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मंगलवार, 10 सितंबर 2024

🏹🔱🕊शिरीष कुसुम का एक गुच्छा -" विवेकी सर्वदा मुक्तः कुर्वतो नास्ति कर्तृता।" *"[आन्दुल H.C.E स्कूल-1841 (मोहियारी कुंडू चौधरी इंस्टीट्यूशन)" के पूर्व विद्यार्थियों का पुनर्मिलन'Alumni Reunion' के अवसर पर दिया गया महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय द्वारा दिया गया भाषण ~ " A Bunch of Shirish Kusum "🏹

 🙋शिरीष कुसुम का एक गुच्छा🙋

*A Bunch of Shirish Kusum*

~ श्री नवनीहरन मुखोपाध्यायाय

(15th August, 1931- 26th Sept, 2016) 

       यह सोच कर भी कैसा लगता है कि - आज से पचास साल पहले हमने, इसी स्कूल # [मोहियारी कुंडू चौधरी इंस्टीट्यूशन (#आन्दुल H.C.E स्कूल)-1841,आचार्य शिरीष सारनी, ​​अंदुल, महियारी, हावड़ा जिला, पश्चिम बंगाल 711302)] से दसवीं तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद स्कूल छोड़ दिया था। उन्हीं सहपाठियों में से जो आज जीवित हैं, वे पुनः उसी स्कूल में मिल रहे हैं - यह एक दम अद्भुत और अविश्वनीय पुनर्मिलन में है!! हालाँकि, मुझे नहीं पता कि उन लोगों को धन्यवाद देने के लिए क्या कहूँ जिन्होंने इस पूर्व विद्यार्थी पुनर्मिलन 'Alumni Reunion' को आयोजित करने के विषय में सोचा। परन्तु संसार में सुख-दुःख तो नित्य साथी हैं। इसलिए सभी को एक साथ सम्मिलित होने में बाधाएँ आती हैं। अतएव जितने छात्र हमलोग उस समय थे -उसमें से सभी यहाँ उपस्थित नहीं हो सके हैं। एक के बाद एक करके कितने ही लोग चले गए हैं । और इस मिलन समारोह के आयोजकों की मुख्य कठिनाई यही है, वैसे दोस्त जिन्हें 'हम अपना जीवन समझते थे ' वे जब हमें अचानक छोड़कर चले जाते हैं, तो उस दुःख को शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है- "जिसका प्राण समझता है, वही समझ सकेगा।" 

        जिस दिन असित के पत्र से पहली बार मुझे इस पुनर्मिलन के बारे में पता चला और उसके बाद और कई मित्रों से दो-तीन बार मुलाकात हुई, लेकिन उसके बाद मानों सुकुमार रे के गणित के जैसा छात्रों की संख्या अचानक पचास से भी कम हो गयी। आज से साठ वर्ष पहले की बात याद आ रही है  जब आचार्यदेव (नवनीदा के पितामह ) मुझे  लेकर एक शिक्षक समारोह में आये थे तब मैंने पहली बार इस स्कूल को देखा था। [ नवनीदा का जन्म 15th August, 1931 को हुआ था, अर्थात 1996-60= 1936 में उनकी आयु लगभग 5 वर्ष की रही होगी।] उस दिन स्कूल के शिक्षकों विशेषतः संस्कृत शिक्षक पण्डित क्षेत्र-मोहन चट्टोपाध्याय महोदय को मैंने संस्कृत में तपोवन वर्णन का एक श्लोक " हुतधूमकेतु-शिखाञ्जन स्निग्धसमृद्धशाखम् ...." मैंने सुनाया था। जैसे ही मैंने उन्हें यह श्लोक सुनाया वैसे ही उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर खींच लिया और अपनी गोद में बिठाकर कहने लगे - वाह ! वाह ! तुम अभी इतने छोटे हो, और इतना शुद्ध संस्कृत उच्चारण कर सकते हो ; तुम्हें तो वाक् सिद्धि # प्राप्त होगी। (वाक् सिद्धि # एक ऐसी सिद्धि जिससे व्यक्ति जो कुछ भी कहे वो घटित हो जाये।) तब मुझे इसका मतलब समझ नहीं आया था, लेकिन बड़े होने के बाद जब उस बात को याद करता हूं तो मुझे अब भी डर लगता है।

       फिर 1943 में सातवीं कक्षा में मैंने इस स्कूल में प्रवेश लिया था। जब इस स्कूल की स्थापना हुई थी तब तक कलकत्ता विश्वविद्यालय का जन्म भी नहीं हुआ था।  सर आशुतोष की बड़े भ्राता इस स्कूल के प्रथम प्रधानाध्यापक थे। उनके बाद  इस विद्यालय के प्रधाना-ध्यापक 1901 ई. में आचार्यदेव  बने थे । [अर्थात जिस समय नवनीदा के पितामह श्री शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय (1873-1966) उस स्कूल के हेड मास्टर के पद पर नियुक्त हुए होंगे, उस समय  उनकी आयु मात्र  28 वर्ष रही होगी ,और उम्र में वे स्वामीजी से 10 वर्ष छोटे रहे होंगे।] जब  1902 ई. में स्वामी विवेकानन्द का तिरोधान हुआ, उस समय आन्दुल स्कूल में एक स्मृति सभा का आयोजन किया गया था। उस स्मरण सभा में स्वामी विवेकानन्द को आमने -सामने देखने और उनके भाषण को सुनने अपना अनुभव बताते हुए आचार्यदेव ने स्वामी विवेकानन्द  के ओजस्वी व्यक्तित्व और भाषण शैली का उल्लेख अपने भाषण में किया था, उसका उल्लेख करते हुए शैलेन्द्रनाथ धर ने अपनी पुस्तक-A comprehensive Biography of Swami Vivekananda " (स्वामी विवेकानंद की विस्तृत जीवनी) में इस प्रकार उद्धृत किया था - "उस सभा में आचार्यदेव ने अपना अनुभव बताते हुए  कहा था कि- 1897 ई० में स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिए उस संक्षिप्त भाषण को, आचार्यदेव ने अपने मित्र गिरीश चंद्र घोष (बंगाल के सुप्रसिद्द संगीतकार, कवि, नाटककार) के साथ  परमहंस श्री रामकृष्णदेव के जन्मदिन के अवसर पर, दक्षिणेश्वर के माँ काली मन्दिर पहुँचकर बिल्कुल आमने-सामने खड़े होकर सुना था।" 

     1905 ई. के बंग-भंग आन्दोलन ने स्वतंत्रता संग्राम को और भी तीव्र बना दिया था। आचार्य-देव के आदेशानुसार इस स्कूल के छात्रों ने भी विदेशी उत्पादों को जलाने में भरपूर योगदान दिया था। तब यह समाचार  इंग्लैण्ड के एक समाचारपत्र में स्कूल के नाम के साथ प्रकाशित हुई थी, जिसके फलस्वरूप प्रधानाध्यापक (आचार्यदेव) के नाम पर गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया। किन्तु जो ब्रिटिश अधिकारी उनको गिरफ़्तार करने आया, वह स्कूल के असाधारण अनुशासन और स्कूल के प्रधानाध्यापक  के व्यक्तित्व को देखकर आश्चर्य-चकित हो गया। और बाघ के जैसा हिंसक वह ब्रिटिश अधिकारी पूज्य नवनीदा के पितामह - 'शिरीष बाबू' -के मधुर व्यवहार से इतना अधिक प्रभावित हुआ कि  वारंट रद्द करके बिना गिरफ्तार किये ही वापस लौट गया ।

 विद्या गुरुमुखी : मैं जब इस स्कूल में सातवीं कक्षा में पढ़ रहा था, तब सुबोध कुमार चटखण्डी मास्टर महाशय हमलोगों को भूगोल पढ़ाते थे। वे थोड़े स्थूलकाय थे, इसलिए ब्लैक बोर्ड पर मानचित्र को लटका देते थे, और स्वयं कुर्सी पर बैठकर एक छड़ी के द्वारा नक्शे के स्थलबिन्दु को दिखा-दिखा कर छात्रों को समझाते थे। ब्लैकबोर्ड पर हमारे पंडित महाशय (क्षेत्रमोहन पंडित महाशय के स्वनामधान्य पुत्र ...पण्डित भूतनाथ सप्ततीर्थ संस्कृत पढ़ाते थे। उन्होंने चाण्क्य का श्लोक कंठस्थ करने को कहा था ;लेकिन उनके  से वैसा हो नहीं सका। तब उन्होंने भूतनाथ को पूरे पीरियड पर पीछे बेंच पर खड़े करवा दिया था। उसके बाद उसका रिजल्ट (परिणाम) बहुत अच्छे हुआ । ...बेंच पर खड़े होकर उन्होंने जितने श्लोक पढ़े थे , वो सब मुझे इस समय कण्ठस्थ है।  ....वह किताबों और तुकबंदी के साथ कक्षा से बाहर चला गया था। हमारे स्कूल के संस्कृत शिक्षक द्वारा उद्धृत छोटी -छोटी  छंदें अब भी हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं।   लेकिन वे श्रद्धा की प्रतिमूर्ति थे। उसकी पूरी बातों को यदि लिखने के लिए कहा जाये , तो मेरी छोटी सी संस्कृत स्मृति उतना लिखने में सक्षम नहीं होगी। बाद में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर भी रहे। किन्तु हमलोगों के आचार्यदेव से जब तक उन्हें अनुमति नहीं मिली -उन्होंने स्कूल नहीं छोड़ा था। बाद में उन्होंने 'मीमांसा दर्शन ' ग्रंथ में वर्णित शुकाष्टकं # के एक श्लोक का जिस प्रकार गूढ़ार्थ बतलाया था, उसके विषय में आचार्य महामुखोपध्याय योगेन्द्रनाथ तर्कतीर्थ द्वारा शुकाष्टकं के विषय में  प्रश्न करने पर उन्होंने विनम्रता पूर्वक कहा था - विद्यालय के आचार्य-देव के मुख से उसकी जैसी व्याख्या सुनी थी, वही लिखा है, ग्रंथ की दृष्टि से नहीं; क्योंकि " विद्या गुरुमुखी।"   

    सभी की बातें याद आ रहीं हैं। लेकिन सब लिखने की जगह कहाँ है। अमलेन्दु राय महाशय हमलोगों को अंग्रेजी ग्रामर पढ़ाते थे, यदि ठीक-ठीक याद है तो टेस्ट परीक्षा में मास्टर महाशय से  मुझे 83 % नंबर प्राप्त हुए थे। बाद में अंग्रेजी में किताब लिखने में संकोच नहीं हुआ। कई यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी में भाषण देना सम्भव हुआ है। कुरुक्षेत्र विश्विद्यालय में भाषण देने के बाद राजयपाल की धर्मपत्नी ने पूछा था कि आपने किस यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी सीखा है ? मैंने कहा -"बहुत गर्व से कहता हूँ कि ब्रिटिश चर्च या में नहीं सीखा , बल्कि हावड़ा जिला के एक ग्रामीण स्कूल में सीखा है। "  

   जैसा कि कॉलजों में हुआ करता है , हमलोगों के स्कूल का विज्ञान का क्लास भी  गुरुदास मेमोरिएल के दोतल्ले पर गैलरी में होता था। वैसी व्यवस्था उस समय अन्य किसी स्कूल में थी या नहीं -नहीं जानता। फणीन्द्रनाथ पाल महाशय विज्ञान पढ़ा रहे थे। उन्होंने पूछा क्या कोई लड़का यह बता सकता है कि साबुन का निर्माण कैसे होता है ? एक लड़के ने (उसका नाम अभी याद नहीं है)खड़ा होकर कहा - "मैं जानता हूँ सर। एक बहुत बड़े चूल्हे पर बहुत बड़ा कड़ाही रहता है। उस कड़ाही में बुरादा के जैसा कुछ डाल देता है। फिर एक आदमी बहुत बड़े डब्बू से उसमें कोई चीज डालकर उसको खूब हिलाता है। थोड़ी देर बाद उसको चूल्हे से उतारने पर 'एक कड़ाही साबुन' बन जाता है। " उसके उत्तर को सुनकर पूरा क्लास ठहाके मार कर हँसने लगा था। 

    सेकण्ड हेड मास्टर (सहायक प्रधान शिक्षक) थे तारेश चंद्र कर। उच्च श्रेणी के बच्चों को इतिहास पढ़ाते थे। थोड़ा गंभीर स्वभाव के व्यक्ति थे। सब समय चुन्नट गिराकर धोती पहनते और कुर्ते में गले तक बटन को बंद रखते थे। और कंधे पर चादर रखते थे। आँखों पर चश्मा और मूँछ भी रखते थे। उनके नजदीक जाने में भय होता था। जिस समय क्लास नहीं भी रहता ,तब भी मोटी -मोटी पुस्तकें पढ़ते रहते थे। अक्सर मोटी-मोटी सी पुस्तक हाथों में लिए टहलते हुए क्लास में प्रवेश करते थे। लड़कों को अच्छी तरह सिखाना है , इसीलिए वे खुद बहुत परिश्रम करके पढ़ा करते थे। वैसे शिक्षक आजकल दिखाई नहीं देते। इनदिनों  विश्वविद्यालय के ऑफ़ पीरियड के दौरान शिक्षक कक्ष में क्या-क्या होता है , उसे बताया नहीं जा सकता। याद है एक बार क्लास में पढ़ाते समय, कुछ विशेष तथ्यों को समझाने के लिए "Historian's History of the World" (विश्व के इतिहास-निर्माताओं का इतिहास) का एक खंड लाइब्रेरी से क्लास में मंगवाये। उनको दूर से किसी ने हँसते हुए नहीं देखा था। किन्तु नजदीक जाने पर उनकी मूँछों के बीच से सुन्दर हँसी खिलती हुई देखि जा सकती थी। थोड़े से शब्दों में जो बातें कहते थे उसी से पता चल जाता था कि वे छात्रों से कितना स्नेह करते थे। 

      सतीश चंद्र दास महाशय हमलोगों को बंगला पढ़ाते थे और स्कूल को चलाने में जो कुछ आवश्यक होता वह सबकुछ वे स्वेच्छा से आगे बढ़कर पूरा कर देते थे। उनको देखकर किशोर मन में जो विचार उठते थे , आज कह सकता हूँ कि वैसे महापुरुष को ही स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।कविता या श्लोकों में शिक्षा ढूँढ़ने के रोग से मैं पहले से पीड़ित था। वे पढ़ाते समय इतना बेसुध होकर पढ़ाते थे कि चार साल की स्कूली पढ़ाई के दौरान उनके मुख से केवल दो श्लोक ही सुने थे। जिसमें से एक श्लोक में उन्होंने अपने Silver Voice में जो कहा था, उसका व्यवहार मैं बार बार करता हूँ। 

मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ।

मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम् ॥

[मन -वचन -कर्म से जो एक हो वो है महात्मा। 

     मन -वचन -कर्म यदि भिन्न भिन्न ,तो है दुरात्मा।।] 

अर्थात् श्रेष्ठ और महान व्यक्तियों के जो भी विचार होते हैं वे मन में वही बोलते हैं और उसी के अनुसार कार्य भी करते हैं। दूसरी ओर नीच और दुष्ट व्यक्ति सोचते कुछ हैं, बोलते कुछ हैं और करते भी भिन्न हैं। उपर्युक्त सुभाषित  सज्जन और नीच व्यक्तियों की मानसिकता और व्यवहार में अंतर को बहुत ही सुन्दर ढंग से उजागर करता है।

हमलोगों का यह परमसौभाग्य है कि हमलोगों ने जिन पवित्र, उदारचरित महाप्राण, छात्रवत्सल, शिक्षकों के चरणों में बैठकर शिक्षा प्राप्त करने का सुयोग पाया था , उनमें से दो व्यक्ति आज भी  इस  मिलन-उत्सव में पधार कर प्रत्यक्ष देवता रूप में आशीर्वाद दे रहे हैं। श्री बेचाराम चक्रवर्ती और श्री पंचानन भट्टाचार्य महाशय दोनों हमलोगों को गणित पढ़ाते थे। मैंने उनसे इस गणित के विषय में अनकहा सबक ये सीखा है कि गणित का अन्तिम छोर 'एक' और 'शून्य' होता है ! [ "এবিষয়ে অকথিত এই শিক্ষা পেয়েছি যে, গণিতের প্রান্তদ্বের এক আর শূন্য।   अर्थात गणित का ध्येय (end) 'एक' और 'शून्य' के महत्व को समझना है।] 'एक' को उचित स्थान में रखने से- 'शून्य' संख्या में वृद्धि करेगा, वैसा नहीं करें तो सब शून्य हो जायेगा।  शंकराचार्य ने कहा है - 'एक' को जो 'शून्य' कहता है, वही मूर्ख है और उनके श्री चरणोंकमलों में हमलोग श्रद्धा पूर्वक प्रणाम निवेदित करके हमलोग धन्य हो गए हैं।  

इसी प्रसंग में और दो व्यक्तियों की याद आ रही है, जो इसी विद्यालय के आचार्यदेव के छात्र थे,और आगे चलकर स्कॉटिश चर्च कालेज में मैंने जिनसे पढ़ा है। विपिन कृष्ण घोष M.A. में और B.T. में फर्स्ट-क्लास -फर्स्ट अंग्रेजी में थे आश्चर्य की बात स्कॉटिश चर्च कॉलेज में बंगला पढ़ाते थे। वे लोग बंगला में मेरिट लिस्ट में थे। इसी विद्यालय के और आचार्यदेव के छात्र डॉक्टर बुधेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय। विपिनदा  के पास कई बार गया हूँ, बहुत कहने का समय नहीं है। थोड़े में कहता हूँ, उनको देखकर मन में वेद -पुराणों में कहे दधीचि ऋषि की याद हो आती थी। 

दूसरे व्यक्ति थे डॉक्टर देवेन्द्रनाथ मित्र। गणित में ईशान स्कॉलर , केवल हमारे विद्यालय के नहीं , अन्दुल मौड़ी के गौरव थे। विदेशों के यूनिवर्सिटी में पढ़ाने जाते थे। तो दूसरी ओर गंभीर आध्यत्म के खोजी, निरहंकार साधु स्वभाव के व्यक्ति थे। सब बातें नहीं कहूंगाइस विद्यालय के इन दो छात्रों के छात्र होने का गौरव अपने सीने में लिए हुए हूँ। 

    सतीश मास्टर महाशय को भारत के राष्ट्रीय आदर्श "त्याग और सेवा " में सिद्धि प्राप्त थी। आचार्य देव की कितनी सेवा उन्होंने की थी। और इसी स्कूल के एक साधारण कार्यकर्ता, एक ऐसे  व्यक्ति थे जो उदार ह्रदय माली थे वे हमलोगों को भी माता जैसे स्नेह से भोजन करवाते थे। इस अवसर पर उनके नाम (?) से पुरष्कार की घोषणा होने से एक इतिहास बना है। उनको हमलोग गुरुजन के रूप में देखते थे। वास्तव में वे मनुष्य जैसे यथार्थ 'मनुष्य' थे ! [क्योंकि  कोई मनुष्य , श्रीराम के साथ अपने अद्वैत को केवल माया की कृपा से ही  समझ सकता है। माया तुम्हारी राम, जीव भी तुम्हारा,  ]  

         हमलोग तो इस स्कूल के केवल कुछ ही 'वर्षों तक सीमित छात्रों में से एक' हैं। किन्तु हमारे विद्यालय की यह जो अश्रान्त छात्र प्रवाह- है, उसके ऊपर एक ही व्यक्ति के विशेष जीवन का 52 वर्षों तक एक अमिट प्रभाव पड़ा था। उस व्यक्ति का व्यक्तित्व इस विद्यालय के अस्तित्व में व्याप्त हो गया था और उन्हें महापुरुष बना दिया था। उस व्यक्ति के व्यक्तित्व ने - ने इस 'अन्दुल HCE स्कूल ' को सचमुच  एक-"पीढ़ीगत ज्ञानपीठ परम्परा"- (Heritage Jnanpith अर्थात गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा) में परिणत कर दिया था।  'The personality of that Individual'   "तार सत्ता विद्यालयेर सत्ताय संचारित होय ताके महान करे तुलेछिलो !" [#তার সত্তা বিদ্যালয়ের সত্তায় সঞ্চারিত হয়ে তাকে মহান করে তুলেছিল, His being permeated the being of the school and made him great.]  वह जीवन था हमारे स्कूल के प्रधान शिक्षक आचार्य शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय (1873-1966) का जीवन;  जो 'बंगला रामायण' के रचयिता तथा नैषधीय चरित महाकाव्य में चतुष्पदी शिक्षा का उल्लेख करने वाले '  खड़दह के श्रीहर्ष के वंशज कामदेव पण्डित के 16 वीं पीढ़ी में जन्मे थे। ये कामदेव ही थे जिन्होंने नित्यानन्द प्रभु को खड़दह में लाकर बसाया था। जिसके कारण खड़दह को एक 'श्रीपीठ' के रूप में जाना जाता है। वे एक वैसे ही महापुरुष थे-जिसके बारे में कहावत है - 

  'वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि। 

लोकोत्तराणां चेतांसि को नु विज्ञातुमर्हति ।।' 

  अर्थात - "उन महापुरुषों के मन की थाह भला कौन पा सकता है । जो अपने दुखों में 'वज्र' से भी कठोर और दूसरों के दुखों के लिए फूल से भी अधिक कोमल हो जाते हैं ।"-और इसी विशिष्टता के कारण ही वे समाज में प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध होते हैं।

ठीक उसी प्रकार आचार्यदेव ने भी अपने शिरीष नाम को सार्थक कर दिखाया था। महाकवि कालिदास ने संस्कृत के कालजयी अमर ग्रंथ 'कुमार सम्भव' में कहा है -

" मनीषिताः सन्ति गृहेषु देवतास्तपः क्व वत्से क्व च तावकं वपुः।

पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं शिरीषपुष्पं न पुनः पतत्रिणः॥"

[भावार्थ - मेना पार्वती को समझाते हए कहती है घर में (हिमालयपर) ही अभीष्ट मनोरथों को पूर्ण करने वाले अनेक देवी- देवता विद्यमान हैं जिनकी आराधना करके मनोवाञ्छित फल प्राप्त कर सकती हो। कहाँ तुम राजमहल की सुखसुविधा में पली- बढ़ी और सुकोमल शरीर वाली हो और कहाँ तपस्या की कठोर दिनचर्या है। क्योंकि शिरीष का कोमल पुष्प भ्रमर के भार को तो सह सकता है किन्तु किसी पक्षी के भार को तो कदापि नहीं। जिस प्रकार पक्षी के भार से पुष्प टूट जाता है, उसी प्रकार तुम्हारा कोमल शरीर भी तपजन्य कष्ट को सहन नहीं कर सकेगा। अतः तप का विचार त्याग कर घर में ही रहते हए ही मनोवाञ्छित फल की प्राप्ति हेतु इष्ट देवता की आराधना करो। (पंचम सर्ग-श्लोक-4,) साभार/https://archive.org/stream/Kumarsambhav/Kumarsambhav_djvu.txt)]

किसी किसी पुराने छात्रों के मुख से सुना हूँ कि मैंने देश-विदेश के अनेकों विद्वानों को देखा है किन्तु हमलोगों के आचार्यदेव जैसा अन्य को नहीं देखा। स्कूल में सूट पहनते थे और कुर्सी -टेबल लगाकर बैठते थे। किन्तु स्कूल के समय के अलावा जब वे उस कुर्सी पर बैठते, तब दूर से देखने पर ऐसा लगता था मानों कोई साधक बैठे हुए हैं। उन्होंने परा और अपरा दोनों विद्याओं की साधना की थी इसलिए उनके जीवन का ऐसा प्रभाव पड़ा था। [तीनि दुई विद्यार ई साधना कोरे छिलेन - अपरा एवं परा ! -তিনি দুই বিদ্যার ই সাধনা করেছিলেন , অপরা এবং পরা।-अर्थात उन्होंने श्रीहर्ष के महाकाव्य 'नैषधीयचरित' के नलोपाख्यान में वर्णित 'अधीति, बोध, आचरण और प्रचार' की गुरु-शिष्य चतुष्पदी परम्परा में अपना जीवन गठन किया था ; इसलिए उनके जीवन का ऐसा प्रभाव पड़ा था।]

इंग्लैण्ड के सबसे बड़े और सबसे प्रतिष्ठित माध्यमिक विद्यालयों में से एक Eton-कॉलेज के (लंदन - ईटन कॉलेज, जो ब्रिटेन का संभवतः सबसे पॉश, सर्वाधिक कुलीन बोर्डिंग स्कूल है)- और इसके प्रधान शिक्षकों का जो आदर्श वाक्य है -"I am taught best by teaching" अर्थात दूसरों को पढ़ा कर मैं खुद सबसे अच्छा सीखता हूँ ! अर्थात दूसरों को पढ़ाना स्वयं सीखने का सबसे अच्छा तरीका है। किसी गूढ़ अवधारणा को समझने का सबसे अच्छा तरीका है उसे किसी दूसरे को समझाना।

[रोमन दार्शनिक सेनेका ने कहा था, "जब हम पढ़ाते हैं, तो हम सीखते हैं।" वैज्ञानिकों ने इस पद्धति को "प्रोटेग प्रभाव" (protégé effect) का नाम दिया है; इसमें पाया गया है कि जो 'छात्र' शिक्षक की भूमिका में पढ़ाने का भी काम करते हैं उन्हें परीक्षा में उन छात्रों की तुलना में अधिक अंक प्राप्त होते हैं जो केवल अपने लिए सीख रहे हैं। कोई concept- जैसे कोई गूढ़ महावाक्य या ठाकुर,माँ, स्वामीजी के उपदेश जैसे 'Be and Make', को समझाने का सबसे अच्छा तरीका है, उसे किसी दूसरे को समझाना- उदाहरण

1."मनुष्य दो प्रकार के होते हैं - एक नाम मात्र के मनुष्य और दूसरे मानहूँष (जागृत मनुष्य !) जो लोग केवल ईश्वर प्राप्ति के लिये व्याकुल हैं वे जागृत हैं -'मानहूँश' हैं ! और जो केवल कामिनी -कांचन के पीछे पागल हैं, वे सभी साधारण मनुष्य हैं - केवल नाम के मनुष्य।"

" Men are of two classes - men in name only (Manush) and the awakened men (Man-hunsh). Those who thirst after God alone belong to the latter class; those who are mad after 'woman and gold ' are all ordinary men - men in name only " ---Sri Ramakrishna .

1.2. "मेरे बच्चे, अगर तुम शांति चाहते हो, तो दूसरों के दोषों पर ध्यान मत दो। अपनी ही गलतियों पर ध्यान दो। दुनिया को अपना बनाना सीखो। कोई भी पराया नहीं है, मेरे बेटे पूरी दुनिया तुम्हारी अपनी है।"

"My child, if you want peace, then do not look into anybody's faults . Look into your own faults. Learn to make the world your own. No one is a stranger, my child ; the whole world is your own ." ---Sri Sarda Devi.

1.3" धर्म/या शिक्षा का रहस्य सिद्धांतों में नहीं, बल्कि व्यवहार में निहित हैअच्छा बनना और अच्छा करना - यही धर्म/अर्थात शिक्षा का सार है!

" The Secret of Religion/ Education lies not in theories but in practice. To be good and do good - that is the whole of religion/ie- education ! ---Swami Vivekananda ."]

.......उपरोक्त गूढ़ उपदेशों को स्वयं समझने का सबसे अच्छा तरीका है उसे किसी और को समझाना ।

प्रधान शिक्षक के रूप में आचार्यदेव का भी वही आदर्श वाक्य था -'कुर्वतो नास्ति कर्तृता।' सब कुछ करके भी " मैं ने किया" -'I did' -'আমি করেছি' ऐसा विचार भी मन में नहीं उठना चाहिए। स्मृति वचन' भी ऐसा है-

विवेकी सर्वदा मुक्तः कुर्वतो नास्ति कर्तृता ।

अलेपवादमाश्रित्य श्रीकृष्णजनको यथा ।।

अर्थात् श्रीकृष्‍ण और जनक के समान कोई भी ब्रह्मज्ञानी पुरुष (ब्रह्मविद) सब कर्म करके भी अकर्ता, अलिप्‍त एवं सर्वदा मुक्‍त ही रहता है।" [गीता 14.20 में भी यही बात कही गयी है।]

उनके जीवन के अन्तिम समय में उनके द्वारा आजीवन की गयी साधना का फल देखने का सौभाग्य भी मुझे प्राप्त हुआ है। उस समय वे साधक जैसे प्रतीत नहीं होते थे। उनको देखते ही "स्वतः मन बोलतः सिद्धपुरुषः -ब्रह्मज्ञ !" किन्तु इस प्रसंग को अभी नहीं उठाऊंगा। नवमी -दशमी की कक्षा में हमलोगों को वे अंग्रेजी में - शेली, टेनिसन, कीट्स, ब्राउनिंग, वर्ड्सवर्थ का गद्य व्हाइट नाइट आदि जो प्रोज -पोएट्री पढ़ाते थे। प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ते समय शेक्सपियर के प्रसिद्द नाटक हैमलेट में उन्होंने बहुत ही सुन्दर यादगार अभिनय किया था। और उनके एक विदेशी (अंग्रेज) प्रोफेसर ने उनके अभिनय से प्रभावित होकर कहा था -'वाह,तुमने तो आज प्रसिद्द अंग्रेज अभिनेता 'Beerbohm tree'(1852 – 1917) के जैसा अभिनय किया था।आचार्यदेव ने उस समय के विदेशों में अत्यन्त प्रसिद्द लेखक (Motivational writer) विलियम वॉकर एटकिंसन [William Walker Atkinson (1862–1932)] द्वारा लिखित ~ 'The Secret of Success' का अध्यन भी किया था, और जिस प्रकार हमलोगों को पढ़ाया था वह आजतक जीवन में बहुत काम आता है। महर्षि पतंजलि ने पाणिनि के अष्टाध्यायी पर जो व्याकरण महाभाष्य लिखा था, उसमें कहा गया है कि - "चतुर्भिश्च प्रकारैर्विद्योपयुक्ता भवति--आगमकालेन स्वाध्यायकालेन प्रवचनकालेन व्यवहारकालेनेति" ।। महाभाष्य १.१.१ पस्पशाह्निक।। विद्या चार प्रकार से उपयोगी सिद्ध होती -अर्जन में, अभ्यास करने , शिक्षण करने , और व्यव्हार में। जो विद्या अपने व्यवहार में नहीं उतरती वह व्यर्थ है। तथा जो अपने छात्रों को ऐसी शिक्षा दे पाते हैं उन्हीं को आचार्य (C-IN-C नवनी दा) कहते हैं। इसीलिए वायु पुराण में आचार्य को परिभाषित करते हुए कहा गया है-

आचिनोति च शास्त्रार्थं आचारे स्थापयते अधि !

स्वयं ह्यपि आचरेत् य: तु आचार्य: इति स्मृत: !

जो स्वयं सभी शास्त्रों का मर्म जानते हैं, और अपने आचरण के द्वारा उसको व्यक्त करते हों, दूसरों के द्वारा ऐसा आचार स्थापित हो इसलिए अहर्निश प्रयत्न करते हैं; और ऐसा आचार स्वयं अपने आचरण में लाता है, उन्हें आचार्य कहते है ।

आचार्यदेव के शिक्षकत्व का जब 50 वर्ष पूरे हो गए ,तब स्वर्ण जयंती (गोल्डन जुबली) के आयोजन पर स्कूल प्रांगण में उनकी संगमरमर की प्रतिमा लगाई गयी थी। इस प्रतिमा के मूर्तिकार उनके ही छात्र श्री कालोशशि बन्दोपाध्याय हैं। संगमरमर पत्थल के उसी टुकड़े से उन्होंने एक नन्दी (बैल/বৃষ/bull) की मूर्ति बना दी थी , जो आचार्यदेव की मातृदेवी द्वारा स्थापित मंदिर में शिव के वाहन के रूप में विद्यमान है।

आचार्यदेव के साथ उनके छात्रवृन्द के सम्बन्ध की बात सोचते समय कठोपनिषद्- 2.3.1 में कथित-'ऊर्ध्वमूलोऽवाक्साख एशोऽश्वत्थः सनातनः।" का स्मरण हो आता है। [जड़ ऊपर, अर्थात् 'विष्णु का वह सर्वोच्च स्थान ' ही इसका मूल है, यह संसार वृक्ष , जो अव्यक्त से लेकर अचल तक फैला हुआ है, इसकी जड़ ऊपर, अर्थात् ब्रह्म में है ।] यहाँ वह वृक्ष जिसका जड़ ऊपर और शाखायें नीचे हैं, भले अश्वस्थ का न होकर शिरीष का है['ब्रह्म' वृक्ष रूपी शिरीष का फूल बहुत चमत्कारी होता है! टेसू या पलाश का फूल, हिंदू धर्म में पलाश को भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश का निवास स्थान माना जाता है। पलाश जितना देखने मेंआकर्षित करता है, उससे अधिक इसके आयुर्वेदिक फायदे हैं।] पुराणों की भाषा में कहा जा सकता है कि -

"आजीव्यः सर्वछात्राणां ब्रह्मवृक्षः सनातनः। "

उसी विराट सनातन ब्रह्मवृक्ष का आश्रय लेकर इसका छात्र संगठन (The student body) जीवित है। हमसब उसी शिरीष वृक्ष पर 50 वर्ष पहले खिले शिरीष कुसुम एक एक गुच्छा हैं।

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এক গুচ্ছ শিরীষ কুসুম 

শ্রী নবনীহরন মুখোপাধ্যায়  

          ভাবতে কেমন লাগে , পঞ্চাশ বছর আগে আমরা দশম শ্রেণীর পাঠ শেষ করে বিদ্যালয় ছাড়লাম।  আজ তাদের মধ্যে যারা রয়েছি সেই বিদ্যালয় মিলিত হচ্ছি ---এক  অপূর্ব মিলনোৎসবে।  অভাবনীয় ! তবু যারা ভেবেছে তাদের কি বলে কৃতজ্ঞতা জানাবো জানিনা। কিন্তু সংসারে সুখ দুঃখ নিত্য সহচর। তাই বাধা বাজে , আমরা সবাই তো নেই।  একে একে কত জন চলে গেছে। আর এই মিলনবেলার আয়োজকদের প্রধান সঙ্কট এই সে দিন যেভাবে আকস্মাৎ আমাদের ছেড়ে চলে গেল , সে দুঃখ কথার বলে বোঝান সম্ভব নয় " বোঝে প্রাণ বোঝে যার। " 

যে দিন প্রথম এই মিলনোৎসবের কথা অসিতের চিঠিতে জানলাম আর তারপর দু-তিনবার কজনের সঙ্গে দেখা হল , তখন থেকে নয় সেটা যেন সুকুমার রায়ের অংকের মত হঠাৎ পঞ্চাশের বেশি কমে গেল। মনে হল ষাট বছর আগের কথা যখন প্রথম এই বিদ্যালয় দেখি। একটি শিক্ষকদের অনুষ্ঠানে আচার্যদেব এনেছিলেন। মনে আছে তখন কার পন্ডিত মশাই ক্ষেত্রমোহন চট্টোপাধ্যায় প্রমুখ শিক্ষক মশাইদের সংস্কৃতে তপোবন বর্ণন  (" আত্মলোকে পুত ধুমকেতু:.... ") শুনেয়েছিলাম। তিনি হাত ধরে কোলে নিয়ে বলেছিলেন " তোমার বাকসিদ্ধি " হবে। " তখন মানে বুঝিনি। বড় হয় মনে পড়লে এখনও ভয় হয়।  

        তারপর স্কুলে ভর্তি হওয়া ১৯৪৩ এ সপ্তম শ্রেণীতে। এ স্কুল যখন হয় তখন কলিকাতা বিশ্ববিদ্যালয়ের জন্ম হয়নি। প্রথম প্রধান শিক্ষক ছিলেন স্যার আশুতোষের জ্যেষ্ঠতাত। আচার্যদেব এ স্কুলের প্রধান শিকক্ষক পদে ব্রতীহন ১৯০১ সালে। ১৯০২ সালে স্বামী বিবেকানন্দের তিরোধান হল স্কুলে স্মৃতি সভায় স্বামিজীরব ব্যাক্তিত্ব ও বাগ্মিতা বিষয়ে আচার্যদেব যা বলেন তা শৈলেন্দ্রনাথ ধরে কৃত " A comprehensive Biography of Swami Vivekananda " তে লিপিবদ্ধ আছে।    

     আচার্যদেব তাঁর অভিজ্ঞতা বলেন , যে হেতু তিনি ১৮৯৭ খ্রিস্টাব্দে দক্ষিনেশ্বরে শ্রীরামকৃষ্ণের জন্মতিথি উপলক্ষ্যে স্বামীজীর বক্তিতা মহাকবি গিরিশ চন্দ্র ঘোষের সঙ্গে গিয়ে শুনেছিলেন। ১৯০৫ সালে বঙ্গভঙ্গ আন্দোলন সংগ্রামের ইন্ধন যোগায়। আচার্যদেব নির্দেশে ছাত্ররা বিদেশী পণ্যের বহনং সবে  যোগ দেয় স্কুলের নাম দিয়ে সে খবর ইংল্যান্ডের পত্রিকার প্রকাশিত হয় ও ফলে প্রধান শিককের নাম গ্রেপ্তারি পরোয়ানা জারি হয়। কিন্তু এক বাঘা ইংরেজ অফিসার গ্রেপ্তার করতে এসে স্কুলের অসাধারন শৃঙ্খলা দেখে ও প্রধান শিক্ষকের ব্যক্তিত্ব স্তম্ভিত হয়ে পরোয়ানা প্রত্যাহার করেন।

      সেই স্কুলে সপ্তম শ্রেণী তে পড়ছি। সুবোধ চট খন্ডি মহাশয় ভূগোল পড়াবেন। ব্ল্যাক বোর্ডে মেপ টাঙিয়ে চেয়ারে বসে বেশ গোলগাল মানুষটি বেত দিয়ে মেপ পয়েন্ট করে দেখিয়ে বুঝিয়ে পড়াতো। ব্ল্যাকবোর্ডে আমাদের পন্ডিত মশাই (ক্ষেত্রমোহন পন্ডিত মহাশয়ের পুত্র স্বনামধন্য ভারত বিখ্যাত। .....???পড়াতেন সপ্ত তীর্থ ) চানক্য শ্লোক মুখস্থ করতে দিয়ে ছিলেন , হয় ওঠেনি। না বলতে পবায় পেছনে বিশ্যুট ভূতনাথ উপর দাঁড় করিয়ে দিয়েছিলেন সারা পিনিয়টা। ফল বড় ভাল হয়েছিল সেই থেকে তিনি। ... বেঞ্চির যত শ্লোক বলেছেন সব এখন ও মুখস্থ আছে। সংস্কৃত ছন্দে আকর্ষণ আসে ও একটা ছোট। ....তিনি ক্লাশে বই ও ছন্দে হাত দিয়ে বেরিয়ে। তিনি ছিলেন শ্রদ্ধার মূর্তি।  তার কথা লিখতে হলে আমার ছোট সংস্কৃত স্মারকে ধরবে না। তিনি পরে কোলকাতা বিশ্ববিদ্যালয়ের অধ্যাপক হয় ছিলেন।  

কিন্তু সে বিকালে আমাদের আচার্যদের আদেশ না করা পর্যন্ত স্কুল ছাড়েননি। পরে 'মীমাংসা দর্শন ' গ্রন্থে শুক অষ্টকম এর পর্যন্ত সে বিষয়ে শ্লোক যে ভাবে উদ্ধার করেন, সে বিষয়ে তাঁর আচার্য মহামুখোপাধ্যায় যোগেন্দ্রনাথ তর্কতীর্থ মহাপুরুষ এর একটি প্রশ্ন করলে তিনি সবিনয় নিবেদন করেন, বিদ্যালয়ে আচার্যদেবের মুখে তিনি শুনেছেন তীর্থ মহোদয় তাই লিখেছেন , গ্রন্থে দৃষ্টে নয় , কারন বিদ্যা গুরুমুখী। 

সকলের কথা মনে হয়। তবে সব লেখার জায়গা কোথায় ? অমলেন্দু রায় মশাই আংরেজীর ব্যাকরণ পড়ালেন , যদি ভুলে গিয়ে না থাকি , টেষ্টে পরীক্ষায় ইংরেজিতে ৮৩ % মশাই এমন নম্বর পেয়ে ছিলাম। পরে ইংরেজিতে বই লিখতে ভয় হয়নি। অনেক বিশ্ববিদ্যালয়ে ইংরেজিতে ভাষণ দিতে পারা গেছে। কুরুক্ষেত্র বিশ্ববিদ্যালয়ে ভাষণের পর রাজ্যপালের স্ত্রী প্রশ্ন করেছিলেন -আমি কোন বিশ্বদ্যালয়ে ইংরেজি পড়েছি ? গর্বের সঙ্গে বলছি , ইংরেজি স্কটিশ চর্চ বিশ্ববিদ্যালয়ে শিখিনি , শিখেছি হাওড়া জেলার একটা গ্রামের স্কুলে।     

গুরুদাস মেমোরিয়াল দোতালায় গাইলারিতে বিজ্ঞানের ক্লাস হতো , যেমন কলেজে হয় পরীক্ষা নিরীক্ষা করে দেখানো হতো। সে সময় কোন স্কুলে এমন ছিল কিনা জানিনা। ফনীন্দ্রনাথ পাল মশাই পড়াচ্ছেন। জিজ্ঞাসা করলেন , সাবান কি করে তৈরি হয় কেউ বলতে পারো ? কেউ পারেনা।  একজন (কে ? মনে নেই ) উঠে বললেন , জানি স্যার। একটা বড় উনুনে একটা কড়ায় ঘিয়ের মতো একটা কি দিয়ে তার পর কি কি যেন মিশিয়ে খুব নাড়তে হয়। তারপরে নামলেই এক কড়া সাবান। আর সকলেই কি হাসি। 

সহকারী প্রধান শিক্ষক ছিলেন তারেশ চন্দ্র কর। উচ্চ শ্রেণী তে ইতিহাস পড়াতেন রাশভারী গম্ভীর প্রকৃতির মানুষ। সব সময় কোঁচা ঝুলিয়ে ধুতি , পাঞ্জাবি গলায় প্রেন্ট বোতাম এটা ও কাঁধে চাদর। চোখে চশমা ও গোঁফ ছিল। কাছে ঘেঁষতে ভয় করতো। তখন ক্লাস না সর্বদাই মোট মোট বই পড়তেন , অনেক সময় হাতে নিয়ে পায়চারি করতে করতে ক্লাসে আসতেন। কয়েকটা মোট মোট বই নিয়ে। ছেলেদের ভালো করে শেখাতে হবে বলে কি পরিশ্রম। এসব আজ দেখা যায় না। একদিন মনে আছে পড়াতে পড়াতে Historian's History of the world ' এর বই একটা খন্ড লাইব্রেরি থেকে ক্লাসে আনলেন। কিছু বেশি তথ্য দেবার জন্যে। দূর থেকে কেউ হাসতে দেখেনি। কিন্তু কাছে গেলে গোঁফের ফাঁকে সুন্দর হাসি ফুটে উঠতো। অল্প যা কথা বলতেন তাতে বোঝা যেত ছাত্রদের কত স্নেহ করতেন।  

বাংলা পড়াতেন আর স্কুলটা চালাতে যা যা দরকার সবটা স্বেচ্ছায় এগিয়ে গিয়ে করতেন সতীশ চন্দ্র দাস মহাশয়। তাঁকে দেখে কিশোর মনে যা উঠতো তা আজ বলছি -েকে বলে মহাপুরুষ বলা যায় স্থিত প্রাজ্ঞ। অনেক দিন আগে , তখনও কবিতা রোগে ভুগছি , একটা কবিতায় তাঁর কথা বলা হচ্ছিলো। তাঁর ছিল জেক বলে silver voice তিনি পোড়ালে সময় জ্ঞান থাকতো না। তিনচার বৎসরে দুটি শ্লোক বলে ছিলেন। তার একটি এখনও বার বার ব্যবহার করি। 

मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ।

मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम् ॥

[मन -वचन -कर्म से जो एक हो वो है महात्मा। 

     मन -वचन -कर्म यदि भिन्न भिन्न ,तो है दुरात्मा।।] 

আমাদের পরম সৌভাগ্য যে আমরা যে সব পবিত্র , উদারচরিত মহাপ্রাণ ছাত্রবৎসল শিক্ষকদের পাদমূলে বসে শিক্ষালাভ সুযোগ পেয়েছি। তাদের মধ্যে দুজন এই মিলনোৎসবে এসে আমাদের আজও প্রত্যক্ষ দেবতা হয় আশীর্বাদ করছেন। শ্রীযুক্ত বেচারাম চক্রবর্তী ও শ্রীযুক্ত পঞ্চানন ভট্টাচার্য মহোদয়গণ উভয়েই আমাদের অঙ্কশাস্ত্যের শিক্ষা দিতেন।  যে বিষয়ে অকথিত এই শিক্ষা পেয়েছি যে গণিতের প্রান্ত দ্বেড় আর শূন্য। এক কে ঠিক রাখলে শূন্য সংখ্যা বৃদ্ধি করে , না হলে সবই শূন্য মাত্র। শঙ্করাচার্যঃ বলেছেন , এক কে যে  শূন্য বলে সেই মূর্খ। আজ তাঁদের শ্রীচরণ কমলে আম্নাদের সশ্রদ্ধ প্রণাম নিবেদন করে আমরা धन्य হয়ই।  

এ প্রসঙ্গে আর দুজনের কথা মনে হচ্ছে , যাঁরা এই বিদ্যালয়ের ও আচার্যদেবের ছাত্র ছিলেন ও ঘটনাক্রমে স্কটিশ চার্চ কলেজে তাঁদের কাছে পড়েছি। বিপিন কৃষ্ণ ঘোষ MA তে ও BT তে ফার্স্ট ক্লাস ফার্স্ট , ইংরেজিতে ও MA তে কৃতি পেছন ছিলেন এই বিদ্যালয়ের ওবং আচার্য দেবের ছাত্র বিখ্যাত ডাক্তার বুধেন্দ্রনাথ মুখোপাধ্যায়। বিপীনদার কাছে অনেক গেছি , অনেক বলার সুযোগ নেই। এটুকু বলি , তাঁকে দেখে মনে বেদ পূরণের দধীচি নিছক কপোলকল্পনা নয়। এমন চরিত্র মানুষের ও হয়। 

দ্বিতীয় জন ডাক্তার দেবেন্দ্রনাথ মিত্র। অংকে ঈশান স্কলার , শুধু আমাদের বিদ্যালয়ের নয় , আন্দুল মুড়ি তে গৌরব। বিদেশের বিশ্ববিদ্যালয়ে পড়াতে গিয়েছেন। এদিকে গভীর অধ্যাত্ম অন্বেষী , নিরহংকার সাধু প্রকৃতি মানুষ। সব কথা বলবো না। এ বিদ্যালয়ের এই দুই ছাত্রের কাছে ছাত্র হতে পারার গৌরব বুকে নিয়ে আছি। সতীশ মাস্টার মশায়ের সিদ্ধি ছিল ত্যাগ ও সেবার। আচার্য দেবের কি সেবাই করেছিলেন। আর এক জন করে ছিল ওদের মালী  স্কুলের সাধারণ কাজের কর্মী।  আমাদের ও সে মায়ের স্নেহ দিয়ে খাবাতেন। তার নাম এই উপলক্ষে পারিতোষিক দিয়ে একটা ইতিহাস সৃষ্টি হলো। তাকে আমরা গুরুজন বলে দেখতাম। কি মানুষ ই ছিল 

আমরা তো একটি বছরের। কিন্তু আমাদের বিদ্যালয়ের এই জয় অবিশ্রান্ত ছাত্র ধারা তাদের উপর একটি জীবনের প্রভাব পড়ে ছিল ৫২ বছর ধরে। সে শক্তি এ বিদ্যাপীঠ কে বিশেষ রূপ দিয়ে ছিল। তাঁর সত্তা বিদ্যালয়ের সত্তায় সঞ্চারিত হয়ে তাকে মহান করে তুলে ছিল। সে জীবন আমাদের প্রধান শিক্ষক আচার্য শিরিশচন্দ্র মুখোপাধ্যায় (কামদেবি)যিনি খড়দহ শ্রীহর্ষ বংশীয় কামদেব পন্ডিত সদাশ অধস্তন পুরুষ , যে কামদেব খড় দহে  নিত্যানন্দ প্রভু কে আনয়ন করেছিলেন যাতে খড় দহ শ্রী পীঠ বলে চিহ্নিত হয়। তিনি ছিলেন -  'वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि।বাইরে কঠোর , কিন্তু ভিতরে কুসুমের থেকেও কোমল। শিরিষ নাম সার্থক। কালিদাস 'কুমার সম্ভবে ' বলছেন - শিরিষ কুসুম ভ্রমরের পদভারে সইলে ও পাখিদের পদভারে সইতে অসমর্থ। কোন কোন পুরানো ছাত্রের মুখে শুনেছি , দেশ -বিদেশের অনেক বিদ্বান দেখেছি , কিন্তু আমাদের মাষ্টার মহাশয়ের মত দেখলাম না। স্কুলে স্যুট পরতেন , টেবিল চেয়ার বসতেন। কিন্তু স্কুলের সময় ছাড়া যখন এই চেয়ারেই বসে থাকতেন , দূর থেকে দেখে মনে হতো কোন সাধক বসে আছেন। তিনি দুই বিদ্যার ই সাধনা করেছিলেন , অপরা এবং পরা।  তাই সে জীবনের প্রভাব ওভাবে পড়েছিল।   

প্রধান শিক্ষক হিসাবে ও তাঁর আদর্শ বাক্য ছিল - ETON -এর প্রধানদের শব্দগুচ্ছ " I am taught Best by teaching ' শেখাতে গিয়ে আমি সব থেকে ভাল করে শিখি।  'कुर्वतो नास्ति कर्तृता।'করেও 'আমি করেছি 'এ ভাব নেই। সারা জীবনের সাধনার ফল শেষ জীবনে দেখার সৌভাগ্য হয়েছে। তখন আর সাধক মনে হতো না।  स्वतः मन बोलतः सिद्धपुरुष! ब्रह्मज्ञ ! সে কোথায় আর যাবো না। নবম-দশম শ্রেণীতে ইংরেজি গদ্য -পদ্য পড়িয়েছেন   Shelley, Tennyson, Keats, Browning, Wordsworth गद्य White Knight পড়ান তো দত্তের মত নাট্যাভিনয় প্রেসিডেন্সি কলেজ Shakespeare এর নাটক অভিনয় করে বিদেশী অধ্যাপকদের প্রশংসা পেয়ে ছিলেন এক সময়। The Secret of Success:-Written by -William Walker Atkinson -1862–1932) পড়েছিলেন যা জীবনে বড় কাজে লেগেছে। পতঞ্জলি  মহাভাষ্যে বলেছেন বিদ্যা চার প্রকারে উপযুক্ত হয়। অর্জনে, চর্চায় , শিক্ষনে ও ব্যবহারে। যে বিদ্যা ব্যবহারে আসে না তা ব্যর্থ।

এরূপ শিক্ষা যিনি দিতে পারেন তাঁকেই আচার্য বলে। মনু তাই বলেন ' -उपाध्यात् दश आचार्य:' শিক্ষক থেকে আচার্য দশগুন বড়। বায়ু পূরণে আচার্যের বিষয়ে বলা হয়েছে -"आचिनोति च शास्त्रार्थं आचारे स्थापयते अधि !स्वयं ह्यपि आचरेत् य: तु आचार्य: इति स्मृत: !' যিনি শাস্ত্রের অর্থ যথাযথ লাভ করে নিজ আচরণে তা পরিলক্ষিত করেছেন এবং যিনি অনুগতদের তেমন আচরণে উদ্বুদ্ধ করেন প্রেরিত করেন তিনি আচার্য।  আচার্য দেবের প্রধান শিক্ষতার পঞ্চাশ বছর পূর্ন হলে সুবর্ন জয়ন্তী অনুষ্ঠানে বিদ্যালয়ের তাঁর মর্মর মূর্তি বসল। তারই ছাত্র কালোশশী বন্দোপাধ্যায়  মূর্তির শিল্পী। সেই পাথর থেকেই তিনি একটি বৃষ তৈরি করে দেন , যা খড়দহে আচার্য দেবের মাতৃদেবীর প্রতিষ্ঠিত শিবের বাহনরূপে আজ ও রয়েছে। আচার্যদেবের সঙ্গে তাঁর ছাত্র বৃন্দের সম্বন্ধের কথা ভাবতে গিয়ে উপনিষদের 'ऊर्ध्वमूलोऽवाक्साख एशोऽश्वत्थः सनातनः।"মনে পড়ে/ঊর্ধ্ব মূল নিম্নতার শাখা সমূহ - সে বৃক্ষ টি আশ্বস্থ না হয়ে শিরিষ। পূরণের ভাষায় বলতে পারা যায় কিছু বদল করে -   "आजीव्यः सर्वछात्राणां ब्रह्मवृक्षः सनातनः। " সেই বিরাট সনাতন ব্রাহ্ম বৃক্ষ টি আশ্রয় করে ছাত্র কুল বাস করছে। সে শিরিষ বৃক্ষের পঞ্চাশ বছর আমরা এক গুচ্ছ শিরিষ কুসুম। 

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शनिवार, 7 सितंबर 2024

🙋🏹😇🔱🕊"14 अगस्त 1947 "~ श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय 😇🔱🕊 बहु रूपों में खड़े तुम्हारे आगे , और कहाँ हैं ईश ?🏹 🙋

Introduction'https://www.youtube.com/@akhilbharatvivekanandayua-5663'

परिचय : 👆 यह चैनल अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ,  6/1 ए जस्टिस मन्मथ मुखर्जी रो, कोलकाता - 700009  का आधिकारिक यूट्यूब चैनल है। 

   यह चैनल स्वामी विवेकानन्द की चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा को विशेष रूप से युवाओं के बीच प्रचारित करने के प्रति समर्पित है। स्वामी विवेकानन्द के पास भविष्य के एक विकसित और श्रेष्ठ भारत का एक महान स्वप्न था तथा उस परिकल्पना को साकार रूप देने के लिए उन्होंने एक मास्टर प्लान भी तैयार किया था। उनके मास्टर प्लान का केन्द्रीय विचार था सभी देशवासियों के लिए सच्ची शिक्षा के द्वारा अच्छे नागरिक और प्रबुद्ध नेताओं (3'H's विकसित)-'enlightened Leaders' का निर्माण करनाजिसके पास तीक्ष्ण बुद्धि संपन्न मस्तिष्क (Head) और फौलादी मांस-पेशीयों वाले शरीर (Hand) के साथ अनन्त तक विस्तृत एक ऐसा ह्रदय (Heart) भी होगा जो करोड़ों देशवासियों के लिए रोता हो और उनके दुःख-तकलीफ को दूर करने की तीव्र व्याकुलता से भरा हुआ हो ! स्वामीजी का विश्वास युवा पीढ़ी, नई पीढ़ी में था। वे कहते थे -  मेरे कार्यकर्ता इनमें से आएंगे और वे सिंहों की भांति समस्त समस्याओं का हल निकाल लेंगे। तथा उस 'सिंहत्व ' को प्राप्त कर भयशून्य हो जाने- के लिए उन्होंने युवाओं को  'तत्वविज्ञान' (Metaphysics) की पर्याप्त शिक्षा भी दी थी। स्वामीजी का स्वप्न था कि उन्हें 1000 तेजस्वी युवा (प्रबुद्ध पैगंबर-नेता) मिल जाएं तो वह भारत को विश्व शिखर पर पहुंचा सकते हैं। [He rested all his hope in the younger generations – and gave all the ingredients needed to make lions out of them.] स्वामी विवेकानन्द की उसी भयशून्य मनुष्य बनने वाली जीवन-गठन और चरित्र-निर्माण कारी शिक्षा को साकार रूप देने के लिए महामण्डल  विगत 57 वर्षों से (1967 से) युवाओं के बीच साप्ताहिक-पाठचक्र, युवा -प्रशिक्षण शिविर तथा सेमिनार आदि विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से चुपचाप काम करता चला आ रहा है। इस समय भारत के विभिन्न राज्यों में इसके 300 से अधिक केन्द्र  क्रियाशील हैं। 'सारदा नारी संगठन' इसका सहयोगी संगठन ( sister organization) है जो उन्हीं सब कार्यक्रमों (साप्ताहिक-पाठचक्र तथा युवा -प्रशिक्षण शिविर, सेमिनार आदि) के माध्यम से महिलाओं के बीच काम करती है। 

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https://www.youtube.com/@akhilbharatvivekanandayuva5663/featured

The official YouTube Channel of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal, 6/1 A Justice Manmatha Mukherjee Row, Kolkata - 700009

This channel is dedicated to propagating the man-making and character-building ideas of Swami Vivekananda, especially among the youths  in India. Swami Vivekananda had a great vision of Future India and formulated a Master Plan to actualize it. The central idea in his Master Plan was true education for all, for making good citizens, and leaders, with developed brains and brawn – and a heart that bleeds for the teeming millions. He rested all his hope in the younger generations – and gave all the ingredients needed to make lions out of them. Following his advice,  Mahamandal has been working silently among young men to shape their lives and character through various programs since 1967. Now it has grown to nearly 300 units spread over several states of India. Its sister organization, Sarada Nari Sangathan, works among women with the same program.

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https://www.facebook.com/abvym

परिचय - महामण्डल युवाओं का एक अखिल भारतीय संगठन है।  यह संगठन भविष्य के भारत को महान, विकसित और श्रेष्ठ बनाने के उद्देश्य से स्वामी विवेकानन्द के मनुष्य-निर्माण और जीवन-गठन की 'शीक्षा' (अर्थात उपनिषदों में वर्णित सिंहत्व प्राप्त भयशून्य मनुष्य बन जाने की शिक्षा) का प्रचार-प्रसार विशेष रूप से युवाओं के बीच करने का काम करता है। इसका आदर्श वाक्य है: Be and Make.  (कम से कम 1000 तेजस्वी या निःस्वार्थी मनुष्य बनो और बनाओ।)

Introduction - Mahamandal is an all India organization of youth. To make the future India developed and great, this organization works to propagate the Life-building and Man-making education of Swami Vivekananda among the youth. Its motto is: Be and Make.

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 14 अगस्त 1947 :  " गंगार काछेई आमादेर बाड़ी। पश्चिम पाड़े सूर्य अस्त जाच्छे। मने मने बोललाम -'पराधीन भारतवर्षे शेष सूर्य तुमि अस्ते जाछौ। काल यखन तुमि पूर्व आकाशे उदित होबे, तखन भारतबर्ष स्वाधीन !"     

  ~ "हमारा (पूज्य नवनीदा का, पैतृक निवास, भुवन -भवन, खड़दह,) घर गंगा के निकट है। उस दिन पश्चिमी तट पर सूर्य अस्त हो रहा था । और मैं अपने-आप से बातें कर रहा था - 'हे सूर्य देव ! आज आप पराधीन भारत के अंतिम सूर्य के रूप में अस्त अवश्य होंगे; किन्तु कल जब आप पूर्वी आकाश में उगेंगे, तब -तक भारत माता स्वतंत्र हो चुकी होगी।"

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प्रश्न: स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा- Be and Make को वर्तमान शिक्षा प्रणाली में अभी तक लागु क्यों नहीं किया गया?

उत्तर : श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय .................स्वामी जी ने बहुत कुछ कहा, और बहुत कुछ लिखा भी है। किन्तु जिस एक सन्देश  'Be and Make' - अर्थात स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो' के ऊपर हमलोग विगत 57 वर्षों से दिलो-जान से काम कर रहे हैं, मुझे इसके विषय में महामण्डल गठित होने से पहले कहीं और सुनने का सौभाग्य नहीं मिला है।  स्वामी जी ने ऐसा बहुमूल्य उद्घोष किया, और केवल इस 'एक सन्देश' को क्रियान्वित करने का कितना महत्व है, उसके विषय में जो कुछ कहा है; वह हमने कम से कम महामण्डल के गठित होने से पहले तो नहीं सुना था। मुझे नहीं पता कि किसी और ने सुना है या नहीं।

 इस समय जो लोग देश चला रहे हैं, जो लोग देश की नई शिक्षा नीति बना रहे हैं, क्या उन लोगों ने कभी 'मनुष्य -निर्माण' करने की आवश्यकता पर कभी कुछ सोचा है, क्या इस छोटे से महा-वाक्य 'Be and Make' के बारे में उनके अपने कुछ विचार हैं? क्या उन्हें यह बात मालूम है कि 'मनुष्य' बनना पड़ता है, या निःस्वार्थपर मनुष्य हुआ जा सकता है? 'शिक्षा में सुधार' - के नाम पर वे क्या कर रहे हैं ? .....नये नये स्कूल, कॉलेज , यूनिवर्सिटी खोल रहे हैं और वहाँ नये -नये विषय के संकाय (faculty) शुरू करके सिलेबस बढ़ाते जा रहे हैं। क्या वे जानते हैं कि सच्ची 'शिक्षा' [उपनिषदों में वर्णित दीर्घ 'ई' वाली शीक्षा ?]  किसे कहते हैं? चाहे केन्द्र हो या राज्य शिक्षा का हाल हर जगह एक जैसा है। 

 तुम 'शिक्षा व्यवस्था' के विषय में स्वामी विवेकानन्द के क्या विचार थे यह जानना चाहते हो, किन्तु स्वामीजी के सम्बन्ध में कौन जानते हैं ? भारतवर्ष में कितने लोग जानते हैं कि स्वामीजी क्या थे?  देश चलाने वाले नेताओं, मंत्रियों, नौकरशाहों (bureaucrats) में से कितने लोग ऐसे हैं जो स्वामी विवेकानन्द के बारे में जानते हैं? 

     बुरा मत मानना ​​भाई; आजकल सुनने को मिलता है गांधी जी ने कहा था, 'स्वामी जी की रचनाएँ पढ़कर मेरा देश-प्रेम हजार गुना बढ़ गया।' उन्होंने इतना केवल कहा भर था। एक बार गाँधी जी स्वामी विवेकानन्द से मिलने बेलूड़ मठ में गए थे। किन्तु उस दिन स्वामी जी मठ में नहीं थे। चूँकि उन दिनों आज के जैसा मोबाइल फ़ोन या ईमेल की सुविधा नहीं थी, इसलिए गाँधीजी  अपने आने की पूर्वसूचना नहीं दे सके थे। लौटते समय उन्हें आगंतुक पुस्तिका (visitor's book) में कुछ लिखना था ; इसलिए उन्होंने वही एक पंक्ति लिख दी थी। किन्तु, क्या कोई यह बता सकता है कि उन्होंने स्वामी विवेकानन्द के किस विचार (impression) को भारत में प्रचार-प्रसार करने की चेष्टा की थी ? 

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नाम को उनके लोग बिल्कुल.....उन्होंने भारत की पुनः खोज की और 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' नामक एक पुस्तक लिखी। He rediscovered India and wrote a book called 'Discovery of India!'. देश के तथाकथित पढ़े-लिखे बड़े-बड़े नेता देश में तो पढ़ते ही थे ,विदेशों में भी 'बैरिस्टरी' पढ़े थे । लेकिन नए भारत के निर्माताओं की खोज करते समय नेहरू की दृष्टि स्वामी विवेकानन्द पर पड़ी ही नहीं। उस पुस्तक में स्वामी जी का नाम नहीं था। तुमलोग हंस तो रहे हो, लेकिन यही सच है। उस समय के एक संन्यासी ने रामकृष्ण मिशन के तत्कालीन अध्यक्ष (12 वें अध्यक्ष श्रीमत स्वामी भूतेशानन्द जी महाराज ?.....) को यह पुस्तक पढ़ने के लिए दी थी, फिर कुछ दिनों बाद उन्होंने महाराज से आकर पूछा - 'महाराज क्या आपने वह पुस्तक पूरी पढ़ ली है ?  महाराज ने कहा मैंने पढ़ लिया है।' संन्यासी प्रेसिडेन्ट महाराज की प्रतिक्रिया जानने के लिए उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करने लगे। महाराज का उत्तर बहुत संक्षिप्त था, उन्होंने ने कहा-‘‘Nehru is yet to discover India, भारतवर्ष के आविष्कार करते नेहरूर एखनो समय लागबे।’’-  भारत की खोज करने  में नेहरू को अभी और समय लगेगा।" उनके बाद स्वामी रंगनाथानन्द जी महाराज रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष बने। 

       बहुत से लोग यह जानते होंगे कि स्वामी विवेकानन्द के बाद, यह स्वामी रंगनाथनन्द ही थे जिन्होंने ने अपने भाषणों से पूरे विश्व के Intellectual World को एक बार फिर झकझोर कर रख दिया था ; और बाद में स्वामी रंगनाथनन्द दिल्ली रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष भी बने थे ।     जब वे दिल्ली रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष बने थे, तब कई अन्य लोगों की तरह, जवाहरलाल नेहरू भी स्वामी रंगनाथनन्द जी महाराज से मिलने आते थे। महाराज ने एक दिन उनसे कहा - ‘Jawaharlal, Swamiji's name is not even mentioned in your book? -'क्या जवाहरलाल, तुम्हारी पुस्तक -'भारत की खोज' में तो स्वामी विवेकानन्द का नाम तक नहीं है?' यह सुनकर नेहरू ने कहा - ओह ! मुझे सचमुच खेद है। ‘Sorry ! sorry ! It was a bad omission’~ महाराज क्षमा करें, कि मुझसे यह बहुत बड़ी चूक हो गयी ! मुझसे यह बहुत बड़ी भूल हो गयी है।" यह सब कहने के बाद 'Discovery of India!' के अगले संस्करण में स्वामीजी के बारे में कुछ शब्द लिखकर 2/4 पेज जोड़ दिये। (9.22 minute)

     यही तो है भारत में स्वामीजी को जानने वाले राजनेताओं की मानसिक अवस्था। 'आमार बयस होयछे भाई ' ~ मेरी उमर काफी हो चुकी है - भाई ! मैंने ब्रिटिश शासन देखा है। मैंने भारत को आज़ाद होते देखा है। मुझे आज भी वह दिन अच्छी तरह याद है। तुमलोगों से जब मैं यह बात कह रहा हूँ , तो मेरी आँखों में आँसू आ रहे हैं।  14 अगस्त 1947 :  हमारा घर (पूज्य नवनीदा का पैतृक निवास : 'भुवन -भवन' खड़दह) गंगा के निकट है। उस दिन पश्चिमी तट पर सूर्य अस्त हो रहा था । और मैं अपने-आप से बातें कर रहा था - 'हे सूर्य देव ! आज आप पराधीन भारत के अंतिम सूर्य के रूप में अस्त अवश्य होंगे; किन्तु कल जब आप पूर्वी आकाश में उगेंगे, तब -तक भारत माता स्वतंत्र हो चुकी होगी।' यह आनन्द ऐसा था जिसे शब्दों में बयाँ नहीं किया जा सकता- हृदय आनन्द से इतना लबरेज था कि -बाहर फट पड़ेगा ! सिर्फ मैं ही नहीं , सारे देश के युवा ऐसे ही आनन्द का अनुभव कर रहे थे। सारी गलियाँ, चौराहे, घर-मकान बत्तियों से जगमग कर रहे थे। पूरी रात चारों ओर उत्सव का माहौल था। उस समय टेलीविजन नहीं था, रात के 12 बजे मध्यरात्रि को जाहरलाल ने रेडियो पर अद्भुत भाषण दिया था और घोषणा कि थी -'India has become independent "~ भारत स्वतंत्र हो गया है।" लेकिन क्या हमलोग आज- तक (2006 तक) स्वाधीनता का आनन्द प्राप्त कर सके हैं? क्या सच-मुच हमें सही आज़ादी मिल चुकी है? तो, इस स्वाधीन भारत में स्वामी विवेकानन्द के किस विचार को अपनाया गया है ? हमारे अब तक के राजनेताओं को स्वामीजी का मूल्य पता ही नहीं था भाई। मुझे क्या कहना था और , किसी दीवाने की तरह मेरे मुख से क्या निकल गया -मुझे मालूम नहीं भाई।

     ...स्वामीजी 1897 में अमेरिका से जब लौट आये थे और कलकत्ता के 'बलराम मन्दिर' में रह रहे थे। उन दिनों के कोलकाता का रहन सहन अलग तरह का था। मन्दिर शब्द का का अर्थ वास्तव में घर ही होता है , उस शब्द का प्रयोग आवास के लिए होता था। तब उसी बलराम मन्दिर में यानि बलराम बाबू के घर में, कुछ 'युवा राजनीतिक नेता' स्वामी जी से मिलने आये थे। उन्होंने स्वामीजी से पूछा कि - 'देश में इतनी सारी समस्यायें #हैं, आप यह बतलाइये कि इन सबसे छुटकारा पाने का उपाय क्या है?  [#कॉन्ग्रेस पार्टी की स्थापना 1885 में हुई थी -उसका उद्देश्य स्वाधीनता प्राप्त करना नहीं था - अंग्रेजों से समस्या दूर करने का प्रार्थना करना भर था -उनलोगों ने देश की समस्यायों का बहुत बड़ा लिस्ट तैयार किया था।] एक अन्य स्थान पर उन्होंने कहा था - " स्वतंत्रता? मैं इसे 3 दिनों में दे सकता हूं। सभी देश-वासियों को एक बड़े मैदान में एकत्र करो और वहाँ भारत का राष्ट्रीय ध्वज फहरा कर घोषणा करो - आज से 30 करोड़ भारत वासी मात्र 1 लाख अंग्रेजों की गुलामी से अपने को स्वतंत्र घोषित करते हैं! और सभी बड़े-बड़े देशों को संदेश दे दो कि भारत आज से स्वतंत्र हो गया है।  तुम्हें पता है, इसके बाद क्या होगा? यही न कि अंग्रेज गोली चलाएंगे ? -लेकिन देखोगे कि विवेकानन्द का खून सबसे पहले जमीन पर गिरेगा। "

        सच्ची शिक्षा के महत्व को स्वामी जी को पहले के किसी राजनेता ने  तो नहीं ही  समझा, और शायद आज भी (एक-दो को छोड़ कर ? और) कोई नहीं समझ पाया है- भाई। भारत वर्ष के राजनीतिक नेताओं ने स्वामी विवेकानन्द को समझने की कभी चेष्टा नहीं की है। वोट लेने के लिए,स्वामीजी के शब्दों को अपने मुँह से केवल कह भर देते हैं। स्वामी विवेकानन्द के नाम पर जो लोग राजनीती करते हैं, वे नाम-यश पाने के लिए मठ -मिशन भी जाते हैं। मैंने बहुतेरे नेताओं को  वहाँ देखा है, मेरी उम्र भी काफी हो गयी है मैं उन्हें खूब पहचानता हूँ। -वैसे राजनितिक नेताओं को देखने से भी कष्ट होता है।  क्योंकि मैंने देशप्रेम किसे कहते हैं -यह अन्दुल HCE स्कूल में अपने आचार्यदेव से सीखा है। यदि देशभक्ति की वही असहनीय यंत्रणा मेरे ह्रदय को मथ नहीं रही होती, तो यह महामण्डल भी साकार रूप नहीं ले पाता। किन्तु आज महामण्डल गठित हुए 57 वर्ष बीत जाने के बाद भारत की नई पीढ़ी , युवा पीढ़ी भी पहले की तरह चुपचाप हाथ पर हाथ रखे बैठी रहेगी

      भाइयों ! "परमहंस श्रीरामकृष्ण - विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में इस छोटे से महावाक्य -'Be and Make' का अनुसरण करते हुए (1000) अच्छे नागरिकों और प्रबुद्ध नेताओं का जीवनगठन करने के करने के अतिरिक्त,  भारत के भविष्य को महान बनाने के लिए  दूसरा कोई और मार्ग नहीं है। कोई भी विचारधारा (doctrine), और कोई भी 'इज्म' कार्यकारी सिद्ध नहीं होगा।   किसी भी 'Economic policy' को लागू करने से (तथाकथित समाज-वाद, साम्यवाद को लागू करने से) देश की अवस्था में कोई परिवर्तन नहीं होगा। क्योंकि, योजना चाहे कोई भी हो, उसको लागू करने वाले तो मनुष्य ही होंगे! और वे मनुष्य ही यदि यथार्थ मनुष्य नहीं बनेंगे, अर्थात अंतर्निहित दिव्यता, एकात्मकता Oneness या 'सिंहत्व ' को जाग्रत कर भय-शून्य मनुष्य नहीं बनेंगे ; तो अन्य किसी उपाय से भारत की उन्नति सम्भव नहीं है। भारत के भविष्य को महान बनाने का दूसरा कोई और मार्ग नहीं है नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय!  

[Secret Of Success : शारीरिक कर्म बुद्धि में स्थित किसी ज्ञात अथवा अज्ञात इच्छा की केवल स्थूल अभिव्यक्ति है। कर्म ही मनुष्य को पशुत्व से मनुष्यत्व में , और मनुष्यत्व से देवत्व में उन्नत कर देता है , कर्म ही मनुष्य को ईश्वरत्व की प्राप्ति कराता है। और बुद्धि में साक्षी भाव से कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने की क्षमता आती है। यह क्षमता दैवी और श्रेष्ठ है क्योंकि इसके द्वारा ही हम अपने आप को सांसारिक बन्धनों से मुक्त कर सकते हैं। 

    रेल चलती है वाष्प नहीं। पंखा घूमता है विद्युत नहीं। इसी प्रकार ईंधन जलता है अग्नि नहीं। वैसे ही शरीर मन और बुद्धि कार्य करते है परन्तु चैतन्य आत्मा नहीं। इस प्रकार कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने वाले पुरुष को सब मनुष्यों में बुद्धिमान कहा जाता है। संक्षेप में निष्कर्ष यह है कि निस्वार्थ भाव तथा अर्पण की भावना से कर्माचरण करने पर चित्त शुद्ध होता है। 

    स्वामी विवेकानन्द ने बार -बार कहा कि कर्तव्य पालन से -चित्त की शुद्धि हो जाती है , और शुद्धान्तकरण वाले व्यक्ति में वह सार्मथ्य आ जाती है कि वह स्वयं के मन में तथा बाहर होने वाली क्रियाओं को साक्षी भाव से देख सकता है। जब वह यह जान लेता है कि उसके कर्म भी-माँ जगदम्बा के निर्देशानुसार विश्व के रँगमँच पर घटित हो रहे कर्मों के ही भाग हैं तब उसे एक अनिर्वचनीय समता का भाव प्राप्त हो जाता है।  इसी तथ्य को इंगित करते हुए श्वेताश्वतर ०उप० 6.15 में कहा गया है  -

एको हंसो भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्निः सलिले संनिविष्टः।

तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥

-अर्थात इस सम्पूर्ण विश्व के अन्तर में 'एक' 'हंसस्वरूपी आत्मसत्ता' है एवं 'वह' अग्निस्वरूप' (अज्ञान का विनाशक बड़वानल) है जो ह्रदय जल की अतल गहराई में स्थित है। 'उसका' ज्ञान प्राप्त करके व्यक्ति मृत्यु की पकड़ से परे चला जाता है तथा इस महद्-गति के लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं है। 

  अतः हमें उन परमात्मा का जिज्ञासु (अर्थात परमहंस का जिज्ञासु) होकर उन्हें जानने की चेष्टा में लग जाना चाहिए।  और एक दिन हमें भी उन अविद्या विनाशक बड़वानल तुल्य ऋषियों के समान बोल पड़ना चाहिए -     

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।

तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।।

अर्थात्― मैं ने उस 'प्रभु' को जान लिया है जो सबसे महान् है-अवतारवरिष्ठ हैं , जो करोड़ों सूर्यों के समान देदीप्यमान है, जिसमें अविद्या और अन्धकार का लेश भी नहीं है। उसी अविद्यारहित परमात्मा को जानकर अपनी अन्तर्निहित दिव्यता (Oneness या सिंहत्व) को जाग्रत करने वाला भय-शून्य मनुष्य ही संसाररुपी मृत्यु-सागर से पार उतरता है, मोक्ष-प्राप्ति का और कोई उपाय नहीं है। 

[निवृत्ति मार्ग के अधिकारीयों के लिए "श्रीरामकृष्ण- स्वामी विवेकानन्द गुरु-शिष्य परम्परा " में स्थापित मठ और मिशन के माध्यम से अविद्या विनाशक बड़वानल 'परमहंस गुरु ' की महिमा को जानने के सिवा; और प्रवृत्ति मार्ग के अधिकारीयों के लिए महामण्डल के संस्थापक नवनीदा के पितामह और आन्दुल स्कूल के तीन-पीढ़ियों के अविद्या-विनाशक बड़वानल तुल्य आचार्य शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय द्वारा आविष्कृत 'कर्मयोग का रहस्य- Be and Make' या 'Secret Of Success : "I am best taught by teaching others !" के मर्म को समझकर महामण्डल के ' Leadership-Training Tradition में जीवनमुक्त शिक्षक, नेता या पैगम्बर बनने और बनाने की पद्धति में प्रशिक्षित होकरअपनी अन्तर्निहित दिव्यता (Oneness या सिंहत्व) को जाग्रत कर स्वयं भय-शून्य मनुष्य हुए बिना - 1000 तेजस्वी मनुष्य-निर्माण का और कोई उपाय नहीं है। ]  

       अपने सिंहविक्रम से भारत की प्रत्येक समस्या के समाधान की पद्धति को समझने के लिए स्वामीजी के सपनों का तेजस्वी मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए प्रति वर्ष महामण्डल द्वारा आयोजित छः दिवसीय (3 दिवसीय,1 दिवसीय) शिविर में हमलोग  1500 भाई शामिल होते हैं। एक स्थान पर एकत्र होते हैं, इतना कष्ट स्वीकार करते हैं, कुछ अखाद्य भोजन करना पड़ता हैं, अत्यधिक ठंड पड़ने से सोने में कठिनाई होती है, फिर क्लास में सुबह से लेकर रात तक लगातार बैठे भी रहना पड़ता है। यह सब ऐसे ही नहीं होता है -भाई। वास्तव में यह वार्षिक युवा प्रशिक्षण-शिविर एक बहुत बड़ी साधना-स्थली है, यह हम सबों के तपस्या का क्षेत्र है। देश-प्रेम की जो अग्नि स्वामी विवेकानन्द के ह्रदय में जल रही थी, यहाँ आकर उसी अग्नि को हम अपने ह्रदय में भी जला लेंगे। हमलोग अपने जीवन को इतने सुन्दर ढंग से गठित करेंगे, जिससे उसका उपयोग समाज और देश के कल्याण के लिए हो सके। हमें अपना जीवन ऐसा बनाना पड़ेगा, जिससे मैं सभी से प्रेम करने में सक्षम हो सकूँ। समाज में जो पिछड़े हैं, जो पीड़ित हैं, जो उत्पीड़ित हैं, मैं उनके निकट खड़ा हो सकूँ। 

       यदि मैं अपना सम्पूर्ण जीवन न्योछावर करके भी ऐसा मनुष्य बन सकूँ, और कम से कम एक व्यक्ति के भीतर भी उस आग को  प्रज्वलित कर सकूं, [उसे यह समझा सकूँ कि श्रद्धा क्या है , विवेक क्या है, और मनुष्य का जीवन सार्थक कैसे होता है ?] तभी मेरा जीवन भी सार्थक हो सकेगा। सम्पूर्ण विश्व को यह समझा दो कि 'मनुष्य' (भयशून्य) बन जाना कोई साधारण उपलब्धि नहीं है, मनुष्य मन और इन्द्रियों का गुलाम नहीं है, क्योंकि मनुष्य पशु नहीं है। मैंने मानव-शरीर इसलिए नहीं धारण किया था कि जन्म लिया, कुछ शिक्षा प्राप्त की, पैसा कमाया, शादी की और सन्तान पैदा किया , और फिर एक दिन चल बसा ? सिर्फ इतना सब करने के लिए तो मैंने मनुष्य शरीर धारण नहीं किया था। जिन लोगों का जीवन बस यही सब करके समाप्त हो जाता है, वे अभागे हैं, अत्यन्त बदकिस्मत हैं। ......  स्वामी जी कहते थे यदि मानव शरीर में जन्म लिए हो तो एक निशानी (PR) अवश्य छोड़ जाओ !  जितने दिनों तक और जीवित हूँ उतने दिनों तक मैं जो कुछ भी करूँगा वह (निष्काम?) कर्म कम से कम एक व्यक्ति के ह्रदय पर तो अपना निशान अवश्य छोड़ेगा। 

     जैसे किसी ने पूछा था कि ऐसा पाठचक्र कैसे किया जाए की उसका प्रभाव सभी सदस्यों पर पड़े ? बस ऐसे ही की तुम अपने जीवन को इतने सुन्दर रूप से गठित करो, ताकि  तुम्हारे जीवन को देखकर अन्य दस लोगों को अच्छा नागरिक (कर्मठ -कर्मयोगी) और प्रबुद्ध नेता बनने की प्रेरणा प्राप्त हो सके। [कर्म ? निःस्वार्थ कर्म- क्योंकि "I am best taught by teaching others !" मैं दूसरों को पढ़ाकर स्वयं सबसे अच्छा सीखता हूँ।] जिस केंद्र में सदस्यों को Be and Make परम्परा में कर्मयोगी या निःस्वार्थी नेता बनने के लिए प्रेरित नहीं करके सिर्फ रिलीफ-वर्क, सांस्कृतिक कार्यक्रम, पूजापाठ और खिचड़ी प्रसाद वितरण पर अधिक ध्यान दिया जाता है, उस केंद्र में कर्मयोगी बनने और बनाने के बदले तथाकथित 'भक्त 'लोगों का एक दल तैयार हो जाता है। 

        वैसे पाठचक्र या केंद्र का कोई लाभ नहीं है। वे लोग त्याग और सेवा की साधना किये बिना सीधा ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं। ब्रह्म का यदि शब्दार्थ करें तो उसका अर्थ होता है -बृहत। अर्थात अनन्त तक विस्तृत ह्रदय वाला मनुष्य-जो करोड़ों देशवासियों के लिए रोता हो और उनके दुःख-तकलीफ को दूर करने की तीव्र व्याकुलता से भरा हुआ हो ! वैसे मनुष्य का निर्माण करने की चेष्टा करो। वैसे मनुष्यों को संगठित करने की चेष्टा करो- उनमें प्राण फूँक दो । 

     संगठन के सभी सदस्यों की इच्छा को एक पूर्व निर्धारित उपाय से एक निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में निर्दिष्ट रखो। ऐसा नहीं करने से देश के जो दीन -दुःखी नागरिक हैं उनकी सहायता कैसे करोगे ? यह बात उन्हें समझाओ ! यदि तुम्हारा अपना जीवन उन्नत नहीं हो, तो तुम दूसरों की सहायता कैसे करोगे ? अपने दूसरे भाइयों की सेवा मैं कैसे करूँ - इसके लिए व्याकुल होओ। खुद मनुष्यत्व अर्जन करने की चेष्टा करो। मनुष्यत्व अर्जन अर्थात पवित्रता-अर्जन देह रूपी देवालय को पवित्र रखो। यह मानव शरीर ही ईश्वर का सबसे बड़ा मंदिर है। अन्य सभी ईश्वर तो कल्पना हैं, उनके सारे  रूप तो काल्पनिक है। किन्तु तुम्हारे सम्मुख जो मनुष्य खड़ा है वह तो काल्पनिक नहीं है। वह तो वास्तविक है। यदि उस मनुष्य में ईश्वर को नहीं देख सके - तो ईश्वर को खोजने कहाँ जाओगे ? (सांवरिया मन भाया रे काहू में अहमद, काहू में ईसा, काहू में राम कहाया रे ।) स्वामीजी ने कहा है -मनुष्य मात्र के भीतर ईश्वर को देखने की चेष्टा करो -  “वैदिक धर्म की दृष्टि- में सभी प्राणी समान हैं”  .... (एक ही अनेक बन गया है इसीलिए)

"मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।"

(-यजुर्वेद 36/18)

सभी प्राणी मुझे मित्र (प्रेम) की दृष्टि से देखें!

मैं सभी प्राणियों को मित्र (प्रेम) की दृष्टि से देखूं!

हम सभी प्राणीयों को मित्र (प्रेम) की दृष्टि से देखें! 

मुझसे कभी किसी का बुरा न हो....

मैं असहायों का सहायक बनूं, ..... सबका सेवक बनूं।

' बहुरूपे सम्मुखे तोमार छाड़ि कोथाय खूंजिछो ईश्वर ?

 जीवे प्रेम करे जेईजन सेई जन सेवेच्छे ईश्वर ! "

व्यर्थ है खोज काल्पनिक रूपों में,

बहु रूपों में खड़े तुम्हारे आगे , और कहाँ हैं ईश ?

 जिव-प्रेम जिसने किया, उसकी सेवा पाते जगदीश ! [9 /325] 

      इसीलिए मैं किसी को स्वामीजी की पूजा करने के लिए नहीं कहता हूँ। पूजा करना तो दूर की बात उनकी भक्ति करने के लिए भी नहीं कहता हूँ। स्वामीजी से प्रेम करने के लिए कहता हूँ। यदि सबसे अपना कोई दोस्त, दार्शनिक और मार्गदर्शक बड़ा भाई है - तो वे स्वामी विवेकानन्द ही हैं ! इस तथ्य को समझना सीखो। स्वामीजी कहीं चले नहीं गए हैं। जैसे उन्होंने कहा था - "हो सकता है मैं अपने शरीर को जीर्ण वस्त्र की तरह त्याग दूँ , किन्तु मनुष्यों को अनुप्रेरित करना तबतक नहीं छोड़ूँगा , जबतक विश्व के सभी मनुष्य यह नहीं जान लेते कि वे ईश्वर के साथ अभिन्न हैं। " इस बात पर विश्वास करने की चेष्टा करो। भगवान कहाँ रहते हैं , स्वर्ग में रहते होंगे या कहीं और मंदिर-मस्जिद -गिरजा में रहते होंगे ? भगवान ही जानते हैं। किन्तु मनुष्य के भीतर भगवान हैं-इसकी खोज करो।  -स्वामी विवेकानन्द ने तीर्थ जाकर भगवान को खोजने की सीख नहीं दी है।  (26.06 minute) 

      एक संन्यासी ने कर्मयोग के विषय पर चर्चा करते हुए स्वामी विवेकानन्द द्वारा कथित एक बहुत सुन्दर कहानी  'डकैत का तीर्थ-स्नान ' का उल्लेख किसी पत्रिका में इस प्रकार लिखा था- " किसी गाँव में एक संन्यासी वास करते थे। उनकी कुटिया गाँव के बिल्कुल अन्तिम छोर पर थी। उसके आगे घनघोर जंगल पड़ता था। उसी गाँव में एक और व्यक्ति रहता था -जिसका पेशा ही डकैती करना था। उसने कई डाका डाला था। इसी क्रम में उसने कई खून भी किये थे। जब उसकी उम्र अधिक हुई तो उसके मन में विचार आया कि ये सब कार्य -डाका डालना, हत्या करना ठीक कार्य नहीं है। थोड़ा मन में पश्चाताप भी हुआ कि ऐसा कार्य अब और नहीं करूँगा , लेकिन पहले जो पाप हो चुके हैं -उनका प्रायश्चित कैसे किया जाये ? उसने साधु महाराज के पास जाकर हाथ जोड़कर पूछा- " महाराज मैं एक भयंकर डकैत हूँ, कई डाके डाले हैं , अनेकों मनुष्यों की हत्या की है। किन्तु अब यह सब अच्छा नहीं लगता है। मैं यहाँ आपके आश्रम रहना चाहता हूँ , क्या मुझे रहने देंगे ? आश्रम का भी कुछ कार्य आदि कर दिया करूँगा। साधु लोग तो उदार ह्रदय के होते ही हैं, किसी के दोष को नहीं देखते। साधु बोले ठीक है रह जाओ। कुछ दिनों तक कुटिया में रहने के बाद डकैत ने कहा ,  मैंने बहुत से पाप किये हैं, और सुना है कि विभिन्न तीर्थों  में स्नान करने से पाप धुल जाते हैं। अतः मैं भी तीर्थाटन -स्नान करके देखना चाहता हूँ। मुझे तीर्थ दर्शन करने की इच्छा हो रही है। क्या मैं जाऊँ ? साधु बोले यदि तुम्हारी इच्छा है तो जाओ;  लेकिन यह बताओ कि तीर्थ-स्नान आदि से तुम्हारे पाप मिट गए या नहीं -इस बात को तुम समझोगे कैसे ?

      डकैत ने सोचा , ठीक बात है। मेरे पाप मिटे या नहीं -इस बात को मैं कैसे जान पाउँगा?  साधु बोले तुम - एक काम करो, सफ़ेद कपड़े का एक टुकड़ा ले आओ। वह डकैत आधा गज  सफ़ेद कपड़े का एक टुकड़ा ले आया। साधु बोले वहाँ दावात रखा है , उसकी स्याही इस कपड़े पर उड़ेल दो। डकैत ने वैसा ही किया। अच्छा जब तो यात्रा पर जाओगे तुम्हारे साथ कोई पोटली भी रहेगी ही। इस कपड़े को उसी पोटली में डाल दो, और जब कभी किसी तीर्थ स्थान में स्नान करो तो, बाद में इसे पोटली से बाहर निकाल कर देख लेना। यदि कपड़ा काला ही रहे तो समझना कि तुम्हारे पाप अभी मिटे नहीं हैं। और जब पाप मिट जायेगा तो देखोगे की तुम्हारा कपड़ा फिर से सफ़ेद हो गया है। "

    अब, वह डकैत निकल पड़ा तीर्थाटन करने। जगह जगह तीर्थों का दर्शन -स्नान करता और स्नान के बाद अपनी पोटली खोल कर देखता तो पाता कि वह कपड़ा वैसे ही काला का काला ही पड़ा हुआ है। जब कई तीर्थों में स्नान के बाद भी कालिख नहीं मिटी तो उदास होकर वह वापस लौटने लगा। वापस लौटते समय रास्ते में एक घना जंगल भी पार करना पड़ा। जब वह जंगल से गुजर रहा था तो उसे किसी स्त्री का आर्तनाद सुनाई पड़ी - "बचाओ ,बचाओ। " वह उसी आवाज की दिशा में चल पड़ा। वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि कुछ डकैत लोग एक नव-विवाहिता स्त्री को पेड़ से बाँधकर उसका सोने का गहना आदि लूट रहे हैं। यह देखकर उस तीर्थाटन करके लौटते हुए डकैत के मन में यह विचार आया कि इस अकेली स्त्री को बचाना ही होगा। उसको वहाँ जमीन पर गिरी हुई एक कुल्हाड़ी पर नजर पड़ी , जो उन डाकुओं की ही थी। उसने आव देखा न ताव-बस कुल्हाड़ी उठाया और- डकैत के सिर पर वार करते हुए उसके मुख से बरबस निकल पड़ा - 'जहाँ 52 वां वहाँ 53 वां !'  माने जैसे 52 खून पहले किये थे , वहीँ एक खून और सही !  उधर डाकू का सिर फट गया था -उसकी हालत देखकर सब डकैत भाग खड़े हुए। तब उसने उस स्त्री का बंधन खोल दिया और उसके सभी गहनों को एक पोटली में बांधकर उसके हाथों में रख दिया। फिर उसका नाम-पता आदि पूछकर उसे सकुशल घर के निकट पहुँचाकर, साधु की कुटिया में वापस लौट आया। 

          जब वह साधुजी से मिला तो उन्होंने उसके चेहरे को लटका हुआ देखा , तब पूछा - कहो क्या समाचार है ? तुम्हारे पाप मिटे या नहीं ? तब उस डकैत ने बहुत दुखी होकर कहा - " महाराज ! पाप मिटना तो दूर की बात है, और एक नया खून कर आया हूँ। " फिर उसने साधु को पूरी रामकहानी सुना दी। तब साधु ने कहा- अच्छा तुम अब जरा अपनी पोटली से उस कालिख लगे कपड़े को निकाल कर देखो तो। " जब उसने पोटली से उस कपड़े को निकाला तो देखा - पूरा कपड़ा सफ़ेद हो चुका था, उस पर स्याही की कोई दाग भी नहीं थी !  हमलोग लोक व्यवहार में इस कहावत 'जहाँ 52 वां वहीं 53 वां !' का प्रयोग कई अर्थों में करते हैं। किन्तु इस कहानी के माध्यम से साधु महाराज ने उस डकैत को कर्मयोग के रहस्य को भलभाँति समझाया  कि - जो खून तुमने अभी अभी किया है , वह खून करना ही तुम्हारा कर्तव्य था।  क्योंकि तुमने वह खून निःस्वार्थ भाव से एक अबला की रक्षा के लिए किया था। किन्तु इसके पहले तुमने जितने खून किये थे उसका उद्देश्य लूटपाट करना था ; जबकि इस हत्या के पीछे तुम्हारा उद्देश्य उस अबला की रक्षा करना था। इसलिए 52 खून करने के कारण जितने पाप लगे थे वे सारे पाप 53 वां खून करने से धुल गए थे।  इसीलिए कहा जाता है - 'गहना कर्मणो गतिः। " कर्म का ज्ञान होना जटिल है। क्योंकि कर्म का फल-या कुफल क्या मिलेगा ? समझना बहुत कठिन है ! (32.minute)  

    उपर्युक्त कहानी से यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्म का मूल्यांकन केवल उसके वाह्य स्वरूप को देखकर नहीं बल्कि उसके उद्देश्य को भी ध्यान में रखते हुये करना चाहिये। उद्देश्य की श्रेष्ठता एवं शुचिता के अनुसार उस व्यक्ति विशेष के कर्म भी श्रेष्ठ एवं पवित्र होंगे। 

       ऐसा धर्मबोध और विवेकपूर्वक कर्म करने की क्षमता हममें से प्रत्येक के भीतर रहनी चाहिए। इसलिए हमलोग साक्षी भाव से हमेशा यदि यह देखते रहें जो सभी देशवासियों के  लिए अच्छा कर्म है , जो सभी के जीवन में मंगल प्रदान करने वाला कर्म है-  वह है स्वामी विवेकानन्द का अनुसरण करते हुए अपने अन्य 5 भाइयों के साथ Be and Make' आंदोलन से जुड़े रहना। तो स्वामी विवेकानन्द के इस जीवनगठन और मनुष्य निर्माणकारी शिक्षा ~ 'बनो और बनाओ' में लगे रहने से अपने सम्पूर्ण देश का बहुत बड़ा कल्याण हो सकता है।  यदि वैसा नहीं हुआ तो हमारे शहर में हो सकता है , कमसे कम हमारे अपने परिवार में तो हो ही सकता है। मैंने देखा है -आजकल बहुत से परिवारों में सौहार्दपूर्ण वातावरण नहीं है। 32.33 minute)   अभी तो कितने ही परिवार में देखता हूँ -सब भाई अलग अलग हो गए हैं। कितने तरह -तरह के भाई होते हैं -जो अपने भाई के बच्चों को भी अपने बच्चे के समान पालते -पोषते हैं। वहीँ ऐसा देखा जाता है कि एक भाई को दो टाइम भोजन नहीं है , दूसरे भाई के पास आलीशान मकान और महंगी गाड़ी है।हमलोग कई जगह बोलते हैं - हमलोग परस्पर भाई-भाई हैं। लेकिन अपने ही परिवार में भाई को भाई की दृष्टि से नहीं देख पाते ?  ऐसा कैसे हुआ ? क्योंकि हमलोग मनुष्य तो हैं -किन्तु मनुष्यत्व का बोध नहीं हुआ है। ठाकुर देव की भाषा में हम मानहूँष नहीं हैं। 

       भाईयों तुमलोगों को मैं ज्ञान देने के लिए कुछ नहीं कह सकता , तुम मुझे विनती करने की अनुमति दो। जब यहाँ आये हो तो यहाँ की शिक्षाओं से कुछ को जीवन में धारण करने की चेष्टा करो। यही कि अभी तक मैं जैसा हूँ - यहाँ से जाने के बाद इससे थोड़ा और अच्छा मनुष्य बनने की चेष्टा करूँगा। और थोड़ा अच्छा होने की चेष्टा करूँगा का अर्थ क्या हुआ ? यही कि मेरा ह्रदय थोड़ा और बड़ा होगा। इसका अर्थ हुआ मैं मेरे परिवार के आलावा जो उससे बाहर के मनुष्य हैं -उनको अपने से थोड़ा और नजदीकी मनुष्य के रूप में देख सकूंगा। कम से कम अपने भाई को कष्ट में पड़ा देखकर उसकी सहायता करने की चेष्टा तो अवश्य करूँगा। मेरे माता -पिता को कोई कष्ट हुआ तो मैं चुप कैसे रहूंगा ? बहुत से लोग तो भाई या माँ -बाप को संकट में देखकर घर छोड़कर दूसरे जगह चले जाते हैं। 

     किन्तु एक गृहत्यागी बालक का इतिहास एक संन्यासी के मुख से सुना हूँ। उससे साधु ने उस गृहत्यागी बालक से पूछा तुम परिवार को छोड़कर अमेरिका कैसे आ गया ? वह बोलै मैंने फर्स्ट-डिवीजन में इंजीयरिंग पास किया है। नौकरी तो मुझे तुरंत मिल सकती थी। मैंने बहुत सोचविचार कर देखा। मेरे पिताजी रिटायर करने वाले थे, और 5 भाई-बहन थे -सभी मुझसे छोटे थे। यदि नौकरी में जितने पैसे मिलेंगे वह सब तो इनलोगों को पालने -पोषने में ही खत्म हो जायेंगे। बहुत से जगह में ऐसी नौकरी मिलती है जो विदेश या अमेरिका भेज देते हैं। मैं भी वही करूँगा। सुनकर बहुत कष्ट होता है। हमारा ह्रदय कितना संकीर्ण हो गया है ? हम अपने भाई-बहन को अपने माँ -बाप की सेवा भी नहीं करना चाहते। अपने भाई को अपना कहना ? यह तो सोच भी नहीं सकते।  'Be and Make' - नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥   

---श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय, 

अध्यक्ष, अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल।

40वें अखिल भारतीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर (2006) का अंश।  

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श्री भगवानुवाच-

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।

विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।4.1।।

श्रीभगवान् ने कहा ---  मैंने इस अविनाशी (अमरत्व) योग को विवस्वान् (सूर्य देवता) से कहा (सिखाया);  फिर विवस्वान् ने अर्थात सूर्य ने (अपने पुत्र)  वैवस्वत मनु से कहा;  मनु ने (अपने पुत्र) राजा इक्ष्वाकु से कहा।।

वेद शब्द संस्कृत के विद् धातु से बना है जिसका अर्थ है जानना। अत वेद का अर्थ है ज्ञान अथवा ज्ञान का साधन (प्रमाण)। वेदों का प्रतिपाद्य विषय है जीव के शुद्ध ज्ञान स्वरूप तथा उसकी अभिव्यक्ति के साधनों का बोध। जैसे हम विद्युत् को नित्य कह सकते हैं क्योंकि उसके प्रथम बार आविष्कृत होने के पूर्व भी वह थी और यदि हमें उसका विस्मरण भी हो जाता है तब भी विद्युत् शक्ति का अस्तित्व बना रहेगा।  इसी प्रकार हमारे नहीं जानने से दिव्य चैतन्य स्वरूप आत्मा का नाश नहीं होता। इस अविनाशी आत्मा का ज्ञान वास्तव में अव्यय है।आधुनिक विज्ञान भी यह स्वीकार करता है कि विश्व का निर्माण सूर्य के साथ प्रारम्भ होना चाहिये। 

शक्ति के स्रोत के रूप में सर्वप्रथम सूर्य की उत्पत्ति हुई और उसकी उत्पत्ति के साथ ही यह महान् आत्मज्ञान विश्व को दिया गया।वेदों का विषय आत्मानुभूति होने के कारण वाणी उसका वर्णन करने में सर्वथा असमर्थ है। कोई भी गम्भीर अनुभव शब्दों के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। अत स्वयं की बुद्धि से ही शास्त्रों का अध्ययन करने से उनका सम्यक् ज्ञान तो दूर रहा विपरीत ज्ञान होने की ही सम्भावना अधिक रहती है। इसलिये भारत में यह प्राचीन परम्परा रही है कि अध्यात्म ज्ञान के उपदेश को आत्मानुभव में स्थित गुरु के मुख से ही श्रवण किया जाता है। गुरुशिष्य परम्परा से यह ज्ञान दिया जाता रहा है। यहाँ इस ब्रह्मविद्या के पूर्वकाल के विद्यार्थियों का परिचय कराया गया है।

     इसीलिए यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि कर्मों के इस विश्लेषण के बाद भी सामान्य मनुष्य को कर्म-अकर्म का विवेक करना सहज नहीं होता क्योंकि कर्म की गति गहन है। कृष्ण ने कहा- " हे अर्जुन ! सफलता के इस रहस्य को मैंने सर्वप्रथम विवस्वान को बताया था, क्योंकि सूर्य निरंतर कर्मरत है।  (=आन्दुल स्कूल के हेडमास्टर "तीन पीढ़ियों के गुरु" आचार्य शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय, 'दादा' श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के पितामह परम्परा आज भी महामण्डल के रूप में निरंतर कर्मरत है।)  इस प्रकार के कर्म (यानि जगत को प्रकाश देने का कर्म- Be and Make-अच्छा 'नागरिक' और प्रबुद्ध 'नेता' बनने का प्रशिक्षण) पुण्य की अपेक्षा से नहीं किए जाते, यह स्वाभाविक रूप से होते हैं; परन्तु ऐसे ही कर्मों से पुण्य (अर्थात अमरत्व) की प्राप्ति होती है। 

विवस्वान मनु : सूर्यवंश  ब्रह्मदेव के मानस-पुत्रों में एक थे मरीचि ऋषि। मरीचि ऋषि के पुत्र थे कश्यप ऋषि। कश्यप ऋषि और उनकी पत्नियों की संतानों से अनेक प्रजातियों का जन्म हुआ।  कश्यप ऋषि की पत्नी देवी अदिति देवताओं की माता हैं और उनकी संतानों को आदित्य भी कहते हैं।  एक बार देवी अदिति ने सूर्यदेव की कठिन तपस्या की और उनसे उनके गर्भ से जन्म लेने का वर माँगा। सूर्यदेव ने देवी अदिति के पुत्र विवस्वान के रुप में जन्म लिया। विवस्वान के पुत्र थे वैवस्वत मनु।  वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु ने सूर्यवंश की स्थापना की, जिसे इक्ष्वाकु वंश नाम से भी जाना जाता है।  अंबरीश, सगर, भगीरथ, रघु, दिलीप, दशरथ और श्रीराम जैसे महान राजाओं ने इस महान वंश में जन्म लिया।

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       जिस पुरुष में आत्मनिरीक्षण की क्षमता है वह अकर्म में कर्म को पहचान सकता है। एक विवेकी पुरुष जब जगत् में क्रियाशील रहता है उस समय मानो अपने आपको सब उपाधियों से अलग करके साक्षीभाव से स्वयं अकर्म में रहते हुए वह सब कर्मों को होते हुए देख सकता है। जब मैं इन शब्दों को लिख रहा हूँ तब मेरे मन का ही कोई भाग मानों द्रष्टाभाव से देख सकता है कि हाथ में पकड़ी हुई लेखनी कागज पर शब्दों को लिख रही है। इसी प्रकार सभी कर्मों में स्वयं अकर्म में रहते हुए कर्मों को देखने की क्षमता दुर्लभ नहीं है। 

क्रियाशील जीवन में ही हम उत्थान और पतन को प्राप्त हो सकते हैं। एक स्थान पर स्थिर जल सड़ता और दुर्गन्ध फैलाता है जबकि सरिता का प्रवाहित जल सदा स्वच्छ और शुद्ध बना रहता है। जीवन शक्ति की उपस्थिति में कर्मो का आत्यन्तिक अभाव नहीं हो सकता।  कर्म ही जीवन है। निष्क्रियता से उन्नति और अधोगति दोनों ही सम्भव नहीं। गहन निद्रा अथवा मृत्यु की कर्म शून्य अवस्था मनुष्य के विकास में न साधक है न बाधक। जीवन क्रियाशील है। क्रिया की समाप्ति ही मृत्यु का आगमन है।

'गहना कर्मणो गतिः' एक संस्कृत सूत्र वाक्य है जिसका अर्थ है कि कर्म की गति गहन है। पूरा श्लोक इस प्रकार है - 

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।4.17।।

 [कर्मणः हि अपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः। अकर्मणशः च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥]

 इसका मतलब है कि कर्म का स्वरूप, अकर्म का स्वरूप, और विकर्म का स्वरूप जानना ज़रूरी है; क्योंकि कर्म की गति (अर्थात ज्ञान) गहन (जटिल-complicated)है। इसलिए कर्म को इस तरह से करना चाहिए कि वह विकर्म न बनें, बल्कि अकर्म में बदल जाएं।  इससे कर्ता अकर्ता बन सकता है और परमात्म-पद (ब्रह्मविद पद) पाया जा सकता है।

कर्म कहीं विकर्म न बन जाये ; इसके लिए मनुष्य से यह अपेक्षित है कि वह विवेकी होकर कर्म करे। जिस प्रकार दान देना पुण्यकर्म है परन्तु कुपात्र को दान देने से मनुष्य पुण्य का भागी नहीं होता। अकर्म (बुरे कर्म =कुकर्म ?) न करने से पुण्य की प्राप्ति तो नहीं होती परन्तु करने से मनुष्य पाप का भागी अवश्य होता है। जैसे यदि हम चोरी न करें तो हमें पुण्य नहीं मिल जाता परन्तु चोरी  करने से पाप निश्चित रूप से?# मिलता है। [ #दादा के द्वारा कथित कहानी के अनुसार --'नहीं' विशेष परिस्थिति में -'जहाँ 52 वां वहीं 53 वां वाली विशेष परिस्थिति' में दूसरों के हित या जगत के हित लिए करने से डकैती-हत्या करने से भी पुण्य ही मिलता है ! ] 

     यह आवश्यक है कि अपने भौतिक अभ्युदय तथा आध्यात्मिक उन्नति के इच्छुक साधक कर्मों के इस वर्गीकरण को भली प्रकार समझें। कर्म के क्षण ही मनुष्य का निर्माण करते हैं। यह मनुष्य निर्माण इस बात पर निर्भर करता है कि हम कौन से कर्म को किस उद्देश्य से कर रहे हैं।  कर्म निरंतर होता रहता है। पूर्ण नैर्ष्कम्य की स्थिति का अर्थ निष्कामत्व की स्थिति होनी चाहिए इसे ही पूर्ण ईश्वरत्व की स्थिति कहते हैं। विवेकी पुरुष सहजता से अवलोकन कर सकता है कि शरीर से अकर्म होने पर भी उसके मन और बुद्धि पूर्ण वेग से कार्य कर रहे होते हैं। फिर वह यह भी अनुभव करता है कि शरीर द्वारा निरन्तर कर्म करते रहने पर भी वह शान्त और स्थिर रहकर केवल साक्षीभाव /द्रष्टाभाव से उन्हें स्वयं अकर्म में रहते हुए देख सकता है; यह अकर्म सात्त्विक गुण की चरम सीमा है।

अर्थात इस लोक के मध्य में 'एक' ही हंस हैं (यानि हंसस्वरूपी आत्मसत्ता है) जिसमें अविद्या को नष्ट करने में समर्थ 'destroyer of ignorance',परमहंस श्रीरामकृष्ण सन्निहित हैं; किन्तु वे  जल में अग्नि (बड़वानल) के समान अगोचर हैं । यद्यपि शीतल स्वाभवयुक्त जल में उष्णस्वभाव अग्नि का होना साधारण दृष्टि से समझ में नहीं आता। क्योंकि दोनों का स्वभाव परस्पर विरुद्ध है। फिरभी उसके रहस्य को जानने वाले वैज्ञानिकों को यानि विवेकानन्द' को अपने गुरु में ही परमात्मा है - यह प्रत्यक्ष दीखता है। कार्य में कारण व्याप्त रहता है - इस न्याय से भी तेजस तत्व का जल में व्याप्त होना (या आत्मा में परमात्मा का व्याप्त रहना) उचित ही है। किन्तु इस रहस्य को न जानने वाला जल में स्थित अग्नि को नहीं देख पाता। 

    इसी प्रकार अविनाशी परमात्मा (या आत्मा) इस परिवर्तनशील जड़ जगत से [ यानि नश्वर शरीर और मन से ] स्वभावतः बिल्कुल भिन्न है - क्योंकि वह चेतन, ज्ञानस्वरूप और सर्वज्ञ है - तथा यह दृष्टिगोचर जगत- देह और मन - जड़ और ज्ञेय है ! इसी प्रकार जगत से विरुद्ध दिखने के कारण साधारण दृष्टि से यह बात समझ में नहीं आती कि अविनाशी परमेश्वर इस परिवर्तनशील होने के कारण नश्वर जगत [देह -मन ] में किस प्रकार व्याप्त हैं ? और वे ही इस जगत के कारण कैसे हैं ? 

 उन्हीं  विवेकानन्द के गुरु सर्वशक्तिमान सर्वाधार परमात्मा - श्री रामकृष्ण परमहंस देव को जानकर ही मनुष्य इस मृत्युरूप संसार-समुद्र से पार हो सकता है - सदा के लिए जन्म-मरण के चक्र से सर्वथा छूट सकता है। ठाकुर देव के दिव्य परमधाम की प्राप्ति के लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं है। 

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