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रविवार, 23 मार्च 2014

आत्मसात करने के योग्य जीवन मूल्य - "आत्मविश्वास, साहस, उपयोगबुद्धि " (Values to Imbibe -2)

 "आत्मविश्वास, साहस, उपयोगबुद्धि (चातुर्य अथवा कुशलता)"
Self Confidence, Courage, Resourcefulness
जब किसी व्यक्ति का चरित्र या जीवन अच्छी तरह से गठित हो जाता है, तो उसमें आत्मनिर्भरता(Sel-freliance) का गुण भी स्वतः चला आता है।  इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे, ' शिक्षा मनुष्य को आत्मनिर्भर बना देती है। ' क्या इस कथन का तात्पर्य केवल इतना है कि, शिक्षित मनुष्य अपने दोनों पैरों पर शरीर का पूरा भार डाल कर खड़े रहने का तरीका सीख जाता है ?   वास्तव में इस कथन का तात्पर्य  है - वह अपने जीवन को सही लक्ष्य की दिशा में ले जाने या उपयोगी बना लेने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। और जैसे जैसे आत्मनिर्भरता बढ़ती जाती है, दुःख मिलने की संभावना कम होती जाती है। जो व्यक्ति दूसरों के ऊपर जितना अधिक निर्भर होता है, उसकी इच्छायें उतनी ही अधूरी रह जाती हैं, फलस्वरूप अतृप्त चाहतों के कारण उसके दुःख भोगने की संभावना उतनी ही अधिक होती है।
जिस व्यक्ति ने- स्पष्ट सोच (clear thinking) सामान्य ज्ञान (common sense), धैर्य (patience), आत्म-संयम (self-restraint), सहिष्णुता (tolerance), पहल (initiative), परिश्रम (diligence), ईमानदारी (sincerity), दृढ़ संकल्प (determination) और इस तरह के अन्य गुणों को अधिगृहित कर लिया हो, उसे दूसरों के ऊपर शायद ही निर्भर करना पड़ता है, फलस्वरूप उसके लिये दुःख उठाने का जोखिम उतना ही कम होता है। और वही मनुष्य जीवन में सुख के आनन्द को पाने की उम्मीद कर सकता है, क्योंकि उसके जीवन में समाहित ये मूल्य या चरित्र के गुण ही उसे आत्मनिर्भर बना देते हैं। जो व्यक्ति आत्मनिर्भर होकर लम्बे डग भरना सीख लेता है, उसमें स्वाभाविक रूप से आत्मविश्वास होता है। 
आत्म-विश्वास का अर्थ है, अपनी प्रतिभा और दक्षता में विश्वास करना। वह जानता है कि मैं अपनी स्पष्ट सोच तथा विवेक शक्ति के बल पर हर समस्या का उचित समाधान ढूंढ़ सकता हूँ, तथा  जो मैं पाना चाहता हूँ उसे अपने दृढ़ निश्चय के बल पर प्राप्त भी कर सकता हूँ। लिहाजा, आत्मविश्वास का अर्थ हुआ अपने आप में विश्वास। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " पहले तुम अपने आप में विश्वास करो, फिर ईश्वर में करो। यदि तुम्हें अपने पुराणों में कहे गये तैंतीस करोड़ देवताओं में विश्वास हो, तथा बीच बीच में विदेशियों ने जिन देवताओं को घुसा दिया है, उन सबों पर विश्वास हो किन्तु तुम्हें अपने आप पर विश्वास नहीं है, तो तुम्हारी मुक्ति नहीं हो सकती।" इस प्रकार देख सकते हैं कि स्वामीजी ने आत्मविश्वास को कितना अधिक महत्व दिया था।स्वयं उनमें इतना जबरदस्त आत्मविश्वास था कि कई बाधाओं के बावजूद उन्होंने दुनिया को अकेले ही झकझोर कर रख दिया था। जिस मनुष्य में दृढ़ आत्म-विश्वास होता है, उसमें स्वाभाविक रूप से अदम्य साहस (indomitable courage) भी रहता है। भर्तृहरि ने एक श्लोक में इस भाव का बहुत सुन्दर ढंग चित्रण किया है- 
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः 
प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः।
विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः 
प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति॥ 
-अर्थात निम्न श्रेणी के पुरुष विघ्नों के भय से किसी नये कार्य का आरंभ ही नहीं करते। मध्यम श्रेणी के पुरुष कार्य तो आरंभ कर देते हैं पर विघ्नों से विचलित होकर उसे बीच में ही छोड़ देते हैं, परन्तु उत्तम श्रेणी के पुरुष बार-बार विघ्न आने पर भी प्रारंभ किये गये कार्य को पूर्ण किये बिना नहीं छोड़ते हैं॥" जो व्यक्ति हमेशा खतरों से आशंकित रहता है, वह कुछ भी हासिल नहीं कर सकता। किसी भी समस्या का सामना पुरे साहस के साथ करना चाहिये, अन्यथा उन पर हम विजय नहीं प्राप्त कर सकते। स्वामीजी इससे जुड़ी एक घटना कहते थे, एक बार वे रास्ते से जा रहे थे तो एक बन्दर बड़े डरावने ढंग से पीछे पड़ गया, वे जितनी तेजी से दौड़ते बन्दर भी उतनी ही तेजी से उन्हें खदेड़ने लगा। एक सन्यासी ने यह देखकर जोर से कहा, " बेटे, भागो मत उसका सामना करो !" उनकी बात सुनकर स्वामीजी रुक गये और जैसे ही घूमकर कर उस बन्दर के आमने-सामने खड़े हुए, बन्दर भाग खड़ा हुआ।  जो व्यक्ति हमेशा अनागत की चिन्ता से भयभीत रहता है, वह किसी भी कार्य में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता।
किन्तु किसी व्यक्ति को विवेक-प्रयोग के बाद न्यायोचित साहस ही करना चाहिये। अयुक्तिपूर्ण साहस हमें उतावला बनाकर मूर्खतापूर्ण कार्यों में फंसा सकता है। वैसा करना ठीक नहीं है। केवल अपने को साहसी दिखाने के लिये यदि कोई व्यक्ति अनावश्यक जोखिम उठता है, या जिससे किसी का भला न होता हो वैसे करतब दिखला कर किसी को प्रभावित करना चाहता है, तो वह एक मूर्खतापूर्ण या अविवेकपूर्ण कार्य ही माना जायगा। ऐसे कार्यों से जान भी जा सकती है, या बहुत बड़ी हानि भी उठानी पड़ सकती है। हाँ, किसी महान उद्देश्य के लिये जोखिम उठाया जा सकता है। वहाँ निश्चित रूप से साहस की आवश्यकता होती है। यदि कोई यह सोचकर खेल-कूद में भाग न ले, क्योंकि इसमें हड्डी भी टूटने का खतरा है; या कोई गाड़ी से कुचल जाने के भय से कभी घर से बाहर ही न निकले तो यह किस बात का परिचायक होगा ? इसको कहा जायगा साहस का नितान्त आभाव। इतना डरपोक (Timid) व्यक्ति जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। उसी प्रकार मान लो कि तुम सड़क से जा रहा हो, और सामने से कोई ट्रक आ रहा है, तभी तुम्हारे मन में विचार आ जाय कि मैं तो बहुत ही साहसी हूँ, ट्रक आ रहा है तो आ जाय - मैं तो सामने नहीं ही हटूँगा ! इसमें तुम्हारा अंग-भंग हो सकता है, या तुम्हारी जान भी जा सकती है। यह तो सरासर एक मूर्खता है। अतः कोई व्यक्ति यदि अपने जीवन में कुछ प्राप्त करना चाहता हो, तो उसे अपने ह्रदय में विवेक-युक्त साहस रखना चाहिये। उसी तरह उपाय कुशलता या चातुर्य (Resourcefulness) भी चरित्र का एक मूल्यवान गुण है। जिस व्यक्ति के चरित्र में चातुर्य या उपाय कुशलता का गुण होता है, वह जहाँ कोई भी साधन उपलब्ध न हो; वहाँ भी वह आभाव की पूर्ति का कोई न कोई साधन ढूंढ़ ही लेता है। यह बिना सोचे विचारे (offhand) एक नयी राह खोजने की क्षमता तथा तत्काल कोई इष्टानुकूल उपाय या युक्ति ढूंढ़ निकालने की कला है। यह कुशाग्र बुद्दि का प्रयोग करके किसी भी वस्तु का उद्देश्यपूर्ण उपयोग करने का कौशल है। किसी भी वस्तु को अच्छे या बुरे उद्देश्य के लिये उपयोग किया जा सकता है। यदि अच्छे कार्य के लिये किसी वस्तु का उपयोग हो, तो उसे उस वस्तु का अच्छा उपयोग, यदि बुरे कार्य में हो तो बुरा उपयोग कहेंगे।  उदहारण के लिये आग का उपयोग बहुत से अच्छे कार्यों में किया जा सकता है। फिर आग से संपत्ति जल सकती है, या जीवन भी जा सकता है।  यदि मैं अपने किसी गुण, ज्ञान या अन्य किसी वस्तु का मैं सदुपयोग करूँ तो उससे मुझे और दूसरों को भी लाभ हो सकता है। और इसके बजाय मैं यदि अपने संसाधनों का बुरे कार्यों में प्रयोग करूँ, तो उससे दूसरों को और मुझे भी हानि उठानी पड़ सकती है। या कभी कभी मैं अपने संसाधनों का उपयोग इस प्रकार भी कर सकता हूँ कि उससे मुझे तो लाभ हो किन्तु दूसरों को हानि उठानी पड़ सकती है।  उस हालत में भी इसे हम ठीक ठीक व्यवहार नहीं कह सकते, क्योंकि तब मैं दूसरों की कीमत पर मैं अपने स्वार्थ को पूरा करने की चेष्टा करता हूँ। हो सकता है कि तत्काल मुझे कोई लाभ हो भी जाय, किन्तु  हमें यह अच्छीतरह से समझ लेना चाहिये कि अन्ततोगत्वा मेरा ही हित अधिक नष्ट होने वाला है, क्योंकि कर्म का विधान है कि दूसरों को कष्ट देने पर बाद में कुछ भी प्राप्त होने वाला नहीं है। ऐसा आचरण सबसे पहले तो मुझे मनुष्य की मर्यादा से गिराकर पशु के स्तर पर ले जाता है, और दूसरी ओर यदि दूसरों को नुकसान पहुँचाकर भी अपने स्वार्थों को पूरा करने की प्रवृत्ति बहुत अधिक बढ़ जाय तो, हम ऐसी अवस्था में पहुँच जायेंगे जहाँ मेरा तात्कालिक भौतिक लाभ भी बहुत  बड़े नुकसान में बदल जायेगा। 
स्वामी विवेकानन्द पाप और पुण्य के संबंध में मान्यता प्राप्त आम धारणाओं को ज्यादा महत्व नहीं देते थे, वे कहा करते थे- " अपनी अन्तर्निहित शक्तियों का सदुपयोग करना पुण्य है, एवं उनका दुरूपयोग करना ही पाप है। " यदि हमलोग स्वामीजी द्वारा प्रदत्त इसी शिक्षा का लगातार अभ्यास करते रहें, तो हम अपनी प्रत्येक वस्तु का सदुपयोग सब की भलाई के लिये करने की क्षमता हासिल कर सकते हैं। इसका अभ्यास करते रहने से हमें एक नयी दृष्टि - ' प्रज्ञा-चक्षु ' प्राप्त हो जाती है। ऐसा हो सकता है कि मुझे किसी विशेष ज्ञान (विज्ञान) की थोड़ी सी जानकारी या कोई अनुभव हो, किन्तु दूसरों को उस संबंध में कोई भी जानकारी न हो। तो  केवल इसी कमी के कारण वे किसी बड़ी कठिनाई में भी फँस सकते हैं। अपनी इसी जानकारी या अनुभव को मैं यदि उनके साथ साझा करूँ, तो इससे उनको बहुत बड़ा लाभ हो सकता है। एक छोटी सी सूई या किसी वस्तु को तुच्छ समझकर हम उसकी उपेक्षा कर देते हैं। कोई उसे बेकार की वस्तु समझकर फेंक सकता है। वहीँ जिसके पास उपयोगबुद्धि का गुण होता है, वह इसी छोटी सी तुच्छ वस्तु का उपयोग करके किसी बहुत बड़े संकट से छुटकारा पा सकता है। उदाहरणार्थ मान लो कि तुम अपने टेबल-लैम्प से जुड़े बिजली के तार के एक क्षतिग्रस्त टुकड़े को देख लेते हो, तो वहाँ किसी पुराना समझकर फेंक दिये गये काले विद्युत् अवरोधी टेप (insulating black tape) का उपयोग करके किसी व्यक्ति के जीवन को भी बचा सकते हो। जिस वस्तु को हम अक्सर व्यर्थ की वस्तु समझकर उपेक्षा कर देते हैं, समय पड़ने से हम उसका सदा बेहतर इस्तेमाल भी कर सकते हैं। और कल्पना करो कि यदि हम अपने अति मूल्यवान मनुष्य-जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करने में समर्थ हो जाएँ, तो उससे हमें कितना अधिक फल प्राप्त हो सकता है! इसीलिये रहीम कवी (अब्दुर्रहीम खानखाना) ने कहा था-
रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजै डारि ।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करै तरवारि ।।
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान ।
कहि रहीम परकाज हित, संपति सँचहि सुजान ।।
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बुधवार, 12 मार्च 2014

आत्मसात करने के योग्य जीवन मूल्य (१) (Values to Imbibe-1)

' ईमानदारी, सत्यवादिता, विश्वसनीयता, सेवापरायणता'
(Honesty, Truthfulness, Reliability, Service Attitude)
जीवन के सराहनीय मूल्यों को आत्मसात करने की दृष्टि से यदि हमलोग थोडा थोडा करके चरित्र को गुणों को अर्जित करते जायें तो हम सही अर्थों में अच्छा मनुष्य, एक चरित्रवान मनुष्य बन सकते हैं। 
यदि हम ऐसा करते हैं तो जो कुछ भी कार्य हम करेंगे उसमें स्वाभाविक रूप से ईमानदारी की छाप दिखाई देगी। जो व्यक्ति सत्य को पकड़े रहता है केवल वही व्यक्ति ईमानदार हो सकता है। जो सदैव सत्य को पकड़े नहीं रहता, वह ईमानदार नहीं हो सकता। जो व्यक्ति सत्य को जान लेता है, वह निश्चित रूप से अपने विचार, वाणी और कर्मों में ईमानदार होता ही है। यदि हम थोड़ा भी सत्य से दूर हो जायें तो हमारे विचार, वाणी और कर्म अच्छे अथवा दूसरों की भलाई के अनुकूल नहीं हो सकते हैं।
इस तरह का एक छोटे सा दरार भी समय के अन्तराल में चौड़ा होता जाता है, और अंततः चरित्र का मीनार ही भहरा कर गिर पड़ता है। 
किन्तु, मनुष्य जीवन की महिमा केवल इसी चरित्र के दुर्ग पर निर्भर करती है। यदि चरित्र के परकोटे को चट्टानी दृढ़ता के साथ उर्ध्वमुखी नहीं रखा गया, तो हर कदम पर मिलने वाली विफलता की कड़वाहट जीवन में निराशा का ऐसा अँधेरा भर देगी कि प्रकाश और उल्लास के राज्य में एक पैर आगे बढ़ा सकना भी लगभग (well nigh) असंभव हो जायेगा। इसलिए चरित्र के मीनार को तब तक ऊँचा उठाये रखना चाहिये जब तक हमारा जीवन समाप्त नहीं हो जाता है। यदि हम ऐसा करने में सफल हो सके तभी हम वास्तव में अच्छा और ईमानदार मनुष्य कहे जा सकते हैं। ऐसा करना केवल किसी एकान्तवासी वानप्रस्थी या सन्यासियों (recluse रिक्लूज़) के लिये ही आवश्यक नहीं है। बल्कि, ऐसा आचरण उन लोगों के लिये और अधिक आवश्यक है जो गृहस्थ हैं या समाज में रहते हैं-स्वामी विवेकानन्द ने बार-बार इस मुद्दे पर सबसे अधिक बल दिया है। हमलोग स्वयं को थोडा भी कपटी या बेईमान नहीं होने दे सकते, थोडा भी अपवित्र नहीं होने दे सकते। हमारे देश में एक विशाल आबादी को इसी लिये बहुत दुःख कष्ट भोगना पड़ रहा है क्योंकि हममें से कई लोग भ्रष्ट या बेईमान हैं।
हमारे भ्रष्ट होने के कारण केवल दूसरों को कष्ट नहीं उठाना पड़ता है, बल्कि उनसे अधिक हानि हमें स्वयं उठानी पड़ती है। इस सच्चाई को हमें निश्चित तौर पर जान लेना चाहिये कि जीवन में जो ईमानदार नहीं है, अपरिहार्य विफलतायें उनका इंतजार कर रही हैं ।और  कोई भी चालाकी उन्हें बहुत लम्बे समय तक बचा नहीं सकेगी।
कुछ लोगों का तर्क हो सकता है कि बहुत से लोग तो भ्रष्ट तरीके  अपना कर भी बहुत धन-संपत्ति इकठ्ठा कर लेते हैं और जीवन का आनन्द भोगते हैं फिर बिना कोई कष्ट उठाए ही चल बसते हैं?
यह सच है कि वे थोड़ा आनन्द उठाते हैं, किन्तु हम उनके  उस संताप को नहीं देख पाते जो उन्हें उसके साथ ही साथ भुगतना पड़ता है।  लगातार चिन्ता, पकडे जाने की आशंका, अनियमित एवं असामान्य जीवन के कारण विभिन्न प्रकार की व्याधियां,  अपने अपावनकृत्यों को दूसरों से छिपाने में जो मानसिक तनाव उत्पन्न होता है वह उसके तथाकथित आनन्द के एक बहुत बड़े हिस्से को खा जाती है, और उसे सर्वदा दरिद्र बनाये रखती है। जीवन-पुष्प के पूर्ण रूप से प्रस्फुटित हो जाने पर उसकी खुशबु सभी दिशाओं को तथा अपने आस पास रहने वाले सभी मनुष्यों को आनन्दित कर देती है, उस आनन्द से तो वे वंचित ही रह जाते हैं। अतः जीवन के मूल्य का पूरा एहसास करने के लिये, चरित्र का महान गुण ईमानदारी का मूल्य अवश्य रहना चाहिये।
कई लोग सोचते हैं कि एक व्यापारी को सफल होने के लिये कुछ हद तक अवश्य बेईमान होना पड़ेगा। यह बिल्कुल गलत अवधारणा है। फोर्ड और कार्नेगी जैसे विख्यात व्यापारियों और उद्द्योगपतियों ने विपुल सम्पत्ति खड़ी करने में मुख्य पूँजीनिवेश सर्वदा ईमानदारी का ही किया था, एवं जो अन्य लोग इस क्षेत्र में सफलता पाना चाहते हैं उनको भी ईमानदारी अपनाने का परामर्श दिया था। हमलोग किसी भी चीज का अध्यन गहराई से नहीं करते हैं, और कुछ बुरे उदाहरणों को उठा लेते हैं तथा कार्य-कारण के अनुक्रम का गलत अर्थ लगाते हैं, और इस गलत निर्णय पर पहुँच जाते हैं कि पैसे और आनन्द के लिये ईमानदारी का त्याग करना आवश्यक है। कई बार ईमानदार रह पाना मुश्किल हो जाता है, किन्तु तुम यदि ईमानदारी का त्याग कर देने का जोखिम लोगे तो भविष्य में अवश्य कष्ट उठाना पड़ेगा।  
और ईमानदारी को सुनिश्चित करने के लिये, तुम्हें सत्य से जुड़े रहना होगा। और सत्य के साथ जुड़े रहने के लिये, तुम्हें केवल सत्य के लिये सत्य से प्रेम करने साहस रहना चाहिये। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " सत्य के लिये सब कुछ का त्याग किया जा सकता है, किन्तु अन्य किसी भी वस्तु को प्राप्त करने लिये सत्य का त्याग नहीं किया जा सकता है।" क्योंकि इस संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो सत्य से उच्चतर मूल्य का दावा कर सके। यदि तुम सत्य में ही दृढ़तापूर्वक अटल रहो, तो तुम्हें हर वस्तु प्राप्त हो जायेगी, और यदि तुमने सत्य को छोड़ दिया तो हर वस्तु खो जायेगी। इसीलिये श्रीरामकृष्ण ने माँ काली को अपना सब कुछ दे दिया था, किन्तु सत्य नहीं दे सके थे। " यदि मैंने वह दे दिया, तो मेरा अस्तित्व किस पर टिकेगा?" 
सत्य दो प्रकार का हो सकता है- ( verbal and ontological ) "वाचिक और सत्ता मीमांसा संबंधी"। एक सत्य बात कहना, तथ्यों के बारे में जैसा हम जानते हों, वैसा ही वर्णन कर देना। दूसरा है वास्तविकता (reality) के विषय में सत्य। वास्तविक वस्तु, सभी दृष्टिगोचर वस्तुओं की सार वस्तु, वह वस्तु हमारे अन्दर है, जिसे हमलोग आत्मा या ब्रह्म कहते हैं, उसे भी सत्य कहा जाता है। यदि हम अपने दैनन्दिन जीवन में सर्वदा सत्य को पकड़े रखें, तो हम उत्तरोत्तर उस वास्तविकता (अहं ब्रह्मास्मि) के अधिकाधिक निकट होते जायेंगे। यदि हम वैसा नहीं करें, तो उससे दूर हो जाते हैं। यदि हम वास्तविकता से दूर हो जाते हैं, तो हमारे पास केवल मांस और हड्डियों का मिथ्या आवरण या परिधान ही शेष रह जायगा। इसी लिये ठाकुर देव ने कहा था, ' माँ, मैं तुमको सबकुछ दे सक्ता हूँ, किन्तु सत्य नहीं दे सकता।' किसी भी वस्तु के लिये इसका विनिमय नहीं किया जा सकता। क्योंकि उस सत्य से और अधिक मूल्यवान अन्य कौन सी वस्तु हो सकती है, जो स्वयं हमारी यथार्थता है ? यह हमारे स्वयं की सार वस्तु है, हमारा अस्तित्व है, और भला कोई अपने अस्तित्व का त्याग कर भी कैसे सकता है ? किस वस्तु (मिल्कचॉकलेट) को प्राप्त करने के लिये हम अपने अस्तित्व को भी मिटा देना चाहेंगे? इसीलिये हमें सत्य में स्थित रहने का अभ्यास करना होगा, जिसे सामान्यतः सच्चाई (truthfulness) कहा जाता है। ऐसा न हो कि हम इस सच्चाई (सत्य या ब्रह्म या आत्मा अथवा भगवान) के स्रोत से बह कर दूर हो जायें। वस्तुतः सच्चाई (Truthfulness), सत्य अर्थात -ईश्वर या  ब्रह्म के प्रति वफ़ादार या निष्ठावान होने का नाम है ! 
समाज केवल वैसे ही लोगों का विश्वास करता है, जो सत्यवादी हैं और इसलिये ईमानदार हैं, क्योंकि वे किसी भी वस्तु (कामिनी-कांचन) के बदले सत्य का त्याग नहीं करेंगे। ऐसे व्यक्ति से और अधिक भरोसेमन्द या विश्वसनीय मनुष्य दूसरा कौन हो सकता है ? इसीलिये विश्वसनीयता (Reliability) एक मूल्य (जीवन-मूल्य) है, हमारे चरित्र का अत्यन्त महत्वपूर्ण गुण है। किसी सत्यवादी या सच्चे (truthful) व्यक्ति में कायम हुआ विश्वास कभी विनष्ट नहीं होता। किस प्रकार के मनुष्य पर भरोसा नहीं किया जा सकता? वैसे व्यक्ति पर भरोसा नहीं किया जा सकता है जिसमें सत्य के प्रति कोई आकर्षण नहीं होता है। ऐसे व्यक्ति पर किया गया विश्वास ही आगे चलकर गलत साबित हो जाता है। किन्तु, कोई ऐसा व्यक्ति जिसके चरित्र में सच्चाई और ईमानदारी का गुण होता है, वह कभी किसी के भरोसे को तोड़ ही नहीं सकता है। 
जो व्यक्ति सत्य में या परम यथार्थता (ultimate reality) में विश्वास करता है, उसे अपनी अन्तर्निहित उसी सच्चाई (same truth) के प्रति श्रद्धा या सम्मान का भाव (reverence) भी होता है। तब वह अपने अन्तर्निहित सत्यता को जानने या पकड़ने का, उसी में स्थित रहने और उसे अभिव्यक्त करने का कठिन प्रयास करता है। इस सार तत्व को परम सत्य या आत्मा अथवा ब्रह्म के रूप में स्वीकार करने, इसके अस्तित्व को स्वीकार करने तथा पवित्रता समझकर सम्मान करने को आस्तिक्य अथवा सच्ची श्रद्धा कहते हैं। 'वे' हैं, हमारे अन्दर हैं; इसमें दृढ़ता से विश्वास करने को ही श्रद्धा या सच्ची आत्मश्रद्धा कहते हैं। श्रद्धा एक संस्कृत शब्द है, इसका कोई ठीक ठीक अंग्रेजी का शब्द है ही नहीं। इसका अर्थ होता है, अपनी सच्ची सार वस्तु, अपनी अन्तर्निहित आत्मा के प्रति सम्मान (reverence) और अटूट आस्था रखना। यही मानव-जीवन की सबसे बुनियादी या मूलभूत सिद्धान्त है। जिस व्यक्ति में आत्मसम्मान (स्वाभिमान या self-esteem) नहीं होता, उसका जीवन तुच्छ या शून्य बन जाता है। उसका जीवन सफल नहीं होता, वह अपने जीवन में कोई भी महत्वपूर्ण कार्य निष्पादित नहीं कर पाता है। इस प्रकार का जीवन पौधे की तरह बढ़ता तो रहता है, किन्तु उसमें कोई फल नहीं मिलता। वैसा जीवन किसी के लिये उपयोगी नहीं होता, इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं को नसीहत देते हुए कहा था -'श्रद्धावान बनो ! नचिकेता जैसी श्रद्धा रखो !' 
जिस व्यक्ति में अपनी अन्तर्निहित आत्मा में अटल विश्वास होता है, उसमें प्रत्येक दूसरी आत्माओं के प्रति भी श्रद्धा और सम्मान का भाव होता है। इसीलिये वह कभी 'अपने-पराय' या 'मैं-तुम' का भेद-भाव नहीं रखता है। वह दूसरों के सुख-दुःख को अपने ही सुख-दुःख जैसा अनुभव करता है। किसी व्यक्ति की इसी क्षमता को समानुभूति (empathy) - 'अन्य व्यक्ति के साथ' बिल्कुल अपनेपन का अनुभव करना कहा जाता है। वह दूसरों की भावनाओं का आदर बिल्कुल अपनी भावना समझकर करता है। यह सहानुभूति उसे दूसरों की सेवा करने की प्रेरणा से भर देता है, दूसरों के दुःख-कष्टों को दूर करने की भावना उसके भीतर स्वाभाविक रूप से उत्पन्न हो जाती है। क्योंकि वह दूसरे मनुष्यों को बिल्कुल अपनी प्रतिमूर्ति समझता है, इसीलिये वह दूसरों के शोक-संताप को दूर हटाकर उसे आनन्दमय बनाने के लिये एक प्रकर के आन्तरिक आग्रह का अनुभव करता है। वह दूसरों के होठों पर मुस्कान लाने की चेष्टा किये बिना रह ही नहीं सकता। वह दूसरों के मंगल के लिये कोई भी हानि उठाने को तत्पर रहता है, वह इस कार्य से अधिक महत्वपूर्ण किसी भी त्याग को नहीं समझता है। 
इसीलिये यदि किसी व्यक्ति में आत्मश्रद्धा रहे, यदि युवा मनुष्य बन सकें, यदि वे कठोर परिश्रम करके अपने चरित्र का निर्माण कर सकें, यदि वे सत्य के साथ प्रेम कर सकें, यदि वे अपने मन,वाणी कर्मों (3H) में सामंजस्य स्थापित कर सकें, तो उनका मन में कभी दूसरों के प्रति अविश्वास या घृणा का भाव नहीं उठेगा,या वह कभी शत्रुता या द्वेष, छल-कपट या शोषण करने के लिये खेल के मैदान की तलाश नहीं करेगा। प्रेम, समानुभूति ( empathy), अपनेपन की भावना सम्पूर्ण समाज को प्रगाढ़ घनिष्टता के बंधन बांध लेता है। प्रत्येक व्यक्ति दूसरों की सेवा करके अपने जीवनी शक्ति को विकसित करना  चाहेगा, जीवन में सुख-भोग की छह में या आत्मसुख लेने, निजी स्वार्थ को पूरा करने की खोज में जीवनी शक्ति को बर्बाद करने से परहेज करेगा। ऐसे ही युवाओं का एक समूह उपेक्षित दलित लोगों के उत्थान के लिये कार्य कर सकता है। केवल वैसे ही लोग अन्याय और समाज की बुराइयों के खिलाफ खड़े हो सकते हैं और एक स्वस्थ और बेहतर वातावरण का निर्माण कर सकते हैं। यह तभी सम्भव है जब यदि कुछ मूल्यों या चरित्र के गुणों को विकसित किया जाय। महाभारत में बड़े ही सुन्दर ढंग से कहा गया है-
अविजित्य य आत्मानममात्यान्विजिगीषते ।
अमित्रान्वा जितामात्यः सोऽवशः परिहीयते ।।
 आत्मानमेव प्रथमं द्वेष्यरूपेण योजयेत् ।
ततोऽमात्यानमित्रांश्च न मोघं विजिगीषते ।।
जिता सभा वस्त्रवता मिष्टाशा गोमता जिता।
                   अध्वा जितो यानवता सर्वं शीलवता जितम् ।। (विदुरनीति)
(दर्जी द्वारा सिला गया) सुन्दर वस्त्र   पहनकर किसी सभा में उपस्थित जनसमूह को प्रभावित किया जा सकता
 है अथवा जीता जा सकता है , मिठाई खाने की इच्छा को गाय पाल करके सन्तुष्ट हुआ जा सकता है। लम्बा 
रास्ता तय करना हो, तो वायुयान द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है, किन्तु यदि आपका चरित्र
 सुन्दर रूप से गठित हुआ है, यदि जीवन के मूल्यों की प्राप्ति हो गयी हो तो आप हर जगह विजयी होंगे !  

 
 
 

सोमवार, 10 मार्च 2014

'आत्मसात करने योग्य जीवन-मूल्य ' (Values To Imbibe)

जीवन-मूल्यों का मूल्य
 ' Value of Values '
यदि हम स्वयं एक सम्मानित जीवन जीना चाहते हों, तथा अपने रहने के लिए एक सुन्दर समाज का निर्माण भी करना चाहते हों तो हमें जीवन-मूल्यों के मूल्य का पता अवश्य लगाना चाहिये और उसकी कदर करनी चाहिए। इन दिनों हमारी अभिरुचि ऐसे शब्दों का प्रयोग करने की ओर अधिक है जो हमें मोहित कर सकती हों। किन्तु, शायद हम स्पष्ट रूप से यह नहीं समझते कि वे शब्द वास्तव में किस भावना का प्रतिनिधित्व करते हैं? उन्हीं में से एक शब्द है- 'मूल्य' (values) हम प्रायः शिक्षा और व्यवसाय के हर क्षेत्र में मूल्य अनुस्थापन करने पर चर्चा करते हैं, हम मूल्य आधारित राजनीति, मूल्य आधारित शिक्षा आदि की बातें करते हैं किन्तु, यदि कोई यह पूछे कि वे मूल्य हैं क्या, जिन्हें आप शिक्षा अथवा व्यवसाय के प्रत्येक क्षेत्र में एक नीति के रूप में अनुस्तापित करना चाहते हैं, तो क्या हमें इसकी स्पष्ट व्याख्या प्राप्त होती है? क्या हम सभी लोग जीवन-मूल्यों के मूल्य को पहचानते हैं अथवा क्या हम सुस्पष्ट तरीके से जीवन-मूल्यों को परिभाषित कर सकते हैं ? क्या हमलोग भी अन्य देशों की नकल करते हुए प्रायः ऐसा सुझाव नही देते हैं कि पुराने मूल्यों का त्याग कर दिया जाना चाहिए और नए मूल्यों का निर्माण करना चाहिये? क्या सामाजिक जीवन से पुराने मूल्यों को निकाल कर नये मूल्यों को अनुस्थापित करना किसी पुराने भवन को गिरा कर नये भवन का निर्माण करने जितना आसान सुझाव माना जा सकता है ? जिन लोगों की हाथों में सत्ता की बागडोर है, वे क्या इतना भी समझते हैं कि इस प्रकार का सुझाव हमें कहाँ ले जायगा ?
{ऑस्कर वाइल्ड (1854-1900) शेक्सपीयर के उपरांत सर्वाधिक चर्चित ऑस्कर वाइल्ड सिर्फ एक उपन्यासकार, कवि और नाटककार ही नहीं थे, अपितु वे एक संवेदनशील मानव थे। उन्होंने सारी दुनिया में अपने लेखन से हलचल मचा दी थी।  उनके लेखन में जीवन की गहरी अनुभूतियाँ हैं, रिश्तों के रहस्य हैं, पवित्र सौन्दर्य की व्याख्या है, मानवीय धड़कनों की कहानी है। ऑस्कर वाइल्ड भविष्यवक्ता 'कीरो' के समकालीन थे। कीरो उनके दोनों हाथों के अन्तर को देखकर हैरान रह गए। दोनों में बड़ा अंतर था। जहाँ बाएँ हाथ की रेखाएँ कह रही थीं कि व्यक्ति असाधारण बुद्धि और अपार ख्याति का मालिक है। वहीं दायाँ हाथ..? कीरो ने कहा " दायाँ हाथ ऐसे शख्स का है जो अपने को स्वयं देश निकाला देगा और किसी अनजान जगह एकाकी और मित्र विहीन मरेगा।" कीरो ने यह भी कहा कि ४१ से ४२ वें वर्ष के बीच यह निष्कासन होगा और उसके कुछ वर्षों बाद मृत्यु हो जाएगी।"१८९५ में ऑस्कर वाइल्ड ने समाज के नैतिक नियमों का उल्लंघन कर दिया। फलस्वरूप समाज में उनकी अब तक अर्जित प्रतिष्ठा, मान-सम्मान और सारी उपलब्धियाँ ध्वस्त हो गईं। यहाँ तक कि उन्हें दो वर्ष का कठोर कारावास भी भुगतना पड़ा। 
जब ऑस्कर वाइल्ड ने अपने सौभाग्य के चमकते सितारे को डूबते हुए और अपनी कीर्ति पताका को झुकते हुए देखा तो उनके धैर्य ने जवाब दे दिया। अब वे अपने उसी गौरव और प्रभुता के साथ समाज के बीच खड़े नहीं हो सकते थे। हताशा की हालत में उन्होंने स्वयं को देश निकाला दे दिया। वे पेरिस चले गए और अकेले गुमनामी की जिंदगी गुजारने लगे। कुछ वर्षों बाद ३० नवंबर १९०० को पेरिस में ही उनकी मृत्यु हो गई। उस समय उनके पास कोई मित्र नहीं था। यदि कुछ था तो सिर्फ सघन अकेलापन और पिछले सम्मानित जीवन की स्मृतियों के बचे टुकड़े। कई बड़े साहित्यकारों की तरह उन्होंने भी विषपान किया, नीलकंठ बने और खामोश रहे। विश्व साहित्य का यह तेजस्वी हस्ताक्षर आज भी पूरी दुनिया में स्नेह के साथ पढ़ा और सराहा जाता है।}
ऑस्कर वाइल्ड ने अपने अनंत अनुभवों के आधार पर एक जगह लिखा-'विपदाएँ झेली जा सकती हैं, क्योंकि वे बाहर से आती हैं किन्तु, अपनी गलतियों का दंड भोगना- हाय वही तो है जीवन का दंश !' हालाँकि वे स्वयं एक नैतिक आरोप के दोषी थे किन्तु, उन्होंने लिखा था " दोषदर्शी मनुष्य (निन्दक या cynic) वह है जो प्रत्येक वस्तु की कीमत तो जानता है, किन्तु किसी का भी मूल्य नहीं समझता।" उनका यह वक्तव्य हमारे प्रश्न में अंतर्दृष्टि प्रदान कर उसे पूरा कर देता है, साथ-साथ मूल्यों (Values) के विषय में ऐसा बोध भी देता है कि इसकी माप-तौल- इसका नकद मूल्य क्या होगा अथवा तात्कालिक लाभ कितना होगा के पैमाने से  नहीं की जा सकती। कहा जा सकता है कि " मूल्य, सन्तुष्टि की वह भावना है, जो अन्तर्निहित शक्ति (दिव्यता) के वास्तविकरण (actualization) के द्वारा प्राप्त होती है।"
विख्यात ब्रिटिश दार्शनिक और गणितज्ञ अल्फ्रेड नार्थ  व्हाइटहेड (१८६१- १९४७) ने, भले ही इसका अर्थ उन्होंने जो समझा हो, कहा था-[ 'it (value) is the ultimate enjoyment of being actual']" यह (मूल्य) यथार्थ या वास्तविक होने का परम-आनंद है मूल्य का एहसास तब होता है जब सृजन से हमें सन्तोष प्राप्त होता है, ऐसा नहीं है कि जब मूल्य सृजित होता है तब हम सन्तुष्ट होते हैं। मूल्य का सृजन नहीं किया जा सकता। वे प्लेटो के विचार के जैसे शाश्वत हैं।" 
हमलोग भागवत में पाते हैं कि सृजनकर्ता (ब्रह्म) अपनी सृष्टि से तब तक सन्तुष्ट नहीं हुए थे जब तक उन्होंने उस मनुष्य का सृजन नहीं कर लिया जो अपने सृजन करने वाले 'ब्रह्म' को भी जानने की क्षमता से युक्त था। ब्रह्म को जान लेने के बाद ही मनुष्य को उच्चतम संतुष्टि प्राप्त होती है। और इसलिये भारतीय सांस्कृतिक संदर्भ में 'ब्रह्मविद्' होने, या ब्रह्म को जान लेने को सर्वोच्च मूल्य के रूप में मान्यता प्राप्त है, जिस प्रकार पश्चिमी विचारों के अनुसार उत्तम (Good) की अवधारणा को उच्चतम मूल्य के रूप में जाना जाता है। 
फिर ब्रिटिश प्रकृतिवादी दार्शनिक शमूएल अलेक्जेंडर का मानना था, भले ही इसका अर्थ जो भी समझते हों, कि 'देश-काल' (space time) ही समस्त प्रकार के अस्तित्वों का चरम या मूल द्रव्य (ultimate principle) है। वे कहते हैं, " वाह्य पदार्थों के अनुभवजन्य गुणों से भिन्न, मूल्य- मानों जीवन की बनावट या सौरभ हैं।" अर्थात मानवीय प्रशंसा के साथ वस्तु के एकीकरण (amalgamation) की दृष्टि  को मूल्य कहते हैं। 'परम सत्य की अनुभूति' जैसा कि माना जाता है, मात्र अक्षरों के मेल से बना कोई वाक्य ही नहीं है, वरण एक कर्तव्य-निर्देश का प्रस्ताव है। जिस प्रकार 'सौन्दर्य' अनुभव करने की वस्तु है तथा 'अच्छा' या 'good' वह है जिसे पाकर मनुष्य सन्तुष्ट हो जाये।
मूल्य अनुभव करने की वस्तु है उसे न तो सृजित किया जा सकता है और न ही नष्ट किया जा सकता है 'मूल्य' एक एहसास है, जिसे महसूस किया और सराहा जाता है, पहचान करके उसकी कदर की जाती है। अतः हमलोग पुराने मूल्यों का समुच्चय कहते हुये उसे नष्ट करके, मूल्यों के नये समुच्य का सृजन करने की बात सोच भी नहीं सकते। आम तौर पर हमलोग, मूल्यों (बहुवचन) की बात क्यों करते हैं, केवल मूल्य (एकवचन) की बात क्यों नहीं करते ? क्योंकि मूल्यों का एक अनुक्रम (hierarchy) होता है, इसीलिये सभी मनुष्यों में 'परम' (highest) को अनुभूत कर लेने की क्षमता एक समान नहीं होती फिर भी, किसी मनुष्य के लिये मूल्यरहित क्षेत्र से मूल्यों के क्षेत्र में उभर आने से बेहतर बात और कुछ हो नहीं सकती। अतः उच्च मूल्यों का अनुभव करने के लिए, हमें मूल्यों के अनुक्रम के अनुसार धीरे-धीरे ही प्रयास करना पड़ेगा। 
 'मूल्यों' की अनुभूति शाश्वत-सत्य के साथ मानव-मन की अंतःक्रिया (interaction) के माध्यम से की जाती है। जितनी प्रगाढ़ अंतःक्रिया होगी उतने ही उच्च मूल्य की अनुभूति होगी। इसलिए शाश्वत-सत्य को समझने के प्रयास (हर नाम-रूप के पीछे 'तू') में वाली चित्त की शुद्धता या मन के संशोधन (refinement) के ऊपर ही हमारा मूल्यबोध निर्भर करता है। सत्य के साथ मन की अंतःक्रिया के कारण मन का शोधन जितना उच्चतर होता जायेगा, उतना ही उच्च से उच्चतर मूल्यों को मान्यता देने से प्राप्त होने वाली सन्तुष्टि के मूल्यांकन में भी वृद्धि होती जायेगी। यदि पशुओं में भी मूल्यों को पहचानने या कदर करने की क्षमता होती, तो वे केवल खाने, सोने, आत्मसुरक्षा करने और वंश-विस्तार को ही अपना मूल्य समझकर सन्तुष्ट हो जाते। जो व्यक्ति इसी प्रकार के मूल्यों का अनुभव करने में संतुष्ट रहता है, वह मनुष्य होकर भी पशु-स्तर का जीवन व्यतीत करता है। भर्तृहरि कहते हैं- 
येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानम् न शीलं न गुणो न धर्मः |
ते मृत्युलोके भुवि भारभूताः मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति ||

- अर्थात जो विद्या, तप , दान ज्ञान शील और गुण धर्म से रहित है वह इस मृत्युलोक में धरती पर भार स्वरुप है और मनुष्य के रूप में पशु ही है! ऐसे ही लोगों की संख्या आज बढ़ती जा रही है -ये संस्कारित या चरित्रशील लोग नहीं है - बस केवल उनका ढाँचा ही मनुष्य का है, वास्तव में वे हिंस्र पशु ही हैं -इनसे सावधान रहने की जरुरत है! हिंस्र पशुओं का मनुष्य रूपी झुण्ड बेख़ौफ़ बड़े शहरों में विचरण कर रहा है -जिसका परिणाम है आये दिन होने वाले दामिनी काण्ड; हम अभिभावक अपने बच्चों को यह बात क्यों नहीं समझ पा रहे हैं ? माना कि सहज विश्वास और भरोसा मानवीय गुण हैं किन्तु, हमारे पास एक तर्कशील दिमाग भी तो है; हमें अपने बच्चों को पशु रूप में विचरण करने वाले पशु मानव-और देव मानव में विवेक कैसे किया जाता यह गुण  सीखना होगा। 
बहरहाल आगे से हमारे बच्चे श्रद्धा और विवेक क्या है - इसे अवश्य समझें और आत्मरक्षा (सेफ्टी फर्स्ट) के प्रति सतर्क रहने की चेष्टा भी करें, क्योंकि घोर जंगल में बिना होशियारी निर्द्वन्द्व विचरण कोई बुद्धिमानी नहीं है। और बिना विवेक-प्रयोग किये जो सहज विश्वास कर लिया जाता है, यह अविवेक ही विश्वासघात के मूल में है। आज बड़े बड़े शहर भी जंगल सरीखे हो गये हैं, क्योंकि किसी का किसी से कोई वास्ता नहीं है -सब अजनबी हैं-इम्पर्सनल! यह अजनबीपन ही पशु-मानवों में कबीलाई मानसिकता, आक्रामकता को पोषित करता है और क्षेत्रीयता की भावना (मराठी मानुष रूपी टेरिटोरियलिज्म) को बढ़ावा देता है
इस पशु-स्तर से ऊपर उठने के लिये उसे 'शाश्वत-सत्य' (प्रतिभासिक सत्य और असत्य के बीच विवेक) के साथ गहरी बातचीत करने के माध्यम से उच्चतर मूल्यों को पहचान कर सन्तुष्टि की तलाश करनी चाहिये। मूल्यों के उच्च से उच्चतर अनुक्रम का  यथाक्रम अनुभव करते हुए धीरे-धीरे, एक एक सीढ़ी चढ़ता हुआ मनुष्य अपने  जीवन की बृहत्तर पूर्णता की ओर अग्रसर होता रहता है। जहाँ  मूल्य  (values) सत्य के मूल्यांकन के लिये माप-तौल  हैं, वहीँ वे हमें मनव-जीवन की बृहत्तर पूर्णता की अग्रसर  रहने के लिये अनुप्रेरित भी करती हैं। इस प्रकार मूल्यों की पश्चिमी अवधारणा की निकटतम भारतीय अवधारणा- चार प्रकार के पुरुषार्थों के दृष्टिकोण में प्राप्त होती हैं।
चार प्रकार के पुरुषार्थों में पहला है - धर्म अर्थात वैसी साधुता (righteousness) जो हमें नेकी या सद्कर्म (right action) करने के लिये प्रेरित करे, दूसरा है -अर्थ अर्थात अवश्यकताओं को पूरा करने के लिये धन-दौलत अर्जित करना, तीसरा पुरुषार्थ है- काम (desires या आकांक्षा या कामना-वासना), चौथा और अंतिम पुरुषार्थ है -मोक्ष अर्थात धन-दौलत और कामदेव की दासता से मुक्ति ! धर्म अथवा साधुता विवेक-प्रयोग के द्वारा प्राप्त होती है, विवेक कहते हैं सत्य-मिथ्या, शाश्वत-नश्वर, अच्छा-बुरा या श्रेय-प्रेय को अलग अलग पहचान लेने की क्षमता को। 
किसी यथार्थवादी अमेरिकन दार्शनिक ने, जो यह मानता था कि 'स्वामी विवेकानन्द सम्पूर्ण मानवता के लिए एक पूजनीय मनुष्य थे।' एक पत्र में उन्हें गुरु (Master) कहकर संबोधित किया था, और लिखा था- ' संक्षेप में कहें तो 'परमसत्य' हमारे न्याय संगत चिन्तन का एकमात्र सहारा है, जिस प्रकार साधुता या नेकी ही व्यवहार का एकमात्र साधन है।' विलियम जेम्स कहते हैं- "लगभग किसी भी फैशन में वांछनीय एवं प्रत्यक्ष अनुभव में आने वाले लम्बे समय के लिये लाभकारी समस्त व्यवहार, अनिवार्य रूप से भविष्य में होने वाले समस्त अनुभवों के लिये उतना ही सन्तोषप्रद नहीं होता।" इस कथन की तुलना गीता १८/३७-३९में श्रीकृष्ण द्वारा तीन प्रकार के सुखों के विषय में कहे गए कथन से करें-

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ।।37।।
विषयेन्द्रिसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ।।38।।
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मन: ।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ।।39।।

जो ऐसा सुख है, वह आरम्भकाल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत होता है, परंतु परिणाम में अमृत के तुल्य है; इसलिये वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है ।।37।।  जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है, वह पहले भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य है; इसलिये वह सुख राजस कहा गया है ।।38।। जो सुख भोग काल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है- वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है ।।39।। ] 
' जो अभी स्वादिष्ट  लग रहा है, बाद में कड़ुआ लग सकता है, और जो अभी विष जैसा लग रहा है, वही बाद में अमृत के जैसा प्रतीत होने वाला है। ' इस लिये तुम अर्थ (रूपये-पैसे) और काम (इच्छा) की बागडोर धर्म (विवेक) के हाथों में तब तक रखो, जब तक तुम इन सबसे ऊपर नहीं उठ जाते - जहाँ मोक्ष (समस्त इच्छाओं से मुक्ति) के आलोक में  सच्चा सुख है ! मनु स्मृति में भी कहा गया है- किसी भी प्रकार की पर-निर्भरता दुःखों का कारण है, एवं पूर्णतः आत्म-निर्भर हो जाने में ही सुख निहित है। संक्षेप में सुख और दुःख के यही लक्षण है। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि आप अपने जीवन में मूल्यों को कितना मूल्य देते हैं तथा अपने जीवन में किस प्रकार मूल्यों को अपनाते हैं। आप मूल्यों को कितना मूल्य देंगे वह निर्भर करता है आपकी वैसी प्रसंशा के ऊपर जैसी आप अपने पर्स या जेब में रखे मूल्य के लिये करते हैं।
श्रीरामकृष्ण एक कहानी कहा करते थे- " किसी धनी व्यक्ति ने अपने नौकर को हीरे का एक टुकड़ा  देकर उसका मूल्य जानने के लिये एक बैंगन बेचने वाले के पास भेजा। उसने लौट कर बताया कि बैंगन वाला उस हीरे के बदले ९ सेर से अधिक एक भी बैंगन देने को राजी नहीं है। फिर उसे एक बजाज के पास भेजा गया। बजाज ने उसके बदले नौ सौ रुपये से एक रुपया अधिक देने को राजी नहीं हुआ। तब उसके मालिक ने उसे एक जौहरी के पास भेजा। जौहरी पहचान सकता था कि यह एक सच्चे हीरे का टुकड़ा है, तथा बिना मोलमुलाई किये एक लाख देने की पेशकश कर दी।'
हम लोग किसी वस्तु का मूल्य का आकलन केवल यह देखकर ही नहीं करते कि अभी तुरन्त उसका नकद मूल्य क्या है, बल्कि उसके वास्तविक मूल्य को पहचान करने की हमारी क्षमता के अनुसार करते हैं कि वह अंततः हमारे जीवन को कितना मूलयवान बना सकते हैं। मूल्यों का प्रस्तावित मोल, सत्यता (reality) का मूल्यांकन करने की हमारी क्षमता पर निर्भर करता है। सत्यता के साथ अपने एकत्व की अनुभूति कर लेने से जो बृहत्तम आनन्द प्राप्त होता है, उसे परमानन्द (bliss) कहते हैं, और जिससे मानव-जीवन को उच्चतम सन्तुष्टि उपलब्ध होती है। 
जिस परमानन्द को पाकर मनुष्य सदा के लिये सन्तुष्ट हो जाता है, कोई इच्छा शेष नहीं रह जाती,सदा के लिये पूर्णकाम हो जाता है, उसी अवस्था मुक्ति या मोक्ष की अवस्था कहते हैं। शाश्वत सत्य- ' हर देश में तू हर भेष में तू ' का बहुत छोटा मूल्य निर्धारण, अर्थात अपने और पराये में भेद-बुद्धि रखने से जीवन के बहुत निम्न स्तर के मूल्यों की समझ ही प्राप्त हो सकती है। इस प्रकार जीवन में पूर्णता की उपलब्धि इस बात पर निर्भर करती है कि हम अपने जीवन में आत्मसात करने के लिये किस स्तर के मूल्यों का चयन करते हैं, एवं उन मूल्यों के लिया कितना मूल्य चुकाने को तैयार हैं? अतेव सामाजिक जीवन की गुणवत्ता उसमें रहने वाले मनुष्यों के वैयक्तिक जीवन में आत्मसात किये गये चारित्रिक गुणों की गुणवत्ता पर निर्भर करती है।
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