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Sunday, September 16, 2012

🔆🙏 कैसी शिक्षा चाहिए ? (শিক্ষা চাই) (अपने को दूसरों से अलग समझना ही अज्ञान है। ) 🔆🙏 (SVHS-4.5) 'श्रद्धावान लभते ज्ञानम।' हमारे भीतर पहले से ही पूर्णत्व (perfection-divinity) विद्यमान है ! 🔆🙏 [(शिक्षा : समस्त रोगों का रामबाण ईलाज है) :स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना 🔆🙏

 कैसी शिक्षा चाहिए ?

       एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में अन्तर का कारण क्या है ? शिक्षा ! शिक्षा के द्वारा असंस्कृत मनुष्य भी, सुसंस्कृत एवं सभ्य (refined) मनुष्य में परिवर्तित हो जाता है। शिक्षा के द्वारा मनुष्य का जीवन बोध यानि अन्य जीवों और जगत के प्रति उसका दृष्टिकोण उदार, उन्नत और विस्तृत हो जाता है। शिक्षा से मनुष्य को विश्व और जीवन में अन्तर्निहित शक्ति का ज्ञान तथा उन शक्तियों का उपयोग करने में दक्षता प्राप्त होती है। आत्म-शक्ति में उसका विश्वास दृढ हो जाता है। 
     यथार्थ शिक्षा के द्वारा 'ज्ञान' की परिधि में विस्तार होने के साथ- साथ भय की सीमा भी घटने लगती है। सभी के साथ एकात्मकता (Oneness) की अनुभूति के फलस्वरूप मनुष्य की स्वार्थपरता (self-interest-लोभ) क्रमशः समाप्त होने लगती है। उसके आचार-विचार और व्यवहार में संयम और सहानुभूति अभिव्यक्त होने लगती है। मनुष्य अपने निजी स्वार्थ को भूल कर, उसका अतिक्रमण कर दूसरों के हित लिये कार्य करना सीखता है। सज्जनता,प्रेम और मैत्री की भावना के सामने घृणा, द्वेष और हिंसा के विचार पराजित होने लगते है। अपने सुखभोग की इच्छा के अपेक्षा परहित की भावना बड़ी होने लगती है। विभिन्न मतभेदों की सीमारेखायें क्रमशः दृष्टि से ओझल हो जाते हैं। सबों के प्रति प्रेम से हृदय विह्वल (overwhelmed) हो उठता है। बाह्य विषयों में सुख और आनन्द की अवधारणा में आमूल परिवर्तन (Radical change) हो जाने कारण ह्रदय शुद्ध और पवित्र हो जाता है। शिक्षा ही किसी व्यक्ति को सुसंस्कृत और सभ्य मनुष्य में परिणत कर सकती है। 
       अशिक्षित मनुष्य और पशु में क्या अन्तर है ? पशु पूर्ण होता है , जबकि मनुष्य अपूर्ण जन्म लेता है। प्रत्येक मनुष्य में कुछ न कुछ कमियाँ रहती हैं, शिक्षा ही उसे पूर्ण बनाता है। मनुष्य को पूर्णत्व प्राप्त करा देना ही शिक्षा का उद्देश्य है। किन्तु पूर्णता कहीं बाहर से नहीं आती है। बल्कि मनुष्य के भीतर ही पूर्णता विद्यमान है, लेकिन सूप्त अवस्था में है। बाहर से मृदु आघात कर भीतर की सूप्त पूर्णता को जाग्रत करा देना ही शिक्षक और शिक्षा का कार्य है। 
         हमारे भीतर पूर्णता पहले से विद्यमान है, इस सत्य को स्वीकार कर लेने या विश्वास करने को ही श्रद्धा कहते कहते हैं। इसीलिये मनुष्य बन जाने की साधना में श्रद्धा अत्यन्त आवश्यक है । क्योंकि हमारे भीतर पूर्णत्व (perfection) पहले से ही विद्यमान है; इस सत्य को जाने बिना हम उसे जाग्रत कैसे कर सकते हैं ? इसीलिये कहा जाता है- एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में अन्तर  अन्तर केवल इसी श्रद्धा के कारण है। जिसमें जितनी श्रद्धा होती है, उसको उतना ही लाभ मिलता है। 'श्रद्धावान लभते ज्ञानम।'  
         श्रद्धा के साथ जब चेष्टा संयुक्त हो जाती है, तब भीतर की पूर्णता क्रमशः अभिव्यक्त होने लगती है। पूर्णता की इसी प्रकटीकरण (Revelation-आविर्भाव) को शिक्षा कहते हैं। जिस व्यक्ति में जितनी मात्रा में पूर्णत्व प्रकट (revealed) हुआ है, उसे उतनी ही मात्रा में शिक्षित कहा जा सकता है। इसके साथ ही साथ मनुष्य में जो कच्चेपन का एहसास, अधूरेपन का एहसास था, वह क्रमश कम होने लगता है। पहले से विद्यमान पूर्णता का भाव (निःस्वार्थपरता आदि पहले चर्चा किये गए गुण ) वे सभी गुण क्रमशः प्रस्फुटित (Unfold) होने लगते हैं।    
         अपूर्ण (Imperfectहोने का तात्पर्य क्या है ? इसका तात्पर्य है, और कुछ पाने की लालसा। मैं जैसे-जैसे पूर्ण होता जाउँगा, तो मेरी कामनायें क्रमशः कम होती जायेंगी, मेरी स्वार्थपरता कम होती जाएगी, मेरा भय बिल्कुल समाप्त हो जायेगा ! मेरी दूसरों पर निर्भरता कम होती जाएगी, अर्थात मैं दासत्व से मुक्ति की ओर  अग्रसर होता जाऊंगा । परवशता का मनोभाव, पराधीनता का मनोभाव, हीन भाव कम होता जायेगा। क्या पारधीनता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ व्यक्ति कभी सुख पा सकता है? 'पराधीन सपनेहूं सुख नाहीं'-- दासत्व में सुख कहाँ है ? 
         शिक्षा के द्वारा ही हमलोग यथार्थ सुख के अधिकारी बन सकते हैं। शिक्षा के द्वारा आत्मनिर्भरता (self-reliance) की शक्ति जैसे-जैसे बढ़ती है, वैसे -वैसे आत्मविश्वास और आत्मश्रद्धा भी बढने लगती है। यह बात स्पष्ट हो जाती है, कि समस्त शक्ति का स्रोत मेरे हृदय में ही है। यह  भी समझ में आने लगता है कि दैहिक शक्ति की अपेक्षा मानसिक शक्ति अधिक मूल्यवान है। मानसिक शक्ति के विकास के फलस्वरूप ज्ञान की परिधि और अच्छा-बुरा में विवेक-प्रयोग करने की क्षमता भी बढ जाती है। जगत और जीवन का अभिप्राय क्रमशः स्पष्टतर और बोधगम्य होने लगता है। स्वार्थपूर्ण विचारों का आवेग कम होता जाता है, दूसरे मनुष्यों के साथ सम्बन्ध में मधुरता आने लगती है। शिक्षा के फलस्वरूप ज्ञान और मनन करने की शक्ति जाग्रत होने के साथ- साथ, यह आस्था और दृढ होती जाती है कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर भी अन्तर्निहित पूर्णता (Unselfishness) के विकास की पूरी सम्भावना है। इसीलिये आत्मश्रद्धा सभी मनुष्यों के प्रति श्रद्धा का रूप धारण कर लेती है। सच्ची श्रद्धा एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य के निकट खीँच लाती है। क्रमशः मनुष्य-मात्र  के प्रति प्रेम उमड़ने लगता है, अभेद या एकत्व (कोई पराया नहीं , सभी अपने हैं) की धारणा बढती जाती है। अब, पशुओं के समान अपने को ही केन्द्र में रखकर सभी कुछ पर अपना अधिकार जमाने की बातें सोचना संभव नहीं होता। शिक्षित व्यक्ति दूसरों के लिये सोचना सीखता है। हृदय की संवेदनाओं का केन्द्रबिंदु स्वयं के भीतर ही अचल न रहकर, विस्तारित होता है,सभी मनुष्यों के हृदय को स्पर्श करने में समर्थ हो जाता है।
अब अपना सुख पहले के समान उतना बड़ा नहीं दिखता है। दूसरों का सुख, आनन्द और कल्याण ही उसको अपना सुख या आनन्द के सामान अनुभव होता है। सुख या आनन्द की धारणा एक नया रूप धारण कर लेती है। यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि भोगों में या मन की अनियंत्रित शैतानियों में सुख या आनन्द नहीं है। सभी का सुख ही मेरा सुख है, सबों का कल्याण ही मेरा कल्याण है, सबों का आनन्द ही मेरा आनन्द है।
       शिक्षा के फलस्वरूप अपने लिये अग्राधिकार पाने की कामना जगह सबों के अधिकार का ध्यान आता है, यहीं से नैतिकता का जन्म होता है। क्योंकि नैतिकता का मुख्य सिद्धान्त यही है। पूर्णत्व (Oneness-निःस्वार्थपरता) के अभिव्यक्त होने के साथ-साथ हमलोग सबों के साथ एक होना सीखते हैं। हमलोग सबो के साथ अभिन्न हैं, इसको जान लेना ही ज्ञान है। अपने को दूसरों से अलग समझना ही अज्ञान है। शिक्षा के द्वारा हमलोगों के हृदय में ज्ञान की यह ज्योति प्रज्वलित हो जाती है कि हमलोगों में से प्रत्येक के भीतर जो पूर्णत्व है, वही सर्वत्र विद्यमान है। इसको जान लेना ही, पूर्णत्व जान लेना हो गया ! पूर्णत्व जान लेना ही यथार्थ शिक्षा है। वह पूर्णत्व ही हमलोगों की समस्त शक्तियों और ज्ञान का स्रोत है। अन्तर्निहित उस पूर्णता को उद्घाटित कर अपने समस्त आचार -व्यवहार में अभिव्यक्त करने में सक्षम हो जाने को ही ' शिक्षित होना' कहते हैं। शक्ति और ज्ञान के उस स्रोत (विवेक-स्रोत) को उद्घाटित करने से ही यथार्थ सुख और आनन्द प्राप्त होता है। [श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के शब्दों में -'विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते'- अर्थात स्वामी  विवेकानन्द के साक्षात् दर्शन का अभ्यास करने से ' विवेक स्रोत ' उद्घाटित हो जाता है!] 
        सच्ची शिक्षा प्राप्त कर लेने से हमलोग मानो एक नया जीवन प्राप्त करते हैं। और उस नये जीवन की दृष्टि से एक नया जीवन बोध प्राप्त करते हैं। हमारी आँखों के सामने यह जगत एक नये आलोक से उद्भासित हो उठता है। ऐसी शिक्षा से ही हमलोगों का जीवन, जीवन की सार्थकता, समाज और राष्ट्र का कल्याण तथा विश्व भ्रातृत्व की आधारशिला प्राप्त हो सकती है। हमलोगों को ऐसी शिक्षा अवश्य  मिलनी चाहिए। इस  शिक्षा को प्राप्त किये बिना हम पशु रह जायेंगे इस शिक्षा (=शीक्षा) के अभाव में समाज से अनैतिकता, अत्याचार, शोषण, भ्रष्टाचार दूर नहीं हो सकता है; एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र के साथ, एक धर्म का दूसरे धर्म के साथ जो विद्वेष है, वह कभी दूर नहीं होगा, मानव-समाज में एकात्मकता (Oneness) की बातें केवल कहने की बातें ही बन कर रह जाएँगी ।
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