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रविवार, 6 दिसंबर 2015

" स्वामी विवेकानन्द हमारे ट्यूटर (निजी शिक्षक) हैं, उनसे प्रेम करो ! "

' सम्पूर्ण विश्व को भारत बनाओ ! '
    ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः।
    भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
    स्थिरैरन्ङ्गैस्तुष्टुवागं सस्तनूभिः।
    व्यशेम देवहितम् यदायुः ।
    स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः।
    स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
    स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः।
    स्वस्ति नो ब्रिहस्पतिर्दधातु ॥
    ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
बहुत धैर्य के साथ देख रहे हैं, जो प्रोग्राम चलता है। जब इस विदाई सत्र की शुरुआत हुई थी तब सूर्यदेव भू-पृष्ठ के ऊपर थे। पानी से बहुत ऊपर में। और अब कितना समय हुआ -साढ़े आठ हो रहा है। अभी तक जो सुने हैं, उसमें स्वामीजी के बारे में स्वामीजी के पास से सीखने की क्या चीज है उसका एक कण भी हमको सीखने को मिला ? हमको तो देखने को नहीं मिला। चला, सब कुछ चलता है, लेकिन स्वामीजी कहाँ हैं ? 
बिल्कुल एब्सेंट। एब्सल्यूटली स्वामीजी इज एब्सेंट ! दिस  इज वेरी सैड थिंग। वी मस्ट हैव सफिसिएंट लव ऐंड रिगार्ड फॉर द पर्सन इन हूज नेम आवर ऑल इंडिया ऑर्गनाइजेशन इज रनिंग फॉर क्वाइट लॉन्ग टाइम एंड लॉन्ग ईयर्स !  हमारा यह 'अखिल भारतीय संगठन' जिस महापुरुष के नाम पर  पिछले काफी सालों से (४९ वर्षों से) कार्यरत है, उनके प्रति हमारे हृदय में पर्याप्त प्रेम और सम्मान (भक्ति) रहना चाहिये। यहाँ लम्बे समय से जो नृत्य और संगीत चल रहा था, मात्र उसी को संबल बनाकर मानवता की रक्षा नहीं की जा सकती। इस बात में कोई शक नहीं कि नृत्य और संगीत बहुत अच्छी कला है। लेकिन यह सब केवल कुछ समय तक ही अच्छा है। हमारी जो जरुरत है, वह है सभी तरह की व्यस्तताओं के बीच रहते हुए भी , स्वामी जी को  थोड़ा समझने की कोशिश करना। हमें बहुत गंभीरता पूर्वक यह संकल्प लेना चाहिये कि हमलोग अपने जीवन के कुछ वर्षों को स्वामी विवेकानन्द का अध्यन गहराई से  करने और उनकी शिक्षाओं पर मनन करने में खर्च करेंगे। 
इन दिनों लोगों से यह कहते फिरना कि, मैं तो स्वामी विवेकानन्द को बहुत निकट से जानता हूँ ' कुछ लोगों के लिये, मानो एक फैशन सा बन गया है। नहीं, ऐसा दिखावा करना ठीक नहीं है । मुझे कुछ ऐसे लोगों के साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, जिन्होंने काफी लम्बे वर्षों तक स्वामी विवेकानन्द के सानिध्य में रहते हुए ,अपना जीवन व्यतीत किया था- घंटों समय व्यतीत किया था, एक बार नहीं बार-बार किया था।स्वामी विवेकानन्द के निकट पहुँच पाना मेरे भाग्य में नहीं था, क्योंकि मैं बहुत कम उम्र का था।  (किन्तु कम उम्र में ही ) मुझे कुछ ऐसे ही लोगों के चरणों में बैठने तथा स्वामी विवेकानन्द और श्रीरामकृष्ण के विषय में उनके विचारों को सुनने का सौभाग्य मिला था। इसी तरह उनके साथ बहुत सालों तक रहने के बाद, केवल उनसे सुन सुन कर...ही कोई थोड़ा-बहुत यह समझ सके है, या बिल्कुल भी नहीं समझ पाते हैं कि श्रीरामकृष्ण कौन हैं ? स्वामी विवेकानन्द कौन हैं ? उनके पूर्व भी हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई -सभी सम्प्रदायों में एक से बढ़ कर एक अनेक महापुरुष अवतरित हो चुके हैं, किन्तु यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ' श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द' जैसी शक्तियाँ एक साथ [नर-नारायण अवतार-जैसे राम-हनुमान, कृष्ण-अर्जुन] कभी कभार ही इस धरा-धाम पर अवतरित होती हैं ! 
उनके पूर्व भी हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई -सभी सम्प्रदायों में एक से बढ़ कर एक अनेक महापुरुष अवतरित हो चुके हैं, किन्तु यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ' श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द' जैसी शक्तियाँ एक साथ [नर-नारायण अवतार-जैसे राम-हनुमान, कृष्ण-अर्जुन] कभी कभार ही इस धरा-धाम पर अवतरित होती हैं ! और वैसे कुछ लोगों से मिल पाने का सौभाग्य- 'मुझे' प्राप्त हुआ है, जिन्होंने उन दोनों [नर-नारायण अवतार] को साक्षात् देखा था ! क्या कोई इस बात की कल्पना भी कर सकता है ? यह कोई मजाक (गप) नहीं है ! उन्हीं दोनों के आशीर्वाद से १९६७ में महामण्डल का गठन हुआ था, और आज सम्पूर्ण भारतवर्ष में इसकी ३३० से भी अधिक शाखायें कार्यरत हैं ! राजनितिक दलों को छोड़ कर, सम्भवतः अन्य किसी संगठन (चरित्र-निर्माण कारी और मनुष्य-निर्माणकारी संगठन) की इतनी अधिक शाखायें  नहीं हैं।
स्वामी विवेकानन्द से हमें क्या प्राप्त होता है ? श्रीरामकृष्ण के निकट जाने से हमें क्या प्राप्त होता है ? 'श्रीरामकृष्ण -वचनामृत ' से हमें वह सन्देश प्राप्त होता है, जो अन्य शास्त्रों में देखने को नहीं मिलता। ' श्रीरामकृष्ण स्वयं भगवान हैं' - और स्वामी विवेकानन्द भी उनसे कुछ कम नहीं हैं ! यदि आप इस सम्बन्ध में कोई धारणा बनाना चाहते हों, कि 'भक्ति क्या होती है'?  अथवा यह जानने के इच्छुक हों कि भगवान (सत्य-प्रेम) का मनुष्य रूप कैसा होता है ? तो इसे समझने की दिशा में 'श्रीरामकृष्ण-स्वामी विवेकानन्द मॉडल ' के माध्यम से अग्रसर होना ही सबसे आसान  तरीका है। इसीलिये तो उन्हें अवतार कहा जाता है !

हमारे प्राचीन शास्त्रों-पुराणों में जिन महापुरुषों को अवतार कहा गया है, वे अब इस जगत से तिरोहित या अंतर्ध्यान हो चुके हैं। लेकिन यदि हम कोशिश करें, तो आज भी उन अवतारों को हम सशरीर देख सकते हैं। उन सभी अवतारों पर मेरा या जिस किसी का आज भी जितना विश्वास है, उन्हीं सब अवतारों के प्रति श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द में जैसी भक्ति थी, भक्ति के उस स्तर को कोई छू भी नहीं सकता, या कभी फीका नहीं कर सकता। (द्रष्टव्य है कि ठाकुर ने ईश्वर के सभी अवतार -रूपों का दर्शन कर लिया था ! यहाँ तक कि मुहम्मद और ईसा का भी दर्शन किया था। ) इसीलिये सच पूछा जाय तो अब, आज के युग में भी कई प्रकार के देवी-देवताओं की मूर्तियों के होने और  विविध प्रकार से उनकी पूजा करने की कोई जरूरत नहीं है।  किन्तु हो क्या रहा है?  सरस्वती- पूजा से लेकर लक्ष्मी-पूजा, काली पूजा, दुर्गा पूजा,...जो चलता है, चलता है। ('छठ' पूजा, 'गणपतिबप्पा-मोरिया' पूजा भी शुरू हो गयी है), अब इतने सारे देवी-देवताओं की पूजा करने की जरुरत नहीं है। इसीलिये युग परिवर्तन होता रहता है, एक युग बीत जाने के बाद नया युग आता है। जो पूर्व काल में अवतरित हुए थे, उन्हें इस युग के  सामान्य जन भी अवतार बोल कर पूजना शुरू कर देते हैं । क्योंकि उन देवी-देवताओं की स्मृति उनके मन से लुप्त चुकी होती है, और अब वे ईश्वर द्वारा भेजे गए किसी अन्य (सुसमाचार सुनाने वाले) मसीहा के अवतरित होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे किसी नए 'नेता' (Apostle अवतार, या पैगम्बर) की बाट जोह रहे हैं, (इसीलिये इतने तरह तरह की मूर्तियों की पूजा कर रहे हैं) किन्तु पैगंबरों या देवदूतों का निर्माण करना इतना आसान नहीं है कि, इच्छा करते ही एक अवतार (ब्रह्मविद्, ऋषि या देवदूत) आकर सामने खड़ा  हो जाय ! यह सम्भव नहीं है !
इसीलिये अब हमलोगों को स्वामी विवेकानन्द के पास पुनः वापस जाना होगा, और मुझे बहुत गर्व है कि मुझे उस व्यक्ति को जानने और उनके साथ रहने का सौभाग्य मिला है,  जिसने श्री रामकृष्ण को देखा था, और बातें की थी, जिसने स्वामी विवेकानन्द को देखा था और उनसे भी बातें की थीं। यह मेरा निश्चित विश्वास है, जिसमें शक की कोई गुंजाईश नहीं- कि यदि कोई वैसे वरिष्ठ लोगों के मुख से श्रीरामकृष्ण और विवेकानन्द के विषय में केवल सुन भर लेगा तो उसके मन में उनके प्रति प्रेम, आराधना और पूजाभाव जाग्रत हो जायेगा।

मन में आया था, कि  कम नहीं है- किसी ऐसे आदमी से बात करना, जिसने कभी स्वामीजी से वार्तालाप किया हो, कम नहीं है किसी ऐसे आदमी को देखना जिसने श्रीरामकृष्ण का दर्शन किया है, और 'उनके' चरणों का स्पर्श किया है! और उनके चरणों की धूलि लेकर अपने सिर पर चढ़ा सके हैं ! तथा किसी ऐसे मनुष्य को केवल प्रणाम करने मात्र से ही कोई व्यक्ति उन उच्च आधात्मिक ऊँचाइयों तक पहुँच जाता है । और मुझे गर्व है कि मुझे इस तरह का थोड़ा अनुभव भी हुआ है, अन्यथा मैं शायद अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल जैसे संगठन के संचालक पद को सुशोभित नहीं कर पाता। यह संगठन कोई क्लब नहीं है। यह संगठन किसी अन्य समाज-सेवी संगठन जैसा कोई संगठन नहीं है। यह इससे और अधिक बढ़कर  कुछ है। 

" आइ शुड से, एंड डिमांड, एंड डिक्लेअर !"   मुझे कहना चाहिये , मैं मांग करता हूँ और घोषणा करता हूँ कि यह संगठन-  १०० % रिलिजियस (धार्मिक) संगठन है। 'Religion' शब्द की व्युत्पत्ति (etymology) क्या है ?  ' Re-Legara  ' री -लेगयेर का अर्थ है - 'रीजॉइन', फिर से जुड़ जाना। जब तक हम इस धरातल पर रहते हैं, तब तक आडंबरी ठाट-बाट, शक्ति-सामर्थ्य प्रदर्शन, एवं इन्द्रिय-विषयों के भोगों में फंस कर, हमलोग मूर्खतावश स्वयं को ईश्वर से (अपने स्वरूप से) अलग कर लेते हैं। 
धर्म वह वस्तु है जो इन सब प्रलोभनों से हमारी आत्मा की रक्षा करता है। केवल धर्म ही हमें आध्यात्मिकता के उस  उच्च धरातल पर ले जा सकता है, जहाँ इस पृथ्वी की कोई भी अपवित्रता उसका स्पर्श नहीं  सकती। 'मनुष्य 'और कुछ नहीं, केवल कुछ शुद्ध आदतों का विकसित रूप है। मनुष्य भी एक पशु है, किन्तु एक ऐसा जिज्ञासु पशु है जिसके पास विवेक-विचार करने की क्षमता है ! जो कुछ भी उसको दिया जाय वह उसको वैसे ही झटपट निगल नहीं लेता है। वह उसका निरिक्षण-परीक्षण किये बिना आँख मूँद कर (आम का गूदा खाकर गुठली फेंक देता है, उसे भी) निगल नहीं लेता । मैंने तुमसे कहा था, मुझे ऐसे लोगों को देखने और वार्तालाप करने (सत्संग करने) का अवसर  मिला था, जिन्हें श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द से मिलने और बातें करने का सुसंयोग और सौभाग्य प्राप्त हुआ था। और (इसी के कारण) आज हम कहाँ खड़े हैं? महामण्डल का नाम स्वामी विवेकानन्द के नाम से जुड़ा हुआ है; क्यों ? वे सांसारिक जीवन के प्रति सबसे अधिक सक्रीय मनुष्य थे, जिन्होंने मानवजाति को उन्नत बनाने में अपना जीवन समर्पित कर दिया था।  उन्होंने स्वयं मानवता को ही पूर्णत्व की ऊँचाइयों तक उन्नत कर दिया था।  इसीलिये यदि हम इस दृष्टि को, इस विश्वास को साथ लेकर स्वामी विवेकानन्द के निकट जायें, तो हमलोग उनको अधिक से अधिक अध्यन करेंगे, जो हमारी आत्मा एवं हृदय को संतुष्ट करेगा और हमारे नेत्रों से बहते रहने वाले अश्रुबिंदुओं को सुखा देगा। भाइयों, बताओ आज हम सभी लोग (जो इससे जुड़े हैं) कहाँ, किस ऊँचाई पर खड़े हैं ?
महामण्डल सिर्फ एक क्रिकेट, फुटबॉल आदि खेल खेलने वाले तरुणों का संगठन नहीं है, जहाँ खेलने फिर थोड़ा आगे बढ़ने का कुछ नाटकीय अवसर प्राप्त होते हों। युवाओं के बीच नाटक आदि मनोरंजन के बहुत पसंदीदा साधन रहे हैं, किन्तु ये सब चीजें युवाओं की यथार्थ शक्ति को चुरा भी लेती हैं । जब तक हमलोग कॉलेज नहीं गए थे, कॉलेज लाइफ समाप्त नहीं कर लिए थे तब तक हमलोगों को सिनेमा जाने, फिल्म देखने या थियेटर देखने वास्तविक अवसर प्राप्त नहीं था। स्कूल या कॉलेज में पढ़ते समय तो पिक्चर देखने की अनुमति बिल्कुल नहीं थी। हमलोगों को कछ भी स्वीकार करने में शर्मिन्दा नहीं होना पड़ता था।  इसीलिये इस तरह की बातों पर चर्चा करने का कोई अंत नहीं है।
इसीलिये भाइयों, जो लोग इस शिविर में एकत्रित हुए हो, मैं तुमसे केवल इतना ही अनुरोध करूँगा कि यहाँ चलने वाले विभिन्न कार्यक्रमों एवं विचार-विनमय करते समय (विवेकानन्द की ) शिक्षा को जितना अधिक से अधिक ग्रहण कर सके हो उसे अपने जीवन में उतारने की चेष्टा करते रहो । हमें समाज से विक्षुरित होती हुई चौंधिया देने वाली रौशनी से स्वयं को ऊपर उठाना है। क्योंकि वह चकाचौंध हमारी आँखों को जीवन-गठन की उस शिक्षा के प्रति अँधी बना देती है, जिसे हमारे ट्यूटर (निजी शिक्षक) स्वामी विवेकानन्द मनुष्य जीवन के सर्वोच्च आदर्शों के भण्डार से निकाल कर हमें प्रदान करना चाहते हैं । युवाओं को उन्हीं की शिक्षा के निकट लाना होगा, जो हमें उन्नत मनुष्य में विकसित कर सकती है।
श्रीरामकृष्ण सम्पूर्ण विश्व को एक 'उपहार' (पशुमानव को देवमानव में रूपान्तरित करने की पद्धति, या इन्द्रियातीत सत्य को देखने की पद्धति ) देने के लिये अवतरित होना चाहते थे ! किन्तु भारत की तुलना में,उसमें भी बंगाल, उसमें भी कोलकाता के जैसा अन्य कोई उपयुक्त स्थान उन्हें नहीं मिला, जहाँ मानवता को ऐसी बहुमूल्य बातें बताई जा सकती थी ! और वह उपहार उन्होंने कोलकाता में स्वामी विवेकानन्द को सौंप दिया। अब हमारा एकमात्र कार्य स्वामी विवेकानन्द को समझने की चेष्टा करना और (उनकी बताई हुई चरित्र-निर्माण की पद्धति के अनुसार ) अपने चरित्र को गढ़ना है, तथा उनके उपदेशों से प्राप्त होने वाले आत्मिक-जीवन के नये साँचे में अपने जीवन को ढालना है।  ताकि हमलोग एक नये भारत का निर्माण कर सकें। हमारा काम होगा नये भारत का निर्माण ! अब हमलोग उस भारत को देखकर संतुष्ट नहीं रहेंगे जिसका गला पिछले लम्बे समय से घोंट कर रखा गया है। हर हाल में हमें नये भारत का निर्माण करना ही है !
इसलिये भाइयों, शायद मैंने तुम लोगों को बहुत लम्बे समय से अनावश्यक ही रोके रखा है; किन्तु क्या किया जाय? इस महामण्डल की स्थापना ही इसलिए हुई थी कि जो युवा समाज की गलत बातों, मांसल बातों के  प्रति अधिक आकर्षण महसूस करते हैं, और दिगभ्रमित होकर मनुष्य बनने के लक्ष्य को भूल जाते हैं, उनके सामने मनुष्य जीवन को देव-दुर्लभ क्यों कहा है, इस सच्चाई को रख दिया जाय! मेरे सामने इतनी संख्या में युवा लोग एकत्रित हैं, किन्तु उन्हें अपने जीवन लक्ष्य, मनुष्य जीवन के सर्वश्रेष्ठ उद्देश्य को प्राप्त करने के पथ में कई विघ्न-बाधाएं भी हैं। उन विघ्न बाधाओं को दूर करने के लिए हमारा  विनम्र प्रयोग ही  यह महामण्डल है।  
तब भाइयों , मेरे युवा भाइयों; वे युवा जो यहाँ आये हैं, जो इस प्रशिक्षण शिविर में भाग ले रहे हैं, या अभी भी इतने लम्बे समय से यहाँ बैठ कर शांति के साथ इस ' हॉक वर्ड्स टाक्स' -एक फेरी लगाकर किसी माल को बेचने वालों की पुकार जैसे प्रतीत होने वाले एक ही 'बाज (भुशुण्डी -गरुड़)- शब्द-वार्ता' को सुन रहे हैं। मैं तुमसे अनुरोध करता हूँ, मैं तुमसे प्रार्थना भी करता हूँ, तुम सभी प्रकार की व्यस्ततताओं के बीच रहते हुए भी, अपनी सुविधा के अनुसार कुछ समय स्वामी विवेकानन्द का अध्यन करने के लिये अवश्य निकालो!
ताकि तुम स्वयं, नसों को बेचैन बना देने वाली उस दर्द की छटपटाहट को पहचान सको जो आत्मा को नष्ट करने से उत्पन्न होता है। ताकि तुम उनके आशीर्वाद को प्राप्त कर सको, उनका आशीर्वाद हमें नए भारत का निर्माण करने के लिये आगे बढ़ते रहने के लिये अनुप्रेरित करता है। उनका आशीर्वाद हमारे इस 'विश्व-विजय अभियान की गति' को सशक्त बना देती है, तभी जगत भारत का अनुकरण करने लगेगा, और यही है विश्व-पटल पर भारत का उदय ! 

'विश्व को भारत (आर्य ?) बनाना चाहिये !' - युद्ध करके नहीं, बमबारी करके नहीं, बल्कि प्रेम की शक्ति से। वे लोग अभी भी प्रायः जंगली पशु के समान जीवन जी रहे हैं। पशु लोग एक विशिष्ट प्रकार के फ़ैशन-आचरण में जीवन बिताते हैं। हम सभी को पता है, वे अपना जीवन किस प्रकार इन्द्रिय भोगों को तुष्ट करने में बिता देते हैं। अतः कमसे कम हमें, जरूर पशु नहीं बनना चाहिये। युवाओं के चिंतन के रुझान को उच्च विचारों से इतना अधिक अभिसिंचित कर दिया जाय कि, उनके चिंतन का प्रवाह 'प्रेय' की दिशा से 'श्रेय' की ओर मुड़ जाये ! और देवदुर्लभ मानव-मन और मानव-शरीर प्राप्त करने बाद, उसके द्वारा इन्द्रिय-जीवन का सुख भोगने की उनकी लालसा ही मस्तिष्क से  निकल जाये, उनमें विवेक-जाग्रत हो सके कि - ' नहीं यह हमारा काम नहीं; यह तो पशुओं का काम है !' और उनके बीच से कम से कम १०० युवा बाहर निकल आयें और घोषणा कर दें -" हम आज से ही चरम अनुपयोगी इच्छाओं (आहार-निद्रा-भय-मैथुन) को मन से त्याग देते हैं "। महामण्डल ऐसे ही विचारों को लेकर स्थापित किया गया है, और जैसा कि आप जानते हैं, सम्पूर्ण भारत में इसके ३३० से भी अधिक केन्द्र हैं।

इसलिये मेरा आपसे अनुरोध और आग्रह है कि आप सभी युवा लोग हिन्दी भाषा में -१० खण्डों में उपलब्ध 'विवेकानन्द साहित्य' का सविस्तार, गहराई से अध्यन करें ! तो देखेंगे कि धीरे धीरे आप अपनी अन्तर्निहित पूर्णता (अव्यक्त ब्रह्मत्व या डिविनिटी) को प्रकाशित करने की दिशा में अग्रसर हो चुके हैं! यदि कोई  व्यक्ति इस पृथ्वी पर सच्चे आनन्द का जीवन, पूर्णत्व-प्राप्ति की सन्तुष्टि से भरा हुआ जीवन प्राप्त करना चाहता है, और उसके लिये इस जगत में किसी एक ही पुस्तक को निर्धारित करने (prescribed) की बात हो, तो उसे कहना होगा-'स्वामी विवेकानन्द को पढ़ो !' अन्य किसी की, इसकी या उसकी लिखी पुस्तकों को पढ़ने की कोई जरुरत नहीं है, पुस्तकों में तो इधर-उधर की ढेरों बातें भरी हुई हैं। और कई पुस्तकें तो बाजार में ऐसी हैं, जिसने हजारों युवाओं के जीवन को नष्ट कर दिया है। इस सच्चाई से आप सभी लोग परिचित हैं। लेकिन शायद ही कभी लोग (राजनितिक नेता, इलेक्ट्रॉनिक मिडिया या प्रिंट मिडिया ) युवाओं को ऐसी पुस्तकों से परहेज करने की सलाह देते हैं !

किन्तु किसी तरह हमारे सौभाग्य से, हमारे बचपन में ही  हमें यह समझा दिया गया था कि अंग्रेजी-उपन्यास, या कथा-कहानियों की विभिन्न पुस्तकें आदि को पढ़ना अच्छी बात नहीं है। क्योंकि उसके माध्यम से तुम्हारे मन में कुछ ऐसी चीजें प्रविष्ट हो जाएँगी, जो उन्हें गलत चिंतन से इस प्रकार भर देगी, जिसे मनुष्य जीवन के लिए उचित आचार-व्यवहार में उपयोगी कदापि नहीं कहा जा सकता। अतः भाइयों, मैं नहीं जानता कि ऐसी बातें मेरे मन क्यों उठ रही हैं ! जैसा मैंने आग्रह किया था, मैं पुनः तुमसे यह अनुरोध करना चाहता हूँ, कि  - ' विवेकानन्द साहित्य का अध्यन करो ! ' दुनिया में और किसी चीज की जरूरत नहीं है। एक ठोस जीवन का निर्माण करो, ऐसे मानव-जीवन का निर्माण करो, जो सभी के कल्याण के लिए हो, और पूरा जीवन इसी कार्य में व्यतीत करो।

बहुत वर्षों से मैं इसी प्रकार का जीवन व्यतीत करता चला आ रहा हूँ, और शायद अब वह समय आ चुका है, 'व्हेन आइ मीट ऐन इंड ' जब मुझे (इस 'जीवन नदी के)  'दूसरे छोर' से मिल जाना पड़े; किन्तु  इसमें उदास या शोकाकुल होने जैसी कोई बात नहीं !  इस शरीर को छोड़ने के बाद, यदि वहाँ स्वामी जी और ठाकुर से मिलने का  कोई  मौका मिला, तो क्या हम उन्हें यह बताने में सक्षम हैं कि -" मैंने आपके निर्देशों का पालन करने की कोशिश की थी, और मैं बहुत खुश हूँ कि मैं अपने आप को पृथ्वी पर धूल-मिट्टी या गंदी के चीजों नीचे  नहीं रख आया हूँ ! मैं मुक्त हूँ, मैं मुक्त हूँ, मैं मुक्त हूँ! " भाइयों, तुम्हारे पास तो पर्याप्त समय है, यदि तुम चाहो, तुम्हारा जीवन प्रकाशमान (दैदीप्यमान) हो उठेगा, यह केवल तुम्हें ही उन्नत मनुष्य में परिणत नहीं करेगा, बल्कि तुम्हारा जीवन इतना आलोकित हो जायेगा कि, जिसके द्वारा हमलोग अनेकानेक युवाओं की सेवा करने, और समाज के अभिशाप से उनको बचा लेने में सक्षम हो जायेंगे। ताकि वे लोग भी एक सच्चा जीवन जी सकें और निधन से पहले ही उसके वास्तविक आनन्द का अनुभव कर सकें।
 यदि मैं गुजर गया,  मुझे पता है, मेरे निधन के बाद क्या हमलोग थोड़े ही वर्षों तक सही इन बातों का स्मरण रखने में सक्षम हो पाएंगे, और  जिन्होंने पहले इस दुनिया को छोड़ दिया है, उन लोगों को बतायेंगे, -" आप देखिये, जब मैं पृथ्वी पर था, किसी न किसी प्रकार इन्हीं हाथों के माध्यम से -एक युवा संगठन प्रतिष्ठित हुआ था, जहाँ सैंकड़ो युवक प्रशिक्षित और लाभान्वित हुए थे, और उनकी जीवन-शैली बहुत उन्नत थी।  साधारण लोगो की तरह नहीं, जो बस केवल ऐय्याशी या इन्द्रिय-सुख का ही भोग करने में रचे-पचे रहते हैं, वैसा कोई सुख नहीं, वैसा जीवन नहीं,बल्कि एक ऐसा जीवन गठित किये थे, जिस के साथ उसका एक उच्चतर  उद्देश्य भी जुड़ा हुआ था।"
यदि कोई ईश्वर सचमुच कहीं हों, आइये हम सभी उस भगवान से प्रार्थना करें, यदि तुम ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं भी करते हो, तो भी तुम यह नहीं कह सकते कि श्रीरामकृष्ण का कभी जन्म नहीं हुआ था, या स्वामी विवेकानन्द का कभी जन्म नहीं हुआ होगा? श्रीरामकृष्ण का जन्म हुआ था, स्वामी विवेकानन्द का जन्म हुआ था, और मैंने देखा है, मैं एक ऐसे व्यक्ति से मिला हूँ, उससे बातें की हैं, जिनके सम्बन्ध में मैं कह सकता हूँ, कि वे श्रीरामकृष्ण के साथ रहते थे, वे स्वामी विवेकानन्द के साथ रहते थे !
इसीलिये यह युग  --एक नए युग की शुरुआत है। जहाँ सभी छात्रों को जीवन के सम्बन्ध में एक समग्र दृष्टिकोण प्राप्त होगा , अपनी इन्द्रियों के माध्यम से विभिन्न विषयों के भोगों का सुख भोगना इस मनुष्य- जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता, बल्कि पृथ्वी की उस सुंदरता का आनन्द लेंगे -जहाँ मनुष्य शरीर में जन्म लेने के बाद मनुष्य उस सर्वोत्तम आनन्द का चयन कर सकता है, जो उसे देवमानव में उन्नत कर देता है, और उन्हें आने वाली पीढ़ियाँ भी उन्हें केवल इसी लिए याद करतीं हैं, कि उन्होंने अपने समय के युवाओं को मनुष्य बनने में सहायता की थी, ताकि वे अपने जीवन का निर्माण कर सकें, जीवन को नष्ट होने बचा सकें। 
आओ हम सभी ठाकुर श्रीरामकृष्ण, जगतजननी माँ सारदा देवी, और स्वामी विवेकानन्द से प्रार्थना करें कि वे हमलोगों को वह शक्ति प्रदान करें जिससे हम स्वयं को जगत की क्षणभंगुर चीजों से ऊपर उठा सकें। दुनिया की क्षणभंगुर वस्तुएं नशे की चीज जैसी हैं,हमें उसकी आवश्यकता नहीं है। जीवन में पाने के लिये इतनी बड़ा लक्ष्य हमारे सामने है, (प्रत्येक मनुष्य में इन्द्रियातीत सत्य को जानने की सम्भावना है !) और हमने इसी लक्ष्य को चुन लिया है ! और  कम से कम दिल ही दिल में हम जानते हैं कि हमने सबसे कठिन लक्ष्य को चुना है, इसीलिये हमारी ऑंखें दुनिया की रंगीनियों से अंधी नहीं हो सकती। विलासिता की उन वस्तुओं से, जो विभिन्न प्रकार से हमारी शारीरिक और मानसिक शक्तियों का हरण करती हों, हमें अपना ध्यान बस हटा लेना है ! हमारा एक मात्र उद्देश्य भगवान को (इन्द्रियातीत सत्य को) जान लेना है! 
मैं सोचता हूँ, और शायद बहुत गलत नहीं हूँ, कि वैसे मनुष्य आज भी हैं, वे चाहे जहाँ कहीं भी रहते हों, किसी जंगल में या किसी अज्ञात गाँव में, या जगत के किसी भी हिस्से में रहते हों, उनकी सद्भावना की समग्रता भारत के भाग्य - जगत के बंधनों से मुक्ति के लिये ( 'पशुमानव को देवमानव में रूपान्तरित करने ' के लिए) अब भी क्रियाशील हैं, तथा आखरी साँस छोड़ने के पहले हममें से सभी लोग अवश्य आनन्दपूर्ण होंगे ! नमस्कार !
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[झुमरी तिलैया, झारखण्ड में आयोजित तृतीय अन्तर्राज्य स्तर शिविर में 4 अक्टूबर 2015 को महामंडल के अध्यक्ष द्वारा अंग्रेजी में दिये गए भाषण का हिन्दी अनुवाद। The speech delivered by sri Nabaniharan Mukhopadhyay, president of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal as the chief guest on the occasion of farewell session of 3rd Inter-state youth training camp at Jhumritelaiya.]

    ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः।
    भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
    स्थिरैरन्ङ्गैस्तुष्टुवागं सस्तनूभिः।
    व्यशेम देवहितम् यदायुः ।
    स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः।
    स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
    स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः।
    स्वस्ति नो ब्रिहस्पतिर्दधातु ॥
    ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

बहुत धैर्य के साथ देख रहे हैं, जो प्रोग्राम चलता है। जब इस विदाई सत्र की शुरुआत हुई थी तब सूर्यदेव भू-पृष्ठ के ऊपर थे। पानी से बहुत ऊपर में। और अब कितना समय हुआ -साढ़े आठ हो रहा है। अभी तक जो सुने हैं, उसमें स्वामीजी के बारे में स्वामीजी के पास से सीखने की क्या चीज है उसका एक कण भी हमको सीखने को मिला ? हमको तो देखने को नहीं मिला। चला, सब कुछ चलता है, लेकिन स्वामीजी कहाँ हैं ? बिल्कुल एब्सेंट। Absolutely, Swamiji is absent. Betweens we would not have sufficient love and regard for the person in whose name our All India organization is running for quite long time and long years. This is very sad thing. Man will not survive by singing and dancing. This is very good, no doubt dancing is sometime very good but only sometime. हमारी जो जरूरत है, वह है थोड़ा स्वामीजी को समझने की कोशिश करना।  We should resolve very seriously that at least somehow on we shall spend at least a few years reading and contemplating on the same of Swami Vivekananda with all our heart, mind and soul. It has become a fashion now a days to tell people a sort of people that we are near to Swami Vivekananda. No, not so. I had the fortune to live with people who passed long years with Swami Vivekananda. It was not my luck to go near to Swami Vivekananda because I was too young. But some people spend a lot of hours with Swami Vivekananda. Not once but again and again. Such people I could sit and listen to their thought on swami Vivekananda and Sri Ramakrishna Dev. That is how without understanding or understanding very little, who is Sri
Ramakrishna, who is Swami Vivekananda? In India, we are in our all texts,
Hindu, Muslim, Sanskrit there was, there is Mahapurushas, so many, but
perhaps been not be wrong to say that seldom of powers one came like Sri
Ramakrishna and Swami Vivekananda. It is my fortune to meet some people
who had seen them. Who had think about it? It is not just a fun! The Mahamandal
was formed in three hundred and thirty centers throughout India which other
organisation accepting political parties who have just 330. No, there is no
organization except political parties. What do we get from Swami Vivekananda?
What would we get from Sri Ramakrishna? The message that we don’t find in
scriptures. Sri Ramakrishna was God himself. Swami Vivekananda was no less.
If you want to form any idea of godliness or the kind of person god is, we have
this is easy way to try to move through Sri Ramakrishna and Swami
Vivekananda. That is why they have known as AVATARAS. When Avataras in
human bodies found in our books, they vanished, they go away from the soil of
the world. But if we try, we can realize then in their full form. Today even, mine,
anybody who has belief, who have there is no touch or possibility of diluting the
godliness then Sri Ramakrishna and Swami Vivekananda had. So now, let us
actually, there is no need of having many deities and many pujas.क्या नहीं है ? सरस्वती पूजा से लेकर लक्ष्मी पूजा, काली पूजा, दुर्गा पूजा चला।  चलता है चलता है। इतने पूजा की जरूरत नहीं है। इसलिए युग युग में एक नया युग आया। जो पूर्व काल में था उसे इस युग के आदमी सब लोग बोलना शुरू करते हैं। They vanished from the memory and they wait for someone. Some new one in apostle but apostles are not so simple things that it can be had just by wishing to have one. It isn’t possible. So we have to go back to Swami Vivekananda and we are very proud that we had luck to know and live with a person who had seen  and talked to Sri Ramakrishna, who had seen and talked to Swami Vivekananda. It is my belief without any shed of questioning that only through listening to about Sri Ramakrishna and Swami Vivekananda through lowest old people, a love and adoration and puja bhav. मन में आया था। कम नहीं है किसी से बात तो कर रहे हैं, जिनकी बात स्वामीजी से हुई है। कम नहीं है किसी एक ऐसे आदमी को देखना जो श्रीरामकृष्ण का दर्शन किये हैं ! उनके चरणों का स्पर्श किये हैं ! उनके पैर की धूलि लेकर अपने सिर पर रखे सके।  And to make a pram to such a person itself elevates anyone spiritually, the high order and I am proud that I had a bit of such experience otherwise perhaps, I could not be at the helm of this Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal. It isn’t a club. It is not an organization like social service
organization. It is something more. I should say and demand and declare that it is a 100% religious organization. What is meaning of religion? इसको डिस्पर्स करने से क्या होता है ? Re-Le-gar means rejoining. We have separated ourselves foolishly. With the pumpen power and plunder of the sense feelings while on the earth. But they can only save our soul. They can only lead us to higher level from
bare will not be able to touch anything which is soiled with the touch of the earth had man are nothing but a developed and a little purified or mannerism or some beasts. Men are also beast but curious beasts who have said capacity of
reasoning. Who doesn’t accept anything whatever is given it to swallow. It
doesn’t swallow without examining. I had told you. I had occasion to see and
talked to persons who had the opportunity and very good luck of meeting and
talking to Sri Ramakrishna and Swami Vivekananda. Where do we stand ?
Mahamandal is in the name of of Swami Vivekananda, why? The most active in
the worldly live to person who laid down his life for elevating humanity. He
elevated humanity himself in this wholeness. So If with such a vision, such a
belief, if we go to Swami Vivekananda, we will read more exceeding more and
which will satisfy our heart, soul and dry up ear drop in our eyes. Where do we
stand brothers? Mahamandal is not just a juvenile organization to have football,
cricket, etc. playing and then proceeding a little more, a little dramatic occasions.
Dramas are very favorite among young people, but they also steal the real power of young people. We did not have the real opportunity of seeing film, cinema or theatre till we went to college or finished our college life. Schools and colleges, never. We have never sorry for admitting something. So there is no end of discussing such things. So I would only request brothers who have assembled here for camp and I hope they would try to pick up as far as possible the teachings that came during the programs and talks in the camp. We have to lift ourselves from the dazzling light of society which makes us blind about the
storehouse of the greatest ideals of human life and to bring youths to this Swami Vivekananda taught  who was tutor. Sri Ramakrishna came to make a gift to the world and he didn’t find any other place than India, than Bengal, than Calcutta to give these precious things to humanity. In Calcutta, he gave it to Swami Vivekananda. So our work is to try to understand Swami Vivekananda and mold our character, remold our life with the soul that we got from his talks. So that we can build a new India, our work will be to build new India! We are no more satisfied with this throttled India of long past.  We have to build a new India. So brothers, I have perhaps detained you unnecessary for very long time, but to do, I have got so many young people which so many things trying up to be obstruct them from a path that is very good for human life and my humble trial that is further purpose on live this Mahamandal was built that the youths are led a way by other things, fleshy things that young people like so much. So brothers, young brothers! Those who have come here those are attending this camp or still sitting here or staying here to hear this hawk words talks long one itself. So I request you, I pray you too as you like to keep sometime study Swami Vivekananda to find out the jittery of pain that shatter the soul, get his blessings are to go forward to build a new India, the pace empowered the world should then can be copied and that is India rising in the world. दुनिया को भारत बनाना चाहिए।  Not by fighting, not by bombing, but by love. There still living in state almost a beastly life. Almost a beastly life. Beasts live is particular fashion. we all know lives. So we must not be beast at least among the young people, if there is a thought and young people at least a hundred may come out and say that we will not go today extreme of disused desires. Their brains, their longings for enjoying the human life, human body and human mind. No, that is not the work. Mahamandal is founded with this Idea and there are now as you know three hundred thirty centers throughout India! 330! So my request to you and appeal to you that you go through the works of Swami Vivekananda fully. Gradually you can proceed if there ia one book of this world which may be prescribed for anybody who wants to have a life of real joy, satisfaction of fulfillment, read Swami Vivekananda.  Not this, that, So many things are there. And many books spoiled so many thousands of youths. It is known by all. But seldom people desist young men from these things. In our childhood luckily we were somehow made to understand that it is not good to read novels or many books of stories because through them, certain things will come and feel you brother which will not be given for the purpose of making worthy of living. So brothers, I don’t know why these things came to my mind. I want to request you to try as I request you to study Swami Vivekananda. दुनियां में और किसी चीज की जरुरत नहीं है। Read Swami Vivekananda. Build a solid life, human life that for the good of all, for the good of society and pass away. I have lived this way for a long time, and perhaps a time has come when I away meet an end, there is nothing to be sorry.  Are we able to tell Thakur, Swamiji, after leaving the body, there is any chance to meet them, that I had tried to follow your instructions and I am very happy that I have not kept myself under the soil and dumpy things on the earth, I am free, I am free, I am free. Brothers there is enough time with you, if you like, your life will be luminous, it will not only lift you up but will give you lighten up with which we will be able to serve many many many young men and save them from the curses of the society. So that they can have a real life and enjoy it before passing away. If pass away, After my
passing away, I know, are we able to remember these things, at least for some
time and tell those who have already left the world and you see when I was on
the earth, I had somehow through my hands an organization of youth came up
and there hundreds of youths of India, they benefited ad they had an elevated life style. Not like the ordinary, just enjoying life, not enjoying life, not enjoying flesh but life as a higher purpose with it. Let us all pray to God if there any, if you don’t believe on the existence of God, we can’t say that Sri Ramakrishna was never born, Swami Vivekananda was never born. Sri Ramakrishna was born, Swami Vivekananda was born and I have seen, I have made, I talked to a persons who had I may say, lived with Sri Ramakrishna, lived with Swami Vivekananda. So this is the beginning of age! The beginning of new age where the students will have all together life view, not enjoying the life through their senses of various kinds, but enjoying the beauty of the earth that man can choose the best which lifts them up and they are remembered by posterity for the help to the young people of his times so that they can build their lives not aloof it to go away wastes. 
Come! Let us all, pray to Thakur, Sri Ramakrishna, all pray to holy mother,
Maa Sarada Devi and Swami Vivekananda to give us that capacity the power of
lifting ourselves from the dearth of the world. Not the dearth of the world  is what we need are must hemp for. There is such a big thing to get in life and we have chosen it ia all say at least in heart that we have chosen the most difficult thing, we will not be blinded by the colours of the world. Simply try our attention  to the luxuries. To the physical and mental evection in various ways. Our only purpose is to know God and there are such men even today they are such many even today and I think perhaps, I am not very wrong that the totality of their goodwill wherever they may live, in the forest or in unknown villages, in some parts of the world. They are working for the destiny, for the delivery from the bondage of the world and we will be happy before we breathe last! नमस्कार ! 

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शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

प्रस्तावना : " आत्मस्मृति उन्मुख डायरी- " जीवन नदी के हर मोड़ पर "

प्रस्तावना
हिन्दी भाषी पाठकों के लिए मूल बांग्ला पुस्तक ' जीवन नदीर बाँके बाँके ' का हिन्दी में अनुवाद - " जीवन नदी के हर मोड़ पर " प्रस्तुत करते हुए विषेश आनंद हो रहा है। पूज्य नवनीदा का जन्म इतिहास-प्रसिद्द 
" काशीपुर उद्द्यान भवन " से अति निकट स्थित, भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंस देव के भक्त श्री महिमाचरण चक्रवर्ती महाशय के " गृह न० -१००, काशीपुर रोड " में हुआ था। उस घर में स्वामी विवेकानन्द भी जाया करते थे। (शायद इसीलिये) जैसे कुतुबनुमा की सुई सदा उत्तर की ओर ही रहती है, वैसे ही पू० नवनीदा का मन सब समय स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त भारत- पुनर्निर्माण सूत्र - 'BE AND MAKE' "मनुष्य बनने और दूसरों को मनुष्यत्व प्राप्त करने में सहायता करने " के लक्ष्य पर ही टिका रहता है। 
उनके मुख से निसृत उनके अतीत जीवन की घटनाओं ने हजारों  युवाओं को महामण्डल के निर्देशन में विगत ४९ वर्षों से चलाये जा रहे देश-व्यापी चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन से जुड़ जाने के लिये अनुप्रेरित किया है। पूनवनीदा के इस ' आत्मस्मृति मूलक ग्रन्थ ' में - महामण्डल के आविर्भूत होने के पूर्व की तथा बाद की ऐसी अनेकों बहुमूल्य बातें  हैं जिनके बारे में हममें से अधिकांश लोग अभी तक अपरिचित हैं। अगर झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवामहामण्डल के कुछ बन्धुओं द्वारा उसका अनुवाद हिन्दी में न किया गया होता, तो हिन्दी पाठकों की बहुत बड़ी संख्या उसके पढ़ने से वंचित रह जाती । 
अपने सभी नये और पुराने महामण्डल कर्मी एवम् राष्ट्रहित-चिंतक इस ' आत्मस्मृति मूलक डायरी ' को पढेंगे तो उन्हें पू. नवनीदा के जीवन से न केवल प्रेरणा मिलेगी अपितु आज की देश की जटिल परिस्थितीयों में 'भारत माता को पुनः उसके गौरवशाली सिंहासन पर बैठाने ' के प्रति अपने कर्तव्य का दिशा- निर्देश भी प्राप्त हो सकेगा।
ऐसे उत्तम ग्रंथ को हिन्दी में अनुवादित करने और प्रकाशित करने की अनुमति देने के लिये महामण्डल के वरिष्ठ भ्राता पू.रणेनदा, पू. वीरेनदा, पू.दीपकदा को अनेकानेक धन्यवाद।

- विजय सिंह 
अध्यक्ष, झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल
[नोट : पाठकों की सुविधा के लिये पू.नवनीदा के मुख से निसृत और प्रेरणादायी इस ' आत्मस्मृति मूलक डायरी ' में अलग अलग घटनाओं के वर्णन के हिसाब से शीर्षक भी डाल दिया गया है। -प्रकाशक ]
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४९  वां वार्षिक अखिल भारतीय युवा प्रशिक्षण शिविर - २०१५ 

शायंगकालीन-सत्र के  कार्यक्रम -२०१५ 

२५ दिसंबर : ४-५० pm : उदघाटन - स्वामी बोधसारानन्द जी महाराज , 
                                      संस्कृत में वक्तृता: स्वामी वेदतत्वानन्दजी महाराज, प्रधानाचार्य, वेद विद्यालय   
                                      रामकृष्ण मठ, बेलुड़। 
                                      हिन्दी में भाषण : श्री अजय अग्रवाल (झुमरीतिलैया, झारखण्ड)
                                      उड़िया  में भाषण : श्री रमेश चन्द्र भद्र (भुवनेश्वर)
                                      बंगला  में भाषण : श्री अनूप दत्त (चकदह , नदिया )
६-३० बजे शाम के भाषण 
२६ दिसम्बर ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,; श्री वीरेन्द्र कुमार चक्रवर्ती, सचिव ; अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल 
                                विषय: अंतरराष्ट्रीय शांति सुनिश्चित करने में स्वामी विवेकानंद के विचार । 
२७ दिसम्बर ....... ...... ...   : स्वामी वेदातीतानन्द जी महाराज, रामकृष्ण मिशन, सारदापीठ शिल्प मंदिर, बेलुड़ 
                                विषय : तकनीकी शिक्षा पर स्वामी विवेकानंद के विचार
२८ दिसम्बर ........... .......... : श्री सोमनाथ बागची (उत्तरी कोलकाता विवेकानन्द युवा महामण्डल )
                                 विषय : स्वामी विवेकानन्द का युवाओं को आह्वान (बंगला )
२९ दिसम्बर ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,:  स्वामी बलभद्रानन्द जी महाराज, उप सचिव, रामकृष्ण मिशन, एवं संरक्षक (ट्रस्टी) रामकृष्ण मठ, बेलुड़।  
                                  विषय : स्वामी विवेकानन्द का कर्मयोग-दर्शन। (इंग्लिश) 
३० दिसम्बर,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,:  समापन सत्र - अध्यक्ष ,श्री नवनीहरन मुखपाध्याय, 
मुख्य अतिथि : स्वामी सुवीरानन्द जी महाराज, सहायक सचिव , रामकृष्ण मिशन एवं ट्रस्टी रामकृष्ण मठ, बेलुड़।

* दैनन्दिन आरात्रिक भजन संध्या ६ pm 
* विविध कार्यक्रम संध्या ७-३० से ८-४५ pm 
* प्रदर्शनी एवं पुस्तक विक्रय केन्द्र

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गुरुवार, 26 नवंबर 2015

'बसवेश्वर आंदोलन' और 'मतुआ आंदोलन' के बाद 'बनो और बनाओ आन्दोलन का आध्यात्मिक साम्यवाद'

" समस्त जातिगत और साम्प्रदायिक मतभेदों को दूर करने का उपाय है -BE AND MAKE !"
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने थेम्स नदी के किनारे लंदन बोरो ऑफ लैम्बेथ में १२ वीं सदी के भारतीय दार्शनिक बसवेश्वर (११३४-११९६) की प्रतिमा का अनावरण १४ नवंबर, २०१५  को  किया। उद्घाटन के अवसर पर पीएम मोदी ने महात्मा बसवेश्वर को कर्मयोगी बताते हुए कहा कि बसवेश्वर ने जाति व्यवस्था और समाज की बुराइयों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। मुझे उम्मीद है कि लोग उस बात को समझने का प्रयास करेंगे, जिसकी उन्होंने वकालत की थी। महात्मा बसवेश्वर लोकतंत्र की विचारधारा को प्रतिपादित करने वाले मुख्य विचारकों में से एक थे। 
उन्होंने 'कर्म ही पूजा है'... के संदेश को फैलाया और मैग्नाकार्टा से बहुत पहले संसदीय लोकतंत्र की वकालत की। मैग्नाकार्टा का आशय उस 'महान घोषणापत्र' से है, जिसे इंग्लैड के किंग जॉन ने १२१५  में पहली बार यह सिद्धांत स्थापित किया कि राजा सहित सभी कानून के दायरे में हैं।
वेदों के अनुसार एक ही व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में चारों वर्णों के गुणों को प्रदर्शित करता है । अतः प्रत्येक व्यक्ति चारों वर्णों से युक्त है । वैदिक संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति जन्मतः शूद्र ही माना जाता है । उसके द्वारा प्राप्त शिक्षा के आधार पर ही ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य वर्ण निर्धारित किया जाता है । शिक्षा पूर्ण करके योग्य बनने को दूसरा जन्म माना जाता है । ये तीनों वर्ण 'द्विज' कहलाते हैं क्योंकि इनका दूसरा जन्म (विद्या जन्म) होता है । इसी कारण वैदिक धर्म "वर्णाश्रम धर्म" कहलाता है । वर्ण शब्द का तात्पर्य ही यह है कि वह चयन की पूर्ण स्वतंत्रता व गुणवत्ता पर आधारित है ।  जैसा कि आधुनिक युग में विद्वान और विशेषज्ञ सम्पूर्ण मानवता के लिए मार्गदर्शक होने के कारण हम से सम्मान पाते हैं इसीलिए यह सीधी सी बात है कि क्यों ब्राह्मणों को वेदों में उच्च सम्मान दिया गया है । यानि कि एक ब्राह्मण के घर शूद्र और एक शूद्र के यहाँ ब्राह्मण का जन्म हो सकता था ..लेकिन धीरे-धीरे यह व्यवस्था लोप हो गयी और जन्म से वर्ण व्यवस्था आ गयी ..और हिन्दू धर्म का पतन प्रारम्भ हो गया यह सब प्रमुखता से सिर्फ १२ वीं शताब्दी के आते आते मुस्लिम आक्रांताओं के कारण हुआ! 
 आर. सी.दत्त महोदय के अनुसार “हिन्दू समाज में जातिभेद के कारण बहुत सी हानियां हुई है पर उसका सबसे बुरा और शोकजनक परिणाम यह हुआ कि जहाँ सामाजिक एकता और सभी धर्मों के प्रति समभाव होना चाहिये था, वहाँ विरोध और मतभेद उत्पन्न हो गया। जहाँ प्रजा में बल और जीवन होना चाहिये था वहाँ निर्बलता और मौत का वास है।” सामाजिक एकता के भंग होने से विपरीत परिस्थितियों में जब शत्रु हमारे ऊपर आक्रमण करता था तब साधन सम्पन्न होते हुए भी शत्रुओं कि आसानी से जीत हो जाती थी। जातिवाद के कारण देश को शताब्दियों तक गुलाम रहना पड़ा। जातिवाद के चलते करोड़ो हिन्दू जाति के सदस्य धर्मान्तरित होकर विधर्मी बन गये। हम सभी वेदों की छत्र-छाया में ' वसुधैव कुटुंबकम ' सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार की तरह स्वीकार करें और मानवता को बल प्रदान करें । हम भी समाज में व्याप्त जन्म आधारित भेदभाव को ठुकरा कर, एक दूसरे को भाई-बहन के रूप में स्वीकारें और अखंड समाज की रचना करें हमें गुमराह करने के लिए वेदों में जातिवाद के आधारहीन दावे करनेवालों की मंशा को हम सफल न होने दें। 

 Basava statue crop.png
कर्णाटक के महान् सन्त श्री वसवन्ना {वसवेश्वर} जनता के बहुत बड़े शिक्षक थे। बारहवीं सदी में  समाज ऐसे चौराहे पर खड़ा था, जहां चारों ओर धार्मिक पाखंड, जात-पात, छुआछूत, अंधश्रद्धा से भरे कर्मकांड, पंडित-पुरोहितों का ढोंग और सांप्रदायिक उन्माद चरम पर था। आम जनता धर्म के नाम पर दिग्भ्रमित थी। धर्म के स्वच्छ और निर्मल आकाश में ढोंग-पाखंड, हिंसा तथा अधर्म व अन्याय के बादल छाए हुए थे। यदि किसी व्यक्ति का जन्म अछूत (दलित ) के घर में हो गया है, तो भले ही वह एक प्रतिभाशाली या ज्ञानि ही क्यों न हो किन्तु उसे किसी भी तरीके से उसे उच्च श्रेणी-  ' ब्राह्मणत्व' प्राप्त करने का अधिकार नहीं था।
महात्मा बसेश्वर आदतन (by temperament) एक 'मिस्टिक' अर्थात ईश्वर से साक्षात दर्शन का अभिलाषी एक आध्यात्मिक सन्त थे ! वे आस्था से  एक समाज सुधारक और पेशे से एक राजनेता थे, महामहिम राजा " बिज्जल " के  प्रधानमन्त्रि थे। उन्होंने भोग के वातावरण में रहकर भी, आत्मा में स्थित सत्य को ही शिव स्वीकार किया था। उन्होंने बताया कि यह विश्व या संसार मिथ्या (भ्रम मात्र इलूजन) नहीं है। लिंगायत धर्म यह विश्वास करता है कि जगत् के सभी मानव भगवान के बच्चे हैं, इसीलिये सभी मानव-जाति जन्म से बराबर हैं। इस मानव जाति में जन्म के आधार पर जातीयता की दीवार का निर्माण करना ठीक नहीं है।
"मानव-कल्याण"  को अंतिम ध्येय मानकर बसवण्णा धर्म को साधन बनाकर क्रांति करने लगे । जब लोग धर्म की तरफ न आये तब जनमानस तक धर्म पहुंचाने के लिये  'चेन्नाबसवा' ने ' अनुभव मंटप' का निर्माण किया।'अनुभव मंटप'  मानवजाति के इतिहास में महात्मा वसवेश्वर द्वारा स्थापित लिंगायत धर्म का पहला पार्लियामेन्ट था। पार्लियामेन्ट (संसद) और अनुभव मंटप के बीच एक मात्र अंतर इतना ही था कि अनुभव-मंटप के संसद- सदस्यों का निर्वाचन आम जनता के द्वारा नहीं होता था। केवल वैसे ही आध्यात्मिक स्त्री-पुरुषों को आदर्श संसद ‘अनुभव मंटप’ का सदस्य बनने योग्य समझा जाता था जो इन्द्रियातीत सत्य का साक्षात्कार कर ब्रह्मविद् बन गया हो। इसीलिये (स्वयं अविद्याग्रस्त) सामान्य जनता को अपने क्षेत्र से संसद सदस्यों को निर्वाचित करने का अधिकार नहीं था। लिंगायत धर्म के उच्च अधिकारी, जो स्वयं ब्रह्मविद्-गुरु या नेता होते थे; वे अन्य आत्मानुभूति प्राप्त ब्रह्मविद् सांसदों को विद्वत-समाज से स्वीकृत होने के बाद   नामित कर लेते थे। उन्होंने " सर्वम् शिवमयं जगत् " की घोषणा की थी
उन्होंने कहा था, कि "जैसे एक दीपक को प्रकाश करने के लिए दीया, बत्ती और तेल चाहिए। उसी प्रकार मनुष्य जीवन को प्रकाशित करने के लिये,उसके तीनों अवयव, 'शरीर-मन और ह्रदय' को विकसित करना चाहिये मनुष्य बनने के लिये तन रुपी दीया (Hand) बाहुबल का विकास 'निःस्वार्थ कर्म-प्रयोग' करने की शक्ति द्वारा करना होगा। निःस्वार्थ कर्मों का पुनः पुनः अभ्यास ही कर्मयोग है।  
गाय के थन में जो क्षीर है, उसमें घृत का होना सत्य है । यदि कोई गिरकर चोट खा ले तब वैद्य कहता है "गरम धृत से मालिश कीजिए", तब यह कहकर जप करने से कि " गाय के थन में क्षीर है, क्षीर में घृत है" व्यक्ति  का दर्द दूर नहीं होगा । मनुष्य के मन के अन्दर जो दिव्यता रूपी क्षीर, विवेक-प्रयोग करने की शक्ति (इन्द्रियातीत सत्य को जान लेने की सम्भावना मानवमात्र में) अन्तर्निहित है, उसे  बाहर निकालकर उसको संस्कार देना होगा, अर्थात मन को एकाग्र करने का अभ्यास करना होगा, तभी वह घी (आत्मस्वरूप) प्राप्त होगा जिसको मलने से दर्द दूर हो सकेगा, मनुष्य की समस्त समस्याओं का समाधान हो जायेगा। बुद्धिबल (Head)- 'नित्यानित्य विवेक-प्रयोग' या एकाग्रता की शक्ति द्वारा चरित्र रुपी बत्ती के निर्माण का नाम है-ज्ञानयोग। 
आत्मबल (Heart) हृदय की शक्ति  (प्रेमशक्ति) का विकास 'सर्वमंगल प्रार्थना-प्रयोग ' या भक्ति रूपी तेल से हृदय को पूर्ण रखना ही भक्तियोग है निराकार को साकार रूप में ग्रहण करने की परिपाटी आध्यात्मिक तथा व्यावहारिक दोनों जगत में हैं। जैसे निराकार समय (अमूर्त -Formless Time )  को जानने के लिए जैसे साकार घड़ी (आकृतियुक्त ) उपकरण (इन्स्ट्रमेन्टैलिटी) का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है, वैसे ही निराकार परमात्मा को जानने के लिए लिंगायत धर्म में 'ईष्टलिंग और गुरु' को भगवान का साकार प्रतीक बन कर अवतरित हुआ माना जाता हैं ।  
'इष्टलिंग ' किसी भी व्यक्ति की मूर्ति नहीं है ।  जगत् भर में व्याप्त परमात्मा शरीर का ब्रहंमाड गोलाकार में रहने से उसी आकार में रूपित यह चिह्न हें । आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाय तो यह 'इष्टमूर्ति' ही भवसागर को पार करानेवाली नौका है । आध्यात्मिक आकांक्षी को ईश्वर से एकत्व स्थापित करने के लिए अपनी एक या तीनों शक्तियों का प्रयोग करना चाहिये है। जीवन में चरित्र -संस्कार का दीप जलायें तो जीवन-ज्योति प्रकाशित होकर जगमगा उठती है।
१२वीं शती में दक्षिण में वीर शैव संप्रदाय का उदय जाति के विरोध में हुआ था। किंतु कालक्रम में उसके अनुयायिओं की एक पृथक्‌ जाति बन गई, आज जिसके अंदर स्वयं अनेक जातिभेद हैं। और यही हाल दूसरे समाज-सुधार आन्दोलनों का भी हुआ है।
ईसिस या टेरिस्टों आतंकवादियों और उग्रवादियों को फ़्रांस और रूस के जैसा केवल मिसाईल छोड़कर या बम गिराकर समाप्त नहीं किया जा सकता। अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ में अमेरिका ने काफी तबाही मचाई थी, किन्तु क्या आतंकवाद समाप्त हो गया ? प्रीभेंसन इज बेटर देन क्योर - बम गिरना उपचारात्मक उपाय है -इसीके चलते यूरोपीय देशों में लाखों रिफ़्युजि पलायन कर रहे हैं, सम्पूर्ण विश्व में मानवता शर्मसार हो रही है। राष्ट्रभक्त, भारतीय संस्कृति के संपोषक भारत के माननीय प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के सत्प्रयास से २१ जून २०१५ को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस विश्व के लगभग १७७ देशों द्वारा मनाया गया। यह अलग विषय है कि इस योग दिवस मनाने का लक्ष्य ‘‘योगश्चित्तवृत्ति निरोधः’’ नहीं था। 'योग' का अर्थ आसन लगाना, व्यायाम करना नहीं है। योग का वास्तविक अर्थ है-चित्त पर अंकुश कैसे रखना होगा, इंद्रियों पर अपना अधिकार कैसे रखा जा सकता है, मन को कैसे वश में रखना संभव है, जबान पर कैसे नियंत्रण रखा जा सकता है, जिस उपाय द्वारा यह संभव होता है-उसी को योग कहते हैं ! मानवजाति के साथ योग करने की  कीमिया या फेविकोल है संवेदनाविवेक-प्रयोग द्वारा - सम्पूर्ण मानवता के प्रति एकात्म का एहसास; इस सच्चाई का एहसास कि पूरी सृष्टि एक विराट जीवंत शरीर है और हम उसके जीवंत अंग है ज्ञान योग है। पूरी सृष्टि के प्रति प्रेम-प्रयोग, सर्वमंगल की प्रार्थना, समर्पण ,श्रद्धा, संवाद और संवेदना का भाव रखना ही भक्ति योग है।  जब हम सीरिया आदि इस्लामिक देशों से पलायन करने को मजबूर उन रिफ्युजिों के सुख-दुःख को अपना समझ सकेंगे, तभी विश्व-मानवता के साथ जुड़ाव होता है. पूरी सृष्टि के प्रति संवेदनात्मक जुड़ाव महसूस करते हुए कार्य करना ,सर्व हित में कार्य करना ,सबके सुख दुःख को अपना समझना ,सबका ध्यान रखना,किसी को विरोधी न मानना ,किसी को पीड़ा न पहुंचाते हुए यथासंभव जीवन यापन करना ,यही कर्म योग है।  योग का अर्थ है जोड़ना ,जुड़ना, जोड़ते ,जुड़ते चले जाना। जब हम समस्त परिवार ,समाज ,प्रकृति , देश धरती और सृष्टि से जुड़ाव महसूस करते हैं तब हम योग कर रहे होते हैं। योग का वास्तविक अर्थ है संवेदना के साथ,संवेदना के द्वारा सबसे जुड़ना,जुड़ाव महसूस करना । और इसका उल्टा है बांटना ,बंटना ,बांटते चले जाना तरह तरह के खांचों में ,जाति के ,धर्म के ,क्षेत्र के और न जाने कितने अनगिनत खांचे में मानवसमाज बंट गया है । 
पश्चिम बंगाल का एक नाम गौर (गौड़) क्षत्रियों के नाम पर 'गौड़ देश' भी था। आठवीं सदी के मध्य में पूर्वी भारत में पाल वंश का उदय हुआ। गौड़ बंगाल का प्राचीन सामान्य नाम है। नवीं-दसवीं शताब्दी में गौड़ पर पाल वंश के राजाओं का आधिपत्य था। पाल शासक बौद्ध धर्म को मानते थे। इस राज्य में वास्तु कला को बहुत बढावा मिला। बंगाल में पाल वंश के बाद सेन वंश का शासन ग्यारहवीं सदी में स्थापित हुआ। गौर देश (बंगाल) पर शासन करने के कारण सेन वंशी क्षत्रिय सेनगौर या सेनगर या सेंगर कहलाने लगे। बंगाल में आज भी सिंगूर नाम की प्रसिद्ध जगह है। बंगाल पर सेन वंश का शासन  कायम हो गया था, किन्तु तब तक ब्राह्मणों के लिए बंगभूमि व्रात्य और अंत्यज थी। सेन वंश के राजा बल्लाल सेन ने​​ कन्नौज से ब्राह्मणों को बुलाकर बंगाल में ब्राह्मण धर्म का प्रचलन करके सख्ती से मनुस्मृति लागू की और बड़े पैमाने पर बौद्धमत के​ ​अनुयायियों को हिंदू बनाकर उन्हें अछूत घोषित कर दिया। 
मतुआ आंदोलन को नमोशूद्र आंदोलन के नाम से भी जाना जाता है. आज से २०० वर्ष पूर्व मतुआ धर्म की स्थापना नमोशूद्र हरिचंद (हरिचाँद) ने सन् १८१२ में की थी. 'मतुआ' का अर्थ है 'भावविभोर' होकर (इश्क-मस्ताना?) जैसा रहना । अन्धकार में डूबे हुए समाज की मुक्ति के लिए प्रचलित कर्मकांड को नकारते हुए मतुआ धर्म तथा मतुआ आन्दोलन के प्रणेता हरिचांद ठाकुर  का विद्रोह रूप सामाजिक एवं धार्मिक आन्दोलन में परिवर्तित हुआ।  शिक्षा देने के साथ उन्होंने चांडाल आंदोलन, नील आंदोलन और भूमि आंदोलन का भी नेतृत्व किया. सन् १८६५-६६ में  हरिचंद ने ब्रिटिश को साथ लेकर ज़मींदारों के विरुद्ध भूमि आंदोलन किया था। बंगाल के कम्युनिस्ट शासन को जिस भूमि सुधार का श्रेय दिया जाता है, उसेक लिए आंदोलन का श्रेय मतुआ आंदोलन के जनक हरीचाँद ठाकुर को जाता है। 
नमोशूद्र हरिचंद (हरिचाँद) के लिए चित्र परिणाम

उसीकी वजह से भारत भर में सबसे पहले बंगाल में अस्पृश्यता मोचन हुआ। जात-पात, भेद-भाव, ऊँच-नीच वर्जित करते हुए एवं सबके लिए समाज का मार्ग दिखाते हुए एक नया पथ, नया विचार, नया संस्कार दिया। जिसे केवल अछूतों ने ही नहीं, हिन्दू, मुस्लिम, क्रिस्चन सब ने मतुआ धर्म के रूप में अपनाया जिसका ज्वलंत उदाहरण पांचकड़ी गॉव के मुसलमान है जो हर साल ठाकुर हरिचाँद की जयंती में आते है।
  इस धार्मिक आंदोलन का एक ही संदेश था कि खुद खाओ या न खाओ, लेकिन बच्चों को शिक्षा दो ! उन्होंने १५०० से अधिक स्कूल खोले. हरिचंद ठाकुर ने जब स्कूल बनवाए तब सबसे पहले उन्होंने गोशाला में पढ़ाने की व्यवस्था की । हरिचंद के बाद इस कर्य का बीड़ा उनके सुपुत्र गुरुचंद ने उठाया. हरिचंद-गुरुचंद नामक इन दोनों ठाकुरों ने बंगाल, बिहार, असम और ओडिशा में डेढ़ हज़ार प्राइमरी स्कूल खोल कर ब्राह्मणों को चुनौती दी. इसके बाद आठ से अधिक उच्च विद्यालय (हाई स्कूल) खोले गए. स्थान के अभाव से  गाय चरने चली जातीं तो जगह को साफ करके स्कूल में परिवर्तित कर दिया जाता था।
बंगाल की परंपरा के अनुसार हरिचंद-गुरुचंद (पिता-पुत्र) को सम्मानपूर्वक 'ठाकुर' की उपाधि दी गई. यह उपाधि समाज हित में कार्य करने वालों को दी जाती है। रवींद्रनाथ ठाकुर साहित्य का नोबल पुरस्कार पाने वाले भारत के प्रथम साहित्यकार थे और वे भी नमोशूद्र जाति से थे.  रवींद्रनाथ टैगोर को जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया था. लेकिन वहाँ उन्हें ‘पीरल्ली ब्राह्मण’ लिखा गया था।
 बंगाल में ‘मतुआ धर्म’ मानने वालों की संख्या १.२ करोड़ है जबकि देश भर में इनकी संख्या ४ करोड़ के लगभग है। मतुआ समुदाय के अंतर्गत मूल रूप से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग आते हैं जो राज्य के तकरीबन ८ जिलों में अच्छी खासी तादाद में हैं। इसमें प्रमुख रूप से हावड़ा, उत्तर और दक्षिण २४  परगना जिले, नाडिया, मालदा आदि जिले शामिल हैं। राज्य के ७४  विधानसभा क्षेत्रों में मतुआ समुदाय काफी निर्णायक भूमिका में हैं।
पहले मतुआ समुदाय कम्युनिस्ट दलों का वोट बैंक रहा है। लेकिन वर्ष २००८  के पंचायत चुनाव और वर्ष २००९ के लोकसभा चुनाव में वाम दलों से इस समुदाय का मोह भंग हो गया और इसने टीएमसी की ओर रुख किया है। टीएमसी की ममता बनर्जी  अखिल भारतीय मतुआ महासभा २०१० की मुख्य संरक्षक भी बन गई। टीएमसी ने तो मतुआ समुदाय की प्रसिद्घ धार्मिक गुरू ९२  वर्षीय बिनापाणी देवी (बोड़ो-माँ ) के पुत्र मंजुलकृष्णा ठाकुर को चुनावी मैदान में भी उतार दिया। माना जा रहा है मतुआ समुदाय का रुझान टीएमसी के प्रति कुछ ज्यादा था । किन्तु पीएम मोदी के आने के बाद मतुआ समाज के बड़-दा और राज्य सरकार के मंत्री रहे मंजुल कृष्ण ठाकुर ने पार्टी छोड़ दी और भाजपा में शामिल हो गए। इस प्रकार मतुआ आंदोलन भी राजनितिक आंदोलन बनकर रह गया।
ऋग्वेद के अनुसार, "एकं सत विप्रा बहुधा वदन्ति", अर्थात एक ही परमसत्य को विद्वान कई नामों से बुलाते हैं। ईश्वर एक और केवल एक है। वो सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त भी है और विश्व के परे भी। उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म ही परम तत्त्व है। वही परम सत्य, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। वो कालातीत, नित्य और शाश्वत है। वही परम ज्ञान है। वो विश्वव्यापी और विश्वातीत दोनो है। वैष्णव मतों और दर्शनों में माना जाता है कि ईश्वर और ब्रह्म में कोई फ़र्क नहीं है--और विष्णु (राम,कृष्ण,बुद्ध,ईसा,श्रीरामकृष्ण .....) ही ईश्वर हैं। ईश्वर अपनी इसी जादुई शक्ति "माया" से विश्व की सृष्टि करता है और उस पर शासन करता है। इस स्थिति में हालाँकि ईश्वर एक नकारात्मक शक्ति के साथ है, लेकिन माया उसपर अपना कुप्रभाव नहीं डाल पाती है, जैसे एक जादूगर अपने ही जादू से अचंम्भित नहीं होता है। माया ईश्वर की दासी है, परन्तु हम जीवों की स्वामिनी है।इसी ईश्वर को मुसल्मान (अरबी में) अल्लाह, (फ़ारसी में) ख़ुदा, ईसाई (अंग्रेज़ी में) गॉड और यहूदी (इब्रानी में) याह्वेह कहते हैं। ईश्वर के अन्य नाम हैं : परमेश्वर, परमात्मा, विधाता, भगवान। वो ही जगत का सार है, जगत की आत्मा है। वो विश्व का आधार है। उसी से विश्व की उत्पत्ति होती है और विश्व नष्ट होने पर उसी में विलीन हो जाता है। जब माया (चित्त) के आइने में ब्रह्म की छाया पड़ती है, तो ब्रह्म का प्रतिबिम्ब हमें ईश्वर के रूप में दिखायी पड़ता है।
अद्वैत वेदान्त के अनुसार जब मानव 'ब्रह्म' को अपने मन से जानने की कोशिश करता है, तब ब्रह्म 'ईश्वर' हो जाता है, क्योंकि मानव माया नाम की एक जादुई शक्ति के वश मे रहता है। बेशक, ईश्वर सगुण है। वो स्वयंभू और विश्व का कारण (सृष्टा) है। वो पूजा और उपासना का विषय है। वो पूर्ण, अनन्त, सनातन, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। वो राग-द्वेष से परे है, पर अपने भक्तों से प्रेम करता है और उन पर कृपा करता है। उसकी इच्छा के बिना इस दुनिया में एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। वो विश्व की नैतिक व्यवस्था को कायम रखता है और जीवों को उनके कर्मों के अनुसार सुख-दुख प्रदान करता है। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार विश्व में नैतिक पतन होने पर वो समय-समय पर धरती पर अवतार (जैसे कृष्ण) रूप ले कर आता है। हिन्दुओं में कोई एक पैगम्बर (योगप्रशिक्षक या योगेश्वर श्रीकृष्ण ) नहीं है। धर्म की रक्षा के लिए ईश्वर (योगेश्वर श्रीकृष्ण अक्रम मुक्ति sudden Liberation द्वारा) आदर्शकर्मी बनकर या योग-प्रशिक्षक बनकर  बार-बार पैदा होते हैं. गीता ४/१३ में भगवन श्री कृष्ण ने और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा  है की की वर्णों की व्यवस्था जन्म के आधार पर नहीं कर्म के आधार पर होती है !

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥
अर्थात् –मेरे द्वारा गुणों और कर्मोंके विभागपूर्वक चारों वर्णोंकी रचना की गयी है। उस( सृष्टिरचना आदि) का कर्ता होनेपर भी मुझ अव्यय परमेश्वरको तू अकर्ता जान। कारण कि कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा नहीं है इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्वसे जान लेता है वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता।
[ ( ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र इन ) चारों वर्णोंका नाम चातुर्वर्ण्य है। सत्त्व रज तम इन तीनों गुणोंके विभागसे तथा कर्मोंके विभागसे यह चारों वर्ण मुझ ईश्वर द्वारा रचे हुए उत्पन्न किये हुए हैं। ब्राह्मण इस पुरुषका मुख हुआ इत्यादि श्रुतियोंसे यह प्रमाणित है। उनमें से सात्त्विक सत्त्वगुण-प्रधान ब्राह्मण के शम, दम,तप इत्यादि कर्म हैं। जिसमें सत्त्वगुण गौण है और रजोगुण प्रधान है उस क्षत्रिय के शूरवीरता तेज प्रभृति कर्म हैं। जिसमें तमोगुण गौण और रजोगुण प्रधान है ऐसे वैश्य के कृषि आदि कर्म हैं। तथा जिसमें रजोगुण गौण और तमोगुण प्रधान है उस शूद्र का केवल सेवा ही कर्म है। इस प्रकार गुण और कर्मोंके विभागसे चारों वर्ण मेरेद्वारा उत्पन्न किये गये हैं यह अभिप्राय है। ]
यदि चातुर्वर्ण्यकी रचना आदि कर्म के आप कर्ता हैं तब तो उसके फलसे भी आपका सम्बन्ध होता ही होगा इसलिये आप नित्य-मुक्त और नित्य-ईश्वर भी नहीं हो सकते ! इस पर कहा जाता है यद्यपि मायिक व्यवहारसे मैं उस कर्म का कर्ता हूँ तो भी वास्तवमें मुझे तू अकर्ता ही जान तथा इसीलिये मुझे अव्यय और असंसारी ही समझ।ऐसी यह चार वर्णोंकी अलगअलग व्यवस्था दूसरे लोकोंमें नहीं है इसलिये ( पूर्वश्लोकमें) मानुषे लोके यह विशेषण लगाया गया है।
'क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।' ४/१२ ।। 'क्षिप्रं हि मानुषे लोके'-- इस वाक्य में क्षिप्र विशेषण से भगवान् अन्य लोकों में भी कर्मफल की सिद्धि दिखलाते हैं। पर मनुष्यलोक में वर्णआश्रम आदि के कर्मों का अधिकार है यह विशेषता है। उन वर्णाश्रम आदि में अधिकार रखनेवालों के कर्मोंकी कर्मजनित फलसिद्धि शीघ्र होती है। मनुष्यलोकमें ही वर्णाश्रम आदिके कर्मोंका अधिकार है अन्य लोकोंमें नहीं,वर्णाश्रम आदि विभागसे युक्त हुए मनुष्य सब प्रकारसे मेरे मार्गके अनुसार बर्तते हैं। 
जाति का अर्थ: है उद्भव के आधार पर किया गया वर्गीकरण । जैसे विविध प्राणी हाथी, सिंह, खरगोश इत्यादि भिन्न-भिन्न जातियां हैं । अतः जाति ईश्वर प्रदत्त है जबकि वर्ण अपनी रूचि से अपनाया जाता है । इसी प्रकार संपूर्ण मानव समाज एक जाति है। सब मनुष्यों की एक जाति है, अर्थात मनुष्य – जाति  ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किसी भी तरह भिन्न जातियां नहीं हो सकती हैं क्योंकि न तो उनमें परस्पर शारीरिक बनावट (इन्द्रियादी) का भेद है और न ही उनके जन्म स्त्रोत में भिन्नता पाई जाती है । सत्य यह है कि सभी मनुष्य एक ही जाति हैं ।
स्वामी विवेकानन्द (वेदान्त और विशेषाधिकार में) कहते हैं - ” आत्मा के प्रसंग में यह कहना निरर्थक है कि एक आत्मा अन्य की अपेक्षा श्रेष्ठ है। आत्मा के वर्णन में यह कहना निरर्थक है कि मनुष्य का आवरण, पशु अथवा पौधों के आवरण से श्रेष्ठ है; सारा विश्व एक है। आवरण (अंतःकरण या शुद्ध-बुद्धि या शरीर) में अन्तर के कारण पौधे में आत्मा की अभिव्यक्ति की रुकावटें बहुत बड़ी हैं, पशुओं में उनसे थोड़ी कम, और मनुष्यों में और भी कम हैं; किसी सुसंस्कृत और आध्यात्मिक मनुष्य में उनसे भी कम हैं, और पूर्ण मानव (कृष्ण-बुद्ध-ईसा) में उन रुकावटों का पूर्णतया लोप हो जाता है। मानव जीवन में बुद्धि की जागृति के कारण हम मानव जीवन का उद्देश्य समझ सकते हैं । मानव योनि सदैव के लिए जन्‍म–मृत्यु के जंजाल से मुक्‍त होने की योनि है।
आत्मा अजन्मा है और समय से बद्ध नहीं (नित्य है) इसलिए आत्मा का कोई वर्ण नहीं होता । आत्मा अजर-अमर अविनाशी है। यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न तो मरता ही है तथा न ही यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य सनातन, पुरातन है; शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता। किसी भी जन्म में अपनी आज़ादी से किये गये कर्मों के मुताबिक आत्मा अगला शरीर धारण करती है। जन्म-मरण के चक्र में आत्मा स्वयं निर्लिप्त रह्ते हुए अगला शरीर धारण करती है। अच्छे कर्मफल के प्रभाव से मनुष्य कुलीन घर अथवा योनि में जन्म ले सकता है जबकि बुरे कर्म करने पर निकृष्ट योनि में जन्म लेना पड्ता है। जन्म मरण का सांसारिक चक्र तभी ख़त्म होता है जब व्यक्ति को मोक्ष मिलता है। उसके बाद आत्मा अपने वास्तविक सत्-चित्-आनन्द स्वभाव को सदा के लिये पा लेती है। मानव योनि ही अकेला ऐसा जन्म है जिसमें मनुष्य के कर्म, पाप और पुण्यमय फल देते हैं और सुकर्म के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति मुम्किन है। आत्मा और पुनर्जन्म के प्रति यही धारणाएँ बौद्ध धर्म और सिख धर्म का भी आधार है। यह तो आत्मा द्वारा मनुष्य शरीर धारण किये जाने पर ही वर्ण चुनने का अवसर प्राप्त होता है। निरावलम्बोपनिषद् में कहा गया है -

  न चर्मणो न रक्तस्य मांसस्य न चास्थिनः ।।
 न जातिरात्मनो जातिव्यवहार प्रकल्पिता॥
अर्थात जाति चमड़े की नहीं होती, रक्त, माँस की नहीं होती, हड्डियों की नहीं होती, आत्मा की नहीं होती, वह तो मात्र लोक- व्यवस्था के लिये कल्पित कर ली गई । 
अतः किसी प्रकार के (वर्ण व्यवस्था में) भेदभाव के तत्वों की गुंजाइश नहीं है । तथापि हमने अपनी सुविधा के लिए मनुष्य के प्रधान व्यवसाय को वर्ण शब्द से सूचित किया है । बौद्धिक कार्यों में संलग्न व्यक्तियों ने ब्राहमण वर्ण को अपनाया है । समाज में रक्षा कार्य व युद्धशास्त्र में रूचि योग्यता रखने वाले क्षत्रिय वर्ण के हैं । व्यापार-वाणिज्य और पशु-पालन आदि का कार्य करने वाले वैश्य तथा जिन्होंने इतर सहयोगात्मक कार्यों का चयन किया है वे शूद्र वर्ण कहलाते हैं । ये मात्र आजीविका के लिए अपनाये जाने वाले व्यवसायों को दर्शाते हैं, इनका जाति या जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है ।


वर्ण-परिवर्तन : वैदिक समाज में श्रम एवं हाथ के हूनर का गौरव पूर्ण स्थान है और प्रत्येक व्यक्ति अपनी रूचि से वर्ण चुनने का समान अवसर पाता है । किसी भी किस्म के जन्म आधारित भेद मूलक तत्व वेदों में नहीं मिलते । अतः संस्कृत सीखकर कोई भी जाति-धर्म में जन्मा मनुष्य क्रमशः ब्राह्मण बन सकता है। वर्ण-परिवर्तन के विषय में गुण-कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था की सिद्धी करने वाला एक सुंदर श्लोक मनुस्मृति (अध्याय 10, श्लोक 65) में कहा गया है -

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम। 
 क्षत्रियाज्जातमेवं तु विध्याद्वैश्यात्त्थैव च ॥ 
                                                        
अर्थात ' अर्थात श्रेष्ठ -अश्रेष्ठ कर्मो के अनुसार शूद्र ब्राह्मण और ब्राह्मण शूद्र हो जाता है। जो ब्राह्मण ,क्षत्रिय वैश्य और शूद्र के गुणों वाला हो वह उसी वर्ण का हो जाता है। '
 इस श्लोक से स्पष्ट रूप से यह विदित होता है कि ब्राहमण की सन्तान अपने गुण कर्मों के आधार पर शूद्र हो सकती है और शूद्र की सन्तान भी अगर ब्राह्मण बनने के योग्य हो तो ब्राह्मण हो जाएगी। यही नहीं अगर कोई शूद्र स्वयं भी ब्राह्मणत्व के योग्य हॊ तो वह ब्राहमण हो जाएगा। उसी तरह अगर कोई ब्राहमण स्वयं भी शूद्र बन जाने के योग्य कर्म करेगा तो शूद्र हो जाएगा। और अगर ब्राहमण का शूद्र बनना और शूद्र का ब्राहमण बनना सम्भव है तो फ़िर क्षत्रिय अथवा वैश्य बनना क्यों असम्भव हो सकता है? ठीक ऐसा ही क्षत्रिय अथवा वैश्य के घर पैदा हुई सन्तानों के बारे में समझा जाना चाहिए। वैदिक काल से ही कर्मानुसार वर्ण या जाति व्यवस्था होती थी जन्म से वर्ण नहीं हुआ करता था!
प्राचीन काल में जब बालक समिधा हाथ में लेकर पहली बार गुरुकुल जाता था तो कर्म से वर्ण का निर्धारण होता था यानि कि बालक के कर्म गुण स्वभाव को परख कर गुरुकुल में गुरु बालक का वर्ण निर्धारण करते थे , यदि ग्राही ज्ञानी बुद्धिमान है तो ब्राह्मण ..यदि निडर बलशाली है तो क्षत्रिय …आदि !


आर्य और दस्यु : मनुष्य जाति के दो भेद अन्य प्रकार से भी किये हैं – आर्य और दस्यु वेदों में कहा है सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाओ ! तो क्या यह समझना चाहिये कि सम्पूर्ण विश्व को किसी खास सम्प्रदाय-हिन्दू, मुसलमान या ईसाई में धर्मान्तरित करने को कहा गया है ? अंग्रजों ने भारत में फूट डालने के उद्देश्य से यह प्रचारित किया कि आर्य भारत में बाहर से आयी कोई जाति थी। किन्तु यह बिल्कुल गलत है-आर्य शब्द कोई जातिवाचक (नस्ल वाचक) शब्द नहीं है अपितु गुणवाचक शब्द है। उत्तम चरित्रवान मनुष्यों को ही 'श्रेष्ठ मनुष्य' या आर्य कहते हैं, और दुष्ट स्वभाव से दुश्चरित्र भ्रष्टचार में लिप्त डाकू आदि को दस्यु कहते हैं । इन्हें ही देव और असुर भी कहते हैं अर्थात आर्यों को देव तथा दस्युओं को असुर कहते हैं दस्यु शब्द का अर्थ उत्तम कर्म हीन व्यक्ति (ऋग 7/5/6) अज्ञानी, अव्रती (ऋग 10/22/8), मेघ (ऋग 1/59/6) आदि के लिए हुआ है न की किसी विशेष जाति अथवा स्थान के लोगो के लिए हुआ है।
आर्य शब्द का अर्थ होता है “श्रेष्ठ” अथवा बलवान, जिस किसी भी जाती-धर्म में जन्मा मनुष्य यदि आर्यत्व (चरित्रवान मनुष्य बनने) को अपना जीवन लक्ष्य बना लेता है वे आर्य-वर्ण कहलाए; और जो लोग आतंकवादी बनना या दस्यु कर्म को स्वीकार करते हैं वे दस्यु वर्ण कहलाते हैं। 
वर्ण का अर्थ रंग भी होता है, कोई काले-गोरे या भूरे रंग का व्यक्ति भी, चरित्र-निर्माण कर के आर्य बन सकता है, और श्वेत रंग का व्यक्ति भी चरित्रवान-मनुष्य  बनने के बाद ही आर्य बन सकता है ब्राह्मण से लेकर शुद्र तक चार वर्ण है और चारों आर्य है। जैसे गुलाब के फूलों का धर्म (property या गुण -स्वभाव) उसका विशिष्ट प्रकार का फ्रैगरेंस या खुशबु है, कोई उसके धर्म को छीन नहीं सकताउसी प्रकार मनु स्मृति के अनुसार चारों वर्णों का धर्म एक ही है- वह है हिंसा न करना, सत्य बोलना, चोरी न करना, पवित्र रहना एवं इन्द्रिय निग्रह करना। सभी लोग विद्वान् नहीं हो सकते,परन्तु धार्मिक होना - अर्थात चरित्रवान मनुष्य बनना सभी के लिये सम्भव है। जो मनुष्य विद्या पढ़ने का सामर्थ्य तो नहीं रखते किन्तु वे धर्माचरण करना चाहते हो तो विद्वानों के संग और अपनी आत्मा कि पवित्रता से धर्मात्मा अवश्य हो सकते है। 
किसी भी कारण-वश (सामाजिक या आर्थिक) अशिक्षित रहे मनुष्य शूद्र ही रहते हुए अन्य वर्णों के सहयोगात्मक कार्यों को अपनाकर समाज का हिस्सा बने रहते हैं । यदि ब्राह्मण का पुत्र विद्या प्राप्ति में असफल रह जाए तो शूद्र बन जाता है । इसी तरह दस्यु का पुत्र भी चरित्रवान मनुष्य बनने की विद्या प्राप्ति के उपरांत ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण को प्राप्त कर सकता है । यह सम्पूर्ण व्यवस्था विशुद्ध रूप से गुणवत्ता पर आधारित है । ‘आपस्तम्बधर्मसूत्र’ (प्रश्न 2, पटल 5, खंड 11, सूक्त 10-11) में भी कहा गया है -  धर्माचरण से नीचे के वर्ण पूर्व-पूर्व वर्ण के अधिकार को प्राप्त होते हैं और अधर्मआचरण करके पूर्व-पूर्व वर्ण नीचे के वर्णों के अधिकारों को प्राप्त होते हैं ।  यह व्यवस्था समाज के संतुलन के लिए थी। गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र इन दोनों के प्रणेता एक ही हैं।  समस्त ऋषियों ने भी समाज को चार वर्णों में विभाजित करना अनिवार्य बताया है। अन्य धर्मों में भी इस प्रकार की वर्ण व्यवस्था की गयी थी। प्रत्येक व्यवस्था गुणों और कर्मों के आधार पर थी।
[ जम्बूद्वीप (भारतीय उपमहाद्वीप) में रहने वाले मुसलमान विश्व के अन्य कई देशों के मुसलमान की अपेक्षा अधिक सहनशील हैं और टेरिरिस्ट नहीं बनते हैं क्योंकि वे भी इस वर्णाश्रम धर्म का पालन आंशिक या पूर्ण रूप से करते हैं। यहाँ पहुँचकर मुसलमानों उच्च बिरादरियां-जिसे  अशराफ़ श्रेणी कहते हैं, में —जैसे कि सय्यद, शेख़, मुग़ल, पठान और मल्लिक/मलिक आदि वर्गीकृत की गई हैं। अजलाफ़ श्रेणी में मुसलमानों ने अपनी तथाकथित ‘शूद्र / शुद्दर’ तबके की या वैश्यकर्म प्रधान जातियां वर्गीकृत की हैं जैसे – तेली, जुलाहे, राईन, धुनिये , रंगरेज इत्यादि शामिल की जा सकती हैं! 3. अरज़ाल श्रेणी में तथाकथित रूप से “मुसलमानों के दलित” या “अतिशूद्र मुस्लिम जातियां” हैं जैसे कि मेहतर, भंगी, हलालखोर, बक्खो, कसाई, इत्यादि!, सभी एक हो जाते हैं। और इसीको वे लोग गर्व से गंगा-जमुनी तहजीब (व्यावहारिक इस्लाम) या सुफिज्म कहते हैं ! ईसाइयों, जैनों और सिखों में भी जातियाँ हैं और उनमें भी उच्च, निम्न तथा शुद्ध अशुद्ध जातियों का भेद विद्यमान है। सर सैयद अहमद खां अशराफ़ मुसलमानों के मसीहा थे, लेकिन पसमांदा मुसलमानों के लिए मनु थे, क्योंकि उन्होंने पश्चिमी या अंग्रेजी तालीम (शिक्षा) को अशराफ तक महदूद रखने को कहा था। 'व्यावहारिक इस्लाम'  या सुफिज्म को स्वीकार करने वाले मुसलमान सभी श्रेणी के मुसलमानों को एक गुरु के शिष्य मानते हैं !]
जिस  में सत्य, दान, द्रोह का भाव, क्रूरता का अभाव, लज्जा, दया और तप यह सब सद्गुण देखे जाते हैं वह ब्राह्मण है । [ ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न होना, संस्कार, वेद श्रवण, ब्राह्मण पिता कि संतान होना, यह ब्राह्मणत्व के कारण नहीं है, बल्कि सदाचार से ही ब्राह्मण बनता है। यदि चंडाल भी सदाचारी हो तो वह ब्राह्मण हो सकता है। वैदिक इतिहास में वर्ण परिवर्तन के अनेक प्रमाण उपस्थित हैं, जैसे - ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे। परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की । ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है । सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए । क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया । विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया। महर्षि वाल्मीकि जैसे अनेकों उदाहरण हैं शास्त्रों का अध्ययन करें तो। विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया ।  ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना । 
वेदों में शूद्रों को आर्य बताया गया हैं इसलिए उन्हें अछूत समझने का प्रश्न ही नहीं उठता हैं। वेदादि शास्त्रों के प्रमाण  सिद्ध होता है कि ब्राह्मण वर्ग से से लेकर शुद्र वर्ग आपस में एक साथ अन्न ग्रहण करने से परहेज नहीं करते थे। वेदों में स्पष्ट रूप से एक साथ भोजन करने का आदेश है। श्री रामचंद्र जी द्वारा भीलनी शबरी के आश्रम में जाकर उनके पाँव छूना एवं उनका आतिथ्य स्वीकार करना, निषादराज से भेंट होने पर उनका आलिंगन करना।वैदिक काल में शुद्र अछूत नहीं थे। कालांतर में कुछ अज्ञानी लोगो ने छुआछूत कि गलत प्रथा आरम्भ कर दी जिससे जातिवाद जैसे विकृत मानसिकता को प्रोत्साहन मिला। यदि शूद्र को वेदादि पढने का अधिकार न होता तो वह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के अधिकार को कैसे प्राप्त हो सकता था ?  वेदादि शास्त्रों के पढने-पढ़ाने, सुनने-सुनाने में सब मनुष्यों का अधिकार है, जो-जो पदार्थ ईश्वर ने रचे हैं वे सबके उपकारार्थ हैं । स्त्रियों को भी वेदादि शास्त्रों को पढने-सुनने का समान अधिकार है।  यजुर्वेद 26/2 में लिखा है :
यथेमा वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य: ।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च॥ 

अर्थात वेदों को पढने का अधिकार सब मनुष्यों को है, और विद्वानों को पढ़ाने का भी अधिकार है। ईश्वर आज्ञा देते हैं कि हे मनुष्य लोगों! जिस प्रकार मैं (परमेश्वर) तुमको चारों वेदों का उपदेश देता हूँ उसी प्रकार तुम भी उनको पढ़कर सब मनुष्यों को पढ़ाया और सुनाया करो, क्योंकि वह वेदरूपी वाणी सबका कल्याण करनेवाली है। वेदाधिकार जैसा ब्राह्मण के लिए है वैसा ही क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र-पुत्र, भृत्य और अतिशूद्र के लिए भी बराबर है । वर्ण-परिवर्तन के सम्बन्ध में यह निश्चितरूप से जान लेना चाहिए कि २५ वें वर्ष में वर्णों का अधिकार ठीक-ठाक होता है, क्योंकि २५ वर्ष की आयु प्राप्त होने तक मनुष्य की बुद्धि विकसित होती है, इसलिए उसी समय गुण-कर्मों कि ठीक-ठाक परीक्षा करके वर्णाधिकार होना उचित है।
प्राचीन काल में यह सब संतुलित था तथा सामाजिक संगठन की दक्षता बढ़ाने के काम आता था। पर कालान्तर में आर्थिक स्थिति बदलने तथा कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा ऊँच-नीच के भेदभाव के कारण विभिन्न वर्णों के बीच दूरिया बढ़ीं हैं। जन्म के आधार पर सामाजिक वर्ग मिलने की वजह से आधुनिक काल में जाति प्रथा का सामाजिक और राजनैतिक विरोध हुआ है। इक्कीसवीं सदी में भी जाति व्यवस्था कायम है नीच जाति वालों को आरक्षण के नाम पर उनकी नीचता उन्हें याद दिलाई जा रही है। 
बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर जैसे लोगों ने भारतीय वर्ण व्यवस्था की कुरीतियों को समाप्त करने की कोशिश की। 
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 भारतीय स्वतंत्रता के समय डॉक्टर अंबेडकर का काम इस दिशा में बहुत महत्वपूर्ण है। भारतीय संविधान में जाति के आधार पर अवसर में भेदभाव करने पर रोक लगा दी गई। पिछली कई सदियों से पिछड़ी रही कई जातियों के उत्थान के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई। संविधान के अनुच्छेद 15(1) में निर्दिष्ट है कि, ‘राज्य, किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।’ यानी अनुच्छेद 15, भारत के प्रत्येक नागरिक को समता के व्यवहार की गारंटी देता है। इसके बावजूद, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्ग को ‘जाति’ के आधार पर ही आरक्षण प्रदान किया गया । आरक्षण जहाँ पिछड़ी जातियोँ को अवसर दे रहा है वही वे उन्हे ये अहसास भी याद करवाता है कि वे उपेक्षित हैँ। स्वतन्त्र भारत के संविधान में पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने हेतु केवल ‘जाति’ को दो अनिवार्य शर्तों पर आधार बनाया गया – सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन।
धारे धीरे पिछड़े वर्गों की स्थिति में तो सुधार आया पर तथाकथित उच्च वर्ग के लोगों को लगने लगा कि दलितों के आरक्षण के कारण उनके अवसर कम हो रहे हैं। इस समय तक जातिवाद भारतीय राजनीति तथा सामाजिक जीवन से जुड़ गया। अब भी कई राजनैतिक दल तथा नेता जातिवाद के कारण चुनाव जीतते हैं। आज आरक्षण को बढ़ाने की कवायद तथा उसका विरोध जारी है। यह कहा गया था कि १० सालों में धीरे धीरे आरक्षण हटा लिया जाएगा, पर राजनैतिक तथा कार्यपालिक कारणों से ऐसा नहीं हो पाया। किन्तु भारत में आरक्षण के कारण भी विभिन्न वर्णों के बीच अलग सा रिश्ता बनता जा रहा है। दलितों को लेकर विभिन्न लोगों में मतभेद हैं। कुछ जातियां किसी एक राज्य में पिछड़े वर्ग की श्रेणी में आती हैं तो दूसरे में नहीं इसके कारण आरक्षण जैसे विषयों पर बहुत अन्यमनस्कता की स्थिति बनी हुई है। कई लोग दलितों की परिभाषा को जाति के आधार पर न बनाकर आर्थिक स्थिति के आधार पर बनाने के पक्ष में हैं। किन्तु वोट-बैंक की राजनीती करने वाले नेता आरक्षण-नीति पर चर्चा भी नहीं करना चाहते हैं। यह एकदिन वर्ग संघर्ष का आधार बन जायेगा और देशवासी आपस में ही लड़ने को मजबूर होंगे. अतः इस विषय पर सभी पार्टियों को सोचना विचारना होगा. लोकसभा में इसपर खुली बहस हो तथा संविधान में संशोधन करके इसे समाप्त करना ही उचित कदम होगा.
धर्मसूत्रकारों ने व्यक्ति के आचार एवं व्यवहार पर बहुत बल दिया है। आचार ही मानव का आधार है; वही धर्म का तत्व है, इस बात को धर्मशास्त्रकार भली-भाँति जानते थे। मनुस्मृति में तो आचार पर यहाँ तक बल दिया गया है कि उसे ही 'परम धर्म' कह दिया गया है । वशिष्ठ स्मृति में कहा गया है - '
  ' आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः '
अर्थात आचारभ्रष्ट व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकता। हमें धर्म को अपने व्यवहार में उतारना चाहिए, न कि केवल शब्दमात्र में। यद्यपि सदाचार का पालन अत्यन्त अपरिहार्य है। तभी समाज स्थिर रह सकता है, किन्तु इसके साथ ही यह तथ्य भी स्मरणीय है कि "BE AND MAKE" या सदाचार का पालन अत्यन्त ही कठिन कार्य है। सतत प्रयत्न करते रहने पर भी आचरण-भ्रष्टता सम्भव है तथा कुछ व्यक्ति जानबूझकर भी समाज-विरोधी तथा शास्त्र-विरोधी आचरण कर देते हैं। धर्मसूत्रकार इस बात को अच्छी प्रकार जानते थे। वे यह भी जानते थे कि ऐसे व्यक्ति को दुराचरण अथवा उसके अपराध का दण्ड तो मिलना ही चाहिए, किन्तु यदि वह मन से अपने पापकर्म पर पाश्चाताप करता है तो पुन: उसे श्रेष्ठ (ब्राह्मण ) बनने का अवसर प्रदान करना चाहिए न कि सदैव के लिए ही उसके जीवन को अन्धकारमय बना देना चाहिए। धर्मसूत्रों की दृष्टि में अपराधी व्यक्ति घृणा का पात्र नहीं हैं, बल्कि वह स्नेह एवं सहानुभूति का पात्र है। 
किया हुआ कोई भी शुभाशुभ कर्म नष्ट नहीं होता, अपितु अच्छे-बुरे किसी न किसी फल को अवश्य ही उत्पन्न करता है। उन कर्मों का फल चाहे इसी जन्म में मिल जाए, चाहे अगले जन्म में, किन्तु वह मिलेगा अवश्य। इसलिए वर्तमान तथा भावी दोनों ही जन्म शुद्ध हो सकें, यही धर्मसूत्रकारों का यत्न है। आचारशास्त्र के मूल में कर्मसिद्धान्त ही है।  
आज समाज में पूर्वापेक्षया अनेक परिवर्तन हो चुके हैं। यथा-आज राजनीतिक प्रणाली एवं न्याय-व्यवस्था बदल चुकी है। शिक्षा का स्वरूप तथा संस्थाएँ भी वे नहीं हैं, जो प्राचीनयुग में थीं। वर्णव्यवस्था का स्थान जन्मगत जाति-प्रथा ने ले लिया है। सामाजिक तथा नैतिक मूल्य भी पूर्वापेक्षया परिवर्तित हुए हैं। दायाद तथा सम्पत्ति-विभाजन आदि के लिए भी आज राजनीतिक क़ानून ही सर्वमान्य हैं, इत्यादि।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " वर्ण-व्यवस्था तभी हटेगी, जब लोगों को उनका खोया हुआ सामाजिक व्यक्तित्व (आत्मश्रद्धा ) पुनः प्राप्त हो जायेगा." (२/३११) "जीवन में मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि एक ऐसे चक्र का प्रवर्तन कर दूँ, जो उच्च एवं श्रेष्ठ विचारों को सबके द्वारों तक पहुँचा दे और फिर स्त्री-पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर लें...याद रखो कि राष्ट्र झोपड़ी में बसा हुआ है; परन्तु शोक ! उन लोगों के लिये कभी किसीने कुछ किया नहीं...क्या तुम साधारण जनता की उन्नति कर सकते हो ? क्या उनका खोया हुआ व्यक्तित्व, बिना उनकी स्वाभाविक अध्यात्मिक वृत्ति को नष्ट किये, उन्हें वापस दिला सकते हो ? क्या समता, स्वतंत्रता, कार्य-कौशल, पौरुष में तुम पाश्चात्यों के भी गुरु बन सकते हो? क्या तुम उसीके साथ-साथ... आध्यात्म-साधनाओं में एक कट्टर सनातनी हिन्दू भी हो सकते हो ? यह काम करना है और हम इसे करेंगे ही. " (२/३२१)" 
हम देख चुके हैं कि वेदों से लेकर विवेकानन्द तक भारतीय संस्कृति में समान रूप से 'विद्या' के साथ साथ 'श्रम या पुरुषार्थ' ('Labour or Venture' उद्यम-हिम्मत या जोखिम उठाने का साहस) का स्थान भी अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।  चार पुरुषार्थों में मुक्ति, रिहाई या मोक्ष को अंतिम पुरुषार्थ माना गया है- धर्म, अर्थ काम और मोक्ष ! मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहकर ही उसे अपने आचार-व्यवहार, नैतिकता आदि का पालन करना होता है। समाज की दृष्टि से अपने आप को नियन्त्रित करना होता है। उच्छृङ्-खलता-नियम-रहितता या अनैतिकता के रहते समाज चल नहीं सकता। कोई भी व्यक्ति या समाज परस्पर सहयोग एवं सहायता के बिना न मनुष्योचित जीवन व्यतीत कर सकता है और न ही जीवन में उन्नति कर सकता है। इसीलिये हमारे शास्त्रों में मनुष्य जीवन को चार भागों में बाँट कर क्रम-विकसित मनुष्य बनने का विधान किया गया है। क्योंकि ‘The Law of Growth is gradual’: मनुष्य जीवन के प्रस्फुटन का नियम (विकासवाद का नियम)-- क्रम-विकास या क्रम-मुक्ति है, अक्रम-मुक्ति ‘ Sudden-Liberation’ नियम नहीं है। (किन्तु ठाकुर चाहें तो नियम को बदल भी सकते हैं, इसीलिये अक्रम-मुक्ति Sudden-Liberation किसी किसी श्रीरमण महर्षि जैसे कुछ लोगों के लिये अपवाद भी हो सकता है)।
[और जिस व्यक्ति में रजोगुण पर्याप्त मात्रा में होगा वही सत्य को जानने के लिये जोखिम उठाने का साहस दिखा सकता है, वही श्रम, उद्यम या पुरुषार्थ करने के लिए कमर कस कर खड़ा हो सकता है। इसलिये जो दलित होने के कारण गरीब हो, और राहड़ का दाल नहीं खरीद सकता हो, तो मांस-खाकर भी भोजन में प्रोटीन शामिल कर सकता है। ] 
विकासवाद के नियम की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि कि शरीर के मरने के बाद भी जीवात्मा रहती है, और जब तक अपने यथार्थ स्वरुप को नहीं जान लेती तब तक उसका देहान्तर (या पुनर्जन्म) होता रहता है ! सबसे प्रथम व्यक्ति की आत्मा एक अमीबा (एक-कोशकीय जीव) के रूप में अपनी जीवन-यात्रा शुरू करती है; और चौरासी लाख योनि के दौर से गुजर जाने के बाद, उसे एक मानव-शरीर रूपी 'मोक्ष का द्वार' के निर्माण करने की क्षमता प्राप्त होती है। और तब कोई मनुष्य पूर्णता या पाशविक संस्कारों से मुक्ति प्राप्त करने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये उद्दम करना प्रारंभ करता है। यदि हम क्रम-विकसित मनुष्य से पूर्णत्व- प्राप्त मनुष्य या यथार्थ मनुष्य बनना चाहते हों, तो सदाचार (rectitude) ही हमारा लक्ष्य होना चाहिये। जब हमलोग मानव-जीवन को स्वस्थ बनाने वाले सिद्धान्तों या नियमों का उल्लंघन करते है, तो स्वयं को हम मुसीबत में फँसा लेते हैं।
बीज पहले क्या था ? वह उस वृक्ष-रूप में ही था ! भविष्य में होने वाले वृक्ष की सभी संभावनायें उस बीजाणु में विद्यमान हैं। इसी सम्भावना को हमारे ऋषियों ने ‘ क्रम-संकोच ‘ (Involution) कहा है। इस प्रकार हम देखते है कि प्रत्येक इवोल्यूशन (क्रम-विकास) के पहले इनवोल्युशन (क्रम-संकोच) का होना अनिवार्य है। क्रमविकास कभी शून्य से नहीं होता। तब फिर वह हुआ कहाँ से ? पूर्वगामी क्रमसंकोच से।  बालक क्या है ? एक क्रमसंकुचित या अव्यक्त व्यस्क-मानव है, और मनुष्य क्रमविकसित बालक है। क्रमसंकुचित वृक्ष ही बीज है और क्रमविकसित बीज ही वृक्ष बन जाता है।
‘फ्रॉम द लोवेस्ट 'प्रोटोप्लाज्म' (वनस्पति तथा प्राणियों के जीवन का आधार तत्व) टू द मोस्ट परफेक्ट ह्यूमन बीइंग '---- देयर इज रियली बट वन लाइफ ! ’ निम्नतम प्रोटोप्लाज्म (जीवद्रव्य) से लेकर पूर्णतम-विकसित मानव (कृष्ण-ईसा-बुद्ध-नवनिदा) पर्यन्त वस्तुतः एक ही जीवन है।‘  जिस प्रकार एक ही जीवन में हम शैशव, यौवन, वार्धक्य आदि विविध अवस्थायें देखते हैं, उसी प्रकार प्रोटोप्लाज्म (जीविसार) से लेकर पूर्णतम मानव (बुद्ध-नवनिदा) पर्यन्त एक ही अविच्छिन्न जीवन, एक ही श्रृंखला है। ‘ दिस इज इ ईवोलूशन, बट वी हैव सीन दैट ईच ईवोलूशन प्रीसपोजेज ऐन इन्वोलुशन.’ इसीको क्रमविकास कहते हैं, और यह हम पहले ही देख चुके हैं कि प्रत्येक क्रम-विकास के पूर्व एक क्रम-संकोच रहता है। यह समग्र जीवन, जो क्रमशः व्यक्त होता है, अपने को जीविसार से लेकर पूर्णतम मानव अथवा धरती पर अवतीर्ण ईश्वरावतार (भगवान श्रीरामकृष्ण देव) के रूप में, क्रमविकसित होता है, एक श्रृंखला या श्रेणी है, और यह सम्पूर्ण अभिव्यक्ति उसी प्रोटोप्लाज्म (जीविसार) में संकुचित रही होगी। यह समस्त जीवन, धरती पर अवतीर्ण यह ईश्वर (ठाकुर देव की बुद्धि) तक उसी ‘प्रोटोप्लाज्म ‘ (जीवद्रव्य) में निहित थे, बस, धीरे धीरे -- बहुत धीरे क्रमशः उस सबकी अभिव्यक्ति मात्र हुई है। इट इज दिस 'वन मास ऑफ़ इन्टेलिजेन्स' व्हिच फ्रॉम द प्रोटोप्लाज्म टू द मोस्ट परफेक्ट मैन, इज स्लोली ऐंड स्लोली अन्कोएलिंग इटसेल्फ ‘।  बुद्धि की यह एक राशी ही प्रोटोप्लाज्म (जीविसार) से पूर्णतम मनुष्य ( जीवन-मुक्त Liberated Soul नवनिदा) तक अपने को क्रमशः व्यक्त कर रही है, या खोल रही है। ” (२/१२४)
डार्विन का मत है कि साँप के बहुत दिनों तक एक स्थान में बैठे रहने के कारण उसकी पीठ कड़ी हो गयी, और कालक्रम में साँप ही कछुआ बन गया। डार्विन-मत के क्रम-विकास का कारण क्या है? पाश्चात्यों की राय में - 'द  लॉज़ ऑफ़ स्ट्रगल फॉर  इग्ज़िस्टन्स'-- 'अस्तित्व को बचाये रखने के लिये संघर्ष का नियम', "सर्वाइवल ऑफ़ थे फिटेस्ट" -----अथवा "बलिष्ठ की अतिजीविता का सिद्धान्त" और " नेचुरल सलेक्शन या प्राकृतिक वरण -आदि जिन सब नियमों को क्रम-विकास का कारण माना गया है। ईश्वर बन जाने तक पुनर्जन्म-ग्रहण से (निश्चल तत्वे जीवन-मुक्तिः) मुक्ति कैसे संभव है ? पशु-जगत (ऐनमल किंगडम) में तो हम वास्तव में जीवित रहने के लिये संघर्ष, सबसे अधिक बलिष्ठ का अतिजीवन आदि नियम स्पष्ट रूप से देखते हैं। परन्तु मनुष्य-जगत में, जहाँ श्रेय-प्रेय का निर्णय या विवेक-प्रयोग क्षमता का विकास हुआ है, वहाँ हम उक्त नियम के विपरीत ही देखते हैं। पशु-जगत में स्थूल देह के संरक्षण के लिये जो संघर्ष होते देखे जाते हैं, वे ही मानव-जीवन (ह्यूमन प्लेन ऑफ़ इग्ज़िस्टेन्स)  में मन पर प्रभुता स्थापित करने के लिये अथवा सत्त्ववृत्ति सम्पन्न बनने के लिये होते हैं। 
इसीलिये 'जीवन नदी के हर मोड़ पर ' नामक महामण्डल पुस्तक में महामण्डल के संस्थापक पूज्य नवनिहरन मुखोपाध्य लिखते हैं - " महामण्डल के आविर्भूत हो जाने बाद,सोंच-विचार कर के सर्वप्रथम इसका एक " प्रतीक-चिन्ह" (Emblem) निर्धारित किया गया. उसमे जो गोलाई है, वह पृथ्वी है, पृथ्वी के भीतर, कन्याकुमारी के ऊपर से शुरू होता हुआ भारतवर्ष का मानचित्र है, भारतवर्ष के भीतर दण्डधारी स्वामी विवेकानन्द खड़े हैं. उस गोलाई के दोनों ओर दो वाक्य लिखे हुए है- " Be and Make "  अर्थात " बनो और बनाओ " - यह आह्वान  उपनिषदों में कहे गये " महावाक्यों " के जैसा अत्यन्त सारगर्भित है. (स्वामीजी के द्वारा कही गयी यह वाणी एक मन्त्र के सदृश्य है, दादा कहते हैं- इस मन्त्र में इतनी शक्ति है जो भी इस काम से निष्ठा पूर्वक जुड़ा रहेगा उसे  मोक्ष तक प्राप्त हो जायेगा, अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी ) इसका अर्थ है - " स्वयं मनुष्य बनो दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो ! " इस प्रतीक चिन्ह के ऊपर की ओर लिखा है- " चरैवेति चरैवेति !" अर्थात "चलते रहो - चलते रहो !" महामण्डल का यह ध्येय वाक्य वैदिक साहित्य के सुप्रसिद्ध संचरण गीत "चरैवेति-चरैवेति।" ऐतरेय ब्राह्मण (७.१५) से लिया गया है; इस वैदिक गीत में जीवन एवं समाज के विकास के केन्द्र में मनुष्य के श्रम या पुरुषार्थ के महत्व को उजागर किया गया है। यहाँ इस मंत्र के द्रष्टा : (ऋषि कवि महीदास ऐतरेय ) कहते हैं -



 कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् ।
चरैवेति चरैवेति॥
"जो मनुष्य (मोहनिद्रा में ) सोया रहता है और पुरुषार्थ नहीं करता उस मनुष्य का भाग्य भी सोया रहता है,  जो पुरुषार्थ करने के लिये खड़ा हो जाता है, उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है. जो आगे चलना शुरू कर देता है , उसका भाग्य भी आगे आगे चलने लगता है,इसीलिये- " हे मनुष्यों- चरैवेति चरैवेति ! "चलते रहो-चलते रहो!" वेदों में गाया हुआ संचरण गीत इस प्रकार है - 
१-ॐ नाना श्रान्ताय श्रीरस्ति, इति रोहित शुश्रुम ।
पापो नृषद्वरो जन, इन्द्र इच्चरतः सखा । चरैवेति चरैवेति॥
 २- पुष्पिण्यौ चरतो जंघे, भूष्णुरात्मा फलग्रहिः ।
शेरेऽस्य सवेर् पाप्मानः श्रमेण प्रपथे हताः । चरैवेति चरैवेति॥
 ३- आस्ते भग आसीनस्य, ऊध्वर्स्तिष्ठति तिष्ठतः ।
शेते निपद्यमानस्य, चराति चरतो भगः । चरैवेति चरैवेति॥
 ४- कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् ।
चरैवेति चरैवेति॥
 ५- चरन् वै मधु विन्दति, चरन् स्वादुमुदुम्बरम् ।
सूयर्स्य पश्य श्रेमाणं, यो न तन्द्रयते चरन् । चरैवेति चरैवेति॥
 प. छविनाथ मिश्र ने इस रचना का सुन्दर हिन्दी अनुवाद किया है, जो इस प्रकार है -  
 "चलते रहो - चलते रहो"
१. सुनो रोहित --सुना हमने, अथक श्रम ही श्रीमुखी
कर्मरत यदि हों नहीं तो श्रेष्ठ जन भी सब दुखी
नित्य जो गतिशील है बस इन्द्रता तो है उसीकी
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …
२.फूल उनकी पिण्डलियाँ हैं जो हमेशा चला करते
वर्धमाना चेतना की टहनियों पर फला करते
सुप्त रहते हैं सभी अपकर्म भी उसके सखे हे !
किन्तु श्रम से पंथ पर ही नष्ट होते नित दिखे वे
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …
३.बैठने वाले पथिक का भाग्य बैठा अड़ा होता
और उठने की क्रिया में वही ऊँचे खड़ा होता
जो यहाँ सोया रहा वह हाथ मलता ही रहा है
भाग्य उसका ही चला है जो सदा चलता रहा है
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …
४. जो रहे सदा सोता हुआ - सा, वहाँ  कलियुग हुआ करता
नींद टूटी, जागरण हो जहाँ, वहाँ द्वापर हुआ करता
और उठ-खड़ा हुआ मनुष्य ही, त्रेता -सा स्वयम्भर

जो चल-पड़ा हो  पथ पर, सत्ययुग होता है निरन्तर
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …
५.कर्मरत गतिशील जो - मधुपान करता है सुनिश्चित
कर्मशीला अस्मिता को ही सदा मिलता फलामृत
देख लो तुम सूर्य की श्रमशीलता यह सृजनधर्मी
जो न पल भर श्रम-विमुख है, श्रम-मुखी शाश्वत सुकर्मी

इसलिए चलते रहो - चलते रहो …
 वे 'हमारी वर्तमान समस्या' नामक निबंध ( १०/ १३५) में कहते हैं - " अबकी बार केन्द्र है भारत ! राख से ढकी हुई अग्नि के समान इन आधुनिक भारत-वासियों में भी छिपी हुई पैतृक शक्ति विद्यमान है। यथा समय महाशक्ति की कृपा से उसका पुनःस्फुरण होगा। प्रस्फुरित होकर क्या होगा ? क्या पुनः वैदिक यज्ञधूम से भारत का आकाश मेघावृत होगा, अथवा पशुरक्त से रन्तिदेव की कीर्ति का पुनरुद्दीपन [iii] होगा ?   गोमेध, अश्वमेध, देवर के द्वारा सन्तानोपत्ति आदि प्राचीन प्रथायें पुनः प्रचलित होंगी; अथवा बौद्ध काल की भाँति फिर समग्र भारत संन्यासियों की भरमार से एक विस्तृत मठ में परिणत होगा ? मनु का शासन क्या पुनः उसी प्रभाव से प्रतिष्ठित होगा अथवा देश-भेद के अनुसार भक्ष्य-अभक्ष्य विचार का ही आधुनिक काल के समान सर्वतोमुखी प्रभुत्व रहेगा? 
क्या जाती-भेद गुणानुसार (गुणगत) होगा अथवा सदा के लिये वह जन्म के अनुसार (जन्मगत ) ही रहेगा ? जाति-भेद के अनुसार भोजन-सम्बन्ध में छुआछूत का विचार बंग देश के समान रहेगा अथवा मद्रास आदि प्रान्तों के समान महान कठोर रूप धारण करेगा ? या पंजाब आदि प्रदेशों के समान यह एकदम ही दूर हो जायेगा? भिन्न भिन्न वर्णों का विवाह मनु द्वारा बतलाये हुए अनुलोम क्रम से--जैसा नेपाल आदि देशों में आज भी प्रचलित है --पुनः सारे देश में प्रचलित होगा अथवा बंग आदि देशों के समान एक वर्ण के अवान्तर भेदों में ही सीमित रहेगा ?[(अ) वर्ण अनुलोम क्रम :- पुरुष द्वारा अपने वर्ण से नीचे के वर्ण मे विवाह करने से जन्म लेने वाली सन्तान वर्ण अनुलोम संतान कहलाती है । (ब) वर्ण विलोम क्रम :- कन्या द्वारा अपने वर्ण से नीचे के वर्ण मे विवाह करने से जन्म लेने वाली सन्तान वर्ण विलोम संतान कहलाती है । … तब क्या होगा ?.... यह सत्य है कि आध्यात्म -विद्या की तुलना में और सब तो 'अविद्या' है, किन्तु इस संसार में कितने मनुष्य सत्त्व गुण प्राप्त करते हैं? इस भारत में कितने मनुष्य ऐसे हैं ? कितने मनुष्यों में ऐसा महावीरत्व है, जो ममता को छोड़कर सर्वत्यागी हो सकें ? वह दूरदृष्टि कितने मनुष्यों के भाग्य में है, जिससे सब पार्थिव सुख तुच्छ विवादित होते हैं ! वह विशाल ह्रदय कहाँ है, जो भगवान के सौन्दर्य और महिमा के चिन्तन में अपने शरीर को भी भूल जाता है ? क्या मुट्ठी भर मनुष्यों की मुक्ति के लिये करोड़ों नर-नारियों को सामाजिक और आध्यात्मिक चक्र के नीचे क्या पीस जाना होगा ? ....  हममें जो परमहंस-पद प्राप्त करने योग्य नहीं है, या जो भविष्य में योग्य होना चाहते हैं, उनके लिये रजोगुण की प्राप्ति ही परम कल्याणप्रद है। बिना रजोगुण के क्या कोई सत्त्व गुण प्राप्त कर सकता है? बिना वैराग्य के त्याग कहाँ से आयेगा ? (१०/ १३४-१३६)
“ मानव का सर्वश्रेष्ठ पूर्ण विकास (पाशविक संस्कारों से मुक्ति) एकमात्र त्याग के द्वारा ही सम्पन्न होता है। जो मनुष्य दूसरों के लिये अपने स्वार्थों जितना अधिक त्याग कर सकता, मनुष्यों में वह उतना ही श्रेष्ठ माना  जाता है। जबकि पशुओं में जो जितना अधिक ध्वंश कर सकता है, उसे उतना ही अधिक बलवान समझा जाता है।मनुष्य का संघर्ष है मन में। जो  मनुष्य मन को  जितना अधिक अपने वश में करता जाता है, वह उसी अनुपात में महान बनता जाता है । जब मन की समस्त वृत्तियाँ सम्पूर्ण रूप से शान्त (निश्चल) हो जाती हैं, आत्मा स्वयं को अभिव्यक्त करने लगती है।” 
" कुछ लोगों का मत है कि यदि मानव मानव के साथ लड़ाई न ठाने, तो उसकी प्रगति ही न होगी। मैं भी पहले ऐसा सोचा करता था; पर अब मुझे दिख पड़ रहा है कि प्रत्येक युद्ध ने मानव-उन्नति को आगे ठेलने के बदले पचास वर्ष पीछे फेंक दिया है।.…… अमेरिका में ऐसे कई भौतिक वैज्ञानिक हैं जो कहते हैं कि ' अपराधियों (ईसिस जैसे टैरिरिस्टों) को नेस्त-नाबूद कर देना चाहिये, और केवल यही एक मात्र उपाय है, जिससे समाज से अपराध (भ्रष्टाचार आदि ) मिटाया जा सकता है। किन्तु युद्ध में जहाँ किसी देश या व्यक्ति की जीत होती है, वहाँ सहस्रों का नाश भी हो जाता है। अतएव यह भी एक बुराई ही है। जिससे केवल एक को सहायता मिले और अधिकांश बाधा पहुँचे वह कभी अच्छा नहीं हो सकता। पतंजलि कहते हैं ये युद्ध और संघर्ष केवल हमारे अज्ञान के कारण, हमारी अधीरता और असहिष्णुता के कारण घटित होती हैं, हममें इतना धैर्य नहीं है कि अपना मार्ग धीरता से तैयार करें। उदाहरणार्थ सिनेमाहॉल में जब आग लग जाती है, तो थोड़े से ही लोग बाहर निकल पाते हैं, बाकी सब जल्दी निकलने की धक्का-मुक्की में एक दूसरे को कुचल डालते हैं। यदि सब लोग धीरे धीरे निकले होते, तो एक को भी चोट न लगती। यही हाल जीवन में भी है। द्वार हमारे लिये खुले पड़े हैं, और हम सब बिना किसी प्रतियोगिता या संघर्ष के, बाहर निकल सकते हैं, किन्तु हम बड़े जल्दबाज हैं- हममें धीरज बिल्कुल ही नहीं है। शक्ति की उच्चतम अभिव्यक्ति है अपने को प्रशान्त रखना और स्वयं अपने पैरों पर खड़े होना। (४/ २२०-२१ ) 
हमारी शिक्षा और प्रगति का उद्देश्य केवल मार्ग की बाधाओं को हटाना है। इनके हट जाने पर मूल ब्रह्मभाव स्वयं ही प्रकाशित हो जायेगा। यह मान लेने पर फिर जीवन-संग्राम का कोई अर्थ नहीं रह जाता। .... ये प्रतियोगितायें, संघर्ष और बुराइयाँ (आतंकवाद और उग्रवाद ) यदि न भी रहें, तो भी मनुष्य विकसित होते होते एक दिन ब्रह्मरूप हो जायेगा; क्योंकि बाहर आकर अपने आपको अभिव्यक्त करना ब्रह्म का स्वभाव ही है।
हममें से प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में एक ऐसा समय अवश्य आयेगा, जब समस्त विश्व जाग्रत अवस्था में देखा जा रहा स्वप्न मात्र प्रतीत होगा। तब हमें पता लगेगा कि अपने परिवेश की अपेक्षा हम (आत्मा) अनन्त गुना श्रेष्ठ हैं! समस्त ज्ञान और सभी शक्तियाँ हमारे भीतर ही हैं, बाहर नहीं। जिन्हें हम सिद्धियाँ, प्रकृति के रहस्य और शक्ति कहते हैं, वे सब भीतर विद्यमान हैं। प्रकृति में कोई ज्ञान नहीं है, मानव की आत्मा से समस्त ज्ञान उद्भूत होता है।  मनुष्य ज्ञान व्यक्त करता है, अपने भीतर वह उसका आविष्कार करता है, जो पहले से, शाश्वत काल से ही विद्यमान है। प्रत्येक व्यक्ति में एक समान ही सामर्थ्य है--एक में उसकी अभिव्यक्त अधिक है, दूसरे में कम। फिर विशेषाधिकार का दावा कहाँ ? मनुष्य किस मुख से अपने लिये विशेषाधिकार पाने का दावा कर सकता है?  ईश्वर का कोई विशेष संदेशवाहक नहीं, न कभी था, और न आगे वैसा दावा कोई कर सकता है। छोटे-बड़े सभी जीव ईश्वर की समान रूप से अभिव्यक्तियाँ हैं, अन्तर केवल अभिव्यक्तियों के परिमाण में है।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" आर्यों के हे पावन देश ! तू कभी पतित नहीं हुआ।  राजदण्ड टूटते रहे और फेंक दिए जाते रहे हैं, शक्ति का कंदुक एक हाथ से दूसरे हाथ में उछलता रहा है, पर भारत में राजदरबारों और राजाओं का (लालबत्ती गाड़ियों की चाटुकारिता करने वालों का ) प्रभाव सर्वदा थोड़े से लोगों को ही छू सका है उच्चतम से निम्नतम तक जनता की विशाल राशि अपनी अनिवार्य जीवनधारा का अनुगमन करने के लिए मुक्त रही है, और राष्ट्रिय जीवनधारा कभी मन्द और अर्धचेतन गति से और कभी प्रबल और प्रबुद्ध गति से प्रवाहित होती रही है।  उन बीसों ज्योतिर्मय शताब्दियों की अटूट शृंखला के सम्मुख मैं तो विस्मयाकुल -खड़ा हूँ; जिनके बीच यहाँ-वहां एकाध धूमिल कड़ी है, जो अगली कड़ी को और भी अधिक ज्योतिर्मय बना देती है।"
 मेरी यह जन्मभूमि अपने यशोपुरित लक्ष्य- " पशु-मानव को देव-मानव में रूपांतरित करने "  की सिद्धि के लिये अपने सहज महिमामय पदक्षेप के साथ निरंतर प्रगतिशील है। हाँ, मेरे बन्धुओं , यही गौरवमय भाग्य हमारे देश का है ! क्योंकि हमने उपनिषद-युगीन सुदूर अतीत में , हमने इस संसार को चुनौती दी थी - " न प्रजया न धनेन त्यागेनैके अमृतत्वं आनशुः। " --न तो संतति द्वारा और न सम्पत्ति द्वारा, वरन केवल त्याग द्वारा ही अमृतत्व की उपलब्धि होती है।  एक के बाद दूसरी जाति ने इस चुनौती को स्वीकार किया। ....  संसार की इस पहेली को कामनाओं के स्तर पर सुलझाने का प्रयत्न किया। वे सबकी सब अतीत में तो असफल रही हैं -पुरानी जातियां तो शक्ति और स्वर्ण की लोलुपता से उद्भूत पापाचार और दैन्य के बोझ से दबकर पीस-मिट गयी, और नयी जातियां गर्त में गिरने को डगमगा रही हैं। इस प्रश्न का हल करने के लिए अभी शेष ही है कि शान्ति की जय होगी युद्ध की ? सहिष्णुता (टॉलरेन्स) की विजय होगी या असहिष्णुता (इनटॉलरेन्स)  की ? शुभ की विजय होगी अशुभ की ? शरीर की विजय होगी या बुद्धि की ? सांसारिकता की विजय होगी या आध्यात्मिकता की ?  हमने तो युगों पहले इस प्रश्न का अपना हल ढूँढ लिया था, और हमारा समाधान है - असंसारिकता, त्याग (और सेवा) ! " त्याग (और सेवा) " ही भारत के राष्ट्रिय आदर्श हैं -भारतीय जीवन-रचना का यही प्रतिपाद्य विषय है, उसके अस्तित्व का यही मेरुदण्ड है, उसके जीवन की यही आधारशिला है, उसके अस्तित्व का एकमात्र हेतु है -मानवजाति का आध्यात्मीकरण ! अपने इस लम्बे जीवन -प्रवाह में ( जीवन नदी के हर मोड़ पर ) भारत अपने इस मार्ग से कभी कभी भी विचलित नहीं हुआ , चाहे ततारों का शासन रहा हो चाहे तुर्कों का, चाहे मुगलों ने राज्य किया हो और चाहे अंग्रेजों ने!   (विश्व को भारत का सन्देश - ९/२९९)
 'आध्यात्मिक साम्यवाद'
२२.प्रश्न : मेरे मन में मनुष्य की आत्मा या परमात्मा के सम्बन्ध में एक धुंधली सी धारणा है; मैं इसके सम्बन्ध में कुछ सुनना चाहता हूँ. पुराणों के अनुसार आत्मा और परमात्मा क्या है ?  
उत्तर : जिस ग्रन्थ में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन कथाओं को बताते हुये जीव आत्मा को मुक्ति मार्ग में पहुँचाने वाले विचार लिखे हैं वह इतिहास ही पुराण है। अन्तरात्मा या आत्मा तथा परमात्मा वस्तुतः (de facto) एक ही हैं, दोनों में कोई अन्तर नहीं है। आत्मा दो प्रकार की नहीं होती, वास्तव में आत्मा के अतिरिक्त अन्य और कुछ है ही नहीं। आत्मा कहने का तात्पर्य ही ब्रह्म होता है, आत्मा का अर्थ ही है परमात्मा। जब तक हमलोग ऐसी कल्पना करते हैं, या इस भ्रम में रहते हैं, या कि वे किसी जीव के भीतर हैं, तब उनको जीवात्मा या आत्मा कह देते हैं। और जब ऐसा जान लेते हैं कि वे सर्वव्यापी होने पर भी, सभी कुछ का अतिक्रमण कर के, सबकुछ के परे भी वे ही अवस्थित हैं; जब इस दृष्टिकोण से विचार करते हैं, तब उनको ही परमात्मा (परम+आत्मा) कहते हैं। 
हमलोगों के भीतर जो आत्मा अवस्थित हैं, उनके बारे में ठीक ठीक धारणा करना बहुत कठिन है। वे सुनने में बड़े अच्छे लगते हैं, इसी कारण उनको बोल कर नहीं समझाया जा सकता है. मन के भीतर उनकी धारणा - क्यों नहीं की जा सकती ? इस बात को उनके उपर बहुत परिचर्चा (शास्त्रार्थ) करके तर्कसंगत विचार करने पर ही समझा जा सकता है। इसका कारण यह है कि किसी भी वस्तु की धारणा हमलोग मन के द्वारा ही करते हैं। किन्तु आत्मा मन-बुद्धि के अगोचर हैं, वे मन-बुद्धि का अतिक्रमण करके अवस्थित हैं.
 क्योंकि वे रोम-रोम में व्याप्त हैं, सबकुछ में अनुस्यूत हैं, सदा साथ रहने वाले हैं,अविभाज्य हैं, इसीलिए शब्दावली के आभाव में हमलोग कह देते हैं, कि आत्मा सर्वगत हैं, वे सर्वव्यापी हैं. किन्तु वास्तव में उनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जो कुछ भी देख रहा हूँ, जो कुछ भी है, सब कुछ वे ही बने हैं, सभी कुछ ब्रह्ममय है ! इसीलिए वे सर्वव्यापी नहीं हो सकते हैं।  यदि सभी कुछ वे ही हों, तो फिर वे किसी एक जगह (अपने से भिन्न पदार्थ में ) में जायेंगे कैसे ? यदि उनके अतिरिक्त अन्य कुछ हो ही नहीं, तो फिर वे सबों के भीतर प्रविष्ट कैसे होंगे ? यह सब बातें हमलोग अपने मन को समझाने के लिए कह देते हैं. अर्थात जो अस्तित्व हैं, जिनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, वे ही आत्मा हैं, वे ही परमात्मा हैं.
किन्तु उनको बुद्धि के द्वारा कभी नहीं समझा जा सकता है, वे तो अनुभव करने की वस्तु हैं !  हमलोगों
 का ' मैं-पन ' या मिथ्या अहंकार उन्हें कभी नहीं जान सकता, बस जो आत्मा हैं, वे ही स्वयं को या परमात्मा को जान सकते हैं। केवल वह ' आत्मा ' ही यह जान पाते हैं, कि ' वे ' क्या हैं !  अतः आइये हमलोग प्रथम वेद सिद्धान्त से परमात्मा का विचार करें । मुण्ड. उप. २/२/११ के मंत्रद्रष्टा ऋषि कहते हैं -विश्व ही सनातन सत्य है।
ऊँ ब्रह्मैवेदममृतम् पुरुस्तात ब्रह्म, पश्चात ब्रह्म दक्षिणतश्चोत्रेण । 
                           अधःश्चोर्ध्व च प्रस्रतं, ब्रह्मैवेर्दं विश्वं इदं वरिष्ठम ।।
यह अविनाशी ब्रह्म आगे पीछे, दाहिने बांये और ऊपर नीचे सर्वत्र व्याप्त है । यह ब्रह्म ही सम्पूर्ण विश्व है । सबमें श्रेष्ठतम केवल यह विश्व ब्रह्म ही है । विवेक चूड़ामणि- २२९ में आचार्य शंकर ने कहा है -
यदिदं सकलं विश्वं नानारूपं प्रतीतमज्ञानात् । 
तत् सर्वं ब्रह्मैव प्रत्यस्ता शेष भावना दोषम् ।। 
अर्थात यह सम्पूर्ण विश्व जो अज्ञान से नाना प्रकार का (नाम-रूप वाला ) प्रतीत हो रहा है, समस्त भावनाओं के दोष से रहित (अर्थात्) निर्विकल्प ब्रह्म ही है ।
तुरीय का अर्थ संस्कृत में "तीन से परे" से है, अद्वैत वेदान्त के अनुसार उस अवस्था में जीवात्मा अपने वास्तविक रूप को पहचानता है, वह समाधि की अवस्था तुरीय समाधि की अवस्था है।  जब बूँद वापिस सागर में मिल जाती है उसे समाधि का सबसे उंचा स्तर कहते हैं। क्यूंकि यह अवस्था परमात्मा के ज्ञान और आनन्द का अनुभव करवाती है इसलिए योगियों का तुरीय अवस्था में जाना कहा जाता है, और परमात्मा भी तुरीय अवस्था में ही जानने का विषय है। 
  १. जीव जागृत होता है।  २. जीव स्वप्न अवस्था में जाता है।  ३. जीव सुषुप्ती की अवस्था में जाता है। ये तीनो अवस्थाएं तो सभी आम मनुष्यों को भी अनुभव हो जाती हैं, लेकिन तुरीय अवस्था योग की ऐसी परम अवस्था है जिसमे जो जागृत जो जागृत, स्वप्न और सुषुप्ती यानी की इन तीनो अवस्थाओं से परे है। यह समाधी की वह अवस्था है जिसको केवल सिद्ध योगी ही अनुभव कर पाते हैं। इसी अवस्था का वर्णन करते हुए स्वामी विवेकानन्द,समाधि के उपर रचित एक कविता में कहते हैं -
" प्रलय या गहरी समाधि "
सूर्य भी नहीं है, ज्योतिर्मय सुंदर शशांक भी नहीं,
प्रतिबिम्ब-सा व्योम में यह विश्व नजर आता है।
मनो-आकाश अस्फुट..., भासमान विश्व-ब्रह्माण्ड वहाँ
अहंकार-स्रोत ही में तिरता डूब जाता है।
धीरे धीरे प्रतिबिम्बों का समूह प्रलय में समाया जब
निज ' नाम-रूप ' के अहंकार की धारा उसी में लीन हो जाती है ।
रुद्ध हो गयी वह धारा, शून्य में लीन हो गया शून्य,
'अवांग-मन-सगोचरम ' को वह जाने जो ज्ञाता है !
इस कविता की अन्तीम पंक्ति बंगला में इस प्रकार है- ' বোঝে প্রাণ বোঝে যার । '
या ' बोझे प्राण बोझे जार ।' -अर्थात उनको प्राण ही समझ पाता है, ' मैं ' उनको जान गया हूँ, ऐसा मुख से कहने वाला अहं तो उस प्रलय (निर्विकल्प समाधि) में ही लीन हो गया था, अब कौन कह सकता है? श्रीरामकृष्ण इसी बात को इस प्रकार कहते हैं- ' एकमात्र ब्रह्म ही अनुच्छिष्ट हैं, उनको कोई मुख से नहीं कह सकता है, सारे शब्द (नाम ), सारे शास्त्र जूठे हो गये हैं, किन्तु ब्रह्म अभी तक जूठा नहीं हुआ ।'
क्योंकि वे इस भौतिक जगत में दिखाई देने वाले किसी लौकिक पदार्थ के जैसा कोई वस्तु या भौतिक-पदार्थ नहीं हैं; इसीलिए उनको वाणी के द्वारा व्यक्त व्यक्त नहीं किया जा सकता, कोई हजार मुखों से भी उनका वर्णन नहीं कर सकता.
हमलोग अपनी पञ्च इन्द्रियों के माध्यम से केवल भौतिक पदार्थों की ही धारणा कर सकते हैं. जैसे इस वस्तु का इतना भार या इतना वजन होगा, इसका आकर ऐसा है,  इसका यह रूप है, इसमें ऐसे गुण हैं, इसके साथ अन्य वस्तु का सम्पर्क हो सकता है इत्यादि बातों को ही हम अपने मन के द्वारा धारणा के सकते हैं. मनुष्य अपने मन में जितनी बड़ी से बड़ी या सबसे वृहत वस्तु की धारणा कर सकता है, वे उन सबसे भी वृहत हैं, इसीलिए मन से विचार करके उनके बारे में धारणा बना पाना संभव नहीं है. फिर भी हताश होने की जरूरत नहीं है, कोई व्यक्ति यदि इसी प्रकार उनके बारे में सुनता रहे, या इसी विषय पर बार बार परिचर्चा करता रहे, तथा (चारो महावाक्य पर ) गहराई से मनन करता रहे, तो वैसा करते-करते उनके बारे में थोड़ी धारणा अवश्य हो सकती है.
इसके लिए, बीच बीच में (निर्जन में- अर्थात युवा प्रशिक्षण शिविर में जाकर) आत्मचिन्तन करते रहना चाहिए-" यह ठीक  है कि ब्रह्म क्या हैं, उनके बारे में मैं नहीं जानता. किन्तु ऐसी बात भी नहीं है, कि उनके बारे में मैं बिल्कुल कुछ भी नहीं जानता. मैं यह दावा तो नहीं कर सकता, कि मैंने ब्रह्म को पूर्ण रूप से जान लिया है, किन्तु यह भी नहीं कह सकता कि मैं ब्रह्म के बारे में कुछ भी नहीं जानता हूँ." इस प्रकार का चिन्तन-मनन, करते रहना आवश्यक है.
 यही बात प्रत्येक उपनिषद में कही गयी है. " ब्रह्म सर्वव्यापी हैं, वे सर्वदा निश्चल होते हुए भी, सर्वदा द्रूत गति से गमन करते हैं. वे यहीं हैं, वे दूर से दूर भी हैं. वे कान नहीं रहने से भी सुन सकते हैं, आँखें नहीं रहने से भी देख सकते हैं, वे जीभ के बिना होने पर भी, समस्त बातें, समस्त शब्द उन्हीं से निर्गत होते हैं, समस्त इच्छाएँ वहीँ से आ रही हैं, वे समस्त सृष्टि का मूल हैं. वे कानों के भी कान हैं, मन के भी मन हैं. सम्पूर्ण सृष्टि उन्हीं में विलीन हो जाएगी. वे मेरे भीतर भी हैं, और मेरे बाहर भी हैं. जो कुछ भी विश्व-ब्रह्माण्ड मैं देख रहा हूँ, सबके भीतर वे ही अवस्थित हैं. वे प्रत्येक जीवों में हैं, प्रत्येक प्राणी के भीतर में हैं, प्रत्येक मनुष्य में वही हैं. ऐसा कुछ भी नहीं है, जो वे नहीं हैं."
यदि कोई पूर्ण श्रद्धा के साथ इसी बात पर मन ही मन विचार करता रहे, तो उसका क्या होगा ? उसका हृदय तथा उसकी दृष्टि क्रमशः विस्तृत होती रहेगी. अब वह उनके संबन्ध में क्या सोचेगा ? यही-कि वे सच्चिदानन्द स्वरूप हैं, वे सत-चित-आनन्दमय हैं. शंकराचार्य ने (अपरोक्ष अ. 116) में कहा है-
      दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद ब्रह्ममयं जगत ।
        सा   दृष्टि   परमोदारा न नासाग्रविलोकिनी ।।
अर्थात दृष्टि को ज्ञानमय करके संसार को ब्रह्ममय देखे यही दृष्टि अति उत्तम है, नासिका के अग्र भाग को देखने वाली नहीं । 
सत, असत और मिथ्या का अर्थ क्या हुआ ? यही, की वे हैं. (सचमुच यह विश्वास होना कि दिन में सितारे नहीं दिखाई देने से भी वे हैं, रात्रि में अवश्य निकल आएंगे. या बाबूजी अँधेरे कमरे में सो रहे हैं, उनको ढूंढ़ते ढूंढ़ते हाथ पहले जंगला पर पड़ गया, नहीं ये बाबूजी नहीं हैं, पलंग पर पड़ा ये भी नहीं हैं, बाबूजी पर हाथ पड़ गया, तो हम निश्चिन्त हो गये कि बाबूजी हैं.) 'अस्ति ' का भाव, वे हैं के भाव को ' सत ' कहते हैं. असत का अर्थ है, जो तीन काल में नहीं हो सकता. वास्तव में ' सत-असत-मिथ्या ' पर चिन्तन-मनन  करने का अर्थ अच्छा-बुरा में अन्तर करना नहीं है, उसका अर्थ है- वे हैं ! वे चित स्वरुप हैं. वे ' Consciousness ' हैं, वे चैतन्य (अभिज्ञता ) हैं, वे चिति हैं. दुर्गा सप्तसती में कहा गया है- ' या देवी सर्वभूतेषु चिति-रूपेण संस्थिता।' वे चिति या बोधस्वरूप हैं, वे सभी वस्तुओं में बोधस्वरूप हैं. एवं वे आनन्दमय हैं. आनन्द को कैसे समझा जाता है ? जब आनन्द का प्रवाह होता है, तो वह प्रेम के रूप में ही प्रवाहित होता है. इसीलिए हम इस प्रकार ब्रह्म के उपर चिन्तन करते रहें- कि वे सर्वत्र हैं, सर्व जीवों में हैं, वे सर्व लोकों में हैं, फिर वे ही सर्व लोकों का अतिक्रमण करके भी हैं."
" वे मेरे भीतर हैं और मेरे बाहर भी वही हैं. जो सदा-सर्वदा हैं वे सत-स्वरूप हैं, जो चिन्मय हैं, जो चितस्वरूप हैं, जो विचार स्वरूप हैं, जो बोधस्वरूप हैं, जो आनन्दमय हैं, जो कई धाराओं में प्रेमरूप से प्रवाहित होकर सबों का आलिंगन करते हैं, वे सबों के भीतर रहते हुए, मेरे भीतर भी हैं." 
जो भी व्यक्ति इन बातों के उपर चिन्तन करता है, उसके भीतर घृणा नहीं रह सकती, वह किसी से  द्वेष नहीं करता,उसमें हिंसा नहीं रहती, स्वार्थपरता नहीं रहती, शक्तिहीनता नहीं रहती. उसके भीतर की शक्ति जाग्रत हो जाती है, उसके हृदय में ज्ञान का उन्मेष हो जाता है, एवं सर्वग्रासी प्रेम उसके अन्तर से प्रवाहित होकर सबों का आलिंगन करता है. यही है जातिवाद और सम्प्रदायवाद को समाप्त करने श्रेष्ठ उपाय। ' मनष्य' बनने का सच्चा तरीका, एवं जगत-कल्याण का वास्तविक उपाय भी यही है. आजकल के कुछ विदेशी मनीषी, और ठेठ-विदेशि भाषा की कुछ पुस्तकों को पढ़े-लिखे तथाकथित कुछ देशी बुद्धिजीवी लोग, जिन्होंने इन बातों को कभी अपने जीवन में सुना भी नहीं है, या कभी इसके उपर परिचर्चा करने की कोई चेष्टा भी यदि नहीं किया है,और वैसे लोग ही अगर यह फतवा देने लगें, कि यह सब झूठी बात है, भ्रामक है-भ्रम में डालने वाली बातें हैं, कपोल-कल्पित बातें हैं, और उन पढ़े-लिखे मूर्खों की बातों को सुन कर हमलोग यह मानने लग जाएँ, कि सचमुच हमारे उपनिषदों में ज्ञान की बातें हैं ही नहीं, तो फिर हमलोगों के दुःख-कष्टों को दूर करने की शक्ति सम्पूर्ण त्रिलोकी में किसी के पास नहीं है. वैसे जो पढ़े-लिखे मूर्ख ऐसी बकवास करते हैं, उनके संबन्ध में शंकराचार्य ने अपरोक्षा अ ० में कहा हैं-
स्वात्मानम् शृणु मूर्ख त्वम् श्रुत्या युक्त्या च पुरुषम् ।
देहातीतम् सदाकारम् सुदुर्दर्शम् भवादृशैः ॥—३०
शृणु मूर्ख त्वम् = हे अज्ञानी, सुनो ! स्वात्मानम् श्रुत्या युक्त्या च पुरुषम् = उपनिषद आदि शास्त्रों में युक्तियों और ऋषियों के द्वारा तुम्हारी अपनी आत्मा को ही  पुरुष या परमात्मा कहा है;  देहातीतम् = शरीर से परे है; सदाकारम् = अस्तित्व की प्रकृति का है; सुदुर्दर्शम् भवादृशैः = आप जैसे लोगों से जाना जाता है के लिए मुश्किल है। ।-30
-अर्थात, हे मुर्ख ! श्रुतियों (वेद-उपनिषद आदि) में तुम्हारी अपनी आत्मा को ही पुरुष कहा गया है, उनके बारे में सुनो एवं उनको तर्क-वितर्क की सहायता जानने की चेष्टा करो. यह आत्मा देहातीत हैं (केवल शरीर नहीं हैं), अस्तित्व के आकर एवं स्वरुप को समझ पाना तुम्हारे जैसे बुद्धि-सम्पन्न व्यक्तियों के लिए समझ पाना सचमुच बहुत दुष्कर है.
ऐसा दृढ विश्वास रखना ही यथार्थ श्रद्धा है, यही वास्तविक आध्यात्मिकता है. आत्मा पर विश्वास, अपनी शक्ति के उपर विश्वास रखो. स्वयं में जो शक्ति है, वह कहाँ से आ रही है ? मेरे भीतर आत्मा हैं, इसीलिए मैं शक्तिमान हूँ. मेरे भीतर आत्मा हैं, इसीलिए मुझमें ज्ञान का प्रस्फुटन होता है. मेरे भीतर आत्मा हैं, इसीलिए तो मैं आनन्द का अनुभव करता हूँ. मेरे भीतर आत्मा हैं, इसीलिए मैं मनुष्यों से प्रेम कर सकता हूँ. प्रेम हृदय से प्रेम प्रवहित हो सकता है. यह सच्चिदानन्दमय आत्मा मेरे भीतर हैं, इसी विश्वास को हृदय में धारण करके जीवन जीना ही आध्यात्मिकता है.
केवल यह आध्यात्मिकता ही सच्चा साम्यवाद (Communism - या सब वस्तुओं में सबका समानाधिकार रखने का सिद्धान्त) स्थापित कर सकती है.जोलोग शोषित, मुर्ख, दरिद्र है, गरीबी से त्रस्त और पददलित हैं, सताये हुए हैं और भूखों मर रहे हैं- वैसे लोगों के चेहरे पर भी यह आध्यात्मिकता ही  हँसी खिला सकती है. 
इसी ज्ञान, इसी  शक्ति, इसी आध्यात्मिकता को यदि भारत के जनसाधारण के भीतर जाग्रत नहीं कराया जा सका- तो उनके चेहरों पर हँसी खिला पाना कभी संभव नहीं होगा. एवं भारत के गाँवों की झोपड़ियों में रहने वाली आम-जनता के बीच इस प्रकार के सच्चे साम्यवाद या आध्यात्मिकता को स्थापित नहीं करने से भारतवर्ष का पुनर्निर्माण कभी संभव नहीं हो सकेगा, फलस्वरूप सम्पूर्ण पृथ्वी के मनुष्यों की उन्नति भी संभव नहीं हो सकेगी. इसीलिए समाज के नीतिनिर्धारकों को सम्पूर्ण पृथ्वी के विकास के लिए इसी आध्यात्मिकता या सच्चे साम्यवाद की शरण में जाना ही होगा.
 स्वामी विवेकानन्द, जगन्माता माँ सारदा एवं ठाकुर श्रीरामकृष्ण ने इसी सच्चाई को अपने जीवन (धन का आभाव तथा ग्रामीण परिवेश के जीवन) द्वारा प्रदर्शित किया है, अपनी अमृतमयी वाणी से इन्हीं बातों का उल्लेख कई प्रकार से किया है-और किस लिए किया है ? जगत के कल्याण के लिए किया है. इसके अलावा उनका कोई दूसरा उद्देश्य नहीं था. सम्पूर्ण जगत का कल्याण हो सके, इसीलिए हमलोगों की आँखों के सामने उन लोगो ने अपने जीवन-लीला का मंचन किया था.
हमलोग उनके इतने निकट (भारत में जन्मे हैं) रहे हैं, इसीलिए उनकी लीलाओं को विभिन्न प्रकार से सुन पा रहे हैं. यदि हमलोगों में थोड़ी सी भी सद्बुद्धि बची हुई हो, तो हमलोग इस परमसुन्दर आदर्श को अपने जीवन में धारण करने की चेष्टा अवश्य करेंगे. पर केवल अपनी मुक्ति, अपने आनन्द, अपने सुख के लिए नहीं, बल्कि भारत के जनसाधारण के लिए, विश्व के समस्त मनुष्यों का कल्याण साधित करने की इच्छा से करें.
मनुष्यों के कल्याण के लिए- हमलोग अपने जीवन की समस्त शक्तियों को उद्घाटित कर सकें, उन्हें जाग्रत कर सकें, उस अनन्त प्रेम को अनेकों धाराओं में प्रवाहित-प्रस्फुटित या अभिव्यक्त करके अपने जीवन को सार्थक बनाकर अन्त में हँसते-हँसते इस जगत से प्रस्थान कर सकें; ठाकुर-माँ-स्वामीजी हम सभी लोगों को यही आशीर्वाद दें !
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