स्वाधीनता प्राप्ति के पूर्व आम जनता के मन में यह धारणा घर कर गई थी कि देश को अभी जिन
' दरिद्रता, अनाहार, अशिक्षा,' आदि समस्यायों - से जूझना पड़ रहा है, उन सारी समस्याओं का मूल कारण केवल पराधीनता ही है। स्वाधीनता-संग्राम के सेनानी अपने प्राणों की आहुति इसीलिये दे रहे थे कि भारत जब अंग्रेजों कि दासता से मुक्त हो कर राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर लेगा, वैसे ही यहाँ कि सारी समस्याएँ मिट जाएँगी और देश में समृद्धि का ज्वार आ जाएगा !
परन्तु स्वाधीनता प्राप्ति के बाद, एक-एक कर २० वर्ष बीत जाने पर भी- जब दरिद्रता, अशिक्षा, अनाहार, बेरोजगारी आदि समस्याएँ वैसे ही मुँह फैलाए खडी थीं, अब भी लोग भूख के कारण मर रहे थे। इन समस्याओं में थोडी भी कमी नहीं हो रही थी, देश समृद्ध बन जाने के बजाये हर क्षेत्र में पिछड़ा दिखने लगा तो- सारे देशवासी, विशेष रूप से पढ़ा-लिखा युवा समुदाय 'स्वप्न-भंग' कि वेदना से विक्षुब्ध हो उठा।
उन्हें इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं मिल पा रहा था कि, राजनैतिक दृष्टि से स्वाधीन हो जाने के बाद भी हमलोग अपने राष्ट्र की मूल समस्याओं का समाधान अभी तक क्यों नहीं कर पाए हैं ? अभी तक देश के गाँव-गाँव तक सड़क, बिजली, पानी, चिकत्सा, शिक्षा आदि मूलभूत सुविधाएँ क्यों नहीं पहुंचाईजा सकी हैं? इतना सारा धन खर्च करने के बाद भी सारी पंचवर्षीय योजनायें व्यर्थ क्यों हो रही हैं ? जब अंग्रेज भारत छोड़ कर जा चुके हैं, तो अब स्वतंत्रता के शुभ्र-प्रकाश में भी देशवासी स्वयं को छला हुआ सा क्यों अनुभवकर रहे हैं? विलम्ब से भी सही, पर आज किस उपाय से हमलोग अपना तथा अपने देशवासियों का यथार्थ कल्याणकर सकते हैं ?
जब सभी देशप्रेमी युवाओं का मन ऐसे प्रश्नों से आलोडित हो रहा था, तब कुछ स्वार्थान्ध राजनीतिज्ञों ने युवाओं के इस विक्षोभ को सत्ता की कुर्सी प्राप्त करने का सुनहरा मौका समझा, उनके प्रश्नों का सही उत्तर न देकर, युक्ति-तर्क से यथार्थ मार्गदर्शन देने के बजाय, वे युवाओं के मन में विध्वंसात्मक और नेतिवाचक भावनाओं को भड़का कर, उन्हें और ज्यादा अशांत और उन्मादी बनाने का प्रयास करने लगे। जब स्वार्थी तत्त्व, पढे-लिखे युवा समुदाय को ध्वंसात्मक और सर्वनाशी हिंसक आन्दोलनों (नक्सल -वादी, आतंक-वादी) में झोंक कर देश को और भी पतन की गर्त में धकेलने का षड्यंत्र करने लगे, उस समय देश के ऊपर घोर संकट के काले बादल छा गये थे।
इसीलिये स्वाधीनता प्राप्ति के २० वें वर्ष (१९६७) में ही 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' का आविर्भाव अनिवार्य हो गया था। और महामण्डल स्थापित होने के २ वर्ष बाद १९६९ में जब इसकी मासिक संवाद पत्रिका- 'Vivek- Jivan' ने अपना पहला आत्मप्रकाश किया था, उस समय भी देश एक संकटपूर्ण दौर से गुजर रहा था।
इस वर्ष (२००९ में) , इस अंग्रेजी और बंगला में प्रकाशित होने वाली द्विभाषी मासिक संवाद पत्रिका ने अपने निर्बाध प्रकाशन के ४० वें वर्ष में कदम रखा है। 'महामण्डल' और 'Vivek-Jivan' को इसीलिये आविर्भूत होना ही पड़ा - क्योंकि, उस समय युवाओं को यह समझा देना अत्यन्त आवश्यक हो गया था कि, आख़िर इतनी कुर्बानियों से प्राप्त यह राजनैतिक स्वाधीनता भी देश और देशवासियों का यथार्थ कल्याण करने में, क्यों विफल सिद्ध हो गई ? स्वाधीनता प्राप्ति के २० वर्ष बाद भी हम लोग दरिद्रता, अनाहार, अशिक्षा, बेरोजगारी जैसी समस्याओं को दूर क्योंनहीं कर सके? इस विफलता का मूल कारण क्या है?
विलम्ब से भी सही, आज किस उपाय से इतने वर्षों कि विफलता को दूर कर देश को पुनः प्रगति के पथ पर आरूढ़ कराया जा सकता है ? इन प्रश्नों परविवेक-विचार पूर्ण या तर्क सम्मत उत्तर ढूंढ निकलना, फ़िर देश-प्रेमी युवाओं को सही दिशानिर्देश देना, तब उतना कठिन भी नहीं था। क्योंकि स्वामी विवेकानन्द ने स्वाधीनता प्राप्ति के ५० वर्ष पूर्व ही, राजनैतिक स्वाधीनता कि प्रयोजनीयता को स्वीकार करते हुए भी, यह बात स्पष्ट रूप से समझा दिया था कि- " यथार्थ मनुष्यों का निर्माण किए बिना, केवल राजनातिक स्वाधीनता प्राप्त करने मात्र से ही देश की मूल समस्याओं का समाधान हो पाना कभी संभव न होगा।" उन्होंने अपनी ऋषि दृष्टि से पहले ही यह जान लिया था कि, सत्, निःस्वार्थी, चरित्रवान, देशप्रेमी मनुष्यों को तैयार किए बिना, राष्ट्र कि सत्ता यदि असत्, स्वार्थी, भ्रष्ट ' अमानुषों' के हांथों में सौंप दी गई तो वे लोग सत्ता का दुरूपयोग करते हुए केवल अपने 'स्वार्थ-सिद्धि' में ही रत रहेंगे। वे लोग कभी भी राष्ट्र कि साधारण जनता के कल्याण में सत्ता कि शक्ति का सदुपयोग नहीं करेंगे, और वैसी स्वाधीनता देश तथा देशवासियों का कल्याण साधन करने में निश्चित रूप से व्यर्थ सिद्ध होगी।
तभी तो स्वामी विवेकानन्द ने-" यथार्थ मनुष्य गढ़ने को " ही अपना जीवन- व्रत घोषित करते हुए, भारत निर्माण का एक अभ्रांतसूत्र दिया था- " Be & Make " अर्थात ' मनुष्य बनो और मनुष्य बनाओ'। वे जानते थे कि भ्रष्ट, स्वार्थी, देशद्रोही, अमानुषों का नेतृत्व कभी भी भारत कल्याण नहीं कर सकता। किन्तु स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् देश की दुरावस्था के लिए कौन कौन लोग जिम्मेवार हैं, केवल उनका नाम ले ले कर, उन्हें कोसते रहने, या शासक वर्ग के विरुद्ध उग्र प्रतिक्रिया दिखाते हुए तोड़-फोड़ करने, रेल-बस आदि सरकारी सम्पत्तियों को जला कर राख कर देने, या युवाओं को उग्रवाद या आतंकवाद में झोंक देने से ही देश की दुरावस्था का अवसान कभी संभव न होगा।
आज आवश्यकता है देश की दुरावस्था के मूल कारण को समझ कर, उसके अवसान के पथ पर अग्रसर होने की, और स्वामीजी द्वारा निर्देशित वह पथ है- ' संगठित होकर यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने की की प्रक्रिया को साथ- साथ चलाना।' देश की उन्नति की पहली शर्त यही है- "Be & Make" अर्थात 'मनुष्य बनो और मनुष्य बनाओ' के कार्यक्रम को एक आन्दोलन के जैसा पूरे भारत में फैला देना होगा। देशवासियों के समक्ष, विशेषकर स्वप्नभंग की वेदना से विक्षुब्ध देशप्रेमी युवाओं के समक्ष, यही संदेश रखने की आवश्यकता थी कि,वे अपना जीवन गठित कर पहले स्वयं एक ' आदर्श युवा ', यथार्थ मनुष्य बन कर दिखा दें और मनुष्य बनाने कि पद्धति को आन्दोलनका रूप देकर बड़वानल की तरह देश के कोने-कोने तक फैला दें। समय की इसी माँग को पुरा करने के लिए, 'महामण्डल' तथा इसकी संवाद पत्रिका 'Vivek-Jivan' ने अपना आत्मप्रकाश किया था। इनके माध्यम से महामण्डल सभी राष्ट्र-प्रेमी देशवासियों, विशेषकर युवाओं को यही संदेश देता चला आ रहा है कि :
* सभी देशप्रेमी युवाओं के आदर्श ' नेता' हैं----------- स्वामी विवेकानन्द !
* महामण्डल का उद्देश्य है----------------------- भारत कल्याण !
* 'भारत-कल्याण' का उपाय है --------------------- चरित्र-निर्माण !
*स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्देशित राष्ट्र-निर्माण का सूत्र है- ' Be & Make' !
अपने जन्म के समय से ही ' महामण्डल' तथा इसकी मासिक संवाद पत्रिका ' vivek-jivan' स्वामीजी द्वारा निर्देशित- ' मनुष्य-निर्माणकारी तथा चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' का प्रचार-प्रसार करता चला आ रहा है। इन चार दशकों के लंबे अन्तराल में हमारे द्वारा किए गए कार्यों का समाज तथा युवाओं के मन के ऊपर कितना प्रभाव पड़ा है, इसकी समीक्षा- इस विराट देश की विपुल जनसंख्या के परिप्रेक्ष्य में कर पाना उतना सहज नहीं है।
फ़िर भी एक बात तो पूरे निश्चय के साथ कही जा सकती है कि, आज से ४० वर्ष पूर्व बहुत थोड़े से लोग ही यह विश्वास करते थे कि स्वामी विवेकानन्द को युवा आदर्श (Role model) के रूप में स्थापित करा कर उनके मार्गदर्शन में चलने से, दरिद्रता और अशिक्षा को समाप्त करके सामाजिक परिवर्तन द्वारा एक सुखी और समृद्ध भारत का निर्माण करना संभव है। इस बात से कोई भी सज्जन व्यक्ति इंकार नहीं कर सकते कि, आज से ४० वर्ष पूर्व देशवासी या युवा समुदाय को स्वामी विवेकानन्द के विचार उद्दीप्त भले कर देते हों, या तब भी वे उनको श्रद्धा भरी दृष्टि से देखते हों, किन्तु उनमे से अधिकांश लोग यही सोचा करते थे कि, सामाजिक परिवर्तन या आर्थिक उन्नति के लिए किसी न किसी 'विशिष्ट' तरह के राजनैतिक मतवाद को तो स्वीकार करना ही पडेगा।
यहाँ तक कि जो लोग अपने को स्वामी विवेकानन्द का अनुगामी समझते थे, वे भी उनको मूलतः केवल एक 'हिंदू' सन्यासी ही मानते थे। वे उन्हें एक ' हिंदू पुनरुत्थानवादी ' या 'आध्यात्मिक राष्ट्रवादी ' संत के रूप में ही देखा करते थे। अधिकांश लोगों के लिए स्वामीजी के प्रति श्रद्धा-भक्ति केवल रोमांच पैदा कर देने वाली एक विद्युत-स्पर्श के झटके जैसी ही थी। उस समय स्वामी विवेकानन्द में श्रद्धा रखने वाले बहुत कम लोग ही यह सोच पाते थे कि- " मनुष्य बनना और मनुष्य बनाना " ही स्वामीजी के संदेशों का सार है, या 'मनुष्य-निर्माण' ही उनके समग्र चिंतन का केन्द्र-बिन्दु है। या उनके भारत-निर्माण सूत्र- " Be & Make" के निर्देशानुसार केवल यथार्थ मनुष्य गढ़ने से ही भ्रष्टाचार को मिटाया जा सकता है और देश कि समस्त समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।
विगत चार दशकों से चलाये जा रहे इस -'मनुष्य निर्माण और चरित्र निर्माण आन्दोलन' के फलस्वरूप अब हमलोग जन-मानस में एक विशिष्ट परिवर्तन देख पा रहे हैं। भारत के अधिकांश लोग अब इस तथ्य को समझने तथा उस पर विश्वास करने लगे हैं कि, यथार्थ मनुष्य का निर्माण किए बिना जगत का सारा धन उडेल देने से भी पूरे देश के उन्नयन की बात तो दूर, एक गाँव को भी उन्नत कर पाना सम्भव नहीं है। (राजीव गाँधी भी मानते थे कि, केन्द्र से चला 'एक रुपया' गाँव तक पहुँचते-पहुँचते ८५% पाइप लाइन से चू जाता है और केवल '१५ पैसा' ही जरुरत मंदों तक पहुँच पाता है।)
हम लोग देश के कल्याण के लिए चाहे जिस नाम से, कैसी भी बडी-बडी योजनायें (मनरेगा आदि) क्यों न बना लें, उस परिकल्पना को धरातल पर उतारने वाले नेता, प्रशासक, कर्मचारी, एवं व्यापारी लोग यदि यथार्थ मनुष्य नहीं हों तो वे सारी योजनायें व्यर्थ ही सिद्ध होंगी। आज के अधिकांश चिन्तनशील व्यक्ति इस बात पर स्वामीजी के साथ पूरीतरह से सहमत हैं कि, देश कि दुरावस्था का मूल कारण- ईमानदार, चरित्रवान या यथार्थ मनुष्यों का आभाव ही है।
आज स्वामीजी के प्रति केवल आवेश-आवेग पूर्ण श्रद्धा व्यक्त करके, उनकी जयंती मानाने के बजाय उनके महावाक्य-'Be & Make' कि सत्यता को युवा समुदाय महामण्डल के 'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' में प्रयोगगत यथार्थ के रूप में उपलब्ध कर रहे हैं, तथा शिविर से लौटने के बाद अपने-अपने गाँव में स्वेच्छा से महामण्डल कि शाखाएं स्थापित कर रहे हैं। ४८ वर्षों के बाद युवाओं तथा देशवासियों की सोंच में ऐसा जो परिवर्तन दिखाई दें रहा है, इस परिवर्तन के पीछे, ' रात्रि के निःशब्द ओस की बूंदों के समान' अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल" तथा "Vivek-Jivan" की भी एक भूमिका रही है, ऐसा हमारा विश्वास है।
दरिद्रता और अशिक्षा के दलदल में निमज्जित करोडो-करोड़ देशवासियों की चिंता से विह्वल स्वामीजी का संदेश वाहक बनाकर, उनके निर्देशानुसार सैंकडो युवाओं को समस्त प्रकार की आत्म-केन्द्रिकता, भोगविलास और सुख पाने की इच्छा से मुक्त होकर, अपने जीवन को एक आदर्श उदाहरण के रूप में गठित करके कश्मीर से कन्याकुमारी तक "Be & Make" का प्रचार-प्रसार करने में जुट जाना होगा। इस कार्य को दक्षता के साथ रूपायित कर पाने पर ही 'महामण्डल' तथा 'Vivek-Jivan' की सफलता निर्भर करती है।
' दरिद्रता, अनाहार, अशिक्षा,' आदि समस्यायों - से जूझना पड़ रहा है, उन सारी समस्याओं का मूल कारण केवल पराधीनता ही है। स्वाधीनता-संग्राम के सेनानी अपने प्राणों की आहुति इसीलिये दे रहे थे कि भारत जब अंग्रेजों कि दासता से मुक्त हो कर राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर लेगा, वैसे ही यहाँ कि सारी समस्याएँ मिट जाएँगी और देश में समृद्धि का ज्वार आ जाएगा !
परन्तु स्वाधीनता प्राप्ति के बाद, एक-एक कर २० वर्ष बीत जाने पर भी- जब दरिद्रता, अशिक्षा, अनाहार, बेरोजगारी आदि समस्याएँ वैसे ही मुँह फैलाए खडी थीं, अब भी लोग भूख के कारण मर रहे थे। इन समस्याओं में थोडी भी कमी नहीं हो रही थी, देश समृद्ध बन जाने के बजाये हर क्षेत्र में पिछड़ा दिखने लगा तो- सारे देशवासी, विशेष रूप से पढ़ा-लिखा युवा समुदाय 'स्वप्न-भंग' कि वेदना से विक्षुब्ध हो उठा।
उन्हें इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं मिल पा रहा था कि, राजनैतिक दृष्टि से स्वाधीन हो जाने के बाद भी हमलोग अपने राष्ट्र की मूल समस्याओं का समाधान अभी तक क्यों नहीं कर पाए हैं ? अभी तक देश के गाँव-गाँव तक सड़क, बिजली, पानी, चिकत्सा, शिक्षा आदि मूलभूत सुविधाएँ क्यों नहीं पहुंचाईजा सकी हैं? इतना सारा धन खर्च करने के बाद भी सारी पंचवर्षीय योजनायें व्यर्थ क्यों हो रही हैं ? जब अंग्रेज भारत छोड़ कर जा चुके हैं, तो अब स्वतंत्रता के शुभ्र-प्रकाश में भी देशवासी स्वयं को छला हुआ सा क्यों अनुभवकर रहे हैं? विलम्ब से भी सही, पर आज किस उपाय से हमलोग अपना तथा अपने देशवासियों का यथार्थ कल्याणकर सकते हैं ?
जब सभी देशप्रेमी युवाओं का मन ऐसे प्रश्नों से आलोडित हो रहा था, तब कुछ स्वार्थान्ध राजनीतिज्ञों ने युवाओं के इस विक्षोभ को सत्ता की कुर्सी प्राप्त करने का सुनहरा मौका समझा, उनके प्रश्नों का सही उत्तर न देकर, युक्ति-तर्क से यथार्थ मार्गदर्शन देने के बजाय, वे युवाओं के मन में विध्वंसात्मक और नेतिवाचक भावनाओं को भड़का कर, उन्हें और ज्यादा अशांत और उन्मादी बनाने का प्रयास करने लगे। जब स्वार्थी तत्त्व, पढे-लिखे युवा समुदाय को ध्वंसात्मक और सर्वनाशी हिंसक आन्दोलनों (नक्सल -वादी, आतंक-वादी) में झोंक कर देश को और भी पतन की गर्त में धकेलने का षड्यंत्र करने लगे, उस समय देश के ऊपर घोर संकट के काले बादल छा गये थे।
इसीलिये स्वाधीनता प्राप्ति के २० वें वर्ष (१९६७) में ही 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' का आविर्भाव अनिवार्य हो गया था। और महामण्डल स्थापित होने के २ वर्ष बाद १९६९ में जब इसकी मासिक संवाद पत्रिका- 'Vivek- Jivan' ने अपना पहला आत्मप्रकाश किया था, उस समय भी देश एक संकटपूर्ण दौर से गुजर रहा था।
विलम्ब से भी सही, आज किस उपाय से इतने वर्षों कि विफलता को दूर कर देश को पुनः प्रगति के पथ पर आरूढ़ कराया जा सकता है ? इन प्रश्नों परविवेक-विचार पूर्ण या तर्क सम्मत उत्तर ढूंढ निकलना, फ़िर देश-प्रेमी युवाओं को सही दिशानिर्देश देना, तब उतना कठिन भी नहीं था। क्योंकि स्वामी विवेकानन्द ने स्वाधीनता प्राप्ति के ५० वर्ष पूर्व ही, राजनैतिक स्वाधीनता कि प्रयोजनीयता को स्वीकार करते हुए भी, यह बात स्पष्ट रूप से समझा दिया था कि- " यथार्थ मनुष्यों का निर्माण किए बिना, केवल राजनातिक स्वाधीनता प्राप्त करने मात्र से ही देश की मूल समस्याओं का समाधान हो पाना कभी संभव न होगा।" उन्होंने अपनी ऋषि दृष्टि से पहले ही यह जान लिया था कि, सत्, निःस्वार्थी, चरित्रवान, देशप्रेमी मनुष्यों को तैयार किए बिना, राष्ट्र कि सत्ता यदि असत्, स्वार्थी, भ्रष्ट ' अमानुषों' के हांथों में सौंप दी गई तो वे लोग सत्ता का दुरूपयोग करते हुए केवल अपने 'स्वार्थ-सिद्धि' में ही रत रहेंगे। वे लोग कभी भी राष्ट्र कि साधारण जनता के कल्याण में सत्ता कि शक्ति का सदुपयोग नहीं करेंगे, और वैसी स्वाधीनता देश तथा देशवासियों का कल्याण साधन करने में निश्चित रूप से व्यर्थ सिद्ध होगी।
तभी तो स्वामी विवेकानन्द ने-" यथार्थ मनुष्य गढ़ने को " ही अपना जीवन- व्रत घोषित करते हुए, भारत निर्माण का एक अभ्रांतसूत्र दिया था- " Be & Make " अर्थात ' मनुष्य बनो और मनुष्य बनाओ'। वे जानते थे कि भ्रष्ट, स्वार्थी, देशद्रोही, अमानुषों का नेतृत्व कभी भी भारत कल्याण नहीं कर सकता। किन्तु स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् देश की दुरावस्था के लिए कौन कौन लोग जिम्मेवार हैं, केवल उनका नाम ले ले कर, उन्हें कोसते रहने, या शासक वर्ग के विरुद्ध उग्र प्रतिक्रिया दिखाते हुए तोड़-फोड़ करने, रेल-बस आदि सरकारी सम्पत्तियों को जला कर राख कर देने, या युवाओं को उग्रवाद या आतंकवाद में झोंक देने से ही देश की दुरावस्था का अवसान कभी संभव न होगा।
आज आवश्यकता है देश की दुरावस्था के मूल कारण को समझ कर, उसके अवसान के पथ पर अग्रसर होने की, और स्वामीजी द्वारा निर्देशित वह पथ है- ' संगठित होकर यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने की की प्रक्रिया को साथ- साथ चलाना।' देश की उन्नति की पहली शर्त यही है- "Be & Make" अर्थात 'मनुष्य बनो और मनुष्य बनाओ' के कार्यक्रम को एक आन्दोलन के जैसा पूरे भारत में फैला देना होगा। देशवासियों के समक्ष, विशेषकर स्वप्नभंग की वेदना से विक्षुब्ध देशप्रेमी युवाओं के समक्ष, यही संदेश रखने की आवश्यकता थी कि,वे अपना जीवन गठित कर पहले स्वयं एक ' आदर्श युवा ', यथार्थ मनुष्य बन कर दिखा दें और मनुष्य बनाने कि पद्धति को आन्दोलनका रूप देकर बड़वानल की तरह देश के कोने-कोने तक फैला दें। समय की इसी माँग को पुरा करने के लिए, 'महामण्डल' तथा इसकी संवाद पत्रिका 'Vivek-Jivan' ने अपना आत्मप्रकाश किया था। इनके माध्यम से महामण्डल सभी राष्ट्र-प्रेमी देशवासियों, विशेषकर युवाओं को यही संदेश देता चला आ रहा है कि :
* महामण्डल का उद्देश्य है----------------------- भारत कल्याण !
* 'भारत-कल्याण' का उपाय है --------------------- चरित्र-निर्माण !
*स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्देशित राष्ट्र-निर्माण का सूत्र है- ' Be & Make' !
अपने जन्म के समय से ही ' महामण्डल' तथा इसकी मासिक संवाद पत्रिका ' vivek-jivan' स्वामीजी द्वारा निर्देशित- ' मनुष्य-निर्माणकारी तथा चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' का प्रचार-प्रसार करता चला आ रहा है। इन चार दशकों के लंबे अन्तराल में हमारे द्वारा किए गए कार्यों का समाज तथा युवाओं के मन के ऊपर कितना प्रभाव पड़ा है, इसकी समीक्षा- इस विराट देश की विपुल जनसंख्या के परिप्रेक्ष्य में कर पाना उतना सहज नहीं है।
फ़िर भी एक बात तो पूरे निश्चय के साथ कही जा सकती है कि, आज से ४० वर्ष पूर्व बहुत थोड़े से लोग ही यह विश्वास करते थे कि स्वामी विवेकानन्द को युवा आदर्श (Role model) के रूप में स्थापित करा कर उनके मार्गदर्शन में चलने से, दरिद्रता और अशिक्षा को समाप्त करके सामाजिक परिवर्तन द्वारा एक सुखी और समृद्ध भारत का निर्माण करना संभव है। इस बात से कोई भी सज्जन व्यक्ति इंकार नहीं कर सकते कि, आज से ४० वर्ष पूर्व देशवासी या युवा समुदाय को स्वामी विवेकानन्द के विचार उद्दीप्त भले कर देते हों, या तब भी वे उनको श्रद्धा भरी दृष्टि से देखते हों, किन्तु उनमे से अधिकांश लोग यही सोचा करते थे कि, सामाजिक परिवर्तन या आर्थिक उन्नति के लिए किसी न किसी 'विशिष्ट' तरह के राजनैतिक मतवाद को तो स्वीकार करना ही पडेगा।
यहाँ तक कि जो लोग अपने को स्वामी विवेकानन्द का अनुगामी समझते थे, वे भी उनको मूलतः केवल एक 'हिंदू' सन्यासी ही मानते थे। वे उन्हें एक ' हिंदू पुनरुत्थानवादी ' या 'आध्यात्मिक राष्ट्रवादी ' संत के रूप में ही देखा करते थे। अधिकांश लोगों के लिए स्वामीजी के प्रति श्रद्धा-भक्ति केवल रोमांच पैदा कर देने वाली एक विद्युत-स्पर्श के झटके जैसी ही थी। उस समय स्वामी विवेकानन्द में श्रद्धा रखने वाले बहुत कम लोग ही यह सोच पाते थे कि- " मनुष्य बनना और मनुष्य बनाना " ही स्वामीजी के संदेशों का सार है, या 'मनुष्य-निर्माण' ही उनके समग्र चिंतन का केन्द्र-बिन्दु है। या उनके भारत-निर्माण सूत्र- " Be & Make" के निर्देशानुसार केवल यथार्थ मनुष्य गढ़ने से ही भ्रष्टाचार को मिटाया जा सकता है और देश कि समस्त समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।
विगत चार दशकों से चलाये जा रहे इस -'मनुष्य निर्माण और चरित्र निर्माण आन्दोलन' के फलस्वरूप अब हमलोग जन-मानस में एक विशिष्ट परिवर्तन देख पा रहे हैं। भारत के अधिकांश लोग अब इस तथ्य को समझने तथा उस पर विश्वास करने लगे हैं कि, यथार्थ मनुष्य का निर्माण किए बिना जगत का सारा धन उडेल देने से भी पूरे देश के उन्नयन की बात तो दूर, एक गाँव को भी उन्नत कर पाना सम्भव नहीं है। (राजीव गाँधी भी मानते थे कि, केन्द्र से चला 'एक रुपया' गाँव तक पहुँचते-पहुँचते ८५% पाइप लाइन से चू जाता है और केवल '१५ पैसा' ही जरुरत मंदों तक पहुँच पाता है।)
हम लोग देश के कल्याण के लिए चाहे जिस नाम से, कैसी भी बडी-बडी योजनायें (मनरेगा आदि) क्यों न बना लें, उस परिकल्पना को धरातल पर उतारने वाले नेता, प्रशासक, कर्मचारी, एवं व्यापारी लोग यदि यथार्थ मनुष्य नहीं हों तो वे सारी योजनायें व्यर्थ ही सिद्ध होंगी। आज के अधिकांश चिन्तनशील व्यक्ति इस बात पर स्वामीजी के साथ पूरीतरह से सहमत हैं कि, देश कि दुरावस्था का मूल कारण- ईमानदार, चरित्रवान या यथार्थ मनुष्यों का आभाव ही है।
आज स्वामीजी के प्रति केवल आवेश-आवेग पूर्ण श्रद्धा व्यक्त करके, उनकी जयंती मानाने के बजाय उनके महावाक्य-'Be & Make' कि सत्यता को युवा समुदाय महामण्डल के 'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' में प्रयोगगत यथार्थ के रूप में उपलब्ध कर रहे हैं, तथा शिविर से लौटने के बाद अपने-अपने गाँव में स्वेच्छा से महामण्डल कि शाखाएं स्थापित कर रहे हैं। ४८ वर्षों के बाद युवाओं तथा देशवासियों की सोंच में ऐसा जो परिवर्तन दिखाई दें रहा है, इस परिवर्तन के पीछे, ' रात्रि के निःशब्द ओस की बूंदों के समान' अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल" तथा "Vivek-Jivan" की भी एक भूमिका रही है, ऐसा हमारा विश्वास है।
दरिद्रता और अशिक्षा के दलदल में निमज्जित करोडो-करोड़ देशवासियों की चिंता से विह्वल स्वामीजी का संदेश वाहक बनाकर, उनके निर्देशानुसार सैंकडो युवाओं को समस्त प्रकार की आत्म-केन्द्रिकता, भोगविलास और सुख पाने की इच्छा से मुक्त होकर, अपने जीवन को एक आदर्श उदाहरण के रूप में गठित करके कश्मीर से कन्याकुमारी तक "Be & Make" का प्रचार-प्रसार करने में जुट जाना होगा। इस कार्य को दक्षता के साथ रूपायित कर पाने पर ही 'महामण्डल' तथा 'Vivek-Jivan' की सफलता निर्भर करती है।
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