शिष्य : महाराज, श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, कामिनी-कांचन का त्याग न करने पर कोई भी धर्मपथ में अग्रसर नहीं हो सकता ; तो फिर जो लोग गृहस्थ हैं, उनके उद्धार का क्या उपाय है ? उन्हें तो रात-दिन उन दोनों को ही लेकर व्यस्त रहना पड़ता है।
स्वामी जी - काम -कांचन में आसक्ति न जाने पर, ईश्वर में मन नहीं लगता। [अर्थात समाधि या एकाग्रता सहित 3H विकास के 5 अभ्यास करने में मन नहीं लगता।] वह चाहे गृहस्थ हो या संन्यासी। इन दो चीजों "lust and lucre" वासना और धन के प्रति मन में घोर आसक्ति या अत्यधिक लालच का भाव बना हुआ है, तब तक आत्मा (ईश्वर) के प्रति ठीक ठीक अनुराग, निष्ठा या श्रद्धा कभी उत्पन्न नहीं होगी।
शिष्य - तो क्या फिर गृहस्थों के उद्धार का उपाय है ?
स्वामी जी - हाँ, उपाय है क्यों नहीं ? छोटी-छोटी वासनाओं को पूर्ण कर लेना (हवाई चप्पल में भी हवाई यात्रा?), और बड़ी -बड़ी का विवेक -प्रयोग करते हुए त्याग कर देना। त्याग के बिना ईश्वर की प्राप्ति न होगी - (समाधि में अवस्थिति?)- यदि ब्रह्मा स्वयं वदेत् - वेदकर्ता ब्रह्मा यदि स्वयं कहें , फिर भी न होगा।
[यस्मिन् शास्त्रे पुराणे वा, हरिभक्तिर्न दृश्यते । श्रोतव्यं नैव तच्छास्त्रं,यदि ब्रह्मा स्वयं वदेत् ।। 'जिस शास्त्र या पुराण में भगवान् की भक्ति न दिखलायी दे, ब्रह्मा के द्वारा कहा हुआ होने पर भी उसको नहीं सुनना चाहिये।' ]
शिष्य - अच्छा महाराज, संन्यास ले लेने से ही क्या विषय त्याग हो जाता है ?
स्वामी जी - नहीं, परन्तु संन्यासी लोग काम-कांचन को सम्पूर्ण रूप त्याग देने के लिये तैयार हो रहे हैं , प्रयत्न कर रहे हैं। जबकि गृहस्थ लोग तो नाव को लंगर से बाँधकर पतवार चला रहे हैं -संन्यासी और गृहस्थ में यही अन्तर है। भोग करके क्या भोग की आकांक्षा कभी मिटती है रे ! 'न जातु कामः .... भूय एवाभि वर्धते' -दिनोंदिन बढ़ती ही जाती है।
[>>>King Yayati Syndrome :
'न जातु कामः कामानां उपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ।']
भावार्थ - भोग करने से (indulging in sexual activities से) काम-वासना (Sexual desire) कभी भी शान्त नहीं होती है, परन्तु जिस प्रकार हवनकुण्ड में जलती हुई अग्नि में घी आदि की आहुति देने से अग्नि और भी प्रज्ज्वलित हो जाती है; वैसे ही कामवासना भी और अधिक भडक उठती है।]
शिष्य - क्यों ? भोग करते करते तंग आने पर अन्त में तो वितृष्णा आ सकती है।
स्वामी जी - धत छोकरे , तुमने कितने लोगों को उम्र के चौथेपन में ^* भी 'वासना और धन' से वितृष्णा आते हुए देखी है ? लगातार विषयभोग करते रहने से मन में उन सब विषयों की छाप पड़ जाती है, बार -बार किये जाने वाले कर्म का -उस चित्त पर गहरा निशान (rut) बन जाता है या दाग पड़ जाता है, मन विषय के रंग में रंग जाता है। त्याग-त्याग - यही है मूल मंत्र। (स्वामी शिष्य संवाद : खण्ड- ६, पृष्ठ १४०)........
शिष्य - तो फिर ईश्वर सर्वशक्तिमान व्यक्तिविशेष है - यह बात फिर कैसे सत्य हो सकती है ?
स्वामी जी : मनरूपी उपाधि को लेकर ही मनुष्य है। मनुष्य को अपने मन के द्वारा ही सभी विषय समझना पड़ रहा है। परन्तु मन जो कुछ सोच सकता है , वह सीमित ही होगा। (अनन्त नहीं?) इसलिए अपने व्यक्तित्व से ईश्वर के व्यक्तित्व की कल्पना करना जीव का स्वतःसिद्ध स्वभाव है। मनुष्य अपने आदर्श को मनुष्य की आकृति में - मनुष्य के रूप में ही सोचने में समर्थ है। .... निराधार सर्वज्ञ आत्मा (ब्रह्म) ही एकमात्र आश्रयस्थल है; मनुष्य इस बात को पहलेपहल स्वयं (बिना गुरु परम्परा में प्रशिक्षित हुए ?) जान नहीं सकता। श्रद्धा, विवेक-वैराग्य आने पर ध्यान-धारणा [राजयोग विज्ञान -या मनःसंयोग] का अभ्यास करते करते धीरे धीरे यह जाना जाता है। परन्तु कोई किसी भी भाव [मार्ग ] से साधना क्यों न करे, सभी अनजान में अपने भीतर स्थित ब्रह्मभाव को जगा रहे हैं। हाँ, आलम्बन [धारणा करने के लिए आदर्श का चयन] अलग अलग हो सकते हैं। जिसका ईश्वर के सगुण साकार [काली-दुर्गा-कृष्ण-अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण] होने में विश्वास है, उसे उसी भाव को पकड़ कर साधन-भजन आदि करना चाहिए। एकान्तिक भाव आने पर उसीसे समय पाकर ब्रह्मरूपी सिंह (आत्मविश्वास) उसके भीतर से जाग उठता है। ब्रह्मज्ञान -[अर्थात समाधि जन्य आत्मविश्वास ] जीव का एक मात्र प्राप्य है। " परन्तु ~ " As many faiths, so many paths " अर्थात जितने मत हैं, उतने पथ हैं। "
" जीव का वास्तविक स्वरुप आत्मा (ब्रह्म) होने पर भी मनरूपी उपाधि [अहंकार] में अभिमान रहने के कारण , वह तरह तरह के सन्देह, संशय, सुख, दुःख आदि भोगता है , परन्तु अपने स्वरुप की प्राप्ति [समाधि] के लिए आब्रह्मस्तंब सभी गतिशील हैं। जब तक ' अहं ब्रह्म ' यह तत्व प्रत्यक्ष नहीं होगा, तब तक इस जन्म-मृत्यु की गति के पंजे से किसीका छुटकारा नहीं है। 'त्रय दुर्लभं '~ मनुष्य जन्म, मुक्ति की प्रबल इच्छा, तथा महापुरुष की कृपा [लेकिन-माँ काली (जगतगुरु श्रीरामकृष्ण) का चपरास प्राप्त युवा गुरु नरेन्द्रनाथ, अथवा स्वामी विवेकानन्द का चपरास प्राप्त - प्रदीप्त उज्ज्वल प्रकाश-स्तम्भ जैसे नेतावरिष्ठ (C-IN-C ) नवनीदा, पूर्वजन्म के कैप्टन सेवियर। गुरु नेता वरिष्ठ की कृपा होने पर , उन्हें पुकारने पर , वे इन सब आसक्तियों को एक पल में मिटा देते हैं। ]
नेता वरिष्ठ या जीवनमुक्त योगी की कृपा] प्राप्त होने पर ही मनुष्य की आत्मज्ञान की आकांक्षा [समाधि की आकांक्षा ] बलवती होती है। नहीं तो कामिनी-कांचन में लिप्त व्यक्तियों के मन [अहं ] की प्रवृत्ति ही उधर [आत्मा, ईश्वर या ब्रह्म को जानने की ओर] नहीं होती। - जिसके मन में स्त्री, पुत्र, धन, मान प्राप्त करने का संकल्प है , (यानि तीनो ऐषणायें प्रबल बनी हुई है), उसके मन में ब्रह्म को जानने की इच्छा कैसे होगी?
जो सर्वस्व त्यागने को तैयार है [यह देह-मन 'मैं' नहीं हूँ, अपने परिवर्तनशील नामरूप से अपनी आसक्ति को त्याग देने के लिये कमर -कसकर प्रस्तुत है], जो सुख-दुःख, भले-बुरे, [श्रेय-प्रेय ] के चंचल प्रवाह में धीर-स्थिर, शान्त तथा दृढ़चित्त रहता है, वही आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सचेष्ट होता है! और वही 'निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केसरी' - महाबल से जगत-रूपी जाल को तोड़कर माया की सीमा को लांघ सिंह की तरह बाहर निकल जाता है ।"....
वैराग्य न आने पर, त्याग न होने पर, भोगस्पृहा का त्याग* न होने पर, क्या कुछ होना सम्भव है? - वे बच्चे के हाथ के लड्डू तो हैं नहीं जिसे भुलावा देकर छीन कर खा सकते हो। (स्वामी शिष्य संवाद : खण्ड- 6, पृष्ठ 164)
[भोगस्पृहा ~ चौथेपन में चौधरी ब्रदर्स जगदीश दारुकामें ^*नाम-यश रूपी मिल्क-चॉकलेट की कामना से Bh/अईला छाप दाग़ लग जाती है, सेठ, भी कुछ लोग ईश्वर (समाधि) त्याग कर देते हैं।]
>>> देहाद्यभिमानरहितः पुमान् > A man without pride in body and other things >शरीर तथा अन्य वस्तुओं का अभिमान रहित मनुष्य > राजर्षि जनक > विदेहराज जनक या देवर्षि नारद > ऐसे देहाभिमान रहित महापुरुषों के बारे में विवेकचूड़ामणि (543) ग्रंथ में शंकराचार्य लिखते हैं -
क्वचिन्मूढो विद्वान् क्वचिदपि महाराजविभवः
क्वचिद्भ्रान्तः सौम्यः क्वचिदजगराचारकलितः ।
क्वचित्पात्रीभूतः क्वचिदवमतः क्वाप्यविदितः
चरत्येवं प्राज्ञः सततपरमानन्दसुखितः ॥543॥
(Shankaracarya's Vivekachudamani 543)
'ज्ञानी ' अर्थात ज्ञान प्राप्त व्यक्ति (ब्रह्मविद, आत्मसाक्षात्कारी, इस देहाभिमान रहित व्यक्ति) सदैव ज्ञान की आनंदमय स्थिति में आनंदित रहता है। वह कभी मूर्ख की तरह , कभी ऋषि की तरह , कभी राजसी वैभव से युक्त राजा की तरह दिखता है; कभी चलता हुआ सर्प, तो कभी निश्चल सर्प की तरह दीखता है; कभी सम्मान पाता हुआ, तो कभी अपमानित हुआ दीखता है, तो कभी बिल्कुल एक अजनबी जैसा जान पड़ता है ।
उपरोक्त श्लोक में बताया गया है कि भगवान का एक सच्चा भक्त कैसा दिखेगा -प्रतिभासित होगा? वह चाहे जिस रूप में दिखे हमें स्वामी विवेकानन्द (या ठाकुर-माँ -स्वामीजी के उन C-IN-C नवनीदा जैसे) देहाभिमान रहित सच्चे भक्तों को कभी (ठाकुरदेव से) कम करके नहीं आंकना चाहिए।
हालाँकि इस कलियुग में, ऐसे गुण आपको कुछ नकली गुरुओं में भी देखने को मिल सकते हैं, लेकिन नवनीदा जैसे सच्चे नेता, गुरु, पैगम्बर या ठाकुर देव जैसे माँ काली के भक्त हमेशा अपने मन, वाणी और आनंद को भगवान श्रीरामकृष्ण में या उनके उपदेश 'Be and Make' में ही केन्द्रीभूत रखेंगे, साथ ही उन्हें भौतिक दुनिया (कामिनी-कांचन-नामयश) में कोई दिलचस्पी (आसक्ति) नहीं होगी। (कुछ दिन निर्जनवास या गुरुगृहवास में गुरु के संग रहकर यह देखना चाहिए कि जो वे कहते हैं, उसे खुद करते हैं या नहीं ?) आम आदमी को नकली गुरुओं से धोखा नहीं खाना चाहिए।
Ever rejoicing in the Blissful state of wisdom the realized person lives, sometimes looking like a fool, sometimes a sage, sometimes with royal grandeur; sometimes roaming, sometimes like a motionless serpent; sometimes respected, sometimes insulted, and sometimes unknown.
The sloka above mentioning about how a pure devotee of the Lord will look like. We cannot underestimate the true devotees.
Although such qualities you can also find in some fake gurus in this kali yuga, but the real gurus or devotees will always fix their mind, speech, and pleasure towards the Supreme Lord at the same time they are not interested in the material world. A common man should not get cheated by fake gurus.
महर्षि वाल्मीकि द्वारा लिखित " योग वशिष्ठ " में जीवनमुक्त योगी, जीवनमुक्त शिक्षक, ब्रह्मविद, ज्ञानी , नेता, पैगम्बर बनने और बनाने की अनिवार्यता एवं महत्व को समझाते हुए कहा गया है ~ देहाद्यभिमानरहितः पुमान् पञ्जरात्केसरी सिंह इव जगज्जालान्निर्गच्छति।।"
येन केनचिद् आच्छन्नो येन केनचिद् आशितः ।
यत्र क्वचन शायी च स सम्राड् इव राजते ॥६।१२२।१॥
(ज्ञान होने के बाद) अब वह जीवनमुक्त योगी (The Living Liberated Yogi), चाहे किसी भी तरह का पहनावा पहने, चाहे वह कितना भी अच्छा या कुपोषित भोजन करे । वह जहां कहीं भी- तकिये पर या तौलिये पर अपने सिर को रखकर सोया रहे, वह अपने मन को पूर्ण आनन्द और परम् शांति की अवस्था में रखता हुआ- इस निश्चिन्तता के साथ विश्राम लेता है, मानो वही इस विश्व का सबसे महान सम्राट (C-IN-C नवनीदा) हो।
[Now the living liberated yogi, in whatever manner he is clad, and however well or ill-fed he may be. Wherever he may sleep or lay down his humble head, he rests with the joy of his mind, and in a state of perfect ease and blissfulness, as if he were the greatest emperor of the world. अब वह जीवन मुक्त योगी, चाहे वह किसी भी तरह से कपड़े पहने, और चाहे वह कितना भी अच्छा या खराब खाना खाए, और "SCST गवर्नमेंट कॉलेज, जाम्बुघोड़ा, नारुकोट, गुजरात" में गुरुपूर्णिमा 4.7.2023 की मध्य रात्रि में 12 से 3 बजे तक गाया जाने वाला 'राग दरबारी कन्नड़ा' सड़क पर तकिये पर अथवा तौलिया पर जहां कहीं पर भी अपना सिर रखकर सोये या लेटा हुआ मच्छड़ के स्वर में सुने; लेकिन हर परिस्थिति में वह ब्रह्मविद (The Living Liberated Yogi >जीवनमुक्त योगी>समाधि से लौटा आत्मज्ञानी) पूर्ण आनन्द और परम् शान्ति की अवस्था में रखता हुआ इस प्रकार विश्राम लेता है - मानो वही विश्व का सबसे महान सम्राट हो।]
वर्णधर्माश्रमाचारशास्त्रयन्त्रणयोज्झितः ।
निर्गच्छति जगज्जालात्पञ्जरादिव केसरी ॥
(6.122.2)
जो ज्ञानी या ब्रह्मविद -मनुष्य अपनी जन्मगत जाति के कर्तव्यों और जीवन की ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, बानप्रस्थ और संन्यास आदि आश्रमों के लिए अपने वर्णाश्रम धर्म के अनुसार निर्धारित अवस्थाओं के आचरण से संबंधित शास्त्रों के प्रतिबंध को मानने के लिए बाध्य नहीं हो (या माँ जगदम्बा के द्वारा मुक्त कर दिया गया हो), वह 'देहाद्यभिमानरहितः पुमान्'- अर्थात वह ब्रह्मविद या आत्मज्ञानी देह तथा अन्य वस्तुओं का अभिमान रहित मनुष्य > A man without pride in body and other things > दुनिया के जाल से (snare - पुत्र ऐषणा, वित्त ऐषणा और लोक ऐषणा के प्रलोभन के जाल से, देश-काल-निमित्त के जाल से, या माया के जाल से) इस प्रकार बाहर निकल जाता है, जैसे कोई शेर पिंजरे को तोड़कर बाहर निकल जाता है।
Abandoned by (or free from) the restriction of the scriptures relating to the duties of caste and conduct according to the stage of life, he goes out of the snare of the world like a lion out of a cage.
वह शास्त्र की शक्ति से अपनी जाति और पंथ के सभी बंधनों और अपने आदेश के संस्कारों और प्रतिबंधों को तोड़ देता है; और समाज के जाल से मुक्त हो जाता है, जैसे कोई सिंह अपने पिंजरे को तोड़ कर हर जगह बेलगाम घूमता रहता है।
He breaks down all the bonds of his caste and creed and the rites and restraints of his order by the battery of the sástra; and roves freed from the snare of society, as a lion breaking loose from his cage, and roaming rampant everywhere.
जिसने इस आत्म-ज्ञान (self-knowledge) को प्राप्त कर लिया है वह जाति व्यवस्था और जीवन के वर्णों - आश्रमों के लिए निर्धारित आदेशों से संबंधित शास्त्रीय नियमों और निषेधों से उसी प्रकार परे चला जाता है, जैसे कोई शेर अपने पिंजरे को तोड़ कर बाहर निकल जाता है।
He who has attained this self-knowledge goes beyond the caste system and the regulations concerning the orders of life and the scriptural injunctions and prohibitions, even as the lion breaks out of its cage.
वह जीवनमुक्त योगी (living liberated yogi- ज्ञानी- ब्रह्म विद, नेता, पैगम्बर) जिसने इस आत्म-ज्ञान को प्राप्त कर लिया है, 'शास्त्र की शक्ति' से (battery- गीता,उपनिषद ब्रह्मसूत्र रूपी तोपखाना या दमदमा साहब की शक्ति से) वह अपनी जाति और पंथ के लिए बनी व्यवस्था के सभी बंधनों और अपने ऑर्डर के (Order- कोटि, प्रवृत्ति या निवृत्ति मार्ग के लिए बनी अलग-अलग नियमों और शास्त्रीय आदेशों और निषेधों से परे हो जाता है) संस्कारों और प्रतिबंधों को तोड़ देता है; और समाज के जाल से (लोग क्या कहेंगे ? के जाल से) उसी प्रकार मुक्त हो जाता है ~ देहाद्यभिमानरहितः पुमान् पञ्जरात्केसरी सिंह इव जगज्जालान्निर्गच्छति।। जैसे शेर अपने पिंजड़े को तोड़ देता है (-अर्थात सिंह-शावक जब भेंड़ की तरह घास खाना छोड़ देता है), और हर जगह (M/F मित्र-शत्रु के बीच) बेलगाम घूमता है।
A man without pride in his body and other things comes out of the cage like a lion and a lion out of the net of the world. He breaks down all the bonds of his caste and creed and the rites and restraints of his order; by the battery of the sastra; and roves freed from the snare of society, as a lion breaking loose from his cage, and roaming rampant everywhere.
[वर्ण-धर्म, आश्रम, आचार-शास्त्र-यन्त्रणया उज्झितः । निर्गच्छति जगज्.जालात् पञ्जराद् इव केसरी ॥६।१२२।२॥वर्णधर्माश्रमाचारशास्त्रयन्त्रणया वर्णा ब्राह्मणादयः। Varnas : Brahmins and others are governed by varna, dharma, asrama, customs and scriptures. आश्रमाः ब्रह्मचर्यादयः। Ashrams, such as celibacy. (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आदि आश्रमों के लिए बने शास्त्रीय नियमों के बंधनों से) " वर्णधर्माणामाश्रमाचाराणां च यानि शास्त्राणि बोधकानि तेषां या यन्त्रणा नियमरूपा मर्यादा तया उज्झितो; देहाद्यभिमानरहितः पुमान् पञ्जरात्केसरी सिंह इव जगज्जालान्निर्गच्छति।।"