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"स्वामी विवेकानन्द का धर्म "
भाव रखना अच्छा है, किन्तु अतिशय भावुकता (excessive sentimentality) अच्छी चीज नहीं है। अपने आदर्श और उद्देश्य के प्रति संवेदनशील होना तो अच्छा है, किन्तु उसके प्रति बेहद भावुक हो जाना अच्छी चीज नहीं है। फिर भी हमलोगों में से कई व्यक्ति अतिशय भावावेग में बहते ही हैं। अक्सर ऐसा देखा जाता है कि हम किसी भाव या उच्च आदर्श के प्रति गहराई से विचार किये बिना ही केवल भावुकता में बहकर उसे ग्रहण कर लेते हैं।
यह बात सत्य है, कि स्वामी विवेकानन्द ने धर्म का प्रचार किया था। यह भी सत्य है कि धर्म के साथ उसके गन्ध की तरह संयुक्त अतिशय भावुकता रूपी अफ़ीम के वशीभूत होकर कई बार हमलोग अपने कर्तव्यपथ से दूर चले जाते हैं। किन्तु, यह भी सत्य है कि अफीम के नशे की तरह अतिशय भावुकता भी स्थायी या सत्य नहीं है , परन्तु धर्म सत्य, सनातन और शाश्वत है। स्वामी विवेकानन्द ने धर्म के इसी सनातन -सत्य को अतिशय भावुकता रूपी अफीम से अलग कर समस्त मानव-जाति के लिए ग्राह्य (सुपाच्य) बनाकर एक विशुद्ध धर्म - "मनुष्य बनो और बनाओ (Be and Make)" के रूप में प्रस्तुत किया है।
चाहे जिस कारण से भी हो, समय के प्रवाह में सच्चा धर्म भी दूषित हो ही जाता है। चाहे वह राष्ट्रिय-विचारधारा के कारण हो, सामाजिक सोच के कारण हो या धार्मिक नासमझी के कारण; किन्तु प्रायः ऐसा देखा जाता है कि किसी भी धर्म का शुद्ध स्वरुप उसके अधिकांश अनुयायियों के आचरण से व्यक्त होता हुआ प्रतीत नहीं होता है।
केवल धर्म के क्षेत्र में ही ऐसा होता है , ऐसा दावा हम नहीं कर सकते। अन्यान्य क्षेत्रों में भी हमलोगों ने ऐसी घटनाओं को घटते देखा है, तथा आज भी देख रहे हैं। किन्तु , जब धर्म के क्षेत्र में ऐसी अवस्था आती है तब धर्म को नए रूप में समस्त मनुष्यों के लिए ग्राह्य बनाकर (स्वादिष्ट और सुपाच्य बनाकर) मानव जाति के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ता है और उसका प्रचार भी करना पड़ता है। ( अर्थात 'जब धर्म अपने स्थान से च्युत हो जाता है'-- तब धर्म को पुनः संस्थापित करने के लिए किसी व्यक्ति या संगठन को आविर्भूत होना ही पड़ता है, और उसका प्रचार करना पड़ता है !)
स्वामीजी के इस नव प्रचार में केवल एक ही विशिष्टता है और वह वैशिष्टय भी 'भारतीय विचारधारा' के अनुरूप ही है। अन्यान्य क्षेत्रों के विचारकों ने केवल एक-एक विषय को लेकर ही चिन्तन किया है तथा उसका फल समाज को प्रदान किया है। किन्तु युगनायक विवेकानन्द का वैशिष्ट्य यही है कि उन्होंने मनुष्य को उसकी समग्रता में देखते हुए अपने विचार रखे हैं। उनके विचारों में 'समग्र मानव ' अर्थात मनुष्य की सम्पूर्ण सत्ता और समाज को एक विषय के रूप में देखा जा सकता है।
अन्य विचारकों में से किसी ने केवल राष्ट्र के ऊपर चिन्तन किया है, तो किसी ने समाज के ऊपर। समाज में भी किसी ने जाति-प्रथा के ऊपर, तो किसी ने विभिन्न धर्मों पर, किसी ने शिक्षा पर, तो किसी ने कृषि पर, किसी ने कला के ऊपर , तो किसी ने साहित्य के और किसी ने संगीत के ऊपर अपने विचारों को व्यक्त किया है।
किन्तु, उपरोक्त समस्त क्षेत्र जिस मनुष्य के साथ जुड़े हुए हैं, स्वामी जी उसी मनुष्य के ऊपर चिन्तन किया है। तथा, उन्होंने ने एक ऐसे धागे का आविष्कार किया जो इन सब विचारों के भीतर से होकर गुजर सकता है, फिर इस धागे (निःस्वार्थपरता) को मनुष्य के गले में पहना दिया, और नाम दिया -धर्म। और कहा कि यह निःस्वार्थपरता ही वह धागा है जो मनुष्य को सभी ओर से संयम में रखेगा। [क्योंकि धर्मो रक्षति रक्षितः>धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ।।‘‘जो पुरूष धर्म का नाश करता है, उसी का नाश धर्म कर देता है, और जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी धर्म भी रक्षा करता है । इसलिए मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले, इस भय से धर्म ( यानि निःस्वार्थपरता ) का हनन अर्थात् त्याग कभी न करना चाहिए। ]
इसीलिये भिन्न - भिन्न नाम वाले जितने भी धर्म हैं, वे समय के प्रवाह में केवल भावुकता प्रदान करते हैं या अफीम की तरह नशा उत्पन्न करते हैं। किन्तु, स्वामीजी का धर्म, इस तरह के विभिन्न नाम वाले धर्मों से [branded religion] पूर्णतया अलग किस्म का है। धर्म का नाम सुनते ही, जो लोग अपना नाक-भौंह सिकोड़ने लगते हैं, वे यदि चाहें तो इसके लिए एक नये शब्द [जैसे शिक्षा ] का आविष्कार कर सकते हैं, ऐसा करने से वास्तव में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। ऐसा कहना, कि जो लोग एक विशेष निर्दिष्ट तरीके से जीवन-यापन करते हैं, वे ही धार्मिक हैं, शेष सभी अधार्मिक (काफ़िर) हैं, इस बात में कोई दम नहीं है। जो अपने जीवन को सभी ओर से धर्म के वास्तविक केन्द्र में संयमित रख सकते हैं , वे ही यथार्थ धार्मिक हैं। कोई मनुष्य जब अपने केन्द्र से (आत्मा से) जुड़ जाता है , तभी वह दूसरे मनुष्यों के साथ स्वयं को जुड़ा हुआ अनुभव करता है। ऐसा योग तभी साधित होता है, जब मनुष्य धर्म के उस वैश्विक धागे (निःस्वार्थपरता) को धारण कर लेता है।
स्वामीजी जब मनुष्य को परिभाषित करते हैं तो उसमें सूत्र के रूप में यही बात सन्निहित रहती है। स्वामीजी के अनुसार मनुष्य एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि असीम है लेकिन उसका केंद्र एक स्थान पर निश्चित है। जबकि इस धागे का निहितार्थ अत्यन्त विस्तृत है। जो मनुष्य स्वामीजी के धर्म का अनुयायी होता है, उसके जीवन की परिधि विश्वव्यापी हो जाती है। यही विकास की कुँजी है। और मनुष्य का ऐसा समग्र विकास ही धर्म की मूल बात है।
इस उन्नति के पथ पर अग्रसर रहते हुए मनुष्य अपनी क्षूद्र सत्ता 'मैं'-पन को (मिथ्या अहंकार को) खोना सीख लेता है। एवं हृदय की संकीर्णता, स्वार्थपरता को त्याग करता हुआ, मनुष्य अपनी महिमा को प्राप्त करने की ओर आगे बढ़ता जाता है। यह आगे बढ़ना, ह्रदय का ऐसा विस्तार होना ही स्वामीजी के विचारों में ईश्वर के मार्ग पर आगे बढ़ना है। क्योंकि स्वामीजी के अनुसार,'निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है ! '('Unselfishness is God!) ' यदि इसी उक्ति को धर्म कहा जाय तो भला इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है ? विश्व के किस जननायक ने धर्म के इसी मौलिक सिद्धान्त को, अन्य भाषा में अर्थात भिन्न प्रकार से नहीं कहा है? और जिन्होंने यह बात नहीं बताई या इस 'सार्वभौमिक सिद्धान्त' को अपना समर्थन नहीं दिया, समाज उनको कभी जननेता के आसन पर प्रतिष्ठित भी नहीं करता है।
फिलॉसफी, जप-तप, मन्दिर, दीपक, केले का थम, घंटी आदि चीजों को स्वामीजी ने व्यक्तिगत धर्म का अंग बताया है। किन्तु, जिस धर्म को सभी लोग समझते हैं, वह है परोपकार। अपने हृदय के विश्वव्यापी परिधि के अन्तर्गत समस्त जीवों के एकत्व (unity of all living beings) की उपलब्धी करना ही धर्म है। यह उपलब्धी हो जाने पर हमारे द्वारा किया गया कोई भी कर्म परोपकार हो जाता है, और वही है- धर्म। यह धर्म कायरों के लिये नहीं है, यह वीरों का धर्म है। क्योंकि कायर दूसरों को मारता है, और वीर अपने कच्चे 'मैं'-पन को (अपने मिथ्या अहं) मारता है। मैं साँप को मार देता हूँ, बिच्छू को मार देता हूँ, या जिस किसी को भी मैं अपने सुखद जीवन का बाधक समझता हूँ, या हानि पहुंचाने वाला समझता हूँ, उसे मार देता हूँ क्योंकि वास्तव में मैं 'कायर' (नहीं मूर्ख) हूँ।
[क्योंकि 'each soul is potentially divine ' की उपलब्धि मुझे नहीं हुई है। रामायण और महाभारत दोनों धर्म-ग्रन्थ भारत के भाइयों का इतिहास क्यों है ? 'सर्वेभवन्तु सुखिनः' प्रार्थना का मर्म नहीं जानता हूँ ! दुर्योधन ने कहा है- "जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति: जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः। केनापि देवेन हृदय स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।। " 'मैं धर्म को जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को भी जानता हूँ, पर उसमें मेरी निवृत्ति नहीं होती। मेरे हृदय में स्थित कोई देव है, जो मुझसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ।'दुर्योधन द्वारा कहा गया यह 'देव' अपवित्र 'काम' ( तीनो ऐषणाएँ या भोग और संग्रह में घोर आसक्ति) ही है, जिससे मनुष्य विवेक पूर्वक धर्म का पालन और अधर्म का त्याग नहीं कर पाता ]
किन्तु जो वीर होता है वह इस वृहत जगत (देश,काल,निमित्त) के पार जाने (या ब्रह्म तक पहुँचने) के लक्ष्य को ध्यान में रखकर अपने तुच्छ स्वार्थ के छोटे से दायरे में बंधे - 'मैं' और 'मेरा' को मारता है। इसीलिये धर्म कायरों के लिये नहीं, वीरों के लिये है। स्वामीजी ने कहा है, ' मनुष्य में अन्तर्निहित अनन्त शक्ति का स्फुरण होना ही धर्म है।' उस धर्म की अभिव्यक्ति - बुराई को हराने, कल्याण कार्यों को सम्पादित करने,भूखों को अन्नदान करने, अज्ञानियों को ज्ञान देने, अत्याचार का प्रतिरोध करने तथा शुद्ध बुद्धि को उद्घाटित करने के प्रयास में होती है।
धर्म का मुख्य कार्य ही है मनुष्य को शान्ति प्रदान करना। स्वामीजी का विचार था कि - " जो धर्म मनुष्य को इस संसार में सुखी नहीं बना सकता, उस धर्म के द्वारा परलोक या मरने के बाद सुख मिलेगा -का आश्वासन देना बिलकुल झूठी बात है।" यदि मनुष्य इस संसार में सुख प्राप्त करना चाहता हो, तो केवल अपने सुख-सुविधा की बात सोचने से वह सुख प्राप्त नहीं होगा। यथार्थ धर्म-बोध मनुष्य को उसकी असीम परिधि तक जन-कल्याण की भूमिका में नियोजित कर देता है।यही बोध उसको अपना और दूसरों का दुःख दूर करने की शक्ति और साहस से भर देता है। यहीं से अंतःकरण में हित-अहित का ज्ञान, अन्तरात्मा की आवाज, या विवेक (Conscience-नैतिकता) का जागरण हो जाता है।
धर्म मनुष्य को सम्पूर्ण जगत के साथ जोड़ देता है और नीतिबोध (sense of morality) उस ईश्वर के साथ जुड़े हुए मनुष्य के कर्म की नीति को निर्धारित करता है।
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गाने का शीर्षक: " आई गवनवा की साड़ी, उमरि अजहुँ मोरी बारी "
आई गवनवा की साड़ी , उमरि अजहूँ मोरी बारी।।
साज सजाय पिया लै आये, और कहरिया चारी।
बम्हना बेदर्दीं अचरा पकड़ी कें, जोरत गँठिया हमारी,
सखी सब गावत गारी।।
विधि गति बाम कछु समझ परै ना, बैरिन भई महतारी।
रोय रोय अँखियाँ कागजति है, घर सों देत निकारी,
भैं सबकों हम भारी।।
गवना कराय पिया लै चले, इत उत बाट निहारी।
छूटत गांव नगर सों नाता, छूटत महल अटारी,
करम-गति टारे न टारि।।
नदिया किनारा बलम मोरे रसिया, दीन्ह घुँघट पट तारी।
थार थारै तन कापन लाग्यौ, काहू न देख हमारी,
पिया लै आये गोहारी।।
कहत 'कबीर' सुनौ भाई साधो, यह मत लेहु विचारी।
अबकी गौना बहुरि नहिं अउना, करिलै कलाकार अकुँवारी,
एक बैरी मिलि लै प्रिय।।
गीतकार - कबीर :
$$$$ SVHS-5.1 स्वामीजी का धर्म (नये संस्करण में 5 वां अध्याय का पहला निबंध है )
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