
 " उनकी ( अभेदानन्दजी की) इच्छा थी कि वे माँ को स्त्रोत्र का श्रवण कारएंगे. जब वे माँ से अपना अभिप्राय कहे तो माँ थोड़ा चौंक कर पुछि- कौन सा स्त्रोत्र, किसका स्त्रोत्र? अभेदानन्दजी महाराज ने विनीत स्वर में कहा- ' माँ, तुम्हारा स्त्रोत्र-गीत तुमको सुनाना चाहता हूँ.' माँ यह सुन कर बहुत विस्मय से अभिभूत हो गयीं, और बोलीं - ' बाबा, आमार आबार कि स्त्रोत्र? ' किन्तु भक्तप्रवर के निर्बन्धातिश्य को देख माँ स्थिरभाव से सुनने लगीं उस प्रसिद्ध स्त्रोत्र गीत को महाराज के स्वर में- ' प्राकृतिम परमांभयाम ..' इत्यादि. श्रीमाँ सुनते सुनते भावविष्ट हो गयी हैं.  
और जब अभेदानन्द महाराज ने गाया- ' रामकृष्ण गतप्राणं ' उस समय देखा गया कि माँ यह सुनने के बाद मानो स्पंदनहीन हो गयी हैं, एवम् ' तन्नाम श्रवणंप्रियाम ' जैसे ही उचरित हुआ उनके आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी. ' तद्भावरंजीताकारम ' गाते ही अभेदानन्द महाराज ने देखा - माँ अब वहाँ नहीं हैं;  वहाँ पर श्रीश्री ठाकुर बैठे हुए हैं ! या माँ स्वयं ही ठाकुर में परिणत हो गयी हैं !
   महाराज घुटनों के बल बैठ कर स्त्रोत्र गिति गा रहे थे, उस समय मानो वे भी अपने-आप में नहीं थे. उस समय  उनके अंदर, वे और क्या देखे थे, वह सब ह्में बता कर नहीं गए;  किन्तु उनके मौन में ही ह्मलोग बहुत कुछ नित्य-नूतन भाव में प्राप्त कर रहे हैं." ( स्वामी अभेदानन्द स्मृति-चयन,पृष्ठ २१)
  इसी प्रकार रूपवती सारदा और भी कितने रूपों में आविर्भुत हुई हैं; या उसका कितना ही ह्मलोग संग्रह कर सके हैं! वे अपरूपा- रूपमयी हैं. मुहुर्मुह वे नये नये रूपो में भूषिता होती हैं. उनके रूपों की कोई सीमा नहीं है. इसीलिए असीम को किसी  एक ही रूप के भीतर सीमाबद्ध करना संभव नहीं है. 
वाग्मयी-सारदा ' देवी-सारदा ' के भीतर रूप-परिग्रह करके जीवन्त हो उठी थीं. स्त्रोत्रचित्र जिस प्रकार जननी सारदा में घुलमिल कर एकाकार हो गया था. वे भावसमाधि में डूब कर जब स्वयम् को ही भूल गयीं थीं उस समय ' स्त्रोत्रमूर्ति-सारदा ' माता-सारदा में मिल गयीं,- यह प्रमाणित हो गया कि वाणीमूर्ति सारदा और चिन्मयी सारदा एक ही हैं.
यद्दपि श्रीश्रीमाँ के इस स्वरूप-उद्घाटन के पिछे ध्यानी अभेदानन्दजी की असाधारण सारस्वत-साधना थी. यह एक अनन्य मातृसाधना तथा मातृशक्ति का परिचय था. मातृ-करुणा यहाँ पर स्तवगाथा में प्रस्फुटित हो उठा है. एवम् मातृ-आशीष को प्राप्त करके कवि मानो सव्यसाची हो उठे हैं. एक ही आधार में वे कवि-ऋषि, शिल्पी, और सुर-स्रष्टा (संगीतकार) भी दिखाई पड़ते हैं. केवल स्तवपाठ या कवितापाठ नहीं कवि के रूप में. एकही स्त्रोत्र में सुर-आरोप कर के संगीत-शिल्पी होने का परिचय भी दिए हैं.    
 वीणापाणि सारदा अभेदानन्द के प्रति सदा प्रसन्ना हैं. उनकी कृपा-करुणा की कोई सीमा नहीं है. अपने सन्तान को अपनी सारस्वत-प्रतिभा का दान देने में थोड़ी भी कंजूसी नहीं की हैं. इसीलिए ह्मलोग अभेदानन्दजी के भीतर कभी वाल्मीकि-प्रतिभा,कभी कालीदास-प्रतिभा, या कभी वाणी-कंठ (स्वर-सम्राट्) की प्रतिभा का भी दर्शन करते हैं.
सुरकार (संगीतकार ) अभेदानन्द सूललित स्वर से, देवी सारदा को जो सारदा-संगीत सुनाए थे, वह सर्वजन-स्वीकृत हुआ है. क्योंकि वराहनगर मठ में भी समवेत स्वर में अभेदानन्दजी के द्वारा रचित संगीत-सुरताल में यही सारदास्त्रोत्र-गाथा गायी जाती थी. किस प्रकार के सुर-ताल में गाने से स्त्रोत्र में देवीवंदना की माधुर्यता फूटपड़ती है, वे उससे अनभिज्ञ नहीं थे. संगीत-साधक के जैसा यह सुर-सृष्टि उनकी शैल्पिक सत्ता का ही एक परिचय है.
 यद्दपि वे गाना गा सकते थे, एवम् संगीत-शिल्प में भी उनकी अच्छी पकड़ थी,  किन्तु उनकी यह शिल्पी-प्रतिभा स्त्रोत्र को संगीत में परिणत करके ही थम नहीं जाती है, या केवल गले की सुर-ताल तक ही आबद्ध नहीं है.
  गाना गाते समय वे गाने की बीच में डूब जाते थे, एवम् तन्मय होकर संगीत के साथ स्वयं को एक कर लेते थे. जैसे जब वे ' रामकृष्णगत प्राणां..... ' के मुखड़े को गा रहे थे, उस समय वे पूरी तरह से रामकृष्णमय हो उठे थे एवम् श्रोता सारदा के भीतर उन्होने श्रीरामकृष्ण को प्रत्यक्ष किया था. अर्थात गाना गाते समय वे उसके भाव को साकार रूप में उपस्थित होने का एहसास कराने में समर्थ थे, एवम् उसी भावसागर में स्वयं भी निमज्जित रहते थे, ऐसी थी उनकी संगीत-प्रभा.
   कंठस्वर के भीतर से देवी सारदा को जिस प्रकार व्यक्त कर दिया था, उसी प्रकार चित्र-शिल्प के भीतर भी देवी की प्राणप्रतिष्ठा उन्होंने किया है. ह्मलोग जानते हैं, फलहारिणी कालिका-पूजा के रात्रि में श्री रामकृष्ण ने षोड़शी-रूप में जननी सारदा की  पूजा किए थे. श्रीरामकृष्ण ने उसदिन श्रीश्रीमाँ के भीतर देवी षोड़शी को प्रत्यक्ष किया था. किन्तु उस षोड़शी रूप को और किसी ने भी प्रत्यक्ष नहीं किया था.
परवर्तीकाल में श्रीश्रीमाँ के उसी रूप को-  ध्यानी अभेदानन्दजी ने ध्याननेत्र से प्रत्यक्ष किया था. काली-तपस्वी ने ध्यान के आलोक में शिल्पकार की दृष्टि को लेकर रूपवती सारदा के अपरूपा-रूप को देखा था. किसी शिल्पी के समान उनकी दृष्टि भी अन्तरभेदी थी. इसीलिए तो उनके ध्याननेत्रों के सामने देवी सारदा षोड़शी रूप में उद्भषित हो गयी थीं. श्रीश्रीमाँ के भीतर देवी षोड़शी को चिन्हित कर पाना शिल्पी-मानस के सिवा, और  कोई नहीं कर सकता. देव-शिल्पी अभेदानन्दजी के भीतर ह्मलोग उसी शैल्पिक सत्ता का दर्शन कर पाते हैं. 
उसी के द्वारा उन्होंने श्रीश्री माँ के उसी अंतर्निहित रूप को खोज कर बाहर करने में समर्थ हुए थे. जगत् के सामने श्रीश्री माँ के उसी गुप्त रूप को प्रतिष्ठित किया था. फ्रैंक  डोराक-अंकित चित्र-पट के भीतर ही उन्होंने  श्रीश्री माँ सारदा के उसी दिव्य ज्योतिर्मयी रूप को आविष्कृत किया था।  श्रीश्री माँ के देवीभाव और मातृभाव परिपूर्ण रूप से उस  चित्र में प्रस्फुटित हो उठा है.
  घुंघट में रहने वाली सारदा के अनावृत-स्वरूप को प्रत्यक्ष किया था. वैज्ञानिक दृष्टि को लेकर उस चित्र के भीतर उन्होंने माँसारदा के षोड़शी स्वरूप को आविष्कृत किया  था. तथा मानव के मानस-गोचर में ले आए माँ के ममतामयी  षोड़शी रूप को. बोले माँ का यह नवयौना संपन्ना लालित्यपूर्ण रूप ही ' ठीक ठीक षोड़शीमूर्ति ' है. इसीलिए स्वामी अभेदानन्दजी की दृष्टि में श्रीश्रीमाँ षोड़शी सारदा भी थीं. 
किन्तु अभेदानन्दजी की कविदृष्टि यहीं पर रुक नहीं गयी थी. उनके अतल-स्पर्शी दिव्यदृष्टि में श्रीश्रीमाँ सारदा कभी परमाप्रकृति, कभी राधा, तो कभी षोड़शी हैं. अर्थात श्रीश्रीमाँ  अपरूपा होकर भी - सकल रूपों का  समाहार हैं. 
    अनन्त रूपिणी  सारदा इसिप्रकार रूप रूप में प्रकाशित हुई  हैं एवम् साधक-संतानों के ध्याननेत्र में वह पकड़ में आ गयी हैं. द्रष्टा कवि अभेदानन्द की दृष्टि कैसी स्वच्छ है, इस तथ्य को जननी सारदा का अपने स्वरूप में अवस्थान करने लगना ही प्रमाणित कर देता है. रामकृष्णभाव में भाविता माता सारदा ने भावाविष्ट होकर स्वयं ही यह प्रमाणित कर दिया है, कि स्रष्टा अभेदानन्द की यह सृष्टिकार्य (सारदा-स्त्रोत्र) बिलकुल ठीक है. इसीलिए मातृवंदना में रामकृष्ण -सत्ता राज्य के एक सफलतम आदि कवि थे स्वामी अभेदानन्द.   
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' সমাজ শিক্ষা ' পার্তিকায় প্রকাশিত ( ' समाजशिक्षा ' पत्रिका में प्रकाशित - लेखक ?)
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8.स्वामी अभेदानन्द की दृष्टि में निवेदिता/ pracharak abhedanada

 8.स्वामी अभेदानन्द की दृष्टि में निवेदिता 
आचार्य स्वामी विवेकानन्द ने मिस मार्गरेट एलिजाबेथ नोबेल को- ' भगिनी निवेदिता ' में रूपान्तरित कर दिया था. इन्हीं स्वामी विवेकानन्द के अन्यतम अन्तरंग गुरुभ्राता थे स्वामी अभेदानन्द; जो स्वामीजी के आह्वान पर ' वेदान्त-प्रचार ' करने के लिए पाश्चात्य गए थे. उन्होंने पाश्चात्य-वासियों को ( १९९६-१९२१ ) पुरे  २५ वर्षों तक भारत के ' सर्वजनीन वेदान्त-दर्शन ' का श्रवण करवाया था. 
                 इसी वेदान्त-दर्शन के आलोक में सम्पूर्ण विश्व ने भारतवर्ष को एक उदार सनातन देश के रूप में पहचाना था, तथा इसी सार्वजनीन वेदान्त धर्म और दर्शन के उत्स को जानने के लिए मिस मार्गरेट नोबेल भारतवर्ष आई थीं. उस समय तक मिस नोबेल ' निवेदिता ' में परिणत नहीं हुई थीं; अर्थात भारतवर्ष आने के पहले से ही उनका परिचय अभेदानन्दजी के साथ था. स्वामीजी ने ही अभेदानन्दजी के साथ उनका प्रथम परिचय करवाया था.
                       उनके साथ बातचीत करके अभेदानन्दजी यह समझ गए थे कि इस आयरिस तरुणी मिस नोबेल के मन में भारतवर्ष को लेकर अनेक स्वप्न हैं, तथा भारतवर्ष के उदार सार्वजनीन वेदान्त-दर्शन के माध्यम से ही उन्हें यह स्वप्न देखने की प्रेरणा प्राप्त हुई है. अभेदानन्दजी ने इस बात का अनुभव भी किया था,  कि मिस मार्गरेट के भीतर उन्नत शिक्षा-दीक्षा जनित ज्ञान-दीप्त प्रतिभा भरी हुई है, एवं उनके व्यक्तित्व में जो  शुद्ध भक्ति-भाव है, वह आत्मशक्ति के बल पर अटल है।
                       वे भारतवर्ष आने के लिए बहुत आग्रही थीं, तथा स्वामीजी के ' शिवज्ञान से जीवसेवा ' के आदर्श से अनुप्रेरित होकर भारतमाता की  बलीवेदी पर अपना मन-प्राण अर्पित करना देना चाहतीं थीं. स्वामीजी भी मार्गरेट के सेवा-कर्म में निष्ठा तथा आचार-व्यव्हार को देख कर मुग्ध हो गए थे. उन्होंने मन में यह ठान लिया था कि भारतवर्ष में नारी-शिक्षा का स्तर उन्नत करने के लिए मिस मार्गरेट नोबेल जैसी महिला को उत्तरदायित्व सौंपना बहुत प्रयोजनीय है.
 इस विषय पर स्वामी अभेदानन्दजी के साथ बातचीत करते हुए उन्होंने कहा - ' देखो काली, मिस नोबेल बहुत good soul है एवं Education लाईन में भी है, इसीलिए सोचता हूँ कि भारत में लड़कियों के लिए जैसा स्कूल निर्माण करने की परियोजना मेरे मन में है, उसका पूरा दायित्व इसी के उपर सौंप दूँ. तुम बताओ वो इस जिम्मेदारी को उठाने में सक्षम होगी या नहीं ?'
अभेदानन्दजी ने इस प्रस्ताव पर अपनी सम्मति देते हुए कहा- ' इस कार्य के लिए बिल्कुल योग्य नारी का चुनाव तुमने किया है.  इसके बाद स्वामीजी के आह्वान पर अपना योगदान देने के लिए मिस मार्गरेट नोबेल भारतवर्ष आगयीं और ब्रह्मचर्य-व्रत ग्रहण करके ' भगिनी निवेदिता ' के रूप में आत्मप्रकाश कीं. 
             
 धीरे धीरे स्वामीजी के चिराकांक्षित नारी-शिक्षा के कार्य में निवेदिता ने स्वयं को समर्पित कर दिया. उस समय स्वामी अभेदानन्दजी अमेरिका में थे. इसीलिए निवेदिता के द्वारा किये जा रहे सेवाकार्यों का संवाद पत्र के माध्यम से ही प्राप्त होता था. पत्रलेखक स्वयं स्वामीजी थे. इस प्रकार लिखे थे-
 "भाई काली (अभेदानन्द), तुम्हें यह जान कर प्रशन्नता होगी, कि कुछ ही दिनों पूर्व २१ न०, बागबाजार में
 मिस नोबेल (निवेदिता ) का स्कुल, श्रीश्रीमाँठाकुरानी ( श्रीश्रीमाँसारदादेवी ) के आशीर्वाद से स्थापित हो गया है. वे स्वयं उपस्थित होकर इसके उद्घाटन कार्यक्रम को देखा है. यह बहुत अच्छा हुआ.
लडकियों के लिए स्थापित इस विद्यालय का भविष्य उज्ज्वल है, क्योंकि इसे संघ-जननी का आशीर्वाद प्राप्त है. बेलूड़ मठ से मैं, राखाल (ब्रह्मानन्द ) और शरत ( सारदानन्द ) इस सादगीपूर्ण ढंग से आयोजित समारोह में उपस्थित थे. इसमें मुझे कुछ सन्देह नहीं है कि मिस नोबेल बहुत अल्प समय में ही इस बालिका विद्यालय को मेरी आशा के अनुरूप  खड़ी कर लेगी. 
        क्योंकि इसी कार्य के लिए तो उसे मैं इस देश में लाया हूँ. एक नये आदर्श में लड़कियों का जीवन गठन हो,एक सम्पूर्णतया नये शिक्षा व्यवस्था में उनका चरित्र विकसित हो, इसीलिए महानगरी के एक मोहल्ले में हमलोगों ने यह सामान्य सा प्रयास किया है. मैं मानों दिव्य चक्षुओं से देख रहा हूँ, मिस नोबेल ( निवेदिता ) 
की प्रचेष्टा से यह प्रयास अवश्य सफल होगा. "


निवेदिता के सेवाकर्म की समृद्धि केलिए लिखे गए, स्वामीजी के इस आशीर्वाद-पत्र को पढ़ कर, अभेदानन्दजी बड़े आनन्दित हुए. क्योंकि निवेदिता के नारी-शिक्षा की सफलता के लिए उन्हों ने भी ह्रदय से आशीर्वाद दिया था. सभी लोगों की सहानुभूति प्राप्त कर निवेदिता की शिक्षा-व्यवस्था में उत्तरोत्तर श्रीवृद्धि होने लगी. इसीबीच अकस्मात बिजली गिरने जैसी घटना हुई, ४ जुलाई १९०२ को स्वामीजी का महाप्रयाण हो गया.
निवेदिता असहाय हो गयी. अभेदानन्दजी भी बहुत चिन्तित हो गए थे.क्योंकि, जो अपनी शिष्या को विघ्न-बाधाओं से सतत ढाल बन कर रक्षा किया करते थे, उस शिष्या मिस मार्गरेट के सिर के ऊपर से आकाश के जैसे व्यक्तित्व वाले स्वामीजी का महाप्रस्थान हो गया था. एक विराट स्थान रिक्त हो गया था, सभी इस सोच में पड़ गये थे कि अब आगे स्कूल किस प्रकार चल पायेगा, कौन इस दायित्व पूर्ण कार्य में सहयोग देने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाएगा ? 
 तभी सभी आशंकाओं को दूर करने के लिए अमेरिका में स्वामी अभेदानन्दजी को स्वामी सारदानन्दजी का एक पत्र प्राप्त हुआ, जिसमे उनहोंने लिखा था - " निवेदिता का स्कूल भलीभांति चल रहा है, तथा इसको स्थायी रूप देने के लिए निवेदिता के प्रयास में कहीं कोई त्रुटी नहीं है. उसीके प्रयास से वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बोस आदि बहुत से गणमान्य व्यक्ति अभी स्कूल कि ओर आकृष्ट हुए हैं तथा उनमे से कुछ लोग बीच बीच में स्कूल देखने के लिए आते रहते हैं. सुना है कि रविठाकुर ( रविन्द्रनाथ ठाकुर ) भी आये थे. .... लड़कियों की संख्या पहले की अपेक्षा बहुत अधिक हो गयी है." 
 स्वामी अभेदानन्द जी अमेरिका में बैठे कर भी निवेदिता के क्रिया-कलापों की खोज-खबर लेते रहते थे. मिस नोबेल को लन्दन में रहते समय भी, एक स्वेच्छा-सेविका के रूप में काम करते हुए देखेथे, इसीलिए निवेदिता के सेवाकर्म के प्रति उनकी धारणा बहुत स्वच्छ थी. इसके अतिरिक्त स्वामी अभेदानन्दजी जब १९०९  ई० में ६ महीनों के लिये भारत आये थे उस समय भारत में रहते हुए निवेदिता  के सामाजिक-जीवन में और शिक्षा-क्षेत्र में उनकी  कार्यधारा से परिचित हुए थे, एवं निवेदिता की ' संगठन-क्षमता ' को देख कर मुग्ध हुए थे.
 परवर्ती काल में इस बात का उल्लेख उन्होंने इस प्रकार किया था- " निवेदिता ( मार्गरेट ) एक बहुत कुशल Organizer थीं एवं उनके व्यक्तित्व में मन को आकृष्ट कर लेने की एक शक्ति थी; जिसके फलस्वरूप बहुत से विख्यात व्यक्तियों की सहानुभूति एवं सहयोग उन्हें प्राप्त हुआ था. 
किसी वेदेशिनी महिला के लिए यह कुछ कम गौरव की बात नहीं थी. ऐसा प्रतीत होता है, कि शायद इसी कारण बागबाजार के एक कोने में एक साधारण से स्कूल को केन्द्र बना कर निवेदिता ने अपने कार्य-क्षेत्र की परिधि  को इतना विस्तृत कर लिया, कि उन्होंने सम्पूर्ण बंगाल के ह्रदय को ही जीत लिया है.
इसीलिए मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यदि स्वामीजी की महासमाधि के बाद उनकी यह सूयोग्य शिष्या यहाँ न होतीं तो उनकी भावधारा भी समस्त भारत में इतनी प्रचारित नहीं हो पाती. " 
 इसमें कोई सन्देह नहीं कि निवेदिता एक विदुषी महिला थीं. उन्होंने अपना मन-प्राण समर्पित कर जिस प्रकार भारतवर्ष की सेवा की है, इतिहास में उसका दूसरा उदहारण खोज पाना कठिन है. उनका कार्य-क्षेत्र केवल रामकृष्ण-संघ तक ही सीमाबद्ध नहीं था, समस्त भारतवर्ष को अपने घेरे में लपेटे हुए था. उनके  जीवन की विचार-धारा और सेवा-कार्य के माध्यम से मानों समग्र भारत ही जीवन्त-रूप धारण कर लिया था. उससमय भगिनी निवेदिता को केन्द्र में रख कर बंगाल के नवजागरण ने अपने शिखर को छू लिया था, एवं वे उस राष्ट्रीय आन्दोलन की केन्द्रबिन्दु बन चुकीं थीं. 
 इस घटना को भारत में रहते समय स्वयम अभेदानन्दजी अपनी आँखों से देख चुके थे तथा इस संवाद को इस प्रकार प्रकट किया था- " निवेदिता की विचार- धारा एवं कर्म का प्रभाव केवल भारतीय राजनीती पर ही नहीं,पड़ा था बल्कि कला, साहित्य, संस्कृत यहाँ तक कि राष्ट्रिय जीवन के सभी स्तरों में मानों एक नवजागरण की बाढ़ आगई थी. प्रत्येक क्षेत्र में उनका प्रभाव कितना गम्भीर और आन्तरिक था, उसको मैंने स्वयम अपनी आँखों से देखा था. उन दिनों ' सिस्टर निवेदिता ' नाम बंगाल के शिक्षित समाज में जैसा सूपरिचित था, उतने ही श्रद्धा के साथ इस नाम को सर्वसाधारण के मुख से भी उच्चारित होते मैंने सुना था. भारतवर्ष को जिन्होंने अपना सर्वस्व निवेदित कर दिया था, उन्हीका नाम था- निवेदिता. जन्म के आधार पर विदेशिनी होने पर भी अपने कर्म और मृत्यू के आधार पर वे, एक भारतवासी थीं. जब १९११ ई० में दार्जलिंग में उनका निधन हुआ, उस समय सम्पूर्ण भारतवर्ष ही भगिनी-विहीन हो कर शोकग्रस्त हो गया था. 
 किसी अन्य के प्रति ऐसा शोक व्यक्त करते कभी नहीं देखा गया था. किन्तु उस दिन मुट्ठी भर मनुष्यों की पुष्पांजली के लिए सोच्चार नहीं बन गया था गणमाध्यम या विदेशी प्रथा के अनुसार श्रद्धांजली देने के लिए उनको पुरे एक सप्ताह तक बर्फ की शैया पर लिटा कर भी, उनको नहीं रखा गया था.समग्र भारतवासियों ने उस दिन उनको आन्तरिक अश्रु-जलान्जली दे कर उनको अन्तिम विदाई दी थी.
उनके पूतपवित्र  नश्वर शरीर को पवित्र भारतीय-पद्धति के अनुसार पंचभूतों में विलीन कर दिया गया था. क्योंकि भारत को प्यार करते करते, वे भारतमयी जो बन गयीं थीं. ' भारतवर्ष ' - नाम ही उनका जपम्न्त्र था, भारत-आत्मा के साथ घुलमिल कर वे एकाकार हो गयीं थीं. इसलिए प्रत्यक्ष-दर्शी रवीन्द्रनाथ कहते थे
 - " स्वयं को संपूर्णतः निवेदित कर देने की जो आश्चर्य जनक क्षमता, जैसी निवेदिता में थी, वह मैंने अन्य किसी और मनुष्य में कभी नहीं देखा है...उनका शरीर, उनकी आशैशव यूरोपीय आदतें, उनके अपने नाते-रिश्ते की स्नेह-ममता, स्वजातीय समाज की उपेक्षा, एवं जिनके लिए उन्होंने अपना प्राण-समर्पित कर दिया था, उनकी उदासीनता, दुर्बलता और त्यागस्विकार का आभाव, कोई भी कारण उनको लौट जाने के लिए मजबूर नहीं कर सका. "
 यह बात ठीक है कि भारतवासियों से निवेदिता ने कोई भी वस्तु पाने की ईच्छा कभी नहीं की थी; किन्तु भारतवासियों ने उनके प्रति, सौजन्यतावश ही सही थोड़ी सी कृतज्ञता भी प्रकट नहीं की थी. बल्कि उनकी स्मृति के प्रति भी अवमानना की गयी है, इस तथ्य को स्वामी अभेदानन्दजी के एक प्रतिवेदन में इस प्रकार व्यक्त किया गया है- 
" अमेरिका से अपने ऊपर सौंपे कार्य को समाप्त करने के बाद मैं १९२१ ई० में भारत लौटा, एवं १९२५ ई० 
में ' रामकृष्ण वेदान्त आश्रम ' की स्थापना दार्जलिंग में की. उस समय मेरे मन में विचार उठा, अब से १४ वर्ष पूर्व निवेदिता का नश्वर शरीर भी तो दार्जलिंग में ही भष्मी-भूत हुआ था. किन्तु उनकी चिता-भष्म के उपर कोई स्मरण-चिन्ह निर्माण करने की बात किसी ने भी नहीं सोचा !
भारत के बलिवेदी पर जिसने इस प्रकार अपने को निवेदित कर अपने गुरु द्वारा प्रदत्त नाम- ' निवेदिता ' को जिसने सार्थक कर के दिखा दिया, उनकी स्मृति के प्रति ऐसी अवहेलना से मैं अत्यन्त व्यथित हो गया. तब मैंने अपनी निजी धन से ' रामकृष्ण वेदान्त आश्रम ' की ओर से एक ' स्मृति-मन्दिर ' का निर्माण कराया. एक संगमरमर के पत्थर पर उनके सम्बन्ध में सिर्फ एक ही वाक्यलिखवाया था -
  " Who gave her all to India
क्या सचमुच यही उनका वास्तविक परिचय नहीं है? "   ' भगिनी निवेदिता '  का सच्चा परिचय अभेदानन्दजी के आखों के समक्ष कौंध गया था, जिसको उन्होंने एक ही वाक्य में व्यक्त कर दिया है. जिन्होंने अपने को भारतमाता की बलिवेदी पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, भारत-कल्याण के लिए जिसने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया था, उसी महाप्राण का नाम है- निवेदिता.
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' সংবাদ প্রতিদিন ' ২৮ অক্টোবর ২০০৪, ভগিনী নিবেদিতার জন্মজ্যান্তি উপলক্ষে প্রকাশিত বিশেষ সম্পাদকীয় নিবন্ধ .
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" अभेदानन्द का अवदान " pracharak Abhedananda-7

7.प्रचारक अभेदानन्द का अवदान 
इन दिनों ' राजनैतिक-नेता ' स्वयं को  समाज-सेवी कहलाने में गर्व का अनुभव करते हैं, किन्तु इस विशेषण को  यदि किसी सच्चे आध्यात्म-वादी व्यक्ति के नाम के साथ प्रयोग किया जाये तो, हो सकता है बहुत से राजनितिक नेता इसको अतिरंजित कहकर नाक-भंव सकुंचित करने लगें ! 
किन्तु यह एक ऐतिहासिक सत्य है, कि अब तक जितने भी लोक-नेता लोकहिताय, सर्वजन सुखाय, के उद्देश्य को सामने रख कर समाज-सेवा के कार्यों में सचमुच अपने जीवन को न्योछावर कर दिए हैं, वे सभी आध्यात्मिकता के बल पर ही वैसा कर पाने में सक्षम हुए थे। इतिहास का मंथन करने पर मानस-चक्षुओं के सामने जिन महान परमपुरुषों की छवि कौन्ध उठती है, उन्होंने त्याग को साथी बना कर ही, सेवा-कार्य में अपना ह्रदय-मन-प्राण समर्पित किया था. 
जीवन में त्याग रहे बिना समाज-सेवा करना सम्भव ही नहीं है. इसीलिए १९ वीं शताब्दी के उन सभी प्रातःस्मरणीय देश-सेवक मनीषियों के भीतर हमलोग त्याग एवं आध्यात्मिकता को ही मुख्य अवलम्बन के रूप में देख पाते हैं.
श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी अभेदानन्द आदि प्रमुख त्यागव्रती संन्यासी एवं नेताजी सुभाषचन्द्र, श्रीअरविन्द, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, देशबन्धु चितरन्जन, महात्मा गाँधी प्रमुख देश-वरेण्य समाजसेवी थे. 
किन्तु इन सबों के बीच अन्यतम थे- स्वामी अभेदानन्द; जो स्वयं को पर्दे के पीछे छुपा कर रखे थे, किन्तु अपनी प्रखर-प्रतिभा, एवं कर्मठता के बलपर उन्होंने ने आध्यात्मिक-आन्दोलन के माध्यम से राष्ट्रीय-जीवन में अमूल्य योगदान दिया है. 
इसमें कुछ संदेह नहीं कि- भारतवर्ष एक आध्यात्म-मार्ग पर चलने वाला देश है. और इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि, इसी आध्यात्मिकता के बल पर ही वह विश्व-रंगमंच पर अवतीर्ण हुआ था, तथा इसी आध्यात्म के अस्त्र से ही पाश्चात्य के तर्कयुक्ति-वाद को खण्डित कर दिया था, जिसके फलस्वरूप विश्व-वासी के ह्रदय में एक उदार सर्वजनीन समन्वय का सन्देश उद्घोषित हुआ था. 
भारतवर्ष केवल दीन-दरिद्र पीड़ित, दुःख-दुर्दशा क्लिष्ट, अन्धविश्वास और कूसंस्कार में जलता हुआ, एक अपांक्तेय देश नहीं है, पाश्चात्य भूमि पर यह बात इन्हीं समस्त पून्यश्लोक सन्यासियों के कण्ठ से ध्वनित हुआ था. भारत के पास भी कुछ अमूल्य-सम्पदा है, जो पृथ्वी पर और कहीं नहीं है. यह बात गलत है कि, पृथ्वी को देने के लिए भारत के पास कुछ नहीं है. 
जिस प्रकार पाश्चात्य ने विश्व को विज्ञान एवं प्रद्द्यौगिकी का ज्ञान सिखाया है, उसी प्रकार भारत ने भी अपने अतीत के आध्यात्म-विज्ञान को विश्व के दरबार में पहुँचा दिया है. प्रौद्द्की-विज्ञान ने एक ओर जहाँ मनुष्य को ध्वंसात्मक क्रियाओं में शामिल किया है, वहीँ आध्यत्मविज्ञान ने उनके समक्ष जीवन-गठनकारी शिक्षा और दर्शन को प्रस्तुत किया है.
  इसीलिए पृथ्वी की वर्तमान परिस्थितियों को देख कर विख्यात इतिहासकार अर्नोल्ड टायनबी अपना उद्वेग प्रकट करते हुए कहते हैं - " इस गम्भीर संकट के समय में मानवजाति के परित्राण का एकमात्र उपाय है, भारतीयपथ - जहाँ समग्र मानवजाति एक साथ सम्मिलित होकर श्रीरामकृष्ण के समन्वय कारी दृष्टिकोण का अनुसरण करते हुए - ' मृत्यु से अमृत ' की ओर अग्रसर हो सकती है.
यही है भारत का समन्वय-दर्शन. इस दर्शन की बुनियाद पाश्चात्य भूमि पर सर्वप्रथम स्वामी विवेकानन्द ने  रखा था, एवं उनके कार्य को आगे बढ़ाने में उनके सबसे बड़े सहयोगी बने थे उनके गुरुभाई स्वामी अभेदानन्द एवं अन्यान्य कुछ गुरुभाई. उनके बीच इस व्यापक ' मानव-सेवा कर्मधारा ' के कर्मयोगी के रूप में हमलोग स्वामी अभेदानन्द को बहुत लम्बे समय तक कार्यरत पाते हैं. 
वे एक ही आधार में जैसे सूदक्ष वक्ता, अच्छे लेखक और कर्मयोगी थे उसी प्रकार असाधारण आत्मज्ञान के अधिकारी थे. यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि आध्यात्म-विद्या की सहायता से ' समाज-सेवा ' कैसी हो सकती है ? उत्तर में कहूँगा- ' हाँ, सेवापरायण होने के लिए आध्यात्मज्ञान अपरिहार्य है. '
क्योंकि आध्यात्म तत्व-ज्ञान से ही त्याग का जन्म होता है, और सन्यासी का जीवन इसी त्याग के आदर्श पर उत्सर्गिकृत होता है. स्वामी अभेदानन्द के जीवन में हमलोग गीता में कहे गए कर्म-सन्यास को प्रत्यक्ष देख सकते हैं. उनका जीवन दूसरों के कल्याण के लिए उत्सर्गित था. ' आत्मनो मोक्षार्थं जगदहिताय च ' - अपनी आत्म-मुक्ति के साथ जगत का कल्याण, - दश का कल्याण, देश का कल्याण. 
आप्तपुरुष गण लोकशिक्षा के लिए ही जगत में आते हैं. मनुष्य को सटीक पथ पर चलाने के लिए वे लोग लोकायत शिक्षा का प्रवर्तन करते हैं. वह शिक्षा देश-काल-पात्र की सीमा को लांघ कर एक सर्वजनीन सर्वकालीन उत्तरण के आलोक से उद्भासित रहता है. महापुरुषों द्वारा कहे गये उपदेशों को हमलोग आप्तवाक्य कहते हैं. और यदि उन वाक्यों में भारतीय शाश्वत मूल्यों में समाहित समन्वय-दर्शन भी व्यक्त होता हो, तब मानों सोना पर सुहागा जैसे सुन्दर लगते हैं. 
 स्वामी अभेदानन्दजी पाश्चात्य में जिस सनातन सर्वजनीन धर्म और वेदान्त दर्शन के शिक्षा आदर्श को प्रचार करने गए थे, तब उन्हें जो विचित्र अनुभूति हुई थी, उसे एक सभा इस प्रकार व्यक्त करते हैं- 
" प्राचीन ऋषियों से उत्तराधिकार के रूप में हमें जो सनातन धर्म मिला है, जाति-धर्म- देश-निर्विशेष मानव मात्र के कल्याण के लिए, उसका प्रचार एवं प्रसार करने में मैंने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ समय बिता दिया है. हमलोगों के कार्यों के फलस्वरूप पाश्चात्य वासियों, विशेष कर अमेरिका वासियों के समक्ष  भारत की मर्यादा में प्रचूर वृद्धि हुई है. 
इन दिनों आपलोग सैंकड़ों भारतीय युवाओं- छात्रों को पढ़ते (या नौकरी-व्यापार करते) देख रहे हैं; किन्तु मैं जब १८९७ ई० में अमेरिका गया था, उस समय उस महादेश में मैं ही एकमात्र हिन्दू था, तथा अमेरिका के मिशनरियों द्वारा किये जाने वाले दुष्प्रचार के विरुद्ध मुझे प्रबल संग्राम करना पड़ा था. 
क्योंकि उनदिनों जब भी कोई  मिशनरी हमलोगों के देश से वापस लौट कर अमेरिका जाता था, तो वहाँ हमलोगों के देश के बारे में सम्पूर्ण असत्य और भ्रांत धारणा का प्रचार करता था. ये समस्त इसाई मिशनरी लोग जिस ठगी-विद्या के सहारे धन-संग्रह करते थे, उसका एक उदाहरण देखिये. वास्तव में वे लोग हमारे पवित्र तीर्थों आदि की व्याख्या करते समय भ्रमित करने वाले पद्धति का व्यव्हार करते थे.  
मैंने देखा है, वहाँ के विभिन्न चर्च में जो सन्डे-स्कुल चलते थे, उसके पाठ्य-पुस्तकों में भारतीय स्त्रियों के ऐसे  चित्र छपे रहते थे जिसमें दिखाया गया था कि भारतीय स्त्रियाँ; मगरमच्छ को खिलाने के लिए गंगा नदी में अपनी सन्तानों को फेंक रही हैं. और उस चित्र में दिखाया जाता कि बड़े बड़े मगरमच्छ अपना मुख फाड़े हुए है, और माँ को एक ऐसी काले रंग कि स्त्री के रूप में दिखाया जाता था जो अपने गौर-वर्ण  (गोरे लोगों से चंदा लेने के लिए ) के शिशु को उसी मगरमच्छ के मुख में फेंक रही है. और उसके नीचे लिखा होता था- ' हिन्दूधर्म का यही सर्वोच्च आदर्श है. ' 
मैं जब पहली बार अमेरिका गया तब लोग मुझे एक धर्महीन, असभ्य, बर्बर मनुष्य समझते थे. बहुत धैर्य पूर्वक प्रयास करके मैं अमेरकी लोगों की भारत-सम्बन्धी भ्रान्त धारणाओं को दूर करने में सक्षम हुआ था. मुझे अपने गुरुभाई स्वामी विवेकानन्द का स्मरण हो रहा है, जिसने डाक्टर बैरोज के सभापतित्व में शिकागो में आयोजित ' धर्म-महासम्मेलन ' में हमलोगों के देश के प्राचीन दर्शन, धर्म और संस्कृति का प्रतिनिधित्व किया था. मुझे स्मरण है कि, उसी डाक्टर बैरोज ने अपने किसी व्याख्यान में कहा था कि- ' हिन्दू धर्म में पहले नैतिकता, धर्म, दर्शन आदि कुछ भी नहीं था, अभी उलोगों के पास जो कुछ भी है- वह सबकुछ इसाई मशीनरियों से सीखा हुआ है.'
उनके इस कथन का तीव्र प्रतिवाद करते हुए मैंने कहा था- अमेरकियों के सामने इसाई मिशनरी लोग जिस धर्म को ' यीशुक्रिष्ट ' का धर्म बोल कर प्रचार करते हैं, वह दरअसल भारत से आयात किया गया है- उसमें जो पवित्र जल का छिड़काव कर के बप्तिस्मा देने की प्रथा है, वह गंगा-घाट पर पवित्र ' गंगा-जल ' में स्नान करने की प्रथा से ही अनुप्रेरित है.
मैंने देखा है कि इसाई पौराणिक कहानियाँ तथा ' यिशुख्रिष्ट ' के उपदेश और कुछ नहीं- महान मानव-दरदी बौद्ध-धर्म के प्रतिष्ठाता गौतम बुद्ध के उपदेशों की स्मित प्रतिध्वनी मात्र हैं. पच्चीस वर्षों तक अथक परिश्रम करने के बाद मैं अमरीकियों को यह समझा सका हूँ कि ' वेद और उपनिषद दर्शन ' विश्व के सर्वश्रेष्ठ दर्शन हैं. वेद और उपनिषद के दर्शन में ही समस्त धर्मों के सार-तत्व विद्यमान हैं, तथा समस्त देशों में पीढ़ियों से संचित ज्ञान-भंडार की कूंजी भी निहित है. 
मुझे ऋगवेद एवं अन्यान्य वैदिक साहित्य के अनुवादक प्रोफेसर मैक्समुलर के साथ साक्षात्कार करने सूयोग   मिला था. कियेल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर पॉल डायसन ने ' उपनिषद का दर्शन ' नामक एक पुस्तक प्रकाशित किया था, उनके साथ भी मेरी बातचीत हुई है..." ( ' সর্বজনীন ধর্ম ও বেদান্ত ' পেজ-১০৫ : सर्वजनीन धर्म और वेदान्त )
स्वामी अभेदानन्द के द्वारा पाश्चात्य देशों में निरन्तर २५ वर्षों तक अथक परिश्रम से वेदान्त-प्रचार कार्य करने के फलस्वरूप वहाँ भारत के सर्वजनीन धर्मादर्श की एक दृढ आधार-शिला तैयार हो गयी थी. यूरोप अमेरिका में प्रचार कार्य करने के लिए उन्होंने सत्रह बार अटलान्टिक महासागर को पार किया था. भारतीय-दर्शन को पाश्चात्य वासियों के द्वार-द्वार तक पहुँचाने के लिए, स्वामी अभेदानन्दजी ने लन्दन, पेरिस, नियुयोर्क, शिकागो, संफ्रिसिसको, वर्कले, ब्रुकलिन, वार्क्शायर, कैलिफोर्निया, कनाडा के टोरेन्टो आदि विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दिये थे. अलास्का से कनाडा होकर वे मैक्स्किको गए थे. 
हार्वर्ड के विख्यात मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स, अंग्रेजी में अथर्व वेद के अनुवादक प्रोफेसर लायनमैन, कोलम्बिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जैक्सन, कर्नेल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हिरम कार्सन, हैडसन आदि मनीषियों के साथ अभेदानन्दजी ने साक्षात्कार किया तथा उनके साथ सम्मानित अतिथि के रूप में विभिन्न सभाओं में एक ही मंच को सुशोभित भी किया था. 
केवल इतना ही नहीं, इनलोगों में से कई व्यक्ति भारतीय सनातन-धर्म के आदर्श से अभिभूत होकर इसी महान सेवा-व्रत में स्वयं को उत्सर्ग कर दिया था. स्वामी अभेदानन्दजी ने भी इन सूमहान मनीषियों को अपने भावी उत्तराधिकारी के रूप में आदर के साथ ग्रहण कर लिया था. उनलोगों में वेदान्त-चर्चा के प्रति निष्ठा को देखते हुए अभेदानन्द ने उनको- शिवदास, हरिदास, रामदास, गुरुदास आदि नये नये नाम दिये थे. 
और जिन विदुषी महिलाओं ने इस सर्वजनीन धर्म आदर्श के प्रचार के लिए इस महान त्यागव्रत में अपने को समर्पित किया था उनका नामकरण- भवानी, शंकरी, नारायणी, सत्यप्रिया आदि किया था. सोचने से आश्चर्य होता है, जिस कपर्दकहीन सन्यासी को, कभी एक मुट्ठी अन्न पाने के लिए दरवाजे दरवाजे घूमना पड़ा था- आज वही सन्यासी पाश्चात्य के सभी गणमान्य लोगों के बीच श्रद्धेय बन गये थे. पाश्चात्य देशों के विख्यात कवि, गायक, लेखक, दार्शनिक, वैज्ञानिक, चित्रकार, आविष्कारक, धर्म-पुरोहित, पर्वतारोही आदि गुणिजन उनके आन्तरिक मित्र बन गये थे.  
वह कौन सी शक्ति थी, जिसके बलपर उन्होंने पाश्चात्य वासियों का दिल जीत लिया था ? भारत की उस  एकमात्र ' शक्ति ' का नाम है - आध्यात्मिकता ! इसी कभी न समाप्त होने वाली - ' अनन्त-शक्ति ' के कारण पाश्चात्यवासी भारत की ओर उदग्रीव होकर देख रहे हैं. इस अनन्त-शक्ति का उत्स कहाँ है- इसी रहस्य को जानने के लिए भारत की ओर चकित दृष्टि से देख रहे है. 
वे लोग कौतुहल पूर्ण नेत्रों से आध्यात्म-तत्व का श्रवण करना चाहते हैं; तथा अनन्य सत्य अनुसन्धानी मन को लेकर ' भारतीय- समन्वय दर्शन ' को जानना चाहते हैं. अतः भारत के इस ' दर्शन ' ( एकम ' सत ' विप्राः बहुधा  वदन्ति ) को मात्र एक तात्विक बात नहीं समझना चाहिए, यह एक सर्वजनीन, सजीव, सतेज, और समन्वयकारी सत्ता है; जिसके माध्यम से मनुष्य पुनः नये ढंग से ' जीने की शक्ति ' प्राप्त कर सकता है. इसीलिए पाश्चात्य देशों में स्वामी अभेदानन्दजी का अवदान एक उज्वल आलोकित दीपक की उस बाती के जैसा था, जिसके समक्ष उनलोगों का वह अकस्मात प्रज्वलित हो उठा ' वैज्ञानिक लौ ' भी निष्प्रभ हो गया था. दिशाहीन मनुष्य को अमावस्या के अंधकार से बाहर निकलने के पथ को आलोकित कर दिया था. वे मानों ऊपर उठाने वाले सोपानों का दिग्दर्शन कराने वाला पथ-निर्देशक (नेता ) थे. वे मानों ' आकाश-दीप ' बन कर आनन्दलोक, अमृतलोक तक पहुँचने के मार्ग पर, जीव को सबुज निशाना का संकेत दिखा कर, जीवन-सत्ता का दिशारी बना देता है. 
स्वामी अभेदानन्दजी ने अमेरिका के ब्रुकलिन इंस्टीट्युट में ' भारत की सभ्यता और संस्कृति ' के उपर धारावाहिक रूप से व्याख्यान देकर भारत को प्रतिष्ठित किया था. परवर्तीकाल में इसकी ही परिणति
स्वरुप ' India and Her people ' शीर्षक से उन भाषणों को संकलित कर पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था. इस पुस्तक ने स्वामी अभेदानन्दजी को सम्पूर्ण विश्व में भारतीय राष्ट्रीयता और संस्कृति का धारक, वाहक और प्रतिनधि के रूप में परिचित करवाया था. देश-विदेश के बहुत से पाठक इस ग्रन्थ को पढ़ कर आनन्द से अभिभूत होकर इसके लेखक को एक प्रखर राष्ट्रवादी के रूप में स्वीकार कर लेता है. 
इस पुस्तक के एक गुणमुग्ध पाठक विख्यात इतिहासकार रमेशचन्द्र दत्त ने अपनी अभिज्ञता के आधार पर इसके सम्बन्ध में अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा है- ' मैं इतने वर्षों तक परिश्रम करके भी जो कर पाने में अक्षम रहा हूँ, उसे आपने ( स्वामी अभेदानन्द ने ) इस छोटी सी पुस्तक में समस्त कह दिया है. समस्त भारतवासियों के लिए इस पुस्तक का अध्यन करना अनिवार्य कर्तव्य है. ' 
क्या भारत की अनमोल (पशु-मानव को देव-मानव में रूपांतरित कर देने वाली ) शिक्षा-संस्कृति को विश्व रंगमंच से प्रचारित करना हमलोगों के सामाजिक दायित्व और नैतिक कर्तव्य के अंतर्गत नहीं है ? 
जो लोग विवेक-वान पुरुष हैं, वे केवल अपना सुख-स्वाछ्न्द भोग करने के लिए शरीर धारण नहीं करते हैं, वे लोग साधारण जनता के लिए - ' बहुजनहिताय बहुजनसुखाय ' ही जन्म ग्रहण करते हैं, एवं इसी उद्देश्य के लिए ( केवल मानवता की सेवा के लिए ) अपने तन-मन- प्राण को न्योछावर कर देते हैं.
 शिक्षा के क्षेत्र में भी स्वामी अभेदानन्द का अवदान अपरिसीम है.स्त्री-शिक्षा के सम्बन्ध में उनका कहना था- समाज के आधे मनुष्यों को अशिक्षित रखने से समाज की प्रगति कभी सम्भव नहीं हैं. नारियों को यथार्थ शिक्षा देने की व्यवस्था करना समाज का आवश्यक कर्तव्य है. नारियों को सम्मान देना, उनकी मर्यादा को स्वीकृति देना एवं उनको यथार्थ शिक्षा देने की व्यवस्था करना ह्लोगों के देश की संस्कृति और आदर्श के अंतर्गत मानते हैं। वे कहते थे कि यदि नारियों की अवमानना  होती हो, स्त्री-शिक्षा की अवहेलना की जाति हो तो वैसा करना भारतीय संस्कृत के विरुद्ध आचरण माना जायेगा. अपने प्राचीन आध्यात्म शास्त्रों में भी अभेदानन्दजी के मत को समर्थन मिलता है. वहाँ कहा गया है- 
' यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः|
यात्रास्तस्य न पूज्यन्ते सर्वास्त्रफला क्रियाः ||  
(मनुसंहिता ३/ ५६ )
- अर्थात जहाँ नारियों को श्रद्धा के साथ पूजा जाता है, वहाँ देवता गण भी आनन्द से आगमन करते हैं; और जहाँ नारियों का असम्मान होता है, वहाँ देवताओं को प्रसन्न करने के उद्देश्य से किया गया कोई भी याग-यग्य आदि सुफल प्रसव नहीं करते. 
इसीलिए स्त्री-शिक्षा का प्रचार जिस प्रकार शास्त्र सम्मत है, उसी प्रकार गणतान्त्रिक देश का नैतिक कर्तव्य भी है, स्त्री-पुरुष को समान अधिकार देना सामाजिक-न्याय की नीति के अनुरूप है. यहाँ एक दूसरे का परिपूरक है, इसलिए प्रत्येक पुरुष का यह कर्तव्य है कि वह नारी-शिक्षा का विस्तार करने में सहायता करे, इस सम्बन्ध में हमलोगों को उदार होना चाहिए. 
शिक्षा-व्यवस्था के प्रसंग में अभेदानन्दजी जिस प्रकार उन्नत मत के पक्षधर थे, उसी प्रकार हमलोगों के राष्ट्रीय जीवन के क्षेत्र में भी उन्नतमना थे. ' हमलोग क्या चाहते हैं ? ' - के विषय पर वे कहते थे- हमलोगों के राष्ट्रिय शिल्प को विकसित करने की नीति होनी चाहिए, जनसाधारण को राष्ट्रिय-शिक्षा नीति के अनुरूप शिक्षित किया जाय, राष्ट्रीय एकता को दृढ करने के लिए ' संगठन -शक्ति ' में वृद्धि की चेष्टा होनी चाहिए. 
अन्यान्य देशों के राष्ट्रीय आदर्श से हमारा देश का आदर्श (जीवन-ध्येय ) भिन्न होकर भी अभिन्न  है,  
इसीलिए हमारे इस पराधीन देश को पहले स्वाधीनता मिलनी चाहिए ! 
वे कहते थे, हमलोगों के देश की स्वाधीनता का आदर्श जगत के समस्त देशों और जातियों के आदर्श (जीवन-ध्येय ) से महत्तर होगा. पाश्चात्य देशों से हमें क्या सीखना चाहिए- इसके बारे में उन देशों में अपनी २५ वर्षों के अभियान की अभिज्ञता के आधार पर कहते हैं- पाश्चात्य देशों की राष्ट्रिय एकता, संगठन शक्ति, और अनुशासित ढंग से कार्य करने की पद्धति, हमारे लिए सीखना उचित है.
भारत के नागरिकों में आज यह शिक्षा नहीं है, इसीलिए आज हमलोग अन्य सभी देशों और जातियों के बीच. पददलित, अधोपतित, और अपांक्तेय के रूप में देखे जा रहे हैं. हमलोग आज  यूरोप अमेरिका, या जापान में जो चरम उन्नति का उत्कर्ष देख रहे हैं, उसका कारण है कि वहाँ के नागरिक राष्ट्र-कल्याण की योजना का निर्माण और उसका क्रियान्वन  उद्देश्य की एकता- ' Unity of Purpose को ध्यान में रख कर करते हैं. उनके भीतर 
स्वदेश-प्रेम कूट कूट कर भरा हुआ है, वे कहते हैं- ' मेरा अस्तित्व भी मेरे देश के कल्याण के उपर ही निर्भर करता है। ' इसीलिए उनसे हमलोगों को यह सीखना होगा कि हमलोग भी देशभक्ति से ओतप्रोत कैसे हो सकते हैं ?
परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वे पाश्चात्य के सभी कुछ अच्छा कहते थे और देश के सभी बातों को बुरा कहते थे, वे कहते हैं - ' पाश्चात्य के प्रौद्द्गिक विद्या के आलोक में हमलोगों को अपनी राष्ट्रीय शिक्षा नीति को और भी उन्नततर बनाना होगा.'
जिस प्रकार भारत ने अपने सर्वजनीन वेदान्त के समन्वय-धर्म आदर्श के द्वारा पृथ्वी को नयी रौशनी दिखाने में सहायता किया है, उसी प्रकार हमलोगों को पाश्चात्य देशों से यह सीखना पड़ेगा कि ' संघबद्ध ' हो कर कैसे कार्य किया जाता है. 
स्वामी अभेदानन्दजी केवल निजी आत्मुक्ति से संतुष्ट नहीं थे, वे समग्र भारत-आत्मा तथा विश्व- कल्याण कामना से ओतप्रोत होकर मानव-जाति के एक मार्गदर्शक (नेता) की भूमिका का निर्वहन करते हुए कहते थे- 
" We must not stop simply after doing something that will help our own nation but we must go on doing things that will help not only nations, not only human being but all living creatures, lower animals, plants. "
' हमें केवल अपने देश के कल्याण में सहायता करने से ही संतुष्ट नहीं होना चाहिए, बल्कि  उन कार्यों को 
निरंतर करते रहना चाहिए जिससे विश्व के समस्त देशों के न सिर्फ मनुष्यों का बल्कि क्षूद्र जीवों से लेकर
 पेंड-पौधों तक का कल्याण होता हो। '
वे तथाकथित संकीर्ण-समाज बद्ध जीव मात्र नहीं थे, उनके लिए समाज से तात्पर्य था पूरा विश्व का 
मानव-समाज ! किन्तु उन दिनों के भारत के लिए स्वामी अभेदानन्दजी की मार्गदर्शक (नेता) वाली यह भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी. सामाजिक-संस्कृति में सुधार करने के लिए ही मानों उनको एक समाज-शिक्षक की भूमिका में जन्म लेना पड़ा था.
  इतना ही नहीं वे ' आत्मज्ञान ', ' आत्मविकास ', ' ईश्वरदर्शन का उपाय, ' कर्म-विज्ञान ', ' पुनर्जन्म-वाद ', ' बीसवीं शताब्दी का धर्म ', ' सांसारिक प्रेम और भगवत प्रेम ', ' भारत और इसकी संस्कृति ', ' मृत्यू के पार ',
' मन का विचित्र रूप ', ' मनुष्य का दिव्य स्वरुप ', ' मुक्ति का उपाय ', ' मृत्यू रहस्य ', ' युगों युगों में जिनका आगमन होता है ', ' योगदर्शन और योगसाधना ', ' योगशिक्षा ', ' शिक्षा-समाज और धर्म ', ' सर्वजनीन धर्म और वेदान्त ', ' सांख्य, बौद्ध और वेदान्त दर्शन ', ' स्वामी विवेकानन्द ' एवं ' हिन्दूनारी ' आदि असाधारण ग्रंथों की रचना करके विद्वत समाज में चिर अमर हो गये हैं. 
स्वामी अभेदानन्दजी अपने कर्म-बहुल जीवन के सुदीर्घ २५ वर्ष के समय को यूरोप अमेरिका में बिताने के बाद १९२१ ई० के जून में जन्मभूमि भारतमाता के पास लौटने की यात्रा शुरू किये. किन्तु अथक परिश्रम करते हुए ही इसका पूरा जीवन बीता हो, क्या वह निष्क्रिय हो कर बैठ सकते थे ? कर्म ही जिसका धर्म था, वह कर्मयोगी क्या अकर्मण्य हो कर बैठे रह सकते थे ? इसीलिए सैनफ्रांसिस्को से प्रशान्त महासागर होकर वापस लौटते समय देखते हैं कि वे जापान, संघाई, हांगकांग, कैंटन, मनिला, सिंगापूर, कोयलालमपूर और रंगून आदि स्थानों का परिभ्रमण करके, वहाँ भी  भारतीय वेदान्त दर्शन का सर्वजनीन आदर्श को प्रतिष्ठित करा रहे हैं. इसके बाद कुछ दिनों तक बेलूड़ मठ में अवस्थान करने के बाद पुनः तिब्बत, काश्मीर और लहासा के अंचलों का भ्रमण करने निकल पड़े थे. 
अभेदानन्दजी के २५ वर्षों तक पाश्चात्य परिभ्रमण के दौरान बीच में एकबार १९०९ ई० में ६ महीने के लिए भारत में प्रथम प्रत्यावर्तन के अवसर पर भारत में जैसी प्रतिक्रिया हुई थी, उसके बारे में एक प्रत्यक्षदर्शी मनीषी प्रोफेसर विनयकुमार सरकार कहते हैं - " कोलम्बो में जहाज से उतरते ही अभेदानन्द देशवासियों के द्वारा पूजित होने लगे. यह अभ्यर्थना लगातार छः महीनों तक- मद्रास, कोलकाता होते हुए मुंबई से भारत छोड़ने के समय तक चलती रही. लगता है सौ से अधिक सम्वर्धना-सभाएं हुई होंगी....स्वामी अभेदानन्द के पीछे समग्र भारत मतवाला होकर एक साथ हो गया था. भारतीय एकता अभेदानन्द सम्वर्धना के माध्यम से मूर्तमान हो उठी थी. वह एक अभिनव दृश्य था. " 
पाश्चात्य देशों में स्वामी अभेदानन्द के प्रचार-साफल्य को प्रत्यक्ष देख कर,  एवं उनके श्रीरामकृष्ण-भाव आन्दोलन तथा भारतीय दर्शन और संस्कृति के व्यापक प्रचार कार्य से अभिभूत होकर, अध्यापक विनयकुमार सरकार ने कहा था - " ' विवेक और अभेद ', ये दोनों मानों इस युग में जन्मे हमारे ' अश्विनीकुमार- द्वय '  हैं. " भारतीय संस्कृति को विश्व-पटल ( दरबार ) पर उच्च-स्थान दिलाने में विवेकानन्द और अभेदानन्द का अवदान अपरिसीम था; विशेषतः पाश्चात्य भूमि पर अभेदानन्द की अतूलनीय अवदान को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता. इस बात को विनयकुमार सरकार एक वाक्य में स्वीकार करते थे।
अभेदानन्दजी के भीतर जिस प्रकार सर्व मानवों की हित कामना से एक उत्सर्गित जीवन का दर्शन कर सकते हैं, उसी प्रकार सूगम्भीर प्रज्ञा ( भ्रम रहित ज्ञान ) के आलोक में उपलब्धी-प्राप्त जीवन और पर्वतप्रमाण पांडित्य को प्रत्यक्ष किया जा सकता है जिसके द्वारा उन्होंने भारतीय धर्म- दर्शन और संस्कृति को विश्व-पटल 
पर प्रतिष्ठित करा दिया था। इसके माध्यम से उनके भीतर हमलोग चारित्रिक महत्व की दृढ़ता भी देख सकते हैं।                        
                    उनकी सू-निपुण लेखनी से उद्घाटित हुई है, भारतीय अमूल्य आध्यात्मिक-सम्पदा के निगूढ़ तत्व, जिसके द्वारा विश्व-वासी पाए थे और पा रहे हैं- ' परम प्रशान्ति '! उनकी असाधारण भाषण को सुन कर जिस प्रकार पश्चात्यवासी मंत्र-मुग्ध हुए थे, उसी प्रकार स्वयं विवेकानन्द भी मुग्ध हुए थे. अभेदानन्दजी द्वारा पाश्चात्य में ' पंचदशी ' के उपर दिये प्रथम- व्याख्यान को सुन कर स्वयं स्वामीजी अभिभूत हो गये थे, और  लन्दन की उस महासभा में समस्त विद्वत-जनों के समक्ष उद्दात कण्ठ से घोषणा किये थे- ' मैं यदि शरीर-त्याग दूँ तो मेरे इसी प्रिय गुरुभ्राता के कण्ठ से ध्वनित होगी मेरी वाणी एवं समग्र जगत उसे सुनेगा. '
स्वामीजी की यह वाणी विफल नहीं हुई थी, उसका एक एक शब्द वास्तविकता में रूपांतरित हुआ था. तथा उनकी उसी असाधारण वाग्मिता से विमुग्ध होकर उत्तरण करने के मार्ग पर बहुत से जनसाधारण ने अपना बहुमूल्य जीवन उत्सर्ग कर दिया था. स्वामी अभेदानन्दजी मानों एक चरम वाग्मिता के इतिहास-पुरुष हैं. अमेरिका जैसे स्थान में वे चार-पांच स्थानों में व्याख्यान देते थे. उनके भाषण से विमुग्ध होकर कैप्टन सेभियर ने कहा था- " Swami Abhedananda is a born preacher, wherever he will go he will succeed."
स्वामी अभेदानन्दजी में भारतीय-संस्कृति के प्रति जो सहमर्मिता थी, वह पाश्चात्य में प्रचार कार्य करते समय प्राणधर्मिता बन कर उनकी कण्ठ-वीणा से झंकृत हुई थी. जिसके माध्यम से प्राच्य और पाश्चात्य के बीच स्नेह-बंधन प्रगाढ़ हुआ था, - जिनकी वाणी में एक समन्वयकारी जीवनी शक्ति थी. पाश्चात्य जड़वादी सभ्यता और संस्कृति तथा विश्व-सभ्यता जहाँ रंगीन आलोक से जगमग दिख रही हो, वहाँ स्वामी अभेदानन्दजी भारत-सभ्यता रूप स्निग्ध सूमधुर चांदनी के नये आलोक से आलोक से आलोकित कर दिये थे विश्ववासियों के ह्रदय-मन्दिर को. यद्दपि वह आलोक वैज्ञानिक आलोक की तुलना में बहुत हलका है, तथापि वह शाश्वत सत्य के गौरव से उज्ज्वल महिमा से महिमान्वित और उत्तरण की दिशा का पथ प्रदर्शक था. 
अँधेरे खान के गर्भ को क्षूद्र मुक्ता-मणि जिसप्रकार अपनी ज्योति से निशाना दिखाता है, उसी प्रकार पाश्चात्य के अंधकार दुर्योग्पूर्ण आकाश में भारतीय संस्कृति एक उज्जवल दीपशिखा के रूप में उद्भाषित हुई थी,  एवं उसी दैदीप्यमान आलोक की प्रभा से समग्र विश्वासी आज भी मुखरित हैं, जिसके उत्स के संधान में उन्मुख हो कर वे लोग आज भी भारत के गली-कूंचों, मठों-मन्दिरों, पहाड़ों -कन्दराओं में सर्वत्र एक उद्भ्रांत पथिक बन कर घूम रहे हैं, उसी अनन्त आध्यात्मिक शक्ति के संधान में पथ को भूले पथिकों के लिए स्वामी अभेदानन्दजी मानों एक पथ-प्रदर्शक हैं.
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* ' মাতৃশক্তি ' শারদীয়া ১৪ ১৪ স্ন্খ্যায় প্রকাশিত 
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मंगलवार, 15 मई 2012

" आचार्य अभेदानन्द " pracharak Abhedananda-6

6.आचार्य अभेदानन्द 
स्वामी अभेदानन्दजी महाराज का व्यक्तित्व ईश्वरीय दिव्यभाव और अपार्थिव महिमा के एक जीवन्त प्रतिमूर्ति एवं अधिकारी पुरुष का था. जितने सारे अतिदुर्लभ सद्गुणों का एकत्रित समावेश किसी यथार्थ धर्मगुरु के आदर्श जीवन में रहना चाहिए, महाराज का जीवन उन समस्त गुणों के अपूर्व समन्वय सौन्दर्य की सुषमा से सुसज्जित था. 
उनका ध्यानदीप्त ज्ञानगम्भीर सदानन्दमय प्रशांत-मूर्ति का माधुर्य, लोकोत्तर साधक-चरित्र का स्वर्गिक सौन्दर्य, ज्ञान की प्रखरता, पांडित्य का प्राचूर्य एवं सर्वोपरि अपरिमेय आध्यात्मिकता से सुशोभित उनका जीवन किसी भी यथार्थ धर्माभिलाषी व्यक्ति के लिए विस्मयकारी और वन्दनीय था. 
दार्शनिक मनीषा, प्रगाढ़ पांडित्य, विचित्र वांग्मीता, अकाट्य तार्किकता, तीव्र अन्तर्दृष्टि, महाकर्म-शक्ति उनके जीवन में अकथनीय रूप से सम्मिलित थे. निर्भीक सत्यान्वेषण, कठोर तपस्या, सुतीक्ष्ण विशलेषणी-शक्ति, निरपेक्ष-धीशक्ति एवं तत्व-विवेक, असाम्प्रदायिक उदार दृष्टिकोण, उनके पवित्र चरित्र की एक अपूर्व विशेषता थी. 
यथार्थ सद्गुरु के लक्षण के सम्बन्ध में भगवान शंकराचार्य ने कहा है-
 ' श्रोत्रिय अवृजिन अकाहमत ब्रह्मवित्तम पुरुष आचार्यः । ' 
- अर्थात जो वेदार्थ-द्रष्टा, निष्पाप, सभी तरह के सांसारिक कामनाओं से मुक्त एवं ब्रहमविदों में श्रेष्ठ हों, वही आचार्य हैं- अर्थात सम्पूर्ण मानवजाति के वे धर्मगुरु होने योग्य हैं. स्वामी अभेदानन्दजी इस सिद्ध-कथन के जीवन्त दृष्टान्त थे. 
गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ का आदर्श कैसा होता होगा, यह उनके जीवन-दर्शन से समझा जा सकता है. उपनिषद में कहे गए - ' आत्मक्रीड़ आत्मरति क्रियावानेषू ब्रह्मविद वरिष्ठ ।' - यह आदर्श आचार्य अभेदानन्दजी के जीवन में ही समुज्ज्वल प्रभा से प्रदीप्त एवं प्रकटित हुआ था. 
हमलोग साधारणतः धर्मप्रचारक या आचार्य कहने से जिस प्रकार के व्यक्तित्व की कल्पना करते हैं, अभेदानन्दजी का सामग्रिक जीवन, अभिप्राय, आदर्श एवं कार्यप्रणाली उससे बिल्कुल भिन्न्तर, उन्नत एवं विपरीत था. साधारण तौर पर दिखाई पड़ने वाले हिन्दू, ईसाई अथवा अन्य किसी भी धर्मप्रचारकों जैसा एक सांप्रदायिक अनुदार एकपक्षीय दकियानूसी मतवाद आदि बातों को स्वामी अभेदानन्दजी ने कभी अपना समर्थन नहीं दिया था. क्योंकि वे उदार सार्वजनिक विश्वधर्म के जीवन्त विग्रह भगवान श्रीरामकृष्ण के दीक्षित सन्तान तो थे ही, स्वयं भी एक सत्यद्रष्टा महायोगी - ज्ञानयोगी थे !
इसीलिए किसी भी प्रकार के दलबन्दी पर आधारित संकीर्ण सांप्रदायिक मतवाद का प्रचार-प्रसार करना उन जैसे महायोगी और सत्यद्रष्टा साधक के जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता था. समस्त प्रकार के सम्प्रदायों के परे विश्वजनीन सत्यधर्म का जो अनवद्य अपरूप प्रकाश है, उसको उन्होंने अपने परम आराध्य गुरु भगवान श्रीरामकृष्ण के ज्योतिर्मय तपोपूत जीवन में उतरते देखा था. इसी उदार सर्वजनीन धर्मादर्श भारतवर्ष में यूरोप में अमेरिका में जाती-धर्म-वर्ण- श्रेणी निरपेक्ष समस्त नर-नारियों में उन्होंने प्रचार किया था. 
किसी दार्शनिक जैसी विचार-शक्ति एवं वैज्ञानिक जैसे दृष्टिकोण के साथ अभेदानन्दजी धर्म के प्रत्येक विषय की मीमांसा किया करते थे. इसके ऊपर वे विभिन्न धर्म -मतों से ऐतिहासिक प्रमाण एवं तात्विक-तथ्यों को भी उद्धृत किया करते थे. 
उनका मन सम्पूर्ण रूप से तार्किक और विचारशील था। किसी भी कार्य को करने से 
पूर्व वे अपनी विश्लेषणी बुद्धि ( विवेक-प्रयोग ) द्वारा उसके भले-बुरे समस्त पक्षों पर विचार-विश्लेषण करने के बाद ही उसका ग्रहण या वर्जन करना उनका स्वाभाव (आदत या चरित्र ) बन गया था.
धर्मविषयक किसी भी एक प्रश्न को लेकर उसका सम्पूर्ण भला-बुरा पक्ष अपने सूक्ष्म बुद्धि से आविष्कार करके उसी श्रेणी के अन्य तथ्यों के साथ तुलना और संशोधन करने के बाद अन्त में वेदान्त की भित्ति पर उसका एक सर्वांगसुन्दर ऐक्य एवं समाधान करना ही उनके धर्म-व्याख्यान की पद्धति थी. 
किसी धर्मप्रचारक का आदर्श कैसा होना चाहिए,  उसे अपनी मौलिक चिन्तनशक्ति के द्वारा अविष्कार करके पाश्चात्य देशों में प्रचार कार्य के लिए जाने से कुछ ही समय पहले १८९५ ई० में अपने एक प्रबंध-
  ' The Hindu Preacher ' में अभेदानन्द जी स्वयं लिखते हैं- " A great want of this age is a religious order of the Hindus, which well-equipped with modern learning in science and in philosophy, possessing a knowledge of the world and acquainted with spirit of the times will undertake the propagation of the Hindu religion in all countries and bring into existence the reign of peace and harmony in the midst of waring religions. "
- अर्थात " इस युग की सबसे प्रधान आवश्यकता है,हिन्दुओं की एक ऐसी  ' ईमानदार व्यवस्था ' (असाम्प्रदायिक धार्मिक सम्प्रदाय ) खड़ी की जाय, जो विज्ञान एवं दर्शन-शास्त्र (तत्वज्ञान- ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या) के आधुनिक अध्यन से भलीभांति सुसज्जित होने के साथ साथ; अपने भीतर सम्पूर्ण विश्व के ज्ञान को भी समाहित रखे तथा सभी समय के विचार-धारा से भलीभांति परिचित हो ! वैसी ' ईमानदार व्यवस्था ' (असाम्प्रदायिक धार्मिक सम्प्रदाय ) ही सभी देशों में हिन्दू-धर्म (वेदान्तिक-धर्म ) के प्रचार-प्रसार का उत्तरदायित्व ले सकती है  एवं आपस में युद्धरत धर्मों के बीच शान्ति और समरसता (अविरोध ) के आधिपत्य को स्थापित कर सकती है। 
भारतीय शाश्वत सनातन वेदान्तिक हिन्दू-धर्म के इस अपूर्व उदार एवं असाम्प्रदायिक आदर्श को लेकर ही  सार्वभौमिक-धर्म के जीवन्त विग्रह श्रीरामकृष्ण के यथार्थ भावशिष्य स्वामी विवेकानन्द, तथा उनके बाद स्वामी अभेदानन्द ने पृथ्वी के विभिन्न देशों में सभी धर्मों के समस्त जाति के नरनारी के पास परम मुक्ति, शान्ति और सत्य-प्राप्ति का पथप्रदर्शन किया है. 
वर्तमान युग वैज्ञानिक आविष्कार तथा उद्भावना का ही युग है. तार्किकता ही इसकी एकमात्र भित्ति है- तर्क-प्रधान वर्तमान युग में तर्क-युक्ति की कसौटी पर कसे बिना, किसी भी मतवाद को प्रतिष्ठित करना बिल्कुल असंभव है. कार्य-कारण वाद के अतिरक्त इस युग के विद्वत समाज के लिए अब कोई अन्य मत स्वीकार्य नहीं है, उनको वे बिल्कुल मृतप्राय मानते हैं. जहाँ पर केवल तर्क-युक्ति का ही प्राधान्य हो, जो मत या  सिद्धान्त कार्य-कारणवाद या तर्कवाद की दृढ़ भित्ति पर खड़ा है,  उसी मतवाद को वर्तमान युग के चिन्तनशील मनीषियों का समर्थन मिल सकता है. 
दीर्घ काल से कोई दकियानूसी लौकिक-प्रथा चली आ रही है, इसीलिए आज भी हमें उसे मानना होगा ? अयौक्तिक मतवाद, अन्धविश्वास, ढोंग-ढकोसला, धार्मिक कट्टरता, असम्बद्ध अलीक भावप्रवणता, व्यक्तिविशेष के प्रति निर्विचार अनुराग आदि जैसे आधारहीन तर्क या निर्देश देकर, आज के चिन्तनशील युवाओं के संदेह या जिज्ञाषा को मिटाया नहीं जा सकता.
किसी भी युक्तिहीन विचारहीन मतवाद को, या उन सिद्धांतों को जो आधुनिक युग के वैज्ञानिक नियमों के विरुद्ध हों- उसे आज का कोई यथार्थ शिक्षित और सत्यार्थी व्यक्ति अब और आगे मानने को तैयार नहीं है. इसीकारण जब वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार करने वाला व्यक्ति, अपनी आन्तरिक सत्य-अनुसन्धानी बुद्धि के द्वारा अनुप्रेरित होकर- जगत की उत्पत्ति, स्थिति, परिणाम या मानव का जन्म, परिणति, कर्मफल आदि विभिन्न जटिल समस्याओं के बारे में पादरि, पुरोहित, मौलवी या किसी सामान्य धर्मप्रचारक से प्रश्न करता है, वे साम्प्रदायिक मतसर्वस्व तथाकथित ' धर्मप्रचारक ' लोग हतबुद्धि होकर बगलें झाँकने लगते हैं और उनके किसी भी प्रश्न का सटीक उत्तर नहीं दे पाते हैं. 
जब वह जिज्ञासु या सत्यार्थी ( सत्य-अन्वेषी ) व्यक्ति अपने प्रश्नों का सटीक उत्तर नहीं पाता है, तो उसका संशय और अधिक दृढ़ हो जाता है. और क्रमशः यह संशय घोर अविश्वास में परिणत हो जाता है. इसीलिए वर्तमान युग का तार्किक सत्यार्थी जब तथाकथित धर्मप्रचारकों से अपनी समस्याओं का कोई समाधान नहीं पाता है, तो वह अन्ततोगत्वा घोर निराशा में डूब कर हताशा से नास्तिक बन जाता है. 
ऐसेही निराशाग्रस्त, हताश,  नास्तिक सत्यान्वेषियों के सम्मुख ' अपरोक्ष सत्यदर्शन ' के अटल अग्रभेदी भित्ति के उपर खड़े होकर, स्वामी अभेदानन्दजी  उनको ' आशा की वाणी ' सुनाते हुए कहते हैं-
" Vedanta can turn our science into a system of religion.we must stand on the solid ground of reason and ultimate research to understand the final goal of religion. Vedanta tells us that religion is nothing,but the science of soul,
and that science of being is not distinct and separate from the science of the universe that universe is but our own being. "
  -अर्थात ' वेदान्त ' ( या नेति नेति विचार पद्धति ) में वह सामर्थ्य है कि वह हमारे ' विज्ञान ' को एक ' परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास  कराने वाली व्यवस्था ' के रूप में परिणत कर सकता है ! हमलोगों को तार्किकता के ठोस धरातल पर खड़े होकर,धर्म के अन्तिम लक्ष्य को समझने का एक निर्णायक अनुसन्धान
 ( जैसा अभी जिनेवा की सर्न प्रयोग शाळा में चल भी रहा है।)  अवश्य करना चाहिए. वेदान्त यह घोषणा करता है कि -' आत्मा को जानने के विज्ञान ' को ही ' धर्म ' कहते हैं. तथा ' अपने अस्तित्व को जानने का यह विज्ञान '  इस ' विश्व-ब्रह्माण्ड को जानने के विज्ञान ' से पृथक और भिन्न नहीं है; तथा यह विश्व-ब्रह्माण्ड;  और कुछ नहीं, हमारी अपनी ही सत्ता है. "( यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे ) 
यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि, ' वेदान्त ' क्या है ?  इस प्रश्न का उत्तर देते हुए स्वामी अभेदानन्दजी अपने व्याख्यान - ' What is Vedanta ' में कहते हैं- 
" The term Vedanta in the present case is used to signify, not a book, but ' Wisdom ', while ' anta ' (अन्त ) means ' end ', Vedanta therefore, implies literally ' end of wisdom '; and the philosophy is called Vedanta because it explains what that end is and how it can be attained. " 
अर्थात" पेश किये गए उदाहरण में ' वेदान्त ' शब्द का प्रयोग किसी पुस्तक को सूचित करने के लिए नहीं 
 बल्कि ' ज्ञान ' को सूचित करने के लिए किया गया है,जब कि ' अन्त ' का अर्थ है - ' जानने का अन्त '.इसीलिए वेदान्त का शाब्दिक अर्थ है-' अन्तिम ज्ञान या सर्वोच्च ज्ञान ' ( ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या - को अपरोक्ष रूप से अर्थात अपने अनुभव से जानना या आत्मसाक्षात्कार कर लेना );तथा इस दर्शन-शास्त्र को वेदान्त कहते हैं, क्योंकि यह इस बात की व्याख्या करता है कि मनुष्यजाति का ' अंतिम-लक्ष्य ' क्या है, तथा उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है. "
इसीलिए वेदान्त-धर्म का आदर्श और उसकी साधना पद्धति संपूर्णतः सर्वजनीन है. यह सर्वोच्च सत्य किसी व्यक्ति या किसी भी मतवाद में आबद्ध नहीं है. उपरोक्त व्याख्यान में स्वामी अभेदानन्दजी इसी बात को स्पष्ट रूप से घोषित कर रहे हैं. 
वेदान्त प्रतिपाद्य-धर्म का उद्देश्य है- आत्मज्ञान की प्राप्ति या आत्मसाक्षात्कार । किस प्रकार इसे प्राप्त किया जाता है ? इस प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं- " आत्म-संयम ( या मनः संयोग ) करो, आत्मज्ञान हो जायेगा । तभी तुम यह जान पाओगे कि भगवान क्या हैं. इस मार्ग पर बढ़ने की इच्छा जिस किसी भी व्यक्ति में होगी, वही इसका अधिकारी है. फिरभी अधिकारी के अन्तर के अनुसार इच्छा-शक्ति का तारतम्य रहता है. 
तुम्हारे भीतर दो प्रकार का 'मैं' साथ-साथ रहता है। 
 एक है ' पशु-मैं ' और दूसरा है ' देव-मैं '!
 इस पशु-मैं का दमन करके, 
अपने आन्तरिक ' देव-मैं ' को अभिव्यक्त करो !
  - इसी को 'आत्म-संयम ' कहते हैं. "
{ इसी तकनिकी सलाह को स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " What is education? Is it book-learning? No. Is it diverse knowledge? Not even that. The training by which the current and expression of will are brought under control and become fruitful is called education."(4/490)
" शिक्षा क्या है ? क्या वह पुस्तक-विद्या है ? नहीं ! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं, यह भी नहीं।  जिस संयम (मनः संयोग का प्रशिक्षण ) के द्वारा इच्छा-शक्ति ( Will Power ) के प्रवाह एवं अभिव्यक्ति को
वश में लाया जाता है, (अर्थात ' विवेक-शक्ति ' का प्रयोग करके ' पशु-मैं ' से खींच कर
 ' देव मैं ' की दिशा में प्रवाहित रहने के लिए निर्देशित किया जाता है।) और वह फलदायक होता है (अर्थात पशु मानव को देव मानव में रूपांतरित कर देता है ), वह शिक्षा कहलाती है।" 
  स्वामीजी के सन्देश का सार मर्म है- " स्वयं पूर्ण बनो और दूसरों को भी पूर्ण बनाओ ! " " Be and Make !"   }
यथार्थ धर्म की मूलनीति - आत्मसंयम, सत्यनिष्ठा, पवित्रता, विवेक, वैराग्य, ध्यानाभ्यास, निःस्वार्थ मानवसेवा (सेवा-परायणता ) आदि  सदगुणों को निरन्तर जीवन में उतारने पर प्रतिष्ठित है. जीवन में इन सद्गुणों को महत्व न देकर केवल जिस-तिस पर विश्वास करने से धर्म के तत्व की उपलब्धी करना असम्भव है.
इस प्रसंग के ऊपर अधिकारी स्वामी अभेदानन्दजी अपनी ' आत्म-विकास ' नामक पुस्तक में विशेष रूप से प्रकाश डालते हुए लिखते हैं- " साधन-स्वाध्याय और विवेक-वैराग्य न रहने से केवल शास्त्र आदि का अध्यन करने पर धर्मलाभ नहीं होता. शास्त्रों में धर्मसाधना की विधि-निर्देश और उपाय कहा गया है. उसका ठीक ठीक आचरण और अभ्यास न करने से परमार्थ तत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती है. "

शास्त्र-कथन के यथार्थ एवं सत्ययता को देखना हो तो, उसे इन सब असाधारण अधिकारिक महापुरुषों के जीवन में देखा जा सकता है; क्योंकि ये लोग संयम, तपस्या, विवेक, वैराग्य, ध्यानाभ्यास, आदि का अनुशीलन करते हुए अन्त में आत्मसाक्षात्कार करके मुक्त और पूर्णकाम बने हैं.बाहरी आचार-अनुष्ठान करने या त्याग का पोशाक (गेरुआ ) धारण कर लेने मात्र से ही कोई त्यागी नहीं बन जाता है. जब तक भीतर (अंतःकरण ) से आसक्ति, कूभाव, लोभ, हिंसा, विषय-वासना, आदि बिल्कुल दूर नहीं हो जाते, तब तक वैराग्य का कोई अर्थ ही नहीं होता.
वैराग्य क्या है- इस सम्बन्ध अभेदानन्दजी इसप्रकार कहते हैं-  " वैराग्य का अर्थ जंगल में चले जाना नहीं है. भगवान के प्रति खिंचाव होने से दूसरी ओर का खिंचाव ( पार्थिव वस्तुओं में आसक्ति) कम हो जाता है. इसको ही वैराग्य कहते हैं. पूर्व दिशा में जितना आगे बढ़ते जाओगे, पश्चिम दिशा उतनी ही पीछे छूटती चली जाएगी.
  ..सभी को गेरुआ नहीं पहनना होगा. यह क्या चीज है ? यह तो Fire of knowledge (ज्ञानाग्नि ) का
 Symbol ( प्रतीक ) है.- clothe yourselves with the fire of knowledge, ( आत्मसाक्षात्कार जन्य ज्ञान से मन के पूर्व जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों को भष्म करके, ' मूर्तमान ज्ञानाग्नि ' बन कर रहो ). केवल गेरुआ पहन लेना ही काफी नहीं है, जिसकी समस्त भोगों की वासना त्याग हो चुकी हो वे ही सन्यासी हैं, स्थितधी: हैं." 
ज्ञान और वैराग्य के ऐसे ही एक दृष्टान्त को हमलोगों ने प्रत्यक्ष देखा है. वे हैं- ज्ञान और त्याग की पराकाष्ठा के आदर्श - श्रीरामकृष्ण !... किसी भी कामना को बुल-बुले के आकर में उठने के पहले ही, ( यथार्थ शिक्षा या 
विवेक-विचार का प्रशिक्षण प्राप्त करके ) उसको नष्ट करना होता है।
 इसीलिए विवेक-विचार करने एवं ध्यान (मनः संयोग का अभ्यास) करने की आवश्यकता होती है. जो लोग थोडा भी ध्यान ( मनः संयोग का नियमित अभ्यास ) किये  हैं, वे ही जानते हैं कि शान्ति क्या है.  किसी भी कामना की सिद्धि होने से जो क्षणिक सुख मिलता है, उसके साथ इसी ' शान्ति ' की तुलना करते हुए विवेक-विचार करना होता है. " 
पार्थिव वासना, दैहिक सुखलिप्सा, इन्द्रिय परायणता या मन की चंचलता ही इस ध्यानाभ्यास का अन्तराय है. पार्थिव विषयों की वासना, स्वार्थपरता, और काम-क्रोध आदि वृत्ति ही इन समस्त मानसिक चांचल्य का मूल है. इसीलिए वे आगे कहते हैं- " काम-क्रोध रहने के कारण ही तो, संसारी मनुष्य ध्यान (मनः संयोग ) नहीं कर पाते हैं. अभ्यास करना छोड़ देते हैं. मुक्ति क्या है ? इन्द्रिय और मन के दासत्व से मुक्ति- जिसके द्वारा शान्ति, स्वास्थ्य, आनन्द, ज्ञान आदि प्राप्त होते हैं.
...ईश्वर के प्रति अनुराग होने पर विषयों के प्रति आसक्ति को काट कर मुक्त पुरुष हुआ जा सकता है. यह साधना करते रहने से क्रमशः मन स्थिर होने लगता है, उसके बाद जब मन कुछ और अधिक स्थिर रहने लगता है, तब अपने ईष्टदेव ( ठाकुर-माँ ) का चिन्तन किया जा सकता है.दूसरी समस्त विचारों को छोड़ कर, मन जब केवल अपने ईष्टदेव का चिन्तन करने में डूब जाता है, ध्यान का प्रारम्भ ठीक तभी होता है." 
जो लोग ध्यानाभ्यास ( मनः संयोग ) करने के अभ्यस्त हैं, वे ही जानते हैं कि, साधक-जीवन की प्रथम अवस्था में मन चंचल होकर किस प्रकार साधक की ईश्वर-चिन्तन में विघ्न उपस्थित करता है ?  पातन्जल योगशास्त्र तथा श्रीमदभगवद्गीता में कहा गया है, निरन्तर दीर्घकाल तक ध्यान-अभ्यास, त्याग-वैराग्य एवं विवेक-विचार द्वारा मन को पूरी तरह से वश में कर लेने वाला महातेजस्वी योद्धा ही वीर सन्यासी होता है. उनके उसी तपोमय शरीर में विभिन्न आचार्य प्रकाशित होते हैं। कभी वह शिशु जैसा सरल सदा हास्यमय- तो 
कभी विजयी वीर जैसा संग्रामचेता जैसा प्रतीत होता है.
  कभी वह महाज्ञानी की ज्ञानदीप्त प्रचंडता, तो कभी महाभक्त की भक्ति कमनीयता से ओतप्रोत प्रतीत होता है. तो कभी उसके किसी महापण्डित जैसे प्रगाढ़ पाण्डित्य के समक्ष सुविख्यात मनीषीगण भी स्तब्ध रह जाते हैं. फिर कभी वे स्वयम किसी छोटे से बालक से भी सामान्य से किसी विषय की शिक्षा को बड़े आग्रह के साथ ग्रहण कर रहे होते हैं. 
अमेरिका यूरोप में वे संघबद्ध इसाई मिशनरियों, नास्तिक और अज्ञेय वादियों के साथ संग्राम में एकेश्वर निरत और युक्ति की कृपान से ज्ञान के शानित अस्त्र से उनमे से प्रत्येक को परास्त कर देने वाले थे. केवल उतना ही नहीं, अमेरिका और यूरोप के प्रधान प्रधान विश्वविद्यालय में और सूविख्यात जनसभाओं में दार्शनिक, समाजसेवी, वैज्ञानिक के लिए श्रद्धा, सम्मान, से बार बार अभिनन्दित हुए हैं. 
महा महान विद्वान-पण्डित उनके साथ एक ही मंच पर बैठे थे, उनके पाण्डित्य को देखे हैं, और उस मनीषा की कोई तुलना नहीं हो सकती. फिर भारत उस दिग्विजयी विश्व-वरेण्य सन्यासी को अशिक्षित, अज्ञ, ग्रामवासियों के पास देखता है, ये तो उन्हीं के जैसे सहज-सरल भाषा में उनके समस्त प्रश्नों का उत्तर दे रहे हैं, सर्वआभरण रहित सरल सुकुमार शिशु जैसा सदा आनन्दमय एक अद्भुत योगी पुरुष. 
यह जो प्रत्येक के निकट उसी के जैसा हो जाने की क्षमता, - सबों के मन के साथ अपने मन को मिला देने की क्षमता जो उनमे थी, वह उनकी एक आश्चर्यजनक ईश्वरीय शक्ति थी. उनके पूतचरित्र में समस्त विशुद्ध गुणों का समावेश था. वे बज्र के समान कठोर थे, तो पुष्प जैसे कोमल भी थे. 
उनके सुदीर्घ गौरवमय प्रचारक जीवन की विस्मयकारी घटना- अद्भुत असाधारण अमित प्रतिभा की चिन्तास्पद और और कार्य-वैचित्र्य पूर्ण जीवन की समग्र और सर्वांगसुन्दर इतिहास जगत में विरल है. जगत के विभिन्न स्थानों में प्रचारकार्य और कर्म जीवन का समस्त विवरण, कई स्थानों के मनीषी, सूविद्वान व्यक्ति, या प्रख्यात प्रतिष्ठानों के नेताओं का उनके पास लिखित पत्रावली, अमेरिका, यूरोप के संवादपत्रों में समादर पूर्ण असंख्य अभिमत - उनके प्राच्य और पाश्चात्य के शिष्यवृन्द, गुणग्राही, उनके भक्तों से प्राप्त उनके जीवन की नानाविध घटनावली इत्यादि उपादानों का सम्पूर्ण संग्रह कर उसको कालक्रमिक संयोजना और संस्थापना करना भी बहुत वर्षों तक आग्रहपूर्ण अध्यवसाय सापेक्ष कार्य है. 
उनका व्यापक प्रचार कार्य में केवल रामकृष्ण-संप्रदाय ही नहीं, परन्तु भारत के अन्य समस्त सुधि-सन्त, दार्शनिक और धर्मप्रचारक उसी सुदूर समुद्र पार में भारत की सभ्यता, संस्कृति, धर्मप्रचार करके देश, जाति और स्वयं को गौरवान्वित किये हैं. वह महती प्रचेष्टा और अक्लान्त अविश्रांत जो परिश्रम - उनका गौरवमय साफल्य को उन्होंने यथार्थ संन्यासी के जैसा अर्पित कर दिए हैं भगवान श्रीरामकृष्ण को, उन्हीं की मनीषा, पाण्डित्य, और आध्यात्मिकता के फलस्वरूप भारत का आर्य धर्म. आर्य-सभ्यता, आज पाश्चात्य के सुधि समाज में स्वीकृत और सम्मानित है. उनके कार्य-धरा के गौरव से समग्र भारतवर्ष गौरवान्वित है. 
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* ' উন্মেষ ' পত্রিকায় প্রকাশিত     ( ' उन्मेष ' नामक पत्रिका में प्रकाशित ) 
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