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सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

🔱🙏 युवा मानसिकता के अनुसार धर्म और नैतिकता 🔱🙏 [SVHS-31 ] [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना। (खण्ड -5 : धर्म और समाज) ]

युवा मानसिकता के अनुसार धर्म और नैतिकता 

       युवा-मन तथा समाज में यह प्रश्न चर्चा का विषय बना हुआ है कि वर्तमान युग के परिप्रेक्ष्य में धर्म और नैतिकता (पुण्य-अपुण्य विवेक) जैसी बातों की कोई उपयोगिता है भी या नहीं ? क्योंकि  कई "प्रेरक वक्ता" (motivational speaker) लोग युवाओं को यही समझाते रहते हैं कि धर्म तो बुढ़ापे की चीज है तथा यौवन अर्थ उपार्जन तथा भोग करने के लिये मिलता है। ये लोग मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ में धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष में से केवल दूसरे और तीसरे पुरुषार्थ (अर्थ और काम) को ही विशेष महत्व देते हैं। किन्तु मनुष्य जीवन में इनमें से प्रत्येक का क्रमानुसार होना ही वांछनीय है ,तथा प्रथम पुरुषार्थ धर्म को ही जीवन की बुनियाद बनाकर, शेष तीनों को भी प्राप्त करना होगा। वरना जीवन (चार आश्रम ?) की सार्थकता को खो देने से निराशा ही हाथ लगेगी। 
[>>>Religion and Morality निर्गुण ब्रह्म (आत्मा) के मूर्तरूप 'मनुष्य' को हमलोग केवल  "जीवन-गठन या मनुष्यत्व प्राप्ति [पशुत्व से "मानवत्व-और मानवत्व से दिव्यत्व] प्राप्ति रूपी रंग " के  - 'ईसा' (या अवतार वरिष्ठ) के माध्यम से ही समझ सकते हैं। We can know the Human being (M/F) who is the embodiment of Nirguna Brahma (Soul) only through Life-building i.e. attainment of humanity ' ~ (From Animality) and from "Humanity to Divinity” in the form of color – 'Jesus ' (Avatar Senior)].  
      जीवन-गठन या मनुष्यत्व प्राप्ति का मूल उपादान हैं-धर्म और नैतिकता।  किन्तु अधिकांश युवाओं के मन में धर्म या नैतिकता का नाम सुनते ही अश्रद्धा का भाव जाग्रत हो जाता है।  इसके दो कारण हैं। पहला कारण है पाश्चात्य शिक्षा, जिसके फलस्वरूप युवाओं में आयातित शिक्षा एवं पाश्चात्य विचारों के प्रति नकल करने की प्रवृत्ति बढ़ गयी है। चमक-दमक से भरे हुए सस्ते मनोरंजन की ओर  मन का झुकाव अधिक रहने के कारण युवाओं ने बहुमूल्य मनुष्य-जीवन के प्रति श्रद्धा को खो दिया है। किसी गंभीर तात्विक सिद्धान्त  को विवेक की सहयता से विचार-विश्लेषण करने के बाद ग्रहण करने की क्षमता आज के अधिकांश युवाओं में नहीं है। एक वाक्य में कहें तो पाश्चात्य शिक्षा ने हमारे देश के युवाओं  को  बहिर्मुखी, स्वार्थी और इन्द्रिय परायण होना सिखा दिया है। और दूसरा कारण है कि कुछ वैसे लोग ['online ' गुरुगिरि करने वाले प्रेरक वक्ता ~ motivational speaker'] जो स्वयं धर्म यानि  नीतिबोध में प्रतिष्ठित नहीं हैं, अर्थात जिनके मन, वचन और कर्म में एकरूपता नहीं है, वैसे लोग जब आम जनता को धर्म और नैतिकता का जब उपदेश देने लगते हैं ,तो लोग और ज्यादा भ्रमित हो जाते हैं । इस श्रेणी के तथाकथित शिक्षित और पण्डित लोग जब तर्क और वाकचातुर्य के माध्यम से धर्म पर प्रवचन दे कर आम  जनता का शोषण करते हैं, तो उसे देख भी युवा मन धर्म के प्रति श्रद्धाहीन  हो जाता  है।
       लेकिन इसके लिये युवाओं को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। शास्त्रों  का पाठ करना, नैवेद्य आदि समर्पित करना कर्मकाण्ड है या धर्म का  उपरी आवरण (छिलका) हैं। धर्म का वास्तविक अर्थ चरित्र, सत्यनिष्ठा, पवित्रता, निःस्वार्थपरता , प्रेम और भयशून्यता है। किन्तु,  इन बातों को युवाओं से कोई नहीं कहता। वर्तमान युग में अर्थात उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम भाग में एकमात्र  श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द की जोड़ी ने अपने जीवन द्वारा दिखलाया है कि धर्म, आध्यात्मिकता या नीतिबोध किसे कहते हैं?  जिस प्रकार  वैज्ञानिक लैबोरोट्री में निरिक्षण-परिक्षण कर  किसी तात्विक सिद्धान्त का पर पहुँचते हैं, ठीक उसी प्रकार इन दोनों ने बुद्धि (Head), हृदय एवं व्यावहारिक कार्य में समर्थ शरीर (3H) - के संतुलित विकास के माध्यम से धर्म को अपने जीवन में उतारकर हमें  दिखलाया है।
       वर्तमान समय में कई लोग  ऐसा सोचते हैं कि भारतवर्ष के अधोगति का मूल कारण धर्म है  तथा भारत की उन्नति एवं प्रगति के मार्ग में धर्म ही मुख्य बाधा है। जो लोग ऐसी  बातें  करते हैं शायद उन्होंने  इतिहास को सही ढंग से पढ़ा ही नहीं है या आध्यात्मिकता क्या है, उस सम्बन्ध में उनलोगों की कोई धारणा ही नहीं है। धर्म के नाम पर शोषण अतीत में था, वर्तमान में  है, और भविष्य में भी रहेगा,  किन्तु , इसके लिये धर्म को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। जो लोग, धर्म को समझे बिना उसे अपने राजनितिक स्वार्थ को पूरा करने का साधन बना लेते हैं, वे लोग ही असली दोषी हैं। धर्म कितना अधिक महत्वपूर्ण और गतिशील (मनुष्यत्व-उन्मेषक या चरित्र-निर्माणकारी वस्तु) है, वह तो केवल ईसा, बुद्ध, चैतन्य या श्रीरामकृष्ण के जीवन के द्वारा ही प्रमाणित किया जा सकता  है। इनके विचार और उपदेश आज हजारों वर्ष बीत जाने के बाद भी जगत के बहुत से लोगों प्रेरणा दे रहे हैं।
      धर्म शब्द धृ धातु से निकला है, जिसका अर्थ होता  है 'धारण' करना या 'पकड़े रखना'- एक स्वप्रकाश अखण्ड चैतन्य-शक्ति हमारे व्यक्तिगत सत्ता (individual existence) को धारण किये हुए है। जब कोई व्यक्ति धर्म का पालन उसके स्वाभाविक सनातन अर्थ में करेगा, तो यही प्रमाणित होगा कि 'देवत्व' (Divinity-पूर्णत्व-निःस्वार्थपरता) ही मनुष्य का जन्मजात स्वाभाव है। किन्तु अभी वह प्रकृति (मन) की गुलामी कर रहा है, इसीलिये उसे इस सत्य का अनुभव नहीं हो रहा है।  व्यक्तिगत जीवन में अपने यथार्थ स्वरूप की अनुभूति कर लेना ही धर्म है। जिनकी दृष्टि केवल आहार,निद्रा और वंश विस्तार तक ही सीमित है, जो लोग केवल इन्द्रिय सुखों से ही तृप्त हैं, उनके लिये सचमुच धर्म और नैतिकता की आवश्यकता नहीं है। किन्तु जिनके मन में, मूल्यबोध जाग्रत हो चूका है, जो उत्कृष्ट जीवन प्राप्त करने करने की अभिलाषा से वृहत आनन्द (ब्रह्म) का स्पर्श पाना चाहते हैं; वे तुच्छ इन्द्रिय सुखों से कभी तृप्त नहीं हो सकते, उनके मन में धर्म और नैतिकता का प्रश्न उठेगा ही।
      हमलोग देखते हैं कि जो प्राणी जितना निम्न स्तर का होता है , वह इन्द्रिय सुखों में उतना ही तृप्ति पाता है, क्योंकि उसकी सुखानुभूति इन्द्रियों में ही केंद्रित होती है। सभी जातियों के बीच यह देखा जाता है कि निकृष्ट श्रेणी के लोग इन्द्रियों की सहायता से ही सुखलाभ करते हैं एवं शिक्षित तथा सुसंस्कृत लोग विचार, दर्शन विज्ञान एवं शिल्प कला में सुख पाते हैं। मानव मन को गतिशील करने के लिए धर्म श्रेष्ठ नियामक शक्ति है और यही शक्ति मनुष्य को (पशुत्व से मनुष्यत्व और मनुष्यत्व से देवत्व-प्राप्ति के मार्ग प) आगे बढ़ने एवं संग्राम करने के लिए प्रेरणा जगाती है। लन्दन में 'धर्म की आवश्यकता ' विषय पर व्याख्यान देते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " धर्म से ठोस सत्यों और तथ्यों को पाने के अतिरिक्त, उससे मिलने वाली सान्तवना के अतिरिक्त, एक विशुद्ध विज्ञान और एक अध्यन के रूप में वह मानव-मन के लिए सर्वतोकृष्ट और स्वस्थतम व्यायाम है। असीम की खोज करना, असीम को पाने के लिए उद्यम करना, इन्द्रिय, मन एवं भौतिक द्रव्यों की सीमाओं से परे जाकर एक आध्यात्मिक मानव के रूप में विकसित होना - इन सारी चीजों के लिए दिन-रात जो प्रयत्न किया जाता है, वह अपने आप में ही मनुष्य के सभी प्रयत्नों से उदात्ततम और परम गौरवशाली है। " (२/१९८) 

"Apart from the solid facts and truths that we may learn from religion, apart from the comforts that we may gain from it, religion, as a science, as a study, is the greatest and healthiest exercise that the human mind can have. This pursuit of the Infinite, this struggle to grasp the Infinite, this effort to get beyond the limitations of the senses — out of matter, as it were — and to evolve the spiritual man — this striving day and night to make the Infinite one with our being — this struggle itself is the grandest and most glorious that man can make." (Volume 2, Jnana-Yoga/ THE NECESSITY OF RELIGION/ Delivered in London )         

["এইরূপ ধর্ম হইতে আমরা যে-সকল তথ্য ও তত্ত্ব শিক্ষা করিতে পারি, যে-সান্ত্বনা পাইতে পারি, তাহা ছাড়িয়া দিলেও ধর্ম অন্যতম বিজ্ঞান অথবা গবেষণার বস্তু হিসাবে মানব-মনের শ্রেষ্ঠ ও সর্বাধিক কল্যাণকর অনুশীলনের বিষয়। অনন্তের এই অনুসন্ধান, অনন্তকে ধারণা করিবার এই সাধনা, ইন্দ্রিয়ের সীমা অতিক্রম করিয়া যেন জড়ের বাহিরে যাইবার এবং আধ্যাত্মিক মানবের ক্রমবিকাশ-সাধনের এই প্রচেষ্টা—অনন্তকে আমাদের সত্তার সঙ্গে একীভূত করিবার এই নিরন্তর প্রয়াস—এই সংগ্রামই মানুষের সর্বোচ্চ গৌরব ও মহত্ত্বের বিকাশ।" (ধর্মের প্রয়োজন: খন্ড ৩) ]  
स्वामि विवेकानन्द आगे कहते हैं- " ... बाह्य प्रकृति को जीत लेना कितना अच्छा है, कितना भव्य है। किन्तु, उससे असंख्य गुना अच्छा और भव्य है, अन्तः प्रकृति पर विजय प्राप्त करना। ग्रहों और नक्षत्रों का नियंत्रण करने वाले नियमों को जान लेना बहुत अच्छा और गरिमामय है , लेकिन उससे अनन्त गुना अच्छा और भव्य है, उन नियमों का जानना (योगः चित्तवृत्ति निरोधः' योगसूत्र को जानना) जिससे  मनुष्य के मनोवेग, भावनायें और इच्छायें नियंत्रित होती हैं।" (२/१९७) मन को वश में करने, मन पर विजय प्राप्त करने की पद्धति (चारो योग मार्ग) सम्पूर्णतः धर्म के अन्तर्गत आती है। 

" It is good and very grand to conquer external nature, but grander still to conquer our internal nature. It is grand and good to know the laws that govern the stars and planets; it is infinitely grander and better to know the laws that govern the passions, the feelings, the will, of mankind. [The method of controlling the mind and conquering it (the four paths of yoga) completely comes under religion. (Volume 2, Jnana-Yoga/ THE NECESSITY OF RELIGION/ Delivered in London )] 
 "বহিঃপ্রকৃতিকে জয় করা খুবই ভাল ও বড় কথা; কিন্তু অন্তঃপ্রকৃতিকে জয় করা আরও মহত্তর। যে-সকল নিয়মানুসারে গ্রহ-নক্ষত্রগুলি পরিচালিত হয়, সেগুলি জানা উত্তম, কিন্তু যে-সকল নিয়মানুসারে মানুষের কামনা, মনোবৃত্তি ও ইচ্ছা নিয়ন্ত্রিত হয়, সেগুলি জানা অনন্তগুণে মহত্তর ও উৎকৃষ্ট। "[মনকে নিয়ন্ত্রণ করার এবং জয় করার পদ্ধতি (যোগের চারটি পথ) সম্পূর্ণরূপে ধর্মের অধীনে আসে।]
इसीलिए मनुष्य निर्माण (पशुत्व से मनुष्यत्व का उन्मेष) तथा चरित्र-गठन करने के लिये धर्म और नैतिकता के अनिवार्यता की उपेक्षा नहीं की जा सकती । विवेक-प्रयोग के द्वारा श्रेय-प्रेय का निर्णय लेने की क्षमता, तथा सार्वजनिक कल्याण - 'सर्वे भवन्तु सुखिनः'  की भावना (one world one family one future) का जन्म केवल धर्म और नैतिकता के [प्रशिक्षण] द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। त्याग की बुनियाद पर ही नैतिकता प्रतिष्ठित है। आज तक किसी भी काल में ऐसी कोई भी नैतिकता  प्रचलन में नहीं आई जिसके मूल में त्याग की भावना नहीं हो। श्रीरामकृष्ण का यह उपदेश-  " नाहं नाहं, तूहीं, तूहीं " - ही नीतिशास्त्र का शाश्वत सन्देश है। नीतिशास्त्र का उपदेश है - स्वार्थ नहीं परार्थ। नीतिशास्त्र कहता है - "असीम सामर्थ्य और असीम आनन्द को प्राप्त करने के चक्कर में मनुष्य जिस निरर्थक व्यक्तित्व की धारणा ( देहध्यास-M/F) से चिपटा रहता है, उसे छोड़ना पड़ेगा। तुमको दूसरों को आगे करना पड़ेगा और स्वयं को पीछे। हमारी इन्द्रियाँ कहती हैं, 'अपने को आगे रखो',पर नीतिशास्त्र कहता है- 'अपने को सबसे अन्त में रखो।उसकी पहली माँग है कि भौतिक स्तर पर अपने व्यक्तित्व का हनन करो , निर्माण नहीं। वह (निर्गुण ब्रह्म)जो असीम है, उसकी अभिव्यक्ति इस भौतिक स्तर पर नहीं हो सकती ऐसा असम्भव है, अकल्पनीय है। "....अहंता का पूर्ण उच्छेदन ही नीतिशास्त्र का आदर्श है। लोग आश्चर्यचकित रह जाते हैं , यदि उनसे व्यक्तित्व की चिन्ता न करने के लिए कहा जाता है। जिसे वे अपना व्यक्तित्व कहते हैं,  उसके विनष्ट होने के प्रति अत्यन्त भयभीत हो जाते हैं। पर साथ ही ऐसे ही लोग [जिनका मन -मुख एक नहीं है ?] नीतिशास्त्र के उच्चतम आदर्शों को सत्य घोषित करते हैं। वे क्षण भर के लिए भी यह नहीं सोचते कि नैतिकता का समग्र क्षेत्र , ध्येय और विषय व्यक्ति का उच्छेदन है , न कि उसका निर्माण।"  (२/१९५-९६) 
 इसी 'अहं' की विलुप्ति का साक्षात् दर्शन हमलोग श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द के जीवन में कर सकते है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " धर्म तथा आध्यात्मिकता पर आधारित नीतिशास्त्र का क्षेत्र असीम मनुष्य है। वह व्यक्ति को लेता है, पर उसके सम्बन्ध असीम हैं। वह समाज को भी लेता है, क्योंकि समाज व्यक्तियों के समूह का ही नाम है ; इसलिए जिस प्रकार यह नियम व्यक्ति और उसके शाश्वत संबंधों पर लागू होता है , ठीक उसी प्रकार समाज पर भी लागू होता है - समाज की स्थिति या दशा किसी समय विशेष में जो भी हो। " (२/१९७ )
      इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि मानव जाती के लिये धर्म और नैतिकता की आवश्यकता आज भी है और सदैव रहने वाली है। वर्तमान युग में तो इसकी प्रयोजनीयता और अधिक बढ़ गयी है, क्योंकि सामाजिक क्रांति में युवा शक्ति की भूमिका ही राष्ट्रीय एकता का मूल उपादान है। 
यदि आज के युवा भी  धर्म और नैतिकता को त्याग कर अर्थात अपना चरित्र-निर्माण किये बिना ही देश सेवा और समाज सेवा के कार्य में कूद गये, तो वे भी मानव प्रेमी या देशप्रेमी नहीं बनकर तथाकथित आन्दोलनजीवी राजनेताओं के समान ही स्वार्थी, स्वार्थदल प्रेमी होकर देशविरोधी गुटबाजी में संलग्न हो जायेंगे। एक मात्र यथार्थ  धर्म और नैतिकता से ही मानव कल्याण की दृष्टि प्राप्त की जा सकती है। 
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🙏"(२ /१९७-९८ )नीतिशास्त्र सदा कहता है -(परहित सरिस धर्म नहीं भाई !)' मैं नहीं, तू।' इसका उद्देश्य है- ' स्व नहीं, निः स्वः' अर्थात स्वार्थपरता नहीं स्वार्थशून्यता। 
 ' खोज की वस्तु के रूप में धर्म- श्रेष्ठतम व्यायाम है' हमलोग यह देख सकते हैं, कि " जो प्राणी जितना ही निम्न स्तर का होगा, उसे इन्द्रियजनित  सुखों में उतना ही आनन्द मिलेगा। बहुत कम मनुष्य ऐसे मिलेंगे, जिन्हें भोजन करते समय वैसा ही उल्लास होता है, जैसा किसी कुत्ते या भेड़िये को। किन्तु याद रहे कि कुत्ते और भेड़िये के सारे सुख इन्द्रियों तक ही सीमित हैं। निम्न कोटि के मनुष्यों को इन्द्रियजनित सुखों में ही आनन्द मिलता है। किन्तु जो लोग सुसंस्कृत और सुशिक्षित हैं, उन्हें चिन्तन, दर्शन, कला और विज्ञान में आनन्द मिलता है। "(2/199)
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शनिवार, 13 अक्तूबर 2012

🔱🙏 हमारे जीवन में धर्मलाभ !🔱🙏 [SVHS-30 ] "शैक्षणिक धर्मबोध ~ मनुष्य बनो और बनाओ " की जागृति।" 🔱🙏Awakening of Pedagogical Epistemology ~ Be a Man and Make "🔱🙏>>>(Why is it important to be a witness to the future?)भविष्य का साक्षी होना क्यों जरूरी है ? 🔱🙏नाम और रूप : शब्द और भाव >>MACROCOSM AND MICROCOSM ( Impersonal and Personal aspects of God.): >>>When does time originate? (काल की उत्पत्ति कब होती है ? ) :( धर्म-लाभ का सरलतम उपाय है ~ "अवतार वरिष्ठ की शरणागति ! " ) [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना। (खण्ड -5 : धर्म और समाज) ]

" हमारे जीवन में धर्मलाभ "

( धर्म-लाभ का सरलतम उपाय है ~ "अवतार वरिष्ठ की शरणागति ! " ) 

यदि हमलोग भारतवर्ष को पतन के गर्त में और अधिक गिरने से बचाना चाहते हों, तो अब हमें श्रीरामकृष्ण के शिक्षाओं को ग्रहण करना ही पड़ेगा। उनकी शिक्षाओं का जितना अधिक प्रचार-प्रसार किया जायेगा, जितनी अधिक से अधिक संख्या में उनके विचारों को लोग अपने जीवन में उतार पायेंगे, उसी परिमाण में हमलोगों की अधोपतित अवस्था से मुक्ति प्राप्त हो सकेगी। 
       स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, 'यदि श्रीरामकृष्ण का नाम डूब भी जाये, तो कोई क्षति नहीं है  किन्तु मनुष्य यदि उनके आदर्श, नीति और चरित्र को अपने जीवन और आचरण में धारण कर सके तो इसी में सभी का कल्याण है। श्रीरामकृष्ण के उपदेशों में जो सत्य निहित  है, उसकी अनुभूति जिस किसी व्यक्ति को हो जाएगी, वह मनुष्य जहाँ कहीं भी जायेगा, वहीँ आध्यात्मिकता का संचार होने लगेगा तथा उसके आचार-व्यवहार से अनुप्रेरित होकर दूसरे लोग भी सत्य के साथ जुड़ने का प्रयास करेंगे। ["With the conviction firmly rooted in your heart that you are the servants of the Lord, His children, and helpers in the fulfillment of His purpose, enter the arena of work." (Volume 6, HINDUISM AND SHRI RAMAKRISHNA)]
      इसीलिये इस संशय # से मुक्त (कि श्रीरामकृष्ण अवतार वरिष्ठ हैं या नहीं ?) स्वामी विवेकानन्द ने डंके की चोट पर घोषणा की थी - " जो कोई भी मनुष्य श्रीरामकृष्ण की शिक्षाओं को घर-घर तक पहुंचा देने की चेष्टा करेगा, उसको अन्य कोई साधना करने की आवश्यकता नहीं होगी, वह स्वतः ब्रह्मपद को पा लेगा।" उनके इस कथन का प्रमाण हमलोग कई ऐसे व्यक्तियों के रूपान्तरित जीवन में देख सकते हैं; जिन्होंने प्रचलित अचार-अनुष्ठान, या  कर्मकाण्ड आदि किये बिना, केवल श्रीरामकृष्ण के जीवन और उपदेश में सन्निहित त्याग और सेवा के मूर्तमान आदर्श को अपने पूर्ण सक्रीय जीवन में प्रयोग कर अति-आधुनिक और विज्ञानसम्मत- पद्धति का अनुसरण करते हुए- ही धर्मलाभ किया है।
      मनुष्य-जीवन का जो लक्ष्य है, जो परम् प्राप्य वस्तु है उसको प्राप्त करने के लिये किसी विशेष साधना या विशिष्ट मार्ग या उ पाय अपनाने की आवश्यकता नहीं है। मनुष्यों की मिथ्या विभिन्नता (apparent-diversity) के बीच रहते हुए ही यदि केवल मूल-पथ 'त्याग और सेवा' के आदर्श के प्रति श्रद्धाशील होकर चलना सीख लिया जाय, तो सभी प्रकार के मनुष्यों के लिए अपने अपने वैशिष्ट को रखते हुए भी आत्म-विकास करना सम्भव हो जाता है। श्री रामकृष्ण के जीवन में सच्ची आध्यात्मिकता का ऐसा आदर्श कदम-कदम पर मूर्तमान हुआ था, उस शिक्षा को चाण्डाल से लेकर धनी-दरिद्र सभी प्रकार के लोग को ग्रहण कर अपने जीवन को सार्थक कर सकते हैं।  
     श्रीरामकृष्ण के जीवन से यह प्रमाणित होता है कि जो व्यक्ति सनातन, शाश्वत सत्य का साक्षात्कार करने के लिये, अपरिवर्तनशील सत्य को जानने के लिये, सभी प्रकार के संकीर्ण धार्मिक भावना को  तिलांजली देकर, सभी सुखों को  त्याग सकता है। जो व्यक्ति पूर्णत्व (निःस्वार्थपरता ) को अभिव्यक्त करने की साधना में स्वयं को भी न्योछावर कर देना चाहता है, वही मनुष्य भगवान का चिन्हित, भगवान के द्वारा चयनित सच्चा विजयी मनुष्य है। वैसे मनुष्यों की संख्या में वृद्धि के उपर ही भारतवर्ष का उत्थान निर्भर करता है।
       कुलीन लोगों द्वारा धर्मध्वजी होने का बिल्ला लगा लेना, या जेनेउ-धारी हो जाना ही धर्म नहीं है। कुल परम्परा से बने हुए  शास्त्रों के भाष्यकार लोग द्वारा  ब्राह्मण कुलजात आत्मसंतुष्टि की ढिठाई (audacity) के साथ दिये गए उपदेशों में धर्म तत्व नहीं होते। जो लोग, 'कामुकता और कमाई' 'Lust and Lucre' के लालच, यहाँ तक कि नाम-यश की आकांक्षा को भी दूर हटाकर, आत्मविश्वास की सुदृढ़ बुनियाद को धीरे धीरे आचरण में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं, वे ही लोग श्रीरामकृष्ण के सच्चे अनुयायी हैं। ऐसे व्यक्ति ही मिथ्याचार, कपटता, असाधुता से भारतवर्ष के धर्म की रक्षा करेंगे।  धर्म की रक्षा का तात्पर्य ही है- 'मनुष्यत्व की अदम्य विजय-यात्रा' के स्वाभाविक लक्ष्य  की दिशा में अग्रसर हो जाना। 
       स्वामीजी कहते हैं, ' अच्छा मनुष्य बनना और अच्छा मनुष्य बनाना' - यही सम्पूर्ण तत्व है। इसी धर्म को जीवन में प्रतिष्ठित करने के लिये यज्ञ-हवन,तर्क,न्याय, मनोनिग्रह इत्यादि के अभ्यास या साधना की प्रयोजनीयता उतनी ही है, जितना करने से मेरा और समाज का मंगल हो, पारस्परिक सम्बन्ध दोनों के समान लाभ की दृष्टि से सौहार्दपूर्ण हों। किन्तु,  जो लोग केवल अपना ही मंगल चाहते हैं, उनको अपने मुख श्रीरामकृष्णदेव  का नाम भी लेने का अधिकार नहीं है। क्योंकि उससे एक महान आदर्श  का कार्यकारी प्रयोग करने में अवांछित अवरोध उत्पन्न हो जायेगा।
 >>>Practical life and Religious life : (How do I make a balance between a spiritual and a practical life?
        श्रीरामकृष्ण अपने धार्मिक प्रवचन में वैसे उपदेशों का समर्थन नहीं करते थे, जिससे किसी व्यक्ति-विशेष को मोक्ष प्राप्त करने की प्रेरणा मिलती हो। इसलिए जब विवेकानन्द के मन में नर्विकल्प समाधि में डूबे रहने की इच्छा उत्पन्न हुई, तब श्रीरामकृष्ण उनको भी झिड़की दी थी और भर्तस्ना की थी। जिस प्राप्ति को अपने सभी भाइयों में बाँट कर नहीं लिया जा सकता , वैसी प्राप्ति तो मनुष्य जीवन की 'उपलब्धि' कह कर पुकारने योग्य भी नहीं है। क्योंकि वह सर्वोच्च प्राप्ति भी हीन स्वार्थबुद्धि के मैल से कलुषित हो जाती हैजहाँ स्वार्थबुद्धि है, वहाँ संकीर्णता है। जहाँ संकीर्णता है, वहाँ दुर्बलता है और जो हमें दुर्बल बनाता हो वह कभी सच्चा धर्म नहीं हो सकता। इसीलिये  यदि निर्विकल्प समाधि में प्राप्त अनुभूति को सबों के मंगल में नियोजित नहीं किया जा सके- तो वह देवदुर्लभ निर्विकल्प समाधि भी धर्म नहीं है !
 >>>धैर्य और आत्मसंयम की कमी से घृणा: (Aversion to lack of patience and self-control)
जिस व्यक्ति को धर्म लाभ हो जायेगा, उसमें लेश मात्र भी दुर्बलता नहीं रह सकती, उसका स्वार्थबोध सदा के लिये मिट जायेगा, दूसरों के हित के लिये वह अपने जीवन का भी दान कर देगा। आध्यात्मिकता में प्रतिष्ठित मनुष्य का जीवन ही बोलने लगेगा, उसके आचार-व्यवहार से जो भाव झलकेगा उसमें असीम-प्रेम, महान आत्मत्याग, महासाम्य का भाव  प्रतिबिम्बित होगा । उसके जीवन से अहंकार सम्पूर्ण रूप से समाप्त हो जायेगा। इस प्रकार का व्यक्ति ही समाज में हो रहे अनाचारों के जड़ पर कुठाराघात करने में समर्थ हो सकता है। क्योंकि जो तुच्छ स्वार्थ-बुद्धि अराजकता (Lawlessness) का उत्स है, उसके जीवन से वही मिट चूका होता है।
[>>>Awakening of this "Educational sense of Religion -Be and Make " within us.भारतवर्ष के कल्याण के लिये आज जो आवश्यक है, वह है हमारे अंदर इस "शैक्षणिक धर्मबोध ~ मनुष्य बनो और बनाओ" की जागृति। [Academic, educative religion, metaphysics (आध्यात्मिक विज्ञान):  पेडागॉजिकल इपिस्टलमोलॉजी : "Pedagogical Epistemology ~ Be and Make" : (शिक्षण विज्ञान -अध्यापक सम्बन्धी विज्ञान, या 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' मनुष्य बनो और बनाओ प्रशिक्षण पद्धति) की जागृति।]
      भारतवर्ष के कल्याण के लिये आज जो आवश्यक है, वह है हमारे अंदर इस "शैक्षणिक धर्म-बोध की जागृति। क्योंकि इस "शैक्षणिक धर्म या धर्मबोध~ -Be and Make" के प्रति  जागृत मनुष्य व्यवहारिक (secular) जीवन और धार्मिक (sacred) जीवन को अलग -अलग  नहीं देखता। वह कभी मनुष्य -मनुष्य के बीच भेदभाव नहीं करता। यह शैक्षणिक धर्मबोध  उस शुद्ध युक्ति-तर्क में आधारित है,जो ज्ञान-भक्ति-कर्म में समन्वय की साधना द्वारा किसी पशु-मानव को मनुष्य में और मनुष्य को देवमानव अर्थात एक सच्चे चरित्रवान मनुष्य में परिणत कर सकता है। (स्वामी विवेकानन्द कहते थे - "श्रीरामकृष्ण देव की जन्मतिथि से सतयुग प्रारम्भ हो चुका है.") अतएव इसी धर्म को विश्व स्तर पर सभी मनुष्यों के द्वार-द्वार तक पहुंचा देना होगा।
      किन्तु जो युवा धर्म को द्वार-द्वार तक पहुँचाना चाहेंगे, उन्हें  पहले अपने जीवन को तिल- तिल कर सुन्दर रूप से गठित करने की साधना करनी होंगी। श्रीरामकृष्ण के जीवन में जो कुछ घटित हुआ है उसको यदि हमलोग अपने जीवन के कार्य-कारण रूप में स्वीकार करें, और हमारी चिन्तन शक्ति स्वार्थबुद्धि से आच्छन्न नहीं हो तो स्वामी विवेकानन्द का वह उद्घोष, जिसमें उन्होंने- शैक्षिक धर्मपथ "Be and Make " के प्रति श्रद्धाशील युवाओं का आह्वान करते हुए कहा था - " जो लोग श्रीरामकृष्ण के सच्चे अनुयायी हैं, उनके लिये 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय ' के उद्देश्य से अपने जीवन को धीरे -धीरे (तिल-तिल कर ?) क्षय कर देने की शिक्षा अर्जित करने अतिरिक्त अन्य कोई धर्म हो ही  नहीं सकता।"...स्वामीजी का यही उद्घोष  हमारे जीवन का भी एक परीक्षित सत्य बन सकता  है।
>>>संकल्प से सिद्धि तक पहुँचने की यात्रा :>The journey from the Resolution~ to Accomplishment : To become and make a Man of Character चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने के संकल्प से सिद्धि तक पहुँचाने वाले शैक्षणिक धर्म की अनुभूति :) 
      किन्तु अपने जीवन में उस धर्म की अनुभूति केवल उसी मनुष्य को होती है,जो विधवाओं के दुःख तथा अनाथों के करुण क्रन्दन को दूर करने के लिये कृतसंकल्प रहता है। इस शैक्षणिक  धर्मबोध - "Be and Make " के प्रति जागृत होने पर, भारत के राष्ट्रीय आदर्श, मानवजीवन का परम् और चरम लक्ष्य ~ 'त्याग और सेवा' के मानदण्ड पर खरा मनुष्य बनने और बनाने के संकल्प से सिद्धि तक पहुँचने की साधना में -जनताजनार्दन के सेवक नेता (जीवनमुक्त शिक्षक, पैगम्बर)  के लिए इहलौकिक और पारलौकिक- सब एकाकार हो जाते हैं।  
हमलोगों को यह समझने की चेष्टा करनी चाहिए कि मनुष्य के जीवन में धर्मलाभ केवल एक रूप में होता है, वह है सबों के प्रति  बिना शर्त प्रेम  की प्राप्ति।  इस प्रेम  का अर्थ  पारस्परिक कल्याण बोध की स्वीकृति और उसी बोध को स्वार्थबुद्धि के उपर स्थापित करने में पूरे मन से प्रयासरत रहना।
 [अतएव -" मनुष्य जीवन में धर्मप्राप्ति की पहचान है, मानवमात्र के लिए बिना शर्त प्रेम !" ] 
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>>>नाम और रूप : शब्द और भाव >शब्द (Words)और भाव (expressions) सामान्यतः अविच्छेद्य (inseparable) हैं। मन में उठने वाले प्रत्येक विचार का एक अन्य समानुरूपी (another counterpart) भी होता है , और वह है आकृति (Form) । संस्कृत दर्शन में इसीको 'नाम-रूप' कहते हैं। सारा जगत  ही प्रतीक (symbol) है और उसके पीछे मूल तत्वरूप ने ईश्वर (ब्रह्म) विराजमान है। (३/४७) 

" 19 जून, 1895 : देववाणी - स्वामी विवेकानन्द बाइबिल की एक पुस्तक हाथ में लेकर कक्षा में उपस्थित हुए , और न्यू टेस्टामेन्ट के सेंट जॉन के उपदेशों वाले अध्याय  को खोलकर बोले , " जब तुम सभी लोग किश्चियन हो तो क्रिश्चियन धर्मग्रन्थ से ही शुरू करना ठीक होगा। " ... " सृष्टि के प्रारम्भ में शब्द मात्र था, वह शब्द ब्रह्म के साथ विद्यमान था और वह शब्द "ॐ"  ही ब्रह्म है। " हिन्दू लोग इस शब्द "ॐ" को माया , मूलप्रकृति, अव्यक्त (महत तत्व) का व्यक्त भाव कहते हैं, क्योंकि यह ब्रह्म की ही शक्ति है। विश्व-ब्रह्माण्ड के माध्यम से प्रतिबिंबित होने वाली पूर्णत्व (दिव्यत्व-निःस्वार्थपरता) को हम प्रकृति कहते हैं। जब उस पूर्ण या निरपेक्ष ब्रह्म (सच्चिदानन्द) को हम माया के आवरण से देखते हैं, तब हम उसे 'प्रकृति ' कहते हैं। 'शब्द' स्वयं को दो भाव से अभिव्यक्त करता है - उसकी सामान्य अभिव्यक्तियों को माया कहते हैं; तथा उसकी विशिष्ट अभिव्यक्तियों - राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा और श्रीरामकृष्ण आदि को ईश्वर का अवतार कहते हैं। उस निर्गुण ब्रह्म (ॐ) की विशेष अभिव्यक्ति -'ईसा ' को हम जानते हैं ; वे हमारे लिए ज्ञात और ज्ञेय हैं। किन्तु निर्गुण ब्रह्म को हम नहीं जान सकते। हम 'परम् पिता ' को नहीं जान सकते, उसके पुत्र को जान सकते हैं। निर्गुण ब्रह्म # को हम केवल 'मानवत्व [मनुष्यत्व ] रूपी रंग ' के - 'ईसा' के माध्यम से ही देख सकते हैं। " (७ /७) 
[हम पूर्ण (निर्गुण ब्रह्म = the Absolute=Perfection, Divinity, God, or 100 % Unselfishness) को केवल "मानवता के रंग"(अर्थात पशुत्व-मनुष्यत्व -दिव्यत्व के रंग) के-'ईसा' (या अवतार वरिष्ठ) के माध्यम से ही देख सकते हैं। ]      

"In the beginning was the Word, and the Word was with God, and the Word was God." The Hindu calls this Mâyâ, the manifestation of God, because it is the power of God. The Absolute reflecting through the universe is what we call nature. The Word has two manifestations — the general one of nature, and the special one of the great Incarnations of God — Krishna, Buddha, Jesus, and Ramakrishna. Christ, the special manifestation of the Absolute, is known and knowable. The absolute cannot be known: we cannot know the Father, only the Son. We can only see the Absolute through the "tint of humanity", through Christ."(Volume 7, Inspired Talks : June 19, 1895.)

>>>MACROCOSM AND MICROCOSM ( Impersonal and Personal aspects of God.): -Wandering throughout India as a young monastic, Swami Vivekananda experienced the Impersonal and Personal aspects of God. 
[After his experience of the macrocosm within the microcosm while absorbed in meditation under the peepul tree at Kakrighat (Almora) , in 1890, Swami Vivekananda jotted down in Bengali fragments of his realization in his notebook....." In the beginning was the Word etc..... The microcosm and the macrocosm are built on the same plan. Just as the individual soul is encased in the living body, so is the universal Soul in the Living Prakriti [Nature] — the objective universe. Shivâ [i.e. Kâli] is embracing Shiva: this is not a fancy. This covering of the one [Soul] by the other [Nature] is analogous to the relation between an idea and the word expressing it: they are one and the same; and it is only by a mental abstraction that one can distinguish them. Thought is impossible without words. Therefore, in the beginning was the Word etc.
This dual aspect of the Universal Soul is eternal. So what we perceive or feel is this combination of the Eternally Formed and the Eternally Formless. Hindu scriptures refer to manifested creation as mere name and form. The substratum behind all changing names and forms is changeless Supreme Reality, whose highest symbol is Om." 

साभार -https://लीला प्रसंग बंगला में पढ़ें//>[Complete-Works / Volume 9 / Writings: Prose and Poems // www.ramakrishnavivekananda.info/-index.htm//https://lifeintegrity.com/SWAMI-VIVEKANANDA-COMPLETE-WORKS-Vol-9.pdf]
>>>When does time originate? (काल की उत्पत्ति कब होती है ? ) : 
"पहले मनुष्य की यह स्थूल देह है , उसके पीछे मन, बुद्धि, अहंकार से निर्मित सूक्ष्म शरीर है और उसके भी पीछे मनुष्य का प्रकृत स्वरुप -आत्मा -विद्यमान है। स्थूल शरीर को समस्त शारीरिक शक्तियाँ मन से प्राप्त होती हैं और मन या सूक्ष्म शरीर आत्मा के आलोक से आलोकित है। आत्मा स्वप्रकाश है, सच्चिदानन्द ही आत्मा का स्वरुप है। ऐसा समय कभी न था जब आत्मा का अस्तित्व न था - तो प्रश्न है कि उस समय फिर काल कहाँ अवस्थित था ? काल तो आत्मा में ही अवस्थित है। जब मन में आत्मा की शक्ति प्रतिबिंबित होती है , और मन चिंतन कार्य में लग जाता है, तभी काल की उत्पत्ति होती हैं। जब आत्मा नहीं थी, तो विचार भी नहीं था, और विचार न रहने से काल भी नहीं रह सकता। "
(~ स्वामी विवेकानन्द (२/११२/ विश्व : सूक्ष्म ब्रह्माण्ड)  
>>>काल एक सीमा है, जो केवल मृत्यु तक यात्रा कराता है। जो चीज उत्पन्‍न होती है, वह काल में बंध जाती है। और जो काल में बंध जाता है, उसका नाश निश्चित होता है। काल का मतलब है, उत्पत्ति और विनाश के बीच की अवस्था। इसलिए काल आरंभ और अंत के मध्य की घड़ी का नाम है। इसलिए मृत्यु के देवता ~यम नहीं हैं ? महादेव को महाकाल कहा जाता है। महादेव अजन्मे हैं। उनका जन्म नहीं हुआ क्योंकि वे काल से परे हैं, इसलिए उन्हें 'महाकाल' भी कहा जाता है। वे स्वयं के पिता हैं, उनके कोई माता पिता नहीं हैं। जब कुछ नहीं था, तब भी वे थे.और जब कुछ नहीं होगा, महादेव फिर भी होंगे।
>>> एक काल वह है, जो घड़ी में है। एक काल हमारे मन में है। हमारे मन का काल घड़ी के काल से अलग होता है, इसलिए दुःख और इंतजार के समय छोटा सा वक्फा (अन्तराल -ठहराव) भी बहुत लंबा दिखाई देने लगता है। ऐसे ही सुख के समय में लंबा वक्फा भी छोटा दिखाई देने लगता है। हर व्यक्ति के मन का काल अलग होता है। ऐसे ही ब्रह्मांड की दृष्टि से उसका काल अलग तरह से परिभाषित है। ब्रह्मा का काल अलग है। चींटी और मच्छर का काल मनुष्यों के काल से बिल्कुल अलग है।
 जब हम मनुष्य के काल की बात करें तो पाएंगे कि यहां काल तीन प्रकार के होते हैं। एक जो बीत गया, भूतकाल यानी past! दूसरा जो बीत रहा है, वर्तमान यानी present और तीसरा जो आएगा, भविष्य यानी future। देखा जाए तो तीनों काल केवल मन की कल्पना हैं। 
 >>>भविष्य का साक्षी होना क्यों जरूरी है ? (Why is it important to be a witness to the future?)
यदि सूर्य की दृष्टि से देखा जाए तो कोई काल नहीं होता। सूर्य में न दिन होता है न रात होती है! यदि कोई व्यक्ति पास्ट की बातों को याद करके दुखी होता रहे, तो समझना चाहिए उसका पास्ट जाग गया है, और वह मेमरी का हिस्सा बन गया है। या यूं कहें मेमरी ही बन गया है। ऐसे में पास्ट बहुत ज्यादा हावी हो जाएगा और वह अपने पास्ट से हट नहीं पाएगा, या यूं कहें कि उसका साक्षी नहीं हो पाएगा। साक्षी हुए बिना पास्ट कभी भी हमारा पीछा नहीं छोड़ सकता।  एक ऐसा व्यक्ति होता है जो भविष्य में ही मन को टिकाए रखता है और शेखचिल्ली की तरह कल्पना के ख्यालों में जीवन जीने लगता है। ऐसा व्यक्ति डरपोक  और लोभी हो जाता है। इसके लिए भविष्य का साक्षी होना जरूरी है। जब कोई व्यक्ति पास्ट और फ्यूचर में ही दौड़ता है तो वह प्रेजेंट को एन्जॉय नहीं कर सकता।
>>>"जो प्रकट हुआ (व्यक्त हुआ-M/F शरीर को मैं मानना शुरू किया ?) है वह काल से बंध गया, इसलिए शरीर काल से बंधा है। जो इस प्रकृति से बने हैं, वे सब काल से बंधे हैं। लेकिन शरीर, मन, बुद्धि से परे जो आत्मा है, वह काल से नहीं बंधी है और वह कालातीत है। इस काल का आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं होता। यदि हमें अपने इस कालातीत अवस्था को अनुभव करना है तो हमें अपने आत्मभाव में आना होगा। आत्मभाव में आते ही हम काल को देखने वाले हो जाते हैं, फिर वर्तमान, भूतकाल और भविष्य का हम पर कोई प्रभाव नहीं होता। जब हम तीनों कालों को देखते हैं, तब हम त्रिकालदर्शी हो जाते हैं। त्रिकालदर्शी की अवस्था में हम किसी भी काल में अटकते या फंसते नहीं! केवल प्रत्येक बीतते हुए काल के दृष्टा बन जाते हैं
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"जानिए क्‍या होता है काल का असली अर्थ और किसे कहते हैं त्रिकालदर्शी ?" साभार>https://navbharattimes.indiatimes.com/astro/spirituality/speaking-tree/know-the-actual-meaning-of-kaal-and-who-are-trikaldarshi/articleshow/91251757.cms#google_vignette/
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शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

🔱🙏'प्रेम ही धर्म है' 🔱🙏[SVHS-28 ] (जापानी विश्वास-गुड़ियों को प्यार ) 🔱🙏 [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना-खण्ड -5 : (धर्म और समाज) ]🔱🙏

🙏'प्रेम ही धर्म है'🙏 

   जीव-मात्र से प्रेम करने की नीति ही सनातन शाश्वत आचारनीति (eternal ethics) है। इसी नीति को क्रियान्वित करने से जो सत्य (ब्रह्म ?) इस जगत-प्रपंच में अन्तर्लीन है-- वह प्रकट हो जाता है। एक बनस्पति-विज्ञानी (botanist)  ने एक ही प्रजाति के दो पौधों को लेकर इस नीति का परिक्षण किया था। उन्होंने दो गमलों में एक समान मिट्टी भर कर समान ऊंचाई तक उगे हुए दो पौधों लगा दिया, दोनों को एक समान प्रकाश, उर्वरक, सिंचाई आदि आवश्यक उपादानों को उपलब्ध करने के बाद उन गमलों को छत के दो कोने पर रख दिया। और प्रतिदिन एक पौधे के पास जाकर कहने लगे-' मैं तुमसे घृणा करता हूँ, तूँ मरता क्यों नहीं ? और दूसरे पौधे के पास जाकर कहते थे- " मैं तुमको प्यार करता हूँ।" कुछ दिनों तक ऐसा ही करने के बाद यह देखा गया कि एक पौधा सूखकर मर गया ; और दूसरा पौधा बड़ा होता रहा। जापान की लड़कियों को यह विश्वास है कि गुड़ियों को प्रेम करने से एक दिन उनके भीतर प्राणों का संचार हो जाता है। ऐसा भी सुना जाता है कि जापान में उन्नत फसल पैदा करने के लिये खेतों को प्यार के गीत सुना कर उत्कृष्ट खेती करने की प्रथा भी पहले प्रचलित थी। (जैसे भारत में धनरोपणी के गीत गाने प्रथा आज भी प्रचलित है?)
       इन बातों का उल्लेख करते हुए स्वामी विवेकानन्द यही कहना चाहते थे कि- " मनुष्य मात्र में अन्तर्निहित दिव्यता के उपर अटल विश्वास रखना होगा, उसको जानना होगा, प्रेम की शक्ति को समझना होगा, तथा भविष्य में (बुढ़ापे में ?) उपस्थित होने वाली जीवन की जटिल समस्याओं का समाधान करने के लिये इसी प्रेम-शक्ति का प्रयोग करना होगा।" बुद्धि को विवेक-पूर्ण निर्णय लेने में सक्षम बनाने का अभ्यास करने के साथ ही साथ हृदय का विस्तार एवं सच्चे प्रेम की नीति को जीवन-गठन का एक महत्वपूर्ण अभ्यास बना लेना होगा। स्वामीजी  बचपन से ही, (बच्चों को) भावनात्मक आवेग (emotional impulse) के साथ सभी मनुष्यों से प्रेमपूर्ण व्यवहार करने की शिक्षा देना चाहते थे, ताकि वे उन्मुक्त होकर देशसेवा के आदर्श को आत्मविकास के अपरिहार्य अंग के रूप में स्वीकार करना सीखें। स्वामीजी का अपना जीवन इसी प्रयास का एक उत्कृष्ट उदहारण है। विद्व्ता, नाम-यश  या अत्यधिक धन-दौलत कमा लेने से जीवन में पूर्णता नहीं आती है,  दूसरों को (निःस्वार्थ) प्रेम करने की क्षमता में वृद्धि से ही यथार्थ मनुष्य बनना संभव होता है। (पशु से मनुष्य और मनुष्य से देवमानव अर्थात  पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य बनना संभव होता है।)
वेदान्त का अमोघ सत्य-उद्घोष (वेदान्त डिण्डिम) है- 'एकमेवाद्वितियम् ब्रह्म !' (अर्थात  "ब्रह्म ही एक मात्र सत्ता है। उसके अतिरिक्त कोई अन्य दूसरी सत्ता नहीं है।" (छान्दोग्य 6.2.1) किन्तु स्वामीजी ने तात्विक-विश्लेषण कर उसकी पांडित्यपूर्ण  व्याख्या करने को उतना महत्वपूर्ण नहीं माना है बल्कि, मनुष्य मात्र के प्रति 'परम एकात्मबोध' से अनुप्रेरित होकर उसी वेदान्त प्रतिपादित सत्य- "जीवब्रह्मैक्यं” को मूर्तमान करने की साधना में ही अपने जीवन को न्योछावर कर दिया है। जीवन के इस परम या चरम सत्य ~ "जीव ब्रह्म एक है " को ह्रदय के माध्यम से ही समझना पड़ता है, तथा उस महान सत्य की अनुभूति को (अद्वैत वेदान्त के महावाक्यों की अनुभूति को) दूसरों में संचारित करने के लिए ह्रदय की भाषा - 'प्रेम' को ही व्यवहार में लाना पड़ता है। इस उच्चभाव को प्रेम की भाषा में (ह्रदय की भाषा में)  संचारित करने में बच्चे बूढ़े का भी भेद नहीं रहता, इस भाव को सभी समझ सकते हैं। स्वामीजी ने कहा है कि वेदान्त को इतने सहज और बोधगम्य भाषा में समझाकर कहना होगा, कि एक छोटा बच्चा भी उसको समझ सके और अपने जीवन में उसका प्रयोग करके लाभान्वित हो सके।
     सांसारिक प्रेम के बारे में जो आम  धारणा है उसका  थोड़ा भी विश्लेषण करने पर उसकी कमी  पकड़ में आ जाती है। प्रेमास्पद (अवतारवरिष्ठ) के प्रति अपने सच्चे प्रेम को त्याग और सेवा के माध्यम से ही अपने जीवन में प्रस्फुटित करना होता है। आत्मश्रद्धा सम्पन्न व्यक्ति को  विश्लेषण करके, पहले यह जान लेना चाहिये कि मनुष्य जीवन को सार्थक करने के लिए जो वस्तु पाने की कामना करनी चाहिये वह है - चरित्र।  क्योंकि यह चरित्र ही है जो मनुष्य के  सच्चे प्रेम के सिद्धान्त को अलंकृत कर  देता है। चरित्र गठित करने से मनुष्य निःस्वार्थी हो जाता है तथा इस तथ्य को समझ पाता  है कि मनुष्यजाति के कल्याण में ही उसका कल्याण है। दूसरे मनुष्यों के कल्याण के लिये कार्य कर पाना  तभी संभव है जब हम  यह समझ जाते हैं कि वास्तव में हम जो कर रहे हैं वह सब स्वयं के कल्याण के लिए ही है। क्योंकि वह स्वयं किसी भी मनुष्य से भिन्न नहीं है। कोई मनुष्य जब संसार के आभाव, संकट, विसंगति, को जड़ से मिटा देने के सतसंकल्प को ही अपने जीवन उद्देश्य बना लेता है और उसे साकार करने के लिए उद्यम करता है और- "Neither seek nor avoid" नियमानुसार सामने उपस्थित किसी भी कार्य को निष्ठा पूर्वक करने का प्रयास करने लगता है, तो उसको यह अनुभूति हो जाती है कि चूँकि वह  अपने-आप से प्रेम करता है, इसीलिये वह दूसरों से भी प्रेम करने को बाध्य है। क्योंकि विराट  को प्रेम करने से ही मनुष्य स्वयं को पहचान सकता है।  जब उसको यह अनुभूति हो जाती है कि ब्रह्म ही जगत बने हैं तब उसके जीवन में परम-पद की प्राप्ति का पथ प्रशस्त हो जाता है।
       इसीलिये बचपन से ही अपने देश से प्रेम  करना सीखना भी आवश्यक है। और उससे प्रेम  करने की तैयारी के रूप में  पहले अपनी यथार्थ सत्ता का अनुसन्धान करना आवश्यक है। विवेक, बुद्धि, भावना के द्वारा अपने सच्चे स्वरुप का अनुसन्धान के क्रम में ही व्यक्ति यह समझ सकेगा कि अपनी अन्तर्निहित दिव्यता (निःस्वार्थपरता) को विकसित और प्रकट करने के स्वार्थ को पूर्ण करने के लिये ही उसे व्यवहारिक जीवन में जगत के सभी मनुष्यों के प्रति सहानुभूति, समानुभूति और कर्तव्यबोध इत्यादि के महत्व को मर्यादा देनी होगी।
        >>सच्चे धर्म का (शैक्षिक धर्म का)  अर्थ है-Meaning of true religion (academic religion) is "Be and Make" -अर्थात  स्वयं अच्छा मनुष्य बनना और दूसरों को अच्छा मनुष्य बनने में सहायता करना।" स्वामीजी के धर्म की इस परिभाषा का सार इसी सर्वग्रासी प्रेम को आन्तरिक स्वीकृति देने तथा इसे अपने आचरण द्वारा प्रकट  करने में है। आज देश में जो भी संकट दिख रहा है, उसका कारण यदि एक वाक्य में कहें तो इस प्रेम का अभाव ही है। जब व्यावहारिक जीवन के सार्थकता का पैमाना- धन-दौलत, भोग-ऐश्वर्य, को ही मान लिया जाता है, तब हमारे प्रेम की शक्ति ढंक जाती है। (अर्थात ह्रदय में प्रतिष्ठित प्रेमास्पद पर माया का आवरण मेरा -पराया का आवरण ?  प्रेम की शक्ति का स्रोत या श्रेय-प्रेय विवेक का स्रोत  ढंक जाता है !) इन दिनों सामान्य तौर पर  शिक्षक, सरकारी-गैरसरकारी पदाधिकारी, कर्मचारी, डाक्टर, इन्जीनियर, समाजसेवक सभी के भीतर केवल आर्थिक दृष्टि से उन्नत होने, या नाम-यश पाने [गुरुगिरि करने-Motivational speaker बनने ] की प्रतियोगिता हो रही है। 

    इसीलिये तो इन्द्रियपरायणता के उग्र प्रकोप के सामने सनातन मूल्यबोध {सनातन आचार नीति (eternal ethics)-परदारेषु मातृवत #इत्यादि }  दब गई  हैं। इस आभाव को बाहर से दूर करने की सैंकड़ो प्रचेष्टाओँ के बीच  हम भ्रमित होकर अँधेरे में  हाथ-पैर मार रहे हैं। हमलोगों के इस अवश्यम्भावी भविष्य के प्रति स्वामीजी ने बहुत पहले ही सावधान किया था। उन्होंने कहा था कि मनुष्य यदि सच्चे धर्म (शैक्षिक धर्म -मनुष्य बनो और बनाओ !) का अनुसरण करके अपने आचरण को शुद्ध नहीं बनाएगा, तो केवल राजनैतिक अनुशासन या  कानून के बल पर वह समाज को  अपने यथार्थ लक्ष्य की ओर कभी अग्रसर नहीं करा पायेगा।
       इसीलिये बचपन से ही निःस्वार्थ, निष्कपट प्रेम करने की क्षमता में वृद्धि करने के अभ्यास को शिक्षा के अनिवार्य अंग के रूप में स्वीकार करना पड़ेगा। इसी के माध्यम से व्यक्ति सच्चे सामाजिक प्राणी के रूप में अपना जीवन गठित कर पायेगा तथा एक-दूसरे के स्वार्थ की रक्षा के लिए प्रयत्नशील होगा। एक मनुष्य के साथ दूसरे मनुष्यों के बीच (सास-बहु, बाप -बेटा,भाई -बहन के बीच) या एक जाति (समुदाय-सम्प्रदाय) का दूसरे समुदाय के साथ जो विवाद, विद्वेष दिखाई पड़ता है,  वह तभी दूर होगा जब हमलोग ह्रदय की भाषा - 'प्रेम 'को ही धर्म मान लेंगे। तथा इसी धर्म की रक्षा और परिपोषण के लिये बाकी सबकुछ को तुच्छ समझ सकेंगे ।
 [क्योंकि 'विराट से प्रेम करने की क्षमता अर्जित करने से ही मनुष्य स्वयं को और मानवसमाज के एकत्व को पहचान सकता है!']
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मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत्।

आत्मवत् सर्वभूतेषु, यः पश्यति सः पण्डितः।। 

अर्थ : सदैव दूसरे की पत्नी को अपनी माँ की तरह समझना चाहिए। सदैव दूसरे के धन को मिट्टी के समान समझना चाहिए और सभी को अपने जैसा ही समझना चाहिए। जो ऐसा आचरण करता है, वही सच्चा पंडित यानि ज्ञानी है।
व्याख्या :
कहने का तात्पर्य यह है कि पराई स्त्री पर कभी भी गलत नजर नहीं डालनी चाहिए और उसका अपनी माँ की तरह सम्मान करना चाहिए। दूसरे के धन संपत्ति पर भी कभी गलत दृष्टि नहीं डालनी चाहिए और उसे मिट्टी के समान समझना चाहिए। अपने परिश्रम से अर्जित की हुई धन-संपत्ति को ही अपनी संपत्ति समझना चाहिए। सभी के साथ एक समान व्यवहार करना चाहिए। सब के अंदर स्वयं की छवि देखना चाहिए। ऐसा आचरण करने वाला मनुष्य ही वास्तव मे विद्वान होता है।  [यह है हमारा सनातन धर्म @ हिंदू धर्म]
'एकमेवाद्वितियम् ब्रह्म !' (छान्दोग्य 6.2.1)

ब्रैह्मैकं परमार्थसिच्चिदमलं विश्वप्रपञ्चात्मना
शुक्ती रूप्यपरात्मनेव बहलाज्ञानावृतं भासते ।
तज्ज्ञानान्निखिलप्रपञ्चनिलया त्वात्मव्यवस्थापर
निर्वाणं जनिमुक्तमम्युपगतं मानं श्रुतेर्मस्तकम् ।।

शङ्कर ने प्रतिज्ञा किया – ब्रह्म एक सत् चिद् निर्मल तथा परमार्थ है । जैसे मिथ्या ज्ञान से सीप रजतरूप में भासती है , वैसे ही सत् , चिद् आनन्द स्वरूप ब्रह्म  मिथ्या अनादि अज्ञान से इस दृश्यमान प्रपञ्चरूप से भासित होता है । जब इसे ” तत्त्वमसि ” , ” अहं ब्रह्मास्मि ” आदि उपनिषद् वाक्यों द्वारा जीवब्रह्मैक्यज्ञान उत्पन्न होता है तब अनादि कारण मिथ्याज्ञान सहित यह समस्त प्रपञ्च निवृत्त हो जाता है और यह अपने असली चिन्मय स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जन्म – मरण से रहित होकर मुक्त हो जाता है । यही हमारा सिद्धान्त है । इसमें उपनिषद् प्रमाण है । मैं फिर अपने इस कथन को दुहराता हूँ ” जीवब्रह्मैक्य ” { जीव ब्रह्म एक है } मेरा विषय है । उसमें उपनिषद् वाक्य प्रमाण हैं ।
वेदान्त के प्रमुख सूत्र >
1. अहं ब्रह्मास्मि — "मैं ब्रह्म हूँ" (बृहदारण्यक उपनिषद्, प्रथम अध्याय, चतुर्थ ब्राह्मण, श्लोक क्रमांक १०)
2. तत्त्वमसि —  "वह ब्रह्म तू है" (छान्दोग्य उपनिषद्, अध्याय ६, अष्टम खण्ड, श्लोक क्रमांक ७)
3. अयम् आत्मा ब्रह्म —  "यह आत्मा ब्रह्म है" (माण्डूक्य उपनिषद्, अध्याय १, श्लोक २)
4. प्रज्ञानं ब्रह्म —  "प्रज्ञान ही ब्रह्म है" (ऐतरेय उपनिषद् १/२)
5. सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् —  "सब ब्रह्म ही है" (छान्दोग्य उपनिषद्, अध्याय ३, चतुर्दश खण्ड, श्लोक १)
6. सत्यमेव जयते नानृतम् सत्येन  — "सत्य की ही जीत होती है, असत्य की नहीं" (मुण्डक उपनिषद्, तृतीय मुण्डक, प्रथम खण्ड, श्लोक ६)* 
7. ” सर्वँ खल्विदं ब्रह्म ” { "सब ब्रह्म ही है" -छान्दोग्य 3 / 14 / 1 }
8. ” तत्र को मोहः कः शोकः एकात्मनुपश्यतः ” 
9. "नाल्पे सुखमस्ति भूमैव सुखं भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्य —  "छोटे और सीमित रहने में कोई सुख नहीं, विशाल होने में ही सुख है। विशाल बनो!" (छान्दोग्योपनिषद्‌, अध्याय ७, खण्ड २३, श्लोक १)
10. "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः" —  'मन' ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का कारण है (ब्रह्मबिंदूपनिषद्, श्लोक २)
11. "विद्यया विन्दतेऽमृतम्‌" —विद्या से अमृतत्व की प्राप्ति होती है। आत्मा स्वयं अमर है, और मनुष्य को अमर बनने के लिए केवल उसे जान लेने की आवश्यकता है। (केनोपनिषद्, द्वितीय अध्याय, श्लोक ४)
12. "नाहं कालस्य, अहमेव कालम" —  "मैं समय में नहीं हूँ, समय मुझमें है" (महानारायण उपनिषद्, अध्याय ११, श्लोक १४)
13. "रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति —  "यह (अस्तित्व) जो बहुत अच्छी तरह तथा सुन्दरता से रचा गया है यह वस्तुतः अन्य कुछ नहीं, इस अस्तित्व के पीछे छिपा हुआ आनन्द, रस ही है। जब प्राणी इस आनन्द को, इस रस को प्राप्त कर लेता है तो वह स्वयं आनन्दमय बन जाता है (तैत्तिरीयोपनिषद्, ब्रह्मानन्दवल्ली अथवा द्वितीय खण्ड, अनुवाक ७, श्लोक १)
14. "असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय "—  "मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मुझे मृत्यु से मुझे अमरत्व की ओर ले चलो।" (बृहदारण्यक उपनिषद्, अध्याय १, तृतीय ब्राह्मण, श्लोक २८)
15. "ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते "—  "वह (अज्ञात ब्रह्म) पूर्ण है, यह (प्रतीत ब्रह्मांड) पूर्ण है; यह पूर्णता उस पूर्णता से उद्भूत हुई है" (शांतिपाठ, ईशावास्य उपनिषद्)
16. "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति" —  "उठो, जागो, और श्रेष्ठ जनों के पास जाकर बोध ग्रहण करो। विद्वान् मनीषी जनों का कहना है कि ज्ञान प्राप्ति का मार्ग उसी प्रकार दुर्गम है जिस प्रकार छुरे के पैना किये गये धार पर चलना" (कठ उपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, श्लोक १४)
17. ” एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म { ”One only, without a second” --‘अद्वैत’ है अर्थात् अपने जैसा केवल एक और अकेला या अनूठा या अनुपम ! [अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव हैं !] तथा उस (पूर्ण-the All) में ही वह सब समाहित है, जो कभी (पूर्वकाल में) अस्तित्व में था, इस समय जिसका अस्तित्व है और जो कुछ भविष्य हो सकता है ! "ब्रह्म (ठाकुरदेव) ही एक मात्र सत्ता है। उसके अतिरिक्त कोई अन्य दूसरी सत्ता नहीं है।"छान्दोग्य 6 / 2 / 1 }
 >>"एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म,  स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो ” { छान्दोग्य – उपनिषद् 6 / 8 / 7 }
वेदान्त शास्त्र का मुख्य विषय जीवात्मा का तथा परमात्मा का अभेद ज्ञान है या  जीव तथा ब्रह्म का ऐक्य है  "जीवब्रह्मैक्यं ! ” ( जीव ब्रह्म एक है)। 
इस अध्याय के पहले दो खण्डों में 'जगत की उत्पत्ति' के विषय में बताया गया है। अपने पुत्र श्वेतकेतु को समझाते हुए ब्रह्मऋषि उद्दालक ने कहा कि "सृष्टि के प्रारम्भ में एक मात्र 'सत्' ही विद्यमान था। फिर किसी समय उसने अपने आपकों अनेक रूपों में विभक्त करने का संकल्प किया। उसके संकल्प करते ही उसमें से 'तेज' प्रकट हुआ। तेज में से 'जल' प्रकट हुआ। संकल्प द्वारा प्रकट होने वाले उस 'तेज' को वेद में 'हिरण्यगर्भ' कहा गया है। सृष्टि का मूल क्रियाशील प्रवाह यह 'जलतत्त्व' ही है, जो तेज से प्रकट होता है। उस जल के प्रवाह से अतिसूक्ष्म कण बने और कालान्तर में यही सूक्ष्म कण एकत्र होकर 'पृथ्वी' का कारण बने। प्रारम्भ से सृष्टि-सृजन की पहली आहुति द्युलोक में ही हुई थी। उसी में विद्यमान 'सत्' से 'तेज' और तेज से 'जल' की उत्पत्ति हुई थी तथा जल के सूक्ष्म पदार्थ कणों के सम्मिलन से पृथ्वी का निर्माण हुआ था। धरती से अन्न का उत्पादन हुआ तथा दूसरे चरण में सूर्य उत्पन्न हुआ।
18. ” ब्रह्मविद्ब्रह्मैव भवति ”-(मुण्डकोपनिषद्) जो मनुष्य ब्रह्म को यथार्थ रूप में जानता है,वह ब्रह्म ही हो जाता है। 
 साभार - विवेकजीवन ब्लॉग /सोमवार, 6 अक्तूबर 2014/' सम्पूर्ण विश्व के मानव-इतिहास में भारत वर्ष का अवदान' 
(क्या भारत आज भी धान-रोपनी के समय स्त्रियाँ इसीलिये गाती हैं ?)
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बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

🔱🙏' समाज में धर्म का स्थान ' 🔱🙏[SVHS-27 ] 'मुक्तकेशी दुर्गा की पूजा' अर्थात मूर्ति की प्रयोजनीयता: "मोन रे कृषिकाज जानो ना" ( Applicability of Idol worship:'Pooja of Mukt-keshi Durga' i.e. 'Durga Puja' "Mon Re Krishi-kaj Jaano Na") परम् त्याग है >अमरत्व (मोक्ष) का त्याग 🔱🙏 [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना-खण्ड -5 : (धर्म और समाज) ]

समाज में धर्म का स्थान 

मनुष्य यदि सामुदायिक रूप से जीवन व्यतीत नहीं कर रहा होता और सामुदायिक कल्याण के लिये प्रयत्नशील भी नहीं होता तो कह सकते थे कि धर्म का सम्बन्ध नितान्त व्यक्तिगत जीवन से है, समाज में उसकी कोई आवश्यकता नहीं। किन्तु, यह धर्म ही है, जो मनुष्य को नैतिक बनता है। तथा समाज या मनुष्य का सामुदायिक जीवन उसी नैतिकता के उपर प्रतिष्ठित है। और नैतिक जीवन की परिपूर्णता का ही दूसरा नाम आध्यात्मिकता है। इसीलिये सामाजिक व्यक्ति धार्मिक हुए बिना रह ही नहीं सकता है। आध्यात्मिकता से व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों कल्याण साधित होते हैं। इसीलिये धर्मनिरपेक्षता की गलत व्याख्या करके धर्म के प्रति उदासीन हो जाने की शिक्षा देने से समाज का ही बहुत ही अकल्याण होता है। हमें ऐसा नहीं मान लेना चाहिये कि धर्म आम जनता के लिये अफीम जैसा है, बल्कि यह समझना चाहिए कि  धर्म तो समाज के रगों में बहते हुए रक्त जैसा है। उस रक्त के दूषित हो जाने से समग्र समाज-देह ही नष्ट हो जायेगा। तथा वह रक्त यदि स्वस्थ और सबल रहे तो समाज हर प्रकार से स्वस्थ, प्राणवन्त और सुन्दर बना रहता है। हमारे समाज के रोम रोम में आज जो गंदगी व्याप्त है, उसका कारण  धर्म रूपी रक्त प्रवाह की कमी ही है। जीवन में विज्ञान का उपयोग कितना भी क्यों न बढ़ जाये, केवल विज्ञान के माध्यम से जीवन में सुख-शांति नहीं आ सकती है। हमारे शरीर के मस्तिष्क में स्थित परितृप्ति-केन्द्र (gratification center) ही जब नष्ट हो जाता है, तो फिर उस जीव  को कोई भी वस्तु क्यों न प्राप्त हो जाय, वह कभी संतृप्त नहीं होता है।
      आज मानव-समाज के मस्तिष्क का यह परितुष्टि केन्द्र भी लगभग नष्ट प्राय हो चूका है। इसीलिये वह केवल भोजन विलासी ही नहीं,असीमित आहारी भी बन चुका है। किन्तु, असीमित आहार स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होता है तथा समाज शरीर में असीमित आहार करने की बुराई प्रविष्ट  हो जाने के कारण ही आधुनिक मानव-समाज दूष्ट बन गया है। धर्म मनुष्य में जितने सद्गुणों को प्रदान करता है, उसमें सयंम एक अत्यन्त मूल्यवान गुण है। यह संयम ही है जो मस्तिष्क के परितृप्ति-केन्द्र को जीवित रखता है। इसलिये धर्म यह शिक्षा देता है कि जो व्यक्ति अकेले ही आहार करता है, वह 'पापभुक' है, अर्थात वह पाप का ही भक्षण करता है। धर्म यह भी कहता है कि "प्रजायै किममृतं नावृणीत ।"(Rig Veda 10.13.4) --अर्थात साधारण जन का कल्याण करने के लिये कोई- कोई तो अमरत्व का भी त्याग कर देते हैं। इस  चर्चा में यह बात निश्चित ही स्पष्ट हो रहा होगा कि यहाँ किसी धर्म विशेष की प्रशंसा में कुछ भी नहीं कहा जा रहा है। किन्तु, जिस देश  में धर्म का ऐसा सुन्दर रूप दिखाई देता हो उस समाज से धर्म को जड़ से उखाड़ फेकने की बात करने के पहले क्या यह समझ लेना उचित नहीं होगा कि चूँकि इस समय हमने धर्म की  उपेक्षा कर दी है, कहीं उसीके फलस्वरूप तो समाज के शीर्ष पद पर बैठे व्यक्ति भी इतना नीचे नहीं गिर गये हैं ? हमारे राष्ट्रीय जीवन/चरित्र के अधः पतन का कारण -धर्म नहीं है, बल्कि धर्म के सार को आचरण में उतारने की कमी ही इसका कारण है। 
हमलोगों ने पहले यह समझ लिया है कि एक समग्र दृष्टि प्राप्त होने का परिणाम ही धर्म है। इसीलिये ऐसा धर्म किसी ऐरे-गैरे व्यक्ति के चिन्तन का परिणाम नहीं हो सकता। इसलिये धर्म के मूलभाव को समझे बिना जिस किसी शब्द के साथ 'ism' (वाद ) लगा देने से ही वह वस्तु सूपाच्य खाद्य वस्तु नहीं बन जाती। वैसे अधूरे दर्शन से समग्र-दृष्टि प्राप्त नहीं होती, उसमें कहीं न कहीं छिद्र रह ही जाता  है। इसीलिये उस धर्मरूपी फल के छिलके को खाने से व्यक्ति जीवन या सामुदायिक जीवन को पूर्ण रूप से पौष्टिकता प्राप्त नहीं होती। सच्चे धर्म रूपी फल के रंग,रूप, आकार, कड़ापन, स्वाद या गंध में अनेकों  प्रकार की विविधतायें हो सकती है। किन्तु उस फल का भक्षण जब कोई धर्मपरायण व्यक्ति करता है, तो उसे उसके परिणाम में पौष्टिकता प्राप्त होती है। इसीलिये वर्तमान युग में भी यदि हमलोग स्वस्थ व्यक्तियों का  समाज  निर्माण करना चाहते हों तो धर्म की नितान्त आवश्यकता है। सभी प्रकार फलों के छिलके की प्रदर्शनी लगा देने से फल की पौष्टिकता नहीं प्राप्त हो जाती। बहुत से फूलों को तोड़ कर बनाया गया  गुलदस्ता देखने में सुन्दर लग सकता है किन्तु,  जड़ के साथ जुड़े न रहने के कारण सारे फूल शीघ्र ही सुख जाते हैं। किन्तु  पेड़ को सींच कर उसपर फूलों को खिला देने की तृप्ति भी बहुत बड़ी होती है। फूल खिल जाने के बाद वह अपने ही लिये फल के रूप में उसके बीज को भी छोड़ जाता है और उसी फल के बीज से भविष्य में फिर फूल खिलते हैं। फल के गूदे और बीज को संजोय रखने के लिये एक छिलके की आवश्यकता होती है। अतएव फल का छिलका भी कोई बिल्कुल व्यर्थ की वस्तु नहीं है, किन्तु यदि केवल छिलके को लेकर ही व्यस्त रहा जाय तो पौष्टिकता प्राप्त होने की सम्भावना नहीं रहती।

[>>>'मुक्तकेशी दुर्गा की पूजा' अर्थात मूर्ति पूजा की प्रयोजनीयता: "मोन रे कृषिकाज जानो ना" ( Applicability of Idol worship:'Pooja of Mukt-keshi Durga' i.e. 'Durga Puja' "Mon Re Krishi-kaj Jaano Na")] :
 इस युग में भी समाज के भीतर धर्म है। यदि यह नहीं होता तो समाज का अस्तित्व भी नहीं रह सकता था। किन्तु उसका प्रवाह अभी बहुत मन्द पड़ गया है। सार्वजनिक दुर्गा-पूजा के पंडालों की बढ़ती हुई संख्या को दिखला कर इसे प्रमाणित करने से काम नहीं चलेगा। मन की उर्वरा भूमि ही धर्म रूपी फल का जन्म लेने का क्षेत्र है।  किन्तु जब उसमें किसी भाव-विशेष की वर्षा होती है तो उसके बाद तुरंत उसके उपर कुछ खर-पतवार भी उग आते हैं। दुर्गा-पूजा की प्रयोजनीयता भी इसी जगह है। दस इन्द्रियों के खर-पतवार को काटने के लिये दस-भूजा वाली देवी की आवश्यकता दसों प्रहर बनी रहती है। इसीलिये मानव मनोभूमि पर सार्थक खेती करने से सोने की फसल उगती है। मानव मनोभूमि पर खेती करने से सोने की फसल उगती है; अतएव मानव मनोभूमि पर उत्पन्न धर्म रूपी फल ही समाज-कल्याण तथा मानव-संस्कृति का मार्ग-दर्शक है इसीलिये वर्तमान समाज को धर्म के सार से प्लावित करना होगा, तभी मनोभूमि पर खेती करके सोने की फसल उगाई जा सकती है। 
>>"Man Re Krishikaz Jaano Na" : साधक रामप्रसाद सेन ने इस गाने को स्वयं लिखा और संगीतबद्ध किया है। 
मोन रे कृषकाज जानो ना
मोन रे कृषि काज जानो ना। 

एमोन मानोब जोमिन रोईलो पतित, 
अबाद कोरले फोलतो सोना। 
मानोब जोमिन रोईलो पतित, 
अबाद कोरले फोलतो सोना। 

मोन रे कृषकाज जानो ना
मोन रे कृषि काज जानो ना। 

काली नामे दाओ रे बेड़ा, 
फ़ोसले तोछरूप होबे ना

से जे मुक्तोकेशिर शोक्तो बेड़ा 
मुक्तोकेशिर शोक्तो बेड़ा
तार काछेते जोम घेंसे ना। 

मोन रे कृषकाज जानो ना
मोन रे कृषि काज जानो ना। 

अद्य किंवा शतब्दान्ते 
बाजप्त होबे जानो ना। 
अद्य किंवा शतब्दान्ते 
बाजप्त होबे जानो ना। 

आपन एकतारे मन रे 
चूटिये फसल केटे ने ना।   

मोन रे कृषकाज जानो ना
मोन रे कृषि काज जानो ना। 

गुरुदत्त बीज रोपन कोरे 
भक्ति बारि सेंचे दे ना। 

एका जोदि ना पारिस 
मोन रे ......  
एका जोदि ना पारिस मोन रे,
रामप्रसादके संगे ने ना !    



মন রে কৃষিকাজ জানো না
মন রে কৃষিকাজ জানো না

এমন মানব জমিন রইলো পতিত
আবাদ করলে ফলত সোনা
মানব জমিন রইলো পতিত
আবাদ করলে ফলত সোনা

মন রে কৃষিকাজ জানো না
মন রে কৃষিকাজ জানো না

কালী নামে দাও রে বেড়া
ফসলে তছরূপ হবে না

সে যে মুক্তকেশীর শক্ত বেড়া
মুক্তকেশীর শক্ত বেড়া
তার কাছেতে যম ঘেঁষে না

মন রে কৃষিকাজ জানো না
মন রে কৃষিকাজ জানো না

অদ্য কিংবা শতাব্দান্তে
বাজাপ্ত হবে জানো না
অদ্য কিংবা শতাব্দান্তে
বাজাপ্ত হবে জানো না

আপন একতারে মন রে
চুটিয়ে ফসল কেটে নে না

মন রে কৃষিকাজ জানো না
মন রে কৃষিকাজ জানো না

গুরুদত্ত বীজ রোপণ করে
ভক্তি বারি সেঁচে দে না

একা যদি না পারিস
মন রে...
একা যদি না পারিস মন
রামপ্রসাদকে সঙ্গে নে না

মন রে কৃষিকাজ জানো না" 
গানটি গেয়েছেন ও সুর তৈরী করেছেন সাধক রামপ্রসাদ সেন। তিনি নিজেই গানটির কথা লিখেছিলেন। মন রে কৃষিকাজ জানো না গানের কথা।
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 >>Gratification  center of the social brain : समाज-मस्तिष्क के परितृप्ति-केन्द्र की रक्षा के लिए दुर्गापूजा पण्डालों में सार्वजनिक मूर्तिपूजा की आवश्यकता भी है -क्योंकि"अकेले खाने वाले को 'पाप्- भुक' कहते हैं , इसीलिए कोई कोई तो अकेले निर्विकल्प समाधि के परम् आनन्द या अमरत्व का भी भोग नहीं करते अर्थात अपने अमरत्व के आनन्द को  त्याग देते हैं।" ... अर्थात  दूसरों के लिए- अपने घर पर प्रतिवर्ष दुर्गापूजा करने के लिए पुनः शरीर में लौट आते हैं। 
>>विलम्बित-परितोष (Delayed gratification), आवेग नियंत्रण : (Impulse control) विवेक-प्रयोग (prudence-पूर्वविचार, क्रियात्मक बुद्धि-व्यावहारिक मामलों में विवेक,discretion in practical affairs), आत्मसंयम (self-control) : is the ability to resist the temptation for an immediate reward and wait for a later reward. refers to the ability to put off something mildly fun or pleasurable now, in order to gain something that is more fun, pleasurable, or rewarding later.
 For example, you could watch TV the night before an exam, or you could practice delayed gratification and study for the exam. The latter would increase your chances of getting an A in the course at the end of a semester, which is much more satisfying long-term than a night of watching TV. Delayed gratification,  A person’s ability to delay gratification relates to other similar skills such as patience, impulse control, self-control and willpower, all of which are involved in self-regulation.] 
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मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

🔱🙏 'समाज, धर्म और विज्ञान' 🔱🙏[SVHS-26 ] [फल और फूल >फल है धर्म-फूल है साधना ] (स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना : खण्ड -5 : धर्म और समाज)

" समाज, धर्म और विज्ञान "

          मैं जब कभी चिन्तन-मनन के लिये बैठता हूँ, तो विश्व ब्रह्माण्ड के केन्द्र में स्वयं को बिठा  लेता हूँ। विचारों में ऐसा डूब जाता हूँ कि सुदूर  निहारिकाओं  से लेकर सामने की हरी घास तक, भूत,भविष्य,वर्तमान कुछ भी नहीं बचता। विचार करते-करते ऐसा प्रतीत होता है मानो सृष्टि रचना के प्रथम दिन से लेकर आज तक का सम्पूर्ण इतिहास मेरी आँखों के सामने साकार रूप लेना चाह रहा हो। इसके बाद इतने से भी तृप्ति नहीं होती, फिर मैं शाश्वत पथ के किनारे पर स्थित  समस्त दर्शनीय वस्तुओं को देख लेना चाहता हूँ।
          किन्तु, सबके बीच जिसे मैं एक क्षण के लिये  भी नहीं भूलता, वह मेरी अपनी सत्ता है जो इन सबसे निकट है, सर्वोच्च सत्य है और मेरा सबसे प्रिय वस्तु वह है, मेरा -'मैं'! वैसे तो हमलोगों का  यह  'मैं'  - इस संसार के करोड़ों  मनुष्यों के बीच नगण्य सा ही है। किन्तु, फिर भी मनुष्य बड़े गर्व से कहता है- 'मेरा' और 'मैं ' !  मनुष्य इसी 'मैं' को लेकर कई प्रकार की कल्पनाओं में खोया रहता है। हमलोगों के  चिन्तन का प्रमुख विषय मनुष्य ही होता है। काल के प्रवाह में अज्ञात  स्रोत के धक्के से, यह विश्वब्रह्माण्ड शून्य में से फेन के सदृश पता नहीं कब और किस प्रकार प्रकट हो गया ? फिर एक दिन असंख्य ब्रह्माण्डों के किसी कोने में एक कण-सदृश्य प्रतीत होने वाली इस पृथ्वी की छाती पर पता नहीं कब  हरी- हरी घास उग आती है; और एक दिन पृथ्वी के रंगमंच पर मनुष्य भी अवतीर्ण हो जाता है। 
>>फल है धर्म-फूल है साधना > फिर मनुष्य जब अपनी अद्भुत चिन्तन-शक्ति की क्षमता से परिचित होता है तो वह जगत की प्रत्येक वस्तु के  मूल्यांकन के साथ ही साथ अपने जीवन का अर्थ भी खोजने में लग जाता है। एक दिन इस चिन्तन वृक्ष की डाली पर एक फूल खिल जाता है। इस फूल को ही 'दर्शन' (philosophy ) कहा जाता है। इस फूल को मन के द्वारा देखा, स्पर्श किया और बुद्धि के द्वारा समझा जा सकता है, किन्तु उसे अपनी सत्ता के साथ मिश्रित नहीं किया जा सकता। हाँ, इस फूल से बाद में जो फल प्राप्त होता है, उसे आत्मसात किया जा सकता है। और उसी  फल को 'धर्म' के नाम से पुकारा जाता है यदि यह बात समझ में आ जाय, तो बहुत आसानी से यह स्वीकार किया जा सकता है कि धर्म केवल सनातन ही हो सकता है! तथा धर्म नामक वस्तु यदि सनातन है, तो समय के प्रवाह में उसके बाहरी आवरण में भले ही कितना परिवर्तन आ जाये, उसके मूल संरचना में कोई परिवर्तन नहीं होता। अतएव यदि यह सृष्टि अनादि,अनन्त है; तथा समस्त दर्शनों का फल यदि धर्म ही होता हो, तो धर्म भी अनादि-अनन्त होने को बाध्य है। और मनुष्य यदि इस अनादि, अनन्त धर्म रूपी फल [Be and Make के मर्म] को आत्मसात नहीं कर सका, तो डार्विन के सिद्धांत~ (प्राकृतिक-चयन :Natural selection) 
"योग्यतम की उत्तरजीविता (Survival of the fittest)  के नियमानुसार वह मनुष्य शरीर धारण करने के  अयोग्य हो जायेगा; तथा पृथ्वी पर से उसके पैरों के निशान भी मिट जायेंगे। इसीलिये कहा गया है-' धर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षितः |' 
      तो क्या इसका यह अर्थ हुआ कि धर्म भी प्रतिहिंसा परायण वस्तु है ? बिल्कुल नहीं।  यदि मैं अपने 'मानव-धर्म ' की रक्षा न करूँ, तो विश्व-ब्रह्माण्ड का धर्म भी मेरी रक्षा नहीं करेगा।  किन्तु, यदि मैं अपने धर्म की रक्षा करूँ तो विश्व-ब्रह्माण्ड का धर्म भी मेरी रक्षा करेगा। अब,   प्रश्न उठेगा-कि मेरा धर्म है क्या ? इसके उत्तर में पहले ही कहा गया है, समग्र दर्शनों के फल को भक्षण करना तथा उसको आत्मसात कर लेना ही धर्म है। यह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड जिस छन्द में बंधा है, उस तत्व या छन्द को देख लेना दर्शन है, तथा उस छन्द  का अनुसरण करना धर्म है। अपने व्यक्तिगत जीवन-छन्द को विश्वब्रह्माण्डीय-छन्द के आनुषांगिक बना लेने में सक्षम हो जाने के बाद ही मनुष्य अपने स्वभाव  को जान सकता है, तथा इस 'स्वभाव' में स्थित रहने को ही धर्म कहते हैं। और ऐसा करने में सक्षम होने पर सम्पूर्ण जगत के साथ व्यक्ति का योग हो जाता है। इस योग को प्राप्त हो जाना ही धर्म का लक्ष्य है। तथा इस योग की उपलब्धी हो जाने के बाद- मनुष्य के लिए कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता, तथा योगी पुरुष अन्य किसी लाभ को उसकी अपेक्षा अधिक नहीं समझता। " यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः। " (गीता 6/22) 
       मनुष्य विचार करने और जानने की शक्ति को लेकर ही जन्म ग्रहण करता है। इसीलिये जब वह इस चरम सत्य को अपने  अनुभव से  जान लेता है, तब उसके लिये जानने को और कुछ शेष नहीं रह जाता है। विश्व-ब्रह्माण्ड के धर्म और सामग्रिक छन्द-ताल  को निरन्तर बनाये रखना होगा तथा हममें जो बेसुरा हो या जहाँ छन्द-ताल कट जाता हो उसे निष्ठुरतापूर्वक निकाल बाहार करना होगा। धर्म के यही दो पक्ष हैं। धर्म की सबसे प्राथमिक बात सरल भाषा में यही है। अब हमलोग इस तथ्य को आसानी से स्वीकार कर सकते हैं कि चिर काल से, यहाँ तक कि सृष्टि का आरम्भ  होने के समय से ही धर्म  चलता आ रहा है, और आगे भी चलता रहेगा। इसीलिये यह प्रश्न कि वर्तमान युग  में भी धर्म की कोई प्रासंगिकता बची है या नहीं, बेतुकी है। 
  सृष्टि का चक्र चूँकि निरन्तर चलता रहता है, इसीलिये इसके साथ  कदम से  कदम मिला कर चलने की चेष्टा में धर्म को भी विभिन्न प्रकार के रूप धारण करने पड़ते हैं। इस अनिवार्यता को नहीं समझ पाने के कारण यदि धर्म को (अफीम कहकर ?)  बिल्कुल ही विसर्जित कर दिया जाय या  विश्व-ब्रह्माण्ड के  छन्द-ताल के साथ मनुष्य के  छन्द-ताल के  सम्पर्क को काट दिया जाये तो मनुष्य  अपने  जड़ से ही उखड़  जायेगा। उसके मन में चरम सत्य को जानने की जो लालसा रहती है, वह अपूर्ण रह जाएगी और उसका जीवन  निरर्थक हो जायेगा। अतः हमें अपने मनुष्य-जीवन को सार्थक करने के लिये उसी विश्व-छन्द के ताल साथ अपने हृदय की धड़कन को एकाकार कर लेना होता है । इसीलिये विभिन्न युगों में, विभिन्न देशों में, विभिन्न मार्गों से मनुष्य इस योग को प्राप्त करने की चेष्टा करता चला आ रहा है। अपनी इच्छा से इस योग के मार्ग पर चलने को  धर्म कहते हैं, तथा इसके विपरीत आचरण को अधर्म कहते हैं।

 किन्तु, विश्व के इतिहास में यह देखा जा सकता है कि बार -बार धर्म की ग्लानी हुई है और  अधर्म भी  बार- बार अपना सर उठाता रहता  है । फिर  इस ग्लानी से मनुष्यों का उद्धार करने के लिये समय- समय पर दैवी मनुष्यों या  धर्मगुरुओं का अवतरण (अवतार वरिष्ठ तक) भी होता रहा  है। तथा उन्होंने  सामान्य मनुष्यों की समझ में आ जाने वाली भाषा में  देश-काल-परिस्थिति के अनुसार अपने उपदेशों को प्रदान किये।`नन्दन-तत्व' या 'स्वर्ग से पतन' के सिद्धांत ' Eden theory' को समझ पाना हर किसी के लिये संभव नहीं है। इसीलिये उन धर्म-गुरुओं ने ज्ञान कूसूम (फूल) का चयन न कर सीधे धर्म रूपी ज्ञान-फल को ही उनकी हथेली पर रख दिया है। तथा उस फल का भक्षण करके मनुष्यों ने धर्म की रक्षा करते हुए अपनी रक्षा भी की है।इसी प्रकार बुद्ध,  महावीर,  मूसा, ईसा, मोहम्मद -आदि अनेक दैवि मनुष्य, पैगम्बर, अवतार या धर्मगुरु  धरती पर आये हैं। देश-काल का  परिष्कार  करने के लिये वैश्विक छन्द-ताल का अनुगामी  बनकर कभी कोई ज्वार आया है, तो कभी- कभी भाटा भी आता रहा है। अर्थात जगत में जब कभी कालाचार और लोकाचार ही धर्म के प्राण  से बड़ा बन जाता है तब  धर्म के  सुर को भी धीमा हो जाना पड़ा है। 
        दूसरी ओर ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में मनुष्य के ज्ञान की परिधि में क्रमशः काफी विस्तार हुआ है। वह matter या जड़ पदार्थ के भीतर बहुत गहराई तक प्रविष्ट हो चुका है, तथा प्रकृति के नये नये नियमों को जानकर, उन्हें बड़े अहंकार के साथ विज्ञान कहता है। अब, वह शक्ति (अव्यक्त प्रकृति) को ऊर्जा Energy के रूप में अधिक पहचानने लगा है। वह अब समझने लगा है कि यह जगत पदार्थ के उपर शक्ति का खेल मात्र है। इन दोनों (पदार्थ और ऊर्जा ) के अतिरिक्त अन्य कोई सत्ता नहीं (E =M)है। इस पदार्थ और शक्ति को वशीभूत कर लेने से अपनी इच्छानुसार सब कुछ किया जा सकता है। उसके बाद अचानक ही पदार्थ धुँधला होने लगता है, और जब उसकी दृष्टि के सामने से पदार्थ (Matter) अदृश्य हो जाता है, और जब केवल शक्ति (Energy) मात्र ही बची रहती है; तब वह बड़े अभिमान से घोषणा करता है- ' धर्म नहीं विज्ञान ही मनुष्य को सब कुछ दे सकता है।' किन्तु आधुनिक युग में विज्ञान स्वयं सबकुछ के धर्म को अर्थात इस ब्रह्माण्ड के धर्म , या पदार्थ और शक्ति के धर्म को अधिकाधिक जान लेने की दिशा में अग्रसर होता जा रहा है। इन सब को जानकर वह मनुष्य के कष्ट में कमी लाने, या मानवजीवन को सुखमय बनाने की चेष्टा कर रहा है। उसके भोग-सुख में वृद्धि कर रहा है। विज्ञान ने इस बात का आविष्कार भी कर लिया है कि छन्द-ताल से अलग हट जाने के कारण ही मनुष्य को जीवन में इतने कष्ट भोगने पड़ रहे हैं। इसीलिये अब विज्ञान  भी नैसर्गिक छन्द की खोज में दौड़ने लगा है। (अब वह जानना चाह रहा है कि  हिग्स बोसॉन में मात्रा या भार कहाँ से आया? इसी क्रम में उसने गॉड पार्टिकल को भी ढूंढ़ निकाला है !) किन्तु, अभी तक उसका (विज्ञान का)  कोई समग्र दर्शन नहीं होने के कारण उसके दौड़ के भीतर जो लयबद्धता होनी चाहिए थी , मनुष्य जीवन के साथ जो ताल -छन्द होना चाहिए था, वह सब नहीं दीखता है। इसीलिए जब एक देश अपने स्वार्थ के लिए दूसरे देश के स्वार्थ को दबा देता है, तो विज्ञान को आपत्ति नहीं होती, क्योंकि विज्ञान के पास श्रेय -प्रेय का विचार कर निर्णय लेने का अवसर नहीं है। ऐसी परिस्थिति में उसे अपना स्वार्थ ही परमार्थ के रूप में दिखाई देता है। [रूस -यूक्रेन, इस्राइल -हमास  युद्ध देखें] किन्तु आध्यात्मिक मनुष्य चाहे तो विवेक-प्रयोग कर प्रेय का त्याग कर सकता है, और  श्रेय को प्राप्त करने की दिशा में अपने कदम  बढ़ाता है,  और स्वार्थ का त्याग करते हुए क्रमशः परार्थ को ही बड़ा बना लेता है। क्योंकि, विज्ञान में भी अज्ञात को जानने के प्रति आग्रह होता है, इसीलिये हम विज्ञान को अधिक से अधिक धर्म तक पहुँचने का एक सोपान तो कह सकते हैं , किन्तु विज्ञान कभी  धर्म का समकक्ष या प्रतिद्वन्द्वी  नहीं बन  सकता है।
 इस बात को समझ लेने से विज्ञान और धर्म के बीच विवाद की कोई आशंका नहीं रहती। क्योंकि अंश कभी समग्र का विरोधी नहीं हो सकता। इसीलिये विज्ञान का परित्याग करके केवल धर्म की बात करने की भी आवश्यकता नहीं है। और विज्ञान के अखण्डनीय परिणति (Undeniable-culmination) को ही धर्म कहते हैं। इसीलिए धर्म के परित्याग का तो प्रश्न ही नहीं उठता।  
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[>>>' Eden theory' स्वर्ग से पतन का सिद्धांत (नन्दन तत्व) :  इस ' Eden theory' को समझ पाना हर किसी के लिये संभव नहीं है। इसमें कहा गया है कि फरिश्ता आदम ने शैतान के बहकावे पर सेव का फल खा लिया था, और उसको धरती पर मनुष्य रूप में जन्म लेना पड़ा। लेकिन फल और फूल खिलने के नियम का अपवाद भी होता है । क्योकि आमतौर से पहले फूल आता है, फिर फल प्राप्त होता है-जैसे पहले मंजर आता है फिर आम का फल प्राप्त होता है। लेकिन किसी-किसी लत्तर में पहले फल प्राप्त हो जाता है, बाद में फूल आता जैसे कोंहड़ा -कद्दू। माने विवेक-दर्शन (आत्मसाक्षात्कार) रूपी फल प्राप्त होने फूल रूपी चरित्र कमल बाद में खिलता है। ' Being and Becoming ' बाद में होता है !  कनफ्यूज हो जाने का अर्थ है, फ्यूज उड़ जाना - माने आत्मा (केंद्र या निःस्वार्थपरता) से कनेक्सन कट जाना, फिर कोई मिस्त्री (नवनी दा ) आकर फ्यूज जोड़ देता है।
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तं विद्यात् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्। 

 सः निश्चयेन योक्तव्यः योगः अनिर्विण्णचेतसा ॥

(गीता 6.22 -23 ) 
जिसमें दुःखों के संयोग का ही वियोग है, उसी को 'योग' नाम से जानना चाहिये। (वह योग जिस ध्यानयोग का लक्ष्य है) उस ध्यानयोग का अभ्यास न उकताये हुए चित्त से निश्चयपूर्वक करना चाहिये। जिस चित्तमें निर्विण्णता ( उद्वेग ) न हो वह अनिर्विण्णचित्त है ऐसे अनिर्विण्ण ( न उकताये हुए ) चित्त से निश्चयपूर्वक योग का साधन करना चाहिये यह अभिप्राय है।
पूर्व के चार श्लोकों में उपदिष्ट साधनों के अभ्यास के फलस्वरूप जब चित्त पूर्णतया शान्त हो जाता है तब उस शान्त चित्त में आत्मा का साक्षात् अनुभव होता है स्वयं से भिन्न किसी विषय के रूप में नहीं वरन् अपने आत्मस्वरूप से। मन की अपने ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप की अनुभूति की यह स्थिति परम आनन्द स्वरूप है। परन्तु यह साक्षात्कार तभी संभव है जब 'जीव' [माँ जगदम्बा की कृपा से-शिवोहं ,शिवोहं कहते हुए] शरीर मन और बुद्धि इन परिच्छेदक उपाधियों के साथ के अपने तादात्म्य को पूर्णतया त्याग देता है।
इस सुख को अतीन्द्रिय कहने से स्पष्ट है कि विषयोपभोग के सुख के समान यह सुख नहीं है। सामान्यत हमारे सभी अनुभव इन्द्रियों के द्वारा ही होते हैं। इसलिए जब आचार्यगण आत्मसाक्षात्कार को आनन्द की स्थिति के रूप में वर्णन करते हैं तब हम उसे बाह्य और स्वयं से भिन्न कोई लक्ष्य समझते हैं। परन्तु जब उसे अतीन्द्रिय कहा जाता है तो साधकों को उसके अस्तित्व और सत्यत्व के प्रति शंका होती है कि कहीं यह मिथ्या आश्वासन तो नहीं ?  इस शंका का निवारण करने लिए इस श्लोक में भगवान स्पष्ट करते हैं कि यह आत्मानन्द केवल शुद्ध बुद्धि के द्वारा (मिथ्या अहं के द्वारा नहीं , आत्मा ही परमात्मा के आनन्द की अनुभूति करता है) ही ग्रहण करने योग्य है। यहाँ एक शंका मन में उठ सकती है कि प्राय अतिमानवीय प्रयत्न करने के पश्चात् इस अनन्त आनन्द का जो अनुभव होगा कहीं वह क्षणिक तो नहीं होगा ? जिसके लुप्त हो जाने पर उसकी प्राप्ति के लिए पुन उतना ही परिश्रम तो नहीं  करना पड़ेगा ? 
भगवान् का स्पष्ट कथन है कि जिसमें स्थित होने पर योगी तत्त्व से कभी दूर नहीं होता। यह शाश्वत सुख है जिसे प्राप्त कर लेने पर साधक पुनः दुखरूप संसार को प्राप्त नहीं होता। क्या उस योगी को सामान्य जनों को अनुभव होने वाले दुख कभी नहीं होंगे  ? क्या उसमें सामान्य संसारी मनुष्यों के समान अधिक से अधिक वस्तुओं को संग्रह करने की इच्छा नहीं होगी ?  क्या वह लोगों से प्रेम करने के साथ उनसे भी प्रेम पाने की अपेक्षा नहीं रखेगा  ? इस प्रकार की उत्तेजनाएं केवल अज्ञानी पुरुष के लिए ही कष्टप्रद हो सकती हैं ज्ञानी के लिए नहीं। 
यहाँ बाइसवें श्लोक में उस परमसत्य को उद्घाटित करते हैं जिसे प्राप्त कर लेने पर योगी इससे अधिक अन्य कोई भी लाभ नहीं मानता है। इतने अधिक स्पष्टीकरण के पश्चात् भी केवल बौद्धिक स्तर पर वेदान्त को समझने का प्रयत्न करने वाले लोगों के मन में शंका आ सकती है कि क्या इस आनन्द के अनुभव को जीवन की तनाव दुख कष्ट और शोकपूर्ण परिस्थितियों में भी निश्चल रखा जा सकता है
 दूसरे शब्दों में क्या धर्म धनवान् और समर्थ लोगों के लिए के लिए केवल मनोरंजन और विलास, दुर्बल एवं असहाय लोगों के लिए अन्धविश्वासजन्य सन्तोष और पलायनवादियों के लिए काल्पनिक स्वर्ग मात्र नहीं है ? क्या जीवन में आनेवाली कठिन परिस्थितियों में जैसे प्रिय का वियोग हानि, सोडियम वाली रुग्णता, दरिद्रता भुखमरी आदि में धर्म के द्वारा आश्वासित पूर्णत्व अविचलित रह सकता है ? लोगों के मन में उठने वाली इस शंका का असंदिग्ध उत्तर देते हुए यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि जिसमें स्थित हो जाने पर पर्वताकार दुखों से भी वह योगी विचलित नहीं होता
उपर्युक्त विवेचन का संक्षेप में सार यह है योगाभ्यास से मन के एकाग्र होने (विवेकदर्शन का अभ्यास करते -करते विवेक-स्रोत के उद्घाटित होने) पर योगी को अपने उस परम आनन्दस्वरूप की अनुभूति होती है जो अतीन्द्रिय तथा केवल शुद्ध बुद्धि के द्वारा ग्राह्य है।  उस अनुभव में फिर बुद्धि भी लीन हो जाती है। इस स्थिति में न संसार में पुनरागमन होता है न इससे श्रेष्ठतर कोई अन्य लाभ ही है। इसमें स्थित पुरुष गुरुतम दुखों से भी विचलित नहीं होता। गीता में इस अद्भुत सत्य का आत्मस्वरूप से निर्देश किया गया है और जो सभी विवेकी साधकों का परम लक्ष्य है।इस आत्मा को जानना चाहिए। 
आत्मज्ञान तथा आत्मानुभूति के साधन को गीता में योग कहा गया है और इस अध्याय में योग की बहुत सुन्दर परिभाषा दी गई है। भगवान् कहते हैं दुख के संयोग से वियोग की स्थिति योग है।  शरीर मन और बुद्धि से वियुक्त होकर आत्मा को उसके शुद्ध स्वरूप में अनुभव करना ही दुखसंयोगवियोग योग है। विषयों में (तीनों ऐषणाओं में) आसक्ति से ही मन का अस्तित्व बना रहता है। किसी एक वस्तु से वियुक्त करने के लिए उसे अन्य श्रेष्ठतर वस्तु का आलम्बन देना पड़ता है। भगवान् कहते हैं कि इस योग का अभ्यास उत्साहपूर्ण और निश्चयात्मक बुद्धि से करना चाहिए। यदि अग्नि की उष्णता असह्य लग रही हो तो हमें केवल इतना ही करना होगा कि उससे दूर हटकर किसी शीतल स्थान पर पहुँच जायें। इसी प्रकार यदि परिच्छिन्नता का जीवन दुखदायक है तो उससे मुक्ति पाने के लिए आनन्दस्वरूप आत्मा में स्थित होने की आवश्यकता है। यही है दुखसंयोगवियोग योग।
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