मेरे बारे में

शुक्रवार, 22 सितंबर 2023

$🔱🙏 परिच्छेद-125, श्रीरामकृष्ण तथा डाक्टर सरकार - [( 24 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-125 ] डॉ० सरकार के साथ 'तुलनात्मक शरीर रचना विज्ञान' पर चर्चा 🙏नरेन्द्र – मैंने भी इन्हें कई बार देखा है । (विजय से) अतएव किस तरह कहूँ कि आपकी बात पर मुझे विश्वास नहीं होता ? 🙏मैक्स मुलर का धर्म विज्ञान : जो कुछ है सब तू ही है

  *परिच्छेद- १२५. 

 श्रीरामकृष्ण तथा डाक्टर सरकार    

(१)

[( 24 अक्टूबर, 1885)-  श्री रामकृष्ण वचनामृत-125 ]

 🙏डॉ० सरकार तथा धर्मचर्चा 🙏 

नरेन्द्र, महिमाचरण, मास्टर, डाक्टर सरकार आदि भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण श्यामपुकुर के दुमँजले पर कमरे में बैठे हुए हैं । दिन के एक बजे का समय होगा । २४ अक्टूबर १८८५, कार्तिक नवमी ।

श्रीरामकृष्ण (डॉक्टर सरकार से) - तुम्हारी यह (होमियोपैथिक) चिकित्सा अच्छी है ।

डाक्टर - इसमें रोगी की अवस्था पुस्तक में लिखे चिन्हों के साथ मिलायी जाती है । जैसे अंग्रेजी बाजा बजाने की लिपि, -स्वरलिपि (score) वह पढ़ी जाती है और साथ ही साथ गायी भी ।

“गिरीश घोष कहाँ हैं ? – परन्तु रहने दो । कल का जगा हुआ होगा ।”

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, भाव की अवस्था में भंग जैसा नशा चढ़ता है, यह क्या है ?

डाक्टर (मास्टर से) – स्नायुओं के केन्द्र हैं, उनकी क्रिया बन्द हो जाती है, इसीलिए सब जड़ हो जाता है - इधर पैर लड़खड़ाते रहते हैं । सब शक्ति मस्तिष्क की ओर जाती है । इसी स्नायविक क्रिया (nervous system) से जीवन है गरदन के पास मेडूला आब्लांगेटा (Medulla Oblongata) है, इसकी क्षति होने पर जीवन का दीपक बुझा हुआ जानो

श्रीयुत महिमाचरण चक्रवर्ती [ जिनके घर में महामण्डल के C-IN-C नवनीदा का जन्म हुआ था ] ने उस कुण्डलिनी शक्ति का वर्णन करना प्रारम्भ किया जो सुषुम्ना नाड़ी के भीतर रहती है - 'मैरुदण्ड के भीतर सूक्ष्म भाव से सुषुम्ना नाम की एक नाड़ी है - इसे कोई देख नहीं सकता । यह महादेवजी का वाक्य है ।’

डाक्टर - शिव ने मनुष्य की परीक्षा उसकी पूर्ण अवस्था में की । परन्तु युरोपियनों ने तो मनुष्य की जाँच गर्भावस्था से लेकर पूर्ण अवस्था तक सभी में की है । इसका तुलनात्मक इतिहास समझ लेना अच्छा है । भीलों का इतिहास पढ़कर पता चला है कि काली एक भीलनी थी , वह खूब लड़ी थी ! (सब हँसते हैं)

डाक्टर सरकार - "तुम लोग हँसो मत ।'तुलनात्मक शरीर रचना विज्ञान' ( Anatomy) से मानवता का कितना उपकार हुआ है, सुनो। पहले पाचनशक्ति पैदा करनेवाले रस और पित्त  का भेद  समझ में नहीं आ रहा था। फिर क्लाड बरनार्ड ने खरगोश की यकृत आदि की परीक्षा करके देखा कि पित्त (bile) और उस रस की क्रिया  में अन्तर है । 

"इससे सिद्ध होता है कि छोटे छोटे प्राणियों की ओर भी हमें ध्यान देना चाहिए । केवल मनुष्य को देखने से काम न चलेगा

"इसी तरह धर्म का तुलानात्मक अध्यन करने से भी बड़ा उपकार होता है ।

"ये (श्रीरामकृष्णदेव) जो कुछ कहते हैं, हृदय पर उसका असर अधिक क्यों होता है ! सब धर्म इनके देखे हुए हैं । हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, वैष्णव, शाक्त सब धर्मों को इन्होंने स्वयं साधना करके देखा है । मधुमक्खी जब अनेक फूलों से मधु-संचय करती है तभी उसके छत्ते में अच्छा मधु तैयार होता है ।"

मास्टर (श्री 'म'  डाक्टर से) - इन्होंने (महिमाचरण ने) विज्ञान का अध्ययन खूब किया है ।

डाक्टर (हँसकर) - कौनसा विज्ञान ? क्या मैक्समूलर का साइन्स ऑफ रिलिजन (धर्मविज्ञान) ?

महिमा (श्रीरामकृष्ण से) - आपकी बीमारी में डाक्टर क्या करेंगे ? जब मैंने सुना, आप बीमार हैं, तब सोचा, डाक्टरों का आप अहंकार बढ़ा रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - ये बड़े अच्छे डाक्टर हैं, और बहुत बड़े विद्वान् भी हैं ।

महिमा - जी हाँ, वे जहाज हैं और हम सब डोंगे हैं ।

विनयपूर्वक डाक्टर हाथ जोड़ रहे हैं ।

महिमा - परन्तु वहाँ (श्रीरामकृष्ण के पास) सब बराबर हैं ।

श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र से गाने के लिए कह रहे हैं । नरेन्द्र गा रहे हैं –

गाना - तुम्हें ही मैंने अपने जीवन का ध्रुवतारा बनाया है ...|  

गाना - अहंकार में मत्त हो रहा हूँ, अपार वासनाएँ उठ रही हैं ..... ।

गाना - तुम्हारी रचना अपार है, चमत्कारों से भरी हुई है ......।

गाना - महान् सिंहासन पर बैठे हुए हे विश्वपिता, तुम अपने ही रचित छन्दों में विश्व के महान् गीत सुन रहे हो । मर्त्य की मृत्तिका बनकर, इस क्षुद्र कण्ठ को लेकर, तुम्हारे द्वार पर मैं भी आया हुआ हूँ.... ।

गाना - हे राजराजेश्वर, दर्शन दो ! मैं तुम्हारी करुणा का भिक्षुक हूँ, मेरी ओर कृपाकटाक्ष करो । तुम्हारे श्रीचरणों में मैं अपने इन प्राणों का उत्सर्ग कर रहा हूँ, परन्तु ये भी संसार के अनलकुण्ड में झुलसे हुए हैं....।

 गाना - हरिरस-मदिरा पीकर, ऐ मेरे मन-मानस, मत्त हो जाओ । पृथ्वी पर लोटते हुए उनका नाम लो और रोओ.... ।

श्रीरामकृष्ण - और वह गाना - "जो कुछ है सब तू ही है ।"

डाक्टर – अहा ! गाना समाप्त हो गया । डाक्टर मुग्ध हो गये । कुछ देर बाद डाक्टर बड़े भक्तिभाव से हाथ जोड़कर श्रीरामकृष्ण से कह रहे हैं - तो आज आज्ञा दीजिये, कल फिर आऊँगा।

श्रीरामकृष्ण - अभी कुछ देर और ठहरो । गिरीश घोष के पास खबर भेजी गयी है । 

(महिमा की ओर संकेत करके) "ये विद्वान् हैं, और ईश्वर के कीर्तन में नाचते भी हैं । इनमें अहंकार छू नहीं गया । ये कोन्नगर चले गये थे, इसलिए कि हम लोग वहाँ चले गये थे । स्वाधीन हैं, धनवान हैं, किसी की नौकरी नहीं करते ।

(नरेन्द्र को दिखलाकर) यह कैसा है ?"

डाक्टर – जी, बहुत अच्छे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - और ये -

डाक्टर – अहा !

महिमा - हिन्दुओं के दर्शन अगर न पढ़े गये तो मानो दर्शनों का पढ़ना ही अधूरा रह गया । सांख्य के चौबीस तत्त्वों को यूरोप न तो जानता है और न समझ ही सकता है ।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - तुम कौन से तीन मार्गों की बात कहते हो ?

महिमा – सत्'पथ- ज्ञानमार्ग । चित्'पथ- योगमार्ग, कर्ममार्ग;  इसमें जीवन के चार आश्रमों  की क्रिया, कर्तव्य आदि वर्णित हैं तीसरा है आनन्दपथ - भक्ति और प्रेम का मार्ग । आप में तीनों मार्ग हैं - आप तीनों मार्ग की खबर बतलाते हैं । (श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं ।)

महिमा - मैं और क्या कहूँ ? वक्ता जनक और श्रोता शुकदेव

डाक्टर बिदा हो गये ।

[( 24 अक्टूबर, 1885)-  श्री रामकृष्ण वचनामृत-125 ]

*नित्यगोपाल तथा नरेन्द्र । 'जपात् सिद्धि ।'*

सन्ध्या के बाद चन्द्रोदय हुआ है । आज शनिवार, शरद पूर्णिमा का दूसरा दिन है । श्रीरामकृष्ण खड़े हुए समाधिमग्न हैं । नित्यगोपाल भी उनके पास भक्तिभाव से खड़े हैं ।

श्रीरामकृष्ण बैठे । नित्यगोपाल पैर दबा रहे हैं । कालीपद, देवेन्द्र आदि भक्त पास बैठे हुए हैं ।

श्रीरामकृष्ण (देवेन्द्र आदि से) - मेरे मन में यह भासित हो रहा है कि नित्यगोपाल की ये अवस्थाएँ अब चली जायेगी । उसका सब मन सिमटकर मुझमें आ जायेगा - जो मेरे भीतर हैं, उनमें। 

"नरेन्द्र को देखते हो न, उसका सब मन सिमटकर मुझपर आ रहा है ।  

भक्तों में बहुतेरे बिदा हो रहे हैं । श्रीरामकृष्ण खड़े हुए एक भक्त को जप की बातें बतला रहे हैं - "जप करने का अर्थ है निर्जन में चुपचाप उनका नाम लेना । एकाग्र होकर उनका नामजप करते रहने से उनके रूप के भी दर्शन होते हैं और उनसे साक्षात्कार भी होता है । जंजीर से बँधी लकड़ी गंगा में जैसे डुबायी हुई हो और जंजीर का दूसरा छोर तट पर बँधा हुआ हो। जंजीर की एक एक कड़ी पकड़कर कुछ दूर बढ़कर, फिर पानी में डुबकी मारकर, उसी प्रकार और आगे बढ़ते हुए लोग लकड़ी को अवश्य ही छू सकते हैं । इसी तरह जप करते हुए मग्न हो जाने पर धीरे-धीरे ईश्वर के दर्शन होते हैं ।"

कालीपद (सहास्य, भक्तों से) - हमारे ये अच्छे ठाकुर  हैं ! - जप, ध्यान, तपस्या, कुछ करना ही नहीं पड़ता !

इसी समय श्रीरामकृष्ण ने एकाएक कहा - "यहाँ (गले में) न जाने कैसा हो रहा है । 

श्रीरामकृष्ण के गले में दर्द हो रहा है । देवेन्द्र ने कहा, "हम इस तरह की बातों में नहीं आनेवाले ।” देवेन्द्र का भाव यह है कि श्रीरामकृष्ण ने लोगों को धोखे में डालने के लिए रोग का आश्रय लिया है

भक्तगण बिदा हो गये । रात में कुछ बालक-भक्त बारी बारी से जागकर श्रीरामकृष्ण की सेवा करेंगे । मास्टर भी आज रात को यहीं रहेंगे

(२)

 [( 25 अक्टूबर, 1885)-  श्री रामकृष्ण वचनामृत-125 ]

*डाक्टर सरकार तथा मास्टर*

आज रविवार है, कार्तिक, कृष्णद्वितीया, २५ अक्टूबर, १८८५ । श्रीरामकृष्ण कलकत्ते के श्यामपुकुरवाले मकान में रहते हैं । गले में पीड़ा (Cancer) है, उसी की चिकित्सा हो रही है । आजकल डाक्टर सरकार देख रहे हैं । 

डाक्टर को श्रीरामकृष्णदेव की अवस्था की खबर देने के लिए रोज मास्टर जाया करते हैं । आज सुबह साढ़े छः बजे के समय प्रणाम करके मास्टर ने पूछा - "आप कैसे हैं ?" श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - "डाक्टर से कहना, रात के पिछले भाग में मुँह कुल्ला भर पानी से भर जाता है, खाँसी है । पूछना, नहाऊँ या नहीं ।"

सात बजे के बाद मास्टर डाक्टर सरकार से मिले और कुल हाल उनसे कहा । डाक्टर के वृद्ध शिक्षक तथा दो-एक मित्र वहाँ उपस्थित थे । डाक्टर ने वृद्ध शिक्षक से कहा, 'महाशय, रात तीन बजे से मुझे परमहंस की चिन्ता है, नींद नहीं आयी, अब भी परमहंस की चिन्ता है ।' (सब हँसते हैं)

डाक्टर के मित्र डाक्टर से कह रहे हैं, “महाशय, मैंने सुना है, कोई कोई उन्हें अवतार कहते हैं । आप तो रोज देखते हैं, आपको क्या जान पड़ता है ?" डाक्टर ने कहा, "मनुष्य की दृष्टि से उनकी मैं अत्यन्त भक्ति करता हूँ ।"

मास्टर (डाक्टर के मित्र से) - डाक्टर महाशय बड़ी कृपा करके उनकी चिकित्सा कर रहे हैं ।

डाक्टर - कृपा करके ?

मास्टर - हम लोगों पर आप कृपा करते हैं, श्रीरामकृष्णदेव पर मैं नहीं कह रहा ।

डाक्टर - नहीं जी, ऐसा भी नहीं, तुम लोग नहीं जानते । वास्तव में मेरा नुकसान हो रहा है, दो-तीन Call (बुलावा) रोज ही रह जाते हैं - जा नहीं पाता । उसके दूसरे दिन रोगी के यहाँ खुद जाता हूँ और फीस(Fees) नहीं लेता, - खुद जाकर फीस लूँ भी कैसे ?

श्री महिमाचरण चक्रवर्ती की बात चली । शनिवार को जब डाक्टर परमहंसदेव को देखने के लिए गये थे, तब चक्रवर्ती महाशय उपस्थित थे । डाक्टर को देखकर उन्होंने श्रीरामकृष्ण से कहा था, ‘महाराज, डाक्टर का अहंकार बढ़ाने के लिए आपने रोग की सृष्टि की है ।’

मास्टर (डाक्टर से) - महिमा चक्रवर्ती आपके यहाँ पहले आया करते थे । आप घर में डाक्टरी विज्ञान पर लेक्चर देते थे, वे सुनने के लिए आया करते थे ।

डाक्टर - ऐसी बात ? परन्तु उस मनुष्य में तमोगुण भी कितना है ! देखा था तुमने ? - मैंने नमस्कार किया था जैसे वह तमोगुणी ईश्वर हो । और ईश्वर के भीतर तो तीनों गुण हैं । उसकी उस बात पर तुमने ध्यान दिया था ? – ‘आपने डाक्टरों का अहंकार बढ़ाने के लिए रोग का आश्रय लिया है ।'

मास्टर - महिमा चक्रवर्ती को विश्वास है कि श्रीरामकृष्णदेव अगर खुद चाहें तो बीमारी अच्छी कर सकते हैं ।

डाक्टर - अजी, ऐसा भी कभी होता है ? - आप ही आप बीमारी अच्छी कर लेना ? हम लोग डाक्टर हैं, हम लोग तो जानते हैं न, कि उस बीमारी के भीतर क्या क्या है ।

"हम ही जब इस तरह की बीमारी अच्छी नहीं कर सकते - तब वे तो कुछ जानते भी नहीं, वे किस तरह अच्छी करेंगे ? (मित्रों से) देखिये, रोग दुःसाध्य है, परन्तु इतना अवश्य है कि ये लोग उनकी सेवा भी खूब कर रहे हैं ।"

(३)

 [( 25 अक्टूबर, 1885)-  श्री रामकृष्ण वचनामृत-125 ]

*श्रीरामकृष्ण तथा मास्टर*

डाक्टर से आने के लिए कहकर मास्टर लौटे । भोजन आदि करके दिन के तीन बजे वे श्रीरामकृष्ण से मिले और डाक्टर की कुल कथा कह सुनायी । कहा, 'डाक्टर ने तो आज मुझे बहुतसी बातें सुनायीं।’

श्रीरामकृष्ण - क्यों, क्या कहा ?

मास्टर - महाराज, कल वे यहाँ सुन गये थे कि डाक्टर की शान को  बढ़ाने के लिए आपने यह रोग स्वयं ही पैदा किया है ।

श्रीरामकृष्ण - किसने कहा था ?

मास्टर - महिमा चक्रवर्ती  ने ।

श्रीरामकृष्ण – फिर ?

मास्टर - वह महिमा चक्रवर्ती को तमोगुणी ईश्वर कहने लगा । अब डाक्टर ने मान लिया है कि ईश्वर में तत्त्व, रज, तम तीनों गुण हैं । (श्रीरामकृष्णदेव का हास्य) फिर मुझसे उन्होंने कहा, 'आज रात को तीन बजे मेरी नींद उचट गयी और तभी से श्रीरामकृष्णदेव का चिन्तन कर रहा हूँ ।' जब मैं उनसे मिला था तब आठ बजे थे, और उन्होंने कहा, ‘अभी भी श्रीरामकृष्ण का मैं चिन्तन कर रहा हूँ ।’

श्रीरामकृष्ण - देखो, तुम जानते हो, वह अंग्रेजी पढ़ा-लिखा है, उससे यह नहीं कहा जा सकता कि तुम मेरी चिन्ता करो  (मेरे चित्र पर अपने मन को एकाग्र करो) । परन्तु अच्छा है, वह आप ही कर रहा है

मास्टर - फिर उन्होंने कहा, 'मैं उन्हें अवतार नहीं कहता, परन्तु मनुष्य समझकर उन पर मेरी सबसे अधिक भक्ति है ।'

श्रीरामकृष्ण - कुछ और बात हुई है ?

मास्टर - मैंने पूछा, 'आज बीमारी के लिए क्या बन्दोबस्त किया जाय ?' डाक्टर ने कहा, 'बन्दोबस्त मेरा सर होगा ! आज मुझे फिर जाना पड़ेगा और क्या !' (श्रीरामकृष्ण का हँसना)

“उन्होंने इतना और कहा, ‘तुम लोग नहीं जानते, मेरे कितने रुपयों पर पानी फिर जाता है । रोज दो-तीन जगह जाना नहीं हो पाता ।’”

 [( 25 अक्टूबर, 1885)-  श्री रामकृष्ण वचनामृत-125 ]

 4.

🔱🙏विजय आदि भक्तों के संग में 🔱🙏

कुछ देर बाद श्रीयुत विजयकृष्ण गोस्वामी श्रीरामकृष्णदेव के दर्शन करने के लिए आये । साथ कई ब्राह्म भक्त भी हैं । विजयकृष्ण बहुत दिनों तक ढाके में थे । इधर पश्चिम के बहुत से तीर्थों में भ्रमण करके अभी थोड़े ही दिन हुए कलकत्ता आये हैं । आते ही उन्होंने श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया । बहुतसे लोग उपस्थित हैं, - नरेन्द्र, महिमाचरण चक्रवर्ती, नवगोपाल, भूपति, लाटू, मास्टर, छोटे नरेन्द्र आदि बहुत से भक्त ।

महिमा चक्रवर्ती (विजय से) - महाशय, आप तीर्थ कर आये, बहुत से देश देखकर आये, अब कहिये, आपने क्या क्या देखा ।

विजय - क्या कहूँ ? मैं अनुभव कर रहा हूँ कि जहाँ अभी मैं बैठा हुआ हूँ, यहीं सब कुछ है । इधर-उधर भटकना व्यर्थ है । और जहाँ जहाँ मैं गया, कहीं इनका (श्रीरामकृष्ण का) एक आना, कहीं दो आने या चार आने अंश ही पाया, परन्तु पूरे सोलह आने तो केवल यहीं पा रहा हूँ

महिमा - आप ठीक कहते हैं । फिर, ये ही चक्कर लगवाते हैं और ये ही बैठाते हैं

श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - देख, विजय की कैसी अवस्था हो गयी है ! लक्षण सब बदल गये हैं, मानो उबाला हुआ है । मैं परमहंस की गरदन और कपाल देखकर बतला सकता हूँ कि वह परमहंस है या नहीं

महिमा - महाराज, क्या आपका भोजन घट गया है ?

विजय - हाँ, शायद घट गया है । (श्रीरामकृष्ण से) आपकी पीड़ा का हाल पाकर देखने के लिए आया हूँ । और फिर ढाके में

श्रीरामकृष्ण – क्या ?

विजय ने कोई उत्तर नहीं दिया । कुछ देर चुप हो रहे ।

विजय - अगर अपने आप को वे (श्रीरामकृष्ण) खुद न पकड़वा दें तो पकड़ना मुश्किल है । यहीं सोलहों आना (प्रकाश) है ।

श्रीरामकृष्ण - केदार ने कहा, 'दूसरी जगह खाने को नहीं मिलता, परन्तु यहाँ आते ही पेट भर जाता है ।'

महिमा - पेट भरना ही नहीं - इतना मिलता है कि पेट में समाता नहीं - बाहर गिर जाता है !

विजय - (हाथ जोड़कर, श्रीरामकृष्ण से) - आप कौन हैं, यह मैं समझ गया, अब कहना न होगा।

श्रीरामकृष्ण - (भावस्थ) - अगर ऐसा है तो यही सही ।

विजय ने कहा, 'मैं समझा ।' यह कहकर श्रीरामकृष्ण के पैर पर गिर पड़े और उनके चरणों को अपनी छाती से लगा लिया ।

श्रीरामकृष्ण ईश्वरावेश में बाह्यशून्य हो चित्रवत् बैठे हुए हैं । इस प्रेमावेश को, इस अद्भुत दृश्य को देखकर, भक्तों में किसी की आँखों से आँसू बह रहे हैं और कोई स्तुति-पाठ कर रहे हैं । जिसका जैसा भाव है, वह उसी भाव से श्रीरामकृष्ण की ओर हेर रहा है । कोई उन्हें परम भक्त देखता है, कोई साधु, कोई देह धारण करके आये हुए साक्षात् ईश्वरावतार, जिसका जैसा भाव ।

महिमाचरण गाने लगे । गाते हुए आँखों में पानी भर आया - 'देखो देखो प्रेममूर्ति ।' और बीच-बीच में इस भाव से श्लोकों की आवृत्ति करने लगे जैसे ब्रह्म का साक्षात् दर्शन कर रहे हों - 'तुरीयं सच्चिदानन्द द्वैताद्वैतविवर्जितम् ।'

नवगोपाल रोने लगे । एक दूसरे भक्त भूपति ने गाया ।

गाना - हे परब्रह्म, तुम्हारी जय हो, तुम अपार हो, अगम्य हो, परात्पर हो ..... । मुझे ज्ञान दो, भक्ति और प्रेम दो, और श्रीचरणों में मुझे आश्रय दो

भूपति फिर गा रहे हैं –

गाना - चिदानन्द-सिन्धु-सलिल में प्रेम और आनन्द की लहरें उठ रही हैं । रासलीला के महान् भाव में कैसी सुन्दर माधुरी है !....

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - आवेश में न जाने क्या हो जाता है । इस समय लज्जा आ रही है । उस समय जैसे भूत सवार हो जाता है, 'मैं' फिर 'मैं' नहीं रह जाता । 

"इस अवस्था के बाद  गिनती नहीं गिनी जा सकती । गिनने लगो तो १, ७, ९ इस तरह की गणना होती है ।"

नरेन्द्र - सब एक ही है, इसलिए ।

श्रीरामकृष्ण - नहीं, एक और दो से परे ।

महिमाचरण - जी हाँ, द्वैताद्वैतविवर्जितम् ।

श्रीरामकृष्ण - वहाँ तर्क-विचार नष्ट हो जाता है । पाण्डित्य द्वारा उन्हें कोई पा नहीं सकता । वे शास्त्रों, वेदों, पुराणों और तन्त्रों से परे हैं । किसी के हाथ में अगर मैं एक पुस्तक देखता हूँ तो उसके ज्ञानी होने पर भी मैं उसे राजर्षि कहता हूँ । ब्रह्मर्षि का कोई बाह्य लक्षण नहीं रहता ।

शास्त्रों का उपयोग क्या है, जानते हो ? एक ने चिट्ठी लिखी थी, उसमें था, पाँच सेर सन्देश और एक धोती भेजना । जिसे वह चिट्ठी मिली उसने पाँच सेर सन्देश और एक धोती, इतना याद करके चिट्ठी फेंक दी । चिट्ठी की क्या जरूरत थी ?

विजय - सन्देश भेजे गये, यह समझ लिया !

श्रीरामकृष्ण - ईश्वर आदमी की देह धारण करके आते हैं । यह सच है कि वे सब जगहों में और सर्व भूतों में हैं, परन्तु अवतार के बिना जीवों की आकांक्षा की पूर्ति नहीं होती, उनकी आवश्यकताएँ नहीं मिटती । वह इस तरह कि गौ को चाहे जहाँ छुओ वह गौ को ही छूना हुआ, सींग छूने पर भी गौ को छूना हुआ, परन्तु दूध गौ के थनों से ही आता है । (हास्य)

महिमा - दूध की अगर जरूरत हो तो गौ के सींगों में मुँह लगाने से क्या होगा ? उसके थनों में मुँह लगाना चाहिए । (सब हँसते हैं)

विजय - परन्तु बछड़ा पहले पहले इधर-उधर ही हूँथा मारता है ।

श्रीरामकृष्ण – (हँसते हुए) - बछड़े को उस तरह भटकते हुए देखकर कोई कोई ऐसा भी करते हैं कि उसका मुँह थनों में लगा देते हैं । (सब हँसते हैं)

(५)

 [( 25 अक्टूबर, 1885)-  श्री रामकृष्ण वचनामृत-125 ]

🔱🙏 भक्तों के साथ प्रेमानन्द में🔱🙏 

ये सब बातें हो रही थीं कि श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए डाक्टर आ पहुँचे और आसन ग्रहण किया । वे कह रहे हैं, 'कल रात तीन बजे से मेरी आँख नहीं लगी । बस तुम्हारी ही चिन्ता थी कि कहीं ऐसा न हो कि सर्दी लग जाय । और भी मैं बहुत कुछ सोच रहा था ।

श्रीरामकृष्ण - खाँसी हुई है, गले में भी सूजन है । सबेरे तड़के मुँह में पानी आ गया था । मेरा पूरा शरीर टूट रहा है ।

डाक्टर - सुबह को सब खबर मुझे मिली है ।

महिमाचरण अपने भारतवर्ष-भ्रमण की चर्चा कर रहे हैं । कहा, 'लंकाद्वीप में हँसता हुआ आदमी नहीं दीख पड़ता । डाक्टर सरकार ने कहा, 'हाँ होगा, परन्तु इसकी खोज होनी चाहिए ।' (सब हँसते हैं) 

डाक्टरी कार्य की बातचीत होने लगी ।

श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - बहुतों का यह ख्याल है कि डाक्टरी का स्थान अन्य कार्यों से बहुत ऊँचा है । यदि रुपया न लेकर, दूसरे का दुःख देखकर कोई चिकित्सा करे तब तो वह महान् व्यक्ति है, उसका कार्य भी महत्वपूर्ण है, नहीं तो जो लोग रुपया लेकर यह सब काम करते हैं, वे तो निर्दय हैं, और निर्दय होते जाते हैं । व्यवसाय की दृष्टि से मल-मूत्र देखना तो नीचों का काम है।

डाक्टर - महाराज, आप बिलकुल ठीक कहते हैं । डाक्टर के लिए उस भाव से काम करना तो सचमुच बहुत बुरा है । परन्तु आपके सम्मुख मैं अपने ही मुँह से क्या कहूँ –

श्रीरामकृष्ण - हाँ, डाक्टरी में निःस्वार्थ भाव से अगर दूसरे का उपकार किया जाय, तब तो बहुत अच्छा है ।

“चाहे जो काम आदमी करे, संसारी मनुष्य के लिए बीच-बीच में साधुसंग की बड़ी आवश्यकता है । ईश्वर में भक्ति रहने पर लोग साधुसंग आप खोज लेते हैं । मैं उपमा दिया करता हूँ – गँजेड़ी गँजेड़ी के साथ ही रहता है । दूसरे आदमी को देखता है तो वह सिर झुकाकर चला जाता है या छिप रहता है; परन्तु एक दूसरे गँजेड़ी को देखकर उसे परम प्रसन्नता होती है । कभी तो मारे प्रेम के दोनों गले लग जाते हैं । (सब हँसते हैं) और, गीध भी गीध ही के साथ रहता है ।” 

डाक्टर - परन्तु कौए के डर से ही गीध भाग जाता है । मैं कहता हूँ, सिर्फ मनुष्य की ही नहीं, सब जीवों की सेवा करनी चाहिए । मैं प्रायः गौरैयों को आटे की गोलियाँ दिया करता हूँ । और छत पर हजारों गौरैयाँ इकट्ठी हो जाती हैं ।

श्रीरामकृष्ण – वाह ! यह तो बड़ी अच्छी बात है । जीवों को खिलाना तो साधुओं का काम है । साधु-महात्मा चीटियों को शक्कर देते हैं ।

डाक्टर - आज गाना नहीं होगा ?

श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र से) - कुछ गाओ ।

नरेन्द्र गा रहे हैं, हाथ में तानपूरा लिए हुए । आज बाजा भी बज रहा है ।

गाना - हे दीनों के शरण ! तुम्हारा नाम बड़ा सुन्दर है । ऐ प्राणों में रमण करनेवाले ! अमृत की धारा बरस रही है, कर्ण शीतल बन जाते हैं...।   

नरेन्द्र फिर गा रहे हैं –

गाना - माँ ! मुझे पागल कर दे, ज्ञान और विचार की अब कोई आवश्यकता नहीं है .... ।

गाने के साथ ही इधर अद्भुत दृश्य दिखायी देने लगा - भावावेश में सब लोग पागल हो रहे हैं । पण्डित अपने पाण्डित्य का अभिमान छोड़कर खड़े हो गये । कह रहे हैं - 'माँ, मुझे पागल कर दे, ज्ञान और विचार की अब कोई आवश्यकता नहीं है ।'

सब से पहले आसन छोड़कर भावावेश में विजय खड़े हुए, फिर श्रीरामकृष्ण । श्रीरामकृष्ण देह की कठिन असाध्य व्याधि को बिलकुल भूल गये हैं । सामने डाक्टर हैं । वे भी खड़े हो गये । न रोगी को होश है, न डाक्टर को । छोटे नरेन्द्र और लाटू दोनों को भावसमाधि हो गयी ।

डाक्टर ने साइन्स (विज्ञान) पढ़ी है, परन्तु यह विचित्र अवस्था देखते हुए अवाक् हो रहे हैं । देखा, जिन्हें भावावेश है उनमें बाह्यज्ञान बिलकुल नहीं रह गया । सब के सब स्थिर और निःस्पन्द हो रहे हैं । भाव का उपशम होने पर कोई हँस रहे हैं, कोई रो रहे हैं, मानो कुछ मतवाले इकट्ठे हो गये हों ।

   [( 25 अक्टूबर, 1885)-  श्री रामकृष्ण वचनामृत-125 ]

(६)

भक्त के संग में । श्रीरामकृष्ण तथा क्रोध-जय ।

इस घटना के बाद लोगों ने आसन ग्रहण किया । रात के आठ बज गये हैं । फिर बातचीत होने लगी ।

श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - यह जो भाव  तुमने देखा, इसके सम्बन्ध में तुम्हारी साइन्स क्या कहती है ? तुम्हें क्या यह जान पड़ता है कि यह सब ढोंग है ?

डाक्टर (श्रीरामकृष्ण से) - जहाँ इतने आदमियों को ऐसा हो रहा है, वहाँ तो स्वाभाविक ही जान पड़ता है; ढोंग नहीं मालूम होता । (नरेन्द्र से) जब तुम गा रहे थे, 'माँ, पागल कर दे, ज्ञान और विचार की अब आवश्यकता नहीं है', तब मुझसे रहा नहीं गया, खड़ा हो गया, फिर बड़ी मुश्किल से भाव को दबाना पड़ा । मैंने सोचा कि बाहरी दिखाव न होने देना चाहिए

श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से, हँसकर) - तुम तो अटल, अचल और सुमेरुवत् हो । (सब हँसते हैं) तुम गम्भीरात्मा हो । रूपसनातन का भाव किसी को मालूम न हो पाता था । अगर किसी गड़ही में हाथी उतर जाता है तो पानी में उथल-पुथल मच जाती है, परन्तु बड़े सरोवर में कहीं कुछ नहीं होता । किसी को मालूम भी नहीं होता ।

श्रीमती ने सखियों से कहा, 'सखियों, कृष्ण के विरह में तुम लोग इतना रो रही हो, परन्तु मुझे देखो, मेरी आँखों में कहीं एक बूँद भी आँसू नहीं है ।' तब वृन्दा ने कहा, 'सखि, तेरी आँखों में आँसू नहीं है, इसका बहुत बड़ा अर्थ है । तेरे हृदय में विरह की आग सदा जल रही है, आँखों में आँसू आते हैं पर उस अग्नि की ज्वाला से सूख जाते हैं ।

डाक्टर - आपके साथ बातचीत में पार पाना कठिन है । (हास्य)

फिर दूसरी चर्चा होने लगी । श्रीरामकृष्ण भावावेश की अपनी पहली अवस्था बतला रहे हैं । और काम, क्रोध आदि को किस तरह वश में लाया जाय, ये बातें भी बतला रहे हैं ।

डाक्टर - आप भावावेश में पड़े हुए थे, एक दूसरे ने उस समय आपको बूट से पाद-प्रहार किया था, ये सब बातें मैं सुन चुका हूँ ।

श्रीरामकृष्ण - वह कालीघाट का चन्द्र हालदार था । वह मथुरबाबू के पास प्रायः आया करता था मैं ईश्वरावेश में अँधेरे में जमीन पर पड़ा हुआ था । चन्द्र हालदार पहले ही से सोचा करता था कि यह ढोंग किया करता है, मथुरबाबू का प्रिय पात्र बनने के लिए । वह अँधेरे में आकर जूते पहने हुए पैरों से ठेलने लगा । देह में निशान बन गये थे । सब ने कहा, 'मथुरबाबू से कह दिया जाय।' मैंने मना कर दिया

डाक्टर - यह भी ईश्वर की लीला है । इससे भी लोगों को शिक्षा होगी । क्रोध किस तरह जीता जाता है, क्षमा किसे कहते हैं, लोग समझेंगे ।  

श्रीरामकृष्ण के सामने विजय के साथ भक्तों की बातचीत हो रही है ।

विजय - न जाने कौन मेरे साथ सब समय रहते हैं, मेरे दूर रहने पर भी वे मुझे बतला देते हैं, कहाँ क्या हो रहा है !

नरेन्द्र - स्वर्गीय दूत की तरह रखवाली करते हुए !

विजय - ढाके में इन्हें (श्रीरामकृष्ण को) मैंने देखा है देह छूकर !

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए)- तो वह कोई दूसरा होगा ।

नरेन्द्र – मैंने भी इन्हें कई बार देखा है । (विजय से) अतएव किस तरह कहूँ कि आपकी बात पर मुझे विश्वास नहीं होता ?

===========








शनिवार, 16 सितंबर 2023

$🔱🙏परिच्छेद- 124~ श्रीरामकृष्ण तथा डा. सरकार* [ ( 23 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-124] 🔱‘भक्ति की शीतलता से जल का कुछ अंश बर्फ बना, फिर ज्ञानसूर्य के उगने पर वह बर्फ गल गया, अर्थात् भक्तियोग से साकार और ज्ञानयोग से निराकार 🙏जब तक देह है, तब तक उसके लिए प्रयत्न करना पड़ता है । "🔱कामिनी और कांचन से प्यार अगर बिलकुल दूर हो जाय, तो ठीक ठीक समझ में आ जाता है कि देह अलग है और आत्मा अलग ।🙏(अर्थात् मनुष्य बच्चे को - ईश्वर के अवतार को – लेकर, पिता को - ईश्वर को - भूल जाता है ।)🔱 कामिनी-कांचन ईश्वर को भुला देते हैं ।🙏"धन संचय की चेष्टा मिथ्या है ।🔱मैं मूर्ख हूँ, फिर भी पढ़े-लिखे लोग यहाँ आते हैं । यह कितने आश्चर्य की बात है !🙏 यहाँ आने की इच्छा न होते हुए भी मानो कोई शक्ति खींचकर यहाँ ले आती हो ?🔱🙏🔱🙏

[( 23 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-124] 

श्रीरामकृष्ण तथा डा. सरकार 

(१)

पूर्वकथा 

श्रीरामकृष्ण चिकित्सा के लिए श्यामपुकुरवाले मकान में भक्तों के साथ रहते हैं । आज शरद पूर्णिमा है, शुक्रवार २३ अक्टूबर १८८५ । दिन के दस बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण मास्टर के साथ बातचीत कर रहे हैं । मास्टर उनके पैरों में मोजा पहना रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - मफलर को काटकर पैरों में न पहन लिया जाय ? वह खूब गरम है ।

मास्टर हँस रहे हैं ।

कल बृहस्पतिवार की रात को डाक्टर सरकार के साथ बहुतसी बातें हुई थीं । उनका वर्णन करते हुए श्रीरामकृष्ण हँसकर मास्टर से कह रहे हैं – ‘कल कैसा मैंने तूँऊँ-तूँऊँ कहा !’

कल श्रीरामकृष्ण ने कहा था, "त्रिताप की ज्वाला में जीव झुलस रहे हैं, फिर भी कहते हैं - 'हम बड़े मजे में हैं ।' हाथ में काँटा चुभ गया है, धर-धर खून बह रहा है, फिर भी कहते हैं, 'हमारे हाथ में कहीं कुछ नहीं हुआ ।' ज्ञानाग्नि में इस काँटे को जलाना होगा ।"

 इन बातों को याद कर छोटे नरेन्द्र कह रहे हैं - "कल के टेढ़े काँटेवाले की बात बड़ी अच्छी थी । ज्ञानाग्नि में जला देना ।"

श्रीरामकृष्ण - उन सब अवस्थाओं को मैं खुद भोग चुका हूँ ।

"कुटीर के पीछे से जाते हुए जान पड़ा कि देह में मानो होमाग्नि जल उठी ! 

"पद्मलोचन ने कहा था, 'सभा करके मैं तुम्हारी अवस्था का हाल लोगों से कहूँगा ।' परन्तु इसके बाद उसकी मृत्यु हो गयी ।"

ग्यारह बजे के लगभग श्रीरामकृष्ण का संवाद लेकर डाक्टर सरकार के यहाँ मणि गये । हाल सुनकर डाक्टर उन्हीं के सम्बन्ध में बातचीत करने लगे और उनका हाल सुनने के लिए उत्सुकता प्रकट करने लगे ।

डाक्टर (सहास्य) – मैंने कल कैसा कहा, 'तूँऊँ-तूँऊँ’ कहने के लिए धुनिये  के हाथ में जाना पड़ता है !

मणि - जी हाँ, उस तरह के गुरु के हाथ में बिना पड़े अहंकार दूर नहीं होता  

“कल भक्तिवाली बात कैसी रही । भक्ति स्त्री है, वह अन्तःपुर तक जा सकती है ।”

डाक्टर – हाँ, वह 'बात' बड़ी अच्छी है । परन्तु इसलिए कहीं ज्ञान थोड़े ही छोड़ दिया जा सकता है!

मणि - श्रीरामकृष्णदेव ऐसा करने को कहते भी तो नहीं हैं । वे ज्ञान और भक्ति दोनों लेते हैं, - साकार और निराकार । वे कहते हैं, ‘भक्ति की शीतलता से जल का कुछ अंश बर्फ बना, फिर ज्ञानसूर्य के उगने पर वह बर्फ गल गया, अर्थात् भक्तियोग से साकार और ज्ञानयोग से निराकार।’  

"और आपने देखा है, ईश्वर को (माँ काली को) वे इतना समीप देखते हैं कि उनसे बातचीत भी करते हैं । छोटे बच्चे की तरह कहते हैं - 'माँ, दर्द बहुत होता है ।’

“और उनका Observation (दर्शन-पर्यवेक्षण) भी कितना अद्भुत है ! म्यूजियम में उन्होंने लकड़ी तथा जानवरों को देखा था जो फॉसिल (पत्थर) हो गये हैं । बस वहीं उन्हें साधु-संग की उपमा मिल गयी । जिस तरह पानी और कीच के पास रहते हुए लकड़ी आदि पत्थर हो गये हैं, उसी तरह साधु के पास रहते हुए आदमी साधु बन जाता है ।” 

डाक्टर - ईशानबाबू कल अवतार-अवतार कर रहे थे । अवतार कौनसी बला है - आदमी को ईश्वर कहना ?

मणि - उन लोगों का जैसा विश्वास हो, इस पर तर्कवितर्क क्यों ?

डाक्टर – हाँ, क्या जरूरत ?


मणि - और उस बात से कैसा हँसाया उन्होंने ! - एक आदमी ने देखा था कि मकान धँस गया है, परन्तु अखबार में वह बात लिखी नहीं थी, अतएव उस पर विश्वास कैसे किया जाता !

डाक्टर चुप हैं; क्योंकि श्रीरामकृष्ण ने कहा था, 'तुम्हारे Science (विज्ञान) में अवतार की बात नहीं है, अतएव तुम्हारी दृष्टि से अवतार नहीं हो सकता ।'

दोपहर का समय है । डाक्टर मणि को साथ लेकर गाड़ी पर बैठे । दूसरे रोगियों को देखकर अन्त में श्रीरामकृष्ण को देखने जायेंगे ।

डाक्टर उस दिन गिरीश का निमन्त्रण पाकर 'बुद्धलीला' अभिनय देखने गये थे । वे गाड़ी में बैठे हुए मणि से कह रहे हैं, ‘बुद्ध को दया का अवतार कहना अच्छा था; -विष्णु का अवतार क्यों कहा ?’

डाक्टर ने मणि को हेदुए के चौराहे पर उतार दिया ।

(२)

[( 23 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-124] 

🔱🙏श्रीरामकृष्ण की परमहंस अवस्था🔱🙏

दिन के तीन बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण के पास दो-एक भक्त बैठे हुए हैं । बालक की तरह अधीर होकर श्रीरामकृष्ण बार बार पूछ रहे हैं, 'डाक्टर कब आयेगा ? क्या बजा है?' आज सन्ध्या के बाद डाक्टर आनेवाले हैं ।

एकाएक श्रीरामकृष्ण की बालक जैसी अवस्था हो गयी, - तकिया गोद में लेकर वात्सल्य-रस से भरकर बच्चे को जैसे दूध पिला रहे हों । भावावेश में हैं, बालक की तरह हँस रहे हैं, और एक खास ढंग से धोती पहन रहे हैं ।मणि आदि आश्चर्य में आकर देख रहे हैं ।

कुछ देर बाद भाव का उपशम हुआ । श्रीरामकृष्ण के भोजन का समय आ गया । उन्होंने थोड़ी सूजी की खीर खायी ।

मणि को एकान्त में बहुत ही गुप्त बातें बतला रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (मणि से, एकान्त में) - अब तक भावावस्था में मैं क्या देख रहा था, जानते हो ? – सिऊड़ के रास्ते में तीन-चार कोस का एक मैदान है, वहाँ मैं अकेला हूँ । बड़ के नीचे मैंने जो १५-१६ साल के लड़के की तरह एक परमहंस देखा था, फिर ठीक उसी तरह देखा ।

 चारों ओर आनन्द का कुहरा-सा छाया है - उसी के भीतर से १३-१४ साल का एक लड़का निकला, केवल उसका मुँह दीख पड़ता था । पूर्ण की तरह का था । हम दोनों ही दिगम्बर ! - फिर आनन्दपूर्वक मैदान में दोनों ही दौड़ने और खेलने लगे । 

दौड़ने से पूर्ण को प्यास लगी । एक पात्र में उसने पानी पिया, पानी पीकर मुझे देने के लिए आया । मैंने कहा, 'भाई, तेरा जूठा पानी तो मैं न पी सकूँगा ।' तब वह हँसते हुए गिलास धोकर मेरे लिए पानी ले आया ।

श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हैं । कुछ देर बाद प्राकृत अवस्था में आकर मणि के साथ बातचीत कर रहे हैं । 

श्रीरामकृष्ण - अवस्था फिर बदल रही है । अब मैं प्रसाद नहीं ले सकता । सत्य और मिथ्या एक हुए जा रहे है ! - फिर क्या देखा, जानते हो ? - ईश्वरी रूप ! भगवती मूर्ति ! - पेट के भीतर बच्चा है - उसे निकालकर फिर निगल रही हैं ! - भीतर बच्चे का जितना अंश जा रहा है, उतना बिलकूल शून्य हुआ जा रहा है । मुझे दिखला रही थीं कि सब शून्य है “मानो कह रही हैं, देख, तू भानुमती का खेल देख !

मणि श्रीरामकृष्ण की बात सोच रहे हैं, 'बाजीगर ही सत्य है और सब मिथ्या है ।'

श्रीरामकृष्ण - उस समय पूर्ण पर मैंने आकर्षण का प्रयोग किया, परन्तु क्यों कुछ न हुआ ? उससे विश्वास घटा जा रहा है ।

मणि - ये तो सब सिद्धियाँ हैं ।

श्रीरामकृष्ण - निरी सिद्धि !

मणि - उस दिन अधर सेन के यहाँ से गाड़ी पर हम लोग आपके साथ जब दक्षिणेश्वर जा रहे थे, तब बोतल फूट गयी थी । एक ने कहा, 'आप बतलाइये, इससे क्या हानि होगी ?' आपने कहा, 'मुझे क्या गरज जो यह सब बतलाऊँ ? - यह सब तो सिद्धि का काम है ।'

श्रीरामकृष्ण – हाँ, लोग बीमार बच्चों को जमीन पर लिटा देते हैं और फिर कुछ लोग भगवान का नाम लेकर मन्त्र जपने लगते हैं जिससे वह अच्छा हो जाय । इसी प्रकार लोग अन्य बीमारियाँ भी मन्तर-जन्तर से अच्छी कर देते हैं । ये सब विभूतियाँ हैं । जिनका स्थान बहुत ही निम्न है वे ही लोग रोग अच्छा करने के लिए ईश्वर को पुकारते हैं ।

(३)

[( 23 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-124] 

🔱🙏श्रीमुखकथित चरितामृत🔱🙏

शाम हो गयी । श्रीरामकृष्ण चारपाई पर बैठे हुए जगन्माता की चिन्ता करते हुए उनका नाम ले रहे हैं । कई भक्त चुपचाप उनके पास बैठे हुए हैं ।

कमरे में लाटू, शशि, शरद, छोटे नरेन्द्र, पल्टू, भूपति, गिरीश आदि बहुत से भक्त बैठे हुए हैं । गिरीश के साथ स्टार -थिएटर के श्रीयुत रामतारण भी आये हैं - ये गाना गायेंगे ।  कुछ देर बाद डाक्टर सरकार आये ।

डाक्टर (श्रीरामकृष्ण से) - कल रात तीन बजे तुम्हारे लिए मुझे बड़ी चिन्ता हुई थीपानी बरसने लगा, तब मैंने सोचा, ‘परमात्मा जाने, तुम्हारे कमरे की दरवाजे - खिड़कियाँ खुली हैं या बन्द कर दी गयी हैं ।’  

डाक्टर का स्नेह  देखकर श्रीरामकृष्ण प्रसन्न हुए । और कहा - "कहते क्या हो ! जब तक देह है, तब तक उसके लिए प्रयत्न करना पड़ता है । "

परन्तु देख रहा हूँ, यह एक अलग बात है । कामिनी और कांचन से प्यार अगर बिलकुल दूर हो जाय, तो ठीक ठीक समझ में आ जाता है कि देह अलग है और आत्मा अलग । नारियल का सब पानी जब सूख जाता है तब खोपड़ा अलग और गोला अलग हो जाता है । तब नारियल को हिलाने से ही यह समझ में आ जाता है कि भीतर गोला खोपड़े से छूटकर खड़खड़ा रहा है, - जैसे म्यान और तलवार, म्यान अलग है और तलवार अलग । 

"इसीलिए देह की बीमारी को अच्छा करने के लिए उनसे अधिक कुछ कहा भी नहीं जाता ।"

गिरीश (भक्तों के प्रति) - पण्डित शशधर ने इनसे कहा था, 'आप समाधि की अवस्था में शरीर की ओर मन को ले आया करें तो बीमारी अच्छी हो जाय ।' और इन्हें भाव में ऐसा दिखा कि शरीर केवल हाड़-माँस का एक ढेर है ।

श्रीरामकृष्ण - बहुत दिन हुए, मुझे उस समय सख्त बीमारी थीकालीमन्दिर में मैं बैठा हुआ था । माता के पास प्रार्थना करने की इच्छा हुई । पर ठीक ठीक खुद न कह सका । कहा, ‘माँ, हृदय मुझसे कहता है कि मैं तुम्हारे पास अपनी बीमारी की बात कहूँ ।’ पर और अधिक मैं न कह सका ।

कहते ही कहते सोसायटी के अजायबघर(Asiatic Society's Museum) की याद आ गयी । वहाँ का तारों से बँधा हुआ मनुष्य का अस्थिपंजर आँखों के सामने आ गया । झट मैंने कहा, 'माँ, मैं केवल यही चाहता हूँ कि तुम्हारा नाम-गुण गाता रहूँ । इतने के लिए ही इस शरीर के अस्थिपंजर को तारों से कसे भर रखना, उस अजायबघर के अस्थिपंजर की तरह ।' 

"सिद्धि की प्रार्थना मुझसे होती ही नहीं ।  पहले-पहल हृदय ने कहा था - मैं हृदय के 'अण्डर'(आधीन) था न - 'माँ से कुछ विभूति माँगो ।' मैं कालीमन्दिर में प्रार्थना करने के लिए गया । जाकर देखा एक अधेड़ विधवा, कोई ३०-३५ वर्ष की होगी, तमाम मल से सनी हुई है । तब मुझे यह स्पष्ट हुआ कि सिद्धियाँ इस मल के सदृश ही हैं । तब तो हृदय पर मुझे बड़ा क्रोध आया, - क्यों उसने मुझसे कहा कि मैं सिद्धियों के लिए प्रार्थना करू ?"

रामतारण का गाना हो रहा है । गिरीश घोष के 'बुद्धदेव' नाटक का एक गीत वे गा रहे हैं । 

(भावार्थ) "मेरी यह वीणा मुझे बड़ी प्रिय है । उसके तार बड़े यत्न से गूँथे हुए हैं । उस वीणा को जो यत्नपूर्वक रखना जानता है वही उसे बजाता है, और तब उससे अनवरत सुधा-धारा बह चलती है । ताल-मान के साथ उसके तारों को कसने पर माधुरी शत धाराओं से होकर प्रवाहित होने लगती है । तारों के ढीले रहने पर वह नहीं बजती, और अधिक खींचने से उसके कोमल तार टूट जाते हैं।"  

डाक्टर (गिरीश से) - क्या यह सब गान मौलिक है ?

गिरीश - नहीं, ये एड्विन आर्नल्ड के भाव हैं ।

रामतारण 'बुद्धदेव' नाटक का एक गीत,  गा रहे हैं : 

"जुड़ाना चाहता हूँ,....  परन्तु कहाँ जुड़ाऊँ ? न जाने कहाँ से आकर कहाँ बहा जा रहा हूँ ! बार बार आता हूँ, न जाने कितना हँसता और कितना रोता हूँ । सदा मुझे यही सोच लगा रहता है कि मैं कहाँ जा रहा हूँ ।... ऐ जागनेवाले, मुझे भी जगा दो । हाय ! कब तक और यह स्वप्न चलता रहेगा ? क्या तुम सचमुच जाग रहे हो, यदि नहीं तो अब अधिक मत सोओ ? ऐ सोनेवाले ! नींद से उठो, और कहीं फिर मत सो जाना । यह घोर निबिड़ अन्धकार बड़ा दारुण है, बड़ा कष्टदायी है । इस अन्धकार का नाश करो, हे प्रकाश ! तुम्हारे बिना और कोई उपाय ही नहीं है - तुम्हारे श्रीचरणों में मैं शरण चाहता हूँ !"

यह गीत सुनते ही सुनते श्रीरामकृष्ण को भावावेश हो रहा है ।

गाना – “सन् सन् सन् चल री आँधी ।”

गाने के समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा, "यह क्या किया ? खीर खिलाकर फिर नीम की तरकारी ? 

"इन्होंने ज्योंही गाया ‘करो तमोनाश’ त्योंही मैंने देखा सूर्य ! - उदय होने के साथ ही चारों ओर का अन्धकार दूर हो गया । और उसी के चरणों में सब लोग शरणागत होकर गिर रहे हैं!"

रामतारण फिर गा रहे हैं –

गाना - 

दीनतारिणी, दुरितवारिणी, सत्त्वरजस्तम त्रिगुणधारिणी, 

सृजनपालन-निधनकारिणी, सगुणा निर्गुणा सर्वस्वरूपिणी।  ....

गाना - 

धरम करम सकली गेलो, श्यामापूजा बुझी होलो ना !

मन निवारित नारि कोन मते, छि, छि, कि ज्वाला बोलो ना।।    

मेरा धर्म और कर्म सब तो चला गया, परन्तु मेरी श्यामापूजा शायद पूरी नहीं हुई ! ....

यह गीत सुनकर श्रीरामकृष्ण फिर भावाविष्ट हो गये ।

गवैये ने फिर गाया, “ओ माँ, तेरे चरणों में लाल जवा फूल किसने चढ़ाया ?..”

(४)

🔱🙏* संन्यासी तथा गृहस्थ के कर्तव्य*🔱🙏

गाना समाप्त हो गया । भक्तों में बहुतों को भावावेश हो गया है । सब चुपचाप बैठे हैं । छोटे नरेन्द्र ध्यानमग्न हो काठ के पुतले की तरह बैठे हुए हैं ।

श्रीरामकृष्ण - (छोटे नरेन्द्र को दिखाकर, डाक्टर से) - यह बहुत ही शुद्ध है । इसमें विषय-बुद्धि छू भी नहीं गयी । डाक्टर नरेन्द्र को देख रहे हैं । अब भी उनका ध्यान नहीं छूटा ।

मनोमोहन (डाक्टर से हँसकर) - आपके बच्चे की बात पर ये (श्रीरामकृष्ण) कहते हैं, ‘बच्चा अगर मिल जाय तो मुझे उसके बाप की चाह नहीं है ।’

डाक्टर - यही तो ! इसीलिए तो कहता हूँ, तुम लोग बच्चे को लेकर भूल जाते हो ! (अर्थात् मनुष्य बच्चे को - अवतार को – लेकर, पिता को - ईश्वर को - भूल जाता है ।)

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - मैं यह नहीं कहता कि मुझे बाप की कुछ भी चाह नहीं है ।

डाक्टर - यह मैं समझ गया, इस तरह दो-एक बातें बिना कहे काम कैसे चल सकेगा ?

श्रीरामकृष्ण - तुम्हारा लड़का बड़ा सरल है । शम्भु ने मुँह लाल करके कहा था, 'सरल भाव से उन्हें पुकारने पर वे अवश्य ही सुनेंगे ।' मैं लड़कों को इतना प्यार क्यों करता हूँ, जानते हो ? वे सब निखालस दूध है – थोड़ासा गरम कर लेने से ही श्रीठाकुरजी की सेवा में लगाया जा सकता है। 
"जिस दूध में पानी मिला रहता है, उसे बड़ी देर तक गरम करना पड़ता है, बहुत लकड़ी खर्च होती है ।

"बच्चे सब मानो नयी हण्डियाँ हैं, पात्र अच्छा है, इसलिए निश्चिन्त होकर दूध रखा जा सकता है । उन्हें ज्ञानोपदेश देने पर बहुत शीघ्र चैतन्य होता है विषयी आदमियों को शीघ्र होश नहीं होता । जिस हण्डी में दही जमाया जा चुका है, उसमें दूध रखते भय होता है कि कहीं दूध नष्ट न हो जाय।

"तुम्हारे लड़के में अभी विषय-बुद्धि – कामिनी-कांचन का प्रवेश नहीं हुआ ।"

डाक्टर - बाप की कमाई उड़ा रहे है न ! अपने को करना पड़ता तब मैं देखता कि ये अपने को सांसारिकता से कैसे अलग रख सकते थे ।

श्रीरामकृष्ण - यह ठीक है । परन्तु बात यह है कि विषय-बुद्धि से वे बहुत दूर हैं, नहीं तो वे मुट्ठी में ही हैं । (सरकार और डाक्टर दोकौड़ी से) कामिनी और कांचन का त्याग आप लोगों के लिए नहीं है । आप लोग मन ही मन त्याग करेंगे । गोस्वामियों से इसलिए मैंने कहा, 'तुम लोग त्याग की बात क्यों कर रहे हो ? - त्याग करने से तुम्हारा काम नहीं - चल सकता - श्यामसुन्दर की सेवा जो है ।' 

"त्याग संन्यासी के लिए है । उसके लिए स्त्रियों का चित्र भी देखना निषिद्ध है । स्त्री उसके लिए विष की तरह है । कम से कम दस हाथ की दूरी पर रहना चाहिए । अगर बिलकुल न निर्वाह हो तो एक हाथ का अन्तर स्त्रियों से हमेशा रखना चाहिए । स्त्री चाहे लाख भक्त हो, परन्तु उससे अधिक बातचीत नहीं करनी चाहिए । "यहाँ तक कि संन्यासी को ऐसी जगह रहना चाहिए जहाँ स्त्रियाँ बिलकुल नहीं या बहुत कम जाती हों । 

 रुपया भी संन्यासी के लिए विषवत् है । रुपये के पास रहने से ही चिन्ताएँ, अहंकार, देह-सुख की चेष्टा, क्रोध आदि सब आ जाते हैं । रजोगुण की वृद्धि होती है । और रजोगुण के रहने से ही तमोगुण होता है । इसलिए संन्यासी कांचन का स्पर्श नहीं करते कामिनी-कांचन ईश्वर को भुला देते हैं ।

"तुम्हें यह समझना चाहिए कि रुपये से दाल-रोटी मिलती है, पहनने के लिए वस्त्र मिलता है, रहने की जगह मिलती है, श्रीठाकुरजी की सेवा होती है और साधुओं तथा भक्तों की सेवा होती है ।

"धन संचय की चेष्टा मिथ्या है । मधुमक्खी बड़े कष्ट से छत्ता तैयार करती है, और कोई दूसरा आकर उसे तोड़ ले जाता है ।"

डाक्टर - लोग रुपये इकट्ठा करते हैं । किसके लिए ? एक बदमाश बच्चे के लिए ।

श्रीरामकृष्ण - लड़का ही आवारा निकला या बीबी किसी दूसरे के साथ फँस गयी शायद तुम्हारी ही घड़ी और चेन अपने यार को लगाने के लिए दे दे !

"परन्तु स्त्री का बिलकुल त्याग करना तुम्हारे लिए नहीं है । अपनी पत्नी से उपभोग करने में दोष नहीं है; परन्तु लड़के बच्चे हो जाने पर भाई-बहन की तरह रहना चाहिए ।

“कामिनी और कांचन में आसक्ति के रहने पर विद्या का अहंकार, धन का अहंकार, उच्च पद का अहंकार - यह सब होता है ।”

(५)

 [ ( 23 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-124] 

🔱🙏अहंकार तथा विद्या का 'मैं'  🔱🙏

श्रीरामकृष्ण - अहंकार के बिना गये ज्ञानलाभ नहीं होता । ऊँचे टीले पर पानी नहीं रुकता । नीची जमीन में ही चारों ओर का पानी सिमटकर भर जाता है ।

डाक्टर - परन्तु नीची जमीन में जो चारों ओर का पानी आता है, उसके भीतर अच्छा पानी भी रहता है और दूषित भी । पहाड़ के ऊपर भी नीची जमीन है । नैनीताल, मानसरोवर ऐसे स्थान हैं जहाँ आकाश का ही शुद्ध पानी रहता है

श्रीरामकृष्ण - आकाश का ही शुद्ध पानी - यह बहुत अच्छा है !

डाक्टर - इसके आलावा ऊँचे स्थान से पानी चारों ओर वितरित भी किया जा सकता है ।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - एक व्यक्ति ने (श्री रामानुजाचार्य स्वामी ? अपने गुरु से सिद्ध मन्त्र पाया था । उसने पहाड़ पर खड़े होकर चिल्लाते हुए कह दिया – ‘तुम लोग इस मन्त्र को जपकर ईश्वर-लाभ कर सकोगे ।’

डाक्टर – हाँ ।

श्रीरामकृष्ण - परन्तु एक बात है, जब ईश्वर के लिए प्राण विकल होते हैं, तब यह विचार नहीं रहता कि यह पानी अच्छा है और यह बुरा । तब उन्हें जानने के लिए कभी भले आदमी के पास जाया जाता है, कभी बुरे आदमी के पास । उनकी कृपा होने पर गँदले पानी से कोई नुकसान नहीं होता। जब वे ज्ञान देते हैं, तब यह सुझा देते हैं कि कौन अच्छा है और कौन बुरा

"पहाड़ के ऊपर नीची जमीन रह सकती है, परन्तु वैसी जमीन बदजात 'मैं'  रूपी पहाड़पर नहीं रहती । विद्या का 'मैं', भक्त का 'मैं' यदि हो, तभी आकाश का शुद्ध पानी आकर जमता है ।

“ऊँची जगह का पानी चारों ओर काम में लगाया जा सकता है, यह ठीक है । परन्तु यह काम विद्या के 'मैं' - रूपी पहाड़ से ही सम्भव है ।

"उनके आदेश के बिना लोक-शिक्षा नहीं होती । शंकराचार्य ने ज्ञान के बाद विद्या का 'मैं' रखा था -लोकशिक्षा के लिए।  लेकिन उन्हें प्राप्त किये बिना ही लेक्चर !  इससे आदमियों का क्या उपकार होगा? 

"मैं नन्दनबाग के ब्राह्मसमाज में गया था । उपासना आदि के बाद उनके प्रचारक ने एक वेदी पर बैठकर लेक्चर दिया । उन्होंने वह लेक्चर घर पर तैयार किया थालेक्चर वे पढ़ते जाते थे और चारों ओर देखते भी जाते थे । ध्यान करते समय वे कभी कभी आँखें खोलकर लोगों को देखते जाते थे !

"जिसने ईश्वर के दर्शन नहीं किये, उसका उपदेश असर नहीं करता । एक बात अगर ठीक हुई, तो दूसरी बेसिर-पैर की निकल जाती है।

"सामाध्यायी ने लेक्चर दिया । कहा, 'ईश्वर वाणी और मन से परे हैं । उनमें कोई रस नहीं है - तुम लोग अपने प्रेम और भक्तिरस से उनकी अर्चना किया करो ।’ देखो, जो रसस्वरूप हैं, आनन्द-स्वरूप हैं, उनके लिए ऐसी बातें कही जा रही थीं । इस तरह के लेक्चर से क्या होगा ? इसमें क्या कभी लोक-शिक्षा होती है ? एक आदमी ने कहा था ‘मेरे मामा के यहाँ गोशाले भर घोड़े हैं ।’ गोशाले में घोड़ा ! (सब हँसते हैं) इससे समझना चाहिए कि घोड़ा-वोड़ा कहीं कुछ भी नहीं है !"

डाक्टर (सहास्य) – गौएँ भी न होंगी ! (सब हँसते हैं) 

जिन भक्तों को भावावेश हो गया था, उनकी प्राकृत अवस्था हो गयी है । भक्तों को देखकर डाक्टर आनन्द कर रहे हैं । डाक्टर मास्टर से भक्तों का परिचय पूछ रहे हैं । पल्टू, छोटे नरेन्द्र, भूपति, शरद, शशी आदि लड़कों का, एक एक करके, मास्टर ने परिचय दिया ।

 श्रीयुत शशी के सम्बन्ध में मास्टर ने कहा, 'ये बी. ए. की परीक्षा देंगे ।' डाक्टर कुछ अन्यमनस्क  हो रहे थे ।

श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - देखो जी, ये क्या कह रहे हैं । डाक्टर ने शशी का परिचय सुना ।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर को बताकर, डाक्टर से) - ये स्कूल के लड़कों को उपदेश देते हैं ।

डाक्टर - यह मैंने सुना है ।

श्रीरामकृष्ण - कितने आश्चर्य की बात है ! मैं मूर्ख  हूँ, फिर भी पढ़े-लिखे लोग यहाँ आते हैं । यह कितने आश्चर्य की बात है ! इससे तो मानना पड़ता है कि यह ईश्वर की लीला है।

आज शरद पूर्णिमा है । रात के नौ बजे का समय होगा । डाक्टर छः बजे से बैठे हुए ये सब बातें सुन रहे हैं ।

गिरीश - (डाक्टर से) - अच्छा महाशय, आपको ऐसा कभी होता है कि यहाँ आने की इच्छा न होते हुए भी मानो कोई शक्ति खींचकर यहाँ ले आती हो ? मुझे तो ऐसा होता है और इसीलिए आपसे भी पूछ रहा हूँ ।

डाक्टर - पता नहीं, परन्तु हृदय की बात हृदय ही जानता है (श्रीरामकृष्ण से) और बात यह है कि यह सब कहने में लाभ ही क्या है ?

=======