३.
' आत्म संयम '
(Self-Control):
आज संयमहीनता, आधुनिकता का पर्याय बन गया है। आधुनिक मनुष्य ने प्रकृति की शक्तियों को संयमित या नियंत्रित करके उसका इच्छानुरूप प्रयोग कर सुखदायक यंत्रों का निर्माण कर लिया है। वाह्य प्रकृति के क्षेत्र 'संयम' जितना प्रयोजनीय है, उतना ही प्रयोजनीय अन्तः प्रकृति के क्षेत्र में भी है।
मनुष्य अपनी आंतरिक शक्तियों को संयमित कर अनेक प्रकार के लाभ उठा सकता है, तथा कई प्रकार के अनावश्यक संघर्ष, क्षति और अप्रीतिकर परिस्थतियों में उलझने से भी बच सकता है। किसी मनुष्य की वाणी तथा व्यवहार संयम उसकी दुर्बलता की नहीं बल्कि उसकी आंतरिक शक्ति की ही अभिव्यक्ति है। उनपर तथा अन्य आन्तरिक शक्तियों पर अभ्यास के द्वारा 'संयम' रखा जा सकता है।
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४.
'सहनशीलता'
(Tolerance):
व्यवहार या वाणी में 'संयम' का जो आभाव हमें अक्सर दिखाई देता है। उसका कारण हमारे चरित्र में एक अन्य गुण का आभाव ही है। वह गुण है- 'सहनशीलता'। बहुत सी बातें हमें क्षण भर में ही हमे असहनीय लगने लगतीं हैं, हम अधीर हो उठते हैं। उसपर धैर्यपूर्वक विवेक-विचार किए बिना हम क्षण भर में ही उत्तेजित होकर तीखी वाणी तथा अभद्र आचरण का प्रदर्शन करने लगते हैं। कभी कभी तो हम इतने अधिक उत्तेजित हो जाते हैं कि कठोराघात करने पर भी उतारू हो जाते हैं जो कहीं से भी अच्छा नहीं दिखता। इसका परिणाम अधिकांशतः अच्छा नहीं ही होता है, इसे विस्तार से समझाने की आवश्यकता नहीं है। मेरी पसंद या नापसंद किसी बात के सच या झूठ होने का पैमाना नहीं है। मेरी पसंद-नापसंद पर ही सभी बातों का मूल्यांकन हो, ऐसा नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त यदि मेरा विचार सही भी हो तथापि उसपर मेरी तात्क्षणिक कठोर प्रतिक्रिया दूसरों के आत्मसम्मान को चोट तो पहुँचा ही चुकी होगी।
बहुत से लोगों में यह शक्ति नहीं होती कि वे तत्क्षण प्रतिक्रिया दिखाने से स्वयं को रोक लें; यह शक्ति 'संयम' का अभ्यास करने से ही प्राप्त होती है। यदि हमारे चरित्र में सहनशीलता की शक्ति (गुण) हो तो हम दूसरों के विश्वास, मत, विचार या वक्तव्य को शांति से सुन-समझ सकते हैं। फिर धैर्यपूर्वक विवेक-विचार कर अपने मत से दूसरों के मत के न मिलने के बावजूद भी उसके मत की आंतरिक सच्चाई को देखने का प्रयास कर सकते हैं।
यदि दुसरे के मत या वक्तव्य में सत्य का थोड़ा भी अंश न रहे तो भी जो सत्य है उसे धैर्यपूर्वक सबको समझाया जा सकता है। इसी गुण को ' सहनशीलता' कहते हैं। यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण गुण है। इसके समान महत्वपूर्ण गुण कम ही हैं। श्री रामकृष्ण देव कहते थे- "जो सहता है, वही रहता है; जो नहीं सहता उसका नाश हो जाता है "। (जे ना शोए तार नाश होये) वे कहा करते थे - " वर्णमाला में तीन प्रकार के 'स' हैं- श,ष,स मानो ये हमसे कह रहे हों कि सहना सीखो, सहना सीखो, सहना सीखो ! " सहनशील नहीं होने पर अन्ततोगत्वा नाश ही होता है।
एक
पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक ने, सफलता के शीर्ष पर पहुँचे तथा जीवन के खेल
में असफल सिद्ध हुए कुछ विख्यात व्यक्तियों के चारित्रिक गुणों का विश्लेषण
किया था। इसका उद्देश्य उनकी सफलता और असफलता में चारित्रिक गुणों एवं
अवगुणों की भूमिका का विश्लेषण करना था। इसीलिये उसने उन लोगों के चरित्र
में समाहित प्रत्येक गुण का मानांक निर्धारित कर उन सभी के चारित्रिक गुणों
की एक तुलनात्मक तालिका बनाई थी। उसने पाया था कि इतिहास प्रसिद्द वीर योद्धा 'नेपोलियन बोनापार्ट' के चारित्रिक गुणों की तालिका में जीवन को अप्रतिम सफलता दिलाने वाले बहुत सारे मूल्यवान गुण थे। किंतु, एक अति महत्वपूर्ण गुण--सहनशीलता के आभाव के कारण उसे अपने जीवन के अन्त में घोर पराजय, अपमान और ग्लानी को झेलते हुए एक निर्वासित कैदी के रूप में ही प्राण त्यागना पड़ा था। उस मनोवैज्ञानिक ने बेचारे वीर योद्धा नेपोलियन को सहनशीलता में शुन्य अंक दिया था।
इसीलिए महाभारत में बिल्कुल ठीक ही कहा गया है :-
"अविजित्य यः आत्मानम् आमात्यान विजीगीषते।
अमित्राण वाजितामात्य यःसोह्वशः परिहीयते।।"
अर्थात, जो राजा पहले आत्मजय किए बिना ही (संयम की सहायता से अपने मन-इन्द्रियों को जीते बिना ही ) आमात्य वर्ग या मंत्रियों जीतने की अभिलाषा रखते हैं एवं आमात्य वर्ग को जीते बिना ही शत्रुओं को जीत लेने की अभिलाषा रखते हैं वे अवश्य ही शक्तिहीन और पारजित हो जाते हैं।
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५.
' स्पष्ट-धारणा'
(Clear thinking):
मनुष्य जन्म के समय शिशु रहता है, फिर नाना प्रकार की जानकारियों का संचय करते हुए धीरे- धीरे बड़ा बन जाता है। किसी-किसी के जीवन में बचपन से ही ढेर-सारे सपने होते हैं और कुछ लोगों का जीवन बचपन से ही इतना बोझिल होता है कि उनके लिये सुन्दर स्वप्न देखना भी एक प्रकार की विलासिता बन जाती है। किन्तु, प्रत्येक के जीवन में दो बातें समान रूप से घटित हो सकतीं हैं। एक तो यह कि वह दैवयोग से जिस परिवेश में रख दिया गया है, आजन्म उसी में पड़ा रहे; या फ़िर पुरुषार्थ कर यथार्थ शिक्षा प्राप्त कर ले। यदि यह मान भी लिया जाय कि परिवेश में परिवर्तन बहुत ही कष्टसाध्य होता है तब भी ऐसी शिक्षा की खोज तो की ही जा सकती है जो जीवन को रूपान्तरित करने में सहायक सिद्ध हो एवं उस शिक्षा से ऐसे भाव भी ग्रहण किए जा सकते हैं जो कि परिवेश के प्रभाव से हमारे जीवन की रक्षा करने वाला रक्षा-कवच बन जाय।
'जीवन-गठन' के विषय में गहराई से चिन्तन करना कितना आवश्यक है-- इस बात को हम सभी को भली-भाँति समझ लेना चाहिये। क्योंकि हमारा जीवन, नदी की धार में खर-पतवार जैसा बहते रहने की वस्तु नहीं है। जीवन की गति को इच्छानुसार मोड़ा जा सकता है, इसके प्रवाह की दिशा को निर्दिष्ट किया जा सकता है तथा जीवन को विशेष रूप में ढाला जा सकता है।
हमारे
जीवन-गठन की गुणवत्ता के ऊपर ही यह निर्भर करेगा कि हमारा जीवन सार्थक
होगा या यूँ ही व्यर्थ में नष्ट हो जाएगा। इसीलिए इसके विषय में हमारी
धारणा बिल्कुल स्पष्ट रहनी चाहिये। क्योंकि किसी भी मनुष्य के लिए सबसे
महत्वपूर्ण कार्य है --अपने जीवन को गठित कर लेना। और किसी भी कार्य में
सफलता पाने के लिये यह आवश्यक है कि उस कार्य के विषय में हमारी धारणा
बिल्कुल स्पष्ट हो--चाहे वह जीवन गठन का कार्य हो या अन्य कोई भी कार्य हो।
चरित्र में स्पष्ट धारणा क्षमता के गुण को अर्जित करने का तात्पर्य- बुद्धि के निर्णय शक्ति को इतना तीक्ष्ण बना लेने से है या उस विचार-क्षमता से है, जिसके समक्ष ज्ञातव्य विषय का कोई भी पहलू छुपा न रह सके।
जिस
प्रकार किसी सरोवर का जल अत्यन्त स्वच्छ होने से, उसकी तली तक साफ-साफ
दिखलाई पड़ती है,ठीक उसी प्रकार से किसी ज्ञातव्य विषय को साफ-साफ देखने के
प्रयास में जितना कुछ सामने दिख रहा है, केवल उतना ही नहीं, जो आगे आ सकता है, जो बाद में घटित हो सकता है --यदि
वह भी हमारे मनःचक्षु के समक्ष उदभासित हो उठे तो उसी को स्पष्ट धारणा की
क्षमता कहेंगे। 'स्पष्ट धारणा' बनाकर चाहे कोई भी कार्य किया जाय उसमें
सफलता अवश्य ही प्राप्त होती है।
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६.
दृढ संकल्प
(Determination):
चाहे कोई भी कार्य सम्पन्न करना हो हमें पहले उसके प्रति दृढ़ संकल्पवान होना ही होगा। (इसलिये हमलोग सत्यनारायण की पूजा या किसी भी पूजा को करने के पहले हमलोग हाथ में जल लेकर पूजा का संकल्प करते हैं।) विशेषकर, यदि हम अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करना चाहते हों, तब तो इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमारे चरित्र में दृढ़ संकल्प का गुण और भी आवश्यक हो जाता है। क्योंकि चाहे जिस भी कारण से हो मैंने जिस कार्य को पूरा करने का संकल्प ले लिया है अर्थात इस कार्य को तो करूँगा ही-ऐसा सोचकर कार्य में उतरा हूँ, यदि कार्य में उतरने के बाद वह इच्छा या संकल्प ही मन से निकल जाये तो अन्ततः वह कार्य कभी पूर्ण न हो सकेगा। इसीलिये किसी भी कार्य को आरम्भ करने से पूर्व उसके प्रति मन में दृढ़ संकल्प रहना चाहिये तभी तो सिद्धि प्राप्त होगी।
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७.
'उद्दम '
(Initiative):
सभी उपलब्ध विकल्पों पर 'स्पष्ट धारणा क्षमता' की सहायता से अच्छी तरह से
सोच-विचार कर लेने के बाद हमने जिस कार्य को पुरा करने का संकल्प लिया,
उसको प्रारम्भ करने के लिये जिस गुण की आवश्यकता होती है --वह है 'उद्दम'
या पहल करने की क्षमता। सीधे-सीधे कहा जाय तो 'उद्दम' का अर्थ है- जिस
कार्य को करने का संकल्प लिया है उसे पूर्ण करने में कमर कस कर जुट जाना या
प्रयासरत हो जाना। आलस्य के ठीक विपरीत है --'उद्दम'। आलस्य का अर्थ होता है कार्य करने के प्रति अनिच्छा। उद्दम का अर्थ है- कार्य के प्रति अदम्य उत्साह। जिस व्यक्ति में पहल करने की क्षमता या उद्दम ही न हो उस व्यक्ति के द्वारा कुछ भी कर पाना संभव नहीं है। संस्कृत का एक अत्यन्त ही सुन्दर नीतिश्लोक है --
" आलस्यहि मनुष्याणाम शरीरस्थो महान रिपुः ।
नास्ति उद्दमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति॥ "
-अर्थात मनुष्यों के शरीर में रहने वाला ' आलस्य' ही उसका सबसे बड़ा शत्रु है तथा उद्दम के समान परम मित्र अन्य कोई नहीं है। उद्दमी व्यक्ति को कभी पराजय का मुख नहीं देखना पड़ता।
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8.
अध्यवसाय
(Perseverance):
किसी कार्य में जुट जाने को उद्दम कहा जाता है। तथा सफलता मिलने तक निष्ठापूर्वक कार्यरत रहने को अध्यवसाय कहा जाता है। यदि हमने किसी कार्य का प्रारंभ तो उद्दम के साथ किया किन्तु दृढ़तापूर्वक उस कार्य में जुटे न रहे तो इसका यही अर्थ होगा कि उस कार्य के प्रति हमारी निष्ठा में कमी थी। निष्ठा में कमी रहने से हमारा कार्य कभी सफल नहीं हो सकता। जिस कार्य को करने का बीड़ा हमने उठाया है, यदि उसके प्रति प्रेम और अनुराग बना रहे तो निष्ठा भी बनी रहेगी। किन्तु, क्या हम प्रायः यह नहीं देखते कि जो कार्य हमें करना पड़ रहा होता है, वह हमें अच्छा नहीं लगता है ? इसका कारण है- निष्ठा का अभाव।
यदि हम यह जान लें कि निष्ठापूर्वक कार्य करते रहने के गुण को कैसे प्राप्त किया जा सकता है तब निष्ठापूर्वक कार्य करके किसी भी कार्य में सफलता पाई जा सकती है। किसी कार्य के फल या परिणाम पर विचार करने से ही निष्ठा आती है। साधारणतया कार्य करना सुखकर नहीं ही अनुभव होता है, क्योंकि उसके लिये परिश्रम करना पड़ता है। निश्चित ही किसी भी कार्य को करने में थोड़ा कष्ट तो होता ही है। किन्तु, स्पष्ट-धारणा क्षमता की सहायता से यदि यह बात पहले ही ज्ञात हो जाय कि मैं जिस कार्य में लगा हुआ हूँ उस कार्य का फल निश्चित ही अत्यन्त लाभकारी होगा। तब उस कार्य के प्रति स्वाभाविक अनुराग उत्पन्न हो जाता है तथा फिर उस कार्य में निष्ठापूर्वक लगे रहना मधुर हो जाता है। इसको ही अध्यवसाय कहा जाता है।
कृषि कार्य में हमारे किसान भाइयों को अत्यन्त ही कठिन परिश्रम करना पड़ता है, किन्तु उन कठिन क्षणों में उनके मुखमण्डल पर प्रसन्नता छाई रहती है, उनकी स्त्रियाँ भी फसल बुआई के समय खुशी के गीत गातीं हैं,क्योंकि उन्हें यह ज्ञात होता है कि उनके इसी कठिन परिश्रम से सोने जैसी फसल पैदा होगी। उसी प्रकार यदि हमें यह ज्ञात हो कि हम जो कार्य (जीवन-गठन) कर रहे हैं, उसका परिणाम अत्यन्त लाभ दायक होगा तो निष्ठापूर्वक कार्य करना सरल हो जाता है। " मैंने अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने का दृढ़ संकल्प कर लिया है, इसीलिए अब मैं प्रतिदिन प्रातः काल उठ कर सभी के मंगल की प्रार्थना करता हूँ, मनःसंयोग का अभ्यास करता हूँ, व्यायाम करता हूँ, स्वाध्याय करता हूँ, आत्मसमीक्षा या विवेक-प्रयोग करके आत्म-मुल्यांकन तालिका में अपने चारित्रिक गुणों का मानंक बैठाता हूँ।" इन पाँच मे से एक भी काम कहीं एक दिन के लिए भी छूट न जाय- इसके प्रति सजग रहता हूँ तथा निष्ठा के साथ अपने लक्ष्य (यथार्थ मनुष्य बनना) को प्राप्त करने में लगा हुआ हूँ। क्योंकि मैंने यह राज जान लिया है कि, चरित्र-निर्माण द्वारा अपना सुन्दर ढंग से जीवन -गठन कर लेने पर ही मनुष्य-जीवन सार्थक हो सकता है। यदि मेरा यह जीवन (मानव-जन्म) सार्थक न हो सका, तो बाद में बहुत संताप होगा। यदि इस बात को ठीक से समझ लिया जाय तो निष्ठा का अभाव कभी भी नहीं होगा। " अमृत प्राप्त होने तक, समुद्र-मंथन में लगे रहने को ही- ' अध्यवसाय' कहते हैं।"
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