हे बद्धपाश प्रोमिथियस, सारे बन्धन तोड़ डालो !
'ज्ञान', 'शिक्षा' और 'धर्म' के क्षेत्र में मतवादों की संख्या इतनी अधिक है कि सामान्य जनता इनके परिभाषाओं के जाल में उलझ जाती है, और उन शब्दों के यथार्थ मर्म को न समझ पाने के कारण अक्सर दिग्भ्रमित हो जाती है। इन सिद्धान्तों के पांडित्यपूर्ण बहस में उलझ जाने के फलस्वरूप, उनकीबुद्धि में भ्रम का कीचड़ उत्पन्न हो जाता है। किंतु इस धालमेल वाले कीचड़ को उबाल कर, यदि थोड़ा परिशोधित और संघनित कर लिया जाय, तो ज्ञान-शिक्षा-धर्म के विषय में मात्र वैसे विशुद्ध सिद्धान्त ही शेष रह जाते हैं, जिन्हें कोई बच्चा भी आसानी से समझ सकता है। यदि हमलोग ऐसे ही कुछ विशुद्ध एवं मूलभूत तात्विक सिद्धान्तों को समझना चाहें, तो इन विषयों पर स्वामी विवेकानन्द के द्वारा दी गयी सरल और स्पष्ट परिभाषा हमारी सहायक सिद्ध हो सकती है।
क्योंकि स्वामी विवेकानन्द के समस्त उपदेशों के केन्द्र में वेदान्त-वाणी का यही जयघोष पड़ता है -
" प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, मानव-मात्र में अनन्त-शक्ति अव्यक्त रूप में अन्तर्निहित है; तथा वह शक्ति विविध मानवीय स्तरों पर जागृत एवं क्रम-विकसित होने की प्रतीक्षा कर रही है।'
* शिक्षा क्या है ? इसीलिए स्वामी विवेकानन्द 'शिक्षा ' के सारांश को परिभाषित करते हुए कहते हैं-
" शिक्षा " का अर्थ है, उस 'पूर्णता' की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है। " (२:३२८) ' Education' is the manifestation of the perfection; already in man.'
*यह पूर्णता (perfection) क्या है ? - 'पूर्णता ज्ञान, पवित्रता और प्रेम की वह सर्वोत्कृष्ट स्थिति है, जिसे प्राप्त कर लेने से मनुष्य के सारे बंधन खुल जाते हैं, समस्त प्रकार की सीमायें टूट जाती हैं, तथा वह पूर्णतः मुक्त हो जाता है। अतएव इस अवस्था को अपने जीवन में मूर्तमान कर लेने के लिए प्रत्येक मनुष्य को उपयुक्त शिक्षा या 'शीक्षा' (उपनिषद-विद्या) के द्वारा निरंतर प्रयत्न या पुरुषार्थ करते रहना चाहिए।
*धर्म क्या है ? इस समय जगत में जितने भी प्रचलित-धर्म हैं, उन सबों के दर्शन, पुराण और रस्म रिवाज (धार्मिक-क्रिया) आदि भिन्न-भिन्न हुआ करते हैं,किन्तु सभी धर्मों का जो अन्तर्तम भाग या सार-तत्व होता है, वह बिल्कुल एक जैसा होता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार सभी धर्मों के उस सारतत्व, अन्तर्तम भाग या परिपूर्ण-अवस्था को यदि कोई नाम देना हो तो उसे - 'ब्रह्मत्व' (Divinity) भी कहा जा सकता है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने संसार के सभी धर्मों के इसी सार-तत्व को परिभाषित करते हुए कहा था,- 'धर्म ' का अर्थ है उस 'ब्रह्मत्व' की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है '। (२:३२८) 'Religion' is the manifestation of the Divinity already in man. "
* मनुष्य बनने में 'शिक्षा और धर्म' (Education and Religion) की क्या भूमिका है ?
उपरोक्त परिभाषा के अनुसार हम देख सकते हैं कि ' धर्म और शिक्षा ' के सार-तत्व में कोई अन्तर नहीं है ! और अन्तर हो भी कैसे सकता है ? ये दोनों " शिक्षा और धर्म " ही मानव-जाति को पशु-जगत भिन्न कर देता है।
पशुओं के जीवन का कोई उद्देश्य नहीं होता, इसीलिये पशुओं को शिक्षा या धर्म प्राप्त करने के लिये किसी 'शिक्षा-गुरु या धर्म-गुरु ' के पास जाने की आवश्यकता भी नहीं होती। किन्तु प्रत्येक मनुष्य के जीवन का एक उद्देश्य होता है, 'यथार्थ मनुष्य' (ब्रह्मविद मनुष्य) बन जाने से ही मनुष्य-जीवन सार्थक होता है। इसीलिये 'शिक्षा और धर्म' दोनों का वास्तविक लक्ष्य या उद्देश्य एक ही है, और वह है- मनुष्य-जाति को अपना जीवन उद्देश्य सिद्ध करने, अपने जीवन को सार्थक बनाने में सहायता करना।
*जीवन क्या है ? स्वामी विवेकानन्द उसी वेदान्तिक उद्घोष के आलोक में 'शिक्षा' और 'धर्म' के समान 'जीवन' के मर्म को भी भली-भाँति जानते थे। यदि हम जीवन (Life) को भी स्पष्ट रूप से स्वामी जी की वाणी में समझना चाहें, तो ' शिक्षा' (Education)और 'धर्म' (Religion) की तरह वे 'जीवन' (Life)
को भी सरल और स्पष्ट रूप से परिभाषित करते हुए कहते हैं --" एक अन्तर्निहित 'शक्ति' अपने स्वरूप में व्यक्त होने, के लिए मानो अविराम चेष्टा कर रही है; और बाह्य प्रकृति एवं परिवेश उसे दबाये रखना चाहती है, प्रकृति और परिवेश के इस दबाव को हटा कर, मुक्त हो जाने की इस चेष्टा का नाम ही 'जीवन' है !" (विवेकानन्द चरित : १०८)
' लाइफ़ इज अनफोल्डमेन्ट एण्ड डेवलपमेन्ट ऑफ़ अ बीइंग अंडर दी सर्कमस्टांसेज टेंडिंग टू प्रेस इट डाउन।' ( 'Life' is the unfoldment and development of a being, under circumstances tending to press it down.)
गुरु स्वामी विवेकानन्द जानते थे कि मनुष्य-शरीर (क्षेत्र) के भीतर एक अनन्त शक्ति (क्षेत्रज्ञ या आत्मा) अपने सूक्ष्म संस्कारों के आवरण में कुण्डलीकृत होकर मानो परत-दर- परत मुड़ी हुई सुप्त अवस्था में पड़ी है, और जाग्रत होने की प्रतीक्षा कर रही है। उन परिस्थितियों और परिवेश जन्य सूक्ष्म संस्कारों
(आदत या प्रकृति) के दबाव के विरुद्ध विद्रोह कर अपने ' जीवन-पुष्प' को निरन्तर 'पूर्ण-विकसित' करने की चेष्टा का नाम ही -'जीवन' है!
इसी सच्चाई को अन्य प्रकार से अभिव्यक्त करते हुए उन्होंने अन्यत्र कहा था- " अ स्प्रिंग ऑफ़ इनफिनिट पॉवर इज़ क्वाइल्ड अप, एंड इज इनसाइड दिस लिटिल बॉडी , एंड दी स्प्रिंग इज स्प्रेडिंग इटसेल्फ
.... " एक असीम शक्ति का स्प्रिंग इस छोटी सी काया में कुंडली मारे विद्यमान है और वह स्प्रिंग अपने को फैला रहा है। और ज्यों ज्यों यह फैलता है, त्यों त्यों एक के बाद दूसरा शरीर अपर्याप्त होता जाता है; वह उनका परित्याग करके उच्चतर शरीर धारण करता है। ... यही है मनुष्य का धर्म, सभ्यता अथवा प्रगति का इतिहास। देखो वह भीमकाय बद्धपाश - ' प्रोमिथियस '* अपने को बन्धनमुक्त कर रहा है "। ( ९:१५६)
{ *' प्रोमिथियस '* २५०० वर्ष पूर्व प्राचीन ग्रीस के एक नाटककार एस्कीलस ने "प्रोमिथियस बाउंड" नामक एक महाकाव्य लिखा था। सम्पूर्ण ग्रीक साहित्य का चिन्तन इसी ट्रैजडी (त्रासदी) पर आधारित है कि-" मैन कैन नॉट ट्रान्सेन्ड हिज लिमिटेशन्स"। अर्थात ‘मनुष्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता’ । ग्रीक साहित्य में प्रोमिथियस बाउंड नामक कृति का संदेश भी उसी क्लासिकल विचारधारा पर आधारित था। इसका निषेध करते हुए, क्रांतिकारी रोमानी अंग्रेज़ी कवि पी बी शैले ने एक कृति रची, 'प्रोमिथियस अनबाउंड' - यह नयी चेतना का साक्ष्य प्रस्तुत करती है कि मनुष्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर सकता है। क्योंकि वैज्ञानिकों के नित-नये आविष्कारों के द्वारा मानव-सभ्यता की आधुनिक विकास-धारा ने यह प्रमाणित कर दिया है, कि 'मनुष्य के मन में अनन्त शक्ति है', और यदि मनुष्य ठान ले तो, ‘ वह अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर सकता है!’
वह प्रोमिथियस ही था जिसने स्वर्ग से आग्नि चुराकर मानव को दी थी। जब देवताओं के राजा ज़ीयस को यह बात पता चली तो उन्होंने सज़ा के तौर पर प्रोमिथियस को ताउम्र एक चट्टान के साथ बांधकर रख दिया जहां रोज़ एक परभक्षी पक्षी आकर उसका कलेजा खाता था, लेकिन वह दोबारा उग जाता था ;और पक्षी अगले दिन आकर उसे दोबारा खाता था। अंत में प्रोमिथियस को हेराकल्स (हरक्यूलीस) ने इस बंधन से मुक्ति दिलाई।
इस काव्य के नायक 'प्रोमिथियस' का शब्दार्थ होता है- "दूरदर्शिता"। उसने अपने "फ़िलांथ्रोपोस ट्रोपोस" (फ़िलांथ्रोपी) या "मानवता-प्रेमी स्वभाव" के कारण, मानव-जीवन को सुखमय बनाने के लिये औरअधिक सशक्त बनाने के उद्देश्य से भावी मानवता को , दो उपहार दिए थे-- पहला आग, (समस्त ज्ञान, कौशल, प्रौद्योगिकी, और विज्ञान का प्रतीक),और दूसरा "अज्ञात को पाने की आशा"। दोनों साथ-साथ चलने लगे। 'आग' (विज्ञान) को प्राप्त करके मनुष्य आशावादी बन गया, और वह अपनी अवस्था में सुधार लाने के उद्देश्य से 'आग ' (या विज्ञान) का रचनात्मक इस्तेमाल भी करने लगा। किन्तु इस त्रासदी कहानी में भी यही संकेत था कि - मनुष्य को अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिये , वर्ना जो स्पार्टाकस ( रोमन साम्राज्य के खिलाफ एक व्यापक दास विद्रोह का नायक ) के सामान बनने का दुस्साहस कोशिश करेंगे, सज़ा पायेंगे।
बाइबिल का पहला अध्याय "(original sin, ओरिजिनल सिन) भी यही संदेश देता है कि ‘मनुष्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता’ और अगर करने की कोशिश करेगा तो सज़ा पायेगा। ईडन के
उद्यान में आदम और हव्वा बिलकुल अज्ञान और निर्दोष स्थिति में आनंद से बच्चों की तरह रहते थे। वे पूरी तरह नग्न रहते थे क्योंकि उन्हें यौन संबंधों का कोई ज्ञान नहीं था और कोई शर्म नहीं अनुभव होती थी। इसी उद्यान में एक वृक्ष था जिसे " ज्ञान का वृक्ष " कहा जाता है। उस पर लगे फल का खाना ईश्वर ने स्पष्ट रूप से आदम (पहला मनुष्य) को वर्जित किया था।
आदम ने आज्ञा-उल्लंघन की और फल खा लिया। इस से उसकी निष्कपटता ख़त्म हो गई और आदम और हव्वा को एक-दूसरे को देखकर शर्म महसूस होने लगी। उन्होंने कुछ अंजीर के पत्तों के छोटे वस्त्र बनाकर अपने कुछ अंग ढकने का प्रयास किया। जब ईश्वर उनसे मिलने आये और यह देखा तो वह समझ गए की आदम ने ज्ञान का फल खा लिया है और भयंकर क्रोध में आ गए। उन्होंने आदम और हव्वा हो ईडन से निकाल दिया।
ईसाई मान्यताओं में तब से मानव पापी अवस्था में संसार में भटक रहे हैं। इस ईडन-निकाले को ईसाई धर्म में "मानव का पतन" (fall of man, फ़ॉल ऑफ़ मैन) कहा जाता है। यह भी माना जाता है कि हर मानव एक जन्मजात पापी है जो मरणोपरांत नरक जाएगा क्योंकि आदम और हव्वा का पाप हर मानव पर लागू होता है। इसे "मूल पाप" (original sin, ओरिजिनल सिन) कहा जाता है।
आदम और हौवा ने जब ईश्वर के आदेश के विरुद्ध जाते हुए, 'ज्ञान' (?) को प्राप्त करने की चेष्टा की तो उन्हें पापी घोषित कर दिया जाता है, उन्हें सज़ा मिलती है और मृत्यु के हाथों (जन्म -मृत्यु के चक्र) सौंप दिया जाता है। ईसाई धर्म में माना जाता है, कि जो लोग धर्म-परिवर्तन करके ईसा मसीह को अपना भगवान् स्वीकार का लेंगे, ईसा उन्हें नरक में जाने से बचा लेंगे, क्योंकि उन्होंने क्रूस पर चढ़ कर अपनी क़ुरबानी इसी लिये तो दी थी ।
इन कथाओं में 'ईडन में मानवों की निर्दोष अवस्था' के चित्रण से मानव-मन में यौन संबंधों को लेकर एक प्रकार की कुंठा (अस्वस्थ विचार) उत्पन्न हो जाती हैं। परन्तु इस वंश-विस्तार की इच्छा को अपराध-भाव से देखने से, मनुष्य के मन पर इसका हानिकारक प्रभाव होता है, और अकारण ही गृहस्थ लोग अपराध बोध से ग्रस्त हो जाते हैं, जो कभी कभी मानसिक अवसाद के रूप में भी प्रकट हो सकता है।क्योंकि वंश-विस्तार
करने की इच्छा (procreative urge ) गृहस्थ जीवन के लिये एक ऐसी शक्तिशाली मानवीय भावना है, जिसे कुचला नहीं जा सकता। किन्तु कुछ साधनों (यम-नियम-आसन-प्रत्याहार-धारणा) को अपनाकर इस कामशक्ति को अध्यात्मिक ऊर्जा या ओजस में अवश्य रूपांतरित किया जा सकता है।
उपरोक्त कहानी के आलोक में इस्लाम और ईसाई धर्म के इतिहास को जानना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि भारतीय उपमहाद्वीप में ईडन की कहानी इस्लामी स्रोतों से आई थी । ईडन की कथा में हव्वा ने आदम से ज्ञानफल खाने को कहा था, इसलिए अक्सर व्यंग्य में "नारी पुरुष के पतन का कारण है" कह दिया जाता है। क्षेत्रीय कविता में भी इस कहानी की ओर इशारा किया जाता है। उदाहरण के लिए - मिर्जा ग़ालिब की प्रसिद्ध ग़जल "हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी" के इस शेर में एक प्रेमी अपनी प्रेमिका की गली से निकलवाने की बेइज्ज़ती की तुलना आदम के ईडन से निकाले जाने से करता है:
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले।
बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले।
निकलना ख़ुल्द से 'आदम' का सुनते आये थे लेकिन,
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले।। ]
किन्तु नवजागरण के अग्रदूत स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा है - 'मनुष्य अपनी सीमाओं (मृत्यु या मन की चहारदिवारी) का अतिक्रमण कर सकता है, तथा भारत के राष्ट्रीय आदर्श 'त्याग और सेवा' के माध्यम से मानव-मात्र को अमृतत्व की प्राप्ति हो सकती है।"
उनके अनुसार कोई भी साधारण मनुष्य मन को एकाग्र करने की विद्या सीख कर तथा जीवन में त्याग को अपना कर अपने मन की चहारदिवारी के पार जा सकता है,और इसी जीवन में अमृतत्व को प्राप्त कर सकता है। शर्त केवल यह है कि उसके हृदय में 'मन' की चहारदिवारी को पार करने की 'ज्वलंत इच्छा और प्रबल आत्मश्रद्धा' की भावना रहनी चाहिये। किन्तु सीमाओं का अतिक्रमण करने की चाह रखने वाला साधारण युवा की त्रासदी यही है कि उसे 'विवेक-प्रयोग' करने की शिक्षा नहीं दी जाती है, - इसीलिये वह ' अहंकार और आत्मश्रद्धा' में अन्तर करना नहीं जानता। हमारा (महामण्डल के भावी नेताओं का) मुख्य कार्य है, युवाओं को उनकी खोयी हुई आत्मश्रद्धा - या इस विवेक को धारण करने की क्षमता को लौटा देना कि 'अहंकार' नश्वर है और 'आत्मा' शास्वत है।
इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द से हमलोग एक वैसा सरल और अकृत्रिम मौलिक सिद्धान्त प्राप्त करते हैं, जिसे हम स्वर-सप्तक (सरगम) की तरह अपने दैनन्दिन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में और 'सम्पूर्ण- अस्तित्व' के सम्मिलित विचार-क्षेत्र में भी प्रयोग कर सकते हैं। और जो ' जीवन-पुष्प ' अभी हमारे अनजाने ही प्रस्फुटित होने का प्रयास कर रहा है, अब हमें उसे सचेतन रूप से और हर अवस्था में पूर्ण विकसित करने के लिए चेष्टा कर सकते हैं । स्वामी विवेकानन्द वेदान्त के इसी मौलिक सिद्धान्त की व्यावहारिक - महत्ता को, मनुष्य-मात्र में अन्तर्निहित उसके 'अमित-प्रताप' या 'महिमा' को अभिव्यक्त करने के संघर्ष में शिक्षा, ज्ञान और धर्म के महत्व को जनसाधारण या सम्पूर्ण मानवता के लिए ज्ञातव्य बना देना चाहते थे।
इसी बात को स्पष्टतर करते हुए कहते हैं- " अद्वैतवाद, द्वैतवाद अथवा अन्य किसी वाद का प्रचार करना मेरा उद्देश्य नहीं है।" I do not mean to preach advaitism , or Dvaitism, or any ism in the world..... हमें इस समय आवश्यकता है केवल आत्मा की - उसके अपूर्व तत्त्व, उसकी अनन्त शक्ति, अनन्त वीर्य, अनन्त शुद्धता और अनन्त पूर्णता के तत्त्व को जानने की। यदि मेरी कोई सन्तान होती तो मैं उसे जन्म के समय से ही सुनाता - ' त्वमसि निरंजनः '। तुमने अवश्य ही पुराण में 'रानी मदालसा' की वह सुन्दर कहानी पढ़ी होगी। उसके सन्तान होते ही वह उसको अपने हाथ से झूले पर रख कर झुलाते हुए उसके निकट गाती थी- ' तुम हो मेरे लाल निरंजन, अति पावन निष्पाप ! तुम हो शक्तिशाली तेरा है अमित प्रताप ॥ 'इस कहानी में महान सत्य छिपा हुआ है। अपने को महान समझो और तुम सचमुच महान हो जाओगे।" (५:१३८)
उनका यह अटूट विश्वास था कि जनसाधारण को ऊपर उठाने या उन्नत होने में वेदान्त का यह सिद्धान्त किसी चमत्कार कि तरह कारगर सिद्ध हो सकता है। हमें केवल इतना ही करना है कि- इन अमोघ सिद्धान्तों को, मठों, अरण्य में आश्रम बना कर रहने वाले बिचौलियों या मध्यस्थ होने का दावा करने वालों से मुक्त कराकर, अलौकिक ऊंचाइयों से नीचे, जनसाधारण के दैनन्दिन जीवन के व्यावहारिक धरातल पर उतार लाना है। " देखो वह भीमकाय बद्धपाश ' प्रोमिथियस ' जो अपने को बन्धनमुक्त कर रहा है "। वास्तव में वह 'प्रोमिथियस' कौन है ?
वह हमारा भारतवर्ष ही है, जो १००० वर्ष से गुलामी की बंधनों में जकड़ा हुआ था, उसको स्वयं बन्धन-मुक्त होना होगा । इतना विशाल और ज्ञानी देश ' प्रोमिथियस ' के जैसा गुलामी के बन्धनों में कब और कैसे पड़ गया ?
विश्वविख्यात कवि रविंद्रनाथ ठाकुर की भतीजी सरला घोषाल को लिखे एक पत्र में स्वामी विवेकानन्द पददलित जनसाधारण की समस्याओं का विस्तार से विचार-विश्लेष्ण करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि- " the remedy now is the spread of education; first of all, atma-vidya.." अब उपाय है- (चरित्र-निर्माणकारी) शिक्षा का प्रसार। सबसे पहले आत्मज्ञान। इससे मेरा मतलब जटा- जूट, दण्ड,कमण्डलु और पहाड़ों की कन्दराओं से नहीं जो इस शब्द(आत्मा) के उच्चारण करते ही याद आते हैं। तो फ़िर मेरा मतलब क्या है ?
जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य संसार-बन्धन तक से छूट जाता है, उससे क्या तुच्छ भौतिक उन्नति नहीं हो सकेगी ? अवश्य ही हो सकेगी। मुक्ति, वैराग्य, त्याग - ये सब उच्चतम आदर्श हैं, परन्तु गीता के अनुसार-'स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् '- अर्थात इस धर्म का थोड़ा सा भाग भी महाभय (जन्म-मरण ) से त्राण करता है। ...प्रत्येक जीवात्मा में अनन्त शक्ति अव्यक्त भाव से निहित है।... उपयुक्त अवसर (निमित्त) और उपयुक्त देश- काल मिलते ही उस शक्ति का विकास हो जाता है। परन्तु चाहे विकास हो चाहे न हो, वह शक्ति ब्रह्मा से लेकर घास तक में विद्यमान है।... अन्तर केवल उसके प्रत्यक्षीकरण के भेद में है।'
वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत् '॥ कैवल्यपाद-३॥
जैसे, किसान खेतों की मेंड़ तोड़ देता है और एक खेत का पानी दुसरे खेत में चला जाता है, वैसे ही आवरण के टूटते ही आत्मा भी स्वतः प्रकट हो जाती है। इस शक्ति को सर्वत्र जा जा कर जगाना होगा। यह हुई पहली बात। दूसरी बात यह है कि इसके (चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा ) के साथ साथ प्रचलित (धन कमाने वाली Secular education) शिक्षा भी देनी होगी। (६: ३१२)
जनसाधारण के सामान्य धरातल पर (- जो केवल पैसा कमाने पर जोर देते हैं), वेदान्त ज्ञान का प्रयोग करने से उनका अभिप्राय क्या है ? इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं : " न्यूयार्क में मैं आइरिश उपनिवेशवासी को आते हुए देखा करता था- पददलित, कान्तिहीन, निःसंबल, अति दरिद्र और महामूर्ख, साथ में एक लाठी और उसके सिरे पर लटकती हुई फटे कपड़ों की एक छोटी सी गठरी। उसकी चाल में भय और आँख में शंका होती थी। छः ही महीने के बाद यही दृश्य बिल्कुल दूसरा हो जाता। अब वह तन कर चलता था, उसका वेश बदल गया था, उसकी चाल और चितवन में पहले का वह डर दिखाई नहीं पड़ता। ऐसा क्यों हुआ ?
हमारा वेदान्त कहता है कि वह आइरिश अपने देश में चारों तरफ़ घृणा से घिरा हुआ रहता था - सारी प्रकृति एक स्वर से उससे कह रही थी कि - ' बच्चू, तेरे लिए और कोई आशा नहीं है, तू गुलाम ही पैदा हुआ और सदा गुलाम ही बना रहेगा '। आजन्म सुनते सुनते बच्चू को उसीका विश्वास हो गया। बच्चू ने अपने को सम्मोहित कर डाला कि वह अति नीच है। इससे उसका ब्रह्मभाव संकुचित हो गया। परन्तु जब उसने अमेरिका में पैर रखा तो चारों ओर से ध्वनी उठी कि ' बच्चू, तू भी वही आदमी है जो हमलोग हैं। आदमियों ने ही सब काम किए हैं, तेरे और मेरे समान आदमी ही सब कुछ कर सकते हैं। धीरज धर। '
बच्चू ने सर उठाया और देखा कि बात तो ठीक ही है- बस, उसके अन्दर सोया हुआ ब्रह्म जाग उठा, मानो स्वयं प्रकृति ने ही कहा हो- ' उठो, जागो, और जब तक मंजिल पर न पहुँच जाओ - रुको मत !" (६:३१३)'
' प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ' या एक ही शक्ति सभी मनुष्यों में अव्यक्त रूप से विद्यमान है '- मानव-मात्र का यही गौरव मानव-जाती के लिए सर्वोत्कृष्ट 'एकत्व' स्थापित कराने वाली शक्ति है। यही वह शक्ति है जो हमारे उस 'सारभूत- एकत्व ' को सूचित करती है, जो घृणा और मतभेद के समस्त अवरोधों या बाधाओं को तोड़ कर स्वयं को निःस्वार्थपरता के रूप में कि अभिव्यक्त करती है। तथा अपने दैनन्दिन जीवन में इसी अवधारणा को आत्मसातीकरण या स्वांगीकरण करने के लिए इसका अभ्यास करने को ही व्यावहारिक वेदान्त कहते हैं।
(vivek-jivan अप्रैल २००९ में प्रकाशित VEDANTA FOR THE MASSES का हिन्दी भावानुवाद)
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[इस्लाम के ५ स्तम्भ : इस्लाम के दो प्रमुख वर्ग हैं, शिया और सुन्नी। शिया इस्लाम में थोड़े अलग सिद्धांतों को स्तम्भ कहा जाता है। दोनों के अपने अपने इस्लामी नियम हैं लेकिन आधारभूत सिद्धान्त मिलते-जुलते हैं। सुन्नी इस्लाम में हर मुसलमान के ५ आवश्यक कर्तव्य होते हैं जिन्हें इस्लाम के ५ स्तम्भ भी कहा जाता है। वे ५ स्तंभ इस प्रकार हैं-
१. साक्षी होना (शहादाह)- इस का शाब्दिक अर्थ है गवाही देना। इस्लाम में इसका अर्थ इस अरबी घोषणा से हैः "अल्लाह् के सिवा और कोई पूजनीय ( एबादत या पूजा करने के योग्य) नहीं और मुहम्मद (सल्लल्लहु अलैहि वस्सल्लम्) ईश्वर के रसूल हैं।" यह इस्लाम का सबसे प्रमुख सिद्धांत है। हर मुसलमान के लिये अनिवार्य है कि वह इसे स्वीकारे। एक गैर-मुस्लिम को इस्लाम स्वीकार करने के लिये केवल इसी एक ' साक्षी-भाव ' स्वीकार कर लेना पर्याप्त है। इस घोषणा से हर मुसलमान ईश्वर की एकेश्वरवादिता और मुहम्मद साहब के रसूल होने के अपने विश्वास की गवाही देता है।
२. प्रार्थना (सलात)- इसे हिन्दुस्तानी में नमाज़ भी कहते हैं। यह एक प्रकार की प्रार्थना है जो अरबी भाषा में एक विशेष नियम से पढ़ी जाती है। इस्लाम के अनुसार नमाज़ ईश्वर के प्रति मनुष्य की कृतज्ञता दर्शाती है। यह मक्का की ओर मुँह कर के पढ़ी जाती है। हर मुसलमान के लिये दिन में ५ बार नमाज़ पढ़ना अनिवार्य है। विवशता और बीमारी की हालत में इसे टाला जा सकता है।
३. दान (ज़कात)- यह एक वार्षिक दान है जो कि हर आर्थिक रूप से सक्षम मुसलमान को निर्धनों को देना अनिवार्य है। अधिकतर मुसलमान अपनी वार्षिक आय का २.५% दान में देते हैं। यह एक धार्मिक कर्तव्य इस लिये है क्योंकि इस्लाम के अनुसार मनुष्य की पून्जी वास्तव में ईश्वर की देन है। और दान देने से जान और माल कि हिफा.जत होती हे ।
४. व्रत (रम्.जान ) (सौम)- इस के अनुसार इस्लामी कैलेण्डर के नवें महीने में सभी सक्षम मुसलमानों के लिये (फ.जर्)
५. तीर्थ यात्रा (हज)- हज उस धार्मिक तीर्थ यात्रा का नाम है जो इस्लामी कैलेण्डर के १२वें महीने में मक्का में जाकर की जाती है। हर समर्पित मुसलमान (जो हज का खर्च स्वयं उठा सकता हो और विवश न हो) के लिये जीवन में एक बार इसे करना अनिवार्य है।
पैगम्बर मुहम्मद (५७०-६३२) को ६१० ई ० के आसपास मक्का की पहाड़ियों में परम ज्ञान प्राप्त हुआ था। जब उन्होंने उपदेश देना आरंभ किया तब मक्का के समृद्ध लोगों ने इसे अपनी सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था पर खतरा समझा और उनका विरोध किया। अंत में ६२२ में उन्हें अपने अनुयायियों के साथ मक्का से मदीना के लिए कूच करना पड़ा। इस यात्रा को हिजरत कहा जाता है और यहीं से इस्लामी कैलेंडर की शुरुआत होती है।
मदीना के लोगों की ज़िंदगी आपसी लड़ाईयों से परेशान सी थी और मुहम्मद साहब के संदेशों ने उन्हें वहाँ बहुत लोकप्रिय बना दिया। ६३० में मुहम्मद साहब अपने अनुयायियों के साथ एक संधि कि उल्लंघना होने के कारण मक्का पर चढ़ाई कर दी। मक्कावासियों ने आत्मसमर्पण करके इस्लाम कबूल कर लिया। मक्का में स्थित काबा को इस्लाम का पवित्र स्थल घोषित कर दिया गया । ६३२ में मुहम्मद साहब का देहांत हो गया। पर उनकी मृत्यु तक इस्लाम के प्रभाव से अरब के सारे कबीले एक राजनीतिक और सामाजिक सभ्यता का हिस्सा बन गये थे। इस के बाद इस्लाम में खिलाफत का दौर शुरु हुआ।
मुहम्मद साहब के चचा जाद भाई, अली, जिन का मुसलमान बहुत आदर करते थे ने अबु बक्र को खलीफा मानने से इन्कार कर दिया। अली ने साम्राज्य में फैली अशांति पर काबू पाने के लिये राजधानी
मदीना से कूफा में (जो अभी ईराक़ में है) पहले ही बदल दी थी। मुआविया की सेनाऐं अब पूरे इस्लामी साम्राज्य में फैल गयीं और जल्द ही कूफा के प्रदेश के सिवाये सारे साम्राज्य पर मुआविया का कब्जा हो गया। तभी एक कट्टरपंथी ने ६६१ में अली की हत्या कर दी।
अली के बाद हालांकि मुआविया खलीफा बन गये लेकिन मुसलमानों के एक वर्ग का मानना था कि मुसलमानों का खलीफा मुहम्मद साहिब के परिवार का ही हो सकता है। यह वर्ग शिया वर्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उनका मानना था कि यह खलीफा (जिसे वह ईमाम भी कहते थे) स्वयँ भगवान के द्वारा आध्यात्मिक मार्गदर्शन पाता है। इनके अनुसार अली पहले ईमाम थे।
बाकी मुसलमान, जो की यह नहीं मानते हैं कि मुहम्मद साहिब का परिवारजन ही खलीफा हो सकता है, सुन्नी कहलाये। माविया के बेटे यज़ीद ने खिलाफत प्राप्त करते ही इस्लाम की नीतिओ के विरुद्ध कार्य करना शुरू कर दिया , उसके कृत्य से धार्मिक मुसलमान असहज स्थिति में आ गए। यज़ीद ने हज़रत मुहम्मद साहब के नवासे , हज़रत अली अलैहिस सलाम और हज़रत मुहम्मद साहब की इकलौती पुत्री जनाबे फातिमा सल्वातुल्लाहे अलैहा के पुत्र हज़रत हुसैन अलैहिस सलाम से अपनी खिलाफत पर मंजूरी करानी चाही। परन्तु हज़रत हुसैन अलैहिस सलाम ने उसके इस्लाम की नीतिओ के विरुद्ध कार्य करने के कारण अपनी मंजूरी देने से मना कर दिया ,हज़रत हुसैन अलैहिस सलाम के मना करने पर यज़ीद की फौजों ने हज़रत हुसैन अलैहिस सलाम और उनके ७२ साथियो पर पानी बंद कर दिया और बड़ी ही बेदर्दी के साथ उनका क़त्ल करके उनके घर वालो को बंधक बना लिया , ये इस्लाम का कोई गृह युद्ध नहीं था बल्कि सत्य और असत्य की लड़ाई थी जिसे हज़रत हुसैन अलैहिस सलाम ने अपनी जान देकर भी जीत लिया :
" क़त्ले हुसैन असल में मर्गे यज़ीद है ,
इस्लाम जिंदा होता है हर कर्बला के बाद "
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