(1) पृष्ठभूमि और महत्व (The Background ):
अलग अलग व्यक्तियों से मिलकर समाज बनता है, अतः व्यष्टि मनुष्य ही समाज का मौलिक उपादान है। अतः हम यदि स्वस्थ और सुन्दरतर मनुष्यों से बना हुआ एक स्वस्थतर और सुन्दरतर समाज गठित करना चाहते हों,तो स्वस्थ एवं सुन्दरतर मनुष्यों का निर्माण करना ही मौलिक कार्य है। किसी भी कार्य को करने के पहले मन में विचार उठते हैं, तथा वे विचार आस-पास की परिस्थितियों द्वारा प्रभावित होते हैं। समाज ही मनुष्य को गढ़ता है, और फिर वही मनुष्य अपने अपने विचारों के अनुरूप समाज को आकार देता है। इसीलिये मनुष्य द्वारा निर्मित समाज को निष्प्राण (Lifeless -बेजान,मुर्दा) नहीं कहा जा सकता; और जो कुछ सजीव (lively-जीवित,जानदार) है, जिसमें भी जीवन है -वह पूर्णत्व प्राप्त करने की चेष्टा करता है। और फिर, सामाजिक जीवन-प्रवाह में निरन्तरता बनाये रखने के लिए, जिस उत्साह या जोश (dynamism) की आवश्यकता होती है, वह स्वाभाविक रूप से समाज के युवावर्ग में ही निहित रहती है। इस प्रकार, हम देख सकते हैं कि, किसी भी समाज या राष्ट्र का भविष्य, उसके युवा समुदाय की चारित्रिक शक्ति और व्यक्तित्व विकास पर निर्भर करता है।
यद्यपि, पूर्णता प्राप्त करने के पथ पर चलते समय या पूर्णत्व (perfection) प्राप्ति की पूरी प्रक्रिया के दौरान युवाओं के भीतर कुछ 'अपूर्णता' (imperfection -अधूरापन) का दिखाई देना बहुत स्वाभाविक सी बात है। तथापि, किसी भी विचारशील व्यक्ति को , वर्तमान समय में अपने देश के युवा वर्ग के जीवन में उद्देश्य के अभाव तथा लक्ष्यहीनता को देखने से कष्ट तो होता ही है। आज के युवा-समुदाय को जिस संकट से गुजरना पड़ रहा है, उसे हम-'मूल्यबोध का संकट' (crisis of values) -की संज्ञा दे सकते हैं। इस संकट ने युवाओं के मन में एक अनुकरणीय-आदर्श (role model) सम्बन्धी शून्यता उत्पन्न कर दी है। और इसके ही परिणामस्वरूप युवा जीवन में अशान्ति (Unrest) और उछश्रृंखलता दिखाई दे रही है। युवाओं की वर्तमान अवस्था को देखकर यह स्पष्ट रूप से यह समझा जा सकता है कि वर्तमान शिक्षा व्यवस्था उनके मनुष्यत्व को (मानवोचित व्यक्तित्व 3'H' को) विकसित करने में बहुत उपयोगी नहीं है।
इस विषय पर थोड़ी और गहराई से विचार करने पर, यह समझा जा सकता है कि, समाज की वर्तमान अवस्था में परिवर्तन लाने का एकमात्र उपाय है युवा-समुदाय के समक्ष एक ऐसे मूल्य-बोध को प्रस्तुत करना जो एक ओर भारत की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत (श्रुति परम्परा) को तो आगे बढ़ाता ही हो, वहीँ दूसरी ओर इतना सर्वजन -कल्याणकारी भी हो, कि युवावर्ग को समाज की भलाई के लिये निःस्वार्थ क्रिया-कलाप (selfless activity) करने के लिए अनुप्रेरित भी करता हो । क्योंकि, हम यदि आधुनिकता को स्वीकार न करें तो प्रगति करना सम्भव नहीं होगा, फिर अगर हमारा सम्पर्क अपने गौरवशाली अतीत से ही विच्छिन्न हो जाये , तो उस प्रगति का कोई अर्थ नहीं निकलेगा।
इस प्रकार महामण्डल आंदोलन की पृष्ठभूमि ----वर्तमान सामाजिक अवस्था पर गहन चिन्तन का ऐसा परिणाम है जिसने, समस्या की भयावहता (magnitude-गुरुत्व) की तुलना में संसाधन की योग्यता (compatibility) में कमी रहने के बावजूद; इस आंदोलन के प्रणेताओं (initiators) को इस साहसिक कार्य (venture) की विभिन्न गतिविधयों में संलग्न रहने के लिए अनुप्रेरित किया है।
(2 ) अवधारणा (The Idea):
1967 में स्थापित, "अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल" यह विश्वास करता है कि आधुनिक भारत के देशभक्त-ईश्वरदूत (The patriot- prophet-ब्रह्मवेत्ता ऋषि, पैगम्बर) स्वामी विवेकानन्द ने अपने जीवन को ही उदाहरण-स्वरूप बनाकर, युवा -समुदाय के समक्ष उन महान विचार तथा आदर्शों (ideas and ideals) को प्रस्तुत किया है, जो उन्हें यथार्थ पुरुषार्थ (धर्म,अर्थ,काम मोक्ष) और मातृभूमि की निःस्वार्थ सेवा [true manhood and selfless service to the motherland] में अपने जीवन को खपा देने (न्योछावर कर देने ) के लिये अनुप्रेरित (inspired) करते रहते हैं।
जब भारतवर्ष का युवा समुदाय, भारत के राष्ट्रीय आदर्श --"त्याग और सेवा " की साक्षात् प्रतिमूर्ति -स्वामी विवेकानन्द के जीवन और शिक्षाओं से प्रेरणा प्राप्त कर, और अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से अनुप्रेरित होकर, लिंग-जाति -धर्म के आधार पर समस्त प्रकार की संकीर्णताओं का परित्याग कर दे, तथा स्वयं को सचमुच रचनात्मक कार्यों में समर्पित कर सके, तभी उनके हृदय में स्वाभाविक 'राष्ट्रीय एकता' (national integration) एवं 'वसुधैव कुटुंबकम' (international understanding) के बोध को जाग्रत किया जा सकता है। अतः महामण्डल का लक्ष्य है - महामण्डल से सम्बद्ध (affiliated) समस्त युवा पाठचक्र तथा अनुमोदित (Approved) केन्द्रों को-- एक ही आदर्श के झण्डे तले संघबद्ध करना। तथा उन केंद्र की गतिविधियों को एक सुचिन्तित और सुनियोजित कार्यमक्रम के अनुसार इतना सशक्त (intensive-प्रचण्ड ) बना देना,जो युवासमुदाय को व्यक्तिगत चरित्र-निर्माण में सहायक निःस्वार्थपूर्ण समाजसेवा मूलक कार्यों के माध्यम से भारत कल्याण (welfare of India) के प्रति निरन्तर अनुप्रेरित करता रहे । महामण्डल भारतवर्ष की सांस्कृतिक विरासत (श्रुति-परम्परा) में श्रद्धा रखता है, तथा जाति, धर्म और नस्ल के आधार पर, किसी भी प्रकार के भेदभाव (discrimination) को अस्वीकार करता है।
महामण्डल की 'केन्द्रीय समीति' इस 'मनुष्य-निर्माण आंदोलन' को भारत के हर प्रान्त में प्रसारित (expand) करने में समर्थ प्रशिक्षित शिक्षकों का निर्माण करने में युवासमुदाय की सहायता करती है। तथा इससे सम्बद्ध सभी केन्द्रों को 'एक साथ चलने, एक बात बोलने' की भावधारा के साथ जुड़े रहने के लिए हर सम्भव तरीके से परस्पर की सहायता करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। क्योंकि, स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में -" यदि भारत को महान बनाना है , उसका भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो इसके लिए आवश्यकता है--संगठन की , शक्ति -संग्रह की ओर बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। "5 /192 ( 'the whole secret lies in organization, accumulation of power, co-ordination of wills.) अभी के लिए (provisionally) महामण्डल का कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण भारतवर्ष है।
(3) आदर्श और उद्देश्य (Aims and Objects):
यह कहने की आवश्यकता नहीं, कि हमारे युवाओं के चरित्र में आत्मानुशासन (self-discipline), टीमवर्क-कौशल (team spirit) एवं सर्वोपरि श्रद्धा की भावना को तत्काल प्रविष्ट कर देना अनिवार्य है। और इसके लिए उन्हें 'पूर्ण मनुष्यत्व' को प्रस्फुटित करने में सहायक 'विवेक-जीवन' के मार्ग को (विवेकप्रयोग-पद्धति) दिखला देना आवश्यक है। [ পূর্ন মানবত্বের প্রস্ফুটয়নের সহায়ক 'বিবেক-জীবন ' --এর পথ এদের দেখাতে হবে।" 'They need to be shown the way to a regulated life that would help in the blossoming of their personalities.]
-और यह तभी सम्भव है, जब उन्हें -'यथार्थ शिक्षा' कहने से जो तात्पर्य निकलता है - (जिस शिक्षा का उल्लेख तैत्तरीयोपनिषद में -'शीक्षा' -दीर्घ 'ई' की मात्रा लगाकर किया गया है।) वही 'मनुष्यत्व उन्मेषक और चरित्र -निर्माणकारी शिक्षा' (man-making and character-building education) उन्हें प्रदान की जाय; जो केवल विद्यार्थियों को शरीर, मानसिक-वृत्तियों तथा हृदय-विस्तार के (3'H') सुसमन्वित विकास के प्रशिक्षण द्वारा ही सम्भव है।
यदि स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में कहें, तो --"पवित्रता , धैर्य और अध्यवसाय , इन्हीं तीन गुणों से सफलता मिलती है , और सर्वोपरि है प्रेम। (3'P'--- purity, patience and perseverance are the essentials to success and above all love.) ये सारे गुण (3P-आदि 24 गुण) केवल बार-बार अभ्यास करते हुए अपने अचार-व्यवहार (conduct) के माध्यम से प्रकट करके ही अर्जित किये जा सकते हैं, क्योंकि गुणों को अपने आचरण में अभिव्यक्त करने से ही मनुष्य पूर्णता (perfection) की ओर अग्रसर हो सकता है।
भारत की प्राचीन " Be and Make वेदान्त श्रुति-परम्परा" में प्रशिक्षित, स्वामी विवेकानन्द जैसे देशभक्त -पैगम्बरों/ मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का राष्ट्र निर्माण में बड़ा महत्व होता है। वे हमारे पथ-प्रदर्शक होते हैं। वे आकाश-दीप (lighthouse) की भाँति हमें दिशा-निर्देश देते हैं। स्वामी जी रामनाड में प्रदत्त भाषण में कहते हैं - " संन्यास ही हिन्दू जीवन का चरम आदर्श है। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जो व्यक्ति चौथी अवस्था में (75 वर्ष के बाद?) संन्यास धारण नहीं करता, वह हिन्दू नहीं है और न उसे अपने को हिन्दू कहने का कोई अधिकार ही है। किन्तु हमारे जो भाई उच्चतम सत्य के अधिकारी अभी नहीं हुए हैं, उनके लिए अधिकारी का विचार न कर सभी के लिए एक ही मार्ग को थोप देना को कभी उचित नहीं कह सकते। भोग के द्वारा जिस समय हृदय के अन्तस्तल में यह धारणा जम जायेगी कि संसार असार है ! .... भोगों में कुछ नहीं रखा ! उसी समय उसका त्याग करना होगा। किन्तु इस समय तो हमारा मन, इन्द्रियों की ओर (दिमाग में स्थित, स्नायुकेन्द्र nerve centers' की ओर) मानो चक्रवत (whirlpool-भंवर या विन्डोईया जैसा) अग्रसर हो रहा है, उसे फिर चक्रवत पीछे लौटाना होगा। प्रवृत्ति-मार्ग का त्याग कर उसे निवृत्ति-मार्ग का आश्रय ग्रहण करना होगा, यही हिन्दुओं का आदर्श है। किन्तु कुछ भोगे बिना इस आदर्श तक मनुष्य नहीं पहुँच सकता। बच्चे को त्याग की शिक्षा नहीं दी जा सकती। ... सभी समाजों में बालक के समान अज्ञानी लोग हैं, जिन्हें संसार की असारता को समझने के लिए पहले कुछ भोग करना पड़ता है। तभी वे वैराग्य धारण करने में समर्थ होंगे।
हमारे शास्त्रों में (मनुस्मृति में ---निवृत्ति अस्तु महाफला का स्मरण -तेन त्यक्तेन भूंजीथ आदि) इन लोगों के लिए यथेष्ट व्यवस्था है। पर दुःख का विषय है कि परवर्ती काल में (हीनयान?) समाज के प्रत्येक मनुष्य को संन्यासी के नियमों में आबद्ध करने की चेष्टा की गयी। यह एक भारी भूल सिद्ध हुई ! भारत में जो दुःख और दरिद्रता दिखायी पड़ती है, उसका अधिकतर कारण यही भूल है। गरीबों-पददलितों के जीवन को इतने कड़े धार्मिक बन्धन में बाँधने की कोई आवश्यकता नहीं --फिर भी (ढोंगी बाबाओं के द्वारा) उनको नाना प्रकार के आध्यात्मिक और नैतिक नियमों में जकड़ने की चेष्टा की गयी। उनके कामों में हस्तक्षेप न करो -उनसे अलग रहो। उन्हें भी संसार का थोड़ा आनन्द लेने दो। देखोगे, वे क्रमशः उन्नत होते जा रहे हैं -और बिना किसी विशेष प्रयत्न के उनके हृदय में आप-ही -आप त्याग और सेवा (पूर्णत्व) का भाव जाग उठता है !"
महापुरुषों के उपदेशों का अपना महत्त्व होता है और इसका प्रभाव भी पड़ता है। परन्तु उपदेशक की कथनी और करनी में साम्य की आवश्यकता होती है ; तभी उनकी बातों का प्रभाव पड़ता है। आजकल टी.वी. पर धार्मिक उपदेशकों की बाढ़ सी आई हुई है। "औरों को नसीहत, खुद मियां फजीहत !" .... वे ऐसे दर्शाते हैं कि मानो भगवान ने उनको अपने विचारों ठेका दे रखा है। संत तुलसीदास ने कहा था -- " पर उपदेश कुशल बहुतेरे,जे निज आचरहिं ते नर न घनेरे।" ---- इस कहावत का अर्थ है- उपदेशक को उपदेश देना बड़ा प्रिय होता है। उन्हें दूसरों को उपदेश देना बड़ा अच्छा लगता है। किन्तु कुछ ढोंगी बाबाओं का अपना जीवन बड़ा भोग-पूर्ण है जबकि दूसरे लोगों को ये निवृत्ति की शिक्षा देते हैं। ये समझते हैं कि लोग इनकी बात पर आँख मूँदकर विश्वास कर लेंगे । किन्तु आज के युग के श्रोता भी बहुत समझदार हो गए हैं। वे यह भी देखते ही हैं उपदेश देने वाले का जीवन किस प्रकार का है? वह किन बातों पर स्वयं अमल करता है और किन्हें केवल कहने तक सीमित रखता है? जब उपदेशक दूसरों को तो -3P और 3H का उपदेश देता है,किन्तु स्वयं उन पर अमल नहीं करता, तब उसके उपदेश प्रभावहीन हो जाते हैं।] इसीलिये सम्पूर्ण भारत के युवाओं का चरित्र-निर्माण करना तभी सम्भव होगा, जब बहुत बड़ी संख्या में भारतीय संस्कृति की गौरवशाली परम्परा [श्रुति परम्परा] में प्रशिक्षित शिक्षकों/नेताओ/ऋषियों का निर्माण किया जाय।
यह कार्य तभी सम्भव है , जब युवासमुदाय अपने शरीर को योग-व्यायाम के माध्यम से हृष्टपुष्ट रखते हुए, विज्ञान, साहित्य, दर्शन, मैनेजमेन्ट, रॉकेट साइंस आदि प्रचलित विषयों को पढ़ने के साथ-साथ,अपने को किसी ऐसे रचनात्मक कार्य में नियोजित करें, जिसमें जनताजनार्दन (M/F) की निःस्वार्थभाव से सेवा करने के अतिरिक्त, अपनी और कोई गुप्त स्वार्थपूर्ण मंशा छिपी हुई न हो । "स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करो" - स्वामी जी के इस महान सन्देश के अनुसरण करने का यही एक मात्र पथ है। इसीलिए भारत में यह कहावत प्रचलित है ---"विद्या गुरु मुखी !" क्योंकि केवल पुस्तकीय विद्या के बलपर ब्रह्मवेत्ता या सत्यद्रष्टा नेताओं/शिक्षकों का निर्माण करना असंभव है ! केवल 'पुस्तकीय विद्या (bookish learning ) के बल पर 'मनुष्य निर्माण ' करना कभी सम्भव नहीं है ! अतः प्रत्येक युवा को -अपने "शरीर-मन और आत्मा के साथ" किसी निःस्वार्थ परोपकार के व्रत में लीन हो जाना चाहिये।
इसलिए, महामंडल का उद्देश्य है - भारतीय संस्कृति के पारंपरिक मूल्यों (श्रुति परम्परा) को बढ़ावा देना - जो विशेष रूप से स्वामी विवेकानन्द के 'मनुष्यत्व उन्मेषक और चरित्र-निर्माणकारी' आदर्श में सन्निहित है। यदि इन मूल्यों को विशेष तौर से युवा समुदाय के बीच प्रसारित कर दिया जाय, तथा युवाशक्ति को अनुशासित तरिके से निःस्वार्थ देशसेवा-- के माध्यम से राष्ट्र-निर्माण के कार्यों में संयुक्त किया जाय -तभी सुन्दरतर मनुष्यों का सुन्दरतर समाज निर्मित किया जा सकता है।
(4) कार्यप्रणाली : (The Method / line of action) :
स्वामीजी कहते हैं कि -"विस्तृत कार्यप्रणाली के बारे में यही कहना है कि पीढ़ियों तक उसका अनुसरण करना होगा। ... अद्वैत वेदान्त की प्राचीन उपमा दी जाय तो कहना होगा कि - 'समस्त जगत अपनी माया से आप ही हिप्नोटाइज्ड हो रहा है।' और इच्छाशक्ति ही जगत में अमोघ शक्ति है। प्रबल इच्छाशक्ति का अधिकारी मनुष्य एक ऐसी ज्योतिर्मयी आभा अपने चारों ओर फैला देता है कि दूसरे लोग स्वतः उस प्रभा से प्रभावित होकर उसके भाव से भावित हो जाते हैं। ऐसे महापुरुष (या संगठन) हर युग में अवश्य ही प्रकट हुआ करते हैं। " 5 /191
" एक मन हो जाना ही सफलता का गुप्त रहस्य है " ५/१९२ --अतः भारत में जितने भी संगठन इस "Be and Make" - की भावधारा के अनुरूप -(प्रबल इच्छाशक्ति सम्पन्न मनुष्य बनो और बनाओ-के अनुरूप) कार्यरत हैं, हमारा सबसे पहला कर्तव्य उन सबको महामण्डल पताका के नीचे संघबद्ध करना होगा। ततपश्चात इस 'मनुष्यत्व-उन्मेषक और चरित्र-निर्माणकारी आंदोलन' को अन्य देशों में भी फैलाया जा सकता है। बंगाल के कुछ निकटवर्त राज्यों में यह कार्य कुछ समय पूर्व प्रारम्भ भी हो चुका है । आज देश की कई समाजसेवी संस्थायें तथा शैक्षणिक-संगठन ऐसा समझते हैं कि महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य निश्चय ही समस्त युवाओं के लिए ग्रहण करने योग्य हैं। तब ऐसे समस्त संगठनों में परस्पर एकत्व बोध को विकसित करने के उद्देश्य से, या यूँ कहें कि अपनी अलग पहचान को छोड़े बिना भी, सम्मिलित प्रयास के द्वारा साझे- उद्देश्य को अधिक आसानी से रूपायित करने के लिए , ये सभी संस्थायें और शैक्षणिक संगठन महामण्डल आंदोलन के साथ जुड़ सकते हैं।
वैसा कोई शैक्षणिक प्रतिष्ठान या कोई व्यक्ति, जब एक बार भी महामण्डल द्वारा आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर या अन्य किसी शिविर में भाग लेंगे, तो वे लोग तुरन्त यह मूल्यांकन (Notice) कर सकेंगे कि -वे तो पहले से ही महामण्डल के सामूहिक कार्यक्रमों में संसूचित किसी न किसी कार्य से जुड़े हुए हैं, तथा वे इस प्रकार के कार्य-पथ पर चलने वाले कोई एकाकी यात्री मात्र नहीं हैं। जब वे लोग यह देखेंगे कि उनका कार्य कोई बहुत नगण्य या संकीर्ण क्षेत्रीय सीमा के भीतर ही आबद्ध नहीं है, बल्कि उनके ही जैसा कार्य भारत के कई अन्य राज्यों में भी चलाया जा रहा है। तब यह देखकर उनलोगों के मन में और भी अधिक उत्साह और साहस जाग उठेगा, कि वे एक ऐसे विराट कार्यक्रम (युवा आंदोलन) का हिस्सा हैं, जिसने स्वयं अपनी गतिशीलता अर्जित की है।
संगठन या संस्थाओं के अतिरिक्त यदि कोई व्यक्ति निजीतौर से भी महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य को पसन्द करते हों, तो वे अपने क्षेत्र में महामण्डल की शाखा स्थापित कर सकते हैं। अथवा किसी अन्य नाम वाले युवा संगठन को स्थापित कर चुके हों तो अपने उस संगठन को महामण्डल के साथ संयुक्त भी कर सकते हैं। ऐसा कोई व्यक्ति यदि चाहे तो, महामण्डल के किसी भी कार्यरत शाखा की सदस्यता ग्रहण कर सकता है; अथवा चाहे तो महामण्डल के केन्द्रीय समीति [महामण्डल सिटी ऑफिस ,6 /1 मन्मथ मुखर्जी रो, सियालदह स्टेशन के निकट] के दैनन्दिन कार्यों में सहायता देने के लिए भी आगे आ सकते हैं।
अथवा कोई व्यक्ति यदि निजी तौर से महामण्डल के साथ जुड़ना चाहें, तो वे अपनी इच्छा और सुविधा के अनुसार अपने आसपास कार्यरत किसी भी महामण्डल केंद्र के सदस्य बन सकते हैं। उसी प्रकार किसी भी शिक्षा संस्थानों से जुड़े छात्र और शिक्षकगण यदि चाहें तो अपने संस्थान के भीतर या बाहर अपना एक 'ग्रुप' (study circle) भी बना सकते हैं| जो आगे चलकर महामण्डल का अनुमोदित केन्द्र या approved केन्द्र के रूप में सम्बद्ध हो सकता है। यदि उस ग्रुप के पुराने छात्र संस्थान से पढाई समाप्त कर उत्तीर्ण हो जाएँ, तो नये छात्र वहाँ की कार्यकारिणी समिति के सदस्य बन सकते हैं।
(5) कार्य की भावना (The Spirit of Work) :
स्वामी विवेकानन्द ने अपने जीवन के उद्देश्य के विषय में कई स्थानों पर कई प्रकार से कहा है। एक स्थान पर वे कहते हैं -" युवाओं को संगठित करना ही मेरे जीवन का उद्देश्य है। " स्वामी जी ने स्वयं यह कहा था कि मेरे जीवन का व्रत हर स्थान मे पढ़े-लिखे युवाओं को एक दल के रूप में संगठित करना है। एवं वैसे युवादल को संगठित करने का अथक प्रयास करने के बावजूद वे मुट्ठीभर युवाओं को ही श्री रामकृष्ण देव के झण्डे तले एकत्रित कर सके थे। किन्तु स्वामी जी ने उसी समय महामण्डल के आविर्भूत होने की भविष्यवाणी करते हुए, [अपने प्रवृत्ति-मार्गी (गृहस्थ) भावी शिक्षक शिष्य डॉ० नन्जुन्दा राव को 30 नवम्बर 1894 को लिखित] एक पत्र में कहा था -" कुछ इने-गिने युवकों ने इस कार्य में अपने को झोंक दिया है, अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया है। परन्तु इनकी संख्या थोड़ी है। हम चाहते हैं कि ऐसे ही कई हजार मनुष्य आयें और मैं जानता हूँ कि वे आयेंगे !! " ----" A few young men have jumped in the breach, have sacrificed themselves. They are a few; we want a few thousands of such as they, and they will come." यही जो -- 'they will come' की भविष्यवाणी है - वैसे युवा आयेंगे कहाँ से ?
ऐसे युवाओं का दल तो रामकृष्ण मिशन के माध्यम से भी संगठित किये जा सकते थे; किन्तु जो युवा रामकृष्ण मिशन में अपना योगदान करेंगे; उनके जीवन का लक्ष्य होगा, व्रत होगा, आदर्श और आदर्शवाक्य होगा - " आत्मनो मोक्षार्थं जगदहिताय च।" किन्तु, ऐसे युवाओं [निवृत्ति मार्ग के अधिकारी] की संख्या अभी कितनी है जो तीन पुरुषार्थ --'धर्म,अर्थ, काम' को छोड़कर सीधा चौथे पुरुषार्थ "मोक्ष" प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं ? और इसी कारण वैसे अधिकांश युवा जिन्हें स्वामी जी श्री रामकृष्णदेव के झण्डे तले एकत्रित करना चाहते थे, वे इस 'मनुष्य-निर्माणकारी भावान्दोलन' (Be and Make श्रुति परम्परा) के बाहर ही छूट जायेंगे। और स्वामी जी का तो यह मानना था कि-- "प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है" -तब फिर गुण-दोष (निवृत्ति-प्रवृत्ति सम्बन्धी योग्यता) के आधार पर बहिष्कार कर देने (exclusion) के लायक तो कोई मनुष्य उनकी दृष्टि में है ही नहीं ! अतः महामण्डल सभी जाति और धर्म के लोगों को, चाहे वे प्रवृत्ति के अधिकारी हो या निवृत्ति के अपने इस 'मनुष्यत्व -उन्मेषक और चरित्र-निर्माणकारी भावान्दोलन' में स्वागत करता है।
उसी पत्र में स्वामी जी आगे कहते हैं -" श्री रामकृष्ण के चरणों में बैठने पर ही भारत का उत्थान हो सकता है। उनकी जीवनी एवं उनकी शिक्षाओं को चारों ओर फैलाना होगा, हिन्दू समाज के रोम रोम में उन्हें भरना होगा। श्री रामकृष्ण की पताका हाथ में लेकर (अपनी मुक्ति की बात भूलकर) संसार की मुक्ति के लिये अभियान पर निकल जाने वाला है कोई ? नाम और यश, ऐश्वर्य और भोग, यहाँ तक कि इहलोक और परलोक सारी आशाओं का बलिदान करके मानव-गरिमा की अवनति को रोकने वाला है कोई ? मुझे हर्ष है कि हमारे प्रभु ने तुम्हारे मन में उन्हीं में से एक होने का भाव भर दिया है। वह धन्य है जिसे प्रभु ने चुन लिया है !"
परन्तु मेरे बच्चे , इस मार्ग में [प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति तक लौटने के मार्ग में ] बाधाएँ भी कम नहीं हैं ! जल्दीबाजी करने से कोई काम नहीं होगा। हमारे गुरुदेव कहते थे -"कोई आत्महत्या करना चाहे, तो वह नहरनी से भी काम चला सकता है, परन्तु दूसरों को मारना हो (दूसरों के अहं को मारना हो ?) तो तोप-तलवार की आवश्यकता होती है। " पहले निःस्वार्थ कर्म और साधना के द्वारा अपने को पवित्र करो! समय आने पर तुम्हें वह अधिकार (चपरास) प्राप्त हो जायेगा, जब तुम संसार त्यागकर (परिवार में आसक्ति को त्याग कर) चारों ओर उनके पवित्र नाम का प्रचार कर सकोगे। ... "पवित्रता , धैर्य और अध्यवसाय , इन्हीं तीन गुणों से सफलता मिलती है , और सर्वोपरि है प्रेम। " (3P +L = purity, patience and perseverance are the essentials to success and above all love.) ..हमें तुम्हारे जैसे हजारों की आवश्यकता है, जो समाज पर टूट पड़ें और जहाँ कहीं जायें, वहीँ नए जीवन और नयी शक्ति का संचार कर दें।
तुम यह देख सकते हो कि संसार के इतिहास में जितने भी मानवजाति के महान मार्गदर्शक नेता हुए हैं, (श्री राम, श्रीकृष्ण, गौतम बुद्ध, ईसा, पैगम्बर मोहम्मद, गुरु नानक .....श्री रामकृष्ण, विवेकानन्द, कैप्टन सेवियर, प्रधान सेवक-'C-in-C' नवनीदा आदि.....) उन सबों ने बड़े बड़े स्वार्थ-त्याग किये और उनके शुभफल का भोग जनता-जनार्दन ने किया। अगर तुम अपनी मुक्ति के लिए सब कुछ त्यागना चाहते हो, तो फिर वह त्याग कैसा ? क्या तुम जगत के कल्याण के लिए अपनी मुक्ति को भी त्याग देने के लिए प्रस्तुत हो?
तुम स्वयं अभी ही ब्रह्मस्वरूप हो, इसी विचार पर अपने मन को एकाग्र करो। तुम रामकृष्ण को समझ सके, यह जानकर मुझे बड़ा हर्ष हो रहा है। तुम्हारे तीव्र वैराग्य से मुझे और भी आनन्द मिला। ईश्वर-प्राप्ति या सत्यलाभ का यह एक अनिवार्य अंग है । ईश्वर तुम्हारे शुभ संकल्पों का वेग उत्साह के साथ बढ़ाता रहे; परन्तु मेरे बच्चे , यहाँ कठिनाइयाँ भी हैं। अतः (किसी गृहस्थ भावी शिक्षक को) शीघ्रता नहीं करनी चाहिए, दूसरे तुम्हें अपनी माता और स्त्री के समबन्ध में सहृदयतापूर्ण विचारों से काम लेना चाहिए। तुम तर्क कर सकते हो कि श्री रामकृष्ण के त्यागी सन्तानों (निवृत्ति मार्गी) ने संसार त्याग करते समय अपने माता-पिता की सम्मति की अपेक्षा नहीं की । [अथवा कह सकते हो कि राजकुमार सिद्धार्थ गौतम भी अपनी स्त्री यशोधरा और पुत्र राहुल को सोते हुए छोड़कर अपने घर से निकल गए थे ! किन्तु यदि सिद्धार्थ राजा के पुत्र नहीं होते तब उनकी पत्नी और पुत्र का लालनपालन कैसे होता ?]
अतः तुम्हें घर छोड़ने की आवश्यकता नहीं; मेरी राय में विवाहित होते हुए भी, तुम्हें कुछ दिनों के लिए ब्रह्मचारी बनकर रहना चाहिए। अर्थात कुछ समय के लिए स्त्री-संग छोड़कर (स्त्रियों में आसक्ति को त्याग कर) अपने पिता के घर में ही रहो; यही 'कुटीचक' अवस्था है। ... संसार की हित-कामना के लिये अपने महान स्वार्थ-त्याग के सम्बन्ध में अपनी पत्नी को सहमत करने की चेष्टा करो। अगर तुममें ज्वलंत आत्मविश्वास , सर्वविजयनि प्रेम, और सर्वशक्तिमयी पवित्रता है, तो तुम्हारे शीघ्र सफल होने में कुछ भी सन्देह नहीं।
तन-मन और प्राणों का उत्सर्ग करके भी, श्री रामकृष्ण की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने में लग जाओ, क्योंकि कर्म (कर्म-रहस्य को समझना) पहला सोपान है। खूब मन लगाकर संस्कृत का अध्यन करो और साधना का भी अभ्यास (महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 अभ्यास ) करते रहो। क्योंकि, तुम्हें मनुष्यजाति का भावी मार्गदर्शक नेता (जीवन मुक्त शिक्षक) होना है। तुम्हारा संकल्प शुभ है, तुम्हारी आशायें उच्च हैं, और घोर अन्धकार में डूबे हुए हजारों मनुष्यों को प्रभु के ज्ञानालोक के सम्मुख लाने का तुम्हारा लक्ष्य संसार के सब लक्ष्यों में महान है ! तुम्हारे सामने अनन्त समय है; अतएव अनुचित शीघ्रता आवश्यक नहीं। यदि तुम पवित्र और निष्कपट हो, तो सब काम ठीक हो जायेंगे। मैं जानता हूँ और ठीक जानता हूँ कि बड़े बड़े काम बिना स्वार्थ-त्याग के नहीं हो सकते। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि भारत माता अपनी उन्नति के लिए अपनी श्रेष्ठ सन्तानों की बलि चाहती है, और यह मेरी आंतरिक अभिलाषा है कि तुम उन्हीं में से एक सौभाग्यशाली होगे। 3 /338
इसीलिए महामण्डल भी 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन' में जिन सामान्य कार्यक्रमों (common program of work) का अनुसरण करना चाहता है, उसमें वह अपने कार्यकर्ताओं से घर-परिवार त्यागने,या पढाई-लिखाई त्यागने, बिजनेस-व्यापार या नौकरी आदि का त्याग करने के नहीं कहता है। बल्कि उन सभी क्रियाकलापों को करने के पीछे जो मनोभाव कार्य करता है, उसीके ऊपर अधिक जोर देना चाहता है। महामण्डल के क्रिया-कलापों में नवाचार (innovation ) या नवप्रवर्तन जैसी कोई बात नहीं है। लेकिन उसका यह मानना है कि कोई कार्य जब किसी विशिष्ट भावना (particular spirit) के द्वारा अनुप्रेरित होक किया जाता है, तब वह कार्य उस कार्यकर्ता के चरित्र पर (चित्त पर) उसका एक विशिष्ट छाप (special mark) अवश्य छोड़ जाता है। स्वामी जी ने 1894 में आलासिंगा को लिखित एक पत्र में कहा है : " Upon ages of struggle a character is built." --युगों युगों तक कठोर संघर्ष करने के फलस्वरूप एक चरित्र का निर्माण होता है। " इसीलिए 'अन्तःप्रकृति और वाह्यप्रकृति' पर विजय प्राप्त करने के संग्राम को अभी से--विद्यार्थी जीवन से ही शुरू कर देने की आवश्यकता है।
हमारे शास्त्रों में कहा गया है - 'शुभस्य शीघ्रम ,अशुभस्य कालहरणम्'----शुभ कार्य को जितना जल्दी हो सके कर डालें । लेकिन अशुभ कार्य को निरन्तर टालते रहो ।'शुभस्य शीघ्रम' पर जोर देने के लिए मैसूर के महाराज को लिखित 23 जून 1894 पत्र में स्वामी जी कहते हैं - " यह जीवन क्षणस्थायी है ,संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। वे ही यथार्थ जीवित हैं, जो दूसरों के लिए जीवन धारण करते हैं। शेष लोग तो मृत से भी अधम हैं। "३ /३७१ (the vanities of the world are transient, but they alone live who live for others, the rest are more dead than alive.)
कर्म रहस्य को समझाते हुए स्वामी जी ने कहा है - "आओ, हम अपने साधनों को पूर्ण बना लें, फिर साध्य अपनी चिंता स्वयं कर लेगा। क्योंकि दुनिया पवित्र और अच्छी तभी हो सकती है, जब हम स्वयं पवित्र और अच्छे हों। वह है कार्य और हम हैं उसके कारण। इसलिए आओ हम अपने को पवित्र बना लें ! आओ, हम अपने को पूर्ण बना लें! "(कर्म और उसका रहस्य ९/१८२)(Let us perfect the means; the end will take care of itself. For the world can be good and pure, only if our lives are good and pure. Therefore, let us purify ourselves. Let us make ourselves perfect.) और ऐसा होना तभी सम्भव है जब हम 'त्याग और सेवा ' की भावना के साथ कार्य करने में समर्थ हों। " कभी भी यह मत सोचो कि 'तुम ' जगत को अच्छा और सुखी बना सकते हो। " (देववाणी 6 अगस्त 1895/ 'Never think, you can make the world better and happier.')
Would be Leaders --या भावी शिक्षकों को सम्बोधित करते हुये श्रीमती ओली बुल को २१ मार्च १८९५ को लिखित पत्र में ए स्वामी जी ने कहा है ---" जो व्यक्ति मानवजाति की सेवा करना चाहते है , उनके लिए उचित है कि वे अपना सुख और दुःख, नाम और यश एवं सब प्रकार के स्वार्थ की एक पोटली बनाकर समुद्र में फेंक और तब ईश्वर (सत्य -माँ जगदम्बा) के समीप आयें। मानवजाति के सभी मार्गदर्शक नेताओ/ जीवनमुक्त शिक्षकों/ पैगम्बरों ने यही शिक्षा दी है, और स्वयं करके भी दिखाया है ! " ( "Those that want to help mankind must take their own pleasure and pain, name and fame, and all sorts of interests, and make a bundle of them and throw them into the sea, and then come to the Lord. This is what all the Masters said and did."( -letter to Mrs. BULL, 21st March, 1895. )
" कट्टरपंथी (किन्तु क्षद्म धर्मनिरपेक्ष) लोग अक्सर गाल बजाते हुए कहते हैं -' मैं पापी से घृणा नहीं करता, मैं तो पाप से घृणा करता हूँ !' परन्तु, कोई मुझे यदि एक भी ऐसा मनुष्य दिखा दे, जो सचमुच पाप को पापी से अलग करके देख सकता हो ; तो ऐसे मनुष्य को देखने के लिए मैं कितनी भी दूर जाने को तैयार हूँ ! ऐसा कहना सरल है,किन्तु इसे व्यवहार में लाना उतना सरल नहीं है। यदि हम सचमुच विवेक-प्रयोग के द्वारा द्रव्य (substance-वास्तविक पदार्थ , अस्तित्व) और उसके गुण (quality-विशेषता, धर्म या भूत-वैशिष्ट्य) को पृथक-पृथक रूप से देखने में सक्षम हो जाएँ, तब तो हम पूर्ण हो जाएँ; किन्तु इसे व्यवहार में उतार कर दिखा देना इतना सरल नहीं है। हम जितने ही शान्तचित्त होंगे , और हमारे स्नायु जितने संतुलित रहेंगे, हम उतने ही अधिक प्रेम सम्पन्न होंगे और हमारा कार्य भी उतना ही उत्तम होगा !"[You hear fanatics glibly saying, "I do not hate the sinner. I hate the sin," but I am prepared to go any distance to see the face of that man who can really make a distinction between the sin and the sinner. It is easy to say so. If we can distinguish well between quality and substance, we may become perfect men. It is not easy to do this. And further, the calmer we are and the less disturbed our nerves, the more shall we love and the better will our work be.]
" दूसरों के प्रति हमारे कर्तव्य का अर्थ है -दूसरों की सहायता करना। हम संसार का भला क्यों करें ? इसलिए कि देखने में तो हम संसार का उपकार करते हैं, परन्तु असल में हम अपना ही उपकार करते हैं। मनुष्य की सहायता द्वारा ईश्वर की उपासना करना ---क्या यह हमारे लिए परम सौभाग्य की बात नहीं है ? हमें यह बात सदैव ध्यान में रखना चाहिये कि हमीं संसार के ऋणी है, संसार हमारा ऋणी नहीं। यह तो हमारा सौभाग्य है कि हमें संसार में साक्षात् जनता-जनार्दन की कुछ सेवा करने का अवसर मिलता है ! क्योंकि एकमात्र इसी मार्ग (त्याग और सेवा के मार्ग) से हम पूर्णता प्राप्ति की ओर अग्रसर हो सकते हैं। " [Why should we do good to the world? Apparently to help the world, but really to help ourselves. It is not the receiver that is blessed, but it is the giver. Be thankful that you are allowed to exercise your power of benevolence and mercy in the world, and thus become pure and perfect. Is it not a great privilege to be allowed to worship God by helping our fellow men? ]
" यह सुन्दर संसार बड़ा अच्छा है, क्योंकि इसमें हमें दूसरों की सहायता करने के लिए समय तथा अवसर मिलता है। संसार स्वयं पूर्ण है। पूर्ण होने का अर्थ यह है कि उसमें अपने सब प्रयोजनों को पूर्ण करने की क्षमता है। धन्य पाने वाला नहीं होता, देनेवाला होता है। इस बात के लिए कृतज्ञ होओ कि इस संसार में तुम्हें अपनी दयालुता का प्रयोग (विवेक-प्रयोग) करने और इसके माध्यम से स्वयं पवित्र और पूर्ण होने का अवसर प्राप्त हुआ। [ "All this beautiful world is very good, because it gives us time and opportunity to help others.It is not the receiver that is blessed, but it is the giver. Be thankful that you are allowed to exercise your power of benevolence and mercy in the world, and thus become pure and perfect. ]
मनुष्य की सहायता द्वारा ईश्वर की उपासना करना ---क्या यह हमारे लिए परम सौभाग्य की बात नहीं है ? यह संसार तो चरित्र -गठन के लिए एक विशाल नैतिक व्यायामशाला है। इसमें हम सभी को (5)अभ्यास रूप कसरत करनी पड़ती है, जिससे हम आध्यात्मिक शक्ति से अधिकाधिक शक्तिमान बनते रहें। सबसे पहले मनुष्य यह जानले कि आसक्तिरहित होकर उसे किस प्रकार कर्म करना चाहिए, तभी वह दुराग्रह और मतान्धता से परे हो सकता है। जब हमें यह ज्ञात हो जायेगा कि संसार कुत्ते की टेढ़ी दुम की तरह है, और कभी भी सीधा नहीं हो सकता, तब हम दुराग्रही नहीं होंगे। " [हम स्वयं अपना उपकार करते हैं, संसार का नहीं/3 -54] [ Is it not a great privilege to be allowed to worship God by helping our fellow men? Our duty is to sympathise with the weak and to love even the wrongdoer. The world is a grand moral gymnasium wherein we have all to take exercise so as to become stronger and stronger spiritually. Karma-Yoga /WE HELP OURSELVES, NOT THE WORLD]
" भारत को उस नव विद्युत-शक्ति की आवश्यकता है, जो जातीय धमनी में नवीन स्फूर्ति उत्पन्न कर सके। यह काम हमेशा धीरे धीरे हुआ है और होगा। ... मैं फिर तुम्हें याद दिलाता हूँ -कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन --'तुम्हें कर्म का अधिकार है, फल का नहीं। ' चट्टान की तरह दृढ़ रहो। सत्य की हमेशा जय होती है। श्री रामकृष्ण की सन्तान निष्कपट और एवं सत्यनिष्ठ रहे, शेष सब कुछ ठीक हो जायेगा।"
(6) महामण्डल का कार्यक्रम (The Program of Mahamandal):(A)वैक्तिक कार्यक्रम : प्रत्येक सदस्य के '3H' विकास के लिये अनिवार्य रूप से करनीय 5 दैनन्दिन अभ्यास:
(i) प्रार्थना : ईश्वर से अपने दिल की बात कहना ही प्रार्थना है। "ॐ असतो मा सदगमय ॥ तमसो मा ज्योतिर्गमय ॥ मृत्योर्मामृतम् गमय ॥" ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः ॥ – बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28। अर्थात हे प्रभो , हमें असत्य से सत्य की ओर चलें। अन्धकार से प्रकाश की ओर जाने का पुरूषार्थ करें मृत्यु से अमरता की ओर चलें। जन्म से -मरने वाली देह को सत्य मानने की भूल निकाल दें। मरने के बाद भी जो रहता है ,उस अमृत स्वरूप में आयें। " ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः,सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्।" - "सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।"
जब हमें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा हो और हम अगर सच्चे मन से प्रार्थना करें तो हमें ईश्वर से मार्गदर्शन प्राप्त होता है। सही तरीके से की गई प्रार्थना जीवन में चमत्कारी बदलाव लाती है प्रार्थना को रोज़ एक ही समय पर करना अच्छा होता है। प्रार्थना में बहुत शक्ति है। वह हमें अंधकार से प्रकाश की ओर व असफलता से सफलता की ओर अग्रसर करती है। हम जैसे ही परमात्मा की ओर उन्मुख होते हैं, उनकी प्रार्थना करते हैं और उनसे किसी भी प्रकार की सहायता की याचना करते हैं, वैसे ही उनकी सहायता के अदृश्य हाथ हमारी ओर बढ़े चले आते हैं। हमारे भीतर से निराशा का भाव जाने लगता है। हम प्रसन्न रहने लगते हैं। फिर हमारा मन सुकार्य में लगने लगता है। कहा भी जाता है कि सच्चे हृदय से की गई प्रार्थना तुरंत सुनी जाती है। अतः जो लोग प्रार्थना (prayer-उपासना-पद्धति) में श्रद्धा-विश्वास रखते हैं, वे लोग प्रति दिन ईश्वर से प्रार्थना करेंगे; ताकि उनका मन केवल सुकार्य में --या इस प्रकार के कार्यों में संलग्न रह सके जो उन्हें अपना चरित्र निर्माण करने में सहायता करता हो।
किन्तु हमारे जो भाई अभी तक ईश्वर में [माँ जगदम्बा-जगत्जननी माँ सारदा में ] विश्वास नहीं कर सके हों, वे लोग भी मात्र कुछ दिनों तक प्रार्थना करके उससे लाभ पाने की चेष्टा कर सकते हैं। क्योंकि प्रार्थना मनुष्य की अपनी ही अन्तर्निहित अव्यक्त शक्ति को व्यक्त कर देती है। प्रार्थना का अर्थ कोई अलौकिक या पारगमन का कोई जादू नहीं है। प्रार्थना तो आत्मा में ही निहित अव्यक्त शक्ति (the latent power in man himself) को प्रकट कर देती है, इसके भीतर कोई अतिप्राकृतिक (supernatural) या पारलौकिक (otherworldly) जैसी कोई बात नहीं होती।
(ii) मनःसंयोग : जो 'बुद्धि' मनुष्य को सुकार्य में --अर्थात चरित्र-निर्माण के उपयुक्त कार्यों से जुड़ने के लिए मार्गदर्शन करेगी, उस बुद्धि की बिखरी हुई शक्तियों को, एकाग्रता के नियमित अभ्यास द्वारा 'तीक्ष्ण' और 'नुकीला' (pointed) बनाये रखना अत्यन्त आवश्यक होता है। इसीलिए मन को लेकर अनेक कहावतें प्रचलित हैं, जैसे- ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’, ‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः।’’ अर्थात् मनुष्य के बंधन एवं मोक्ष का कारण मन ही है। अतः महामण्डल द्वारा छात्रों के लिए निर्देशित अष्टांग के केवल 5 अभ्यास ---" यम और नियम " का पालन 24 X 7 करना है; और "आसन, प्रत्याहार तथा धारणा " का अभ्यास प्रतिदिन दो बार , प्रातः और संध्या के समय करना आवश्यक होता है। 'विवेक-दर्शन ' का अभ्यास और वैराग्य के द्वारा चित्त की वृत्तियों को वश में रखना आसान हो जाता है।
(iii) स्वाध्याय : स्वाध्याय के द्वारा मन को स्वच्छ बनाने तथा उच्च विचारों से भरने का जन- आन्दोलन चलाना जरूरी है। इसके आधार पर ही विनाशकारी विडम्बनाओं से मुक्ति मिल सकेगी और मंगलकारी संभावनाओं को साकार किया जा सकेगा। हमलोग अपनी बुद्धि को जिस-'Be and Make' के कार्य में एकाग्र रखने की चेष्टा कर रहे हैं, उसमें स्वामी विवेकानन्द की जीवनी और शिक्षाओं का अध्यन करने से हमें विशेष सहायता प्राप्त होगी। इसीलिये महामण्डल का प्रत्येक सदस्य प्रतिदिन अपना थोड़ा समय यदि स्वामी की पुस्तकों को पढ़ने में देगा, तो निश्चित रूप से उसे इसका लाभ प्राप्त होगा। नये सदस्य गण 'भारत में विवेकानन्द' (Lectures from colombo to Almoda, हिन्दी साहित्य का ५ वां खण्ड-),' पत्रावली ', 'स्वामी -शिष्य संवाद' , 'कर्मयोग' , 'वर्तमान भारत', 'भारत और उसकी समस्यायें', 'राष्ट्र को आह्वान' , 'जाती,संस्कृति और समाजवाद' आदि पुस्तकों का पुनः पुनः अध्यन करके, इस कार्य का प्रारम्भ कर सकते हैं। इसके साथ ही साथ महामण्डल द्वारा प्रकाशित समस्त पुस्तिकाओं -विशेषकर 'एक युवा आंदोलन', 'हमारे लिये करनीय' आदि का अध्यन करना जीवन-गठन में अत्यन्त लाभकारी है !
(iv) व्यायाम : समाज में प्रचलित कहावत है ‘पहला सुख निरोगी काया’। शरीर स्वस्थ नहीं हो, तो मन भी स्वस्थ नहीं रह सकता, उर्दू में एक सूक्ति है- 'तन्दुरूस्ती हजार न्यामत' अर्थात स्वास्थ्य हजार अन्य अच्छे भोगों से बढ़कर है। अंग्रेजी में भी कहावत है- 'Health is Wealth' अर्थात् स्वास्थ्य ही धन है। जब भगवान शंकर को प्राप्त करने के लिए माता पार्वती भगवान शंकर के चरणकमलों में नित्य नूतन अनुराग होने के कारण शरीर का भान मिट गया और तन-मन तपस्या में लीन हो गया। कुछ दिन तक पानी का हवा का आहार किया, कुछ दिन इन्हें भी त्यागकर कठिन उपवास किया। पुनः वृक्ष से गिरी हुई बेल की सूखी पत्तियां खाकर तीन हजार वर्ष व्यतीत किया। जब पार्वती ने सूखी पत्तियां लेना बंद कर दिया तो उनका नाम अपर्णा पड़ गया। कठोर तपस्या से अपने शरीर को सूखा डालती हैं, यह देखकर महाकवि कालिदास ने अपने संस्कृत नाटक कुमारसम्भवं में भगवान शिव के मुख से कहलवाया है-"शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्" - [धर्मसाधनम् = धर्म + साधनम्/ धर्म = कर्तव्य, सही कार्य, जो करने की आवश्यकता है ...चार पुरुषार्थ (dharma = duty, right act, what needs to be done) साधनम् = यंत्र या उपकरण है।] हे पार्वती! यह शरीर तो पुरुषार्थ करने का सबसे पहला उत्तम साधन है! this body is surely the foremost instrument of doing [good] deeds : [यह वाक्य नई दिल्ली के प्रीमियर मेडिकल इंस्टीट्यूट, एम्स (AIIMS,ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज) का आदर्श वाक्य (motto) भी है।]
'बुद्धिमान्' मनुष्य दृढ़-इच्छाशक्ति होने पर भी यदि रोगी हो तो वह न धर्म कर सकता है, न धन कमा सकता है न मोक्ष साधन (de -hypnotized होने या भ्रममुक्त होने का उपाय) कर सकता है। अर्थात् दुर्बल या रोगी शरीर वाला कोई व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूपी चतु: पुरुषार्थ का साधन नहीं कर सकता। जो चौथे पुरुषार्थ को प्राप्त नहीं कर पाता, भ्रममुक्त या जीवनमुक्त ऋषि/नेता/ पैगम्बर नहीं बन पाता वह मनुष्य योनि में जन्म लेने पर भी मनुष्य कहलाने योग्य नहीं है। क्योंकि मनुष्य जीवन की सार्थकता , चारो पुरुषार्थ प्राप्त करने से ही होती है। मानव जीवन का लक्ष्य है, पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति। धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूपी चतुर्विध पुरूषार्थ की प्राप्ति में आरोग्य की महत्वपूर्ण भूमिका है। लौकिक दृष्टि हो या आध्यात्मिक दृष्टि से अपने लक्ष्य की साधना के लिए अथवा गन्तव्य तक पहुँचने के लिए मनुष्य को स्वस्थ्य मन और स्वस्थ्य तन की नितान्त आवश्यकता है।
उपनिषद् का उपदेश है कि हमारा शरीर एक रथ है। इन्द्रियाँ घोड़े हैं, मन लगाम है, बुद्धि सारथि है और आत्मा रथी है। यह आत्मा एक शाश्वत दिव्यतत्त्व है तथा इसका विनाश संभव नहीं है। आत्मा चैतन्यस्वरूप है। वह अजर, अमर और अविनाशी है। जड़ -तत्त्व परिवर्तनशील और विनाशशील होता है, किन्तु चेतनतत्त्व परिवर्तनरहित और शाश्वत होता है। 'साधन' धाम मोक्ष कर द्वारा' - मनुष्य का देह मरणशील है ,किन्तु यह साधना द्वारा मोक्ष का द्वार खोल देता है। देह संरक्षणीय होता है,किन्तु मनुष्य भोगैश्वर्य में फँसकर इसका दुरुपयोग कर लेता है। देह का सदुपयोग मनुष्य को परमात्मा की प्राप्ति करा देता है।
मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य अनेक संदर्भों में एक-दूसरे के पूरक होते हैं। अतएव जिस भाँति मन को अपने वश में रखना अवश्यम्भावी होता है, उसी प्रकार शरीर को भी नियंत्रित रखना आवश्यक होता है। इसलिए प्रत्येक सदस्य को समुचित व्यायाम या योगासनों के अभ्यास द्वारा अपना शरीर स्वस्थ और सबल रखने की चेष्टा प्रतिदिन करनी होगी। नियमित रूप से शारीरिक-व्यायाम आदि के लिए यदि सदस्यों को प्रशिक्षण दिया जा सकता हो, तो प्रत्येक केन्द्र में उसकी व्यवस्था भी की जा सकती है ।
(v) विवेक-प्रयोग: विवेक मनुष्य को प्रकृति द्वारा प्राप्त अनुपम तथा अद्भुत उपहार है जिसके द्वारा किसी भी कठिन से कठिन कार्य का समाधान सरलता पूर्वक किया जा सकता है। परन्तु विवेक का उचित प्रकार से प्रयोग करना भी आवश्यक है जिसके लिए विवेक की कार्यशैली की समीक्षा करना अनिवार्य है।अधिकांश मनुष्य अपने विवेक का कोई उपयोग नहीं करते जिसके कारण उनका विवेक सुप्त अवस्था में रहता है; क्योंकि मानसिक तंत्र द्वारा गहन मंथन से ही विवेक किर्याशील होता है तथा जब तक विचारों का मंथन ना किया जाए विवेक सक्रिय नहीं होता ।
जो लोग इस संगठन को संचालित कर रहे हैं, उनको उस पद्धति के बारे में केवल दूसरों को बताना ही नहीं चाहिए, बल्कि प्रत्येक सदस्य को उस पद्धति का प्रयोग सबसे पहले अपने उपर करना चाहिए। वैसा न करने से उस विवेक-प्रयोग पद्धति को आत्मसात करना संभव नहीं होगा। उच्च भावों का आत्मसातीकरण स्वयं ही करना पड़ता है, बाहर से प्रविष्ट नहीं कराया जा सकता। प्रत्येक सदस्य को पहले यह समझना पड़ेगा, कि जीवन में विवेक-प्रयोग और श्रद्धा का महत्व क्या है ? इसकी आवश्यकता क्यों है ? यदि कोई व्यक्ति विवेक-प्रयोग को जीवन में उतारने की अनिवार्यता को नहीं समझ पायेगा, तो वह उसको आत्मसात भी नहीं कर पायेगा। पहले प्रत्येक सदस्य को इसकी अनिवार्यता समझनी होगी। इसको ठीक से समझ कर स्वयं चेष्टा करनी होगी।
बहुत सारे कार्य हमारे सामने पड़े हैं, मैं भावुक होकर अपनी क्षमता से अधिक कार्य करने का निर्णय करता हूँ- यही मनुष्य की भूल है। तुमको अपनी क्षमता का निर्णय तो स्वयं ही करना पड़ेगा। तुम किस कार्य को कर सकते हो, इसे सोच-समझ कर ही हाथ में लेना चाहिए । जिसे नहीं कर सकते हों, उसमें हाथ नहीं डालना । जिसको निश्चित ही कर सकूँगा, यह विश्वास हो, उसी कार्य को हाथ में लोगे। तथा यह भी देखना होगा कि जिस कार्य को मैं करूँगा उससे मेरा भला तो होगा, किन्तु दूसरों की क्षति न हो इसका ध्यान भी रखना होगा। जिस कार्य से दूसरों का भला नहीं होता हो, उस कार्य को कभी मत करना। तुम कितना कार्य किये हो, वह बड़ी बात नहीं है, कार्य को कैसे किये हो, किस मनोभाव से किये हो वही महत्वपूर्ण बात है। कार्य के पीछे जो उद्देश्य है, जिस मानसिकता से कर रहे हो, उसीसे तुमको कार्य का वस्तविक लाभ प्राप्त होगा। कितना कार्य कर चुके हो, उससे कोई लाभ नहीं होगा। जैसे मानलो कोई व्यक्ति ' इ..तना ' भात खा सकता है, और दूसरा आदमी है जो, 'उ...तना' नहीं खा सकता। तुम कितना खा सकते हो, शरीर का स्वास्थ्य उस पर निर्भर नहीं करता, निर्भर करता है, कितना पचा सकते हो, उसके उपर। तुम बहुत अधिक खा लो पर वह यदि पचा नहीं सको, और पेट बाहर निकल जाए , तो उससे शरीर को पौष्टिकता नहीं मिलेगी। शरीर भी बेडौल दिखने लगेग, कुछ रोग भी हो सकते हैं। कार्य में भी वैसा ही होता है। जितना कार्य तुम सुंदर ढंग से कर सकते हो, ताकि उससे दूसरों का भी भला हो, या कम से कम दूसरों की हानि तो बिलकुल न हो, उतना ही और वैसा ही कार्य करना। इसीलिए कार्य के पीछे तुम्हारा मनोभाव में यदि स्वार्थ न हो, उसके पीछे सभी का कल्याण का मनोभाव हो,या जिसकार्य को करने से मैं अच्छा बनूंगा, पवित्र बनूँगा, चरित्रवान बनूंगा, मेरा हृदय उदार होगा, इसी उद्देश्य से यदि कार्य करो, तो वह कार्य छोटा होने से भी अच्छा फल देगा। इसीलिए ज्यादा बड़े बड़े कार्य करने की आवश्यकता नहीं है। कर्म का रहस्य यही है।इस प्रकार से विचार न कर जैसे तैसे कार्य करते रहने को गीता में तामसिक कर्म कहा गया है। महामण्डल की पुस्तिका 'A New Youth Movement ' में लिखा प्रथम लेख पढना,वहां इस बात को विस्तार से समझाया गया है।
जो ब्रह्मत्व (Divinity) हम सबों के भीतर पहले से विद्यमान है, उसे प्रकट करने कि सम्भावना प्रत्येक मनुष्य में है। किन्तु वह अभी निंद्रित अवस्था में सो रही है। मुझे अवश्य ही उसको नींद से जगा देना होगा। और तब वह ब्रह्मत्व दूसरों के कल्याण के लिए, मेरे विचारों, वचनों और कर्मो द्वारा प्रवाहित होने लगेगा। यह बात ठीक है कि ईश्वर प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि-किसी मिट्टी की गुड़िया (मूर्ति) जैसा उन्हें भी मानव शरीर के भीतर बैठा दिया गया है। बल्कि यही वह शक्ति है जो मनुष्य शरीर के आकृति में स्वयं को प्रकट कर रही है। यही अनन्त शक्ति, और पवित्रता है जो सबों के प्रति अपरिबद्ध और असीम ' प्रेम ' के रूप में स्वयं को अभिव्यक्त करती है। इसीको ब्रह्मत्व कहते हैं।
मैं इसे कैसे जाग्रत कर सकता हूँ ?- इस अन्तर्निहित अनन्त शक्ति के ऊपर उत्कट ' श्रद्धा ' को विकसित करके ! यह क्या चीज है ? - श्रद्धा का अर्थ है आस्तिक्य बुद्धि, अर्थात यह विश्वास कि वह आनन्द-स्वरूप , प्रेम-स्वरूप मेरे प्रभु मेरे ही भीतर-हृदय में विद्यमान हैं। उनकी दिव्यशक्ति निस्स्वार्थ प्रेम और पवित्रता मेरे भीतर में है। ये सारे गुण प्रत्येक मनुष्य में अन्तर्निहित हैं तथा मानव मात्र में उन्हें अभिव्यक्त करने कि संभावना है। सुंदर-सुन्दर विचार और भाव हमारे भीतर स्वाभाविक या जन्मजात रूप से विद्यमान हैं, और सो रहीं हैं, तथा दूसरों के कल्याण के लिए उन्हें अभिव्यक्त करना, और इस शक्ति को जाग्रत कर लेना ही मनुष्य का कर्तव्य अर्थात धर्म है।
पूर्व काल में जो महापुरुष मानवजाति के महान नेता /ऋषि/पैगम्बर आदि हुए थे, जिन लोगों ने सत्य दर्शन किया था, उनलोगों ने जो उपदेश दिए हैं, उनके वचनों को सुनना (श्रवण), उन वचनों पर गंभीरता से चिंतन करना (मनन), फ़िर उसे जान लेने के लिए उसी पथ पर अग्रसर होने की चेष्टा करना(निदिध्यासन)। इसी प्रकार, श्रेष्ठ जनों (ऋषिओं) की वाणी का श्रवण- मनन- निदिध्यासन का अभ्यास करने से हम लोग धीरे धीरे अपने जीवन का सदुपयोग करना सीख जायेंगे। माँ सारदा के उपदेश का स्मरण करो- " केऊ पर नय, जगत तोमार।" अर्थात - ' कोई पराया नहीं, जगत तुम्हारा अपना है।'मैं जितना अधिक उन्नत होऊंगा, जितना विकसित होऊंगा, जितना अधिक से अधिक मनुष्यत्व अर्जित करने की दिशा में अग्रसर होता जाऊंगा उतना ही पराये लोग मेरे अपने हो जायेंगे। उतना ही दूसरों के लिए मन में अनुभूति जाग उठेगी। दूसरों का सुख-दुःख बिल्कुल अपने जैसा महसूस होगा। मेरे भीतर उतना ही दूसरे लोगों का क्लेश हटा देने का आग्रह, चेष्टा और क्षमता बढ़ जायेगी। ऐसा ' मनुष्य ' बन जाने से मैं अपने जीवन का सदुपयोग करने में समर्थ हो सकता हूँ
श्री रामकृष्ण ने कहा है - " विज्ञानी सदा ब्रह्म दर्शन करते हैं, आँखें खोल कर भी सर्वत्र उन्हीं को देखते हैं। वे कभी नित्य से लीला में रहते हैं और कभी लीला से नित्य में जाते हैं। विज्ञानी के आठों बन्धन खुल जाते हैं, काम क्रोधादि भस्म हो जाते हैं, केवल आकार मात्र रहते हैं। ' नेति नेति ' विचार कर वे उस नित्य अखण्ड सच्चिदानन्द में पहुँच जाते हैं। वे विचार करते हैं - वह जीव नहीं, जगत नहीं, २४ तत्त्व भी नहीं हैं। नित्य में पहुँच कर वे फ़िर देखते हैं, वही सब कुछ हुए हैं- जीव, जगत २४ तत्व सभी। "
मनुष्य का विवेकज -ज्ञान उसे उचित मार्ग अवश्य दिखा सकता है; परन्तु विवेकज -ज्ञान प्राप्त करने के उचित मार्गदर्शन हेतु किसी ----किसी स्वामी विवेकानन्द जैसे मार्गदर्शक गुरु/नेता /जीवनमुक्त शिक्षक से प्रशिक्षण प्राप्त करना भी आवश्यक है । भगवान श्री कृष्ण आत्मज्ञान (विवेक-प्रयोग पद्धति) प्राप्त करने का उपाय बताते हुए कहते हैं -
शिष्यों को ज्ञान का उपदेश देने के लिये गुरु/नेता/जीवनमुक्त शिक्षक या पैगम्बर में मुख्यत दो गुणों का होना आवश्यक है (क) आध्यात्मिक शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान तथा (ख) अनन्त स्वरूप परमार्थ सत्य के अनुभव में दृढ़ स्थिति। इन दो गुणों को इस श्लोक में क्रमश ज्ञानिन और तत्त्वदर्शिन ( अर्थात खुली आँखों से ध्यान करने में सक्षम) शब्दों से बताया गया है।
केवल पुस्तकीय ज्ञान से प्रकाण्ड पंडित बना जा सकता है लेकिन योग्य गुरु नहीं। शास्त्रों से अनभिज्ञ आत्मानुभवी पुरुष मौन हो जायेगा, क्योंकि शब्दों से परे अपने निज अनुभव को वह व्यक्त ही नहीं कर पायेगा। अत गुरु का शास्त्रज्ञ तथा ब्रह्मनिष्ठ दोनों होना आवश्यक है। उपर्युक्त कथन से भगवान् का अभिप्राय यह है कि ज्ञानी और तत्त्वदर्शी आचार्य द्वारा उपादिष्ट ज्ञान ही फलदायी होता है और अन्य ज्ञान नहीं। एक निष्णात गुरु शिष्य के प्रश्न से ही उसके बौद्धिक स्तर को समझ लेते हैं। शिष्य के विचारों में हुई त्रुटि को दूर करते हुए वे अनायास ही उसके विचारों को सही दिशा भी प्रदान करते हैं।प्रश्नोत्तर रूपी संवाद के द्वारा गुरु के पूर्णत्व की आभा शिष्य को भी प्राप्त हो जाती है इसलिये हिन्दू धर्म में गुरु और शिष्य के मध्य प्रश्नोत्तर की यह " Be and Make -श्रुति परम्परा" [विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा] प्राचीन काल से ही चली आ रही है जिसे महामण्डल में पाठ-चक्र या युवा प्रशिक्षण शिविर कहते हैं। इस श्रुति-परम्परा में जब कोई भावी-शिक्षक (would be Leader) इस शिविर के नेता वरिष्ठ [C. in.C] से पूछता है कि - ' विवेक ' और ' हृदय ' में क्या अन्तर है ? ' ब्रह्म ' क्या है ? तब तत्वदर्शी और शास्त्रज्ञ गुरु उसे समझाते हैं -
" विवेक एक विशिष्ठ प्रकार से विचार करने की प्रक्रिया का नाम है- अर्थात यह क्या है, यह क्या है, यह क्या है, इसप्रकार हर वस्तु को अलग अलग करके समझना। किस वस्तु का मूल्य कितना है- इसका मूल्य बहुत अधिक नहीं है, इसका मूल्य इससे अधिक है, इस प्रकार से जब विचार किया जाता है; तब इसे विवेक कहा जाता है। और इस प्रकार से विचार करने के लिए मस्तिष्क के आलावा और कोई दूसरा यन्त्र कहीं शरीर में फिट नहीं है। हमलोगों की धारणा यह कि शायद हृदय ( दिल ) हमलोगों के छाती के निकट है। किन्तु छाती के निकट जो हृदय (heart) है वह ' हृदय-यंत्र ' तो रक्त-संचालन करने वाला यंत्र या Blood Pumping Machine है। वह जन्म के समय से लेकर जब तक मनुष्य जीवित रहता है तबतक चलता ही रहता है। हृदय का धड़कना बंद होते ही मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। सारे शरीर में रक्त को संचालित को करना (blood pumping ) इसका कार्य है। किन्तु उसी यंत्र को यह हृदय नहीं समझना चाहिए।
हमलोग जिस हृदय की बात कर रहे हैं, वह अनुभव करने की शक्ति है। उसका स्थान हमारे शरीर में कहाँ है, इसे तुरन्त खोजा नहीं जा सकता है। इसीलिए छाती पर हाथ रख कर जहाँ हृदय-यंत्र रहता है, हमलोग उसी का उल्लेख करते हैं। यह एक काल्पनिक मान्यता है, इसका कोई अर्थ नहीं होता। वास्तव में जो कार्य होता है वह, मस्तिष्क के भीतर होता है। मस्तिष्क क्या है, कैसा चौंका देने वाला पदार्थ है, इसके पूरी संरचना को आज तक मनुष्य पूरी तरह से जान नहीं पाया है। लगातार मस्तिष्क की नयी नयी शक्तियों के परिचय का खुलासा हो रहा है। वास्तव में शुभ-अशुभ, पसंद-नापसंद, लोभ, त्याग, पाने की इच्छा, त्याग कर देने की इच्छा, प्रवृत्ति या निवृत्ति मार्ग में जाने जैसी समस्त विवेकपूर्ण निर्णय लेने का कार्य, मस्तिष्क में ही घटित होता है! इन दिनों मस्तिष्क को लेकर बहुत से अनुसन्धान किये जा रहे हैं. यह भी सच है कि अनुसन्धान कार्य में बहुत उन्नति हुई है, किन्तु मन की शक्ति का पूरा परिचय अभी तक बहुत कम ही मिल सका है।
सिर के उपर, ठीक बिच में एक स्थान को ब्रह्म-रन्ध्र कहा जाता है। ऐसा विश्वास किया जाता है की यह स्थान ब्रह्म की उपलब्धी करने के लिए है। ब्रह्मवस्तु से ही यह विश्व-ब्रह्माण्ड आविर्भूत हुआ है। ब्रह्म का अर्थ क्या है ? ब्रह्म का शाब्दिक अर्थ है- बृहत। इतना बृहत, कि उसके बाहर और कुछ भी नहीं है. हमलोग भी इससे अलग नहीं हैं। इसीलिए हमलोग घटिया सोच नहीं रखेंगे, संकीर्ण विचार नहीं रखेंगे, बृहत के बारे में ही विचार करेंगे। शब्दार्थ के अनुसार इसको ही ब्रह्म विचार कहते हैं। अपने को अनुदार मत रखो, छोटे से दायरे में कैद मत होने दो। ' अपने को मैंने जगत्स्वरूप बना लिया है; सारे विश्व के साथ अपने को एक और अभिन्न देखता हूँ !' कितनी बड़ी उपलब्धी है, कितने आनन्द की बात है ! हमलोग सम्पूर्ण विश्व के साथ एकात्मता का अनुभव कर सकते हैं, हमलोग इतने बड़े हो सकते हैं. किन्तु हमने अपने को सीमित बना डाला है। थोड़ा सा पकवान, थोड़ा सा इन्द्रिय सुख, इतने को ही बहुत बड़ा सुख मान लेते हैं। यदि हमलोग अपने जीवन को ठीक ठीक गढ़ सकें, तो इससे बहुत बड़ी वस्तु हमलोग प्राप्त कर सकते हैं,बृहत वस्तु, जिस से बड़ा और कुछ भी नहीं है, भूमा आनन्द की प्राप्ति का संवाद सभी के पास पहुंचना चाहिए।
इस संवाद को हमलोगों ने इस युवा प्रशिक्षण शिविर में प्राप्त किया है, यही समझ कर लौट सकें, तो बहुत बड़ा कार्य होगा। इसी ' भूमा आनन्द ' को प्राप्त करने का लोभ, हमलोगों को और अधिक पवित्र बनने में सहायक होगा, हमें उन्नत बनाएगा, हमलोग पुष्पित हो जायेंगे। जीवन क्या एक घर में रहना, खाना-पीना, स्कूल-कॉलेज, यूनिवर्सिटी में जाना, थोड़ा पढ़-लिख कर नौकरी-रोजगार में लग जाना भर है? दिन भर कुछ रोजी-रोजगार किया, घर आया, खाना खाया, और सो गया, फिर वंश-विस्तार होने लगा- क्या इसी को मनुष्य- जीवन कहते हैं? ऐसा जीवन तो पशु लोग भी जी लेते हैं. पशुओं और मनुष्यों का जीवन क्या एक ही जैसा होना चाहिए ? मनुष्य तो विरासत से ही इतनी बुद्धि लेकर जन्म ग्रहण किया है, वह क्या अपने कार्य के माध्यम से, जीवन-यात्रा की प्रणाली के माध्यम से, जीवन का सही उद्देश्य या लक्ष्य निर्धारित करने के माध्यम से, उसे प्राप्त करने के लिए जी-जान से प्रयत्न करने के माध्यम से, अपने उस ' मनुष्यत्व ' प्रकाशित नहीं करेगा ? यथार्थ ' मनुष्यत्व ' के उत्थान और आविर्भाव को देख कर जगत अवाक रह जायेगा- मनुष्य की शक्ति कितनी असीम है!
सच्चा मनुष्य ऐसा ही होता है. इस तरह के मनुष्य बनने के लिए जो कुछ चाहिए, वह सभी चीजें हमारे पास हैं. हमारे पास शरीर, मन, बुद्धि, हृदय या अनुभव करने की शक्ति विद्यमान है. हमलोग क्या इन्हें यूँ ही नष्ट हो जाने देंगे ? यह जो बाहर का परिवेश है, आज के समाज में भौतिक-वाद की जो आंधी बह रही है, उसके बाढ़ में क्या हम स्वयं को भी डूब जाने देंगे?नहीं, हमलोग ऐसा हरगिज नहीं होने देंगे. हमलोग सच्चरित्रता के धरातल पर अपने कदमों को सख्ती के साथ जमाये रखेंगे. पश्चमी सभ्यता के आँधियों का वेग चाहे जितना भी क्यों न हो, वह हमें अपने प्रवाह में डुबोने नहीं पायेगी। इस बाढ़ के बीच में खड़े रहकर भी, जो प्राप्त करना है, उसे प्राप्त कर के ही दम लेंगे.
हमलोग अपना परिचय देते है कि हमलोग विवेकानन्द के अनुयायी हैं, यदि सचमुच हमलोग ' विवेक ' के अनुगामी हों, अर्थात कुछ भी सोचने, बोलने और करने के पहले यदि ' विवेक- प्रयोग ' अवश्य करने की आदत यदि हमारी ' प्रवृत्ति ' बन चुकी हो; तो हम स्पष्ट देख पाएंगे की मेरा मन कभी कभी मुझको धोखे में डाल कर अच्छाई के मार्ग पर न लेजा कर ( श्रेय ) से भटकाकर, नीचे (प्रेय) की ओर ले जाना चाह रहा है. जो अच्छा नहीं है, जो मुझे दुर्बल बना देगा, उसे मैं अपने पैर के अंगूठे से भी स्पर्श नहीं करूंगा, उससे दूर ही रहूँगा. कोई प्रलोभन दिखा कर मुझे उसके साथ युक्त नहीं कर पायेगा. यदि यह सामर्थ्य मुझमें है, तभी मैं ' मनुष्य ' हूँ. स्वयं के उपर ऐसा नियन्त्रण केवल ' मनुष्य ' ही रख सकता है. इसीलिए ' मनुष्य योनी ' को सर्वश्रष्ठ कहा जाता है.
' मनुष्य ' का अर्थ क्या है ? श्रीरामकृष्ण कहते थे- ' मान हूँश, तो मानुष ' जिसको अपनी मानवोचित मर्यादा के प्रति ' होश ' सदैव बना रहता हो, उसी को ' मनुष्य ' कहा जाता है. विचार करके देखो तो जरा, यह उक्ति कितनी सरल, पर कितनी असाधारण है? दूसरे प्रकार से देखें तो श्रीरामकृष्ण देव मूर्ख ही ठहरे. पाठशाला में पढ़ने के लिए, बहुत ही थोड़े समय के लिए गये थे। हिसाब बनाने के लिए कहा गया तो किसी प्रकार ' जोड़ ' करना सीख लिए थे, किन्तु ' घटाव ' करना नहीं सीख पाय। ' शेष नहीं निकालने ' (घटाव नहीं करने) से जोड़ (योग) होता है. यह योग ( जोड़ ) क्या है ? जो सबसे ऊँची बात है, सबसे सुन्दर वस्तु है, वह है- सभी के साथ जुड़ जाना, एक और अभिन्न बन जाना !
हमलोग टी.वी. पर देख कर आजकल ' योग-योग ' बोलते हैं. अभी तो पार्क में बैठ कर योग करना एक फैशन बन चुका है. कई कई नामों से ' योगा-सेन्टर ' खुल गये हैं। वास्तव में ' योग ' का क्या अर्थ है? यह देखना कि हमारे हृदय में जो मौलिक वस्तु है, उसके साथ स्वयं को ' जोड़ ' करके रखने पर ही, अन्य सबों के साथ योग बना रहता है, क्योंकि सबों के भीतर ' मौलिक वस्तु ' एक ही है। इस तथ्य को सदा स्मरण रखते हुए जीवनयापन करने से, हमारी जो अन्तर्निहित ' सत्ता ' (ब्रह्मत्व ) है, वह और अधिक प्रस्फुटित होने लगता है, और अधिक अभिव्यक्त होता है, और अधिक फलदायी होता है। इसीलिए अपनी ' स्मृति ' ध्रुव तारे के जैसा अटल बनाये रखना लाज़मी है!
यथार्थ ज्ञान (Right knowledge) अर्जित करो तथा अपने उदार ह्रदय में सबों के प्रति मैत्री-भाव रखते हुए (जगत में कोई पराया नहीं है)इन महान विचारों को, धनाड्यतमों से लेकर दरिद्रतमों तक, शिक्षितों से अशिक्षितों तक, ज्ञानियों से अज्ञानियों तक -सभी मनुष्य को जीवन में उतारने लेने के लिये - उनके द्वार द्वार पर पहुँच कर उन्हें अनुप्रेरित करो।
इस कार्य को पूरा करने के लिये पहले ख़ुद तुम्हे मनुष्य बनना पड़ेगा। तुम्हे अपना शरीर हृष्ट-पुष्ट रखने के साथ साथ मन को भी संयम में रखना होगा। किन्तु केवल शरीर-मन का विकास करने से ही यथार्थ मनुष्य नहीं बना जाता है। इसके साथ ही यह भी देखना पड़ेगा कि उस शरीर में जो ह्रदय है, वह पशु का ह्रदय है या मनुष्य का,या देवता का ह्रदय है। किसी को असली 'मनुष्यत्व' अर्जित हुआ है नहीं, उसकी सही पहचान उसके ह्रदय से ही होती है। मनुष्य बन जाने के बाद संसार के सभी मनुष्यों का दुःख-दर्द (Sorrows and Sufferings) तुम्हे बिल्कुल अपना महसूस होगा। तब अपने शरीर और मन के द्वारा तुम सदैव दूसरों का केवल कल्याण ही सोंचोगे और करोगे। तुम्हारे मुख से सदैव केवल दूसरों के कल्याण के लिये प्रार्थना ही निकलेगी। यदि तुम्हारे पास कुछ धन है, तो उसका एक हिस्सा उन्हें मिलेगा जिनके पास यह नहीं है।
इस वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में इस वर्ष भारत के कई राज्यों से, तुमलोग कुल १३०९ युवा भाग लेने आये हो। [ महामण्डल का बयालिसवाँ (42nd) वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर पश्चिम बंगाल के हावड़ा जिले के - " गंगाधरपुर शिक्षण मन्दिर " (बी.एड.कॉलेज) में २५ से ३० दिसम्बर तक २००८ में आयोजित हुआ था।] इस छोटे से गाँव में, जहाँ तक पहुँचने के लिये उचित ढंग का सड़क भी नहीं है,आने में तुम लोगों ने कई कष्ट उठाये होंगे। क्यों ?- तुम यहाँ कुछ अति महत्वपूर्ण विचारों को सुनने के लिये आये हो। महामण्डल यह जानता है कि, इस प्रकार का भाव तुम्हे और कहीं से प्राप्त नहीं हो सकते हैं। भारत में धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनितिक आदि कई बड़े बड़े संगठन हैं तो जरुर किन्तु ये विचार तुम्हे किसी भी संगठन में सुनने को नहीं मिलेंगे। अतः यह हमारा सौभाग्य है कि हमलोग आपस में विचार-विमर्ष करने के लिये यहाँ तक पहुँच सके हैं। यदि इन विचारों को तुम सचमुच उपयोगी समझते हो तो उन्हें आत्मसात कर लो। अपने जीवन में उतार लो। हमलोगों को दूसरों के लिये जीना सीखना चाहिए, अपने लिये जीना भी कोई जीना है ? जो केवल अपने लिये जीता है, वह तो नर-पशु है। जो सचमुच मनुष्य बनना चाहता है, वह अवश्य ही दूसरों के लिये जीवन धारण करना चाहेगा। हमलोग अपनी शक्ति, ज्ञान, धन, सब कुछ दूसरों के कल्याण में समर्पित कर देंगे। संक्षेप में यही है महामंडल का उद्देश्य है।
महामण्डल इस 'मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माण आन्दोलन' का लक्ष्य - भारत कल्याण के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व का कल्याण करना है। महामण्डल इसी लक्ष्य को भारत के सभी युवाओं के ह्रदय में बैठा देना चाहता है, एवं इसी कार्य के लिये स्वामी विवेकानन्द को युवा आदर्श के रूप में स्थापित करना चाहता है। वे मानव जाती को उठाने के लिये आये थे, भारत को उठाने के लिये आये थे। उन्होंने सम्पूर्ण विश्व के लिये कार्य किया था। उन्होंने परम सत्य का साक्षात्कार किया था, तथा विश्व भर के मानव-मन को आलोकित कर दिया था।
उन्होंने युवाओं को कहा है , "तुम लोग स्वयं अपने पैरों पर खड़े होने की चेष्टा करो.मनुष्य बनो, चरित्र गठन करो, देश को प्यार करना सीखो ! देश का अर्थ देश की मिट्टी ही नहीं है, देश से प्यार करने का अर्थ है अपने देशवासियों से प्यार करना। देश के मनुष्यों को प्यार करना सीखो, अपने देशवासियों के दुःख को समझना सीखो, अपने ह्रदय (Heart )को बड़ा करो, शरीर (Hand) को बलवान बनाओ, सिर (मस्तिष्क Head ) को जाग्रत करो- प्रखर बुद्धि, अर्थात विवेक-प्रयोग करने की शक्ति चाहिये। उन्होंने हमे आदेश दिया है - " ह्रदय से मनुष्यों के दुःख को अनुभव करो, विचारशक्ति से उनके दुखों को दूर करने का उपाय ढूँढो, और शारीरिक शक्ति का प्रयोग कर उस उपाय को क्रियान्वित करके दिखा दो!"
इतना बड़ा महामानव सचमुच नहीं जन्मा है, उनके उपदेशों को सुनकर, उनके आदेश, उनकी शिक्षा, उनकी डांट-फटकार - आदि को सुनकर, शायद हमारी सुबुद्धि वापस लौट आये। उनकी बात को सुन कर हमलोग एक दूसरे प्रकार के मनुष्य बन जायेंगे, हमलोगों की मनोवृत्ति बिल्कुल बदल जाएगी,जैसे किसी बहुत बड़े चुम्बक के पहाड़ के निकट जहाज चला जाये, तो जैसे लोहे से निर्मित उसके समस्त नट-भोल्ट, कब्जा-काठी, इत्यादि स्वतः खुल जायेंगे, उसी तरह इनके पास जाने से, इनकी आकर्षण की शक्ति से हमलोगों के समस्त बंधन छिन्न-भिन्न होजाएंगे, हम बंधन मुक्त हो जायेंगे! ऐसा होने पर हमलोग जो बन जायेंगे, वह क्या है? केवल ह्रदय, इसीलिये स्वामीजी एक स्थान पर कहते हैं - " Be a heart-whole man !" ऐसा मार्ग-दर्शन और किसी दूसरे व्यक्ति से मिल सकता है क्या ?
परन्तु अपने जीवन का कल्याण, भारत का कल्याण तथा विश्व का कल्याण करने वाले कार्यकर्त्ता/ शिक्षक /नेता बनने तथा बनाने के लिये उनका आह्वान मुख्य रूप से केवल युवाओं के लिये ही था।इसीलिये महामण्डल भी तुम लोगों से, भारत के युवाओं से बहुत उम्मीद रखता है तथा भरोसा करता है। अपने जीवन का गठन चट्टानी नींव पर करो- अर्थात अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाओ, अपनी बुद्धि को इतना विवेकशील और तीक्ष्ण बना लो कि उसमे सागर की तली को भी देख लेने का सामर्थ्य हो, ह्रदय को विशाल तथा उत्साह से परिपूर्ण रखो।
मैं पहली बार जब कैम्प में गया था, तब दक्षिण भारत से आये किसी कैम्पर (विशाखापत्तनम-मुनिस्वामी) ने पूछा आप कहाँ से आये हैं? मैंने कहा परमात्मा के पास से और आप ? उन्होंने हँस कर कहा मैं भी परमात्मा के पास से आया हूँ, पल भर मैं हम एक हो गए एक दूसरे को पहचान लिया ! बहुत अच्छा लगा, मानो कोई अपना मिल गया हो ! हमें एक दूसरे को इसी नजरों से पहचाना चाहिए, भेद मिट जायेगा, राज्य-देश, जात-पात, धर्म, M/F की दूरियां मिट जायेगी…।
आजादी से पहले वाला भारत, प्राचीन भारत - कितना विशाल था ! तुम्हे भारत के मानचित्र में बर्मा वाला जो हिस्सा दीखता है, तब उसे देखने से मुझे ऐसा प्रतीत होता था मानो सचमुच वह मेरी माँ का लहराता हुआ आँचल है, जो बंगाल कि खाड़ी तक फैला हुआ है।तब वह चित्र मुझे साक्षात् माँ कि प्रतिमा ही जान पड़ती थी।किन्तु इन्ही लोगों ने भारत माता को ठीक उसी प्रकार तीन टुकडों में काट डाला, जिस प्रकार किसी पशु को खाने,या निगल जाने के लिए, पहले उसके टुकड़े कर दिए जाते है ! आज के समाज का चेहरा ऐसा ही विकृत हो गया है। किन्तु यह सब क्या इसी प्रकार चलता रहेगा ? समाज की यह दुर्दशा होते देख कर चुप नहीं रहना चाहिए। इस अवस्था में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने के लिये कुछ न कुछ प्रयास हम सबों को करना चाहिए। किन्तु क्रान्तिकारी परिवर्तन किसे कहते हैं ?
क्या ...सड़कों में परिवर्तन, हवाई अड्डा या बंदरगाह में परिवर्तन, और ज्यादा जहाज, अधिक से अधिक आव्रजन मार्गों (flyovers) का निर्माण, चतुर्भुज सड़क निर्माणों की श्रृंखला बनाने वाले परिवर्तन से हमारा कोई तात्पर्य नहीं है। जबकि आज के समाज में इन्हीं सब चीजों को मनुष्य जीवन से अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। किन्तु सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि मनुष्य ही उपेक्षित हो रहे हैं। आज अपने युवाओं को हमलोग कैसी शिक्षा दे रहे है ? समाज बनता है- मनुष्यों से,अतः व्यष्टि मनुष्य में परिवर्तन न आने से समाज में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है। समाचार पत्र में जिस परिवर्तन का उल्लेख रहता है, वह कोई परिवर्तन नहीं है। महामण्डल की दृष्टि के अनुरूप यदि सचमुच समाज को परिवर्तित करना है, तो सर्वप्रथम समाज में सुयोग्य नागरिक ( य़ा उपयुक्त मनुष्य) का निर्माण करना होगा. वह मनुष्य- समाज किसे कहते हैं, मनुष्य किसे कहते हैं, मनुष्यों का यथार्थ कल्याण, मनुष्य जीवन की सार्थकता किस बात पर निर्भर करती है, आदि बातों को समझ सकेगा।
आज के बच्चे भविष्य के युवा हैं,अतः शिशु अवस्था से ही विवेक-प्रयोग करने के बाद ही कुछ सोचने, बोलने करने का अभ्यास सीखना आवश्यक है। इसके लिय युवाकल्याण की योजना जिसमें युवा लोग भी संयुक्त रहते है, बच्चों के कल्याण पर भी पर्याप्त दृष्टि रखनी आवश्यक है। अतः किसी भी समाज-सेवी संगठन को अपने क्षेत्र के बच्चों और किशोरों के लिए भी एक समेकित कल्याण कार्यक्रम 'An integrated child-welfare scheme' के विषय में सोचना आवश्यक है। बच्चों को बचपन से ही खेल-कूद, ड्रिल (फ़ौजी शिक्षा कवायद), गीत-संगीत, नाटक, प्रार्थना आदि सर्वांगीण विकास (all round development) का अवसर प्राप्त होना चाहिये।
सभी केन्द्रों के लिए उचित होगा कि वे अपने क्षेत्र के बच्चों, किशोरों और युवाओं के लिए एक व्यापक, आत्मानुशासित, स्व-अभिप्रेरित परियोजना (self-motivated activity) का प्रारम्भ करें। महामण्डल -- 'विवेक-वाहिनी', 'किशोर-वाहिनी' या 'सार्वजनिक प्राथमिक विद्यालय' आदि प्रारम्भ करने के लिए विस्तृत परामर्श देने के लिये प्रस्तुत है। इस तरह की परियोजना प्रत्येक स्थान में प्रारम्भ करना क्यों अनिवार्य है, इस विषय में बच्चों के अभिभावकों या माता-पिता के साथ सम्पर्क उन्हें राजी कराने (convince) का विशेष प्रयास होना चाहिये। दूसरे स्थानों में परीक्षित उपायों के उदाहरण का उपयोग भी इस कार्य में किया जा सकता है।
महामण्डल का सामूहिक कार्यक्रम :
(vi)सर्व संप्रदाय समावेशी साप्ताहिक पाठचक्र : (All sect inclusive Youth Study Circle ) What is Community – एक ही धर्म की अलग अलग परम्परा या विचारधारा मानने वाले वर्गों को सम्प्रदाय कहते है। सम्प्रदाय हिंदू, बौद्ध, ईसाई, जैन, इस्लाम आदि धर्मों में हैं। सम्प्रदाय के अन्तर्गत गुरु-शिष्य परम्परा चलती है जो गुरु द्वारा प्रतिपादित परम्परा को पुष्ट करती है।हिन्दू और मुसलमान दोनों सम्प्रदायों के युवाओं को सच्ची देश-भक्ति अपने देश-भारतवर्ष की प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा- [हिन्दू ( भारतीय ) इस्लामी संस्कृति ] श्रुति-परम्परा में निहित विशेष मूल्यों की सही समझ से ही प्राप्त हो सकती है। और यह तभी सम्भव है जब युवाओं को भारत की सांस्कृतिक विरासत से परिचित होने का अवसर प्राप्त हो।
वैसे तो हमारे जीवन में कई जाने-अनजाने गुरु होते हैं जिनमें हमारे माता-पिता का स्थान सर्वोपरि है फिर शिक्षक और अन्य। लेकिन असल में गुरु का संबंध शिष्य से होता है न कि विद्यार्थी से। आश्रमों में गुरु-शिष्य परम्परा का निर्वाह होता रहा है।गुरु-शिष्य परम्परा आध्यात्मिक प्रज्ञा का नई पीढ़ियों तक पहुंचाने का सोपान है। भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत गुरु (शिक्षक) अपने शिष्य को शिक्षा देता है या कोई विद्या सिखाता है। बाद में वही शिष्य गुरु के रूप में दूसरों को शिक्षा देता है। यही क्रम चलता जाता है। यह परम्परा सनातन धर्म की सभी धाराओं में मिलती है। गुरु-शिष्य की यह परम्परा ज्ञान के किसी भी क्षेत्र में हो सकती है, जैसे- अध्यात्म, संगीत, कला, वेदाध्ययन, वास्तु आदि।
भारतीय संस्कृति में गुरु का बहुत महत्व है, क्योंकि आने वाले कल का निर्माण आज गुरु की दी हुई शिक्षाओं पर निर्भर होता है । गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर माना गया है। कहीं गुरु को 'ब्रह्मा-विष्णु-महेश' कहा गया है तो कहीं 'गोविन्द'। 'गु' शब्द का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और 'रु' शब्द का अर्थ है प्रकाश ज्ञान। अज्ञान को नष्ट करने वाला जो ब्रह्म रूप प्रकाश है, वह गुरु है। हिन्दू पंचांग के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरु की पूजा करने की परंपरा है। इस दिन को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। यह पर्व आत्मस्वरूप का ज्ञान पाने के अपने कर्तव्य की याद दिलाने वाला और गुरु के प्रति अपनी आस्था जाहिर करने वाला होता है। गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है, क्योंकि मान्यता है कि भगवान वेद व्यास ने महाभारत की रचना इसी पूर्णिमा के दिन की थी। विश्व के सुप्रसिद्ध आर्य ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरम्भ किया।
किन्तु हमारी इसी मान्यता के कारण कुछ चतुर लोगों ने इस पद पर एकाधिकार कर लिया है। वे लोग ऐसा झूठा भ्रम फैलते हैं कि एक वर्ग विशेष के घर में जन्मा बच्चा, जन्म से ही गुरु पैदा होता है। श्री रामकृष्ण परमहंस देव ने बहुत प्रयास किए कि नरेंद्र (विवेकानन्द) मेरा शिष्य हो जाए। क्योंकि रामकृष्ण परमहंस जानते थे कि नरेन् निवृत्तिमार्ग के सप्त ऋषियों में से एक है, और मेरे ही अनुरोध पर मेरे काम में सहायता करने के लिए धरती पर जन्मग्रहण किया है। यही वह व्यक्ति है जिसे सिर्फ जरा-सा धक्का दिया तो यह ध्यान और मोक्ष (भ्रममुक्त De -Hypnotized) के मार्ग पर दौड़ने लगेगा। और नरेन् तो इतना निःस्वार्थी भी है कि, इसको 'कामिनी-कांचन और कीर्ति ' में से कोई वासना इसे बाँध नहीं पायेगी; इसीलिए यह सम्पूर्ण जगत को शिक्षा देने या भारत की प्राचीन श्रुति -परम्परा को फैला देने में समर्थ हो जायेगा ।
लेकिन स्वामी विवेकानन्द तो बुद्धिवादी व्यक्ति थे और अपने विचारों के पक्के थे। उन्हें रामकृष्ण परमहंस एक ऐसे व्यक्ति नजर आते थे जो कोरी कल्पना में जीने वाले एक मूर्तिपूजक से ज्यादा कुछ नहीं।वे रामकृष्ण परमहंस की सिद्धियों को एक मदारी के चमत्कार से ज्यादा कुछ नहीं मानते थे। फिर भी वे परमहंस के चरणों में झुक गए क्योंकि अंतत: वे जान गए कि इस व्यक्ति में कुछ ऐसी बात है जो बाहर से देखने पर नजर नहीं आती। तब यह जानना जरूरी है कि आखिर में हम जिसे गुरु बना रहे हैं तो क्या उसके विचारों से, चमत्कारों से या कि उसके आसपास भक्तों की भीड़ से प्रभावित होकर उसे गुरु बना रहे हैं, यदि ऐसा है तो आप सही मार्ग पर नहीं हैं। गुरु (नेता,जीवन्मुक्त शिक्षक) क्या है, कैसा है और कौन है यह जानने के लिए उनके शिष्यों को जानना जरूरी होता है। और यह भी कि गुरु को जानने से शिष्यों को जाना जा सकता है, लेकिन ऐसा सिर्फ वही जान सकता है जो कि खुद गुरु है या शिष्य । गुरु वह है जो जान-परखकर शिष्य को दीक्षा देता है और शिष्य भी वह है जो जाँच-परखकर गुरु बनाता है। 'सिख' शब्द संस्कृत के 'शिष्य' से व्युत्पन्न है। शिष्यत्व अहंकार विसर्जन का नाम है। श्रद्धा के अभाव में भक्ति, भक्ति के अभाव में विनय और विनय के अभाव में गुरू—शिष्य का संबंध असम्भव है।
हिन्दू इस्लामी संस्कृति (गंगाजमुनी- तहजीब) शब्द मिश्रित या समन्वित संस्कृति के विकास का सूचक है, जो मध्यकालीन भारत और इस्लामी जगत की सांस्कृतिक परंपराओं के सम्पर्क तथा अन्योन्याश्रित संबंधों और सम्मिलन के फलस्वरूप विकसित हुई थी। यह संबंध अरब के उन व्यापारियों के माध्यम से स्थापित हुए थे जो भारत के विदेश व्यापार के प्रमुख स्रोत थे। हिन्दू धर्म तथा इस्लाम की सांस्कृतिक परंपराओं के समेकन से मिश्रित या हिन्दू इस्लामी संस्कृति का जन्म हुआ।
चिश्ती भारत का सर्वप्रथम प्राचीन सूफी सिलसिला है। ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती ने 12वी. शता.में चिश्तियां परंपरा की नींव डाली। चिश्तियों की प्रकृति उदार थी। वे अद्वैतवाद के परंपरागत नियमों में विश्वास रखते थे। मुइनुद्दीन चिश्ती ने अजमेर में अपना निवास स्थान बनाया। उनकी समाधि अजमेर में ख्वाजा साहब के नाम से प्रसिद्ध दरगाह है। बाबा फरीद के कारण चिश्तियां सिलसिले को भारत में लोकप्रियता प्राप्त हुई। बाबा फरीद का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान रचनाओं से है जो गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित है। बाबा फरीद बलबन का दामाद था।उत्तर भारत के अग्रणीय सूफी संत शेख निजामुद्दीन औलिया थे।शेख निजामुद्दीन के उदार एवं सहिष्णु दृष्टिकोण के कारण उन्हें महबूब-ए- इलाही ( ईश्वर के प्रेमी ) की लोकप्रिय उपाधि मिली। निजामुद्दीन औलिया ने योग की प्राणायाम की पद्दति इस हद तक अपनायी कि उन्हें योगी सिद्ध कहा जाने लगा। शेख निजामुद्दीन औलिया के सबसे प्रिय शिष्य अमीर खुसरो थे। अमीर खुसरो ने दिल्ली को हजरत-ए-दिल्ली ( पवित्र दिल्ली ) तथा दूसरा स्वर्ग और न्याय का एक महान केन्द्र कहते हुए अभिवादन किया। खुसरो अपने पीर ( गुरु ) निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु का समाचार जानने के दूसरे दिन ही प्राण त्याग दिये। उसे उसी स्थान पर दफनाया गया।]
"श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा " में प्रशिक्षित गुरुओं के माध्यम से "रामकृष्ण मिशन आश्रम" मे गुरु-शिष्य परम्परा का निर्वाह अब भी होता चला रहा है। भारतीय इतिहास में गुरु की भूमिका समाज को सुधार की ओर ले जाने वाले मार्गदर्शक के रूप में होने के साथ क्रान्ति को दिशा दिखाने वाले मार्गदर्शक नेता की भी रही है। लेकिन स्कूल -कॉलेज के सिलेबस या पाठ्यपुस्तकों में जो कुछ पढ़ाया जाता है, उसके द्वारा छात्रों को हमारी प्राचीन श्रुति-परम्परा से (या गीता -उपनिषद की शिक्षाओं से) परिचित होने का अवसर नहीं मिलता। अतः इस 'श्रुति परम्परा' (श्रवण-मनन-निदिध्यासन की परम्परा) से प्राप्त होने वाली शिक्षा (या मनःसंयोग के प्रशिक्षण) को न्यूनता-पूरक कक्षा ( supplementary classes) के रूप में दिये जाने की आवश्यकता है।इस कार्य को महामण्डल के वार्षिक युवा-प्रशिक्षण शिविर के "स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन " के Be and Make" परम्परा में नेता-वरिष्ठ (C-in-C) नवनीदा द्वारा प्रशिक्षित महामण्डल के भावी नेताओं/शिक्षकों/ के माध्यम से साप्ताहिक पाठचक्र (Study Circles-अध्यन मण्डल) में भी किया जा सकता है।
प्रति सप्ताह एक निश्चित स्थान और समय पर सत्यान्वेषी -जिज्ञासु लोगों का एक समूह मिलेंगे , तथा 'Patriot-Prophet' देशभक्त -पैगम्बर स्वामी विवेकानंद के परिव्राजक चित्र के सामने बैठकर, तथा उनको ही अपना नेता/आदर्श/ शिक्षक मानकर पूरी श्रद्धा के साथ महामण्डल के संघमन्त्र को गाने के बाद उनके द्वारा रचित स्वदेश-मंत्र का पाठ होगा। तत्पश्चात सभी सदस्य महामण्डल की पुस्तिकाओं तथा विवेकानन्द साहित्य के चुने हुए अंश से श्रुति-परम्परा में श्रवण-मनन -निदिध्यासन करेंगे, ताकि राष्ट्र-निर्माण के कार्यों में अपना योगदान देने के योग्य सुन्दर चरित्र गठित हो सके। स्वामी विवेकानन्द की जीवनी (biography) और शिक्षाओं के साथ ही साथ महामण्डल की सभी पुस्तिकाओं विशेष कर -' हमारे लिये करनीय' और महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय की आत्मकथा (memorabilia) " जीवन नदी के हर मोड़ पर" का गहराई से अध्यन और अनुशीलन करने के द्वारा इस कार्य का प्रारम्भ किया जा सकता है।
(vii) संस्कृत भाषा का सम्मान :स्वामी जी ने पिछड़ी जातियों में जन्मे लोगों में जातिगत आधार पर सामाजिक भेदभाव हटाने का उपाय बतलाते हुए कहा था -"संस्कृत में पांडित्य होने से ही भारत में सम्मान प्राप्त होता है। संस्कृत भाषा का ज्ञान होने से ही कोई तुम्हारे विरुद्ध कुछ कहने का साहस नहीं करेगा। यही एक मात्र रहस्य है, अतः इसे जानलो और संस्कृत पढ़ो।" हमारी सांस्कृतिक विरासत (श्रुति-परम्परा) में निहित जीवन-दायिनी शिक्षाओं के हृदय में प्रवेश करने का मार्ग संस्कृत-अध्यन है। इसीलिये अपने पूर्वज ऋषियों से विरासत में प्राप्त ज्ञान के इस अक्षुण्ण भण्डार पर यदि अधिकार पाना चाहें , तो इस संस्कृत-भाषा को सीखने का हर सम्भव प्रयास करना उचित है। 'संस्कृत' के अतिरिक्त विश्व की जितनी भाषाएँ हैं, उनकी भाषा पहले बनी है, व्याकरण बाद में बना है। किन्तु संस्कृत देवभाषा है, इसका व्याकरण पहले बना है, भाषा बाद में बनी है। इसीलिए यदि सभी सदस्यों को संस्कृत भाषा सीखनी है, तो प्रत्येक केंद्र में संस्कृत व्याकरण का प्राथमिक बुनियादी पाठ्यक्रम (elementary grammatical foundation course ) सिखाने की व्यवस्था की जानी चाहिये। इसके साथ-साथ प्रत्येक केन्द्र में गीता और कुछ प्रमुख उपनिषदों (जिनपर आचार्य शंकर का भाष्य उपलब्ध है) के मुख्य विचारों से अवगत होने के लिए गीता-उपनिषद आदि के पठन-पाठन की व्यवस्था करना उचित होगा।
(viii) विवेकानन्द सार्वजिक पुस्तकालय : जहाँ सम्भव हो सके, उन सभी केन्द्रों में भारतीय सभ्यता और संस्कृति से जुड़ी हुई पुस्तकों, श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त भावधारा से सम्बन्धित पुस्तकों पर आधारित छोटे छोटे पुस्तकालय (Libraries) तथा वाचनालय (Reading room) भी स्थापित किये जा सकते हैं। स्कूल -कॉलेज के छात्रों के लिए उपयोगी पाठ्यपुस्तकों (Textbooks) को भी उसमें संग्रहित करने पर विचार किया जा सकता है।
(ix) प्राथमिक चिकित्सा: स्थानीय प्रयोजनीयता तथा उपलब्ध संसाधनों के अनुरूप अन्य समाजोपयोगी कार्य भी हाथ में लिए जा सकते हैं। जैसे प्रत्येक केन्द्र के कुछ सदस्य प्राथमिक उपचार प्रशिक्षण (first aid training) प्राप्त कर सकते हैं, और जब कभी वहाँ कोई आकस्मिक जरूरत आ जाने पर वे पीड़ित लोगों की सेवा में आगे आ सकते हैं। स्थानीय डॉक्टर एवं प्राथमिक उपचार से परिचित कुशल कम्पाउण्डर्स की सहायता से अन्य प्रकार के चिकित्सा योजनाओं को भी हाथ में लिया जा सकता है। इसके माध्यम से 'होम्योपैथिक दातव्य औषधालय', 'शिशु टीकाकरण केन्द्र' या अन्य प्रकार के 'बाल कल्याण' के कार्यों को किया जा सकता है। गरीब-मुहताज (indigent) बच्चों के बीच दूध वितरण, अन्य खाद्य वस्तुओं, कपड़ों, पुस्तकों आदि का वितरण करने से उन्हें बहुत लाभ प्राप्त हो सकता है। कभी कभी मृत शरीर का अंतिम संस्कार करना भी विशेष कल्याणकारी हो सकता है।
(x) प्रौढ़ शिक्षा (adult education): अशिक्षा को मिटाने में सफल होने के लिए, इस समस्या पर दोनों ओर से हमला करने की जरूरत है। कामकाजी वयस्क, जिन्हें कभी शिक्षा प्राप्त करने का अवसर नहीं मिला, यदि उस शिक्षा को उनके निकट उपलब्ध कर दिया जाये, तो वे भी यथार्थ जिम्मेदार नागरिक बन सकते हैं। निरक्षरता की समस्या के इस पहलु को दुरुस्त करने के लिए, प्र्रौढ़ शिक्षा केन्द्र को विशेष रूप से झुग्गियों या ग्रामीण क्षेत्रों के निकट स्थापित किया जा सकता है।
(xi) अवैतनिक कोचिंग : जिन छात्रों को स्कूल में दाखिला लेने का अवसर मिलता भी है, वे भी किन्तु हमेशा अपने पाठ्यक्रम को लेकर सहज नहीं होते। कई छात्रों को स्कूल में पढ़े विषयों को समझने के लिये बाहरी सहायता की आवश्यकता महसूस होती है। लेकिन कई छात्रों के पास घर में आकर ट्यूशन पढ़ाने लायक शिक्षकों को वेतन देने लायक पैसे नहीं होते। इसीलिए यदि महामण्डल के सभी केन्द्रों में निःशुल्क कोचिंग केन्द्र की व्यवस्था की जाय तो उससे विद्यार्थियों को बहुत लाभ पहुँच सकता है। हर्ष का विषय है कि कई केन्द्रों में यह परियोजना अच्छी तरह चल रही है।
ऊपर में जिन कार्यक्रमों को सूचीबद्ध किया गया है, वे केवल हृदयविस्तार के अनेक सांकेतिक उपायों में से कुछ प्रमुख उपाय मात्र हैं।
(7) समर्पित कार्यकर्ता (Dedicated Workers): यदि उपरोक्त कार्यों को सभी सदस्य परस्पर सहयोग की भावना के साथ मिलजुल कर करते रहें, तब इसीके माध्यम से समर्पित कार्यकर्ताओं/जीवनमुक्त शिक्षकों/नेताओं का एक ऐसा दल गठित हो जायेगा, जो व्यक्तिगत स्वार्थ को देखने के बजाय जनता-जनार्दन की सेवा को ही सर्वोच्च स्थान देंगे। वे कार्यकर्तागण स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए स्वयं एक प्रबुद्ध नागरिक (Enlightened Citizen ) बनने की चेष्टा करेंगे तथा एक श्रेष्ठतर समाज के निर्माण में दूसरों की सहायता करेंगे। वे न केवल स्वयं इस तरह के काम में संलग्न रहेंगे,अपितु समय-समय पर दूसरे केन्द्रों द्वारा आयोजित विशेष अनुष्ठानों में भाग भी लेंगे ताकि एक दूसरे के साथ विचारों का आदान-प्रदान करके अन्य स्थानों पर चलाये जा रहे विभिन्न कार्य-दिशा (line of action) के साथ परिचित हो सकें। ऐसा करने से भारत के विभिन्न राज्यों में स्थापित महामण्डल केन्द्रों के सदस्यों के बीच क्रमशः एक स्वाभाविक भ्रातृभाव (brotherhood) भी जाग उठेगा।
(8) महामण्डल विचारधारा का प्रसार (Diffusion of the Idea): महामण्डल के सभी केन्द्र एवं प्रशिक्षित सदस्य अन्यान्य क्षेत्रों में अपने परिचित मित्रों, रिश्तेदारों आदि के साथ सम्पर्क करके उन्हें भी इसी विचारधारा के अनुसार अपने स्थानों में नये नये केन्द्र खोलने के लिए राजी कर सकते हैं। अथवा इसी भावधारा [विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" अथवा -" Be and Make Leadership Training Tradition "] का अनुसरण करने वाली किसी अन्य संस्था को महामण्डल के साथ 'सम्बद्ध ' कर उसे भी केन्द्रीय सामान्य कार्यक्रमानुसार अपने कार्यक्रम को चलाने के लिए राजी करा सकते हैं। व्यक्तिगत सम्पर्क के आधार पर यह उम्मीद की जा सकती है कि कई स्कूल -कॉलेज के छात्र-शिक्षक इस कल्याणकारी मनुष्य-निर्माण और राष्ट्र-निर्माण के रचनात्मक प्रयास में किसी कार्यरत शाखा या नवप्रतिष्ठित केन्द्र के माध्यम से इसके प्रसार में सहयोग देंगे।
(9) महामण्डल के केन्द्र : इसके वास्तविक अंग ( Its units : The Real Limbs) :महामण्डल से सम्बद्ध शाखायें ही इसके वास्तविक अंग (Limbs-अवयव) हैं। उनके माध्यम से ही महामण्डल की जीवनीशक्ति विभिन्न कार्यक्रम के द्वारा अपने अस्तित्व को अभिव्यक्त और प्रसारित करती है। महामण्डल का केन्द्रीय कार्यालय ( सिटी ऑफिस से कार्यरत महामण्डल की केन्द्रीय समिति) इन समस्त केन्द्रों को जोड़ने वाली ताकत (Connective energy) है, जिसके माध्यम से महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य वास्तविक धरातल पर रूपायित हो रहे हैं। इसलिए महामण्डल के सभी केन्द्र मानो किसी विशाल जीव के सजीव अंग-प्रत्यंग की तरह कार्य करते हैं। वर्तमान में भारत के छह राज्यों में यह कार्य चल रहा है। मार्च 1972 में, इस तरह के कुल 69 केंद्र थे। जनवरी 1975 तक भारत के 6 राज्यों--प० बंगाल, त्रिपुरा, आसाम, बिहार, उड़ीसा, आँध्रप्रदेश और दिल्ल में इसके 64 अनुमोदित (affiliated) केन्द्र कार्यरत थे।अभी जून 2019 में भारत के 12 राज्यों में 315 से अधिक अनुमोदित केन्द्र कार्यरत हैं।
(10) क्रियाकलाप (activities):महामण्डल के विभिन्न केंद्रों में जो प्रमुख कार्य किये जाते हैं, उनमें से कुछ प्रमुख गतिविधियां इस प्रकार है: छात्र प्रशिक्षण केंद्र, वयस्क शिक्षा केंद्र, खेल, ड्रिल, पाठ-चक्र, योग-व्यायाम प्रशिक्षण केंद्र, पुस्तकालय,झुग्गी-झोपडी उन्नयन, दूध वितरण केंद्र, छात्र सहायता केंद्र, प्राथमिक चिक्तिसा केंद्र, संगीत प्रशिक्षण केंद्र, होमिपैथी दातव्य औषधालय केंद्र, सामान्य सहायता, पत्रिका प्रकाशन, कुटीर-उद्योग प्रशिक्षण और उत्पादन केंद्र, छात्रावास आदि। इन सब कार्यों के अलावा, लगभग प्रत्येक केंद्र में -सांस्कृतिक कार्यक्रम, विशेष दिनों का पालन , संस्था के प्रचार के उद्देश्य से सार्वजनिक सभा, शैक्षणिक प्रतियोगिता, एवं उत्स्व आदि मनाये जाते हैं। दरिद्रनारायण सेवा, वस्त्र वितरण, प्राकृतिक आपदायें आने पर गरीबों और असहायों की सेवा, तथा अन्य सभी प्रकार के सेवाकार्य महामण्डल के केन्द्र अकेले या मिलजुल भी कर सकते हैं। यदि पश्चिम बंगाल के बाहर,भारत के विभिन्न राज्यों में स्थापित महामण्डल केन्द्र आवश्यक्ता-नुसार किसी भी विशिष्ठ गतिविधि को संचालित करना चाहें तो, महामण्डल के केन्द्रीय कार्यालय से सम्पर्क करने पर, " Be and Make Leadership Training Tradition " में प्रशिक्षित नेताओं/ शिक्षकों के नाम और मोबाईल नंबर आदि प्राप्त किये जा सकते हैं।
(11) आवधिक विशेष शिक्षा और समीक्षा शिविर (P. S.T. C): इसके अलावा विभिन्न राज्यों में कार्यरत महामण्डल केन्द्रों के स्थायी प्रतिनिधि, सचिव या जिज्ञासु सदस्यो के लिये महामंडल प्रशिक्षण भवन, कोन्नगर (Mahamandal training Hall) में आवधिक प्रशिक्षित शिक्षक सम्मेलन (Periodical Trained Teachers Conference) की व्यवस्था की जाती है, जिसमें विद्वान् शिक्षक [महामण्डल श्रुति -परम्परा" में प्रशिक्षित सभी विषयों के वरिष्ठ शिक्षाविद/ब्रह्मविद शिक्षक] उपस्थित रहते हैं, तथा हमारे मनुष्य-निर्माण आंदोलन से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा करते हैं। इस सम्मेलन में प्रत्येक केन्द्र के प्रशिक्षित शिक्षकों या कार्यकर्ताओं को महामण्डल केन्द्रीय समिति के प्राधिकारी वर्ग (authorities) के साथ विचारों के आदान-प्रदान का अवसर प्राप्त होता है। जब विभिन्न राज्यों में कार्यरत कोई केन्द्र अपने जिला-स्तरीय, राज्य स्तरीय या अन्तराज्जीय कोई युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित करते हैं, तो महामण्डल केन्द्रीय कार्यालय से उपुक्त वक्ताओं को भेजने की व्यवस्था की जाती है।
(12) वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर (Annual Youth Training Camp): महामण्डल का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण सामूहिक प्रयास है -इसका "वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर " जहाँ प्रशिक्षणार्थियों को मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव -'शरीर -मन और हृदय' को सतुंलित रूप से विकसित कराकर उन्हें एक चरित्रवान मनुष्य, देशभक्त और जिम्मेदार नागरिक (Enlightened citizen) बनने का अवसर प्राप्त होता है।इस शिविर के सामान्य प्रशिक्षण कार्यक्रम के अन्तर्गत - मनःसंयोग (mental Concentration), योग और शारीरिक व्यायाम, ड्रिल-परेड, प्राथमिक उपचार प्रशिक्षण (first aid training), खेल-कूद , प्रार्थना संगीत, फिल्म-प्रदर्शन, तथा भारतीय सांस्कृतिक विरासत, सभ्यता और दर्शन, सामाजिक नैतिकता, और श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त विचारधारा आदि विषयों व्याख्यान आदि आयोजित किये जाते हैं। यहाँ सभी प्रशिक्षणार्थियों को यथार्थ आत्मविकास करने का पर्याप्त अवसर प्राप्त होता है। यह शिविर विभिन्न राज्यों से आये प्रशिक्षणार्थियों तथा विशिष्ठ शिक्षकों के बीच सप्रेम एकत्व और भ्रातृत्वबोध जाग्रत कर देता है; तथा यह आध्यात्मिक सम्बन्ध बहुत प्रगाढ़ और दीर्घस्थायी होता है। वार्षिक शिविर में अंश-ग्रहण करने वाले कई लोगों ने शिविर से लौटने के बाद अपने अपने क्षेत्रों में इसी "महामण्डल श्रुति परम्परा" या विचारधारा के अनुरूप महामण्डल के केन्द्र को स्थापित किया है, अपने पहले से चल रही किसी संस्था को महामण्डल के साथ सम्बद्ध करवा लिया है। युवाओं के जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव जो दृष्टिगोचर होता है वह मनःसंयोग, प्रार्थना और विशिष्ठ ढंग की सेवाकार्य (गार्ड-ड्यूटी आदि) प्रशिक्षण का परिणाम है। ये सभी विषय शिविर-दिनचर्या एवं प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में इस प्रकार अन्तर्निहित हैं कि जो उन्हें 'सार्वदेशिक शिक्षा 'Universal education' का व्यावहारिक रूप दिखाई देता है, जिसके परिणामस्वरूप उनकी आदतें, उनका चरित्र और उनके विवेकपूर्ण चिंतन-प्रवाह के निर्माण में दूरगामी प्रभाव उत्पन्न हो जाता है; और उन्हें अपने जीवन का एक निश्चित लक्ष्य और उद्देश्य निर्धारित करने में सहायक सिद्ध होता है। इस प्रशिक्षण-प्रणाली में जिस प्रक्रिया अभ्यास करना उन्हें सिखाया जाता है, वे अभ्यास उनके ऊपर थोपा गया हो, ऐसा उन्हें प्रतीत नहीं होता, बल्कि वे इसे अपने लिए अत्यन्त लाभकारी समझकर स्वाभाविक रूप से ग्रहण करते हैं। यह उम्मीद की जाती है कि भविष्य में और भी अधिक संख्या में कार्यालय लोग हमारे वार्षिक शिक्षण शिविर का लाभ उठाएंगे, जहां उनसे किसी भी विषय पर ऑंखें मूँदकर विश्वास करने के लिए नहीं कहा जाता, या जबरन थोपने की चेष्टा नहीं की जाती। बल्कि उन्हें स्वैच्छिक आत्मानुशासन का अभ्यास करने की अनिवार्यता को समझने में उनको सहायता दी जाती है। इस वार्षिक शिविर के अलावा, कई केंद्रों के द्वारा स्थानीय स्तर पर या जिला स्तर पर युवा प्रशिक्षण शिविर का आयोजन भी किया जाता है, जिससे और अधिक संख्यक युवा इस "महामण्डल श्रुति-परम्परा " में आयोजित शिक्षा का आस्वादन कर सकते हैं।
(13)'विवेक-जीवन' /'विवेक-अंजन': स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं तथा महामण्डल के उद्देश्य का प्रचार करने तथा समस्त केन्द्रों के बीच परस्पर सहयोग की भावना को विकसित करने के लिए, महामण्डल के केन्द्रीय कार्यालय के द्वारा युवाओं को 'विवेक-जीवन ' अर्थात विवेक-प्रयोग का जीवन जीने की प्रेरणा देने के उद्देश्य से एक द्विभाषी (अंग्रेजी और बंगाली) मासिक मुखपत्र 'विवेक-जीवन’ प्रकाशित किया जाता है। तथा महामण्डल के झुमरीतिलैया , कोडरमा, झारखण्ड शाखा से एक मासिक मुखपत्र 'विवेक-अंजन ' का प्रकाशन भी किया जाता है।
(14) महामंडल के हिन्दी प्रकाशन : महामंडल की समस्त पुस्तिकाओं का तथा इसकी संवाद पत्रिका 'विवेक- अंजन' का अध्यन करने से युवाओं को अपना सुन्दर जीवन गठित करने में बहुत सहायता मिलेगी। प्रत्येक जाति और धर्म के युवा इससे लाभान्वित होंगे। यहाँ तक कि जो युवा भाई किसी धर्म या ईश्वर में विश्वास नहीं करते किन्तु भारत से प्यार करते हों तो उनको भी इन पुस्तिकाओं के अध्यन से बहुत लाभ होगा। किशोरावस्था अथवा कम उम्र में मानव जीवन का मूल्य तथा चरित्र-गठन की अनिवार्यता समझ में नहीं आती। और उम्र बढ़ जाने के बाद उस दिशा में प्रयत्न करने पर हताशा ही हाथ लगती है। यदि कम उम्र में ही कोई तरुण इन पुस्तिकाओं का अध्यन कर लें, तो उनके लिए वैसी सम्भावना नहीं रहेगी। इन पुस्तिकाओं का अध्यन करने तथा उनमें दिए गये परामर्शों को अमल में लाने पर युवाओं के जीवन में विफलता कभी नहीं आ सकती।
महामण्डल द्वारा हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकों की सूचि :
1. महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय की आत्मकथा -
"जीवन नदी के हर मोड़ पर " ------- ------------100/=
2. मनः संयोग ( एकाग्रता )..................8/=
3.जीवन गठन ........................................... 5/=
4. चरित्र गठन . ...................................... 8/=
5. चरित्र के गुण .............................................12/=
6. एक युवा आन्दोलन ...................................15/=
7. विवेकानन्द और युवा आन्दोलन ...............15/=
8. जिज्ञासा तथा समाधान ...............................10/=
9. अल्मोड़ा का आकर्षण .................................3/=
10.पुनरुज्जीवन के उपाय....................................1/=
11.नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण-----------15/=
12. युवा समस्या एवं स्वामी विवेकानन्द----- 10/=
13. हमारे लिए करनीय --------------------5/=
14 .स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना-- 15/=
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का हिन्दी प्रकाशन विभाग, झुमरीतिलैया, कोडरमा, झारखण्ड में निम्न पते से कार्यरत है:
Hindi publication division of the Mahamandal.
Tara Tower, Jhumritelaiya, Koderma, Jharkhand .
(15) युवाओं को आह्वान (An Appeal to the youth): हम उन सभी विचारशील नवयुवकों --जो स्वामी विवेकानन्द के नेतृत्व में आस्था रखते हैं, जो मानवजाति को दिए गए उनके अमर सन्देशों तथा राष्ट्र की आत्मा को झंकिर्त कर देने में समर्थ उनके ' call to the nation' या राष्ट्र को आह्वान में विश्वास रखते हैं,---से यह अपील करते हैं, कि वे आगे आयें और ,महामण्डल में शामिल होकर सभी प्रकार के ' Newspaper Humbug'-अख़बारों में 'छपास' और 'दिखास' की प्रवृत्ति एवं नाम-यश की कामना को त्यागकर 'मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-निर्माणकरी शिक्षा ' -' Man-making and Character-building education'- जो -सम्पूर्ण जगत की समस्त बुराइओं को समाप्त करने में सक्षम एकमात्र रामबाण औषधि है- के माध्यम से अपने नये जीवन का श्रीगणेश (3H के विकास की शुरुआत) करने के लिए नीरव भाव से कार्य करने में जुट जाएँ !कोई भी व्यक्ति अथवा शैक्षणिक संस्थान या कोई समाज-सेवी संगठन यदि कार्य में रुचि रखते हों , तो आप महामण्डल के महासचिव (General Secretary) के साथ केंद्रीय कार्यालय के पते पर संपर्क कर सकते हैं। हमारा पता है --
Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal.
6/1A, Justice Manmatha Mukherjee Row,
KOLKATA,
INDIA-700 009
Phone : (033) 2350-6898, 2352-4714
E.mail-abvymcityoffice@gmail.com
Website: www.abvym.org
(16) महामण्डल का संघमंत्र :
संगच्ध्वं संग्वदध्वं संग वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ।।
समानो मन्त्रः समितिः समानी ।
समानं मनः सः चित्त्मेषाम ।।
समानं मन्त्रः अभिम्न्त्रये वः ।
समानेन वो हविषा जुहोमि ।।
समानी व् आकुतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।।
(ऋग्वेद :१०/१९१/२-४ )
भावार्थ :
तुमलोग संघबद्ध हो जाओ, एक लय में बोलो , अपने मानस समूह (विचारों) को समान रूप से जानो ।
पुवर्ती देवता लोग [preceding- come before (something) in time] जिस प्रकार हवि को समान रूप से बाँटकर ग्रहण करते थे, उसी प्रकार परस्पर की अवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए (धन आदि) ग्रहण करो !
उन लोगों के लिए प्रशस्ति (glorification-गुणकीर्तन , महिमागान) एक समान है, उनलोगों की सिद्धि (attainment-लाभ, उपलब्धि) एक समान है, उनके अन्तःकरण (मन,बुद्धि,चित्त,अहंकार) एक समान हैं, उसी प्रकार तुम्हारे विवेकज-ज्ञान एक ही विषय मे एकीकृत हों ! हे देवगण, मैं भी तुम (सबों के) एकीकृत मन्त्र को मानो घनीभूत (consolidate) करते हुए अपना सुधार करता रहूँ; तुम सबों के सामान्य चित्र के समक्ष आहुति प्रदान करता हूँ।
जैसे आपके संकल्प एक समान हैं, आपके हृदय-समूह एक समान हैं, उसी प्रकार हमारे अन्तःकरण समूह भी एक समान हो जाएँ। जो करने से हम सबों में परम एकत्व-बोध स्थापित होता है, वैसा ही हो !
हिन्दी अनुवाद:
एक साथ चलेंगे ,एक बात बोलेंगे ।
हम सबके मन को एक भाव से गढ़ेंगे ।।
देव गण जैसे बाँट हवि लेते हैं |
हम सब सब कुछ बाँट कर ही लेंगे ।।
याचना हमारी हो एक अंतःकरण एक हो।
हमारे विचार में सब जीव एक हों।
एक्य विचार के मन्त्र को गा कर।
देवगण तुम्हें हम आहुति प्रदान करेंगे।।
हमारे संकल्प समान, ह्रदय भी समान।
भावनाओं को एक करके परम ऐक्य पायेंगे।।
एक साथ चलेंगे, एक बात बोलेंगे.......
(17) महामण्डल पताका :
वज्रांकित ध्वज आयताकार (3: 2); गेरुआ कपड़े पर नीले रंग के रेशमी सूते कढ़ाई किया ' वज्र छाप' (त्याग और आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक) होता है।
(18) महामण्डल का प्रतीक चिन्ह :
महामण्डल के प्रतीक चिन्ह में भूगोलक के ऊपर रेखांकित भारतभूमि के कन्याकुमारी पर दण्डायमान परिव्राजक स्वामी विवेकानन्द की मूर्ति उकेरी हुई है। इसके ऊपर देवनागरी अक्षरों में 'चरैवेति, चरैवेति' लिखा है और नीचे अंग्रेजी में: 'BE AND MAKE' लिखा है। शेष सर्कल में, दोनों तरफ छोटे-छोटे 7-7 वज्रों से घिरा है। क्योंकि पूर्णतः निःस्वार्थ मनुष्य चाहे निवृत्ति मार्ग से निर्मित हुआ हो या प्रवृत्ति मार्ग से वह वज्र के जैसा अप्रतिरोध्य हो जाता है।
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अलग अलग व्यक्तियों से मिलकर समाज बनता है, अतः व्यष्टि मनुष्य ही समाज का मौलिक उपादान है। अतः हम यदि स्वस्थ और सुन्दरतर मनुष्यों से बना हुआ एक स्वस्थतर और सुन्दरतर समाज गठित करना चाहते हों,तो स्वस्थ एवं सुन्दरतर मनुष्यों का निर्माण करना ही मौलिक कार्य है। किसी भी कार्य को करने के पहले मन में विचार उठते हैं, तथा वे विचार आस-पास की परिस्थितियों द्वारा प्रभावित होते हैं। समाज ही मनुष्य को गढ़ता है, और फिर वही मनुष्य अपने अपने विचारों के अनुरूप समाज को आकार देता है। इसीलिये मनुष्य द्वारा निर्मित समाज को निष्प्राण (Lifeless -बेजान,मुर्दा) नहीं कहा जा सकता; और जो कुछ सजीव (lively-जीवित,जानदार) है, जिसमें भी जीवन है -वह पूर्णत्व प्राप्त करने की चेष्टा करता है। और फिर, सामाजिक जीवन-प्रवाह में निरन्तरता बनाये रखने के लिए, जिस उत्साह या जोश (dynamism) की आवश्यकता होती है, वह स्वाभाविक रूप से समाज के युवावर्ग में ही निहित रहती है। इस प्रकार, हम देख सकते हैं कि, किसी भी समाज या राष्ट्र का भविष्य, उसके युवा समुदाय की चारित्रिक शक्ति और व्यक्तित्व विकास पर निर्भर करता है।
यद्यपि, पूर्णता प्राप्त करने के पथ पर चलते समय या पूर्णत्व (perfection) प्राप्ति की पूरी प्रक्रिया के दौरान युवाओं के भीतर कुछ 'अपूर्णता' (imperfection -अधूरापन) का दिखाई देना बहुत स्वाभाविक सी बात है। तथापि, किसी भी विचारशील व्यक्ति को , वर्तमान समय में अपने देश के युवा वर्ग के जीवन में उद्देश्य के अभाव तथा लक्ष्यहीनता को देखने से कष्ट तो होता ही है। आज के युवा-समुदाय को जिस संकट से गुजरना पड़ रहा है, उसे हम-'मूल्यबोध का संकट' (crisis of values) -की संज्ञा दे सकते हैं। इस संकट ने युवाओं के मन में एक अनुकरणीय-आदर्श (role model) सम्बन्धी शून्यता उत्पन्न कर दी है। और इसके ही परिणामस्वरूप युवा जीवन में अशान्ति (Unrest) और उछश्रृंखलता दिखाई दे रही है। युवाओं की वर्तमान अवस्था को देखकर यह स्पष्ट रूप से यह समझा जा सकता है कि वर्तमान शिक्षा व्यवस्था उनके मनुष्यत्व को (मानवोचित व्यक्तित्व 3'H' को) विकसित करने में बहुत उपयोगी नहीं है।
इस विषय पर थोड़ी और गहराई से विचार करने पर, यह समझा जा सकता है कि, समाज की वर्तमान अवस्था में परिवर्तन लाने का एकमात्र उपाय है युवा-समुदाय के समक्ष एक ऐसे मूल्य-बोध को प्रस्तुत करना जो एक ओर भारत की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत (श्रुति परम्परा) को तो आगे बढ़ाता ही हो, वहीँ दूसरी ओर इतना सर्वजन -कल्याणकारी भी हो, कि युवावर्ग को समाज की भलाई के लिये निःस्वार्थ क्रिया-कलाप (selfless activity) करने के लिए अनुप्रेरित भी करता हो । क्योंकि, हम यदि आधुनिकता को स्वीकार न करें तो प्रगति करना सम्भव नहीं होगा, फिर अगर हमारा सम्पर्क अपने गौरवशाली अतीत से ही विच्छिन्न हो जाये , तो उस प्रगति का कोई अर्थ नहीं निकलेगा।
इस प्रकार महामण्डल आंदोलन की पृष्ठभूमि ----वर्तमान सामाजिक अवस्था पर गहन चिन्तन का ऐसा परिणाम है जिसने, समस्या की भयावहता (magnitude-गुरुत्व) की तुलना में संसाधन की योग्यता (compatibility) में कमी रहने के बावजूद; इस आंदोलन के प्रणेताओं (initiators) को इस साहसिक कार्य (venture) की विभिन्न गतिविधयों में संलग्न रहने के लिए अनुप्रेरित किया है।
(2 ) अवधारणा (The Idea):
1967 में स्थापित, "अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल" यह विश्वास करता है कि आधुनिक भारत के देशभक्त-ईश्वरदूत (The patriot- prophet-ब्रह्मवेत्ता ऋषि, पैगम्बर) स्वामी विवेकानन्द ने अपने जीवन को ही उदाहरण-स्वरूप बनाकर, युवा -समुदाय के समक्ष उन महान विचार तथा आदर्शों (ideas and ideals) को प्रस्तुत किया है, जो उन्हें यथार्थ पुरुषार्थ (धर्म,अर्थ,काम मोक्ष) और मातृभूमि की निःस्वार्थ सेवा [true manhood and selfless service to the motherland] में अपने जीवन को खपा देने (न्योछावर कर देने ) के लिये अनुप्रेरित (inspired) करते रहते हैं।
जब भारतवर्ष का युवा समुदाय, भारत के राष्ट्रीय आदर्श --"त्याग और सेवा " की साक्षात् प्रतिमूर्ति -स्वामी विवेकानन्द के जीवन और शिक्षाओं से प्रेरणा प्राप्त कर, और अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से अनुप्रेरित होकर, लिंग-जाति -धर्म के आधार पर समस्त प्रकार की संकीर्णताओं का परित्याग कर दे, तथा स्वयं को सचमुच रचनात्मक कार्यों में समर्पित कर सके, तभी उनके हृदय में स्वाभाविक 'राष्ट्रीय एकता' (national integration) एवं 'वसुधैव कुटुंबकम' (international understanding) के बोध को जाग्रत किया जा सकता है। अतः महामण्डल का लक्ष्य है - महामण्डल से सम्बद्ध (affiliated) समस्त युवा पाठचक्र तथा अनुमोदित (Approved) केन्द्रों को-- एक ही आदर्श के झण्डे तले संघबद्ध करना। तथा उन केंद्र की गतिविधियों को एक सुचिन्तित और सुनियोजित कार्यमक्रम के अनुसार इतना सशक्त (intensive-प्रचण्ड ) बना देना,जो युवासमुदाय को व्यक्तिगत चरित्र-निर्माण में सहायक निःस्वार्थपूर्ण समाजसेवा मूलक कार्यों के माध्यम से भारत कल्याण (welfare of India) के प्रति निरन्तर अनुप्रेरित करता रहे । महामण्डल भारतवर्ष की सांस्कृतिक विरासत (श्रुति-परम्परा) में श्रद्धा रखता है, तथा जाति, धर्म और नस्ल के आधार पर, किसी भी प्रकार के भेदभाव (discrimination) को अस्वीकार करता है।
महामण्डल की 'केन्द्रीय समीति' इस 'मनुष्य-निर्माण आंदोलन' को भारत के हर प्रान्त में प्रसारित (expand) करने में समर्थ प्रशिक्षित शिक्षकों का निर्माण करने में युवासमुदाय की सहायता करती है। तथा इससे सम्बद्ध सभी केन्द्रों को 'एक साथ चलने, एक बात बोलने' की भावधारा के साथ जुड़े रहने के लिए हर सम्भव तरीके से परस्पर की सहायता करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। क्योंकि, स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में -" यदि भारत को महान बनाना है , उसका भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो इसके लिए आवश्यकता है--संगठन की , शक्ति -संग्रह की ओर बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। "5 /192 ( 'the whole secret lies in organization, accumulation of power, co-ordination of wills.) अभी के लिए (provisionally) महामण्डल का कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण भारतवर्ष है।
(3) आदर्श और उद्देश्य (Aims and Objects):
यह कहने की आवश्यकता नहीं, कि हमारे युवाओं के चरित्र में आत्मानुशासन (self-discipline), टीमवर्क-कौशल (team spirit) एवं सर्वोपरि श्रद्धा की भावना को तत्काल प्रविष्ट कर देना अनिवार्य है। और इसके लिए उन्हें 'पूर्ण मनुष्यत्व' को प्रस्फुटित करने में सहायक 'विवेक-जीवन' के मार्ग को (विवेकप्रयोग-पद्धति) दिखला देना आवश्यक है। [ পূর্ন মানবত্বের প্রস্ফুটয়নের সহায়ক 'বিবেক-জীবন ' --এর পথ এদের দেখাতে হবে।" 'They need to be shown the way to a regulated life that would help in the blossoming of their personalities.]
-और यह तभी सम्भव है, जब उन्हें -'यथार्थ शिक्षा' कहने से जो तात्पर्य निकलता है - (जिस शिक्षा का उल्लेख तैत्तरीयोपनिषद में -'शीक्षा' -दीर्घ 'ई' की मात्रा लगाकर किया गया है।) वही 'मनुष्यत्व उन्मेषक और चरित्र -निर्माणकारी शिक्षा' (man-making and character-building education) उन्हें प्रदान की जाय; जो केवल विद्यार्थियों को शरीर, मानसिक-वृत्तियों तथा हृदय-विस्तार के (3'H') सुसमन्वित विकास के प्रशिक्षण द्वारा ही सम्भव है।
यदि स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में कहें, तो --"पवित्रता , धैर्य और अध्यवसाय , इन्हीं तीन गुणों से सफलता मिलती है , और सर्वोपरि है प्रेम। (3'P'--- purity, patience and perseverance are the essentials to success and above all love.) ये सारे गुण (3P-आदि 24 गुण) केवल बार-बार अभ्यास करते हुए अपने अचार-व्यवहार (conduct) के माध्यम से प्रकट करके ही अर्जित किये जा सकते हैं, क्योंकि गुणों को अपने आचरण में अभिव्यक्त करने से ही मनुष्य पूर्णता (perfection) की ओर अग्रसर हो सकता है।
भारत की प्राचीन " Be and Make वेदान्त श्रुति-परम्परा" में प्रशिक्षित, स्वामी विवेकानन्द जैसे देशभक्त -पैगम्बरों/ मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का राष्ट्र निर्माण में बड़ा महत्व होता है। वे हमारे पथ-प्रदर्शक होते हैं। वे आकाश-दीप (lighthouse) की भाँति हमें दिशा-निर्देश देते हैं। स्वामी जी रामनाड में प्रदत्त भाषण में कहते हैं - " संन्यास ही हिन्दू जीवन का चरम आदर्श है। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जो व्यक्ति चौथी अवस्था में (75 वर्ष के बाद?) संन्यास धारण नहीं करता, वह हिन्दू नहीं है और न उसे अपने को हिन्दू कहने का कोई अधिकार ही है। किन्तु हमारे जो भाई उच्चतम सत्य के अधिकारी अभी नहीं हुए हैं, उनके लिए अधिकारी का विचार न कर सभी के लिए एक ही मार्ग को थोप देना को कभी उचित नहीं कह सकते। भोग के द्वारा जिस समय हृदय के अन्तस्तल में यह धारणा जम जायेगी कि संसार असार है ! .... भोगों में कुछ नहीं रखा ! उसी समय उसका त्याग करना होगा। किन्तु इस समय तो हमारा मन, इन्द्रियों की ओर (दिमाग में स्थित, स्नायुकेन्द्र nerve centers' की ओर) मानो चक्रवत (whirlpool-भंवर या विन्डोईया जैसा) अग्रसर हो रहा है, उसे फिर चक्रवत पीछे लौटाना होगा। प्रवृत्ति-मार्ग का त्याग कर उसे निवृत्ति-मार्ग का आश्रय ग्रहण करना होगा, यही हिन्दुओं का आदर्श है। किन्तु कुछ भोगे बिना इस आदर्श तक मनुष्य नहीं पहुँच सकता। बच्चे को त्याग की शिक्षा नहीं दी जा सकती। ... सभी समाजों में बालक के समान अज्ञानी लोग हैं, जिन्हें संसार की असारता को समझने के लिए पहले कुछ भोग करना पड़ता है। तभी वे वैराग्य धारण करने में समर्थ होंगे।
हमारे शास्त्रों में (मनुस्मृति में ---निवृत्ति अस्तु महाफला का स्मरण -तेन त्यक्तेन भूंजीथ आदि) इन लोगों के लिए यथेष्ट व्यवस्था है। पर दुःख का विषय है कि परवर्ती काल में (हीनयान?) समाज के प्रत्येक मनुष्य को संन्यासी के नियमों में आबद्ध करने की चेष्टा की गयी। यह एक भारी भूल सिद्ध हुई ! भारत में जो दुःख और दरिद्रता दिखायी पड़ती है, उसका अधिकतर कारण यही भूल है। गरीबों-पददलितों के जीवन को इतने कड़े धार्मिक बन्धन में बाँधने की कोई आवश्यकता नहीं --फिर भी (ढोंगी बाबाओं के द्वारा) उनको नाना प्रकार के आध्यात्मिक और नैतिक नियमों में जकड़ने की चेष्टा की गयी। उनके कामों में हस्तक्षेप न करो -उनसे अलग रहो। उन्हें भी संसार का थोड़ा आनन्द लेने दो। देखोगे, वे क्रमशः उन्नत होते जा रहे हैं -और बिना किसी विशेष प्रयत्न के उनके हृदय में आप-ही -आप त्याग और सेवा (पूर्णत्व) का भाव जाग उठता है !"
महापुरुषों के उपदेशों का अपना महत्त्व होता है और इसका प्रभाव भी पड़ता है। परन्तु उपदेशक की कथनी और करनी में साम्य की आवश्यकता होती है ; तभी उनकी बातों का प्रभाव पड़ता है। आजकल टी.वी. पर धार्मिक उपदेशकों की बाढ़ सी आई हुई है। "औरों को नसीहत, खुद मियां फजीहत !" .... वे ऐसे दर्शाते हैं कि मानो भगवान ने उनको अपने विचारों ठेका दे रखा है। संत तुलसीदास ने कहा था -- " पर उपदेश कुशल बहुतेरे,जे निज आचरहिं ते नर न घनेरे।" ---- इस कहावत का अर्थ है- उपदेशक को उपदेश देना बड़ा प्रिय होता है। उन्हें दूसरों को उपदेश देना बड़ा अच्छा लगता है। किन्तु कुछ ढोंगी बाबाओं का अपना जीवन बड़ा भोग-पूर्ण है जबकि दूसरे लोगों को ये निवृत्ति की शिक्षा देते हैं। ये समझते हैं कि लोग इनकी बात पर आँख मूँदकर विश्वास कर लेंगे । किन्तु आज के युग के श्रोता भी बहुत समझदार हो गए हैं। वे यह भी देखते ही हैं उपदेश देने वाले का जीवन किस प्रकार का है? वह किन बातों पर स्वयं अमल करता है और किन्हें केवल कहने तक सीमित रखता है? जब उपदेशक दूसरों को तो -3P और 3H का उपदेश देता है,किन्तु स्वयं उन पर अमल नहीं करता, तब उसके उपदेश प्रभावहीन हो जाते हैं।] इसीलिये सम्पूर्ण भारत के युवाओं का चरित्र-निर्माण करना तभी सम्भव होगा, जब बहुत बड़ी संख्या में भारतीय संस्कृति की गौरवशाली परम्परा [श्रुति परम्परा] में प्रशिक्षित शिक्षकों/नेताओ/ऋषियों का निर्माण किया जाय।
यह कार्य तभी सम्भव है , जब युवासमुदाय अपने शरीर को योग-व्यायाम के माध्यम से हृष्टपुष्ट रखते हुए, विज्ञान, साहित्य, दर्शन, मैनेजमेन्ट, रॉकेट साइंस आदि प्रचलित विषयों को पढ़ने के साथ-साथ,अपने को किसी ऐसे रचनात्मक कार्य में नियोजित करें, जिसमें जनताजनार्दन (M/F) की निःस्वार्थभाव से सेवा करने के अतिरिक्त, अपनी और कोई गुप्त स्वार्थपूर्ण मंशा छिपी हुई न हो । "स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करो" - स्वामी जी के इस महान सन्देश के अनुसरण करने का यही एक मात्र पथ है। इसीलिए भारत में यह कहावत प्रचलित है ---"विद्या गुरु मुखी !" क्योंकि केवल पुस्तकीय विद्या के बलपर ब्रह्मवेत्ता या सत्यद्रष्टा नेताओं/शिक्षकों का निर्माण करना असंभव है ! केवल 'पुस्तकीय विद्या (bookish learning ) के बल पर 'मनुष्य निर्माण ' करना कभी सम्भव नहीं है ! अतः प्रत्येक युवा को -अपने "शरीर-मन और आत्मा के साथ" किसी निःस्वार्थ परोपकार के व्रत में लीन हो जाना चाहिये।
इसलिए, महामंडल का उद्देश्य है - भारतीय संस्कृति के पारंपरिक मूल्यों (श्रुति परम्परा) को बढ़ावा देना - जो विशेष रूप से स्वामी विवेकानन्द के 'मनुष्यत्व उन्मेषक और चरित्र-निर्माणकारी' आदर्श में सन्निहित है। यदि इन मूल्यों को विशेष तौर से युवा समुदाय के बीच प्रसारित कर दिया जाय, तथा युवाशक्ति को अनुशासित तरिके से निःस्वार्थ देशसेवा-- के माध्यम से राष्ट्र-निर्माण के कार्यों में संयुक्त किया जाय -तभी सुन्दरतर मनुष्यों का सुन्दरतर समाज निर्मित किया जा सकता है।
(4) कार्यप्रणाली : (The Method / line of action) :
स्वामीजी कहते हैं कि -"विस्तृत कार्यप्रणाली के बारे में यही कहना है कि पीढ़ियों तक उसका अनुसरण करना होगा। ... अद्वैत वेदान्त की प्राचीन उपमा दी जाय तो कहना होगा कि - 'समस्त जगत अपनी माया से आप ही हिप्नोटाइज्ड हो रहा है।' और इच्छाशक्ति ही जगत में अमोघ शक्ति है। प्रबल इच्छाशक्ति का अधिकारी मनुष्य एक ऐसी ज्योतिर्मयी आभा अपने चारों ओर फैला देता है कि दूसरे लोग स्वतः उस प्रभा से प्रभावित होकर उसके भाव से भावित हो जाते हैं। ऐसे महापुरुष (या संगठन) हर युग में अवश्य ही प्रकट हुआ करते हैं। " 5 /191
" एक मन हो जाना ही सफलता का गुप्त रहस्य है " ५/१९२ --अतः भारत में जितने भी संगठन इस "Be and Make" - की भावधारा के अनुरूप -(प्रबल इच्छाशक्ति सम्पन्न मनुष्य बनो और बनाओ-के अनुरूप) कार्यरत हैं, हमारा सबसे पहला कर्तव्य उन सबको महामण्डल पताका के नीचे संघबद्ध करना होगा। ततपश्चात इस 'मनुष्यत्व-उन्मेषक और चरित्र-निर्माणकारी आंदोलन' को अन्य देशों में भी फैलाया जा सकता है। बंगाल के कुछ निकटवर्त राज्यों में यह कार्य कुछ समय पूर्व प्रारम्भ भी हो चुका है । आज देश की कई समाजसेवी संस्थायें तथा शैक्षणिक-संगठन ऐसा समझते हैं कि महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य निश्चय ही समस्त युवाओं के लिए ग्रहण करने योग्य हैं। तब ऐसे समस्त संगठनों में परस्पर एकत्व बोध को विकसित करने के उद्देश्य से, या यूँ कहें कि अपनी अलग पहचान को छोड़े बिना भी, सम्मिलित प्रयास के द्वारा साझे- उद्देश्य को अधिक आसानी से रूपायित करने के लिए , ये सभी संस्थायें और शैक्षणिक संगठन महामण्डल आंदोलन के साथ जुड़ सकते हैं।
वैसा कोई शैक्षणिक प्रतिष्ठान या कोई व्यक्ति, जब एक बार भी महामण्डल द्वारा आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर या अन्य किसी शिविर में भाग लेंगे, तो वे लोग तुरन्त यह मूल्यांकन (Notice) कर सकेंगे कि -वे तो पहले से ही महामण्डल के सामूहिक कार्यक्रमों में संसूचित किसी न किसी कार्य से जुड़े हुए हैं, तथा वे इस प्रकार के कार्य-पथ पर चलने वाले कोई एकाकी यात्री मात्र नहीं हैं। जब वे लोग यह देखेंगे कि उनका कार्य कोई बहुत नगण्य या संकीर्ण क्षेत्रीय सीमा के भीतर ही आबद्ध नहीं है, बल्कि उनके ही जैसा कार्य भारत के कई अन्य राज्यों में भी चलाया जा रहा है। तब यह देखकर उनलोगों के मन में और भी अधिक उत्साह और साहस जाग उठेगा, कि वे एक ऐसे विराट कार्यक्रम (युवा आंदोलन) का हिस्सा हैं, जिसने स्वयं अपनी गतिशीलता अर्जित की है।
संगठन या संस्थाओं के अतिरिक्त यदि कोई व्यक्ति निजीतौर से भी महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य को पसन्द करते हों, तो वे अपने क्षेत्र में महामण्डल की शाखा स्थापित कर सकते हैं। अथवा किसी अन्य नाम वाले युवा संगठन को स्थापित कर चुके हों तो अपने उस संगठन को महामण्डल के साथ संयुक्त भी कर सकते हैं। ऐसा कोई व्यक्ति यदि चाहे तो, महामण्डल के किसी भी कार्यरत शाखा की सदस्यता ग्रहण कर सकता है; अथवा चाहे तो महामण्डल के केन्द्रीय समीति [महामण्डल सिटी ऑफिस ,6 /1 मन्मथ मुखर्जी रो, सियालदह स्टेशन के निकट] के दैनन्दिन कार्यों में सहायता देने के लिए भी आगे आ सकते हैं।
अथवा कोई व्यक्ति यदि निजी तौर से महामण्डल के साथ जुड़ना चाहें, तो वे अपनी इच्छा और सुविधा के अनुसार अपने आसपास कार्यरत किसी भी महामण्डल केंद्र के सदस्य बन सकते हैं। उसी प्रकार किसी भी शिक्षा संस्थानों से जुड़े छात्र और शिक्षकगण यदि चाहें तो अपने संस्थान के भीतर या बाहर अपना एक 'ग्रुप' (study circle) भी बना सकते हैं| जो आगे चलकर महामण्डल का अनुमोदित केन्द्र या approved केन्द्र के रूप में सम्बद्ध हो सकता है। यदि उस ग्रुप के पुराने छात्र संस्थान से पढाई समाप्त कर उत्तीर्ण हो जाएँ, तो नये छात्र वहाँ की कार्यकारिणी समिति के सदस्य बन सकते हैं।
(5) कार्य की भावना (The Spirit of Work) :
स्वामी विवेकानन्द ने अपने जीवन के उद्देश्य के विषय में कई स्थानों पर कई प्रकार से कहा है। एक स्थान पर वे कहते हैं -" युवाओं को संगठित करना ही मेरे जीवन का उद्देश्य है। " स्वामी जी ने स्वयं यह कहा था कि मेरे जीवन का व्रत हर स्थान मे पढ़े-लिखे युवाओं को एक दल के रूप में संगठित करना है। एवं वैसे युवादल को संगठित करने का अथक प्रयास करने के बावजूद वे मुट्ठीभर युवाओं को ही श्री रामकृष्ण देव के झण्डे तले एकत्रित कर सके थे। किन्तु स्वामी जी ने उसी समय महामण्डल के आविर्भूत होने की भविष्यवाणी करते हुए, [अपने प्रवृत्ति-मार्गी (गृहस्थ) भावी शिक्षक शिष्य डॉ० नन्जुन्दा राव को 30 नवम्बर 1894 को लिखित] एक पत्र में कहा था -" कुछ इने-गिने युवकों ने इस कार्य में अपने को झोंक दिया है, अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया है। परन्तु इनकी संख्या थोड़ी है। हम चाहते हैं कि ऐसे ही कई हजार मनुष्य आयें और मैं जानता हूँ कि वे आयेंगे !! " ----" A few young men have jumped in the breach, have sacrificed themselves. They are a few; we want a few thousands of such as they, and they will come." यही जो -- 'they will come' की भविष्यवाणी है - वैसे युवा आयेंगे कहाँ से ?
ऐसे युवाओं का दल तो रामकृष्ण मिशन के माध्यम से भी संगठित किये जा सकते थे; किन्तु जो युवा रामकृष्ण मिशन में अपना योगदान करेंगे; उनके जीवन का लक्ष्य होगा, व्रत होगा, आदर्श और आदर्शवाक्य होगा - " आत्मनो मोक्षार्थं जगदहिताय च।" किन्तु, ऐसे युवाओं [निवृत्ति मार्ग के अधिकारी] की संख्या अभी कितनी है जो तीन पुरुषार्थ --'धर्म,अर्थ, काम' को छोड़कर सीधा चौथे पुरुषार्थ "मोक्ष" प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं ? और इसी कारण वैसे अधिकांश युवा जिन्हें स्वामी जी श्री रामकृष्णदेव के झण्डे तले एकत्रित करना चाहते थे, वे इस 'मनुष्य-निर्माणकारी भावान्दोलन' (Be and Make श्रुति परम्परा) के बाहर ही छूट जायेंगे। और स्वामी जी का तो यह मानना था कि-- "प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है" -तब फिर गुण-दोष (निवृत्ति-प्रवृत्ति सम्बन्धी योग्यता) के आधार पर बहिष्कार कर देने (exclusion) के लायक तो कोई मनुष्य उनकी दृष्टि में है ही नहीं ! अतः महामण्डल सभी जाति और धर्म के लोगों को, चाहे वे प्रवृत्ति के अधिकारी हो या निवृत्ति के अपने इस 'मनुष्यत्व -उन्मेषक और चरित्र-निर्माणकारी भावान्दोलन' में स्वागत करता है।
उसी पत्र में स्वामी जी आगे कहते हैं -" श्री रामकृष्ण के चरणों में बैठने पर ही भारत का उत्थान हो सकता है। उनकी जीवनी एवं उनकी शिक्षाओं को चारों ओर फैलाना होगा, हिन्दू समाज के रोम रोम में उन्हें भरना होगा। श्री रामकृष्ण की पताका हाथ में लेकर (अपनी मुक्ति की बात भूलकर) संसार की मुक्ति के लिये अभियान पर निकल जाने वाला है कोई ? नाम और यश, ऐश्वर्य और भोग, यहाँ तक कि इहलोक और परलोक सारी आशाओं का बलिदान करके मानव-गरिमा की अवनति को रोकने वाला है कोई ? मुझे हर्ष है कि हमारे प्रभु ने तुम्हारे मन में उन्हीं में से एक होने का भाव भर दिया है। वह धन्य है जिसे प्रभु ने चुन लिया है !"
परन्तु मेरे बच्चे , इस मार्ग में [प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति तक लौटने के मार्ग में ] बाधाएँ भी कम नहीं हैं ! जल्दीबाजी करने से कोई काम नहीं होगा। हमारे गुरुदेव कहते थे -"कोई आत्महत्या करना चाहे, तो वह नहरनी से भी काम चला सकता है, परन्तु दूसरों को मारना हो (दूसरों के अहं को मारना हो ?) तो तोप-तलवार की आवश्यकता होती है। " पहले निःस्वार्थ कर्म और साधना के द्वारा अपने को पवित्र करो! समय आने पर तुम्हें वह अधिकार (चपरास) प्राप्त हो जायेगा, जब तुम संसार त्यागकर (परिवार में आसक्ति को त्याग कर) चारों ओर उनके पवित्र नाम का प्रचार कर सकोगे। ... "पवित्रता , धैर्य और अध्यवसाय , इन्हीं तीन गुणों से सफलता मिलती है , और सर्वोपरि है प्रेम। " (3P +L = purity, patience and perseverance are the essentials to success and above all love.) ..हमें तुम्हारे जैसे हजारों की आवश्यकता है, जो समाज पर टूट पड़ें और जहाँ कहीं जायें, वहीँ नए जीवन और नयी शक्ति का संचार कर दें।
तुम यह देख सकते हो कि संसार के इतिहास में जितने भी मानवजाति के महान मार्गदर्शक नेता हुए हैं, (श्री राम, श्रीकृष्ण, गौतम बुद्ध, ईसा, पैगम्बर मोहम्मद, गुरु नानक .....श्री रामकृष्ण, विवेकानन्द, कैप्टन सेवियर, प्रधान सेवक-'C-in-C' नवनीदा आदि.....) उन सबों ने बड़े बड़े स्वार्थ-त्याग किये और उनके शुभफल का भोग जनता-जनार्दन ने किया। अगर तुम अपनी मुक्ति के लिए सब कुछ त्यागना चाहते हो, तो फिर वह त्याग कैसा ? क्या तुम जगत के कल्याण के लिए अपनी मुक्ति को भी त्याग देने के लिए प्रस्तुत हो?
तुम स्वयं अभी ही ब्रह्मस्वरूप हो, इसी विचार पर अपने मन को एकाग्र करो। तुम रामकृष्ण को समझ सके, यह जानकर मुझे बड़ा हर्ष हो रहा है। तुम्हारे तीव्र वैराग्य से मुझे और भी आनन्द मिला। ईश्वर-प्राप्ति या सत्यलाभ का यह एक अनिवार्य अंग है । ईश्वर तुम्हारे शुभ संकल्पों का वेग उत्साह के साथ बढ़ाता रहे; परन्तु मेरे बच्चे , यहाँ कठिनाइयाँ भी हैं। अतः (किसी गृहस्थ भावी शिक्षक को) शीघ्रता नहीं करनी चाहिए, दूसरे तुम्हें अपनी माता और स्त्री के समबन्ध में सहृदयतापूर्ण विचारों से काम लेना चाहिए। तुम तर्क कर सकते हो कि श्री रामकृष्ण के त्यागी सन्तानों (निवृत्ति मार्गी) ने संसार त्याग करते समय अपने माता-पिता की सम्मति की अपेक्षा नहीं की । [अथवा कह सकते हो कि राजकुमार सिद्धार्थ गौतम भी अपनी स्त्री यशोधरा और पुत्र राहुल को सोते हुए छोड़कर अपने घर से निकल गए थे ! किन्तु यदि सिद्धार्थ राजा के पुत्र नहीं होते तब उनकी पत्नी और पुत्र का लालनपालन कैसे होता ?]
अतः तुम्हें घर छोड़ने की आवश्यकता नहीं; मेरी राय में विवाहित होते हुए भी, तुम्हें कुछ दिनों के लिए ब्रह्मचारी बनकर रहना चाहिए। अर्थात कुछ समय के लिए स्त्री-संग छोड़कर (स्त्रियों में आसक्ति को त्याग कर) अपने पिता के घर में ही रहो; यही 'कुटीचक' अवस्था है। ... संसार की हित-कामना के लिये अपने महान स्वार्थ-त्याग के सम्बन्ध में अपनी पत्नी को सहमत करने की चेष्टा करो। अगर तुममें ज्वलंत आत्मविश्वास , सर्वविजयनि प्रेम, और सर्वशक्तिमयी पवित्रता है, तो तुम्हारे शीघ्र सफल होने में कुछ भी सन्देह नहीं।
तन-मन और प्राणों का उत्सर्ग करके भी, श्री रामकृष्ण की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने में लग जाओ, क्योंकि कर्म (कर्म-रहस्य को समझना) पहला सोपान है। खूब मन लगाकर संस्कृत का अध्यन करो और साधना का भी अभ्यास (महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 अभ्यास ) करते रहो। क्योंकि, तुम्हें मनुष्यजाति का भावी मार्गदर्शक नेता (जीवन मुक्त शिक्षक) होना है। तुम्हारा संकल्प शुभ है, तुम्हारी आशायें उच्च हैं, और घोर अन्धकार में डूबे हुए हजारों मनुष्यों को प्रभु के ज्ञानालोक के सम्मुख लाने का तुम्हारा लक्ष्य संसार के सब लक्ष्यों में महान है ! तुम्हारे सामने अनन्त समय है; अतएव अनुचित शीघ्रता आवश्यक नहीं। यदि तुम पवित्र और निष्कपट हो, तो सब काम ठीक हो जायेंगे। मैं जानता हूँ और ठीक जानता हूँ कि बड़े बड़े काम बिना स्वार्थ-त्याग के नहीं हो सकते। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि भारत माता अपनी उन्नति के लिए अपनी श्रेष्ठ सन्तानों की बलि चाहती है, और यह मेरी आंतरिक अभिलाषा है कि तुम उन्हीं में से एक सौभाग्यशाली होगे। 3 /338
इसीलिए महामण्डल भी 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन' में जिन सामान्य कार्यक्रमों (common program of work) का अनुसरण करना चाहता है, उसमें वह अपने कार्यकर्ताओं से घर-परिवार त्यागने,या पढाई-लिखाई त्यागने, बिजनेस-व्यापार या नौकरी आदि का त्याग करने के नहीं कहता है। बल्कि उन सभी क्रियाकलापों को करने के पीछे जो मनोभाव कार्य करता है, उसीके ऊपर अधिक जोर देना चाहता है। महामण्डल के क्रिया-कलापों में नवाचार (innovation ) या नवप्रवर्तन जैसी कोई बात नहीं है। लेकिन उसका यह मानना है कि कोई कार्य जब किसी विशिष्ट भावना (particular spirit) के द्वारा अनुप्रेरित होक किया जाता है, तब वह कार्य उस कार्यकर्ता के चरित्र पर (चित्त पर) उसका एक विशिष्ट छाप (special mark) अवश्य छोड़ जाता है। स्वामी जी ने 1894 में आलासिंगा को लिखित एक पत्र में कहा है : " Upon ages of struggle a character is built." --युगों युगों तक कठोर संघर्ष करने के फलस्वरूप एक चरित्र का निर्माण होता है। " इसीलिए 'अन्तःप्रकृति और वाह्यप्रकृति' पर विजय प्राप्त करने के संग्राम को अभी से--विद्यार्थी जीवन से ही शुरू कर देने की आवश्यकता है।
हमारे शास्त्रों में कहा गया है - 'शुभस्य शीघ्रम ,अशुभस्य कालहरणम्'----शुभ कार्य को जितना जल्दी हो सके कर डालें । लेकिन अशुभ कार्य को निरन्तर टालते रहो ।'शुभस्य शीघ्रम' पर जोर देने के लिए मैसूर के महाराज को लिखित 23 जून 1894 पत्र में स्वामी जी कहते हैं - " यह जीवन क्षणस्थायी है ,संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। वे ही यथार्थ जीवित हैं, जो दूसरों के लिए जीवन धारण करते हैं। शेष लोग तो मृत से भी अधम हैं। "३ /३७१ (the vanities of the world are transient, but they alone live who live for others, the rest are more dead than alive.)
कर्म रहस्य को समझाते हुए स्वामी जी ने कहा है - "आओ, हम अपने साधनों को पूर्ण बना लें, फिर साध्य अपनी चिंता स्वयं कर लेगा। क्योंकि दुनिया पवित्र और अच्छी तभी हो सकती है, जब हम स्वयं पवित्र और अच्छे हों। वह है कार्य और हम हैं उसके कारण। इसलिए आओ हम अपने को पवित्र बना लें ! आओ, हम अपने को पूर्ण बना लें! "(कर्म और उसका रहस्य ९/१८२)(Let us perfect the means; the end will take care of itself. For the world can be good and pure, only if our lives are good and pure. Therefore, let us purify ourselves. Let us make ourselves perfect.) और ऐसा होना तभी सम्भव है जब हम 'त्याग और सेवा ' की भावना के साथ कार्य करने में समर्थ हों। " कभी भी यह मत सोचो कि 'तुम ' जगत को अच्छा और सुखी बना सकते हो। " (देववाणी 6 अगस्त 1895/ 'Never think, you can make the world better and happier.')
Would be Leaders --या भावी शिक्षकों को सम्बोधित करते हुये श्रीमती ओली बुल को २१ मार्च १८९५ को लिखित पत्र में ए स्वामी जी ने कहा है ---" जो व्यक्ति मानवजाति की सेवा करना चाहते है , उनके लिए उचित है कि वे अपना सुख और दुःख, नाम और यश एवं सब प्रकार के स्वार्थ की एक पोटली बनाकर समुद्र में फेंक और तब ईश्वर (सत्य -माँ जगदम्बा) के समीप आयें। मानवजाति के सभी मार्गदर्शक नेताओ/ जीवनमुक्त शिक्षकों/ पैगम्बरों ने यही शिक्षा दी है, और स्वयं करके भी दिखाया है ! " ( "Those that want to help mankind must take their own pleasure and pain, name and fame, and all sorts of interests, and make a bundle of them and throw them into the sea, and then come to the Lord. This is what all the Masters said and did."( -letter to Mrs. BULL, 21st March, 1895. )
" कट्टरपंथी (किन्तु क्षद्म धर्मनिरपेक्ष) लोग अक्सर गाल बजाते हुए कहते हैं -' मैं पापी से घृणा नहीं करता, मैं तो पाप से घृणा करता हूँ !' परन्तु, कोई मुझे यदि एक भी ऐसा मनुष्य दिखा दे, जो सचमुच पाप को पापी से अलग करके देख सकता हो ; तो ऐसे मनुष्य को देखने के लिए मैं कितनी भी दूर जाने को तैयार हूँ ! ऐसा कहना सरल है,किन्तु इसे व्यवहार में लाना उतना सरल नहीं है। यदि हम सचमुच विवेक-प्रयोग के द्वारा द्रव्य (substance-वास्तविक पदार्थ , अस्तित्व) और उसके गुण (quality-विशेषता, धर्म या भूत-वैशिष्ट्य) को पृथक-पृथक रूप से देखने में सक्षम हो जाएँ, तब तो हम पूर्ण हो जाएँ; किन्तु इसे व्यवहार में उतार कर दिखा देना इतना सरल नहीं है। हम जितने ही शान्तचित्त होंगे , और हमारे स्नायु जितने संतुलित रहेंगे, हम उतने ही अधिक प्रेम सम्पन्न होंगे और हमारा कार्य भी उतना ही उत्तम होगा !"[You hear fanatics glibly saying, "I do not hate the sinner. I hate the sin," but I am prepared to go any distance to see the face of that man who can really make a distinction between the sin and the sinner. It is easy to say so. If we can distinguish well between quality and substance, we may become perfect men. It is not easy to do this. And further, the calmer we are and the less disturbed our nerves, the more shall we love and the better will our work be.]
" दूसरों के प्रति हमारे कर्तव्य का अर्थ है -दूसरों की सहायता करना। हम संसार का भला क्यों करें ? इसलिए कि देखने में तो हम संसार का उपकार करते हैं, परन्तु असल में हम अपना ही उपकार करते हैं। मनुष्य की सहायता द्वारा ईश्वर की उपासना करना ---क्या यह हमारे लिए परम सौभाग्य की बात नहीं है ? हमें यह बात सदैव ध्यान में रखना चाहिये कि हमीं संसार के ऋणी है, संसार हमारा ऋणी नहीं। यह तो हमारा सौभाग्य है कि हमें संसार में साक्षात् जनता-जनार्दन की कुछ सेवा करने का अवसर मिलता है ! क्योंकि एकमात्र इसी मार्ग (त्याग और सेवा के मार्ग) से हम पूर्णता प्राप्ति की ओर अग्रसर हो सकते हैं। " [Why should we do good to the world? Apparently to help the world, but really to help ourselves. It is not the receiver that is blessed, but it is the giver. Be thankful that you are allowed to exercise your power of benevolence and mercy in the world, and thus become pure and perfect. Is it not a great privilege to be allowed to worship God by helping our fellow men? ]
" यह सुन्दर संसार बड़ा अच्छा है, क्योंकि इसमें हमें दूसरों की सहायता करने के लिए समय तथा अवसर मिलता है। संसार स्वयं पूर्ण है। पूर्ण होने का अर्थ यह है कि उसमें अपने सब प्रयोजनों को पूर्ण करने की क्षमता है। धन्य पाने वाला नहीं होता, देनेवाला होता है। इस बात के लिए कृतज्ञ होओ कि इस संसार में तुम्हें अपनी दयालुता का प्रयोग (विवेक-प्रयोग) करने और इसके माध्यम से स्वयं पवित्र और पूर्ण होने का अवसर प्राप्त हुआ। [ "All this beautiful world is very good, because it gives us time and opportunity to help others.It is not the receiver that is blessed, but it is the giver. Be thankful that you are allowed to exercise your power of benevolence and mercy in the world, and thus become pure and perfect. ]
मनुष्य की सहायता द्वारा ईश्वर की उपासना करना ---क्या यह हमारे लिए परम सौभाग्य की बात नहीं है ? यह संसार तो चरित्र -गठन के लिए एक विशाल नैतिक व्यायामशाला है। इसमें हम सभी को (5)अभ्यास रूप कसरत करनी पड़ती है, जिससे हम आध्यात्मिक शक्ति से अधिकाधिक शक्तिमान बनते रहें। सबसे पहले मनुष्य यह जानले कि आसक्तिरहित होकर उसे किस प्रकार कर्म करना चाहिए, तभी वह दुराग्रह और मतान्धता से परे हो सकता है। जब हमें यह ज्ञात हो जायेगा कि संसार कुत्ते की टेढ़ी दुम की तरह है, और कभी भी सीधा नहीं हो सकता, तब हम दुराग्रही नहीं होंगे। " [हम स्वयं अपना उपकार करते हैं, संसार का नहीं/3 -54] [ Is it not a great privilege to be allowed to worship God by helping our fellow men? Our duty is to sympathise with the weak and to love even the wrongdoer. The world is a grand moral gymnasium wherein we have all to take exercise so as to become stronger and stronger spiritually. Karma-Yoga /WE HELP OURSELVES, NOT THE WORLD]
" भारत को उस नव विद्युत-शक्ति की आवश्यकता है, जो जातीय धमनी में नवीन स्फूर्ति उत्पन्न कर सके। यह काम हमेशा धीरे धीरे हुआ है और होगा। ... मैं फिर तुम्हें याद दिलाता हूँ -कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन --'तुम्हें कर्म का अधिकार है, फल का नहीं। ' चट्टान की तरह दृढ़ रहो। सत्य की हमेशा जय होती है। श्री रामकृष्ण की सन्तान निष्कपट और एवं सत्यनिष्ठ रहे, शेष सब कुछ ठीक हो जायेगा।"
(6) महामण्डल का कार्यक्रम (The Program of Mahamandal):(A)वैक्तिक कार्यक्रम : प्रत्येक सदस्य के '3H' विकास के लिये अनिवार्य रूप से करनीय 5 दैनन्दिन अभ्यास:
(i) प्रार्थना : ईश्वर से अपने दिल की बात कहना ही प्रार्थना है। "ॐ असतो मा सदगमय ॥ तमसो मा ज्योतिर्गमय ॥ मृत्योर्मामृतम् गमय ॥" ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः ॥ – बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28। अर्थात हे प्रभो , हमें असत्य से सत्य की ओर चलें। अन्धकार से प्रकाश की ओर जाने का पुरूषार्थ करें मृत्यु से अमरता की ओर चलें। जन्म से -मरने वाली देह को सत्य मानने की भूल निकाल दें। मरने के बाद भी जो रहता है ,उस अमृत स्वरूप में आयें। " ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः,सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्।" - "सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।"
जब हमें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा हो और हम अगर सच्चे मन से प्रार्थना करें तो हमें ईश्वर से मार्गदर्शन प्राप्त होता है। सही तरीके से की गई प्रार्थना जीवन में चमत्कारी बदलाव लाती है प्रार्थना को रोज़ एक ही समय पर करना अच्छा होता है। प्रार्थना में बहुत शक्ति है। वह हमें अंधकार से प्रकाश की ओर व असफलता से सफलता की ओर अग्रसर करती है। हम जैसे ही परमात्मा की ओर उन्मुख होते हैं, उनकी प्रार्थना करते हैं और उनसे किसी भी प्रकार की सहायता की याचना करते हैं, वैसे ही उनकी सहायता के अदृश्य हाथ हमारी ओर बढ़े चले आते हैं। हमारे भीतर से निराशा का भाव जाने लगता है। हम प्रसन्न रहने लगते हैं। फिर हमारा मन सुकार्य में लगने लगता है। कहा भी जाता है कि सच्चे हृदय से की गई प्रार्थना तुरंत सुनी जाती है। अतः जो लोग प्रार्थना (prayer-उपासना-पद्धति) में श्रद्धा-विश्वास रखते हैं, वे लोग प्रति दिन ईश्वर से प्रार्थना करेंगे; ताकि उनका मन केवल सुकार्य में --या इस प्रकार के कार्यों में संलग्न रह सके जो उन्हें अपना चरित्र निर्माण करने में सहायता करता हो।
किन्तु हमारे जो भाई अभी तक ईश्वर में [माँ जगदम्बा-जगत्जननी माँ सारदा में ] विश्वास नहीं कर सके हों, वे लोग भी मात्र कुछ दिनों तक प्रार्थना करके उससे लाभ पाने की चेष्टा कर सकते हैं। क्योंकि प्रार्थना मनुष्य की अपनी ही अन्तर्निहित अव्यक्त शक्ति को व्यक्त कर देती है। प्रार्थना का अर्थ कोई अलौकिक या पारगमन का कोई जादू नहीं है। प्रार्थना तो आत्मा में ही निहित अव्यक्त शक्ति (the latent power in man himself) को प्रकट कर देती है, इसके भीतर कोई अतिप्राकृतिक (supernatural) या पारलौकिक (otherworldly) जैसी कोई बात नहीं होती।
(ii) मनःसंयोग : जो 'बुद्धि' मनुष्य को सुकार्य में --अर्थात चरित्र-निर्माण के उपयुक्त कार्यों से जुड़ने के लिए मार्गदर्शन करेगी, उस बुद्धि की बिखरी हुई शक्तियों को, एकाग्रता के नियमित अभ्यास द्वारा 'तीक्ष्ण' और 'नुकीला' (pointed) बनाये रखना अत्यन्त आवश्यक होता है। इसीलिए मन को लेकर अनेक कहावतें प्रचलित हैं, जैसे- ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’, ‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः।’’ अर्थात् मनुष्य के बंधन एवं मोक्ष का कारण मन ही है। अतः महामण्डल द्वारा छात्रों के लिए निर्देशित अष्टांग के केवल 5 अभ्यास ---" यम और नियम " का पालन 24 X 7 करना है; और "आसन, प्रत्याहार तथा धारणा " का अभ्यास प्रतिदिन दो बार , प्रातः और संध्या के समय करना आवश्यक होता है। 'विवेक-दर्शन ' का अभ्यास और वैराग्य के द्वारा चित्त की वृत्तियों को वश में रखना आसान हो जाता है।
(iii) स्वाध्याय : स्वाध्याय के द्वारा मन को स्वच्छ बनाने तथा उच्च विचारों से भरने का जन- आन्दोलन चलाना जरूरी है। इसके आधार पर ही विनाशकारी विडम्बनाओं से मुक्ति मिल सकेगी और मंगलकारी संभावनाओं को साकार किया जा सकेगा। हमलोग अपनी बुद्धि को जिस-'Be and Make' के कार्य में एकाग्र रखने की चेष्टा कर रहे हैं, उसमें स्वामी विवेकानन्द की जीवनी और शिक्षाओं का अध्यन करने से हमें विशेष सहायता प्राप्त होगी। इसीलिये महामण्डल का प्रत्येक सदस्य प्रतिदिन अपना थोड़ा समय यदि स्वामी की पुस्तकों को पढ़ने में देगा, तो निश्चित रूप से उसे इसका लाभ प्राप्त होगा। नये सदस्य गण 'भारत में विवेकानन्द' (Lectures from colombo to Almoda, हिन्दी साहित्य का ५ वां खण्ड-),' पत्रावली ', 'स्वामी -शिष्य संवाद' , 'कर्मयोग' , 'वर्तमान भारत', 'भारत और उसकी समस्यायें', 'राष्ट्र को आह्वान' , 'जाती,संस्कृति और समाजवाद' आदि पुस्तकों का पुनः पुनः अध्यन करके, इस कार्य का प्रारम्भ कर सकते हैं। इसके साथ ही साथ महामण्डल द्वारा प्रकाशित समस्त पुस्तिकाओं -विशेषकर 'एक युवा आंदोलन', 'हमारे लिये करनीय' आदि का अध्यन करना जीवन-गठन में अत्यन्त लाभकारी है !
(iv) व्यायाम : समाज में प्रचलित कहावत है ‘पहला सुख निरोगी काया’। शरीर स्वस्थ नहीं हो, तो मन भी स्वस्थ नहीं रह सकता, उर्दू में एक सूक्ति है- 'तन्दुरूस्ती हजार न्यामत' अर्थात स्वास्थ्य हजार अन्य अच्छे भोगों से बढ़कर है। अंग्रेजी में भी कहावत है- 'Health is Wealth' अर्थात् स्वास्थ्य ही धन है। जब भगवान शंकर को प्राप्त करने के लिए माता पार्वती भगवान शंकर के चरणकमलों में नित्य नूतन अनुराग होने के कारण शरीर का भान मिट गया और तन-मन तपस्या में लीन हो गया। कुछ दिन तक पानी का हवा का आहार किया, कुछ दिन इन्हें भी त्यागकर कठिन उपवास किया। पुनः वृक्ष से गिरी हुई बेल की सूखी पत्तियां खाकर तीन हजार वर्ष व्यतीत किया। जब पार्वती ने सूखी पत्तियां लेना बंद कर दिया तो उनका नाम अपर्णा पड़ गया। कठोर तपस्या से अपने शरीर को सूखा डालती हैं, यह देखकर महाकवि कालिदास ने अपने संस्कृत नाटक कुमारसम्भवं में भगवान शिव के मुख से कहलवाया है-"शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्" - [धर्मसाधनम् = धर्म + साधनम्/ धर्म = कर्तव्य, सही कार्य, जो करने की आवश्यकता है ...चार पुरुषार्थ (dharma = duty, right act, what needs to be done) साधनम् = यंत्र या उपकरण है।] हे पार्वती! यह शरीर तो पुरुषार्थ करने का सबसे पहला उत्तम साधन है! this body is surely the foremost instrument of doing [good] deeds : [यह वाक्य नई दिल्ली के प्रीमियर मेडिकल इंस्टीट्यूट, एम्स (AIIMS,ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज) का आदर्श वाक्य (motto) भी है।]
'बुद्धिमान्' मनुष्य दृढ़-इच्छाशक्ति होने पर भी यदि रोगी हो तो वह न धर्म कर सकता है, न धन कमा सकता है न मोक्ष साधन (de -hypnotized होने या भ्रममुक्त होने का उपाय) कर सकता है। अर्थात् दुर्बल या रोगी शरीर वाला कोई व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूपी चतु: पुरुषार्थ का साधन नहीं कर सकता। जो चौथे पुरुषार्थ को प्राप्त नहीं कर पाता, भ्रममुक्त या जीवनमुक्त ऋषि/नेता/ पैगम्बर नहीं बन पाता वह मनुष्य योनि में जन्म लेने पर भी मनुष्य कहलाने योग्य नहीं है। क्योंकि मनुष्य जीवन की सार्थकता , चारो पुरुषार्थ प्राप्त करने से ही होती है। मानव जीवन का लक्ष्य है, पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति। धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूपी चतुर्विध पुरूषार्थ की प्राप्ति में आरोग्य की महत्वपूर्ण भूमिका है। लौकिक दृष्टि हो या आध्यात्मिक दृष्टि से अपने लक्ष्य की साधना के लिए अथवा गन्तव्य तक पहुँचने के लिए मनुष्य को स्वस्थ्य मन और स्वस्थ्य तन की नितान्त आवश्यकता है।
उपनिषद् का उपदेश है कि हमारा शरीर एक रथ है। इन्द्रियाँ घोड़े हैं, मन लगाम है, बुद्धि सारथि है और आत्मा रथी है। यह आत्मा एक शाश्वत दिव्यतत्त्व है तथा इसका विनाश संभव नहीं है। आत्मा चैतन्यस्वरूप है। वह अजर, अमर और अविनाशी है। जड़ -तत्त्व परिवर्तनशील और विनाशशील होता है, किन्तु चेतनतत्त्व परिवर्तनरहित और शाश्वत होता है। 'साधन' धाम मोक्ष कर द्वारा' - मनुष्य का देह मरणशील है ,किन्तु यह साधना द्वारा मोक्ष का द्वार खोल देता है। देह संरक्षणीय होता है,किन्तु मनुष्य भोगैश्वर्य में फँसकर इसका दुरुपयोग कर लेता है। देह का सदुपयोग मनुष्य को परमात्मा की प्राप्ति करा देता है।
मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य अनेक संदर्भों में एक-दूसरे के पूरक होते हैं। अतएव जिस भाँति मन को अपने वश में रखना अवश्यम्भावी होता है, उसी प्रकार शरीर को भी नियंत्रित रखना आवश्यक होता है। इसलिए प्रत्येक सदस्य को समुचित व्यायाम या योगासनों के अभ्यास द्वारा अपना शरीर स्वस्थ और सबल रखने की चेष्टा प्रतिदिन करनी होगी। नियमित रूप से शारीरिक-व्यायाम आदि के लिए यदि सदस्यों को प्रशिक्षण दिया जा सकता हो, तो प्रत्येक केन्द्र में उसकी व्यवस्था भी की जा सकती है ।
(v) विवेक-प्रयोग: विवेक मनुष्य को प्रकृति द्वारा प्राप्त अनुपम तथा अद्भुत उपहार है जिसके द्वारा किसी भी कठिन से कठिन कार्य का समाधान सरलता पूर्वक किया जा सकता है। परन्तु विवेक का उचित प्रकार से प्रयोग करना भी आवश्यक है जिसके लिए विवेक की कार्यशैली की समीक्षा करना अनिवार्य है।अधिकांश मनुष्य अपने विवेक का कोई उपयोग नहीं करते जिसके कारण उनका विवेक सुप्त अवस्था में रहता है; क्योंकि मानसिक तंत्र द्वारा गहन मंथन से ही विवेक किर्याशील होता है तथा जब तक विचारों का मंथन ना किया जाए विवेक सक्रिय नहीं होता ।
जो लोग इस संगठन को संचालित कर रहे हैं, उनको उस पद्धति के बारे में केवल दूसरों को बताना ही नहीं चाहिए, बल्कि प्रत्येक सदस्य को उस पद्धति का प्रयोग सबसे पहले अपने उपर करना चाहिए। वैसा न करने से उस विवेक-प्रयोग पद्धति को आत्मसात करना संभव नहीं होगा। उच्च भावों का आत्मसातीकरण स्वयं ही करना पड़ता है, बाहर से प्रविष्ट नहीं कराया जा सकता। प्रत्येक सदस्य को पहले यह समझना पड़ेगा, कि जीवन में विवेक-प्रयोग और श्रद्धा का महत्व क्या है ? इसकी आवश्यकता क्यों है ? यदि कोई व्यक्ति विवेक-प्रयोग को जीवन में उतारने की अनिवार्यता को नहीं समझ पायेगा, तो वह उसको आत्मसात भी नहीं कर पायेगा। पहले प्रत्येक सदस्य को इसकी अनिवार्यता समझनी होगी। इसको ठीक से समझ कर स्वयं चेष्टा करनी होगी।
बहुत सारे कार्य हमारे सामने पड़े हैं, मैं भावुक होकर अपनी क्षमता से अधिक कार्य करने का निर्णय करता हूँ- यही मनुष्य की भूल है। तुमको अपनी क्षमता का निर्णय तो स्वयं ही करना पड़ेगा। तुम किस कार्य को कर सकते हो, इसे सोच-समझ कर ही हाथ में लेना चाहिए । जिसे नहीं कर सकते हों, उसमें हाथ नहीं डालना । जिसको निश्चित ही कर सकूँगा, यह विश्वास हो, उसी कार्य को हाथ में लोगे। तथा यह भी देखना होगा कि जिस कार्य को मैं करूँगा उससे मेरा भला तो होगा, किन्तु दूसरों की क्षति न हो इसका ध्यान भी रखना होगा। जिस कार्य से दूसरों का भला नहीं होता हो, उस कार्य को कभी मत करना। तुम कितना कार्य किये हो, वह बड़ी बात नहीं है, कार्य को कैसे किये हो, किस मनोभाव से किये हो वही महत्वपूर्ण बात है। कार्य के पीछे जो उद्देश्य है, जिस मानसिकता से कर रहे हो, उसीसे तुमको कार्य का वस्तविक लाभ प्राप्त होगा। कितना कार्य कर चुके हो, उससे कोई लाभ नहीं होगा। जैसे मानलो कोई व्यक्ति ' इ..तना ' भात खा सकता है, और दूसरा आदमी है जो, 'उ...तना' नहीं खा सकता। तुम कितना खा सकते हो, शरीर का स्वास्थ्य उस पर निर्भर नहीं करता, निर्भर करता है, कितना पचा सकते हो, उसके उपर। तुम बहुत अधिक खा लो पर वह यदि पचा नहीं सको, और पेट बाहर निकल जाए , तो उससे शरीर को पौष्टिकता नहीं मिलेगी। शरीर भी बेडौल दिखने लगेग, कुछ रोग भी हो सकते हैं। कार्य में भी वैसा ही होता है। जितना कार्य तुम सुंदर ढंग से कर सकते हो, ताकि उससे दूसरों का भी भला हो, या कम से कम दूसरों की हानि तो बिलकुल न हो, उतना ही और वैसा ही कार्य करना। इसीलिए कार्य के पीछे तुम्हारा मनोभाव में यदि स्वार्थ न हो, उसके पीछे सभी का कल्याण का मनोभाव हो,या जिसकार्य को करने से मैं अच्छा बनूंगा, पवित्र बनूँगा, चरित्रवान बनूंगा, मेरा हृदय उदार होगा, इसी उद्देश्य से यदि कार्य करो, तो वह कार्य छोटा होने से भी अच्छा फल देगा। इसीलिए ज्यादा बड़े बड़े कार्य करने की आवश्यकता नहीं है। कर्म का रहस्य यही है।इस प्रकार से विचार न कर जैसे तैसे कार्य करते रहने को गीता में तामसिक कर्म कहा गया है। महामण्डल की पुस्तिका 'A New Youth Movement ' में लिखा प्रथम लेख पढना,वहां इस बात को विस्तार से समझाया गया है।
जो ब्रह्मत्व (Divinity) हम सबों के भीतर पहले से विद्यमान है, उसे प्रकट करने कि सम्भावना प्रत्येक मनुष्य में है। किन्तु वह अभी निंद्रित अवस्था में सो रही है। मुझे अवश्य ही उसको नींद से जगा देना होगा। और तब वह ब्रह्मत्व दूसरों के कल्याण के लिए, मेरे विचारों, वचनों और कर्मो द्वारा प्रवाहित होने लगेगा। यह बात ठीक है कि ईश्वर प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि-किसी मिट्टी की गुड़िया (मूर्ति) जैसा उन्हें भी मानव शरीर के भीतर बैठा दिया गया है। बल्कि यही वह शक्ति है जो मनुष्य शरीर के आकृति में स्वयं को प्रकट कर रही है। यही अनन्त शक्ति, और पवित्रता है जो सबों के प्रति अपरिबद्ध और असीम ' प्रेम ' के रूप में स्वयं को अभिव्यक्त करती है। इसीको ब्रह्मत्व कहते हैं।
मैं इसे कैसे जाग्रत कर सकता हूँ ?- इस अन्तर्निहित अनन्त शक्ति के ऊपर उत्कट ' श्रद्धा ' को विकसित करके ! यह क्या चीज है ? - श्रद्धा का अर्थ है आस्तिक्य बुद्धि, अर्थात यह विश्वास कि वह आनन्द-स्वरूप , प्रेम-स्वरूप मेरे प्रभु मेरे ही भीतर-हृदय में विद्यमान हैं। उनकी दिव्यशक्ति निस्स्वार्थ प्रेम और पवित्रता मेरे भीतर में है। ये सारे गुण प्रत्येक मनुष्य में अन्तर्निहित हैं तथा मानव मात्र में उन्हें अभिव्यक्त करने कि संभावना है। सुंदर-सुन्दर विचार और भाव हमारे भीतर स्वाभाविक या जन्मजात रूप से विद्यमान हैं, और सो रहीं हैं, तथा दूसरों के कल्याण के लिए उन्हें अभिव्यक्त करना, और इस शक्ति को जाग्रत कर लेना ही मनुष्य का कर्तव्य अर्थात धर्म है।
पूर्व काल में जो महापुरुष मानवजाति के महान नेता /ऋषि/पैगम्बर आदि हुए थे, जिन लोगों ने सत्य दर्शन किया था, उनलोगों ने जो उपदेश दिए हैं, उनके वचनों को सुनना (श्रवण), उन वचनों पर गंभीरता से चिंतन करना (मनन), फ़िर उसे जान लेने के लिए उसी पथ पर अग्रसर होने की चेष्टा करना(निदिध्यासन)। इसी प्रकार, श्रेष्ठ जनों (ऋषिओं) की वाणी का श्रवण- मनन- निदिध्यासन का अभ्यास करने से हम लोग धीरे धीरे अपने जीवन का सदुपयोग करना सीख जायेंगे। माँ सारदा के उपदेश का स्मरण करो- " केऊ पर नय, जगत तोमार।" अर्थात - ' कोई पराया नहीं, जगत तुम्हारा अपना है।'मैं जितना अधिक उन्नत होऊंगा, जितना विकसित होऊंगा, जितना अधिक से अधिक मनुष्यत्व अर्जित करने की दिशा में अग्रसर होता जाऊंगा उतना ही पराये लोग मेरे अपने हो जायेंगे। उतना ही दूसरों के लिए मन में अनुभूति जाग उठेगी। दूसरों का सुख-दुःख बिल्कुल अपने जैसा महसूस होगा। मेरे भीतर उतना ही दूसरे लोगों का क्लेश हटा देने का आग्रह, चेष्टा और क्षमता बढ़ जायेगी। ऐसा ' मनुष्य ' बन जाने से मैं अपने जीवन का सदुपयोग करने में समर्थ हो सकता हूँ
श्री रामकृष्ण ने कहा है - " विज्ञानी सदा ब्रह्म दर्शन करते हैं, आँखें खोल कर भी सर्वत्र उन्हीं को देखते हैं। वे कभी नित्य से लीला में रहते हैं और कभी लीला से नित्य में जाते हैं। विज्ञानी के आठों बन्धन खुल जाते हैं, काम क्रोधादि भस्म हो जाते हैं, केवल आकार मात्र रहते हैं। ' नेति नेति ' विचार कर वे उस नित्य अखण्ड सच्चिदानन्द में पहुँच जाते हैं। वे विचार करते हैं - वह जीव नहीं, जगत नहीं, २४ तत्त्व भी नहीं हैं। नित्य में पहुँच कर वे फ़िर देखते हैं, वही सब कुछ हुए हैं- जीव, जगत २४ तत्व सभी। "
मनुष्य का विवेकज -ज्ञान उसे उचित मार्ग अवश्य दिखा सकता है; परन्तु विवेकज -ज्ञान प्राप्त करने के उचित मार्गदर्शन हेतु किसी ----किसी स्वामी विवेकानन्द जैसे मार्गदर्शक गुरु/नेता /जीवनमुक्त शिक्षक से प्रशिक्षण प्राप्त करना भी आवश्यक है । भगवान श्री कृष्ण आत्मज्ञान (विवेक-प्रयोग पद्धति) प्राप्त करने का उपाय बताते हुए कहते हैं -
तद विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनः तत्त्वदर्शिनः॥' (गीता :४: ३४)
उस (तत्त्वज्ञान) को (तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषोंके पास जाकर) समझ। उनको साष्टाङ्ग दण्डवत् प्रणाम करनेसे उनकी सेवा करनेसे और सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुष तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे। गुरु के उपदेश को ग्रहण करके उसी के अनुसार आचरण करने का प्रयत्न ही गुरु की वास्तविक सेवा है। अर्थात जिस प्रकार उन्होंने होने पढ़े-लिखे युवाओं के दल को एकत्र कर उन्हें 'मनुष्यत्व उन्मेषक और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' प्रचार -प्रसार करने में समर्थ शिक्षक बनने और बनाने का अभियान चलाया था; उसी कार्य में जुट जाना ! इससे बढ़कर और कोई सेवा नहीं हो सकती।शिष्यों को ज्ञान का उपदेश देने के लिये गुरु/नेता/जीवनमुक्त शिक्षक या पैगम्बर में मुख्यत दो गुणों का होना आवश्यक है (क) आध्यात्मिक शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान तथा (ख) अनन्त स्वरूप परमार्थ सत्य के अनुभव में दृढ़ स्थिति। इन दो गुणों को इस श्लोक में क्रमश ज्ञानिन और तत्त्वदर्शिन ( अर्थात खुली आँखों से ध्यान करने में सक्षम) शब्दों से बताया गया है।
केवल पुस्तकीय ज्ञान से प्रकाण्ड पंडित बना जा सकता है लेकिन योग्य गुरु नहीं। शास्त्रों से अनभिज्ञ आत्मानुभवी पुरुष मौन हो जायेगा, क्योंकि शब्दों से परे अपने निज अनुभव को वह व्यक्त ही नहीं कर पायेगा। अत गुरु का शास्त्रज्ञ तथा ब्रह्मनिष्ठ दोनों होना आवश्यक है। उपर्युक्त कथन से भगवान् का अभिप्राय यह है कि ज्ञानी और तत्त्वदर्शी आचार्य द्वारा उपादिष्ट ज्ञान ही फलदायी होता है और अन्य ज्ञान नहीं। एक निष्णात गुरु शिष्य के प्रश्न से ही उसके बौद्धिक स्तर को समझ लेते हैं। शिष्य के विचारों में हुई त्रुटि को दूर करते हुए वे अनायास ही उसके विचारों को सही दिशा भी प्रदान करते हैं।प्रश्नोत्तर रूपी संवाद के द्वारा गुरु के पूर्णत्व की आभा शिष्य को भी प्राप्त हो जाती है इसलिये हिन्दू धर्म में गुरु और शिष्य के मध्य प्रश्नोत्तर की यह " Be and Make -श्रुति परम्परा" [विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा] प्राचीन काल से ही चली आ रही है जिसे महामण्डल में पाठ-चक्र या युवा प्रशिक्षण शिविर कहते हैं। इस श्रुति-परम्परा में जब कोई भावी-शिक्षक (would be Leader) इस शिविर के नेता वरिष्ठ [C. in.C] से पूछता है कि - ' विवेक ' और ' हृदय ' में क्या अन्तर है ? ' ब्रह्म ' क्या है ? तब तत्वदर्शी और शास्त्रज्ञ गुरु उसे समझाते हैं -
" विवेक एक विशिष्ठ प्रकार से विचार करने की प्रक्रिया का नाम है- अर्थात यह क्या है, यह क्या है, यह क्या है, इसप्रकार हर वस्तु को अलग अलग करके समझना। किस वस्तु का मूल्य कितना है- इसका मूल्य बहुत अधिक नहीं है, इसका मूल्य इससे अधिक है, इस प्रकार से जब विचार किया जाता है; तब इसे विवेक कहा जाता है। और इस प्रकार से विचार करने के लिए मस्तिष्क के आलावा और कोई दूसरा यन्त्र कहीं शरीर में फिट नहीं है। हमलोगों की धारणा यह कि शायद हृदय ( दिल ) हमलोगों के छाती के निकट है। किन्तु छाती के निकट जो हृदय (heart) है वह ' हृदय-यंत्र ' तो रक्त-संचालन करने वाला यंत्र या Blood Pumping Machine है। वह जन्म के समय से लेकर जब तक मनुष्य जीवित रहता है तबतक चलता ही रहता है। हृदय का धड़कना बंद होते ही मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। सारे शरीर में रक्त को संचालित को करना (blood pumping ) इसका कार्य है। किन्तु उसी यंत्र को यह हृदय नहीं समझना चाहिए।
हमलोग जिस हृदय की बात कर रहे हैं, वह अनुभव करने की शक्ति है। उसका स्थान हमारे शरीर में कहाँ है, इसे तुरन्त खोजा नहीं जा सकता है। इसीलिए छाती पर हाथ रख कर जहाँ हृदय-यंत्र रहता है, हमलोग उसी का उल्लेख करते हैं। यह एक काल्पनिक मान्यता है, इसका कोई अर्थ नहीं होता। वास्तव में जो कार्य होता है वह, मस्तिष्क के भीतर होता है। मस्तिष्क क्या है, कैसा चौंका देने वाला पदार्थ है, इसके पूरी संरचना को आज तक मनुष्य पूरी तरह से जान नहीं पाया है। लगातार मस्तिष्क की नयी नयी शक्तियों के परिचय का खुलासा हो रहा है। वास्तव में शुभ-अशुभ, पसंद-नापसंद, लोभ, त्याग, पाने की इच्छा, त्याग कर देने की इच्छा, प्रवृत्ति या निवृत्ति मार्ग में जाने जैसी समस्त विवेकपूर्ण निर्णय लेने का कार्य, मस्तिष्क में ही घटित होता है! इन दिनों मस्तिष्क को लेकर बहुत से अनुसन्धान किये जा रहे हैं. यह भी सच है कि अनुसन्धान कार्य में बहुत उन्नति हुई है, किन्तु मन की शक्ति का पूरा परिचय अभी तक बहुत कम ही मिल सका है।
सिर के उपर, ठीक बिच में एक स्थान को ब्रह्म-रन्ध्र कहा जाता है। ऐसा विश्वास किया जाता है की यह स्थान ब्रह्म की उपलब्धी करने के लिए है। ब्रह्मवस्तु से ही यह विश्व-ब्रह्माण्ड आविर्भूत हुआ है। ब्रह्म का अर्थ क्या है ? ब्रह्म का शाब्दिक अर्थ है- बृहत। इतना बृहत, कि उसके बाहर और कुछ भी नहीं है. हमलोग भी इससे अलग नहीं हैं। इसीलिए हमलोग घटिया सोच नहीं रखेंगे, संकीर्ण विचार नहीं रखेंगे, बृहत के बारे में ही विचार करेंगे। शब्दार्थ के अनुसार इसको ही ब्रह्म विचार कहते हैं। अपने को अनुदार मत रखो, छोटे से दायरे में कैद मत होने दो। ' अपने को मैंने जगत्स्वरूप बना लिया है; सारे विश्व के साथ अपने को एक और अभिन्न देखता हूँ !' कितनी बड़ी उपलब्धी है, कितने आनन्द की बात है ! हमलोग सम्पूर्ण विश्व के साथ एकात्मता का अनुभव कर सकते हैं, हमलोग इतने बड़े हो सकते हैं. किन्तु हमने अपने को सीमित बना डाला है। थोड़ा सा पकवान, थोड़ा सा इन्द्रिय सुख, इतने को ही बहुत बड़ा सुख मान लेते हैं। यदि हमलोग अपने जीवन को ठीक ठीक गढ़ सकें, तो इससे बहुत बड़ी वस्तु हमलोग प्राप्त कर सकते हैं,बृहत वस्तु, जिस से बड़ा और कुछ भी नहीं है, भूमा आनन्द की प्राप्ति का संवाद सभी के पास पहुंचना चाहिए।
इस संवाद को हमलोगों ने इस युवा प्रशिक्षण शिविर में प्राप्त किया है, यही समझ कर लौट सकें, तो बहुत बड़ा कार्य होगा। इसी ' भूमा आनन्द ' को प्राप्त करने का लोभ, हमलोगों को और अधिक पवित्र बनने में सहायक होगा, हमें उन्नत बनाएगा, हमलोग पुष्पित हो जायेंगे। जीवन क्या एक घर में रहना, खाना-पीना, स्कूल-कॉलेज, यूनिवर्सिटी में जाना, थोड़ा पढ़-लिख कर नौकरी-रोजगार में लग जाना भर है? दिन भर कुछ रोजी-रोजगार किया, घर आया, खाना खाया, और सो गया, फिर वंश-विस्तार होने लगा- क्या इसी को मनुष्य- जीवन कहते हैं? ऐसा जीवन तो पशु लोग भी जी लेते हैं. पशुओं और मनुष्यों का जीवन क्या एक ही जैसा होना चाहिए ? मनुष्य तो विरासत से ही इतनी बुद्धि लेकर जन्म ग्रहण किया है, वह क्या अपने कार्य के माध्यम से, जीवन-यात्रा की प्रणाली के माध्यम से, जीवन का सही उद्देश्य या लक्ष्य निर्धारित करने के माध्यम से, उसे प्राप्त करने के लिए जी-जान से प्रयत्न करने के माध्यम से, अपने उस ' मनुष्यत्व ' प्रकाशित नहीं करेगा ? यथार्थ ' मनुष्यत्व ' के उत्थान और आविर्भाव को देख कर जगत अवाक रह जायेगा- मनुष्य की शक्ति कितनी असीम है!
सच्चा मनुष्य ऐसा ही होता है. इस तरह के मनुष्य बनने के लिए जो कुछ चाहिए, वह सभी चीजें हमारे पास हैं. हमारे पास शरीर, मन, बुद्धि, हृदय या अनुभव करने की शक्ति विद्यमान है. हमलोग क्या इन्हें यूँ ही नष्ट हो जाने देंगे ? यह जो बाहर का परिवेश है, आज के समाज में भौतिक-वाद की जो आंधी बह रही है, उसके बाढ़ में क्या हम स्वयं को भी डूब जाने देंगे?नहीं, हमलोग ऐसा हरगिज नहीं होने देंगे. हमलोग सच्चरित्रता के धरातल पर अपने कदमों को सख्ती के साथ जमाये रखेंगे. पश्चमी सभ्यता के आँधियों का वेग चाहे जितना भी क्यों न हो, वह हमें अपने प्रवाह में डुबोने नहीं पायेगी। इस बाढ़ के बीच में खड़े रहकर भी, जो प्राप्त करना है, उसे प्राप्त कर के ही दम लेंगे.
हमलोग अपना परिचय देते है कि हमलोग विवेकानन्द के अनुयायी हैं, यदि सचमुच हमलोग ' विवेक ' के अनुगामी हों, अर्थात कुछ भी सोचने, बोलने और करने के पहले यदि ' विवेक- प्रयोग ' अवश्य करने की आदत यदि हमारी ' प्रवृत्ति ' बन चुकी हो; तो हम स्पष्ट देख पाएंगे की मेरा मन कभी कभी मुझको धोखे में डाल कर अच्छाई के मार्ग पर न लेजा कर ( श्रेय ) से भटकाकर, नीचे (प्रेय) की ओर ले जाना चाह रहा है. जो अच्छा नहीं है, जो मुझे दुर्बल बना देगा, उसे मैं अपने पैर के अंगूठे से भी स्पर्श नहीं करूंगा, उससे दूर ही रहूँगा. कोई प्रलोभन दिखा कर मुझे उसके साथ युक्त नहीं कर पायेगा. यदि यह सामर्थ्य मुझमें है, तभी मैं ' मनुष्य ' हूँ. स्वयं के उपर ऐसा नियन्त्रण केवल ' मनुष्य ' ही रख सकता है. इसीलिए ' मनुष्य योनी ' को सर्वश्रष्ठ कहा जाता है.
' मनुष्य ' का अर्थ क्या है ? श्रीरामकृष्ण कहते थे- ' मान हूँश, तो मानुष ' जिसको अपनी मानवोचित मर्यादा के प्रति ' होश ' सदैव बना रहता हो, उसी को ' मनुष्य ' कहा जाता है. विचार करके देखो तो जरा, यह उक्ति कितनी सरल, पर कितनी असाधारण है? दूसरे प्रकार से देखें तो श्रीरामकृष्ण देव मूर्ख ही ठहरे. पाठशाला में पढ़ने के लिए, बहुत ही थोड़े समय के लिए गये थे। हिसाब बनाने के लिए कहा गया तो किसी प्रकार ' जोड़ ' करना सीख लिए थे, किन्तु ' घटाव ' करना नहीं सीख पाय। ' शेष नहीं निकालने ' (घटाव नहीं करने) से जोड़ (योग) होता है. यह योग ( जोड़ ) क्या है ? जो सबसे ऊँची बात है, सबसे सुन्दर वस्तु है, वह है- सभी के साथ जुड़ जाना, एक और अभिन्न बन जाना !
हमलोग टी.वी. पर देख कर आजकल ' योग-योग ' बोलते हैं. अभी तो पार्क में बैठ कर योग करना एक फैशन बन चुका है. कई कई नामों से ' योगा-सेन्टर ' खुल गये हैं। वास्तव में ' योग ' का क्या अर्थ है? यह देखना कि हमारे हृदय में जो मौलिक वस्तु है, उसके साथ स्वयं को ' जोड़ ' करके रखने पर ही, अन्य सबों के साथ योग बना रहता है, क्योंकि सबों के भीतर ' मौलिक वस्तु ' एक ही है। इस तथ्य को सदा स्मरण रखते हुए जीवनयापन करने से, हमारी जो अन्तर्निहित ' सत्ता ' (ब्रह्मत्व ) है, वह और अधिक प्रस्फुटित होने लगता है, और अधिक अभिव्यक्त होता है, और अधिक फलदायी होता है। इसीलिए अपनी ' स्मृति ' ध्रुव तारे के जैसा अटल बनाये रखना लाज़मी है!
यथार्थ ज्ञान (Right knowledge) अर्जित करो तथा अपने उदार ह्रदय में सबों के प्रति मैत्री-भाव रखते हुए (जगत में कोई पराया नहीं है)इन महान विचारों को, धनाड्यतमों से लेकर दरिद्रतमों तक, शिक्षितों से अशिक्षितों तक, ज्ञानियों से अज्ञानियों तक -सभी मनुष्य को जीवन में उतारने लेने के लिये - उनके द्वार द्वार पर पहुँच कर उन्हें अनुप्रेरित करो।
इस कार्य को पूरा करने के लिये पहले ख़ुद तुम्हे मनुष्य बनना पड़ेगा। तुम्हे अपना शरीर हृष्ट-पुष्ट रखने के साथ साथ मन को भी संयम में रखना होगा। किन्तु केवल शरीर-मन का विकास करने से ही यथार्थ मनुष्य नहीं बना जाता है। इसके साथ ही यह भी देखना पड़ेगा कि उस शरीर में जो ह्रदय है, वह पशु का ह्रदय है या मनुष्य का,या देवता का ह्रदय है। किसी को असली 'मनुष्यत्व' अर्जित हुआ है नहीं, उसकी सही पहचान उसके ह्रदय से ही होती है। मनुष्य बन जाने के बाद संसार के सभी मनुष्यों का दुःख-दर्द (Sorrows and Sufferings) तुम्हे बिल्कुल अपना महसूस होगा। तब अपने शरीर और मन के द्वारा तुम सदैव दूसरों का केवल कल्याण ही सोंचोगे और करोगे। तुम्हारे मुख से सदैव केवल दूसरों के कल्याण के लिये प्रार्थना ही निकलेगी। यदि तुम्हारे पास कुछ धन है, तो उसका एक हिस्सा उन्हें मिलेगा जिनके पास यह नहीं है।
इस वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में इस वर्ष भारत के कई राज्यों से, तुमलोग कुल १३०९ युवा भाग लेने आये हो। [ महामण्डल का बयालिसवाँ (42nd) वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर पश्चिम बंगाल के हावड़ा जिले के - " गंगाधरपुर शिक्षण मन्दिर " (बी.एड.कॉलेज) में २५ से ३० दिसम्बर तक २००८ में आयोजित हुआ था।] इस छोटे से गाँव में, जहाँ तक पहुँचने के लिये उचित ढंग का सड़क भी नहीं है,आने में तुम लोगों ने कई कष्ट उठाये होंगे। क्यों ?- तुम यहाँ कुछ अति महत्वपूर्ण विचारों को सुनने के लिये आये हो। महामण्डल यह जानता है कि, इस प्रकार का भाव तुम्हे और कहीं से प्राप्त नहीं हो सकते हैं। भारत में धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनितिक आदि कई बड़े बड़े संगठन हैं तो जरुर किन्तु ये विचार तुम्हे किसी भी संगठन में सुनने को नहीं मिलेंगे। अतः यह हमारा सौभाग्य है कि हमलोग आपस में विचार-विमर्ष करने के लिये यहाँ तक पहुँच सके हैं। यदि इन विचारों को तुम सचमुच उपयोगी समझते हो तो उन्हें आत्मसात कर लो। अपने जीवन में उतार लो। हमलोगों को दूसरों के लिये जीना सीखना चाहिए, अपने लिये जीना भी कोई जीना है ? जो केवल अपने लिये जीता है, वह तो नर-पशु है। जो सचमुच मनुष्य बनना चाहता है, वह अवश्य ही दूसरों के लिये जीवन धारण करना चाहेगा। हमलोग अपनी शक्ति, ज्ञान, धन, सब कुछ दूसरों के कल्याण में समर्पित कर देंगे। संक्षेप में यही है महामंडल का उद्देश्य है।
महामण्डल इस 'मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माण आन्दोलन' का लक्ष्य - भारत कल्याण के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व का कल्याण करना है। महामण्डल इसी लक्ष्य को भारत के सभी युवाओं के ह्रदय में बैठा देना चाहता है, एवं इसी कार्य के लिये स्वामी विवेकानन्द को युवा आदर्श के रूप में स्थापित करना चाहता है। वे मानव जाती को उठाने के लिये आये थे, भारत को उठाने के लिये आये थे। उन्होंने सम्पूर्ण विश्व के लिये कार्य किया था। उन्होंने परम सत्य का साक्षात्कार किया था, तथा विश्व भर के मानव-मन को आलोकित कर दिया था।
उन्होंने युवाओं को कहा है , "तुम लोग स्वयं अपने पैरों पर खड़े होने की चेष्टा करो.मनुष्य बनो, चरित्र गठन करो, देश को प्यार करना सीखो ! देश का अर्थ देश की मिट्टी ही नहीं है, देश से प्यार करने का अर्थ है अपने देशवासियों से प्यार करना। देश के मनुष्यों को प्यार करना सीखो, अपने देशवासियों के दुःख को समझना सीखो, अपने ह्रदय (Heart )को बड़ा करो, शरीर (Hand) को बलवान बनाओ, सिर (मस्तिष्क Head ) को जाग्रत करो- प्रखर बुद्धि, अर्थात विवेक-प्रयोग करने की शक्ति चाहिये। उन्होंने हमे आदेश दिया है - " ह्रदय से मनुष्यों के दुःख को अनुभव करो, विचारशक्ति से उनके दुखों को दूर करने का उपाय ढूँढो, और शारीरिक शक्ति का प्रयोग कर उस उपाय को क्रियान्वित करके दिखा दो!"
इतना बड़ा महामानव सचमुच नहीं जन्मा है, उनके उपदेशों को सुनकर, उनके आदेश, उनकी शिक्षा, उनकी डांट-फटकार - आदि को सुनकर, शायद हमारी सुबुद्धि वापस लौट आये। उनकी बात को सुन कर हमलोग एक दूसरे प्रकार के मनुष्य बन जायेंगे, हमलोगों की मनोवृत्ति बिल्कुल बदल जाएगी,जैसे किसी बहुत बड़े चुम्बक के पहाड़ के निकट जहाज चला जाये, तो जैसे लोहे से निर्मित उसके समस्त नट-भोल्ट, कब्जा-काठी, इत्यादि स्वतः खुल जायेंगे, उसी तरह इनके पास जाने से, इनकी आकर्षण की शक्ति से हमलोगों के समस्त बंधन छिन्न-भिन्न होजाएंगे, हम बंधन मुक्त हो जायेंगे! ऐसा होने पर हमलोग जो बन जायेंगे, वह क्या है? केवल ह्रदय, इसीलिये स्वामीजी एक स्थान पर कहते हैं - " Be a heart-whole man !" ऐसा मार्ग-दर्शन और किसी दूसरे व्यक्ति से मिल सकता है क्या ?
परन्तु अपने जीवन का कल्याण, भारत का कल्याण तथा विश्व का कल्याण करने वाले कार्यकर्त्ता/ शिक्षक /नेता बनने तथा बनाने के लिये उनका आह्वान मुख्य रूप से केवल युवाओं के लिये ही था।इसीलिये महामण्डल भी तुम लोगों से, भारत के युवाओं से बहुत उम्मीद रखता है तथा भरोसा करता है। अपने जीवन का गठन चट्टानी नींव पर करो- अर्थात अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाओ, अपनी बुद्धि को इतना विवेकशील और तीक्ष्ण बना लो कि उसमे सागर की तली को भी देख लेने का सामर्थ्य हो, ह्रदय को विशाल तथा उत्साह से परिपूर्ण रखो।
मैं पहली बार जब कैम्प में गया था, तब दक्षिण भारत से आये किसी कैम्पर (विशाखापत्तनम-मुनिस्वामी) ने पूछा आप कहाँ से आये हैं? मैंने कहा परमात्मा के पास से और आप ? उन्होंने हँस कर कहा मैं भी परमात्मा के पास से आया हूँ, पल भर मैं हम एक हो गए एक दूसरे को पहचान लिया ! बहुत अच्छा लगा, मानो कोई अपना मिल गया हो ! हमें एक दूसरे को इसी नजरों से पहचाना चाहिए, भेद मिट जायेगा, राज्य-देश, जात-पात, धर्म, M/F की दूरियां मिट जायेगी…।
आजादी से पहले वाला भारत, प्राचीन भारत - कितना विशाल था ! तुम्हे भारत के मानचित्र में बर्मा वाला जो हिस्सा दीखता है, तब उसे देखने से मुझे ऐसा प्रतीत होता था मानो सचमुच वह मेरी माँ का लहराता हुआ आँचल है, जो बंगाल कि खाड़ी तक फैला हुआ है।तब वह चित्र मुझे साक्षात् माँ कि प्रतिमा ही जान पड़ती थी।किन्तु इन्ही लोगों ने भारत माता को ठीक उसी प्रकार तीन टुकडों में काट डाला, जिस प्रकार किसी पशु को खाने,या निगल जाने के लिए, पहले उसके टुकड़े कर दिए जाते है ! आज के समाज का चेहरा ऐसा ही विकृत हो गया है। किन्तु यह सब क्या इसी प्रकार चलता रहेगा ? समाज की यह दुर्दशा होते देख कर चुप नहीं रहना चाहिए। इस अवस्था में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने के लिये कुछ न कुछ प्रयास हम सबों को करना चाहिए। किन्तु क्रान्तिकारी परिवर्तन किसे कहते हैं ?
क्या ...सड़कों में परिवर्तन, हवाई अड्डा या बंदरगाह में परिवर्तन, और ज्यादा जहाज, अधिक से अधिक आव्रजन मार्गों (flyovers) का निर्माण, चतुर्भुज सड़क निर्माणों की श्रृंखला बनाने वाले परिवर्तन से हमारा कोई तात्पर्य नहीं है। जबकि आज के समाज में इन्हीं सब चीजों को मनुष्य जीवन से अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। किन्तु सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि मनुष्य ही उपेक्षित हो रहे हैं। आज अपने युवाओं को हमलोग कैसी शिक्षा दे रहे है ? समाज बनता है- मनुष्यों से,अतः व्यष्टि मनुष्य में परिवर्तन न आने से समाज में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है। समाचार पत्र में जिस परिवर्तन का उल्लेख रहता है, वह कोई परिवर्तन नहीं है। महामण्डल की दृष्टि के अनुरूप यदि सचमुच समाज को परिवर्तित करना है, तो सर्वप्रथम समाज में सुयोग्य नागरिक ( य़ा उपयुक्त मनुष्य) का निर्माण करना होगा. वह मनुष्य- समाज किसे कहते हैं, मनुष्य किसे कहते हैं, मनुष्यों का यथार्थ कल्याण, मनुष्य जीवन की सार्थकता किस बात पर निर्भर करती है, आदि बातों को समझ सकेगा।
आज के बच्चे भविष्य के युवा हैं,अतः शिशु अवस्था से ही विवेक-प्रयोग करने के बाद ही कुछ सोचने, बोलने करने का अभ्यास सीखना आवश्यक है। इसके लिय युवाकल्याण की योजना जिसमें युवा लोग भी संयुक्त रहते है, बच्चों के कल्याण पर भी पर्याप्त दृष्टि रखनी आवश्यक है। अतः किसी भी समाज-सेवी संगठन को अपने क्षेत्र के बच्चों और किशोरों के लिए भी एक समेकित कल्याण कार्यक्रम 'An integrated child-welfare scheme' के विषय में सोचना आवश्यक है। बच्चों को बचपन से ही खेल-कूद, ड्रिल (फ़ौजी शिक्षा कवायद), गीत-संगीत, नाटक, प्रार्थना आदि सर्वांगीण विकास (all round development) का अवसर प्राप्त होना चाहिये।
सभी केन्द्रों के लिए उचित होगा कि वे अपने क्षेत्र के बच्चों, किशोरों और युवाओं के लिए एक व्यापक, आत्मानुशासित, स्व-अभिप्रेरित परियोजना (self-motivated activity) का प्रारम्भ करें। महामण्डल -- 'विवेक-वाहिनी', 'किशोर-वाहिनी' या 'सार्वजनिक प्राथमिक विद्यालय' आदि प्रारम्भ करने के लिए विस्तृत परामर्श देने के लिये प्रस्तुत है। इस तरह की परियोजना प्रत्येक स्थान में प्रारम्भ करना क्यों अनिवार्य है, इस विषय में बच्चों के अभिभावकों या माता-पिता के साथ सम्पर्क उन्हें राजी कराने (convince) का विशेष प्रयास होना चाहिये। दूसरे स्थानों में परीक्षित उपायों के उदाहरण का उपयोग भी इस कार्य में किया जा सकता है।
महामण्डल का सामूहिक कार्यक्रम :
(vi)सर्व संप्रदाय समावेशी साप्ताहिक पाठचक्र : (All sect inclusive Youth Study Circle ) What is Community – एक ही धर्म की अलग अलग परम्परा या विचारधारा मानने वाले वर्गों को सम्प्रदाय कहते है। सम्प्रदाय हिंदू, बौद्ध, ईसाई, जैन, इस्लाम आदि धर्मों में हैं। सम्प्रदाय के अन्तर्गत गुरु-शिष्य परम्परा चलती है जो गुरु द्वारा प्रतिपादित परम्परा को पुष्ट करती है।हिन्दू और मुसलमान दोनों सम्प्रदायों के युवाओं को सच्ची देश-भक्ति अपने देश-भारतवर्ष की प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा- [हिन्दू ( भारतीय ) इस्लामी संस्कृति ] श्रुति-परम्परा में निहित विशेष मूल्यों की सही समझ से ही प्राप्त हो सकती है। और यह तभी सम्भव है जब युवाओं को भारत की सांस्कृतिक विरासत से परिचित होने का अवसर प्राप्त हो।
वैसे तो हमारे जीवन में कई जाने-अनजाने गुरु होते हैं जिनमें हमारे माता-पिता का स्थान सर्वोपरि है फिर शिक्षक और अन्य। लेकिन असल में गुरु का संबंध शिष्य से होता है न कि विद्यार्थी से। आश्रमों में गुरु-शिष्य परम्परा का निर्वाह होता रहा है।गुरु-शिष्य परम्परा आध्यात्मिक प्रज्ञा का नई पीढ़ियों तक पहुंचाने का सोपान है। भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत गुरु (शिक्षक) अपने शिष्य को शिक्षा देता है या कोई विद्या सिखाता है। बाद में वही शिष्य गुरु के रूप में दूसरों को शिक्षा देता है। यही क्रम चलता जाता है। यह परम्परा सनातन धर्म की सभी धाराओं में मिलती है। गुरु-शिष्य की यह परम्परा ज्ञान के किसी भी क्षेत्र में हो सकती है, जैसे- अध्यात्म, संगीत, कला, वेदाध्ययन, वास्तु आदि।
भारतीय संस्कृति में गुरु का बहुत महत्व है, क्योंकि आने वाले कल का निर्माण आज गुरु की दी हुई शिक्षाओं पर निर्भर होता है । गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर माना गया है। कहीं गुरु को 'ब्रह्मा-विष्णु-महेश' कहा गया है तो कहीं 'गोविन्द'। 'गु' शब्द का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और 'रु' शब्द का अर्थ है प्रकाश ज्ञान। अज्ञान को नष्ट करने वाला जो ब्रह्म रूप प्रकाश है, वह गुरु है। हिन्दू पंचांग के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरु की पूजा करने की परंपरा है। इस दिन को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। यह पर्व आत्मस्वरूप का ज्ञान पाने के अपने कर्तव्य की याद दिलाने वाला और गुरु के प्रति अपनी आस्था जाहिर करने वाला होता है। गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है, क्योंकि मान्यता है कि भगवान वेद व्यास ने महाभारत की रचना इसी पूर्णिमा के दिन की थी। विश्व के सुप्रसिद्ध आर्य ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरम्भ किया।
किन्तु हमारी इसी मान्यता के कारण कुछ चतुर लोगों ने इस पद पर एकाधिकार कर लिया है। वे लोग ऐसा झूठा भ्रम फैलते हैं कि एक वर्ग विशेष के घर में जन्मा बच्चा, जन्म से ही गुरु पैदा होता है। श्री रामकृष्ण परमहंस देव ने बहुत प्रयास किए कि नरेंद्र (विवेकानन्द) मेरा शिष्य हो जाए। क्योंकि रामकृष्ण परमहंस जानते थे कि नरेन् निवृत्तिमार्ग के सप्त ऋषियों में से एक है, और मेरे ही अनुरोध पर मेरे काम में सहायता करने के लिए धरती पर जन्मग्रहण किया है। यही वह व्यक्ति है जिसे सिर्फ जरा-सा धक्का दिया तो यह ध्यान और मोक्ष (भ्रममुक्त De -Hypnotized) के मार्ग पर दौड़ने लगेगा। और नरेन् तो इतना निःस्वार्थी भी है कि, इसको 'कामिनी-कांचन और कीर्ति ' में से कोई वासना इसे बाँध नहीं पायेगी; इसीलिए यह सम्पूर्ण जगत को शिक्षा देने या भारत की प्राचीन श्रुति -परम्परा को फैला देने में समर्थ हो जायेगा ।
लेकिन स्वामी विवेकानन्द तो बुद्धिवादी व्यक्ति थे और अपने विचारों के पक्के थे। उन्हें रामकृष्ण परमहंस एक ऐसे व्यक्ति नजर आते थे जो कोरी कल्पना में जीने वाले एक मूर्तिपूजक से ज्यादा कुछ नहीं।वे रामकृष्ण परमहंस की सिद्धियों को एक मदारी के चमत्कार से ज्यादा कुछ नहीं मानते थे। फिर भी वे परमहंस के चरणों में झुक गए क्योंकि अंतत: वे जान गए कि इस व्यक्ति में कुछ ऐसी बात है जो बाहर से देखने पर नजर नहीं आती। तब यह जानना जरूरी है कि आखिर में हम जिसे गुरु बना रहे हैं तो क्या उसके विचारों से, चमत्कारों से या कि उसके आसपास भक्तों की भीड़ से प्रभावित होकर उसे गुरु बना रहे हैं, यदि ऐसा है तो आप सही मार्ग पर नहीं हैं। गुरु (नेता,जीवन्मुक्त शिक्षक) क्या है, कैसा है और कौन है यह जानने के लिए उनके शिष्यों को जानना जरूरी होता है। और यह भी कि गुरु को जानने से शिष्यों को जाना जा सकता है, लेकिन ऐसा सिर्फ वही जान सकता है जो कि खुद गुरु है या शिष्य । गुरु वह है जो जान-परखकर शिष्य को दीक्षा देता है और शिष्य भी वह है जो जाँच-परखकर गुरु बनाता है। 'सिख' शब्द संस्कृत के 'शिष्य' से व्युत्पन्न है। शिष्यत्व अहंकार विसर्जन का नाम है। श्रद्धा के अभाव में भक्ति, भक्ति के अभाव में विनय और विनय के अभाव में गुरू—शिष्य का संबंध असम्भव है।
हिन्दू इस्लामी संस्कृति (गंगाजमुनी- तहजीब) शब्द मिश्रित या समन्वित संस्कृति के विकास का सूचक है, जो मध्यकालीन भारत और इस्लामी जगत की सांस्कृतिक परंपराओं के सम्पर्क तथा अन्योन्याश्रित संबंधों और सम्मिलन के फलस्वरूप विकसित हुई थी। यह संबंध अरब के उन व्यापारियों के माध्यम से स्थापित हुए थे जो भारत के विदेश व्यापार के प्रमुख स्रोत थे। हिन्दू धर्म तथा इस्लाम की सांस्कृतिक परंपराओं के समेकन से मिश्रित या हिन्दू इस्लामी संस्कृति का जन्म हुआ।
चिश्ती भारत का सर्वप्रथम प्राचीन सूफी सिलसिला है। ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती ने 12वी. शता.में चिश्तियां परंपरा की नींव डाली। चिश्तियों की प्रकृति उदार थी। वे अद्वैतवाद के परंपरागत नियमों में विश्वास रखते थे। मुइनुद्दीन चिश्ती ने अजमेर में अपना निवास स्थान बनाया। उनकी समाधि अजमेर में ख्वाजा साहब के नाम से प्रसिद्ध दरगाह है। बाबा फरीद के कारण चिश्तियां सिलसिले को भारत में लोकप्रियता प्राप्त हुई। बाबा फरीद का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान रचनाओं से है जो गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित है। बाबा फरीद बलबन का दामाद था।उत्तर भारत के अग्रणीय सूफी संत शेख निजामुद्दीन औलिया थे।शेख निजामुद्दीन के उदार एवं सहिष्णु दृष्टिकोण के कारण उन्हें महबूब-ए- इलाही ( ईश्वर के प्रेमी ) की लोकप्रिय उपाधि मिली। निजामुद्दीन औलिया ने योग की प्राणायाम की पद्दति इस हद तक अपनायी कि उन्हें योगी सिद्ध कहा जाने लगा। शेख निजामुद्दीन औलिया के सबसे प्रिय शिष्य अमीर खुसरो थे। अमीर खुसरो ने दिल्ली को हजरत-ए-दिल्ली ( पवित्र दिल्ली ) तथा दूसरा स्वर्ग और न्याय का एक महान केन्द्र कहते हुए अभिवादन किया। खुसरो अपने पीर ( गुरु ) निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु का समाचार जानने के दूसरे दिन ही प्राण त्याग दिये। उसे उसी स्थान पर दफनाया गया।]
"श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा " में प्रशिक्षित गुरुओं के माध्यम से "रामकृष्ण मिशन आश्रम" मे गुरु-शिष्य परम्परा का निर्वाह अब भी होता चला रहा है। भारतीय इतिहास में गुरु की भूमिका समाज को सुधार की ओर ले जाने वाले मार्गदर्शक के रूप में होने के साथ क्रान्ति को दिशा दिखाने वाले मार्गदर्शक नेता की भी रही है। लेकिन स्कूल -कॉलेज के सिलेबस या पाठ्यपुस्तकों में जो कुछ पढ़ाया जाता है, उसके द्वारा छात्रों को हमारी प्राचीन श्रुति-परम्परा से (या गीता -उपनिषद की शिक्षाओं से) परिचित होने का अवसर नहीं मिलता। अतः इस 'श्रुति परम्परा' (श्रवण-मनन-निदिध्यासन की परम्परा) से प्राप्त होने वाली शिक्षा (या मनःसंयोग के प्रशिक्षण) को न्यूनता-पूरक कक्षा ( supplementary classes) के रूप में दिये जाने की आवश्यकता है।इस कार्य को महामण्डल के वार्षिक युवा-प्रशिक्षण शिविर के "स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन " के Be and Make" परम्परा में नेता-वरिष्ठ (C-in-C) नवनीदा द्वारा प्रशिक्षित महामण्डल के भावी नेताओं/शिक्षकों/ के माध्यम से साप्ताहिक पाठचक्र (Study Circles-अध्यन मण्डल) में भी किया जा सकता है।
प्रति सप्ताह एक निश्चित स्थान और समय पर सत्यान्वेषी -जिज्ञासु लोगों का एक समूह मिलेंगे , तथा 'Patriot-Prophet' देशभक्त -पैगम्बर स्वामी विवेकानंद के परिव्राजक चित्र के सामने बैठकर, तथा उनको ही अपना नेता/आदर्श/ शिक्षक मानकर पूरी श्रद्धा के साथ महामण्डल के संघमन्त्र को गाने के बाद उनके द्वारा रचित स्वदेश-मंत्र का पाठ होगा। तत्पश्चात सभी सदस्य महामण्डल की पुस्तिकाओं तथा विवेकानन्द साहित्य के चुने हुए अंश से श्रुति-परम्परा में श्रवण-मनन -निदिध्यासन करेंगे, ताकि राष्ट्र-निर्माण के कार्यों में अपना योगदान देने के योग्य सुन्दर चरित्र गठित हो सके। स्वामी विवेकानन्द की जीवनी (biography) और शिक्षाओं के साथ ही साथ महामण्डल की सभी पुस्तिकाओं विशेष कर -' हमारे लिये करनीय' और महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय की आत्मकथा (memorabilia) " जीवन नदी के हर मोड़ पर" का गहराई से अध्यन और अनुशीलन करने के द्वारा इस कार्य का प्रारम्भ किया जा सकता है।
(vii) संस्कृत भाषा का सम्मान :स्वामी जी ने पिछड़ी जातियों में जन्मे लोगों में जातिगत आधार पर सामाजिक भेदभाव हटाने का उपाय बतलाते हुए कहा था -"संस्कृत में पांडित्य होने से ही भारत में सम्मान प्राप्त होता है। संस्कृत भाषा का ज्ञान होने से ही कोई तुम्हारे विरुद्ध कुछ कहने का साहस नहीं करेगा। यही एक मात्र रहस्य है, अतः इसे जानलो और संस्कृत पढ़ो।" हमारी सांस्कृतिक विरासत (श्रुति-परम्परा) में निहित जीवन-दायिनी शिक्षाओं के हृदय में प्रवेश करने का मार्ग संस्कृत-अध्यन है। इसीलिये अपने पूर्वज ऋषियों से विरासत में प्राप्त ज्ञान के इस अक्षुण्ण भण्डार पर यदि अधिकार पाना चाहें , तो इस संस्कृत-भाषा को सीखने का हर सम्भव प्रयास करना उचित है। 'संस्कृत' के अतिरिक्त विश्व की जितनी भाषाएँ हैं, उनकी भाषा पहले बनी है, व्याकरण बाद में बना है। किन्तु संस्कृत देवभाषा है, इसका व्याकरण पहले बना है, भाषा बाद में बनी है। इसीलिए यदि सभी सदस्यों को संस्कृत भाषा सीखनी है, तो प्रत्येक केंद्र में संस्कृत व्याकरण का प्राथमिक बुनियादी पाठ्यक्रम (elementary grammatical foundation course ) सिखाने की व्यवस्था की जानी चाहिये। इसके साथ-साथ प्रत्येक केन्द्र में गीता और कुछ प्रमुख उपनिषदों (जिनपर आचार्य शंकर का भाष्य उपलब्ध है) के मुख्य विचारों से अवगत होने के लिए गीता-उपनिषद आदि के पठन-पाठन की व्यवस्था करना उचित होगा।
(viii) विवेकानन्द सार्वजिक पुस्तकालय : जहाँ सम्भव हो सके, उन सभी केन्द्रों में भारतीय सभ्यता और संस्कृति से जुड़ी हुई पुस्तकों, श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त भावधारा से सम्बन्धित पुस्तकों पर आधारित छोटे छोटे पुस्तकालय (Libraries) तथा वाचनालय (Reading room) भी स्थापित किये जा सकते हैं। स्कूल -कॉलेज के छात्रों के लिए उपयोगी पाठ्यपुस्तकों (Textbooks) को भी उसमें संग्रहित करने पर विचार किया जा सकता है।
(ix) प्राथमिक चिकित्सा: स्थानीय प्रयोजनीयता तथा उपलब्ध संसाधनों के अनुरूप अन्य समाजोपयोगी कार्य भी हाथ में लिए जा सकते हैं। जैसे प्रत्येक केन्द्र के कुछ सदस्य प्राथमिक उपचार प्रशिक्षण (first aid training) प्राप्त कर सकते हैं, और जब कभी वहाँ कोई आकस्मिक जरूरत आ जाने पर वे पीड़ित लोगों की सेवा में आगे आ सकते हैं। स्थानीय डॉक्टर एवं प्राथमिक उपचार से परिचित कुशल कम्पाउण्डर्स की सहायता से अन्य प्रकार के चिकित्सा योजनाओं को भी हाथ में लिया जा सकता है। इसके माध्यम से 'होम्योपैथिक दातव्य औषधालय', 'शिशु टीकाकरण केन्द्र' या अन्य प्रकार के 'बाल कल्याण' के कार्यों को किया जा सकता है। गरीब-मुहताज (indigent) बच्चों के बीच दूध वितरण, अन्य खाद्य वस्तुओं, कपड़ों, पुस्तकों आदि का वितरण करने से उन्हें बहुत लाभ प्राप्त हो सकता है। कभी कभी मृत शरीर का अंतिम संस्कार करना भी विशेष कल्याणकारी हो सकता है।
(x) प्रौढ़ शिक्षा (adult education): अशिक्षा को मिटाने में सफल होने के लिए, इस समस्या पर दोनों ओर से हमला करने की जरूरत है। कामकाजी वयस्क, जिन्हें कभी शिक्षा प्राप्त करने का अवसर नहीं मिला, यदि उस शिक्षा को उनके निकट उपलब्ध कर दिया जाये, तो वे भी यथार्थ जिम्मेदार नागरिक बन सकते हैं। निरक्षरता की समस्या के इस पहलु को दुरुस्त करने के लिए, प्र्रौढ़ शिक्षा केन्द्र को विशेष रूप से झुग्गियों या ग्रामीण क्षेत्रों के निकट स्थापित किया जा सकता है।
(xi) अवैतनिक कोचिंग : जिन छात्रों को स्कूल में दाखिला लेने का अवसर मिलता भी है, वे भी किन्तु हमेशा अपने पाठ्यक्रम को लेकर सहज नहीं होते। कई छात्रों को स्कूल में पढ़े विषयों को समझने के लिये बाहरी सहायता की आवश्यकता महसूस होती है। लेकिन कई छात्रों के पास घर में आकर ट्यूशन पढ़ाने लायक शिक्षकों को वेतन देने लायक पैसे नहीं होते। इसीलिए यदि महामण्डल के सभी केन्द्रों में निःशुल्क कोचिंग केन्द्र की व्यवस्था की जाय तो उससे विद्यार्थियों को बहुत लाभ पहुँच सकता है। हर्ष का विषय है कि कई केन्द्रों में यह परियोजना अच्छी तरह चल रही है।
ऊपर में जिन कार्यक्रमों को सूचीबद्ध किया गया है, वे केवल हृदयविस्तार के अनेक सांकेतिक उपायों में से कुछ प्रमुख उपाय मात्र हैं।
(7) समर्पित कार्यकर्ता (Dedicated Workers): यदि उपरोक्त कार्यों को सभी सदस्य परस्पर सहयोग की भावना के साथ मिलजुल कर करते रहें, तब इसीके माध्यम से समर्पित कार्यकर्ताओं/जीवनमुक्त शिक्षकों/नेताओं का एक ऐसा दल गठित हो जायेगा, जो व्यक्तिगत स्वार्थ को देखने के बजाय जनता-जनार्दन की सेवा को ही सर्वोच्च स्थान देंगे। वे कार्यकर्तागण स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए स्वयं एक प्रबुद्ध नागरिक (Enlightened Citizen ) बनने की चेष्टा करेंगे तथा एक श्रेष्ठतर समाज के निर्माण में दूसरों की सहायता करेंगे। वे न केवल स्वयं इस तरह के काम में संलग्न रहेंगे,अपितु समय-समय पर दूसरे केन्द्रों द्वारा आयोजित विशेष अनुष्ठानों में भाग भी लेंगे ताकि एक दूसरे के साथ विचारों का आदान-प्रदान करके अन्य स्थानों पर चलाये जा रहे विभिन्न कार्य-दिशा (line of action) के साथ परिचित हो सकें। ऐसा करने से भारत के विभिन्न राज्यों में स्थापित महामण्डल केन्द्रों के सदस्यों के बीच क्रमशः एक स्वाभाविक भ्रातृभाव (brotherhood) भी जाग उठेगा।
(8) महामण्डल विचारधारा का प्रसार (Diffusion of the Idea): महामण्डल के सभी केन्द्र एवं प्रशिक्षित सदस्य अन्यान्य क्षेत्रों में अपने परिचित मित्रों, रिश्तेदारों आदि के साथ सम्पर्क करके उन्हें भी इसी विचारधारा के अनुसार अपने स्थानों में नये नये केन्द्र खोलने के लिए राजी कर सकते हैं। अथवा इसी भावधारा [विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" अथवा -" Be and Make Leadership Training Tradition "] का अनुसरण करने वाली किसी अन्य संस्था को महामण्डल के साथ 'सम्बद्ध ' कर उसे भी केन्द्रीय सामान्य कार्यक्रमानुसार अपने कार्यक्रम को चलाने के लिए राजी करा सकते हैं। व्यक्तिगत सम्पर्क के आधार पर यह उम्मीद की जा सकती है कि कई स्कूल -कॉलेज के छात्र-शिक्षक इस कल्याणकारी मनुष्य-निर्माण और राष्ट्र-निर्माण के रचनात्मक प्रयास में किसी कार्यरत शाखा या नवप्रतिष्ठित केन्द्र के माध्यम से इसके प्रसार में सहयोग देंगे।
(9) महामण्डल के केन्द्र : इसके वास्तविक अंग ( Its units : The Real Limbs) :महामण्डल से सम्बद्ध शाखायें ही इसके वास्तविक अंग (Limbs-अवयव) हैं। उनके माध्यम से ही महामण्डल की जीवनीशक्ति विभिन्न कार्यक्रम के द्वारा अपने अस्तित्व को अभिव्यक्त और प्रसारित करती है। महामण्डल का केन्द्रीय कार्यालय ( सिटी ऑफिस से कार्यरत महामण्डल की केन्द्रीय समिति) इन समस्त केन्द्रों को जोड़ने वाली ताकत (Connective energy) है, जिसके माध्यम से महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य वास्तविक धरातल पर रूपायित हो रहे हैं। इसलिए महामण्डल के सभी केन्द्र मानो किसी विशाल जीव के सजीव अंग-प्रत्यंग की तरह कार्य करते हैं। वर्तमान में भारत के छह राज्यों में यह कार्य चल रहा है। मार्च 1972 में, इस तरह के कुल 69 केंद्र थे। जनवरी 1975 तक भारत के 6 राज्यों--प० बंगाल, त्रिपुरा, आसाम, बिहार, उड़ीसा, आँध्रप्रदेश और दिल्ल में इसके 64 अनुमोदित (affiliated) केन्द्र कार्यरत थे।अभी जून 2019 में भारत के 12 राज्यों में 315 से अधिक अनुमोदित केन्द्र कार्यरत हैं।
(10) क्रियाकलाप (activities):महामण्डल के विभिन्न केंद्रों में जो प्रमुख कार्य किये जाते हैं, उनमें से कुछ प्रमुख गतिविधियां इस प्रकार है: छात्र प्रशिक्षण केंद्र, वयस्क शिक्षा केंद्र, खेल, ड्रिल, पाठ-चक्र, योग-व्यायाम प्रशिक्षण केंद्र, पुस्तकालय,झुग्गी-झोपडी उन्नयन, दूध वितरण केंद्र, छात्र सहायता केंद्र, प्राथमिक चिक्तिसा केंद्र, संगीत प्रशिक्षण केंद्र, होमिपैथी दातव्य औषधालय केंद्र, सामान्य सहायता, पत्रिका प्रकाशन, कुटीर-उद्योग प्रशिक्षण और उत्पादन केंद्र, छात्रावास आदि। इन सब कार्यों के अलावा, लगभग प्रत्येक केंद्र में -सांस्कृतिक कार्यक्रम, विशेष दिनों का पालन , संस्था के प्रचार के उद्देश्य से सार्वजनिक सभा, शैक्षणिक प्रतियोगिता, एवं उत्स्व आदि मनाये जाते हैं। दरिद्रनारायण सेवा, वस्त्र वितरण, प्राकृतिक आपदायें आने पर गरीबों और असहायों की सेवा, तथा अन्य सभी प्रकार के सेवाकार्य महामण्डल के केन्द्र अकेले या मिलजुल भी कर सकते हैं। यदि पश्चिम बंगाल के बाहर,भारत के विभिन्न राज्यों में स्थापित महामण्डल केन्द्र आवश्यक्ता-नुसार किसी भी विशिष्ठ गतिविधि को संचालित करना चाहें तो, महामण्डल के केन्द्रीय कार्यालय से सम्पर्क करने पर, " Be and Make Leadership Training Tradition " में प्रशिक्षित नेताओं/ शिक्षकों के नाम और मोबाईल नंबर आदि प्राप्त किये जा सकते हैं।
(11) आवधिक विशेष शिक्षा और समीक्षा शिविर (P. S.T. C): इसके अलावा विभिन्न राज्यों में कार्यरत महामण्डल केन्द्रों के स्थायी प्रतिनिधि, सचिव या जिज्ञासु सदस्यो के लिये महामंडल प्रशिक्षण भवन, कोन्नगर (Mahamandal training Hall) में आवधिक प्रशिक्षित शिक्षक सम्मेलन (Periodical Trained Teachers Conference) की व्यवस्था की जाती है, जिसमें विद्वान् शिक्षक [महामण्डल श्रुति -परम्परा" में प्रशिक्षित सभी विषयों के वरिष्ठ शिक्षाविद/ब्रह्मविद शिक्षक] उपस्थित रहते हैं, तथा हमारे मनुष्य-निर्माण आंदोलन से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा करते हैं। इस सम्मेलन में प्रत्येक केन्द्र के प्रशिक्षित शिक्षकों या कार्यकर्ताओं को महामण्डल केन्द्रीय समिति के प्राधिकारी वर्ग (authorities) के साथ विचारों के आदान-प्रदान का अवसर प्राप्त होता है। जब विभिन्न राज्यों में कार्यरत कोई केन्द्र अपने जिला-स्तरीय, राज्य स्तरीय या अन्तराज्जीय कोई युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित करते हैं, तो महामण्डल केन्द्रीय कार्यालय से उपुक्त वक्ताओं को भेजने की व्यवस्था की जाती है।
(12) वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर (Annual Youth Training Camp): महामण्डल का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण सामूहिक प्रयास है -इसका "वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर " जहाँ प्रशिक्षणार्थियों को मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव -'शरीर -मन और हृदय' को सतुंलित रूप से विकसित कराकर उन्हें एक चरित्रवान मनुष्य, देशभक्त और जिम्मेदार नागरिक (Enlightened citizen) बनने का अवसर प्राप्त होता है।इस शिविर के सामान्य प्रशिक्षण कार्यक्रम के अन्तर्गत - मनःसंयोग (mental Concentration), योग और शारीरिक व्यायाम, ड्रिल-परेड, प्राथमिक उपचार प्रशिक्षण (first aid training), खेल-कूद , प्रार्थना संगीत, फिल्म-प्रदर्शन, तथा भारतीय सांस्कृतिक विरासत, सभ्यता और दर्शन, सामाजिक नैतिकता, और श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त विचारधारा आदि विषयों व्याख्यान आदि आयोजित किये जाते हैं। यहाँ सभी प्रशिक्षणार्थियों को यथार्थ आत्मविकास करने का पर्याप्त अवसर प्राप्त होता है। यह शिविर विभिन्न राज्यों से आये प्रशिक्षणार्थियों तथा विशिष्ठ शिक्षकों के बीच सप्रेम एकत्व और भ्रातृत्वबोध जाग्रत कर देता है; तथा यह आध्यात्मिक सम्बन्ध बहुत प्रगाढ़ और दीर्घस्थायी होता है। वार्षिक शिविर में अंश-ग्रहण करने वाले कई लोगों ने शिविर से लौटने के बाद अपने अपने क्षेत्रों में इसी "महामण्डल श्रुति परम्परा" या विचारधारा के अनुरूप महामण्डल के केन्द्र को स्थापित किया है, अपने पहले से चल रही किसी संस्था को महामण्डल के साथ सम्बद्ध करवा लिया है। युवाओं के जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव जो दृष्टिगोचर होता है वह मनःसंयोग, प्रार्थना और विशिष्ठ ढंग की सेवाकार्य (गार्ड-ड्यूटी आदि) प्रशिक्षण का परिणाम है। ये सभी विषय शिविर-दिनचर्या एवं प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में इस प्रकार अन्तर्निहित हैं कि जो उन्हें 'सार्वदेशिक शिक्षा 'Universal education' का व्यावहारिक रूप दिखाई देता है, जिसके परिणामस्वरूप उनकी आदतें, उनका चरित्र और उनके विवेकपूर्ण चिंतन-प्रवाह के निर्माण में दूरगामी प्रभाव उत्पन्न हो जाता है; और उन्हें अपने जीवन का एक निश्चित लक्ष्य और उद्देश्य निर्धारित करने में सहायक सिद्ध होता है। इस प्रशिक्षण-प्रणाली में जिस प्रक्रिया अभ्यास करना उन्हें सिखाया जाता है, वे अभ्यास उनके ऊपर थोपा गया हो, ऐसा उन्हें प्रतीत नहीं होता, बल्कि वे इसे अपने लिए अत्यन्त लाभकारी समझकर स्वाभाविक रूप से ग्रहण करते हैं। यह उम्मीद की जाती है कि भविष्य में और भी अधिक संख्या में कार्यालय लोग हमारे वार्षिक शिक्षण शिविर का लाभ उठाएंगे, जहां उनसे किसी भी विषय पर ऑंखें मूँदकर विश्वास करने के लिए नहीं कहा जाता, या जबरन थोपने की चेष्टा नहीं की जाती। बल्कि उन्हें स्वैच्छिक आत्मानुशासन का अभ्यास करने की अनिवार्यता को समझने में उनको सहायता दी जाती है। इस वार्षिक शिविर के अलावा, कई केंद्रों के द्वारा स्थानीय स्तर पर या जिला स्तर पर युवा प्रशिक्षण शिविर का आयोजन भी किया जाता है, जिससे और अधिक संख्यक युवा इस "महामण्डल श्रुति-परम्परा " में आयोजित शिक्षा का आस्वादन कर सकते हैं।
(13)'विवेक-जीवन' /'विवेक-अंजन': स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं तथा महामण्डल के उद्देश्य का प्रचार करने तथा समस्त केन्द्रों के बीच परस्पर सहयोग की भावना को विकसित करने के लिए, महामण्डल के केन्द्रीय कार्यालय के द्वारा युवाओं को 'विवेक-जीवन ' अर्थात विवेक-प्रयोग का जीवन जीने की प्रेरणा देने के उद्देश्य से एक द्विभाषी (अंग्रेजी और बंगाली) मासिक मुखपत्र 'विवेक-जीवन’ प्रकाशित किया जाता है। तथा महामण्डल के झुमरीतिलैया , कोडरमा, झारखण्ड शाखा से एक मासिक मुखपत्र 'विवेक-अंजन ' का प्रकाशन भी किया जाता है।
(14) महामंडल के हिन्दी प्रकाशन : महामंडल की समस्त पुस्तिकाओं का तथा इसकी संवाद पत्रिका 'विवेक- अंजन' का अध्यन करने से युवाओं को अपना सुन्दर जीवन गठित करने में बहुत सहायता मिलेगी। प्रत्येक जाति और धर्म के युवा इससे लाभान्वित होंगे। यहाँ तक कि जो युवा भाई किसी धर्म या ईश्वर में विश्वास नहीं करते किन्तु भारत से प्यार करते हों तो उनको भी इन पुस्तिकाओं के अध्यन से बहुत लाभ होगा। किशोरावस्था अथवा कम उम्र में मानव जीवन का मूल्य तथा चरित्र-गठन की अनिवार्यता समझ में नहीं आती। और उम्र बढ़ जाने के बाद उस दिशा में प्रयत्न करने पर हताशा ही हाथ लगती है। यदि कम उम्र में ही कोई तरुण इन पुस्तिकाओं का अध्यन कर लें, तो उनके लिए वैसी सम्भावना नहीं रहेगी। इन पुस्तिकाओं का अध्यन करने तथा उनमें दिए गये परामर्शों को अमल में लाने पर युवाओं के जीवन में विफलता कभी नहीं आ सकती।
महामण्डल द्वारा हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकों की सूचि :
1. महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय की आत्मकथा -
"जीवन नदी के हर मोड़ पर " ------- ------------100/=
2. मनः संयोग ( एकाग्रता )..................8/=
3.जीवन गठन ........................................... 5/=
4. चरित्र गठन . ...................................... 8/=
5. चरित्र के गुण .............................................12/=
6. एक युवा आन्दोलन ...................................15/=
7. विवेकानन्द और युवा आन्दोलन ...............15/=
8. जिज्ञासा तथा समाधान ...............................10/=
9. अल्मोड़ा का आकर्षण .................................3/=
10.पुनरुज्जीवन के उपाय....................................1/=
11.नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण-----------15/=
12. युवा समस्या एवं स्वामी विवेकानन्द----- 10/=
13. हमारे लिए करनीय --------------------5/=
14 .स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना-- 15/=
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का हिन्दी प्रकाशन विभाग, झुमरीतिलैया, कोडरमा, झारखण्ड में निम्न पते से कार्यरत है:
Hindi publication division of the Mahamandal.
Tara Tower, Jhumritelaiya, Koderma, Jharkhand .
(15) युवाओं को आह्वान (An Appeal to the youth): हम उन सभी विचारशील नवयुवकों --जो स्वामी विवेकानन्द के नेतृत्व में आस्था रखते हैं, जो मानवजाति को दिए गए उनके अमर सन्देशों तथा राष्ट्र की आत्मा को झंकिर्त कर देने में समर्थ उनके ' call to the nation' या राष्ट्र को आह्वान में विश्वास रखते हैं,---से यह अपील करते हैं, कि वे आगे आयें और ,महामण्डल में शामिल होकर सभी प्रकार के ' Newspaper Humbug'-अख़बारों में 'छपास' और 'दिखास' की प्रवृत्ति एवं नाम-यश की कामना को त्यागकर 'मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-निर्माणकरी शिक्षा ' -' Man-making and Character-building education'- जो -सम्पूर्ण जगत की समस्त बुराइओं को समाप्त करने में सक्षम एकमात्र रामबाण औषधि है- के माध्यम से अपने नये जीवन का श्रीगणेश (3H के विकास की शुरुआत) करने के लिए नीरव भाव से कार्य करने में जुट जाएँ !कोई भी व्यक्ति अथवा शैक्षणिक संस्थान या कोई समाज-सेवी संगठन यदि कार्य में रुचि रखते हों , तो आप महामण्डल के महासचिव (General Secretary) के साथ केंद्रीय कार्यालय के पते पर संपर्क कर सकते हैं। हमारा पता है --
Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal.
6/1A, Justice Manmatha Mukherjee Row,
KOLKATA,
INDIA-700 009
Phone : (033) 2350-6898, 2352-4714
E.mail-abvymcityoffice@gmail.com
Website: www.abvym.org
(16) महामण्डल का संघमंत्र :
संगच्ध्वं संग्वदध्वं संग वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ।।
समानो मन्त्रः समितिः समानी ।
समानं मनः सः चित्त्मेषाम ।।
समानं मन्त्रः अभिम्न्त्रये वः ।
समानेन वो हविषा जुहोमि ।।
समानी व् आकुतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।।
(ऋग्वेद :१०/१९१/२-४ )
भावार्थ :
तुमलोग संघबद्ध हो जाओ, एक लय में बोलो , अपने मानस समूह (विचारों) को समान रूप से जानो ।
पुवर्ती देवता लोग [preceding- come before (something) in time] जिस प्रकार हवि को समान रूप से बाँटकर ग्रहण करते थे, उसी प्रकार परस्पर की अवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए (धन आदि) ग्रहण करो !
उन लोगों के लिए प्रशस्ति (glorification-गुणकीर्तन , महिमागान) एक समान है, उनलोगों की सिद्धि (attainment-लाभ, उपलब्धि) एक समान है, उनके अन्तःकरण (मन,बुद्धि,चित्त,अहंकार) एक समान हैं, उसी प्रकार तुम्हारे विवेकज-ज्ञान एक ही विषय मे एकीकृत हों ! हे देवगण, मैं भी तुम (सबों के) एकीकृत मन्त्र को मानो घनीभूत (consolidate) करते हुए अपना सुधार करता रहूँ; तुम सबों के सामान्य चित्र के समक्ष आहुति प्रदान करता हूँ।
जैसे आपके संकल्प एक समान हैं, आपके हृदय-समूह एक समान हैं, उसी प्रकार हमारे अन्तःकरण समूह भी एक समान हो जाएँ। जो करने से हम सबों में परम एकत्व-बोध स्थापित होता है, वैसा ही हो !
हिन्दी अनुवाद:
एक साथ चलेंगे ,एक बात बोलेंगे ।
हम सबके मन को एक भाव से गढ़ेंगे ।।
देव गण जैसे बाँट हवि लेते हैं |
हम सब सब कुछ बाँट कर ही लेंगे ।।
याचना हमारी हो एक अंतःकरण एक हो।
हमारे विचार में सब जीव एक हों।
एक्य विचार के मन्त्र को गा कर।
देवगण तुम्हें हम आहुति प्रदान करेंगे।।
हमारे संकल्प समान, ह्रदय भी समान।
भावनाओं को एक करके परम ऐक्य पायेंगे।।
एक साथ चलेंगे, एक बात बोलेंगे.......
(17) महामण्डल पताका :
वज्रांकित ध्वज आयताकार (3: 2); गेरुआ कपड़े पर नीले रंग के रेशमी सूते कढ़ाई किया ' वज्र छाप' (त्याग और आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक) होता है।
(18) महामण्डल का प्रतीक चिन्ह :
महामण्डल के प्रतीक चिन्ह में भूगोलक के ऊपर रेखांकित भारतभूमि के कन्याकुमारी पर दण्डायमान परिव्राजक स्वामी विवेकानन्द की मूर्ति उकेरी हुई है। इसके ऊपर देवनागरी अक्षरों में 'चरैवेति, चरैवेति' लिखा है और नीचे अंग्रेजी में: 'BE AND MAKE' लिखा है। शेष सर्कल में, दोनों तरफ छोटे-छोटे 7-7 वज्रों से घिरा है। क्योंकि पूर्णतः निःस्वार्थ मनुष्य चाहे निवृत्ति मार्ग से निर्मित हुआ हो या प्रवृत्ति मार्ग से वह वज्र के जैसा अप्रतिरोध्य हो जाता है।
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