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गुरुवार, 10 मार्च 2011

' विवेक-अंजन ' से अलौकिक दृष्टि मिलती है !

 ' विवेक-अंजन ' से अलौकिक दृष्टि मिलती है !  
ऐसा कहा जाता है, कि जैसी दृष्टि होती है वैसी ही सृष्टि होती है । जब तक हमारी अपनी (अहं की य़ा मैंपन की)  दृष्टि होती है, अपने विचार होते हैं, अपनी अपनी (मनगढ़ंत) मान्यतायें ( मैं स्त्री य़ा पुरुष शरीर मात्र हूँ ) होती हैं, तब तक हम विवेक-दृष्टि को प्राप्त नहीं कर सकते । विवेक रूपी सदगुरु की शरण में आकर हम अपनी इन चर्म-चक्षुओं से  इस सतत परिवर्तनशील जगत में व्याप्त अटल सत्य का साक्षात्कार कर सकते हैं.
" जिस प्रकार संसार का कोई कोई धर्म कहता है कि जो व्यक्ति अपने से बाहर सगुण ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता, वह नास्तिक है. उसी प्रकार वेदान्त भी कहता है कि जो व्यक्ति अपने आप पर विश्वास नहीं करता, वह नास्तिक है. अपनी आत्मा की महिमा में विश्वास न करने को ही वेदान्त में नास्तिकता कहते हैं. "(वि० सा० ख० ८:६)
" हममें ब्रह्माण्ड की समूची शक्ति पहले से ही है. हमलोग स्वयं ही अपने नेत्रों पर हाथ रखकर ' अन्धकार ' 'अन्धकार ' कहकर चीत्कार करते हैं. जान लो कि तुम्हारे चारों ओर कोई अन्धकार नहीं है...हमलोग मूर्ख होने के कारण ही चिल्लाते हैं कि हम दुर्बल हैं, मूर्खतावश ही चिल्लाते हैं कि हम अपवित्र हैं..जिस क्षण तुम कहते हो, ' मैं मर्त्य क्षुद्र जीव हूँ ', तुम झूठ बोलते हो; तुम मानो सम्मोहन के द्वारा अपने को अधम, दुर्बल, अभागा बना डालते हो. वेदान्त पाप स्वीकार नहीं करता, भ्रम स्वीकार करता है. और वेदान्त कहता है कि सबसे बड़ा भ्रम है- अपने को दुर्बल, पापी, हतभाग्य कहना. (८: ७)     " सब कुछ वही एक सत्तामात्र है; भेद केवल परिणाम का है, प्रकार का नहीं. हमारे जीवन में अन्तर प्रकारगत नहीं है. वेदान्त इस बात को बिलकुल नहीं मानता कि पशु मनुष्य से पूर्णतया पृथक हैं और उन्हें ईश्वर ने हमारे भोज्यरूप में बनाया है. " ( वि० सा० ख० ८:८)
"हमें दूसरों को घृणा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए. हम सभी उसी एक लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं. दुर्बलता और सबलता में केवल परिणामगत भेद है...एक वस्तु का दूसरी वस्तु से भेद केवल परिणामगत ही है, प्रकारगत नहीं; क्योंकि, वास्तव में सभी वस्तुएं वही एक अखण्ड वस्तुमात्र है. सब वही एक है, जो अपने को विचार (मन), जीवन, आत्मा या देह के रूप में अभिव्यक्त करता है, और उनमें अन्तर केवल परिमाण का है. अतः जो किसी कारणवश हमारे समान उन्नति नहीं कर पाये, उनके प्रति घृणा करने का अधिकार हमें नहीं है." (८: १०)
"मनुष्य कितनी ही अवनति की अवस्था में क्यों न पहुँच जाय, एक समय ऐसा अवश्य आता है, जब वह उससे बेहद आर्त होकर एक उर्ध्वगामी मोड़ लेता है और अपने में विश्वास करना सीखता है. किन्तु हम लोगों को इसे शुरू से ही जान लेना अच्छा है. हम आत्मविश्वास सीखने के लिए इतने कटु अनुभव क्यों प्राप्त करें ?
इस विश्वास का अर्थ है- सबके प्रति विश्वास, क्योंकि तुम सभी एक हो. अपने प्रति प्रेम का अर्थ है सब प्राणियों से प्रेम, समस्त पशु-पक्षियों से प्रेम, सब वस्तुओं से प्रेम - क्योंकि तुम सब एक हो. यही महान विश्वास जगत को अधिक अच्छा बना सकेगा. "
वही सर्वश्रेष्ठ मनुष्य (नरेन्द्र) है, जो सच्चाई के साथ कह सकता है, ' मैं अपने सम्बन्ध में सब कुछ जनता हूँ.' क्या तुम जानते हो कि तुम्हारी इस देह के भीतर (मन में) कितनी  उर्जा, कितनी शक्तियाँ, कितने प्रकार के बल अब भी छिपे पड़े हैं ? ..अतएव तुम कैसे अपने को जबरदस्ती दुर्बल कहते हो ? ऊपर से दिखनेवाली इस पतितावस्था के पीछे क्या सम्भावना है, क्या तुम यह जानते हो?तुम्हारे अन्दर जो (मन की अनन्त शक्ति) है, उसका केवल थोडा सा तुम जानते हो. (अभी हमारे मन का  केवल एक भाग जाग्रत है, नौ हिस्सा मन सोया हुआ है)" (८: १३)  
"आत्मा वा अरे श्रोतव्यः - इस आत्मा के बारे में पहले सुनना चाहिए. (स्वामी विवेकानन्द के मुख से उनके इष्टदेव का नाम ) दिन-रात श्रवण करो कि तुम्हीं वह आत्मा (ठाकुर) हो !(भगवान को बंगला में ठाकुर कहते हैं ) दिन-रात यही भाव अपने मन में व्याप्त किये रहो, यहाँ तक कि वह तुम्हारे के रक्त के प्रत्येक बूंद में और तुम्हारी नस नस में समा जाय. सम्पूर्ण शरीर को इसी एक आदर्श {श्रीरामकृष्ण परमहंस (परमहंस =Most Intelligent person)} के भाव से पूर्ण कर दो- ' मैं अज, अविनाशी, आनन्दमय, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान नित्य ज्योतिर्मय (सच्चिदानन्द) आत्मा हूँ.' -- दिन-रात यही चिन्तन करते रहो, जब तक कि भाव तुम्हारे जीवन का अविच्छेद्य अंग नहीं बन जाता. इसीका ध्यान करते रहो- और इसीसे तुम कर्म करने में समर्थ हो सकोगे. '
 ' ह्रदय पूर्ण होने पर मुंह बात करता है- ह्रदय पूर्ण होने पर हाथ भी काम करते हैं. '.. तब इस विचार-शक्ति के प्रभाव से तुम्हारे सम्पूर्ण कर्म वृहत, परिवर्तित और देवभावापन्न हो जायेंगे. अगर 'जड़' (शरीर) शक्तिशाली है, तो 'विचार ' ( मन ) सर्व शक्तिमान है. इस विचार से अपने जीवन को प्रेरित कर डालो, स्वयं को अपनी तेजस्विता, सर्वशक्तिमत्ता और गरिमा के भाव से पुर्णतः भर लो ! ईश्वरकृपा से काश कुसंस्कारपूर्ण भाव ( मैं स्त्री-पुरुष हूँ, शरीर हूँ ..ऐसो घर हम बहुत बसायो ) तुम्हारे अन्दर प्रवेश न कर पाते !...ईश्वरकृपा से काश हम लोग इस कुसंस्कार के प्रभाव तथा दुर्बलता और नीचता के भाव ( स्वयं को देह, स्त्री-पुरुष मानकर विपरीत लिंग के प्रति कशिश ) से परिवेष्टित न होते ! ईश्वरेच्छा से काश, मनुष्य अपेक्षाकृत सहज उपाय द्वारा उच्चतम, महत्तम सत्यों ( I am He, सोSहम ! ) को प्राप्त कर सकता ! किन्तु उसे इन सबमें से ( विवाह, रोग-शोक में से ) होकर ही जाना पड़ता है; जो लोग तुम्हारे पीछे आ रहे हैं, उनके लिए रास्ता अधिक दुर्गम न बनाओ ." (८:१३)  
" यदि कर सको तो जगत का कल्याण करो, पर उसका अनिष्ट न करो. अपने अंतरतम से यह समझ लो कि तुम्हारे ये सीमित विचार एवं काल्पनिक पुरुषों के सामने घुटने टेककर तुम्हारा रोना या प्राथना करना केवल अन्धविश्वास है. मुझे एक ऐसा उदाहरण बताओ, जहाँ बाहर से इन प्रार्थनाओं का उत्तर मिला हो. जो भी उत्तर पाते हो, वह अपने ह्रदय से ही. तुम जानते हो कि भूत नहीं होते, किन्तु अंधकार में जाते ही शरीर कुछ काँप सा जाता है. इसका कारण यह है कि बिलकुल बचपन से ही हम लोगों के सिर में यह भय घुसा दिया गया है. किन्तु समाज के भय से, संसार के कहने सुनने के भय से, बन्धु-बान्धवों की घृणा के भय से, अथवा अपने प्रिय कुसंस्कार के नष्ट होने के भय से, यह सब हम दूसरों को न सिखायें. इन सबको जीत लो. धर्म के विषय में विश्व-ब्रह्माण्ड के एकत्व और आत्मविश्वास के अतिरिक्त और क्या शिक्षा आवश्यक है ? सहस्त्रों वर्षों से मनुष्य इसी लक्ष्य की प्राप्ति की चेष्टा करता आ रहा है और अभी भी कर रहा है. केवल एक ही जीवन है, एक ही जगत है और वही हम लोगों को अनेकवत प्रतीत होता है.. केवल वह 'एक' (ब्रह्म =ठाकुर ) ही अपने को बहू रूप  में - जड़, चेतन, मन, विचार, अथवा अन्य विविध रूपों (चौरासी लाख योनियों ) में व्यक्त कर रहा है. अतएव हम लोगों का प्रथम कर्तव्य है- इस तत्व की अपने को तथा दूसरों को शिक्षा देना. " (८:१४-१५)
" दुर्बल मनुष्यों को यही सुनाते रहो- लगातार सुनाते रहो - ' तुम शुद्धस्वरूप हो, उठो, जाग्रत होओ. हे शक्तिमान, यह नींद तुम्हें शोभा नहीं देती. जागो, उठो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता. तुम अपने को दुर्बल और दुखी मत समझो. हे सर्वशक्तिमान, उठो, जाग्रत होओ अपना स्वरुप प्रकाशित करो. तुम अपने को पापी समझते हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता. तुम अपने को दुर्बल समझते हो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है. ' 
जगत से यही कहते रहो, अपने से यही कहते रहो- देखो इसका ( विवेक-अंजन का ) - क्या व्यावहारिक फल होता है, देखो कैसे बिजली के प्रकाश से सभी वस्तुएँ प्रकाशित हो उठती हैं, और सब कुछ कैसे परिवर्तित हो जाता है. मनुष्य जाति से यह बतलाओ और उसे उसकी शक्ति दिखा दो. तभी हम अपने दैनंदिन जीवन में उसका (विवेक-अंजन का ) प्रयोग करना सीख सकेंगे. 
' To be able to use what we call Viveka  (discrimination), to learn how in every moment of our lives, in every one of our actions, to discriminate between what is right and wrong, true and false, we shall have to know the test of truth, which is purity, oneness.'   
जिसे हम विवेक या सदसत विचार कहते हैं, उसका (विवेक-प्रयोग को ) अपने जीवन के प्रतिक्षण में एवं प्रत्येक कार्य में उपयोग करने की क्षमता प्राप्त करने के लिए हमें सत्य की कसौटी जान लेनी चाहिए- और वह है पवित्रता तथा एकत्व का ज्ञान. ' Everything that makes for oneness is truth. which is purity, because hatred makes for multiplicity. It is hatred that separates man from man; therefore it is wrong and false. It is a disintegrating power, it separates and destroys. '  
जिससे एकत्व की प्राप्ति हो, वही सत्य है. प्रेम सत्य है; घृणा असत्य है, क्योंकि वह अनेकत्व को जन्म देती है. घृणा ही मनुष्य को मनुष्य से पृथक करती है- अतएव वह गलत और मिथ्या है; यह एक विघटक शक्ति है; वह पृथक करती है- नाश करती है. प्रेम जोड़ता है, प्रेम एकत्व स्थापित करता है. " (८: १५)
' तुम जो कुछ जानते हो, आत्मा के द्वारा ही जानते हो. (टॉफी-मिल्क, कुर्सी आदि ) देखने से पहले मुझे अपने स्वयं (यथार्थ स्वरुप का) का ज्ञान होता है, उसके बाद कुर्सी का. इस आत्मा में और उसके द्वारा ही मुझे तुम्हारा ज्ञान होता है, ...आत्मा को हटा लेने से सम्पूर्ण जगत ही विलुप्त हो जाता है. .. यही ' वह ' (He -श्रीरामकृष्ण, ब्रह्म, अल्ला या वाहे गुरु ) ' तुम ' हो, जिसको तुम ' मैं ' ( M /F ) कहते हो. ..ससीम 'मैं' केवल भ्रम मात्र है, गल्पकथा मात्र है. उस अनन्त के ऊपर मानो एक आवरण पड़ा हुआ है और उसका कुछ अंश इस 'मैं' (M/F) रूप में प्रकाशित हो रहा है, किन्तु वास्तव में वह उसी अनन्त (ब्रह्म,अल्ला, वाहेगुरु, श्रीरामकृष्ण ) का अंश है. ..उसको बिना जाने हम क्षणमात्र भी जीवित नहीं रह सकते. ..वेदान्त का ईश्वर सब चीजों की अपेक्षा अधिक ज्ञात हैं; वह कल्पनाप्रसूत नहीं है. ..जो ईश्वर, सब प्राणियों में विराजमान है, हमारी इन्द्रियों से भी अधिक सत्य है, मैं जिसे सम्मुख देख रहा हूँ, उससे भी अधिक ईश्वर और व्यावहारिक कहाँ होगा ? क्योंकि तुम्हीं वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान ईश्वर हो, और यदि यह कहूँ कि तुम वह (ब्रह्म, अल्ला, वाहेगुरु, श्रीरामकृष्ण) नहीं हो, तो मैं झूठ बोलता हूँ. सारे समय में इसकी (सभी M /F में ठाकुर -माँ की) अनुभूति करूँ या न करूँ, सत्य यही है. " (८:१६)
ह्रदय के द्वारा ही भगवत-साक्षात्कार (आत्मसाक्षात्कार ) होता है, बुद्धि के द्वारा नहीं. ..भावना ही वास्तव में कार्य करती है, ..क्या तुम्हारे पास भावना है ? यदि है तो तुम ईश्वर को देखोगे.... बुद्धि आवश्यक है, क्योंकि उसके बिना हम अनेक भ्रमों में पड़ जाते हैं और गलतियाँ करते हैं. विचार-शक्ति (विवेक-अंजन ) उसका निवारण करती है, इसके अतिरिक्त बुद्धि की नींव पर और कुछ निर्माण करने की चेष्टा न करना. वह केवल एक गौण सहायक मात्र है, निष्क्रिय है, वस्तविक सहायता भावना से, प्रेम से प्राप्त होती है. तुम क्या किसी दूसरे के लिए ह्रदय से अनुभव करते हो ? यदि करते हो तो एकत्व के भाव में तुम विकास कर रहे हो. यदि नहीं, तो तुम केवल एक बौद्धिक दैत्य हो, शुष्क बुद्धि हो और वही बने रहोगे. (८:१७) 
क्या विश्व के इतिहास में तुम्हें पैगम्बरों की शक्ति के स्रोत का पता नहीं चला ? ..ईसा की भाँति भावना करो, तुम भी ईसा हो जाओगे; बुद्ध के समान भावना करो, तुम भी बुद्ध बन जाओगे. भावना ही जीवन है, भावना ही बल है, भावना ही तेज है- भावना के बिना कितनी ही बुद्धि क्यों न लगाओ, ईश्वर-प्राप्ति नहीं होगी. ..हम लोगों की पैगम्बर आत्मा ही उन लोगों की पैगम्बर आत्मा का प्रमाण है, यहाँ तक कि तुम्हारा ईश्वरत्व ही ईश्वर का भी प्रमाण है. ..हम लोगों में से प्रत्येक को पैगम्बर बनना पड़ेगा- और तुम स्वरूपतः वही हो. बस केवल यह 'जान' लो. (८:१८) 
  " वेदान्त ( विवेक-अंजन लगाने से जगत उड़ नहीं जाता ) जगत को उड़ा नहीं देता, उसकी व्याख्या करता है. वह व्यक्ति को उड़ा नहीं देता- उसकी व्याख्या करता है. वह व्यक्तित्व को मिटाता नहीं, वरन वास्तविक व्यक्तित्व सामने रख कर उसकी व्याख्या कर देता है. वह यह नहीं कहता कि जगत वृथा है और उसका अस्तित्व नहीं है, किन्तु कहता है, ' जगत क्या है, यह समझो, जिससे वह तुम्हारा कोई अनिष्ट न कर सके ' ..पवित्रात्मा पुरुषों की आँखों में जो एक विशेष प्रकार की ज्योति का ( प्रेम से पगे नैन विवेक-अंजन का ) आविर्भाव होता है, वह वास्तव में अन्तःस्थ सर्वव्यापी आत्मा की ही ज्योति है, वह ज्योति ही ग्रहों, सूर्य-चन्द्र और तारों में प्रकाशित हो रही है. " (८:२२)  
"यदि ईश्वरोपासना करने के लिए प्रतिमा आवश्यक है, तो उससे कहीं श्रेष्ठ मानव-प्रतिमा मौजूद ही है. यदि ईश्वरोपासना के लिए मन्दिर निर्माण करना चाहते हो, तो करो, किन्तु सोच लो कि उससे भी उच्चतर, उससे भी महान मानव देह रूपी मन्दिर तो पहले से ही मौजूद है." (८: २३)   
" माया आवरण से बाहर निकलने का एकमात्र  मार्ग है- सत्य का अनुभव करना. और सब उपनिषद, यह सत्यानुभव किसे कहते हैं, यही समझाते हैं. अच्छा बुरा कुछ न देखो, सभी वस्तुएँ और सभी कार्य आत्मा से उत्पन्न होते हैं, यही विचार करो. आत्मा सभी में है. यही कहो कि जगत नामक कोई चीज नहीं है. बाह्य दृष्टि बन्द करो; उसी प्रभु ( श्रीरामकृष्ण, वाहेगुरु, अल्ला, ब्रह्म, ईसा..) की स्वर्ग और नरक में, मृत्यु और जीवन में सर्वत्र उसी की उपलब्धी करो.
  यह पृथ्वी उसी भगवान का एक प्रतिक है, आकाश भी भगवान का दूसरा प्रतिक है, इत्यादि इत्यादि. ये सब ब्रह्म हैं. परन्तु यह देखना पड़ेगा, स्वयं इसका अनुभव करना पड़ेगा, इस विषय पर केवल चर्चा करने अथवा चिन्ता करने से कुछ नहीं होगा. मान लो, जब (आत्मसाक्षात्कार हो गया ) आत्मा ने (स्वयं को और) जगत की प्रत्येक वस्तु का स्वरुप समझ लिया और उसे यह अनुभव होने लगा कि प्रत्येक वस्तु ही ब्रह्ममय (आत्मवत) है, तब वह स्वर्ग में जाय अथवा नरक में, या अन्यत्र और कहीं चली जाय, तो इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं. (अब) मैं पृथ्वी पर जन्मूँ अथवा स्वर्ग में जाऊं, इससे कोई अन्तर नहीं होता. मेरे लिए ये सब निरर्थक हैं, क्योंकि मेरे लिए सभी स्थान समान हैं, सभी स्थान भगवान के मन्दिर हैं, सभी स्थान पवित्र हैं, कारण स्वर्ग, नरक अथवा अन्यत्र मैं केवल भगवत्सत्ता का ही अनुभव कर रहा हूँ. भला-बुरा अथवा जीवन-मरण मुझे कुछ दिखायी नहीं देते, एकमात्र ब्रह्म का अस्तित्व है. वेदान्त-मत में (विवेक-अंजन लगा लेने से ) मनुष्य जब ऐसी अनुभूति प्राप्त कर लेता है, तब वह मुक्त हो जाता है और वेदान्त कहता है, केवल वही व्यक्ति संसार में रहने योग्य है, दूसरा नहीं. ..जो व्यक्ति यहाँ अनेकानेक बिघ्न-बाधाओं तथा विपत्तियों को देखता है, म्रत्यु देखता है (उनको सच समझता है) उसका जीवन तो दु:खमय होगा ही, परन्तु जो व्यक्ति प्रत्येक वस्तु में उसी सत्यस्वरूप को देखता है, (आत्मसाक्षात्कार के बाद ) वही संसार में रहने योग्य है; वही यह कह सकता है कि मैं इस जीवन का उपभोग कर रहा हूँ, मैं इस जीवन में खूब सुखी हूँ. (एक जोक सुनो- किसी किसी के जीवन में शादी करना नहीं लिखा होता है; उसके जीवन में सदा सुखी रहना लिखा होता है!) (८: २७)                     
पुरोहित लोग हमें केवल यही आश्वासन देते हैं कि यदि हम लोग उनका अनुसरण करें, उनकी भर्त्सना सुनते रहें, और उनके द्वारा निर्दिष्ट लीक पर चलते रहें, तो मरते समय वे हमें एक मुक्ति-पत्र देंगे और तब हम ईश्वर-दर्शन कर सकेंगे. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सारा स्वर्गवाद इस अनर्गल पुरोहित-प्रपंच के विविध रूपों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है. निर्गुणवाद (अद्वैतवाद) निस्सन्देह अनेक चीजें नष्ट कर डालता है; वह पुरोहितों, धर्मसघों (मठों) और मन्दिरों के हाथ से सारा व्यवसाय छीन लेता है. भारत में इस समय दुर्भिक्ष है (अकाल पड़ा हुआ है, घोर दरिद्रता है, लोग भूखे मर रहे हैं), किन्तु वहाँ ऐसे बहुत से मन्दिर हैं जिनमें से प्रत्येक में एक राजा को भी खरीद लेने योग्य बहुमूल्य रत्नों की राशी सुरक्षित है. ( १मार्च २०११ को पूरी के एक मठ से १०० कड़ोड़ रूपए मूल्य का चाँदी का १९ टन ईंट मिला है) यदि पुरोहित लोग इस निर्गुण ब्रह्म की शिक्षा दें, तो उनका व्यवसाय छिन जायगा.
किन्तु हमें ( VYM को)उसकी शिक्षा निःस्वार्थ भाव से, बिना पुरोहित-प्रपंच के देनी होगी. तुम (शिष्य) भी ईश्वर, मैं (गुरु विवेकानन्द) भी वही - तब कौन किसकी आज्ञा पालन करे? कौन किसकी उपासना करे ? (कौन किसको प्रणाम करे?) तुम्हीं ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ मन्दिर हो; मैं किसी मन्दिर, किसी प्रतिमा या किसी बाइबिल की उपासना न कर तुम्हारी ही उपासना करूँगा...तुम्हारी उपासना करने की अपेक्षा और अधिक प्रत्यक्ष ( देव-पूजन) क्या हो सकता है ?
  मैं तुम्हें देख रहा हूँ, तुम्हारा अनुभव कर रहा हूँ और जानता हूँ कि तुम ( ही श्रीरामकृष्ण ) ईश्वर हो. मुसलमान कहते हैं, अल्लाह (ब्रह्म या वाहेगुरु ) के सिवाय और कोई ईश्वर नहीं है; किन्तु वेदान्त (रूपी विवेक-अंजन से प्राप्त अलौकिक दृष्टि ) कहता है, ऐसा कुछ है ही नहीं जो ईश्वर न हो. ..जीवित ईश्वर तुम लोगों के भीतर रहते हैं, तब भी तुम मन्दिर, गिरजाघर आदि बनवाते हो और सब प्रकार की काल्पनिक झूठी चीजों में विश्वास करते हो.
मनुष्य-देह में स्थित मानव-आत्मा ही एकमात्र उपास्य ईश्वर (श्रीरामकृष्ण ) हैं. पशु भी भगवान के मन्दिर हैं, किन्तु मनुष्य ही सर्व श्रेष्ठ मन्दिर है- ताजमहल जैसा. यदि मैं उसकी उपासना न कर सका, तो अन्य किसी भी मन्दिर (में  श्रीरामकृष्ण या बुद्ध -महावीर की पूजा-अर्चना करने) से कुछ भी उपकार नहीं होगा. जिस क्षण मैं प्रत्येक मनुष्य-देहरूपी मन्दिर में उपविष्ट ईश्वर (ठाकुर) की उपलब्धी कर सकूंगा, जिस क्षण मैं प्रत्येक मनुष्य के सम्मुख भक्तिभाव से खड़ा हो सकूँगा और वास्तव में उनमें ईश्वर (ठाकुर) देख सकूंगा, जिस क्षण मेरे अन्दर यह भाव आ जायगा, उसी क्षण मैं सम्पूर्ण बन्धनों से मुक्त हो जाऊंगा- बांधनेवाले पदार्थ हट जायेंगे और मैं मुक्त हो जाऊंगा. यही सबसे अधिक व्यावहारिक उपासना है. मत-मतान्तर से इसका कोई प्रयोजन नहीं. (८:२९-३०)
लोग अपने से पृथक स्वर्गस्थ किसी ईश्वर (अल्ला, वाहेगुरु, ब्रह्म ...) की उपासना करते हैं, उससे खूब डरते भी हैं. लोग भय से काँपते रहते हैं और सारा जीवन इसी प्रकार काँपते हुए काट देते हैं. तो क्या दुनिया ऐसा मान लेने पर भी पहले की अपेक्षा अधिक अच्छी हो गयी है? ...जहाँ एक दूसरे को देखता है, जहाँ एक दूसरे को सुनता है, वहीँ माया है. जहाँ एक दूसरे को नहीं देखता, एक दूसरे को सुनता नहीं, जहाँ सर्व अत्ममय हो जाता है, वहाँ कौन किसे देखेगा, कौन किसे सुनेगा ?' तब सभी 'वह' या सभी 'मैं' हो जाता है. 
तभी - और केवल तभी हम प्रेम किसे कहते हैं, यह समझ सकते हैं. डर से क्या प्रेम हो सकता है ?..जब हम लोग वास्तव में जगत को स्नेह करना प्रारम्भ करते हैं, तभी विश्वबन्धुत्व का अर्थ समझते हैं- अन्यथा नहीं...बुद्धदेव के उपदेश का वह अंश तुमको स्मरण होगा कि वे किस प्रकार उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, ऊपर, नीचे सर्वत्र ही प्रेम की भावना प्रवाहित कर देते थे, यहाँ तक कि चारों ओर वही महान अनन्त प्रेम सम्पूर्ण विश्व में छ जाता था. इसी प्रकार जब तुम लोगों का भी यही भाव होगा, तब तुम्हारा भी ' यथार्थ व्यक्तित्व ' प्रकट होगा. तभी सम्पूर्ण जगत एक व्यक्ति बन जायगा- क्षुद्र वस्तुओं (टॉफी-मिल्क) की ओर फिर मन नहीं जायगा. इस अनन्त सुख के लिए छोटी छोटी वस्तुओं ( धनसम्पत्ति और कामवासना के प्रति लालच ) का परित्याग कर दो. इन सब क्षुद्र सुखों से तुम्हें क्या लाभ होगा ? (८:३०,३१) 
अतएव ईश्वर सगुण और निर्गुण दोनों ही है. मनुष्य (अनंतस्वरूप निर्गुण मनुष्य या ब्रह्म) भी अपने को सगुण रूप में, व्यक्ति रूप में देख रहा है; मानो हम अनन्तस्वरुप होकर भी अपने को क्षुद्र रूपों (M/F) में सीमाबद्ध बना डालते हैं. ..असीमता ही हमारा सच्चा स्वरुप है, वह कभी लुप्त नहीं हो सकती, सदा रहेगी. किन्तु हम अपने कर्म ( विवेक-प्रयोग किये बिना या विवेक-अंजन लगाये बिना जो दूसरों के साथ हमारा लालची व्यवहार होता है) द्वारा अपने को सीमाबद्ध (M/F) कर डालते हैं ..इस बन्धन (देहाध्यास) को तोड़ डालो और मुक्त हो जाओ.
  नियम (काम-कांचन के प्रति कशिश या गुरुत्वाकर्षण) को पैरों तले कुचल डालो. मनुष्य के यथार्थ (ब्रह्म) स्वरुप में कोई विधि (गुरुत्वाकर्षण का नियम = विपरीत लिंग के प्रति कशिश) नहीं, कोई दैव नहीं, कोई अदृष्ट नहीं. अनन्त में विधान या नियम (काम-कांचन के प्रति भोग दृष्टि ) कैसे रह सकते हैं? स्वाधीनता ही इसका (यथार्थ मनुष्य का) स्वरुप है- इसका जन्मसिद्ध अधिकार है.
पहले मुक्त बनो (स्वयं को M /F शरीर मानना छोड़ दो. ), तब फिर जितने व्यक्तित्व रखना चाहो, रखो. तब हम लोग रंगमंच पर अभिनेताओं के समान अभिनय करेंगे, जैसे अभिनेता भिखारी का अभिनय करता है. उसकी तुलना गलियों में भटकने वाले वास्तविक भिखारी ( काम-कांचन के लोलुप विषयी लोग) से करो. यद्दपि दृश्य दोनों ओर एक है, वर्णन करने में भी एक सा है, किन्तु दोनों में कितना भेद है !!
एक व्यक्ति (विवेक-प्रयोग करने वाला सद-  गृहस्थ) भिक्षुक (पति-पत्नी का) अभिनय कर आनन्द ले रहा है, और दूसरा ( काम-कांचन में लोलुप संसारी मनुष्य) सचमुच दुःख -कष्ट से पीड़ित है. ऐसा भेद क्यों होता है?
कारण एक मुक्त है और दूसरा बद्ध. अभिनेता जानता है कि उसका यह भिखारीपन ओढ़ा हुआ है, सत्य नहीं है, उसने यह केवल अभिनय के लिए स्वीकार किया है, भिक्षुक जानता है कि यह उसकी चिरपरिचित अवस्था है, एवं उसकी इच्छा हो या न हो, उसे वह कष्ट सहना ही पड़ेगा...हम जब तक अपने स्वरुप का ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेते, तब  तक हम लोग केवल भिक्षुक हैं, प्रकृति के अन्तर्गत प्रत्येक वस्तु ( गुरुत्वाकर्षण का नियम आदि ) ने ही हमें दास बना रखा है. (८:३२) " यदि राजा पागल हो कर अपने देश में ' राजा कहाँ है, राजा कहाँ है ' कह कर खोजता फिरे, तो वह कभी राजा को नहीं पा सकता, क्योंकि वह स्वयं ही राजा है...इसी प्रकार हम लोग यदि जान सकें कि हम ईश्वर हैं और इस अन्वेषणरूपी व्यर्थ चेष्टा को छोड़ सकें, तो बहुत ही अच्छा हो. इस प्रकार अपने को ईश्वरस्वरुप जान लेने पर ही हम संतुष्ट और सुखी हो सकते हैं. यह सब पागलों जैसी चेष्टा छोड़कर जगतरूपी मंच पर एक अभिनेता के समान कार्य करते चलो. "(८:३३)
इस प्रकार कि अवस्था आने से हम लोगों की सपूर्ण दृष्टि परिवर्तित हो जाती है. अनन्त कारागारस्वरुप न होकर यह जगत खेलने का स्थान बन जाता है. प्रतियोगिता का मैदान न बनकर यह भौरों की गुंजन से परिपूर्ण वसन्त काल का रूप धारण कर लेता है. ..बद्ध जीव की दृष्टि से यह एक महायन्त्रणा का स्थान है, किन्तु मुक्त व्यक्ति की दृष्टि से यही स्वर्ग है; स्वर्ग अन्यत्र नहीं है.
एक ही प्राण सर्वत्र विराजित है. पुनर्जन्म आदि जो कुछ है, सब यहीं होता है. देवतागण सब यहीं हैं- वे मनुष्य के आदर्श के अनुसार कल्पित हैं. देवताओं ने मनुष्यों को अपने आदर्श के अनुसार नहीं बनाया, किन्तु मनुष्यों ने ही देवताओं की सृष्टि की है. इन्द्र, वरुण और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के देवता सब यहीं हैं. ..तुम्हीं प्रकृत उपास्य देवता हो. यही वेदान्त का मत है, और यही यथार्थ में व्यावहारिक है. मुक्त होने पर उन्मत्त होकर समाज त्याग करने और जंगलों अथवा गुफाओं में जाकर मर जाने की आवश्यकता नहीं है. तुम जहाँ हो वहीं रहोगे, किन्तु भेद इतना ही होगा कि तुम सम्पूर्ण जगत का रहस्य समझ जाओगे. पहले देखी हुई समस्त वस्तुएँ (कुर्सी,मिल्क, टॉफी ...) जैसी की तैसी ही रहेंगी, किन्तु उनका एक नवीन अर्थ समझने लगोगे. तुम अभी जगत का स्वरुप नहीं जानते हो; मुक्त होने पर हम देखेंगे कि यह तथाकथित विधि, दैव या अदृष्ट हमलोगों की प्रकृति का केवल एक पहलू मात्र है, दूसरी दिशा (उत्तर) में मुक्ति सदा विद्यमान रही है.(८:३३)
" एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है- मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरुप में जानना, और उनका सन्देश है कि यदि तुम अपने भाई मनुष्य की, व्यक्त ईश्वर की, उपासना नहीं कर सकते तो उस ईश्वर की कल्पना कैसे कर सकोगे, जो अव्यक्त है? ..यदि तुम ईश्वर को मनुष्य के मुख में नहीं देख सकते,  तो उसे मेघ अथवा अन्य किसी मृत जड़ पदार्थ में अथवा अपने मस्तिष्क की कल्पित कथाओं में कैसे देखोगे ? जिस दिन से तुम नर-नारियों में ईश्वर को देखने लगोगे, उसी दीन से मैं तुम्हें धार्मिक कहूँगा, और तभी तुम लोग समझोगे कि दाहिने गाल पर थप्पड़ मारने पर मारने वाले के सामने बायाँ गाल फिराने का क्या अर्थ है.
  जब तुम मनुष्य को ईश्वररूप में देखोगे, तब सभी वस्तुओं का, यहाँ तक कि यदि तुम्हारे पास बाघ तक आ जाय, तो उसका भी तुम स्वागत करोगे. जो कुछ तुम्हारे पास आता है, वह सब अनन्त आनन्दमय प्रभु का भिन्न भिन्न रूप ही है- वे ही हमारे माता, पिता, बन्धु और सन्तान हैं. वे  हमारी अपनी आत्मा ही हैं, जो हमारे साथ खेल रही हैं. (स्वामी सम्बुद्धानन्द जी से मिलने जो कोई भी आता था वे उसका नाम लिख कर रख लेते थे ? ऐसा विश्वास जब पर्वत जैसा दृढ हो जाता है तब ) ...मनुष्यों के साथ (सरस,उबस ) के साथ हम अपने सम्बन्धों को ईश्वरभावापन्न बना सकते है.  प्रेम और प्रेमास्पद में कुछ भेद न देखना ही सर्वोच्च भाव है.
प्राचीन फ़ारसी कहानी में है- एक प्रेमी ने आकर अपने प्रेमास्पद के घर का दरवाजा खटखटाया. प्रश्न हुआ, ' कौन है?' वह बोला, 'मैं '. द्वार नहीं खुला. दुबारा फिर उसने कहा, 'मैं आया हूँ,' पर द्वार फिर भी न खुला. तीसरी बार वह फिर आया, प्रश्न हुआ, ' कौन है ?' तब उसने कहा- 'I am You, My Dear !' - ' प्रेमास्पद, मैं तुम हूँ! ', तब द्वार खुल गया.
भगवान (ठाकुर) और हमारे बीच सम्बन्ध भी ठीक वैसा ही है, वे सब में हैं और वे ही सब कुछ हैं. प्रत्येक नर-नारी ही वही प्रत्यक्ष जीवन्त आनन्दमय एकमात्र ईश्वर (माँ -ठाकुर) हैं. (८:३५) 
 वेदान्त कहता है- दूसरे प्रकार की उपासनाएँ भी भ्रमात्मक नहीं हैं... क्योंकि लोग सत्य से सत्य की ओर, निम्नतर सत्य से उच्चतर सत्य की ओर आगे बढ़ते हैं. ..बुरा कहने से समझना चाहिए, थोड़ा अच्छा;.. अतएव हमें दूसरों को प्रेम और सहानुभूति की दृष्टि से देखना चाहिए. हमलोग जिस रस्ते पर चले आये हैं, (चंचल मन ' निश्चल ' तक पहुँच कर सर्वव्यापक हो गया है.) वे भी आगे-पीछे मुक्त होंगे. और जब तुम मुक्त (निश्चल) ही हो गए हो, तो फिर जो अनित्य (देह-M/F) है, उसे तुम किस प्रकार देख पाओगे ? क्योंकि जो भीतर है, वही बाहर दिख पड़ता है. 
 हमारे अन्दर यदि अपवित्रता ( देहाध्यास) न होती तो हम उसे बाहर कभी देख ही न पाते. वेदान्त की यह भी एक साधना है. आशा है, हम सभी लोग { जो गुरु-द्वार को लाँघ कर घर(ठाकुर)-तक पहुँच गए हैं} जीवन में इसको व्यव्हार में लाने की चेष्टा करेंगे. इसका अभ्यास करने के लिए (शेष बचा) सारा जीवन पड़ा हुआ है, किन्तु (विवेक-अंजन का अर्थ समझने के लिए ) इन सब विचारों की आलोचना से हमें यह ज्ञात हुआ है कि (आगे से ) हमलोग अशान्ति और असंतोष के बदले शांति और संतोष के साथ कार्य करेंगे; क्योंकि हमने जान लिया है कि सत्य हमारे अन्दर है- और उसी में आरूढ़ रहना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. "(८:३६)  
 एक प्रसिद्ध हिन्दी कहावत है-
जब तक यह मन संसार से मोड़ा न जायेगा |
तब तक इसे निरंकार से जोड़ा न जायेगा ||
                                         
 महर्षि पतञ्जलि के योग सूत्र पर प्रथम प्रमाणिक व्याख्या व्यास भाष्य के रूप में प्राप्त होती है। व्यास भाष्य से तात्पर्य है- व्यास के द्वारा महर्षि पतञ्जलि के योग सूत्र पर दी गयी व्याख्या। पतंजलि योग-सूत्र पर व्यासदेव अपने भाष्य में मन के बहिर्मुखी प्रवाह को अन्तर्मुखी बनाने का सरल उपाय बताते हुए कहते हैं- 
1.12॥ चित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च।
या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा। 
संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा।
तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिली क्रियते।
विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयत इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः।
"- विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयत " इसे पढने से ऐसा प्रतीत होता है, मानो  व्यासदेव हजारों साल पहले जान चुके थे, कि 'विवेक-शक्ति ' ही सभी के ह्रदय में विद्यमान अन्तर्यामी गुरु है ! तथा एक दिन  (१२ जनवरी १८६३) को वे स्वयं ही स्वामी विवेकानन्द के रूप में आविर्भूत होंगे; तब उनके मूर्त रूप पर मन को धारण करने से ही ' विवेक-स्रोत ' उदघाटित हो जायेगा ! 
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥

मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥

विवेक-दृष्टि मिलने से पहले, इन आँखों  छाया हुआ था जिससे न हम परमात्मा का दर्शन कर पाते थे, न संसार में यथार्थ का दर्शन करते थे । जब सभी के ह्रदय में अन्तर्यामी गुरू-रूप से स्वस्थित स्वामी विवेकानन्द की छवि पर  " मनःसंयोग " का अभ्यास करते करते विवेक-श्रोत उदघाटित हो जाता है तब वे हमारे  इन आँखों में ज्ञान का अंजन देकर अज्ञान  रूपी अंधेरे का नाश कर देते हैं।
 जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
भावार्थ:-विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं॥6॥ 
रामरूप से जीवमात्र की वंदना :
 जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
           बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥7(ग)॥
भावार्थ:-जगत में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ॥7 (ग)॥
एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा॥
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥2॥
भावार्थ:-जो परमेश्वर एक है, जिनके कोई इच्छा नहीं है, जिनका कोई रूप और नाम नहीं है, जो अजन्मा, सच्चिदानन्द और परमधाम है और जो सबमें व्यापक एवं विश्व रूप हैं, उन्हीं भगवान ने दिव्य शरीर धारण करके नाना प्रकार की लीला की है॥2॥
हर वस्तु को प्राप्त करने के बाद भी क्यूँ मनुष्य में एक खालीपन का अहसास बना रहता है ? क्यूँ संतप्त है ? क्योंकि उसके पास विवेक-दृष्टि नहीं है । स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करते करते एक दिन परमगुरु श्रीरामकृष्ण देव की कृपा से विवेक-श्रोत उदघाटित हो जाता है, और वह ज्ञान की दृष्टि (दिव्य-दृष्टि य़ा अलौकिक दृष्टि) प्राप्त होती है, जिसके बारे में गोस्वामी तुलसीदासजी कहते है- 
चौपाई :

बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥

मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥

सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥

वह रज सुकृति (पुण्यवान्‌ पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुंदर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मन रूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है॥2॥
वैसे ही इस चरण रज रूपि अंजन को जो भी अपने नेत्र में लगाता उसे ज्ञान दृष्टि प्राप्त हो जाने के कारण श्री सद्गुरु के व्यापक स्वरूप का दर्शन प्राप्त हो जाता है। उसे कहीं कोई दूसरी वस्तु दिखाई नहीं देती। कण कण में उसे श्री सद्गुरु ही दिखाई पड़ते है । इस प्रकार उसके भीतर एकत्वभाव आ जाने के कारण वह अपने में सबको और सब में अपने को देखने लगता है। श्रीसद्गुरु में एकनिष्ठ प्रेम का यही सर्वव्यापी स्वरूप है। यही प्रेम रूपी ज्योति सदा सदा शिष्यों को प्रकाशित करती रहती है और चरण धूलि के प्रति श्रद्धा बढ़ती रहती है।
जिन्ह इन अंजन नेत्र लगायो । हर मूरति व्यापक हरि पायो ॥
दीखत ताहि न दूसर कोई । आपहिं आप सर्व में होई ॥

श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥

श्रीसद्गुरु महाराज के चरण नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है। जिसके स्मरण करते ही ह्रदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अंधकार को नाश करने वाला है । यह प्रकाश जिनके ह्रदय में आ जाता है वे बडे़ भाग्यशाली हैं ।

उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥

उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते हैं-॥4॥

दोहा :

जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥

जैसे सिद्धाञ्जन को साधक नेत्रों में लगा कर  सिद्ध व सुजान बन जाता है और पर्वतों, वनों, व पृथ्वी के अन्दर की बहुत सी खानों को खेल खेल में ही देख लेते है।

चौपाई :
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥

श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥1॥
चौपाई :

मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥1॥

इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है॥1॥

बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥2॥

वाल्मीकिजी, नारदजी और अगस्त्यजी ने अपने-अपने मुखों से अपनी होनी (जीवन का वृत्तांत) कही है। जल में रहने वाले, जमीन पर चलने वाले और आकाश में विचरने वाले नाना प्रकार के जड़-
चेतन जितने जीव इस जगत में हैं॥2॥

मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥3॥

उनमें से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पाई है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है॥3॥

बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥

सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है॥4॥

सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥5॥

दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता है (सुंदर सोना बन जाता है), किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं। (अर्थात्‌ जिस प्रकार साँप का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाश को नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टों के संग में रहकर भी दूसरों को प्रकाश ही देते हैं, दुष्टों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।)॥5॥



दोहा :

बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3 (क)॥

मैं संतों को प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु! जैसे अंजलि में रखे हुए सुंदर फूल (जिस हाथ ने फूलों को तोड़ा और जिसने उनको रखा उन) दोनों ही हाथों को समान रूप से सुगंधित करते हैं (वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते हैं।)॥3 (क)॥

संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 3 (ख)

संत सरल हृदय और जगत के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनय को सुनकर कृपा करके श्री रामजी के चरणों में मुझे प्रीति दें॥ 3 (ख)॥
  वेदान्त यह कहता है कि तू आनन्द स्वरूप है । संसार के पीछे क्यूँ पागल होता है ? केवल वे तुझे सुख देनेवाले नहीं हैं, तू तो स्वयं अपने आप को पहचानेगा, अपने आप में मगन होगा तो तू हमेशा आनन्दमग्न होगा । आनन्दमग्न होकर हम वस्तु को भी देखेंगे तो वस्तु भी आनन्द देने वाली बनेगी ।
छोटी-छोटी चीजें आनन्द देने वाली बन जाती हैं अन्यथा बडे-बडे सुख प्राणी को सुख नहीं दे पाते बल्कि चिन्ता ही देते हैं ।जो तुम्हारे चेहरे पर चमक है या संसार में कहीं भी चमक है, कोई भी वस्तु सुन्दर है, किसी भी वस्तु में आभा है तो वह आभा प्रभु की है । जिस किसी में भी तुम्हें कहीं कुछ अच्छा लगता है तो उस अच्छाई में प्रभु की दीप्ति है । किसी भी व्यक्ति के पास न धन की आभा है, न विद्या का नूर है, न सौन्दर्य का प्रकाश है । जिसके पास प्रभु की दीप्ति है उसके सौन्दर्य  में प्रभु छिपा हुआ है ।
जिसके मन में प्रभु की याद है, प्रभु का प्यार है, जिसके पास संत की दृष्टि है वो हर सुन्दर वस्तु को देखकर दीप्ति की याद करता है और यह देखता है कि हर सुन्दर वस्तु  में देवता का निवास है । फूल के सौन्दर्य को देखकर प्रभु याद आता है तो हम ये देखे उससे हमारे मन की तृप्ति होती है । नहीं तो सौन्दर्य  तो प्राणी के मन में या तो ईर्ष्या जगाता है, या दुख जगाता है, कि यह तो इतना सुन्दर मैं तो नहीं सुन्दर या वासना जगाता है कि क्यों नहीं मुझे इतना सुन्दर रूप मिल गया । हर सुन्दर वस्तु को प्राणी यह चाहता है कि मेरी बन जाये ।

कबीरदास जी का एक बड़ा ही प्रसिद्ध भजन है-  पण्डित कुमार गन्धर्व के स्वर में:-
"राम निरंजन न्यारा रे
अंजन सकल पसारा रे...

अंजन उत्पति ॐकार
अंजन मांगे सब विस्तार
अंजन ब्रहमा शंकर इन्द्र
अंजन गोपिसंगी गोविन्द रे

अंजन वाणी अंजन वेद
अंजन किया ना ना भेद
अंजन विद्या पाठ पुराण
अंजन हो कत कत ही ज्ञान रे

अंजन पाती अंजन देव
अंजन की करे अंजन सेव
अंजन नाचे अंजन गावे
अंजन भेष अनंत दिखावे रे

अंजन कहाँ कहाँ लग केता
दान पुनी तप तीरथ जेता
कहे कबीर कोई बिरला जागे
अंजन छाडी अनंत ही दागे रे

राम निरंजन न्यारा रे
अंजन सकल पसारा रे...

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