" कूर्वन् दुःख प्रतिकारम् सुखवन्मन्यते गृही- और यही माया है ! "
सुख कौन नहीं चाहता ? किन्तु सुख क्या है- यह कौन जानता है ? फिर भी समस्त प्राणी हमेशा सुख के अन्वेषण में ही दौड़ते रहते हैं । जैसे ही हमलोग सोचना शुरू करते हैं, अब सब ठीक है मैं सुखसे हूँ- अब मैं सुखी हूँ ! तभी देखता हूँ, सुख तो भाग चुका है। ऐसा कोई कह सकता है कि मैं सदा सुखी हूँ ?
आनन्द का अनुभव ही सुख है। जो सदा सुखी हो, वही सच्चे आनन्द का अधिकारी है। बहुत हुआ तो थोड़ा सी तृप्ति, या थोड़ी सी स्वाधीनता, या कभी थोड़ी सी ख़ुशी को या थोड़े आराम मिल जाने को ही आमतौर से हमलोग सुख कहते हैं। मात्र इतने को ही हमलोग आनन्द समझते है। उतने ही आनन्द के अनुभव को सुख समझते हैं।
किन्तु ऐसे सुख को सदैव सकारात्मक या अस्तिवाचक सुख नहीं कहा जा सकता है। ऐसा सुख जो किसी आभाव के मिटने से होता हैं, एक नकारात्मक वस्तु ही होता है। सरल भाषा में कहें तो, संसार की वस्तुओं में 'सुख है'-ऐसा कुछ नहीं है। किसी ऐसी वस्तु को पाने के बाद, जिससे तृप्ति मिलती हो , या अभी अमुक वस्तु की आवश्यकता 'नहीं है '। जब यह अनुभव होता है कि अभी किसी वस्तु का 'अभाव नहीं' है, हम उसी को सुख समझते हैं। किन्तु वास्तव में वह दुःख है। हमलोग संसार के दुःख-समुद्र में डूबे हुए हैं। उसी बीच जब दुःख का थोड़ा निषेध हो जाता है, उसी को हम सुख मान लेते हैं। श्रीमद्भागवत-३/३०/९में एक बहुत सुन्दर सिद्धान्त दिया गया है -- " कूर्वन् दुःख प्रतिकारम् सुखवन्मन्यते गृही ॥ " - ' अर्थात सामयिक रूप से दुःख का प्रतिकार कर पाने से जो अनुभूति होती है, गृहस्थ लोग उसी को सुख समझ लेते हैं।'
किन्तु ऐसे सुख को सदैव सकारात्मक या अस्तिवाचक सुख नहीं कहा जा सकता है। ऐसा सुख जो किसी आभाव के मिटने से होता हैं, एक नकारात्मक वस्तु ही होता है। सरल भाषा में कहें तो, संसार की वस्तुओं में 'सुख है'-ऐसा कुछ नहीं है। किसी ऐसी वस्तु को पाने के बाद, जिससे तृप्ति मिलती हो , या अभी अमुक वस्तु की आवश्यकता 'नहीं है '। जब यह अनुभव होता है कि अभी किसी वस्तु का 'अभाव नहीं' है, हम उसी को सुख समझते हैं। किन्तु वास्तव में वह दुःख है। हमलोग संसार के दुःख-समुद्र में डूबे हुए हैं। उसी बीच जब दुःख का थोड़ा निषेध हो जाता है, उसी को हम सुख मान लेते हैं। श्रीमद्भागवत-३/३०/९में एक बहुत सुन्दर सिद्धान्त दिया गया है -- " कूर्वन् दुःख प्रतिकारम् सुखवन्मन्यते गृही ॥ " - ' अर्थात सामयिक रूप से दुःख का प्रतिकार कर पाने से जो अनुभूति होती है, गृहस्थ लोग उसी को सुख समझ लेते हैं।'
हमेशा दुःख में पीड़ित रहते हुए ही यदा कदा जब मनुष्य को दुःख से बचने का थोड़ा भी अवसर मिलता है, उस तात्कालिक दुःख के अभाव को ही वह सुख समझ लेता है।' इसीको माया कहते हैं। जो वस्तु जहाँ हो ही नहीं, किन्तु उस समय वही प्रतीत होती हो - तो इसीको को भ्रम कहते हैं। माया के कारण भ्रम हो जाता है। जैसे शाम के धुंधले प्रकाश में रास्ते में पड़ी हुई रस्सी सर्प प्रतीत होती है। वास्तव में सुख नहीं है, दुःख ने ही जब अपना कुटिल रूप थोड़ा सा बदल लिया, तो लगा वाह यही तो सुख है ! आचार्य नरहरी एक बड़े मजे की बात कहते हैं :
" क्नडूयनेन यत् कंडूसुखम् तत् किं भवेत सुखम् ।
पश्चादत्र महापीड़ा तथा वैषयिक सुखम् ॥ "
'अर्थात दाद खुजलाने से जो सुख मिलता है, उसको क्या वास्तव में सुख कहा जा सकता है ? क्योंकि खुजलाने के बाद महा यन्त्रणा भुगतनीरिय-विषयों को भोगने से जो अनुभव होता है, उसे हमलोग सुख कहते हैं, किन्तु वह तो दाद खुजलाने से मिलने वाले सुख जैसा है। स्वामी विवेकानन्द ने इसी अवस्था का चित्रण अपनी कविता 'सखा के प्रति ' कविता में इस प्रकार किया है -
'' प्रकाश-मिश्रित अँधकार में, अनुभव होता-
दुःख में सुख है, और रोग में स्वास्थ्य,
जहाँ शिशु का क्रन्दन ही -उसके जीवित होने का हो प्रमाण,
वहाँ से सुख की आशा -फिर क्यों करते बुद्धिमान ?
दुःख में सुख है, और रोग में स्वास्थ्य,
जहाँ शिशु का क्रन्दन ही -उसके जीवित होने का हो प्रमाण,
वहाँ से सुख की आशा -फिर क्यों करते बुद्धिमान ?
-' अर्थात वास्तव में हमलोग अज्ञान (अविद्या ) के अंधकार में पड़े हुए हैं, किन्तु समझ रहे हैं-वाह कितना प्रकाश है ! सच तो यह है कि दुःख के समुद्र में डूबे हुए हैं, किन्तु समझ रहे हैं-कितना सुख है। वास्तव में व्याधि-ग्रस्त हैं, किन्तु समझ रहे हैं, मेरा स्वास्थ्य तो बहुत अच्छा है। जहाँ जन्म लेते ही क्रन्दन करना, बच्चे के जीवित होने की पहचान मानी जाती है। तुम यदि बुद्धिमान हो, तो ऐसे जगत में सुख की खोज किस बुद्धि से कर रहे हो ? '[ इसीलिये स्वामीजी आगे कहते हैं,
' भ्रम में जी रहा है-वह, यहाँ सुख की आकांक्षा में रहते डूबे जिसके प्राण !'
और जो रखता दुःख की चाहत या जो दुःख से बचने को मृत्यु माँगता -
वह भी कोरा पागलपन है, और अमृतत्व - अमरतावाद ?
वह भी कोरा पागलपन है, और अमृतत्व - अमरतावाद ?
मोहग्रस्त अवस्था में उसकी आकांक्षा रखना भी, मुर्खता है ।
संसृति का सागर दुस्तर है- सुख-दुःख के पहिये घूर्णन करते हैं,
यहाँ न कहीं उड़ने का पथ है, कहाँ भागकर जाओगे तुम ? '
' यह कहकर कोई दुःख को नहीं चाह सकता है। ' जो दुःख चाहता है, वह पागल है।' मृत्यु भी दुःख से भागने का उपाय नहीं है। ' मृत्यु भी वही मांगता है, जो पागल है।' और मोहग्रस्त अवस्था में ही अमृतत्व की प्राप्ति क्या सम्भव है ? ऐसी अवस्था में तो इसे व्यर्थ की आकांक्षा ही कहना होगा। ] महाकवि कालिदास ने मेघदूत १/१४ में वर्णन किया है -
कस्यैकान्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा ।
नीचै र्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण ॥
-(जगति कः वा सर्वदा सुखमेव अनुभवेत् ? अथवा कः सदा दुःखी स्यात् ? प्रपञ्चे मनुष्यस्य अवस्था परिभ्रमतः चक्रनेमिवत् कदाचित् उपरि कदाचित् अधः च सञ्चरति। मनुष्य का यह मर्त्य जीवन सुख और दुःख के उपादानों से गठित हुआ है, जिससे उसकी जीवन यात्रा में सुख-दुःख का क्रम प्रायः न्यूनाधिक रूप में चलता ही रहता है। न तो किसी के जीवन में एकान्त सुख ही होता है और न एकान्त दुःख ही। रथ के पहिये की धुरी की तरह जीवन में सुख और दुःख का क्रम बंधा रहता है।) किसको केवल सुख या दुःख ही कायम मिला है ? किसी को नहीं । सुख और दुःख की दशा तो चक्र के हाथे की तरह हमेशा उपर नीचे जाती है । किसी को दुःख मिल रहा है, किसी को सुख मिल रहा है। चक्के का रीम कभी नीचे गिरता है, कभी उपर उठता है, इसीतरह सुख-दुःख भी हमेशा घूमते रहते हैं। इसी लिये स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, 'संसृति का सागर दुस्तर है- सुख-दुःख के पहिये निरन्तर घूर्णन करते' नीचै र्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण ॥
तो क्या हम ऐसा समझ लें कि सुख सचमुच एक अप्राप्य वस्तु है ? सुख क्या कहीं नहीं है ? अवश्य है ! उपनिषद में कहा गया है, ' अल्प में सुख नहीं है, भूमा में ही सुख है।' इसीलिये अल्प को त्याग दो, स्वार्थ को त्याग दो, दूसरों के कल्याण की भूमा में अपने सुख का अनुसन्धान करो। ' बहुजन-हिताय बहुजन सुखाय ' अपने जीवन को न्योछावर कर देने में ही सच्चा सुख है। तुच्छ सुखों को भोगने की तृष्णा को त्याग दो, क्योंकि वे तो सदा अप्राप्य ही रहेंगे। भर्तृहरि कहते हैं, ' स तू भवतु दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला ' जिसकी तृष्णा कभी मिटने का नाम ही नहीं लेती, जिसकी तृष्णा विराट है, वास्तव में वही दरिद्र है। छोटी तृष्णा को पूर्ण करने के लिये भीख माँगने से सुखलाभ नहीं हो सकता है। महाभारत में कहा गया है,
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत सुखम ।
तृष्णाक्षय सुखस्यते नाहर्तः षोडशीम कलाम ।।
-अर्थात
जगत में काम-भोगों से प्राप्त होने वाले जितने भी सुख हैं, तथा स्वर्ग में
जाने पर जितने महासुख प्राप्त होते हैं, उन सबको मिला देने से जितना सुख
मिलता होगा, वह तृष्णा-क्षय से मिलने वाले सुख को यदि
१६ कला माना जाय, तो उसका एक कला भी नहीं है. इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- ' दाओ आर फिरे नाहि चाओ, थाके यदि हृदये संबल! '
हे प्रेमी, समस्त क्षुद्र-स्वार्थों को अनलकुण्ड में करो भस्म तुम।
भिक्षुकों क्या कभी मिलता है सुख ? कृपापात्र बने भी तो हुआ क्या फल ?
इसका करो विचार सदैव,
और पाने की नहीं, केवल देने-देने की ही बात करो तुम -यदि अन्तर में है कुछ भी प्यार !
क्योंकि वही प्रेममय (ठाकुर-देव) ही अनन्त भूमा में सर्वत्र व्याप्त हैं। जो व्यक्ति सच्चे सुख को पाने की प्यास रखता है, उसके लिये स्वामी विवेकानन्द का आह्वान है-और पाने की नहीं, केवल देने-देने की ही बात करो तुम -यदि अन्तर में है कुछ भी प्यार !
ब्रह्म से लेकर परमाणु-कीट तक, सर्वभुतों में वही प्रेममय !
प्रिय-सखा हो तुम मेरे, तो इन सबके चरणों में दो तन-मन वार !
ईश-खोजने कहाँ चले तुम ? बहु रूपों में खड़े तुम्हारे सामने हैं ईश।
व्यर्थ है ईश की खोज, जीव-सेवा के द्वारा ही सेवा पाते हैं जगदीश।।
गीता में श्रीकृष्ण ने अपने सखा अर्जुन को उपदेश देते हुए जो कहा था, उसीमें मोहग्रस्त मानव के प्रतिक कृष्ण-सखा अर्जुन के मोह-भंग का उपाय और यथार्थ सुख के अनुसन्धान की पद्धति बतलाये हैं। भागवत में श्रीकृष्ण ने उद्धवजी को कहा था, बन्धु-गुरु-अहं सखे, मैं ही तुम्हारा दोस्त,गुरु और सखा हूँ।
स्वामी विवेकानन्द भी हमलोगों के बन्धु,गुरु और सखा बनकर ' सखा के प्रति आह्वान कर रहे हैं, सुख कहाँ है, उसका पता बता रहे हैं, और माया के जाल से मुक्त होने का मार्ग दिखलाते हैं। अपने सखा की पुकार को सुनकर हम अपने जीवन को सार्थक कर सकते हैं, बहुजन के सुख का कारण बन सकते हैं।
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