परिच्छेद ~ १३३
*भक्तों का तीव्र वैराग्य*
(१)
[ (4 जनवरी, 1886) , श्री रामकृष्ण वचनामृत-133 ]
🔱🕊🏹ईश्वर के लिए नरेन्द्र की व्याकुलता🔱🕊🏹
श्रीरामकृष्ण काशीपुर के बगीचे में, मकान के ऊपरवाले मँजले में बैठे हुए हैं। दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर से श्रीयुत राम चटर्जी उनका कुशल-समाचार लेने के लिए आये थे।
श्रीरामकृष्ण मणि के साथ इसी सम्बन्ध में बातचीत करते हुए पूछ रहे हैं – ‘क्या इस समय वहाँ (दक्षिणेश्वर में) ठण्डक ज्यादा है ?’
आज पौष कृष्णा चतुर्दशी, सोमवार है, 4 जनवरी, 1886 । दिन के चार बजे का समय होगा।
नरेन्द्र आये और आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण उन्हें रह-रहकर देख रहे हैं और मुस्करा रहे हैं - मानो उनका स्नेह उछला जा रहा हो । श्रीरामकृष्ण ने मणि से इशारे से कहा कि नरेन्द्र रोये थे । फिर वे चुप हो गये । इसके बाद उन्होंने फिर इशारा किया कि नरेन्द्र घर से रास्ते भर रोते हुए आये थे ।
सब लोग चुप हैं । अब नरेन्द्र बातचीत कर रहे हैं ।
नरेन्द्र - सोच रहा हूँ, आज वहाँ चला जाऊँ ।
श्रीरामकृष्ण - कहाँ ?
नरेन्द्र - दक्षिणेश्वर के बेलतल्ले में, - वहाँ रात को धूनि जलाऊँगा ।
श्रीरामकृष्ण - नहीं, वे लोग (पड़ोस में 'मैगनीज' के पदाधिकारी) जलाने नहीं देंगे । पंचवटी बहुत अच्छी जगह है, - बहुत से साधुओं ने वहाँ जप-ध्यान किया है ।
"परन्तु बहुत ठण्डा है, और अँधेरा भी है ।"
सब लोग चुप हैं । श्रीरामकृष्ण फिर बोले ।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से, सहास्य) - तू पढ़ेगा नहीं ?
नरेन्द्र - (श्रीरामकृष्ण और मणि की ओर देखकर) - एक दवा पाऊँ तो जी में जी आये, - वह दवा ऐसी कि उससे जो कुछ मैने पढ़ा है, सब भूल जाऊँ ।
श्रीयुत गोपाल भी बैठे हुए हैं । उन्होंने कहा - 'साथ मैं भी चलूँगा ।' श्रीयुत कालीपद घोष श्रीरामकृष्ण के लिए अंगूर लाये हैं । अंगूरों का डब्बा श्रीरामकृष्ण के पास ही रखा था । श्रीरामकृष्ण भक्तों को अंगूर दे रहे हैं । नरेन्द्र को पहले दिया । फिर प्रसादी बताशों की तरह सब अंगूर लुटा दिये । भक्तों ने, जिसने जहाँ पाया, बीन लिया ।
(२)
[ (4 जनवरी, 1886), श्री रामकृष्ण वचनामृत-133 ]
🔱* नरेन्द्र का तीव्र वैराग्य *🔱
शाम हो गयी है, नरेन्द्र नीचे बैठे हुए एकान्त में मणि से अपने प्राणों की विकलता के सम्बन्ध में बातें कर रहे हैं ।
नरेन्द्र - (मणि से) - गत शनिवार को मैं यहाँ ध्यान कर रहा था, एकाएक छाती के भीतर न जाने कैसा होने लगा ।
मणि - कुण्डलिनी का जागरण हुआ होगा ।
नरेन्द्र - सम्भव है, वही हो । इड़ा और पिंगला का बिलकुल स्पष्ट अनुभव हुआ । हाजरा से मैंने कहा, छाती पर हाथ रखकर देखने के लिए । कल रविवार था, ऊपर जाकर मैं इनसे (श्रीरामकृष्ण से) मिला और सब बातें उन्हें कह सुनायीं ।
मैंने कहा, "सब की तो बन गयी, कुछ मुझे भी दीजिये । सब का तो काम हो गया और मेरा क्या न होगा ?"
मणि - उन्होंने तुमसे क्या कहा ?
नरेन्द्र - उन्होंने कहा, 'तू घर के लिए कोई व्यवस्था करके आ, सब हो जायेगा। तू क्या चाहता है?
मैंने कहा , 'मेरी इच्छा है, लगातार तीन-चार दिन तक समाधि -लीन रहा करूँ। कभी कभी बस भोजन भर के लिए उठूँ !
उन्होंने कहा, ‘तू तो बड़ी नीच बुद्धि का है । उस अवस्था से भी ऊँची अवस्था है । तू गाता भी तो है - जो कुछ है, सो तू ही है ।’
मणि - हाँ, वे तो सदा ही कहते हैं कि समाधि से उतरकर मन देखता है कि वे ही जीव और जगत् हुए हैं । यह अवस्था ईश्वरकोटि की हो सकती है । वे कहते है, जीवकोटि समाधिअवस्था को प्राप्त करते हैं, परन्तु फिर वे वहाँ से उत्तर नहीं सकते ।
नरेन्द्र - उन्होंने कहा , 'तू घर के लिए कोई व्यवस्था करके आ। समाधिलाभ की अवस्था से भी ऊँची अवस्था हो सकेगी।
"आज सबेरे मैं घर गया तो सब लोग डाँटने लगे और कहा, 'तुम क्या इधर-उधर घूमते रहते हो ! कानून की परीक्षा सिर पर आ गयी और तुम्हें न पढ़ना न लिखना - आवारा घूमते फिरते हो !"
मणि - तुम्हारी माँ ने भी कुछ कहा ?
नरेन्द्र - नहीं, वे मुझे खिलाने के लिए व्यस्त हो रही थीं ।
मणि – फिर ?
नरेन्द्र - दीदी के घर में, उसी पढ़नेवाले कमरे में मैं पढ़ने लगा । पर पढ़ने बैठा तो हृदय में एक बहुत बड़ा आतंक छा गया, जैसे पढ़ना एक भय का विषय हो ! छाती धड़कने लगी ! - इस तरह मैं और कभी नहीं रोया ।
"फिर पुस्तकें फेंककर भागा ! - रास्ते से होकर भागता गया । जूते रास्ते में न जाने कहाँ पड़े रह गये ! धान के पयाल के ढेर के पास से होकर भाग रहा था । देह भर में पयाल लिपट गया। मैं काशीपुर के रास्ते की ओर भाग रहा था ।"
नरेन्द्र कुछ देर चुप रहे । फिर कहने लगे - “विवेकचूड़ामणि सुनकर मन और बिगड़ गया है । शंकराचार्य लिखते हैं - इन तीन संयोगों को बड़ी ही तपस्या का फल समझना चाहिए, ये बड़े भाग्य से मिलते हैं, - मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं महापुरुष संश्रयः ।
"मैंने सोचा, मेरे लिए तीनों का संयोग हो गया है । बड़ी तपस्या का फल तो यह है कि मनुष्य-जन्म हुआ है, बड़ी तपस्या से मुक्ति की इच्छा हुई है, और सब से बड़ी तपस्या का फल यह है कि ऐसे महापुरुष का संग प्राप्त हुआ है !"
मणि- अहा !
नरेन्द्र - संसार अब अच्छा नहीं लगता । संसार में जो लोग हैं, उनसे भी जी हट गया है । दो-एक भक्तों को छोड़कर और कुछ अच्छा नहीं लगता ।
नरेन्द्र फिर चुप हो रहे । नरेन्द्र के भीतर तीव्र वैराग्य है । इस समय भी प्राणों में उथल-पुथल मची हुई है । नरेन्द्र फिर बातचीत कर रहे हैं ।
नरेन्द्र (मणि के प्रति ) - आप लोगों को तो शान्ति मिल गयी है, परन्तु मेरे प्राण अस्थिर हो रहे हैं । आप ही लोग धन्य हैं ।
मणि ने कोई उत्तर नहीं दिया । चुप हैं । सोच रहे हैं - श्रीरामकृष्ण ने कहा था, ईश्वर के लिए व्याकुल होना चाहिए, तब उनके दर्शन होते हैं । सन्ध्या के बाद ही मणि ऊपरवाले कमरे में गये । देखा, श्रीरामकृष्ण सो रहे हैं ।
रात के नौ बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण के पास निरंजन और शशी हैं । श्रीरामकृष्ण जागे । रह-रहकर वे नरेन्द्र की ही बातें कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - नरेन्द्र की अवस्था कितने आश्चर्य की है ! देखो, यही नरेन्द्र पहले साकार नहीं मानता था । अब इसके प्राणों में कैसी खलबली मची हुई है, तुमने देखा ? जैसा उस कहानी में है - किसी ने पूछा था, 'ईश्वर किस तह मिल सकेंगे ?' तब गुरु ने कहा, 'मेरे साथ चलो, मै तुम्हें दिखलाता हूँ कि किस तरह की अवस्था में ईश्वर मिलते हैं ।' यह कहकर गुरु ने एक तालाब में उसे ले जाकर डुबो दिया और ऊपर से दबाकर रखा, फिर कुछ देर बाद उसे छोड़कर गुरु ने पूछा - 'कहो तुम्हारे प्राण कैसे हो रहे थे?' उसने कहा, 'प्राण छटपटा रहे थे - मानो अब निकलते ही हों ।'
"ईश्वर के लिए प्राणों के छटपटाते रहने पर समझना कि अब दर्शन में देर नहीं है । अरुणोदय होने पर, पूर्व में लाली छा जाने पर समझ पड़ता है कि अब सूर्योदय होगा।"
आज श्रीरामकृष्ण की बीमारी बढ़ गयी है । शरीर को इतना कष्ट है, फिर भी नरेन्द्र के सम्बन्ध में ये सब बातें संकेत द्वारा भक्तों को बतला रहे हैं ।
आज रात को नरेन्द्र दक्षिणेश्वर चले गये । अमावस्या की रात्रि, घोर अन्धकारमयी हो रही है । नरेन्द्र के साथ दो-एक भक्त भी गये । रात को मणि बगीचे में ही हैं । स्वप्न में देख रहे हैं, वे संन्यासियों की मण्डली के बीच में बैठे हुए हैं ।
(३)
[(5 जनवरी, 1886), श्री रामकृष्ण वचनामृत-133 ]
🕊🏹भक्तों का तीव्र वैराग्य🕊🏹
दूसरे दिन मंगलवार है, ५ जनवरी । दिन के चार बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण शय्या पर बैठे हुए मणि से बातचीत कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - क्षीरोद अगर गंगासागर जाय, तो उसे एक कम्बल खरीद देना ।
मणि - जी महाराज, जो आज्ञा ।
श्रीरामकृष्ण - अच्छा, इन लड़कों को भला यह क्या हो रहा है ? कोई पुरी भाग रहा है तो कोई गंगासागर जा रहा है !
“सब घर छोड़-छोड़कर आ रहे हैं ! देखो न नरेन्द्र को । तीव्र वैराग्य के होने पर संसार कुआँ तथा आत्मीय काले साँप जैसे जान पड़ते हैं ।”
मणि - जी, संसार में बड़ा कष्ट है ।
श्रीरामकृष्ण - जन्म से ही नरक-यन्त्रणा होती है । देख रहे हो न, बीबी और बच्चों को लेकर कितना कष्ट होता है !
मणि - जी हाँ, और आपने कहा था, उनको(बालक भक्तों को) न किसी से लेना है, न देना; इस बीबी- बच्चों के बाद नाती -पोतों के प्रति दायित्व की भावना --लेने-देने के लिए ही अटका रहना पड़ता है ।
श्रीरामकृष्ण - देखते हो न निरंजन को ! उसका भाव है - 'यह ले अपना और इधर ला मेरा ।' बस, और कोई सम्बन्ध नहीं, और कोई खिंचाव नहीं ।
"कामिनी-कांचन, यही संसार है । देखो न, धन होता है तो तुम्हें उसे भविष्य के लिए सुरक्षित रख छोड़ने की सूझती है ।"
यह सुनकर मणि ठहाका मारकर हँसने लगे । श्रीरामकृष्ण भी हँसे ।
मणि - रुपया निकालते हुए बड़ा हिसाब पैदा होता है । (दोनों हँस पड़े) आपने दक्षिणेश्वर में कहा था, त्रिगुणातीत होकर अगर कोई संसार में रह सके तो हो सकता है ।
मणि- जी, परन्तु है बड़ा कठिन, बड़ी शक्ति चाहिए ।
श्रीरामकृष्ण कुछ चुप हैं ।
मणि - कल वे लोग दक्षिणेश्वर में ध्यान करने के लिए गये । मैंने स्वप्न देखा ।
श्रीरामकृष्ण - क्या देखा ?
मणि - देखा, नरेन्द्र आदि संन्यासी हो गये हैं, धूनी जलाकर बैठे हुए हैं-चिलम पी रहे हैं । उनके बीच में मैं भी बैठा हुआ हूँ ।
श्रीरामकृष्ण - मन से त्याग होने से ही हुआ; अगर ऐसा कोई कर सका तो वह भी संन्यासी है ।
श्रीरामकृष्ण चुप हैं । फिर बातचीत कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - परन्तु वासना में आग लगाओ, तब होगा ।
मणि - बड़ाबाजार में मारवाड़ियों के पण्डित से आपने कहा था, ‘मुझमें भक्ति की कामना है’, - भक्ति की कामना की गणना शायद कामनाओं में नहीं होती ।
श्रीरामकृष्ण - जैसे 'हिंचे' का साग सागों में नहीं गिना जाता, क्योंकि उससे पित्त का दमन होता है ।
"अच्छा, इतना आनन्द-भाव था, वह सब कहाँ गया ?"
मणि - गीता में जो त्रिगुणातीत अवस्था लिखी है, वही हुई होगी । सत्त्व, रज और तमोगुण आप ही आप काम कर रहे हैं, आप स्वयं निर्लिप्त हैं - सत्त्वगुण से भी आप निर्लिप्त हैं ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, जगन्माता ने मुझे बालक की अवस्था में रखा है ।
"क्या अबकी बार देह न रहेगी ?"
श्रीरामकृष्ण और मणि चुप हैं । नरेन्द्र नीचे से आये । एक बार घर जायेंगे । वहाँ की व्यवस्था करके आयेंगे ।
पिता के स्वर्गवास के बाद से नरेन्द्र की माँ और भाई बड़े कष्ट में हैं । कभी कभी फाके भी हो जाते हैं । नरेन्द्र ही उनका एकमात्र भरोसा है कि वे रोजगार करके उन्हें खिलायेंगे । परन्तु कानून की परीक्षा नरेन्द्र दे नहीं सके । इस समय उन्हें तीव्र वैराग्य है । इसीलिए आज का प्रबन्ध करने के लिए वे जा रहे हैं । एक मित्र ने उन्हें सौ रुपया कर्ज देने के लिए कहा है । उन्हीं रुपयों से घर के लिए तीन महीने तक के भोजन का प्रबन्ध करके आयेंगे ।
नरेन्द्र - जरा घर जाता हूँ एक बार । (मणि से) महिम चक्रवर्ती के घर से होकर जाऊँगा, क्या आप चलेंगे ?
मणि की जाने की इच्छा नहीं है । श्रीरामकृष्ण ने उनकी ओर देखकर नरेन्द्र से पूछा – ‘क्यों ?’
नरेन्द्र - उसी रास्ते से जा रहा हूँ, उनके साथ जरा बातें करता ।
श्रीरामकृष्ण एकदृष्टि से नरेन्द्र को देख रहे हैं ।
नरेन्द्र - यहाँ के एक मित्र ने सौ रुपये उधार देने के लिए कहा है । उन्हीं रुपयों से घर का तीन महीने के लिए प्रबन्ध करके आऊँगा ।
श्रीरामकृष्ण चुप हैं । मणि की ओर उन्होंने देखा ।
मणि - (नरेन्द्र से) - नहीं, तुम लोग चलो, मैं बाद में आऊँगा ।
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