🔱 स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना 🔱
खण्ड - 4
🙏शिक्षा समस्त समस्याओं की रामबाण औषधि है ! 🙏
[Education is the panacea for all problems! (SVHS- 4.5)]
🔆🙏 शिक्षा चाहिये 🔆🙏
मनुष्य मनुष्य में अन्तर का कारण क्या है ? शिक्षा ! शिक्षा के द्वारा असंस्कृत मनुष्य, सुसंस्कृत एवं परिशोधित (refined) मनुष्य में परिवर्तित हो जाता है। शिक्षा के द्वारा मनुष्य का जीवन बोध यानि अन्य जीवों और जगत के प्रति उसका दृष्टिकोण उदार, उन्नत और विस्तृत हो जाता है। शिक्षा से मनुष्य को विश्व और जीवन में अन्तर्निहित शक्ति का ज्ञान तथा उन शक्तियों का उपयोग करने में दक्षता प्राप्त होती है। आत्म-शक्ति में उसका विश्वास दृढ हो जाता है।
ज्ञान परिधि में विस्तार (या ह्रदय का विस्तार?) होने के साथ- साथ भय की सीमा भी घटने लगती है। सभी के साथ एकात्मता की अनुभूति के फलस्वरूप मनुष्य का स्वार्थबोध क्रमशः समाप्त होने लगता है।उसके आचार-विचार और व्यवहार में संयम और सहानुभूति अभिव्यक्त होने लगती है। मनुष्य अपने निजी स्वार्थ को भूल कर दूसरों के हित लिये कार्य करना चाहता है। सज्जनता,प्रेम और मैत्री की भावना के सामने घृणा, द्वेष और हिंसा पराजित होने लगता है। अपने सुखभोग की इच्छा के अपेक्षा परहित की भावना बड़ी होने लगती है। बाहर में सुख और आनन्द की अवधारणा में परिवर्तन हो जाने कारण ह्रदय शुद्ध और पवित्र हो जाता है। शिक्षा ही किसी व्यक्ति को यथार्थ मनुष्य में परिणत कर सकती है।
अशिक्षित मनुष्य और पशु में क्या अन्तर है ? पशु पूर्ण होता है , जबकि मनुष्य अपूर्ण जन्म लेता है। प्रत्येक मनुष्य में कुछ न कुछ कमियाँ रहती हैं, शिक्षा ही उसे पूर्ण बनाता है। मनुष्य को पूर्णत्व प्राप्त करा देना ही शिक्षा का उद्देश्य है। किन्तु पूर्णता #कहीं बाहर से नहीं आती है। बल्कि मनुष्य के भीतर ही पूर्णता है, किन्तु अभी सूप्त अवस्था में है। बाहर से मृदु आघात कर भीतर की सूप्त पूर्णता को जाग्रत करा देना ही शिक्षक और शिक्षा का कार्य है।
[>>>2. श्रद्धा : मनुष्य मनुष्य में अन्तर इसी श्रद्धा के कारण है। जीवकोटि का मनुष्य (जो समाधि प्राप्त कर के स्वयं मुक्त हो जाता है ?) और ईश्वरकोटि का मनुष्य (भावी नेता-जो समाधि के बाद माँ की कृपा से लौट कर उधर का सुसमाचार सुना सकता है ) में अन्तर केवल इसी श्रद्धा के कारण है। जिसकी आत्मश्रद्धा आत्मसाक्षात्कार के बाद ईश्वर या निःस्वार्थपरता के प्रति दृढ़ विश्वास में बदल जाती है, उसको वैसा ही लाभ (माँ काली,गुरु या नेता से चपरास?) मिलता है ! ]
हमारे भीतर पूर्णता विद्यमान है, इस सत्य को स्वीकार कर लेने या विश्वास करने को ही श्रद्धा कहते कहते हैं। इसीलिये मनुष्य बन जाने की साधना में श्रद्धा अत्यन्त आवश्यक है । क्योंकि हमारे भीतर पहले से ही
पूर्णत्व (perfection-divinity) विद्यमान है; इस सत्य को जाने बिना हम उसे जाग्रत कैसे कर सकते हैं ? इसीलिये कहा जाता है- 'श्रद्धावान लभते ज्ञानम।' मनुष्य, मनुष्य में अन्तर केवल इसी श्रद्धा के कारण है। जिसकी
जैसी श्रद्धा होती है, उसको वैसा ही लाभ मिलता है।
श्रद्धा के साथ
संयुक्त रहने से भीतर की पूर्णता क्रमशः अभिव्यक्त होने लगती है। पूर्णता की इसी अभिव्यक्ति को शिक्षा कहते हैं। जिस
व्यक्ति में जितनी मात्रा में पूर्णत्व विकसित हुआ है, उसे उतनी ही मात्रा में
शिक्षित कहा जा सकता है। इसके साथ ही साथ मनुष्य में जो पूर्णता का भाव (पहले से विद्यमान है ?) है , वह क्रमशः प्रस्फुटित (Unfold) होने लगता है।
[>>>3. अपूर्ण ( imperfect) होने का तात्पर्य > अपूर्ण होने का तात्पर्य है कुछ पाने की लालसा ! क्षुद्र सुख भोग (तीन ऐषणाओं -पुत्र,वित्त,नामयश) के लालच को पूर्ण करने के लिए देह, मन और इन्द्रियों की गुलामी करते रहना। मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माण कारी शिक्षा पाकर हम लोग यथार्थ सुख के अधिकारी बन सकते हैं। ]
अपूर्ण (Imperfect) होने का तात्पर्य क्या है ? इसका तात्पर्य है, और कुछ पाने की लालसा। मैं जैसे-जैसे पूर्ण होता जाउँगा, तो मेरी कामनायें क्रमशः कम होती जायेंगी, मेरी स्वार्थपरता कम होती जाएगी, मेरा भय बिल्कुल समाप्त हो जायेगा ! मेरी दूसरों पर निर्भरता कम होती जाएगी, अर्थात मैं दासत्व से मुक्ति की ओर अग्रसर होता जाऊंगा । परवशता का मनोभाव, पराधीनता का मनोभाव, हीन भाव कम होता जायेगा। क्या पारधीनता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ व्यक्ति कभी सुख पा सकता है? 'पराधीन सपनेहूं सुख नाहीं'-- दासत्व में सुख कहाँ है ?
[>>>4. शिक्षा का तात्पर्य : Man-making and character-building education means training in Mental Concentration. शिक्षा का तात्पर्य ही है मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण> मनःसंयोग (=विवेकदर्शन अभ्यास या प्रेमाभक्ति) के प्रशिक्षण के द्वारा, जैसे- जैसे विवेक-प्रयोग शक्ति या आत्मशक्ति (power of discretion) बढ़ती है वैसे -वैसे आत्मविश्वास और आत्मश्रद्धा भी बढ़ने लगती है। जीवन क्या है -उसका उद्देश्य क्या है ?... क्रमशः स्पष्टर और बोधगम्य होने लगता है। स्वार्थपूर्ण विचारों -अर्थात 'Lust and lucre' का आवेग कम होता जाता है। शिक्षा ='शी'क्षा # विवेक-दर्शन का अभ्यास या प्रेमभक्ति के प्रशिक्षण के फलस्वरूप स्वार्थपूर्ण विचारों का आवेग कम हो जाता है और दूसरे या पराये? लोगों के साथ सम्बन्ध में मधुरता आने लगती है। ]
शिक्षा के द्वारा ही हमलोग यथार्थ सुख के अधिकारी बन सकते हैं। जैसे-जैसे शिक्षा के द्वारा आत्मशक्ति बढ़ती है, वैसे -वैसे आत्मविश्वास और आत्मश्रद्धा भी बढने लगती है। यह बात स्पष्ट हो जाती है, कि समस्त शक्ति का स्रोत मेरे हृदय में ही है। यह भी समझ में आने लगता है कि दैहिक शक्ति की अपेक्षा मानसिक शक्ति अधिक मूल्यवान है। मानसिक शक्ति के विकास के फलस्वरूप ज्ञान की परिधि और अच्छा-बुरा में विवेक-प्रयोग करने की क्षमता भी बढ जाती है। जगत और जीवन का अभिप्राय क्रमशः स्पष्टतर और बोधगम्य होने लगता है। स्वार्थपूर्ण विचारों का आवेग कम होता जाता है, दूसरे मनुष्यों के साथ सम्बन्ध में मधुरता आने लगती है। शिक्षा के फलस्वरूप ज्ञान और मनन करने की शक्ति जाग्रत होने के साथ- साथ, यह आस्था और दृढ होती जाती है कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर पूर्णता (100% Unselfishness or Divinity) के विकास की पूरी सम्भावना है। इसीलिये आत्मश्रद्धा सभी मनुष्यों के प्रति श्रद्धा का रूप धारण कर लेती है। सच्ची श्रद्धा एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य के निकट खीँच लाती है। क्रमशः मनुष्य-मात्र के प्रति प्रेम उमड़ने लगता है, अभेद या एकत्व (कोई पराया नहीं , सभी अपने हैं) की धारणा बढती जाती है। अब, पशुओं के समान अपने को ही केन्द्र में रखकर सभी कुछ पर अपना अधिकार जमाने की बातें सोचना संभव नहीं होता। शिक्षित व्यक्ति दूसरों के लिये सोचना सीखता है। हृदय की संवेदनाओं का केन्द्र अपने भीतर ही अचल न रहकर, विस्तारित होता है,सभी मनुष्यों के हृदय को स्पर्श करने में समर्थ हो जाता है। पहले के समान अब उसको अपना सुख उतना बड़ा नहीं दिखता है। दूसरों का सुख, आनन्द और कल्याण ही उसको अपना सुख या आनन्द के सामान अनुभव होता है। सुख या आनन्द की धारणा एक नया रूप धारण कर लेती है। यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि भोगों में या मन की अनियंत्रित शैतानियों में सुख या आनन्द नहीं है। सभी का सुख ही मेरा सुख है, सबों का कल्याण ही मेरा कल्याण है, सबों का आनन्द ही मेरा आनन्द है।
[>>>5. विवेक-स्रोत (= शक्ति और ज्ञान के स्रोत) को उद्घाटित (साक्षात्कार) करने से ही यथार्थ सुख और आनन्द प्राप्त होता है। (Only by uncovering (realizing) the source of Viveka (=source of power and knowledge) can one attain true happiness and joy.]
शिक्षा के फलस्वरूप अपने लिये अग्राधिकार की जगह सबों के अधिकार का ध्यान आता है, यहीं से नैतिकता का जन्म होता है। क्योंकि नैतिकता का मुख्य सिद्धान्त यही है। पूर्णत्व के अभिव्यक्त होने के साथ-साथ हमलोग सबों के साथ एक होना सीखते हैं। हमलोग सबो के साथ अभिन्न हैं, इसको जान लेना ही ज्ञान है। अपने को दूसरों से अलग समझना ही अज्ञान है। शिक्षा के द्वारा हमलोगों के हृदय में ज्ञान की यह ज्योति प्रज्वलित हो जाती है कि हमलोगों में से प्रत्येक के भीतर जो पूर्णत्व है, वही सर्वत्र विद्यमान है। इसको जान लेना ही यथार्थ शिक्षा है। वह पूर्णत्व ही हमलोगों की समस्त शक्तियों और ज्ञान का स्रोत है। उसको उद्घाटित कर अपने समस्त आचार -व्यवहार में अभिव्यक्त करने में सक्षम हो जाने को ही ' शिक्षित' होना कहते हैं। इस शक्ति और ज्ञान के स्रोत (विवेक-स्रोत) को उद्घाटित करने (साक्षात्कार करने) से ही यथार्थ सुख और आनन्द प्राप्त होता है।
सच्ची शिक्षा प्राप्त कर लेने से हमलोग एक नया जीवन प्राप्त करते हैं। और उस नये जीवन की दृष्टि से एक नया जीवन बोध प्राप्त करते हैं। हमारी आँखों के सामने यह जगत एक नये आलोक से उद्भासित हो उठता है। ऐसी शिक्षा से ही हमलोगों का जीवन, जीवन की सार्थकता, समाज और राष्ट्र का कल्याण तथा विश्व भ्रातृत्व की आधारशिला प्राप्त हो सकती है। हमलोगों को सच्ची शिक्षा अवश्य मिलनी चाहिए। इस शिक्षा को प्राप्त किये बिना हम पशु रह जायेंगे। इस शिक्षा (=शीक्षा) के अभाव में समाज से अनैतिकता, अत्याचार, शोषण, भ्रष्टाचार दूर नहीं हो सकता है; एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र के साथ, एक धर्म का दूसरे धर्म के साथ जो विद्वेष है, वह कभी दूर नहीं होगा, मानव-समाज में एकता की बातें केवल कहने की बातें ही बन कर रह जाएँगी ।
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🔆🙏*वैदिक दर्शन या तैत्तरीय उपनिषद की 'शी'-क्षा * 🔆🙏
🔆🙏‘काम’-चालित संसार से मुक्ति उपकरण नहीं,प्रयोगकर्ता बनने में🔆🙏
"कः इदं कस्मा अदात्।कामः कामाय अदात्।कामोदाता कामः प्रतिगृहीता। कामः समुद्रमा विवेश। कामेन त्वा प्रतिगृह्णामि कामैतत् ते॥" ~अथर्ववेद (३ । २९ । ७)
कः इदम् (कामम्) अदात् ? कस्मा (कस्मै) अदात् ? कामः कामाय अदात्। कामः दाता। कामः प्रतिगृहीता। कामः समुद्रम् आ-विवेश। कामेन त्वा (म्) प्रतिगृह्णामि काम। एतत् ते।
●अदात् = दा धातु, लुङ् लकार, प्रथम पुरुष, एक वचन दिया है।
●आविवेश = आ + विश् धातु लिट् लकार, प्रथम पुरुष, एक व. । प्रविष्ट हुई है।
● प्रतिगृणामि = प्रति + मह (क्र्यादि उभय) लट् लकार प्र.पु, एक वचन स्वीकार करता हूँ, पाणिग्रहण करता हूँ, आश्रय लेता हूँ, समनुरूप होता हूँ, अवलम्बित होता हूँ, लेता हूँ, थामता हूँ, पकड़ता हूँ, सामना करता हूँ।
मन्त्रार्थ :किसने इस (काम) को दिया है?किसके लिये (इसको दिया है?) काम ने काम के लिये दिया है। काम दाता (देने वाला) है। काम प्रतिगृहीता (दिये हुए को स्वीकार करने वाला) है. काम समुद्र (हृदय) में प्रविष्ट हुआ (घुसा है। काम के द्वारा / काम के वशीभूत होकर (मैं) तुझे स्वीकार करता हूँ। हे काम यह (सब) तेरा/तेरे लिये है। इस मन्त्र में समुद्र शब्द विशेष उल्लेखनीय है। यह मुद् धातुज है।
[ कामः समुद्रम् आ-विवेश। आविवेश = आ + विश् धातु लिट् लकार, प्रथम पुरुष, एक व. । प्रविष्ट हुई है। काम समुद्र (हृदय) में प्रविष्ट हुआ (घुसा है। काम के द्वारा / काम के वशीभूत होकर (मैं) तुझे स्वीकार करता हूँ। हे काम यह (सब) तेरा/तेरे लिये है।
(i) मुद् चुरादि उभय मोदयति-ते मिलाना, घोलना, स्वच्छ करना, निर्मल करना। (ii) मुद् भ्वादि आत्मने मोदते हर्ष मनाना प्रसन्न होना आनन्दित होना मुद् + रक् = मुद्र। मिला हुआ/ घुला हुआ/स्वच्छ/ निर्मल/प्रसन्न को मुद्र कहते हैं। स(सह) + मुद्र= समुद्र। जिसमें अनेक नदियों का जल मिला हो, नमक घुला हो, जो स्वच्छ हो, मलहीन हो, सतत प्रसन्न हँसता हुआ, अट्टहास करता हुआ (ज्वार रूप में) हो, वह समुद्र है। यहाँ समुद्र का तात्पर्य ह्रदय से है - हृदय में अनेकों भाव होते हैं। इन भावों में प्रेम तत्व घुला होता है। हृदय कपटहीन (स्वच्छ) हो तथा ईर्ष्याहीन (निर्मल) हो साथ ही साथ प्रसन्न शान्त प्रगल्भ हो तो वह हृदय समुद्रवत् होने से समुद्र ही है। अतएव मन्त्र में समुद्रम्= हृदयम् समझना चाहिये।
इस मंत्र में काम शब्द बार-बार आया है। काम = क (रस/जल) + अम (गति)। [ अम् गतौ अमति + घञ]। अतः काम का अर्थ हुआ रस प्रवाह रसका न रुकना अर्थात् बहते रहना काम है। रस नाम ब्रह्म का ‘रसो वै सः।’ अतः काम = ब्रह्मगति = आनन्दप्राप्ति वीर्य का बहना, लिंग से बाहर निकलना आनन्द है। रज का बहना, स्खलित होना आनन्द है। यही काम है।
जब यह कहा जाता है-कामः कामाय अदात्, तो इसका सीधा अर्थ है- ब्रह्म ने ब्रह्म को दिया।कामः दाता = देने वाला ब्रह्म है। कामः प्रतिगृहीता = लेने वाला ब्रह्म है। पुनः जब यह कहा गया कि कामः समुद्रम् आविवेश तो इसका तात्पर्य हुआ ब्रह्म ने हृदय में प्रवेश किया। समुद्र हृदय है, हृदय ब्रह्म का वासस्थान वा स्वयं ब्रह्मरूप है। अतः कामः समुद्रम् आविवेश = ब्रह्म को ब्रह्म की प्राप्ति हुई। स्त्री-पुरुष दोनों एक दूसरे से कहते हैं कि कामेन त्वा प्रतिगृह्णामि। इसका अर्थ है- ब्रह्म के द्वारा तुझ (ब्रह्म) को प्राप्त करता होता हूँ। मंत्र का अन्तिम वाक्य है-काम एतत् ते। हे ब्रह्म ! यह सब तेरा है =यह सब ब्रह्म है।मंत्र का सार है :सृष्टि काममय है। स्त्री काम है। पुरुष काम है। लेने वाला काम है। देने वाला काम है। लेने-देने का माध्यम भी काम है। सब कुछ काम है। [टिप्पणी : हृदय का अर्थ समुद्र है, इसके लिये वेद प्रमाण है। "समुद्र इव हि कामः नैव हि कामस्यान्तोऽस्ति न समुद्रस्य।~तैत्तिरीय उपनिषद (२।२।५) समुद्र के समान काम होता है। न काम का अन्त है और न समुद्र का।
>>>'काम ' के विषय में याज्ञवल्क्य के विचार : याज्ञवल्क्य की दो पलियाँ थीं- मैत्रेयी और कात्यायनी इन में से मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी थी तथा कात्यायनी साधारण स्त्रीप्रज्ञा वाली। एक बार याज्ञवल्य ने मैत्रेयी से कहा कि, हे मैत्रेयी। मैं संन्यास लेने जा रहा हूँ। इसलिये मैं तेरे और कात्यायनी के बीच सम्पत्ति का बंटवारा करना चाहता हूँ मैत्रेयी ने उनसे सम्पत्ति (धन) के बदले अमृतत्व की जिज्ञासा की। इससे याज्ञवल्य बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने काम के द्वारा परमतत्व का संकेतन किया।
उन्होंने कहा- १. अरी मैत्रेयि । यह निश्चय है कि पति के काम के लिये पति प्रिय नहीं होता, अपने ही काम के लिये पतिप्रिय होता है।
(१- स उवाच ह वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियः न भवति, आत्मनः तु कामाय पतिः प्रियः भवति।)
रे मैत्रेयि । भार्या के काम के लिये भार्या प्रिया नहीं होती, अपने ही काम के लिये भार्या प्रिया होती है।
हे मैत्रेयि । पुत्रों के काम के लिये पुत्रप्रिय नहीं होते, अपने ही काम के लिये पुत्र प्रिय होते हैं। वित्त (धन) के काम के लिये वित्त प्रिय नहीं होता, अपने ही काम के लिये वित्त प्रिय होता है। रे मैत्रेयि ! पशुओं के काम के लिये पशु प्रिय नहीं होते, अपने ही काम के लिये पशु प्रिय होते हैं।हे मैत्रेयि, ब्रह्म के काम के लिये ब्रह्म प्रिय नहीं होता, अपने ही काम के लिये ब्रह्म प्रिय होता है।अरी मैत्रेयि! क्षेत्र के काम के लिये क्षत्र प्रिय नहीं होता, अपने ही काम के लिये क्षेत्र प्रिय होता है।रे मैत्रेयि! लोकों के काम के लिये लोकप्रिय नहीं होते, अपने ही काम के लिये ‘लोक’ प्रिय होते हैं।हे मैत्रेयी! देवों के काम के लिये देव प्रिय नहीं होते, अपने काम के लिये ही देव प्रिय होते हैं।अरी मैत्रेयी! वेदों के काम के लिये वेद प्रिय नहीं होते, अपने ही काम के लिये वेद प्रिय होते हैं।हे मैत्रेयी! भूतों के काम के लिये भूत प्रिय नहीं होते, अपने ही काम के लिये भूतप्रिय होते हैं।रे मैत्रेयी! सबके काम के लिये सब प्रिय नहीं होता अपने काम के लिये सब प्रिय होता है।
१३- अरे वा, आत्मा द्रष्टव्यः श्रोतव्यः मन्तव्यः निदिध्यासितव्यः।
हे मैत्रेयी! आत्मा दर्शनीय है, श्रवणीय है, मननीय है, निदिध्यासनीय है। आत्मा को देखना चाहिये। आत्मा संबंधी वार्ता सुनना चाहिये। आत्म तत्व का चिन्तन करना चाहिये। आत्मा का ध्यान करना चाहिये।
१४- अरे मैत्रेयि, आत्मनि खलु दृष्टे श्रुते मते विज्ञातः, इदं सर्वं विदितम्।
हे मैत्रेयी! आत्मा में दृष्टि डालने से, श्रुति करने से मन लगाने से, निश्चय ही उसका ज्ञान होता है, जिससे इन सब (सांसारिक पदार्थों) का ज्ञान होता है।
[स होवाच न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो, भवत्यात्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति।
न वा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवत्यात्मनस्तु, कामाय जाया प्रिया भवति।
न वा अरे पुत्राणां कामाय पुत्राः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय पुत्राः प्रिया
भवन्ति।
न वा अरे वित्तस्य कामाय वित्तं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय वित्तं प्रियं भवति।
न वा अरे पशूनां कामाय पशवः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय पशवः प्रिया भवन्ति।
न वा अरे ब्राह्मणः कामाय ब्रह्म प्रियं भवन्त्यात्मनस्तु कामाय ब्रह्म प्रियं भवति।
न वा अरे क्षत्रस्य कामाय क्षत्रं प्रियं भवन्त्यात्मनस्तु कामाय क्षेत्रं प्रियं भवति।
न वा अरे लोकानां कामाय लोका: प्रिया भवत्यात्मनस्तु कामाय लोका: प्रिया भवन्ति।
न वा अरे देवानां कामाय देवा: प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय देवाः प्रिया भवन्ति।
न वा अरे वेदानां कामाय वेदाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामायवेदा: प्रिया भवन्ति।
न वा अरे भूतानां कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्त्यात्मनस्तु कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्ति।
न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्व प्रियं भवन्त्यात्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति।
आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो।
मैत्रेय्यात्मनि खल्वरे दृष्टे श्रुते मते विज्ञात इदं सर्व विदितम्।
~ बृहदारण्यक उपनिषद् (४ । ५ । ६).
याज्ञवल्क्य का यह कथन बड़ा सारगर्भित है। इसकी व्याख्या जितनी ही की जाय, उतनी कम है। इसलिये इसमें उलझना ठीक नहीं।
🔆🙏 काम के विषय में व्यास देव का क्या मत है ? :
" नवनीतं यथा दध्नः तथा कामोऽर्थधर्मतः।(महाभारत शान्तिपर्व १६७ । ३६):जैसे दही का सार नवनीत (मक्खन) है, वैसे ही अर्थ एवं धर्म का सार काम है।
"कामो बन्धनमेव एकं नान्यदस्तीह बन्धनम्।(महाभारत शान्तिपर्व २५१ । ७) काम ही संसार में मनुष्य का एकमात्र बन्धन है, अन्य कोई बन्धन नहीं है।
"कामबन्धनमुक्तो हि ब्रह्मभूयाय कल्पते।"(महाभारत शान्तिपर्व २५०।७)-जो काम के बन्धन से मुक्त है, वह ब्रह्मरूप है।
"कामे प्रसक्तः पुरुषः किमकार्य विवर्जयेत्।(शान्तिपर्व ८८ । ११) काम में अति आसक्त पुरुष कौन सा बुरा काम छोड़ता है ? अर्थात् हर अकार्य (शास्त्र-निषिद्ध कर्म भी) करता है।
"कामप्राहगृहीतस्य ज्ञानमप्यस्य न प्लवः। "(शान्तिपर्व २३४।३०) जिस व्यक्ति को कामरूपी ग्राह ने प्रस लिया है, उसके लिये उसका ज्ञान भी पार करने वाला प्लव (नौका) नहीं होता।
"सनातनो हि संकल्प काम इत्यभिधीयते।"(अनुशासन पर्व १३४।३९) प्राणियों में जो सनातन संकल्प है, वह काम कहलाता है।
"उद्यतस्य हि कामस्य प्रतिवादी न विद्यते।"(महा. उद्योग. ३९ । ४४)जब काम प्रबल हो जाता है तो उसका प्रतिवाद नहीं किया जा सकता।
"कामा मनुष्यं प्रसजन्त एते।"(उद्योग पर्व २७।४) ये काम मनुष्य को आसक्त बना देता है।
"कामानुसारी पुरुषः कामाननु विनश्यति।"(उद्योगपर्व ४२।१३)काम के पीछे दौड़ने वाला मनुष्य कामों के कारण ही विनष्ट हो जाता है।
"कामः संसारहेतुश्च।"(महा. वनपर्व ३१३।९८) काम संसार का हेतु है।
"धर्माविरुद्ध भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।~ गीता (७। ११) "-अर्जुन, मैं प्राणियों में धर्म का अविरोधी काम हूँ।
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>>काम की उत्पत्ति के विषय में वैदिक दर्शन :
"कामस्तदमे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।"~ऋग्वेद (मण्डल १०, सूक्त १२९, मंत्र ४) कामः तद्-अपे, सम्-अवर्तत्-अधि मनसः रेतः प्रथमम् यत् आसीत्॥ परमेश्वर के मन से जो रेत (वीर्य) सर्वप्रथम निकला / वहा, वही मुख्यतः काम हुआ। इससे स्पष्ट है- वीर्य की उत्पत्ति मन से होती है तथा यही वीर्य काम है। इसलिये काम को मनोभव, मनोजव, मनोज कहते हैं। यह मनोभव-काम ही ज्ञान एवं वैराग्य का अवरोधक है।
"क्व ज्ञानं क्व च वैराग्यं वर्तमाने मनोभवे।"~देवीभागवत पुराण (५। २७ । ६१) सृष्टि के लिये काम आवश्यक है। बिना काम के कोई क्रिया हो ही नहीं सकती।
”समुद्र इव हि कामः नैव हि कामस्यान्तोऽस्ति न समुद्रस्य।”
~तैत्तिरीय उपनिषद (२।२।५)
समुद्र को तैर कर कोई अपने आप पार नहीं कर सकता, चाहे जितना शक्तिशाली वा सामर्थ्यवान् हो। दृढ़ पोत / नौका हो और उसको चलाने वाला कुशल मल्लाह / नाविक हो तो व्यक्ति निश्चय ही इस कामार्णव को पार करता है। अब हमें क्या करना चाहिये ?
सरल उपाय है : हमें काम के हाथ का उपकरण नहीं बनना चाहिए। कठपुतली बनकर भवसागर से पार नहीं उतरा जा सकता। काम हमारा उपयोग करते रहकर हमारा ही काम तमाम नहीं कर दे, इसलिए काम का उपयोगकर्ता बनना चाहिए। उसे मुक्ति का मार्ग बनाना चाहिए, उसको साधकर। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष. यानी धर्म के पथ से अर्थ का अर्जन और काम यानी संभोग को साधकर मोक्ष तक पहुँच जाना ही हमारे जीवन में शिक्षा या प्रशिक्षण का लक्ष्य होना चाहिए!
*वैदिक दर्शन : ‘काम’-चालित संसार से मुक्ति उपकरण नहीं, प्रयोगकर्ता बनने में* :साभार : डॉ. विकास मानव > साइकेट्रिस्ट एंड मेडिटेशन ट्रेनर >डायरेक्टर -चेतना विकास मिशन > व्हाट्सअप्प : 9997741245/ https://agnialok.com/vedic-philosophy-freedom-from-the-sex-driven-world-not-a-tool/
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$$$पुनश्च $$$स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [२२] "शिक्षा ही समाधान है" देखने के लिये मेरे नये ब्लॉग ---गुरुवार, 29 सितंबर 2016- শিক্ষাই সমাধান/शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016- शिक्षा ही समाधान है !" 'Mahamandal.blogspot.com' को देखें !
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