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मंगलवार, 27 जून 2023

🙏महामण्डल का आदर्श, उद्देश्य और कार्यक्रम !


 धरती पर सत्ययुग लाने की समरनीति है -' चरैवेती,चरैवेति'!  
संक्षिप्त परिचय : परम राष्ट्रभक्त स्वामी विवेकानन्द ने १२ वर्षों के अपने दुःसाध्य परिव्राजक जीवन में,कश्मीर से कन्याकुमारी तक भ्रमण करते हुए तबके "अखण्ड भारत" को अत्यन्त करीब से देखा था। तथा उन्हों ने ह्रदय से यह अनुभव किया था, कि देवताओं और ऋषियों कि करोड़ो संतानें आज पशुतुल्य जीवन जीने को बाध्य हैं! यहाँ लाखों लोग भूख से मर जाते हैं और शताब्दियों से मरते आ रहे हैं। अज्ञान के काले बादल ने पूरे भारतवर्ष को ढांक लिया है। उन्होंने अनुभव किया था कि मेरे ही रक्त-मांसमय देह स्वरूप मेरे देशवासी दिन पर दिन अज्ञान के अंधकार में डूबते चले जा रहे हैं ! 
यथार्थ शिक्षा के आभाव ने इन्हें शारीरिक,मानसिक और आध्यात्मिक रूप से दुर्बल बना दिया है। सम्पूर्ण भारतवर्ष एक ओर "घोर- भौतिकवाद" तो दूसरी ओर इसीके प्रतिक्रियास्वरूप उत्पन्न "घोर-रूढिवाद" जैसे दो विपरीत ध्रुवों पर केंद्रित हो गया है। भारत कि इस दुर्दशा ने उन्हें विह्वल कर दिया। इस असीम वेदना ने उनके ह्रदय में करुणा का संचार किया उन्होंने इसकी अवनति के मूल कारण को ढूंढ़ निकला: वह कारण था -'आत्मश्रद्धा का विस्मरण'। 

आवश्यकता सच्चे अर्थों में महान मनुष्यों की है। इसीलीये उन्हों ने सिंहनाद किया था- " मनुष्य, केवल मनुष्य भर चाहिये !" शेष सबकुछ अपने आप ठीक हो जायगा। आवश्यकता है, ' वीर्यवान, तेजस्वी, श्रद्धासम्पन्न, दृढ़-विश्वासी, निष्कपट - नवयुवकों की।'आवश्यकता है- ' चरित्र ' की और ' इच्छा शक्ति ' को सबल बनाने की।
स्वामी विवेकानन्द का यह मानना था कि भारत का कल्याण करने के लिये सर्वप्रथम युवाओं और तरुणों को मनुष्य के तीन मौलिक अंग (components 3-H's ) को उन्नत बनाने का प्रशिक्षण देना आवश्यक है। अर्थात उन्हें अपनी शारीरिक शक्ति, मानसिक शक्ति तथा आत्मिक शक्ति को विकसित करने की शिक्षा-पद्धति से परिचित करवाना होगा। जिसे वे क्रमशः हाथ (Hand), मस्तिष्क (Head) और ह्रदय (Heart) के विकास की शिक्षा-पद्धति कहते थे। अतः महामण्डल का मुख्य कार्य प्रत्येक युवा में अंतर्निहित इन '3H' की शक्तियों को जाग्रत कर उन्हें अभिव्यक्त करने की शिक्षापद्धति को भारत के गाँव-गाँव तक फैला देना है। विशेषतः युवा वर्ग में स्वामी विवेकानंद के मनुष्य निर्माणकारी तथा चरित्र निर्माण के आदर्शों में सन्निहित मूल्यों का प्रचार-प्रसार  करना महामण्डल का लक्ष्य है । 
स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त भारत का पुनर्निमाण-मन्त्र है : "Be and Make !  अर्थात तुम स्वयं 
' मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने' में सहायता करो ! स्वयं मनुष्य बनने, तथा दूसरों को मनुष्य बनाने या चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया- को सम्पूर्ण भारतवर्ष में साथ-साथ फैला देना होगा।ताकि देश में एक बेहतर व्यवस्था (भ्रष्टाचार रहित व्यवस्था ) कायम हो सके।
स्वामी विवेकानन्द के नाम से जुड़े समस्त युवा-संगठनों के 'सम्मिलित प्रयास' के द्वारा युवकों को  भारत निर्माण सूत्र -'BE AND MAKE' के प्रति सजग कर, उनमें स्वयं के प्रति ' श्रद्धा- भाव ' को जाग्रत करना तथा 'आत्म-अनुशासन' की भावना एवं 'सामाजिक दायित्व' के निर्वहन की चेतना को प्रतिष्ठित करना महामण्डल का आदर्श है। 
अतः महामण्डल के समस्त कार्यक्रम युवाओं और तरुणों के इन तीनो शक्तियों ( बाहू-बल, बुद्धि-बल और आत्म-बल ) की समुचित ' उन्नति एवं अभिव्यक्ति' को ध्यान में रखते हुए संचालित किये जाते हैं।  
महामण्डल युवाओं और तरुणों में इन तीनों, शारीरिक-मानसिक और आत्मिक शक्तियों के समुचित विकास के लिए "युवा पाठ-चक्र" (Youth Study Circle) तथा "युवा प्रशिक्षण शिविर" (Youth Training Camp) आदि विभिन्न कार्यक्रमों का संचालन करता है। महामण्डल द्वारा आयोजित  (१,२,३,६ दिवसीय) प्रत्येक युवा प्रशिक्षण-शिविर का लक्ष्य होता है, " युवा वर्ग में राष्ट्र-निर्माण के लिए  'निःस्वार्थ-सेवा' की भावना को जाग्रत करा कर युवाशक्ति  का अनुशासित सदुपयोग करना।" 
स्वामी विवेकानन्द जी के ऐसे ही विचारों से प्रेरणा लेकर, २५ अक्टूबर १९६७ ई० में 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामंडल' की स्थापना कलकत्ते में हुई। आज देश के बारह राज्यों में इसकी तीन सौ से भी अधिक शाखाएं हैं। इसके सदस्यों को न तो गृह त्याग करना है,न अपना अध्यन ही छोड़ना है, और न अपने दैनंदिन जीवन के अन्य दायित्वों का ही त्याग करना है। उन्हें केवल अपनी अतिरिक्त शक्ति,समय और यदि सम्भव हो सके तो कुछ धन देना है। महामण्डल में धर्म, जाती, संप्रदाय आदि के आधार पर, मनुष्यों में कोई भेद-भाव नहीं किया जाता है
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " मनुष्य- निर्माण ही मेरे जीवन का व्रत है, ...ज्यों ज्यों मेरी उम्र बढ़ती जा रही है, मुझे यह स्पष्ट होता जा रहा है कि- सबकुछ 'पौरुष'में अर्थात प्रयत्न करने में ही अन्तर्निहित है ! यही मेरा नया धर्म-सिद्धान्त (सुसमाचार) है! "  एवं स्वामीजी के सपनों का नया भारत गढ़ना महामण्डल का व्रत है।"
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की आस्था:-  
* "कोई भी राष्ट्र इसलिए महान या अच्छा नहीं होता कि उसकी पार्लियामेन्ट ने ' यह ' या ' वह ' (लोक-पाल बिल आदि ) बिल पास कर दिया है, बल्कि वह इसलिए महान या अच्छा होता कि उस राष्ट्र के नागरिक महान और अच्छे (अर्थात चरित्रवान ) हैं।"
* "संसार चाहता है चरित्र ! संसार को आज ऐसे लोगों कि आवश्यकता है जिनके ह्रदय में निःस्वार्थ प्रेम प्रज्ज्वलित हो रहा हो; उस प्रेम से निसृत प्रत्येक शब्द का प्रभाव बज्रवत पड़ेगा ! "
* सर्वोत्तम शक्ति, युवा शक्ति है- आज के युवा ही हमारे लिए कल की आशायें हैं। इस शक्ति का सदुपयोग करने के लिए सर्वोत्तम कार्य युवा वर्ग के बीच कार्य करना है। 
*सफलता का सम्पूर्ण रहस्य "संगठन" में है, शक्ति संचय में है और इच्छाशक्ति के समन्वय में है। इसी लिए संघ बद्ध हो कर आगे बढो! सम्पूर्ण मानव-जाति में एकत्व की भावना को स्थापित करने वाला 'संघ-मंत्र' इस प्रकार है :-

संगच्ध्वं संग्वदध्वं संग वो मनांसि जानताम् ।
देवा   भागं यथा   पूर्वे   संजानाना उपासते ।।

समानो मन्त्रः समितिः समानी ।
समानं मनः सः चित्त्मेषाम ।।

समानं मन्त्रः अभिम्न्त्रये वः ।
समानेन वो हविषा जुहोमि ।।

समानी व् आकुतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।। 
                                                             
                       (ऋग्वेद :१०/१९१/२-४ )

हिन्दी भाव

एक पथ में चलेंगे ,एक बात बोलेंगे
 हम सबके मन को एक भाव से गढ़ेंगे ।।

देव गण जैसे बाँट हवि लेते हैं |
 हम सब सब कुछ बाँट कर ही लेंगे ।। 

याचना हमारी हो एक अंतःकरण एक हो|
 हमारे विचार में सब जीव एक हैं!

एक्य विचार के मन्त्र को गा कर
देवगण तुम्हें हम आहुति प्रदान करेंगे ||

हमारे संकल्प समान, ह्रदय भी समान
भावनाओं को एक करके परम ऐक्य पायेंगे |  
एक पथ में चलेंगे, एक बात बोलेंगे....... 


 - अर्थात हम अपने सारे निर्णय एक मन हो कर ही करेंगे ,क्योंकि देवता लोग एक मन रहने के कारण ही असुरों पर विजय प्राप्त कर सके थे । अर्थात 'एक मन' बन जाना ही समाज-गठन का रहस्य है ......"
*सबसे महत्वपूर्ण वस्तु है - "उत्तम चरित्र" ! इसीलिए हमारा सर्वोच्च कर्तव्य है  - " अपने चरित्र का निर्माण" " अपना चरित्र-कमल पूर्णरूपेण खिलने दो "- उत्तम परिणाम अवश्य निकलेंगे।

*जब हमारे देश में सच्चे अर्थों में 'मनुष्य' ( चरित्रवान नागरिक ) तैयार हो जायेंगे, तो अपने देश से आकाल
-बाढ़ आदि दैवी विपत्तियों तथा सर्वोपरि ' भ्रष्टाचार ' को दूर करने में -कितना समय लगेगा ?

*हमलोग यदि भारत का सचमुच कल्याण करना चाहते हों, तो हमें " श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त परम्परा" में जीवन-गठन एवं चरित्र-निर्माण करने वाली "शिक्षा" को ( या महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों को) अपनाना ही पड़ेगा ! हम लोगों ने चाहे किसी भी जाति या धर्म में जन्म क्यों न लिया हो, प्रत्येक भारत-वासी को (अगड़ा-पिछड़ा, दलित-महादलित, चन्द्रवँशी (गुड्ड़ू) -यदुवंशी (कुंदन) , हिन्दू-मुसलमान-सिख-ईसाई-बौद्ध या जैन की भेद-बुद्धि से पहले) स्वयं ब्रह्मविद मनुष्य (चरित्रवान -मनुष्य, इंसान,मनोवैज्ञानिक) बनना होगा, और दूसरों को भी अपने यथार्थ स्वरूप को जानकर यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मविद-मनुष्य) बनने में सहायता करनी होगी ! 
इन्हीं सब बातों को- महामण्डल के आदर्श,उद्देश्य और कार्यक्रम को, महामण्डल के प्रतीक-चिन्ह एवं ध्वज, संघ-मन्त्र, स्वदेश-मन्त्र तथा महामण्डल-जयघोष आदि के द्वारा बहुत सूक्ष्म रूप में व्यक्त किया गया है।   
  • महामण्डल का उद्देश्य: भारत का कल्याण ! ['एक भारत, श्रेष्ठ भारत का निर्माण', या हर दृष्टि से समृद्ध भारत का निर्माण। ]  
  • भारत कल्याण का उपाय: चरित्र-निर्माण !
  • महामण्डल के आदर्श: चिरयुवा  स्वामी विवेकानन्द !
  • महामण्डल का 'आदर्श-वाक्य' (Motto): " Be and Make -मनुष्य बनो और बनाओ !" 
  • महामण्डल  चरित्र-निर्माण आन्दोलन का अभियान मन्त्र : " चरैवेति चरैवेति" 
[ महामण्डल का अभियान मन्त्र, समरनीति-  "चरैवेति चरैवेति" ही धरती पर सत्ययुग लाने की योजना  है ! इसीलिये  जगतगुरु श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द जैसे मानवजाति के मार्दर्शक नेता का अनुसरण, केवल उनकी स्तुति करने या आरती गाने से की जा सकती ! बल्कि ऐसे युग-नेताओं का अनुसरण अपने जीवन को भी उनके साँचे में ढालकर गढ़ने का अभ्यास करने से किया जा सकता है। १८९५ में अपने गुरुभाई शशि, (स्वामी रामकृष्णानन्द) को लिखित एक पत्र में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-" रामकृष्ण अवतार की जन्मतिथि से- 'सत्ययुग का आरम्भ हुआ है' - उनके इस कथन का तात्पर्य क्या है? [" From the date that the Ramakrishna Incarnation was born, has sprung the Satya-yuga (Golden Age)"  " রামকৃষ্ণবতারের জন্মদিন হইতেই সত্যযুগোত্পত্তি হইয়াছে "'रामकृष्णवतारेर जन्मदिन होइतेइ सत्ययुगोत्पत्ति होइयाछे।'जैसे ऐतरेय ब्राह्मण कहता है-
कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।
 उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् ।
चरैवेति चरैवेति॥
[http://vivek-jivan.blogspot.in/2016/04/new-youth-movement-20.html]
 उन मार्गदर्शक नेताओं का अनुसरण अपने हृदय की वक्रता सीधी करने  (या हृदय को 'वज्रादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि बनाने ) का सहज उपाय है महामण्डल के वार्षिक युवा-प्रशिक्षण शिविर ! महामण्डल में गुरु कोई व्यक्ति नहीं होता, यह 'संगठन' ही हमारा गुरु है,जो हमें श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में " यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मविद नेता) बनने और बनाने" " Be and Make" का प्रशिक्षण देता है। क्योंकि मानवजाति के नेता युगाचार्य श्रीरामकृष्ण एवम उनसे शिक्षा देने का चपरास प्राप्त नेता 'स्वामी विवेकानन्द' का अनुसरण ; महामण्डल द्वारा निर्देशित " विवेक-प्रयोग सहित  ५ अभ्यास को स्वयं करते हुए,अपने आस-पास रहने वाले ५ भाइयों की निःस्वार्थ सेवा -मनुष्य बनो और बनाओ!" का अभ्यास करने में सहायता देकर ही किया जा सकता है। ]  
महामण्डल की प्रमुख विशेषतायें:
* युवा लोग जहाँ कहीं भी एकसाथ एकत्र होते हैं ,महामण्डल वहीं पहुँच कर उनके साथ कार्य करता है। युवाओं के लिए तथा उनके मन पर कार्य करता है।उनमे आत्म-विश्वास जगाता है तथा अपने आप पर श्रद्धा करना सिखाता है। युवाओं को एक विधेयात्मक जीवन-दृष्टि और जीवन-लक्ष्य प्रदान करता है।
* महामण्डल सम्पूर्ण भारत के युवाओं को उन्हीं की भाषा में 'आत्म-विकास' और 'व्यक्तित्व-निर्माण' या ' चरित्र-गठन ' की व्यवहारिक पद्धति से  अवगत कराता है।
* वे युवा, जो स्वामी विवेकानन्द के नेतृत्व में विश्वास रखते हैं, मनुष्य-जाती के प्रति उनके अमर संदेशों में तथा राष्ट्र के नाम उनके आत्मझंकिर्त कर देने वाली उनकी पुकार में आस्था रखते हैं; महामण्डल वैसे युवाओं का आह्वान करता है-कि वे महामण्डल से जुड़ कर " मनुष्य-निर्माणऔर चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन " को भारत के गाँव-गाँव तक ले जा कर , भारत का पुनर्निमाण करने के महान उद्देश्य में जुट जाएँ।

* स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-" मेरी आशा,मेरा विश्वास नविन पीढ़ी के नवयुवकों पर है। उन्हीं में से मैं अपने कार्यकर्ताओं का संग्रह करूँगा, वे सिंहविक्रम से देश कि यथार्थ उन्नति सम्बन्धी सारी समस्याओं का समाधान करेंगे।" .....वे एक केन्द्र से दुसरे केन्द्र का विस्तार करेंगे ,और इस प्रकार हम समग्र भारत में फ़ैल जायेंगे।

* " वत्स! मैं चाहता हूँ,'लोहे जैसी मांसपेशियाँ' और 'फौलाद के स्नायु' जिनके अन्दर ऐसे मन का वास हो जो ' वज्र ' के उपादानों (महर्षि दधिची के त्याग और सेवा की भावना) से गठित हो।...तुम्हारे अन्दर पूर्ण शक्ति निहित है ! तुम सब कुछ करने में समर्थ हो ! इस शक्ति को पहिचानो ! 

* मत समझो कि तुम निर्बल हो, तुम बिना किसी कि सहायता लिए सब कुछ करने में समर्थ हो ! सारी शक्ति तो तुम्हारे ही अन्दर विद्यमान है ! उठो ! और अपना अन्तस्थ ब्रह्मभाव अभिवयक्त करो !"
* स्वामी विवेकानन्द का महावाक्य - ' बनो और बनाओ !', " Be and Make " को चरित्र-निर्माण एवं मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन का रूप देकर, सम्पूर्ण भारतवर्ष में फैला देने के लिये- " संघबद्ध हो कर आगे बढो!" 
महामण्डल का जय-घोष --
* महामण्डल केतन करो दुर्जय ; निवेदिता बज्र हो अक्षय !
* चरैवेति चरैवेति हुँकारों स्माकम, विवेकानन्द नेता नः विभीमः कस्माद वयं ? २ 
* मिलजुलकर एक साथ रहेंगे, और बढ़ेगी एकता ! उद्देश्य हमारा देश की सेवा !  विवेकानन्द हमारे नेता ! विवेकानन्द हमारे नेता ! विवेकानन्द हमारे नेता !!
**Sleep No More, Arise Awake, Call Swamiji Be and Make! 3
स्लीप नो मोर, एराईज अवेक, कॉल स्वामी जी बी ऐंड मेक ! ३ 
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सोमवार, 26 जून 2023

$🔱🙏परिच्छेद~121 [ ( 31अगस्त, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121] 🔱🙏 जो इष्ट हैं, वे ही गुरु के रूप में आते हैं । 🔱🙏सत्य वचन, ईश्वर पर निर्भरता तथा पर-स्त्री को माता के समान देखना - ये सब ईश्वर दर्शन के उपाय हैं ।🔱🙏

  *परिच्छेद- १२१*

*पूर्ण आदि भक्तों को उपदेश*

(१)

*पूर्ण, मास्टर,क्षीरोद, निताई आदि भक्तों के संग में*

श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में विश्राम कर रहे हैं । रात के आठ बजे होंगे । सोमवार, श्रावण की कृष्णा षष्ठी है, ३१ अगस्त १८८५ । श्रीरामकृष्ण अस्वस्थ रहते हैं । गले की बीमारी का वही हाल है; परन्तु दिनरात भक्तों के लिए शुभ-कामना और ईश्वर-चिन्तन किया करते हैं । कभी कभी बालक की तरह विकल हो जाते हैं, परन्तु वह थोड़ी देर के लिए । उसी क्षण उनका वह भाव बदल जाता है और वे ईश्वर के आनन्द में मग्न हो जाते हैं । भक्तों के प्रति स्नेह और वात्सल्य के आवेश में पागल रहते हैं ।

दो दिन हुए - पिछले शनिवार की रात को - पूर्ण ने पत्र लिखा है, ‘मुझे खूब आनन्द मिल रहा है । कभी-कभी रात को मारे आनन्द के आँख नहीं लगती ।’

श्रीरामकृष्ण ने पत्र सुनकर कहा – ‘सुनकर मुझे रोमांच हो रहा है । उसके आनन्द की वह अवस्था बाद में भी ज्यों की त्यों बनी रहेगी । अच्छा, देखूँ तो जरा पत्र ।’

पत्र को हाथ में लेकर उसे मरोड़ते दबाते हुए कह रहे हैं – ‘दूसरे का पत्र मैं नहीं छू सकता, पर इसकी चिट्ठी बहुत अच्छी है ।’

उसी रात को वे जरा सोये ही थे कि एकाएक देह से पसीना बह चला । पलंग से उठकर कहने लगे – ‘मुझे जान पड़ता है कि यह बीमारी अब अच्छी न होगी ।’

यह बात सुनकर भक्त सब चिन्ता में पड़ गये ।

श्रीमाताजी श्रीरामकृष्ण की सेवा के लिए आयी हुई हैं और बहुत ही एकान्त में नौबतखाने में रहती हैं । वे नौबतखाने में रहती है, यह बात किसी भक्त को भी मालूम न थी । एक भक्त-स्त्री(गोलाप माँ) भी कई दिनों से नौबतखाने में रहती हैं । वे प्राय: श्रीरामकृष्ण के कमरे में आती और दर्शन कर जाया करती हैं ।

श्रीरामकृष्ण उनसे दूसरे दिन रविवार को कह रहे हैं, ‘तुम बहुत दिनों से यहाँ पर हो, लोग क्या समझेंगे ? बल्कि दस दिन घर में भी जाकर रहो ।’ मास्टर ने इन सब बातों को सुना ।

आज सोमवार है । श्रीरामकृष्ण अस्वस्थ हैं । रात के आठ बजे होंगे । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर, पीछे की ओर फिरकर, दक्षिण की ओर सिरहाना करके लेटे हुए हैं । सन्ध्या के बाद मास्टर के साथ गंगाधर कलकत्ते से आये । वे उनके पैरों की ओर एक किनारे बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण मास्टर से बातचीत कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - दो लड़के आये हुए थे । एक तो शंकर घोष के नाती का लड़का है -सुबोध, और दूसरा उसी के टोले का एक लड़का क्षीरोद । दोनों बड़े अच्छे लड़के हैं । उनसे मैंने कहा, ‘मेरी तबीयत इस समय अच्छी नहीं ।’ फिर मैंने तुम्हारे पास आकर उपदेश लेने के लिए कहा । उन्हें जरा देखना ।

मास्टर - जी हाँ, मेरे ही मुहल्ले में वे रहते हैं ।

श्रीरामकृष्ण - उस दिन फिर देह से पसीना निकला और नींद उचट गयी । यह क्या बीमारी हो गयी ?

मास्टर - जी, हम लोगों ने एक बार डा. भगवान रुद्र को दिखलाने का निश्चय किया है । वे एम. डी. ‘पास’ बड़े अच्छे डाक्टर हैं ।

श्रीरामकृष्ण - कितना लेगा ? 

मास्टर - उनकी नियमित फ़ीस बीस-पच्चीस रुपये होती हैं ।

श्रीरामकृष्ण - तो रहने दो ।

मास्टर - जी, हम लोग अधिक से अधिक चार या पाँच रुपये देंगे ।

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, इतने पर ठीक करके एक बार कहो, ‘कृपा कर उन्हें चलकर देखिये जरा ।’ यहाँ की बात क्या उसने कुछ सुनी नहीं ?

मास्टर - शायद सुनी है । एक तरह से कुछ भी न लेने के लिए कहा है । परन्तु हम लोग देंगे, क्योंकि इस तरह वे फिर आयेंगे ।

श्रीरामकृष्ण - निताई डाक्टर को ले आओ तो और अच्छा है । दूसरे डाक्टर आकर करते ही क्या है ? घाव दबाकर और बढ़ा देते हैं ।

रात के नौ बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण सूजी की खीर खाने के लिए बैठे । खाने में कोई कष्ट नहीं हुआ । इसलिए हँसते हुए मास्टर से कह रहे हैं, “कुछ खाया गया, इससे मन को आनन्द है।”

[ ( मंगलवार, 1 सितंबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121

(२)

 *नरेंद्र, राम, गिरीश आदि भक्तों संग में*

आज जन्माष्टमी है, मंगलवार, १ सितम्बर १८८५

श्रीरामकृष्ण स्नान करेंगे । एक भक्त उनकी देह में तेल लगा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण दक्षिण के बरामदे में बैठकर तेल लगवा रहे हैं । गंगास्नान करके मास्टर ने श्रीरामकृष्ण को आकर प्रणाम किया ।

स्नान करके एक अंगौछा पहनकर श्रीरामकृष्ण ने बरामदे से ही देवताओं को प्रणाम किया । शरीर अस्वस्थ रहने के कारण कालीमन्दिर या विष्णुमन्दिर में नहीं जा सके ।

आज जन्माष्टमी है । राम आदि भक्त श्रीरामकृष्ण के लिए आज नया वस्त्र ले आये हैं । श्रीरामकृष्ण ने नया वस्त्र पहना - वृन्दावनी धोती, और ओढ़ने के लिए दुपट्टा । उनका शुद्ध पुण्य शरीर नये वस्त्रों से अपूर्व शोभा दे रहा है । वस्त्र पहनकर उन्होंने देवताओं को प्रणाम किया ।

आज जन्माष्टमी है । गोपाल की माँ गोपाल (श्रीरामकृष्ण) को खिलाने के लिए कुछ भोजन कामारहाटी से लेकर आयी हैं । श्रीरामकृष्ण के पास दुःख प्रकट करते हुए वे कह रही हैं – ‘तुम तो खाओगे ही नहीं ।’

श्रीरामकृष्ण - यह देखो, मुझे यह बीमारी हो गयी है ।

गोपाल की माँ - मेरा दुर्भाग्य ! अच्छा, हाथ में थोड़ासा ले लो ।

श्रीरामकृष्ण - तुम आशीर्वाद दो ।

गोपाल की माँ श्रीरामकृष्ण को ही गोपाल कहकर सेवा करती थीं ।भक्तगण मिश्री ले आये हैं । गोपाल की माँ कह रही है, ‘यह मिश्री मैं नौबतखाने में लिये जा रही हूँ ।’ श्रीरामकृष्ण ने कहा, ‘यहाँ भक्तों के लिए खर्च होती है, कौन सौ बार माँगता रहेगा । यहीं रहने दो ।’

दिन के ग्यारह बजे का समय है । क्रमशः भक्तगण कलकते से आते जा रहे हैं । श्रीयुत बलराम, नरेन्द्र, छोटे नरेन्द्र, नवगोपाल, काटवा के एक वैष्णव भक्त, सब क्रमशः आ गये । आजकल राखाल और लाटू यहीं रहते हैं । एक पंजाबी साधु कुछ दिनों से पंचवटी में टिके हुए हैं ।

छोटे नरेन्द्र के मत्थे में एक उभरी हुई गुल्थी है । श्रीरामकृष्ण पंचवटी में टहलते हुए कह रहे हैं, ‘तू इस गुल्थी को कटा क्यों नहीं डालता ? वह गले में तो है ही नहीं - सिर पर ही है । इससे कष्ट क्या हो सकता है ? - लोग तो बढ़ा हुआ अण्डकोश तक कटा डालते हैं ।' (हास्य)

पंजाबी साधु बगीचे के रास्ते से जा रहे हैं । 

श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं – ‘मैं उसे नहीं खींचता । उसका भाव ज्ञानी का है । देखता हूँ, जैसे सूखी लकड़ी ।’

श्री रामकृष्ण और भक्त कमरे में लौट आए। बातचीत श्यामपद भट्टाचार्य की ओर मुड़ी।

बलराम - उन्होंने कहा है, ‘नरेन्द्र की छाती पर पैर रखने से नरेन्द्र को जैसा भावावेश हुआ था, वैसा मेरे लिए तो नहीं हुआ ।’

श्रीरामकृष्ण - बात यह कि कामिनी और कांचन में मन के रहने पर विक्षिप्त मन को एकत्र करना बड़ा कठिन हो जाता है । उसने कहा है, उसे ‘सालिसिटर’-पन (वकालत) करनी पड़ती है और घर के बच्चों के लिए भी चिन्ता करनी पड़ती है । नरेन्द्र आदि का मन विक्षिप्त थोड़े ही है ! - उनमें अभी कामिनी और कांचन का प्रवेश नहीं हो पाया ।

“परन्तु वह (श्यामपद) है बड़ा चोखा आदमी ।”

काटवा के वैष्णव श्रीरामकृष्ण से प्रश्न कर रहे हैं । वैष्णवजी कुछ कंजे (squint-eyed) हैं ।

वैष्णव - महाराज, क्या पुनर्जन्म होता है ?

श्रीरामकृष्ण - गीता में है, मृत्यु *के समय जिस चिन्ता को लेकर मनुष्य देह छोड़ता है, उसी को लेकर वह पैदा होता है । हरिण की चिन्ता करते हुए देह छोड़ने के कारण महाराज भरत को हरिण होकर जन्म लेना पड़ा था ।

वैष्णव - यह बात होती है इसे अगर कोई आँख से देखकर कहे तो विश्वास भी हो ।

श्रीरामकृष्ण - यह मैं नहीं जानता, भाई । मैं अपनी बीमारी ही तो अच्छी नहीं कर सकता, तिसपर मरकर क्या होता है – यह प्रश्न !

“तुम जो कुछ कह रहे हो, ये हीन बुद्धि की बातें हैं । किस तरह ईश्वर में भक्ति हो, यह चेष्टा करो। भक्ति-लाभ के लिए ही तुम मनुष्य योनि में पैदा हुए हो । बगीचे में आम खाने के लिए आये हो, कितनी हजार डालियाँ हैं, कितने लाख पत्ते हैं, इसकी खबर लेकर क्या करोगे ? - जन्मान्तर की खबर !”

श्रीयुत गिरीश घोष दो-एक मित्रों के साथ गाड़ी पर चढ़कर आये । कुछ शराब भी उन्होंने पी थी । रोते हुए आ रहे हैं । श्रीरामकृष्ण के पैरों पर मस्तक रखकर रो रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण सस्नेह उनकी देह में मीठी थपकियाँ मारने लगे । एक भक्त को पुकारकर कहा, - ‘अरे, इसे तम्बाकू पिला ।’

गिरीश सिर उठाकर हाथ जोड़ कह रहे हैं –“तुम्ही पूर्ण ब्रह्म हो, यह अगर सत्य न हो तो सब मिथ्या है ।

“बड़ा खेद रहा, मैं तुम्हारी सेवा न कर सका । (ये बाते वे एक ऐसे स्वर में कह रहे हैं कि भक्तों की आँखों में आँसू आ गये - वे फूट-फूटकर रो रहे हैं ।)

“भगवन् ! यह वर दो कि साल भर तुम्हारी सेवा करता रहूँ । मुक्ति क्या चीज है ! - वह तो मारी मारी फिरती है - उस पर मैं थूकता हूँ । कहिये सेवा एक साल के लिए करूँगा ।”

श्रीरामकृष्ण - यहाँ के आदमी अच्छे नहीं हैं । कोई कुछ कहेगा ।

गिरीश - वह बात न होगी, आप कह दीजिये –

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, तुम्हारे घर जब जाऊँ तब सेवा करना ।

गिरीश - नहीं, यह नहीं । यहीं करूँगा ।

श्रीरामकृष्ण ने हठ देखकर कहा, ‘अच्छा, ईश्वर की जैसी इच्छा ।’

श्रीरामकृष्ण के गले में घाव है । गिरीश फिर कहने लगे, “कह दीजिये, अच्छा हो जाय । अच्छा, मैं इसे झाड़े देता हूँ – काली ! काली !”

श्रीरामकृष्ण - मुझे लगेगा ।

गिरीश - अच्छा हो जा (गले पर ओझा जैसा फूक मारते हैं) "क्या अच्छा नहीं हुआ ? - अगर आपके चरणों मे मेरी भक्ति होगी तो अवश्य अच्छा हो जायेगा - कहिये अच्छा हो गया ।”

श्रीरामकृष्ण (विरक्ति से) - जाओ भाई, ये सब बातें मुझसे नहीं कही जातीं । रोग के अच्छे होने की बात माँ से मैं नहीं कह सकता । “अच्छा, ईश्वर की इच्छा से होगा ।”

गिरीश - आप मुझे बहका रहे हैं । आपकी ही इच्छा से होगा ।


श्रीरामकृष्ण - छि:, ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए । भक्तवत् न तु कृष्णवत् । तुम्हें जैसा रुचे सोच सकते हो - अपने गुरु को भगवान समझ सकते हो, परन्तु इन सब के कहने से अपराध होता है । ऐसी बातें फिर नहीं कहना ।

गिरीश - कहिये, अच्छा हो जायेगा ।

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, जो कुछ हुआ है वह चला जायेगा ।

गिरीश शायद अब भी अपने नशे में हैं । कभी कभी बीच में वे श्रीरामकृष्ण से कहते हैं, “क्या बात है कि इस बार आप अपने दैवी सौन्दर्य को लेकर पैदा नहीं हुए ?” 

कुछ देर बाद फिर कह रहे हैं - “अबकी बार जान पड़ता है, बंगाल का उद्धार है ।”

एक भक्त अपने आप से कह रहे हैं, “केवल बंगाल का ही क्यों ? समस्त जगत् का उद्धार होगा ।”

गिरीश फिर कह रहे हैं – “ये यहाँ क्यों हैं, इसका अर्थ किसी की समझ में आया ? जीवों के दुःख से विकल होकर आये हैं, उनका उद्धार करने के लिए ।”

गाड़ीवान पुकार रहा था । गिरीश उठकर उसके पास जा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं – “देखो, कहाँ जाता है - गाड़ीवान को मारेगा तो नहीं ?” मास्टर भी साथ जा रहे हैं ।

गिरीश फिर लौटे, श्रीरामकृष्ण की स्तुति करने लगे – “भगवन्, मुझे पवित्रता दो, जिससे कभी थोड़ीसी भी पाप-चिन्ता न हो ।”

श्रीरामकृष्ण – तुम पवित्र तो हो ही । तुममें इतनी भक्ति और विश्वास जो है ! तुम तो आनन्द में हो न ?

गिरीश - जी नहीं, मन खराब रहता है बड़ी अशान्ति रहती है, इसीलिए तो - - शराब पी और खूब पी ।

कुछ देर बाद गिरीश फिर कह रहे हैं – “भगवन्, आश्चर्य हो रहा है, मैं पूर्णब्रह्म भगवान की सेवा कर रहा हूँ ! ऐसी कौनसी तपस्या मैंने की जिससे इस सेवा का अधिकारी हुआ ?”

दोपहर हो गयी है, श्रीरामकृष्ण ने भोजन किया । बीमारी के होने से बहुत थोड़ासा भोजन किया ।

श्रीरामकृष्ण की सदैव भावावस्था रहती है - जबरदस्ती उन्हें शरीर की ओर मन को ले आना पड़ता है । परन्तु बालक की तरह वे खुद अपने शरीर की रक्षा नहीं कर सकते । बालक की तरह भक्तों से कह रहे हैं, “जरासा भोजन किया, अब थोड़ी देर के लिए लेटूँगा । तुम लोग जरा बाहर जाकर बैठो ।”

 श्रीरामकृष्ण ने थोड़ा विश्राम किया । भक्तगण कमरे में फिर आये ।

[(मंगलवार, 1 सितंबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

श्री गुरु ही इष्ट हैं । दो प्रकार के भक्त ।

गिरीश - गुरु और इष्ट । मुझे गुरुरूप बहुत अच्छा लगता है - उसका भय नहीं होता - क्यों भला? मैं भावावेश से दूर भागता हूँ - उससे मुझे भय लगता है ।

श्रीरामकृष्ण - जो इष्ट हैं, वे ही गुरु के रूप में आते हैं । शवसाधना के पश्चात् जब इष्टदेव के दर्शन होते हैं, तब गुरु स्वयं शिष्य से आकर कहते हैं – ‘ऐ (शिष्य), वह देख (इष्ट को) ।’ यह कहकर वे इष्ट के रूप में लीन हो जाते हैं । शिष्य तब गुरु को नहीं देखता।  जब पूर्ण ज्ञान हो जाता है तब कौन गुरु और कौन शिष्य ? ‘वह बड़ी कठिन अवस्था है; 'वहाँ'  गुरु और शिष्य एक दूसरे को नहीं देख पाते ।’

एक भक्त - गुरु का सिर और शिष्य के पैर ।

गिरीश (आनन्द से) - हाँ, हाँ, सच है ।

नवगोपाल - इसका अर्थ सुन लो । 'शिष्य का सिर गुरु की वस्तु' है और 'गुरु के पैर शिष्य की वस्तु ।' सुना ?

गिरीश - नहीं, यह अर्थ नहीं है । क्या लड़का बाप के कन्धे पर चढ़ता नहीं ? इसीलिए शिष्य के पैर और गुरु का सिर, ऐसा कहा है ।

नवगोपाल - वह शिष्य अगर वैसा ही छोटासा हो, तब न ?

श्रीरामकृष्ण - भक्त दो तरह के हैं - एक वे जिनका भाव बिल्ली के बच्चे जैसा होता है, सारा अवलम्ब माता पर ।

“बिल्ली का बच्चा बस ‘मिऊं मिऊँ’ करता रहता है । कहाँ जाना है, क्या करना है, वह कुछ नहीं जानता । माँ कभी उसे कण्डौरे में रखती है और कभी बिस्तरे पर ले जाकर रखती है । इस तरह का भक्त ईश्वर को अपना आममुख्तार बना लेता है । उन्हें मुख्तारी सौंपकर वह निश्चिन्त हो जाता है ।

 “सिक्खों ने कहा था, ‘ईश्वर दयालु है ।’ मैने कहा, 'वे हमारे माँ-बाप हैं; उनका दयालु होना फिर कैसा ? बच्चों को पैदा करके माँ-बाप उनका पालन-पोषण नहीं करेंगे तो क्या पाण्डे -टोले वाले आकर करेंगे ?’ इस तरह के भक्तों को दृढ़ विश्वास है – ‘वे हमारी माँ हैं, हमारे पिता हैं ।’

“एक दर्जे के भक्त और हैं । उनका स्वभाव बन्दर के बच्चे की तरह है । बन्दर का बच्चा खुद किसी तरह माँ को पकड़े रहता है । इस दर्जे के लोगों को कुछ कर्तृत्व का विचार रहता है । मुझे तीर्थ करना है, जप-तप करना है, षोडशोपचार पूजा करनी है तब ईश्वर मिलेंगे, - इनका यह भाव है ।”

“भक्त दोनों हैं । (भक्तों से) जितना ही बढ़ोगे, उतना ही देखोगे, वे ही सब कुछ हुए हैं - वे ही सब कुछ करते हैं । वे ही गुरु हैं और वे ही इष्ट भी हैं । वे ही ज्ञान और भक्ति सब दे रहे हैं ।

“जितना हो आगे बढ़ोगे उतना ही अधिक पाओगे । देखोगे, चन्दन की लकड़ी फिर आगे और भी बहुत कुछ है - चाँदी सोने की खान, हीरे और मणि की खान; इसीलिए कहता हूँ, ‘आगे बढ़ते जाओ ।’

“और ‘बढ़ते जाओ’ यह बात भी किस तरह कहूँ ? संसारी आदमी अगर अधिक बढ़ जायँ तो घर और गृहस्थी सब साफ हो जाय । केशव सेन उपासना कर रहा था, कहा, ‘हे ईश्वर, ऐसा करो जिससे तुम्हारी भक्ति की नदी में हम डूब जायँ ।’ जब उपासना समाप्त हो गयी तब मैंने कहा, ‘क्यों जी, तुम भक्ति की नदी में डूब कैसे जाओगे ? डूब जाओगे तो जो चिक के भीतर बैठी हुई हैं, उनकी क्या दशा होगी ? एक काम करो - कभी कभी डूब जाना और कभी कभी निकलकर फिर किनारे पर सूखे में आ जाना ।’ ” (सब हँसते हैं)

 काटवा के वैष्णव तर्क कर रहे थे । श्रीरामकृष्ण उनसे कह रहे हैं - "तुम छन-छनाना "   (कलकलाना) छोड़ो । घी जब तक कच्चा रहता है तभी तक कलकलाया करता है ।  

“एक बार उनका आनन्द मिलने से विचार- बुद्धि दूर हो जाती है । जब मधु-पान का आनन्द मिलने लगता है तो गूँजना बन्द हो जाता है ।

 “किताब पढ़कर कुछ बातों के कह सकने से क्या होगा ? पण्डित कितने ही श्लोक कहते हैं – ‘शीर्णा गोकुलमण्डली’  आदि सब ।

“ ‘भंग-भंग' रटते रहने से क्या होगा ? उसकी कुल्ली करने से भी कुछ न होगा । पेट में पड़ना चाहिए - नशा तभी होगा । निर्जन में और एकान्त में व्याकुल होकर ईश्वर को बिना पुकारे इन सब बातों की धारणा कोई कर नहीं सकता ।”

डाक्टर राखाल श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए आये हैं । श्रीरामकृष्ण व्यस्त भाव से कह रहे हैं – “आइये, बैठिये ।”

 वैष्णव से पुनः बातचीत होने लगी ।

श्रीरामकृष्ण - मनुष्य और 'मन- होश' । जिसे चैतन्य हुआ है, वह 'मन होश' है । बिना चैतन्य के मनुष्य-जन्म वृथा है ।

“हमारे देश (कामारपुकुर) में मोटे पेट और बड़ी बड़ी मूछोंवाले आदमी बहुत हैं; फिर भी वहाँ के लोग दस कोस से अच्छे आदमी को पालकी पर चढ़ाकर क्यों ले आते हैं ? - उन्हें धार्मिक और सत्यवादी देखकर; वे झगड़े का फैसला कर देंगे, इसलिए जो लोग केवल पण्डित हैं, उन्हें नहीं लाते ।

“सत्य बोलना कलिकाल की तपस्या है । सत्य वचन, ईश्वर पर निर्भरता तथा पर-स्त्री को माता के समान देखना - ये सब ईश्वर दर्शन के उपाय हैं ।”

श्रीरामकृष्ण बच्चे की तरह डाक्टर से कह रहे हैं – “भाई, इसे अच्छा कर दो ।”

श्रीरामकृष्ण बालक की तरह बार-बार डाक्टर के कुर्ते में हाथ लगाते हुए कह हैं – “भाई ! तुम इसे अच्छा कर दो ।”

 Laryngoscope" (लैरींगोस्कोप- कण्ठ नाली देखने का यंत्र) को देखकर श्रीरामकृष्ण हँसते हुए कह रहे हैं – “इसमें छाया पड़ेगी, समझ गया ।”

नरेन्द्र ने गाया -  परन्तु श्रीरामकृष्ण की बीमारी के कारण अधिक संगीत नहीं हुआ ।

(३)

[(मंगलवार, 2 सितंबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

*डॉ. रुद्र तथा श्रीरामकृष्ण*

दोपहर के भोजन के बाद श्रीरामकृष्ण अपनी चारपाई पर बैठ हुए डाक्टर भगवान रुद्र और मास्टर से वार्तालाप कर रहे हैं । कमरे में राखाल, लाटू आदि भक्त भी हैं । आज बुधवार है, श्रावण की अष्टमी-नवमी तिथि, २ सितम्बर १८८५ । डाक्टर ने श्रीरामकृष्ण की बीमारी का कुल विवरण सुना। श्रीरामकृष्ण जमीन पर उतरकर डाक्टर के पास बैठे हुए हैं ।

श्रीरामकृष्ण - देखो जी, दवा नहीं सही जाती । मेरी प्रकृति कुछ और है ।

“अच्छा, यह तुम्हें क्या जान पड़ता है ? रुपया छूने पर हाथ टेढ़ा हो जाता है । और अगर मैं धोती में गाँठ दे दूँ, तो जब तक वह खोल न दी जाय तब तक के लिए साँस बन्द जाती है ।”

यह कहकर उन्होंने एक रुपया ले आने के लिए कहा । डाक्टर को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि रुपये को हाथ पर रखते ही हाथ टेढ़ा हो गया और साँस बन्द हो गयी । रुपये को हटा लेने पर तीन बार साँस कुछ जोर से चली तब हाथ कहीं ठीक हुआ । डाक्टर ने मास्टर से कहा, “Action on the nerves.” (स्नायु के ऊपर क्रिया)

श्रीरामकृष्ण डाक्टर से कह रहे हैं- “एक अवस्था और है । कुछ संचय नहीं किया जाता । एक दिन मैं शम्भु मल्लिक के बगीचे में गया था । उस समय पेट में बड़ी पीड़ा थी । शम्भु ने कहा, 'जरा जरा अफीम खाया कीजिये तो ठीक हो जायेगा ।’ मेरी धोती के छोर में जरासी अफीम उसने बाँध दी । जब लौटा आ रहा था तब फाटक के पास चक्कर आने लगा । रास्ता नहीं मिल रहा था । फिर जब अफीम खोलकर फेंक दी गयी तब फिर ज्यों की त्यों अवस्था हो गयी और मैं बगीचे में लौट आया ।

“देश में मैं आम तोड़कर लिये आ रहा था, थोड़ी दूर जाने के बाद फिर चल न सका । खड़ा हो गया । फिर आमों को एक गढ़े में जब रख दिया तब कहीं घर आ सका । अच्छा, यह क्या है ?”

डाक्टर - इसके पीछे एक शक्ति और है, मन की शक्ति ।

मणि - ये कहते हैं, यह ईश्वर की शक्ति है और आप बतलाते हैं, मन की शक्ति

श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - ऐसी भी अवस्था है - अगर कोई कहता है, ‘पीड़ा घट गयी,’ तो साथ ही साथ कुछ घट भी जाती है । उस दिन ब्राह्मणी ने कहा, ‘आठ आना बीमारी अच्छी हो गयी;’ उसके कहने के साथ ही मैं नाचने लगा ।

डाक्टर का स्वभाव देखकर श्रीरामकृष्ण को प्रसन्नता हुई । वे डाक्टर से कह रहे हैं – “तुम्हारा स्वभाव अच्छा है । ज्ञान के दो लक्षण हैं, स्वभाव का शान्त हो जाना और अभिमान का लोप हो जाना ।”

मणि – इन्हें पत्नी-वियोग हो गया है ।

श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - मैं कहता हूँ, इन तीन आकर्षणों के एकत्र होने पर ईश्वर मिलते हैं - माता का बच्चे पर, सती का पति पर तथा विषयी मनुष्य का विषय पर जैसा आकर्षण होता है ।

“कुछ भी हो, भाई, मेरी यह बीमारी अच्छी कर दो ।”

डाक्टर अब गला देखेंगे । गोल बरामदे में एक कुर्सी पर श्रीरामकृष्ण बैठे । श्रीरामकृष्ण पहले डाक्टर सरकार की बात कह रहे हैं – “उसने खूब जोर से जीभ दबायी - जैसे बैल की हो !”

डाक्टर - उन्होंने इच्छापूर्वक वैसा न किया होगा ।

श्रीरामकृष्ण - नहीं, ठीक ठीक जाँच करने के लिए उसने जीभ को दबाया ।

(४)

[(रविवार, 20 सितम्बर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

अस्वस्थ श्रीरामकृष्ण तथा डाक्टर राखाल । भक्तों के साथ नृत्य ।

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में भक्तों के साथ अपने कमरे में बैठे हैं । रविवार, २० सितम्बर, १८८५ ई., शुक्ला एकादशी । नवगोपाल, हिन्दू स्कूल के शिक्षक हरलाल, राखाल, लाटू, कीर्तनकार गोस्वामी तथा अन्य लोग उपस्थित हैं । बड़ा/बहु बाजार के डाक्टर राखाल को साथ लेकर मास्टर आ पहुँचे । डाक्टर से श्रीरामकृष्ण के रोग की जाँच करायेंगे ।

 डाक्टर देख रहे हैं कि श्रीरामकृष्ण के गले में क्या रोग हुआ है । वे मोटे आदमी हैं, उँगलियाँ मोटी मोटी हैं ।

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए, डाक्टर से) - जो लोग ऐसा ऐसा करते है (अर्थात् कुश्ती लड़ते हैं) उनकी तरह हैं, तुम्हारी उँगलियाँ ! महेन्द्र सरकार ने देखा था, परन्तु जीभ को इतने जोर से दबा दिया था कि बहुत तकलीफ हुई । जैसे गाय की जीभ दबाकर पकड़ी हो !

डाक्टर राखाल - जी, मैं देखता हूँ, आपको कुछ कष्ट न होगा ।

डाक्टर द्वारा दवा की व्यवस्था करने के बाद श्रीरामकृष्ण फिर बातचीत कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (भक्तों के प्रति) – भला, लोग कहते हैं, ये यदि साधु हैं तो इन्हें रोग क्यों होता है ?

तारक - भगवानदास बाबाजी बहुत दिनों तक रोग से बिस्तर पर पड़े रहे ।

श्रीरामकृष्ण – मधु डाक्टर साठ वर्ष की अवस्था में वेश्या के लिए उसके घर पर खाना लेकर जाता है, और इधर उसे कोई रोग नहीं है ।

गोस्वामी - जी, आपका जो रोग है, यह दूसरों के लिए है । जो लोग आपके यहाँ आते हैं, उनका अपराध आपको लेना पड़ता है । उन्हीं सब अपराध-पापों को लेने से आपको रोग होता है ।

एक भक्त - यदि आप माँ से कहें, ‘माँ, इस रोग को मिटा दो’, तो जल्द ही मिट जाय ।

श्रीरामकृष्ण - रोग मिटाने की बात कह नहीं सकता; फिर हाल में सेव्य-सेवक भाव कम हो रहा है । एक बार कहता हूँ, ‘माँ, तलवार के खोल की जरा मरम्मत कर दो’, परन्तु उस प्रकार की प्रार्थना कम होती जा रही है । आजकल ‘मैं’ को खोजने पर भी नहीं पाता । देखता हूँ, वे ही इस खोल में विद्यमान हैं

कीर्तन के लिए गोस्वामी को लाया गया है । एक भक्त ने पूछा, ‘क्या कीर्तन होगा ?’ 

श्रीरामकृष्ण अस्वस्थ हैं, कीर्तन होने पर भावावस्था आयेगी, यही सब को भय है ।

श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, “होने दो थोड़ा सा । कहते हैं, मेरा भाव होता है – इसीलिए भय होता है । भाव होने पर गले के उसी स्थान में जाकर लगता है ।”

कीर्तन सुनते सुनते श्रीरामकृष्ण भाव को सम्हाल न सके । खड़े हो गये और भक्तों के साथ नृत्य करने लगे ।

डाक्टर राखाल ने सब देखा, उनकी किराये की गाड़ी खड़ी है । वे और मास्टर उठ खड़े हुए, - कलकत्ता जायेंगे । दोनों ने श्रीरामकृष्णदेव को प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण (स्नेह के साथ, मास्टर के प्रति) - क्या तुमने खाया है ?

[(रविवार, 24 सितम्बर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

🙏मास्टर के प्रति आत्मज्ञान का उपदेश – ‘देह’ खोल  मात्र है !🙏

बृहस्पतिवार, २४ सितम्बर, पूर्णिमा की रात को श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में तख्त पर बैठे हैं । गले के रोग से पीड़ित हैं । मास्टर आदि भक्तगण जमीन पर बैठे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) - कभी कभी सोचता हूँ, यह देह केवल खोल है । उस अखण्ड (सच्चिदानन्द) के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।  

“भाव का आवेश होने पर गले का रोग एक किनारे पड़ा रहता है । अब थोड़ा-थोड़ा वह भाव हो रहा है और हँसी आ रही है ।”

द्विज की बहन और छोटी दादी श्रीरामकृष्ण की अस्वस्थता का समाचार पाकर देखने के लिए आयी हैं । वे प्रणाम करके कमरे के एक कोने में बैठीं । द्विज की दादी को श्रीरामकृष्ण कह रहे है, “ये कौन हैं ? जिन्होंने द्विज को पाला पोसा है ? अच्छा, द्विज ने एकतारा क्यों खरीदा है ?”

मास्टर – जी, उसमें दो तार हैं ।

श्रीरामकृष्ण - उसके पिता उसके विरोधी हैं । सब लोग क्या कहेंगे ? उसको तो गुप्त रूप से ईश्वर को पुकारना ही ठीक है ।

श्रीरामकृष्ण के कमरे की दीवाल पर टँगा हुआ गौर-निताई का एक चित्र था । गौर-निताई दल-बल के साथ नवद्वीप में संकीर्तन कर रहे हैं - वह इसी का चित्र है ।

रामलाल (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - तो फिर यह चित्र इन्हें ही (मास्टर को) देता हूँ ।

श्रीरामकृष्ण - बहुत अच्छा, दे दो ।

श्रीरामकृष्ण कुछ दिनों से प्रताप की दवा ले रहे हैं । आज रात रहते ही उठ पड़े हैं, इसलिए मन बेचैन है । हरीश सेवा करते हैं, उसी कमरे में हैं, वहीं राखाल भी हैं । श्रीरामलाल बाहर के बरामदे में सो रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने बाद में कहा, ‘प्राण बेचैन होने से हरीश को बाँह में लेने की इच्छा हुई । थोड़ा सिर पर नारायण तेल मालिश करने से अच्छा हुआ, तब फिर नाचने लगा ।’

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