शनिवार, 13 जुलाई 2019

दृग-दृश्य विवेक :माया की शक्तियाँ [श्लोक 13 से 21 तक] :

अध्याय 3 
माया की दो शक्तियाँ कैसे काम करती हैं ? 
“The Powers of Maya”
वेदान्त कहता है भ्रम के कारण हम अपने शरीर-मन से तादात्म्य कर लिए हैं, अब हमें अपने शरीर और मन का साक्षी बनना सीखना होगा। यदि हमलोग अपरिवर्तनीय, अविनाशी साक्षी चेतना हैं तो जन्म और मृत्यु किसकी होती है ?  यदि यही सत्य है, तो फिर यह मन, इन्द्रिय, शरीर कहाँ से आ जाता है ? यह बाह्य जगत, external universe, विश्व-ब्रह्माण्ड कहाँ से आ जाता है ? वेदांत कहता है अविनाशी चेतना ही ब्रह्म है -सच्चिदान्द ही हमारा स्वरूप है। यदि ऐसी बात तो बीच में यह मन कहाँ से आ जाता है ? शरीर और यह जगत कहाँ से चला आता है ? यह विश्व-ब्रह्माण्ड जिसको साक्षी चैतन्य प्रकाशित करता है,वह उत्पन्न कहाँ से होता है? यह जगत क्या है ? मैं कौन हूँ ? ये प्रश्न खड़े हो जाते हैं। इसका उत्तर श्लोक 13 में है -


शक्तिद्वयं हि मायाया/
 विक्षेपावृतिरूपकम् ।
विक्षेपशक्तिर्लिङ्गादि /
ब्रह्माण्डान्तं जगत् सृजेत् ॥ १३
शक्ति-द्वयं हि मायायाः [समष्टि-लिङ्गस्य प्रसिद्धं श्रुत्या] विक्षेप-आवृति-रूपकं (विक्षेप-आवरण-रूपम्)। विक्षेप-शक्तिः (जनिका-शक्तिः) जगत् लिङ्ग-आदि-ब्रह्म-अण्ड-अन्तं [व्यष्टि-आत्मक-लिङ्ग-शरीर-आदिं आ समष्टि-आत्मक-ब्रह्म-अण्डात्] सृजेत्
(Two powers, undoubtedly, are predicated of Maya, viz., those of projecting are veiling.The projecting power creates everything from the subtle body to the gross universe.)

'शक्ति-द्वयं हि मायायाः' माया की दो शक्तियाँ हैं -विक्षेप शक्ति और आवरण शक्ति। विक्षेप शक्ति लिंग-शरीर से लेकर ब्रह्माण्ड तक का सृजन करती है। इस श्लोक में लेखक बता रहे हैं कि माया की दो शक्तियाँ हैं। यहाँ हमलोग पहली बार माया के बारे में सुनते हैं कि माया के पास दो प्रकार की शक्ति है। माया में दो शक्ति कौन सी है ? आवरण शक्ति और विक्षेप शक्ति। जब हमलोग वेदान्त के बारे में जानना प्रारम्भ करते हैं तो पहली बार परम सत्य 'ब्रह्म', आत्मा, सच्चिदानन्द [existence-consciousness- bliss] के विषय में सुनते हैं। उसके बाद तुरन्त दूसरा शब्द 'माया' के विषय में सुन रहे हैं। 
यह माया क्या है ?  माया ही इस जगत का कारण है। माया क्या करती है ?  जितने भी अद्वैतवादी दर्शन, उपनिषद, गीता आदि ग्रंथ हैं ,उसमें कहा गया हैं कि ब्रह्म में एक शक्ति ऐसी होती है जो ब्रह्म को ही विश्वब्रह्माण्ड के रूप में बाहर प्रक्षेपित करती है। सभी उपनिषद कहते हैं यह माया शक्ति ही, ब्रह्म को जगत के रूप में प्रक्षिप्त (project) करती है। यह 'माया' ब्रह्म की ही शक्ति है, जो ब्रह्म के भीतर ही निवास करती है। और यही शक्ति समस्त विश्वब्रह्माण्ड को प्रक्षेपित करती है। और इस प्रकार ब्रह्म जगत के श्रोत बन जाते हैं। इसीलिए हर धर्म में हम पाते हैं कि कोई भगवान,गॉड या अल्ला हैं जो इस सृष्टि की रचना करते हैं। हर धर्म में यह विचार सामान्य रूप से मिलता है कि ईश्वर ने ही सृष्टि को रचा है। उसके पीछे तथ्य यही है कि ब्रह्म-सच्चिदानन्द में, उस साक्षीचेतना (witness-consciousness- bliss) में, जो हम ही हैं, उस शुद्ध चेतना (pure -consciousness) की एक शक्ति है माया, जो इस जगत को प्रक्षिप्त करती है।  सभी धर्मों की मान्यता है कि ईश्वर ही हमारा और सृष्टि का सृजन-पालन और संहार करते हैं। इस धारणा की उत्पत्ति इसी सिद्धान्त से होती है कि ब्रह्म या साक्षी चेतना जो वास्तव में हम हैं -उस शुद्ध चेतना में एक शक्ति होती है; जिसे माया कहते हैं, और वही इस सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड को प्रक्षेपित करती है। 
यह कोई गूढ़ तात्विक ज्ञान (metaphysical) नहीं है। इन दोनों शक्तियों का अनुभव हमें हर समय होता रहता है। ब्रह्म के साथ जीव या व्यष्टि अहं के तादात्म्य को समझने के लिए अद्वैत-परिचय ग्रंथों में अक्सर 'रज्जु-सर्प' का  एक अच्छा उदाहरण (classic Advaita example) दिया जाता है।  जैसे कोई व्यक्ति यदि semidarkness या धुँधलेपन के कारण सड़क पर पड़ी रस्सी को सर्प समझ लेता है तो भयभीत हो जाता है। किन्तु जब  प्रकाश  आने पर देखता है तब पता चलता है कि वहां  सर्प नहीं, रस्सी है।  माया की यह आवरण शक्ति अर्थात मेरा अज्ञान रस्सी को मुझसे छुपा देता है; और माया की विक्षेप शक्ति उसमें सर्प को प्रक्षिप्त करने लगती है। रज्जु के प्रति मेरा अज्ञान सिर्फ रस्सी को छुपाता ही नहीं है, दूसरी शरारत (पाजीपन) next mischief- वह यह करता है कि वह मेरे सामने सर्प को प्रस्तुत कर देता है। मैं रस्सी को नहीं जानता, और सर्प देखने लगता हूँ; I mistake to see it as snake. मैंने वहां ६ फुट की रस्सी को पड़ा हुआ नहीं देखा था, इसलिए उसको ६ फुट का सर्प समझने की गल्ती कर रहा था। इस गल्ती का कारण माया है। 
 तो यह माया क्या है ? माया वह शक्ति है जो ब्रह्म (witness consciousness) में रहती है, और इस जगत को बाहर निकालती है, प्रक्षिप्त करती है। यदि मैं अँधेरे में गलती से रज्जु कोसर्प समझ लेता हूँ, तब क्या होता है ? एक तो मैं नहीं जानता था कि यह रस्सी है ,यह अज्ञान ही आवरण शक्ति है, यह रस्सी के स्वरुप को छिपा देती है। दूसरी गल्ती होती है कि वह उसमें सर्प का भ्रम उत्पन्न कर देती है। वहाँ सर्प नहीं था, किन्तु इसी विक्षेप शक्ति ने रस्सी में सर्प के भ्रम को प्रक्षेपित कर दिया। मेरा अज्ञान केवल रस्सी पर आवरण ही नहीं डालता है, हम असली गलती तब करते हैं, जब उसे सर्प समझ लेते हैं। अज्ञान रस्सी को सर्प के रूप में प्रक्षेपित करता है। माया ब्रह्म के स्वरुप पर केवल पर्दा ही नहीं डालती, उसे केवल छिपाती ही नहीं हैं, माया ब्रह्म को सच्चिदानन्द को ही शरीर-मन -जगत के रूप में प्रक्षेपित भी करती है। इसीको विक्षेपशक्ति कहते हैं। 
हम स्वयं साक्षी चेतना हैं, किन्तु हमें उसका अनुभव नहीं होता। वेदान्त क्लास में साक्षी आत्मा के बारे में सुनते भी हैं, तो भूल जाते हैं। अद्वैत वेदान्त कहता है यह देह-मन और सम्पूर्ण जगत वही साक्षी चैतन्य सच्चिदानन्द है, जिसको हमने पहले श्लोक के दृग -दृश्य विवेक के द्वारा आविष्कृत किया है, या समझा है। देह-मन और बाह्य जगत को देखना समस्या नहीं है, किन्तु यह नहीं समझना कि यह देह-मन और बाह्य जगत भी ब्रह्म के सिवा और कुछ नहीं है, और आजीवन सापेक्षिक सत्य (relative truth) को ही परम् सत्य (absolute truth) समझते रहना वास्तविक समस्या है। श्रीरामकृष्ण ने , माँ सारदा देवी ने ,स्वामी विवेकानन्द और रमणमहर्षि ने, बुद्ध ने भी जगत को देखा था, किन्तु बुद्धत्व प्राप्ति के बाद क्या होता है ? हमें हर समय यही अनुभव होता है कि यह सर्प नहीं रज्जु है। जगत भी ब्रह्म ही है। जैसे ही तुमने रस्सी को देख लिया अब वहां सर्प है ही नहीं। समस्या हल हो गयी, अब तुम्हें वहां सर्प नहीं दिखेगा।
क्या यह माया ब्रह्म से भिन्न है या दोनों एक ही हैं ? क्या यह माया शक्ति ब्रह्म या साक्षी से भिन्न है, या उसी के जैसी है ?  यदि यह माया, ब्रह्म से भिन्न है, तब मानना पड़ेगा कि सत्य (reality) दो है। तब आप अद्वैत कह ही नहीं सकते। यदि यह माया ब्रह्म से पृथक है तब यह समस्या उठ खड़ी होगी कि तब दो सत्य को मानना पड़ेगा- ब्रह्म और माया दोनों को स्वीकार करना पड़ेगा। फिर यदि ब्रह्म और माया अलग-अलग हैं, तो फिर आप अद्वैत की बात नहीं कह सकते। इसलिए माया न तो ब्रह्म से भिन्न है, और न ब्रह्म से अभिन्न है। माया वह शक्ति है जो ब्रह्म को इस शरीर-मन के रूप में, गृष्टिगोचर जगत के रूप में  प्रक्षेपित करती है। 
वेदान्त कहता है -सत्ता मीमांसा की दृष्टि से, तात्विकता की दृष्टि से (ontologically) ब्रह्म और माया पृथक (different) होकर भी पृथक नहीं हैं। शक्ति और शक्तिमान भिन्न नहीं होते, अग्नि की दाहिका शक्ति अग्नि से भिन्न नहीं है। दर्शन की भाषा में कहा जाता है,(ontologically-ontology=तात्विकी) सत्ता-मीमांसा की दृष्टि से देखने पर  शक्ति और शक्तिमान भिन्न नहीं हैं। माया ब्रह्म से अलग होकर भी अलग नहीं है। जैसे शक्ति और शक्तिमान अलग नहीं हैं। अग्नि और उसकी दाहिका-शक्ति अलग नहीं है। अग्नि की दाहिका शक्ति अपने को जलाने की शक्ति और प्रकाशित करने की शक्ति (heat and light) के रूप में अभिव्यक्त करती है।
 उसी प्रकार ब्रह्म की एक माया शक्ति है जो इस सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड का श्रोत/मूल है। यह क्या करती है ? माया के पास दो शक्ति है, शक्तिद्वयं - आवृति या आवरणशक्ति  (पर्दा /veil) डालने की शक्ति, छिपा देने की शक्ति। पहले हम विक्षेप शक्ति को समझने का प्रयास करेंगे, बाद में आवरण को समझेंगे - इसके पीछे भी एक कारण है। माया अपने आप में नहीं बाँधती, उसकी विक्षेप शक्ति जो ब्रह्म को देह-मन और जगत के रूप में प्रक्षेपित करती है, वह कोई समस्या नहीं है। वास्तविक समस्या आवरण शक्ति है।  विक्षेप शक्ति जो ब्रह्म को जगत के रूप में प्रक्षेपित करती है वह समस्या नहीं है; आवरण शक्ति ही वास्तविक समस्या है। इसलिए माया हमारे साक्षी स्वरूप को छिपा देती है, उस पर अहं का पर्दा डाल देती है। यह माया शक्ति शुद्ध चेतना 'existence consciousness bliss' अस्तित्व- चेतना- आनंद, सच्चिदानन्द या ब्रह्म को ही देह-मन-अहं-इन्द्रिय आदि के रूप में प्रस्तुत करती है। फिर देह-मन समष्टि के समक्ष इस बाह्य जगत को, सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड को भी प्रक्षिप्त करती है।जगत को, शरीर को, मन को, M/F अहं को- देखना कोई समस्या नहीं है, समस्या है इनको वास्तविक मान लेना, और ब्रह्म को नहीं जानना समस्या है। इसलिए केवल आवरण शक्ति समस्या है, जो वास्तविकता को छुपा लेती है। विक्षेप शक्ति जो इस नाना नाम-रूपों में दृश्यमान जगत को प्रक्षिप्त करती है, यह समस्या नहीं है,यदि हम यह जानते हो कि इसके पीछे वही शुद्ध चेतना है -जो मैं स्वयं हूँ।
रेगिस्तान में मुझे प्यास लगी और थोड़ी दुरी पर पानी दिखाई दे रहा है। मैं उसकी तरफ दौड़ पड़ता हूँ , वहाँ पहुँचकर पता चलता है कि वह तो मात्र मृगमरीचिका थी ! रेगिस्तान में मैं प्यासा हूँ, दूर में पानी दिखाई देता है। दौड़ कर नजदीक जाता हूँ, तो देखता हूँ मृगमरीचिका है। मैं फिर आगे बढ़ना प्रारम्भ करता हूँ, थोड़ी देर जाने पर पीछे मुड़ता हूँ तो क्या देखता हूँ ? वही पानी है। आगे बढ़ जाता हूँ फिर मुड़ कर पीछे देखता हूँ, दूर में वही पानी दिखाई देता है। पर अब मैं जानता हूँ कि यह सच्चा पानी नहीं है, गर्म बालू गर्म हवा का रिफ्लेक्शन है, और अब उसके द्वारा मैं ठगा (duped) नहीं जा सकता। इसलिए अब मैं प्यास बुझाने के लिए दौड़ नहीं पड़ता। क्योंकि मैं जान गया कि यह केवल गर्म बालू है, रिफ्लेक्शन के कारण हवा गर्म होकर पानी का भ्रम उत्पन्न कर रही है। स्वामी विवेकानन्द के साथ यह घटित भी हुई थी।
  किन्तु सारे भ्रम एक ही प्रकार के नहीं होते। तुम देखते हो कि आसमान नीला है, किन्तु फिजिक्स में पढ़ते हो कि उसका कोई रंग नहीं है, वह दूर होने के कारण नीला दीखता है। किन्तु पढ़ने -समझने के बाद भी जब आकाश को देखते हो तो कैसा दीखता है ? अभी भी नीला ही दीखता है। तुम यह जानते हो कि वास्तव में आसमान नीला नहीं है, किन्तु फिर भी वह नीला ही दीखता है; अर्थात समझ जाने के बाद भी भ्रम बिल्कुल समाप्त कहाँ होता है ? क्योंकि माया अपनी आवरण शक्ति के द्वारा वह साक्षी चेतना (witness consciousness) तथा प्रतिबिंबित चेतना -(reflected  consciousness) अर्थात देह, मन,अहं,इन्द्रिय के बीच जो अन्तर है, उस अन्तर के ऊपर पर्दा डाल देती है। जब तुम रस्सी को देख लेते हो तब सर्प का भय उसी समय चला जाता है। समस्या दूर हो जाती है, किन्तु सभी illusion या भ्रान्ति के विषय में ऐसा ही नहीं होता।
 आसमान नीला नहीं है, फिजिक्स से समझ लेने के बाद भी यह नीला ही दिखेगा। भ्रान्ति दूर नहीं हुई हो, फिर तुम यह जान रहे होते हो कि वास्तव में आसमान नीला नहीं है। [आमार माँ की कालो रे श्यामा माँ की आमार कालो ? ] और साक्षी चेतना का अनुभव हमें नहीं होता है। फिर यह माया यह शुध्द चेतना, ब्रह्म या (pure   consciousness) को सिर्फ छुपा ही नहीं देती है, यह ब्रह्म को ही जगत के रूप में प्रक्षिप्त करती है। (क्योंकि अपने चेहरे को देखने के लिए दर्पण आवश्यक होता है !)  आवरण शक्ति ब्रह्म को छिपा लेती है, और उसे हमारे देह-मन और इस बाह्य जगत के रूप में प्रक्षेपित करती है। एक बार यदि हम ब्रह्म का प्रत्यक्ष अनुभव कर लेते हैं, realize कर लेते हैं कि यह जगत नहीं ब्रह्म ही है! तो फिर से जगत दिखाई देगा, फिर से हमें अपने शरीर-मन समष्टि का अनुभव होगा किन्तु अब हम जानते रहेंगे कि - 'I' am 'you' my dear in different form! यह सम्पूर्ण बाह्य-जगत भी शुद्ध अस्तित्व, शुद्ध चेतना, शुद्ध आनन्द के सिवा और कुछ नहीं है।  एक बार यदि हम ब्रह्म की अनुभूति प्राप्त कर लें, तो यह जगत फिर हमारे सामने आएगा ,पर हम समझेंगे यह ज्ञानस्वरूप, अस्तित्वस्वरूप आनंदस्वरूप के आलावा और कुछ नहीं है।  तब जो कुछ हम देखते हैं वह कोई समस्या नहीं बनेगी।
          आवरण शक्ति जो सत्य पर पर्दा डाल देती है, वह समस्या है। अनेकता से भरा जगत हमारे सामने हैं, यह कोई समस्या नहीं है। जब तुम इसमें अंतर्निहित सच्चिदानन्द को देख सकते हो, तो अनेकत्व होने से भी कोई समस्या नहीं है। विक्षेप शक्ति समस्या नहीं है, विविधता तो आनन्द दायक है। आवरण शक्ति को समझना होगा ,यह हॉलीवुड शहर में विक्षेप शक्ति बसी हुई है। यहाँ सिनेमा उद्योग है। सिनेमा में मर्डर, भूत, भयंकर आपदा  की कहानी पर कई विषयों के ऊपर  फिल्म हैं। हम उसका आनन्द लेते हैं, ऑस्कर पुरुष्कार देते हैं। हम जानते हैं, कि यह सब पर्दे पर घटित हो रहा है, यह सत्य नहीं है। इसीलिए ब्रह्मज्ञानी, जीवन्मुक्त व्यक्ति इस जगत के खेल का आनन्द लेता है। जब देखता है कि कहीं बाढ़-भूकंप आया है, तब ऑस्कर नहीं देता वहाँ जाकर सहायता करता है। उसका अपना शरीर-मन भी दृश्य बन जाता है। [क्योंकि हम जान गए हैं - माया  महा ठगनी हम जानी।।तिरगुन फांस लिए कर डोले, बोले मधुरे बानी।।]
         माया का दूसरा नाम शक्ति या ऊर्जा (Energy) भी है। शक्ति (Energy) का पुजारी बने बिना ब्रह्म का ज्ञान नहीं होता। श्रीरामकृष्ण जब दक्षिणेश्वर कालीमंदिर में अपने कमरे में बैठकर, माँ काली की इस आवरण शक्ति की कृपा के विषय में एकदम सरल उदाहरण देते हैं।  वे एक छोटे से अंगौछे को निकालते हैं और उससे अपने चेहरे को ढँक लेते हैं। और शिष्यों से कहते हैं - " देखो, अगर मैं अपने को इस अंगौछे से ढंक लूँ तो तुम मुझे नहीं देख सकते। पर मैं तुम्हारे बिल्कुल नजदीक ही हूँ। फिर अंगौछे को हटा लेते हैं और कहते हैं, अभी तुम मुझे देख सकते हो !' सभी चीजों की अपेक्षा शुद्ध चेतना (pure consciousness pure ईश्वर या ब्रह्म) ही हमारे सबसे ज्यादा निकट हैं। किन्तु इस अहं रूपी आवरण के कारण हम उनके दर्शन नहीं कर पाते। जिस प्रकार तुम मेरे अनुग्रह (grace) से मुझे देख सके,ठीक उसी प्रकार माँ जगदम्बा के कृपा-शक्ति की आवश्यकता है, grace of divine Mother- 'शक्ति की कृपा' is required. जब तुम माँ जगदम्बा से प्रार्थना करोगे कि माँ हमारे सच्चे साक्षी स्वरूप के ऊपर तुमने जो पर्दा (अहं का पर्दा) डाल रखा है, कृपा करके उस पर्दे को हटा लो, तब उनकी कृपा होगी तभी अपने साक्षी स्वरूप को देख सकोगे! अपने यथार्थ स्वरुप का अनुभव करने के लिए grace of divine mother, (ब्रह्म की शक्ति -माँ सारदा देवी) की कृपा अनिवार्य है। साक्षी चैतन्य की माया शक्ति (Power of witness consciousness), या  सच्चिदानन्द (existence consciousness bliss) की माया शक्ति की कृपा से 'माया' का ज्ञान हुए बिना, ब्रह्म का ज्ञान नहीं हो सकता। 
 सभी धर्मों के महापुरुष व्यक्तिगत यंत्रणा से ऊपर उठे हैं। जो लोग इस जगत के पीछे की सच्चाई जानते है की 'नित्य भी सत्य है और लीला भी सत्य है' -वे इस जगत का आनन्द लेते हैं। श्रीरामकृष्ण, माँ सारदा, स्वामी जी,  बुद्ध ,रमन महर्षि सबों ने जगत को देखा था किन्तु enlightenment के बाद, विवेक-जं ज्ञान प्राप्त करने के बाद, प्रबोधन के बाद, हम यह स्पष्ट अनुभव करते हैं कि यह जगत ब्रह्ममय है। दृष्टिं ज्ञानमयी कृत्वा पश्येत ब्रह्म जगत। या दृष्टिं भक्तिमयी कृत्वा पश्येत भगवानमय जगत। 
आवरण शक्ति को समझने केबाद लेखक विक्षेप-शक्ति (जनिका-शक्तिः) की बात कहते हैं। यह जनिका शक्ति या विक्षेप शक्ति क्या करती है ?  विक्षेपशक्तिर्लिङ्गादि ब्रह्माण्डान्तं जगत् सृजेत्- विक्षेप-शक्तिः जगत् लिङ्ग-आदि-ब्रह्म-अण्ड-अन्तं सृजेत्॥ यह जनिका शक्ति पहले साक्षी चेतना (witness consciousness) को मारकर,  लिंग-शरीरं अर्थात सूक्ष्म शरीर (subtle body ) -चित्त,मन,बुद्धि, अहंकार को या मन को  प्रक्षेपित करती है। यह पंच कर्मेन्द्रियों के साथ [व्यष्टि-आत्मक-लिङ्ग-शरीर-आदिं आ समष्टि-आत्मक-ब्रह्म-अण्डात्  सृजेत्॥ यह जनिका शक्ति ही स्थूल शरीर और पंचभौतिक जगत को प्रक्षिप्त करती है। और तब "पंचभूतेर फाँदे ब्रह्म पड़े कांदे!" हमलोग माया की आवरण शक्ति के कारण दर्पण के छवि को ही 'मैं' (अपना वास्तविक चेहरा) समझ लेते हैं, और दर्पण के साथ तादात्म्य करके, यदि दर्पण में दरार आ गया या वह टूट गया, तो मैं मर रहा हूँ-यह सोंचकर रोते हैं।
 अब अब श्लोक संख्या १४ में लेखक इस बात को स्पष्ट करते हैं कि वेदांत के अनुसार यह सृष्टि अथवा बाह्य जगत क्या है ?  
सृष्टिर्नाम ब्रह्मरूपे /
सच्चिदानन्दवस्तुनि ।
अब्धौ फेनादिवत् /
सर्व नामरूपप्रसारणा ॥ १४॥
[श्रुतितस्] ‘सृष्टिः’ नाम ब्रह्म-रूपे सत्-चित्-आनन्द-वस्तुनि सर्व-नाम-रूप-प्रसारणा,अब्धै फेन-आदिवत्।[यथा एक-समुद्र-जले नाना-जल-रूपाणि]
[The manifestation of all names and forms in the entity which is Existence – Consciousness– Bliss and which is the same as Brahman, like the foams etc. in the ocean, is known as creation.]
जैसे एक समुद्र में अनेक फेन -बुदबुदे आदि नामरूप उत्पन्न होते हैं, वैसे ही एक सच्चिदानन्द स्वरूप-ब्रह्म  में  अनेक नाम और रूपों के प्रसारण हो जाने को सृष्टि कहते हैं।
ब्रह्म (आत्मा, अद्वितीय) की अपनी शक्ति माया ही ब्रह्म के ऊपर नाम और रूप का जाल (देह और मन का जाल) फैला देती है। इसीलिए यहाँ हमलोग  [one and only, 'O -a -O', 'C-in-C']  के बजाय 'Many' को अनेकता देखते हैं। हमलोग भाषा और इन्द्रियजन्य अनुभव से इस जगत का निर्माण करते हैं। वास्तव में यह जगत ब्रह्म ही है। घड़ा वास्तव में मिट्टी ही है, यह टेबल वास्तव में लकड़ी ही है, हमने बढ़ई की मद्त से इसके ऊपर  टेबल का नाम-रूप चिपका दिया है। चुकि हमलोग लकड़ी क्या है यह जानते हैं। इसीलिए इसको एक लकड़ी और टेबल के रूप में साथ-साथ जानते हैं। यहाँ आवरण शक्ति काम नहीं कर रही है। सिर्फ विक्षेप शक्ति लकड़ी को टेबल के रूप में प्रक्षिप्त कर रही है। 
पानी को ही रूप-मात्रा के अनुसार समुद्र, तरंग, बुलबुला, पानी कहते हैं। सुनामी का तरंग भी पानी ही है। यह समझ लेते हैं कि सब पानी है।  किन्तु ब्रह्म क्या है, यह हमलोग नहीं जानते, इसीलिए जगत को समझ नहीं पाते हैं। वेदांत कहता है, 'माया' हमारे समक्ष ब्रह्म को ही नाम-रूप से मिश्रित करके प्रस्तुत करती है। जैसे हम मानसिक रूप से तरंग के नाम-रूप को पानी से अलग कर सकते हैं, टेबल के नाम-रूप को लकड़ी से अलग कर लेते हैं ,क्योंकि हम जानते हैं कि टेबल क्या है और लकड़ी क्या है ? आभूषण क्या है ?और स्वर्ण क्या है ? -दोनों को हम जानते हैं। किन्तु जगत और ब्रह्म को हम अलग नहीं कर पाते क्योंकि हम नहीं जानते कि ब्रह्म क्या है ?
श्रीरामकृष्ण उदाहरण देते थे बालू और चीनी को मिला देने से चींटी चीनी को अलग कर लेती है। किन्तु जगत और ब्रह्म अलग-अलग दो वस्तु नहीं हैं। टेबल और लकड़ी अलग अलग वस्तु नहीं है, लकड़ी ही टेबल के रूप में प्रतीत हो रही है। स्वर्ण ही आभूषण के रूप में प्रतीत हो रहा है। यदि स्वर्ण को निकाल लें तो क्या आभूषण का अस्तित्व बचेगा ? यदि गणेश और चूहा दोनों स्वर्ण के ही बने हों, तो गणेश जी का जो रेट चूहा का भी वही रेट लगाओगे ? (तुम्हारे पास संस्कार नामका कोई चीज है या नहीं), तुम्हारा कोई धर्म है या नहीं ? सोनार कहता है -तुम्हारे लिए ये गणेश और चूहा होंगे, मेरे लिए तो सिर्फ सोना है ! नाम और रूप अलग है, पर मेटेरियल एक ही है। 
ब्रह्म रूपी समुद्र पर फेन के रूप में नाम-रूप वाला सारा जगत दिखाई पड़ता है। यहाँ यह फेन की तरह समुद्र की तरंगो पर दिखने वाला जगत किन्तु रज्जु-सर्प के जैसा प्रतीत नहीं हो रहा है। यहाँ तरंग के ऊपर फेन की परत layer of foam, झाग की परत चढ़ी हुई है। समुद्र रूपी ब्रह्म ही सत्य है इसके ऊपर झाग रूपी जगत की जो परत चढ़ी है वह ऊपरी (superficial) है। जैसे बहुरुपिया हरि ने बच्चों को डराने के लिए बाघ के खोल को पहन कर ऊपर से बाघ का मुखौटा चढ़ा रखा है। 
प्रसिद्द भौतिक विज्ञानी लॉरेन्स एम् क्रूस कहते हैं - 'जिस ब्रह्मांड का हम अनुभव करते हैं वह डार्क मैटर पर पड़ी क्वांटम फोम की परत की तरह है।' [ खगोलशास्त्र तथा ब्रह्माण्ड विज्ञान में  डार्क मैटर (dark matter) एक ,प्रायोगिक आधार पर अप्रमाणित परंतु गणितीय आधार पर प्रमाणित, पदार्थ है। इसकी विशेषता है कि अन्य पदार्थ अपने द्वारा उत्सर्जित विकिरण से पहचाने जा सकते हैं किन्तु कृष्ण- पदार्थ या डार्क-मैटर अपने द्वारा उत्सर्जित विकिरण से पहचाने नहीं जा सकते। इनके अस्तित्व (presence) का अनुमान दृष्यमान पदार्थों पर इनके द्वारा आरोपित गुरुत्वीय प्रभावों से किया जाता है।  कृष्ण  पदार्थ के बारे में माना जाता है कि इस ब्रह्मांड का 90 प्रतिशत कृष्ण- पदार्थ का ही बना है और यूरोप के वैज्ञानिकों का अनुमान है कि उन्होंने कृष्ण- पदार्थ खोज निकाला है। वैज्ञानिकों का मानना है कि कृष्ण पदार्थ न्यूट्रालिनॉस नाम के कणों या पार्टिकल से बना है। गौर-तलब यह है कि, यूरोप में शुरू हुई महामशीन या लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर के ढेरों मकसदों में से एक कृष्ण- पदार्थ की खोज करना भी है।  
[Lawrence M. Krauss: universe we experience is like quantum foam, on the ocean of Dark Matter. Dark Matter क्या है ? 'cosmology' ब्रह्माण्ड विज्ञान में  a hypothetical form of matter that is believed to make up 90 percent of the universe; it is invisible (does not absorb or emit light) and does not collide with atomic particles but exerts gravitational force]
इसका तात्पर्य यह नहीं हुआ कि इस वेदान्त प्रकरण ग्रंथ के लेखक विद्यारण्य स्वामी 800 वर्ष पहले भी क्वांटम फिजिक्स जानते थे। स्वामी स्मरणानन्द जी हमलोगों को (भाष्यकार स्वामी सर्वप्रियानन्द) को बृहदारण्यक उपनिषद पढ़ाते थे।  उन्होंने मना किया था कि वेदान्त और मॉर्डर्न फिजिक्स की अधिक तुलना करने से बचना चाहिए। क्योंकि मॉडर्न फिजिक्स के सिद्धान्त बदलते रहते हैं, किन्तु वेदान्त के महावाक्य कभी नहीं बदलते। अधिक से अधिक तुम यही कह सकते हो कि दोनों में रोचक सादृश्य (interesting parallels) है। 
यहाँ कहा जा रहा है -'अब्धै फेन-आदिवत् ' अब्ध का अर्थ होता है समुद्र, समुद्र की सतह पर जमे फेन की परत की तरह। ('सृष्टिः’ नाम ब्रह्म-रूपे सत्-चित्-आनन्द-वस्तुनि सर्व-नाम-रूप-प्रसारणा सभी नाम-रूप का पसारा सच्चिदानन्द रूपी सत्यता या ब्रह्म-समुद्र की सतह पर पड़ी झाग की परत की तरह हैं। अष्टावक्र महागीता अद्वैत वेदान्त पर गूढ़ तात्विक ग्रन्थ है, जिसे श्रीरामकृष्ण छुपाकर रखते थे और केवल स्वामी विवेकानन्द को पढ़ने देते थे और दरवाजा बन्द कर लेते थे। उसमें कहा गया है -
-मय्यनंतमहांभोधौ विश्वपोत इतस्ततः।
भ्रमति स्वांतवातेन न ममास्त्यसहिष्णुता॥
(अष्टावक्र: महागीता) मुझ अनंत महासागर में विश्व रूपी जहाज अपनी अन्तः वायु से इधर - उधर घूमता है पर इससे मुझमें विक्षोभ नहीं होता है। जनक ने कहा 'मुझ अंतहीन महासमुद्र में, विश्वरूपी नाव अपनी ही प्रकृत वायु से इधर-उधर डोलती है। मुझे असहिष्णुता नहीं है।'
श्लोक इतना सरल लगता हैं, परन्तु है बड़ा गहन। इस श्लोक का यह अर्थ हुआ कि दुख आए चाहे सुख, दोनों ही प्रकृति से उत्पन्न हो रहे हैं। मेरे चुनाव की सुविधा कहां है, मुझसे पूछता कौन है, जैसे समुद्र में लहरें उठ रही हैं, छोटी लहरें, बड़ी लहरें, अच्छी लहरें, बुरी लहरें; सुंदर, कुरूप लहरें, यह समुद्र का स्वभाव है कि ये लहरें उठती हैं। ऐसे ही मुझ में लहरें उठती हैं, सुख की, दुख की; प्रेम की, घृणा की; क्रोध की, करुणा की। ये स्वभाव से ही उठती हैं और इधर-उधर डोलती हैं। इस लिए अब मैं चुनाव नहीं करता, चुनाव करना ही छोड़ दिया है। 
और जब से चुनाव छोड़ा तभी से असहिष्णुता भी चली गई। करने को ही कुछ नहीं है तो असहिष्णुता कैसे हो? मयि अनंत महाम्भोधौ विश्वपोत इतस्तत:।'मुझ अंतहीन महासमुद्र में विश्वरूपी नाव अपनी ही प्रकृत वायु से इधर-उधर डोलती है।' 'भ्रमति स्वान्तवातेन न मम अस्ति असहिष्णुता। 'अब मैं जान गया कि यह स्वभाव ही है। कोई मेरे विपरीत मेरे पीछे नहीं पड़ा है। कोई मेरा शत्रु नहीं है जो मुझे अशांत कर रहा है। ये मेरे ही स्वभाव की तरंगें हैं। यह मैं ही हूं। यह मेरे होने का ढंग है कि कभी इसमें लहरें उठती हैं, कभी लहरें नहीं उठतीं; कभी सब शांत हो जाता है, कभी सब अशांत हो जाता है। यह मैं ही हूं और यह मेरा स्वभाव है।
मय्यनंतमहांभोधौ जगद्वीचि: स्वभावत:।
 उदेतु वास्तमायातु न मे वृद्धिर्न च क्षति:॥

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महासिंधु  सा  मैं  यहाँ,  जैसे  जगत  जहाज़। 
इधर-उधर  वो  डोलता,  विघ्न पड़े  ना काज ॥7-1॥
महासिंधु  सा  मैं  यहाँ, जग ज्यूँ लहर स्वभाव।
अस्त-उदय माया सरिस,  घटे-बढ़े  ना  भाव  ॥7-2॥
मुझ अनंत महासागर में विश्व रूपी लहरें माया से स्वयं ही उदित और अस्त होती रहती हैं, इससे मुझ सच्चिदानन्द समुद्र  में वृद्धि या क्षति नहीं होती है। जन्म होता है -तो हो, मृत्यु आती हो तो आये। सफलता -विफलता से मुझमें अन्तर नहीं आता। अष्टावक्र और गहराई में जाते हैं -
मय्यनंतमहांभोधौ विश्वं नाम विकल्पना। 
अतिशांतो निराकार  एतदेवाहमास्थितः॥7.3॥ 
मुझ विशुद्ध चेतना के अनंत महासागर में विश्व एक अवास्तविकता (स्वप्न,काल्पनिक) है, मैं अति शांत हूँ, profound peace जो गहन शांति आती- जाती नहीं है, और निराकार formless अस्तित्व हूँ, चेतना, आनंद रूप  existence, consciousness, bliss रूप से स्थित हूँ। जैसे समुद्र के सामने दर्पण को रख दो, इस पर कितने लहर, तरंग उठते दिखेंगे पर दर्पण में एक बून्द पानी नहीं दिखेगा। उसी रूप में मैं स्थित हूँ।  
मुक्ताभिमानी  मुक्तो हि,  बद्धो बद्धाभिमान्यपि।
किवदन्तीह  सत्येयं, या  मति: सा  गतिर्भवेत्॥
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अहं मुक्त ही मुक्त है,  बद्ध  सोच  बंध  जाय।
यही  कहावत  सत्य है, मति जैसी  गति पाय ॥
अब अष्टावक्र को छोड़ कर पुनः विद्यारण्य को सुने -‘सृष्टिः’ नाम ब्रह्म-रूपे सत्-चित्-आनन्द-वस्तुनि सर्व-नाम-रूप-प्रसारणा,अब्धै फेन-आदिवत्।[यथा एक-समुद्र-जले नाना-जल-रूपाणि]॥ मैं और तुम वही existence, consciousness, bliss सत-चित-आनन्द स्वरुप हैं; और यह जगत क्या है ? नाम और रूप का प्रक्षेपण- 'projection of name and form' 14 वां श्लोक तक हमने जाना।
अब हम आवरण शक्ति को समझने की चेष्टा करेंगे। मेरी/तुम्हारी  समस्या यह है कि हमलोग अभी तक अपने शुद्ध चेतना के महासागर के स्वरूप से अवगत नहीं हैं मैं स्वयं को चेतना के समुद्र रूप में नहीं, शायद छोटा सा बुलबुला, या एक छोटी सी लहर के रूप में पहचानता हूं।  'problem is I am not aware of myself as an ocean, I identify myself with the little wave.' एक तरंग को कहीं पहुँचने की हड़बड़ी रहती है, कुछ तरंगे मुझसे बड़ी हैं, उनके साथ मुझे मुकाबला करना है। और अंत में समुद्र से मिल जाना है। मृत्यु को प्राप्त होना है। प्रत्येक तरंग का यही जीवन है।अष्टावक्र कहते हैं -
मय्यनन्तमहांभोधा-वाश्चर्यं जीववीचयः।
 उद्यन्ति घ्नन्ति खेलन्ति प्रविशन्ति स्वभावतः॥2.25॥
 आश्चर्य, मुझ अनंत महासागर में जीव रूपी लहरें उत्पन्न होती हैं, मिलती हैं, खेलती हैं(विवाह शादी -बाल-बच्चे होते हैं) और बाद में घ्नन्ति -I hate you, अब हमें तलाक चाहिये। मैं इस संगठन या देश से अलग हो जाना चाहता हूँ , धर्म से भी अलग होना चाहता हूँ -धर्मान्तरित होकर हिन्दू से ईसाई या ईसाई से मुसलमान बनना चाहता हूँ, और जो मेरे धर्म को नहीं मानते, वे काफिर हैं - एक-दूसरे से झगड़ा करना ही पड़ता है। किन्तु अन्त में सभी तरंगे स्वाभाविक रूप से मुझमें (सच्चिदानन्द में) ही प्रवेश कर जाती हैं। स्वयं समुद्र होकर यदि हम अपने को केवल एक तरंग माने तो यह एक 'tragedy' या दुःखद घटना है। किन्तु समुद्र की दृष्टि से देखें तो यह एक हास्यप्रधान नाटक, मजेदार खेल (comedy) है। तरंग भी समुद्र ही है किन्तु खेलने के लिए अलग अलग तरंग का रूप धारण की हैं।
श्रीरामकृष्ण से किसी भक्त ने पूछा था -'जगत में इतना दुःख क्यों है ?' यह सब ईश्वर की इच्छा है, क्या हम ईश्वर के मन को जान सकते हैं ? प्रश्नकर्ता संतुष्ट न हुआ। और गहराई में जाकर ठाकुर कहते हैं, यह सब ईश्वर की लीला है।  
भक्त नाराजगी से बोलै -" तांर तो लीला; आर आमारा मोरी!" यह उनके लिए नाटक है, हमारे लिए तो मृत्यु है !it's His play death for us ! श्रीरामकृष्ण बोले -और तुम कौन हो ? तुम ईश्वर से भिन्न नहीं हो! यदि मैं ही ब्रह्म हूँ , शुद्ध चेतना का अनन्त समुद्र हूँ,  तो मेरे दुःख का कारण क्या है ? माया की आवरण शक्ति ही संसार का कारण है। अब 15 वां श्लोक कहता है -
अन्तर्दृग्दृश्ययोर्भेदं /
बहिश्च ब्रह्मसर्गयोः ।
आवृणोत्यपरा शक्तिः /
सा संसारस्य कारणम् ॥ १५॥
अपरा शक्तिः [आवरण-शक्तिः] दृश्-दृश्ययोः भेदम् अन्तर् [व्यष्टितस् आवृणोति], ब्रह्म-सर्गयोः [भेदं] च बहिस् [समष्टितस्] आवृणोति। सा [आवरण-शक्तिः] संसारस्य कारणं [न तु विक्षेप-शक्तिः ईश्वर-सृष्ठि-कारणम्]
[The other power conceals the distinction between the perceiver and the perceived objects which are recognized within the body as well as the distinction between Brahman and the phenomenal universe which is perceived outside. This power is the cause of the phenomenal universe.]
अंदर में द्रष्टा और दृश्य का भेद करके, बाहर ब्रह्म और सर्ग के भेदों को माया की आवरण शक्ति ढँक देती है। यह आवरण शक्ति ही संसार का कारण है।
आवरण शक्ति को यहाँ अपरा शक्ति कहा गया है,हमलोग वास्तव में साक्षी चैतन्य हैं, हमारी बुद्धि के भीतर, इस  'अपरा शक्तिः दृश्-दृश्ययोः भेदम् अन्तर्' अक्ल के ऊपर पर्दा पड़ जाता है !  साक्षी चेतना और शरीर-मन के बीच जो अन्तर है, उस अन्तर पर पर्दा पड़ जाता है। जिसके फलस्वरूप हमलोग अपने केवल शरीर-मन समझने लगते हैं। इस समय हमलोग स्वयं को क्या मान रहे हैं ? क्या सिर्फ body -mind मान रहे हैं ? नहीं, अभी हमलोग स्वयं को साक्षी चेतना witness + देह + मन मान रहे हैं ! हमलोग अभी जिसको अपना मन (दिमाग) मान रहे हैं, वह pure consciousness+mind है। किन्तु उस मन के जाल से अपने को अलग करने में हम असमर्थ हैं। क्योंकि हमारे अन्तस्थ  शुद्ध चेतना पर इस अपरा शक्ति के द्वारा पर्दा डाल दिया गया है।
और बाह्य जगत भी ब्रह्म ही है, किन्तु इसी शक्ति ने ब्रह्म और विश्व-ब्रह्माण्ड के बीच भी पर्दा डाल दिया है। ब्रह्म या शुद्ध चेतना पर पर्दा नहीं पड़ा है, ब्रह्म हमसे छुपे हुए नहीं हैं। ईश्वर हमसे छिपे हुए नहीं हैं -but God is mixed up with the universe! किन्तु, भगवान ब्रह्मांड के साथ मिश्रित हो गए हैं। अभी हमलोग जिस जगत का अनुभव कर रहे हैं उसमें जगत के द्वारा limited, सीमित बना दिए गए ब्रह्म को देख रहे हैं। 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं,'परम् सत्य या ब्रह्म ही देश-काल-निमित से होकर आने के कारण जगत के रूप में परिलक्षित हो रहा है!' यह देश-काल और निमित्त क्या है ? माया ! जब हम गलती से रज्जु में सर्प देख रहे होते हैं, उस समय रस्सी कहाँ चली जाती है ? क्या उस समय भी हम रस्सी को ही नहीं देख रहे होते हैं ? यह रस्सी ही है जिसके ऊपर हम स्वयं सर्प के नाम और रूप को आरोपित (impose) कर रहे हैं ! we see real rope with false name and form of Snake! हमलोग असली रस्सी को ही मिथ्या सर्प के नाम और रूप में देखते हैं !हमलोग जिसका अनुभव कर रहें हैं, वे केवल और केवल ईश्वर ही हैं, जिसको हमलोग विश्वब्रम्हाण्ड या जगत के नाम और रूप में देख रहे हैं। माया शुद्ध चेतना और मन के बीच अंतर् पर पर्दा डाल देती है।
अन्तर दृग्दृश्य भेदं- ज्ञाता और ज्ञेय, द्रष्टा और दृश्य , हमलोग साक्षी चेतना 'witnessing consciousness' हैं और मन के भी ज्ञाता हैं। मन ज्ञेय पदार्थ है। किन्तु वह भी अपने को शरीर-इन्द्रियों का ज्ञाता अनुभव करता है। क्योंकि माया ने शुद्ध चेतना और रिफ्लेक्टेड चेतना के बीच पर्दा डाल दिया है। Internally -आत्मपरक दृष्टि से आत्मा या शुद्ध चेतना पर पर्दा नहीं पड़ा है, द्रष्टा और दृश्य में जो अन्तर है, उस अन्तर पर पर्दा पड़ गया है। और Externally बाह्यतः ईश्वर पर पर्दा नहीं पड़ा है, यह जो जगत और ईश्वर के बीच अन्तर है, उस पर पर्दा पड़ गया है। यही माया की आवरण शक्ति है जिसे संसार का कारण कहा जाता है। कैसे यह संसार का कारण है ? जैसे ही द्रष्टा-दृश्य के अन्तर पर पर्दा पड़ जाता है, उसी क्षण हम साक्षी चैतन्य होकर भी अपने को देह-मन समझने लगते हैं। जब हम अपने को देह-मन या M/F मान लेते हैं, तो हमें अपने चारों ओर अनेकों देह-मन दिखने लगते हैं। हमलोग ईश्वर को ही देख रहे हैं, किन्तु उस पर जगत को आरोपित करके जगत कहते हैं। रस्सी/ब्रह्म  और सर्प/जगत  मिश्रित हो जाता है, उसे हम जगत या सर्प कहने लगते हैं।
और जब हमलोग  सीमित देह -मन की इच्छाओं को पूरा करना चाहते हैं, हमलोग कर्ता (Agent,प्रति-निधि) बन जाते हैं, Doer of action, स्वार्थपूर्ण कार्य का स्वार्थी कर्ता बन जाते हैं। और कार्य-कारण के बंधन में फंस जाते हैं। फिर कर्मफल के भोक्ता बनना पड़ता है। सुख-दुःख दोनों के अनुभवकर्ता बनना पड़ता है। जगत में सुख की अपेक्षा दुःख ही ज्यादा है, बुद्ध ने कहा है -आदि और अन्त दुःख है, बीच में जिसे हम सुख समझते हैं, वह भी तीते दवा पर मीठा लेयर चढ़ा हुआ है! सारे फल एक ही जन्म में नहीं भोग पाते इसलिए पुनर्जन्म लेना पड़ता है। यह बार-बार जन्म-मृत्यु ही संसार-चक्र है। जिसका कारण है माया की आवरण शक्ति। 
ठाकुरदेव कहते थे जैसे ही तुम इस संसार चक्र से बाहर निकलोगे, जगत को ब्रह्म के रूप में पहचान लोगे यह संसार 'मजार कुटीर'-आनन्द की कुटिया बन जाएगी। ठाकुर कहते थे -  "जो बन्धन में है (हिप्नोटाइज्ड है) वह जीव (भेंड़) है, जो बंधनमुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड) हो गया वह शिव है। "वही शिव जब बंध जाते हैं, जीव बन जाते हैं। शिव को कौन बांध लेता है ? कश्मीरी शैव-पंथी कहते हैं - कोई नहीं बाँधता, यह शिव की लीला है ! अब जब कोई शिव बंधना नहीं चाहते, तब वे शिव महामण्डल कैम्प और पाठचक्र में आने लगते हैं। यदि इसी क्षण शिव मुक्त होना चाहे तो कोई शक्ति उसे रोक नहीं सकती, किन्तु अभी तुम इसी क्षण मुक्त नहीं होना चाहते,पहले तुम वेदांत के छात्र बनना चाहते हो।  ऐसा मत कहो कि मेरी शुद्ध चेतना, तुम स्वयं शुद्ध चैतन्य हो -शुद्ध चेतना तुम्हारी लीवर या किडनी नहीं है। जो अपने स्वरुप में और सच्चिदान्द शिव -ब्रह्म में जो थोड़ा भी अंतर् देखता है, मृत्यु से मृत्यु तक घूमता रहता है। डराने के लिए जन्म से जन्म नहीं कहकर मृत्यु से मृत्यु कहा है। माया की आवरण शक्ति का असर ब्रह्म पर नहीं होता केवल जीव पर होता है। श्रीरामकृष्ण ने इसका भी एक सुंदर उदाहरण दिया है -नाग सांप विष उसके मुख में रहता है, जिस मेढ़क या चूहा को कटे वह तुरंत मर जाता है , किन्तु नाग के मुख का जहर नाग को कोई नुकसान नहीं पहुँचाता। क्योंकि जो दूसरे के लिए मृत्यु है वह नाग की शक्ति है ! 
विगत निबंध में हमने देखा था कि माया के पास दो शक्तियाँ हैं। विक्षेप शक्ति और आवरण शक्ति। हमने यह भी सुना था कि इसमें कोई बहुत गंभीर तात्विक बात नहीं कही जा रही है। जब हम कोई भूल करते हैं,हर समय ऐसा ही होता है। हर भूल के दो कारण हैं -1.अज्ञान , हम सत्य को नहीं जानते 2. हम सत्य को कोई दूसरी वस्तु समझ लेते हैं। जब हम semidarkness या धुँधलेपन के कारण रस्सी को भूल से सर्प समझ लेते हैं, तो वहाँ पहला कारण है -we are unaware, हम इस बात से अनजान/अनभिज्ञ हैं कि सड़क पर 6 फुट की रस्सी गिरी हुई है। दूसरी गलती है रस्सी को सर्प समझ लेना। उसी तरह केवल साक्षी चैतन्य, ब्रह्म या भगवान का ही अस्तित्व है, इस बात को हमने संतों के मुख से सुना है, पुस्तकों में पढ़ा है, हमें विश्वास भी है, फिर भी हम स्वयं इस बात से अनभिज्ञ हैं कि ब्रह्म क्या है ? हमें उसका साक्षात्कार नहीं हुआ है। यही हमारा अज्ञान है, और सत्य वस्तु को नहीं जानने के कारण ब्रह्म को जगत (M/F) के रूप में देखने लगते हैं। 
माया की दूसरी शक्ति -'विक्षेपशक्ति' है, जो ब्रह्म को जगत के रूप में प्रक्षिप्त करती है।जगत में कुछ वस्तुयें स्थूल (gross) हैं, कुछ वस्तुएं सूक्ष्म (subtle) हैं। स्थूल-शरीर को हम इन्द्रियों के द्वारा जान सकते हैं, सूक्ष्म शरीर (मन,विचार, यादें या अन्तःकरण) को मन के द्वारा ही जाना जा सकता है। भूख-प्यास का अनुभव उससे भी सूक्ष्म प्राणमय कोष को होता है। इस श्लोक में सूक्ष्म शरीर को लिंग-शरीर कहा गया है। जैसे मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव 3H हैं, वैसे ही सूक्ष्म-शरीर के तीन अवयव हैं। प्राणमय-कोष (जीवन धारण) , मनोमय-कोष (चित्त-मन-बुद्धि-अहंकार), विज्ञानमय-कोष (understanding, knowledge)। स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के शरीर माया के विक्षेप शक्ति द्वारा निर्मित हैं। यह भौतिक जगत ब्रह्म से ही अपना अस्तित्व उधार लेता है। इसे समझना कठिन नहीं है, यह उधार लेना  ठीक वैसे ही है जैसे घड़ा मिट्टी से अपना अस्तित्व उधार लेता है। समुद्र की तरंगे जल से अपना अस्तित्व उधार लेती हैं। सोने के आभूषण का जो सत्य है वह स्वर्ण है। उसी प्रकार ब्रह्म (सत-चित-आनन्द pure consciousness) कोई ऐसी वस्तु है, जिससे यह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड (स्थूल जगत सत =existence) उत्पन्न हुआ है। सूक्ष्म शरीर (अन्तःकरण या मन, प्राणमयकोष और विज्ञानमयकोष) का अस्तित्व भी ब्रह्म से ही उधार लिया हुआ है, किन्तु ये ब्रह्म के चित-स्वरुप ( consciousness aspect of Brahmn)   से चेतना (consciousness) को भी उधार लिए हुए हैं। इसीलिए हमारा 'अहं' जड़ मन का भाग होकर भी अपने को चेतन समझता है। इसीलिए हम जो भी क्रिया करते हैं, वह चेतन प्रतीत होती है। विचार शक्ति ब्रह्म से उधार ली हुई शक्ति है। इसी उधार ली हुई चेतना के कारण हमारा मन अपने को प्रमाता (knower -पहचानने वाला, ज्ञाता) और बाह्य जगत  को प्रमेय (known ज्ञेय) समझता है। साक्षी चेतना से प्रतिबिंबित होकर अहं और मन अपने को प्रमाता समझने लगता है। और जगत को प्रमेय समझता है।
माया की विक्षेप शक्ति ब्रह्म को ही प्रमेय (ज्ञातव्य) बाह्य-जगत के रूप में प्रक्षिप्त करती है, और हमलोगों को (अन्तर्निहित साक्षी चैतन्य को) इसका प्रमाता या ज्ञाता के रूप में प्रक्षिप्त करती है। दृष्टि गोचर नाम-रूप वाला बाह्य जगत और इसकी सत्यता जो स्वयं ब्रह्म है, इन दोनों के बीच जो पार्थक्य है वह धुंधला हो जाता है, या उस पर पर्दा पड़ जाता है। जो वास्तविक द्रष्टा या साक्षी चैतन्य है, वह कहीं नहीं दीखता केवल ज्ञातव्य पदार्थ दीखते हैं। क्योंकि यहां माया की आवरण शक्ति क्रियाशील रहती है। यह श्लोक इसी भ्रम के विषय में कहता है। जिस समय हम रस्सी में सर्प को देख रहे होते हैं, क्या उस समय रस्सी वहां नहीं होती ?
सर्प की लम्बाई और आकृति रस्सी से ही सम्बंधित है। सर्प की जहरीली शक्ति वहाँ बिल्कुल नहीं है। वहां सत्य और भ्रम मिश्रित हो गया है। क्या हम ब्रह्म को जगत से बिल्कुल पृथक अनुभव कर सकते हैं ? वेदान्त उसका उपाय बतलाता है। माया की आवरण शक्ति ही हमारी सभी समस्याओं की जड़ है, यही संसार का कारण है । विक्षेप शक्ति कोई समस्या नहीं है। इसलिए जो माया ब्रह्म के लिए शक्ति है, हमलोगों के लिए भ्रान्ति, मतिभ्रम, इंद्रजाल (delusion)है। स्वयं को ब्रह्म की दृष्टि से देखने पर अर्थात 'existence-consciousness-bliss' या सच्चिदानन्द की दृष्टि से देखने पर माया ब्रह्म को भ्रमित नहीं करती, उसे अपनी अंतर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करने में सहायता करती है। इस आवरण शक्ति से छुटकारा पाने की विद्या क्या है ? अगले श्लोक 16 में सीखेंगे-
साक्षिणः पुरतो भाति लिङ्गं देहेन संयुतम् ।
चितिच्छाया समावेशाज्जीवः स्याद्व्यावहारिकः ॥ १६॥
[यद् व्यष्टि-]लिङ्गं देहेन संयुतं [संयुक्तं कर्मेण] चिति-छाया-समावेशात् साक्षिणः पुरतस् [अग्रं] भातं (भासमानं), [तद् लिङ्गं] व्यावहारिकः जीवः स्यात्॥
(The subtle body which exists in close proximity to the Witness identifying itself with gross body becomes the embodied empirical self, on account of its being affected by the reflection of Consciousness.)
व्यावहारिक जीव शब्द (मन के भीतर विद्यमान) उस व्यवहार करने वाले कर्ता के लिए प्रयुक्त होता है, जो साक्षी चेतना के अत्यन्त निकट होता है, तथा जो चेतनता की छाया से युक्त होने के कारण ही जीवन्त प्रतीत होता है।
साक्षी चेतना मन या सूक्ष्म शरीर पर प्रतिबिंबित होती है, तथा मन अपने को भौतिक शरीर के साथ जुड़ा  महसूस करता है। और स्थूल शरीर में चेतना को संचारित करता है। और नाख़ून तक हम अपने को चेतन शरीर महसूस करते हैं। जाग्रत,स्वप्न, सुषुप्ति की अवस्था सम्बन्ध मन के साथ है, साक्षी चेतना के साथ इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। साक्षिणः पुरतो भाति -साक्षी चेतना के साथ close proximity-नजदीकी संबन्ध में आने पर लिङ्गंशरीर (सूक्ष्म शरीर) प्रकाशित होने लगता है। लिङ्गं देहेन संयुतम्- सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर से जुड़ा होने के कारण वह भी अपने को चेतन महसूस करने लगता है। तब क्या होता है -चितिच्छाया समावेशा- मन जो कि जड़ पदार्थ है साक्षी से जुड़ उसके गुण प्राप्त कर लेता है -चेतन जैसा प्रतीत होने लगता है। और क्या करता है -ज्जीवः स्याद्व्यावहारिकः  स्वयं को जीव मानकर 'transactional individual ' जगत के साथ लेन-देन का व्यवहार करने वाला व्यक्ति बन जाता है। और जिस क्षण तक हम कभी अपने सच्चे स्वरुप के विषय में नहीं जाग उठते हैं -कुछ क्षणों के लिए उस पड़ पड़ा हुआ नाम-रूप का आवरण जब तक नहीं हट जाता है, तब तक हम अपने को मरणधर्मा देह M/F समझते रहते हैं। अब 17 वां श्लोक -
अस्य जीवत्वमारोपात् साक्षिण्यप्यवभासते ।
आवृतौ तु विनष्टायां भेदे भातेऽपयाति तत् ॥ १७॥
[दृश्-दृश्य-अन्यस्-अन्य-धर्माणाम्] आरोपात् (अध्यासात्) अस्य [व्यावकारिक-जीवस्य] जीवत्वं [संसारित्वं] साक्षिणि अपि अवभासते। आवृत्तौ विनष्टायां [भ्रान्ति-अन्-उदये] तु, भेदे (अ-ताद्-आत्म्ये) भाते [स्पष्टं ज्ञाते विवेके सति] च, तद् [जीवत्वं] अपयाति (अपगच्छति)॥
(The character of an embodied self appear through false superimposition in the Sakshi also. With the disappearance of the veiling power, the distinction between the seer and the object becomes clear and with it the jiva character of the Sakshi disappears.)
अविवेकी मनुष्य इस व्यावहारिक जीव के जीवत्व का आरोपण साक्षी में करके उस साक्षी को ही जीव रूप से देखता है। oh !! जब विवेक प्राप्त करके जीव एवं साक्षी को यथावत देख लिया जाता है तब माया की आवरण शक्ति नाश को प्राप्त हो जाती है।
यह लेन-देन करने वाला जीव वास्तव में वह साक्षी चैतन्य है जो अपने मन और शरीर का द्रष्टा, या प्रमाता  है। इस प्रमाता के लिए दूसरा नाम है जीव। जीव शुद्ध चेतना पर आरोपित (superimposed) हो गया है। मानो अनन्त शुद्ध चेतना स्वयं को भूल गयी हो, और अपने सीमित देह-मन संयुक्त जीव समझने लगती है। और कहती है-मैं अमुक नाम का व्यक्ति M/F हूँ। साक्षी चेतना पर जीव के आरोपित होने का तात्पर्य है- रस्सी को सर्प समझने जैसा भ्रम। मन रूपी दर्पण पर साक्षी चैतन्य का चेहरा जीव रूप में प्रतिबिंबित हो रहा है, उसी जीव के साथ भ्रमवश साक्षी चेतना अपना तादात्म्य कर लेती है। जीवत्व (individuality) का सम्बन्ध प्रमाता या व्यक्ति देह-मन (individual) से है, वह जीवत्व उस अनन्तता (infinitude) जो हम वास्तव में हैं, पर आरोपित हो गयी है। अनन्त चेतना (infinitude) को भूलकर, जीव में केवल जीव चेतना (individual consciousness) ही प्रतीत हो रही है। 
अस्य जीवत्वं = लेन -देन करने वाले व्यावहारिक ससीम जीव का जित्व -साक्षिणि अपि अवभासते, साक्षी चेतना का स्वरूप जो अनन्त है, ससीम देह-मन उससे संयुक्त  होकर उसके जैसा प्रतीत होने लगता है। जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख शरीर का होता है, किन्तु  शुद्ध चेतना या आत्मा भ्रमित होकर देह-मन की मृत्यु को अपनी मृत्यु समझने लगती है। साक्षी का असली स्वभाव (true nature) तो 'ब्रह्मत्वं' है, पर उसके ऊपर 'जीवत्वं' का भाव आरोपित हो जाता है। सच्चिदानन्द ही ससीम जीव के रूप में प्रतीत होने लगता है, और जीवन के उद्देश्य को समझे बिना यह मनुष्य-जन्म भी व्यर्थ हो जाता है। जो साक्षी चेतना है द्रष्टा है, वह दृश्य के बिना भी अस्तित्व में, अपनी महिमा में स्थित रह सकती है,किन्तु जो दृश्य है, द्रष्टा या साक्षी चेतना के बिना उसका अस्तित्व नहीं रह सकता है। किन्तु फिर उसे कोई साक्षी कहने वाला भी नहीं होगा। किन्तु तब भी वह दृश्य के अनुपस्थिति के साक्षी रूप में बनी रहेगी। साक्षी चेतना मन की जाग्रत अवस्था में जगत का सीधा अनुभव करती है, स्वमप्नावस्था में स्वप्न देखती है, सुषुप्ति में मन के सो जाने के बाद भी अपने अस्तित्व में रहती है। मिट्टी घड़े पर निर्भर नहीं करती, घड़े का अस्तित्व मिट्टी पर निर्भर करता है। इसीको आरोपित होने (superimposition) का सही शब्द अध्यास या देहध्यास है -इसे याद रखना चाहिए। 
 यह देहाध्यास दूर कैसे होगा ? इसके लिए लगातार पाठचक्र और शिविर आकर विवेक-प्रयोग का तरीका सीखकर उसका अभ्यास करना होगा -आवृतौ तु विनष्टायां भेदे-यह देहाध्यास केवल तभी दूर होगा जब हम -जो शक्ति साक्षी चेतना और देह-मन के बीच में जो अन्तर है, उस अन्तर पर पर्दा डाल देती है,माया की उस आवरण शक्ति को ज्ञान की तलवार से (विवेक-प्रयोग शक्ति से) काट देंगे। माया क्या है ? माया है - 'space- time- causation' इसमें से देश-काल को एक तरफ रखकर, पहले,causation निमित्त (कार्य-कारण सम्बन्ध) को समझें। 
cause and effect, कारण और परिणाम जब कभी हम यह पूछते हैं कि यह जगत भगवान ने बनाया ही क्यों WHY ? तब हम WHY  पूछ रहे होते हैं ? तब हम  कारण को पूछ रहे होते हैं। जबकि कारणीयता (causation ) का प्रारम्भ ही माया के साथ होता है। क्यों पूछने का अर्थ है तुम माया के राज्य में ही हो। already assuming Maya, हम पहले से ही माया को मान रहे हैं ! यहाँ पहली बार अध्यासात् शब्द का उपयोग हो रहा है। इसका सीधा अर्थ है रस्सी को सर्प समझने की भूल या भ्रम। सत्य (रज्जु-अनन्तता -infinitude) पर मिथ्या (जीवत्व -ससीमता -सर्प-individuality) आरोपित या अध्यस्त (superimposed - placed on or over something else, कोई अन्य वस्तु किसी और वस्तु पर रखा गया है,with one layer on top of another-परतदार, एक वस्तु (सोना?) के ऊपर दूसरी वस्तु (पीतल ) का परत चढ़ा हुआ है, रोल्डगोल्ड है कि असली सोना है ?-पहचानना मुश्किल हो गया है? सचमुच वहां कोई सर्प नहीं है। हम ब्रह्म को ही जगत समझ रहे है, जो वे नहीं हैं !
 प्रश्न - यदि माया और तन्निर्मित जगत् 'मिथ्या' है, तो उसकी उपलब्धि ही क्यों होती है ? #how this infinite consciousness appears to be a limited body and mind ? यह अनंत असीम चेतना, ससीम सीमित शरीर और मन की व्यष्टि कैसे प्रतीत होती  है?
उत्तर -  अद्वैत दर्शन के अंतर्गत जगत् शशश्रृंगवत् (खरहे के सींग जैसा असत्य नहीं है, मिथ्या आरोपित है), अथवा आकाश-कुसुम के समान असत्य (अलीक -बे सिरपैर की बात) नहीं है, अपितु जैसा कि कहा जा चुका है माया का मिथ्यात्व सदसद्विलक्षणत्व वाला मिथ्यात्व है। अर्थात व्यावहारिक दृष्टि से जगत सत् है। क्योंकि माया शशश्रृंगवत् असत नहीं है!  अद्वैत वेदांत के अंतर्गत अधिष्ठानवाद (infinitude) और अध्यासवाद (individuality)के आधार परब्रह्म और जगत् के संबंध की व्याख्या की गई है। अत: अद्वैतवेदांत में मिथ्यात्व से सदसद्विलक्षणत्व का ही आशय ग्राह्य है।
 यही कारण है कि ब्रह्म को ही एकमात्र पारमार्थिक सत्य उपदेश करने वाले श्रीभगवान् आद्य शंकराचार्य ने जगत् के व्यावहारिक पक्ष को भी स्वीकार किया है, वेदान्त दर्शन के मूल ग्रंथ 'वेदान्त सूत्र' पर संस्कृत में भाष्य का प्रारम्भ वे एक बहुत लम्बे वाक्य (long sentence) से करते हुए उस वाक्य के अंत में लिखते हैं....मिथ्याज्ञाननिमित्तः सत्यानृते मिथुनीकृत्य अहमिदम् ममेदम् इति नैसर्गिकोऽयं लोकव्यवहारः।।#how to get rid of horror movie of world, switch off the movie, and realize this is God ! यदि हमलोग सचमुच जगत रूपी डरावनी फिल्म से छुटकारा पाना चाहते हों, तो पहले हमें उस फिल्म का स्विच बंद कर देना होगा; फिर जानना नहीं होगा केवल अनुभव (realize ) करना होगा कि यह जगत नहीं ईश्वर, ब्रह्म (existence-consciousness-bliss) ही है।
बुद्धि द्वारा जाना उसे जाता जो पहले से वहां नहीं होता, किन्तु ब्रह्म तो वहाँ पहले से हैं -देह,मन जगत आदि तो उसपर अध्यस्त है।  विवेक-प्रयोग का अभ्यास करने का महत्व यही है कि यदि तुम दुनिया की डरावनी फिल्म से छुटकारा पाना चाहते हों तो tv का स्विच ऑफ़ कर दें और यह अनुभव करें कि ये जगत नहीं ब्रह्म हैं ! Nature and Consciousness are distinct entity but they have become mixed up somehow, the ideal and the goal is to separate them .प्रकृति (Nature-विचार ) और पुरुष (Consciousness चेतना) का अस्तित्व (entity) पृथक-पृथक हैं, लेकिन वे किसी तरह मिश्रित हो गए हैं। और महामण्डल के नेतावरिष्ठ [C-in-C] नवनीदा जैसे जीवन्मुक्त शिक्षकों का आदर्श और उद्देश्य है युवाओं को (भावी शिक्षकों या would be Leaders) 3-'H' विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण देकर प्रकृति और पुरुष को अलग-अलग रूप में अनुभव कर लेने  का उपाय बताना ।
यह कैसे होता है? तुमको पिक्चर और स्क्रीन को पृथक करके देखना होगा, इसके लिए शारीरिक स्तर पर तुम्हें कुछ नहीं करना है, केवल विवेक-प्रयोग करके पहचान लेना है कि दोनों अलग-अलग हैं। हर बार हमारे विचार (प्रकृति-thoughts) और चेतना (पुरुष-consciousness ) एक अस्तित्व (इकाई) बन जाती है, वेदान्त हमें बताता है कि हर क्षण आप दो अस्तित्व हैं। every time our thoughts (प्रकृति) and (पुरुष=चेतना) consciousness becomes to be one unit, Vedanta tells us every time you are two units ! निर्विकल्प समाधि में जाने से appearance and reality मिथ्या-सत्य का विवेकज ज्ञान प्राप्त होगा, और विवेकज-ज्ञान प्राप्त होने से, और जगत रूपी डरावने फिल्म का स्विचऑफ हो जाता है।
आमतौर से किसी भी वेदान्त सभा में प्रेसिडेंशियल एड्रेस सबसे अन्त में होता है, एक बार जब किसी प्रेसिडेंट को सबसे अंत में बोलने का मौका मिला, तब तक सब लोग उठकर जाने लगे थे। यह देखकर उन्होंने कहा-' मैं कोई स्पीच नहीं दूँगा आपको सीधा ब्रह्म ही दिखला दूँगा !' जैसे ही यह शब्द लोगों के कान में गया , वे पीछे मुड़कर देखे और अपनी अपनी जगह पर आकर बैठ गये। 😊 हाँ , हाँ दिखाइए-दिखाइए  इसीलिए तो हम यहाँ आये हैं। उन्होंने अपने चौड़े रुमाल को दिखलाते हुए पूछा आप क्या देख रहे हैं ? हाँ, जरूर हम रुमाल को देख रहे हैं। तब वे बोले- नहीं,आप उस प्रकाश को देख रहे हैं, जो स्कार्फ से परावर्तित होकर आपके आँखों पर पड़ रही है। कपड़े और प्रकाश के बीच स्वाभाविक रूप से इतना अंतर है,जो इस कपड़े को अनावृत (Exposed) कर देता है।
ठीक उसी तरह चेतना (consciousness) हमारे जीवन में सब कुछ को प्रकाशित करती है। तुम वही साक्षी चेतना हो ! हमलोग कब वह साक्षी चेतना (witness consciousness) बन जाते हैं ? हर क्षण तुम वही चेतना हो। क्या अभी इसी क्षण, इसी शरीर में मुझे इसका अनुभव हो सकता है ? हाँ, अभी हो सकता है। इस शरीर में आने से पहले भी क्या मैं शुद्ध चेतना (pure  consciousness) ही था ? हाँ, इससे पहले भी तुम वही थे ! इसके बाद ? इस शरीर के मर जाने के बाद भी तुम शुद्ध चेतना ही रहोगे !
हर क्षण तुम वही अपरिवर्तनीय-अविनाशी चेतना के प्रकाश हो, जो लोग आने और जाने को , समय बीतने को , शरीर की उम्र बढ़ने को, मन में उठने वाले विचारों को, मन के सो जाने को, मन में आये हुए सपने को, स्वप्नहीन खालीपन को ; एक ही चेतना निरंतर अनावृत (exposed) या प्रकाशित (illuminate) करती है। अन्य जगत, नया शरीर, अन्य जीवन, पशुओं को और सकल जीवित प्राणियों को भी वह शुद्ध चेतना ही अनावृत कर रही है। क्योंकि ये पशु भी क्या हैं ? हमने अधिष्ठान और अध्यस्त के जिस सिद्धान्त को अभी-अभी समझा है, उसी सिद्धांत के आधार पर पशु की यथार्थ संरचना को भी परिभाषित कर सकते हैं।
प्रत्येक नाम-रूप के पीछे वही तीन चीजें होती हैं -अस्ति,भाति-प्रिय (existence-consciousness-bliss )। पशु -विशेष का अधिष्ठान भी वही शुद्ध चेतना (pure-consciousness) है, फिर उस साक्षी चेतना से प्रतिबिंबित चेतना (reflected -consciousness) एक अन्तःकरण या सूक्ष्म शरीर (subtle body) है और फिर उस सूक्ष्म शरीर पर किसी  पशु -विशेष का स्थूल शरीर (gross body) अध्यस्त हुआ दिखाई देता है। अतः यह स्पष्ट होता है कि यह पशु भी वही शुद्ध चेतना है। जिस प्रकार एक मनुष्य के आकृति (ढाँचे) में हमलोग शुद्ध चेतना   (pure consciousness) हैं;ठीक उसी पशु की आकृति में पशु भी वही शुद्ध चेतना हैं। वे पशु की आकृति में हैं और हम मनुष्य की आकृति में जो शुद्ध चेतना हैं, बिल्कुल वही शुद्ध चेतना किसी कीड़े, बिल्ली या कुत्ते के शरीर में भी हैं।
इस सत्य को जानकर स्वयं को अपमानित महसूस मत करो। स्वामी विवेकानन्द [देववाणी 23 जून,रविवार 1895, माली बनने और बनाने का तात्पर्य/७/११]  में कहते हैं - "एक कीड़ा भी Nazarene-नाज़ेरथ निवासी प्रभु ईसा का भाई हैं। प्रत्येक कीट-पतंग तक जब प्रभु ईसा का ही भाई है। तो फिर एक को बड़ा, एक को छोटा कैसे कह सकते हो ? अपने अपने स्थान पर सभी पड़े हैं। हम जिस प्रकार यहाँ रहते हैं, उसी प्रकार सूर्य-चंद्र और तारों में भी रहते हैं। आत्मा (existence-consciousness-bliss) देश-कालातीत और सर्वव्यापी है। "
स्वामी जी हमारी दृष्टि को खोलते हुए कहते हैं, जो शुद्ध चेतना श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, ईसा,मोहम्मद  जैसे अवतारों के माध्यम से प्रकाशित हो रही है, वही चेतना प्रत्येक पशु-पक्षियों में भी प्रकाशित हो रही है, इसलिए यह कीड़ा भी उन्हीं अवतार का भाई है। कैसे ? क्योंकि एक ही शुद्ध चेतना हम सबों के भीतर प्रतिबिंबित हो रही है। किन्तु एक अंतर है कि पशु शरीर में वह प्रतिबिंबित चेतना या मन पूरी तरह से सीमित (restricted या प्रतिबंधित) है, विवेक-विचार पूर्वक कार्य  करने में असमर्थ है; क्योंकि यहाँ उसको आत्मज्ञान प्राप्ति के अयोग्य (insufficient अपर्याप्त) एक छोटे से अक्षम शरीर के माध्यम से काम करना पड़ रहा है। इसलिए पशु वेदान्त क्लास /लीडरशिप क्लास को attend नहीं कर सकते, कोई -कोई कर भी सकते हैं, किन्तु इसकी अनुभूति नहीं कर सकते। unless some special grace of the Mother is there !  जब तक की उनके ऊपर भी माँ जगदम्बा की विशेष कृपा नहीं हो जाती। उस सभा में प्रेसिडेन्ट ने यही बताया कि इस प्रकार हम सभी लोग स्वयं शुद्ध चेतना या ब्रह्म हैं। 
[Swami Vivekananda says " Every worm is the brother of the Nazarene. How say one is greater and one less? Each is great in his own place." ( Inspired Talks/ SUNDAY, June 23, 1895. in the same way consciousness illuminates everything in your life.you are that consciousness! When ? all the time ! right now? right now! before this ? before this ! after this ? after this ! all the time you are that unchanging light of consciousness!]
अब तक, हमलोगों ने भवरोग की समस्या की जड़ को समझ लिया है कि आवरण शक्ति ही मूल समस्या है, जो हमें अंतर्जगत में यह जानने नहीं देती कि वास्तव में हमलोग शुद्ध चेतना हैं। और बाह्य जगत में यह नहीं जानने देती कि यह जगत ही ब्रह्म है। अब हमलोग इस प्रकरण ग्रन्थ के next part में प्रवेश करेंगे। यहाँ, हमलोग अब यह जानेंगे कि इस आवरण शक्ति पर विजय कैसे प्राप्त किया जाता है ?
 योग मार्ग से शरीर और मन की चंचलता का निरोध करके निर्विकल्प समाधि में पहुंचकर, इस आवरण शक्ति पर विजय प्राप्त किया जा सकता है। और दूसरा अद्वैतमार्गी तरीका है,  विवेक-प्रयोग द्वारा शुद्ध चेतना के विशेष सच्चिदानन्द स्वरूप को शरीर-मन से पृथक करके पहचानने का । ( by shutting down the body and mind, and going in nirvikalp samadhi, and there is adwaitk  way of doing it, by distinguishing pure consciousness, from the body-mind .) महामण्डल द्वारा निर्देशित मनःसंयोग आदि 5 अभ्यासों का प्रशिक्षण प्राप्त करके, निष्काम कर्म रूपी चरित्रनिर्माण आंदोलन से जुड़े पर एक दिन निर्विकल्प समाधि का अनुभव करने से आवरण शक्ति पर विजय प्राप्त हो जाती है। सिर्फ कॉमन सेन्स के द्वारा यह जान लेना होगा कि हमारा यह शरीर और मन केवल एक uniform,चोला या खोल, वस्त्र है, वस्त्र के जीर्ण हो जाने पर इसे बदल देने में कोई समस्या नहीं है। क्या यह सम्भव है ? इस साधना को क्या कहते हैं ?
इस साधना को कॉमन सेन्स के द्वारा विवेक-प्रयोग का मार्ग कहते हैं। ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने का यह राजमार्ग है। सभी उपनिषद इसी राजमार्ग का उद्घोष करते हैं। माया इस मार्ग से डरती है,इसलिए सबसे पहले इसी मार्ग को धुँधला बना देती है। वह साधक को ध्यान करने, साँई -भक्ति करने, आदि आदि प्रलोभन देकर भटकाती है, उसको लीडरशिप क्लास में आने से मना करती है। यहाँ यदि चले भी आये तो माया इसको मात्र एक सिद्धान्त के रूप में प्रक्षेपित करेगी, और उसे लगेगा कि, इसके बाद (विवेक-प्रयोग के बाद) भी कोई न कोई और नाक -टीपने की  साधना जरूर करनी पड़ती होगी ? something to be done after this । तो फिर एकाग्रता,ध्यान- भक्ति का क्या होगा ? ये सभी इसके सहायक उपाय रूप से बाद में बतलाये गए हैं। आचार्य शंकर बार बार कहते हैं कॉमनसेंस से विवेक-प्रयोग करने के बाद और कुछ भी नहीं करना होगा।
गीता के 13 वें अध्याय में भी यही सब बतलाया गया है, जिसपर हमलोग अभी चर्चा कर रहे हैं। यदि मैं पहले से ही नित्य-शुद्ध-बुद्ध आत्मा हूँ, तो  मुक्ति कौन चाहता है ? शुद्ध चेतना को उधार कौन लेता है ? आचार्य शंकर मजेदार उत्तर देते  है- 'तुम यह प्रश्न पूछ क्यों रहे हो ? ' क्योंकि मैं नहीं जानता। तब तुम ही वह व्यक्ति को शुद्ध चेतना को उधार लेता है। क्योंकि तुमने कहा मैं नहीं जानता। अज्ञान में कौन बंधा है ? शंकर पूछते हैं -'तुम पूछ क्यों रहे हो? इसका मतलब तुम्हीं अविद्या से ग्रस्त हो। यह वेदान्त -प्रशिक्षण पद्धति तुम्हारे लिए ही हे। यह तुम्हारे प्रश्न का उत्तर नहीं देगा, तितली को कोकून से बाहर निकलने का उपाय बता देगा, तुम्हारे प्रश्न को ही विघटित  dissolved कर देगा। अद्वैत वेदान्त यही करता है।
अद्वैत वेदान्त के मतानुसार प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। जब मैं ब्रह्म हूँ, तुम ब्रह्म हो, और प्रत्येक वस्तु जिसका हम अनुभव करते हैं वह ब्रह्म है; तब फिर हम किसी को भी ब्रह्म रूप में अनुभव क्यों नहीं करते हैं? न तो हम स्वयं को ब्रह्म रूप में देखते हैं, न जगत को ब्रह्म रूप में देखते हैं। हमारे लिए ब्रह्म अभी सिर्फ एक परिकल्पना, concept, या सिद्धान्त है, जिसके विषय में हमने किसी से सुना या पढ़ा है। ब्रह्म की स्पष्टअवधारणा क्यों नहीं हो पाती ?  यह ब्रह्म कहाँ छुपे हुए हैं ?
एकबार कनखल आश्रम में किसी वेदान्त शिक्षक ने इस जगत या सृष्टि के विषय में एक सुंदर कहानी सुनाई थी। हिन्दू सृष्टि के कल्प का सिद्धांत में विश्वास करते हैं। जगत उत्पन्न होता है, करोड़ो-करोड़ वर्ष तक अस्तित्व में रहता है,जब तक कि विश्वब्रह्माण्ड विघटित होकर पुनः अपने आदिस्वरूप में लौट नहीं जाता। फिर दुबारा सृष्टि, दुबारा विध्वंश और इसी प्रकार सृष्टि-लय का अंतहीन छुपने -ढँढ़ने का खेल चलता रहता है। अभी हमलोग भी ईश्वर को ढूँढ रहे है, ईश्वर कहीं छिपे हुए हैं।
जब सम्पूर्ण विश्वब्रम्हाण्ड विघटित हो जाता है और primordial Maya , बीजभूत माया में लीन हो जाती है, उस अवस्था को प्रलय की अवस्था कहते हैं। और हम जीवात्मायें भी जो आत्मायें विवेकज-ज्ञान प्राप्त कर मुक्त नहीं हुई हैं, वे potential state या संभावित जीव रूप से इस माया में लीन रहती हैं। उस अवस्था में हमारा कोई पृथक अस्तित्व भी नहीं होता। उस समय कौन बचा रहता है? केवल ब्रह्म अपनी माया शक्ति के साथ अस्तित्व में रहते हैं।
उस अवस्था में भगवान (श्रीरामकृष्ण ?) हम भक्तों को व्याकुलता के साथ ढूँढ़ते हैं-अरे फलनवा, फलनवा कहाँ है रे?  उस समय हमलोग माँ जगदम्बा के गर्भ में छुपे रहते हैं ? तब वे फिर से  इस जगत को प्रक्षिप्त करते हैं, हमलोगों को प्रक्षिप्त करते हैं। और वे स्वयं छुप जाते हैं और इस प्रकार फिर लुका-छिपी या छुपने-ढूँढने का खेल एक जन्म से दूसरे जन्म तक चलता रहता है। इस प्रकार लुका-छिपी का यह शाश्वत खेल चलता रहता है !"
इस कहानी में क्या- क्या घटित होता है ?
अव्यक्त रूप से हम ही ब्रह्म हैं, वह ब्रह्मत्व या दिव्यता हमारे भीतर ही अंतर्निहित है, किन्तु हम उसे नहीं जानते। क्योंकि देह-मन संयुक्त संरचना और शुद्ध चेतना जो देह-मन को प्रकाशित करती है, द्रष्टा और दृश्य - में जो अन्तर है, उस अन्तर पर माया (internally) आंतरिक या मानसिक रूप से पर्दा डाल देती है। जिसके कारण हम अपने को शुद्ध चेतना के रूप में न देखकर देह-मन (M/F) के रूप में देखते हैं। जब हम सिनेमा देख रहे होते हैं, सिनेमा का पर्दा वहीँ रहता है, किन्तु वह सिनेमा से इस प्रकार ढंक जाता है कि, उस समय हम सिनेमा से पर्दे को distinguish अंतर/प्रभेद नहीं कर पाते हैं। उस समय हमारे विचार (प्रकृति) और चेतना(पुरुष या consciousness) इस प्रकार मिश्रित हो जाते हैं कि उसको अलग अलग देखने में असमर्थ हो जाते हैं। माया की आवरण शक्ति ब्रह्म को छिपा देती हैं,यही बात 15 वें श्लोक में कही गयी है- अन्तर् दृश्-दृश्ययोः भेदम्= मानसिक रूप से (internally) हम द्रष्टा और दृश्य का प्रभेद करने में अक्षम हो जाते हैं। मानसिक रूप से साक्षी चेतना और witnessed -प्रतिबिंबित ज्ञाता/द्रष्टा मन या अहं है ये दोनों मिश्रित हो जाते हैं; और दोनों के बीच जो अंतर् है उसको हम स्पष्ट रूप से अलग-अलग नहीं देख पाते हैं।इसलिए हमें अंतर्निहित साक्षी,आत्मा या ब्रह्म का अनुभव नहीं होता।
बाह्य जगत में क्या होता है ? ब्रह्म और जगत है, माया की शक्ति से, ब्रह्म नाम-रूप के जाल में फंस जाते हैं। हमने पढ़ा था कि माया (Space-time-causation) में दो प्रकार की शक्ति रहती है -विक्षेप शक्ति और आवरण शक्ति। विक्षेप शक्ति के द्वारा माया ब्रह्म के ऊपर नाम-रूप का जाल निक्षेप (casts) कर देती है। ब्रह्म स्वरूपतः existence -consciousness -bliss या सच्चिदानन्द हैं, किन्तु वे हमें जगत (विश्वब्रह्माण्ड) के रूप में अनुभूत होते हैं। बहिस् च ब्रह्म-सर्गयोः| out  side अपने से बाहर सर्ग का अर्थ होता है सृष्टि, सृष्टि और ब्रह्म में जो अंतर है वह obscure या असपष्ट -धुंधला हो जाता है। बाह्य सृष्टि में भी ब्रह्म ही हैं, किन्तु उनको हम जगत के रूप में (अपना -पराया के रूप में)अनुभव करते हैं। जैसे स्वर्ण से बने सभी आभूषण स्वर्ण हैं, मिटटी से बने सारे बर्तन मिट्टी हैं। जब तक कोई व्यक्ति स्वर्ण या मिट्टी को नहीं जानता वह वहां केवल उसके नाम-रूपों को ही देखेगा। उसी प्रकार ब्रह्म और जगत के बीच का अंतर धुंधला हो जाता है।
 माया की विक्षेप शक्ति ही जगत सृष्टि का कारण है, जो दो प्रकार के पदार्थों का निर्माण करती है, स्थूल जड़ पदार्थ और सूक्ष्म जड़ पदार्थ। सूक्ष्म पदार्थों से हमारा मन-इन्द्रिय बनता है, वेदान्तिक भाषा में  प्राणमयकोष,मनोमयकोष, विज्ञानमयकोष कहा जाता है, ये सब सूक्ष्म पदार्थों से बनते हैं। ये सब मन के ही विचार-भावना-अनुभिति के विभिन्न रूप हैं। ये सूक्ष्म शरीर भी माया ने ही प्रक्षिप्त किया है। स्थूल पदार्थ क्या हैं ? जिसे हम अपने चारो ओर स्थूल रूप से पंच-विषय, पंचेन्द्रियग्राह्य जगत के रूप में अनुभव करते हैं। ये समस्त नाम-रूप सूक्ष्म हों स्थूल सभी ब्रह्म (pure consciousness) या शुद्ध चेतना से ही अपना अस्तित्व उधार में प्राप्त करते हैं।
 यहाँ यह बात याद रखनी है कि हमारा मन या सूक्ष्म शरीर इस ब्रह्म से केवल अपना अस्तित्व ही उधार नहीं लेता, उससे चेतनता भी उधार लेता है। चित ही हमारे मन में चिदाभास (awareness या जागरूकता) के रूप में परिलक्षित होती है। हमारी यह जागरूकता जिसका हम अभी अनुभव कर रहे हैं वह ब्रह्म से उधार लिया हुआ है। जैसे चित्त-मन-बुद्धि-अहंकार रूपी जल से भरे घड़े में एक छोटा सा सूर्य प्रतिबिंबित होता है। सूक्ष्म शरीर में चेतना को चिदाभास (reflection of consciousness) प्रतिबिंबित करने की क्षमता होती है। उसके चलते ही मन में जागरूकता (awareness) आती है। मन की वह प्रतिबिंबित साक्षी चेतना / प्रमाता या ज्ञाता बन जाती है। यह प्रमाता या ज्ञाता कौन है ? तुम ही तो हो ! यह ज्ञाता देह-मन से तादात्म्य करके M/F व्यक्ति बन जाता है। और जगत के साथ लेनदेन का व्यवहार करने लगता है। objective world वस्तुपरक जगत और व्यक्तिपरक जगत (subjective world) दोनों ब्रह्म हैं।अंतर्निहित ब्रह्म को कैसे खोजा जाता है, उसी तकनीक को हमलोग अभी सीख रहे हैं।  हमने पहले श्लोक में पढ़ा था -" रूपं दृश्यं लोचनं दृक्" द्रष्टा और दृश्य के विवेक द्वारा हम यही जानने की चेष्टा कर रहे हैं कि अंतर्निहित ब्रह्म (साक्षी चेतना) क्या है ? आंख का द्रष्टा मन है, अहं या मन के विचारों का द्रष्टा शुद्ध चेतना है। वही हमारा स्वरुप है मन या अहं हम नहीं हैं। 
आज का विषय है बाह्य जगत में ब्रह्म को कैसे खोजा जाय? बाह्य जगत में छिपे हुए ब्रह्म को अविष्कृत करने की तकनीक हम अब सीखने जा रहे हैं। जो कि 18 वें श्लोक में बताया गया है  -
तथा सर्गब्रह्मणोश्च भेदमावृत्य तिष्ठति ।
या शक्तिस्तद्वशाद्ब्रह्म विकृतत्वेन भासते ॥ १८॥
[यथा व्यष्टि-आत्मके] तथा [समष्टि-आत्मके] च [यावत्] सर्ग-ब्रह्मणः भेदम् आवृत्य या [आवरण-]शक्तिः तिष्ठति, [तावत् तद्-वशात् ब्रह्म विकृतत्वेन [विकारिणा] भासते॥
(Similarly Brahman, through the influence of the power that conceals the distinction between It and the phenomenal universe,appears as endowed with the attributes of change.)
यह आवरण शक्ति ही ब्रह्म और सृष्टि के भेद को भी ढँक देती है। एवं इसीके कारण ब्रह्म 'नम-रूपों ' के धर्मों से युक्त दीखता है।
तथा = उसी प्रकार - किस प्रकार ? जिस प्रकार माया की आवरण शक्ति के मानसिक या आंतरिक धुंधलेपन के कारण अंतर्निहित ब्रह्म छुप जाते हैं ,हम उनके प्रति जागरूक नहीं रह पाते हैं विचार (प्रकृति) और चेतना (पुरुष) परस्पर मिश्रित हो गए हैं; उसी प्रकार। सर्ग-ब्रह्मणः सर्ग अर्थात सृष्टि नाम-रूपमय जगत और ब्रह्म भेदम् -अर्थात इन दोनों के बीच जो अन्तर है; वह अन्तर प्रबुद्ध व्यक्तियों (enlightened person) के लिए बिल्कुल स्पष्ट रहता है। वे स्पष्ट रूप से जान रहे होते हैं कि यह जगत भी ब्रह्म के सिवा और कुछ नहीं है।
किसी वुड बी लीडर ने अपने [C-in-C] से पूछा था -'आप जगत के हर मनुष्य में ब्रह्म को कैसे देख पाते हैं ?' क्या किसी खास प्रकार की ज्योति को आप देखते है ? नहीं, जैसे कभी-कभी तुम दिन में भी चाँद को देखते हो ? तब उसकी दूसरी ओर सूर्य भी रहता है ? मेरे लिए ब्रह्म सूर्य की तरह है और जगत का प्रत्येक अनुभव चन्द्रमा की तरह है।
 मैं भी नाम-रूप को ही देखता हूँ किन्तु मेरे लिए वे स्पष्ट रूप से ब्रह्म (अस्ति -भाति -प्रिय) रहते हैं। (सूखा पेड़ पीछे नीला आकाश ?) ज्ञानमयी दृष्टि से जगत ब्रह्ममय दीखता है। किन्तु हम जैसे सामान्य मनुष्यों के लिए यह अंतर -भेदम् आवृत्य या शक्तिः या माया के दो शक्तियों -आवरण पर विक्षेप शक्ति द्वारा पर्दे से ढंक दिया जाता है। तद्- वशात् ब्रह्म विकृतत्वेन भासते-उसी आवरण और विक्षेप शक्ति के कारण अपरिवर्तनशील ब्रह्म, परिवर्तनशील जगत के रूप में दिखाई पड़ते हैं (appear) या प्रतीत होते हैं।
[स्वामी जी कहते हैं - 'The question is asked: From what does this universe come, in what does it remain, to what does it go back? And the answer is: From love it comes, in love it remains, back it goes unto love. this universe is the wreckage of the infinite  on the source of space-time and causation .' Time, space, and causation are like the glass through which the Absolute is seen, and when It is seen on the lower side, It appears as the universe.  “Space and time are not conditions in which we live, they are modes in which we think”
माया की आवरण शक्ति के वशीभूत होने से ब्रह्म और बाह्य जगत-प्रपंच में जो अन्तर है वह धुंधला हो जाता है। और अपरिवर्तनशील अविनाशी ब्रह्म ही परिवर्तनशील नश्वर जगत के रूप दृष्टिगोचर होने लगता है।जगत के सभी नाम-रूप परिवर्तनशील हैं। इस भौतिक स्थूल शरीर की छह गतियाँ हैं- जायते -अस्ति -वर्धते -विपरिणमते -अपक्षीयते -नश्यति। प्रत्येक नाम-रूप वाले अस्तित्व में परिवर्तन होना अनिवार्य है। और वह ब्रह्म या शुद्ध चेतना (अस्ति -भाति -प्रिय)  जिसको यह नाम-रूप ढँक लिया वह नित्य अपरिवर्तनशील है। अपरिवर्तनीय ब्रह्म ही परिवर्तनशील देह-मन के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। किन्तु ब्रह्म में कोई परिवर्तन नहीं होता। अब हम 19 वें श्लोक पर आते हैं -
अत्राप्यावृतिनाशेन विभाति ब्रह्मसर्गयोः ।
भेदस्तयोर्विकारः स्यात् सर्गे न ब्रह्मणि क्वचित् ॥ १९॥
अत्र अपि आवृति-नाशेन ब्रह्म-सर्गयोः भेदः (अ-ताद्-आत्म्यं) विभाति [विवेकेन स्पष्टं ज्ञायते]। तयोः [ब्रह्म-सर्गयोः] विकारः सर्गे [एव] स्यात्, न क्व-चिद् ब्रह्मणि॥
(In this case also, the distinction between Brahman and the phenomenal universe becomes clear with the disappearance of the veiling power. Therefore change is perceived in the phenomenal universe, but never in Brahman.)
यहाँ पर भी आवरण के नाश होने पर दोनों- " ब्रह्म और सृष्टि" का भेद  स्पष्ट हो जाता है। और " विकार मात्र सृष्टि में ही होते हैं, ब्रह्म में नहीं " यह बात भी स्पष्ट हो जाती है। 
विवेकज-ज्ञान के द्वारा इस जगत और ब्रह्म का अन्तर crystal clear, शीशे की तरह साफ दिखने लगता है। और यह समझ में आ जाता है कि विकारः -जो भी परिवर्तन दिख रहा है, जन्म-मृत्यु दिख रहा है, वह नाम-रूप वाले विषयाश्रित जगत (objective world ) में हो रहा है। ब्रह्म (existence -consciousness -bliss)में कोई परिवर्तन नहीं होता।
वेदान्त दृष्टिगोचर जगत को दो भागों में विभक्त करता है -1. परिवर्तनीय जगत, सापेक्षिक जगत, व्यावहारिक जगत या मिथ्या।  2. अपरिवर्तनीय ब्रह्म को निरपेक्ष सत्य की श्रेणी में रखता है। रेगिस्तान सत्य है और उसमें दिखने वाला जल मिथ्या है -मृगमरीचिका मिथ्या है। दोनों एक साथ रह सकते हैं। मिथ्या जल एक मिथ्या नखलिस्तान 'oasis' मरुस्थल के बीच हरित भूमि के रूप में रेगिस्तान के साथ रह सकता है।मिथ्या सर्प और वास्तविक रस्सी एक साथ coexist समकालीन रूप से रह सकता है।  एक मिथ्या नीला रंग रंगहीन आकाश के साथ साथ रह सकता है! मृगमरीचिका का मिथ्या जल बालू के एक कण को भी गीला नहीं कर सकता, फिर भी दोनों एक साथ रह सकते हैं। रस्सी विषधर नाग के रूप में प्रतीत हो सकता है, और अहानिकारक रस्सी भी रह सकता है।
 किन्तु वास्तविक जल और वास्तविक रेगिस्तान एक साथ नहीं रह सकते। इसी तरह अद्वैत वेदान्त इस परिवर्तनीय व्यावहारिक जगत को सत्य के निम्न ग्रेड lower grade of reality या सापेक्षिक सत्य की श्रेणी में रखता है। और अपरिवर्तनीय ब्रह्म (existence -consciousness -bliss) को वेदान्त पारमार्थिक सत्य absolute grade of reality की श्रेणी में रखता है। यह जगत व्यावहारिक सत्य या सापेक्षिक सत्य है, तुम नहीं कह सकते कि इसका अस्तित्व नहीं है, हमें इस जगत का अनुभव होता है। किन्तु उसी प्रकार ब्रह्म का अनुभव क्यों नहीं होता ? क्योंकि जगत की वास्तविकता ब्रह्म से उधार ली हुई वास्तविकता है। जैसे घड़े की वास्तविकता मिट्टी से उधार ली हुई है, आभूषण की वास्तविकता स्वर्ण से उधार ली हुई है। यदि मिट्टी का अस्तित्व नहीं हो तो घड़े का अस्तित्व भी नहीं रह सकता। आभूषण का वजन उतना ही है जितना स्वर्ण का वजन होता है। उसी प्रकार यह जगत ब्रह्म के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकता। किन्तु ब्रह्म जगत के बिना भी अस्तित्व में रह सकते हैं
 जगत का उपादान कारण ब्रह्म हैं और उसका कार्य है विश्वब्रह्माण्ड। ब्रह्म के ऊपर नाम-रूप आरोपित हो गया है। यदि ब्रह्म और जगत के बीच जो अन्तर है उस पर पड़ा हुआ आवरण हट जाय तो ब्रह्म शीशे की तरह साफ नजर आने लगता है। जब हम टेबल को छूते हैं तो touch wood कहते हैं -touch the table क्यों नहीं कहते ? तब हमारी दृष्टि सत्य पर होती है। जो कुछ भी हम जीव और जगत के रूप में देखते या अनुभव करते हैं वह ब्रह्म + टेबल (world) होता है। मानसिक रूप से ब्रह्म को जगत से अलग करके देखने का अभ्यास करना होगा। इसीको विवेक-प्रयोग करना कहते हैं। विवेक का अर्थ है पृथक कर देना।दूध और पानी मिला देने से हंस दूध को पानी से अलग करके पी लेता है, और पानी छोड़ देता है। गोलमाल में माल है -गोल को छोड़कर माल ले लो
पृथक्की-करण/भ्रम-भंजन की प्रक्रिया (process of separation): राजहंस दूध और पानी को पृथक करके दूध पी लेता और पानी छोड़ देता है, क्योंकि दूध पर पानी दोनों अलग-अलग पदार्थ हैं। किन्तु ब्रह्म और जगत उसी प्रकार दो अलग अलग वस्तुएं नहीं हैं। इन दोनों के बीच का पार्थक्य चीनी के कण और बालू के कण जैसा अलग-अलग नहीं है। ब्रह्म और जगत का पार्थक्य स्वर्ण और आभूषण,या मिट्टी और घड़े के जैसा है, या लकड़ी और टेबल के जैसा है। यह अलगाव कैसे किया जाता है, उसकी पद्धति क्या है ? इसी शरीर में रहते हुए जब आवरण (माँ जगदम्बा की कृपा से ?) हट जाता है, उस समय बहुत आश्चर्यजनक घटना घटित होती है, और मनुष्य अवाक् हो जाता है-इसी समय ब्रह्माण्ड बन रहा है और नष्ट हो रहा है, जीवन का अंतहीन खेल भी चल रहा है ? this is a paradox -यह कैसा विरोधाभास है ?
उसी पृथकीकरण की (isolation) पद्धति को अगले श्लोक 20  में बतलाया गया है। वेदान्त परिचय के लिए यह श्लोक इतना प्रसिद्द है कि अक्सर इसका उद्धरण दिया जाता है -

अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम् ।
आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम् ॥ २०॥
अस्ति, भाति, प्रियं, नाम, रूपं च इति [सर्वस्य] अंश-पञ्चकं। आद्य-त्रयं [अस्ति भाति प्रियं च इति-प्रथम-त्रयं] ब्रह्म-रूपम्। ततस् [त्रयात्] द्वयं [नाम रूपं च इति-द्वयं] जगत्-रूपम्॥
(Every entity has five characteristics, viz.,existence, effulgence, lovability, form and name. Of these, the first three are reflection of Brahman, and the next two to the creation.)
जगत का प्रत्येक विषय पॉँच अंशों से युक्त होता है। ये हैं अस्ति (होना) भाति (भासित होना) , प्रियता और नाम तथा रूप हैं। इसमें प्रथम तीन ब्रह्मरूप हैं और शेष दो जगत-रूप हैं।
जगत में प्रत्येक वस्तु की अनुभूति के 5 वैशिष्ट्य (feature) या 5 आयाम (dimension) होते हैं।प्रत्येक अनुभव में - अस्ति (existence,विद्यमानता), भाति (appearance-shining,आभास),प्रियं (happiness-आनन्द),रूपं (form -आकार), और नाम (name) ये 5 पहलू अवश्य होते हैं। इनमें से पहले तीन 'अस्ति -भाति -प्रिय' - की तिगड़ी ब्रह्म का वैशिष्ट्य या पहलू है। अंतिम 2 'नाम और रूप' जगत के लक्षण हैं। इसी विवेक के आधार पर ब्रह्म को जगत से पृथक किया जा सकता है। जगत की किसी भी वस्तु का अनुभव करने के लिए अनुभवकर्ता में चेतना (consciousness) अवश्य रहनी चाहिए। awareness, भान या consciousness (चेतना या समझ) जागरूकता के बिना आप जगत के किसी भी वस्तु की अनुभूति नहीं कर सकते। 
इस स्थूल-सूक्ष्म जगत में जिस किसी वस्तु की हमें अनुभूति होती है, उस स्थूल-सूक्ष्म जगत ने अपना अस्तित्व ब्रह्म से उधार लिया है। जैसे घड़े का अस्तित्व मिट्टी के कारण है, आभूषण का अस्तित्व स्वर्ण के कारण है। उसी प्रकार जगत का अस्तित्व ब्रह्म के अस्तित्व पर निर्भर करता है। भाति कोई भी वस्तु अपने को अभिव्यक्त करती है, प्रकट करती है it expresses ,manifests ,shines, ताकि लोग उसको जान सकें। जगत की किसी छोटी से छोटी वस्तु में भी चमकने का गुण होता है, जिसके सारे पत्ते झड़ गए हों, ऐसे सूखे हुए पेड़ की भी अपनी एक चमक (shining) होती जिसके कारण आप उसे पहचान लेते हैं। कोई भी वस्तु शुद्ध चेतना की ज्योति से दीप्तिमान हो उठती है। फिर उन जगत की वस्तुओं -जीवों से प्रसन्नता और आनन्द भी प्राप्त होता है। प्रियं का अर्थ है जिसे हम पसंद करते हैं। किसी वस्तु को हम तभी पसंद करते हैं, जब हमें उससे आनन्द या सुख प्राप्त होता है। 
फिर प्रत्येक अनुभव का एक नाम और एक रूप होता है,रूप का अर्थ केवल आकृति ही नहीं है-जो आँखों से दिखाई देता हो, रस-गंध-शब्द-स्पर्श भी एक प्रकार से आकार ही हैं। कोई अवधारणा या विचार (concept or idea) भी अमूर्त रूप (abstract form) हैं। और जो लेबल उस पर चिपकाया जा सकता है उसको नाम कहते हैं।पहले 3 अंश ब्रह्म से उधार लिए हुए हैं, इसलिए ब्रह्म हैं; बाद वाले 2 -पहलू 'नाम और रूप' माया की विक्षेप शक्ति से प्रक्षिप्त होते हैं।
स्थूल पदार्थ और सूक्ष्म पदार्थ के अन्तर को सदैव याद रखना चाहिए। स्थूल पदार्थों में ब्रह्म से अस्तित्व को उधार लेने की क्षमता होती है। इसलिए सारा स्थूल भौतिक जगत अस्तित्ववान प्रतीत होता है। जैसे घड़े के नाम-रूप को मिट्टी से अपना अस्तित्व प्राप्त करने की क्षमता रहती है। उसी प्रकार इस विश्वब्रह्माण्ड में ब्रह्म से अपना अस्तित्व उधार लेने की क्षमता होती है। कोई भी स्थूल भौतिक 'नाम-रूप ' ब्रह्म से अपना अस्तित्व उधार ले सकता है।
किन्तु सूक्ष्म वस्तुएं जैसे हमारा अन्तःकरण (अहं या बुद्धि) ब्रह्म से केक्ल अस्तित्व (existence) ही उधार नहीं लेतीं, बल्कि चेतना (consciousness) भी उधार लेती हैं। इसलिए हमारे अहं-मन में प्रतिबिंबित चेतना 'चिदाभास' उत्पन्न होता है। हम सभी लोग अपने देह-मन को जागरूक और चेतन महसूस करने लगते है। वही चैतन्य हर वस्तु में क्यों नहीं चमकता ? सूर्य की किरणे प्रत्येक वस्तु की सतह से परावर्तित होती हैं, किन्तु वैसी वस्तु बहुत कम है जो सूर्य के प्रतिबिम्ब (image -छोटी सी छवि) को धारण कर पाते हैं। पत्थल या दीवाल पर सूर्य का प्रतिबिम्ब नहीं बनेगा, शीसा/दर्पण  या शांत सरोवर की सतह पर, घड़े के जल पर सूर्य का प्रतिबिम्ब बनेगा। इसलिए कुछ ऐसे सूक्ष्म पदार्थ हैं, जो ब्रह्म से अस्तित्व ग्रहण के साथ-साथ चेतना भी ग्रहण कर लेते हैं।
 मनुष्य का सूक्ष्म-शरीर, अन्तःकरण  या मन चेतना (consciousness) का सर्वोत्तम रिफ्लेक्टर है। इसलिए हम हर वस्तु में 'अस्ति' देख सकते हैं, किन्तु भाति (चमक-चेतना ) केवल सूक्ष्म शरीर या अन्तःकरण में चमकती है, यही वैशिष्ट्य  जड़ और चेतन प्राणियों को अलग करता है। मनुष्य में स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर दोनों रहता है, इसलिए वह चेतन प्राणी के समान व्यव्हार करता है। 
वेदान्त के अनुसार सूक्ष्म शरीर (या अन्तःकरण) ही चेतन जीवित प्राणी को जड़ पदार्थों से अलग करता है। प्राणमयकोष भी सूक्ष्म शरीर से ही सम्बंधित है। उसी के कारण हमारा सूक्ष्म शरीर (मन)  ही किसी विशेष अवस्था (सात्विक अवस्था सतोगुण) में प्रियं (आनन्द-परमानन्द) का अनुभव करता है। परमानन्द का अनुभव भी मन ही करता है। ब्रह्म के तीनों पहलू 'existence-consciousness-bliss ' अथवा कहें 'existence-shiningness - and joy' अस्ति-भाति -प्रियं के रूप में हमारा सच्चिदानन्द स्वरूप ही अभिव्यक्त हो रहा है। 
ऐसा विवेक-प्रयोग करके कि 'अपरिवर्तनीय ब्रह्म ही परिवर्तनशील जगत के रूप में' अभिव्यक्त हो रहे हैं, ज्ञानी व्यक्ति प्रबुद्ध-जन (हंस लोग) अपनी दृष्टि को ज्ञानमयी बनाकर,  मन को जगत (नाम-रूप)  के केवल 'अस्ति-भाति -प्रिय' अंश पर एकाग्र रखते हैं। नाम-रूप को गौण समझते हैं। इसलिए आध्यात्मिक व्यक्ति सदैव साम्यभाव में अवस्थित रहते हैं। और भक्त लोग अपनी दृष्टि को भक्तिमयी दृष्टि बनाकर कहते हैं- ठाकुरदेव ही हर जीव में अवस्थित हैं। 'जल' को देखो 'तरंग' को न देखो- इसी अवस्था को स्वामी विवेकानन्द 'खुला-रहस्य' (open secret) कहते थे। वे कहते हैं "Do not seek for Him, just see Him." [WEDNESDAY, July 3, 1895.] 
किन्तु जगत की सभी वस्तुओं को देखने से तो  हमें  कभी कभी आनन्द प्राप्त नहीं भी होता ? जैसे किसी चोर-डकैत व्यक्ति को या सर्प, बाघ को देखकर तो हम डर जाते हैं ? कोई बिजनेस मैन चोर सहयात्री के साथ A/C -2 में यात्रा कर रहा था। उसने उसीके सामने रुपया गिना बाद में कहाँ रखा कि सामने वाले सीट पर बैठे चोर को दो दिनों तक खोजने से भी नहीं मिला - जब वह उतरने लगा तो चोर ने पूछा -भाई साहब अब तो बतादो कि आपने पैसे कहाँ रखे थे ? उस बिजनेस मैन ने कहा - यहाँ, तुम्हारे बिस्तर के नीचे ! पैसे निकाले और उतर गया। उसी प्रकार ब्रह्म भी  हर समय हमारी आँखों के सामने ही रहते हैं, अभी हैं -यहीं हैं। किन्तु हम उसे क्यों नहीं देख पाते ? 
क्योंकि जैसे केवल दिल्ली का मैप देखकर दिल्ली का ज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार केवल पुस्तक पढ़कर ही विवेकज-ज्ञान जाग्रत नहीं हो जाता। किसी " श्रुति-परम्परा " या 'विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित नेता-वरिष्ठ (C-in-C) नवनीदा जैसे जीवन मुक्त शिक्षक के सानिध्य में बैठकर इन वेदान्त सिद्धांतों का श्रवण-मनन करने के बाद निदिध्यासन करना पड़ता है, अर्थात अभ्यास के द्वारा इन्हें आत्मसात कर लेना पड़ता है।
उस आत्मसातीकरण के छह तकनीक हैं जिसे हम अगले श्लोक 21 में देखेंगे-

खवाय्वग्निजलोर्वीषु देवतिर्यङ्नरादिषु ।
अभिन्नाः सच्चिदानन्दाः भिद्येते रूपनामनी ॥ २१॥
ख-वायु-अग्नि-जल-उर्वीषु [पञ्च-भूतेषु] देव-तिर्यक्-नर-आदिषु [शरीर-लक्षणेषु भौतिकेषु] सत्-चित्-आनन्दाः अ-भिन्नाः। [सर्वेषु] रूप-नामनी भिद्येते [अ-निर्वचनीय-माया-कार्यत्वेन]॥
(The attributes of Existence, Consciousness and Bliss are equally present in the space, air,fire, water and earth as well as in deities,animals and men etc. Names and forms alone make one differ from the other.)
आकाश,वायु , अग्नि, जल तथा पृथ्वी पंच भूतों से बने जड़ प्रपंच में, तथा देवता, पशु, मनुष्य आदि चेतन प्राणियों में सच्चिदानन्द तत्व अभिन्न है। भेद मात्र नाम-रूपों की दृष्टि से ही होते हैं।  
जैसे रसायन विज्ञान (Chemistry) के विद्यार्थी जानते हैं कि 'periodic table' के अनुसार तत्वों की संख्या 200 है ? नहीं 118 एलिमेंट्स होते हैं ! किन्तु आध्यात्मिक विद्या के अनुसार तीनों  लोकों के निवासियों- देवता का शरीर, तिर्यक योनि यानि पशु-पक्षी का शरीर और मनुष्य शरीर,सभी प्राणियों का भौतिक शरीर पाँच तत्वों (5-एलीमेन्ट्स) से ही बना होता है। जिसे पंचभूत -कहते हैं, “क्षिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम शरीरा।।”  बाह्य जगत भी पंचतत्वों से ही बना है। और ये समस्त शरीर सच्चिदानन्द - existence-consciousness -bliss से अभिन्न हैं।  
तो फिर यहाँ इतनी विविधता क्यों दिखती है ? विविधता केवल नाम-रूप के कारण दिखती है। इतना पढ़-सुन समझ लेने के बाद इस ज्ञान को - हम नाम-रूप के नश्वर अहं की उपेक्षा करके, उससे भिन्न अविनाशी आत्मा हैं, इस सत्य को आत्सात करना जरुरी है। और इसके लिए ही एकाग्रता का अभ्यास करके समाधि में अपने स्वरुप की अनुभूति करनी अनिवार्य है।  मैं नाम-रूप से भिन्न वही ब्रह्म हूँ-इस सत्य को अपने स्नायु के रक्त में मिला लेना होगा। हमें स्वयं को डीहिप्नोटाइज्ड करना होगा by dismissing name and form focus on existing-consciousness-bliss । एकाग्रता (mental concentration) के नियमित अभ्यास द्वारा स्वयं को विसम्मोहित या डीहिप्नोटाइज्ड करने के प्रयास को ही वेदान्त में निदिध्यासन कहते हैं।










 





   






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