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शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

[53] " पशु तो पशु ही रह जाते हैं, किन्तु मनुष्य- ' मनुष्य ' बन सकता है ! "

" गुरु-शिष्य योग-वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा  "
( ' मनुष्य-निर्माण कारी प्रशिक्षण का प्रभाव ' के बारे में ) दो-चार घटनाओं का स्मरण जब तब हो आने से बहुत आश्चर्य भी होता है. दो व्यक्तियों के जीवन से जुड़ी घटनायें याद आती हैं. एक लड़के को कोई नौकरी य़ा रोजगार का कुछ भी अवलम्ब नहीं था. बहुत कष्ट से एक स्कूल में उसको नौकरी मिली. किन्तु जब वह नौकरी करने स्कूल में गया तो वहाँ उसको पढ़ाने के बजाय ऑफिस का कार्य दिया जाने लगा. उसको स्कूल का एकाउन्ट्स लिखने के लिये कहा जाता था.
तथा वह एकाउन्ट किस प्रकार लिखना होगा इसका निर्देश देते हुए स्कूल के व्यवस्थापक लोग बोले, कि आप जैसे एकाउन्ट लिख रहे हैं वैसे न लिख कर हमलोग जैसा कहते हैं वैसा लिखिए ताकि हमलोगों के स्कूल को उससे लाभ पहुँचे इत्यादि इत्यादि कहने लगे. अर्थात मिथ्या हिसाब लिखने के लिये उस पर दबाव देने लगे.तब वह उस नौकरी को छोड़ कर वापस लौट आया. कहता था, नहीं, यह सब तो सच्ची बात नहीं है. भविष्य के जीवन में उसने फिर कभी नौकरी नहीं किया. अपने घर में बैठ कर कुछ छात्रों को पढ़ता था, उसके बाद अपना एक छात्रावास स्थापित कर लिया. 
और एक दूसरे लड़के की बात याद आ रही है. वह भी बड़ा आश्चर्य जनक था. उस लड़के के पिताजी रामकृष्ण मिशन द्वारा संचालित एक दातव्य चिकित्सालय में कम्पाऊन्डर थे. अति सामान्य तलब मिलता था. उतने पैसों से पुत्र-पुत्रियों को पढ़ाना-लिखाना और परिवार का भरण-पोषण करना बहुत कष्टकर था. उनका लड़का पढने-लिखने में अच्छा था.अच्छे अंकों से पास करके बहुत चेष्टा करने पर भी उसको नौकरी नहीं मिली. वह दूर में रहता था किन्तु नियमित पत्राचार किया करता था. एक बार उसने सूचित किया कि एक बहुत बड़ी कम्पनी में बहुत अच्छे पद पर नियुक्ति के लिये मुम्बई जाकर परीक्षा देने का एक चिट्ठी मिली है;प्रतियोगिता परीक्षा में भाग लेने के वास्ते मुम्बई ही जाना पड़ेगा किन्तु मेरे पास तो मुम्बई जाने के लिये रूपया पैसा नहीं है, क्या करूँ ?
मैंने उसको लिखा कि तुम किसी तरह रुपये पैसों का इन्तजाम करके परीक्षा दे आओ. आश्चर्य लगता है, वह लड़का मुम्बई गया, परीक्षा में भाग लिया वह प्रतियोगिता परीक्षा सर्व भारतीय स्तर पर आयोजित हुई थी. उस परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर एक विदेशी कम्पनी में बहुत ऊँचे पद पर नौकरी मिल सकती थी. लिखित परीक्षा में उसको प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है, इसके बाद एक इन्टरभियु होगा. वह इन्टरभियु कलकाता में होगा, किन्तु वह लड़का तो उत्तर बंगाल में रहता था, उसके लिये मुम्बई की परीक्षा से लौटने के बाद पुनः उत्तर बंगाल से कलकाता आकर इन्टरभियु देना बहुत कठिन था. मैंने उसको फिर एक पत्र लिखा. उससमय चिट्ठी पहुँचने में आजकल जितना समय नहीं लगता था. कुछ जल्दी ही पत्र अपने गंतव्य पते तक पहुँच जाता था. ऐसी आशा रखी जा सकती थी कि एक सप्ताह के अन्दर अन्दर एक जगह से दूसरे जगह तक चिट्ठी पहुँच ही जाएगी.अभी तो सात दिनों में बहुत कम ही चिट्ठी पहुँच पाती है.
इस प्रकार वह कलकाता आया, आकर इन्टरभियु दिया, इसमें भी फर्स्ट हुआ, और सेलेक्टेड हो गया. उसको उसी कम्पनी में Eastern Region of India - का प्रभार देकर नौकरी में रख लिया गया.पर उस नौकरी में आगे चल कर उसको जाकर कई प्रकार की समस्याओं के सम्मुखीन भी होना पड़ता था. किन्तु जिस प्रकार प्रशिक्षण और अभ्यास से वह तप कर निकला था उसके फलस्वरूप उसके शरीर में बिकुल कोई आँच नहीं लग सका.
हमलोगों का सिटी ऑफिस जिस समय अद्वैत आश्रम से चल रहा था, उसके बाद में ही तो वहाँ से शम्भूबाबू लेन में आया था. किन्तु उसी समय से बिल्कुल स्थापना के समय से ही कॉलेज स्ट्रीट ( आजकल जिसको विधान सरणी कहता है ) के ठीक मोड़ के पास एक ' मेस बाड़ी ' ( निजी छात्रावास ) में ऊपर चढ़ने पर सीधा दूसरे तल्ले पर एक बरामदे के साथ छोटा सा जगह था, एक लड़का वहाँ रहता था उसने परामर्श दिया कि आपलोग चाहें तो इस स्थान को अपने उपयोग में ला सकते हैं.
उस समय महामण्डल का कोई साइन बोर्ड नहीं था, महामण्डल का पता कहाँ दिया जायेगा यही सोंच कर महामण्डल का एक साइनबोर्ड उस ' मेस बाड़ी ' पर लगा दिया गया था.उस समय हमलोगों के ' चण्डी दा ' एक ऑफिस में नौकरी करते थे, संध्या के समय नौकरी से आने के बाद वहीं दो-तीन घन्टा रोज आकर अकेले ही बैठे रहते थे.वहाँ कोई काम नहीं होता था कोई वहाँ नहीं जाता था, किन्तु शाम के समय में  चण्डी दा पूरी निष्ठा के साथ वहाँ दो घंटे तक अवश्य उपस्थित रहते थे. उसके बाद शम्भू बाबू लेन य़ा अन्य कहीं जाकर महामण्डल का कार्य करते थे. इस प्रकार की निष्ठा के साथ कार्य हुआ था.जिस समय कार्य इतना ज्यादा बढ़ गया कि शम्भू बाबू लेन में रहना भी सम्भव नहीं हुआ तो एक हमलोगों के ' तनु दा ' (श्री तनुलाल पाल ) जो महामण्डल के मीटिंग में पहले से ही जाते थे, उन्होंने एकदिन कहा कि सियालदह स्टेशन के निकट मेरा घर है, महामण्डल को तो काम करने में बहुत असुविधा हो रहा है, यदि महामण्डल लेना चाहे तो मेरे घर के निचले तल्ले पर का दो कमरा मैं दे सकता हूँ.
 तनु दा भी महामण्डल के एक उपाध्यक्ष हैं, एवं वे स्वामी विज्ञानानन्द जी महाराज ( स्वामीजी के एक गुरुभाई ) के आश्रित हैं. उनका मठ और मिशन में बहुत पुराना सम्बन्ध है तथा अति प्राचीन सन्यासियों में से बहुतों के साथ संग किये हैं. तब उनके घर में दो कमरों को लिया गया.और महामण्डल का सिटी ऑफिस स्थानान्तरित हो कर वहीं चला आया.पता है- 6 /1 A, जस्टिस मन्मथ मुखर्जी रो, हमलोगों का सिटी ऑफिस आज भी वहीं है, ( जिसमे सोने का भी जगह नहीं है वहीं प्रमोद दा को बहुत कष्ट पूर्वक रहना पड़ता है.) उसी समय से सभी कार्य वहाँ से चलाये जा रहे हैं. इधर ये सब कार्य बढ़ते जा रहे हैं, पुस्तकों का प्रकाशन बढ़ता जा रहा है.
 ' विवेक-जीवन ' के ग्राहक बढ़ते जा रहे हैं. महामण्डल के केन्द्र इसके ग्राहक बने हैं, महामण्डल के अनेकों सदस्य इसके ग्राहक बने हैं. इसके बाद महामण्डल सदस्यों के अतिरिक्त भी कई लोग यह सब देख कर इसके ग्राहक बन रहे हैं. होते होते अन्य से तुलना करने योग्य तो कुछ भी नहीं है, फिर भी लगभग तीन हजार ग्राहक हो गये हैं.
अब भी किन्तु आठ पृष्ठों का यह द्विभाषी मासिक सम्वाद पत्रिका ' विवेक-जीवन ' के नाम से ही प्रकाशित होता है.बिहार का एक यूनिट है, वह अब झाड़खण्ड राज्य के अन्तर्गत पड़ गया है. झाड़खण्ड के कार्यकर्ताओं ने कहा कि' विवेक-जीवन ' अंग्रेजी और बंगला में तो निकलता है पर इसमें यदि हिन्दी भी रहता तो बहुत अच्छा था. हिन्दी क्षेत्रों में अधिकांश लोग तो बंगला पढ़ नहीं पाते हैं. साधारण तौर से ' विवेक- जीवन ' में एक सम्पादकीय लेख अंग्रेजी में होता है, एक बंगला में होता है. महामण्डल के विभिन्न केन्द्रों के सम्वाद आदि दिये जाते हैं. इसके अतिरक्त कुछ अन्य समसामयिक सूचनाएं, विज्ञान जगत से जुड़े नये नये समाचार आदि भी रहते हैं.
इसके अतिरिक्त विशेष रूप से कैम्प में जो प्रश्नोत्तरी का कार्यक्रम चलता है वह बहुतों को बहुत उपयोगी लगता है, तथा सभी इसे बहुत पसन्द करते हैं. जो लोग कैम्प में नहीं आ पाते हैं वे ' विवेक-जीवन ' में प्रश्नोत्तर देख सकते हैं. इस प्रकार की कई उपयोगी सामग्रियों को इसमें प्रकाशित किया जाता है. अब हिन्दी भाषी कर्मियों के आग्रह पर इसे हिन्दी में भी निकालने की अनुमति दे दी गयी. हिन्दी में किन्तु मूख्य रूप से इसी द्विभाषी
 ' विवेक-जीवन ' के अंग्रेजी बंगला में जो कुछ प्रकाशित होता है उसी ' विवेक-जीवन '  को हिन्दी में अनुवाद करके अब ' विवेक-अंजन ' नाम से महामण्डल की हिन्दी त्रैमासिक सम्वाद पत्रिका के रूप में प्रकाशित किया जाता है. आजकल यह पत्रिका भी हिन्दी अँचल में बहुतों का ध्यान आकर्षित करने लगी है.उधर पहले पहल महामण्डल की जो अवस्था थी, उस समय तो कार्य करने वाले लोग बहुत ही कम थे, नहीं के बराबर थे. इसीलिये महामण्डल के काम से कई स्थानों पर अकेले ही जाना पड़ता था. कोई आने का निमत्रण देता तब वहाँ जाना पड़ता था, य़ा कहीं जाना हमलोगों को जरुरी लगता तो भी जाना पड़ता था.
उस समय ऑफिस में नौकरी भी करनी पड़ती थी. शनिवार के दिन दो बजे दिन में छुट्टी हो जाती थी. कई बार महामण्डल के कागज पत्तर, पुस्तिकाएँ आदि साथ में लेकर निकल जाता था. कभी कभी तो ऐसा भी हुआ है कि अनजाने रास्ते पर पैदल चलते चलते माइल पर माइल जमीन पीछे छोड़ता हुआ बहुत दूर निकल आया हूँ. एक छोटी नदी आ गयी है. एकबार याद है, तारकेश्वर से ट्रेन में उतर कर कितने माइल पैदल चला होऊँगा अभी बता नहीं सकता, दामोदर नदी पार करके देखता हूँ थोड़ा जंगल जैसा आ गया है. जहाँ जाना है वहाँ का नाम किससे पूछूं ? कोई जन प्राणी दूर दूर तक दिखलाई नहीं पड़ रहा था. जंगल के बीच से पैदल चलने का जो निशान पड़ जाता है, जिसको पगडंडी कहते हैं, उसी से जाते जाते हठात एक आदमी दिखायी पड़ा, उससे मैंने पूछा- यह ग्राम किस ओर पड़ेगा? ' ओ यह ग्राम ? थोड़ा और आगे जाइये, आपको वहाँ से दो पगडण्डी अलग अलग दिशाओं में मुडती हुई दिखेगी, आप बायीं ओर वाली पगडण्डी पकड़ कर चलने से वहाँ पहुँच जाइयेगा. '
ऑफिस से मैं दो बजे निकला था, पर उस ग्राम तक पहुँचते पहुँचते शाम हो गयी. वहाँ पहुँच कर जब एक स्थान पर गया तो देखा कि एक आदमी का घर है. घर क्या छोटी सी कुटिया थी. उसीमे जाने के लिये बोला. जो लोग ग्राम कि ओर गये हैं वे जानते हैं कि ' कुटिया- नुमा ' जो घर बनाये जाते हैं उसमे वे लोग हर जगह में दरवाजा बहुत बड़ा नहीं रखते हैं. बहुत नीचा दरवाजा था. सिर को झुका कर ही उसमे प्रवेश किया जा सकता है. उस कुटिया में जाने पर वहाँ के लोगों से बहुत देर तक बातचीत हुई. वहाँ पर महामण्डल का एक केन्द्र बना. वहाँ पर जिन्हों ने महामण्डल का केन्द्र स्थापित किया था वे अभी रामकृष्ण मठ-मिशन के सन्यासी हैं.
हमलोगों ने अभी तक ठीक से गिनती करके नहीं देखा है, पर कई लोग कहते हैं कि महामण्डल के प्रायः एकसौ कर्मी मठ-मिशन के सन्यासी बन गये हैं. उनलोगों के मन में यहीं से ठाकुर कि बातें सुनते सुनते आग्रह हुआ है. इस समय उनलोगों का उम्र भी बहुत ज्यादा हो गया है, कभी कभी तो हमलोग भी पहचान नहीं पाते हैं. क्योंकि सन्यासी बनने के पहले वे किसी ग्राम में अपने पुर्वाश्रम की वेष-भूषा में ही रहते थे, अब मुख की आकृति बदल गयी है, शरीर भी कुछ कुछ बदल गया है, मुंडित मस्तक हो गये हैं; इसीलिये हो सकता है हमलोग कभी कभी पहचान नहीं पाते हैं. कोई कोई स्वयं आगे बढ़ कर परिचय देते हुए कहते हैं- ' मैं भी पहले महामण्डल में था. ' तब उनलोगों से मिल कर बहुत अच्छा लगता है, बहुत आनन्द भी होता है. यह सब किस प्रकार हो गया है ? हमे खुद नहीं मालूम.इसिलए मेरे मन में बार बार ये ख्याल आता है,..... यदि ठाकुर परमहंसदेव की ईच्छा नहीं होती तो महामण्डल कभी स्थापित भी नहीं हो सकता था. यदि इसके पीछे माँ का आशीर्वाद नहीं रहता, स्वामीजी का अदभुत तेज और उत्साह वर्धक प्रेरणा इसके साथ मिलकर एकत्रित नहीं हो जाती तो महामण्डल कभी यहाँ तक पहुँच ही नहीं सकता था. 
इसीलिये मेरे मन में यह विचार भी उठता है कि हमलोगों का जीवन, जो भी लोग इस काम से जुड़े हैं उन सभी लोगों का जीवन इसलिए धन्य हो गया है कि , ठाकुर-माँ -स्वामीजी का कार्य जिस प्रकार हमलोगों के माध्यम से हो रहा है, यह उन्ही की ईच्छा से हो रहा है, उन्ही की आशीर्वाद से हो रहा है. हमलोगों का जीवन धन्य हो रहा है, ऐसा प्रतीत होता है.
एक और जगह में जाने बोला था, वहाँ जाकर देखता हूँ वैसा उबड़-खाबड़ अँचल है, कहीं पर बांसों का झुरमुट है तो कहीं उस पगडण्डी पर चलते चलते बीच में जंगल आ जाता है. इसी प्रकार चलते चलते उस ग्राम में जा पहुँचा. वहाँ पहुँचने पर देखता हूँ कि एक कमरे में ठाकुर-माँ-स्वामीजी का चित्र बहुत सुन्दर ढंग से सजा कर रखा हुआ है. वहाँ पर प्रतिदिन उनकी पूजा-अर्चना की जाती है. उस पूजा में उस घर के लोग भाग लेते हैं, दूसरे लोग भी आते हैं, महामण्डल के जो सदस्य लोग  हैं वे भी आते हैं, संध्या बेला में आरात्रिक होता है.
उसके बाद देखता हूँ सामने थोड़े खुला स्थान है, वहाँ पर छोटे छोटे बच्चों का एक दल बैठा हुआ है. मुझसे बोला कि आप इनलोगों को कुछ कहिये. क्या बोलूँगा ? इस प्रकार हठात कह दिया जाये तो मैं इन छोटे छोटे बच्चों को क्या बोलूं, यही सोंच रहा था. मैंने पूछा- ' क्या तुमलोग ठाकुर को जानते हो ? '
" हाँ, जानते हैं ! " तुमलोग क्या माँ को जानते हो; श्रीश्रीमाँ सारदा देवी को ? " हाँ जानते हैं, यही तो भीतर में बैठी हुई हैं, पूजा होती है. " अच्छा तुमलोग स्वामी विवेकानन्द को जानते हो ? " हाँ जानते हैं, स्वामी विवेकानन्द को भी जानते हैं. " ऐसे बच्चों को मैं और भला क्या कहता. तब मैंने उन बच्चों से एक बात कहा - " जानते हो इन लोगों को देखने से मुझे क्या महसूस होता है ? मैं तुमलोगों से अपने मन कि बात बतलाता हूँ. ठाकुर हमलोगों के पिता हैं, माँ सारदा हमलोगों की माँ हैं, और स्वामी विवेकानन्द हमलोगों के बड़े भाई हैं. तुम्हारे बड़े भैया हैं." 
यदि तुमलोग सचमुच इन लोगों को माँ, पिताजी और बड़े भैया जैसा अनुभव कर सको तो तुमलोगों का जीवन अति सुन्दर हो उठेगा. जीवन में आनन्द बना रहेगा. संसार में दुःख है, आभाव है, सबकुछ है. किन्तु मन में यदि वह आनन्द बना रहे (ठाकुर माँ स्वामीजी को बिल्कुल अपना मानने से जो आनन्द होता है - वैसा वाला देश-कालातीत आनन्द ) तो जीवन कभी व्यर्थ में ही नहीं बीत सकता है.मनुष्य योनी में जन्म लेना सार्थक हो जायेगा. अत्यन्त आनन्दित मन लेकर हमलोग इस नश्वर शरीर का त्याग करने में समर्थ बन जायेंगे. एक दिन तो यह शरीर सभी को त्याग करना ही होगा. किन्तु स्वामीजी जैसा कहते थे, वह बहुत बड़ी बात है होगी कि हम सभी मनुष्य यथार्थ मनुष्य बन कर छोटी छोटी निशानियाँ ही सही, पर कोई न कोई निशानी अपना कोई न कोई दाग य़ा एक " चिन्ह " यहाँ पर अवश्य ही छोड़ कर विदा ले सकते हैं ! तब हमारे चले जाने के बाद लोग कहेंगे-
" हाँ, एकटा रेखे गेछे किछू, एकटा जीवन रेखे गेछे ! "  
" हाँ, अमुक व्यक्ति चला तो गया है, पर कुछ चिन्ह (प्रतीक-चिन्ह Mile -Stone  रूपी एक ' जीवन ') छोड़ गया है ! " 
ऐसे ही प्रेरणा दायक जीवन गठित करना आवश्यक है. हमलोगों को अपना जीवन ऐसे ही त्रिदेवों (ठाकुर-माँ -स्वामीजी ) के साँचे में ढाल लेना है ! ( ये तीनों ही माँ, पिता और बड़े भैया के रोल मॉडल हैं) हमे यह मनुष्य शरीर प्राप्त हो गया है, मुष्य शरीर प्राप्त करके इसको ' यथार्थ मनुष्य ' के रूप में गढ़ लेना पड़ता है. अन्य पशु लोग जन्म लेते हैं और उम्र बीत जाने के बाद भी वे पशु ही रह जाते हैं. किन्तु मनुष्य शरीर प्राप्त कर लेने के बाद ' यथार्थ मनुष्य' जैसा बन जाने का पूरा दायित्व मनुष्य का ही है. उन्ही कवि राजा भर्तृहरि की एक बहुत प्रसिद्ध उक्ति है- " पशु, पशु ही रह जाता है. किन्तु मनुष्य मनुष्य हो उठता है ! " बड़े ही सुन्दर ढंग से वे कहते हैं- 
" येषां न विद्या न तपो न दानं,
                न ज्ञानं न शीलं न गुणों न धर्मः |
ते मर्त्यलोके भूरी भारभूता,
                                 मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति || "  
जिनके भीतर विद्या नहीं है, तपस्या नहीं है, ज्ञान नहीं है, धर्म नहीं है, दान नहीं है, वैसे लोग इस धरनी पर भार स्वरुप हैं. मनुष्य के रूप में मृग जैसे हैं, अर्थात पशु जैसे ही घूमते फिरते हैं. समाज के अधिकांश लोगों की तो यही दशा है. यदि हमलोग इस मनुष्य के समाज को पशुओं के समाज जैसी अवस्था में रहने देना नहीं चाहते हों, यदि हमलोग यह चाहते हों कि मनुष्य का समाज ' यथार्थ मनुष्य ' के समाज में बदल जाये तो, इस चरित्र निर्माण कारी और मनुष्य निर्माण कारी प्रशिक्षण शिविर को भारत के गाँव गाँव तक फैला देना होगा. इसके लिये हमे स्वयं चेष्टा करके पहले अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गढ़ लेना होगा. जीवन को सुन्दर रूप से गढ़ लेने पर वह एक महामूल्यवान सम्पद में परिणत हो उठता है.            
           

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

[52] "महामण्डल की कार्य पद्धति"

योगासनों (मूलबन्ध,मुद्रा आदि) के प्रशिक्षक 'आयरनमैन' -नीलमणिदा ! 
आज भारत के पहल पर यू.एन.ओ द्वारा प्रतिवर्ष २१ जून को 'अंतर्राष्ट्रीय योगदिवस' के रूप में मनाया जा रहा है। ' रामकृष्ण मूभमेन्ट ' या रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा का यह अंग जिसका नाम अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल है; यह युवासंगठन अपने वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में विद्यार्थियों को विगत ५१ वर्षों से चार योगों- कर्मयोग,ज्ञानयोग,भक्तियोग और राजयोग का व्यावहारिक प्रशिक्षण द्वारा चरित्र-निर्माण एवं जीवन-गठन का प्रशिक्षण देता चला आ रहा है।
यह संस्था केवल युवाओं के लिये है. इसका संस्था का गठन केवल इसी उद्देश्य को ध्यान में रख कर किया गया है कि हमारे युवा भाई कहीं विपथगामी न हो जाएँ, वे लोग सूपथ  पर रहें, अच्छे पथ पर रहें, ताकि उनका जीवन सुन्दर ढंग से गठित हो और वे देश-मातृका की सेवा में अपना तन मन धन न्योछावर कर के अपने जीवन को सार्थक कर सकें ! 
यह कार्य अपने आप में बहुत पुनीत कार्य है. यह एक ऐसा कार्य है, जिससे जुड़ने वाले को- " ठाकुर की ईच्छा, माँ का आशीर्वाद एवं स्वामीजी की उत्साह के द्वारा सहज में ही आनन्द  प्राप्त हो सकता है."  इस कार्य को करने में क्या आनन्द मिलता है, इसका वर्णन करने में वाणी असमर्थ हो जाती है. देश को अपनी माँ समझ कर, बिल्कुल अपनी माँ के जैसा प्यार नहीं करने से- देश वासियों को अपना परम-आत्मीय जानते हुए बिकुल अपने परिवार जैसा प्रेम नहीं करने से, उनके लिये अपने जीवन की शक्ति को थोड़ा भी खर्च नहीं करने से, यह जीवन यूँ ही व्यर्थ में नष्ट हो जायेगा. 
इसी प्रकार जो कार्य प्रारम्भ हो गया था वह चलता रहा, किन्तु अद्वैत आश्रम के सन्यासियों द्वारा कार्य समाप्त कर लिये जाने के बाद, फिर बचे हुए समय में वहीं पर बैठ कर किसी संस्था का कार्य ज्यादा दिनों तक चल पाना सम्भव नहीं था. इसी कारण इसी के नजदीक ' ऐन्टाली ' में एक जगह देख लिया गया. इसकी खोज करने के लिये भी मेरे साथ केवल जयराम महाराज ( वर्तमान में रामकृष्ण मठ मिशन के वाईस प्रेसिडेन्ट ) ही मेरे साथ बाहर निकले.
बाहर निकल कर इधर उधर खोजते खोजते ' शम्भुबाबू लेन ' में एक छोटा सा कमरा पाया जा सका, किन्तु कहना पड़ता है कि दो कमरे प्राप्त हुए. एक घर में घुसने पर थोड़ा सा जगह, जिसके दाहिनी ओर तथा बायीं ओर दोनों ओर दो कमरे जो इतने छोटे थे कि उसका माप बताना भी बहुत कठिन है. याद पड़ता है कि शायद आठ फुट बाय छौ फुट माप का कमरा रहा होगा. दो तरफ दो कमरे वाला (2BHK फ़्लैट ) भाड़ा में लिया गया.  वहीं पर बैठ कर कार्य चलने लगा. एक-दो वर्ष बीत जाने का बाद यह आवश्यक लगने लगा था कि महामण्डल का एक अपना मुखपत्र भी होना चाहिये. तब ' विवेक-जीवन ' के नाम से एक पत्रिका निकाली जाय यह निर्णय लिया गया. पहला जो अंक निकला उसमे आठ पन्ने थे. 
आज भी आठ पन्नों कि ही पत्रिका छपती है. इसका प्रतिवर्ष दो विशेषांक भी - जनवरी और जुलाई में निकाले जाते हैं.ये विशेषांक बड़े होते हैं.महामण्डल के इस मुखपत्र में महामण्डल की जितनी शाखाओं में काम चल रहा था, उन की खबरें, कुछ निबन्ध, आदि रहते थे. बाद में यह पत्रिका दो भाषाओँ में (अंग्रेजी और बंगला में) निकलने लगी. 
इसको छापने के लिये एक छोटे से प्रेस की व्यवस्था भी करनी पड़ी. उसके लिये सम्पादकीय लेख आदि अंग्रेजी और बंगला में लिखना, कम्पोज होने के बाद उसका प्रूफ देखना फिर पत्रिका के छप जाने पर उसको उसी नये भाड़े वाले मकान को 'सिटी ऑफिस ' (उसी शम्भूबाबू लेन के कमरे में ) ले आना. हमलोग उसीको सिटी ऑफिस कहते थे.क्योंकि हमलोगों के महामण्डल में सारे दिन केवल महामण्डल का ही काम करने वाले { ' पूर्णकालिक ' य़ा ' जीवनदानी ' } कार्यकर्ताओं का कोई कांसेप्ट नहीं है. 
( महामण्डल के सदस्य वैसे गृहस्थ लोग होते हैं जो सारा दिन अपना पारिवारिक जिम्मेदारी निभाने के बाद केवल खाली बचे समय में ही  महामण्डल का काम करते हैं.)  सारे दिन केवल महामण्डल का ही कार्य करते हों ऐसा कोई सदस्य पहले भी नहीं था आज भी नहीं है, ( प्रमोद दा को छोड़ कर ? )अतः महामण्डल कोई ऐसा स्थाई पता तो होना जरुरी था जहाँ किसी भी समय डाक, चिट्ठी य़ा मनीआर्डर जो भी कुछ आये उसको रिसीव करने के लिये कोई तो हमेशा उपलब्ध रहना चाहिये. इसके लिये खड़दा वाले घर ' भुवन-भवन ' के सिवा यह सुविधा अन्य किसी जगह पर उपलब्ध नहीं था इसीलिये प्रारम्भ से ही खड़दा के घर( नवनीदा का पैत्रिक निवास स्थान ) ' भुवन-भवन ' में महामण्डल का रजिस्टर्ड ऑफिस बनाया गया था.
और जो बाद में (शम्भूबाबू लेन में ) भाड़े का नया मकान लिया गया वह हमलोगों का पहला ' सिटी- ऑफिस ' था. संस्था को रजिस्टर्ड करने के लिये एक नियमावली बनाने की आवश्यकता सामने आयी  जिसको कंस्टीच्यूशन (Constitution) कहा जाता है. तब इसी तरह के और भी पाँच दस संस्थाओं का   कंस्टीच्यूशन कैसे है, उसे देख सुन कर एवं इस विषय पर उपलब्ध कानून की पुस्तकों का अध्यन करने के बाद बहुत सोंच-विचार करके महामण्डल का एक Constitution लिखना पड़ा. फिर इस संस्था को सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट (Societies Registration Act)  के अनुसार पंजीकृत करवाया गया.
इस प्रकार ' सिटी-ऑफिस ' से सारे कार्य चलने लगे. महामण्डल की द्विभाषी सम्वाद पत्रिका ' विवेक - जीवन ' प्रकाशित होने लगी. उस समय याद पड़ता है कि शम्भू बाबू लेन के ऑफिस में मात्र दो-चार लोग ही आया करते थे. उनमे से एक व्यक्ति आगे चल कर सन्यासी हो गये थे. वे अद्वैतआश्रम में एकाउन्ट्स का काम देखा करते थे, और भी कई संस्थाओं में हिसाब-किताब देखने का काम करते थे. उन्होंने कई वर्षों तक महामण्डल का एकाउन्ट्स भी देखा था.
उन दिनों ' विवेक-जीवन ' को मोड़ना, उसके ऊपर रैपर लगाना, पता लिखना और टिकट चिपकाना फिर दूसरे दिन उन सब को निकट के किसी पोस्ट ऑफिस में छोड़ आना ये सभी कार्य मूख्य रूप से हम तीन व्यक्तियों को ही करना पड़ता था, एक थे श्री चण्डीचरण दास, (जिनको हमलोग चण्डीदा कहते थे), उनके साथ वीरेन (वीरेन्द्र कुमार चक्रवर्ती ) एवं मैं. उसके बाद कन्सेशनल रेट में पत्रिका को पोस्ट करने की सुविधा पाने के लिये ' विवेक-जीवन ' को आवेदन भेजकर दिल्ली से 'न्यूज़पेपर रजिस्ट्रेशन'  करवाया गया. वहाँ से नम्बर मिल जाने के बाद उसको प्रकाशित होने पर महीने के पहले पखवाड़े में एक विशेष पोस्ट ऑफिस में ही छोड़ देना पड़ता था.
तत्पाश्चात एक के बाद एक करके महामण्डल की पुस्तिकाएँ भी प्रकाशित होने लगीं. इसके बाद उन पुस्तिकाओं का विभिन्न भाषाओँ में अनुवाद किया गया. अंग्रेजी और बंगला में पुस्तकें लिखी गयीं. कई पुस्कों को बंगला से अंग्रेजी में अनुवाद किया गया. जब यह कार्य (आन्दोलन ) धीरे धीरे फैलने लगा, तो उन सभी नये नये स्थानों में इसके केन्द्र को स्थापित होते देखने पर आज स्वयं हमलोगों को भी आश्चर्य होता है. क्योंकि किसी भी स्थान पर एक भी नया केन्द्र हमलोग खुद से चेष्टा कर कर के स्थापित किये हों ऐसा नहीं है. महामण्डल के स्थापित होने के समय से ही प्रत्येक वर्ष हमलोग एक कैम्प अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित करते हैं, इसको हमलोग अक्सर Annual Camp कहते हैं.
हमलोग भारतवर्ष के विभिन्न यूनिवर्सिटी में, जाने पहचाने कालेजों में, महामण्डल के वरिष्ठ सदस्यों का जहाँ के प्राध्यापकों से किसी न किसी प्रकार का परिचय हो उनसे सम्पर्क करके उनलोगों के पास ' युवा प्रशिक्षण शिविर ' में भाग लेने का आवेदन पत्र और शिविर की नियमावली आदि भिजवाने लगे. उन सबको देख सुन कर पश्चिम बंगाल के बाहर के राज्यों के कई विभिन क्षेत्रों से बहुत से युवा (शिविरार्थी ) लोग आने लगे.एवं उन शिविरार्थियों की संख्या क्रमशः बढ़ते बढ़ते हजार को पर कर गयी, एग्यारह सौ, साढ़े एग्यारह सौ, गत वर्ष (२००९ के वार्षिक शिविर में ) तेरह सौ से भी अधिक शिवारार्थी आये थे.
किन्तु वार्षिक शिविर में (भारत के अत्यन्त दूर दराज के क्षेत्रों से ) सभी तो आ नहीं सकते हैं. इसी लिये इस वार्षिक शिविर को भी भारत के अन्य राज्यों में आयोजित करना बहुत जरुरी है. किन्तु जिन जिन स्थानों में महामण्डल की शाखाएं स्थापित हो चुकी थीं, उन राज्यों के कर्मी लोग ' राज्य स्तरीय शिविर ' आयोजित करने के लिये उद्योगी हुए और हमलोगों से अनुमति मांगे, हमलोगों ने भी उनको अपने ही राज्य में ' युवा प्रशिक्षण शिविर ' आयोजित करने के लिये प्रोत्साहित किया. इस प्रकार राज्य स्तरीय शिविर का आयोजन होने लगा. जिस प्रकार बिहार राज्य स्तरीय शिविर, उडिषा राज्य स्तरीय कैम्प होने लगे, इसी प्रकार अन्यान्य राज्यों में भी कैम्प होने लगे.
उन राज्य स्तरीय कैम्पों में राज्य के विभिन्न जिलों से युवा लोग आने लगे, वहाँ पर जिन लोगों ने सुना वे अपने अपने क्षेत्र में वापस लौट कर स्वतः आग्रही हो कर अपने अपने स्थानों में केन्द्र आरम्भ किये. इसी प्रकार करते करते इस समय तो महामण्डल के अनेकों केन्द्र खुल गये हैं.इस समय विभिन्न राज्यों में महामण्डल की कुल २८० शाखाएं हैं. किन्तु महामण्डल की शाखायें खोलने का एक नियम शुरू से ही चलता आ रहा है, वह यही है कि जिस स्थान पर भी नया केन्द्र खुलेगा वहाँ पहले वे लोग एक पाठचक्र गठित करके कार्य आरम्भ करेंगे.
पाठचक्र में उन्हीं विषयों को पढ़ कर उस पर चर्चा किया जाता है, जिन विषयों को प्रशिक्षण शिविर में सिखाया जाता है, उनको सुनकर और सीख कर नित्य करनीय पाँच अभ्यास ( व्यायाम, मनः संयोग, स्वाध्याय,  विवेक-प्रयोग, और आत्ममूल्यांकन आदि )  का अभ्यास करने के लिये पाठचक्र के प्रत्येक सदस्य को उत्साहित किया जाता है. जैसे सुबह उठ कर थोड़ी देर तक व्यायाम करना है, कुछ समय के लिये मनः संयोग का अभ्यास करना है. सारे दिन से लेकर रात्रि में सोने के पहले तक जब कभी समय मिले स्वामीजी की पुस्तकों को महामण्डल की पुस्तिकाओं का अध्यन करना है, यदि संध्या के समय किया जाय तो अच्छा है, यदि समय नहीं मिले तो रात में सोने के पहले फिर एक बार मनः संयोग का अभ्यास करना है, मन में कुछ भी सोंचने, बोलने य़ा करने के पहले श्रेय-प्रेय का विवेक करना है, फिर दूसरों में दोष देखने की वृत्ति को छोड़ कर अपने ही भीतर विद्यमान गुण-दोषों का मूल्यांकन करके साप्ताहिक मानांक बैठना - आदि कार्य चलने लगे. 
बहुत पहले से ही जो ' आयरन मैन ' के नाम से विख्यात थे श्री नीलमणि दास वे प्रथम अवस्था से ही जब अद्वैत आश्रम में मीटिंग चल रहा था, तो एकदिन वे सीधा बिल्कुल मीटिंग के स्थान पर ही आकर उपस्थित हो गये. उनको जब नीचे पूछा गया कि आप कहाँ जा रहे हैं ? तब उन्होंने कहा कि मैंने सुना है कि यहाँ पर स्वामी विवेकानन्द को आदर्श मान कर कुछ कार्यक्रम चल रहा है, मेरे कानों तक ऐसी खबर पहुंची है. ' हाँ, हाँ, आपने बिल्कुल ठीक सुना है, एक मीटिंग चल रही है .' वे बोले मैं भी वहीं जाना चाहूँगा. आप क्या वहाँ जा कर कुछ बोलना चाहते हैं ? ' नहीं नहीं विवेकानन्द को लेकर कहीं कुछ अच्छा कार्यक्रम चलेगा और उसमे मैं अपना योगदान नहीं दूंगा- यह हो नहीं सकता है.' वे उस मीटिंग में आकर बैठे एवं उस दिन से लेकर जितने दिनों तक जीवित थे महामण्डल के साथ जुड़े हुए थे. महामण्डल के अखिल भारतीय शिविर में तथा अन्य स्थानों के शिविर में भी बहुत से शिविर में जाकर शिविरार्थियों को फिजिकल ट्रेनिंग सिखाये हैं, व्यायाम सिखाये हैं.महामण्डल के एक भाईस प्रेसिडेन्ट के पद पर आसीन रहते हुए शारीरिक विकास के प्रशिक्षण की जिम्मेदारी को जब तक उनके शरीर में शक्ति थी बहुत सुन्दर ढंग से निभाए हैं.
उनके पुत्र स्वपन दास हैं,  वे भी चाहे कहीं भी All India  कैम्प क्यों ना होता हो, वहाँ जाते हैं, और सबों को व्यायाम सिखाने, योगासन आदि सिखाने का कार्य करते हैं. महामण्डल के स्थापना के समय से ही यह चला आ रहा है. यह एक बहुत अच्छी चीज है. महामण्डल कार्यों के एक अंग के साथ ' नीलमणि दा ' एवं उनके सुपुत्र आज तक जुड़े हुए हैं, और शारीरिक प्रशिक्षण के उत्तरदायित्व को निभाते आ रहे हैं यह सचमुच एक अति प्रशंसनीय विषय तो है ही, बड़े हर्ष की बात भी है.शरीर गठन, शरीर को स्वस्थ और निरोग बनाये रखना यह भी तो महामण्डल के कार्य- मनुष्य निर्माण का एक महत्वपूर्ण अंग है. स्वामीजी ने भी कहा है- शरीर और मन की देखभाल करनी है. तो शरीर को स्वस्थ और निरोग रखने में इन लोगों का अवदान महामण्डल में बहुत स्मरणीय है.
इसके बाद ये केन्द्र बढ़ते बढ़ते विभिन्न स्थानों में स्थापित हुए. बहुत से राज्यस्तरीय शिविर भी होने लगे. इसके बाद हुआ कि जहाँ जहाँ हमारे केन्द्र हैं, वहाँ पर स्थानीय शिविर होना चाहिये. तब जिलास्तरीय शिविर हुआ, कभी कभी कई जिलों को मिलाकर आंचलिक शिविर हुआ जैसे ' उत्तर बंगाल आंचलिक शिविर ' होता है. उसी प्रकार दक्षिणी बंगाल आंचलिक शिविर भी होता है. आजकल वर्धमान, पुरुलिया, बाँकुड़ा, मेदिनीपुर, इन सभी जिलों को मिला कर आंचलिक शिविर हो रहा है. इन सभी केन्द्रों में बहुत अच्छी तरह कार्य चल रहा है, एवं प्रत्येक स्थान पर चाहे एक दिन के लिये भी हो कम से कम एक शिविर जरुर होता है. इन शिविरों में भाग लेने से होता यह है कि नये नये लड़के लोग आकर उसमे भाग लेते हैं, थोड़ा सा सुन कर भी जिनके भीतर अधिक उत्साह होता है, य़ा जो अच्छी तरह से इसे ग्रहन करते हैं, वे इस नित्य करनीय अभ्यासों को अपने आचरण में उतारना आरम्भ कर देते हैं. और वही लोग थोड़े बड़े हो जाने पर अच्छे कर्मी बन जाते हैं.
इसी तरह काम चलते चलते एक शिशु- विभाग भी गठित हो गया. इस विषय में एक ही महामण्डल कर्मी बहुत दक्ष थे. वह स्वयं ही कई स्थानों में छोटे छोटे बालकों का दल बना कर शाम के समय में खेल-कूद कराता था. उसने कहा कि इसी तरह महामण्डल में करने से अच्छा होगा. इस प्रकार एक शिशु-विभाग गठित हो गया. उसका नाम रखा गया- 'विवेक-वाहिनी '. यह भी बहुत जगह बना है. ऐसा भी हुआ कि कहीं कहीं तो एक सौ, डेढ़ सौ शिशु लोग भी आते हैं. उनलोगों को संध्या के समय में खेल-कूद, गाना, कहानी सुनाना, कहानी के माध्यम से उनके मन में सदगुणों को अर्जित करने के लिये उत्साहित किया जाता है.
इस प्रकार जिन लोगों ने बहुत कम उम्र में शिशु विभाग में योग दिया था, वे जब थोड़े बड़े हो गये तो महामण्डल के स्थानीय केन्द्र के सदस्य बन जाते हैं. वही लोग शिशु-विभाग के संचालक भी बन जाते हैं. यह एक अत्यन्त ही सराहनीय कार्य बन चुका है. जिसको बिल्कुल बचपन से ही सत्संग में रहना कहते हैं. अत्यन्त छोटी उम्र से ही जीवन गठन आरम्भ कर लेने के फलस्वरूप उनके जीवन में अच्छे भाव गहराई से बैठ जाते हैं. उनलोग अपने जीवन में कम से कम ठाकुर-माँ- स्वामीजी को तो अपने आदर्श के रूप में यथा सम्भव लेने कि चेष्टा करते हैं. और उनका जीवन सुन्दर पुष्प के जैसा प्रस्फुटित हो उठता है.                 

सोमवार, 30 अगस्त 2010

[51] "रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" - का ही एक अंग है -महामण्डल !

 " महामण्डल मानो स्वामी विवेकानन्द का ब्रेन्चाइल्ड है ! "
 महामण्डल का गठन तो हो गया, किन्तु अब प्रश्न उठा की इस संस्था के कार्यकर्ता लोग कहाँ बैठ कर अपनी गतिविधयों का संचालन करेंगे ? बैठने का कोई स्थान नहीं था, रूपया पैसा भी नहीं था, कुछ भी नहीं था. किन्तु उस समय कुछ थोड़े से उत्साही युवक अवश्य इस संगठन से जुड़ चुके थे. उस समय अद्वैत आश्रम में ही मीटिंग इत्यदि हुए करते थे.महामण्डल का गठन भी उसी स्थान पर बैठ कर हुआ था.
उस हॉल में स्वामी विवेकानन्द का विशाल आयल पेन्टिंग भी रखा हुआ था. वहाँ महामण्डल की स्थापना बैठक समाप्त हो जाने के बाद, जब स्वामीजी की उस छवि पर दृष्टि पड़ी तो ऐसा लगा मानो स्वामीजी वहाँ साक्षात् खड़े हैं और प्रसन्न मुख से आशीर्वाद दे रहे हैं! स्वामीजी की उस छवि को देखने से ऐसा लग रहा था मानो स्वामीजी ने महामण्डल को आविर्भूत होते केवल देखा ही नहीं हो, बल्कि अपनी निगेहबानी में इसको प्रारम्भ भी कर रहे हों. " महामण्डल मानो स्वामी विवेकानन्द का ब्रेन्चाइल्ड है"-- अनुभूति के उस उद्गार को कह कर समझाया नहीं जा सकता.
" एटा एकटा मने हवा कथा आर कि ! "  
" - यह एक मन में वैसा प्रतीत होने (य़ा विश्वास करने ) की बात है और क्या ! "   
 प्रश्न था, इस संगठन की गतिविधियाँ किस जगह से सन्चालित की जाएँ ? उस समय अद्वैत आश्रम में ही चर्चा हुई कि जब तक अन्य कोई व्यवस्था नहीं हो जाती है, तबतक क्या वहीं पर शाम के बाद थोड़ी देर तक वहीं पर बैठ कर हमलोग क्या अपना कार्य कर सकते हैं ? उस समय एक सन्यासी जो इंग्लैण्ड में रहते थे, किसी कारणवश वहाँ आये हुए थे. वे बोले- " हाँ, हाँ, क्यों नहीं कर सकते हैं | " उन्होंने पुनः प्रश्न किया - " आपलोगों के पास रुपये-पैसे कितने हैं ? " मैंने कहा अभी रुपये-पैसे कहाँ से आयेंगे? अभी अभी तो इसकी स्थापना हुई है ! वे स्वयं बोले - " अच्छा, अच्छा मैं देखता हूँ कि मेरे बैग में क्या है ? " बैग को खोल कर देखे और कहा - " मैं अब क्या कहूँ इसमें केवल पच्चीस रुपये ही हैं. " रामकृष्ण मठ मिशन के एक सन्यासी के करकमलों से प्राप्त ये पच्चीस रुपये ही सर्वप्रथम महामण्डल के लिये संबल स्वरुप थे. 
उसके बाद अद्वैत आश्रम के निचले तल्ले पर बने ऑफिस में जहाँ सन्यासी लोग बैठ कर कार्य करते हैं, वहीं पर बैठ कर महामण्डल- ऑफिस का काम भी चलने लगा. विभिन्न स्थानों में चिट्ठी-पत्री भेजनी थी, इसको कैसे भेजा जाये ? तब स्वामी स्मरणानन्दजी वहाँ के मैनेजर हुआ करते थे, उनके समक्ष इस समस्या को रखते हुए मैंने पूछा, महाराज क्या होगा ? उन्होंने कहा- " क्या चाहते हैं कहिये ? " मैंने कहा महाराज दो'चार दिन हमलोगों को दीजिये न. उन्होंने कहा- " ठीक है, इस चन्द दिनों की अवधि में आपलोग जितने पत्र लिखेंगे हमलोग उस पर टिकट चिपका कर पोस्ट में डाल देंगे. " इस प्रकार से कार्य आरम्भ हुआ, चलने लगा, और चलता रहा. 
उस समय अलोपी महाराज ( स्वामी चिदात्मानन्द ) अद्वैत आश्रम के प्रेसिडेन्ट थे. कुछ ही दिनों के बाद " अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल " का प्रथम कैम्प होने वाला था. उस समय लड़के लोग आये हैं, शाम हो जाने के बाद हमलोग ऑफिस में बैठ कर काम कर रहे हैं, देर रात्रि तक काम करते करते ९ बज गया है. उपरी तल्ले पर रात्रि के भोजन का घन्टा बज उठा. सन्यासी ब्रह्मचारियों के भोजन का घन्टा बज गया, किन्तु हमलोग काम में लगे हुए थे. हठात एक ब्रह्मचारी आकर मुझसे पूछते है, ' आपलोग कुल कितने व्यक्ति हैं ? ' मैंने पूछा, ' क्या बात है ? ' वे बोले बड़े महराज पूछ रहे हैं ' मैंने देख कर बता दिया, ठीक से याद नहीं पर आठ आदमी य़ा नौ आदमी हमलोग उस समय वहाँ पर कार्य कर रहे थे. सुन के वे चले गये. थोड़ी देर के बाद आठ नौ थाली में रोटी सब्जी- परोस कर सभी के हाथों पर रख कर बोले, " बड़े महाराज ने कहा था, लड़के लोग वहाँ पर बैठ कर काम कर रहे हैं, उनलोगों ने तब से मुख में कुछ डाला नहीं है, हमलोग भला किस प्रकार खा सकते हैं ? " उनके उस प्रेम की कल्पना भी क्या की जा सकती है ? 
उसके बाद जब वहाँ पर मीटिंग होता तो जाता था, अब भी याद है कि तब- मीटिंग समाप्ति के बाद वापस आते समय, वे हमेशा मुझसे कहा करते थे- ' नवनी बाबू आप खाना खा कर ही जाइयेगा | ' मैंने कहा नहीं मुझे जल्दी स्टेशन पहुँच कर ट्रेन पकडनी है. ' वे कहते - ' नहीं, नहीं, खाना खाने के बाद ही जाइयेगा, खाने के बाद ही जाइयेगा.' एक दिन हाथ पकड़ कर खींच रहे हैं, किसी भी तरह जाने नहीं दिये, बैठा कर अपने सामने खिलवाये तब जाने दिये. इसीलिए उनलोगों के पास कितना प्रेम था, कितनी सहानुभूति थी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता !
  हमलोगों के प्रति उन सन्यासियों की सहानुभूति का कारण क्या था ? वे लोग जानते थे कि ये लोग स्वामीजी के नाम पर काम में लगे हुए हैं. हमलोगों का तो कार्य चल ही रहा है, इतने विशाल पैमाने पर ( लगभग सभी बड़े बड़े देशों में ) ' रामकृष्ण मठ मिशन ' इतना बड़ा बड़ा कार्य कर रहा है. किन्तु यह भी तो एक बड़ा महत्वपूर्ण कार्य है. यह भी ठीक उसी तरह का कार्य है जिस तरह, श्री रामचन्द्र के द्वारा समुद्र पर पुल बाँधते समय एक छोटी सी गिलहरी अपने पीठ पर बालू लाद कर समुद्र में डालने का प्रयास कर रही हो! किन्तु उस गिलहरी के प्रयास को भी कम करके नहीं आँका जा सकता. उसका भी तो अपना एक मूल्य जरुर है.
 महामण्डल को वह मूल्य सदैव प्राप्त हुआ है. जिस समय महामण्डल स्थापित करने का संकल्प लिया गया, तब उस समय जो मठ के बड़े लोग थे, उस समय स्वामी विरेश्वरानन्दजी महाराज प्रेसिडेन्ट थे और स्वामी गम्भीरानन्दजी महाराज तब जेनेरल सेक्रेट्री थे- उन दोनों के पास जाकर बोला महाराज हमलोगों ने यह सब करना ठीक किया है. दोनों ने कहा- " बहुत अच्छा है, बहुत अच्छा कार्य है, करो, करो! " उसके बाद वे लोग जितने दिनों तक (शरीर में) थे, मैं जब कभी मठ जाया करता वे दोनों ही मुझसे महामण्डल के बारे में पूछा करते थे. गंभीर महाराज सदैव बस एक ही बात पूछते थे- " को टा सेन्टर होल ? "" - अभी तक तुमलोगों के कुल कितने केन्द्र स्थापित हुए हैं ?
 " और विरेश्वरानन्दजी पूछा करते थे-" केमन काज हच्छे  ? आरो काज बाढ़छे तो, भाल हच्छे तो, केमन हच्छे ? " -अर्थात महामण्डल का काम कैसा चल रहा है ? इसका दायरा (कार्य-क्षेत्र ) और फ़ैल रहा है न? काम अच्छी तरह से आगे बढ़ रहा है न ? किस प्रकार चल रहा है ? " आदि, आदि. 
उसके बाद हमलोगों के दो-चार कैम्प हो गये हैं. उसके बाद बेलुड में भी कई वर्षों तक कैम्प हुए हैं. उस समय वहाँ पर टेकनीकल स्कूल का एक होस्टल था. मठ से बाहर निकल कर जी.टि रोड से होकर बाली की तरफ थोड़ा आगे बढ़ते ही बायीं तरफ बहुत बड़ा सा, कई एकड़ों में फैला शिल्प मन्दिर में छात्रों का एक होस्टल है. वहीं पर कैम्प हो रहा है. दो-तीन वर्ष तक कैम्प वहाँ हो गया है. तब बेलुड मठ में भरत महाराज ( स्वामी अभयानन्द ) भी रहते थे, मैं अक्सर उनके पास जाया करता था. वे महामण्डल के बारे में हमेशा पूछा करते थे, और सुन कर बहुत आनन्द प्रकट करते थे. उनके पास जाते ही अपने सामने बैठा कर थोड़ा भी प्रसाद हर समय देते थे. और जानकारी भी लिया करते थे. 
जब तक वहाँ कैम्प हुआ करता था, तब कैम्प के बाद, प्रत्येकबार समस्त कैम्पर्स को एक शोभा-यात्रा ( सफ़ेद वस्त्र में सजा कर ) के रूप से मठ में अवश्य ले जाया जाता था. मठ के सभी सन्यासी ब्रह्मचारी उस शोभा यात्रा को देखते थे, ये क्या है ! इतने सारे लड़के आये हैं, ये सभी लोग जूते उतार कर पहले मन्दिर में जाकर एक एक कर के ठाकुर को प्रणाम करेंगे, फिर पंक्तिबद्ध होकर भरत महाराज को जाकर प्रणाम करने के बाद - फिर उसी प्रकार शोभा-यात्रा के रूप में वापस कैसे लौट पायेंगे ? एक साथ सात-आठ सौ जोड़े जूतों को बाहर खोल कर, सभी लड़के मन्दिर में जाकर ठाकुर को प्रणाम करने के बाद उतने बड़े प्रांगण  की परिक्रमा पूरी करके वापस लौट आते, किन्तु कभी किसी एक का भी जूता भुलाया नहीं. मन्दिर के सामने सभी कैम्पर्स को दो लाइन बना कर खड़ा करा दिया जाता था, बायीं तरफ वाली कतार अपने जूतों को खोल कर बायीं ओर रख देते और दाहिनी तरफ वाली पंक्ति अपने जूतों को खोल कर दाहिनी तरफ रख देते थे.
फिर दर्शन करके लौट आने के बाद ठीक उसी लाइन में उसी स्थान पर मन्दिर के सामने जाकर खड़े हो जाते थे. और जो बायीं पंक्ति में खड़े होते उनको अपना जूता बायीं ओर मिल जाता तथा जो दायीं पंक्ति में होते उन्हें अपना जूता दाहिने ओर कहा मिल जाता था. कभी किसी का एक भी जूता नहीं भुलाया, कभी धक्का मुक्की नहीं हुआ. सभी लोग महामण्डल के अनुशासन को देख कर अवाक रह जाते थे. 
भरत महाराज इस अनुशासन को बहुत पसन्द करते थे, और हमलोगों से इतना स्नेह करते थे कि, शोभा-यात्रा कर के वहाँ जाने के पहले ही पूछ लिया करते थे, इस बार कैम्प में कितने लड़के आये हैं ? और प्रत्येक के लिये कहीं आर्डर दे कर मिठाई बनवा लेते थे. बेलुड मठ में स्वामीजी के कमरा के निकट जो आम का पेड़ है, वे वहीं पर एक चेयर पर बैठे  रहते थे, और प्रत्येक कैम्पर जब उनको प्रणाम करके वापस लौट रहा होता,  तो प्रत्येक के हाथ में एक एक मिठाई पकड़ा दिया जाता था. बहुत वर्ष के बाद एक दिन वहाँ के एक सन्यासी मुझको बोले कि महाराज (भरत महाराज ) पूछ रहे हैं कि, " एबारे कत छेले ? एबारे ओरा आसबे ना ? " "- इसबार कितने लड़के हुए हैं, वे लोग क्या इस बार नही आयेंगे ? "
बोला महाराज, महाराज लड़के लोग तो आयेंगे, किन्तु इस बार तो वे आपका दर्शन नहीं कर पायेंगे . उन्हों पूछा - " क्यों, क्यों"  मैं बोला, आप तो ऊपर ही रहते हैं, अब तो आप नीचे नहीं जा पायेंगे .तब उन्होंने कहा, " यदि मैं नीचे नहीं जा सकूँगा तो वे लोग ही ऊपर चले आयेंगे. "  मैं ने कहा महाराज इस बार ८०० लड़के कैम्प में आये हैं, ८०० लड़के ऊपर कैसे जा सकेंगे ? भरत महाराज ने कह दिया- " स्वामीजी के कमरे तक जाने की जो सीढ़ी है, उसी के द्वारा वे लोग ऊपर चढ़ेंगे, फिर स्वामीजी के कमरे के सामने वाले बरामदे में आयेंगे, उनके कमरे के ठीक बगल वाले कमरे के सामने मैं एक चेयर पर बैठा रहूँगा, वहा से होते हुए पुराने मन्दिर में जाने की जो सीढ़ी है, वहीं से उतर कर चले जायेंगे. "  कितना सुन्दर उपाय बतला दिये ! और बोले " आठ सौ मिठाई बनाने के लिये आर्डर भेज दो ! " 
जिस प्रकार उन्होंने मार्ग सुझाया था हमलोग ठीक उसी प्रकार गये. मन्दिर में ठाकुर को प्रणाम करने के बाद " प्रेसिडेन्ट महाराज " ( स्वामी भूतेशानन्दजी महाराज ) को प्रणाम करके वहाँ पर (स्वामीजी के कमरे के सामने चेयर पर विराजमान स्वामी अभयानन्द जी के पास) गये, फिर वहाँ से वापस लौटने के बाद प्रसाद प्राप्त किये. उस समय उनके सामने से गुजरते समय महामण्डल का ध्वज विधि-पूर्वक लिये हुए एक लड़का जो आगे आगे चल रहा था, जब वह सामने से गुजरा तो उन्होंने पूछा - " यह क्या है ? " मैंने कहा - " यह महामण्डल का ध्वज है. " वे बोले - " दिखाओ, दिखाओ ", फिर हाथों को बढ़ा कर महामण्डल ध्वज को अपने हाथों में पकड़ कर उसके ऊपर स्नेह से अपने हाथ फेर दिये ! 
महामण्डल को इतना सौभाग्य मिला है जिसका वर्णन नहीं कर सकता. मठ- मिशन के सन्यासियों का आशीर्वाद महामण्डल को प्रारम्भ से ही मिलता आया है.  
एकबार महामण्डल के कैम्प का उदघाटन करने के लिये स्वामी आत्मस्थानन्दजी महाराज ' कोन- नगर ' आये थे. वे अपने उदघाटन भाषण में कहे, ' रामकृष्ण मिशन की ओर से मैं सभी शिविरार्थियों को मठ में प्रसाद पाने के लिये आमन्त्रित कर रहा हूँ. ' सभी सोंचने लगे यह कैसे सम्भव होगा, इतने लोगों को कोन-नगर से बेलुड मठ कैसे ले जाया जायेगा? हमलोगों को बहुत प्रयास करके एक स्टीमर भाड़ा पर लेना पड़ा. वहाँ पर कोई जेटी नहीं थी, तब किसी प्रकार प्रयास करके एक काम-चलाऊ जेटी बना लिया गया. स्टीमर को बहुत सुन्दर ढंग से सजा लिया गया, फिर एकसाथ सभी लड़कों को लेकर स्टीमर पर चढ़ा गया, (थोड़े से लड़के कैम्प में रह गये), ठाकुर माँ स्वामीजी के चित्र को रखा गया, महामण्डल गान हुआ, ठाकुर की वाणी , स्वामीजी की वाणी, माँ की वाणी का पाठ हुआ.
बेलुड मठ पहुँचने के साथ ही मन्दिर में जाना है. उस समय स्वामी भूतेशानन्दजी महाराज प्रेसिडेन्ट थे.
Srimat Swami Bhuteshananda, hoisting the Mahamandal
flag at a youth training camp
वे पूजनीय जयराम महाराज को बोले, ' जाओ, जाओ, देखो, देखो ओरा मन्दिरे एलो की ना, मन्दिर बन्द हो जायेगा.' एक आदमी को यह देखने के लिये भेजे कि, लड़कों के आने तक कहीं मन्दिर का दरवाजा न बन्द हो जाय. हमलोग स्टीमर से उतर कर सीधा मन्दिर में प्रणाम कर के बाहर निकले, तब देखे कि दरवाजा बन्द हुआ. उस समय ठीक बारह बज कर पैतीस (12:35 P.M.) मिनट हुए थे.उसके बाद सभी लोग पाटिया पर बैठ कर प्रसाद पाए, फिर उसी स्टीमर पर चढ़ कर वापस कैम्प में लौट आये. 
इसीलिये हमलोगों के ऊपर प्राचीन सन्यासिओं से लेकर वयः कनिष्ठ सन्यासियों तक की आन्तरिक सहानुभूति एवं सहायता  और आशीर्वाद  इतने विविध रूप में प्राप्त हुआ है, जिसका वर्णन मुख से बोल कर समाप्त नहीं किया जा सकता है. 
Monks & Brahmacharis of the Ramakrishna Order
at the public session of a youth training camp

एक बार रामकृष्ण मिशन में युवा सम्मलेन हुआ था, उसमे एक दिन का विषय था- " रामकृष्ण मूभमेन्ट" ( रामकृष्ण भाव-आन्दोलन ) सभी लोग अपने भाषणों में रामकृष्ण मठ मिशन के कार्यों पर ही चर्चा कर रहे थे, उस सम्मेलन का सभापतित्व 'गम्भीर महाराज'  कर रहे थे, उन्होंने अपने बक्तव्य में कहा- 
" रामकृष्ण मूवमेंट डज़ नॉट मीन ओनली रामकृष्ण मठ ऐंड मिशन ; देयर आर सो मेनी अदर ऑर्गनाइजेशन्स " - जारा एई ठाकुर-स्वामीजीर भावे काज करछे ! " " - रामकृष्ण भावान्दोलन का अर्थ केवल रामकृष्ण मठ एवं मिशन ही नहीं समझना चाहिये, यहाँ ऐसे कई संगठन हैं- जो ठाकुर स्वामीजी के भाव में कार्य करते हैं ! "ऐसा कह कर उनहोंने ऐसे कई संगठनों के नाम का उल्लेख किया, और उसी क्रम में बोले, जिस प्रकार - " विवेकानन्द युवा महामण्डल ! "  यह भी कोई कम बड़ी बात नहीं है. इसमें उन्होंने न केवल महामण्डल को स्वीकृति दिया हैं, बल्कि उन्हों ने महामण्डल का उल्लेख  " रामकृष्ण मूभमेन्ट " के एक अंग के रूप में किया हैं ! 
"रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा"  का ही एक अंग है -महामण्डल द्वारा आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर !                             

                 

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

[50] युवाओं के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती:सम्पूर्ण पृथ्वी को आर्य बनाओ !

' सम्पूर्ण पृथ्वी को आर्य बनाओ ! ' आर्य बनाओ ' कहने का तात्पर्य क्या है ? इसीको स्वामीजी कहते हैं- पशु मानव को देव मानव में उन्नत करो ! ' कृण्वन्तो विश्वं आर्यं !' -- वैश्वीकरण के इस महत आदर्श का जन्म भारतवर्ष में ही हुआ था। भारतवर्ष के वेदों का जयघोष था- सम्पूर्ण पृथ्वी को आर्य बनाओ ! ' सुसंस्कृत बनाओ.अर्थात उनके जीवन और आचरण में शुभ संस्कारों को भरो. भारतवर्ष का यही संदेष था. सम्पूर्ण पृथ्वी के मनुष्यों को सुसंस्कृत बनाना होगा, उन्हें सभ्य बनाना होगा.' 
सुसंस्कृत ' करो अर्थात - ' पृथ्वी के समस्त मनुष्यों के मन पर शुभ-संस्कारों की छाप डाल कर उन्हें एक सभ्य मनुष्य में परिणत करो ! 'सम्पूर्ण पृथ्वी पर शुभ-संस्कारों की छाप डालना भारत का ही उत्तरदायित्व था.किन्तु आज क्या हो रहा है ? आज अर्थनैतिक वैश्वीकरण (इकनोमिक ग्लोबलाइजेशन) हो रहा है. इसके माध्यम से हो क्या रहा है ? 'आर्य' बनने के बजाय धनी लोग और भी ज्यादा धनी बन रहे हैं.
स्वामीजी ने अमेरिका के पार्लियामेंट ऑफ़ रिलिजन में भाषण दिया था. हमलोग कहते नहीं अघाते कि, स्वामीजी ने भाषण का प्रारम्भ हठात - " सिस्टर्स ऐंड ब्रदर्स ऑफ़ अमेरिका "  कह कर किया जिसे सुनकर, अमेरिका मतवाला हो उठा था. किन्तु उस स्थान पर भाषण देने के पहले भी स्वामीजी और भी कई भाषण दे चुके थे. उनमे से उनका एक भाषण अत्यन्त महत्वपूर्ण है.एकबार अमेरिका के
'सोशल साइंस एसोसिएशन ' में उनको भाषण देने के लिये कहा गया था. वहाँ पर इकोनॉमिक्स -के उपर चर्चा हो रही थी. उनको मोनेटरी इकोनॉमिक्स के विषय में भाषण देना था. किसी अर्थशास्त्री के लिये भी यह विषय अत्यन्त कठिन है. वहाँ पर स्वामीजी को इसी विषय पर बोलने के लिये कहा गया था, एवं स्वामीजी ने इस पर भाषण देते हुए कहा था-" दी यूज ऑफ़ सिल्वर इन इंडिया " - ' भारतवर्ष में चाँदी का व्यवहार |'  
उस समय वहाँ पर ' गोल्ड स्टैण्डर्ड , सिल्वर स्टैण्डर्ड ' को लेकर चर्चा चल रही थी. यह भाषण उन्होंने १८९३ ई० में दिया था. और अमेरिका के पार्लियामेंट में वर्ष १८९१ - १८९५ तक के लिये निर्वाचित एक सदस्य भी उसी सभा में उपस्थित थे जिन्होंने एक भाषण भी दिया था. वे उत्तर अमेरिका के एक छोटे से राज्य के प्रतिनिधि थे. वे एक नामी ' वक्ता ' थे. जिस प्रकार इंगलैंड के प्रसिद्ध वक्ता थे ' वार्क 'महोदय - एक विश्वविख्यात वक्ता थे, जिनके विख्यात भाषणों को कलकाता यूनीवर्सिटी में भी बहुत दिनों तक पढाया जाता था. उन्ही  के स्तर के एक वक्ता वहाँ भी थे जिनका नाम था ' ब्रायन '. वे उसी वक्ता के द्वारा कथित उक्ति को अपने भाषण में कोट करते हुए कहते हैं- " ब्रायन वाज़ राइट व्हेन हे सेड , दैट  दिस गोल्ड स्टैण्डर्ड इज मेकिंग दी पुअर पुअरर. दी रिच रिचर. "  - अर्थात ब्रायन ने बिल्कुल खरी बात कही थी कि-  बैंकिंग प्रणाली में स्वर्ण को मानक बना कर किसी देश की मुद्रा का मूल्य निर्धारित करने का कूफल यह हो रहा है कि, इसके द्वारा दरिद्र दिन पर दिन और ज्यादा दरिद्र होते जा रहे हैं और, जो पहले से धनी देश हैं वे और भी ज्यादा धनी हो रहे हैं | " आज भी क्या हो रहा है ? 
गरीब और भी गरीब बनते जा रहे हैं, बड़े आदमी और भी ज्यादा बड़े (धनी ) होते जा रहे हैं. यही तो है आज के ग्लोबलाइजेशन का फल! किन्तु हमारे देश एवं विदेश के यथेष्ट बड़े बड़े अर्थशास्त्री हैं जो इस प्रकार के ' वैश्वीकरण ' को पूरी तरह से गलत मानते हैं. किन्तु हमलोग उनकी चेतावनी की ओर थोड़ा भी ध्यान नहीं दे रहे हैं.
अभी हाल में ही वर्ष २००१ ई० में नोबेल प्राइज़ प्राप्त एक अर्थनीतिविद कलकाता आये थे. वे कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में Economics के प्राध्यापक हैं. अभी हाल में ही कलकाता में एक  नया यूनिवर्सिटी स्थापित हुआ है- " West Bengal National University of Juridical Science . " वहाँ पर आयोजित एक सम्मेलन में भाषण देते हुए उन्होंने बतलाया है कि, यह जो वैश्वीकरण चला हुआ है, उसका कुपरिणाम क्या होगा ? " उसका सबसे बड़ा कुपरिणाम तो यही होगा कि गरीबों का (गरीब देशों का) पैसा बड़े लोगों (अमीर देशों ) के हाथ में चला जायेगा."  
आज के युग में (वेदान्ता के लिये उड़ीसा में जमीन लेने य़ा जमुना एक्सप्रेस वे के लिये यूपी में जमीन लेने के युग में ) साधारण मनुष्यों ( कर्ज की बोझ में दब कर आत्महत्या कर लेने वाले किसानों ) का स्थान कहाँ है ? साधारण मनुष्यों ( पिपली लाइव के ' नत्था ') की तरफ देखने की फुर्सत भी किसको है ? गरीबों की उन्नति के लिये बड़ी बड़ी योजनायें चलायी जा रहीं हैं. ('नरेगा' का नाम बदल कर ' मनरेगा ' कर दिया गया है !)
इसमें दावा तो है कि प्रत्येक गरीब को १०० दिनों के रोजगार की गारन्टी है ! पर कई जगह की रिपोर्ट है कि केवल पाँच दिनों का काम मिला है, उससे अधिक काम नहीं मिल सका. काम (रोजगार ) है कहाँ ? कौन देगा काम ? गरीबों के लिये राशन देने की व्यवस्था भी की जा रही है. BPL कार्ड पर मुफ्त राशन य़ा सस्ती दर पर राशन उपलब्ध कराने का दावा किया जाता है. पर उस तालिका में कितने गरीबों के नाम दर्ज हैं ? उनलोगों का राशन चुरा लिया जाता है, य़ा बरसात में भींग कर करोड़ो टन सरकारी अनाज सड़ जा रहे हैं, इन सबको कौन देख रहा है ?  
भ्रष्टाचार से देश भरा हुआ है, यह भ्रष्टाचार, बहुत दिनों से, भारतवर्ष के स्वाधीन होने के समय से ही चला आ रहा है, एवं पार्लियामेन्ट में तो यहाँ तक कह दिया गया है कि -  " जे खाने अनेक टाका खरच हय सेखाने एकटू चुरी हयेई थाके | "
 " - जहाँ पर ( जिस पंच वर्षीय योजनाओं में ) करोड़ो- करोड़ रुपये खर्च होते हैं, वहाँ थोड़ी बहुत चोरी (य़ा घपला ) तो चलता ही रहता है ! "   
  जो लोग देश के कर्णधारहैं, जिनके हाथों में देश की बागडोर है, जो लोग प्रधान सेवक हैं देश के - ' वही ' लोग यदि (भ्रष्टाचार को बिल्कुल हलके से लें और ) यह कहना शुरू कर दें कि-" चुरी एकटू हयई थाके !" " - थोड़ी बहुत चोरी तो होती ही रहती है !"
तो देश से भ्रष्टाचार दूर कैसे होगा ? क्या उपाय है इस भ्रष्टाचार को समूल नष्ट करने का ? यदि मनुष्य का चरित्र गठन हो जाये तो वह भ्रष्ट-आचरण (भ्रष्टाचार) कभी कर ही नहीं सकता. मनुष्य यदि ' मनुष्य ' ( T के शब्दों में जिसको अपने मान का होश हो- मानहुश !) बन जाये तो भर्ष्टाचार स्वतः मिट जायेगा. मनुष्य अभी तक मनुष्य नहीं बन सका है, इसी लिये तो भ्रष्टाचार चल रहा है.
(N -दादा कहते हैं- बाकी सब पशु पक्षी पूर्ण हो कर आये हैं, उनको कुछ बनना नहीं पड़ता है- स्कूल जाना नहीं पड़ता है, किसी गुरु के पास जाना नहीं पड़ता है. पर मनुष्य अधुरा है उसको मनुष्य बनने की साधना - मन को अपने वश में रखने साधना , " मनः संयोग " ही सीखना पड़ता है. जो व्यक्ति मन को वश में करके मनुष्य बन जाने की चेष्टा नहीं करता वह नीचे गिर कर केवल पशु ही नहीं राक्षस बन जाता है ! )
मनुष्य यदि " मनुष्य " बन जाता तो दुर्नीति (बेईमानी) कहीं दिखाई भी नहीं पडती ! स्वाधीन भारत की शिक्षानीति में - " मनुष्य " बनने (चरित्रवान मनुष्य बनने की शिक्षा ) की शिक्षा देने का प्रयास कभी किया ही नहीं गया है. इसीलिये स्वामीजी ने कहा था - 

" तोदेर देशे मानूष कोथाय रे ? "
 " - तुमलोगों के देश में मनुष्य कहलाने योग्य मनुष्य कहाँ हैं रे ? "मनुष्यों का निर्माण करने से क्या होगा ? उन सज्जन ने स्वामीजी से यही जानना चाह था, की क्या करने क्या हो सकता है ? उन्होंने उत्तर में कहा था-"मेक मैन फर्स्ट"- पहले मनुष्यों का निर्माण करो ! "
क्या मनुष्यों का निर्माण कर लेने से सब कुछ ठीक हो जायेगा ? हाँ, जब यथेष्ट संख्यक मनुष्य निर्मित हो जायेंगे तो सेष सब कुछ अपने आप हो जायेगा ! क्योंकि हमारे देश आभाव केवल चरित्रवान मनुष्यों का ही है. ( बाकी तो शश्यश्यामला रत्नगर्भा भारत भूमि पहले से ही है !) स्वामीजी ने यह बात १००  वर्ष पहले कहा था, वह आज तक नहीं किया गया है. आज तक सरकारी प्रयास के द्वारा देशव्यापी स्तर पर " मनुष्य निर्माण करने की कोई पञ्च वर्षीय योजना ",  नहीं ही बनाई जा सकी है ! 
विश्वविद्यालय की तो देश में भरमार है, अभी भारतवर्ष में ३५० विश्वविद्यालय हैं, और नये नये खुलते भी जा रहे हैं. इतना ही नहीं विदेश के विश्वविद्यालय भारत में अपनी शाखायें खोल रहे हैं. अपने देश के विश्वविद्यालय को दूसरे देशो में ले जाने का प्रयास चल रहा है. तर्क है कि इस प्रकार करने से ' विद्या ' का आदान प्रदान होगा. कौन सी ' विद्या ' ली और दी जाएगी ? 
" अर्थकरी- विद्या " इस विद्या में मनुष्य के द्वारा ' मनुष्यत्व ' अर्जित करने की ओर कोई ध्यान नहीं रखा जाता है.इसमें बस यही सिखया जाता है कि किस उपाय से और भी अधिक धन उपार्जित किया जा सकता है ? 
विश्व को  इस अवस्था से (आर्थिक वैश्वीकरण के कुपरिणाम से ) यदि कोई विचारधारा रक्षा कर सकती है, तो वह केवल स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा ही है ! स्वामीजी की विचारधारा कहने का अर्थ श्री रामकृष्ण परमहंस देव ( ठाकुर ) की विचारधारा ही है, और ठाकुर की विचारधारा का अर्थ ही है श्री श्री माँ सारदा देवी की विचारधारा ! इन तीनों में एक ही भाव का मिलन है, पूर्ण स्वीकृति है ! 
शायद इसीलिये मुझ से कुछ दिनों पहले एक स्थान पर, अर्थात महामण्डल चलते हुए बहुत वर्ष बीत जाने के बाद, किसी जगह यह प्रश्न पूछा गया कि, इस महामण्डल कि स्थापना किस प्रकार हुई ? प्रश्न को सुनने के साथ ही साथ मेरे मन में जो विचार उठते हैं, उसीको तत्काल मुझे कह देना पड़ता है. बहुत सोंच विचार करके कुछ बोलने कि क्षमता भी मुझमे नहीं है. इसीलिये बरबस मुख से निकल पड़ा था-
" The will of Sri Ramakrishna, the blessings of the Holy Mother, and enthusiasm of Swami Vivekananda mingled to form this organization ."  
" - ठाकुर की इच्छा,  माँ का आशीर्वाद और स्वामीजी का उत्साह-  इन तीन भावों  के सम्मलित होने से ही इस संगठन ' अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' की सृष्टि हुई है ! " 
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बुधवार, 25 अगस्त 2010

परिव्राजक लीडरशिप [49] महामण्डल का " प्रतीक-चिन्ह "

" चरैवेति चरैवेति "

महामण्डल के आविर्भूत हो जाने बाद, सोंच-विचार कर के सर्वप्रथम इसका एक " प्रतीक-चिन्ह " (Emblem) निर्धारित किया गया. उसमे जो गोलाई है, वह पृथ्वी है, पृथ्वी के भीतर, कन्याकुमारी के ऊपर से शुरू होता हुआ भारतवर्ष का मानचित्र है, भारतवर्ष के भीतर दण्डधारी स्वामी विवेकानन्द खड़े हैं. उस गोलाई के दोनों ओर दो वाक्य लिखे हुए है-  " Be and Make " स्वामीजी के द्वारा कही गयी यह वाणी एक मन्त्र के सदृश्य है,  " बनो और बनाओ " (Be and Make ) - का यह आह्वान  उपनिषदों में कहे गये " महावाक्यों " के जैसा अत्यन्त सारगर्भित है.(दादा कहते हैं- इस मन्त्र में इतनी शक्ति है जो भी इस काम से निष्ठा पूर्वक जुड़ा रहेगा उसे  मोक्ष तक प्राप्त हो जायेगा, अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी ) इसका अर्थ है :-" स्वयं मनुष्य बनो दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो ! " इस प्रतीक चिन्ह के ऊपर की ओर लिखा है-" चरैवेति चरैवेति !" अर्थात "चलते रहो - चलते रहो !" 

महामण्डल का यह ध्येय वाक्य वैदिक साहित्य (ऐतरेय ब्राह्मण ७.१५) के सुप्रसिद्ध संचरण गीत "चरैवेति-चरैवेति।" से लिया गया है; इस वैदिक गीत में जीवन एवं समाज के विकास के केन्द्र में मनुष्य के श्रम या पुरुषार्थ के महत्व को उजागर किया गया है।

 यहाँ इस मंत्र के द्रष्टा : (ऋषि कवि महीदास ऐतरेय ) कहते हैं - जो मनुष्य (मोहनिद्रा में ) सोया रहता है और पुरुषार्थ नहीं करता उस मनुष्य का भाग्य भी सोया रहता है,  जो पुरुषार्थ करने के लिये खड़ा हो जाता है, उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है. जो आगे चलना शुरू कर देता है , उसका भाग्य भी आगे आगे चलने लगता है, इसीलिये- " हे मनुष्यों- चरैवेति चरैवेति ! "चलते रहो - चलते रहो!" (साभार Pt. Chhavinath Mishra / प. छविनाथ मिश्र ने इस रचना का सुन्दर हिन्दी अनुवाद किया है - ) 
संचरण गीत "चरैवेति-चरैवेति।"
  "चलते रहो - चलते रहो"
१-ॐ नाना श्रान्ताय श्रीरस्ति, इति रोहित शुश्रुम ।
पापो नृषद्वरो जन, इन्द्र इच्चरतः सखा । चरैवेति चरैवेति॥

सुनो रोहित --
सुना हमने
अथक श्रम ही श्रीमुखी

कर्मरत यदि हों नहीं तो श्रेष्ठ जन भी सब दुखी
नित्य जो गतिशील है बस इन्द्रता तो है उसीकी
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …


२- पुष्पिण्यौ चरतो जंघे, भूष्णुरात्मा फलग्रहिः ।
शेरेऽस्य सवेर् पाप्मानः श्रमेण प्रपथे हताः । चरैवेति चरैवेति॥

फूल उनकी पिण्डलियाँ हैं जो हमेशा चला करते
वर्धमाना चेतना की टहनियों पर फला करते
सुप्त रहते हैं सभी अपकर्म भी उसके सखे हे !
किन्तु श्रम से पंथ पर ही नष्ट होते नित दिखे वे
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …


३- आस्ते भग आसीनस्य, ऊध्वर्स्तिष्ठति तिष्ठतः ।
शेते निपद्यमानस्य, चराति चरतो भगः । चरैवेति चरैवेति॥

बैठने वाले पथिक का भाग्य बैठा अड़ा होता
और उठने की क्रिया में वही ऊँचे खड़ा होता
जो यहाँ सोया रहा वह हाथ मलता ही रहा है
भाग्य उसका ही चला है जो सदा चलता रहा है
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …


४- कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् । 
चरैवेति चरैवेति॥

 सदा ही सोता हुआ - सा
यहाँ कलियुग हुआ करता
नींद टूटी, जागरण ही, यहाँ द्वापर हुआ करता
और उठता हुआ मानुष
खड़ा त्रेता -सा स्वयम्भर
यहाँ चलता हुआ पथ पर सत्ययुग होता निरन्तर
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …

५- चरन् वै मधु विन्दति, चरन् स्वादुमुदुम्बरम् ।
सूयर्स्य पश्य श्रेमाणं, यो न तन्द्रयते चरन् । चरैवेति चरैवेति॥
 
 कर्मरत गतिशील जो
मधुपान करता है सुनिश्चित
कर्मशीला अस्मिता को ही सदा मिलता फलामृत
देख लो तुम सूर्य की श्रमशीलता यह सृजनधर्मी
जो न पल भर श्रम-विमुख है
श्रम-मुखी शाश्वत सुकर्मी
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …
सोये रहने का तात्पर्य है, जो मनुष्य सोया हुआ है वह अभी ' कलिकाल में वास 'कर रहा है, (स्वामीजी की ललकार - उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्नी बोधत ! सुनने से ) जिसकी मोहनिद्रा भंग हो गयी है, वह द्वापर युग में वास कर रहा है. 
" उत्तिष्ठ्म स्त्र्रेता भवति |"
- जो उठ कर के खड़ा हो जाता है- जो पुरुषार्थ करने के लिये कमर कस कर उठ खड़ा होता है, वह त्रेता युग में वास कर रहा है, 
" कृतं संपद्यते चरन् । "
और अपनी मंजिल की ओर जिसने चलना शुरू कर दिया है, वह मानो सत्य युग में वास कर रहा होता है. इसीलिये स्वामीजी युवाओं से आह्वान करते हैं - 'चरैवेति चरैवेति ' - आगे बढो, आगे बढो ' इसके साथ ही साथ उन्हें परम-पुरषार्थ करने के लिये पुकार रहे हैं  " Be and Make !  "  उनके दोनों महावाक्यों को महामण्डल के प्रतीक-चिन्ह में उकेरा गया है ! परिव्राजक का काम है चलते रहना । " नदिया चले चले रे धारा चन्दा चले चले रे तारा तुझको चलना होगा तुझको चलना होगा |
 ( Why do we rush through our lives, as if we were in a hurry to get somewhere? Take me anywhere, just not to here! Why so? Sure, I am the first to admit that goals are important in life, but if we don’t take time to look around and enjoy the journey our goals will loose their effect; they are to make us happy now. Today. That is why I like this simple Chinese proverb:

“The Journey is the Reward”
If we enjoy our journey our lives gain meaning. It’s as simple as that. Let’s not think that the only important thing is that celestial glory which awaits us some time faaaaar in the future. Seeing how wonderful this life is, here and now, lets us experience the sparking of that celestial flame in a hearts already today.!Enjoy your day! -by Louis Herrey)}

...." जो हमलोगों का संघ-मन्त्र है, वह ऋग्वेद में भी है और अथर्ववेद में भी है -
 

संगच्ध्वं संग्वदध्वं संग वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ।।
समानो मन्त्रः समितिः समानी ।
समानं मनः सः चित्त्मेषाम ।।
समानं मन्त्रः अभिम्न्त्रये वः ।
समानेन वो हविषा जुहोमि ।।
समानी व् आकुतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।।
(ऋग्वेद :१०/१९१/२-४ )
हिन्दी भाव -एक साथ चलेंगे ,एक बात कहेंगे । हम सबके मन को एक भाव से भरेंगे ।देव गण जैसे बाँट हवि लेते हैं ,हम सब सब कुछ बाँट कर ही लेंगे ।। हम अपने सारे निर्णय एक मन हो कर ही करेंगे ,क्योंकि देवता लोग एक मन रहने के कारण ही असुरों पर विजय प्राप्त कर सके थे । अर्थात एक मन बन जाना ही समाज-गठन का रहस्य है ......कैसा अनोखा मन्त्र है.' संजयान ' हो उठना का तात्पर्य है जाग उठना ! इस मन्त्र को स्वामीजी ने भी उद्धृत किया था. विवेकानन्द साहित्य में जहाँ इस मन्त्र का उल्लेख स्वामीजी ने किया है, वहाँ कहा गया है की यह मन्त्र अथर्ववेद से लिया गया है; किन्तु यही मन्त्र ऋग्वेद में भी है.
ये सारे कार्यक्रम भारत के १० राज्यों में २८० केन्द्रों के माध्यम से चल रहा है. क्या यही कम बड़ी उपलब्धी है! यही तो है स्वामीजी का कार्य.इसके साथ साथ महामण्डल के लिये एक पताका की भी आवश्यकता महसूस हुई. पताका के बारे में विचार करते करते मन में विचार आया कि (भगिनी) निवेदिता ने तो स्वाधीन भारत के लिये एक पताका का निर्माण किया था. उसके पीछे भी स्वामीजी कि एक उक्ति का स्मरण हो उठता है. इसीलिये  महामण्डल का जय-घोष बना : " निवेदिता वज्र हो अक्षय ! उनकी उसी उक्ति से प्रेरणा प्राप्त करके निवेदिता ने उस पताका की रुपरेखा तैयार की थी य़ा नहीं, यह मुझे नहीं पता है.एक बार स्वामीजी से किसी ने प्रश्न किया था- स्वामीजी, आपने इतना कुछ किया है, किन्तु भारत की स्वाधीनता के लिये आपने क्या किया है ? स्वामीजी कहते हैं- " भारतवर्षेर स्वाधीनता आमी  तीन दिनेर मध्येई एने फेलते पारि| किन्तु भारते मानुष कोथाय रे ?
से स्वाधीनता राखबे के ? " - " भारतवर्ष को मैं तिन दिनों के भीतर ही स्वाधीनता दिला सकता हूँ| किन्तु चरित्रवान मनुष्य भारत में कहाँ हैं रे ?  उस स्वाधीनता को अक्षुण कौन रखेगा ? "
 भारत  की वर्तमान अवस्था तो शायद पहले से भी ज्यादा बिगड़ चुकी है, यदि चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण नहीं किया गया, तो भारत के गांवों में रहने वाले गरीब लोगों को भूख-भय- भ्रष्टाचार से मुक्ति कैसे मिलेगी ? हो सकता है कि इस समय विदेशी आक्रमण का उतना खतरा नहीं हो, किन्तु उसका वास्तविक कारण " Balance of Power " ( शक्ति का सन्तुलन ) है. विश्व के बड़े बड़े देशो के बीच ऐसा कोई अलिखित करार है कि कोई भी बड़ा देश (जिसके पास वीटो पावर है ) वह अन्य किसी बड़े देश पर आक्रमण नहीं कर सकेगा. किन्तु देश की स्वाधीनता की रक्षा करने का क्या अर्थ है ? आज के भारतवर्ष में स्वाधीनता प्राप्त कर लेने के बाद क्या हुआ है ? स्वाधीनता प्राप्ति के ६४ वर्षों बाद भी भारत के " सैंकड़े ३४ व्यक्ति " गरीबी की सीमा-रेखा के नीचे वास करते हैं. स्वाधीनता किसे प्राप्त हुई है? स्वाधीनता प्राप्त हुई उनको जो अर्थवान हैं. उनका अर्थ और किस तरह बढ़ जाये इसके लिये दरवाजे खोल दिये गये हैं. आजकल globalization का, वैश्विकरण का, उदारीकरण का शोर है. किन्तु वैश्वीकरण की महत्ता का जन्म भी भारतवर्ष में ही हुआ था.  
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{ मनुष्य का शरीर पुरुषार्थ करने के लिये ही प्राप्त हुआ है.हमारे शास्त्रों में चार प्रकार के पुरुषार्थ कहे गये हैं- " धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष ." इन चारों की प्रेरणा से ही मनुष्य पुरुषार्थ करने के लिये अग्रसर होता है. और अपने अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है.पारिवारिक जिम्मेदारियाँ जैसी ही हल्की होने लगें, घर को चलाने के लिए बड़े बच्चे समर्थ होने लगें और अपने छोटे भाई-बहिनों की देखभाल करने लगें, तब वयोवृद्ध आदमियों का एक मात्र कर्त्तव्य यही रह जाता है कि वे पारिवारिक जिम्मेदारियों से धीरे-धीरे हाथ खींचे और क्रमशः वह भार समर्थ लड़कों के कन्धों पर बढ़ाते चलें । ममता को परिवार की ओर से शिथिल कर समाज की ओर विकसित करते चलें । सारा समय घर के ही लोगों के लिए खर्च न कर दें, वरन् उसका कुछ अंश क्रमशः अधिक बढ़ाते हुए समाज के लिए समर्पित करते चलें । धर्म और संस्कृति का प्राण- वानप्रस्थ संस्कार भारतीय धर्म और संस्कृति का प्राण है । जीवन को ठीक तरह जीने की समस्या उसी से हल हो जाती है । युवावस्था के कुसंस्कारों का शमन एवं प्रायश्चित इसी साधना द्वारा होता है । जिस देश, धर्म जाति तथा समाज में उत्पन्न हुए हैं, उनकी सेवा करने का, ऋण मुक्त होने का अवसर भी इसी स्थिति में मिलता है । इसलिए जिन नर-नारियों की स्थिति इसके लिए उपयुक्त हो, उन्हें वानप्रस्थ ले लेना चाहिए । एक प्रतिज्ञा बन्धन में बँध जाने पर व्यक्ति अपने जीवनक्रम को तदनुरूप ढालने में अधिक सफल होता है, बिना संस्कार कराये मनोभूमि पर वैसी छाप गहराई तक नहीं पड़ती । इसलिए कदम कभी आगे बढ़ते, कभी पीछे हटते रहते हैं ।
प्राचीनकाल में लोक निर्माण की सारी गतिविधियों एवं प्रवृत्तियों के संचालन का उत्तरदायित्व साधु-ब्राह्मण, वानप्रस्थों पर ही था, वे अपनी सारी शक्तियाँ परमार्थ भावना से प्रेरित होकर जनमानस को सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त किये रहने में लगाये रहते थे । फलस्वरूप चारों ओर धर्म, कर्त्तव्य, सदाचार का ही वातावरण बना रहता था । वयोवृद्ध अनुभवी परमार्थ-परायण लोकसेवियों का प्रभाव जन साधारण पर स्वभावतः बहुत गहरा पड़ता है, वह टिकाऊ भी होता है । ऐसे लोग जन नेतृत्व करने के लिए जब धमर्तन्त्र का उचित उपयोग करते थे, तो सारे समाज में सत्प्रवृत्तियों के लिए उत्साह उमड़ पड़ता था ।
शिक्षा, स्वास्थ्य, सदाचार, न्याय, विवेक, वैभव, शासन, विज्ञान, सुरक्षा, व्यवस्था आदि सभी क्षेत्रों में वे वयोवृद्ध लोग ही नेतृत्व करते थे । इतने अधिक अनुभवी और धर्म् परायण व्यक्तियों की निःशुल्क सेवा जिस देश या समाज को उपलब्ध होती हो, व उसको संसार का मुकुटमणि होना ही चाहिए, प्राचीनकाल में ऐसी ही स्थिति थी। आज वानप्रस्थ की परम्परा नष्ट हुई, बूढ़े लोगों को लोभ-मोह के बन्धनों में ही ग्रसित रहना प्रिय लगा, तो फिर देश का पतन अवश्यम्भावी हुआ भी, हो भी रहा है । विशेष व्यवस्था- वानप्रस्थ संस्कार जितने व्यक्तियों का हो, उनके लिए समुचित आसन तैयार रखे जाएँ । वानप्रस्थ परम्परा को महत्त्व देने की दृष्टि से उनके लिए सुसज्जित मंच बनाया जा सके, तो बनाना चाहिए ।
अभिसिञ्चन के उपरान्त वानप्रस्थ लेने वालों के हाथों में धमर्दण्ड और मेखला-कोपीन का उत्तरदायित्व सौंपा जाता है । कोपीन धारण करने का अर्थ है- इन्द्रिय संयम बरतना । वानप्रस्थी को सन्तानोत्पादन बन्द कर देना चाहिए । अब तक की उत्पन्न हुई सन्तान का ही पालन-पोषण, विकास-निमार्ण ठीक तरह हो जाए, यही बहुत है। पचास वर्ष की आयु के बाद बच्चे पैदा करते रहना, तो एक लज्जा की बात है, इससे कठिनाई बढ़ती है । बच्चे दुबले पैदा होते हैं, अनाथ रह जाते हैं तथा उनकी जिम्मेदारी मरते समय तक बनी रहने से समाजसेवा, परमार्थ साधना जैसे जीवन को साथर्क बनाने वाले प्रयोजनों के लिए अवसर ही नहीं मिलता । 
कमर में मेखला (रस्सी) बाँधना कोपीन धारण के लिए तो आवश्यक है ही, साथ ही वह सैनिकों की तरह कमर कसकर, पेटी बाँधकर परमार्थ के मोर्चे पर आगे बढ़ने की मानसिक स्थिति का भी प्रतीक है । कमर कसना, मुस्तैदी, सतकर्ता, तत्परता निरालस्यता जैसी शारीरिक एवं मानसिक स्थिति बनाये रखने का प्रतीक है । निमार्ण के दो मोर्चो पर एक साथ लड़ने वाले सैनिक को जिस सतकर्ता से कार्य करना होता है, वैसा ही उसे भी करना चाहिए ।
वानप्रस्थी को हाथ में लाठी दी जाती है । गुरुकुलों में विद्याध्ययन करने वालों को वन्य प्रदेश की आवश्यकता के अनुरूप लाठी सुविधा की दृष्टि से आवश्यक भी होती थी । इसके अतिरिक्त यह धमर्दण्ड इस मन्तव्य का भी प्रतीक है कि राजा जिस प्रकार राज्याभिषेक के समय शासन सत्ता का प्रतीक राजदण्ड छोटा लकड़ी का डण्डा हाथ में विधिवत् समारोह के साथ ग्रहण करता है, उसी प्रकार वानप्रस्थी संसार में धर्म व्यवस्था कायम रखने की अपनी जिम्मेदारी को हर घड़ी स्मरण रखे रहे और तदनुरूप अपना जीवनक्रम बनाये रहे, इसलिए भी यह धमर्दण्ड है । 
 महानता की मंजिल पर मनुष्य एकाएक नहीं पहुँच जाता, उसके लिए एक-एक करके सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं । श्रेष्ठ प्रवृत्तियाँ, आचरण एवं स्वभाव बनाने के लिए व्रतशील होकर चलना पड़ता है । छोटे ही सही, व्रत लेने, उन्हें पूरा करने, फिर नये व्रत लेने का क्रम विकास के लिए अनिवार्य है । व्रतशीलता के लिए कुछ देवशक्तियों को साक्षी करके व्रतशील बनने की घोषणा की जाती है । इन्हें अपना प्रेरक, निरीक्षक और नियंत्रक बनाना पड़ता है । सम्बन्धित देवशक्तियों की प्रेरणाएँ इस प्रकार हैं-अग्निदेव- ऊर्जा के प्रतीक । ऊर्जा, स्फुरणा, गर्मी, प्रकाश से भरे-पूरे रहने, अन्यों तक उसे फैलाने, दूसरों को अपना जैसा बनाने, ऊध्वर्गामी-आदशर्निष्ठ रहने, यज्ञीय चेतना के वाहन बनने की प्रेरणा के स्रोत । वायुदेव- स्वयं प्राणरूप, किन्तु बिना अहंकार सबके पास स्वयं पहुँचते हैं । कोई स्थान खाली नहीं छोड़ते, निरन्तर गतिशील । सुगन्धित और मेघों जैसे परोपकारी तत्त्वों के विस्तारक सहायक ।सूयर्देव- जीवनी शक्ति के निझर्र, तमोनिवारक, जागृति के प्रतीक, पृथ्वी को सन्तुलन और प्राण-अनुदान देने वाले, स्वयं प्रकाशित, सविता देवता ।चन्द्रदेव- स्वप्रकाशित नहीं, पर सूर्य का ताप स्वयं सहन करके निमर्ल प्रकाश जगती पर फैलाने वाले, तप अपने हिस्से में-उपलब्धियाँ सबके लिए । इन्द्रदेव- व्रतपति देवों में प्रमुख, देव प्रवृत्तियों-शक्तियों को संगठित-सशक्त बनाये रखने के लिए सतत जागरूक, हजार आँखों से सतर्क रहने की प्रेरणा देने वाले ।
रुके नहीं , लक्ष्य की ओर बराबर चलता रहे, एक सीमा में न बँधे, जन-जन तक अपने अपनत्व और पुरुषार्थ- " Be and Make "  को फैलाए । जो परिव्राजक लोकमंगल के लिए संकीणर्ता के सीमा बन्धन तोड़कर गतिशील नहीं होता, सुख-सुविधा छोड़कर तपस्वी जीवन नहीं अपनाता, वह पाप का भागीदार होता है ।}
Do u Know?........
The first serious attempt at flag making came from Sister Nivedita (Margaret Nobel, 1867-1911) an Irish disciple of Swamy Vivekananda.  She conceived the idea of the flag, while on a  visit to Bodh Gaya in 1904, in the company of J.C. Bose and Rabindranath Tagore. She was inspired by the Vajra sign, symbol of Budha - the selfless man. 
It was the weapon of Lord Indra and is a symbol of strength (and also associated with the Goddess Durga).Legend goes that Vajra (Thunder bolt) was made from the bones of Rishi Dadhichi.  It is a symbol of supreme sacrifice.
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhaPAsRbEjdnApONPkj9XpaJszqONsq0k_qqmf7vKC3yEJr9fUAGGSeIEa7xWhEnXRsUNRc4z54vYNbhAdV0u-GNzjLceboSJNMP3uiU14YZ2T9k_DNchMPLR8aNbBYZVlKw1wCR_foOLk/s1600/scan0012.jpg

Sister Nivedita’s flag, 
prepared by the students of her Girls' School at Calcutta  was displayed for public view at the Congress exhibition in December 1906. The flag was square in shape, it had the symbols of Vajra (Thunder bolt) in the centre. On both sides of the Vajra was written‘Vande’ and ‘Mataram’ and 108 Jyotis (flames) in the outer periphery.
Sister Nivedita (using R.S. as nom de plume) in an article titled ‘The Vajra as a National Flag’ published in the Modern Review in 1909, strongly suggested Vajra as a National flag for whole of India. The opening sentences of the article goes, I quote   "The question of the invention of a flag for India is beginning to be discussed in the press.Those who contemplate the desirability of such a symbol, seem to be unaware that already a great many people have taken up, and are using, the ancient Indian Vajra or Thunderbolt, in this way....",unquote.  Below are some of the draft sketches prepared by Sister Nivedita herself for illustrations of the said article.

Nivedita’s Vajra, has been adopted as the logo of the Bose Institute, Kolkata .Crest of North Bengal University has also the Vajra symbol in the centre .]


सोमवार, 23 अगस्त 2010

[48] हृदय को कैसे विकसित करें ?

आध्यात्मिक शक्ति  को विकसित करने के  उपाय  पर  पाठ चक्र में विशेष चर्चा करें ! 
(2 H )- विकास अर्थात शारीरिक शक्ति (य़ा बाहू बल ) को विकसित करने का उपाय- ' व्यायाम ',  और मानसिक शक्ति (य़ा मनोबल) को विकसित करने के उपाय- " मनः संयोग " करना भी हमने सीख लिया; अब प्रश्न उठता है की अपने (3rd H या ह्रदय Heart) का विस्तार आत्म-बल का विकास  किस प्रकार करूंगा?
ह्रदय का विस्तार करना चाहते हों, तो उसके लिये सबसे कारगर उपाय के तौर पर जिसे हमलोगों ने जाना है, जिसे आप महामण्डल द्वारा एक ' परीक्षित सत्य ' भी कह सकते हैं - वह है, ' मन ' को केवल ' मैं ' और' मेरा ' के स्वार्थपूर्ण सीमित दायरे में नहीं रखना। 
अर्थात अपने ह्रदय को केवल अपने व्यक्तिगत कल्याण-कामना से जोड़े न रख कर थोड़ा दूसरों के ह्रदय से भी जोड़ने की चेष्टा करना. दूसरों के ह्रदय के साथ अपने ह्रदय को जोड़ लेने से क्या होगा?" अन्येर व्यथाटा आमार बूके गिये लागबे | " - दूसरों के मन की व्यथा का अनुभव कर मेरी छाती धडकने लगेगी . दूसरों का दुःख-कष्ट देख कर मेरा ह्रदय द्रवीभूत होने लगेगा; ठीक उसी प्रकार दूसरों का आनन्द भी मेरे मन में संचारित होने लगेगा ! "
यह सब किन्तु हमलोग अभी भी करते ही जा रहे हैं. हर समय ऐसा होता रहता है, केवल हमलोग उसकी तरफ ध्यान नहीं देते हैं, यह समझ नहीं पाते हैं कि, हाँ ऐसा होता है. इसीलिये यदि वही काम हमलोग ज्ञानतः (होश पूर्वक) करें, सोंच-विचार करके समझ-बुझ कर करें - ' कि नहीं मुझे अपने मन से केवल अपने व्यक्तिगत लाभ के बारे में न सोंच कर दूसरों का हित भी सोंचना होगा.' " कारन सकलेर मध्ये आमि आछि "  - एटा आसबे परे अनेक परे आसबे |  " - कारण सबों के भीतर मैं हूँ ' (सिर्फ़ ' मैं ' हूँ सिर्फ़ ' मैं '!) - ऐसा ज्ञान बाद में आयेगा, यह बोध बहुत आगे चल कर होगा ! मैं केवल इसी साढ़े-तीन हाथ के शरीर के भीतर ही आबद्ध नहीं हूँ, मैं केवल यहीं पर नहीं हूँ - मैं ही वह विश्वव्यापी ( आत्मा)हूँ (I am He )-  यह बोध बहुत बाद में आयेगा. चार महावाक्य में जो हमलोगों ने सुना था- " सर्वम खल्विदं ब्रह्म ! ""- सबों के भीतर मैं ही हूँ ! "
मैं ही तो वह ब्रह्म हूँ , अभी इस नाम-रूप में हूँ - आत्मा ने ही यह रूप धारण किया है.इस प्रकार का एक मूर्तिमान -   देह, एक मन, एक ह्रदय लेकर यह जो ' मैं ' (स्त्री य़ा पुरुष का) बन गया हूँ, कोई खास नाम-रूप धारण किया हूँ - यह भी तो ' वही ' हैं !
इसीलिये मन को विस्तृत करना होगा ( इसे विश्व-व्यापक समझना होगा )!इन सब गूढ़ तत्वों को आसानी समझने के लिये ही विभिन्न केन्द्रों में ' पाठचक्र ' कि व्यवस्था है. पाठचक्र  का अर्थ - यह नहीं कि एक व्यक्ति बैठे बैठे  पुस्तक य़ा कोई ग्रन्थ पढता रहेगा, और बाकी लोग केवल आँखें मूंद कर- य़ा आखों को खोलकर उसे सुनते रहेंगे |  
जिन पुस्तकों को पढने से और जान लेने हमारा यह विश्वास पुष्ट होता हो, कि चारों महावाक्य सत्य हैं ! उसी प्रकार के अंशों को महामण्डल पुस्तिकाओं से चुन चुन कर पढना होगा.स्वामीजी के जीवन एवं उनके संदेषों में समाहित विभिन्न दृष्टिकोण को समझने के लिये, स्वामीजी के भावों को ठीक से आत्मसात कर लेने के लिये- उसके कुछ कुछ अंशों को पहले पढ़ना चाहिये, फिर उन विषयों को आपस में चर्चा करके भलीभांति समझ लेने की चेष्टा करनी चाहिये. केवल इतना ही काफी नहीं है कि अमुक पुस्तिका से इतने पन्नों तक पढ़ लिया गया है, य़ा उस कहानी को पढ़ा गया था. 
पाठचक्र का तात्पर्य केवल इतना ही नहीं है, बल्कि तथ्यों को बार बार चर्चा करके सुनना है और सुन कर समझ लेना है. तथा  प्रत्येक सदस्य को वहाँ पर बोलना भी होगा, बार बार बोलना होगा, कि उसने उन तथ्यों के बारे में क्या जाना है! पाठचक्र में बारी बारी से प्रत्येक सदस्य इन विषयों पर अपने अपने विचार रखेंगे. 
एवं साप्ताहिक पाठचक्र के दिन सभी सदस्यों से व्यक्तिगत जानकारी भी प्राप्त करना चाहिये कि विगत सप्ताह में तुमने महामण्डल के किन किन नियमों का कितना कितना पालन किया है ? नियमों का पालन करना - अर्थात प्रतिदिन सुबह में उठ कर हाथ-मुँह धो लेने के बाद जिसको जिस प्रकार की दिनचर्या का पालन करना पड़ता हो, उसे करना. निश्चित रूप से कई प्रकार की असुविधाएं रह सकतीं हैं, किन्तु उसके बावजूद भी यह देखना होगा कि कमसे कम ' व्यायाम ' हुआ है य़ा नहीं, सबों के मंगल के लिये ' प्रार्थना ' और ' मनःसंयोग ' का अभ्यास किया हूँ य़ा नहीं, सारे दिन में एक बार भी ' विवेकानन्द साहित्य ' में से कुछ न कुछ पढ़ा हूँ य़ा नहीं? ( सर्वाधिक महत्वपूर्ण - कोई भी कार्य करने के पहले मैंने ' विवेक-प्रयोग ' का अभ्यास किया है य़ा नहीं ?)
अपने ह्रदय का विस्तार करने के लिये स्वामीजी को प्रतिदिन पढना अत्यन्त आवश्यक है. मैं एक-दो व्यक्ति के बारे में जानता हूँ जो नौकरी करते हैं, वे लोग ऑफिस में जाने के बाद पहले ड्रावर  खोल कर स्वामीजी की एक पुस्तक निकालते हैं, और उसके कुछ अंश को पढने के बाद ही काम करना प्रारम्भ करते हैं. रात्रि में सोते समय उसको अक्सर एक, डेढ़, दो तक सोना पड़ता है, किन्तु चाहे जितनी रात हो जाये, रात में सोने से पहले कमसे कम और एकबार स्वामीजी की पुस्तकों को पढ़ता है. ऐसी आदत प्रत्येक में रहनी चाहिये. स्वामीजी की पुस्तकों में से रोज कुछ न कुछ पढूंगा, उसके बाद अनुसांगिक पुस्तकों को भी पढना है.महामण्डल की पुस्तिकाएँ हैं.
जब महामण्डल अपने अस्तित्व में आया-  तो सर्वप्रथम एक " लीफलेट " लिखा गया, उसके बाद एक बुकलेट आया" Aims and Objects of the Mahamandal " इसका हिन्दी अनुवाद - " महामण्डल का आदर्श एवं उद्देश्य " भी उपलब्ध है. ' मनः संयोग ' के ऊपर किताब हुआ है,  " चरित्र-गठन " के ऊपर किताब निकला है, ' चरित्र के गुण ' के ऊपर पुस्तिका निकली है, जो गुण बुरे हैं, उन दुर्गुणों का भी अपने आचरण से निकाल बाहर करना होगा, वे १२ दुर्गुण कौन कौन हैं उन्हें किस प्रकार बाहर किया जाता है हिन्दी में इसका नाम है - " नेति से ईति " , इस प्रकार की अनेक पुस्तिकाएँ प्रकाशित हुई हैं.
एक छोटी सी पुस्तिका संस्कृत भाषा में भी उपलब्ध है, इसके अतिरिक्त अंग्रेजी, हिन्दी, बंगला, उड़िया, तेलगु, मराठी, असमिया आदि आठ भाषाओँ में महामण्डल की पुस्तिकाएँ उपलब्ध हैं.इस प्रकार जो जिस स्थान में रहते हों, वे वहीं पर अपने यहाँ की भाषा में इन पुस्तकों को पढ़ सकते हैं, इसके अतिरिक्त हिन्दी भाषा में १० खण्डों में उपलब्ध ' विवेकानन्द साहित्य ' का नियमित अध्यन करना चाहिये, (प्रारम्भ में विशेष तौर पर पंचम  खंड) और स्वामीजी की जीवनी आदि का अध्यन भी प्रत्येक (भारत प्रेमी ) युवा को करना चाहिये.
हो सकता हैं कि प्रत्येक नवागंतुक सदस्य के मन में स्वामीजी के अदभुत प्रेरणादायी जीवन के सम्बन्ध में पहले से ही कोई धारणा नहीं रहे, किन्तु उनकी जीवनी को पढ़ते रहने से धीरे धीरे उनका जीवन प्रभावित करेगा और हमारा ह्रदय भी क्रमशः विस्तृत होने लगेगा.
यदि हमलोग अभी तक उनके जीवन को अपनी ' ध्येय-वस्तु ' के रूप में परिणत न कर सके हों, तो फिर महामण्डल से जुड़ने का लाभ ही क्या हुआ? यह ठीक है कि हमलोग प्रतिदिन बैठ कर स्वामीजी के चित्र य़ा मूर्ति पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करते हैं, य़ा कोई कोई ध्यान भी करते हैं, किन्तु स्वामीजी कि जीवनी ( सत्येन्द्रनाथ मजुमदार लिखित- " विवेकानन्द चरित ")  को पढ़ते समय स्वामीजी का जो ध्यान होगा वह बिल्कुल (अनोखा) अपूर्व ध्यान होगा- उनके साथ एकात्मता का अनुभव होने लगेगा. 
ऐसा लगेगा हम मानो साक्षात् परिव्राजक स्वामी विवेकानन्द को कन्याकुमारी की ' विवेकानन्द रॉक ' तक तैर कर जाते हुए और वहाँ बैठ कर ध्यान करते जुए बिल्कुल लाइव टेलीकास्ट देख रहे हों ! कन्याकुमारी की उस शीला पर बैठ कर स्वामी विवेकानन्द ने किसका ध्यान किया था ?
१८९२ ई० में कुमारी अम्मन यानी " कुमारी देवी के मन्दिर " में बैठ कर स्वामी विवेकानन्द ने  " भारतमाता " का ध्यान किया था, भारतवर्ष के असंख्य दरिद्रों, दुःख-कष्टों में गिरे हुए मनुष्यों की मुक्ति के पथ को आविष्कृत करने की चेष्टा किये थे, प्रार्थना किये थे.
स्वामीजी जिस समय परिव्राजक अवस्था में भारतमाता की परिक्रमा कर रहे थे, उस समय तो भिक्षा मांग कर ही भोजन का प्रबन्ध करना पड़ता था, भिक्षा मांगते मांगते एकदिन किसी गरीब की कुटिया में जा पहुँचे हैं. उस घर की गृहणी भिक्षा लेकर आने लगतीं हैं, उसी समय स्वामीजी की दृष्टि घर के आँगन में घूमते उसके बच्चों पर जा पड़ती है; किसी के तन पर कपड़ा नहीं है, शरीर भी मैला-कुचैला है, सिर के केस इतने रूखे रूखे हैं मानो इन लोगों ने वर्षों से उनमे तेल नहीं डाले हैं. उन बच्चों को देख कर मन में इतना अवसाद हुआ, कि उन्होंने तय कर लिया कि अब और भिक्षा लेने कहीं नहीं जाऊंगा. वे सोंचने लगे, इन दरिद्र बालको के मुख से भी एक निवाला अन्न छीन लेने का मुझे क्या अधिकार है ?
ऐसा विचार करके स्वामीजी वहां से चले गये. चलते चलते वे विचारों में इतने खो गये कि अनमनस्क हो कर एक घने जंगल में जा पहुँचे. शरीर बिल्कुल थक चुका था, सारे दिन से कुछ भोजन नहीं मिला था, क्लान्त हो कर एक स्थान पर बैठ गये. चुप चाप बैठे हुए थे. बैठे- बैठे निश्चय कर लिये- " अब यहाँ से उठना नहीं हैं ! " हठात उनकी दृष्टि थोड़ी दूरी पर किसी दो वस्तु पर जा पड़ी अँधेरे में भी चम् चम् कर रहे थे ! जब ठीक से नजरों को गड़ा कर देखे तो पाया कि वहाँ तो एक बाघ बैठा था !
बाद में अपने गुरुभाईयों के पास इस घटना का उल्लेख करते हुए कहे थे- कि बाघ भी भूखा था और वह मुझे खा कर अपनी भूख मिटा सकता था, उधर मैं भी भूखा था, किन्तु मैं बाघ को नहीं खा सकता था; इसीलिये अच्छा होगा कि बाघ ही मुझे खा कर अपनी क्षुधा कि निवृत्ति कर ले. कम से कम किसी एक जीव कि क्षुधा की निविरित्ति तो हो जाएगी.
स्वामीजी की जीवनी को पढ़ते समय यदि हमलोग उनकी इन मूर्तियों को अपने ध्यान का विषय बना सकें- तो हमलोग स्वयं भी कितने विशाल ह्रदय वाले मनुष्य बन जायेंगे!
" यदि एक भूखे बाघ की भूख मुझे खाने से मिट जाती हो, तो फिर वैसा ही हो- "
स्वामी विवेकानन्द की बुद्धि के इस निर्णय पर विचार करने मात्र से ही, हमलोगों का ह्रदय भी कितना विस्तृत हो उठेगा ! स्वामीजी का जीवन इसी प्रकार की असंख्य घटनाओं से भ्रा हुआ है, जिनके ऊपर चिन्तन-मनन करने से हमारा ह्रदय भी अपूर्व एकात्मबोध के आनन्द से भर उठता है! 
इसप्रकार हमलोग घूमते फिरते भी ध्यान कर सकते हैं. जागते समय ध्यान होगा, सोते समय भी ध्यान होगा. स्वामीजी के जीवन पर निरन्तर चिन्तन मनन करते रहने से हमलोगों के मस्तिष्क में उनके भारी भावों के भीतर प्रविष्ट होते ही अन्य सभी हल्के भाव स्वतः बाहर निकल जायेंगे.  अपने भीतर स्वामीजी का जन्म कैसे होगा ? जिस प्रकार किसी पात्र में पहले से जल भरा हो और उसमे कुछ भारी वस्तु डाल दें तो पहले वाला हल्का जल बाहर निकल जाता है, उसी तरह हमलोगों के मन में स्वामीजी के भाव भर जाएँ और अन्य सारे हल्के विचार बाहर निकल जाएँ. यदि ऐसा हो जाये तो हमलोगों का जीवन कितना आनन्दमय हो उठेगा.
इसप्रकार का अनुचिंतन करने से जैसे पत्थर के ऊपर खुदाई कर कर के एक मूर्ति गढ़ ली जाती है, उसी तरह हमलोगों के भीतर भी विवेकानन्द जन्म लेंगे. युवाओं के मन में दिन-रात चलते फिरते यदि सिर्फ़ स्वामीजी के जीवन का ही  ध्यान बना रहे, तो भारतवर्ष में कितनी विपुल शक्ति का निर्माण होगा! और तब भारत के असंख्य मनुष्यों के अनगिनत  दुःख-कष्टों को दूर करने के लिये हमलोग कातर हो कर अन्य किसी की ओर नहीं देखेंगे. यहाँ तक कि स्वामीजी की ही तरह हमलोग भी अपने भविष्य य़ा अन्य किसी बात की चिन्ता भी न कर, यथासाध्य उनलोगों के लिये ही कार्य करते चले जायेंगे. इससे भी अधिक क्या जीवन की सार्थकता हो सकती है! स्वामीजी की उस प्रसिद्ध उक्ति को तो हममें से कई लोग जानते हैं- 
" He only lives who lives for other "
" केवल वही मनुष्य जीवित है, जो दूसरों के लिये जीता है ! "
यदि ऐसा नहीं हुआ, तो केवल उदरपूर्ति, खाना-सोना डरना और वंश विस्तार करना, य़ा अन्यान्य शरीरों का भोग,  एक सांसारिक बंधन- तो यही सब करने से भी हाथ क्या लगेगा? उसके बाद जिस दिन समय (काल ) आयेगा, उस दिन तो आँखों को मूंदना ही पड़ेगा. यहाँ क्या रख कर गये ? स्वामीजी तुलसीदास के दोहे को उद्धृत किया करते थे न ?
" तुलसी जब पैदा हुए, जग हँसे तुम रोये | 
ऐसी करनी कर चलो, तुम हँसो जग रोये || "
" - तुमने जब जन्म ग्रहण किया था तो तुम रो रहे थे और जगत हँस रहा था. अब तुम ऐसे कार्य करते रहो जिससे, तुम जब यहाँ से जाओगे तो हँसते हँसते जाओगे, और तुम्हारे लिये, तुम्हें याद करके - दूसरे लोग आखों से जल बहाया करेंगे | "
उनकी यह उक्ति क्या प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में सार्थक नहीं हो सकती ? हाँ, हो सकती है.यदि स्वामीजी का भाव ग्रहण करके उन्हीं के अनुसार हम भी अपने जीवन को गठित करने की चेष्टा करें, तो हममे से प्रत्येक का जीवन सार्थक हो सकता है !   
 
         
 स्वामी विवेकानंद रॉक मेमोरियल, कन्याकुमारी 
Vivekananda Rock Memorial, Kanyakumari
( भारत के मस्तक पर मुकुट के समान सजे हिमालय के धवल शिखरों को निकट से देखने के बाद हर सैलानी के मन में भारतभूमि के अंतिम छोर को देखने की इच्छा भी उभरने लगती है। समुद्र में उभरी दूसरी चट्टान पर दूर से ही एक मंडप नजर आता है। यह मंडप दरअसल विवेकानंद रॉक मेमोरियल है। 1892 में स्वामी विवेकानंद कन्याकुमारी आए थे। एक दिन वे तैर कर इस विशाल शिला पर पहुंच गए। इस निर्जन स्थान पर साधना के बाद उन्हें जीवन का लक्ष्य एवं लक्ष्य प्राप्ति हेतु मार्ग दर्शन प्राप्त हुआ। 
विवेकानंद के उस अनुभव का लाभ पूरे विश्व को हुआ, क्योंकि इसके कुछ समय बाद ही वे शिकागो सम्मेलन में भाग लेने गए थे। इस सम्मेलन में भाग लेकर उन्होंने भारत का नाम ऊंचा किया था। उनके अमर संदेशों को साकार रूप देने के लिए 1970 में उस विशाल शिला पर एक भव्य स्मृति भवन का निर्माण किया गया। 
समुद्र की लहरों से घिरी इस शिला तक पहुंचना भी एक अलग अनुभव है। स्मारक भवन का मुख्य द्वार अत्यंत सुंदर है।  लाल पत्थर से निर्मित स्मारक पर 70 फुट ऊंचा गुंबद है। भवन के अंदर चार फुट से ऊंचे प्लेटफॉर्म पर परिव्राजक संत स्वामी विवेकानंद की प्रभावशाली मूर्ति है। यह मूर्ति कांसे की बनी है जिसकी ऊंचाई साढ़े आठ फुट है। यह मूर्ति इतनी प्रभावशाली है कि इसमें स्वामी जी का व्यक्तित्व एकदम सजीव प्रतीत होता है।
 
यह स्थान एक खाड़ी, एक सागर और एक महासागर का मिलन बिंदु है। अपार जलराशि से घिरे इस स्थल के पूर्व में बंगाल की खाड़ी, पश्चिम में अरब सागर एवं दक्षिण में हिंद महासागर है। यहां आकर हर व्यक्ति को प्रकृति के अनंत स्वरूप के दर्शन होते हैं। सागर-त्रय के संगम की इस दिव्यभूमि पर मां भगवती देवी कुमारी के रूप में विद्यमान हैं।
इस पवित्र स्थान को एलेक्जेंड्रिया ऑफ ईस्ट की उपमा से विदेशी सैलानियों ने नवाजा है। यहां पहुंच कर लगता है मानो पूर्व में सभ्यता की शुरुआत यहीं से हुई होगी। अंग्रेजों ने इस स्थल को केप कोमोरिन कहा था। तिरुअनंतपुरम के बेहद निकट होने के कारण सामान्यत: समझा जाता है कि यह शहर केरल राज्य में स्थित है, लेकिन कन्याकुमारी वास्तव में तमिलनाडु राज्य का एक खास पर्यटन स्थल है।
कुमारी अम्मन मंदिर समुद्र तट पर स्थित है।तब देवी ने एक कन्या के रूप में अवतार लिया। कन्या युवावस्था को प्राप्त हुई तो सुचिन्द्रम में उपस्थित शिव से उनका विवाह होना निश्चित हुआ क्योंकि देवी तो पार्वती का ही रूप थीं। लेकिन नारदजी के गुप्त प्रयासों से उनका विवाह संपन्न न हो सका तथा उन्होंने आजीवन कुंवारी रहने का व्रत ले लिया। नारद जी को ज्ञात था कि देवी के अवतार का उद्देश्य वाणासुर को समाप्त करना है। यह उद्देश्य वे एक कुंवारी कन्या के रूप में ही पूरा कर सकेंगी। फिर वह समय भी आ गया।
वाणासुर ने जब देवी कुंवारी के सौंदर्य के विषय में सुना तो वह उनके समक्ष विवाह का प्रस्ताव ले कर पहुंचा। देवी क्रोधित हो गई तो वाणासुर ने उन्हें युद्ध के लिए ललकारा। उस समय उन्होंने कन्या कुंवारी के रूप में अपने चक्र आयुध से वाणासुर का अंत किया। तब देवताओं ने समुद्र तट पर पराशक्ति के कन्याकुमारी स्वरूप का मंदिर स्थापित किया। इसी आधार पर यह स्थान भी कन्याकुमारी कहलाया तथा मंदिर को कुमारी अम्मन यानी " कुमारी देवी का मंदिर " कहा जाने लगा। 
माना जाता है कि चैतन्य महाप्रभु कुमारी अम्मन मंदिर में जलयात्रा पर्व पर आए थे। यहाँ मंदिर में पुरुषों को ऊपरी वस्त्र यानी शर्ट एवं बनियान उतार कर जाना होता है। सागर तट से कुछ दूरी पर मध्य में दो चट्टानें नजर आती हैं। दक्षिण पूर्व में स्थित इन चट्टानों में से एक चट्टान पर विशाल प्रतिमा पर्यटकों का ध्यान आकर्षित करती है। 
वह प्रतिमा प्रसिद्ध तमिल संत कवि तिरुवल्लुवर की है। वह आधुनिक मूर्तिशिल्प 5000 शिल्पकारों की मेहनत से बन कर तैयार हुआ था। इसकी ऊंचाई 133 फुट है, जो कि तिरुवल्लुवर द्वारा रचित काव्य ग्रंथ तिरुवकुरल के 133 अध्यायों का प्रतीक है.)