रविवार, 14 जुलाई 2019

दृग-दृश्य विवेक :अध्याय 4: "एकाग्रता की तकनीक" श्लोक 22 से 31 तक

"एकाग्रता की तकनीक" 
                                       “concentration Techniques”
इस प्रकार, अन्वय (agreement) और व्यतिरेक (differences) की पद्धति का अनुसरण करने से, हमें 'तत्' (that-वह) और 'त्वम्' (Thou) का जो निहितार्थ (implied meaning) प्राप्त होता है, वह सच्चिदानन्द ब्रह्म को इंगित करता है। किन्तु इस धारणा (conviction-आस्था) को और दृढ़ करने के लिए साधक को एकाग्रता (Concentration या समाधि) का अभ्यास करना चाहिये। अब 22 वें श्लोक में [बन्द और खुले आँखों से हर नाम-रूप में निरंतर विवेक-दर्शन का अभ्यास करने की तकनीक] समाधि की प्रणाली समझायी जा रही है -
उपेक्ष्य नामरूपे द्वे सच्चिदानन्दतत्परः ।
समाधिं सर्वदा कुर्याद्-हृदये वाऽथवा बहिः ॥ २२॥
द्वे नाम-रूपे उपेक्ष्य [अवज्ञाय मानस-कायेन अ-परम-अर्थत्वेन], सत्-चित्-आनन्द-तत्-परः [सन्] हृदये अन्तर्-करण-विषये वा [वक्ष्यमाण-स-दृशेन] अथवा बहिस् [बाह्य-वस्तु-विषये वक्ष्यमाण-स-दृशेन] समाधिं सर्वदा कुर्यात्॥
(Having become indifferent to name and form and being devoted to Sac-chid-ananda aspects, one should always practice samadhi either within the heart or outside.)
जगत शब्द से लक्षित नाम-रूपों की उपेक्षा करके अपने हृदय में अथवा बाह्य जगत में सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रह्म को ही सर्वत्र देखते हुए उसी में चित्त को समाहित करने/रखने का सतत प्रयास करना चाहिए। 
यहाँ - " उपेक्ष्य नामरूपे द्वे" नाम और रूप को अस्वीकार करके, उसकी उपेक्षा करके मन को सच्चिदानन्द स्वरुप अपने ईष्टदेव की मुर्ति पर ही मन को focused रखने के लिए कहा जा रहा है। यहाँ हृदय में और बाह्य जगत में समाधिं सर्वदा कुर्यात् हृदये वा अथवा बहिः'  एकाग्रता के अभ्यास की तकनीक बताई गयी है। इस श्लोक में  कहा जा रहा है कि एकाग्रता के अभ्यास (के साथ-साथ व्यायाम, प्रार्थना, स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग आदि 5 अभ्यासों) का उद्देश्य है, ब्रह्म को बाह्यजगत (दृश्य में ब्रह्म) और अंतर्जगत (द्रष्टा या साक्षी में ब्रह्म) दोनों स्थानों में आविष्कृत करना।  अंतर्जगत और बाह्य जगत में नाम-रूप की उपेक्षा, या माया की उपेक्षा करके मन को निरंतर ब्रह्म, सच्चिदानन्द 'existing-consciousness-bliss' पर एकाग्र रखना। 
जैसा श्री रामकृष्ण कहते थे क्या जब आँख मूँदकर देखता हूँ, तो माँ काली हैं, खुली आँखों से माँ काली क्यों नहीं दिखनी चाहिए? दो प्रकार की एकाग्रता का अभ्यास क्यों सीखना है ? क्योंकि हमारे मन का गठन ही इस प्रकार हुआ है कि मन हमेशा swing करता है, उसके साथ इन्द्रियाँ भी हमेशा बहिर्मुखी तो कभी अन्तर्मुखी होते रहते हैं। कभी आंतरिक स्वयं के विषय में सोचता है, कभी बाह्य जगत के विषय में सोचता है। अतः दोनों जगह अपने हृदय में और बाहर भी निरंतर विवेक-दर्शन का अभ्यास करना है। अब श्लोक 23 में समाधि के प्रकार कहे जा रहे हैं -
सविकल्पो निर्विकल्पः /
समाधिर्द्विविधो हृदि ।
दृश्यशब्दानुवेधेन /
सविकल्पः पुनर्द्विधा ॥ २३॥
हृदि [व्यष्टौ] समाधिः द्वि-विधः – स-विकल्पः निस्-विकल्पः [च]। पुनर् (भूयस्) स-विकल्पः द्विधा – दृश्य-शब्द-अनुविद्धेन [अनुभव-दृश्य-विषयेण श्रुति-शब्द-विषयेण च], [अथवा ‘अनुविद्धः’ श्रुति-अनुरूपेण स्थापितः इत्यर्थः]॥ 
[Two kinds of Samadhi to be practiced in the heart are known as Savikalpa and Nirvikalpa. Savikalpa-Samadhi is again divided into two classes, according to its association with a cognizable object or a scriptural word.]
अब समाधि का परिचय देते हुए लेखक कहते हैं कि समाधि दो चरणों में सिद्ध होती है। सविकल्प और निर्विकल्प समाधि। सविकल्प समाधि में भी क्रमशः दो चरण होते हैं - दृश्यानुविद्ध और शब्दानुविद्ध। 
अंतर्जगत में एकाग्रता के अभ्यास के लिए 3 तकनीक हैं, बाह्यजगत में एकाग्रता के अभ्यास के 3 तकनीक है। अतः 6 प्रकार की समाधि तकनीक हमें सीखनी है।
एकाग्रता के उद्देश्य को याद रखते हुए , मुझे सबसे पहले अन्तर्जगत में- अपने भीतर, हृदय में ही साक्षी चैतन्य, ज्ञाता, द्रष्टा, ब्रह्म,सच्चिदानन्द, 'existing-consciousness-bliss' को आविष्कृत करना है। हमें अपने हृदय में अवस्थित साक्षी चैतन्य को आविष्कृत करना है, उसका साक्षात्कार करना है, और फिर यह समझ लेना है कि मैं स्वयं वही साक्षी चेतना (witness consciousness) हूँ। ( We have to discover the witness within, and we have to stabilize in that witness.) 
इस भाव में निरंतर अवस्थित रहना कैसे सम्भव हो सकता है ? मैं समझता तो हूँ कि मैं साक्षी चेतना हूँ, किन्तु जैसे ही super highway पर जाता हूँ, सब भूल जाता हूँ। How can I establish in the understanding that I am the witness ? मैं इस मेधा नाड़ी में कैसे जाग्रत रह सकता हूँ, कि मैं कर्ता नहीं साक्षी चेतना मात्र हूँ ? हृदय में किसी वस्तु को धारण कर विचार-निर्माण करते हुए सविकल्प समाधि के तकनीक को देखें-  
 कामाद्याश्चित्तगा /
दृश्यास्तत्साक्षित्वेन चेतनम् ।
ध्यायेद्दृश्यानुविद्धोऽयं /
समाधिः सविकल्पकः ॥ २४॥
काम आद्या चित्तगा दृश्याः तद् साक्षित्वेन चेतनं ध्यायेत् दृश्य अनुविद्धः अयं समाधिः स-विकल्पकः।  
चित्त-गाः (हृदय-स्थाः) दृश्याः काम-आद्याः [भवन्ति]। चेतनं [आत्मानं चैतन्यं] तद्-साक्षित्वेन [काम-आदि-साक्षित्वेन] ध्यायेत्। अयं स-विकल्पकः दृश्य-अनुविद्धः समाधिः॥
[ See the desires etc as objects of perception, and see yourself, the conscious-ness, as their seer. When we deeply meditate on these facts then we glide into an quiet yet awareful state which is called Dryshya prompted Savikalpa-Samadhi, facilitated by seer-seen viveka.]
हृदय में दृष्यानुविद्ध सविकल्प समाधि का अभ्यास करने के लिए इस तथ्य पर गहराई से विचार करो कि 'कामादि सभी वृत्तियाँ जड़ दृश्य हैं ,तथा हम उसके साक्षी चेतन तत्व हैं।' इसके फलस्वरूप जो  अन्तःस्थिति उत्पन्न होती है, उसको ही दृश्यानुविद्ध सविकल्प समाधि कहते हैं।  
 अब इस 24 वें श्लोक में सविकल्प समाधि के प्रथम चरण का उपाय बताया जा रहा है-अन्तर्जगत या हृदय में साक्षी को खोजने के दो उपाय हैं- सविकल्प तकनीक (with thought construct,विचार निर्माण के साथ) और निर्विकल्प (without thought construct- विचार निर्माण के बिना)| सविकल्प समाधि भी दो प्रकार की होती है,"दृश्य-अनुविद्ध" अर्थात किसी पवित्र मूर्त वस्तु की सहायता से एकाग्रता का अभ्यास करने की विधि (with the help of an object) तथा "शब्द-अनुविद्ध" अर्थात पवित्र मंत्र की सहायता से मन को एकाग्र रखने की विधि (with the help of a text)।
जब भी मन में कोई विचार उठते हैं, तो वे किसी वस्तु या विषय के बारे में होते हैं, इसीलिए कहा जाता है -'विचार ही इरादे हैं' (thoughts are intention !) मनःसंयोग करते समय जब मन पर दृष्टि पड़ती है, तब हमलोग देखते हैं कि उसमें अलग अलग वस्तुओं या विषयों के सैंकड़ों-हजारों विचार आ रहे हैं, और जा रहे हैं। कोई व्यक्ति दीखता है, खाने-सूँघने की वस्तु दिखती है। कोई याद हो आती है, उसे पाने के विषय में सोचते हैं। यही प्रक्रिया पूरे दिन चलती रहती है। ये सभी विचार अलग अलग विषयों के होने के कारण एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। मनःसंयोग अर्थात विवेक-दर्शन का अभ्यास करते समय हमारा प्रयास होता है कि उतनी देर तक हम सिर्फ एक स्वामी विवेकानन्द के विषय में, उनके गुरु के बारे में, कालीमंदिर में माँ सारदा देवी के दर्शन के बारे में सोंचें। मानलो कि जब हम विवेक-दर्शन का अभ्यास कर रहे होते हैं, तब उस समय मन में जो विचार उठता है, उस विचार में अन्तर्निहित वस्तु , (content of that thought) होते हैं स्वामी विवेकानन्द! दूसरे प्रकार के विचार भी आते हैं, तो उसे हटाकर सिर्फ स्वामी जी के विषय में सोचने का प्रयास करते हैं। बार-बार मन को बाह्य विषयों खींचकर स्वामी जी की छवि पर मनको एकाग्र करते हैं।
इस प्रक्रिया में  मन के साथ संघर्ष करना पड़ता है। हमारे विचार किसी न किसी विषय या प्रयोजन से अवश्य जुड़े होते हैं, इसलिए कहा जाता है --thoughts are intention. 'किसी मनुष्य के मन में निरंतर बने रहने वाले विचारों को जानकर यह समझा जा सकता है कि उसका अंतिम लक्ष्य (intention) क्या है ? क्योंकि विचार किसी इरादे को पूर्ण करने के लिए मन में उठते हैं। हजारो विचार आते-जाते रहते हैं। सभी विचार अलग अलग विषयों या इरादों को लेकर उठते रहते हैं। एकाग्रता के अभ्यास द्वारा हम मन को किसी एक पूर्वनिर्धारित पवित्र मूर्त आदर्श के विषय में विचार करने को प्रशिक्षित करते हैं।
 जैसे विवेक-दर्शन के अभ्यास में हम मन को आदेश देते हैं कि अभी तुम केवल स्वामी विवेकानन्द के विषय में ही सोचोगे, दूसरे विचार आयेंगे तो उन्हें पहचान कर बार-बार बाहर निकाल देना है। और मन को केवल स्वामी विवेकानन्द के विषय में सोचने का आदेश देना है। यह मन के साथ संघर्ष करना है। बाह्य वस्तुओं में जायेगा तो पकड़कर फिर सामने लाना है। धारणा की वस्तु विभिन्न हो सकते हैं-राम,कृष्ण, बुद्ध, ईसा हो सकते हैं।  किन्तु यहाँ कहा जा रहा है कि विवेक-दर्शन का अभ्यास करते समय यह भी सोचें कि मैं केवल स्वामी जी को ही नहीं देख रहा हूँ, बल्कि उस प्रकाश को भी देख रहा हूँ जो स्वामी जी की छवि से परावर्तित होकर मेरे नेत्रों पर पड़ रही है। तुम इस माइक्रोफोन को नहीं उस प्रकाश को देख रहे हो जो इस माइक्रोफोन से परावर्तित होकर तुम्हारे आँखों पर पड़ रही है। 
विवेक-दर्शन का अभ्यास तीन चरणों में करें। यह केवल विवेकानन्द की छवि नहीं है, तुम उस छवि की अनुभूति भी कर रहे हो। तुम विवेकानन्द के प्रति जितने जागरूक हो, वही उनकी अनुभूति है। स्वामीजी के अतिरिक्त दूसरे विचार भी आ-जा रहे हैं, किन्तु तुम हर समय विवेकानन्द के बारे में सतर्क -जागरूक हो। वह जागरूकता जो तुम्हें स्वामी विवेकानन्द की अनुभूति करने में सक्षम या समर्थ बना रही है, दूसरे विचारों को उठते -लीन होते देखने में समर्थ बना रही है, वह सब क्रियायें तुम्हारी जागरूकता के कारण ही घटित हो रही हैं।
यहाँ कहा जा रहा है कि अपने मन को उस जागरूकता (awareness) पर केन्द्रित करने की चेष्टा करो जो स्वामी विवेकानन्द का चित्र तथा उनके विषय में उठते हुए विचारों को प्रकाशित कर रही है। तुम उस जागरूकता को कभी जान नहीं सकते हो, क्योंकि तुम स्वयं वह 'जागरूकता' ही हो ! क्योंकि बचपन के बहुत सी बातें तुम्हें अभी याद नहीं हैं, फिर भी एक जागरूकता के रूप में तुम उस समय भी उपस्थित थे। इस शरीर के जन्म ग्रहण करने से पहले भी, जब यह शरीर नहीं था, यह अहं-या मन नहीं था, किन्तु वह जागरूकता तब भी उपस्थित थी। यही 'One awareness' एक जागरूकता  मेरे, तुम्हारे हर किसी के विचारों, को अहं-मन को प्रकाशित कर रही है।
 सृष्टि के पहले भी यही एक जागरूकता अस्तित्व में थी। वही ब्रह्म है,अपने उस ब्रह्म स्वरुप में निरंतर अवस्थित कैसे रहा जाय ? use the objects of experience ,स्वामी विवेकानन्द पर मन को एकाग्र करने के बजाय उस जागरूकता पर मन को एकाग्र करो जो उनकी छवि को देखकर उठने वाले विचारों को प्रकाशित कर रहे हैं। जो विचार आ जा रहे हैं, उसको महत्व मत दो, उस पर अटकने के बदले, या उसको नियंत्रित करने की चेष्टा करने के बदले उस जागरूकता पर मन को एकाग्र रखो जो उन विचारों को प्रकाशित कर रहे हैं।
लेकिन वेदान्तिक एकाग्रता-पद्धति  के अनुसार तुमको यह सोचना है कि तुम विवेकानन्द की छवि को नहीं उस प्रकाश को देख रहे हो जो विवेकानन्द के चेहरे से परावर्तित होकर तुम्हरी आँखों पर पड़ रहा है। माइक्रोफोन को नहीं उसी प्रकाश को देख रहे हो , जो माइक्रोफोन से परावर्तित होकर तुम्हारी आँखों पर पड़ रही है। मनःसंयोग की इस वेदान्तिक पद्धति में केवल विवेकानन्द का चित्र ही नहीं है, तुम उनके चेहरे के विषय में जागरूक (aware) भी हो। जब दूसरे वस्तु के विचार आते-जाते हैं, तब तुम उसके विषय में जागरूक रहते हो, और उन्हें बाहर निकालते हो। अब स्वामी के चेहरे से सम्बंधित विचारों पर ही मन को एकाग्र न करो उस awareness (जागते रहने की अवस्था, जाग्रतावस्था सतर्कता, सावधानी, जैसे—क्रांतिकारी जागरूकता) पर मन को एकाग्र रखो जो समस्त विचारों का द्रष्टा है। तुम उस जागरूकता (awareness) को कभी जान नहीं सकते हो, क्योंकि तुम स्वयं ही वह जागरूकता हो। तुम वह जागरूकता हो जो तुम्हारे मन में उठने -लीन होने वाले विचारों को प्रकाशित करता है। बचपन की सभी घटनाएं अभी याद नहीं हैं, किन्तु एक जागरूकता के रूप में तुम उस समय भी थे। 
पिछले जन्म की कोई बात तुम-परुष/स्त्री थे अभी याद नहीं है,पर एक awareness के रूप में तुम तब भी थे। एक ही जागरूकता यहाँ उपस्थित सभी व्यक्ति के विचारों को प्रकाशित कर रही है। जागरूकता यानि बाहरी संसार (external world) और भीतरी संसार (internal world) की सम्पूर्ण जानकारी, उचित-अनुचित की जानकारी, जीवन के  सच्चाई की जानकारी, मानव जीवन के औचित्य और उद्देश्य की जानकारी अर्थात् मैं कौन हूं की अच्छे से जानकारी को सीधे सरल शब्दों में जागरूकता कहते हैं।
जागरूकता (awareness )का वास्तविकत आशय है - 'दृष्टिं ज्ञानमयी कृत्वा पश्येत ब्रह्ममय जगत'- अर्थात अपने हृदय के भीतर और बाहर के संसार को ब्रह्ममय देखते रहना। इसी प्रकार खुली आँखों से ध्यान करने से  'दृष्टिं भक्तिमयी कृत्वा पश्येत भगवानमय जगत' को देखने का अभ्यास करते रहने से, जो जागरूकता (awareness) उत्पन्न होती है, वह वेदान्तिक जागरूकता अंतर्जगत (भीतर का संसार) और बाह्यजगत (बाहर के संसार) में भेदबुद्धि को  मिटा देती है। विवेकज-जागरूकता मैं-मेरे के सारे भेद मिटा देता है और मैं कौन हूं, तुम कौन हो, जगत क्या है, के अर्थ और उद्देश्य को अच्छे से समझा देता है। इस वेदान्तिक जागरूकता का सीधा सम्बन्ध निःस्वार्थपरता से है, आंतरिक रूप से जागरूक मनुष्य स्वार्थ शून्य हो जाता है, अहंकार शून्य हो गया, क्रोध शून्य हो गया, प्रतिशोध शून्य हो गया और दुनिया से लेना कम हो गया। 
वेदान्तिक जागरूकता का तात्पर्य है - ईश्वर की सत्ता पर भरोसा, स्वयं की क्षमताओं पर भरोसा, दुनिया को कुछ देने की ललक, प्रेम से परिपूर्ण जीवन, सर्वकल्याण को समर्पित जीवन हर पल आनंद से ओत-प्रोत जीवन, सुंदर जीवन, सच्चा जीवन, शाश्वत जीवन और युगों-युगों को प्रेरित करने वाला जीवन।  जागरूकता यानि सजग जीवन-चैतन्य जीवन अर्थात् चिंतन पर आधारित जीवन, मंथन से निकला जीवन। करोड़ों वर्ष पहले जब इस पृथ्वी पर जीवन का प्रारम्भ नहीं हुआ था, तब भी वह awareness था! बिगबैंग के पहले भी जो awareness था वही जागरूकता मैं हूँ, तुम हो, हम सभी लोग हैं। हमारी मुख्य समस्या है कि उस awareness में हम सदैव स्थित कैसे रहें ? 
जब भी दृश्य या शब्द को देखने -सुनने के कारण कोई विचार मन में उठे तब -उस विचार को अधिक महत्व मत दो, उस विचार पर अटक (stuck) जाने, बदलने या उसको नियंत्रण (control) करने की चेष्टा करने के बजाय, become yourself aware of shining upon that thought- स्वयं को उस विचार को प्रकशित करने वाली जागरूकता (awareness) बन जाओ। इस श्लोक में कहा जा रहा है - काम आद्या दृश्याः चित्तगा (चित विलास,भवविलास) -तुम्हारे चित्त- मन में कई प्रकार के विचार,काम (desires)-कामिनी-कांचन आदि विषय-भोग की इच्छाएं, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मात्सर्य,स्मृतियाँ, अनुभतियाँ,अच्छे विचार, भक्ति, प्रेम की बातें, आती-जाती हैं उनको रोको मत, बस साक्षी भाव से देखते रहो।
 यहाँ कहा जा रहा है -चित्त-गाः (हृदय-स्थाः) दृश्याः काम-आद्याः [भवन्ति]। तुम्हारे मन में हर समय कई प्रकार के विचार, यादें अनुभूतियाँ आती हैं, जाती हैं, बुरे विचार - काम (desires)-कामिनी-कांचन आदि विषय-भोग की इच्छाएं, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मात्सर्य,स्मृतियाँ, अनुभतियाँ,अच्छे विचार, भक्ति, प्रेम, करुणा,दया की बातें, आती-जाती हैं उनको रोको मत, जिस जागरूकता के प्रकाश में वे अनुभितियाँ आ रही हैं, उस जागरूकता को बस साक्षी भाव से देखते रहो। 
दृश्या माने अंतर्जगत में जो दृश्य -विचार आदि दिखाई दे रहे हैं -तद्-साक्षित्वेनचेतनं [आत्मानं चैतन्यं] [काम-आदि-साक्षित्वेन] ध्यायेत्। उन विचारों की साक्षी उस शुद्ध चेतना को देखते रहो। उस शुद्ध चेतना को अपने ध्यान का विषय बनाने की चेष्टा मत करो, क्योंकि तुम स्वयं वह शुद्ध चेतना हो । मनःसंयोग का अभ्यास करते समय जो विचार मन में उठ रहे हैं, वह मैं नहीं हूँ। जो सोंच रहा है वह thinker या सोचने वाला मैं नहीं हूँ। वे विचार मेरी जागरूकता में प्रकाशित हो रहे हैं। जो विचारों का ज्ञाता है वह मैं नहीं हूँ। क्योंकि सोचने वाला जिन विचारों को सोच रहा है, वे विचार मेरे ही प्रकाश से प्रकाशित हैं। जो विचार अभी मन में उठ रहे हैं, 10 वर्ष पहले इनमें से कोई विचार मन में नहीं थे। किन्तु जागरूकता के रूप में उस समय भी तुम उपस्थित थे। don't focus on the thought focus on the witness consciousness. विचारों पर मन को एकाग्र मत करो, मन को साक्षी चेतना पर ही एकाग्र करो।हमने कभी अपने कमरे के रोशनदान से सूर्य की रौशनी को छन कर आते देखा होगा -तो उस रौशनी में बहुत छोटे छोटे धूल कण भी दिखाई देते हैं। 
कल्पना करे कि हम वह सूर्य-प्रकाश हैं, जिसमें धूलकण चमक रहे हैं। यह सिर्फ एक उदाहरण हैं, हम सूर्य-प्रकाश से भी हजारों गुना सुंदर आत्मा हैं। सूर्य की रौशनी वह साक्षी चेतना हैं, जिसमें हजारो प्रकार के विचार आजा रहे हैं। तुम सोचने वाले thinker नहीं हो, insistent thinking से अपने को मुक्त करो। सोचने वाला 'अहं'-भाव या मैं -बोध तो तब उपस्थित होता है, जब सुबह में हम सोकर उठते हैं, उसके पहले वह वहां नहीं था। 
स्वप्नावस्था में अहं था, किन्तु गहरी नींद के समय सोचने वाला अहं-मन नहीं था। किन्तु साक्षी के रूप में तुम तब भी थे।  तुम ही गहरी निद्रा में शून्यता का अनुभव करने वाले हो,(aware of the the blankness of deep sleep) मन के द्वारा जिस स्वप्न राज्य का निर्माण हुआ था उसके प्रति तुम सचेतन थे ,इस जाग्रत अवस्था अहं-मन और इन्द्रियों द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाले जगत भौतिक जगत के प्रति तुम सचेत (aware) या अवगत हो। you are that unchanging immortal awareness - तुम वही अपरिवर्तनीय अजर-अमर अविनाशी जागरूकता (awareness) हो। तद्-साक्षित्वेन चेतनं ध्यायेत् दृश्य-अनुविद्धः अयं - इस प्रकार with the help of an object, दृश्य (विवेकानन्द की छवि जन्य विचारों) की सहायता से अपने को साक्षी चेतना में स्थिर (stabilize) करो। अयं स-विकल्पकः समाधिः॥ इसी को विचार-विशेष (विवेक-दर्शन) की सहायता से प्राप्त होने वाली सविकल्प समाधि कहते हैं।
शुद्ध चेतना या जागरूकता के लिए विचार दृश्य हैं, किन्तु भ्रमवश हम विचारों को द्रष्टा, ज्ञाता व्यक्ति (subject) मान लेते हैं, और बाह्य जगत को दृश्य वस्तु (object) समझ लेते हैं। (to consciousness to awareness thoughts are objects, We mistake that thought are the subject and the world outside is object .) उदाहरण के लिए जब दर्पण में हमारे चेहरे का प्रतिबिम्ब दीखता है, हमारा सीधा चेहरा नहीं दीखता।यहाँ कह रहे हैं कि चेहरे को देखते समय तुम यह महसूस करो, इस सत्य के प्रति जागरूक या सचेत रहो कि तुम न तो दर्पण हो, न उसमें प्रतिबिंबित चेहरा हो। वास्तविक चेहरा वह है, जिसका प्रतिबिम्ब दर्पण पर पड़ रहा है। इस प्रकार विचार करने वाले अहं या मन (thinking mind) से अपने true self के बीच की दूरी प्रति जागरूक रहना है। श्लोक 25, अगले चरण का अभ्यास - 
असङ्गः सच्चिदानन्दः /
स्वप्रभो द्वैतवर्जितः ।
     अस्मीति शब्दविद्धोऽयं /
   समाधिः सविकल्पकः ॥ २५॥
“सः अ-सङ्गः, सत्-चित्-आनन्दः, स्व-प्रभः, द्वैत-वर्जितः [आत्मा अहम्] अस्मि” इति, अयं स-विकल्पकः [श्रुति-]शब्द-विद्धः समाधिः॥
[ Using the scriptural pointers as: I am Existence- Consciousness-Bliss, unattached, self-luminous and free from duality etc., one should go deep into the truth of seer, and abide in that Self.  This is known as the Savikalpa-Samadhi facilitated by scriptural words.]
इसके बाद शब्दानुविद्ध सविकल्प समाधि का अभ्यास करना चाहिए। महावाक्यों में स्वरूप के विषय में जो लक्षण कहे गए हैं -जैसे असंग, सच्चिदानद, स्वप्रकाश, द्वैत रहित आदि तत्व कहे गए हैं; वह मैं ही हूँ। इन्हें अपने ध्यान का विषय बनाकर स्व-स्वरूप का और गहराई से ज्ञान प्राप्त करके -उसी शाश्वत साक्षी चैतन्य की अनुभूति में  समाहित होकर स्थित रहने को शब्दानुविद्ध सविकल्प समाधि कहते हैं। 
आंतरिक जगत के समाधि का दूसरा चरण। हमने सुना था - दृश्य (विवेकानन्द की छवि) जन्य विचारों की सहायता से अपने को साक्षी चेतना में स्थिर (stabilize) करो। अब हमलोक आंतरिक शब्दविद्ध समाधि पर चर्चा करेंगे। हम जब समझ गए कि दर्पण में चेहरे का जो प्रतिबिम्ब दीखता है, वह मैं नहीं हूँ -तो फिर उसको क्यों देखूं ? दर्पण में दिखने वाला चेहरा मेरा है, उस विचार/भ्रम को ही मन से हटा दें। तुम कभी अपने स्वरूप को स्वयं नहीं जान सकते हो, इसलिए वेदान्तिक शब्द की सहायता से अंतर्जगत में इन्द्रियातीत सत्य को खोजने की विधि कही जा रही है।
वेदान्तिक शब्द (चार महावाक्य) वह दर्पण है, जो कहता है, वास्तव में तुम क्या हो ! मैं अपने को ही सुनाऊँगा - मैं अहं-मन में उठने वाले विचारों से पूर्णतया असङ्ग हूँ-completely unattached,असम्बद्ध या पूर्णतया स्वतंत्र हूँ। यह भी वेदान्त का शब्द है। आज तक और अभी तक तुम्हें जिस विषय का भी अनुभव हुआ है, वह सब आने -जाने वाले अनुभव ही थे ! व्यक्ति जिनसे मुलाकात हुई,भोजन का स्वाद,कर्णप्रिय गजल-गीत, फूलों की सुंगंध-सभी गुजर गए। हमारी चेतना के सामने जो भी विचार या दृश्य उपस्थित हुए सभी गुजर गए। यह शरीर भी निरंतर बदल रहा है। आज जो मेरे सबसे प्रिय और पूजनीय व्यक्ति [C-in-C] है, एक दिन वे भी नहीं रहेंगे। आज जितनी भी परिसम्पत्तियाँ मेरे अधिकार में (possession) में हैं, एक दिन और शायद जल्दी ही ? 😇नहीं रहेंगी। मेरा घर, बैंक बैलेंस, कार, यह शरीर भी नहीं रहेगा।
 इन सब अनुभूतियों में तुम एक चेतना थे, हो और रहोगे। यह चेतना प्रत्येक विचार से, प्रत्येक वस्तु से पूर्णतया अ-समबद्ध है। प्रमाण है- प्रत्येक रात्रि में जब तुम गहरी निद्रा में सो जाते हो, यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड आपकी मुट्ठी से फिसल जाता है। इस दुनिया की कोई वस्तु तुम्हारे साथ नहीं होती जब तुम गहरी निद्रा में होते हो। यदि किसी रोज मैं गहरी निद्रा से उठ ही सकूँ तो मेरा क्या रह जायेगा ? यह देह, मेरी योजनाएं सब धरी रह जाएँगी।
 प्रवृत्ति मार्गी गृहस्थ कैसे इस असङ्गता का अभ्यास कर सकते हैं? वेदान्त कहता है, तुम्हें अनासक्ति का अभ्यास करने की जरूरत ही नहीं है ! तुम तो अभी और इसी समय अपने सबसे प्रिय व्यक्ति या सम्पदा से इसी समय पूर्णतया असम्बद्ध (unattached) हो ! जगत में सबसे बड़ी ममता, लगाव या आसक्ति (attachment) माना जाता है जो किसी युवा माँ को अपने शिशु से होता है।हर समय उसका ध्यान अपने बच्चे पर ही लगा रहता है। किन्तु वह माँ भी जब रात में गहरी निद्रा में सो जाती है, उस समय विश्व की सबसे प्रिय वस्तु -पालने में सोये अपने शिशु को भूल जाती है। उस अवस्था में वह बड़े आनन्द के साथ जाती है।
असङ्गो अस्मि, सच्चिदानन्दः अस्मि - 'मैं स्वरूपतः वही असङ्ग सच्चिदानन्द अर्थात  'existence-consciousness-bliss हूँ'-  इस वेदान्तिक शब्द का प्रयोग करो। स्वप्रभो अस्मि -जगत की प्रत्येक वस्तु तुम्हारे ही प्रकाश से चमकती है ( everything depends on you for its illumination) तुम किसी पर निर्भर नहीं हो, तुम जगत के प्रकाशक हो। 
अब अत्यन्त शक्तिशाली शब्द कहे जा रहे हैं -'devoid of duality' द्वैतवर्जितः अस्मि- मैं हूँ !  तुम द्वैत की भावना से वर्जित हो।श्रीरामकृष्ण-आरात्रिकम्‌ में हमलोग रोज शाम को गाते हैं -'ज्योतिर ज्योति, उज्जवल हृदिकंदर तुमि तम भंजन हार।' वास्तव में हम सब वही स्वप्रकाश साक्षी चैतन्य- 'Light of lights'- this is what we really are. हैं !क्योंकि 'consciousness ' चेतना स्वयं अस्तित्व (existence -विद्यमानता) है! बाह्य जगत और अंतर्जगत में जिस किसी वस्तु का अस्तित्व है, जो कुछ भी दृष्टि गोचर होता है, या अनुभव में आता है, वह सब शुद्ध चेतना में ही अवस्थित है। उससे भिन्न कुछ भी नहीं है, देह-मन आदि वस्तुएं चेतना से अलग कोई भिन्न पदार्थ नहीं हैं। ये हमारे अपने अस्तित्व के ऊपर माया द्वारा प्रक्षिप्त नाम-रूप हैं। यह आपका अस्तित्व है जो आपको अपने मन, शरीर और इस पूरे ब्रह्मांड के रूप में दृष्टिगोचर होता है। it is your own existence which appear to you as your mind body and this entire universe. तुम और मैं जो आद्य चेतना primordial consciousness हैं, उससे भिन्न किसी भी वस्तु का अस्तित्व नहीं है। 
श्रीरामकृष्ण देव अपने को माँ भवतारिणी काली की सन्तान (अवतार) समझते थे, इस नाते वे हमारे पिता हैं, माँ श्री सारदादेवी हमारी अपनी माँ हैं, स्वामी विवेकानन्द हमारे बड़े भाई हैं ! महामण्डल श्रुति -परम्परा अर्थात " विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" - Be and Make Leadership Training Tradition में प्रशिक्षित " C-in-C " नेतावरिष्ठ नवनी दा भी हमारे बड़े भाई हैं। इस प्रकार हम सब एक ही परिवार के हैं।
बाइबिल में भगवान मूसा से कहते हैं, जगत के अस्तित्व में आने से पहले जो था वह मैं था -"I AM THAT I AM !” ...में  वही आद्य चेतना (primordial consciousness) हूँ ! [जलती हुई झाड़ी के पास खड़ा होकर मूसा ने परमेश्वर से यही प्रश्न किया था, “आपका नाम क्या है?” परमेश्वर ने यह कहकर उत्तर दिया था, “मैं जो हूं सो हूं।”। "I am who am I am" हिब्रू भाषा के ‘मैं हूं ' शब्द से यहवेह (YHWH) नाम आया है। इसलिये यहवेह या यहोवा कहना ‘मैं हूं’ कहना ही है।  यूहन्ना (८:१२),  में प्रभु ईसा ने यहूदियों से कहा “जगत की ज्योति मैं हूं! ”लेकिन उन्होंने अपने शिष्यों से भी स्पष्ट कहा था, “तुम जगत की ज्योति हो” (मत्ती ५:२४)। “मैं और पिता एक हैं” (यूहन्ना १०:३०)फिर परमेश्वर ने कहा, “हम मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार अपनी समानता में बनाएं” (उत्पत्ति १:२६)।  प्रभु यीशु के शब्द स्पष्ट हैं। इसलिए ईसाई धर्मावलम्बी कहते हैं - परमेश्वर हमारे भी पिता हैं। हम उनकी सन्तान हैं। यीशु हमारे बड़े भाई हैं। हम सब एक ही परिवार के हैं।  
यहूदियों की प्रतिक्रिया कैसी थी? उन्होंने यीशु को मारने के लिये पत्थर उठा लिये थे। उनको लगा था वे परमेश्वर होने का दावा कर रहे थे। यीशु ने कभी भी सीधा नहीं कहा, “मैं परमेश्वर हूं।” लेकिन उन्होंने ऐसे शब्दों का उपयोग किया जो उनके श्रोताओं के लिये समान अर्थ वाले थे।  यहूदियों ने अपनी बात स्पष्ट रखी, “हम तुम्हें इनमें से किसी भी (अच्छे कामों) के लिये नहीं मार रहे,” यहूदियों ने उत्तर दिया, “परन्तु ईश्वर निन्दा के लिये, क्योंकि मनुष्य होकर तुम अपने आप को परमेश्वर बना रहे हो।”
हम सभी लोग हैं-अस्मि ! दूसरे चरण में इन सारे शब्दों को बारबार अपने मन में दुहराते रहो। उसके बाद तीसरे चरण की साधना में इन शब्दों को भी मन से निकाल देना होगा। यह कहना भी छोड़ देना है,  क्योंकि शब्द भी विचार हैं - अतः महामण्डल द्वारा निर्देशित मनःसंयोग प्रणाली में प्रत्याहार-धारणा तक का ही अभ्यास करने को कहा जाता है। क्योंकि आंतरिक ध्यान और निर्विकल्प समाधि करने की चीज नहीं है, यह अवस्था प्रयास करने से प्राप्त नहीं होती, माँ जगदम्बा की कृपा से स्वतः प्राप्त हो जाती है !! करते रहने से, नहीं होता। तीसरा और अंतिम चरण है श्लोक 26 -

स्वानुभूतिरसावेशा/
द्दृश्यशब्दावुपेक्ष्य तु ।
निर्विकल्पः समाधिः /
स्यान्निवातस्थितदीपवत् ॥ २६॥
दृश्य-शब्दान् उपेक्षितुः [अवज्ञानिनः मानस-कायेन] स्व-अनुभूति-रस-आवेशात् [स्व-ज्ञानम् एव स्व-रूप-अनुभवः तस्य आवेशात् अ-भेद-भावात्], समाधिः [व्यष्टौ] निस्-विकल्पः स्यात्, नि-वात-स्थित-दीपवत्॥
[The Nirvikalpa-Samadhi is that in which the mind becomes steady like the light kept in a place free from wind and in which the student becomes indifferent to both objects and words on account of his complete absorption in the bliss of the realization of the Self.]
दृश्य और शब्दानुविद्ध सविकल्प समाधि के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले तत्व-विवेक के कारण जब एक तरफ स्वानुभूति के दिव्यरस का अत्यधिक आविर्भाव होता है, तथा दूसरी तरफ विवेक-वशात ही समाहित अवस्था के रस से भी निरपेक्ष होकर निवातस्थ दीपक के समान स्थित रहते हैं, तब निर्विकल्प समाधि सहजता से प्राप्त हो जाती है।
स्व-अनुभूति-रस-आवेशात्-जब इस एकाग्रता का अभ्यास करेंगे, अपने यथार्थ स्वरूप की अनुभूति हो जाने के बाद, एक प्रकार के आनन्द का नशा जैसा छा जायेगा। एकाग्रता चाहे ह्रदय में हो या बाहर हो, शुद्ध ब्रह्म (existence-consciousness -bliss_) और उसके नाम-रूप में विवेक जाग्रत होते ही चित्त निर्वात दीप-शिखा की भाँति निर्विकल्प समाधि को प्राप्त हो जाता है। और मानो सिर पर बहुत भारी बोझा उतर जायेगा। स्वयं को यह छोटा देह-मन समझकर सारा जीवन इसके दुःख-सुख की कहानी को अपना जीवन, इसके दोष-अपराध (guilt) को अपना दोष समझकर जिस अपराध बोध से हम पीड़ित थे, वह सब डर -भय एकदम समाप्त हो जायेगा। मुक्ति और अमरत्व की भावना की आश्चर्यजनक अनुभूति होगी। पूर्णत्व में अवस्थित होने का अहसास होगा। यह आनन्द कोई ख़ुशी का मनोभाव नहीं है, यह पहले से वहाँ है, मन के ख़ुशी के मनोभाव से अनन्त गुना सच्चा आनन्द है, यह मन में नहीं है,इन्द्रिय-मन के परे से आता है, और वहाँ छलकता है।
तब दृश्य-शब्दान् उपेक्षितुः - दृश्य (विचारों) और शब्द (निःसङ्ग अस्मि) की उपेक्षा करके कुछ करना नहीं है, just relax.... कुल मिलाकर एक ऐसी अवस्था, जहाँ वे सब बातें हैं जो पृथ्वी अन्य किसी स्थान पर नहीं है, यह एक ऐसा स्थान है जहां आकर हृदय आनन्द से भर जाता है, और अहं रहता ही नहीं है, मन में परमशांति की अनुभूति होती है। यह उदाहरण गीता 6.19- से लिया गया है - यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।  यथा दीपः निवातस्थः =जिस प्रकार कोई =दीपक, ( windless place)वायु रहित स्थान में रखे जाने पर स्थिर  न =नहीं,  इङ्गते= चंचल flickering, हिलता-डुलता नहीं रहता। मन की चंचल अवस्था -निष्कंप दीपक की लौ के समान स्थिर हो जाती है। जब इस ज्योति को वायु के झकोरों से सुरक्षित रखा जाता है तब यह उर्ध्वगामी ज्योति स्थिर हो जाती है। जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक में कम्प नहीं होता वैसी ही उपमा आत्मा के ध्यान में लगे हुए उस योगी के समाहित चित्त की कही गयी है। मन वहाँ है,पूर्णतः चेतन जाग्रत है, किन्तु सामान्य वैषयिक इच्छाओं के कारण चंचल रहने वाला मन जब ध्यान के समय शान्त किया जाता है तब वह स्थिर हो जाता है और मन में एक अखण्ड ब्रह्माकार वृत्ति बनी रहती है। इसी को निर्विकल्प समाधि कहते हैं।
इसका बार बार अभ्यास करने से एक नए प्रकार की self identity विकसित हो जाती है। हम सदा इस बात से अवगत रहते हैं कि मैं यह देह-मन नहीं हूँ -"I AM THAT I AM !” मैं वह (सच्चिदानन्द) हूँ ! जो निर्विकल्प समाधि में प्रकट होती है। यह पहले से ही था , निर्विकल्प समाधि प्राप्त होने से इस विषय में सारे संशय मिट जाते हैं। यह अवस्था हमारे लिए केवल एक सिद्धांत नहीं रह जाता। इसके बाद कोई प्रश्न नहीं रह जाता। स्वर्ण को जान लेने से उसके नाम-रूप में परिवर्तन होने से भी हम जानते हैं कि वह स्वर्ण है। स्त्री-पुरुष, जीव -जगत हैं किन्तु सभी ब्रह्ममय हैं। जैसे रंगबिरंगे फूलों की माला में एक ही सूत पिरोया हुआ रहता है। सारी समस्याएं नाम-रूप में हैं शुद्ध चेतना में कोई समस्या नहीं है। भारत में मेला लगता है, उसमें चीनी की बनी विभिन्न आकृतियों के छोटे-छोटे खिलौने होते है, शेर, हिरण, हाथी, चूहा आदि रंगकर बने रहते हैं। लड़का कहता है, मैं वह शेर लूंगा। खिलौने वाला कहता है, वह तो समाप्त हो गया। माँ कहती है कोई भी ले लो, सब तो चीनी की मिठाई है। लड़का पूछता है हाथी -चूहा एक कैसे हो सकता है ? माँ लड़के से गहरी अवस्था में पहुंचके व्यवहार करती हैं, क्योंकि वह जानती है कि सब चीनी से बने हैं। नाम-रूप रहेंगे, M/F शरीर रहेगा पर विवेकज ज्ञान होने पर उसके पीछे का सत्य भी सदैव प्रकाशित होता रहेगा ।
 [श्लोक 24,25,26 ये तीन श्लोक आंतरिक एकाग्रता की पद्धति की व्याख्या करते हैं। ]  अद्वैत वेदान्त के मतानुसार अंतर्जगत में और बाह्यजगत में ब्रह्म,सच्चिदानन्द, अस्तित्व-चेतना-परमानन्द-पूर्ण, 'existence -consciousness-bliss-absolute' ही एक मात्र सत्य हैं। हमारे अंतर्जगत में साक्षी चेतना का प्रतिम्बित मन रूपी दर्पण पर पड़कर जब परावर्तित होता है उसको-'चिदाभास' (reflection of consciousness) कहते हैं। यह कोई अटकलबाजी (speculation)  नहीं वैज्ञानिक सत्य है। हमलोग इस समय अपने को जो देह-मन संयुक्त चेतन मनुष्य अनुभव कर रहे हैं, वह चेतनता प्रतिबिंबित चेतना से प्राप्त हुई है। यह साक्षी चेतना (pure consciousness) अन्तःकरण या मन साथ संयुक्त होने से मन इन्द्रिय विषयों का ज्ञाता (reflected consciousness, कर्ता) बन जाता है। साभास अन्तःकरण या साभास बुद्धि का नाम कर्ता (अहं) है। keep this distinction in mind साक्षी चेतना (pure consciousness) और ज्ञाता (reflected consciousness) में जो पार्थक्य है, उस अन्तर को सदा अपने ध्यान में रखना चाहिए।
अविवेक-काल में देह के साथ तादात्म्य-अभ्यास करते करते हमलोग  हर समय अपने को ज्ञाता -विचार कर्ता (Thinker) के रूप में ही देखते हैं। किन्तु वास्तव में हम सिर्फ मन में उठने वाले विचारों के साक्षी हैं। साक्षी और प्रमाता (knower) के बीच जो अन्तर है वह अविवेक के कारण माया की आवरण शक्ति के द्वारा छिप (obscured ) जाता है। माया शक्ति कहाँ काम करती है ? हर समय हमारे भीतर ही काम करती रहती है। हमलोग साक्षी के बारे में द्रष्टा-दृश्य विवेक के बारे में पढ़ते हैं, किन्तु अपने को कभी साक्षी के रूप में समझ नहीं पाते हैं। हर समय अपने को हम ज्ञाता के रूप में ही जानते हैं। यह तो हमारे अंतर्जगत की अवस्था है।  इसीलिए साभास अंतःकरण - विशिष्ट चेतनरूप जो जिव है वह मानों बैल (भारवाहक) बन गया है । क्योंकि अज्ञान अवस्था में कर्तृव्य,भोक्तृत्व, राग, द्वेष इत्यादि जो अंतःकरण के धर्म हैं, वैसे ही प्राण, इन्द्रिय और देह के जो धर्म हैं उस भार को, अविवेक-काल में उठाता है। अविवेक काल में देह के साथ तादात्म्य-अभ्यास करते करते अहं भारवाहक बैल बन जाता है और हम्मा -हम्मा करता रहता है। काफी पिटाई होने के बाद जब धुनिया के धुनकी पर चढ़ता है, तब तूँ तूँ करता है।
           फिर जब हम बाह्यजगत की ओर देखते हैं, [राहुल, सोनिया, ममता,मुलायम,लालू-केजरी-अन्ना आदि को देखते हैं वे कौन हैं]   वेदान्त जोर देकर कहता है कि यह भी ब्रह्म है, शुद्ध अस्तित्व ही है।  किन्तु इसके ऊपर नाम-रूप का पर्दा पड़ा हुआ है। माया की विक्षेप शक्ति (projecting power) के कारण, नाम और रूप का परत (सर्प) शुद्ध अस्तित्व (ब्रह्म, pure existence रज्जु) को ढँक देता है। इसलिए हमें ब्रह्म + नाम और रूप का अनुभव होता रहता है। बाह्य जगत में जिस किसी वस्तु का हमें अनुभव होता है, वह नाम-रूप धारी ब्रह्म ही हैं (जनेऊधारी ब्राह्मण ?😊, भी सच्चिदानन्द , existence- consciousness-bliss ही हैं)। 
इस प्रकार बाह्य जगत में हम ब्रह्म +माया को देखते हैं। हमारे सम्मुख पहला कार्य- अंतर्जगत में अपने को ज्ञाता के रूप में नहीं साक्षी के रूप में ढूंढ़ निकालना है। और बाह्य जगत में उस ब्रह्म को आविष्कृत करना है जो नाम-रूप के आवरण से ढँक गया है। हमलोग जिस 6 प्रकार के आन्तर-बाह्य समाधि तकनीक (technique) को सीखने का प्रयास कर रहे है, वह technical training, तकनीकी प्रशिक्षण हमें अंतर्जगत और बाह्यजगत में ब्रह्म का दीदार करने में सहायता करता है।हम विवेक-प्रयोग करना सीखकर साक्षी (चेतना) और प्रमाता (नाम-रूप धारी बैल-अहं) को अलग अलग रूप में देख सकने में समर्थ हो जायेंगे।
 हमलोगों ने अब तक 3 आंतरिक विवेक-प्रयोग पद्धति के विषय में सुना है। पहला है आन्तर दृष्यानुविद्ध सविकल्पक समाधि (internal object-based meditation-आंतरिक वस्तु-आधारित साक्षी और प्रमाता का ध्यान ), दूसरा तकनीक है आन्तर शब्दानुबद्ध सविकल्पक समाधि (internal text -based meditation with the distinction of the knower and the known,ज्ञाता और ज्ञेय के भेद के साथ आंतरिक पाठ-आधारित ध्यान), तीसरा तकनीक है -आन्तर निर्विकल्पक समाधि (highest nirvikalpa samadhi without distinction of knower and known,ज्ञाता और ज्ञेय और ज्ञान के बीच  भेद-रहित उच्चतम निर्विकल्प समाधि। 
जब तुम स्वयं को हृदयस्थ साक्षी के रूप में अनुभव करना चाहते हो, उसके टेक्निक में बताया गया कि किसी पवित्र छवि को (स्वामी विवेकानन्द) सामने रखकर, उससे उत्पन्न विचारों का जो साक्षी है, उस पर मन को एकाग्र करो। उस समय अच्छा-बुरा जैसा भी विचार मन में उठे उसमें अटकने या बदलने के बजाय जो उन विचारों का साक्षी है -उस पर मन को एकाग्र करो। दर्पण में जैसा चेहरा दीखता है, उसमें दर्पण का दोष नहीं है-दोष वास्तविक चेहरे में आ गया है। जबकि तुम्हारा सच्चा स्वरूप तो सच्चिदानन्द है ! उस जागरूगता (awareness) पर मन को एकाग्र करो जिसके प्रकाश में ये विचार प्रकाशित हो रहे हैं।
जब तुम पर्याप्त रूप से समझ गए कि तुम साक्षी चेतना हो प्रतिबिंबित अहं रूपी बैल नहीं हो, तब इस विचार को छोड़ दो। इस विचार को छोड़ने में वेदान्त के महावाक्य-'असङ्गः सच्चिदानन्दः स्वप्रभो द्वैतवर्जितः ।' की सहायता लो। यह साक्षी चेतना असङ्ग (अनासक्त) ही है। इसको बार बार अपने को सुनाओ और साथ साथ देखते भी रहो कि तुम देह-मन के भारवाहक बैल (नाम-रूप का तादात्म्य वाला अहं) नहीं हो, साक्षी हो। 
" संवित एषा स्वयं प्रभा" -- इसकी ज्योति में सबकुछ प्रकाशित हो रहा है। अंत में देखो कि उस साक्षी में द्वैत नहीं है -द्वैतवर्जितः। नाम-रूप से अहं के तादात्म्य का विचार छोड़ देने के बाद वेदान्त के सूत्र (text) तुमको साक्षी स्वरूप में दृढ़ रूप से स्थिर रहने में सहायता करते हैं। बार महावाक्यों का उच्चारण तुम्हें व्यर्थ के विचारों में अटकने नहीं देंगे। उसके बाद-दृश्य-शब्दान् उपेक्षितुः दृश्य और शब्द दोनों की उपेक्षा करना है। 
विचार को त्याग चुके थे, अब शब्द (वेदान्त सूत्र) को भी छोड़ दो, और सिर्फ के साक्षी रूप में रहते हुए देखो -आज, अभी ऐक्सिडेन्ट में मरता कौन है ? आत्मा तो साक्षी है, तो मरेगा कौन ? [ऊँच, रोहनिया, बनारस 14 -4 -1992 सुबह 5 बजे ऐक्सिडेंट जोरदार होगा !] दृश्य और शब्द की उपेक्षा करते ही it will happen by itself ! यह स्वतः घटित होगा -तुम अपनेसाक्षी चैतन्य में स्थित हो जाओगे। जैसे 'pole vault' स्पोर्ट्स में लम्बे डंडे की सहायता से ऊँची छलांग लगाते समय लम्बे डंडे को अच्छी तरह से धरती पर टेकते हुए, बाधा रस्सी को पार करने के बाद उस लम्बे डंडे को इसी तरफ छोड़ देना पड़ता है। 
उसी प्रकार वेदान्त सूत्र (text) को भी इधर ही छोड़ दो। अगर लम्बे डंडे को पकड़े हुए उधर कूदोगे तो बहुत बड़ी दुर्घटना (disaster) हो जाएगी। जैसे कोई व्यक्ति नौका की सहायता से नदी के उस पार पहुँच जाने के बाद सोंचे कि इतनी अच्छी नौका थी; मुझे इसको अपने साथ ढोकर ले जाना चाहिए। विवेक-दर्शन में उत्पन्न विचार वे उपाय हैं, जिसकी सहायता से तुम विचार को छोड़कर अपने साक्षी स्वरूप को जान लेते है। वेदान्तिक सूत्र - 'असङ्गः सच्चिदानन्दः स्वप्रभो द्वैतवर्जितः ।' भी उपाय है, इसका उपयोग करो, इसको मानसिक रूप से बार बार दुहराते रहो; और साक्षी (witness) बन जाओ। और यह देखने का प्रयास करो तुम मन-बुद्धि-अहंकार-चित्त नहीं हो साक्षात शिव हो।
 पुरुषोत्तम दास जलोटा का संगीत 'चिदानन्द रूपः शिवोहं शिवोहं !'सुनते सुनते  निर्विकल्पक समाधि स्वतः आयेगी, साक्षी चैतन्य में अवस्थित होने का प्रयास नहीं करना पड़ेगा। वेदान्त सूत्र को अक्षरशः याद कर लेना अनिवार्य है। डी सिंह में गीता कंठस्थ कर लेने की क्षमता है। संस्कृत क्षेत्र की परंपरागत परीक्षा-पद्धति का नाम है 'शलाका परीक्षा'। शलाका परीक्षा :संस्कृत विद्यार्थी की वह परीक्षा जिसमें ग्रंथ में शलाका डालने जो पृष्ठ सामने आ जाय उसी की परीक्षा ली जाती थी; बताओं तुम्हें श्लोक याद है या नहीं ?हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि देहाध्यास अर्थात M/F शरीर को ही 'मैं 'मान लेना, या देह के साथ तादाम्य कर लेना, ही हमारे लिए अंतर्जगत और बाह्य जगत की रचना कर देता है। बाह्यजगत में जो कुछ दृष्टिगोचर होता है वह अपरिवर्तनीय शुद्ध चैतन्य (अविनाशी, अस्तित्व-संस्कृत शब्द सत् ) है, किन्तु उस पर नाम-रूप का आवरण चढ़ा है इसलिए परिवर्तनीय (नश्वर) जैसा प्रतीत होता है। 
 जैसे स्वर्ण का अस्तित्व है, आभूषण का नाम-रूप माया है। उपादान वस्तु स्वर्ण है। आभूषण के वजन और स्वर्ण के वजन में 1 मिलीग्राम का भी अन्तर नहीं होता। अब हमें सीखना है कि बाह्यजगत के नाम-रूप से ब्रह्म सत् को पृथक कैसे किया जाय ?  
पर्दे को सिनेमा से अलग करके देखने की पद्धति क्या है ? किन्तु मनुष्य-जीवन रूपी जो सिनेमा साक्षी चैतन्य रूपी पर्दे पर चल रहा है, इसको स्विचऑफ नहीं किया जा सकता। हर रात में यह सिनेमा भी स्विचऑफ होता है, किन्तु तुम नहीं रहते अहं-मन भी स्विचऑफ हो जाता है, इसलिए तुम चेतना और नाम-रूप को, सत्य (reality) और प्रतीति (appearance) को पृथक-पृथक नहीं देख सकते। इसको अलग अलग देखने की पद्धति श्लोक 27 में कही जा रही है -
हृदीव बाह्यदेशेऽपि /
यस्मिन् कस्मिंश्च वस्तुनि ।
समाधिराद्यः सन्मात्रा/
न्नामरूपपृथक्कृतिः ॥ २७॥
हृदि इव, यस्मिन् कस्मिन् वस्तुनि बाह्य-देशे [समष्टौ] अपि च, आद्यः [स-विकल्पः दृश्य-अनुविद्धः] समाधिः सत्-मात्रात् नाम-रूप-पृथक्-कृतिः [नाम-रूप-विवेकः]॥
[ Like the samadhi prompted by drig-drishya,one should now practice samadhi using any external objects. Here the first step is to discriminate between names & forms and pure existence.]
जिस प्रकार अपने हृदय में (इस ग्रंथ के प्रथम श्लोक से प्रारम्भ कर समाधि तक गति हुई) उसी प्रकार बाह्य जगत में भी किसी विषय को निमित्त बनाकर सर्वप्रथम दृश्यानुविद्ध समाधि सिद्ध करने हेतु विषय के अन्तर्गत सत्स्वरूपता से नाम-रूप को पृथक करना चाहिए। 
 हमने ऑंखें मूँद कर अंतरजगत में अवस्थित साक्षी को देखने की तीन पद्धतियाँ को समझा था। यहाँ Open Eyed meditation, खुली आँखों से ध्यान करने की तकनीक बताई जा रही है। आँख खोल कर क्या देखें? जो कुछ तुम देख सकते हो। यदि तुम्हारा उद्देश्य मिट्टी को जानना है, तो मिट्टी बने किसी भी बर्तन को देख सकते हो। घड़ा, सुराही, हाथी, घोडा के नाम-रूप में फर्क है, किन्तु उपादान सबका मिट्टी ही है। यदि समुद्र की तरंगों में पानी को देखना चाहते हो, तो किस तरंग को देखोगे ? यदि तुम शुद्ध अस्तित्व (ब्रह्म,pure existence ) को देखना चाहते हो तो किसी भी मौजूदा चीज (existing thing) को देख सकते हो। और उस वस्तु के -नाम-रूप-पृथक्-कृतिः [नाम-रूप-विवेकः] करके केवल अस्तित्व को देखो। इस टेबल से लकड़ी को physically (प्राकृतिक रूप से) अलग नहीं किया जा सकता। यहाँ हमें कहा जा रहा है कि मानसिक रूप से तुम यह पहचान लो कि लकड़ी के सिवा टेबल और कुछ नहीं है। 
 कोई दार्शनिक श्रेणी का भक्त 50 वर्षों से इसी विचार में लगा हुआ था कि भगवान का अस्तित्व है या नहीं, और जब उसकी समझ में आ जायेगा कि भगवान हैं, तभी वह मंत्र-दीक्षा लेगा। स्वामी शिवमायानन्द जी, मुमुक्षानन्द जी, सुहितानन्द जी- जैसे बड़े बड़े सन्यासियों से उसने पूछा - 'अजात-वाद' की साधना कैसे होती है ? what is the practice of highest non dualism ajat vada ? आप यह कैसे कह सकते हैं, कि जगत नहीं है-जो कुछ दिख रहा है वह ब्रह्म ही है ? 
स्वामी मुमुक्षानन्द जी ने उत्तर दिया - कल्पना करो कि कोई बच्चा नगर की कोलाहल से दूर घने जंगल में अपने माँ-बाप के साथ रहता है। एक दिन उसके पिता किसी नजदीक के गाँव में अपने परिचित के घर पर ले जाता है। वहाँ वह बच्चा एक टेबल-चेयर [लकड़ी का अन्य नाम और रूप ] देखता है। पिता कहते हैं,देखो यह कुर्सी है और यह टेबल है। 
बच्चा पूछता है टेबल कहाँ है ? यह तो लकड़ी है। चेयर कहाँ ? यह भी लकड़ी है। इस विशेष प्रकार के रूप या आकार का नाम कुर्सी है, उस विशेष रूप को टेबल कहते हैं। पर इसमें लकड़ी के सिवा, ऐसी नयी चीज क्या है कि आप इसको टेबल कह रहे हैं ? वह कहेगा नाम-रूप ही विशेष वस्तु (thing) है, जिसके कारण उसे टेबल कहा जा रहा है। किन्तु नाम-रूप को आप कोई अलग वस्तु कैसे कह सकते हैं ? यदि अलग वस्तु होता तो उसे लकड़ी से अलग करके देखा जा सकता था। क्या आप लकड़ी के बिना कोई टेबल दिखा सकते हैं ?  नहीं ! क्योंकि बच्चा तो सत्यार्थी था --वह केवल सत्य को देख रहा था।
 उसी प्रकार आत्मज्ञान प्राप्त आत्मा केवल ब्रह्म को ही 'वस्तु' कहता है। ब्रह्म से भिन्न जगत की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है, इसलिए उसको 'अवस्तु' कहता है। हमें जिस किसी वस्तु, व्यक्ति या पदार्थ का अनुभव हो रहा है-वे सब अस्तित्ववान हैं।
गीता 2/16 -नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।2.16।। जैसे चक्षु द्वारा निरूपण किया जाने पर घटादि का आकार मिट्टी को छोड़कर और कुछ भी उपलब्ध नहीं होता इसलिये असत् है।  वैसे ही सभी विकार, कारण के सिवा उपलब्ध न होने से असत् हैं। आचार्य शंकर कहते हैं -घड़े को देखते समय आप दो चीज देख रहे हैं - "घट अस्ति!" घड़े को और उसके अस्तित्व को दोनों को देख रहे हैं। हमें जो भी वस्तु दृष्टिगोचर होती है वह अस्तित्व के रूप में दृष्टिगोचर होती है। इसमें कुछ संदेह नहीं है। सभी वस्तुएं यहाँ अलग-अलग दिख रही है, M/F पृथक -पृथक दिख रहे हैं। किन्तु 'स्त्री अस्ति'/'पुरुष अस्ति' -दोनों रूपों में अस्तित्व (existence) एक सामान है। वैसे ही जैसे घड़े और मिट्टी में, टेबल और लकड़ी में, तरंग और पानी में अस्तित्व एक समान है। विशाल काय प्राणी-'हाथी' में अस्तित्व की मात्रा अधिक नहीं होती। उसका नाम-रूप बड़ा होता है, 'चूहा' का नाम-रूप छोटा होता है किन्तु अस्तित्व (existence-consciousness -bliss) दोनों में एक समान रहता है। हमें अपना मन अस्तित्व पर एकाग्र रखना है, स्त्री-पुरुष के नाम-रूप पर नहीं।
पहले विवेक-प्रयोग द्वारा नाम और रूप से शुद्ध अस्तित्व को अलग करना होगा isolating pure existence from name and form: अलग करने के बाद जो रह जाता है -वही मैं हूँ !  ज्ञानी [C-in-C] की दृष्टि X-ray जैसी होती है, जो शरीर से (M/F आकृति से टकरा कर) परावर्तित नहीं होती उसके भीतर प्रविष्ट होकर सीधा हड्डी को (अस्थि या अस्तित्व) को देखती है। ज्ञानमयी दृष्टि बाह्य-आकार और नाम में अटकती नहीं है, जगत को ब्रह्ममय देखती है। 
महात्मा की दृष्टि-में जगत कैसा दीखता है ? जो पशु से मनुष्य में, मनुष्य से महात्मा उन्नत हो गया है -उसकी दृष्टि ऐसी होनी चाहिए। इसीलिए गीता में बार बार कहा गया है -समदर्शित्व - अर्थात जिसका मन साम्यभाव में स्थित है, उसने सर्ग को जीत लिया है। अतः जिस वस्तु या व्यक्ति को देखो अपनी दृष्टि केवल उसके अस्तित्व या सत् पर एकाग्र रखो। किन्तु नाम-रूप के बिना, तुम किसी अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकते। क्योंकि ब्रह्म या सत् कहीं बाहर में नहीं है, तुम स्वयं वह सत् वस्तु हो ! वेदान्त कहता है - तुम केवल चित् (pure-consciousness) ही नहीं बल्कि, सत् (pure existence) या अस्तित्व भी तुम स्वयं ही हो। तुम स्वयं ही बाह्य जगत में विभिन्न नाम-रूपों के जीवंत कारण हो।  
यह है अद्वैत -वेदान्तिक एकाग्रता का प्रथम चरण जिसमे अपनी जागरूकता (awareness) में नाम-रूप से शुद्ध अस्तित्व सत् (pure existence) को पृथक करने के लिए कहा जा रहा है। इसी ज्ञामनमयी-दृष्टि के द्वारा संत-महात्मा (पैगम्बर ईसा आदि ) लोग, अमीर -गरीब, ज्ञानी-अज्ञानी, दोस्त -दुश्मन में एक ही अस्तित्व को देखते है। ठाकुर तो टाका -माटी में भी नाम-रूप हटाकर एक ही अस्तित्व को देखने में समर्थ थे। 
 जब हम लोग भी हर वस्तु में शुद्ध चेतना (शाश्वत चैतन्य) को देखने में समर्थ हो जायेंगे, तब दूसरा चरण की साधना है -जिसमें दृश्य पदार्थ के नाम-रूप को छोड़ देना है। एक बार किसी शिष्य ने अपने गुरु [C-in-C] से पूछा था - 'जब ब्रह्म ही सत्य हैं, तब माया के इस नाम-रूपमय जगत की आवश्यकता क्या थी?' उस जीवन्मुक्त नेतावरिष्ठ शिक्षक ने उस छात्र भावी शिक्षक (चिन्मयानन्द स्वामी) को कहा - जल ले आओ, प्यास लगी है। वे लोटे में नीचे नदी से जल भर कर गुरु के पास ले गए। किन्तु कमरे में प्रवेश करते ही गुरु ने फटकारते हुए कहा तुमने मेरी आज्ञा का पालन क्यों नहीं किया ? शिष्य ने कहा - आपने तो जल माँगा था। तुम क्या लेके आये ? जी मैं लोटे में जल भर के लाया तो हूँ ! [C-in-C] ने पूछा  - क्या मैंने लोटा लाने के भी लिए कहा था ?  
 [जब दादा ने अपना "C-in-C" वाला बैज मुझे पहली बार दिया था, और कैम्प में प्रश्नोत्तरी क्लास लेने को कहा था , उस समय किसी कैम्पर ने हिन्दी में पूछा था - " माया क्या है ? स्पष्ट रूप से समझाने की कृपा करें !" बंगला प्रश्नों का उत्तर समीर दासगुप्ता दे रहे थे, और हिन्दी प्रश्नों का उत्तर तो मुझे ही देना था। शायद मैंने उसको माया की शक्ति समझाने के लिए रज्जु-सर्प का उदाहरण दिया था --किन्तु सच तो यह था कि प्रश्न को सुनकर मैं स्वयं हतप्रभ रह गया था -कि उस लड़के को कैसे समझाऊँ ? क्लास से लौटने पर दादा से मैंने पूछा इस तरह के प्रश्नों का उत्तर कैसे देना चाहिए ? दादा ने फटकार लगाते हुए कहा था -" कि आमा के-तोमाके अबार बोलते हबे जे माया की ?तुमि जानो ना ? " ऐसे बोलना प्रारम्भ करो --"जिसे स्पष्ट रूप से नहीं समझाया जा सकता वही है -माया !"
नाम-रूप की आवश्यकता इसी लिए पड़ी की प्रथम शिक्षक [C-in-C] नवनीदा /जगतजननी माँ काली, ठाकुरदेव  तुम्हारा पूरा 'Concentration' ध्यान अस्तित्व पर केंद्रित कराना चाहते थे। वह शिष्य जो भावी नेता था -[Would be Leader-था] समझ गया कि गुरु क्या कहना चाह रहे थे? यही कि जिस प्रकार तुम बिना बर्तन के पानी को नहीं ला सकते, उसी प्रकार नाम-रूप (पात्र) के बिना तुम ब्रह्म की अनुभूति भी नहीं कर सकते।  
जितने भी नाम-रूप है ( बिजोन पण्डा,एस के पाधी, KJN, ननकू,Bh) आदि वे हमारे जैसे साधारण लोगों के लिए, ब्रह्म को हमसे छिपा लेते हैं, जबकि ज्ञानी के लिए, जीवन्मुक्त व्यक्तियों के लिए  सभी नाम-रूप आनन्द (delight) दायक हैं, क्योंकि सभी नाम-रूप उनके सामने ब्रह्म को ही प्रकट करते हैं। किसी भी वाद्य-यंत्र के मधुर स्वर को सुनकर श्रीरामकृष्ण समाधि में चले जाते थे। व्रह्म का कोई भी व्यंजक (suggestion) उन्हें ब्रह्म की अनुभूति करवा देता था। कोई छाता खोल रहा था , उन्हें याद हो आया कि-ससीम में असीम छिपा है, और मन समाधि में चला गया था। घसियारा घास काट कर सामर्थ्य से ज्यादा बड़ा गट्ठर उठाने की चेष्टा कर रहा है, कोई भी स्वरुप उद्दीपक संकेत उन्हें समाधिस्त कर देता था। अब वेदान्तिक text की सहायता से साक्षी की अनुभूति का श्लोक 28 - 
अखण्डैकरसं वस्तु /
सच्चिदानन्दलक्षणम् । 
इत्यविच्छिन्नचिन्तेयं /
समाधिर्मध्यमो भवेत् ॥ २८॥
“[इदं] वस्तु अ-खण्ड-एक-रसं सत्-चित्-आनन्द-लक्षणं [अस्ति]” इति इयं अ-विच्छिन्न-चिन्ता [वि-जातीय-प्रत्यय-रहित-स-जातीय-प्रत्यय-प्रवाह-रूपा चिन्ता] मध्यमः [द्वितीयः स-विकल्पः श्रुति-शब्द-अनुविद्धः] समाधिः भवेत्॥
 [The entity which is always of the same nature and unlimited and which is characterized by Existence- Consciousness-Bliss, is verily Brahman. Such uninterrupted reflection is called the intermediate absorption,that is the Savikalpa-Samadhi associated with scriptural word.]
तत्पश्चात यह सत्ता अखण्ड, एकरस, सच्चिदानन्द स्वरुप ब्रह्म ही हैं ; इस प्रकार के किसी न विषय को निमित्त बनाकर, सतत तत्व-विवेक बनाये रखना मध्यम प्रकार की अर्थात शब्दानुविद्ध सविकल्प समाधि होती है। 
लेखक यहाँ यह बता रहे हैं कि अब तुम्हारे लिए किसी भी दृश्य वस्तु (नाम-रूप) को छोड़कर सिर्फ वेदान्त सूत्र का श्रवण-मनन -निदिध्यासन ही पर्याप्त है। अस्तित्व तो सदैव अभंग (unbroken) या अखण्डित रहता है। सभी नश्वर नाम-रूप के भीतर अविनाशी अस्तित्व छिपा हुआ है। वास्तव में अखण्ड अस्तित्व पर ही नश्वर नाम-रूप आरोपित हो गया है। समुद्र का तरंग है, या तरंग का समुद्र है ? जब तरंग नहीं था, तब पानी था, जब तरंग है तब पानी है, जब तरंग उतर जायेगा (subside) तब भी पानी ही रहेगा। ठीक उसी प्रकार शुद्ध-चैतन्य , अविभाज्य (indivisible), अस्तित्व के समुद्र में नाना प्रकार के असंख्य नाम-रूप मय जगत का तरंग उठता -गिरता रहता है। जगत की प्रत्येक वस्तु विशाल हो या लघु, छोटा सा बुलबुला भी शुध्द अस्तित्व के समुद्र का ही एक तरंग है।
अष्टवक्र गीता 15/11 में कहते हैं -
त्वय्यनंतमहांभोधौ    विश्ववीचि:     स्वभावत:।
उदेतु  वास्तमायातु  न  ते  वृद्धिर्न  वा  क्षति:॥
[त्वयि अनन्तं महाम्भोधौ विश्ववीचि: स्वभावतः। उदेतु वा अस्तं आयातु न ते वृद्धिर्न वा क्षतिः। ] 
 अनंत महासमुद्र रूप तुम में लहर रूप यह विश्व स्वभाव से ही उदय और अस्त को प्राप्त होता है, इसमें तुम्हारी क्या वृद्धि या क्षति है। मैं ही वह अनंत महासमुद्र रूप हूँ । लहर रूप-मेरा यह शरीर भी उस साक्षी  चैतन्य में उदित-अस्त हो रहा है । और यह विश्व भी, अपने स्वभाव से ही -" उदय और अस्त " को प्राप्त होता रहता है। इसमें मेरी-तुम्हारी । क्या वृद्धि या क्षति है ? यह अपने से हो रहा है, इसे होने दें।
स्वामी विवेकानन्द ने 100 साल पहले यहीं कैलिफोर्निया में कहा था -Buddha and Shankara, Christ and Krishna are waves of the ocean which I am . ' अखण्ड एक रसं वस्तु -हम सभी लोग वही अखंड (undivided) चेतना के समुद्र हैं। जगत की वस्तुएं विभाजित हैं, अस्तित्व विभाजित नहीं है (objects are divided,existence is not divided) क्योंकि दो वस्तुओं के बीच आकाश (space) का अस्तित्व है।
एक रसं -अस्तित्व हर जगह एक प्रकार की वस्तु है, मंदिर की मूर्ति में अधिक पवित्र मूर्ख-दरिद्र में कम पवित्र नहीं है। जो सूर्य की किरण गंगाजल भरे घट में पड़ती है, और जो नाले के जल में पड़ती है उससे वह गंदी नहीं हो जाती। नाम-रूप जो भी हो अस्तित्व हर समय एक जैसा रहता है। वह सच्चिदानन्दलक्षणम् है आनन्द स्वरूप है। इति इयं अ-विच्छिन्न-चिन्ता-यह अखंड विचार है- It is unbroken thought. भोजन मंत्र (गीता 4.24) का स्मरण करें -
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
                                       ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।

अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है।। ब्रह्मार्पणम जिस कड़छुल से तुम अग्नि में हवि अर्पित कर रहे हो, वह कड़छुल भी नाम-रूप है, उसको भूल जाओ, वह भी ब्रह्म (अस्तित्व) ही है। जिस घी को तुम अर्पण कर रहे हो वह भी नाम-रूप उसको भूल जाओ वह भी ब्रह्म है। जिस अग्नि में हवन कर रहे हो ,वह भी नाम-रूप है, किन्तु वास्तव में ब्रह्म ही है। और तुम जो अपने को शिक्षक/पुरोहित समझकर अर्पण कर रहे हो, पुरोहित [C-in-C] भी नामरूप है, तुम भी पुरोहित/नेता/शिक्षक नहीं हो तुम शुद्ध अस्तित्व हो। शुद्ध अस्तित्व ही, शुद्ध अस्तित्व से, शुद्ध अस्तित्व को, शुद्ध अस्तित्व में अर्पित कर रहा है। ब्रह्मकर्म समाधिनः जो भी कर्म तुम करो, उसमें इसी प्रकार ब्रह्म को देखो। तुम ब्रह्म को ही प्राप्त हो जाओगे। यह अभ्यास निरंतर करते रहो।   किन्तु अभी नौसिखिया हो, अतः अति करने से बचना (दूसरों की नकल मत करना-'अजय' दादा के जैसा आँख से अश्रु निकालने की चेष्टा नहीं करना !) नहीं तो - एक ब्रह्म दूसरे ब्रह्म को कार से टक्कर मार देगा।  ऐक्सिडेंट का खतरा हो जायेगा। ऐसा करते करते निर्विकल्प समाधि स्वतः आ जाएगी।
स्वामी ब्रह्मानन्द जब शरीर छोड़ने वाले थे उनके चारों और लोग खड़े होकर ईश्वर का नाम जप कर रहे थे तो किसी ने पूछा क्या थोड़ा नारियल-पानी पिएंगे ? उस समय भी उन्होंने कहा था -'ब्रह्म को ब्रह्म में अर्पित करो। ' श्लोक २९  
स्तब्धीभावो रसास्वादात्तृतीयः पूर्ववन्मतः ।
एतैः समाधिभिः षड्भिर्नयेत् कालं निरन्तरम् ॥ २९॥
[यः] स्तब्धी-भावः (स्थिर-भावः) [स्व-विज्ञानं] रस-आस्वादात् पूर्ववत् [रस-आवेशात्], [सः समाधिः तृतीयः [समष्टौ निस्-विकल्पः] मतः। एतैः षड्भिः समाधिभिः [व्यष्टि-समष्ठि-दृश्य-शब्द-चथुर्-स-विकल्प-समाधिभिः व्यष्टि-समष्ठि-द्वि-निस्-विकल्प-समाधिभ्यां च] निस्-अन्तरं कालं नयेत्॥
[The insensibility of the mind as before,on account of the experience of Bliss, is designated as the third kind of Samadhi (Nirvikalpa). The practitioner should uninterruptedly spend his time in these six kinds of Samadhi.]
जब स्वानुभूति के रसास्वादन से स्तब्धीभाव तुल्य अवस्था हो जाती है, तब तीसरे प्रकार की - अर्थात निर्विकल्प समाधि हो जाती है। इस प्रकार छह समाधियों के अभ्यास में अपना काल व्यतीत करना चाहिए।
स्तब्धी भावः -पूर्ण तन्मयता (absorption) की अवस्था, या नाम-रूप की विस्मृति में पूर्णतया खो जाना। स्वामी अशोकानन्द उस अवस्था के विषय में लिखते हैं -उस समय तुम्हें ऐसा प्रतीत होगा मानो कोई विश्व-ब्रह्माण्ड के सूर्य-चंद्र आदि सभी नाम-रूपों को रबड़ से मिटाता जा रहा है। रस-आस्वादात् -रस का अर्थ है आनन्द, उस तीव्र आनन्द का नशा छा जायेगा, चिदानन्द रूपः शिवोहं का नशा, यह निर्विकल्प समाधी में ले जायेगा। वहाँ ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का भेद नहीं रहेगा -मैं बोध, कर्ता अहं कुछ नहीं रहेगा। वह प्रत्येक वस्तु 'मन और वाणी ' भी जिसकी सहायता से तुमने साक्षी अस्तित्व को जाना था वह छूट गया।  
अब शब्द वेदान्त सूत्र- 'अखण्डैकरसं वस्तु सच्चिदानन्दलक्षणम् ।' भी छूट गया। छोड़ना नहीं पड़ा स्वतः निर्विकल्पक समाधि में चले गए। आध्यात्मिक नशा (spiritual intoxication) सा छाया रहेगा। एतैः षड्भिः समाधिभिः -हमलोगों 3 अंतर्जगत की समाधि और 3 बाह्य जगत के समाधि के तकनीक को समझ लिया है। अब क्या करना है ?             
अब हमें उसका अभ्यास करना है , कितनी देर और किस समय करना है ? कालं नयेत् निरन्तरं -spend your time without break, अंतराल के बिना अपना समय बिताओ ! वेदान्तिक छात्र को इस 6 प्रकार के समाधि का अभ्यास हमेशा करना है। एक प्रकार के एकाग्रता अभ्यास से ऊब गए , तो दूसरे टेक्निक से करो,उससे ऊब गए तो तीसरे टेक्निक से समाधि?/प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास करते रहो। या फिर से पहले टेक्निक में आ जाओ; और इस प्रकार 6 प्रकार की समाधि के लिए उपयोगी प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास करने में ही अपना समय बिताओ। जितनी अधिक देर तक इसका अभ्यास करेंगे उतना अधिक ब्रह्म स्वरूप सत्य होता जायेगा।
 जिस समाधि के विषय में केवल सुना था , अब वह तुम्हारे लिए एक जीवंत सत्यता बन जाएगी।  तुम्हें सचमुच एक रसं -homogeneous, की अनुभूति होने लगेगी - एक जैसा अस्तित्व, जो देवी-देवता में है, वही अस्तित्व एक कीड़े में भी है ! अंतर् केवल नाम-रूप में है। रामकृष्ण कहते थे केवल ब्रह्म ही वस्तु है और सभी नाम-रूप अवस्तु हैं। माया, नाम-रूप से लेकर अज्ञान तक, देह-मन आदि तक अवस्तु है।इस प्रकार सभी प्रकार के दुःखों को जीत लेना सम्भव हो जायेगा। दुःख के कारण केवल नाम-रूप में हैं। जो व्यक्ति अपने को नामरूप से अलग सच्चिदानन्द स्वरूप में पहचान लेगा -वह बीमारी, निराशा, कुंठा और दुःख कारण रहने से भी दुखी नहीं होगा। सफलता असफलता, मान -अपमान, से ऊपर उठ जायेगा। जीवन और मृत्यु का भय समाप्त हो जायेगा। यदि पूरी गंभीरता से कुछ दिनों तक हम 6 प्रकार की समाधि का अभ्यास करेंगे तो उसका परिणाम क्या होगा ? वह हमलोग अगले क्लास में जानेंगे।
 वेदान्त सार ग्रंथ में पहले पढ़ाया जाता है -[Vedanta Saara - Sadanand Yogindra Saraswati https://indiaspirituality.blogspot.com] साधन-चतुष्टय संपन्न प्रमाता/अधिकारी जब विधि के अनुसार गुरु के पास जाता है तब वह गुरु उसपर परम-कृपा करके अध्यारोप-अपवाद की प्रक्रिया से वेदान्त उपदेश देते हैं।
असर्पभूतायां रज्जौ सर्पारोपवत् वस्तुनि अवस्तुः आरोपः – अध्यारोप॥
अन्वयः – असर्पभूतायाम् रज्जौ सर्प-आरोपवत् वस्तुनि अवस्तुः आरोपः अध्यारोपः।
अन्वयार्थः – (असर्पभूतायाम्) ऐसी रस्सी जिसका स्वरूप किसी भी काल में सर्प नहीं है, (रज्जौ) उस रस्सी में (सर्प-आरोपवत्) सर्प के आरोप के समान ही (वस्तुनि) ब्रह्म में (अवस्तुः) संसार/नानात्व/माया का (आरोपः) आरोप (अध्यारोपः) अध्यारोप/अध्यास कहलाता है।
वस्तु सच्चिदाननदमद्वयं ब्रह्म अज्ञानादि सकल जड समूहोऽवस्तु॥
[अन्वयः – वस्तु सत्-चित्-आनन्द-अद्वयम् ब्रह्म; अज्ञान-आदि-सकल जड-समूहः अवस्तु।] अन्वयार्थः – (वस्तु) वस्तु कहते हैं (सत्-चित्-आनन्द) सत् चित् आनन्द स्वरूप (अद्वयम्) अद्वितीय (ब्रह्म) ब्रह्म को; तथा (अज्ञान-आदि-सकल जड-समूहः) अज्ञान आदि जो भी सकल जड पदार्थ हैं वह सब (अवस्तु) अवस्तु कहलाते हैं।वेदान्त में ‘वस्तु’ का अर्थ केवल ‘ब्रह्म’ होता है । वसति अस्ति वा इति वस्तु और केवल ब्रह्मन् ही "है"  - नेह नानास्ति किञ्चन।वस्तु के अलावा जो कुछ भी है वह अवस्तु है। अज्ञान आदि सकल जड़ समूह जो दिखता है यह सब अवस्तु है।सृष्टि में दो वस्तु (साधारण प्रयोग में) हैं – कार्यरूप और कारणरूप। प्रकृति कारणरुप है और यह सारा जगत रूप प्रपञ्च या सृष्टि कार्यरूप है। यह दोनों जड हैं। अन्तर केवल यह है कि प्रकृति अवक्त है और प्रपञ्च व्यक्त है। प्रकृति के स्थान पर अज्ञान शब्द का प्रयोग हुआ है। अज्ञान, अवस्तु, अविद्या, माया, प्रकृति, प्रपञ्च यह सब पर्यायवाची हैं।जड वह है जो अपने आस्तित्व का बोध नहीं कर सकता अतः वह अचेतन है।
अब यह जानने की आकांक्षा होती है - कि अज्ञान क्या है? 
तो वह बताते हैं -" अज्ञानं तु – सदसद्भ्यामनिर्वचनीयं त्रिगुणात्मकं ज्ञानविरोधि भावरूपं यत् किञ्चिदिति वदन्ति अहमज्ञ इत्यादि अनुभवात् ‘देवात्मशक्तिं स्वगुणैः निगूढाम्’ (श्वेता. उ. १/३) इत्यादि श्रुतेश्च॥३४॥
अन्वयः – अज्ञानम् तु – सद् असद्भ्याम् अनिर्वचनीयम् त्रिगुणात्मकम् ज्ञानविरोधि भावरूपम् यत् किञ्चित् इति वदन्ति अहम् अज्ञः इत्यादि अनुभवात् ‘देवात्म-शक्तिं स्वगुणैः निगूढाम्’ (श्वेता. उ. १/३) इत्यादि श्रुतेः च।
अन्वयार्थः – (अज्ञानम् तु) किन्तु अज्ञानम् तो – (सद् असद्भ्याम्) सत् और असत् से भिन्न (अनिर्वचनीयम्) अनिर्वचनीय (त्रिगुणात्मकम्) तीन गुणों वाला, (ज्ञानविरोधि) ज्ञान का विरोधी, और (भावरूपम्) भावरूप है (यत् किञ्चित्) जो कोई भी या जब कोई (इति वदन्ति) ऐसा कहता है कि – (अहम् अज्ञः) “मैं नहीं जानता” (इत्यादि) इस प्रकार के वाक्यों से (अनुभवात्) अनुभव में आने वाला,  ‘(देवात्म-शक्तिं) दीप्तिमान् परमात्मा की शक्ति (स्वगुणैः) अपने ही गुणों से (निगूढाम्) छिपि हुई’ (इत्यादि) इस प्रकार की (श्रुतेः) श्रुतियों के द्वारा (च) भी जाना जाता है।
अतः सृष्टि और ब्रह्म को समझाने के लिये अलग अलग दर्शनों में अलग अलग तरीके से विभाग किये गये हैं। अद्वैत वेदान्ती तीन विभाग करते हैं - सत्, असत्, मिथ्या/अनिर्वचनीय/माया। पहले दो तो गीता में वर्णित है - 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः'। सत् वह है जिसका किसी भी काल में अभाव नहीं है जिसकी कभी भी अप्रतीति नहीं होती है जैसे - स्वयं का अनुभव। हमें अपने होने का अनुभव सदा रहता है।असत् वह वस्तु है जिसका अनुभव या जिसकी प्रतीति कभी भी किसी भी काल में नही होती है जैसे गधे के सिर पर सींग। जो कभी भी नही था न है और न होगा। एक दूसरा प्रसिद्ध उदाहरण है वन्ध्यापुत्र - एक बांझ स्त्री का पुत्र। 
अतः अज्ञान या माया की परिभाषा है - "अनिर्वचनीय" अर्थात "जिसको परिभाषित न किया जा सके"। जैसे किसी जादूगर का जादू हमको अनुभव में आता है हम उसे अपनी आंखों से देखते हैं पर उसके बारे में कुछ कह नहीं सकते की वह कैसे हुआ - यही अनिर्वचनीय है। और सबसे बड़ा जादूगर तो ईश्वर ही है - "मायावीव विजृम्भयत्यपि महायोगीव यः स्वेच्छया तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये।" जिन्होंने महायोगी की तरह अपनी इच्छा से सृष्टि के पूर्व निर्विकल्प-रुप से स्थित इस जगत् को बीज के भीतर स्थित अंकुर की भाँति माया द्वारा कल्पित देश, काल और धारणा की विचित्रता से चित्रित किया है तथा मायावी-सदृश जँभाई लेते हुए-से दीखते हैं, उन श्रीगुरुस्वरुप श्रीदक्षिणामूर्ति को मेरा नमस्कार है ॥ २ ॥
अनिर्वचनीय को एक दूसरे ढंग से - वेदान्त के सर्प रज्जु से समझा जा सकता है - एक कम रोशनी वाले कमरे में रस्सी को देखकर सर्प का भ्रम हो गया और उसके कारण डर लगा। फिर किसी नें आकर रोशनी कर के दिखा दिया कि यह तो रस्सी है और भय दूर हो गया। अतः जो भय उत्पन्न हुआ वह रस्सी के 'अज्ञान' के कारण हुआ और रस्सी का 'ज्ञान' होते ही दूर हो गया। अब यह अज्ञान 'ज्ञान' से बाधित हो गया। यदि यह अज्ञान सत् होता तो कभी नष्ट नहीं हो सकता था क्योंकि सत् तो कभी नष्ट नहीं होता। यह अज्ञान असत् भी नहीं था क्योंकि यह था और उसके कारण भय भी उत्पन्न हुआ क्योंकि कोई वस्तु तो है ही नहीं वह कुछ प्रभाव नहीं डाल सकती - अतः कुछ तो था - और वह ज्ञान से नष्ट भी हो गया - इस को ही अनिर्वचनीय कहते हैं।  वह अज्ञान यदि सत् होता तो कभी नष्ट नहीं होता और यदि असत् होता तो भय उत्पन्न नहीं करता और उसको नष्ट करने की आवश्यकता ही नहीं होती -इसीलिए अविद्या माया को अनिर्वचनीय कहना पड़ता है।
इस संसार को हम असत् भी नहीं कह सकते, क्योंकि इस संसार का अनुभव हमें वर्तमान में हो रहा है। हमारी कलाई पर इस समय जो घड़ी बँधी है, वह घड़ी भले भूत-काल में न रही हो और भविष्य में भी न रहे, लेकिन इस क्षण ,  वर्तमान में तो हमारी कलाई पर है। इसी प्रकार यह सारा जगत, लोग, पशु,पक्षी,
वन, फूल आदि आदि सब वर्तमान में तो अनुभव में आ रहे हैं -  अतः यह असत् भी नहीं हैं।इसी को अद्वैत वेदान्त में 'मिथ्या' या 'अनिर्वचनीय' कहते हैं, अनिर्वचनीय का अर्थ है - जिसके बारे में कुछ न कहा जा सके, जिसको परिभाषित न किया जा सके। 
अद्वैत वेदान्त का 'मिथ्या' शब्द 'असत्' का पर्यायवाची नहीं है - जैसे की लोग समझते हैं - यह 'अनिर्वचनीय' का पर्यायवाची है।  मिथ्या का अर्थ असत् नहीं है। मिथ्या का अर्थ है जिसकी प्रतीति अभी हो रही है पर वह नित्य नहीं है क्योंकि भूत और भविष्य में वह अप्रतीत है। यह संसार सत् भी नहीं है क्योंकि इसके पदार्थ तीनों कालों में तो नहीं रहते हैं - सब कुछ कभी न कभी जन्मता या बनता है और कभी न कभी मृत्यु को प्राप्त होता है या नष्ट होता है। जिन वस्तुओं के बारे में अनुमान करने का सामर्थ्य हमारे भीतर नहीं है - जैसे यह पृथ्वी सूर्य चन्द्र अन्तरिक्ष आदि - उनके बारे में यह ज्ञान हमें शास्त्र से प्राप्त हो जाता है। सच्चिदानन्द समुद्र के लहर हैं क्राइस्ट, कृष्ण, बुद्ध, शंकर, देववाणी भी देखें TUESDAY, July 2, 1895. (The Divine Mother.)]
अद्वैत वेदान्त या " विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में अथवा ' Be and Make श्रुति-परम्परा' में अभ्यास के तीन चरण होते हैं, 'श्रवण-मनन -निदिध्यासन।' श्रवण अर्थात 
प्रशिक्षित किसी योग्य जीवन्मुक्त शिक्षक/लीडर के मार्गदर्शन में, चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने की पद्धति को सुनना या सीखना । और मनन अर्थात Reflection using reasoning/ जो कुछ सुना या सीखा उस पर युक्ति-तर्क या विवेक का प्रयोग करते हुए गहन चिंतन द्वारा समझने के लिए उसकी मीमांसा करना। निदिध्यासन अब तक हमने जो कुछ सीखा-समझा है उसको अभ्यास द्वारा अपने जीवन में उतारना। हमलोग अभी तक श्रुति-परम्परा में प्रत्याहार-धारणा का का अभ्यास के वेदान्त के लिए 6 कार्य-पद्धति (technique) को सीख रहे थे। 
बाह्य जगत में ब्रह्म को आविष्कृत करने के लिए निदिध्यासन के 3 कार्य-प्रणाली हैं,  फिर अंतर्जगत में ब्रह्म को आविष्कृत करने के लिए भी  3 कार्यपद्धति  हैं।  बाह्य जगत के अभ्यास -प्रत्येक बाह्य वस्तु में सर्वत्र ब्रह्म (existence-consciousness-bliss, सच्चिदानन्द) ही अस्तित्व रूप से विराजित हैं। 1. दृश्यानुविद्ध -using विवेक-दर्शन जन्य पवित्र विचार का उपयोग करके साक्षी चेतना पर मन को एकाग्र करना। 2. शब्दानुविद्ध -वेदान्त सूत्र की सहायता से मनःसंयोग का अभ्यास करना, और विचार को छोड़ देना। 3. ध्यान और समाधि का अभ्यास नहीं किया जाता है, विचार और शब्द (नाम-रूप) को छोड़ते ही साधक स्वतः निर्विकल्पक अवस्था पहुँच जाता है। शुद्ध अस्तित्व (चैतन्य समुद्र) ही विभिन्न लहरों या नाम-रूपों में प्रकाशित हो रहे हैं। नाम-रूप को छोड़ कर अस्तित्व पर ही मन को एकाग्र रखने का अभ्यास करना है। बाह्य जगत में खुली आँखों से हर रूप दृश्य में ब्रह्म को देखने का अभ्यास छोड़कर, वेदान्तिक सूत्र (text) "Be and Make" की सहायता से अस्तित्व पर मन को एकाग्र रखने की चेष्टा। अन्त में ऊंचीकूद के लम्बे डंडे की तरह दृश्य-और शब्द को फेंककर निर्विकल्पक अस्तित्व में स्थित हो जाना। इन 6 अभ्यासों का परिणाम क्या होगा ? उसी भ्रममुक्त अवस्था का वर्णन श्लोक 30,31 में किया जा रहा है -
देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः ॥ ३०॥
परम-आत्मनि विज्ञाते, [तद्-फलं च] देह-अभिमाने गलिते [शिथिली-भूते यावत्], [तावत् मुमुक्षोः] यत्र यत्र मनस् याति, तत्र तत्र [इमे षड्] समाधयः [स्युः]॥
(With the disappearance of the attachment to the body and with the realization of the Supreme Self, to whatever object the mind is directed, one effortlessly revels in Samadhi.)
जिस समय देहाभिमान का नाश तथा परमात्मा का विज्ञान प्राप्त हो जाता है, उसके बाद मन चाहे जहाँ कहीं भी जाए, वह समाधि अवस्था में ही रमता है।
बहुत सुंदर ढंग से इस श्लोक में कहा गया है कि  देहाभिमान  सर्वथा मिट जाने पर जब परमात्मतत्त्व का बोध हो जाता है, तब जहाँ-जहाँ मन जाता है, वहाँ-वहाँ परमात्मतत्त्व का अनुभव होता है अर्थात उसकी अखंड समाधि (सहज समाधि रहती है)।
  (माँ सारदा  की कृपा से देहाभिमान नष्ट होता है और साधक  ज्ञान-अज्ञान की सापेक्षता से ऊपर उठकर सहज स्वरूपावस्था को प्राप्त होता है।) मन (अहं) का मिट जाना ही समाधि का अनुभव है। और मन मिट गया तो परमात्मा से मिलन हो गया। अब कहां जाना है? हमलोग यह देखने में समर्थ हो जाते हैं कि बाह्य जगत में सर्वत्र शुद्ध अस्तित्व पर ही नाम-रूप का परत चढ़ा हुआ है। वही अस्तित्व अंतर्जगत में साक्षी चैतन्य है। अस्तित्व (सत-existence) और साक्षी (चित- witness consciousness) एक ही ब्रह्म हैं।
इसका अभ्यास न किया जाय तो क्या होगा ?
 हो सकता है, कि वेदान्त परिचय का श्रवण करने से हमें यह बोध हो जाये कि हम नश्वर शरीर नहीं साक्षी आत्मा हैं। किन्तु जब तक यह विचार आत्मसात होकर हमारे जीवन का हिस्सा नहीं बन जाते, आत्मस्वरुप में स्थित रहना असम्भव है। एक बार यदि यदि यथार्थ स्वरूप की अनुभूति मिल जाय, तब  विवेकज -ज्ञान प्राप्त हो जाता है। विवेक-जाग्रत हो जाना ही साधना का अंत नहीं है, अब जाकर साधना की शुरुआत होती है।
 वह ज्ञान या समझ जब तक तुम्हारे व्यक्तित्व का अविभाज्य (integrated) हिस्सा नहीं बन जाता,  उस ज्ञान का कोई लाभ तुम्हें नहीं होगा। जीवन में आने वाले दुःख, भय या प्रलोभन (कामिनी-कांचन -कीर्ति Bh) के सामने आने पर में वह ज्ञान धीर बने रहने में तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकेगा। फिर कुछ समय बाद यदि कोई निषिद्ध कर्म कर बैठे तब, वह ज्ञान धुंधला पड़ जायेगा। इसलिए मनःसंयोग सहित 5 अभ्यास निरंतर करते रहना होगा।
 इन अभ्यासों का परिणाम क्या होगा ? देह-अभिमाने गलिते -स्वयं को M/F देह समझने का भ्रम या देहाध्यास शिथिल या समाप्त हो जायेगा ,स्मरण रहेगा कि अहं-मन प्रतिबिंबित चेतना है, पर हम वास्तव में साक्षी चेतना हैं -जिसके प्रकाश में देह-मन जड़ होकर भी चेतन प्रतीत होता है। विज्ञाते परम-आत्मनि ,यह ज्ञात हो जाने पर कि साक्षी चेतना परमात्मा से अभिन्न है, मैं ब्रह्म हूँ -भाव अधिकाधिक दृढ़ होता जायेगा। तब आचार्य शंकर की तरह हम भी गा सकेंगे -'चिदानन्द रूपः शिवोहं शिवोहं !'
इसके बाद तुम्हें बहुत बड़ी आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होगी -यत्र यत्र मनस् याति, तत्र तत्र [इमे षड्] समाधयः [स्युः]॥ देह और मन पहले की तरह ही अपने-अपने कार्य करते रहेंगे, किन्तु इसके द्वारा अब जो भी कार्य (Bh) होंगे वह तुम्हें अपने आध्यात्मिक सत्य में अवस्थित कर देंगे, और यही तो समाधि है। जब तुम रज्जु को जान गए तो उसमें  तुम्हें सर्प का भय नहीं होगा। हर विचार, हर कर्म समाधि बन जायेगा। हर नाम-रूप ब्रह्म स्वरूप के विषय  में जागरूक होने का अवसर बन जायेगा।
अब अगर कोई यह प्रश्न करे कि -'तुम यह कैसे जानोगे कि तुम्हारे पास ऑंखें हैं ? ' अब बुद्धि पहले की तरह तुरंत यह उत्तर नहीं देगी कि -क्यों मैं तो किसी भी समय दर्पण में अपनी आँखों को देख सकता हूँ। अब वैसा उत्तर बेवकूफी भरा उत्तर प्रतीत होगा ! कयोंकि किसी भी अस्तित्व (ब्रह्म) को देखने से ही हम समझ जायेंगे कि मेरे पास ऑंखें हैं। यदि ऑंखें (ज्ञानमयी दृष्टि) नहीं होतीं तो मैं (हर वस्तु में ब्रह्म को) देख नहीं सकता था। अब यदि चाहे अर्ध-पद्मासन में बैठकर एकाग्रता का अभ्यास करो,यही अनुभव करोगे की तुम शुद्ध चेतना हो। या खुली आँखों से ध्यान करते हुए निःस्वार्थ सेवा  करो,हर कार्य में ब्रह्म की अनुभूति होगी। भोजनमंत्र की तरह प्रत्येक कार्य में ब्रह्मार्पणं का बोध जाग्रत रखकर कार्य किया जाय तो उसे ब्रह्मकर्म समाधि कहते हैं।
5 अभ्यास के प्रशिक्षण प्राप्त करके लगातार उसका अभ्यास करते रहने का परिणाम क्या होगा ? उसे श्लोक 31 में कहा जा रहा है -
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥ ३१॥
तस्मिन् पर-अवरे [समष्टि-व्यष्टि-रूपे अथवा पर-अ-पर-तत्त्वे] दृष्टे [सति], हृदय-ग्रन्थिः भिद्यते। सर्व-शंशयाः छिद्यन्ते। अस्य कर्माणि च क्षीयन्ते। (MunU.2.2.8)॥
[ By beholding Him who is high and low,the fetters of the heart are broken, all doubts are solved and all his karmas wear away.]
माया से परे या देश-काल-निमित्त से परे इस दिव्य तत्व (शाश्वत चैतन्य आनन्द) का दर्शन होने पर - हृदय में स्थित अविद्या तथा सभी कर्मों का क्षय हो जाता है। 
यह मुण्डकोपनिषद का प्रसिद्द मंत्र है। इस श्लोक में ज्ञानप्राप्ति के बाद, इसी जीवन में भ्रममुक्त अवस्था, का वर्णन किया गया है। भिद्यते हृदय-ग्रंथि -परावर, परब्रह्म का दर्शन प्राप्त करने पर ही हृदय-ग्रंथि छिन्न होती है और ‘कामायेस्य हृदि श्रिताः’ हृदय में स्थित सम्पूर्ण काम समूल नष्ट हो जाते हैं। माँ जगदम्बा की कृपा से सदा के लिए सारे संशय नष्ट हो जाते हैं। उस परम् सत्य की अनुभूति हो जाने के बाद क्षीयन्ते च अस्य कर्माणि- जन्मजन्मांतर से अहं-मन को कर्ता समझकर भारवाहक बैल के समान पाप-पुण्य का जो बोझ लादे हुए चल रहा था वह बोझ एक झटके में उतर जाता है।
 इस श्लोक में लेखक ने अभ्यास के परिणाम को समझाने के लिए सीधा श्रुति प्रमाण दिया है। यहाँ open heart surgery की बात नहीं कही जा रही है, हृदय में विद्यमान अविद्या की गाँठ काटने की बात है। आचार्य शंकर कहते है -हृदय का अर्थ यहां बुद्धि है। अज्ञान हमारे मन में है, ज्ञान मन में होने से अज्ञान समाप्त हो जाता है। 
जिस हृदय में हजार वर्षों से अँधेरा हो, वहाँ दीपक जलाते ही अँधेरा भाग जाता है। अज्ञान रूपी अँधेरे को ही गाँठ कहा जा रहा है। इसके बाद कोई आकर्षण (Bh कामिनी-कांचन?) तुम्हें फिर से हिप्नोटाइज्ड करके भेंड़ नहीं बना सकती है। ब्रह्मज्ञानी ट्रेजडी रोल में भी बहुत वास्तविक अभिनय कर सकता है। माँ सारदा से किसी ने पूछा क्या- माँ आपको हर समय यह याद रहता है, कि तुम जगदम्बा हो? नहीं, पर जब चाहूँ याद कर सकती हूँ। किसी ने केवल दूध को देखा है, किसी ने सिर्फ सुना है, किसी ने दूध पीकर शक्ति प्राप्त किया है। इसलिए स्वामी विवेकानन्द कहते थे -

The ideal of all education, all training, should be this man-making. But, instead of that, we are always trying to polish up the outside. What use in polishing up the outside when there is no inside? The end and aim of all training is to make the man grow. The man who influences, who throws his magic, as it were, upon his fellow-beings, is a dynamo of power, and when that man is ready, he can do anything and everything he likes; that personality put upon anything will make it work.(THE POWERS OF THE MIND( Delivered at Los Angeles, California, January 8, 1900 )
-----------------
सृष्टि-दृष्टिवाद में कहा है ईश्वर ने जगत को अपनी माया शक्ति से बनाया है। जंगल में जब पेंड़ गिरता है, तो उसकी आवाज को कोई सुनता है या नहीं ? प्रकृति और पुरुष के रूप में ब्रह्म ही हैं ! पंचभूतों में जो अस्ति -भाति -प्रिय है वह उसका अपना नहीं ब्रह्म से उधार लिया हुआ है। तुम जगत + ब्रह्म को देख रहे हो। नाम-रूप माया है, अस्ति -भाति -प्रिय ब्रह्म है। ब्रह्म को वाणी से नहीं कहा जा सकता। इसीलिए उदाहरण द्वारा समझाना पड़ता है। ब्रह्म को जगत के आकृति में ढाला नहीं गया है, जैसे कुम्हार ने मिट्टी को घड़े के रूप में ढाला है। ब्रह्म के बिना जगत का अस्तित्व नहीं है।
====================








 
 


कोई टिप्पणी नहीं: