🙋शिरीष कुसुम का एक गुच्छा🙋
*A Bunch of Shirish Kusum*
~ श्री नवनीहरन मुखोपाध्यायाय
(15th August, 1931- 26th Sept, 2016)
यह सोच कर भी कैसा लगता है कि - आज से पचास साल पहले हमने, इसी स्कूल # [मोहियारी कुंडू चौधरी इंस्टीट्यूशन (#आन्दुल H.C.E स्कूल)-1841,आचार्य शिरीष सारनी, अंदुल, महियारी, हावड़ा जिला, पश्चिम बंगाल 711302)] से दसवीं तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद स्कूल छोड़ दिया था। उन्हीं सहपाठियों में से जो आज जीवित हैं, वे पुनः उसी स्कूल में मिल रहे हैं - यह एक दम अद्भुत और अविश्वनीय पुनर्मिलन में है!! हालाँकि, मुझे नहीं पता कि उन लोगों को धन्यवाद देने के लिए क्या कहूँ जिन्होंने इस पूर्व विद्यार्थी पुनर्मिलन 'Alumni Reunion' को आयोजित करने के विषय में सोचा। परन्तु संसार में सुख-दुःख तो नित्य साथी हैं। इसलिए सभी को एक साथ सम्मिलित होने में बाधाएँ आती हैं। अतएव जितने छात्र हमलोग उस समय थे -उसमें से सभी यहाँ उपस्थित नहीं हो सके हैं। एक के बाद एक करके कितने ही लोग चले गए हैं । और इस मिलन समारोह के आयोजकों की मुख्य कठिनाई यही है, वैसे दोस्त जिन्हें 'हम अपना जीवन समझते थे ' वे जब हमें अचानक छोड़कर चले जाते हैं, तो उस दुःख को शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है- "जिसका प्राण समझता है, वही समझ सकेगा।"
जिस दिन असित के पत्र से पहली बार मुझे इस पुनर्मिलन के बारे में पता चला और उसके बाद और कई मित्रों से दो-तीन बार मुलाकात हुई, लेकिन उसके बाद मानों सुकुमार रे के गणित के जैसा छात्रों की संख्या अचानक पचास से भी कम हो गयी। आज से साठ वर्ष पहले की बात याद आ रही है जब आचार्यदेव (नवनीदा के पितामह ) मुझे लेकर एक शिक्षक समारोह में आये थे तब मैंने पहली बार इस स्कूल को देखा था। [ नवनीदा का जन्म 15th August, 1931 को हुआ था, अर्थात 1996-60= 1936 में उनकी आयु लगभग 5 वर्ष की रही होगी।] उस दिन स्कूल के शिक्षकों विशेषतः संस्कृत शिक्षक पण्डित क्षेत्र-मोहन चट्टोपाध्याय महोदय को मैंने संस्कृत में तपोवन वर्णन का एक श्लोक " हुतधूमकेतु-शिखाञ्जन स्निग्धसमृद्धशाखम् ...." मैंने सुनाया था। जैसे ही मैंने उन्हें यह श्लोक सुनाया वैसे ही उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर खींच लिया और अपनी गोद में बिठाकर कहने लगे - वाह ! वाह ! तुम अभी इतने छोटे हो, और इतना शुद्ध संस्कृत उच्चारण कर सकते हो ; तुम्हें तो वाक् सिद्धि # प्राप्त होगी। (वाक् सिद्धि # एक ऐसी सिद्धि जिससे व्यक्ति जो कुछ भी कहे वो घटित हो जाये।) तब मुझे इसका मतलब समझ नहीं आया था, लेकिन बड़े होने के बाद जब उस बात को याद करता हूं तो मुझे अब भी डर लगता है।
फिर 1943 में सातवीं कक्षा में मैंने इस स्कूल में प्रवेश लिया था। जब इस स्कूल की स्थापना हुई थी तब तक कलकत्ता विश्वविद्यालय का जन्म भी नहीं हुआ था। सर आशुतोष की बड़े भ्राता इस स्कूल के प्रथम प्रधानाध्यापक थे। उनके बाद इस विद्यालय के प्रधाना-ध्यापक 1901 ई. में आचार्यदेव बने थे । [अर्थात जिस समय नवनीदा के पितामह श्री शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय (1873-1966) उस स्कूल के हेड मास्टर के पद पर नियुक्त हुए होंगे, उस समय उनकी आयु मात्र 28 वर्ष रही होगी ,और उम्र में वे स्वामीजी से 10 वर्ष छोटे रहे होंगे।] जब 1902 ई. में स्वामी विवेकानन्द का तिरोधान हुआ, उस समय आन्दुल स्कूल में एक स्मृति सभा का आयोजन किया गया था। उस स्मरण सभा में स्वामी विवेकानन्द को आमने -सामने देखने और उनके भाषण को सुनने अपना अनुभव बताते हुए आचार्यदेव ने स्वामी विवेकानन्द के ओजस्वी व्यक्तित्व और भाषण शैली का उल्लेख अपने भाषण में किया था, उसका उल्लेख करते हुए शैलेन्द्रनाथ धर ने अपनी पुस्तक-A comprehensive Biography of Swami Vivekananda " (स्वामी विवेकानंद की विस्तृत जीवनी) में इस प्रकार उद्धृत किया था - "उस सभा में आचार्यदेव ने अपना अनुभव बताते हुए कहा था कि- 1897 ई० में स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिए उस संक्षिप्त भाषण को, आचार्यदेव ने अपने मित्र गिरीश चंद्र घोष (बंगाल के सुप्रसिद्द संगीतकार, कवि, नाटककार) के साथ परमहंस श्री रामकृष्णदेव के जन्मदिन के अवसर पर, दक्षिणेश्वर के माँ काली मन्दिर पहुँचकर बिल्कुल आमने-सामने खड़े होकर सुना था।"
1905 ई. के बंग-भंग आन्दोलन ने स्वतंत्रता संग्राम को और भी तीव्र बना दिया था। आचार्य-देव के आदेशानुसार इस स्कूल के छात्रों ने भी विदेशी उत्पादों को जलाने में भरपूर योगदान दिया था। तब यह समाचार इंग्लैण्ड के एक समाचारपत्र में स्कूल के नाम के साथ प्रकाशित हुई थी, जिसके फलस्वरूप प्रधानाध्यापक (आचार्यदेव) के नाम पर गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया। किन्तु जो ब्रिटिश अधिकारी उनको गिरफ़्तार करने आया, वह स्कूल के असाधारण अनुशासन और स्कूल के प्रधानाध्यापक के व्यक्तित्व को देखकर आश्चर्य-चकित हो गया। और बाघ के जैसा हिंसक वह ब्रिटिश अधिकारी पूज्य नवनीदा के पितामह - 'शिरीष बाबू' -के मधुर व्यवहार से इतना अधिक प्रभावित हुआ कि वारंट रद्द करके बिना गिरफ्तार किये ही वापस लौट गया ।
विद्या गुरुमुखी : मैं जब इस स्कूल में सातवीं कक्षा में पढ़ रहा था, तब सुबोध कुमार चटखण्डी मास्टर महाशय हमलोगों को भूगोल पढ़ाते थे। वे थोड़े स्थूलकाय थे, इसलिए ब्लैक बोर्ड पर मानचित्र को लटका देते थे, और स्वयं कुर्सी पर बैठकर एक छड़ी के द्वारा नक्शे के स्थलबिन्दु को दिखा-दिखा कर छात्रों को समझाते थे। ब्लैकबोर्ड पर हमारे पंडित महाशय (क्षेत्रमोहन पंडित महाशय के स्वनामधान्य पुत्र ...पण्डित भूतनाथ सप्ततीर्थ संस्कृत पढ़ाते थे। उन्होंने चाण्क्य का श्लोक कंठस्थ करने को कहा था ;लेकिन उनके से वैसा हो नहीं सका। तब उन्होंने भूतनाथ को पूरे पीरियड पर पीछे बेंच पर खड़े करवा दिया था। उसके बाद उसका रिजल्ट (परिणाम) बहुत अच्छे हुआ । ...बेंच पर खड़े होकर उन्होंने जितने श्लोक पढ़े थे , वो सब मुझे इस समय कण्ठस्थ है। ....वह किताबों और तुकबंदी के साथ कक्षा से बाहर चला गया था। हमारे स्कूल के संस्कृत शिक्षक द्वारा उद्धृत छोटी -छोटी छंदें अब भी हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं। लेकिन वे श्रद्धा की प्रतिमूर्ति थे। उसकी पूरी बातों को यदि लिखने के लिए कहा जाये , तो मेरी छोटी सी संस्कृत स्मृति उतना लिखने में सक्षम नहीं होगी। बाद में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर भी रहे। किन्तु हमलोगों के आचार्यदेव से जब तक उन्हें अनुमति नहीं मिली -उन्होंने स्कूल नहीं छोड़ा था। बाद में उन्होंने 'मीमांसा दर्शन ' ग्रंथ में वर्णित शुकाष्टकं # के एक श्लोक का जिस प्रकार गूढ़ार्थ बतलाया था, उसके विषय में आचार्य महामुखोपध्याय योगेन्द्रनाथ तर्कतीर्थ द्वारा शुकाष्टकं के विषय में प्रश्न करने पर उन्होंने विनम्रता पूर्वक कहा था - विद्यालय के आचार्य-देव के मुख से उसकी जैसी व्याख्या सुनी थी, वही लिखा है, ग्रंथ की दृष्टि से नहीं; क्योंकि " विद्या गुरुमुखी।"
सभी की बातें याद आ रहीं हैं। लेकिन सब लिखने की जगह कहाँ है। अमलेन्दु राय महाशय हमलोगों को अंग्रेजी ग्रामर पढ़ाते थे, यदि ठीक-ठीक याद है तो टेस्ट परीक्षा में मास्टर महाशय से मुझे 83 % नंबर प्राप्त हुए थे। बाद में अंग्रेजी में किताब लिखने में संकोच नहीं हुआ। कई यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी में भाषण देना सम्भव हुआ है। कुरुक्षेत्र विश्विद्यालय में भाषण देने के बाद राजयपाल की धर्मपत्नी ने पूछा था कि आपने किस यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी सीखा है ? मैंने कहा -"बहुत गर्व से कहता हूँ कि ब्रिटिश चर्च या में नहीं सीखा , बल्कि हावड़ा जिला के एक ग्रामीण स्कूल में सीखा है। "
जैसा कि कॉलजों में हुआ करता है , हमलोगों के स्कूल का विज्ञान का क्लास भी गुरुदास मेमोरिएल के दोतल्ले पर गैलरी में होता था। वैसी व्यवस्था उस समय अन्य किसी स्कूल में थी या नहीं -नहीं जानता। फणीन्द्रनाथ पाल महाशय विज्ञान पढ़ा रहे थे। उन्होंने पूछा क्या कोई लड़का यह बता सकता है कि साबुन का निर्माण कैसे होता है ? एक लड़के ने (उसका नाम अभी याद नहीं है)खड़ा होकर कहा - "मैं जानता हूँ सर। एक बहुत बड़े चूल्हे पर बहुत बड़ा कड़ाही रहता है। उस कड़ाही में बुरादा के जैसा कुछ डाल देता है। फिर एक आदमी बहुत बड़े डब्बू से उसमें कोई चीज डालकर उसको खूब हिलाता है। थोड़ी देर बाद उसको चूल्हे से उतारने पर 'एक कड़ाही साबुन' बन जाता है। " उसके उत्तर को सुनकर पूरा क्लास ठहाके मार कर हँसने लगा था।
सेकण्ड हेड मास्टर (सहायक प्रधान शिक्षक) थे तारेश चंद्र कर। उच्च श्रेणी के बच्चों को इतिहास पढ़ाते थे। थोड़ा गंभीर स्वभाव के व्यक्ति थे। सब समय चुन्नट गिराकर धोती पहनते और कुर्ते में गले तक बटन को बंद रखते थे। और कंधे पर चादर रखते थे। आँखों पर चश्मा और मूँछ भी रखते थे। उनके नजदीक जाने में भय होता था। जिस समय क्लास नहीं भी रहता ,तब भी मोटी -मोटी पुस्तकें पढ़ते रहते थे। अक्सर मोटी-मोटी सी पुस्तक हाथों में लिए टहलते हुए क्लास में प्रवेश करते थे। लड़कों को अच्छी तरह सिखाना है , इसीलिए वे खुद बहुत परिश्रम करके पढ़ा करते थे। वैसे शिक्षक आजकल दिखाई नहीं देते। इनदिनों विश्वविद्यालय के ऑफ़ पीरियड के दौरान शिक्षक कक्ष में क्या-क्या होता है , उसे बताया नहीं जा सकता। याद है एक बार क्लास में पढ़ाते समय, कुछ विशेष तथ्यों को समझाने के लिए "Historian's History of the World" (विश्व के इतिहास-निर्माताओं का इतिहास) का एक खंड लाइब्रेरी से क्लास में मंगवाये। उनको दूर से किसी ने हँसते हुए नहीं देखा था। किन्तु नजदीक जाने पर उनकी मूँछों के बीच से सुन्दर हँसी खिलती हुई देखि जा सकती थी। थोड़े से शब्दों में जो बातें कहते थे उसी से पता चल जाता था कि वे छात्रों से कितना स्नेह करते थे।
सतीश चंद्र दास महाशय हमलोगों को बंगला पढ़ाते थे और स्कूल को चलाने में जो कुछ आवश्यक होता वह सबकुछ वे स्वेच्छा से आगे बढ़कर पूरा कर देते थे। उनको देखकर किशोर मन में जो विचार उठते थे , आज कह सकता हूँ कि वैसे महापुरुष को ही स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।कविता या श्लोकों में शिक्षा ढूँढ़ने के रोग से मैं पहले से पीड़ित था। वे पढ़ाते समय इतना बेसुध होकर पढ़ाते थे कि चार साल की स्कूली पढ़ाई के दौरान उनके मुख से केवल दो श्लोक ही सुने थे। जिसमें से एक श्लोक में उन्होंने अपने Silver Voice में जो कहा था, उसका व्यवहार मैं बार बार करता हूँ।
मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ।
मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम् ॥
[मन -वचन -कर्म से जो एक हो वो है महात्मा।
मन -वचन -कर्म यदि भिन्न भिन्न ,तो है दुरात्मा।।]
अर्थात् श्रेष्ठ और महान व्यक्तियों के जो भी विचार होते हैं वे मन में वही बोलते हैं और उसी के अनुसार कार्य भी करते हैं। दूसरी ओर नीच और दुष्ट व्यक्ति सोचते कुछ हैं, बोलते कुछ हैं और करते भी भिन्न हैं। उपर्युक्त सुभाषित सज्जन और नीच व्यक्तियों की मानसिकता और व्यवहार में अंतर को बहुत ही सुन्दर ढंग से उजागर करता है।
हमलोगों का यह परमसौभाग्य है कि हमलोगों ने जिन पवित्र, उदारचरित महाप्राण, छात्रवत्सल, शिक्षकों के चरणों में बैठकर शिक्षा प्राप्त करने का सुयोग पाया था , उनमें से दो व्यक्ति आज भी इस मिलन-उत्सव में पधार कर प्रत्यक्ष देवता रूप में आशीर्वाद दे रहे हैं। श्री बेचाराम चक्रवर्ती और श्री पंचानन भट्टाचार्य महाशय दोनों हमलोगों को गणित पढ़ाते थे। मैंने उनसे इस गणित के विषय में अनकहा सबक ये सीखा है कि गणित का अन्तिम छोर 'एक' और 'शून्य' होता है ! [ "এবিষয়ে অকথিত এই শিক্ষা পেয়েছি যে, গণিতের প্রান্তদ্বের এক আর শূন্য। अर्थात गणित का ध्येय (end) 'एक' और 'शून्य' के महत्व को समझना है।] 'एक' को उचित स्थान में रखने से- 'शून्य' संख्या में वृद्धि करेगा, वैसा नहीं करें तो सब शून्य हो जायेगा। शंकराचार्य ने कहा है - 'एक' को जो 'शून्य' कहता है, वही मूर्ख है ! और उनके श्री चरणोंकमलों में हमलोग श्रद्धा पूर्वक प्रणाम निवेदित करके हमलोग धन्य हो गए हैं।
इसी प्रसंग में और दो व्यक्तियों की याद आ रही है, जो इसी विद्यालय के आचार्यदेव के छात्र थे,और आगे चलकर स्कॉटिश चर्च कालेज में मैंने जिनसे पढ़ा है। विपिन कृष्ण घोष M.A. में और B.T. में फर्स्ट-क्लास -फर्स्ट अंग्रेजी में थे आश्चर्य की बात स्कॉटिश चर्च कॉलेज में बंगला पढ़ाते थे। वे लोग बंगला में मेरिट लिस्ट में थे। इसी विद्यालय के और आचार्यदेव के छात्र डॉक्टर बुधेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय। विपिनदा के पास कई बार गया हूँ, बहुत कहने का समय नहीं है। थोड़े में कहता हूँ, उनको देखकर मन में वेद -पुराणों में कहे दधीचि ऋषि की याद हो आती थी।
दूसरे व्यक्ति थे डॉक्टर देवेन्द्रनाथ मित्र। गणित में ईशान स्कॉलर , केवल हमारे विद्यालय के नहीं , अन्दुल मौड़ी के गौरव थे। विदेशों के यूनिवर्सिटी में पढ़ाने जाते थे। तो दूसरी ओर गंभीर आध्यत्म के खोजी, निरहंकार साधु स्वभाव के व्यक्ति थे। सब बातें नहीं कहूंगा। इस विद्यालय के इन दो छात्रों के छात्र होने का गौरव अपने सीने में लिए हुए हूँ।
सतीश मास्टर महाशय को भारत के राष्ट्रीय आदर्श "त्याग और सेवा " में सिद्धि प्राप्त थी। आचार्य देव की कितनी सेवा उन्होंने की थी। और इसी स्कूल के एक साधारण कार्यकर्ता, एक ऐसे व्यक्ति थे जो उदार ह्रदय माली थे। वे हमलोगों को भी माता जैसे स्नेह से भोजन करवाते थे। इस अवसर पर उनके नाम (?) से पुरष्कार की घोषणा होने से एक इतिहास बना है। उनको हमलोग गुरुजन के रूप में देखते थे। वास्तव में वे मनुष्य जैसे यथार्थ 'मनुष्य' थे ! [क्योंकि कोई मनुष्य , श्रीराम के साथ अपने अद्वैत को केवल माया की कृपा से ही समझ सकता है। माया तुम्हारी राम, जीव भी तुम्हारा, ]
हमलोग तो इस स्कूल के केवल कुछ ही 'वर्षों तक सीमित छात्रों में से एक' हैं। किन्तु हमारे विद्यालय की यह जो अश्रान्त छात्र प्रवाह- है, उसके ऊपर एक ही व्यक्ति के विशेष जीवन का 52 वर्षों तक एक अमिट प्रभाव पड़ा था। उस व्यक्ति का व्यक्तित्व इस विद्यालय के अस्तित्व में व्याप्त हो गया था और उन्हें महापुरुष बना दिया था। उस व्यक्ति के व्यक्तित्व ने - ने इस 'अन्दुल HCE स्कूल ' को सचमुच एक-"पीढ़ीगत ज्ञानपीठ परम्परा"- (Heritage Jnanpith अर्थात गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा) में परिणत कर दिया था। 'The personality of that Individual' "तार सत्ता विद्यालयेर सत्ताय संचारित होय ताके महान करे तुलेछिलो !" [#তার সত্তা বিদ্যালয়ের সত্তায় সঞ্চারিত হয়ে তাকে মহান করে তুলেছিল, His being permeated the being of the school and made him great.] वह जीवन था हमारे स्कूल के प्रधान शिक्षक आचार्य शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय (1873-1966) का जीवन; जो 'बंगला रामायण' के रचयिता तथा नैषधीय चरित महाकाव्य में चतुष्पदी शिक्षा का उल्लेख करने वाले ' खड़दह के श्रीहर्ष के वंशज कामदेव पण्डित के 16 वीं पीढ़ी में जन्मे थे। ये कामदेव ही थे जिन्होंने नित्यानन्द प्रभु को खड़दह में लाकर बसाया था। जिसके कारण खड़दह को एक 'श्रीपीठ' के रूप में जाना जाता है। वे एक वैसे ही महापुरुष थे-जिसके बारे में कहावत है -
'वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि।
लोकोत्तराणां चेतांसि को नु विज्ञातुमर्हति ।।'
अर्थात - "उन महापुरुषों के मन की थाह भला कौन पा सकता है । जो अपने दुखों में 'वज्र' से भी कठोर और दूसरों के दुखों के लिए फूल से भी अधिक कोमल हो जाते हैं ।"-और इसी विशिष्टता के कारण ही वे समाज में प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध होते हैं।
ठीक उसी प्रकार आचार्यदेव ने भी अपने शिरीष नाम को सार्थक कर दिखाया था। महाकवि कालिदास ने संस्कृत के कालजयी अमर ग्रंथ 'कुमार सम्भव' में कहा है -
" मनीषिताः सन्ति गृहेषु देवतास्तपः क्व वत्से क्व च तावकं वपुः।
पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं शिरीषपुष्पं न पुनः पतत्रिणः॥"
[भावार्थ - मेना पार्वती को समझाते हए कहती है घर में (हिमालयपर) ही अभीष्ट मनोरथों को पूर्ण करने वाले अनेक देवी- देवता विद्यमान हैं जिनकी आराधना करके मनोवाञ्छित फल प्राप्त कर सकती हो। कहाँ तुम राजमहल की सुखसुविधा में पली- बढ़ी और सुकोमल शरीर वाली हो और कहाँ तपस्या की कठोर दिनचर्या है। क्योंकि शिरीष का कोमल पुष्प भ्रमर के भार को तो सह सकता है किन्तु किसी पक्षी के भार को तो कदापि नहीं। जिस प्रकार पक्षी के भार से पुष्प टूट जाता है, उसी प्रकार तुम्हारा कोमल शरीर भी तपजन्य कष्ट को सहन नहीं कर सकेगा। अतः तप का विचार त्याग कर घर में ही रहते हए ही मनोवाञ्छित फल की प्राप्ति हेतु इष्ट देवता की आराधना करो। (पंचम सर्ग-श्लोक-4,) साभार/https://archive.org/stream/Kumarsambhav/Kumarsambhav_djvu.txt)]
किसी किसी पुराने छात्रों के मुख से सुना हूँ कि मैंने देश-विदेश के अनेकों विद्वानों को देखा है किन्तु हमलोगों के आचार्यदेव जैसा अन्य को नहीं देखा। स्कूल में सूट पहनते थे और कुर्सी -टेबल लगाकर बैठते थे। किन्तु स्कूल के समय के अलावा जब वे उस कुर्सी पर बैठते, तब दूर से देखने पर ऐसा लगता था मानों कोई साधक बैठे हुए हैं। उन्होंने परा और अपरा दोनों विद्याओं की साधना की थी। इसलिए उनके जीवन का ऐसा प्रभाव पड़ा था। [तीनि दुई विद्यार ई साधना कोरे छिलेन - अपरा एवं परा ! -তিনি দুই বিদ্যার ই সাধনা করেছিলেন , অপরা এবং পরা।-अर्थात उन्होंने श्रीहर्ष के महाकाव्य 'नैषधीयचरित' के नलोपाख्यान में वर्णित 'अधीति, बोध, आचरण और प्रचार' की गुरु-शिष्य चतुष्पदी परम्परा में अपना जीवन गठन किया था ; इसलिए उनके जीवन का ऐसा प्रभाव पड़ा था।]
इंग्लैण्ड के सबसे बड़े और सबसे प्रतिष्ठित माध्यमिक विद्यालयों में से एक Eton-कॉलेज के (लंदन - ईटन कॉलेज, जो ब्रिटेन का संभवतः सबसे पॉश, सर्वाधिक कुलीन बोर्डिंग स्कूल है)- और इसके प्रधान शिक्षकों का जो आदर्श वाक्य है -"I am taught best by teaching" अर्थात दूसरों को पढ़ा कर मैं खुद सबसे अच्छा सीखता हूँ ! अर्थात दूसरों को पढ़ाना स्वयं सीखने का सबसे अच्छा तरीका है। किसी गूढ़ अवधारणा को समझने का सबसे अच्छा तरीका है उसे किसी दूसरे को समझाना।
[रोमन दार्शनिक सेनेका ने कहा था, "जब हम पढ़ाते हैं, तो हम सीखते हैं।" वैज्ञानिकों ने इस पद्धति को "प्रोटेग प्रभाव" (protégé effect) का नाम दिया है; इसमें पाया गया है कि जो 'छात्र' शिक्षक की भूमिका में पढ़ाने का भी काम करते हैं उन्हें परीक्षा में उन छात्रों की तुलना में अधिक अंक प्राप्त होते हैं जो केवल अपने लिए सीख रहे हैं। कोई concept- जैसे कोई गूढ़ महावाक्य या ठाकुर,माँ, स्वामीजी के उपदेश जैसे 'Be and Make', को समझाने का सबसे अच्छा तरीका है, उसे किसी दूसरे को समझाना- उदाहरण
1."मनुष्य दो प्रकार के होते हैं - एक नाम मात्र के मनुष्य और दूसरे मानहूँष (जागृत मनुष्य !) जो लोग केवल ईश्वर प्राप्ति के लिये व्याकुल हैं वे जागृत हैं -'मानहूँश' हैं ! और जो केवल कामिनी -कांचन के पीछे पागल हैं, वे सभी साधारण मनुष्य हैं - केवल नाम के मनुष्य।"
" Men are of two classes - men in name only (Manush) and the awakened men (Man-hunsh). Those who thirst after God alone belong to the latter class; those who are mad after 'woman and gold ' are all ordinary men - men in name only " ---Sri Ramakrishna .
1.2. "मेरे बच्चे, अगर तुम शांति चाहते हो, तो दूसरों के दोषों पर ध्यान मत दो। अपनी ही गलतियों पर ध्यान दो। दुनिया को अपना बनाना सीखो। कोई भी पराया नहीं है, मेरे बेटे पूरी दुनिया तुम्हारी अपनी है।"
"My child, if you want peace, then do not look into anybody's faults . Look into your own faults. Learn to make the world your own. No one is a stranger, my child ; the whole world is your own ." ---Sri Sarda Devi.
1.3" धर्म/या शिक्षा का रहस्य सिद्धांतों में नहीं, बल्कि व्यवहार में निहित है। अच्छा बनना और अच्छा करना - यही धर्म/अर्थात शिक्षा का सार है!
" The Secret of Religion/ Education lies not in theories but in practice. To be good and do good - that is the whole of religion/ie- education ! ---Swami Vivekananda ."]
.......उपरोक्त गूढ़ उपदेशों को स्वयं समझने का सबसे अच्छा तरीका है उसे किसी और को समझाना ।
प्रधान शिक्षक के रूप में आचार्यदेव का भी वही आदर्श वाक्य था -'कुर्वतो नास्ति कर्तृता।' सब कुछ करके भी " मैं ने किया" -'I did' -'আমি করেছি' ऐसा विचार भी मन में नहीं उठना चाहिए। स्मृति वचन' भी ऐसा है-
विवेकी सर्वदा मुक्तः कुर्वतो नास्ति कर्तृता ।
अलेपवादमाश्रित्य श्रीकृष्णजनको यथा ।।
अर्थात् “ श्रीकृष्ण और जनक के समान कोई भी ब्रह्मज्ञानी पुरुष (ब्रह्मविद) सब कर्म करके भी अकर्ता, अलिप्त एवं सर्वदा मुक्त ही रहता है।" [गीता 14.20 में भी यही बात कही गयी है।]
उनके जीवन के अन्तिम समय में उनके द्वारा आजीवन की गयी साधना का फल देखने का सौभाग्य भी मुझे प्राप्त हुआ है। उस समय वे साधक जैसे प्रतीत नहीं होते थे। उनको देखते ही "स्वतः मन बोलतः सिद्धपुरुषः -ब्रह्मज्ञ !" किन्तु इस प्रसंग को अभी नहीं उठाऊंगा। नवमी -दशमी की कक्षा में हमलोगों को वे अंग्रेजी में - शेली, टेनिसन, कीट्स, ब्राउनिंग, वर्ड्सवर्थ का गद्य व्हाइट नाइट आदि जो प्रोज -पोएट्री पढ़ाते थे। प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ते समय शेक्सपियर के प्रसिद्द नाटक हैमलेट में उन्होंने बहुत ही सुन्दर यादगार अभिनय किया था। और उनके एक विदेशी (अंग्रेज) प्रोफेसर ने उनके अभिनय से प्रभावित होकर कहा था -'वाह,तुमने तो आज प्रसिद्द अंग्रेज अभिनेता 'Beerbohm tree'(1852 – 1917) के जैसा अभिनय किया था।आचार्यदेव ने उस समय के विदेशों में अत्यन्त प्रसिद्द लेखक (Motivational writer) विलियम वॉकर एटकिंसन [William Walker Atkinson (1862–1932)] द्वारा लिखित ~ 'The Secret of Success' का अध्यन भी किया था, और जिस प्रकार हमलोगों को पढ़ाया था वह आजतक जीवन में बहुत काम आता है। महर्षि पतंजलि ने पाणिनि के अष्टाध्यायी पर जो व्याकरण महाभाष्य लिखा था, उसमें कहा गया है कि - "चतुर्भिश्च प्रकारैर्विद्योपयुक्ता भवति--आगमकालेन स्वाध्यायकालेन प्रवचनकालेन व्यवहारकालेनेति" ।। महाभाष्य १.१.१ पस्पशाह्निक।। विद्या चार प्रकार से उपयोगी सिद्ध होती -अर्जन में, अभ्यास करने , शिक्षण करने , और व्यव्हार में। जो विद्या अपने व्यवहार में नहीं उतरती वह व्यर्थ है। तथा जो अपने छात्रों को ऐसी शिक्षा दे पाते हैं उन्हीं को आचार्य (C-IN-C नवनी दा) कहते हैं। इसीलिए वायु पुराण में आचार्य को परिभाषित करते हुए कहा गया है-
आचिनोति च शास्त्रार्थं आचारे स्थापयते अधि !
स्वयं ह्यपि आचरेत् य: तु आचार्य: इति स्मृत: !
जो स्वयं सभी शास्त्रों का मर्म जानते हैं, और अपने आचरण के द्वारा उसको व्यक्त करते हों, दूसरों के द्वारा ऐसा आचार स्थापित हो इसलिए अहर्निश प्रयत्न करते हैं; और ऐसा आचार स्वयं अपने आचरण में लाता है, उन्हें आचार्य कहते है ।
आचार्यदेव के शिक्षकत्व का जब 50 वर्ष पूरे हो गए ,तब स्वर्ण जयंती (गोल्डन जुबली) के आयोजन पर स्कूल प्रांगण में उनकी संगमरमर की प्रतिमा लगाई गयी थी। इस प्रतिमा के मूर्तिकार उनके ही छात्र श्री कालोशशि बन्दोपाध्याय हैं। संगमरमर पत्थल के उसी टुकड़े से उन्होंने एक नन्दी (बैल/বৃষ/bull) की मूर्ति बना दी थी , जो आचार्यदेव की मातृदेवी द्वारा स्थापित मंदिर में शिव के वाहन के रूप में विद्यमान है।
आचार्यदेव के साथ उनके छात्रवृन्द के सम्बन्ध की बात सोचते समय कठोपनिषद्- 2.3.1 में कथित-'ऊर्ध्वमूलोऽवाक्साख एशोऽश्वत्थः सनातनः।" का स्मरण हो आता है। [जड़ ऊपर, अर्थात् 'विष्णु का वह सर्वोच्च स्थान ' ही इसका मूल है, यह संसार वृक्ष , जो अव्यक्त से लेकर अचल तक फैला हुआ है, इसकी जड़ ऊपर, अर्थात् ब्रह्म में है ।] यहाँ वह वृक्ष जिसका जड़ ऊपर और शाखायें नीचे हैं, भले अश्वस्थ का न होकर शिरीष का है। ['ब्रह्म' वृक्ष रूपी शिरीष का फूल बहुत चमत्कारी होता है! टेसू या पलाश का फूल, हिंदू धर्म में पलाश को भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश का निवास स्थान माना जाता है। पलाश जितना देखने मेंआकर्षित करता है, उससे अधिक इसके आयुर्वेदिक फायदे हैं।] पुराणों की भाषा में कहा जा सकता है कि -
"आजीव्यः सर्वछात्राणां ब्रह्मवृक्षः सनातनः। "
उसी विराट सनातन ब्रह्मवृक्ष का आश्रय लेकर इसका छात्र संगठन (The student body) जीवित है। हमसब उसी शिरीष वृक्ष पर 50 वर्ष पहले खिले शिरीष कुसुम एक एक गुच्छा हैं।
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এক গুচ্ছ শিরীষ কুসুম
শ্রী নবনীহরন মুখোপাধ্যায়
ভাবতে কেমন লাগে , পঞ্চাশ বছর আগে আমরা দশম শ্রেণীর পাঠ শেষ করে বিদ্যালয় ছাড়লাম। আজ তাদের মধ্যে যারা রয়েছি সেই বিদ্যালয় মিলিত হচ্ছি ---এক অপূর্ব মিলনোৎসবে। অভাবনীয় ! তবু যারা ভেবেছে তাদের কি বলে কৃতজ্ঞতা জানাবো জানিনা। কিন্তু সংসারে সুখ দুঃখ নিত্য সহচর। তাই বাধা বাজে , আমরা সবাই তো নেই। একে একে কত জন চলে গেছে। আর এই মিলনবেলার আয়োজকদের প্রধান সঙ্কট এই সে দিন যেভাবে আকস্মাৎ আমাদের ছেড়ে চলে গেল , সে দুঃখ কথার বলে বোঝান সম্ভব নয় " বোঝে প্রাণ বোঝে যার। "
যে দিন প্রথম এই মিলনোৎসবের কথা অসিতের চিঠিতে জানলাম আর তারপর দু-তিনবার কজনের সঙ্গে দেখা হল , তখন থেকে নয় সেটা যেন সুকুমার রায়ের অংকের মত হঠাৎ পঞ্চাশের বেশি কমে গেল। মনে হল ষাট বছর আগের কথা যখন প্রথম এই বিদ্যালয় দেখি। একটি শিক্ষকদের অনুষ্ঠানে আচার্যদেব এনেছিলেন। মনে আছে তখন কার পন্ডিত মশাই ক্ষেত্রমোহন চট্টোপাধ্যায় প্রমুখ শিক্ষক মশাইদের সংস্কৃতে তপোবন বর্ণন (" আত্মলোকে পুত ধুমকেতু:.... ") শুনেয়েছিলাম। তিনি হাত ধরে কোলে নিয়ে বলেছিলেন " তোমার বাকসিদ্ধি " হবে। " তখন মানে বুঝিনি। বড় হয় মনে পড়লে এখনও ভয় হয়।
তারপর স্কুলে ভর্তি হওয়া ১৯৪৩ এ সপ্তম শ্রেণীতে। এ স্কুল যখন হয় তখন কলিকাতা বিশ্ববিদ্যালয়ের জন্ম হয়নি। প্রথম প্রধান শিক্ষক ছিলেন স্যার আশুতোষের জ্যেষ্ঠতাত। আচার্যদেব এ স্কুলের প্রধান শিকক্ষক পদে ব্রতীহন ১৯০১ সালে। ১৯০২ সালে স্বামী বিবেকানন্দের তিরোধান হল স্কুলে স্মৃতি সভায় স্বামিজীরব ব্যাক্তিত্ব ও বাগ্মিতা বিষয়ে আচার্যদেব যা বলেন তা শৈলেন্দ্রনাথ ধরে কৃত " A comprehensive Biography of Swami Vivekananda " তে লিপিবদ্ধ আছে।
আচার্যদেব তাঁর অভিজ্ঞতা বলেন , যে হেতু তিনি ১৮৯৭ খ্রিস্টাব্দে দক্ষিনেশ্বরে শ্রীরামকৃষ্ণের জন্মতিথি উপলক্ষ্যে স্বামীজীর বক্তিতা মহাকবি গিরিশ চন্দ্র ঘোষের সঙ্গে গিয়ে শুনেছিলেন। ১৯০৫ সালে বঙ্গভঙ্গ আন্দোলন সংগ্রামের ইন্ধন যোগায়। আচার্যদেব নির্দেশে ছাত্ররা বিদেশী পণ্যের বহনং সবে যোগ দেয় স্কুলের নাম দিয়ে সে খবর ইংল্যান্ডের পত্রিকার প্রকাশিত হয় ও ফলে প্রধান শিককের নাম গ্রেপ্তারি পরোয়ানা জারি হয়। কিন্তু এক বাঘা ইংরেজ অফিসার গ্রেপ্তার করতে এসে স্কুলের অসাধারন শৃঙ্খলা দেখে ও প্রধান শিক্ষকের ব্যক্তিত্ব স্তম্ভিত হয়ে পরোয়ানা প্রত্যাহার করেন।
সেই স্কুলে সপ্তম শ্রেণী তে পড়ছি। সুবোধ চট খন্ডি মহাশয় ভূগোল পড়াবেন। ব্ল্যাক বোর্ডে মেপ টাঙিয়ে চেয়ারে বসে বেশ গোলগাল মানুষটি বেত দিয়ে মেপ পয়েন্ট করে দেখিয়ে বুঝিয়ে পড়াতো। ব্ল্যাকবোর্ডে আমাদের পন্ডিত মশাই (ক্ষেত্রমোহন পন্ডিত মহাশয়ের পুত্র স্বনামধন্য ভারত বিখ্যাত। .....???পড়াতেন সপ্ত তীর্থ ) চানক্য শ্লোক মুখস্থ করতে দিয়ে ছিলেন , হয় ওঠেনি। না বলতে পবায় পেছনে বিশ্যুট ভূতনাথ উপর দাঁড় করিয়ে দিয়েছিলেন সারা পিনিয়টা। ফল বড় ভাল হয়েছিল সেই থেকে তিনি। ... বেঞ্চির যত শ্লোক বলেছেন সব এখন ও মুখস্থ আছে। সংস্কৃত ছন্দে আকর্ষণ আসে ও একটা ছোট। ....তিনি ক্লাশে বই ও ছন্দে হাত দিয়ে বেরিয়ে। তিনি ছিলেন শ্রদ্ধার মূর্তি। তার কথা লিখতে হলে আমার ছোট সংস্কৃত স্মারকে ধরবে না। তিনি পরে কোলকাতা বিশ্ববিদ্যালয়ের অধ্যাপক হয় ছিলেন।
কিন্তু সে বিকালে আমাদের আচার্যদের আদেশ না করা পর্যন্ত স্কুল ছাড়েননি। পরে 'মীমাংসা দর্শন ' গ্রন্থে শুক অষ্টকম এর পর্যন্ত সে বিষয়ে শ্লোক যে ভাবে উদ্ধার করেন, সে বিষয়ে তাঁর আচার্য মহামুখোপাধ্যায় যোগেন্দ্রনাথ তর্কতীর্থ মহাপুরুষ এর একটি প্রশ্ন করলে তিনি সবিনয় নিবেদন করেন, বিদ্যালয়ে আচার্যদেবের মুখে তিনি শুনেছেন তীর্থ মহোদয় তাই লিখেছেন , গ্রন্থে দৃষ্টে নয় , কারন বিদ্যা গুরুমুখী।
সকলের কথা মনে হয়। তবে সব লেখার জায়গা কোথায় ? অমলেন্দু রায় মশাই আংরেজীর ব্যাকরণ পড়ালেন , যদি ভুলে গিয়ে না থাকি , টেষ্টে পরীক্ষায় ইংরেজিতে ৮৩ % মশাই এমন নম্বর পেয়ে ছিলাম। পরে ইংরেজিতে বই লিখতে ভয় হয়নি। অনেক বিশ্ববিদ্যালয়ে ইংরেজিতে ভাষণ দিতে পারা গেছে। কুরুক্ষেত্র বিশ্ববিদ্যালয়ে ভাষণের পর রাজ্যপালের স্ত্রী প্রশ্ন করেছিলেন -আমি কোন বিশ্বদ্যালয়ে ইংরেজি পড়েছি ? গর্বের সঙ্গে বলছি , ইংরেজি স্কটিশ চর্চ বিশ্ববিদ্যালয়ে শিখিনি , শিখেছি হাওড়া জেলার একটা গ্রামের স্কুলে।
গুরুদাস মেমোরিয়াল দোতালায় গাইলারিতে বিজ্ঞানের ক্লাস হতো , যেমন কলেজে হয় পরীক্ষা নিরীক্ষা করে দেখানো হতো। সে সময় কোন স্কুলে এমন ছিল কিনা জানিনা। ফনীন্দ্রনাথ পাল মশাই পড়াচ্ছেন। জিজ্ঞাসা করলেন , সাবান কি করে তৈরি হয় কেউ বলতে পারো ? কেউ পারেনা। একজন (কে ? মনে নেই ) উঠে বললেন , জানি স্যার। একটা বড় উনুনে একটা কড়ায় ঘিয়ের মতো একটা কি দিয়ে তার পর কি কি যেন মিশিয়ে খুব নাড়তে হয়। তারপরে নামলেই এক কড়া সাবান। আর সকলেই কি হাসি।
সহকারী প্রধান শিক্ষক ছিলেন তারেশ চন্দ্র কর। উচ্চ শ্রেণী তে ইতিহাস পড়াতেন রাশভারী গম্ভীর প্রকৃতির মানুষ। সব সময় কোঁচা ঝুলিয়ে ধুতি , পাঞ্জাবি গলায় প্রেন্ট বোতাম এটা ও কাঁধে চাদর। চোখে চশমা ও গোঁফ ছিল। কাছে ঘেঁষতে ভয় করতো। তখন ক্লাস না সর্বদাই মোট মোট বই পড়তেন , অনেক সময় হাতে নিয়ে পায়চারি করতে করতে ক্লাসে আসতেন। কয়েকটা মোট মোট বই নিয়ে। ছেলেদের ভালো করে শেখাতে হবে বলে কি পরিশ্রম। এসব আজ দেখা যায় না। একদিন মনে আছে পড়াতে পড়াতে Historian's History of the world ' এর বই একটা খন্ড লাইব্রেরি থেকে ক্লাসে আনলেন। কিছু বেশি তথ্য দেবার জন্যে। দূর থেকে কেউ হাসতে দেখেনি। কিন্তু কাছে গেলে গোঁফের ফাঁকে সুন্দর হাসি ফুটে উঠতো। অল্প যা কথা বলতেন তাতে বোঝা যেত ছাত্রদের কত স্নেহ করতেন।
বাংলা পড়াতেন আর স্কুলটা চালাতে যা যা দরকার সবটা স্বেচ্ছায় এগিয়ে গিয়ে করতেন সতীশ চন্দ্র দাস মহাশয়। তাঁকে দেখে কিশোর মনে যা উঠতো তা আজ বলছি -েকে বলে মহাপুরুষ বলা যায় স্থিত প্রাজ্ঞ। অনেক দিন আগে , তখনও কবিতা রোগে ভুগছি , একটা কবিতায় তাঁর কথা বলা হচ্ছিলো। তাঁর ছিল জেক বলে silver voice তিনি পোড়ালে সময় জ্ঞান থাকতো না। তিনচার বৎসরে দুটি শ্লোক বলে ছিলেন। তার একটি এখনও বার বার ব্যবহার করি।
मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ।
मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम् ॥
[मन -वचन -कर्म से जो एक हो वो है महात्मा।
मन -वचन -कर्म यदि भिन्न भिन्न ,तो है दुरात्मा।।]
আমাদের পরম সৌভাগ্য যে আমরা যে সব পবিত্র , উদারচরিত মহাপ্রাণ ছাত্রবৎসল শিক্ষকদের পাদমূলে বসে শিক্ষালাভ সুযোগ পেয়েছি। তাদের মধ্যে দুজন এই মিলনোৎসবে এসে আমাদের আজও প্রত্যক্ষ দেবতা হয় আশীর্বাদ করছেন। শ্রীযুক্ত বেচারাম চক্রবর্তী ও শ্রীযুক্ত পঞ্চানন ভট্টাচার্য মহোদয়গণ উভয়েই আমাদের অঙ্কশাস্ত্যের শিক্ষা দিতেন। যে বিষয়ে অকথিত এই শিক্ষা পেয়েছি যে গণিতের প্রান্ত দ্বেড় আর শূন্য। এক কে ঠিক রাখলে শূন্য সংখ্যা বৃদ্ধি করে , না হলে সবই শূন্য মাত্র। শঙ্করাচার্যঃ বলেছেন , এক কে যে শূন্য বলে সেই মূর্খ। আজ তাঁদের শ্রীচরণ কমলে আম্নাদের সশ্রদ্ধ প্রণাম নিবেদন করে আমরা धन्य হয়ই।
এ প্রসঙ্গে আর দুজনের কথা মনে হচ্ছে , যাঁরা এই বিদ্যালয়ের ও আচার্যদেবের ছাত্র ছিলেন ও ঘটনাক্রমে স্কটিশ চার্চ কলেজে তাঁদের কাছে পড়েছি। বিপিন কৃষ্ণ ঘোষ MA তে ও BT তে ফার্স্ট ক্লাস ফার্স্ট , ইংরেজিতে ও MA তে কৃতি পেছন ছিলেন এই বিদ্যালয়ের ওবং আচার্য দেবের ছাত্র বিখ্যাত ডাক্তার বুধেন্দ্রনাথ মুখোপাধ্যায়। বিপীনদার কাছে অনেক গেছি , অনেক বলার সুযোগ নেই। এটুকু বলি , তাঁকে দেখে মনে বেদ পূরণের দধীচি নিছক কপোলকল্পনা নয়। এমন চরিত্র মানুষের ও হয়।
দ্বিতীয় জন ডাক্তার দেবেন্দ্রনাথ মিত্র। অংকে ঈশান স্কলার , শুধু আমাদের বিদ্যালয়ের নয় , আন্দুল মুড়ি তে গৌরব। বিদেশের বিশ্ববিদ্যালয়ে পড়াতে গিয়েছেন। এদিকে গভীর অধ্যাত্ম অন্বেষী , নিরহংকার সাধু প্রকৃতি মানুষ। সব কথা বলবো না। এ বিদ্যালয়ের এই দুই ছাত্রের কাছে ছাত্র হতে পারার গৌরব বুকে নিয়ে আছি। সতীশ মাস্টার মশায়ের সিদ্ধি ছিল ত্যাগ ও সেবার। আচার্য দেবের কি সেবাই করেছিলেন। আর এক জন করে ছিল ওদের মালী স্কুলের সাধারণ কাজের কর্মী। আমাদের ও সে মায়ের স্নেহ দিয়ে খাবাতেন। তার নাম এই উপলক্ষে পারিতোষিক দিয়ে একটা ইতিহাস সৃষ্টি হলো। তাকে আমরা গুরুজন বলে দেখতাম। কি মানুষ ই ছিল
আমরা তো একটি বছরের। কিন্তু আমাদের বিদ্যালয়ের এই জয় অবিশ্রান্ত ছাত্র ধারা তাদের উপর একটি জীবনের প্রভাব পড়ে ছিল ৫২ বছর ধরে। সে শক্তি এ বিদ্যাপীঠ কে বিশেষ রূপ দিয়ে ছিল। তাঁর সত্তা বিদ্যালয়ের সত্তায় সঞ্চারিত হয়ে তাকে মহান করে তুলে ছিল। সে জীবন আমাদের প্রধান শিক্ষক আচার্য শিরিশচন্দ্র মুখোপাধ্যায় (কামদেবি)যিনি খড়দহ শ্রীহর্ষ বংশীয় কামদেব পন্ডিত সদাশ অধস্তন পুরুষ , যে কামদেব খড় দহে নিত্যানন্দ প্রভু কে আনয়ন করেছিলেন যাতে খড় দহ শ্রী পীঠ বলে চিহ্নিত হয়। তিনি ছিলেন - 'वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि।বাইরে কঠোর , কিন্তু ভিতরে কুসুমের থেকেও কোমল। শিরিষ নাম সার্থক। কালিদাস 'কুমার সম্ভবে ' বলছেন - শিরিষ কুসুম ভ্রমরের পদভারে সইলে ও পাখিদের পদভারে সইতে অসমর্থ। কোন কোন পুরানো ছাত্রের মুখে শুনেছি , দেশ -বিদেশের অনেক বিদ্বান দেখেছি , কিন্তু আমাদের মাষ্টার মহাশয়ের মত দেখলাম না। স্কুলে স্যুট পরতেন , টেবিল চেয়ার বসতেন। কিন্তু স্কুলের সময় ছাড়া যখন এই চেয়ারেই বসে থাকতেন , দূর থেকে দেখে মনে হতো কোন সাধক বসে আছেন। তিনি দুই বিদ্যার ই সাধনা করেছিলেন , অপরা এবং পরা। তাই সে জীবনের প্রভাব ওভাবে পড়েছিল।
প্রধান শিক্ষক হিসাবে ও তাঁর আদর্শ বাক্য ছিল - ETON -এর প্রধানদের শব্দগুচ্ছ " I am taught Best by teaching ' শেখাতে গিয়ে আমি সব থেকে ভাল করে শিখি। 'कुर्वतो नास्ति कर्तृता।'করেও 'আমি করেছি 'এ ভাব নেই। সারা জীবনের সাধনার ফল শেষ জীবনে দেখার সৌভাগ্য হয়েছে। তখন আর সাধক মনে হতো না। स्वतः मन बोलतः सिद्धपुरुष! ब्रह्मज्ञ ! সে কোথায় আর যাবো না। নবম-দশম শ্রেণীতে ইংরেজি গদ্য -পদ্য পড়িয়েছেন Shelley, Tennyson, Keats, Browning, Wordsworth गद्य White Knight পড়ান তো দত্তের মত নাট্যাভিনয় প্রেসিডেন্সি কলেজ Shakespeare এর নাটক অভিনয় করে বিদেশী অধ্যাপকদের প্রশংসা পেয়ে ছিলেন এক সময়। The Secret of Success:-Written by -William Walker Atkinson -1862–1932) পড়েছিলেন যা জীবনে বড় কাজে লেগেছে। পতঞ্জলি মহাভাষ্যে বলেছেন বিদ্যা চার প্রকারে উপযুক্ত হয়। অর্জনে, চর্চায় , শিক্ষনে ও ব্যবহারে। যে বিদ্যা ব্যবহারে আসে না তা ব্যর্থ।
এরূপ শিক্ষা যিনি দিতে পারেন তাঁকেই আচার্য বলে। মনু তাই বলেন ' -उपाध्यात् दश आचार्य:' শিক্ষক থেকে আচার্য দশগুন বড়। বায়ু পূরণে আচার্যের বিষয়ে বলা হয়েছে -"आचिनोति च शास्त्रार्थं आचारे स्थापयते अधि !स्वयं ह्यपि आचरेत् य: तु आचार्य: इति स्मृत: !' যিনি শাস্ত্রের অর্থ যথাযথ লাভ করে নিজ আচরণে তা পরিলক্ষিত করেছেন এবং যিনি অনুগতদের তেমন আচরণে উদ্বুদ্ধ করেন প্রেরিত করেন তিনি আচার্য। আচার্য দেবের প্রধান শিক্ষতার পঞ্চাশ বছর পূর্ন হলে সুবর্ন জয়ন্তী অনুষ্ঠানে বিদ্যালয়ের তাঁর মর্মর মূর্তি বসল। তারই ছাত্র কালোশশী বন্দোপাধ্যায় মূর্তির শিল্পী। সেই পাথর থেকেই তিনি একটি বৃষ তৈরি করে দেন , যা খড়দহে আচার্য দেবের মাতৃদেবীর প্রতিষ্ঠিত শিবের বাহনরূপে আজ ও রয়েছে। আচার্যদেবের সঙ্গে তাঁর ছাত্র বৃন্দের সম্বন্ধের কথা ভাবতে গিয়ে উপনিষদের 'ऊर्ध्वमूलोऽवाक्साख एशोऽश्वत्थः सनातनः।"মনে পড়ে/ঊর্ধ্ব মূল নিম্নতার শাখা সমূহ - সে বৃক্ষ টি আশ্বস্থ না হয়ে শিরিষ। পূরণের ভাষায় বলতে পারা যায় কিছু বদল করে - "आजीव्यः सर्वछात्राणां ब्रह्मवृक्षः सनातनः। " সেই বিরাট সনাতন ব্রাহ্ম বৃক্ষ টি আশ্রয় করে ছাত্র কুল বাস করছে। সে শিরিষ বৃক্ষের পঞ্চাশ বছর আমরা এক গুচ্ছ শিরিষ কুসুম।
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