भूमिका
भारत की सभ्यता अत्यंत प्राचीन है। बीच में इसके ऊपर से कितनी ही आंधी-तूफान गुजर चुके हैं। कई विदेशी सभ्यताओं ने कई शताब्दियों तक इसके ऊपर अपना प्रभाव फैलाया है। किन्तु उन समस्त बिघ्न-बाधाओं को पार करते हुए हमारी सभ्यता आज भी जीवन्त बनी हुई है, आज भी दृढ बनी हुई है। केवल इतना ही नहीं, भारतीय सभ्यता के मानव-मात्र के लिए कल्याणकारी अनेको विचार बहुत से पर्यटक, आचार्य, संन्यासी आदि के माध्यम से विभिन्न समय में सम्पूर्ण जगत में फैलते रहे हैं।
जब कभी किसी बाहरी जाती ने इस देश पर आक्रमण किया है, या जब कभी भी वाणिज्य-व्यापार के लिए, या अन्य किसी कारण से इस देश का सम्बन्ध दूसरे देशों से जुड़ा है, तब तब इन विचारों के आदान-प्रदान का मार्ग खुल गया है। ऐसी बात नहीं है कि हमने दूसरों को केवल दिया ही है, दूसरी सभ्यताओं की अच्छी-अच्छी बातों को हमने ग्रहण भी किया है। यह उदारता और शक्ति हमारी सभ्यता में प्राचीन काल से बनी हुई है। यह बात जरुर है कि हमें बीच बीच में दुर्दिन भी देखने पड़े हैं।
जैसे ही समाज के साधारण मनुष्यों ने अपने को संकीर्ण दायरे में कैद कर लिया है, सही ढंग से जीवन-यापन में असमर्थ हुए हैं, उनके भीतर दुर्बलता आई है, उसी समय अवनति हुई है। किन्तु यह सभ्यता कभी बिल्कुल विलुप्त नहीं हुई है। जब जब भारत अवनति के दौर से गुजरा है, उसी समय किसी उदारहृदय शक्तिशाली महापुरुष ने आकर आंतरिक ग्लानी को दूर हटा कर इसको फिर से जीवन्त बना दिया है। उसी समय उदार विचारों ने पुनः अपना सिर ऊँचा कर लिया है।
विदेशी सभ्यता जिस प्रकार प्रशासनिक शक्ति या राज-शक्ति के रथ पर सवार होकर दीर्घ काल तक भारत की छाती पर अपना सिंघासन बिछाया है, अन्य कोई सभ्यता होती तो बहुत पहले ही विलूप्त हो चुकी होती। विश्व का इतिहास इस बात का साक्षी है।
किन्तु भारतीय सभ्यता के साथ वैसा क्यों नहीं हुआ ? (इसी बात से हैरान होकर इक़बाल कहते हैं- ' क्या बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा ! ' )
इसका कारण यह है कि हमारी सभ्यता एक ऐसे सत्य की बुनियाद के उपर खड़ी है, जो चिरन्तन है, शाश्वत या सनातन है, जो समस्त देशों के मनुष्यों, समस्त युग की विचारधाराओं के सामने अपने सीने को गर्व से फुला कर खड़ी रहने में समर्थ है। यह सत्य चिरंतन, शाश्वत, अविनाशी है, इसीलिए सामाजिक, दार्शनिक या वैज्ञानिक विचारों में परिवर्तन आने के साथ ही साथ इसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। यह सत्य है, वेदान्त का सत्य जो कभी नहीं बदलता। भारतीय सभ्यता धर्म के उपर प्रतिष्ठित है। हिन्दू धर्म के सभी सम्प्रदायों में उपर से देखने पर कोई मेल न रहने पर भी, समस्त मतवादों की मूल भित्ति तो वेदांत ही है। भारतीय धर्म एवं सभ्यता के उदार, परमत-सहिष्णु एवं शाश्वत विचार-धारा का उत्स या स्रोत गीता एवं उपनिषदों में ही समाहित है।
वेदान्त प्रतिपादित सत्य के आलोक में देखने से केवल हिन्दू-धर्म के विभिन्न मतवाद ही नहीं, बल्कि जगत के अन्यान्य धर्मों के भीतर भी एक मूलभूत समानता स्पष्ट रूप से देखि जा सकती है।
वेदान्त में विश्व के स्थूल-सूक्ष्म सभी वस्तुओं का मौलिक सत्य (कुदरत का कानून ) क्या है, तथा उस सत्य को प्राप्त करने का उपाय बतलाया गया है।
जिस प्रकार जड़-प्रकृति में गुर्त्वाकर्षण का नियम ( Law of Gravitation ) स्थूल जगत का चिरंतन सत्य है, - क्योंकि अविष्कार होने के पहले भी वह क्रियाशील था, तथा किसी कारण से मनुष्य यदि उसको पुनः संपूर्णतः भूल भी जाये तब भी वह सत्य (कुदरत का कानून ) कार्यशील रहेगा, उसी प्रकार वेदान्त का ज्ञान भी चैतन्य-जगत या सूक्ष्म-जगत का चिर-विद्यमान सत्य है।
बहुत प्राचीन युग में ही ऋषियों ने इस सत्य का आविष्कार किया था। अपने जीवन में उन्होंने इस सत्य की अनुभूति की थी, आत्मसाक्षात्कार करने के बाद ही उन्होंने आत्मा की अनश्वरता का जय-घोष किया था, केवल अनुमान के आधार पर उन्होंने इसकी घोषणा नहीं की थी। ऋषियों के द्वारा अनुभूत इस ज्ञान-समूहों को ही वेद कहा जाता है।
वेद के अंतिम भाग को वेदान्त या उपनिषद के नाम से जाना जाता है। (कुदरत का कानून और लौकिक कानून में क्या अंतर है ? इसको ऐसे समझें कि यदि कोई जेबकतरा तुम्हारी जेब काट कर तुम्हारा सारा धन चुरा लेता है, तो लौकिक कानून उस जेबकतरे को ही दोषी मानकर उसको दंड देता है, कुदरत का कानून कहता है, जिसका जेब कटा था, वही दोषी है, उसको सह लेना चाहिए।इस जन्म या पूर्व-जन्म के कर्मों को भोगना ही पड़ेगा।)
जैसे कोई वैज्ञानिक यदि किसी वैज्ञानिक सत्य के बारे में यह कहे कि - ' मैंने देखा है, ऐसा ही होता है;' यह कहने मात्र से ही लोग उसको स्वीकार तो नहीं कर लेते, जिन व्यक्तियों में उस सत्य को परिक्षण करके देखने की योग्यता रहती है, वे उसे सत्य के रूप में स्वीकार करने के पहले उसकी जांच करके स्वयं देख लेते हैं। वेदान्त के सत्य के विषय में भी ऐसा ही होता है। ऋषियों ने बहुत पहले जिस सत्य की बात कहे हैं, और उसको प्राप्त करने का उपाय बता दिए हैं, उनके जाने के बाद प्रत्येक युग में असंख्य शक्तिवान महपुरुषों ने उस मार्ग पर चल कर उसी सत्य को प्रत्यक्ष किया है। तथा उच्च स्वर से घोषणा कर गये हैं, कि जो कोई भी चाहे उसकी सत्यता को स्वयं परीक्षा करके देख सकता है। वेदांत प्रतपादित सत्य इतना निर्भीक और युक्ति-ग्राह्य होता है!
जिस समय भारत अंग्रेजों का गुलाम था, उस समय विश्व के स्वाधीन एवं अद्द्योगिक रूप से उन्नत विदेशी लोग भारत की सभ्यता और समाज को घृणा की दृष्टि से देखते थे, यहाँ तक कि भारतवासियों को वे सभ्य मनुष्यों की श्रेणी में ही नहीं रखते थे। उसी समय, उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम भाग में स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका और यूरोप में सिंह के शौर्य का प्रदर्शन करते हुए इस वेदान्त के सन्देश का प्रचार करके विदेशियों के मन में भारत के प्रति श्रद्धा जाग्रत करा दिए थे।
उन्होंने विश्व-सभा में भारतीय धर्म और सभ्यता को सम्मान के आसन पर प्रतिष्ठित करा दिया था। 1893 ई0 में अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित धर्म-महासम्मेलन में उनके द्वारा पहले दिन दिया गया पहले भाषण में ही भारतीय-सभ्यता की बुनियाद वेदान्त की मूल बात क्या है, इसको वहां उपस्थित विद्वत श्रोता मण्डली ने हृदयंगम कर लिया था।
वेदान्त सिंह-नाद से आत्मा की महिमा की घोषणा करते हुए कहता है- सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड में एक मूल सत्ता अनुश्युत है, जिसका किसी काल में विनाश नहीं है, जो चिरंतन शाश्वत सत्ता है। वह सीमारहित और नित्य आनन्दमय शुद्ध चैतन्य - ' सच्चिदानन्द ' स्वरुप है। उसी शाश्वत चेतना से विश्व-ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी हमलोग देखते या विचार करते हैं, वह सबकुछ निकला है। ईंट, पत्थर, हवा, आकाश, जड़शक्ति, हमलोगों का मन, हमलोगों की पृथक पृथक चेतना, सभीकुछ उसी से निकला है। किन्तु ये सभी भिन्न भिन्न नाम-रूपों में दिखने वाली वस्तुएं चिरस्थायी या नित्य नहीं हैं। ये सभी पदार्थ सृष्ट होते हैं, कुछ दिनों तक रहते हैं, फिर जहाँ से उत्पन्न हुए थे, उसी शुद्ध चेतना में लीन हो जाते हैं। नित्य या शाश्वत नहीं होने के कारण वेदान्त समस्त वस्तुओं को - ' गो गोचर जहँ लग मन जाई ' को मिथ्या (असत नहीं ) कहता है। और जिस वस्तु का किसी कालमे विनाश नहीं होता उस, शुद्ध चेतना को सत्य कहता है।
वेदान्त कहता है- यह सीमारहित,असीम चेतना ही हमारा स्वरुप है, हमलोग भ्रम के कारण ही स्वयम को ' शारीर-मन युक्त ' स्त्री या पुरुष ' के रूप में सोचते हैं। अज्ञान के कारण हमलोग ऐसा सोचते हैं कि मानों मेरा शरीर नष्ट होने से मैं भी विलुप्त हो जाऊंगा। क्योंकि यदि मन ही न रहे तो मेरा अस्तित्व कैसे रहेगा ? किन्तु जिस क्षण यह भ्रम-भंजन हो जायेगा, अज्ञान चला जायेगा, इसी क्षण से मनुष्य स्वयं को शरीर-मन से अलग उस का साक्षी या द्रष्टा के रूप में देखने में समर्थ हो जाता है। अब समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड के साथ स्वयम के एकत्व का अनुभव करने लगता है। उसका सभी प्रकार भय तब सदा के लिए दूर हो जाता है, और उसका मन अद्भुत आनन्द और शक्ति से भर उठता है ! अब उसको जीवन में घटित होने वाली कोई भी घटना उद्विग्न नही कर पाती है। उसका जीवन मधुमय हो उठता है।
वेदान्त-प्रतिपाद्य यह चरम सत्य, चिरविद्यमान या अनादि-अनंत आनन्दमय शुद्धचेतना हममें से प्रत्येक के भीतर गुप्त रूप में, अप्रकट रूप से अन्तर्निहित है। बाहरी और भीतर की प्रकृति के साथ युद्ध करके, उनको जीत करके अपने इस यथार्थ स्वरूप को प्रकट करने का नाम ही धर्म है। यही हमारे जीवन का चरम लक्ष्य है। अपने इस स्वरुप की उपलब्धी होने से मनुष्य पूर्ण हो जाता है।
अब उसको कुछ भी प्राप्त करने के लिए शेष नहीं रह जाता है। इस परम वस्तु के प्राप्त हो जाने पर जीवन में प्राप्त होने वाले अन्य किसी प्राप्ति को उससे बड़ा जैसा प्रतीत ही नहीं होता।
प्रकृति को जीत कर अपने यथार्थ स्वरूप की उपलब्धी करने के अनेकों उपाय हैं। कर्म, उपासना, मनः संयम और ज्ञान - इन चारों में से कोई एक का आश्रय लेकर इसे किया जा सकता है। धर्म कहता है, अपनी प्रकृति, अभिरुचि और शक्ति के अनुसार इनमें से कोई एक या एकाधिक या चारों उपायों का अवलम्बन करके अपने नित्य दिव्य स्वरुप को प्रकाशित करो, सभी प्रकार के बन्धनों एवं दुःख के हाथो से मुक्त हो जाओ; अन्तर्निहित अनन्त ज्ञान, अमर सत्ता और अपरिमित शक्ति को प्रकट करो। यही धर्म की मूल बात है, धर्म का सार है। यही वेदान्त का सन्देश है। मतवाद, कर्म-अनुष्ठान, मन्दिर, शास्त्र आदि बाकि सभी कुछ धर्म का बाहरी अंग है, इन सब का उद्देश्य है, इस मूल तथ्य को समझा देना तथा स्वरुप उपलब्धी के पथ पर चलने में मनुष्य की सहायता करना।
इस स्वरुप की दिशा में अग्रसर होने के मार्ग पर विभिन्न अवस्थाओं में एक ही शुद्ध चेतना को विभिन्न सत्तारूप में और विभिन्न आकार में देखा जा सकता है। जैसे सूर्य की अग्रसर होते समय विभिन्न दूरत्व एवं परिवेश से फोटो खींचने पर एक ही सूर्य का विभिन्न प्रकार का चित्र अंकित होता है। दूरत्व एवं दृष्टिकोण में परिवर्तन होने के साथ ही साथ शुद्ध चेतना के साथ मनुष्य के साथ अपने सम्बन्ध में भी परिवर्तन होता रहता है।
एक अवस्था में ऐसा लगता है, कि वे (ठाकुर) मुझसे अलग हैं, मैं उनसे अलग हूँ। यह है द्वैतवाद। और एक अवस्था में मैं उनसे अलग होने पर भी उनका ही अंश हूँ। स्वरूपतः एक होने पर भी मेरा उनसे भिन्न अस्तित्व है, जैसे अग्नि और उसका स्फुलिंग होता है। इसी को विशिष्टाद्वैत वाद कहते हैं। एक अन्य अवस्था में चरम सत्य के अलावा और कुछ भी नहीं रहता; मेरा ' मैं ' उसीमें विलीन होकर एक हो जाता है; चरम सत्ता के साथ पूर्ण एकत्वबोध प्राप्त होता है। यह अद्वैतवाद है, अंतिम अवस्था है।
साधारणतः वेदान्त कहने से अद्वैतवाद समझा जाता है, वेदान्त अद्वैतज्ञान को चरम सत्य कह कर घोषणा करता है, किन्तु द्वैत, विशिष्टाद्वैत, अद्वैत इन सभी अवस्थाओं को वेदान्त में स्वीकार किया जाता है। विभिन्न स्तरों पर रहने वाले व्यक्तिओं के कल्याण के लिए मध्वाचार्य, रामानुजाचार्य, शंकराचार्य आदि विभिन्न आचार्यों ने स्वयम सत्य की उपलब्धी करके एक एक मतवाद के उपर बल देते हुए उनमें से प्रत्येक ने एक विशेष मतवाद के उपर जोर दिया है, किन्तु वास्तव में इनमें से कोई मतवाद परस्पर विरोधी नहीं हैं। बल्कि एक मतवाद दुसरे मतवाद का पूरक है।
क्योंकि इन सब का मूल श्रोत, इन सबके अनुप्राणित होने का सामान्य उत्स है-उपनिषद। किन्तु हमलोग इस मूलगत एकत्व की बात अक्सर भूल जाते हैं। जिसके फलस्वरूप परवर्ती काल में कई सम्प्रदायों की साम्प्रदायिकता एवं धार्मिक कट्टरता भी उत्पन्न हुई है। वर्तमान युग में श्रीरामकृष्णदेव ने अपने व्यक्ति-जीवन में सभी प्रकार के भावों को लेकर साधना द्वारा, सभी तरह के दृष्टिकोण से एक ही सत्य को प्रत्यक्ष करके यह घोषित करते हैं कि- " ईश्वर शुद्धबोध-स्वरुप हैं, एवं वे हमलोगों में से प्रत्येक का स्वरुप हैं। " उनहोंने यह भी कहा है कि इसी शुद्ध-बोध-स्वरुप को ही कोई व्यक्ति निर्गुण ब्रह्म कहता है, तो कोई उन्हें ही सगुण ब्रह्म के रूप में देख कर राम, कृष्ण, काली, शिव आदि कहता है। या फिर कोई उन्हीं को अल्ला, गौड आदि के नामों से पुकारता है। किन्तु मूलतः सभी एक हैं, अभेद हैं। व्यक्ति चाहे जिस किसी भाव को लेकर, जिस किसी मार्ग से अग्रसर रहते हुए चरम अवस्था में पहुंचकर इसी एक सत्य की, अपने निज स्वरुप की उपलब्धी कर ही लेगा। जहाँ पहुँचने वाले सभी सियार के मुख से एक ही स्वर (जय श्री सच्चिदानंद ! अथवा आल्ला हो अकबर या गौड ही ) निकलता है- " সব শেয়ালের এক রা "।
আর " যত মত, তত পথ "। और यह भी कहते हैं कि - " जितने मत उतने पथ।" इसीलिए वेदान्त सभी धर्मों का विज्ञान-स्वरुप है। पुरे विश्व में आज वैज्ञानिक-दृष्टिकोण से विचार करने वाले चिन्तनशील मनुष्यों की संख्या बढती जा रही है। जिन लोगों के मन में जन्म से ही भगवान के उपर सहज विश्वास होता है, उनकी बात ही अलग है। किन्तु आधुनिक युग के युक्तिवादी (Rationalist) विचारशील मनुष्यों के मन में धर्म के प्रति विश्वास होना बहुत कठिन है। फिर विभिन्न नाम वाले धर्म परस्पर-विरोधी प्रतीत होने के कारण तथा उसी को लेकर आपसी विवाद फ़ैलाने में लगे रहने के कारण धर्म की बात को स्वीकार कर लेना मानों और भी कठिन हो गया है। ऐसे लोगों के निकट ' आशा का सन्देश ' लेकर खड़ा हो जाता है।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- ' भविष्य में सम्पूर्ण विश्व के चिंतनशील मनुष्यों का धर्म ही वेदान्त होगा। ' क्योंकि ' अनेक में एक ' को देखने की दृष्टि से सम्पन्न वेदान्त ही समस्त धर्मों के सभी तरह की बातों के उपर सत्य के आलोक को फैला सकता है। वेदान्त की दृष्टि से देखने पर विश्व के सभी धर्म केवल सत्य ही प्रतीत नहीं होते बल्कि, यह भी समझ में आ जाता है कि विभिन्न प्रकार की रूचि रखने वाले मनुष्यों के लिए इतने सारे धर्मों का प्रयोजन भी क्यों है।
प्रत्येक मनुष्य के रूचि-वैचित्र्य या भिन्न भिन्न रुचियों को लक्ष्य करते हुए ही स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- ' इस पृथ्वी पर मनुष्यों की जितनी संख्या है, उतना ही यदि धर्म पथ भी होता तो वे बड़े प्रसन्न होते। ' वे कहते थे जैसे एक ही पौष्टिक मूल खाद्य (गेंहू, चावल इत्यादि को) अपनी रूचि एवं पाचन-शक्ति के तारतम्य के अनुसार सम्पूर्ण विश्व के मनुष्य हजारों प्रकार से पका कर भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं। किसी होटल में जितने अधिक प्रकार के भोजन की मेनू होती है, उतने अधिक संख्यक मनुष्य को अपने अपने पसंद के अनुसार भोजन को चुन कर तृप्त होकर भोजन का सुयोग पाते हैं।
चाहे जिस विधि से भोजन पकाया जाय, जिस प्रकार से भोजन किया जाय, यदि भोजन के द्वारा शरीर को पौष्टिकता मिलती हो, तो उतने से ही भोजन का मूल उद्देश्य सिद्ध हो जाता है। उसी प्रकार विश्व में धर्म-साधना के पथ जितनी अधिक संख्या में बढ़ते रहेंगे, उतने अधिक संख्या में मनुष्य धर्मसाधना की दिशा में, या अपने स्वरुप का अनुभव करने की दिशा में अग्रसर होने का अवसर प्राप्त कर सकेंगे। विभिन्न पथ से चलते समय केवल इतना ही याद रहना चाहिए कि हम सबों का लक्ष्य हमारी मंजिल एक है। चाहे जिस धर्मपथ का अनुसरण करके हमें अपनी मंजिल, अपने लक्ष्य - ' यथार्थ स्वरुप का बोध ' प्राप्त हो गया तो उससे पथ को लेकर झगड़ा करने की आवश्यकता ही नहीं होगी।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है, एक ही परिवार में जैसे कोई वकील बनता है, कोई डाक्टर बनता है, कोई शिक्षक बनता है, इसके बावजूद उन्हें मिलजुल कर एक साथ रहने में कोई असुविधा नहीं होती, उसी प्रकार एक दिन ऐसा भी आएगा जब एक ही परिवार में कोई भाई हिन्दू, कोई बौद्ध, कोई भाई क्रिस्चन, कोई भाई युहुदी, कोई भाई मुसलमान होने पर भी एक ही छत के नीचे शांति और सौहार्द्य के वातावरण मिलजुल कर निवास कर सकेंगे।
धर्म का अर्थ मत या पद्धति नही होता, धर्म का अर्थ है अध्यात्मिक अनुभूति, अपने सच्चे स्वरुप की अनुभूति; मानव-जाति जितनी जल्दी इस तथ्य को समझ लेगी उतनि ही जल्दी यह कल्पना मूर्त रूप धारण कर लेगी। वेदान्त का ज्ञान किसी विशेष देश, विशेष-जाती, विशेष-धर्म या विशेष संप्रदाय के मनुष्यों के लिए नहीं है, जिस प्रकार जड़ प्रकृति के वैज्ञानिक सत्य (गुरुत्वाकर्षण का नियम आदि ) समस्त देशों, सभी युगों, सभी धर्म के मनुष्यों, सभी प्रकार के विचार रखने वाले मनुष्यों के उपर लागु होते हैं, उसी प्रकार अंतःप्रकृति का उद्घाटित सत्य भी सबों के लिए एक समान सत्य होता है।
वेदान्त के उपर चर्चा करके, वेदान्त के ज्ञान को प्राप्त कर लेने पर मनुष्य उन्नततर, पूर्णतर, सरलतर, सजीवतर हो उठता है। उसकी कर्मदक्षता बढ़ जाती है, दूसरों के दुःख में और अधिक सहानुभूति सम्पन्न हो जाता है। अब वह अनुभव करता है कि अन्य मनुष्यों से उसकी सत्ता पृथक नहीं है, वह सबों के साथ एक है। यह एकत्व बोध प्राप्त करने पर मनुष्य निर्भय हो जाता है, वह प्रेम और करुणा, निःस्वार्थपरता और सेवा का केंद्र्स्वरूप बन जाता है। इसका नाम है सच्ची मानवता। स्वामी विवेकानन्द का जीवन इसका एक उत्कृष्ट प्रमाण है। उनको भी आचार्य शंकर की तरह ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ था। ब्रह्मज्ञान प्रतिष्ठित होने के बावजूद मनुष्यों के दुःख-कष्ट को देख कर उनका हृदय सदैव द्रवित हो जाता था, प्राच्य एवं पाश्चात्य दोनों देशों के मनुष्यों के कल्याण के लिए उन्होंने अन्तिम साँस तक परिश्रम किया था।
मनुष्यजाति के सर्वांगीन उन्नति के लिए जिस प्रकार के आदर्श मनुष्य का निर्माण करना आवश्यक है, वैसा मनुष्य गढ़ने के लिए वेदान्त के उपर चर्चा करना विशेष रूप से आवश्यक है। दो प्रचण्ड शक्तियाँ - धर्म और विज्ञान ही मानवजाति की नियामक हैं, इन दोनों में मौलिक एकत्व है उसकी धारणा को स्पष्ट करने में
वेदान्त के उपर चर्चा करना बहुत सहायक सिद्ध होता है। क्योंकि अपने सच्चे स्वरुप का अनुभव करने के लिए बाह्य प्रकृति और अन्तः प्रकृति - दोनों प्रकृति को वश में लाना अनिवार्य है; केवल एक ही प्रकृति पर विजय प्राप्त करने से कोई लाभ नहीं होगा। जड़ (पदार्थ) विज्ञान की साधना करने के साथ ही साथ धर्म के विज्ञान की साधना भी करनी होगी।
विश्व का कल्याण चाहने वाले आदर्श मनुष्य को स्वस्थ शरीर, उन्नत ज्ञान और बुद्धि से सम्पन्न बनना होगा। फिर इसके साथ ही साथ उसे बज्र के समान दृढ़ इच्छाशक्ति का अधिकारी भी होना होगा। उसे सम्पूर्ण विश्व को भगवत्स्वरूप देखने का दृष्टिकोण ( प्रत्येक जीव को शिव का ही रूप समझने की दृष्टि ) प्राप्त करके अपने हृदय में समस्त मनुष्यों के लिए सहानुभूति और प्रेम भर लेना होगा। वेदान्त का यह कहना है कि मानवता के चरम शिखर पर उठने के लिए व्यक्ति में इन गुणों का रहना जरुरी है। पूरे विश्व में इस प्रकार के आदर्श मनुष्यों की संख्या में जितनी वृद्धि होगी उतना ही मानव-जाति का कल्याण होगा। केवल औद्दौगिक विज्ञान के क्षेत्र में उन्नति प्राप्त कर लेने मात्र से, या बहुत अधिक मात्रा में शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक शक्ति प्राप्त कर लेने से ही मानव-जाति का सर्वांगीन कल्याण होना संभव नहीं है।
क्योंकि यदि ऐसा होना संभव था तो वर्तमान युग में औद्योगिक विद्या और पदार्थ विज्ञान में इतनी अधिक उन्नति हो जाने के बावजूद विश्व के मनुष्य आज भी निश्चिन्त होकर, या निर्भय होकर क्यों नहीं रह पा रहे
हैं ? उनके मन को शान्ति क्यों नहीं मिल पाती है ? आज हमलोग जड़-प्रकृति को वश में लाने के लिए तो जी-जान से चेष्टा कर रहे हैं, किन्तु इसके साथ ही साथ अन्तः प्रकृति को वश में लाने के लिए वैसी चेष्टा नहीं करते, इसी कारण तो आज देश की ऐसी परिस्थितियों से गुजरना पड़ रहा है।
केवल बुद्धि को तीव्र बना लेने से ही काम नहीं होगा। क्योंकि हमलोगों की बुद्धि उस टोर्च के समान है, जो केवल पथ दिखला सकती है। बुद्धि जितनी अधिक परिष्कृत होगी, प्रकाश जितना अधिक होगा, पथ भी उतना ही अच्छी तरह से दिखाई देगा। किस पथ पर जाने से हमारा कल्याण होगा, किस पथ से जाने पर अकल्याण होगा, इस बात को हमलोग उतनी ही अच्छी तरह से समझ पाएंगे।
किन्तु ऐसा दिखाई देता है कि इच्छाशक्ति दुर्बल होने के कारण, कौन सा पथ अच्छा है इसको जानबूझ कर भी हमलोग उस कल्याण के पथ पर नहीं चल पाते हैं। बुद्धि की बात को अस्वीकार करके मन अपनी इच्छा के अनुसार, जिस मार्ग से जाना उसको अच्छा लगता है, उसी पथ पर खीँच कर जबरन हमें भी ले जाता है। इच्छाशक्ति को प्रबल कर लेने से ही, मनुष्य जिसको अच्छा समझता है, वही कर भी सकता है। तब उसको मन को अच्छा लगता है या नहीं लगता के उपर असहाय होकर निर्भर नहीं करना पड़ता। इसीलिए जो लोग अपनी इच्छाशक्ति को प्रबल बना लेते हैं, वे साधारण मनुष्यों की अपेक्षा बहुत बड़े बन जाते हैं। विश्व के समस्त देशों में जिनकी इच्छशक्ति प्रबल होती है, वैसे लोग ही जनसाधारण को संचालित करते हैं। किन्तु इच्छाशक्ति को प्रबल बना लेने से ही पूरा कार्य नही होता। क्योंकि कोई मनुष्य तीव्र इच्छाशक्ति के बल पर जैसे जगत का असीम कल्याण कर सकते हैं, उसी प्रकार इच्छा होने से जगत का उतना ही अकल्याण भी कर सकते हैं। वे असुर भी बन सकता है, देवता भी बन सकता है।
इसीलिए इच्छाशक्ति को प्रबल बना लेने की योग्यता रहने के साथ साथ उसके मन में ताकि दूसरों के प्रति सच्चा प्रेम, जन-कल्याण की सच्ची भावना, त्याग और सेवा के भाव का भी उदय हो सके उसकी व्यवस्था भी करनी होगी। वैसा हो जाने से हमलोगों का व्यष्टि जीवन समष्टि जीवन दोनों मधुमय हो उठेगा। सही प्रकार से धर्म के ऊपर चर्चा करने से, वेदान्त के उपर चर्चा करना ही मनुष्य के मन में देव-भाव जाग्रत करने का उत्कृष्ट उपाय है। इस प्रकार के पूर्णता सम्पन्न नर-नारियों का निर्माण करना ही वेदान्त पर चर्चा करने का उद्देश्य है। जिस समय मनुष्य अपने भीतर और दूसरों के भीतर देवत्व का आविष्कार कर लेता है, जब वह स्वयं को दूसरों के भीतर देखना सीख लेता है, तब वह जाती-धर्म निर्विशेष सभी मनुष्यों से प्रेम किये बिना रह ही नहीं सकता, अब वह समस्त मनुष्य-जाती का कल्याण चाहे बिना नहीं रह सकता।
बहुत लोगों के मन में ऐसी धारणा होती है कि सब कुछ छोड़-छाड़ कर जंगल नहीं जाने से वेदान्त के उपर चर्चा करने का कोई लाभ नहीं होगा। किन्तु ऐसा सोचना बिल्कुल गलत है। यह ठीक है कि वेदान्त के चरम सत्य की उपलब्धी करने के लिए सर्वस्व त्याग की आवश्यकता होती है; किन्तु गीता की शिक्षा है कि अपने सम्पूर्ण जीवन को ही अध्यात्मिक साधना में रूपायित करने से ही कोई व्यक्ति त्याग का अधिकारी बन सकता है। संसार में रहते हुए भी हमलोग इस ज्ञान के उपर चर्चा कर सकते हैं, जीवन की किसी भी अवस्था में यह संभव है। श्रीरामकृष्ण के अनुसार नौका जल में रह सकती है, किन्तु ध्यान रखना होगा कि नौका के भीतर वह जल प्रविष्ट न हो सके। उसी प्रकार मनुष्य संसार में रह सकता है, किन्तु सतर्क होकर देखते रहना होगा कि संसार उसके भीतर प्रविष्ट न हो जाये।
वस्तुतः समाज के विभिन्न स्तरों पर रहते हुए भी बहुत से नर-नारी ने इस आध्यात्मिकता को प्राप्त किया है, इतिहास इस बात का साक्षी है। गीता हमलोगों को यह अभय वाणी सुनती है कि ज्ञान-प्राप्ति के पथ पर थोडा सा अग्रसर होने से भी, मनुष्य महानभय (मृत्यू के भय ) के हाथों से स्वयं को बचा सकते है,
- " स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात। " इसी आध्यात्मिकता के बल से बलवान होकर अनिवार्य आपदा-विपदा, दुःख-कष्ट को प्रसन्न-मुख से उपेक्षा कर के, इसी जीवन में उस परमानन्द को प्राप्त कर सकता है। उसके भीतर महाशक्ति जाग्रत हो जाती है। फिर जिन व्यक्तियों की मानसिक शक्ति अत्यंत प्रबल होती है, वे संसार से ब्रह्मज्ञान तक को प्राप्त करने के बाद विदा लेते हैं। इसीलिए संसार के सभी स्तरों पर वेदान्त के बहुत प्रचार की आवश्यकता है, ताकि स्त्री-पुरुष सभी जीवन में परमानन्द को प्राप्त करके अपने जीवन को सफल-ज्ञान कर सकें।
अनासक्त होकर कर सकें तो संसार में रहते हुए भी, सभी प्रकार का कार्य करते हुए भी, मनुष्य यदि ठान ले तो स्वरुप-उपलब्धी के पथ पर, धर्म के पथ पर अग्रसर हो सकता है, इसके बाद की कई कहानियों को पढने से ही यह तथ्य स्पष्टता के साथ समझ में आ जाती है।
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