" आत्मश्रद्धा - सहानुभूति- सेवापरायणता "
( Self Reverence- Sympathy - Service Attitude)
२२." आत्मश्रद्धा " ( Self Reverence) : जो
व्यक्ति सत्य को स्वीकार करता है, वह अपने अन्दर की 'सत्ता' के प्रति
सच्ची श्रद्धा रखता है। तथा अपनी सत्ता या अस्तित्व को ही 'परम-वस्तु' समझ
कर उस पर दृढ़ता से विश्वास करने, जानने और उसे अभिव्यक्त करने के लिए
सचेष्ट रहता है। 'श्रद्धा' एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है - "आस्तिक्य बुद्धि "। अर्थात अपने अन्तर्निहित 'सत्य-वस्तु' यानि अपनी
सत्ता, अस्तित्व, आत्मा या ब्रह्मवस्तु को स्वीकार करना। अर्थात वह
सत्य-वस्तु जो अविनाशी और अपरिवर्तनशील है - हम सबके अन्दर है। इसी
शास्त्र-वाक्य या गुरु-वाक्य में विश्वास रखने और उसके प्रति श्रद्धावान
रहने को आस्तिकता कहा जाता है। ' अस्ति इति ' का अर्थ है- 'वह' हैं ! हमारे अन्दर ही है- इसमें पूरा विश्वास रखना। इसको ही आत्मश्रद्धा कहते हैं। अपनी यथार्थ 'सत्ता' के प्रति श्रद्धा, अर्थात अपनी आत्मा में श्रद्धा। जीवन की प्रत्येक उपलब्धी का मूल यह श्रद्धा ही है। जिसमें आत्मश्रद्धा नहीं है, उसके जीवन में कुछ भी सार नहीं है। उस व्यक्ति के द्वारा कुछ भी श्रेष्ठ हो पाना सम्भव नहीं है। उसका सारहीन जीवन मूल्यहीन होते हुए धीरे-धीरे सूख जाता है। वह नवीन फूल-फल और हरे-भरे पत्तों से समृद्ध नहीं हो पाता। उसका जीवन सार्थक नहीं हो पाता। इसीलिए स्वामीजी कहते थे- " श्रद्धावान बनो " ! स्वामीजी कहते हैं " असीम की कौन सहायता कर सकता है ? वह हाथ भी, जो तुम्हारे पास अंधकार के बीच से आयेगा, तुम्हारा अपना ही हाथ होगा। " (६/२८७)
२३." सहानुभूति " ( Sympathy ): जो व्यक्ति अपनी यथार्थ सत्ता या आत्मा के प्रति श्रद्धावान या विश्वासी है वह दूसरों के ह्रदय में स्थित आत्मा पर भी श्रद्धा करता है, विश्वास करता है। इसीलिए उसमें कोई भेदबुद्धि नहीं रहती, अपने-पराये का बोध नहीं रहता, वह सभी को अपने समान प्रेम करता है। वह सभी के आनन्द से आनन्दित और दुःख से दुःखी होता है। इसी अद्भुत शक्ति को 'सहानुभूति' कहते हैं। सहानुभूति या समानुभूति की क्षमता आ जाने के कारण उसे दूसरों के सुख या दुःख में ठीक उसी प्रकार की अनुभूति होने लगती है। यही है- सहानुभूति।
२४." सेवापरायणता " ( Service Attitude) : वही
अद्भुत अनुभूति जिसका नाम 'सहानुभूति' है, किसी भी मनुष्य के अन्दर सेवा
करने की प्रेरणा जागृत कर देती है। सहानुभूति सम्पन्न व्यक्ति के ह्रदय
में इतना प्रेम आ जाता है कि दूसरों का दुःख दूर करने की इच्छा उसमें स्वतः
जग उठती है। क्योंकि वह दूसरों को भी अपने ही समान समझता है या दूसरे
मनुष्य को भी अपना ही एक रूप समझता है। इसीलिए दूसरे के दुःख को दूर करने
और सुखी बनाने के लिये उसके ह्रदय में एक ज्वार सा उठता हुआ अनुभव होता
है। वह अब दूसरों की सेवा करने की चेष्टा किए बिना रह ही नहीं सकता। उस
चेष्टा में वह किसी भी तरह का कष्ट उठाने से पीछे नहीं हटता, इस अभियान
में वह अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु के त्याग को भी बड़ा त्याग नहीं समझता
है। इसीलिए आत्मश्रद्धा रहने से, मनुष्य बन जाने से, चरित्र गठन कर लेने
से, अविश्वास, घृणा, द्वेष, हिंसा, प्रताड़ना और शोषण के लिए मन में कोई
जगह ही नहीं रह जाता है।
चूँकि सहानुभूति जन्य स्वजनबोध और प्रेम ही सम्पूर्ण मानवता को एकता के सूत्र में पिरो सकती है। इसीलिये प्रत्येक महामण्डल कर्मी देशवासियों की सेवा में अपने जीवन को न्योछावर कर यथार्थ सार्थकता की उपलब्धी करता है। ऐसे व्यक्ति अपने महामुल्यवान मानव जीवन को क्षुद्र स्वार्थ बोध और व्यक्तिगत सुख प्राप्ति की खोज में नष्ट होने से बचा लेते हैं।
जब ऐसे ही चरित्र सम्पन्न कर्मियों का जो संगठन( महामण्डल) भारत में जब पुरी तरह से तैयार हो जाएगा तो वह नीचे पड़े दबे-कुचले मनुष्यों के मुख पर भी हँसी ले आयेगा। वही चरित्र-सम्पन्न युवाओं का दल समाज में व्याप्त सभी प्रकार की अनैतिकता, अत्याचार, अन्याय का प्रतिरोध करने में सक्षम होगा। यदि भारत के सभी जाति
और धर्म के चरित्रवान युवा एक साथ मिलकर संगठित प्रयास करें तो एक स्वस्थ
परिवेश और सुन्दर समाज का निर्माण कर सकते हैं। यदि हमारे चरित्र में यह सारे गुण आत्मसात हो जायें तो हमलोग सब कुछ कर सकते हैं, नये और महान भारत का निर्माण भी कर सकते हैं। महाभारत में बड़े ही सुन्दर ढंग से कहा गया है -
" जिता सभा वस्त्रवता, मिष्टाशागोमता जिता।
अधवा जितो यानवता, सर्वम् शीलवता जितम्॥ "
- अर्थात सुन्दर वस्त्र पहनकर सभा को जीता जा सकता है। मिठाई खाने की इच्छा एक गाय पाल कर पूरी की जा सकती है। वाहन (कार, मोटर) रहने से रास्ते पर में विजय प्राप्त की जा सकती है, किन्तु, शील या सुन्दर चरित्र का अधिकारी बन जाने पर मनुष्य के लिए कुछ भी अलभ्य नहीं रह जाता ।
संघ-बद्ध होकर सेवा करने के महत्व पर प्रकाश डालते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते है -"
ज्ञानमार्ग अच्छा है, परन्तु उसके शुष्क तर्क में परिणत हो जाने का डर
रहता है। प्रेम बड़ी ही उच्च वस्तु है, पर निरर्थक भावुकता में परिणत होकर
उसके विनष्ट होने का भय रहता है। हमें इन सभी का समन्वय ही अभीष्ट है। श्री रामकृष्ण का जीवन ऐसा ही समन्वयपूर्ण था।
ऐसे महापुरुष जगत् में बहुत कम ही आते हैं, परन्तु हम उनके जीवन और
उपदेशों को आदर्श के रूप में सामने रखकर आगे बढ़ सकते है। यदि हममे से
प्रत्येक उस आदर्श की पूर्णता को व्यक्तिगत रूप में प्राप्त न कर सकें, तो
भी हम उसे सामूहिक रूप में परस्पर एक दुसरे के परिमार्जन, सन्तुलन,
आदान-प्रदान से एवं सहायक बनकर प्राप्त कर सकते हैं। यह समन्वय कई एक
व्यक्तियों द्वारा साधित होगा और यह अन्य सभी प्रचलित धर्ममतों की अपेक्षा
श्रेष्ठ होगा।"