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गुरुवार, 10 मार्च 2011

' विवेक-अंजन ' से अलौकिक दृष्टि मिलती है !

 ' विवेक-अंजन ' से अलौकिक दृष्टि मिलती है !  
ऐसा कहा जाता है, कि जैसी दृष्टि होती है वैसी ही सृष्टि होती है । जब तक हमारी अपनी (अहं की य़ा मैंपन की)  दृष्टि होती है, अपने विचार होते हैं, अपनी अपनी (मनगढ़ंत) मान्यतायें ( मैं स्त्री य़ा पुरुष शरीर मात्र हूँ ) होती हैं, तब तक हम विवेक-दृष्टि को प्राप्त नहीं कर सकते । विवेक रूपी सदगुरु की शरण में आकर हम अपनी इन चर्म-चक्षुओं से  इस सतत परिवर्तनशील जगत में व्याप्त अटल सत्य का साक्षात्कार कर सकते हैं.
" जिस प्रकार संसार का कोई कोई धर्म कहता है कि जो व्यक्ति अपने से बाहर सगुण ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता, वह नास्तिक है. उसी प्रकार वेदान्त भी कहता है कि जो व्यक्ति अपने आप पर विश्वास नहीं करता, वह नास्तिक है. अपनी आत्मा की महिमा में विश्वास न करने को ही वेदान्त में नास्तिकता कहते हैं. "(वि० सा० ख० ८:६)
" हममें ब्रह्माण्ड की समूची शक्ति पहले से ही है. हमलोग स्वयं ही अपने नेत्रों पर हाथ रखकर ' अन्धकार ' 'अन्धकार ' कहकर चीत्कार करते हैं. जान लो कि तुम्हारे चारों ओर कोई अन्धकार नहीं है...हमलोग मूर्ख होने के कारण ही चिल्लाते हैं कि हम दुर्बल हैं, मूर्खतावश ही चिल्लाते हैं कि हम अपवित्र हैं..जिस क्षण तुम कहते हो, ' मैं मर्त्य क्षुद्र जीव हूँ ', तुम झूठ बोलते हो; तुम मानो सम्मोहन के द्वारा अपने को अधम, दुर्बल, अभागा बना डालते हो. वेदान्त पाप स्वीकार नहीं करता, भ्रम स्वीकार करता है. और वेदान्त कहता है कि सबसे बड़ा भ्रम है- अपने को दुर्बल, पापी, हतभाग्य कहना. (८: ७)     " सब कुछ वही एक सत्तामात्र है; भेद केवल परिणाम का है, प्रकार का नहीं. हमारे जीवन में अन्तर प्रकारगत नहीं है. वेदान्त इस बात को बिलकुल नहीं मानता कि पशु मनुष्य से पूर्णतया पृथक हैं और उन्हें ईश्वर ने हमारे भोज्यरूप में बनाया है. " ( वि० सा० ख० ८:८)
"हमें दूसरों को घृणा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए. हम सभी उसी एक लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं. दुर्बलता और सबलता में केवल परिणामगत भेद है...एक वस्तु का दूसरी वस्तु से भेद केवल परिणामगत ही है, प्रकारगत नहीं; क्योंकि, वास्तव में सभी वस्तुएं वही एक अखण्ड वस्तुमात्र है. सब वही एक है, जो अपने को विचार (मन), जीवन, आत्मा या देह के रूप में अभिव्यक्त करता है, और उनमें अन्तर केवल परिमाण का है. अतः जो किसी कारणवश हमारे समान उन्नति नहीं कर पाये, उनके प्रति घृणा करने का अधिकार हमें नहीं है." (८: १०)
"मनुष्य कितनी ही अवनति की अवस्था में क्यों न पहुँच जाय, एक समय ऐसा अवश्य आता है, जब वह उससे बेहद आर्त होकर एक उर्ध्वगामी मोड़ लेता है और अपने में विश्वास करना सीखता है. किन्तु हम लोगों को इसे शुरू से ही जान लेना अच्छा है. हम आत्मविश्वास सीखने के लिए इतने कटु अनुभव क्यों प्राप्त करें ?
इस विश्वास का अर्थ है- सबके प्रति विश्वास, क्योंकि तुम सभी एक हो. अपने प्रति प्रेम का अर्थ है सब प्राणियों से प्रेम, समस्त पशु-पक्षियों से प्रेम, सब वस्तुओं से प्रेम - क्योंकि तुम सब एक हो. यही महान विश्वास जगत को अधिक अच्छा बना सकेगा. "
वही सर्वश्रेष्ठ मनुष्य (नरेन्द्र) है, जो सच्चाई के साथ कह सकता है, ' मैं अपने सम्बन्ध में सब कुछ जनता हूँ.' क्या तुम जानते हो कि तुम्हारी इस देह के भीतर (मन में) कितनी  उर्जा, कितनी शक्तियाँ, कितने प्रकार के बल अब भी छिपे पड़े हैं ? ..अतएव तुम कैसे अपने को जबरदस्ती दुर्बल कहते हो ? ऊपर से दिखनेवाली इस पतितावस्था के पीछे क्या सम्भावना है, क्या तुम यह जानते हो?तुम्हारे अन्दर जो (मन की अनन्त शक्ति) है, उसका केवल थोडा सा तुम जानते हो. (अभी हमारे मन का  केवल एक भाग जाग्रत है, नौ हिस्सा मन सोया हुआ है)" (८: १३)  
"आत्मा वा अरे श्रोतव्यः - इस आत्मा के बारे में पहले सुनना चाहिए. (स्वामी विवेकानन्द के मुख से उनके इष्टदेव का नाम ) दिन-रात श्रवण करो कि तुम्हीं वह आत्मा (ठाकुर) हो !(भगवान को बंगला में ठाकुर कहते हैं ) दिन-रात यही भाव अपने मन में व्याप्त किये रहो, यहाँ तक कि वह तुम्हारे के रक्त के प्रत्येक बूंद में और तुम्हारी नस नस में समा जाय. सम्पूर्ण शरीर को इसी एक आदर्श {श्रीरामकृष्ण परमहंस (परमहंस =Most Intelligent person)} के भाव से पूर्ण कर दो- ' मैं अज, अविनाशी, आनन्दमय, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान नित्य ज्योतिर्मय (सच्चिदानन्द) आत्मा हूँ.' -- दिन-रात यही चिन्तन करते रहो, जब तक कि भाव तुम्हारे जीवन का अविच्छेद्य अंग नहीं बन जाता. इसीका ध्यान करते रहो- और इसीसे तुम कर्म करने में समर्थ हो सकोगे. '
 ' ह्रदय पूर्ण होने पर मुंह बात करता है- ह्रदय पूर्ण होने पर हाथ भी काम करते हैं. '.. तब इस विचार-शक्ति के प्रभाव से तुम्हारे सम्पूर्ण कर्म वृहत, परिवर्तित और देवभावापन्न हो जायेंगे. अगर 'जड़' (शरीर) शक्तिशाली है, तो 'विचार ' ( मन ) सर्व शक्तिमान है. इस विचार से अपने जीवन को प्रेरित कर डालो, स्वयं को अपनी तेजस्विता, सर्वशक्तिमत्ता और गरिमा के भाव से पुर्णतः भर लो ! ईश्वरकृपा से काश कुसंस्कारपूर्ण भाव ( मैं स्त्री-पुरुष हूँ, शरीर हूँ ..ऐसो घर हम बहुत बसायो ) तुम्हारे अन्दर प्रवेश न कर पाते !...ईश्वरकृपा से काश हम लोग इस कुसंस्कार के प्रभाव तथा दुर्बलता और नीचता के भाव ( स्वयं को देह, स्त्री-पुरुष मानकर विपरीत लिंग के प्रति कशिश ) से परिवेष्टित न होते ! ईश्वरेच्छा से काश, मनुष्य अपेक्षाकृत सहज उपाय द्वारा उच्चतम, महत्तम सत्यों ( I am He, सोSहम ! ) को प्राप्त कर सकता ! किन्तु उसे इन सबमें से ( विवाह, रोग-शोक में से ) होकर ही जाना पड़ता है; जो लोग तुम्हारे पीछे आ रहे हैं, उनके लिए रास्ता अधिक दुर्गम न बनाओ ." (८:१३)  
" यदि कर सको तो जगत का कल्याण करो, पर उसका अनिष्ट न करो. अपने अंतरतम से यह समझ लो कि तुम्हारे ये सीमित विचार एवं काल्पनिक पुरुषों के सामने घुटने टेककर तुम्हारा रोना या प्राथना करना केवल अन्धविश्वास है. मुझे एक ऐसा उदाहरण बताओ, जहाँ बाहर से इन प्रार्थनाओं का उत्तर मिला हो. जो भी उत्तर पाते हो, वह अपने ह्रदय से ही. तुम जानते हो कि भूत नहीं होते, किन्तु अंधकार में जाते ही शरीर कुछ काँप सा जाता है. इसका कारण यह है कि बिलकुल बचपन से ही हम लोगों के सिर में यह भय घुसा दिया गया है. किन्तु समाज के भय से, संसार के कहने सुनने के भय से, बन्धु-बान्धवों की घृणा के भय से, अथवा अपने प्रिय कुसंस्कार के नष्ट होने के भय से, यह सब हम दूसरों को न सिखायें. इन सबको जीत लो. धर्म के विषय में विश्व-ब्रह्माण्ड के एकत्व और आत्मविश्वास के अतिरिक्त और क्या शिक्षा आवश्यक है ? सहस्त्रों वर्षों से मनुष्य इसी लक्ष्य की प्राप्ति की चेष्टा करता आ रहा है और अभी भी कर रहा है. केवल एक ही जीवन है, एक ही जगत है और वही हम लोगों को अनेकवत प्रतीत होता है.. केवल वह 'एक' (ब्रह्म =ठाकुर ) ही अपने को बहू रूप  में - जड़, चेतन, मन, विचार, अथवा अन्य विविध रूपों (चौरासी लाख योनियों ) में व्यक्त कर रहा है. अतएव हम लोगों का प्रथम कर्तव्य है- इस तत्व की अपने को तथा दूसरों को शिक्षा देना. " (८:१४-१५)
" दुर्बल मनुष्यों को यही सुनाते रहो- लगातार सुनाते रहो - ' तुम शुद्धस्वरूप हो, उठो, जाग्रत होओ. हे शक्तिमान, यह नींद तुम्हें शोभा नहीं देती. जागो, उठो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता. तुम अपने को दुर्बल और दुखी मत समझो. हे सर्वशक्तिमान, उठो, जाग्रत होओ अपना स्वरुप प्रकाशित करो. तुम अपने को पापी समझते हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता. तुम अपने को दुर्बल समझते हो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है. ' 
जगत से यही कहते रहो, अपने से यही कहते रहो- देखो इसका ( विवेक-अंजन का ) - क्या व्यावहारिक फल होता है, देखो कैसे बिजली के प्रकाश से सभी वस्तुएँ प्रकाशित हो उठती हैं, और सब कुछ कैसे परिवर्तित हो जाता है. मनुष्य जाति से यह बतलाओ और उसे उसकी शक्ति दिखा दो. तभी हम अपने दैनंदिन जीवन में उसका (विवेक-अंजन का ) प्रयोग करना सीख सकेंगे. 
' To be able to use what we call Viveka  (discrimination), to learn how in every moment of our lives, in every one of our actions, to discriminate between what is right and wrong, true and false, we shall have to know the test of truth, which is purity, oneness.'   
जिसे हम विवेक या सदसत विचार कहते हैं, उसका (विवेक-प्रयोग को ) अपने जीवन के प्रतिक्षण में एवं प्रत्येक कार्य में उपयोग करने की क्षमता प्राप्त करने के लिए हमें सत्य की कसौटी जान लेनी चाहिए- और वह है पवित्रता तथा एकत्व का ज्ञान. ' Everything that makes for oneness is truth. which is purity, because hatred makes for multiplicity. It is hatred that separates man from man; therefore it is wrong and false. It is a disintegrating power, it separates and destroys. '  
जिससे एकत्व की प्राप्ति हो, वही सत्य है. प्रेम सत्य है; घृणा असत्य है, क्योंकि वह अनेकत्व को जन्म देती है. घृणा ही मनुष्य को मनुष्य से पृथक करती है- अतएव वह गलत और मिथ्या है; यह एक विघटक शक्ति है; वह पृथक करती है- नाश करती है. प्रेम जोड़ता है, प्रेम एकत्व स्थापित करता है. " (८: १५)
' तुम जो कुछ जानते हो, आत्मा के द्वारा ही जानते हो. (टॉफी-मिल्क, कुर्सी आदि ) देखने से पहले मुझे अपने स्वयं (यथार्थ स्वरुप का) का ज्ञान होता है, उसके बाद कुर्सी का. इस आत्मा में और उसके द्वारा ही मुझे तुम्हारा ज्ञान होता है, ...आत्मा को हटा लेने से सम्पूर्ण जगत ही विलुप्त हो जाता है. .. यही ' वह ' (He -श्रीरामकृष्ण, ब्रह्म, अल्ला या वाहे गुरु ) ' तुम ' हो, जिसको तुम ' मैं ' ( M /F ) कहते हो. ..ससीम 'मैं' केवल भ्रम मात्र है, गल्पकथा मात्र है. उस अनन्त के ऊपर मानो एक आवरण पड़ा हुआ है और उसका कुछ अंश इस 'मैं' (M/F) रूप में प्रकाशित हो रहा है, किन्तु वास्तव में वह उसी अनन्त (ब्रह्म,अल्ला, वाहेगुरु, श्रीरामकृष्ण ) का अंश है. ..उसको बिना जाने हम क्षणमात्र भी जीवित नहीं रह सकते. ..वेदान्त का ईश्वर सब चीजों की अपेक्षा अधिक ज्ञात हैं; वह कल्पनाप्रसूत नहीं है. ..जो ईश्वर, सब प्राणियों में विराजमान है, हमारी इन्द्रियों से भी अधिक सत्य है, मैं जिसे सम्मुख देख रहा हूँ, उससे भी अधिक ईश्वर और व्यावहारिक कहाँ होगा ? क्योंकि तुम्हीं वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान ईश्वर हो, और यदि यह कहूँ कि तुम वह (ब्रह्म, अल्ला, वाहेगुरु, श्रीरामकृष्ण) नहीं हो, तो मैं झूठ बोलता हूँ. सारे समय में इसकी (सभी M /F में ठाकुर -माँ की) अनुभूति करूँ या न करूँ, सत्य यही है. " (८:१६)
ह्रदय के द्वारा ही भगवत-साक्षात्कार (आत्मसाक्षात्कार ) होता है, बुद्धि के द्वारा नहीं. ..भावना ही वास्तव में कार्य करती है, ..क्या तुम्हारे पास भावना है ? यदि है तो तुम ईश्वर को देखोगे.... बुद्धि आवश्यक है, क्योंकि उसके बिना हम अनेक भ्रमों में पड़ जाते हैं और गलतियाँ करते हैं. विचार-शक्ति (विवेक-अंजन ) उसका निवारण करती है, इसके अतिरिक्त बुद्धि की नींव पर और कुछ निर्माण करने की चेष्टा न करना. वह केवल एक गौण सहायक मात्र है, निष्क्रिय है, वस्तविक सहायता भावना से, प्रेम से प्राप्त होती है. तुम क्या किसी दूसरे के लिए ह्रदय से अनुभव करते हो ? यदि करते हो तो एकत्व के भाव में तुम विकास कर रहे हो. यदि नहीं, तो तुम केवल एक बौद्धिक दैत्य हो, शुष्क बुद्धि हो और वही बने रहोगे. (८:१७) 
क्या विश्व के इतिहास में तुम्हें पैगम्बरों की शक्ति के स्रोत का पता नहीं चला ? ..ईसा की भाँति भावना करो, तुम भी ईसा हो जाओगे; बुद्ध के समान भावना करो, तुम भी बुद्ध बन जाओगे. भावना ही जीवन है, भावना ही बल है, भावना ही तेज है- भावना के बिना कितनी ही बुद्धि क्यों न लगाओ, ईश्वर-प्राप्ति नहीं होगी. ..हम लोगों की पैगम्बर आत्मा ही उन लोगों की पैगम्बर आत्मा का प्रमाण है, यहाँ तक कि तुम्हारा ईश्वरत्व ही ईश्वर का भी प्रमाण है. ..हम लोगों में से प्रत्येक को पैगम्बर बनना पड़ेगा- और तुम स्वरूपतः वही हो. बस केवल यह 'जान' लो. (८:१८) 
  " वेदान्त ( विवेक-अंजन लगाने से जगत उड़ नहीं जाता ) जगत को उड़ा नहीं देता, उसकी व्याख्या करता है. वह व्यक्ति को उड़ा नहीं देता- उसकी व्याख्या करता है. वह व्यक्तित्व को मिटाता नहीं, वरन वास्तविक व्यक्तित्व सामने रख कर उसकी व्याख्या कर देता है. वह यह नहीं कहता कि जगत वृथा है और उसका अस्तित्व नहीं है, किन्तु कहता है, ' जगत क्या है, यह समझो, जिससे वह तुम्हारा कोई अनिष्ट न कर सके ' ..पवित्रात्मा पुरुषों की आँखों में जो एक विशेष प्रकार की ज्योति का ( प्रेम से पगे नैन विवेक-अंजन का ) आविर्भाव होता है, वह वास्तव में अन्तःस्थ सर्वव्यापी आत्मा की ही ज्योति है, वह ज्योति ही ग्रहों, सूर्य-चन्द्र और तारों में प्रकाशित हो रही है. " (८:२२)  
"यदि ईश्वरोपासना करने के लिए प्रतिमा आवश्यक है, तो उससे कहीं श्रेष्ठ मानव-प्रतिमा मौजूद ही है. यदि ईश्वरोपासना के लिए मन्दिर निर्माण करना चाहते हो, तो करो, किन्तु सोच लो कि उससे भी उच्चतर, उससे भी महान मानव देह रूपी मन्दिर तो पहले से ही मौजूद है." (८: २३)   
" माया आवरण से बाहर निकलने का एकमात्र  मार्ग है- सत्य का अनुभव करना. और सब उपनिषद, यह सत्यानुभव किसे कहते हैं, यही समझाते हैं. अच्छा बुरा कुछ न देखो, सभी वस्तुएँ और सभी कार्य आत्मा से उत्पन्न होते हैं, यही विचार करो. आत्मा सभी में है. यही कहो कि जगत नामक कोई चीज नहीं है. बाह्य दृष्टि बन्द करो; उसी प्रभु ( श्रीरामकृष्ण, वाहेगुरु, अल्ला, ब्रह्म, ईसा..) की स्वर्ग और नरक में, मृत्यु और जीवन में सर्वत्र उसी की उपलब्धी करो.
  यह पृथ्वी उसी भगवान का एक प्रतिक है, आकाश भी भगवान का दूसरा प्रतिक है, इत्यादि इत्यादि. ये सब ब्रह्म हैं. परन्तु यह देखना पड़ेगा, स्वयं इसका अनुभव करना पड़ेगा, इस विषय पर केवल चर्चा करने अथवा चिन्ता करने से कुछ नहीं होगा. मान लो, जब (आत्मसाक्षात्कार हो गया ) आत्मा ने (स्वयं को और) जगत की प्रत्येक वस्तु का स्वरुप समझ लिया और उसे यह अनुभव होने लगा कि प्रत्येक वस्तु ही ब्रह्ममय (आत्मवत) है, तब वह स्वर्ग में जाय अथवा नरक में, या अन्यत्र और कहीं चली जाय, तो इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं. (अब) मैं पृथ्वी पर जन्मूँ अथवा स्वर्ग में जाऊं, इससे कोई अन्तर नहीं होता. मेरे लिए ये सब निरर्थक हैं, क्योंकि मेरे लिए सभी स्थान समान हैं, सभी स्थान भगवान के मन्दिर हैं, सभी स्थान पवित्र हैं, कारण स्वर्ग, नरक अथवा अन्यत्र मैं केवल भगवत्सत्ता का ही अनुभव कर रहा हूँ. भला-बुरा अथवा जीवन-मरण मुझे कुछ दिखायी नहीं देते, एकमात्र ब्रह्म का अस्तित्व है. वेदान्त-मत में (विवेक-अंजन लगा लेने से ) मनुष्य जब ऐसी अनुभूति प्राप्त कर लेता है, तब वह मुक्त हो जाता है और वेदान्त कहता है, केवल वही व्यक्ति संसार में रहने योग्य है, दूसरा नहीं. ..जो व्यक्ति यहाँ अनेकानेक बिघ्न-बाधाओं तथा विपत्तियों को देखता है, म्रत्यु देखता है (उनको सच समझता है) उसका जीवन तो दु:खमय होगा ही, परन्तु जो व्यक्ति प्रत्येक वस्तु में उसी सत्यस्वरूप को देखता है, (आत्मसाक्षात्कार के बाद ) वही संसार में रहने योग्य है; वही यह कह सकता है कि मैं इस जीवन का उपभोग कर रहा हूँ, मैं इस जीवन में खूब सुखी हूँ. (एक जोक सुनो- किसी किसी के जीवन में शादी करना नहीं लिखा होता है; उसके जीवन में सदा सुखी रहना लिखा होता है!) (८: २७)                     
पुरोहित लोग हमें केवल यही आश्वासन देते हैं कि यदि हम लोग उनका अनुसरण करें, उनकी भर्त्सना सुनते रहें, और उनके द्वारा निर्दिष्ट लीक पर चलते रहें, तो मरते समय वे हमें एक मुक्ति-पत्र देंगे और तब हम ईश्वर-दर्शन कर सकेंगे. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सारा स्वर्गवाद इस अनर्गल पुरोहित-प्रपंच के विविध रूपों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है. निर्गुणवाद (अद्वैतवाद) निस्सन्देह अनेक चीजें नष्ट कर डालता है; वह पुरोहितों, धर्मसघों (मठों) और मन्दिरों के हाथ से सारा व्यवसाय छीन लेता है. भारत में इस समय दुर्भिक्ष है (अकाल पड़ा हुआ है, घोर दरिद्रता है, लोग भूखे मर रहे हैं), किन्तु वहाँ ऐसे बहुत से मन्दिर हैं जिनमें से प्रत्येक में एक राजा को भी खरीद लेने योग्य बहुमूल्य रत्नों की राशी सुरक्षित है. ( १मार्च २०११ को पूरी के एक मठ से १०० कड़ोड़ रूपए मूल्य का चाँदी का १९ टन ईंट मिला है) यदि पुरोहित लोग इस निर्गुण ब्रह्म की शिक्षा दें, तो उनका व्यवसाय छिन जायगा.
किन्तु हमें ( VYM को)उसकी शिक्षा निःस्वार्थ भाव से, बिना पुरोहित-प्रपंच के देनी होगी. तुम (शिष्य) भी ईश्वर, मैं (गुरु विवेकानन्द) भी वही - तब कौन किसकी आज्ञा पालन करे? कौन किसकी उपासना करे ? (कौन किसको प्रणाम करे?) तुम्हीं ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ मन्दिर हो; मैं किसी मन्दिर, किसी प्रतिमा या किसी बाइबिल की उपासना न कर तुम्हारी ही उपासना करूँगा...तुम्हारी उपासना करने की अपेक्षा और अधिक प्रत्यक्ष ( देव-पूजन) क्या हो सकता है ?
  मैं तुम्हें देख रहा हूँ, तुम्हारा अनुभव कर रहा हूँ और जानता हूँ कि तुम ( ही श्रीरामकृष्ण ) ईश्वर हो. मुसलमान कहते हैं, अल्लाह (ब्रह्म या वाहेगुरु ) के सिवाय और कोई ईश्वर नहीं है; किन्तु वेदान्त (रूपी विवेक-अंजन से प्राप्त अलौकिक दृष्टि ) कहता है, ऐसा कुछ है ही नहीं जो ईश्वर न हो. ..जीवित ईश्वर तुम लोगों के भीतर रहते हैं, तब भी तुम मन्दिर, गिरजाघर आदि बनवाते हो और सब प्रकार की काल्पनिक झूठी चीजों में विश्वास करते हो.
मनुष्य-देह में स्थित मानव-आत्मा ही एकमात्र उपास्य ईश्वर (श्रीरामकृष्ण ) हैं. पशु भी भगवान के मन्दिर हैं, किन्तु मनुष्य ही सर्व श्रेष्ठ मन्दिर है- ताजमहल जैसा. यदि मैं उसकी उपासना न कर सका, तो अन्य किसी भी मन्दिर (में  श्रीरामकृष्ण या बुद्ध -महावीर की पूजा-अर्चना करने) से कुछ भी उपकार नहीं होगा. जिस क्षण मैं प्रत्येक मनुष्य-देहरूपी मन्दिर में उपविष्ट ईश्वर (ठाकुर) की उपलब्धी कर सकूंगा, जिस क्षण मैं प्रत्येक मनुष्य के सम्मुख भक्तिभाव से खड़ा हो सकूँगा और वास्तव में उनमें ईश्वर (ठाकुर) देख सकूंगा, जिस क्षण मेरे अन्दर यह भाव आ जायगा, उसी क्षण मैं सम्पूर्ण बन्धनों से मुक्त हो जाऊंगा- बांधनेवाले पदार्थ हट जायेंगे और मैं मुक्त हो जाऊंगा. यही सबसे अधिक व्यावहारिक उपासना है. मत-मतान्तर से इसका कोई प्रयोजन नहीं. (८:२९-३०)
लोग अपने से पृथक स्वर्गस्थ किसी ईश्वर (अल्ला, वाहेगुरु, ब्रह्म ...) की उपासना करते हैं, उससे खूब डरते भी हैं. लोग भय से काँपते रहते हैं और सारा जीवन इसी प्रकार काँपते हुए काट देते हैं. तो क्या दुनिया ऐसा मान लेने पर भी पहले की अपेक्षा अधिक अच्छी हो गयी है? ...जहाँ एक दूसरे को देखता है, जहाँ एक दूसरे को सुनता है, वहीँ माया है. जहाँ एक दूसरे को नहीं देखता, एक दूसरे को सुनता नहीं, जहाँ सर्व अत्ममय हो जाता है, वहाँ कौन किसे देखेगा, कौन किसे सुनेगा ?' तब सभी 'वह' या सभी 'मैं' हो जाता है. 
तभी - और केवल तभी हम प्रेम किसे कहते हैं, यह समझ सकते हैं. डर से क्या प्रेम हो सकता है ?..जब हम लोग वास्तव में जगत को स्नेह करना प्रारम्भ करते हैं, तभी विश्वबन्धुत्व का अर्थ समझते हैं- अन्यथा नहीं...बुद्धदेव के उपदेश का वह अंश तुमको स्मरण होगा कि वे किस प्रकार उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, ऊपर, नीचे सर्वत्र ही प्रेम की भावना प्रवाहित कर देते थे, यहाँ तक कि चारों ओर वही महान अनन्त प्रेम सम्पूर्ण विश्व में छ जाता था. इसी प्रकार जब तुम लोगों का भी यही भाव होगा, तब तुम्हारा भी ' यथार्थ व्यक्तित्व ' प्रकट होगा. तभी सम्पूर्ण जगत एक व्यक्ति बन जायगा- क्षुद्र वस्तुओं (टॉफी-मिल्क) की ओर फिर मन नहीं जायगा. इस अनन्त सुख के लिए छोटी छोटी वस्तुओं ( धनसम्पत्ति और कामवासना के प्रति लालच ) का परित्याग कर दो. इन सब क्षुद्र सुखों से तुम्हें क्या लाभ होगा ? (८:३०,३१) 
अतएव ईश्वर सगुण और निर्गुण दोनों ही है. मनुष्य (अनंतस्वरूप निर्गुण मनुष्य या ब्रह्म) भी अपने को सगुण रूप में, व्यक्ति रूप में देख रहा है; मानो हम अनन्तस्वरुप होकर भी अपने को क्षुद्र रूपों (M/F) में सीमाबद्ध बना डालते हैं. ..असीमता ही हमारा सच्चा स्वरुप है, वह कभी लुप्त नहीं हो सकती, सदा रहेगी. किन्तु हम अपने कर्म ( विवेक-प्रयोग किये बिना या विवेक-अंजन लगाये बिना जो दूसरों के साथ हमारा लालची व्यवहार होता है) द्वारा अपने को सीमाबद्ध (M/F) कर डालते हैं ..इस बन्धन (देहाध्यास) को तोड़ डालो और मुक्त हो जाओ.
  नियम (काम-कांचन के प्रति कशिश या गुरुत्वाकर्षण) को पैरों तले कुचल डालो. मनुष्य के यथार्थ (ब्रह्म) स्वरुप में कोई विधि (गुरुत्वाकर्षण का नियम = विपरीत लिंग के प्रति कशिश) नहीं, कोई दैव नहीं, कोई अदृष्ट नहीं. अनन्त में विधान या नियम (काम-कांचन के प्रति भोग दृष्टि ) कैसे रह सकते हैं? स्वाधीनता ही इसका (यथार्थ मनुष्य का) स्वरुप है- इसका जन्मसिद्ध अधिकार है.
पहले मुक्त बनो (स्वयं को M /F शरीर मानना छोड़ दो. ), तब फिर जितने व्यक्तित्व रखना चाहो, रखो. तब हम लोग रंगमंच पर अभिनेताओं के समान अभिनय करेंगे, जैसे अभिनेता भिखारी का अभिनय करता है. उसकी तुलना गलियों में भटकने वाले वास्तविक भिखारी ( काम-कांचन के लोलुप विषयी लोग) से करो. यद्दपि दृश्य दोनों ओर एक है, वर्णन करने में भी एक सा है, किन्तु दोनों में कितना भेद है !!
एक व्यक्ति (विवेक-प्रयोग करने वाला सद-  गृहस्थ) भिक्षुक (पति-पत्नी का) अभिनय कर आनन्द ले रहा है, और दूसरा ( काम-कांचन में लोलुप संसारी मनुष्य) सचमुच दुःख -कष्ट से पीड़ित है. ऐसा भेद क्यों होता है?
कारण एक मुक्त है और दूसरा बद्ध. अभिनेता जानता है कि उसका यह भिखारीपन ओढ़ा हुआ है, सत्य नहीं है, उसने यह केवल अभिनय के लिए स्वीकार किया है, भिक्षुक जानता है कि यह उसकी चिरपरिचित अवस्था है, एवं उसकी इच्छा हो या न हो, उसे वह कष्ट सहना ही पड़ेगा...हम जब तक अपने स्वरुप का ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेते, तब  तक हम लोग केवल भिक्षुक हैं, प्रकृति के अन्तर्गत प्रत्येक वस्तु ( गुरुत्वाकर्षण का नियम आदि ) ने ही हमें दास बना रखा है. (८:३२) " यदि राजा पागल हो कर अपने देश में ' राजा कहाँ है, राजा कहाँ है ' कह कर खोजता फिरे, तो वह कभी राजा को नहीं पा सकता, क्योंकि वह स्वयं ही राजा है...इसी प्रकार हम लोग यदि जान सकें कि हम ईश्वर हैं और इस अन्वेषणरूपी व्यर्थ चेष्टा को छोड़ सकें, तो बहुत ही अच्छा हो. इस प्रकार अपने को ईश्वरस्वरुप जान लेने पर ही हम संतुष्ट और सुखी हो सकते हैं. यह सब पागलों जैसी चेष्टा छोड़कर जगतरूपी मंच पर एक अभिनेता के समान कार्य करते चलो. "(८:३३)
इस प्रकार कि अवस्था आने से हम लोगों की सपूर्ण दृष्टि परिवर्तित हो जाती है. अनन्त कारागारस्वरुप न होकर यह जगत खेलने का स्थान बन जाता है. प्रतियोगिता का मैदान न बनकर यह भौरों की गुंजन से परिपूर्ण वसन्त काल का रूप धारण कर लेता है. ..बद्ध जीव की दृष्टि से यह एक महायन्त्रणा का स्थान है, किन्तु मुक्त व्यक्ति की दृष्टि से यही स्वर्ग है; स्वर्ग अन्यत्र नहीं है.
एक ही प्राण सर्वत्र विराजित है. पुनर्जन्म आदि जो कुछ है, सब यहीं होता है. देवतागण सब यहीं हैं- वे मनुष्य के आदर्श के अनुसार कल्पित हैं. देवताओं ने मनुष्यों को अपने आदर्श के अनुसार नहीं बनाया, किन्तु मनुष्यों ने ही देवताओं की सृष्टि की है. इन्द्र, वरुण और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के देवता सब यहीं हैं. ..तुम्हीं प्रकृत उपास्य देवता हो. यही वेदान्त का मत है, और यही यथार्थ में व्यावहारिक है. मुक्त होने पर उन्मत्त होकर समाज त्याग करने और जंगलों अथवा गुफाओं में जाकर मर जाने की आवश्यकता नहीं है. तुम जहाँ हो वहीं रहोगे, किन्तु भेद इतना ही होगा कि तुम सम्पूर्ण जगत का रहस्य समझ जाओगे. पहले देखी हुई समस्त वस्तुएँ (कुर्सी,मिल्क, टॉफी ...) जैसी की तैसी ही रहेंगी, किन्तु उनका एक नवीन अर्थ समझने लगोगे. तुम अभी जगत का स्वरुप नहीं जानते हो; मुक्त होने पर हम देखेंगे कि यह तथाकथित विधि, दैव या अदृष्ट हमलोगों की प्रकृति का केवल एक पहलू मात्र है, दूसरी दिशा (उत्तर) में मुक्ति सदा विद्यमान रही है.(८:३३)
" एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है- मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरुप में जानना, और उनका सन्देश है कि यदि तुम अपने भाई मनुष्य की, व्यक्त ईश्वर की, उपासना नहीं कर सकते तो उस ईश्वर की कल्पना कैसे कर सकोगे, जो अव्यक्त है? ..यदि तुम ईश्वर को मनुष्य के मुख में नहीं देख सकते,  तो उसे मेघ अथवा अन्य किसी मृत जड़ पदार्थ में अथवा अपने मस्तिष्क की कल्पित कथाओं में कैसे देखोगे ? जिस दिन से तुम नर-नारियों में ईश्वर को देखने लगोगे, उसी दीन से मैं तुम्हें धार्मिक कहूँगा, और तभी तुम लोग समझोगे कि दाहिने गाल पर थप्पड़ मारने पर मारने वाले के सामने बायाँ गाल फिराने का क्या अर्थ है.
  जब तुम मनुष्य को ईश्वररूप में देखोगे, तब सभी वस्तुओं का, यहाँ तक कि यदि तुम्हारे पास बाघ तक आ जाय, तो उसका भी तुम स्वागत करोगे. जो कुछ तुम्हारे पास आता है, वह सब अनन्त आनन्दमय प्रभु का भिन्न भिन्न रूप ही है- वे ही हमारे माता, पिता, बन्धु और सन्तान हैं. वे  हमारी अपनी आत्मा ही हैं, जो हमारे साथ खेल रही हैं. (स्वामी सम्बुद्धानन्द जी से मिलने जो कोई भी आता था वे उसका नाम लिख कर रख लेते थे ? ऐसा विश्वास जब पर्वत जैसा दृढ हो जाता है तब ) ...मनुष्यों के साथ (सरस,उबस ) के साथ हम अपने सम्बन्धों को ईश्वरभावापन्न बना सकते है.  प्रेम और प्रेमास्पद में कुछ भेद न देखना ही सर्वोच्च भाव है.
प्राचीन फ़ारसी कहानी में है- एक प्रेमी ने आकर अपने प्रेमास्पद के घर का दरवाजा खटखटाया. प्रश्न हुआ, ' कौन है?' वह बोला, 'मैं '. द्वार नहीं खुला. दुबारा फिर उसने कहा, 'मैं आया हूँ,' पर द्वार फिर भी न खुला. तीसरी बार वह फिर आया, प्रश्न हुआ, ' कौन है ?' तब उसने कहा- 'I am You, My Dear !' - ' प्रेमास्पद, मैं तुम हूँ! ', तब द्वार खुल गया.
भगवान (ठाकुर) और हमारे बीच सम्बन्ध भी ठीक वैसा ही है, वे सब में हैं और वे ही सब कुछ हैं. प्रत्येक नर-नारी ही वही प्रत्यक्ष जीवन्त आनन्दमय एकमात्र ईश्वर (माँ -ठाकुर) हैं. (८:३५) 
 वेदान्त कहता है- दूसरे प्रकार की उपासनाएँ भी भ्रमात्मक नहीं हैं... क्योंकि लोग सत्य से सत्य की ओर, निम्नतर सत्य से उच्चतर सत्य की ओर आगे बढ़ते हैं. ..बुरा कहने से समझना चाहिए, थोड़ा अच्छा;.. अतएव हमें दूसरों को प्रेम और सहानुभूति की दृष्टि से देखना चाहिए. हमलोग जिस रस्ते पर चले आये हैं, (चंचल मन ' निश्चल ' तक पहुँच कर सर्वव्यापक हो गया है.) वे भी आगे-पीछे मुक्त होंगे. और जब तुम मुक्त (निश्चल) ही हो गए हो, तो फिर जो अनित्य (देह-M/F) है, उसे तुम किस प्रकार देख पाओगे ? क्योंकि जो भीतर है, वही बाहर दिख पड़ता है. 
 हमारे अन्दर यदि अपवित्रता ( देहाध्यास) न होती तो हम उसे बाहर कभी देख ही न पाते. वेदान्त की यह भी एक साधना है. आशा है, हम सभी लोग { जो गुरु-द्वार को लाँघ कर घर(ठाकुर)-तक पहुँच गए हैं} जीवन में इसको व्यव्हार में लाने की चेष्टा करेंगे. इसका अभ्यास करने के लिए (शेष बचा) सारा जीवन पड़ा हुआ है, किन्तु (विवेक-अंजन का अर्थ समझने के लिए ) इन सब विचारों की आलोचना से हमें यह ज्ञात हुआ है कि (आगे से ) हमलोग अशान्ति और असंतोष के बदले शांति और संतोष के साथ कार्य करेंगे; क्योंकि हमने जान लिया है कि सत्य हमारे अन्दर है- और उसी में आरूढ़ रहना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. "(८:३६)  
 एक प्रसिद्ध हिन्दी कहावत है-
जब तक यह मन संसार से मोड़ा न जायेगा |
तब तक इसे निरंकार से जोड़ा न जायेगा ||
                                         
 महर्षि पतञ्जलि के योग सूत्र पर प्रथम प्रमाणिक व्याख्या व्यास भाष्य के रूप में प्राप्त होती है। व्यास भाष्य से तात्पर्य है- व्यास के द्वारा महर्षि पतञ्जलि के योग सूत्र पर दी गयी व्याख्या। पतंजलि योग-सूत्र पर व्यासदेव अपने भाष्य में मन के बहिर्मुखी प्रवाह को अन्तर्मुखी बनाने का सरल उपाय बताते हुए कहते हैं- 
1.12॥ चित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च।
या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा। 
संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा।
तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिली क्रियते।
विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयत इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः।
"- विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयत " इसे पढने से ऐसा प्रतीत होता है, मानो  व्यासदेव हजारों साल पहले जान चुके थे, कि 'विवेक-शक्ति ' ही सभी के ह्रदय में विद्यमान अन्तर्यामी गुरु है ! तथा एक दिन  (१२ जनवरी १८६३) को वे स्वयं ही स्वामी विवेकानन्द के रूप में आविर्भूत होंगे; तब उनके मूर्त रूप पर मन को धारण करने से ही ' विवेक-स्रोत ' उदघाटित हो जायेगा ! 
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥

मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥

विवेक-दृष्टि मिलने से पहले, इन आँखों  छाया हुआ था जिससे न हम परमात्मा का दर्शन कर पाते थे, न संसार में यथार्थ का दर्शन करते थे । जब सभी के ह्रदय में अन्तर्यामी गुरू-रूप से स्वस्थित स्वामी विवेकानन्द की छवि पर  " मनःसंयोग " का अभ्यास करते करते विवेक-श्रोत उदघाटित हो जाता है तब वे हमारे  इन आँखों में ज्ञान का अंजन देकर अज्ञान  रूपी अंधेरे का नाश कर देते हैं।
 जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
भावार्थ:-विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं॥6॥ 
रामरूप से जीवमात्र की वंदना :
 जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
           बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥7(ग)॥
भावार्थ:-जगत में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ॥7 (ग)॥
एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा॥
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥2॥
भावार्थ:-जो परमेश्वर एक है, जिनके कोई इच्छा नहीं है, जिनका कोई रूप और नाम नहीं है, जो अजन्मा, सच्चिदानन्द और परमधाम है और जो सबमें व्यापक एवं विश्व रूप हैं, उन्हीं भगवान ने दिव्य शरीर धारण करके नाना प्रकार की लीला की है॥2॥
हर वस्तु को प्राप्त करने के बाद भी क्यूँ मनुष्य में एक खालीपन का अहसास बना रहता है ? क्यूँ संतप्त है ? क्योंकि उसके पास विवेक-दृष्टि नहीं है । स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करते करते एक दिन परमगुरु श्रीरामकृष्ण देव की कृपा से विवेक-श्रोत उदघाटित हो जाता है, और वह ज्ञान की दृष्टि (दिव्य-दृष्टि य़ा अलौकिक दृष्टि) प्राप्त होती है, जिसके बारे में गोस्वामी तुलसीदासजी कहते है- 
चौपाई :

बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥

मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥

सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥

वह रज सुकृति (पुण्यवान्‌ पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुंदर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मन रूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है॥2॥
वैसे ही इस चरण रज रूपि अंजन को जो भी अपने नेत्र में लगाता उसे ज्ञान दृष्टि प्राप्त हो जाने के कारण श्री सद्गुरु के व्यापक स्वरूप का दर्शन प्राप्त हो जाता है। उसे कहीं कोई दूसरी वस्तु दिखाई नहीं देती। कण कण में उसे श्री सद्गुरु ही दिखाई पड़ते है । इस प्रकार उसके भीतर एकत्वभाव आ जाने के कारण वह अपने में सबको और सब में अपने को देखने लगता है। श्रीसद्गुरु में एकनिष्ठ प्रेम का यही सर्वव्यापी स्वरूप है। यही प्रेम रूपी ज्योति सदा सदा शिष्यों को प्रकाशित करती रहती है और चरण धूलि के प्रति श्रद्धा बढ़ती रहती है।
जिन्ह इन अंजन नेत्र लगायो । हर मूरति व्यापक हरि पायो ॥
दीखत ताहि न दूसर कोई । आपहिं आप सर्व में होई ॥

श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥

श्रीसद्गुरु महाराज के चरण नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है। जिसके स्मरण करते ही ह्रदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अंधकार को नाश करने वाला है । यह प्रकाश जिनके ह्रदय में आ जाता है वे बडे़ भाग्यशाली हैं ।

उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥

उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते हैं-॥4॥

दोहा :

जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥

जैसे सिद्धाञ्जन को साधक नेत्रों में लगा कर  सिद्ध व सुजान बन जाता है और पर्वतों, वनों, व पृथ्वी के अन्दर की बहुत सी खानों को खेल खेल में ही देख लेते है।

चौपाई :
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥

श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥1॥
चौपाई :

मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥1॥

इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है॥1॥

बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥2॥

वाल्मीकिजी, नारदजी और अगस्त्यजी ने अपने-अपने मुखों से अपनी होनी (जीवन का वृत्तांत) कही है। जल में रहने वाले, जमीन पर चलने वाले और आकाश में विचरने वाले नाना प्रकार के जड़-
चेतन जितने जीव इस जगत में हैं॥2॥

मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥3॥

उनमें से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पाई है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है॥3॥

बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥

सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है॥4॥

सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥5॥

दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता है (सुंदर सोना बन जाता है), किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं। (अर्थात्‌ जिस प्रकार साँप का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाश को नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टों के संग में रहकर भी दूसरों को प्रकाश ही देते हैं, दुष्टों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।)॥5॥



दोहा :

बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3 (क)॥

मैं संतों को प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु! जैसे अंजलि में रखे हुए सुंदर फूल (जिस हाथ ने फूलों को तोड़ा और जिसने उनको रखा उन) दोनों ही हाथों को समान रूप से सुगंधित करते हैं (वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते हैं।)॥3 (क)॥

संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 3 (ख)

संत सरल हृदय और जगत के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनय को सुनकर कृपा करके श्री रामजी के चरणों में मुझे प्रीति दें॥ 3 (ख)॥
  वेदान्त यह कहता है कि तू आनन्द स्वरूप है । संसार के पीछे क्यूँ पागल होता है ? केवल वे तुझे सुख देनेवाले नहीं हैं, तू तो स्वयं अपने आप को पहचानेगा, अपने आप में मगन होगा तो तू हमेशा आनन्दमग्न होगा । आनन्दमग्न होकर हम वस्तु को भी देखेंगे तो वस्तु भी आनन्द देने वाली बनेगी ।
छोटी-छोटी चीजें आनन्द देने वाली बन जाती हैं अन्यथा बडे-बडे सुख प्राणी को सुख नहीं दे पाते बल्कि चिन्ता ही देते हैं ।जो तुम्हारे चेहरे पर चमक है या संसार में कहीं भी चमक है, कोई भी वस्तु सुन्दर है, किसी भी वस्तु में आभा है तो वह आभा प्रभु की है । जिस किसी में भी तुम्हें कहीं कुछ अच्छा लगता है तो उस अच्छाई में प्रभु की दीप्ति है । किसी भी व्यक्ति के पास न धन की आभा है, न विद्या का नूर है, न सौन्दर्य का प्रकाश है । जिसके पास प्रभु की दीप्ति है उसके सौन्दर्य  में प्रभु छिपा हुआ है ।
जिसके मन में प्रभु की याद है, प्रभु का प्यार है, जिसके पास संत की दृष्टि है वो हर सुन्दर वस्तु को देखकर दीप्ति की याद करता है और यह देखता है कि हर सुन्दर वस्तु  में देवता का निवास है । फूल के सौन्दर्य को देखकर प्रभु याद आता है तो हम ये देखे उससे हमारे मन की तृप्ति होती है । नहीं तो सौन्दर्य  तो प्राणी के मन में या तो ईर्ष्या जगाता है, या दुख जगाता है, कि यह तो इतना सुन्दर मैं तो नहीं सुन्दर या वासना जगाता है कि क्यों नहीं मुझे इतना सुन्दर रूप मिल गया । हर सुन्दर वस्तु को प्राणी यह चाहता है कि मेरी बन जाये ।

कबीरदास जी का एक बड़ा ही प्रसिद्ध भजन है-  पण्डित कुमार गन्धर्व के स्वर में:-
"राम निरंजन न्यारा रे
अंजन सकल पसारा रे...

अंजन उत्पति ॐकार
अंजन मांगे सब विस्तार
अंजन ब्रहमा शंकर इन्द्र
अंजन गोपिसंगी गोविन्द रे

अंजन वाणी अंजन वेद
अंजन किया ना ना भेद
अंजन विद्या पाठ पुराण
अंजन हो कत कत ही ज्ञान रे

अंजन पाती अंजन देव
अंजन की करे अंजन सेव
अंजन नाचे अंजन गावे
अंजन भेष अनंत दिखावे रे

अंजन कहाँ कहाँ लग केता
दान पुनी तप तीरथ जेता
कहे कबीर कोई बिरला जागे
अंजन छाडी अनंत ही दागे रे

राम निरंजन न्यारा रे
अंजन सकल पसारा रे...

रविवार, 23 जनवरी 2011

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर कृत वर्ण-परिचय

वर्ण-परिचय 
स्वामी विवेकानन्द भारत का भविष्य नामक भाषण में कहते हैं- " शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह ठूँस दी जाएँ कि मन में अन्तर्द्वन्द्व चलने लगे, और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर पचा न सके.  जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र गठन कर सकें और उसमे निहित भावों को आत्मसात कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है. यदि तुम पाँच ही भावों को पचाकर तदनुसार जीवन और चरित्र गठित कर सके हो, तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी कि अपेक्षा बहुत अधिक है, जिसने एक पूरे पुस्तकालय को कंठस्त कर रखा है...यदि बहुत तरह की तथ्यों का संचय करना ही शिक्षा है, तब तो ये पुस्तकालय संसार में सर्वश्रेष्ठ मुनी हैं और विश्वकोष ही ऋषि हैं !"(५:१९५)  
बचपन में जब हमलोग वर्ण-परिचय की छोटी सी पुस्तिका से - क,ख,ग,य़ा अ,आ,इ,ई से पढ़ाई शुरू करते हैं, तब पहले दो अक्षर के शब्द को लिख कर, उसका उच्चारण करना सीखते हैं. फिर तीन अक्षर के शब्द को लिखना और पढना सीखते हैं; क्रमशः हमें छोटे छोटे वाक्यों की लिखना और उसका reading करना सिखया जाता हैबंगाल के बच्चों को ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा लिखित वाक्य-विन्यास की पुस्तिका से पढ़ाई शुरू की जाती है. उनकी पुस्तिका में छोटे-छोटे वाक्यों में जो महत भाव दिये गये हैं, यदि उनमें निहित भावों को, उनके माता-पिता य़ा शिक्षक, आत्मसात कर लेने को इस प्रकार अनुप्रेरित करें, कि वे भाव उनके रक्त में मिल कर उनकी नस-नाड़ियों में संचारित होने लगे, तब इसी को भावों का आत्मसातीकरण कहते हैं. 
यदि सम्पूर्ण भारत के बच्चों को, मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण देने के साथ साथ, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा बंगला में रचित वर्ण-परिचय पुस्तिका का हिन्दी अनुवाद कर, बचपन से ही उसमे निहित भावों को, आत्मसात करने की शिक्षा दी जाय , तथा केवल निम्न लिखित १० पाठ को ही आत्मसात करवा दिया जाये, तो भारत आज इतने बड़े पैमाने पर जिस भ्रष्टाचार की समस्या से जूझ रहा है, क्रमशः यह बिल्कुल मिट जाएगी
आइये हमलोग देखते हैं कि ईश्वर चन्द्र विद्यासागर बच्चों को शिक्षा देने के लिये, उनके माता-पिता तथा गुरु से बचपन में ही किन वाक्यों का Reading का अभ्यास कराकर उनका चरित्रगठन करने को प्रेरित करते हैं। 
 प्रथम पाठ
१. कभी किसी को कटु-वचन मत कहना. कटु-वचन बोलना बहुत बड़ा दोष है। जो कड़वी बोली बोलता है, कोई उसको देखना भी पसन्द नहीं करता।

२. सदा सत्य बोलना चाहिये। जो सत्य बोलता है, सभी लोग उससे प्रेम करते हैं। जो झूठ बोलता है, कोई उसको प्यार नहीं करता, सभी उससे घृणा करते हैं। तुम कभी झूठ मत बोलना।

३. बचपन में, मन लगा कर पढना-लिखना सीखो।पढना-लिखना सीखने से सभी लोग तुमको प्यार करेंगे। जो पढने-लिखने में आलस्य करता है, कोई उसको प्यार नहीं करता। तुम कभी लिखने-पढने में आलस्य मत करना।

४. प्रतिदिन जो पढ़ाई करोगे, उसका अभ्यास (होम-वर्क) भी उसी दिन करना। कल कर लूँगा- ऐसा सोंच कर कल पर मत टालना।जिस पाठ को कल पर टाल दोगे, उसका अभ्यास फिर नहीं कर सकोगे।

५.कभी माता पिता की आज्ञा की अवहेलना मत करना। वे जिस समय जो आज्ञा दें, उस समय वही काम करना। कभी उनके आदेश की अवहेलना मत करना. माता पिता की बात नहीं मानोगे, तो वे तुमको प्यार नहीं करेंगे।

६. अबोध बालक, पढने-लिखने में अपना मन नहीं लगाते,सारा दिन खेल-कूद में ही बीता देते हैं। इसीलिये वे हमेशा दुःख पाते हैं। जो बच्चे मन लगा कर पढना-लिखना सीखते हैं, वे हमेशा सुख से रहते हैं।
२रा पाठ 
१. बिना परीश्रम किये, पढ़ाई-लिखाई नहीं होती. जो बच्चा परिश्रम करता है, वही पढना-लिखना सीख सकता है. परीश्रम (मेहनत) करो, तुम भी पढना-लिखना सीख जाओगे.

२. जो बच्चा प्रतिदिन, मन लगा कर, पढना-लिखना सीखता है, वह सबों का प्रिय होता है. तुम प्रतिदिन मन लगा कर लिखना-पढना सीखो, सभी लोग तुमको प्यार करेंगे.

३. जिस समय पढ़ाई करने बैठोगे, मन को अन्य किसी विषय में- मत जाने देना. मन यदि दूसरे विषयों में चला जायेगा, तो शीघ्रता से अभ्यास नहीं कर पाओगे; अधिक दिनों तक याद भी नहीं रहेगा; पाठ सुनाने के समय, ठीक से बोल नहीं पाओगे.

४. कभी किसी के साथ झगड़ा मत करना. झगड़ालू होना बहुत बड़ा दोष है.जो हमेशा सबों के साथ झगड़ता रहता है, कोई उसका मित्र नहीं होता. सभी उसके शत्रू बन जाते हैं. 

५. दूसरों के द्रव्य पर हाथ मत लगाना. बिना बताये दूसरे की कोई वस्तु ले लेने को चोरी करना कहते हैं. चोरी करना बहुत बड़ा दोष है. जो चोरी करता है, चोर समझ कर सभी उससे घृणा करते हैं.चोर के ऊपर कोई कभी विश्वास नहीं करता. 

६. जो चोरी करता है, झूठ बोलता है, झगड़ा करता है, दूसरों को गाली-गलौज देता है, मारा-पीटी करता है, उसको असभ्य (जंगली) कहते हैं. तुम कभी असभ्य मत होना; जंगली लडकों की संगत में मत रहना. यदि तुम असभ्य बन जाओगे, य़ा अभद्र लडकों की संगति में रहोगे, कोई तुमको अपने निकट बैठने नहीं देगा, तुम्हारे साथ बात-चीत नहीं करेगा, सभी तुमसे घृणा करेंगे.
३रा पाठ 
१. सुशील बालक  माता पिता से बहुत प्यार करता है. वे जो भी उपदेश देते हैं, उनके उपदेशों को, वह सदा याद रखता है, उन्हें कभी नहीं भूलता. वे जिस समय जो काम करने को कहते हैं, वह तुरन्त उनकी आज्ञा का पालन करता है; जिस काम को करने से मना करते हैं, उस काम को कभी नहीं करता.

२. वह मन लगा कर पढ़ता-लिखता है, पढ़ाई की कभी उपेक्षा नहीं करता. वह हर समय सोचता है,कि यदि पढना-लिखना न सीखेंगे, तो हमेशा दुःख भोगना होगा.

३. वह अपने भाई और बहन से बहुत प्यार करता है, कभी उनके साथ झगड़ा नहीं करता, उनके ऊपर कभी हाथ नहीं उठाता. खाने की कोई भी वस्तु मिलने से, अकेले नहीं खाता, उनलोगों को देने के बाद ही खाता है.

४. वह कभी झूठ नहीं बोलता. वह जानता है, जो लोग झूठ बोलते हैं, कोई उनसे प्यार नहीं करता, कोई उनकी बात पर विश्वास नहीं करता, सभी वैसे लोगों से घृणा करते हैं. 

५. वह कभी कोई गलत काम नहीं करता. यदि कभी उससे कोई भूल हो भी जाति है,और उसके माता पिता उसे डांटते हैं,तो वह क्रोध नहीं करता. वह यही सोचता है, कि गलत काम किया था, इसीलिये माँ-पिताजी ने डांट लगाई है, अब आगे से वैसा काम कभी नहीं करूंगा. 

६. वह कभी किसी से कटु-वचन नहीं बोलता, कभी अशिष्ट भाषा में गाली-गलौज नहीं करता.  किसी के साथ झगड़ा य़ा मार-पीट नहीं करता, जिस काम से किसी को क्लेश पहुँचता हो, वैसे काम कभी नहीं करता.

७. वह कभी दूसरे कि वस्तु को हाथ नहीं लगाता. वह जानता है,कि बिना बताये दूसरों की कोई वस्तु ले लेने को- चोरी कहते हैं. चोरी करना बहुत बड़ा दोष है, जो लोग चोरी करते हैं सभी उनलोगों से घृणा करते हैं.

८. वह अपना समय आलस्य में, कभी नहीं बिताता है. जिस समय जो काम करना जरुरी है, उस समय उसी काम को,वह पूरा मन लगा कर करता है. वह पढने-लिखने के समय, पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर, कभी खेलने नहीं जाता.

९. वह कभी दुश्चरित्र लडकों की संगति में नहीं रहता है, उनके साथ खेलने के लिये कहीं नहीं जाता है.वह जानता है, कि बुरे-चरित्र वाले लडकों के साथ खेलने य़ा घूमने-फिरने से, मैं भी दुश्चरित्र बन जाऊंगा. 

१०. वह जब विद्यालय में रहता है, उस समय शिक्षक महोदय जो भी आज्ञा देते हैं, वह उसे बड़े प्रफुल्ल मन से करता है. वह कभी उनकी आज्ञा का उलंघन नहीं करता है, इसीलिये वे उसको प्यार करते हैं. 
          ४था पाठ
चंचल नाम का एक लड़का था, उसकी आयू आठ वर्ष थी. चंचल के पिता उसको प्रतिदिन विद्यालय भेजते थे. किन्तु चंचल लिखने-पढने में मन नहीं लगाता था. वह, एक भी दिन विद्यालय नहीं जाता था, गली-कुँचो में खेलता रहता था. 

विद्यालय से छुट्टी होने पर, जब सभी लड़के घर जाते थे, चंचल भी उसी समय घर पहुँच जाता था. उसके माता पिता सोचते थे, चंचल विद्यालय से लिखना-पढना सीख कर घर आया है. इस प्रकार वह प्रतिदिन अपने माँ बाप को धोखा दिया करता था.

एक दिन चंचल ने देखा, कि भुवन नामक एक बालक पढने जा रहा है. वह उससे बोला, भुवन, आज तुम पाठशाला मत जाओ. आओ दोनों मिलकर यहाँ खेलते हैं. पाठशाला से छुट्टी होने पर, जब सभी लड़के घर जायेंगे, हमलोग भी उसी समय घर चले जायेंगे. 

भुवन ने कहा, नहीं भाई, मैं नहीं खेलूँगा. सारा दिन खेलते रहने से, पढ़ाई तो नहीं हो सकेगी. कल पाठशाला जाने से शिक्षक महोदय की डांट खानी होगी, और यदि पिताजी ने सुन लिय़ा, तो बहुत गुस्सा करेंगे. मैं अब और देरी नहीं करूँगा, मैं पाठशाला जा रहा हूँ. ऐसा कह कर भुवन चला गया. 

और एक दिन, चंचल ने देखा, अभय नामक एक बालक पढने जा रहा है. उसने उससे कहा, अभय, आज पढने मत जाओ. आओ दोनों मिल कर खेलते हैं. अभय ने कहा, नहीं भाई, तुम बहुत बुरे  लड़के हो, तुम एक भी दिन पढने के विद्यालय नहीं जाते. तुम्हारे साथ खेलने से, तो मैं भी खराब हो जाऊंगा. तुम्हारी तरह गली-कूंचों में खेलते रहने से, कुछ भी लिखना-पढना नहीं सीख पाउँगा. कल ही गुरु महाशय ने कहा है, बचपन में मन लगा कर पढ़ाई-लिखाई नहीं करने से, हमेशा दुःख भोगना पड़ता है. 

यह कह कर, जब वह चलने को हुआ, तब चंचल खींच-तीर करने लगा. अभय, उससे अपना हाथ छुड़ा कर, चला गया. जाते समय उसने कहा, आज मैं गुरु महाशय से तुम्हारी सारी बातें कह दूंगा. अभय विद्यालय पहुंचकर, गुरु महोदय को, चंचल की बात कह सुनाई. गुरु महोदय ने चंचल के पिता के पास यह खबर पहुँचा दिया, कि आपका बेटा एक भी दिन पढने नहीं आता है. सारे दिन सडकों पर आवारा लडकों की तरह, घूमता य़ा खेलता रहता है. खुद भी नहीं पढने आता है, और दूसरे बच्चों को भी विद्यालय आने से रोकता है. 

चंचल के पिता ने जब यह सुना, तो बहुत क्रोधित हो गये, उसको बहुत डांट-फटकर लगाये, कोपी-किताब कलम आदि जो भी कुछ खरीद कर दिये थे, सब छीन लिये. उस समय के बाद से, वे उसको प्यार करना छोड़ दिये, अपने निकट आने भी नहीं देते थे, सामने आ जाता, तो भी उसे दुत्कार कर भगा देते थे. 
   ५वाँ पाठ  
        एक लड़का था, जिसका नाम नवीन था. उसकी उम्र नौ वर्ष थी. उसे खेल-कूद करना इतना पसन्द था, कि वह सारा दिन रास्ते-चौराहों पर खेल-कूद मचाता रहता था, एक बार भी पढ़ा-लिखाई की तरफ ध्यान नहीं देता था. 

इसीलिये वह पढने-लिखने में एक दम फिसड्डी था, कुछ भी सीख नहीं पाता था. गुरु महाशय प्रतिदिन उसको डांट-फटकार लगाते थे. डांट खाने के डर से उसने विद्यालय जाना ही छोड़ दिया. एक दिन नवीन ने देखा, एक बालक अध्यन करने के लिये विद्यालय जा रहा है. 

उसने उसको पुकार कर कहा, अरे भाई, आओ, दोनों मिल कर थोड़ी देर खेलते हैं. उसने कहा, मैं पढने जा रहा हूँ, अभी नहीं खेल सकूंगा. यदि पढने के समय खेल-कूद करूंगा, तो पढ़ाई-लिखाई नहीं सीख पाउँगा. पिताजी ने मुझको आदेश दिया है, कि पढने के समय पढना, और खेलने के समय पर ही खेलने जाना.

जिस समय जो करना चाहिये,मैं उस समय वही काम करता हूँ. इसीलिये पिताजी मुझे प्यार करते हैं. मैं उनसे जब भी जो कुछ मांगता हूँ, वे मुझे वही खरीद देते हैं.यदि मैं अभी पढने के बदले तुम्हारे साथ खेलने लगूंगा, तो पिताजी मुझसे प्यार नहीं करेंगे. उन्होंने कहा है, पढ़ाई-लिखाई की उपेक्षा  करके, सारा दिन खेल-कूद करते रहोगे, तो बाद में सारा जीवन दुःख उठाना पड़ेगा.
इसलिए, मैं चला पढ़ाई करने. यह कह कर वह तुरन्त चला गया.

नवीन थोड़ी दूर जाने पर देखा, एक बालक चला जा रहा है. उसको रोक कर पूछा, भाई तुम कहाँ जा रहे हो?उसने कहा, पिताजी ने मुझे बाजार से एक सामान लाने के लिये कहा है. मैं वहीं जा रहा हूँ.  तब नवीन बोला, तुम थोड़ी देर बाद वह सामान लेने जाना,आओ हमलोग अभी मिलकर कुछ मजेदार खेल खेलते हैं.

उस बालक ने कहा, नहीं भाई, इस समय मैं खेल नहीं सकता. पिताजी ने जो कार्य करने को कहा है, पहले मैं उसीको करूँगा. पिताजी ने कहा है, किसी भी काम को टालना ठीक नहीं. मैं काम के समय काम करता हूँ, खेल के समय खेलता हूँ. काम के समय काम न करके यदि खेलने में समय गँवा दोगे, तो हमेशा दुःख पाओगे. मैं किसी भी काम को पूरे मनोयोग पूर्वक करता हूँ. जिस समय जो काम करना प्रयोजनीय है, उस समय वही काम करता हूँ. मैं तुम्हारी बातों में फंस कर, अपने काम की अवहेलना नहीं करूंगा.

यह बात सुन कर, नवीन वहाँ से चला गया. थोड़ी दूर जाने पर एक चरवाहा मिला, उसको देख कर बोला, आओ न भाई दोनों जन मिलकर खेलते हैं. चरवाहे ने कहा, मैं अभी गायों को चराने जा रहा हूँ, इस समय मैं नहीं खेल सकता. यदि खेलने लगूंगा, तो गौओं को, चरा नहीं पाउँगा. मेरे मालिक नाराज हो जायेंगे, और मुझे डांटे-फटकार लगायेंगे. 

मैं अपने काम के समय फाँकी नहीं मार सकता. काम के समय काम करूंगा, खेलने के समय खेलूँगा. मेरे बाबूजी ने एक दिन कहा था, काम के समय काम न कर के, सारा दिन खेलते रहने से, हमेशा दुःख भोगना पड़ता है. तुम अपना रास्ता देखो, इस समय मैं नहीं खेल सकता.

इसप्रकार, तीन लडकों से, क्रमशः  एक समान उत्तर पा कर, नवीन मन ही मन सोचने लगा, सभी लोग काम के समय काम करते हैं. कोई लड़का अपने काम की उपेक्षा करके सारा दिन खेलने में नहीं बीतता. केवल मैं ही सारा दिन, खेल-कूद में समय बीता देता हूँ. सभी कह रहे थे, काम के समय काम नहीं करने से, हमेशा दुःख भोगना पड़ता है.इसीलिये वे सारा दिन खेलने में बर्बाद नहीं करते हैं.

मैं यदि, पढ़ाई-लिखाई के समय, पढना-लिखना छोड़ कर, केवल खेलने में समय बीता दूंगा, तो मुझे भी हमेशा दुःख भोगना होगा. पिताजी अगर जान जायेंगे, तो मुझे प्यार नहीं करेंगे, डांट-फटकार लगायेंगे, हुआ तो पिटाई भी करेंगे, कभी उनसे कुछ मागुंगा, तो देंगे भी नहीं; मैं अब पढ़ाई-लिखाई की उपेक्षा नहीं करूंगा. आज से पढने-लिखने के समय, केवल पढ़ाई ही करूंगा. 

ऐसा विचार करके, उस दिन के बाद से, वह पढ़ाई-लिखाई में मन लगाने लगा. अब वह सारा दिन, खेल-कूद में नहीं बीताता. कुछ ही दिनों में नवीन, बहुत कुछ पढना-लिखना सीख गया. यह देख कर सभी नवीन की प्रशंसा करने लगे. इसप्रकार, पढ़ाई-लिखाई में परिश्रम करने से,  नवीन भी धीरे धीरे कई प्रकार की विद्या सीख गया था.       
६ठा पाठ
  माधव नामका एक लड़का था. इसकी उम्र १० वर्ष थी. उसके पिता ने उसे शिक्षा ग्रहण करने के लिये विद्यालय भेजा था. वह प्रतिदिन विद्यालय जाता था, एवं मन लगा कर पढना-लिखना सीखता था; वह कभी किसी के साथ झगड़ा य़ा मार-पीट नहीं करता था; इसीलिये, सभी लोग उसको प्यार भी करते थे. 

परन्तु केवल इन गुणों के रहने से ही क्या होता है, माधव में एक बहुत बड़ा दोष भी था.उसे दूसरों की चीजें उठा लेना बहुत पसन्द था. मौका मिलते ही, वह किसी दिन किसी लड़के की पुस्तक उठा  लेता, कभी किसी की कलम उठा लेता, तो किसी की कॉपी उठा लेता, किसी दिन किसी लड़के की पेन्सिल-कटर भी ले लेता था. इसीप्रकार, लगभग प्रतिदिन, वह किसी न किसी लड़के की कोई न कोई वस्तु चुरा ही लेता था. 

माधव जिस लड़के का कोई चीज चुरा लेता, वह यदि शिक्षक महाशय के पास जा कर कहता,महाशय,  मेरी अमुक वस्तु किसी ने चोरी कर ली है. किन्तु माधव, चोरी करने के बाद उस वस्तु को इस तरह छुपा देता था, की शिक्षक महाशय बहुत कोशिश करने परभी उसे ढूंढ़ नहीं पाते थे. जब यह पता नहीं चलता, कि चोरी किसने की, तो वे सभी लड़कों को डांट-डपट किया करते थे. 

शिक्षक महोदय से रोज रोज डांट खा कर, कुछ लडकों ने आपस में परामर्श किया, आज से हमलोग सतर्क रह कर यह देखेंगे,कि कौन चोरी करता है ? दो तीन दिन के भीतर ही, उनलोगों ने माधव को पहचान लिया, कि वही चोर है. उसदिन, माधव ने एक लड़के की एक पुस्तक चुरा ली थी. 
शिक्षक महोदय, उसको चोर कह कर बुरा-भला कहने लगे.तब माधव ने कहा, मैंने चुराया नहीं था, भूल से वह पुस्तक मैंने रख लिया था.शिक्षक महाशय ने उस दिन उसको क्षमा कर दिया, और चेतावनी देते हुए कहा, आज के बाद तुम किसी के कोई चीज पर हाथ मत लगाना. माधव ने आश्वासन देते हुए कहा, आज के बाद से मैं   किसी की, कोई वस्तु नहीं लूँगा. 

दो तीन दिनों तक, किसी की कोई वस्तु गुम नहीं हुई. किन्तु बाद में, पुनः, विद्यालय से लडकों की चीजें गायब होने लगीं. माधव, फिर एक बार चोर के रूप में पकड़ा गया.उस बार भी, शिक्षक महाशय ने उसे क्षमा कर दिया, और बहुत समझा-बुझा कर कहा, यदि तुम ने फिर से चोरी की, तो तुमको इस बार विद्यालय से बहिष्कृत कर दूंगा. उसने वादा किया, अब मैं कभी चोरी नहीं करूंगा. ' अब कभी चोरी नहीं करने की प्रतिज्ञा, उसने शिक्षक महाशय के सामने तो कर लिया, किन्तु फिर थोड़े ही दिनों बाद, फिर चोरी किया, और पकड़ा गया, की वही चोर है. 

इसप्रकार बारम्बार चोरी करने के कारण, शिक्षक महाशय ने उसको विद्यालय से बहिष्कृत कर दिया. उसके पिता ने जब यह सारा वृतान्त सुना, तो यथेष्ट डांट-फटकार लगाई और जबर्दस्त पिटाई भी किया.कुछ दिनों बाद, उन्होंने उसको एक दूसरे विद्यालय में पढने भेजा. परन्तु, वह वहाँ भी चोरी करने लगा.उस विद्यालय के शिक्षक महाशय ने, उसको अतिशय फटकार और पिटाई करके वहाँ से निकाल दिया.

यह सब देख सुन कर, उसके पिता के मन में उसके प्रति, बहुत घृणा उत्पन्न हुई.क्रोधित होकर उन्होंने उसको घर से बाहर निकाल दिया.बचपन से ही माधव को चोरी करने की आदत हो गयी थी, इसीलिये वह अपनी उस आदत को छोड़ नहीं सका. क्रमशः, जैसे जैसे वह बड़ा होने लगा, वैसे वैसे उसकी प्रवृत्ति और बढती गयी.

अब वह मौका मिलते ही,किसी के घर में घुस कर चोरी करने लगा. इसीलिये जो भी उसको देखता, वही उससे घृणा करता. कोई उस पर विश्वास नहीं करता था. किसी के घर जाता, तो वे उसको दुत्कार कर भगा देते थे.

माधव के दुःख की सीमा नहीं थी. वह भोजन नहीं मिलने के कारण, पेट की ज्वाला से व्याकुल हो कर रोता हुआ, दरवाजे दरवाजे मारा-मारा फिरता था, फिर भी किसी के मन में उसके प्रति कोई स्नेह य़ा दया नहीं उपजती थी.
७वाँ पाठ
अप्रिय सत्य मत बोलो 
राम एक बहुत सुबोध लड़का है. वह कभी अपने माता-पिता की आज्ञा का उलंघन नहीं करता है. वे जब कभी, राम से कुछ भी करने को कहते हैं,वह उसी समय उसे कर देता है, उनकी आज्ञा के विपरीत वह कुछ भी नहीं करता. वे लोग जिस काम को करने के लिये, एक बार मना कर देते हैं, वह उस काम को फिर कभी नहीं करता.

इसीलिये उसके माता पिता उससे अतिशय प्यार करते हैं. राम अपने भाई-बहनों के प्रति बहुत दयालु है. वह अपने बड़े भाई और बहनों का कहना मानता है, कभी उनलोगों का अनादर नहीं करता, छोटे भाई और छोटी बहनों से बहुत प्यार करता है, कभी उनलोगों को तंग नहीं करता, उनके शरीर पर कभी हाथ नहीं उठाता.

राम अपने जिन समवयस्क (हमउम्र) दोस्तों के साथ खेलता है, वह उन सबों को अपने ही भाइयों जैसा प्यार करता है, कभी उनलोगों के साथ झगड़ा य़ा मारपीट नहीं करता.जैसा व्यवहार करने से वे लोग संतुष्ट हों, वह उनके साथ सदा वैसा ही व्यवहार करता है. जिन कर्मों से वे असंतुष्ट होते हों, वैसा कोई कर्म वह नहीं करता. इसीलिये वे सभी राम से बहुत प्यार करते हैं. राम को देखने से ही वे बहुत आल्हादित हो जाते हैं. 

राम पढने-लिखने में बहुत परिश्रम करता है. वह कभी पढने-लिखने में लापरवाही नहीं करता. वह अपने शिक्षकों की अतिशय भक्ति करता है. वे लोग जब कोई उपदेश देते हैं, वह उन्हें मन लगा कर सुनता है, इसीलिये वह उनके उपदेशों को कभी भूलता.

राम कभी कोई बुरा कर्म नहीं करता. संयोग से कभी भूल हो जाये, तो एक बार मना कर देने पर, दुबारा उस काम को कभी नहीं करता. यदि कभी, उसके माता पिता य़ा शिक्षक कहते है, राम, तुमने बहुत गलत काम किया है; तब वह कहता है, मैंने नासमझी वश कर दिया है, अब कभी वैसा काम नहीं करूंगा, इस बार मुझको क्षमा कर दीजिये. उसके बाद राम वैसा काम दुबारा कभी नहीं करता. 

जिस बात को सुनने से, दूसरों के मन में क्लेश हो, राम वैसी बात कभी किसी से नहीं कहता; वह कभी अप्रिय सत्य नहीं बोलता. किसी काने व्यक्ति को काना, य़ा लंगड़े को लंगड़ा नहीं कहता. काने को काना, और लंगड़े को लंगड़ा कहने से वे बहुत दुखी हो जाते हैं. इसीलिये किसी को इसप्रकार के अशिष्ट शब्द से नहीं बुलाना चाहिये. राम के मुख से, कभी कोई कटू, अप्रिय, य़ा अश्लील शब्द सुन नहीं सकता. 
८वाँ पाठ 
सूसन्तान बनो !
देखो बच्चों, माता-पिता से बढ़ कर इस पृथ्वी पर दूसरा कुछ भी नहीं है.उन लोगों ने कितना कष्ट सह कर, कितने जतन से, पाल-पोष कर तुम्हें बड़ा किया है. वे लोग यदि, उतना कष्ट सह कर, उतने जतन से, तुम्हारा लालन पालन नहीं करते, तो किसी भी हालत में तुम्हारे प्राणों की रक्षा नहीं हो सकती थी. 

वे तुमसे जितना अधिक प्रेम करते हैं, पृथ्वी पर और कोई भी तुमलोगों को उतना प्रेम नहीं करता. क्या करने से तुमलोगों को सुख और आनन्द मिलेगा, वे लोग सर्वदा उसीकी चेष्टा करते हैं. तुम लोगों को प्रसन्न और सुखी देखने से, उनको जितना आनन्द होता है, उतना और किसी को नहीं होता. 

वे लोग तुम्हारे ऊपर जितने दयावान हैं, वैसा और कोई नहीं है. जिस बात से तुमलोगों का मंगल होता हो, उसीके लिये वे लोग सतत कितना प्रयास करते हैं. तुम लोग विद्या अर्जित कर लोगे,तो चिरकाल तक सुख से जीवन बीता सकोगे, इसीलिये उन्होंने तुम्हें पाठशाला भेजा है. तुम लोग जब मन लगा कर पढना-लिखना सीख जाते हो, तो उनको कितनी प्रसन्नता होती है.

वे लोग यदि दया करके, तुमलोगों को भोजन वस्त्र नहीं देते,तो तुम लोगों के दुःख-कष्ट की सीमा नहीं रहती. कोई स्वास्थ्यवर्धक वस्तु मिलने पर, वे लोग स्वयं न खा कर, तुमलोगों को देते हैं. अच्छे वस्त्रों को पहनने से तुम लोग आल्हादित होते हो, इसीलिये वे तुम लोगों को अच्छे अच्छे  वस्त्र खरीद देते हैं. 

तुमलोगों कहीं दर्द होता है, तो उनके मन में कितना कष्ट और कितना दुश्चिंता हो जाती है. तुमलोगों को दर्द से छुटकारा दिलाने के लिये, वे लोग कितना प्रयत्न, कितनी दौड़-धूप करते हैं. जबतक तुमलोग पूर्ण स्वस्थ नहीं हो जाते, तबतक वे लोग स्थिर और निश्चिन्त नहीं हो पाते हैं. तुम लोगों को स्वस्थ देखने से उनकी आल्हाद की सीमा नहीं रहती.

इसलिए तुमलोग कभी अपने माता-पिता के आज्ञा की उपेक्षा मत करना. वे लोग जैसा आदेश देंगे, वैसा ही करना. जिस काम को करने से मना कर देंगे, उस काम को कभी मत करना. जैसा करने से वे लोग संतुष्ट रहें, सर्वदा उसीकी चेष्टा करना. किस काम को करने से वे असंतुष्ट हों, उस काम को कदापि मत करना. जो लोग इस प्रकार का आचरण करते हैं, उनको सूसन्तान कहा जाता है. सूसन्तान होने से , माता पिता के सुख और आल्हाद की सीमा नहीं रहती. 
९वाँ पाठ 
सुरेन्द्र, मेरे पास आओ; मुझे तुमसे कुछ पूछना है.इतना सुनते ही, सुरेन्द्र तत्काल शिक्षक महाशय के पास उपस्थित हुआ. उन्होंने कहा, मैंने सुना है, कल तुम तालाब के किनारे खड़े हो कर, ढेला फेंक रहे थे; इससे मैं बहुत दुखी और असंतुष्ट हुआ हूँ. अभी मैं तुमसे पूछता हूँ, यह बात सत्य है य़ा नहीं?
सुरेन्द्र ने कहा, हाँ महाशय आपने जो सुना है, वह सत्य है; मैंने ढेला फेंका था. ढेला फेंकना कोई गलत बात है, वह मैं नहीं समझ सका. गाँछ की डाली पर एक पंछी बैठा था, उसको मारने के लिये मैंने ढेला फेंका था.

यह बात सुन कर, शिक्षक बोले, सुरेन्द्र, तुमने बहुत गलत काम किया है. पंछी ने तुम्हारा कुछ बिगाड़ा नहीं था, किस लिये तुम उसको ढेले से मारने की कोशिश कर रहे थे? यदि उसके देह पर ढेला लग जाता, तो उसे कितना कष्ट होता? यदि दूसरा कोई व्यक्ति ढेला चलाये और वह तुम्हारे शरीर पर लगे, तो तुमको कितना कष्ट होगा? मैं तुमको चेतावनी देता हूँ, कि आगे से तुम किसी पक्षी य़ा किसी भी जन्तु को कभी ढेले से नहीं मारोगे.

सुरेन्द्र यह सुन कर, अत्यंत लज्जित हुआ; एवं कहा, महाशय, मैं अबसे और किसी भी प्राणी को ढेला नहीं मारूंगा. बहुत से लड़के ऐसा करते हैं, उन्ही को देख कर मैंने भी वैसा कर दिया था. अब मैं समझ गया हूँ, कि किसी को ढेले से मारना अच्छी बात नहीं है. 

तब शिक्षक बोले, तुम्हारी यह बात सुनकर मैं संतुष्ट हुआ हूँ. किन्तु तुमने, जिस पक्षी को लक्ष्य करके ढेला चलाया था, वह ढेला उसके शरीर पर नहीं लगा. निकट में ही एक बालक खड़ा था, ढेला उसके सर पर लगा, उसका सर फुट गया और रक्त गिरने लगा. यदि उसके आँख पर लग जाता, तो वह जन्मजात काना हो सकता था. बालक दर्द से व्याकुल होकर कितना रोया है. अब तुम्ही देखो, ढेला चलाना कितनी बुरी बात है.

सुरेन्द्र यह सुनकर बहुत दुखी हुआ, एवं मैंने बहुत बड़ी गलती कि है, यह कह कर रोने लग पड़ा. कुछ देर बाद उसने कहा, महाशय, नासमझी के कारण मैंने यह दुष्कर्म किया है. आपके सामने वचन देता हूँ, फिर कभी ऐसा बुरा कर्म नहीं करूंगा. इस बार आप मुझे क्षमा कर दीजिये. 
शिक्षक यह सुन कर बहुत संतुष्ट हुए; एवं बोले, सुरेन्द्र, तुमने गलती करके, उसे स्वीकार कर लिया है, इससे मैं अतिशय संतुष्ट हुआ हूँ. देखो, ढेला चलाना अच्छी बात नहीं है, इस बात को फिर कभी  भूल मत जाना. 
१०वाँ पाठ 
चोरी करना कदापि उचित नहीं है ! 
बिना बताये दूसरों की कोई वस्तु ले लेने को चोरी कहते हैं.चोरी करना बहुत बड़ा दोष है. जो चोरी करता है,उसको चोर कहते हैं.चोर पर कोई विश्वास नहीं करता.चोरी करने के बाद, यदि चोर पकड़ा जाता है, तो उसके दुर्गति की कोई सीमा नहीं रहती. बच्चों के लिये यही उचित है,कि कभी चोरी न करे.

माता-पिता का यही कर्तव्य है,कि यदि अपने बच्चों को किसी की कोई वस्तु चोरी करते देख ले,तो उसको डांट-फटकार लगाये, एवं चोरी करने से क्या हानी होती है, इस बात को उन्हें अच्छी तरह से समझा दें. 

एक बार, एक बालक विद्यालय से, किसी दूसरे सहपाठी की पुस्तक चुरा कर घर ले आया. बहुत बचपन में ही इस बालक के माता पिता की मृत्यु हो गयी थी. उसकी मौसी ने उसको पाल-पोष कर बड़ा किया था. मौसी ने, उसके हाथ में वह पुस्तक देख कर पूछा, भुवन, तुमको यह पुस्तक कहाँ से मिली ? उसने कहा कि, यह पुस्तक मेरे विद्यालय के एक लड़के की है. 

वह समझ गयी, कि भुवन उस पुस्तक को कहीं से चुरा कर लाया है. किन्तु मौसी ने उससे पुस्तक को वापस कर देने के लिये नहीं कहा, भुवन को कोई डांट-फटकार भी नहीं लगायी, य़ा भुवन को आगे से चोरी करने को मना भी नहीं किया.

इसी बात से भुवन की हिम्मत और बढ़ गयी. वह जितने दिन विद्यालय में रहा, मौका मिलते ही, चोरी कर लेता था. इसी प्रकार करते करते वह क्रमशः, एक शातिर चोर बन गया. सभी लोग इस बात को जान गये, कि भुवन एक बहुत बड़ा चोर बन गया है. 
यदि किसी की कोई वस्तु कभी खो जाती, तो उसी को चोर समझ कर, सभी उसके ऊपर ही संदेह करते थे. जब भुवन किसी के घर जाता, तो उस घर के लोग, इस भय से बहुत सतर्क हो जाते कि यह कहीं कुछ चुरा तो नहीं लेगा; इसीलिये वे उसको दुत्कार कर, य़ा जरुरी लगा तो मारपीट कर अपने घर से भगा देते थे. 

कुछ समय के बाद, राजा के सिपाहियों ने भुवन को चोर समझ कर पकड़ लिया. तथा यह प्रमाणित भी हो गया, कि वह बहुत समय से चोरी करता आ रहा है, एवं कई लोगों की बहुत सारी चीजें चोरी कर ली है. न्यायधीश ने भुवन को फाँसी की सजा सुना दी. उस समय भुवन को होश हुआ. जिस स्थान पर अपराधियों को फांसी दी जाती है, जब उसको भी वहाँ ले जाया गया, तब भुवन राजा से बोला, आप दया करके, मेरी एक अन्तिम ईच्छा पूरी कर दीजिये, एक बार मुझे अपनी मौसी से मिलवा दीजिये. 

भुवन की मौसी को उस स्थान पर ले आया गया, वे भुवन को उस हालत में देख कर जोर जोर से रोने लगी, और रोते रोते भुवन के पास पहुंची. भुवन ने कहा, मौसी, अब रोने से क्या होगा. मेरे पास आओ तुम्हारे कान में मैं एक बात कहना चाहता हूँ. मौसी जब नजदीक पहुंची तो भुवन अपना मुख उनके कान के पास ले गया, एवं अपने दातों से कसकर, उसका एक कान ही काट लिया. तथा  उसकी भर्त्सना करता हुआ बोला, मौसी, आज जो मुझे फाँसी पर चढना पड़ रहा है, उसका एकमात्र कारण केवल तुम ही हो.

जिस दिन मैंने पहली बार चोरी की थी, तुम उसे जान गयी थी. उसी समय यदि तुम मुझ पर कड़ाई करती, कोई दण्ड दे देती, तो आज मेरी यह दशा नहीं होती. तुमने वैसा नहीं किया, इसीलिये मैंने तुमको यह पुरष्कार दिया है. 
सम्पूर्ण 

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

अष्टांग-योग के पाँच सोपानों में सम्पूर्ण शिक्षा का सार है !

शिक्षा शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की ‘शिक्ष्’ धातु से हुयी है, जिससे अभिप्राय है, सीखना- अर्थात गुरु-वाक्य में निहित भावों य़ा सिद्धान्तों को आत्मसात कर लेना. स्वामी विवेकानन्द चरित्र-निर्माणकारी एवं मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा पर बल देते हुए वे कहते हैं- " क्या तुमने इतिहास में नहीं पढ़ा है कि देश के मृत्यु का चिन्ह अपवित्रता (भ्रष्टाचार) य़ा चरित्रहीनता के भीतर से होकर आया है- जब यह किसी जाति में प्रवेश कर जाति है, तो समझना कि उसका विनाश निकट आ गया है....इस समय हम पशुओं की अपेक्षा कोई अधिक नीतिपरायण नहीं हैं. यदि समाज आज कह दे कि चोरी करने से अब दण्ड नहीं मिलेगा, तो हम इसी समय दूसरे की सम्पत्ति लूटने को दौड़ पड़ेंगे. पुलिस का डण्डा ही हमें सच्चरित्र बनाये रखता है, य़ा सामाजिक प्रतिष्ठा के लोप की आशंका ही हमें नीतिपरायण बनाती है, और वास्तविकता तो यही है कि हम पशुओं थोड़ा अधिक बेहतर हैं." (ज्ञान-योग :३२,२७५)  
अन्यत्र वे कहते हैं- " Education is assimilation of ideas  - भावों (पढने के बाद गाय जैसा पागुर करके भावों को पचा लेना) का आत्मसातीकरण ही शिक्षा है." 
और गुरु-वाक्य में निहित भावों को तबतक आत्मसात नहीं किया जा सकता जब तक मन को एकाग्र करने का कौशल न सीख लिया जाय.शिक्षा के लिये मनः संयोग य़ा एकाग्रता का कितना महत्व है, इसे स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं-" मेरे विचार से तो शिक्षा का सार मन की एकाग्रता प्राप्त करना है, तथ्यों का संकलन नहीं. यदि मुझे फिर से अपनी शिक्षा आरम्भ करनी हो और इसमें मेरा वश चले, तो मैं तथ्यों का अध्यन कदापि न करूँ. मैं मन की एकाग्रता और अनासक्ति की सामर्थ्य बढ़ाता और उपकरण के पूर्णतया तैयार होने पर उससे इच्छानुसार तथ्यों का संकलन करता." 
हम यह भी समझ सकते हैं कि मन में अनन्त शक्ति है जिसका प्रयोग करके नये-नये आविष्कारों द्वारा मानव-सभ्यता ने इतनी आश्चर्य जनक प्रगति की है. किन्तु उसके अत्यधिक चंचल हो जाने के कारण हम उसका अपनी इच्छानुसार प्रयोग करके जीवन-लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल हो जाते हैं. अतः मन को अतिरिक्त चंचल बना देने वाले - काम, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या आदि रिपुओं को अपना सबसे बड़ा शत्रू समझ कर उनके साथ युद्ध करके सबसे पहले उनको ही परास्त कर देना होगा. असली वीरता बाहर के शत्रुओं को जीत लेने में नहीं है, अपने मन में छुपे शत्रुओं को पहचान कर उनको खत्म करने में है. जिनके रहने के कारण मन इतना अधिक चंचल हो जाता है कि उसको एकाग्र करना बहुत कठिन जान पड़ता है; और हम मन कि असीम शक्ति को अपने उपयोग में लाकर अपने जीवन के चरम लक्ष्य (अमृतत्व ) की प्राप्ति करने से वंचित रह जाते हैं.
इन्ही सब कारणों को ध्यान में रख कर बहुत प्राचीन काल में ही महर्षि पतंजली ने आठ सोपान में मन को एकाग्र करने की एक वैज्ञानिक पद्धति का आविष्कार किया था- जिसे ' अष्टांग योग ' कहा जाता है. इस पद्धति को उन्होंने संस्कृत-सूत्र के रूप लिख कर संग्रहित किया था, साधारण मनुष्य उन सूत्रों को बिल्कुल नहीं समझ पाते थे. प्राचीन ऋषि लोग ऐसा मानते थे कि जो मनुष्य उच्च विद्या ग्रहण करने का योग्य अधिकारी होगा वह इन इन सूत्रों को पढ़ कर स्वयं ही समझ जायेगा.
किन्तु समस्त मानवता से प्रेम करने वाले आधुनिक ऋषि स्वामी विवेकानन्द अपने ' भारत का भविष्य' नामक अपने Lecture में कहते हैं- " मेरा विचार है, पहले हमारे शास्त्र में भरे पड़े आध्यात्मिकता के रत्नों को, जो कुछ ही व्यक्तियों के अधकार में मठों और अरण्यों में छिपे हुए हैं, बाहर लाना है. जिन मठाधीशों के अधिकार में ये छिपे हुए हैं, केवल उन्हीं से इस ज्ञान का उद्धार करना नहीं, वरन उससे भी दुभेद्य पेटिका अर्थात जिस भाषा (संस्कृत य़ा बंगला भाषा) में ये सुरक्षित हैं, उन शताब्दियों के पर्त खाए हुए संस्कृत शब्दों से उन्हें निकालना होगा. तात्पर्य यह कि मैं उन्हें सबके लिये सुलभ कर देना चाहता हूँ. मैं इन तत्वों को निकलकर सबकी, भारत के प्रत्येक मनुष्य की, सामान्य सम्पत्ति बनाना चाहता हूँ, चाहे वह संस्कृत जानता हो य़ा नहीं...अतः मनुष्यों की बोलचाल की भाषा (हिन्दी) में उन विचारों की शिक्षा देनी होगी. साथ ही संस्कृत की भी शिक्षा अवश्य होती रहनी चाहिये, क्योंकि संस्कृत शब्दों की ध्वनी मात्र से ही जाति को एक प्रकार का गौरव, शक्ति और बल प्राप्त हो जाता है." (५:१८३-८४) 
 अष्टांग-योग को 'योग-सूत्र '-अर्थात ‘योग के सूत्रों का संग्रह या संकलन' के नाम से भी जाना जाता है.
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोः – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, अष्टौ – ये आठ, अङ्गानि— (योग के) अंग हैं।
  किन्तु अपने गुरु श्रीरामकृष्ण से प्राप्त निर्देश के अनुसार स्वामी विवेकानन्द युवाओं को यह परामर्श देते हैं कि अष्टांग-योग के तीन सोपान - प्राणायाम, ध्यान और समाधि का अभ्यास इस समय करने कि जरूरत नहीं है, इसके सेष बचे पाँच चरणों - 'यम,नियम, आसान, प्रत्याहार, धारणा' तक का अभ्यास करने से ही मन को एकाग्र किया जा सकता है. 
उसमे से पहले दो सोपान - 'यम और नियम' का अभ्यास अपने दैनन्दिन जीवन में प्रतिदिन प्रति मुहूर्त करना है. सेष तीन-' आसन, प्रत्याहार, धारणा ' का अभ्यास प्रतिदिन दो बार निर्दिष्ट समय पर प्रातः और संध्या के समय करना है.
यम का अर्थ है- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह. इस यम से चित्तशुद्धि होती है. शरीर,मन, वचन के द्वारा किसी को क्लेश न देना -यह अहिंसा कहलाता है. अहिंसा से बढ़ कर कोई धर्म नहीं है. सत्य के द्वारा हम कर्म-फल के भागी होते हैं, सत्य से सबकुछ मिलता है; सत्य में सबकुछ प्रतिष्ठित है. यथार्थ कथन को ही सत्य कहते हैं. चोरी से य़ा धमकी देकर दूसरों की चीज न लेने का नाम है अस्तेय. कभी भी संयम को त्याग कर पशु अस्तर में नहीं गिरना, शरीर मन से पवित्र रहने को ब्रह्मचर्य कहते हैं. अत्यन्त कष्ट के समय भी किसी मनुष्य से कोई उपहार (रिश्वत) ग्रहण न करने को अपरिग्रह कहते हैं.अपरिग्रह साधना का उद्देश्य यह है कि किसी से कुछ gift य़ा घूस लेने से ह्रदय अपवित्र हो जाता है, वह अपनी स्वतंत्रता खो बैठता है और बद्ध एवं आसक्त हो जाता है. अतः ये 5 do not doe's हैं, इन सबसे विरत रहना है. 
नियम- अर्थात नियमित अभ्यास और व्रत परिपालन. शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणीधान- इन्हें नियम कहते हैं. बाह्य और आन्तरि दोनों ही शुद्धि आवश्यक है. तृष्णा कि पूर्ति कभी नहीं हो सकती, अतः जितना आवश्यक है, उतना मिल जाने पर संतुष्ट रहना चाहिये.स्वाध्याय -सद्ग्रंथों का पाठ करना.ईश्वरप्रणीधान- यह विश्वास करना कि सृष्टि के पीछे एक स्रष्टा जरुर है, वही सत्य हमारी आत्मा में हैं, जिसके कारण यह स्थूल शरीर -चलता,बोलता है. 'माटी के पुतलो कैसे नचत हैं ?' अपने अन्तर्निहित सत्य को जानने के लिये सतत प्रयत्नशील रहना. और उस सत्य तक पहुँचने के लिये किसी भी कष्ट को सहने के लिये- तप के लिये तत्पर रहना. य़ा लक्ष्य तक पहुँचने के लिये कष्ट उठाने को तत्पर रहना. प्रातः काल उठना स्वाध्याय नित्य करना.  ये हैं 5 doe's इनका तथा उपरोक्त 5 do not doe's का अभ्यास प्रति मुहूर्त करना है. यह तो यम और नियम के बारे में हुआ. उसके बाद है आसन. 2.46    स्थिरसुखम् स्थिर पूर्वक तथा सुखयुक्त (बैठने की स्थिति) आसनम् आसन है।
आसन के आन्तरिक महत्व को समझना-इस प्रकार बैठना जिससे शरीर में कष्ट न हो. मेरुदण्ड और गर्दन सीधा रख कर straight बैठना है. परिवेश को स्वच्छ, सुगन्धित बना लेने से मन आनन्दित रहता है. अतः ऐसा नहीं समझना चाहिये की संख बजाना, घंटी-चंवर डोलना, होम-हवन करना य़ा पद्मासन में बैठने से ही एकाग्रता का अभ्यास किया जा सकता है. यह सब बाह्य-अनुष्ठान य़ा rituals है, इसको ही महत्व नहीं देना है. अर्धपद्मासन में बैठ कर य़ा सुखासन में बैठ कर भी एकाग्रता का अभ्यास किया जा सकता है. 
किसी आश्रम में साधुजी सुबह में जब अपने शिष्यों को प्रवचन देते थे, तो उसी समय उनकी एक पालतू बिल्ली आ कर उन्हें disturb करती थी. उन्होंने अपने प्रधान शिष्य को यह आदेश दिया कि प्रवचन के समय इस बिल्ली को एक खूंटे से बांध देना. कालान्तर में बूढ़े होकर वह साधुजी, उनका प्रधान शिष्य भी मर गये और वह बिल्ली भी मर गयी. जो नये साधु गद्दी पर बैठे- उन्होंने सोंचा कि जब तक एक काली बिल्ली को खोज कर उस खूंटे से न बंधा जाये तबतक प्रवचन का प्रारम्भ ही नहीं हो सकता. इसी तरह बाह्य अनुष्ठान को ही सबकुछ नहीं मान लेना है.
प्रत्याहार - अब कोई पूछे,कि एकाग्रता का अभ्यास करने के लिये फिर आसान में बैठने की भी क्या आवश्यकता है? "अनुभव-शक्तियुक्त इन्द्रियाँ लगातार बहिर्मुखी हो कर काम कर रही हैं और बाहर की वस्तुओं के सम्पर्क में आ रही हैं. उनको अपने वश में लाने को प्रत्याहार कहते हैं. अपनी ओर खींचना अर्थात अन्तर्यामी गुरु, विवेक-शक्ति की ओर आहरण करना- यही प्रत्याहार शब्द का प्रकृत अर्थ है."   चुपचाप silence में बैठ कर मन का पर्यवेक्षण करना है- मन में उठने वाले विचारों, दृश्यों को देखने के लिये- अपने मन में उठ रहे विचारों के बुलबुलों का पर्यवेक्षण करने से अन्तरदृष्टि विकसित हो जाति है. इसके लिये बहिर्मुखी मन को अन्तर्मुखी य़ा गुरुमुखी बना कर इसे दो भाग में मानो बाँट दिया जाता है- और द्रष्टा मन से दृश्य मन में उठने वाले विचारों य़ा उभरते हुए चित्रों का अवलोकन करना है. 
अर्धपद्मासन में बैठ कर पहले टकटकी बांध कर अपने पहले से चयनित युवा-आदर्श (Role -Model) के चित्र को थोड़ी देर तक देखने के बाद आँखों को मूंद कर पहले मन को उसकी इच्छानुसार किसी भी इन्द्रिय विषयों में जाने की छूट देंगे. जब मन किसी मतवाले हाथी की तरह उन्मत्त दिखाई देने लगेगा तो उसे वस में करने के लिये विवेक रूपी अंकुश मार कर, श्रेय-प्रेय का विचार करके एक ओर, श्रेय की ओर खींचेंगे.
धारणा - इन्द्रिय विषयों से खींच कर अन्तर्मुखी बने मन को अपने शरीर में किसी विशिष्ट स्थान- ह्रदय कमल में धारण करना होगा. किसी निराकार आदर्श के बारे में चिन्तन करना कठिन होता है, तथा किसी मूर्तमान पवित्र आदर्श पर मन को टिकाये रखना य़ा साकार नाम-रूप का चिन्तन करना सरल होता है. अतः अपने ह्रदय कमल पर बैठाने के लिये पहले से ही किसी मूर्त आदर्श का चयन कर लेना अच्छा होगा. हमारा परामर्श है कि अपने ह्रदय कमल पर मूर्त आदर्श के रूप में स्वामी विवेकानन्द की मूर्ति स्थापित कर- उनके ऊपर मन को धारण करना - Concentrate  करना  उचित होगा. अर्थात उस समय मन को past-future के बारे में बकबक करने से रोक कर अपने इष्ट के नाम-रूप-वाणी के ऊपर चिन्तन करना है - मानो वे कह रहे हों - " तुम हो मेरे भाई निरंजन, शुद्ध-बुद्ध-निष्पाप! उठो, जाग्रत हो जाओ. हे महान, यह नींद तुम्हें शोभा नहीं देती. उठो, यह मोह तुम्हें भाता नहीं. तुम अपने को दुर्बल और दुखी समझते हो ?
हे सर्वशक्तिमान, उठो, जाग्रत होओ, अपना स्वरुप प्रकाशित करो. तुम अपने को पापी समझते हो, यह तुम्हें सोभा नहीं देता.
तुम अपने को दुर्बल समझते हो, यह तुम्हारे लिये उचित नहीं है. जगत से यही कहते रहो, अपने से यही कहते रहो- देखो इसका क्या शुभफल होता है; देखो, कैसी विद्युत् की चौंध जैसा सबकुछ प्रकाशित हो जाता है, और क्षण मात्र में सबकुछ कैसे परिवर्तित हो जाता है. 
मनुष्यजाति से यही कहते रहो - उसे उसकी शक्ति दिखा दो. " (व्यवहारिक जीवन में वेदान्त-२०)   
व्यास के द्वारा महर्षि पतञ्जलि के योग सूत्र पर दी गयी व्याख्या य़ा ' व्यास-भाष्य' 1.12॥ में कहा गया है-
चित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च।या तु,
 कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा। 
संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा।तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिली क्रियते।

विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयत इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः।
-अर्थात चित्तनदी (मन) का प्रवाह दोनों तरफ हो सकता है, वह कल्याण की दिशा य़ा पाप की दिशा में भी प्रवाहित हो सकती है. जब उसका प्रवाह विवेक के तली से, अन्तर्मुखी दिशा में होता है, तो वह कल्याण की दिशा है. जब मन बहिर्मुखी होकर इन्द्रियविषयों के भोगों के लोभ वश संसार की ओर अधिक दौड़ने लगे तो, उस 'पापवहा'-प्रवाह को वैराग्य का फाटक लगा कर, अर्थात लालच कम करके, अन्तर्यामी गुरु 'विवेक' का दर्शन करने का अभ्यास करने से 'विवेकस्रोत' उदघाटित हो जाता है. 
 चित्त की वृत्तियों का निरोध- अर्थात 'योग' इन्हीं दो प्रवाहों पर निर्भर है." अतः हमलोग पवित्रता और प्रेम के मूर्त रूप चिर-युवा स्वामी विवेकानन्द के चित्र पर ही मन को एकाग्र करने का प्रयास करेंगे, शायद इसी लिये भारत सरकार ने भी १२ जनवरी को युवा दिवश घोषित किया है. 
परन्तु किसी के इष्ट पहले से ही पवित्रता और प्रेम के मूर्ति कोई अन्य महापुरुष - ईसा, नानक, बुद्ध, राम, कृष्ण , य़ा काबा का पवित्र पत्थर हो, तो वह उनके ऊपर भी मन को एकाग्र करने का अभ्यास कर सकते हैं. य़ा यदि कोई नास्तिक हो, तो वह कैंडल के लौ पर भी मन को एकाग्र रखने का अभ्यास कर सकता है. यही है धारणा.
किन्तु चेष्टा करने से भी मन तुरन्त दास नहीं बन जाता. वह बिगड़ा हुआ बच्चे जैसा है, उसकी आदतें खराब हैं- वह हाथ से लगाम खींच कर पुनः रूप,रस, गंध, शब्द, स्पर्श आदि इन्द्रिय विषयों में भाग जाता है, बहिर्मुखी हो जाता है. उसकी भाग-दौड़ से हार माने बिना, पुनः खींच कर सामने लाना है, उसको आदेश देना है, साथ साथ बालक जैसा समझाना है- ' तू क्या मुझे पशु बनाना चाहता है? तू मेरा यंत्र है, मैं तुम्हारा प्रभु हूँ, अभी मेरे सामने बैठ कर चुपचाप स्वामीजी की वाणी य़ा त्रिदेवों की वाणी पर चिन्तन करना है- थोड़ी देर तक भूत-भविष्य के बारे में बकबक करना बन्द करके इनकी वाणी सुनो!
कुछ लोग इस भाग-दौड़ से घबडा कर प्रश्न करते हैं- ६ महिना से तो मनः संयोग का अभ्यास कर रहा हूँ, पूर्ण तौर पर मन को नियन्त्रण करने में अभी और कितना दिन लग जायेगा ? यह कोर्स कितने  दिनों का है ? स्वामी विवेकानन्द इसी बात पर एक कथा कहते थे-
."नारद नामक एक महान देवर्षि थे. जैसे मनुष्यों में ऋषि य़ा बड़े बड़े योगी रहते हैं, वैसे ही देवताओं में भी बड़े बड़े योगी हैं नारद भी वैसे ही एक अच्छे और अत्यन्त महान योगी थे वे सर्वत्र भ्रमण किया करते थे.नारदजी प्रभु के परम-भक्त थे, श्रीहरी के पास उनका आना-जाना लगा रहता था. वे जब कभी चाहें नारायण के पास आ-जा सकते थे. नारद के लिये भगवान के पास जाने, य़ा इस दृष्टिगोचर जगत के परे जाने य़ा beyond time and space जाने में कोई बाधा नहीं थी. 
एक दिन नारदजी वीणा बजाते हुए हरी-नाम करते हुए प्रभु के यहाँ (बैकुण्ठ-लोक) जा रहे थे, वन में से जाते हुए उन्होंने देखा कि एक मनुष्य ध्यान में इतना मग्न है, और इतने दिनों से एक ही आसन पर बैठा है कि उसके चारों ओर दीमक का ढेर लग गया है. उसने नारद से पूछा, ' प्रभो, आप कहाँ जा रहे हैं'? नारदजी ने उत्तर दिया, 'मैं बैकुण्ठ जा रहा हूँ.' तब उसने कहा,'अच्छा,आप भगवान से पूछते आयें, वे मुझ पर कब कृपा करेंगे, मैं कब मुक्ति प्राप्त करूँगा.' फिर कुछ दूर और जाने पर नारदजी ने एक दूसरे मनुष्य को देखा. वह कूद-फांद रहा था, कभी नाचता था तो कभी गाता था. उसने भी नारदजी से वही प्रश्न किया. उस व्यक्ति का कंठस्वर, वागभ्न्गी आदि सभी उन्मत्त के समान थे. नारदजी ने उसे भी पहले के समान उत्तर दिया. वह बोला, 'अच्छा, तो भगवान से पूछते आयें, मैं कब मुक्त होऊँगा.' 
 लौटते समय नारदजी ने दीमक के ढेर के अन्दर रहनेवाले उस ध्यानस्थ योगी को देखा. उस योगी ने पूछा, ' देवर्षे, क्या आपने मेरी बात पूछी थी ?' नारदजी बोले, 'हाँ, पूछी थी.' योगी ने पूछा, 'तो उन्होंने क्या कहा ?' नारदजी ने उत्तर दिया,' भगवान ने कहा- ' अभी जितनी कठोर तपस्या कर रहा है, ऐसी ही कठोर तपस्या और चार जन्मो तक करेगा, इस प्रकार बार बार तपने और मरने के बाद उसे मुक्ति प्राप्त होगी.' तब तो वह योगी घोर विलाप करते हुए कहने लगा, ' हे भगवान तुम कितने निष्ठूर हो ! तुमने मुझ पर थोड़ी भी दया नहीं की ?मैंने इतना ध्यान किया है कि मेरे चारों ओर दीमक का ढेर लग गया, फिर भी मुझे और चार जन्म लेने पड़ेंगे!!' 
थोड़ी दूर जाने पर फिर वही भजनानन्दी साधु मिले, जो नाचते-गाते भजन कर रहे थे.उसने भी पूछा, ' क्या आपने मेरी बात भगवान से पूछी थी?' नारदजी बोले, ' भगवान ने कहा है, 'उसके सामने जो इमली का पेड़ है, उसके जितने पत्ते हैं, उतनी बार उसको जन्म ग्रहण करना पड़ेगा.' यह बात सुन कर, वह व्यक्ति हताश होने के बजाय और जोर जोर से नाच-गा कर प्रभु का नाम कीर्तन करने लगा और बोला,' हे प्रभु, तुम कितने दयालु हो ! तुमने मुझ जैसे अकिंचन का भी ध्यान रखा है ! और मैं इतने जन्मो तक तेरा नाम कीर्तन करता रहूँगा तो मेरी मुक्ति अवश्य होगी.' वह बड़े आनन्द से नृत्य करने लगा.'
मैं इतने कम समय में मुक्ति प्राप्त करूँगा !' तब एक आकाशवाणी सुनाई पड़ी, एक देववाणी हुई- 'वत्स, मैं तुम पर अति प्रसन्न हूँ, तुम इसी क्षण मुक्ति प्राप्त करोगे.' ईश्वर का यह वरदान उनको अपने अध्यवसाय-शीलता, य़ा अटूट धैर्य का पुरष्कार के रूप में प्राप्त हुआ. 
कथा का मर्म यह है कि,
वह दूसरा व्यक्ति इतना अध्यवसाय सम्पन्न था ! उसने ठान लिया था कि परम वस्तु को पाने के लिये मैं लाख जन्मों तक भी साधना करने को तैयार हूँ! उसे यह दृढ विश्वास था, कि यदि एकाग्रता का अभ्यास लगातार करता रहूँगा- पूरे अध्यवसाय के साथ तो मुझे अवश्य सफलता मिलेगी. परन्तु जो योगी चार जन्मों की बात सुनकर ही घबड़ा गया, और धैर्य छोड़ दिया उसको फल नहीं मिला. परन्तु जो व्यक्ति नारद जी के वचन को सत्य मान कर उनकी आज्ञानुसार लाख जन्मों तक साधना करने को प्रस्तुत था- उसको उसी क्षण मुक्ति मिल गयी." (१:१०५-६) 
सार बात यही है कि एकाग्रता की विद्या अर्जित करने के लिये हमे भी - अष्टांग के ५ अंगों का अभ्यास पूरे अध्यवसाय के साथ करते रहना होगा, तथा इस देह के नाश होने के बाद जब दूसरा देह प्राप्त होगा- तो उस देह से भी पुनः इसी अभ्यास को करूँगा और सिद्धि प्राप्त किये बिना नहीं रुकुंगा. ' लक्ष्य तक पहुँचे बिना विश्राम नहीं लूँगा ! इसी को दृढ संकल्प कहते हैं. 
हमे भी अष्टांग योग के ५ अंगों- 'यम,नियम, आसन, प्रत्याहार, धारणा ' को दो भागों में विभक्त कर, प्रथम दो अंग- ' यम-नियम' पर बहुत जोर देना होगा. महामण्डल के वरिष्ठ सदस्य लोग कई जगहों पर जाते हैं, उन्हें अक्सर सुनने को मिलता है- ' भैया जी, इतने दिनों से तो अभ्यास कर रहा हूँ, पर मनः संयोग कहाँ हो पाता है?' 
४४ साल के अनुभव के आधार पर जब वे उनसे पूछते हैं- ' मनः संयोग की पद्धति को जानते हो? तब वह भाई योग सूत्र के केवल ५ अंग बोलने के बजाय आठो सोपान फटाफट बोल जाता है. परन्तु जब वे उनसे पूछते हैं- ' क्या तुम सर्वदा झूठ बोलने से बचते हो और सत्य बात ही कहते हो ? लोभ कम हुआ है? संतोष आया है? परम तत्व को पाने के लिये, ' तपः ' - कुछ कष्ट उठाकर भी अभ्यास की दिनचर्या का पालन करते हो? काम,लोभ,ईर्ष्या, परदोष दर्शन य़ा पर-चर्चा में ही तो समय नहीं बिताते? अहंकार आदि मन के विकार कम हुए ? ईर्ष्या तो नहीं करते? 
आचरण में यदि यम-नियम का पालन २४ घन्टा प्रर्ति मुहूर्त करते रहा जाय- तो मन की अतिरिक्त चंचलता अवश्य दूर हो जाएगी. अगर हम मन को पूरीतरह से वशीभूत करके उसको अपना दास न भी बना सके तो कोई हर्ज नहीं, किन्तु 5 do not doe's और 5 doe's का अभ्यास करने से इतना लाभ तो अवश्य हगा कि मन कि अतिरिक्त चंचलता अवश्य दूर हो जाएगी, जीवन में संयम आयेगा हमारा चरित्र भी क्रमशः सुन्दर होने लगेगा. अधिकांश व्यक्ति मनः संयोग के दूसरे अंग,'आसन-प्रत्याहार-धारणा' का अभ्यास दिन भर में दो बार कर लेना यथेष्ट समझते हैं, और शिकायत करते हैं- कहाँ कुछ हो रहा है ? इसके साथ साथ ५ यम और ५ नियम का प्रति मुहूर्त अभ्यास करने से ही चरित्र गठित होता है. स्वामी विवेकानन्द कहते थे, ' यम-नियम का पालन करना केवल मनः संयोग का ही नहीं, वरन चरित्र-गठन का भी प्रथम सोपान है.' 
  इसी बात को रेखांकित करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " असत अभ्यास (भ्रष्टाचार) का एकमात्र प्रतिकार है- उसका विपरीत अभ्यास. हमारे चित्त में जितने असत अभ्यास (रिश्वतखोरी आदि)  संस्कारबद्ध हो गये हैं, उन्हें सत अभ्यास द्वारा नष्ट करना होगा. केवल सत्कार्य कार्य(यम-नियम का पालन) करते रहो, सर्वदा पवित्र चिन्तन करो; असत संस्कार (भ्रष्टचार) रोकने का बस, यही एक उपाय है. ऐसा कभी मत कहो कि अमुक (आयेदिन छापे में पकड़ने वाले भ्रष्ट नेताओं और पदाधिकारियों) के उद्धार की कोई आशा नहीं है. क्यों? इसलिए कि वह व्यक्ति केवल एक विशिष्ट प्रकार के चरित्र का - कुछ अभ्यासों की समष्टि मात्र है, और ये अभ्यास नये और सत अभ्यास से दूर किये जा सकते हैं.चरित्र बस, पुनः पुनः अभ्यास की समष्टि मात्र है और इस प्रकार (यम-नियम) का पुनः पुनः अभ्यास ही चरित्र का सुधार (य़ा भ्रष्टाचार मुक्त) कर सकता है."
अष्टांग योग के केवल ५ सोपानों, 'यम-नियम-आसन-प्रत्याहार- धारणा ' के अभ्यास को शिक्षा का अंग बना लेने से भारत की समस्त समस्याओं का निदान हो सकता है, क्योंकि पतंजलि वैज्ञानिक भाषा में बात करते हैं।
     अष्टांग-साधना के बारे में इस वैज्ञानिक पद्धति के आविष्कारक महर्षि पतंजलि स्वयं कहते हैं- 2.31    जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः – (उपरोक्त संयम) जाति, देश, काल और समय की सीमा से रहित, सार्वभौमा सार्वभौम होने पर, महाव्रतम् महाव्रत (के स्वरूप वाले) हैं।
अतः इसका अभ्यास किसी भी धर्म-संप्रदाय के अनुयायी य़ा नास्तिक भी कर सकते हैं." अष्टांग-योग " कोई धर्म-ग्रन्थ नहीं बल्कि एक विज्ञान है। योग का इस्लाम, हिंदू, जैन या ईसाई से कोई संबंध नहीं है। योग एक विज्ञान है, विश्वास नहीं है। जो कोई भी व्यक्ति इसका अभ्यास करेगा, सब को एक ही परिणाम प्राप्त होगा- उसका चरित्र अवश्य निर्मित हो जायेगा.
 

सोमवार, 17 जनवरी 2011

विवेकानन्द का दर्शन करने के अभ्यास से - ' विवेक स्रोत ' उदघाटित होता है !

पिछले तीन सम्पादकीय लेखों में हमने ' मनः संयोग ' की पद्धति को सीखने की आवश्यकता तथा शिक्षा को आत्मसात करने में इसके महत्व को समझा है. स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " मनुष्य और पशु में मूख्य अन्तर उनकी मन की एकाग्रता की शक्ति में है. किसी भी कार्य में सारी सफलता इसी एकाग्रता का परिणाम है....एकाग्रता की शक्ति में अन्तर के कारण ही एक मनुष्य दूसरे से भिन्न होता है. छोटे से छोटे आदमी की तुलना ऊँचे से ऊँचे आदमी से करो. अन्तर मन की एकाग्रता की मात्रा में होता है." 
इसी एकाग्रता के महत्व को रेखांकित करते हुए स्वामीजी कहते हैं- " अर्थ का उपार्जन हो, चाहे भगवद आराधना हो- जिस काम में जितनी अधिक एकाग्रता होगी, वह कार्य उतने ही अधिक अच्छे प्रकार से सम्पन्न होगा. द्वार के निकट जाकर पुकारने य़ा खटखटाने से जैसे द्वार खुल जाता है, उसी भाँति केवल इस उपाय से ही प्रकृति के भण्डार का द्वार खुल कर प्रकाश बाढ़ के रूप में बाहर आता है." 
हमलोगों ने यह भी समझा था, कि स्वाभाविक रूप से चंचल मन कामना-वासना कि मदिरा, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या आदि विकारों से ग्रस्त हो कर अतिरिक्त चंचल हो जाता है; फलस्वरूप उसको एकाग्र करना कठिन हो जाता है. इसीलिये ऋषि पतंजलि ने आठ चरणों में मन को वशीभूत करने की पद्धति का आविष्कार किया था, और उसे सूत्र बद्ध करके योग-सूत्र दिया था- यम, नियम, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि.  हमलोग जो यथार्थ मनुष्य बनना चाहते हैं, उनके लिये स्वामीजी ने प्राणायाम, ध्यान और समाधि को बाद करके केवल पाँच अंगों का अभ्यास करना ही पर्याप्त माना था. इन पाँच अंगों को दो भाग में बाँट कर -' यम और नियम ' का पालन प्रति मुहूर्त करना है,तथा ' आसान-प्रत्याहार-धारणा ' का अभ्यास दिन में दो बार सुबह और शाम अपनी सुविधा के अनुसार निर्दिष्ट समय पर करना है. आज हमारे जीवन में व्यस्तता बढ़ गयी है इसलिए यदि संध्या में अभ्यास के लिये बैठना सम्भव न हुआ तो कम से कम रात में सोने से पहले बिछावन पर बैठ कर भी कर सकते हैं.  
मन की अतिरिक्त चंचलता को कम करने के लिये पहले जीवन में संयम लाना होगा, इसीलिये 5 do not doe's and 5 doe's अर्थात ' यम और नियम ' का पालन (अभ्यास) प्रति मुहूर्त २४ घंटे करना है.
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः – अहिंसा, सत्य, अस्तेय(अचौर्य या चोरी का अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह(संग्रह का अभाव), यमाः – ये पाँच यम हैं।
 शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि – शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान, नियमाः – (ये पाँच) नियम हैं। इसप्रकार हमने ५ यम और ५ नियम के बारे में जान लिया.
अब मनुष्य बनने के प्रशिक्षण के दूसरे भाग अर्थात-' आसान-प्रत्याहार-धारणा ' के ऊपर चर्चा करेंगे.एकाग्रता का अभ्यास करने के लिये बैठने का ढंग- अर्थात ' आसान '  कैसा होना चाहिये ?

 स्थिरसुखम् आसनम् – – स्थिर पूर्वक तथा सुखयुक्त (बैठने की स्थिति) आसन है।)
प्राचीन ऋषि-मुनी लोग पद्मासन में बैठ कर ध्यान लगाने का अभ्यास कर सकते थे, पर जो लोग उस प्रकार बैठने में अभ्यस्त नहीं हैं, उनको उस प्रकार बैठने पर शरीर में कष्ट होगा तो, मन उधर ही चला जायेगा. इसलिए सुखासन में य़ा बाबू जैसा पालथी मरकर भी बैठा जा सकता है. सर्वोत्तम ढंग है- अर्धपद्मासन में बैठना. इस प्रकार बैठने से - मेरुदण्ड, गर्दन और सर सीधा और सरल रेखा में रहता है जिससे शरीर के किसी भी अंग पर जोर नहीं पड़ता और हम बिना हिले-डुले काफी देर तक इसप्रकार बैठ सकते हैं. अर्धपद्मासन में बैठ कर प्रत्याहार का अभ्यास करना है.
स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः ।।54।।
प्रत्याहार का अर्थ है- एक और आहरण करना यानि खींचना।  मन इंद्रियों के माध्यम से जगत के भोगों के पीछे दौड़ता है। मन की बहिर्गति को रोक कर उसे इंद्रियों की अधीनता से मुक्त करा कर अन्तर्मुखी करना - भीतर की ओर खींचना प्रत्याहार है।इसके लिये लिये कुछ समय चुपचाप बैठ कर मन का पर्यवेक्षण करना होगा. उसकी गतिविधियों का निरिक्षण करना है. मन में कई चित्र उभर रहे हैं- उनको  देखना है. 
पर मन को देखा कैसे जाता है ? हमलोग बाहरी वस्तुओं को आँखों से देख लेते हैं, परन्तु मन तो भीतर की वस्तु है और अत्यन्त सूक्ष्म है- उसको इन चर्म- चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता है. मन को देखने का यन्त्र भी मन ही है. यह मन ही मानो दो भागों में बंट जाता है; ' द्रष्टा मन और दृश्य मन ''.  - मन का ही भाग द्रष्टा मन (Subjective mind ) बन कर दृश्य मन (Objective mind) को देखने लगता है. 
अभ्यास करने से मन एक साथ दो भाग में बंट सकता है, य़ा Double presence of mind हो सकता है. इसके लिये बाहरी आँखों को मूंद लेने से- मन में क्या क्या विचार उठ रहे हैं, उसमे कैसे चित्र उभर रहे हैं उनको देखना सरल हो जाता है. मन में Past-Future के विचार उठ रहे हैं, मन मानो भूत-भविष्य के बारे में लगातार कुछ न कुछ बक बक करता ही रहता है. उसमे ऐसे ऐसे विचार भी दृश्य बन कर उभर रहे हैं जो मन को नीचे भी ले जा सकते हैं. यदि इस प्रकार के दृश्य आ भी रहे हों, तो पहले मन को उन सबको देखने की छूट देनी है- जो भी कुछ दिखाई पड़ रहा हो चुपचाप उसे देखते रहो. 
इस प्रकार कुछ क्षणों तक स्वाधीनता देने के बाद, Objective Mind को आदेश देना पड़ेगा- सीमा के बाहर मत जाओ ! उसके साथ बातचीत करो- क्या तुम हर समय Past-Future के बारे में ही बकबक करते रहोगे ? क्या तुम मेरे सामने बैठ कर पवित्र नाम-रूप का श्रवण-मनन नहीं करोगे ? क्या तुम मुझे पशु बनाना चाहते हो ? मन को बालक के जैसा समझाना होगा- तुम मेरा यंत्र है, मेरा गुलाम है, मैं तुम्हारा स्वामी हूँ, तुम्हारा प्रभु हूँ- तुमको मेरी बात माननी ही पड़ेगी. मन को भूत-भविष्य में जाने से खींच कर तथा उसके बारे में बकबक करने से रोकर, अपने सामने वर्तमान में चुचाप मौन रहकर बैठने को मना लेना होगा. जैसे समझाने-बुझाने से बिगडैल बच्चे भी थोड़ी देर के लिये हमारी बात मान लेते हैं, वैसे ही मन भी सामने आकर बैठ जायेगा. परन्तु मन को खींच कर केवल सामने लाने से ही नहीं होगा, मन भी प्रकृति का अंश है, इसलिए कभी Vacuum होकर य़ा शून्य होकर नहीं रह सकता - उसमे फिर से सद्-असद चिन्तन उठने लगेगा. तब उसको एकाग्र करने का लक्ष्य सिद्ध नहीं होगा. इसी लिये मन का पर्यवेक्षण करके बहिर्मुखी मन को खींच कर, य़ा वैराग्य का फाटक लगाकर इन्द्रिय विषयों में जाने से लौटा कर उसे किसी पवित्र य़ा Positive आदर्श का चिन्तन करने का आदेश देना होगा.
देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ।।1।।॥3.1॥ नाभिचक्रे हृदयपुण्डरीके मूध्र्नि ज्योतिषि नासिकाग्रे जिह्वाग्र इत्येवमादिषु देशेषु बाह्ये वा विषये चित्तस्य वृत्तिमात्रेण बन्ध इति धारणा।श्रीमद्व्यासभाष्ये)
धारणा - इन्द्रिय विषयों से खींच कर अन्तर्मुखी बने मन को अपने शरीर में किसी विशिष्ट स्थान- ह्रदय कमल में धारण करना होगा. किसी निराकार आदर्श के बारे में चिन्तन करना कठिन होता है, तथा किसी मूर्तमान पवित्र आदर्श पर मन को टिकाये रखना य़ा साकार नाम-रूप का चिन्तन करना सरल होता है. अतः अपने ह्रदय कमल पर बैठाने के लिये पहले से ही किसी मूर्त आदर्श का चयन कर लेना अच्छा होगा.
  हमारा परामर्श है कि अपने ह्रदय कमल पर मूर्त आदर्श के रूप में स्वामी विवेकानन्द की मूर्ति स्थापित कर- उनके ऊपर मन को धारण करना - Concentrate  करना  उचित होगा. 
महर्षि पतञ्जलि के योग सूत्र पर प्रथम प्रमाणिक व्याख्या “व्यास भाष्य” के रूप में प्राप्त होती है। व्यास भाष्य से तात्पर्य है- व्यास के द्वारा महर्षि पतञ्जलि के योग सूत्र पर दी गयी व्याख्या। पतंजलि योग-सूत्र ॥1.12॥ पर व्यासदेव अपने भाष्य में मन के बहिर्मुखी प्रवाह को अन्तर्मुखी बनाने का सरल उपाय बताते हुए कहते हैं-

चित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च।
या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा। 
संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा।
तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिली क्रियते।
विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयत इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः। 

"- विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयत " इसे पढने से ऐसा प्रतीत होता है, मानो  व्यासदेव हजारों साल पहले जान चुके थे, कि 'विवेक-शक्ति ' ही सभी के ह्रदय में विद्यमान अन्तर्यामी गुरु है ! तथा एक दिन  (१२ जनवरी १८६३) को वे स्वयं ही स्वामी विवेकानन्द के रूप में आविर्भूत होंगे; तब उनके मूर्त रूप पर मन को धारण करने से ही ' विवेक-स्रोत ' उदघाटित हो जायेगा !
क्योंकि निराकार अन्तर्यामी गुरु के रूप में ' विवेक-शक्ति ' सबके ह्रदय में अवस्थित हैं, जो हमे सर्वदा श्रेय (Good)  और प्रेय (Pleasant ) में से चयन कर केवल श्रेय पथ पर चलने को अनुप्रेरित करते रहते हैं.  क्योंकि वास्तव में जो भी सारयुक्त, श्रेष्ठ, एवं श्रेयस है उसी से जुड़ना योग है।उसी निराकार अन्तर्यामी गुरु - ' विवेकशक्ति ' के मूर्तमान रूप हैं - स्वामी विवेकानन्द ! स्वामी विवेकानन्द के नाम-रूप पर मन को धारण करने के साथ ही साथ चरित्र के समस्त गुणों का ध्यान भी हो जाता है. वे २४ गुणों के मूर्तमान रूप हैं- उनका चित्र युवाओं का सर्वाधिक प्रिय और पसन्दीदा चित्र है- इसलिए उनके अनुकर्णीय चरित्र तथा उपदेशों को हमारा मन आसानी से चिन्तन कर सकता है. इसीलिये तो भारत सरकार ने भी उनके जन्म-दिन ' १२ जनवरी '  को ' राष्ट्रीय युवा दिवस ' घोषित किया है. 
अब हम मन से थोड़ा अलग हट कर मन में उठने वाले विचारों का कुछ समय पर्यवेक्षण कर सकते है. थोड़ा प्रत्याहार सध जाने पर हम देखते हैं की मन अब Past-Future के बारे में बकबक करना छोड़ कर, हमारे पूर्व चयनित आदर्श - स्वामी विवेकानन्द का ही चिन्तन करने में लगा है, परन्तु 1-2 second के बाद ही हाँथ से लगाम खींच कर मन फिर से इन्द्रिय विषयों में भाग गया है. पर मैं मन से हार नहीं मानूंगा- वह तो मेरा यन्त्र है, मैं उसका प्रभु हूँ, उसको फिर से खींच कर अपने सामने लाऊंगा. आज मन को हराना ही है - ' संतोष ' के द्वारा (देने वाले का ध्यान करके, जो मिला है उसका ध्यान नहीं करके ) लोभ को परास्त कर दूंगा,  कामना-वासना,  अहंकार, ईर्ष्या आदि रिपुओं को स्वामी विवेकानन्द के जीवन-चरित और उपदेश के द्वारा हरा दूंगा. मन पर यदि अधिक दबाव महसूस होने लगे तो उसे कुछ समय के लिये ढील देने के बाद- फिर से खींच कर सामने लाओ. इसी प्रकार ढीलदेते और खींचते हुए उसे अपने पूर्ण नियन्त्रण में लाना ही होगा. 
कोई पूछ सकते हैं क्या केवल स्वामी विवेकानन्द पर ही मन को एकाग्र रखने का अभ्यास करना होगा ? मेरे तो इष्ट-देव बुद्ध हैं, ईसा हैं, नानक हैं, कृष्ण हैं, राम हैं- अलग इष्ट हैं मेरे,  मैं बुद्ध पर ध्यान क्यों न करूँ ? भगवान  ईशू जो माता मेरी के गोद में हैं, उस पर ध्यान क्यों न करूँ ? कोई व्यक्ति यदि अपने गुरु य़ा इष्ट पर मन को धारण करे य़ा चैतन्य महाप्रभु अथवा राधा-कृष्ण पर मन को धारण करना चाहे तो उसमे कोई हर्ज नहीं है. परन्तु हमारा परामर्श केवल इतना है कि वह मूर्त आदर्श ' पवित्र ' तो होना ही चाहिये. किसी Sports-Man का ध्यान करना अच्छा नहीं है- क्योंकि कोई व्यक्ति अच्छा खेल सकता है, पर उसका चरित्र खराब भी हो सकता है. अतः स्वामी विवेकानन्द के विकल्प के रूप में जिस किसी भी मूर्त-आदर्श को चयन करें तो तुलना कर के देख लेना चाहिये कि वह महापुरुष भी - 'पवित्रता' और ' प्रेम ' की दृष्टि से इन्ही ' त्रिदेवों '  (श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा-स्वामी विवेकानन्द ) के प्रतिमूर्ति ही हों. 
फिर भी यदि मन भाग जाये, य़ा अत्यधिक दबाव का अनुभव करने लगे, तो अपनी आँखों को खोल कर अपने आदर्श के चित्र को फिर से टकटकी बांध कर देखो. देखोगे कि मन अभी आँख खोल कर देखने पर भी वहाँ से भाग जा रहा है. परन्तु इस लड़ाई में हमे उससे हारना नहीं है, हम उसके प्रभु हैं, मन हमारा दास है- उसको बाह्य विषयों में जाने से खींच कर पुनः एक बार अपने इष्ट की मूर्ति पर धारण करना है. पुनः पुनः इसका अभ्यास करते रहने से - धीरे धीरे मन वश में आने लगता है.                      


रविवार, 16 जनवरी 2011

अष्टांग-सूत्र के पाँच अंग का अभ्यास ही यथेष्ट है.

पिछले दो सम्पादकीय लेखों में हमने यह समझ लिया, कि शिक्षा एक आन्तरिक प्रक्रिया है, तथा केवल मन को एकाग्र करके ही गुरुवाक्य में निहित भावों को आत्मसात किया जा सकता है. मन में अनन्त शक्ति है, किन्तु इस तथ्य को हमलोग अक्सर समझ नहीं पाते हैं; क्योंकि यह स्वभावतः चंचल है तथा  अभी कामना-वासना की मदिरा पीने से किसी उन्मत्त बन्दर की तरह मतवाला हो गया है.
अत्यधिक भोगों के लोभ वश, अहंकार का भूत सवार हो गया है, ईर्ष्या का बिच्छू इसे सदा डंक मरता रहता है. इसीलिये ऐसे अत्यधिक चंचल मन को वशीभूत करने का प्रशिक्षण प्राप्त कर किसी प्रयोजनीय विषय पर मन को एकाग्र रखने की क्षमता प्राप्त करने को ही स्वामी विवेकानन्द शिक्षा का मूल विषय कहते थे. 
विश्व में सर्वप्रथम हमारे प्राचीन ऋषियों ने ही इस तथ्य को समझा था, कि मन में अनन्त शक्ति है,तथा अपने चंचल मन को वशीभूत करके यदि हम अपने दिव्यत्व को अभिव्यक्त करें तो जीवन के किसी भी क्षेत्र में सम्पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकते हैं. इसीलिये ऋषि पतंजली ने मन को पूरी तरह से वशीभूत करने की एक विज्ञान सम्मत पद्धति का आविष्कार किया था, जिसको हमलोग ' अष्टांग योग ' य़ा राजयोग के नाम से जानते हैं. 
 किन्तु उन्होंने अपने आविष्कारों को सूत्र के रूप में लिखा था इसीलिये साधारण मनुष्य उन सूत्रों को बिल्कुल नहीं समझ पाते थे. प्राचीन ऋषि लोग ऐसा मानते थे,कि उच्च शिक्षा सभी के लिये नहीं है, तथा जो मनुष्य इस विद्या को ग्रहण करने का अधिकारी होगा, वह इन सूत्रों को पढ़ कर स्वयं ही समझ जायेगा. 
किन्तु आधुनिक ऋषि स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- इन ज्ञान-रत्नों को मठ-मन्दिर की चाहार्दिवारों से, अरण्य की कन्दराओं से बाहर निकाल कर गाँव,गाँव में घर घर में वितरित कर देना होगा. इसीलिये स्वामीजी ने पतंजली योगसूत्र य़ा अष्टांग योग पर अंग्रेजी में भाष्य लिखा और इस विद्या को भारत के साथ साथ पूरे विश्व तक पहुँचा दिया. मन के ऊपर आठ चरणों में पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त करने का अष्टांग-सूत्र  इस प्रकार है- " यम-नियम-आसान-प्राणायाम- प्रत्याहार- धारणा- ध्यान- समाधि."
किन्तु सभी के लिये युवा अवस्था में ही इन आठों अंगों का अभ्यास करने की आवश्यकता नहीं है. श्रीरामकृष्ण चाहते थे कि युवा लोग वैयक्तिक मुक्ति के मोह में न पड़ कर अपने को संसार की सेवा के योग्य बनाएं. अपना चरित्र-निर्माण करके पहले स्वयं यथार्थ मनुष्य बने, फिर सम्पूर्ण मानवता के भीतर मनुष्यत्व-जागरण का शंख फूँकने की तैयारी करें. 
 परन्तु नरेन्द्रनाथ ने जब श्रीरामकृष्ण से कहा कि मैं शुकदेव की तरह सर्वदा निर्विकल्प समाधि में ही मग्न रहना चाहता हूँ; तब वे उनकी भर्त्सना करते हुए कहते हैं - ' छिः नरेन्, बार बार यही बात कहते तुझे लज्जा नहीं आती ? केवल अपनी मुक्ति की बात सोचना तो तुच्छ बात है- जब तक दूसरों की मुक्ति नहीं होती तुम्हें समाधि में नहीं जाना चाहिये. मैंने तो सोचा था, समय आने पर कहाँ तो तु विशाल बरगद का वृक्ष बन कर सबको शान्ति और छाया प्रदान करेगा, और कहाँ आज तु खुद एक स्वार्थी व्यक्ति की तरह अपनी ही मुक्ति के लिये बेचैन है ? इतना क्षूद्र आदर्श क्यों पाल रहा है ? निमीलित चक्षुओं से ईश्वर के दर्शन करने की इतनी उत्सुकता क्यों ? क्या खुली आँखों से तुम उन्हें नहीं देख सकते ? वे तो सब मनुष्यों में रमे हैं. मानव-मात्र में ' शिवजी ' विराजित हैं, इसीलिये (शिव-ज्ञान से ) मानव-सेवा ही भगवान की सर्वोच्च सेवा है ." 
नरेन्द्र बोले- ' निर्विकल्प समाधि न होने से मेरा मन पूरी तरह से शान्त नहीं होगा, यदि वह न हुआ, तो मैं वह सब कुछ न कर सकूँगा.' 
श्रीरामकृष्ण देव बोले - ' तु क्या अपनी ईच्छा से करेगा ? जगदम्बा तेरी गर्दन पकड़ कर करवाएंगी, तू नहीं करे, तेरी हड्डियाँ करेंगी.' 
 इसीलिये श्रीरामकृष्ण ने स्वामी विवेकानन्द के माध्यम से भविष्य के युवाओं को समाधि में न जाने का जो परामर्श दिया था, उसीको स्वीकार करते हुए- युवा महामण्डल के सदस्यों को 'ध्यान और समाधि' के steps को छोड़ देना है. 
स्वामी विवेकानन्द यह भी कहा करते थे कि, किसी योग्य गुरु के सानिध्य में रहे बिना प्राणायाम करने से दिमाग बिगड़ भी सकता है, अतः इसे भी बाद करना है. इस प्रकार अष्टांग के आठ अंगों में से तीन अंगों- प्राणायाम, ध्यान और समाधि को बाद करके केवल पाँच steps - यम, नियम, आसान, प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास ही हमारे लिये यथेष्ट है. इन पाँच अंगों को भी दो भाग में बाँटा जा सकता है. प्रथम भाग में केवल दो अंग- ' यम और नियम ' का अभ्यास प्रतिदिन चौबीसों घंटे करना है, एक मिनट के लिये भी इसके अभ्यास से विमुख नहीं रहना है. द्वितीय भाग में तीन अंग- 'आसान, प्रत्याहार, धारणा ' का अभ्यास अपनी सुविधा के अनुसार निर्दिष्ट समय पर १०-१५ मिनट तक दिन में दो बार सुबह और शाम करना है. परन्तु पहले भाग- ' यम और नियम ' का अभ्यास प्रतिदिन और प्रति मुहूर्त करना है.   
यम का अर्थ है संयम. वे पाँच काम क्या क्या हैं, जिन्हें करने से हमे विरत रहना होगा. 5 do not doe's हैं- सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, आस्तेय, अपरिग्रह. सत्य- हर समय जो सच हो वही बात कहनी चाहिये, झूठ कहने से बचना चाहिये. अहिंसा- हाथों से तो क्या मन से भी किसी का बुरा नहीं सोचना चाहिये, 
आस्तेय- चोरी कर लेने का भाव, बिना पूछे किसी दूसरे की कोई वस्तु ले लेने का भाव भी मन में नहीं उठना चाहिये. अपरिग्रह- दूसरे से मांग कर कुछ उपहार य़ा gift लेने का लोभ मन में नहीं रखना है, पर दूसरों के दिल पर ठेस न पहुँचे इसीलिये किसी की दी गई भेंट को यादगार समझ कर ग्रहण किया जा सकता है. श्रीरामकृष्ण भी उपहार में सिल्क का चादर और चाँदी का हुक्का ग्रहण करके एकबार शरीर पर रख कर त्याग दिये थे.यदि कोई श्रद्धा के साथ कुछ देता है तो, उसे श्रद्धा की निशानी समझ कर रखा जा सकता है. ब्रह्मचर्य- मन वचन शरीर से पवित्र जीवन जीना चाहिये, न तो अत्यधिक भोगों में डूबे रहना चाहिये और न तो कठोर तपस्वी जैसा रातभर जप-तप करते रहना चाहिये, य़ा हफ्ते ३ दिन व्रत-उपवास रखना चाहिये. बुद्धदेव का शरीर जब कठोर जप-तप आदि के कारण सूख कर काँटा हो गया तब सुजाता ने खीर दिया, जिसे खाने के बाद ही बुद्ध को ज्ञान हुआ था. कठोर-ब्रह्मचर्य य़ा liberal ब्रह्मचर्य जैसे वाद-विवाद में नहीं पड़ना है. ब्रह्मचर्य का तात्पर्य है- न तो अत्यधिक भोग का लालच रखना, और न ही अत्यधिक कठोरता पूर्वक जीवन जीना. 
५ नियम- किन कार्यों को करना उचित होगा ? 5 doe's - "शौच, संतोष, तपः, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणीधानम." शौच- शुचिता रखना, बाहरी स्वच्छता और आन्तरिक शुचिता जैसे गंदे कपड़े नहीं पहनुगा वैसे ही मन में गंदे विचार भी नहीं उठने दूंगा. तन-मन से शुद्ध पवित्र रहना. संतोष- अधिक भोग के लालायित नहीं रहना, जितना जीने के लिये आवश्यक हो, उतना मिल जाने से तृप्त रहना. स्वाध्याय- गन्दी पुस्तक नहीं पढना, बुरे चित्र नहीं देखना, सदग्रंथ य़ा स्वामी विवेकानन्द की रचनाओं को पढना. तपः - पूर्णत्व की प्राप्ति के लिये सहर्ष कष्ट सहन करने को प्रस्तुत रहना. ईश्वर के साथ पुनर्मिलन के आनन्द को पाने य़ा सत्य का दर्शन करने में जितना तप आवश्यक हो उसे सहन करना. ईश्वरप्रणीधान- इस जगत के कोई स्रष्टा हैं, इस पर विश्वास रखना और उनको जानने के लिये चेष्टा करना .
इस प्रकार यम और नियम का पालन जीवन में प्रति मुहूर्त करते रहने से जीवन में संयम आयेगा तो मन की अतिरिक्त चंचलता क्रमशः कम होती जाएगी, तथा हम अपना चरित्र गठित करने की योग्यता प्राप्त कर लेंगे.