"आत्मविश्वास, साहस, उपयोगबुद्धि (चातुर्य अथवा कुशलता)"
Self Confidence, Courage, Resourcefulness
जब किसी व्यक्ति का चरित्र या जीवन अच्छी तरह से गठित हो जाता है, तो उसमें आत्मनिर्भरता(Sel-freliance) का गुण भी स्वतः चला आता है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे, ' शिक्षा मनुष्य को आत्मनिर्भर बना देती है। ' क्या इस कथन का तात्पर्य केवल इतना है कि, शिक्षित मनुष्य अपने दोनों पैरों पर शरीर का पूरा भार डाल कर खड़े रहने का तरीका सीख जाता है ? वास्तव में इस कथन का तात्पर्य है - वह अपने जीवन को सही लक्ष्य की दिशा में ले जाने या उपयोगी बना लेने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। और जैसे जैसे आत्मनिर्भरता बढ़ती जाती है, दुःख मिलने की संभावना कम होती जाती है। जो व्यक्ति दूसरों के ऊपर जितना अधिक निर्भर होता है, उसकी इच्छायें उतनी ही अधूरी रह जाती हैं, फलस्वरूप अतृप्त चाहतों के कारण उसके दुःख भोगने की संभावना उतनी ही अधिक होती है।
जिस व्यक्ति ने- स्पष्ट सोच (clear thinking) सामान्य ज्ञान (common sense), धैर्य (patience), आत्म-संयम (self-restraint), सहिष्णुता (tolerance), पहल (initiative), परिश्रम (diligence), ईमानदारी (sincerity), दृढ़ संकल्प (determination) और इस तरह के अन्य गुणों को अधिगृहित कर लिया हो, उसे दूसरों के ऊपर शायद ही निर्भर करना पड़ता है, फलस्वरूप उसके लिये दुःख उठाने का जोखिम उतना ही कम होता है। और वही मनुष्य जीवन में सुख के आनन्द को पाने की उम्मीद कर सकता है, क्योंकि उसके जीवन में समाहित ये मूल्य या चरित्र के गुण ही उसे आत्मनिर्भर बना देते हैं। जो व्यक्ति आत्मनिर्भर होकर लम्बे डग भरना सीख लेता है, उसमें स्वाभाविक रूप से आत्मविश्वास होता है।
आत्म-विश्वास का अर्थ है, अपनी प्रतिभा और दक्षता में विश्वास करना। वह जानता है कि मैं अपनी स्पष्ट सोच तथा विवेक शक्ति के बल पर हर समस्या का उचित समाधान ढूंढ़ सकता हूँ, तथा जो मैं पाना चाहता हूँ उसे अपने दृढ़ निश्चय के बल पर प्राप्त भी कर सकता हूँ। लिहाजा, आत्मविश्वास का अर्थ हुआ अपने आप में विश्वास। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " पहले तुम अपने आप में विश्वास करो, फिर ईश्वर में करो। यदि तुम्हें अपने पुराणों में कहे गये तैंतीस करोड़ देवताओं में विश्वास हो, तथा बीच बीच में विदेशियों ने जिन देवताओं को घुसा दिया है, उन सबों पर विश्वास हो किन्तु तुम्हें अपने आप पर विश्वास नहीं है, तो तुम्हारी मुक्ति नहीं हो सकती।" इस प्रकार देख सकते हैं कि स्वामीजी ने आत्मविश्वास को कितना अधिक महत्व दिया था।स्वयं उनमें इतना जबरदस्त आत्मविश्वास था कि कई बाधाओं के बावजूद उन्होंने दुनिया को अकेले ही झकझोर कर रख दिया था। जिस मनुष्य में दृढ़ आत्म-विश्वास होता है, उसमें स्वाभाविक रूप से अदम्य साहस (indomitable courage) भी रहता है। भर्तृहरि ने एक श्लोक में इस भाव का बहुत सुन्दर ढंग चित्रण किया है-
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः
प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः।
विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः
विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः
प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति॥
-अर्थात निम्न श्रेणी के पुरुष विघ्नों के भय से किसी नये कार्य
का आरंभ ही नहीं करते। मध्यम श्रेणी के पुरुष कार्य तो आरंभ कर देते हैं पर
विघ्नों से विचलित होकर उसे बीच में ही छोड़ देते हैं, परन्तु उत्तम श्रेणी के
पुरुष बार-बार विघ्न आने पर भी प्रारंभ किये गये कार्य को पूर्ण किये
बिना नहीं छोड़ते हैं॥" जो व्यक्ति हमेशा खतरों से आशंकित रहता है, वह कुछ भी हासिल नहीं कर सकता। किसी भी समस्या का सामना पुरे साहस के साथ करना चाहिये, अन्यथा उन पर हम विजय नहीं प्राप्त कर सकते। स्वामीजी इससे जुड़ी एक घटना कहते थे, एक बार वे रास्ते से जा रहे थे तो एक बन्दर बड़े डरावने ढंग से पीछे पड़ गया, वे जितनी तेजी से दौड़ते बन्दर भी उतनी ही तेजी से उन्हें खदेड़ने लगा। एक सन्यासी ने यह देखकर जोर से कहा, " बेटे, भागो मत उसका सामना करो !" उनकी बात सुनकर स्वामीजी रुक गये और जैसे ही घूमकर कर उस बन्दर के आमने-सामने खड़े हुए, बन्दर भाग खड़ा हुआ। जो व्यक्ति हमेशा अनागत की चिन्ता से भयभीत रहता है, वह किसी भी कार्य में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता।
किन्तु किसी व्यक्ति को विवेक-प्रयोग के बाद न्यायोचित साहस ही करना चाहिये। अयुक्तिपूर्ण साहस हमें उतावला बनाकर मूर्खतापूर्ण कार्यों में फंसा सकता है। वैसा करना ठीक नहीं है। केवल अपने को साहसी दिखाने के लिये यदि कोई व्यक्ति अनावश्यक जोखिम उठता है, या जिससे किसी का भला न होता हो वैसे करतब दिखला कर किसी को प्रभावित करना चाहता है, तो वह एक मूर्खतापूर्ण या अविवेकपूर्ण कार्य ही माना जायगा। ऐसे कार्यों से जान भी जा सकती है, या बहुत बड़ी हानि भी उठानी पड़ सकती है। हाँ, किसी महान उद्देश्य के लिये जोखिम उठाया जा सकता है। वहाँ निश्चित रूप से साहस की आवश्यकता होती है। यदि कोई यह सोचकर खेल-कूद में भाग न ले, क्योंकि इसमें हड्डी भी टूटने का खतरा है; या कोई गाड़ी से कुचल जाने के भय से कभी घर से बाहर ही न निकले तो यह किस बात का परिचायक होगा ? इसको कहा जायगा साहस का नितान्त आभाव। इतना डरपोक (Timid) व्यक्ति जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। उसी प्रकार मान लो कि तुम सड़क से जा रहा हो, और सामने से कोई ट्रक आ रहा
है, तभी तुम्हारे मन में विचार आ जाय कि मैं तो बहुत ही साहसी हूँ, ट्रक आ रहा
है तो आ जाय - मैं तो सामने नहीं ही हटूँगा ! इसमें तुम्हारा अंग-भंग हो सकता है, या तुम्हारी जान भी जा सकती है। यह तो सरासर एक मूर्खता है। अतः कोई व्यक्ति यदि अपने जीवन में कुछ प्राप्त करना चाहता हो, तो उसे अपने ह्रदय में विवेक-युक्त साहस रखना चाहिये। उसी तरह उपाय कुशलता या चातुर्य (Resourcefulness) भी चरित्र का एक मूल्यवान गुण है। जिस व्यक्ति के चरित्र में चातुर्य या उपाय कुशलता का गुण होता है, वह जहाँ कोई भी साधन उपलब्ध न हो; वहाँ भी वह आभाव की पूर्ति का कोई न कोई साधन ढूंढ़ ही लेता है। यह बिना सोचे विचारे (offhand) एक नयी राह खोजने की क्षमता तथा तत्काल कोई इष्टानुकूल उपाय या युक्ति ढूंढ़ निकालने की कला है। यह कुशाग्र बुद्दि का प्रयोग करके किसी भी वस्तु का उद्देश्यपूर्ण उपयोग करने का कौशल है। किसी भी वस्तु को अच्छे या बुरे उद्देश्य के लिये उपयोग किया जा सकता है। यदि अच्छे कार्य के लिये किसी वस्तु का उपयोग हो, तो उसे उस वस्तु का अच्छा उपयोग, यदि बुरे कार्य में हो तो बुरा उपयोग कहेंगे। उदहारण के लिये आग का उपयोग बहुत से अच्छे कार्यों में किया जा सकता है। फिर आग से संपत्ति जल सकती है, या जीवन भी जा सकता है। यदि मैं अपने किसी गुण, ज्ञान या अन्य किसी वस्तु का मैं सदुपयोग करूँ तो उससे मुझे और दूसरों को भी लाभ हो सकता है। और इसके बजाय मैं यदि अपने संसाधनों का बुरे कार्यों में प्रयोग करूँ, तो उससे दूसरों को और मुझे भी हानि उठानी पड़ सकती है। या कभी कभी मैं अपने संसाधनों का उपयोग इस प्रकार भी कर सकता हूँ कि उससे मुझे तो लाभ हो किन्तु दूसरों को हानि उठानी पड़ सकती है। उस हालत में भी इसे हम ठीक ठीक व्यवहार नहीं कह सकते, क्योंकि तब मैं दूसरों की कीमत पर मैं अपने स्वार्थ को पूरा करने की चेष्टा करता हूँ। हो सकता है कि तत्काल मुझे कोई लाभ हो भी जाय, किन्तु हमें यह अच्छीतरह से समझ लेना चाहिये कि अन्ततोगत्वा मेरा ही हित अधिक नष्ट होने वाला है, क्योंकि कर्म का विधान है कि दूसरों को कष्ट देने पर बाद में कुछ भी प्राप्त होने वाला नहीं है। ऐसा आचरण सबसे पहले तो मुझे मनुष्य की मर्यादा से गिराकर पशु के स्तर पर ले जाता है, और दूसरी ओर यदि दूसरों को नुकसान पहुँचाकर भी अपने स्वार्थों को पूरा करने की प्रवृत्ति बहुत अधिक बढ़ जाय तो, हम ऐसी अवस्था में पहुँच जायेंगे जहाँ मेरा तात्कालिक भौतिक लाभ भी बहुत बड़े नुकसान में बदल जायेगा।
स्वामी विवेकानन्द पाप और पुण्य के संबंध में मान्यता प्राप्त आम धारणाओं को ज्यादा महत्व नहीं देते थे, वे कहा करते थे- " अपनी अन्तर्निहित शक्तियों का सदुपयोग करना पुण्य है, एवं उनका दुरूपयोग करना ही पाप है। " यदि हमलोग स्वामीजी द्वारा प्रदत्त इसी शिक्षा का लगातार अभ्यास करते रहें, तो हम अपनी प्रत्येक वस्तु का सदुपयोग सब की भलाई के लिये करने की क्षमता हासिल कर सकते हैं। इसका अभ्यास करते रहने से हमें एक नयी दृष्टि - ' प्रज्ञा-चक्षु ' प्राप्त हो जाती है। ऐसा हो सकता है कि मुझे किसी विशेष ज्ञान (विज्ञान) की थोड़ी सी जानकारी या कोई अनुभव हो, किन्तु दूसरों को उस संबंध में कोई भी जानकारी न हो। तो केवल इसी कमी के कारण वे किसी बड़ी कठिनाई में भी फँस सकते हैं। अपनी इसी जानकारी या अनुभव को मैं यदि उनके साथ साझा करूँ, तो इससे उनको बहुत बड़ा लाभ हो सकता है। एक छोटी सी सूई या किसी वस्तु को तुच्छ समझकर हम उसकी उपेक्षा कर देते हैं। कोई उसे बेकार की वस्तु समझकर फेंक सकता है। वहीँ जिसके पास उपयोगबुद्धि का गुण होता है, वह इसी छोटी सी तुच्छ वस्तु का उपयोग करके किसी बहुत बड़े संकट से छुटकारा पा सकता है। उदाहरणार्थ मान लो कि तुम अपने टेबल-लैम्प से जुड़े बिजली के तार के एक क्षतिग्रस्त टुकड़े को देख लेते हो, तो वहाँ किसी पुराना समझकर फेंक दिये गये काले विद्युत् अवरोधी टेप (insulating black tape) का उपयोग करके किसी व्यक्ति के जीवन को भी बचा सकते हो। जिस वस्तु को हम अक्सर व्यर्थ की वस्तु समझकर उपेक्षा कर देते हैं, समय पड़ने से हम उसका सदा बेहतर इस्तेमाल भी कर सकते हैं। और कल्पना करो कि यदि हम अपने अति मूल्यवान मनुष्य-जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करने में समर्थ हो जाएँ, तो उससे हमें कितना अधिक फल प्राप्त हो सकता है! इसीलिये रहीम कवी (अब्दुर्रहीम खानखाना) ने कहा था-
स्वामी विवेकानन्द पाप और पुण्य के संबंध में मान्यता प्राप्त आम धारणाओं को ज्यादा महत्व नहीं देते थे, वे कहा करते थे- " अपनी अन्तर्निहित शक्तियों का सदुपयोग करना पुण्य है, एवं उनका दुरूपयोग करना ही पाप है। " यदि हमलोग स्वामीजी द्वारा प्रदत्त इसी शिक्षा का लगातार अभ्यास करते रहें, तो हम अपनी प्रत्येक वस्तु का सदुपयोग सब की भलाई के लिये करने की क्षमता हासिल कर सकते हैं। इसका अभ्यास करते रहने से हमें एक नयी दृष्टि - ' प्रज्ञा-चक्षु ' प्राप्त हो जाती है। ऐसा हो सकता है कि मुझे किसी विशेष ज्ञान (विज्ञान) की थोड़ी सी जानकारी या कोई अनुभव हो, किन्तु दूसरों को उस संबंध में कोई भी जानकारी न हो। तो केवल इसी कमी के कारण वे किसी बड़ी कठिनाई में भी फँस सकते हैं। अपनी इसी जानकारी या अनुभव को मैं यदि उनके साथ साझा करूँ, तो इससे उनको बहुत बड़ा लाभ हो सकता है। एक छोटी सी सूई या किसी वस्तु को तुच्छ समझकर हम उसकी उपेक्षा कर देते हैं। कोई उसे बेकार की वस्तु समझकर फेंक सकता है। वहीँ जिसके पास उपयोगबुद्धि का गुण होता है, वह इसी छोटी सी तुच्छ वस्तु का उपयोग करके किसी बहुत बड़े संकट से छुटकारा पा सकता है। उदाहरणार्थ मान लो कि तुम अपने टेबल-लैम्प से जुड़े बिजली के तार के एक क्षतिग्रस्त टुकड़े को देख लेते हो, तो वहाँ किसी पुराना समझकर फेंक दिये गये काले विद्युत् अवरोधी टेप (insulating black tape) का उपयोग करके किसी व्यक्ति के जीवन को भी बचा सकते हो। जिस वस्तु को हम अक्सर व्यर्थ की वस्तु समझकर उपेक्षा कर देते हैं, समय पड़ने से हम उसका सदा बेहतर इस्तेमाल भी कर सकते हैं। और कल्पना करो कि यदि हम अपने अति मूल्यवान मनुष्य-जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करने में समर्थ हो जाएँ, तो उससे हमें कितना अधिक फल प्राप्त हो सकता है! इसीलिये रहीम कवी (अब्दुर्रहीम खानखाना) ने कहा था-
रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजै डारि ।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करै तरवारि ।।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करै तरवारि ।।
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान ।
कहि रहीम परकाज हित, संपति सँचहि सुजान ।।
कहि रहीम परकाज हित, संपति सँचहि सुजान ।।
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