युवा मानसिकता के अनुसार धर्म और नैतिकता
युवा-मन तथा समाज में यह प्रश्न चर्चा का विषय बना हुआ है कि वर्तमान युग के परिप्रेक्ष्य में धर्म और नैतिकता (पुण्य-अपुण्य विवेक) जैसी बातों की कोई उपयोगिता है भी या नहीं ? क्योंकि कई "प्रेरक वक्ता" (motivational speaker) लोग युवाओं को यही समझाते रहते हैं कि धर्म तो बुढ़ापे की चीज है तथा यौवन अर्थ उपार्जन तथा भोग करने के लिये मिलता है। ये लोग मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ में धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष में से केवल दूसरे और तीसरे पुरुषार्थ (अर्थ और काम) को ही विशेष महत्व देते हैं। किन्तु मनुष्य जीवन में इनमें से प्रत्येक का क्रमानुसार होना ही वांछनीय है ,तथा प्रथम पुरुषार्थ धर्म को ही जीवन की बुनियाद बनाकर, शेष तीनों को भी प्राप्त करना होगा। वरना जीवन (चार आश्रम ?) की सार्थकता को खो देने से निराशा ही हाथ लगेगी।
[>>>Religion and Morality : निर्गुण ब्रह्म (आत्मा) के मूर्तरूप 'मनुष्य' को हमलोग केवल "जीवन-गठन या मनुष्यत्व प्राप्ति [पशुत्व से "मानवत्व-और मानवत्व से दिव्यत्व] प्राप्ति रूपी रंग " के - 'ईसा' (या अवतार वरिष्ठ) के माध्यम से ही समझ सकते हैं। We can know the Human being (M/F) who is the embodiment of Nirguna Brahma (Soul) only through Life-building i.e. attainment of humanity ' ~ (From Animality) and from "Humanity to Divinity” in the form of color – 'Jesus ' (Avatar Senior)].
जीवन-गठन या मनुष्यत्व प्राप्ति का मूल उपादान हैं-धर्म और नैतिकता। किन्तु अधिकांश युवाओं के मन में धर्म या नैतिकता का नाम सुनते ही अश्रद्धा का भाव जाग्रत हो जाता है। इसके दो कारण हैं। पहला कारण है पाश्चात्य शिक्षा, जिसके फलस्वरूप युवाओं में आयातित शिक्षा एवं पाश्चात्य विचारों के प्रति नकल करने की प्रवृत्ति बढ़ गयी है। चमक-दमक से भरे हुए सस्ते मनोरंजन की ओर मन का झुकाव अधिक रहने के कारण युवाओं ने बहुमूल्य मनुष्य-जीवन के प्रति श्रद्धा को खो दिया है। किसी गंभीर तात्विक सिद्धान्त को विवेक की सहयता से विचार-विश्लेषण करने के बाद ग्रहण करने की क्षमता आज के अधिकांश युवाओं में नहीं है। एक वाक्य में कहें तो पाश्चात्य शिक्षा ने हमारे देश के युवाओं को बहिर्मुखी, स्वार्थी और इन्द्रिय परायण होना सिखा दिया है। और दूसरा कारण है कि कुछ वैसे लोग ['online ' गुरुगिरि करने वाले प्रेरक वक्ता ~ motivational speaker'] जो स्वयं धर्म यानि नीतिबोध में प्रतिष्ठित नहीं हैं, अर्थात जिनके मन, वचन और कर्म में एकरूपता नहीं है, वैसे लोग जब आम जनता को धर्म और नैतिकता का जब उपदेश देने लगते हैं ,तो लोग और ज्यादा भ्रमित हो जाते हैं । इस श्रेणी के तथाकथित शिक्षित और पण्डित लोग जब तर्क और वाकचातुर्य के माध्यम से धर्म पर प्रवचन दे कर आम जनता का शोषण करते हैं, तो उसे देख भी युवा मन धर्म के प्रति श्रद्धाहीन हो जाता है।
लेकिन इसके लिये युवाओं को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। शास्त्रों का पाठ करना, नैवेद्य आदि समर्पित करना कर्मकाण्ड है या धर्म का उपरी आवरण (छिलका) हैं। धर्म का वास्तविक अर्थ चरित्र, सत्यनिष्ठा, पवित्रता, निःस्वार्थपरता , प्रेम और भयशून्यता है। किन्तु, इन बातों को युवाओं से कोई नहीं कहता। वर्तमान युग में अर्थात उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम भाग में एकमात्र श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द की जोड़ी ने अपने जीवन द्वारा दिखलाया है कि धर्म, आध्यात्मिकता या नीतिबोध किसे कहते हैं? जिस प्रकार वैज्ञानिक लैबोरोट्री में निरिक्षण-परिक्षण कर किसी तात्विक सिद्धान्त का पर पहुँचते हैं, ठीक उसी प्रकार इन दोनों ने बुद्धि (Head), हृदय एवं व्यावहारिक कार्य में समर्थ शरीर (3H) - के संतुलित विकास के माध्यम से धर्म को अपने जीवन में उतारकर हमें दिखलाया है।
वर्तमान समय में कई लोग ऐसा सोचते हैं कि भारतवर्ष के अधोगति का मूल कारण धर्म है तथा भारत की उन्नति एवं प्रगति के मार्ग में धर्म ही मुख्य बाधा है। जो लोग ऐसी बातें करते हैं शायद उन्होंने इतिहास को सही ढंग से पढ़ा ही नहीं है या आध्यात्मिकता क्या है, उस सम्बन्ध में उनलोगों की कोई धारणा ही नहीं है। धर्म के नाम पर शोषण अतीत में था, वर्तमान में है, और भविष्य में भी रहेगा, किन्तु , इसके लिये धर्म को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। जो लोग, धर्म को समझे बिना उसे अपने राजनितिक स्वार्थ को पूरा करने का साधन बना लेते हैं, वे लोग ही असली दोषी हैं। धर्म कितना अधिक महत्वपूर्ण और गतिशील (मनुष्यत्व-उन्मेषक या चरित्र-निर्माणकारी वस्तु) है, वह तो केवल ईसा, बुद्ध, चैतन्य या श्रीरामकृष्ण के जीवन के द्वारा ही प्रमाणित किया जा सकता है। इनके विचार और उपदेश आज हजारों वर्ष बीत जाने के बाद भी जगत के बहुत से लोगों प्रेरणा दे रहे हैं।
धर्म शब्द धृ धातु से निकला है, जिसका अर्थ होता है 'धारण' करना या 'पकड़े रखना'- एक स्वप्रकाश अखण्ड चैतन्य-शक्ति हमारे व्यक्तिगत सत्ता (individual existence) को धारण किये हुए है। जब कोई व्यक्ति धर्म का पालन उसके स्वाभाविक सनातन अर्थ में करेगा, तो यही प्रमाणित होगा कि 'देवत्व' (Divinity-पूर्णत्व-निःस्वार्थपरता) ही मनुष्य का जन्मजात स्वाभाव है। किन्तु अभी वह प्रकृति (मन) की गुलामी कर रहा है, इसीलिये उसे इस सत्य का अनुभव नहीं हो रहा है। व्यक्तिगत जीवन में अपने यथार्थ स्वरूप की अनुभूति कर लेना ही धर्म है। जिनकी दृष्टि केवल आहार,निद्रा और वंश विस्तार तक ही सीमित है, जो लोग केवल इन्द्रिय सुखों से ही तृप्त हैं, उनके लिये सचमुच धर्म और नैतिकता की आवश्यकता नहीं है। किन्तु जिनके मन में, मूल्यबोध जाग्रत हो चूका है, जो उत्कृष्ट जीवन प्राप्त करने करने की अभिलाषा से वृहत आनन्द (ब्रह्म) का स्पर्श पाना चाहते हैं; वे तुच्छ इन्द्रिय सुखों से कभी तृप्त नहीं हो सकते, उनके मन में धर्म और नैतिकता का प्रश्न उठेगा ही।
हमलोग देखते हैं कि जो प्राणी जितना निम्न स्तर का होता है , वह इन्द्रिय सुखों में उतना ही तृप्ति पाता है, क्योंकि उसकी सुखानुभूति इन्द्रियों में ही केंद्रित होती है। सभी जातियों के बीच यह देखा जाता है कि निकृष्ट श्रेणी के लोग इन्द्रियों की सहायता से ही सुखलाभ करते हैं एवं शिक्षित तथा सुसंस्कृत लोग विचार, दर्शन विज्ञान एवं शिल्प कला में सुख पाते हैं। मानव मन को गतिशील करने के लिए धर्म श्रेष्ठ नियामक शक्ति है और यही शक्ति मनुष्य को (पशुत्व से मनुष्यत्व और मनुष्यत्व से देवत्व-प्राप्ति के मार्ग प) आगे बढ़ने एवं संग्राम करने के लिए प्रेरणा जगाती है। लन्दन में 'धर्म की आवश्यकता ' विषय पर व्याख्यान देते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " धर्म से ठोस सत्यों और तथ्यों को पाने के अतिरिक्त, उससे मिलने वाली सान्तवना के अतिरिक्त, एक विशुद्ध विज्ञान और एक अध्यन के रूप में वह मानव-मन के लिए सर्वतोकृष्ट और स्वस्थतम व्यायाम है। असीम की खोज करना, असीम को पाने के लिए उद्यम करना, इन्द्रिय, मन एवं भौतिक द्रव्यों की सीमाओं से परे जाकर एक आध्यात्मिक मानव के रूप में विकसित होना - इन सारी चीजों के लिए दिन-रात जो प्रयत्न किया जाता है, वह अपने आप में ही मनुष्य के सभी प्रयत्नों से उदात्ततम और परम गौरवशाली है। " (२/१९८)
"Apart from the solid facts and truths that we may learn from religion, apart from the comforts that we may gain from it, religion, as a science, as a study, is the greatest and healthiest exercise that the human mind can have. This pursuit of the Infinite, this struggle to grasp the Infinite, this effort to get beyond the limitations of the senses — out of matter, as it were — and to evolve the spiritual man — this striving day and night to make the Infinite one with our being — this struggle itself is the grandest and most glorious that man can make." (Volume 2, Jnana-Yoga/ THE NECESSITY OF RELIGION/ Delivered in London )
["এইরূপ ধর্ম হইতে আমরা যে-সকল তথ্য ও তত্ত্ব শিক্ষা করিতে পারি, যে-সান্ত্বনা পাইতে পারি, তাহা ছাড়িয়া দিলেও ধর্ম অন্যতম বিজ্ঞান অথবা গবেষণার বস্তু হিসাবে মানব-মনের শ্রেষ্ঠ ও সর্বাধিক কল্যাণকর অনুশীলনের বিষয়। অনন্তের এই অনুসন্ধান, অনন্তকে ধারণা করিবার এই সাধনা, ইন্দ্রিয়ের সীমা অতিক্রম করিয়া যেন জড়ের বাহিরে যাইবার এবং আধ্যাত্মিক মানবের ক্রমবিকাশ-সাধনের এই প্রচেষ্টা—অনন্তকে আমাদের সত্তার সঙ্গে একীভূত করিবার এই নিরন্তর প্রয়াস—এই সংগ্রামই মানুষের সর্বোচ্চ গৌরব ও মহত্ত্বের বিকাশ।" (ধর্মের প্রয়োজন: খন্ড ৩) ]
स्वामि विवेकानन्द आगे कहते हैं- " ... बाह्य प्रकृति को जीत लेना कितना अच्छा है, कितना भव्य है। किन्तु, उससे असंख्य गुना अच्छा और भव्य है, अन्तः प्रकृति पर विजय प्राप्त करना। ग्रहों और नक्षत्रों का नियंत्रण करने वाले नियमों को जान लेना बहुत अच्छा और गरिमामय है , लेकिन उससे अनन्त गुना अच्छा और भव्य है, उन नियमों का जानना (योगः चित्तवृत्ति निरोधः' योगसूत्र को जानना) जिससे मनुष्य के मनोवेग, भावनायें और इच्छायें नियंत्रित होती हैं।" (२/१९७) मन को वश में करने, मन पर विजय प्राप्त करने की पद्धति (चारो योग मार्ग) सम्पूर्णतः धर्म के अन्तर्गत आती है।
" It is good and very grand to conquer external nature, but grander still to conquer our internal nature. It is grand and good to know the laws that govern the stars and planets; it is infinitely grander and better to know the laws that govern the passions, the feelings, the will, of mankind. [The method of controlling the mind and conquering it (the four paths of yoga) completely comes under religion. (Volume 2, Jnana-Yoga/ THE NECESSITY OF RELIGION/ Delivered in London )]
"বহিঃপ্রকৃতিকে জয় করা খুবই ভাল ও বড় কথা; কিন্তু অন্তঃপ্রকৃতিকে জয় করা আরও মহত্তর। যে-সকল নিয়মানুসারে গ্রহ-নক্ষত্রগুলি পরিচালিত হয়, সেগুলি জানা উত্তম, কিন্তু যে-সকল নিয়মানুসারে মানুষের কামনা, মনোবৃত্তি ও ইচ্ছা নিয়ন্ত্রিত হয়, সেগুলি জানা অনন্তগুণে মহত্তর ও উৎকৃষ্ট। "[মনকে নিয়ন্ত্রণ করার এবং জয় করার পদ্ধতি (যোগের চারটি পথ) সম্পূর্ণরূপে ধর্মের অধীনে আসে।]
इसीलिए मनुष्य निर्माण (पशुत्व से मनुष्यत्व का उन्मेष) तथा चरित्र-गठन करने के लिये धर्म और नैतिकता के अनिवार्यता की उपेक्षा नहीं की जा सकती । विवेक-प्रयोग के द्वारा श्रेय-प्रेय का निर्णय लेने की क्षमता, तथा सार्वजनिक कल्याण - 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' की भावना (one world one family one future) का जन्म केवल धर्म और नैतिकता के [प्रशिक्षण] द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। त्याग की बुनियाद पर ही नैतिकता प्रतिष्ठित है। आज तक किसी भी काल में ऐसी कोई भी नैतिकता प्रचलन में नहीं आई जिसके मूल में त्याग की भावना नहीं हो। श्रीरामकृष्ण का यह उपदेश- " नाहं नाहं, तूहीं, तूहीं " - ही नीतिशास्त्र का शाश्वत सन्देश है। नीतिशास्त्र का उपदेश है - स्वार्थ नहीं परार्थ। नीतिशास्त्र कहता है - "असीम सामर्थ्य और असीम आनन्द को प्राप्त करने के चक्कर में मनुष्य जिस निरर्थक व्यक्तित्व की धारणा ( देहध्यास-M/F) से चिपटा रहता है, उसे छोड़ना पड़ेगा। तुमको दूसरों को आगे करना पड़ेगा और स्वयं को पीछे। हमारी इन्द्रियाँ कहती हैं, 'अपने को आगे रखो',पर नीतिशास्त्र कहता है- 'अपने को सबसे अन्त में रखो।उसकी पहली माँग है कि भौतिक स्तर पर अपने व्यक्तित्व का हनन करो , निर्माण नहीं। वह (निर्गुण ब्रह्म)जो असीम है, उसकी अभिव्यक्ति इस भौतिक स्तर पर नहीं हो सकती ऐसा असम्भव है, अकल्पनीय है। "....अहंता का पूर्ण उच्छेदन ही नीतिशास्त्र का आदर्श है। लोग आश्चर्यचकित रह जाते हैं , यदि उनसे व्यक्तित्व की चिन्ता न करने के लिए कहा जाता है। जिसे वे अपना व्यक्तित्व कहते हैं, उसके विनष्ट होने के प्रति अत्यन्त भयभीत हो जाते हैं। पर साथ ही ऐसे ही लोग [जिनका मन -मुख एक नहीं है ?] नीतिशास्त्र के उच्चतम आदर्शों को सत्य घोषित करते हैं। वे क्षण भर के लिए भी यह नहीं सोचते कि नैतिकता का समग्र क्षेत्र , ध्येय और विषय व्यक्ति का उच्छेदन है , न कि उसका निर्माण।" (२/१९५-९६)
इसी 'अहं' की विलुप्ति का साक्षात् दर्शन हमलोग श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द के जीवन में कर सकते है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " धर्म तथा आध्यात्मिकता पर आधारित नीतिशास्त्र का क्षेत्र असीम मनुष्य है। वह व्यक्ति को लेता है, पर उसके सम्बन्ध असीम हैं। वह समाज को भी लेता है, क्योंकि समाज व्यक्तियों के समूह का ही नाम है ; इसलिए जिस प्रकार यह नियम व्यक्ति और उसके शाश्वत संबंधों पर लागू होता है , ठीक उसी प्रकार समाज पर भी लागू होता है - समाज की स्थिति या दशा किसी समय विशेष में जो भी हो। " (२/१९७ )
इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि मानव जाती के लिये धर्म और नैतिकता की आवश्यकता आज भी है और सदैव रहने वाली है। वर्तमान युग में तो इसकी प्रयोजनीयता और अधिक बढ़ गयी है, क्योंकि सामाजिक क्रांति में युवा शक्ति की भूमिका ही राष्ट्रीय एकता का मूल उपादान है।
यदि आज के युवा भी धर्म और नैतिकता को त्याग कर अर्थात अपना चरित्र-निर्माण किये बिना ही देश सेवा और समाज सेवा के कार्य में कूद गये, तो वे भी मानव प्रेमी या देशप्रेमी नहीं बनकर तथाकथित आन्दोलनजीवी राजनेताओं के समान ही स्वार्थी, स्वार्थदल प्रेमी होकर देशविरोधी गुटबाजी में संलग्न हो जायेंगे। एक मात्र यथार्थ धर्म और नैतिकता से ही मानव कल्याण की दृष्टि प्राप्त की जा सकती है।
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🙏"(२ /१९७-९८ )नीतिशास्त्र सदा कहता है -(परहित सरिस धर्म नहीं भाई !)' मैं नहीं, तू।' इसका उद्देश्य है- ' स्व नहीं, निः स्वः' अर्थात स्वार्थपरता नहीं स्वार्थशून्यता।
' खोज की वस्तु के रूप में धर्म- श्रेष्ठतम व्यायाम है' हमलोग यह देख सकते हैं, कि " जो प्राणी जितना ही निम्न स्तर का होगा, उसे इन्द्रियजनित सुखों में उतना ही आनन्द मिलेगा। बहुत कम मनुष्य ऐसे मिलेंगे, जिन्हें भोजन करते समय वैसा ही उल्लास होता है, जैसा किसी कुत्ते या भेड़िये को। किन्तु याद रहे कि कुत्ते और भेड़िये के सारे सुख इन्द्रियों तक ही सीमित हैं। निम्न कोटि के मनुष्यों को इन्द्रियजनित सुखों में ही आनन्द मिलता है। किन्तु जो लोग सुसंस्कृत और सुशिक्षित हैं, उन्हें चिन्तन, दर्शन, कला और विज्ञान में आनन्द मिलता है। "(2/199)
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