मेरे बारे में

सोमवार, 10 मार्च 2014

'आत्मसात करने योग्य जीवन-मूल्य ' (Values To Imbibe)

जीवन-मूल्यों का मूल्य
 ' Value of Values '
यदि हम स्वयं एक सम्मानित जीवन जीना चाहते हों, तथा अपने रहने के लिए एक सुन्दर समाज का निर्माण भी करना चाहते हों तो हमें जीवन-मूल्यों के मूल्य का पता अवश्य लगाना चाहिये और उसकी कदर करनी चाहिए। इन दिनों हमारी अभिरुचि ऐसे शब्दों का प्रयोग करने की ओर अधिक है जो हमें मोहित कर सकती हों। किन्तु, शायद हम स्पष्ट रूप से यह नहीं समझते कि वे शब्द वास्तव में किस भावना का प्रतिनिधित्व करते हैं? उन्हीं में से एक शब्द है- 'मूल्य' (values) हम प्रायः शिक्षा और व्यवसाय के हर क्षेत्र में मूल्य अनुस्थापन करने पर चर्चा करते हैं, हम मूल्य आधारित राजनीति, मूल्य आधारित शिक्षा आदि की बातें करते हैं किन्तु, यदि कोई यह पूछे कि वे मूल्य हैं क्या, जिन्हें आप शिक्षा अथवा व्यवसाय के प्रत्येक क्षेत्र में एक नीति के रूप में अनुस्तापित करना चाहते हैं, तो क्या हमें इसकी स्पष्ट व्याख्या प्राप्त होती है? क्या हम सभी लोग जीवन-मूल्यों के मूल्य को पहचानते हैं अथवा क्या हम सुस्पष्ट तरीके से जीवन-मूल्यों को परिभाषित कर सकते हैं ? क्या हमलोग भी अन्य देशों की नकल करते हुए प्रायः ऐसा सुझाव नही देते हैं कि पुराने मूल्यों का त्याग कर दिया जाना चाहिए और नए मूल्यों का निर्माण करना चाहिये? क्या सामाजिक जीवन से पुराने मूल्यों को निकाल कर नये मूल्यों को अनुस्थापित करना किसी पुराने भवन को गिरा कर नये भवन का निर्माण करने जितना आसान सुझाव माना जा सकता है ? जिन लोगों की हाथों में सत्ता की बागडोर है, वे क्या इतना भी समझते हैं कि इस प्रकार का सुझाव हमें कहाँ ले जायगा ?
{ऑस्कर वाइल्ड (1854-1900) शेक्सपीयर के उपरांत सर्वाधिक चर्चित ऑस्कर वाइल्ड सिर्फ एक उपन्यासकार, कवि और नाटककार ही नहीं थे, अपितु वे एक संवेदनशील मानव थे। उन्होंने सारी दुनिया में अपने लेखन से हलचल मचा दी थी।  उनके लेखन में जीवन की गहरी अनुभूतियाँ हैं, रिश्तों के रहस्य हैं, पवित्र सौन्दर्य की व्याख्या है, मानवीय धड़कनों की कहानी है। ऑस्कर वाइल्ड भविष्यवक्ता 'कीरो' के समकालीन थे। कीरो उनके दोनों हाथों के अन्तर को देखकर हैरान रह गए। दोनों में बड़ा अंतर था। जहाँ बाएँ हाथ की रेखाएँ कह रही थीं कि व्यक्ति असाधारण बुद्धि और अपार ख्याति का मालिक है। वहीं दायाँ हाथ..? कीरो ने कहा " दायाँ हाथ ऐसे शख्स का है जो अपने को स्वयं देश निकाला देगा और किसी अनजान जगह एकाकी और मित्र विहीन मरेगा।" कीरो ने यह भी कहा कि ४१ से ४२ वें वर्ष के बीच यह निष्कासन होगा और उसके कुछ वर्षों बाद मृत्यु हो जाएगी।"१८९५ में ऑस्कर वाइल्ड ने समाज के नैतिक नियमों का उल्लंघन कर दिया। फलस्वरूप समाज में उनकी अब तक अर्जित प्रतिष्ठा, मान-सम्मान और सारी उपलब्धियाँ ध्वस्त हो गईं। यहाँ तक कि उन्हें दो वर्ष का कठोर कारावास भी भुगतना पड़ा। 
जब ऑस्कर वाइल्ड ने अपने सौभाग्य के चमकते सितारे को डूबते हुए और अपनी कीर्ति पताका को झुकते हुए देखा तो उनके धैर्य ने जवाब दे दिया। अब वे अपने उसी गौरव और प्रभुता के साथ समाज के बीच खड़े नहीं हो सकते थे। हताशा की हालत में उन्होंने स्वयं को देश निकाला दे दिया। वे पेरिस चले गए और अकेले गुमनामी की जिंदगी गुजारने लगे। कुछ वर्षों बाद ३० नवंबर १९०० को पेरिस में ही उनकी मृत्यु हो गई। उस समय उनके पास कोई मित्र नहीं था। यदि कुछ था तो सिर्फ सघन अकेलापन और पिछले सम्मानित जीवन की स्मृतियों के बचे टुकड़े। कई बड़े साहित्यकारों की तरह उन्होंने भी विषपान किया, नीलकंठ बने और खामोश रहे। विश्व साहित्य का यह तेजस्वी हस्ताक्षर आज भी पूरी दुनिया में स्नेह के साथ पढ़ा और सराहा जाता है।}
ऑस्कर वाइल्ड ने अपने अनंत अनुभवों के आधार पर एक जगह लिखा-'विपदाएँ झेली जा सकती हैं, क्योंकि वे बाहर से आती हैं किन्तु, अपनी गलतियों का दंड भोगना- हाय वही तो है जीवन का दंश !' हालाँकि वे स्वयं एक नैतिक आरोप के दोषी थे किन्तु, उन्होंने लिखा था " दोषदर्शी मनुष्य (निन्दक या cynic) वह है जो प्रत्येक वस्तु की कीमत तो जानता है, किन्तु किसी का भी मूल्य नहीं समझता।" उनका यह वक्तव्य हमारे प्रश्न में अंतर्दृष्टि प्रदान कर उसे पूरा कर देता है, साथ-साथ मूल्यों (Values) के विषय में ऐसा बोध भी देता है कि इसकी माप-तौल- इसका नकद मूल्य क्या होगा अथवा तात्कालिक लाभ कितना होगा के पैमाने से  नहीं की जा सकती। कहा जा सकता है कि " मूल्य, सन्तुष्टि की वह भावना है, जो अन्तर्निहित शक्ति (दिव्यता) के वास्तविकरण (actualization) के द्वारा प्राप्त होती है।"
विख्यात ब्रिटिश दार्शनिक और गणितज्ञ अल्फ्रेड नार्थ  व्हाइटहेड (१८६१- १९४७) ने, भले ही इसका अर्थ उन्होंने जो समझा हो, कहा था-[ 'it (value) is the ultimate enjoyment of being actual']" यह (मूल्य) यथार्थ या वास्तविक होने का परम-आनंद है मूल्य का एहसास तब होता है जब सृजन से हमें सन्तोष प्राप्त होता है, ऐसा नहीं है कि जब मूल्य सृजित होता है तब हम सन्तुष्ट होते हैं। मूल्य का सृजन नहीं किया जा सकता। वे प्लेटो के विचार के जैसे शाश्वत हैं।" 
हमलोग भागवत में पाते हैं कि सृजनकर्ता (ब्रह्म) अपनी सृष्टि से तब तक सन्तुष्ट नहीं हुए थे जब तक उन्होंने उस मनुष्य का सृजन नहीं कर लिया जो अपने सृजन करने वाले 'ब्रह्म' को भी जानने की क्षमता से युक्त था। ब्रह्म को जान लेने के बाद ही मनुष्य को उच्चतम संतुष्टि प्राप्त होती है। और इसलिये भारतीय सांस्कृतिक संदर्भ में 'ब्रह्मविद्' होने, या ब्रह्म को जान लेने को सर्वोच्च मूल्य के रूप में मान्यता प्राप्त है, जिस प्रकार पश्चिमी विचारों के अनुसार उत्तम (Good) की अवधारणा को उच्चतम मूल्य के रूप में जाना जाता है। 
फिर ब्रिटिश प्रकृतिवादी दार्शनिक शमूएल अलेक्जेंडर का मानना था, भले ही इसका अर्थ जो भी समझते हों, कि 'देश-काल' (space time) ही समस्त प्रकार के अस्तित्वों का चरम या मूल द्रव्य (ultimate principle) है। वे कहते हैं, " वाह्य पदार्थों के अनुभवजन्य गुणों से भिन्न, मूल्य- मानों जीवन की बनावट या सौरभ हैं।" अर्थात मानवीय प्रशंसा के साथ वस्तु के एकीकरण (amalgamation) की दृष्टि  को मूल्य कहते हैं। 'परम सत्य की अनुभूति' जैसा कि माना जाता है, मात्र अक्षरों के मेल से बना कोई वाक्य ही नहीं है, वरण एक कर्तव्य-निर्देश का प्रस्ताव है। जिस प्रकार 'सौन्दर्य' अनुभव करने की वस्तु है तथा 'अच्छा' या 'good' वह है जिसे पाकर मनुष्य सन्तुष्ट हो जाये।
मूल्य अनुभव करने की वस्तु है उसे न तो सृजित किया जा सकता है और न ही नष्ट किया जा सकता है 'मूल्य' एक एहसास है, जिसे महसूस किया और सराहा जाता है, पहचान करके उसकी कदर की जाती है। अतः हमलोग पुराने मूल्यों का समुच्चय कहते हुये उसे नष्ट करके, मूल्यों के नये समुच्य का सृजन करने की बात सोच भी नहीं सकते। आम तौर पर हमलोग, मूल्यों (बहुवचन) की बात क्यों करते हैं, केवल मूल्य (एकवचन) की बात क्यों नहीं करते ? क्योंकि मूल्यों का एक अनुक्रम (hierarchy) होता है, इसीलिये सभी मनुष्यों में 'परम' (highest) को अनुभूत कर लेने की क्षमता एक समान नहीं होती फिर भी, किसी मनुष्य के लिये मूल्यरहित क्षेत्र से मूल्यों के क्षेत्र में उभर आने से बेहतर बात और कुछ हो नहीं सकती। अतः उच्च मूल्यों का अनुभव करने के लिए, हमें मूल्यों के अनुक्रम के अनुसार धीरे-धीरे ही प्रयास करना पड़ेगा। 
 'मूल्यों' की अनुभूति शाश्वत-सत्य के साथ मानव-मन की अंतःक्रिया (interaction) के माध्यम से की जाती है। जितनी प्रगाढ़ अंतःक्रिया होगी उतने ही उच्च मूल्य की अनुभूति होगी। इसलिए शाश्वत-सत्य को समझने के प्रयास (हर नाम-रूप के पीछे 'तू') में वाली चित्त की शुद्धता या मन के संशोधन (refinement) के ऊपर ही हमारा मूल्यबोध निर्भर करता है। सत्य के साथ मन की अंतःक्रिया के कारण मन का शोधन जितना उच्चतर होता जायेगा, उतना ही उच्च से उच्चतर मूल्यों को मान्यता देने से प्राप्त होने वाली सन्तुष्टि के मूल्यांकन में भी वृद्धि होती जायेगी। यदि पशुओं में भी मूल्यों को पहचानने या कदर करने की क्षमता होती, तो वे केवल खाने, सोने, आत्मसुरक्षा करने और वंश-विस्तार को ही अपना मूल्य समझकर सन्तुष्ट हो जाते। जो व्यक्ति इसी प्रकार के मूल्यों का अनुभव करने में संतुष्ट रहता है, वह मनुष्य होकर भी पशु-स्तर का जीवन व्यतीत करता है। भर्तृहरि कहते हैं- 
येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानम् न शीलं न गुणो न धर्मः |
ते मृत्युलोके भुवि भारभूताः मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति ||

- अर्थात जो विद्या, तप , दान ज्ञान शील और गुण धर्म से रहित है वह इस मृत्युलोक में धरती पर भार स्वरुप है और मनुष्य के रूप में पशु ही है! ऐसे ही लोगों की संख्या आज बढ़ती जा रही है -ये संस्कारित या चरित्रशील लोग नहीं है - बस केवल उनका ढाँचा ही मनुष्य का है, वास्तव में वे हिंस्र पशु ही हैं -इनसे सावधान रहने की जरुरत है! हिंस्र पशुओं का मनुष्य रूपी झुण्ड बेख़ौफ़ बड़े शहरों में विचरण कर रहा है -जिसका परिणाम है आये दिन होने वाले दामिनी काण्ड; हम अभिभावक अपने बच्चों को यह बात क्यों नहीं समझ पा रहे हैं ? माना कि सहज विश्वास और भरोसा मानवीय गुण हैं किन्तु, हमारे पास एक तर्कशील दिमाग भी तो है; हमें अपने बच्चों को पशु रूप में विचरण करने वाले पशु मानव-और देव मानव में विवेक कैसे किया जाता यह गुण  सीखना होगा। 
बहरहाल आगे से हमारे बच्चे श्रद्धा और विवेक क्या है - इसे अवश्य समझें और आत्मरक्षा (सेफ्टी फर्स्ट) के प्रति सतर्क रहने की चेष्टा भी करें, क्योंकि घोर जंगल में बिना होशियारी निर्द्वन्द्व विचरण कोई बुद्धिमानी नहीं है। और बिना विवेक-प्रयोग किये जो सहज विश्वास कर लिया जाता है, यह अविवेक ही विश्वासघात के मूल में है। आज बड़े बड़े शहर भी जंगल सरीखे हो गये हैं, क्योंकि किसी का किसी से कोई वास्ता नहीं है -सब अजनबी हैं-इम्पर्सनल! यह अजनबीपन ही पशु-मानवों में कबीलाई मानसिकता, आक्रामकता को पोषित करता है और क्षेत्रीयता की भावना (मराठी मानुष रूपी टेरिटोरियलिज्म) को बढ़ावा देता है
इस पशु-स्तर से ऊपर उठने के लिये उसे 'शाश्वत-सत्य' (प्रतिभासिक सत्य और असत्य के बीच विवेक) के साथ गहरी बातचीत करने के माध्यम से उच्चतर मूल्यों को पहचान कर सन्तुष्टि की तलाश करनी चाहिये। मूल्यों के उच्च से उच्चतर अनुक्रम का  यथाक्रम अनुभव करते हुए धीरे-धीरे, एक एक सीढ़ी चढ़ता हुआ मनुष्य अपने  जीवन की बृहत्तर पूर्णता की ओर अग्रसर होता रहता है। जहाँ  मूल्य  (values) सत्य के मूल्यांकन के लिये माप-तौल  हैं, वहीँ वे हमें मनव-जीवन की बृहत्तर पूर्णता की अग्रसर  रहने के लिये अनुप्रेरित भी करती हैं। इस प्रकार मूल्यों की पश्चिमी अवधारणा की निकटतम भारतीय अवधारणा- चार प्रकार के पुरुषार्थों के दृष्टिकोण में प्राप्त होती हैं।
चार प्रकार के पुरुषार्थों में पहला है - धर्म अर्थात वैसी साधुता (righteousness) जो हमें नेकी या सद्कर्म (right action) करने के लिये प्रेरित करे, दूसरा है -अर्थ अर्थात अवश्यकताओं को पूरा करने के लिये धन-दौलत अर्जित करना, तीसरा पुरुषार्थ है- काम (desires या आकांक्षा या कामना-वासना), चौथा और अंतिम पुरुषार्थ है -मोक्ष अर्थात धन-दौलत और कामदेव की दासता से मुक्ति ! धर्म अथवा साधुता विवेक-प्रयोग के द्वारा प्राप्त होती है, विवेक कहते हैं सत्य-मिथ्या, शाश्वत-नश्वर, अच्छा-बुरा या श्रेय-प्रेय को अलग अलग पहचान लेने की क्षमता को। 
किसी यथार्थवादी अमेरिकन दार्शनिक ने, जो यह मानता था कि 'स्वामी विवेकानन्द सम्पूर्ण मानवता के लिए एक पूजनीय मनुष्य थे।' एक पत्र में उन्हें गुरु (Master) कहकर संबोधित किया था, और लिखा था- ' संक्षेप में कहें तो 'परमसत्य' हमारे न्याय संगत चिन्तन का एकमात्र सहारा है, जिस प्रकार साधुता या नेकी ही व्यवहार का एकमात्र साधन है।' विलियम जेम्स कहते हैं- "लगभग किसी भी फैशन में वांछनीय एवं प्रत्यक्ष अनुभव में आने वाले लम्बे समय के लिये लाभकारी समस्त व्यवहार, अनिवार्य रूप से भविष्य में होने वाले समस्त अनुभवों के लिये उतना ही सन्तोषप्रद नहीं होता।" इस कथन की तुलना गीता १८/३७-३९में श्रीकृष्ण द्वारा तीन प्रकार के सुखों के विषय में कहे गए कथन से करें-

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ।।37।।
विषयेन्द्रिसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ।।38।।
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मन: ।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ।।39।।

जो ऐसा सुख है, वह आरम्भकाल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत होता है, परंतु परिणाम में अमृत के तुल्य है; इसलिये वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है ।।37।।  जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है, वह पहले भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य है; इसलिये वह सुख राजस कहा गया है ।।38।। जो सुख भोग काल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है- वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है ।।39।। ] 
' जो अभी स्वादिष्ट  लग रहा है, बाद में कड़ुआ लग सकता है, और जो अभी विष जैसा लग रहा है, वही बाद में अमृत के जैसा प्रतीत होने वाला है। ' इस लिये तुम अर्थ (रूपये-पैसे) और काम (इच्छा) की बागडोर धर्म (विवेक) के हाथों में तब तक रखो, जब तक तुम इन सबसे ऊपर नहीं उठ जाते - जहाँ मोक्ष (समस्त इच्छाओं से मुक्ति) के आलोक में  सच्चा सुख है ! मनु स्मृति में भी कहा गया है- किसी भी प्रकार की पर-निर्भरता दुःखों का कारण है, एवं पूर्णतः आत्म-निर्भर हो जाने में ही सुख निहित है। संक्षेप में सुख और दुःख के यही लक्षण है। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि आप अपने जीवन में मूल्यों को कितना मूल्य देते हैं तथा अपने जीवन में किस प्रकार मूल्यों को अपनाते हैं। आप मूल्यों को कितना मूल्य देंगे वह निर्भर करता है आपकी वैसी प्रसंशा के ऊपर जैसी आप अपने पर्स या जेब में रखे मूल्य के लिये करते हैं।
श्रीरामकृष्ण एक कहानी कहा करते थे- " किसी धनी व्यक्ति ने अपने नौकर को हीरे का एक टुकड़ा  देकर उसका मूल्य जानने के लिये एक बैंगन बेचने वाले के पास भेजा। उसने लौट कर बताया कि बैंगन वाला उस हीरे के बदले ९ सेर से अधिक एक भी बैंगन देने को राजी नहीं है। फिर उसे एक बजाज के पास भेजा गया। बजाज ने उसके बदले नौ सौ रुपये से एक रुपया अधिक देने को राजी नहीं हुआ। तब उसके मालिक ने उसे एक जौहरी के पास भेजा। जौहरी पहचान सकता था कि यह एक सच्चे हीरे का टुकड़ा है, तथा बिना मोलमुलाई किये एक लाख देने की पेशकश कर दी।'
हम लोग किसी वस्तु का मूल्य का आकलन केवल यह देखकर ही नहीं करते कि अभी तुरन्त उसका नकद मूल्य क्या है, बल्कि उसके वास्तविक मूल्य को पहचान करने की हमारी क्षमता के अनुसार करते हैं कि वह अंततः हमारे जीवन को कितना मूलयवान बना सकते हैं। मूल्यों का प्रस्तावित मोल, सत्यता (reality) का मूल्यांकन करने की हमारी क्षमता पर निर्भर करता है। सत्यता के साथ अपने एकत्व की अनुभूति कर लेने से जो बृहत्तम आनन्द प्राप्त होता है, उसे परमानन्द (bliss) कहते हैं, और जिससे मानव-जीवन को उच्चतम सन्तुष्टि उपलब्ध होती है। 
जिस परमानन्द को पाकर मनुष्य सदा के लिये सन्तुष्ट हो जाता है, कोई इच्छा शेष नहीं रह जाती,सदा के लिये पूर्णकाम हो जाता है, उसी अवस्था मुक्ति या मोक्ष की अवस्था कहते हैं। शाश्वत सत्य- ' हर देश में तू हर भेष में तू ' का बहुत छोटा मूल्य निर्धारण, अर्थात अपने और पराये में भेद-बुद्धि रखने से जीवन के बहुत निम्न स्तर के मूल्यों की समझ ही प्राप्त हो सकती है। इस प्रकार जीवन में पूर्णता की उपलब्धि इस बात पर निर्भर करती है कि हम अपने जीवन में आत्मसात करने के लिये किस स्तर के मूल्यों का चयन करते हैं, एवं उन मूल्यों के लिया कितना मूल्य चुकाने को तैयार हैं? अतेव सामाजिक जीवन की गुणवत्ता उसमें रहने वाले मनुष्यों के वैयक्तिक जीवन में आत्मसात किये गये चारित्रिक गुणों की गुणवत्ता पर निर्भर करती है।
============      

कोई टिप्पणी नहीं: