बुधवार, 17 जुलाई 2019

दृग-दृश्य विवेक अध्याय 5 : जीव की प्रकृति

दृग-दृश्य विवेक पुस्तक के १ से लेकर ३१ वें श्लोक में सभी महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर चर्चा हो चुकी है। यहाँ 32 वें श्लोक में बताया जा रहा है कि यदि हम लोग वास्तव में ब्रह्म हैं, तो जो व्यक्ति सत्यार्थी था -वह कौन था ? हमलोग यदि ब्रह्म हैं, तो वेदान्त प्रशिक्षण शिविर में हमें भाग क्यों लेना पड़ रहा है ? अज्ञान में कौन बंधा हुआ है ? ब्रह्म तो ज्ञानस्वरूप हैं ! ब्रह्म को आध्यात्मिक अनुभूति करने की क्या आवश्यकता है ? जो व्यक्ति अभी मन के साथ संघर्ष कर रहा है -वह कौन है ? जो प्रश्न पूछ रहा है, वह कौन है ? यहाँ इस प्रश्न का उत्तर देना थोड़ा कठिन हो जाता है।
मेरे खुद के साथ घटित घटना है। स्वामी भूतेशानन्द जी महाराज रामकृष्ण मठ मिशन के 12 वें अध्यक्ष थे, उनके कमरे में वरिष्ठ संन्यासियों का क्लास चलता था, हम जैसे नवीन साधुओं को बाहर खड़े होकर सुनना पड़ता था। उस समय उनकी आयु 98 वर्ष की थी। किन्तु बुद्धि बहुत प्रखर थी, वे अत्यंत विकसित हृदय और मस्तिष्क के अनूठे उदाहरण थे। सभी लोग यह मानते थे कि पूज्य महाराज ब्रह्मज्ञ महापुरुष थे। प्रश्न उठा कि ब्रह्मज्ञ महापुरुष जगत को किस रूप में अनुभव करते हैं ? उनको भी तो विविधतापूर्ण जगत के साथ उसी प्रकार व्यव्हार करना पड़ता होगा ,जैसे हमलोगों को करना पड़ता है। तब उनके जैसे ब्रह्मज्ञ महापुरुष हर समय क्या ब्रह्ममय जगत देख पाते हैं? यही प्रश्न वरिष्ठ संन्यासी ने उनसे पूछा- " हमलोग तो देखते हैं कि ब्रह्मज्ञ महापुरुष भी जगत में अलग-अलग प्रकार के लोगों से, उसी प्रकार मिलते रहते हैं जिस प्रकार हमलोग मिलते हैं। उनका उत्तर था - " वैसा तो तुम देखते हो ! " -से तो तोमरा देखचो ! यही तो हमलोग जानना चाहते हैं, महाराज कि ब्रह्मज्ञ (enlightened person) लोग जगत को किस रूप में देखते हैं ? उन्होंने तुरन्त कहा -के देखे ? (Who See ?) इस उत्तर का अर्थ आप अपनी समझ से लगाइये, मैंने जो समझा वो मेरा उत्तर होगा। गीता 13 वें अध्याय में भी यह प्रश्न आता है-यदि मैं ब्रह्म हूँ , तो अज्ञान में कौन फंसा हुआ है ? इसके भाष्य में आचार्य शंकर कहते हैं -'तुम यह प्रश्न पूछ क्यों रहे हो ? --इसलिए कि मैं नहीं जानता। यदि तुम नहीं जानते तो इसका अर्थ यह हुआ कि तुम अज्ञान में फंसे हुए हो। यह एक कठिन प्रश्न है इसलिए लेखक इस बात को समझाने के लिए एक नया अध्याय जोड़ रहे हैं -
अवच्छिन्नश्चिदाभासस्तृतीयः स्वप्नकल्पितः ।विज्ञेयस्त्रिविधो जीवस्तत्राद्यः पारमार्थिकः ॥ ३२॥
अवच्छिन्नः, चित्-आभासः, तृतीयः [च] स्वप्न-कल्पितः [इति] जीवः त्रिविधः विज्ञेयः। तत्र आद्यः [अवच्छिन्नः इव जीवः] पारम-अर्थिकः [ब्रह्म-भूतः]॥

32. “What is the nature of the separate self?” When Awareness is realized to be all that there is - that Awareness is ultimate Reality - the separate self is realized to be only a mental concept. The individual sense of self only appears to be separate and limited because of the way the mind categorizes and conceptualizes perceptions. This misperception of the I-self as a separate and limited individual occurs both in the waking and dream state.
व्यक्ति अपने को तीन प्रकार से सोच सकता है, 1. पारमार्थिक -the Absolute Reality साक्षी या द्रष्टा Real Man 2. व्यावहारिक जीव - या Apparent Man प्रातिभासिक मनुष्य -जो अभी हम और आप हैं। 3. स्वप्न-कल्पित जीव : स्वप्न देखते समय वह अपने को जिस रूप में देख रहा होता है। 
जब शुद्ध चेतना जब मन को प्रकाशित करने लगती है, तो परमार्थक मनुष्य अनन्त असीम आकाश अपने को अवच्छिन्न या ससीम limited जीव समझने लगता है। किन्तु आकाश या Space को कभी ससीम नहीं किया जा सकता -उदाहरण के लिए इस ग्लास में जल है और आकाश है। जब मैं ग्लास को घिसकाता हूँ तो पानी भी आगे बढ़ता है, किन्तु आकाश नहीं घूमता। बल्कि ग्लास ही आकाश में अपना स्थान-परिवर्तन कर रहा है। हम ऐसा नहीं कह सकते कि ग्लास के बाहर का आकाश ग्लास के द्वारा ससीम बना दिया गया है। उसी प्रकार Pure Consciousness या साक्षी चेतना (चित, शुद्ध चेतना-सर्वव्यापी विराट अहं, साक्षी ) भी मन के साथ जुड़ने के बाद ससीम (अहं) नहीं बन जाती। अतः वास्तविक मनुष्य शुद्ध चेतना है। जब शुद्ध चेतना मन के ऊपर प्रतिबिंबित होती है, तो उसे reflected Consciousness चिदाभास -व्यावहारिक या प्रातिभासिक मनुष्य कहा जाता है। 
उदाहरणार्थ मेरे चेहरे के सामने एक दर्पण लाता हूँ -तो मेरे असली चेहरे का प्रतिबिम्ब दर्पण में दीखता है।
हाँ, जो चेहरा दर्पण में दिख रहा है, वह मेरा वास्तिविक चेहरा नहीं -प्रतिबिंबित चेहरा है। उसी प्रकार शुद्ध चेतना या साक्षी जब मन को प्रकाशित करती है, चिदाभास reflected Consciousness कहलाती है। वही हमारा awareness या जो हम अपने चेतन M/F अहं-विशिष्ट जीव अनुभव कर रहे हैं। वही है प्रातिभासिक या व्यावहारिक जीव। यह जो अमुक नाम वाला जीव है, उसका अस्तित्व तभी तक रहता है, जब तक मन कार्य करता रहता है। जब तुम दर्पण हटा लेते हो, तब भी वास्तविक चेहरा रहता है, किन्तु दर्पण में बनने वाला प्रतिबिम्ब नहीं रहता। उसी प्रकार जब रोज रात में हमारा मन सुषुप्ति में चला जाता है, वह अमुक नाम वाला व्यक्ति भी चला जाता है। हम सभी इसका अनुभव रोज करते हैं। 
अवच्छेदः कल्पितः स्यादवच्छेद्यं तु वास्तवम् ।तस्मिन् जीवत्वमारोपाद्ब्रह्मत्वं तु स्वभावतः ॥ ३३॥
अवच्छेदः [परिच्छिन्नत्वं] कल्पितः स्यात्, अवच्छेद्यं [यद् कल्पनेन अवच्छेत्तुं शक्यं] तु वास्तवं [पारम-अर्थिकं सत्यं ब्रह्म एव]। तस्मिन् [पारम-अर्थिके] जीवत्वं [अवच्छिन्नत्वं] आरोपात्, ब्रह्मत्वं [अ-द्वैतं] तु स्व-भावतस्॥
 

33. The belief of separation, which engenders the notions of confusion, imperfection and limitation, is based on the mental misperception of the mind, which takes itself to be a separate self. But Awareness is ever free of division. It is always whole and undivided, being devoid of parts or separation. Ultimate reality is omnipresent, unlimited, complete, timeless and all pervasive under all circumstances and at all times.The notion of separation and limitation are merely thoughts produced by the mind that arise in Awareness. The notion of being a separate, limited and finite self arises as a mental-emotional perception because of the mind’s projection of, and identification with the felt-sense of limitation. When the projections of the mind are traced back to their origin, the notion of separation is healed, misperception ceases, and separation dissolves as the unreal notion that it is.
जीवत्वं [अवच्छिन्नत्वं] आरोपात् ---ब्रह्म सत्य है किन्तु जीव उस पर अध्यारोपित है।  
अवच्छिन्नस्य जीवस्य पूर्णेन ब्रह्मणैकताम् ।तत्त्वमस्यादिवाक्यानि जगुर्नेतरजीवयोः ॥ ३४॥
“तद् त्वम् असि” [इति] आदि-वाक्यानि अवच्छिन्नस्य जीवस्य पूर्णेन ब्रह्मणा एकतां जगुः (प्रख्यातवन्ति), न इतर-जीवयोः [चित्-आभास-स्वप्न-कल्पित-जीवयोः – यस्मात् बिम्ब-प्रतिबिम्ब-एक-देशित्वं न शक्यं, यः च कल्पितः सः कल्पिनम् एव च]॥

34. Awareness is whole and without parts. Statements such as “Thou are That”, “That thou art”, “I am pure Awareness”, “This Self is pure Awareness”, “Pure Awareness is what everything is”, Pure Awareness is unknowable”, and “I am That unknowable”, reflect the truth of nondual Awareness. The notion of being separate, finite and limited is not found in either the descriptions or realization of essential nature.
 यह साक्षी ब्रह्म के साथ एक है। कब ? हर समय चाहे कैम्प में हो या घर में हो।  किन्तु प्रातिभासिक जीव या या स्वप्न कल्पित जीव भी ब्रह्म नहीं है। “तद् त्वम् असि”- छान्दोग्य उपनिषद,सामवेद से लिया हुआ महावाक्य है। 'अहं ब्रह्मास्मि ' -कौन सा 'मैं '? वही जो शुद्ध चेतना या साक्षी, द्रष्टा Witness consciousness है ! 'प्रज्ञानं ब्रह्म ' ऐतरेय उपनिषद , ऋग्वेद से लिया गया है, जो चेतना मेरे भीतर है वह ब्रह्म है। कौन सी चेतना जो प्रातिभासिक रूप से मन पर प्रतिबिंबित हो रही है। जो मन का साक्षी है -वह ब्रह्म है। 'अयं आत्मा ब्रह्म ' -माण्डूक्य उपनिषद, अथववेद से लिया गया है। यह व्यक्ति ब्रह्म जो साक्षी है, वह नहीं जो स्वप्न देखता है। या जो कैम्प में आया है वह नहीं, जो इसका साक्षी है वह ब्रह्म है। कितनी मात्रा में ? पूर्णेन ब्रह्मणा एकतां -पूरी तरह से। द्वैत वादी लोग जैसा समझते हैं, वह नहीं -मैं ब्रह्म का अंश हूँ या दास हूँ वह नहीं -साक्षी पूर्णतः ब्रह्म ही है। वास्तविक तुम यह M/F शरीर नहीं हो। शिव, विष्णु , काली से तुम अभिन्न हो। 
प्रश्न आया कि यदि हम वास्तव में ब्रह्म हैं , तो पुनर्जन्म किसका होता है ? ब्रह्म यदि ब्रह्म रहते तो क्या हर्ज था ? प्रातिभासिक जीव क्यों बने ? उत्तर हमलोग पहले से जानते है -माया ही कारण है। 35 श्लोक देखें - 
  ब्रह्मण्यवस्थिता माया विक्षेपावृतिरूपिणी ।आवृत्यखण्डतां तस्मिन् जगज्जीवौ प्रकल्पयेत् ॥ ३५॥
विक्षेप-आवृति-रूपिणी माया ब्रह्मणि अवस्थिता [न पृथक्-स्थिता]। अ-खण्डतां आवृत्य, [अन्-आदिः माया] तस्मिन् [ब्रह्मणि] जगत्-जीवौ प्रकल्पयेत् [सृजेत् इव]॥

35. The illusion of separation, which is brought about by the two aspects of projection and concealment, arise within and are not separate from Awareness. The experience of separation appears to divide and limit the indivisible and unlimited nature of Awareness and makes it appear as the world of separate objects and embodied separate I-selves.
ब्रह्म तीन प्रकार के जीव में परिलक्षित क्यों होते हैं ? माया ब्रह्म की अनिवर्चनीय शक्ति है, जिसमें 2 शक्तियां है-आवरण और विक्षेप। सत्य या ब्रह्म को छुपा लेती है, और दूसरे रूप में प्रक्षिप्त करती है। माने ? ब्रह्म के रियल नेचर को छुपा लेती है , यह कहने का अर्थ है कि तुम्हारे रियल नेचर अनन्तता को (माँ जगदम्बा के indivisible , 'one -and -only '--existence-consciousness-bliss, अविभाज्य सर्वव्यापी विराट अहं-बोध को?) -अ-खण्डतां (oneness)आवृत्य, तुम्हारे यथार्थ अनन्त स्वरूप या अखण्डता पर 'व्यष्टि अहं'---(स्वयं को शरीर के साथ जोड़ कर लिमिटेड M/F समझने का मैं-बोध) का आवरण डाल देती है। और यह माया प्रोजेक्ट क्या करती है ? अनन्त नाम-रूप की जड़-चेतनमय विचित्रताओं से परिपूर्ण यह जगत हमें दृष्टिगोचर होने लगता है। हम सभी अपने को दूसरों से भिन्न मानने लगते हैं। तुम समझते हो मैं उस व्यक्ति से अलग हूँ , वह समझता है मैं अपने भाई से अलग हूँ ! उसका नेचर मुझसे अलग है। इसलिए हम स्वयं को शरीर मानकर बुढ़ापा, बीमारी आदि से दुखी होते रहते हैं। अपने को जन्म लेने वाला और फिर अगला जन्म लेने वाला मानते रहते हैं। वही एक ब्रह्म प्रिज़्म रूप माया से होकर निकलने से जगत रूप में भासता है। तब जो पारमार्थिक मनुष्य था रीयल मैन था वह अपने को प्रातिभासिक जीव समझने लगता है क्या होता है ? 
36 वां श्लोक -
जीवो धीस्थचिदाभासो भवेद्भोक्ता हि कर्मकृत् ।
भोग्यरूपमिदं सर्वं जगत् स्याद्भूतभौतिकम् ॥ ३६॥
चित्-आभासः धी-स्थः, भोक्ता कर्म-कृत् [च] हि (यस्मात्), [प्रसिद्धः व्यावहारिकः] ‘जीवः’ भवेत्। इदं सर्वं भूत-भौतिकं भोग्य-रूपं ‘जगत्’ स्तात्॥
36. The mind fallaciously appears to perform various actions as well as enjoys their results in the erroneous form of a separate individual. The mind divides what is not-two into a universe of separate objects of enjoyment, which consist of various combinations of the five elements.
वह जीव कौन है ? धी-स्थः चित्-आभासः --the consciousness reflected in the mind, वह चेहरा जो दर्पण में दिखाई देता है, तुम्हारा वास्तविक चेहरा नहीं। जब हम भ्रममुक्त हो जाते हैं या मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, उस समय वास्तव में हम मुक्त नहीं हो जाते, अपने इस मिथ्या मैं -बोध से मुक्त हो जाते हैं। तुम अपनी अनंतता को अपने अनुभव से जान लेते हो। तुम वह चेहरा हो जो दर्पण में कभी नहीं था। किन्तु जब तक हम 'सत्य' को 'मिथ्या' से अलग करना अर्थात चित और चिदाभास में विवेक -प्रयोग करना नहीं सीखते तब तक हम दर्पण में दिखने वाले चेहरे को ही अपना वास्तविक चेहरा समझते रहते हैं। यदि दर्पण गीला हो गया तो अपने चेहरे को गीला समझते हैं, दर्पण में क्रैक को अपने चेहरे में क्रैक समझते हैं। मैं अपने यथार्थ चेहरे या स्वरुप को ही भूल गया हूँ। मैं जो पहले साक्षी (बाबूजी की दृष्टि में आदर्शवादी मनुष्य-विजय) था अब अपने को व्यावहारिक जीव (बाबूजी की दृष्टि में प्रैक्टिकल मैन-बिनय) समझने लगता हूँ ! पहला व्यक्ति जो पारमार्थिक मनुष्य था, वही अपने को व्यावहारिक जीव समझने लगता है। जब हम अपने को मन के साथ जोड़ लेते हैं, तब मन को जो भी होता है, वह मुझे हुआ ऐसा समझने लगते हैं। उसी प्रकार -" भोक्ता कर्म-कृत्" --इच्छायें मन में उठती हैं, हम सोचते हैं मैं रसगुल्ला खाना चाहता हूँ ! क्योंकि मन शरीर के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है, हमलोग समझते हैं -मैं यह शरीर हूँ, यह मेरा शरीर है। हमलोग आत्मा को भूलकर बॉडी-माइंड कम्प्लेक्स बन जाते हैं। यदि शरीर बीमार हुआ, हम अपने को बीमार समझने लगते हैं। यह शरीर बूढ़ा होगा , मरेगा सारी समस्यायें शरीर के साथ हैं -किन्तु हम उसको अपनी समस्या समझने लगते हैं। जो अपने को कर्मों का कर्ता समझेगा उसको कर्म का फल भी भोगना पड़ेगा। जैसे मैं अपने को भोक्ता समझूँगा -ब्रह्म को अर्पण करने के बाद संसार की वस्तुओं को ग्रहण करना नहीं सीखूँगा -मैं अनजाने ही 'कर्म के नियम ' से बन्ध जाऊँगा। -" कर्मगति टाड़े  से नहीं टड़ी" कार्य-कारण का नियम है > Good -Good, धर्म (श्रेय-श्रेय) -पुण्य, पुण्य -सुख!/ Bad -Bad, अधर्म (प्रेय-प्रेय) -> पाप, पाप -दुःख ! जब व्यक्ति अपने को होशपूर्वक कर्ता-भोक्ता जीव समझने लगता है तब क्या होता है ? ---भोग्य-रूपं इदं सर्वं भूत-भौतिकं जगत,संपूर्ण ब्रह्मांड अनुभव में आने वाली पंचभौतिक तत्वों का क्षेत्र है entire universe is the arena of experience, जैसा हम हैं, संसार भी हमारे लिए ठीक वैसा ही है ! यह संसार एक ऐसा बैंक है जो हमसे कमीशन के रूप में कोई चार्ज नहीं लेता, हम उसमें जितनी रकम डालते हैं, वह उतना का उतना as-it-is वापस लौटा देता हैयह संसार कैसा है ? भूत-भौतिकं --- यह जगत केमिस्ट्री में कहे गए 118 तत्वों से निर्मित नहीं है -भारतीय मनीषा के अनुसार 5 भौतिक तत्वों से निर्मित है। उनके पास तब आधुनिक केमिस्ट्री में कथित तत्वों की आवर्त सारणी नहीं थी। भारत, चीन, अरब और युनान के समान सभी प्राचीन  देशों में  पांच तत्व ही माने जाते थे--छिति-जल-पावक-गगन-समीरा (तुलसी), अर्थात्‌ पृथिवी, जल, तेज, वायु, और आकाश। यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उन्हीं पंचभूतों तथा उनकी तन्मात्राओं के सम्मिश्रण (combination) से निर्मित हुआ है। उन सब  रुप-रस-गंध -शब्द -स्पर्श आदि 5 विषयों का अनुभव कौन करता है ? यही दूसरे प्रकार का व्यक्ति -the reflected consciousness in mind.' -चिदाभासजी,  करते हैं। .....  
[ ..... बॉयल (1627-91) ने तत्त्वों की एक नई परिभाषा दी, जिससे रसायनज्ञों को रासायनिक परिवर्तनों और प्रतिक्रियाओं के समझने में बड़ी सहायता मिली। शीघ्र ही नए नए तत्वों की खोज होने लगी और 18वीं सदी के अंत तक तत्वों की संख्या 60 से अधिक पहुँच गई।  इसमें से अधिकांश तत्व ठोस थे; ब्रोमीन और पारद से समान कुछ तत्व साधारण ताप और दबाव (NTP) पर द्रव-अवस्था में भी पाए गए और हाइड्रोजन, आक्सिजन आदि तत्व गैस अवस्था में थे। रसायनज्ञों ने इन तत्वों के संबंध में ज्यों-ज्यों अधिक अध्ययन किया, उन्हें यह स्पष्ट होता गया कि कुछ तत्व गुणधर्मो में एक दूसरे से बहुत मिलते जुलते हैं, और इन समानताओं के आधार पर उन्होंने इनका वर्गीकरण करने का प्रयत्न किया।  । डाल्टन का परमाणु वाद प्रतिपादित होने के अनंतर ही इन तत्वों के परमाणुभार भी निकाले गए थे। केमिस्ट्री के आवर्त सारणी (Periodic Table) में रासायनिक तत्त्व परमाणु क्रमांक के बढ़ते क्रम में सजाये गये हैं। वर्तमान आवर्त सारणी में 118 ज्ञात तत्व सम्मिलित हैं।  सन्‌ 1820 में डोबेराइनर ने यह देखा कि समान गुणवाले तत्व तीन तीन के समूहों में पाए जाते हैं जिन्हें त्रिक (ट्रायड) कहा गया।ये त्रिक या ट्रायड भी दो प्रकार के थे-पहले प्रकार के त्रिकों में तीनों तत्वों के परमाणुभार लगभग परस्पर बराबर थे, जैसे लोहा (55.84), कोबाल्ट (58.94) और निकेल (58.69) में अथवा ऑसमियम (190.2), इरीडियम (193.1) और प्लैटिनम (195.25) में। दूसरे प्रकार का त्रिकों में बीचवाले तत्व का परमाणुभार पहले और तीसरे तत्वों के परमाणुभारों का मध्यमान या औसत था, जैसे क्लोरीन (35.5), ब्रोमीन (80) और आयोडीन (127) में ब्रोमीन तत्व का परमाणु क्लोरीन और आयोडीन के परमाणुओं के जोड़ के आधे के लगभग है। बॉयल ने तत्वों की प्रथम वैज्ञानिक परिभाषा दी और बताया कि अरस्तू के बताए गए तत्वों, अथवा क़ीमियाईगरों के तत्वों (पारा, गंधक और लवण) में से कोई भी वस्तु तत्व नहीं है, क्योंकि जिन पिंडों में (जैसे धातुओं में) इनका होना बताया जाता है उनमें से ये निकाले नहीं जा सकते। तत्वों के संबंध में 1661 ई. में बॉयल ने एक महत्वपूर्ण पुस्तिका लिखी "दी स्केप्टिकल केमिस्ट"। रसायन प्रयोगशाला में प्रचलित कई विधियों का बॉयल ने आविष्कार किया, जैसे कम दाब पर आसवन। बॉयल के गैस संबंधी नियम, उसके दहन संबंधी प्रयोग, हवा में धातुओं के जलने पर प्रयोग, पदार्थों पर ऊष्मा का प्रभाव, अम्ल और क्षारों के लक्षण और उनके संबंध में प्रयोग, ये सब युगप्रवर्तक प्रयोग थे जिन्होंने आधुनिक रसायन को जन्म दिया। बॉयल ने द्रव्य के कणवाद का प्रचलन किया, जिसकी अभिव्यक्ति डाल्टन के परमाणुवाद में हुई। डाल्टन का परमाणुवाद निम्नलिखित तथ्यों पर आधारित हैः-सभी पदार्थों का गठन सुक्ष्म कणों के संयोग से हुआ है। इन सुक्ष्म कणों को परमाणु कहते हैं। परमाणु को किसी भी रासायनिक प्रतिक्रिया द्वारा, नष्ट या उत्पन्न नहीं किया जा सकता अर्थात् परमाणु अविभाज्य है। एक ही तत्व के परमाणु समान गुण तथा समान भार वाले होते हैं। विभिन्न तत्वों के परमाणु विभिन्न गुण तथा विभिन्न भार वाले होते हैं। विभिन्न तत्वों के परमाणु पूर्ण संख्या के सरल अनुपात में परस्पर संयुक्त होकर यौगिक परमाणु का निर्माण करते हैं।
रासायनिक परिवर्तन में परमाणु अपनी निजी सत्ता बनाये रखते हैं।उनके अन्य कार्य मिश्रधातु, फॉस्फोरस, मेथिल ऐलकोहल (वुड स्पिरिट), फॉस्फोरिक अम्ल, चाँदी के लवणों पर प्रकाश का प्रभाव आदि विषयक हैं।
 इस Apparent Man (reflected consciousness in mind. -"चिदाभासजी " जो पंचभौतिक जगत का अनुभव करते चले आ रहे हैं -का पहला जन्म कब हुआ होगा ? इसी प्रश्न का 
अब 37 श्लोक देखें -
अनादिकालमारभ्य मोक्षात् पूर्वमिदं द्वयम् ।
व्यवहारे स्थितं तस्मादुभयं व्यावहारिकम् ॥ ३७॥
मोक्षात् पूर्वं, इदं द्वयं [जीव-जगत्] अन्-आदि-कालं आरभ्य व्यवहारे स्थितं। तस्मात् उभयं व्यावहारिकं॥
37. The sense of being a separate I-self who experiences a separate universe has existed since the beginning of time. Time is a creation of the dividing mind that splits what is timeless into the notion of past, present and future. The notion of being a separate self who is aware of a separate universe has only empirical existence, is only conceptual and remains true only until awakening as Awareness. Both self and world are not separate from Awareness and are cognized to be real only as long as the mind projects, identifies with, and believes in the notion of separation.
जीव के रूप में 'चिदाभास जी'[😍😍] का पहला अवतार कब हुआ ? there is no start -इसका आरम्भ कभी नहीं हुआ , अन्-आदि-कालं आरभ्य- without any beginning ! आप क्या मेरे प्रश्न को टालना चाह रहे हैं ? यहाँ प्रश्न को टालने जैसी कोई बात नहीं हो रही है। क्योंकि "TIME & SPACE" भी मन से ही प्रक्षिप्त हुआ है। यह मानो ऐसे पूछना है कि 'काल' (समय) से पहले क्या था ? पहले या बाद में जानने का सवाल तब पैदा होता है, जब तुम्हारे पास समय (काल) की अवधारणा होती है। before the concept of time you can not use the word before, समय TIME की अवधारणा से पहले आप पूर्व या 'पहले' शब्द का उपयोग भी नहीं कर सकते! उसी प्रकार आकाश या Space के विषय में भी आप यह भी नहीं पूछ सकते कि -what is outside of the space, अंतरिक्ष के बाहर या परे क्या है ? अतः अनादि चिदाभास जी बनने के पहले क्या था, या अन्तरिक्ष के बाद क्या है ---इस तरह के प्रश्न का कोई माने (sense) या अभिप्राय नहीं है। the important feature is that this process has an end-महत्वपूर्ण विशेषता यह जान लेना है की इस प्रक्रिया का अन्त है ! पुनर्जन्म को रोका जा सकता है। the Time must have a stop -समय का एक पड़ाव तो निश्चित रूप से होना ही चाहिए। what is that end ? वह अंत क्या है ? मोक्षात् पूर्वं --up to freedom ! वह है आत्मानुभूति-Realization of yourself as your consciousness, अथवा ईश्वर लाभ (god realization) ईश्वर-प्राप्ति! There is an enlightenment and freedom ! आत्मज्ञान होते ही मुक्ति (डीहिप्नोटाइज्ड अवस्था) प्राप्त हो जाती है ! up to that point these two are continuing -उस समय तक ये दोनों जारी रहते हैं, कौन दोनों ? reflected consciousness and the universe of experience, प्रतिबिंबित चेतना (व्यष्टि अहं) तथा यह इन्द्रिय-ग्राह्य जगत, इन्द्रियग्राह्य जगत माने अनंत नाम-रूप, ग्रह,नक्षत्र, तारे, मनुष्य हमारा जीवन आदि अनुभवगम्य पदार्थ ---plodding through the -life after life, एक जन्म से दूसरे जन्मों तक निरंतर बने रहते हैं। 
ठाकुरदेव के गृही शिष्य श्री गिरीश घोष द्वारा लिखित एक बहुत सुंदर गीत है। [सर एडविन अर्नोल्ड की प्रसिद्ध रचना  'Light of Asia' (लाइट ऑफ एशिया), ने इस युग के कई महापुरुषों को प्रेरित किया है! इस पुस्तक के आधार पर, श्री गिरीश चंद्र घोष ने 'बुद्धदेव चरित' नाटक बंगाल में लिखा था ! 'बुद्धदेव चरित' नाटक का एक दृश्य है -युवा राजकुमार सिद्धार्थ गौतम बुद्ध बनने के लिए ज्ञान की खोज में घर से निकल पड़े हैं। और गन्धर्वलोग (celestial being-स्वर्गीय प्राणी -देवगण) गान कर रहे हैं। from whence do we float on the stream of life-जीवन के मजधार में हम लोग कब से तैरते चले आ रहे हैं ! हम कहाँ से आ रहे हैं हमें नहीं पता, हम कहाँ जा रहे हैं हम नहीं जानते ! (where are we coming from we don't know, where are we going we don't know) अंतहीन समय से -जन्मजन्मान्तर से हम लोग इस तरह बोझ, इच्छा पाप का भारी बोझ, अपराधबोध, लाचारी की गठरी सिर पर लादे निरंतर बहते जा रहे हैं। (in endless time we float thus burdened, huge burden of desire sin, guilt, helplessness)---इसी को संसार कहते हैं जिसमें हम अनादि काल से बहते चले आ रहे हैं। ऐसा कब तक चलेगा, तब तक जब तक हमलोग भी बुद्ध के जैसा आत्मज्ञान नहीं प्राप्त कर लेते ! इदं द्वयं [जीव-जगत्]  उभयं व्यावहारिकं---ये दोनों माने एक तुम -(reflected consciousness) और दूसरा यह अनुभव गम्य जगत दोनों अनुभव से जानने में वाले व्यावहारिक विषय हैं। वेदान्तिक टर्म में व्यावहारिक माने (relative world-सापेक्षिक जगत। ) पर इसका वास्तविक वेदान्तिक शब्द है -मिथ्या ! ब्रह्म सत्यं ---जगत मिथ्या, साक्षी जीव (the Real Man) भी ब्रह्म ही है ! transactional, relative is equal to false also  जो सापेक्षिक सत्य है -वही मिथ्या है, असत नहीं है। किसी शिष्य ने अपने गुरु से पूछा था -यह अनुभव-ग्राह्य जगत माया है, मिथ्या है, अज्ञान से उत्पन्न हुआ है -इसको हम प्रमाणित कैसे कर सकते हैं ? [don't try to prove ignorance young man, try to overcome ignorance] मेरे भाई अज्ञान को प्रमाणित करने की चेष्टा मत करो , इसे दूर करने की चेष्टा करो। किसी बात को प्रमाणित करने के लिए तुम्हें प्रमाण की आवश्यकता होती है। proof is the source of knowledge which establish something, प्रमाण या साक्ष्य ज्ञान का श्रोत है, जो किसी सिद्धांत को स्थापित करता है। तथा ज्ञान का प्रत्येक स्रोत अज्ञानता का विरोधी है--every source of knowledge is opposed to ignorance . यह ऐसा ही है जैसे कोई पूछे कि-- "मैं किस लाईट से डार्कनेस को देख सकता हूँ ?" किसी भी लाईट से नहीं -जैसे ही तुम बल्ब जलाओगे अँधेरा भाग जायेगा। इसलिए मेरे भाई अज्ञान को दूर करने की चेष्टा करो, उसको प्रमाणित करने की चेष्टा मत करो। 
अब 38 श्लोक , हमने तीसरे प्रकार के स्वप्न-कल्पित जीव को छोड़ दिया था। अभी तक हमलोग साक्षी और व्यावहारिक जीव पर बातें कर रहे थे। स्वप्न देखते समय रोज रात में एक स्वप्न-द्रष्टा का व्यक्तित्व रहता है- 

चिदाभासस्थिता निद्रा विक्षेपावृतिरूपिणी ।आवृत्य जीवजगतो पूर्वे नूत्ने तु कल्पयेत् ॥ ३८॥
[यथा माया ब्रह्मणि] निद्रा चित्-आभास-स्थिता विक्षेप-आवृति-रूपिनी। पूर्वे व्यावहारिके जीव-जगती आवृत्य, [निद्रा] नूत्ने तु [प्रति-नवे स्वप्ने जीव-जगती] कल्पयेत्॥

38. As long as the belief in separation exists, the notion of causality exists. The mind projects the existence of the individual in the waking state and then imagines it afresh in the sleep and dream states.
जब तक हमारा मन क्रियाशील रहता है -तब तक चिदाभास -(reflected consciousness) बना रहता है। जब तक हम जाग्रत या स्वप्नावस्था में बने रहते हैं हमारा मन क्रियाशील रहता है। परन्तु सुषुप्ति की अवस्था में मन क्रियाशील नहीं रहता। जब तक तुम्हारे सामने दर्पण पड़ा रहता है, उस पर तुम्हारे चेहरे का प्रतिबिम्ब बना रहता है। दर्पण हटा लेने से -चेहरे का प्रतिबिम्ब नहीं रहता। उसी प्रकार जब सुषुप्ति अवस्था में मन की क्रिया बंद हो जाती है -चिदाभास समाप्त हो जाता है। जाग्रत अवस्था में चिदाभास को व्यावहारिक जीव कहा जाता है। जब मन में स्वप्न आते रहते हैं, उस समय वही व्यावहारिक जीव,  स्वप्न-कल्पित जीव की तरह कार्य करने लगता है। उस अवस्था मन एक स्वप्न -जगत की रचना करता है। स्वप्न का जगत किन तत्वों से बना होता है ? वह Not -भूत भौतिकं नहीं होता पंचभूतों से बना नहीं होता , जाग्रत अवस्था किये गए कर्मों के जो छाप संस्कार के रूप में चित्त में पड़ते हैं , उन्हीं संस्कारों से बना होता है। वे संस्कार ही एक "virtual world" आभासी दुनिया की रचना करते हैं। अब हम इसे बेहतर तरीके से समझ सकते हैं, क्योंकि 'virtual reality' (आभासी वास्तविकता) के विषय में हमें पता है। आज हम इस बात (आभासी दुनिया) को आसानी से समझ सकते हैं, क्योंकि 'virtual reality' के बहुत से उपयोग उद्योग जगत में भी हो रहे हैं। वह 'virtual reality' आभासी वास्तविकता जिसे हम सिलिकॉन वैली में उत्पादित कर सकते हैं, उसकी तुलना में बहुत अधिक शक्तिशाली  industrial strength virtual reality आभासी वास्तविकता हमारे मस्तिष्क से, प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क से उत्पन्न होती है। प्रत्येक व्यक्ति मस्तिष्क से , प्रत्येक रात्रि में एक अत्यन्त टिकाऊ (heavy duty) virtual reality उत्पन्न होती है। 
मनुष्य के मन में उत्पादित आभासी वास्तिविकता और सिलिकॉन वैली मेंउत्पादित  virtual reality की कल्पना करें। जाग्रत अवस्था में आप किसी बड़े भवन 'Tara Tower' की कल्पना करें उस भवन के पुरे नक्शे को स्पष्ट रूप से मन में पकड़े रहना अत्यन्त कठिन है। किन्तु कल्पना करें कि वही मन जब सपने में किसी भवन को प्रक्षिप्त करता है, उस समय वह स्वप्न की दुनिया स्पष्ट होती है, कि उसे देखने में कोई प्रयास नहीं करना पड़ता है। स्वप्न की दुनिया में दिख रहे लोग, आदमी , पशु, लोगों के घर, नदियां, कार ,हमारा चलना फिरना, अच्छे-बुरे विचार सब कुछ एक दम वास्तविक ही प्रतीत होता है। जब हमारा मन आभासी वास्तविकता उत्पन्न करता है उस समय उसके मन में परिलक्षित चेतना 'reflected consciousness'  एक स्वप्न-जीव (dream individual) बन जाता है। हर दिन जो स्वप्न आप देखते हैं -वह एक नया सपना होता है। तुम सपने में रोज रोज एक नया स्वप्न-व्यक्ति बनते हो रहते हो, कल रात में स्वप्न देखा था वही स्वप्न परसों नहीं देखा था। पर ऐसा नहीं हो सकता कि तुम स्वप्न जिस रसगुल्ले को हाँडी से निकाल कर खा रहे थे, और सुबह होगयी -उठने का टाइम हो गया, तब तुम उसको तुम किसी 'dream refrigerator' रख दो कि कल जब सोने जायँगे तो स्वप्न में फ्रिज से निकाल कर फिर से खा लूंगा। No no chance. सापेक्षिक दुनिया तुम्हारे साथ -साथ हर रोज चलेगी, किन्तु स्वप्न की दुनिया हर  रोज नई होगी। जिसमें एक नया स्वप्नजीव -new dream individual, नया स्वप्न देखेगा स्वप्न जगत एक जैसा दिख सकता है, पर स्वप्न मानव और घटनाएं नई नई होती हैं। 
अब श्लोक 39
 प्रतीतिकाल एवैते स्थितत्वात् प्रातिभासिके ।न हि स्वप्नप्रबुद्धस्य पुनः स्वप्ने स्थितिस्तयोः ॥ ३९॥
प्रतीति-काले (दृष्ट-काले) एव स्थितत्वात्, एते [नूत्ने जीव-जगती] प्रातिभासिके, स्वप्न-प्रबुद्धस्य हि (यस्मात्) [च] पुनर्-स्वप्ने (अपर-स्वप्ने) तयोः [पूर्व-जीव-जगतोः] न स्थितिः (अनुवृत्तिः), [तस्मात् एते न सा-तत्य-व्यावहारिके]॥

39. The individual and world that are cognized in the dream state are illusory. When dreaming ends the dream self and all dream objects are realized to be merely products of the dreaming mind. 
ठीक यही बात मैं अभी अभी कह रहा थ । आप सपने में क्या देखते हैं ? लोगों और विभन्न चीजों को आप  सपने में देखते हैं,और उस व्यक्ति को भी देखते हैं आपके अपने सपने में हैं। पर उस व्यक्ति नहीं देखते नहीं जो उस समय बिस्तर में सो रहा होता है। वह व्यक्ति जिसकी आप सपने में कल्पना करते हैं, और सपने की दुनिया --ये दोनों हर दिन नए नए होते हैं। और उनका अस्तित्व तब तक रहता है, जबतक आप स्वप्न देख रहे होते हैं। किन्तु पंचेन्द्रीय ग्राह्य जगत (empirical world-अनुभवसिद्ध जगत) में जब मैं आपके सामने इस क्लास में बैठा हूँ, तभी तक आप मुझे देख सकते हैं, किन्तु यहाँ से हटने के बाद भी मेरा अस्तित्व रहता है। किन्तु सपने में आप जिस व्यक्ति को देखते हैं, जिसके साथ बात-चित करते हैं, उसका अस्तित्व तभी तक रहता है, जब तक की आप स्वप्न देख रहे होते हैं। आप उससे यह नहीं कह सकते हैं कि अब उठने का टाइम हो गया , कल रात के सपने में फिर तुम आना , तब तुमसे बातें करूँगा। नहीं तुम वैसा नहीं कर सकते, वह व्यक्ति तभी तक वहां रहेगा जबतक तुम स्वप्न देख रहे हो। 
इसलिए प्रतीति-काले (दृष्ट-काले) एव येते- स्वप्न में दिखने वाला व्यक्ति तभी तक रहता है, जबतक तुम स्वप्न देख रहे होते हो। इसलिए स्वप्न जिव को प्रातिभासिक (illusionary-ऐंद्रजालिक  जीव) कहते हैं। स्वप्न-प्रबुद्धस्य हि जब आप स्वप्न से जाग उठते हैं, तब कहते हैं -अरे ये तो मैं सपना देख रहा था। यदि लॉटरी जीत गए तो ख़ुशी से उछल रहे थे , बुरा स्वप्न देखा तो डर रहे थे, और जगने पर बोले भगवान की कृपा है, कि वह केवल एक स्वप्न था। दोनों अवस्थाओं में पुनर्-स्वप्ने (अपर-स्वप्ने) तयोः [पूर्व-जीव-जगतोः] न स्थितिः जब स्वप्न से पुनः जाग गए , और अगले दिन जब पुनः स्वप्न देखोगे तो वही व्यक्ति वही दृश्य नहीं दिखेगा, अलग लोग अलग प्रकार के दृश्य रहेंगे।
प्रातिभासिकजीवो यस्तज्जगत् प्रातिभासिकम् ।वास्तवं मन्यतेऽन्यस्तु मिथ्येति व्यावहारिकः ॥ ४०॥
यः प्रातिभासिक-जीवः तद् प्रातभासिकं जगत् वास्तवं [सत्यं] मन्यते, अन्यः तु व्यावहारिकः [जीवः उभे प्रातिभासिके] मिथ्या [अ-सत्यतया] इति [मन्यते]॥

40. While the dream self believes that the dream world is real, the waking self believes that the dream world is unreal and the waking world is real. But both these selves are only passing projections of the mind, ephemeral concepts that come and go in Awareness, which is the underlying reality, devoid of separate selves.
यः प्रातिभासिक-जीवः तद् प्रातभासिकं जगत् वास्तवं [सत्यं] मन्यते,---जब तक हम स्वप्न देख रहे होते हैं, तबतक हम अपने को और सपने की दुनिया को सत्य समझ रहे होते हैं। हम ऐसा बर्ताव करते हैं, माने सबकुछ सचमुच ही घटित हो रहा है ! किन्तु जब जग जाते हो, और व्यावहारिक जीव, श्री अमुक जी बन जाते हो,और रात के सपने को याद करते हो कि वह तो मिथ्या था -falls था ! इससे जो सार बात निकला उसको 41 श्लोक में कहते हैं -
व्यावहारिकजीवो यस्तज्जगद्व्यावहारिकम् ।सत्यं प्रत्येति मिथ्येति मन्यते पारमार्थिकः ॥ ४१॥
यः व्यावनारिक-जीवः तद् व्यावहारिकं जगत् सत्यं प्रत्येति [मन्यते]। पारमार्थिकः [जीवः एभे व्यावहारिके] मिथ्या इति मन्यते॥

41. The self believes that the world is real. But this empirical world is unreal, as it disappears during deep sleep. The three worlds of waking, dreaming and dreamless sleep are ephemeral appearances. The real Self, Awareness, underlies, and therefore transcends the three states of waking, dreaming and deep sleep.
यः व्यावनारिक-जीवः तद् व्यावहारिकं जगत् सत्यं प्रत्येति [मन्यते]। हमारा यह अनुभवजन्य जगत, या  दृष्टिगोचर जगत -, इन्द्रियग्राह्य जगत जिसे हमलोग अभी देख रहे हैं, इसको हमलोग वास्तविक समझते हैं।  कैसे यह वास्तिविक है ? मैं सत्य हूँ , touch body - अनुभव करते हो -यह सत्य है ! यह टेबल दीखता है - यह भी सत्य है। इसलिए  व्यावहारिक जीव (empirical individual-प्रयोगाश्रित व्यक्ति ) या श्री अमुक चिदाभास जी ( the reflected consciousness in the mind) मन से जुड़ी हुई प्रतिबिंबित चेतना अपने को वास्तविक व्यक्ति ( real individual-व्यष्टि अहं M/F) समझती है,और वास्तविक जगत में जन्म लेने के बाद, वास्तविक जगत ( real world -सौरमण्डल सहित पृथ्वीलोक, जहाँ चन्द्रग्रहण -सूर्यग्रहण लगने के वैज्ञानिक कारणों को हम जानते हैं !) में हमलोग जो वास्तव में स्त्री हैं या पुरुष हैं- परस्पर एक दूसरे से बातचीत कर रहे हैं, एक-दूसरे को सचमुच प्रभावित कर रहे हैं। यही समझते रहते हैं। 
जब वह व्यावहारिक जीव (नश्वर व्यष्टि अहं नहीं जीवात्मा) आत्मज्ञान (enlightenment ) प्राप्त कर लेती है, तब वह अपने परम स्वभाव ( absolute nature-पूर्ण, अविनाशी या असीम सच्चिदानन्द स्वरुप) के प्रति जाग्रत हो जाती है, जो वास्तव में केवल द्रष्टा है, pure (शुद्ध) या साक्षी चेतना (witness consciousness) है ! और उस आत्मानुभूति के बाद, पीछे मुड़कर इस जगत को देखते हो, तब तुम्हें यह फिर से दीखता है; किन्तु अब तुम इस दृष्टिगोचर -अनुभवजन्य जगत (Bh -size) आदि को आभास (appearance-दिखाऊटी नाम-रूप) जैसा देखोगे वास्तविक नहीं मानोगे। नाम-रूपमय जगत को फिर से देखोगे किन्तु अब 'कामिनी-कांचन -कीर्ति ' की इच्छा करने वाले व्यावहारिक जीव को वास्तविक मानकर उन सब के आकर्षण में नहीं फंसोगे, माया के जादू ---आवरण और विक्षेप देखकर उसके द्वारा फिर से  hypnotized नहीं होओगे । look the difference ,अन्तर को देखो---Dream World (virtual world) तथा इस  empirical world [ड्रीम वर्ल्ड (आभासी दुनिया) या अनुभवजन्य दुनिया/ स्वप्न की दुनिया और इस प्रातिभासिक किन्तु अनुभवजन्य दुनिया] में अन्तर कहाँ पर है , इसको समझो! स्वप्न-कल्पित जीव (dream individual) और व्यावहारिक जीव (empirical individual) में विवेक -प्रयोग करो।  look the difference is this--- जब तुम स्वप्न से जाग उठते हो,
when you wake up from your dream, तो सामान्य रूप से तुम अपने सपनों की दुनिया में निवास नहीं करते,( inhabit the dream world ) वह सपने की दुनिया तुम्हारे सामने से गायब हो जाती है। (the dream world disappears) क्योंकि अब तुम एक नए जगत एक सापेक्षिक जगत (relative world) को जागते हुए देख रहे होते हो, तुम्हारे सामने एक जाग्रत जगत (waking world) रहता है। उसी प्रकार जब कोई ब्रह्मज्ञ महापुरुष (enlightened person) आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है , और फिर से अपने शरीर को देखता है, तो पाता है कि उसका शरीर जो पहले M/F था, अब भी वैसा ही है। उसका मन और यह जगत सबकुछ पहले जैसा दीखता है। if one person gets enlightenment all they'll continue - यदि तुमको आत्मज्ञान प्राप्त हो जायेगा, तब तुम भी वहाँ पहले की तरह ही विद्यमान रहोगे, चिंता मत करो -तुम गायब नहीं हो जाओगे। सब कुछ पहले की तरह ही चलता-फिरता दिखेगा। किन्तु उस ब्रह्मवेत्ता मनुष्य की दृष्टि ज्ञानमयी हो जाएगी, उस बुद्धत्व-प्राप्त व्यक्ति की दृष्टि में यह दृष्टिगोचर जगत -एक आभास (appearance-सम्भावना, अव्यक्त ब्रह्म) के रूप में दिखेगा। और केवल ब्रह्म ही सत्य दिखाई देंगे। वह स्पष्ट रूप से देखेगा कि वह सच्चिदानन्द ब्रह्म ही इस व्यावहारिक जगत के रूप में भास रहे हैं। यही अंतर है, यह विश्व-ब्रह्माण्ड यह अनुभवगम्य जगत सबकुछ वैसा ही रहेगा, वैसा ही दिखेगा। यह जगत गायब नहीं हो जायेगा। जब वह बुद्धत्व-प्राप्त व्यक्ति (enlightened person) अन्तर्मुख या समाधि की अवस्था में रहेगा, उसको इस बाह्य जगत (external world ) का अनुभव नहीं होगा, या यह जगत नहीं दिखेगा। और वही ब्रह्मज्ञ मनुष्य जब समाधि (trance -तन्मयावस्था) में नहीं होगा, या जब वह भावसमाधि में डूबा हुआ (not an absorbed) नहीं होगा, और अपने देह-मन के साथ जगतव्यावहार कर रहा होगा -Bh toffee milk आदि ? उस ब्रह्मज्ञ व्यक्ति की आँखों को बाह्य जगत का नाम-रूप सब कुछ वैसा ही दिखेगा। वह भी विविध नाम-रूप को देखेगा, हमलोग भी विविधता से परिपूर्ण बाह्य जगत को ही देखते हैं।   अपने कानों से वह ब्रह्मज्ञ व्यक्ति भी शब्द (sound -ॐ) को सुनते हैं, हमलोग भी शब्द को कानों से सुनते हैं। इत्यादि-and so on/ किन्तु उस ब्रह्मवेत्ता को रूप-रस-गंध-शब्द -स्पर्श आदि सभी विषय केवल एक आभास (appearances ) के रूप में प्रतीत होंगे। और केवल ब्रह्म को ही वह स्पष्ट रूप में देखेगा। हर परिवर्तनीय दृश्य के पीछे स्थित अपरिवर्तनीय ब्रह्म को वह साक्षी व्यक्ति (ब्रह्मज्ञ महापुरुष) स्पष्ट रूप से देख सकेगा।
किसी जाने-माने संन्यासी [well-known sadhu/C-in-C/ enlightened person always aware,that he is Brahman and everything is Brahman ] से, जिन्हें लोग ब्रह्मज्ञ-महापुरुष जिन्हें अपना ईश्वरत्व कभी नहीं भूलता ,के रूप में जानते थे, जो सदैव यह जानते हैं कि वे ब्रह्म हैं, और यह दृष्टिगोचर जगत भी ब्रह्म (शक्ति) के सिवा और कुछ नहीं है,सब कुछ ब्रह्म है ! जब यह पूछा गया कि -क्या यह सत्य है कि यह जगत ब्रह्म है ? ऐसा कैसे हो सकता है ? यह तो नित्य परिवर्तनशील है। उस ब्रह्मज्ञ व्यक्ति को  क्या उन नाम-रूपों में कोई ज्योति जैसी या छाया जैसी कोई (like a shadow, something like a light) दिखाई पड़ती है ? क्या  जगत कोई छाया जैसी चीज है, जिसे पीछे से कोई लाइट जैसे चमकीली वस्तु प्रकाशित करती है ?
साधु ने उत्तर दिया ... (sometimes you see the Sun and  the moon in the sky together at daytime) कभी न कभी तुम भी जरूर देखे होंगे कि कभी-कभी आसमान में सूर्य और चंद्रमा को एक साथ देखना संभव है। दिन के समय में सूर्य और चन्द्रमा दोनों आकाश में एक साथ रहते हैं ? उन्होंने कहा देखो - वहाँ सूर्य चमक रहा है , और क्षितिज के दूसरी तरफ चन्द्रमा भी थोड़े बल के साथ (faintly) दिखाई दे रहा है। [look there is the Sun blazing forth and faintly on the other horizon is Moon] उसी प्रकार किसी बुद्धत्व -प्राप्त मनुष्य (enlightened person ) के लिए ब्रह्म के प्रति जागरूकता (awareness of Bramhan) में सब कुछ स्पष्ट रूप से ब्रह्म ही दीखता है। वह स्वयं ब्रह्म है, और उसके अनुभव में आने वाली प्रत्येक वस्तु नामरूप -रूप,रस,गंध , शब्द या स्पर्श ब्रह्म का ही रूप दिखाई देता है। उसके लिए -Brahman is as clear blazing forth like ।the Sun. उसके लिए ब्रह्म उस चमकते सूर्य के जैसा सदैव स्पष्ट रूप से दीखता है। तथा 'नाम-रूपमय' जगत को वह कम बल से प्रकाशित उसी चन्द्रमा की भाँति बहुत स्पष्ट रूप से देखने में समर्थ हो जाता है। ( and the world of name-and-form is an appearance like that faint moon ) साक्षी व्यक्ति भी व्यावहारिक जीव की भाँति आँख,कान , नाक आदि इन्द्रियों के माध्यम से उनके विषयों को ठीक उसी प्रकार से अनुभव करता है , जैसे हमलोग करते हैं। केवल बोध-ज्ञान (दृष्टि) का अन्तर हो जाता है - पहले जो 'जगत दृष्टि' थी अब वह "ब्रह्म-दृष्टि" में बदल जाती है ! 
सत्यं प्रत्येति मिथ्येति मन्यते पारमार्थिकः ----इस जगत को हमलोग तभी तक सत्य समझते हैं, जब तक हमें आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं हो जाती। [ जो वस्तु Bh toffee milk आदि पहले सत्य प्रतीत होते थे , अब मिथ्या प्रतीत होते हैं।] यहाँ तक कि यदि हम नित्य प्रतिदिन वेदान्त ग्रंथों का पाठ भी क्यों न करते हों-और कहते रहते हों - अहं ब्रह्मास्मि !  --even though we may read Vedanta! किन्तु जब तक वह हमारे लिए एक वास्तविकता नहीं बन जाती ,तोते के समान मुख से रटते रहने से कुछ लाभ नहीं होगा। बार बार किसी मंत्र को दोहराना बुरा नहीं है, बहुत अच्छा अभ्यास है। हम जो कुछ पढ़ रहे हैं उसे दोहराना अच्छा है, यह अच्छा अभ्यास (good practice) है। किन्तु जब हम उसको अपने अनुभव से नहीं जान लेते। ब्रह्म जब तक हमारे लिए एक जीवंत वास्तविकता नहीं बन जाते। जब तक हम महावाक्यों का आत्मसातीकरण नहीं कर लेते, up to that point,we keep on considering and behaving as if this world were true ;  उस बिंदु तक, हम इस इन्द्रियग्राह जगत को ही सच मानते रहेंगे, और उसके साथ वैसा ही व्यवहार भी करते रहेंगे। 
किन्तु यहाँ एक बात मैं बिल्कुल अलग तरीके से स्पष्ट कर देना चाहूंगा - here I want to make a clear distinction: अद्वैत वेदान्त यह नहीं कहता कि -Advaita does not say the world is true as long as you are unenlightened; जब तक तुम आत्मज्ञान नहीं प्राप्त कर लेते तब तक यह जगत सत्य है।  अद्वैत यह नहीं कहता कि जब तक तुम आत्मज्ञान को प्राप्त नहीं करते तब तक संसार वास्तविक है। और अद्वैत ऐसा भी नहीं कहता कि जब तुम आत्मज्ञान प्राप्त कर लोगे, तब जगत मिथ्या और ब्रह्म सत्य बन जायेगा। (and it doesn't say when you are enlightened the world becomes false and Brahman becomes real) अद्वैत ऐसा नहीं कहता ! अद्वैत कहता है - केवल ब्रह्म ही सत्य हैं -Brahman alone is true ! अद्वैत कहता है कि केवल ब्रह्म ही सत्य है, और यह जगत मिथ्या है - चाहे तुम आत्मज्ञानी हो या नहीं हो। अन्तर केवल इतना है कि आत्मज्ञानी महापुरुष इस बात को जानते हैं, उनके यह लिए यथार्थ तथ्य है। और अज्ञानी व्यक्ति (unenlightened person) को इसका अनुभव नहीं होता। याद रखो -जिस समय तुम रज्जु में सर्प देख रहे हो, और बाद में तुम्हें यह अनुभव होता है कि यह सर्प नहीं रज्जु है; किन्तु जब तुम सर्प देख रहे थे , तब भी वहां कोई सर्प नहीं था। तुमने जब जाना कि वह सर्प नहीं है तब वह सर्प से रज्जु बन गया ऐसा नहीं है। यह शुरू से ही रज्जु था। रज्जु पर आरोप मत लगाओ ! [don't blame the rope it was a rope all along, you saw it as a snake it was your mistake] यह तो शुरू से ही रज्जु था , तुमने इसको सर्प के रूप में देखा -तो यह तुम्हारी गलती है ! जिस समय तुम इसको सर्प के रूप में देखकर डर से काँप रहे थे , उस समय भी यह रज्जु ही था। और सर्प के रूप में इसका प्रतीत होना मिथ्या था। और अब जब तुमको पता चल गया कि रस्सी है , तब भी रस्सी ही है। 
ठीक उसी प्रकार ब्रह्म भी सदैव ब्रह्म ही रहते हैं, तुम इसी समय -right now, स्वयं ब्रह्म हो -सच्चिदानन्द हो,  existence consciousness bliss' हो after enlightenment? बुद्धत्व प्राप्ति के बाद क्या बन जाऊंगा ? तब भी तुम ब्रह्म ही रहोगे - you still be existence consciousness bliss, तब भी तुम सच्चिदानन्द ही रहोगे। तो फिर बुद्धत्वप्राप्ति से लाभ क्या हुआ ? लाभ यह हुआ कि अब तुम्हारा यथार्थ सच्चिदानन्द स्वरूप एक वास्तविकता बन जाता है। उसमें क्या लाभ है ? उससे यह लाभ है कि -आत्यंतिक दुःख निवृत्ति, परमानन्द प्राप्ति ' हो जाएगी।all our miseries all our problems are because we regard ourselves as not Brahman /हमारे सारे दुःख , सारी समस्याएं केवल इसीलिए हैं कि हमलोग अपने आप को ब्रह्म नहीं समझते; और साथ ही साथ इस सापेक्षिक जगत या बाह्य जगत को भी हम ब्रह्म नहीं समझते। जब हमलोग स्वयं को ब्रह्म के साथ एक और अभिन्न -आत्मा या existence consciousness bliss' के रूप में जान जायेंगे, और विश्व-ब्रह्माण्ड की प्रत्येक जड़-चेतन वस्तु को सच्चिदानन्द से ,existence consciousness bliss, से भिन्न नहीं मानेंगे, तब हमारे सामने कोई समस्या नहीं रहेगी, सारे दुःख समाप्त हो जायेंगे। आत्मज्ञान होने के बाद भीतर-बहार हर जगह केवल आनन्द और आनन्द का ही अनुभव होगा। [from when we regard ourselves as one with God as and we regard everything in the universe as nothing other than existence consciousness bliss then we have absolutely no pain no problems all sufferings come to an end it is bliss bliss within and bliss without everywhere]
अतः ब्रह्म को जान लेने के बाद क्या होता है, इसके उत्तर में अद्वैत आश्रम , मायावती से आविर्भूत हुए एक साधु (C-in-C) ने हमसे कहा था, जो मुझे अब भी याद है - जब वे लीडरशिप क्लास ले रहे थे तब कहा था - मेरी आँखों में देखकर कहा था -I bow down my head to the would be leaders of India ' त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि -सत्यं वदामि ऋतं वदामि'-- तुम जानो या ना जानो, तुम मानो या न मानो ; तुम ही राम हो ! .... whether you accept it or not you are Rama you are God ![  जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि। बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि ॥ आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी ॥  सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥] पहले  इस क्लास को शांति मंत्र के पाठ से समाप्त करना ठीक होगा। " श्री रामकृष्ण अर्पणम अस्तु!" 
और चलिए अब एक सवाल सुनते हैं। हमारे पास एक प्रश्न के लिए समय है।और फिर, अगली कक्षा में, हम निष्कर्ष निकालेंगे। अच्छा सवाल आया है -doesn't enlightened person see some problems or not? क्या आत्मज्ञान प्राप्त व्यक्ति के जीवन में भी समस्याएं आती हैं, या की उनकी सभी समस्याएं समाप्त हो जाती हैं ?
 बुद्धत्व प्राप्त व्यक्ति समस्यायों के कारण को समझ सकता है, जैसे बुढ़ापा एक समस्या है, रोग-व्याधि -कष्ट कारक है, हिंसात्मक घटनाएं समस्या है, लिंग-जाति के नाम पर भेदभाव करना समस्या है। जिन समस्याओं को हमलोग समस्या समझते हैं, तो कोई ब्रह्मज्ञ महापुरुष भी हमारे दृष्टिकोण को जरूर समझते हैं। और शायद हमसे बेहतर समझते हैं। ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि आत्मज्ञानी मनुष्य निर्मोही, या असंवेदनशील (cold-hearted ) हो जाता है। बल्कि, इसके विपरीत ब्रह्मज्ञ व्यक्तियों का ह्रुदय बहुत कोमल (soft-hearted) होता है। जैसा बौद्ध लोग उदाहरण देते हैं - बुद्धत्व प्राप्त लोग महाकरुणा (The great compassion ) से अभिभूत जाते हैं और यही कारण है कि ब्रह्मज्ञ या प्रबुद्ध व्यक्ति (enlightened person) अपने ज्ञान को हमारे साथ साझा किया करते हैं।
 इसको समझाने के लिए  श्री रामकृष्ण तीन मित्रों का उदाहरण देते हैं, ... तीन मित्र पैदल घूम रहे थे तब उन्हें एक बहुत ऊँची दीवाल से घिरी boundary दिखाई देती है। उस तरफ से बहुत हँसने गाने खुशियाँ मनाने जैसी आवाजें आ रही थीं।  वे जानना चाहते थे कि दीवार के दूसरी तरफ क्या है ?बड़ी मुश्किल से, दोस्तों में से एक दीवार पर सीढ़ी लगाकर चढ़ने का प्रबंध करता है, और वहाँ दीवार पर चढ़ने  के बाद, वह दूसरी ओर जो कुछ था उसे देखकर खुशी से नाचने लगता है । उसके मुख से निकलता है --"कितना अद्भुत, कितना अद्भुत!"
अन्य दो दोस्तों सोचने लगते हैं कि उधर ऐसा क्या होगा, जिसे देखकर यह इतना आनन्दित हो रहा है ? कैसा होगा। लेकिन इससे पहले कि वे पूछ सकें,वह दूसरी तरफ कूद गया, और वे उसे नहीं देख सके।
अब उन दोनों मित्रों की उत्सुकता और अधिक बढ़ गयी, "हमें भी देखना चाहिए है कि उधर क्या है!" 
दूसरा व्यक्ति बड़ी मुश्किल से चढ़ पाया और उसके साथ भी वही हुआ ! वह भी मारे खुशी में विभोर होकर कहने लगा: "वाह ! क्या आश्चर्य जनक आनन्द ! परमानन्द !"wonder what joy what bliss and jumped " और वह भी दीवार के दूसरी ओर कूद गया।  
तीसरे व्यक्ति ने यह देखा और बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार वह भी दीवार पर चढ़ गया; और उसने देखा कि दूसरी तरफ तो एक महान उत्सव मनाया जा रहा है , जैसा माहौल को भारत में "मेला" कहा जाता है। खुशियों का बाजार, 'mart of joy' आनन्द का हाट लगा है। उत्सव, अद्भुत चीजें हो रही हैं। इतनी ख़ुशी देखकर वह बहुत चकित हुआ ..and he was about to jump and join the those people on the other side , वह भी उन लोगों के समान उस ओर कूद जाने को उध्दत हो जाता है, लेकिन तभी उसके मन में विचार उठता है --"लेकिन, गाँव में या जगत में रहने वाले अन्य लोग हैं, उनको   इस आनन्द के बाजार की खबर कौन बताएगा? नहीं, मैं वापस लौट जाऊँगा और उन्हें बुलाऊँगा ।"[then he thought who will tell the people in the village the world let me go back and call them - so he turned around jumped down and came to call us .] फिर वो हमें बुलाने के लिए वापस आ जाता है। इतना करुणाशील होता है--बुद्धत्व प्राप्त व्यक्ति का हृदय । आप सबों का बहुत-बहुत धन्यवाद। हम अगले हफ्ते फिर मिलेंगे।
चलते-चलते एक व्यक्ति प्रश्न करते हैं -   "दादा , आपने वह कहानी तो सुनाई लेकिन यह नहीं बताया कि इसका क्या मतलब है। क्या आप समझा सकते हैं?" मैं इस कहानी के अर्थ को विस्तार से बतला सकता हूँ, लेकिन वे विचार सिर्फ मेरे आनुमानिक सिद्धांत होंगे।  your guess is as good as mine, और तुम्हारे अनुमान भी मेरे जैसे ही सटीक होंगे। 
 दीवाल के उस ओर प्रबुद्ध व्यक्ति क्या देखते हैं ? या देखने वाला व्यक्ति कौन होता है ? WHO sees ? ....who am 'I' ?  ऊँची चहारदीवारी के दूसरी तरफ देखता कौन है ? हमलोग बुद्धत्व प्राप्त व्यक्ति [अवतार, नेता ,गुरु, जीवन्मुक्त शिक्षक] को भी अपने जैसे एक मनुष्य के आकार में देखते हैं। our idea is an enlightened person is just like us देखिए, मैं यही कहूंगा कि प्रबुद्ध व्यक्ति भी हमारे जैसा ही होता है। जैसे मैं अभी एक व्यक्ति हूँ जो  इस शरीर में रहता है। an enlightened person also is something like that,as I am another person in a body....well it probably is not like that that's what Swami Bhuteshananda was trying to say. किन्तु बुद्धत्व प्राप्त व्यक्ति भी शायद उसी  प्रकार के साधारण व्यक्ति नहीं होते , इसीलिये उस दिन....... स्वामी भूतेशानन्द जी महाराज ने कहा था ---के देखे ? [but I was struck by the power of his response, हमने पूछा था महाराज, एक ब्रह्मज्ञ व्यक्ति जगत को किस रूप में देखते हैं ? और उनका स्वतःस्फूर्त (spontaneous) उत्तर था who see ? ---के देखे ?
प्रबुद्ध व्यक्ति ऐसा होता है [की वह-सर्वप्रियानन्द बनकर ] हमें उठाने के लिए वापस लौट आता है !
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[ दादा से पूछा था - फिर मैं कैसे ऊँच -बनारस ,रोहिनिया के निर्विकल्प समाधि के उस भूमानन्द को भी त्याग कर वापस लौट आया ? मैं वापस क्यों लौट आया? मैं तो आना ही नहीं चाहता था ?...... ब्रह्म का ज्ञान तुमको नहीं आत्मा को हुआ था। क्या ब्रह्म का ज्ञान व्यष्टि अहं-या मन को होता है ? नहीं, आत्मा ही परमात्मा को जान सकता है। ]  
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पारमार्थिकजीवस्तु ब्रह्मैक्यं पारमार्थिकम् ।प्रत्येति वीक्षते नान्यद्वीक्षते त्वनृतात्मना ॥ ४२॥
पारमार्थिक-जीवः तु [जीव-]ब्रह्म-ऐक्यं पारमार्थिकं प्रत्येति। [सः ज्ञानी] अन्यद् [भेद-वस्तु] न [सत्यतया] वीक्षते (मन्यते), अन्-ऋत-आत्मना [अ-सत्यतया] तु वीक्षते॥

42. When Awareness is realized to be the underling Reality behind all states, the world of objects are realized to be merely reflections of Awareness.
माधुर्यद्रवशैत्यानि नीरधर्मास्तरङ्गके ।अनुगम्याथ तन्निष्ठे फेनेऽप्यनुगता यथा ॥ ४३॥
साक्षिस्थाः सच्चिदानन्दाः सम्बन्धाद्व्यावहारिके ।तद्द्वारेणानुगच्छन्ति तथैव प्रातिभासिके ॥ ४४॥
यथा माधुर्य-द्रव-शैत्यानि नीर-धर्माः (जल-धर्माः) तरम्-गके (तरम्-गे) अनुगम्य (अन्तर् स्थित्वा), अथ (इत्था च) तद्-निष्ठे [जल-निष्ठे] फेने अपि अनुगताः, तथा एव सत्-चित्-आनन्दाः [लक्षणानि] साक्षि-स्थाः सम्बन्धात् [स्व-अधिष्ठानेन नाम-रूप-दृश्यस्य मिथ्या-विवर्त-सम्बन्धात् नाम-धेयतया], [न सत्य-परिणाम-सम्बन्धात्] व्यावहारिके अनुगच्छन्ति, तद्-द्वारेण [व्यावहारिक-सम्बन्धेन च] प्रातिभासिके (अनुगच्छन्ति)॥

43-44. The qualities of water such as wetness, fluidity, coldness, sweetness, wave and foam are inherent in water and are not separate from water except as conceptual names and forms. So also Being, Consciousness, Peace and Bliss, which are the natural characteristics of Awareness, appear to be inherent in the so-called separate selves that reside in the waking and dream states.

From the relative standpoint wetness, foam, waves, fluidity, coldness and sweetness appear as separate qualities of water; so, too, do I-selves and objects appear to be separate qualities of Awareness. From the standpoint of Awareness there are no waking or dream selves that are separate from Awareness. The characteristics of a separate self and a separate world are merely superimpositions upon undifferentiated Awareness.
लये फेनस्य तद्धर्मा द्रवाद्याः स्युस्तरङ्गके ।तस्यापि विलये नीरे तिष्ठन्त्येते यथा पुरा ॥ ४५॥
यथा पुरा (पूर्वं) [विपर्यासेन], फेनस्य लये [प्रकृत्या ज्ञानेन वा सति], द्रव-आद्याः तद्-धर्माः [फेन-अधिष्ठान-धर्माः] तरम्-गके स्युः (तिष्ठेयुः)। तस्य [तरम्-गस्य] अपि विलये, एते [अधिष्ठान-धर्माः] नीरे (जले) तिष्ठन्ति॥

45. All differences like, wetness, foam, wave, coldness, fluidity and sweetness are non-separate characteristics of the underlying essence of water. The characteristics of water have no existence separate from the water from which they arise. All these characteristics appear and disappear in water. All characteristics of water are only aspects of their essential nature, water.
प्रातिभासिकजीवस्य लये स्युर्व्यावहारिके ।तल्लये सच्चिदानन्दाः पर्यवस्यन्ति साक्षिणि ॥ ४६॥
[तथा] प्रातिभासिक-जीवस्य [तद्-जगतः च] लये [प्रबोधनेन सति], सत्-चित्-आनन्दाः [लक्षणानि] व्यावहारिके स्युः (तिष्ठेयुः)। तद्-लये [व्यावहारिक-लये ज्ञानेन सति], [सत्-चित्-आनन्दाः लक्षणानि] साक्षिणि पर्यवस्यन्ति (निष्ठां प्राप्नुवन्ति) [एषा ब्राह्मी स्थितिः] (BhG.2.72); [तदा द्रष्टुः स्व-रूपे अवस्थानम् (YS.1.3)]॥

46. Upon waking up from the dream state, all characteristics of the dreamer, such as existence and consciousness, dissolve and are realized to be only projections of the dreaming mind. Just so, upon awakening, all separate characteristics of the self dissolve, and are realized to be only projections of nondual Awareness. As foam and wave have no existence separate from water, so also the entire universe consisting of the separate self and the objective world have no existence separate from nondual Awareness. In truth, all that exists is nondual Awareness.
इति भारतीतीर्थ स्वामिना विरचितः दृग्दृश्यविवेकः समाप्तः ॥
साभार https://sanskritdocuments.org/

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