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शुक्रवार, 12 जुलाई 2019

दृग-दृश्य विवेक -द्वितीय अध्याय/:श्लोक 6-12

"अहंकार और प्रतिबिंबित चेतना"
“Ego & Reflected Consciousness”
वेदान्त के चार महावाक्यों में हमने सुना था कि -इस सृष्टि में ब्रह्म ही सर्वव्यापी सत्ता है। अब यह प्रश्न उठता है कि फिर सृष्टि में कुछ वस्तुएं जड़ क्यों प्रतीत होती हैं, और कुछ वस्तुओं में जीवन होता है -पौधों में जीवन है, तो पहाड़ों में जीवन क्यों नहीं दीखता है ? इस अध्याय में इन्हीं प्रश्नों का उत्तर दिया गया है। यद्यपि इस अध्याय की विषयवस्तु अलग है, तथापि इस अध्याय को समझने के लिए प्रथम अध्याय की पूरी समझ होनी आवश्यक है।  
अद्वैत वेदान्त कहता है, एक और केवल 'एक' शुद्ध शाश्वत चैतन्य सच्चिदानन्द (One and only existence-consciousness-bliss) का ही अस्तित्व है, बाकी जो कुछ अनेकता (Many या plurality) का अनुभव हमें होता है, वह सब परिवर्तनशील होने के कारण केवल मिथ्या रूप-रंग या नाम-रूप  (colors and form , appearance) है। प्रत्येक मनुष्य स्वरूपतः वही (अव्यक्त ?) शुद्ध चेतना (pure consciousness) या सच्चिदानन्द 'ब्रह्म 'है।
किन्तु हमारी समस्या यह है, कि अभी हमारा यथार्थ स्वरुप हमारे लिए केवल एक सिद्धान्त है। हमें तो रात दिन यही अनुभव होता रहता है कि हम केवल देह-मन संयुक्त एक सत्ता (M/F) हैं। पशु आदि निम्नकोटि के प्राणियों से भिन्न,सभी प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ, 'मनुष्य' के जीवन का उद्देश्य (purpose) क्या है ? डॉक्टर-इंजीनियर बनना ? वह तो केवल आजीविका चुनना (career choosing) है, श्रीरामकृष्ण के अनुसार वास्तव में मनुष्य जीवन का उद्देश्य -'ईश्वरलाभ करना है।' अर्थात अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को पहचान कर उसे अपने दैनन्दिन जीवन के हर क्षेत्र में अभिव्यक्त करना है। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार “प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अन्तःप्रकृति को वशीभूत कर आत्मा के इस ब्रह्म भाव को व्यक्त करना ही मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है।" 
और यह 'दृग-दृश्य विवेक ' नामक वेदान्त प्रकरण ग्रंथ हमें स्पष्ट रूप से यह बता देना चाहता है, यह अनुभव करा देना चाहता है, कि हम लोग शरीर -मन (2-H) से पृथक (different) एक अलग सत्ता हृदय (3rd 'H') हैं। वेदान्त परिचय ग्रंथ अपने ब्रह्मस्वरूप को अभिव्यक्त करने के लक्ष्य तक पहुँचने में  हमारी सहायता करने के लिए; प्रथम अध्याय के 5  श्लोकों (1 से 5 तक) में, सर्वपर्थम यह स्पष्ट करना चाहता है कि हमारे प्रत्येक अनुभव में एक अनुभवकर्ता (Subject) होता है और एक (Object) अनुभव की वस्तु (Object of experience) होती है। जिस प्रकार हबल टेलिस्कोप से हम दूर के ग्रहों को देख सकते हैं, किन्तु यह टेलिस्कोप ही यदि खराब हो जाये तो हम ठीक से उन्हें पहचान नहीं सकते हैं। 
जैसे दूरबीन दृश्य वस्तु से भिन्न होती है, उसी तरह मेरी ऑंखें द्रष्टा हैं, और यह माइक्रोफोन दृश्य है। वेदान्त के तीन कार्यकारी सिद्धान्तों (operating principles) के अनुसार द्रष्टा दृश्य से सदैव अलग है। दूसरा सिद्धान्त कहता है कि द्रष्टा एक होता है दृश्य अनेक होते हैं। तीसरा सिद्धान्त कहता है कि द्रष्टा दृश्य की अपेक्षा अपरिवर्तनीय होता है, और दृश्य परिवर्तनशील होते हैं।
 वेदान्त प्रकरण ग्रंथ, इन्हीं तीन सत्य-सिद्धान्तों की सहायता से  हमारे भ्रम को तोड़ने की चेष्टा करता है। वह यह सिद्ध करना चाहता है कि  मनुष्य केवल परिवर्तनशील या नश्वर  देह- मनसंयुक्त सत्ता ही नहीं है,  बल्कि  वास्तविक मनुष्य इस परिवर्तनशील देह-मन का सदैव द्रष्टा या अनुभवकर्ता (experiencer) है। और इस सच्चाई को हमलोग केवल अपने सामान्य-ज्ञान (common sense) का प्रयोग कर के आसानी से समझ सकते हैं। प्रथम श्लोक के पहले चरण में यह सामान्य ज्ञान से यह समझाया गया कि ऑंखें द्रष्टा हैं, और बाह्य जगत की वस्तुएं दृश्य हैं। दूसरे चरण में और गहराई से चिंतन करने पर यह समझाया गया कि ऑंखें भी दृश्य हैं और मन उनका द्रष्टा है। तीसरे चरण में यह स्पष्ट हो गया कि परिवर्तनशील होने के कारण मन और उसमें उठने वाले विचार दृश्य हैं, और मन (अहं) का द्रष्टा साक्षी चैतन्य (witness consciousness) हैं। 
अब प्रश्न उठेगा कि, ठीक है माइक्रोफोन या यह पुस्तक तो जड़ वस्तु है, और हम उससे पृथक एक साक्षी हैं; किन्तु जैसे हम पुस्तक को अपने से पृथक एक जड़ वस्तु के रूप में समझ पाते हैं, उसी प्रकार हम शरीर-मन को भी अपने स्वरूप से से अलग एक जड़ वस्तु क्यों नहीं समझ पाते ? इसका कारण यह है कि शरीर में चेतना है, इसीलिए इसके प्रत्येक सिहरन का हमें अनुभव होता है। रूप-रस-गंध-शब्द-स्पर्श की प्रतिक्रिया होती है।  इसलिए शरीर-मन में कोई  दुःख-कष्ट होने पर हमें उसका स्पष्ट अनुभव होता है। और हम अपना परिचय M/ F के रूप में स्वयं को शरीर मानकर ही देते हैं। यदि हम केवल साक्षी चैतन्य (witness consciousness) हैं, तो हमें शरीर में भी चेतना (consciousness) का अनुभव क्यों होता है ? 
इसी प्रश्न का उत्तर देते हुए वेदान्त प्रकरण ग्रंथ के 6 वें श्लोक लेखक कहते हैं कि देह और मन भी परिवर्तनशील होने के कारण दृश्य या जड़ पदार्थ ही हैं, किन्तु उनके माध्यम से शुद्ध चेतना अपने को प्रर्तिबिम्बित कर रही है, इसीलिए वे भी चेतन जैसे प्रतीत होते हैं।  

चिच्छायाऽऽवेशतो बुद्धौ/ 
भानं धीस्तु द्विधा स्थिता ।
एकाहङ्कृतिरन्या /
                                              स्यादन्तःकरणरूपिणी ॥
बुद्धि में साक्षी चेतना का प्रतिबिम्ब पड़ने से जड़ बुद्धि स्फूर्ति से युक्त हो जाती है। तथा इसमें जानने का सामर्थ्य भी जाग्रत हो जाता है। उसके बाद यह बुद्धि दो वृत्तियों से युक्त दिखने लगती है, प्रथम अहंकार और दूसरी अन्तःकरण वृत्ति। 
1.चित्-छाया-आवेशतस् बुद्धौ - जो प्रतिबिम्बित चेतना बुद्धि में प्रविष्ट हो जाती है। 
2.भानं धीः तु द्विधा स्थिता- वह बुद्धि को भी चेतन बना देती है, और बुद्धि दो वृत्तियों से युक्त हो जाती है। 
3. एका अहम्-कृतिः अन्या स्यात्- एक तो अहंकार वृत्ति है, और दूसरी है -
4.अन्तर्-करण-रूपिणी - हमारा अन्तःकरण वृत्ति जो हमारा आंतरिक उपकरण (inner instrument) है।
अब हमारे सामने दो प्रकार की चेतना है - प्रतिबिंबित चेतना (reflected consciousness)और शुद्ध  चेतना (pure consciousness)।
1.चित्-छाया -- अर्थात " प्रतिबिंबित चेतना " (reflected consciousness): शुद्ध चेतना (pure Consciousness) सर्वव्यापी है, सर्वत्र विद्यमान है,तथा  प्रत्येक व्यक्त स्थूल और सूक्ष्म भौतिक पदार्थों को प्रतिबिंबित कर रही है। किन्तु सूक्ष्म भौतिक वस्तुएँ जितनी अच्छी तरह से शुद्ध चेतना को प्रतिबिंबित कर सकती है, स्थूल भौतिक वस्तुएं उतनी अच्छी तरह से उसे प्रतिबिंबित नहीं कर पाते। इसकी तुलना हम सूर्य की उन किरणों से कर सकते हैं, स्वच्छ जल की सतह से बहुत अच्छी तरह प्रतबिम्बित होती हैं, और लकड़ी के टुकड़े पर उस तरह प्रतिबिंबित नहीं होतीं। मन को मनुष्य का अन्तःकरण भी कहा जाता है, जिसके चार पार्ट हैं -चित्त,मन, बुद्धि और अहंकार।  इस सृष्टि में बुद्धि सर्वाधिक सूक्ष्म वस्तु है , और उसमें भी विशेष रूप से मनुष्य की बुद्धि। मनुष्य शरीर में हमें वह सर्वोच्च अन्तःकरण प्राप्त होता है, जिस बुद्धि में शुद्ध चेतना का सर्वश्रेष्ठ प्रतिबिम्ब प्राप्त किया जा सकता है। [इसलिए 'ब्रह्मवलोकधिषणं पुरुषं विधाय मुदमाप देवः']  
2. भानं -- साक्षी चेतना (witness consciousness) या शुद्ध चेतना (pure consciousness) ही मन के द्वारा प्रतिबिंबित होकर प्रतिबिंबित चेतना (reflected consciousness) बन जाती है। मनुष्य की बुद्धि- सतह से प्रतिबिंबित चेतना  (reflected consciousness) या प्रतिभासिक अभिज्ञता (apparent awareness -भान या जागरूकता) इतनी उच्च गुणवत्ता की होती है, कि वह  बुद्धि को चेतनता प्रदान करती है। यानि बुद्धि जड़ होकर भी जागरूक, सचेतन, बोधक्षम (sentient) जीवंत दिखाई देती है। बुद्धि का सचेतन प्रतीत होना, प्रतिबिंबित चेतना का पहला परिणाम है।  
 मनुष्य का व्यक्तित्व त्रि-आयामी है: मनुष्य तीन प्रमुख अवयवों द्वारा निर्मित है। मनुष्य का व्यक्तित्व केवल body -mind को लेकर ही गठित नहीं हुआ है, बल्कि उसके तीन प्रमुख अवयव है -body, mind and Self ! स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर और आत्मा तीनों की पृथक सत्ता (3H) है। यह देह-मन -हृदय तो हमारे शुद्ध स्वरूप (pure consciousness) में समाहित हमारी तीन शक्तियों Thinking, feeling , doing-विचार करने, अनुभव करने और कार्य करने की शक्तियों को अभिव्यक्त करने का एक साधन या उपकरण है। 
अंग्रेजी में 'Soul' शब्द अनेकार्थक (ambiguous) शब्द माना जाता है। अंग्रेजी साहित्य, दर्शन और विज्ञान में भी 'body and the soul' को मिलाकर भी सिर्फ 'Soul' शब्द का प्रयोग किया जाता है। soul कहने से आप सूक्ष्म शरीर (अन्तःकरण subtle body) भी समझ सकते हैं, या 'self ' शब्द कहने से अस्मिता (ego),अहम्, या आत्मा भी समझ सकते हैं। यहाँ हमको स्पष्ट करना पड़ता है इस शब्द से हम 'मन' कहना चाहते हैं या 'आत्मा' (self) कहना चाहते हैं?
किन्तु वेदान्त घोषणा करता है कि- साक्षी चैतन्य (Witness consciousness) ही सूक्ष्म शरीर ( subtle body, अन्तःकरण या मन) में प्रतिबिम्बित होता है।' इसको हम अपने सामान्य ज्ञान से समझने की चेष्टा करें। जिस प्रकार सूर्य के उदय होने पर घर,जंगल, पहाड़,पर्वत हर वस्तु प्रकाशित हो जाती है। किन्तु शांत सरोवर में स्वच्छ जल की सतह पर सूर्य के किरणों के प्रतिबिंबित होने के साथ-साथ तो उसकी सतह पर सूर्य का एक छोटा सा चित्र या सूर्य की एक तस्वीर (an image of the sun) भी छप जाती है। यद्यपि पत्थरों और पहाड़ों को सूर्य प्रकाशित तो करता है, किन्तु वहाँ उसका कोई चित्र अंकित (imprinted) नहीं होता । केवल कुछ विशेष प्रकार के परिशुद्ध और चिकने सतह  (polished surface) के ऊपर ही सूर्य का छोटा सा चित्र या प्रतिबिम्ब अंकित हो पाता है। जैसे ओस की बूँदों (dew-drop) की सतह पर भी हम देख सकते हैं कि उस पर एक बहुत छोटा सा सूर्य भी प्रतिबिम्बित हो रहा है। चमकदार स्टील प्लेट या शीशा पर भी हम देख सकते हैं कि एक छोटा सूर्य प्रतिबिम्बित हो रहा है।  ठीक उसी प्रकार हमारे सूक्ष्म शरीर (अन्तःकरण) में भी वह क्षमता है कि वह साक्षी चैतन्य को प्रतिबिंबित कर सकता है, तथा उसको प्रतिबिंबित चेतना कहते हैं।
अब हमारे सामने दो प्रकार की चेतना है - प्रतिबिंबित चेतना (reflected consciousness)और साक्षी चेतना (witness consciousness)। शुद्ध चेतना (pure consciousness) ही मन के द्वारा प्रतिबिंबित होकर प्रतिबिंबित चेतना (reflected consciousness) बन जाती है। सुनने, देखने आदि क्रियाओं में जिस चेतना को हम अपने भीतर अनुभव करते हैं, वह यही प्रतिबिंबित चेतना है। जैसे चाँदनी रात में चन्द्रमा के प्रकाश से धरती-आकाश प्रकाशित हो जाता है, किन्तु हम जानते हैं कि चाँद का अपना प्रकाश नहीं होता, वह सूर्य के प्रकाश को ही प्रतिबिंबित करता है।  चाँद सूर्य से रौशनी को उधार लेकर धरती आकाश में वितरित करता है। किन्तु हमलोग यह जानते हैं कि यह प्रकाश उसका अपना नहीं है, सूर्य से उधार लिया है। ठीक उसी प्रकार मन और इन्द्रियों में जिस चेतना का अनुभव हम करते हैं, यह उसका अपना नहीं है, यह साक्षी चेतना का प्रकाश है, मन के ऊपर प्रतिबिंबित चेतना पड़ने से मन चैतन्य हो जाता है। वेदान्त घोषणा करता है कि इन्द्रियां मन से उस चेतना को उधार लेती हैं और शरीर इन्द्रियों के माध्यम से उस चेतना का अनुभव करता है
            प्रश्न उठता है कि यह प्रतिबिंबित चेतना (reflected consciousness) कहाँ तक क्रियाशील रहती है? उपनिषद कहता है - 'आनखाग्रात् ' -उँगलियों के नाख़ून तक हम अपने होने का अनुभव करते हैं! इस नाख़ून तक- मैं हूँ, उसके बाद मैं नहीं हूँ। I have spread myself to the tips of my finger nail.  [यह सम्पूर्ण जगत् ब्रह्म का ही विवर्त है, 'यच नखाग्रात् प्रविष्ट तनु कृत्स्नं' अर्थात् अज्ञान से  सर्व रूप ब्रह्म ही  शरीरों में प्रवेश होकर अर्थात् अंत:करणावच्छिन्न होकर परिच्छिन्न संसारी जीव रूप हुआ है हम सभी लोग अभी ऐसा ही अनुभव करते हैं।  ठोकर से ठेस जब अँगूठे का नाख़ून उखड़ जाता है, तो बहुत दर्द होता है, फिर एक-दो महीने में शरीर स्वयं नया नाख़ून बना लेता है। क्या यह चेतना शरीर का अपना है? नहीं, जब शरीर मर जाता है तो यह भी जड़ बन जाता है, और अपनी चेतना को खो देता है। नाख़ून और बाल बढ़ने बंद हो जाते हैं। शरीर ठंढा पड़ जाता है। 
आन्तरिक चेतना (intrinsic consciousness) और उधार या गृहीत चेतना ( borrowed consciousness) में क्या अन्तर है ? 
उधार में ली हुई या गृहीत चेतना (borrowed consciousness) आती है, चली जाती है; जबकि आन्तरिक चेतना या जो मूलभूत चेतना (intrinsic consciousness) है, वह सदैव बनी रहती है। आन्तरिक चेतना को अन्तर्भूत ताप (intrinsic Heat) के सुन्दर उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है।  जब कड़ाही की पानी में उबलते हुए आलू -परवल को देखकर बच्चे कहते हैं, देखो माँ - आलु-परवल उछल रहे है। जब चूल्हे की लकड़ी निकाल ली जाती है, तब उनका उछलना बन्द हो जाता है। थोड़ी देर बाद आलू-परवल ठंढा हो जाता है। क्योंकि आलु-परवल में आवेशित वह ताप खौलते हुए पानी से उधार ली हुई गर्मी (borrowed heat) थी। क्या पानी की वह गर्मी अपनी थी ? नहीं, पानी ने भी वह ताप लोहे की कड़ाही से प्राप्त की थी। क्या लोहे की कड़ाही की गर्मी उसकी अपनी थी ? नहीं, लोहे की कड़ाही ने उस ताप को अग्नि से उधार ली थी। यद्यपि लोहा स्वयं दाहक नहीं , फिर भी अग्निके सम्बन्ध से उसमें दाहक शक्ति आ जाती है। अग्नि को वह ताप शक्ति (heat capacity) कहाँ से मिली थी ? क्या अग्नि ने भी कहीं से ताप (Heat या ऊष्मा) को कहीं से उधार लिया था ? नहीं, वह ऊष्मा वह ताप उसकी अपनी थी। अग्नि का धर्म ही है गर्मी या ताप! इसीको अन्तस्थ ऊष्मा या अन्तर्भूत ताप (intrinsic heat) कहते हैं। जब तक अग्नि प्रज्ज्वलित रहेगी, उससे ताप मिलेगा। 
उसी प्रकार सूक्ष्म-शरीर (अन्तःकरण) में शुद्ध चेतना (pure consciousness) के प्रवेश करने या प्रतिबिम्बित होने से, जड़ बुद्धि में भी चेतन के समान भोक्तृत्व शक्ति उत्पन्न हो जाती है । शरीर की चेतना इन्द्रियों (नरवस सिस्टम) से उधार ली हुई है, इन्द्रियों ने इस चेतना को मन से उधार लिया है। मन ने इस चेतना को प्रतिबिंबित चेतना (Reflected consciousness) से उधार लिया है। और प्रतिबिंबित चेतना साक्षी चैतन्य (witness  consciousness) से उधार ली हुई चेतना है।  किन्तु साक्षी चेतना कहाँ से उधार ली गयी है ? किसी से भी नहीं;  यह उसका intrinsic consciousness अन्तस्थ चेतना या धर्म है ,यह स्वयं प्रभा है। गहरी निद्रा में और शरीर के मर जाने पर, जब सूक्ष्म शरीर अगला जन्म ग्रहण करने के लिए दूसरी दुनिया में चला जाता है,तब स्थूल शरीर की मन और इन्द्रियां अपनी चेतना खो देते हैं।
जैसे यह जड़ माइक्रोफोन चेतना का विषय है, वैसे ही यह जड़ शरीर भी चेतना का विषय (object of consciousness) है। किन्तु भ्रमवश या hypnotized हो जाने के कारण हम अपने M/F शरीर के साथ अपना तादात्म्य करके स्वयं को स्त्री/पुरुष समझने लगते हैं। इस शरीर में जो चेतना है, वह भी मन से उधार ली हुई चेतना है, इसीलिए हमें अनुभव होता रहता है, कि उँगलियों की नाख़ून तक मैं हूँ ! सच्चाई यह है कि साक्षी चेतना देह को जानने वाली है, देह नहीं है-- मैं यह शरीर नहीं हूँ !
अब श्लोक के अर्थ को समझें - अन्तःकरण में शुद्ध चेतना के प्रतिबिंबित होने से (चित्-छाया-आवेशतस्), बुद्धिः स्वयम्-प्रकाशवान (intrinsic) चेतना जैसी (बुद्धौ भानं)- बुद्धि दो प्रकार से व्यवहार [तु द्विधा स्थिता] करने लगती है। 
हमलोग जानते हैं कि हमारा सूक्ष्म शरीर या मन के चार भाग हैं - 'चतुर्धा-अन्तःकरण:' -"चित्त, मन, बुद्धि और अहंकार।" इसलिए आचार्य शंकर कहते हैं -मनोबुद्धिहंकार चित्तानि नाहं,चिदानंदरूपः शिवोहं शिवोहम्। किन्तु इस श्लोक में लेखक चतुर्धा-अन्तःकरण को 'धी' द्विधा-अर्थात केवल दो भाग में बाँट रहे हैं। एक भाग है अहं ('मैं' -ego), अर्थात हम जो इस समय अपने को अनुभव कर रहे हैं, मैं बी के सिंह - देख रहा हूँ, मैं सुन रहा हूँ -आदि मन का एक भाग हुआ। और दूसरे  भाग में शेष तीन चित्त,मन, बुद्धि चले आते हैं।  इस प्रकार लेखक यहाँ सूक्ष्म-शरीर के (अन्तःकरण के) 'अहं'- भाव या 'मैं' -पन को अन्तःकरण के शेष 3 भाग से अलग कर लेते हैं । सूक्ष्म-शरीर या अन्तःकरण के चार भाग में हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण कौन है ?-मुझे सबसे अधिक प्रिय है कौन है ? मेरा 'मैं'-पन मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण है ! मेरा 'मैं'-पन ही मुझे सबसे अधिक प्रिय है।  who is most important to us?-the first person- मैं ! इसी 'मैं '-पन (ego-व्यष्टि अहं बोध) के ऊपर ही मन को एकाग्र करो। मन की 'बुद्धि-वृत्ति' में शुद्ध चेतना की छाया 'shadow of consciousness' या रिफ्लेक्टेड चेतना के प्रविष्ट होने पर, 'भानं'- बुद्धि में ज्ञान प्रकाशित हो जाता है। कौन सा ज्ञान ? सभी प्रकार का ज्ञान। 
इस प्रकार एकधा -'अहं वृत्ति' को शेष अन्तःकरण से अलग कर लेने के बाद श्लोक लेखक 7 वें श्लोक में कहते हैं-
                                   छायाऽहङ्कारयोरैक्यं तप्तायःपिण्डवन्मतम् ।
तदहङ्कारतादात्म्याद्देहश्चेतनतामगात् ॥ ७॥
{छाया-अहङ्कारयोः ऐक्यं (चित्-छाया च अहम्-कृतिः च तयोः) ऐक्यं [विरुद्ध-धर्मि-]तप्त-अयस्-पिण्डवत् मतम्। तद्-अहङ्कार-ताद्-आत्म्यात् [अ-चेतनः] देहः चेतनताम् अगात् [ज्ञान-स्व-रूपत्वम् प्राप्नुयात्]॥} प्रतिबिंबित चेतना और अहंकार का सम्बन्ध लोहे के लाल तप्त गोले और अग्नि के समान होता है। अहंकार जब देह के साथ तादात्म्य करता है, तब देह भी चेतनवान हो जाता है। 
 छाया-अहङ्कारयोः ऐक्यं तप्त-अयस्-पिण्डवत् मतम्- मन में हर समय जो प्रिबिम्बित चेतना रहती है, वह रिफ्लेक्टेड चेतना और 'मैं' -पन (reflected consciousness और 'ego') एक हो जाता है। किस प्रकार एक हो जाता  हैं ? जैसे किसी दर्पण में जब हम अपना चेहरा देखते हैं, तो प्रतिबिंबित चेहरा और दर्पण (reflected face and mirror) एक हो जाता है ! उनको हम किसी प्रकार अलग नहीं कर सकते। 
 " उमर भर ग़ालिब यही भूल करता रहा; 
 धूल चहेरे पे थी और आइना साफ करता रहा!!
दर्पण जब कभी चेहरे के सामने आयेगा, उसमें चेहरे का प्रतिबिम्ब भी रहेगा। उसी प्रकार यदि चेहरे की तुलना विशुद्ध चेतना, साक्षी-चेतना से की जाय, तो दर्पण में पड़ने वाली छाया रिफ्लेक्टेड चेतना है और दर्पण 'मैं'-बोध है, अहंकार (ego) है।  प्रतिबिम्ब और दर्पण एक हो जाता है। यह अहंकार ही प्रतिबिंबित चेतना को ग्रहण करता है, और मन के शेष भागों में संचारित (transmit) कर देता है। मन इस रिफ्लेक्टेड चेतना को ज्ञानेन्द्रियों तक (sensory faculty) संचारित कर देता है। ज्ञानेन्द्रियाँ उसे पूरे शरीर में -नाख़ून के अग्रभाग तक संचारित कर देती हैं। और इस प्रकार शरीर के अंदर हमें चेतना का अनुभव होता हैं।
 तद्-अहङ्कार-तादात्म्यात् - अहं-बोध और प्रतिबिंबित चेतना में तादात्म्य हो जाने के कारण--'ego' becomes conscious: अहंकार स्वयं को ही वास्तविक साक्षी चैतन्य समझने लगता है। यदि इसी समय हम आत्म-निरीक्षण करें -अपने भीतर देखें, अपना परिचय निरीक्षण (intro inspection) करें तो हमें पता चलेगा कि हम अपने M/F शरीर के नाम-रूप के तादात्म्य से उत्पन्न 'व्यष्टि अहं' को ही सर्वाधिक चेतन वस्तु समझते रहते हैं। (रोज शरीरों को मरते देखने से भी अपने को अमर समझते हैं?) यही अहंकार रिफ्लेक्टेड चेतना को मन, नरवस सिस्टम के माध्यम से समस्त इन्द्रयों और पूरे शरीर में संचारित करता रहता है। नाख़ून के अग्रभाग तक, अर्थात जहाँ तक हम अपने को शरीर समझते हैं -वहाँ  तक का शरीर नर्वस सिस्टम के माध्यम से रिफ्लेक्टेड चेतना संचारित होती रहती है।
प्रतिबिंबित चेतना (रिफ्लेक्टेड कॉन्शसनेस) व्यष्टि -अहं के साथ एक कैसे हो जाती है ? उत्तर है - तप्त-अयस्-पिण्डवत् मतम्। और जो गेंद का गोल आकार है, वह गेन्द का अपना है, अग्नि से प्राप्त नहीं हुआ है। वजन आग से नहीं आया है, लोहे का अपना है। लेकिन अभी दोनों मिलकर एक हो गए हैं। जैसे लोहे का गेंद भट्ठी में तपाने से गोल गेंद तप्त और लाल रंग का हो जाता है। किन्तु वह ताप उस गेन्द का अपना नहीं होता। ताप अग्नि से आया है। ठीक उसी तरह हमारा अहं-बोध (ego) लोहे की गेंद की तरह है, बुद्धि में रिफ्लेक्टेड चेतना अग्नि की तरह है। क्योंकि 'व्यष्टि अहं' या हमारा मैं-पन भी विचार की तरह जड़ वस्तु (insentient या निष्प्राण वस्तु) है, और बुद्धि चमकदार या प्रकाशित है अतः वह चेतना है। दोनों एक साथ तादात्म्य करके प्रकाशित हो रहे हैं। हम कहने लगते मेरे विचार, मेरी आँखे, मेरी यादाश्त। जड़ अहं रेफ्लेक्टेड चेतन मन के साथ एक हो गया है। इसलिए शरीर भी अपने को चेतन समझने लगता है। 
इस प्रकरण-ग्रंथ का 8 वां और 9 वां श्लोक अत्यंत सूक्ष्म और अत्यधिक ज्ञनोत्तेजक (Knowledge stimulant) है। हमारे भीतर एक प्रतिबिंबित चेतना (reflected consciousness, अन्तःकरण) है और एक साक्षी चेतना (witness  consciousness) है। तथा  एक यह शरीर है- जिसे मैं अपना 'मैं' समझता हूँ ! रिफ्लेक्टेड चेतना के साथ मेरा क्या सम्बन्ध है? इस अहं या 'मैं'-पन का साक्षी (witness) से क्या सम्बन्ध है ? इस 'मैं '(अहं) का शरीर से क्या सम्बन्ध है ? 
ये तीन प्रश्न हैं।  श्लोक 8  में इन्हीं प्रश्नों का उत्तर दिया गया है कि- इसी क्षण हम क्या हैं ? और इसी क्षण हमें क्या करना चाहिए ?
  अहङ्कारस्य तादात्म्यं चिच्छायादेहसाक्षिभिः ।
सहजं कर्मजं भ्रान्तिजन्यं च त्रिविधं क्रमात् ॥ ८॥
अहङ्कारस्य ताद्-आत्म्यं त्रि-विधं चित्-छाया-देह-साक्षिभिः (चिति-छाया देहः प्रत्यक्-आत्मा च तेभिः) – सह-जं, कर्म-जं, भ्रान्ति-जन्यं च क्रमात् [अहङ्कारस्य चित्-छायया सह-जं ताद्-आत्म्यम् इत्यादि-क्रमात्]॥
(The identification of the ego with the reflection of Consciousness, the body and the Witness are of three kinds, namely, natural,due to past karma, and due to ignorance,respectively.)
प्रतिबम्बित चेतना (reflected consciousness ) के साथ हमलोगों के 'मैं'-पन या 'अहं' का का सम्बन्ध (Identification, तादात्म्य) क्रमशः तीन प्रकार के हैं -सह-जं, कर्म-जं और भ्रान्ति-जन्यं। अहंकार का चिदाभास, देह और साक्षी चैतन्य के साथ तादात्म्य क्रमशः -सहज, कर्मज और भ्रान्तिजन्य होता है। 
 पहला है स्वाभाविक सम्बन्ध- जैसे ही दर्पण के सामने चेहरा आएगा, उसका प्रतिबिम्ब बनेगा। जब तक दर्पण रहेगा प्रतिबिम्ब भी साथ-साथ रहेगा। इसलिए मैं -पन (अहं) हमेशा अपने को चेतन अनुभव करेगा। 
प्रतिबिंबित चेतना के साथ शरीर का तादात्म्य या सम्बन्ध -कर्मजं, कर्म से उत्पन्न हुआ है। मेरा यह वर्तमान शरीर मेरे प्रारब्ध कर्मों का भोग करने के लिए मिला है। प्रारब्ध के का क्षय अच्छे-बुरे कर्मों का भोग करके ही करना पड़ता है। पिछले जन्मों में हमलोगों ने  सचमुच कुछ अच्छे कर्म किये होंगे , तभी तो महामण्डल द्वारा "Be and Make" विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में आयोजित इस प्रशिक्षण कैम्प में आये हैं। और वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षक/माली 'नवनी दा' से "Be and Make" मंत्र लेना, निष्काम भाव से चरित्र-निर्माण आंदोलन से जुड़े रहना हमलोगों के अच्छे कर्मों के परिचायक हैं। इसलिए मैं आप सभी को बधाई देता हूँ। किन्तु यह शरीर हमें कर्म के अनुसार प्राप्त हुआ है। जब तक मेरे प्रारब्ध कर्मों का क्षय नहीं होता, यह शरीर बना रहेगा। जब यह शरीर मर जायेगा तब इस शरीर के साथ मेरा सम्बन्ध भी समाप्त हो जायेगा। इस शरीर को जला दे, या कब्र में डाले--तब मैं नहीं कहूंगा कि मैं यह शरीर हूँ। अपने नए कर्मों के अनुसार मैं दूसरा शरीर धारण कर लूँगा। 
अब आता है सबसे महत्वपूर्ण सवाल (crucial question)---इस व्यष्टि 'अहं' का शुद्ध चेतना, ब्रह्म, आत्मा या सच्चिदानन्द [अथवा माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'अहं -बोध ] के साथ क्या सम्बन्ध है ? साक्षी चैतन्य के साथ इस अहं का क्या सम्बन्ध है ? यही सबसे महत्वपूर्ण सवाल है,  उत्तर है- शुद्ध चेतना के साथ जड़ अहं का कोई सम्बन्ध नहीं है ! भ्रान्ति-जन्यं -यह ज्ञान भ्रान्ति से उत्पन्न हुआ है -it is born of error. मैं वास्तव में 'मैं' (M/F) नहीं हूँ। इसीलिए तो हमलोग बड़े प्यार से गाते हैं -" मनोबुद्धिहंकार चित्तानि नाहं, चिदानंदरूपः शिवोहं शिवोहम्।" -I am not the ego , मैं अहंकार नहीं हूँ -मैं यह मैं नहीं हूँ ! ('मैं उसे क्यों देखूं जो मैं नहीं हूँ ?' -नवनीदा) वास्तव में हमलोग इस 'अहं' के साक्षी हैं! 
     तो अब हमें अपने सच्चिदानन्द स्वरूप में लीन होने के लिए इस अहं से एक स्टेप पीछे लौटना होगा। अहं (ego) को कभी मुक्ति या आत्मज्ञान नहीं प्राप्त होता है। You will get freedom from the ego'- तुमको इस अहं से मुक्ति मिल जाएगी। व्युत्थान के बाद यह व्यष्टि -अहं एक रिफ्लेक्टेड चेतना के रूप में फिर भी रहेगा, किन्तु तुम अब Mr/Mrs  X के अहं से मुक्त होकर जीवनमुक्ति का आनन्द लोगे। हमारे सच्चे स्वरुप -सच्चिदानन्द (existence-consciousness-bliss) के साथ अहं का सम्बन्ध भ्रान्तिजन्यं था। वह ज्ञान जो भ्रान्ति से उत्पन्न हुआ था उसको (विवेक-जं ज्ञान से) सुधारना (correct करना ) होगा। रज्जु में गलती से जो सर्प दिख रहा था, वह भ्रम से उत्पन्न हुआ था। इस भ्रम को सुधारने के लिए लाठी लेकर से साँप को भगाना नहीं होगा, या शूट भी नहीं करना होगा। वह भ्रम (या सम्मोहन) केवल उसी "विवेक-ज-ज्ञान" से दूर होगा कि यह सर्प नहीं रस्सी था। सिर्फ 'विवेकज-ज्ञान' ही हमको 'अहं' से विलग कर सकता है। या मेरे व्यष्टि अहं -बोध को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के विराट सर्वव्यापी अहं बोध में रूपान्तरित कर सकता है।
इस 8 वें श्लोक की समझ के बाद, ये अहं -शरीर है, मुख से बोल रहा है। इसके पीछे कर्मेन्द्रियाँ हैं वाक् इन्द्रिय क्रियाशील है। उसके पीछे मन है,बुद्धि, चित्त (memory) है, अहं है ये सब क्रियाशील हैं। मैं अनुभव कर रहा हूँ कि मैं चेतन हूँ, बोल रहा हूँ, अपनी यादाश्त का उपयोग कर रहा हूँ। वेदान्त कहता है इन सबके पीछे यथार्थ 'मैं' है, जो वास्तविक बी के सिंह है वह -साक्षी चेतना है। उसी साक्षी के कारण, रिफ्लेक्टेड चेतना मन को प्रकाशित कर रही है। वही प्रतिबिंबित चेतना 'अहं' को भी प्रकाशित करती है। उसके माध्यम से इन्द्रियाँ और शरीर चेतना ग्रहण कर रहा है, और सारे कार्य कर रहा है। जो बोल रहा है, वह कौन है ? वह ससीम व्यक्ति बी के सिंह इन सबका सम्मिश्रण है। वह अनन्त शुद्ध चेतना इस शरीर में आकर ससीम प्रतिबिंबित चेतना बन गयी है। 

इसलिये यदि 'मैं'-माने अहं ? (या साक्षी ?) कभी आत्मज्ञान प्राप्त कर ले, तो क्या उस के बाद मेरी पाँचों इन्द्रियाँ कार्य करना बंद कर देगी ? क्या मैं बोल नहीं सकूंगा ? बोलने की क्रिया तो शरीर और मन के स्तर पर होती है। यह जारी रह सकता है। इसके बाद और क्या-क्या हो सकता है ? कैसे मैं सब कुछ करते हुए भी अपने यथार्थ स्वरुप या साक्षी चेतना में अवस्थित रह सकता हूँ ? उसका उपाय 9 श्लोक के चार सोपानों में बताया गया है, और इसके प्रत्येक चरण अपने -आप में ज्ञान के बम जैसा है:
सम्बन्धिनोः सतोर्नास्ति/ निवृत्तिः सहजस्य तु । 
कर्मक्षयात् प्रबोधाच्च / निवर्तेते क्रमादुभे ॥ ९
[छाया-अहङ्कार-]सम्बन्धिनोः सतोः [यावत् सति], [तावत्] सह-जस्य तु [ताद्-आत्म्यस्य] निवृत्तिः न अस्ति, उभे [कर्म-ज-भ्रान्ति-ज-ताद्-आत्म्ये] कर्म-क्षयात् प्रबोधात् च क्रमात् निवर्तेते
(The mutual identification of the ego and the reflection of Consciousness, which is natural, does not cease so long as they are taken to be real. The other two identification disappear after the wearing out of the result of  Karma and the attainment of the knowledge of the highest Reality respectively.)
अहंकार का चित-प्रतिबिम्ब के साथ जो सहज तादात्म्य है, उसकी निवृत्ति नहीं होती है। किन्तु शेष दो प्रकार के तदात्म्यों की निवृत्ति क्रमशः कर्मक्षय और तत्वज्ञान से हो जाती है। 
व्यष्टि 'अहं'-बोध और प्रतिबिंबित चेतना में तीन सम्बन्ध है -
(i) अहं और प्रतिबिंबित चेतना के बीच सम्बन्ध। (ii) अहंकार और शरीर के बीच सम्बन्ध।  (iii.) प्रातिभासिक मैं और यथार्थ मैं के बीच सम्बन्ध क्या संबंध है ? अर्थात वास्तविक मनुष्य और प्रातिभासिक मनुष्य (Real Man and Apparent Man) के बीच कैसा तादात्म्य /सम्बन्ध है; या मिथ्या अहंकार और साक्षी चेतना के बीच क्या सम्बन्ध है ? वास्तविक और प्रातिभासिक मनुष्य के बीच तीन प्रकार के तादात्म्य या सम्बन्ध हैं। इन तीनो संबन्धों से हम अलग कैसे हो सकते हैं ? इस देह-मन के जाल को हम कैसे काट सकते हैं, उससे मुक्त (de -hypnotized) कैसे हो सकते हैं ?
ग्रंथकार कहते हैं - परावर्तक माध्यम (reflecting medium) तथा प्रतिबिंब (reflection)   के बीच स्वाभाविक सम्बन्ध है, अहं और प्रतिबिंबित चेतना तब तक रहेगी जब तक हम जीवित हैं। जब तक दर्पण रहेगा उस पर प्रतिबिम्ब पड़ेगा। जाग्रत अवस्था और  स्वप्नावस्था में जब तक हम अपने मन का उपयोग कर रहे हैं, उसमें एक 'मैं'-बोध बना रहेगा, जो अपने को चेतन समझेगा।  जब मन को स्विचऑफ कर देते है, दर्पण को उलट कर रख देते हैं, उस पर मैं का प्रतिबिम्ब नहीं बनता। गहरी निद्रा में मैं नहीं रहता कोई प्रतिबिम्ब भी नहीं रहता। जब तक मन है अहं रहेगा। अहं और शरीर का सम्बन्ध कब टूटेगा ? जब कर्म का क्षय हो जायेगा। शरीर के मरने के बाद यह अहं या सूक्ष्म शरीर नहीं रहेगा। दूसरा शरीर धारण करेगा।वेदान्त या आध्यात्मिकता इस तादात्म्य को काटने में हमारी क्या सहायता कर सकती है ? 
यह जो अहं और साक्षी चैतन्य का सम्बन्ध है, वह कैसे टूटेगा ? प्रबोधात् च अर्थात ज्ञान के द्वारा, मोहनिद्रा से जाग जाने के बाद।  जब तुम आत्मज्ञान में जाग जाते हो तब 'अहं-बोध या 'मैं' नहीं जागता है, 'तुम' (आत्मा) उस स्वप्न से जाग जाता है, जिसे limited existence वह पहले एक ससीम व्यक्ति बी के सिंह, ego in the mind समझ रहा था । उस स्वप्न से तुम जाग उठते हो।
 और तब तुम उस छोटे से cocoon (कोष) से के स्वप्न से बाहर निकल आते हो, जिसे तुम ससीम मानवजीवन समझ रहे थे। जैसे रेशम का कीड़ा तितली बनकर उड़ जाता है। जो जाग जाता है, उसी को बुद्ध कहते हैं। बुद्ध का अर्थ है - 'The Awakened one'- जागृत या प्रबुद्ध व्यक्ति। बाकि सभी लोग सोये हुए हैं, या स्वप्न देख रहे हैं। स्वयं को ससीम व्यक्ति समझने के भ्रम से जाग उठते हो। you step back from it! तुम उस पहले वाली मान्यता (बी के सिंह -भेंड़शिशु होने की मान्यता) को त्याग देते हो !you let go off it ! मुझे ऐसा कहने के लिए माफ़ करें कि " इस शरीर के लिए प्रबोधन enlightenment, बुद्धत्वप्राप्ति, जागृति, या मुक्ति कभी सम्भव नहीं है, शरीर का एकमात्र अंतिम परिणाम (fate) है मृत्यु !" I am sorry to say. यह शरीर मिट्टी से (पंचभूतों से) बना था मिट्टी में मिल जायेगा। और शायद उस समय से पहले ही जो हमलोगों ने समझ रखा है ? हर दिन वह नष्ट होने की दिशा में बढ़ रहा है। शरीर के लिए कोई 'प्रबोधन' नहीं होता, 'it' (gross body) will not survive death, यह स्थूल शरीर मृत्यु से कभी बच नहीं सकता ! 
किन्तु सूक्ष्म शरीर मृत्यु से बच जाता है -subtle body survives death.वेदान्त के अनुसार मन -बुद्धि आदि बचे रहते हैं। सिर्फ वेदांत ही नहीं संसार के सभी धर्म इसी सत्य में आधारित हैं कि मृत्यु के बाद भी सूक्ष्म शरीर बचा रहता है ! Every Religion is based on the fact that the  subtle body survives death. किन्तु सूक्ष्म शरीर के लिए भी enlightenment या बुद्धत्व प्राप्ति सम्भव नहीं है। यह अपने यथार्थ स्वरुप का अनुभव प्राप्त करने के लिए एक जन्म से दूसरे जन्म को प्राप्त करता रहेगा, और जिस क्षण उसे enlightening knowledge, शुद्ध चैतन्य, साक्षी चैतन्य की अनुभूति प्राप्त होगी, विशुद्ध चेतना या आत्मा अपनी महिमा में प्रकाशित हो जाएगी, और तब सूक्ष्म शरीर (subtle body) प्रकृति में लीन हो जायेगा।
सांख्य दर्शन के अनुसार स्थूल शरीर (Gross Body) की ही तरह अन्तःकरण या सूक्ष्म शरीर (Subtle Body) भी प्रकृति के द्वारा प्राप्त होता हैअद्वैत-वेदान्त के अनुसार सूक्ष्म शरीर (Subtle Body) माया के द्वारा उपलब्ध हुआ है।  विष्टाद्वैत वादियों के अनुसार माँ जगदम्बा के द्वारा उपलब्ध करवाया गया है। किन्तु माया अथवा प्रकृति के द्वारा जो भी उपलब्ध हुआ है, उसका अर्थ है प्रकृति (शक्ति) के द्वारा उपलब्ध हुई है, अतः वह प्रकृति में वापस लौट जाएगी। 
हमलोग स्थूल शरीर तो अनेकों प्राप्त करते हैं, किन्तु सूक्ष्म शरीर एक ही रहता है, जो ज्ञान प्राप्त होने के बाद अपने कारण में लौट जाता है। और ज्ञान के द्वारा - प्रबोधात् च, आत्मा अपनी महिमा में -सच्चिदानन्द स्वरूप में प्रकाशित हो जाती है। इसलिए ज्ञान की तलवार ही अविद्या की गाँठ को काट सकती है।  यह ज्ञान अहं को शरीर से मुक्त नहीं करेगा, किन्तु यह ज्ञान  तुमको, साक्षी चैतन्य को, शुद्ध चेतना को मिथ्या अहं से मुक्त कर देगा। वह ज्ञान हमें प्राप्त कैसे होगा ? 
उसके लिए साधना करनी पड़ेगी 5 अभ्यास के द्वारा जब हम अपने साक्षी चैतन्य (witness consciousness) की अनुभूति प्राप्त करेंगे। तब हम इस जगत को भी विशुद्ध चेतना (pure  consciousness) के रूप में अनुभव करेंगे। अद्वैत वेदान्त हमें अपने को नश्वर शरीर मानने के भ्रम से मुक्त कर देता है। एक बार 'नेति- नेति' करते हुए अपने यथार्थ स्वरूप या विशुद्ध चेतना की  अनुभूति हो जाती है, तब पुनः शरीर में लौटने के बाद, हम देखते हैं कि 'इति इति' - स्थूल शरीर मन बुद्धि सब कुछ विशुद्ध चेतना ही है। पहला प्रश्न था - यदि मैं विशुद्ध चेतना हूँ तो यह शरीर-मन चेतन क्यों प्रतीत होता है ? यह विशुद्ध चेतना मन अहं में प्रतिबिंबित होकर नाख़ून तक को चेतनता प्रदान करती है, इसलिए शरीर मन जड़ होकर भी चेतन प्रतीत होते हैं। अहं का सम्बन्ध प्रतिबिंबित चेतना और विशुद्ध चेतना से है। कर्म के कारण यह शरीर से जुडी हुई है, प्रतिबिंबित चेतना के साथ इसका स्वाभाविक सम्बन्ध है, दर्पण जब तक है चेहरा दिखेगा। विशुद्ध चेतना के साथ अहं का कोई सम्बन्ध नहीं है, यह भ्रम है। यह भ्रम कैसे दूर होगा ? ज्ञान के द्वारा। श्रीरामकृष्ण स्तवन (श्रीरामकृष्णस्तवराजः) में कहा गया है -' बुद्धेश्च साक्षी निखिलस्य जन्तोः। यो वेत्ति सर्वं न च यस्य वेत्ता, परात्मरूपो भुवि रामकृष्णः ॥१॥'  
जो सबको जानते हैं उनको कोई नहीं जानता, वह कौन है ? श्री रामकृष्ण ? नहीं , वेदान्त कहता है - 'तत्त्वमसि' -वह तुम ही हो ! तुम ही अपनी बुद्धि और अहं के साक्षी (witness ) हो। यदि तुम गहरी नींद आ रही हो, अथवा गहरी निद्रा आ गयी हो, तब अहं या 'मैं'- बोध नहीं रहेगा। इसीलिए नींद के समय बच्चे अति-सक्रिय (hyperactive) हो जाते हैं, पर सोने का नाटक करते हैं। उस समय माताएं स्नेहपूर्वक कहती हैं, यदि मेरा मुन्ना सो गया है, तो वह जरूर अपना बायाँ पैर हिलायेगा। और बच्चा पैर हिला देता है- तब माँ पकड़ लेती है, कि मुन्ना अभी सोया नहीं है।  गहरी नींद में शून्यता (blankness) का अनुभव करने वाला कौन है ? वही है साक्षी चैतन्य (witness consciousness)। ज्ञान कहाँ रहता है ? किडनी या अंगूठे में नहीं -मन में ही रहता है। अज्ञान कहाँ रहता है वह कन्फूजन भी मन में ही रहता है। ज्ञान से अज्ञान का नाश कहाँ होता है ? मन में ही होता है। ठाकुर कहते थे -अज्ञान का काँटा मेरे हाथ में गड़ा हुआ है, ज्ञान के काँटे से अज्ञान के काँटे को निकालो, फिर दोनों काँटों को फेंक दो।
हमलोग अद्वैत वेदान्त परम्परा के प्राचीन परिचयात्मक प्रकरण ग्रंथ दृग-दृश्य विवेक का अध्यन कर रहे हैं। दृग मूलतः संस्कृत का शब्द है,जिसको हिन्दी में ऑँख, नेत्र, चक्षु नयन आदि कहा जाता है।  वेदान्त के अनुसार हमलोग यह रक्त-मांसमय शरीर नहीं हैं। हमलोग मन,बुद्धि, चित्त, अहंकार भी नहीं हैं। हमलोग शरीर और मन के साक्षी हैं। यही साक्षी चेतना (witness consciousness) अन्तःकरण या मन के माध्यम से देह और इन्द्रियों पर कार्य करती है, जिसके द्वारा हम इस जगत का अनुभव करते हैं। किन्तु हम मन और शरीर नहीं हैं। जिस प्रकार हमलोग यह चादर या स्वेटर नहीं हैं, उसी प्रकार यह शरीर और मन हमारी  शुद्ध चेतना (Pure consciousness) के ऊपर पड़ा हुआ आवरण है।
 बाइबिल में लिखा है- " God made man in his image"  अर्थात परमात्मा ने मनुष्य को अपनी छवि के अनुरूप बनाया है। वेदान्त में ईश्वर का अर्थ होता है शुद्ध चेतना (pure consciousness) उसका प्रतिबिम्ब जब मन रूपी दर्पण में प्रतिबिंबित होता है,वहाँ  शुद्ध चेतना की छवि (image,प्रतिबिम्ब) बन जाती है। दर्पण में प्रतिबिंबित चेहरा जैसे मेरे चेहरे का प्रतिबिम्ब है, वैसे ही ईश्वर ने अपने प्रतिबिम्ब के रूप में  मनुष्य को निर्मित किया है। reflected consciousness is us, हमलोग प्रतिबिंबित चेतना हैं। शरीर,इन्द्रियां, मन, विचार, यादाश्त, बुद्धि और अहं उससे भी गहराई में सुषुप्ति के समय शून्य का अनुभव करने वाला भी वही प्रिबिम्बित चेतना है। जिस चेतना को अपने भीतर हम सदा अनुभव करते रहते हैं, वह प्रतिबिंबित चेतना है। जब हम उस प्रतिबिंबित चेतना के साथ अपना तादात्म्य कर लेते हैं, तब हम एक व्यक्ति-विशेष (individual human being) कहे जाते हैं। जब तक प्रारब्ध कर्म का भोग कर क्षय नहीं कर लिया जाता, इस शरीर के साथ अहं जुड़ा हुआ रहेगा। इस शरीर के साथ अहं का सम्बन्ध तब तक जुड़ा रहता है, जब तक यह शरीर जीवित रहता है। जब यह शरीर मर जायेगा, तब प्रारब्ध कर्म इसको छोड़ देगा।  the 'I' in the body is related to the body'- शरीर के प्रति अहं-बोध, शरीर के साथ अंतिम साँस तक जुड़ा हुआ ही रहता है। (अवतार-वरिष् /जीवन्मुक्त शिक्षक) श्रीरामकृष्ण को भी कहना पड़ा था -'मेरा हाथ टूट गया है। '-यह हाथ किसका है ? शरीर का! बताओ यह अच्छा कैसे होगा ?
यह अज्ञान कैसे कटता है ? एकमात्र ज्ञान के तलवार के द्वारा। हमें केवल इस सच्चाई के प्रति जागरूक (aware) होना है, कि I shine upon the mind मैं- साक्षी चेतना ही मन को चैतन्यता प्रदान करता हूँ! मेरा अहं और मन के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। जिस क्षण तुम अहं के साथ अपना माना हुआ सम्बन्ध काट देते हो-तुम डीहिप्नोटाइज्ड या मुक्त हो जाते हो। स्वप्न लोक का वर्णन अब 10 वां श्लोक देखते हैं -
अहङ्कारलये सुप्तौ भवेद्देहोऽप्यचेतनः ।
अहङ्कारविकासार्धः स्वप्नः सर्वस्तु जागरः ॥ १०॥
अहङ्कार-लये सुप्तौ, [तदा] देहः अपि अ-चेतनः भवेत्। अहङ्कार-विकास-अर्धः ‘स्वप्नः’ [नाम], सर्वः [विकासः] ‘जागरः’ [नाम भवेत्]॥
( In the state of deep sleep, when ego disappears the body also becomes unconscious. The state in which there is the  half manifestation of the ego is called the  dream state, and the full manifestation of the  ego is the state of waking.)
अहंकार जब पूर्ण लय को प्राप्त होता है, उस समय देह की अचेतनता से लक्षित सुषुप्ति अवस्था प्राप्त होते है। अहंकार के अर्ध-जागृत अवस्था में स्वप्न लोक में विचरण, तथा अहंकार के पूर्ण जागृत अवस्था में जाग्रत अवस्था प्राप्त होती है। 

तब प्रश्न उठता है, यदि मैं वह साक्षी चेतना (witness consciousness) या अपरिवर्तनीय चेतना  (unchanging consciousness) हूँ जो बढ़ता या घटता नहीं है। तो हर समय हमलोग अपने को एक समान जागरूक या सचेत (conscious) महसूस नहीं करते हैं ?  हमलोग सुबह में उठने के बाद अपने को अधिक तरोताजा क्यों महसूस करते हैं? अधिक जागरूक (aware) रहते हैं, रात में काम से लौटने के बाद या मनःसंयोग के क्लास में अपने को (less conscious) या कम-सचेत क्यों महसूस करते हैं।  जैसे आजकल 'dimmer switch' के द्वारा ब्लब के प्रकाश को घटाया -बढ़ाया जा सकता है,उसी प्रकार चेतना (consciousness) को भी क्या घटाया -बढ़ाया जा सकता है ?लेखक कहते हैं -नहीं, चेतना कोई वैसी वस्तु नहीं है जिसे तुम घटा -बढ़ा सकते हो। स्वप्न देखते समय एक अन्य प्रकार की जागरूकता का अनुभव (अर्ध-जागरूकता का अनुभव)  होता है। फिर गहरी निद्रा में जागरूकता (awareness ) का कुछ अनुभव नहीं होता। आप यह कैसे कह सकते हैं कि हमलोग निरंतर स्थिर अपरिवर्तनीय चेतना (Constant unchanging consciousness) हैं ? इस श्लोक में उसी का उत्तर दिया गया है। 
Witness Consciousness is Constant: साक्षी चेतना सदैव स्थिर रहती है, परिवर्तन मन की अवस्था में होता है। जब अहं और मन जाग्रत अवस्था में रहता है, हम अधिक चेतन महसूस करते हैं। स्वप्नावस्था में यह अर्धजागृत अवस्था में रहता है। गहरी निद्रा की अवस्था में अहं या मन का कुछ अनुभव नहीं होता। जैसे कम्प्यूटर को थोड़ी देर तक छोड़ दिया जाय, उस पर कोई काम नहीं किया जाय तो वह स्वतः sleeping mode में चला जाता है। चेतना की कोई पृथक -पृथक अवस्था नहीं होती, अवस्था परिवर्तन मन का होता है। मन ही सचेत-निद्रालु-स्वप्न -सुषुप्ति में बदलता रहता है। ये मन की अवस्थाएं हैं चेतना की नहीं। नाम-रूप भी देह की अवस्था है। 
दक्षिण भारत के आचार्य विद्यारण्य स्वामी कहते हैं, ज्ञाता सदैव  ज्ञेय से अलग या भिन्न होता है; अथवा द्रष्टा दृश्य से अलग होता है, जैसे ऑंखें इस पुस्तक से अलग हैं। अब तक हमने समझा द्रष्टा और दृश्य भिन्न हैं, जैसे आँख और पुस्तक भिन्न है। द्रष्टा एक है दृश्य अनेक है। द्रष्टा अपरिवर्तनशील है, दृश्य परिवर्तनशील है। इसी विवेक-सिद्धान्त का प्रयोग करते हुए क्रमशः हमलोग इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि ये सभी मन और अहंकार भी हमारे अन्तर्निहित द्रष्टा / साक्षी चैतन्य के द्वारा देखे जा रहे दृश्य है। हमलोग  हमलोग मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार भी नहीं हैं। उनका  प्रयोग करने वाले हैं। हमलोग देह-मन इन्द्रियों के ज्ञाता और उनका व्यवहार करने वाले (user) हैं। ये सभी ज्ञेय पदार्थ या दृश्य हैं,हमलोग शरीर-मन -अहं का उपयोग करने वाले साक्षी चेतना हैं दृष्टिगोचर प्रत्येक वस्तु -जगत, शरीर, मन, इन्द्रियां निरंतर परिवर्तनशील है। जगत परिवर्तनशील है, शरीर नित्य परिवर्तनशील है दिन प्रतिदिन यह जीर्ण (older) हो रहा, इन्द्रियाँ शिथिल हो रही हैं।  
जिस तरह मैप,मानचित्र या नक्शे पर दिल्ली को देख लेने से दिल्ली का ज्ञान नहीं होता, किसी दिल्ली का पार्लियामेंट देखे हुए व्यक्ति के दिशानिर्देशन में पास बनवाकर ही पार्लियामेंट को स्वयं जाकर देखना होता है। उसी तरह केवल प्रकरण ग्रन्थ पढ़ने से ही ब्रह्मज्ञान नहीं हो जाता, जो सामान्य वेदांत जिज्ञासु महामण्डल द्वारा  'विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर अद्वैत आश्रम Be and Make शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में आयोजित युवा प्रशिक्षण-शिविर में आते है तब उन्हें जीवन में पहली बार नेतावरिष्ठ (C-in-C) नवनीदा जैसे प्रशिक्षित जीवन्मुक्त-शिक्षक,(मार्गदर्शक नेता या जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने में समर्थ माली) से उपनिषद, भगवत गीता, ब्रह्मसूत्र, योग -सूत्र पर लिखे व्यासदेव के भाष्य की व्याख्या के अनुरूप इस द्रष्टा-दृश्य विवेक-दर्शन, श्रद्धा आदि अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को सुनने का मौका मिलता हैं। 
तथा उन्हीं जीवन्मुक्त शिक्षकों के निर्देशन में  लीडरशिप ट्रेनिंग  के दौरान ' 3-H को विकसित करके जीवन गठन तथा चरित्रवान मनुष्य  मनुष्य बनने और बनाने के 5 अभ्यासों का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। क्योंकि केवल चरित्रवान मनुष्य ही व्यावहारिक -वेदान्त के सिद्धान्तों को समझ सकते हैं, तथा उन्हें अपने जीवन में धारण भी कर सकते हैं।
इस १० वें श्लोक में कहा जा रहा है -अहङ्कार-लये सुप्तौ, देहः अपि अ-चेतनः भवेत् -सुषुप्ति अवस्था में अहंकार का लय हो जाता है। in deep sleep ego-sens shuts down. भवेद्देहोऽप्यचेतनः देह भी अचेतन हो जाता है। और तुम गहरी नींद में चले जाते हो। चेतना तब भी रहती है। स्वप्ना अवस्था में अहंकार अर्धजागृत अवस्था में रहता है। जाग्रत अवस्था में अहंकार पूर्ण विकसित अवस्था में रहता है। 
 मन की स्वप्न और जाग्रत अवस्था में जाने की प्रक्रिया क्या है ?mechanism of our waking state and our dream state  क्या है ?  हमारे जागने की स्थिति और हमारे स्वप्न अवस्था का तंत्र कैसे काम करता है ? "वेदान्त मत के अनुसार जाग्रत -अवस्था भी मिथ्या है।" इसके बाद वाले श्लोकों में हम जानेंगे कि किस प्रकार हमारे दैनंदिन जीवन में अनुभव होने जागृति, स्वप्न, सुषुप्ति की अवस्था का हमारे यथार्थ सच्चिदानन्द- (existence -consciousness-bliss) स्वरुप, या शुद्ध चेतना (pure consciousness) के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। उसकी व्याख्या ११ वां श्लोक में है  -
अन्तःकरणवृत्तिश्च चितिच्छायैक्यमागता ।
वासनाः कल्पयेत् स्वप्ने बोधेऽक्षैर्विषयान् बहिः ॥ ११॥
[इदं-विषय-[अन्तर्-करण-वृत्तिः च (अपि)  चिति-छाया-ऐक्यम् आगता [तप्त-अयस्-पिण्डवत्]। स्वप्ने [सा वृत्तिः इमाः[] वासनाः कल्पयेत्। बोधे (जागरे) [सा वृत्तिः इमान् विषयान् अक्षैः (इन्द्रियैः) बहिस् कल्पयेत्॥ 
[The inner organ which in itself but a modification identifying itself with the reflection of Consciousness imagines ideas in the dream And the same inner organ imagines objects external to itself in the waking state with respect to the sense-organs.] 
बुद्धि की अन्तःकरण वृत्ति भी प्रतिबिंबित चेतनता के साथ तादात्म्य करके जीवन्त हो जाती है। कामना-वासना के अनुरूप ही स्वप्नलोक की सृष्टि (अर्धजागृत एनेस्थेटिक अवस्था में भगवती माँ माया का साक्षात्कार) करती है। जाग्रत अवस्था में भी इसी वृत्ति के द्वारा बाह्य जगत के विषयों की कल्पना होती है। 
चितिच्छायैक्यमागता- चिति-छाया-ऐक्यम् आगता [तप्त-अयस्-पिण्डवत्]।  चिति का अर्थ होता है अनन्त शुद्ध चेतना pure consciousness, जो मन पर प्रतिबिंबित होती है। जाग्रत अवस्था में जब चेतना (consciousness) अन्तःकरण की अहं-वृत्ति (active ego) पर प्रतिबिंबित होती है, वह ego कार्य करना प्रारम्भ कर देता है। और हमलोग अपने को 'a consciousness limited individual' एक ससीम चेतन व्यक्ति M/F समझने लगते हैं।
 फिर 'वासनाः कल्पयेत् स्वप्ने' -वासना का अर्थ है - रिकॉर्डिंग recordings of the mind . जाग्रत अवस्था में पाँचो इन्द्रियों से प्राप्त विभिन्न प्रकार की छाप या संस्कार चित्त में जमा होते रहते हैं। वे सभी यादें वहां रहती हैं, और स्वप्नावस्था में जब अहं अर्धजागृत अवस्था में होता है, वे सभी यादें चलचित्र (movie) फिल्म का निर्माण करने लगती हैं। उस समय जिस पिक्चर को हम देखते हैं वही स्वप्न है।जाग्रत अवस्था में when the ego becomes more active,body gets consciousness.
बोधे माने जाग्रत अवस्था में अक्षैः (इन्द्रियैः) बहिस् कल्पयेत्- चेतना मन इन्द्रियों के माध्यम से शरीर को क्रियाशील बना देती है। जब अहंकार अधिक सक्रिय हो जाता है, शरीर चेतनावस्था में चला आता है। और हम पूर्ण होश की अवस्था में चले आते हैं। और अपने कर्मेन्द्रिय तथा ज्ञानेन्द्रिय के माध्यम से बाह्यजगत के साथ व्यवहार करने लगते हैं। सुषुप्ति अवस्था में अहं कार्य करना बंद कर देता है। स्वप्न अवस्था में अहं अर्धजाग्रत अवस्था में रहता है, चेतना अहं पर प्रतिबिंबित होता है, वह यादों का उपयोग करके चलचित्र बनाने लगता है, और उसको देखता रहता है। सुषुप्ति अवस्था में tv स्विच-ऑफ हो जाता है।
पंचदशी (१. ७) में कहा गया है : मासाब्द युग कल्पेषु गतागम्येष्वनेकधा। नीदेति नास्तमेत्येका संवित् एषा स्वयं प्रभा ॥ “जो असंख्य मास, वर्ष, युग और कल्प बीते है और आने वाले है उनमें विशुद्ध चेतना (संवित) जो स्वयं प्रकाशवान है, उसका न उदय होता है न अस्त होता है। सूर्य के जैसा चेतना का कभी उदय और अस्त नहीं होता। self- effulgent Sun of consciousness, संवित एषा स्वयं प्रभा ! चेतना का सूर्य अपनी ज्योति से ही निरन्तर प्रकाशित रहता है। हमलोगों के प्रत्येक दिन की यही कहानी है। और यही कहानी प्रतिदिन दुहराई जाती रहती है। फिर अगले महीने ,अगले वर्ष ताउम्र। फिर स्थूल शरीर बूढ़ा होकर मर जाता है। सूक्ष्म शरीर अगला जन्म लेता है, हर कल्प में -जो ब्रह्मा का एक दिन होता है, यही कहानी बार-बार दुहराई जाती रहती है, और हम सभी एक साक्षी चेतना के रूप में इस कहानी को देखते रहते हैं । जब तक हम आत्मज्ञान नहीं प्राप्त कर लेते,  हम लोग big bang के समय भी थे और big crunch के समय भी रहते हैं। 
अब एक नया प्रश्न सामने आता है, तो फिर जन्म और मृत्यु किसका होता है ? मृत्यु के बाद क्या होता है ? अगला श्लोक यह घोषित करता हैं, कि how we live and how we die ? हम कैसे जीते हैं और कैसे मर जाते हैं ? उसका उत्तर 12 वां श्लोक -
मनोऽहङ्कृत्युपादानं लिङ्गमेकं जडात्मकम् ।
अवस्थात्रयमन्वेति जायते म्रियते तथा ॥ १२॥
मनस्-अहम्-कृती-उपादानं [इदं-विषय-अन्तर्-करणं च अहम्-वृत्तिः च तयोः उपादान-कारणं] लिङ्गं (सूक्ष्म-शरीरं) एकं [प्रत्येकं भवति]। [तद् लिङ्गं] जडा-आत्मकं [अपि। [तद् लिङ्गं] अवस्था-त्रयं (जागर-आदि-त्रयं) अन्वेति (अनुभवति)। तथा ‘[इदं लिङ्गं] [जीव-उपाधिः] जायते म्रियते [च]’ [इति अनुभवः]॥
(The subtle body which is the material cause of the mind and egoism is one and of the nature of insentience. It moves in the three states and is born and it dies.) 
अन्तःकरण वृत्ति -मन तथा अहंकार वृत्ति का उपादान एक जड़ लिंग शरीर या सूक्ष्म शरीर ही है। इस सूक्ष्म शरीर के आवागमन के कारण ही तीन अवस्थाओं की एवं जन्म-मरण की प्राप्ति होती है। 
हिन्दू दृष्टिकोण से मानव का व्यक्तित्व 'trichotomous' या तीन आयामों वाला (3-H) है, या इसके तीन प्रमुख अवयव components हैं। भौतिक शरीर (physical body-Hand) , अंदरूनी प्रतिबिंबित सूक्ष्म शरीर (reflect inwards subtle body,अन्तःकरण मन, Head) , और इससे परे है हमारा यथार्थ स्वरुप - शुद्ध चेतना (the pure consciousness Heart) ! वास्तव में हमलोग शुद्ध चेतना (Heart) हैं, किन्तु अज्ञान के कारण हम इन दो सूक्ष्म-शरीर (Head)और स्थूल शरीर (Hand) के साथ अपना तादात्म्य कर लेते हैं। जब यह भौतिक शरीर मर जाता है, मैं दूसरा शरीर धारण करता हूँ , और दूसरे जीवन या लोकों में जाता हूँ। यह मृत्यु है। पुनर्जन्म इसी सूक्ष्म शरीर का होता है , जिसके साथ हमारा तादाम्य है, जब वह माँ के गर्भ में भावी संतान के रूप चला आता है। गर्भ में भौतिक शरीर बनता है, जो जन्म ग्रहण करता है। 
 इसलिए जन्म और मृत्यु शुद्ध चेतना का नहीं होता। जन्म और मृत्यु सूक्ष्म शरीर का होता है। सूक्ष्म शरीर ही स्थूल शरीर की मृत्यु का अनुभव करता है। चेतना से जुड़े सूक्ष्म शरीर को जीव (individual) कहते हैं। शुद्ध चेतना स्वयं ब्रह्म है, किन्तु जब वह अपने को एक सूक्ष्म शरीर द्वारा सीमित कर दी गयी समझने लगती है, तब वही शुद्ध चेतना एक जीव बन जाती है।  pure consciousness limited by subtle body is one jiva. इसलिए जीव कितने हैं ? जितने सूक्ष्म शरीर हैं, उतने ही जीव हैं।
स्थूल शरीर की तरह ही सूक्ष्म शरीर के भी तीन अवयव (constituent) हैं:[three constituent (aspects) of subtle body] :
(i) प्राणमय कोष (the vital sheath,अत्यावश्यक-आवरण या खोल)। प्राण रहने के कारण ही श्वसन क्रिया चलती है,प्राण का अर्थ साँस नहीं है। प्राणायाम के द्वारा साँस पर नियंत्रण प्राप्त करके प्राणों पर नियंत्रण प्राप्त करने की चेष्टा की जाती है। रक्तसंचार प्रणाली, पाचन-तंत्र अन्य जो जो वस्तुएं इस शरीर को ऊर्जा प्रदान कर रही हैं ,मांस-पेशियों को कार्यक्षम कर रही हैं -शरीर-मन की समष्टि को शक्ति प्रदान करती हैं, वह प्राणमय कोष का काम है। प्राण रहने से ही हमलोग भूख-प्यास का अनुभव करते हैं। सुभोजन के बाद तृप्ति का अनुभव कर रहे हैं, यह प्राण ही है जो तृप्ति का अनुभव करता है। स्वयं को स्वस्थ या रुग्ण महसूस करते हैं यह प्राण का ही कार्य है। योगी लोग प्राणायाम के द्वारा शरीर-मन समष्टि को स्वस्थ रखने का प्रयास करते हैं। प्राणमय कोष सूक्ष्म शरीर का एक घटक (constituent) है।
(ii) दूसरा घटक है मनोमय कोष जो हमारे अन्तःकरण का द्योतक है, जिसमें अहं, वासना, यादें, संकल्प-विकल्प, क्या करना है या नहीं करना है ? की क्रिया करने वाला मन।
 (iii) सूक्ष्मशरीर का तीसरा घटक है -विज्ञानमय कोष। (Intellect -बुद्धि, अक्ल) निर्णय करने का काम करती है। जिसका उपयोग करने से हमें ज्ञान प्राप्त होता है, या समझ मिलती है। 
इन तीनों घटकों को मिलाकर सूक्ष्म शरीर (subtle body ) कहा जाता है। जब तक यह सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर के भीतर रहता है -when it inhabits a physical body, वह शरीर जीवित शरीर है। जब यह भौतिक शरीर से निकल जाता है, उस शरीर को हम मृत शरीर कहते हैं। मृत शरीर को देखकर ईसाई लोग कहते हैं -it gave up the ghost, यहाँ जिस अन्तःकरण या मन या ghost ने शरीर छोड़ दिया कहा जाता है, वही है सूक्ष्मशरीर (subtle body). इसलिए भारत में मृत शरीर को देखकर इसका उल्टा कहते हैं, हमलोग कहते हैं, इस व्यक्ति के पंचभौतिक शरीर (gross body) को इसके सूक्ष्म शरीर (subtle body) ने छोड़ दिया है। 
मरने के कुछ समय बाद जो लोग पुनः जीवित हो उठे हैं, उनके बारे में शोध करने वाले मनोवैज्ञानिकों द्वारा ऐसी घटनायें अक्सर सुनी गयी हैं कि, उस समय कई लोगों को ऐसा अनुभव हो रहा था जैसे वे ऊपर से अपने ही मृत पड़े स्थूल शरीर को देख रहे थे।  माँ सारदा देवी को भी एकबार ऐसा अनुभव हुआ था कि वे अपने शरीर से बाहर निकल गयी हैं, और दुबारा उसमें आना नहीं चाह रही हैं।
 गीता में श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को यही समझाया था कि 'स्थूल शरीर की मृत्यु' ही जीवन का अंतिम खेल 'final game' या जीवन की परिसमाप्ति नहीं है। जैसे पुराने वस्त्रों को त्याग कर नया वस्त्र धारण किया जाता है, उसी तरह हमलोग पुराने वस्त्रों के समान ही जीर्ण शरीर को भी छोड़ देते हैं। और हमारा सूक्ष्म शरीर (subtle body) फिर से नया भौतिक शरीर धारण कर लेता है।  किन्तु उसके यथार्थ सच्चिदानन्द स्वरूप (existence -consciousness-bliss) में या साक्षीचैतन्य (witness consciousness) में कोई परिवर्तन नहीं होता। 
भगवान श्रीरामकृष्णदेव उदाहरण देते थे - " पुराणों के मतानुसार भक्त एक है और भगवान एक। 'मैं' एक और 'तुम' एक। देह मानो एक घट है, इस देह रूपी घट में -चित्त-मन-बुद्धि -अहंकार रूपी जल रखा हुआ है, ब्रह्म मानो सूर्यस्वरूप है,वह इस जल में प्रतिबिंबित हो रहा है। सूर्य की किरणें सर्वत्र समान रूप से पड़ने पर भी जल में,दर्पण में, तथा अन्य स्वच्छ वस्तुओं पर उनका प्रकाश अधिक दिखाई देता है। इसी भाँति, ईश्वर का प्रकाश सबके हृदय में समान होने पर भी साधु-महात्माओं के शुद्ध हृदय में वह अधिक उज्ज्वल रूप में प्रकाशित होता है। इसी कारण जैसे ज्ञानी - 'दृष्टिं ज्ञानमयी कृत्वा पश्येत ब्रह्ममय जगत' वैसे ही  'दृष्टिं भक्तिमयी कृत्वा भक्त पश्येत भगवदमय जगत !' भक्त निरंतर विभिन्न ईश्वरीय रूपों का दर्शन करता है, और उसकी सेवा में ( अर्थात सबों की आँखों को खोलने या युवाओं के मन को उच्च विचारों से भरने के कार्य में) अपने जीवन को न्योछावर कर देता है; क्योंकि सच्चा भक्त यह देखता है कि एक ही सूर्य विभिन्न घड़ों में प्रतिबिंबित हो रहा है।"
हमारे लिए वह सूर्य कौन है जो सभी घड़ों में प्रकाशित हो रहा है ? क्या श्रीरामकृष्ण हैं ? नहीं, अद्वैत वेदान्त के अनुसार वह सूर्य है ब्रह्म, सच्चिदानन्द (existence-consciousness-bliss) या साक्षी चेतना (witness consciousness) अर्थात तत्त्वमसि - तुम स्वयं ही वह सूर्य (pure  consciousness) हो जो सभी घड़ों में प्रकाशित हो रहा है। 
अतः हमलोगों को साहस के साथ यह घोषणा करनी चाहिये -' अहं ब्रह्मस्मि' we should boldly say- 'I am that !' हमें साहसपूर्वक कहना चाहिए कि मैं 'वह' हूं! एक अलग आकार में 'मैं' ही 'तुम' बन गया हूँ ! YOU are ME in different form! मैं ही वह सूर्य शुद्ध चेतना या साक्षी चेतना हूँ। ऐसा मत कहो कि -मेरी असली आत्मा।  don't say my real self.  जैसे हम कहते हैं -मेरे गुर्दे या मेरे  फेफड़े, my kidney or my lung. वैसे ही मेरी असली आत्मा मत कहो। यदि कोई कहे -मेरा असली आत्मा तो ठीक है लेकिन मुझे बहुत सारी समस्याएं हैं! my real self is all right but I have lot of problems. तो इससे क्या अर्थ निकलेगा ? 
समस्या घड़े के साथ है, कोई घड़ा फूटा हुआ है, किसी में छेद हो गया है ,कोई दरक गया है। कोई घड़ा है तो बिल्कुल ठीक-ठाक, किन्तु उसको अपने पास वाले दूसरे चमकते हुए घड़े को देखकर अकारण ईर्ष्या होने लगता है, और उसे दुःख होने लगता है। हमलोग न तो घड़ा हैं, न जल हैं - यदि किसी घड़े में गंगा का जल है,  तो उसको गर्व है मैं सबसे पवित्र हूँ। यदि किसी घड़े में जल के साथ थोड़ा अल्कोहल मिल गया है, या नाले का जल मिल गया तो सोचता है मैं गंदा हूँ। दोनों परिस्थित में जल का तुम्हारे ऊपर (सूर्य या pure  consciousness के ऊपर) कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। तुम तो वह सूर्य हो जो इस जल में प्रतबिम्बित हो रहा है
कोई सूक्ष्म शरीर (subtle body) अत्यंत बुद्धिमान (super genius) है, कोई सूक्ष्म शरीर मंदबुद्धि (thickheaded या dull intellect) है, तो उससे साक्षी चेतना (witness consciousness) के ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि ये दोनों जल अर्थात सूक्ष्म शरीर (subtle body या अन्तःकरण) के गुण हैं।  उस छोटे से सूर्य या अहं को कहना है कि तुम घड़ा नहीं हो, जल भी नहीं हो -क्यों रोते हो ?  क्षुद्र सूर्य का प्रतिबिम्ब -अहं सोचता है 'मैं ही यह घड़ा हूँ !' वेदान्त समझाता है तुम घड़ा नहीं हो, घड़ा तो भौतिक शरीर है। तो फिर मैं इस घड़े में भरा हुआ जल (अन्तःकरण) तो हूँ ही!! नहीं तुम पानी भी नहीं हो। कोई बात नहीं इसमें जो सूर्य का छोटा सा प्रतिबिम्ब चमक रहा है, वह मैं हूँ ! वेदान्त कहता है -नहीं, तुम वह भीं नहीं हो ! वेदान्त कहता है , ऊपर देखो -जब वह ऊपर सूर्य की ओर देखने की चेष्टा करता है, तो अचानक यह पाता है कि, वह सूरज को नहीं देख रहा है,बल्कि स्वयं सूर्य बनकर नीचे अपने प्रतिबिंब को देख रहा है ! when he looks up suddenly it finds, not looking up at the sun but it becomes sun looking down at its reflection !
 वेदान्त इस प्रकार मनुष्य को विसम्मोहित, भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड कर देता है। छोटा सूर्य है चिदाभास,चिति-छाया, reflected consciousness,वह जागरूकता (awareness) जिसका अनुभव हम लोग इस समय कर रहे हैं।
जब कोई घड़ा या गमला चूने लगता है , तो माली क्या करता है ? छेद को बंद कर देता है और घड़े के जल को दूसरे घड़े में उड़ेल देता है। पुराना गमला रिसाइक्लिंग के लिए फेंक दिया जाता है। भगवान सभी घड़ों को नया बना देते हैं। छोटा सूर्य फिर से नए घड़े में आकर कहता है -मैं फिर से जन्म ले लिया हूँ। यह नया घड़ा मैं हूँ। किन्तु हर समय वह सूर्य -हमारा साक्षी चैतन्य इन सबसे अप्रभावित रहता है। छोटा सूर्य हर घड़े में चमकते सूर्य को अलग- अलग व्यक्ति मानता है। जब छोटा सूर्य वास्तविक सूर्य के साथ अपने एकत्व का अनुभव कर लेता है, तब वह जान लेता है कि मैं ही वह वास्तविक सूर्य हूँ, जो उस छोटे से बालटी में प्रतिबिम्ब रूप से चमक रहा था। तब उसको यह उपलब्धि भी हो जाती है कि मैं ही वह वास्तविक सूर्य हूँ जो सभी घड़ों/बालटियों  में चमक रहा है। मैं ही सर्वव्यापी चेतना हूँ, प्रत्येक वस्तु में अस्तित्व रूप से विद्यमान हूँ। गीता 13 /3 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - 
                                      "क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत। 
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।
  O Arjuna, Do thou also know Me as the knower of the field in all fields,or know Me as the little sun in all the buckets ! 
 हे भारत (भरतवंशोद्भव अर्जुन) तुम समस्त क्षेत्रों में (समस्त प्राणियों के मन में ) क्षेत्रज्ञ (knower consciousness)  मुझे ही जानो। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है,  वही (वास्तव में) ज्ञान है ! ऐसा मेरा मत है, कि यह मन ही है जो भौतिक शरीर की मृत्यु के बाद अपनी मृत्यु का अनुभव करता है। और मन ही शरीर के जन्म में अपने जन्म का अनुभव करता है। फिर यह मन ही एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तरण (transmigration -स्थानान्तर गमन) का अनुभव करता है।
क्या यह देहान्तरण हमेशा होता रहेगा ? या कभी रुकेगा भी ? जब कोई परिपक्व मन (mature mind) इस देहान्तरण (transmigration) के खेल को और आगे भी खेलते रहना नहीं चाहता, और इस जीवन-खेल को समाप्त करना चाहता है,जब छोटा सूर्य वास्तविक सूर्य को देखना चाहता है। वह महामण्डल के लीडरशिप क्लास में चला आता है। to seek spiritual knowledge-आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने की स्पृहा ही परिपक्व मन/आत्मा की पहचान है!
 Vedanta doesn't want itself push forward, Vedanta waits until you feel a need for it, वेदान्त अपना प्रचार नहीं करता, वेदांत तब तक इंतजार करता है, जब तक आप इसकी आवश्यकता महसूस न करें। आधुनिक युवा सोचता है, वेदान्त के पास आने से, मुझे क्या लाभ होगा ? क्या यह मेरी बीमारी का इलाज कर सकेगा? क्या इस को सुनने से   मेरा career बन जायेगा,  मुझे अच्छी नौकरी मिल सकेगी? क्या यह मुझे बहुत अच्छा स्वास्थ्य देगा? नहीं, तो फिर इसको जानने से क्या लाभ? (what good will it do ? will it cure my disease ? will it get me job ? will it give me great health ? No,  then what good is it ?) भारतीय अध्यात्म विद्या में इन सबको प्राप्त करने की भी सर्वोत्तम technology दी हुई है। अच्छा स्वास्थ्य चाहते हो ? उसके लिये हठ-योग विद्या है।
तुम पहले career building course करके धन-दौलत कमाना चाहते हो, अच्छा जीवन जीना चाहते हो? तो "कर्मयोग का सिद्धान्त मे बतलाता है कि महामण्डल के इस चरित्र-निर्माणकारी आंदोलन से जुड़े रह कर,सद्कर्म करते हुए अधिक से अधिक पुण्य अर्जित करते रहो; एक दिन देखोगे कि तुम्हारे लिए स्वतः सुखद अनुभवों का एक सिलसिला शुरू हो गया है! जिसका प्रतिक (epitome) स्वर्ग माना जाता है, वह तुम्हें इसी जीवन में प्राप्त हो जायेगा। [Law of Karma tell us, Do good and Be good, accumulate merit, you will get a series of pleasant experiences! epitome of which is heaven.]
किन्तु उस स्वर्ग का भी एक अन्त होता है। स्वर्ग भी शश्वत नहीं है।यदि इसे नहीं मानते ? ठीक है,  तो जहाँ से तुमको अच्छा मिलने की उम्मीद है, वहीं जाओ ! सर्व सुख प्राप्त करने की जितनी कोशिश करनी है, करके देख लो न भाई ! वेदान्त में हर सांसारिक सुख को पाने के लिए,चाहे वह क्षणिक सुख या दैहिक सुख ही क्यों हो, उसके लिए भी शानदार तकनीक (magnificent technology) उपलब्ध है।तुम चाहे जो कुछ भी पाना चाहते हो, वेद-वेदान्त में उसकी तकनीक बताई गयी है।
 उदाहरण के लिए यदि अच्छा स्वास्थ्य और दीर्घ आयु प्राप्त करना चाहते हो, तो आयुर्वेद में शरीर-मन दोनों को स्वस्थ रखने की तकनीक बतलायी गयी है। आयुर्वेद की तकनीक (technology of Ayurveda) कहती है शरीर में जो व्याधि दिखाई देती है, उस रोग-समस्या की जड़ प्राणमय कोष में ही नहीं विज्ञानमय कोष में छुपी हुई है।that there is a problem in our understanding of life!  मनुष्य के शारीरिक और मानसिक व्याधियों की जड़, मनुष्य-जीवन के प्रति सही समझ नहीं रहने की समस्या के साथ जुडी हुई है। मैं कौन हूँ और यह जगत क्या है, इसकी सही समझ न होने के कारण ,यथार्थ प्रज्ञा (विवेकज ज्ञान) नहीं होने की समस्या ही मानसिक व्याधि के रूप में, emotional problems के रूप में परिलक्षित होने लगती हैं। 
फिर वही समस्या प्राणमय कोष में समस्या (pranic problem) का रूप धारण कर लेती है। जो psychosomatic disease, मनो-दैहिक रोग आगे चलकर हमारे भौतिक शरीर में विविध रोगों के लक्षण रूप से अभिव्यक्त होती है।(if you have tummy-ache, it is intellectual problem and not in the stomach.)  इसलिए मजाक में कहते हैं -" यदि तुम्हें पेट में दर्द हो रहा है, तो यह पेट की नहीं बौद्धिक समस्या है! " इसीलिए आयुर्वेद बुद्धि तक ,विज्ञानमय कोष तक पहुंचकर रोगो का इलाज करता है।
बौद्ध धर्म एक गंभीर धर्म है, Buddhism is a serious religion बुद्ध कहते हैं - pleasure is also suffering. कैसे ? सर्वं दुःखं। अनित्यं अनित्यं सर्वं अनित्यं। क्षणिकं क्षणिकं सर्वम् क्षणिकं। शून्यं शून्यं सर्वं शून्यं।  किन्तु यह  दुःखं दुःखं सर्वं दुःखं। यह निराशावाद नहीं है, यह सच का स्वीकार है ! it's not pessimism, it's acknowledging the truth. इसका कारण है, और इससे बाहर निकलने का उपाय है। 
वेदान्त भी भ्रममुक्त होने का जीवन मुक्त होने का उपाय बतलाता है। यदि जगत चाहते हो ? मजे लूटो। उसके लिए भी शास्त्र है, आधुनिक विज्ञान अभी उसे सीख रहा है। किन्तु सबकुछ का एक अन्त है। सब सुखों पर पहले से 'expiry date लिखा हुआ है। ये निम्न स्वर्ग जहाँ के राजा इन्द्र हैं (जन्नत-जहाँ शराब की नदियां बहती हैं ?)  शाश्वत नहीं हैं। वह स्वर्ग गर्मी के दिनों में ब्रिटिश एयरवेज द्वारा बिजनेस-क्लास में लंदन-दिल्ली  हवाईयात्रा के दौरान अनुभव होने वाले स्वर्ग जैसा अनुभव देता है। जहाँ एयर होस्टेस, फ्री दारू-मुर्गा सर्व करती है, से भिन्न है। यात्रा का टिकट एक ही उड़ान के लिए होता है, हवाई-यात्रा में स्वर्ग का अनुभव कराने के बाद एयर होस्टेस कहती है, आपकी यात्रा समाप्त हुई , बाहर का तापमान 45 डिग्री और हुमिडीटी 70 प्रतिशत है
 उसी तरह जगत का इतना सब सुखसाधन रहने के बावजूद, जब तुमको यह अनुभूति हो जाती है कि हर वस्तु के पीछे मृत्यु घूम रही है। किन्तु अपने काल को कोई नहीं देखता- " भेको धावति तं च धावति फणी सर्पं शिखी धावति,व्याघ्रो धावति केकिनं विधिवशाद् व्याधोऽपि तं धावति।स्वस्वाहारविहारसाधनविधौ सर्वे जना व्याकुलाः,कालस्तिष्ठति पृष्ठतः कचधरः केनापि नो दृश्यते।। मेंढक  दौड़ता है,  उसके पीछे (उसे खा जाने वाला)  सर्प दौड़ता है,  सर्प के पीछे मयूर,  मयूर के पीछे सिंह और दैवात् सिंह के पीछे व्याध  (शिकारी) दौड़ रहा है । इस प्रकार अपने भोजन और  विहार की सामग्रियों के पीछे सभी व्याकुल हो रहे हैं; पर पीछे जो चोटी पकड़े हुये काल खड़ा है, उसे कोई नहीं देखता। जगत से प्राप्त होने वाली हर वस्तु limited है, सीमित है, एक दिन वे तुम्हें छोड़ देंगीं, या तुम्हें ही उन्हें छोड़कर चल देना होगा !
 जब यह सच्चाई बुद्धि की समझ में आ जाती है। then the spiritual seeking awakens ! तब कहीं जाकर मनुष्य एक सच्चा आध्यात्मिक जिज्ञासु या एथेंस का सत्यार्थी बनता है। महामण्डल युवा पाठचक्र, वार्षिक युवप्रशिक्षण शिविर तुम्हारा इंतजार कर रहा है। यहाँ इस कैम्प में माँ श्री सारदा देवी ही तुम्हें भेज देती है।  वेदान्त कहता है  इस अस्थायी स्वर्ग से भिन्न एक स्थाई स्वर्ग-ब्रह्मलोक भी होता है, पर वह वैकुण्ठ केवल विष्णु-भक्तों के लिये सुरक्षित है। या कैलाश शिवभक्तों के लिए सुरक्षित है, तथा माँ जगदम्बा के भक्तों के लिए श्रीरामकृष्ण-लोक या ब्रह्मलोक सुरक्षित है। वहां भक्त का सदैव अपने भगवान श्रीरामकृष्ण के सानिध्य में रहना होता है। अब तुम यहाँ ठाकुर-माँ-स्वामीजी के पास आओ और शाश्वत आनन्द का आनंद -जीवनमुक्ति का आनन्द लो। 
 अंधापन शरीर या आंख में होता है, शुद्ध चेतना में अंधापन नहीं होता। साक्षी चेतना ही आत्मा है, जगत का सत्य  ब्रह्म है। और दोनों एक है। आत्मा और परमात्मा एक है। मैं -बोध में दो चीजे हैं एक है अहं दूसरा मैं चेतन हूँ ! यह शुद्ध चेतना का प्रतिबिम्ब है। शुद्ध चेतना का देहान्तरण नहीं होता। शुद्ध चेतना जाएगी कहाँ ? देश-काल -निमत्त से भी बहुत बड़ी है। आत्मा कहीं आती जाती नहीं। यह अहं की गांठ ज्ञान और त्रुटि का मिश्रण है mixture of knowledge and error. श्रीरामकृष्ण कहते थे " वेदान्त के मतानुसार ब्रह्म ही वस्तु है, और सब माया, स्वप्नवत अवस्तु है। सच्चिदानन्द सागर पर मानो अहंरूपी लाठी पड़ी हुई है। यदि उस अहं रूपी लाठी को उठा लिया जाय तो एक अविभक्त समुद्र रह जाता है। किन्तु उस पर लाठी के रहने से समुद्र के दो भाग दिखाई देने लगते हैं-लाठी इस ओर का समुद्र एक और लाठी के दूसरे तरफ का समुद्र एक। ब्रह्मज्ञान होने से मनुष्य समाधिस्थ हो जाता है , उस समय यह 'अहं' मिट जाता है। अहंकार के दूर हो जाने पर जीवत्व का नाश हो जाता है। समाधिअवस्था में जीव नहीं , ब्रह्म ही ब्रह्म का साक्षात्कार करता है। "
साक्षी चेतना अपरिवर्तनीय है, यह सूर्य के समान कभी उदित और अस्त नहीं होती, इसमें वृद्धि या क्षय नहीं होता। तो फिर ऐसा क्यों लगता है, कि अभी हम ज्यादा सचेत हैं, और किसी समय उतने सचेत नहीं रहते ? ऐसा मन के कारण होता है, कभी जगता, कभी स्वप्न देखता है, कभी सो जाता या बंद हो जाता है। ये सभी परिवर्तन मन से सम्बन्धित हैं हमसे या साक्षी चेतना से सम्बंधित नहीं हैं।  हम जगे हुए हैं, हम स्वप्न देख रहे हैं, हम गहरी नींद में सो गए हैं, इन सबका साक्षी चेतना के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, ये सब मन का परिवर्तन है। साक्षी चेतना अपरिवर्तनीय है, न उदित होती है न अस्त होती है। संवित एषा स्वयं प्रभा।
 फिर हम कभी अधिक चेतन कभी कम चेतन (more conscious less conscious) क्यों अनुभव करते हैं। ये सब मन की अवस्था में परिवर्तन के कारण होता है कभी यह निद्रालु अनुभव करता है, या व्यर्थ की बातें सोचने लगता है। गहरी निद्रा में यह साक्षी चेतना से कट जाता है,shuts down. ये परिवर्तन मन से सम्बन्धित हैं, साक्षी चेतना के साथ इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। वेदान्त हमें मन और शरीर का साक्षी बनने का तकनीक या कार्यपद्धति सिखाता है। यदि हमलोग 'unchanging pure consciousness' अपरिवर्तनीय विशुद्ध चेतना हैं - तो फिर जन्म-मृत्यु किसका होता है ? सीधी बात है -शरीर ही जन्मता और मरता है। निःसन्देह इस सूक्ष्म शरीर (subtle body) का ही जन्म-मृत्यु होता है। वेदान्त कहता है वह immortal consciousness, वह अमर चेतना स्वयं ब्रह्म है। existence -consciousness-bliss या सत-चित-आनन्द स्वरुप हैं !  
वेदान्त कहता है भ्रम के कारण हम अपने शरीर-मन से तादात्म्य कर लिए हैं, अब हमें अपने शरीर और मन का साक्षी बनना सीखना होगा। यदि हमलोग अपरिवर्तनीय, अविनाशी साक्षी चेतना हैं तो जन्म और मृत्यु किसकी होती है ?  यदि यही सत्य है, तो फिर यह मन, इन्द्रिय, शरीर कहाँ से आ जाता है ? यह बाह्य जगत, external universe, विश्व-ब्रह्माण्ड कहाँ से आ जाता है ? वेदांत कहता है अविनाशी चेतना ही ब्रह्म है -सच्चिदान्द ही हमारा स्वरूप है। यदि ऐसी बात तो बीच में यह मन कहाँ से आ जाता है ? शरीर और यह जगत कहाँ से चला आता है ? यह विश्व-ब्रह्माण्ड जिसको साक्षी चैतन्य प्रकाशित करता है,वह उत्पन्न कहाँ से होता है? यह जगत क्या है ? मैं कौन हूँ ? ये प्रश्न खड़े हो जाते हैं। इसका उत्तर श्लोक 13 में है। 
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