*परिच्छेद- १२५.
श्रीरामकृष्ण तथा डाक्टर सरकार
(१)
[( 24 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-125 ]
🙏डॉ० सरकार तथा धर्मचर्चा 🙏
नरेन्द्र, महिमाचरण, मास्टर, डाक्टर सरकार आदि भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण श्यामपुकुर के दुमँजले पर कमरे में बैठे हुए हैं । दिन के एक बजे का समय होगा । २४ अक्टूबर १८८५, कार्तिक नवमी ।
श्रीरामकृष्ण (डॉक्टर सरकार से) - तुम्हारी यह (होमियोपैथिक) चिकित्सा अच्छी है ।
डाक्टर - इसमें रोगी की अवस्था पुस्तक में लिखे चिन्हों के साथ मिलायी जाती है । जैसे अंग्रेजी बाजा बजाने की लिपि, -स्वरलिपि (score) वह पढ़ी जाती है और साथ ही साथ गायी भी ।
“गिरीश घोष कहाँ हैं ? – परन्तु रहने दो । कल का जगा हुआ होगा ।”
श्रीरामकृष्ण - अच्छा, भाव की अवस्था में भंग जैसा नशा चढ़ता है, यह क्या है ?
डाक्टर (मास्टर से) – स्नायुओं के केन्द्र हैं, उनकी क्रिया बन्द हो जाती है, इसीलिए सब जड़ हो जाता है - इधर पैर लड़खड़ाते रहते हैं । सब शक्ति मस्तिष्क की ओर जाती है । इसी स्नायविक क्रिया (nervous system) से जीवन है । गरदन के पास मेडूला आब्लांगेटा (Medulla Oblongata) है, इसकी क्षति होने पर जीवन का दीपक बुझा हुआ जानो ।
श्रीयुत महिमाचरण चक्रवर्ती [ जिनके घर में महामण्डल के C-IN-C नवनीदा का जन्म हुआ था ] ने उस कुण्डलिनी शक्ति का वर्णन करना प्रारम्भ किया जो सुषुम्ना नाड़ी के भीतर रहती है - 'मैरुदण्ड के भीतर सूक्ष्म भाव से सुषुम्ना नाम की एक नाड़ी है - इसे कोई देख नहीं सकता । यह महादेवजी का वाक्य है ।’
डाक्टर - शिव ने मनुष्य की परीक्षा उसकी पूर्ण अवस्था में की । परन्तु युरोपियनों ने तो मनुष्य की जाँच गर्भावस्था से लेकर पूर्ण अवस्था तक सभी में की है । इसका तुलनात्मक इतिहास समझ लेना अच्छा है । भीलों का इतिहास पढ़कर पता चला है कि काली एक भीलनी थी , वह खूब लड़ी थी ! (सब हँसते हैं)
डाक्टर सरकार - "तुम लोग हँसो मत ।'तुलनात्मक शरीर रचना विज्ञान' ( Anatomy) से मानवता का कितना उपकार हुआ है, सुनो। पहले पाचनशक्ति पैदा करनेवाले रस और पित्त का भेद समझ में नहीं आ रहा था। फिर क्लाड बरनार्ड ने खरगोश की यकृत आदि की परीक्षा करके देखा कि पित्त (bile) और उस रस की क्रिया में अन्तर है ।
"इससे सिद्ध होता है कि छोटे छोटे प्राणियों की ओर भी हमें ध्यान देना चाहिए । केवल मनुष्य को देखने से काम न चलेगा ।
"इसी तरह धर्म का तुलानात्मक अध्यन करने से भी बड़ा उपकार होता है ।
"ये (श्रीरामकृष्णदेव) जो कुछ कहते हैं, हृदय पर उसका असर अधिक क्यों होता है ! सब धर्म इनके देखे हुए हैं । हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, वैष्णव, शाक्त सब धर्मों को इन्होंने स्वयं साधना करके देखा है । मधुमक्खी जब अनेक फूलों से मधु-संचय करती है तभी उसके छत्ते में अच्छा मधु तैयार होता है ।"
मास्टर (श्री 'म' डाक्टर से) - इन्होंने (महिमाचरण ने) विज्ञान का अध्ययन खूब किया है ।
डाक्टर (हँसकर) - कौनसा विज्ञान ? क्या मैक्समूलर का साइन्स ऑफ रिलिजन (धर्मविज्ञान) ?
महिमा (श्रीरामकृष्ण से) - आपकी बीमारी में डाक्टर क्या करेंगे ? जब मैंने सुना, आप बीमार हैं, तब सोचा, डाक्टरों का आप अहंकार बढ़ा रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - ये बड़े अच्छे डाक्टर हैं, और बहुत बड़े विद्वान् भी हैं ।
महिमा - जी हाँ, वे जहाज हैं और हम सब डोंगे हैं ।
विनयपूर्वक डाक्टर हाथ जोड़ रहे हैं ।
महिमा - परन्तु वहाँ (श्रीरामकृष्ण के पास) सब बराबर हैं ।
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र से गाने के लिए कह रहे हैं । नरेन्द्र गा रहे हैं –
गाना - तुम्हें ही मैंने अपने जीवन का ध्रुवतारा बनाया है ...|
गाना - अहंकार में मत्त हो रहा हूँ, अपार वासनाएँ उठ रही हैं ..... ।
गाना - तुम्हारी रचना अपार है, चमत्कारों से भरी हुई है ......।
गाना - महान् सिंहासन पर बैठे हुए हे विश्वपिता, तुम अपने ही रचित छन्दों में विश्व के महान् गीत सुन रहे हो । मर्त्य की मृत्तिका बनकर, इस क्षुद्र कण्ठ को लेकर, तुम्हारे द्वार पर मैं भी आया हुआ हूँ.... ।
गाना - हे राजराजेश्वर, दर्शन दो ! मैं तुम्हारी करुणा का भिक्षुक हूँ, मेरी ओर कृपाकटाक्ष करो । तुम्हारे श्रीचरणों में मैं अपने इन प्राणों का उत्सर्ग कर रहा हूँ, परन्तु ये भी संसार के अनलकुण्ड में झुलसे हुए हैं....।
गाना - हरिरस-मदिरा पीकर, ऐ मेरे मन-मानस, मत्त हो जाओ । पृथ्वी पर लोटते हुए उनका नाम लो और रोओ.... ।
श्रीरामकृष्ण - और वह गाना - "जो कुछ है सब तू ही है ।"
डाक्टर – अहा ! गाना समाप्त हो गया । डाक्टर मुग्ध हो गये । कुछ देर बाद डाक्टर बड़े भक्तिभाव से हाथ जोड़कर श्रीरामकृष्ण से कह रहे हैं - तो आज आज्ञा दीजिये, कल फिर आऊँगा।
श्रीरामकृष्ण - अभी कुछ देर और ठहरो । गिरीश घोष के पास खबर भेजी गयी है ।
(महिमा की ओर संकेत करके) "ये विद्वान् हैं, और ईश्वर के कीर्तन में नाचते भी हैं । इनमें अहंकार छू नहीं गया । ये कोन्नगर चले गये थे, इसलिए कि हम लोग वहाँ चले गये थे । स्वाधीन हैं, धनवान हैं, किसी की नौकरी नहीं करते ।
(नरेन्द्र को दिखलाकर) यह कैसा है ?"
डाक्टर – जी, बहुत अच्छे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - और ये -
डाक्टर – अहा !
महिमा - हिन्दुओं के दर्शन अगर न पढ़े गये तो मानो दर्शनों का पढ़ना ही अधूरा रह गया । सांख्य के चौबीस तत्त्वों को यूरोप न तो जानता है और न समझ ही सकता है ।
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - तुम कौन से तीन मार्गों की बात कहते हो ?
महिमा – सत्'पथ- ज्ञानमार्ग । चित्'पथ- योगमार्ग, कर्ममार्ग; इसमें जीवन के चार आश्रमों की क्रिया, कर्तव्य आदि वर्णित हैं। तीसरा है आनन्दपथ - भक्ति और प्रेम का मार्ग । आप में तीनों मार्ग हैं - आप तीनों मार्ग की खबर बतलाते हैं । (श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं ।)
महिमा - मैं और क्या कहूँ ? वक्ता जनक और श्रोता शुकदेव !
डाक्टर बिदा हो गये ।
[( 24 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-125 ]
*नित्यगोपाल तथा नरेन्द्र । 'जपात् सिद्धि ।'*
सन्ध्या के बाद चन्द्रोदय हुआ है । आज शनिवार, शरद पूर्णिमा का दूसरा दिन है । श्रीरामकृष्ण खड़े हुए समाधिमग्न हैं । नित्यगोपाल भी उनके पास भक्तिभाव से खड़े हैं ।
श्रीरामकृष्ण बैठे । नित्यगोपाल पैर दबा रहे हैं । कालीपद, देवेन्द्र आदि भक्त पास बैठे हुए हैं ।
श्रीरामकृष्ण (देवेन्द्र आदि से) - मेरे मन में यह भासित हो रहा है कि नित्यगोपाल की ये अवस्थाएँ अब चली जायेगी । उसका सब मन सिमटकर मुझमें आ जायेगा - जो मेरे भीतर हैं, उनमें।
"नरेन्द्र को देखते हो न, उसका सब मन सिमटकर मुझपर आ रहा है ।
भक्तों में बहुतेरे बिदा हो रहे हैं । श्रीरामकृष्ण खड़े हुए एक भक्त को जप की बातें बतला रहे हैं - "जप करने का अर्थ है निर्जन में चुपचाप उनका नाम लेना । एकाग्र होकर उनका नामजप करते रहने से उनके रूप के भी दर्शन होते हैं और उनसे साक्षात्कार भी होता है । जंजीर से बँधी लकड़ी गंगा में जैसे डुबायी हुई हो और जंजीर का दूसरा छोर तट पर बँधा हुआ हो। जंजीर की एक एक कड़ी पकड़कर कुछ दूर बढ़कर, फिर पानी में डुबकी मारकर, उसी प्रकार और आगे बढ़ते हुए लोग लकड़ी को अवश्य ही छू सकते हैं । इसी तरह जप करते हुए मग्न हो जाने पर धीरे-धीरे ईश्वर के दर्शन होते हैं ।"
कालीपद (सहास्य, भक्तों से) - हमारे ये अच्छे ठाकुर हैं ! - जप, ध्यान, तपस्या, कुछ करना ही नहीं पड़ता !
इसी समय श्रीरामकृष्ण ने एकाएक कहा - "यहाँ (गले में) न जाने कैसा हो रहा है ।
श्रीरामकृष्ण के गले में दर्द हो रहा है । देवेन्द्र ने कहा, "हम इस तरह की बातों में नहीं आनेवाले ।” देवेन्द्र का भाव यह है कि श्रीरामकृष्ण ने लोगों को धोखे में डालने के लिए रोग का आश्रय लिया है ।
भक्तगण बिदा हो गये । रात में कुछ बालक-भक्त बारी बारी से जागकर श्रीरामकृष्ण की सेवा करेंगे । मास्टर भी आज रात को यहीं रहेंगे ।
(२)
[( 25 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-125 ]
*डाक्टर सरकार तथा मास्टर*
आज रविवार है, कार्तिक, कृष्णद्वितीया, २५ अक्टूबर, १८८५ । श्रीरामकृष्ण कलकत्ते के श्यामपुकुरवाले मकान में रहते हैं । गले में पीड़ा (Cancer) है, उसी की चिकित्सा हो रही है । आजकल डाक्टर सरकार देख रहे हैं ।
डाक्टर को श्रीरामकृष्णदेव की अवस्था की खबर देने के लिए रोज मास्टर जाया करते हैं । आज सुबह साढ़े छः बजे के समय प्रणाम करके मास्टर ने पूछा - "आप कैसे हैं ?" श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - "डाक्टर से कहना, रात के पिछले भाग में मुँह कुल्ला भर पानी से भर जाता है, खाँसी है । पूछना, नहाऊँ या नहीं ।"
सात बजे के बाद मास्टर डाक्टर सरकार से मिले और कुल हाल उनसे कहा । डाक्टर के वृद्ध शिक्षक तथा दो-एक मित्र वहाँ उपस्थित थे । डाक्टर ने वृद्ध शिक्षक से कहा, 'महाशय, रात तीन बजे से मुझे परमहंस की चिन्ता है, नींद नहीं आयी, अब भी परमहंस की चिन्ता है ।' (सब हँसते हैं)
डाक्टर के मित्र डाक्टर से कह रहे हैं, “महाशय, मैंने सुना है, कोई कोई उन्हें अवतार कहते हैं । आप तो रोज देखते हैं, आपको क्या जान पड़ता है ?" डाक्टर ने कहा, "मनुष्य की दृष्टि से उनकी मैं अत्यन्त भक्ति करता हूँ ।"
मास्टर (डाक्टर के मित्र से) - डाक्टर महाशय बड़ी कृपा करके उनकी चिकित्सा कर रहे हैं ।
डाक्टर - कृपा करके ?
मास्टर - हम लोगों पर आप कृपा करते हैं, श्रीरामकृष्णदेव पर मैं नहीं कह रहा ।
डाक्टर - नहीं जी, ऐसा भी नहीं, तुम लोग नहीं जानते । वास्तव में मेरा नुकसान हो रहा है, दो-तीन Call (बुलावा) रोज ही रह जाते हैं - जा नहीं पाता । उसके दूसरे दिन रोगी के यहाँ खुद जाता हूँ और फीस(Fees) नहीं लेता, - खुद जाकर फीस लूँ भी कैसे ?
श्री महिमाचरण चक्रवर्ती की बात चली । शनिवार को जब डाक्टर परमहंसदेव को देखने के लिए गये थे, तब चक्रवर्ती महाशय उपस्थित थे । डाक्टर को देखकर उन्होंने श्रीरामकृष्ण से कहा था, ‘महाराज, डाक्टर का अहंकार बढ़ाने के लिए आपने रोग की सृष्टि की है ।’
मास्टर (डाक्टर से) - महिमा चक्रवर्ती आपके यहाँ पहले आया करते थे । आप घर में डाक्टरी विज्ञान पर लेक्चर देते थे, वे सुनने के लिए आया करते थे ।
डाक्टर - ऐसी बात ? परन्तु उस मनुष्य में तमोगुण भी कितना है ! देखा था तुमने ? - मैंने नमस्कार किया था जैसे वह तमोगुणी ईश्वर हो । और ईश्वर के भीतर तो तीनों गुण हैं । उसकी उस बात पर तुमने ध्यान दिया था ? – ‘आपने डाक्टरों का अहंकार बढ़ाने के लिए रोग का आश्रय लिया है ।'
मास्टर - महिमा चक्रवर्ती को विश्वास है कि श्रीरामकृष्णदेव अगर खुद चाहें तो बीमारी अच्छी कर सकते हैं ।
डाक्टर - अजी, ऐसा भी कभी होता है ? - आप ही आप बीमारी अच्छी कर लेना ? हम लोग डाक्टर हैं, हम लोग तो जानते हैं न, कि उस बीमारी के भीतर क्या क्या है ।
"हम ही जब इस तरह की बीमारी अच्छी नहीं कर सकते - तब वे तो कुछ जानते भी नहीं, वे किस तरह अच्छी करेंगे ? (मित्रों से) देखिये, रोग दुःसाध्य है, परन्तु इतना अवश्य है कि ये लोग उनकी सेवा भी खूब कर रहे हैं ।"
(३)
[( 25 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-125 ]
*श्रीरामकृष्ण तथा मास्टर*
डाक्टर से आने के लिए कहकर मास्टर लौटे । भोजन आदि करके दिन के तीन बजे वे श्रीरामकृष्ण से मिले और डाक्टर की कुल कथा कह सुनायी । कहा, 'डाक्टर ने तो आज मुझे बहुतसी बातें सुनायीं।’
श्रीरामकृष्ण - क्यों, क्या कहा ?
मास्टर - महाराज, कल वे यहाँ सुन गये थे कि डाक्टर की शान को बढ़ाने के लिए आपने यह रोग स्वयं ही पैदा किया है ।
श्रीरामकृष्ण - किसने कहा था ?
मास्टर - महिमा चक्रवर्ती ने ।
श्रीरामकृष्ण – फिर ?
मास्टर - वह महिमा चक्रवर्ती को तमोगुणी ईश्वर कहने लगा । अब डाक्टर ने मान लिया है कि ईश्वर में तत्त्व, रज, तम तीनों गुण हैं । (श्रीरामकृष्णदेव का हास्य) फिर मुझसे उन्होंने कहा, 'आज रात को तीन बजे मेरी नींद उचट गयी और तभी से श्रीरामकृष्णदेव का चिन्तन कर रहा हूँ ।' जब मैं उनसे मिला था तब आठ बजे थे, और उन्होंने कहा, ‘अभी भी श्रीरामकृष्ण का मैं चिन्तन कर रहा हूँ ।’
श्रीरामकृष्ण - देखो, तुम जानते हो, वह अंग्रेजी पढ़ा-लिखा है, उससे यह नहीं कहा जा सकता कि तुम मेरी चिन्ता करो (मेरे चित्र पर अपने मन को एकाग्र करो) । परन्तु अच्छा है, वह आप ही कर रहा है ।
मास्टर - फिर उन्होंने कहा, 'मैं उन्हें अवतार नहीं कहता, परन्तु मनुष्य समझकर उन पर मेरी सबसे अधिक भक्ति है ।'
श्रीरामकृष्ण - कुछ और बात हुई है ?
मास्टर - मैंने पूछा, 'आज बीमारी के लिए क्या बन्दोबस्त किया जाय ?' डाक्टर ने कहा, 'बन्दोबस्त मेरा सर होगा ! आज मुझे फिर जाना पड़ेगा और क्या !' (श्रीरामकृष्ण का हँसना)
“उन्होंने इतना और कहा, ‘तुम लोग नहीं जानते, मेरे कितने रुपयों पर पानी फिर जाता है । रोज दो-तीन जगह जाना नहीं हो पाता ।’”
[( 25 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-125 ]
4.
🔱🙏विजय आदि भक्तों के संग में 🔱🙏
कुछ देर बाद श्रीयुत विजयकृष्ण गोस्वामी श्रीरामकृष्णदेव के दर्शन करने के लिए आये । साथ कई ब्राह्म भक्त भी हैं । विजयकृष्ण बहुत दिनों तक ढाके में थे । इधर पश्चिम के बहुत से तीर्थों में भ्रमण करके अभी थोड़े ही दिन हुए कलकत्ता आये हैं । आते ही उन्होंने श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया । बहुतसे लोग उपस्थित हैं, - नरेन्द्र, महिमाचरण चक्रवर्ती, नवगोपाल, भूपति, लाटू, मास्टर, छोटे नरेन्द्र आदि बहुत से भक्त ।
महिमा चक्रवर्ती (विजय से) - महाशय, आप तीर्थ कर आये, बहुत से देश देखकर आये, अब कहिये, आपने क्या क्या देखा ।
विजय - क्या कहूँ ? मैं अनुभव कर रहा हूँ कि जहाँ अभी मैं बैठा हुआ हूँ, यहीं सब कुछ है । इधर-उधर भटकना व्यर्थ है । और जहाँ जहाँ मैं गया, कहीं इनका (श्रीरामकृष्ण का) एक आना, कहीं दो आने या चार आने अंश ही पाया, परन्तु पूरे सोलह आने तो केवल यहीं पा रहा हूँ ।
महिमा - आप ठीक कहते हैं । फिर, ये ही चक्कर लगवाते हैं और ये ही बैठाते हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - देख, विजय की कैसी अवस्था हो गयी है ! लक्षण सब बदल गये हैं, मानो उबाला हुआ है । मैं परमहंस की गरदन और कपाल देखकर बतला सकता हूँ कि वह परमहंस है या नहीं ।
महिमा - महाराज, क्या आपका भोजन घट गया है ?
विजय - हाँ, शायद घट गया है । (श्रीरामकृष्ण से) आपकी पीड़ा का हाल पाकर देखने के लिए आया हूँ । और फिर ढाके में –
श्रीरामकृष्ण – क्या ?
विजय ने कोई उत्तर नहीं दिया । कुछ देर चुप हो रहे ।
विजय - अगर अपने आप को वे (श्रीरामकृष्ण) खुद न पकड़वा दें तो पकड़ना मुश्किल है । यहीं सोलहों आना (प्रकाश) है ।
श्रीरामकृष्ण - केदार ने कहा, 'दूसरी जगह खाने को नहीं मिलता, परन्तु यहाँ आते ही पेट भर जाता है ।'
महिमा - पेट भरना ही नहीं - इतना मिलता है कि पेट में समाता नहीं - बाहर गिर जाता है !
विजय - (हाथ जोड़कर, श्रीरामकृष्ण से) - आप कौन हैं, यह मैं समझ गया, अब कहना न होगा।
श्रीरामकृष्ण - (भावस्थ) - अगर ऐसा है तो यही सही ।
विजय ने कहा, 'मैं समझा ।' यह कहकर श्रीरामकृष्ण के पैर पर गिर पड़े और उनके चरणों को अपनी छाती से लगा लिया ।
श्रीरामकृष्ण ईश्वरावेश में बाह्यशून्य हो चित्रवत् बैठे हुए हैं । इस प्रेमावेश को, इस अद्भुत दृश्य को देखकर, भक्तों में किसी की आँखों से आँसू बह रहे हैं और कोई स्तुति-पाठ कर रहे हैं । जिसका जैसा भाव है, वह उसी भाव से श्रीरामकृष्ण की ओर हेर रहा है । कोई उन्हें परम भक्त देखता है, कोई साधु, कोई देह धारण करके आये हुए साक्षात् ईश्वरावतार, जिसका जैसा भाव ।
महिमाचरण गाने लगे । गाते हुए आँखों में पानी भर आया - 'देखो देखो प्रेममूर्ति ।' और बीच-बीच में इस भाव से श्लोकों की आवृत्ति करने लगे जैसे ब्रह्म का साक्षात् दर्शन कर रहे हों - 'तुरीयं सच्चिदानन्द द्वैताद्वैतविवर्जितम् ।'
नवगोपाल रोने लगे । एक दूसरे भक्त भूपति ने गाया ।
गाना - हे परब्रह्म, तुम्हारी जय हो, तुम अपार हो, अगम्य हो, परात्पर हो ..... । मुझे ज्ञान दो, भक्ति और प्रेम दो, और श्रीचरणों में मुझे आश्रय दो ।
भूपति फिर गा रहे हैं –
गाना - चिदानन्द-सिन्धु-सलिल में प्रेम और आनन्द की लहरें उठ रही हैं । रासलीला के महान् भाव में कैसी सुन्दर माधुरी है !....
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - आवेश में न जाने क्या हो जाता है । इस समय लज्जा आ रही है । उस समय जैसे भूत सवार हो जाता है, 'मैं' फिर 'मैं' नहीं रह जाता ।
"इस अवस्था के बाद गिनती नहीं गिनी जा सकती । गिनने लगो तो १, ७, ९ इस तरह की गणना होती है ।"
नरेन्द्र - सब एक ही है, इसलिए ।
श्रीरामकृष्ण - नहीं, एक और दो से परे ।
महिमाचरण - जी हाँ, द्वैताद्वैतविवर्जितम् ।
श्रीरामकृष्ण - वहाँ तर्क-विचार नष्ट हो जाता है । पाण्डित्य द्वारा उन्हें कोई पा नहीं सकता । वे शास्त्रों, वेदों, पुराणों और तन्त्रों से परे हैं । किसी के हाथ में अगर मैं एक पुस्तक देखता हूँ तो उसके ज्ञानी होने पर भी मैं उसे राजर्षि कहता हूँ । ब्रह्मर्षि का कोई बाह्य लक्षण नहीं रहता ।
शास्त्रों का उपयोग क्या है, जानते हो ? एक ने चिट्ठी लिखी थी, उसमें था, पाँच सेर सन्देश और एक धोती भेजना । जिसे वह चिट्ठी मिली उसने पाँच सेर सन्देश और एक धोती, इतना याद करके चिट्ठी फेंक दी । चिट्ठी की क्या जरूरत थी ?
विजय - सन्देश भेजे गये, यह समझ लिया !
श्रीरामकृष्ण - ईश्वर आदमी की देह धारण करके आते हैं । यह सच है कि वे सब जगहों में और सर्व भूतों में हैं, परन्तु अवतार के बिना जीवों की आकांक्षा की पूर्ति नहीं होती, उनकी आवश्यकताएँ नहीं मिटती । वह इस तरह कि गौ को चाहे जहाँ छुओ वह गौ को ही छूना हुआ, सींग छूने पर भी गौ को छूना हुआ, परन्तु दूध गौ के थनों से ही आता है । (हास्य)
महिमा - दूध की अगर जरूरत हो तो गौ के सींगों में मुँह लगाने से क्या होगा ? उसके थनों में मुँह लगाना चाहिए । (सब हँसते हैं)
विजय - परन्तु बछड़ा पहले पहले इधर-उधर ही हूँथा मारता है ।
श्रीरामकृष्ण – (हँसते हुए) - बछड़े को उस तरह भटकते हुए देखकर कोई कोई ऐसा भी करते हैं कि उसका मुँह थनों में लगा देते हैं । (सब हँसते हैं)
(५)
[( 25 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-125 ]
🔱🙏 भक्तों के साथ प्रेमानन्द में🔱🙏
ये सब बातें हो रही थीं कि श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए डाक्टर आ पहुँचे और आसन ग्रहण किया । वे कह रहे हैं, 'कल रात तीन बजे से मेरी आँख नहीं लगी । बस तुम्हारी ही चिन्ता थी कि कहीं ऐसा न हो कि सर्दी लग जाय । और भी मैं बहुत कुछ सोच रहा था ।
श्रीरामकृष्ण - खाँसी हुई है, गले में भी सूजन है । सबेरे तड़के मुँह में पानी आ गया था । मेरा पूरा शरीर टूट रहा है ।
डाक्टर - सुबह को सब खबर मुझे मिली है ।
महिमाचरण अपने भारतवर्ष-भ्रमण की चर्चा कर रहे हैं । कहा, 'लंकाद्वीप में हँसता हुआ आदमी नहीं दीख पड़ता । डाक्टर सरकार ने कहा, 'हाँ होगा, परन्तु इसकी खोज होनी चाहिए ।' (सब हँसते हैं)
डाक्टरी कार्य की बातचीत होने लगी ।
श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - बहुतों का यह ख्याल है कि डाक्टरी का स्थान अन्य कार्यों से बहुत ऊँचा है । यदि रुपया न लेकर, दूसरे का दुःख देखकर कोई चिकित्सा करे तब तो वह महान् व्यक्ति है, उसका कार्य भी महत्वपूर्ण है, नहीं तो जो लोग रुपया लेकर यह सब काम करते हैं, वे तो निर्दय हैं, और निर्दय होते जाते हैं । व्यवसाय की दृष्टि से मल-मूत्र देखना तो नीचों का काम है।
डाक्टर - महाराज, आप बिलकुल ठीक कहते हैं । डाक्टर के लिए उस भाव से काम करना तो सचमुच बहुत बुरा है । परन्तु आपके सम्मुख मैं अपने ही मुँह से क्या कहूँ –
श्रीरामकृष्ण - हाँ, डाक्टरी में निःस्वार्थ भाव से अगर दूसरे का उपकार किया जाय, तब तो बहुत अच्छा है ।
“चाहे जो काम आदमी करे, संसारी मनुष्य के लिए बीच-बीच में साधुसंग की बड़ी आवश्यकता है । ईश्वर में भक्ति रहने पर लोग साधुसंग आप खोज लेते हैं । मैं उपमा दिया करता हूँ – गँजेड़ी गँजेड़ी के साथ ही रहता है । दूसरे आदमी को देखता है तो वह सिर झुकाकर चला जाता है या छिप रहता है; परन्तु एक दूसरे गँजेड़ी को देखकर उसे परम प्रसन्नता होती है । कभी तो मारे प्रेम के दोनों गले लग जाते हैं । (सब हँसते हैं) और, गीध भी गीध ही के साथ रहता है ।”
डाक्टर - परन्तु कौए के डर से ही गीध भाग जाता है । मैं कहता हूँ, सिर्फ मनुष्य की ही नहीं, सब जीवों की सेवा करनी चाहिए । मैं प्रायः गौरैयों को आटे की गोलियाँ दिया करता हूँ । और छत पर हजारों गौरैयाँ इकट्ठी हो जाती हैं ।
श्रीरामकृष्ण – वाह ! यह तो बड़ी अच्छी बात है । जीवों को खिलाना तो साधुओं का काम है । साधु-महात्मा चीटियों को शक्कर देते हैं ।
डाक्टर - आज गाना नहीं होगा ?
श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र से) - कुछ गाओ ।
नरेन्द्र गा रहे हैं, हाथ में तानपूरा लिए हुए । आज बाजा भी बज रहा है ।
गाना - हे दीनों के शरण ! तुम्हारा नाम बड़ा सुन्दर है । ऐ प्राणों में रमण करनेवाले ! अमृत की धारा बरस रही है, कर्ण शीतल बन जाते हैं...।
नरेन्द्र फिर गा रहे हैं –
गाना - माँ ! मुझे पागल कर दे, ज्ञान और विचार की अब कोई आवश्यकता नहीं है .... ।
गाने के साथ ही इधर अद्भुत दृश्य दिखायी देने लगा - भावावेश में सब लोग पागल हो रहे हैं । पण्डित अपने पाण्डित्य का अभिमान छोड़कर खड़े हो गये । कह रहे हैं - 'माँ, मुझे पागल कर दे, ज्ञान और विचार की अब कोई आवश्यकता नहीं है ।'
सब से पहले आसन छोड़कर भावावेश में विजय खड़े हुए, फिर श्रीरामकृष्ण । श्रीरामकृष्ण देह की कठिन असाध्य व्याधि को बिलकुल भूल गये हैं । सामने डाक्टर हैं । वे भी खड़े हो गये । न रोगी को होश है, न डाक्टर को । छोटे नरेन्द्र और लाटू दोनों को भावसमाधि हो गयी ।
डाक्टर ने साइन्स (विज्ञान) पढ़ी है, परन्तु यह विचित्र अवस्था देखते हुए अवाक् हो रहे हैं । देखा, जिन्हें भावावेश है उनमें बाह्यज्ञान बिलकुल नहीं रह गया । सब के सब स्थिर और निःस्पन्द हो रहे हैं । भाव का उपशम होने पर कोई हँस रहे हैं, कोई रो रहे हैं, मानो कुछ मतवाले इकट्ठे हो गये हों ।
[( 25 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-125 ]
(६)
भक्त के संग में । श्रीरामकृष्ण तथा क्रोध-जय ।
इस घटना के बाद लोगों ने आसन ग्रहण किया । रात के आठ बज गये हैं । फिर बातचीत होने लगी ।
श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - यह जो भाव तुमने देखा, इसके सम्बन्ध में तुम्हारी साइन्स क्या कहती है ? तुम्हें क्या यह जान पड़ता है कि यह सब ढोंग है ?
डाक्टर (श्रीरामकृष्ण से) - जहाँ इतने आदमियों को ऐसा हो रहा है, वहाँ तो स्वाभाविक ही जान पड़ता है; ढोंग नहीं मालूम होता । (नरेन्द्र से) जब तुम गा रहे थे, 'माँ, पागल कर दे, ज्ञान और विचार की अब आवश्यकता नहीं है', तब मुझसे रहा नहीं गया, खड़ा हो गया, फिर बड़ी मुश्किल से भाव को दबाना पड़ा । मैंने सोचा कि बाहरी दिखाव न होने देना चाहिए ।
श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से, हँसकर) - तुम तो अटल, अचल और सुमेरुवत् हो । (सब हँसते हैं) तुम गम्भीरात्मा हो । रूपसनातन का भाव किसी को मालूम न हो पाता था । अगर किसी गड़ही में हाथी उतर जाता है तो पानी में उथल-पुथल मच जाती है, परन्तु बड़े सरोवर में कहीं कुछ नहीं होता । किसी को मालूम भी नहीं होता ।
श्रीमती ने सखियों से कहा, 'सखियों, कृष्ण के विरह में तुम लोग इतना रो रही हो, परन्तु मुझे देखो, मेरी आँखों में कहीं एक बूँद भी आँसू नहीं है ।' तब वृन्दा ने कहा, 'सखि, तेरी आँखों में आँसू नहीं है, इसका बहुत बड़ा अर्थ है । तेरे हृदय में विरह की आग सदा जल रही है, आँखों में आँसू आते हैं पर उस अग्नि की ज्वाला से सूख जाते हैं ।
डाक्टर - आपके साथ बातचीत में पार पाना कठिन है । (हास्य)
फिर दूसरी चर्चा होने लगी । श्रीरामकृष्ण भावावेश की अपनी पहली अवस्था बतला रहे हैं । और काम, क्रोध आदि को किस तरह वश में लाया जाय, ये बातें भी बतला रहे हैं ।
डाक्टर - आप भावावेश में पड़े हुए थे, एक दूसरे ने उस समय आपको बूट से पाद-प्रहार किया था, ये सब बातें मैं सुन चुका हूँ ।
श्रीरामकृष्ण - वह कालीघाट का चन्द्र हालदार था । वह मथुरबाबू के पास प्रायः आया करता था । मैं ईश्वरावेश में अँधेरे में जमीन पर पड़ा हुआ था । चन्द्र हालदार पहले ही से सोचा करता था कि यह ढोंग किया करता है, मथुरबाबू का प्रिय पात्र बनने के लिए । वह अँधेरे में आकर जूते पहने हुए पैरों से ठेलने लगा । देह में निशान बन गये थे । सब ने कहा, 'मथुरबाबू से कह दिया जाय।' मैंने मना कर दिया ।
डाक्टर - यह भी ईश्वर की लीला है । इससे भी लोगों को शिक्षा होगी । क्रोध किस तरह जीता जाता है, क्षमा किसे कहते हैं, लोग समझेंगे ।
श्रीरामकृष्ण के सामने विजय के साथ भक्तों की बातचीत हो रही है ।
विजय - न जाने कौन मेरे साथ सब समय रहते हैं, मेरे दूर रहने पर भी वे मुझे बतला देते हैं, कहाँ क्या हो रहा है !
नरेन्द्र - स्वर्गीय दूत की तरह रखवाली करते हुए !
विजय - ढाके में इन्हें (श्रीरामकृष्ण को) मैंने देखा है देह छूकर !
श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए)- तो वह कोई दूसरा होगा ।
नरेन्द्र – मैंने भी इन्हें कई बार देखा है । (विजय से) अतएव किस तरह कहूँ कि आपकी बात पर मुझे विश्वास नहीं होता ?
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