' ईमानदारी, सत्यवादिता, विश्वसनीयता, सेवापरायणता'
(Honesty, Truthfulness, Reliability, Service Attitude)
जीवन के सराहनीय मूल्यों को आत्मसात करने की दृष्टि से यदि हमलोग थोडा थोडा करके चरित्र को गुणों को अर्जित करते जायें तो हम सही अर्थों में अच्छा मनुष्य, एक चरित्रवान मनुष्य बन सकते हैं।
यदि हम ऐसा करते हैं तो जो कुछ भी कार्य हम करेंगे उसमें स्वाभाविक रूप से ईमानदारी की छाप दिखाई देगी। जो व्यक्ति सत्य को पकड़े रहता है केवल वही व्यक्ति ईमानदार हो सकता है। जो सदैव सत्य को पकड़े नहीं रहता, वह ईमानदार नहीं हो सकता। जो व्यक्ति सत्य को जान लेता है, वह निश्चित रूप से अपने विचार, वाणी और कर्मों में ईमानदार होता ही है। यदि हम थोड़ा भी सत्य से दूर हो जायें तो हमारे विचार, वाणी और कर्म अच्छे अथवा दूसरों की भलाई के अनुकूल नहीं हो सकते हैं।
इस तरह का एक छोटे सा दरार भी समय के अन्तराल में चौड़ा होता जाता है, और अंततः चरित्र का मीनार ही भहरा कर गिर पड़ता है।
किन्तु, मनुष्य जीवन की महिमा केवल इसी चरित्र के दुर्ग पर निर्भर करती है। यदि चरित्र के परकोटे को चट्टानी दृढ़ता के साथ उर्ध्वमुखी नहीं रखा गया, तो हर कदम पर मिलने वाली विफलता की कड़वाहट जीवन में निराशा का ऐसा अँधेरा भर देगी कि प्रकाश और उल्लास के राज्य में एक पैर आगे बढ़ा सकना भी लगभग (well nigh) असंभव हो जायेगा। इसलिए चरित्र के मीनार को तब तक ऊँचा उठाये रखना चाहिये जब तक हमारा जीवन समाप्त नहीं हो जाता है। यदि हम ऐसा करने में सफल हो सके तभी हम वास्तव में अच्छा और ईमानदार मनुष्य कहे जा सकते हैं। ऐसा करना केवल किसी एकान्तवासी वानप्रस्थी या सन्यासियों (recluse रिक्लूज़) के लिये ही आवश्यक नहीं है। बल्कि, ऐसा आचरण उन लोगों के लिये और अधिक आवश्यक है जो गृहस्थ हैं या समाज में रहते हैं-स्वामी विवेकानन्द ने बार-बार इस मुद्दे पर सबसे अधिक बल दिया है। हमलोग स्वयं को थोडा भी कपटी या बेईमान नहीं होने दे सकते, थोडा भी अपवित्र नहीं होने दे सकते। हमारे देश में एक विशाल आबादी को इसी लिये बहुत दुःख कष्ट भोगना पड़ रहा है क्योंकि हममें से कई लोग भ्रष्ट या बेईमान हैं।
हमारे भ्रष्ट होने के कारण केवल दूसरों को कष्ट नहीं उठाना पड़ता है, बल्कि उनसे अधिक हानि हमें स्वयं उठानी पड़ती है। इस सच्चाई को हमें निश्चित तौर पर जान लेना चाहिये कि जीवन में जो ईमानदार नहीं है, अपरिहार्य विफलतायें उनका इंतजार कर रही हैं ।और कोई भी चालाकी उन्हें बहुत लम्बे समय तक बचा नहीं सकेगी।
कुछ लोगों का तर्क हो सकता है कि बहुत से लोग तो भ्रष्ट तरीके अपना कर भी बहुत धन-संपत्ति इकठ्ठा कर लेते हैं और जीवन का आनन्द भोगते हैं फिर बिना कोई कष्ट उठाए ही चल बसते हैं?
यह सच है कि वे थोड़ा आनन्द उठाते हैं, किन्तु हम उनके उस संताप को नहीं देख पाते जो उन्हें उसके साथ ही साथ भुगतना पड़ता है। लगातार चिन्ता, पकडे जाने की आशंका, अनियमित एवं असामान्य जीवन के कारण विभिन्न प्रकार की व्याधियां, अपने अपावनकृत्यों को दूसरों से छिपाने में जो मानसिक तनाव उत्पन्न होता है वह उसके तथाकथित आनन्द के एक बहुत बड़े हिस्से को खा जाती है, और उसे सर्वदा दरिद्र बनाये रखती है। जीवन-पुष्प के पूर्ण रूप से प्रस्फुटित हो जाने पर उसकी खुशबु सभी दिशाओं को तथा अपने आस पास रहने वाले सभी मनुष्यों को आनन्दित कर देती है, उस आनन्द से तो वे वंचित ही रह जाते हैं। अतः जीवन के मूल्य का पूरा एहसास करने के लिये, चरित्र का महान गुण ईमानदारी का मूल्य अवश्य रहना चाहिये।
कई लोग सोचते हैं कि एक व्यापारी को सफल होने के लिये कुछ हद तक अवश्य बेईमान होना पड़ेगा। यह बिल्कुल गलत अवधारणा है। फोर्ड और कार्नेगी जैसे विख्यात व्यापारियों और उद्द्योगपतियों ने विपुल सम्पत्ति खड़ी करने में मुख्य पूँजीनिवेश सर्वदा ईमानदारी का ही किया था, एवं जो अन्य लोग इस क्षेत्र में सफलता पाना चाहते हैं उनको भी ईमानदारी अपनाने का परामर्श दिया था। हमलोग किसी भी चीज का अध्यन गहराई से नहीं करते हैं, और कुछ बुरे उदाहरणों को उठा लेते हैं तथा कार्य-कारण के अनुक्रम का गलत अर्थ लगाते हैं, और इस गलत निर्णय पर पहुँच जाते हैं कि पैसे और आनन्द के लिये ईमानदारी का त्याग करना आवश्यक है। कई बार ईमानदार रह पाना मुश्किल हो जाता है, किन्तु तुम यदि ईमानदारी का त्याग कर देने का जोखिम लोगे तो भविष्य में अवश्य कष्ट उठाना पड़ेगा।
और ईमानदारी को सुनिश्चित करने के लिये, तुम्हें सत्य से जुड़े रहना होगा। और सत्य के साथ जुड़े रहने के लिये, तुम्हें केवल सत्य के लिये सत्य से प्रेम करने साहस रहना चाहिये। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " सत्य के लिये सब कुछ का त्याग किया जा सकता है, किन्तु अन्य किसी भी वस्तु को प्राप्त करने लिये सत्य का त्याग नहीं किया जा सकता है।" क्योंकि इस संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो सत्य से उच्चतर मूल्य का दावा कर सके। यदि तुम सत्य में ही दृढ़तापूर्वक अटल रहो, तो तुम्हें हर वस्तु प्राप्त हो जायेगी, और यदि तुमने सत्य को छोड़ दिया तो हर वस्तु खो जायेगी। इसीलिये श्रीरामकृष्ण ने माँ काली को अपना सब कुछ दे दिया था, किन्तु सत्य नहीं दे सके थे। " यदि मैंने वह दे दिया, तो मेरा अस्तित्व किस पर टिकेगा?"
सत्य दो प्रकार का हो सकता है- ( verbal and ontological ) "वाचिक और सत्ता मीमांसा संबंधी"। एक सत्य बात कहना, तथ्यों के बारे में जैसा हम जानते हों, वैसा ही वर्णन कर देना। दूसरा है वास्तविकता (reality) के विषय में सत्य। वास्तविक वस्तु, सभी दृष्टिगोचर वस्तुओं की सार वस्तु, वह वस्तु हमारे अन्दर है, जिसे हमलोग आत्मा या ब्रह्म कहते हैं, उसे भी सत्य कहा जाता है। यदि हम अपने दैनन्दिन जीवन में सर्वदा सत्य को पकड़े रखें, तो हम उत्तरोत्तर उस वास्तविकता (अहं ब्रह्मास्मि) के अधिकाधिक निकट होते जायेंगे। यदि हम वैसा नहीं करें, तो उससे दूर हो जाते हैं। यदि हम वास्तविकता से दूर हो जाते हैं, तो हमारे पास केवल मांस और हड्डियों का मिथ्या आवरण या परिधान ही शेष रह जायगा। इसी लिये ठाकुर देव ने कहा था, ' माँ, मैं तुमको सबकुछ दे सक्ता हूँ, किन्तु सत्य नहीं दे सकता।' किसी भी वस्तु के लिये इसका विनिमय नहीं किया जा सकता। क्योंकि उस सत्य से और अधिक मूल्यवान अन्य कौन सी वस्तु हो सकती है, जो स्वयं हमारी यथार्थता है ? यह हमारे स्वयं की सार वस्तु है, हमारा अस्तित्व है, और भला कोई अपने अस्तित्व का त्याग कर भी कैसे सकता है ? किस वस्तु (मिल्कचॉकलेट) को प्राप्त करने के लिये हम अपने अस्तित्व को भी मिटा देना चाहेंगे? इसीलिये हमें सत्य में स्थित रहने का अभ्यास करना होगा, जिसे सामान्यतः सच्चाई (truthfulness) कहा जाता है। ऐसा न हो कि हम इस सच्चाई (सत्य या ब्रह्म या आत्मा अथवा भगवान) के स्रोत से बह कर दूर हो जायें। वस्तुतः सच्चाई (Truthfulness), सत्य अर्थात -ईश्वर या ब्रह्म के प्रति वफ़ादार या निष्ठावान होने का नाम है !
समाज केवल वैसे ही लोगों का विश्वास करता है, जो सत्यवादी हैं और इसलिये ईमानदार हैं, क्योंकि वे किसी भी वस्तु (कामिनी-कांचन) के बदले सत्य का त्याग नहीं करेंगे। ऐसे व्यक्ति से और अधिक भरोसेमन्द या विश्वसनीय मनुष्य दूसरा कौन हो सकता है ? इसीलिये विश्वसनीयता (Reliability) एक मूल्य (जीवन-मूल्य) है, हमारे चरित्र का अत्यन्त महत्वपूर्ण गुण है। किसी सत्यवादी या सच्चे (truthful) व्यक्ति में कायम हुआ विश्वास कभी विनष्ट नहीं होता। किस प्रकार के मनुष्य पर भरोसा नहीं किया जा सकता? वैसे व्यक्ति पर भरोसा नहीं किया जा सकता है जिसमें सत्य के प्रति कोई आकर्षण नहीं होता है। ऐसे व्यक्ति पर किया गया विश्वास ही आगे चलकर गलत साबित हो जाता है। किन्तु, कोई ऐसा व्यक्ति जिसके चरित्र में सच्चाई और ईमानदारी का गुण होता है, वह कभी किसी के भरोसे को तोड़ ही नहीं सकता है।
जो व्यक्ति सत्य में या परम यथार्थता (ultimate reality) में विश्वास करता है, उसे अपनी अन्तर्निहित उसी सच्चाई (same truth) के प्रति श्रद्धा या सम्मान का भाव (reverence) भी होता है। तब वह अपने अन्तर्निहित सत्यता को जानने या पकड़ने का, उसी में स्थित रहने और उसे अभिव्यक्त करने का कठिन प्रयास करता है। इस सार तत्व को परम सत्य या आत्मा अथवा ब्रह्म के रूप में स्वीकार करने, इसके अस्तित्व को स्वीकार करने तथा पवित्रता समझकर सम्मान करने को आस्तिक्य अथवा सच्ची श्रद्धा कहते हैं। 'वे' हैं, हमारे अन्दर हैं; इसमें दृढ़ता से विश्वास करने को ही श्रद्धा या सच्ची आत्मश्रद्धा कहते हैं। श्रद्धा एक संस्कृत शब्द है, इसका कोई ठीक ठीक अंग्रेजी का शब्द है ही नहीं। इसका अर्थ होता है, अपनी सच्ची सार वस्तु, अपनी अन्तर्निहित आत्मा के प्रति सम्मान (reverence) और अटूट आस्था रखना। यही मानव-जीवन की सबसे बुनियादी या मूलभूत सिद्धान्त है। जिस व्यक्ति में आत्मसम्मान (स्वाभिमान या self-esteem) नहीं होता, उसका जीवन तुच्छ या शून्य बन जाता है। उसका जीवन सफल नहीं होता, वह अपने जीवन में कोई भी महत्वपूर्ण कार्य निष्पादित नहीं कर पाता है। इस प्रकार का जीवन पौधे की तरह बढ़ता तो रहता है, किन्तु उसमें कोई फल नहीं मिलता। वैसा जीवन किसी के लिये उपयोगी नहीं होता, इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं को नसीहत देते हुए कहा था -'श्रद्धावान बनो ! नचिकेता जैसी श्रद्धा रखो !'
जिस व्यक्ति में अपनी अन्तर्निहित आत्मा में अटल विश्वास होता है, उसमें प्रत्येक दूसरी आत्माओं के प्रति भी श्रद्धा और सम्मान का भाव होता है। इसीलिये वह कभी 'अपने-पराय' या 'मैं-तुम' का भेद-भाव नहीं रखता है। वह दूसरों के सुख-दुःख को अपने ही सुख-दुःख जैसा अनुभव करता है। किसी व्यक्ति की इसी क्षमता को समानुभूति (empathy) - 'अन्य व्यक्ति के साथ' बिल्कुल अपनेपन का अनुभव करना कहा जाता है। वह दूसरों की भावनाओं का आदर बिल्कुल अपनी भावना समझकर करता है। यह सहानुभूति उसे दूसरों की सेवा करने की प्रेरणा से भर देता है, दूसरों के दुःख-कष्टों को दूर करने की भावना उसके भीतर स्वाभाविक रूप से उत्पन्न हो जाती है। क्योंकि वह दूसरे मनुष्यों को बिल्कुल अपनी प्रतिमूर्ति समझता है, इसीलिये वह दूसरों के शोक-संताप को दूर हटाकर उसे आनन्दमय बनाने के लिये एक प्रकर के आन्तरिक आग्रह का अनुभव करता है। वह दूसरों के होठों पर मुस्कान लाने की चेष्टा किये बिना रह ही नहीं सकता। वह दूसरों के मंगल के लिये कोई भी हानि उठाने को तत्पर रहता है, वह इस कार्य से अधिक महत्वपूर्ण किसी भी त्याग को नहीं समझता है।
इसीलिये यदि किसी व्यक्ति में आत्मश्रद्धा रहे, यदि युवा मनुष्य बन सकें, यदि वे कठोर परिश्रम करके अपने चरित्र का निर्माण कर सकें, यदि वे सत्य के साथ प्रेम कर सकें, यदि वे अपने मन,वाणी कर्मों (3H) में सामंजस्य स्थापित कर सकें, तो उनका मन में कभी दूसरों के प्रति अविश्वास या घृणा का भाव नहीं उठेगा,या वह कभी शत्रुता या द्वेष, छल-कपट या शोषण करने के लिये खेल के मैदान की तलाश नहीं करेगा। प्रेम, समानुभूति ( empathy), अपनेपन की भावना सम्पूर्ण समाज को प्रगाढ़ घनिष्टता के बंधन बांध लेता है। प्रत्येक व्यक्ति दूसरों की सेवा करके अपने जीवनी शक्ति को विकसित करना चाहेगा, जीवन में सुख-भोग की छह में या आत्मसुख लेने, निजी स्वार्थ को पूरा करने की खोज में जीवनी शक्ति को बर्बाद करने से परहेज करेगा। ऐसे ही युवाओं का एक समूह उपेक्षित दलित लोगों के उत्थान के लिये कार्य कर सकता है। केवल वैसे ही लोग अन्याय और समाज की बुराइयों के खिलाफ खड़े हो सकते हैं और एक स्वस्थ और बेहतर वातावरण का निर्माण कर सकते हैं। यह तभी सम्भव है जब यदि कुछ मूल्यों या चरित्र के गुणों को विकसित किया जाय। महाभारत में बड़े ही सुन्दर ढंग से कहा गया है-
इस तरह का एक छोटे सा दरार भी समय के अन्तराल में चौड़ा होता जाता है, और अंततः चरित्र का मीनार ही भहरा कर गिर पड़ता है।
किन्तु, मनुष्य जीवन की महिमा केवल इसी चरित्र के दुर्ग पर निर्भर करती है। यदि चरित्र के परकोटे को चट्टानी दृढ़ता के साथ उर्ध्वमुखी नहीं रखा गया, तो हर कदम पर मिलने वाली विफलता की कड़वाहट जीवन में निराशा का ऐसा अँधेरा भर देगी कि प्रकाश और उल्लास के राज्य में एक पैर आगे बढ़ा सकना भी लगभग (well nigh) असंभव हो जायेगा। इसलिए चरित्र के मीनार को तब तक ऊँचा उठाये रखना चाहिये जब तक हमारा जीवन समाप्त नहीं हो जाता है। यदि हम ऐसा करने में सफल हो सके तभी हम वास्तव में अच्छा और ईमानदार मनुष्य कहे जा सकते हैं। ऐसा करना केवल किसी एकान्तवासी वानप्रस्थी या सन्यासियों (recluse रिक्लूज़) के लिये ही आवश्यक नहीं है। बल्कि, ऐसा आचरण उन लोगों के लिये और अधिक आवश्यक है जो गृहस्थ हैं या समाज में रहते हैं-स्वामी विवेकानन्द ने बार-बार इस मुद्दे पर सबसे अधिक बल दिया है। हमलोग स्वयं को थोडा भी कपटी या बेईमान नहीं होने दे सकते, थोडा भी अपवित्र नहीं होने दे सकते। हमारे देश में एक विशाल आबादी को इसी लिये बहुत दुःख कष्ट भोगना पड़ रहा है क्योंकि हममें से कई लोग भ्रष्ट या बेईमान हैं।
हमारे भ्रष्ट होने के कारण केवल दूसरों को कष्ट नहीं उठाना पड़ता है, बल्कि उनसे अधिक हानि हमें स्वयं उठानी पड़ती है। इस सच्चाई को हमें निश्चित तौर पर जान लेना चाहिये कि जीवन में जो ईमानदार नहीं है, अपरिहार्य विफलतायें उनका इंतजार कर रही हैं ।और कोई भी चालाकी उन्हें बहुत लम्बे समय तक बचा नहीं सकेगी।
कुछ लोगों का तर्क हो सकता है कि बहुत से लोग तो भ्रष्ट तरीके अपना कर भी बहुत धन-संपत्ति इकठ्ठा कर लेते हैं और जीवन का आनन्द भोगते हैं फिर बिना कोई कष्ट उठाए ही चल बसते हैं?
यह सच है कि वे थोड़ा आनन्द उठाते हैं, किन्तु हम उनके उस संताप को नहीं देख पाते जो उन्हें उसके साथ ही साथ भुगतना पड़ता है। लगातार चिन्ता, पकडे जाने की आशंका, अनियमित एवं असामान्य जीवन के कारण विभिन्न प्रकार की व्याधियां, अपने अपावनकृत्यों को दूसरों से छिपाने में जो मानसिक तनाव उत्पन्न होता है वह उसके तथाकथित आनन्द के एक बहुत बड़े हिस्से को खा जाती है, और उसे सर्वदा दरिद्र बनाये रखती है। जीवन-पुष्प के पूर्ण रूप से प्रस्फुटित हो जाने पर उसकी खुशबु सभी दिशाओं को तथा अपने आस पास रहने वाले सभी मनुष्यों को आनन्दित कर देती है, उस आनन्द से तो वे वंचित ही रह जाते हैं। अतः जीवन के मूल्य का पूरा एहसास करने के लिये, चरित्र का महान गुण ईमानदारी का मूल्य अवश्य रहना चाहिये।
कई लोग सोचते हैं कि एक व्यापारी को सफल होने के लिये कुछ हद तक अवश्य बेईमान होना पड़ेगा। यह बिल्कुल गलत अवधारणा है। फोर्ड और कार्नेगी जैसे विख्यात व्यापारियों और उद्द्योगपतियों ने विपुल सम्पत्ति खड़ी करने में मुख्य पूँजीनिवेश सर्वदा ईमानदारी का ही किया था, एवं जो अन्य लोग इस क्षेत्र में सफलता पाना चाहते हैं उनको भी ईमानदारी अपनाने का परामर्श दिया था। हमलोग किसी भी चीज का अध्यन गहराई से नहीं करते हैं, और कुछ बुरे उदाहरणों को उठा लेते हैं तथा कार्य-कारण के अनुक्रम का गलत अर्थ लगाते हैं, और इस गलत निर्णय पर पहुँच जाते हैं कि पैसे और आनन्द के लिये ईमानदारी का त्याग करना आवश्यक है। कई बार ईमानदार रह पाना मुश्किल हो जाता है, किन्तु तुम यदि ईमानदारी का त्याग कर देने का जोखिम लोगे तो भविष्य में अवश्य कष्ट उठाना पड़ेगा।
और ईमानदारी को सुनिश्चित करने के लिये, तुम्हें सत्य से जुड़े रहना होगा। और सत्य के साथ जुड़े रहने के लिये, तुम्हें केवल सत्य के लिये सत्य से प्रेम करने साहस रहना चाहिये। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " सत्य के लिये सब कुछ का त्याग किया जा सकता है, किन्तु अन्य किसी भी वस्तु को प्राप्त करने लिये सत्य का त्याग नहीं किया जा सकता है।" क्योंकि इस संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो सत्य से उच्चतर मूल्य का दावा कर सके। यदि तुम सत्य में ही दृढ़तापूर्वक अटल रहो, तो तुम्हें हर वस्तु प्राप्त हो जायेगी, और यदि तुमने सत्य को छोड़ दिया तो हर वस्तु खो जायेगी। इसीलिये श्रीरामकृष्ण ने माँ काली को अपना सब कुछ दे दिया था, किन्तु सत्य नहीं दे सके थे। " यदि मैंने वह दे दिया, तो मेरा अस्तित्व किस पर टिकेगा?"
सत्य दो प्रकार का हो सकता है- ( verbal and ontological ) "वाचिक और सत्ता मीमांसा संबंधी"। एक सत्य बात कहना, तथ्यों के बारे में जैसा हम जानते हों, वैसा ही वर्णन कर देना। दूसरा है वास्तविकता (reality) के विषय में सत्य। वास्तविक वस्तु, सभी दृष्टिगोचर वस्तुओं की सार वस्तु, वह वस्तु हमारे अन्दर है, जिसे हमलोग आत्मा या ब्रह्म कहते हैं, उसे भी सत्य कहा जाता है। यदि हम अपने दैनन्दिन जीवन में सर्वदा सत्य को पकड़े रखें, तो हम उत्तरोत्तर उस वास्तविकता (अहं ब्रह्मास्मि) के अधिकाधिक निकट होते जायेंगे। यदि हम वैसा नहीं करें, तो उससे दूर हो जाते हैं। यदि हम वास्तविकता से दूर हो जाते हैं, तो हमारे पास केवल मांस और हड्डियों का मिथ्या आवरण या परिधान ही शेष रह जायगा। इसी लिये ठाकुर देव ने कहा था, ' माँ, मैं तुमको सबकुछ दे सक्ता हूँ, किन्तु सत्य नहीं दे सकता।' किसी भी वस्तु के लिये इसका विनिमय नहीं किया जा सकता। क्योंकि उस सत्य से और अधिक मूल्यवान अन्य कौन सी वस्तु हो सकती है, जो स्वयं हमारी यथार्थता है ? यह हमारे स्वयं की सार वस्तु है, हमारा अस्तित्व है, और भला कोई अपने अस्तित्व का त्याग कर भी कैसे सकता है ? किस वस्तु (मिल्कचॉकलेट) को प्राप्त करने के लिये हम अपने अस्तित्व को भी मिटा देना चाहेंगे? इसीलिये हमें सत्य में स्थित रहने का अभ्यास करना होगा, जिसे सामान्यतः सच्चाई (truthfulness) कहा जाता है। ऐसा न हो कि हम इस सच्चाई (सत्य या ब्रह्म या आत्मा अथवा भगवान) के स्रोत से बह कर दूर हो जायें। वस्तुतः सच्चाई (Truthfulness), सत्य अर्थात -ईश्वर या ब्रह्म के प्रति वफ़ादार या निष्ठावान होने का नाम है !
समाज केवल वैसे ही लोगों का विश्वास करता है, जो सत्यवादी हैं और इसलिये ईमानदार हैं, क्योंकि वे किसी भी वस्तु (कामिनी-कांचन) के बदले सत्य का त्याग नहीं करेंगे। ऐसे व्यक्ति से और अधिक भरोसेमन्द या विश्वसनीय मनुष्य दूसरा कौन हो सकता है ? इसीलिये विश्वसनीयता (Reliability) एक मूल्य (जीवन-मूल्य) है, हमारे चरित्र का अत्यन्त महत्वपूर्ण गुण है। किसी सत्यवादी या सच्चे (truthful) व्यक्ति में कायम हुआ विश्वास कभी विनष्ट नहीं होता। किस प्रकार के मनुष्य पर भरोसा नहीं किया जा सकता? वैसे व्यक्ति पर भरोसा नहीं किया जा सकता है जिसमें सत्य के प्रति कोई आकर्षण नहीं होता है। ऐसे व्यक्ति पर किया गया विश्वास ही आगे चलकर गलत साबित हो जाता है। किन्तु, कोई ऐसा व्यक्ति जिसके चरित्र में सच्चाई और ईमानदारी का गुण होता है, वह कभी किसी के भरोसे को तोड़ ही नहीं सकता है।
जो व्यक्ति सत्य में या परम यथार्थता (ultimate reality) में विश्वास करता है, उसे अपनी अन्तर्निहित उसी सच्चाई (same truth) के प्रति श्रद्धा या सम्मान का भाव (reverence) भी होता है। तब वह अपने अन्तर्निहित सत्यता को जानने या पकड़ने का, उसी में स्थित रहने और उसे अभिव्यक्त करने का कठिन प्रयास करता है। इस सार तत्व को परम सत्य या आत्मा अथवा ब्रह्म के रूप में स्वीकार करने, इसके अस्तित्व को स्वीकार करने तथा पवित्रता समझकर सम्मान करने को आस्तिक्य अथवा सच्ची श्रद्धा कहते हैं। 'वे' हैं, हमारे अन्दर हैं; इसमें दृढ़ता से विश्वास करने को ही श्रद्धा या सच्ची आत्मश्रद्धा कहते हैं। श्रद्धा एक संस्कृत शब्द है, इसका कोई ठीक ठीक अंग्रेजी का शब्द है ही नहीं। इसका अर्थ होता है, अपनी सच्ची सार वस्तु, अपनी अन्तर्निहित आत्मा के प्रति सम्मान (reverence) और अटूट आस्था रखना। यही मानव-जीवन की सबसे बुनियादी या मूलभूत सिद्धान्त है। जिस व्यक्ति में आत्मसम्मान (स्वाभिमान या self-esteem) नहीं होता, उसका जीवन तुच्छ या शून्य बन जाता है। उसका जीवन सफल नहीं होता, वह अपने जीवन में कोई भी महत्वपूर्ण कार्य निष्पादित नहीं कर पाता है। इस प्रकार का जीवन पौधे की तरह बढ़ता तो रहता है, किन्तु उसमें कोई फल नहीं मिलता। वैसा जीवन किसी के लिये उपयोगी नहीं होता, इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं को नसीहत देते हुए कहा था -'श्रद्धावान बनो ! नचिकेता जैसी श्रद्धा रखो !'
जिस व्यक्ति में अपनी अन्तर्निहित आत्मा में अटल विश्वास होता है, उसमें प्रत्येक दूसरी आत्माओं के प्रति भी श्रद्धा और सम्मान का भाव होता है। इसीलिये वह कभी 'अपने-पराय' या 'मैं-तुम' का भेद-भाव नहीं रखता है। वह दूसरों के सुख-दुःख को अपने ही सुख-दुःख जैसा अनुभव करता है। किसी व्यक्ति की इसी क्षमता को समानुभूति (empathy) - 'अन्य व्यक्ति के साथ' बिल्कुल अपनेपन का अनुभव करना कहा जाता है। वह दूसरों की भावनाओं का आदर बिल्कुल अपनी भावना समझकर करता है। यह सहानुभूति उसे दूसरों की सेवा करने की प्रेरणा से भर देता है, दूसरों के दुःख-कष्टों को दूर करने की भावना उसके भीतर स्वाभाविक रूप से उत्पन्न हो जाती है। क्योंकि वह दूसरे मनुष्यों को बिल्कुल अपनी प्रतिमूर्ति समझता है, इसीलिये वह दूसरों के शोक-संताप को दूर हटाकर उसे आनन्दमय बनाने के लिये एक प्रकर के आन्तरिक आग्रह का अनुभव करता है। वह दूसरों के होठों पर मुस्कान लाने की चेष्टा किये बिना रह ही नहीं सकता। वह दूसरों के मंगल के लिये कोई भी हानि उठाने को तत्पर रहता है, वह इस कार्य से अधिक महत्वपूर्ण किसी भी त्याग को नहीं समझता है।
इसीलिये यदि किसी व्यक्ति में आत्मश्रद्धा रहे, यदि युवा मनुष्य बन सकें, यदि वे कठोर परिश्रम करके अपने चरित्र का निर्माण कर सकें, यदि वे सत्य के साथ प्रेम कर सकें, यदि वे अपने मन,वाणी कर्मों (3H) में सामंजस्य स्थापित कर सकें, तो उनका मन में कभी दूसरों के प्रति अविश्वास या घृणा का भाव नहीं उठेगा,या वह कभी शत्रुता या द्वेष, छल-कपट या शोषण करने के लिये खेल के मैदान की तलाश नहीं करेगा। प्रेम, समानुभूति ( empathy), अपनेपन की भावना सम्पूर्ण समाज को प्रगाढ़ घनिष्टता के बंधन बांध लेता है। प्रत्येक व्यक्ति दूसरों की सेवा करके अपने जीवनी शक्ति को विकसित करना चाहेगा, जीवन में सुख-भोग की छह में या आत्मसुख लेने, निजी स्वार्थ को पूरा करने की खोज में जीवनी शक्ति को बर्बाद करने से परहेज करेगा। ऐसे ही युवाओं का एक समूह उपेक्षित दलित लोगों के उत्थान के लिये कार्य कर सकता है। केवल वैसे ही लोग अन्याय और समाज की बुराइयों के खिलाफ खड़े हो सकते हैं और एक स्वस्थ और बेहतर वातावरण का निर्माण कर सकते हैं। यह तभी सम्भव है जब यदि कुछ मूल्यों या चरित्र के गुणों को विकसित किया जाय। महाभारत में बड़े ही सुन्दर ढंग से कहा गया है-
अविजित्य य आत्मानममात्यान्विजिगीषते ।
अमित्रान्वा जितामात्यः सोऽवशः परिहीयते ।।
अमित्रान्वा जितामात्यः सोऽवशः परिहीयते ।।
आत्मानमेव प्रथमं द्वेष्यरूपेण योजयेत् ।
ततोऽमात्यानमित्रांश्च न मोघं विजिगीषते ।।
ततोऽमात्यानमित्रांश्च न मोघं विजिगीषते ।।
जिता सभा वस्त्रवता मिष्टाशा गोमता जिता।
अध्वा जितो यानवता सर्वं शीलवता जितम् ।। (विदुरनीति)
(दर्जी द्वारा सिला गया) सुन्दर वस्त्र पहनकर किसी सभा में उपस्थित जनसमूह को प्रभावित किया जा सकता
है अथवा जीता जा सकता है , मिठाई खाने की इच्छा को गाय पाल करके सन्तुष्ट हुआ जा सकता है। लम्बा
रास्ता तय करना हो, तो वायुयान द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है, किन्तु यदि आपका चरित्र
सुन्दर रूप से गठित हुआ है, यदि जीवन के मूल्यों की प्राप्ति हो गयी हो तो आप हर जगह विजयी होंगे !
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