'टेलर-मेड' सभ्यता --'यावत किंचित न भाषते'
हम
लोग समाज में रहते हैं। समाज में रहने पर विभिन्न प्रकार के लोगों के साथ
सम्बन्ध भी पड़ता है। घर में - अपने माता-पिता, भाई-बहन, सगे-संबन्धियों, पास-पडोस या टोला-मुहल्ला के लोगों के साथ या इष्ट-मित्र, स्कूल-कॉलेज या कार्य-क्षेत्र के सहकर्मियों के साथ, हाट-बाजार,या राह चलते समय भी विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों के साथ हमें मिलना-जुलना पड़ता है। हमलोगों का यह मेल-जोल प्रीतिकर या अप्रीतिकर दोनों तरह का हो सकता है। पुराने समय में यात्रा-क्रम में कहीं बाहर निकलने पर किसी अपरिचित व्यक्ति के साथ भी लोगों का व्यवहार शिष्टता पूर्ण ही होता था। किन्तु, आजकल यह इस शिष्टता का लगभग लोप ही हो गया है। आज वार्तालाप करते समय यदि कोई शिष्टता के साथ उत्तर देता है,तो हमें आश्चर्य होता है। क्योंकि, अब तो राह चलते, बस-ट्रेन से सफर करते समय प्रायः लोग एक दुसरे का स्वागत, कटु शब्दों, ओछी हरकतों या कभी-कभी तो थप्पड़-मुक्कों से करते हुए भी दिखाई पड़ जाते हैं। परस्पर व्यव्हार में
ऐसा बदलाव क्यों दिख रहा है ? इसका कारण यही है कि अब हमारे संस्कार (चारित्रिक गुण) पहले
जैसे नहीं रह गये हैं। यदि हमारे व्यवहार और वाणी में शिष्टता न हो तो
हमें स्वयं को सुसंस्कृत मनुष्य क्यों समझना चाहिए ? फिर भी टाई-कोट पहन कर, आखों पर रंगीन चश्मा और हांथों में वी.आई.पी. बैग लेकर, हम यही दिखाने की कोशिश करते हैं कि हम तो बड़े प्रगतिशील और सभ्य मनुष्य हैं। किन्तु ऐसी 'टेलर-मेड' सभ्यता (ब्राण्डेड सूट-पैन्ट) तभी तक टिकती है, जब तक कुछ बोलने के लिये हम अपना मुख नहीं खोलते- 'यावत किंचित न भाषते'। जैसे ही किसी के साथ हमें बात-चीत करना पड़ता है, वैसे ही हमारी सभ्यता और प्रगतिशीलता की सारी कलई खुल जाती है। प्राचीन कवि भर्तृहरी ने कहा है -
केयूराणि न भूषयन्ति पुरुषं हाराः न चंद्रोज्ज्वलाः,
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालंकृताः मूर्द्धजाः।
वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते,
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्।
मनुष्य को स्वर्णालंकार बाजूबंद आदि सुशोभित नहीं करते, चंद्र की भांति उज्ज्वल
कान्तिवाले हार भी शोभा नहीं बढ़ाते, न नहाने-धोने से, न उबटन मलने से, न
फूल टांकने या पुष्पमाला धारण करने से, न केश-विन्यास या जुल्फ़ी संवारने-सजाने से ही उसकी मान और
शोभा बढ़ती है। अपितु जिस वाणी को शिष्ट, सभ्य, शालीन और व्याकरण-सम्मत मानकर धारण किया जाता है; एकमात्र वैसी वाणी ही पुरुष को सुशोभित करती है। बाहर
के सब अलंकरण तो निश्चित ही घिस जाते हैं, या चमक खो बैठते हैं (किंतु)
मधुरवाणी का अलंकरण हमेशा चमकने वाला आभूषण है। इसलिये मनुष्य कि
वाणी ही उसका यथार्थ आभूषण है-'वाग़ भूषणम भूषणम'। अर्थात व्यवहार और
वाणी में सज्जनता और शिष्टाचार ही चरित्र का वह गुण है जो उसे जीवन के हर
क्षेत्र में विजय दिला सकती है।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " मनुष्य के मन में ही सारी समस्यायों का समाधान मिल सकता है। कोई भी कानून किसी व्यक्ति से वह कार्य नहीं करा सकता जिसे वह करना नहीं चाहता। अगर मनुष्य स्वयं अच्छा बनना चाहेगा, तभी वह अच्छा बन पायेगा। सम्पूर्ण संविधान या संविधान के पण्डित भी मिलकर उसे अच्छा नहीं बना सकते। हम सब अच्छे (श्रेष्ठ) बनें, यही समस्या का हल है। " (४/१५७)
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " मनुष्य के मन में ही सारी समस्यायों का समाधान मिल सकता है। कोई भी कानून किसी व्यक्ति से वह कार्य नहीं करा सकता जिसे वह करना नहीं चाहता। अगर मनुष्य स्वयं अच्छा बनना चाहेगा, तभी वह अच्छा बन पायेगा। सम्पूर्ण संविधान या संविधान के पण्डित भी मिलकर उसे अच्छा नहीं बना सकते। हम सब अच्छे (श्रेष्ठ) बनें, यही समस्या का हल है। " (४/१५७)
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