[ परिच्छेद ~ २५, ( 9 मार्च 1883 )श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ]
*परिच्छेद~ २५*
[अमावस्या के दिन दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ, राखाल के प्रति श्रीठाकुर देव का गोपाल भाव]
*अनन्नास को छोड़ लोग उसके कटीले पत्ते क्यों खाते हैं*
श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर के अपने कमरे में राखाल, मास्टर आदि दो-चार भक्तों के साथ बैठे हैं । शुक्रवार, ९ मार्च १८८३ ई. । माघी अमावस्या, प्रातःकाल आठ-नौ बजे का समय होगा । अमावस्या का दिन है । श्रीरामकृष्ण को सतत जगन्माता (माँ काली) का उद्दीपन हो रहा है ।
[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ দক্ষিণেশ্বর-মন্দিরে নিজের ঘরে রাখাল, মাস্টার প্রভৃতি দুই-একটি ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। আজ শুক্রবার (২৬শে ফাল্গুন), ৯ই মার্চ, ১৮৮৩ খ্রীষ্টাব্দ, মাঘের অমাবস্যা, সকাল, বেলা ৮টা-৯টা হইবে।অমাবস্যার দিন, ঠাকুরের সর্বদাই জগন্মাতার উদ্দীপন হইতেছে।
About nine o'clock in the morning the Master was seated in his room with Rakhal, M., and a few other devotees. It was the day of the new moon.^ As usual with him on such days, Sri Ramakrishna entered again and again into communion with the Divine Mother. He said to the devotees:
वे कह रहे हैं “ईश्वर ही वस्तु हैं, बाकी सब अवस्तु । माँ ने अपनी महामाया द्वारा मुग्ध कर रखा है । मनुष्यों में देखो, बद्ध जीव ही अधिक हैं । इतना दुःख-कष्ट पाते हैं, फिर भी उसी ‘कामिनी-कंचन’ में उनकी आसक्ति है। काँटेदार घास खाते ऊँट के मुँह से धर-धर खून बहता है, फिर भी वह उसे छोड़ता नहीं, खाते ही जाता है । प्रसववेदना के समय स्त्रियाँ कहती हैं, ‘ओह, अब और पति के पास नहीं जाऊँगी’, परन्तु फिर भूल जाती हैं ।
{ ঈশ্বরই বস্তু, আর সব অবস্তু। মা তাঁর মহামায়ায় মুগ্ধ করে রেখেছেন। মানুষের ভিতরে দেখ, বদ্ধজীবই বেশি। এত কষ্ট-দুঃখ পায়, তবু সেই ‘কামিনী-কাঞ্চনে’ আসক্তি। কাঁটা ঘাস খেয়ে উটের মুখে দরদর করে রক্ত পড়ে, তবু আবার কাঁটা ঘাস খায়। প্রসববেদনার সময় মেয়েরা বলে, ওগো, আর স্বামীর কাছে যাব না; আবার ভুলে যায়।
"God alone exists, and all else is unreal. The Divine Mother has kept all deluded by Her maya. Look at men. Most of them are entangled in worldliness. They suffer so much, but still they have the same attachment to 'woman and gold'. The camel eats thorny shrubs, and blood gushes from its mouth; still it will eat thorns. While suffering pain at the time of delivery, a woman says, 'Ah' I shall never go to my husband again.' But afterwards she forgets.
“देखो, उनकी खोज कोई नहीं करता । अनन्नास को छोड़ लोग उसके कटीले पत्ते खाते हैं !”
{“দেখ, তাঁকে কেউ খোঁজে না। আনারসগাছের ফল ছেড়ে লোকে তার পাতা খায়।”
"The truth is that no one seeks God. There are people who eat the prickly leaves of the pineapple and not the fruit."
*संसार किसलिए? निष्काम कर्म द्वारा चित्तशुद्धि के लिए*
भक्त- महाराज, संसार में वे क्यों रख देते हैं? ("Sir, why has God put us in the world?")
श्रीरामकृष्ण- संसार कर्मक्षेत्र है । कर्म करते करते ही ज्ञान होता है । गुरु ने कहा, इन कर्मों को करो और इन कर्मों को न करो (5 यम और 5 नियम) । फिर वे निष्काम कर्म का उपदेश देते हैं ।* कर्म करते करते मन का मैल धूल जाता है । अच्छे डाक्टर (वैद्य ) की चिकित्सा में रहने पर दवा खाते खाते कैसा ही रोग क्यों न हो, ठीक हो जाता है ।
{ সংসার কর্মক্ষেত্র, কর্ম করতে করতে তবে জ্ঞান হয়। গুরু বলেছেন, এই সব কর্ম করো, আর এই সব কর্ম করো না। আবার তিনি নিষ্কামকর্মের উপদেশ দেন।১ কর্ম করতে করতে মনের ময়লা কেটে যায়। ভাল ডাক্তারের হাতে পড়লে ঔষধ খেতে খেতে যেমন রোগ সেরে যায়।
"The world is the field of action. Through action one acquires knowledge. The guru instructs the disciple to perform certain works and refrain from others. Again, he advises the pupil to perform action without desiring the result. The impurity of the mind is destroyed through the performance of duty. It is like getting rid of a disease by means of medicine, under the instruction of a competent physician.
“संसार से वे क्यों नहीं छोड़ते? रोग अच्छा होगा तब छोड़ेंगे । कामिनी-कंचन का भोग करने की इच्छा जब न रहेगी, तब छोड़ेंगे । अस्पताल में नाम लिखाकर भाग आने का उपाय नहीं है । रोग की कसर रहते डाक्टर साहब न छोड़ेंगे ।”
{“কেন তিনি সংসার থেকে ছাড়েন না? রোগ সারবে, তবে ছাড়বেন। কামিনী-কাঞ্চন ভোগ করতে ইচ্ছা যখন চলে যাবে, তখন ছাড়বেন। হাসপাতালে নাম লেখালে পালিয়ে আসবার জো নাই। রোগের কসুর থাকলে ডাক্তার সাহেব ছাড়বে না।”
"Why doesn't God free us from the world? Ah, He will free us when the disease is cured. He will liberate us from the world when we are through with the enjoyment of 'woman and gold'. Once a man registers his name in the hospital, he cannot run away. The doctor will not let him go away unless his illness is completely cured."}
श्रीरामकृष्ण आजकल यशोदा की तरह सदा वात्सल्य-रस में मग्न रहते हैं, इसलिए उन्होंने राखाल को साथ रखा है । राखाल के प्रति श्रीरामकृष्ण का गोपाल-भाव है । जिस प्रकार माँ की गोद में छोटा लड़का जाकर बैठता है, उसी प्रकार राखाल भी श्रीरामकृष्ण की गोद के सहारे बैठते थे । मानो स्तनपान कर रहे हों ।
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वीर भाव, सन्तान भाव (दिव्य भाव) का हेतु है !
‘आत्मसाधना‘ में पूर्व की कक्षा को छोड़कर आगे की कक्षा में छलांग नहीं लगाई जाती है। अर्थात् क्रमवार (step wise) आगे बढ़ा जाता है अन्यथा साधक पतनोन्मुखी हो जाता है तथा स्वयं व अन्यों हेतु घातक सिद्ध होता है।
‘आसन‘ लाभ नहीं दे रहे हैं अर्थात् यम नियम की अनदेखी की गई है। ‘ध्यान’ नहीं लगता अर्थात् यम, नियम, आसन, और प्रत्याहार-धारणा में साधक परिपक्व नहीं हुआ है। अधिकार निर्णय में शैथिल्य के कारण तांत्रिक साधनाओं को कालांतर में आपाततः निन्दित होना पड़ता है।
दिव्य भाव (सन्तान भाव ) का साधक स्त्री जाति मात्र को महाशक्ति की मूर्ति समझता है। वेद, शास्त्र, गुरु, देवता और मंत्र में उसका दृढ़ ज्ञान है तथा शत्रु व मित्र में वह समान भाव वाला है। दूसरा भाव है वीर भाव। इस भाव में परिपूर्णता प्राप्त होने पर ही साधक दिव्य भाव में पहुंचते हैं। इसलिए वीर भाव दिव्य भाव [ठाकुर का सन्तान भाव] का हेतु है, जो सब प्रकार के हिंसा कार्यों से रहित है…
अपने को जो व्यक्ति जैसा समझता है, वह वैसा ही बन जाता है। मन में बार-बार आने वाली बात विश्वास के रूप में बदल जाती है और अपने मन और शरीर के संबंध में जैसा जिसका विश्वास होता है, उसके लक्षण भी वैसे ही प्रकट होते हैं। जैसी जिसकी भावना होती है, वैसी ही सिद्धि होती है। जो भी भावना हमारे मन में आती है, उसको यदि हमारे अंतर्मन की अवचेतन वृत्ति ग्रहण कर लेती है तो वह सत्वस्थ होकर हमारे जीवन की एक स्थायी वृत्ति हो जाती है। इसलिए भावना का महत्व बहुत अधिक होता है।
भावना एक ठोस वास्तविकता है और उसका प्रभाव व परिणाम भी ठोस होता है। भावना को छूकर नहीं देखा जा सकता या आंखों से प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। इस कारण बहुत से लोगों के लिए भावना मात्र एहसास है। अवश्य ही भाव का उदय और लय मन में होता है। भाव के बिना यंत्र-तंत्र निष्फल हैं।
वास्तव में तंत्रशास्त्र भावना के अभ्यास का मार्ग है। न्यास, भूतशुद्धि, अंतर्याग, कुंडलिनी योग, मंत्रजप आदि भावना का ही तो अभ्यास है। दान, गुरु पूजा, देव पूजा, नाम संकीर्तन, श्रवण, ध्यान, समाधि, योग, जप, तप, स्वाध्याय, सबका लक्ष्य मन को ही तो वश में करना है। तंत्र की यह विशेषता है कि वह भोग-प्रवण मन को बलपूर्वक अकस्मात धक्का देकर त्याग के मार्ग पर नहीं ठेलता, अपितु भोग के अंदर से ही मन को स्वाभाविक गति से मुख मोड़ देता है।
यंत्रराज की साधना हो या पंचदशी की उपासना अथवा कुंडलिनी साधना, भावना की वहां मुख्य भूमिका है। इसलिए ‘पद्धति’ में सर्वत्र ‘भावयेत’ शब्द आता है। भावना के द्वारा ही भगवती सहज सुलभ हो सकती है। ‘भगवति भावना गम्या’ ***, ललितासहस्रनाम का यह वचन है।साधना (योगमार्ग) पर चिंतन के समय भावना पर सोच-विचार करना परम आवश्यक है। वास्तव में भावना के बिना साधना संभव ही नहीं है।
कामाख्या तंत्र, कुब्जिका तंत्र तथा रुद्रयामल इत्यादि तन्त्र -ग्रंथों में तीन प्रकार के भाव बताए गए हैं। प्रथम भाव है सन्तान भाव या दिव्य भाव। इस भाव में स्थित साधक विश्व और अपने इष्ट देवता " [अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव-माँ काली] में भेद नहीं देखता। सन्तान भाव (दिव्य भाव) में स्थित साधक स्त्री जाति मात्र को महाशक्ति की मूर्ति समझता है। वह अपने को देवतात्मक समझता है। वेद, शास्त्र, गुरु, देवता और मंत्र में उसका दृढ़ ज्ञान है तथा शत्रु व मित्र में वह समान भाव वाला है।
दूसरा भाव है वीर भाव। इस भाव में परिपूर्णता प्राप्त होने पर ही साधक सन्तान भाव या दिव्य भाव में पहुंचते हैं। इसलिए वीर भाव (प्रवृत्ति धर्म) सन्तान भाव (दिव्य भाव या निवृत्ति धर्म) का हेतु है। जो सब प्रकार के हिंसा कार्यों से रहित है, सर्वदा सब जीवों के हित में रत रहता है, जिसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद पर विजय प्राप्त कर ली है, जो जितेंद्रीय है, वह वीर साधक है।
तीसरा भाव पशु भाव (दासीभाव) है। इस भाव के साधक को अहिंसा-परायण तथा निरामिष भोजी होना होगा। ऋतुकाल के अलावा वह स्त्री का स्पर्श नहीं करता।
लक्ष-लक्ष वीर-साधनाओं से क्या लाभ? भाव के बिना पीठ-पूजन का क्या मूल्य है? कन्या-भोजन आदि से क्या होने वाला है? जितेंद्रीय भाव और कुलाचार कर्म का महत्व ही क्या है? यदि कुल परायण व्यक्ति भाव-विशुद्ध नहीं है, तो भाव से ही उसे मुक्ति मिलती है।
[साभार https://www.divyahimachal.com/2017/08/]
‘भगवति भावना गम्या’ ***,-----------------------------------------वैराग्य पूर्वक गृहत्याग नहीं करने पर कहीं भी शांति नहीं मिलती। यदि राग है तो बंधन में पडोगे और यदि राग न हो तो उसके लिए घर ही तपोवन है।
राग के निर्मूलन के लिए गृहस्थ को आज्ञा दी - घर बसाओ, उसमें प्रचुर सामग्री रखो। क्यों? राग रहित होने के लिए। फिर भी मन अशांत रहता है। इसमें आप का दोष नहीं है क्योंकि यह माया है। जीवन का संचालन महामाया करती है।
वह महामाया कल्याणी है, काम पोषणी है और सारे संसार को राग से विमुक्त करने वाली भी वही है। "सैषा प्रसन्नावरदां ऋणां विमुक्तये" ।अतः उस माया के द्वारा भुक्ति और मुक्ति दोनों प्राप्त करो। इसके लिए भगवती की आराधना करो। "आत्मेच्छा व्यवसीयतामं।" आत्मा की ईच्छा करो।
" निराहारौ यथा हारौ तन्मनस्को समाहितो। " आहार क्या है? केवल भोजन ही नहीं वरन् जो अंदर जाता है वह सब आहार है - मुख से, आँख से, कान से, त्वचा से आदि। इन सबको हम कामना से खाते हैं। अतः निराहार का अर्थ है - सर्वथा काम त्याग और सिमित काम का ग्रहण। निजगात्र - अर्थात् शरीर में निजत्व। इसे छोडो। अपने मन से शरीर से शरीर का सम्बंध छोडना बडा कठिन है।
आगमों में कहा - "भावनैकं बलिप्रियाम्", "भवानी भावना गम्या।" भगवती को भावना की बलि प्रिय है, वह भावना से ही प्राप्त होती है। मैं शरीर हूँ, यह एक दृढ भावना है उसकी बलि देनी होगी और मैं चैतन्य मात्र हूँ इस आत्मभावना को स्थिर करना है।
इस संसार में तुम्हारा क्या है? तुम्हारी तो चेतना है, चेतना। उसे पकडो, घर को छोडो। घर विश्राम वृक्ष जैसा है। जैसे पक्षी का घर - आसमान। वह उसी में उत्पन्न होता है, धूमता है और वायु से ही विलीन हो जाता है। हाँ, टिकने के लिए एक वृक्ष ले लो। "विश्राम वृक्षसदृशः खलु जीवलोकः"। जीव लोक अर्थात यह शरीर विश्राम वृक्ष सदृश है। ऐसा समझ कर कहीं भी टिक जाओ।
{साभार पूज्य श्रीश्री ईश्वरानन्द गिरि जी महाराज https://es-la.facebook.com/samvitsamvad/posts/981400442070838/ }
{ New Moon : the time at which the Moon appears as a narrow waxing crescent. अमावस्या , दूज का चाँद , नया चाँद (चन्द्रमा का नया चरण) । इस दिन चन्द्रमा एक छोटे से वर्धमान नवचन्द्र (waxing crescent) के रूप में दीखता है। अमावस्या पंचांग के अनुसार माह की 30 वीं और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि है जिस दिन कि चंद्रमा आकाश में दिखाई नहीं देता।]
धरती के मान से 2 तरह की शक्तियां होती हैं- सकारात्मक और नकारात्मक, दिन और रात, अच्छा और बुरा आदि। हिन्दू धर्म के अनुसार धरती पर उक्त दोनों तरह की शक्तियों का वर्चस्व सदा से रहता आया है। हालांकि कुछ मिश्रित शक्तियां भी होती हैं, जैसे संध्या होती है तथा जो दिन और रात के बीच होती है। उसमें दिन के गुण भी होते हैं और रात के गुण भी। इन प्राकृतिक और दैवीय शक्तियों के कारण ही धरती पर भांति-भांति के जीव-जंतु, पशु-पक्षी और पेड़-पौधों, निशाचरों आदि का जन्म और विकास हुआ है। इन शक्तियों के कारण ही मनुष्यों में देवगुण और दैत्य गुण होते हैं।हिन्दुओं ने सूर्य और चन्द्र की गति और कला को जानकर वर्ष का निर्धारण किया गया। 1 वर्ष में सूर्य पर आधारित 2 अयन होते हैं- पहला उत्तरायण और दूसरा दक्षिणायन। इसी तरह चंद्र पर आधारित 1 माह के 2 पक्ष होते हैं- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।इनमें से वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल पक्ष में देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं, तो दक्षिणायन और कृष्ण पक्ष में दैत्य और पितर आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं। अच्छे लोग किसी भी प्रकार का धार्मिक और मांगलिक कार्य रात में नहीं करते जबकि दूसरे लोग अपने सभी धार्मिक और मांगलिक कार्य सहित सभी सांसारिक कार्य रात में ही करते हैं।
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