मेरे बारे में

शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

क्या ईश्वर-दर्शन मस्तिष्क का भ्रम है ?

दिन वृहस्पतिवार, २४ अगस्त १८८२ : अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण का प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम : 

"  संशयात्मा विनष्यति "
मणि (श्रीम) - घर वालों के प्रति कर्तवय कब तक रहता है ?
श्रीरामकृष्ण (विवेकानन्द के गुरु)  -उन्हें भोजन-वस्त्र का अभाव न हो, सन्तान जब स्वयं समर्थ होगी, तब भार ग्रहण करने कि अवश्यकता नहीं। फल होने पर फूल नहीं रह जाता। ईश्वरलाभ हो जाने से कर्म नहीं करना पड़ता, मन भी नहीं लगता। जीवन का उद्देश्य उपार्जन नहीं, मनुष्य को ही ईश्वर जानकर उसकी सेवा करना है। धन से यदि ईश्वर की सेवा होती है, तो उस धन को कमाने में दोष नहीं है।"
मणि - अच्छा, ईश्वरलाभ ( the realization of God) के क्या माने हैं ? ईश्वरदर्शन (God-vision) किसे कहते हैं और किस तरह होते हैं ?
श्रीरामकृष्ण - जो भजन-पूजन, जप-ध्यान, नाम-गुणकीर्तन आदि करता है, वह साधक है। किन्तु जो अपने आंतरिक अनुभव से जानता है, कि ईश्वर का ही अस्तित्व है, (मेरा अस्तित्व तो सच्चिदानन्द सापेक्ष है, उनके रहने के कारण है !) वह सिद्ध है। इसको वेदान्त में एक उपमा- के द्वारा समझाया गया है, वह यह- कि घर के अँधेरे कमरे में जाकर घर के मालिक सो गए हैं।
कोई टटोलकर उन्हें खोज रहा है। पलंग पर हाथ जाता है, तो वह मन ही मन कह उठता है- यह नहीं है, खिड़की छू जाता है तो भी कह उठता है- यह नहीं है; दरवाजे में हाथ लगता है तो यह भी नहीं है, -नेति नेति नेति। अन्त में जब मालिक के देह पर हाथ लगा तो बोल पड़ता है - यह- मालिक यह हैं ! अर्थात ' अस्ति-इति ' का बोध हुआ है। मालिक को प्राप्त तो किया है, किन्तु भली-भाँति जान-पहचान नहीं हुई। एक दर्जे के और लोग हैं, जो सिद्धों में सिद्ध कहलाते हैं। मालिक के साथ यदि विशेष वार्तालाप हो तो वह एक और अवस्था है। यदि ईश्वर के साथ प्रेम-भक्ति द्वारा विशेष परिचय हो जाय तो दूसरी ही अवस्था हो जाती है। जो सिद्ध है उसने ईश्वर को पाया तो है, किन्तु जो सिद्धों में सिद्ध है, उसका ईश्वर के साथ विशेष परिचय हो गया है। परन्तु उनको प्राप्त करने की इच्छा हो, तो एक न एक भाव का सहारा लेना पड़ता है, जैसे -शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य या मधुर।
" शान्त भाव या 'the serene attitude': प्राचीन काल के ऋषियों के मन में ईश्वर के प्रति यही भाव था। उनके मन में सांसरिक भोगों की कोई वासना न थी; ईश्वरनिष्ठा (अपने ईष्ट-ठाकुर) में ऐसी निष्ठा थी, जैसी पति पर स्त्री की होती है- ' single-minded devotion of a wife to her husband.' वह तो यही मानती है की मेरे पति ही साक्षात मदन (cupid या कामदेव) हैं !   
" दास्य भाव- जैसे हनुमान का; रामकाज करते समय सिंहतुल्य ! स्त्रियों का भी दास्य भाव होता है, -पति की हृदय खोलकर सेवा करती है। माता में भी यह भाव कुछ कुछ रहता है,-यशोदा में था। 
" सख्य-मित्रभाव : जैसे कहते हैं, आओ, पास बैठो ! सुदामा आदि कृष्ण को कभी जूठे फल खिलते थे, कभी उनके कन्धे पर चढ़ते थे। 
" वात्सल्य- जैसे यशोदा का। स्त्रियों का भी कुछ कुछ होता है। अपने स्वामी (husband या पति) को खिलाते समय मानो, अपना सारा लाड़ उड़ेल देती हैं ! लड़का जब भरपेट भोजन कर लेता है, तभी माँ को सन्तोष होता है। यशोदा कृष्ण को खिलाने के लिये मक्खन हाथ में लिये घूमती फिरती थी।
" मधुर भाव : अपने उपपति या अवैध-प्रेमी के प्रति जैसा भाव, जैसे श्रीराधिका का; ' the attitude of a woman toward her paramour' पत्नी भी अपने पति के लिये इसी भाव का अनुभव करती है। This attitude includes all the other four - इस भाव में शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य सब भाव है। "
मणि : क्या ईश्वर के दर्शन इन्हीं नेत्रों से होते हैं ?
श्रीरामकृष्ण- चर्मचक्षु से उन्हें कोई नहीं देख सकता। साधना करते करते शरीर प्रेम का हो जाता है। आँखें प्रेम की कान प्रेम के। उन्हीं आँखों से वे वे दिख पड़ते हैं, उन्हीं कानों से उनकी वाणी सुन पड़ती है। और प्रेम का लिंग और योनि भी होती है।" One even gets a 'sexual organ' made of love, यह सुनकर मणि खिलखिलाकर हँस पड़े। श्रीरामकृष्ण जरा भी नाराज न होकर फिर कहने लगे.……
श्रीरामकृष्ण - इस प्रेम के शरीर में आत्मा, भगवान के साथ बातचीत करता है। With this 'love body' the soul communes with God."  मणि फिर गम्भीर हो गए। " ईश्वर को बिना खूब प्यार किए दर्शन नहीं होते। खूब प्यार करने से चारों ओर ईश्वर ही ईश्वर दिखते हैं। जिसे पीलिया हो जाता है उसे चारों ओर पीला दिखाई पड़ता है।
" तब ' मैं वही हूँ ' यह बोध भी हो जाता है। मतवाले का नशा जब खूब चढ़ जाता है तब वह कहता है, ' मैं ही काली हूँ'। गोपियाँ प्रेमोन्मत्त होकर कहने लगीं- ' मैं ही कृष्ण हूँ'।
दिनरात उन्हीं की चिन्ता करने से चारों ओर वे ही दिख पड़ते हैं। जैसे थोड़ी दीपशिखा या मोमबत्ती की लौ की ओर ताकते रहो, तो फिर चारों ओर सब कुछ शिखामय ही दिखायी देता है। " यह सुनकर मणि सोचते हैं, कि वह शिखा तो सत्य शिखा नहीं है ?
अंतर्यामी श्रीरामकृष्ण कहने लगे- " चैतन्य की चिन्ता करने से चारों ओर कोई अचेत नहीं हो जाता। शिवनाथ ने कहा था, ' ईश्वर की बार बार चिन्ता करने से लोग पागल हो जाते हैं।' मैंने उससे कहा, ' चैतन्य की चिन्ता करने से क्या कभी कोई चैतन्यहीन होता है ? "
मणि-जी, समझा। यह तो किसी अनित्य विषय की चिन्ता है नहीं; जो नित्य और चेतन हैं उनमें मन लगाने से मनुष्य अचेतन क्यों होने लगा ?
श्रीरामकृष्ण (प्रसन्न होकर ) बोले- यह उनकी कृपा है। बिना उनकी कृपा के सन्देह भंजन नहीं होता।
" आत्मदर्शन के बिना सन्देह दूर नहीं होता।
और उनकी कृपा के बिना सन्देह  दूर नहीं होता। वे यदि कृपा करके संशय दूर कर दें, और दर्शन दें, तो फिर कोई दुख नहीं। परंतु उन्हें पाने के लिये खूब व्याकुल होकर पुकारना चाहिये-साधना करनी चाहिये। तब उनकी कृपा होती है। पुत्र को दौड़ते हाँफते देख माता को द्या आ जाती है। माँ छिपी थी, सामने प्रकट हो जाती है।"
मणि मन ही मन सोचने लगे --' ईश्वर इतनी दौड़धूप करवाते ही क्यों हैं ?
श्रीरामकृष्ण तुरन्त कहने लगे, " उनकी इच्छा कि कुछ देर तक दौड़-धूप हो,तो आनन्द मिले। लीला से उन्होने इस संसार की रचना की है। इसी का नाम महामाया है। अतएव उस शक्तिरूपिणी महामाया की शरण लेनी पड़ती है। माया के पाशों ने बाँध लिया है, फाँस काटने पर ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। "
आद्द्याशक्ति महामाया एवं शक्ति साधना 
श्रीरामकृष्ण- " कोई ईश्वर की कृपा प्राप्त करना चाहे, तो उसे पहले आद्द्याशक्तिरूपिणी महामाया को प्रसन्न करना चाहिये। वे संसार को मुग्ध करके सृष्टि, स्थिति, और प्रलय कर रही हैं। उन्होंने सबको अज्ञानी बना डाला है। वे जब द्वार से हट जायेंगी, तभी जीव भीतर जा सकता है। बाहर पड़े रहने से केवल बाहरी वस्तुएं देखने को मिलती हैं, नित्य-सच्चिदानन्द पुरुष नहीं मिलते। इसिलिये पुराणों में है--  श्री दुर्गा सप्तशती में : मधुकैटभ का वध करते समय ब्रह्मादि देवता महामाया की स्तुति कर रहे है, ब्रह्मोवाच --
' त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका।
 सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता॥२॥
"संसार की मूलाधार शक्ति ही है। उस आद्द्या शक्ति के भीतर विद्या और अविद्या दोनों हैं- अविद्या मोहमुग्ध करती है। अविद्या वह है जिससे कामिनी और कांचन उत्पन्न हुए हैं, वह मुग्ध करती है। और विद्या वह है जिससे भक्ति, दया, ज्ञान और प्रेम की उत्पत्ति हुई है; वह ईश्वर के मार्ग पर ले जाती है।
"उस अविद्या को प्रसन्न करना होगा। इसिलिये शक्ति की पुजापाद्धति हुई।
" उन्हें प्रसन्न करने के लिये नाना भावों से पूजन किया जाता है।जैसे दासी भाव, वीरभाव, सन्तानभाव। वीरभाव अर्थात रमण के द्वारा उन्हें प्रसन्न करना। "
" शक्ति साधना -सबसे विकट साधनायें थीं, दिल्लगी नहीं। 
"मैं माँ के दासी भाव से और सखी भाव से दो वर्ष तक रहा। परन्तु मेरा सन्तान भाव है। स्त्रियों के स्तनों को मातृ-स्तन समझता हूँ।
" लड़कियाँ शक्ति की एक एक मूर्ति हैं। पश्चिममें विवाह के समय वर के हाथ में तलवार रहता है, (उसके ऊपर कसैली खोसकर वर माँ जगदम्बा से आशीर्वाद लेने जाता है।शरीर के साथ यह तादात्म्य ही क्लेश का कारण, इसी गाँठ को वर-वधु ज्ञान की तलवार से मिलकर काट देते है !) बंगाल में सरौता-अर्थात उस शक्ति रूपिणी कन्या की सहायता से वर मायापाश काट सकेगा। यह वीरभाव है। मैंने वीरभाव की पुजा नहीं की। मेरा सन्तान भाव था।
" कन्या शक्तिस्वरूपा है। विवाह के समय तुमने नहीं देखा- वर अहमक़ की तरह पीछे बैठता है; किन्तु कन्या निःशंक रहती है।

=========

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

$$$ क्रमविकासवाद (EVOLUTION)


स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अन्तः-प्रकृति को वशीभूत करके इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मनःसंयोग अथवा ज्ञान -इनमें से एक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस, यही धर्म का सर्वस्व है।  मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया-कलाप तो उसके गौण ब्योरे मात्र हैं।"
" इस धारणा को बिल्कुल भूल जाओ, कि मनुष्य एक दायित्वपूर्ण (responsible) प्राणी है; केवल पूर्णता प्राप्त व्यक्ति को ही दायित्व-ज्ञान होता है। सब अज्ञानी व्यक्ति मोह-मदिरा पीकर मत्त हुए हैं, यह उनकी स्वाभाविक अवस्था नहीं है। तुम लोगों ने ज्ञान-लाभ किया है--तुम्हें उनके प्रति अनन्त धैर्यसम्पन्न होना होगा। उनके प्रति प्रेमभाव छोड़कर अन्य किसी प्रकार का भाव मत रखो ! वे जिस रोग से ग्रसित होकर जगत को भ्रान्त दृष्टि से देखते हैं, पहले उस रोग का निदान करो, उसके बाद उनकी सहायता करो, जिससे उनका रोग मिट सके और ठीक ठीक देख सकें।
"पवित्रता हमलोगों का वास्तविक स्वभाव है, और उसकी पुनः उपलब्धि सभी धर्मों का लक्ष्य है। सभी आदमी पवित्र और अच्छे हैं। फिर भी कोई प्रश्न उठा सकता है, कि तब कुछ लोग पशु जैसे क्यों हैं ?  जिस आदमी को तुम पशु कहते हो, वह मैल और धूल में पड़ा हुआ हीरा है ----धूल झाड़ दो और वह हीरा हो जायेगा। वह वह इतना स्वच्छ और चमकीला हो जायेगा, कि मानो उस पर धूल कभी पड़ी ही न थी, और हमें स्वीकार करना चाहिये कि प्रत्येक आत्मा एक बड़ा हीरा है। 
 स्वामी विवेकानन्द स्वयं एक ऐसे ही लोक-शिक्षक (नेता) थे, जिन्होंने हीरे पर पड़े हुए मैल और धूल को झाड़कर बड़ा चमकीला हीरा बना देने की पद्धति - ' बनो और बनाओ'  का प्रशिक्षण, अर्थात पशु-मानव को देव-मानव में रूपान्तरित करने का प्रशिक्षण, अपने गुरु श्रीरामकृष्ण से प्राप्त किया था। इतना ही नहीं,इस पद्धति को पुरे विश्व को सिखाने का चपरास भी घनीभूत-प्रेम श्रीरामकृष्ण से प्राप्त किया था।
विवेकानन्द का कथन है, " आत्मा अविद्या (अविवेक) के कारण प्रकृति के साथ संयुक्त हो गयी है; प्रकृति के पंजे से छुटकारा पाना ही हमारा उद्देश्य है। यही सारे धर्मों का अर्थात चरित्र-निर्माण का एक मात्र लक्ष्य है। प्रकृति हमे चारो ओर से दमित करने का प्रयास कर रही है, और आत्मा अपने को अभिव्यक्त करना चाहती है। प्रकृति कहती है - ' मैं विजयी होउंगी ' ; आत्मा कहती है- ' विजयी मुझे होना है '। प्रकृति कहती है- ठहरो, मैं तुम्हे चुप रखने के लिये थोड़ा सुख भोग दूंगी। आत्मा को थोड़ा मज़ा आता है, क्षण भरके लिये वह धोखे में पड़ जाती है, पर दुसरे ही क्षण वह फ़िर मुक्ति के लिये चीत्कार कर उठती है।"(३:१७३)  
उस अविद्या के अभाव से, संयोग का भी अभाव हो जाता है, यही हान है जिसे कैवल्य मुक्ति कहा जाता है। योगी मनःसंयम के द्वारा इस चरम लक्ष्य पर पहुँचने का प्रयत्न करते हैं। जब तक हम प्रकृति के हाथ से अपना उद्धार नहीं कर लेते, तब तक हम गुलाम हैं, प्रकृति जैसा कहती है, हम उसी प्रकार चलने को लाचार होते हैं। योगी का यह दावा है कि जो मन को वशीभूत कर सकते हैं, वे भूत को भी वशीभूत कर सकते हैं, अंतःप्रकृति बाह्य प्रकृति की अपेक्षा कहीं उच्चतर है, और उस पर अधिकार जमाना --उस पर जय प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। किन्तु जो अंतःकरण को वशीभूत कर सकते हैं, सारा जगत् उसके वशीभूत हो जाता है।
 महामण्डल में मनःसंयोग की पद्धति के अनुसार विवेक-दर्शन का अभ्यास कराकर मनुष्यनिर्माण और चरित्रनिर्माण-कारी प्रशिक्षण (Training) के माध्यम से प्रशिक्षु युवाओं को अपने विवेक-श्रोत को उद्घाटित करने का प्रशिक्षण दिया जाता है। मन को एकाग्र करने की इस शिक्षा को सम्पूर्ण भारत में प्रसारित करने के लिये सबसे पहले ऐसे लोक-शिक्षकों या मानव-जाति के मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण करना आवश्यक है, जो सभी 'नर-नारी' को नारायण जान कर श्रद्धा पूर्वक 'सेवा करने और प्रेरणा भरने ' में समर्थ हों। जो व्यक्ति इस दायित्वपूर्ण मनुष्य ' बनो और बनाओ' आन्दोलन के कर्मी बनते हैं, और केवल मातृभूमि की सेवा करने की इच्छा से विवेकानन्द के सामान सर्वोच्च समाधि-अवस्था को भी त्याग देने का साहस रखते हैं, वे स्वतः मुक्त हो जाते हैं। इसीलिये ' मुक्त बनना और मुक्त बनाना ' एक साथ-साथ चलने वाली प्रक्रिया है।
विवेकानन्द साहित्य की भूमिका में भगिनी निवेदिता लिखती हैं," विवेकानन्द की कृतियों का संगीत--
'शास्त्र, गुरु और मातृभूमि ' इन तीन स्वर-लहरियों से से निर्मित हुआ है। उनके पास देने योग्य यही निधि है।" हमारी मातृभूमि है- ‘भारत,’ इस शब्द का ही अर्थ है ‘प्रकाश की उपासना करनेवाला।’ 'भा' अर्थात ‘प्रकाश’, रत अर्थात ‘में व्यस्त’। और 'पातंजल योगसूत्र' स्वामीजी का सर्वप्रिय शास्त्र रहा है। व्यासदेव के बाद स्वामीजी ने ही इस पर भाष्य लिखा है, आचार्य शंकर ने भी इस पर भाष्य नहीं लिखा था।महामण्डल के युवा प्रशिक्षण शिविर के माध्यम से उसी 'पातंजल योगसूत्र' पर आधारित प्रशिक्षण-पद्धति से परिचय करवाया जाता है।
जैसे चिकित्सा विज्ञान (Medical Science) में रोग, रोग का निदान, आरोग्य तथा आरोग्य के हेतु- भैषज्य आदि का प्रतिपादन होकर शास्त्र की पूर्णता होती है, इसी प्रकार पतंजलि योगसूत्र भी मोक्ष-शास्त्र है जिसमें हेय , हेयहेतु , हान तथा हानोपाय इन चार समूहों का प्रतिपादन किया गया है। दुःख हेय है , अर्थात् त्याज्य , जिससे हम छुटकारा चाहते हैं। अविवेक हेयहेतु है , सांख्यशास्त्र में आत्मा के दुःख का कारण अविवेक बताया गया है। जबतक प्रकृति - पुरुष के भेद का साक्षात्कार ज्ञान प्राप्त कर अविवेक दूर नहीं हो जाता , तब तक आत्मा दुःख भोगा करती है। दुःख की अत्यंत निवृत्ति हान है , इसप्रकार मोक्ष का दूसरा नाम हान होता है। विवेकख्याति, अर्थात् प्रकृति - पुरुष के भेद का साक्षात्कार ज्ञान इसका उपाय ( हानोपाय ) है। इन चार आधारभूत स्तम्भों पर योगसूत्र के भव्य भवन का निर्माण किया गया है।
तीनों प्रकार के दुःखों की नितांत निवृत्ति पाने के लिये जो लोग पुरुषार्थ करने अर्थात अपना चरित्र-निर्माण करने के इच्छुक हों उनके लिये महर्षि पतंजलि कहते हैं-

श्रद्धा-वीर्य-स्मृति-समाधि-प्रज्ञा-पूर्वक इतरेषाम्॥१/२०॥
इतरेषाम् - अर्थात दूसरों को (जो पहले से समाधि-प्राप्त योगी नहीं हैं, बल्कि जो साधक है, उनको) पाँच प्रकार के साधन करने होंगे, जिससे  चट्टानी चरित्र निर्मित हो जायेगा।
१.श्रद्धा --- हमें भी ' शास्त्र, गुरु, मातृभूमि ' में  श्रद्धा और नचिकेता जैसी आस्तिक्य-बुद्धि !!
२.वीर्य ---अर्थात उत्साह या मन का तेज !

३.स्मृति--अर्थात  अपने यथार्थ स्वरुप के स्मरण  से उपलब्ध  बुद्धि की निर्मलता।
४.समाधि---अर्थात ध्येयाकार बुद्धि की एकाग्रता।
५.प्रज्ञा-- अर्थात सत्यवस्तु-विवेक।
ये पाँचों प्रकार के साधन, उन सामान्य साधकों  के लिये हैं जो चरित्र-निर्माण करके यथार्थ मनुष्य बनना चाहते हैं - पतंजलि की भाषा में कहें तो-जो भोगी से योगी बनना चाहते हैं॥२०॥
इसकी व्याख्या में स्वामीजी कहते हैं, जो लोग देवता-पद या किसी कल्प के शासन-कर्ता होने की भी कामना नहीं करते, अर्थात नाम-यश की कोई कामना जिसमें नहीं होती केवल वैसा ही व्यक्ति इस मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन 'बनो और बनाओ' के नेता (या भव-रोग हरण वैद्य) हो सकते हैं। 
स्वामीजी कहते हैं, " माता-पिता हमें केवल जन्म देते हैं, परन्तु जगतगुरु श्रीरामकृष्ण हमें मुक्ति-मार्ग दिखाते हैं। हम जगतगुरु श्रीरामकृष्ण की सन्तान हैं ---उनके उत्तराधिकारी (मानसपुत्र) हैं! ७/२५७  "We are His children, we are born in the Spritual-Line of the Teacher!" महामण्डल के आदर्श हैं स्वामी विवेकानन्द, इसिलिये हम सभी, जो श्रीरामकृष्ण प्रतिपादित सिद्धान्त 'जीवशिव-वाद' के अनुयायी हैं, हम भी श्रीरामकृष्ण की सन्तान हैं, और हम-सबों का जन्म उसी आध्यात्मिक लोक-शिक्षक की परंपरा में हुआ है।
कपिल, पतंजलि या विवेकानन्द प्रत्येक व्यक्ति को घर- बार छोड़ कर जंगल में चले जाने का उपदेश नहीं करते। जो व्यक्ति प्रवृत्ति मार्ग में अर्थात लौकिक स्थिति में, घर-परिवार में रहते हैं, उनके लिये समस्त लौकिक- वैदिक कर्तव्य कर्मों का अनुष्ठान करना कपिल की दृष्टि में आवश्यक है। कपिल ने  धनादि अर्जन की बहुत उपयोगि स्वीकार किया है ; क्योंकि - धनादि के द्वारा दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति और भोगों की निस्सारता को समझ लेने के बाद ही जिज्ञासु अत्यंत पुरुषार्थ की प्राप्ति के लिये आत्म-चिंतन में प्रवृत्त हो जाता है।  
किन्तु जिसकी तृष्णा बहुत बड़ी हो, उसकी यह आवश्यकता की खाई कभी पूरी नहीं हो पाती। इसी लिये कपिल ने इसे पुरुषार्थ बताया है , अत्यन्त पुरुषार्थ नहीं। क्योंकि अधर्म या भ्रष्टाचार के द्वारा आवश्यकता से अधिक धन अर्जित कर लेने से भी, अत्यन्त दुःख निवृत्ति कभी नहीं हो सकती,  इसे नहीं समझ पाने के कारण ही बहुत पढ़े लिखे,  उच्च पदों पर बैठे लोग भ्रष्टाचार में प्रवृत्त हो जाते हैं। किन्तु कितना भी धन क्यों न हो, असाध्य रोग-शोक हो जाने पर चिकित्सक या दवाई, का प्राप्त हो जाना , भूख लगने पर उपयुक्त अन्न आदि का मिल जाना, - निश्चित नहीं। इसलिये येन-केन-प्रकारेण धन कमाने के पीछे जीवन के परम-पुरुषार्थ को त्याग देना युक्तिसंगत नहीं है। 
" असीम शक्ति का एक स्प्रिंग इस छोटी सी काया में कुण्डली मारे विद्यमान है, और वह स्प्रिंग अपने को फैला रहा है। और ज्यों ज्यों यह फैलता है, त्यों त्यों एक के बाद दूसरा शरीर अपर्याप्त होता जाता है, वहउनका परित्याग कर उच्चतर शरीर धारण करता है। यही है मनुष्य का धर्म, सभ्यता या प्रगति काइतिहास। वह भीमकाय ' प्रोमिथियस ' (एक यूनानी देवता जिसने olampious से चुराई हुई अग्नि मनुष्य को दिया और जिसे दंड स्वरूप जंजीरों में जकड़ दिया गया) मानो अपने को बंधन मुक्त कर रहाहै। " (९:१५६)
" एक अन्तर्निहित शक्ति मानो लगातार अपने स्वरूप में व्यक्त होने के लिये - अविराम चेष्टा कर रही है, और बाह्य परिवेश उसको दबाये रखने के लिये प्रयासरत है, बाहरी दबाव को हटा कर प्रस्फुटित हो जानेकी इस चेष्टा का नाम ही जीवन है।" (विवेकानन्द चरित-पृष्ठ १०८)
 " हमारे ऋषि तो यह कहते हैं, कि इन्द्रियजन्य सुखों में तृप्त रहना उन कारणों में से एक है, जिसने सत्य और हमारे बीच परदा सा डाल दिया है। केवल कर्म-कांडों में रूचि, इन्द्रियों में तृप्ति तथा नाना प्रकार मतवादों ने हमारे और सत्य के बीच एक आवरण डाल रखा है।' (१:२५५) 
जिस व्यक्ति में सामान्य बुद्धि (common sense) होती है, वह दूसरों को देखकर सीख लेता है। जब वह सदाचार से प्रेरित प्रवृत्ति-मार्ग में धर्मपूर्वक धन अर्जित करने वाले गृहस्थों के जीवन में सुख-शान्ति और अत्यधिक तृष्णा के कारण भ्रष्टाचार से प्रेरित गृहस्थों के जीवन की अस्थिरता को देखकर चरित्र के मूल्य को समझ लेता है।  और अपनी सामान्य बुद्धि के बल पर स्वयं कभी तृष्णा वश भ्रष्टाचार नहीं करता, उधर से विरत होकर, सदाचार से प्रेरित 'चरित्र-निर्माण मनुष्य-निर्माण' की शिक्षा को को अपना लेता है।  
जिस व्यक्ति के चारित्रिक-गुणों में कॉमन सेन्स पर्याप्त मात्रा में होती है, कपिल ने उन्हें प्रमाणकुशल व्यक्ति कहा है। इसीलिये युवाओं को सबसे पहले अपने चरित्र में कॉमन सेन्स के गुण को बढ़ाकर प्रमाणकुशल मनुष्य, बनने और बनाने की चेष्टा करनी चाहिये। ऐसे प्रमाणकुशल व्यक्ति  आज अत्यंत ही विरल हो गये हैं, किन्तु   इस मार्ग पर जाने का अधिकार सबको समान है , और सबके लिये यहाँ स्वागत है। 
स्वामी जी का कथन है “ पहला प्रश्न सृष्टि का है, यह संसार, यह प्रकृति या माया अनादि और अनंत हैं, जगत् किसी एक विशेष दिन नहीं रचा गया। एक ईश्वर ने आकर इस जगत् की सृष्टि की और बाद में वह सोता रहा, यह हो ही नहीं सकता। सृजन की शक्ति निरन्तर गतिशील है।  ईश्वर अनन्तकाल से सृष्टि रच रहा है-वह कभी आराम नहीं करता। गीता में श्रीकृष्ण कहते है- यदि मैं क्षण भर के लिये विश्राम लूँ, तो यह जगत नष्ट हो जाय ! ” (५/२२)
ब्रह्मांड सदा रहता है, लेकिन हमेशा एक जैसा नहीं रहता। जब वह अतिसूक्ष्म स्थिति में होता है, तब अव्यक्त कहा जाता है और जब स्थूल दृश्यमान होता है तो व्यक्त। अव्यक्त ही असत् है। असत् का अर्थ शून्य नहीं है। शून्य से सृष्टि का उद्भव नहीं हो सकता।  प्राण का स्पंदन एक बात है, इस स्पंदन को सक्रिय करने वाला भी कोई होना चाहिए, फिर प्राण के स्पंदन से आकाश तत्व से आगे का विकास करने की प्रेरक शक्ति भी। 
भारतीय दर्शन ज्ञात को अपना मानता है और अज्ञात के प्रति आस्तिक है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण अज्ञात को विषयमात्र देखता है, भारतीय दर्शन अज्ञात के प्रति आदर भाव रखता है। ज्ञात हमारी बौद्धिक पूंजी है और अज्ञात हमारी अनंत संभावना है। भारतीय दर्शन ने उपलब्ध यंत्र तंत्र के साथ मंत्र अनुभूति का अद्भुत प्रयास किया। उपनिषद् का ऋषि इतिहास बताता है-“अंगिरा ने भी मुख्य प्राण की उपासना की, इसलिए मुख्य प्राण को आंगिरस कहते हैं। बृहस्पति ने भी मुख्य प्राण की उपासना की, इसे बृहस्पति भी कहते हैं। वाक् वृहती है, प्राण उसका पति है।
भारत में एक दीर्घ परंपरा है-प्राण उपासना की। स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस भी शक्ति का साकार रूप माँ काली के उपासक थे। उन्होंने आद्द्याशक्ति महामाया एवं शक्ति साधना के विषय में कहा है- श्रीरामकृष्ण- " कोई ईश्वर की कृपा प्राप्त करना चाहे, तो उसे पहले आद्द्याशक्तिरूपिणी महामाया को प्रसन्न करना चाहिये। वे संसार को मुग्ध करके सृष्टि, स्थिति, और प्रलय कर रही हैं। उन्होंने सबको अज्ञानी बना डाला है। वे जब द्वार से हट जायेंगी, तभी जीव भीतर जा सकता है। बाहर पड़े रहने से केवल बाहरी वस्तुएं देखने को मिलती हैं, नित्य-सच्चिदानन्द पुरुष नहीं मिलते। इसिलिये पुराणों में है--  श्री दुर्गा सप्तशती में : मधुकैटभ का वध करते समय ब्रह्मादि देवता महामाया की स्तुति कर रहे है, ब्रह्मोवाच -- 
' त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका।

 सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता॥२॥ 

  

"संसार की मूलाधार शक्ति ही है। उस आद्द्या शक्ति (राधा ) के भीतर विद्या और अविद्या दोनों हैं- अविद्या मोहमुग्ध करती है। अविद्या वह है जिससे कामिनी और कांचन उत्पन्न हुए हैं, वह मुग्ध करती है। और विद्या वह है जिससे भक्ति, दया, ज्ञान और प्रेम की उत्पत्ति हुई है; वह ईश्वर के मार्ग पर ले जाती है।
 "उस अविद्या को प्रसन्न करना होगा। इसिलिये शक्ति की पुजापाद्धति हुई।

" उन्हें प्रसन्न करने के लिये नाना भावों से पूजन किया जाता है।जैसे दासी भाव, वीरभाव, सन्तानभाव। वीरभाव अर्थात रमण के द्वारा उन्हें प्रसन्न करना। " 

" शक्ति साधना -सबसे विकट साधनायें थीं, दिल्लगी नहीं।  
"मैं माँ के दासी भाव से और सखी भाव से दो वर्ष तक रहा। परन्तु मेरा सन्तान भाव है। स्त्रियों के स्तनों को मातृ-स्तन समझता हूँ। 
" लड़कियाँ शक्ति की एक एक मूर्ति हैं। पश्चिममें विवाह के समय वर के हाथ में तलवार रहता है, (उसके ऊपर कसैली खोसकर वर माँ जगदम्बा से आशीर्वाद लेने जाता है। शरीर के साथ यह तादात्म्य ही अविवेक है, इसी गाँठ को वर-वधु दोनों मिलकर ज्ञान की तलवार से काट देते है !) बंगाल में सरौता-अर्थात उस शक्ति रूपिणी कन्या की सहायता से वर मायापाश काट सकेगा। यह वीरभाव है। मैंने वीरभाव की पुजा नहीं की। मेरा सन्तान भाव था। 
" कन्या शक्तिस्वरूपा है। विवाह के समय तुमने नहीं देखा- वर अहमक़ की तरह पीछे बैठता है; किन्तु कन्या निःशंक रहती है।" 

माँ के पुजारी विवेकानन्द : २९ जनवरी १८९४ को जूनागढ़ के दीवान हरिदास बिहारीदास को लिखे पत्र में स्वामीजी कहते हैं, " यदि इस इस विशाल संसार में कोई एक व्यक्ति मेरे प्यार की पात्र हैं, तो वे मेरी माँ हैं। किन्तु मैं यदि अपने परिवार का त्याग नहीं करता तो मेरे महान गुरु परमहंस श्रीरामकृष्णदेव जिस महान सत्य का प्रचार करने के लिये जगत में अवतीर्ण हुए थे, वह कभी प्रकाशित नहीं हो पाता। 
किन्तु पाश्चात्य नारियों के अति-उन्मुक्त रूप को देखकर कहते हैं, " वे महिमामयी, जिन्होंने मुझे यह शरीर दिया है, वैसी मातायें यहाँ कहा हैं ? वे मायें कहाँ हैं, जो अवश्यक होने पर मुझे बारबार जन्म देने के लिये तैयार हों ? जब मैं जन्म लेने वाला था, तो मैं उसके गर्भ से जन्म लूँगा, इसिलिये मेरी माँ ने कई वर्षों तक अपने शरीर, मन, आहार-पोशाक, विचार-कल्पना पवित्र रखा था। इसिलिये वे पूजनीय हैं।" भारत में आमतौर से यह विश्वास किया जाता है कि किसी भक्त-संतान के जन्म होने के पीछे उसकी माँ की प्रार्थना ही कारण होती है। भुवनेश्वरी देवी का जप-तप-पुजा-पाठ-उपवास सब आने वाले संतान की कल्याण के लिये ही होता था। और हम जानते है कि श्रीकाशीबिश्वनाथ के आशीर्वाद से ही बिले का जन्म हुआ था। 
माँ की शिक्षा से ही बिले में मनुष्यत्व का उन्मेष और चारित्रिक सद्गुणों का विकास हुआ था। सदकर्म करने और सत्य कथन की शिक्षा उनको माँ से हमेशा प्राप्त होती थी। माँ के व्यक्तित्व और शिक्षा की छाप बिले की चरित्र पर देखा जा सकता है। माँ ने उनको सिखाया था ' आजीवन पवित्र रहना, अपने आत्म-सम्मान को कभी न खोना, दूसरों के आत्मसम्मान की रक्षा भी करना।' 'मन के हारे हार है, मन के जीते जीत, बबुआ कभी मन से हार मत मानना ! तुम जो चाहोगे कर सकते हो।(' देश से बढ़कर कुछ नहीं है, देश सेवा में अपने प्राणों को न्योछावर कर देना, संतोष की डाली पर मेवा फलता है। दूसरों की चीज का लालच मत करना। किसिको पहले मत मारना किन्तु कोई गाय-ब्राह्मण को अकारण मारे, तो उसका हाथ तोड़ देना, दुबारा न मार सके !)  स्वामीजी कहते थे, "जो माँ की सच्ची पूजा नहीं कर सकता, वह कभी बड़ा नहीं बन सकता। " मैं अपने भीतर ज्ञान का विकास कराने के लिये अपनी माँ का चीर-ऋणी रहूँगा। "
स्वामी विवेकानन्द के जीवन में गर्भधारिणी जननी, एवं सच्ची माँ-सारदा देवी--इन दोनों का गंभीर प्रभाव पड़ा था। उनकी और एक जननी उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। वे थीं उनकी जन्मभूमि भारत माता। स्वर्ग से बढ़कर गौरवशालिनी उस माँ के महान अतीत को, इतिहास को स्वामीजी जानते थे। वर्तमान भारत की मलीन आध्यात्मिकता को उज्ज्वल करना होगा।ऋषि मुनियों की सन्तानें आज पशु के स्तर पर गिर चुकी हैं। उनको जाग्रत करो। नको आत्मनिर्भर बनने का प्रशिक्षण देकर, समृद्धि और चरित्र प्रदान करके एक राष्ट्र के रूप में उसके गौरव को वापस लौटा देना होगा। 
स्वामी विवेकानन्द की भारत-परिक्रमा सामान्य भिक्षाजीवी सन्यासी के समान तीर्थ-भ्रमण करने जैसा नहीं था। आम जनता को वर्तमान गरीबी, कुसंस्कार, अशिक्षा के बीच रहते हुए भी उनके भीतर गहराई तक स्थापित असाधारण धर्म-बोध को भी उन्होंने देखा था। उन्होंने देखा था- दीन-दुखियों के झोपड़ियों में ही अभी तक मानवीय हृदयवत्ता और ईश्वर-निर्भरता बची हुई है। उन्हीं के बीच के कुछ शिक्षित मनुष्यों में से चुन कर ऐसे लोक-सेवकों का दल गठित करना चाहते थे, जो ' जीवशिव-वाद ' को समझकर " Be and Make" को 'स्वदेश-सेवाव्रत' के रूप में ग्रहण करें। और मनुष्य-निर्माण आन्दोलन को भारत के गाँव गाँव तक फैला दें। भारत का ध्यान करते करते, विवेकानन्द भारत माता के साथ एकाकार हो गए थे। वे कहते थे- " पहले मनुष्य चाहिये बाकी सब कुछ अपने आप हो जायेगा।"     
वे कहते थे, जिस देश में मनुष्य जाति के भीतर सर्वाधिक क्षमा, दया, पवित्रता, और शांति सर्व अपेक्षा अधिक आध्यात्मिकता और अंतर्दृष्टि का विकास हुआ है- वही मेरी मातृभूमि है यही भारतवर्ष है। यहाँ हिन्दू लोग मुसलमानों के लिये मस्जिद और ईसाइयों के लिये गिरजाघर बना देते हैं, ऐसे मनुष्य और किसी देश में नहीं हैं। वे मानते थे कि भारत के अध्यात्मिक-ज्ञान की प्रबल तरंगे, सम्पूर्ण विश्व में बढ़ती हुई भौतिवादी सभ्यता को आध्यात्मिकता से परिपूर्ण बना देगी। भारत एक बार फिर विश्व को आध्यात्मिक तरंग से आप्लावित करेगा। उनकी जिवनसाधना का मूलमंत्र था- 'समग्र मानवजाति का आध्यात्मिक रूपान्तरण। '
भारत का भविष्य ' नामक भाषण में कहते हैं, " तुम्हारे स्वदेश-वासी ही तुम्हारे प्रथम उपास्य हैं। उनकी पूजा अन्न-दान, शिक्षा-दान, और धर्म-दान के द्वारा करनी होगी। २० अगस्त १८९३ को अलासिंघा को लिखते हैं, ' मैं तुम्हारे लिये इन गरीब, अज्ञ, अत्याचार पीड़ित लोगों के लिये सहानुभूति, इसी प्राणपन कि चेष्टा को उत्तराधिकार के रूप में छोड़े जा रहा हूँ। सभी को उपनिषद कि वाणी सुनानी होगी। वेदान्त का आलोक घर घर तक ले जाना होगा। नया भारत निकल पड़े, निकले हल पकड़कर किसानो के कुटियों को भेद कर ! इसी नर रूपी नारायण को शिव जानकर सेवा करने का महामंत्र दिया था- " सेवा करो ! और प्रेरणा भरो ! " यही संकल्प उस सेवा को पूजा में रूपांतरित कर देता है।
प्रवृत्ति मार्गी गृहस्थों में विवेक-प्रयोग की शिक्षा के द्वारा, आत्मश्रद्धा जाग्रत करके उनके मनुष्यत्व '3H' का विकास करना ही इस युग की पूजा है। श्री माँ को केंद्र में रखकर स्त्री लोग मन को वश मे करने की शिक्षा प्राप्त करेंगी। उनके सतीत्व और चरित्रबल जाग्रत करने के लिये कैंप करना होगा। नारी मठ की सन्यासिनियों को गाँव गाँव मे ले जाना होगा। विवेक-दर्शन के अभ्यास की शिक्षा पाते ही नारियां स्वयं अपनी समस्याओं का समाधान खोज लेंगी। स्त्री-पुरुष अपने को शरीर के रूप में नहीं देखकर आत्मा के रूप में पहचान लेंगे। हमें यह सोचना चाहिए कि हमलोग स्त्री-पुरुष नहीं - मनुष्य मात्र हैं। और परस्पर सहायता करके अपने जीवन को सार्थक करने के लिये ही हमारा जन्म हुआ है। स्त्रियाँ विद्याबुद्धि अर्जित करेंगी, किन्तु पवित्रता विसर्जन करके नहीं। नारी शिक्षा के भीतर, धर्म-शिक्षा, चरित्र-गठन और ब्रह्मचर्य मुख्य विषय होंगे।
उपनिषदों वाला ब्रह्म अन्य आस्थाओं वाला ईश्वर नहीं है। केनोपनिषद्  में शिष्य पूछता है- ' जिसकी प्रेरणा से प्राण सक्रीय हो जाता है, वह कौन है ? ऋषि का उत्तर है
“यत् प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः प्रणीयते। " (१/८)
प्राण के द्वारा जो कुछ भी चेष्टायुक्त की जाने वाली वस्तु है, तथा प्राकृत प्राण से अनुप्राणित जिस  तत्व की उपासना की जाती है, वह ब्रह्मका वास्तविक स्वरुप नहीं है। उस ब्रह्म के विषय में केवल इतना ही कहा जा सकता है कि जो प्राण का ज्ञाता, प्रेरक और उसमें शक्ति देने वाला है, जिसकी शक्ति और प्रेरणा से यह -प्राण सबको चेष्टायुक्त करने में समर्थ होता है, वही ' तदेकं '- सर्वशक्तिमान परमेश्वर ब्रह्म है। सारांश यह कि भौतिक मन तथा इन्द्रियों से जिन विषयों की उपलब्धि होती है, वे सभी भौतिक या नश्वर होते हैं, अतएव उनको परब्रह्म परमेश्वर पुरुषोत्तमका वास्तविक स्वरुप नहीं माना जा सकता। " जो प्राण के द्वारा स्पंदित-सक्रिय नहीं होता, बल्कि जिससे प्राण ही सक्रिय होता है, वही परम सत्ता है।” 
विवेकानन्द कहते हैं- "यह सृष्टि ब्रह्मांड का ही प्रक्षेपण है। यह प्रक्षेपण प्राण शक्ति के स्पंदन में होता है। तुम्हें इस धारणा को इसी समय त्याग देना चाहिये कि प्राण का अर्थ श्वसन (breath) है। श्वसन क्रिया तो प्राण का एक कार्य मात्र है। यहाँ 'प्राण' शब्द से उन समस्त नाड़ी-शक्तियों (nervous forces) का बोध होता है, जो सम्पूर्ण शरीर का शासन और परिचालन करती हैं, एवं स्वयं को निरंतर गतिशील विचारों के रूप में अभिव्यक्त कर रही है। किन्तु प्राण का प्रधान और सबसे स्पष्ट रूप 'श्वसन गति' में ही दृष्टिगोचर होता है। इस बात को स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिये कि 'श्वसन गति' में प्राण ही वायु पर कार्य कर रहा है प्राण के ऊपर वायु कार्य नहीं कर रहा है। " 
प्राण की महत्ता उपनिषदों में है। प्राण ज्ञेय हैं और आराध्य भी। आकाश सूक्ष्मतम तत्व है ही। विवेकानन्द ने प्राण को ऊर्जा बताया। 'ऊर्जा' वैज्ञानिक शब्दावली है। 'प्राण' अनुभूति से आया शब्द है। विवेकानन्द  ने प्राण-ऊर्जा को किताबों से नहीं, अनुभूति से जाना था। व्यक्तिगत सांसारिक सुख उनके लिए क्षणभंगुर थे। जो जाना था, उसे लोक-सेवक के रूप में आजीवन बताते रहने का ऋषि संकल्प (चपरास) उन्होंने पूरा किया था। अनुभूति बड़ी गहन थी उनकी। कठोपनिषद में भी ब्रह्म और शक्ति को अभिन्न माना गया है-

या प्राणेन संभवत्यदितिर्देवतामयी ।
गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तीं या भूतेभिर्व्यजायत ।
 एतद्वै तत् ।। २.१.७।।
यहाँ यमाचार्य नचिकेता को 'अदिति-सृष्टि'  के बारे में ऋषि की अनुभूति बता रहे हैं - " जो सर्वदेवतामयी अदितिदेवी (खानेवाली शक्ति) प्राणों के साथ उत्पन्न होती है, जो प्राणियों के सहित उत्पन्न हुई है, हृदयरूपी गुहा में प्रविष्ट होकर स्थित रहती है, यह ही वह है (जिसे तुम जानना चाहते हो)। "  

वह भगवती --भगवान की अचिन्त्य महाशक्ति भगवान से सर्वथा अभिन्न हैं, ब्रह्म और उनकी शक्ति में कोई भेद नहीं है, ब्रह्म ही शक्ति के रूप में सबके ह्रदय में प्रवेश किये हुए हैं। विवेकानन्द ने भी प्राणोपासना की। उन्हें विश्वात्मा की अनुभूति हुई। उपासना का अर्थ पूजा नहीं ‘उप-आसन’ है। यहां प्राणोपासना का अर्थ प्राण की आत्मीय निकटता है। विवेकानन्द ने अनुभूति में प्राण ऊर्जा का साक्षात्कार किया था। ‘प्राण और आकाश’ ये दो आधारभूत तत्व हैं। स्वामीजी ने कहा है कि कुछ तो है, जो इनसे भी परे है। ये दोनों एक तीसरी सत्ता महत् चेतना में समाहित हो जाते हैं। यह ‘कास्मिक माइंड’ या महत आकाश और प्राण का सृजन नहीं करता, स्वयं को उसमें परिवर्तित कर लेता है।” अर्थात ‘वह’ महत चेतन प्राण आकाश से बने विश्व के प्रत्येक हिस्से में उपस्थित रहता है।
स्वामीजी ने कहा-“हमारी संस्कृति के सृष्टि शब्द का अंग्रजी में ठीक अनुवाद किया जाए तो शब्द होना चाहिए ‘प्रोजेक्शन’ (प्रक्षेपण), क्रिएशन नहीं।” सृष्टि प्राण और आकाश (पदार्थ) की प्रतिच्छाया है - प्रोजेक्शन मात्र। 
 विवेकानन्द ने प्राण को ठीक ही ऊर्जा बताया है। विज्ञान भी जगत् को ऊर्जा और पदार्थ का योग मानता है। विज्ञान ने ब्रह्मांड को 'ऊर्जा' और 'पदार्थ' (E=M) से निर्मित माना है।  स्वामी विवेकानन्द ने इसे प्राण और आकाश कहा है-“ब्रह्मांड के सभी पदार्थ उस एक प्रारंभिक पदार्थ का परिणाम हैं, जिसे आकाश कहते हैं। इसी तरह सभी बल, चाहे वह गुरूत्वाकर्षण हों, आकर्षण विकर्षण हों या जीवन हो, वे सब एक ही प्राथमिक बल के परिणाम हैं, जिसे हम प्राण कहते हैं।” 
विज्ञान खड़ा है, यंत्र और तंत्र उपकरणों के दम पर। भारतीय दर्शन ने इसके साथ मंत्र शक्ति का उपयोग किया है। मंत्र जादू टोना नहीं है। ' मंत्र फूंका-तो तिल का ताड़ हो गया ' जैसी बातें बकवास हैं। गहन अनुभूति से उगे सूत्र ही मंत्र हैं। इनकी काया ध्वनि से बनी है । ध्वनि ऊर्जा है ! मंत्र की ध्वनि वह ऊर्जा है, जिसको जपने से देहाध्यास या सम्मोहन चला जाता है, और मनुष्य को अपने यथार्थ स्वरुप की अनुभूति हो जाती है।  
 {‘भक्त-मन्दार’ नाम का बगला विद्या का मन्त्र, 'मन्त्र -रत्न' नाम से प्रसिद्ध है । इसके पाँचों मन्त्र विश्वप्रसविनी- माता, देवी ' जगद्धात्री भगवती पीताम्बरा' के मंत्र हैं जो प्रणत (भक्त साधक) जनों के लिए काम-कल्पद्रुम हैं इन्हें साधते हुए विद्वान साधक भक्त लोग पूर्ण मनोरथ पाते और कविराज बनते एवं धन्य सम्माननीय तथा उदार नाम वाले प्रख्यात यशस्वी और देशिकेन्द्र अर्थात् गुरुवर मण्डलाधीश बनते हैं । उसमें विश्व माता (जगद्धात्री) भगवती पीताम्बरा देवी की स्तुति करते हुए कहा गया है, हे मातः! पीताम्बरे! भगवति! उस महा-महान् अम्बर तत्त्व को महा-प्रलय-समय में पी-पीकर केवल एक-मात्र आप स्व-प्रकाश से शेष रहती हैं । स्वयं केवल आप ही प्रकाशमान रहती हैं । जिसने उस महाऽऽकाश-तत्त्व को भी पी लिया है --पीताम्बरा – पीतम् अम्बरं यथा सा’ , ऐसी महा मूल-माया-स्वरुपा भगवती बगला ! आपके गुण-गान करने में हम कौन समर्थ हो सकते हैं ! 
हे महेशि ! भगवति बगले ! ‘सान्त’ अनुस्वार-युक्त हकार से “ह्रीं ” बनता है । इसे ‘स्थिर-माया’ कहते हैं।  यही बगला का मुख्य बीज है । इसमें हे महेशि ! आप इस  बीज में लता की तरह सदा विलास करती हो । वही ‘स्थिर-माया’ आपका एकाक्षर मुख्य मन्त्र है । बगला माता या जगद्धात्री माता का रूप --सुवर्ण-से वर्ण (कान्ति, रुप) वाली, मणी-जटित सुवर्ण के सिंहासन पर विराजमान और पीले वस्त्र पहने हुई (पीले ही गन्ध-माल्य-सहित) एवं ‘वसु-पद’-अष्ट-पद-अष्टादश सुवर्ण के मुकुट, कुण्डल, हार, बाहु-बन्धादि भूषण पहने हुई एवं अपनी दाहिनी दो भुजाओं में नीचे वैरि-जिह्वा और ऊपर गदा धारण करती हुई; ऐसे ही बाएँ दोनों हाथों में ऊपर पाश और नीचे वर धारण करती हुई, चतुर्भुजा भवानी भगवती को ‘वन्दे’ प्रणाम करता हूँ । पाँचवाँ ‘भक्त-मन्दार’ नाम का बगला विद्या का मन्त्र-रत्न है ।  पीताम्बरा ‘पञ्चदशी’ भी यही है, प्रणव-सहित ‘षोडशी’ भी यही है ।} ब्रह्मज्ञ-अवतार से इसका प्रशिक्षण लेकर यदि जपा जाय - तो अपने को भेड़ समझने वाला शेर, पुनः अपने स्वरुप को प्राप्त हो जाता है; क्योंकि वह तो कभी भेड़ या जड़-भौतिक शरीर तो था ही नहीं !
स्वामीजी को गुरु-प्रदत्त मंत्र शक्ति की अनुभूति थी, लेकिन वे इसकी वैज्ञानिक सिद्धि भी चाहते थे। स्वामी जी इस संदर्भ में ' निकोला टेस्ला ' (electromagnetic scientist Nikola Tesla) के संपर्क में थे। वास्तव में निकोला टेस्ला के साथ स्वामी विवेकानन्द की पहली मुलाकात सारा बर्नहर्ट (Sarah Bernhardt) द्वारा दिए गए एक पार्टी में हुई थी। श्रीमती बर्नहर्ट एक नाटक में इजील (Iziel) की भूमिका निभा रही थीं, यह नाटक बुद्ध के जीवन के बारे में एक फ्रांसीसी संस्करण पर आधारित था। फ्रेंच अभिनेत्री सारा बर्नहार्ट ने जब दर्शक-दीर्घा में बैठे स्वामी विवेकानन्द और निकोला टेस्ला को देखा तो उन्हें याद हो आया कि स्वामीजी जिस पदार्थ और ऊर्जा (आकाश और प्राण) की बात करते हैं, टेस्ला भी इस संबंध में वैज्ञानिक प्रयोगों में सक्रिय थे। इसीलिये उन्होंने दोनों के बीच एक बैठक की व्यवस्था करवा दी। 
उस बैठक में हुई बातों का उल्लेख करते हुए विवेकानन्द अपने एक मित्र ई.टी. स्टर्डी को १३ फरवरी १८९६ के लिखे पत्र में कहते हैं, " मैं इस बुद्ध चरित्र पर आधारित नाटक को देखने गया था, जिसमें एक इजील नामक वैश्या वटवृक्ष के नीचे बैठे हुए बुद्धदेव को पाप में प्रवृत्त करना चाहती है। जब वह उनकी गोद में बैठी है, उसी समय बुद्ध उसे संसार की असारता का उपदेश सुनाते हैं। अस्तु 'अन्त भला तो सब भला'-अन्त में वह वैश्या असफल होती है। श्रीमती बर्नहार्ट इस नाटक में वैश्या का अभिनय करती हैं। उस बैठक में इनके अतिरिक्त श्रीमती एम.मॉरेल (एक नामी गायिका) और विद्युत वैज्ञानिक निकोला टेस्ला भी थे। श्रीमती सारा एक विदुषी महिला हैं, और उन्होंने अध्यात्म विद्या का अच्छा अनुभव किया है। श्रीमती मॉरेल की भी इस विद्या में रूचि बढ़ रही है। 
और श्री टेस्ला वेदान्तिक (देश-काल-निमित्त या)  प्राण, आकाश और कल्प (Time) के सिद्धान्त को सुनकर बिल्कुल मंत्र-मुग्ध से हो गये। उन्होंने कहा है कि " मैं गणित-शास्त्र के आधार पर यह सिद्ध कर सकता हूँ कि -" force and matter are reducible to potential energy" अर्थात जड़ (Matter आकाश) और शक्ति (Energy प्राण) दोनों अव्यक्त शक्ति (स्वधा ?) में रूपान्तरित किये जा सकते हैं। 
यदि वे ऐसा कर लेते हैं तो वेदान्ती ब्रह्माण्ड विज्ञान  (आनीदवातं स्वधया तदेकं) की नींव अत्यन्त दृढ़ हो जायगी ! ...अब मेरी बुद्धि स्पष्ट प्रकाश देख पा रही है, धुँधलापन दूर हो गया है। मैं श्रोताओं के समक्ष रूखे कठोर वैज्ञानिक तर्क (M=E) को (' त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका।') रूपी भक्ति में, (' बनो और बनाओ ' के) उत्कट कर्म रूपी सुगन्धित मसाला डालकर और (मनःसंयोग की) रसोई में पकाकर को एक अति रुचिकर मधुर पेय (प्रशिक्षण-पद्धति) का निर्माण करना चाहता हूँ, जिसे एक शिशु भी सहज रूप में पचा सके। "   
विज्ञान ज्ञात का विश्वासी है और अज्ञात का खोजी। विवेकानन्द के व्याख्यानों का समय अलबर्ट आईंस्टीन के विशेष सापेक्षता सिद्धांत (1905) के पहले (1893-1897) का है। बीसवीं सदी में विज्ञान पंख लगाकर उड़ा है। इक्कीसवीं सदी के डेढ़ दशक के भीतर ही वैज्ञानिक ईश्वरीय कण-गाड पार्टिकल तक उड़े हैं। दुनिया की अधिकांश आबादी ईश्वर मानती है। आधुनिक भौतिक विज्ञान को इस धारणा को भी जांचना चाहिए। विज्ञान और दर्शन दोनों में कार्य कारण की महत्ता है। विज्ञान को चुनौती स्वीकार करनी चाहिए कि क्या यह सृष्टि अकारण है? सकारण है तो कारण क्या है?
सृष्टि के कारण का भी कोई कारण होगा। कोई भी कारण निरपेक्ष नहीं होता। हरेक कारण का भी कोई कारण होता है। प्रश्न है कि अंतरिक्ष में निर्वात है? शून्य है? स्वामी जी ने कहा है-“क्या आपके और सूर्य के बीच कोई अंतर है? यह लगातार व्यापक पदार्थ है, इसका एक हिस्सा सूर्य है और दूसरा हिस्सा आप।" याज्ञवल्क्य से गार्गी ने यही पूछा था। अंतिम उत्तर था-ब्रह्म। ब्रह्म ही मूल कारण है। गार्गी ने पूछा ब्रह्म का कारण क्या है? याज्ञवल्क्य ने इसे अतिप्रश्न कहा था। 
विज्ञान इसे अतिप्रश्न न माने। ब्रह्म के भी कारण का पता करे। कौन रोकता है ? भारत में ईश्वर या ब्रह्म की खोज को ईश-निंदा नहीं माना जाता है ! विज्ञान और दर्शन 'सत्य' के अनुसन्धान की ही विविध प्रणालियां हैं। दोनों की उपयोगिता है। दोनों से जुड़े विद्वानों को दोनों के निष्कर्षो से लाभ उठाना चाहिए।
Nikola Tesla, the extraordinary inventor and father of electricity as we know it today, met with Swami Vivekananda – - See more at: http://www.eyedreamdesign.com/wordpress/2011/12/04/nikola-tesla-meets-swami-vivekananda/#sthash.GYqtZ7pK.dpuf
Nikola Tesla, the extraordinary inventor and father of electricity as we know it today, met with Swami Vivekananda – - See more at: http://www.eyedreamdesign.com/wordpress/2011/12/04/nikola-tesla-meets-swami-vivekananda/#sthash.GYqtZ7pK.dpufस्वामी जी में वेदान्त की अनुभूति थी। किन्तु अनुभूति हस्तांतरणीय नहीं होती। इसीलिये वे वेदांत को आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझाने का प्रयास कर रहे थे। स्वामीजी को गए 100 बरस से ज्यादा बीत चुके हैं। तबसे ब्रह्मांड विज्ञान ने काफी उन्नति की है। स्टीफेन हाकिंस के प्रयोगों और निष्कर्षों ने सारी दुनिया को चौंकाया है, लेकिन विज्ञान की तेज रफ्तार यात्रा में प्राचीन वैदिक अनुभूति और विवेकानंद का निष्कर्ष कहीं भी काटा नहीं जा सका।
आकाश और प्राण की यह जोड़ी बड़ी रम्य है। प्राण ऊर्जा ही गतिशील होकर आकाश में सृष्टि रचती है। यहां आकाश का अर्थ ऊपर नहीं है। चक्रीय गतिशीलता के पहले सृष्टि का आदि तत्व आकाश निष्क्रिय है। प्राण में स्पंदन हुआ, गतिशील हुआ, उसकी ऊर्जा के कारण ही सूक्ष्म से स्थूल का विकास हुआ। पृथ्वी आदि अस्तित्व में आए। भारतीय अनुभूति में एक निर्धारित समय (कल्प ) के बाद यही गतिविधि उल्टी दिशा में चलती है। सृष्टि के चरम विकास के बाद प्रलय। सर्जन से विसर्जन। विवेकानन्द कहते हैं - कल्पान्त के समय पदार्थों को मूल आकार देने की प्रक्रिया शुरू होती है। तब सब कुछ सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होकर अपने मूल आकाश और प्राण में समाहित हो जाते हैं। सारे पदार्थ आकाश में और सारी ऊर्जा प्राण में। 
 {फरवरी में निकोला टेस्ला से मिलने के बाद. २२ और २४ मार्च १८९६ को हार्वर्ड विश्वविद्यालय में स्वामी विवेकानन्द का दोपहर बाद का प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम } 
 विवेकानन्द कहते हैं - " भारतीय दर्शन और आधुनिक विज्ञान में 'आकाश' और 'प्राण' के अवयक्त अवस्था से प्रक्षिप्त होकर, व्यक्त होने और पुनः अव्यक्त रूप में लौट आने के विषय में बहुत कुछ समानता है। आधुनिक वैज्ञानिक विकासवाद के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं, और योगियों का भी यही मत है। परन्तु मेरी राय में, योगियों के द्वारा विकासवाद की व्याख्या की गयी है, वह अधिक अच्छी है। 
जात्यन्तरपरिणामः प्रकृत्यापूरात् ॥ कैवल्य पाद ४/२ ॥   
अर्थात एक प्रजाति (योनि species ) से दूसरी प्रजाति में परिवर्तन प्रकृति की पूरक प्रक्रिया " the infilling of nature " द्वारा होता है। मूल भाव यह है कि हमलोग एक प्रजाति से दूसरी में परिवर्तित होते रहते हैं, और मनुष्य सभी सभी प्रजातियों में सर्वश्रेष्ठ है, या मनुष्य-योनि सर्वश्रेष्ठ योनि है। 
पतंजलि ने ' प्रकृत्यापूरात् ' अर्थात ' प्रकृति की पूरक प्रक्रिया ' को किसानों के खेत सींचने की उपमा देकर इस प्रकार समझाया है- 
निमित्तमप्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत् ॥ ४/३ ॥

क्षेत्रिकवत् - अर्थात किसान के कार्य के समान। जिस प्रकार किसान एक क्यारी से दूसरी क्यारी में पानी ले जाने के लिये उन दोनों क्यारियों के बीच की मेड़ को काट देता है, और बस पानी ' law of gravitation' या गुरुत्वाकर्षण के नियमानुसार, अपने आप खेत में बह आता है। इसी प्रकार, सभी व्यक्तियों में पूर्णता (all progress) और शक्ति (power) पहले से ही अन्तर्निहित है।  पूर्णता ही मनुष्य का स्वभाव है, केवल उसके किवाड़ बन्द हैं। और वह अपना रास्ता नहीं पा रही है। यदि कोई व्यक्ति उस बाधा (अहंभाव) को दूर कर सके, उसकी वह स्वाभाविक पूर्णता अपनी शक्ति के बल से अभिव्यक्त होने लगेगी।
 तब मनुष्य उन शक्तियों को जाग्रत कर लेता है, जो उसके भीतर पहले से ही विद्यमान थीं, किन्तु सुप्तावस्था में थीं। जैसे ही यह बाधा (असत प्रकृति या अहंभाव) दूर होती है, और सत्-प्रकृति उस खाली स्थान को भरने के लिये दौड़ पड़ती है, तो वे जिन्हें हम पापी कहते हैं, वे भी ऋषि या सन्त के रूप में परिणत हो जाते हैं। प्रकृति ही हमें (अपने सभी रूपों विद्या-अविद्या आदि को दिखाते हुए) पूर्णता की ओर ले जा रही है, कालान्तर में वह सभी को वहाँ ले जायेगी। धार्मिक होने के लिये जो कुछ साधनायें और प्रयत्न (यम-नियम-एकाग्रता आदि) हैं, वे सब केवल निषेधात्मक कार्य हैं --वे केवल बाधा (अहंभाव) को दूर करने के लिये हैं, और इस प्रकार उस पूर्णता के किवाड़ को खोल देते हैं, जो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है; जो हमारा स्वभाव है। 
प्राचीन योगियों का विकासवाद आज आधुनिक विज्ञान के शोध से अपेक्षाकृत अच्छी तरह समझा जा सकता है। फिरभी योगियों की व्याख्या आधुनिक व्याख्या से  कहीं अधिक श्रेष्ठ है।  आधुनिक मत कहता है कि विकास के दो कारण है--यौन चयन (sexual selection) और बलिष्ठतम की अतिजीविता (survival of the fittest)। पर ये दो कारण पर्याप्त नहीं मालूम होते। मान लो, मानव-ज्ञान इतना उन्नत हो गया कि शरीर-धारण तथा (acquiring a mate) पति या पत्नी की प्राप्ति सम्बन्धी प्रतियोगिता उठ गयी। तब तो आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार मानवीय उन्नति-प्रवाह रुद्ध हो जायगी और इस प्रजाति की मृत्यु हो जायेगी।
फिर इस सिद्धान्त के फलस्वरूप तो प्रत्येक अत्याचारी व्यक्ति अपनी अन्तरात्मा की आवाज (qualms of conscience) या विवेक-प्रयोग से छुटकारा पाने का एक बहाना प्राप्त कर लेगा। ऐसे मनुष्यों की कमी नहीं, जो दार्शनिक सन्त का चोंगा ओढ़ कर, उनकी नजर में जितने भी पापी (wicked) और असमर्थ (incompetent) मनुष्य हैं, (मानो ये ही योग्य और अयोग्य मनुष्यों का सर्टिफिकेट फेने वाले एक मात्र जज हैं) वैसे सभी मनुष्यों को मार कर मनुष्य-जाती की रक्षा करने दावा करने लगेंगे, (जैसे ओसामा और हिटलर ने किया था।) किन्तु प्राचीन विकासवादी महापुरुष ( great ancient evolutionist) -पतंजलि कहते हैं -the true secret of evolution is the manifestation of the perfection which is already in every being; कि परिणाम या विकास का वास्तविक रहस्य है, प्रत्येक व्यक्ति में जो पूर्णता पहले से ही निहित है, उसकी अभिव्यक्ति या विकास मात्र। वे कहते हैं कि अभिव्यक्ति में बाधा हो रही है। 

हमारे अन्दर यह पूर्णता का अनन्त ज्वार अपने को प्रकाशित करने के लिये संघर्ष कर रहा है। ये संघर्ष और होड़ केवल हमारे अज्ञान (अविद्या ignorance) के फल हैं। " we do not know the proper way to unlock the gate and let the water in." ये इसलिये होते हैं कि हम यह नहीं जानते कि किवाड़ खोला कैसे जाय, गेट को अनलॉक करके पानी को भीतर कैसे लाया जाय ? हमारे पीछे जो अनन्त ज्वार है, वह अपने को प्रकाशित करेगा ही। वही समस्त अभिव्यक्ति का कारण है। केवल जीवन-धारण या सेक्स-परितोषण को चरितार्थ करने की प्रतियोगितायें इस अभिव्यक्ति का कारण नहीं है। ये सब संघर्ष तो वास्तव में क्षणिक हैं, अनावश्यक है, बाह्य व्यापर मात्र हैं।  वे सब अज्ञान से पैदा हुए हैं। सारी होड़ बन्द हो जाने पर भी, जब तक हममें से प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण नहीं हो जाता, तब तक हमारे भीतर निहित यह पुर्णस्वभाव हमें क्रमशः उन्नति की और अग्रसर कराता रहेगा।
अतः इस बात पर विश्वास करने का कोई कारण नहीं कि होड़ या प्रतियोगिता प्रगति के लिए आवश्यक हैं। पशु-मानव के भीतर यथार्थ मनुष्य गूढ़ भाव से निहित है; ज्यों ही किवाड़ खोल दिया जाता है, अर्थात ज्यों ही बाधा हट जाती है, त्यों ही वह मनुष्य प्रकाशित हो जाता है। इसी प्रकार, मनुष्य के भीतर भी देवता अव्यक्त भाव से विद्द्यमान है, केवल अज्ञान का आवरण उसे प्रकाशित नहीं होने देता। 
जब ज्ञान (आत्मसाक्षात्कार) इस आवरण (अज्ञान की गाँठ -अहंभाव ) को चीर डालता है, तब भीतर का वह देवता प्रकाशित हो जाता है। हमारी शिक्षा और प्रगति का उद्देश्य केवल मार्ग की बाधाओं को हटाना है। इसके हट जाने पर मूल ब्रह्मभाव (divinity) स्वयं ही प्रकाशित हो जायगा। 
यह मान लेने पर फिर जीवन-संग्राम का कोई अर्थ नहीं रह जाता। प्रतियोगिता से भरे जीवन में साधारण रूप से केवल दुःखमय अनुभव ही होते हैं, जिनको सम्पूर्ण रूप से हटाया जा सकता है; उन्नति या विकास के लिये उन प्रतियोगिताएं की कोई अवश्यकता नहीं। यदि वे न भी होते, तो भी हमारी उन्नति हो सकती थी। अपने आपको को अभिव्यक्त करना वस्तुओं का स्वभाव ही है।
गतिशक्ति का आवेग (momentum) बाहर से नहीं, किन्तु भीतर से आता है। प्रत्येक आत्मा उन सार्वजनीन अनुभवों की समष्टि होती है, जो उसमें पहले से ही कुण्डलीकृत होकर, बीजरूप में विद्द्यमान रहते हैं।  अनुभवों की इस समष्टि में से केवल वे ही व्यक्त हो पाते हैं, जिन्हें उपयुक्त परिस्थितियाँ प्राप्त होती हैं। अतः बाह्य वस्तुएँ केवल परिवेश प्रदान कर सकती हैं। ये प्रतियोगिताएं, संघर्ष और बुराइयाँ, जो हम देखते हैं, किसी क्रमसंकोच (involution) के कार्य नहीं हैं, न कारण हैं; अपितु वे जीवन-यात्रा में घटने वाली घटनाएँ हैं। यदि वे न भी रहें, तो भी मनुष्य विकसित होते होते एक दिन ब्रह्मरूप हो जायगा; क्योंकि बाहर आकर अपने आपको अभिव्यक्त करना ब्रह्म का स्वभाव ही है। मेरी राय में तो प्रतियोगिता के भयानक विचार की अपेक्षा यह विचार कहीं अधिक आशाप्रद है। 
मैं इतिहास का जितना ही अध्यन करता हूँ, उतना ही प्रतियोगिता वाला विचार मुझे भ्रान्त प्रतीत होता है। कुछ लोगों का मत है कि यदि मानव मानव के साथ लड़ाई न ठाने (भाई भाई के साथ पटीदारी न करे), तो उसकी प्रगति ही न होगी। मैं भी पहले ऐसा सोचा करता था; पर अब मुझे दिख पड़ रहा है, कि प्रत्येक युद्ध ने मानव-उन्नति को आगे ठेलने के बदले पचास वर्ष पीछे फेंक दिया है। वह दिन अवश्य आयेगा, जब हम इतिहास का अध्यन एक विभिन्न दृष्टिकोण से करेंगे समझ सकेंगे कि प्रतियोगिता न तो कारण हैं, कार्य; वह तो मार्ग की एक घटना मात्र है, और विकास के लिये उसकी कोई अवश्यकता नहीं है। 
मैं समझता हूँ कि केवल पतंजलि का सिद्धान्त ही ऐसा है, जिसे हर विवेकशील मनुष्य स्वीकार कर सकता है। वर्तमान व्यवस्था के कारण कितनी बुराइयाँ उतपन्न हो गयी हैं। इसके द्वारा प्रत्येक दुष्ट मनुष्य को दुष्टता करने के लिए एक लाइसेंस प्राप्त हो जाता है। मैंने इस देश (अमेरिका) में ऐसे भौतिक वैज्ञानिकों को देखा है, जो कहते हैं कि " अपराधियों को नेस्त-नाबूद कर देना चाहिये और केवल यही एकमात्र उपाय है जिससे समाज को अपराध-मुक्त किया जा सकता है।" ये परिस्थितियाँ विकास में बाधा डाल सकती हैं, परन्तु उसके लिये आवश्यक नहीं हैं। प्रतियोगिता की सबसे भयानक बात तो यह है कि कोई एक व्यक्ति परिस्थितियों पर भले ही विजय प्राप्त कर ले, पर जहाँ एक की जित होती है, वहाँ सहस्रों का नाश भी हो जाता है। अतएव यह बुराई ही है। That cannot be good which helps only one and hinders the majority.जिससे केवल एक को सहायता मिले और अधिकांश को बाधा पहुंचे, वह कभी अच्छा नहीं हो सकता।
पतंजलि कहते हैं, ये संघर्ष केवल हमारे अज्ञान के कारण ही हैं, अन्यथा न तो इनकी अवश्यकता है, और न ये मानव-विकास के अंश ही हैं। यह हमलोगों की अधीरता है, जो इनका सृजन करती है। हम में इतना धैर्य नहीं होता कि हम अपना मार्ग धीरता से तैयार करें। उदाहरणार्थ, में जब आग लग जाती है, तो थोड़े से ही, लोग बाहर निकल पाते हैं। बाकी सब जल्दी निकलने की धक्का-मुक्की में एक दूसरे को कुचल डालते हैं। नाटकघर की ईमारत या जो दो-तीन व्यक्ति बच कर बाहर निकल पाये, उनकी रक्षा के लिये वह भगदड़ मचना, वह कुचलना आवश्यक नहीं था। यदि सब धीरे धीरे निकले होते तो, एक को भी चोट न लगती। यही हाल जीवन में भी है। द्वार हमारे लिये खुले पड़े हैं, और हम बिना किसी प्रतियोगिता या संघर्ष के, बाहर निकल सकते हैं; किन्तु फिर भी हम संघर्ष करते हैं। हम अपने अज्ञान से, अपनी अधीरता के कारण ही अनावश्यक संघर्ष की सृष्टि कर लेते हैं, हम बड़े जल्दबाज़ लोग हैं, हम में धीरज बिल्कुल है ही नहीं। The highest manifestation of strength is to keep ourselves calm and on our own feet. शक्ति की उच्चतम अभिव्यक्ति है अपने को प्रशान्त रखना और स्वयं अपने पैरों पर खड़े होना। {  कभी विवेकज-ज्ञान भी यदि उभरते हुए प्रबल अधर्म (अत्यधिक वासना) को हटा नहीं पाता; तब अनिष्ट परिणाम हो सकता है। इसलिये ऐसे स्तर पर प्रवृत्ति मार्ग के ऋषियों को जैसे बुद्ध थे, योगी को सदा अनावश्यक अभिमान एवं अनभिवाञ्छनीय आचरण से सावधानतापूर्वक बचना चाहिये। बुद्ध के जैसा इजील को गोद में बैठा कर सत्य के साथ मेरे प्रयोग करने की चेष्टा कभी नहीं करनी चाहिये।  }
====== 
स्वामी विवेकानन्द इसी ज्ञान को फ़ैलाने के लिये महामण्डल कर्मियों का आह्वान करते हुए कहते हैं -
 ' एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ' - सत्ता केवल एक है, ऋषिगण उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं।...सत्य तो चिरकाल से ही विद्यमान था, केवल इस (नाम-रूप) के आवरण ने ही उसे ढँक रखा था। " (१:२५५)
" हमारे इस अविराम,कठोर जीवन-संग्राम का लक्ष्य है, अंत में उनके निकट पहुँच कर उनके साथ एकीभूत हो जाना। " (४:५०) 
 " स्वाधीनता ही उच्च जीवन की कसौटी है। आध्यात्मिक जीवन उस समय प्रारम्भ होता है, जिस समय तुम अपने को इन्द्रिय बन्धनों से मुक्त करलेते हो। जो इन्द्रियों के अधीन है, वही संसारी है, वही दास है। " (४:४३)
 " हम सबों में मुक्ति की भावना, स्वाधीनता की भावना हुआ करती है, उसी से यह संकेत मिलता है कि हमारे अन्तराल में, शरीर(Hand) और मन (Head) से परे भी कुछ और है। हमारी अन्तर्यामी आत्मा (Heart) स्वरूपतः स्वाधीन है और वही हम में मुक्ति की इच्छा जाग्रत करती है। " (१:२५६)"
" हमारा यह शरीर वृद्धि और क्षय के नियमों से बद्ध है, - जिसकी जन्म और वृद्धि है, उसका क्षय भी अवश्यमेव होगा। परन्तु देहमध्यस्त आत्मा तो असीम एवं सनातन है, वह अनादी और और अनन्त है। ...काल कि गति काशाश्वत सत्ता पर कोई असर नहीं होता।....मानव-बुद्धि के लिये सर्वथा अगम्य जो ' अतीन्द्रिय-भूमि ' है, वहाँ न तोभूत है न भविष्य। वेदों का कथन है कि मानव कि आत्मा अमर है। "(१:२५४)
  " यह मानव आत्मा देह से देहान्तर में संक्रमित हो रही है, इस प्रवास में वह कितने ही भिन्न भिन्न रूपों में व्यक्त हुई है एवं होगी। आध्यात्मिक विकास के उस महान नियमानुसार वह अधिकाधिक अभिव्यक्त हो रही है। परन्तु जब वह सम्पूर्ण अभिव्यक्त हो जायेगी, तब उसमे और अधिक परिणाम न होगा। (१:२५४)
" (यदि कार्य-कारण वाद या परिणाम वाद सच है) तो हमे अपने पूर्व जन्मों का कुछ भी स्मरण क्यों नहीं है ? मनः समुद्र की उपरी सतह का नाम ही चेतन अवस्था है। किन्तु उसकी गहराई में (अवचेतन मन में) संचित है, मानव के समस्त सुखात्मक और दुखात्मक अनुभव। मानव आत्मा कुछ ऐसी वस्तु पाने की इच्छा करती है, जो अचल हो, अविनाशी हो।जबकि हमारा यह शरीर और मन ही क्या, नाना रूपात्मक यह समस्त प्रकृति ही अनवरत परिवर्तनशील है। पर हमारी अन्तरात्मा की सर्वोच्च अभिलाषा (या तड़प) यही है, कि उसे कुछ ऐसा प्राप्त हो जाये, जिसका परिवर्तन नहीं होता, जो चिर(शान्ति) पूर्णता को पा चुकी हो। और यही है उस असीम के लिये मानवात्मा कि अभीप्सा ! हमारा नैतिक और मानसिक विकास (अर्थात चरित्र-निर्माण) जितना ही सूक्ष्मतर होता जायेगा, उस अपरिवर्तनशील सत्ता के प्रति हमारी अभीप्सा (व्याकुलता) भी उतनी ही दृढ़ होती जायेगी। "(१:२५५)
क्रमविकास-वाद क्या है? उसके दो अवयव क्या हैं ? एक है प्रबल अन्तर्निहित शक्ति, जो अपने को व्यक्त करने की चेष्टा कर रही है, और दूसरा है बाहर की परिस्थितियाँ, जो उसे अवरुद्ध किए हुये है, या वह परिवेश है जो उसे व्यक्त होने नहीं देता। अतः इन परिस्थितियों से युद्ध करने केलिये यह ' शक्ति ' नये नये शरीर धारण कर रही है। एक अमीबा इस संघर्ष में एक और शरीर धारण करता है, और कुछ बाधाओं पर जय-लाभ करता है, और इस प्रकार भिन्न भिन्न शरीर धारण करते हुये अन्त में मनुष्य में परिणत हो जाता है। " (२:९१) 
" आधुनिक विकासवाद का सिद्धांत कहता है, हर कार्य पूर्ववर्ती कारण की आवृत्ति मात्र है। परिस्थिति या परिवेश के कारण रूप-परिवर्तन होता है। योनी-परिवर्तनों के कारण को खोजने सृष्टि से बाहर जाने की जरुरत नहीं है। कार्य में ही कारण श्रृंखला विद्यमान है। विश्व का मूल कारण, ऐसी कोई शक्ति नहीं है, या कोई सत्ता नहीं है, जो इससे अलग रह कर रिमोट से इसको चला रही है। " (२:२८२)
 " मनुष्य दिव्य है, यह दिव्यता ही हमारा स्वरूप है। अन्य जो कुछ है वह अध्यास मात्र है। उसके दिव्य स्वरूप काकभी भी नाश नहीं होता। यह जिस प्रकार ' परम-संत ' में है, वैसे ही ' महा-अधम ' व्यक्ति में भी है। हमे अपने इसदेव-स्वभाव का केवल आह्वान करना होगा, और वह स्वयं ही अपने को प्रकट कर देगा।चकमक पत्थर और सूखी- लकड़ी में आग रहती है, पर उस आग को बाहर निकालने के लिये घर्षण आवश्यक था। नीचे धरती पर रेंगने वाला क्षुद्र कीड़ा और स्वर्ग का श्रेष्ठतम देवता इन दोनों में ज्ञान का भेद प्रकार्गत नहीं, परिणाम गत है। " (२:१८२)
" यह चित्त अपनी स्वाभाविक पवित्र अवस्था को फ़िर से प्राप्त कर लेने के लिये सतत् चेष्टा कर रहा है, किन्तु इन्द्रियाँ उसे बाहर खींचे रहती हैं। चित्त में बाहर जाने और विषय भोगों में चिपके रहने की जो प्रवृत्ति है- उसका दमन करना होगा और उसकेबहिर्मुखी प्रवाह (पर वैराग्य का फाटक लगा कर, या लालच को कम करके ) को आत्मा की ओर मोड़ देना होगा। यही योग का पहला सोपान है। "(१:११८)
" इन्द्रियपरायण जीवन से अतीत होने की हमारी असमर्थता, और शारीरक विषय-भोगों के लिये उद्यमही संसार में सभी प्रकार के आतंकों (भ्रष्टाचार) तथा दुखों का कारण है। "(४:११४)
" जीवन का अर्थ ही वृद्धि अर्थात विस्तार यानि प्रेम है। इसलिए प्रेम ही जीवन है, यही जीवन का एकमात्र नियम है, और स्वार्थपरता ही मृत्यु है। परोपकार ही जीवन है, परोपकार न करना ही मृत्यु है। ...जीसमें  प्रेम नहीं वह जी भी नहीं सकता। ( ३:३३३)
" एकमात्र परोपकार को ही मैं कार्य मानता हूँ, बाकि सब कुकर्म है। " (४:२९८)" जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि उसे सर्वभूतों कि सेवा में न्योछावर कर दिया जाये।"(४:५८)