मेरे बारे में

Be and Make लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Be and Make लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 17 अगस्त 2020

भगवान बुद्ध का जीवन-परिचय

     छब्बीस शताब्दी पूर्व का समय इतिहास का एक महत्वपूर्ण युग था । इस समय मनुष्य जाति के लिए एक महान मार्गदर्शक नेता का जन्म हुआ था, जो गौतम बुद्ध के नाम से प्रसिद्ध हुए । इतिहास के अनुसार ६२४ ई.पू. में राजा शुद्धोधन कपिलवस्तु के शाक्य गणराज्य के अधिपति थे । उनकी पत्नी का नाम महामाया था।  जब महामाया अपने प्रथम प्रसव के लिए राजधानी कपिलवस्तु से अपने मायके देवदह  की यात्रा कर रही थी तो उन्होंने मार्ग में ही वैसाख पूर्णिमा के दिन, लुम्बिनी वन (बुद्ध के ननिहाल -अभी नेपाल का हिस्सा ) में विशाल शाल वृक्ष के नीचे एक पुत्र को जन्म दिया ।  जन्म के पांच दिन पश्चात उनके नामकरण-संस्कार का आयोजन हुआ, जिसने आमंत्रित सभी विद्वान ब्राम्हणों ने भविष्यवाणी की कि यह बालक चक्रवर्ती सम्राट होगा अन्यथा यह बुद्ध बनेगा । लेकिन कोंडण्य ने कहा कि यह निश्चित रूप से बुद्ध ही बनेगा । बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया, जिसका अर्थ है- वह व्यक्ति जिसने अपना चारो पुरुषार्थ - धर्म ,अर्थ, काम और मोक्ष सिद्ध कर लिया है। 

   सोलह (16) वर्ष की अल्प आयु में ही उन्होंने एक सुंदर राजकुमारी यशोधरा के साथ युवक सिद्धार्थ कर विवाह कर दिया इस आशा से कि यह उन्हें गृहस्थ जीवन में बाँध लेगी । उनतीस (29) वर्ष की अवस्था तक सिद्धार्थ ने सुविधा संपन्न सद्ग्रह्स्थ का जीवन जीया। एक दिन जब सिद्धार्थ अपने रथ में सवार होकर विचरण कर रहे थे , मार्ग में उन्होंने एक जर्जर वृद्ध व्यक्ति को देखा दूसरी बार एक बीमार व्यक्ति को , तीसरी बार एक मृत व्यक्ति के शव को और अतिंम बार एक 'स्वामी विवेकानन्द' जैसे किसी बड़ी बड़ी आँखों वाले शांत प्रसन्नमुख संन्यासी को देखा । इन चारों घटनाओं का उनके मन पर विशेष प्रभाव पड़ा । सर्वव्यापी अंतर्भूत दु:खो के विषय में वे चिंतन करने लगें और साथ ही सांसारिक सुख-सुविधाओँ के बंधनों का परित्याग करके मुक्ति-मार्ग खोजने का चिंतन करने लगे । संसार के दु:खों का कारण पता लगाने को तीव्र इच्छा से कुमार सिद्धार्थ ने एक रात्रि को अपना प्रासाद, सुंदरी पत्नी, नवजात शिशु और सभी प्रकार के भोगविलासों का परित्याग कर वे चुपचाप शहर से चले गये। 

मुण्डकोपनिषद (3.2.4)  में कहा गया है -  " नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्‌ तपसो वाप्यलिङ्गात्‌।" ( न अयम् आत्मा बलहीनेन लभ्यः , प्रमादात् च न वा 'अलिङ्गात् तपसः अपि '   nor even by asceticism without the true mark न लभ्यः) - यह 'परमात्मा' बलहीन व्यक्ति के द्वारा लभ्य नहीं है, न ही प्रमादपूर्ण प्रयास से, और न ही लक्षणहीन तपस्या के द्वारा प्राप्य है, किन्तु जब कोई विद्वान् इन उपायों के द्वारा प्रयत्न करता है तो उसका आत्मा ब्रह्म-धाम में प्रवेश कर जाता है।(This Self cannot be won by any who is without strength, nor with error in the seeking, nor by an askesis without the true mark: but when a man of knowledge strives by these means his self enters into Brahman, his abiding place.)

'कायाक्लेश' (asceticism, एसिटिसिजम)
यह 'परमात्मा' बलहीन व्यक्ति के द्वारा लभ्य नहीं है' -- यहां पर बलहीन का अर्थ सामान्य दैहिक अथवा बौद्धिक  बल से नहीं है । अपितु 'विवेक-प्रयोग ' या 'विवेक-दर्शन (स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मन को एकाग्र करने  से उत्पन्न विवेकज-ज्ञान का बल से है। आत्मसाक्षात्कार द्वारा या ब्रह्मविद होकर ब्रह्म बन जाने का बल - ' अभिः। ' विवेक-प्रयोग '  का बल ही सच्चा बल है।
 अतः ऋषि कहते है - " यह 'परमात्मा' बलहीन व्यक्ति के द्वारा लभ्य नहीं है,  न ही प्रमादपूर्ण प्रयास से, और न ही लक्ष्यहीन या आदर्श रहित  तपश्चर्या  (Aimless penance = स्वामी विवेकानन्द को युवा आदर्श के रूप में चयन किये बिना- 'कायाक्लेश' (asceticism, एसिटिसिजम) बुद्ध के जैसा देह को सूखा कर हड्डी बना देने के द्वारा भी प्राप्य नहीं है। ( बलं नाम नैषा शरीरस्य वा बुद्धेर्वा शक्तिः । किंतु विवेकस्य बलम्, आत्मज्ञानस्य बलम्, आत्मनिष्ठाजातम्, अनुभवस्य बलमेतत् । विवेकज्ञानबलमेव हि बलं नाम ।) 
      सिद्धार्थ गौतम छ: वर्ष तक उस सत्य की खोज में भटकते रहे ।  कठिन तपश्चर्या का अभ्यास आरंभ किया। उपवास करते -करते उनका शरीर केवल हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया परन्तु चित्त की पूर्ण निर्मलता की अवस्था हाथ नहीं लगी । पास के गांव में रहने वाली सुजाता ने विवाह के पूर्व वट वृक्ष पर रहने वाले देवता से मन्नत मांगी थी कि उसे पुत्र होने पर वह वृक्ष देवता को खीर देगी । उस दिन वह खीर देने वाली थी । सिद्धार्थ प्रातःकाल से ही वट वृक्ष के नीचे बैठे थे । सुजाता ने उन्हें ही देवता समझकर खीर परोसी ।  सिद्धार्थ गौतम ने देखा कि जैसे भोग विलासमय जीवन एक अति है और इस पर चलने से दुःखों से नितांत छुटकारा पाना संभव नहीं है,  वैसे ही  'ध्यान-मुद्रा में बैठकर कायाकष्ट की साधना'  भी दूसरी अति है जिससे भी मुक्ति संभव नहीं है । इन अनुभवों ने उन्हें मध्यम मार्ग पर ला खड़ा किया ।
      उन्होंने फिर से भोजन लेने का निर्णय किया । वैशाख पूर्णिमा के दिन निरंजना नदी में स्नान करके वह घने वृक्षों से आच्छादित एक रमणीक स्थान पर आये । वहीं बुद्धत्व प्राप्त करने तक न उठने का दृढ़ संकल्प लेकर बैठ गये । वह रात उन्होंने गहन साधना में बिताई, अपने भोतर सच्चाई की खोज में लीन रहे और प्रात: होने के पूर्व उन्हें परम् सत्य का साक्षात्कार हो गया  । आत्मसाक्षात्कार वह अवस्था है , जहाँ वापस लौटने पर कोई भी मनुष्य बुद्ध बनकर (ब्रह्मवेत्ता बनकर, भ्रममुक्त होकर ) वस्तु-स्थिति व अवस्था को- न कि जैसे वह प्रतीत होती है; बल्कि उसके वास्तविक स्वरूप में देखने में समर्थ हो जाता है । समस्त संसार को संस्कृत करने वाले कारण-कार्य श्रृंखला के नियम 'पटिच्चसमुप्पाद' (मन को एकाग्र करने की पद्धति) का उन्होंने अन्वेषण कर लिया । 
      अविद्या का अंधकार दूर हो गया और प्रज्ञा-प्रकाश प्रखरता से देदीप्यमान हो गया । सूक्ष्मतम मनोविकार भी धुल गये । सभी बेड़ियाँ टूट गयीं, भविष्य के लिये तृष्णा का लवशेष भी नहीं रह गया; उनका मन सर्वप्रकार से सर्वआसक्तियों से विहीन हो गया । उन्होंने अनित्य, दुःख तया अनात्म की सच्चाई का स्वानुभूति से साक्षात्कार कर लिया । सर्वथा शुद्ध स्वरूप में परम सत्य का अनुभव करके, सिद्धार्थ गौतम परम ज्ञान को प्राप्त हुए और - सिद्धार्थ गौतम से गौतम बुद्ध (सम्यक सम्बुद्ध) हो गए ।  'भग्ग रागो, भग्ग दोषों, भग्ग मोहो' अर्थात राग-द्वेष-मोह को पूर्णतया भग्न करने के कारण वे ' भगवा ' अर्थात सही अर्थ में भगवान कहलाये । यदि कारण को समाप्त कर लिया जाय तो कार्य स्वत: समाप्त हो जाता है । पूर्ण विमुक्ति की अवस्था प्राप्त करने पर उनके मुख से प्रसन्नतापूर्ण निम्न उदान उभरा -  
अनेक जाति संसारं , संधाविस्सं अनिब्बिसं,

गहकारकं गवेसंतो , दुवखा जाति पुनष्पुनं ।

गहकारक दिट्ठोसि, पुन गेहं न काहसि ,

सब्बा ते फासुका भग्गा गहकूटं विसंखितं।

विसंखारगतं चित्तं तण्हर्निं खयमज्झागा ।।

--"अनेक जन्मो तक बिना रूके संसार में दौड़ लगाता रहा, (इस कायारूपी) घर बनाने वाले (ब्रह्म) की खोज करते हुए पुन: पुन: दुःखमय जन्म होता रहा, हे गृहकारक अब " तू " देख लिया गया है अब " तू " पुन: घर नहीं बना सकेगा । तेरी सारी कड़ियां भग्न हो गई है घर का केन्द्रगत स्तंभ भी छिन्न-भिन्न हो गया है,  चित्त संस्कार विहीन हो गया है - (चित्त की वृत्तियों का निरोध हो गया है, इसलिये) तृष्णा का समूल नाश हो गया है। बुद्ध ने सार्वजनीन दुःख से मुक्त होने का सार्वजनीन मार्ग 'धर्म ' (मनःसंयोग की पद्धति) को  फिर से खोज निकाला । असीम करूणा से भरकर बुद्ध ने इस "दुःखनिवारण धर्म' की देशना देने का निर्णय लिया । 
         बुद्ध ने वाराणसी के समीप सारनाथ में एकांतवास (वर्षावास) करते हुए संघ के साथ (" Be and make - Leadership Training " का प्रशिक्षण देने) में बिताये, जो संघ बढ़ कर अब साठ अरहंत (जीवनमुक्त शिक्षकों/ मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का ) भिक्षुओं का समुदाय हो गया था। वर्षावास समाप्ति पर भगवान ने भिक्षुओं को आदेश दिया:- 'चरैवेति , चरैवेति ! '- अर्थात  " भिक्षुओं (जीवनमुक्त शिक्षकों) । बहुजन के हित-सुख के लिए, देवों तथा मनुष्यों के कल्याण के लिए, मंगल के लिए, लोकों पर अनुकम्पा करते हुए- (मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण देते हुए)  विचरण करें। " 
      उन्होंने पांचवां (5th) वर्षावास वैशाली में व्यतीत किया । इसी वर्ष उनके पिता महाराज शुद्धोधन का स्वर्गवास हुआ । विधवा रानी (बुद्ध की सौतेली माता) महाप्रजापती गौतमी ने महिलाओं को संघ में प्रवेश की बुद्ध से अनुमति मांगी । उनकी ओर से आनंद ने विशेष अनुरोध किया तब उन्हें अनुमति मिली । इस तरह भिक्षुणी संघ (सारदा नारी संगठन ?) का आरंभ हुआ    
     बुद्ध ने बीसवां वर्षावास (20th) राजगृह में बिताया । बीसवें वर्ष में ही उनकी प्रेरणा से नौ सौ निन्यानवे (999)  मनुष्यों की हत्या कर चुकने वाले भयावह डाकू अंगुलिमाल का जीवन परिवर्तन (हृदय-परिवर्तन) हुआ 'धर्म ' के संपर्क में आकर अंगुलिमाल संत बन गया और कालांतर में अरहंत (जीवनमुक्त शिक्षक/नेता) हो गया। 
      जन्म, जाति, वर्ग, पशु-बलि पर आधारित कर्मकांड और प्राचीन रूढिवादी अंध मान्यताओं पर विश्वास करने वालों ने उनका अनवरत विरोध किया । अनेक अवसरों पर उनका तथा उनकी शिक्षा का विरोध करने के लिये संप्रदायवादियों ने विविध षड़यंत्र भी किये । एक भिक्षु देवदत्त (कालनेमि ?) ने संघ में फूट डालने की कोशिश की यहाँ तक कि बुद्ध की हत्या करने के अनेक प्रयास किये । परंतु हर बार बुद्ध ने अपने अनंत 'ज्ञान', 'मैंत्री' और 'करूणा' से इन विरोधी शक्तियों को शांत किया और वे दुःखियारे लोगों की अधिक से अधिक सेवा में रत रहे, जिससे कि वे अपने दुःखों से बाहर आ सकें ।
             अस्सी वर्ष की अवस्था में बुद्ध वैशाली पधारे । वहा गणिका अंबपाली ने उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया और अपना अंबलट्टिका नामक आम्र उद्यान संघ को दान में समर्पित कर दिया । "धर्म धारण कर,  - अर्थात चरित्र-निर्माणकारी प्रशिक्षण प्राप्त करके;  वह दुश्शीलता के आचरण से मुक्त हुई और "सत्य"  में प्रतिष्ठित होकर अरहंत हो गयी । अपने सभी दुःखों से सदा सर्वदा के लिये विमुक्त हो गयी ।
        उसी वर्ष बुद्ध वहां से पावा आये और चुंद के आम्रवन में ठहरे । यहीं पर उन्होंने अपना अंतिम भोजन ग्रहण किया और अस्वस्थ हो गये । इस अशक्त अवस्था में ही उन्होंने कुशीनारा के लिए प्रस्थान किया । यहां पर उन्होंने आनंद से युग्म शाल वृक्षों के बीच अ्पना चीवर बिछाने का निर्देश दिया और कहा कि उनके शरीर त्याग करने का समय आ गया है । बहुत बड़ी संख्या में भिक्षु, गृहस्थ और देवता उन्हें अंतिम श्रद्धांजलि देने के लिए उपस्थित हुए । ५४४ ईसा पूर्व, वैसाख पूर्णिमा के दिन अपने अस्सीवें वर्ष में जैसा धर्म उन्होंने स्वयं आचरित किया था, उसे 'सुभद्र नामक व्यक्ति को सिखाते हुए' बुद्ध महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए
============








शनिवार, 15 अगस्त 2020

🔱🙏भारत के राष्ट्रीय युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द 🔱🙏 [18 A] * স্বামীজির দেওয়া আদর্শ *🔱🙏 स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना /स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त नेतृत्व का आदर्श 🔱🙏 /The ideal of leadership given by Swami Vivekananda 🔱🙏স্বামী বিবেকানন্দ প্রদত্ত নেতৃত্বের আদর্শ 🔱🙏 ब्रह्मरूपी सिंह-शावक की धुन - देहाद्यभिमानरहितः पुमान् पञ्जरात्केसरी सिंह इव जगज्जालात् निर्गच्छति।।

🔱🙏स्वामी विवेकानन्द 'ब्रह -तेज और क्षात्र-वीर्य ' के मूर्तमान आदर्श हैं 🔱🙏

प्रतिमा को गढ़ने के लिये जिस प्रकार एक साँचे की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार जीवन को गठित करने  (life building) के लिये भी एक अनुकरणीय आदर्श (exemplary role model) सामने रखना आवश्यक है। किसी आराध्य व्यक्ति के जीवन और आचरण में संचित कुछ श्रेष्ठ गुणों के समुच्चय को आदर्श कहते हैं। केवल बेजान शब्दों के रटे-रटाये ढेर से पढ़े हुए आदर्श को अपने जीवन में धारण नहीं किया जा सकता। किसी व्यक्ति के जीवन में ये गुण जब पूर्ण रूप से विकसित हो जाते हैं, तब उस व्यक्ति के भीतर हमें एक आदर्श महापुरुष (नेता)(idol -पूजित मनुष्य-नवनीदा) के जैसा जीवन्त और दीप्तिमान रूप देखने को मिलता है। 

उनको देखकर सीखा जा सकता है, उनसे  प्रेरणा प्राप्त की जा सकती है, उनके ह्रदय की ऊष्मा (warmth -द्रवणशीलता, या vividness -जीवन्तता) से अपने निष्प्राण ह्रदय को उष्ण (प्राणवन्त) किया जा सकता है, या युवाओं के बेजान ह्रदय को vivify कर उसमें रूह फूँक दिया जा सकता है !  वर्तमान युवा पीढ़ी के सामने ऐसा ही एक जीवन्त आदर्श रहना अत्यन्त आवश्यक है। और आधुनिक युग की युवा पीढ़ी के लिये स्वामी विवेकानन्द ही वह श्रेष्ठ आदर्श हैं,  इस तथ्य को कम से कम भारतवर्ष के लोग अब थोडा-बहुत समझने लगे हैं।  और राष्ट्र की दृष्टि क्रमशः स्वामी विवेकानन्द को  अपने अनुकरणीय आदर्श (नेता/गुरु) के रूप में पहचानने लगी है। स्वामी विवेकानन्द को अपने आदर्श (मार्गदर्शक नेता) के रूप में ग्रहण किये बिना भारत कभी विश्वगुरु (G20 का अग्रणी पथप्रदर्शक) नहीं बन सकता,  इस सच्चाई को हमलोगों ने धीरे धीरे स्वीकार करना शुरू कर दिया है।

2013 ई ० में स्वामी विवेकानन्द के जन्म की सार्धशतवर्ष समारोह (150th जन्मदिवस) मनाने के लिये एक वर्ष पहले (2012) से ही पूरे देश जिस प्रकार का प्रचण्ड उत्साह (विवेकानन्द-रथयात्रा, युवा-सम्मेलन आदि) दिखाई दे रहा है, उसको फलदायक बनाने के लिये, भारत के राष्ट्रीय युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द को थोड़ा और अधिक गहराई से समझने की आवश्यकता है। 
जिस समय माया की जादुई मृगतृष्णा से सम्मोहित (Hypnotized) होकर,  पृथ्वी पर विचरण करने वाले देवगण (ऋषियों की सन्ताने) भी स्वयं को नगण्य और कमजोर समझने लगे थे, और संसार-चक्र (जन्म-मृत्यु) के भंवर से बाहर निकलने में स्वयं को बिल्कुल असमर्थ मान चुके थे। उस समय मानों किसी महाश्येन की भाँति, महा-शक्तिशाली और फुर्तीले गरुड़ (Eagle) के सदृश्य अपने पंखों को फैलाकर अनन्त आकाश के अज्ञात (अतीन्द्रिय) राज्य से पारस-मणि (राजयोग विज्ञान रूपी संजीवनी बुट्टी) लाने के लिये, स्वामी विवेकानन्द को भी एक श्वेताभ-कोमल राजहंस [श्रीरामकृष्ण परमहंस देव जिन्हें मुहुर्मुहुः समाधि (नित्य-अनित्य' विवेक) होती थी] के साथ, तीव्र गति से उड़ान भरना पड़ा था। उस पारस-मणि (राजयोग विज्ञान,एकाग्रता या समाधि का विज्ञान, व्यावहारिक वेदांत रूपी संजीवनी बुट्टी) के स्पर्श द्वारा उन देवपुत्रों (ऋषिपुत्रों) की सम्मोहित अवस्था या मोहनिद्रा से जाग्रत और पुनरुज्जीवित करके उनके जीवन को पूरीतरह से रूपान्तरित कर देंगे - यही उनकी साधना थी।  
प्राणहीन समाज के जनारण्य से (मुर्दों सम्मोहित भेंड़ोंके जंगल से) बाहर निकले शेर के समान इस  सिंहपुरुष 'नरेन्द्र' (स्वामी विवेकानन्द) ने भी मानवजाति को मोहनिद्रा से जाग्रत करने के लिए, किसी वृक्ष के समान 'प्राण,अर्थ, बुद्धि और वाणी' का (भागवत में कथित -'श्रेयं आचरणं सदा' के सदृश) निःस्वार्थभाव से देश-देशान्तर में वितरण करते हुए, अर्थात एक देश से दूसरे देश में उपदेश देते हुए सम्पूर्ण विश्व की यात्रायें की थीं। 

  >>>स्वामीजी के उत्तराधिकारी आज भी प्रति-मुहूर्त 'आविर्भूत' हो रहे हैं : 
तब उन्हें इस सत्य का साक्षात्कार हुआ कि - " प्रत्येक मानव-शरीर तो मानो ईश्वर का श्रेष्ठ मन्दिर है!" उन्हीं दबे-कुचले मनुष्यों के जीर्ण-शीर्ण कंकाल रूपी पहाड़ की चोटी पर बैठकर उनके ह्रदय की व्यथा को जब अपने ह्रदय में तीव्ररूप से अनुभव किया, तब उनके हृदय का रक्त आँखों का अश्रु बनकर बहने लगे थे।  संवेदना और करुणा से भरे उस 'वीरहृदय पुरुषसिंह' के निम्नलिखित हुँकार ने मानो धरती माता के दिग-दिगन्त तक को कम्पायमान कर दिया--

" उठो, जागो! और लक्ष्य (समाधि) तक पहुँचे बिना, 
       विश्राम मत लो- तुम्हारे उत्तराधिकारी अवश्य पैदा होंगे ! " 

 इस युगनायक (Hero of the era-नरेन्द्रनाथ) ने मनुष्यों के समस्त प्रकार के कर्म -बन्धनों (संचित-क्रियमान और प्रारब्ध) के विरुद्ध आर-पार का संग्राम (পুরোদস্তর যুদ্ধ) चलाने की घोषणा कर दी ! सिंहनाद करते हुए उन्होंने घोषित कर दिया-" मुक्ति, मुक्ति, मुक्ति --सभी प्रकार के कर्मबन्धनों से मुक्ति !- यही हमलोगों के स्वरुप का संगीत है ! 

अपने इस सिंहनाद के द्वारा उस अतिमानव (superman, गुरु, जीवनमुक्त योगी, नेता परम्परा में उत्पन्न गुरु 'नेता-वरिष्ठ' स्वामी विवेकानन्द) ने सम्पूर्ण भूलोक को ही मानो अपने दो हाथों से पकड़ कर झकझोर दिया! जिसके परिणाम स्वरुप मनुष्य जितने भी डरावने सपनों से परेशान और दुःखी रहा करता था, वे सभी दू:स्वप्न शून्य में विलीन हो गये, अमावस्या की लम्बी काली रात्रि कट गयी, और प्रभात के झिलमिलाते प्रकाश की किरणें दिखाई देने लगी। मनुष्य-जाति के इतिहास में एक नयी जागृति का आगमन हुआ। यही है स्वामी विवेकानन्द के 'जन्म-ग्रहण' करने का तात्पर्य (याने महामण्डल के आविर्भूत होने का तात्पर्य)!

इसीलिये ऐसा समझना कि स्वामी विवेकानन्द का आविर्भाव आज से 150 वर्ष पूर्व केवल 12 जनवरी 1863 ई० के प्रातः काल के किसी विशेष मुहूर्त में हुआ था बिल्कुल गलत होगा। क्योंकि  'असीम दया और प्रेम से परिपूर्ण सैकड़ों बुद्धों ' का निर्माण करने के उद्देश्य से, वे आज भी सैकड़ो-हजारो नर-नारियों के हृदय मन्दिर में प्रति-मुहूर्त 'आविर्भूत' हो रहे हैं ! 


'पैगम्बर कवि नरेन्द्रनाथ की कविता' ~ '4 जुलाई- अमेरिकी स्वाधीनता दिवस के प्रति ' में क्या यही सन्देश नहीं गूँज रहा है ?

" बढ़े चलो, हे देव !  अपने ' प्रतीरोधविहीन-पथ ' पर ! 
 
जब तक तुम्हारा प्रखर तेज न फैले सर्वत्र ! 

कण कण चमकाए न तेज तुम्हारा,
 
जब तक सारे नारी- नर, निर्भय मन से उठाकर मस्तक ; 

देख न लें स्वयं को बंधन मुक्त ! 

और अनुभव करें वसंतोल्लास- 'पुनर्जीवन' का !"

***
चलो प्रभु चलो तव बाधाहीन पथे ततदिन -
  जतोदिन ओई तव मध्यानन्दिन प्रखर प्रभाय 
    प्लावित ना होय विश्व , पृथ्वीर प्रति देशे देशे।  
    सेई आलो ना होय फलित, जतोदिन नरनारी 
       तुली उच्च शिर -नाहि देखे टूटेछे श्रृंखल भार,  
         ना जाने शिहरानन्दे ताहादेर जीवन नूतन। 

(নবী কবির কাব্যে) :    
চল প্রভু চল তব বাধাহীন পথে ততদিন—
যতদিন ঐ তব মাধ্যন্দিন প্রখর প্রভায়
প্লাবিত না হয় বিশ্ব,পৃথিবীর প্রতি দেশে দেশে
সেই আলো না হয় ফলিত, যতদিন নরনারী
তুলি উচ্চ শির—নাহি দেখে টুটেছে শৃঙ্খলভার
না জানে শিহরানন্দে তাহাদের জীবন নূতন ৷

(In the Prophet poet's poem)

 "To The Fourth Of July"

" Move on, O Lord, on thy resistless path!

Till thy high noon o'erspreads the world,

Till every land reflects thy light, 

Till men and women, with uplifted head,

Behold their shackles broken, and 

Know, in springing joy, their life renewed! "

[ 1902 ई ० के जून महीने का अन्त आते आते , स्वामी जी को यह ज्ञात हो चुका था कि उनकी जीवनलीला अब लगभग समाप्त होने वाली है। उन्होंने अपने एक नजदीकी  शिष्य से कहा था -  "मैं मृत्यु के लिए तैयार हो रहा हूं। मेरे भीतर तीव्र तपस्या और गहन ध्यान में डूबे रहने का विचार उठ रहा है, और मैं मृत्यु के लिए तत्पर (ready) हो गया हूं। ठाकुरदेव ने कहा  था - "तूँ जिस दिन अपने स्वरुप को जान जायेगा, उसी दिन तूँ अपना शरीर त्याग देगा ! "
 बुधवार 2 जुलाई 1902 - को एकादशी के दिन - उन्होंने निर्जला उपवास -व्रत रखा और शिष्या (निवेदिता) को प्रातःकाल का जलपान अपने हाथों से परोसने की जिद करने लगे ! ......स्वामी विवेकानन्द ने अपनी डायरी में लिखा  ~ - " हो सकता है कि एक पुराने वस्त्र को त्याग देने के सदृश, अपने शरीर से बाहर निकल जाने को मैं बहुत उपादेय समझूँ। लेकिन मैं काम करना नहीं छोडूँगा। जब तक सारी दुनिया न जान ले, मैं सब जगह लोगों को यही प्रेरणा देता रहूँगा कि -'वह ब्रह्म के साथ एक है।" (खण्ड १०/२१७ सूक्तियाँ एवं सुभाषित ४४)   
[" It may be that I shall find it good to get outside of my body—to cast it off like a disused garment. But I shall not cease to work! I shall inspire men everywhere, until the world shall know that it is one with God."(Volume 5, Sayings and Utterances 44.]
 इस आपात निरर्थक जगत (क +मन > मिथ्या जगत) का भी स्वामीजी ने एक उद्देश्य खोज निकाला था, जिसक अंग्रेजी के विख्यात दार्शनिक कवि टैनिसन [Alfred Tennyson (1809-1892)] के शब्दों में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है- 

Yet, I doubt not through the ages,

 one increasing purpose runs,

And the thoughts of men are widened,

 with the process of the suns.

******
" তবু মোর নাহি কিছু সংশয় আর : 
যুগে যুগে বহি চলে এক অভিপ্রায় -
মানবজীবনের অর্থ , হৃদয়-বিস্তার ,
অরুন-কিরণ যথা গগনে ছড়ায়। "  

" तबू मोर नाहि किछू संशय आर :
यूगे यूगे बहि चले एक अभिप्राय -
मानबजीबनेर अर्थ, ह्रदय-बिस्तार,
         अरुण-किरण यथा गगने छड़ाय। "      

" फिर भी, नहीं है मुझमें और किसी प्रकार का शंशय ;

युगों युगों से चला आ रहा मनुष्य-जीवन का है एक ही अर्थ ! 

" हृदय का वैसा सर्वव्यापक विस्तार---कि जैसे 

अरुण सूर्य की किरणें पसरी हों गगन में !  "  

- अर्थात मनुष्य केवल अपनी अन्तर्निहित पूर्णता को 

(अर्थात 100 %निःस्वार्थपरता या दिव्यता )

को अभिव्यक्त करने की ओर अग्रसर है !  

"That man is marching towards perfection" 

शुक्ल यजुर्वेद (३।३५) में व्याहृति सह गायत्री मन्त्र *** का भाव भी यही है।  
[*** व्याहृति > अर्थात रहस्यमय कथन या उक्ति > जैसे  ॐ भूर् भुवः स्वः। तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् ॥"  गायत्रीमन्त्र को वेद का सार-सर्वस्व कहा गया है।
इस गायत्री मंत्र में ---चार महाव्याहृतियाँ कौन-कौन-सी है ? 
उत्तर : भुः, भुवः, स्वः इन तीनों का मंत्र ।  ये तीन महाव्याहृतियाँ हैं । विशेष—कहते हैं, जहाँ और कोई मंत्र न हो, वहाँ इसी व्याहृति मंत्र से काम लेना चाहिए । चौथी व्याहृति "महः" है । इसे महाचमस्य ऋषि ने प्रचारित किया था । यह चौथी व्याहृति ब्रह्म है, यह सब का आत्मा है। विविध क्षेत्रों के अन्य देवता उसके अंगभूत हैं । वेदों का प्रतिपाद्य विषय ब्रह्म "महः" है, क्योंकि ब्रह्म-प्रतिपादन से ही सब वेद महिमा प्राप्त करते हैं ।
 सप्त लोकों में जो सात प्रकार के शरीर हैं और उनमें जो सात प्रकार के प्राण हैं, वे सब परमात्मा देव से ही उत्पन्न होेते हैं, फिर उसी परमात्मा देव से ही भौम, जाठर, सूर्य, चंद्रमा, विद्युत, बाड़व, चक्षु, ये सात प्रकार के अग्नि उत्पन्न होते हैं। इनमें से जो अग्नि काष्ठ में रहती है। वह भौम है। उदर के भीतर जो अग्नि है, वह जाठर है। समुद्र में पाई जाने वाली अग्नि बाड़व कही जाती है। उसी परमात्मा से सात प्रकार की समिधायें उत्पन्न होती है। स्वर्ग, मेघ, भूलोक, पुरुष, योषित रूप पंच अग्नियों के लिए आदित्य, वायु, सम्वत्सर, वाक्, उपस्थ ही पांच समिधाएं मानी गई हैं, फिर परमात्मा से ही भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः और सत्य, ये सात लोक उत्पन्न होते हैं, उसी परमात्मा देव से काली, कराली, मनीजा, सुलोहिता, धम्रवर्णा, स्फुलिंगिनी और विश्व रूपी या अग्नि की सात जिह्वाएं उत्पन्न होती हैं। उसी से भूः आदि लोकों में विचरण करने वाले तथा सब जीवों के बाह्य प्राण रूप मरुतगण उत्पन्न होते हैं। उसी परमात्मा देव से सप्त समुद्र और हिमालय आदि पर्वत तथा समस्त नदियां होती हैं। उस रस रूप परमात्मा देव से ही जौ, चावल आदि औषधियां (अन्न) होते हैं और सब शरीरधारी जीवों को प्राप्त होते हैं। प्राणों को लेकर व्याहृतियों की व्याख्या---(1.) प्राणों में 'प्राण' "भूः" है,(2.) अपान "भुवः" है, (3.) व्यान "स्वः" है, (4.) अन्न "महः" है, क्योंकि अन्न से ही सब प्राण महिमा प्राप्त करते हैं । जो इस प्रकार व्याहृतियों को जानता है, वह ब्रह्म का ज्ञाता (ब्रह्मविद) हो जाता है । उसके प्रति सब देव बलि (भेटें) लाने लगते हैं । अनेक पुत्र, पौत्रादि रूप प्रजा द्वारा भी उस परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। सुवर्ण आदि धन द्वारा भी नहीं होती। किंतु उन सब पदार्थों को त्यागने से ही परमात्मा देव की प्राप्ति होती है। -‘न कर्मणा न प्रजया न धनेन त्यागने के अमृतत्वमानशु’ कुछ विद्बानों के मतानुसार व्याहृतियाँ सात है—भूः, भुवः, स्वः, महः जनः, तपः और सत्यम् । 
इस मंत्र में ऋषि की एक मात्र अभिलाषा यही है कि मानव को ईश्वर की ओर से श्रद्धा और विवेक के रूप में जो दिव्य शक्ति प्राप्त हुई है, उसके द्वारा वह उसी सविता (ऋतम्भरा प्रज्ञा या समाधि) का ज्ञान करे और संचित, क्रियमान और प्रारब्ध कर्मों के क्षय द्वारा अपने इस जीवन को सार्थक करे। गायत्री के पूर्व में जो तीन व्याहृतियाँ हैं, वे भी सहेतुक हैं। भू पृथ्वीलोक, ऋग्वेद, अग्नि, पार्थिव जगत् और जाग्रत् अवस्था का सूचक है। भुव: अंतरिक्षलोक, यजुर्वेद, वायु देवता, प्राणात्मक जगत् और स्वप्नावस्था का सूचक है। स्व: द्युलोक, सामवेद, आदित्यदेवता, मनोमय जगत् और सुषुप्ति अवस्था का सूचक है। ]

 तथा इन्हीं भावों के आलोक में स्वामी विवेकानन्द (के जन्म लेने या आविर्भूत होने के तात्पर्य) को देखने की चेष्टा करनी होगी। 

>>> जगत-प्रवाह का भी एक गहरा अर्थ (व्याहृति) है: > 
 बेलुड़ मठ में स्वामी विवेकानन्द  के जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में आयोजित सम्मेलन में भगिनी निवेदिता ने 10 जनवरी 1904  ई० को एक भाषण दिया था । उन्होंने कहा - "हमलोग यहाँ उत्सव के क्षणिक आनन्द के तरंग में बह जाने के लिये एकत्रित नहीं हुए हैं। बल्कि इस महोत्सव का आयोजन यहाँ इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर  किया जा रहा है, जिससे हमलोग अपनी समस्त शक्तियों को स्वामीजी की शिक्षाओं को आचरण में उतारने के लिये  नियोजित कर देने का सामर्थ्य अर्जित कर सकें। उन्होंने क्या शिक्षा दी थी ? क्या वे यह चाहते थे कि सभी लोग उनकी स्तुति करें , उनका गुणगान करते रहें?  कदापि नहीं! हमलोग जानते हैं कि वे नाम-यश या प्रसिद्धि को भीतर से घृणा करते थे। क्या वे यह चाहते थे कि हम सभी लोग मिलकर उनके गुरु श्रीरामकृष्ण के नाम  को सम्पूर्ण विश्व में फैला दें ? नहीं, वे यह भी नहीं चाहते थे ! फिर क्या वे यह चाहते थे कि उनके किसी विशेष सिद्धान्त को या अन्य प्रकार की अनुष्ठान-पद्धति को सभी के लिये अनिवार्य बना देना होगा? नहीं, वे ऐसा भी नहीं चाहते थे। तो फिर वे चाहते क्या थे?" इन प्रश्नों को उठाने के बाद  भगिनी निवेदिता स्वयं उत्तर देते हुए कहती हैं- "वे केवल इतना ही चाहते थे कि सभी व्यक्ति - 'मनुष्य' बनें !  स्वयं अपने ही पैरों पर खड़े होना, सीख जायें ।" (अर्थात समाधि के अनुभव से 'अहं ब्रह्म' या  "ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति" आदि महावाक्यों के मर्म को समझ सकें। ) 
युगाचार्य दार्शनिक विवेकानन्द की दृष्टि में समग्र जगत का प्रवाह एक क्षण में उद्घाटित हो गया था। इस जगत-प्रवाह के पीछे जो रहस्य छुपा हुआ है- " ब्रह्म (A) ही देश-काल -निमित्त रूपी माया (C)  से होकर आने के कारण जगत (B) बन गए हैं ! उसके सारांश को उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त करते हुए कहा था -

नान्यदेका चित्रमाला जगदेतच्चराचरम्, 

एष वर्णमयो वर्गो भावमेकं प्रकाशते।। 

   मानुषाः पूर्णतां यन्ति नान्या वार्ता तु वर्तते, 

   पश्यामः केवलं तद्धि नृनिर्माणं कथं भवेत्।। 

('विवेकानन्द-दर्शनम्') 

-अर्थात (मनुष्य जाति के उत्थान और पतन के इतिहास का गहराई से अवलोकन करने पर) अन्ततः यही निष्कर्ष निकलता है कि, यह संसार लगातार बदलते रहनेवाले चित्रों (नाटकों) की एक श्रृंखला के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। तथा इस धारावाहिक नाटकों में लगातार परिवर्तनशील पात्रों (हनुमान -कालनेमि) की रंग-बिरंगी श्रृंखला के माध्यम से, इस जगत का जो एकमात्र सर्वोच्च अभिप्राय व्यक्त हो रहा है वह है - " मनुष्य निर्माण ! मनुष्य अपनी भ्रमों-भूलों को त्यागता हुआ  क्रमशः पूर्णत्व - प्राप्ति ( ब्रह्मविद मनुष्य बनने) की दिशा में अग्रसर हो रहा हैहमलोग जो कुछ भी देख रहे हैं, उसका अर्थ "मनुष्य-निर्माण" के सिवा और कुछ नहीं है।" 
['After all, this world is a series of pictures.' This colourful conglomeration expresses one idea only. Man is marching towards perfection. That is ' the great interest running through. We were all watching the making of men, and that alone.']    

सम्पूर्ण जगत-प्रपंच का समग्र विवरण इतने संक्षेप में, तथा इससे अधिक सरल भाषा मे देना संभव नहीं है।  ब्रह्म और जगत स्वरूप तथा इन के बीच परस्पर-संबंध के विषय मे जितने भी सदग्रंथ (गीता, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र आदि) हैं; उन सब दर्शन-शास्त्रों का उद्देश्य "ईश्वर, जीव और जगत " के रूप जो कुछ दिख रहा है, वह भी ब्रह्म ही है -इसकी एक सामग्रीक धारणा निर्मित करना है !  बहुत से लोग ऐसा मानते हैं कि आचार्य शंकर ने समग्र अद्वैत वेदान्त के सार का वर्णन इस प्रकार किया है-
 
श्‍लोकोर्धेन प्रवक्ष्यामि यदुक्‍तं ग्रन्‍थकोटिभिः। 
ब्रह्म सत्‍यं जगन्मिथ्‍या जीवो ब्रह्मैव नापरः।।" 

--अर्थात “करोड़ों ग्रन्थों का सार आधे श्‍लोक में बतलाता हूं-  ब्रह्म सत्य है, जगत के सभी नाम-रूप मिथ्या अथवा नाशवान हैं, तथा जीवात्मा भी ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। " अर्थात मनुष्य का आत्मा एवं ब्रह्म मूल में एक ही है, दो नहीं।’’ यद्यपि उनके इस श्लोक की बहुत गलत ढंग से व्याख्या करने की चेष्टा होती रही है, किन्तु जो कुछ वास्तव मे कहा गया है, उसकी अविकृत और सच्ची व्याख्या यही है। 

   स्वामीजी इस जगत को असत्य या मिथ्या नहीं मानते थे, उनकी दृष्टि मेँ  इस जगत-प्रवाह का एक वास्तविक और  गहरा अर्थ था। स्वामीजी की निम्न उक्ति "we were all watching the making of men, and that alone." उस शून्यगर्भ चित्रों के शृंखला का अर्थ- समाधि में पहुँचे ज्ञानी मनुष्य-निर्माण के सिवा और कुछ नहीं है।" इस समष्टि जगत का जो गतिशील एवं परिवर्तनशील रूप है, -अर्थात इस जगत-रूपी रंगमंच पर हमलोग जो कुछ भी घटित होते देख रहे हैं, और अर्थहीन चित्रों की शृंखला रूपी जगत-प्रवाह में भी एक अर्थ उत्पन्न कर देती है।

 स्वामी विवेकानन्द ने जिस नव-वेदान्त या आचरण में परिणत वेदान्त (व्यावहारिक वेदान्त)  'Be and Make ' आन्दोलन का प्रचार किया था, उस आंदोलन में गतिशीलता का संचार इसी अर्थ ने किया था। इसिलये उनकी समरनीति थी, " आगे बढ़ो, आगे बढ़ो - ' चरैवेति चरैवेति !"    
इस युग के ईश्वर (अवतार वरिष्ठ) श्रीरामकृष्ण के आदर्श-व्यक्तित्व के प्रकाश को सर्वत्र फैला देने के लिये, उनका सन्देश-वाहक बनकर स्वामी विवेकानन्द मध्याह्न के प्रखर-सूर्य के समान उदित हुए थे। एवं प्राच्य और पाश्चात्य दोनों गोलार्धों को अपने ज्ञानालोक से उन्होंने जिस प्रकार आलोकित कर दिया था। उस अद्भुत कार्य का वर्णन उन्नसिवीं सदी के एक अंग्रेजी के कवि  आर्थर ह्यूग क्लॉग [Arthur Hugh Clough, ( 1819—1861)] की भाषा में इस प्रकार किया जा सकता है - 

"Say not the struggle nought availeth",

And not by eastern windows only

When daylight comes, comes in the light,

In front the sun climbs slow, how slowly,

 But westward, look, the land is bright.

*****

' मत कहो कि संघर्ष फलदायी नहीं होता' 

 और प्रकाश की किरणें केवल पूर्व दिशा की खिड़कियों से ही नहीं आतीं।  
  
जब मध्याह्न का मार्तण्ड उदित होता है,तो सभी दिशायें प्रकाशित हो जाती हैं। 
 
देखो सूर्य कैसे सामने उदित हो रहा है- धीरे, बहुत धीमी गति से; 
 
लेकिन पश्चिम की ओर देखो ! सम्पूर्ण धरा आलोकित है !

 - अर्थात  ब्रह्म को जानने की चेष्टा करने वाला (सत्यार्थी - नरेन्द्र) अन्ततोगत्वा 'ब्रह्मविद' बन ही जाता है , और उसके ज्ञानलोक से पूर्व और पाश्चात्य दोनों गोलार्ध आलोकित हो जाते हैं। 

" पूर्वेर जानला दिया शुधु नाहि पशे,
      सब दिक् हते आसे दिवालोक -धारा;
     समुखे उदीछे रवि -धीरे, अति धीरे ,
          पश्चिमे हेर ओई -आलोकित धरा !"   

"उजाला केवल पूर्व की खिड़की से, ही नहीं प्रविष्ट होता ,
दिन का उजाला तो सभी दिशाओं से आता है;
देखो सामने भोर हो रही है - धीरे-धीरे, बहुत धीरे-धीरे,
पश्चिम दिशा को भी देखो, पूरा पश्चमी गोलार्ध आलोकित है !

" পূর্বের জানলা দিয়া শুধু নাহি পশে, 
সব দিক হতে আসে দিবালোক -ধারা ;
সমুখে উদিছে রবি -ধীরে , অতি ধীরে ,
পশ্চিমে হের ঐ -আলোকিত ধরা ! "  

 [Don’t say that the long struggle ' against tyranny and injustice ' is of no avail; don’t say that all your efforts, and all the injuries you’ve sustained, were in vain. Don’t say that the enemy’s just as strong as ever; and don’t say that nothing’s changed for the better!  Look! The eastern window you’re sitting at ; isn’t the only place affected by sunrise; from there, yes, it’s true, the sun (teachings of SriRamakrishna) hardly seems to moving up the sky at all— but cross the room and look through a westward-facing casement (through swami Vivekananda ): see how the whole landscape’s already flooded with light!]
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " जगत मे समाधि का ज्ञान बाँटने में सक्षम प्रकाश स्तम्भ जैसे ( ब्रह्मविद नेताओं, पैगम्बरों का) निर्माण करो। दरिद्र व्यक्तियों को प्रकाश दो , और जो धनी हैं उनको और अधिक प्रकाश दो , क्योंकि उन्हें प्रकाश की अवश्यकता सबसे अधिक है। अशिक्षित लोगों को प्रकाश दो, लेकिन जो शिक्षित हैं, उनको और अधिक प्रकाश दो (3H विकास के श्रद्धा विवेक-प्रयोग और मनःसंयोग या समाधि का प्रशिक्षण दो)। क्योंकि इस युग मे शिक्षा का अहंकार बहुत भयावह है। इसी प्रकार सभी वर्ग के लिये पर्याप्त प्रकाश स्तम्भ तुल्य जीवनमुक्त योगियों, नेताओं, पैगम्बरों  का निर्माण करो, उसके बाद सब कुछ प्रभु के ऊपर छोड़ दो। 

 >>>समाधि [आत्मसाक्षात्कार (Direct perception)] नरेन्द्रनाथ (स्वामी विवेकानन्द) ने एकाग्रता के अभ्यास द्वारा समाधि में पहुँचकर ब्रह्म का प्रत्यक्ष बोध (Direct perception),  अनुभव या साक्षात्कार किया था। इतना ही नहीं उन्होंने नरदेह-धारी सगुण -साकार ईश्वर (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) के श्री-चरणों का स्पर्श भी किया था। इसके बावजूद वे जानते थे कि अपने दूसरे रूप -निर्गुण, निराकार ब्रह्म के रूप में ईश्वर सर्वत्र विराजमान हैं। वे यह भी जानते थे कि ' अहं ब्रह्मास्मि- मैं ही ब्रह्म हूँ !' इस सत्य को अपने अनुभव से जान लेना ही मनुष्य जीवन की चरम उपलब्धी है। फिर भी जब वे अपने गुरु से निर्विकल्प समाधि में लीन रहने की इच्छा व्यक्त किये थे, तो उनके गुरु ने प्रसन्न होने के बजाय नरेन्द्रनाथ को हलकी झिड़की लगाई थी। किन्तु उस झिड़की (संस्कार-दीक्षा) के बाद ही नरेन्द्र का नव-जन्म हुआ। नरेन्द्रनाथ उसी दिन 'द्विज' बन गए। 
>>>"विश्वमानवता के कल्याणार्थ समाधि या अमृतत्व का त्याग " : क्योंकि इस भर्त्सना के बाद ही स्वामीजी उस वेद-वाक्य (?) के मर्म को धारण कर सके थे, जिसका अर्थ होता है- " कुछ मनुष्य ऐसे होते हैं, जो अमृतत्व प्राप्त करने के लिये मृत्यु तक का वरण कर लेते हैं; किन्तु  कुछ मनुष्य ऐसे भी होते हैं-जो विश्वमानवता का कल्याण करने के उद्देश्य से, अमृतत्व तक का त्याग कर देते हैं ।" हमलोग यह समझ सकते हैं कि बाद वाला आदर्श ही सर्वोच्च आदर्श है।  
 इसीलिये नरेन्द्रनाथ के गुरुदेव ने अपने हाथों से एक 'चपरास' लिखा था-" नरेन् शिक्षा देगा।" तथा सार्वजनिक रूप से घोषित किया था, " नरेन्द्रनाथ वास्तव में नर-रूपी नारायण है ! जीवों की दुर्गति को दूर करने के लिये ही इसने एक बार पुनः शरीर धारण किया है ! " इसीलिये स्वामी विवेकानन्द का सम्पूर्ण जीवन बाद वाले आदर्श - "विश्वमानवता के कल्याणार्थ समाधि या अमृतत्व का त्याग "  के प्रति समर्पित जीवन था। 
>>> 'राजा-कवि' दार्शनिक भर्तृहरि('King-Poet' PhilosopherBhartrihari): 
श्रीरामकृष्ण ने कहा था, " इस युग में सम्पूर्ण विश्व के इतिहास में इतने उच्च कोटि का आधार और कभी नहीं आया था !" 'इस प्रकार के ऋषि इस विश्व में बहुत कम ही होते हैं। इसी बात को प्राचीन काल के अन्य राजर्षि - 'King-Poet' 'राजा-कवि' -दार्शनिक भर्तृहरी एक श्लोक में बड़े सुन्दर ढंग से कहा है -

मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः, 

त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभि: प्रीणयन्तः। 

परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं,

निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ॥

[पदार्थः---मनसि---मन में , वचसि---वाणी में, काये---शरीर में, पुण्यपीयूषपूर्णाः---पुण्यरूप अमृत से भरे हुए, त्रिभुवनम्---तीनों लोकों को, उपकारश्रेणिभिः--उपकारों की पंक्ति से,  प्रीणयन्तः---प्रसन्न रखते हुए, नित्यम्---सदा, परगुणपरमाणून्---दूसरों के छोटे-से-छोटे गुणों को भी, पर्वतीकृत्य--पर्वत के समान बढा-चढाकर, (बडाकर), निजहृदि विकसन्तः--अपने हृदय में विकसित करते हुए , सन्तः, सज्जन व्यक्ति, (संसार में), कियन्तः सन्ति---कितने हैं ।] 

अनुवाद -ऐसे सन्त (जीवनमुक्त योगी,नेता या पैगम्बर) समाज में कितने हैं; जिनके कार्य , मन तथा वाणी पुण्यरूप अमृत (पवित्रता ) से परिपूर्ण हैं, और जो सभी मनुष्यों का बहुत प्रकार से कल्याण करके त्रिभुवन को आनन्दित करते हैं? वे लोग त्रिभुवन को  किस उपाय से आनन्दित करते हैं? किसी के भीतर यदि परमाणु के जितना छोटा भी गुण दिखता है, उसे वे पर्वत के जितना विशाल देखते और बखान करते हैं, और इस प्रकार अपने हृदय को सदैव विकसित करते रहते हैं। 'राजा कवि' या राजर्षि भर्तृहरी कहते हैं, ऐसे सन्त जो दूसरों के परमाणु तुल्य या  अत्यंत स्वल्प गुण को भी- पर्वत प्रमाण बढ़ा कर अपने हृदयों का विकास साधन (प्रेम-प्रयोग) करने में समर्थ हों, संसार में बहुत कम, याने उँगलियों पर गिनने योग्य ही  पाये जाते हैं। 
[आचार्य शंकर ने भी 'विवेक -चूड़ामणि' में कहा हैं -

शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तो,

  वसन्तवत् लोकहितं चरन्तः  |

   तीर्णाः स्वयं भीम-भवार्णवं , 

  जनान् अहेतुना अन्यान् अपि तारयन्तः ॥३७||

इस भयंकर संसार-सागर से स्वयं तरे हुए शांत और महान् सज्जन पुरुष वसंत ऋतू के समान लोक-हित करते हुए बिना कारण दूसरे लोगों को तारते  हुए सदा निवास करते हैं। जब कोई मनुष्य  इस नश्वर नाम-रूपात्मक जगत के पृष्ठभूमि में अवस्थित अविनाशी सत्य (अस्ति-भाति-प्रिय) का साक्षात्कार कर लेते हैं, वे इस जन्म-मृत्यु के  सागर से तर जाते हैं। अर्थात ( 'क' +मन या नाम-रूप) जगत के पदार्थों को 'मैं' और 'मेरा' मानने की प्रवृत्ति या आसक्ति के बंधन से मुक्त हो कर परम शान्ति का अनुभव करते हैं। तब उनका ह्रदय द्रवित होना -  पिघलना शुरू कर देता है, अर्थात उनका ह्रदय अत्यन्त विशाल और उदार हो जाता है  वे बिना किसी स्वार्थ के-  केवल परोपकार करने के उद्देश्य से (अकारण) ही बसंत-ऋतू की तरह भारत के गाँव-गाँव तक स्वामीजी के सन्देश "Be and Make " - ' मनुष्य बनो और बनाओ ' को पहुंचा देने के लिये  लोक-कल्याण के कार्य में निरन्तर लगे रहते हैं। वैसे शान्त, बुद्ध के जैसा महामनस्क-उदार (magnanimous) या महात्मा, सज्जन मनुष्य  सत्य का संदेश (3H मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण की ' शिक्षा 'फैलानेअपने पैरों पर खड़े होने की पद्धति  लोगों को समझाने, के लिये व्याकुल हो जाते है।  ‘विगत मान सम सीतल मन’ सज्जनों को अभिमान छू तक नहीं जाता। सज्जन पुरुष दूसरों का उपकार करते हुए भी अपने को ही उपकृत समझते हैं। ‘मन अभिमान न आणे रे’। वे अपने को निमित्त मात्र समझते हैं। वे अपने में कर्ता बुद्धि को आने नहीं देते। ]

ठीक वैसे ही इस युग के आह्वान (युगावतार श्रीरामकृष्ण के सन्देश) को सभी मनुष्यों तक पहुंचा देने के लिये, श्वेत-बर्फ से आच्छादित हिमालय की चोटियों जैसी प्रशान्त गंभीर अध्यात्मिक-ज्ञान के सर्वोच्च शिखर से विवेकानन्द के अमृत-वचन रूपी ज्ञान-गंगा हम भारत वासियों को पुनरुज्जीवित करने (vivify करने) के लिये नीचे उतर आई है

भगिनी निवेदिता के माध्यम से युवाओं का आह्वान करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, -"मेरी दृढ धारणा है कि तुममें अन्धविश्वास नहीं है। तुममें वह शक्ति विद्यमान है, जो संसार को हिला सकती है, धीरे - धीरे और भी अन्य लोग आयेंगे। 'साहसी' शब्द और उससे अधिक 'साहसी' कर्मों की हमें आवश्यकता है। उठो! उठो! संसार दुःख से जल रहा है। क्या तुम सो सकते हो? हम बार - बार पुकारें, जब तक सोते हुए देवता न जाग उठें, जब तक अन्तर्यामी देव उस पुकार का उत्तर न दें। जीवन में और क्या है? इससे महान कर्म क्या है?"

" Be and Make ! ' अर्थात  ब्रह्मविद (ब्रह्मवेत्ता) मनुष्य बनो और मनुष्य बनाओ'  - यही हमारा मूलमन्त्र हो । " 
  
यदि तूँ केवल अपनी मुक्ति के लिये साधना करना चाहता है, तो तूँ जहन्नुम में जायेगा। ...यदि दूसरों का कल्याण करने के लिये, यदि तुझे नरक मे भी जाना पड़े तो, तो उसमें हानी ही क्या है ? स्वार्थपरता के साथ स्वयं स्वर्ग प्राप्त करने की अपेक्षा क्या यही ज्यादा अच्छा नहीं है? "


- वे कहते थे,"अतीत मे भी आत्मत्याग (विदेह बन जाना) ही कर्म का रहस्य था, अफ़सोस युगों युगों तक ऐसा ही चलता रहेगा।" 

"उठो, सिंह स्वरूप होकर भी तुमलोग अपने को भेंडो के समान समझ रहे हो, आओ, इस भ्रम को दूर हटा दो! तुम तो अजर-अमर आत्मा हो, मुक्त सनातन और आनन्दमय हो ! तुम लोग जड़ नहीं हो, तुमलोग देह नहीं हो, जड़ तो तुम्हारा दास है। तुमलोग जड़ के दास नहीं हो। 
 
उन्होने सच्चा जीवन प्राप्त करने की शिक्षा दी थी। हृदय का विस्तार करने या विकसित करने और वैश्विक प्रेम की शिक्षा दी थी। त्याग और सेवा का आदर्श दिया था, पौरुष और भय-शून्यता का सन्देश दिया था। 
 उनकी दृष्टि में ईश्वर भी ब्रह्म हैं, मनुष्य भी ब्रह्म है, फिर यह जगत भी ब्रह्म ही हैं। इसीलिये उनका आह्वान विश्व को ईश्वरभक्ति में उन्नत बनाने के लिये नहीं था, बल्कि यथार्थ मनुष्यत्व को विकसित करने के लिये था।' और उनके 'व्यावहारिक वेदान्त' - अर्थात 'आध्यात्मिक प्रयोग-वाद' का आधारभूत तथ्य भी यही है । उनके आह्वान में ही पुनः ध्वनित हुआ था प्राचीन वेदमन्त्र - 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम'- सम्पूर्ण विश्व को आर्य अर्थात संस्कृतिवान बना दो। जो जिस स्थान पर है, उसको उन्होंने उसी स्थान पर उन्होंने ग्रहण किया था, तथा और उसके जीवन को उन्नत बना दिया था।

अंग्रेजी के प्रसिद्द कवि ब्राउनिंग [Robert Browning (1812-1890)] की प्रसिद्द उक्ति - में स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माणकारी इसी परिकल्पना की झलक देखी जा सकती है -Progress is The law of life: man is not Man as yet(man with capital M) 

 " Progress, man’s distinctive mark alone,
 
Not God’s, and not the beasts’:

 God is, they are

Man partly is and wholly hopes to be.

****

 " एकाग्रता की शक्ति में विकास (समाधि) की सम्भावना "  

- केवल मनुष्यों की है विशिष्ट पहचान, 
   
  यह विशिष्टता  न तो पशु की, और न ही देवताओं की है निशान ।   

 पूर्णब्रह्म (ब्रह्मविद) रहते सदा स्व-महिमा में स्थित, 
   
पशु-प्रजातियाँ, जो थीं कर्मपाशों में बँधी, 

वे  रहती उम्रभर उसी में ग्रथित। 
    
यद्यपि मनुष्य है अभी अपूर्ण, तथापि  -
 
ब्रह्म को जानकर ब्रह्मविद बन जाने की  सम्भावना है - मनुष्य मात्र में सन्निहित। 

और जन्म-मृत्यु से होता हुआ,  वह बढ़ता जाता है - इसी पूर्णत्व-प्राप्ति  की ओर ! 

 -अर्थात 
उन्नति, आरोहण या संसार-सागर से पार-गमन (crossing) की चेष्टा करने की आवश्यकता ईश्वर को नहीं है, पशुओं में तो इसकी क्षमता भी नहीं है, यह केवल मनुष्यों का ही वैशिष्ट्य है। ईश्वर तो पूर्णता में ही विराजमान रहते हैं, उनके आरोहण (ascension) का तो प्रश्न ही नहीं उठता। पशु की प्रजातियाँ (गाय-भैंसें,गधे आदि)  चिर काल में जैसे थे, आज तक  वैसी ही हैं। किन्तु अपूर्ण होने पर भी मनुष्य पूर्णता में पहुँचने की आशा लेकर उन्नति के लिये प्रयत्न करता है।

>>>स्वामी विवेकानन्द के लिये धर्म का अर्थ : 

स्वामीजी के अनुसार धर्म का अर्थ है - मनुष्य (ब्रह्मविद) बनने का 'प्रयत्न करना और बन जाना' ~  'being and becoming'- अर्थात  निःस्वार्थी बनने का प्रयत्न करते हुए, क्रमशः पशु (घोर स्वार्थी) से मनुष्य (अर्ध स्वार्थी) में और मनुष्य से देवत्व में उन्नत हो जाना ; अर्थात पूर्ण (perfect या 100 %) निःस्वार्थी मनुष्य बन जाना। उनके लिए धर्म का अर्थ जीवन भर केवल तात्विक-ज्ञान या धार्मिक-सिद्धान्तों (विभिन्न मतवादों) के उपर विवेचना करते रहना ही नहीं था । मैं स्वयं के स्वरुप को यदि जड़ या नश्वर देह और मन नहीं समझकर, एक अविनाशी देहरहित आत्मा (विदेह -आत्मा) के रूप में विश्वास करता हूँ, तो अपनी सम्पूर्ण सत्ता (3H) को उसी वस्तु में रूपान्तरित कर लेना ! धर्म का अर्थ मतवाद, या तर्क-वितर्क नहीं है , तात्विक ज्ञान भी नहीं है। स्वामीजी के अनुसार - 'Unselfishness is God' -निःस्वार्थता ही ईश्वर है ; निःस्वार्थपरता ही नीति (शास्त्र-सम्मत कर्म) है; और स्वार्थपरता ही दुर्नीति (शास्त्र-निषिद्ध कर्म) है !" हे शक्तिमान, उठो तथा सामर्थ्यशाली बनो! कर्म, निरन्तर कर्म; संघर्ष , निरन्तर संघर्ष! अलमिति। पवित्र और निःस्वार्थी बनने की कोशिश करो-सारा धर्म इसी में है।" 
प्रवृत्ति और निवृत्ति का तात्पर्य स्वामी विवेकानन्द के लिए कर्म-व्यस्त रहना और कर्म-विमुख हो जाना ' का पर्यायवाची शब्द नहीं थे। उनका मानना था कि निजी स्वार्थ से प्रेरित होकर कोई भी कर्म करना प्रवृत्ति है, तथा स्वार्थ-रहित होकर, केवल दूसरों के कल्याणार्थ कर्म करना ही निवृत्ति है। स्वामीजी जानते थे कि जीवन एक निरन्तर संग्राम का नाम है। किस चीज के लिये संग्राम? यह जीवन के कर्मबन्धन के जंजीरों को तोड़ देने, समस्त बाधाओं को अतिक्रमण करने, मन और इन्द्रियों की सीमा से परे जाने ('क+मन की चाहरदीवारी को भी अतिक्रम कर जाने '), ह्रदय को अनन्त तक विस्तृत करने का निरंतर संग्राम है ।  स्वामीजी जैसे बिपरीत धारा के तैराक बड़े मरजीवड़े होते हैं! वे जानते हैं कि एकाग्रता (चित्तवृत्ति निरोध या समाधि) के अभ्यास में आने वाली बाधाओं (कर्म-बन्धनों) की लहरों में डूबने से डरकर नौका पार नहीं होती क्योंकि समाधि में डूबने वाला तो अमर हो जाता है। 

[हिन्दी के कवि सोहनलाल द्विवेदी अपनी एक प्रसिद्द और प्रेरक कविता में कहा है -
 
लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर सौ सौ बार फिसलती है।

मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना नहीं अखरता है।

आखिर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाते हैं,
जा जा कर गहरे पानी में खाली लौट आते हैं।

मिलते ना मोती सहज ही गहरे पानी में,
बढ़ता दूना उत्साह इसी हैरानी में।

मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है स्वीकार करो,
कहां कमी रह गई देखो और सुधार करो।

जब तक सफल न हो नींद चैन की त्यागो तुम,
संघर्षो का मैदान छोड़ मत भागो तुम।

किए कुछ बिना जय जयकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। ]

>>>ईश्वर और मनुष्य  : किसी विश्वप्रसिद्ध वैज्ञानिक ने कहा था- " यदि भगवान भी किसी बुद्धिमान मनुष्य के जैसे होते तो  निश्चित रूप से उनका दिमाग गणित के विषय में अत्यन्त निपुण होता।" स्वामीजी ने भी मनुष्य और ईश्वर की दो गणितीय परिभाषायें दी हैं। इन दोनों परिभाषाओं में उनके समग्र दर्शन की सांकेतिक अभिव्यक्ति के साथ उसके  वास्तविक प्रयोग एवं उपाय के बारे में भी इशारा किया गया है। क्योंकि स्वामीजी ने बार बार कहा है, ' यदि कोई भी तात्विक ज्ञान जब तक प्रभावकारी और फलप्रसू नहीं हो, तब तक उसका कोई मूल्य नहीं है। वे कहते हैं, ज्ञान की बहुत बड़ी बड़ी बातें करने की अपेक्षा, उसे थोड़ा सा भी कार्य में उतार लेना अधिक अच्छा है।'
 
इन दोनों की परिभाषा में कहते हैं," मनुष्य एक ऐसा अनन्त वृत्त है जिसकी परिधि कहीं नहीं है, किन्तु उसका केंद्र बिंदु एक स्थान में स्थित है। और ईश्वर एक ऐसा अनन्त वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं है, किन्तु उसका केन्द्र बिंदु सर्वत्र स्थित है।" 

उपरोक्त परिभाषा से मैक्समूलर के इस कथन की सच्चाई सिद्ध हो जाती है कि भारतवर्ष में ईश्वर और मनुष्य के बीच का अन्तर बहुत ही कम है। दोनों ही अनन्त वृत्त हैं, जिनकी परिधि कहीं नहीं है। दोनों में अंतर केवल इतना ही है कि मनुष्य के क्षेत्र में केंद्र-बिंदु (आत्मा) एक स्थान में स्थित है,और ईश्वर के क्षेत्र में यह केंद्र-बिंदु सर्वत्र है। अतः हम साधारण मनुष्यों को, पशुत्व से मनुष्यत्व में और मनुष्यत्व से ईश्वरत्व तक उन्नत होने की यात्रा पूरी करनी होगी। 

>>>'हमारे लिये करनीय क्या है ? : ईश्वर और मनुष्य सम्बन्धी इस परिभाषा पर चिंतन-मनन करने से, 'हमारे लिये करनीय क्या है?' इस विषय में हमलोगों को एक स्पष्ट निर्देश प्राप्त हो जाता है। सर्वप्रथम तो हमें ~ "अपने ह्रदय की क्षूद्र सीमाओं को तोड़कर,[ अर्थात अपने -पराये के बोध से ऊपर उठकर, केवल अपने परिवार और ससुराल के सम्बन्धों (Father in law, Mother in law, Sister in law ....आदि रिश्तों) को अपना मानने से ऊपर उठकर], अपनी हृदयवत्ता की क्षूद्र परिधि का अतिक्रमण कर"-- मनुष्य बन जाना होगा ! - अर्थात वैसा अनन्त वृत्त बन जाना होगा, जिसकी परिधि कहीं नहीं है।  मनुष्य बनने का ( 'man with capital M ' बन जाने का) यही अर्थ है। 

ऐसा 'मनुष्य' बनने की प्रेरणा चरित्र के किन गुणों को अर्जित करने से प्राप्त होती है ? वे गुण हैं- प्रेम,आत्मोसर्ग (self-abnegation),निःस्वार्थपरता,आत्मविश्वास,आत्मश्रद्धा,सहानभूति की भावना आदि (महामण्डल की हिन्दी पुस्तिका 'चरित्र के 24 गुण' देखें) गुणों को विकसित करने से। मनुष्य बनने के (समाधी एकाग्रता के) मार्ग में कौन कौन से चरित्र के 12 दोष  बाधक हैं जिनका त्याग करना होगा ? वे दोष जिन्हें बाहर करना आवश्यक है-स्वार्थपरता, मन की संकीर्णता, घृणा, ईर्ष्या, क्रोध आदि (महामण्डल की हिन्दी पुस्तिका 'नेति से इति' देखें।) यथार्थ मनुष्य (चरित्रवान मनुष्य) बन जाने के बाद मेरे मन,वचन और कर्मों के द्वारा केवल कल्याण-कारी भाव ही प्रवाहित होंगे। मैं भी अनेकों प्रकार के कल्याणकारी कर्मों के माध्यम से त्रिभुवन को आनन्दित करूँगा। इस प्रकार मेरा हृदय भी अनन्त तक विस्तृत हो जायेगा, जिसकी परिधि कहीं नहीं होगी। 
>>> अगले चरण की यात्रा-  'मनुष्य' बन जाने की साधना, पूर्ण होने के बाद-अगले चरण की यात्रा में, ईश्वर बनने का प्रयत्न करते हुए ईश्वर (100 % निःस्वार्थी, विदेह) बन जाना होगा। श्रद्धा, विवेक-प्रयोग और आत्म-मूल्यांकन का अभ्यास करते हुए सर्वगत 'प्रेम और सहानुभूति' का अनंत वृत्त बन जाने के बाद भी; अपने केंद्र-बिंदु को एक ही स्थान में, मनुष्यों में जो क्षूद्र 'मैं'-पन या अहंबोध होता है,  इस (M/F) शरीर के नाम और रूप के परिचय को मैं  अपने स्वरुप का (आत्मा का) परिचय अब नहीं मानूँगा। मेरे हृदय-केंद्र से निसृत सर्वग्रासी प्रेम के बाढ़ का प्रवाह इस एक ही स्थान (देह के नाम-रूप ) में आबद्ध केंद्र-बिंदु (अहं) को उखाड़ कर बहा ले जायेगी। जितने सारे अन्य मनुष्य हैं, मनुष्येत्तर प्राणी हैं, यहाँ तक कि स्थावर और जंगम जितनी भी वस्तुयें हैं, सभी मेरे स्वरुप के साथ एकाकार हो जायेंगे, और अपनी ही केंद्र-बिंदु (बिल्कुल अपनी आत्मा) प्रतीत होने लगेंगी। मैं सम्पूर्ण सृष्टि के साथ एकत्व की अनुभूति करूँगा। इसको ही ईश्वर (ब्रह्मविद) बन जाना कहते हैं। 

तत्व-ज्ञान की सार-बात बस इतनी ही है, इसके बाद जो भी विवेचनायें की जाती हैं,वे केवल ज्ञान के सामान्य विवरण हैं। हममें से प्रत्येक व्यक्ति इस विवरण से अपने लिये आवश्यक जीवन-गठनकारी संकेतों का चयन कर सकता है, और उनकी सहायता से लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सकता है।
[स्वामीजी कहते हैं, " भारतीय कुशल-प्रश्न, आप कैसे हैं ?.... 'How do you do ?' नहीं है, यहाँ पूछा जाता है- "राम -राम ! नमस्ते ! आप स्वस्थ तो हैं?" अर्थात आप अपनी अविनाशी आत्मा (राम) में स्थित हैं ? या अपने को केवल नश्वर शरीर (नाम-रूप) में ही स्थित समझते हैं ? अपने 'स्व' में स्थित व्यक्ति (स्वस्थ-व्यक्ति) के संकल्प को ही 'Self-Confidence ' या आत्मविश्वास कहा जाता है।" जिसमें ऐसा आत्मविश्वास नहीं हो उसे ही स्वामीजी 'नास्तिक ' या अस्वस्थ मनुष्य कहते थे। ] 

इसीलिये स्वामी विवेकानन्द किसी निर्दिष्ट और अपरिवर्तनीय रुढ़िवादी (stereotype) विचार-धारा, मतवाद (dogma), धर्ममार्ग, या किसी विशिष्ट पूजा-पद्धति के प्रवक्ता नहीं हैं। उन्होंने भावी युग के लिये, सम्पूर्ण मानवता के लिए एक ऐसी विशाल सामग्रीक या सामूहिक योजना विश्व के समक्ष रख दी है , जिसके द्वारा समस्त देशों,सभी जातियों, समस्त धर्मों और दर्शनों को मानने वाले प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की समस्त आवश्यकताएं पूर्ण हो सकती हैं। 

भविष्य की मानव सभ्यता के कल्याण के लिए, स्वामी विवेकानन्द ने अपने विराट व्यक्तित्व के भीतर उपरी तौर से परस्पर विरोधी दिखने वाले समस्त भावों के बीच समन्वय स्थापित किया था।  
उनके जीवन और संदेशों को ध्यान-पूर्वक देखने से- आध्यात्मिक और अविनाशी, विश्वास और तर्कवाद, धर्म और विज्ञान, ज्ञान और कर्म आदि के बीच उपरी तौर जो विरोधाभास दिखाई देता है, वह सब समाप्त हो जाती है। इतना ही नहीं, स्वामी जी के जीवन और संदेशों को देखने से , सांसारिक (सेक्यूलर-लौकिक) और धार्मिक (सैक्रेड-पारलौकिक), गृही और संन्यासी, व्यक्ति और समाज, ह्रदय की गहराई और विस्तार, प्राच्य और पाश्चात्य, भूत और भविष्य, विश्वास और तर्क, धर्म एवं विज्ञान, ज्ञान तथा कर्म आदि विषयों में उपरी तौर से जो विरोधिता प्रतीत होती है, वे सब - केवल समाप्त ही नहीं होते, बल्कि  इन सबों के बीच एक अभूतपूर्व समन्वय भी दिखाई देता है। 
 >>>परस्पर विरोधी भावों का समन्वय 
किसी वैज्ञानिक के समान [गणितीय सूत्र '3H विकास के 5 अभ्यास' के प्रशिक्षण द्वारा स्वामी जी युवा नेतृत्व का निर्माण करना चाहते थे जो ] तीक्ष्ण मेधा और बलिष्ठ भुजाओं के साथ एक ऐसे हृदय का निर्माण करना चाहते थे, जो फूलों से भी अधिक कोमल होने का साथ साथ बज्र से भी अधिक शक्तिशाली हो-

वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि ।
लोकोत्तराणां चेतांसि को हि विज्ञातुमर्हति ॥ 

(बाहर से वज्र जैसे कठोर दिखने वाले महापुरुषों का अंतःकरण वास्तव में पुष्प के जैसा कोमल होता है। ऐसे परसपर विरोधी भावों को धारण करने वाले लोकोत्तर (ब्रह्म-विद) पुरुषश्रेष्ठ के ह्रदय को कौन समझ सकता है ?)
अपना सुधार करने के विषय में बज्र से भी ज्यादा कठोर, किन्तु दूसरों के लिए फूल की तुलना में भी नरम (जो अब भी मोहित hypnotized हैं, सिंह-शावक होकर भी अपने को भेंड़ समझ रहे हैं, मोहनिद्रा ग्रस्त लोगो के लिये, फूल की तुलना में भी नरम )  - ऐसे परसपर विरोधी भावों को धारण करने वाले लोकोत्तर (ब्रह्म-विद) पुरुषश्रेष्ठ के ह्रदय को कौन समझ सकता है ? वे ही जीवनमुक्त योगी, नेता, पैगम्बर, वन्दनीय हैं, वे महात्मा हैं, वे धन्य हैं तथा उनका यश इस संसार में स्थिर है जिन्होंने- आकाशदीप या  प्रकाश-स्तम्भ  बनकर लोक को आलोकित किया। भावी पीढ़ी का मार्गदर्शन किया है। 
 अपने जीवन-गठन द्वारा भावी मानव-सभ्यता को निर्माण करने में जुट जाने के लिए  स्वामी विवेकानन्द ने विशेष रूप से बलिष्ठ और बुद्धिमान युवाओं का आह्वान करते हुए (टास्क सौंपते हुए कहा था) - " तुम्हें भी अपने जीवन में ' क्षात्र-वीर्य और ब्रह-तेज ' इन दो आपात परस्पर विरोधी भावों का समावेश करके, संसार में नये युग (स्वर्णयुग - सतयुग) की शुरुआत (origination) करनी होगी।  यही सन्देश यजुर्वेद में भी दिया गया है। यजुर्वेद की एक शाखा है शुक्ल यजुर्वेद, उसके एक श्लोक में कहा गया है - 

“यत्र ब्रह्म च क्षत्रियं च सम्यञ्चौ चरतः सह।  
तं लोकं पुण्यं प्रज्ञेषं यत्र देवा सहग्निना ।। ”

 (SYV 20.25) - 

याज्ञवल्क्य कहते हैं- जहाँ ब्रह्म और क्षत्र, ब्रह्मतेज और क्षात्र-वीर्य, अर्थात विद्वता और पराक्रम- दो विपरीत भावों का समुचित समन्वय रहता है, केवल वहीँ पर पुण्याग्नि तुल्य तेज और ओज के साथ समस्त देवता निवास करते हैं।"

[(इ॒दं मे॒ ब्रह्म॑ च क्ष॒त्रं चो॒भे श्रिय॑मश्नुताम्। मयि॑ दे॒वा द॑धतु॒ श्रिय॒मुत्त॑मां॒ तस्यै॑ ते॒ स्वाहा॑ ॥१६॥
जे खाने ब्रह्मं = वेद, ईश्वर को जानने का विज्ञान राजयोग का ज्ञाता पुरुष, और (क्षत्रम्) क्षत्र राज्य धनुर्वेद-विद्या में प्रवीण क्षत्रिय कुल (उभे) दोनों (श्रियम्) होय, केवल सेखानेई पुण्याग्नि ओ सकल देवता वास करेन।  
इस प्रकार हमें ज्ञात होता है कि संसार के लिए 'क्षात्र वीर्य ' कितना महत्वपूर्ण है।  यदि कोई 'क्षात्र वीर्य'  से संपन्न है , तो  इसका मतलब यह नहीं है कि सिर्फ इसलिए कि उसे दूसरों को चोट पहुंचानी है या नुकसान पहुंचाना है। क्षात्र वीर्य  की भावना का अर्थ हिंसा का महिमामंडन करना नहीं है; इसके विपरीत, यह हिंसा को नष्ट करने के लिए उत्पन्न हुआ। ऋग्वेद में इंद्र की प्रशंसा एक ऐसे व्यक्ति के रूप में की गई है जो एक क्षत्रिय नायक के समान साहस के साथ रहता है।
"नमस्सेनाभ्यः सेनापतिभ्यश्च नमो नमः" 
 रुद्र को सबसे महान क्षत्रिय कहा गया है । रुद्र वह देवता हैं जो युद्ध के विभिन्न हथियारों के स्वामी हैं।कहने के बाद, रुद्र को 'रथों को चलाने वाले, रथहीन होने पर हाथियों और घोड़ों पर चढ़ने वाले, एक साथ सौ धनुष चलाने वाले और युद्ध लड़ने वाले, तेजी से विनाश करने वाले' के रूप में वर्णित किया गया है।  सैंतालीस मरुत भी रुद्र से जुड़े हैं और उनमें क्षात्र की भावना भी समान है। 
 शत्रुओं के लिए, जो रथ को बाण के समान वेग से चलाता है - वह महादेव है ! उनका सम्मान ऐसे व्यक्ति के रूप में किया जाता है जो युद्ध के सभी पहलुओं से अच्छी तरह वाकिफ है, जो दुनिया को अपनी सेना का साहस दिखाता है, जो अपने विरोधियों को देखते ही नष्ट कर देता है, और जो अपने दुश्मनों को नष्ट कर सकता है, भले ही वे दूर हों।  इससे हमें पता चलता है कि हमारे पूर्वजों ने क्षात्र को कितना महत्व दिया था । 
‘शिवसंकल्पसूक्त' के प्रत्येक मंत्र में मन को स्थिर निश्चय वाला होने की प्रार्थना की गई है। संसार में मन एक बहुत बड़ी शक्ति है। यदि सबके मन में परोपकार और कल्याण की भावना आ जाए तो सब प्रकार के कलह, कलेश व द्वेष नष्ट हो जाएं और सर्वत्र शांति का साम्राज्य स्थापित हो जाए-” तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु “यजुर्वेद में विश्वबंधुत्व की भावना इस प्रकार चित्रित की गई है –‘ मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे' -अर्थात् मित्र की आंख से सबको देखें।]

हमारे वैदिक ऋषिओं ने " क्षात्र-वीर्य" (सक्रीय सदाचार को स्थापित करने वाली साहसिकता Dynamic goodness of manliness) तथा "ब्रह्म-तेज" (सन्तसुलभ सर्व प्रेमी बुद्धि-या होश All loving intelligence of saintliness) का बहुत गुणगान किया है। भविष्य के गौरवशाली भारत के निर्माण का प्रारम्भ तभी होगा, जब हमारे देश के युवाओं के जीवन में  ' क्षात्रवीर्य ' और ' ब्रह्मतेज ' (जोश और होश ) साथासाथ एवं एक सामान आभा बिखेरेंगे।
इसी महान स्वप्न को अपने ह्रदय में संजोये हुए हमारे वीर शहीदों ने भारत-माता की बली वेदी पर अपनेप्राणों को न्योछावर कर दिया था। आज का युवा समुदाय अपनी चारित्रिक-शक्ति की संप्रभुता का दुन्दुभीनिनाद कर उनके स्वप्नों को साकार कर सकते हैं। भारत के युवाओं के समक्ष यही सबसे बड़ी चुनौती है।
यह चुनौती सबसे ज्यादा कठिन भी है,क्योंकि चुनौती से प्राप्त होने वाला -'जय या पराजय' ही हमारे भविष्य का स्वरूप निश्चित करेगा। इसका सारा उत्तरदायित्व युवाओं के कन्धों पर ही है। अपनी तथा अपनी प्यारी मातृभूमि को संकट में डालने का जोखिम उठा कर ही वे चाहें तो,इस चुनौती को अनदेखा कर सकते हैं।
इसीलिये जो युवा सच्चे हृदय से देश-कल्याण का कार्य करना चाहते हैं, उनको समदर्शी भी अवश्य होना होगा। तभी वे लोग ब्रह्मतेज के स्पर्श का अनुभव कर सकेंगे। इसके साथ साथ कार्य करने के लिये जिस रजोगुण की भी आवश्यकता होती है, उसी को क्षात्रवीर्य कहा जाता है। इस विषय के महत्व पर श्रीमद्भगवद्गीता के अन्तिम श्लोक में कहा गया है-  

       यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: ।
              तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ।।18/78।
  
-हे राजन् ! जहाँ योगेश्वर (जीवनमुक्त योगी) श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है वहीं पर श्री, विजय, विभूति और ध्रुव (अचल) नीति है, ऐसा मेरा मत है।
स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं से भारत का पुनर्निर्माण करने के लिये इसी चुनौती- ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य में सामंजस्य स्थापित कर भारत को विश्वगुरु के सिंहासन पर आरूढ़  करने का आह्वान करते हुए कहा था ----" उपदेश तो तुझे अनेक दिये; कम से कम एक उपदेश को भी तो काम में परिणत कर ले। बड़ा कल्याण हो जायेगा। दुनिया भी देखे कि तेरा शास्त्र पढ़ना तथा मेरी बातों को सुनना, सार्थक हुआ है।"

राष्ट्रीय युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " न संख्या-शक्ति, न धन, न पाण्डित्य, न वाक चातुर्य, कुछ भी नहीं, बल्कि पवित्रता, शुध्द जीवन, एक शब्द में अनुभूति, आत्म-साक्षात्कार को विजय मिलेगी! प्रत्येक देश में सिंह जैसी शक्तिमान दस-बारह आत्माएँ होने दो, जिन्होने अपने बन्धन (कर्म-बंधन) तोड़ डाले हैं, जिन्होने अनन्त का स्पर्श कर लिया है, जिनका चित्त ब्रह्मनुसन्धान में लीन है, जो न धन की चिन्ता करते हैं, न बल की, न नाम की और ये व्यक्ति ही संसार को हिला डालने के लिए पर्याप्त होंगे।"

"ऐसे कौन कौन युवा हैं, जो  अधोगति की धारा को उल्टा घुमा देने के उद्देश्य से, अपने नाम-यश और सुख भोगने की इच्छा को त्याग कर, यहाँ तक कि इहलोक और परलोक की समस्त आशाओं को भी त्याग कर,और भारत को फिर से विश्व-गुरु बनाने के कार्य में कूद पड़ना चाहते हैं? बहुत से युवा किले की दीवारों (अपने मन की चाहार दिवारी ) को लाँघ कर, खण्डहरों को फिर से उठाने के कार्य में कूद पड़े हैं। उन्होंने इसी कार्य में अपना जीवन समर्पित कर दिया है। किन्तु अभी उनकी संख्या बहुत कम है, वैसे युवा हमें हजारों की संख्या में चाहिए, और वे अवश्य आयेंगे।"

यदि उनका यह आह्वान हमलोगों के हृदय तक नहीं पहुंचे, तो स्वामीजी को महान कहना और उनका जय-जयकार करना व्यर्थ है। स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त ' क्षात्र-वीर्य और ब्रह (विद)-तेज ' इन दो आपात परस्पर विरोधी भावों से समावेशित आदर्श को अपने हृदय में बसा लेने का समय आ गया है। भारत के हजारों हजार युवाओं को आगे आना होगा, जगत को यह दिखलाना होगा कि स्वामीजी के संदेशों को सुनना सार्थक हुआ है। भावी पीढ़ियों के लिये एक नया भारत गढ़ने का संकल्प धारण करके सभी युवाओं को जी-जान से जुट जाना होगा !

"मुझे मुक्ति और भक्ति की चाह नहीं। लाखों नरकों में जाना मुझे स्वीकार है, बसन्तवल्लोकहितं चरन्तः- यही मेरा धर्म है।"  

उसी प्रकार मानवजाति के एक अन्य पथप्रदर्शक नेता - आचार्य शंकर ने भी जीवन-मुक्त योगी (मानवजाति का मार्गदर्शक) नेता वरिष्ठ (C-in-C बनने और बनाने की प्रक्रिया का  का सूत्र देते हुए कहा है -

दुर्जन: सज्जनो भूयात,

सज्जन: शांतिमाप्नुयात्।

शान्तो मुच्येत बंधेम्यो,

मुक्त: चान्यान् विमोच्येत् ॥

अर्थ - दुर्जन सज्जन बनें, सज्जन शांत रस को प्राप्त हों । शांतजन बंधनों से मुक्त हों और मुक्त अन्य जनों को मुक्त करें।

[ "It means, let the wicked become good. Let the good attain peace. Let those who have attained peace become detached from all bondage. And those who have got detached help others get detached." 
It shows the culture that existed in our country Bharat, where the great people had compassion even for the wicked. The last line मुक्तश्चान्यान् विमोचयेत् is a wakeup call which means, man forgets that he is the Self that animates the entire universe and continues to live in the delusion that he is the body. So, Wake up and Awaken others!]

व्याख्या : यह अनुष्टुप छंद में लिखा गया एक  सुभाषित है। अनुष्टुप् छन्द में चार पाद होते हैं। हिन्दी में जो लोकप्रियता और सरलता दोहा की है वही संस्कृत में अनुष्टुप की है। इसका अर्थ है - दुर्जन लोग सज्जन अर्थात चरित्रवान मनुष्य बनेंगे, चरित्रवान मनुष्य शान्ति को प्राप्त होंगे। शान्त लोग बन्धन से मुक्त हो जायेंगे, मुक्त लोग दूसरों को बंधन से मुक्त करेंगे।

पहली बार, जैसे ही मैंने यह प्रार्थना पूज्य नवनीदा के मुख से  सुनी, मुझे इस प्रार्थना से प्रेम  हो गया। यह हमारे देश भारत की उस प्राचीन संस्कृति को दर्शाता है, जहां आचार्य शंकर जैसे मानवजाति के महान मार्गदर्शक नेता दुष्टों (मुझ जैसे भटके हुए लोगों ?) के प्रति भी- करुणा का भाव रखते थे।

अंतिम पंक्ति में कहा गया - महावाक्य  "मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्।।" ~ एक  जागरण-उद्घोष ' (wake up call)है, जिसका अर्थ है मनुष्य अपने शरीर से तादात्म्य करके, या स्वयं को सिर्फ एक M/F देह समझकर, यह भूल जाता है कि  वह स्वयं ही वह अविनाशी ब्रह्म (आत्मा,ईश्वर) है, जो पूरे ब्रह्माण्ड के साथ-साथ पिण्ड को भी (अपने M/F देह को भी) जीवन्त करता है।  ( अर्थात जो अपने स्थूल जड़ शरीर और  सूक्ष्म-मन को 'animate' ~ करता है, चेतनता या चैतन्य प्रदान करता है।)  लेकिन जन्मजन्मान्तरों के कर्म-बन्धनों के कारण या ' गहना कर्मणो गतिः ' से सम्मोहित रहने  के कारण इसी  भ्रम में  (Hypnotized अवस्था में) रहता है कि वह मात्र एक नश्वर देह है ! इसलिए ~ उत्तिष्ठत! जाग्रत ! मोहनिद्रा से उठो , जागो और दूसरों को जगाओ !  "So, Wake up and Awaken others!" _ 

>>>वास्तविक तात्पर्य (real meaning) ........  सबसे पहले इस समय लोग जिन्हें  दुर्जन समझ रहे हैं, वे महामण्डल की छः दिवसीय वार्षिक गुरुगृह-वास या निर्जन-वास नेतृत्व प्रशिक्षण परम्परा में [ अर्थात " C-in-C >>>Dy. C-in-C " Leadership Training Tradition में]  "3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण " प्राप्त करके सज्जन बनेंगे। फिर जो  सज्जन  (चरित्रवान मनुष्य) बन चुके हैं वे कर्म-बन्धनों से मुक्त होकर 'शांत रस' को प्राप्त होंगे । "शांत रस " (अर्थात समाधि) को प्राप्त 'शांतजन' (ब्रह्मविद - ज्ञानी) कर्म-बंधनों से मुक्त  (De-Hypnotized) हो जायेंगे। [ अर्थात जो ब्रह्मविद नहीं हैं , उन अन्य जनों को 'गहना कर्मणो गतिः ' को नहीं समझने से ही कर्म-बन्धन होता है।  और कर्म-बन्धन से ही स्वयं को शरीर समझने, या M/F समझने की आदत, प्रवृत्ति, भ्रम, देहाध्यास या सम्मोहन की अवस्था (Hypnotized अवस्था, या  सिंह -शावक के  खुद को भेंड़ समझने की अवस्था) पैदा होती है। शांतजन (ब्रह्मविद या विसम्मोहित ज्ञानी जन) उस भ्रम की अवस्था से , स्वयं को सिर्फ  M/F समझने की अवस्था से मुक्त या  विसम्मोहित  (De-Hypnotized)  हो जायेंगे। तब वे  इस सम्मोहन (Hypnotized अवस्था) से बन्धे अन्य जनों को ( स्वयं पुरुष-स्त्री शरीर में होते हुए भी M/F दोनों को ) मुक्त करने (De-Hypnotized) की योग्यता का चपरास प्राप्त नेता, पैगम्बर, (जीवनमुक्त योगी-शिक्षक) बनने और बनाने की पात्रता अर्जित कर लेंगे। ]  

आचार्य शंकर मूर्ख मनुष्य की परिभाषा देते हुए कहते हैं,

इतः को न्वस्ति मूढात्मा यस्तु स्वार्थे प्रमाद्यति ।
 दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषम् ॥ ५ ॥  

वास्तव में सबसे अधिक मोहित व्यक्ति या मूर्ख व्यक्ति कौन होता है ? जो आलस्यवश कभी-कभी मिलने वाले इस दुर्लभ मानव-शरीर को, तथा उसके भी उपर साहसिकता या यौवन का तेज प्राप्त करके भी, स्वयं के  सर्वोत्तम हित (चरित्रवान मनुष्य बन जाने) की साधना में उपेक्षा करता है, वही सबसे अधिक मूर्ख या मोहित व्यक्ति है !

दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम् । 
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुष संश्रयः ॥

[दुर्लभं= बहुत कठिनाई से प्राप्त होने वाले, त्रयम् = तीन, एव= केवल,  एतद् =इन, देवानुग्रहहेतुकम् ईश्वर की अहैतुकी कृपा से ही प्राप्त होते हैं, मनुष्यत्वं= मानव-शरीर, मुमुक्षुत्वं= मुक्त हो जाने की तीव्र व्याकुलता, महापुरुषसंश्रयः = महान (जो भव-सागर से पार करके दूसरों को भी पार कराने का सामर्थ्य रखते हों) लोगों के साथ सीधा संपर्क।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः (इति) एतत् त्रयं दुर्लभं देवानुग्रहहेतुकम् एव ।  भगवत्कृपा ही जिनकी प्राप्तिका कारण है वे मनुष्यत्व, मुमुक्षुत्व (मुक्त होनेकी इच्छा) और महान् पुरुषों का संग (सद्गुरु) - ये तीनों ही दुर्लभ हैं। भगवन्त दुर्लभ नहीं है, सच्चे सन्त (वसन्त ऋतू की तरह निःस्वार्थ परोपकारी ) का मिलना दुर्लभ है।
लब्ध्वा कथश्चिन्नरजन्म दुर्लभं
तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपारदर्शनम्।
यः स्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढ़धीः
स ह्यात्महा स्वं विनिहन्त्यसद्ग्रहात्।। 4 ।।

किसी प्रकार इस दुर्लभ मनुष्यजन्म को पाकर और उसमें भी, जिसमें श्रुतिके सिद्धान्त का ज्ञान होता है ऐसा पुरुषत्व पाकर जो मूढ़बुद्धि अपने आत्माकी मुक्ति के लिये प्रयत्न नहीं करता, वह निश्चय ही आत्मघाती है; वह असत् में आस्था रखने के कारण अपने को नष्ट करता है।
'चरित्रवान (ब्रह्मविद) मनुष्य ' बन जाने के एक निरन्तर संग्राम का नाम है-जीवन  

============
>>>क्षत्रियों का वेद यजुर्वेद : आचार्य सायण ने यजुर्वेद का महत्त्व बताते हुए कहा है कि यजुर्वेद भित्ति (दीवार) है और अन्य ऋग्वेद एवं सामवेद चित्र है । इसलिए यजुर्वेद सबसे मुख्य है । यजुर्वेद क्षात्रधर्म और कर्मठता की शिक्षा देता है,अतः वह क्षत्रियों का वेद है। "यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुर्योनिम् ।" (तैत्तिरीय-ब्राह्मण--3.12.9.2) इस वेद में अधिकांशतः यज्ञों और हवनों के नियम और विधान हैं, अतःयह ग्रन्थ कर्मकाण्ड प्रधान है।

यजुर्वेद क्षात्र , रक्षा और शत्रुओं के नाश का प्रतीक है । यजुर्वेद से जुड़ा उपवेद अर्थवेद (या धनुर्वेद) है। महिदास पंडिता स्पष्टीकरण देते हुए कहते हैं "धनुर्वेदो युद्धशास्त्रम्"। 
राष्ट्रोत्थान हेतु प्रार्थना:  (यजुर्वेद २२, मन्त्र २२) 

ओ३म् आ ब्रह्मन् ब्राह्मणों ब्रह्मवर्चसी जायतामाराष्ट्रे,
 राजन्यः शूरऽइषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां, 

दोग्ध्री धेनुर्वोढ़ाऽनड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा
 जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो 

जायतां निकामे-निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु 
फलवत्यो नऽओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम् ॥

 ब्रह्मन् ! स्वराष्ट्र में हों, द्विज ब्रह्म तेजधारी । क्षत्रिय महारथी हों, अरिदल विनाशकारी ॥ होवें दुधारू गौएँ, पशु अश्व आशुवाही । आधार राष्ट्र की हों, नारी सुभग सदा ही ॥ बलवान सभ्य योद्धा, यजमान पुत्र होवें । इच्छानुसार वर्षें, पर्जन्य ताप धोवें ॥ फल-फूल से लदी हों, औषध अमोघ सारी। हों योग-क्षेमकारी, स्वाधीनता हमारी ॥
शुक्लयजुर्वेद आदित्य सम्प्रदाय से सम्बन्धित है और कृष्णयजुर्वेद ब्रह्म-सम्प्रदाय से सम्बन्धित है ।याज्ञवल्क्य ने मध्याह्न के आदित्य (सूर्य) से इस वेद को प्राप्त किया था, अतः इसे माध्यन्दिन-संहिता भी कहते हैं। 
यजुर्वेद के कई अध्यायों में "मेध" वाले यज्ञ हैं ।यथा--अश्वमेध--(22.29), पुरुषमेध या नरमेध (30.31), सर्वमेध (32.33), पितृमेध (35.29) । कतिपय  पाश्चात्त्य विद्वानों को भ्रान्ति है कि "मेध" शब्द केवल बलि या वध का वाचक है । यह शब्द मेधृ संगमे च धातु से बना है, जिसका अर्थ है---संगम (गुणों से युक्त होना), मेधा (ज्ञानवृद्धि) और हिंसा । अतः केवल हिंसा अर्थ को लेकर सर्वत्र बलि देना अर्थ करना अज्ञानता है ।कालिदास ने भी मेध शब्द का प्रयोग किया है----"प्रजायै गृहमेधिनाम्" (रघुवंश) अर्थात् सन्तान के लिए गृहमेधी (गृहस्थी) होना । गृहमेध का अर्थ घर को बलि देना अर्थ नहीं हैं । 
ब्राह्मण ग्रन्थों को देखने से ज्ञात होता है कि मेध शब्द का प्रयोग उन्नति, प्रगति, तेजस्विता आदि के लिए होता था । यजुर्वेद में मेध शब्द का अर्थ घी, अन्न और भोज्य पदार्थ तथा पौष्टिक पदार्थ बताए गए हैं। अतः जौ, चावल और पुरोडाश को मेध बताया है ।
यजुर्वेद में अश्वमेध आदि शब्द राष्ट्रिय उन्नति और प्रगति के लिए है ।यथा पितृमेध या पितृयज्ञ का अभिप्राय है---माता-पिता की सेवा-शुश्रूषा और उन्हें अन्नादि से तृप्त रखना । मेध शब्द का प्रयोग श्रीवृद्धि, समृद्धि, उन्नति आदि के लिए होता था ।
गोमेध भी गो वंश के उन्नति के लिए गोसेवा और उस से संबंधित है। शतपथ और तैत्तिरीय आदि ब्राह्मण ग्रन्थों में अश्वमेध की अनेक पारिभाषिक व्याखायाएँ की गई हैं ।इसके अनुसार अश्वमेध का अर्थ है--राष्ट्र की श्रीवृद्धि , राष्ट्र को धन-धान्य से समृद्ध करना, राष्ट्र को तेजस्वी ऊर्जस्वी और ब्रह्मवर्चस्वी बनाना ।
इसी प्रकार पुरुषमेध (नरमेध) का अर्थ है--- देश के पुरुष शक्ति सेना शक्ति की सर्वागीण उन्नति ।सर्वमेध का अर्थ है---प्रजामात्र की सर्वतोमुखी उन्नति । अत एव गोपथ ब्राह्मण में कहा है कि सर्वमेध अर्थात् सर्वजन समुन्नति के द्वारा राजा सर्वराट् (सबका अधिपति) हो जाता है ।










ब्रह्मस्वरूप वेदब्रह्म सत्, चित् व आनन्दरूप होता है। ‘सत्’ का अर्थ है–ब्रह्म सदा वर्तमान रहता है, इसका कभी विनाश नहीं होता। ‘आनन्द’ का अर्थ है–जो प्राकृतिक सुख-दुख से ऊपर उठा हो, व ‘चित्’ का अर्थ है ज्ञान। इस तरह ब्रह्म जैसे नित्य सत्तास्वरूप व आनन्दस्वरूप है वैसे ही उसका ज्ञान (वेद) भी नित्य हैं।


"गहना कर्मणो गतिः ~ धर्म की सूक्ष्म गति है ।"

 ['जरा सी कामना रहने पर भी कोई ईश्वर (समाधि) को पा नहीं सकता।'

 - श्रीरामकृष्ण ] 

 इसको समझने के लिए निर्जनवास की अनिवार्यता

कर्म क्या है ?  शाब्दिक रूप से कर्म शब्द की उत्पत्ति कृ धातु से हुई है जिसका अर्थ है; क्रिया करना। व्यक्ति द्वारा अर्थात् उसके शरीर, मन, वाणी द्वारा की गई कोई भी क्रिया-चलना, खाना-पीना, सोना, उठना, बैठना, लिखना, खेत जोतना, बोझा ढोना, सोचना, विचारना व इच्छा करना, बोलना, पढ़ना इत्यादि कर्म है।  किन्तु धर्म-गंर्थों मे कर्म शब्द का प्रयोग व्यक्ति के मन, वाणी और शरीर द्वारा लौकिक व पारलौकिक दायित्वों के निर्वाह हेतु किये गये कार्यों से है।

 कर्म अकर्म से (अर्थात् निषिद्ध कर्म) से भिन्न हैकर्म का शास्त्रीय अर्थ अहंकार रहित कर्म से है ( गीता 4-17)।
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।4.17।।

 -- कर्म का (स्वरूप) जानना चाहिये और विकर्म का (स्वरूप) भी जानना चाहिये; (बोद्धव्यम्) तथा अकर्म का भी (स्वरूप) जानना चाहिये (क्योंकि) कर्म की गति गहन है।।

हे अर्जुन ! तुझे यह नहीं समझना चाहिये कि केवल देहादि की चेष्टा का नाम कर्म है और उसे न करके चुपचाप बैठ रहनेका नाम अकर्म है। उसमें जानने की बात ही क्या है ? यह तो लोक में प्रसिद्ध  है ही। क्यों ( ऐसा नहीं समझना चाहिये ) इस पर कहते हैं कर्म अर्थात शास्त्रविहित क्रिया का भी ( रहस्य ) जानना चाहिये विकर्म अर्थात शास्त्रवर्जित कर्म का भी ( रहस्य ) जानना चाहिये।  और अकर्म का अर्थात् चुपचाप बैठ रहने का भी ( रहस्य ) समझना चाहिये। क्योंकि कर्मों की अर्थात् कर्म, अकर्म और विकर्म की गति उनका यथार्थ स्वरूप तत्त्व बड़ा गहन है समझने में बड़ा ही कठिन है। कर्म ऐसे करें कि कर्म विकर्म न बनें, दूषित या बंधनकारक न बनें, वरन् अकर्म में बदल जायें, कर्ता अकर्ता हो जाय और अपने परमात्म-पद को पा लें। 

["धर्म (कर्तव्य कर्म) की सूक्ष्म गति है । जरा सी कामना रहने पर भी कोई ईश्वर को पा नहीं सकता। सुई के भीतर यदि सूत को डालना है, और जरा सा रोवाँ भी बाहर रह गया तो फिर सूत सुई के छेद के भीतर नहीं जा सकता । "कृष्ण ने अर्जुन से कहा था, भाई, मुझे अगर पाना चाहते हो, तो समझ लो कि आठ सिद्धियों में एक भी सिद्धि  के रहते मैं नहीं मिलता । " ~ श्रीरामकृष्ण।
 
जीवन क्रियाशील है। क्रिया ही जीवन है। निष्क्रियता से उन्नति और अधोगति दोनों ही सम्भव नहीं। कर्म के क्षण मनुष्य का निर्माण करते हैं। यह निर्माण इस बात पर निर्भर करता है कि हम कौन से कर्मों को अपने हाथों में लेकर करते हैं।  प्राचीन ऋषियों के अनुसार कर्म दो प्रकार के होते हैं निर्माणकारी (शास्त्र सम्मत कर्तव्य) और विनाशकारी (शास्त्र -निषिद्ध कर्म)। इस श्लोक के 'कर्म' शब्द में - महामण्डल द्वारा निर्देशित मनुष्य-निर्माण (अर्थात 3H के विकास में) साधक के 5 अभ्यास रूपी निर्माणकारी कर्तव्य कर्मों का ही समावेश है। जिन कर्मों से मनुष्य अपने मनुष्यत्व से नीचे  गिर जाता है उन कर्मों को (आहार-निद्रा -भय -मैथुन में घोर आसक्ति या स्वार्थपरता से मनुष्य पशु के स्तर में गिर जाता हो,को।) यहाँ 'विकर्म'  कहा है जिन्हें शास्त्रों ने निषिद्ध कर्म का नाम दिया है।
कर्तव्य कर्मों का फिर तीन प्रकार से वर्गीकरण किया गया है और वे हैं नित्य, नैमित्तिक और काम्य। जिन कर्मों को प्रतिदिन करना आवश्यक है वे नित्य कर्म तथा किसी कारण विशेष से करणीय कर्मों को नैमित्तिक कर्म कहा जाता है। इन दो प्रकार के कर्मों को करना अनिवार्य है। किसी फल विशेष को पाने के लिए उचित साधन का उपयोग कर जो कर्म किया जाता है उसे काम्य कर्म कहते हैं जैसे पुत्र, स्वर्ग या नाम-यश पाने के लिये किया गया कर्म। यह सबके लिये अनिवार्य नहीं होता। Be and Make ' मनुष्य बनने बनाने के लिए आत्मविकास (3H -विकास) के लिये विकर्म का (शास्त्र-निषिद्ध कर्मों का) सर्वथा त्याग और कर्तव्य (धर्म) का सभी परिस्थितियों में पालन करना चाहिये। वैज्ञानिक पद्धति से किये हुए इस विश्लेषण में श्रीकृष्ण अकर्म की पूरी तरह उपेक्षा करते हैं। 
यह आवश्यक है कि अपने भौतिक अभ्युदय तथा निःश्रेयस (आध्यात्मिक उन्नति) के इच्छुक (गृहस्थ) साधक कर्मों के इस वर्गीकरण को भली प्रकार समझें। उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट होता है कि कर्म का मूल्यांकन केवल उसके वाह्य स्वरूप को देखकर नहीं बल्कि उसके उद्देश्य को भी ध्यान में रखते हुये करना चाहिये। भगवान् श्रीकृष्ण इस बात को स्वीकार करते हैं कि कर्मों के इस विश्लेषण के बाद भी सामान्य मनुष्य को कर्म-अकर्म का विवेक करना सहज नहीं होता, क्योंकि कर्म की गति गहन है
क्रिया की समाप्ति ही मृत्यु का आगमन है। क्रियाशील जीवन में ही हम उत्थान और पतन को प्राप्त हो सकते हैं। एक स्थान पर स्थिर जल सड़ता और दुर्गन्ध फैलाता है जबकि सरिता का प्रवाहित जल सदा स्वच्छ और शुद्ध बना रहता है। चूँकि मनुष्य को जीवनपर्यन्त क्रियाशील रहना आवश्यक है इसलिये प्राचीन मनीषियों ने जीवन के सभी सम्भाव्य कर्मों का अध्ययन किया क्योंकि वे जीवन का मूल्यांकन उसके पूर्णरूप में करना चाहते थे। गहन निद्रा (deep sleep) अथवा मृत्यु की कर्म शून्य अवस्था मनुष्य के विकास में न साधक है न बाधक।
>>>कर्म और पुनर्जन्म की धारणा अनादि काल से जीव अपने को देह समझकर, कर्तृत्व (या वीरत्व ?) का अभिमान करके अनेक प्रकार के कर्मों को करता आ रहा है। इन कर्मों का फलोपभोग आवश्यक होता है। हम सब अनंत जन्मों से अपने द्वारा किए गए पाप और पुण्य कर्मों के प्रतिफलों द्वारा संचित कर्मों की गठरी को अपने साथ उठाए चल रहे हैं। तुलसीदास जी कहते हैं- 
करम प्रधान बिस्व करि राखा। 
जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥ 
 
कर्म और पुनर्जन्म की धारणा को हिन्दू धर्म मे एक व्यवस्थित सिद्धांत के रूप मे स्थापित किया गया है। कर्म और पुनर्जन्म हिन्दू संस्कृति के आधारभूत तत्व है जिन पर सम्पूर्ण हिन्दू सामाजिक वैचारिकी-वर्ण, आश्रम, धर्म, ऋण एवं संस्कार आधारित है। व्यक्ति का किस योनि या किस वर्ण मे जन्म होगा अथवा उसे मोक्ष की प्राप्ति होगी, यह उसके द्वारा पूर्वजन्म ( अथवा जन्मों ) के संचित धर्म तथा वर्ण, आश्रम, ऋण एवं संस्कार युक्त कर्म के निर्वाह पर निर्भर करता है। 

मनःप्रेरित कर्म : मनःप्रेरणा कर्म का आवश्यक उपकरण है। मनःप्रेरणा के शुभ या अशुभ होने से ही कर्म शुभ या अशुभ हाता है। जिन्हें हम शुभ कर्म कहते हैं वे पुण्य तथा अशुभ कर्म पाप कहलाते हैं। पुण्य और पाप मुख्यत: क्रिया के फल का बोध कराते हैं। ये कर्म तीन प्रकार के होते  हैं। नित्यकर्म वे हैं जो न करने पर पाप उत्पन्न करते हैं, किन्तु करने पर कुछ भी नहीं उत्पन्न करते। नैमित्तिक-कर्म : जिन्हें करने से पुण्य तथा न करने से पाप होता है। काम्य कर्म >  कामना से किए जाते हैं अतः उनके करने से फल की सिद्धि होती है। न करने से कुछ भी नहीं होता। चूँकि तीनों कर्मों में यह उद्देश्य छिपा है कि पुण्य अर्जित किया जाए, पाप से दूर रहा जाए, अत: ये सभी कर्म मन:प्रेरित हैं। जन्म-मृत्यु चक्र से छुटकारा पाने के लिए नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्मों का परित्याग अत्यंत आवश्यक माना गया है।
डाक्टर रोगी की भलाई के लिए उसकी चीरफाड़ करता है। यदि इस चीरफाड़ से रोगी को कष्ट होता है तो डाक्टर उसका उत्तरदायी नहीं है। डाक्टर शुभ कर्म कर रहा है।  अतः दुःख, जो अशुभ मनःप्ररेणा से की गई क्रिया का फल है, तभी दूर हो सकता है जब मन को अशुभ प्रभावों से बचाया जाए। सर्वदा शुभ कर्म करना सर्वदा शुभ सोचने से ही हो सकता है। कष्ट के बचने का यही एक उपाय है। परंतु शुभ कर्म करनेवाले व्यक्ति को फलभोग के लिए जन्म लेना ही होगा, चाहे स्वर्ग में, चाहे पृथ्वी पर। जन्म लेना ही अपने आपमें महान्‌ कष्ट है क्योंकि जन्म का सम्बन्ध मृत्यु से है। मृत्यु का कष्ट दु:सह कष्ट माना गया है। अतः यदि इस कष्ट से भी छुटकारा पाना है तो जन्म की परम्परा को भी समाप्त करना होगा। इसके लिए शुभ कर्मों का भी परित्याग आवश्यक है क्योंकि बिना उसके जन्म से मुक्ति नहीं है। अतः शुभाशुभ परित्यागी ही वास्तविक दुःखमुक्त हो सकता है।
क्या शुभाशुभ परित्याग संभव है? शरीर रहते यह संभव नहीं मालूम होता। पर एक उपाय है। राजयोग विज्ञान (मनःसंयोग) या  मन के शोधन से यह सिद्ध हो सकता है। यदि मन में किसी फल की आकांक्षा के बिना, पलक उठने गिरने की तरह, सारी क्रियाएँ यदि स्वाभाविक रूप से की जाएँ (विद्या का मैं या भक्त का मैं की जायें) तो उनसे शुभ अशुभ फल उत्पन्न नहीं होंगे और जन्म मृत्यु से भी छुटकारा मिल जाएगा। निष्काम कर्म का यही आदर्श है। इसके विपरीत सारे कर्म-जो शुभ-अशुभ होते हैं-सकाम कर्म हैं और वे बंधन के कारण हैं।

यदि सभी क्रियाओं का फल भोगना पड़ता है तो उन क्रियाओं का क्या होगा जिनका फल भोगने के पहले ही कर्ता मर जाता है? या तो हमें कर्म के सिद्धांत को छोड़ना होगा या फिर, मानना होगा कि कर्ता नहीं मरता, वह केवल शरीर को बदल देता है। भारतीय विचारकों ने एक स्वर से दूसरा पक्ष ही स्वीकार किया है। वे कहते हैं कि मरना शरीर का स्वाभाविक कर्म है, परंतु भोग के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वही शरीर भोगे जिसने क्रिया की है।
भोक्ता (अहंयुक्त जीवात्मा) अलग है और वह कर्मफल का भोग करने के लिए दूसरा शरीर धारण करता है।  इसीलिये उसे अनेक प्रकार के शरीर भी धारण करने पड़ते हैं। इसी को पुनर्जन्मवाद कहते हैं। मृत्यु शरीर की आनुषंगिक स्वाभाविक क्रिया है जिसका कर्म पर कोई प्रभाव नहीं होता। अत: कर्म के सिद्धांत को पुनर्जन्म से अलग करके नहीं रखा जा सकता।
जो भी नये कर्म और उनके संस्कार बनते हैं, वे सब केवल मनुष्य जन्म में ही बनते हैं।  पशु-पक्षी (या देव) योनियों में नहीं, क्योंकि वे योनियाँ  केवल कर्मफल-भोग  के लिये ही मिलती है। शास्त्रों में इन कर्मों का वर्गीकरण तीन भागों में किया गया है (क) संचित किये कर्म जो अभी फलदायी नहीं हुए हैं (ख) प्रारब्ध - अर्थात क्रियमाण वैसे कर्म जिन्होंने फल देना प्रारम्भ कर दिया है तथा (ग) आगामी अर्थात् जिन कर्मों का फल भविष्य में मिलेगा। 
पहले के अनेक मनुष्य जन्मों में किये हुए जो कर्म संग्रहीत हैं, वे ‘सञ्चित’ कर्म कहलाते हैं। सञ्चित में से जो कर्म फल देने के लिये प्रस्तुत (उन्मुख) हो गये हैं अर्थात् जन्म, आयु और सुखदायी- दुःखदायी परिस्थिति के रूप में परिणत होने के लिये सामने आ गये हैं, वे ‘प्रारब्ध’ कर्म कहलाते है। अभी वर्तमान में जो कर्म किये जाते हैं, वे ‘क्रियमाण’ कर्म कहलाते हैं।

क्रियमाण कर्म दो तरह के होते हैं – शुभ और अशुभ।   जो कर्म शास्त्रानुसार विधि-विधान से किये जाते हैं, वे शुभ-कर्म कहलाते हैं। तीनों ऐषणाओं में घोर आसक्ति रहने के कारण, श्रद्धा - विवेक रहित होकर  जो शास्त्रनिषिद्ध कर्म केवल (काम, क्रोध, लोभ, मद,) मोहवश किये जाते हैं, वे अशुभ कर्म कहलाते हैं। 
शुभ अथवा अशुभ प्रत्येक क्रियमाण कर्म का एक तो फल अंश बनता है और एक संस्कार अंश। ये दोनों भिन्न-भिन्न हैं। भारतीय संस्कृति मे संस्कारों का अत्यधिक महत्व है। भारतीय मान्यता के अनुसार जन्म से सभी वर्णों के व्यक्ति समान होते है। 

जन्मना जायते शूद्रः, संस्कारात्  द्विजः भवेत्। 
वेद-पाठात् भवेत् विप्रः, ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः। 

स्कन्द पुराण में कहा गया है -  जन्म से (प्रत्येक) मनुष्य शुद्र, संस्कार से द्विज, वेद के पठान-पाठन से विप्र (विद्वान्) और जो ब्रह्म को जनता है वो ब्राह्मण कहलाता है| -द्विज शब्द 'द्वि' और 'ज' से बना है। द्वि का अर्थ होता है दो और ज (जायते) का अर्थ होता है जन्म होना अर्थात् जिसका दो बार जन्म हो उसे द्विज कहते हैं। -अर्थात जन्म से सभी शुद्र होते है, संस्कारों को पूरा करने के कारण द्विज (अर्थात् ब्रांह्राण, क्षत्रिय और वैश्य) वर्णों के लोग शूद्रों से श्रेष्ठ हो जाते है ; वास्तव मे संस्कार ही व्यक्ति को मनुष्य बनाते है। संस्कार विहीन पुरूष पशु के समान समझा जाता है।
 जब तक पुराने पुण्य प्रबल बने  रहते हैं, तब तक किसी सत्ताधारी को उसके उग्र पाप का फल  तत्काल नहीं मिलता। लेकिन उम्र बढ़ने के साथ-साथ जब पुराने पुण्य खत्म होते जाते  हैं, तब उस पाप की बारी आती है। पाप का फल दण्ड (ED. CBI)  तो भोगना पड़ेगा ही, चाहे इसी जन्म में-  सत्ता की कुर्सी से उतरने के बाद  भोगना पड़े, या बुढ़ापे में या जन्मान्तर में ।  फल के क्षय का एकमात्र उपाय है उसको भोग लेना। इस जन्म में प्राणी जैसा है उसके पूर्व जन्मों की क्रियाओं का फल मात्र है। फल एक शक्ति है जो जीवन की स्थिति को नियंत्रित करती है।  कुछ लोग इसे भाग्य या नियति भी कहते हैं। यदि हम कर्मों के फलों को भोगकर इन्हें समाप्त करने का प्रयास करते हैं,  तब इसमें कई जन्मों का समय लगेगा; और इस दौरान हमारे और कर्मों के पुनः संचित होने की प्रक्रिया भी चलती रहेगी।

 श्रीकृष्ण अर्जुन को आश्वस्त करते हैं कि ज्ञान में वह शक्ति होती है कि वह इस जन्म में ही हमारे संचित कर्मों की गठरी को भस्म कर सकता है।  ज्ञान पाप को किस प्रकार नष्ट कर देता है,इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण सो दृष्टान्त-सहित कहते हैं। 

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।

ज्ञानाग्निः सर्व कर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ॥ गीता 4.37।।

यथा एधांसि समिद्धः अग्निः भस्मसात् कुरुते अर्जुन,  ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ॥ ३७ ॥

[यथा-जिस प्रकार से; एधांसि- ईंधन को; समिः-जलती हुई; अग्नि:-अग्नि; भस्मसात् -राख; कुरुते-कर देती है; अर्जुन-अर्जुन; ज्ञान-अग्निः -ज्ञान रूपी अग्नि; सर्वकर्माणि भौतिक कर्मों के समस्त फल को; भस्मसात्-भस्म; कुरुते-करती है; तथा उसी प्रकार से।] 

हे अर्जुन! जैसे प्रज्जवलित अग्नि ईन्धन को अर्थात् काष्ठ के समूह को भस्मसात् कर देती है। वैसे ही, ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्मसात् कर देती है, अर्थात् निर्बीज कर देती है। ।।4.37।।

क्योंकि ईंधन की भाँति ज्ञानरूप अग्नि कर्मों को साक्षात् भस्मरूप नहीं कर सकता।  इसलिये इसका यही अभिप्राय है कि यथार्थ ज्ञान (आत्मज्ञान) सब कर्मों को निर्बीज करने का हेतु है।  क्योंकि आत्मा का ज्ञान और परमात्मा (ब्रह्म या भगवान श्रीरामकृष्ण) के साथ इसका संबंध हमें भगवान की शरणागति की ओर ले जाता है। जब हम भगवान की शरणागति प्राप्त करते हैं तब वे हमारे अनंतकाल के संचित कर्मों को भस्म कर देते हैं,  और हमें लौकिक बंधनों से मुक्त कर देते हैं।

इस श्लोक में सब कर्मों से तात्पर्य संचित और आगामी कर्मों से है। जिस कर्म से यह वर्तमान शरीर उत्पन्न हुआ है,  वह फल देने के लिये प्रवृत्त हो चुका है;  इसलिये उसका नाश तो उपभोग के द्वारा ही होगा। यह युक्ति-सिद्ध बात है। अतः इस जन्म में ज्ञान की उत्पत्ति से पहले और ज्ञान के साथ-साथ किये हुए एवं पुराने अनेक जन्मों में किये हुए जो कर्म अभी तक फल देने के लिये प्रवृत्त नहीं हुए हैं उन सब कर्मों को ही ज्ञानाग्नि भस्म करता है (प्रारब्धकर्मों को नहीं) 

>>>गृहस्थ की मुक्ति का क्या उपाय है ? [ What is the way for the salvation of the householder?]   [23 जुलाई 2023 के पाठचक्र में सुदीप विश्वास ने इसी प्रश्न को दूसरे ढंग से पूछा था - "मैं तो बिजनेस में धन कमाने के लिए या अपने दैनन्दिन जीवन में झूठ-सच बोलता रहता हूँ, चरित्रवान मनुष्य तो नहीं बन पाता लेकिन धन बहुत अच्छा कमा लेता हूँ। तो क्या तीनों ऐषणाओं का त्याग किये बिना, कामिनी-कांचन से पूर्ण अनासक्त हुए बिना, (प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में पूर्णतः स्थित हुए बिना), कोई महामण्डल का सदस्य ब्रह्मविद (जीवनमुक्त योगी या आदर्श नेता) नहीं बन सकता ?] 

शिष्य : महाराज, श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, कामिनी-कांचन का त्याग न करने पर कोई भी धर्मपथ में अग्रसर नहीं हो सकता ; तो फिर जो लोग गृहस्थ हैं, उनके उद्धार का क्या उपाय है ? उन्हें तो रात-दिन उन दोनों को ही लेकर व्यस्त रहना पड़ता है।  
स्वामी जी - काम -कांचन में आसक्ति न जाने पर, ईश्वर में मन नहीं लगता। [अर्थात समाधि या एकाग्रता सहित 3H विकास के 5 अभ्यास करने में मन नहीं लगता।] वह चाहे गृहस्थ हो या संन्यासी। इन दो चीजों "lust and lucre" वासना और धन के प्रति मन में घोर आसक्ति या अत्यधिक लालच का भाव बना हुआ है, तब तक आत्मा (ईश्वर) के प्रति ठीक ठीक अनुराग, निष्ठा या श्रद्धा कभी उत्पन्न नहीं होगी। 
शिष्य - तो क्या फिर गृहस्थों के उद्धार का उपाय है ?
स्वामी जी - हाँ, उपाय है क्यों नहीं ? छोटी-छोटी वासनाओं को पूर्ण कर लेना (हवाई चप्पल में भी हवाई यात्रा?), और बड़ी -बड़ी का विवेक -प्रयोग करते हुए त्याग कर देना। त्याग के बिना ईश्वर की प्राप्ति न होगी - (समाधि में अवस्थिति?)- यदि ब्रह्मा स्वयं वदेत् - वेदकर्ता ब्रह्मा यदि स्वयं कहें , फिर भी न होगा।
[यस्मिन् शास्त्रे पुराणे वा, हरिभक्तिर्न दृश्यते । श्रोतव्यं नैव तच्छास्त्रं,यदि ब्रह्मा स्वयं वदेत् ।।  'जिस शास्त्र या पुराण में भगवान्‌ की भक्ति न दिखलायी दे, ब्रह्मा के द्वारा कहा हुआ होने पर भी उसको नहीं  सुनना चाहिये।' ] 

शिष्य - अच्छा महाराज, संन्यास ले लेने से ही क्या विषय त्याग हो जाता है ? 

स्वामी जी - नहीं, परन्तु संन्यासी लोग काम-कांचन को सम्पूर्ण रूप त्याग देने के लिये तैयार हो रहे हैं , प्रयत्न कर रहे हैं। जबकि गृहस्थ लोग तो नाव को लंगर से बाँधकर पतवार चला रहे हैं -संन्यासी और गृहस्थ में यही अन्तर है। भोग करके क्या भोग की आकांक्षा कभी मिटती है रे ! 'न जातु कामः .... भूय एवाभि वर्धते' -दिनोंदिन बढ़ती ही जाती है। 
 
[>>>King Yayati Syndrome :

 'न जातु कामः कामानां उपभोगेन शाम्यति ।

 हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ।'] 

भावार्थ - भोग करने  से  (indulging in sexual activities से) काम-वासना (Sexual desire) कभी भी शान्त नहीं  होती है, परन्तु जिस प्रकार हवनकुण्ड में जलती हुई अग्नि में घी आदि की आहुति देने से अग्नि और भी प्रज्ज्वलित हो जाती है;  वैसे ही कामवासना भी और अधिक भडक  उठती है।]

शिष्य - क्यों ? भोग करते करते तंग आने पर अन्त में तो वितृष्णा आ सकती है। 

स्वामी जी - धत छोकरे , तुमने कितने लोगों को उम्र के चौथेपन में ^* भी 'वासना और धन' से वितृष्णा आते हुए देखी है ? लगातार विषयभोग करते रहने से मन में उन सब विषयों की छाप पड़ जाती है,  बार -बार किये जाने वाले कर्म का -उस चित्त पर गहरा निशान (rut) बन जाता है या दाग पड़ जाता है, मन विषय के रंग में रंग जाता है।  त्याग-त्याग - यही है मूल मंत्र। (स्वामी शिष्य संवाद : खण्ड- ६, पृष्ठ १४०)........ 
 
शिष्य - तो फिर ईश्वर सर्वशक्तिमान व्यक्तिविशेष है - यह बात फिर कैसे सत्य हो सकती है ? 

स्वामी जी : मनरूपी उपाधि को लेकर ही मनुष्य है। मनुष्य को अपने मन के द्वारा ही सभी विषय समझना पड़ रहा है। परन्तु मन जो कुछ सोच सकता है , वह सीमित ही होगा। (अनन्त नहीं?) इसलिए अपने व्यक्तित्व से ईश्वर के व्यक्तित्व की कल्पना करना जीव का स्वतःसिद्ध स्वभाव है। मनुष्य अपने आदर्श को मनुष्य की आकृति में - मनुष्य के रूप में ही सोचने में समर्थ है। .... निराधार सर्वज्ञ आत्मा (ब्रह्म) ही एकमात्र आश्रयस्थल है; मनुष्य इस बात को पहलेपहल स्वयं (बिना गुरु परम्परा में प्रशिक्षित हुए ?) जान नहीं सकता। श्रद्धा, विवेक-वैराग्य आने पर ध्यान-धारणा [राजयोग विज्ञान -या मनःसंयोग] का अभ्यास करते करते धीरे धीरे यह जाना जाता है। परन्तु कोई किसी भी भाव [मार्ग ] से साधना क्यों न करे, सभी अनजान में अपने भीतर स्थित ब्रह्मभाव को जगा रहे हैं। हाँ, आलम्बन [धारणा करने के लिए आदर्श का चयन] अलग अलग हो सकते हैं। जिसका ईश्वर के सगुण साकार [काली-दुर्गा-कृष्ण-अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण] होने में विश्वास है, उसे उसी भाव को पकड़ कर साधन-भजन आदि करना चाहिए। एकान्तिक भाव आने पर उसीसे समय पाकर ब्रह्मरूपी सिंह (आत्मविश्वास) उसके भीतर से जाग उठता है। ब्रह्मज्ञान -[अर्थात समाधि जन्य आत्मविश्वास ] जीव का एक मात्र प्राप्य है। " परन्तु  ~  " As many faiths, so many paths " अर्थात जितने मत हैं, उतने पथ हैं। "        

" जीव का वास्तविक स्वरुप आत्मा (ब्रह्म) होने पर भी मनरूपी उपाधि [अहंकार] में अभिमान रहने के कारण , वह तरह तरह के सन्देह, संशय, सुख, दुःख आदि भोगता है , परन्तु अपने स्वरुप की प्राप्ति [समाधि] के लिए आब्रह्मस्तंब सभी गतिशील हैं। जब तक ' अहं ब्रह्म ' यह तत्व प्रत्यक्ष नहीं होगा, तब तक इस जन्म-मृत्यु की गति के पंजे से किसीका छुटकारा नहीं है। 'त्रय दुर्लभं '~ मनुष्य जन्म, मुक्ति की प्रबल इच्छा, तथा महापुरुष की कृपा [लेकिन-माँ काली (जगतगुरु श्रीरामकृष्ण) का चपरास प्राप्त युवा गुरु नरेन्द्रनाथ, अथवा स्वामी विवेकानन्द का चपरास प्राप्त - प्रदीप्त उज्ज्वल प्रकाश-स्तम्भ जैसे नेतावरिष्ठ  (C-IN-C ) नवनीदा, पूर्वजन्म के कैप्टन सेवियर। गुरु नेता वरिष्ठ की कृपा होने पर , उन्हें पुकारने पर , वे इन सब आसक्तियों को एक पल में मिटा देते हैं। ]     
नेता वरिष्ठ या जीवनमुक्त योगी की कृपा]  प्राप्त होने पर ही मनुष्य की आत्मज्ञान की आकांक्षा [समाधि की आकांक्षा ] बलवती होती है। नहीं तो कामिनी-कांचन में लिप्त व्यक्तियों के मन [अहं ] की प्रवृत्ति ही उधर [आत्मा, ईश्वर या ब्रह्म को जानने की ओर] नहीं होती। - जिसके मन में स्त्री,  पुत्र,  धन,  मान प्राप्त करने का संकल्प है , (यानि तीनो ऐषणायें प्रबल बनी हुई है)उसके मन में ब्रह्म को जानने की इच्छा कैसे होगी? 

जो सर्वस्व त्यागने को तैयार है [यह देह-मन 'मैं' नहीं हूँ, अपने परिवर्तनशील नामरूप से अपनी आसक्ति को त्याग देने के लिये कमर -कसकर प्रस्तुत है], जो सुख-दुःख, भले-बुरे, [श्रेय-प्रेय ] के चंचल प्रवाह में धीर-स्थिर, शान्त तथा दृढ़चित्त रहता है, वही आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सचेष्ट होता है! और वही  'निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केसरी'  -  महाबल से जगत-रूपी जाल को तोड़कर माया की सीमा को लांघ सिंह की तरह बाहर निकल जाता है ।".... 
वैराग्य न आने पर, त्याग न होने पर, भोगस्पृहा का त्याग*  न होने पर, क्या कुछ होना सम्भव है? - वे बच्चे के हाथ के लड्डू तो हैं नहीं जिसे भुलावा देकर छीन कर खा सकते हो।  (स्वामी शिष्य संवाद : खण्ड- 6, पृष्ठ 164)
[भोगस्पृहा ~ चौथेपन में चौधरी ब्रदर्स जगदीश दारुकामें ^*नाम-यश रूपी मिल्क-चॉकलेट की कामना से Bh/अईला छाप दाग़  लग जाती है,  सेठ, भी कुछ लोग ईश्वर (समाधि) त्याग कर देते हैं।] 
          
>>> देहाद्यभिमानरहितः पुमान् A man without pride in body and other things >शरीर तथा अन्य वस्तुओं का अभिमान रहित मनुष्य > राजर्षि जनक > विदेहराज जनक या देवर्षि नारद > ऐसे देहाभिमान रहित महापुरुषों के बारे में विवेकचूड़ामणि (543) ग्रंथ में शंकराचार्य लिखते हैं -  
क्वचिन्मूढो विद्वान् क्वचिदपि महाराजविभवः
क्वचिद्भ्रान्तः सौम्यः क्वचिदजगराचारकलितः । 
क्वचित्पात्रीभूतः क्वचिदवमतः क्वाप्यविदितः
चरत्येवं प्राज्ञः सततपरमानन्दसुखितः ॥543॥
(Shankaracarya's Vivekachudamani 543)

'ज्ञानी ' अर्थात ज्ञान प्राप्त व्यक्ति (ब्रह्मविद, आत्मसाक्षात्कारी, इस देहाभिमान रहित व्यक्ति) सदैव ज्ञान की आनंदमय स्थिति में आनंदित रहता है।  वह कभी मूर्ख की तरह , कभी ऋषि की तरह , कभी राजसी वैभव से युक्त राजा की तरह दिखता है; कभी चलता हुआ सर्प, तो कभी निश्चल सर्प की तरह दीखता है; कभी सम्मान पाता हुआ, तो कभी अपमानित हुआ दीखता है, तो कभी बिल्कुल एक अजनबी जैसा जान पड़ता है ।

उपरोक्त श्लोक में बताया गया है कि भगवान का एक सच्चा भक्त कैसा दिखेगा -प्रतिभासित होगा? वह चाहे जिस रूप में दिखे हमें स्वामी विवेकानन्द (या ठाकुर-माँ -स्वामीजी के उन C-IN-C नवनीदा जैसे) देहाभिमान रहित सच्चे भक्तों को कभी (ठाकुरदेव से) कम करके नहीं आंकना चाहिए। 

हालाँकि इस कलियुग में,  ऐसे गुण आपको कुछ नकली गुरुओं में भी देखने को मिल सकते हैं, लेकिन नवनीदा जैसे सच्चे नेता, गुरु, पैगम्बर या ठाकुर देव जैसे माँ काली के भक्त हमेशा अपने मन, वाणी और आनंद को भगवान श्रीरामकृष्ण में या उनके उपदेश 'Be and Make' में ही केन्द्रीभूत रखेंगे, साथ ही उन्हें भौतिक दुनिया (कामिनी-कांचन-नामयश) में कोई दिलचस्पी (आसक्ति) नहीं होगी। (कुछ दिन निर्जनवास या गुरुगृहवास में गुरु के संग रहकर यह देखना चाहिए कि जो वे कहते हैं, उसे खुद करते हैं या नहीं ?) आम आदमी को नकली गुरुओं से धोखा नहीं खाना चाहिए।

Ever rejoicing in the Blissful state of wisdom the realized person lives, sometimes looking like a fool, sometimes a sage, sometimes with royal grandeur; sometimes roaming, sometimes like a motionless serpent; sometimes respected, sometimes insulted, and sometimes unknown.

The sloka above mentioning about how a pure devotee of the Lord will look like. We cannot underestimate the true devotees.

Although such qualities you can also find in some fake gurus in this kali yuga, but the real gurus or devotees will always fix their mind, speech, and pleasure towards the Supreme Lord at the same time they are not interested in the material world. A common man should not get cheated by fake gurus.

 महर्षि वाल्मीकि द्वारा लिखित " योग वशिष्ठ " में जीवनमुक्त योगी, जीवनमुक्त शिक्षक, ब्रह्मविद, ज्ञानी , नेता, पैगम्बर बनने और बनाने की अनिवार्यता एवं महत्व को समझाते हुए कहा गया है ~ देहाद्यभिमानरहितः पुमान् पञ्जरात्केसरी सिंह इव जगज्जालान्निर्गच्छति।।" 

येन केनचिद् आच्छन्नो येन केनचिद् आशितः ।
यत्र क्वचन शायी च स सम्राड् इव राजते ॥६।१२२।१॥

(ज्ञान होने के बाद) अब वह जीवनमुक्त योगी (The Living Liberated Yogi), चाहे किसी भी तरह का पहनावा पहने, चाहे वह कितना भी अच्छा या कुपोषित भोजन करे । वह जहां कहीं भी- तकिये पर या तौलिये पर अपने सिर को रखकर सोया रहे, वह अपने मन को पूर्ण आनन्द और परम् शांति की अवस्था में रखता हुआ- इस निश्चिन्तता के साथ विश्राम लेता है, मानो वही इस विश्व का सबसे महान सम्राट (C-IN-C नवनीदा) हो।

[Now the living liberated yogi, in whatever manner he is clad, and however well or ill-fed he may be. Wherever he may sleep or lay down his humble head, he rests with the joy of his mind, and in a state of perfect ease and blissfulness, as if he were the greatest emperor of the world. अब वह जीवन मुक्त योगी, चाहे वह किसी भी तरह से कपड़े पहने, और चाहे वह कितना भी अच्छा या खराब खाना खाए, और "SCST गवर्नमेंट कॉलेज, जाम्बुघोड़ा, नारुकोट, गुजरात" में गुरुपूर्णिमा 4.7.2023 की मध्य रात्रि में 12 से 3 बजे तक गाया जाने वाला 'राग दरबारी कन्नड़ा'  सड़क पर तकिये पर अथवा तौलिया पर  जहां कहीं पर भी अपना सिर रखकर सोये या लेटा हुआ मच्छड़ के स्वर में सुने; लेकिन हर परिस्थिति में वह ब्रह्मविद (The Living Liberated Yogi >जीवनमुक्त योगी>समाधि से लौटा आत्मज्ञानी) पूर्ण आनन्द और परम् शान्ति की अवस्था में रखता हुआ  इस प्रकार विश्राम लेता है - मानो वही विश्व का सबसे महान  सम्राट हो।]

वर्णधर्माश्रमाचारशास्त्रयन्त्रणयोज्झितः ।
निर्गच्छति जगज्जालात्पञ्जरादिव केसरी ॥
(6.122.2)  

जो ज्ञानी या ब्रह्मविद -मनुष्य अपनी जन्मगत जाति के कर्तव्यों और जीवन की ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, बानप्रस्थ और संन्यास आदि आश्रमों के लिए अपने वर्णाश्रम धर्म के अनुसार निर्धारित अवस्थाओं के आचरण से संबंधित शास्त्रों के प्रतिबंध को मानने के लिए बाध्य नहीं हो (या माँ जगदम्बा के द्वारा मुक्त कर दिया  गया हो), वह 'देहाद्यभिमानरहितः पुमान्'- अर्थात वह ब्रह्मविद या आत्मज्ञानी देह तथा अन्य वस्तुओं का अभिमान रहित मनुष्य > A man without pride in body and other things > दुनिया के जाल से (snare - पुत्र ऐषणा, वित्त ऐषणा और लोक ऐषणा के प्रलोभन के जाल से, देश-काल-निमित्त के जाल से, या माया के जाल से) इस प्रकार  बाहर निकल जाता है, जैसे कोई शेर पिंजरे को तोड़कर बाहर निकल जाता है।  

Abandoned by (or free from) the restriction of the scriptures relating to the duties of caste and conduct according to the stage of life, he goes out of the snare of the world like a lion out of a cage.

वह शास्त्र की शक्ति से अपनी जाति और पंथ के सभी बंधनों और अपने आदेश के संस्कारों और प्रतिबंधों को तोड़ देता है; और समाज के जाल से मुक्त हो जाता है, जैसे कोई सिंह अपने पिंजरे को तोड़ कर हर जगह बेलगाम घूमता रहता है।

He breaks down all the bonds of his caste and creed and the rites and restraints of his order by the battery of the sástra; and roves freed from the snare of society, as a lion breaking loose from his cage, and roaming rampant everywhere.

जिसने इस आत्म-ज्ञान (self-knowledge) को प्राप्त कर लिया है वह जाति व्यवस्था और जीवन के वर्णों - आश्रमों के लिए निर्धारित आदेशों से संबंधित शास्त्रीय नियमों और निषेधों से उसी प्रकार परे चला जाता है, जैसे कोई शेर अपने पिंजरे को तोड़ कर बाहर निकल जाता है।

He who has attained this self-knowledge goes beyond the caste system and the regulations concerning the orders of life and the scriptural injunctions and prohibitions, even as the lion breaks out of its cage.

वह जीवनमुक्त योगी (living liberated yogi- ज्ञानी- ब्रह्म विद, नेता, पैगम्बर) जिसने इस आत्म-ज्ञान को प्राप्त कर लिया है, 'शास्त्र की शक्ति' से (battery- गीता,उपनिषद ब्रह्मसूत्र रूपी तोपखाना या दमदमा साहब की शक्ति से) वह अपनी जाति और पंथ के लिए बनी व्यवस्था के सभी बंधनों और अपने ऑर्डर के (Order- कोटि, प्रवृत्ति या निवृत्ति मार्ग के लिए बनी अलग-अलग नियमों और शास्त्रीय आदेशों और निषेधों से परे हो जाता है) संस्कारों और प्रतिबंधों को तोड़ देता है; और समाज के जाल से (लोग क्या कहेंगे ? के जाल से) उसी प्रकार मुक्त हो जाता है ~ देहाद्यभिमानरहितः पुमान् पञ्जरात्केसरी सिंह इव जगज्जालान्निर्गच्छति।।  जैसे शेर अपने पिंजड़े को तोड़ देता है (-अर्थात सिंह-शावक जब भेंड़ की तरह घास खाना छोड़ देता है), और हर जगह (M/F मित्र-शत्रु के बीच) बेलगाम घूमता है।

 A man without pride in his body and other things comes out of the cage like a lion and a lion out of the net of the world. He breaks down all the bonds of his caste and creed and the rites and restraints of his order; by the battery of the sastra; and roves freed from the snare of society, as a lion breaking loose from his cage, and roaming rampant everywhere.

[वर्ण-धर्म, आश्रम, आचार-शास्त्र-यन्त्रणया उज्झितः । निर्गच्छति जगज्.जालात् पञ्जराद् इव केसरी ॥६।१२२।२॥वर्णधर्माश्रमाचारशास्त्रयन्त्रणया वर्णा ब्राह्मणादयः। Varnas :  Brahmins and others are governed by varna, dharma, asrama, customs and scriptures. आश्रमाः ब्रह्मचर्यादयः। Ashrams, such as celibacy. (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आदि आश्रमों के लिए बने शास्त्रीय नियमों के बंधनों से) " वर्णधर्माणामाश्रमाचाराणां च यानि शास्त्राणि बोधकानि तेषां या यन्त्रणा नियमरूपा मर्यादा तया उज्झितो;  देहाद्यभिमानरहितः पुमान् पञ्जरात्केसरी सिंह इव जगज्जालान्निर्गच्छति।।" 

 >>>ब्रह्मरूपी सिंह-शावक की धुन : कर्मबन्धनों  को तोड़ कर  देह-मन की सीमाओं से मुक्त हो जाना ही आत्मा याने 'सिंह-शावक' की धुन है -यही आत्मा का गीत है ! किन्तु हाय अपने को देह समझने के कारण;  प्रकृति (आदतों या प्रवृत्तियों) की सैकड़ों श्रृंखलाओं में बद्ध होना ही उसकी नियति है ! लेकिन हाय , जब तक किसी को 84 वर्ष के उम्र में भी युवा जैसा दिखने वाला, नेता-वरिष्ठ 'C-IN-C' नवनीदा जैसा कोई  जीवनमुक्त योगी,  या स्वामी विवेकानन्द 'वेदान्त केसरी' या शेर के जैसा नेता ' नहीं मिल जाता, तब तक प्रकृति की सैकड़ों श्रृंखलाओं में बद्ध होना; अर्थात 'देह-मन' , 'नाम-रूप' को सत्य समझकर अपने को भेंड़ समझते हुए मृत्यु भय से 'में'-'में' करते रहना' ही उसकी नियति है !"  फिर भी मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता है, क्योंकि 3H विकास के 5 अभ्यास के प्रशिक्षण द्वारा  स्वपरामर्श सूत्र को लिखते हुए वह नए आदतों से, नई प्रवृत्ति और नए संस्कार का निर्माण करने केवह खुद अपने भाग्य का निर्माता बन सकता है!
दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम्।  
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरूषसश्रय:।। 

मनुष्यत्व, मुमुक्षत्व, और ईश्वरानुग्रह कराने में समर्थ सत्पुरुषों का सहवास – ये तीन मिलना, अति दुर्लभ है । तथा सामान्य भाषा मे कहे तो, मनुष्य जन्म, मुक्ति की इच्छा तथा महापुरूषों का सहवास (गुरुगृहवास या निर्जनवास) यह तीन चीजें परमेश्वर की कृपापर निर्भर रहते है ।
मनुष्यजन्म प्राप्त करके मुक्ति की इच्छा प्रबल होने तथा किसी महापुरुष (दक्षिणामूर्ति नवनीदा : C-IN-C ) की कृपा प्राप्त होने पर ही मनुष्य की आत्मज्ञान की इच्छा बलवान होती है; नहीं तो कामिनी-कांचन में लिप्त व्यक्तियों की उधर प्रवृत्ति ही नहीं होती । 

यह सुभाषित किसी आध्यात्मिक व्यक्ति [जन्मजात नेता-Deputy CINC (The would-be leader who, despite being a lion-cub considers himself as a sheep.)] को निश्चित रूप से अवश्य अच्छा लगेगा! क्योंकि आत्मनिरीक्षण करते हुए  व्यक्तिगत रूप से  हम यह देख सकते हैं कि उपरोक्त तीन वस्तुओं में से कौन सी वस्तु हमारे पास है , जिसके लिए हम भगवान के प्रति कृतज्ञ हो सकते हैं ? यदि अब वैसे महापुरुष-महात्मा [नेतावरिष्ठ (CINC नवनीदा)] शरीर में नहीं हों, और हमें स्वयं उनके संग निर्जनवास करने का अवसर नहीं मिलता हो , तो हमें अब खुद को ही उनके जैसा मार्गदर्शक नेता बनाने का प्रयास करना चाहिए। 
(This subhashit will surely appeal to a spiritual person! Individually we can think of which of these things we have and be grateful. If we don't have the company of great-souled ones then we should become one!)

"ज्ञान स्वयमेव वर्तमान है, मनुष्य केवल उसका आविष्कार करता है। ईश्वर ही ईश्वर की उपलब्थि कर सकता है। सभी जीवन्त ईश्वर हैं–इस भाव से सब को देखो। मनुष्य का अध्ययन करो, मनुष्य ही जीवन्त काव्य है। जगत में जितने ईसा या बुद्ध हुए हैं, सभी हमारी ज्योति से ज्योतिष्मान हैं। इस ज्योति को छोड़ देने पर ये सब हमारे लिए और अधिक जीवित नहीं रह सकेंगे, मर जाएंगे। तुम अपनी आत्मा के ऊपर स्थिर रहो।"  
ज्ञान में मन को शुद्ध करने, मनुष्य को ऊपर उठाने, मुक्त करने और भगवान के साथ एकीकृत करने की शक्ति होती है इसलिए यह उदात्त और शुद्ध होता है। किन्तु ज्ञान को दो श्रेणियों में विभाजित करना आवश्यक है-सैद्धान्तिक ज्ञान (अपरा विद्या) और व्यवहारिक ज्ञान (परा विद्या) । एक प्रकार का ज्ञान जिसे हम धार्मिक ग्रंथों को पढ़कर समझ सकते हैं और गुरु मुख से श्रवण कर प्राप्त करते हैं। इस प्रकार की सैद्धान्तिक जानकारी अपने आप में अपर्याप्त होती है। यह उसी प्रकार से है जैसे किसी ने व्यंजन बनाने की पुस्तक का स्मरण कर लिया हो, किन्तु स्वयं कभी रसोई में प्रवेश न किया हो। इस प्रकार के सैद्धान्तिक ज्ञान से भूखे की क्षुधा को शांत नहीं किया जा सकता उसी  प्रकार जब कोई मनुष्य आत्मा, भगवान, माया, कर्म, राजयोग और भक्ति आदि से संबंधित विषयों पर गुरु से (जीवनमुक्त योगी, नेता या पैगम्बर से) सैद्धान्तिक ज्ञान अर्जित करता है, तब केवल उस ज्ञान से ही किसी को भगवद्प्राप्ति नहीं होती। 

जब कोई मनुष्य सिद्धान्त (श्रवण-मनन-निदिध्यासन) के अनुसार योग साधना का अभ्यास करता है तब इसके परिणामस्वरूप उत्पन्न विवेकज ज्ञान से उसका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, और फिर कोई मनुष्य आत्मा की प्रकृति और भगवान (परमात्मा) के साथ इसके संबंध की अनुभूति करता है।  ऋषि पतंजलि ने इस प्रकार से कहा है-

" श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वाद्।। "

(श्रुत- अनुमान-  प्रज्ञाभ्याम्- अन्यविषया- विशेष-अर्थत्वात्। योग दर्शन-1.49)

शब्दार्थ :- श्रुत (श्रवण अर्थात सुनने से), अनुमान ( अंदाजे या अटकल से ), प्रज्ञाभ्याम् ( उत्पन्न बुद्धि से),  अन्यविषया ( भिन्न अथवा अलग विषय वाली ), विशेष ( विशिष्ट ), अर्थत्वात् ( अर्थ या ज्ञान वाली होती है ।)

सूत्रार्थ :- सुने हुए व  अनुमान से प्राप्त बुद्धि के ज्ञान से अलग विषय का विशिष्ट ज्ञान करवाने वाली बुद्धि ऋतम्भरा बुद्धि होती है ।

तात्पर्य:- इस सूत्र में ऋतम्भरा बुद्धि व अन्य सामान्य बुद्धि के बीच के अन्तर को दर्शाया गया है । किसी भी वस्तु या पदार्थ की जानकारी या उसका ज्ञान हमें मुख्य रूप से तीन प्रकार से होता है । 1. प्रत्यक्ष प्रमाण से 2. अनुमान प्रमाण से व 3. शब्द प्रमाण से ।

यहाँ पर शब्द व अनुमान प्रमाण की बात कही गई है । जो ज्ञान हमें वेद शास्त्रों या ऋषि व गुरुदेव के वचनों से प्राप्त होता है वह शब्द प्रमाण कहलाता है । जैसे जीवात्मा को योगाभ्यास से समाधि की प्राप्ति होती है । यह शब्द प्रमाण कहलाता है । इस ज्ञान से हमें समाधि की केवल समान्य जानकारी होती है । विशेष रूप से नहीं ।
 
और अनुमान प्रमाण से हम किसी वस्तु या घटना के विषय में कोई अंदाज या अनुमान ही लगा सकते है । और वह अनुमान भी हमें उसका सामान्य रूप से ज्ञान करवाता है । विशेष रूप से नहीं ।  जैसे हम नदी में पानी के बढ़े हुए स्तर व मैले रंग को देखकर यह अनुमान तो लगा लेते हैं कि पीछे पहाड़ो में कही बारिश हुई है । लेकिन हमें उसकी विशेष जानकारी नहीं होती कि बारिश कितनी हुई, उससे कितना नुकसान या फायदा हुआ है या इस बारिश का प्रभाव कहाँ – कहाँ तक हुआ है आदि ।
इसलिए शब्द व अनुमान प्रमाण से प्राप्त ज्ञान सामान्य प्रकार का होता है । और उससे हमें सामान्य प्रकार का ही ज्ञान हो सकता है । क्योंकि ज्ञान प्राप्ति के दो ही स्वरूप होते हैं एक सामान्य और एक विशेष । समान्य में व्यक्ति को साधारण जानकारी होती है जबकि विशेष में उसको विशिष्ट जानकारी होती है ।

 जो ज्ञान हमारी बुद्धि को कुछ सुनने से या उसका अंदाजा लगाने से होता है । उस ज्ञान में किसी प्रकार की कुछ कमी हो सकती है । लेकिन ऋतम्भरा प्रज्ञा अर्थात बुद्धि से प्राप्त होने वाला ज्ञान विशिष्ट या उत्कृष्ट होता है । यानी उस ज्ञान में किसी प्रकार की कोई कमी नही होती है । जब साधक की ऋतम्भरा प्रज्ञा जागृत होती है तो उसे विशेष ज्ञान की प्राप्ति होती है । यह ज्ञान शब्द प्रमाण व अनुमान प्रमाण से ज्यादा उपयुक्त होता है ।

अतः जब किसी साधक की ऋतम्भरा प्रज्ञा जागृत हो जाती है तो उसकी बुद्धि विशेष प्रकार का ज्ञान या जानकारी करवाने वाली हो जाती है । जो सामान्य अर्थात सुने हुए या अंदाजा लगाए हुए ज्ञान से बिलकुल अलग होती है । यही इस सूत्र का भाव/तात्पर्य है ।
(साभार @@@@ Dr. Somveer Arya / - https://drsomveeryoga.com/yoga-sutra-49/

'राजयोगी' - स्वामी विवेकानन्द की व्याख्या : 

सुत्रार्थ :जो ज्ञान विश्वस्त मनुष्यों (अवतार वरिष्ठ, नेता वरिष्ठ या जीवनमुक्त योगी) के वाक्य और अनुमान से प्राप्त होता है, वह सामान्य वस्तुविधयक होता है। जो विषय आगम और अनुमान से उत्पन्न ज्ञान के गोचर नहीं हैं, वे पूर्वोक्त समाधि द्वारा प्रकाशित होते हैं।

व्याख्या- तात्पर्य यह है कि हमें सामान्य वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव, उस पर आधारित अनुमान और विश्वस्त मनुष्यों के वाक्यों से होता है। 'विश्वस्त मनुष्यों' से योगियों का तात्पर्य है 'ऋषि', और ऋषि का अर्थ है वेदों में लिपिबद्ध मन्त्रों के द्रष्टा । उनके मतानुसार शास्त्रों का प्रामाण्य केवल यह है कि वे विश्वस्त मनुष्यों के वचन हैं

 शास्त्र विश्वस्त मनुष्यों के वचन होने पर भी, ऋषि पतंजलि कहते हैं कि केवल शास्त्र हमें आत्मानुभूति कराने में कभी समर्थ नहीं हैं। हम भले ही सारे वेदों को पढ़ डालें, पर तो भी हो सकता है कि हमें किसी तत्त्व की अनुभूति न हो। पर जब हम शास्त्रों में वर्णित उपदेशों को अपने जीवन में उतारते हैं - उनके अनुसार कार्य करते हैं, तब हम ऐसी एक अवस्था में पहुँच जाते हैं, जिसमें शास्त्रोक्त बातों की प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है। जहाँ तर्क, प्रत्यक्ष या अनुमान किसी की भी पहुँच नहीं है, वहाँ आप्तवाक्य की भी कोई उपयोगिता नहीं है। यहीं इस सूत्र का तात्पर्य है।

प्रत्यक्ष उपलब्धि (आत्मसाक्षात्कार) ही यथार्थ धर्म है, वही धर्म का सार है। और शेष सब- उदाहरणार्थ, धर्मसम्बन्धी प्रवचन सुनना, धार्मिक ग्रन्थों का पाठ करना, या विचार करना उस उपलब्धि के लिए प्रारम्भिक तैयारियाँ मात्र हैं। वह यथार्थ धर्म नहीं है। केवल किसी 'मत' (Religion =मूसा-ईसा में ईमान या mazhab) के साथ बौद्धिक सहमति अथवा असहमति धर्म नहीं है। 
>>> जीवनमुक्त योगियों का (मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का) मूलभाव यह है कि जैसे इन्द्रियों के विषयों के साथ हम लोगों का साक्षात् सम्बन्ध होता है, उसी प्रकार धर्म भी प्रत्यक्ष किया जा सकता है; और इतना ही नहीं, बल्कि वह तो और भी तीव्रतर रूप से उपब्लध हो सकता है। 
ईश्वर, आत्मा आदि जो सब धर्म के प्रतिपाद्य सत्य हैं, वे बहिरिन्द्रियों से प्रत्यक्ष नहीं हो सकते। मैं आँखों से ईश्वर को नहीं देख सकता, या हाथ से उनका स्पर्श नहीं कर सकता। हम यह भी जानते कि युक्ति-तर्क हमें इन्द्रियों के परे नहीं ले जा सकता; वह तो हमें सर्वथा एक अनिश्चित स्थल में छोड़ आता है। हम भले ही जीवनभर विचार करते रहें, जैसा कि दुनिया हजारों वर्षों से करती आ रही है, पर आखिर उसका फल क्या  होता है 

यही कि धर्म के सत्यों को (3H के तीनों अस्तित्व को)  प्रमाणित या अप्रमाणित करने में हम अपने को असमर्थ पाते हैं। हम जिसका इन्द्रियों से प्रत्यक्षतः अनुभव करते हैं, उसी के आधार पर हर्म तर्क, विचार आदि किया करते हैं। अतः यह स्पष्ट है कि तर्क को इन्द्रिय-प्रत्यक्ष की इस चारदीवारी के भीतर ही चक्कर काटना पड़ता है; वह उसके परे कभी नहीं जा सकता। अतएव आत्मानुभूति का क्षेत्र समस्त इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के परे है
 योगी कहते हैं कि मनुष्य इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के परे और तर्क के परे भी जा सकता है। मनुष्य में अपनी मन (अहं) बुद्धि को भी लाँघ जाने की शक्ति, सामर्थ्य है, और यह शक्ति प्रत्येक प्राणी में, प्रत्येक जन्तु में निहित है। 
योग के अभ्यास से यह शक्ति जागृत हो जाती है और तब मनुष्य युक्ति-तर्क की साधारण सीमा को पार करता है और तर्क के अगम्य विषयों का साक्षात्कार करता है।

तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी ॥ ५०॥
(योग दर्शन-1.50)

शब्दार्थ :- तज्ज (उससे उत्पन्न होने वाला ), संस्कार:( आदतों या प्रवृत्तियों का समाहार या विचार), अन्य( दूसरे ), संस्कारो ( प्रवृत्तियों -विचारों का ), प्रतिबन्धी -( रोकने वाला होता है।)

सूत्रार्थ- यह समाधिजात संस्कार (या ऋतम्भरा प्रज्ञा से उत्पन्न होने वाला संस्कार या विचार)  
दूसरे सब संस्कारों का प्रतिबन्धी होता है, अर्थात् दूसरे संस्कारों को फिर आने नहीं देता।

व्याख्या- हमने पहले के सूत्र में देखा है कि उस अतिचेतन भूमि (समाधि) पर जाने का एकमात्र उपाय है- एकाग्रता । हमने यह भी देखा है कि पूर्व संस्कार (कामिनी-कांचन में आसक्ति) ही उस प्रकार की एकाग्रता पाने में हमारे प्रतिबन्धक हैं। तुम सभी ने गौर किया होगा कि ज्योंही तुम लोग मन को एकाग्र करने का प्रयत्न करते हो, त्योंही तुम्हारे अन्दर नाना प्रकार के विचार भटकने लगते हैं। ज्योंही ईश्वरचिन्तन करने की चेष्टा करते हो, ठीक उसी समय ये सब संस्कार जाग उठते हैं। 
दूसरे समय वे उतने कार्यशील नहीं रहते; किन्तु ज्योंही तुम उन्हें भगाने की कोशिश करते हो, वे अवश्यमेव आ जाते हैं और तुम्हारे मन को बिलकुल आच्छादित कर देने का भरसक प्रयत्न करते हैं। इसका कारण क्या है ? इस एकाग्रता के अभ्यास के समय ही वे इतने प्रबल क्यों हो उठते हैं 
इसका कारण यही है कि तुम उनको दबाने की चेष्टा कर रहे हो। और वे अपने सारे बल से प्रतिक्रिया करते हैं। अन्य समय वे इस प्रकार अपनी ताकत नहीं लगाते। इन सब पूर्व संस्कारों की संख्या भी कितनी अगणित है! चित्त के किसी स्थान में वे चुपचाप बैठे रहतें हैं और बाघ के समान झपटकर आक्रमण करने के लिए मानो हमेशा घात में रहते हैं। 
उन सब को रोकना होगा, ताकि हम जिस भाव को मन में रखना चाहें, वही आए और दूसरे सब भाव चले जाएँ। पर ऐसा न होकर वे सब तो उसी समय आने के लिए संघर्ष करते हैं। वैसे संस्कार जो मन की एकाग्रता में बाधा देनेवाली हैं, उन संस्कारों को जब साधक दृढ़ इच्छाशक्ति से रोकता है, तो ऋतम्भरा प्रज्ञा के जागृत होने पर स्वयं ही होने लगता है । इसको करना नहीं पड़ता ।

अतएव जिस समाधि (पूर्ण एकाग्रता) की बात अभी कही गयी है, उसका अभ्यास सब से उत्तम है; क्योंकि वह उन संस्कारों को रोकने में समर्थ है। इस समाधि के अभ्यास से जो संस्कार उत्पन्न होगा, वह इतना शक्तिमान होगा कि वह अन्य सब संस्कारों का कार्य रोककर उन्हें वशीभूत करके रखेगा।

तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः ॥ ५१ ॥

शब्दार्थ :- तस्य (उसके), अपि (भी), निरोधे (रुकने से), सर्व (सभी), निरोधात् ( चित्त वृत्तियों का भी निरोध हो जाने से अर्थात सभी चित्त वृत्तियों के रुक जाने से),  निर्बीज: (निर्बीज), समाधि:( समाधि होती है ।)

सूत्रार्थ - उसका भी (अर्थात् जो संस्कार अन्य सभी संस्कारों को,  रोक देता है) निरोध हो जाने पर, सब का निरोध हो जाने के कारण निर्बीज समाधि (हो जाती है)।

व्याख्या- इस सूत्र में  जीव (अहं की नहीं आत्मा) की समाधि अथवा मोक्ष की अवस्था को बताया गया है । तुम लोगों को यह अवश्य स्मरण है कि आत्मसाक्षात्कार ही हमारे जीवन का चरम लक्ष्य है। हम लोग आत्मसाक्षात्कार नहीं कर पाते, क्योंकि इस आत्मा का प्रकृति, मन और शरीर के साथ हमारा तादात्म्य हो गया है। अज्ञानी मनुष्य अपने शरीर को ही आत्मा समझता है। उसकी अपेक्षा कुछ उन्नत मनुष्य मन को ही आत्मा समझता है। किन्तु दोनों ही भूल में हैं। 

अच्छा, आत्मा इन सब उपाधियों (शरीर या मन) के साथ  एकाकार कैसे हो जाती है ? चित्त में ये नाना प्रकार की लहरें (वृत्तियाँ) उठकर आत्मा को आच्छादित कर लेती हैं, और हम इन लहरों में से आत्मा का कुछ प्रतिबिम्ब मात्र देख पाते हैं। यही कारण है कि जब क्रोधवृत्तिरूप लहर उठती है, तो हम आत्मा को क्रोधयुक्त देखते हैं। कहते हैं कि हम क्रुद्ध हुए हैं। 

जब चित्त में प्रेम की लहर उठती है, तो उस लहर में अपने को प्रतिबिम्बित देखकर हम सोचते हैं कि हम प्यार कर रहे हैं। चित्त में जब दुर्बलतारूप वृत्ति उठती है और आत्मा उसमें प्रतिबिम्बित हो जाती है, तो हम सोचते हैं कि हम कमजोर हैं। ये सब पूर्व संस्कार जब आत्मा के स्वरूप को आच्छादित कर लेते हैं, तभी इस प्रकार के विभिन्न भाव उदित होते रहते हैं। 

चित्तरूपी सरोवर में जब तक एक भी लहर रहेगी, तब तक आत्मा का यथार्थ स्वरूप दिखाई नहीं देगा। जब तक समस्त लहरें बिलकुल शान्त नहीं हो जातीं, तब तक आत्मा का यथार्थ स्वरूप कभी प्रकाशित नहीं होगा।  इसीलिए पतंजलि ने सबसे पहले यह समझाया है कि ये तरंगरूप वृत्तियाँ क्या हैं ? और बाद में उनको दमन करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय सिखलाया है। 

और तीसरी बात यह सिखलायी है कि जैसे एक बृहत् अग्निराशि छोटे छोटे अग्निकणों को निगल लेती है, उसी प्रकार एक लहर को इतनी प्रबल बनाना होगा, जिससे अन्य सब लहरें बिलकुल लुप्त हो जाएँ। जब केवल एक ही लहर बच रहेगी, तब उसका भी निरोध कर देना सहज हो जाएगा। और जब वह भी चली जाती है, तब उस समाधि को निर्बीज समाधि कहते हैं। 

निर्बीज का अर्थ है जो चित्त के संस्कार हैं उनका सम्पूर्ण रूप से समाप्त हो जाना । या उन सभी संस्कारों का दग्ध बीज हो जाना । दग्ध बीज का अर्थ होता है किसी भी पदार्थ की सत्ता का समूल ( पूर्ण )  रूप से विनाश हो जाना ।  जब किसी भी पौधे या पेड़ के बीज को हम अग्नि में भूँज देते हैं  या उबाल देते हैं तो उससे उसकी प्रजनन क्षमता खत्म हो जाती है । यानी उस जले हुए या उबले हुए बीज से कभी भी कोई पेड़ या पौधा तैयार नहीं हो सकता । ठीक इसी प्रकार जब तीव्र वैराग्य के द्वारा सभी संस्कारों को दग्ध बीज कर दिया जाता है तो वह अवस्था निर्बीज अर्थात बिना बीज की होती है । इसी अवस्था को समाधि, मोक्ष या परमानन्द कहा जाता है ।

 तब और कुछ भी नहीं बच रहता और आत्मा अपने स्वरूप में, अपनी महिमा में प्रकाशित हो जाती है। तभी हम जान पाते हैं कि आत्मा यौगिक पदार्थ नहीं है, संसार में एकमात्र वही नित्य अयौगिक पदार्थ है; अतएव उसका जन्म भी नहीं है और मृत्यु भी नहीं - वह अमर है, अविनश्वर है, नित्य चैतन्यघन सत्तास्वरूप है।

 "भक्ति योग के अभ्यास द्वारा आत्म अनुभूति का ज्ञान प्राप्त करना धार्मिक ग्रंथों के सैद्धान्तिक ज्ञान से श्रेष्ठ है।" ऐसे अनुभूत ज्ञान की श्रीकृष्ण ने शुद्ध उदात्त तत्त्व के रूप में प्रशंसा की है।

 सूर सगुन पदगावै।

अवगति-गति कछु कहत न आवै।
ज्यों गूंगे मीठे फल को रस, अंतरगत ही भावै।
परम स्वाद सबही सुनिरंतर, अमित तोष उपजावें।
मन-बानी कौ अगम अगोचर सो जाने जो पावै।
रूप-रेख-गुन-जात-जुगति बिन, निरालंबकित धावै।
सब विधि अगम बिचारहिताते सूर सगुन पदगावै

सन्दर्भ :- उपरोक्त  पद 'भक्तिधारा' सूरदास नामक शीर्षक से लिया गया है। इसके रचयिता महाकवि सूरदास हैं।
प्रसंग :- इस पद में कवि ने निर्गुण ब्रह्म को सब प्रकार से अगम्य जानकर सगुण ईश्वर (अवतार वरिष्ठ) का गुणगान किया है।
व्याख्या :- उस अज्ञात निराकार ब्रह्म की गति अर्थात् लीला कुछ कहते नहीं बनती। जैसे कोई गूंगा मीठा फल खाए तो उसके रस की मधुरता का आनन्द अन्दर ही अन्दर अनुभव करता है। वह आनन्द उसे सन्तोष भी प्रदान करता है पर वह उसका वर्णन नहीं कर सकता। उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म मन और वाणी से परे है। उसकी न कोई रूप-रेखा होती है और न ही आकृति। न उसमें कोई गुण होता है और न ही उसे प्राप्त करने का कोई उपाय ही होता है। इस प्रकार उसका आश्रय ग्रहण करने वाला मन बिना अवलम्ब (सहारे) के कहाँ दौड़े ? सूरदास जी कहते हैं कि निर्गुण ब्रह्म को सब प्रकार से अगम्य जानकर ही मैंने सगुण ब्रह्म की लीला के पदों का गान किया है। विशेष :- (1) उक्त पद में निर्गुण ब्रह्म को अगम और सगुण ब्रह्म को सुगम माना है।(2) उदाहरण अलंकार और अनुप्रास अलंकार का प्रयोग सुन्दर है। (3) ब्रजभाषा का माधुर्य अवलोकनीय है।

ज्ञान परम पवित्र है और परमात्मा ज्ञान का स्वरूप है। तो इसमें आश्चर्य की बात क्या है कि उसे पवित्र कहा गया?  "देहाद्यभिमान धरून जीव नाना कर्में करतो" देह-अभिमान को धारण करके आत्मा/जीव विभिन्न कर्म करती है और उनके अच्छे-बुरे फलों का भोक्ता कहलाती है। यह कार्त्तिव-भोक्त्रिवत्रूपा लेप आत्म-साक्षात्कार के साथ पूरी तरह से गायब हो जाता है, इसलिए इसे शुद्ध और दिव्य शुद्ध कहा जाता है।

श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥39॥

श्रद्धावान्–श्रद्धायुक्त व्यक्ति; लभते-प्राप्त करता है; ज्ञानम्-दिव्य (ब्रह्म) ज्ञान; तत्-परः-उसमें समर्पित; संयत-नियंत्रित; इन्द्रियः-इन्द्रियाँ; ज्ञानम्-दिव्य ज्ञान; लब्धवा-प्राप्त करके; पराम्-दिव्य; शान्तिम्-शान्ति; अचिरेण–अविलम्ब; अधिगच्छति–प्राप्त करता है।

BG 4.39: वे जिनकी श्रद्धा अगाध है और जिन्होंने अपने मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण कर लिया है, वे दिव्य ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। इस दिव्य ज्ञान के द्वारा वे शीघ्र ही कभी न समाप्त होने वाली परम शांति को प्राप्त कर लेते हैं।

श्रीकृष्ण अब ज्ञान के संदर्भ में श्रद्धा के दृष्टिकोण का वर्णन कर रहे हैं। सभी आध्यात्मिक सत्यों को शीघ्र स्वीकार नहीं किया जा सकता।[अर्थात कम उम्र के बच्चे या मुस्टैच बेबी भी छात्रावस्था या युवावस्था में मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव "3-H" विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण और अभ्यास का फल देखे बिना,  सूक्ष्म वस्तु मन (Head) तथा  अत्यन्त सूक्ष्म अविनाशी आत्मा (Heart) या ह्रदय को 3H आसानी से  स्वीकार नहीं किया जा सकता।]  इनमें से कुछ को इस मार्ग में (कर्मयोग और राजयोग-समाधि के मार्ग में) अत्यधिक रूप से उन्नत होने पर ही अनुभव किया जा सकता है। यदि हम अपने को केवल देह समझकर,  देह -Hand को ही  स्वीकार करते हैं,  जिसे हम वर्तमान में परख और समझ सकते हैं,  और पौष्टिक आहार तथा व्यायाम द्वारा केवल शरीर को, या केवल अपने बाहुबल को  ही विकसित करते हैं ; तब  हम बुद्धिबल (विवेक-प्रयोग शक्ति) और आत्मबल (आत्मविश्वास आदि)  उच्चतम आध्यात्मिक रहस्यों से वंचित हो जाएंगे।
 >>>जिस ('2H' - मन और आत्मा या Head and Heart को ) हम वर्तमान में समझ नहीं पा रहे हैं, उसे समझने और स्वीकार करने में श्रद्धा हमारी सहायता करती है। 
जगद्गुरु शंकराचार्य ने श्रद्धा की परिभाषा इस प्रकार से की है- 

गुरु वेदान्त वाक्येषु दृढो विश्वासः श्रद्धा। 

"श्रद्धा का अर्थ गुरु और धार्मिक ग्रंथों के शब्दों में दृढ़ विश्वास होना है।" यदि ऐसी श्रद्धा किसी ढोंगी व्यक्ति पर रखी जाती है तब इसके विध्वंसात्मक परिणाम होते हैं। जब यह सच्चे गुरु में रखी जाती है तब इससे आत्मकल्याण का मार्ग खुलता है। 
किन्तु इसके लिए अंध विश्वास वांछनीय नहीं होता। हरि-गुरु के प्रति श्रद्धा रखने से पूर्व हमें अपनी बुद्धि का प्रयोग कर यह पुष्टि करनी चाहिए कि गुरु ने परम सत्य का अनुभव किया है या नहीं?और क्या वह शाश्वत वैदिक ग्रंथों के अनुसार विद्या प्रदान कर रहा है? एक बार जब इसकी पुष्टि हो जाती है तब हमें ऐसे गुरु के प्रति श्रद्धा प्रकट करनी चाहिए और उसके मार्गदर्शन में भगवान श्रीरामकृष्ण , माँ श्री सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द के समक्ष शरणागत होना चाहिए। 
श्वेताश्वतरोपनिषद् में वर्णित है-
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। 
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद्-6.23) 

"सभी प्रकार के वैदिक ज्ञान की (चार महावाक्यों की) महत्ता उन्हीं मनुष्यों के हृदय में प्रकट होती है जिनकी भगवान और गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा होती है।"

वर्तमान शिक्षाव्यवस्था में किसी ज्ञानी शिक्षक की इस अवस्था को समझने के लिए,पहले गुरुगृहवास या निर्जनवास की अनिवार्यता को समझना आवश्यक है। .....क्योंकि पूज्य C-IN-C नवनी दा के जैसा जो जीवनमुक्त-(ब्रह्मविद) शिक्षक (The Living Liberated Yogi गुरु, नेता, पैगम्बर) किसी सभा में साकार रूप से खड़े होकर छात्रों को जो ज्ञान की बातें बता रहे हैं, त्याग और सेवा का महत्व बता रहे हैं, उनका अपना जीवन कैसा है? वे प्रत्येक रात इन्टरनेट का आनन्द कितने बजे तक लेने के बाद सोने जाते हैं ?...छात्रों को  इसका पता कैसे चलेगा ? क्योंकि स्वामी विवेकानन्द की "Be and Make' ~लीडरशिप ट्रेनिंग मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी योजना" के अनुसार भावी नेताओं या कैम्पर्स को अपने जीवन द्वारा अनुप्राणित करना आवश्यक है ! क्योंकि मित्र-शत्रु, Anu, Bn-Ap-Bh , आदि के रूप में जो नेता दिख रहे हैं, वे सभी निराकार ब्रह्म (नित्य -ठाकुर, माँ, स्वामीजी की लीला हैं । तुम्हारे अपने जीवन में जो कुछ घटित हो रहा है, उसके (मन में पहले ही दिख पड़ने से भी) 'तत्काल प्रतिक्रिया' मत करो और सभी घटनाओं का 'साक्षी' बने रहो -और माँ से कहके निश्चिन्त हो जाओ !! 'दासोअहं'--के भाव से जो कुछ करना अनिवार्य लगे वही करो, इसमें ही तुम्हारा कल्याण है! 22 -23 का Trading A/C ~ PL A/C: दासभाव से (पंचानन भाव से) देखो, मालिक भाव से या पार्टनर भाव से नहीं।

"अपनी दृष्टि को विश्वव्यापी होने दो " - - बहाउल्लाह (बहाई-धर्म)  मानवजाति के पूरे इतिहास में, भगवान ने मानवता को दिव्य शिक्षकों (जीवनमुक्त शिक्षकों, मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं) के निर्माण  की एक  " Be and Make " -शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा की श्रृंखला में पैगम्बरों  को भेजा है - जिन्हें  ईश्वर की अभिव्यक्ति के रूप में जाना जाता है।  जिनकी शिक्षाओं ने सभ्यता की उन्नति का आधार प्रदान किया है। इन मार्गदर्शक नेताओं की श्रृंखला में श्रीराम , अब्राहम, कृष्ण, पारसी, मूसा, बुद्ध, जीसस,  पैगम्बर मुहम्मद, श्री रामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द  ....   शामिल हैं। इन मेसेंजर्स की नवीनतम बहाई गुरु बहाउल्लाह (बहुआयुह) ने समझाया कि दुनिया के सभी धर्म एक ही स्रोत से आते हैं और सभी भगवान या पैगम्बर  एक ही धर्म के क्रमिक अध्याय हैं। बहाई धर्म के अनुयायियों का मानना ​​है कि मानवता के सामने महत्वपूर्ण आवश्यकता समाज के भविष्य और जीवन की प्रकृति और उद्देश्य के बारे में एक एकीकृत दृष्टिकोण खोजने की है। इस तरह की एक दृष्टि बहाई शिक्षकों  के लेखन में प्रकट होती है।

स्वामी विवेकानन्द भारत को पुण्यभूमि क्यों कहते थे ? क्योंकि,  जो भी  भारतवर्ष में जन्म लेता है, उसे यह विशेष अवसर प्राप्त है कि वह वैदिक सभ्यता के उपदेश तथा मार्गदर्शन का लाभ उठा सके। वह स्वतः आध्यात्मिक जीवन के मूल सिद्धान्तों को पा लेता है, क्योंकि 99.9 प्रतिशत भारतीय लोग, यहाँ तक कि गाँव के सीधे सादे किसान तथा अशिक्षित लोग भी आत्मा के देहान्तरण, विगत तथा भावी जीवन एवं ईश्वर में विश्वास करते हैं।  और स्वाभाविक रूप से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् (अवतार वरिष्ठ) या उनके प्रतिनिधि (गुरु, जीवनमुक्त योगी या नेतावरिष्ठ) की पूजा करना चाहते हैं। ये विचार भारत में जन्म लेने वालों को स्वाभाविक रूप से उत्तराधिकार में मिलते हैं। भारत में गया, बनारस, मथुरा, प्रयाग, वृन्दावन, हरिद्वार, रामेश्वरम्, सोमनाथ, द्वारिका, जगन्नाथ पुरी तथा नवीन युग में बेलूड़मठ, कामारपुकुर, जयरामबाटी आदि जैसे अनेक पवित्र तीर्थस्थान हैं और वहाँ आज भी लोग लाखों की संख्या में जाते हैं।

 यद्यपि भारत के वर्तमान 'तथाकथित सेक्यूलर दल के नेता' जो लाखों वर्ष पुराने शब्द धर्म, और 2000 साल पहले आविष्कृत शब्द 'रिलिजन' और 'मजहब' को सामान समझते हैं, और  सामान्य जनता को ईश्वर, अगले जन्म, तथा पुण्य और पापमय जीवन के भेद में विश्वास न करने के लिए प्रेरित करते हैं।  और यद्यपि उन्हें शराब पीने, मांस खाने तथा तथाकथित रूप से सभ्य बनने (चोरी -बेईमानी करके भी किसी प्रकार अधिक से अधिक जमीन-जायदाद जमा करने या अत्यधिक धनवान बनने) की शिक्षा देते हैं, फिर भी भारत की बहुसंख्यक जनता चार पापों - अवैध सम्बन्ध, मांसाहार, नशा तथा जुआ से भयभीत रहती है। जब भी किसी धार्मिक संस्था द्वारा  कलकत्ता, बम्बई, मद्रास, अहमदाबाद या हैदराबाद जैसे किसी बड़े शहर में भी कोई उत्सव/यज्ञ मनाया जाता है, तो लोग हजारों की संख्या में एकत्र होते हैं।

जिस प्रकार > मोक्ष चाहने वाले भक्तों को 'आत्मनो मोक्षार्थं मंत्र' की दीक्षा देने की योग्यता प्राप्त करने के लिए ठीक उसी प्रकार जैसे "रामकृष्ण मठ-मिशन के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष लेकिन संन्यासी गुरु के सानिध्य में कमसे कम दो दिवसीय निर्जनवास करना पड़ता है।

उसी प्रकार > जैसाकि वेदान्त - सूत्र में कहा गया है, मानव जीवन विशेष रूप से भगवत् - साक्षात्कार के लिए है: 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा। ' इसीलिए महामण्डल लीडरशिप कैम्प के अनिवार्य निर्जनवास या गुरुगृहवास में 3H विकास के 'मनःसंयोग(या समाधि)' आदि 5 अभ्यास के प्रशिक्षण-  द्वारा देहाभिमान रहित गृहस्थ नेताओं या जीवनमुक्त शिक्षकों का निर्माण करने पर जोर दिया जाता है। 
अतएव अब " अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' के अग्रणी व्यक्तियों का कर्तव्य है कि इस Be and Make आन्दोलन की महत्ता को समझें और अनेक युवाओं को लीडरशिप ट्रेनिंग में प्रशिक्षित करके इस आन्देलन का प्रचार करने के लिए उन्हें भारत के विभिन्न राज्यों में  भेजें। 

यदि (जन्मजात धर्मप्रेमी) भारतीय छात्रों को घर-परिवार में रहते हुए युवा अवस्था में ही (अर्थात विवाहित/अविवाहित किसी भी अवस्था में रहते हुए ही ) " 3H विकास के (मनःसंयोग,प्रार्थना, व्यायाम, स्वाध्याय, विवेक-प्रयोग या समाधि आदि) 5 अभ्यास का प्रशिक्षण " द्वारा देशभक्त और चरित्रवान मनुष्य (अर्थात ईश्वर प्राप्त मनुष्य , पूर्ण निःस्वार्थी मनुष्य, या ज्ञानी मनुष्य) - बनने और बनाने के विज्ञान "राजयोग" के अध्यन-अध्यापन का प्रशिक्षण देने में सक्षम जीवनमुक्त लोकशिक्षकों (नेताओं या पैगम्बरों) का बड़े पैमाने पर निर्माण किया जाए; तो आगे चलकर वे स्वामीजी की योजना 'Be and Make मनुष्य बनो और बनाओ ' को एक सफल आंदोलन का रूप देकर समग्र जगत् के लिए सर्वाधिक उपयोगी, कल्याणकारी कार्य  सम्पन्न कर सकने में भारत को समर्थ बना सकते हैं।    
 ~ 'Be and Make' आंदोलन का रूप देने में समर्थ उप-नेता  [(Dy C-IN-C)- दीपक दा, अमित दत्ता, सोमनाथ बागची  बनने के लिए] बनने के लिये " विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा " में प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त आचार्य पूज्य नवनीदा जैसे गृहस्थ नेता-वरिष्ठ (C-IN-C), जीवनमुक्त योगी (living liberated yogi) (पैगम्बर) के सानिध्य या गुरुगृहवास या निर्जनवास में 27 वर्षों तक (1985 से 2012 तक) रहते हुए महामण्डल के छः दिवसीय ऐनुअल कैम्प, तीन-दिवसीय राज्य स्तरीय कैम्प या कम से कम दो दिवसीय "Be and Make Leadership Training Camp" या SPTC कैम्प में प्रतिवर्ष भाग लेना अनिवार्य होता है।
महामण्डल के द्वारा सम्पूर्ण भारतवर्ष में विगत 56  वर्षों से  'Be and Make' आन्दोलन के प्रसार का व्यावहारिक प्रभाव यह हुआ है कि, बंगाल के बाहर भारत के अन्य हिन्दी-भाषी राज्यों में भी पशुमानव को मनुष्य में, मनुष्य को (100 % निःस्वार्थपर) देवमानव में उन्नत करने में समर्थ कुछ तुहीन,रास बिहारी, अजय, KJN के रूप में जीवनमुक्त योगियों का निर्माण हुआ है। मेरे जैसे सर्वाधिक पतित, लम्पट व्यक्ति भी क्रमश पहले की अपेक्षा  उन्नत सन्त बन रहे हैं। यह विश्व के लिए केवल एक भारतीय का विनम्र सेवा - कार्य है। यदि स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर  'Be and Make' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा के अनुसार  सारे भारतीय युवा इस पथ का अनुसरण करते, तो भारत विश्व को एक अद्वितीय उपहार दे सकता था और इस तरह भारत महिमा चारों ओर फैलती। 
किन्तु भारत तो अब एक दरिद्रता से ग्रस्त देश माना जाता है और जब भी अमरीका या किसी अन्य अमीर देश का, या भारत का कोई उच्च मध्यम वर्गीय व्यक्ति भारत के हिन्दी भाषी प्रदेश गुजरात में अपना 20, 000 रुपया खर्च करता ह, तो अब  उसे वहां सड़कों के किनारे अनेक लोग लेटे हुए नहीं मिलते हैं, जिन्हें दो समय भरपेट भोजन भी नहीं मिल पाता, सभी स्वस्थ और सुखी दिख पड़ते हैं। ऐसी भी NGO संस्थाएँ हैं, जो इन गरीब लोगों के कल्याण के नाम पर सारे विश्व से धन तो एकत्र करती हैं, किन्तु उसे वे अपनी खुद की इन्द्रियतृप्ति के पीछे खर्च करते हैं।  
अर्थात 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण देने में समर्थ महामण्डल का  भावी नेता , जीवनमुक्त योगी,  उप-नेता (Dy CINC-2 ) बनने के  लिए वर्तमान उप-नेता (Dy CINC- 3) को महामण्डल के वर्तमान नेता वरिष्ठ [(C-IN-C) प्रमोद दा ने 26 जुलाई 2023 को  G.S. सोमनाथ बागची के बारे में  जगदीश दे के माध्यम से समाचार दिया कि उनका डेलाइसिस हुआ है, और पिन्टू दास का यूनिट बेलेघाटा ने अभीतक अकाउन्ट नहीं जमा किया है ? तब तक AGM नहीं हो सकता है ; अतः 30 जुलाई 2023 के मीटिंग में इसको पास करवाना होगा।] के सानिध्य या निर्जनवास या गुरुगृहवास में रहते हुए  " 28 जून 2023 से 9 जुलाई 2023 तक 10 दिवसीय अन्तर-राज्य स्तरीय  गुजरात कैम्प"   गुजारने से ] इसको      ज्ञानी या 'ईश्वर -प्राप्त मनुष्य, जीवनमुक्त योगी बनने और बनाने का उपाय - श्रीमद भागवत (10.22.35 ) तथा (श्रीचैतन्य चरितामृत -आदि लीला 9.42 ) श्लोकमें  नेता, पैगम्बर, अवतार श्री कृष्ण द्वारा कही गयी बात - द्वारा कथित 'व्यावहारिक वेदान्त' की परीक्षा हो जाती है -

एतावज्जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु ।
प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेयआचरणं सदा ॥ ३५ ॥

शब्दार्थ : एतावत् - यहाँ तक ; जन्म - जन्म की ; साफल्यम् - पूर्णता, सिद्धि; देहिनाम् - देहधारियों की ; इह - इस संसार में; देहिषु - देहधारियों की ओर ; प्राणैः - प्राणों से ; अर्थेः - धन से ; धिया - बुद्धि से; वाचा - वाणी से ; श्रेयः - शाश्वत सौभाग्य ; आचरणम् - वास्तव में कार्य करते हुए; सदा - सदा।
अनुवाद : भागवत के अनुसार बुद्धिमान मनुष्य / (या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) का कर्तव्य है कि वह इस तरह कर्म करे कि मनुष्य जीवन का जो चरम लक्ष्य है - 'ईश्वरलाभ'; उसे वह स्वयं प्राप्त करे, और दूसरे मनुष्यों को भी ईश्वरलाभ करने में अपने जीवन, धन, बुद्धि, तथा वाणी से सहायता करे। ताकि सम्पूर्ण मानव समाज जीवन के चरम लक्ष्य को आसानी से प्राप्त कर सके।

तात्पर्य : सामान्य कार्य दो प्रकार के होते हैं - श्रेयस अर्थात् ऐसे कार्य जिनका अन्तिम परिणाम लाभकारी तथा मंगलकारी होता है तथा प्रेयस् अर्थात् जो तुरन्त ही लाभकारी प्रतीत होते हों किन्तु जिनका परिणाम मंगलकारी नहीं होता है। जैसे - आँवला और ईमली। अथवा उदाहरणार्थ, बच्चों को खेलने का शौक होता है। वे शिक्षा प्राप्त करने के लिए स्कूल नहीं जाना चाहते और सोचते हैं कि अपने मित्रों के साथ रात - दिन खेलना ही उनके जीवन का लक्ष्य है।
यहाँ तक कि भगवान् कृष्ण के दिव्य जीवन में भी हम देखते हैं कि जब वे बालक थे, तो उन्हें अपने ही समवयस्क ग्वालबालों के साथ खेलना अत्यन्त प्रिय था। वे खाना खाने तक के लिए घर नहीं जाते थे। माता यशोदा को स्वयं वहाँ जाकर उन्हें घर लाने के लिए फुसलाना पड़ता था। अतएव यह बच्चे का स्वभाव है कि वह रात - दिन खेल में लगा रहता है और अपने स्वास्थ्य तथा अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यों की भी परवाह नहीं करता। यह प्रेयस् अर्थात् तुरन्त लाभकारी कार्यों का उदाहरण है। 
किन्तु कुछ कार्य श्रेयस् भी होते हैं, जो अन्ततः मंगलप्रद होते हैं। वैदिक सभ्यता के अनुसार मनुष्य को भगवद्भावनामय होना चाहिए। उसे यह जानना चाहिए कि ईश्वर क्या हैं? यह भौतिक जगत् क्या है? वह कौन है और उनके परस्पर सम्बन्ध क्या हैं? यह श्रेयस् अर्थात् अन्ततः मंगलप्रद कार्य कहलाता है।
श्रीमद्भागवत के इस श्लोक में बतलाया गया है कि मनुष्य/नेता को श्रेयस् कार्य में रुचि रखनी चाहिए। श्रेयस् के चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसे अपना सर्वस्व - अपना जीवन, धन तथा वाणी - केवल अपने लिए ही नहीं, अपितु दूसरों के लिए अर्पित कर देने चाहिए। किन्तु जब तक वह अपने निजी जीवन में श्रेयस् में रुचि नहीं लेगा, तब तक वह दूसरों को श्रेयस् का उपदेश नहीं दे सकता।
श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा उद्धृत यह श्लोक मनुष्यों पर लागू होता है, पशुओं पर नहीं। जैसाकि पिछले श्लोक में मनुष्य - जन्म शब्द से इंगित किया गया है, ये आदेश मनुष्यों के लिए है। दुर्भाग्यवश आज के लोग यद्यपि मानव - देह धारण किए हुए हैं, फिर भी आचरण में वे पशुओं से भी बदतर होते जा रहे हैं। यह आधुनिक शिक्षा का दोष है। 
आधुनिक शिक्षक :  मानव - जीवन के उद्देश्य को नहीं जानते ; उन्हें इसी की चिन्ता रहती है कि वे अपने देश या मानव - समाज की आर्थिक दशा को कैसे उन्नत बनाएँ। यह भी आवश्यक है।वैदिक सभ्यता में तो मानव - जीवन के सारे पक्षों पर विचार किया गया है - इनमें धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष सम्मिलित हैं। 

किन्तु मानवता की पहली आवश्यकता धर्म है। (रिलिजन या मजहब के अनुसार स्वर्ग-जन्नत जाना नहीं!!) धार्मिक बनने के लिए मनुष्य को ईश्वर, शास्त्र या गुरु के आदेशों के अनुसार चलना होता है ; किन्तु दुर्भाग्यवश इस युग के लोगों ने धर्म का तिरस्कार कर दिया है और वे आर्थिक उन्नति में लगे हुए हैं। अतएव धन पाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। आर्थिक उन्नति के लिए येन - केन प्रकारेण धन प्राप्त करना आवश्यक नहीं है। मनुष्य को केवल भारत को समृद्ध बनाने के उद्देश्य से, या केवल अपनी आवश्यकता के अनुसार, या अपने (3H)  शरीर, मन तथा आत्मा को सतेज बनाये रखने भर के लिए धन कमाना चाहिए।
 किन्तु  आधुनिक आर्थिक विकास, बिना किसी धार्मिक आधार के किया जा रहा है, अतएव लोग लालची, विषयी तथा धन के पीछे (तीनों ऐषणाओं के पीछे) पागल बनते जा रहे हैं। वे केवल रजोगुण तथा तमोगुण को विकसित कर रहे हैं और प्रकृति के अन्य गुण - सत्त्वगुण तथा ब्राह्मण - गुणों की उपेक्षा कर रहे हैं। इसीलिए सारा समाज अस्त - व्यस्त दशा में है।

आज स्वामीजी की योजना 'Be and Make' के द्वारा  मनुष्य-निर्माण  और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा देने में समर्थ 'ज्ञानी या जीवनमुक्त योगी/ नेताओं  की कमी के कारण सारा जगत् अंधकार में है, क्योंकि यह जीवन कामिनी -कांचन में आसक्ति  (चार प्रकार के पापों - मांसाहार, अवैध सम्बन्ध, जुआ तथा नशा) - - से ढका हुआ है। अतएव लोगों को इन पापकर्मों से दूर हटाने के लिए -'Be and Make' आन्दोलन के योग्य नेताओं का निर्माण करने का  प्रशिक्षण सम्पूर्ण भारतवर्ष में  जोरदार प्रचार - कार्य की आवश्यकता है। इससे शान्ति तथा सम्पन्नता आयेगी ; ठगों, चोरों और लंपटों की संख्या घटेगी और जब भारत महान बनेगा तब विश्व का सारा मानव समाज भगवद् - भावनामय बनेगा।

आज बृहस्पतिवार है, २२ अक्टूबर १८८५ ।  श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ कलकत्ते के श्यामपुकुर नामक स्थान में रहते हैं । शरीर में कठिन व्याधि है । गले में कैन्सर हो गया है । श्यामपुकुर के एक दुमँजले मकान में श्रीरामकृष्ण का पलंग बिछाया गया है, उसी पर श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । कमरे में बहुत से आदमी बैठे हुए हैं । शाम  के सात बजे का समय है । बहुतसे लोग श्रीरामकृष्णदेव के दर्शन करने के लिए आये हैं । डाक्टर सरकार, श्रीयुत ईशानचन्द्र मुखोपाध्याय और भक्तगण सामने तथा चारों ओर बैठे हुए हैं ।  डाक्टर सरकार चिकित्सा के लिए आते हैं तो छः सात घण्टे तक रहते हैं । श्रीरामकृष्ण पर उनकी बड़ी श्रद्धा है और भक्तों को तो वे अपने आत्मीयों की तरह मानते हैं । ईशान बड़े दानी हैं, पेन्शन लेकर भी दान किया करते हैं, ऋण करके दान करते हैं और सदा ईश्वर की चिन्ता में रहते हैं । सब के सब एकदृष्टि से उनकी ओर देख रहे हैं । श्रीरामकृष्णदेव की बातें सुनने के लिए लोगों की इच्छा प्रबल हो रही है । उनके कार्य देखने के लिए लोग उत्सुक हो रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण : “जो संसारी व्यक्ति ईश्वर के पादपद्यों में भक्ति करके संसार का काम करता है, वह धन्य है, वह वीर है । जैसे किसी के सिर पर दो मन का बोझा रखा हुआ हो, और एक बरात जा रही हो । इधर तो सिर पर इतना बड़ा बोझा है, फिर भी वह खड़े होकर बरात को देखता है । इस प्रकार संसार में रहना बिना अधिक आध्यात्मिक शक्ति (आत्मबल या आत्मविश्वास) के नहीं होता ।

“परन्तु संसार में यदि निर्लिप्त भाव से रहना है तो कुछ साधना चाहिए । कुछ दिन निर्जन में रहना जरूरी है, एक वर्ष के लिए हो या छः महीने के लिए, अथवा तीन महीने के लिए या महीने ही भर के लिए उसी एकान्त में ईश्वर की चिन्ता करनी चाहिए। और मन ही मन कहना चाहिए - 'इस संसार में मेरा कोई नहीं है, जिन्हें मैं अपना कहता हूँ, वे दो दिन के लिए हैं, भगवान ही मेरे अपने हैं, वे ही मेरे सर्वस्व हैं । हाय ! किस तरह मैं उन्हें पाऊँ ?’

" ज्ञानी लोग जिसको ब्रह्म कहते हैं, योगी लोग उसीको आत्मा कहते हैं , और भक्त लोग उसको ही भगवान कहते हैं। वस्तु एक ही है, केवल उसके नाम में भेद है। जो ब्रह्म हैं, वे ही आत्मा हैं और वे ही भगवान हैं। " --श्रीरामकृष्ण परमहंस देव। '     

“भक्तिलाभ (दूध-पानी विवेक या अनासक्तिलाभ) के पश्चात् गृहस्थ जीवन में रहा जा सकता है । जैसे हाथ में तेल लगाकर कटहल काटने से फिर उसका दूध हाथ में नहीं चिपकता । संसार पानी की तरह है और मनुष्य का मन जैसे दूध पानी में अगर दूध रखना चाहते हो तो दूध और पानी एक हो जायेगा; इसीलिए निर्जन स्थान में दही जमाना चाहिए । दही जमाकर मक्खन निकालना चाहिए। मक्खन निकालकर अगर पानी में रखो तो फिर वह पानी में नहीं मिलता, निर्लिप्त होकर तैरता रहता है ।
'निर्लिप्त भाव से संसार करना बड़ा कठिन है । मुँह से कहने से ही (देहाद्यभिमान रहित मनुष्य)  राजर्षि जनक नहीं हो सकते।  जनक ने सिर नीचे और पैर ऊपर करके वर्षों तपस्या की थी । तुम्हें सिर नीचे और पैर ऊपर नहीं करना होगा । परन्तु साधना करनी चाहिए, निर्जन में वास करना चाहिए। निर्जन में ज्ञान और भक्ति प्राप्त करके फिर संसार कर सकते हो । दही एकान्त में जमाया जाता है । हिलाने-डुलाने से दही नहीं जमता ।’
“जनक निर्लिप्त थे, इसलिए उनका एक नाम विदेह भी था - अर्थात् देह में बुद्धि नहीं रहती थी, - संसार में रहकर भी जीवन्मुक्त होकर घूमते थे । परन्तु देह-बुद्धि का नाश होना बहुत दूर की बात है । बड़ी साधना चाहिए । “जनक बड़े वीर थे । वे दो तलवारें चलाते थे । एक ज्ञान की दूसरी कर्म की ।
“सड़ी हुई लकड़ी जब बह जाती है, तो उस पर कोई चिड़िया के बैठने से ही वह डूब जाती है, परन्तु मोटी लकड़ी का लट्ठा जब बहता है, तब गौ, आदमी, यहाँ तक कि हाथी भी उसके ऊपर चढ़कर पार हो सकता है । “स्टीम बोट खुद भी पार होता है और कितने ही आदमियों को भी पार कर देता है । “नारदादि आचार्य काठ के लट्ठे की तरह हैं, स्टीम बोट की तरह ।

 " ईश्वर को प्राप्त किये बिना ये सब बातें (3H में श्रद्धा) समझ में नहीं आतीं । साधक को वे अनेक भावों में और अनेक रूपों में दर्शन देते हैं । एक के पास गमला भर रंग था । बहुतेरे उसके पास कपड़े रँगाने के लिए आया करते थे । वह आदमी पूछा करता था, 'तुम किस रंग से रँगाना चाहते हो ?' किसी ने कहा, 'लाल रंग से ।' बस, वह आदमी गमले में कपड़ा छोड़ देता था और निकालकर कहता था, 'यह लो, तुम्हारा कपड़ा लाल रंग से रँग गया । कोई दूसरा कहता था, 'मेरा कपड़ा पीले रंग से रँग दो । रंगरेज उसी समय उसका कपड़ा भी उसी गमले में डुबाकर कहता था, 'यह लो, तुम्हारा पीले रंग से रँग गया ।' अगर कोई आसमानी रंग से रँगाना चाहता था, तो वह रंगरेज फिर उसी गमले में डुबाकर कहता, 'यह लो, तुम्हारा आसमानी रंग से रँग गया ।'इसी तरह, जो जिस रँग से कपड़ा रँगाना चाहता था, उसका कपड़ा उसी रंग से और उसी गमले में डालकर वह रँग देता था । एक आदमी यह आश्चर्यजनक कार्य देख रहा था । रंगरेज ने उससे पूछा, ‘क्यों जी, तुम्हारा कपड़ा किस रंग से रँगना होगा ?’ तब उस देखनेवाले ने कहा, 'भाई, तुमने जो रंग इस गमले में डाल रखा है, 'वही' वाला रंग (श्रद्धा या आस्तिक्य बुद्धि) मुझे दो ।' 

डाक्टर >  " ज्ञान (समाधि या योग) होने पर मनुष्य अवाक् हो जाता है, आँखें मुँद जाती है और आँसू बह चलते हैं। तब भक्ति की आवश्यकता होती है। 

"  उन्होंने नाना रूपों (M/F) की सृष्टि की है, इसलिए वे साकार हैं । उन्होंने मन की सृष्टि की है, इसलिए वे निराकार हैं । वे सब कुछ हो सकते है ।

[श्रीरामकृष्ण वचनामृत (सम्पूर्ण-पृष्ठ 1030), 22 अक्टूबर, 1885]

**** " The Religious Mission of the English-Speaking Nations " : by "Rev. Henry H. Jessup, D.D, of Beirout, Syria." (published in Neely's History of the Parliament of Religions and Religious Congresses of the World's Columbian Exposition, pages 637-641 Chicago: F. Tennyson Neely, 1894) Historians have observed that, before this Parliament, "religion" was classified by many Americans into Ethnic religion and Universal Religion. They considered there being only one universal religion: Christianity. In this view, all previous faiths were ethnic religions, and their purpose was to prepare the people for Christianity; ethnic religions may have had portions of the truth, but only Christianity had all truth. This 1893 Parliament was a pivotal moment in the abolition of such classification, as representatives of "eastern" religions such as Swami Vivekananda and Anagarika Dharmapala promoted a new religious tolerance. (Robert Stockman, personal email, paraphrased, 2012.)

>>>राजयोग विज्ञान (मनःसंयोग, समाधि या विवेक-दर्शन का प्रशिक्षण): स्वामीजी कहते हैं, " हम सत्य की प्राप्ति के लिये सदा प्रयत्नशील रहते हैं। किन्तु मानवात्मा की आभ्यंतरिक सृष्टि (क +मन) ही ईश्वर को अच्छादित कर देती है, इसीलिये ईश्वर के आदर्शों में इतनी भिन्नतायें हैं। जब यह सृष्टि रुक जाती है, तभी हम ब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं। यह ब्रह्म आत्मा में है, सृष्टि में नहीं।  अतः सृष्टि को निरुद्ध करके हम ब्रह्म को जान सकते हैं।"

" जब हम अपने विषय में सोचते हैं, तो अपने को एक स्त्री या पुरुष शरीर के रूप में सोचते हैं, और जब ईश्वर के विषय में सोचते हैं, तो उसकी भी कल्पना देहधारी के रूप में ही करते हैं। (सृष्टि का निरोध करना अर्थात) ऐसा प्रयत्न करना जिससे आत्मा प्रकट हो जाय, यही मनुष्य का कर्तव्य है। इसकी साधना मनःसंयोग सीखने से ही आरम्भ होती है। मनःसंयोग सीखने का लक्ष्य एकाग्रता (समाधि) की प्राप्ति है। यदि तुम एक क्षण के लिये भी पूर्णतया निश्चल हो सको, तो तुम लक्ष्य तक पहुँच गये। " 

" इसके बाद भी बुद्धि कार्य करती रहेगी, परन्तु वही पुरानी बुद्धि (स्वयं को स्त्री या पुरुष शरीर समझने वाली बुद्धि ) नहीं रह जायेगी। तुम, अपने को उसी रूप में जान लोगे, जो तुम हो-अर्थात अपनी यथार्थ आत्मा ! एक क्षण के लिये अपनी चित्त-वृत्ति का निरोध कर लो, तब तुम्हारे यथार्थ स्वरुप की सत्यता तुम्हारे हृदय में बिजली के सामान कौंध जायेगी, तब मुक्ति हस्तगत हो जाती है और इसके बाद कोई बन्धन नहीं रह जाता। " २/२५६

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " प्रायः देखने में आता है कि अच्छे से अच्छे लोगों पर कष्ट और कठिनाइयाँ आ पडती हैं। इसका समाधान न भी हो सके, फिर भी मुझे जीवन में ऐसा अनुभव हुआ है कि जगत में कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो मूल रूप में भली न हो। ऊपरी लहरें चाहे जैसी हों, परन्तु वस्तु मात्र के अन्तरकाल में प्रेम एवं कल्याण का अनन्त भण्डार है। जब तक हम उस अन्तराल तक नहीं पहुँचते, तभी तक हमें कष्ट मिलता है। एक बार उस शान्ति-मण्डल में प्रवेश करने पर फिर चाहे आँधी और तूफान के जितने तुमुल झकोरे आयें, वह मकान, जो सदियों की पुरानि चट्टान पर बना है, हिल नहीं सकता"।

  श्रीरामकृष्ण कहते हैं- " कुछ महापुरुष सप्तम भूमि या समाधी की सर्वोच्च अवस्था में पहुँचकर भगवद-बोध में विलीन हो जाने के बाद भी लोककल्याण के लिये उस भूमि से उतर आते हैं। समाधी के बाद भी वे इच्छापूर्वक ' विद्या का अहं ' रख लेते हैं। समाधी के बाद भी कोई-कोई 'मैं' को रख छोड़ते है- 'दास मैं या भक्त का मैं। ' शंकराचार्य ने लोकशिक्षा के लिये ' विद्या का मैं ' रख छोड़ा था। इसी प्रकार ज्ञानाग्नि में दग्ध हो जाने के बाद अहं का भी केवल आकार भर रह जाता है।" वह सशरीर सर्वगत समष्टिमन (universal mind) के रूप में अवतीर्ण होती है। जिस प्रकार अहंकार मूलक मन का जन्म कर्म बन्धन के अधीन होता है उसी प्रकार ईश्वर-कोटि पुरुष का अवरोहण (व्युत्थान) कर्म बन्धन के अधीन नहीं होता। साधारण पुरूष अपनी अदम्य तृष्णा की प्रेरणा से बाध्य होकर जन्म लेता है किन्तु ईश्वर-कोटि का पुरुष भम्र तथा बन्धन के जगत् में फंसे हुए लोगों के प्रति असीम तथा सहज करुणा के कारण संसार में अवतीर्ण होता है।

" अभयं हि वै ब्रह्म भवति" - (बृह० उप० ४.४.२५) अभय होने पर ब्रह्म हो जाता है। क्योंकि उसकी ज्ञानमयी दृष्टि के समक्ष सृष्टि - ब्रह्माण्ड रचना का यह रहस्य उद्घाटित हो जाता है -  "असत् वा इदम् अग्रे आसीत्।   ततो वै  सत् अजायत। तत् आत्मानं स्वयम् अकुरुत। तस्मात् तत् सुकृतम् उच्यते इति यत् वै तत् सुकृतम्। रसो वै सः । अयं रसं हि लब्ध्वा आनन्दी भवति। कः हि एव अन्यात् कः प्राण्यात् यत् एषः आनन्दः आकाशे न स्यात् एषः हि एव आनन्दायाति। एषः यदा हि एव अदृश्ये अनात्म्ये अनिरुक्ते अनिलयने अभयं प्रतिष्ठां विन्दते अथ सः अभयं गतः भवति।" (- तैत्तिरीयोपनिषद्/ब्रह्मानन्दवल्ली/सप्तमोऽनुवाकः/ श्लोक १) 
-- अर्थात आरम्भ में यह सम्पूर्ण विश्व 'असत्' (अस्तित्वहीन) एवं 'अव्यक्त' था, इसी में से इस 'व्यक्त सत्ता' का प्रादुर्भाव हुआ। उसने अपना सृजन 'स्वयं' ही किया; अन्य किसी ने उसको नहीं सृजा। इसी कारण इसके सम्बन्ध में कहा जाता है यह 'सुकृत' अर्थात् बहुत सुचारु एवं सुन्दर रूप से रचा गया है। और यह जो बहुत अच्छी तरह तथा सुन्दरता से रचा गया है यह वस्तुतः अन्य कुछ नहीं, इस अस्तित्व के पीछे छिपा हुआ आनन्द, रस ही है। जब प्राणी इस आनन्द को, इस रस को प्राप्त कर लेता है तो वह स्वयं आनन्दमय बन जाता है ! कारण, यदि उसकी सत्ता के हृदयाकाश में यह आनन्द न हो तो कौन है जो प्राणों को अन्दर ले पाने का श्रम कर पायेगा अथवा किसके पास प्राणों को बाहर छोड़ने की शक्ति होगी? 
       'यह हमारी आत्मा ही' है जो आनन्द का स्रोत है; क्योंकि जब हमारी 'अन्तरात्मा' उस 'अदृश्य (Invisible) ', 'अशरीरी (Bodiless -अनात्म्य, अमूर्त )' , 'अनिर्दशं (Undefinable, अनिरुक्त- 'मायसंख्या तुरीयं '), एवं 'अनिलयन' (Unhoused Eternal) - अनहद अनन्त 'ब्रह्म' (शाश्वत चैतन्य) में आश्रय ग्रहण करके दृढ़ रूप से 'उस' प्रतिष्ठित हो जाता है, तब वह 'भय' की पकड़ से बाहर हो जाता है।  
 " ॐ  भूर्भुव:स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात्-''सम्पूर्ण जगत् को रचने वाले और प्राणियों के कल्याणकर्ता स्वयं प्रकाश स्वरूप परमात्मा के इस ज्योति:स्वरूप का ध्यान हम लोग करते हैं, जो ओंकार स्वरूप, और सर्वरक्षक तीनों लोक स्वरूप और स्वयंभू, सर्वाधार, आनन्द स्वरूप, सब शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित और सभी लोगों की प्रार्थना एवं भजन के योग्य हैं। वह ज्योति:स्वरूप हमारी बुद्धियों को अपनी ओर, सत्कर्म और विचार में लगावे।'' 

दक्षिणामूर्ति स्त्रोत्र में कहा है -
चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा ।
         गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः ॥ १२ ॥ 

आश्चर्य तो यह है कि उस वटवृक्ष के नीचे सभी शिष्य वृद्ध हैं और गुरु युवा हैं। साथ ही गुरु का व्याख्यान भी मौन भाषा (स्वामी विवेकानन्द के आँखों की भाषा)  में है, किंतु उसी से शिष्यों के संशय नष्ट हो गये हैं ॥ १२

इस अवस्था में पहुँचकर जीवनमुक्त शिक्षक , मानवजाति के मार्गदर्शक नेता सन्त कबीर गा उठते हैं --
 
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?

रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?

[हम आत्मज्ञान एवं आत्मस्थिति के प्रेम में मस्त हैं, फिर हमें सांसारिक चतुराई से क्या प्रयोजन ? आत्मलीन साधक स्वार्थपर दुनिया की चतुराई में नहीं पड़ता । हमारा यह दृढ़ ध्येय है कि हम संसार में सदैव स्वतंत्र रहें; हमारे मन में कहीं कोई बंधन न हो, फिर हमें दुनियादारी में मोह करने की क्या आवश्यकता ! किसी व्यक्ति एवं वस्तु में मोहब्बत करने (कामिनी -कांचन के मोह में फंसने) का क्या प्रयोजन ?]


जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,

हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?
 
[ जिनको यह भ्रम है कि हम अपने परमात्मा से बिछुड़ गये हैं, वे सदैव दर-बदर भटकते फिरते हैं । वे काशी-काबा की खाक छानते फिरते हैं । किन्तु यहां स्थिति सर्वथा भिन्न है । हमें तो पक्का बोध है कि हमारा प्रियतम परमात्मा हममें ही है । आत्मा ही परमात्मा है । मैं और परमात्मा दो नहीं । फिर हम किस अन्य परमात्मा को पाने की प्रतीक्षा करें ?

खलक सब नाम अपने को, बहुत कर सिर पटकता है,

हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?


संसार में बहुत लोग अपने शारीरिक नाम को जगत में प्रसिद्ध करने के लिए , (नाम-यश पाने के लिए) अपना  सिर पटकते रहते हैं । वे जिस किसी तरह अपने कल्पित नाम को लोक में फैलाना चाहते हैं । हम तो सद्गुरु से उपदेश पायें हैं और भौतिक नाम-रूप से परे आत्मतत्व को जानने वाले हैं । फिर शारीरिक नाम की प्रसिद्धि के चक्कर में क्यों पड़ें ?]

न पल बिछुड़े पिया हमसे, न हम बिछड़े पियारे से,

उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?


[प्रियतम हमसे एक क्षण के लिए भी न बिछुड़े और हम प्रियतम से न बिछुड़ें । अर्थात प्रियतम आत्मदेव का कभी विस्मरण न हो, हम सदैव आत्मजाग्रत हों । ऐसी लगन हममें हरदम लगी है । फिर हमें किस बात को लेकर बेचैनी होगी ? ]
कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,

जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?

[कबीर आत्म-प्रेम में मतवाला है । उसने अपने दिल से दूसरे को (अपना-पराया के द्वैत भाव को) दूर कर दिया है । लेकिन सावधान ! यह रास्ता नाजुक है । इस पर संसार की अहंता-ममता का बोझ लेकर नहीं चला जा सकता । जब हम अपने में मस्त हैं तब दुनिया के अहंकार-ममकार का भार क्यों उठायें ।]



 दक्षिणामूर्ति युवा नेता - जीवनमुक्त शिक्षक -सन्त कबीर 
" किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है ? यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो तो भी न डरना। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो।"
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " भाव यह है कि मनुष्य को इसी जीवन में ईश्वर की प्राप्ति करनी होगी और अद्वैत ग्रन्थ अत्यन्त प्रमाण-युक्त तर्क के साथ उसमें यह जोड़ देते हैं कि -'ईश्वर को जानना ही ईश्वर हो जाना है '-ब्रह्मवेद ब्रह्मैव भवति।'..पहले हमें ईश्वर बन लेने दो। तत्पश्चात दूसरों को ईश्वर बनाने में सहायता देंगे। बनो और बनाओ, ' Be and Make ' यही हमारा मूल-मंत्र रहे।"
 " यही रहस्य है। योग प्रवर्तक पंतजलि कहते हैं, " जब मनुष्य समस्त अलौकेक दैवी शक्तियों के लोभ का त्याग करता है, तभी उसे धर्म मेघ नामक समाधि प्राप्त होती है। वह प्रमात्मा का दर्शन करता है, वह परमात्मा बन जाता है और दूसरों को तदरूप बनने में सहायता करता है। मुझे इसी - (Be and Make )का प्रचार करना है। जगत् में अनेक मतवादों का प्रचार हो चुका है। लाखों पुस्तकें हैं, परन्तु हाय ! कोई नेता/शिक्षक  अपने जीवन और व्यवहार में इसका किंचित् अंश में भी प्रत्य्क्ष आचरण नहीं करता। "
 " तुमने बहुत बहादुरी की है। शाबाश! हिचकने वाले पीछे रह जायेंगे और तुम कुद कर सबके आगे पहुँच जाओगे। जो अपना उध्दार में लगे हुए हैं, वे न तो अपना उद्धार ही कर सकेंगे और न दूसरों का। ऐसा शोर - गुल मचाओ की उसकी आवाज़ दुनिया के कोने कोने में फैल जाय। कुछ लोग ऐसे हैं, जो कि दूसरों की त्रुटियों को देखने के लिए तैयार बैठे हैं, किन्तु कार्य करने के समय उनका पता नही चलता है। जुट जाओ, अपनी शक्ति के अनुसार आगे बढो। इसके बाद मैं भारत पहुँच कर सारे देश में उत्तेजना फूँक दूंगा। डर किस बात का है? नहीं है, नहीं है, कहने से साँप का विष भी नहीं रहता है। नहीं नहीं कहने से तो 'नहीं' हो जाना पडेगा। खूब शाबाश! छान डालो - सारी दूनिया को छान डालो! अफसोस इस बात का है कि यदि मुझ जैसे दो - चार व्यक्ति भी तुम्हारे साथी होते। तमाम संसार हिल उठता। क्या करूँ धीरे-धीरे अग्रसर होना पड रहा है। तूफ़ान मचा दो तूफ़ान! " ९/३७९
  " अन्त में प्रेम की ही विजय होती है। हैरान होने से काम नहीं चलेगा- ठहरो- धैर्य धारण करने पर सफलता अवश्यम्भावी है- तुमसे कहता हूँ देखना- कोई बाहरी अनुष्ठानपध्दति कहीं अनिवार्य न बन जाये - 'बहुत्व में एकत्व'  (Unity in Diversity) 'सार्वजनिन-प्रेम' के भाव में किसी तरह की बाधा न हो। यदि आवश्यक हो तो "सार्वजनीनता" के भाव की रक्षा के लिए सब कुछ छोडना होगा। मैं मरूँ चाहे बचूँ, देश जाऊँ या न जाऊँ, तुम लोग अच्छी तरह याद रखना कि, सार्वजनीनता- हम लोग केवल इसी भाव का प्रचार नहीं करते कि, "दुसरों के धर्म का द्वेष न करना"; नहीं, हमलोग तो सभी नस्ल -जाति के मनुष्यों को, सभी धर्मों को सत्य समझते हैं और उन्का ग्रहण भी पूर्ण रूप से करते हैं हम इसका प्रचार भी करते हैं और इसे कार्य में परिणत कर दिखाते हैं। सावधान रहना, दूसरे (किसी सहयोगी) के अत्यन्त छोटे अधिकार में भी हस्तक्षेप न करना - इसी भँवर में बडे-बडे जहाज डूब जाते हैं।" 
" एक महान रहस्य का मैंने पता लगा लिया है -- वह यह कि केवल धर्म की बातें करने वालों से मुझे कुछ भय नहीं है। और जो सत्यद्र्ष्ट महात्मा हैं, वे कभी किसी से बैर नहीं करते। वाचालों को वाचाल होने दो! वे इससे अधिक और कुछ नहीं जानते! उन्हे नाम, यश, धन, स्त्री से सन्तोष प्राप्त करने दो। और हम धर्मोपलब्धि, ब्रह्मलाभ एवं ब्रह्म होने के लिए ही दृढव्रत होंगे। हम आमरण एवं जन्म-जन्मान्त में सत्य का ही अनुसरण करेंगें। दूसरों के कहने पर हम तनिक भी ध्यान न दें और यदि आजन्म यत्न के बाद एक, देवल एक ही आत्मा संसार के बन्धनों को तोडकर मुक्त हो सके तो हमने अपना काम कर लिया।" 
" जो सबका दास होता है, वही उन्का सच्चा स्वामी होता है। जिसके प्रेम में ऊँच - नीच का विचार होता है, वह कभी नेता नहीं बन सकता। जिसके प्रेम का कोई अन्त नहीं है, जो ऊँच - नीच सोचने के लिए कभी नहीं रुकता, उसके चरणों में सारा संसार लोट जाता है।
" वत्स, धीरज रखो, काम तुम्हारी आशा से बहुत ज्यादा बढ जाएगा। हर एक काम में सफलता प्राप्त करने से पहले सैंकडो कठिनाइयों का सामना करना पडता है। जो उद्यम करते रहेंगे, वे आज या कल सफलता को देखेंगे। परिश्रम करना है वत्स, कठिन परिश्रम्! काम कांचन के इस चक्कर में अपने आप को स्थिर रखना, और अपने आदर्शों पर जमे रहना, जब तक कि आत्मज्ञान और पूर्ण त्याग के साँचे में शिष्य न ढल जाय निश्चय ही कठिन काम है। जो प्रतिक्षा करता है, उसे सब चीज़े मिलती हैं। अनन्त काल तक तुम भाग्यवान बने रहो।
"अकेले रहो, अकेले रहो। जो अकेला रहता है, उसका किसी से विरोध नहीं होता, वह किसीकी शान्ति भंग नहीं करता, न दूसरा कोई उसकी शान्ति भंग करता है।

"जो सत्य है, उसे साहसपूर्वक निर्भीक होकर लोगों से कहो–उससे किसी को कष्ट होता है या नहीं, इस ओर ध्यान मत दो। दुर्बलता को कभी प्रश्रय मत दो। सत्य की ज्योति ‘बुद्धिमान’ मनुष्यों के लिए यदि अत्यधिक मात्रा में प्रखर प्रतीत होती है, और उन्हें बहा ले जाती है, तो ले जाने दोवे जितना शीघ्र बह जाएँ उतना अच्छा ही है

" तुम अपनी अंत:स्थ आत्मा को छोड़ किसी और के सामने सिर मत झुकाओ। जब तक तुम यह अनुभव नहीं करते कि तुम स्वयं देवों के देव हो, तब तक तुम मुक्त नहीं हो सकते।

" जो मनुष्य इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, उसे एक ही जन्म में हजारों वर्ष का काम करना पड़ेगा। वह जिस युग में जन्मा है, उससे उसे बहुत आगे जाना पड़ेगा, किन्तु साधारण लोग किसी तरह रेंगते-रेंगते ही आगे बढ़ सकते हैं।
    "जो महापुरुष प्रचार-कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रहकर पवित्र जीवनयापन करते हैं और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत् की सहायता करते हैं। इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है–अंत में उनकी शक्ति का चरम फलस्वरूप ऐसा कोई शक्तिसम्पन्न पुरुष आविर्भूत होता है, जो जगत् को शिक्षा प्रदान करता है।
      "आध्यात्मिक दृष्टि से विकसित हो चुकने पर धर्मसंघ में बना रहना अवांछनीय है। उससे बाहर निकलकर स्वाधीनता की मुक्त वायु में जीवन व्यतीत करो।
        "मुक्ति-लाभ के अतिरिक्त और कौन सी उच्चावस्था का लाभ किया जा सकता है? देवदूत कभी कोई बुरे कार्य नहीं करते, इसलिए उन्हें कभी दंड भी प्राप्त नहीं होता, अतएव वे मुक्त भी नहीं हो सकते। सांसारिक धक्का ही हमें जगा देता है, वही इस जगत्स्वप्न को भंग करने में सहायता पहुँचाता है। इस प्रकार के लगातार आघात ही इस संसार से छुटकारा पाने की अर्थात् मुक्ति-लाभ करने की हमारी आकांक्षा को जाग्रत करते हैं।
          "हमारी नैतिक प्रकृति जितनी उन्नत होती है, उतना ही उच्च हमारा प्रत्यक्ष अनुभव होता है, और उतनी ही हमारी इच्छा शक्ति अधिक बलवती होती है।
            " मन का विकास करो और उसका संयम करो, उसके बाद जहाँ इच्छा हो, वहाँ इसका प्रयोग करो–उससे अति शीघ्र फल प्राप्ति होगी। यह है यथार्थ आत्मोन्नति का उपाय। एकाग्रता सीखो, और जिस ओर इच्छा हो, उसका प्रयोग करो। ऐसा करने पर तुम्हें कुछ खोना नहीं पड़ेगा। जो समस्त को प्राप्त करता है, वह अंश को भी  प्राप्त कर सकता है।
              " पहले स्वयं संपूर्ण मुक्तावस्था प्राप्त कर लो, उसके बाद इच्छा करने पर फिर अपने को सीमाबद्ध कर सकते हो। प्रत्येक कार्य में अपनी समस्त शक्ति का प्रयोग करो।
                " सभी मरेंगे- साधु या असाधु, धनी या दरिद्र- सभी मरेंगे। चिर काल तक किसी का शरीर नहीं रहेगा। अतएव उठो, जागो और संपूर्ण रूप से निष्कपट हो जाओ। भारत में घोर कपट समा गया है। चाहिए चरित्र, चाहिए इस तरह की दृढ़ता और चरित्र का बल, जिससे मनुष्य आजीवन दृढ़व्रत बन सके।
                  " संन्यास का अर्थ है, मृत्यु के प्रति प्रेम। सांसारिक लोग जीवन से प्रेम करते हैं, परन्तु संन्यासी के लिए प्रेम करने को मृत्यु है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम आत्महत्या कर लें। आत्महत्या करने वालों को तो कभी मृत्यु प्यारी नहीं होती है। संन्यासी का धर्म है समस्त संसार के हित के लिए निरंतर आत्मत्याग करते हुए धीरे-धीरे मृत्यु को प्राप्त हो जाना।
                    "हे सखे, तुम क्योँ रो रहे हो ? सब शक्ति तो तुम्हीं में हैं। हे भगवन्, अपना ऐश्वर्यमय स्वरूप को विकसित करो। ये तीनों लोक तुम्हारे पैरों के नीचे हैं। जड की कोई शक्ति नहीं प्रबल शक्ति आत्मा की हैं। हे विद्वन! डरो  मत्; तुम्हारा नाश नहीं हैं, संसार-सागर से पार उतरने का उपाय हैं। जिस पथ के अवलम्बन से यती लोग संसार-सागर के पार उतरे हैं, वही श्रेष्ठ पथ मै तुम्हे दिखाता हूँ!
                      " बडे-बडे दिग्गज बह जायेंगे। छोटे-मोटे की तो बात ही क्या है! तुम लोग कमर कसकर कार्य में जुट जाओ, हुंकार मात्र से हम दुनिया को पलट देंगे। अभी तो केवल मात्र प्रारम्भ ही है। किसी के साथ विवाद न कर हिल-मिलकर अग्रसर हो -- । डरने का कोई कारण नहीं है, माँ मेरे साथ हैं -- इस बार ऐसे कार्य होंगे कि तुम चकित हो जाओगे। भय किस बात का? किसका भय? वज्र जैसा हृदय बनाकर कार्य में जुट जाओ।
                        " लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, तुम्हारा देहान्त आज हो या एक युग मे, तुम न्यायपथ से कभी भ्रष्ट न हो।
                          " श्रेयांसि बहुविघ्नानि अच्छे कर्मों में कितने ही विघ्न आते हैं। -- प्रलय मचाना ही होगा, इससे कम में किसी तरह नहीं चल सकता। कुछ परवाह नहीं। दुनीया भर में प्रलय मच जायेगा, वाह! गुरु की फतह! अरे भाई श्रेयांसि  बहुविघ्नानि, उन्ही विघ्नों की रेल पेल में आदमी तैयार होता है। मिशनरी फिशनरी का काम थोडे ही है जो यह धक्का सम्हाले! ....बड़े-बड़े बह गये, अब गडरिये का काम है जो थाह ले? यह सब नहीं चलने का भैया, कोई चिन्ता न करना। सभी कामों में एक दल शत्रुता ठानता है; अपना काम करते जाओ किसी की बात का जवाब देने से क्या काम? सत्यमेव जयते नानृतं, सत्येनैव पन्था विततो देवयानः (सत्य की ही विजय होती है, मिथ्या की नहीं; सत्य के ही बल से देवयान-मार्ग की गति मिलती है।) ...धीरे - धीरे सब होगा।
                            "वीरता से आगे बढो। एक दिन या एक साल में सिध्दि की आशा न रखो। उच्चतम आदर्श (समाधी के अमरत्व का त्याग ) पर दृढ रहो। स्थिर रहो। स्वार्थपरता और ईर्ष्या से बचो। आज्ञा-पालन करो। सत्य, मनुष्य- जाति और अपने देश के पक्ष पर सदा के लिए अटल रहो, और तुम संसार को हिला दोगे। याद रखो -- व्यक्ति और उसका जीवन ही शक्ति का स्रोत है, इसके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं।
                              "इस तरह का दिन क्या कभी होगा कि परोपकार के लिए जान जायेगी? दुनिया बच्चों का खिलवाड नहीं है -- बडे आदमी वे हैं जो अपने हृदय-रुधिर से दूसरों का रास्ता तैयार करते हैं- यही सदा से होता आया है -- एक आदमी अपना शरीर-पात करके सेतु निर्माण करता है, और हज़ारों आदमी उसके ऊपर से नदी पार करते हैं। एवमस्तु एवमस्तु, शिवोsहम् शिवोsहम् (ऐसा ही हो, ऐसा ही हो- मैं ही शिव हूँ, मैं ही शिव हूँ। )
                                " मैं चाहता हूँ कि मेरे सब बच्चे, मैं जितना उन्नत बन सकता था, उससे सौगुना उन्न्त बनें। तुम लोगों में से प्रत्येक को महान शक्तिशाली बनना होगा- मैं कहता हूँ, अवश्य बनना होगा। आज्ञा-पालन, ध्येय के प्रति अनुराग तथा ध्येय को कार्यरूप में परिणत करने के लिए सदा प्रस्तुत रहना -- इन तीनों के रहने पर कोई भी तुम्हे अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकता।
                                  " मन और मुँह को एक करके भावों को जीवन में कार्यान्वित करना होगा। इसीको श्री रामकृष्ण कहा करते थे, "भाव के घर में किसी प्रकार की चोरी न होने पाये।" सब विषयों  में व्यवहारिक बनना होगा। लोगों या समाज की बातों पर ध्यान न देकर वे एकाग्र मन से अपना कार्य करते रहेंगे। क्या तुने नहीं सुना, कबीरदास के दोहे में है- "हाथी चले बाजार में, कुत्ता भोंके हजार साधुन को दुर्भाव नहिं, जो निन्दे संसार " ऐसे ही चलना है।
                                   दुनिया के लोगों की बातों पर ध्यान नहीं देना होगा। उनकी भली बुरी बातों को सुनने से जीवन भर कोई किसी प्रकार का महत् कार्य नहीं कर सकता।
                                  " जिस तरह हो, इसके लिए हमें चाहे जितना कष्ट उठाना पडे- चाहे कितना ही त्याग करना पडे यह भाव (भयानक ईर्ष्या) हमारे भीतर न घुसने पाये- हम दस ही क्यों न हों- दो क्यों न रहें- परवाह नहीं परन्तु जितने हों सम्पूर्ण शुध्दचरित्र हों।
                                    " नीतिपरायण तथा साहसी बनो, अन्त: करण पूर्णतया शुध्द रहना चाहिए। पूर्ण नीतिपरायण तथा साहसी बनो -- प्रणों के लिए भी कभी न डरो। कायर लोग ही पापाचरण करते हैं, वीर पुरूष कभी भी पापानुष्ठान नहीं करते -- यहाँ तक कि कभी वे मन में भी पाप का विचार नहीं लाते। प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो। बच्चो, तुम्हारे लिए नीतिपरायणता तथा साहस को छोडकर और कोई दूसरा धर्म नहीं। इसके सिवाय और कोई धार्मिक मत-मतान्तर तुम्हारे लिए नहीं है। कायरता, पाप्, असदाचरण तथा दुर्बलता तुममें एकदम नहीं रहनी चाहिए, बाक़ी आवश्यकीय वस्तुएँ अपने आप आकर उपस्थित होंगी।
                                      "क्या संस्कृत पढ रहे हो? कितनी प्रगति होई है? आशा है कि प्रथम भाग तो अवश्य ही समाप्त कर चुके होगे। विशेष परिश्रम के साथ संस्कृत सीखो।
                                        " शत्रु को पराजित करने के लिए ढाल तथा तलवार की आवश्यकता होती है। इसलिए अंग्रेज़ी और संस्कृत का अध्ययन मन लगाकर करो।
                                          " बच्चों, धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। सच्चा बनना तथा सच्चा बर्ताव करना, इसमें ही समग्र धर्म निहित है। जो केवल प्रभु-प्रभु की रट लगाता है, वह नहीं, किन्तु जो उस परम पिता के इच्छानुसार कार्य करता है वही धार्मिक है। यदि कभी कभी तुमको संसार का थोडा-बहुत धक्का भी खाना पडे, तो उससे विचलित न होना, मुहूर्त भर में वह दूर हो जायगा तथा सारी स्थिति पुनः ठीक हो जायगी।
                                            " बालकों, दृढ बने रहो, मेरी सन्तानों में से कोई भी कायर न बने। तुम लोगों में जो सबसे अधिक साहसी है - सदा उसीका साथ करो। बिना विघ्न - बाधाओं के क्या कभी कोई महान कार्य हो सकता है? समय, धैर्य तथा अदम्य इच्छा-शक्ति से ही कार्य हुआ करता है। मैं तुम लोगों को ऐसी बहुत सी बातें बतलाता, जिससे तुम्हारे हृदय उछल पडते, किन्तु मैं ऐसा नहीं करूँगा। मैं तो लोहे के सदृश दृढ इच्छा-शक्ति सम्पन्न हृदय चाहता हूँ, जो कभी कम्पित न हो। दृढता के साथ लगे रहो, प्रभु तुम्हें आशीर्वाद दे। सदा शुभकामनाओं के साथ  तुम्हारा विवेकानन्द।
                                              "जब तक जीना, तब तक सीखना' -- अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है।
                                                " जीस प्रकार स्वर्ग में, उसी प्रकार इस नश्वर जगत में भी तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो, क्योंकि अनन्त काल के लिए जगत में तुम्हारी ही महिमा घोषित हो रही है एवं सब कुछ तुम्हारा ही राज्य है।
                                                  " 3P - पवित्रता, दृढता तथा उद्यम- ये तीनों गुण मैं एक साथ चाहता हूँ।
                                                    " भाग्य बहादुर और कर्मठ व्यक्ति का ही साथ देता है। पीछे मुडकर मत देखो आगे, अपार शक्ति, अपरिमित उत्साह, अमित साहस और निस्सीम धैर्य की आवश्यकता है- और तभी महत कार्य निष्पन्न किये जा सकते हैं। हमें पूरे विश्व को उद्दीप्त करना है।
                                                      " पवित्रता, धैर्य तथा प्रयत्न के द्वारा सारी बाधाएँ दूर हो जाती हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि महान कार्य सभी धीरे धीरे होते हैं।
                                                        " साहसी होकर काम करो। धीरज और स्थिरता से काम करना -- यही एक मार्ग है। आगे बढो और याद रखो धीरज, साहस, पवित्रता और अनवरत कर्म। जब तक तुम पवित्र होकर अपने उद्देश्य पर डटे रहोगे, तब तक तुम कभी निष्फल नहीं होओगे -- माँ तुम्हें कभी न छोडेगी और पूर्ण आशीर्वाद के तुम पात्र हो जाओगे।
                                                          " बच्चों, जब तक तुम लोगों को भगवान तथा गुरू में, भक्ति तथा सत्य में विश्वास रहेगा, तब तक कोई भी तुम्हें नुक़सान नहीं पहुँचा सकता। किन्तु इनमें से एक के भी नष्ट हो जाने पर परिणाम विपत्तिजनक है।
                                                            " महाशक्ति का तुममें संचार होगा -- कदापि भयभीत मत होना। पवित्र होओ, विश्वासी होओ, और आज्ञापालक होओ।
                                                              " बिना पाखण्डी और कायर बने सबको प्रसन्न रखो। पवित्रता और शक्ति के साथ अपने आदर्श पर दृढ रहो और फिर तुम्हारे सामने कैसी भी बाधाएँ क्यों न हों, कुछ समय बाद संसार तुमको मानेगा ही।
                                                                " धीरज रखो और मृत्युपर्यन्त विश्वासपात्र रहो। आपस में न लडो! रुपये - पैसे के व्यवहार में शुध्द भाव रखो। हम अभी महान कार्य करेंगे। जब तक तुममें ईमानदारी, भक्ति और विश्वास है, तब तक प्रत्येक कार्य में तुम्हे सफलता मिलेगी।
                                                                  " ईर्ष्या तथा अंहकार को दूर कर दो -- संगठित होकर दूसरों के लिए कार्य करना सीखो।
                                                                    " पूर्णतः निःस्वार्थ रहो, स्थिर रहो, और काम करो। एक बात और है। सबके सेवक बनो और दूसरों पर शासन करने का तनिक भी यत्न न करो, क्योंकि इससे ईर्ष्या उत्पन्न होगी और इससे हर चीज़ बर्बाद हो जायेगी। आगे बढो तुमने बहुत अच्छा काम किया है। हम अपने भीतर से ही सहायता लेंगे अन्य सहायता के लिए हम प्रतीक्षा नहीं करते। मेरे बच्चे, आत्मविशवास रखो, सच्चे और सहनशील बनो।
                                                                      " यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खडे हो जाओगे, तो तुम्हे सहायता देने के लिए कोई भी आगे न बढेगा। यदि सफल होना चाहते हो, तो पहले 'अहं' ही नाश कर डालो।
                                                                        "पक्षपात ही सब अनर्थों का मूल है, यह न भूलना। अर्थात् यदि तुम किसी के प्रति अन्य की अपेक्षा अधिक प्रीति-प्रदर्शन करते हो, तो याद रखो उसीसे भविष्य में कलह का बिजारोपण होगा।
                                                                          "यदि कोई तुम्हारे समीप अन्य किसी साथी की निन्दा करना चाहे, तो तुम उस ओर बिल्कुल ध्यान न दो। इन बातों को सुनना भी महान् पाप है, उससे भविष्य में विवाद का सूत्रपात होगा।
                                                                            "गम्भीरता के साथ शिशु सरलता को मिलाओ। सबके साथ मेल से रहो। अहंकार के सब भाव छोड दो और साम्प्रदायिक विचारों को मन में न लाओ। व्यर्थ विवाद महापाप है।
                                                                              "बच्चे, जब तक तुम्हारे हृदय में उत्साह एवं गुरू तथा ईश्वर में विश्वास- ये तीनों वस्तुएँ रहेंगी -- तब तक तुम्हें कोई भी दबा नहीं सकता। मैं दिनोदिन अपने हृदय में शक्ति के विकास का अनुभव कर रहा हूँ। हे साहसी बालकों, कार्य करते रहो।
                                                                                "किसी को उसकी योजनाओं में हतोत्साह नहीं करना चाहिए। आलोचना की प्रवृत्ति का पूर्णतः परित्याग कर दो। जब तक वे सही मार्ग पर अग्रेसर हो रहे हैं; तब तक उन्के कार्य में सहायता करो; और जब कभी तुमको उनके कार्य में कोई ग़लती नज़र आये, तो नम्रतापूर्वक ग़लती के प्रति उनको सजग कर दो। एक दूसरे की आलोचना ही सब दोषों की जड है। किसी भी संगठन को विनष्ट करने में इसका बहुत बडा हाथ है।
                                                                                  " किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है? यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो तो भी न डरना। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो।
                                                                                    "क्या तुम नहीं अनुभव करते कि दूसरों के ऊपर निर्भर रहना बुध्दिमानी नहीं है। बुध्दिमान व्यक्ति को अपने ही पैरों पर दृढता पूर्वक खडा होकर कार्य करना चहिए। धीरे धीरे सब कुछ ठीक हो जाएगा।
                                                                                      "बच्चे, जब तक हृदय में उत्साह एवं गुरू तथा ईश्वर में विश्वास - ये तीनों वस्तुयें  रहेंगी - तब तक तुम्हें कोई भी दबा नहीं सकता। मैं दिनोदिन अपने हृदय में शक्ति के विकास का अनुभव कर रहा हूँ। हे साहसी बालकों, कार्य करते रहो।
                                                                                        "आओ हम नाम, यश और दूसरों पर शासन करने की इच्छा से रहित होकर काम करें। काम, क्रोध एंव लोभ -- इस त्रिविध बन्धन से हम मुक्त हो जायें और फिर सत्य हमारे साथ रहेगा।
                                                                                          न टालो, न ढूँढों -- भगवान अपनी इच्छानुसार जो कुछ भेजें , उसके लिए प्रतिक्षा करते रहो, यही मेरा मूलमंत्र है।
                                                                                            " शक्ति और विशवास के साथ लगे रहो। सत्यनिष्ठा, पवित्र और निर्मल रहो, तथा आपस में न लडो। हमारी जाति का रोग ईर्ष्या ही है।
                                                                                              " एक ही आदमी मेरा अनुसरण करे, किन्तु उसे मृत्युपर्यन्त सत्य और विश्वासी होना होगा। मैं सफलता और असफलता की चिन्ता नहीं करता। मैं अपने आन्दोलन को पवित्र रखूँगा, भले ही मेरे साथ कोई न हो। कपटी कार्यों से सामना पडने पर मेरा धैर्य समाप्त हो जाता है। यही संसार है कि जिन्हें तुम सबसे अधिक प्यार और सहायता करो, वे ही तुम्हे धोखा देंगे।
                                                                                                "मेरा आदर्श अवश्य ही थोडे से शब्दों में कहा जा सकता है - मनुष्य जाति को उसके दिव्य स्वरूप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बताना।
                                                                                                  " जब कभी मैं किसी व्यक्ति को उस उपदेशवाणी (श्री रामकृष्ण के वाणी) के बीच पूर्ण रूप से निमग्न पाता हूँ, जो भविष्य में संसार में शान्ति की वर्षा करने वाली है, तो मेरा हृदय आनन्द से उछलने लगता है। ऐसे समय मैं पागल नहीं हो जाता हूँ, यही आश्चर्य की बात है।
                                                                                                    " हर काम को तीन अवस्थाओं में से गुज़रना होता है -- उपहास, विरोध और स्वीकृति। जो मनुष्य अपने समय से आगे विचार करता है, लोग उसे निश्चय ही ग़लत समझते है। इसलिए विरोध और अत्याचार हम सहर्ष स्वीकार करते हैं; परन्तु मुझे दृढ और पवित्र होना चाहिए और भगवान् में अपरिमित विश्वास रखना चाहिए, तब ये सब लुप्त हो जायेंगे।
                                                                                                      " यदि कोई भंगी हमारे पास भंगी के रूप में आता है, तो छुतही बिमारी की तरह हम उसके स्पर्श से दूर भागते हैं। परन्तु जब उसके सीर पर एक कटोरा पानी डालकर कोई पादरी प्रार्थना के रूप में कुछ गुनगुना देता है और जब उसे पहनने को एक कोट मिल जाता है-- वह कितना ही फटा-पुराना क्यों न हो-- तब चाहे वह किसी कट्टर से कट्टर हिन्दू के कमरे के भीतर पहुँच जाय, उसके लिए कहीं रोक-टोक नहीं, ऐसा कोई नहीं, जो उससे सप्रेम हाथ मिलाकर बैठने के लिए उसे कुर्सी न दे! इससे अधिक विड्म्बना की बात क्या हो सकता है? आइए, देखिए तो सही, दक्षिण भारत में पादरी लोग क्या गज़ब कर रहें हैं। ये लोग नीच जाति के लोगों को लाखों की संख्या मे ईसाई बना रहे हैं। ...वहाँ लगभग चौथाई जनसंख्या ईसाई हो गयी है! मैं उन बेचारों को क्यों दोष दूँ? हें भगवान, कब एक मनुष्य दूसरे से भाईचारे का बर्ताव करना सीखेगा।
                                                                                                        " यही दुनिया है! यदि तुम किसी का उपकार करो, तो लोग उसे कोई महत्व नहीं देंगे, किन्तु ज्यों ही तुम उस कार्य को वन्द कर दो, वे तुरन्त (ईश्वर न करे) तुम्हे बदमाश प्रमाणित करने में नहीं हिचकिचायेंगे। मेरे जैसे भावुक व्यक्ति अपने सगे - स्नेहियों द्वरा सदा ठगे जाते है। 
                                                                                                        मुण्डकोपनिषद (6)  में कहा गया है - यह 'परमात्मा' बलहीन व्यक्ति के द्वारा लभ्य नहीं है,  " नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्‌ तपसो वाप्यलिङ्गात्‌।" ( न अयम् आत्मा बलहीनेन लभ्यः , प्रमादात् च न वा 'अलिङ्गात् तपसः अपि ' - nor even by asceticism without the true mark न लभ्यः)   न ही प्रमादपूर्ण 'कायाक्लेश' (asceticism, एसिटिसिजम) के प्रयास से, और न ही स्वामी विवेकानन्द को अपने आदर्श के रूप में चयन किये बिना- लक्ष्यहीन तपश्चर्या  (Aimless penance = 'कायाक्लेश' (asceticism, एसिटिसिजम) बुद्ध के जैसा देह को सूखा कर हड्डी बना देने के द्वारा भी प्राप्य नहीं है। बल्कि "Be and Make गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण श्रृंखला" में प्रशिक्षित किसी 'सिंह-गुरु'/जीवनमुक्त शिक्षक /नेता के द्वारा निर्देशित मनःसंयोग= विवेक-दर्शन आदि 5 अभ्यास में एकान्तिक लगन (Exclusive passion) आने पर ही समय आने पर (उन्हीं  कृपा से, सभी ऐषणाओं का स्वाभाविक रूप से क्षय हो जाने के बाद) भीतर सुषुप्ति अवस्था में सोया हुआ " सिंह-शावक"  Lion of Vedanta- वेदान्त का ब्रह्मरूपी- सिंह जाग उठता है। 
                                                                                                        >>>The Ultimate Goal of human life. मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा मुख्य उद्देश्य क्या है ? ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करना ही मनुष्य-जीवन का चरम लक्ष्य  है ।   'अहं ब्रह्म'  [मैं ब्रह्म हूँ ! “अहं ब्रह्मास्मि” - अहम् ब्रह्म (अस्मि) यहाँ 'अस्मि' शब्द से ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता है।]   जब तक यह तत्त्व प्रत्यक्ष न होगा, तब तक संसार चक्र (जन्म- मृत्यु) की गति के पंजे से किसी का छुटकारा नहीं है । यद्यपि " अनेक पथ और अनेक मत हैं ।"  श्री रामकृष्ण देव तो कहते थे -  (As many faith, so many path) " जितने मत हैं, उतने पथ हैं !" लेकिन जीव का पारमार्थिक स्वरूप ब्रह्म होने पर भी मनरूपी उपाधि में अभिमान रहने के कारण,  स्वयं को केवल शरीर समझने के कारण मनुष्य अहंबोध के साथ  तरह तरह के कर्म करता है और -सन्देह, संशय,  सुख, दुख आदि भोगता है, तथापि अपने स्वरूप की प्राप्ति के लिए आब्रह्मस्तम्ब पर्यन्त सभी गतिशील हैं । 

                                                                                                        वेदान्त केसरी स्वामी विवेकानन्द ने सिंहनाद करते हुए घोषित कर दिया -
                                                                                                              " एक बात जो मैं सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट देखता हूँ, वह यह कि अज्ञान ही दुःख का कारण है और कुछ नहीं। जगत को प्रकाश कौन देगा ? भूतकाल में बलिदान का नियम था और अफ़सोस युगों तक ऐसा ही रहेगा। संसार के वीरों को और सर्व-श्रेष्ठों को ' बहुजनहिताय, बहुजन सुखाय ' अपना बलिदान करना होगा। असीम दया और प्रेम से परिपूर्ण सैकड़ों बुद्धों की आवश्यकता है।"  

                                                                                                               " चिकने-चुपड़े पर तेल लगाना पागलों का काम है। दरिद्र, पद दलित तथा अज्ञ लोग तुम्हारे ईश्वर बनें। अपने में ब्रह्मभाव को अभिव्यक्त करने का यही एकमात्र उपाय है कि इस विषय में दूसरों की सहायता की जाय। " 

                                                                                                        [अर्थात मानव जाति को ऐसे मार्गदर्शक नेताओं की आवश्यकता है, जो युवाओं को ' मनुष्य बनो और बनाओ ' या ' Be and Make ' की पद्धति (3'H' के विकास) का प्रशिक्षण देने में समर्थ हो।]

                                                                                                            " मानव-देह ही सर्वश्रेष्ठ देह है, एवं मनुष्य ही सर्वोच्च प्राणी है, क्योंकि वह ब्रह्म को जानकर स्वयं ब्रह्म बन सकता है ! तथा इस जन्म में ही इस मानव-देह रूपी इस सापेक्षिक जगत् से संपूर्णतया परे हो सकता है –प्रत्येक मनुष्य निश्चय ही मुक्ति (D-Hypnotize अवस्था) को प्राप्त कर सकता हैं, और यह मुक्ति ही हमारा चरम लक्ष्य है।"

                                                                                                             " निम्न स्तर के मन ('काचा आमि'-व्यष्टि अहं) के साथ उच्चतर मन ('पाका आमि' -सर्वव्यापी विराट अहं) का संघर्ष चल रहा है, और यह संघर्ष अपने पृथक अस्तित्व को जिसे हम 'व्यक्तित्व' (उपाधि) समझते हैं -को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करता है। ...हम जन्मसिद्ध विद्रोही हैं। जब हम जीवन के प्रथम तथ्य (मृत्यु), स्वयं जीवन के अन्तर्प्रवाह के विरुद्ध भी विद्रोह करते हैं और चिल्ला उठते हैं, " हमारे लिये कोई नियम नहीं हो सकता।"...जब हमारे भीतर प्रकृति का यह बन्धन तोड़ कर मुक्त होने की चेष्टा उत्पन्न हो जाती है, तभी उच्च स्तर के जीवन (मनुष्यत्व) का प्रथम उन्मेष होना समझना चाहिये। 
                                                                                                             " किसी भी वस्तु में जीवन है, उसके भीतर एक यथार्थ सत्ता है, इस तथ्य को हम कैसे जान लेते हैं ?  मनुष्यों के मुक्ति-लाभ की अविराम-चेष्टा का नाम ही जीवन है ! हम आदि काल से ही नियमों का अध्यन करते आ रहे हैं, किन्तु मनुष्य भी किसी (जायस्व- म्रियस्व जैसे) किसी शाश्वत-नियम के अधीन है- इस बात को हम नहीं मानते और न मानेंगे ही। आत्मा सदैव चीत्कार करती रहती है, मुक्ति ! मुक्ति ! स्वाधीनता ! स्वाधीनता ! पूर्णतः स्वाधीन ईश्वर (ठाकुर) की धारणा लाभ करने के पश्चात् मनुष्य अनन्त काल तक इस बन्धन में नहीं रह सकता। मनुष्य अपनी ओर देखकर कहा करता है, " मैं जन्म से ही प्रकृति का दास हूँ-बद्ध हूँ ; फिर भी (मेरे ही जैसा द्वा-सुपर्णा) एक ऐसा पुरुष है जो प्रकृति के नियम में बद्ध नहीं है- जो नित्यमुक्त और प्रकृति का प्रभु है। मुक्ति या स्वाधीनता के इस मूर्त विग्रहस्वरूप, प्रकृति के प्रभु (श्रीरामकृष्ण देव, ईसा, बुद्ध, मोहम्मद,...नानक) को ही हम ईश्वर कहते हैं !" (२/२९४-९५) 

                                                                                                           " मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसको अभिव्यक्त करना ही धर्म है। असीम शक्ति का स्प्रिंग इस छोटी सी काया में कुण्डली मारे विद्यमान ( बीज में वृक्ष के जैसा-क्रमसंकुचित) है, और वह स्प्रिंग अपने को फैला रहा है। ...यही है मनुष्य का,धर्म का, सभ्यता या प्रगति का-इतिहास!"

                                                                                                        >>>अन्तिम रस है शांत रस "वीर हो धीर बनो" की व्याख्या समझाने हेतु दादा ने श्रीराम-चरितमानस मुझसे माँगा था !! शान्त वही होता है जिसका देहाद्यभिमान एकदम निर्मल हो चुका हो, अतः शान्तरस का वीररस में अन्तर्भाव नहीं हो सकता। क्योंकि वीरता में देह आदि का अभिमान अवश्य रहता है। 
                                                                                                        >>>शांत रस की परिभाषा : जब मनुष्य मोह-माया को त्याग कर सांसारिक कार्यों से मुक्त हो जाता है और वैराग्य धारण कर परमात्मा के वास्तविक रूप का ज्ञान प्राप्त करता है, तो मनुष्य के मन को जो शांति प्राप्त होती है, उसे ही ‘शांत रस’ कहते है। शांत रस का स्थायी भाव ‘निर्वेद’ है।
                                                                                                        साधारण शब्दों में, तत्व-ज्ञान की प्राप्ति अथवा संसार से वैराग्य होने पर शान्त रस की उत्पत्ति होती है। जहाँ पर न दुःख होता है और न ही सुख, न द्वेष होता है और न ही राग और न कोई इच्छा होती है। ऐसी मनोस्थिति में उत्पन्न रस को मुनियों ने ‘शान्त रस’ की परिभाषा प्रदान की है। साहित्य के प्रसिद्ध नवरसों (नौ रसों) में अन्तिम रस ‘शांत रस’ को माना जाता है:- “शान्तोऽपि नवमो रस:।”रस का अर्थ है आनन्द !  “ज्ञान की प्राप्ति अथवा संसार से वैराग्य होने के पश्चात जब मनुष्य को न सुख-दुःख और न किसी से द्वेष-राग होता है, तो ऐसी मनोस्थिति में मन में उठा विभाव शांत रस कहलाता है।”
                                                                                                        " जब मनुष्य को परमात्मा के वास्तविक रूप का (सच्चिदानन्द स्वरुप का) ज्ञान होता है तो मनुष्य के मन को जो शान्ति मिलती है, ही ‘शांत रस’ कहते है। और तब वह मोह-माया को त्याग कर सांसारिक कार्यों से मुक्त हो जाता है; और वैराग्य धारण कर शांत रस का स्थायी भाव ‘निर्वेद’  होता है, जिसका आशय उदासीनता से है।
                                                                                                        साधारण शब्दों में, तत्व-ज्ञान की प्राप्ति अथवा संसार से वैराग्य होने पर शान्त रस की उत्पत्ति होती है। जहाँ पर न दुःख होता है और न ही सुख, न द्वेष होता है और न ही राग और न कोई इच्छा होती है। ऐसी मनोस्थिति में उत्पन्न रस को मुनियों ने ‘शान्त रस’ की परिभाषा प्रदान की है।
                                                                                                        पहले इसे रस नहीं माना जाता था, बाद में ऋषियो और मुनियों ने इस भाव को शांत रस की संज्ञा दी।  इसका कारण यह है कि भरतमुनि के 'नाट्यशास्त्र' में, जो रस विवेचन का आदि स्रोत है, नाट्य रसों के रूप में केवल आठ रसों का ही वर्णन मिलता है। इसका स्थायी भाव वात्सल्यता (अनुराग) होता है। (शांत रस को उस रूप में भरतमुनि ने मान्यता प्रदान नहीं की, जिस रूप में अन्य सभी रसों को मान्यता प्रदान की और न शांत रस के विभाव, अनुभाव और संचारी भावों का कोई स्पष्ट निरूपण किया।) 
                                                                                                        >>>शांत रस के अवयव(उपकरण) : शांत रस के अवयव निम्न प्रकार है:-
                                                                                                        स्थाई भाव >निर्वेद। आलंबन (विभाव) परमात्मा चिंतन एवं संसार की क्षणभंगुरता।उद्दीपन (विभाव)>सत्संग, तीर्थ स्थलों की यात्रा, शास्त्रों का अनुशीलन, सत्संग  आदि।अनुभाव> पूरे शरीर मे रोमांच, पुलक, अश्रु, आदि। संचारी भाव>धृति, हर्ष, स्मृति, मति, विबोध, निर्वेद, आदि।
                                                                                                        >>> शांत रस का उदाहरण - 1 
                                                                                                         सबसे पहले हम तुलसीदास जी के बारे में जान लेते है। गोस्वामी तुलसीदास जी (Tulsidas) : रामभक्ति शाखा के कवियों में गोस्वामी तुलसीदास सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। इनका प्रमुख ग्रन्थ “श्रीरामचरितमानस” (Ramcharitmanas) भारत में ही नहीं वरन् सम्पर्ण विशव में विख्यात है। इनका जन्म अमुक्तमूल नक्षत्र में हुआ था। इनका जब जन्म हुआ तब ये पाँच वर्ष के बालक मालूम होते थे, दाँत सब मौजूद थे और जन्मते ही इनके मुख से राम का शब्द निकला। आश्चर्यचकित होकर इन्हें राक्षस समझकर माता-पिता ने इनका त्याग कर दिया। तुलसीदास जी का जन्म विक्रमी संवत् 1554 (सन् 1497 ई०) बताया जाता है। तुलसीदास जी के माता का नाम श्रीमती हुलसी एवं पिता का नाम श्री आत्मा राम दुबे था। सवत् 1680 पि० (सन् 1623 ई०) में श्रावन कृष्ण पक्ष तृतीया शानिवार को असीघाट पर तुलसीदास राम – राम कहते हुए परमात्मा में विलीन हो गये। तो आइए जानते हैं तुलसीदास जी के प्रस्तुत दोहे – "विनय के पद"  के बारे में –

                                                                                                        मन पछितैहै अवसर बीते।
                                                                                                        दुर्लभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरु हीते॥१॥

                                                                                                        हे मेरे मन !  अवसर बीता जा रहा है और बाद में जब यह मानव देह छिन जाएगी, तब तू बहुत पछतायेगा। मानव देह जो देव-दुर्लभ है, बहुत बड़ी भगवद-कृपा के बाद ही प्राप्त होता है। इस दुर्लभ देह को पा कर हे मन तुझे भगवन के चरणों का भजन, ध्यान करना चाहिए। कर्म, वचन और ह्रदय भी भगवान् के निमित्त ही लगाने चाहियें। ||1||

                                                                                                        Oh mind, the golden chance to change your future – the human body is there with you. If you lose this body without attaining your spiritual goal i.e. meeting God, you will regret this forever. This human form is desired by the heavenly Gods (Devtas) and is attained only with God’s grace. After attaining human body, oh mind, you should worship the lotus feet of God.

                                                                                                        सहसबाहु, दसबदन आदि नृप बचे न काल बली ते।

                                                                                                        हम हम करि धन-धाम सँवारे, अंत चले उठि रीते॥२॥

                                                                                                        सहस्त्रबाहु और रावण आदि भी काल से नहीं बच सके। जो सारा जीवन अपने लिए धन बटोरते रहे और धाम सजाते रहे, वो मरते समय खाली हाथ गए। 

                                                                                                        Kings like Sahastrabahu and Ravana had to leave their human body at the time of their death. Those who spend their entire life in aggregating wealth for themselves and decorating their homes also leave this body empty-handed.

                                                                                                        सुत-बनितादि जानि स्वारथरत न करु नेह सबहीते।
                                                                                                        अंतहु तोहिं तजेंगे पामर! तू न तजै अबहीते॥३॥

                                                                                                        पुत्र, पत्नी, आदि सब परिवार जनों का सम्बद्ध तुझसे स्वार्थ का है और इसीलिए उनसे प्रेम न कर। वो सब तुझे अंत समय छोड़ देंगे, तू उनको अभी से क्यों नहीं त्याग देता। ||3||

                                                                                                        Son, wife, and other worldly relations are based on selfishness and therefore do not love them. All of them will leave you once you are dead, why don’t you leave them immediately (get detached or Unattached from them).

                                                                                                        अब नाथहिं अनुरागु जागु जड़, त्यागु दुरासा जीते।
                                                                                                        बुझै न काम-अगिनि तुलसी कहुँ, बिषयभोग बहु घी ते॥४॥

                                                                                                        उत्तिष्ठत ! जाग्रत ! अब तू नींद से जाग और भगवन से अनुराग कर। कामनाओं की अग्नि ऐसे नहीं बुझेगी बल्कि विषयभोग से घी की तरह और बढ़ती जाएगी। यह केवल प्रभु भक्ति के जल से ही कम होगी। ||4||

                                                                                                        Oh mind, Arise ! Awake !  now must wake up; and love God! The fire of your desires will not end by getting more worldly things as these are like fuel to the fire. You can control your desires by devotion that acts like water on fire.

                                                                                                        " जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहिं। सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥"/

                                                                                                        " मन रे ! परस हरि के चरण, सुलभ सीतल कमल कोमल, त्रिविधा ज्वाला हरण। " 

                                                                                                        इस पद मे कवि ने गुरुजनों के गुणों को (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता के गुणों को)  अपने में समाहित करने की इच्छा प्रकट की है। तुलसीदास जी कहते है कभी भी मैं अपने गुरुजनों की तरह हो पाऊगाँ या नहीं। 
                                                                                                        [तुलसीदास जी कहते है क्या कभी भी मैं अपने नेता वरिष्ठ ( CINC नवनीदा, प्रमोद दा जैसे) गुरुजनों की तरह हो पाऊगाँ या नहीं ?

                                                                                                        कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो।
                                                                                                        श्री रघुनाथ-कृपालु-कृपातें संत-सुभाव गहौंगो ॥१॥

                                                                                                        क्या मैं कभी इस रहनीसे रहूँगा? क्या कृपालु श्रीरघुनाथजीकी कृपा से कभी मैं संतो (नेता, पैगम्बर, जीवनमुक्त शिक्षक ) का-सा स्वभाव ग्रहण करूँगा? 

                                                                                                        जथालाभसंतोष सदा, काहू सों कछु न चहौंगो।
                                                                                                        पर-हित-निरत निरंतर, मन क्रम बचन नेम निबहौंगो ॥२॥

                                                                                                        तथा हमेशा लोगों की सेवा के लिए तैयार रहूँगा। जो कुछ मिल जाएगा उसी में संतुष्ट रहना, किसी से (मनुष्य या देवता से) कुछ भी नहीं चाहूंगा। निरंतर दूसरों की भलाई करने में ही लगा रहूँगा। मन, वचन और कर्म से यम-नियमों का पालन करूँगा। 

                                                                                                        परुष बचन अति दुसह श्रवण सुनि तेहि पावक न दहौंगो।
                                                                                                        बिगत मान, सैम सीतल मन, पर-गुण नहिं दोष कहौंगो ॥३॥

                                                                                                        कानों से अति कठोर और असह्य वचन सुनकर भी क्रोध नही करुगाँ अपने मन को शांत और शीतल रखूँगा। उससे उत्पन्न हुयी (क्रोधकी) आग में न जलूंगा। देहात्मबुद्धि (अहंबोध -अभिमान) छोड़कर सब में समबुद्धि रहूँगा और मनको शांत रखूँगा। तथा दूसरो के अल्प से अल्प गुणों की भी  बड़ाई करूँगा और उनके दोषों को नही कहुँगा। दूसरों की स्तुति-निन्दा कुछ भी नहीं करूँगा (सदा आपके चिंतन में लगे हुए मुझको दूसरोंकी स्तुति-निन्दा के लिए समय ही नहीं मिलेगा।) 

                                                                                                        परिहरि देह-जनित चिंता, दुःख-सुख समबुद्धि सहौंगो।
                                                                                                        तुलसीदास प्रभु यही पथ रहि अबिचल हरि-भगति लहौंगो ॥४॥

                                                                                                         शरीर की चिन्ता न करके सुख – दुःख या स्तुति-निन्दा में समान रहूँगा।  शरीर-सम्बन्धी चिंताएं छोड़कर सुख और दुःख को सामान-भावसे सहूँगा। हे प्रभु, क्या तुलसीदास इस पथ पर, (उपर्युक्त) मार्ग पर चलकर अपना मनोरथ ~अविचल हरि-भक्ति को प्राप्त करेगा?

                                                                                                        – विनय के पद। 

                                                                                                         (तुलसीदास : पद संख्या १७२,  विनय-पत्रिका)

                                                                                                        शब्दार्थ :- सुभाव= स्वभाव, गहौगो= ग्रहण, जथा= उचित,  परहित= दुसरो का हित, स्रवन= सुनना, पावक= क्रोध। 

                                                                                                        काव्य सौन्दर्य:> भाषा – ब्रज /शैली – मुक्तक/छंद – गेयपद/ रस – शांत/शब्द शक्ति >  अभिधा/ गुण – प्रसाद।  

                                                                                                        प्रसंग :-भाव स्पष्टीकरण > इसमे तुलसीदास जी ने सन्तो के स्वभाव एवं आचरण का सुन्दर वर्णन किया है । प्रस्तुत पद में तुलसीदास ने एक आदर्श भक्त अथवा एक आदर्श भक्ति के लिए संत के स्वभाव और उनके गुणों आदि के महत्व को प्रतिपादित किया है।

                                                                                                        स्पष्टीकरण : स्थाई भाव >संसार से पूर्ण विरक्ति और निर्वेद। आलंबन (विभाव)>राम की भक्ति।उद्दीपन (विभाव) >साधु-सम्पर्क (पाठचक्र या सत्संग) एवं श्री रघनाथ की कृपा। अनुभाव >" वीर हो धीर बनो " रूपी उपदेश का मर्म समझना : धैर्य, सन्तोष, अचिन्ता, आदि चारित्रिक गुणों की अभिव्यक्ति। संचारी भाव > धैर्य , निर्वेद, हर्ष, स्मृति,आदि। 
                                                                                                        >>>शांत रस का स्थायी भाव ‘निर्वेद’ (उदासीनता) है। शांत रस में तत्व ज्ञान की प्राप्ति व संसार से वैराग्य होने पर, परमात्मा के वास्तविक रूप का ज्ञान होने पर मन को जो शांति प्राप्त होती है, वहाँ पर शांत रस की उत्पत्ति होती है। 
                                                                                                        [निर्वेद का अर्थ :  आचार्यों ने ‘निर्वेद’ को शोक के प्रवाह को फैलाने वाली विशेष चित्तवृत्ति स्वीकार किया है , जिसकी उत्पत्ति 2 प्रकार से होती है:- १ दारिद्रय से, २ -तत्वज्ञान से। तत्वज्ञान से उत्पन्न ‘निर्वेद’ अन्य सभी स्थायी भावों को दबा लेने वाला है और उनकी अपेक्षा अधिक स्थायित्व वाला भी है। असल में तत्वज्ञान से ‘निर्वेद’ की उत्पत्ति नहीं होती है, तत्वज्ञान ही ‘निर्वेद’ अथवा ‘वैराग्य’ से उत्पन्न होता है। केशवदास ने तो ‘शम’ के कारण शांत रस को ही ‘शम रस’ का नाम दे दिया है:-“सबते होय उदास मन बसै एक ही ठौर। ताहीसों सम रस कहत केसब कबि सिरमौर।।” निर्वेद -> मन में स्वयं अपने संबंध में होनेवाली खेदपूर्ण ग्लानि और निराशा।  उक्त के फलस्वरूप सांसारिक बातों से होनेवाली विरक्ति। वैराग्य।  उक्त के आधार पर साहित्य में, तैंतीस संचारी भावों में से पहला भाव जिसकी गणना कुछ आचार्यों ने स्थायी भावों में भी की है। विशेष–कहा गया है कि कष्ट, दरिद्रता, प्रियजनों के विरोध, रोग आदि के कारण मन में जो खेद या ग्लानि होती है, वही साहित्य का निर्वेद है। प्रायः इसके मूल में आध्यात्मिक और तात्त्विक विचार होते हैं; इसलिए कुछ आचार्य इसे शांत रस का स्थायी भाव मानते हैं। पर अधिकतर लोग इसे भरत के आधार पर संचारी भाव ही कहते हैं। यह वही मनोवृत्ति है जो मनुष्य को सांसारिक विषयों की ओर से उदासीन करके परमात्म-चिंतन में प्रवृत्त करती है, और इस दृष्टि से रति या श्रृंगार रस के बिलकुल विपरीत है।] 

                                                                                                        व्याख्या:- उपरोक्त पद में तुलसीदास जी ने श्री रघुनाथ की कृपा से सन्त-स्वभाव ग्रहण करने की कामना की है। आदर्श राम-भक्त (अवतारवरिष्ठ भक्त, नेता भक्त, CINC नवनीदा भक्त)   बनने की अपनी कामना और उसके लिए आवश्यक चारित्रिक गुणों को प्रकट करते हुए कवि सन्त तुलसीदास ने कहा है -" क्या कभी मैं इस प्रकार बन सकूंगा और कृपा करने वाले श्रीराम की कृपा से क्या मैं संत वाला स्वभाव को ग्रहण कर पाऊंगा? संतो वाले उस स्वभाव को ग्रहण करके मैं सदा उचित लाभ प्राप्त करके ही संतोष करूँगा और किसी से कुछ और नही पाना चाहूंगा। सदैव परोपकार में लीन रहूंगा और मन, कर्म और वचन से सभी प्रकार के नियमों का पालन करूंगा। दुसरो के द्वारा कहे गए कठोर वचनों को सुनकर किसी प्रकार का क्रोध या संताप नही करूंगा तथा अभिमान रहित होकर संत-स्वभाव से दूसरों के गुणों को ही देखूंगा, उनकी बुराईयों को नही। देहजन्य चिंता को छोड़ते हुए सदैव सुख और दुःख दोनो को समान भाव से ग्रहण करूंगा। हे प्रभु मैं विश्वास दिलाता हूं कि इसी पथ पर दृढ़तापूर्वक चलकर मैं अपनी भक्ति को प्राप्त करूँगा।" और इस प्रकार, उपरोक्त पद सभी उपादानों से पुष्ट होकर शांत रस की निष्पत्ति में समर्थ हुआ है।

                                                                                                        शांत रस का उदाहरण :२ > तुलसीदास जी इस पद्यांश में प्रतिज्ञा करते है कि अब तक मैंने अपना जीवन सांसरिक विषय वासनाओं में नष्ट किया। किन्तु अब भगवान की भक्ति के सिवाय कुछ नही करूँगा।

                                                                                                        अब लौं नसानी अब न नसैहौं।
                                                                                                        राम कृपा भवनिसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं ।।
                                                                                                        पायो नाम चारु चिंतामनि, उर-कर ते न खसैहौं।
                                                                                                        स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी चित कंचनहिं कसैहौं
                                                                                                        परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन, निज बस ह्वै न हँसैहौं।
                                                                                                        मन-मधुकर पन करि तुलसी रघुपति पद-कमल बसैहौं।।

                                                                                                        काव्य सौन्दर्य:- तुलसीदास जी जगत की प्रति विरिक्त और श्रीराम के प्रति अनुराग मुखर हुआ है।भाषा – ब्रज, शैली – मुक्तक, छंद – गेयपद, रस – शांत, शब्द शक्ति – लक्षणा, गुण – प्रसाद, अलंकार – रूपकऔर अनुप्रास। 

                                                                                                        व्याख्या:- अब तक तो यह आयु व्यर्थ ही नष्ट हो गई, परंतु अब इसे नष्ट नहीं होने दूँगा। अब तक तो मेरी करनी बिगड़ गयी थी लेकिन अब आगे से संभाल जाऊँगा अब तक तो मैंने अपने जीवन को नष्ट कर लिए लेकिन आगे से ऐसा नही करूँगा क्योकि मैं समझ गया हूँ। श्रीराम की कृपा से संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी रात्रि बीत गई है, अब जागने पर (मृत्यु का भय समाप्त हो जाने के बाद) फिर से माया का बिछौना नहीं बिछाऊँगा।अर्थात् पुन: सोने की तैयारी नही करूंगा, यानि सांसरिक मोह -माया के चक्र में (कामिनी-कांचन, या देहाभिमान की आसक्ति में) नही पडूँगा। क्योंकि मुझे 'राम नाम' रूपी सुंदर चिंतामणि (मुझे अपने गुरुदेव /और नेता वरिष्ठ के मुख से - अवतार वरिष्ठ का नाम-रूप रूपी सुन्दर चिन्तामणि) प्राप्त हो गयी है। उसे हृदयरूपी हाथ (अष्टदल रक्तवर्ण कमल) से कभी नहीं गिरने दूँगा। (अवतारवरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण में श्रीराम और श्रीकृष्ण दोनों एक साथ समाहित हैं !) उसकी कसौटी बनकर उस पर मैं अपने चित्तरूपी सोने को कसूंगा अर्थात् [ठाकुर, माँ, स्वामीजी की छबि पर मन को एकाग्र करूँगा और] यह देखूँगा की ईश्वर की भक्ति में मेरा मन कहाँ तक जाता है। जब तक मैं इंद्रियों के वश में था तब तक, अर्थात जब तक मै अपने मन का गुलाम रहा तब तक इन्द्रियों ने मनमाना नाच नचाकर मेरी खूब हँसी उड़ाई, परंतु अब स्वतंत्र होने पर यानी मन-इंद्रियों को जीत लेने पर उनसे अपनी हँसी नहीं कराऊँगा। अब तो अपने मनरूपी भ्रमर (भौंरा) को प्रण करके श्रीराम जी के चरण-कमलों में इस प्रकार लगा दूँगा, जैसे भौंरा इधर – उधर अन्य फूलों  पर न जाकर प्रणपूर्वक अपने को कमल कोस की पंखुड़ियों में बसा लेता है। इसका मतलब अपने मन को सब जगह से मोड़कर रघुनाथ जी के चरणों में सेवक बनूँगा।
                                                                                                        ==========