९.
' धैर्य'
(Patience):
यदि हम पहले गुण से लेकर अध्यवसाय तक के सभी गुणों को अपने चरित्र में शामिल कर लें तो हमें एक और गुण की भी परीक्षा देनी होगी। वह है- धैर्य। धैर्य का अर्थ है- तुरन्त हताश न होना। अब जैसे मैंने अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने का कार्य प्रारम्भ किया, तो मुझे उसमें थोड़ा कष्ट भी सहन करना पड़ेगा। किन्तु थोड़ी ही दूर चलकर धैर्य खो देने, तुरन्त निराश हो जाने से तो कोई भी मूल्यवान वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती। 'सहनशीलता' जैसा गुण पूर्णतः चरित्रगत होने में विलंब होना स्वाभाविक है, अतः जब तक इस प्रकार के गुण (जिसका मनांक शून्य हो) में 'A' का अंक नहीं प्राप्त कर लेते, तब तक निष्ठा नहीं त्यागना ही धैर्य है। आलस्य और उद्दम के विषय में आपने जिस 'राजा-कवि' की उक्ति पहले पढ़ी वे ही धैर्य के विषय (ऩीतिशतकम् -७७) में क्या कहते हैं -
कदर्थितस्यापि हि धैर्यवृत्तेर्न शक्यते धैर्यगुणः प्रमार्ष्टुम्।
अधोमुखस्यापि कृतस्य वह्नेर्नाधश्शिखा याति कदाचिदेव।।
अधोमुखस्यापि कृतस्य वह्नेर्नाधश्शिखा याति कदाचिदेव।।
(यथा महता प्रयत्नेनापि अग्नेर्ज्वाला न नीचैः प्रसर्पति, स्वभावतो अग्निः
ऊर्ध्वमेव प्रयाति, तथैव प्रकृत्या धीरस्य पुरुषस्य दुर्दशायामपि न
धैर्यच्युतिः संभवति।)- जिस प्रकार अग्नि की शिखा को चाहे जितना भी अधोमुखी करने की चेष्टा क्यों न
की जाय वह उसी क्षण उर्ध्वमुखी हो जाती है और जलती रहती है। दीप-शिखा स्वभावतः केवल उर्ध्वमुखी रहती है -उसी प्रकार धैर्यसम्पन्न व्यक्ति के धैर्य को नष्ट करने की चाहे जितनी भी चेष्टा क्यों न की जाय, उसका धैर्य कभी नष्ट नहीं होता। हमलोगों में भी इसी प्रकार का धैर्य रहना चाहिये।
यदि कोई पहले स्पष्ट धारणा बनाये फिर सद् संकल्प ले तत्पश्चात उसपर दृढ़ रहते हुए अपने संकल्प को साकार करने के लिए बिना धैर्यहीन हुए उद्दम और निष्ठांपूर्वक अथक प्रयत्न करता रहे, तो वह सबकुछ प्राप्त कर सकता है।
यदि परिवेश के बन्धनों को अस्वीकार करते हुए सत शिक्षा एवं इन सद्गुणों के विषय में जान कर इन्हें आत्मसात कर लिया जाय तो किसी भी परिवेश में जन्मे व्यक्ति का जीवन स्वप्न कभी अपूर्ण नहीं रह सकता। परिवेश तथा परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों, मनुष्य को हर स्थिति में महान जीवन का ही स्वप्न देखना चाहिये। सत् शिक्षा के माध्यम से चरित्र को महान बना देने वाले गुणों को आत्मसात कर हम सभी अपने जीवन को सार्थक कर सकते हैं।
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१०.
साधारण बोध
(Common-Sense):
स्वामी
विवेकानन्द ने कहा है- " मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है।"
किन्तु, बहुत से लोग उनकी इस उक्ति पर विश्वास नहीं कर पाते। उनका तर्क
होता है कि यदि मनुष्य चाहने मात्र से अपना भविष्य अच्छा बनाने में समर्थ
होता तो आखिर इतने सारे मनुष्यों के भाग्य में इतना दुःख क्यों दिखाई देता है ? वर्तमान युग को हम चाहे कितना भी विज्ञान का युग, युक्तिवाद का युग क्यों न कहें,विज्ञान की सहायता से मनुष्य की समस्त समस्याओं को हल कर लेने का चाहे कितना भी दावा क्यो न करें,सच तो यह है कि मनुष्य अपने मन की दुर्बलताओं पर अभी तक पूरी तरह विजय प्राप्त नहीं कर पाया है। यदि यह बात सत्य न होता तो आज भी लॉटरी का इतना व्यापक प्रचार-प्रसार कैसे हो रहा है ? ज्योतिषियों तथा अंगूठीयों के लिये विभिन्न प्रकार के ग्रह निवारक पत्थरों, ताबीजों को बेचने वाले जौहरियों का बाजार आज भी इतना गरम क्यों है ? इन ज्योतिषियों और जौहरियों ने अपने विज्ञापन के लिये ' भाग्यम फलति सर्वत्र ' लिख कर हर दीवाल को रंग दिया गया है जिससे कि हम-आप उसे पढ़ने को मजबूर हो जाते हैं। वास्तविकता तो यह है कि यथार्थ 'वस्तु' की खोज कैसे की जाती है यह हम एकदम नहीं जानते, युक्ति-तर्क से हमारा कोई संबंध ही नहीं है और वैज्ञानिक मनोभाव का अधिकारी होना तो अभी हमारे लिये दूर की कौड़ी है। यदि हम युक्ति-तर्क को महत्व दें, वैज्ञानिक दृष्टि से तथ्यों का विश्लेषण करें और अपने ह्रदय में ही विद्द्यमान यथार्थ 'वस्तु' को पहचान लें, तो यह आसानी से समझ लेंगे कि वास्तव में हमलोग ही अपने भाग्य के निर्माता हैं। किन्तु, सच्चाई यह है कि हमारे अन्दर तो साधारण बोध (Common-Sense) का भी घोर आभाव है। हमलोग किसी भी विषय पर अपनी बुद्धि खर्च करना नहीं चाहते। केवल दूसरे लोगों की राय सुनना चाहते हैं और लोगों की सुनी-सुनाई बातों पर ही विश्वास कर के बैठ जाते हैं। हम युक्ति-विचार कर के यह नहीं देखते कि ज्योतिषी लोग जो कहते हैं वो क्या हमेशा सही ही होता है ? प्रायः भविष्य बताने का दावा करने वाले बाबा लोग सीधे-साधे लोगों को ठगने के लिये तरह-तरह कि मनगढ़ंत बातें कहते रहते हैं। क्या हम इतनी सी बात नहीं समझ सकते कि परिश्रम किए बिना धनोपार्जन नहीं किया जा सकता है ? तथा उपार्जन किए बिना हमारा आभाव दूर नहीं हो सकता है। बैठे रहने से कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। परिश्रम करने के लिये जिस प्रकार शारीरिक शक्ति लगानी पड़ती है, उसी प्रकार बुद्धि का प्रयोग भी करना आवश्यक होता है। बुद्धि के साथ यदि थोड़ी विद्या भी रहे तो केवल शारीरिक परिश्रम से किये गये उपार्जन की तुलना में अधिक उपार्जन होता है तथा भविष्य बेहतर बन सकता है। यदि हमलोग समाज के लोगों के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध न रखें, सभी के साथ क्रमशः विवाद में उलझते रहें अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए यदि दूसरो को क्षति पहुँचाएं, दूसरों को संकट में घिरा देख कर भी सहायता न करें तो क्या यह समझना बहुत कठिन है कि इन्ही सब कारणों से हमें भी अनेकों कष्ट भोगना पड़ेगा और भविष्य में सुख शान्ति भी नहीं प्राप्त होगी ? इसीलिए हम यदि भविष्य में सुख और शान्ति दोनों पाना चाहते हों तो हमे कठिन परिश्रम करना पड़ेगा तथा साथ ही साथ अपनी बुद्धि एवं विद्या का भी उपयोग करना होगा। फिर अपने व्यवहार को भी शालीन और सुन्दर रखना होगा। यह सब तभी सम्भव है जब हमारे चरित्र में उपरोक्त सभी गुण समाहित हों, और केवल चाहने मात्र से कुछ नहीं होता, चरित्र के गुणों को भी आत्मसात करने का प्रयास करना पड़ता है।
चरित्र कोई जन्म से ही प्राप्त या आकाश से टपकी हुई वस्तु नहीं है। इसे अनवरत कठिन परिश्रम से थोड़ा-थोड़ा करके गठित करना पड़ता है। चरित्र के गुणों को जो जितना अर्जित करता है, उसकी सहायता से वह वैसा ही भविष्य गढ़ सकता है। अब, प्रश्न उठ सकता है कि क्या अच्छे चरित्र के गुणों से विभूषित व्यक्ति के जीवन में दुःख नहीं आता है ? ऐसा दावा तो कोई नहीं कर सकता। न्यूनाधिक सभी को कष्ट भोगना पड़ता है। संसार की यही रीति है। भागवत (उद्धवगीता) में कहा गया है-
" न देहिनां सुखं किञ्चित् विद्यते विदुषाम् अपि।"
अर्थात
ज्ञानीजनों को भी हर समय केवल सुख में ही नहीं पाया जा सकता। किन्तु,
बुद्धिमान व्यक्ति हमेशा यही देखेगा कि अन्तिम परिणति कैसी होगी, जीवन का
अन्तिम समय कैसे अच्छे ढंग से व्यतीत होगा। बहुत से निर्बोध लोग यह सोचते हैं कि अधिक चालाकी करके शीघ्र ही अधिक से अधिक सुखों को बटोर सकते हैं। किन्तु, प्रायः यह दिखाई देता है कि चालाकी द्वारा अर्जित सुख टिकाऊ नहीं होता है, तथा इसके बदले में थोड़े ही दिनों बाद अधिक परिमाण में दुःख भोगना पड़ता है। वैसे यह भी हो सकता है कि उस व्यक्ति को अपने जीवन में अधिकांश समय सुख-भोग प्राप्त होता रहे या जीवन भर के लिये सुख तो मिल जाय किन्तु, उसको जीवन में शान्ति कभी नहीं मिल सकती।
हमें यह सर्वदा स्मरण रखना चाहिए कि, केवल सुख-सुविधा जुटा लेने से ही
मनुष्य जीवन सफल नहीं हो जाता। बल्कि, थोड़े ही दिनों बाद मनुष्य का मन
शान्ति प्राप्त करने के लिये छटपटाने लगता है। जिस प्रकार मनुष्य
सुख-सुविधा पूर्ण जीवन जीने कि इच्छा किए बिना नहीं रह सकता, उसी प्रकार
जीवन में शान्ति न रहने पर जीवन बोझ बन जाता है। यदि अपने जीवन में मिली
प्रत्येक असफलता तथा दूसरों के जीवन के सुख-दुःख का ध्यानपूर्वक
विश्लेष्ण किया जाय तो उसके कारणों को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
साधारण बोध, सामान्य बुद्धि या common-sense का व्यवहारिक उपयोग- यही तो
है। इस विश्लेषण से हम यही पायेंगे कि इन सब के मूल में उस व्यक्ति के
चरित्र के विभिन्न गुण ही हैं। इन गुणों के रहने या न रहने पर ही हमारे
जीवन की सफलता-विफलता, सुख-दुःख और शान्ति-अशान्ति निर्भर है। यदि ऐसा है
तब तो कहा ही जा सकता है कि मनुष्य स्वयं अपना भाग्य विधाता या अपने
भाग्य का निर्माता है ? अपने तथा दूसरों के कर्मों एवं उनके फलों को
देखने से यह बात स्पष्ट रूप से समझ में आ जाती है कि कर्म फल का नियम अटल
है, उसे टाला नहीं जा सकता। कहा भी गया है- ' करम-गति टारे से नाहीं टरी'।
इसीलिए, किस कर्म का कैसा फल प्राप्त होता है, इसको ठीक से समझ लेना
चाहिये। लक्ष्मणजीने
अध्यात्मरामायणमें
निषादराज
गुह से कहा है‒
सुखस्य
दुःखस्य न कोऽपि
दाता
परो
ददातीति कुबुद्धिरेषा
।
अहं
करोमीति
वृथाभिमानः
स्वकर्मसूत्रे
ग्रथितो हि
लोकः ॥
(२/६/६)
‘सुख-दुःखको
देनेवाला
दूसरा कोई
नहीं है ।
दूसरा सुख-दुःख
देता है‒यह
समझना
कुबुद्धि है ।
मैं करता हूँ‒यह
वृथा अभिमान
है । सब लोग
अपने-अपने
कर्मोंकी
डोरीसे बँधे
हुए हैं ।’ यही
बात
तुलसीकृत
रामायणमें
भी आयी है‒
इसीलिए चरित्र के अन्यान्य गुणों के साथ इसका गुणगत सादृश्य न रहने पर भी इसे चरित्र का एक गुण माना जा सकता है। साधारण बोध का अधिकारी होने पर चरित्र के अन्य गुणों को बढाना सहज हो जाता है तथा सामान्य तौर पर जीवन में सफलता पाना भी सहजतर हो जाता है।
काहु
न कोउ सुख दुख
कर दाता ।
निज
कृत करम भोग
सबु भ्राता ॥
(मानस
२/९२/२)
सुख-दुःख
देनेवाला
दूसरा कोई
नहीं है‒यह
खास सूत्र है ! अमुक व्यक्ति के कारण ही मुझे इतना दुःख उठाना पड़ा था, उसको तो मैं छोड़ूँगा नहीं ! ऐसा भ्रमयुक्त निर्णय जो देता है‒उसी को
कुबुद्धि कहते हैं। यह
कुत्सित
बुद्धि है,
खोटी बुद्धि
है । अमुक व्यक्ति ने मुझे दुःख
दे दिया‒यह
बात सिद्धान्तकी
दृष्टि से
भी गलत है । क्योकि एक
बात तो यह है
कि परमात्मा
परम दयालु
हैं, परम
हितैषी हैं,
अन्तर्यामी
हैं और
सर्वसमर्थ
हैं। ऐसे
परमात्मा के
रहते हुए,
उनकी
जानकारी में
कोई भी
किसीको दुःख
दे सकता है
क्या? दूसरी
बात यह है कि
अगर दूसरा
दुःख देता है
तो दुःख कभी
मिटनेका है
ही नहीं;
क्योंकि
दूसरा तो
कोई-न-कोई
रहेगा ही। कहीं जाओ,
किसी भी
योनि में जाओ
दूसरा
रहेगा ही ।
फिर दुःख
कैसे मिटेगा ?
ये दोनों
बातें बड़ी प्रबल
हैं ।
हमारे
सामने सुख और
दुःख दोनों
आते हैं ।
सुख-दुःख
देनेवाला
दूसरा कोई
नहीं है,
प्रत्युत सब
अपने किये
हुए
कर्मोंके
फलको भोगते
हैं। सारी मनुष्य जाति अपने-अपने कर्मफलों से बंधी है। पातञ्जलयोगदर्शनमें
लिखा है‒‘सति
मूले
तद्विपाको
जात्यायुर्भोगाः’
(२/१३) अर्थात्
पहले किये
हुए
कर्मों के फलसे
जन्म, आयु और
भोग होता है ।
भोग नाम
किसका है ? ‘अनुकूलवेदनीयं
सुखम्’, ‘प्रतिकूलवेदनीयं
दुःखम्’ और ‘सुखदुःख
अन्यतरः
साक्षात्कारो
भोगः’ अथात्
सुखदायी और
दुःखदायी
परिस्थिति
सामने आ जाय
और उस
परिस्थितिका
अनुभव हो जाय,
उसमें
अनुकूल-प्रतिकूलकी
मान्यता हो
जाय, इसका नाम ‘भोग’
है । अब एक बात
बड़े रहस्यकी,
बहुत
मार्मिक और
काम की है । आप
ध्यान दें ।
आपने अच्छा
काम किया है
तो सुखदायी
परिस्थिति
आपके सामने
आयेगी और
बुरा काम
किया है तो
दुःखदायी परिस्थिति
आपके सामने
आयेगी । यह तो
है कर्मों की
बात । अतः परिस्थिति को
लेकर सुखी-दुःखी
होना केवल
मूर्खता है । वह
परमात्माका
विधान है, जो
हमारे
कर्मोंका नाश
करके हमें
शुद्ध
करनेके लिये
हुआ है। वह परमात्मा
कैसे किसीको
दुःख देगा ? अतः इन बातों को ध्यान में रखते हुए सावधानीपूर्वक कर्म किया
जाय तो अनेक कष्टों से बचा जा सकता है।
सर्वदा सतर्क रहने वाली बुद्धि को ही सामान्य बोध (common sense) कहा जाता है। श्री रामकृष्ण देव सतर्क बुद्धि का उदाहरण देते हुए कहते हैं -' एक हाँथ से ढेकी में चावल कूटती, दूसरे हाथ से पैला से धान डालते समय महिला का ध्यान सदा मूसल पर ही लगा रहता है।" किन्तु यह साधारण बोध सभी मनुष्यों में एक समान नहीं होता। जिस व्यक्ति में साधारण बोध कम मात्रा में रहता है, उसे अनेकों बार विफलता का मुख देखना पड़ता है या
दुःख भोगना पड़ता है। "आग में हाथ डालने से हाथ जल जाता है " - यदि इस
सामान्य ज्ञान को अपने अनुभव से या दूसरों के अनुभव से सीखकर सदा के लिए
मन में न रखा जाय तो न जाने कितने लोगों को कितनी बार हाथ जलाना पड़े। अस-पास की घटनाओं को देख-सुनकर सीख लेने से जो बुद्धि प्राप्त होती है, उसी को साधारण बोध कहते हैं। इसीलिए किसी मनुष्य में जन्म के समय जितना साधारण बोध था जीवन भर उतना ही रहेगा, ऐसी बात नहीं है। आँख-कान खोलकर आस-पास घटित होने वाली घटनाओं को देखने-सुनने तथा अनुभव द्वारा कुछ-कुछ सीखते रहने की चेष्टा करते रहने से मनुष्य का साधारण बोध बढ़ जाता है।
'सामान्य-बोध ' में एक और आश्चर्यजनक क्षमता है। इसकी सहायता से हम किसी भी
विषय या समस्या के तह तक भी जा सकते हैं। क्योंकि 'साधारण बोध' (प्रज्ञा)
सारी जटिल वस्तुओं एवं परिस्थितियों को सहज भाव से समझने का प्रयास करता
है। इसके फलस्वरूप ऐसा होता है कि किसी विषय में बहुत अधिक ज्ञान रखने
वाले लोग भी जिस समस्या का हल ढूंढ पाने में असमर्थ हो जाते हैं, साधारण
बोध अत्यन्त ही सहजता से उसका भी कोई न कोई हल अवश्य ढूंढ़ निकालता है।
उदहारण के लिये जब खण्डित मूर्ति की पूजा के विषय में बड़े-बड़े पंडित लोग
कोई शास्त्र सम्मत निर्णय नहीं ले पा रहे थे, तब श्री रामकृष्ण ने अत्यन्त
ही सरलता से उपाय सुझाते हुए एक प्रश्न किया- " यदि रानी रासमणि के
दामाद का एक पैर टूट जाय तो क्या आप उन्हें भी गंगाजी में फेंकने की सलाह
देंगे ?" इस तरह से तुरन्त ही समस्या का समाधान हो गया। इसीलिए चरित्र के अन्यान्य गुणों के साथ इसका गुणगत सादृश्य न रहने पर भी इसे चरित्र का एक गुण माना जा सकता है। साधारण बोध का अधिकारी होने पर चरित्र के अन्य गुणों को बढाना सहज हो जाता है तथा सामान्य तौर पर जीवन में सफलता पाना भी सहजतर हो जाता है।
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