मेरे बारे में

गुरुवार, 12 जनवरी 2023

🔱🙏'एक महान जीवन की कई अनजानी बातें' (এক মহাজীবনের নানা অজানা কথা -শ্রী বিশ্বজিৎ চন্দ ) 🔱🙏यक्ष-प्रश्न : का वार्ता ? What is the News ? 🔱🙏Big Bang और इमानुएल काण्ट का देश और काल संबंधी विचार(Immanuel Kant, 1724-1804) [

 श्री विश्वजीत चंद द्वारा लिखित बंगाली पुस्तिका - " एक महाजीवनेर नाना अजाना कथा " का हिन्दी अनुवाद - 

"एक महान जीवन की कई अनजानी बातें"

लेखक 

श्री विश्वजीत चन्द 

 

प्रकाशक 

श्री विश्वनाथ बेरा 

सचिव 

अखिल भारत विवेकानन्द युव महामण्डल 

आन्दुल -मौड़ी शाखा 

गढ़मिर्जापुर, माशिला, हावड़ा -711302

फोन : 9433816641

E-mail : andulmourivym@gmail.com

प्रथम संस्करण: 3 जून, 2022

प्राप्तिस्थान : महामण्डल ब्रांच सेन्टर 

प्रूफ संशोधन तथा परिमार्जन : श्री चित्तरंजन मल्लिक 


आवरण :

श्री दिव्येन्दु भण्डारी 


मुद्रण :

आर्ट टच , उत्तर मौड़ी , पाल पाड़ा , 

आन्दुल -मौड़ी , हावड़ा 

फोन -91233334779

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हिन्दी अनुवादक :


-विजय कुमार सिंह  

उपाध्यक्ष 

अखिल भारत विवेकान्द युवा महामण्डल 

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Thakur maa o swamiji | Facebook

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समर्पण: 

आप तीनो के श्रीचरणों में सादर प्रणाम

Dedication: 

Obeisance to your feet

উৎসর্গ : 

তোমার রাতুল চরণে সশ্রদ্ধ প্রণাম 

      विश्वजीत चंद महाशय की बहुमूल्य ग्रंथसूची (bibliography) एक जिज्ञासु मन की उपज है। प्रचलित बंगाली कहावत 'केचा खुड़ते साप' (Snake digging for earthworms-केंचुओं के लिए खुदाई करते हुए साप मिले।) को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि विचारशील पाठकों के लिये यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह एक रोचक निबन्ध है, एवं प्रत्यक्षदर्शियों की नजदीकी से इस पुस्तक की गुणवत्ता में वृद्धि हुई है। विषयवस्तु (Content) का सन्निवेश अच्छा हुआ है, और लेखन शैली (style) भी संतुलित है। यदि असावधानी के कारण कोई त्रुटि रह गयी हो,तो आशा है पाठक उसे क्षमाशील दृष्टि से लेंगे। यह पुस्तिका दूरदर्शी पाठकों एवं शोधकर्ताओं को प्रेरणा तथा अंतर्दृष्टि का स्रोत प्रदान करेगी। मैं उसके (लेखक के) निरन्तर विकास की कामना करता हूं।

श्री रवींद्रनाथ पाल,

बंगाली शिक्षक,

पाँचारुल श्रीहरि विद्या मंदिर

Shri Rabindranath Pal,

Bengali teacher,

Pancharul Srihari Vidya Mandir

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प्रकाशक का निवेदन 

-श्री विश्वनाथ बेरा 

       'एक महान जीवन की कई अनजानी बातें' नामक पुस्तिका श्री विश्वजीत चन्द के द्वारा लिखी गयी है। इस पुस्तिका में आन्दुल -मौरी के एक प्रख्यात व्यक्ति भवदेव बंदोपाध्याय महाशय के जीवन की कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं एवं प्रसंगोचित उक्तियों को अभिलिखित किया गया है। 

    महामण्डल के भाई विश्वजीत 'अखिल भरत विवेकानंद युवा महामण्डल' के आन्दुल -मौरी शाखा के पूर्व सदस्य हैं, तथा  वर्तमान में महामण्डल की विचारधारा द्वारा निर्देशित 'पाँचारुल विवेकानन्द युवा पाठचक्र' के अध्यक्ष हैं।

अंग्रेजी में एक सरल सी कहावत प्रसिद्द है-' A man is known by the company he keeps.' - अर्थात किसी व्यक्ति की पहचान उसकी संगति में रहने वाले लोगों को देखकर की जा सकती है। अतएव भवदेव बाबू किस तरह के लोगों से संयुक्त थे, यह जानकर हम अनुमान कर सकते हैं कि वे किस तरह के व्यक्ति थे। स्वामीजी ने भी कहा है कि किसी व्यक्ति के द्वारा किये जाने वाले छोटे- छोटे कार्यों को देखकर ही उसके चरित्र को समझा जा सकता है।  

      जिस प्रकार सुबह के ओस की बूँदें विभिन्न फूलों की कलियों को अनायास ही प्रस्फुटित कर उन्हें खिला देती हैं, ठीक उसी प्रकार पूज्य भवदेव बाबू भी आन्दुल- मौरी विवेकानन्द युवा महामण्डल के युवाओं को जीवनपुष्प के प्रस्फुटन के लिए अनुप्रेरित करते थे। जब हम उनके जीवन-प्रवाह का अन्वेषण करते हैं तो हमें कई मणियों-रत्नों का पता चलता है। किन्तु स्वामीजी के आदर्शों के प्रति विशेष श्रद्धावान इस व्यक्ति के सम्बन्ध में अभीतक किसी ने कुछ लिखा नहीं है।स्वेच्छा से इस उपेक्षित कार्य का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेने के लिये हम विशेष रूप से अपने भाई श्री विश्वजीत चन्द के आभारी हैं। पुस्तक के प्रकाशन का कार्य अखिल भारत विवेकानन्द  युवा महामण्डल की 'अंदुल-मौरी शाखा' को सौंपने के लिए हम उनके और भी आभारी हैं। 

        परम पूज्यपाद श्रीमत स्वामी आत्मप्रियानन्द महाराज ने इतिहास को भी दार्शनिक दृष्टि से देखने की आवश्यकता पर बल दिया है। (उद्बोधन पत्रिका-बैशाख 1427, पृ.-267) विश्वजीत के लेखन में भी वही प्रयास दिखाई देता है। 

अंत में, रवींद्रनाथ की भाषा का अनुसरण करते हुए हम कह सकते हैं कि जिस प्रकार घर के बगल वाले धान के खेत में गिरती हुई ओस की बूंदों के भीतर हम शाश्वत सौन्दर्य (timeless beauty) की अनुभूति करते हैं, उसी प्रकार इस अनजाने व्यक्ति में भी महान मानवीय गुणों को देख कर हम महामानव दर्शन के आनंद का अनुभव करते हैं।    

 अनुसार हम कह सकते हैं कि जिस तरह हम घर के पास चावल की भूसी पर पड़ने वाली ओस की बूंदों में असीम सुंदरता पाते हैं, उसी तरह इस कुख्यात व्यक्ति में महान मानवीय गुणों को देखने का आनंद भी महसूस करते हैं।


- श्री विश्वनाथ बेरा

सचिव 

अखिल भारत विवेकानंद युवा महामंडल

अंदुल-मौरी शाखा

- Shri Vishwanath Bera

Secretary,

Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal,

Andul-Mauri branch .

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मुद्रक के उद्गार  

        ठाकुर- माँ- स्वामी जी को कोटि-कोटि नमन करते हुए, मैं पुस्तक के मुद्रक (printer) के रूप में कुछ शब्द कहना चाहूंगा। इस पुस्तक को छापने का दायित्व आन्दुल-मौरी विवेकानंद युवा महामण्डल के पुस्तक प्रकाशक के द्वारा मुझे सौंपा गया है। किन्तु महामारी के कारण पुस्तकों छपाई में काफी विलम्ब हो रहा है; अतएव हम सभी को बहुत धैर्य रखना होगा।

     इस सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि भवदेव बन्दोपाध्याय महाशय के सबसे छोटे पुत्र आदरणीय श्री सुशान्त बन्दोपाध्याय मेरे गृह शिक्षक थे। इसी के चलते उनके घर पर रोज मुझे जाना पड़ता था। वहाँ परम पूज्य भवदेव बन्दोपाध्याय जी को अक्सर उनके वाचनालय में बैठकर, पढ़ने-लिखने में तल्लीन देखता था। यद्यपि वे अल्पभाषी थे, तथापि उनका अकृत्रिम स्नेह हमें प्राप्त हुआ था। वे अपने गाम्भीर्य को त्यागकर किसी बालक की तरह, हमारे स्तर पर उतरकर हमलोगों से मिला करते थे। उस समय मेरी उम्र काफी कम थी, इसलिए उनके व्यक्तित्व की गहराई को नापने की क्षमता मुझमें नहीं थी। लेकिन इस पुस्तक को छापने की जिम्मेदारी सौंपे जाने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि मैं कितना भाग्यशाली था कि मुझे छोटी उम्र में ही एक ऐसे व्यक्ति के दर्शन हुए - जिन्हें स्वयं माँ सारदा देवी, स्वामी शिवानन्द, स्वामी अभेदानन्द आदि महापुरुषों के दर्शन हुए थे ।

         अब महान चित्रकार स्वर्गीय शैल चक्रवर्ती के प्रसंग पर। मैं उनसे संभवत: 1979 में कलकत्ता पुस्तक मेले में मिला था। मुझे उनके चरणों में प्रणाम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था । मेरे साथ उनका परिचय भवदेव बंदोपाध्याय महाशय के ज्येष्ठ पुत्र और मेरे शिक्षक स्वर्गीय विश्वनाथ बन्दोपाध्याय ने कराया था।

     मैं यह जानकर बहुत रोमांचित हुआ था कि श्रीरामकृष्ण वचनामृत ग्रन्थ में जिस 'अण्डे को सेती हुई चिड़िया' का जो चित्र छपा हुआ है , वह चित्र श्रीम के निर्देशानुसार पूजनीय भवदेव बन्दोपाध्याय महाशय ने ही शैल चक्रवर्ती के माध्यम से बनवाया था। अतएव स्वयं को मैं अत्यन्त भाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे श्रद्धेय भवदेव बंदोपाध्याय एवं शैल चक्रवर्ती महाशय-दोनों के चरण स्पर्श करने का सौभाग्य मिला है।

श्री विश्वजीत चन्द के लेखों को पुस्तक रूप में छापते समय मुझे यह पता ही नहीं चला कि उनके शब्द मेरी जानकारी के बिना कब  मेरे चित्त पर अंकित हो गए हैं। 

विनीत  -

श्री दिव्येन्दु भण्डारी 

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|| भूमिका ||  

     'भारत का भविष्य' विषय पर दिये अपने भाषण में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -"अतीत के गर्भ से ही भविष्य का जन्म होता है।" अर्थात अतीत से ही भविष्य का निर्माण होता है। और क्योंकि मैं इतिहास का छात्र रहा हूँ, इसलिये मैं भी अपनी लेखनी की शुरुआत अतीत से ही करना चाहूँगा। 

अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की आन्दुल -मौरी शाखा के श्री सुशान्त बन्दोपाध्याय के साथ मेरा परिचय वर्ष 1989 से है। निजी बातचीत के दौरान वे अंदुल-मौरी के अतीत की कई कहानियां मुझे सुनाया करते थे। उन कहानियों में अक्सर उनके स्वर्गीय पिता भवदेव बन्दोपाध्याय महाशय का उल्लेख हुआ करता था। कभी-कभी तो ऐसा लगता था कि अनेक घटनाओं के मुख्य गवाह (साक्षी) मानो भवदेवबाबू ही हों। उन सभी चर्चाओं में, सबसे पहले मैंने पूज्य नवनीदा के छात्र जीवन के बारे में सुना, फिर नवनीदा के प्रख्यात (proverbial) पितामह (दादा), आचार्य शीरीष चन्द्र के जीवन की विभिन्न घटनाओं तथा स्वामी विवेकानन्द के परिवार के साथ आन्दुल के संपर्क के बारे में सुना। 

यह जानकर मैं बहुत प्रभावित हुआ कि भवदेव बाबू ने देश की आजादी के लिए,अपनी प्यारी मातृभूमि की मुक्ति के लिए, कैसे एक क्रन्तिकारी कार्यकर्ता (revolutionary activists) की भूमिका निभाई थी ; मैं उनके श्रीश्री माँ सारदा देवी के दर्शन करने, स्वामीजी की भाषा में-'जीवन्त दुर्गा' (জ্যান্ত দূর্গা) के दर्शन करने की स्मृति की बात सुनकर और भी रोमांच से भर गया। परम पूज्य महापुरुष महाराज (स्वामी शिवानन्द) एवं स्वामी अभेदानन्द जी महाराज के साथ भवदेव बाबू के सम्बन्ध की बातें तथा श्रीरामकृष्ण वचनामृत के लेखक श्रीम (मास्टर महाशय) का स्नेह-पात्र बन जाने, इत्यादि घटनाओं को सुनने मात्र से, आन्दुल भ्रमण द्वारा मन में किसी पुण्य तीर्थ यात्रा का भाव उत्पन्न हो जाता है। मन की इसी भावना ने मुझे भवदेव बाबू के जीवन की कुछ अज्ञात घटनाओं को अभिलिखित करने के लिए प्रेरित कर दिया - जिसके परिणामस्वरूप यह पुस्तिका तैयार हो गयी।

      परम्- पूज्य नवनीदा (प्रेममय श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय) ने अपने - "छोटे-छोटे कर्मों का महत्व" (Greatness in Small Deeds) शीर्षक निबंध में लिखा है कि "महान लोग अपने छोटे-छोटे कार्यों (जैसे धोती समेटना या कागज फाड़ना जैसे तुच्छ कार्यों) के द्वारा जिस महानता (पूर्णता या दिव्यता) का परिचय देते हैं, वे अक्सर हम जैसे साधारण लोगों की नजरों से चूक जाती हैं, या 'skip' कर जाती हैं। किन्तु वास्तव में वे ही सच्चे महात्मा होते हैं। सम्भव है कि इतिहास के पन्नों में इन लोगों के नाम अलग से न लिखे जाएं। लेकिन राष्ट्र का भावी इतिहास इन्हीं जैसे महापुरुषों के सम्मिलित प्रयासों की बुनियाद पर निर्मित होता है।" भवदेव बाबू के जीवन की कुछ घटनाओं को अभिलिखित करते समय मुझे श्रद्धेय नवनिदा के शब्द विशेष रूप से याद आ गए थे।

          भवदेव बाबू का जन्म 2 मार्च, 1906 को हावड़ा जिले के आन्दुल-मौरी के निकट पुइला नामक ग्राम में हुआ था और 21 जनवरी, 1987 को उन्होंने अंतिम सांस ली थी। उनके पिता हरिपद बंदोपाध्याय एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे, और माँ हरिदासी देवी एक समर्पित गृहिणी थीं।

       अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के उपाध्यक्ष श्रद्धेय श्री रनेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय महाशय की सलाह और आशीर्वाद ने मुझे इस पुस्तक-लेखन कार्य में विशेष रूप से प्रेरित किया है । तथा अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के महासचिव (General Secretary) श्री वीरेंद्र कुमार चक्रवर्ती तथा सहायक महासचिव (Assistant General Secretary) माननीय श्री दीपक कुमार सरकार द्वारा लिखित दो आशीर्वाद पत्र (blessing letters) इस पुस्तिका की विशेष संपत्तियां हैं। साथ ही साथ महामण्डल के केन्द्रीय संगठन के सदस्य माननीय श्री मिंटू पद दास एवं श्री तपन प्रसाद चट्टोपाध्याय तथा आन्दुल-मौरी शाखा के समस्त सदस्यों ने भी विभिन्न प्रकार से मेरी सहायता की है। मैं उन सभी का बहुत आभारी हूं।

      पुस्तक लेखन का कार्य जुलाई 2017 से शुरू हुआ था। इस लेखन कार्य में जिन्होंने गणेश जी की भूमिका निभाई थी, वे थे बन्धुवर स्वर्गीय उत्तप्ल कांडार। स्वयं गंभीर रूप से बीमार होने के बावजूद उन्होंने इस काम में मेरी मदद की थी। उनकी आत्मा की शान्ति के लिये मैं श्रीश्री ठाकुरदेव से प्रार्थना करता हूँ। पांडुलिपि में संशोधन करने के लिए, मैं अपने अग्रज-तुल्य श्रद्धेय शिक्षक श्री रवींद्रनाथ पाल महाशय एवं महामण्डल के भाई श्री सतीनाथ पाल का ऋणी हूँ। जो कोई व्यक्ति श्रीश्री ठाकुर-माँ-स्वामीजी के प्रति श्रद्धाशील हैं मैं इस रचना को उन्हें समर्पित करता हूँ। यदि यह रचना उन्हें अच्छी लगती है, तो मैं अपने परिश्रम को साथक समझूँगा। मुझे आशा है कि इस लेख में एकत्रित जानकारी से शोधकर्ताओं की रुचि में भी वृद्धि होगी।

अंत में मैं अपनी गर्भधारिणी माता गौरीरानी चन्द के चरणों में प्रमाण करता हूँ। इस पुस्तक को लिखने के पीछे वे ही मेरी मुख्य प्रेरणा-स्रोत हैं।

अलमिति विस्तरेण -

श्री विश्वजीत चंद,

आन्दुल-मौरी, हावड़ा

मो.सं.-700381079

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(1) 

एक महान जीवन की अज्ञात कहानी

[प्रत्यक्षदर्शी के परिपेक्ष्य में] 

[ In the eyewitness context]

        जिस प्रकार असंख्य अनाम पुष्प हिमालय पर्वत की अपार शोभा को प्रकट करते हैं, उसी हम देखते हैं कि प्रकार भाव जगत में भी मानव-समाज उन समस्त चरित्रवान महापुरुषों से समृद्ध हुआ है, जिन्होंने अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए, राम-सेतु निर्माण में गिलहरी की भाँति (जैसे एक गिलहरी बार-बार शरीर पर बालू लपेटकर उसे पुल पर गिराती थी।) पूर्णतया निःस्वार्थ भाव से अपने-आप को समर्पित कर दिया है।

       हमारी चर्चा के केन्द्रबिन्दु पुइलया, आन्दुल-मौड़ी निवासी भवदेव बंदोपाध्याय महाशय हैं। उन्होंने स्वामी विवेकानन्द के आदर्शों के लिए अपने प्राणों को संकट में डाल कर भी देश कल्याण के कार्यों में भाग लिया था। केवल इतना ही नहीं, वे कुछ ऐसे महान लोगों के संपर्क में भी आए थे  जिन्होंने उनके जीवन को 'আগুনের পরশমনির মতো' आलोकित कर दिया था। उन लोगों में आचार्य शिरीष चंद्र मुखोपाध्याय, श्रीरामकृष्ण -वचनामृत के लेखक श्रीम, स्वामीजी के भाई भूपेंद्रनाथ दत्त, स्वामी अभेदानन्द आदि जैसे महत्वपूर्ण व्यक्ति शामिल थे। 

      वह समय था 1967 ई० जब कोलकाता के एंटाली अद्वैत आश्रम के कुछ संन्यासियों की प्रेरणा, एवं श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के समर्पित प्रयास से अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की स्थापना हुई थी। संस्था स्थापन के शुभ अवसर पर श्री भवदेव बंदोपाध्याय भी उपस्थित थे। एवं महामण्डल का प्रथम युवा प्रशिक्षण शिविर 1968 के 8 जनवरी को दक्षिणेश्वर के आड़ियादह में  आयोजित हुआ था, तब उस शिविर में उन्होंने अपने पुत्र तथा आन्दुल के दो युवकों को शिविर-प्रशिक्षणार्थी के रूप में भेजा था। उस शिविर के बाद वे हर साल नए-नए युवाओं को महामंडल द्वारा आयोजित शिविर में भाग लेने के लिये प्रोत्साहित करते रहते थे। तथा उन युवाओं के शिविर से लौटने के बाद, शिविर के विभिन्न अनुभवों को जानने के लिए उनसे पुइलया निवासी सूर्य नारायण कल्याणी के घर पर मिला करते थे।

     इस तरह लगभग एक दशक के भीतर-भीतर बिना किसी के ध्यान में आये, भावी आन्दुल -मौड़ी विवेकानन्द युवा महामण्डल की नींव तैयार हो गई। इस सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि जैसे दीया जलाने से पहले, उसकी बत्ती तैयार करने का भी एक अध्याय रहता है, उसी प्रकार भवदेव बाबू के पास स्वामीजी के आदर्शों पर युवा संगठन तैयार करने का पर्याप्त अनुभव था। 1940 के दशक में ही भवदेव बंदोपाध्याय आन्दुल-मौड़ी के दो संगठनों - आन्दुल-मौड़ी विवेकानन्द पाठचक्र " तथा " बोधानन्द स्मृति संघ " के सचिव थे। तथा उस आन्दुल-मौड़ी विवेकानन्द पाठचक्र " के अध्यक्ष थे (नवनीदा के दादू) आचार्य शिरीष चंद्र मुखोपाध्याय, एवं "बोधानन्द स्मृति संघ" के अध्यक्ष थे -'उद्बोधन' पत्रिका के सम्पादक स्वामी वासुदेवानन्द।  

      आचार्य शिरीष चंद्र मुखोपाध्याय स्वामीजी के सीधे स्पर्श से अनुप्रेरित थे। 7 मार्च, 1897 को दक्षिणेश्वर में आयोजित ठाकुरदेव की जयंती के अवसर पर स्वामीजी के संक्षिप्त भाषण के वे प्रत्यक्ष श्रोता थे। ये आचार्यदेव भक्त भैरव गिरीशचन्द्र घोष के भी बेहद करीबी थे। आचार्यदेव  जौहरी की नज़र वाले एक सर्व सम्मानित शिक्षक थे, एवं भवदेव बंदोपाध्याय आचार्य शिरीष चंद्र के पसंदीदा छात्रों में से एक थे। अपने प्रिय छात्र की सांगठनिक प्रतिभा को देखकर ही उन्होंने उसे युवा पाठचक्र के सचिव का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व सौंपा था। आचार्य शिरीषचन्द्र ने 10 जून 1960 को भवदेव बाबू को विशेष आशीर्वाद पत्र दिया था । और उस पत्र में उन्होंने भवदेव बाबू को 'भक्ति भूषण' की उपाधि प्रदान की थी।  यह स्मृति पत्र और भवदेव बाबू को लिखित दिनांक 10 बैसाख 1366 (अप्रैल 1968) का एक व्यक्तिगत पत्र हमारे हाथ लगा है। हमने दोनों पत्रों की फोटोकॉपी पाठकों को उपलब्ध करा दी है। आचार्य शिरीष चंद्र अपने शिष्य भवदेव के प्रति कैसा स्नेह रखते थे, और उनके गुरु-शिष्य सम्बन्ध की गहराई और विस्तार के स्तर को शुधि  पाठक उन पत्रों पर थोड़ा मनोनिवेश करने से ही समझ सकते हैं। 

       इस महापुरुष की स्मृति पर उपेक्षा की जो धूल गिरी हुई थी , उस धूल को हटाना तथा  उनके योगदान को उजागर करना हमारा उद्देश्य है। यदि यह पुस्तक सभी को स्वीकार्य हुई, तो मैं यह समझूंगा की यह प्रयास सार्थक हुआ है। 

NB[2 letters photocopy ] 

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[2.]

"सावधान हो जाओ कोई तुम पर नजर रख रहा है"

"Be careful someone is watching you"

" সাবধান তোকে কেউ নজরে রাখছে " 

          महापुरुषों का मिलन स्थल (बैठक स्थान)'दक्षिण का नवद्वीप' आन्दुल न केवल आचार्यदेव के लिए बल्कि हमारे प्रिय नवनीदा के लिए भी एक बहुत ही पवित्र स्थान था। यही  आन्दुल प्रेमिक महाराज की साधनास्थली भी थी। इन्हीं प्रेमिक महाराज द्वारा रचित 'काली कीर्तन' श्रीश्री माँ सारदा देवी, स्वामी ब्रह्मानन्द, स्वामी शिवानन्द तथा अन्य सभी पूज्यपाद महाराज जी को अत्यन्त प्रिय था। पूज्यपाद प्रेमिक महाराज स्वामीजी की माता भुवनेश्वरी देवी के दीक्षा-गुरु थे। ऐसा कहा जाता है कि स्वामीजी के पिता विश्वनाथ दत्त के शरीर त्यागने के बाद नरेंद्रनाथ सूतक (अशौच) की अवस्था में यहां आए थे। इसके अतिरिक्त यह आन्दुल महाप्रभु श्री चैतन्य देव के जीवन के साथ भी जुड़ा हुआ है। जगन्नाथधाम की पैदल यात्रा करते समय श्री चैतन्य देव ने हुए इस पवित्र भूमि पर जो हरिनाम संकीर्तन किया था, उसके परिणामस्वरूप उस समय बहुत धूल उड़ रही थी, उसे देखकर महाप्रभु बोल उठे यही है 'आनंदधूलि।' और समय के प्रवाह में इस स्थान का नाम 'आनंद धूलि' से आन्दुल हो गया ।

       यह आन्दुल न केवल एक आध्यात्मिक स्थान ही था बल्कि अग्नि युग के क्रांतिकारियों की ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों का केंद्रबिन्दु भी बन गया था। क्रांतिकारी लोग यहां अपनी गुप्त कार्य योजना के संबंध में परस्पर चर्चा करने के लिये यहाँ आते थे। आचार्य शिरीषचन्द्र ने विद्यालय में पढ़ते समय किशोर भवदेव के हृदय में देशभक्ति की आग जला दी थी । बंग-भंग आन्दोलन के दौरान उन्होंने अपने छात्रों के मन में देश प्रेम की भावना का संचार कर दिया था। सरकारी सजा की धमकियों को नजरअंदाज करते हुए स्कूली छात्रों ने स्कूल में ही 'बंदे मातरम' गीत गाया था। विदेशी कपड़ों को एकत्र करके यहाँ उसकी होली जलाई गयी थी। इसका समाचार इंग्लैण्ड के समाचार-पत्र में प्रकाशित हो गया। यह समाचार मिलने पर आचार्यदेव को गिरफ्तार करने के लिए तात्कालीन ब्रिटिश सरकार ने लालबाजार से एक पुलिस अधिकारी को गिरफ्तारी वारंट के साथ आन्दुल भेजा था। लेकिन वह पुलिस अधिकारी आचार्यदेव के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुआ। तथा स्कूल की सराहनीय अनुशासन देखकर और सरकार विरोधी गतिविधियों का कोई सबूत नहीं होने के कारण उन्हें गिरफ्तार किए बिना वापस लौट गया। वापस लौटते समय उस पुलिस अधिकारी ने कहा था, "मैं ब्रिटिश विरोधी आंदोलनकारियों के प्रति कभी कोई कमजोरी नहीं दिखाता, लेकिन यहाँ के मामले में न जाने क्यों मुझे ऐसा करना पड़ रहा है ।"

        इस सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि यह विद्यालय अभी भी यहाँ घटित विभिन्न ऐतिहासिक घटनाओं की गवाही देने के लिये सिर उठाये खड़ा है। ऐसा कहा जाता है कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (सिपाही-विद्रोह) के दौरान विद्रोहियों के नेता नाना साहब आन्दुल के 'गुलाब -बाग़' में छुप कर रहे थे। उनको गिरफ्तार करने के लिए यहाँ कंपनी के एक पुलिस अधिकारी आये थे। लेकिन रात हो जाने के कारण उन्होंने इस विद्यालय में प्रधानाध्यापक का आतिथ्य स्वीकार किया था।  वह अधिकारी जब वापस इंग्लैंड गया तो वहाँ के एक प्रसिद्ध समाचार पत्र में उसने इस विद्यालय की प्रशंसा करते हुए एक पत्र लिखा था । किशोर भवदेव भी अपने आदर्श आचार्य देव की देशभक्ति से प्रेरित हुए, तथा क्रांतिकारी आंदोलन में यथासम्भव कूद पड़े थे । उनका काम क्रांतिकारियों के साथ गुप्त पत्राचार का आदान-प्रदान करना था और उन्हें इस काम के लिए इसलिए चुना गया था ताकि पुलिस को उनपर किसी प्रकार का सन्देह न हो। इसी क्रम में एक बार किशोर भवदेव पर एक बड़ी जिम्मेदारी आ गई। यह तय हुआ था कि जब क्रांतिकारी बिपिन बिहारी उन्सानी स्टेशन (अब मौड़ीग्राम स्टेशन) पर ट्रेन के आखिरी डिब्बे से उतरेंगे, तब वे अपने सामने एक किशोर उम्र के युवा लड़के को खड़ा पाएंगे। जब लड़का चलना शुरू करेगा तो वे बिना कुछ बोले थोड़ी दुरी रखते हुए लड़के के पीछे चलते हुए अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच जायेंगे। किशोर भवदेव ने बड़ा खतरा उठाते हुए उस कार्य को सही ढंग से पूरा कर दिया। इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि उस समय ब्रिटिश पुलिस बाज की तरह बिपिन बिहारी गांगुली का पीछा कर रही थी। स्वाभाविक रूप से हम कल्पना कर सकते हैं कि किशोर भवदेव किस तरह अपनी जान जोखिम में डाल कर भी अपने कार्य को पूरा कर दिखाते थे। यदि वे पकड़े जाते, तो ब्रिटिश पुलिस द्वारा उन्हें यातनाएँ तो दी ही जाती, और यह भी खतरा था कि निश्चित रूप से उन्हें कठोर जेल की सजा काटते हुए, अपने छात्र जीवन को समय से पहले समाप्त करना पड़ता। युवा भवदेव अपने कर्मजीवन में प्रवेश करने बावजूद, बाद के जीवन में भी भावी खतरे की परवाह किये बिना देश के कार्यों में भाग लेते देखे गए थे ।

        क्रांतिकारी लोग भी आशीर्वाद लेने के लिए ठाकुर माँ स्वामीजी के मंदिर में  गुप्त रूप से कई बार बेलुड़ मठ जाते थे। क्रांतिकारियों से मिलने के लिए युवा भवदेव भी वहाँ  जाया करते थे।  एक बार स्वामीजी के मंदिर के पीछे  गंगा की ओर मुख करके बैठा युवा भवदेव अपने एक मित्र के साथ गुप्त मंत्रणा में लगा हुआ था। उस समय एक Undercover CID अधिकारी मंदिर के दक्षिण की ओर से उनकी सारी बातें सुन रहा था। यह अधिकारी इस प्रकार खड़ा था कि भवदेव बाबू उसे देख  नहीं सकते थे,लेकिन वह उनकी सब बातें सुन सकता था। उस समय उद्बोधन के संपादक स्वामी वासुदेवानन्द जी महाराज मैदान में टहल रहे थे। उन्हें पूरा माजरा समझ में आ गया। भवदेव बाबू महाराज के अत्यंत प्रिय थे। उन्हें उसके खतरे में पड़ने की आशंका उत्तपन्न हुई। संध्या आरती के बाद, मठ से निकलते समय जब भवदेव बाबू  महाराज को प्रणाम करने गए तो महाराज ने उनसे कहा- 'सावधान कोई तुम पर नजर रख रहा है। ' यह कहकर उन्होंने शाम वाली घटना उसे बता दी। और इसके अलावा, महाराज ने भवदेव बाबू को जल्द से जल्द स्थानांतरण के साथ कलकत्ता से बाहर जाने का आदेश दिया। उनकी सलाह कितनी सही थी, इस घटना के कुछ दिनों के भीतर ही पुलिस ने उनकी तलाश में रेलवे कार्यालय में उनके कार्यस्थल पर छापा मारा था ।  उसके बाद अपने बड़ों के कहने पर भवदेव तबादला लेकर जमालपुर चले गए।

        वास्तव में किसी समय सादे कपड़ों वाली पुलिस बेलुड़ मठ में रहती थी, यह कोई अफवाह नहीं है, बल्कि सरकारी खुफिया रिपोर्ट और इतिहासकारों द्वारा जुटाई गई जानकारी से भी इसकी पुष्टि होती है। Sedition Committee के रिपोर्ट में क्रांतिकारियों पर श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द भावधारा और अन्य धार्मिक ग्रंथों के प्रभाव की बात पायी जाती है।

      भारत के स्वतंत्रता संग्राम में श्री रामकृष्ण का प्रभाव अप्रत्यक्ष होते हुए भी बहुत व्यापक था। स्वतंत्रता सेनानियों को वहाँ के परिवेश से एवं उनके जीवन और उपदेशों से प्रेरणा मिलती थी। श्री रामकृष्ण देव ने 'शक्ति साधना' में सिद्धि प्राप्त की थी, इसलिए क्रांतिकारियों को श्री रामकृष्ण के जीवन और संदेशों में बहुत रुचि थी। जब हम उस समय की खुफिया रिपोर्टों को देखते हैं, तो उसमें पाते हैं कि 'अनुशीलन समिति ' की कार्य-पद्धति में विवेकानन्द साहित्य का पठन-पाठन अनिवार्य रूप से होता था। 

      उस समय के विशेषज्ञ ब्रिटिश प्रशासकों और माहिर गुप्तचरों द्वारा इस बात का विश्लेष किया जाता था कि क्रान्तिकारी लोग आखिर श्री रामकृष्ण वचनामृत और गीता जैसे धार्मिक ग्रंथों का अध्यन क्यों करते हैं और अपने पुस्तकालयों में उन ग्रंथों को क्यों रखते हैं ? स्वयं स्वामीजी ने 'Bengal Volunteers' के महानायक, महान क्रांतिकारी हेमचन्द्र घोष से कहा था कि ठाकुरदेव ने उनसे कहा था' - "याद रखना कि अंग्रेजों ने ही इस देश का सर्वनाश किया है।" सरकार द्वारा दर्ज की गई खुफिया रिपोर्टों में इस तथ्य का बार-बार उल्लेख किया गया है कि 'श्रीरामकृष्ण वचनामृत ' क्रांतिकारियों की पसंदीदा पुस्तक थी।  

ब्रिटिश प्रशासक JAMES CAMPBELL ने अपनी "पोलिटिकल ट्रबलस इन इंडिया" [Political troubles in India (1907-1917)] नामक पुस्तक में लिखा है -..... यह देखना आसान था कि इन किताबों को पढ़ने से कोई युवक धर्म और दर्शन की धार्मिक पुस्तकों को पढ़ते हुए  बड़ी आसानी से और सीधे कैसे रिवाल्वर और बम तक पहुंच सकता था । " अर्ल रॉलैंड्स (लॉरेंस जेएल डंडास??) ने भी -"The Heart of Aryavarta" (आर्यावर्त का ह्रदय) नामक अपनी पुस्तक में युवा क्रांतिकारियों पर रामकृष्ण-विवेकानन्द भावधारा के प्रभाव का उल्लेख किया है। धुरन्धर जासूस 'Charles Taggart' ने (24/04/1918) को क्रांतिकारियों और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों पर रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त भावधारा और रामकृष्ण मिशन के प्रभाव पर एक गुप्त रिपोर्ट दी थी। उन्होंने श्रीरामकृष्ण वचनामृत और विवेकानन्द के कर्मयोग पुस्तक से पाठ करने के बाद क्रन्तिकारी सदस्यों की भर्ती की जाती थी, इस पर भी एक रिपोर्ट दी थी। टैगगार्ट की एक  रिपोर्ट में कहा गया है कि बारिशाल षड़यंत्र मामले के प्रमुख नेताओं में से एक देबेंद्रनाथ घोष के घर में एक विवेकानन्द पुस्तकालय था। उनकी रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि श्री रामकृष्ण, विवेकानंद भावधारा और रामकृष्ण मिशन ने न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी क्रांतिकारियों को प्रभावित किया था ।

      प्रथम विश्व युद्ध (1914) से पहले, श्री रामकृष्ण के आदर्श से अनुप्राणित होकर, श्री रामकृष्ण विचारधारा का प्रचार करने के लिए पूर्वी बंगाल में कई आश्रम स्थापित किए गए थे। यद्यपि उन आश्रमों को बेलुड़ मठ से स्वीकृति प्राप्त नहीं थी, फिर भी वहाँ श्री रामकृष्ण देव की पूजा श्रद्धा से पूजा की जाती थी और श्रीरामकृष्ण के आदर्शों को सामने रखते हुए युवक लोग मातृभूमि की जंजीरों को तोड़ने की शपथ लिया करते थे। टैगगार्ट की रिपोर्ट के अनुसार यह जानकारी प्राप्त होती है कि क्रन्तिकारी लोग वहाँ संन्यासी के वेश में सरकार के विरुद्ध संग्राम करने के लिए तैयार किये जाते थे। 1913 ई. के  बारिशाल षडयंत्र मामले की खुफिया जाँच से पता चलता है कि पूर्वी बंगाल के कई प्राइवेट रामकृष्ण आश्रम ऐसे थे जो सरकार के विरुद्ध सीधे  संघर्ष के लिए तैयारी में लगे हुए थे

         एक समय में रामकृष्ण मिशन के साथ क्रांतिकारियों के संबंध इतने घनिष्ठ हो गए थे कि उस समय सरकार ने रामकृष्ण मिशन को गैरकानूनी घोषित करने और बेलुड़ मठ को बंद करने के निर्णय पर विचार-विमर्श होने लगा था। जाने-माने इतिहासकार रमेशचंद्र मजूमदार ने लिखा है, "एक दिन मैंने एक गोपनीय फाइल पर 'रामकृष्ण मिशन' लिखा देखा। मैं थोड़ा हैरान हुआ और उस फाइल को अपने कमरे में ले जाकर पढ़ने लगा। मैंने पाया कि फाईल के सबसे पिछले पन्ने पर एक रिपोर्ट है -जिसमें विस्तार से कहा गया है कि रामकृष्ण मिशन के 8/10 संन्यासी अपने  पूर्वाश्रम में किस क्रांतिकारी और गुप्त समिति के सदस्य थे तथा वहाँ उनके वर्तमान और पूर्वाश्रम के नाम भी दिए गए हैं।  इन विवरणों को पढ़ने के बाद कुछ उच्च पदस्थ अंग्रेज अधिकारियों ने अपनी टिप्पणी भी अंकित की हुई है। सबसे अन्त में विभागीय सचिव ने बड़े लाट साहेब को फाइल भेजते समय  इन सभी टिप्पणियों को सारांशित करते हुए, अपना मन्तव्य किया है कि बेलुड़ मठ को अवैध घोषित कर देना चाहिये। इन तमाम टिप्पणियों को पढ़ने के बाद बड़े लाट साहेब ने फाइल पर नोट में लिखा है कि- " अगर बेलूर मठ को प्रतिबंधित किया जाता है तो इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खासकर अमेरिका की नाराजगी झेलनी होगी। इसलिए बेलुड़ मठ पर प्रतिबंध लगाने के बजाय वहां सादे पोशाक में कुछ पुलिस अधिकारियों को नियुक्त किया जाना चाहिए।" बताने की आवश्यकता नहीं कि मिस मैक्लाउड को जब एक गुप्त स्रोत से इसकी जानकारी मिली तो वे बड़े लाट के पास समझाने के लिए गई; और कहा कई अगर बेलुड़ मठ पर प्रतिबंध लगा दिया गया, तो पूरे यूरोप में, विशेष रूप से अमेरिका में, इसकी कड़ी प्रतिक्रिया होगी, जो ब्रिटिश सरकार के हित के लिए बहुत हानिकारक होगी।

      क्रांतिकारी नेता हेमचंद्र कानूनगो ने स्वीकार किया है कि पुलिस की नजर  से बचने के लिए बंगाल में क्रांतिकारियों ने रामकृष्ण मिशन की शाखाओं को 'Revolutionary Agency" के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था ।  हेमचंद्र कानूनगो ने यह भी स्वीकार किया है कि क्रांतिकारियों ने रामकृष्ण मिशन के मुख्यालय बेलुड़ मठ को अपने सुचना सम्पर्क  और संघ के केंद्र के रूप में इस्तेमाल किया था। स्वामीजी के लेखन (विवेकानन्द साहित्य) और उनके द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन का प्रभाव लगातार बढ़ता गया। खुफिया रिपोर्ट बताती है कि स्वामीजी की पत्रावली को ज़ब्त करने का प्रस्ताव भी सरकार को भेजा गया था। लेकिन Standing Counsel (सरकारी वकील) एस.आर. दास ने जब  इसे जब्त करने पर आपत्ति जताई तो ब्रिटिश सरकार ने पुस्तक को जब्त नहीं किया।  चार्ल्स टैगगार्ट ने अपनी खुफिया रिपोर्ट (22/04/1918) में कहा है कि कलकत्ता अभिनंदन के उत्तर में स्वामीजी के भाषण का युवा स्वतंत्रता सेनानियों पर गहरा प्रभाव पड़ा था । खुफिया रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि 29 जनवरी, 1912 ई ० को स्वामीजी की 50वीं जयंती पर बेलुड़ मठ में क्रांतिकारियों ने सक्रिय रूप से भाग लिया था। सरकार की खुफिया रिपोर्ट में स्वामी ब्रह्मानन्द के विरुद्ध स्वराज प्रचार के गंभीर आरोप लगाए गए थे। 

        सिस्टर निवेदिता ने भी क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए छद्म नामों (pseudonyms-कूट नाम)  और छद्म वेश का इस्तेमाल किया था । देश-विदेश में प्रवास के दौरान उनका भेष इतना उत्तम था कि अंग्रेज गुप्तचर उन्हें पकड़ न सके। वे केवल इसलिए गिरफ्तारी से बचने में कामयाब रहीं क्योंकि उन्हें छद्म नाम और भेष बदलने कर चकमा देने का कौशल मालूम था। इसके अलावा सरकार के उच्च पदों पर आसीन अधिकारीयों तक भी उनकी  गहरी पैंठ थी। इसलिए खुफिया एजेंसियों को गतिविधियों की जानकारी उन्हें पहले ही मिल जाती थी। उदाहरण के तौर पर, ब्रिटिश सरकार अरविंद घोष को गिरफ्तार करने आ रही है, यह सूचना मिलते ही उन्होंने अरविन्द घोष को चंदननगर भेज दिया था। क्योंकि चंदननगर फ्रांसीसियों के कब्जे में था। इसलिए वहां ब्रिटिश कानून लागू नहीं होते थे । गुप्तचरों की पहचान से बचने के लिए निवेदिता क्रांतिकारियों को सीधे पत्र भेजने के बजाय बैंकों या अन्य एजेंटों के माध्यम से पत्र भेजती थी। उन्होंने अलग-अलग नामों और पतों पर पत्र भेजे थे । पत्र में "कोड" (code-गुप्त भाषा) का प्रयोग किया जाता है और कभी-कभी वे "कोड" को बदल भी दिया करती थीं। बड़ी चतुराई के साथ वे व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग करती थीं।  

      हम देखते हैं कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस  बर्मा में जहाँ एक तरफ तो आजाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति [Commander-in-Chief (C-IN-C नवनीदा)] के रूप में मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध मौत के घाट पहुँचाने की लड़ाई में लगे होते हैं, तो दूसरी तरफ बीच -बीच में देर रात को  रंगून रामकृष्ण मिशन आश्रम भी जा रहे होते हैं। वहाँ नेताजी बंद कमरे में सिल्क की धोती पहने, नंगे बदन अपने 'जीवन देवता' स्वामी विवेकानन्द की तस्वीर के सामने बैठकर कुछ समय के लिए ध्यानमग्न हो जाया करते थे। रंगून आश्रम के अध्यक्ष स्वामी भास्करानन्द जी को कभी-कभी वे गाड़ी भेजकर बुलवा लेते थे और उनके साथ बैठकर धार्मिक प्रसंग पर चर्चा करते थे। 

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[3.]

मैं आन्दुल का राजा बन जाता ! 

      जैसे मधुमक्खी केवल शहद की खोज में रहती है, उसी प्रकार भवदेव भी युवावस्था में केवल विभिन्न क्षेत्रों के 'दिकपालों'** (मार्गदर्शक व्यक्तियों) के ही संग में रहते थे। [ ** पुराणों के अनुसार दसों दिशाओं का पालन करनेवाला देवता। यथा-पूर्व के इन्द्र, अग्निकोण के वह्रि, दक्षिण के यम, इत्यादि फिर वे चाहे आध्यात्मिक व्यक्ति हों या अन्य किसी लोक के व्यक्ति -युवक भवदेव केवल सदाचारी लोगों के संगत में ही रहा करते थे।

     पचास के दशक में स्वामी विवेकानन्द के भाई, प्रसिद्ध क्रांतिकारी और कम्युनिस्ट नेता  डॉ. भूपेन्द्रनाथ दत्त लगभग हर दिन हेदुवा-पुष्करणी (तालाब) की परिक्रमा किया करते थे। यह वही सुप्रसिद्ध पुष्करणी है जिसके समीप युवक नरेंद्रनाथ ने भी अपना बहुत समय बिताया था । जब युवक नरेन्द्रनाथ को अपने गुरु श्री रामकृष्ण देव की कृपा से अद्वैतविज्ञान के जीव-ब्रह्म एकत्व की दिव्य अनुभूति हुई थी, तब वे पुनः विवेचना करने लगे कि क्या यह भी सम्भव है कि लोटा ब्रह्म है  -कटोरा ब्रह्म है, और जो कुछ दिखाई पड़ रहा है, तथा हम सब भी ईश्वर हैं ? तब नरेन्द्रनाथ ने इसी पुष्करणी की रेलिंग से अपने सिर को टकरा कर अपनी दिव्य अनुभूति का परीक्षण किया था कि -जो कुछ दीखता है वह सब स्वप्न की वस्तुएं है या सत्य हैं

      इसी पुष्करणी के समीप क्रांतिकारी डॉ. भूपेंद्रनाथ प्रतिदिन अपराह्न में लगभग दो घंटे व्यतीत करते थे। उनके अनुयायियों का एक समूह भी उन्हें घेरे रहता था। भूपेंद्रनाथ उनके साथ विभिन्न विषयों पर चर्चा करते थे। युवा भवदेव भी इस उनके सायंकालीन 'chat platform' या अड्डे पर भूपेंद्रनाथ के नियमित संगी थे। 

      एक दिन  (1952-1953) के दौरान पुष्करणी परिक्रमा करते समय उन्होंने अचानक श्री भवदेव से पूछा, "तुम्हारा घर तो आन्दुल में ही है न ?  क्या तुम आन्दुल के राजाओं के इतिहास से परिचित हो? तुम्हारे कलिकीर्तन के रचयिता प्रेमिक महाराज मेरी माँ (भुवनेश्वरी देवी) के गुरुदेव थे। मैं तुमलोगों के आन्दुल का राजा होने वाला था। " उन्होंने यह बात अपनी माँ भुवनेश्वरीदेवी से सुनी थीं।   

       स्वामीजी की वंश के साथ आन्दुल का एक गहरा ऐतिहासिक सम्बन्ध रहा है। एक समय में स्वामीजी की माता भुवनेश्वरी देवी के लिये आन्दुल गुरुबाड़ी (गुरु का निवास स्थान) हुआ करता था। तो दूसरी ओर, उनके पिता विश्वनाथ दत्त का आन्दुल के राजाओं के साथ जदीकी  सम्बन्ध रहा था। दरअसल आन्दुल -मौड़ी के साथ कोलकाता के सिमला वाले दत्त परिवार का बहुत पुराना नाता रहा है। 19 वीं शताब्दी में आन्दुल के राजबाड़ी द्वारा प्रकाशित -"कायस्थ-कौस्तव" नामक पुस्तक ["Kāyastha kaustav" (Publication date 1766)] में उस समय के कुलीन कायस्थ व्यक्तियों की जो सूची प्रकाशित हुई थी उसमें नरेंद्रनाथ के परदादा राममोहन दत्त का उल्लेख है।

       स्वामीजी के पिता विश्वनाथ दत्त आन्दुल के राजबाड़ी-दरबार (या शाही महल ) में आयोजित होने वाले संगीत - समारोह के नियमित श्रोता थे। आन्दुल राजबाड़ी के वकील निमाई चरण बोस, विश्वनाथ दत्त के स्थायी संगी थे। इसी समय यानी 1879 ई. में आन्दुल के राजा विजय केशव राय  (1836-79) की मृत्यु हो गई, जिससे उनकी दो रानियाँ दुर्गासुन्दरी और नवदुर्गासुन्दरी निःसंतान हो गईं। 'Privy. Council' के निर्णय के अनुसार, 1880 में दोनों रानियों को दो अलग-अलग दत्तक पुत्रों को गोद लेने की अनुमति प्राप्त हुई ।

        इस समाचार को सुनकर राजबाड़ी के वकील निमाई चरण बोस ने विश्वनाथ दत्त को सलाह दी कि वे अपने दोनों पुत्रों को आन्दुल के राजबाड़ी को दत्तक-पुत्र बनाने की सहमति दें। युवा नरेंद्रनाथ उस समय बी.ए. प्रथम वर्ष में अध्ययनरत थे। इस खबर को सुनकर नरेंद्रनाथ ने अपनी माँ भुवनेश्वरी देवी से कड़ी आपत्ति जताई। लेकिन विश्वनाथ दत्त ने दृढ़ता पूर्वक कहा कि परिस्थितियाँ और परिवेश ही 'मनुष्य' का निर्माण करती हैं। उन्होंने नरेन्द्रनाथ की जन्मकुण्डली पर ज्योतिषों से चर्चा करके देखा था कि नरेंद्रनाथ या तो संन्यासी बनेंगे, या फिर राजा होंगे । ऐसी परिस्थिति में 4 सितंबर 1880 को भूपेंद्रनाथ का जन्म हुआ। तब भुवनेश्वरी देवी ने अपने पति से राजबाड़ी से मिले पहले के प्रस्ताव पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया। इसके परिणामस्वरूप, वे नरेंद्रनाथ के बजाय भूपेंद्रनाथ को दत्तक पुत्र के रूप में देने पर राजी हो गए। 

     यही वह समय था जब नरेंद्रनाथ किसी चिन्तामुक्त पर्यटक तरह चारों ओर घूम रहे थे। कुछ ही दिनों पहले वे सिमला के मित्र -महाशय के घर जाकर श्री रामकृष्णदेव को एक गाना सुना आये थे। और तब से ही नरेन थोड़े अन्यमनस्क से हो गए थे, यानि जिसका चित्त कहीं और हो -ऐसे हो गए थे। ऐसी मनःस्थिति में, एक दिन भुवनेश्वरी देवी नरेन से कहती हैं, " अरे नरेन, तुमने नहीं सुना; भूपेन राजा होगा। आन्दुल की रानियाँ उसे गोद लेनेवाली हैं। पहले, तुम्हारे और माहिम दोनों के गोद लेने की बात चल रही थी।"

         यह सुनकर श्रीरामकृष्ण के 'unsheathed sword Naren' म्यान से निकली तलवार नरेन के मन में कड़ी प्रतिक्रिया हुई। वे बारूद की तरह फट पड़े, जैसे तनबदन में आग लग गयी हो, और जोर से चिल्ला उठे । इससे पहले नरेन का ऐसा रौद्र रूप किसी ने नहीं देखा था। दहाड़ते हुए बोले, " आपलोग क्या सोंचते हैं, खासकर बाबूजी ? क्या सोचते हैं, मैं नहीं जानता। किन्तु आपलोग यह निश्चित रूप से जान लीजिये हमलोगों में से कोई भी भाई किसी का 'पोषपूत' बनने और भाग्यान्वेषी होने का तकदीर लेकर जन्म ग्रहण नहीं किये हैं।" इतना कहने के बाद,भूपेंद्रनाथ तालाब के पानी पर पड़ते अपराह्न की धुप को थोड़ी उचाट दृष्टि से देखते रहे। सुनहरी यादों की चर्चा को सुनकर युवा भवदेव बड़े प्रभावित हुए।  

        क्रांतिकारी भूपेंद्रनाथ के साथ भवदेव बाबू का परिचय 1928 से ही था। 21 जुलाई, 1928 को शनिवार दोपहर में भूपेंद्रनाथ शरतचंद्र चटर्जी द्वारा स्थापित 'हावड़ा युवक संघ' की आन्दुल -मौड़ी शाखा का उद्घाटन करने आए थे। उस दिन डॉ. भूपेंद्रनाथ दत्त मौड़ीग्राम रेलवे स्टेशन और उतरे थे , उस समय उसका नाम 'Unsani' था। तब उन्होंने ऊबड़खाबड़ दुर्गम रास्तों को पालकी पर चढ़ कर पार किया था । इस संघ के साथ कई क्रन्तिकारी नेता- जैसे बिपिन बिहारी गांगुली, डोमजुड़ बमकाण्ड के फरार वीरेन्द्रनाथ मुखपध्याय इत्यादि जुड़े हुए थे।   

     इसके बाद 1931 में आन्दुल के जमींदार मल्लिक बाबू के बगीचे में (वर्तमान में वेलिंगटन सिनेमा हॉल परिसर) राजनीतिक कार्यकर्ताओं का एक सम्मेलन हुआ था। उस सम्मेलन का उद्घाटन देशप्रिय  जतिन्द्र मोहन सेनगुप्ता ने किया था । और "मेरठ षड़यन्त्र कांड" के अभियुक्तों में से एक, कॉमरेड बंकिम मुखर्जी ने भाषण दिया था। इस सभा में डॉ. भूपेंद्रनाथ दत्त मौजूद थे। सभा के अंतिम दिन की संध्या में चारण कवि (balladist-गाथा गीत के गवैया) मुकुंद दास के यात्रा -अभिनय ने जनमानस को विशेष रूप से हर्षित और प्रोत्साहित किया था । पुनः एक दूसरी सभा में भी डॉ. भूपेंद्रनाथ दत्त आए थे। तारीख थी 30/10/1938,  इस दिन उन्होंने आन्दुल -मौड़ी पुस्तकालय की प्रशंसा करते हुए पुस्तकालय की 'विजिटर्स बुक' में प्रशंसात्मक टिप्पणी की थी। 1942 में स्थानीय अंग्रेजी हाई स्कूल (अब MKCI) के शताब्दी समारोह के अवसर पर वे फिर से आन्दुल आए थे। तथा भारत की आजादी के बाद भी वे कई बार आन्दुल आए थे। 

       भूपेन्द्रनाथ वैज्ञानिक समाजवाद (scientific socialism) में विश्वास करते थे। यद्यपि वे स्वामीजी के छोटे भाई थे, तथापि सभा-समिति में स्वामीजी के नाम के साथ, उनके नाम को जोड़ना, वे बिल्कुल भी पसंद नहीं करते थे । उनके लिए स्वामी विवेकानन्द 'भारत के अजेय, अद्वितीय स्वतंत्रता सेनानी' ,सामाजिक लोकतंत्र के अग्रदूत तथा एक असाधारण मानवतावादी थे।           भूपेन्द्रनाथ से पहले इनके बड़े भाई, विवेकानन्द के दूसरे भाई महेन्द्रनाथ, के साथ बीसवीं सदी की शुरुआत में भवदेव का परिचय हुआ था। वे (महेन्द्रनाथ) विश्वनाथ दत्त की नौवीं संतान थे। इन दोनों विचारकों के प्रति भवदेव के मन में अटूट आकर्षण था, जिसके कारण भवदेव 3 नंबर, गौर मुखर्जी स्ट्रीट जाने के लिए अक्सर दौड़ पड़ते थे। 1934-35 से लेकर 1956-57 तक, शिमुलिया के दत्त परिवार के घर पर भवदेव का अक्सर आना-जाना लगा रहता था। निर्वासित क्रान्तिकारी (Exiled revolutionary) भूपेन्द्रनाथ 1925 ई० में अमेरिका, जर्मनी, रूस आदि देशों में 17 वर्ष तक शिक्षा पूरी करने के बाद कलकत्ता लौट आए। रूसी कम्युनिस्ट नेता लेनिन (Lenin) के साथ उनकी व्यक्तिगत घनिष्ठता थी।

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[4.]

'मन' भेड़ों के झुंड में भेड़ की तरह है

['Mind' is like a sheep in a flock of sheep]

       युवा भवदेव एक अन्य महापुरुष के प्रति अत्यधिक आकर्षित थे। वे थे श्री रामकृष्ण के प्रिय सन्तान काली महाराज (स्वामी अभिदानन्द)। अपने ऑफिस छुट्टी मिलते ही यह व्यक्ति अक्सर वेदान्त मठ में इस वृद्ध तपस्वी का संगत करता था। उनके साथ रहते समय वह सब कुछ बड़े ध्यान से सुनता था। 

     विभिन्न भक्तों के लिए उनके उपदेश उसे विशेष रूप से प्रिय थी। क्योंकि इसी वार्तालाप को सुनते हुए कभी-कभी उन्हें अपने मन में उठ रहे प्रश्नों के उत्तर भी मिल जाया करते थे। एक दिन उन्होंने स्वामी अभेदानन्द जी से एक प्रश्न पूछा, जो हममें से कई लोग पूछते हैं, "महाराज, मेरा मन बहुत चंचल है, मैं अपने मन को कैसे नियंत्रित कर सकता हूं?"

     वास्तव में यही प्रश्न तो अर्जुन ने भी भगवान श्रीकृष्ण से किया था। अध्यात्म जगत में विचरण करने वाले किसी भी साधक के मन में यह प्रश्न तो उठता ही है। स्वामी अभेदानन्द ने युवा भवदेव को एक प्यारी सी मुस्कान के साथ देखा और कहा, "अरे, इसमें नया क्या है? अर्जुन ने, जिसके साथ स्वयं भगवान् उपस्थित हैं, वही बात कही थी। क्या तुमने भेड़ों के झुंड को सड़क पर चलते हुए देखा है ? जब सड़क मार्ग से उन्हें ले जाया जाता है, उस समय कोई भेंड़ यदि दल से भटक जाती है, तब उसे एक डंडे से दल में वापिस लाना पड़ता है।" अनुशासन के द्वारा मन को भी  ऐसे ही वापस लाना पड़ता है। फिर धीरे-धीरे मन चंचलता  को छोड़कर वश में आ जाएगा।" 

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[5.]

"आप स्वामीजी की जीवनी लिखिए "

       एक दम शुरुआती दिनों में (1968-69) महामंडल में O.T.C. (त्रैमासिक दो दिवसीय विशेष प्रशिक्षण शिविर, जिसे अब Sp.T. C. कहा जाता है।) नहीं होता था। उस समय तीन महीने के अंतराल पर जो बैठकें होती थीं - उसे 'शिक्षा और समीक्षा बैठक ' (''Education and Review Meeting)'' या बंगाली में ' शिक्षा और समीक्षार आसर' ) कहा जाता था। और इस कार्यक्रम भाग लेने के लिए भवदेव बाबू को नियमित रूप से निमंत्रण पत्र भेजा जाता था। भवदेव बाबू महामंडल के एक 'Individual Member' (विशिष्ट सदस्य) थे। 

            जब महामंडल का 'All India Training Camp' (अखिल भारत प्रशिक्षण शिविर) प्रारम्भ हुआ था, उस समय भवदेव बाबू क्षेत्र के युवाओं तथा उनके माता-पिता को शिविर में शामिल होने की आवश्यकता के बारे में विस्तार से प्रकाश डालते थे। विभिन्न क्षेत्र के दिकपालों (मार्गदर्शक नेताओं) की संगति में रहने का जो दुर्लभ गुण भवदेव बाबू में था, उससे अनुप्रेरित होकर वे अक्सर नवनीदा के ऑफिस जाकर उनकी संगति करते थे। यद्यपि उम्र में वे नवनीदा से 25 वर्ष बड़े थे, तथा नवनीदा के पिता इन्दीवर मुखोपाध्याय को वे 'दादा' कहकर बुलाते थे। 

            विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में स्वामीजी के बारे में तरह-तरह के लेख प्रकाशित होते रहते थे। उन सब को वे रुचिपूर्वक पढ़ा करते थे। और यदि उसमें कहीं गलती नजर आती तो उसका खंडन करते हुए सम्पादक के पास पत्र लिखा करते थे। फिर उसे नवनीदा को दिखाया करते थे।एक दिन नवनिदा ने उनसे कहा, " सबसे अच्छा तो यह होगा कि आप स्वयं स्वामीजी की जीवनी लिखिए, ताकि स्वामीजी के बारे में आपका दृष्टिकोण तथा विचार स्वतंत्र रूप से व्यक्त हो सकें।" नवनीदा से प्रेरित होकर भवदेव बाबू ने अंग्रेजी में स्वामीजी की जीवनी लिखनी शुरू की। उनके कुछ अंश " He was Born " शीर्षक से 'विवेक जीवन' पत्रिका के जनवरी 1985 के अंक में प्रकाशित हुए थे। इसके अतिरिक्त बंगाली भाषा में लिखित 'महामिलन' नामक एक लेख भी  प्रकाशित हुआ था ।

        भवदेव बाबू ने नवनिदा को तब से देखा है जब वे बहुत कम उम्र के थे। क्योंकि नवनिदा के घर 'भुवन-भवन' में आयोजित प्रत्येक समारोह उन्हें निमंत्रित किया जाता था। एक बार भवदेव बाबू नवनीदा के दफ्तर गए, तो बात-चित करने में बहुत देर हो गयी थी। तब नवनिदा ने भवदेव बाबू को महामण्डल के लिए खरीदी गयी जीप पर बैठाया, तथा उसे स्वयं चलाते हुए हावड़ा स्टेशन तक पहुँचाया था । दर असल भवदेव बाबू और नवनीदा के बीच घनिष्ठ संबंध एवं आत्मीयता के  सेतु के रूप में काम करने वाली पवित्र संस्था थी आन्दुल -मौड़ी स्कूल। नवनीदा ने इस स्कूल की पवित्र स्मृति को अक्सर 'रोमांचक यादें' कहकर उल्लेख किया है। इसी विद्यालय के संस्कृत 

इस स्कूल के संस्कृत मुहावरों के पंडित क्षेत्रमोहन चट्टोपाध्याय महाशय ने नवनीदा के मुख से छह साल की उम्र में ही संस्कृत के एक श्लोक को सुनकर उन्हें 'वाकसिद्धि' ** का आशीर्वाद दिया था। [वाक सिद्धि **: जो भी वचन बोले जाए वे व्यवहार में पूर्ण हो, वह वचन कभी व्यर्थ न जाये,  वाक्- सिद्धि युक्त व्यक्ति में श्राप और वरदान देने की क्षमता होती है। वाक सिद्धि के लिए कोई भी मंत्र नहीं होता जब आप स्वयं को भगवान की ओर लगाएंगे तो आपकी वाणी को भगवान पूरा कर देंगे। जब आप उस स्तर पर पहुंच जाएंगे तब जो बोल देंगे वह हो जाएगाl]

          एक बार कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय की एक सभा में उपस्थित राज्यपाल की पत्नी ने उनसे पूछा था कि आपने इतनी अच्छी अंग्रेजी किस विश्वविद्यालय से सीखी है ? नवनीदा ने उत्तर में कहा था, "मेरी अंग्रेजी शिक्षा हावड़ा जिले के एक गाँव में स्थित एक 'अप्रसिद्ध' स्कूल में हुई है।' इसी स्कूल में जब वे सातवीं कक्षा के छात्र थे, तब एक दिन अंग्रेजी कक्षा के एक अंग्रेजी शिक्षक ने उन्हें 'Fatal ' शब्द का उच्चारण करने के लिए कहा। आचार्य शिरीष चन्द्र मुखोपाध्याय की निगरानी  में शिक्षाप्राप्त नवनीदा ने उस शब्द का उच्चारण 'फेटाल' कहकर किया। अंग्रेजी के शिक्षक महाशय ने उससे कहा कि उच्चारण 'फैटोल' होगा। [নবনীদা শব্দটি উচ্চারণ করেন 'ফেটাল।' ইংরেজি শিক্ষক মহাশয় তাঁকে বলেন উচ্চারনটি 'ফ্যাটল' হবে। लेकिन नवनिदा विनम्रता पूर्वक पुनः उसी प्रकार से उच्चारण करते रहे। तब अंग्रेजी शिक्षक को गुस्सा आ गया। उस समय आचार्यदेव स्कूल में राउंड लगा रहे थे। उन्हें शोर सुनाई दिया तब वे शिक्षक की अनुमति लेकर क्लास में प्रविष्ट हुए। सब कुछ सुनने के बाद उन्होंने शिक्षक की गरिमा (dignity) को बनाए रखते हुए शिक्षक की गलतियों को मैत्रीपूर्ण ढंग से दिखला दिया। किन्तु शिक्षक महोदय इस घटना को स्वीकार नहीं कर सके, स्कूल से इस्तीफा दे दिया, और स्कूल छोड़ कर चले गए।  

     नवनीदा और भवदेव बाबू के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध आजीवन बने रहे थे। नवनीदा के दादाजी (নবনীদার দাদু) के 52 साल के दीर्घकालीन हेडमास्टरशिप (प्रधानाध्यापक के दायित्व-वहन) के जीवन को 'गिनीज़ विश्व कीर्तिमान पुस्तिका '** में सूचीबद्ध किया गया था। यह समाचार नवनिदा ने भवदेव बाबू को एक पत्र के माध्यम से दिया था । [Guinness book of World records **: प्रतिवर्ष प्रकाशित होने वाली एक सन्दर्भ पुस्तक है जिसमें विश्व कीर्तिमानों (रिकॉर्ड्स) का संकलन होता है, में सूचीबद्ध किया गया था।] 

       भवदेव बाबू ने नवनीदा की प्रतिभा को किसी अनुभवी जौहरी की तरह, उनके बचपन में ही पहचान लिया था। और उनकी उच्च सम्भावना को अपने करीबी लोगों के सामने  दृढ़ता पूर्वक व्यक्त करते थे। 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' इस बात का प्रमाण है कि उनकी भविष्यवाणियां सच हुईं। वास्तव में, नवनिदा द्वारा भवदेव बाबू को स्वामीजी की जीवनी लिखने के लिए कहने के पीछे एक कारण यह था कि नवनिदा को कम उम्र से ही भवदेव बाबू की ज्ञान-पिपासा तथा उनकी लेखन की प्रतिभा के बारे में पता था। भवदेव बाबू के शोध का एक अन्य पसंदीदा विषय था- 'रविन्द्रनाथ नाथ और विवेकानन्द' के बीच संबंध।

        वैसे, स्वामीजी के बारे में रवीन्द्रनाथ के कुछ उद्गारों का स्मरण करना अप्रासंगिक न होगा। रवींद्रनाथ ठाकुर एक जगह लिखते हैं,"विवेकानन्द ने कहा था -'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है'; वे कहते हैं-'दरिद्र देवो भवः' - दरिद्र के रूप में नारायण ही हमारी सेवा लेना चाहते हैं !' - इसी को कहते हैं सन्देश (message-सुसमाचार ) ! ऐसे शक्तिदायी संदेश ही मनुष्य की आत्मचेतना को स्वार्थ की सीमा का अतिक्रमण करके असीम मुक्ति में पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।" 

    रवींद्रनाथ और विवेकानंद के रिश्ते की मजबूती संगीत में निहित थी।  रविवार 23 जनवरी 1881 को, रवींद्रनाथ ने ब्रह्म समाज उत्सव के अवसर पर जिन सात ब्रह्म संगीतों की रचना की थी। उनमें से एक था 'महासिंहासने बसी शुनिछो हे विश्वपिता' इस गीत को सीखने के बाद, नरेंद्रनाथ ने इसे कई बार श्री रामकृष्ण को गाकर सुनाया था ।


'महासिंहासने बसी शुनिछो हे विश्वपिता'

[তাঁর মধ্যে একটি ছিল 'মহাসিংহাসনে বসি শুনিছে হে বিশ্বপিতা। ' এই গানটি শিখে নিয়ে নরেন্দ্রনাথ শ্রীরামকৃষ্ণে কে বহুবার গেয়ে শোনান। ]

       संजीवनी पत्रिका के संस्थापक कृष्ण कुमार मित्रा के विवाह में रवींद्रनाथ ने नरेंद्रनाथ को तीन नये ध्रुपद राग का गीत सिखाकर गाने के लिए कहा था। गाने के बोल थे 'दुई हृदयेर नदी', 'जगतेर पुरोहित तुमि ' और 'शुभदिन ऐसेछे दोंहे। ' उस संगीत कार्यक्रम की रिहर्सल में रवींद्रनाथ हारमोनियम, और नरेंद्रनाथ पखवाज बजा रहे थे। न केवल संगीत के माध्यम में, बल्कि नाटक के माध्यम से भी दोनों के बीच घनिष्ठ संबंध विकसित हुआ था। भवदेव बाबू ने बंगाली पत्रिका 'देश' में प्रकाशित एक पत्र के माध्यम से रवींद्रनाथ और नरेंद्रनाथ के संबंधों की एक अचर्चित घटना (Undisclosed event) को सामने रखा है । जोड़ासांको के टैगोर निवास पर रवींद्रनाथ द्वारा लिखित और निर्देशित नाटक 'वाल्मीकि प्रतिभा' का मंचन हुआ था, उस नाटक में नरेन्द्रनाथ ने भी अभिनय किया था। रवींद्रनाथ ने स्वयं 'डाकू रत्नाकर ' की भूमिका निभाई थी। और नरेन्द्रनाथ रत्नाकर के गिरोह के अन्य डाकू की भूमिका में थे ।

       1961 में रवींद्रनाथ की जन्म शताब्दी के अवसर पर जो कविंद्र-रचनावली प्रकाशित हुई थी उसमें  'वाल्मीकि प्रतिभा' नाटक में अभिनय करते हुए रवींद्रनाथ और नरेंद्रनाथ को एक साथ सामूहिक चित्र में दिखलाया गया था। वहाँ अभिनेता नरेन्द्रनाथ को देखा जा सकता है। उस चित्र में रवीन्द्रनाथ ने नरेन्द्रनाथ का परिचय देते हुए लिखा था 'ज्योति: प्रकाश' यानि जो 'निज ज्योति' से प्रकट होते हैं।

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 अगर महामंडल न होता तो मैं नवनी के इतने करीब न होता।  

         1967 में स्वामीजी की जन्म -शताब्दी मनाई गई थी । उस दिनों नवनीदा "गोलपार्क संस्कृति संस्थान " (Golpark Institute of Culture) के साथ जुड़े हुए थे। उन्हें विदेशी मेहमानों के आवभगत की जिम्मेदारी सौंपी गई थी।

      इसी दौरान अमेरिका में रह रहे संन्यासी स्वामी भाष्यानन्द जी से उनकी बातचीत हुई। वे उन्हें अमेरिका ले जाना चाहते थे। उनका मानना था कि अमेरिका में ठाकुर-माँ-स्वामीजी के सन्देशों का प्रचार-प्रसार करने में नवनीबाबू अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। विशेष रूप से शताब्दी समारोह के दौरान उनकी कर्तव्य-निष्ठा और सहृदयता को देखकर महाराज बहुत प्रभावित हुए थे। लेकिन ईश्वरीय इच्छा से नवनीदा का जाना टल गया। शायद स्वामीजी की यही इच्छा थी कि वे महामण्डल का निर्माण करने में वे 'मुख्य पुरोहित' (महायाजक: उद्धारकर्ता, परमेश्‍वर का पुत्र, पापियों का मित्र ) की भूमिका निभायें, इसलिए उनका जाना नहीं हो सका। क्योंकि नवनिदा ने कई बार कहा है कि महामण्डल की स्थापना- "ठाकुरदेव की इच्छा,श्रीश्री माँ के आशीर्वाद और स्वामीजी की प्रेरणा " से हुई है। [जैसे 'विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर' का झुमरीतिलैया से जानिबीघा, गया में स्थान्तरित होना ?]

      इसीलिए भवदेव बाबू ने अपने एक करीबी विश्वासपात्र से कहा था "यदि महामण्डल का निर्माण नहीं हुआ होता, तो हमलोग (देवमानव) नवनी को अपने बीच नहीं देख पाते, वे भाष्यानन्द जी के साथ अमेरका चले जाते और एक विख्यात संन्यासी बन जाते।" भवदेव बाबू के खून में ही अभिनय करने की अगाध शक्ति थी। उनकी काया दुबली-पतली थी और शरीर का रंग गोरा था, इसीलिए मुहल्ला नाटकों में उन्हें स्त्री-चरित्र निभाने की भूमिका दी जाती थी। 

     उनकी माँ के दो मामा शौकिया यात्रा पार्टी में शामिल थे। एक दिन उन्होंने दक्षिणेश्वर नाट्य मंदिर में फलहारिणी काली पूजा की रात में 'विद्यासुन्दर यात्रापाला' में भाग लिया था। स्वयं श्री रामकृष्ण देव ने कुछ समय तक उनके यात्रापाला के अभिनय को देखा था । अगले दिन विदा होने से पहले दोनों भाई जब श्री रामकृष्ण देव को प्रणाम करने गए थे । तब ठाकुरदेव ने उन्हें उपदेश दिया था कि दोनों भाई परस्पर मिलजुल कर रहना। उनके साथ ठाकुरदेव की बातचीत का विवरण 'श्री रामकृष्ण वचनामृत-(24.05.1884) ' में वर्णित है।

21 जनवरी 1999 को महामंडल की आन्दुल-मौड़ी शाखा के नवनिर्मित भवन के उद्घाटन समारोह में श्रद्धये नवनीदा संगठन पर चर्चा करते हुए।

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[7]

"ठीक है उसे दीक्षा के लिए ले आओ"

     भवदेव बाबू जब कभी बेलुड़ जाते तो महापुरुष महाराज (स्वामी शिवानन्द) को प्रणाम करने अवश्य जाते थे। स्वाभाविक रूप से, महापुरुष महाराज के सेवक महाराज के साथ उनकी अन्तरंगता भी विकसित हो गई थी । एक बार, एक 'दीक्षा- दिवस' पर, वे अप्रत्याशित रूप से महापुरुष महाराज को प्रणाम करने के लिए उपस्थित हो गए ।

       दीक्षा-आयोजन की बात सुनकर युवक भवदेव ने सेवक महाराज से दीक्षा लेने की अपनी  इच्छा के बारे में बताया। महापुरुष महाराज ने कहा, "जिनको तुमने पहले आने के लिए कहा था, पहले उनकी दीक्षा हो जाय, उसके विषय में बाद में देखेंगे। " 

         जब पूर्वनिर्धारित व्यक्तियों की दीक्षा समाप्त हो गई, तो सेवक महाराज ने महापुरुष महाराज से कहा, "जिस लड़के को आपने प्रतीक्षा करने के लिए कहा था, वह अभी भी प्रतीक्षा कर रहा है ?" महाराज ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया, "ओ क्या, मैंने उसे कहा था ?  फिर उसे ले आओ।" इस प्रकार युवा भवदेव को महापुरुष महाराज का आश्रय प्राप्त हो गया ! 

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"माँ का रंग काला था, लेकिन चमकीला था।"

       स्वदेशी-आन्दोलन **से जुड़े आन्दुल के कुछ युवक बागबाजार स्थित 'मायेर बाड़ी', अर्थात श्रीश्री माँ के घर पर, उनका दर्शन करने के लिए गए थे। वे किशोर भवदेव को भी अपने साथ लेकर आए थे । श्रीश्री माँ सारदा का दर्शन करने की स्मृति, किशोर भवदेव के चित्त में हमेशा के लिए बस गयी थी। उनकी स्मृति में माँ के शरीर का रंग उस समय काला जान पड़ा था।

       बाद के दिनों में वे अपने नजदीकी सगे -सम्बन्धियों से अपनी माता का वर्णन करते हुए कहते थे, "माँ काली थी, परन्तु मैंने ऐसा चमकीला काला रंग मैंने और कहीं नहीं देखा।" साधक कवि रामप्रसाद के गीत में कहा गया है   -

" मायेर भाव कि, भेवे प्राण गैलो ,

जार नामे हरे काल, पदे महाकाल, 

तार केनो कालोरूप होलो ?  

कालो रूप अनेक आछे, ए बोड़ो आश्चर्य कालो,

जार हृदयमाझे राखले, पोरे हृदयपद्म कोरे आलो।। ... 

        प्रथम अविस्मरणीय उस अग्निमुख के अमोघ आकर्षण में में माता के पास कितने ही क्रान्तिकारी दौड़े आये होंगे। यह सोचने से आश्चर्य होता है कि माँ कैसे देश ही नहीं विश्व की किसी भी घटना का गहन बुद्धि से विश्लेषण कर लेती थीं। तथा माँ की यह विश्लेषण करने की क्षमता, अर्थात किसी समस्या के तह तक देख लेने की क्षमता, किसी भी विख्यात इतिहासकार से कम नहीं थी। 

       एक दृष्टान्त देखिये - प्रथम विश्व युद्ध थमने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन (Woodrow Wilson) ने 'Fourteen Points ' की घोषणा की थी। जब माँ के सामने एक भक्त ने इस बात का उल्लेख किया तो माँ ने उससे पूछा कि वे 'Fourteen Points ' क्या हैं ? उस भक्त ने बताया कि इसके भीतर विश्व के विभिन्न देशों के बीच परस्पर शान्ति और सहयोग की कामना की गयी है। माँ थोड़ी देर चुप रहीं, फिर बोल पड़ीं- " बेटे, ये केवल रटे-रटाय शब्द हैं, अंदरुनी बातें नहीं हैं।" हमलोग जानते हैं कि प्रसिद्ध इतिहासकार E.H. Car ने भी उन्हीं की तरह द्वितीय विश्व युद्ध के मूल कारण के रूप में " 'Fourteen Points ' के भीतर अंदरूनी ह्रदय-शून्यता को जिम्मेदार ठहराया था।" यहाँ यह स्मरणीय है कि जो बात इतिहासकार  E.H. Car ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कही थी, वही बात माँ सारदा ने प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के तुरंत बाद भावी युद्ध कारणों का विश्लेषण करते हुए कह दिया है।

      फिर एक भक्त ने माँ से पूछा, "माँ, हमारा देश कब स्वाधीन होगा? माँ ने स्पष्ट भाषा में कहा, " बेटे , क्या तुमलोग उन्हें (अंग्रेजों को) देश से बाहर निकाल सकोगे ? तुम ऐसा नहीं कर पाओगे। जब वे आपस में ही लड़ने लगेंगे, तब तुमलोग स्वाधीन हो जाओगे।" इतिहास ने साबित कर दिया है कि मां ने बहुत पहले जो कहा था, वही सत्य सिद्ध हुआ है। यदि द्वितीय विश्वयुद्ध न हुआ होता, और उसी सुअवसर पर  यदि आजाद हिन्द फौज ने नेताजी के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध यदि लड़ाई न छेड़ी होती , तो हमलोगों को स्वतंत्रता प्राप्त करने में बहुत समय लग जाता।

     हमलोग देखते हैं कि  1915 में  माँ जब रेल गाड़ी से उड़ीसा के कोठार जा रही होती हैं, तो उस समय उसी ट्रेन से क्रन्तिकारी बाघा जतिन भी बड़ी सावधानी से ,  छद्मवेश में  यात्रा कर रहे होते हैं। तब वे अपने प्राणों को जोखिम में डालकर, एक चादर से अपना चेहरा ढंक कर माँ को प्रणाम करने आये हैं। हमें यह देखकर आश्चर्य होता है कि जो बघाजतिन दुर्दान्त ब्रिटिश को चकमा दे सकता था , वह चादर से मुख छिपाकर माँ को चकमा नहीं दे पाता है। मां ने जैसे ही उसकी ओर देखा तो बोल पड़ी थीं , 'लड़के के दोनों नेत्रों से मानों आग निकल रही है।' मुझे याद है कि  सबसे पहले बाघाजतिन एक बार स्वामीजी से मिलने आये थे। कमरे के प्रवेश द्वार पर बाघजतिन खड़ा है और स्वामी जी बैठे हुए हैं। दोनों एक दूसरे को एकटक देख रहे हैं। 

       स्वामी अखण्डानन्द जी इस दृश्य को बाहर से देख रहे थे, और बाद में इस घटना का उल्लेख करते हुए कहते थे, जैसे आग आग को निगल रही थी ? तो क्या उस समय स्वामीजी बाघाजतिन के भीतर शक्ति का संचार कर रहे थे ? ठीक उसी तरह जैसे एकदिन ठाकुरदेव ने स्वामीजी में शक्ति का संचार किया था ? नहीं तो स्वामी जी ने स्वामी अखंडानंद को कमरे से चले जाने को क्यों कहा? क्या आप इसका उदाहरण दे सकते हैं कि क्रन्तिकारी लोग माँ सारदा को किस दृष्टि से देखते होंगे ? ब्रिटिश पुलिस द्वारा पकड़ी गई ननीबालादेवी को अकथनीय यातना देने के बाद इंस्पेक्टर गोल्डी उनसे (सहानुभूति का नाटक करते हुए) पूछते हैं कि उनकी क्या इच्छा है? ननीबालादेवी ने उत्तर दिया था कि वे बागबाजार में माँ सारदा के समीप रहना चाहती हैं।  फिर जब यही बात उनसे अर्जी में लिखने को कहा गया तो उन्होंने लिख दिया। तब गोल्डी ने उसके सामने ही अर्जी फाड़ दी। तब एक घायल शेरनी की तरह ननिबालादेवी गोल्डी के गाल पर तड़ाक से एक तमाचा जड़ देती हैं। वास्तव में ननीबालादेवी ब्रिटिश राज की प्रथम महिला कैदी थीं। 

      उस समय कई क्रांतिकारी मिशन के संन्यासी बन गए थे, इसलिए ब्रिटिश सरकार मिशन को बड़े संदेह की दृष्टि से देखने लगी थी। इसी डर से कुछ लोग उन्हें मिशन से निकाल देने की बात करने लगते हैं। लेकिन मां इन क्रांतिकारियों के साथ खड़ी हो जाती हैं, और दृढ़ स्वर में कहती हैं, "अगर उन्हें आश्रय देने के लिए मिशन को बन्द भी करना पड़े, उसे बन्द कर दो ; किन्तु मिशन कभी सच्चाई के रास्ते से विचलित नहीं होगा।" यह याद रखना चाहिए कि ये वही माँ थी जिसने प्लेग के इलाज की लागत खर्च निकालने के लिए मठ को बिक्री करने से मना कर दिया था। 

     उसी समय जब अरविंद घोष अपनी माँ से मिलने आए तो माँ ने कहा, ''इस छोटे से दिखने वाले व्यक्ति में कितनी क्षमता है। अंग्रेजी सरकार इसके भय से काँप रही है। " जब अलीपुर बमकांड में अरविंद घोष को फांसी पर लटकने की साजिश रची जा रही थी, तब उनकी पत्नी मृणालिनी देवी मां के पास आईं और उनकी रिहाई की गुहार लगाई थी। यह याद रखना चाहिए कि उस समय देशबंधु चितरंजन के विख्यात प्रश्न शुरू नहीं हुए थे।  कहा जाता है कि जिस समय देशबन्धु अरविन्द के तरफ से जिस प्रश्न कर रहे थे,तब पहले वे थोड़ा विचलित हुए थे। उस वक्त कोर्ट में मौजूद एक शख्स ने उन्हें एक नोट थमा दिया था। नोट में कुछ ऐसी जानकारी थी जो उन्हें इस मामले में बिल्कुल दोषी नहीं ठहराती थी।  पत्र देने वाला व्यक्ति बाद में पुरी के शंकराचार्य बन गए थे।

    बंगाल-भंग के समय जब ब्रिटिश सरकार बड़े पैमाने पर अत्याचार कर रही थी, तब माँ ने कहा था , "यदि मेरा बेटा नरेन आज जीवित होता, तो वे नरेन को अवश्य जेल में डाल देते।" भूपेंद्रनाथ दत्त ने इस विषय पर कुछ दिलचस्प बातें बताई हैं। पुरी के तत्कालीन जगतगुरु शंकराचार्य क्रांतिकारियों के आह्वान का जवाब दे रहे थे।  भूपेंद्रनाथ दत्त उनसे कई बार मिले थे । और बाद में उन्होंने शंकराचार्य की कटक के कुछ क्रांतिकारी नेताओं से बात भी कराई थी। स्वामीजी ने एक बार कहा था, " भारत का शासक वर्ग आज तक सन्यासी से इसीलिए डरता है, कहीं कोई दूसरा शिवाजी गैरिक वस्त्र के पीछे छिपा तो नहीं है। " 

   स्वामी जी से पहले भी भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कई सन्यासियों ने सक्रिय भूमिका निभाई थी। आर्य समाज के स्वामी दयानन्द ने 1857 के महाविद्रोह में सक्रीय भूमिका निभाई थी। सरकारी अभिलेखों और दस्तावेजों में सिपाही विद्रोह के पूर्व संध्या पर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध  संन्यासियों और फकीरों द्वारा किए गए प्रचार कार्य का प्रमाण प्राप्त होता है। मेरठ के कमीशनर सर विलियम ने अपने नोट में लिखा है कि संन्यासियों और फकीरों का मन विद्रोह करने के लिए ही तैयार होता है। ऐसी भी रिपोर्टें हैं कि दिल्ली में योगमाया मंदिर के त्रिशूलबाबा ने 1857 के सशस्त्र विद्रोह की तैयारी में एक प्रमुख भूमिका निभाई थी। अंग्रेजों द्वारा स्वतंत्रता सेनानियों की हार होने के बाद, स्वामी दयानन्द रामेश्वर गए थे । वहां उनकी मुलाकात कुछ सन्यासियों से हुई, जो दिल्ली के योगमाया मंदिर से आए थे। प्रकाश,  आदि के बीच दयानन्द छद्मवेशी नाना साहेब को भी देख पाते हैं। बाद में उनका नाम हुआ स्वामी दिव्यानन्द। 

      मेरठ के कमिश्नर विलियम के नोटों से यह भी पता चलता है कि मेरठ की 20वीं नेटिव इन्फैंट्री के साथ गांव में एक साधु रहता था। हाथी पर सवार होने के कारण उन्हें हाथी  बाबा के नाम से जाना जाता था। बंगाल के Inspector General (पुलिस महानिरीक्षक) सर हेनरी की अक्टूबर 1893 की आधिकारिक रिपोर्ट में साधुओं और सन्यासियों  की राजनीतिक गतिविधियों का उल्लेख मिलता है। सितंबर 1896 में कलकत्ता पुलिस के एक सर्कुलर में कहा गया था कि संन्यासी लोग स्वतंत्र रूप से हिंदू पुनरुत्थान के लिए अभियान चला रहे थे। इस फाइल से यह भी पता चलता है कि संन्यासियों ने भारतीय सैनिकों में अंग्रेजों के खिलाफ नफरत पैदा करने में सक्रिय भूमिका निभाई थी।उत्तर प्रदेश और पूर्वी कमान में भारतीय सैनिकों की संख्या में कमी करने का प्रचार किया था। इस समय, सरकार ने रेजिडेंट लाइन में साधुओं के प्रवेश को रोकने के उपाय किए थे । उस समय के सैनिक लोग छुट्टी मिलने पर संन्यासियों से मिलने के लिए  अमृतसर और हरिद्वार जाते थे।

महाफेजखाना ** में संग्रहीत फाइलों से पता चलता है कि 'आर्य समाज' उस समय लाहौर और हरिद्वार के संन्यासियों को राजनीतिक प्रशिक्षण दिया करता था। [**सरकारी अभिलेखों को महाफेजखाना या अभिलेखागार के रूप में जाना जाता है। इसमें सामान्य और (पुलिस, खुफिया और गृह विभाग के) गुप्त दस्तावेज  होते हैं।] अंग्रेजों के खिलाफ भाषण देने के लिए  प्रसिद्ध राजनीतिक साधु स्वामी राजेश्वरानंद बिहार और उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्थानों में घूम घूम कर उत्तेजना पूर्ण भाषण देते थे। एक आधिकारिक नोट के अनुसार, उत्तरी भारत में धार्मिक मिशनों के लिए भारतीय रेजिमेंटों के लिए सैनिकों की भर्ती बाधित कर दी गई थी।

       भूपेंद्रनाथ दत्त के एक पुराने परिचित क्रांतिकारी ने उन्हें बताया था कि एक बार हरिद्वार में कुंभ मेले में विजयकृष्ण गोस्वामी ने उन्हें कुछ भिक्षुओं को दिखाया और उन्हें बताया कि इन लोगों ने सिपाही विद्रोह में भाग लिया था। जो भी हो, श्रीश्री माँ को प्रणाम करते समय, बालक भवदेव ने देखा कि वहां चार महारथी ( stalwart) युवक एक छोटी सी बेंच पर पालथी मारकर बैठे हैं,स्वदेशी-आन्दोलन के युवकों के साथ उन्हें भी प्रणाम करके उनके स्पर्श की दिव्य अनुभूति भवदेव ने प्राप्त की। प्रणाम करते समय भवदेव उनका परिचय नहीं जान सके थे। बाद में, घर लौटते समय साथी क्रांतिकारियों ने उनकी पहचान के बारे में विस्तार से बताया। वे स्वामी ब्रह्मानंद, स्वामी सारदानन्द , स्वामी त्रिगुणातितानन्द और संभवत: स्वामी अखण्डानन्द जी थे ।

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[** 'स्वदेशी' का अर्थ है - 'अपने देश का'। इस रणनीति का लक्ष्य ब्रिटेन में बने माल का बहिष्कार करना तथा भारत में बने माल का अधिकाधिक प्रयोग करके साम्राज्यवादी ब्रिटेन को आर्थिक हानि पहुँचाना व भारत के लोगों के लिये रोजगार सृजन करना था। यह ब्रितानी शासन को उखाड़ फेंकने और भारत की समग्र आर्थिक व्यवस्था के विकास के लिए अपनाया गया साधन था।

अलीपुर बम काण्ड : (या, मुरारीपुकुर षड्यंत्र, या मणिकटोला बम काण्ड) सन 1908 में अंगरेजी शासन द्वारा चलाया गया एक आपराधिक मुकद्दमा जिसमें अनुशीलन समिति के कई भारतीय राष्ट्रवादियों पर "ब्रिटिश राज के विरुद्ध युद्ध" के आरोप में मुकदमा चला। यह मुकदमा मई १९०८ से मई १९०९ के बीच कोलकाता के अलीपुर सेसन न्यायालय में चला जिसमें अरविन्द घोष, उनके भाई बारिन घोष एवं ३७ अन्य बंगाली राष्ट्रवादियों को आरोपी बनाया गया था।]

" यदि शान्ति चाहती हो, बेटी, तो किसी का दोष मत देखना। दोष केवल अपना ही देखना। संसार को अपना बनाना सीखो। कोई पराया नहीं, बेटी, संसार तुम्हारा है। " --श्रीश्री माँ सारदा। 

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"ये सारी घटनाएँ हमारी आँखों के सामने घटित हुईं हैं"

       1 अक्टूबर 1966 को भवदेव बाबू ने श्रद्धये नवनिदा को एक पुस्तक भेंट की थी। उस  किताब का नाम था -'What Vedanta means to me ?" वह पुस्तक सर्वप्रथम Rider & Company , London से प्रकाशित हुई थी। बाद में इसे कलकत्ता के अद्वैत आश्रम से भारतीय संस्करण के रूप में प्रकाशित किया गया। यह पुस्तक 15-16 विश्व प्रसिद्ध विचारकों जैसे Aldous Huxley, Christopher Isherwood (एल्डस हक्सले, क्रिस्टोफर इशरवुड) आदि के लेखन से समृद्ध है।

     भवदेव बाबू ने पुस्तक के पहले पन्ने पर नवनीदा के लिए कुछ शब्द लिखे थे । भवदेव बाबू का उस लिखावट को खोज लिया गया है। हम इसे पाठकों को निवेदित कर रहे हैं। इस संक्षिप्त पाठ में हमें कुछ आभास मिल जाता है कि भवदेव बाबू नवानी दा को किस दृष्टि से देखते थे, और उन्हें नवनीदा से क्या उम्मीद थी आदि। इसके साथ ही साथ हमलोग यह भी जान पाते हैं कि  उस समय भवदेव बाबू के मन में क्या-क्या विचार उठ रहे होंगे।  

       'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' की स्थापना 25 अक्टूबर, 1967 को हुई थी। यहाँ यह द्रष्टव्य है कि भवदेव बाबू का वह संक्षिप्त पाठ, 1 अक्टूबर, 1966 को, महामण्डल स्थापित होने से 1 वर्ष पहले लिखा गया था। श्रद्धेय नवानीदा के 'sterling qualities ' (उत्कृष्ट गुणों) को देखकर क्या भवदेव बाबू यह पहले ही समझ चुके थे कि उनके स्नेह-पात्र  'Sriman Nabani ' अवश्य कोई छाप छोड़ जायेंगे 

         श्रद्धेय नवनीदा अपने एक सहपाठी से मिलने,रविवार 16 फरवरी 1967 को, आन्दुल झोड़हाट स्थित उनके घर पर आये थे। उस दिन उनके पुराने सहपाठियों के संगठन 'सतीर्थ मिलन' मेले की विशेष बैठक आयोजित हुई थी। बैठक शुरू होने से पहले आचार्य शिरीष चंद्र के पुराने छात्रों की आपसी बैठक में भवदेव बाबू की चर्चा उठी थी । उस समय श्रद्धेय नवनीदा ने सहपाठियों से कहा - "अचिंत्य कुमार सेनगुप्ता (प्रसिद्ध लेखक और अधिवक्ता) ने श्री रामकृष्ण की जीवनी पर एक पुस्तक लिखी है - 'परमपुरुष श्री रामकृष्ण।' जब भवदेव बाबू को कोई मन के मुताबिक पुस्तक मिलती थी तो वे पहले अपने हेडमास्टर महाशय आचार्य शिरीष बाबू को पढ़ने के लिए देते थे।  उन्होंने यह पुस्तक भी उन्हें (शिरीष चंद्र) को पढ़ने के लिए दी थी । पूरी किताब पढ़ने के बाद, उसके आखिरी पन्ने पर उन्होंने एक छोटी सी टिप्पणियाँ लिखीं थी । उन टिप्पणियों में वे एक स्थान पर लिखते हैं - "अपारे  काव्य संसारे  कविरेक प्रजापतिः" - ऐतरेय ब्राह्मण। अर्थात इस संसार में जिसको भी देखते हो, वह उनका ही काव्य है, विधाता ही उसके कवि हैं। भवदेव बाबू ने वह टिप्पणी अचिन्त्य बाबू को दिखाई थी । अचिन्त्य बाबू ने जो अगली पुस्तक लिखी थी उसका नाम था - 'कवि श्री रामकृष्ण।" ये समस्त घटनाएं हमारी आंखों के सामने हुईं हैं।

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क्या तुम मेरे लिए अंडे को सेती हुई माँ चिड़िया की तस्वीर ला सकते हो ?

    युवा भवदेव की  साधु-संग करने की आदत ने ही उनके भाग्य को एक और महापुरुष के चरणों में ले आई। वे महापुरुष थे श्रीरामकृष्ण वचनामृत प्रणेता श्रीम। उन दिनों श्रीरामकृष्ण वचनामृत को प्रकाशित करने का कार्य चल रहा था। 

     श्रीरामकृष्ण देव ने दक्षिणेश्वर में श्रीम से वार्तालाप करते हुए अंडे को सेती हुई पक्षी के आँखों के उदाहरण से योगी के मन की तुलना करते हुए कहा था- योगियों का मन सदा ईश्वर में लगा रहता है- सदा आत्मस्थ रहता है । शून्य दृष्टि, देखते ही उनकी अवस्था सूचित हो जाती है । समझ में आ जाता है कि चिड़िया अण्डे को से रही है । सारा मन अण्डे ही की ओर है, ऊपर दृष्टि तो नाममात्र की है । अच्छा, ऐसा चित्र क्या मुझे दिखा सकते हो?

MASTER (to M.): "The mind of the yogi is always fixed on God, always absorbed in the Self. You can recognize such a man by merely looking at him. His eyes are wide open, with an aimless look, like. the eyes of the mother bird hatching her eggs. Her entire mind is fixed on the eggs, and there is a vacant look in her eyes." Can you show me such a picture?"

 मणि- जैसी आज्ञा । चेष्टा करूँगा यदि कहीं मिल जाय । [परिच्छेद ~ 9,( 24 अगस्त 1882)] 

'उद्बोधन' पत्रिका के 36 वें वर्ष के प्रथम अंक में एक प्रसंग प्रकाशित हुआ था, जिसमें श्रीम कह रहे हैं - "ठाकुरदेव के भाव के ऊपर मैंने एक चित्र बनवाया था। मैं वह चित्र भक्तों को एकाग्रता के समय अण्डे सेती हुई पक्षी की तन्मयता को अपने मन पर आरोपित करने के लिए वहाँ कभी -कभी दिखलाता हूँ। " दरअसल, स्वामी चेतनानन्द द्वारा संपादित पुस्तक 'श्रीम के पास ' के पृष्ठ 131 पर स्वामी धर्मेशानन्द  जी "श्रीम की स्मृतियों का तर्पण" अध्याय में कह रहे हैं कि 'रवि' (भवदेव को यह उपनाम उद्बोधन पत्रिका के सम्पादक स्वामी वासुदेवानन्द जी महाराज ने दिया था) अर्थात भवदेव 13 अप्रैल 1932 को श्रीम के दर्शन करने के लिए जब गए थे । उस समय भवदेव ने श्रीम के आदेशानुसार 'अंडे सेने वाली माँ पक्षी (mother bird) की आँखों की तन्मयता ' का जो चित्र बनवाकर श्री 'म' को दी थी। वर्तमान में वही चित्र 'श्रीरामकृष्ण वचनामृत' के कुछ भागों के आवरण पृष्ठ पर दृष्टान्त चित्र (illustration picture) के रूप में उपयोग की जाती है। 

     भवदेव बाबू ने 'मन की तन्मयता का वह दृष्टान्त चित्र' अपने मित्र और सहपाठी तथा आन्दुल के ही प्रख्यात चित्रकार श्री शैल चक्रवर्ती के माध्यम से तैयार करवाया था।  श्री शैल चक्रवर्ती के द्वारा बनाई गयी उसी छवि को और उनके द्वारा लिखित एक प्रबन्ध को 70 के दशक में महामण्डल के द्विभाषी मुखपत्र 'विवेक-जीवन' में प्रकाशित किया गया था। महामंडल द्वारा बंगाली में प्रकाशित पुस्तिका 'मनः संयोग' के कवर पृष्ठ पर भी इसी चित्र का उपयोग किया जाता  है। 

[N.B.  पहली बार जब मैंने मनःसंयोग का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किया था तो उसके 'कवर छवि' के रूप में, कहीं से नकल कर ' बाँसुरी बजाते श्रीकृष्ण और तन्मयता के साथ सुनती हुई गायों का चित्र' छपवाया था, जिसे देखकर नवनीदा ने कहा था, क्या एकाग्रता का कोई दृष्टान्त चित्र 'अंडे सेने वाली माँ पक्षी (mother bird) की आँखों की तन्मयता ' से भी उत्तम हो सकता है ? इसके अलावा उस छवि का उपयोग करने के लिए तुम्हें उसके चित्रकार से भी अनुमति लेनी चाहिए थी।]

2 Photos ??

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अच्छा साहित्य कैसे लिखा जाता है ?

[How to write good literature?]

        'हावड़ा युवा संघ' के अध्यक्ष थे प्रसिद्ध उपन्यासकार शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय। एक बार वे 'युवक संघ ' के आन्दुल शाखा के द्वारा उत्तर-मौड़ी के खटी अंचल में आयोजित किसी समारोह में शामिल हुए थे।

      उस समारोह -सभा में आमंत्रित शरतचन्द्र की निजी सुविधा-असुविधा की देखभाल करने की जिम्मेदारी किशोर भवदेव को सौंपी गयी थी। शरतचंद्र भवदेव के हार्दिक व्यवहार और साधन-सम्पन्नता (resourcefulness) से बहुत प्रभावित हुए और उनके साथ स्नेह करने लगे। हिम्मत आने पर भवदेव के मन में एक प्रश्न उठा। उसने अपने आचार्यदेव शिरीष चंद्र से यह सीखा था कि - " जो व्यक्ति जिस विषय में निपुण हो, उससे उसी विषय पर प्रश्न करना चाहिये। " इसी को प्रश्न पूछना कहते हैं । और इसके परिणामस्वरूप प्रश्नकर्ता और उत्तरदाता दोनों समृद्ध होते हैं। किशोर भावदेव ने उपन्यासकार शरतचन्द्र से पूछा कि 'मैं अच्छा साहित्य कैसे लिख सकता हूँ ?' उत्तर में शरतचंद्र ने जो कहा था, वह न केवल किशोर भवदेव के लिए बल्कि किसी भी लेखक के लिए बहुत मूल्यवान सलाह है। उन्होंने कहा- " मन में जैसे ही कोई विचार आता है, उसे उसी समय लिखने की चेष्टा करनी चाहिए। कुछ दिनों के बाद उसी लेख को निकाल कर जब पढोगे, तब देखोगे कि मन में  कई नए विचार आ रहे हैं। उन सभी को भी लिख लेना। इसी प्रकार लिखित पाठ को कईबार पढ़कर देखोगे कि उनके बीच कोई कड़ी (link) मिलती है या नहीं, अथवा उन विचारों को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है या नहीं ? " यदि उन्हें सूत्र में पिरोने लायक देखोगे, तब यह विचार करके देखना कि वे उपयोगी हैं या नहीं ? यदि उपयोगी लग रहे हों , तब उन्हें लिख लेना। उन्हें पढ़ने पर देखोगे कि एक सुन्दर साहित्य की रचना हो गयी है। " 

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[12]

'आप मूर्तिमान चोर हैं '

'You are thief Personified ' 

        1950 के अन्तिम दिनों की बात रही होगी।  एक दिन भवदेव बाबू श्रद्धेय नवनीदा के घर गए थे। आचार्य शिरीषचन्द्र से बातचीत करने के बाद वे श्रद्धेय नवनीदा के कमरे में गए हैं। कुशल-क्षेम की शुरुआती बातचीत हो जाने के बाद, आइये देखते हैं-आगे उनके बीच किस प्रकार से बातचीत चल रही है  - 

भवदेव बाबू- " नवनी मैंने सुना है कि तुमने नौकरी के लिए एक जगह Interview दिया था; तो बताओ कि वह Interview कैसा रहा ?

नवनीदा - इंटरव्यू तो काफी अच्छा गया, लेकिन अंत में एक मजेदार बात भी हो गयी। 

भवदेव बाबू - इंटरव्यू है, फिर उसमें मजेदार बात क्या हो सकती है ? बताओ तो ठीक-ठीक हुआ क्या था ?  

नवनीदा - Interview के अंत में, साक्षात्कार लेने वाले वरिष्ठ अधिकारी ने अचानक गंभीरता से पूछा - " हो सकता है तुम्हारी नौकरी लग जाये। लेकिन तुम कहीं, चोरी-वोरि तो नहीं करोगे ?"

मैं तो मानो आसमान से गिरा। शुरुआती झटके से स्वयं को सम्भालते हुए मैंने पूछा - "क्यों, क्या मुझे देखने से, मैं चोर जैसा दीखता हूँ ? "  तब उस अधिकारी ने कहा, "देखो, भाई, किसी को देखने से क्या सब कुछ समझ में आ जाता है ? तुमको देखने से तो अच्छे ही लगते हो , किन्तु तुम्हारे नाम को देखकर मेरे मन में विचार आया कि, तुम्हारा नाम तो है -'नवनीहरन'; जिसका अर्थ होता है - " माखन चोर !" इसलिए तुम तो ठहरे साक्षात् चोर -  'You are thief Personified ', क्योंकि जो माखन की चोरी कर सकता है, वह अन्य सबकुछ भी चुरा सकता है। " यह कहते हुए वे ठठाकर हँस पड़े।" 

  यह सब सुनकर नवनिदा और भवदेव बाबू दोनों हँसने लगे।  

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[13]

"नेता पैदा होते हैं, बनाये नहीं जाते ।"

(स्वामी विवेकानन्द का संक्षिप्त चित्रण )

" Leader is born , not made ."

 (An abridged portrait of Swami Vivekananda) 

  हमें बताया जाता है कि महापुरुष क्रांति के परिणाम होते हैं, क्रांति को पूर्ण करते हैं , और आने वाले युगों के निर्माता होते हैं। ऐसे ही महापुरुष पृथ्वी माता की सेवा के लिए श्रेष्ठतम योग्यता रखने वाले होते हैं। और उन्हीं में से एक हैं स्वामी विवेकानन्द। और यदि सच पूछा जाये, तो अभी तक जन्म लेने वाली समस्त लब्ध -प्रतिष्ठ चमकीले तारों की आकाश-गंगा में (प्रख्यात मनुष्यों की मण्डली में) - स्वामी विवेकानन्द अतुलनीय हैं। (आधुनिक युग में उनके सिवा अन्य  किसी महापुरुष ने दूसरों की मुक्ति लिए अपनी मुक्ति का त्याग नहीं किया हैं) वे तीव्र कर्म, दुर्गम चिंतन और गहन भक्ति, दृढ़ विश्वास और अद्भुत तितिक्षा के अद्वितीय नमूना है या ' शरीर से कर्मठ, मन से ज्ञानवान और ह्रदय से प्रेममय' मनुष्य के पूर्ण और व्यापक आदर्श हैं। सर्वप्रथम वे ईश्वर की खोज में समर्पित सत्यार्थी है , और अन्त में सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की  आरजकता से मानवता की रक्षा करने वाले - 'एक आकारहीन आवाज' हैं ! 

        उनका जन्म विश्वनाथ दत्त (1834-84) और भुवनेश्वरी देवी (1841-1911) के दूसरे पुत्र के रूप में हुआ था। उन्होंने अपने पहले पुत्र को शैशव अवस्था में ही खो दिया था, फिर समय के साथ उनकी एक के बाद दूसरी चार बेटियाँ होती हैं। ऐसी अवस्था में माता-पिता को पुत्र-प्राप्ति के लिए भगवान शिव से निःसन्देह प्रार्थना करनी पड़ती है , जो अपने भक्त की प्रार्थना के अनुसार वरदान देने के लिए प्रसिद्द हैं। टेनीसन ने भी लिखा है, "More things are wrought by prayer than this world dreams of." ' अर्थात ' इस दुनिया के सपनों की तुलना में प्रार्थना के द्वारा अधिक काम होता है।' 

       भुवनेश्वरी देवी बहुत ही धार्मिक और कुलीन महिला थीं। एक बड़े संयुक्त-परिवार के विविध कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को एक गृहिणी के रूप में अपने निभाते हुए, चुपचाप भगवान शिव से अपने मनोकामना को पूर्ण करने के लिए प्रार्थना करती थीं। बाद में पुत्र-मुख देखने की लालसा से देवाधिदेव की संतुष्टि के लिए वे कठोर व्रतों का पालन करने लगीं। कोई माँ ही, एक बेटे के लिए किसी माँ लालसा को समझ सकती है। बाइबिल  में भी कहा गया है - "Watch and pray"  (Matthew 26:41, The spirit is willing, but the flesh is weak.) इस प्रकार लगभग एक दशक की लंबी प्रतीक्षा के बाद वह सौभाग्यशाली घड़ी उपस्थित होती है। 

    एक शुभ मुहूर्त में - 'ब्रह्म मुहूर्तम' में 12 जनवरी, 1863 ई० को भुवनेश्वरी देवी ने एक विश्वविजयी पुत्र को जन्म दिया। उस समय सूर्य और चन्द्रमा क्रमशः धनु राशि (Sagittarius) और कन्या राशि (Virgo ) पर थे। कृपालु भगवान शिव के द्वारा उनकी प्रार्थना को शानदार ढंग से स्वीकार किया गया था। दत्त-परिवार में असीम आनंद का आगमन हुआ।आनंदोल्लास और हर्ष कोलाहल से दत्तभवन मुखरित हो उठा। नारिगण मंगल-शंख बजाकर मांगलिक ध्वनि करने लगीं।

        बच्चे के जन्म के समय की अवधि का एक अतिरिक्त अभिव्यंजक महत्व था, यह मकर-संक्रांति के वार्षिक उत्सव का एक पवित्र दिन था। बंगाल के घर घर में मकर -संक्रान्ति का पर्व मनाया जा रहा था। हर घर में गृहस्थ सुगंधित धूप और चंदन-लेप, प्रज्वलित दीवट, संगीत के एक सुखद वातावरण के बीच अपनी निर्धारित प्रार्थना और अनुष्ठान शुरू कर चुके थे, जो एक नवजात शिशु, जिसके बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी थी का पारलौकिक ही नहीं, बल्कि अलौकिक स्वागत भी था।      

       लेकिन दक्षिणेश्वर में श्री श्री रामकृष्ण उस नवजात शिशु के गरिमापूर्ण आगमन के बारे में पूरी तरह से अवगत थे, जिसे 19 वीं शताब्दी की अंतिम तिमाही के दौरान पूरे विश्व में अपने दिव्य प्रवचनों से धर्म-प्रचार करने का जबरदस्त काम करना था। 

ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे । 

अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः ॥  

     जल्द ही पूरे इलाके में यह समाचार फ़ैल गया कि सिमुलिया के दत्त परिवार में एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ है। बालक को देखने के लिए लोगों का आना शुरू हो गया। नवजात बच्चे को देखने के लिए पड़ोसी महिला और पुरुष दोनों इकट्ठे हो गए। उनमें से एक वृद्ध सज्जन थे। जो बच्चे को देखते ही आश्चर्य से बोले, " अरे , यह बच्चा तो  दुर्गा प्रसाद 2 की लघु प्रतिकृति (miniature replica) प्रतीत होता है, शायद वे ही इस शरीर में फिर से पैदा हुए हैं।"

      अगले दिन, एक प्रौढ़ विधवा ब्राह्मण महिला आयीं, और उन्होंने अपनी खुली बाहों में प्यारे बच्चे को उठा लिया। वे विस्मय से भर उठी और जोर से बोली : 'कितना प्यारा बच्चा हैं ! ओह ! भुवनेश्वरी! तुम वास्तव बहुत भाग्यशाली हो।' कितना रूपवान है , उसके अंगों का गठन बहुत स्पष्ट और आकर सुंदर है। निश्चित रूप से तुम्हारे घर में समर्पित आत्मा से पैदा हुआ है। वह सर्वशक्तिमान माँ की इच्छा के अनुसार काम करेगा! वे अपने दृढ़ विश्वास और उत्साह में कहती जा रहीं थीं -  "नवजात शिशु ईश्वर के दुर्लभ उपहारों का स्रोत है, देखो ! बच्चे की मुखाकृति कितनी सूक्ष्म बनावट में गढ़ी गयी है।

      घुंघराले, चमकदार काले बालों के साथ चौड़ा आयताकार ललाट तो सुंदरता में प्रेम के देवता को मात दे रहा है।  बड़े चमकदार क्रिस्टल जैसे केंद्र में स्पष्ट शानदार नेत्रगोलक गहरे गहरे नीले रंग के साथ चमकदार-शांत और उदात्त हैं। इन नेत्रों से ज्वालामुखी अग्नि जैसी चिंगारियों में सभी के लिए प्रेम और दया , घुमन्तु साहसी आत्मा, भारी और कमल की पँखुड़ियों जैसी आकर्षक पलकें।    

        पावन माँ भुवनेश्वरी देवी स्वर्गिक आनन्द से परिपूर्ण थीं। बल्कि वे एक उलझन में थी! अपने पुत्र को लेकर अंतहीन रंग-बिरंगी उच्च आशाओं में डूबी थीं ..... इसीलिए जाहिर तौर पर 'दुर्गा दास ' नाम   को त्याग कर उन्होंने अपने बच्चे का नाम रखा - वीरेश्वर। 3 (यह भगवान शिव के एक सौ आठ नामों में से एक नाम है।) लेकिन बच्चे का लोकप्रिय उपनाम, बिलु और / या बिलेह रखा गया था।4

     विश्वनाथ दत्ता लंबे समय से पुत्र प्राप्ति की इच्छा को पोषित कर रहे थे, जब वह पूरी हो गयी तब उन्होंने अपने दान करने की आदत को विशालता प्रदान की। वे कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक प्रसिद्ध अटॉर्नी-एट-लॉ थे और उन्होंने न केवल पर्याप्त धन अर्जित किया था, बल्कि अंतर-प्रान्तीय प्रसिद्धि भी प्राप्त की थी। उनके पास अपने  कार्यालय जाने के लिए एक सुन्दर बग्घी और एक जोड़ी घोड़े थे। एक दिन दोपहर के बाद वे परिवार के साथ अपनी बग्घी में बैठकर नगर भ्रमण के लिए निकले थे।  घोड़ागाड़ी का चालक (coachman) और साईस (stableman) दोनों ने चमकदार पोशाकें पहन रखी थीं और उनके सिर शानदार पगड़ी भी थी।  वे लोग बिहार के रहने वाले थे  और बड़े ही हँसमुख व्यक्ति थे, वे अपने प्यारे बिलू-बाबू के मनमौजी व्यवहार से बंध चुके थे। प्रतिउत्तर में नरेन्द्रनाथ भी उन्हें बहुत पसंद करने लगे थे। वे उनलोगों के सहयोग और प्रोत्साहन से जीवन्त घोड़ों के निकता का आनन्द लेने के लिए अस्तबल के भीतर जब कभी जा सकते थे।  

    बालक बिले को जानवरों और पक्षियों के अलावा घोड़ों के लिए एक विशेष प्रकार का जुनून था। उसे कहानियाँ सुनने का भी बहुत शौक था; और बग्घी का चालक विशेष रूप से पंखों वाले घोड़ों की, शारीरिक सुंदरता और राजसी चालढाल  - घर की छतों पर और यहां तक कि आकाश में बादलों के ऊपर उड़ने में को स्पष्ट रूप से चित्रित करते हुए नई-नई काल्पनिक कहानियों के साथ उनका मनोरंजन किया करते थे उसी तरह के उड़ने वाले घोड़े की सवारी करने की उम्मीद में नरेंद्रनाथ भी विस्मयकारी रुचि के साथ उनकी गंभीर और शानदार गपशप सुनते रहते थे।

                 कार्नवालिस स्ट्रीट (अब विधान सारनी) से होते हुए गाड़ी चौरंगी इलाके की ओर बड़ी तेजी से दौड़ रही थी। नरेंद्र, मुश्किल से चार साल के थे। अपनी माँ की गोद में बैठकर रास्ते  के किनारे वाले मनोरम दृश्यों को प्रसन्नता के साथ देख रहे थे। लेकिन गाड़ीवान के द्वारा घोड़ों को नियंत्रण में रखने के लिए दिए जा रहे निर्देश,....  और गाड़ी चलाने में उसकी निपुणता ने उनके ध्यान को पहले ही आकर्षित कर लिया था। विश्वनाथ अपने प्यारे बेटे को प्रफुल्ल देखकर बहुत प्रसन्न हुए, और एक स्नेह भरी नज़र से उन्हें देखते हुए अचानक पूछा; "ठीक है, बिलेह! तुम्हें किस बात से आनन्द मिलता है ? .... ..... तुम जीवन में क्या बनना चाहोगे ? " नरेंद्रनाथ ने अत्यंत प्रसन्न होकर सीधा उत्तर दिया," ओह! पिताजी , मैं बग्घी चलाने वाला एक साईस बनूँगा, और बलवान और चुस्त घोड़ों को चलाऊँगा। "   

"सेब की कली में खिलने की संभावना पहले से रहती है।"

 [THE APPLE ALREADY LIES POTENTIALLY IN THE BLOSSM .]

    नरेंद्रनाथ (भावी नेता स्वामी विवेकानन्द) के जीवन की पहली महत्वाकांक्षा साईस या कोचवान  (Coachman) बनने की थी। और यदि गहराई से देखें तो, वे सचमुच विभिन्न तरीकों और विविध रूपं में स्वयं को परिवर्तित करते हुए सम्पूर्ण विश्व को पशुत्व से मनुष्यत्व में, मनुष्यत्व से देवत्व की ओर ले जाने वाले कोचवान हैं। शारीरिक रूप से प्यार भरे देखभाल और सेवाओं के द्वारा सभी को आलिंगन में लेने वाली लम्बी भुजायें , चौकसी करने वाले प्रशिक्षक , और  तर्कसंगत दृष्टिकोणों के साथ धर्मपरायणता, सत्यनिष्ठा और व्यक्तित्व विकास के अनिवार्य आध्यात्मिक जनादेश के माध्यम से युवाओं को देवत्व की और संचालित करने वाले साईस हैं विवेकानन्द। 

         उनके इन दिव्य गुणों निरूपण करते हुए उनके कुछ श्रद्धालु उन्हें- 'एक चमत्कारी रहस्यवादी' (miraculous Mystic), कोई उन्हें ' एक विस्मयकारी नेता', कोई ' एक चक्रवाती हिन्दू संन्यासी'('a Cyclonic Hindu Monk') , 'ईश्वर का आधिकारीक प्रवक्ता', कोई उन्हें 'एक वेदान्तिक सिंह' ,  कोई ' प्रेम और एकत्व के नववेदान्तवादी (Neologist)' , " त्याग और सेवा मंत्र के पुनरुज्जीवनवादी '['a Revivalist (पुनरुज्जीवनवादी) of Renunciation and Service '), 'वेदान्त-वादियों के आदर्श ' ('the paragon of Vedantists') और अन्ततोगत्वा 'वह'  - जो उन्होंने स्वयं के बारे महसूस करते हुए कहा था - 'a condensed India ' या  'एक घनीभूत भारत !', "एक सिद्ध आचार्य (जीवनमुक्त शिक्षक) श्रीमत स्वामी विवेकानन्द -An accomplished Acharya  Srimat Swami Vivekananda

"ॐ नमो श्री- ज्योतिरालय  विवेकानन्द सूर्ये ! "

--------"Om Namo Shri-Jyotiralaya Vivekananda Surye!"

Bhavadev Banerjee,

12 th Dec, '84

Andul-Mauri (Unsani), Howrah.

N.B. (notes been-नोट किया गया) : - स्वामीजी के पुण्य जन्मतिथि के उपलक्ष्य में इस निबन्ध को 12-1-1985 को क्षेत्र के 'पाठचक्र पुस्तकालय ' [विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर पुस्तकालय ] के अध्यक्ष श्री गंगाशंकर मुखर्जी द्वारा पूरी गंभीरता के साथ पढ़ा गया था। 

Cf, (विकल्पी सूचि) :

1. " मेरे पिता और माता ने वर्षों तक उपवास रखा और प्रार्थना की थी ताकि मैं उनके पुत्र के रूप में जन्म ले सकूँ !"-"('भारतीय नारी' -१/३१२ स्वामी विवेकानंद, जनवरी, 1900.][ "My father and mother fasted and prayed , for years and years , so that I would be born". -Swami Vivekananda, January,1900.]  

[भारत में माता-पिता प्रत्येक बालक के जन्म लिए ईश्वर से प्रार्थना -याचना करते हैं।"   माता की पूजा का मूल स्रोत क्या है ? ... मुझे इस संसार में लाने के लिए उसे कितनी तपस्यायें करनी पड़ीं, कितना आत्म-त्याग करना पड़ा, उसने मुझे जन्म देने के लिए उसने अपने शरीर, को , मन को , भोजन को , वस्त्रों को , यहाँ तक कि अपनी कल्पनाओं को वर्षों तक शुद्ध और पवित्र रखा। यही कारण है कि हम माता को पूज्य मानते हैं। "  १/३१४ "She was a saint to bring me into the world; she kept her body pure, her mind pure, her food pure, her clothes pure, her imagination pure, for years, because I would be born. Because she did that, she deserves worship."]  

2. वे विश्वनाथ दत्त के पिता थे, जो उनके इकलौते पुत्र थे, पहले वाले ने एक संन्यासी के रूप में गृहस्थ जीवन का उस समय त्याग कर दिया जब बाद वाले लगभग छह महीने के थे। 

3. भुवनेश्वरी देवी के कुल मिलाकर चार बेटे और छह बेटियां थीं। अंतिम दो संतानें पुत्र थीं जिनका नाम था महेन्द्रनाथ (1869-1956) और भूपेन्द्रनाथ (1880-1961)।

4. बाद में 1871 में 'मेट्रोपोलिटन इंस्टीट्यूशन' के कक्षा 9वीं (वर्तमान कक्षा -VI) के अंग्रेजी विभाग में दाखिला लेने के लिए गए थे, तब उन्हें नए नाम 'नरेंद्रनाथ'  के साथ संस्थान के रजिस्टर में घोषित और नामांकित किया गया था। लेकिन संस्थान की प्रवेश रसीद में उनके नाम की वर्तनी या हिज्जे (spelling) में लिखा था-  "Norendor" - नोरेनदोर  बड़ी बिचित्र लगती है, जो अपना बृहत्तर ऐतिहासिक महत्व भी रखता है।  भारत में हाल के दिनों में अकेले विवेकानन्द ही थे जिन्होंने दिव्यता के गहरे संदेश का प्रचार किया था ।

रवींद्रनाथ टैगोर ने 1929 में कहा था - " विवेकानन्द के संदेशों ने बड़े व्यापक तौर पर युवाओं के ह्रदय-तंत्रिका को झंकृत किया है, इसीलिए उनके सन्देश देश की सेवा में इतने फलदायी हुए हैं।"  

" विवेकानंद के संदेश मनुष्य की समग्रता को जागृत करने का आह्वान है, और इसीलिए इसने हमारे युवाओं को 'त्याग और सेवा' के विविध तरीकों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया है।"- रवींद्रनाथ टैगोर, 1929।

 " यदि आप भारत को जानना चाहते हैं, तो विवेकानंद का अध्ययन करें। उनमें कुछ भी नकारात्मक नहीं है, सब कुछ सकारात्मक है।" --- रवींद्रनाथ टैगोर, 1929।

उपरोक्त प्रबंध सरकार द्वारा घोषित महत्वपूर्ण जनादेश का भी स्वागत करते हुए स्वामी विवेकानंद के 123वें जन्मदिन (12 जनवरी, 1985 ) की पूर्व संध्या पर प्रकाशित हुआ। अब से (12 जनवरी) को अपनी तरह का पहला दिन, 'राष्ट्रीय युवा दिवस' के रूप में मनाया जाएगा, इतना ही नहीं इस दिन (12 जनवरी) को राष्ट्रीय युवा सप्ताह के रूप में प्रदर्शित किया जाएगा। सप्ताह भर चलने वाले समारोहों के साथ अंतर्राष्ट्रीय युवा वर्ष के साथ शुरू होने के लिए माना जाता है। 

संतोष कुमार मुखर्जी,

अंदुल-मौरी, हावड़ा।

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भव्य पुनर्मिलन

grand reunion

মহামিলন 

       जनसाधारण के दुखों के प्रति निर्विवाद दयालु, अथक परिश्रमी, सर्वजन शिक्षण के नेता, नव वेदान्त के प्रतिपादक, परिव्राजक विवेकानंद का व्यक्तित्व में उनका ह्रदय था सर्वदा सरल, शान्त और प्रेममय। उन्होंने नदियों के समुद्र की ओर तेज गति से बहने वाले प्रवाह  को 'बृहद ध्वनि तरंग' की संज्ञा दी थी। उन्होंने जब कल-कल कल्लोलिनी अलकनंदा की आवाज सुनी, तब उन्होंने कहा था, 'अलकनंदा' के प्रवाह में 'राग केदारा' की धुन सुनाई देती है।   
    'संगीत' ही उनके जीवन-साधना का प्रथम सोपान और अभिन्न अंग था; और था 'श्रेय और प्रेय' दोनों प्रकार की कामनाओं का एकमात्र बगीचा। संगीत विद्या में निपुण होने के बाद, वह पूर्णता के सौंदर्य से मण्डित होकर सभी के लिए प्रिय हो गए थे; और परम पुरस्कार के रूप में उन्हें प्राप्त हुई थी 'अवतार वरिष्ठ' श्रीश्री रामकृष्ण की अन्तरंगता और निकटतम सानिध्य। और अंत में, जैसा कि उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है, इन सबका एक विशिष्ट परिणाम प्राप्त होता है-' A tremendous upheaval of the whole life '  " पूरे जीवन में एक आश्चर्यजनक क्रान्तिकारी परिवर्तन'! 
     नरेंद्रनाथ (स्वामी विवेकानन्द) थे 'नित्यसिद्ध श्रेणी' के महापुरुष थे, इसलिए प्राकृतिक नियम के अनुसार इसलिए बचपन से ही वे संगीत के प्रति एक सहज आकर्षण महसूस करते थे। जैसे संगीत विद्या का अभ्यास करना उनके लिए सहज था, वैसे ही संगीत की प्रस्तुति देने में भी वे हिचकिचाहट नहीं करते थे। संगीत समागम में उनके सहज आत्म-सुधार की प्रवृत्ति ने उन्हें सदैव प्रबुद्ध बनाए रखा था, और 'अनन्त के अधिकारी', इन्द्रियातीत सत्य की अनुभूति का अधिकारी बना दिया था।  
       ''अनायास दयासिंधु' श्रीश्री ठाकुरदेव ने कलकत्ता स्थित उनके मुहल्ले में जाकर पहली बार अक्टूबर 1880, बंगाब्द  1287 के हेमंत के अंतिम भाग में एक संध्या समागम के शुभ अवसर पर नरेंद्रनाथ का गीत सुना था । उस समय नरेंद्रनाथ प्रेसीडेंसी कॉलेज के छात्र थे और 'साधारण ब्रह्म समाज' के सदस्य थे । 'अतीन्द्रिय सत्य' के प्रबल जिज्ञासु, शिव और सुन्दर के उपासक, एक  आदर्शवादी आस्तिक, और तीक्षबुद्धि की प्रखरता से दीप्तिमान युवा। निष्कलंक चरित्र, वीर ह्रदय, सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति। लेकिन अभिजात्य बोध से अल्हड़, किसीका care नहीं करने वाला। उनकी  वाक्पटुता (eloquence-बोलने की शक्ति) असाधारण थी , किन्तु ज्यादातर समय उनकी बातें व्यंगात्मक रहती थीं, लेकिन उनका आंतरिक दृष्टिकोण वास्तव में हमेशा हृदववत्ता और करुणा की बाहरी अभिव्यक्ति ही कटाक्ष में रूपांतरित होती थीं। 
        अपने मित्र-मण्डली में, सभी मामलों के नेता - आलोच्य विषय पर अकाट्य तर्क देने वाले, उनकी चर्चा के शब्द आनन्द और उत्साह से भरे होते थे। आशा और भरोसा का संचार करने वाले पारस मणि , बेपरवाह हठी स्वाभाव, सदा आनन्द पूर्ण मधुर कण्ठ के गायक। लेकिन उन्हें अपने 
 जीवन के भीतर एक बहुत बड़े परिवर्तन का सामना करना पड़ रहा है। उनके मन प्रश्नों की झड़ी लग जाती है - यदि ईश्वर ह्रदय की गुफा में निर्वात-निष्कंप दीप शिखा की भाँति अवस्थित हैं , तो वे व्यक्त जगत में कहाँ मिलेंगे ? ईश्वर कहाँ हैं ? उनको कैसे देखा जा सकता है ? उनको देखा भी जा सकता है या नहीं ?  
       लिखने-पढ़ने में, संगीत साधना करने में, एकाग्रता (प्रत्याहार धारणा) का अभ्यास आदि करने के लिए उपयुक्त स्थान मानकर, उस समय से नरेन्द्रनाथ अपनी नानी के घर, 7 नंबर,  रामतनु बसु की  गली (7 No. Ramtanu Basu Street) के दूसरे मंजिल पर बने एक छोटे कमरे में अकेले रहना शुरू कर देते हैं। दिन में दो बार केवल केवल भोजन आदि करने के लिए ही वे अपने पैतृक निवास पर जाते हैं। जिस कमरे में वे रहते थे, उसकी सीढ़ी के नीचे बने स्थान को वे बोलचाल की भाषा में वे 'tong' -टन्न की आवाज कहते थे, उनके जीवन की जिज्ञासा, सत्य की खोज आदि का यही यज्ञ क्षेत्र है।  परमहंसदेव (1882-83) के बीच यहाँ कई बार आए थे ।

         परमहंस श्री रामकृष्णदेव 3 मार्च से 1880 से 10 अक्टूबर तक लगातार आठ महीने -कामारपुकुर क्षेत्र में ही रह गए थे । ... परमहंसदेव की अपनी जन्म- भूमि से वापसी की खबर सुनकर, , उनके सबसे प्रमुख भक्तों में से एक, सुरेंद्रनाथ मित्र (1850-90)  दशमी के बाद शारदीय विजया के दिन ऑफिस के काम को अधूरा छोड़ कर - व्याकुल ह्रदय एक दोपहर दक्षिणेश्वर पहुंचे। उनका असली नाम सुरेश चंद्र था; ठाकुर ने उन्हें प्यार से 'सुरेंद्र' या 'सुरिंदर' कहकर पुकारते थे। 
दिव्य भाव में अवस्थित श्री रामकृष्ण उन्हें देखते ही, स्नेहपूर्ण मुस्कान बिखेरते हुए बोले - " यह देखो सुरेन्द्र खुद पहुँच गया ! मैं तुम्हें ही याद कर रहा था, मैं सोंच रहा था तुम्हारे यहाँ जाने के लिए मुझे इसी समय निकल जाना चाहिए। "  सुरेन्द्रनाथ इस अप्रत्याशित स्वागत और अभूतपूर्व सुसंयोग को देखकर आश्चर्य चकित हुए। और इस आनन्द में स्वयं को भूलकर ठाकुर से बोले -" बहुत अच्छा ! यह तो मेरा परम् सौभाग्य है , चलिए आपको हमलोग इसी समय बग्घी से ले चलते हैं। "  
       मंगलमय प्रभु श्री रामकृष्णदेव, महानन्द से भरे हुए सुरेन्द्रनाथ के सिमुलिया स्ट्रीट पर अवस्थित निवासस्थान पर पहुँच गए। 2 ईश्वरीय इच्छा से इस शुभागमन के अवसर पर उस दिन सुरेन्द्रनाथ के लिए अपने घर पर विशाल भक्त सभा, या कोई उत्सव आयोजित कर पाना सम्भव नहीं हो सका। केवल डॉ. रामचंद्र दत्त जैसे, पड़ोस में रहने वाले कुछ ठाकुर देव के भक्तों ने ठाकुर देव की आवभगत करने में उनका सहयोग किया। ठाकुर को संगीत सुनना बहुत प्रिय था, लेकिन इतने कम समय में किसी नामी गवैये को ढूंढ़ पाना सम्भव नहीं था। 
       अचानक सुरेंद्रनाथ को याद आया,  नरेन तो अच्छा गाता हैं! उसकी आवाज बहुत मधुर है। बिना एक पल की देरी किये वे उनकी खोज में निकल पड़े। सुरेन्द्रनाथ की एक पुकार सुनते ही नरेन्द्रनाथ 'टोंग' से नीचे उतरे।  बिना कोई बहाना बनाए, उन्होंने खुशी-खुशी उनके प्रस्ताव पर हामी भर दी। क्योंकि संगीत चर्चा के लिए वे हमेशा उत्सुक रहते थे। संगीत में विशेष रूचि होने के कारण ही उनके पडोसी और संभ्रांत मित्र महाशय ने अपने गुरुदेव को संगीत सुनाने के लिए उन्हें आमंत्रित किया है। आमतौर से उनके अक्खड़ स्वभाव, 'बोहेमियन' व्यवहार के कारण मुहल्ले के पड़ोसी बड़े-बुजुर्ग लोग  नरेंद्रनाथ को पसंद नहीं करते थे। नरेंद्रनाथ के संगीत के प्रति भी वे  उदासीन रहते थे।
       क्योंकि नरेन्द्रनाथ उस समय ज्यादा करके  हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी भाषा में रचित सहज-सरल भक्तिमूलक गजल, टप्पा , ठुमरी , हिन्दी में ध्रुपद, खयाल आदि शास्त्रीय संगीत गाना पसंद करते थे और दो-चार ब्रह्मसमाज में गाये जाने वाले बंगाली गीत भी गए लेते थे। जो हो, लेकिन सुरेन्द्रनाथ के बुलावे पर वे उनके साथ ही साथ उनके आवास पर पहुँच गए। पवित्र -ह्रदय नरेन्द्रनाथ को देखते ही श्रीरामकृष्ण किसी कुशल आविष्कारक की तरह, आश्चर्य से अधीर हो उठे। बहुत आनन्द और प्रेम से भरकर उनका परिचय जानने के लिए व्याकुल हो गए।  
       'Who ever loved that loved not a first sight ?' - जिस किसी ने कभी प्यार किया है, तो क्या वह प्यार पहली नजर में ही नहीं हो जाता ? वे एकटक होकर नरेन्द्रनाथ के सौम्य, शान्त, कोमल, शरत के चाँद जैसे कान्तियुक्त मुखड़े का अवलोकन करने लगे।  ....असाधारण गुरु,अद्भुत शिष्य, में चमत्कारी प्रेम संचार।....ध्यानसिद्ध, मुक्त-स्वभाव नरेन्द्रनाथ अविलम्ब, तानपुरा के साथ आसन में बैठकर, तेजोदीप्त करुणाद्र कण्ठ से पूरे मन-प्राण के साथ,  गाते हुए सबों को मोहित कर दिया। उस गंभीर, अर्थपूर्ण, प्रश्नों से परिपूर्ण मार्मिक गीत को सुनकर भावग्राही भगवान श्रीरामकृष्णदेव मंत्रमुग्ध हो गए।     
      उस दिन नरेंद्रनाथ ने पहला गीत सुनाया  था ब्रह्मसमाज के नेता 'अयोध्यानाथ पाकराशि   (Ayodhyanath Pakrashi) द्वारा रचित बंगाली भक्ति गीत, 'मन चल निज निकेतने' - ;सूरत-मल्हार धुन- एकताल में- और दूसरा गीत बेचाराम चट्टोपाध्याय द्वारा रचित -दूसरा गीत बेचाराम चट्टोपाध्याय द्वारा रचित - 'जाबे के दिन आमार  बिफले चलिये?" 'যাবে কি হে দিন আমার বিফলে চলিয়ে। আছি নাথ দিবানিশি আশাপথ নিরখিয়ে । राग 'मुल्तानी -आड़ठेका ' में  गाया था -

মন চলো নিজ নিকেতনে 
সংসার বিদেশে বিদেশীর বেশে 
ভ্রম কেন অকারণে
মন চলো নিজ নিকেতনে। 

বিষয়-পঞ্চক আর ভূতগণ 
সব তোর পর কেহ নয় আপন 
পরপ্রেমে কেন হয়ে অচেতন ভুলিছ আপনজনে 
মন চলো নিজ নিকেতনে। 

সত্যপথে মন কর আরোহণ, 
প্রেমের আলো জ্বালি চল অনুক্ষণ 
সঙ্গেতে সম্বল রাখো পূণ্যধন 
গোপনে অতি যতনে 

লোভ-মোহাদি পথে দস্যুগণ, 
পথিকের করে সর্বস্ব সমশন 
পরম যতনে রাখোরে প্রহরী 
শম, দম দুইজনে 
মন চলো নিজ নিকেতনে। 

সাধুসঙ্গ নামে আছে পান্থধাম, 
শ্রান্ত হলে তথায় করিবে বিশ্রাম 
পথভ্রান্ত হলে শুধাইবে পথ সে পান্থনিবাসী গণে। 

যদি দেখ পথে ভয়েরই আকার 
প্রাণপণে দিও দোহাই রাজার 
সে পথে রাজার প্রবল প্রতাপ, 
শমণ ডরে যার শাসনে। 

মন চলো নিজ নিকেতনে। 
সংসার বিদেশে বিদেশীর বেশে 
ভ্রম কেন অকারণে।
जब गीत समाप्त हुआ, तब परमहंसदेव, जो असाधारण संगीत के प्यासे थे, ने ऊँचे स्वर में और प्रशंसनीय भाव से कहा, 'वाह ! वाह ! एक दम किशोर बालक है, हाँ, ऐसा ही आधार तो मुझे चाहिए था , ... बोले तब क्या वहाँ -दक्षिणेश्वर में किसी दिन नहीं आओगे ? कहो, तुम जरूर आओगे न ? देखना कभी भूल मत जाना। "  नरेंद्रनाथ ने एक सामान्य शिष्टाचार दिखाते हुए अपनी गर्दन को हिलाकर सहमति जताते हुए वहां से विदा हुए। 'श्रीरामकृष्णलोक' से आया एक अलौकिक आध्यात्मिक निमंत्रण से अनजान और उदासीन नरेन्द्रनाथ शुभ्र शरत ऋतू की चाँदनी में अपने घर लौट गए। और उनका विशाल महान महिमापूर्ण भविष्य अभी छुपा हुआ था स्वर्ण के ढक्क्न से। 
        देखते -देखते 10-11 महीने बीत गए। 1881 का वर्ष समाप्त होने वाला था। नरेंद्रनाथ ने एफ.ए की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की। रिश्तेदार लोग खुश थे कि  जल्द ही उनका विवाह उत्सव होगा। लेकिन इस प्रस्ताव को सुनने के बाद नरेंद्रनाथ ने स्पष्ट रूप से अपनी असहमति जता दी। ऊपर से देखकर लगता कि वे पढाई में मग्न हैं , ब्रह्मसमाज के सभा-समितियों में भाग लेने के लिए आतुर रहते था, अपने मित्रों के साथ खेल-कूद और संगीत चर्चा में निरंतर व्यस्त रहते थे किन्तु ह्रदय में हमेशा एक ही प्रश्न वहलता था - ईश्वर को एकदम प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है या नहीं ? 
     ईश्वर से निर्विवाद पहचान ही 'उनकी एकमात्र -ऐषणा है! तीव्र अभिलाषा है। बचपन से ही उनका मन बेचैन है इसी शंका के समाधान की तलाश में। धरती में पड़ा बीज जैसे अंकुरित होने की इच्छा से भरा होता है , उनका ह्रदय उसी बीज की वेदना का अनुभव कर रहा था। वे समस्त  सांसारिक ऐषणाओं (वित्त-ऐषणा, पुत्र ऐषणा और लोक-ऐषणा)  के प्रति उदासीन और निर्लिप्त रहते हुए ; मनुष्य जीवन के उद्देश्य की खोज में -बुद्ध की प्रतिज्ञा की तरह - "शरीरं वा पातयामि, मन्त्रम् वा साधयामि " की अपनी प्रतिज्ञा पर अटल और दृढ़ थे।  
         ऐसी परिस्थितियों में नरेंद्रनाथ के पिता के कहने पर उनके सम्बन्धी  डॉक्टर रामचंद्र दत्त (1851-99) ने नरेंद्रनाथ से उनके घर-गृहस्थी बसाने की इच्छा के बारे में खुलकर सवाल किया।डाक्टर रामचंद्र दत्त, वे नारकेल भाँगा ग्राम के निवासी नरसिंह प्रसाद दत्त के पुत्र और  नरेंद्रनाथ की माता के दूर के रिश्ते में मामा लगते थे। बचपन में ही उनकी माँ का देहान्त हो जाने के बाद, बिकट परिस्थितियों में Campbell Medical School' में पढ़ाई करते समय थोड़े दिन (लगभग 1871-72 तक) नरेन्द्रनाथ के पैतृक निवास में रहकर अध्यन करते थे।  प्रियदर्शन नरेंद्रनाथ उनके सबसे विश्वासपात्र व्यक्ति थे । नरेन्द्रनाथ के हृदय की अदम्य इच्छा और उनकी दिनचर्या  
के कठोर नियम तथा उसे पूरा करने के लिए अकाट्य युक्तियुक्त निर्णय को सुनकर रामचन्द्र दृढ़ विश्वास के साथ बोले, 'भाई, तुम्हारी  बात से मैं पूरीतरह सहमत हूँ। और मैं तो तुम्हें तुम्हारे जन्म से  देख रहा हूं। कि तुम एक प्रबल सत्यार्थी हो ! लेकिन यदि तुम इन्द्रियातीत सत्य का साक्षात्कार करना चाहते हो , तो ब्रह्मसमाज आदि स्थानों में  इधर-उधर दौड़ने के बजाय दक्षिणेश्वर में ठाकुर  रामकृष्ण के पास चलो ।"
     जैसे ही नरेंद्रनाथ ने 'रामदा ' के मुख से श्री रामकृष्णदेव  के बारे में सुना, वे चौंक गए! और एक साथ होने वाली समस्त घटनाएँ - सुरेंद्रनाथ मित्र की उनसे मुलाकात; ब्रह्म समाज और अखबारों में उनकी अकल्पनीय भक्ति और आस्था की चर्चा; अपने कॉलेज के प्रोफेसर हेस्टिंग्स के कथन - 'समाधि देखनी है तो दक्षिणेश्वर के श्रीरामकृष्ण के पास जाओ', एक क्षण में समस्त घटनाओं की समीक्षा करने और सामाजिक परिवेश तथा परिस्थितियों के दबाव को हटाते हुए वे दक्षिणेश्वर जाने का निर्णय लिए । श्री रामकृष्ण के यहाँ जाने का दिन तय हुआ '1881, दिसंबर का अंत' - वर्ष 1288, 'पौषमास' का पहला भाग।
     नरेंद्रनाथ के साथ रामचंद्र दत्त, सुरेंद्रनाथ मित्र और उनके दो दोस्त भी पहुंचे थे। ठाकुर  श्री रामकृष्ण अपने ह्रदय के धन  'नव-ऋषि' नरेंद्रनाथ की ओर देख कर उनके स्वागत में व्यस्त हो गए। यह दूसरा साक्षात्कार या महामिलन था दोनों के ह्रदय को- एक अवर्णनीय आकर्षण - अनंत आनंद की ओर उन्मुख कर देता है। एक दूसरे के अंदर प्रेम दिखा। नरेंद्रनाथ तो एकतरफा प्यार - असंतुष्ट गतिशीलता के जुनून से अभिभूत थे ! उनका हृदय आशा से जगमगा उठता है, लेकिन संदेह से मुक्त नहीं हुआ । ... उन्होंने नरेंद्रनाथ का हाथ पकड़ लिया और खुशी के आंसू बहाते हुए , प्यार भरे स्वर में उनसे कहा - 'क्या इतनी देर के बाद मिलने आया जाता है ? मैं कितने दिनों से तुम्हारे इंतजार कर रहा हूँ , यह भी नहीं सोचे ? मेरे निमंत्रण को तुम आसानी से भूल कैसे गए ? - आदि। कितना स्नेह - उत्सुकता - गैर-रचनात्मक व्यवहार और अकृत्रिम अपनापन देखकर नरेंद्रनाथ चकित और हैरान रह गए ! श्रीश्रीठाकुर ने नरेंद्रनाथ से बड़े प्यार और स्नेह से गहरी आवाज में अनुरोध किया, 'कहो कि एक दिन यहां जल्दी आओगे ? लेकिन अकेले आओगे  - किसी को साथ मत लाना । क्या तुम समझ रहे हो भाई ? ' बचने का कोई उपाय न देखकर नरेन्द्रनाथ ने 'हाँ जल्दी आऊंगा ' कहने को बाध्य होना पड़ा और 'इस बार केन्द्र है भारतवर्ष ' का बीज अंकुरित हो गया!
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N. B. 
1. (ए) डॉ रामचंद्र दत्त और मनमोहन मित्र की सलाह और आग्रह पर, उन्होंने 1880 के शुरुआती भाग में दक्षिणेश्वर में परमहंसदेव का सानिध्य प्राप्त किया था ।

(बी) रामचंद्र और मनमोहन और ब्राह्म नेता केशवचंद्र के द्वारा उन्हें अपने मन का  'परमहंस' कहने और उनके द्वारा प्रकाशित अख़बार 'The Indian Mirror' में 'धर्म तत्व ' आदि लेखों को पढ़ने के बाद , उत्साह के साथ 1879 में श्यामा पूजा के दिन, गुरुवार दोपहर में श्री रामकृष्णदेव के सम्मुख  उपस्थित हुए थे। 

(सी)  रामचंद्र दत्त के साथ परमहंसदेव की पहली मुलाकात 15 मार्च 1875 को हुई थी।

2. उक्त भवन 'विवेकानंद रोड' का निर्माण करते समय अब निशचिन्ह हो गया है, पहले यह मकान 'दत्त-बाड़ी ' के दक्षिण-पश्चिम में अवस्थित था।

3.  'The Indian Mirror ', ' The Theistic Quarterly Review ' , 'धर्मतत्व', सुलभ समाचार इत्यादि में प्रकाशित।  
[बुद्ध का शाब्दिक अर्थ है,जागृत होना, सतर्क होना तथा जितेन्द्रिय होना। वस्तुतः बुद्ध एक व्यक्ति विशेष का परिचायक न होकर स्थितिविशेष का परिचायक है। वर्तमान समय में बुद्ध शब्द का व्यापक प्रयोग राजकुमार सिद्धार्थ के परिव्राजक रूप के लिए किया जाता है जो सत्य नहीं है। सहस्रों बुद्धों का आगमन हो चुका है, तथा सहस्रों बुद्ध आयेंगे। इसीलिए वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड में बौद्ध को चोरों की भांति दंड देने कि बात आई है। इससे सिद्ध होता है कि वाल्मीकि के आगमन से पूर्व भी बौद्ध मत था। वस्तुतः बुद्ध एक नहीं बहुत हैं। जैसे कि पूर्व में बताया गया कि बुद्ध मात्र एक स्थिति विशेष का नाम है, तो उस स्थिति में पहुँचने वाला हर प्राणी बुद्ध कहलाया। कृष्णावतार के बाद बुद्धावतार की भविष्यवाणी भगवान वेदव्यास जी ने की है। विडंबना है कि लुम्बिनी में जन्म लिए युवराज गौतमबुद्ध को ही इतिहासकारों ने भगवान बुद्ध बना दिया और सनातन हिन्दू वैदिक अवतार के रूप में जो मूल पुरातन भगवान बुद्ध हुए उनके बारे में प्रर्याप्त प्रचार प्रसार नहीं हुआ। 

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[15] 

“अधीतिबोधाचरण  प्रचारणैः ” 

(अध्ययन- बोध - एवं व्यवहार द्वारा प्रचार)

[অধীতি বোধাচরণ প্রচারনে] 

(অধ্যন বোধ ও আচরণের দ্বারা প্রচার )

     प्रसिद्ध शिक्षाविद शिरीष चंद्र मुखोपाध्याय (1891-1966) एवं तत्वदर्शी उद्बोधन -पत्रिका के सम्पादक श्रीमत स्वामी वासुदेवानन्द जी महाराज (1891-1956)- दोनों भवदेव बाबू के हृदय में श्रद्धा के आसन पर अधिष्ठित थे, उनके लिए पूजनीय व्यक्तित्व थे। दोनों का भवदेव बाबू से विशेष स्नेह था, आचार्य शिरीषचन्द्र भवदेव बाबू को 'देव' कहकर पुकारते थे। इसका प्रमाण शिरीष चन्द्र  द्वारा भवदेव बाबू को लिखे पत्र में मिलता है। 
      दूसरी ओर, स्वामी वासुदेवानन्द जी महाराज भवदेव बाबू को 'रवि' कहकर बुलाते थे। उद्बोधन पत्रिका के एक अंक में स्वामी वासुदेवानन्द ने एक ऐतिहासिक कल्पित कथा प्रकाशित की थी । उस कल्पित ऐतिहासिक कहानी (Historical fiction) में 'रवि' नाम का एक पात्र था। "श्री रामकृष्ण वासुदेवानन्द संघ" के माध्यम से स्वामी वासुदेवानंद की कई पुस्तकें प्रकाशित हुईं थीं । उनमें से कुछ उल्लेखनीय पुस्तकें हैं - 'दिव्य वाणी की प्रतिध्वनि' , 'अंतर राग में आलापन' अलापन', 'श्री रामकृष्ण स्मृति साधुकरी। ' भवदेव बाबू इन सभी प्रकाशनों से विशेष रूप से जुड़े हुए थे ।

       आन्दुल-मौड़ी में 'विवेकानंद पाठचक्र ' के अलावा 'बोधानंद स्मृति संघ' नामक एक संगठन था।  भवदेव बंदोपाध्याय इस संगठन के सचिव थे और श्रद्धेय स्वामी वासुदेवानंद जी अध्यक्ष थे। भवदेव बाबू की विशेष अनुरोध से स्वामी वासुदेवानंद जी महाराज ने  कई बार  आन्दुल-मौड़ी में पदार्पण किया था। मौड़ियाडी साधारण  पुस्तकालय की 'विजिटर्स बुक' से संकलित करके भवदेव बाबू ने हमारे लिए बहुत मूल्यवान तत्व और जानकारी छोड़ी है। हम भवदेव बाबू के स्वयं के हस्तलिखित संग्रह की फोटो कॉपी सम्मानित पाठक के समक्ष प्रस्तुत करते हैं, जिसका अपार ऐतिहासिक महत्व है। भवदेव बाबू को स्वामी विवेकानंद के संन्यासी  शिष्य स्वामी बोधानंद और स्वामी विमलानंद का विशेष स्नेह प्राप्त था। स्वामी जी के प्रत्यक्ष शिष्य स्वामी बोधानंद की स्मृति में आन्दुल-मौड़ी में बोधानंद स्मृति संघ की स्थापना हुई थी। हमें उस संघ के Letter Pad का एक पेज प्राप्त हुआ है। 
       हमें स्वामी बोधानंद का आन्दुल के साथ कुछ विशेष संबंधों का पता चला है। हम इसे विस्तार से पाठक के सामने प्रस्तुत करते हैं- जिससे उनका आन्दुल से संबंध सिद्ध होता है। उद्बोधन में प्रकाशित 'स्वामीजी के पदचिह्न' नामक पुस्तक से हमें पता चलता है कि स्वामीजी के दो संन्यासी  शिष्य, स्वामी बोधानंद और स्वामी विमलानंद, पूर्वाश्रम में पहले चचेरे भाई थे। दोनों का जन्म हावड़ा जिले के जगत बल्ल्भपुर  थाने के बाग-गंगा गांव में हुआ था। दोनों भाई बहुत मिलनसार थे और अपने चरित्र की मधुरता के कारण सभी के प्रिय थे। स्वामी बोधानंद के पिता का नाम शिव नारायण चट्टोपाध्याय और स्वामी विमलानंद के पिता का नाम बेनीमाधव चट्टोपाध्याय था । वेणीमाधव जो शिवनारायण के छोटे भाई थे। बेनीमाधव चट्टोपाध्याय महाशय बाद में आन्दुल में रहने लगे थे और कभी-कभी कलकत्ता के पातालवांगा में कैथेड्रल मिशन लेन स्थित अपने घर में भी रहते थे । स्वामी बोधानंद और विमलानंद मानों 'हरि-हर की आत्मा'  के समान थे। अतः यह कहा जा सकता है कि अपने भाई विमलानंद के साथ बोधानंद जी भी आन्दुल के आकर्षण में बंध गए थे।   
         दूसरी ओर, भवदेव बंदोपाध्याय के द्वारा लिखित 'बेलूड़ मठ में आन्दुल का काली-कीर्तन' नामक लेख पढ़ने से हमें पता चलता है कि - "उन्होंने (स्वामीजी).....ने प्रेमिक कीर्तन समिति के सदस्यों द्वारा गाये  उनके युवा संन्यासी -शिष्य स्वामी विमलानंद (खगेन महाराज अपने पूर्वाश्रम में प्रेमिक महाराज के गोत्र में नाती थे ) के प्रयासों से  28 फरवरी 1898 को बेलूड़ के ठाकुर घर में प्रेमिक की गीतावली को सुना था। वह दिन था - श्री रामकृष्ण जन्मोत्सव का दिन। ' इस ग्रन्थ से बहुत कुछ जानने के साथ-साथ हमें यह भी पता चलता है कि स्वामी विमलानंद और आन्दुल श्रीश्री प्रेमीक महाराज के बीच एक पारिवारिक संबंध था ।

       ऐसा प्रतीत होता है कि इन सभी कारणों से आन्दुल के साथ उनका घनिष्ट संबंध स्थापित हो गया था। और इसी कारण से भवदेव बाबू  तथा अन्य बोधानंद- भक्तों ने आन्दुल -मौड़ी  में बोधानंद स्मृति संघ को स्थापित करने में पहल की होगी । आन्दुल -मौड़ी का गौरव वर्तमान शताब्दी में प्राचीन मोहियाड़ी Public Library के साथ भवदेव बाबू का लम्बा जुड़ाव रहा है। इस पुस्तकालय को सरकारी अनुदान प्राप्त करने के लिए, इसके संचालन नियमों को लिखना आवश्यक था । यह जिम्मेदारी भवदेव बाबू को सौंपी गयी थी। कहने की आवश्यकता नहीं कि भवदेव बाबू  ने इस कर्तव्य को अत्यंत निष्ठा के साथ निभाया था । 
       महामंडल की स्थापना के बाद 1969 में इसके संविधान और नियमों को लिखना भी आवश्यक हो गया था। तब भवदेव बाबू ने श्रद्धेय नवनी हरन  मुखोपाध्याय महाशय को उनके काम में सुविधा के लिए आन्दुल -मौड़ी पुस्तकालय के Constitution (संविधान) की एक  copy प्रति भेंट की थी । भवदेव बाबू कई वर्षों तक आन्दुल -मौड़ी पुस्तकालय के सचिव  और बाद में अध्यक्ष रहे थे ।
       बोधानंद स्मृति संघ का आदर्श वाक्य या 'motto 'था “अधीतिबोधाचरण  प्रचारणैः ”-अर्थात  पढ़ी हुई विद्या पूर्णता को प्राप्त होती है -बोध को आचरण में उतारने से। इस संदर्भ में  बहुत अच्छी तरह से ब्याख्या करते हुए पूज्य नवनी दा ने कहा है - 'इस बोध (या बुद्धत्व) में क्रमशः विकसित होते रहना, यही है धर्म का वास्तविक अर्थ है। " 
       स्वामी चेतनानन्द द्वारा संकलित पुस्तक  'कल्पतरु श्री रामकृष्ण'  में स्वामी बुद्धानंद का एक निबंध है। उसी लेख से हम श्री श्री माँ के बारे में कहे गए उनके शब्दों के साथ हम इस प्रबंध को समाप्त करेंगे। उस प्रबंध में स्वामी बुद्धानंद लिखते हैं - "ऐसा कौन है जिसने हमारी माँ को देखा है ,और जिसकी दृष्टि पवित्र नहीं हुई हो ? जिसके भीतर सोई हुई शुभ शक्ति नहीं जागी हो ? जिसके ह्रदय में एक शिव-संकल्प सक्रिय नहीं हुआ हो ? "
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परिशिष्ट [addendum, जोड़] 

प्रेमी-पथिक संवाद  

(रटन्ती-कालीपूजा : निशा-भ्रमण-1)

आचार्य शिरीष चंद्र कामदेवी

'काली -कीर्तन' के रचयिता 'प्रेमिक ' महाराज, क्या आप ही हैं ? 

           मैं कई वर्ष पहले की बात कहने जा रहा हूं। माघ महीने का आखरी दिन की पूर्वरात्रि है। मध्य रात्रि मानों साँय साँय कर रही है , और उसी प्रकार घना अँधेरा भी छाया हुआ है । सर्दी कम होती जा रही है, और पतली त्वचा को स्पर्श करती हुई 'दक्षिण' की ठंढी हवा चल रही है।आन्दुल के सड़कों पर रास्ता भूला पथिक भटक गया है, सरस्वती -नदी का श्मशान घाट और पानी एकाकार हो रहा है, कुछ पता नहीं चलता।   रटन्ती चतुर्दशी की अन्धकारपूर्ण मध्यरात्रि के धुप्प अन्धकार में आन्दुल के पेंड़-पौधे,  मानों छिप गए हैं। उसी नीरव अँधेरे में पूरा गाँव कुप्प सोया पड़ा है। और अंदुल के सड़कों पर पथिक चलता जा रहा था। 'सामान्य जोनाकिर' -थोड़ा सा मतवालेपन के भाव में है है। कोई रास्ते की पहचान करने में सहायता भी नहीं करेगा। 'मेघेर छुरी स्वरम्' मुक्त आकाश में अचानक घने बादल छा गए !  रास्ता बिल्कुल सुनसान है , कोई मानव-जात नहीं दीख रहा है। और उसी यशस्वी पुण्य-रजनी की जीवनीशक्ति द्वारा अनुप्रेरित होकर, पथिक मानो छोटे-छोटे कदमों से चलने लगता है। बहुत दूर किसी घर में एक छेद के माध्यम से, पथिक को प्रकाश की एक लंबी रौशनी आती हुई दिखाई दी। पथिक मानो उसी रौशनी को  सूँघते हुए उस दिशा की ओर बढ़ गया। गंतव्य स्थान पर पहुंचने में अधिक देरी नहीं हुई ।  

       पथिक ने देखा कि अभी-अभी देवी पूजा समाप्त हुई है। देवीपीठ का 'योग दीपक' जल रहा है। पूजक पूजा समाप्त करके सुखासन पर बैठे हुए हैं। 'निर्वात तपोमस्ति मितेन चक्षुषा' - पथिक की ओर देखकर कुछ देवीप्रसाद दिए। तब उस 'प्रसाद-प्रसन्न पथिक'  ने कहा -  अभी-अभी  मैं माँ सिद्धेश्वरी मंदिर (आन्दुल) में रटन्ती पूजा देखने के बाद यूँही गांव की प्रदक्षिणा करता हुआ घूम रहा था -और 'को जागती' की खोज कर रहा था। आपको देखकर मेरी आशा बढ़ गयी, मुझे भरोसा हो गया कि यह देश , आज भी  साधक-रहित नहीं हुआ है। (बंगाल का यह पुण्य गाँव आन्दुल आज भी श्रद्धावान रहित या काली-उपासक रहित नहीं हुआ है !) इस पूजा स्थल के यंत्र- उपचार आदि को देख कर , यह समझा जा सकता है कि यहाँ 'वीररात्रि -निमित्त -अनुष्ठान' भी सिद्ध-विद्या आविर्भाव पद्धति से सुसम्पन्न हुआ है। 

 क्या आप ही काली -कीर्तन के रचयिता 'प्रेमिक ' महाराज हैं ? प्रेमीक महाराज 'निशीखदीपा सहसा हतत्वियः' मुस्कुराने वाली हँसी हँसे।  तब प्रेमीक महाराज और पथिक जी महाराज के बीच गहरा परिचय हो गया। 'भावस्थिराणि जननांतर सौहृदानि॥' अभिज्ञान शाकुंतलम्‌/5:2॥-(जब कोई प्राणी सुखी होने पर भी किसी रमणीय दृश्य को देखकर या मधुर शब्दों को सुनकर उत्कंठित हो उठता है, तब निश्चय ही उसका चित्त अचेतन रूप से किसी ऐसे पूर्व-संबंध की याद कर रहा होता है जो उसके आभ्यंतर में संस्कार-रूप में स्थिर हो गया है।)  फिर तो उसी 'यज्ञ प्रदीप ' के सामने बैठे  प्रायः पूरी रात जागते हुए प्रेमिक -पथिक संवाद चलने लगा।

वही प्रेमिक -पथिक संवाद से बाद में मैं जितना समझ सका, सोचा हूँ कि मैं उसे आपको मन-मुताबिक ढालकर बता दूं। 'पारी कि हारी ' --एकबार देखि !'  बताने में सक्षम होता हूँ, या नहीं- एक बार कोशिश करता हूँअगर मैं बताने में सक्षम हो सका तो - हे प्रेमीक ! वह तुम्हारा गुण है! और यदि न बता सका , तो हे पथिक ! यह दोष तुम्हारा है ! मैं तो सिर्फ अदरक का खुदरा व्यापारी हूँ -'किमार्द्रक-वणिजो वहित्र-चिन्तया। '  ---किसी अदरक के व्यापारी को जहाज के बारे में चिन्ता करने की क्या जरूरत है ? 

      सबसे पहले 'दक्षिण का नवद्वीप' कहे जाने वाले आन्दुल के भैरवीचरण विद्यासागर की बात से प्रारम्भ करता हूँ। प्रेमीक महाराज ने कहा - विद्यासागर ने समस्त अपराविद्या को पढ़ा बाद में समयाचार तक को विसर्जित करके तंत्र-मार्ग के महाविद्या की साधना में ही अपना बाकि जीवन उत्सर्ग कर दिया था।  पिछले वर्ष की स्थानीय तंत्र-सभा में विद्यासागर भैरवी चरण विद्यासागर के पंचमुण्डी आसन पर बैठकर मंत्र-साधना करने का प्रसंग पर आपने मुझे विस्तार से चर्चा करने का जो अवसर दिया था , उसे फिर से यहाँ दोहराना अनावश्यक और कुछ हद तक अप्रासंगिक होगा। और मेरे पास पथिक-प्रेमीक की अन्य बातें आपके सम्मुख प्रस्तुत करने का समय नहीं बचेगा।  मैं उस रात उस दुर्लभ-शुद्ध-निर्मल - प्रश्न-उत्तर सत्र को सजाकर कहने में संकोच अनुभव कर रहा हूँ। क्योंकि यह सारी रात चलने वाला प्रश्नोत्तरी- सत्र  है!

मैं उस रात की उस विरल (दुर्लभ) -निर्मल (पवित्र) -विशुद्ध सम्पूर्ण रात्रि तक चलने वाले प्रश्न-उत्तर सत्र को मैं कभी भूल नहीं सकता। केवल एक मुण्डासन के ऊपर ही सारी रात चर्चा हुई थी! पथिक ने पूछा - महाराज, तो फिर 'पंच मुंडी' -साधना क्या है ?

पथिक  के इस प्रश्न का उत्तर देते हैं - "निष्पद" - बिनापैर वाला सरीसृप यानि सर्प का मुण्ड 1, "चतुष्पद" -चार पैरों वाले सियार का मुण्ड 1, "चतुष्कर" -वह जंतु जिसके चारों पैरों के आगे के भाग हाथ के समान हों, पंजेवाले जानवर जैसे बन्दर का मुण्ड 1, और "द्विपद"- निम्नस्तर का नर जैसे चण्डाल का मुण्ड 2 -कुल मिलाकर 5 मुण्ड या 'पंचमुण्डी' कहा जाता है।   

   पथिक : " अच्छा उस पर बैठकर - मुण्डासन में साधना कैसे की जाती हो ? " 

प्रेमिक : "शास्त्र से कुछ सुन लेने या पढ़ लेने से कोई व्यक्ति साधक तो नहीं हो सकता। दक्षिणेश्वर के परमहंसदेव कहते थे- पञ्चाङ्ग में लिखा है इस बार 20 आना पानी होगा। लेकिन पञ्चाङ्ग को दबाने से एक बून्द पानी भी नहीं मिलेगा। " पढ़ लेने और अभ्यास करके उसे आत्मसात करने में यही अन्तर है।     

 प्रश्न - महाशय ! आपके विचार से ऐसी तंत्र साधना की कुल कितनी पुस्तकें हैं?

उत्तर :  चामुंडा मुंडमाला ही योगिनी यामलं तथा।

कामाख्या कुजिका राधा कंकालमालिनी शिवे ।

नित्या निलं महानिलं महानिर्वाणमर्नवं,

फेत्कारिणी फेरु प्रिये मरु मंत्रमहोमधिः।।

डमरं डामरं डीनं श्रौतं काली विलासकं ,  

सप्तकोटिः ग्रंथा मम वक्तोद विनिर्गतः।।     

.......... ... .. सदाशिव ने देवी को सप्तकोटि महाग्रंथ के बारे में बताया है। 

देवी पार्वती से सदाशिव जो कहते हैं वह है आगम । आगम और तंत्र दोनों पर्यायवाची पद माने गए हैं।  भगवान शिव ने  शिवा को (पराम्बा) को तंत्रों का उपदेश दिया तथा ये तंत्र श्री नारायण (वासुदेवस्य) को भी मान्य हुए। 

आगतं शिव वक्त्रेभ्यो गतं च गिरिजा श्रुतौ ।

मतञ्च वासुदेवेन आगम संप्रवक्षते ।।

आ -ग -म - यानि 'आ' -माने, आगतं शिव वक्त्रेभ्यो; 'ग' माने, गतं च गिरिजा श्रुतौ'म' माने,  'म'तं च श्रीवासुदेवेन आगमं सम्प्रवक्ष्यते।' अर्थात शिव बोलते हैं, और गौरी सुनती हैं , यही श्रीवासुदेव का मत है। यथा -'नि'-र्गतो गिरिजावक्रातू 'ग'-तश्च गिरिशश्रुतिम्‌ । 'म'-तश्च वासुदेवस्थ निगमः परिकल्प्यते। पुनः आगम और निगम का प्रयोग अनेक स्थानों पर एक ही अर्थ में किया जाता है। सम्पूर्ण आगम शास्त्रों के वक्ता हैं सर्वान्तर्यामी मायातीत भगवान शिव , श्रोत्रि हैं माँ पार्वती, लिपिबद्ध करने वाले हैं सिद्धिदाता गणेश और प्रचारक हैं गुफाओं में निवास करने वाले सिद्ध महापुरुष। 

प्रश्न - लेकिन क्या तंत्र शास्त्र के साथ सभी धर्म-मार्गों और सम्प्रदायों का सामंजस्य ^*किया जा सकता है? 

उत्तर - बिल्कुल। वैदिक मन्त्रों को छोड़कर जितने भी मंत्र हैं वे सभी तांत्रिक हैं। गुरु-शिष्य दीक्षा- पद्धति तथा उसमें प्राप्त होने वाला बीजमंत्र, सभी तांत्रिक हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु को तांत्रिक विष्णु मंत्र में ही दीक्षित किया गया था। जगतगुरु शंकराचार्य श्रीकुल (कुलार्णव तंत्र) के तांत्रिक थे। विष्णुक्रान्ता (समानार्थक:-आस्फोटा,गिरिकर्णी,विष्णुक्रान्ता, अपराजिता स्त्री।)के एक अन्य शंकराचार्य काली-कुल के प्रसिद्द सिद्ध तांत्रिक महापुरुष हैं। जब कभी होम करना होगा , तो उसकी विधि या तो वैदिक होगी या तान्त्रिक होगी। संध्या विधि वैदिक भी है, तांत्रिक भी है।   शाक्त भक्तों की दस महाविद्या, और वैष्णव भक्तों के दशावतार , दोनों का आधार एक ही है। "कृष्णरूपा कालिका स्याद्रामरूपा (स्यात राम रूपा) च तारिणी ।" 'काली-कृष्ण दोनों के शरीर नवीन मेघ के समान नीलकान्ति हैं। माँ तारा - शक्ति के साथ राम; माँ षोडशी -जामदग्न्य  दोनों के हाथ में कोदण्ड, माता भुवनेश्वरी - वामन;  त्रिभुवनेश्वरी और त्रिविक्रम - दोनों ने देव पृथ्वी की रक्षा की;माँ भैरवी - वराह; माँ छिन्नमस्ता - नृसिंह, माँ धूमावती - मीन।

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quadrumana :

1.सामंजस्य ^*  एक बार तंत्र-शास्त्रों  के बारे किसी ने सर जॉन वुड्रूफ़ कहा था - सात करोड़ तंत्रशास्त्र की पुस्तकें थी ऐसा कहना अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकता है  - लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि तंत्रों की संख्या बहुत अधिक है। इस पर सर जॉन वुड्रूफ़ ने तुरंत उत्तर दिया - - No, no , when Sadashiva tells it, it must be accepted as literally true ! नहीं, नहीं, जब सदाशिव इसे कहते हैं, तो इसे अक्षरशः सत्य मान लेना चाहिए! मेरे जैसे कितने शिक्षित दर्शक ऐसी बातें कह सकते हैं? (इसीको कहते हैं श्रद्धा !) सर जॉन वुड्रॉफ़ [Sir John Woodroffe : (1865 - 1936)] ब्रिटेन में जन्में एक भारतविद थे। आर्थर एव्लन (Arthur Avalon) उनका छद्मनाम था। उन्होने भारतीय दर्शन एवं योग पर बहुत महत्वपूर्ण कार्य किया जिससे पश्चिमी जगत में भारत के प्रति रूचि जागी। वुड्रॉफ़ की - 'The Serpent Power' द सर्पेंट पावर - तांत्रिक और शक्ति योग का रहस्य, कुंडलिनी योग के अभ्यास पाश्चात्य लोगों में प्रसिद्द है। वुडरॉफ की दूसरी चर्चित पुस्तकहै 'Garland of Letters' गारलैंड ऑफ लेटर्स-वे  लिखते हैं: "ब्रह्मांडीय सृष्टि  एक प्रारंभिक  कंपन (शाश्वत स्पंदन) से शुरू होती है।]

2. फिर श्री कृष्ण की बालगोपाल-मूर्ति और माँ आद्या शक्ति काली की मूर्ति, वे दोनों ने अपने-अपने वस्त्र नहीं पहने हैं - पूर्णता में नग्न हैं। गोपालजी के हाथ में लड्डू है - जगदम्बा के हाथों में मुण्ड है। ऊर्जा अविनाशिता के नियमानुसार ऊर्जा कभी भी नष्ट नहीं होती है, वरन्‌ एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित होती रहती है। मंत्र उच्चारण से ध्वनि उत्पन्न होती है, उत्पन्न ध्वनि का मंत्र के साथ विशेष प्रभाव होता है। विभिन्न बीज मंत्र इस प्रकार हैं :"ॐ ह्रीं क्लीं र'लये रभेदः"ॐ- परमपिता परमेश्वर की शक्ति का प्रतीक है। ह्रीं- माया बीज,श्रीं- लक्ष्मी बीज,क्रीं- काली बीज,ऐं- सरस्वती बीज,क्लीं- कृष्ण बीज...ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे॥”)

" वगला कूर्म्ममूर्त्तिः स्यान्मीनो धूमावती भवेत् ॥ 

छिन्नमस्ता नृसिंहः स्याद्वराहश्चैव भैरवी । 

सुन्दरी जामदग्न्यः स्याद्बामनो भुवनेश्वरी ॥

 कमला बौद्धरूपा स्यात् मातङ्गी कल्किरूपिणी ।

 स्वयं भगवती काली कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ॥

 स्वयञ्च भगवान् कृष्णः कालीरूपो भवेद्व्रजे ।”

 दुर्गा स्यात् कल्किरूपिणीति पाठान्तरम् । 

[इति मुण्डमालातन्त्रम् ]

माँ वगला ही कूर्म बनी थी, मातंगी कल्कि, कमला बुद्ध बनी थीं , और भगवती काली ही स्वयं ब्रज में भगवान श्री कृष्ण हैं ! फिर, श्री महाभागवत पुराण के अनुसार, माता भद्रकाली भगवान श्रीकृष्ण की कुलदेवी यानी ईष्टदेवी थीं। या माता भद्रकाली ही कृष्ण के रूप में अवतरित हुए हैं। [देवभूमि उत्तराखंड में अल्मोड़ा के बागेश्वर की कमस्यार घाटी में स्थित माता भद्रकाली का परम पावन दरबार सदियों से अस्था व भक्ति का केन्द्र है।] उसी प्रकार माँ तारा भगवान राम की कुल देवी हैं, माँ सीता का “ता”और भगवान राम का “रा” मिल कर नाम बनता है “तारा"। 

>>>सप्त आचार :  आचार सप्तविध हैं। यथा- वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धान्ताचार और कौलाचार । एक- एक  आचार ही अपने आप में सम्पूर्ण तन्त्र साधना है - साथ ही इसमें हर तरह की साधनायें अंतर्निहित हैं। देवी के प्रति शिव की उक्ति का स्मरण करें -" करि-पादे निमज्जन्ति सर्व प्राणि पदा यथा। कूलधर्मे निमज्जन्ति सर्व धर्मा स्तथा प्रिये। *जिस प्रकार वन में हाथी के विशाल पदचिन्हों में गोष्पद आदि सभी प्राणियों के पदचिन्ह भुला जाते हैं, उसी प्रकार कौल तन्त्र की महापद्धति में सभी धर्मपद्धति सम्मिलित है। साधारण आचार की अपेक्षा वेदाचार, वेदाचार से वैष्णवाचार, वेदाचार से शैवाचार, शैवाचार से दक्षिणाचार, दक्षिणाचार से वामाचार, वामचार से सिद्धान्ताचार और सिद्धान्तचार से कौलाचार श्रेष्ठ होत है। कौलाचार ही आचार की अन्तिम सीमा है, इससे श्रेष्ठ आचार नहीं है  साधक को वेदाचार से आरम्भ करके क्रम से उन्नति की उपलब्धि करनी होती है; एक ही बार में कोई कौलाचार में आगमन नहीं कर सकता है । कौलयोगी की विशेषताओं तथा लक्षणों का वर्णन करते हुए उसे महायोगी बताया गया है। 

‘‘न गुरौसदृशं वस्तु-न देवः शंकरोपम। 

नतु कौला परमो योगे-न विद्या त्रैपुरीसमा। ’’ 

(श्यामारहस्य) 

श्री गुरू के समान कोई मनुष्य नहीं, भगवान शंकर के समान कोई देवता नही, कौलयोग के समान कोई योग नहीं तथा श्री त्रिपुरा के समान कोई महाविद्या ^*१  नहीं है।

प्रश्न - 'कूलधर्म' क्या है ?

उत्तर - कौल ^* के लक्षण दिखाई देते हैं - "अन्तः शाक्ताः, बहिः शैवाः, सभा मध्ये च वैष्णवाः ; नाना रूप धराः कौलाः, विचरन्ति मही तले। " - अन्दर से शक्ति के उपासक, बाहर से शिव के पुजारी, लोगों के सामने 'शुद्ध शाकाहारी' वैष्णव जैसे दिखाई देने वाले, काली की पूजा करने वाले लोग धरती पर तरह-तरह के रूप बदल-बदल कर टहलते रहते हैं। अन्दर से शाक्त, बाहर से शैव, सभा मध्य में वैष्णव इसी प्रकार नाना वेशधारी कौल समस्त पृथ्वी में विचरण करता है । तुमने भी वो कहवत सुनी है न ? - 'बाहर से शैव, हृदय में काली, मुख में हरिनाम !' 

पथिक ने पूछा - महाशय क्या ऐसा (कौल) होना बहुत कठिन नहीं है ? 

प्रेमिक महाराज हँसते हुए बोले - " हाँ , शाक्त होना बहुत कठिन है। एक के बाद दूसरा आचार , सभी की साधना - सभी साधनाओं को अपने में समेटे 'हस्तिभुक्तकपिखवत। इसके भी ऊपर , वह भोगों में आसक्त नहीं होता , लेकिन जो शरीर से 'अशक्त' नहीं हो वही शाक्त है। इसलिए शाक्त होना बहुत कठिन है। पथिक कहता है - तो फिर पुरुष ही सच्चा 'प्रेमी' (true 'lover') हुआ!  

       पथिक ने  पुनः प्रश्न किया - " शाक्त के लिये काली तो ब्रह्ममयी हैं ! फिर 'काली' शब्द से मैं क्या समझूँ ? इस प्रश्न के उत्तर - तर-तर उसको उत्तरोत्तर प्रेमिक का प्रेम मानो उनके कण्ठ में आ गया। वे बोले जैसा कि कहा जाता है -'कूलर बातास' ठंढी हवा।  जो मूर्ति अच्छी लगे उसीका ध्यान करना। परन्तु समझना कि सभी एक हैं।

>>>मेघगर्भ-धारण का विज्ञान (भारतीय जल दर्शन में मेघगर्भ-धारण का विज्ञान) अपने देश में एक विचित्र बात सुनने को मिलती है कि - उर्ध्व नभः संचारी ऊपरी नीहारिका मेघ में सूक्ष्म अंग अंडाकार के साथ कुछ रहता है। समुद्र में अब  भी कई उड़ने वाली मछलियां हैं जो घोर  बादलों वाले तूफानी रातों में उदण्ड या (parabolic) परवलय। .... दिल से सरीसृप के रूप में जल्दी से बोली जाती हैं और ह्रदय  में उतरती हैं। हमलोगों दर्शन के काव्यों में कहीं कहीं मेघों की ध्वनि में बलाकार गर्भ धारण  कहा गया है। मनुष्यसे यह बहुत बड़ी भूल होती है कि वह मिली हुई वस्तु (देह- मन आदि) को तो अपनी मान लेता है, पर जहाँ से वह मिली है उस तरफ उसकी दृष्टि जाती ही नहीं ! वह मिली हुई वस्तु को तो देखता है, पर देने वाले  को देखता ही नहीं ! कार्य को तो देखता है, पर जिसकी शक्ति से कार्य हुआ, उस कारण को देखता ही नहीं ! वास्तव में वस्तु (सफलता -विजय) अपनी नहीं है, प्रत्युत देने वाला अपना है । केनोपनिषद्‌में आता है‒ " ब्रह्म ह देवेभ्यो विजिग्ये तस्य ह ब्रह्मणो विजये देवा अमहीयन्त त ऐक्षन्तास्माकमेवायं विजयोऽस्माकमेवायं महिमेति ।" (३ । १)परब्रह्म परमेश्वर ने ही देवताओं के लिये (उनको निमित्त बनाकर) असुरों पर विजय प्राप्त की । परन्तु उस परब्रह्म परमेश्वर की विजय में इन्द्रादि देवताओं ने अपने में महत्त्व का अभिमान कर लिया । वे ऐसा समझने लगे कि यह हमारी ही विजय है और यह हमारी ही महिमा है ।’ देवताओं के इस अभिमान को नष्ट करने के लिये परब्रह्म परमात्मा उनके सामने यक्षरूप से प्रकट हो गये । उसको देखकर देवता लोग आश्रर्यचकित होकर विचार करने लगे कि यह यक्ष कौन है ? उसका परिचय जानने के लिये देवताओं ने अग्निदेव को उसके पास भेजा । यक्ष के पूछने पर अग्निदेव ने कहा कि मैं जातवेदा के नामसे प्रसिद्ध अग्निदेवता हूँ और मैं चाहूँ तो पृथ्वी में जो कुछ है, उस सबको जलाकर भस्म कर सकता हूँ । तब यक्ष ने उसके सामने एक तिनका रख दिया और कहा कि तुम इस तिनके को जला दो । अग्निदेव अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी उस तिनके को नहीं जला सका और लज्जित होकर देवताओं के पास लौट आया।  एवं बोला कि वह यक्ष कौन है‒यह मैं नहीं जान सका । तब देवताओं ने वायुदेव को यक्ष के पास भेजा । यक्ष के पूछने पर वायुदेव ने कहा कि मैं मातरिश्वा के नाम से प्रसिद्ध वायु देवता हूँ और मैं चाहूँ तो पृथ्वी में जो कुछ है, उस सब को उड़ा सकता हूँ । तब यक्ष ने उसके सामने भी एक तिनका रख दिया और कहा कि तुम इस तिनके को उड़ा दो । वायुदेव अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी उस तिनके को नहीं उड़ा सका और लज्जित होकर लौट आया एवं देवताओं से बोला कि वह यक्ष कौन है‒यह मैं नहीं जान सका । तब देवताओं ने इन्द्र को उस यक्ष का परिचय जानने के लिये भेजा ।  परन्तु इन्द्र के वहाँ पहुँचते ही यक्ष अन्तर्धान हो गया और उस जगह हिमाचल कुमारी उमा देवी प्रकट हो गयीं । इन्द्र के पूछनेपर उमा देवी ने कहा कि परब्रह्म परमात्मा ही तुमलोगों का अभिमान दूर करने के लिये यक्षरूप से प्रकट हुए थे । तात्पर्य है कि परमात्मा ही सम्पूर्ण शक्तियोंके मूल हैं । उपनिषदों में आया है‒"परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञान- बलक्रिया च ॥ ( श्वेताश्वतर॰ ६ । ८) ‘इस परमेश्वर की ज्ञान, बल और क्रिया रूप स्वाभाविक दिव्य शक्ति नाना प्रकार की ही सुनी जाती है ।’ साभार http://satcharcha.blogspot.com/2014/02/blog-post_19.html/ ] 

   ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते’ (तैत्तिरीय॰ ३ । १) सर्वेंश्वर सर्वशक्तिमान् परमेश्वर विश्वप्रपंच को किस रीति से बनाता है? क्या मिट्टी घड़ा बनाने वाला कुम्भकार निर्गुण है? यदि वह ज्ञानवान, इच्छावान, क्रियावान् न हो तो मिट्टी से घड़ा नहीं बन सकता। इसी तरह चन्द्रमण्डल, भूमण्डल, गगन, सागर, पर्वत का निर्माण करने वाला परमात्मा ज्ञानवान, इच्छावान क्रियावान हैं।  जब मिट्टी का घड़ा बनाने वाला ज्ञानवान, क्रियावान तो चन्द्रमण्डल, भूमण्डल, गगन, सागर, पर्वत आदि का निर्माण करने वाला परमात्मा ज्ञानवान, इच्छावान, क्रियावान सगुण है, ऐसा ही जानना चाहिये। इसका उत्तर भगवान व्यास ने वेदांत दर्शन में लिखा है- " देवादिवदपि लोके।। (ब्रह्मसूत्र 2.1.25) पर लिखित शंकर भाष्य  में कहा है- तन्तून्सृजति बलाका चान्तरेणैव शुक्रं गर्भं धत्ते पद्मिनी चानपेक्ष्य किंचित्प्रस्थानसाधनं सरोन्तरात्सरोन्तरं प्रतिष्ठते एवं चेतनमपि ब्रह्म अनपेक्ष्यैव बाह्यं साधनं स्वत एव जगत्स्रक्ष्यति। ....  बलाका च स्तनयित्नुरवश्रवणाद्गर्भं धत्ते पद्मिनी। कार्यारम्भे बाह्यं साधनमपेक्षन्ते न देवादयः तथा ब्रह्म चेतनमपि न बाह्यं साधनमपेक्षिष्यत इत्येतावद्वयं देवाद्युदाहरणेन विवक्षामः।" अर्थात देवता, पितर, ऋषिगण चेतन होते हैं। ये संकल्प मात्र से विविध कार्य करने में समर्थ होते हैं। इन्हें बाह्य साधनों की अपेक्षा नहीं होती। इस तथ्य का प्रतिपादन मन्त्र, अर्थवाद, इतिहास, पुराण आदि करते हैं। लोक में भी ऐन्द्रजालिक का दृष्टान्त भी प्रसिद्ध ही है। मकड़ी अपने आप ही तन्तुओं का सृजन करती है। (बलाका या सारस , मादा बगुला, बगली, प्रेयसी, प्रेमिका।) जिस प्रकार बलाका (बगुली) शुक्र (वीर्य) के बिना ही गर्भ धारण करती है। ऐसे ही चेतन ब्रह्म भी बाह्यसाधनों की अपेक्षा के बिना ही जगत का अभिन्ननिर्मित्तोपादान कारण होने में समर्थ है। आमतौर पर कुम्भकार को घड़ा बनाने के लिए दण्ड, चक्र, चीवर आदि चाहिए। ऐसे ही लकड़ी की मेज बनाने वाले बढ़ई  को वसुला चाहिए, लकड़ी चाहिए, सूत चाहिए। लेकिन कहते हैं, 'कल्पवृक्ष' में यह चमत्कार है कि उसके नीचे बैठकर कामना करें तो बिना साधन के जो चाहो सो मिल जाय।  चिन्तामणि में यह चमत्कार है कि जो चाहो सो मिल जाय, कामधेनु में वह चमत्कार है कि जो चाहो वह उससे मिल जाय।  जो साधन कुम्भाकार को चाहिये, जो साधन बढ़ई को चाहिये, जो साधन स्वर्णकार को चाहिए, वैसा कोई साधन कामधेनु को नहीं चाहिए।

            कल्पतरु, कामधेनु और चिन्तामणि से भी अधिक चमत्कार पूर्ण हमारे ऋषि (पूज्य रामभद्राचार्य आदि ) होते हैं, उनमें बहुत चमत्कार है, बहुत शक्ति है।  वे बिना वाह्यसाधन के संकल्प मात्र से अभीष्ट वस्तु प्रदान कर सकते हैं। संकल्प किया और काम सिद्ध हुआ। अनन्त कोई ब्रह्माण्ड नायक भगवान अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण, श्रीश्री माँ सारदा और स्वामी विवेकानन्द   में तो देवताओं से भी अरबों गुना ज्यादा, ऋषियों से भी अरबों गुना ज्यादा अनन्त-अनन्त चमत्कार है।

 [बंगला पेज-४]  मेघदूत काव्य पर मल्लिनाथ की टीका में भी कहा गया है -'गर्भं बलाका दधतेऽभ्रयोगान्नाके निबद्धावलयः समन्तात्। तन्त्रोक्त देवी धूमावती के मत्स्यावतार में 'प्रलय-पयोधि- जले' के केशव ' धृत मीनशरीर '  ही प्रथम अवतारी श्रीभगवान हैं। " सृष्टि-तत्त्व का दूसरा सोपान जल-थल उभयचर 'कूर्म' या कछुआ। 'उर्ध्वे' ..... धरणि- धारण-किण चक्र-गरिष्ठे, या चक्राकार मुकुटधारिणी और 'निम्ने' पाताल -रत्नसिंहासन- स्थिता 'दुर्गम'-नामक दैत्य -संहार कार्य में निरता माँ बगलामुखी मूर्ति।  सृष्टि तत्व का तीसरा सोपान - महाबारह और उसके 'दशन शिखरे धरणी तव लग्ना पृथ्वी; ' वैसे ही माँ भैरवी अपने हाथों में पुस्तक और जपमाला लेकर, जप में निरत दिखाई देती हैं। सृष्टि की चौथी अवस्था में सिंह का मस्तक (anthropoid Lion) यदि काट दिया जाय तो मानवीय शरीर में रहती हैं -माँ छिन्नमस्ता। नीचे रति -कामासन पर, विपरीत रति मे आसक्त काम और रति के ऊपर खड़ी है। खड़ी हैं, माँ एक मैथुन करते हुए जोड़े के ऊपर खड़ी हैं। यहाँ तक तन्त्र में निहित सृष्टि -रचना के रहस्य को देव-देवी की सौम्य मूर्तियों  के माध्यम से केवल इंगित भर की गयीं हैं। 

4. पुराणों के अनुसार कदम्ब वन में मतङ्ग ऋषि ने कठिन साधना की थी, जिसके फलस्वरूप माँ मातंगी के रूप में अविर्भूत हुई थी। मदशील मतङ्ग नामक असुर - का बाल उसकी विनाशिनी मतंगी के हाथ में और ' कल्कि ' के हाथ में है।  'म्लेच्छ-निवह-निधने कलयसि करवालम्। ' इसके भी परे मातंगी देवी -संगीत की माता है। 

5. यथा हस्ति-पदे लीनं सर्वप्राणि-पदं भवेत्।दर्शनानि च सर्वाणि कुल एव तथा प्रिये।। 'सर्वे पदा हस्तिपदे निमग्ना:'॥ कुलार्णव तन्त्रम्/९३ ॥ इस कहावत के अनुसार जिस तरह हाथी के पैरों में सारे प्राणियों के पैर समा जाते हैं उसी तरह सारे दर्शन भी कुलदर्शन में ही समाहित हो जाते हैं। 

शंकराचार्य यह भी कहते हैं कि शक्ति के पलक बन्द करते ही समस्त ब्रह्माण्ड प्रलय से नष्ट हो जाता है तथा उनके पलक खोलते ही ब्रह्माण्ड पुनः अस्तित्व में आ जाता है-‘‘निमेषोन्मेषाभ्यां प्रलयमुदयं याति जगती’’

6.'कुलं कुंडलिनी शक्तिरकुलस्त  महेश्वरः । कुला -कुलस्य तवज्ञः कौल इति अभिधीयते। कौल मार्ग - कुल का अर्थ है कुण्डलिनी शक्ति तथा अकुल का अर्थ है शिव।  जो व्यक्ति योगविद्या के सहारे कुण्डलिनी का उत्थान कर सहस्रार में स्थित ‘शिव’ के साथ संयोग करा देता है, उसे ही ‘कौल’ कहते हैं। पुनश्च - 'न  कुलं कलमित्याहुः कलं ब्रह्म सनातनम। तत कले निरतो यो हि कौल इत्यभिधीयते।  बज उठा । यथा 'कलयित इति काली - लयं करोति इति। काली -लयस्य विलयं करोति इति काली। ' 'कलयति भक्षयति प्रलयकाले सर्वभ् इति काली-जो प्रलयकाल मे संपूर्ण सृष्टि को अपना ग्रास बना लेती है, और फिर लय को भी जो विलय करती है , अर्थात जो पुनः सृष्टि करती हैं , वे ही काली हैं। उस रटन्ती चतुर्दशी की महानिशा में पथिक को सब कुछ कालीमय दिखाई पड़ने लगा । प्रेमिक महाराज की व्याख्या चलने लगी - 'कलयति',  शुभ-अशुभ की वृद्धि और क्षय करने वाली हैं - उन्हीं का नाम काली है। अथवा जो इन्द्रजाल के जैसा माया रचती हैं वे ही काली हैं। 'कलयति ' -क्षययति , जो काल को भी खा लेती है, निगल जाती है -वे काली हैं। काली वह है जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को विलीन कर लेती हैं, और पुनः फिर से प्रकट कर देतीं हैं। शिव (मंगल) युक्ता होने के कारण ही उन्हें भद्रकाली कहते हैं। जो रोगों से हमारी रक्षा करती हैं - उन्हें माँ रक्षाकाली कहा जाता है। श्मशान घाट पर अपने निर्भीक भक्त साधक को जब वे सिद्धि प्रदान करती हैं, तब उन्हें माँ श्मशानकाली कहते हैं। ब्रह्म आदि की भी जो जननी हैं - उन्हें नित्यकाली कहते हैं। कहा गया है - ब्रह्मा विष्णु - शिव आदिनां  यस्याः सृष्टि निजेच्छया। पुनः प्रलीयते यस्यां नित्यः सा प्रकीर्तिता। ' 

      उसके बाद तो मानो , प्रेमिक महाराज ने अपनी बातों से पथिक का जैसे 'मन-हरण' ही कर लिया, अर्थात पथिक के मन पर प्रेमिक का कब्जा हो गया। जैसे उन्होंने कहा, " हमलोग जिस ब्रह्माण्ड में रहते हैं, उसकी रचना करने के बाद बृद्ध ब्रह्मा को एक बार माता का दर्शन करके, उनसे अपनी सृष्टि प्रक्रिया की सारी बताने की इच्छा हुई। इच्छामयी माता ने ब्रह्मा की इच्छा को जानकर उन्होंने व्योमकेश (शिव का एक नाम) को परमव्योम में एक नाद मंदिर ^* का निर्माण करने के लिए कहा।और उसी क्षण व्योम-व्योम [बम-बम] नाद करते हुए परमव्योम में एक विशाल नाद-मंदिर स्थापित हो गया। 

    नाद-मंदिर के भीतर बिन्दुवासिनी ब्रह्म-चैतन्य स्वरूपिणी --चैतन्यं शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निरंजनं। बिन्दुनादकलातीतं तस्मै श्री गुरवे नम:।। जो इस जड़ जगत के कारण-स्वरूप हैं और जो चैतन्य, नित्य, निश्चल आकाश से परे, उपाधिशून्य एवं बिन्दु,नाद और कला से अतीत हैं, उन श्री गुरुदेव को प्रणाम करता हूँ । 'ब्रह्मव्योम्नो रम्भेदाहस्ति चैतन्यं ब्रह्माणाधिकं' - महाकाली ने गुरु के रूप में मूर्त रूप धारण किया। नाद मंदिर में ग्यारह तोरण -द्वार (बड़े भवन, दुर्ग या नगर का वह बाहरी बड़ा द्वार) बनाये गए हैं। प्रत्येक तोरण -द्वार पर एक-एक रूद्र को प्रहरी नियुक्त किया गया। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने प्रहरी से कहा कि जाकर माँ को खबर दो कि ब्रह्मा आपका दर्शन करना चाहते हैं। रूद्रगणों ने मंदिर के भीतर जाकर माँ से पूछकर ब्रह्मा जी को बताया कि माँ ने कहा है - पूछो कि वे किस ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा हैं ? सृष्टिकर्ता ने अपने ब्रह्मा होने के अहंकार में फूलकर कहा - 'अरे प्रहरी, ब्रह्माण्ड भला और कितने हो सकते हैं ? [एक सूर्य के ग्रह, उपग्रह, आदि मिलकर एक ब्रह्माण्ड कहलाता है।'] अरे प्रहरी तुमलोग केवल चौकीदार (watchman) हो, माँ ने मेरे प्रश्न के उत्तर में क्या कहा है , वह तुमलोग क्या समझोगे? तुमलोग पहले मुझे महामाया के पास ले चलो, जब उनसे साक्षात्कार होगा तब मैं स्वयं उनके प्रश्न का उत्तर दूँगा। तब सबसे अंतिम तोरण के रूद्र- प्रहरी ने कहा , 'तथास्तु' - और ब्रह्माजी को ब्रह्ममयी के महल के भीतर ले गया।            नाद-मंदिर के भीतर ब्रह्मा जी ने 'ब्रह्माण्ड-भाण्डोदरी' महाकाली के उस अद्भुत विराट शरीर का दर्शन करने लगे - जिसके 'उदेरे -कुहरे कोटि ब्रह्माण्ड आदि विलीयते।  "दृश्यादृश्य-विभूति-वाहनकरी ब्रह्माण्ड-भाण्डोदरी; लीला-नाटक-सूत्र-खेलनकरी विज्ञान-दीपाङ्कुरी ।..... मातान्नपूर्णेश्वरी ॥ 5 ॥ स्तम्भित -शंकित होकर प्रजापति ब्रह्माजी देखने लगे - महाकाली के अंग-प्रत्यंग के प्रत्येक रोमकूप में एक-एक ब्रह्माण्ड समाया हुआ है। और प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक एक ब्रह्मा क्षुद्र मधुमक्खियों की तरह गुन-गुन ध्वनि करते हुए अपने- अपने ब्रह्माण्ड में विचरण कर रहे हैं। इन ब्रह्माओं में से कोई ब्रह्मा दूसरे ब्रह्मा को नहीं जानते। सभी अपने-अपने सृष्टिकार्य में लगे हुए हैं। तब महामाया के विराट शरीर के किस रोमकूप में   नवागन्तुक (newcomer) ब्रह्मा स्वयं हैं, इसकी खोज करने लगे। बहुत खोज के बाद अंत में, माँ ब्रह्ममयी की कृपा से, ब्रह्मा ने आत्म-साक्षात्कार प्राप्त किया। 

        तब जगतजननी की कृपा (देश-कल -निमित्त का अतिक्रमण के बाद की अवस्था) का स्मरण करके ब्रह्माजी भरे कण्ठ से महाशक्ति की स्तुति करने लगे - " माँ ! माँ ! हे माँ ! क्षमा करो, क्षमा करो माँ ! क्षमा करो अपराध, शरण माँ आया हूँ ! बालकपन खेलों में गवायाँ, यौवन विषयों में भरमाया, बुढापन कुछ काम न आया, जीवन सफल बनाओ, शरण माँ आया हूँ ! Don't blame the child, mother! मैं तुम्हारा प्रिय पुत्र हूँ, मेरे दोष, मेरे अपराध को अनदेखा कर दो ! निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम् ॥ 5॥ उत्क्षेपणं गर्भगतस्य पादयोः किं कल्पते मातुरधोक्षजागसे ।(श्रीमद्भागवत १० /१४/ ९-१०-११-१२ ) वृत्तियों की पकड़ में न आने वाले जगतजननी  ! जब बच्चा माता के पेट में रहता है, तब अज्ञानवश अपने हाथ-पैर पीटता है; परंतु क्या माता उसे अपराध समझती है या उसके लिये वह कोई अपराध होता है ? ‘है’ और ‘नहीं है’—इन शब्दोंसे कही जानेवाली कोई भी वस्तु ऐसी है क्या, जो आपके भीतर न हो ॥ मैं ब्रह्मा कहलाने के बाद भी माँ जगतजननी मैं तुम्हारे ही गर्भ में पड़ा एक- शक्तिहीन असहाय बच्चा हूँ। “ब्रह्माणी कुरुते सृष्टि न तु ब्रह्मा कदाचन । अतत्रव महेशानि ब्रह्मा प्रेतो न संशयः ।। तब शंखचक्र-गदा-पद्मधारी विष्णु जी आकर बोले - वैष्णवी कुरुते रक्षां न तु विष्णुः कदाचन । अतत्रव महेशानि विष्णुः प्रेतो न संशयः ।। तब सभी प्रहरी रुद्रदेव हाथ जोड़ कर गाने लगे - " रुद्राणी कुरुते ग्रासं न तु रुद्रः कदाचन । अतत्रव महेशानि रुद्रः प्रेतो न संशयः ।।”   माता च पार्वतीदेवी पितादेवो महेश्वरः । बान्धवा: शिवभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम् ॥ 12 ॥अर्थ-भगवती पार्वती मेरी माता है, भगवान् महेश्वर मेरे पिता हैं। सभी शिवभक्त मेरे बन्धु - बान्धव हैं और तीनों लोक मेरा अपना ही देश है [ यह भावना सदा मेरे मन में बनी रहे||12|| इस प्रकार श्रीमत् शंकराचार्यविरचित श्री अन्नपूर्णा स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ। यहाँ प्रेमीक और पथिक के बीच चलने वाला षड्ज संवाद भी समाप्त हुआ।

      षड़ज के बाद ऋषभ गांधार आदि सुर-सप्तक की चर्चा होने लगी। यहाँ प्रेमिक महाराज की सुर-सिद्धि का परिचय भी प्राप्त होता है। 'मातृ-भक्त बालक' चाहे किसी भी मार्ग से 'आत्मा को देह-मन से पृथक अनुभव करने की साधना' क्यों न कर रहा हो; वह उसी मार्ग से चलते हुए 'मातृ-तत्व' की उपलब्धि कर लेता है। शास्त्रीय संगीत (आधारित काली-कीर्तन) के माध्यम से भी भक्त माँ का स्मरण करते हुए गाता है - सा-माँ ! अर्थात वही माँ (तारा) ! लेकिन माँ को दूर से पुकारना हो तो कहना होगा - 'रे ' -माँ ! माँ का भक्त अपनी माँ को दूर से पुकार रहा है -रे-माँ! बेटे की पुकार सुनकर जैसे ही माँ उसके नजदीक आ जाती हैं, तब आदरपूर्वक माँ को पुकारते हैं -'गो' माँ ! माँ -गा ! उसके ऊपर माँ के चरणकमल पाने की लालच में गाता है - 'माँ-पा, धा-नि' अर्थात श्रीश्रीमाँ के पदकमल का ध्यानी - अर्थात "माँ-पा'ध्यानी" बेटा बनकर उसे उठाना अब उनकी जिम्मेदारी है। जैसे नेति-नेति करते हुए मन का विश्लेषण करने वाला साधक, या  मनःसंयोग का अभ्यास करने वाला (ध्यानी) ध्यान गाढ़ा होने पर समाधि में डूब जाता है , उसी प्रकार माँ के भक्त लिए हमसबों का सुपरिचित सुर-सप्तक 'स-रे-गा-मा-प-धा-नी' एक अद्भुत रूप धारण करता है। प्रेमिक महाराज ने भी उसी प्रकार सप्त सुरों में 'मातृ-अधिष्ठान की उपलब्धि' (माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी 'विराट मैं'-की अनुभूति) की थी और मातृप्रेम की अनुभूति से उन्मत्त (मतवाले) होकर उनके 'काली-कीर्तन' के स्तोत्रों की रचना की।


साहित्य गुरु ईश्वरचंद्र विद्यासागर इस काली -कीर्तन को सुनकर आश्चर्य-चकित हो गए थे। और बंगाल के धर्मवीर, अद्भुत वक्ता, भारत के राष्ट्रीय युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द तो आनन्द से उछल ही पड़ते थे। 
उस 'मातृ-साधक' (माँ का खोजी बालक) से पथिक ने पुनः प्रश्न किया - " माँ के युगलचरण महाकाल के ऊपर क्यों स्थापित हुए थे ? महाकाल क्या हैं? 
उत्तर - देखो काल (समय) कितनी तेजी से बीत रहा है। पल को क्षण खा रहा है, क्षण को मिनट खा रहा है, मिनट को घंटा खा रहा है , घंटे को दिन खा रहा है, दिन को पक्ष खा रहा है, पक्ष को महीना खा रहा है। महीने को ऋतू खा रहे हैं। ऋतू को संवतसर खा जाता है। संवतसर को युग खा लेता है। युग को कल्प ग्रास करता है। इन्हीं कल्प-ग्रासी जगत के आधार महाकाल को आसन बनकर देवी कालिका खड़ी हैं। अर्थात वे महाकाल से परे महाकाली हैं। इस प्रकार काली -कल्पना में काल-लुप्त होने के साथ-साथ स्थान भी लुप्त हो जाता है। इसीलिए लाल जिह्वा से काली स्थान को पी रही हैं।  
प्रश्न - फिर माँ काली के त्रिनयन क्या हैं ? 
उत्तर - वह भी काल का नियामक है। रामप्रसाद ने अपने गाने में इसे क्या कहा है -सुनो। -सप्तहेति सप्तपेति सप्तविंशपति -नयना  [सप्तविंशति = सत्ताइस की संख्या या अंक ।सप्तविंशति -नयना  (श्रीः सप्तविंशति रहस्यम्) सप्तविंशति रहस्यम्’ में तीन बटुक भैरवों के नाम तथा मंत्रों का वर्णन मिलता है। इनके नाम है-स्कंद, चित्र तथा विरंचि । ‘रूद्रयामल तंत्र’ में चैसठ भैरवों का वर्णन है, जबकि काली आदि दश महाविद्याओं के पृथक्-पृथक् दस भैरव है।]  
इसका अर्थ क्या हुआ ? 
इसका तात्पर्य अग्नि से समझना होगा, 'सप्तहेति' -अग्नि: परिभाषा - पुराणों में वर्णित अग्निदेव की जिह्वा जो सात मानी गई हैं। वाक्य में प्रयोग - काली ,कराली ,मनोजवा, लोहिता, धूम्रपर्णा, स्फुलिंगिनी और विश्वरूपी ये सात अग्नि-जिह्वाएँ हैं । सात प्रकार की अग्नि काली के एक नयन में जल रही हैं। जातक के शिशु-सदन या दाई -घर में जो अग्नि रक्षा करती है, वही अग्नि उसके अंतिम समय में उसके शरीर का दहन करेगी -[ऐसे प्रथा पहले थी। ] इसका तात्पर्य यह हुआ कि अग्नि जातक मनुष्य के जन्मकुण्डली में उसके जीवन प्रत्याशा (life expectancy) परिमापक है।
'सप्तपेति' - 'सप्तसप्ति अर्थात  जिसके रथ में सात घोड़े हों' का अपभ्रंश है = 'सूर्य' जो कि माँ की एक और आंख है- जो दिन और रात की नियामक है। 'सप्तविंश' (तारा) 'पति' = चन्द्र, तिथि प्रमाता। - यह देवी के त्रिनेत्रों में एक नेत्र है। तीन नेत्रों से काली काल के ऊपर शासन करती हैं।   {चंद्रमा की गति के अनुसार हिन्दू पंचांग के महीने नियमित होते हैं,  और चंद्रमा की गति के अनुसार 29.5 दिन का एक चंद्रमास होता है। हिन्दू सौर-चंद्र-नक्षत्र पंचांग के अनुसार माह के 30 दिन को चन्द्र कला के आधार पर 15-15 दिन के 2 पक्षों में बांटा गया है- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। शुक्ल पक्ष के अंतिम दिन को पूर्णिमा कहते हैं और कृष्ण पक्ष के अंतिम दिन को अमावस्या। पंचांग के अनुसार पूर्णिमा माह की 15वीं और शुक्ल पक्ष की अंतिम तिथि है।  जिस दिन चन्द्रमा आकाश में पूर्ण रूप से दिखाई देता है। पंचांग के अनुसार अमावस्या माह की 30वीं और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि है जिस दिन चन्द्रमा आकाश में दिखाई नहीं देता है।}
        पथिक फिर गाने की आड़ लेकर सवाल पूछता है- 'जखन ब्रह्माण्ड छिलो ना माँ'गो ! मुण्डमाला कोथाय पेली ? ' - अर्थात माँ ! जब ब्रह्माण्ड ही नहीं था, तब तुमको यह मुण्डमाला कहाँ से  मिल गया ?    
 उत्तर- जब ब्रह्माण्ड नहीं था , तब भी आकाश तो था ही। [^* ब्रह्ममयी का एक और नाम है - 'पराकाशा' -यस्य सा परमा देवी शक्तिराकाशसंस्थिता ।( ३१.३६कूर्मपुराणम्-उत्तरभागः/एकत्रिंशत्तमोऽध्यायः) आकाशस्य 'शब्दगुणं विदुः' [आकाशं जायते तस्मात् तस्य शब्दगुणं विदुः । इति मनुः। आकाश का गुण-धर्म शब्द है। शब्द के दो प्रकार हैं - ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक। ध्वनि और वर्ण।  वर्ण पचास हैं। जो अक्षय होने से अक्षर हैं।           
1. देश और काल (Space and time) मन (कल्पना) के उपकरण हैं। जिसके माध्यम से बाह्यजगत का ज्ञान होता है। इस जगत में जो कुछ भी है , वह मन के इन्हीं दो उपकरणों के माध्यम से विखंडित होकर हमें दृष्टिगोचर होते हैं। 
यदा यात्युन्मनीभावस्तदा तत्परमं पदम्। 
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र परं पदम् ॥ 
जब उन्मनी भाव प्राप्त हो जाता है, तभी परम पद प्राप्त होता है। उस अवस्था में जहाँ-जहाँ मन जाता है, वहीं-वहीं परम पद है॥ (पैंगलोपनिषद चतुर्थोऽध्यायः श्लोक 27) 

देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः।।

अर्थात् देहाभिमान (जडके साथ मैं-पन) सर्वथा मिट जानेपर जब परमात्मतत्त्वका बोध हो जाता है, तब जहाँ-जहाँ मन जाता है, वहाँ-वहाँ परमात्मतत्त्वका अनुभव होता है अर्थात् उसकी अखण्ड समाधि (सहज समाधि) रहती है।

  देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र परामृतम् ॥ ३१॥

विवेक-सम्पन्न दृष्टि हो जाने पर मिथ्या देहाध्यास (स्त्री-पुरुष शरीर में) 'मैं'-पन का मिथ्या अहं चला जाता है, और पूर्ण का साक्षात्कार होते ही यह अनुभव हो जाता है, कि मैं भी पूर्ण हूँ, क्योंकि अखण्ड चैतन्य का खण्ड नहीं हो सकता। शरीर को ही मैं समझना तो केवल भ्रम है, जैसे रज्जु में सर्प का भ्रम हो जाता है।  भ्रम से ही कोई पराया दीखता है, अपने से भिन्न दीखता है, इसी भ्रम से भय होता है।
🔱🙏पश्चिम में समय (काल) और ब्रह्मांड (देश)  की उत्पत्ति के बारे में मौलिक चिंतन जर्मन दार्शनिक इमानुएल कांट (Immanuel Kant, 1724-1804) के दर्शन में प्राप्त होता है।  विशेषकर क्या ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई? अथवा यह हमेशा ऐसा ही था? इमानुएल कांट के लिए यह विवेचना का विषय था। उसको लगता कि समय (काल -मृत्यु) के प्रति लोगों के मन में समाया डर अनेक नैतिक समस्याएं खड़ी कर देता है।  मृत्यु से भयभीत मनुष्य दूसरों को भूलकर केवल अपने स्वार्थ की  चिंता करने लगता है। यदि यह माना जाए कि किसी बिंदू पर   ब्रह्मांड की शुरुआत हुई तो फिर कर्ता ने शुरुआत के लिए अनंतकाल तक प्रतीक्षा क्यों की? इसको Big Bang कहें या कुछ और, वर्तमान अवस्था तक आने में इतना लंबा समय क्यों लिया? कांट इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि - " दिखाई देने वाली बाहरी दुनिया मानसिक स्थान और समय के अमूर्त रूप में विलीन हो जाती है। मन के उपकरण देश और काल का अतिक्रमण करने पर मनोमोक्ष प्राप्त होता हैं। " कांट को नैतिकता मानव की आत्मा में दिखती है न की किसी वस्तु विशेष में। केवल आध्यात्मिक जगत ही सत्य है। इससे परे तथा इसके पश्चात और कुछ नहीं है। देश और काल वे चश्मे हैं जिनको लगाकर ही हम वस्तुओं या घटनाओं को देख सकते हैं। हमारे व्यावहारिक जगत का दिक काल से संयुक्त होना अनिवार्य है। परंतु परमार्थ तक देश और काल की गति नहीं है। देश (अंतरिक्ष) और समय (काल) से परे उस नित्य-काली की खोज मनोमोक्ष का मार्ग है।
2. ब्रह्ममयी का एक नाम 'प्राकाश' भी है ! 'यस्य सा परमा देवी शक्ति आकाश स्थिता। करणे (आकाशस्य)  'शब्द गुणं विदुः। मनु का अर्थ होता है- 'मनुते इति मनुः' |जो भगवान् के नाम, रूप, लीला, धाम का मनन करता है उसे मनु कहते हैं। (मुण्डमाला के पचास मुण्ड पचास मातृकावर्णो को धारण करने के कारण शब्दब्रह्म स्वरुपा है। उस शब्द गुण से रजोगुण का टपकना अर्थात सृष्टि का उत्पन्न होना ही, रक्तस्राव है।) अक्षर-माला ही माँ की मुण्डमाला है। ‘अ’ से लेकर ‘क्ष’ तक की वर्ण-माला का ही सांकेतिक नाम ‘मातृका’ है । इसका प्रत्येक अक्षर एक एक मंत्र है, जिसे मंत्र-मातृका कहा जाता है। अक्षर ही क्यों, जितनी भी ध्वनियाँ हैं , वे सब माँ के मंत्र हैं। एक राम प्रसादी गीत में कहा गया है - 'यत शुने वर्णपुट सबइ मायेर मंत्र।
       महाकाली की एक सौ आठ मुंडमालाएं होने की भी कथा हैं। सत्य, त्रेता, द्वापर और  कलि-युग चार युग की संख्या द्वारा निर्देशित 'चतुर्विंशति-तत्व ' [पञ्महाभूत (five great elements), पंचज्ञानॆन्द्रियाणि ( five organs of perception ) पंचकर्मेन्द्रियाणि (five organs of action ) पंच प्राणाः (five pranas ) मनस्, बुद्धि, चित्त, एवं अहंकार (the four thought modifications) की समष्टि द्वारा इस जगत की रचना हुई है। ] सांख्य दर्शन के आचार्य कहते हैं - " पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे वसेत् । जटी मुण्डी शिखी वापि मुच्यते नात्र संशयः ॥" सृष्टि के यह चतुर्विंशति तत्व (24 तत्व) चार युगों में 24/24 को बांटकर 96 हो जाता है। प्रत्येक युग में साक्षी पुरुष हैं और क्रियावती प्रकृति हैं - सबों को जोड़ने 8, और चार युगों के व्यावहारिक सृष्टि रचयिता चतुरानन ब्रह्मा और पातंजलि के मतानुसार ईश्वर - सबों का योग 108 हुआ जो मुण्डमालिनी के चारों युग मिश्रित भाव को सूचित करता है। यहां यह प्रश्न उठता है कि तब क्या देवी ऐसा रूप केवल एक दार्शनिक रूपक मात्र है ? क्या वास्तव में वह उनका स्वरुप नहीं है ?  
        आह-हा! ब्रह्ममयी का स्वरुप? - ' के जाने काली केमन ? षड्दर्शन जार ना पाय दर्शन !' अर्थात " कौन जानता है कि काली कैसी हैं ? षडदर्शन भी उनका दर्शन पाने में असमर्थ हैं। " माँ जगदम्बा का स्वरुप इन चर्म चक्षुओं से अगोचर है, गणित के लिए अगणनीय है, विज्ञान के लिए अविज्ञेय है ! तो फिर हम जैसे साधारण लोगों के लिए उनके दर्शन का उपाय क्या है ? कलौ   'कालीकृपा हि केवलम्!' सर्वत्र भा समा भानोः समा वृष्टिः पयोमुचः। समा कृपा भगवतो दृष्टिः सर्वसत्त्वानुकम्पिनः/सर्वभूतानु कम्पिनी ? ॥ १०॥ [समा सर्वत्र भा भानोः समा वृष्टिः पयोमुचः । समा भगवतो दृष्टिः सर्वसत्त्वानुकम्पिनः ॥ बौद्ध-संस्कृत-ग्रन्थावली-२२/कश्मीरी कवि-क्षेमेन्द्र विरचित अवदान-कल्पलता।७ मुक्तालतावदानम्।]  जगन्माता काली ने सभी जीवों पर कृपा करने के लिए ही मूर्त रूप धारण किया है। "साधकानां हितार्थाय ब्रह्मणो रूप कल्पना। " - अर्थात साधकों के मंगल के लिये रुपातीता ने रूप धारण कर लिया, और निराकार से साकार हो गयीं हैं। श्रीरामपूर्वतापनीय उपनिषद (१/७) में कहा गया है– चिन्मयस्याद्वितीयस्य निष्कलस्याशरीरिण: ।
 उपासकानां कार्यार्थं ब्रह्मणो रूपकल्पना  ।। "ब्रह्म चिन्मय ,अद्वैत,निष्कल और अशरीर है । उपासकों की प्रयोजन-सिद्धि के लिए निर्गुण, निराकार ब्रह्म अपनी माया शक्ति से निज भक्तों के लिये अपनी इच्छा के अनुसार नाना रूप धारण करते हैं। क्योंकि वे पूर्ण स्वतन्त्र हैं। जिन्हें मायाधीश, मायापति आदि नामों से जाना जाता है। यह सृष्टि ब्रह्मानन्द की विलास दशा है। उपासना केवल सगुण ब्रह्म की ही हो सकती है। क्योंकि जब तक द्वैत भाव है तभी तक उपासना सम्भव है। [http://vivek-anjan.blogspot.com/2018/03/blog-post_8.html/ गुरुवार, 8 मार्च 2018] 
 >>>माँ काली के सर्वमान्य विभिन्न रूपों की कल्पना किसने की है ? क्या किसी एक सन्त ने या कुछ विद्वानों ने मिलजुल कर की थी ? नहीं , " ब्रह्मणः (ब्रह्मणो) रूप कल्पना" यहाँ कर्ता को 'षष्ठी' समझना होगा। यानि ब्रह्म ने स्वयं ही अपने रूपों की रचना की है। क्यों की ? 'साधकानां हितार्थाय' - इसमें व्याकरण का थोड़ा भी पाण्डित्य नहीं है। यही इसका वास्तविक अर्थ है। क्योंकि इसी तथ्य को दूसरे ढंग से कहा गया है - ' साधकानां हितार्थाय अरूपा रूप धारिणी।' अरूपा ने स्वयं वैसे रूपों को धारण किया है, किसी एक सन्त ने या कुछ विद्वानों ने मिलजुल कर नहीं किया है।   मृत्यु रूपा 'माँ काली' से भय क्यों ? ' का शंका स्यात् मनीषिणां ?' पूर्ण निःस्वार्थ साधक को शंका कैसी ? ' उपासकानां सिद्धार्थं ' - उपासकों को , अपने भक्तों को सिद्धि प्रदान करने के लिए अरूपा ब्रह्ममयी ने दयाघन माँ सिद्धेश्वरी, माँ अन्नपूर्णा, गोपाल मूर्ति (आन्दुल) का मूर्त रूप स्वीकार किया है। रामप्रसाद पुनः कटाक्ष  करते हैं - 'ब्रह्म का रूप धारण करना क्या केवल खुले दाँतों की हँसी है ?' प्रेमीक महाराज भी स्वरचित काली कीर्तन के एक पद में गाते हैं - ' वो सारा गोलमाल सांख्य और पातंजल के समन्वय से दूर हो गया है।' [अनुग्रहाय भूतानां गृहीत दिव्य विग्रहे! भक्तस्य मे नित्य पूजा युक्तस्य परमेश्वरि || किङ्किणी स्तोत्रं, ५ |) 
पथिक - काली रूप में उनके चरणों को छूते हुए जो काले घुंघराले लम्बे  बाल दिखाई देते हैं , आप उसकी व्याख्या कैसे करेंगे?  
प्रेमीक - इसकी व्याख्या क्या मैं कर सकता हूँ ? किसी भक्त से मैंने इस विषय पर एक सुन्दर उद्धरण सुना था।  व्योम-दिगन्त-व्यापिनी मुक्तवेणी , उनके चरणों को क्यों छू रही है ? उत्तर में उस कालीभक्त भक्त ने कहा था  -वे उस घटना की प्रतीक हैं जब तैंतीस करोड़ देवता आकर उनके चरणों में गिरकर उनका वन्दन करने लगे -देववृन्द शिरोरत्न निघृष्ट चारणाम्बुजे ! तब उनके सिर के बालों ने सोचा- हम क्यों पीछे रहें? और वे माँ के चरणों को छूकर खुशी से उछल-उछल कर आनन्द में झूमने लगे। माँ के भक्त लोगों को माँ के सगुन-साकार रूप की ऐसी अनुभूति होती है, यहाँ तर्क का कोई स्थान नहीं है।   

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[2]

प्रेमिक पथिक संवाद 

🔱🙏" रटन्ति निशा- भ्रमन "-2 🔱🙏

(आचार्य श्रीशचंद्र मुखोपाध्याय) 

      लेकिन शिव -शक्ति तत्व को लेकर तर्क उठता है। अद्वैतवाद-प्रधान शक्ति-तंत्र में शिव-शक्ति को अभिन्न माना गया है। शिव की भी शक्ति नहीं हैं, शिव एवं शक्ति अलग-अलग नहीं हैं -वहाँ द्वन्द्व या दो की सत्ता नहीं है -जो शिव हैं वे ही शक्ति हैं। रामेश्वर धाम की पवित्र कथा का स्मरण कीजिये। श्री राम ने सेतुबंध में 'रामेश्वर' शिवलिंग की स्थापना की और पूजा करते समय उन्होंने 'राम के ईश्वर ' कहकर जैसे ही शिव की स्तुति करने लगे- "रामस्य ईश्वर: स: रामेश्वर:" >मतलब जो श्री राम के ईश्वर हैं वही रामेश्वर हैं। उसी समय शिव पत्थल से प्रकट होकर बोले - ' नहीं, मैं राम का ईश्वर 'रामेश्वर' नहीं हूँ। बल्कि 'राम ही जिसके ईश्वर हैं ' "राम ईश्वरो यस्य सः रामेश्वरः" - यानि श्री राम जिसके ईश्वर हैं वही 'रामेश्वर' हैं। इस अर्थ में मैंने अपना नाम 'रामेश्वर' स्वीकार किया है। 

      यहाँ राम का षष्ठि तत्पुरुष समास होगा, या शिव का बहुब्रीहि समास कहना ठीक होगा ? आदि व्याकरण के रचयिता, शिव-सूत्र जाल के जालिक स्वयं नटराज का ताण्डव नृत्य था, इसलिए श्रीराम शिव के तर्क से बाहर नहीं निकल पा रहे थे। तब इस 'समास-कूट' को हल करने के लिए ब्रह्मलोक से ब्रह्माजी को आना पड़ा। ब्रह्माजी ने आकर कहा - " यहाँ षष्ठी तत्पुरुष समास नहीं चलेगा , और बहुब्रीहि समास भी नहीं चलेगा। यहाँ कर्मधारय समास का प्रयोग करना ही ठीक होगा। - रामेश्वर का सही अर्थ मैं करता हूँ- "रामश्चासौ ईश्वरश्च, रामेश्वरः" जो राम हैं वो ईश्वर है, जो ईश्वर है वो शंकर है, नाम भिन्न है लेकिन है तो एक ही, राम ही कृष्ण हैं, कृष्ण ही नारायण् है और वही शिव हैं।" -- तो यहाँ शिव-शक्ति तत्व में भी - वे (ब्रह्म) जो 'शिव' है, वही 'शक्ति' भी हैं , अद्वय, दोनों में कोई अंतर नहीं दोनों अभिन्न हैं जैसे - 'चंद्रचंद्रिका'! (जैसे अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति,दूध और उसकी धवलता, अभिन्न है!) उदाहरण के लिये छोला का चना में दो दल (दाल) एक साथ जुड़े हुए हैं, किन्तु स्पष्तः एक ही चना है; उसी प्रकार 'शिव' और 'शिवा' प्रधान रूप से एक ही तत्व हैं, और स्पष्ट रूप से कहें तो दो रूप में प्रतीत होते हैं। अधिक सूक्ष्म रूप से कहें तो 'कुण्डलीकृत सर्प' हो या 'चलता हुआ सर्प' हो -दोनों में सर्प एक ही रहता है। प्रेमिक जी ने हँसते हुए पुनः कहा - देखो अन्त में साँप निकल ही आया ! देखो, रात्रि में ऐसी साधना करते समय जल्दीबाजी नहीं करनी चाहिए।  

     पथिक ने पूछा - " नहीं, इस बार आनुष्ठानिक कर्मकाण्ड को लेकर कुछ प्रश्न हैं।  काली पूजा में, हम देवी-मूर्ति को दक्षिण-मुखी देखते हैं, और उपासक उत्तरमुखी होकर उपासना करते हैं। क्या उत्तर-दक्षिण दिशा में कोई विशेष बात है, जो पूर्व-पश्चिम में नहीं मिलती? " 

उत्तर - 'उपासना ' का अर्थ है निकट आना, सानिध्य। उत्तर-दक्षिण दिशा में पूज्य और पूजक के बीच फासला या अन्तराल अपेक्षाकृत छोटा ^* तो होगा ही। 

पथिक - 'होगा ही' ! यह कैसी बात है महाशय। 

प्रेमीक - यही तो असली बात है! अन्य बातों से क्या काम है?  

[^* मानलो कि 20 हाथ लंबा बाँस 'पूरब-पश्चिम' दिशा में लम्बा करके सुलाया हुआ है। बांस को उठाकर उत्तर-दक्षिण दिशा में जमीन पर रखने से वह थोड़ा छोटा हो जायेगा। गज (yardstick) को भी उत्तर-दक्षिण दिशा में लम्बा करें तो वह तुरंत ही नगण्य सा छोटा हो जायेगा , इसीलिए बाँस की वह कमी दिखाई नहीं पड़ती है। इस लेख को पढ़ने वाले विज्ञान के छात्र इसे ठीक से समझ पाएंगे। ]  

पथिक अवाक् हो गए।  उसने देखा - और कोई बात कहने से भी बात नहीं बनेगी, तब बोले ओह! माँ को दक्षिण की ओर मुख करके रखा जाता है, इसीलिए उनका नाम दक्षिणकाली है ? 

प्रेमीक - नहीं! दक्षिणकाली नाम केवल इसी कारण से नहीं है। गौर कीजिए कि आम महिला का बायां पैर पहले गिरता है- क्योंकि वे वामा हैं ना ? माँ काली की प्रतिमा में देखें कि उनका दाहिना पैर बायें पैर से कुछ आगे स्थापित हैं। तात्पर्य यही कि  वे कोई साधारण नारी नहीं हैं। दक्षिणाग्र- चरणा माँ काली, असाधरण नारी नृत्यमाना महानारी -मूर्ति। जिनके नाम से दक्षिण दिशा के स्वामी यम - हैं, वे भी सभा से चले जाते हैं। दक्षिण दिक् भयहारिणी होने के कारण ही माँ को दक्षिणाकाली कहते हैं। फिर शिव या महाकाल को वशीभूत करने या प्रकट करने और लीन करने में दक्षिणा या कुशला हैं , इसीलिए नाम हुआ दक्षिणकाली। ^* निर्गुणः पुरुषः काल्या सृज्यते लुप्यते यतः।अतः सा दक्षिणाकाली त्रिषु लोकेषु गीयते ।। ~ निर्वाण तंत्र।  पुरुष: (महाकाल) जो गुणों से परे हैं, उन्हें भी काली रचती और नष्ट करती हैं। इस असम्भव कार्य को सिद्ध करने में कुशल होने के कारण ये तीनों लोकों में दक्षिणाकाली के नाम से विख्यात हैं। [The Puruṣaḥ (Māhākāla) beyond attributes is created and destroyed by Kālī. Being skilled in accomplishing this impossible feat, She is known as Dakṣiṇākālī in the three worlds.~ Nirvana Tantra /कालिका सृजन करती है, कालिका पालन करती है, कालिका विनाश भी करती है। उसके सामने किसी का अस्तित्व नहीं है, वह देवत्व की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है - विश्व का मूल स्रोत एक ही है पर वह सृष्टि -निर्माण के लिये २ रूपों में बंट जाता है, चेतन तत्त्व पुरुष है,पदार्थ रूप श्री या शक्ति है। शक्ति माता है अतः पदार्थ को मातृ (matter) कहते हैं।सभी राष्ट्रीय पर्वों की तरह यह पूरे समाज के लियेहै पर क्षत्रियों के लिये मुख्य है, जो समाज का क्षत से त्राण करते हैं-

एकैवाहम् जगत्यत्र द्वितीया का मामापरा।

पश्यैता दुष्ट मय्येव विशन्त्यो मद्विभूतयः ।।

अहमेवास्मि सकलं मदन्यो नास्ति कश्चन । 

There is no one in this universe except me. I am only present in different forms. I am everything that exists. Nothing except me exists.] 

थोड़ा और ध्यान दें कि दक्षिणकाली मूर्ति में पुरुष-हाथों की कमरधनी (नर-कर-श्रृंखला) है उसमें केवल दाहिने हाथ की ही पंक्ति है। मूर्ति बनवाते समय शिल्पकार को यह बात बता देनी चाहिए, ताकि भूल न हो। 

पथिक - अद्भुत हैं आपके शब्द ! 

प्रेमीक - लेकिन तंत्र को परियों की कहानी (fairy tale) मत समझो। हजारों-हजारों वीर साधकों ने इस दक्षिणकाली-साधना में अपने हृदय के सर्वस्वधन यहाँ तक कि अपने प्राणों को भी अर्पित कर दिया है।   

पथिक - इस बार, आखिरी बार - एक बार और मैं सरल शब्दों में, काली-कृष्ण के अभेद तत्व को सुनना चाहता हूँ। लेकिन वह 'कुण्डलीकृत सर्प' जैसा न हो !

प्रेमिक महाराज , थोड़ा मुस्कुराकर फिर उसे उपाख्यानों में समझाने लगे। " कलौ काली कलौ कृष्णः कलौ गोपालकालिका। "

देवी पुराण के अनुसार ऐसा माना जाता है कि कृष्ण, विष्णु के नहीं बल्कि माँ काली के अवतार थे।  ब्रह्म और शक्ति अभेद हैं; इसिलये कहा गया है काली के साथ कृष्ण (अवतार तत्व) को भी समझें। " कलिकाल (कलयुग) में काली हैं, कलिकाल में गोपाल हैं, और फिर कलिकाल में अर्थात कलयुग में गोपाल-काली दोनों अभिन्न भी हैं!

   ऐसा माना जाता है कि माँ काली ही कलियुग की प्रधान देवी है 'कालिका मोक्षदा देवि कलौ शीघ्र फलप्रदायिनी' जो भक्तों को शीघ्र फल प्रदान करती हैं। माँ ममता की मूरत है। उनकी साधना करने वाले के लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं रह जाता है। काली माता का ध्यान करने से उनके मन में सुरक्षा का भाव आता है। उनकी अर्चना और स्मरण से बडे से बडा संकट भी टल जाता है। अतः मनुष्यमात्र को यदि अपना आत्मकल्याण करना हो अर्थात् मोक्ष प्राप्त करना हो (-अर्थात मैं सिंह नहीं भेंड़ हूँ के भ्रम से मुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड हो) तो अवश्य ही माँ भगवती की आराधना करें। इतना तो निश्चित है जो भगवती के शरण में जाता है, उसे माँ अवश्य अपनाती है। 

 उन्होंने कहा -" कृष्णनगर के जो राजा थे, उनके राज्य में एक धार्मिक परिवार रहता था जिसमे दो भाई रहते थे और दोनों ही बड़े भले थे। वे दोनों भाई ईश्वर के बड़े भक्त थे और अपने-अपने इष्टदेव की पूजा अपने-अपने मन्दिरों में किया करते थे। किन्तु उनमे से बड़ा भाई शाक्त था , और छोटा भाई वैष्णव था। पहले के ज़माने में जिस शैली में घर बनाये जाते थे, प्रवेश द्वार से घुसते ही बीच में आँगन था जिसके ओर जिसके एक ओर एक भाई का पूजा -घर, दूसरी ओर दूसरे भाई का पूजा -घर था। बड़े भाई के पूजा-घर में माँ काली प्रतिष्ठित थीं, और छोटे भाई के पूजा-घर में गोपाल प्रतिष्ठित थे। 

उनके आँगन में एक आम का गाँछ उग आया, फिर वह थोड़ा बड़ा हो गया उसमे ढेर सारे मंजर भी लगे| किन्तु उसमे आम का टिकोला एक ही लग पाया ! धीरे वह आम बड़ा होने लगा| प्रतिदिन सुबह-सुबह उठ कर दोनों भाई अलग अलग से देखा करते कि आम कितना बड़ा हुआ है? बड़े भाई सोंच रहे हैं- जैसे ही आम और थोड़ा बड़ा हो जायेगा, थोड़ा सा पकते ही इसे तोड़ कर माँ को दूंगा ! और छोटा भाई सोचता है- यह आम जैसे ही थोड़ा और बड़ा होकर पकना शुरू करेगा मैं इसे तोड़ कर गोपाल को दूंगा !  रोज प्रातः काल उठते ही दोनों कि नजर आम पर ही रहती थी। दिन पर दिन बीत रहे थे किन्तु आम अभी तक कच्चा ही था। उस समय एक ऐसा विशेष कार्य सामने आ गया कि यदि दोनों भाई बिजनेस-टूर पर अगर एक साथ परदेश नहीं गए, तो गाँव-घर का मामला ही बिगड़ जायेगा।

      प्रात:काल ही दोनों अपने-अपने इष्ट-देवी (काली) और इष्ट-देव (कृष्ण) को अपनी-अपनी मनोकामना बताकर परदेश यात्रा पर निकल पड़े। परदेश के व्यापार कार्य में एक पक्ष व्यतीत हो गया। व्यापार काम में सफल होकर दोनों भाईयों ने हाँफते हुए घर में प्रवेश किया। परन्तु अँगने में जाकर देखा तो गाँछ पर वह आम था ही नहीं ! बड़े भाई अपने घर में जाकर अपनी धर्मपत्नी से  कहा कि,  " मेरी बड़ी इच्छा थी कि आंगन में जो अकेला आम ऊगा था उसको माँ काली को अर्पित करूँगा। लेकिन मैं कितना अभागा हूँ , कि वैसा कर न सका ! " गृहणी ने हँसते हुए कहा, " तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हो गयी है। कल शाम के समय मैंने देखा कि आम अच्छी तरह से पक गया है; तब मैंने ब्राह्मण -पड़ोसी के लड़के बुलवाकर आम तुड़वा लिया। पहले पूजा-घर में जाकर देखो तो सही , माँ काली के सम्मुख आम निवेदित किया हुआ है।" पति ने उत्साह से भर कर कहा - वाह !  तुम सचमुच मेरी सहधर्मिणी हो - सतिसाध्वी हो ! तुम मेरे मन की बात भी जान जाती हो ! अपने पूजा-घर में जाकर देखते हैं कि माँ काली के वराभय वाले हाथ में वही आम सुशोभित हो रहा है !

इधर छोटे भाई अपने घर में पहुँचकर अपनी स्त्री के मुँह से सुनते हैं कि पडोसी ब्राह्मण के लड़के से आम को बालक-गोपाल को निवेदित किया जा चुका है। तब पतीने उत्साह से भरकर अपनी स्त्री से कहा, इसीको कहते हैं सहधर्मिणी ! तुम अपने पति के मन की बात को भी जान जाती हो। तब उल्लास से भरकर पूजाघर में जाकर देखा तो , उनके लड्डूगोपाल के हाथ में लड्डू की ही तरह आम भी सुशोभित है ! आनन्द से अधीर होकर अपने बड़ेभाई के कमरे में गए और पूरी घटना विस्तार से बता दिए। बड़े भाई आश्चर्य से भरकर बोले - ऐसे कैसे हो सकता है ! मैं तो अभी अभी अपने पूजा-घर से लौटा हूँ। माँ काली के हाथ में वही आम सुशोभित हो रहा था। " छोटा भाई बोला - नहीं भैया ! मैं कुछ ही क्षणों पहले वही आम लड्डूगोपाल के हाथ में देखकर तुमको बताने आया हूँ। तब दोनों भाई अत्यन्त विस्मित होकर एक साथ दुबारा पूजाघर में सत्य-असत्य जानने के लिए प्रवेश किये। दोनों ही ईश्वर भक्त हैं ! और ईश्वर तो भक्तवांछा-कल्पतरु हैं,अपने सभी भक्तों की अलग अलग रूप में  की गयी मनोकामना को भी पूर्ण कर देते हैं। यहाँ दो ईश्वर-भक्त एक साथ मिलकर आ रहे हैं। धड़कते दिल से सोंच रहे हैं - क्या होगा ?  अब क्या होगा ? तब जो नहीं होना था, अनहोनी था , वही घटित होता है ! दोनों भाई एक साथ पूजाघर में जाकर देखते हैं कि - " उलंग काली -कोले, उलंग गोपाल दोले !" कृष्ण-माता कात्यायनी बालगोपाल को गोद में लेकर अपने वर वाले हाथ से बालगोपाल के मुख में आम ^* खिला रही हैं।               

[^* यह आश्चर्यजनक घटना नवद्वीप में कृष्णानन्द अगमवागीश के गाँव में घटित हुई थी यह लोकप्रसिद्ध है। बड़ेभाई कृष्णानन्द शाक्त थे और छोटे भाई माधवानन्द वैष्णव थे। दोनों भाई का देवद्वन्द के समय उपाय रूप में 'नवद्वीप महिमा' कहकर वर्णित है। [सच चाहे जो कुछ भी क्यों न हो, परन्तु इस कथा का उल्लेख वे अक्सर किया करते थे। एक दिन मेरे पितामह उनके बड़े भाई से आपसी वार्तालाप के क्रम में कहते हैं -" कलौ काली कलौ कृष्णः कलौ गोपालकालिका। " - कलिकाल (कलयुग) में काली हैं, कलिकाल में गोपाल हैं, और फिर कलिकाल में अर्थात कलयुग में गोपाल-काली दोनों अभिन्न भी हैं! पितामह के अग्रज (श्रीयतीशचन्द्र मुखोपाध्याय) भी वैसे ही थे, वे भी संस्कृत के विद्वान् पण्डित थे- उनको ' विद्यार्नव ' की उपाधि मिली हुई थी। तो पितामह के श्लोक को सुन कर उनके बड़े भाई कहते हैं, गोपाल और काली तो दो अलग अलग सत्ता हैं, इसलिये यहाँ 'गोपालकालीका' कहना व्याकरण की दृष्टि से उचित नहीं लगता।  यहाँ द्विवचन लगेगा अतः 'गोपालकालिके' कहना उचित होगा।  इसपर छोटे भाई बोले, 'ना, ता हबे ना, दादा; गोपाल आर काली एखाने तो आलादा नन, काजेई द्विवचन ना हये एकवचनई भाल।' - अर्थात नहीं, भैया वैसा नहीं होगा; क्योंकि यहाँ पर गोपाल और काली तो भिन्न नहीं हैं, इसीलिये द्विवचन न होकर एकवचन लगाना ही ठीक होगा |"..... माँ काली का नाम विध्वंश का पर्याय है,किन्तु माँ काली की पूजन विधि बहुत सरल और आसान है। माँ काली बहुत थोड़े फलों और साधारण भोग चढ़ाने से ही सन्तुष्ट हो जाती हैं। मा काली को संतुष्ट करने के लिए छप्पन भोग पकाने की आवश्यकता नहीं होती। कुछ लोग तो माँ काली को भोग के रूप में 'सोमरस' या शुद्ध देसी शराब भी चढ़ाते हैं। (विशाखापत्तनम में एक ऐसा मन्दिर है जहाँ देवी केवल शुद्ध देशी शराब ही चढ़या जाता है।) मानवजाति के महान मार्गदर्शक नेता (The great spiritual leader) आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने एक बार कहा था -'माँ काली तो मानवमात्र की देवी हैं, क्योंकि जो कुछ मानव खाते हैं, वे वह सब कुछ खाती हैं।' शायद यही कारण है कि आम जनता का प्रत्येक तबका (जनता का क्रॉस-सेक्शन) माँ काली की पूजा करता है। ] 

पथिक तब गाने लगे - 

एमोन शुनि नाई - शुनबो ना हे !

उलंग काली कोले उलंग गोपाल दोले ! 

एमोन शुनि नाई - शुनबो ना हे !

तुमि कौल -बाउल -एक कोरेचो -

दैछ काली कालार समान साज !

जय जय जय प्रेमिक महाराज !!

के देखेचे कोबे -

मुक्तकेशीर युक्त बेनी बेणीमाधवे ! 

एकबार हृद मलंचे गूंजे धेये प्रेमिक अलि ! बसो आज ! 

 जय जय जय प्रेमिक महाराज !! 

इस बीच रटन्ती -निशा लगभग समाप्त होने को है। "तनुप्रकाशेन विचेयतारका प्रभातकल्पा शशिनेव शर्वरी ॥" (कालिदास का रघुवंशम्/३.२) "सतारव्योमकाले तु तत्र स्नानं महाफलम् ।" -रटन्ति -चतुर्दशी-स्नान भी  "सतारव्योमकाले" करना आवश्यक है। प्रेमिक महाराज आसन छोड़कर उठ खड़े हुए। पथिक अंग्रेजी -पाठ्यक्रम में पढ़े थे , फिरभी मानो 'सद्यः -प्राणस्पर्शनी रटन्ति देवी की शक्ति द्वारा अभिभूत होकर उसी विचेयतारका रजनी को अपूर्व शक्तिमती -मूर्तिमती देखने लगे। देखते देखते सम्बोधन पूर्वक कहने लगे - 

Press close , bare -bosom's night ! 

Press close magnetic , nourishing night !

" Night of South winds! night of the large few stars ! 

" Still , nodding night !

" Earth of the limpid grey clouds .

brighter and clearer for my sake ! " 

---Walt Whitman . (from Strophe 21, "Song of Myself”)

प्रेमीक महाराज ने पथिक का हाथ पकड़ कर कहा- फिर क्या अब जा रहे हो? रटन्ति चतुर्दशी तिथि का ऐसा महात्म्य है कि आज नदी के जल में भी एक प्रकार की स्फुरण शक्ति युक्त हो जाती है। विश्वास नहीं होता है ना ? चलो -चलो स्नान करने के लिए चलो। सुनो, सुनो - इस सरस्वती नदी का जल आज कल्लोल करके, पुकारते हुए क्या कह रहा है - "जो अपने को ब्रह्महत्यारा समझता हो और इस पाप से छुटकारा पाना चाहते हो तो (आज के इस विशेष मुहूर्त में-जैसे कुम्भ-स्नान का विशेष मुहूर्त होता है।) मेरे जल में डुबकी लगाने चले आओ !  [ब्रह्महत्या का शाब्दिक अर्थ है-ब्राह्मणवध । ब्राह्मण को मार डालना । 'ब्राह्मण' का अर्थ है- ब्रह्म को जानने वाला (ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मणः)। —मनु आदि ने ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी ओर गुरूपत्नी के साथ गमन को महापातक कहा है । पुराणों में ब्रह्महत्या को अन्य पापों से बड़ा माना गया है। मान्यता है कि प्रभु श्रीराम ने जब लंकाधिपति रावण (ब्राह्मण) का वध किया तो उसके कुछ दिन बाद यहां ब्रह्महत्या के दोष से मुक्त होने के लिए माता सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ यहां आए थे।] जो चाण्डाल हो, या पतित हो और पवित्र होना चाहता हो तो अभी तुरंत चले आओ और हमारे जल में डुबकी लगाकर पापमुक्त हो जाओ !"  भविष्य पुराण में कहा गया है - 

माघमासे रटन्त्यापः किञ्चिदभ्युदिते रवौ ।

ब्रह्मघ्नमपि चण्डालं कं पतन्तं पुनीमहे।। ”

( अभ्युदितः=यस्मिन् सुप्ते सूर्य्य उदेति सः । माघ मास में प्रातःकाल स्नान का है विशेष महत्व। ) माघ स्नान की अपूर्व महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि माघ मास में जल का यह कहना है की जो सूर्योदय होते ही मुझमें स्नान करता है, उसके ब्रह्महत्या, सुरापान आदि बड़े से बड़े पाप भी हम तत्काल धोकर उसे सर्वथा शुद्ध एवं पवित्र कर डालते हैं।  मान्यता है कि माघ मास में शीतल जल में डुबकी लगाने-नहाने वाले मनुष्य पापमुक्त होकर स्वर्गलोक जाते हैं – “माघे निमग्ना: सलिले सुशीते विमुक्तपापास्त्रिदिवं प्रयान्ति”पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में माघ मास के स्नान माहत्म्य का वर्णन करते हुए कहा गया है-व्रतैर्दानैस्तपोभिश्च न तथा प्रीयते हरि:। माघमज्जनमात्रेण यथा प्रीणाति केशव:॥प्रीतये वासुदेवस्य सर्वपापापनुक्तये। माघस्नानं प्रकुर्वीत स्वर्ग लाभाय मानव:॥अर्थात व्रत, दान और तपस्या से भी भगवान श्रीहरि को उतनी प्रसन्नता नहीं होती, जितनी कि माघ महीने में स्नान मात्र से होती है। इसलिए स्वर्ग लाभ, सभी पापों से मुक्ति और भगवान वासुदेव की प्रीति प्राप्त करने के लिए प्रत्येक मनुष्य को माघ स्नान अवश्य करना चाहिए।

श्रीरामचरितमानस में तुलसीदासजी ने लिखा है –

माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥

देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥

पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥

अर्थात माघ में जब सूर्य मकर राशि पर जाते हैं, तब सब लोग तीर्थराज प्रयाग को आते हैं। देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्यों के समूह सब आदरपूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते हैं॥ श्री वेणीमाधवजी के चरणकमलों को पूजते हैं और अक्षयवट का स्पर्श कर उनके शरीर पुलकित होते हैं। गंगा और यमुना के संगम का जल ‘वेणी’ के नाम से प्रसिद्ध है, जिसमें माघ मास में दो घड़ी का स्नान देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। सती! पृथ्वी पर जितने तीर्थ तथा जितनी पुण्यपुरियां हैं, वे मकर राशि पर सूर्य के रहते हुए माघ मास में वेणी में स्नान करने के लिए आती हैं। भगवान् नारायण प्रयाग में स्नान करने वाले पुरुषों को भोग और मोक्ष प्रदान करते हैं। माघ-मकर का योग चराचर त्रिलोकी के लिए दुर्लभ है। माघ मास में प्रयाग संगम में स्नान का विशेष महत्व है।ब्रह्मवैवर्त पुराण जो पुरुष माघ में अरुणोदय के समय प्रयाग की गंगा में स्नान करता है, उसे दीर्घकाल तक भगवान श्रीहरि के मन्दिर में आनन्द लाभ करने का सुअवसर मिलता है। फिर वह उत्तम योनि में आकर भगवान श्रीहरि की भक्ति एवं मन्त्र पाता है; और भारत में जन्म लेकर जितेन्द्रियशिरोमणि होता है। माघ स्नान के लिये ब्रह्मचारी, गृहस्थ, संन्यासी और वनवासी – चारों आश्रमों के; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्णोंके; बाल, युवा और वृद्ध – तीनों अवस्थाओं के स्त्री, पुरुष या नपुंसक जो भी हों, सबको आज्ञा है; सभी यथा नियम नित्यप्रति माघस्त्रान कर सकते हैं ।

रटन्ती चतुर्दशी को शरीर को पवित्र करने वाले जलराशि की 'रटना वचनों ' का अवश्य श्रवण करो। इसीमें शिव है -कल्याण है !  

[बिश्ववाणी -पत्रिका 27 वां वर्ष, 9 वीं अंक]   

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" रटन्ति निशा- भ्रमण -1  और सत्यार्थी की जिज्ञासा "  

"Ratanti Nisha- Excursion-1" and Satyarthi's Curiosity

"রতন্তি নিশা - বিচরণ-১ " এবং সত্যার্থীর কৌতূহল .

>>> Genesis of lustful desire : काम (वासनापूर्ण इच्छा) की उत्पत्ति (उद्भव) :

योनी तंत्र सृष्टि उत्पत्ति का परा विज्ञान है।  न की स्त्री शरीर का अवयव।  'माँ करुणाकारिणी स्वर्ण सिंहासनमयी कामरूपिणी कामाख्या योनी' ब्रह्माण्ड उत्तपत्ति का प्रतीक हैं व शक्ति उत्तपत्ति  का प्रतीक....वो प्रत्यक्ष विग्रह है।  कुण्डलिनी महाशक्ति को ‘काम कला’ कहा गया है। इस तत्व को समझने के लिये हमें अधिक गहराई में प्रवेश करना पड़ेगा और अधिक सूक्ष्म दृष्टि से देखना पड़ेगा। नर-नारी के बीच चलने वाली ‘काम क्रीड़ा’ और कुण्डलिनी साधना में सन्निहित ‘काम कला’ में भारी अन्तर है। मानवीय अन्तराल में उभयलिंग विद्यामान हैं। हर व्यक्ति अपने आप में आधा नर और आधा नारी है। अर्ध नारी नटेश्वर भगवान् शंकर को चित्रित किया गया है। कृष्ण और राधा का भी ऐसा ही एक समन्वित रूप चित्रों में दृष्टिगोचर होता है। पति-पत्नी दो शरीर एक प्राण होते हैं। यह इस चित्रण का स्थूल वर्णन है। सूक्ष्म संकेत यह है कि हर व्यक्ति के भीतर उभय लिंग सत्ता विद्यमान है। नारी लिंग का सूक्ष्म स्थल जननेन्द्रिय मूल है। इसे ‘योनि’ कहते हैं। मस्तिष्क का मध्य बिन्दु ब्रह्मरंध्र-‘लिंग’ है। इसका प्रतीक प्रतिनिधि सुमेरु-मूलाधार चक्र के योनि गह्वर में ही काम बीज के रूप में अवस्थित है।’ अर्थात् एक ही स्थान पर वे दोनों विद्यमान है। पर प्रसुप्त पड़े हैं। उनके जागरण को ही कुण्डलिनी जागरण कहते हैं। इन दोनों के संयोग की साधना ‘काम-कला’ कही जाती है। इसी को कुण्डलिनी जागरण की भूमिका कह सकते हैं। शारीरिक काम सेवन-इसी आध्यात्मिक संयोग प्रयास की छाया है।

>>>महाकाली : आन्तरिक काम शक्ति को दूसरे शब्दों में महाशक्ति—महाकाली कह सकते हैं। सामान्यतः एकाकी नर या नारी अपने भौतिक जीवन में अस्त-व्यस्त रहते हैं। आन्तरिक जीवन में उभयपक्षी विद्युत शक्ति का समन्वय न होने से सर्वत्र नीरस नीरवता दिखाई पड़ती है। इसे दूर करके समग्र समर्थता एवं प्रफुल्लता उत्पन्न करने के लिये कुण्डलिनी साधना की जाती है।[ साभार/https://www.facebook.com/IndianMeditation/photos/a.1899196543647465/2985898078310634/?type=3]

>>>क्या है प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग ?

भारतीय संस्कृति में ईश्वरलाभ के लिए प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनाें मार्ग हैं। इसलिए ऊर्ध्वगमन साधना/कुण्डलिनी शक्ति साधना दो प्रकार की होती है...A-निवृत्ति मार्ग (श्रेय मार्ग) B-प्रवृत्तिमार्ग (प्रेयमार्ग। ) बहुत कम लोगों की प्रवृत्ति श्रेय मार्ग में होती है जबकि प्रेय व सांसारिक मार्ग, धन व सम्पत्ति प्रधान जीवन में सभी मनुष्यों की प्रवृत्ति होती है। जहां प्रवृत्ति होनी चाहिये वहां नहीं है और जहाँ नहीं होनी चाहिये, वहां प्रवृत्ति होती है। यही मनुष्य जीवन में दुःख का प्रमुख कारण है। इन दोनों ही मार्गों में समानता यह है कि दोनों का लक्ष्य प्रभु को प्राप्त करना है। निवृत्ति मार्ग में प्राण की गति उलटी करके इन्द्रियों में मन न लगाकर कर्म करते रहता है-योगी। प्रवृत्ति मार्ग में इन्द्रियों में मन लगाकर कर्मेन्द्रियों से कार्य करता रहता है-भोगी । लेकिन श्रेय मार्ग में (प्राणायाम और ध्यान, समाधि को बाद करके)  अष्टांग योग की साधना सभी प्रकार के मनुष्य (योगी और भोगी दोनों श्रेणी के मनुष्य) कर सकते हैं। 

गृहस्थ बिना स्त्री के नहीं चलता है और संन्यास स्त्री के रहते कभी नहीं चलता है। परन्तु जहाँ तक मनःसंयोग की साधना का प्रश्न है तो क्या गृहस्थ और क्या सन्यासी ; क्या स्त्री और क्या पुरुष सभी समान अधिकार रखते हैं। ऐसे प्रवृत्तिमार्गी गृहस्थों के लिए भी साधनारत होने का मार्ग है। निवृत्ति मार्ग में जो कार्य शक्ति- चालिनी मुद्रा ने किया वह कार्य प्रवृत्ति मार्ग में गृहस्थों के लिए रमण- मुद्रा से संपन्न किया गया शेष बंध और कुम्भक समान रहे ।

 इस प्रकार वीर्य को उर्ध्व गति देने के लिए  सन्यासी  और गृहस्थ दोनों भस्त्रिका, अनुलोम-विलोम, भ्रामरी , उद्गीत या नाड़ीशुद्धि प्राणायाम का प्रयोग कर सकते हैं। लेकिन  प्रवृत्ति मार्ग के कुछ तंत्र साधक दीर्घ रमण का उपयोग करते थे। इस प्रकार तंत्र-मार्ग से कुण्डलिनी साधना का दूसरा प्रकार रमण मुद्राओं वाला बन गया। रमण के कारण इस साधना में पति- पत्नी ,दोनों का बराबर का योगदान रहा । साधक को यम व् नियम का तथा आसन और नाड़ीशुद्धि  प्राणायाम आदि बहिरंग साधना की उतनी ही तैयारी करनी पड़ती है, जितनी निवृति मार्ग अपनाने वाले साधक को करनी पड़ती है। मनुष्य में कार्य करने के लिए ऊर्जा व् आभा तथा ओजस का मिश्रण ही काम में लाना पड़ता है । मनुष्य में इन तीनों तत्वों का उदगम है उसका खानपान और उसके विचार। जैसा उसका खानपान होगा वैसी उसके शरीर की ऊर्जा होगी । सात्विक जीवन सात्विक ऊर्जा तथा तामसिक भोजन तो तामसिक ऊर्जा ।अतएव कुण्डलिनी शक्ति जागरण के लिए सात्विक ऊर्जा अति आवश्यक है । कुण्डलिनी शक्ति जागरण के लिए उत्तम उम्र 25 वर्ष से 45 वर्ष तक मानी गई है ।

>>>महत्-तत्व विशुद्ध चेतना की परछाईं है जहाँ से जीवों के मिथ्या अहंकार का जन्म होता है। प्रकृतिवादी विद्वान्, मूल प्रकृति को अव्यक्त कहते हैं। उससे दूसरा तत्व प्रकट हुआ जो 'महत्तत्व' कहलाता है। महत्तत्व से अहंकार नामक तीसरे तत्व की उत्पत्ति सुनी गयी है । महातेजस्वी भगवान् अपनी शक्ति से महत्तत्व की सृष्टि करके फिर अहंकार और उसके अभिमानी देवता प्रजापति को उत्पन्न करते हैं ।(४१६) यह सम्पूर्ण जगत व्यक्त कहलाता है। प्रतिदिन इसका क्षरण (क्षय) होता है, इसलिए इसको क्षर कहते हैं । क्षरतत्वों में सबसे पहले महत्तत्व की सृष्टि हुई है । (४१७)सांख्य-दर्शन के ज्ञाता विद्वान् अहंकार से सूक्ष्म भूतों का - पञ्च तन्मात्राओं का प्रादुर्भाव बतलाते हैं । इन आठों को प्रकृति कहते हैं; इनसे सोलह तत्वों की उत्पत्ति होती है, जो विकृति कहलाते हैं ।विकार - पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ, ग्यारहवां मन और पांच स्थूलभूत ये प्रकृति और विकृति मिलकर चौबीस तत्व होते हैं

 महत्-तत्व पूर्ण चेतना है क्योंकि इसके एक भाग का प्रतिनिधित्व हर एक प्राणी में बु्द्धि के रूप में होता है।  महत्-तत्व परम जीव की परम चेतना से सीधे जुड़ा होता है, लेकिन फिर भी वह पदार्थ लगता है।  महत्-तत्व, या विशुद्ध चेतना की परछाई, समस्त रचना का अंकुरण स्थान है।  वह कामना की स्थिति के किंचित मिश्रण के साथ शुद्ध अच्छाई है, और इस प्रकार कर्म इस बिंदु से पैदा होता है। महत्-तत्व विशुद्ध आत्मा और भौतिक अस्तित्व के बीच का माध्यम है।  वह पदार्थ और आत्मा के बीच का जुड़ाव है जहाँ से जीव का मिथ्या अहंकार उपजता है।  सभी जीव परम भगवान के व्यक्तित्व के अलग-अलग हिस्से हैं।  मिथ्या अहंकार के दबाव में, सीमित आत्माएँ, परम भगवान के व्यक्तित्व का हिस्सा होकर भी, स्वयं को भौतिक प्रकृति का भोक्ता समझती हैं।  यह मिथ्या अहंकार भौतिक अस्तित्व को बांधने वाली शक्ति है।  भगवान बारंबार किंकर्तव्यविमूढ़ सीमित आत्माओं को मिथ्या अहंकार से मुक्त होने का अवसर देते हैं, और इसीलिए अंतराल से भौतिक रचना होती रहती है।  वे सीमित आत्माओं को मिथ्या अहंकार की गतिविधियों को ठीक करने के लिए सभी सुविधाएँ प्रदान करते हैं, लेकिन वे भगवान के भाग के रूप में उनकी लघु स्वतंत्रता में व्यवधान नहीं करते.

>>>(काम ऊर्जा का ओजस में रूपान्तरण) ऊर्ध्व =अतो ऊर्ध्व >   यहाँ से ऊपर के अर्थ में ऊर्ध्वरेता वह होता है जो इस जन्म में मृत्यु हो जाने के बाद के अपने अगले जन्म (या मुक्ति) के लिए संकल्प कर सकता है । पिप्पलाद और याज्ञवल्क्य दोनों ही ऋषि थे किन्तु पिप्पलाद ऊर्ध्वरेता थे और मृत्यु से भयभीत नहीं थे जबकि याज्ञवल्क्य का जीवन-मृत्यु पर ऐसा नियंत्रण नहीं था, जैसा पिप्पलाद का था, इसलिए महत्-तत्व में प्रतिष्ठित होने से पिप्पलाद को महर्षि कहा जा सकता है । किन्तु इस तुलना से यह सिद्ध नहीं होता कि उनमें से कौन अन्य की अपेक्षा श्रेष्ठ थे

ऋषि वह होता है जिसे सत्य के स्वरूप का ’नित्य’ तत्व के रूप में दर्शन हो जाता है । यह ’नित्य’ भी, ’शाश्वत’, ’सनातन’ और ’ब्रह्म’ की ही तरह सत्य का एक मुख है । ’नित्य’, ’शाश्वत’, ’सनातन’ और ’ब्रह्म’ काल और स्थान (Time and Space) के सन्दर्भ से होते हैं जबकि काल-स्थान परम-सत्ता (महत् तत्व ? The Absolute ) के केवल एक अंश का प्रकाश है । शाश्वत नित्य सनातन ब्रह्म ये ब्रह्मा के चार मुख हैं जिन्हें हर कोई अनायास देखता है, भले ही उसने इस ओर ध्यान न दिया हो । इनसे परे ब्रह्मा का पाँचवाँ मुख था जिसे शिव ने काट दिया था । इसलिए वह सृष्टि के लिए अदृश्य है । सृष्टि के माता-पिता के रूप में ब्रह्मा और सरस्वती पिता-पुत्री होकर भी पति-पत्नी हैं । सृष्टि रूपी संतान अपने माता-पिता की अधर्म-संतान होने से उनका मुख नहीं देख सकती । इसीलिए ब्रह्मा की पूजा भी नहीं की जाती । उनकी पूजा सदैव किसी अन्य देवता के साथ की जाती है । हाँ कोई केवल तप कर उन्हें प्रसन्न कर सकता है और उनसे इच्छित वर भी प्राप्त कर सकता है

तपस्वी प्रायः किसी कामना की पूर्ति के लिए तप करते हैं जबकि ऋषि केवल धर्म के आचरण के रूप में तप करते हैं । ऐसे ऋषि पुनः गृहस्थ अथवा ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ, संन्यास तथा अत्याश्रम की अपनी अवस्था / प्रारब्ध के अनुसार ऊर्ध्वरेता होते हैं या नहीं भी हो सकते हैं।  जब किसी ब्राह्मण का जन्म होता है तो उसे अनायास ही ब्रह्मचर्य आश्रम प्राप्त हो जाता है । यज्ञोपवीत हो जाने पर उसे ब्रह्मचर्य-सिद्धि के लिए पात्र कहा जाता है । यदि उसने गंभीरता से अपना शिक्षा-काल किसी योग्य आचार्य के सान्निध्य में व्यतीत किया है, और उसके पश्चात् उसे गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करने की आज्ञा गुरु ने दी हो,  तो ऐसा ब्रह्मचारी (ब्राह्मण) विवाह कर नियमपूर्वक गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुए संतान की उत्पत्ति की कामना से स्त्री से अनुरक्त होता है,  तो भी वह ब्रह्मचारी ही है । दूसरी ओर ब्रह्मचर्य-आश्रम में स्थित कुछ ऐसे शिष्य भी होते हैं जिन्हें कामनाओं की व्यर्थता और अनर्थक विनाशकारिता का आभास होता है; और इन्द्रिय-सुखों से उन्हें वैराग्य होने से वे सहज रूप से मन को वश में रख सकते हैं । ऐसे शिष्यों को नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहा जाता है ।  यदि आचार्य उन्हें गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करने के लिए बाध्य करते हैं तो इससे आचार्य का, उस शिष्य का, और संसार का भी अहित ही होता है । गृहस्थ हो या नैष्ठिक ब्रह्मचारी जिसे भी (इन्द्रियातीत) सत्य के दर्शन ’नित्य’, ’शाश्वत्’, सनातन, ’ब्रह्म’ और ’परब्रह्म’ के रूप में हो जाते हैं, वे सभी ऋषि कहे जाते हैं । ऐसे ऋषियों में कुछ ’स्वः’, ’महः’ ’जनः’ ’तपः’ और ’सत्य’ के लोक में स्थित होने से उन्हें महर्षि भी कहा जाता है

पुनः ऋष् > ऋषभ और ऋषि एक ही धातु से ब्युत्पन्न होने से ऋ’ अर्थात् ’रे’ होने से  ’रेतस्’ > ऋषभ अर्थात  ’काम’ हो जाता है, जो संतति का कारक है । ’रेतस्’ से ’ऊर्ध्व’ अर्थात् वृषभारूढ वह है जिसने ’काम’ को वश में कर रखा है । इसलिए उसे भी ऊर्ध्वरेतस् / ऊर्ध्वरेता कहा जाता है । इसलिए उसे पशुपति शिव के रूप में देखा जाता है । लोक में भी वृषभ (सांड या बैल) की पीठ पर स्थित पिंड को देखकर भी इस तथ्य को सरलता से समझा जा सकता है । चेतना (consciousness)  सार्वत्रिक, सार्वकालिक सत्य है, यद्यपि सर्वत्र (स्थान) काल (समय) भी चेतना की ही अभिव्यक्ति मात्र हैं। चेतन ( sentient / conscious)  जड - insencient/ शुद्ध चेतना - pure consciousness, चेतना (consciousness), बुद्धि (Wisdom) और ब्रह्मा (Creator) परस्पर पर्याय (synonyms) हैं। 

     अगर पवित्र विचारों (विवेक-प्रयोग) के माध्यम से ऊर्जा को ओजस या आध्यात्मिक ऊर्जा में बदल लिया जाए तो यह किसी तरह का दमन नहीं है; बल्कि यह काम ऊर्जा का एक सकारात्मक और आध्यात्मिक रूपान्तरण की प्रक्रिया है। काम -ऊर्जा पर अपना नियंत्रण स्थापित करके इसे संचित करके दूसरी तरफ मोड़ देना है। धीरे-धीरे आप इसे ओजस शक्ति में भी तब्दील कर लेंगे। जैसे ऊष्मा प्रकाश और विद्युत में परिवर्तित कर ली जाती है वैसे ही भौतिक ऊर्जा को आध्यात्मिक ऊर्जा में बदला जा सकता है। Like changes in chemical substances, sex energy can be converted into spiritual energy through spiritual practice. रासायनिक पदार्थों में होने वाले परिवर्तनों की तरह काम -ऊर्जा को साधना के जरिए आध्यात्मिक ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है

इस प्रक्रिया (मनःसंयोग) से गुजरते हुए आत्मा (साक्षी-द्रष्टा)  के स्तर को ऊपर उठाकर , पवित्र विचारों की तरफ बढ़कर (मातृ शक्ति काली -दुर्गा -लक्ष्मी -सरस्वती की पूजा द्वारा) काम ऊर्जा को ओजस शक्ति में परिवर्तित करके  चित्त में संचित किया जा सकता  है। इस संचित ऊर्जा को आप बड़े से बड़े कामों में लगा सकते हैं। अगर आपको बहुत क्रोध आता है या आपके पास शारीरिक बल ज्यादा है तो उसे भी ओजस शक्ति में ट्रांसफॉर्म किया जा सकता है। जिसके दिमाग में ओजस शक्ति संचित हुई रहती है, उसकी मानसिक ताकत बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। वह बहुत ही बुद्धिमान हो जाता है। उसके चेहरे के पास एक दैवीय तेज झलकने लगता है. वह कुछ शब्द बोलकर ही दूसरों पर अपना प्रभाव छोड़ सकता है। उसका व्यक्तित्व फिर सामान्य नहीं रह जाता है, वह आसाधारण हो जाता है। अमेरिकी प्राकृतिक चिकित्सक डॉ. बेनीडिक्ट लुस्टा (American Naturopath Dr. Benedict Lust) ने अपनी पुस्तक 'Natural Life' में कहा है कि जितने अंशों तक जो मनुष्य ब्रह्मचर्य की विशेष रूप से रक्षा और प्राकृतिक जीवन का अनुसरण करता है, उतने अंशों तक वह विशेष महत्व का कार्य कर सकता है।

>>>कुंडलिनी ऊर्ध्वगमन क्या है?- पुरुष का ऊर्जा केंद्र मूलाधार है जबकि स्त्री का केंद्र ह्दय प्रधान है ! पुरुष को मूलाधार से ऊर्जा उठा कर हृदयगामी  बनना होता है। जबकि स्त्री को और गहरे ह्दय में ही ठहराव करना पड़ता है। मूलाधार ऊर्जा जब पुरुष के आगे के भाग से उपर उठती है तब संसार की माया पैदा करती है। आगे से उपर उठने वाली कुंडलिनी ऊर्जा पुरुष प्रधान होती है। जब काम के रूप में बहती है तो काम सुख कहलाती है।  और जब मूलाधार ऊर्जा पीछे रीढ़ से उपर उर्ध्गमन होती है तो उसे योग ,अध्यात्म, दर्शन या धर्म की यात्रा समझ सकते है या सूक्ष्म जगत की यात्रा समझ सकते है। जब मूलाधार ऊर्जा आगे से उपर उठती है तब वह षड रिपु की प्रकृति बनाती है काम ,क्रोध, मोह ,लोभ इत्यादि। कई जन्मो तक प्रयास करते रहो; परंतु आगे से जो ऊर्जा उपर उठती है ;उसमे संसारी के गुण ही प्रकट होंगे। और जब ऊर्जा पीछे से उर्द्ध्गमन होगी तब देवतत्व ,दैवीगुण विकसित होते है। पीछे से ऊर्जा सूक्ष्म रूप में उठती है और काम और अर्थ के लिए ऊर्जा जड़ता के रूप में उठती और बहती है। वास्तव में ,हमारे शरीर में ,इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना का एक सर्किट है ; अर्थात  शिव, शक्ति और निराकार का एक सर्किट है। जो तभी पूरा होता है जब हम दोनो की साधना करे। यदि शिव की भक्ति करी है ,तो शक्ति की भक्ति करो।और शक्ति की भक्ति करी है तो शिव की भक्ति करो ;तभी सर्किट पूरा होगा। विशेष बात यह है की शक्ति, शिव की साधना से प्रसन्न होती हैऔर शिव शक्ति की साधना से

अधिकतर बुद्धिमान लोग संसार में अर्थ ,प्रसिद्धि ,पद पाने के लिए योग ,अध्यात्म में प्रवेश पाना चाहते है।  लेकिन भूल जाते है कि योग का मार्ग ? और संसार पाने के लिए ? ..ऊर्जा तो एक ही है।जब मूलाधार की ऊर्जा रीढ़ से उपर उठती है तब स्वत ही आगे से ऊर्जा उठना कम हो जाती है। 

ऋषभ और ऋषि एक ही धातु से ब्युत्पन्न होने से 'ऋ’ अर्थात् ’रे’ होने से ’रेतस्’ > ऋषभ अर्थात ’काम’ हो जाता है जो संतति का कारक है । ’रेतस्’ से ’ऊर्ध्व’ अर्थात् वृषभारूढ वह है जिसने ’काम’ को वश में कर रखा है । इसलिए उसे भी ऊर्ध्वरेतस् / ऊर्ध्वरेता कहा जाता है । तथा उसे पशुपति शिव के रूप में देखा जाता है। लोक में भी वृषभ (सांड या बैल) की पीठ पर स्थित पिंड को देखकर भी इस तथ्य को सरलता से समझा जा सकता है । ब्रह्मचर्य काम -ऊर्जा का विरोध नहीं है, बल्कि इसका ट्रांसफॉर्मेशन है। नीचे की तरफ बह जाना काम ऊर्जा का अधोगमन है।ब्रह्मचर्य /ऊर्ध्वरेता ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन है, ऊपर की तरफ उठ जाना है।

योनि-लिंग, काम बीज, रज, वीर्य, संयोग आदि शब्दों में उसी अन्तःशक्ति के जागरण की विधि व्यवस्था सन्निहित है—

स्वयंभु लिंग तन्मध्ये सरन्ध्रं यश्चिमावलम् ।

ध्यायेञ्च परमेशानि शिवं श्यामल सुन्दरम् ।।

—शाक्तानन्द तरंगिणी

उसके मध्य रन्ध्र सहित महालिंग है। वह स्वयंभु और अधोमुख, श्यामल और सुन्दर है। उसका ध्यान करे।

तत्रस्थितो महालिंग स्वयंभुः सर्वदा सुखी ।

अधोमुखः क्रियावांक्ष्य काम वीजे न चालितः ।।

—काली कुलामृत

वहां ब्रह्मरंध्र में—वह महालिंग अवस्थित है। वह स्वयंभु और सुख स्वरूप है। इसका मुख नीचे की ओर है। यह निरन्तर क्रियाशील है। काम बीज द्वारा चालित है।

आत्मसंस्थं शिवं त्यक्त्वा बहिःस्थं यः समर्चयेत् ।

हस्तस्थं पिण्डमुत्सृज्य भ्रमते जीविताशया ।।

आत्मलिंगार्चनं कुर्यादनालस्यं दिने दिने ।

तस्य स्यात्सकला सिद्धिर्नात्र कार्या विचरणा ।।

—शिव संहिता

अपने शरीर में अवस्थित शिव को त्याग कर जो बाहर-बाहर पूजते फिरते हैं। वे हाथ के भोजन को छोड़कर इधर-उधर से प्राप्त करने के लिये भटकने वाले लोगों में से हैं।आलस्य त्यागकर ‘आत्म-लिंग’—शिव—की पूजा करे। इसी से समस्त सफलताएं मिलती हैं।

नमो महाविन्दुमुखी चन्द्र सूर्य स्तन द्वया ।

सुमेरुद्दार्घ कलया शोभमाना मही पदा ।।

काम राज कला रूपा जागर्ति स चराचरा ।

एतत कामकला व्याप्तं गुह्याद गुह्यतरं महत् ।।

—रुद्रयामल तंत्र

महाविन्दु उसका मुख है। सूर्य चन्द्र दोनों स्तन हैं, सुमेरु उसकी अर्ध कला है, पृथ्वी उसकी शोभा है। चर-अचर सब में काम कला के रूप में जगती है। सबमें काम कला होकर व्याप्त है। यह गुह्य से भी गुह्य है।

जननेन्द्रिय मूल—मूलाधार चक्र में योनि स्थान बताया गया है।

मूलाधारे हि यत् पद्मं चतुष्पत्रं व्यवस्थितम् ।

तत्र कन्देऽस्ति या योनिस्तस्यां सूर्यो व्यवस्थितः ।।

—शिव संहिता

चार पंखुरियों वाले मूलाधार चक्र के कन्द भाग में जो प्रकाशवान् योनि है।

तस्मिन्नाधार पद्मे च कर्णिकायां सुशोभना ।

त्रिकोणा वर्तते योनिः सर्वतमेषु गोपिका ।।

—शिव संहिता

उस आधार पद्म की कर्णिका में अर्थात् दण्डी में त्रिकोण योनि है। यह योनि सब तन्त्रों करके गोपित है।

यत्तद्गुह्यमिति प्रोक्त देवयोनिस्तु सोच्यते ।

अस्यां यो जायते वह्निः स कल्याणप्रदुच्यते ।।

—कात्यायन स्मृति

यह गुह्य नामक स्थान देव योनि है। उसी में जो वह्नि उत्पन्न होती है वह परम कल्याणकारिणी है।

आधारं प्रथमं चक्रं स्वाधिष्टानं द्वितीयकम्,

योनि स्थानं द्वयोर्मध्ये कामरूपं निगद्यहे ।।

—गोरक्ष पद्धति

पहले मूलाधार एवं दूसरे स्वाधिष्ठान चक्र के बीच में योनि स्थान है, यही काम रूप पीठ है।

आधाराख्ये गुदस्थाने पंकजं च चतुर्दलम् ।

तन्मध्ये प्रोच्यते योनिः कामाख्या सिद्ध वंदिता ।।

—गोरक्ष पद्धति

गुदा स्थान में जो चतुर्दल कमल विख्यात है उसके मध्य में त्रिकोणाकार योनि है जिसकी वन्दना समस्त सिद्धजन करते हैं, पंचाशत वर्ण से बनी हुई कामाख्या पीठ कहलाती है।

यत्समाधौ परं ज्योतिरनन्तं विश्वतो मुखम् ।

तिसमन दृष्टे महायोगे याता यातात्र विन्दते ।।

—गोरक्ष पद्धति

गुदा स्थान में जो चतुर्दल कमल विख्यात है उसके मध्य में त्रिकोणाकार योनि है जिसकी वन्दना समस्त सिद्धजन करते हैं, पंचाशत वर्ण से बनी हुई कामाख्या पीठ कहलाती है।

यत्समाधौ परं ज्योतिरनन्तं विश्वतो मुखम् ।

तिस्मन दृष्टे महायोगे याता यातात्र विन्दते ।।

—गोरक्ष पद्धति

इसी त्रिकोण विषय समाधि में अनन्त विश्व में व्याप्त होने वाली परम ज्योति प्रकट होती है वही कालाग्नि रूप है जब योगी ध्यान, धारण, समाधि—द्वारा उक्त ज्योति देखने लगता है तब उसका जन्म मरण नहीं होता।

इन दोनों का परस्पर अति घनिष्ठ सम्बन्ध है। वह सम्बन्ध जब मिला रहता है तो आत्म-बल समुन्नत होता चला जाता है और आत्मशक्ति सिद्धियों के रूप में विकसित होती चलती है। जब उनका सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है तो मनुष्य दीन-दुर्बल, असहाय-असफल जीवन जीता है। कुंडलिनी रूपी योनि और सहस्रार रूपी लिंग का संयोग मनुष्य की आन्तरिक अपूर्णता को पूर्ण करता है। साधना का उद्देश्य इसी महान प्रयोजन की पूर्ति करता है। इसी को शिव शक्ति का संयोग एवं आत्मा से परमात्मा का मिलन कहते हैं।

 इस संयोग का वर्णन साधना क्षेत्र में इस प्रकार किया गया है--शारीरिक काम सेवन की तुलना में आत्मिक काम सेवन असंख्य आनन्ददायक है। शारीरिक काम-क्रीड़ा को विषयानन्द और आत्मरति को ब्रह्मानन्द कहा गया है। विषयानन्द से ब्रह्मानन्द का आनन्द और प्रतिफल कोटि गुना है। शारीरिक संयोग से शरीर धारी सन्तान उत्पन्न होती है। आत्मिक संयोग प्रचण्ड आत्मबल और विशुद्ध विवेक को उत्पन्न करता है। उमा, महेश विवाह के उपरांत दो पुत्र प्राप्त हुए थे। एक स्कन्द (आत्मबल) दूसरा गणेश (प्रज्ञा प्रकाश) कुण्डलिनी साधक इन्हीं दोनों को अपने आत्मलोक  में जन्मा बढ़ा और परिपुष्ट हुआ देखता है।

स्थूल काम सेवन की ओर से विमुख होकर यह आत्म रति अधिक सफलतापूर्वक सम्पन्न हो सकती है। इसलिये इस साधना में शारीरिक ब्रह्मचर्य की आवश्यकता प्रतिपादित की गई है। और वासनात्मक मनोविचारों से बचने का निर्देश दिया गया है। शिवजी द्वारा तृतीय नेत्र तत्व विवेक द्वारा स्थूल काम सेवन को भस्म करना—उसके सूक्ष्म शरीर को अजर-अमर बनाना इसी तथ्य का अलंकारिक वर्णन है कि शारीरिक काम सेवन से विरत होने की और आत्म रति में संलग्न होने की प्रेरणा है। काम दहन के पश्चात् उसकी पत्नी रति की प्रार्थना पर शिवजी ने काम को अशरीरी रूप से जीवित रहने का वरदान दिया था और रति को विधवा नहीं होने दिया था उसे आत्म रति बना दिया था। वासनात्मक अग्नि का आह्य अग्नि-कालाग्नि के रूप में परिणत होने का प्रयोजन भी यही है। 

>>>Attainment of Eternal Bliss (अखंड आनंद की प्राप्ति)

सांसारिक भोगों में एक विचित्र आकर्षण होता है। यही कारण है वे मनुष्य को सहज ही अपनी ओर खींच लेते हैं। किन्तु इससे भी अद्भुत बात यह है कि यह जितनी ही अधिक मात्रा में प्राप्त होते जाते हैं, मनुष्य का आकर्षण उतना ही उनकी ओर बढ़ता जाता है और शीघ्र ही वह दिन आ जाता है, जब मनुष्य इनमें आकण्ठ डूबकर नष्ट हो जाता है। सांसारिक भोगों की ओर अशक्त की भांति विवश होकर खिंचते रहना ठीक नहीं। मनुष्य को अपने मन का स्वामी होना चाहिये, इस इस प्रकार यन्त्रवत् प्रवृत्तियों के संकेत पर परिचालित होते रहना चाहिये ? संयम मनुष्य की शोभा ही नहीं शक्ति भी है। अपनी इस शक्ति को काम में लाकर, विनाशकारी भोगों के चंगुल से उसे अपनी रक्षा करनी ही चाहिये। 

गृहस्थ आश्रम में सन्तानोत्पादन का बहाना लेकर भोगपूर्ण जीवन बिताने वाले गृहस्थाश्रम का सही मन्तव्य नहीं समझते। सृष्टि क्रम को स्थिर रखने के लिये दाम्पत्य जीवन की अनिवार्यता स्वीकार अवश्य की गई है। तथापि उसमें भी संयम का महत्व कम नहीं किया गया है। धर्म कर्त्तव्य के रूप में सन्तान-सृजन और बात है और कामुकता के वशीभूत होकर दाम्पत्य जीवन को भोग का माध्यम बना डालना भिन्न बात है। 

मनुष्य जीवन अनुपम उपलब्धि है। इस प्रकार सस्ते रूप में उसका ह्रास कर डालना न उचित है और न कल्याणकारी। यह निर्विवाद सत्य है कि भोगों की अधिकता मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तीनों प्रकार की शक्तियों का ह्रास कर देती है। भोग जिनमें भ्रमवश मनुष्य आनन्द की कल्पना करता है, वास्तव में विष रूपी ही होते हैं। शरीर का तत्व वीर्य, जो कि मनुष्य की शक्ति और वास्तविक जीवन कहा गया है, अपव्यय हो जाता है। जिससे सारा शरीर एकदम खोखला हो जाता है।ईसामसीह जीवन भर ब्रह्मचारी रहे।  वैज्ञानिक, दार्शनिक, विचारक, सुधारक तथा ऐसी ही उच्च चेतना वाले लोग संयम का ही जीवन जीते दृष्टिगोचर होते हैं। विषयों का निषेध करते हुये भगवान् ने गीता (5.22) में स्पष्ट कहा है—

‘‘ये हि सं स्पर्शजा भोगा दुःखयोनय; एव ते ।

आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ।।’’

जो इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब सुख हैं, यद्यपि वे विषयी पुरुष को सुख रूप प्रतीत होते हैं, किन्तु, वास्तव में होते वे दुःख के ही हेतु हैं और नाशवान भी। इसलिये हे कुन्ती पुत्र अर्जुन? बुद्धिमान् व्यक्ति उनमें आसक्त और लिप्त नहीं होते।

नैपोलियन हिल ने अपनी पुस्तक ‘'Think and Grow Rich'’ में काम शक्ति के संबंध में महत्व पूर्ण प्रकाश डाला है। वे सैक्स एनर्जी को मस्तिष्क और शरीर दोनों को समान रूप से प्रभावित करने वाली एक विशेष शक्ति मानते हैं यह मनुष्य को प्रगति की दिशा में बढ़ चलने के लिए प्रेरणा देती है। आद्य शङ्कराचार्य कृत ‘सौन्दर्य लहरी’ में षट्चक्रों एवं सातवें सहस्रार का वर्णन है और उस परिकर को कुंडलिनी क्षेत्र बताया है। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत और विशुद्ध चक्रों को पांच तत्वों का प्रतीक माना है और आज्ञाचक्र तथा सहस्रार को ब्रह्म चेतना का प्रतिनिधि बताया है। पांच तत्वों का वेधन करने पर किस प्रकार कुण्डलिनी शक्ति का पहुंच ब्रह्मलोक तक होती है और परब्रह्म के साथ ‘विहार’ करती है।  

[साभार /https://www.geocities.ws/brijesh/books-unicode-html/1aadhyatmik-kaam-vigyaan.html]

[मंगलवार युक्त चतुर्दशी, मकर-कुल नक्षत्रों से युक्त वीर-रात्रि कही जाती है । इसी अर्द्ध-रात्रि में श्री बगलामाँ  का आविर्भाव हुआ था । बगलामुखी देवी दश महाविद्याओं में आठवीं महाविद्या का नाम से उल्लेखित है । वैदिक शब्द ‘वल्गा’ कहा है, जिसका अर्थ कृत्या सम्बन्ध है, जो बाद में अपभ्रंश होकर बगला नाम से प्रचारित हो गया । बगलामुखी देवी दश महाविद्याओं में आठवीं महाविद्या का नाम से उल्लेखित है ।  बगलामुखी साधना की, मानव कल्याण, सुख-समृद्धि हेतु, विशेष उपयोगिता दृष्टिगोचर होती है। देवी को वीर-रात्रि भी कहा जाता है, क्योंकि देवी स्वम् ब्रह्मास्त्र-रूपिणी हैं, इनके शिव को एकवक्त्र-महारुद्र तथा मृत्युञ्जय-महादेव कहा जाता है, इसीलिए देवी सिद्ध-विद्या कहा जाता है । बगलामुखी देवी अपने साधक को कभी-कभी भयभीत भी करती हैं। अतः दृढ़ इच्छा और संकल्प शक्ति वाले साधक ही साधना करें। साधना आरंभ करने से पूर्व गुरु का ध्यान और पूजा अनिवार्य है।]

आन्दुल राजबाड़ी जो आनंद धाम के रूप में स्थानीय रूप से लोकप्रिय है, पश्चिम बंगाल के हावड़ा जिले में एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। श्री चैतन्य ने अपनी पवित्र यात्रा के दौरान दक्षिण का नवद्वीप कहे जाने वाले 'आन्दुल' में अपने कदम रखे। और उस स्थान को अंदुल के नाम से जाना जाने लगा, जो व्युत्पत्ति के अनुसार "आनंद धूली" से आया है, जिसका अर्थ है भगवान चैतन्य के चरणों की पवित्र धूल। तंत्र शास्त्र भारत की एक प्राचीन विद्या है। तंत्र ग्रंथ भगवान शिव के मुख से आविर्भूत हुए हैं। उनको पवित्र और प्रामाणिक माना गया है। भारतीय साहित्य में ‘तंत्र’ की एक विशिष्ट स्थिति है, पर कुछ साधक इस शक्ति का दुरुपयोग करने लग गए, जिसके कारण यह विद्या बदनाम हो गई। जो तंत्र से भय खाता हैं, वह मनुष्य ही नहीं हैं, वह साधक तो बन ही नहीं सकता! गुरु गोरखनाथ के समय में तंत्र अपने आप में एक सर्वोत्कृष्ट विद्या थी और समाज का प्रत्येक वर्ग उसे अपना रहा था! जीवन की जटिल समस्याओं को सुलझाने में केवल तंत्र ही सहायक हो सकता हैं!  परन्तु गोरखनाथ के बाद कुछ ढोंगी लोगों  ने  तंत्र को एक विकृत रूप दे दिया! उन्होंने तंत्र का तात्पर्य भोग, विलास, मद्य, मांस, पंचमकार को ही मान लिया! परन्तु दोष तंत्र का नहीं, उन पथभ्रष्ट लोगों का रहा, जिनकी वजह से तंत्र भी बदनाम हो गया! सही अर्थों में देखा जायें तो तंत्र का तात्पर्य तो जीवन को सभी दृष्टियों से पूर्णता देना हैं! दत्तात्रेय तंत्र में जिक्र आता है कि अपनी शक्ति का दुरूपयोग या आनेतिक कर्म मै मै उस साधक का विनाश करता हूँ।  इस लिए तंत्र विद्या का कभी दुरूपयोग नहीं करना चाहिए।]

[चौसठ योगिनियों की चर्चा पुराणों में है। सभी योगिनियों को आदिशक्ति मां काली का अवतार माना गया है। “घोर” नामक दैत्य के साथ युद्ध करते समय योगिनियों का अवतार हुआ था और यह सभी माता पार्वती की सखियां मानी गई हैं।  सभी योगिनियों का संबंध मुख्यतः काली कुल से हैं और ये सभी तंत्र तथा योग विद्या से घनिष्ठ सम्बन्ध रखती है। योगिनियों में आठ योगनियां यथा-1.सुर-सुंदरी योगिनी 2.मनोहरा योगिनी - अत्यंत सुंदर होती हैं और इनके शरीर से सुगंध निकलती रहती है। एक महीने साधना करने पर ये प्रसन्न होती है। इनकी सिद्धि से साधक को प्रतिदिन स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त होती है।3.कनकवती योगिनी 4.कामेश्वरी योगिनी 5.रति सुंदरी योगिनी 6.पद्मिनी योगिनी 7.नटिनी योगिनी एवं 8.मधुमती योगिनी प्रमुख हैं। सुर-सुंदरी योगिनी के सम्बंध में कहा गया है कि ये अत्यंत सुंदर, शरीर सौष्ठव, अत्यंत दर्शनीय है। इनकी साधना एक महीने तक की जाती है। इनके प्रसन्न होने पर ही सुर-सुंदरी योगिनी सामने आती है और इन्हें माता, बहन या पत्नी कहकर संबोधन किया जाता है।] 

महाविद्या ^*१>>>अविद्या, विद्या एवं 10 महाविद्या : "आगम शास्त्र में अविद्या, विद्या एवं महाविद्या, इन तीन शब्दों का वर्णन है। जो साधना, रहस्य, ज्ञान सांसारिक कार्यों में साधक की सहायता करती हैं, उसे अविद्या कहते हैं। जो मुक्ति का मार्ग बताती हैं, उसे विद्या कहते हैं। जो भोग और मोक्ष दोनों देती है, उसे महाविद्या कहते हैं। विद्यते ज्ञायते इति विद्या -- जिससे परम तत्व को जाना जाय ऐसे ज्ञान को विद्या कहते हैं, यह महाज्ञान है। इसे महाविद्या भी कहते हैं। क्योंकि महांश्चासौ विद्या, महाविद्या। ऐसा ज्ञान जो महान् है जो अमृत है जो अविनाशी है,जो परम तत्व को अनुभव कराती है वह महाविद्या है। वही शक्ति है,वही माता है। वह शक्ति, शिव से अभिन्न है। उसके बिना शिव, शव हो जाते हैं। वह परब्रह्म स्वरूपिणी है। 

ये महाविद्या दश हैं। चामुण्डा तन्त्र के अनुसार- काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी। भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा।। वगला सिद्धविद्या च मातङ्गी कमलात्मिका।एता दशमहाविद्याः सिद्धविद्याः प्रकीर्तिताः।। इस प्रकार दश महाविद्या हैं- काली, तारा, महाविद्या, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी,छिन्नमस्ता, धूमावती, वगला या वल्गामुखी,मातङ्गी, कमलात्मिका।

ये सकला विद्या हैं, सभी हैं, समष्टि हैं, सम्पूर्ण हैं। कृष्णरूपा कालिका स्यात् रामरूपा च तारिणी। वगला कूर्ममूर्तिः स्यान्मीनो धूमावती भवेत्।। छिन्नमस्ता नृसिंहः स्यात् वराहश्चैव भैरवी ।सुन्दरी यामदग्नयः स्याद्वामनो भुवनेश्वरी।। कमला बौद्धरूपा स्यात् दुर्गा स्यात् कल्कि रूपिणी। स्वयं भगवती काली कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्। स्वयञ्च भगवान् कृष्णः कालीरूपो भवेद्व्रजे ।।इति मुण्डमालातन्त्रम्।।

मुण्डमालातन्त्र, तन्त्रसार इत्यादि ग्रंथों में भगवती के विभिन्न रूपों तथा  विभिन्न विष्णु के विभिन्न अवतारों में सारुप्य, समानता एवं अभिन्नता दिखाई गई है। इस अभिन्नता को मूढ़, जड़, अविद्याग्रस्त अनुभव नहीं कर सकते क्योंकि वे तामसी बुद्धि से भरे होते हैं। 

माता सर्वदेवमयी हैं। सभी देवों के तेज से माता का प्रादुर्भाव हुआ।  सभी देवताओं से उत्पन्न हुआ और तीनों लोकों में व्याप्त वह अतुल्य तेज जब एकत्रित हुआ तब वह नारी बना। अर्थात सभी देवों के तेज से माता का प्रादुर्भाव हुआ।  (मार्कण्डेय पुराण,-दुर्गा सप्तशती) के  देवीमहात्म्य में कहा है 

 " अतुलं तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजम्। 

एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयंत्विषा।२।। १३।। 

अर्थ- सम्पूर्ण देवताओं के शरीर से प्रकट उस तेज की कहीं तुलना नहीं थी। एकत्रित होने पर वह एक नारी के रूप में परिणत हो गया और अपने प्रकाश से तीनों लोकों में व्याप्त हो गया।"तां तुष्टुवुः प्रणतिनम्रशिरोधरांसा, वाग्भिः प्रहर्ष पुलकोद्गमचारुदेहाः।४।२।।" (दुर्गा सप्तशती)। माता को समस्त देवों ने झुककर, नम्र होकर,शिर झुकाकर,कंधे झुकाकर प्रणाम किया एवं गद्गगद् वाणी से उनकी स्तुति की। स्तुति के समय देवताओं  के रोएं खड़े थे,अत्यंत आनन्द से वे पुलकित थे उनकी देह बहुत सुन्दर दिख रही थी। 

यदा नैव धाता न विष्णुर्न रुद्रो

न कालो न वा पञ्चभूतानि नाशा ।

तदा कारणीभूतसत्वैकमूर्तिः

त्वमेका परब्रह्मरूपेण सिद्धा ॥४।   

 अर्थ- हे माता! आप तब भी विद्यमान थीं जब ब्रह्मा, विष्णु, शिव नहीं थे काल भी नहीं था, पंचभूत (क्षिति, जल, पावक,गगन, समीरा आदि) नहीं थे, दिशाएं नहीं थीं,कोई आशा (उम्मीद,दिशा) नही थी, उस समय कारण रूप से एकमात्र सत्वगुण स्वरूपा आप विद्यमान थीं ! जिससे आपका परब्रह्म रूप स्वतः सिद्ध है।

भगवती अनेक रूपों में विद्यमान वस्तुतः एक ही हैं। दुर्गा सप्तशती दशम अध्याय दैत्य शुम्भ ने अनेक रूपों में माता को युद्ध करते देख कर कहा- अन्यासां बलमाश्रित्य युद्ध्यसे यातिमानिनी।।३।। हे मानिनी, अन्य देवियों के बल के सहारे लड़ती हो। देव्युवाच।।४।। इसपर भगवती ने जवाब दिया - 

 एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा। 

पश्यैता दुष्ट मय्येव विशन्त्यो मद्विभूतयः।।५।।

 इस संसार में यहां केवल एक मैं ही हूँ, मेरे अतिरिक्त दूसरी कौन(शक्ति) है। ऐ दुष्ट (दूषित बुद्धि वाले) देख मेरी सभी विभूतियाँ मुझ में ही प्रविष्ट हो रही हैं। इस दशमहाविद्या स्तोत्र में दशमहाविद्याओं का बहुत सुन्दर वर्णन है- 

आदि शक्ति त्वमसि काली मुण्डमाला धारिणी। 

त्वमसि तारा मुण्डहारा विकट संकट हारिणी।।१।।

अर्थ- हे माता! तुम आद्या शक्ति काली हो, तुम मुण्ड की माला (अक्षर रूप) धारण करने वाली हो। तुम मुण्डों का हार धारण करने वाली विकट संकट का हरण करने वाली हो।। 

 त्रिपुरसुन्दरि आदिकात्वं षोडशी परमेश्वरी।

सकल मंगल मूर्तिरसि जगदम्बिके भुवनेश्वरी।।२।। 

 तुम त्रिपुरसुन्दरी आदि शक्ति,षोडशी परमेश्वरी हो। सम्पूर्ण मङ्गल की स्वरूपा, जगदम्बा , भुवनेश्वरी हो।।२।। 

 त्वमसि माता खड्गहस्ता छिन्नमस्ता भगवती। 

त्वमसि त्रिपुराभैरवि मात्स्त्वमसि धूमावती।।३।। 

 हे माता तुम्हारे हाथ में खड्ग है तुम्हीं छिन्नमस्ता भगवती हो। हे माता तुम त्रिपुरसुन्दरी, भैरवी और धूमावती हो।।३।। 

मातरसि बगलामुखी त्वं दुष्टबुद्धि विनाशिनी। 

त्वमसि मातङ्गी त्वमसि कमलात्मिकाऽम्बुजवासिनी।।४।। 

दुष्टों के बुद्धि को विनष्ट करने वाली बगलामुखी माता तुम हो। तुम मातङ्गी कमलात्मिका एवं कमल पर विराजमान (लक्ष्मी) हो। 

दशमहाविद्यास्वरूपा त्वमसि भुवि बहु सिद्धिदा।
 मूर्तिभेदादेवभेदो वस्तुतो नहि ते भिदा।।५।। 

इस पृथ्वी पर दशमहाविद्या के स्वरूप वाली अनेक सिद्धियों को देने वाली हो (सिद्धिदात्री)। स्वरूपों की भिन्नता से देवता की भिन्नता नहीं है, वस्तुतः वे अलग- अलग नहीं हैं।। ५।। 

भेदभावं बुद्धितो मम दूरमपनय सत्वरम्।
प्रेम देहि पदाम्बुजे स्वे नाऽपरं याचे वरम्।।६।। 

हे माता इस भेद बुद्धि को तुरंत मुझसे दूर हटाओ। माता अपने चरण कमलों में प्रेम प्रदान करो , दूसरा कोई वर मैं नहीं मांगता हूँ।।६।। 

इन महाविद्याओं के प्रकट होने की कथा इस प्रकार महाभागवत देवी पुराण में वर्णित है। प्रवृति के अनुसार दस महाविद्या के तीन समूह हैं। पहला :- सौम्य कोटि (त्रिपुर सुंदरी, भुवनेश्वरी, मातंगी, कमला), दूसरा :- उग्र कोटि (काली, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी), तीसरा :- सौम्य-उग्र कोटि (तारा और त्रिपुर भैरवी)। 

(इस महा श्मशान काली सहस्रनाम का प्रयोग केवल दीक्षा प्राप्त विशेषकर कुल दीक्षा प्राप्त प्राणी ही करे, अथवा किसी विद्वान से विमर्श करने के उपरान्त करें तो उचित होगा .---ॐ अस्य श्रीकालिका सहस्रनाम स्तोत्र महामन्त्रस्य महाकालभैरव ऋषिः अनुष्टुप् छन्दः श्मशान कालिका देवता श्री महाकालिका प्रसाद सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ॥ ध्यानम् ।शवारुढां महाभीमां घोरदंष्ट्रा हसन्मुखीं । चतुर्भुजां खड्ग-मुण्ड-वराभयकरां शिवाम्॥मुण्डमालाधरां देवीं लोलज्जिह्वां दिगम्बराम् । एवं सञ्चिन्तयेत् कालीं श्मशानालय-वासिनीम् ॥अथ स्तोत्रम् ।। ॐ क्रीं महाकाल्यै नमः॥ॐ श्मशान कालिका काली भद्रकाली कपालिनी । गुह्यकाली महाकाली कुरुकुल्लाऽविरोधिनी ॥ १८॥कालिका कालरात्रिश्च महाकालनितम्बिनी । कालभैरव-भार्या च कुलवर्त्मप्रकाशिनी ॥ १९॥ कामदा कामिनी काम्या कमनीय-स्वभाविनी । कस्तूरी रस-नीलाङ्गी कुञ्चरेश्वरगामिनी ॥ २०॥ककार-वर्णसर्वाङ्गी कामिनी कामसुन्दरी । कामार्ता कामरूपा च कामधेनु-कलावती ॥ २१॥कान्ता कामस्वरूपा च कामाख्या कुलपालिनी । कुलीना कुलवत्यम्बा दुर्गा दुर्गतिनाशिनी ॥ २२॥कौमारी कुलजा कृष्णा कृष्णदेहा कृशोदरी । कृशाङ्गी कुलिशाङ्गी च क्रीङ्कारी कमला कला ॥ २३॥करालस्था कराली च कुलकान्ताऽपराजिता । उग्रा चोग्रप्रभा दीप्ता विप्रचित्ता महाबला ॥ २४॥नीला घना बलाका च मात्रा मुद्रापिताऽसिता । ब्राम्ही नारायणी भद्रा सुभद्रा भक्तवत्सला ॥ २५॥माहेश्वरी च चामुण्डा वाराही नारसिंहिका । वज्राङ्गी वज्र-कङ्काली नृमुण्ड-स्रग्विणी शिवा ॥ २६॥......... श्रीमत्-शङ्कर-भक्तिपूर्वक-महादेवी-पदध्यायिनो मुक्तिर्भुक्तिमतिः स्वयं स्तुति-पराभक्तिः करस्थायिनी ॥ १९॥॥ श्री कालिकाकुलसर्वस्वे हरपरशुरामसंवादे श्रीकालिका सहस्रनाम स्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥)

>>मेघ गर्भ धारण ^*२ [वराह मिहिर रचित ‘बृहत संहिता’ में मेघ गर्भ धारण का उल्लेख है; तद्नुसार मेघ गर्भ धारण के समय ग्रहों बिम्बों के आकार बड़े, ग्रहों की किरणें कोमल व उत्पात रहित, नक्षत्रों के गमन मार्ग की दिशा उत्तर, पेड़-पौधों में अंकुरण तथा जीवों में प्रसन्नता का भाव होता है। उत्तरी, ईशान अथवा पूर्वी हवा मध्यम व कोमल गति से चलती है। आसमान साफ रहता है। सूर्य व चन्द्रमा की चमक अधिक रहती है। चन्द्रमा या सूर्य के चारों ओर बादलों का गोलाकार वलय बनता है। शेष आकाश में बादल विशाल व घने होते हैं। उनका आकार सूई के समान नुकीला अथवा खुरपे, उस्तरे या फावड़े के समान होता है। मेघों का रंग कौए के अंडे के समान काला होता है, किन्तु आकाश में तारों की चमक बरकरार रहती है। संध्या समय इन्द्रधनुष दिखता है। मधुर गर्जन होती है। बिजली कड़कती है। प्रति-सूर्य दिखाई देता है। पक्षी व जंगली पशु ईशान दिशा की ओर मुँह करके खड़े होते हैं अथवा भागते हैं। वे सूर्य की ओर नहीं देखते। हाँ, गर्भधारण के इस काल में पशु-पक्षी मधुर स्वर निकालते हैं। माघ शुक्ल पक्ष के ऐसे लक्षणों का परिणाम बैसाख में दिखाई देता है।गर्भकाल में मोती व चाँदी के समान चमकीले अथवा ढाके के पत्ते के समान काले व जन्तु के आकार के बादल वर्षाऋतु आने पर अच्छी वर्षा करते हैं। गर्भकाल में बादल भी हों, सूर्य की चमकीली धूप भी हो और मामूली हवा भी, तो समझिये कि प्रसवकाल आने पर अतिवृष्टि होगी। माघ या पौष में शाम को आकाश में लाली तथा बदली हो, माघ में अधिक ठंड न पड़े, पौष में पाला या बर्फ कम गिरे तो समझिए कि आगे वर्षा अच्छी होगी। माघ में हवा तेज चले, सूर्य-चन्द्र की रोशनी में गर्द, कोहरे या हिम से दबी दिखे, चाँद धुँधला दिखे, सूर्यास्त के समय सूर्य के निकट बादल दिखें तो ये सभी भावी वर्षाऋतु में उत्तम वर्षा के लक्षण हैं। चैत्र मास में खूब बादल छायें, बिजली-बादल गरजें और बूँदा-बाँदी भी हो, तो भी समझिए कि आगामी वर्षा ऋतु में अच्छी वर्षा होगी। इसी प्रकार गर्भ नक्षत्र की गृह स्थिति, गर्भ की पुष्टि, गर्भपात की पुष्टि, तद्नुसार वर्षा के पानी की मात्रा, प्रथम वर्षा का लक्षण, जल मापने की विधि, वायुधारण आदि का विवरण बृहत संहिता में है।-साभार /https://hindi.indiawaterportal.org/articles/bhaarataiya-jala-darasana-maen-maegha-garabhadhaarana-kaa-vaijanaana/]  

>>>तन्त्र  शास्त्र उपयोगी भी, विज्ञान सम्मत भी भारतीय अध्यात्म का गौरवशाली साहित्य दो भागों में विभक्त है-’आगम’ और ‘निगम’। जिस तरह वेद ईश्वर की वाणी माने जाते हैं, उसी तरह तंत्र भी भगवान विष्णु, शिव, देवी की वाणी हैं और उन्हीं देवताओं के नाम से वे जाने भी जाते हैं।  तंत्रशास्त्रों में कहा गया है कि “जहाँ भोग है, वहाँ मोक्ष नहीं है और जहाँ मोक्ष है वहाँ भोग नहीं है, किंतु जो मनुष्य भगवती महाशक्ति की सेवा में संलग्न हैं उनको भोग और मोक्ष दोनों ही सहज साध्य हैं।” 

प्राणिमात्र की रक्षा करने के कारण भी इसे तंत्र कहा जाता है।  'तन्यते विस्तार्यते ग्यानमनेनेति तन्त्रम्|' एक विचारधारा के अनुसार वाम का अर्थ विपरीत मान्य किया जाता है, किंतु वाम का अर्थ मनोरम या मन को अच्छा लगने वाला होता है।  मांस, मदिरा आदि प्रायः मन को प्रिय लगने वाले होते हैं। भोग (प्रवृत्ति) तथा मोक्ष (निवृत्ति) ये दो जीवन के मुख्य उद्देश्य हैं।  जिसमें भोग की भावना प्रबल होती है वो मन से मुक्ति की साधना नहीं कर सकता।  भले ही बाह्य रूप से विरक्त हो जाए।  ऐसे साधकों में भोग से विरक्ति स्वतः  उत्पन्न होनी चाहिये ; जो तभी संभव है जब वह भोग के रहस्य को उसके अंदर डूबकर जानेगा, उसकी नश्वरता को समझेगा।  कहा गया है कि 'इन्द्रियाणि हयानाहुः' -अर्थात इन्द्रियाँ घोड़ों के समान हैं तथा ये जन्म-जन्मान्तर से विषयों की ओर भागने में  ही अभ्यस्त हैं। और मन उनका लगाम है। बुद्धि सारथि है और आत्मा रथी है। 

'स्वयं पन्थानं हयस्येव मनसो ये निरुन्धते|

तेषां तत्खण्डना~योगाद् धावत्युत्पथकोटिभिः||'

अर्थात् बलपूर्वक मन को वैराग्य, शम, दम, तितिक्षा उपरति आदि के मार्ग में चलाने की चेष्टा की जाए तो उसके बिगड़कर उल्टे-सीधे मार्ग पर जाकर विपरीत फल हो सकता है।  अतः मर्यादित विषयभोग के साथ साधना तथा अभ्यास करना चाहिये। मर्यादित विषयभोग के साथ अभ्यास साधक को विषयानन्द से स्वाभाविक अरुचि तथा विरक्ति की दिशा में धीरे धीरे प्रवृत्त करता है। बाह्य विषयानंद ही तम है, मृत्यु है पर उसकी अनुभूति करनी पड़ती है।  उससे गुजरे बिना उसके प्रति अनादर, अनिच्छा, नश्वरता का भाव नहीं उभर सकता।  पंचमकार द्वारा साधना से विषयानन्द की प्राथमिक अवस्था को पार करते हुए आनन्द की अंतिम अवस्था जिसे जगदानन्द भी कहा गया है की अनुभूति होने पर परिमित से अपरिमित में, ससीम से असीम में प्रवेश होता है। 

 यह परमेश्वर का वह स्वभाव है, जिसके कारण वह सृष्टि- स्थिति- संहार लीला करता रहता है।  क्षणिक विषयानन्द की पराकाष्ठा पर पहुँच जाने पर युगल 'भैरव-भैरवीरूपता' का अनुभव करते हुए जगदानन्द में चिरलीनता पर समावेश और स्थैर्य की ओर बढता रहता है।  

>>कुल रहस्य स्त्री- पुरुष एक ही भाव के दो रूप हैं।  एक से दो तथा दो से रमण द्वारा ऐक्य सम्पादन।  यही कुल रहस्य है।  इस में परमेश्वर की विसर्ग शक्ति तथा जीव की विसर्ग शक्ति दोनों का प्रकार एक ही है।  और एक के द्वारा दूसरे को प्राप्त किया जा सकता है, बशर्ते ध्यान उसी असीम की ओर केन्द्रित रहे।  इस प्रकार की रहस्यमयी साधनाओं को न अधिक गुप्त रखना मान्य है न प्रकट करना।  यही कारण है कि शाक्त ग्रंथों में इसे प्रकट करते हुए भी बहुत कुछ गुप्त रखा गया है।  अतः यदि पुस्तक से पढकर एवं गुरु से रहस्य प्राप्त किए बिना कोई इस में प्रवृत्त होता है तो वह निश्चित पतन की ओर अग्रसर होता है।  अतः सिद्धांत है कि-'नातिरहस्यमेकत्रं ख्याप्यं न चाप्यत्यन्ततो गोप्यम्|' 

>>>भित्तचित्रों का रहस्य :  उपरोक्त साधना में भाव ही प्रधान है।  इसीलिए ' देवो भूत्वा देवं यजेत्' या ' ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति' जैसे वाक्यों का उपदेश किया गया है।  बाह्य से अंतर्मुखी हुए बिना तथा सत्यानुभूति के बिना मोक्ष संभव नहीं।  यही कारण है कि मंदिरों की बाहरी दीवार पर पंचमकार के चित्र हैं किंतु भीतर कहीं नहीं। यह बाह्य जगत का चित्रण है जो अस्थायी तथा नश्वर है।  इसका अनुभव करते हुए तथा त्यागकर भीतर जाना ही उद्दिष्ट है।  हृदय के दहराकाश में ब्रह्म के साथ आत्मा की एकाकारिता ही अपेक्षित है।  यदि बाहरी आवरण में ही लिप्त होकर रुक गए तो वहीं पतन अवश्यम्भावी है।  क्यूँकि यह बाह्यावरण अस्थायी, असत्, तम् तथा मृत्युरूप है। यही रहस्य भित्तचित्रों का है। 

तान्त्रिक साधना का मार्ग अति कठिन है, विशेषतः वाममार्ग. वाम साधना प्रशस्त मनोग्य साधना है, परन्तु इसका अधिकारी जितेन्द्रिय, निर्लोभी, परनिन्दा में मौनव्रती व्यक्ति ही हो सकता है। इसे गुप्त रखने का निर्देश भी भगवान शिव ने ही स्वयं तंत्र शास्त्रों में दिया है।  यही कारण है कि ग्रन्थों में सतही तथा अपूर्ण वर्णन ही प्राप्त होता है, रहस्य को गुरुगम्य (गुरु-शिष्य परम्परा से प्राप्त होने वाला) ही रखा गया है।  इसे प्रकट करने पर सिद्धियां नष्ट हो जातीं हैं। 

[मां बगलामुखी जी आठवी महाविद्या हैं।  बगला शब्द संस्कृत भाषा के वल्गा का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ होता है दुलहन । देवी के भक्त को तीनो लोकों में कोई नहीं हरा पाता, वह जीवन के हर क्षेत्र में सफलता पाता है। इनका प्रकाट्य स्थल गुजरात के सौरापट क्षेत्र में माना जाता है। बगलामुखी को 'वीर रति' भी कहा जाता है क्योंकि देवी स्वयं ब्रह्मास्त्र रूपिणी हैं। इनके शिव को महारुद्र कहा जाता है। इसी लिए देवी सिद्ध विद्या हैं। तांत्रिक इन्हें स्तंभन की देवी मानते हैं। गृहस्थों के लिए देवी समस्त प्रकार के संशयों का शमन करने वाली हैं। मानव जन्म बड़ी मुश्किल से प्राप्त होता है। इसे व्यर्थ ना गँवाये। हम सभी जानते है कि हम इस संसार से कुछ भी साथ लेकर नहीं जायेगे। यदि आपने यहाँ करोड़ो रुपये भी जोड़ लिए तो भी वो व्यर्थ ही हैं। ] 

>>सनातन धर्म में आगम (तंत्र-प्रवृत्ति) और निगम (वेद-निवृत्ति)– ये दोनों ही मार्ग ब्रह्मज्ञान की उपलब्धि कराने वाले माने गये हैं । दोनों ही मार्ग अनादि परम्परा-प्राप्त हैं । किन्तु, कलियुग में आगम-मार्ग को अपनाये बिना सिद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती; क्योंकि आगम तो सार्वर्विणक है, जबकि निगम त्रैवर्णिक यानी केवल द्विजातियों के लिए है । कहा गया है–

कलौ श्रुत्युक्त आचारस्त्रेतायां स्मृति सम्भव: ।

द्वापरे तु पुराणोक्त कलौवागम सम्भव: ।।

अर्थात् , सतयुग में वैदिक आचार, त्रेतायुग में स्मृतिग्रन्थों में उपदिष्ट आचार, द्वापरयुग में पुराणोक्त आचार तथा कलियुग में तंत्रोक्त आचार मान्य हैं । 

 [फुर्सत से देखें -https://archive.org/stream/yoni-tantra/]

भोग (प्रवृत्ति)  और मोक्ष (निवृत्ति) – साधकों के जीवन के ये दो मुख्य उद्देश्य होते हैं । जिन साधकों में भोग की भावना प्रबल होती है, वह मन से मुक्ति की साधना नहीं कर सकते । क्योंकि उनका मन भोग में लिप्त रहेगा, भले ही बाह्य रूप से वे विरक्त क्यों न हो जायँ । ऐसे साधकों को भोग से विरक्ति उत्पन्न होनी चाहिए । किन्तु, भोग में डूबकर उसके रहस्य को जाने बिना उससे विरक्ति होना सम्भव नहीं है । भोगों की नश्वरता और उनके अल्पस्थायित्व को समझे बिना उनसे निवृृत्ति और विरक्ति हो पाना नितान्त असम्भव है । अत: भोग में भी भक्ति-भाव आ जाय– इसके लिए ‘देव’ और ‘देवी’ के भाव को हृदय में स्थापित करते हुए– 

आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः

 प्राणाः शरीरं गृहं

पूजा ते विषयोपभोगरचना

निद्रा समाधिस्थितिः। 

सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः 

स्तोत्राणि सर्वा गिरो

यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं 

शम्भो तवाराधनम्।।  

(आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा रचित शिव मानस पूजा. ४.)

हे शम्भों ! आप मेरी आत्मा हैं, माँ भवानी मेरी बुद्धी हैं, मेरी इन्द्रियाँ आपके गण हैं एवं मेरा शरीर आपका गृह है। सम्पुर्ण विषय-भोग की रचना आपकी ही पूजा है। मेरे निद्रा की स्थिति समाधि स्थिति है, मेरा चलना आपकी ही परिक्रमा है, मेरे शब्द आपके ही स्तोत्र हैं। वास्त्व में मैं जो भी करता हूँ वह सब आपकी आराधना ही है।‘पूजा ते विषयोपभोगरचना’– की भावना के अनुसार साधना करते हुए भोग के भौतिक भाव को भुलाकर उसके आध्यात्मिक और आधिदैविक भाव की ओर अग्रसर होना ही इन गुह्य साधनाओं का परम लक्ष्य है । 

पूर्ण ब्रह्मानन्द और विषयानन्द– दोनों में अनन्तता और क्षणिकत्व का ही भेद है । निस्सन्देह बाह्य विषयानन्द तम है– मृत्यु है, किन्तु उसकी अनुभूति करनी पड़ती है । उससे गुजरे बिना उसके प्रति अनादर, अनिच्छा, अस्थायित्व और नश्वरता का भाव नहीं उभर सकता;क्योंकि विषय स्वाभाविक रूप से रमणीय तो होते ही हैं । इसीलिए वामाचारी तन्त्र-साधकों की मान्यता है कि–आनन्दं ब्रह्मणोरूपं तच्च देहे व्यवस्थितम् । वास्तव में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों को संस्कारों में परिवर्तित करके, उनकी दिशा बदलकर उनके माध्यम से भगवत्प्राप्ति या मोक्ष-प्राप्ति सहजता से की जा सकती है । ये प्रयोग त्याग, तपस्या, यज्ञानुष्ठान आदि की अपेक्षा ज्यादा आसान हैं, क्योंकि ये मानव की सहज वृत्तियों के अनुकूल हैं ।

        तन्त्र-साधना में देह को साधना का मुख्य आधार माना गया है । देह में स्थित ‘देव’ को उसकी सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ जागृत रखने के लिए ध्यान की पद्धति साधना का प्रारम्भिक चरण है । भगवान से हमें यह शरीर प्राप्त हुआ है, अत: भगवान भी इस शरीर से ही प्राप्त होंगें– यह तार्किक एवं स्वाभाविक सत्य है । देह पर संस्कारों और वासनाओं का आवरण विद्यमान रहता है । ‘वासना’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘वसन’ शब्द से हुई है । वसन का अर्थ है– वस्त्र । वस्तुत: वस्त्र वासना को उद्दीप्त करते हैं । अत: वस्त्र-विहीन देह से आत्मस्वरूप का ध्यान करना साधक को वासना-मुक्त होने में सहायक होता है । इसी प्रकार योनि-पूजन, लिंगार्चन, भैरवी-साधना, चक्र-पूजा आदि गुप्त साधनाओं के द्वारा तन्त्र-मार्ग में मुक्ति के आनन्द का अनुभव प्राप्त करने की अन्यान्य विधियाँ भी वर्णित हैं । किन्तु, ये सभी विधियाँ योग्य व अनुभवी गुरु के सानिध्य में ही सम्पन्न हों,तभी फलदायी होती हैं ।

दुर्गा सप्तशती में कहा गया है– ‘स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु’ । अर्थात् , जगत् में जो कुछ है वह स्त्री-रूप ही है, अन्यथा निर्जीव है । तांत्रिक साधना में स्त्री को शक्ति का प्रतीक माना गया है । बिना स्त्री के यह साधना सिद्धिदायक नहीं मानी गयी । तंत्र-मार्ग में नारी का सम्मान सर्वोच्च है, पूजनीय है । ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’– इस मान्यता को तंत्र-मार्ग में वास्तविक प्रतिष्ठा प्राप्त है । रूढ़िवादी सोच के लोग जहाँ नारी को ‘नरक का द्वार’कहते आये हैं, वहीं तंत्र-मार्ग में नारी को देवी का स्वरूप मानते हुए, उन्हें पुरुष के बराबर का अधिकार दिया गया है । तंत्र-मार्ग में किसी भी कुल की नारी को हेय नहीं माना गया है ।

भैरवी-चक्र-पूजा में सम्मिलित साधक/साधिका की योग्यता के विषय में ‘निर्वाण-तंत्र’में उल्लेख है–

नात्राधिकार: सर्वेषां ब्रह्मज्ञान् साधकान् बिना ।

परब्रह्मोपासका: ये ब्रह्मज्ञा: ब्रह्मतत्परा: ।।

शुद्धन्तकरणा: शान्ता: सर्व प्राणिहते रता: ।

निर्विकारा: निर्विकल्पा: दयाशीला: दृढ़व्रता: ।।

सत्यसंकल्पका: ब्रह्मास्त एवात्राधिकारिण: ।।

अर्थात्, चक्र-पूजा में सम्मिलित होने का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को नहीं है । जो ब्रह्म को जानने वाला साधक है, उसके सिवाय इसमें कोई शामिल नहीं हो सकता । जो ब्रह्म के उपासक हैं, जो ब्रह्म को जानते हैं, जो ब्रह्म को पाने के लिए तत्पर हैं, जिनके मन शुद्ध हैं, जो शान्तचित्त हैं, जो सब प्राणियों की भलाई में लगे रहते हैं, जो विकार से रहित हैं, जो दुविधा से रहित हैं, जो दयावान् हैं, जो प्रण पर दृढ़ रहने वाले हैं, जो सच्चे संकल्प वाले हैं, जो अपने को ब्रह्ममय मानते हैं– वे ही भैरवी-चक्र-पूजा के अधिकारी हैं ।

भैरवी-साधना का उद्देश्य मानव-देह में स्थित काम-ऊर्जा की आणविक शक्ति के माध्यम से संसार की विस्मृति और ब्रह्मानन्द की अनुभूति प्राप्त करना है । भैरवी-साधना कई चरणों में सम्पन्न होती है । प्रारम्भिक चरण में इस साधना के साधक स्त्री-पुरुष एकान्त और सुुगन्धित वातावरण में निर्वस्त्र होकर एक दूसरे के सामने बिना एक दूसरे को स्पर्श किए दो-तीन फुट  की दूरी पर सुखासन या पद्मासन में बैठकर एक दूसरे की आँखों में टकटकी लगाते हुए गुरु-मन्त्र का जप करते हैं । निरन्तर ऐसा करते रहने से साधकों के अन्दर का काम-भाव उर्ध्वगामी होकर दिव्य ऊर्जा के रूप में सहस्र- दल का भेदन करता है ।

इस साधना के दूसरे चरण में स्त्री-पुरुष साधक एक-दूसरे के अंग-प्रत्यंग का स्पर्श करते हुए ऊध्र्वगामी काम-भाव को स्थिर बनाये रखने का प्रयत्न करते हैं । इस बीच गुरु-मन्त्र का जप निरन्तर होते रहना चाहिए । कामोद्दीपन की बाहरी क्रियाओं को करते हुए स्खलन से बचने के लिए भरपूर आत्मसंयम रखना चाहिए । गुरु-कृपा और गुरु-निर्देशन में साधना करने से संयम के सूत्र आसानी से समझे जा सकते हैं ।

भैरवी-साधना के अन्तिम चरण में स्त्री-पुरुष साधकों द्वारा परस्पर सम-भोग (संभोग) की क्रिया सम्पन्न की जाती है । समान भाव, समान श्रद्धा, समान उत्साह और समान संयम की रीति से शारीरिक भोग की इस साधना को ही सम-भोग अथवा संभोग कहा गया है । यह क्रिया निरापद, निर्भीक, नि:संकोच, निद्र्वन्द्व और निर्लज्ज भाव से मंत्र-जप करते हुए सम्पन्न की जानी चाहिए । युगल-साधकों को पूर्ण आत्मसंयम बरतते हुए भरपूर प्रयास इस बात का करना चाहिए कि दोनों का स्खलन यथासंभव विलम्ब से और एकसाथ सम्पन्न हो । अनुभवी गुरु के मार्गदर्शन में भैरवी-चक्र-पूजा के दौरान यह आसानी से संभव हो पाता है ।

भैरवी-चक्र की अनेक विधियाँ बतायी गई हैं, राजचक्र, महाचक्र, देवचक्र, वीरचक्र, पशुचक्र आदि । चक्र-भेद के अनुसार इस साधना में स्त्री के जाति-वर्ण, पूजा-उपचार, देश-काल, तथा फल-प्राप्ति में अन्तर आ जाता है । भैरवी चक्र-पूजा में सम्मिलित सभी उपासक एवं उपासिकाएँ भैरव और भैरवी स्वरूप हो जाते हैं, क्योंकि उनका देहाभिमान गल जाता है और वे देह-भेद या जाति-भेद से ऊपर उठ जाते हैं । किन्तु , चक्रार्चन के बाहर वर्णाश्रम-कर्म का पालन अवश्य करना चाहिए ।

भैरवी-चक्र-पूजा की सफलता पर एक अलौकिक अनुभव प्राप्त होता है । जैसे बिजली के दो तारों– फेस और न्यूटल– के टकराने से चिंगारी निकलती है, वैसे ही स्त्री-पुरुष दोनों के एकसाथ स्खलित होने से जो चरम-ऊर्जा उत्पन्न होती है, वह एक ही झटके में सहस्रदल का भेदन कर ब्रह्मानंद का साक्षात्कार करवा देने में सक्षम है । तंत्र-मार्ग में इसी को ‘ब्रह्म-सुख’कहा गया है–

शक्ति-संगम संक्षोभात् शत्तäयावेशावसानिकम् ।

यत्सुखं ब्रह्मतत्त्वस्य तत्सुखं ब्रह्ममुच्यते ।।

अर्थात्, शक्ति-संगम के आरम्भ से लेकर शक्ति-आवेश के अन्त तक जो ब्रह्मतत्व का सुख प्राप्त होता है, उसे ‘ब्रह्म-सुख’ कहा जाता है । सहस्र-दल-भेदन करने के लिए आज तक जितने भी प्रयोग हुए हैं, उन सभी प्रयोगों में यह प्रयोग सबसे अनूठा है । भैरवी-साधना सिद्ध होे जाने पर साधक को ब्रह्माण्ड में गूँज रहे दिव्य मंत्र सुनायी पड़ने लगते हैं, दिव्य प्रकाश दिखने लगता है तथा साधक के मन में दीर्घ अवधि तक काम-वासना जागृत नहीं होती । साथ ही उसका मन शान्त व स्थिर हो जाता है तथा उसके चेहरे पर एक अलौकिक आभा झलकने लगती है ।

प्रत्येक साधना में कोई-न-कोई कठिनाई अवश्य होती है । भैरवी-साधना में भी जो सबसे बड़ी कठिनाई है– वह है अपने आप को काबू में रखना तथा साधक व साधिका का एक साथ स्खलित होना। निश्चय ही गुरु-कृपा और निरन्तर के अभ्यास से यह सम्भव हो पाता है । भैरवी-साधना प्रकारान्तर से शिव-शक्ति की आराधना ही है । शुद्ध और समर्पित भाव से, गुरु-आज्ञानुसार साधक यदि इसको आत्मसात् करें तो जीवन के परम लक्ष्य– ब्रह्मानंद की उपलब्धि उनके लिए सहज सम्भव हो जाती है ।

किन्तु, कलिकाल के कराल-विकराल जंजाल में फंसे हुए मानव के लिए भैरवी-साधना के रहस्य को समझ पाना अति दुष्कर है । यंत्रवत् दिनचर्या व्यतीत करने वाले तथा भोगों की लालसा में रोगों को पालने वाले आधुनिक जीवन-शैली के दास भला इस दैवीय साधना के परिणामों से वैâसे लाभान्वित हो सकते हैं ? इसके लिए शास्त्र और गुरु-निष्ठा के साथ-साथ गहन आत्मविश्वास भी आवश्यक है ।

>>> योनि-तंत्र' की साधना : गहराई से विचार करें तो मानव-जीवन में तुष्टि, पुष्टि, सृष्टि और सुख-समृद्धि की वृष्टि करनेवाली एकमात्र देवी भगवती 'योनि-लक्ष्मी' ही हैं।   जिस घर में स्त्री-योनि संतुष्ट रहती है, वहाँ सभी प्रकार की शांति और संपदा स्वत: आकर विराजमान हो जाती हैं। शायद इसीलिए शास्त्रों ने यह उद्घोष किया है कि -"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता।"

'योनि-तंत्र' की साधना वस्तुत: त्रिगुणात्मक आद्याशक्ति की ही उपासना है - योनि के ऊपरी भाग में कमल की पंखुड़ियों को सदृश भगोष्ठों के मध्य कमलासना लक्ष्मी, मध्य के गह्वर में महाकाली तथा मूल में स्थित गर्भनाल (कमलनाल) में सरस्वती की स्थिति कही गई है -"कार्तिकी कुंतलंरूपं योन्युपरि सुशोभितम् ......."या "योनिमध्ये महाकाली छिद्ररूपा सुशोभना .....योनि मात्र शरीराय कुंजवासिनि कामदा। रजोस्वला महातेजा कामाक्षी ध्येताम सदा।।" आदि-आदि श्लोकों में इसी त्रिगुणात्मिका शक्ति की ही अभ्यर्थना की गई है। इसलिए 'कामतंत्र' में स्त्री (योनि) की संतुष्टि ही सभी प्रकार की ऋद्धि-सिद्धि और समृद्धि का आधार मानी गई है।  यानी जिस घर में स्त्री असंतुष्ट-अतृप्त रहती है, वहाँ दु:ख, दरिद्रता, कलह और रोग-शोक आदि का साम्राज्य हो जाता है।    लिंग पूजा पूरे विश्व में होती है ,सभी बड़ी ख़ुशी से छू छू कर करते हैं ,पर योनी पूजा के नाम पर नाक भौं सिकुड़ता है ,जबकि मूल उत्पत्ति कारक यही है।   इसे मूर्खता और छुद्र मानसिकता नहीं तो और क्या कहेंगे।  

[माँ शक्ति को 'महायोनी स्वरूपिणी' कहा जाता है। जिसका अर्थ हुआ सभी को पैदा करने वाली।  उस 'दिव्य योनी' का यांत्रिक चित्र ही 'श्री यन्त्र' है. वो 'महायोनी' ही 'श्री विद्या' हैं।  इसलिए तंत्र की खोज करने वाले रहस्य चित्रों को यथारूप न ले कर उसे 'स्वरुप रहस्यानुसार' समझें।  योनी तंत्र सृष्टि उत्पत्ति का परा विज्ञान है।  न की स्त्री शरीर का अवयव।  'माँ करुणाकारिणी स्वर्ण सिंहासनमयी कामरूपिणी 'कामाख्या योनी' ब्रह्माण्ड उत्तपत्ति का प्रतीक हैं व शक्ति उतपत्ति का प्रतीक। ]

>>>सम्भोग का अर्थ है सम+भोग यथा एक दसरे का बराबर भोग करना।  भोग मात्र शारीरिक नहीं होता।  भोग के कई स्वरुप है।  भोग जिससे आनंद की अनुभूति हो जोकि किसी एक तरीके से बंधा नहीं है।  या शारीरिक सुख भी उसका ही स्वरुप है, किसी भी शक्ति की पूर्ण संतुष्टि के लिए साधक को हर तरह से उसे प्रसन्न करने के लिए तत्पर होना चाहिए..."योनिमध्ये महाकाली छिद्ररूपा सुशोभना ....."योनि स्तोत्रं। " 

ॐभग-रूपा जगन्माता सृष्टि-स्थिति-लयान्विता ।

दशविद्या - स्वरूपात्मा योनिर्मां पातु सर्वदा ।।१।।

कोण-त्रय-युता देवि स्तुति-निन्दा-विवर्जिता ।

जगदानन्द-सम्भूता योनिर्मां पातु सर्वदा ।।२।।

कात्र्रिकी - कुन्तलं रूपं योन्युपरि सुशोभितम् ।

भुक्ति-मुक्ति-प्रदा योनि: योनिर्मां पातु सर्वदा ।।३।।

वीर्यरूपा शैलपुत्री मध्यस्थाने विराजिता ।

ब्रह्म-विष्णु-शिव श्रेष्ठा योनिर्मां पातु सर्वदा ।।४।।

योनिमध्ये महाकाली छिद्ररूपा सुशोभना ।

सुखदा मदनागारा योनिर्मां पातु सर्वदा ।।५।।

काल्यादि-योगिनी-देवी योनिकोणेषु संस्थिता ।

मनोहरा दुःख लभ्या योनिर्मां पातु सर्वदा ।।६।।

सदा शिवो मेरु-रूपो योनिमध्ये वसेत् सदा ।

वैâवल्यदा काममुक्ता योनिर्मां पातु सर्वदा ।।७।।

सर्व-देव स्तुता योनि सर्व-देव-प्रपूजिता ।

सर्व-प्रसवकत्र्री त्वं योनिर्मां पातु सर्वदा ।।८।।

सर्व-तीर्थ-मयी योनि: सर्व-पाप प्रणाशिनी ।

सर्वगेहे स्थिता योनि: योनिर्मां पातु सर्वदा ।।९।।

मुक्तिदा धनदा देवी सुखदा कीर्तिदा तथा ।

आरोग्यदा वीर-रता पञ्च-तत्व-युता सदा ।।१०।।

योनि स्तोत्रं 

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श्रृणु देवी सुर-श्रेष्ठे सुरासुर नमस्कृते |

इदानीं श्रोतुमिच्छामि स्तोत्रं ही सर्वदुर्लभम|

यस्या व् वोधानाद्देहे देहि ब्रह्म -मयो भवेत् ||१ 

श्री पार्वत्युवाच 

श्रुणु देव सुरश्रेष्ठ सर्व-बीजस्य सम्मतम |

न वक्तव्यं कदाचित्तु पाषन्ड नास्तिके नरे ||२ 

ममैव प्राण-सर्वस्वं लतास्तोत्रं दिगंबर | 

अस्य प्रपठनाद्देव जीवन्मुक्तोअपि जायते ||३ 

ॐ भग-रूपा जगन्माता सृष्टि-स्थिति -लयान्विता|

दशविद्या-स्वरूपात्मा योनिर्मा पातु सर्वदा ||४ 

कोण-त्रय-युता देवी स्तुति-निंदा- विवर्जिता | 

जगदानंद -संभूता योनिर्मा पातु सर्वदा ||५ 

रक्त रूपा जगन्माता योनीमध्ये सदास्थिता |

ब्रह्म-विष्णु-शिव-प्राणा योनिर्मा पातु सर्वदा ||६ 

कार्त्रिकी-कुन्तलं रूपं योन्युपरि सुशोभितम |

भुक्ति-मुक्ति-प्रदा योनिः योनिर्मा पातु सर्वदा ||७ 

वीर्यरूपा शैलपुत्री मध्यस्थाने विराजिता |

ब्रह्म- विष्णु- शिव श्रेष्ठा योनिर्मा पातु सर्वदा ||८ 

योनिमध्ये महाकाली छिद्ररूपा सुशोभना | 

सुखदा मदनागारा योनिर्मा पातु सर्वदा ||९ 

काल्यादी योगिनी देवी योनिकोणेषु संस्थिता |

मनोहरा दुःख लभ्या योनिर्मा पातु सर्वदा ||१० 

सदा शिवो मेरु-रूपों योनिमध्ये वसेत सदा | 

कैवल्यदा काममुक्ता योनिर्मा पातु सर्वदा ||११ 

सर्व -देव स्तुता योनिः सर्व -देव प्रपूजिता | 

सर्व- प्रसवकर्त्री त्वं योनिर्मा पातु सर्वदा ||१२ 

सर्व-तीर्थ-मयी योनिः सर्व-पाप-प्रणाशिनी | 

सर्वगेहे स्थिता योनिः योनिर्मा पातु सर्वदा ||१३ 

मुक्तिदा धनदा देवी सुखदा किर्तिदा तथा | 

आरोग्यदा वीर-रता पंच-तत्व-युता सदा ||१४

योनिस्तोत्रमिदं प्रोक्तं यः पठेत योनी संनिधौ |

शक्तिरूपा महादेवी तस्यगेहे सदा स्थिता ||१५

तीर्थं पर्यटनं नास्ति नास्ति पुजादी-तर्पणं | 

पुरश्चरणम नास्त्येव तस्य मुक्तिरखंडिता ||१६

केवलं मैथुनेनैव शिवतुल्यो न संशयः |

सत्यं सत्यं पुनः सत्यं मम वाक्यं वृथा न हि ||१७

यदि मिथ्या मया प्रोक्ता तव ह्त्या सुपातकी |

कृतांजलि -पुटो भूत्वा पठेत स्तोत्रं दिगंबर ||१८

सर्वतीर्थेषु यत पुण्यं लभते च स साधकः |

काल्यादी दशविद्याश्च गंगादी -तीर्थ-कोटयः ||

योनी दर्शन मात्रेण सर्वाः साक्षान्न संशयः ||१९ 

कुल-संभव -पुजायामादौ चांते पठेदिदम |

अन्यथा पूजनाद्देव रामनाम मरणं भवेत् ||२० 

एकसंध्या-त्रिसंध्या वा पठेत स्तोत्रमनन्यधि:|

निशायाम सम्मुखे शक्त्याः स शिवो नात्र संशयः ||२१ 

इति निगमकल्पद्रुमे योनी स्तोत्रं समाप्तम| 

>>>सेक्स एक सृजनात्मक शक्ति है। इसे समझे ||

प्रेम करना और प्रेम चाहना, ये बड़ी अलग बातें हैं। छोटे-छोटे बच्चे प्रेम चाहते हैं। मां उनको प्रेम देती है। फिर वे बड़े होते हैं। वे और लोगों से भी प्रेम चाहते हैं, परिवार उनको प्रेम देता है। फिर वे और बड़े होते हैं। अगर वे पति हुए, तो अपनी पत्नियों से प्रेम चाहते हैं। अगर वे पत्नियां हुईं, तो वे अपने पतियों से प्रेम चाहती हैं। और जो भी प्रेम चाहता है, वह दुख झेलता है। क्योंकि प्रेम चाहा नहीं जा सकता, प्रेम केवल किया जाता है। चाहने में पक्का नहीं है, मिलेगा या नहीं मिलेगा। और जिससे तुम चाह रहे हो, वह भी तुमसे चाहेगा। तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। दोनों भिखारी मिल जाएंगे और भीख मांगेंगे। दुनिया में जितना पति-पत्नियों का संघर्ष है, उसका केवल एक ही कारण है कि वे दोनों एक-दूसरे से प्रेम चाह रहे हैं और देने में कोई भी समर्थ नहीं है।

प्रेम दिया जाता है, प्रेम मांगा नहीं जाता, सिर्फ दिया जाता है। जो मिलता है, वह प्रसाद है, वह उसका मूल्य नहीं है। प्रेम दिया जाता है। जो मिलता है, वह उसका प्रसाद है, वह उसका मूल्य नहीं है। नहीं मिलेगा, तो भी देने वाले का आनंद होगा कि उसने दिया। सच्चा संन्यासी वह है, जिसकी एक दिन पत्नी मां हो जाए; पत्नी को छोड़कर भाग जाने वाला नहीं। सच्चा संन्यासी वह है, जिसकी एक दिन पत्नी मां बन जाए। सच्ची संन्यासिनी वह है, जो एक दिन अपने पति को अपने पुत्र की तरह अनुभव कर पाए। पुराने ऋषि सूत्रों में एक अदभुत बात कही गयी है। पुराना ऋषि कभी आशीर्वाद देता था कि ‘तुम्हारे दस पुत्र हों और ईश्वर करे, ग्यारहवां पुत्र तुम्हारा पति हो जाए।’ बड़ी अदभुत बात थी। ये आशीर्वाद देते थे वधु को विवाह करते वक्त कि ‘तुम्हारे दस पुत्र हों और ईश्वर करे, तुम्हारा ग्यारहवां पुत्र तुम्हारा पति हो जाए।’ यह अदभुत कौम थी और अदभुत विचार थे। और इसके पीछे बड़ा रहस्य था। ब्रह्मचर्य सेक्स का विरोध नहीं है, ब्रह्मचर्य सेक्स की शक्ति का उदात्तीकरण है। सेक्स की ही शक्ति ब्रह्म की शक्ति में परिवर्तित हो जाती है। वही शक्ति, जो नीचे की तरफ बहती थी, अधोगामी थी, ऊपर की तरफ गतिमान हो जाती है। सेक्स ऊर्ध्वगामी हो जाए, तो परमात्मा तक पहुंचाने वाला बन जाता है। और सेक्स अधोगामी हो, तो संसार में ले जाने का कारण होता है।

हममें से अधिक लोग बच्चे ही रहकर मर जाते हैं। क्योंकि हरेक आदमी प्रेम चाहता है। प्रेम करना बड़ी अदभुत बात है। प्रेम चाहना बिलकुल बच्चों जैसी बात है। प्रेम को विस्तीर्ण करें। प्रेम सेक्स का क्रिएटिव उपयोग है, उसका सृजनात्मक उपयोग है। जीवन को प्रेम से भरें।सेक्स की जो शक्ति है, उसका परिवर्तन, उसका उदात्तीकरण प्रेम में होता है।दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं। एक वे लोग हैं, जो सेक्स की, काम की शक्ति से पीड़ित हैं। और एक वे लोग हैं, जिन्होंने काम की शक्ति को प्रेम की शक्ति में परिणत कर लिया है।जितना प्रेम विकसित होता है, सेक्स क्षीण हो जाता है। और जितना प्रेम कम होता है, उतना सेक्स ज्यादा हो जाता है। जिस आदमी में जितना ज्यादा प्रेम होगा, उतना उसमें सेक्स विलीन हो जाएगा। अगर आप परिपूर्ण प्रेम से भर जाएंगे, आपके भीतर सेक्स जैसी कोई चीज नहीं रह जाएगी। और अगर आपके भीतर कोई प्रेम नहीं है, तो आपके भीतर सब सेक्स है।

शरीर में सात धातु हैं । त्वचा, रक्त, मांस वसा, हड्डी, मज्जा और वीर्य (नर शरीर में ) या रज (नारी शरीर में ) । मूल आधार स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्त्रार नामक सात ऊर्जा केंद्र शरीर में है । जिन पर ध्यान का अभ्यास करने से देवीय शक्ति प्राप्त होती है । मनुष्य का शरीर अनु, परमाणुओं के संघटन से बना है । जिस तरह अणु, परमाणु सदा गति शील रहते हैं । किन्तु प्रकाश एक ऊर्जा मात्र है जो कभी तरंग और कभी कण की तरह व्यवहार करता है । उसी तरह आत्म सूर्य के प्रकाश से भी अधिक सूक्ष्म और व्यापक है । यह इस तरह सिद्ध होता है की सूर्य के प्रकाश को पृथ्वी तक आने में कुछ मिनट लगते हैं । जब की मनुष्य उसे आँख खोलते ही देख लेता है । अतः आत्मा प्रकाश से भी सूक्ष्म है । जिसका अनुभव और दर्शन केवल ध्यान के माध्यम से ही होता है । जब तक मन उस आत्मा का साक्षात्कार नहीं कर लेता उसे मोह से मुक्ति नहीं मिल सकती । मोह मनुष्य को भय भीत करता है । क्योंकि जो पाया है उसके खोने का भय उसे सताता रहता है । जबकि आत्म दर्शन से दिव्य प्रेम की अनुभूति होती है । जो व्यक्ति को निर्भय करती है क्योंकि उसे सब के अस्तित्व में उसी दिव्य ज्योति का दर्शन होने लगता है ।

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" रटन्ति निशा- भ्रमण -2 और सत्यार्थी की जिज्ञासा"

"Ratanti Nisha - Excursion-2 and Satyarthi's Curiosity"

"রতন্তি নিশা- ভ্রমণ-২ এবং সত্যার্থীর কৌতূহল" 

>>>समास का तात्पर्य होता है – संक्षिप्तीकरण। इसका शाब्दिक अर्थ होता है – छोटा रूप। अथार्त जब दो या दो से अधिक शब्दों से मिलकर जो नया और छोटा सार्थक शब्द (जिसका कोई अर्थ हो) बनता है उस संक्षिप्त शब्द को समास कहते हैं। सामासिक या यौगिक शब्द – (Compound word)समास के नियमों से निर्मित शब्द सामासिक शब्द कहलाता है।समास होने के बाद विभक्तियों के चिन्ह गायब हो जाते हैं। समास रचना में दो पद होते हैं, पहले पद को ‘पूर्वपद’कहा जाता है और दूसरे पद को ‘उत्तरपद’कहा जाता है। रसोई के लिए घर = रसोईघर, हाथ के लिए कड़ी = हथकड़ी, नील और कमल = नीलकमल, राजा का पुत्र = राजपुत्र। राजपुत्र (समस्तपद) – राजा (पूर्वपद) + पुत्र (उत्तरपद) – राजा का पुत्र (समास-विग्रह। )

समास और संधि में अंतर-संधि का शाब्दिक अर्थ होता है – मेल। संधि में उच्चारण के नियमों का विशेष महत्व होता है।  संधि में जिन शब्दों का योग होता है, उनका मूल अर्थ नहीं बदलता।जैसे –पुस्तक+आलय = पुस्तकालय। समास का शाब्दिक अर्थ होता है – संक्षेप। समास में वर्णों के स्थान पर पद का महत्व होता है। इसमें दो या दो से अधिक पद मिलकर एक समस्त पद बनाते हैं और इनके बीच से विभक्तियों का लोप हो जाता है। समस्त पदों को तोडने की प्रक्रिया को विग्रह कहा जाता है। समास में बने हुए शब्दों के मूल अर्थ को परिवर्तित किया भी जा सकता है और परिवर्तित नहीं भी किया जा सकता है।जैसे –विषधर = विष को धारण करने वाला अथार्त शिव। समास के मुख्यतः छः भेद माने जाते हैं –

1. अव्ययीभाव समास : जिस समास का पूर्व पद प्रधान हो, और वह अव्यय हो उसे अव्ययीभाव समास कहते हैं। इसमें पहला पद उपसर्ग होता है जैसे अ, आ, अनु, प्रति, हर, भर, नि, निर, यथा, यावत आदि उपसर्ग शब्द का बोध होता है।जैसे –यथाशक्ति = शक्ति के अनुसार, प्रतिदिन = प्रत्येक दिन, आजन्म = जन्म से लेकर, अभूतपूर्व = जो पहले नहीं हुआ, निर्भय = बिना भय के।  

2. तत्पुरुष समास : जिस समास का उत्तरपद प्रधान हो और पूर्वपद गौण हो उसे तत्पुरुष समास कहते हैं।  द्वितीय पद, अर्थात बादवाले पद के विशेष्य होने के कारण इस समास में उसकी प्रधानता रहती है।जैसे –धर्म का ग्रन्थ = धर्मग्रन्थ, राजा का कुमार = राजकुमार, तुलसीदासकृत = तुलसीदास द्वारा कृत। 
 नञ तत्पुरुष समास।  इसमें पहला पद निषेधात्मक होता है उसे नञ तत्पुरुष समास कहते हैं।जैसे –असभ्य = न सभ्य, अनादि = न आदि, असंभव = न संभव, अनंत = न अंत। 
3. द्वंद्व समास : इस समास में दोनों पद ही प्रधान होते हैं इसमें किसी भी पद का गौण नहीं होता है। ये दोनों पद एक-दूसरे पद के विलोम होते हैं लेकिन ये हमेशा नहीं होता है। इसका विग्रह करने पर और, अथवा, या, एवं का प्रयोग होता है उसे द्वंद्व समास कहते हैं। द्वंद्व समास में योजक चिन्ह (-) और ‘या’ का बोध होता है।जैसे –जलवायु = जल और वायु, अपना-पराया = अपना या पराया, पाप-पुण्य = पाप और पुण्य, राधा-कृष्ण = राधा और कृष्ण, अन्न-जल = अन्न और जल, नर-नारी = नर और नारी, गुण-दोष = गुण और दोष, देश-विदेश = देश और विदेश।
इतरेतरद्वंद्व समास -वो द्वंद्व जिसमें और शब्द से भी पद जुड़े होते हैं और अलग अस्तित्व रखते हों उसे इतरेतर द्वंद्व समास कहते हैं। जैसे –राम और कृष्ण = श्री रामकृष्ण !!माँ और बाप = माँ-बाप, अमीर और गरीब = अमीर-गरीब, गाय और बैल = गाय-बैल, ऋषि और मुनि = ऋषि-मुनि यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि इतरेतर द्वन्द्व में दोनों पद न केवल प्रधान होते है, बल्कि अपना अलग-अलग अस्तित्व भी रखते है। 
बहुब्रीहि समास :  इस समास में कोई भी पद प्रधान नहीं होता। जब दो पद मिलकर तीसरा पद बनाते हैं तब वह तीसरा पद प्रधान होता है। इसका विग्रह करने पर “वाला, है, जो, जिसका, जिसकी, जिसके, वह”आदि आते हैं, वह बहुब्रीहि समास कहलाता है। जैसे –नीलकंठ = नीला है कंठ जिसका (शिव),यहाँ पर दोनों पदों ने मिल कर एक तीसरे पद ‘शिव’ का संकेत किया, इसलिए यह बहुव्रीहि समास है। गजानन = गज का आनन है जिसका (गणेश),त्रिनेत्र = तीन नेत्र हैं जिसके (शिव), लम्बोदर = लम्बा है उदर जिसका (गणेश), दशानन = दश हैं आनन जिसके (रावण), चतुर्भुज = चार भुजाओं वाला (विष्णु), पीताम्बर = पीले हैं वस्त्र जिसके (कृष्ण), चक्रधर= चक्र को धारण करने वाला (विष्णु)
शिव सूत्र (संस्कृत: शिवसूत्राणि या महेश्वर सूत्राणि) को संस्कृत व्याकरण का आधार माना जाता है। अष्टाध्यायी में ३२ पाद हैं जो आठ अध्यायों मे समान रूप से विभक्त हैं।  पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन लगभग ४००० सूत्रों में किया है , जो आठ अध्यायों में (संख्या की दृष्टि से असमान रूप से) विभाजित हैं।
>>>कर्मधारय समास : जिस समास का उत्तरपद प्रधान होता है, जिसके लिंग, वचन भी सामान होते हैं। जो समास में विशेषण-विशेष्य और उपमेय-उपमान से मिलकर बनते हैं, उसे कर्मधारय समास कहते हैं।कर्मधारय समास  के विग्रह में ‘है जो, ‘के समान है जो’ तथा ‘रूपी’शब्दों का प्रयोग होता है।जैसे –चन्द्रमुख – चन्द्रमा के सामान मुख वाला – (विशेषता), दहीवड़ा – दही में डूबा बड़ा – (विशेषता), गुरुदेव – गुरु रूपी देव – (विशेषता), चरण कमल – कमल के समान चरण – (विशेषता), नील गगन – नीला है जो असमान – (विशेषता)!

भवानि शङ्करौ वन्दे श्रध्दा विश्वास रूपिणौ। 

याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्।।   

हम माँ भवानी और शिव जी की वंदना करते है। श्रद्धा का नाम माँ पार्वती और विश्वास का नाम शिव है। और इस श्रद्धा-विश्वास की प्रतीक विग्रह की मूर्ति को ही हम मंदिरों में स्थापित करते हैं। इनके चरणों पर हम अपना मस्तक झुकाते, जलाभिषेक करते, बेलपत्र चढ़ाते और आरती करते है। और इसी श्रद्धा-विश्वास के बल पर ही मनुष्य भगवान को प्राप्त कर लेता है।

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पथिक क्या दादा के दादू ही हैं ? *फुरसत से देखें -https://www.facebook.com/shreevidyarahsy

[🔱🙏यक्ष-प्रश्न :  का वार्ता ? What is the News ? रोचक वार्ता  क्या है? (आज की ताजा खबर क्या है ?)
१. कौन व्यक्ति आनंदित या सुखी है?
पञ्चमेऽहनि षष्ठे वा शाकं पचति स्वे गृहे ।
अनृणी चाप्रवासी च स वारिचर मोदते ।।१५।।
(वारिचर, स्वे गृहे पञ्चमे वा षष्ठे अहनि शाकं पचति, अनृणी च अप्रवासी च सः मोदते ।)
१. हे जलचर (वारिचर या जलाशय में निवास करने वाले यक्ष), जो व्यक्ति पांचवें-छठे दिन ही सही, जो व्यक्ति अपने घर में शाक (सब्जी) पकाकर खाता है, जिस पर किसी का ऋण नहीं है और जिसे परदेस में नहीं रहना पड़ता है, वही मुदित-सुखी है । यदि युधिष्ठिर के शाब्दिक उत्तर को महत्त्व न देकर उसके भावार्थ पर ध्यान दें, तो इस कथन का तात्पर्य यही है जो सीमित संसाधनों के साथ अपने परिवार के बीच रहते हुए संतोष कर पाता हो वही वास्तव में सुखी है ।
2 . आज की ताजा खबर क्या है ?/ रोचक वार्ता क्या है?

अस्मिन् महामोहमये कटाहे सूर्याग्निना रात्रिदिवेन्धनेन ।
मासर्तुदर्वीपरिघट्टनेन भूतानि कालः पचतीति वार्ता ।।१९।।

(कालः अस्मिन् महा-मोह-मये कटाहे सूर्य-अग्निना रात्रि-दिवा-इन्धनेन मास-ऋतु-दर्वी-परिघट्टनेन भूतानि पचति इति वार्ता ।)
काल (यानी निरंतर प्रवाहशील समय) सूर्य रूपी अग्नि और रात्रि-दिन रूपी इंधन से तपाये जा रहे भवसागर रूपी महा मोहयुक्त कढ़ाई में महीने तथा ऋतुओं के कलछे से उलटते-पलटते हुए जीवधारियों को पका रहा है । यही प्रमुख वार्ता (खबर) है ।
अर्थात यह कौतुक करने सी बात है कि मोहमयी कड़ाही में, मास, वर्ष इत्यादि के परिवर्तन तथा सूर्य रूपी अग्नि के इन्धन से काल रात -दिन प्राणियों को पकाता है। 

 -"Though the physicality of death destroys the individual, the idea of death can save him" . Irvin D Yalom/Existential Psychotherapy)
 अमेरिकी मनोचिकित्सक इरविन डी यालोम ने 'अस्तित्व संबंधी मनोचिकित्सा' (Existential Psychotherapy) का अध्यन किया था। 
इरविन डी यालोम एक अमेरिकी मनोचिकित्सक थे जिन्होंने 'अस्तित्व संबंधी मनोचिकित्सा' (आस्तिक्यबुद्धि या नचिकेता की आत्मश्रद्धा)  का अध्ययन किया था । वे अपनी पुस्तक "Existential Psychotherapy" "अस्तित्ववादी मनोचिकित्सा", में कहते हैं कि स्वयं को जानने के लिए व्यक्ति को अपने अस्तित्व के विपरीत परिस्थिति का निर्भयता के साथ - आस्तिक्यबुद्धि के साथ सामना करना पड़ता है। स्वयं के अविनाशी स्वरुप को जीवन- मृत्यु के कगार पर पहुँचकर ही जाना जा सकता है। स्वयं को जानने के  सही तरीके को अर्थात आत्मश्रद्धा को  तर्क से नहीं जोड़ा जा सकता है, लेकिन यह सहज ज्ञान युक्त है।  इसे  "अपने अविनाशी अस्तित्व का अनुभव" कहा जा सकता है।  
>>>मृत्यु से भय कैसा? - प्रेरक कहानी 
राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत पुराण सुनातें हुए जब शुकदेव जी महाराज को छह दिन बीत गए और तक्षक (सर्प) के काटने से मृत्यु होने का एक दिन शेष रह गया, तब भी राजा परीक्षित का शोक और मृत्यु का भय दूर नहीं हुआ। अपने मरने की घड़ी निकट आता देखकर राजा का मन क्षुब्ध हो रहा था।
तब शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित को एक कथा सुनानी आरंभ की..राजन! बहुत समय पहले की बात है, एक राजा जंगल में शिकार खेलने गया, संयोगवश वह रास्ता भूलकर घने जंगल में जा पहुँचा। उसे रास्ता ढूंढते-ढूंढते रात्रि हो गई और वर्षा होने लगी। राजा बहुत डर गया और किसी प्रकार उस भयानक जंगल में रात्रि बिताने के लिए विश्राम का स्थान ढूंढने लगा।
कुछ दूरी पर उसे एक दीपक जलता हुआ दिखाई दिया। वहाँ पहुँचकर उसने एक बहेलिये की झोंपड़ी देखी। वह बहेलिया ज्यादा चल-फिर नहीं सकता था, इसलिए झोंपड़ी में ही एक ओर उसने मल-मूत्र त्यागने का स्थान बना रखा था, अपने खाने के लिए जानवरों का मांस उसने झोंपड़ी की छत पर लटका रखा था।
वह झोंपड़ी बड़ी गंदी, छोटी, अंधेरी और दुर्गंधयुक्त थी। उस झोंपड़ी को देखकर पहले तो राजा ठिठका, लेकिन उसने सिर छिपाने का कोई और आश्रय न देखकर उस बहेलिये से अपनी झोंपड़ी में रात भर ठहरने देने के लिए प्रार्थना की।बहेलिये ने कहा कि आश्रय के लोभी राहगीर कभी-कभी यहाँ आ भटकते हैं। मैं उन्हें ठहरा तो लेता हूँ, लेकिन दूसरे दिन जाते समय वे बहुत झंझट करते हैं।
उन्हें इस झोंपड़ी की गंध ऐसी भा जाती है कि फिर वे उसे छोड़ना ही नहीं चाहते और इसी में ही रहने की कोशिश करते हैं एवं अपना कब्जा जमाते हैं। ऐसे झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूँ, इसलिए मैं अब किसी को भी यहां नहीं ठहरने देता। मैं आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूंगा। राजा ने प्रतिज्ञा की, कि वह सुबह होते ही इस झोंपड़ी को अवश्य खाली कर देगा। यहाँ तो वह संयोगवश भटकते हुए आया है, उसे तो सिर्फ एक रात काटनी है।
     तब बहेलिये ने राजा को वहाँ ठहरने की अनुमति दे दी, पर सुबह होते ही बिना कोई झंझट किए झोंपड़ी खाली करने की शर्त को दोहरा दिया। राजा रात भर एक कोने में पड़ा सोता रहा।सोने में झोंपड़ी की दुर्गंध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि सुबह जब उठा तो वही सबसे परम प्रिय लगने लगा। राजा जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूलकर वहीं निवास करने की बात सोचने लगा। और बहेलिये से वहीं ठहरने की प्रार्थना करने लगा। इस पर बहेलिया भड़क गया और राजा को भला-बुरा कहने लगा। राजा को अब वह जगह छोड़ना झंझट लगने लगा और दोनों के बीच उस स्थान को लेकर बड़ा विवाद खड़ा हो गया।
      कथा सुनाकर शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित से पूछा, परीक्षित बताओ, उस राजा का उस स्थान पर सदा के लिए रहने के लिए झंझट करना उचित था?परीक्षित ने उत्तर दिया, भगवन्! वह राजा कौन था, उसका नाम तो बताइये? मुझे वह तो मूर्ख जान पड़ता है, जो ऐसी गंदी झोंपड़ी में, अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर एवं अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर, नियत अवधि से भी अधिक वहाँ रहना चाहता है। उसकी मूर्खता पर तो मुझे आश्चर्य होता है।
श्री शुकदेव जी महाराज ने कहा, हे राजा परीक्षित! वह बड़े भारी मूर्ख तो स्वयं आप ही हैं। इस मल-मूत्र की गठरी देह (शरीर) में जितने समय आपकी आत्मा को रहना आवश्यक था, वह अवधि तो कल समाप्त हो रही है। अब आपको उस लोक जाना है, जहाँ से आप आएं हैं। फिर भी आप मरना नहीं चाहते। क्या यह आपकी मूर्खता नहीं है?राजा परीक्षित का ज्ञान जाग गया और वे बंधन मुक्ति के लिए सहर्ष तैयार हो गए। वस्तुतः यही सत्य है।
जब एक जीव अपनी माँ की कोख से जन्म लेता है तो अपनी माँ की कोख के अन्दर भगवान से प्रार्थना करता है कि, हे भगवन्! मुझे यहाँ (इस कोख) से मुक्त कीजिए, मैं आपका भजन-सुमिरन करूँगा। और जब वह जन्म लेकर इस संसार में आता है तो (उस राजा की तरह हैरान होकर) सोचने लगता है कि मैं ये कहाँ आ गया (और पैदा होते ही रोने लगता है। ) फिर धीरे-धीरे उसे उस गंध भरी झोंपड़ी की तरह यहाँ की खुशबू ऐसी भा जाती है कि वह अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर यहाँ से जाना ही नहीं चाहता है।
>>>सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति और पुरुष दो मूल तत्व हैं और प्रकृति की 23 विकृतियाँ हैं और इस प्रकार कुल 25 तत्व हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार सांख्य का अर्थ है-विवेक ज्ञान, प्रकृति-पुरुष के भेद का ज्ञान, या नश्वर देह-मन से अविनाशी आत्मा बिल्कुल पृथक है इसकी अनुभूति का विज्ञान।  और चूंकि सांख्य प्रकृति-पुरुष के भेद को स्पष्ट करता है इसलिए इसे सांख्य कहा जाता है। 
”शरीरादिव्यतिरिक्तिः पुमान्”॥सा.द.1.139॥
शरीर, (मन) बुद्धि से पुरुष भिन्न है।
अधिष्ठानच्येति”॥सा.द.1.142॥
पुरुष देहादि पर अधिष्ठाता है। अधिष्ठाता होने से भी वह देहादि से भिन्न है। वह भोक्ता होने तथा देह छोड़कर मोह की इच्छा करने से देहादि पर अधिष्ठाता है, अतः वह स्वयं भिन्न है।
योग दर्शन इसका सहयोगी है जो इस विवेक ज्ञान के लिये आत्म-शुद्धि एवं मत की एकाग्रता का मार्ग प्रस्तुत करता हे। सांख्य दर्शन तत्व ज्ञान पर जोर  देता है। जबकि योग दर्शन साधना पर। श्रीमद्भागवद्गीता में इन दोनों को एक-दूसरे का पूरक बतलाया गया है। यह दर्शन भारत का सबसे प्राचीन और व्यापक दर्शन माना जाता है । उपनिषदों में इसके बीज उपलब्ध होते हैं। सांख्य ने 25 तत्व माने हैं। इनमें प्रकृति एवं मूल प्रकृति मुख्य हैं। पुरुष अस्तित्व के कारण प्रकृति में विकास प्रारम्भ होता है। प्रकृति और पुरूष के संयोग से सृष्टि चलती हैं। प्रकृति पुरूष के बन्धन और मोक्ष दोनो का कारण हैं । प्रकृति पुरूष के अस्तित्व मात्र से स्वयं ही कार्य कर लेती है। इनमें ईश्वर की आवश्यकता नहीं है। इसी कारण कुछ विद्वान इस दर्शन को निरीश्वरवादी कहते हेैं।
       महर्षि कपिल ने परमाणुवाद से ऊपर उठकर प्रकृति का प्रतिपादन किया है। इस दर्शन के अनुसार प्रकृति और पुरूष दो अनादि तत्व है। सत्य, रज और तम इन तीनों गुणों की साम्यावस्था प्रकृति है। प्रकृति के ये तीनों गुण जिस समय साम्यावस्था में रहते हैं। उस समय जगत का कोई रूप दृष्टिगोचर नहीं होता है। जब ये तीन गुण विषम स्थिति में आने लगते है। तब सृष्टि की उत्पत्ति आरम्भ हो जाती है। अव्यक्त प्रकृति से सर्वप्रथम बुद्धि उत्पन्न हुईं बुद्धि से अहंकार, से पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय पांच तन्मानायें उत्पन्न हुई। अन्त में तन्मानाओं से आकाश, वायु, अग्नि, जल पृथ्वी में पंचभूत उत्पन्न हुए। सांख्य ने सृष्टि के विकास क्रम को भी स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। इसके अनुसार प्रकृति और पुरुष के योग से सर्वप्रथम महत् की उत्पत्ति हुई। सांख्य में महत् का अर्थ है-ब्रह्मांड बुद्धि। ये वेद एवं उपनिषदों के हिरण्यगर्भ का पर्याय जान पड़ता है। इसके बाद महत् से अहंकार की उत्पत्ति हुई अहंकार ब्रह्मांड की विभिन्नता का आधार है, आत्मभाव का जन्मदाता है। अहंकार और सत् के योग से मनस् और पाँच ज्ञानेन्द्रियों एवं पाँच कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति होती है, अहंकार और रजस् के योग से पाँच महाभूतों (पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश) की उत्पत्ति होती है और अहंकार और तमस् के योग से पाँच तन्मात्राओं (रस, सुगंध, स्पर्श, ध्वनि और दृश्य) की उत्पत्ति होती है।
      प्रकृति सहित से 24 तत्व स्वयं सृष्टि की रचना नहीं कर सकते। प्रकृति अचेतन हैं । इसे चेतन तत्व की अपेक्षा है। यह चेतन तत्व पुरूष हैं इस प्रकार पुरूष एवं प्रकृति के सयोग से सृष्टि का विकास होने लगता ह। सांख्य दर्शन विश्व को यथार्थ नहीं मानता क्योंकि यह शाश्वत नहीं और कुछ समय उपरान्त नष्ट हो जाता है। केवल प्रकृति शाश्वत है। आत्मा अमर है और जीवन पुर्नजन्म के बन्धन से बंधा हुआ है।
(स) >>> मोक्ष - इस दर्शन ने मोक्ष का भी प्रतिपादन किया है । अपने जीवन काल कमें जिस व्यक्ति को तत्व ज्ञान हो जाता है, वह जीवन मुक्त हो जाता है। ऐसे जीवन मुक्त को प्रारम्ध कर्मों का फल भोगने के लिये शरीर धारण करना आवश्यक है। देहावसान होने पर जीवनमुक्त पूर्ण मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इस दर्शन के अनुसार मानव का सर्वोच्च कर्तव्य है। अपने स्वरूप का तावित्क ज्ञान कि मैं पुरुष (साक्षी आत्मा)  हूँ। अहंकार, राग, द्वेष, अभिनिवेश आदि ज्ञान के मार्ग में बाधक माने गये। सांख्य दर्शन में ज्ञान की सर्वोपरि प्रतिष्ठा की गई।  इस दर्शन ने सभी वर्णो के लिये ज्ञान का मार्ग खोल दिया। जिस समय पुरूष को यह ज्ञान हो जाता है कि त्रिगुणात्मक प्रकृति भिन्न है और मैं भिन्न हूँ। उस समय वह मुक्त ही हैं। इस दर्शन के अनुसार मुक्ति का प्रमुख साधन यही विवेक या ज्ञान है।
 >>>सत्कार्यवाद सिद्धांत -सृष्टि की रचना के संबंध में सांख्य ने सत्कार्यवाद सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। इस सिद्धांत के अनुसार कार्य कारण में पहले से ही निहित होता है। यह सृष्टि भी प्रकृति में पहले से निहित थी, तभी तो इसकी उत्पत्ति संभव हुई। प्रकृति कारण है और सृष्टि इसका कार्य। कारण के कार्य रूप में परिवर्तित होने का नाम उत्पत्ति है और कार्य के पुनः कारण के रूप में परिव£तत होने का नाम विनाश है। साभार /https://www.scotbuzz.org/2018/03/sankhya-darshan.html]
दक्षिण मुखी भगवान श्री महाकालेश्वर समस्त तन्त्रागमो के उदभावक तथा प्रवक्ता हैं , इनके अनेक रूप हैं तथा भगवती के आग्रह पर लोककल्याण हेतु मानवों के लिये वैदिकाचार के अधिकार से रहित सर्व सामान्य मानवों को भी चतुर्विधि पुरुषार्थ ( धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष ) प्राप्त कराने के लिये ही तन्त्र मार्ग का प्रचलन करते हैं ।

[>>>सुर-सप्तक : भारतीय संगीत में सात शुद्ध स्वर है : षड्ज (सा)/ऋषभ (रे)/गंधार (ग)/मध्यम (म)/पंचम (प)/धैवत (ध)/निषाद (नी)| शुद्ध स्वर से उपर या नीचे विकृत स्वर आते है। सा और प के कोई विकृत स्वर नही होते। रे, ग, ध और नी के विकृत स्वर नीचे होते है और उन्हे कोमल' कहा जाता है। म का विकृत स्वर उपर होता है और उसे तीव्र कहा जाता है। समकालीन भारतीय शास्त्रीय संगीत में ज्यादातर यह बारह स्वर इस्तमाल किये जाते है। पुरातन काल सेही भारतीय स्वर सप्तक संवाद-सिद्ध है। महर्षि भरत ने इसी के आधार पर २२ श्रुतियों का प्रतिपादन किया था जो केवल भारतीय शास्त्रीय संगीत की ही विशेषता है।भारतीय शास्त्रीय संगीत या मार्ग, भारतीय संगीत का अभिन्न अंग है। शास्त्रीय संगीत को ही ‘क्लासिकल म्जूजिक’ भी कहते हैं। शास्त्रीय गायन ध्वनि-प्रधान होता है, शब्द-प्रधान नहीं।  इसमें महत्व ध्वनि का होता है (उसके चढ़ाव-उतार का, शब्द और अर्थ का नहीं)। इसको जहाँ शास्त्रीय संगीत-ध्वनि विषयक साधना के अभ्यस्त कान ही समझ सकते हैं, अनभ्यस्त कान भी शब्दों का अर्थ जानने मात्र से देशी गानों या लोकगीत का सुख ले सकते हैं। इससे अनेक लोग स्वाभाविक ही ऊब भी जाते हैं पर इसके ऊबने का कारण उस संगीतज्ञ की कमजोरी नहीं, लोगों में जानकारी की कमी है। भारतीय शास्त्रीय संगीत की परम्परा भरत मुनि के नाट्यशास्त्र और उससे पहले सामवेद के गायन तक जाती है। भरत मुनि द्वारा रचित भरत नाट्य शास्त्र, भारतीय संगीत के इतिहास का प्रथम लिखित प्रमाण माना जाता है।भरत मुनि के नाटयशास्त्र के बाद मतङ्ग मुनि की बृहद्देशी और शारंगदेव रचित संगीत रत्नाकर, ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। बारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लिखे सात अध्यायों वाले इस ग्रंथ में संगीत व नृत्य का विस्तार से वर्णन है।  संगीत के आधुनिक-काल के महान संगीतज्ञों पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर और पण्डित विष्णुनारायण भातखण्डे ने भारतीय संगीत परम्परा को लिखने की पद्धित विकसित की। भातखण्डे जी ने सप्तकों के स्वरों को लिखने के लिए बिन्दु का प्रयोग किया। स्वर के ऊपर बिन्दु तार सप्तक, स्वर के नीचे बिन्दु मन्द्र सप्तक और बिन्दु रहित स्वर मध्य सप्तक दर्शाते हैं। सुर सिद्धि क्या है ? ईश्वर का बोध होना। जैसे प्रभु का आभास हुआ हो। तल्लीन होकर आंखें मूंदे गाते हुए तानपूरे के साथ बिलकुल सही स्वर का लगना भी कुछ ऐसी अनुभूति कराता है। आत्मा तृप्त कर देता है। जैसे स्वर में ईश्वर का वास हो। यही सुर सिद्धि है। इसके लिए कहीं पहाड़ों पर जाना ज़रूरी नहीं। पूरे चित्त से साधना की जरूरत है।

11वीं और 12वीं शताब्दी में मुस्लिम सभ्यता के प्रसार ने उत्तर भारतीय संगीत की दिशा को नया आयाम दिया। राजदरबार संगीत के प्रमुख संरक्षक बने और जहां अनेक शासकों ने प्राचीन भारतीय संगीत की समृद्ध परंपरा को प्रोत्साहन दिया वहीं अपनी आवश्यकता और रुचि के अनुसार उन्होंने इसमें अनेक परिवर्तन भी किए। इसी समय कुछ नई शैलियाँ भी प्रचलन में आईं जैसे खयाल, गज़ल आदि और भारतीय संगीत का कई नये वाद्यों से भी परिचय हुआ जैसे सरोद , सितार इत्यादि। भारतीय संगीत के आधुनिक मनीषी स्थापित कर चुके हैं कि वैदिक काल से आरम्भ हुई। भारतीय वाद्यों की यात्रा क्रमश: एक के बाद दूसरी विशेषता से इन यंत्रों को सँवारती गयी। एक- तंत्री वीणा ही त्रितंत्री बनी और सारिका युक्त होकर मध्य-काल के पूर्व किन्नरी वीणा के नाम से प्रसिद्ध हुई। मध्यकाल में यह यंत्र जंत्र कहलाने लगा जो बंगाल के कारीगरों द्वारा आज भी इस नाम से पुकारा जाता है। भारत में पहुँचे मुस्लिम संगीतकार तीन तार वाली वीणा को सह (तीन) + तार = सहतार या सितार कहने लगे। इसी प्रकार सप्त तंत्री अथवा चित्रा-वीणा, सरोद कहलाने लगी। उत्तर भारत में मुगल राज्य ज्यादा फैला हुआ था जिस कारण उत्तर भारतीय संगीत पर मुसलिम संस्कृति व इस्लाम का प्रभाव ज्यादा महसूस किया गया। जबकि दक्षिण भारत में प्रचलित संगीत किसी प्रकार के मुस्लिम प्रभाव से अछूता रहा। बाद में सूफी आंदोलन ने भी भारतीय संगीत पर अपना प्रभाव जमाया। आगे चलकर देश के विभिन्न हिस्सों में कई नई पद्धतियों व घरानों का जन्म हुआ। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान कई नये वाद्य प्रचलन में आए पाश्चात्य संगीत से भी भारतीय संगीत का परिचय हुआ। आम जनता में लोकप्रिय आज का वाद्य हारमोनियम, उसी समय प्रचलन में आया। इस तरह भारतीय संगीत के उत्थान व उसमें परिवर्तन लाने में हर युग का अपना महत्वपूर्ण योगदान रहा। साभार /https://www.facebook.com/1691512414397384/posts/1899678643580759/

[>>>व्योमकेश (शिव का एक नाम) ने परमव्योम (बैकुण्ठ धाम)  में एक नाद मंदिर का निर्माण किया  ^*

परमव्योम ** जगतपालक भगवान विष्णु का आवास-  बैकुण्ठ धाम। इसके कई नाम हैं - साकेत, गोलोक, परमधाम, परमस्थान, परमपद, परमव्योम, सनातन आकाश। जिसके भीतर परम ज्ञान है, भगवान के प्रति अनन्य भक्ति है, वे ही बैकुण्ठ पहुंच सकते हैं। बैकुण्ठ का शाब्दिक अर्थ है - जहां कुंठा न हो। कुंठा यानी निष्क्रियता, अकर्मण्यता, निराशा, हताशा, आलस्य और दरिद्रता। इसका मतलब यह हुआ कि बैकुण्ठ धाम ऐसा स्थान है जहां कर्महीनता नहीं है, निष्क्रियता नहीं है। व्यावहारिक जीवन में भी जिस स्थान पर निष्क्रियता नहीं होती उस स्थान पर रौनक होती है।

१. सृष्टि_पूर्व -ऋग्वेद के नासदीय सूक्त के अनुसार (१०/१२९/१ व २ ) - "न सदासीन्नो सदासीत्तादानी। न सीद्र्जो नो व्योमा परोयत। एवं --"आनंदी सूत स्वधया तदेकं। तस्माद्वायन्न पर किन्चनासि।"अर्थात प्रारंभ में न सत् था, न  असत, न परम व्योम व व्योम से परे लोकादि; सिर्फ वह एक अकेला ही स्वयं की शक्ति से, गति शून्य होकर स्थित था इस के अतिरिक्त कुछ नहीं था।

[  .वह क्या ‘न-कुछ’ में से ‘कुछ’ की (नासदासित नो सदासीत) ऐसी सृष्टि करता है जिसे वास्तव में अनाड़ी कहा जा सकता है? यह मान लेना कठिन है।] कौन, कहाँ था कोइ नहीं जानता क्योंकि -- "अंग वेद यदि वा न वेद " वेद भी नहीं जानता क्योंकि तब ज्ञान भी नहीं था।  >>> ‘मैं अवतरित होता हूँ’ यह कहने में यह तो निहित है ही कि अवतरण से पहले मैं हूँ।  जब सभी कुछ में ईश्वर (अथवा देवत्व ) बसता है तो सभी के साथ हमारा सम्बंध वैसा ही होना चाहिए।   जल परम्परा से अव्यक्त का प्रतीक है।  सभी कुछ उसी में से प्रकट होता है।  सबसे पहले अव्यक्त था जिसमें रूप प्रकट हुआ।  प्रजापति की वीणा के स्वर से उस जल में लहर उठी, उससे स्वर उपजा; और वहीं से सृष्टि का आरम्भ होता है. इसीलिए पानी का स्वर पहला स्वर है और सृष्टि का रहस्य उसमें छिपा रहता है. इसलिए सभी साधक पानी का स्वर सुनने का प्रयत्न करते हैं. और जैसे – जैसे साधना आगे बढ़ती है वे जल के कल – कल से आगे बढ़ते हुए शांत स्तब्ध नीरव जल का स्वर सुनने में दत्तचित्त होते हैं – सन्नाटे का स्वर सुन पाने का अभ्यास करते हैं। हमारे भीतर अंतहीन व्यक्त अर्थात भव और अंतहीं अव्यक्त परम – व्योम के अंतहीन सम्बन्धों की गूँजें, अनगूँजें जगा जाते हैं…  तथा --""अशब्दम स्पर्शमरूपंव्ययम् ,तथा रसं नित्यं गन्धवच्च यत ""-(कठोपनिषद १/३/१५ )--अर्थात वह परब्रह्म अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अव्यय, नित्य व अनादि है । भार रहित, स्वयम्भू, कारणों का कारण, कारण ब्रह्म है। उसे ऋषियों ने आत्मानुभूति से जाना व वेदों में गाया।( यह विज्ञान के एकात्मकता पिंड के समकक्ष है जो प्रयोगात्मक अनुमान प्रमाण से जाना गया है।)

>>> नाद -बिन्दु वासिनी - "ब्रह्मस्वरूप प्रणव में संलग्न नाद ज्योति स्वरूप होता है। वही भगवान विष्णु का परम पद है। जब तक शब्दों का उच्चारण और श्रवण होता है तब तक मन में आकाश का संकल्प रहता है। नि: शब्द होने पर तो वह परम ब्रह्म में अनूभूत होता है । जब तक नाद तब तक मन है। नाम के सूक्ष्मतर होने पर मन भी अमन हो जाता है। उस नि: शब्द नाद को ही परम पद कहते हैं। बीजाक्षर 'ॐ' से परे 'बिन्दु' और उसके ऊपर 'नाद' विद्यमान है। उस मधुर नाद-ध्वनि के अक्षर में विलय हो जाने पर, जो शब्दविहीन स्थिति होती है, वही 'परम पद' है। उससे भी परे, जो परम कारण 'निर्विशेष ब्रह्म' है, उसे प्राप्त करने के उपरान्त सभी संशय नष्ट हो जाते हैं। जो सूक्ष्म से भी अतिसूक्ष्म शेष है, वही ब्रह्म की सत्ता है। पुष्प में गन्ध की भांति, दूध में घी की भांति, तिल में तेल की भांति ही आत्मा का अस्तित्त्व है। उसी 'आत्मा' के द्वारा 'ब्रह्म' का साक्षात्कार या अनुभव किया जा सकता है।'मोक्ष' प्राप्त करने वाले सभी साधकों का लक्ष्य 'ॐकार' रूपी एकाक्षर 'ब्रह्म' रहा है। नाद दो तरह के होते हैं आहद और अनाहद। आहद का अर्थ दो वस्तुओं के संयोग से उत्पन्न ध्वनि और अनाहद का अर्थ जो स्वयं ही ध्वनित है। जैसे एक हाथ से बजने वाली ताली। ताली तो दो हाथ से ही बजती है तो उसे तो आहद ध्वनि ही कहेंगे। नाद कहते हैं ध्वनि को। ध्वनि की तरंग को। नाद योग का उद्‍येश्य है आहद से अनाहद की ओर ले जाना। आप पहले एक नाद उत्पन्न करो, फिर उस नाद के साथ अपने मन को जोड़ो। मन को एकतार में लगाए रखने के लिए ही तो ॐ का अविष्कार हुआ है। ॐ ही है एकमात्र ऐसा प्रणव मंत्र जो आपको अनाहद की ओर ले जा सकता है। यह पुल की तरह है। ॐ किसी शब्द का नाम नहीं है। ॐ एक ध्वनि है, जो किसी ने बनाई नहीं है। यह वह ध्वनि है जो पूरे कण-कण में, पूरे अंतरिक्ष में हो रही है। वेद, गीता, पुराण, कुरआन, बाइबल, नानक की वाणी सभी इसकी गवाह है। योग कहता हैं कि इससे सुनने के लिए शुरुआत स्वयं के भीतर से ही करना होगी।एक उपनिषद् का नाम है 'नाद बिंदु' उपनिषद। इस धरती को उन्होंने धर्मशाला कहा है । इस धरती पर हमलोग आते हैं, आकर रहते हैं और चले जाते हैं । यह मकान तो नहीं है, धरती है , लेकिन धरती नहीं रहे तो मकान कैसे बने? वह धरती धर्मशाला है और हमलोग यहाँ ठहरे हुए हैं, आते-जाते हैं। यही आना-जाना आवागमन का चक्र है । ईश्वर ही तो विवेक के रूप में अपने अन्दर  हैं; क्यों कि  वे कहते हैं कि यह करो या वह करो ? हाँ, ईश्वर-कृपा से ही संत लोग होते हैं, वे ही यत्न बतलाते हैं जिससे आवागमन छूटता है । ईश्वर की कृपा नहीं हो तो सूर्य, चन्द्र, तारे आपस में टकराकर ख़त्म हो जायँ । ईश्वर की कृपा से ही नियमपूर्वक- ये सब चलते हैं । ईश्वर की कृपा से संत लोग होते हैं । वे ही गुरु होते हैं; और जो साधन होना चाहिये, उसकी जो युक्ति है, वह वे बतला देते हैं ।वे कहते हैं कि ऐसा करो, तब जहाँ पहुँचना चाहिये, वहाँ पहुँचते हैं । इसीलिए गुरु को ईश्वर से भी बड़ा कहा गया है । [कामवासना कोई पाप तो नहीं ।अगर पाप होती तो तुम न होते । पाप होती तो ऋषि-मुनि न होते । कामवासना तो जीवन का स्त्रोत है । उससे ही लडो़गे तो आत्मघाती हो जाओगे । लडो़ मत , समझो । भागो मत , जागो ।मैं नहीं कहता कि कामवासना छोड़नी है ; मैं तो कहता हूं समझनी है , पहचाननी है ।और एक चमत्कार घटित होता है ; जितना ही समझोगे उतनी ही क्षीण हो जाएगी , क्योंकि कामवासना का अंतिम काम पूरा हो जाएगा । कामवासना का अंतिम काम है तुम्हें आत्म-साक्षात्कार करवा देना । कामवासना का पहला काम है तुम्हें जीवन देना और दूसरा काम है तुम्हें जीवन के स्त्रोत से परिचित करा देना ।बस दो काम पूरे हो गए कि कामवासना अपने आप चली जाती है।  सीढी़ के तुम पार हो गए , अब सीढी़ की कोई जरुरत न रही ।परमात्मा उसे खुद खींच लेता है ।--ओशो।]  

[*फुरसत से देखें -https://www.facebook.com/shreevidyarahsy/ तन्त्र का ही दूसरा नाम ‘आगम’ है। जिससे अभ्युदय, लौकिक कल्याण तथा निःश्रेयस (मोक्ष) के उपायों का प्रतिपादन हो, वह शास्त्र ही ‘आगम’ है। समस्त तंत्र शंकर और पार्वती के बीच संवाद है। पार्वती का प्रश्न और शंकर का उत्तर है। लेकिन वह संवाद अर्थपूर्ण है, साधरण गुरु-शिष्य के बीच का संवाद नहीं है। दो महान् प्रेमी-प्रेमिका के बीच का गहन और गम्भीर संवाद है, गहनतम प्रेम की भाषा है। प्रत्येक अक्षर प्रेममय है। इसकी भाषा आत्मा को स्पर्श करने वाली है। शिष्य के लिए स्त्री का होना आवश्यक नहीं लेकिन उसमें स्त्रैण ग्राहकता का भाव अवश्य होना चाहिए। पार्वती के प्रश्न का अर्थ ही है कि स्त्रैण भाव प्रश्न कर रहा है। स्त्रैण भाव का मतलब ही है ग्राहकता और समर्पण। प्रेम भी पूर्ण है। प्रेम में गंभीरता नहीं, निर्मलता और समर्पण होता है। पुरुष और स्त्री के अस्तित्व पर यदि हम वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें तो मनुष्य पुरुष और स्त्री दोनों है। कोई भी मनुष्य न मात्र पुरुष है और न तो मात्र स्त्री है। वह उभयलिंगी है। उसमें दोनों यौन हैं। शंकर का एक स्वरुप ‘अर्धनारीश्वर’ है।तंत्र की विशेषता उसकी ‘क्रिया’ है। अर्थात् तंत्र की बहिरंग साधना और उपासना क्रिया प्रधान है। ज्ञान को क्रिया रूप में न बदलने से वह ज्ञान भार बन जाता है।–“ज्ञानम् भारः क्रिया बिना।”ज्ञानसंपन्न साधक जब तक उस ज्ञान को जीवन में परिणत कर उसे क्रियात्मक नहीं बनाता, तबतक वह अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। तंत्र के जितने लक्ष्य हैं, उनमें एक यह भी है–ज्ञान को कर्म में बदलना और फिर उक्त कर्म को ज्ञान में परिवर्तित करना।  सच तो यह है कि तब साधक स्वयम् माँ महामाया जगज्जननी का साकार रूप हो जाता है। वह खिला हुआ सुगन्धित पुष्प की तरह हो जाता है जिसकी सुगन्ध बराबर चारों ओर बिखरती ही रहती है।—- तंत्र साहित्य का क्षेत्र बहुत विस्तृत है जिसे मुख्य रूप से तीन भागों में विभक्त किया गया है–विष्णुक्रान्ता, रथक्रान्ता और अश्वक्रान्ता। प्रत्येक के 64 तंत्र हैं। तांत्रिक साधना के वास्तविक स्वरूप से लोगों को परिचित कराने की दिशा में कलकत्ता हाई कोर्ट के जज माननीय ‘सर् जॉन उडरफ’ ने ‘आर्थर एवेलन’ के उपनाम से सबसे पहले प्रशंसनीय कार्य किया। उन्होंने अंग्रेजी में अनेक उपयोगी ग्रंथों के प्रकाशन में सहयोग किया।वर्तमान युग में सर् जॉन उड़रफ के अलावा विद्यार्णव, शिवचंद्र महाशय, प्रमथनाथ मुखोपाध्याय आदि का योगदान प्रमुख माना जायेगा। योगदान के इस प्रसंग में महा महिम डॉक्टर गोपीनाथ कविराज का स्मरण करना सूर्य को दीपक दिखाने के समान होगा।कुण्डलिनी के साथ जो आचार किया जाता है, उसको ‘कुलाचार’ कहते हैं। यह आचार मद्य, मांस, मीन, मुद्रा और मैथुन–इन पञ्च मकारों के सहयोग से अनुष्ठित होता है। पंचमकार का रहस्य नितान्त गूढ़ है।इन पांचों मकारों का सम्बन्ध अंतर्योग से है।‘कुलाचार’ ही ‘कौलाचार’ या ‘वामाचार’ के नाम से प्रसिद्ध है।श्रीविद्या के उपासक ‘समयाचार’ के मतावलंबी साधक इन पांचों तत्वों का प्रत्यक्ष प्रयोग न कर उनकी कल्पना कर लेते हैं अथवा उनके स्थान पर वे किसी अन्य वस्तु का प्रयोग प्रतीक के रूप में करते हैं। जैसे–मांस के स्थान पर जवाफूल आदि।पूर्वकौल के अनुसार श्रीचक्र के भीतर स्थित योनि की पूजा की जाती है। जबकि उत्तरकौल के अनुसार इनका सबका प्रत्यक्ष प्रयोग किया जाता है।

मतंग शिव का नाम है। इनकी शक्ति मातंगी है। देवी मातंगी गहरे नीले रंग की हैं। देवी मातंगी मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण करती हैं और मां के 3 ओजपूर्ण नेत्र हैं। माता रत्नों से जड़े सिंहासन पर आसीन हैं। देवी मातंगी के एक हाथ में गुंजा के बीजों की माला है तो दाएं हाथों में वीणा तथा कपाल है तथा बाएं हाथों में खड़ग है। देवी मातंगी अभय मुद्रा में हैं। देवी मातंगी के संग तोता भी है जो वाणी और वाचन का प्रतीक माना जाता है। चार भुजाओं में इन्होंने कपाल (जिसके ऊपर तोता बैठा), वीणा,खड्ग वेद धारण किया है। मां मातंगी तांत्रिकों की सरस्वती हैं।  कहते हैं कि देवी मातंगी हनुमाजी और शबरी के गुरु मतंग ऋषि की पुत्री हैं । मतंग ऋषि के यहां माता दुर्गा के आशीर्वाद से जिस कन्या का जन्म हुआ था वह मातंगी देवी थी।यह देवी भारत के आदिवासियों की देवी है। दस महाविद्याओं में से एक तारा और मातंग देवी की आराधना बौद्ध धर्म में भी की जाती हैं। भारत के गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल आदि राज्यों में मातंग समाज के लोग आज भी विद्यमान है। मान्यता अनुसार मातंग समाज, मेघवाल समाज और किरात समाज के लोगों के पूर्वज मातंग ऋषि ही थे। 

पौराणिक कथाओं  के अनुसार एक बार मतंग मुनि ने सभी जीवों को वश में करने के उद्देश्य से नाना प्रकार के वृक्षों से परिपूर्ण कदम्ब वन में देवी श्रीविद्या त्रिपुरा की आराधना की। मतंग मुनि के कठिन साधना से सन्तुष्ट होकर देवी त्रिपुरसुन्दरी ने अपने नेत्रों से एक श्याम वर्ण की सुन्दर कन्या का रूप धारण किया, जिन्हें राजमातंगिनी कहा गया एवं जो देवी मातंगी का ही एक स्वरूप हैं। यह दक्षिणाम्नाय तथा पश्चिमाम्नाय की देवी हैं। राजमातंगी, सुमुखी, वश्यमातंगी तथा कर्णमातंगी इनके नामान्तर हैं। मातंगी के भैरव का नाम मतंग हैं। ब्रह्मयामल इन्हें मतंग मुनि की कन्या बताता है।

 मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक जिन जालों में उलझा रहता है और जिस सुख तथा अंतत: मोक्ष की खोज करता है, उन सभी के मूल में मूल यही दस महाविद्या हैं। दस का सबसे ज्यादा महत्व है। संसार में दस दिशाएं स्पष्ट हैं ही, इसी तरह 1 से 10 तक के बिना अंकों की गणना संभव नहीं है। ये दशों महाविद्याएं आदि शक्ति माता पार्वती की ही रूप मानी जाती हैं।

 कथा के अनुसार महादेव से संवाद के दौरान एक बार माता पार्वती अत्यंत क्रुद्ध हो गईं। क्रोध से माता का शरीर काला पडऩे लगा। यह देख विवाद टालने के लिए शिव वहां से उठ कर जाने लगे तो सामने दिव्य रूप को देखा। फिर दूसरी दिशा की ओर बढ़े तो अन्य रूप नजर आया। बारी-बारी से दसों दिशाओं में अलग-अलग दिव्य दैवीय रूप देखकर स्तंभित हो गए। तभी सहसा उन्हें पार्वती का स्मरण आया तो लगा कि कहीं यह उन्हीं की माया तो नहीं। 

भगवान शिव ने माता पार्वती से इसका रहस्य पूछा तो उन्होंने बताया कि आपके समक्ष कृष्ण वर्ण में जो स्थित हैं, वह सिद्धिदात्री काली हैं। ऊपर नील वर्णा सिद्धिविद्या तारा, पश्चिम में कटे सिर को उठाए मोक्षा देने वाली श्याम वर्णा छिन्नमस्ता, वायीं तरफ भोगदात्री भुवनेश्वरी, पीछे ब्रह्मास्त्र एवं स्तंभन विद्या के साथ शत्रु का मर्दन करने वाली बगला, अग्निकोण में विधवा रूपिणी स्तंभवन विद्या वाली धूमावती, नेऋत्य कोण में सिद्धिविद्या एवं भोगदात्री दायिनी भुवनेश्वरी, वायव्य कोण में मोहिनीविद्या वाली मातंगी, ईशान कोण में सिद्धिविद्या एवं मोक्षदात्री षोडषी और सामने सिद्धिविद्या और मंगलदात्री भैरवी रूपा मैं स्वयं उपस्थित हूं। उन्होंने कहा कि इन सभी की पूजा-अर्चना करने में चतुवर्ग अर्थात- धर्म, भोग, मोक्ष और अर्थ की प्राप्ति होती है। इन्हीं की कृपा से षटकर्मों की सिद्धि तथौ अभिष्टि की प्राप्ति होती है। शिवजी के निवेदन करने पर सभी देवियां काली में समाकर एक हो गईं। दशमहाविद्या अर्थात महान विद्या रूपी देवी। महाविद्या, देवी दुर्गा के दस रूप हैं, जो अधिकांश तान्त्रिक साधकों द्वारा पूजे जाते हैं, परन्तु साधारण भक्तों को भी अचूक सिद्धि प्रदान करने वाली है। इन्हें दस महाविद्या के नाम से भी जाना जाता है। ये दसों महाविद्याएं आदि शक्ति माता पार्वती की ही रूप मानी जाती हैं। दस महाविद्या विभिन्न दिशाओं की अधिष्ठातृ शक्तियां हैं। भगवती काली और तारा देवी- उत्तर दिशा की, श्री विद्या (षोडशी-त्रिपुर सुन्दरी)- ईशान दिशा की, देवी भुवनेश्वरी, पश्चिम दिशा की, श्री त्रिपुर भैरवी, दक्षिण दिशा की, माता छिन्नमस्ता, पूर्व दिशा की, भगवती धूमावती पूर्व दिशा की, माता बगला (बगलामुखी), दक्षिण दिशा की, भगवती मातंगी वायव्य दिशा की तथा माता श्री कमला र्नैत्य दिशा की अधिष्ठातृ हैं।

"जिस तरह चैत्र और शारदयी नवरात्रि  के दौरान मां दुर्गा के नौ रूपों की पूजा की जाती है, उसी तरह गुप्त नवरात्रि (Gupt Navratri) के दौरान मां दुर्गा की 10 महाविद्याओं  की पूजा अर्चना की जाती है. मां दुर्गा की इन्हीं 10 महाविद्याओं में से एक हैं देवी मातंगी।  ऐसी मान्यता है कि मातंगी देवी एक मात्र ऐसी देवी हैं जिनके लिए कोई व्रत रखने का नियम नहीं है। यह देवी केवल मन और वचन से ही तृप्त हो जाती हैं।  इतना ही नहीं ऐसी मान्यता है कि देवी मातंगी को जूठन का प्रसाद या भोग (Leftover food as prasad) अर्पित किया जाता है।  ऋषियों ने कहा है -" मातंगी मेवत्वं पूर्ण मातंगी पुर्णतः उच्यते "इससे यह स्पष्ट होता है की मातंगी साधना पूर्णता की साधना है । जिसने माँ मातंगी को सिद्ध कर लिया फिर उसके जीवन में कुछ अन्य सिद्ध करना शेष नहीं रह जाता । माँ मातंगी आदि सरस्वती है,जिसपे माँ मातंगी की कृपा होती है उसे स्वतः ही सम्पूर्ण वेदों, पुरानो, उपनिषदों आदि का ज्ञान हो जाता है ,उसकी वाणी में दिव्यता आ जाती है ,फिर साधक को मंत्र एवं साधना याद करने की जरुरत नहीं रहती ,उसके मुख से स्वतः ही धाराप्रवाह मंत्र उच्चारण होने लगता है । दस महाविद्याओं में मातंगी महाविद्या नवम् स्थान पर स्थित है।  दस महाविद्या से ही विष्णु के भी दस अवतार माने गए हैं। उनके विवरण भी निम्न हैं--

महाविद्या----------- विष्णु के अवतार

1-काली--------------------कृष्ण

2-तारा---------------------मत्स्य

3-षोडषी--------------------परशुराम

4-भुवनेश्वरी----------------वामन

5-त्रिपुर भैरवी--------------बलराम

6-छिन्नमस्ता--------------नृसिंह

7-धूमावती-----------------वाराह

8-बगला---------------------कूर्म

9-मातंगी--------------------राम

10-कमला-----------------बुद्धविष्णु का कल्कि अवतार दुर्गा जी का माना गया है।

[>>>छिन्नमस्ता के चरणों में क्यों दिखते हैं स्त्री-पुरुष? पैरों के नीच कमल पुष्प पर एक स्त्री-पुरुष युगल ही दिख जाते हैं।  यह प्रतीक है कि माता के लिए अपनी संतान की रक्षा कितनी महत्वपूर्ण है।  वह अपना मस्तक काट सकती है, उसे अपना रक्त पिला सकती है। पैरों के नीचे स्त्री-पुरुष युगल प्रतीक हैं कि कामेच्छा का बलपूर्वक दमन भी करना चाहिए।  इस भयानक स्वरूप में, अत्यधिक कामनाओं, मनोरथों से आत्म नियंत्रण के सिद्धांतों का प्रतिनिधित्व करती हैं।  देवी छिन्नमस्ता का घनिष्ठ सम्बन्ध, “कुंडलिनी” नामक प्राकृतिक ऊर्जा या मानव शरीर के एक छिपी हुई प्राकृतिक शक्ति से हैं। कुण्डलिनी शक्ति प्राप्त करने हेतु या जगाने हेतु, योगिक अभ्यास, त्याग तथा आत्म-नियंत्रण चाहिए।  योगिक क्रिया में यह अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।  एक परिपूर्ण योगी बनने हेतु, संतुलित जीवनयापन का सिद्धांत प्रतिपादित होता हैं। छिन्नमस्ता मंदिर झारखंड के रांची से क़रीब 80 किलोमीटर दूर रजरप्पा में स्थित है. यह भारत के सर्वाधिक प्राचीन मन्दिरों में से एक है. असम के कामरूप स्थित माँ कामाख्या मंदिर के बाद यह दूसरा सबसे बड़ा शक्तिपीठ है। समस्त सांसारिक प्राणियों के लिए छिन्नमस्तिका मार्ग ही श्रेयकर है।  इसके मुताबिक सृष्टि में रहते हुए मोहमाया के बीच भी अलिप्त रहकर पूर्ण आनंद या वंचना की स्थिति में भी स्थितिप्रज्ञ रहकर मानव मुक्त हो सकता है। उनका वर्ण गुड़हल के समान लाल हैं तथा वस्त्रों के रूप में उन्होंने केवल आभूषण पहने हुए हैं। उनका सिर कटा हुआ हैं तथा धड़ में से रक्त की तीन धाराएँ निकल रही हैं। दाएं हाथ में खड्ग और बाएं हाथ में अपना कटा मस्तक है. कटे हुए धड़ से रक्त की तीन धाराएं फूटती हैं. दोनों ओर उनकी सखियां ‘जया’ और ‘विजया’ खड़ी हैं, जिन्हें वह रक्तपान करा रही हैं. स्वयं भी रक्तपान कर रही हैं.उनके आसपास उनकी दो सखियां ‘जया’ और ‘विजया’ खड़ी हैं  रक्त की तीन धाराएँ में दो दोनों सेविकाओं के मुहं में जा रही हैं जबकि एक धारा उनके स्वयं के मुख में जा रही हैं। माता स्तनों से दूध पिलाती है वह उसका रुधिर ही तो होता है। मां छिन्नमस्ता का स्वरुप उग्र हैं।  यह देवी का वह स्वरूप है जब वह पूरी सृष्टि से दुष्टों के विनाश करती जा रही थीं. त्रिनेत्रधारी माता का कंठ सर्पमाला और मुंडमाल से शोभित है. खुले बाल, जिह्वा बाहर, आभूषणों से सजी मां नग्नावस्था में हैं।  सभी दिशाएं ही उनका वस्त्र हैं। सदैव सोलहवें वर्ष स्थित रहने वाली देवी माँ छिन्नमस्ता नृसिंह - भगवान के गले में यज्ञोपवीत के रूप में नागों का जनेऊ पहनी सदैव नवयुवती रहती हैं। यह सत्य है कि सब ब्रह्म का ही अंश है लेकिन हम जिस जीव जगत में जीते हैं वह पूर्ण रूप से जगत्माता महामाया की क्रीड़ास्थली (माँ जगदम्बा का राज्य) है।  उसी माया से वशीभूत होकर हम जीवन के हर कार्यकलाप करते हैं। जठराग्नि यानी भूख की आग से लेकर कामाग्नि तक सब महामाया की माया ही है।  इससे जीव पीड़ित होता है।  किस अग्नि का हमारे जीवनचक्र में कितना स्थान होना चाहिए इसका सार जगदंबा के इस स्वरूप में दिखता है। दिखने में यह स्वरूप भयानक है परंतु संतान और आश्रितों के पालन-पोषण का जो महत्व माता ने इस स्वरूप में दिया है वह परम कल्याणकारी है। जगत में स्त्री का रुप धारण करके महामाया हमेशा भावों के केन्द्र में रहती है, मां, पत्नी, बेटी, बहन के रूप में जैसे वो जीवन के हर क्षण में स्थित है, ठीक उसी तरह वो इस धरती पर हर तरफ अलग अलग स्वरूप में मौजूद होती हैं। 

>>>तन्त्रोक्त धूमावती देवी -  महाप्रलय के समय जब सब कुछ नष्ट हो जाता है, स्वयं महाकाल भगवान् शिव भी अंतर्ध्यान हो जाते हैं, माँ धूमावती अकेली खड़ी रहती हैं और काल तथा अंतरिक्ष से परे काल की शक्ति को जताती हैं। उस समय न तो धरती, न ही सूरज, चाँद, सितारे रहते हैं। रहता है सिर्फ धुआँ और राख, वही चरम ज्ञान है, निराकार, न अच्छा, न बुरा, न शुद्ध, न अशुद्ध, न शुभ, न अशुभ, धुएँ के रूप में अकेली माँ धूमावती अकेली रह जाती हैं, सभी उनका साथ छोड़ जाते हैं। इसलिए अल्प जानकारी रखने वाले लोग उन्हें अशुभ घोषित करते हैं।अकेली ही दृष्टिगोचर होती हैं। पति रहित होने के कारण विधवा कही जाती हैं, परन्तु मार्कण्डेय पुराणानुसार ये विधवा नहीं बल्कि कुमारी हैं।  एक बार युद्ध करते समय इन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि जो भी मुझे युद्ध में परास्त कर देगा वही मेरा पति होगा और ऐसा अवसर कभी नहीं आया क्योंकि उन्हें कोई भी परास्त नहीं कर सका था। तंत्रोक्त देवी धूमावती के  मत्स्यवतरणे  ' प्रलय -पयोधिजल ' में 'धृत -मीनशरीर ' में  प्रथम जलचर मछली अवतारी श्रीभगवान हैं ! 

     प्रलय पयोधि-जले धृतवान् असि वेदम्, 

विहित वहित्र-चरित्रम् अखेदम्,

  केशव धृत-मीन-शरीर, जय जगदीश हरे! 

 हे जगदीश्वर! हे हरे! नौका (जलयान) जैसे बिना किसी खेद के सहर्ष सलिलस्थित किसी वस्तु का उद्धार करती है, वैसे ही आपने बिना किसी परिश्रम के निर्मल चरित्र के समान प्रलय जलधि में मत्स्यरूप में अवतीर्ण होकर वेदों को धारणकर उनका उद्धार किया है। हे मत्स्यावतारधारी श्री भगवान्! आपकी जय हो || १ ||

क्षितिर् इह विपुलतरे तिष्ठति तव पृष्ठे, 

धरणि- धारण-किण चक्र-गरिष्ठे,

  केशव धृत-कूर्म-शरीर जय जगदीश हरे। 

– हे केशिनिसूदन! हे जगदीश! हे हरे! आपने कूर्मरूप अंगीकार कर अपने विशाल पृष्ठ के एक प्रान्त में पृथ्वी को धारण किया है, जिससे आपकी पीठ व्रण (जख्म) के चिन्हों से गौरवान्वित हो रही है। आपकी जय हो || २ ||

       कूर्म अवतार भगवान् नारायण के प्रमुख दशावतारों में से दूसरे स्थान पर आते है। एक बार महर्षि दुर्वासा ने अपनी घोर तपस्या से सिद्ध की हुई माला देवराज इंद्र को भेंट की। अपने अहंकार में चूर देवराज ने उस माला को कोई सामान्य माला समझा और उसको अपने वाहन ऐरावत को दे दिया। ऐरावत ने उस माला को अपने पैरों तले रौंद दिया। इस दृश्य को देख कर दुर्वासा ऋषि कुपित हो उठे और सभी देवताओं को ऐश्वर्यहीन होने का श्राप दे डाला। देवताओं का अमरत्व छिन गया। और नारायण से उनकी लक्ष्मी।देवी लक्ष्मी लुप्त हो चुकी थी। उनके बिना देवताओं का वैभव और शक्ति दोनों खो चुके थे। असुर एक एक करके सभी देवों को परास्त करने लगे मगर अंत में लक्ष्मी के जाने के कारण असुर भी शक्तिहीन होने लगे। इस समस्या को लेकर देव और असुर, दोनों भगवान् ब्रम्हा के पास गए और इस परेशानी का निवारण माँगा। भगवान् ब्रम्हा इस समस्या को लेकर भगवान् शिव के पास पहुँचे और भगवान् शिव सब को लेकर भगवान् नारायण के पास। इस समस्या का एकमात्र निवारण भगवान् नारायण दिया। समुद्रमन्थन ही इसका एक मात्र उपाय था और इसके लिए देवो और असुरों को एक साथ समंजस्या बैठा कर काम करना था। सब देव और असुर क्षीर सागर को मथने के लिए तैयार थे, नागराज वासुकि महादेव के कंठ से उतर कर मथनी बने और मंदार पर्वत को खीर सागर मथने के लिए लाया गया और समुद्रमन्थन आरम्भ हुआ। जैसे जैसे देव असुर समुद्र को मथ रहे थे वैसे वैसे मंदार पर्वत पानी में डूबता जा रहा था। इस समस्या से देव असुर दोनों ने भगवान् नारायण से सहायता मांगी। इस समस्या को दूर करने के लिए भगवान् ने एक भव्य कछुए का रूप धारण किया और मंदार पर्वत को अपने खोल पर धारण किया। इस रूप में भगवान् ने समुद्र मंथन को संभव किया और इसी समुद्र से मंथन के दौरान हलाहल विष, ऐरावत, मदिरा, कामधेनु, कल्प वृक्ष, अमृत कलश लिए धन्वन्तरि, चंद्र देव आदि के साथ साथ देवी लक्ष्मी प्राकट्य हुआ जिनको भगवान् नारायण ने अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया।] 

वसति दशन शिखरे धरणी तव लग्ना, 

शशिनि कलंक कलेव निमग्ना,

केशव धृत शूकर रूप जय जगदीश हरे।

 – हे जगदीश! हे केशव! हे हरे! हे वराहरूपधारी ! जिस प्रकार चन्द्रमा अपने भीतर कलंक के सहित सम्मिलित रूप से दिखाई देता है, उसी प्रकार आपके दाँतों के ऊपर पृथ्वी अवस्थित है || ३ ||

 तव कर-कमल-वरे नखम् अद्भुत शृंगम्, 

दलित-हिरण्यकशिपु-तनु-भृंगम्, 

केशव धृत-नरहरि रूप जय जगदीश हरे। 

– हे जगदीश्वर! हे हरे ! हे केशव ! आपने नृसिंह रूप धारण किया है। आपके श्रेष्ठ कर-कमल में नखरूपी अदभुत श्रृंग विद्यमान है, जिससे हिरण्यकशिपु के शरीर को आपने ऐसे विदीर्ण कर दिया जैसे भ्रमर पुष्प का विदारण कर देता है, आपकी जय हो || ४ ||

छलयसि विक्रमणे बलिम् अद्भुत-वामन,

पद-नख-नीर-जनित-जन-पावन,

केशव धृत-वामन रूप जय जगदीश हरे। 

 – हे सम्पूर्ण जगतके स्वामिन् ! हे श्रीहरे ! हे केशव! आपने वामन रूप धारण कर तीन पग धरती की याचना की,  क्रिया से बलि राजा की वंचना कर रहे हैं। यह लोक समुदाय आपके पद-नख-स्थित सलिल से पवित्र हुआ है। हे अदभुत वामन देव ! आपकी जय हो || ५ ||

क्षत्रिय-रुधिर-मये जगद् -अपगत-पापम्, 

स्नपयसि पयसि शमित-भव-तापम्,

केशव धृत-भृगुपति रूप जय जगदीश हरे।

हे जगदीश! हे हरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने भृगु (परशुराम) रूप धारण कर क्षत्रिय कुल का विनाश करते हुए उनके रक्तमय सलिल से जगत को पवित्र कर संसार का सन्ताप दूर किया है। हे भृगुपतिरूपधारिन् , आपकी जय हो || ६ || 

वितरसि दिक्षु रणे दिक्-पति-कमनीयम्,

दश-मुख-मौलि-बलिम् रमणीयम्,

 केशव धृत-राम-शरीर जय जगदीश हरे।

– हे जगत् स्वामिन् श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने राम रूप धारण कर संग्राम में इन्द्रादि दिक्पालों को कमनीय और अत्यन्त मनोहर रावण के किरीट भूषित शिरों की बलि दश - दिशाओं में वितरित कर रहे हैं । हे रामस्वरूप ! आपकी जय हो || ७ ||

 वहसि वपुशि विसदे वसनम् जलदाभम्, 

हल-हति-भीति-मिलित-यमुनाभम्,

 केशव धृत-हलधर रूप जय जगदीश हरे। 

– हे जगत् स्वामिन् ! हे केशिनिसूदन! हे हरे ! आपने बलदेव स्वरूप धारण कर अति शुभ्र गौरवर्ण होकर नवीन जलदाभ अर्थात् नूतन मेघों की शोभा के सदृश नील वस्त्रों को धारण किया है। ऐसा लगता है, यमुना जी मानो आपके हलके प्रहार से भयभीत होकर आपके वस्त्र में छिपी हुई हैं । हे हलधरस्वरूप ! आपकी जय हो || ८ ||

नंदसि यज्ञ- विधेर् अहः श्रुति जातम्,

 सदय-हृदय-दर्शित-पशु-घातम्,

 केशव धृत-बुद्ध-शरीर जय जगदीश हरे।

– हे जगदीश्वर! हे हरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने बुद्ध शरीर धारण कर सदय और सहृदय होकर यज्ञ विधानों द्वारा पशुओं की हिंसा देखकर श्रुति समुदाय की निन्दा की है। आपकी जय हो || ९ ||

 म्लेच्छ-निवह-निधने कलयसि करवालम्, 

धूमकेतुम् इव किम् अपि करालम्, 

केशव धृत-कल्कि-शरीर जय जगदीश हरे। 

– हे जगदीश्वर श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने कल्कि रूप धारण कर म्लेच्छों का विनाश करते हुए धूमकेतु के समान भयंकर कृपाण को धारण किया है । आपकी जय हो || १० ||

श्री-जयदेव-कवेर् इदम् उदितम् उदारम्,

 शृणु सुख-दम् शुभ-दम् भव-सारम्,

 केशव धृत-दश-विध-रूप जय जगदीश हरे। 

 – हे जगदीश्वर ! हे श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! हे दशबिध रूपों को धारण करने वाले भगवन् ! आप मुझ जयदेव कवि की औदार्यमयी, संसार के सारस्वरूप, सुखप्रद एवं कल्याणप्रद स्तुति को सुनें || ११ ||

वेदान् उद्धरते जगंति वहते भू-गोलम् उद्बिभ्रते,

दैत्यम् दारयते बलिम् छलयते क्षत्र-क्षयम् कुर्वते,

पौलस्त्यम् जयते हलम् कलयते कारुण्यम् आतन्वते,

म्लेच्छान् मूर्छयते दशाकृति-कृते कृष्णाय तुभ्यम् नमः। 

वेदों का उद्धार करने वाले, चराचर जगत को धारण करने वाले, भूमण्डल का उद्धार करने वाले, हिरण्यकशिपु को विदीर्ण करने वाले, बलि को छलने वाले, क्षत्रियों का क्षय करने वाले, पौलस्त (रावण) पर विजय प्राप्त करने वाले, हल नामक आयुध को धारण करने वाले, करुणा का विस्तार करने वाले, म्लेच्छों का संहार करने वाले, इस दश प्रकार के शरीर धारण करने वाले हे श्रीकृष्ण ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ || १-५ ||

योगशास्त्र के प्रवर्तक भगवान शिव के '‍विज्ञान भैरव तंत्र' और 'शिव संहिता' में उनकी संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है। भगवान शिव के योग को तंत्र या वामयोग कहते हैं। इसी की एक शाखा हठयोग की है। भगवान शिव कहते हैं- 'वामो मार्ग: परमगहनो योगितामप्यगम्य:' अर्थात वाम मार्ग अत्यंत गहन है और योगियों के लिए भी अगम्य है। : मेरुतंत्र/ शिव ने  सबसे पहले अपना ज्ञान सप्त ऋषियों को दिया था। सप्त ऋषियों ने शिव से ज्ञान लेकर अलग-अलग दिशाओं में फैलाया और दुनिया के कोने-कोने में शैव धर्म, योग और ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत ‍की थी जिसके चलते आज भी नाथ, शैव, शाक्त आदि सभी संतों में उसी परंपरा का निर्वाह होता आ रहा है। आदि गुरु शंकराचार्य और गुरु गोरखनाथ ने इसी परंपरा और आगे बढ़ाया।बाद में योग में आई जटिलता को देखकर पतंजलि ने 300 ईसा पूर्व मात्र 200 सूत्रों में पूरे योग शास्त्र को समेट दिया। योग का 8वां अंग मोक्ष है। 7 अंग तो उस मोक्ष तक पहुंचने के लिए है।भगवान शिव की सुरक्षा और उनके आदेश को मानने के लिए उनके गण सदैव तत्पर रहते हैं। उनके गणों में भैरव को सबसे प्रमुख माना जाता है। उसके बाद नंदी का नंबर आता और फिर वीरभ्रद्र।

>>>कृष्ण और काली में अंतर नहीं है - महाभागवत में आया है कि भगवान शिव ने देवी पार्वती से कहा, ‘देवी यदि तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो तुम पुरुष रुप में अवतार लो और मैं स्त्री रूप में लेकर तुम्हारी प्रियतमा बनकर आनन्द भोग करना चाहता हुं।’ देवी ने बात मान लिया क्योंकि सभी मनोकामनाऐं देवी की कृपा से सिद्ध होती है। नवीन मेघ के समान कान्तिमयी मेरी भद्रकाली मूर्ति श्रीकृष्ण रूप में पृथ्वी पर अवतार लेगी। जया एवं विजया (छिन्नमस्ता रुप में इन्हीं दो सखियों को देवी रक्तपान करा रही है) वे पुरुष रुप में श्रीदामा और सुदामा बन कर अवतरित हुए। भगवान विष्णु बलराम रूप में, और भगवान शिव के गण गोपियों के रूप में अवतरित हुई।भगवती दुर्गा के 108 नामों में एक नाम पुरुषाकृतिः है अर्थात् शक्ति पुरुष एवं स्त्री दोनों रूपों में है, अगर शिव अर्धनारीश्वर हो सकते हैं तो शक्ति पुरुषाकृतिः क्यों नहीं ?महाशक्ति का यह सारा विलास है ।

दुर्गा सप्तशती के पंचम अध्याय में काली का उत्पति का जिक्र करते हुए वर्णन आया है कि पार्वती के शरीर से श्‍वेतवर्णी कौशिकी निकली जिसके बाद काली शेष रह गई, जिनका निवास स्थल हिमाचल है। रक्तबीज के वध में काली की महत्वपूर्ण भूमिका है। चण्डी के कहने पर काली अपना मुंह फैलाकर रक्तबीज के शरीर से गिरने वाले रक्त बिन्दुओं को पी लेती है।बिल्कुल ऐसा ही दृश्य बर्बरीक ने महाभारत के युद्ध में देखा था -कहा गया है कि महाभारत के युद्ध में भीमपुत्र बर्बरीक के सिर को कृष्ण भगवान ने ऊंचे पर्वत पर स्थापित किया। युद्ध में विजयश्री प्राप्त होने पर पांडव विजय का श्रेय लेने . के लिए आपस में वाद-विवाद करने लगे तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि युद्ध में विजय का निर्णय बर्बरीक ले सकते हैं क्योंकि उन्होंने सारे युद्ध को संपन्न होते हुए देखा है।जब बर्बरीक से पूछा गया कि युद्ध में विजय का श्रेय किसे जाता है तब उनका उत्तर था, “मैंने युद्ध में श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र को दुष्टों का अंत करते देखा और द्रौपदी महाकाली का रूप धारण कर सभी दुष्टों का रक्त पान कर रही थी।”

तंत्र में काली को कुण्डलिनी भी कहा गया है – कुण्डलिनी का उच्श्रृंखल रुप जिसमें वह विध्वंस करती हैं। वास्तव में काली सत्य और भ्रम के बीच स्थित है – भ्रम की स्थिति में मनुष्य अपने अधिकार को स्थापित करने के लिए लड़ाई करता है जबकि सच तो यह है कि हर व्यक्ति के प्राण पर महाकाल का शासन है। महाकाल को नियंत्रित सिर्फ काली कर सकती हैं। काली के सबसे प्रचलित चित्रण में वे शिव के वक्ष स्थल पर स्थित हैं । निष्प्राण शव रूप में शिव काली के नीचे लेटे हुए हैं । इस चित्रण से यह माना जा सकता है कि बिना शक्ति के शिव भी शव हो जाते हैं ।निश्‍चित है कि अवतार या देवता बिना शक्ति के कार्य नहीं कर सकते है, एवं काली क्रियाशक्ति हैं।

इसलिए क्षीरसागर में जब ब्रह्मा जी को अपने प्राणों को मधु कैटभ से बचाने की जरूरत आन पड़ी तब उन्होंने भगवान विष्णु को सक्रिय करने के लिए महाकाली का ध्यान किया। दुर्गासप्तशती में तमोगुण की अधिष्ठात्री भगवती काली को भगवान विष्णु की योगनिद्रा भी कहा गया है।

ॐ खड्गं चक्रगदेषु चापपरिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिरः

शंङ्खं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम्।

नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां

यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम्॥

हे महाकाली आपने अपने अपने दस हाथों में खड्ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिध, शूल, भुशुण्डी, मस्तक और शंख धारण किया है। नीलमणि के सदृश कान्तियुक्त हे काली देवी आप दिव्य आभूषणों से युक्त है और आपके दस मुख तथा दस पैर है।

दस महाविद्याओं में प्रथम स्थान पर काली का दशमुखी रूप देवी के दसों रूपों को प्रतिबिंबित करता है जिन्हें दस महाविद्या भी कहा गया है: काली, तारा, त्रिपुर सुन्दरी, भुवनेश्‍वरी, छिन्नमस्ता, भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला या फिर ये दस मुख भगवान विष्णु के दस रुपों में अवस्थित क्रिया शक्ति है?शायद इसी कारण से जहां काली की पूजा प्रचलित है वहां लोकगीतों में देवी काली और कृष्ण के बीच के भेद को धुंधला करने की कोशिश की गई । पश्चिम बंगाल में लोक कथा है कि आयान काली के उपासक थे। उनकी पत्नी राधा, कृष्ण को पूजती थी। आयान की उपासना खुले में चलती। राधा की चोरी छुपे होती।एक दिन राधा की ननद ने भाई से चुगली कर दी कि भाभी कृष्ण को पूजती है। उसके बाद की घटना को दाशरथि राय, 18वीं सदी के पश्चिम बंगाल के लोक कवि लिखते हैं-कुंज कानने काली व्यजे वांशी वनमाली, करे असि धरे श्री राधाकान्त, श्याम-श्यामा भेद केन, कररे जीव भ्रान्त काली रहस्य। अयान को मंदिर में कृष्ण की जगह काली दिखाई दिया तलवार लिए हुए। भेद करने की जरूरत ही नहीं है श्यामा श्यामा में क्योंकि काली क्रिया शक्ति की देवी है और समस्त जगत को क्रियायोग का पाठ कृष्ण ने दिया है।

 [कुलार्णव तंत्र के अनुसार –‘‘सर्वेम्यश्चोत्तमा वेदा-वेदेम्यो बैष्ण्ंवं परम,.... सिद्धान्तात् उत्तमं कौलं-कौलात् परतरं नहिं।।’’(वेदाचार से श्रेष्ट वैष्णवाचार है। वैष्णवाचार से श्रेष्ट शैवाचार है। शैवाचार से उत्तम दक्षिणाचार है। दक्षिणाचार से श्रेष्ट वामाचार है। वामाचार से उत्तम सिद्धान्ताचार तथा सिद्धान्ताचार से श्रेष्ट कौलाचार है।) इन आचारों को तीन भावों के अन्तर्गत माना गया है। विश्वचार तंत्र के अनुसार-‘‘चत्वारो देवि वेदाद्याः-पशुभावे प्रतिष्ठिता, वामाद्यास्रय आचारा-दिव्ये वीरे प्रकीर्तिता। ’’(प्रथम चार आचार पशुभाव, वाम तथा सिद्धान्ताचार वीरभाव एवं कौलाचार को दिव्यभाव के अन्तर्गत माना गया है। ) उपरोक्त सातों आचारो का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

(1) >>>वेदाचार-वेदाचारी उपासक वेदाध्ययन करके वेदमाता गायत्री की उपासना करता है। अष्टांगयोग तथा ‘अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह’ का पालन करके एक ग्रहस्थ सन्त की भांति आचरण करता हुआ श्रद्धा-विश्वासर्पूवक सदैव ब्रह्मप्राप्ति हेतु मन, वचन, कर्म से प्रयास करता है। वेदाचार का पालन करके साधक की बाह्यशुद्धि हो जाती है।

(2) >>>बैष्णवाचार-ईश्वरीय शक्तियों में पूर्ण विश्वास रखने वाला भक्तियोग का अनुयायी, परोपकारी, निराभिमानी तथा सात्विक वृत्ति वाला व्यक्ति जब नवधाभक्ति पूर्वक श्रीविष्णु  के विभिन्न नामों तथा उनके अवतारों (राम, कृष्ण,अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण ) तथा राधा-कृष्ण का नाम जप एवं संकीर्तन करता है तो उसे बैष्णवाचारी कहते हैं। साधक हरिप्रिया तुलसी का पूजन करता है। तुलसीमाला से जप तथा उसे धारण भी करता है। बैष्णवाचार का पालन करने से साधक की चित्तशुद्धि हो जाती है तथा वह गुरूभक्त बन जाता है।

(3) >>>शैवाचार- शिव तथा शक्ति की ऐक्यता पर विश्वास रखने वाला, भक्ति करने की क्षमता रखने वाला, स्वधर्म पालन तथा स्वधर्म की रक्षा करने वाला विश्वकल्याण की भावना से ओतप्रोत व्यक्ति जब शिव-शक्ति की पूजोपासना करता है तो उसे शैवाचारी कहते हैं। ऐसा साधक भस्म तथा रूद्राक्ष धारण करता है। वह सदैव विशुद्ध ज्ञानार्जन हेतु तत्पर रहता है।

(4) >>>दक्षिणाचार- दक्षिणाचार उपासना पद्धति में साधक न केवल पुरूष तत्व (शिव) वरन् प्रकृति तत्व (शक्ति) की महत्ता को भी स्वीकार करता है। शक्ति की इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया नामक तीन स्वरूपों पर विश्वास रखते हुए द्वैतभावना तथा देहाभिमान पूर्वक शिव-शक्ति की पूजोपासना में तत्पर रहता है। प्रथम तीन आचारों का पालन करके उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है उसके निदिध्यासन का अभ्यास करता रहता है।

उपरोक्त चारों आचार पशु आचार तथा अधम उपासना के अन्तर्गत आते हैं क्योंकि इन सभी आचारों में भक्तियोग योग का दास्यभाव, साधक का द्वैतभाव तथा देहाभिमान विद्यमान रहता है। ऐसा साधक उन पंच-कंचुकों तथा अष्टपाशों से आबद्ध रहता है जिनसे मुक्त हुए बिना ब्रह्मप्राप्ति सम्भव नहीं है। ऐसे साधक में उस प्रबल इच्छा शक्ति तथा आत्मबल का अभाव रहता है जिसके बल पर एक वीर साधक अपने प्राणों को घोर संकट में डालकर भी परमलक्ष्य (ब्रह्मप्राप्ति) की प्राप्ति कर लेता है।

(5) >>>सिद्धान्ताचार- वामाचार की समस्त साधनाओं को पूर्ण करके तथा उस साधना से अर्जित ज्ञान का सहारा लेकर साधक सिद्धान्ताचार में प्रवेश करता है। ऐसा साधक अपने मन तथा इन्द्रियों को पूर्णतया वश में करके समस्त शंकाओं से रहित होकर उस ‘स्थितप्रज्ञ’ अवस्था में पहुंच जाता है।  जिसका विवरण ‘भगवत् गीता’ में दिया गया है। वह सदैव भैरव वेश धारण कर ब्रहमानन्द का अनुभव करता रहता है। सम्प्रदाय भेद के कारण कहीं पर सिद्धान्ताचार को वामाचार साधना से पूर्व तथा कहीं पर वामाचार के पश्चात स्थान दिया गया है। वास्तव में वामाचार तथा सिद्धान्ताचार दोनों ही वीराचार के अन्तर्गत माने जाते हैं।

(6)>>> वामाचार (वाममार्ग)-विभिन्न आगम ग्रन्थों में वाममार्ग की श्रेष्टता, गोपनीयता तथा इस प्रकाशमान आध्यात्मिक महापथ पर चलकर परमेश्वरत्व प्राप्त करने वाले साधक के लक्षणों का जो वर्णन किया गया है उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-भगवान श्री शिव द्वारा वाममार्ग को अत्यन्त दुर्गम तथा योगियों के लिए भी अगम्य माना गया है-‘वामो मार्गः परम गहनो-योगिनामप्यगम्यः’’ पुरश्चर्यार्णव नामक तंत्र ग्रन्थ में वाममार्ग को सर्वोतम, सर्वसिद्धिप्रद तथा केवल जितेन्द्रिय व्यक्ति के लिए ही सुलभ माना गया है-‘‘अयं सर्वोत्तमं धर्मः-शिवोक्त सर्वसिद्धिदः, जितेन्द्रियस्य सुलभो-नान्यथा नन्त जन्मभिः। ’’अर्थात् इन्द्रिय-लोलुपव्यक्ति अनन्त जन्मों में भी इस साधना का अधिकारी नहीं बन सकता है। भगवान श्री शिव मॉं पार्वती से कहते हैं कि कि हे देवि! इस उत्कृष्ट वाममार्ग की साधना को सदैव परम गोपनीय रखना चाहिए- "अतो वामपथं देवि! गोपये मातृजारवत्। ’’प्रसिद्ध आगमग्रन्थ ‘मेरूतंत्र’ का कथन है कि केवल वही साधक वाममार्ग की साधना का अधिकारी हो सकता है जो दूसरों के धन को दखकर अन्धा, परस्त्री को देखकर नपुंसक तथा दूसरों की निंदा करते समय गूंगा बनने की क्षमता रखता हो। 

(7)>>> कौलाचार - तंत्र शास्त्र में पशुभाव, वीरभाव तथा दिव्यभाव के अतिरिक्त एक अन्य परमोच्चभाव की अवधारणा भी विद्यमान है जिसे ‘कौलभाव’ कहा गया है। ऐसे उपासक को ‘कौलयोगी’ तथा उसकी उपासना विधि को ‘कौलाचार’ कहते हैं। कौलयोगी की विशेषताओं तथा लक्षणों का वर्णन करते हुए उसे महायोगी बताया गया है। देखिए-‘‘न गुरौसदृशं वस्तु-न देवः शंकरोपम, नतु कौला परमो योगे-न विद्या त्रैपुरीसमा। ’’(श्री गुरू के समान कोई मनुष्य नहीं, भगवान शंकर के समान कोई देवता नही, कौलयोग के समान कोई योग नहीं तथा श्री त्रिपुरा के समान कोई महाविद्या नहीं है।)भगवान शंकर मॉं पार्वती से कहते हैं- ‘भोगो योगायते साक्षात्-पातंक सुकृतायते, मोक्षायते च संसार-कौलिकानां कुलेश्वरी। ’’(हे कौलिकों की कुलेश्वरी! कौलसाधक द्वारा किया हुआ भोग (Bh)  भी योग में बदल जाता है। उसके द्वारा किया हुआ पाप सत्कर्म (पुण्य) में बदल जाता है। वह इसी संसार में मोक्ष प्राप्त कर लेता है।) पुनश्चः- ‘कर्दमे चन्दने मित्रे-मित्रे शत्रौ तथा प्रिये,श्मशाने भवने देवि-तथैव कांचने तृणे, न भेदायस्य देवेशि! स कौलः परिकीर्तितः’’ (हे देवि! कौलसाधक परमेश्वर की सृष्टि में विद्यमान समस्त वस्तुओं को समान दृष्टि से देखता है। उसके लिए घृणित तथा त्याज्य कुछ भी नहीं होता। कौलसाधक कीचड़ तथा चन्दन, मित्र तथा शत्रु, श्मशान तथा भवन एवं स्वर्ण तथा तृण को एक ही समान समझता है।)

>>>सप्त आचार : आचार नाम से शास्त्रविहित अनुष्ठेय कुछ कार्यों को समझना अर्थात् शास्त्र में जिन कायों को विधेय कहकर निर्दिष्ट किया गया है, जिनका अनुष्ठान अवश्य ही करना होगा उसी को आचार समझना चाहिए शास्त्रविधि निन्दित कार्यों को भी आचार कहा जाता है, किन्तु वह कदाचार है । अतएव आचार शब्द से शास्त्र विधि-विहित अनुष्ठेय कार्य समष्टि को समझा जाता है । आचार सप्तविध हैं। यथा- वेदाचार वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धान्ताचार और कौलाचार । इस समय कौन आचार किस प्रकार का है–उसका लक्षण निर्देशित किया जा रहा है ।

>>>वेदाचार– साधक ब्राह्म मुहूर्त में गात्रोत्थान पूर्वक गुरुदेव के नाम के अंत में ‘आनन्दनाथ’ यह शब्द उच्चारण करके उनको प्रणाम करेगा । सहस्रदल पद्म में ध्यान लगकर पञ्चोपचार से पूजा करेगा और वाग्भव बीज (एं) मन्त्र दश अथवा उससे अधिक बार जप करके परम-कला कुलकुण्डलिनी शक्ति के ध्यानान्तर यथाशक्ति मूलमंत्र जप करके जप समापन के अन्त में बहिर्गमन करके नित्यकर्म विध्यनुसार से त्रिसन्ध्या स्नान और समस्त कर्म करेगा । रात्रि में देवपूजा नहीं करना चहिये । पर्वदिन में मद्य, मांस का परित्याग करना, चाहिये और ऋतुकाल को छोड़कर स्त्रीगमन नहीं करना चाहिये । यथाविहित अन्यान्य वेदिक अनुष्ठान करें।

>>>वैष्णवाचार—वेदाचार के व्यवस्थानुसार सर्वदा नियमित क्रियानुष्ठान में तत्पर रहेगा । कभी भी मैथुन तथा उससे संक्रांत बात भी नहीं करेगा । हिंसा, निदा, कुटिलता, मांसभोजन, रात में माला जप . और पूजा-काये वजनक करेगा । श्रीविष्णुदेव की पूजा करेगा और समस्त जगत् को विष्णुमय देखेगा ।

>>>शैवाचार-वेदाचार के नियमानुसार से शैवाचार की व्यवस्था की गई है । परन्तु शैवों में विशेष यह है कि पशुघात निषिद्ध है। सर्व कर्मों में शिवनाम का स्मरण करेगा और व्योम् ब्योम् शब्द द्वारा गाल बजायेगा ।

>>>दक्षिणचार-वेदाचार के क्रम से भगवती की पूजा करेगा और रात्रियोग में विजया (सिद्धि) ग्रहण कर गद्गद् चित्त से मन्त्र जप करेगा । चतुष्पथ में, श्मशान में, शून्यागार मे, नदीतीर पर, मृत्तिका तल, के नीचे पर्वतगुहा में, सरोवर तट पर, शक्तिक्षेत्र में पीठ स्थल में, शिवालय में, आंवला वृतक्षल पर, पीपल अथवा बिल्वमूल में बैठकर महाशंख माला (नरास्थि माला) द्वारा जप करेगा।

>>>वामाचार-दिन में ब्रह्मचर्य और रात्रि में पद्मतत्व (मद्य मांसादि) द्वारा साधक देवी की आराधना करेगा । चक्रानुष्ठान मन्त्रादि जप करेगा । यह वामाचार क्रिया सर्वदा मातृजारवत् गोपनीय है । पञ्चतत्व और ख-पुष्प (*ख-पुष्प अर्थात् स्वयंभू, कुण्ड, गोलक और वन पुष्प, इन सभी गुप्ततत्त्वों को इसी स्थान पर गुप्त रखना समीचीन समझना) के द्वारा कुल स्त्री की पूजा करेगा; उसके होने से वामाचार होगा। वामस्वरूपा होकर परमा प्रकृति की पूजा करेगा ।

>>>सिद्धान्ताचार-जिससे ब्रह्मानन्द ज्ञान प्राप्त हो जाय, जिस प्रकार वेद, शास्त्र, पुराणादि में गूढ़ ज्ञान होता है । मन्त्र द्वारा शोधन करके देवी का प्रीतिकर जो पञ्चतत्त्व है, उसको पशुशंका वर्जनपूर्वक प्रसादरूप में सेवन करेगा । इस आचार की साधना के लिये पशुहत्या द्वारा (यज्ञादि सदृश) कोई हिसा दोष नहीं होगा । सदा रुद्राक्ष अथवा अस्थि माला और कपालापत्र (खोपड़ी) साधक धारण करेगा और भैरव-वेश धारण के साथ निर्भय होकर प्रकाश्य स्थान पर विचरण करेगा।

>>>कौलाचार–कौलाचारी व्यक्ति को महामन्त्र-साधना में दिशा और काल का कोई नियय नहीं है । किस स्थान पर शिष्ट किस स्थान पर भ्रष्ट अथवा ” कहाँ भूत अथवा पिशाचतुल्य होकर नाना वेश सहित को लक्ष्यक्त भूमण्डल पर विचरण करेगा। कौलाचारी व्यक्ति का कोई निर्दिष्ट नियम नहीं है । उसके लिए स्थानास्थान कालाकाल अथवा कभक में आदि का थोड़ा भी विचार नहीं होता। कर्दम और चन्दन में समान ज्ञान शत्रु, और मित्र में समज्ञान, श्मशान और गृह में समज्ञान क कांचन और तृण में समज्ञान इत्यादि–अर्थात् कौलाचारी व्यक्ति प्रकृत जितेन्द्रिय होता है । (अतः अन्तिमतत्व की साधन का अधिकारी है) अर्थात् वह निःस्पृह, उदासीन और परम योगीपुरुष और अवधूत शब्द का द्योतक है । अन्तः शाक्ता बहिशैवा: सभा मध्ये च वैष्णवा:।नाना रुप धरा: कौला विचरन्ति मही तले ।।श्यामारहस्य अन्दर से शाक्त, बाहर से शैव, सभा मध्य में वैष्णव इसी प्रकार नाना वेशधारी कौल समस्त पृथ्वी में विचरण करता है । साधारण आचार की अपेक्षा वेदाचार, वेदाचार से वैष्णवाचार, वेदाचार से शैवाचार, शैवाचार से दक्षिणाचार, दक्षिणाचार से वामाचार, वामचार से सिद्धान्ताचार और सिद्धान्तचार से कौलाचार श्रेष्ठ होत है;कौलाचार ही आचार की अन्तिम सीमा है, इससे श्रेष्ठ आचार नहीं है । साधक को वेदाचार से आरम्भ करके क्रम से उन्नति की उपलब्धि करनी होती है; एक ही बार में कोई कौलाचार में आगमन नहीं कर सकता है ।] 

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🔱🙏पंचपदी शिक्षण पद्धति🔱🙏
 
     जो लोग ईश्वर के भक्त होते हैं , उनका शरीर मजबूत होता है , उनका मस्तिष्क ज्ञान से उज्ज्वल होता है तथा उनका ह्रदय प्रेम की स्निग्ध भावना के कारण पूर्णतया परिपूर्ण होता है । अतः छात्र जीवन से ही प्रभु भक्त युवा को 3H विकास का प्रशिक्षण देकर- "शरीर से दृढ और कर्मठ ,बुद्धि से उज्ज्वल ज्ञानवान (ब्रह्मविद)  तथा ह्रदय से प्रेममय = प्रेम से पूर्ण !" मनुष्य बनो और बनाओ की शिक्षा देनी चाहिए। 
 छात्र जिस प्रक्रिया से ज्ञानार्जन करता है उसे हम पंचपदी कह सकते हैं । पंचपटदी का अर्थ है पाँच पद वाली प्रक्रिया । पाँच पद इस प्रकार हैं । अधीति, बोध, अभ्यास, प्रयोग और प्रसार । अधीति पहला पद है । अध्येता किसी भी विषय को सुनता है, देखता है या पढ़ता है । यह कार्य ज्ञानेंद्रियों से होता है । उदाहरण के लिए वह गीत या कहानी या भाषण सुनता है । वह नाटक देखता है । वह किसी वस्तु को छूकर परखने का प्रयास करता है । वह किसी घटना को देखता और सुनता है । वह और लोगोंं की बातचीत सुनता है । वह किसी वार्तालाप या घटना का साक्षी बनता है । वह हाथ से परखता भी है । किसी चित्र के रंग और आकृति का निरीक्षण करता है। अपनी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से वह विषय को ग्रहण करता है । यह श्रवण, दर्शन, निरीक्षण । परीक्षण अधीति है । परंतु अधीति मात्र से वह विषय को जानता नहीं है । जानने का यह केवल प्रारंभ है । दूसरा पद है बोध । बोध का अर्थ है समझना । जो देखा है, सुना है या परखा है उसके ऊपर मनन करके वह विषय को आत्मसात करने का प्रयास करता है। ज्ञानेंद्रियों से ग्रहण किए हुए विषय को वह विचारों में रूपांतरित करता है और जानने के लिए विचारों को बुद्धि के आगे प्रस्तुत करता है । बुद्धि निरीक्षण और परीक्षण के साथ साथ विश्लेषण, संश्लेषण, कार्यकारण भाव आदि की सहायता से अपनी चिंतन प्रक्रिया चलाती है ।
इस मनन और चिंतन के आधार पर सुने हुए या देखे हुए विषय का बोध होता है अर्थात छात्र विषय को समझता है । यह अध्ययन का दूसरा पद है । अभी भी अध्ययन पूर्ण नहीं हुआ । सुने हुए और समझे हुए विषय की धारणा भी होनी चाहिए अर्थात वह दीर्घकाल तक अध्येता की बुद्धि का अविभाज्य अंग बनकर रहना चाहिए । हम कई बार अनुभव करते हैं की हमारे द्वारा पढ़ाए हुए विषय को छात्र ने समझ तो लिया है परंतु दूसरे दिन अथवा १ सप्ताह के बाद यदि उससे उस विषय के संबंध में पूछा जाए तो वह ठीक से बता नहीं पाता । इसका कारण यह है कि पढ़ा हुआ विषय उसने धारण नहीं किया है । धारणा के लिए समझे हुए विषय का अभ्यास आवश्यक है । अभ्यास अध्ययन का तीसरा पद है । 
किसी भी बात का अभ्यास ज्ञान को सहज बनाता है । ज्ञान व्यक्तित्व के साथ समरस हो जाता है । उदाहरण के लिए बचपन में पहाड़ों का रोज रोज अभ्यास किया है तो वह बड़ी आयु में भी भूला नहीं जाता । नींद से उठाकर भी कोई कहे तो हम पहाड़े बोल सकते हैं । और कोई काम करते हुए पहाड़े बोलना हमारे लिए सहज होता है । पहाड़े बोलने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता । यही बात बचपन में रटे हुए श्लोकों, मंत्रों, गीतों के लिए लागू है । संगीत का, योग का, धनुर्विद्या का, साइकिल चलाने का अभ्यास भी बहुत मायने रखता है ।
     अभ्यास से ही परिपक्कता आती है । अभ्यास के बाद अध्ययन चौथे पद की ओर बढ़ता है । चौथा पद है प्रयोग। ज्ञान यदि व्यवहार में व्यक्त नहीं होता तो वह निरुपयोगी है अथवा निरर्थक है । उदाहरण के लिए नाड़ी शुद्धि प्राणायाम का अच्छा अभ्यास हुआ है तो व्यक्ति को देखते ही उसका पता चल जाता है । शरीर कृश और हल्का हो जाता है, वाणी मधुर हो जाती है, नेत्र निर्मल हो जाते हैं और चित्त की प्रसन्नता मुख पर झलकती है । उसे कहना नहीं पड़ता कि उसने नाडीशुद्धि प्राणायाम का अभ्यास किया है । 
आहारशास्त्र का ज्ञान जब प्रयोग के स्तर पर पहुंचता है तब वह व्यक्ति कभी विरुद्ध आहार नहीं करता । आहार के सभी नियमों का सहज ही पालन करता है। प्रयोग के बाद पाँचवा पद है प्रसार । प्राप्त किए हुए ज्ञान को अन्य लोगोंं तक पहुँचाना ही प्रसार है । प्रसार के दो आयाम हैं । एक है स्वाध्याय और दूसरा है प्रवचन। स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं ही अध्ययन करना अथवा स्वयं का अध्ययन करना । स्वयं ही अध्ययन करने का अर्थ है प्राप्त किए हुए ज्ञान को मनन, चिंतन, अभ्यास और प्रयोग के आधार पर निरंतर परिष्कृत करते रहना । ऐसा करने से ज्ञान अधिकाधिक आत्मसात होता जाता है । चिंतन के नए नए आविष्कार होते जाते हैं । अध्येता को अपने आप समझने लगता है कि संदर्भ के अनुसार ज्ञान को प्रयुक्त करने के लिए किस प्रकार उसका स्वरूप परिवर्तन करना । यही अनुसंधान है ।  इसमें सारी मौलिकता और सृजनशीलता प्रयुक्त होती है । व्यक्ति के अंतःकरण से ज्ञान प्रस्फुटित होता है । सीखा हुआ पूर्ण रूप से व्यक्ति का अपना हो जाता है और वह प्रकट होता है। स्व के अध्ययन का अर्थ है अपने व्यवहार को, अपने विचारों को अपने चिंतन को नित्य परखते रहना और उत्तरोत्तर निर्दोष बनाते जाना । यह प्रगत अध्ययन का क्षेत्र है। अपने सीखे हुए विषय पर और लोग क्या कहते हैं इसको भी जानते जाना । अपने विषय की अपने ही जैसे अध्ययन करने वालों के साथ चर्चा करना, विमर्श करना और ज्ञान को समृद्ध बनाना । 
>>>Chew and  Digest : प्रसार का दूसरा आयाम है प्रवचन । प्रवचन का अर्थ है अध्यापन । सीखे हुए ज्ञान को अध्येता को देना अध्यापन है । यह प्रक्रिया कैसे होती है ? गाय घास चरती है । उसकी जुगाली करती है । अपने शरीर में पचाती है । अपने अंतःकरण की सारी भावनाएँ उसमें उडेलती है । बछड़े के लिए जो वात्सल्यभाव है वह भी उसमें डालती है । खाया हुआ घास दूध में परिवर्तित होता है और बछड़े को वह दूध पिलाती है । घास से दूध बनने की प्रक्रिया अधीति से प्रसार की प्रक्रिया है । यही अध्ययन के अध्यापन तक पहुंचने की प्रक्रिया है । यही वास्तव में शिक्षा है । 
गाय घास चरती है । उसकी जुगाली करती है । अपने शरीर में पचाती है । अपने अंतःकरण की सारी भावनाएँ उसमें उडेलती है । बछड़े के लिए जो वात्सल्यभाव है वह भी उसमें डालती है । खाया हुआ घास दूध में परिवर्तित होता है और बछड़े को वह दूध पिलाती है । घास से दूध बनने की प्रक्रिया अधीति से प्रसार की प्रक्रिया है । यही अध्ययन के अध्यापन तक पहुंचने की प्रक्रिया है । यही वास्तव में शिक्षा है । अध्यापक का प्रवचन अध्येता के लिए अधीति है । एक ओर प्रवचन और दूसरी ओर अधीति के रूप में अध्यापक और अध्येता तथा अध्यापन और अध्ययन जुड़ते हैं। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को ज्ञान का हस्तांतरण होता है। ज्ञानप्रवाह की शुंखला बनती है। इस शृंखला की एक कड़ी अध्यापक है और दूसरी कड़ी अध्येता । पीढ़ी दर पीढ़ी यह देना और लेना चलता रहता है और ज्ञानधारा अविरल बहती रहती है ।
   हमारा अनुभव है कि ज्ञान प्राप्त करने वाले सब के सब अध्यापन नहीं करते । सब के सब पढ़ाते नहीं हैं । वे अन्यान्य कार्यों में जुड़ते हैं । तब प्रवचन का स्वरूप कैसा होगा? अपने प्राप्त किए हुए ज्ञान को दूसरों के भले के लिए प्रयुक्त करना भी प्रवचन है । ज्ञान का केवल अपने लिए उपयोग करना किसी भी प्रकार से समर्थनीय नहीं है। अपने ज्ञान का यदि किसी के लिए उपयोग नहीं हुआ तो एक प्रकार का सांस्कृतिक अपराध होगा । प्रवचन के माध्यम से व्यक्ति अपने ऋषि-ऋण से मुक्त होता है । जब उसने अधीति से प्रारंभ किया था तब वह पूर्वजों के ऋण को स्वीकार कर चुका था । अब उसने जब दूसरे को ज्ञान दिया या दूसरों के लिए ज्ञान का उपयोग किया तब वह प्रवचन के माध्यम से उस ऋण से मुक्त हुआ । साथ ही उसने अध्येता को अपना ऋणी बनाया।
     इस प्रकार अध्यापक और अध्येता के मध्य अधीती, बोध, अभ्यास, प्रयोग और प्रसार, और प्रसार से फिर अधीती के रूप में ज्ञानधारा निरंतर प्रवाहित होती रहती है और आवश्यकता के अनुसार समय समय पर परिष्कृत भी होती रहती है । इसे ही चिरपुरातन नित्यनूतन कहते हैं । यही सनातनता का भी अर्थ है । पंचपदी की यह प्रक्रिया अत्यंत सहज होनी चाहिए । परंतु आज उसका जरा भी आकलन नहीं हो रहा है । आज कक्षाकक्षा में अधिकांश देखा जाता है कि अधीति से सीधे प्रवचन के पद पर अध्यापक पहुँच जाता है। मध्य के बोध, अभ्यास और प्रयोग की कोई चिंता ही नहीं करता । आज आवश्यकता इस बात की है कि हम समस्त शिक्षाप्रक्रिया में और विशेष रूप से आचार्यों की शिक्षा में पंचपदी को आपग्रहपूर्वक अपनाएँ । विद्यालयों के कक्षाकक्षों में होने वाला अध्ययन अध्यापन पंचपदी के रुप में चले इस प्रकार से वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन करने की अति आवश्यकता है ।
>>>साइकिल चलाने का उदाहरण : जब कोई बाल आयु का लड़का साइकिल चलाना चाहता है तब उसे पिता अथवा बड़ा भाई सिखाने का प्रारंभ करता है। वह साइकिल के विभिन्न अंग उपांग उसे दिखाता है, उनके बारे में जानकारी देता है । चालक चक्र कैसे पकड़ना और पैडल पर कैसे पैर जमाना यह दिखाता है । वह स्वयं चलाकर भी दिखाता है। प्रत्यक्ष सीखना आरम्भ करने से पहले भी उस बालक ने पिता को या बड़े भाई को साइकिल पर आते जाते देखा है, साइकिल की सफाई भी की है, साइकिल को इधर से उधर उठाकर रखा भी है। अब वह पिता की उपस्थिति में चक्र को पकड़कर देखता है, पैडल पर पैर जमाकर देखता है और पिता के मार्गदर्शन में साइकिल चलाता है । पिता उसे सहायता करते हैं । उसे गिरने नहीं देते ।  बालक को पहले पहले कुछ डर भी लगता है परंतु पिता के होने से वह स्वस्थ रहता है और साइकिल चलाने के प्रति उत्साहित भी रहता है। दो चार दिन इस प्रकार पिता साथ में रहकर उसे साइकिल के विषय में और साइकिल चलाने के विषय में ज्ञान देते हैं। यह उस बालक के लिए अधीति का पद है और पिता के लिए प्रवचन का
 इसके बाद बालक स्वयं अकेले साइकिल चलाता है। वह गलतियां करता है, गिरता भी है। उसे चोट भी आती है। तथापि वह साइकिल चलाना छोड़ता नहीं है। कभी कभी पिता उसे कहां गलती हो रही है वह दिखाते हैं। बालक सुधार करता है। अब उसे साइकिल पकड़ना, चक्र चलाना, घुमाना, पैडल मारना और संतुलन रखना ठीक से आ गया। निरीक्षण करके सबकुछ ठीक है यह देख भी लिया । यह उस बालक का बोध का पद है।
 परंतु इतने मात्र से बालक साइकिल लेकर भीड़ भरे रास्ते पर जाता नहीं है क्योंकि उसने अभी नया नया सीखा है। अभ्यास नहीं हुआ। वह रोज रोज अपने घर के परिसर में अथवा पास वाली निर्जन सड़क पर साइकिल चलाने का अभ्यास करता है। यह उसके लिए अत्यंत आनंददायक है । वह साइकिल चलाता ही रहता है। पैरों की तरह ही साइकिल उसके शरीर का अंग हो गई है। उसे साइकिल चलाने की क्रिया पर प्रभुत्व प्राप्त हुआ है । साइकिल चलाने के विषय में आत्मविश्वास से परिपूर्ण है। परंतु साइकिल चलाना केवल इस प्रकार के अभ्यास के लिए तो नहीं होता।
 वह विद्यालय जाता है, खरीदी करने के लिए बाजार जाता है, मित्रों के साथ सैर करने के लिए जाता है। इसके साइकिल सीखने का उपयोग स्वयं के लिए और औरों के लिए भी होता है । ऐसे ही कुछ दिन चले जाते हैं और एक दिन वह अपने छोटे भाई को या पड़ोस के किसी छोटे बालक को उसी प्रकार साइकिल चलाना सिखाना प्रारंभ करता है जैसे उसके पिता ने उसके साथ किया था । वह एक अच्छा शिक्षक हैं। एक अच्छा साइकिल चालक है जो दूसरों के भी काम आता है । " स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग -ट्रेडिशन" में  में' सीखने -सिखाने की यह प्रक्रिया पाँच पदों में होती है
>>>>गीत सिखाने का उदाहरण :  संगीत की कक्षा में शिक्षक अपने छात्रों को एक गीत सिखा रहा है । वह गीत के शब्दों को सुनाता है । गीत गाकर सुनाता है । एक बार दो बार गाता है और छात्र सुनते हैं । उसके बाद छात्र भी सुना हुआ गाते हैं । यह क्रिया एक से अधिक बार होती है । इस समय शिक्षक छात्र के उच्चार सही है कि नहीं, स्वर ठीक है कि नहीं यह देखता है । यदि ठीक नहीं है तो उसमें सुधार करता है । छात्र को सही सही आने तक वह यह क्रिया बार बार करता है । शिक्षक के लिए यह प्रवचन है और छात्र के लिए अधीति । 
       इसके बाद छात्र स्वयं गाता है, गाने का प्रयास करता है । आचार्य ने क्या सिखाया था इसका स्मरण करता है । गाते समय उसका स्वर ठीक नहीं होता तो उसे स्वयं को समझ में आता है । वह ठीक करने का प्रयास करता है । शिक्षक भी गाता है, परखता है । ऐसा करते करते कुछ समय के बाद छात्र का स्वर ठीक हो जाता है । उसे गीत आ गया ऐसा शिक्षक को भी लगता है और छात्र को भी प्रतीति होती है । यह उसका बोध का पद है । 
         इसके बाद उसका अभ्यास आरम्भ होता है । वह उसी गीत को बार बार गाता है । गाते गाते वह गीत उसके गले में बैठता है । अब वह गलती नहीं करता, न उसे भूलता है । अभ्यास के साथ साथ वह गीत उसके गले में और मस्तिष्क में भी बैठता है । अब वह उसका आनंद ले रहा है । उसकी खूबियां समझ रहा है । अब वह इस गीत के जैसे अन्य गीतों के साथ इसकी तुलना कर रहा है । अब वह उस के रहस्य को भी जानने लगा है, समझ रहा है। अभ्यास करते करते वह इस गीत को अपने अस्तित्व का अंग बना रहा है । वह गीत सुनता है तब के और गीत का अभ्यास होने के बाद में जो आनंद आता है उसमें बहुत अंतर है। अंतर उसे स्वयं समझ में आता है। यह अंतर उसके साथ रहने वालों के भी समझ में आता है ।
         अभ्यास के बाद प्रयोग का पद है । उस गीत को वह अपने आनंद के लिए गाता है और दूसरों को आनंद देने के लिए भी गाता है। गीतका अभ्यास जैसे जैसे बढ़ता जाता है वैसे वैसे उसके स्वर, ताल और लय परिपक्व होते जाते हैं । इस ज्ञान का उपयोग वह अन्य गीत सीखने में करता है। शास्त्रीय संगीत में वह प्रगति करता है। आगे के अभ्यास के लिए इस गीत का अभ्यास उसे उपयोगी होता है । यह उसके लिए प्रयोग का पद है । 
     जब वह गाता है तब और लोग सुनते हैं । कोई एक व्यक्ति उससे यह गीत सीखना भी चाहता है । छात्र उसे सिखाता है । यह उसके लिए प्रवचन का पद है। सुनने वाले के और सीखने वाले के लिए यह अधीति का पद है।  और किसीको न भी सिखाएं तब भी छात्र अपनी ही प्रस्तुति में विविधता लाता है, नवीनता लाता है । यह उसके लिए स्वाध्याय है। दूसरे किसी गीत की स्वर रचना बनाता है। यह भी उसके लिए स्वाध्याय का ही पद है। इस प्रकार उसका अध्ययन पाँच पदों में चलता है । ये पांच पद नहीं है तो उसका अध्ययन पूरा नहीं होता, परिपक्व नहीं होता, उसके व्यक्तित्व का वह अंग नहीं बनता
>>>इसी लेख का उदाहरण :  जो भी पाठक इसे पढ़ते हैं उनके लिए यह अधीति है । पढ़ने के बाद पाठक जब उस पर मनन, चिंतन, चर्चा करेंगे तब वह बोध के पद से गुजर रहा है । ध्यान देने योग्य बात :  यह है कि कर्मेंद्रिय से होने वाली क्रियाओं के संबंध में पांच पद किस प्रकार व्यवहार में आते हैं यह सरलता से समझ में आता है।  परंतु अध्ययन केवल कर्मेन्द्रियों से ही नहीं होता है। वह सदा क्रिया ही नहीं होता है। 
उदाहरण के लिए इतिहास, मनोविज्ञान या तत्त्वज्ञान का अध्ययन कर्मेन्द्रियों का विषय नहीं है। विज्ञान और तन्त्रज्ञान (science and technology-पंचमुण्डी आसन प्रयोग) के सिद्धांत समझना केवल कर्मेन्द्रियों का विषय नहीं है। इनके बारे में पंचपदी का सिद्धांत किस प्रकार लागू होता है? इन विषयों में अधीति और बोध तो समझ में आता है परंतु अभ्यास और प्रयोग का पद कैसा होगा ? उत्तर यह है कि बुद्धि से और मन से ग्रहण किए जाने वाले विषयों में पंचपदी का सिद्धांत किस प्रकार काम करता है यह जानना भी महत्त्वपूर्ण है । अभी हमने देखा कि अधीति और बोध के पद को समझना कठिन नहीं है। अब हम देखें कि एक सिद्धांत हमारे सामने रखा जा रहा है। प्रथम तो हमने पूरा विवेचन आँखों से, मन से, बुद्धि से ग्रहण किया । हमारा ग्रहण करना निर्दोष है, प्रामाणिक है । 
  >>>There is a Difference between the practice through the physical organs and through the conscience.
      कर्मेन्द्रियों की साधना में और विवेक की साधना में अन्तर है।  हमें स्वयं को ही यह बात समझ में आती है। पढ़ लेने के बाद भी वह हमारे मन में रहता है और धीरे धीरे बोध परिपक्व होता है । हमने ठीक समझा कि नहीं उसे परखने के लिए हम अन्य किसीसे प्रश्न भी पूछेगे। हमारा विचार प्रस्तुत भी करेंगे। इस प्रकार अपने अंतःकरण की सहायता से और अन्य लोगोंं की सहायता से या अन्य ग्रंथों की सहायता से [या 'प्रेमिक-पथिक संवाद' के माध्यम से ]  हम सुने हुए सिद्धांतों को ठीक से समझेंगे । इसके बाद अभ्यास का पद आरम्भ होगा।  कर्मेन्द्रियों से होने वाली क्रिया का अभ्यास और अंतःकरण से होने वाले अभ्यास में अंतर है। कर्मेन्द्रियों की क्रियाएं देखी जाती हैं, उनका पुनरावर्तन प्रत्यक्ष होता है। अंतःकरण से होने वाला अभ्यास (प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास) सूक्ष्म होता है
        पंचपदी की प्रक्रिया को हम अनेक विषयों को लागू करने का अभ्यास करते हैं ।हम अनेक उदाहरण ढूंढते हैं । केवल सिद्धांत समझने का ही नहीं तो प्रक्रियाओं को समझने का कार्य भी हमारी बुद्धि कर रही है। इसके अभ्यास (पंचमुण्डी आसन  बैठकर माँ सिद्धेश्वरी काली की मूर्ति पर प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास)  के द्वारा हमारा मन शीघ्र एकाग्र होता है और बुद्धि परिष्कृत होती रहती है। यह (ध्यान और समाधि)  भी अभ्यास का ही परिणाम है। एक विषय को या मुद्दे को (चार महावाक्य ^* निर्वाण-षटकम को ) - समझते समझते हमारी बुद्धि सक्षम, निर्दोष और परिपक्व बनती जाती है। यह (14.4.1992 को हुई) हमारी अपनी उपलब्धि है। 
[जब आदि गुरु शन्कराचार्य जी की अपने गुरु से प्रथम भेंट हुई तो उनके गुरु ने बालक शंकर से उनका परिचय माँगा ।बालक शंकर ने अपना परिचय किस रूप में दिया ये जानना ही एक सुखद अनुभूति बन जाता है… यह परिचय ‘निर्वाण-षटकम्’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं,न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |
न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:, चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम ||1||
[मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूँ, न मैं कान, जिह्वा, नाक और आँख हूँ। न मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु ही हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ…I am not the five senses.I am beyond that.I am not the ether, nor the earth, nor the fire, nor the wind (the five elements).I am indeed, That eternal knowing and bliss, the auspicious (Shivam), love and pure consciousness.]
न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायुः, न वा सप्तधातु: न वा पञ्चकोशः |
न वाक्पाणिपादौ न च उपस्थ पायु, चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||2||
[न मैं मुख्य प्राण हूँ और न ही मैं पञ्च प्राणों (प्राण, उदान, अपान, व्यान, समान) में कोई हूँ, न मैं सप्त धातुओं (त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि, मज्जा) में कोई हूँ और न पञ्च कोशों (अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय) में से कोई, न मैं वाणी, हाथ, पैर हूँ और न मैं जननेंद्रिय या गुदा हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ…Neither can I be termed as energy (prana),nor five types of breath (vayus),nor the seven material essences, nor the five coverings (pancha-kosha).Neither am I the five instruments of elimination, procreation, motion, grasping, or speaking. I am indeed, That eternal knowing and bliss, the auspicious (Shivam), love and pure consciousness.]
न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ, मदों नैव मे नैव मात्सर्यभावः |
न धर्मो नचार्थो न कामो न मोक्षः, चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||3||
[न मुझमें राग और द्वेष हैं, न ही लोभ और मोह, न ही मुझमें मद है न ही ईर्ष्या की भावना, न मुझमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही हैं, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ…I have no hatred or dislike, nor affiliation or liking, nor greed, nor delusion, nor pride orhaughtiness, nor feelings of envy or jealousy.I have no duty (dharma), nor any money, nor any desire (kama), nor even liberation(moksha).I am indeed, That eternal knowing and bliss, the auspicious (Shivam), love and pure consciousness.]
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं, न मंत्रो न तीर्थं न वेदों न यज्ञः |
अहम् भोजनं नैव भोज्यम न भोक्ता, चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||4||
[न मैं पुण्य हूँ, न पाप, न सुख और न दुःख, न मन्त्र, न तीर्थ, न वेद और न यज्ञ, मैं न भोजन हूँ, न खाया जाने वाला हूँ और न खाने वाला हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ…मैं प्रेक्षक (ध्याता -ध्येय-ध्यान) की त्रिमूर्ति या अनुभव करने वाला, देखने या अनुभव करने की प्रक्रिया, या किसी भी वस्तु का अवलोकन या अनुभव करने वाला नहीं हूं।
I have neither merit (virtue), nor demerit (vice). I do not commit sins or good deeds,nor have happiness or sorrow, pain or pleasure. I do not need mantras, holy places, scriptures (Vedas), rituals or sacrifices (yagnas).I am none of the triad of the observer or one who experiences, the process of observing or experiencing, or any object being observed or experienced. I am indeed, That eternal knowing and bliss, the auspicious (Shivam), love and pure consciousness.]
न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद:, पिता नैव मे नैव माता न जन्म |
न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं, चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||5||
[न मुझे मृत्यु का भय है, न मुझमें जाति का कोई भेद है, न मेरा कोई पिता ही है, न कोई माता ही है, न मेरा जन्म हुआ है, न मेरा कोई भाई है, न कोई मित्र, न कोई गुरु ही है और न ही कोई शिष्य, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ…
I do not have fear of death, as I do not have death.I have no separation from my true self, no doubt about my existence, nor have I discrimination on the basis of birth. I have no father or mother, nor did I have a birth. I am not the relative, nor the friend, nor the guru, nor the disciple. I am indeed, That eternal knowing and bliss, the auspicious (Shivam), love and pure consciousness.]
अहम् निर्विकल्पो निराकार रूपो, विभुव्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम |
सदा मे समत्वं न मुक्ति: न बंध:, चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||6||
[मैं समस्त संदेहों से परे, बिना किसी आकार वाला, सर्वगत, सर्वव्यापक, सभी इन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित हूँ, मैं सदैव समता में स्थित हूँ, न मुझमें मुक्ति है और न बंधन, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ…
I am all pervasive. I am without any attributes, and without any form. I have neither attachment to the world, nor to liberation (mukti). I have no wishes for anything because I am everything, everywhere, every time, always in equilibrium. I am indeed, That eternal knowing and bliss, the auspicious (Shivam), love and pure consciousness.---इति श्रीमद जगद्गुरु शंकराचार्य विरचितं निर्वाण-षटकम सम्पूर्णं। ]
     अन्यत्र कहीं हमने सुना है कि विषयों की जानकारी का उपयोग ज्ञानार्जन के करणों (मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार)  के विकास (रूपांतरण) में होता है। इन सिद्धांतों को लागू करने का अभ्यास स्वयं इस सिद्धांत को ठीक से समझने में तो होता ही है परंतु अन्य सिद्धांत समझने के लिए भी उपयोगी होता है । विषय और करण दोनों एक दूसरे के लिए सहयोगी बनते हैं । यह भी ज्ञानार्जन की प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग है । अभ्यास से विषय तो पक्का होता ही है, साथ ही विवेक भी बढ़ता है और (स्वरुप का) ज्ञान प्राप्त करने से जो प्रसन्नता होती है उसका भी अनुभव होता है। यह कदाचित अंतःकरण के स्तर पर होने वाली ज्ञानार्जन की प्रक्रिया है । यह (अभी 22.1. 2023 तक) हमारे लिए अभ्यास का पद है
        इसके बाद (इस आत्मनुभूति को ठीक से पचा लेने के बाद) हम अधीत विद्या-प्रयोग के पद पर पहुंचते हैं । हमारे अध्यापन कार्य में पंचपदी के सिद्धांत का ज्ञान व्यक्त होता है । हमारा अध्यापन अध्ययन का कार्य अधिक समर्थ और अधिक प्रभावी बनता है । हम भी अध्यापन का कार्य इस सिद्धांत के प्रकाश में करते हैं । छात्र अध्ययन के किस पद से गुजर रहा है इसका भी पता हमें चलता है । छात्र का बोध का पद ठीक हुआ कि नहीं इसकी और हमारा विशेष ध्यान रहता है । हमारा अध्यापन छात्रों को भी ठीक लगता है । सामान्य भाषा में इसे ही अनुभवी अध्यापक (जीवनमुक्त शिक्षक - CINC नवनीदा) कहते हैं । यह हमारे लिए प्रयोग का पद है ।
          हम देख रहे हैं कि पंचपदी के सिद्धांत को लेकर लेखक के लिए प्रसार का पद हैलेखक प्रवचन कर रहा है। अर्थात उसने जो समझा है वह पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास वह कर रहा है । हम जब वैसा करेंगे तब वह हमारे लिए प्रसार का पद होगा । परंतु केवल पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना ही प्रसार नहीं है । वह उसका एक आयाम है । यह प्रवचन है । पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते समय लेखक स्वयं का परीक्षण करता है । वह देखता है कि उसे ठीक से प्रस्तुत करना आया कि नहीं । लेखक ज्ञानार्जन की प्रक्रिया के अन्य सिद्धांतों के साथ पंचपदी के सिद्धांत की तुलना करता है । वह यह प्रक्रिया किस प्रकार होती है इसका भी चिंतन करता है । पाठक भी यह करेंगे । तब लेखक और पाठक सबके लिए यह स्वाध्याय का पद होगा । इसी प्रकार से अन्य विषयों को भी समझा जाता है । 
>>>Herbert's pentameter और भारतीय पंचपदी दोनों पद्धतियों की तुलना : शिक्षक प्रशिक्षण के कई पाठ्यक्रमों में हमने हर्बर्ट की पंचपदी के विषय में सुना है और पढ़ा भी है । यहाँ जो पंचपदी प्रस्तुत हुई है उसमें और हर्बर्ट की पंचपदी में क्या अंतर है ? क्या दोनों का समन्वय किया जा सकता है ?
>>It binds teaching in a time limit called period.हर्बर्ट की पंचपदी मूल रूप से अध्यापन की पंचपदी है । अध्यापक को कक्षाकक्ष में विषय किस प्रकार प्रस्तुत करना है उसका मार्गदर्शन यह पंचपदी करती है । व्यापक संदर्भ में कहे तो पाश्चात्य जगत की सारी 'अध्ययन- अध्यापन प्रक्रिया' यांत्रिकता से ग्रस्त हो गई है। अध्यापन को कालांश नामक समयसीमा में बद्ध करती है । अध्यापन कौशल को छोटे छोटे हिस्सों में बांटती है । जिस प्रकार एक यंत्र के छोटो छोटे हिस्से बनते हैं उसी प्रकार एक विषय को उपपविषयों में विभाजित किया जाता है उस के मुद्दे बनाए जाते हैं और एक ३५ या ४५ मिनट की समय सीमा में क्या पढ़ाना है ? यह तय किया जाता है । उस समय सीमा के भी हिस्से किए जाते हैं और उन हिस्सों में क्या क्या करना है किस प्रकार करना है यह निश्चित किया जाता है । 
     मोटे मोटे यह पांचपद से होते हैं और वे क्रमशः भी होते हैं अतः उसे पंचपदी कहा जाता है । हर्बर्ट नामक शिक्षाशास्त्री उस का आविष्कार किया था अतः उसे हर्बर्ट की पंचपदी कहते हैं । हमारे पंचपदी के सिद्धांत और हर्बर्ट की पंचपदी में जो मौलिक अंतर है वह है हर्बर्ट की पंचपदी, अध्यापक की पंचपदी है जबकि हमारी पंचपदी अध्ययन की पंचपदी है । हर्बर्ट की पंचपदी क्रिया है और हमारी पंचपदी प्रक्रिया है । क्रिया कौशल के साथ जुड़ी हुई है और प्रक्रिया अर्जन के साथ । हर्बर्ट की पंचपदी अध्यापन कौशल को विकसित करती है जबकि हमारी पंचपदी अध्ययन के मनोविज्ञान को दर्शाती है । मुझे लगता है कि इस मूल अंतर को समझने से सारी बातें स्पष्ट हो जाती हैं ।
  [>>>नवनीदा के पूर्वज श्रीहर्ष :  कवि श्रीहर्ष के नैषधिचरित नामक महाकाव्य में एक प्रकार से इसका उल्लेख आता है । नल राजा गुरुकुल में पढ़ते हैं तब उनका अध्ययन जिस पद्धति से चलता है उसे ४ पदों में बताया गया है।  ये चार पद है अधीति, बोध, आचरण और प्रचार । हमारे देश में शिक्षा क्षेत्र में अभी विद्याभारती नामक एक अखिल धार्मिक संगठन कार्यरत हैं।
 श्रीहर्ष की 12वीं सदी के प्रसिद्ध कवियों में गिनती होती है। वह बनारस एवं कन्नौज के गहड़वाल शासकों, विजयचन्द्र एवं जयचन्द्र की राजसभा को सुशोभित करते थे। उन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की, जिनमें ‘नैषधचरित’ महाकाव्य उनकी कीर्ति का स्थायी स्मारक है। 'नैषधचरित' में निषध देश के शासक नल तथा विदर्भ के शासक भीम की कन्या दमयन्ती के प्रणय सम्बन्धों तथा अन्ततोगत्वा उनके विवाह की कथा का काव्यात्मक वर्णन मिलता है। सुनते हैं, बंगदेश में पहले सत्पात्र ब्राह्मण न थे। इस न्यूनता को दूर करने के लिये सेनवंशीय आदि-शूर-नामक राजा ने कान्यकुब्ज-प्रदेश से परम विद्वान् पांच ब्राह्मणों को बुलाकर अपने देश में बसाया था। इन पाँच में से एक श्रीहर्षनामी भी थे।
 >>>Shri Lajjaram ji Tomar. इस संगठन के प्रथम संगठन मंत्री थे श्री लज्जाराम जी तोमर । उन्होंने नैषधिचरित नामक महाकाव्य में उल्लेखित चार पदों में अपनी ओर से एक पद और जोड़ दिया । वह पद था अभ्यास का । उसके साथ यह पांच पद हुए । इस पद्धति का उन्होंने विस्तार भी किया । हम अपनी पंचपदी को उनका नाम जोड़ सकते हैं । अतः एक पद्धति है हर्बर्ट की पंचपदी और दूसरी है तोमर की पंचपदी । एक पाश्चात्य है एक धार्मिक । एक अध्यापक की पंचपदी है दूसरी अध्येता की । एक क्रिया है दूसरी प्रक्रिया है । एक कौशल है दूसरी अर्जन । एक का संबंध कक्षा कक्ष की गतिविधि के साथ है दूसरे का संबंध छात्र के स्वयं के प्रयास के साथ है ।
       यह प्रयास कक्षाकक्ष तक सीमित नहीं है। यह एक निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है । पूर्व का अभ्यास नए विषय के अध्ययन के लिए अधिती कार्य भी कर सकता है । पूर्व प्रयोग से नए विषय का बोध अधिक सुगमता से होता है । ज्ञानार्जन निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है इसी बात को पंचपदी दर्शाती है
>>> Period composition according to the theme "Be and Make" :विषय "Be and Make" के अनुसार कक्ष रचना : हमने पूर्व में पंचपदी अध्ययन पद्धति की चर्चा की । बालक तो क्या सभी के लिए किसी भी विषय को आत्मसात करने की प्रक्रिया वही होती है । घर और विद्यालय दोनों में वैसी ही होती है । इस प्रक्रिया को ध्यान में लेकर व्यवस्थायें बनाना आचार्य (C-IN-C नवनीदा) का काम है ।
>>>The main components of the system are as follows:
1. वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन : वर्तमान में विद्यालयों और महाविद्यालयों में कालांश पद्धति चलती है । शिशुवाटिका में बीस मिनट से लेकर क्रमश: तीस, पैंतीस, चालीस, पैंतालीस और साठ मिनट के कालांशों का प्रचलन होता है । इस निश्चित अवधि के साथ विषय बदलता है, शिक्षक बदलता है और कभी कभी स्थान भी बदलता है । स्थान बदलने के अवसर तुलना में कम होते हैं । कभी खेल के मैदान में या विज्ञान की प्रयोगशाला में जाना होता है। परन्तु यह सभी विषयों को लागू नहीं है । अधिकांश विषय एक ही स्थान पर बैठकर पढे जाते हैं । इस व्यवस्था में परिवर्तन आवश्यक है।
2 . कालांश के ही समान आज की व्यवस्था स्थान से बद्ध हो गई है । विभिन्न कक्षाओं को विभिन्न कक्षों के साथ जोड़ दिया गया है । यह आठवीं का, यह पाँचवीं का, यह प्रथमा का कक्ष है ऐसा निश्चित किया जाता है और उस कक्षा के छात्र सारे विषय उसी कक्ष में बैठकर पढ़ते हैं । स्वाभाविक बात तो यह है कि सारे विषय केवल कक्षाकक्ष में पढे जाते हैं ऐसा भी नहीं है । वे कक्षाकक्ष के बाहर, विद्यालय परिसर में, घर में, समाज में पढे जाते हैं । विभिन्न क्रियाकलापों के माध्यम से पढ़े जाते हैं। उन्हें निश्चित कालावधि में बांधना, निश्चित स्थान और व्यवस्था में बांधना सर्वथा अनुचित है । ऐसा करना अध्ययन प्रक्रिया में ही अवरोध निर्माण करता है । इसमें परिवर्तन की अत्यधिक आवश्यकता है ।
3. किसी भी विषय का अध्ययन केवल निश्चित समय पर, निश्चित समयावधि में, निश्चित पद्धति और प्रक्रिया से, निश्चित एक ही स्थान पर नहीं हो सकता है। यह बहुत कृत्रिम पद्धति है। शिक्षा जैसी आध्यात्मिक प्रक्रिया, जो सम्पूर्ण व्यक्तित्व के साथ जुड़ी हुई है, यांत्रिक पद्धति से नहीं हो सकती है । जीवन जिस प्रकार चलता है उसी प्रकार से शिक्षा भी चलती है ।
4. अतः कक्षों का विभाजन कक्षाओं के अनुसार करने के स्थान पर विषयों के अनुसार करना उचित है। यह शिक्षा के जीवमान स्वभाव को ध्यान में रखकर की गई व्यवस्था है ।
5. इस प्रकार विभाजन करने से विभिन्न विषयों के स्वरूप के अनुसार व्यवस्था करने की सुविधा निर्माण होती है। हर विषय का कक्ष उस विषय की प्रयोगशाला हो सकता है । विषय के साथ संबन्धित सम्पूर्ण साहित्य और सामाग्री उस कक्ष में हो सकती है ।
6.बैठक व्यवस्था से लेकर वातावरण उसी विषय के अनुरूप बनाया जा सकता है । विज्ञान की प्रयोगशाला, उद्योग की कार्यशाला, संगीत की संगीतशाला, चित्र तथा अन्य कलाओं की कलाशाला, भाषा और साहित्य का साहित्यमंदिर, इतिहास और भूगोल की पुरातत्त्वशाला आदि की रचना की जा सकती है।
7. ऐसा करने से विषयों की साधनसामग्री एक ही स्थान पर उपलब्ध हो जाती है। विषय का आकलन सरलता से होता है।
8. विषय के अनुसार कक्षरचना करने के लिए कालांश पद्धति बदलनी होती है। समयसारिणी में परिवर्तन करना होता है । अब सारे विषय एक ही अवधि के नहीं रखे जा सकते । विषय की प्रकृति के अनुरूप समय का विभाजन करना होता है।
9. साथ ही एक ही कक्षा के छात्र एक साथ बैठेंगे ऐसा भी आवश्यक नहीं है । एक कक्ष में बैठ सकें उतनी संख्या में दो तीन कक्षाओं के छात्र एकसाथ बैठेंगे । अर्थात कोई छात्र चौदह वर्ष आयु के हैं तो कोई बारह और कोई ग्यारह वर्ष आयु के भी हो सकते हैं ।
10. किंबहुना अब कक्षाओं के अनुसार छात्रों का विभाजन नहीं हो सकता, विषयों के अनुसार छात्रों का विभाजन होगा । यह नौवीं का, यह सातवीं का, यह पाँचवीं का इस प्रकार कक्षों का विभाजन करने के स्थान पर विज्ञान, भाषा, इतिहास आदि के अनुसार कक्षों का विभाजन होगा।
11.विषय के अनुसार कक्ष रचना करने के लिए एक एक वर्ष की एक एक कक्षा की अवधि भी नहीं रहेगी। कुल बारह वर्ष पढ़ना है तो छात्र अपनी अपनी क्षमता के अनुसार विभिन्न विषयों के कक्षों में बैठकर अध्ययन करेंगे। विषयों का पाठ्यक्रम एक एक वर्ष में विभाजित होने के स्थान पर निरन्तर बारह वर्षों का होगा और छात्र अपनी अपनी क्षमता के अनुसार किसी विषय का पाठ्यक्रम बारह, ग्यारह या हो सकता है कि पंद्रह वर्षों में पूर्ण करेंगे । अर्थात बारह वर्षों कि अवधि में कोई छात्र बारह वर्ष सामाजिक शास्त्रों का अध्ययन पूर्ण करता है तो उसके तीन बचे हुए वर्ष कठिन लगने वाले विषय का अधिक अध्ययन करने के लिए दे सकता है।
12. इस व्यवस्था में अध्ययन स्वाभाविक हो सकता है, आवश्यक और सहज गति से हो सकता है, पर्याप्त समय देकर हो सकता है । छोटे और बड़े छात्र एक साथ अध्ययन करते हैं अतः बड़े छात्र छोटे छात्रों को सहायता कर सकते हैं । एक ही कक्षा में किसी छात्र का अधिति का, किसीका बोध का । किसीका अभ्यास का, किसीका प्रसार का पद सम्भव होता है। पंचपदी अध्ययन पद्धति के लिए इस प्रकार की रचना अनिवार्य है।
13. आचार्य और छात्रों का समरस सम्बन्ध बनने में यह रचना बहुत सहायक होती है। यह एक एक विषय का छोटा गुरुकुल अथवा छोटा विद्यालय बन जाता है। 
14. सभी कक्षाओं का नियोजन भी विषयों के अनुसार ही होता है, न कि कक्षाओं के अनुसार ।
15. आज की व्यवस्था के हम इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि इस प्रकार की रचना हमें जल्दी समझ में नहीं आती। परन्तु ठीक से विचार करने पर इसकी उपयोगिता ध्यान में आती है। इस प्रकार की रचना करने के लिए विद्यालय के भवन की रचना का भी विशेष विचार करना होगा। सभी कक्ष एक ही नाप के, एक ही आकारप्रकार के नहीं हो सकते । विषय के स्वरूप के अनुसार ही कक्षों का निर्माण भी करना होगा ।
संक्षेप में पंचपदी अध्ययन पद्धति के लिए विषयानुसार कक्षरचना अनिवार्य है । साभार :https://dharmawiki.org/index.php/] 

" बुद्ध सही थे, तथाकथित बौद्ध नहीं।"  

 महात्मा गांधी कहते थे कि- वे ईसा मसीह में विश्वास करते हैं लेकिन ईसाई धर्म में नहीं ! 
11 जनवरी, 1927: "मुझे तुम्हारा मसीह पसंद है, लेकिन तुम्हारी ईसाईयत नहीं।" क्योंकि विश्व के इतिहास में ईसाई राष्ट्र ही अधिकांश युद्ध धन लूटने के लालच में करते आये हैं।  
 महात्मा गांधी के इन शब्दों में डॉ. जे.एच. होम्स ने क्रिमसन रिपोर्टर के साथ हाल ही में एक साक्षात्कार में ईसाई धर्म के बारे में भारतीय नेता के दृष्टिकोण को अभिव्यक्त किया। गांधी के शब्दों को जारी रखते हुए, डॉ. होम्स ने कहा, "मैं ईसा मसीह की शिक्षाओं में विश्वास करता हूं, लेकिन आप ईसाई लोग ईसाईधर्म का प्रचार करने के नाम पर दूसरी दुनिया के साथ जैसा व्यवहार करते हो उसे नहीं। मैं किसी हरि- भक्त की तरह पूरे भक्तिभाव से बाईबिल पढ़ता हूँ, किन्तु ईसाई जगत (Christendom) के लोगों में वैसा भक्तिभाव  बहुत कम देखता हूं, जो ईसाइयत में  विश्वास रखने का दिखावा करते हैं। 
" "ईसाई सबसे अधिक युद्धप्रिय लोग हैं। ईसाई राष्ट्र दानधर्म करने की अपेक्षा केवल धन के पीछे दौड़ रहे हैं। नके जीवन का वास्तविक उद्देश्य ईश्वर-लाभ नहीं है ,  उनका उद्देश्य तो अपने पड़ोसियों की कीमत पर अमीर बनना है। वे अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए, गैर ईसाई   राष्ट्रों  का आर्थिक और शारीरिक शोषण करते हैं और धर्मप्रचार के नाम पर उन्हें धोखा देते हैं। उनके लिए शाश्वत जीवन, मुक्ति और परमानन्द  प्राप्त करने की अपेक्षा समृद्ध राष्ट्र बनना अधिक  आवश्यक है।" 

[MAHATMA GANDHI SAYS HE BELIEVES IN CHRIST BUT NOT CHRISTIANITY. January 11, 1927 :CHRISTIAN NATIONS SEEK WEALTH AND FIGHT MOST WARS .  "I like your Christ, but not your Christianity." In these words of Mahatma Gandhi, Dr. J.H. Holmes summed up the Indian leader's view of Christianity in a recent interview with a CRIMSON reporter. Continuing in Gandhi's words, Dr. Holmes said, "I believe in the teachings of Christ, but you on the other side of the world do not, I read the Bible faithfully and see little in Christendom that those who profess faith pretend to see.
"The Christians above all others are seeking after wealth. Their aim is to be rich at the expense of their neighbors. They come among aliens to exploit them for their own good and cheat them to do so. Their prosperity is far more essential to them than the life, liberty, and happiness of others."The Christians are the most warlike people.साभार/https://www.thecrimson.com/article/1927/1/11/mahatma-gandhi-says-he-believes-in/
 
वर्तमान समय में बुद्ध शब्द का व्यापक प्रयोग राजकुमार सिद्धार्थ के परिव्राजक रूप के लिए किया जाता है जो सत्य नहीं है। दर्शन का अर्थ है, देखना। यहाँ दर्शन का अर्थ है, धर्म को देखने का नजरिया। आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन, दोनों की व्यवस्था हमारे यहाँ की गयी है। आस्तिक दर्शन में पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा, सांख्य, योग, न्याय तथा वैशेषिक दर्शन का नाम आता है, तथा नास्तिक दर्शन में बौद्ध, जैन तथा चार्वाक दर्शन का नाम आता है। सहस्रों बुद्धों का आगमन हो चुका है, तथा सहस्रों बुद्ध आयेंगे। वस्तुतः बुद्ध एक नहीं बहुत हैं। जैसे कि पूर्व में बताया गया कि बुद्ध मात्र एक स्थिति विशेष का नाम है, तो उस स्थिति में पहुँचने वाला हर प्राणी बुद्ध कहलाया। पुराणों में भगवान् विष्णु के चैबीस समान्य अवतार बतलाए गए हैं। इनमें बुद्ध का स्थान तेइसवां है। 24 अवतार में से 10 अवतार विष्णु जी के मुख्य अवतार माने जाते है। इस समूह में बुद्ध का नवां स्थान रहा है। कृष्णावतार के बाद बुद्धावतार की भविष्यवाणी भगवान वेदव्यास जी ने की है।  भगवान् विष्णु के सामान्य अवतारों में बुद्धअवतार को 23वां और प्रमुख अवतारों में नौंवा अवतार बताया जाता है। बुद्ध अवतार रूप में विष्णु का यह अंतिम अवतार है। गौतम बुद्ध भगवान विष्णु के नौवें अवतार के प्रमाण इन ग्रंथों में वर्णित है – हरिवंश पर्व (1.41) , विष्णु पुराण (3.18), भागवत पुराण (1.3.24, 2.7.37, 11.4.23) , गरुड़ पुराण (1.1, 2.30.37, 3.15.26) , अग्निपुराण (16), नारदीय पुराण (2.72) , लिंगपुराण (2.71) और पद्म पुराण (3.252) आदि। सभी पंथों में मतेकता पौराणिक, वैदिक और शास्त्री जन एक मत को व्यक्त करते हैं । इनमें कोई भेद नहीं क्योंकि धर्ममय वृक्ष के वेद मूल हैं, शास्त्र शाखा है, पुराण पत्ते हैं, काव्य और प्रकरण ग्रन्थ ही पुष्प हैं, अभ्युदय फल है तथा कल्याण ही उसका रस है। मूल के बिना वृक्ष का अस्तित्व नहीं। 
श्रीमद् भागवत स्कन्ध 1 अध्याय 6 के श्लोक 24 अनुसार कहा गया  है –
ततः कलौ सम्प्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम्।
बुद्धोनाम्नाजनसुतः कीकटेषु भविष्यति॥
अर्थात – कलयुग में देवद्वेषियों को मोहित करने नारायण कीकट प्रदेश (बिहार या उड़ीसा) में अंजन के पुत्र के रूप में प्रकट होंगे। जबकि गौतम का जन्म वर्तमान नेपाल में राजा शुद्धोदन के घर हुआ था। बौद्ध धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है.। इसके संस्थापक महात्मा बुद्ध शाक्यमुनि (गौतम बुद्ध) थे। वे 563 ईसा पूर्व से 483 ईसा पूर्व तक रहे। ईसाई और इस्लाम धर्म से पहले बौद्ध धर्म की उत्पत्ति हुई थी। दोनों धर्म के बाद यह दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है। इस धर्म को मानने वाले ज्यादातर चीन, जापान,कोरिया, थाईलैंड, कंबोडिया, श्रीलंका, नेपाल, भूटान और भारत जैसे कई देशों में रहते हैं। ललित विस्तार ग्रन्थ के 21 वें अध्याय के 178 पृष्ठ पर बताया गया है कि यह मात्र संयोग ही है कि गौतम बुद्ध(शाक्यसिंह) ने उसी स्थान पर तपस्या की थी, जिस स्थान पर भगवान बुद्ध ने तपस्या करने की लीला किया था। यही कारण है कि लोगों ने दोनों को एक ही मान लिया। जर्मन के वरिष्ठ स्कॉलर मैक्स मुलर के अनुसार शाक्यसिंह बुद्ध यानी गौतम बुद्ध, कपिलवस्तु के लुम्बिनी के वनों में 477 ईपु०  में जन्मे थे। गौतम बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन तथा माता का नाम मायादेवी है। एक और बात श्रीमद्भागवत महापुराण (1.3.24) तथा श्रीनरसिंह पुराण (36/29) के अनुसार भगवान बुद्ध आज से लगभग 5000 साल पहले इस धरातल पर आए जबकि मैक्समूलर के अनुसार गौतम बुद्ध 2491 साल पहले आए। कहने का तात्पर्य यह है कि गौतम बुद्ध और भगवान बुद्ध एक नहीं हैं। श्रीमद भागवतम 1.3.2 में बताया गया है भगवान के दूसरे अवतार विष्णु भगवान हैं, जिनकी नाभि से निकले कमल से ब्रह्मा जी का जन्म हुआ।
यस्याम्भसि शयानस्य योगनिद्रां वितन्वतरू।
नाभिह्रदाम्बुजादासीद्ब्रह्मा विश्वसृजां पतिरू ॥ 2 ॥
अर्थात पुरुष का एक भाग ब्रह्मांड के पानी के भीतर स्थित है, उसके शरीर की नाभि झील से एक कमल का तना निकलता है और इस तने के ऊपर कमल के फूल से ब्रह्मा, ब्रह्मांड के सभी इंजीनियरों के गुरु प्रकट होते हैं। हम सभी भी इसी व्यक्ति को विष्णु जी (गर्भोदकशायी विष्णु) जानते और समझते हैं जिसकी नाभि से कमल का फूल निकलता हैं, जिससे ब्रह्मा का जन्म होता हैं और ये भगवान का दूसरा अवतार हैं। अब ये भी स्थापित हो गया हैं कि विष्णु जी भी भगवान के अवतार हैं। शंकराचार्य ने भगवान बुद्ध व गौतम बुद्ध  को अलग-अलग व्यक्ति बताया है। अग्निपुराण में लंब कर्ण कहकर भगवान बुद्ध की चर्चा की गई है। गौतम बुद्ध के लंबे कान प्रतिमाओं में बनाए जाने लगे। बौद्ध स्वयं को वैदिक नहीं मानते। दलाई लामा कहते हैं कि हम हिंदू नहीं हैं। दोनों के अनुयायियों में विभेद है। तथापि जैन, बौद्ध एवं सिख जन्म, पुनर्जन्म, दाह संस्कार, वेद, बीज ओम या प्रणव, गाय एवं गंगा पर आस्था रखते हैं। वट को मानें और उसके बीज को न मानें यह तो अद्भुत है।
                  अतः रुद्रयामल तन्त्र, श्रीमत देवी भागवत महापुराण, स्मृतिग्रन्थ, भविष्य पुराण आदि में वेदों को स्वतः प्रमाण तथा अन्य को परतः प्रमाण की संज्ञा दी गयी है। वेदमूल धर्म की शाखा व्याकरण, निरुक्त आदि वेदांग शास्त्र हैं जो इसे समझने में सहायता करते हैं। पुराण वेदवाक्यों को अपनाने का सुपरिणाम और उल्लंघन के दुष्परिणाम के दृष्टान्त देकर समझाते हैं। काव्य उनके प्रचार का प्रत्यक्षीकरण करते हैं। अतः “अधीतिबोधाचरण  प्रचारणैः ” में क्रमशः वेद, शास्त्र, पुराण तथा काव्य का ही संकेत है। जब धर्म का नाम लेकर म्लेच्छों में ब्राह्मण बन कर अधर्म प्रारम्भ किया तो उन्हें ठीक करने के लिए भगवान ने बुद्ध के रूप में आकर कहा कि जिस ईश्वर और धर्म के नाम पर तुम ये सब कर रहे हो, उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। बाद में जयदेव कवि आदि ने भी कारुण्यमातान्वते, निन्दसि यज्ञविधे,सदय पशुघातम् आदि शब्दों के द्वारा इसी बात को प्रमाणित किया कि श्रीहरि का ही अवतार भिन्न भिन्न समयों में बुद्ध को रूप में हुआ था । 
नास्तिक बौद्ध दर्शन का आश्रय लेकर विष्णु भक्तों को भ्रमित करनाः- वर्तमान में तथाकथित नवबौद्ध आदि बुद्ध के मूल सिद्धांत को न जानने के कारण घोर अनर्थ करते हैं। क्योंकि बुद्ध ने समाज में व्याप्त कुरीतियों के फोड़े को काट कर हटाया और शेष को सुरक्षित किया। लेकिन तथाकथित बौद्धगण (हिन्दू धर्म को स्वर्ण-असवर्ण, Backward-forward जाति में बाँटकर राजनीती करने वाले विभिन्न राजनितिक दल। )  स्वस्थ देह का गला ही काट दे रहे हैं। वस्तुतः यह सब कुछ पूर्व नियोजित था कि सनातन में घुसपैठ किये म्लेच्छों को नास्तिक बौद्ध दर्शन का आश्रय लेकर विष्णु भगवान भ्रमित करके उन्हें सनातन से वापस दूर करेंगे।  तथा इस प्रक्रिया में जो भी कुछ सनातनियों में भ्रम व्याप्त होगा उसे बाद में उचित अवसर पाकर कुमार कार्तिकेय तथा भगवान शिव क्रमशः आचार्य कुमारिल भट्ट तथा  आदिगुरू शंकराचार्य के रूप में आकर ठीक करेंगे। निष्कर्ष यह निकलता है कि बुद्ध निःसंदेह नारायण के अवतार हैं तथा उनका उद्देश्य तथा कर्तव्य सही था। बुद्ध सही थे, बौद्ध नहीं। 
   धर्मसम्राट् करपात्री स्वामी आदि ने इसलिये गौतम बुद्ध को अवतरण नहीं माना क्योंकि अम्बेडकर के बौद्ध बन जाने से अंग्रेजों ने सवर्ण तथा दलित नाम का जो कथित विभाजन किया था, उसमे दलित जन सनातन विरोधी हो रहे थे। साथ ही वे यह भी मानते थे कि गौतम ही एक मात्र बुद्ध हैं। उससे पहले कोई बुद्ध नहीं हुआ। इसीलिए करपात्री जी ने गौतम को अवतरण नहीं मानने की दूरगामी नीति अपनायी ताकि लोग बाद में भ्रमित न हों। इसका कारण अम्बेडकर के बौद्ध बनने से सनातनियों का बड़ा वर्ग जो अंग्रेजों की कूटनीति का शिकार था, बुद्ध की ओर आकर्षित हुआ। विष्णु के अवतार कृष्ण और बौद्ध अवतार के उपदेश में इतनी विसंगति क्यों है। क्योंकि बुद्ध का मत भौतिकवादी है। मायाप्रधान है। बहुत लुभावना है, बहुत आकर्षक है। अतः यदि उन्हें विष्णु का अवतार कह देते तो लोग और तेजी से बुद्ध की ओर भागते। ये कह कर कि बौद्ध बनने से हमें भौतिकवाद का लाभ मिलेगा और लोग हमें गलत भी नहीं कहेंगे क्योंकि बुद्ध तो विष्णु के अवतार थे। अतः करपात्री जी ने सीधा कह दिया कि गौतम बुद्ध विष्णु के अवतार ही नहीं है। यहाँ ध्यान दें कि करपात्रीजी ने नीति वही अपनायी जो विष्णु भगवान् ने बौद्धवतार में लगायी थी। ईश्वर के नाम पर अधर्म करने वालों को यह कह कर रोका कि ईश्वर ही नहीं है। इस प्रकर धर्मसम्राट करपात्री स्वामी जी ने सनातन का बहुत बड़ा वर्ग बचा लिया जो बौद्ध बनने जा रहे थे। 

    वैदिक बुद्ध अवतार कर्मकांड व यज्ञ से होने वाली बलि हिंसक कृत्य को दूर करने के लिए विष्णु ने बुद्ध के रूप में अवतार लिया था। लेकिन भगवान बुद्ध के निर्वाण के मात्र 100 वर्ष बाद ही बौद्धों में मतभेद उभरकर सामने आने लगे थे। वैशाली में सम्पन्न द्वितीय बौद्ध संगीति में थेर भिक्षुओं ने मतभेद रखने वाले भिक्षुओं को संघ से बाहर निकाल दिया। अलग हुए इन भिक्षुओं ने उसी समय अपना अलग संघ बनाकर स्वयं को महासांघिक और जिन्होंने निकाला था उन्हें हीनसांघिक नाम दिया। जिसने कालांतर में महायान और हीनयान का रूप धारण कर किया।

 

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উৎসর্গ : 

তোমার রাতুল চরণে সশ্রদ্ধ প্রণাম 

বিশ্বজিৎ চন্দ মহাশয়ের উক্ত মহামূল্যবান তথ্যপঞ্জী সমণ্বিত গ্রন্থখানি অনুসন্ধিৎসু মনের ফসল। ' কেঁচা খুঁড়তে সাপ ' - এমন প্রচলিত প্রবচনকে মনে রেখে বলা যায় গ্রন্থখানি মননশীল পাঠকের কাছে অত্যান্ত তাৎপর্যপূর্ণ । এই মনোগ্রাহী রচনা প্রত্যক্ষদর্শীর সানিধ্যলাভের ফলে গ্রন্থটির উৎকর্ষ বৃদ্ধি পেয়েছে ।  বিষয়বস্তুর সন্নিবেশ সুশোভন , রচনারবীতি (style)  সুষম।  অনঃবধান বশত ভুল থাকলে ক্ষমাসুন্দর দৃষ্টিতে নেবেন পাঠকরাই। অনাগত পাঠক গবেষকদের কাছে বইটি অনুপ্রেরণার ও সুগতির অন্বেষাগার পরিচয় দেবে। তাঁর উত্তরোত্তর শ্রীবৃদ্ধি কামনা করি। 

শ্রী রবীন্দ্রনাথ পাল, 

বাংলা শিক্ষক ,

পাঁচারুল শ্রীহরি বিদ্যা মন্দির 

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প্রকাশকের  নিবেদন

 - শ্রী বিশ্বনাথ বেরা 

শ্রী বিশ্বজিৎ চন্দ ' এক মহা জীবনের নানা অজানা কথা ' শীর্ষক এক খানি পুস্তিকা রচনা করেছেন। এই পুস্তিকায় আন্দুল -মৌড়ির একজন বিশিষ্ট ব্যক্তি ভবদেব বন্দোপাধ্যায় মহাশয়ের জীবনের কয়েকটি ঘটনা ও প্রাসঙ্গিক কিছু কথা লিপিবদ্ধ হয়েছে। মহামন্ডলের ভাই বিশ্বজিৎ অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের আন্দুল -মৌড়ি শাখার প্রাক্তন সদস্য এবং বর্তমান মহামন্ডলের ভাবাদর্শে পরিচালিত প্যাঁচারুল বিবেকানন্দ যুব পাঠচক্রের সভাপতি। 

ইংরেজিতে একটি সহজ কথা প্রচলিত আছে - ' A man is known by the company he keeps, and the books he reads .' ভবদেব বাবু কেমন মানুষ ছিলেন তা আমরা অনুমান করতে পারি তিনি কি রকম মানুষদের সঙ্গ লাভ করেছেন , তা জেনে। স্বামীজীও বলেছেন একজন মানুষের ছোট ছোট কাজের মাধ্যমেই তাঁর চরিত্র সম্বন্ধে ধারণা করা যায়।   

ভোরের শিশিরবিন্দু যেমন সকলের অলক্ষ্যে নানা ফুলের কুঁড়িগুলিকে প্রস্ফুটিত করে তোলে, ঠিক তেমন ভাবে শ্রদ্ধেয় ভবদেব বাবু ভাবি আন্দুল -মৌড়ি বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের কিশোর যুবকদের অনুপ্রাণিত করতেন। তাঁর জীবনের ধারা অন্বেষণ করলে অনেক মাণিক্যের সন্ধান পাওয়া যায়। কিন্তু স্বামীজীর আদর্শে বিশেষ শ্রদ্ধাশীল এই মানুষটি সম্বন্ধে এ যাবৎকালে কোন লেখনী ধারণ করা হয়নি। আমরা আমাদের ভাই শ্রী বিশ্বজিৎ চন্দ কাছে বিশেষ ভাবে কৃতজ্ঞ এই জন্যে যে তিনি অবহেলিত এই কাজটির গুরুদায়িত্ব স্বেচ্ছায় নিজে স্কন্ধে তুলে নিয়েছেন। আমরা তাঁর কাছে আর কৃতজ্ঞ এইজন্যে যে তিনি পুস্তকটি প্রকাশনার দায়িত্ব অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের আন্দুল -মৌড়ি শাখার উপর অর্পণ করেছেন।   

পরম পূজ্যপাদ শ্রীমৎ স্বামী আত্মপ্রিয়ানন্দ মহারাজ ইতিহাসকে দার্শনিক ভাবে দেখার প্রয়োজনীয়তার কথা বলেছেন। (উদ্বোধন , বৈশাখ ১৪২৭,পৃ -২৬৭)বিশ্বজিৎ -এর লেখার মধ্যে সেই প্রচেষ্টা পরিলক্ষিত হয়।

পরিশেষে রবীন্দ্রনাথের ভাষাকে অনুসরণ করে বলতে পারি ঘরের পাশে ধানের শিয়ের উপর ঝরে পড়া শিশির বিন্দুর মধ্যে যেমন অনাবিল সৌন্দর্যের সন্ধান পাই , তেমনি এই অখ্যাত মানুষটির মধ্যেও মহামানব সুলভ গুণাবলী দেখে আমরা মহামানব দর্শনের আনন্দ অনুভব করি। 

- শ্রী বিশ্বনাথ বেরা 

সম্পাদক ,

অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডল 

আন্দুল -মৌড়ি শাখা

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অনুভূতি 

ঠাকুর মা স্বামীজিকে প্রণাম জানিয়ে বইয়ের মুদ্রক হিসাবে সামান্য দুই এক কথা বলতে চাই। বইয়ের প্রকাশক আন্দুল -মৌড়ি বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডের পক্ষ থেকে আমাকে এই বইটি ছাপাবার দায়িত্ব দেওয়া হয়। কিন্তু অতিমারীর কারনে বই ছাপার কাজে অনেক দেরি হয়। এই জন্যে আমাদের সবাইকে অনেক ধৈর্য ধরতে হয়।  

প্রসঙ্গত বলা যায় ভবদেব বন্দোপাধ্যায় মহাশয়ের কনিষ্ঠ পুত্র শ্রদ্ধেয় শ্রী সুশান্ত বন্দোপাধ্যায় আমার গৃহ শিক্ষক ছিলেন। সেই সূত্রে তাঁর বাড়িতে রোজই যেতে হত। সেখানে দেখতাম পরমপূজনীয় শ্রদ্ধেয় ভবদেব বন্দোপাধ্যায় তাঁর পড়ার ঘরে বসে তাঁর লেখা -পড়ার কাজে মগ্ন হয় থাকতেন। তিনি অল্পভাষী হলেও তাঁর অকৃত্তিম স্নেহ আমরা পেয়েছি। নিজের গাম্ভীর্য়কে সরিয়ে শিশুর মতই আমাদের স্তরে নেমে এসে আমাদের সঙ্গে মিশতেন। 

তখন অল্প বয়স বলে তাঁর ব্যক্তিত্বকে পরিমাপ করার ক্ষমতা আমার ছিলনা। কিন্তু বই ছাপার দায়িত্ব নিয়ে আমি বুঝতে পারলাম আমার সৌভাগ্য কতটা ছিল যে , কিশোর বয়সেই এমন এক মানুষের দর্শন পেয়েছি - যিনি স্বয়ং মা সারদাদেবী , স্বামী শিবনান্দ , স্বামী অভেদানন্দ প্রমুখ মহাপুরুষের দর্শন পেয়েছেন।   

এবার আসি শ্রদ্ধেয় বিশিষ্ট চিত্র শিল্পী স্বর্গীয় শৈল চক্রবর্তীর কথায়। তাঁর সঙ্গে আমার দেখা হয়েছিল খুব সম্ভবত ১৯৭৯ সালে কলকাতা বইমেলায়। তাঁকে আমার প্রণাম করার সৌভাগ্য হয়ে ছিল। তাঁর সাথে আলাপ করিয়ে দিয়েছিলেন ভবদেব বন্দোপাধ্যায় মহাশয়ের জ্যেষ্ঠ পুত্র আমার শিক্ষক স্বর্গীয় বিশ্বনাথ বন্দোপাধ্যায়। আমি জেনে অত্যন্ত রোমাঞ্চিত হলাম যে , শ্রীশ্রী রামকৃষ্ণ কথামৃত গ্রন্থের প্রচ্ছেদে 'পাখির ডিমে তা দেওয়া ' ছবিটি পূজনীয় ভবদেব বন্দোপাধ্যায় মহাশয় শ্রীমর নির্দেশে শৈল চক্রবর্তীকে দিয়েই আঁকিয়ে ছিলেন। সুতরাং আমি অত্যন্ত সৌভাগ্যবান যে আমি পূজনীয় ভবদেব বন্দোপাধ্যায় ও শৈল চক্রবর্তী মহাশয়ের পাদস্পর্শ করার সৌভাগ্য লাভ করেছি।   

শ্রী বিশ্বজিৎ চন্দের লেখাগুলিকে বইয়ের আকারে মুদ্রণ করতে করতে বুঝতেও পারিনি, যে কখন মনের অজান্তে ওই কথাগুলি আমার মনের মধ্যে মুদ্রিত হয়ে গেছে। 

বিনীত -

শ্রী দিব্যেন্দু ভাণ্ডারী  

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।।ভূমিকা।। 

স্বামী বিবেকানন্দ তাঁর 'ভারতের ভবিষ্যৎ ' শীর্ষক বক্তৃতায় বলেছেন - " অতীতের গর্ভেই ভবিষ্যতের জন্ম "। আর অতীত কথা থেকেই আমার কলম ধরার ইচ্ছা জাগে কারন , আমি ইতিহাসের ছাত্র।  

সেই ১৯৮৯ সাল থেকে অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের আন্দুল -মৌড়ি শাখার শ্রী সুশান্ত বন্দোপাধ্যায় সঙ্গে পরিচয়। ব্যক্তিগত আলাপ চারিতায় তাঁর কাছে আন্দুল -মৌড়ির অতীত দিনের অনেক কাহিনী শুনতাম। অনেক কাহানির সঙ্গে তাঁর স্বর্গত পিতৃদেব ভবদেব বন্দোপাধ্যায় মহাশয়ের কথা এসে পড়ত। মাঝে মাঝে মনে হত অনেক ঘটনার প্রধান সাক্ষী যেন ভবদেববাবু-ই।  

ঐ সমস্ত আলোচনার মধ্যেই প্রথম শুনি শ্রদ্ধেয় নবনীদার ছাত্র জীবনের কথা , নবনীদার পিতামহ প্রবাদপ্রতিম আচার্য শিরিশচন্দ্রের জীবনের নানা ঘটনা এবং স্বামী বিবেকানন্দের পরিবারের সঙ্গে আন্দুলের যোগাযোগের কথা। মুগ্ধ হয়েছি জেনে -কিভাবে ভবদেব বাবু , দেশমাতৃকার মুক্তির জন্য বিপলবীদের কাজে ' কাঠ বিড়ালীর ভূমিকা ' নিয়েছিলেন , আরও শিহরিত হয়েছি - শ্রীশ্রী মা সারদাদেবীর দর্শনের স্মৃতি অর্থাৎ স্বামীজীর কথায় জ্যান্ত দূর্গা দর্শনের কথা জেনে , পরম পূজনীয় মহাপুরুষ মহারাজ স্বামী শিবানন্দ , স্বামী অভেদানন্দ মহারাজের সঙ্গে ভবদেব বাবুর সম্পর্কের কথা, কথামৃত প্রণেতা শ্রীম (মাস্টার মশাই) এর স্নেহভাজন হয়ে ওঠার কাহিনী ইত্যাদি মনে যেন তীর্থ ভ্রমনের পুন্য অনুভূতি এনে দেয়। মনের এই অনুভূতিই ভবদেব বাবুর জীবনের কিছু অজানা ঘটনা লিপিবদ্ধ করার প্রেরণা যোগায় - যার ফলশ্রুতি এই পুস্তিকা। 

শ্রী নবনীহরণ মুখোপাধ্যায় মহাশয় তাঁর লেখা প্রবন্ধ - ক্ষুদ্র ক্ষুদ্র কার্যে মহত্ব - এ মন্তব্য করেছেন " ছোট ছোট কাজের মধ্যে দিয়ে যে মহাপ্রাণ মানুষেরা মহত্বের পরিচয় দেন তাঁরা হয়তো আমাদের মতো সাধারণ মানুষদের দৃষ্টি এড়িয়ে যান।  কিন্তু প্রকৃত বিচারে তাঁরাই সত্যিকারের মহৎ। এইসব মানুষদের নাম হয়তো পৃথক ভাবে ইতিহাসের পাতায় লেখা থাকে না। কিন্তু তাঁদেরই মিলিত কর্ম সাধনায় গড়ে ওঠে জাতির ভবিষ্যৎ ইতিহাস। " ভবদেব বাবুর জীবনের কয়েকটি ঘটনার কথা লিপিবদ্ধ করার সময় শ্রদ্ধেয় নবনীদার উক্ত কথাগুলো আমার বিশেষ ভাবে মনে পড়ছিল।

ভবদেব বাবুর জন্ম হাওড়া জেলার  আন্দুল -মৌড়ি পাশেই পুইঁল্ল গ্রামে ১৯০৬ সালের ২রা মার্চ এবং তিনি শেষ নিঃশ্বাস ত্যাগ করেন ১৯৮৭ সালের ২১শে জানুয়ারি।  তাঁর পিতা হরিপদ বন্দোপাধ্যায় ছিলেন নিষ্ঠাবান ব্রাহ্মণ , মাতা হরিদাসী দেবী ছিলেন ভক্তিমতী স্নেহপরায়না গৃহবধূ।  

অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের সহ সভাপতি শ্রদ্ধেয় শ্রী রনেন্দ্রনাথ মুখোপাধ্যায় মহাশয়ের উপদেশ ও আশীর্বাদ আমাকে বিশেষ ভাবে অনুপ্রাণিত করেছে। এবং অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের সাধারণ সম্পাদক শ্রী বীরেন্দ্র কুমার চক্রবর্তী মহাশয় ও সহ -সাধারণ সম্পাদক শ্রদ্ধেয় শ্রী দীপক কুমার সরকার মহাশয়ের আশীর্বাদ পত্র দুটি এই পুস্তিকার বিশেষ সম্পদ।  এছাড়া মহামন্ডলের কেন্দ্রীয় সংগঠনের সদস্য শ্রদ্ধেয় শ্রী মিন্টু পদ দাস ও শ্রী তপন প্রসাদ চট্টোপাধ্যায় এবং আন্দুল -মৌড়ি শাখার সকল সদস্যবৃন্দ আমাকে নানা ভাবে সাহায্য করেছেন। আমি তাঁদের সকলের কাছে বিশেষ কৃতজ্ঞ।  

বই লেখার কাজ শুরু হয়েছিল ২০১৭ সালের জুলাই মাস থেকে। এই লেখায় যিনি গনেশের ভূমিকা পালন করেছিলেন - তিনি হলেন বন্ধুবর স্বর্গীয় উৎপল কাঁড়ার। গুরুতর অসুস্থ হওয়া সত্ত্বেও তিনি এই কাজে সাহায্য করেছিলেন। শ্রীশ্রী ঠাকুরের কাছে তাঁর আত্মার শান্তি কামনা করি। পাণ্ডুলিপি সংশোধন করে দিয়ে ঋণী করেছেন শ্রদ্ধেয় অগ্রজপ্রতিম শিক্ষক শ্রী রবীন্দ্রনাথ পাল মহাশয় এবং মহামন্ডলের ভাই শ্রী সতীনাথ পাল।

শ্রীশ্রী ঠাকুর -মা-স্বামীজীর প্রতি শ্রদ্ধাশীল ব্যক্তিদের উদ্দেশ্যে এই লেখা উৎসর্গ করলাম। তাঁদের ভাল লাগলেই আমার এই শ্রম সার্থক মনে করবো। এই লেখার মধ্যে সংগ্রহীত তথ্যাদি ভাবি গবেষকদের আগ্রহ বৃদ্ধি করবে এই আশারাখি। 

পরিশেষে আমার গর্ভধারিনী মা গৌরীরানী চন্দের শ্রীচরণে প্রণাম জানাই। এই বই লেখার পিছনে তিনি আমার প্রধান প্রেরণা দাত্রী।

অলমিতি বিস্তরেন-

শ্রী বিশ্বজিৎ চন্দ  

আন্দুল -মৌড়ি, হাওড়া 

মো নম্বর -৭০০৩৮১০৭৯   

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[1.]

এক মহাজীবনের অজানা কথা 

The unknown story of a great life

       প্রত্যক্ষদর্শীর প্রেক্ষাপটে 

[ In the eyewitness context]

যেমন নাম না জানা অসংখ্য ফুল হিমালয়ের অপরিসীম সৌন্দর্যকে ফুটিয়ে তোলে তেমনই ভাবের জগতে আমরা দেখি , যে সমস্ত মহান চরিত্রবান মানুষের দ্বারা মানব সমাজ সমৃদ্ধ হয়েছে , রামচন্দ্রের সেতু বন্ধনে কাঠবেড়ালির ন্যায় তারা সম্পূর্ণ নিঃস্বার্থভাবে তাদের ব্রতপালনে নিজেদের বিলিয়ে দিয়েছেন।  

আমাদের আলোচনার যিনি কেন্দ্রবিন্দু তিনি হলেন পুঁইলয়া আন্দুল -মৌড়ি নিবাসী ভবদেব বন্দোপাধ্যায় মহাশয়। তিনি স্বামী বিবেকানন্দের আদর্শে জীবনের ঝুঁকি নিয়ে দেশের কাজে অংশগ্রহণ করেছিলেন , কেবল শুধু তাই নয় , তিনি এমন কিছু মহান জীবনের সংস্পর্শে এসেছিলেন যা আগুনের পরশমনির মতো তাঁর জীবনকে আলোকিত করেছিলো : এঁদের মধ্যে ছিলেন আচার্য শিরিষ চন্দ্র মুখোপাধ্যায়, কথামৃত প্রণেতা শ্রীম , স্বামীজীর ভ্রাতা ভূপেন্দ্রনাথ দত্ত , স্বামী অভেদানন্দ মত প্রমুখ বিশিষ্ট ব্যক্তিবর্গ।   

সময়টা ছিলো ১৯৬৭ সাল। কলকাতার এন্টালী অদ্বৈত আশ্রমের কতিপয় সন্যাসীর অনুপ্রেরণায় ও শ্রী নবনীহরন মুখোপাধ্যায়ের একান্তিক প্রচেষ্টায় তৈরি হল অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডল।  

এই প্রতিষ্ঠানের শুভ সূচনার দিনটিতে উপস্থিত ছিলেন শ্রী ভবদেব বন্দোপাধ্যায়। ১৯৬৮ সালের ৮ই জানুয়ারি দক্ষিনেশ্বরের আড়িযাদহে আয়োজিত মহামন্ডলের প্রথম শিবিরে নিজের পুত্রকে এবং আন্দুলের দুই যুবককে শিবির শিক্ষার্থী হিসাবে পাঠান। এরপর তিনি প্রতি বছরই সচেষ্ট থাকতেন যাতে নতুন নতুন যুবকরা মহামন্ডল আয়োজিত শিবিরে যোগদান করে। শিবির থেকে ফিরে আসার পর যুবকদের নিয়ে শিবিরের নানা অভিজ্ঞতা জানার জন্যে পুঁইলয়া নিবাসী সূর্য নারায়ন কল্যাণীর বাড়িতে মিলিত হতেন। এভাবে প্রায় বছর দশেকের মধ্যে মহামন্ডলের ভাবের সাথে পরিচিত বেশ কিছু যুবক তৈরী হল এবং সবার অলক্ষ্যে তৈরী হল ভাবি আন্দুল -মৌড়ি বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের ভিত্তিভূমি। 

প্রসঙ্গতঃ বলা যায় যেমন প্রদীপ জ্বালানোর পূর্বে সলতে পাকানোর এক অধ্যায় থাকে , ঠিক তেমনই স্বামীজীর আদর্শে যুব সংঠন তৈরির অভিজ্ঞতা ছিল ভবদেব বাবুর। ১৯৪০ এর দশকে আন্দুল -মৌড়িতে আন্দুল-মৌড়ি বিবেকানন্দ পাঠচক্র ' ও 'বোধানন্দ স্মৃতি সংঘ ' নামে দুটি সংগঠনের সম্পাদক ছিলেন ভবদেব বন্দোপাধ্যায়। এই বিবেকানন্দ পাঠচক্রের সভাপতি ছিলেন আচার্য শিরিষ চন্দ্র মুখোপাধ্যায়। আবার বোধানন্দ স্মৃতি সংঘের সভাপতি ছিলেন উদ্বোধন পত্রিকার সম্পাদক স্বামী বাসুদেবানন্দ। 

আচার্য শিরীষ চন্দ্র মুখোপাধ্যায় ছিলেন স্বামীজীর প্রত্যক্ষ স্পর্শে অনুপ্রাণিত ১৮৯৭ সালে ৭ই মার্চ ঠাকুরের জন্মতিথি উপলক্ষ্যে স্বামীজি দক্ষিণেশ্বরে যে সংক্ষিপ্ত ভাষণ দেন শিরীষ চন্দ্র ছিলেন তার প্রত্যক্ষ শ্রোতা। এই আচার্যদেব ছিলেন ভক্ত ভৈরব গিরিশচন্দ্র ঘোষের অত্যন্ত ঘনিষ্ঠ। 

আচার্য শিরীষ চন্দ্রের অন্যতম প্রিয় ছাত্র ছিলেন ভবদেব বন্দোপাধ্যায় , আচার্যদেব ছিলেন এমন এক সর্বজন শ্রদ্ধেয় শিক্ষক যার ছিল জুহরীর চোখ। তিনি তাঁর প্রিয় ছাত্রের সাংগঠনিক প্রতিভাকে অনুধাবন করে তাকে  যুব পাঠচক্রের সম্পাদকের গুরুদায়িত্ব দেন।   

আচার্য শিরীষ চন্দ্র ভবদেব বাবুকে বিশেষ আশীর্বাদ পত্র দেন ১০ই জুন ১৮৬০। এই পত্রে তিনি ভবদেব বাবুকে 'ভক্তিভূষণ ' উপাধি প্রদান করেন। এই স্মারক পত্র এবং ১০ই বৈশাখ ১৩৬৬ তারিখে (এপ্রিল ১৯৬৮) ভবদেব বাবু কে লেখা একটি ব্যক্তিগত পত্র আমাদের হাতে এসেছে। পত্রদুটির ফোটোকপি আমরা পাঠকের উদ্দেশ্যে নিবেদন করলাম। আচার্য শিরীষ চন্দ্র তাঁর ছাত্র ভবদেব কে কিরূপ স্নেহ করতেন তাঁদের শিক্ষক-ছাত্র সম্পকের গভীরতা ও ব্যাপ্তি কোন স্তরের ছিল তা পাঠক একটু মনোনিবেশ করলেই বুঝতে পারবেন। 

অবহেলার ধুলো এই মহান মানুষটির স্মৃতির উপর পড়েছিল। সেই ধুলো সরিয়ে তাঁর অবদানকে তুলে ধরাই হল আমাদের উদ্দেশ্য। যদি সকলের কাছে এই বই গ্রহণীয় হয় তাহলে এই প্রচেষ্টা সার্থক হয়েছে বলে মনে করবো। 

NB[2 letters photocopy ]

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[2.]

" সাবধান তোকে কেউ নজরে রাখছে " 

"Be careful someone is watching you"

মহাপুরুষদের সঙ্গমস্থল 

'Nabadwip of the South' Andul : 

[Meeting place of great men]

'দক্ষিণের নবদ্বীপ ' আন্দুল কেবল আচার্যদেবের কাছে নয় , আমাদের প্রিয় নবনীদার কাছেও এক অত্যন্ত পবিত্র স্থান ছিল।এই আন্দুল ছিল প্রেমিক মহারাজের সাধনাস্থল। এই প্রেমিক মহারাজের রচিত 'কালী কীর্তন ' -ই শ্রীশ্রী মা সারদাদেবী , স্বামী ব্রহ্মানন্দ , স্বামী শিবানন্দ প্রমুখ পূজ্যপাদ মহারাজদের কাছে অত্যন্ত প্রিয় ছিলো। 

পূজ্যপাদ প্রেমিক মহারাজ ছিলেন স্বামীজীর মা ভুবনেশ্বরী দেবীর দীক্ষাগুরু। কথিত আছে স্বামীজীর বাবা বিশ্বনাথ দত্তের দেহ ত্যাগের পর অশৌচ অবস্থায় নরেন্দ্রনাথ এখানে এসেছিলেন। আবার , এই আন্দুলের সাথে মহাপ্রভু শ্রী চৈতন্য দেবের জীবনও জড়িত। শ্রী চৈতন্যদেব পদব্রজে জগন্নাথধামে যাবার সময় এই পবিত্র ভূমিতে হরিনাম সংকীর্তন করেন এবং ফলে ওই সময় খুব ধুলো ওড়ে, তা লক্ষ্য করে মহাপ্রভু বলে ওঠেন এতো 'আনন্দধূলি।' কালে এই 'আনন্দধূলি' থেকেই এই স্থানের নাম হয় আন্দুল।  

এই আন্দুল কেবল আধ্যাত্মিকতার স্থানই ছিলো না , অগ্নিযুগের বিপ্লবীদের ব্রিটিশ বিরোধী কার্যকলাপের কেন্দ্রস্থলে পরিণত হয়েছিলো। বিপ্লবীরা এখানে তাদের গোপন কাজ-কর্ম পরিকল্পনার ব্যাপারে আলোচনা করতে আসতেন। স্কুলে পড়ার সময় কিশোর ভবদেবের মনে দেশপ্রেমের আগুন জ্বলে দেন আচার্য শিরীষ চন্দ্র। তিনি তাঁর ছাত্রদের মনে বঙ্গভঙ্গ আন্দোলনের কালে স্বদেশ প্রেমের চেতনা জাগিয়ে তোলেন।  সরকারি শাস্তির হুমকি অগ্রাহ্য করে স্কুলের ছাত্রদের নিয়ে 'বন্দে মাতরম' সঙ্গীত গাওয়াতেন। বিলেতি কাপড় এনে স্কুলে পোড়ানো হয়েছিল।  

এই খবর ইংল্যান্ডের সংবাদপত্রে প্রকাশিত হয়। পূর্ব ব্রিটিশ সরকার এই খবর পেয়ে লালবাজার থেকে আচার্যদেবকে গ্রেপ্তারের জন্যে আরেস্ট ওয়ারেন্ট নিয়ে এক পুলিশ অফিসারকে  পাঠায়। কিন্তু সেই পুলিশ অফিসার আচার্যদেবের ব্যক্তিত্বে মুগ্ধ হন। এছাড়া, বিদ্যালয়ের প্রশংসনীয়  শৃক্ষলা এবং কোনো সরকার বিরোধী কার্য-কলাপের প্রমান না পেয়ে তিনি তাঁকে গ্রেপ্তার না করে ফিরে আসেন। ফিরে আসার সময়ই ই পুলিশ অফিসার বলেছিলেন , " আমি ব্রিটিশ বিরোধী আন্দোলনকারীদের সম্পর্কে কোন দুর্বলতা দেখাই না, অথচ এক্ষেত্রে আমাকে দেখাতেই হচ্ছে। "  

প্রসঙ্গতঃ বলা যায় এই বিদ্যালয় এখনও নানা ঐতিহাসিক ঘটনাপঞ্জির সাক্ষ্য বহন করে চলেছে। কথিত আছে ১৮৫৭ সালে মহাবিদ্রোহের সময় বিদ্রোহীদের নেতা নানা সাহেব আন্দুলের গোলাপবাগে আত্মগোপন করেছিলেন। তাঁকে ধরতে কোম্পানির এক পুলিশ অফিসার এসেছিলেন। কিন্তু রাত্রি হয়ে যাওয়ায় তিনি এই বিদ্যালয়েই প্রধান শিক্ষকের আতিথ্য গ্রহণ করেন। সেই অফিসার ইংলেন্ড ফিরে গিয়ে সেখানকার এক নামি পত্রিকায় এই বিদ্যালয়ের প্রশংসা করে এক পত্র লেখেন। 

কিশোর ভবদেবও তাঁর রোল মডেল আচার্য দেবের দেশপ্রেমের আদর্শে অনুপ্রাণিত হয়ে তার সাধ্যমত বিপ্লবী আন্দোলনে ঝাঁপিয়ে পড়েন। তাঁর কাজ ছিল বিপ্লবীদের গোপন চিঠি -পত্রের আদান-প্রদান করা এবং এই কাজের জন্যে তাকে নির্বাচিত করা হয় যাতে পুলিশের কোনোরূপ সন্দেহ না হয়। 

        এই রকমই একবার এক গুরুদাইয়িত্ব পড়ে কিশোর ভবদেবের উপর। ঠিক ছিল সেই সময় উনসানি স্টেশন (বর্তমান মৌড়িগ্রাম স্টেশন) থেকে বিপ্লবী বিপিন বিহারি ট্রেনের শেষ কামরায় থাকবেন ট্রেন থেকে নামা পর দেখবেন একটি অল্প বয়সী কিশোর বালক দাঁড়িয়ে আছে। ছেলেটি হাঁটা শুরু করলে কোনো কথা না বলে একটু দূরত্ব বজায় রেখে তিনি ছেলেটিকে অনুসরণ করবেন এবং নির্দিষ্ট স্থানে পৌঁছে যাবেন। কিশোর ভবদেব অত্যন্ত ঝুঁকি নিয়ে সেই কাজটি সুসম্পন্ন করেন। প্রসঙ্গত বলা যায় বিপিন বিহারী গাঙ্গুলিকে সেই সময় ব্রিটিশ পুলিশ বাজ পাখির মতো হন্যে হয় খুঁজে বেড়াচ্ছিল। স্বাভাবিক ভাবেই আমরা অনুমান করতে পারি কিশোর ভবদেব কতটা জীবনের ঝুঁকি নিয়ে কাজটি করেন। ধরা পড়লে ব্রিটিশ পুলিশের নির্যাতন তো ছিলোই , উপরন্ত নিশ্চিত সশ্রম কারাদণ্ডের মাধ্যমে তার ছাত্রজীবনের অকাল যবনিকা পড়ার আশঙ্কাও ছিল।পরবর্তী জীবনে তরুণ ভবদেব কে কর্মজীবনে প্রবেশ করার পরেও বিপদকে অগ্রাহ্য করে দেশের কাজে অংশগ্রহণ করতে দেখা গেছে। 

অনেক সময় বিপ্লবীরা বেলুড় মঠে গোপনে ঠাকুর-মা -স্বামীজীর মন্দিরে আশীর্বাদ নিতে আসতেন। তরুণ ভবদেবও বিপ্লবীদের সাথে দেখা করতে সেখানে যেতেন। একবার স্বামীজীর মন্দিরের পিছনে বসে গঙ্গার দিকে মুখ করে তরুণ ভবদেব তাঁর এক বন্ধুর সাথে গোপন পরামর্শে ব্যস্ত ছিলেন।  

সেই সময় এক ছদ্মবেশী সি.আই.ডি অফিসার মন্দিরের দক্ষিণ দিক থেকে তাদের সমস্ত কথা শুনছিলেন। এ অফিসার এমনভাবে দাঁড়িযে ছিলেন যাতে ভবদেব বাবু তাঁকে দেখতে না পান , অথচ তাঁর কথা সমস্ত শুনতে পাচ্ছিলেন। সেই সময় মাঠে পায়চারি করছিলেন উদ্বোধনের সম্পাদক স্বামী বাসুদেবানন্দজী মহারাজ। তাঁর কাছে সমস্ত ব্যাপারটিই পরিষ্কার হয় গেল। মহারাজের কাছে ভবদেব বাবু ছিলেন অত্যন্ত প্রিয়। তিনি তার বিপদের আশঙ্কা করলেন। সন্ধ্যা আরতির পর মঠ থেকে চলে আসার সময় ভবদেব বাবু মহারাজকে প্রণাম করতে গেলে , মহারাজ তাকে বললেন -'সাবধান তোর উপর কেউ নজর রাখছে। ' এই বলে তাকে বিকালের ঘটনাটা বললেন।  এছাড়া ভবদেব বাবুকে মহারাজ নির্দেশ দিলেন যত তাড়াতাড়ি সম্ভব ট্রান্সফার নিয়ে কলকাতার বাহিরে চলে যেতে। তাঁর উপদেশে কতটা ঠিক ছিল তা বোঝা যায় এই ঘটনার কয়েক দিনের মধ্যেই , পুলিশ তার খোঁজে তার কর্মস্থল রেলের অফিসে হানা দিয়েছিল। এরপরই ভবদেব গুরুজনদের নির্দেশে ট্রান্সফার নিয়ে জামালপুর চলে যান। বস্তুত সাদা পোশাকের পুলিশ যে বেলুড় মঠে থাকতেন , তা শুধু জনশ্রুতিই নয় , গোয়েন্দা রিপোর্টে , ঐতিহাসিকদের সংগৃহিত তথ্যেও তা স্বীকৃত। বিপ্লবীদের উপর শ্রীরামকৃষ্ণের ভাবধারা ও অন্যান্য ধর্মীয় গ্রন্থের প্রভাব সিডিসন কমিটির রিপোর্টে পাই। 

        ভারতের মুক্তি সংগ্রামে শ্রীরামকৃষ্ণের প্রভাব পরোক্ষ হলেও অপরিসীম। মুক্তি সংগ্রামীরা তাঁর পরিমন্ডল থেকে প্রেরণা পেয়েছেন , অনুপ্রাণিত হয়েছেন তাঁর জীবন ও বাণী থেকে। শ্রীরামকৃষ্ণ ছিলেন শক্তি সাধনায় সিদ্ধ , সেজন্যে বিপ্লবীরা আগ্রহী ছিলেন শ্রীরামকৃষ্ণের জীবন ও বাণী সম্বন্ধে তৎকালীন গোয়েন্দা রিপোর্ট থেকে উদাহরণ তুলে দিলে বোঝা যাবে অনুশীলন সমিতির কর্ম পদ্ধতিতে সদস্য ভুক্তির জন্যে বিবেকানন্দের রচনাবলী অবশ্য পাঠ্য রূপে বিবেচিত হত। 

কথামৃত, গীতার মত ধর্মীয় গ্রন্থ কেন বিপ্লবীরা পড়তেন , তাঁদের লাইব্রেরিতে রাখতেন দক্ষ ব্রিটিশ প্রশাসক এবং ঝানু গোয়েন্দারা সে সম্পর্কে বিশ্লেষণ করতেন।  বেঙ্গল ভলেন্টিয়ার্স -এর মহানায়ক মহাবিপ্লবী হেমচন্দ্র ঘোষকে স্বামীজী নিজে বলেছিলেন , 'ঠাকুর তাঁকে বলেছেন ' - " মনে রাখিস ইংরেজরাই এদেশের সর্বনাশ করেছে। " কথামৃত যে বিপ্লবীদের প্রিয় গ্রন্থ ছিল তা সরকারি নথিভুক্ত গোয়েন্দা রিপোর্টে বার বার উল্লেখ করা হয়েছে। ব্রিটিশ প্রশাসক জেমস ক্যাম্বেলকার তাঁর " Political troubles in India (1907-1917) "    গ্রন্থে লিখছেন -- " ..... সহজেই দেখা যেত , এসব পুস্তক পাঠে কিভাবে একজন যুবককে সহজে ও সরাসরি ধর্ম ও দর্শনের ধর্মীয় গ্রন্থ পাঠ থেকে রিভলবর ও বোমায় নিয়ে যেত। "  

আর্ল অফ রোলান্ডস তাঁর " দা হার্ট অফ আর্যাবর্ত " গ্রন্থে তরুণ বিপ্লবীদের উপর রামকৃষ্ণ-বিবেকানন্দের প্রভাব উল্লেখ করেছেন। ধুরন্ধর গোয়েন্দা কর্তা চার্লস টেগার্ট বিপ্লবী ও অন্যান্য স্বাধীনতা সংগ্রামীদের উপর রামকৃষ্ণ -বিবেকানন্দের ও রামকৃষ্ণ মিশনের প্রভাব সম্পর্কে এক গোপন রিপোর্ট দেন (২৪/০৪/১৯১৮) শ্রীশ্রী রামকৃষ্ণ কথামৃত ও বিবেকানন্দের কর্মযোগ থেকে পাঠ করে কিভাবে সদস্য সংগ্রহ করা হত সে ব্যাপারেও তিনি রিপোর্ট দেন। বরিশাল ষড়যন্ত্রের মামলার অন্যতম নেতা দেবেন্দ্রনাথ ঘোষের বাড়িতে একটি বিবেকানন্দের পাঠাগার ছিল বলে টেগার্ট রিপোর্ট দিয়েছেন। তাঁর রিপোর্টে আরো পাওয়া যায় যে শ্রীরামকৃষ্ণ , বিবেকানন্দ এবং রামকৃষ্ণ মিশন শুধু ভারতে নয় , বিদেশেও বিপ্লবীদের উপর প্রভাব বিস্তার করেছিল। 

প্রথম মহাযুদ্ধের (১৯১৪) আগে শ্রীরামকৃষ্ণ ভাবধারা প্রচারের জন্যে পূর্ববঙ্গে শ্রীরামকৃষ্ণদেবের আদর্শে অসংখ্য আশ্রম গড়ে ওঠে। এদের বেলুড় মঠের অনুমোদন না থাকলেও এখানে শ্রদ্ধার সাথে পূজিত হতেন শ্রীরামকৃষ্ণ এবং তাঁর আদর্শকে সামনে রেখেই তরুণরা মাতৃভূমি শৃঙ্খল মোচনের শপথ নিত। টেগার্টের রিপোর্ট থেকে জানা যায় বিপ্লবীরা সন্ন্যাসীর ছদ্মবেশ ধারণ করে সরকারের বিরুদ্ধে সংগ্রামের প্রস্তুতি নিত। ১৯১৩ খ্রিস্টাব্দে বরিশাল ষড়যন্ত্র মামলার গোয়েন্দা তদন্ত থেকে জানা যায় বিপ্লবীরা সন্ন্যাসীর ছদ্মবেশ ধারণ করে সরকারের বিরুদ্ধে সংগ্রামের প্রস্তুতি নিত। ১৯১৩ খ্রিষ্টাব্দ বরিশাল ষড়যন্ত্র মামলার গোয়েন্দা তদন্ত থেকে জানা যায় পূর্ববঙ্গে বহু প্রাইভেট রামকৃষ্ণ আশ্রমের কথা যাঁরা বৈপ্লিবীক কাজের সঙ্গে সরাসরি যুক্ত।  

রামকৃষ্ণ মিশনের সাথে বিপ্লবীদের সম্পর্ক একসময় এত ঘনিষ্ঠ হয়ে ওঠে যে , সরকার এই সময় রামকৃষ্ণ মিশনকে বে -আইনি ও বেলুড় মঠকে বন্ধ করে দেওয়ার কথা ভাবেন। প্রখ্যাত ঐতিহাসিক রমেশচন্দ্র মজুমদার লিখেছেন " একদিন একটি গোপনীয় ফাইলের উপর লেখা আছে দেখলাম , 'রামকৃষ্ণ মিশন। ' আমি একটু আশ্চর্য বোধ করে ফাইলটি আমার ঘরে নিয়ে গিয়ে পড়তে লাগলাম। ফাইলের সর্বনিম্ন তলে একটি রিপোর্ট আছে -তাতে বিস্তৃত ভাবে বর্ণিত হয়েছে যে , রামকৃষ্ণ মিশনের ৮/১০ জন সাধু পূর্বাশ্রমে বিপ্লবী ও গুপ্ত সমিতির সদস্য ছিলেন এদের বর্তমান ও আগেকার নাম দেওয়া আছে। এইসব বিবরণের পড়ে কয়েকজন পদস্থ ইংরেজ কর্মচারী মন্তব্য করেছেন। সর্বশেষে এই সব মন্তব্যের সংক্ষিপ্ত বিবরণ দিয়ে সেক্রেটারি বড়লাটের কাছে এই ফাইল পাঠাবার সময় প্রস্তাব করলেন যে, বেলুড় মঠ কে বে -আইনি ঘোষণা করা হোক। এই সব মন্তব্য পড়ে বড়লাট ফাইলে নোট দিলেন যে , বেলুড় মঠ কে নিষিদ্ধ করলে আন্তর্জাতিক স্তরে বিশেষ করে আমেরিকার বিরাগভাজন হতে হবে। তাই বেলুড়মঠ কে নিষিদ্ধ না করে সেখানে সাদা পোশাকের কয়েকজন পুলিশ কর্মচারীকে নিযুক্ত করা হোক। "   বলাবাহুল্য মিস মাইক্লাউড গোপন সূত্রে খবর পেয়ে বড়লাটকে গিয়ে বোঝান - বেলুড়মঠকে নিষিদ্ধ করলে গোটা য়ুরোপ বিশেষ করে আমেরিকায় তীব্র প্রতিক্রিয়া হবে , যা ব্রিটিশ সরকারের স্বার্থের পক্ষে অত্যন্ত ক্ষতিকর হবে। 

পুলিশের নজর এড়াতে বাংলার বিপ্লবীরা রামকৃষ্ণ মিশনের শাখা গুলিকে " রিভ্যুলুশনরী এজেন্সি " হিসাবে ব্যবহার করতে শুরু করেন , বিপ্লবীরা রামকৃষ্ণ মিশনের সদর দপ্তর বেলুড়মঠকে তাদের যোগাযোগ ও মেলামেশার কেন্দ্র হিসাবে ব্যবহার করেন বলে বিপ্লবী নেতা হেমচন্দ্র কানুনগো স্বীকার করেছেন। 

স্বামীজী লেখার ও তাঁর প্রতিষ্ঠিত রামকৃষ্ণ মিশনের প্রভাব ক্রমশই বাড়তে থাকে। গোয়েন্দা রিপোর্টে দেখা যায় স্বামীজীর পত্রাবলী বাজেয়াপ্ত করার প্রস্তাবও উঠে ছিল। কিন্তু স্ট্যান্ডিং কাউন্সেল এস.আর. দাস বইটির বাজেয়াপ্ত করার বিরুদ্ধে মত দিলে ইংরেজ সরকার বইটি বাজেয়াপ্ত করেন নি। চার্লস টেগার্ট তাঁর গোয়েন্দা রিপোর্টে (২২/০৪/১৯১৮) জানিয়েছেন যে , স্বামীজী কলকাতা অভিননন্দের উত্তরে যে ভাষণ দিয়ে ছিলেন , তা তরুণ মুক্তি সংগ্রামীদের উপর গভীর প্রভাব বিস্তার করে ছিল। 

১৯১২ খ্রিস্টাব্দে ২৯শে জানুয়ারি স্বামীজীর ৫০তম জন্ম তিথিতে বেলুড়মঠে বিপ্লবীরা সক্রিয় ভাবে অংশ নিয়ে ছিলেন বলে গোয়েন্দা রিপোর্টে উল্লেখ আছে। সরকারের গোয়েন্দা রিপোর্টে স্বামী ব্রাহ্মানন্দের বিরুদ্ধে স্বরাজ প্রচারের গুরুতর অভিযোগ আনা হয়েছে। 

ভগিনী নিবেদিতা বিপ্লবের কাজে সক্রিয়ভাবে অংশ নেওয়ার জন্যে ছদ্মনাম ও ছদ্মবেশের সাহায্য নিতেন। তখন দেশে বিদেশে থাকার সময় তাঁর ছদ্মবেশ এত নিখুঁত করে ছিলেন যে, ধুরন্ধর ব্রিটিশ গোয়েন্দারা তা ধরতে পারেনি। তিনি কেবল গ্রেপ্তার এড়াতে পেরেছেন ছদ্মনাম ও ছদ্মবেশ ধরনের কৌশল জানতেন বলেই। এছাড়াও সরকারি উচ্চ মহলে তাঁর গভীর যোগাযোগ ছিল। এছাড়াও গোয়েন্দা দপ্তর কাজকর্ম সম্বন্ধে আগাম খবর পেতেন।  উদাহরণ হিসাবে বলা যায় , ব্রিটিশ সরকার যে অরবিন্দ ঘোষকে গ্রেপ্তার করতে আসছে  সে খবর পেয়ে তিনি অরবিন্দ ঘোষকে চন্দননগর পাঠিয়ে দেন। কারন চন্দননগর ছিল ফরাসি অধিকৃত। ব্রিটিশ আইন সেখানে কার্যকর হবে না। নিবেদিতা গোয়েন্দাদের নজর এড়াবার জন্যে সরাসরি চিঠি না পাঠিয়ে ব্যাঙ্ক বা অন্য্ এজেন্টে মারফত চিঠি পাঠাতেন। ভিন্ন নাম ও ভিন্ন ঠিকানায় তিনি চিঠি পাঠিয়েছেন। চিঠিতে "কোড " ব্যবহার করেছেন আবার মাঝে মাঝে "কোড " ও বদল করেছেন। অত্যন্ত বুদ্ধিমত্তার সাথে হেঁয়ালি ভাষা ব্যবহার করেছেন। 

নেতাজিকে দেখব আজাদ হিন্দ বাহিনীর সর্বাধিনায়ক হিসাবে যখন রেঙ্গুনে মিত্র পক্ষের বিরুদ্ধে মরন পন সংগ্রামে লিপ্ত ছিলেন , তখন মাঝে মাঝেই গভীর রাত্রে রেঙ্গুনে রামকৃষ্ণ মিশনে চলে যেতেন। সিল্কের ধুতি পরে , খালি গায়ে নেতাজি বন্ধ ঘরে তাঁর জীবন দেবতা স্বামীজীর ছবির সামনে কিছুক্ষনের জন্যে ধ্যান মগ্ন থাকতেন। কখনও বা আশ্রম অধ্যক্ষ স্বামী ভাস্করানন্দকে গাড়ি পাঠিয়ে আশ্রম থেকে  আনিয়ে ধর্মপ্রসঙ্গ করতেন।  

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[3.]

আমি আন্দুলের রাজা হতাম 

তরুণ ভবদেব মধু সন্ধানী মৌমাছির মত বিভিন্ন দিকপাল ব্যক্তিদের সঙ্গ করতেন। তিনি আধ্যাত্মিক বা যে কোন জগতের মানুষ হোন না কেন -গুণবান মানুষ হলেই তাঁর সঙ্গ করতেন। পঞ্চাশের দশকে স্বামীজীর ভাই প্রখ্যাত বিপ্লবী ও কম্যুনিষ্ট নেতা ডঃ ভুপেন্দ্রনাথ দত্ত প্রায় প্রতিদিন হেদুয়ার পুষ্করণীর ধারে পরিক্রমা করতেন। এই বিখ্যাত পুষ্করণী যার ধারে তরুণ নরেন্দ্রনাথ বহু সময় কাটিয়েছেন।  ঠাকুরের কাছে যখন তার অদ্বৈতজ্ঞানের দিব্য অনুভূতি লাভ হয় , তখন এই পুষ্করণীর রেলিং-এ মাথা ঠুকে তাঁর দিব্য অনুভূতি সত্যতা পরীক্ষা করেছিলেন।  

এখানেই বিপ্লবী ডঃ ভূপেন্দ্রনাথ প্রত্যহ বিকালে প্রায় দুঘন্টা অতিবাহিত করতেন। তাঁকে ঘিরে থাকতো একদল অনুগামী। এঁদের কাছে ভূপেন্দ্রনাথ বিভিন্ন প্রসঙ্গে আলোচনা করতেন। তরুণ ভবদেব ভূপেন্দ্রনাথের এই বৈকালিক আড্ডার নিয়মিত সঙ্গী ছিলেন। 

     হঠাৎ একদিন বেড়াতে বেড়াতে (১৯৫২-১৯৫৩ সাল) শ্রী ভবদেব কে তিনি প্রশ্ন করলেন , " তোর তো আন্দুলে বাড়ি ? তুই আন্দুলের রাজাদের ইতিহাস জানিস ? তোদের কালীকীর্তনের প্রেমিক ছিলেন আমার মার গুরুদেব। আমি তোদের আন্দুলের রাজা হতাম। " তিনি এটা শুনেছিলেন তাঁর মাতা ভুবনেশ্বরীদেবীর কাছ থেকে। 

        আন্দুলের সাথে স্বামীজীর বংশের এক ঘনিষ্ঠ ঐতিহাসিক সম্পর্ক আছে। একদিন স্বামীজীর মা ভুবনেশ্বরী দেবীর কাছে আন্দুল ছিল গুরুবাড়ি। অন্যদিকে আন্দুলের রাজাদের সাথে ঘনিষ্ঠ যোগাযোগ তৈরী হয় বিশ্বনাথ দত্তের। বস্তুতঃ আন্দুল -মৌড়ির সাথে কলকাতার সিমলার দত্ত পরিবারের যোগাযোগ বহুদিনের। ঊনবিংশ শতকে আন্দুল রাজবাড়ি থেকে প্রকাশিত " কায়স্থ -কৌস্তব " বইতে তখনকার অভিজাত কায়স্থ ব্যক্তিদের যে তালিকা প্রকাশিত হয় তাতে নরেন্দ্রনাথের প্রপিতামহ রামমোহন দত্তের উল্লেখ আছে। 

স্বামীজীর বাবা বিশ্বনাথ দত্ত আন্দুলের রাজবাড়িতে গানের আসরে নিয়মিত শ্রোতা ছিলেন। রাজবাড়ির উকিল নিমাই চরণ বসু নিয়মিত ভাবে বিশ্বনাথ দত্তের সঙ্গী হতেন। এই সময় অর্থাৎ ১৮৭৯ সালে আন্দুলের রাজা বিজয় কেশব রায় (১৮৩৬-৭৯ সাল) তাঁর দুই রানী দুর্গাসুন্দরী ও নবদুর্গাসুন্দরীকে নিঃসন্তান রেখে মারা যান। ১৮৮০ সালে প্রি. ভি. কাউন্সিলের রায় অনুসারে দুই রানী পৃথক ভাবে দুই পোষ্যপুত্র অনুমতি পান।

এই খবর শুনে রাজবাড়ির উকিল নিমাইচরণ বসু বিশ্বনাথ দত্তকে তাঁর দুই পুত্রকে আন্দুলের রাজবাড়িতে দত্তক দেওয়ার পরামর্শ দেন। তরুণ নরেন্দ্রনাথ তখন বি.এ. প্রথমবর্ষে পড়াশোনা করছেন। এই খবর পেয়ে নরেন্দ্রনাথের মাতা ভুবনেশ্বরী দেবী কে তীব্র আপত্তি জানান। কিন্তু বিশ্বনাথ দৃঢ়ভাবে জানান পরিবেশ মানুষকে তৈরি করে। তিনি জ্যোতিষ চর্চা করে দেখেছেন নরেন্দ্রনাথ সন্ন্যাসী হবে , নতুবা রাজা হবেন। এই পরিস্তিতিতে ১৮৮০ সালে ৪ঠা সেপ্টেম্বরে ভূপেন্দ্রনাথের জন্ম হয়। তখন ভুবনেশ্বরী দেবী তাঁর স্বামীকে আগের প্রস্তাব পুনর্বিবেচনার অনুরোধ জানান। ফলে নরেন্দ্রনাথের পরিবর্তে ভূপেন্দ্রনাথকে দত্তক দেওয়ার ব্যাপারে তাঁরা একমত হন। 

এই সময় নরেন্দ্রনাথ উদাসীন উদ্ভ্রাতের মতো ঘুরে বেড়াচ্ছেন। কয়েকদিন আগেই তিনি সিমলার মিত্রদের বাড়িতে শ্রীরামকৃষ্ণদেব কে গান শুনিয়ে এসেছেন। এরপর থেকেই নরেন অন্যমনস্ক। এই পরিস্থিতিতে ভুবনেশ্বরী দেবী নরেনকে বলেন ," ও নরেন তুই শুনিস নি ; ভূপেন রাজা হবে। আন্দুলের রানীরা ওকে পুষি নেবেন। প্রথমে তোর আর মহিমের কথা হয়েছিলো। " একথা শুনে শ্রীরামকৃষ্ণের খাপখোলা তরোয়াল নরেনের মনে তীব্র প্রতিক্রিয়া হলো। তিনি বারুদের মতো দাউ দাউ করে জ্বলে ওঠে তীব্র চিৎকার করে উঠলেন। নরেনের এই উগ্রচন্ডী রূপ আগে কেউ এরকম ভাবে দেখেনি। তিনি গর্জে বললেন , " তোমরা বিশেষ করে বাবা , কি ভাবেন ? কি ভাবেন জানি না ? কিন্তু তোমরা স্থির জেনো আমরা কোনো ভাই কারো পুষিপুত্র হয়ে ভাগ্যান্বেষী হয়ে ভবিতব্য নিয়ে জন্ম গ্রহণ করিনি। "  

একথা বলা শেষ হলে ভুপেন্দ্রনাথ কিছুটা আনমনা হয়ে পড়ন্ত বিকালের রোদে লোকের জলের দিকে তাকিয়ে রইলেন। তরুণ ভবদেব মুগ্ধ হয়ে গেলেণ , এই অপরূপ স্মৃতিচারণ শুনে। তাঁর সাথে বিপ্লবী ভূপেন্দ্রনাথের ১৯২৮ সাল থেকেই পরিচয়। ১৯২৮ সালের ২১শে জুলাই এক শনিবারের অপরাহ্ন ভূপেন্দ্রনাথ এসেছিলেন শরৎচন্দ্র চট্টোপাধ্যায় স্থাপিত হাওড়া যুবক সংঘের আন্দুল-মাউরি শাখার উদ্বোধন করতে। সেই  দিন ডঃ ভূপেন্দ্রনাথ দত্ত মৌড়িগ্রাম (তৎকালীন উনসানি) রেলস্টেশনে নেমে দুর্গম পথে পালকি যোগে এসেছিলেন। এই সংঘের সাথে বহু বিপ্লবী যুক্ত ছিলেন। যেমন বিপিন বিহারি গাঙ্গুলি , ডোমজুড় ব্যোমকেসের ফেরার বীরেন্দ্রনাথ মুখোপাধ্যায় প্রমুখরা।     

এর পর ১৯৩১ সালে আন্দুলের জমিদার মল্লিকবাবুদের বাগানে (বর্তমান ওলিংটন সিনেমা হলের চত্বর) এক রাজনৈতিক কর্মী সম্মেলন হয়। সেই সম্মেলনের উদ্বোধন করেন দেশপ্রিয় যতীন্দ্র মোহন সেনগুপ্ত। ভাষনপাঠ করেন " মেরঠ ষড়যন্ত্র মামলার " অন্যতম অভিযুক্ত কমরেড বঙ্কিম মুখোপাধ্যায়। এই সভাতে উপস্থিত ছিলেন ডঃ ভূপেন্দ্রনাথ দত্ত। সমাবেশের শেষের দিন সন্ধ্যায় চারণ কবি মুকুন্দ দাসের যাত্রাভিনয় জনসাধারণকে বিশেষভাবে আনন্দ ও উৎসাহ দেয়। আবার অন্য্ এক সভায় এসে ছিলেন ডঃ ভূপেন্দ্রনাথ দত্ত। তারিখটি ছিল ৩০/১০ /১৯৩৮। এদিন তিনি আন্দুল-মুড়ি গ্রামের প্রশংসা করে গ্রন্থাগারের 'ভিজিটর্স বুকে ' প্রশংসাসূচক মন্তব্য করেন। আবার তিনি আন্দুলে এসেছিলেন ১৯৪২ সালে স্থানীয় উচ্চ ইংরেজি বিদ্যালয়ের (বর্তমান MKCI) শতবার্ষিকী অনষ্ঠান উপলক্ষে।  ভারত স্বাধীন হবার পরেও তিনি কয়েকবার আন্দুলে এসেছিলেন। 

ভুপেন্দ্রনাথ ছিলেন বৈজ্ঞানিক সমাজতন্ত্রে বিশ্বাসী। স্বামীজীর কনিষ্ঠ ভাই হওয়া সত্ত্বেও সভা -সমিতিতে স্বামীজীর নামের সাথে তাঁর নাম যুক্তকরা একদমই পছন্দ করতেন না। স্বামীজী তাঁর কাছে ছিলেন 'ভারতের অদম্য , অদ্বিতীয় মুক্তিকামী যোদ্ধা -সামাজিক গণতন্ত্রের অগ্রদূত।  এক অভূতপূর্ব অনান্যতান্ত্ৰ মানবতাবাদী। ' 

ভুপেন্দ্রনাথের পূর্বে তাঁর অগ্রজ স্বামী বিবেকানন্দের আরেক ভাই মাহেন্দ্রনাথের সাথে ভবদেবের পরিচয় ঘটে বিংশ শতকের প্রথম দিকে। ইনি ছিলেন বিশ্বনাথ দত্তের নবম সন্তান। এই দুই মনীষীর অলঙ্ঘনীয় আকর্ষনে প্রায়শই ভবদেব ছুটে যেতেন ৩নম্বর গৌর মুখার্জি স্ট্রিট। ১৯৩৪-৩৫ সাল থেকে ১৯৫৬ -৫৭ সাল পর্যন্ত খুবই আসা যাওয়া ছিল ভবদেবের শিমুলিয়ার দত্ত বাড়িতে। সুদীর্ঘ ১৭ বছর আমেরিকা , জার্মানি , রাশিয়া প্রভৃতি দেশে শিক্ষা -দীক্ষা শেষ করে নির্বাসিত বিপ্লবী ভুপেন্দ্রনাথ ১৯২৫ সালে কলিকাতা ফেরেন। রাশিয়ার কম্যুনিষ্ট নেতা লেনিনের সাথে তার ব্যক্তিগত ঘনিষ্ঠতা ছিল।   

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[4.]   

'মন' হচ্ছে ভেড়ার পালের ভেড়ার মতো 

         তরুণ ভবদেব কে আর এক মহাপুরুষ তীব্র আকর্ষণ করতেন। তিনি হলেন শ্রীরামকৃষ্ণের প্রিয় সন্তান কালী মহারাজ (স্বামী অভেদানন্দ।) অফিস ছুটির পর প্রায়ই এই মানুষটি হাজির হতেন বেদান্ত মঠের এই বৃদ্ধ তাপসের সঙ্গ করতে। খুব মনোযোগ দিয়ে সব কিছু শুনতেন। বিশেষ করে বিভিন্ন ভক্তদের দেওয়া তাঁর উপদেশগুলি তার কাছে খুবই প্রিয় ছিল। আবার এই সমস্ত কথোপকথন থেকেই কখনও কখনও তাঁর মনের প্রশ্নের উত্তর পেয়ে যেতেন। একদিন তিনি স্বামী অভেদানন্দকে প্রশ্ন করেছিলেন , যা আমাদের অনেকের প্রশ্ন , " মহারাজ , আমার মন খুব চঞ্চল , কি করে আমার মন কে নিয়ন্ত্রণ করবো ? " 

বস্তুতঃ এই প্রশ্নই করেছিলেন অর্জুন ভগবান শ্রীকৃষ্ণ কে।  অধ্যাত্ম জগতে বিচরণকারী যে কোন সাধকের মনে এই প্রশ্ন জাগে। স্বামী অভেদানন্দ একটু মিষ্টি হেসে তরুণ ভবদেবের দিকে তাকিয়ে বলে উঠলেন , " এ আর নতুন কথা কিরে ? যার সঙ্গে স্বয়ং ভগবান রয়েছেন সেই অর্জুনও একই কথা বলেছেন। ভেড়ার পাল দেখেছিস ? রাস্তা দিয়ে যখন নিয়ে যাওয়া হয় তখন যদি একটা ভেড়া দলছুট হয়ে যায় , তখন তাকে লাঠি দিয়ে দলে ফেরাতে হয়। মনকেও এ রকম শাসন করে ফিরিয়ে আনতে হয়। তাহলে আস্তে আস্তে মন চঞ্চলতা ছেড়ে বশে এসে যাবে। "  

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[5.]     

"আপনি একটা স্বামীজীর জীবনী লিখুন "

    একদম শুরুর দিকে (১৯৬৮-৬৯) মহামন্ডলের কোনো O.T.C. হত না। সে সময় তিন মাস অন্তরে এক সাথে বসা হত - যার নাম ছিল ' শিক্ষা ও সমীক্ষার আসর। ' ('Education and Study Sessions'. ) এই অনুষ্ঠানে যোগ দেওয়ার নিয়মিত আমন্ত্রণ পত্র যেত ভবদেব বাবুর কাছে। তিনি ছিলেন মহামন্ডলের ইন্ডিভিজুয়াল মেম্বার (individual member') মহামন্ডলের যখন সর্বভারতীয় শিবির হত এলাকার যুবকদের কাছে এবং তাদের অভিভাবকদের কাছে শিবিরে যোগদেবার প্রয়োজনীয়তার কথা ভবদেব বাবু বুঝিয়ে বলতেন। বিভিন্ন মহৎ মানুষদের সঙ্গ করা ভবদেবের যে দুর্লভ গুন্ ছিল সেই অনুসারে তিনি নবনীদার অফিসে গিয়ে প্রায়ই তার সঙ্গ করতেন। যদিও বয়সের পরিমানে তিনি নবনীদার চেয়ে ২৫ বছরের বড় ছিলেন। নবনীদার বাবা ইন্দীবর মুখোপাধ্যায় কে তিনি দাদা বলে ডাকতেন।  

       বিভিন্ন পত্রিকায় স্বামীজীর ব্যাপারে বিভিন্ন প্রবন্ধ প্রকাশিত হত। সেগুলি তিনি আগ্রহ সহকারে পড়তেন। ভুল-ভ্রান্তি দেখলে সমালোচনা করে চিঠি লিখতেন পত্রিকার সম্পাদকদের।  এগুলি আবার নবনীদা কে দেখাতেন। একদিন নবনীদা তাঁকে বললেন , " সব চেয়ে ভালো হয় যদি আপনি স্বামীজীর জীবনী লেখেন -যাতে স্বামীজী সম্পর্কে আপনার দৃষ্টিভঙ্গি এবং মতামত স্বাধীনভাবে প্রকাশিত হবে। " নবনীদার অনুপ্রেরণায় ভবদেব বাবু স্বামীজীর একটি জীবনী ইংরেজিতে লিখতে শুরু করেন। তার কিছু অংশ বিবেক জীবন পত্রিকায় ১৯৮৫ সালে জানুয়ারি সংখ্যায় প্রকাশ পায় -" He was Born " শিরোনাম। এছাড়া বাংলাতে লেখা 'মহামিলন ' নাম একটি প্রবন্ধ প্রকাশিত হয়।  

নবনীদাকে তিনি খুব ছোটো থেকেই দেখেছেন। যেহেতু নবনীদার বাড়ি 'ভুবন -ভবনের ' প্রতিটি অনুষ্ঠানে তিনি নিমন্ত্রিত থাকতেন। একবার নবনীদার অফিসে ভবদেব বাবু গেলে কথা বলতে অনেক দেরি হয় যায়। নবনীদা তখন মহামন্ডলের জন্যে কেনা জীপ গাড়িতে করে ভবদেব বাবুকে বসিয়ে সেই গাড়ি চালিয়ে হাওড়া স্টেশনে পৌছে দেন। 

বস্তুতঃ ভবদেব বাবু নবনীদার মধ্যে নিবিড় সম্পর্ক সূত্রতার ঘনিষ্ঠতার সেতুরূপে যে পবিত্র প্রতিষ্ঠানটি ছিল তা হল আন্দুল-মুড়ি স্কুল। নবনীদা প্রায়ই এই বিদ্যালয়ের পবিত্র স্মৃতি রোমন্হন করে এসেছেন। এই বিদ্যালয়ের সংস্কৃতের প্রবাদ প্রতিম পন্ডিত মশাই ক্ষেত্রমোহন চট্টোপাধ্যায় ছয় বছর বয়সে নবনীদার মুখে সংস্কৃতের শ্লোক শুনে তাঁকে বাকসিদ্ধির আশীর্বাদ দিয়েছিলেন।   

একবার কুরুক্ষেত্র ইউনিভার্সিটি এক সভায় তাঁর ইংরেজি বক্তৃতা শুনে উপস্থিত রাজ্যপালের স্ত্রী তাঁকে জিজ্ঞাসা করেছিলেন তিনি কোন ইউনিভার্সিটি থেকে এত সুন্দর ইংরেজি শিখেছেন। উত্তরে নবনীদা বলেছেন , " তাঁর ইংরেজি শিক্ষা হাওড়া জেলার এক গ্রামের এক অখ্যাত স্কুলে। " এই স্কুলেই ইংরেজি ক্লাসে যখন তিনি ক্লাস সেভেনের ছাত্র , একজন ইংরেজি শিক্ষক তাঁকে Fatal শব্দটি উচ্চারণ করতে বলেন। আচার্য শিরীষ চন্দ্র মুখোপাধ্যায়ের কাছে শিক্ষাপ্রাপ্ত নবনীদা শব্দটি উচ্চারণ করেন 'ফেটাল।' ইংরেজি শিক্ষক মহাশয় তাঁকে বলেন উচ্চারনটি 'ফ্যাটল' হবে। কিন্তু নবনীদা বিনম্রভাবে তাঁর উচ্চারণটিই করে যান। শিক্ষক ক্রুদ্ধ হয় ওঠেন। এই সময় আচার্যদেব বিদ্যালয়ে রাউন্ড দিচ্ছিলেন। তিনি চিৎকার শুনে শিক্ষকের অনুমতি নিয়ে ক্লাস ঢোকেন। সব শুনে শিক্ষকের মর্যাদা বজায় রেখেই স্বস্নেহভাবে শিক্ষকের ভুল ধরিয়ে দেন। কিন্তু শিক্ষক মহাশয় সেই ঘটনা মেনে না নিতে পেরে চাকুরী থেকে ইস্তফা দিয়ে স্কুল ছেড়ে চলে যান। 

নবনীদা ও ভবদেব বাবুর মধ্যে আজীবন সুমধুর সম্পর্ক ছিল। নবনীদার দাদু ৫২ বছরের প্রধান শিক্ষকতার জীবন রেকর্ড হিসাবে জিনিসবুকে স্থান পেয়েছিল। এই খবরটি নবনীদা একটি চিঠির মাধ্যমে ভবদেব বাবুকে জানিয়ে ছিলেন। একজন পাকা জুহরীর মতই নবনিদাকে তিনি ছোট বেলাতেই চিনতে পেরে ছিলেন  এবং ঘনিষ্ঠ জনদের কাছে নবনীদার উচ্চ সম্ভাবনার কথা দৃঢ়ভাবে প্রকাশ করতেন। তাঁর ভবিষ্যৎবাণী যে নির্ভুল হয়েছিল তার প্রমান হচ্ছে 'অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামণ্ডল। ' বস্তুতঃ নবনীদার ভবদেব বাবু -কে স্বামীজীর জীবনী লিখতে বলার পেছনে একটি অন্যতম কারন ছিল যে নবনীদা ছোটবেলা থেকেই ভবদেব বাবুর জ্ঞানতৃষ্ণা এবং লেখার প্রতিভা সম্পর্কে অবহিত ছিলেন। ভবদেব বাবুর আবার একটি গবেষণার প্রিয় বিষয় ছিল রবীন্দ্রনাথ ও বিবেকানন্দের সম্পর্ক। (relationship between Rabindranath and Vivekananda. )  

প্রসঙ্গতঃ স্বামীজীর সম্বন্ধে রবীন্দ্রনাথের দু-একটি কথা স্মরণ অপ্রাসঙ্গিক হবে না। রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর লিখেছেন " বিবেকানন্দ বলেছিলেন প্রত্যেক মানুষের মধ্যে ব্রহ্মের শক্তি ; বলেছেন দারিড্র্যের  মধ্যে দিয়ে নারায়ন আমাদের সেবা পেতে চান ,একে বলে বাণী। এই বাণী স্বার্থ বোধের সীমার বাহিরে মানুষের আত্মবোধকে অসীম মুক্তির পথ দেখালেন। " রবীন্দ্রনাথ ও বিবেকানন্দের সম্পর্কের দৃঢ়তা সংগীতের মধ্যে দিয়ে গেড়ে ওঠে ১৮৮১ সালের ২৩ শে জানুয়ারি রবিবার ব্রাহ্মসমাজের উৎসব উপলক্ষে রবীন্দ্রনাথ সাতটি ব্রাহ্ম সঙ্গীত রচনা করেন। তাঁর মধ্যে একটি ছিল 'মহাসিংহাসনে বসি শুনিছে হে বিশ্বপিতা। ' এই গানটি শিখে নিয়ে নরেন্দ্রনাথ শ্রীরামকৃষ্ণে কে বহুবার গেয়ে শোনান। সঞ্জীবনী পত্রিকার প্রতিষ্ঠাতা কৃষ্ণকুমার মিত্রের বিয়েতে রবীন্দ্রনাথ নরেন্দ্রনাথকে দিয়ে তিনি খানি  ধ্রুপদাঙ্গের গান শিখিয়ে গাওয়ান। গানগুলি হল 'দুই হৃদয়ের নদী ' , 'জগতের পুরোহিত তুমি ', 'শুভদিনে এসেছ দোঁহে। ' ঐ সংগীতানুষ্ঠানের মহড়ায় রবীন্দ্রনাথ অর্গান বাজিয়ে ছিলেন , আর নরেন্দ্রনাথ পাখোয়াজ বাজিয়ে ছিলেন। শুধু সঙ্গীত নয় , নাটকের মধ্যেও উভয়ের মধ্যে ঘনিষ্ঠ সম্পর্ক গেড়ে ওঠে।    

ভবদেব বাবু দেশ পত্রিকায় প্রকাশিত একটি চিঠির মাধ্যমে রবীন্দ্রনাথ ও নরেন্দ্রনাথের মধ্যে সম্পর্কের একটি অপ্রকাশিত ঘটনা তুলে ধরেন। নরেন্দ্রনাথ জোড়াসাঁকোর ঠাকুর বাড়িতে রবীন্দ্রনাথ  রচিত ও পরিচালিত 'বাল্মীকি প্রতিভা ' নাটকে অভিনয় করেন। এই নাটকে রত্নাকরের ভূমিকায় অভিনয় করেন স্বয়ং রবীন্দ্রনাথ। আর নরেন্দ্রবাথ অভিনয় করেন রত্নাকরের দস্যু দলের এক দস্যুর চরিত্রে। ১৯৬১ সালে রবীন্দ্রনাথের জন্মশতবার্ষিকী উপলক্ষ্যে যে কবীন্দ্র-রচনাবলী প্রকাশিত হয় তাতে 'বাল্মীকি প্রতিভা ' নাটকে রবীন্দ্রনাথ ও নরেন্দ্রনাথের সঙ্গে সেদিন যাঁরা অভিনয় করেছিলেন তাঁদের দলবদ্ধ ছবি দেখা যায়। এখানে অভিনেতা নরেন্দ্রনাথের ছবি পাওয়া যায়। রবীন্দ্রনাথ এই ছবিতে তাঁর নরেন্দ্রনাথের পরিচয় হিসাবে 'জ্যোতিঃ প্রকাশ 'নাম দেন অর্থাৎ তিনি নিজের জাতিতে প্রকাশিত।  

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[6]  

মহামন্ডল না হলে নবনীকে এত কাছে পেতাম না।  

১৯৬৭ সালে স্বামীজীর শতবর্ষ উদযাপন হয়েছিল নবনীদা ' গোলপার্ক ইনস্টিটিউট অফ কালচারের '('Golpark Institute of Culture'.) সাথে যুক্ত ছিলেন। তাঁকে বিদেশী অতিথিতিদের আপ্যায়নের দায়িত্ব দেওয়া হয়েছিল। এই সময় তাঁর সাথে আলাপ হয় আমেরিকা প্রবাসী সন্ন্যাসী স্বামী ভাষ্যানন্দের সাথে। তিনি তাঁকে আমেরিকা নিয়ে যেতে চান। তাঁর ধারণা ছিল আমেরিকায় ঠাকুর-মা-স্বামীজীর ভাবপ্রচারে নবনীবাবু অত্যন্ত গুরুত্বপূর্ণ ভূমিকা নেবেন। বিশেষ করে শতবার্ষিকী উৎসবে তাঁর নিষ্ঠা ও ভাবতনময়তা দেখে মহারাজ মুগ্ধ হন। কিন্তু দৈব ইচ্ছায় নবনীদার  পাওয়া হয়নি। হয়তো স্বামীজীর ইচ্ছায় তাঁকে মহামামণ্ডল সৃষ্টিতে প্রধান পুরোহিতের ভূমিকা নিতে হবে বলে তাঁর যাওয়া হয়নি। কেননা নবনীদা বহুবার বলেছেন 'ঠাকুরের ইচ্ছা , শ্রীশ্রী মায়ের আশীর্বাদ ও স্বামীজীর প্রেরণায় ' মহামন্ডল ('विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर' का जानिबीघा जाना) সৃষ্টি হয়েছে। তাই ভবদেব বাবু একজন ঘনিষ্ঠ ব্যক্তির কাছে মন্তব্য করেন " মহামন্ডল না হলে নবনীকে আমাদের মধ্যে পেতাম না -সে ভাষ্যনন্দর সাথে আমেরিকায় চলে যেত এবং একজন বিখ্যাত সন্নাসী হয় যেত। " 

ভবদেব বাবু রক্তে ছিল অভিনয়ের অন্যায়সলব্ধ ক্ষমতা। যেহেতু তিনি ছোটোখাটো চেহারার ছিলেন ও তাঁর গায়ের রঙ ফরসা ছিল , তাঁকে পাড়ার নাটকে স্ত্রী চরিত্রে অভিনয় করতে দেওয়া হত। তাঁর মায়ের দুই মামা শখের যাত্রা দলে যুক্ত ছিলেন। তাঁরা একদিন দক্ষিনেশ্বর নাট মন্দিরে ফলহারিণী কালী পূজার রাত্রে 'বিদ্যাসুন্দর যাত্রাপালা ' টি করেন। স্বয়ং শ্রীরামকৃষ্ণ সেই যাত্রাপালাটি কিছুক্ষন দেখেন। পরের দিন দুই ভাই চলে আসার আগে শ্রীরামকৃষ্ণ কে প্রণাম করতে গেলেন। ঠাকুর তাঁদের উপদেশ দেন দু-ভাই মিলে -মিশে থাকবেন। তাদের সাথে ঠাকুরের কথপকথনের বিবরণ 'কথামৃতে ' আছে। (২৪.০৫.১৮৮৪)'কথামৃত ' /মহামণ্ডলের আন্দুল -মুড়ি শাখার নবনির্মিত গৃহের দ্বারোদ্ঘাটন -২১শে বানভেম্বর ১৯৯৯ অনুসগঠনে আলোচনারত শ্রদ্ধেয় নবনীদা।

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[7]   

" ঠিক আছে ওকে দীক্ষার জন্যে নিয়ে এসো "

ভবদেববাবু যখনই বেলুড় যেতেন মহাপুরুষ মহারাজকে প্রণাম করতে যেতেন। স্বাভাবিক ভাবেই তাঁর সাথে মহাপুরুষ মহারাজের সেবকের ঘনিষ্ঠতা গেড়ে ওঠেছিলো। একবার এক দীক্ষার দিনে তিনি অপ্রত্যাশিত ভাবে মহাপুরুষ মহারাজকে প্রণাম করতে উপস্থিত হন।  দীক্ষার কথা শুনে তরুণ ভবদেবের দীক্ষা নেবার আকাঙ্ক্ষার কথা জানান। মহাপুরুষ মহারাজ বলেন , " আগে যাদের আসতে বলেছো আগে তাদের হোক , পরে দেখা যাবে। " 

           নির্ধারিত ব্যক্তিদের দীক্ষা গ্রহণ শেষ হলে সেবক মহারাজ মহাপুরুষ মহারাজকে বলেন , " যে ছেলেটিকে আপনি অপেক্ষা করতে বলেছিলেন সে কিন্তু এখনও অপেক্ষা করছে। " " ও বলেছিলাম নাকি ? তাহলে নিয়ে এসো তাকে। " স্মিত হেসে মহারাজ উত্তর দিলেন। এইভাবে তরুণ ভবদেবের মহাপুরুষ মহারাজের আশ্রয় লাভ করলেন।

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[8] 

" মায়ের রঙটা ছিল কালো , কিন্তু উজ্জ্বল " 

       আন্দুলের কয়েকজন স্বদেশী যুবক শ্রীশ্রী মাকে দর্শন করতে বাগবাজারে মায়ের বাড়ি এসেছিলেন। তাঁরা সাথে এনেছিলেন কিশোর ভবদেবকে। মাকে দর্শন করার স্মৃতি আজীবন তাঁর মনের মধ্যে ছিল। ভবদেবের স্মৃতিতে মার্ গায়ের রঙটা মনে হয়েছিলো কালো। পরবর্তীকালে অত্যন্ত আপনজনদের কাছে মায়ের বর্ননা নিতে গিয়ে বলতেন , " মা ছিলেন কালো , কিন্তু এমন উজ্জ্বল কালো আর কোথাও দেখিনি। " সাধক কবি রামপ্রসাদের গানে আছে - 

" মায়ের ভাব কি ভেবে প্রাণ গেল ,

যাঁর নামে হরে কাল , পদে মহাকাল ,

তাঁর কেন কালোরূপ হল।

কালো রূপ অনেক আছে এ বড় আশ্চর্য কালো ,

যাঁর হৃদয়মাঝারে রাখলে পরে হৃদয়পদ্ম করে আলো।। 

প্রথমতঃ স্মরণীয় অগ্নিমুখে অনেক বিপ্লবী মায়ের কাছে অমোঘ আকর্ষনে ছুটে আসত। ভাবলে আশ্চর্য হতে হয় মা দেশের শুধু নয় , বিশ্বের যে কোন ঘটনাকে গভীর প্রজ্ঞা নিয়ে বিশ্লেষণ করতেন।  আর মায়ের এই বিশ্লেষণ করার ক্ষমতা কোন খ্যাতিমান ঐতিহাসিকের থেকে কম ছিলোনা।  

উদাহরণ দেওয়া যাক -প্রথম বিশ্বযুদ্ধ থেমে যাওয়ার পর আমেরিকার প্রেসিডেন্ট উড্রো উইলসন (Woodrow Wilson) ফর্টিন পয়েন্টস ঘোষণা করেন।  মা সারদাকে একজন ভক্ত একথা জানার পর , মা তাঁকে ফর্টিন পয়েন্টস সম্বন্ধে জানতে চান।  সেই ভক্ত মধ্যে থাকা পারস্পরিক শান্তি , সহযোগিতার কথা বলেন।  মা একটু চুপ করে থেকে বলে ওঠেন " বাবা এ শুধুই মুখস্থ কথা , অন্তস্থ নয়। " আমরা জানি বিখ্যাত ঐতিহাসিক E.H.Carও একইভাবে দ্বিতীয় বিশ্বযুদ্ধের কারন হিসাবে ফর্টিন পেইন্টসের অন্তঃসার শূন্যতাকেই দায়ী করেছেন। একথা মনে রাখতে হবে ঐতিহাসিক  E.H. Car একথা বলেছেন দ্বিতীয় বিশ্বযুদ্ধের পরে , আর মা সারদা এই বিশ্লেষণ করেছেন প্রথম বিশ্বযুদ্ধের শেষের সঙ্গে সঙ্গেই।  

      এবার এক ভক্ত মাকে জিজ্ঞাসা করলেন , " মা , আমাদের দেশ কবে স্বাধীন হবে ? মা স্পষ্ট ভাষায় বলে দিলেন , " বাবা , তোমরা কি তাদের (ব্রিটিশদের) দেশ থেকে তাড়াতে পারবে ? তা পারবে না। যখন ওদের নিজেদের মধ্যে লড়াই লাগবে তখন তোমরা স্বাধীন হবে। " ইতিহাস প্রমান করে দিয়েছে, বহুদিন আগে মা যা বলে ছিলেন তাই সত্য হয়েছে। দ্বিতীয় বিশ্বযুদ্ধ যদি না হত , এবং সেই সুযোগ নিয়ে নেতাজির নেতৃত্বে আজাদ হিন্দ ফৌজ যদি ব্রিটিশদের বিরুদ্ধে লড়াই না করত , তাহলে স্বাধীনতা পেতে আমাদের বহু দিন লাগত। 

আমরা দেখবো ট্রেনে মা ওড়িষার কোঠরে যাচ্ছেন ১৯১৫ সালে , সেই সময় বুড়িবালামে যুদ্ধের প্রস্তুতি নিতে অতি সাবধানে ছদ্মবেশে বাঘাযতীন সেই ট্রেনেই যাচ্ছিলেন। তিনি ভয়ঙ্কর ঝুঁকি নিয়ে চাদরমুড়ি দিয়ে মাকে প্রণাম করতে আসেন। স্তম্ভিত হতে হইয়েই জেনে বাঘাযতীন দুর্ঘষ ব্রিটিশ পুলিশদের ফাঁকি দিতে পারলেও মাকে ফাঁকি দিতে পারেন নি। মা তাঁকে প্রথম দেখলেও বলে ওঠে ছিলেন ছেলেটার চোখ দুটি দিয়ে যেন আগুন বেরোচ্ছে।  প্রথমতঃ মনে পরে একবার বাঘাযতীন স্বামীজীর সঙ্গে দেখা করতে এসেছিলেন। বাঘাযতীন ঘরের প্রবেশের দরজায় দাঁড়িয়ে , আর স্বামীজী বসে আছেন। দুজনই দুজনের দিকে অপলক দৃষ্টিতে দেখছেন। স্বামী অখণ্ডানন্দ বাইরে থেকে এই দৃশ্য দেখে পরবর্তী কালে এই ঘটনার কথা উল্লেখ করে - বলতেন যেন আগুন আগুন কে গিলছে ? তবে কি তিনি বাঘাযতীনের মধ্যে শক্তি সঞ্চার করছিলেন ? যেমন ঠাকুর তার মধ্যে করেছিলেন ? না হলে কেনই বা স্বামীজী স্বামী অখণ্ডানন্দ কে ঘর থেকে চলে যেতে বলে ছিলেন ? মা সারদা কে বিপ্লবীরা কি চোখে দেখত এর একটি উদাহরণ দেওয়া যায় ? ব্রিটিশ পুলিশের হাতে ধৃত ননীবালাদেবীকে অকথ্য অত্যাচারের পর ইন্সপেক্টর গোল্ডি তাঁকে জিজ্ঞাসা করে (কৃত্রিম সহানুভূতি দেখিয়ে) তাঁর কি ইচ্ছা ? ননীবালাদেবী উত্তরে বলেন তাঁর ইচ্ছা বাগবাজারে মা সারদা কাছে থাকা। এরপর তাঁকে একটা দরখাস্ত লিখতে বলা হলে তিনি তা লিখেন। গোল্ডি সেই দরখাস্ত তাঁর সামনে ছিঁড়ে ফেলেন। আহত সিংহীর মত ননীবালাদেবী গোল্ডির গালে সপাট চড় কষিয়ে দেন। বস্তুতঃ ননীবালাদেবী ছিলেন প্রথম মহিলা স্টেট্ প্রিজনার। 

      বহু বিপ্লবী মিশনে সন্ন্যাসী হলে ব্রিটিশ সরকার মিশন কে অত্যন্ত সন্দেহের চোখে দেখতে থাকে।  ভীত হয়ে অনেকেই এদেরকে মিশন থেকে বিতাড়িত করার কথা বলেন। কিন্তু মা এইসব বিপ্লবীদের পাশে দাঁড়িয়ে দৃপ্ত কণ্ঠে বলে ওঠেন , এদের আশ্রয় দেওয়ার জন্যে যদি মিশন ওঠে যায় উঠে যাক , কিন্তু মিশন সত্যের পথ থেকে সরে যাবে না। মনে রাখতে হবে এই মা-ই কিন্তু স্বামীজিকে প্লেগের চিকিতসার খরচ তোলার জন্যে মঠ বিক্রিকরা থেকে নিবৃত্ত করেন।  এই সময় অরবিন্দ ঘোষ তাঁর মাকে দেখা করতে এলে মা বলে ওঠেন "এই ছোটখাট চেহারার লোকটার কত ক্ষমতা। ইংরেজ সরকার এর ভয়ে কাঁপছে। " আলিপুর বোমার মামলায় অরবিন্দ ঘোষকে ফাঁসিতে ঝোলাবার যখন ষড়যন্ত্র হচ্ছে , সেই সময় তাঁর স্ত্রী মৃণালিনী দেবী মার কাছে এলে মা তাঁর মুক্তির কথা বলেন।  মনে রাখতে হবে তখন ও দেশবন্ধু চিত্তরঞ্জনের সেই বিখ্যাত সওয়াল শুরু হয় নি।

 কথিত আছে দেশবন্ধু যখন অরবিন্দের হয়ে সওয়াল করেছিলেন প্রথমদিকে কিছুটা দিশাহারা হয়ে পড়েন। সেই সময় কোর্টের মধ্যে উপস্থিত এক ব্যক্তি তাঁকে একটি চিরকুট এগিয়ে দেন। সেই চিরকুটে এমন কিছু তথ্য ছিল যা তাঁকে সেই মামলায় খুব সহ্য করে। চিরকুটে সরবরাহকারী সেই ব্যক্তিই পরবর্তীকালে পুরীর শঙ্করাচার্য হন। বঙ্গভঙ্গ সময় ইংরেজ সরকার যখন ব্যাপক নির্যাতন করছে তখন মা বলেছিলেন " বাবা নরেন বেঁচে থাকলে ওরা নরেনকে নিশ্চয়ই জেলে পুরত। "  

ভুপেন্দ্রনাথ দত্ত এই বিষয়ে কয়েকটি চিত্তাকর্ষক সংবাদ দিয়েছেন। পুরীর তৎকালীন জগৎগুরু শঙ্করাচার্য বিপ্লবদের ডাকে সাড়া দিয়ে ছিলেন। ভুপেন্দ্রনাথ দত্ত তাঁর সঙ্গে কয়েকবার দেখাও করেন।  পরে কটকের কয়েকজন বিপ্লবী নেতার সঙ্গে তিনি শঙ্করাচার্যের আলাপ করিয়ে দেন। 

স্বামীজী একবার বলেছিলেন , " আজ পর্যন্ত ভারতের শাসক শ্রেণী সন্ন্যাসী কে ভয় করেন, পাছে গৈরিক বসনের নীচে আর একজন শিবাজী লুকিয়ে থাকেন। " ভারতের স্বাধীনতা সংগ্রামে স্বামীজীর পূর্বেও অনেক সন্ন্যাসী সক্রিয় ভূমিকা নেন। ১৮৫৭ সালে মহাবিদ্রোহে আর্যসমাজের স্বামী দোয়ানন্দের সক্রিয় ভূমিকা ছিল। সিপাহী বিদ্রোহের প্রাককালে ইংরেজ সরকারের বিরুদ্ধে সন্ন্যাসী ও ফকিররা যে প্রচার কাজ চালান তার প্রমান আছে সরকারের নথিপত্র ও দলিলে। মিরাটের কমিশনের স্যার উইলিয়ামের নোট জানা যায় যে , সন্ন্যাসী ও ফকিরদের মন বিদ্রোহের জন্যে তৈরি হয়। এমনও তথ্য আছে যে , ১৮৫৭ সালের সশত্র  অভ্যূথানের ক্ষেত্রে প্রস্তুতের প্রধান ভূমিকা ছিল দিল্লির যোগমায়া মন্দিরের ত্রিশূলবাবার। ব্রিটিশের কাছে মুক্তিযোদ্ধাদের পরাজয়ের পর স্বামী দয়ানন্দ রামেশ্বরে যান। সেখানে তিনি কয়েকজন সাধুর দেখা পান , যাঁরা দিল্লির যোগমায়া মন্দির থেকে এসেছেন। প্রকাশ , দয়ানন্দ এঁদের মধ্যে ছদ্মবেশী নানা সাহেবকে দেখতে পান। পরে তাঁর নাম হয় স্বামী দিব্যানন্দ।   

মিরাটের কমিশনার উইলিয়ামের নোট থেকে আরো জানা যায় যে , মিরাটের ২০তম নেটিভ ইনফেন্ট্রি সঙ্গে একজন সাধু সদলে থাকতেন। তিনি হাতি চড়ে ঘুরে বেড়াতেন বলে তাঁকে হাতি বাবা বলা হত। 

বাংলার ইন্সপেক্টর জেনারেল অফ পুলিশ স্যার হেনরি ১৮৯৩ সালের অক্টোবরের সরকারি রিপোর্টে সাধু ও সন্ন্যাসীদের রাজনৈতিক তৎপরতা কথা বলা হয়েছে। ১৮৯৬ সালের সেপ্টেম্বরে কলকাতা পুলিশের সার্কুলারে বলা হয়েছে যে , হিন্দু পুনরুত্থানের জন্যে সন্ন্যাসীরা অবাধে প্রচার কার্য চলেছেন।  এই ফাইল থেকে আরো জানা যায় যে , সেনাবাহিনীর মধ্যে ইংরেজদের বিরুদ্ধে বিদ্বেষ জাগিয়ে ভুলতে সাধুদের সক্রিয় ভূমিকা ছিল। উত্তরপ্রদেশ ও ইস্টার্নকমান্ড ভারতীয় সেনাদের সংখ্যা হ্রাস সাধুরা প্রচার করেন। এই সময় রেসিডেন্ট লাইনে সাধুদের প্রবেশ রোধে সরকার ব্যবস্থা নেয়। তখন সৈন্যরা ছুটিতে অমৃতসর ও হরিদ্বার গিয়ে সাধুদের সঙ্গে দেখা করতেন। মহাফেজখানের সংরক্ষিত ফাইল থেকে জানা যায় যে , আর্যসমাজ লাহোর ও হরিদ্বার সাধুদের রাজনৈতিক তালিম দেয়। বিখ্যাত রাজনৈতিক সন্ন্যাসী স্বামী রাজেশ্বরানন্দ বিহার ও উত্তরপ্রদেশের নানা স্থানে ঘুরে ইংরেজদের বিরুদ্ধে উত্তেজনা পূরণ বক্তৃতা দিতেন। 

এক সরকারি নোট বলা হয় , উত্তর ভারতে ধর্মীয় মিশনগুলি কার্যকলাপের জন্যে ভারতীয় রেজিমেন্টগুলির জন্যে সৈন্য সংগ্রহ ব্যাহত হয়। ভুপেন্দ্রনাথ দত্তের পরিচিত এক প্রবীণ বিপ্লবী তাঁকে বলেন যে , একবার হরিদ্বারের কুম্ভ মেলায় বিজয়কৃষ্ণ গোস্বামী তাঁকে কয়েকজন সন্ন্যাসী দেখিয়ে বলেন যে এঁরা সিপাহী বিদ্রোহে অংশগ্রহণ করেছিলেন। 

যাই হোক , শ্রীশ্রী মা কে প্রণাম করে নীচে নামার সময় বালক ভবদেব দেখলেন একটি ছোট বেঞ্চিতে গা ঘেঁসাঘেসি করে বসে আছেন চারজন stalwart (মহারথী) স্বদেশী যুবকদের সাথে ভবদেব তাঁদের প্রণাম করে তাঁদের দিব্যস্পর্শ লাভ করলেন। বালক ভবদেব প্রণাম করার সময় তাঁদের পরিচয় অতোটা বুঝতে পারেন নি। পরে বাড়ি ফেরার পথে তাঁদের পরিচয় সম্পর্কে বিস্তারিত বলেন সহযাত্রী বিপ্লবীরা। এঁরা হলেন স্বামী ব্রহ্মানন্দ, স্বামী সারদানান্দ , স্বামী ত্রিগুণাতীতনান্দ এবং খুব সম্ভবতঃ স্বামী অখণ্ডানন্দ। 

" যদি শান্তি চাও , মা , কারও দোষ দেখো না।  .......শ্রীশ্রী মা সারদা।  

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[9] 

" এসব ঘটনা আমাদের চোখের সামনে ঘটেছে " 

        ১৯৬৬ সালের ১লা অক্টোবর ভবদেব বাবু শ্রদ্ধেয় নবনিদাকে একটি বই উপহার দেন। বইটির নাম What Vedanta means to me ? বইটি Rider & Company , London প্রথম প্রকাশ করে। পরে সদ্বেত আশ্রমে কলকাতা থেকে Indian Edition রূপে প্রকাশিত হয়। বইটি Aldous Huxley, Christopher Isherwood প্রভৃতি ১৫-১৬ জন জগৎ বিখ্যাত মনীষীদের লেখায় সমৃদ্ধ। ভবদেব বাবু বইটি প্রথমে নবনীদার উদ্দেশ্যে কয়েকটি কথা লিপিবদ্ধ করেছেন। ভবদেব বাবুর সেই লেখা উদ্ধার করা গেছে। তা আমরা পাঠকের কাছে নিবেদন করছি। এই সংক্ষিপ্ত লেখায় আমরা কিছুটা আভাস পাই ভবদেব বাবু নবনী দাকে কি চোখে দেখতেন , তিনি নবনীদার কাছে কি আশা করেন ইত্যাদি। একই সঙ্গে এটাও কিছুটা জানতে পারি ভবদেব বাবুর মন তখন কি কি ভাবে আন্দোলিত হচ্ছিলো। 

অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডল ' সংগঠিত হয় ১৯৬৭সালের ২৫ শে অক্টবর।  এটা লক্ষণীয় যে ভবদেব বাবুর লেখাটি তার এক বছর আগে লেখা। শ্রদ্ধেয় নবনীদার 'sterling qualities ' দেখে ভবদেব বাবু কি বুঝতে প্রেরেছিলেন যে তাঁর স্নেহের 'sriman nabani ' একটা দাগ রেখে যাবেন ?  ১৯৬৭ সালের ১৬ই ফেব্রুয়ারি রবিবার , শ্রদ্ধেয় নবনীদা আন্দুল ঝোড়হাটে তাঁর এক সহপাঠী বাড়ি আসেন। সেইদিন তাঁদের সহপাঠীদের সংঠন 'সতীর্থ মিলন ' মেলার বিশেষ বৈঠক ছিল। বৈঠক শুরু হবার আগে তাঁদের নিজেদের মধ্যে আচার্য শিরীষ চন্দ্রের বয়স্ক ছাত্রদের মধ্যে ভবদেব বাবুর কথা ওঠে। 

সেই সময় শ্রদ্ধেয় নবনীদা সহপাঠীদের বলেন - " অচিন্ত্য কুমার সেনগুপ্ত (বিখ্যাত সাহিত্যিক ও উকিল ) শ্রীরামকৃষ্ণের জীবনীর উপর একটি বই লেখেন - 'পরমপুরুষ শ্রীরামকৃষ্ণ।  ' ভবদেব বাবু মনোমত বই পেলে আগে হেডমাস্টার মশাই শিরীষ বাবুকে পড়তে দিতেন। এই এই বইটি ও তিনি তাঁকে (শিরীষ চন্দ্র ) পড়তে দেন। তিনি বইটি পড়ে বইটির শেষের পাতায় সংক্ষিপ্ত মন্তব্য লেখেন। এই মন্তব্যের মধ্যে এক জায়গায় লেখেন - " অপারে কাব্যসংসারে কবিরেক প্রজাপতিঃ " - ঐতরেয় ব্রাহ্মণ -জগতে যা কিছ দেখছো তা তাঁর কবিতা , তিনিই কবি ! ভবদেব বাবু সেই মন্তব্য অচিন্ত্য বাবুকে দেখান। অচিন্ত্য বাবু পরের বই লেখেন - 'কবি শ্রীরামকৃষ্ণ।  ' এসব ঘটনা আমাদের চোখের সামনে ঘটেছে। "  

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[10] 

তুমি আমাকে একটা ডিমের তা দেওয়া পাখির 

ছবি এনে দিতে পার ? 

     তরুণ ভবদেবের সাধুসঙ্গ করার অভ্যাসই তাঁর ভাগ্যবিধাতা হাজির করলো আর এক মহাপুরুষের চরণতলে। তিনি হলেন কথামৃত প্রণেতা শ্রীম। তখন কথামৃত প্রকাশের কাজ চলছে। 

১৮৮২-এর ২৪ শে আগস্ট দক্ষিণেশ্বরে ঠাকুর শ্রীম কে যোগীর মনের উদাহরণ দিতে গিয়ে বলেছিলেন ডিমে তা দেওয়া পাখির উদাহরনের কথা।  " যেমন পাখি ডিমে তা দিচ্ছে সব মনটা সেই ডিমের দিকে, উপরে নাম মাত্র চেয়ে রয়েছে ! আচ্ছা আমায় সেই ছবি দেখাতে পারো ? "  

মনি - যে আজ্ঞা।  আমি চেষ্টা করবো যদি কোথাও পাই। (কথামৃত ) শ্রীম - " ঠাকুরের ভাবটির উপর আমি একটি ছবি তৈরী করিয়ে ছিলাম। পাখির একাগ্রতা তন্ময় ভাব নিজের মনে আরোপ করার জন্য ওখানে মাঝে মাঝে ভক্তদের দেখাই। " বস্তুত স্বামী চেতনানন্দের সম্পাদিত 'শ্রীম সমীপে ' গ্রন্থটি তে ১৩১ পাতায় স্বামী ধর্মেশানন্দ 'শ্ৰীমর স্মৃতি তর্পনে ' বলছেন, রবি ( ভবদেব কে উদ্বোধন পত্রিকার সম্পাদক স্বামী বাসুদেবানন্দ মহারাজের দেওয়া নাম ) অর্থাৎ ভবদেব শ্রীমকে ১৯৩২ সালের ১৩ই এপ্রিল দর্শন করতে গেছেন। সেখানে ভবদেব শ্ৰীমর আদেশে একটি ডিমে তা দেওয়া ছবি তৈরী করে শ্রীমকে দেন। এই ছবিটি বর্তমানে কথামৃতের প্রচ্ছেদ চিত্র রূপে ব্যবহৃত হচ্ছে। 

এই ছবিটি ভবদেব বাবু তাঁর বন্ধু ও সহপাঠী বিশিষ্ঠ চিত্রশিল্পী শ্রী শৈল চক্রবর্তীকে দিয়ে আঁকান।  শ্রী শৈল চক্রবর্তী আঁকা ও লেখা ৭০ -এর দশকে মহামন্ডলের মুখপত্র 'বিবেক জীবন ' -এ প্রকাশিত হয়েছে।  মহামন্ডল প্রকাশিত 'মনঃসংযোগ ' পুস্তিকার প্রচ্ছেদ চিত্রেও এই ছবি ব্যবহৃত হয়।   

2 Photos 

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[11]  

কি করে ভালো সাহিত্য রচনা করবো ? 

হাওড়া যুব সংঘের সভাপতি ছিলেন বিখ্যাত কথাশিল্পী শরৎচন্দ্র চট্টোপাধ্যায়। একবার তিনি যুবক সংঘের আন্দুলের শাখায় উত্তর -মুড়ি খটির অঞ্চলে কোন একটি অনুষ্ঠান উপলক্ষে উপস্থিত হন। সেই সভায় শরৎচন্দ্রের ব্যক্তিগত সুবিধা -অসুবিধা দেখাশোনার ভার পড়ে কিশোর ভবদেবের উপর , শরৎচন্দ্র সপ্রতিভ ভবদেবের আন্তরিক ব্যবহারে মুগ্ধ হন এবং তার সঙ্গে সস্নেহ ব্যবহার করেন। 

সাহস পেয়ে ভবদেবের মনে একটি প্রশ্ন ওঠে , তিনি তাঁর আচার্যদেব শিরীষ চন্দ্র কাছে শিখে ছিলেন -যে মানুষ যে বিষয়ে গুণী তাঁকে সেই বিষয়ে প্রশ্ন করতে হয়।এটাই প্রশ্ন। এর ফলে প্রশ্নকর্তা ও উত্তরদাতা দুজনই সমৃদ্ধ হন। কিশোর ভবদেব কথাশিল্পীকে প্রশ্ন করল কেমন করে আমি ভাল সাহিত্য রচনা করব। 

উত্তরে শরৎচন্দ্র যা বললেন তা শুধু কিশোর ভবদেবের কাছে নয় , যে কোন লেখকের কাছে অত্যন্ত মূল্যবান পরামর্শ। তিনি বলেছিলেন -' মনে যখন কোন ভাব আসবে চেষ্টা করবে সেটা লিখে রাখতে। কিছুদিন পরে সেই লেখা বারকরে পড়বে।  দেখবে মনে অনেক নতুন ভাব আসছে।  সেন্তুলোকেও লিখে রাখবে।  এভাবে কয়েকবারের লেখা দেখবে তাদের মধ্যে কোন সংযোগসূত্র পাওয়া যায় কি না বা সেগুলো একসূত্রে গাঁথা যায় কিনা ? যদি গাঁথা যায় ভেবে দেখবে সেটা পরিবেশন যোগ্য কিনা ? যদি পরিবেশন যোগ্য হয় তাহলে সেটা লিখে ফেলবে। পড়ে দেখবে সেটাই একটা সুন্দর সাহিত্য সৃষ্টি হয়েছে। 

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[12]  

'You are thief Personified ' 

পঞ্চাশের দশকের শেষের দিকের কথা।  একদিন ভবদেব বাবু শ্রদ্ধেয় নবনীদার বাড়িতে গেছেন। আচার্য শিরীষ চন্দ্র সঙ্গে কথাবার্তা পর তিনি শ্রদ্ধেয় নবনীদার ঘরে গেছেন। প্রার্থমিক কথাবার্তার পর তাঁদের মধ্যে কি কথা হচ্ছিলো আসুন আমরা শুনি - 

ভবদেব বাবু -নবনী 'শুনেছিলাম তুমি চাকুরীর জন্যে একটা ইন্টারভিউ দিয়েছিলে ' তা কেমন ইন্টারভিউ হল ? 

নবনীদা - ইন্টারভিউ মোটামুটি ভালোই হয়েছে কিন্তু শেষকালে একটা মজার ব্যাপার হয়েছে। 

ভবদেব বাবু - ইন্টার্ভিউয়ে মজার ব্যাপার সে আবার কি ? ব্যাপারটা কি বল দেখি ? 

নবনীদা -ইন্টারভিউয়ের শেষে যে অফিসার ইন্টারভিউ নিচ্ছিলেন , তিনি হঠাৎ গম্ভির ভাবে বললেন " চাকুরীটা তোমার হয়তো হবে। কিন্তু তুমি চুরি-টুরি করবে নাতো ? 

আমিতো আকাশ থেকে পড়লাম।  প্রাথমিক ধাক্কা সামলে আমি জিজ্ঞাসা করলাম - " কেন , আমাকে দেখে কি চোর বলে মনে হয় ? ' তখন সেই অফিসার বললেন " দেখ বাপু দেখে কি সব বোঝা যায় ? দেখে তোমায় তো ভালোই মনে হয়। কিন্তু আমায় ভাবাচ্ছে তোমার নাম , তোমার নাম নবনীহরন , যার অর্থ দাঁড়ায় 'ননীচোর ' সুতরাং ' 'You are thief Personified ' যে ননী চুরি করতে পারে , সে অন্য কিছুও চুরি করতে পারে। বলেই তিনি অট্টহাসিতে ফেটে পড়লেন। এটা বলে নবনীদা ও ভবদেব বাবু দুজনই হাস্তে লাগলেন।  

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[13]

"नेता पैदा होते हैं, बनाये नहीं जाते ।"

(स्वामी विवेकानन्द का संक्षिप्त चित्रण )

" Leader is born , not made ."

 (An abridged portrait of Swami Vivekananda) 

We are told that a great man is the outcome of revolution, fulfills the revolution and is father of the future ages. Such a great man is suprim most worthy to the mother Earth. And here Swami Vivekananda is the one, and 'indeed he is without a parallel ' in the galaxy of the illustrious souls ever born ! A peerless ideal : a complete and comprehensive specimen of intense action, inaccessible contemplation and deep- seated devotion -firm faith and wonderful forbearance. Over and above , firstly he is a dedicated self to the search for God, and at last is the saviours of humanity both from its mundane and spiritual  chaos - ' a voice without form .'  

He was born as the second son of Biswanath Dutta (1834-84) and Bhubaneshwari Devi (1841-1911) . They lost their first male child that died in infancy ; and in course of time they got ,one after another four daughters ! Evidently the parents had to pray for a son to the Lord Shiva who confers boon according to the prayer of  his devotee .Alfred, Lord Tennyson wrote these powerful words:  

        "More things are wrought by prayer

 than this world dreams of."

       Bhuvaneshwari Devi was a very pious and noble lady. In the midst of her multifarious duties and responsibilities as a housewife of a big joint-family , she prayed silently and in-consistently with severe  austerities  , giving her whole soul over to constant collectedness in the Lord Shiva for the fulfilment of her hearts desire, -so that a son would be born .....Mother alone knows better a mothers heart , and her longing for a son ! " Watch and pray ." [ “Watch and pray so that you will not fall into temptation. The spirit is willing, but the flesh is weak.” ( Matthew 26:41) ]

       Thus after a long expectation , over a decade, the fortunate event took place !  In an auspicious moment - 'brahma muhurtam' Bubaneshwari Devi gave birth to a male child (Jan 12, 1863), while the Sun and the Moon were in the sign of the Zodiac Dhanu (Sagittarius) and Kenya (Virgo ) respectively . Her prayer was brilliantly granted by the Gracious Lord Shiva ! Unbounded joy ushered  into the Dutta-family !

        The period of the birth time of the child had an additional expressive importance , It was a holy day of the annual  festival of Makar -Sankranti. The householder in every house has commenced their scheduled prayers and rituals amidst an agreeable atmosphere of fragrant fumes and  sandal-paste  , enkindled lamp-stand , blowung conches and timely music , -tantamounting to be not only a transcendental  welcome but also a supersensible ovation to a new born child of whom very little was known to the people . 

      But Sri Sri Ramakrishna at Dakshineswar was fully aware of the August advent of the child, who was to carry on the tremendous task to preach the world of his divine discourses during the last quarter of the 19 th Century .

ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे । 

अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः ॥  

        Soon it came to pass -the blessed birth of a son in the Datta -house  was heralded in all directions across the locality of Simulia . The neighbours both male and female assembled to see the new -born child . One of them was an aged gentleman. At the very sight of the baby he cried aloud in a state of starting surprise: " Lo ! the baby seems to be a miniature replica of Durga  Prasad 2 probably he is born again in this body . " 

On a subsequent day, an elderly widow Brahmin lady appeared and took up the child endearing with her open arms . She was stunned with amazement and said emphatically : ' How lovely ! Oh ! Bhubaneshwari ! You are really the favourite  of Fortune ! The baby having such a beautiful appearance , and with the very neat and nice shape and size of his limbs , is certainly born of a consecrated soul. He would work in obedience to the will of the Almighty Mother ! ' 

         She continued further exuberantly with her strong belief that the new -born child was source of rare endowments : 'Here you are ! See ! The physiognomy (मुखाकृति)  of the child is superfine . The broad and bright rectangular forehead with glossy black stuff of curling hair seems surpassing the god of love in beauty. The large lustrous crystal clear magnificent eyeballs with deep dark blue consentrated in the center glwoing -serene and sublime . Emitting piercing sparks of fire-volcanic agencies  of courage and profound love and mercy to one and all - a moving Spirit , The heavy and wide lids thereon recall a classic composition of the lotus -petals are amazingly attractive .......

        The hallowed mother Bhuvaneshwari Devi was full of heavenly happiness. Rather she was in a maze ! Indulging endless colorful high hopes ...... Obviously discarding Durgadas , She gave a name to her child - Vireshvar . 3 (It is another name of the Lord Shiva , out of his one hundred and eight denominations.) But the child was popularly known by his nick -name , Bilu and /or Bileh.4 

      On the eve of the long-cherished expectation of a son being fulfilled Biswanath Dutta did bestow the largeness of his charity . He was a renowned Attorney -at -Law of the Calcutta High Court and earned not only enough fortune but also inter -provincial fame. He had a fine coach and pair to drive to his office. One afternoon he was out with the family in his carriage for wandering about the city. 

        Both the coachman and the saice of the carriage were dressed in glistening livery, and gorgeous turbans on their head .They were very amiable fellows of Bihar , and were entrapped  in the handsome appearance with frolicsome behavior of their dearly loving Bilu-Babu. 

          Counterwise Narendranath did also like them very much . He could have his easy access , now and then inside into the stable with their help and cooperation to enjoy the close association of the living horses .He had a  particular passion for the horses besides other per animals and birds. He was also much inclined to hear stories ; and the coachman used to entertain him with fanciful stories , specially of the winged horses , - depicting vividly their physical beauties and majestic movements in flying over the roofs of the house , and even beyond the clouds in the sky !  Narendranath would listen to the grave and fabulous gossips with awe -inspiring interests hoping for a horse of the type to ride on .

        The carriage was running towards the Chowringhee area through the Cornwallis Street (Now the Bidhan Sarni) at a great speed. Narendra, aged hardly about four .was on the lap of his mother looking around the panoramic sights of the Street merrily. But the attention was already arrested by the coachman for his commanding style and dexterity to drive the horses ....... 

Biswanath took much delight over the hilariousness of his beloved son, and burst upon all on a sudden with a caressing look ; " Well , Bileh ! What is your pleasure ! ..... What would you like to be in life ? " All at once Narendranath replied most cheerfully ; " Oh ! a Coachman , father . I would drive strong and smart Horses ."  

" THE APPLE ALREADY LIES POTENTIALLY IN THE BLOSSM ." 

Narendranath's (the would be -Swami Vivekananda's ) primery ambition in life was to become a Coachman ! And in fact he is the Coachman to drive Humanity towards Divinity by transforming himself into diverse forms and divers ways -physically with his all -embrassing prolongoted arms of loving care and services , careful coaches and rational approches ; and spiritually through his mandatory mandates and maxims of piety , probity and personality . 

All these have been ridiculously demonstrate as ' a miraculous Mystic', ' a bewildering Meistersinger', 'a Cyclonic Hindu Monk', 'an orator by Divine right', ' the greatest figure in the Pariyament of Religions'- 'vast lerning, speaking English like a webster', ' the Lion of the day', 'a Neologist of Love and Unity ', 'a Rivivalist of Sevice and Renunciation', 'the paragon of Vedantists', and finally he who has has feelingly asserted himself as 'a condensed India ', An accomplished Acharya  Srimat Swami Vivekananda .   

"ॐ नमो श्री- ज्योतिरालय  विवेकानन्द सूर्ये ! "

भवदेव बनर्जी ,

12 th Dec, '84

Andul-Mauri (Unsani), Howrah.

N.B. - In observance of the hallowed Birthday of the Swamiji it was read out on 12-1-1985 with due solemnity by Sri Gangasankar Mukherjee , President , Pathachakra Library of the locality. 

1. Cf, My father and mother fasted and prayed , for years and years , so that I would be born. -Swami Vivekananda, January,1900. 

2. He was the father of Biswanath Datta , who was his only son, The former renounced the world as a monk when the latter was aged about six months .

3. In all Bhubaneshwari Devi begot four sons and six daughters . The last two issues were sons : Mahendranath (1869-1956) and Bhupendranath (1880-1961).

4.Later on in 1871 at the time of his admission into the Metropoliton Institution , Class 9th (Present Class -VI.) Eng.Department , he was declared by and enrolled in the register of the Institution with the new name Narendranath . But the spelling of it appeared in the admission Reciept of the Institution seems to be very peculior having some allied impotant significance in the greater context of the history : Norendor .In recent times in India , it was Vivekananda alone who preached a geart message . This messeage has roused the heart of the youths in a most pervasive way .That is why this message has borns fruit in service of the nation. " - Rabindranath Tagore , 1928. 

The Message of Vivekananda is a Clarion call of awakening to the totality of Man and that is why it inspired our Youth to the divers course of liberation through service and sacrifices. " - Rabindranath Tagore , 1929.

If you want to know India , study Vivekananda . In him there is nothing negative , everything positive."  Rabindranath Tagore , 1929.

Published on the eve of the 123rd Birthday of Swami Vivekananda, and in welcoming also the momentous mandate declared by the Govt. of India , first of its kind that the Day will be observed as the Natioal Youth Day is reckoned to begin with the International YouthYear, with week-long celebrations. Not only this the Day (the 12 th Jan) wil be featured as the National Youth Week. 

Santosh Kumar Mukherjee, 

Andul-Mauri , Howrah.


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[14] 

মহামিলন 

জনমানসে অবিসংবাদী আর্ত দরদী অক্লিষ্ট কর্ম জনশিক্ষা অধিনায়ক নব নব বেদান্তের প্রবক্তা পরিব্রাজক বিবেকান্দের ব্যক্তিসত্তা অন্তঃস্থলে ছিল চিরশ্যামল অনিন্দ্যসুন্দর সারল্য - চিরভাস্বর চিত্তরঞ্জনী বৃত্তি ও সর্বোপরি চিরপ্রবাহিনী হ্লাদিনী সুরসারিত।  তিনি নদ-নদীর মহাবেগে সমুদ্রাভিমুখী প্রধাবন কে - 'বিশাল সুর তরঙ্গ প্রবাহ ' আখ্যা দেন।  কল-কল্লোলিনী অলকনন্দার কুলুধ্বনি শুনে তিনি বলে উঠলেন , 'অলকনন্দা এখন কেদারা রাগে প্রবাহিত হচ্ছে। ' সংগীত ছিল তাঁর জীবন-সাধনার প্রথম সোপান ও অবিচ্ছেদ্য অঙ্গ ; শ্রেয়ঃ ও প্রেয়ঃ উভয়বিধ অভীষ্টের একমাত্র উপবন। সঙ্গীত বিদ্যায় চরমোৎকর্ষ লাভে তিনি হয়েছিলেন পরিপূর্নতার সৌন্দর্যে সৌন্দর্যবান ও সর্বজন প্রিয় ; পেয়েছিলেন পরমতম পুরস্কারস্বরূপ 'আউটরবৃষ্ঠ ' শ্রী শ্রী রামকৃষ্ণদেবের নিবিড়তম নৈকট্য -অন্তঃরঙ্গতম সঙ্গ। পরিশেষে ঘটে সুনির্দিষ্ট পরিণীতি -' A tremendous upheaval of the whole life '- এ তাঁর নিজেরই স্বতঃস্ফূর্ত স্বীকারোক্তি। 

'নীতিসিদ্ধের থাক ' নরেন্দ্রনাথ (স্বামী বিবেকানন্দ)নৈসর্গিক নিয়মে শৈশব হতেই সঙ্গীতের প্রতি- বিলক্ষণ আকর্ষণ অনুভব করতেন। সঙ্গীত অনুশীলন করাও যেমন ছিল তাঁর পক্ষে অনায়াসসাধ্য , তেমনই তো পরিবেশনেও তিনি ছিলেন স্বতঃপ্রবৃত্ত। সঙ্গিতালাপন প্রবুদ্ধ করে রাখতো তাঁর সহজাত -সংস্কার -'অনন্তের অধিকারী ' -অতীন্দ্রিয় সত্যের অপরোক্ষানুভূতি। 'অহেতুক দয়াসিন্ধু ' শ্রীশ্রী ঠাকুর নরেন্দ্রনাথের গান শোনেন সর্বপ্রথম কলকতার তাঁর পল্লীতে -এক ঘটনাঘন সন্ধ্যা সমাগমের শুভ সন্ধিক্ষনে -'সন ১২৮৭ সালের হেমন্তের শেষভাগে '-ইং ১৮৮০ অক্টবর। 

নরেন্দ্রনাথ প্রেসিডেন্সি কলেজের ছাত্র -সাধারন -ব্রহ্ম সমাজের সদস্য। সকল বিষয়ে অনুসন্ধিৎসু -সত্যসন্ধ ; শিব সুন্দরের পূজারী বুদ্ধির প্রখরতায় সমুজ্জ্বল ; আস্তিক্যপ্রবণ -আদর্শবাদী। নিষ্কলুষ চরিত্র -সুদৃঢ় চিত্ত ; সহিষ্ণুতার মূর্ত প্রতীক। আভিজাত্য বোধের দন্ত বিদ্রজিৎ মিশুক। 'কাহাকেও care করে না। ' অসাধারন বাকপটু -তা অধিকাংশ সময়ে তিক্ত শ্লেষপূর্ন হলেও অন্তগুঁড় মনোভাবটি আসলে মহাহৃদয়তা ও সহানুহুতির রূপান্তরিত বহিঃ প্রকাশ ! বন্ধু মহলে সর্ব বিষয়ে অগ্রণী -বাগ্বিতণ্ডা , আলাপ আলোচনা আনন্দ-উচ্ছাস , আশাভরসার পরশমনি ; বেপরোয়া জেদি , সদানন্দ মধুকন্ঠ গায়ক। কিন্তু অন্তরে তাঁর জীবন এক মহাপরিবর্তনের সম্মুখীন। নিভৃত হৃদয় গুহায় নিবাত -নিষ্কম্প দীপশিখা -ঈশ্বর কোথায় ! কেমন ! তাঁকে দেখা যায় কি -না ?  

পড়াশোনা , সংগীত চর্চা, ধ্যান-ধারণা ইত্যাদির উপযুক্ত স্থান বিবেচনায় , নরেন্দ্রনাথ মাতামহীর বাড়ি (৭নুং রামতনু বসুর গলি) -র দোতালায় একখানি অল্প পরিসর গৃহে একা থাকেন। দু-বেলা আহারাদির সময় কেবল নিজ আলয়ে যান। যে গৃহে তিনি থাকতেন তার সিঁড়িটি বাড়ির সুমুখে বাইরের দিকে একচালু -নাম দিয়েছিলেন 'টঙ'; তাঁর জীবন জিজ্ঞাসার আদি যজ্ঞ ক্ষেত্র। এখানে পরমহংসদেব পদার্পন করেছিলেন কয়েক বার (১৮৮২-৮৩)

পরমহংস শ্রীরামকৃষ্ণদেব একাদিক্রমে আটমাস যাবৎ কামারপুকুর অঞ্চলে অবস্থান করেন -ইং ১৮৮০ , ৩রা মার্চ হতে ১০ই অক্টবর পর্যন্ত। ... লোকপারম্পরায় পরমহংসদেবের স্বদেশ হতে পুনরাগমনের বার্তা শুনে তাঁর অন্যতম চিহ্নিত ভক্ত সুরেন্দ্রনাথ মিত্র (১৮৫০-৯০)১ দক্ষিনেশ্বরে উপস্থিত হন আসন্ন এক অপরাহ্ণ ; ব্যাকুল অন্তঃকর্ণে -অফিসের অসমাপ্ত কাজকর্ম ফেলে -শারদীয়া বিজয়া দশমী পর। এঁর প্রাকৃত নাম -সুরেশ চন্দ্র ; ঠাকুর স্নেহভরে তাঁকে 'সুরেন্দ্র ' বা 'সুরিন্দর ' বলে সম্ভাষণ করতেন। দিব্যভাবরুধ ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ তাঁকে দেখেই স্নিগধ হাসি হেসে বললেন , 'এই যে , সুরেন্দ্র ! তোমার কথাই ভাঙছিলুম ! আমি যে তোমার ওখানে যাবো বলে এক্ষণে যেওনা হচ্ছি। '

অপ্রত্যাশিত এ হেন সম্ভাষণ ও অভূতপূর্ব সুযোগ সুরেন্দ্রনাথ আশ্চর্যান্বিত , তেমনই আনন্দে আত্মহারা হয়ে শ্রীশ্রী ঠাকুরকে জানান , 'বেশ তো ! এ তো আমার পরম সৌভাগ্যর কথা। চলুন , আপনাকে আমরা গাড়িতে করে এখুনি নিয়ে যাব। ' 

মহানন্দে মঙ্গলময় শ্রীরামকৃষ্ণদেব পাইছিলেন সুরেন্দ্রনাথের মনলালয়ে -সিমলা স্ট্রিট। ২ দেব বশে তাঁর এই শুভাগম উপলক্ষে সেদিন সুরেন্দ্রনাথের গৃহে বিশেষ ভক্তসমাগম বা কোন উৎসবের আয়োজন সম্ভবপর হয় নি। প্রতিবেশী বন্ধু ও ঠাকুরের ভক্ত -গোষ্ঠীর বিশিষ্ট মুখপাত্র ডাঃ রামচন্দ্র দত্ত প্রমুখ দু-একজন মাত্র শ্রীশ্রী ঠাকুরের আদর -আপ্যায়নে সহযোগিতা করেন। ঠাকুর গান ভালোবাসেন , কিন্তু তার কোন ব্যবস্থার সম্ভাবনা সুদূর পরাহত। 

সহসা সুরেন্দ্রনাথ মনে পড়লো : নরেন তো বেশ গায় ! গলাটি তার ভারী মিষ্টি। তিলার্ধ বিলম্ব না করে তিনি দ্রুত চলে গেলেন তাঁর অন্বেষনে। সুরেন্দ্রনাথৰ ডাক শোনামাত্র নরেন্দ্রনাথ নেমে এলেন 'টঙ' হতে। তাঁর প্রস্তাবও তিনি সানন্দে সম্মতি জ্ঞাপন করলেন কোনরূপ অজুহাতের অবতারণা না করে। সঙ্গীত আলাপনে তিনি সততই উৎসুক। তার উপর বিশেষ আগ্রহ সহকারে তাঁকে আহবান করেছেন তাঁর প্রতিবেশী সম্ভ্রান্ত মিত্র মহাশয় -তাঁর গুরুদেব কে গান শোনাতে।  সদাহারনতাঃ প্রতিবেশী বয়োজ্যেষ্ঠ বনেদি কুলতিলকগন নরেন্দনাথকে খুব ভালো চোখে দেখতেন না - তাঁর আপাতবিরুদ্ধ 'বোহেমিয়ান ' -সুলভ হাবভাব দরুন। নরেন্দ্রনাথের সঙ্গীত সম্বন্ধেও তাঁরা ছিলেন অনুৎসাহী। তখন তিনি গাইতেন বেশির ভাগই হিন্দি-উর্দু -ফার্সি ভাষায় রচিত গান -সহজ-সরল ভবোজ্জ্বল (ভক্তিমূলক ) গজল -টপ্পা ঠুমরি , অল্পসল্প ক্লাসিকাল (হিন্দি ধ্রুপদ খেয়াল)এবং 'দু-চার খানি ' ব্রাহ্মসমাজের বাংলা গান। যাই হোক -তিনি সুরেন্দ্র-নাথের সঙ্গেই এলেন তাঁর আলয়ে। 

' শুদ্ধসত্ব '  নরেন্দ্রনাথকে নয়নগোচর হওয়া মাত্রই সুদক্ষ আবিষ্কারকের ন্যায় শ্রীরামকৃষ্ণদেব অধীর হয় ওঠেন বিস্ময়ে ; মহা আনন্দে -ভাবে -প্রেমে। ব্যস্ত হন তাঁর পরিচয় লওয়ার জন্যে।  'Who ever loved that loved not a first sight ?' -একদৃষ্টে তিনি অবলোকন করতে থাকেন তাঁরা সৌম্য-শান্ত-কোমল কান্তি, নির্মল শরচন্দ্রসম মুখশ্রী ! .... আলাউকিক , গুরু -অলৌকিক শিষ্য -অলৌকিক যোগাযোগ। 'ধ্যানসিদ্ধ ' মুক্ত-স্বভাব নরেন্দ্রনাথ আসরে বসে কালক্ষেপ না করে গান গাইতে আরাম্ভ করলেন তানপুরা সহযোগে -সমস্ত প্রাণ-মন টেলে ; তেজোদ্দীপ্ত করুণাদ্র কণ্ঠে -সুরের সস্মহনা -মূর্ছনায় ! সেই উদাস ভাবব্যাঞ্জক পরিপ্রশ্নের আকুতিতে ভরা গান শুনে ভাবগ্রাহী ভগবান শ্রীকরামকৃষ্ণদেব আবিষ্ট হয় পড়েন।  

নরেন্দ্রনাথ প্রথম গান গাইলেন অযোধ্যানাথ পাকড়াশীর রচিত -'মন চল নিজ নিকেতনে '- সুরট -মল্লার সুরে একতালে ; দ্বিতীয় গান গাইলেন , রাগিনী 'মুলতান -আডাঠেকা', রচনা বেচারাম চট্টোপাধ্যায় -'যাবে কি দিন আমার বিফলে চলিয়ে ? '  

গান শেষ হলে অনান্যসাধারন সংগীত -পিয়াসী পরমহংসদেব মহাপুলকভরে ও প্রশংসমান আবেগে বললেন , 'বাঃ ! বাঃ ! খাসা ছেলে ! হ্যাঁ -এমনটিই তো চাই। ... তা একদিন ওখানে , দক্ষিনেশ্বরে যেওনা।  যাবে তো ? যেও কিন্তু !' 

নরেন্দ্রনাথ নিতান্ত সাধারণ সৌজন্য বোধেই ঈষৎ গ্রীবা সঞ্চালনে সস্মতি জানিয়ে বিদায় নিলেন -দুর্জ্ঞেয় এক ভাবাবেশ ! শ্রীরামকৃষ্ণ -লোকের আলাউকিক আধ্যাত্মিক আবেদন অজ্ঞ ও উদাসীন নরেন্দ্রনাথ বাড়ি ফেরেন শুভ্র -শরৎ -শশীর আলোছায়ার আবর্তে ! সুবিশাল মহা গৌরবোজ্জ্বল ভবিতব্য রয়ে গেল অদূর ভবিষ্যতের হিরন্ময় গর্তে !  

দেখতে দেখতে বহু ঘটনা পরম্পরার মধ্যে দশ -এগার মাস অতিবাহিত হয় গেল।  ১৮৮১ সাল শেষ হতে চলল। এফ.এ পরীক্ষায় নরেন্দ্রনাথ দ্বিতীয় বিভাগে পাশ করলেন। আত্মীয় স্বজন সকলেই আনন্দে উৎফুল্ল -উৎসবমুখর ; শীঘ্রই তাঁর বিবাহও সুসম্পন্ন হবে। নরেন্দ্রনাথ এ প্রস্তাব শুনে পরিষ্কার ভাবে অসাম্মতি জানান। আপাদৃষ্টিতে তাঁকে পড়াশুনায় মগ্ন , ব্রাহ্মসমাজে ও সভা-সমিতিতে যোগদান অনুরক্ত , বন্ধু -বান্ধবদের সঙ্গে ক্রীড়াকৌটিকে ও সংগীত চর্চায় মশগুল মনে হলেও -তাঁর অন্তঃকরণের অভ্যন্তরে ছিল নিরন্তর এক নিদারুন অস্বস্তি -দুশ্চর আকাক্ঙ্খা ঈশ্বর প্রত্যক্ষীভূত হয় কি না ? ঈশ্বরিক সত্তার নিঃসন্দিগ্দ্ধ স্বীকৃতিই তাঁর একমাত্র কাম্য। আবাল্য এই সংশয় ও নোৱাশ্যের নিস্পত্তিকরনে ব্যর্থতার পর ব্যর্থতার নরেন্দ্রনাথ অধিকতর অস্থির -চিত্ত ! বসুন্ধরা বক্ষে উপ্ত বীজ কালচক্রের গন্ডিতে আবদ্ধ -অব্যক্ত বেদনায় নির্জিত ! জাগতিক ঈষণীয় সকল বিষয়ে তিনি নিঃস্পৃহ ও নির্লিপ্ত ; জীবনের উদ্দেশ্য সাধনে -আদর্শগত সিদ্ধান্তে অটল ও অনমনীয় -'শরীরং বা পাতয়ামি , মন্ত্র্যং  বা সাধযামি। '

এতাদৃশ পরিস্থিতির মাঝে নরেন্দ্রনাথের পিতার নির্দেশানুক্ৰমে পূর্বোল্লিকঘিত ডাক্তার রামচন্দ্র দত্ত (১৮৫১ -৯৯) নরেন্দ্রনাথ কে খোলাঝুঁকিভাবে জিজ্ঞাসাবাদ করেন তাঁর পারিবারিক মনোভাবের বিষয়। রামচন্দ্র ছিলেন নরেন্দ্রনাথের মাতা ঠাকুরানীর দূরসম্পর্কীয় মাতুল; নারকেল ভাঙ্গা নিবাসী নৃসিংহ প্রাসাদ দত্তের পুত্র। শৈশবে মাতৃহীন ও আবস্থা বিপর্যয়ে রামচন্দ্র ক্যাম্পবেল মেডিক্যাল স্কুলে অধ্যান কালব্ধি (আনুমানিক ১৮৭১-৭২পর্যন্ত ) নরেন্দ্রনাথের পিত্রালয় অবস্থান করেন। অশেষ গুণান্বিত প্রিয়দর্শন নরেন্দ্রনাথ তাঁর খুবই প্রিয় অনুগত।   

নরেন্দ্রনাথের অন্তরের ঐকান্তিক বাসনা এবং তা পূরণে কঠোর জীবনযাত্রার আচরণবিধি ও অকাট্য যুক্তিপূর্ন সিদ্ধান্ত সমূহ শুনে ও মর্মার্থ হৃদয়ঙ্গম করে রামচন্দ্র দৃঢ় প্রত্যেযে বললেন , ' ভাই , আমি তোমার সঙ্গে একমত। আর আমি তো তোমাকে তোমার ভূমিষ্টকাল হতে সবিশেষ লক্ষ্য করে আসছি। তবে , প্রাকৃত সত্যলাভ করতে হলে ব্রাহ্মসমাজে -এখানে -ওখানে ছুটাছুটি না করে দক্ষিনেশ্বরে ঠাকুর রামকৃষ্ণের নিকট চল।

 রামদার মুখে শ্রীরামকৃষ্ণদেবের কথা শোনামাত্রই নরেন্দ্রনাথ সবিস্ময়ে চমকে উঠলেন ! যুগপৎ সমস্ত ঘটনা -সুরেন্দ্রনাথ মিত্রের বাড়িতে তাঁকে দর্শন ; ব্রাহ্মসমাজে ও পত্র-পত্রিকায় ৩ তাঁর অকল্পনীয় ভক্তি বিশ্বাসের আলোচনা ; কলেজে অধ্যাপক হেস্টিংস সাহেবের নিকট তাঁর সমাধির কথা এক মুহূর্তে গভীর মনোনিবেশ সহকারে পর্যালোচনা করে এবং পারিপার্শ্বিক পরিবেশের পরিবর্ধমান পীড়নের বাধ্যবোধকতায় তিনি সমস্ত হলেন দক্ষিনেশ্বরে যেতে। তমিস্র ঝঞ্ঝাক্ষুব্ধ তাঁর অন্তর উৎসাহিত হল দিগন্ত প্রসারী প্রশান্ত অরুণোদয়ের যানবদ্যি আভায় !

সময় -সুযোগমত সত্বর শ্রীরামকৃষ্ণ সকাশে যাবার দিন স্থির হল : '১৮৮১ , ডিসেম্বরের শেষাশেষি ' -সন ১২৮৮, 'পৌষমাস ' -এর প্রথমার্ধ। নরেন্দ্রনাথের সঙ্গে ছিলেন রামচন্দ্র দত্ত , সুরেন্দ্রনাথ মিত্র ও তাঁর দু-জন বন্ধু।ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ শশ ব্যস্তে হর্যাটফুল নয়নে নয়নাভিরাম 'নব -ঋষি ' নরেন্দ্রনাথ কে আদর অভ্যথনায় আকুল। এই দ্বিতীয় সাক্ষাৎকার বা মহামিলন দুজনকেই করে ভূতল উন্মুখ -এক অনির্বচনীয় আকর্ষনে -অনাবিল আনন্দে ! পরস্পর একে অন্যের ভিতর করলেন এক সুবহিত মকরনদের অঘ্রান ! নরেন্দ্রনাথ অন অনাহুত পূর্ব প্রীতির পরিশীলনে - অনাস্বাদিত দ্ব্যানুভূতি আবেশে অভিভূত ! তাঁর হৃদয় আশার আলোকে আলোকিত -পুলকিত , কিন্তু দ্বিধামুক্ত নয়। ... যাত্রটি নরেন্দ্রনাথের সঙ্গে ঠাকুরের অভিনব বিস্ময় -বিমিশ্র সুদীর্ঘ সন্তোষনের দু -একটি যুক্তিবিশেষ সবিশেষ স্মর্তব্য : তিনি পূর্ব পরিচিটের ন্যায় নরেন্দ্রনাথের হাত ধরে আনন্দাশ্রু বিসর্জন করতে করতে স্নেহগলিত কণ্ঠে তাঁকে বলেছিলেন -'এতদিন পরে আস্তে হয় ? আমি তোমার জন্যে কিরূপ প্রতীক্ষা করে রয়েছি তা একবার ভাবতে নেই। ... আমার কথা কি এমনিভাবে ভুলে থাকতে হয় ! ' -ইত্যাদি কত অনুযোগ -আকুলতা - অনাসৃষ্টি আচরণ ও অভিনব আত্মীয়তা।  নরেন্দ্রনাথ বিস্ময়াবিষ্ট -হতবাক ! ......  

শ্রীশ্রীঠাকুর অত্যন্ত প্রীতি ও সাশ্রুনয়নে গাঢ়তর কণ্ঠে নরেন্দ্রনাথকে অনুরোধ জানালেন , ' বল শিগগির একদিন এখানে আসবি ? কিন্তু আসবি একা -সঙ্গে কাউকে আনিস না।  বুঝলি ? '    

এড়ানোর কোন উপায় না দেখে অগত্যা নরেন্দ্রনাথ 'এসব ' -বলে অঙ্গীকার বোধ হলেন এবং এবার কেন্দ্র ভারতবর্ষ 'এর বীজও হল অঙ্কুরিত !

NB. 

1 . (ক) ইনি ডাঃ রামচন্দ্র দত্ত ও মনমোহন মিত্রের পরামর্শে ও পীড়াপীড়ি তে ১৮৮০ সালের প্রথম ভাগে দক্ষিনেশ্বর পরমহংসদেবের সানিধ্যলাভ করেন। (খ) রামচন্দ্র ও মনমোহন ব্রহ্মানন্দ কেশবচন্দ্র মনের 'পরমহংসের উক্তি সহ তাঁর ' The Indian Mirror ' ও 'ধর্ম্যতত্ত্ব ' পাঠে উৎসকতা প্রবেশ হয় শ্রীরামকৃষ্ণদেবের সামিপে উপস্থিত হন শ্যামাপূজার দিন ইং ১৮৭৯ , বৃহস্পতিবার অপরাহ্ন। (গ) রামচন্দ্র দত্ত এর সঙ্গে পরমহানদেবের প্রথম মিলন হয় ১৫ ই মার্চ ১৮৭৫। 

২. উক্ত ভবন টি 'বিবেকানন্দ রোড ' নির্মাণে নিশ্চিন্হ ; উহার অবস্থিতি ছিল 'দত্তবাড়ি ' দক্ষিণ-পশ্চিম করে। 

৩. 'The Indian Mirror ', ' The Theistic Quaterly Review ' ধর্মতত্ত্ব' 'সুলভ সমাচার' ইত্যাদি।   

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[15] 

“अधीतिबोधाचरण  प्रचारणैः ” 

(अध्ययन- बोध एवं व्यवहार द्वारा प्रचार)

[অধীতি বোধাচরণ প্রচারনে] 

(অধ্যন বোধ ও আচরণের দ্বারা প্রচার )

স্বনামধন্য় শিক্ষণব্রতী শিরীষ চন্দ্র মুখোপাধ্যায় (১৮৯১-১৯৬৬) এবং তত্ত্বদর্শী 'উদ্বোধন ' সম্পাদক শ্রীমৎ স্বামী বাসুদেবানন্দ (১৮৯১-১৯৫৬) মহারাজ -দুজনই ছিলেন ভবদেব বাবুর হৃদয়ে বিশেষ শ্রদ্ধার আসনে অধিষ্ঠিত , পূজনীয় ব্যক্তিত্ব। 

তাঁরা দুজনই ভবদেব বাবুকে বিশেষ স্নেহ করতেন , আচার্য শিরীষ চন্দ্র ভবদেব বাবুকে 'দেব ' বলে ডাকতেন। ভবদেব বাবুকে লেখা শিরিশচন্দ্রের চিঠি পত্রে এর প্রমান পাওয়া যায়। অপর দিকে স্বামী বাসুদেবানন্দ মহারাজ ভবদেব বাবুকে 'রবি ' বলে ডাকতেন। উদ্বোধনের একটি সংখ্যায় স্বামী বাসুদেবানন্দ একটি ইতিহাস নির্ভর কল্প কাহিনী প্রকাশ করেছিলেন। সেই কাহিনীতে একটি চরিত্র ছিল যার নাম 'রবি।' স্বামী বাসুদেবানন্দ এর বেশ কয়েকটি পুস্তক শ্রীরামকৃষ্ণ বাসুদেবানন্দ সংঘের উদ্যোগে প্রকাশিত হয়। কয়েকটি উল্লেখযোগ্য পুস্তক হল - দিব্য বাণীর প্রতিধ্বনি ', অন্তর রাগে আলাপন ', শ্রীরামকৃষ্ণ স্মৃতি সাধুকরী। ', এই সকল প্রকাশনের সঙ্গে ভবদেব বাবু বিশেষভাবে যুক্ত ছিলেন।

'বিবেকানন্দ পাঠচক্র ' ছাড়া আন্দুল -মুড়ি তে 'বোধানন্দ স্মৃতি সংঘ ' নামে একটি সংগঠন ছিল। এই সংগঠনের সম্পাদক ছিলেন ভবদেব বন্দোপাধ্যায় এবং সভাপতি ছিলেন পূজনীয় শ্রীমৎ স্বামী বাসুদেবানন্দ। ভবদেব বাবুর বিশেষ আগ্রহে স্বামী বাসুদেবানন্দ মহারাজ বহুবার আন্দুল -মুড়ি তে পদার্পন করেন। মহিয়াড়ি সাধারণ পুস্তকালয়ের ' Visitors Book ' থেকে সংগ্রহ করে ভবদেব বাবু আমাদের জন্যে রেখে গেছেন তত্ত্ব ও তথ্য যা খুবই মূল্যবান। ভবদেব বাবু নিজের হাতের লেখা সেই সংগ্রহটির Photo Copy আমরা শ্রদ্ধাশীল পাঠকের কাছে নিবেদন করলাম , যার ঐতিহাসিক মূল্য অপরিসীম। ভবদেব বাবু স্বামী বিবেকানন্দের সন্ন্যাসী শিষ্য স্বামী বোধানন্দ ও স্বামী বিমলানন্দ বিশেষ স্নেহ ধন্য ছিলেন। 

আন্দুল মৌড়িতে স্বামীজীর প্রত্যক্ষ শিষ্য স্বামী বোধানন্দের স্মরণে বোধানন্দ স্মৃতি সংঘ প্রতিষ্ঠিত হচ্ছিলো। সেই সংঘের Letter Pad এর একটি পাতা আমরা পেয়েছি। আন্দুলের সঙ্গে স্বামী বোধানন্দের কয়েকটি যোগসূত্র আমরা জানতে পেরেছি। পাঠকের কাছে আমরা তা সবিনয়ে নিবেদন করছি - যা আন্দুলের সাথে তাঁর যোগসূত্রের প্রমান দে।

উদ্বোধন থেকে প্রকাশিত 'স্বামীজীর পদপ্রান্তে ' শীর্ষক পুস্তক থেকে আমরা জানতে পারি যে স্বামীজীর দুই সন্ন্যাসী শিষ্য স্বামী বোধানন্দ ও স্বামী বিমলানন্দ ছিলেন পূর্বাশ্রমে জাঠতুতো -খুড়তুতো ভাই। তাঁদের উভয়ের জন্মস্থান হাওড়া জেলার জগৎ বলভ পুর থানার বাগঙ্গা গ্রামে। দুই ভাইয়ের মধ্যে খুবই সদ্ভাব ছিল এবং তাঁদের চরিত্র মাধুর্যের জন্যে তাঁরা সকলেরই বিশেষ আদরণীয় হয় ওঠেছিলেন। স্বামী বোধানন্দের পিতার নাম শিব নারায়ন চট্টোপাধ্যায় ও স্বামী বিমলানন্দের পিতার নাম বেণীমাধব চট্টোপাধ্যায়। শিবনারায়নের কনিষ্ঠ ভ্রাতা বেণীমাধব। বেণীমাধব চট্টোপাধ্যায় মহাশয় পরে আন্দুলে বাস করতেন এবং কলিকাতার পটলভাঙ্গায় ক্যাথিড্রাল মিশন লেনেও নিজের বাড়িতে মাঝে মাঝে থাকতেন। স্বামী বোধানন্দ ও বিমলানন্দ ছিলেন যেন হরিহর আত্মা। সুতরাং একথা বলা যায় ভাই বিমলানন্দের সঙ্গে বোধানন্দ ও আছরাবস্থায় আন্দুলের আকর্ষনে ধরা পড়েন।   

অপর দিকে ভবদেব বন্দোপাধ্যায় লিখিত 'বেলুড় মঠ  আন্দুলের কালীকীর্তন ' শীর্ষক প্রবন্ধ থেকে আমরা জানতে পারি - " তিনি (স্বামীজী )....... শ্রমিক সমিতির সভ্যগনের সমাদর গীত প্রেমিকের গীতাবলী প্রথম শোনেন তাঁহার তরুণ সন্ন্যাসী -শিষ্য স্বামী বিমলানন্দ (খগেন মহারাজ পূর্বাশ্রমের সম্বন্ধে প্রেমিক বংশীয় দৌহিত্র ) এর প্রচেষ্টায় ১৮৯৮ সালের ২৮ শে ফেব্রুয়ারি বেলুড় দাঁয়েদের ঠাকুর বাড়িতে। দিনটি ছিল -শ্রীরামকৃষ্ণ জন্ম মহোৎসবের দিন।  ' এই লেখা থেকে অনেক কিছু জানার সঙ্গে আমরা ওটাও জানতে পারি যে স্বামী বিমলানন্দ ও আন্দুলের শ্রীশ্রী প্রেমিক মহারাজ -এর মধ্যে একটি পারিবারিক সম্পর্ক ছিল। মনে হয় এই সমস্ত কারনে আন্দুলের সাথে তাঁর গভীর যোগাযোগ গড়ে ওঠেছিল , এবং এই কারণেই ভবদেব বাবু ও প্রমুখ বোধানন্দ অনুরাগীবৃন্দ আন্দুল-মৌড়িতে বোধানন্দ স্মৃতি সংঘ স্থাপন করতে উদ্যোগী হয়েছিলেন। 

আন্দুল-মৌড়ির গর্ব বর্তমান শতাব্দী প্রাচীন মহিয়াড়ি পাবলিক লাইব্রেরির সঙ্গে ভবদেব বাবুর অনেক দিনের সম্পর্ক। এই লাইব্রেরি যাতে সরকারি অনুদান পায় তার জন্যে এর পরিচালন নিয়মাবলী লেখার প্রয়োজন হয়। এই গুরুদাযিত্ব হয় ভবদেব বাবুর উপর। বলাবাহুল্য , ভবদেব বাবুর একান্তিক নিষ্ঠা সহকারে এই দায়িত্ব পালন করেন। ১৯৬৯ সালে মহামন্ডল প্রতিষ্ঠিত হবার পর এর গঠনতন্ত্র ও নিয়মাবলী লেখার প্রয়োজন হয়। ভবদেব বাবু শ্রদ্ধেয় নবনী হরণ মুখোপাধ্যায় মহাশয়কে তাঁর কাজের সুবিধার জন্যে মুড়ি  লাইব্রেরির Constitution এর একটি copy প্রদান করেছিলেন। ভবদেব বাবু বেশ  কয়েক বছর মুড়ি লাইব্রেরির সম্পাদক ও পরে সভাপতির দায়িত্বভার বহন করেন। 

বোধানন্দ স্মৃতি সংঘের একটি motto ছিল ' অধীতি বোধাচরণ প্রচারন ' অধীত বিদ্যা পূর্নতা পায় বোধের মধ্যে। এই বোধ প্রসঙ্গে শ্রদ্ধেয় নবনীদা অপূর্ব ব্যাখ্যা করেছেন - ' এই বোধের ক্রমোন্নতি -এটাই হল ধর্মের আসল কথা। "   

স্বামী চেতনানন্দ সংকলিত 'কল্পতরু শ্রীরামকৃষ্ণ ' পুস্তকে স্বামী বুদ্ধানন্দএর একটি প্রবন্ধ আছে। সেই প্রবন্ধ থেকে শ্রীশ্রী মা সম্বন্ধে তাঁর কথা দিয়ে আমাদের লেখা শেষ হবে। স্বামী বুদ্ধানন্দ লিখছেন - " এমন লোক কে আছে চরাচরে একজন , যে আমাদের মা কে দেখেছে অথচ যার দৃষ্টি পরিচ্ছিন্ন হয়নি ? জেগে ওঠেনি ভিতরে একটি ঘুমন্ত শুভ শক্তি ? ক্রিয়াশীল হয়নি অন্তরে একটি শিব -সঙ্কল্প ? " 

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श्रीश्रीरामकृष्णो अधीति ।  

'अधीति बोध आचरण प्रचारणैर। '   

Bodhananda Smriti -Sangha 

ANDUL -MAURI , HOWRAH , WEST BENGAL 

SWAMI BODHANANDA 

"ठाकुरदेव की इच्छा, श्रीश्रीमाँ के आशीर्वाद और स्वामीजी की प्रेरणा से महामण्डल की स्थापना हुई है। " --नवनीहरन मुखोपाध्याय।     

" ঠাকুরের ইচ্ছা , শ্রীশ্রীমায়ের আশীর্বাদ ও স্বামীজীর প্রেরণায় 

মহামন্ডলের  সৃষ্টি হয়েছে। "--নবনীহরন মুখোপাধ্যায়   

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[" ঠাকুরের ইচ্ছা , শ্রীশ্রীমায়ের আশীর্বাদ ও স্বামীজীর প্রেরণায় ১৯৮৫ সালে ১৪ জানুয়ারি 'বিবেকানন্দ জ্ঞান মন্দিরের' সৃষ্টি হয়েছিল ???? ]   

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"Bhuban -Bhawan "

KHARDAH

3rd Feb, 1956


ALL ABOUT SWAMI VIVEKANANDA 

Acharya Cirish Chandra Kamdevi 

Founder-President, Vivekananda Pathachkra.  

Andul-Mauri, Howrah. 

"My first thought was God ; my second , reason ; my third and last, man.

- Feuerbach. [Ludwig Feuerbach (1804-1872)]

Put all these three thoughts together, and you will equate the Life of Swami Vivekananda . A disciple of Sri Ramakrishna Deva, the apostle of neo -Vedantic Hinduism of Chicago fame, the avant-courier of Ramakrishna Mission , the stalwart champion of the 'submerged tenth', the silent Yogin wrapped up in meditation in the wilds of Himalaya , the itinerant (भ्रमणकारी) orator adown the plains of India , -such was Swami Vivekananda , whose 94th Birth Day falls on this day and is being commemorated all over the world---  

शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥२।५॥

वेदाहमेतं पुरुषं महान्त-

मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।

तमेव विदित्वातिमृत्युमेति

नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ ॥३।८॥'

हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! हे दिव्यधामवासी देवगण !! तुम भी सुनो ! मैंने उस अनादि, पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया हैं, तो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया से परे है । केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो । दूसरा कोई पथ नहीं ।' -- श्वेताश्वतरोपनिषद् ॥ २।५, ३।८ ॥

   A Triton among the minnows that he was , Swamiji worked through his short but dedicated life to broaden the narrow, to deepen the shallow , to humble the high -browed , to shepherd the down-driven residua of Hindu Society. Against the aggressive materialists and worldings of the West making mouthes at India , Swamiji raised his strident voice by recalling the soul- enthralling cry of revolution - 'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत' । ('Arise, Awake ! And stop not till the goal is reached.')  

      The mantle of inspiration left by Sri Shankaracharya fell upon Swami Vivekananda .The surging tides of sacred ganga, gurgling ' Hara ! Hara ! descended, as it were , on the head of Shiva-like Swamiji , To purify , to sanctify , and to take us on to the sea of sublimation and final bliss! ....          Why go ye to Mazzini and Garibaldi ? Read Swamiji's Works: all a marvel in Book-land , a mine of information , the fountain-head of inspirations for you to dedicate your lives to the service of the Mother-land . Let the 'divine average' be the corner-stone in the edifice of resurgent India . such was the ideology of Swami Vivekananda , the Patriot -Prophet of the rising East.... 'Make no more giants , god ! but elevate the race ' -was his constant prayer.  

          May Sri Ramakrishna and Swami Vivekananda , the binary stars in the firmament of Bengal ever rain benediction on her sons and daughters that are , and to be ! ... They are the replica of Jesus and Jhon, born in India; thus , the  Cultured Christians hailed them again and again . ..... The day will melt into night and the night will mellow into dawn; but , ah ! How long shall we have to wait for the advent of Swami Vivekananda to re-visit this woe- begone land, maimed in body , crippled in soul!....  

       The one lesson that Swamiji learnt sitting at the feet of his Master and Messiah Sri Ramakrishna, was to have re-discovered God in the persons of the Poor , to feed them, to educate them, to emberace them , as Rama did Guhaka of old. This was the raison d'etre of 'Ramakrishna Mission ', in which 'live his wonted fiters .' Here and here did he help India how can we help India ? Say , whose turns as I, this evening turns to God to prays and pray  !

*                              *                           *            

I still remember the bright afternoon at Dakshineswar. Thakoor Bati and the hallowed Banyan Tree, under whose umbrageous canopy stood Swami Vivekananda , in ochre-coloured roboes, faery -dowered with all the gifts and grace of mind and body , smiling and delivering a speech on his return from America , - a speech , mighty-mouthed , eloquent , appealing to all present. What verve ! What a stir ! I remarked to Babu Girish Chandra Ghose , who was standing by - 

" A voice oracular has pealed to-day ,

Today , a hero's banner is unfurled ! 

[Written in Emerson's Essays'-by Matthew Arnold] 

एक आवाज अलौकिक आज छिटक गई है,

आज वीरों की पताका फहराई जाती है;

That 'voice oracular ' is hushed to-day ! But the banner , the sacred oriflamme unfurled by our hero shall wave over this land of Rama and krishna for ever and for aye ! 

*                        *                         *                       *                   *

Lo ! the Janus -headed Monk of Belur Math at genuflexional prayer before his Kali-blessed Gurudeva of Dakshineswar . 

*                         *                          *                       *                  *

প্রেমিক পথিক সংবাদ 

(রটন্তী - নিশা -ভ্রমন )

আচার্য শিরীষ চন্দ্র কামদেবি 

(১)

আপনিই কি সেই 'প্রেমিক ' -কালীকীর্তন প্রণেতা ?  

বহু বৎসর আগেকার কথা বলিতেছি। শেষ মাঘ। মাঝের রাত যেমন সাঁই সাঁ ই করছে , তেমনি ঘুট-ঘুট।শীত কম কম , গায়ে পাত্লা ঠেকিতেছে।  বাতাস যেন ফুর ফুরে- 'দক্ষিণ 'দিয়াছে। আন্দুলের পথে বিপথে, সরস্বতী ঘাটে জলে একাকার - রটন্তী চতুর্দশী ঘোর অন্ধকার। সেই গ্রাম্য নিরন্ধ্র অন্ধকারে। পথ দিয়া পথিক চলিতে ছিল। সামান্য জোনাকিরচেকনাইও তাহার সাহাযা করিতেছিল না। 'मेघेर छुरी स्वरम्' ---নিস্তার আকাশে মহামেঘের ঘোর ঘটা ! পথ জন মানব শূন্য -নির্মক্ষিক ! পথিক সেই বিশিষ্ট পুন্য-রজনীর জীবনী-শক্তির দ্বারা অনুপ্রাণিত হইয়াই যেন লঘুপদ বিক্ষেপ করিতে লাগিল। 

দূরে কোন ঘরের ছিদ্র-পথে আলোর টানা রেখা দেখিয়া রটন্তী -পূজান্তের যেন সুঘ্রাণ পাইয়া সেই দিকে আগুয়ান হইল; সেই দিকে আগুয়ান হইল। লক্ষিত স্থানে উপস্থিত হইতে আর বিলম্ব হইলো না। পথিক দেখিল -দেবীপূজা সদ্যঃ সমাপ্ত হইয়াছে। দেবীপীঠের 'যোগ-প্রদীপ ' জলিতেছে। পূজক পূজান্তে সুখাসনে সমাসীন। তিনি 'নিবাত তপদ্মস্তি মিতেন চক্ষুষা ' - পথিক কে দেখিয়া কিছু দেবী প্রসাদ দিলেন।  তখন প্রসাদ-প্রসন্ন পথিক কহিল - এইমাত্র মা সিদ্ধেশ্বরীর মন্দিরে রটন্তী পূজা সুসম্পন্ন দেখিয়া ঘুরিতেছিলাম -গ্রাম প্রদক্ষিণ করিতেছিলাম - ' কো জাগতি ' - খুঁজিতেছিলাম। আপনাকে পাইয়া ভরসা হইল -আশা হইল এদেশ এখনও সাধকশূন্য হয় নাই। প্রায় সমস্ত রাত্রি জাগিয়া 'যাগ -প্রদীপ '-এর সম্মুখে প্রেমিক পথিক বাক্যবাক্য চলিতে লাগিল। যদি পারি - হে প্রেমিক ! সে গুন তোমারি ! যদি হারি -হে পথিক ! সে দোষ তোমারি ! আমি মাত্র আদার ব্যাপারী - किमार्द्रक-वणिजो वहित्र-चिन्तया" ! किसी अदरक के व्यापारी को जहाज के बारे में चिन्ता करने की क्या जरूरत है ? 

[अयं देशः अद्यापि सन्तहीनः न अभवत्] আপনাকে পাইয়া ভরসা হইল -আশা হইল এদেশ এখনও সাধকশূন্য হয় নাই। এই পূজাস্থলের যন্ত্রোপচার আদি লক্ষ্য করিলে বুঝা যায় বিররাত্রিনিমিত্তানুষ্ঠানও সিদ্ধবিদ্যাদি ভাবে সুসম্পন্ন। আপনিই কি সেই 'প্রেমিক ' -কালীকীর্তন প্রণেতা ? প্রেমিক মহারাজ 'নিশিখদিপাঃ সহসা হত ত্বিয়ঃ ' হাসি হাসিলেন।তখন প্রেমিকে পথিকে গভীর পরিচয় হইয়া গেল -যেন 'ভাব স্থিরানি জননান্তর সৈয়দানী ' ; প্রায় সমস্ত রাত্রি জাগিয়া 'যাগ -প্রদীপ '-এর সম্মুখে প্রেমিক পথিক বাক্যবাক্য চলিতে লাগিল। সে প্রেমিক-পথিক সংবাদ  মনের মত কোরিয়া পরে যাহা জানিতে পারিয়াছি তাহা আপনাদের বলিব মনে করিয়াছি। পারি কি হারি -একবার দেখি।  

       প্রথমেই ' দক্ষিণ নবদ্বীপ ' আখ্যা আন্দুলের ভৈরবী চরণ বিদ্যাসাগরের কথা আরম্ভ হইল। প্রেমিক বলিলেন - বিদ্যাসাগর সর্ব অপরাবিদ্যার পরায়ন করিয়া পরে সমযাচার পর্যন্ত বিসর্জন দিয়া তন্ত্রমতে মহাবিদ্যার সাধনে তাঁহার শেষজীবনে উৎসর্গ করিয়াছিলেন।বিদ্যাসাগর ভৈরবী চরনের পঞ্চমুণ্ডী আসনে মন্ত্রসাধনার কথা গত বৎসর স্থানীয় তন্ত্র-সভায় বিস্ত্ৰত ভাবে আলোচনা করিকার অবকাশ আপনারা আমায় দিয়েছিলেন , এস্থলে তাহার পুনরুক্তি নিষ্প্রয়োজন ও কতকটা অপ্রাসঙ্গিক হইবে।  আর পথিক-প্রেমিকের অন্যান্য কথাবার্তা আপনাদের নিবেদন করিবারও সময় পাইবো না।  

      সে রাত্রির সেই বিরল-নির্মল - নির্র্গল প্রশ্নোত্তরধারা আমি সাজাইয়া উঠিতে পারিতেছি না। সে যে সারা রাতের কথা ! 

      এক মুন্ডাসনেরই কত কথা ! 'পঞ্চমুন্ডি' কি ?   

পথিকের এই প্রশ্নের উত্তর - (নিষ্পদ সরীসৃপ) সর্পের মুন্ড ১, (চতুষ্পদ) শৃঙ্গালের মুন্ড ১, (চতুষ্কর) বানরের মুন্ড ১, ও (দ্বিপদ নিম্ন স্তরের নর) চণ্ডালের মুন্ড ২, - সাকলো ৫টি লইয়া 'পঞ্চমুন্ডি'। 

পথিক : "আচ্ছা তার উপর - মুন্ডাসনে সাধনা কিরূপ ? 

প্রেমিক : " তা শুনলে বা গ্রন্থে পড়লে কিছু আর সাধক হওয়া যায় না। দক্ষিনেশ্বরের পরমহংসদেব বলিতেন - পাঁজিতে এবার বিশ আডা জলের কথা লেখা আছে। পাঁজিখানা টিপিলে এক ফোঁটাও জল বাহির হয় না। পঠনে ও সাধনে সেইরূপ ব্যবধান।  

প্রশ্ন - মহাশয় ! এমন তন্ত্র সাধনের গ্রন্থ আরও কত আছে বোধ হয় ?  

উত্তর - চামুন্ডা মুণ্ডমালা হি যোগিনী য়ামলং তথা। 

কামাখ্যা কুজিকা রাধা কঙ্কাল মালিনী শিবে।

নিত্যঃ নীলঃ মহানীলঃ মহানির্বান মনোৰম। ..... 

সপ্তকোটি মহাগ্রন্থের কথা সদাশিব দেবীকে বলিয়াছেন।   

সদাশিব যাহা দেবীকে বলেন তাহা আগম। আ-গ-ম -> 'আ' -কি না -আ গতং শিব বক্তভ্যঃ। 'গ ' কি না 'গ' তঞ্চ গিরিজাশ্রুতৌ। 'ম' -কি না -'ম' -তং শ্রীবাসুদেবস্যা তস্মাৎ আগম উচ্যতে। ' আগম শিব বলেন , গৌরী শুনেন, মত শ্রীবাসুদেবের। আর নিগম দেবী বলেন, শিব শুনেন মত এ বাসুদেবের। যথা -'নি' র্গতো গিরিজা 'গ' -তশ্চ গিরিশ শ্রুতিম। 'ম' -তঞ্চ বাসুদেব নিগমঃ পরিকল্পাতে। ' আবার অনেক স্থলে আগম ও নিগম একই অর্থে ব্যবহৃত হয়। গ্রথিত আগমশাস্ত্রের বক্তা সর্বান্তরযামী মায়াতীত ভগবান - শ্রোত্রী -নিখিল মায়ার অধীশ্বর , লেখক সিদ্ধিদাতা গনেশ, প্রচারক - গুহাবাসী সিদ্ধ মহাপুরুষ। 

প্রশ্ন -তবে কি তন্ত্রশাস্ত্রে সর্বধর্ম সম্প্রদায়ে সামঞ্জস্য হয় ? 

উত্তর - তা হয় বই কি ! মন্ত্র বৈদিক ব্যাতিত সবই তান্ত্রিক। বীজমন্ত্র, দীক্ষাপদ্ধতি সবই তান্ত্রিক। শ্রী চৈতন্যদেব তান্ত্রিক বিষ্ণুমন্ত্রেই দীক্ষিত হন। জগৎগুরু শঙ্করাচার্য শ্রীকুলের তান্ত্রিক ছিলেন। বিষ্ণুক্রান্তার অপর শঙ্করাচার্য কালীকুলের প্রসিদ্ধ সিদ্ধ তান্ত্রিক মহাপুরুষ। হোম -হয় বৈদিক , না হয় তান্ত্রিক। সন্ধ্যা বিধি বৈদিক, তান্ত্রিকও আছে। শক্তের দশ মহাবিদ্যা , বৈষ্ণবের দশাবতার একই আধার। 'কৃষ্ণরূপা কালিক: স্যাৎ রামরূপা চ তারিণী। ' কালী -কৃষ্ণ উভয়েরই নবনীরদ -নীলকান্তি, তারা - শক্তিযুক্ত রাম; ষোড়শী -জামদগ্ন্যা উভয়ের হস্তে কোদন্ড , ভুবনেশ্বরী -বামন ; ত্রিভুবনেশ্বরী ও ত্রিবিক্রম - উভয়ে পদরক্ষা করিয়াছেন ডেব পৃথিবীর উপর; ভৈরবী -বরাহ ; ছিন্নমস্তা -নৃসিংহ, ধূমাবতী -মীন।

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quadrumana :১. একবার স্যার জোন উড্রোফ এই তন্ত্রবচনটি বলা হল টিপ্পনি এইটুকু ছিল - যদিও সপ্তকোটি গ্রন্থ অতিযুক্তি হতে পারে - কিন্তু তন্ত্র সংখ্যায় বহু। সর জোন উডরাউফ সঙ্গে সঙ্গে উত্তর দিলেন - No, no , when Sadashiva tells it, it must be accepted as literally true ! আমার শিক্ষিত শ্রোতৃ বৃন্দ মধ্যে কয়জন এমন কথা কহিতে পারেন ? 

২. আবার শ্রীকৃষ্ণের বালগোপাল-মূর্তি ও জগন্মাতার আদ্যমূর্তি - উভয়ই বসন -বিরহিত -পরিপূর্ণতায় নগ্ন। গোপালজির হাতের লাড্ডু -জগদম্বিকার করনব্য মুন্ড। হ্রিং -ক্লিং বলয়ে রভেদঃ) বগলা -কুর্ম; মাতঙ্গী -কল্কি , কমলা -বুদ্ধ , অপিচ স্বয়ং ভগবতী কালী কৃষ্ণস্তু ভগবান স্বয়ং। স্বয়ং ভগবান কৃষ্ণ কালিরূপো ভবেদ ব্রজে। আবার শ্রী মহাভাগবৎ -পুরান মতে ভদ্রকালী মূর্তিই কৃষ্ণ রূপে ধরায় অবতীর্ন হয়েন ! সীতা রামে তারা আছেন। সী -'তারা ' -মহ'ল -সীতারাম ! তন্ত্রে সপ্তাচারে বৈষ্ণবাচার আছে যথা - বৈদিক আচার , বৈষ্ণবাচার , শৈব আচার , দক্ষিনাচার , বামাচার, সিদ্ধান্তাচার , কৌলাচার। যেমন বনভূমিতে হস্তির বিশাল পদাঙ্কে গোষ্পদাদি সর্ব প্রাণী -পদাঙ্ক ভুলিয়া যায়, তেমনি তন্ত্রের মহাপদ্ধতিতে সর্বধর্ম কর্ম পদ্ধতিই অন্তর্ভুক্ত হইয়া পড়ে। দেবীর প্রতি শিব উক্তি স্মরণ কর -' করি -পাদে নিমজ্জন্তি সর্ব প্রাণী পদা যথা। কুল ধর্মে নিমজ্জন্তি সর্বে ধর্মা স্তথা প্রিয়ে।    ----------

প্রশ্ন - 'কুলধর্ম ' কি ? 

উত্তর - কৌলের লক্ষণে দেখা যায় - অন্তঃশকতাঃ বহিঃ শৈব সভ্য বৈষ্ণব মতাঃ।নানা বেশ ধরাঃ কৌল বিচরন্তি মহীতলে। বলে না ? - 'হৃদে কালী মুখে হরিনাম ' ! পথিক বলে -মহাশয় এ ত বড় শক্ত ? প্রেমিক - হাসিয়া বলেন - হাঁ - শাক্ত হওয়া বড় শক্ত ! একক সে -শব  আচার শব সাধনা - কে ও অন্তর্ভুক্ত করে -হস্তি ভুক্তক পিথবৎ - তার উপর সে ভোগে আসক্ত নয় , অথচ দেহে অশক্ত নয় - তবে শাক্ত। তাই শাক্ত হওয়া যে বড় শক্ত। পথিক বলে -যথার্থ 'প্রেমিক ' পুরুষই বটে। পুনঃ প্রশ্ন করি : " শাক্তের কাছে কালী ব্রহ্মময়ী ! কালী শব্দে কি বুঝিব ?" সে প্রশ্নের উত্তর প্রেমিকের প্রেম কন্ঠে যেন             

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করে। কথায় বলে 'কুলার বাতাস !' অসম্দ দেশে একটা অদ্ভুত কথা শোনা যায় যে ঊর্ধ্ব নভঃ সঞ্চারী মেঘডম্বরে সূক্ষ্ম সংস ডিম্বাকারে কিছু থাকে। সমুদ্রে এমনও অনেক টেন্ডা মাছ আছে , যাহারা ঘোর মেঘ-ঝড়ের রাত্রিতে উদন্ড বা পর বলয় (parabolic) জলদি -হৃদয় হইতে সৃপবং পক্ষ ভবে উদ্ধৃত হইয়া আদি জন্ম -সংস্কার বশে মেঘমণ্ডল -নিঃসারিত যুক্ত বংশকফ  পান কোরিয়া নামিয়া আসে। মেঘ ধ্বনিতে বলাকার গ্ৰভংধান আনাদের দর্শনে কাব্ যত্র তত্র কথিত।  যথা -বেদান্ত দর্শনের শাঙ্কর ভাষ্য যথা ' লোকে বলাকে অন্তরণের শুভ্ৰম গর্ভ ধত্তে এবং চেতনমপি ব্রহ্ম অনপেক্ষা বাহ্যং সাধনং জগৎ ষড়ক্ষয়তি।  বলাকা চ শ্রবনাদ গৰ্ভঙ্গ ধত্তে। মেঘদুতে ও টীকায় মল্লিনাথ -ধৃত বচন- গৰ্ভঙ্গ বলাকা দধ দেহ ভরযগত নাকে নিবদ্ধা বলয়ঃ সমস্তত। তন্ত্রোক্ত দেবী ধূমাবতীর বসতসিবতর্নে 'প্রলয় -পয়োধিজল' -এ 'ধৃত -মীনশরীর ' প্রথম অবতারি শ্রী ভগবান আছেন। সৃষ্টি -তত্বের য স্তর উভচর কুর্মে , ঊধ্ব। ' ধরণী-ধরন -কিন্ -চক্রাকার মুকুট ধরিনি ও নিয়ে পাতাল -রত্নসিংহাসন -স্থিতা - 'দুর্গম ' নামক দৈত্য -তাড়ন -নিরতা বগলা মূর্তি। তৃতীয় স্থল -তত্ব -মহাবারাহ ও তদ্দর্শণ শিখরে লগ্না পৃথিবী -ভৈরবী -কর ধৃত জপ বঁটি। সৃষ্টির ৪থ অবস্থা -মরদেহ কিন্তু সিংহের মস্তক - (নরসিংহ -anthropoid Lion) মস্তক ছিন্ন হইলে মানবী তনু (ছিন্ন মস্তা।) নিম্নে রতি-কামাসনে পূর্ন নব মানবদেহ উৎসমান। ষোড়শ বর্ষ দেশীয় নৃসিংহ -দেবের গলদেশে যজ্ঞপবিত , দেবী ছিন্ন মস্তা নাগয়ায় যজ্ঞপবিত -পরিহিতা নবযুবতী। এতাবদা দেব-দেবীর মূর্তি -দৃশ্য প্রদর্শনে তন্ত্রের সৃষ্টি রহস্য -তত্ব সূচিত মাত্র রহিল। 

৪. কদম্ব ভবনে মাতঙ্গ মুনির বহু তপস্যায় আবির্ভূতা মাতঙ্গী মূর্তি , মদশীল মাতঙ্গ নামক অসুর -বিনা - সিনির 'করবাল ' কল্কির হস্তে ও আছে। 'ম্লেচ্ছ নিবহ নিধনে কল য়সি করবালাম। ' তদুপরি মাতঙ্গী দেবী সঙ্গীত -মাতৃকা। 

৫. যথা হস্তিপদে লিংগ সর্ব প্রাণিপদং ভবেৎ। দর্শনানি তু সর্বানী কুলমেব বিশন্তি হি। ' -এ পাঠ ও পাওয়া যায়। 

৬. 'কুলং কুণ্ডলিনী শক্তির কুলস্থ মহেশ্বরঃ। কুলা -কুলস্য ত্ত্বজ্ঞ কৌল ইটিভির যাতে। পুনশ্চঃ -'না কুলং ক্লামিত্ম বলং ব্রহ্ম সনাতন। তৎকালে নিরত যে হয় কৌল অভিধিয়তে। বাজিয়ে উঠিল। যথা 'কল যিত কালী -লয়ং করোতি ইতি। কালী -লয়স্য বিল্যং করোতি ইতি কালী। ' সেই রটন্তী চতুর্দশীর মহানিশায় পথিক তখন সব কালীময় দেখিতে লাগিল। প্রেমিকের ব্যাখ্যা চলিতে লাগিল -'কলযতি ' - শুভাশুভ বৃদ্ধি -ক্ষয় করেন যিনি -তিনিই কালী , বা ইন্দ্রজালবৎ মায়ারূপেণ বা সৃষ্টি করেন যিনি তিনিই কালী। ' কলযতি' -ভক্ষয়তি কি না গ্রাসে লয় করেন যিনি , তিনি কালী। লয়ের বিলয় যিনি করেন অর্থাৎ পুনঃ সৃষ্টি যিনি করেন তিনিই কালী। শিব (মঙ্গল) -যুক্তা হইয়াই তিনি ভদ্রকালী।রোগ হইতে আমাদের রক্ষা করেন - মা রক্ষাকালী। শ্মশানে যখন নির্ভীক ভক্ত সাধককে সিদ্ধি দেন , তখন -মা শ্মশানকালী। জন্যঃ ব্রহ্মাদির জননী বলিয়া তিনি নিত্যকালী। বচন আছে - 'ব্রহ্মা -বিষ্ণু -শিব আদিনাম যস্য সৃষ্টি নিজে ছায়া। পুনঃ প্রলিয়তে যেসং নিত্যা সা পরিকীতিতা। 

তারপর , প্রেমিক কবি উদাহরনে পথিকের 'মন হরণ' করিলেন। যথা - আমাদের এই ব্রহ্মান্ড সৃষ্টি কোরিয়া পুরান পুরুষ ব্রহ্মা একবার মা'র সাক্ষাৎকারে তাঁর সৃষ্টির সকল কথা জানাইতে ইচ্ছা করেন। ইচ্ছাময়ী ব্রহ্মার ইচ্ছা বুঝিয়া ব্যোমকেশকে পরম ব্যোমে এক নাদ মন্দির নির্মাণ করতে বলেন। ব্যোম -ব্যোম নাদে তখনই পরম ব্যোমে এক বিরাট নাদ-মন্দির প্রতিষ্ঠিত হ'ল। নাদ -মন্দির মধ্যে বিন্দুবাসিনি, ব্রহ্ম-চৈতন্য স্বরূপিণী - ' ব্রহ্ম ব্যমনা রভেদোঃহস্তী চৈতন্যম ব্রহ্মাহ ধিকম - মহাকালী মূর্তি ধারণ করিলেন। নাদ মন্দিরের একাদশ তোরণ , এক এক এগার তোরণে একাদশ রুদ্র প্রহরী নিযুক্ত হলেন। সৃষ্টিকর্তা ব্রহ্মা আসিয়া প্রহরী রুদ্রগণের নিকট মায়ের দর্শন ইচ্ছা জানালেন। স্রুদ্রগন মন্দিরান্তর হইতে ফিরিয়া আসিয়া ব্রহ্মা কে মহাকালির প্রশ্ন জানাইয়া জিজ্ঞাসিলেন - ব্রহ্মন ! আপনি কোন ব্রহ্মান্ডের ব্রহ্মা ? সৃষ্টিকর্তা তখন অহংকারে স্ফীত হইয়া বলিলেন -ব্রহ্মান্ড আবার কয়টা আছে হে ? তোমরা প্রহরী মাত্র ! মায়ের উক্ত প্রশ্নে আমার উত্তর কি আছে সে তোমরা বুঝিবে না ! আগে মহামায়ার সমীপে আমায় পৌঁছাইয়া দাও , সাক্ষাৎকারে আমিই  স্বয়ং তাঁকে এই প্রশ্নের উত্তর দিবো ! 'তথাস্তু ' বলিয়া অন্যতম রুদ্র প্রহরী ব্রহ্মাকে ব্রহ্মময়ী সদনে লইয়া গেল। নাদ -মন্দির -মধ্যে ব্রহ্মা ব্রহ্মান্ড -ভান্ড ওদরি মহাকালির অপূর্ব বিরাট দেহ দর্শন করিতে লাগিলেন - যত উদরে -কুহরে কোটি ব্রহ্মান্ড আদি বিলিয়তে'। স্তম্ভিত -শঙ্কিত -প্রজাপতি দেখিতে লাগিলেন - মহাকালির অঙ্গে অঙ্গে প্রতি রোমকূপে এক একটা ব্রহ্মান্ড - তাহাতে এক একটি ব্রহ্মা ক্ষুদ্র মধুকর বৎ নিজ নিজ ব্রহ্মাণ্ডে বিচরণে হন হন ধ্বনি করিতেছেন। এ ব্রহ্মা কেহ কাহাকে জানেন না - আপন আপন বিশিষ্ট সৃষ্টি কার্য ব্যাপৃত। আগন্তুক ব্রহ্মা তখন মহামায়ার বিরাট দেহের কোন লোমকূপে আপনি আছেন খুঁজিতে লাগিলেন। অবশেষে ব্রহ্মময়ীর দয়ায় ব্রহ্মার আত্মদর্শন লাভ ঘটিল। তিনি তখন মহাশক্তির সাগদ্গদ স্তব করিতে লাগিলেন। মা ! মা ! ও মা ! ক্ষমা কর -ক্ষমা কর মা ! সন্তানের অপরাধ নিও না , জননী ! 'উৎক্ষেপনম গর্ভ গতস্য পাদোয়াহ কিম কল্বতে মাতু -আগসে ? মাতৃ গর্ভস্থ শিশু যদি পদত্ক্ষেপন করে , তাহাতে মা কি জঠরের সন্তান পদাঘাত করিল ভাবিয়া অপরাধ গ্রহণ করেন ? আমি প্রজাপতি হইলেও মাগো তোমারই গর্ভের এর্ভক শিশু মাত্র -স্বয়ং শক্তিহীন ! -ব্রহ্মণী কুরুতে সৃষ্টিং না তু ব্রহ্মা কদাচন। অতএব মহেশানি ! ব্রহ্মা প্রেতো না সংশযঃ তখন শঙ্খচক্রধারী বিষ্ণু আসিয়া কহিলেন -বৈষ্ণবী কুরুতে রক্ষাং না তু বিষ্ণু কদাচন। অতএব মহেশানি। বিষ্ণুহ প্রেতো। না সংশয়ঃ। 

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১. 'জায়তে চ ক্ষিত বৃদ্দঘ যথা প্রথম বিলিয়তে ' তয়াত বুদ্বুদম জাত যথা তোয়ে বিলিয়তে। জলদে তড়িৎ উৎপন্না লিয়তে চ যথা ঘনে। তথা ব্রহ্মা দায় দেবাঃ কালিকায়াঃ প্রজায়তে। তথা প্রলয় কালে তু পুনঃ স্টেসি পিরালিয়তে। - নির্বাণ তন্ত্র। 

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তখন প্রহরী রুদ্রদেব কর জোড়ে গায়িতে লাগিলেন - ' রুদ্রানী কুরুতে গ্রাস না তু রুদ্রঃ কদাচন। অতএব মহেশানি ! রুদ্রঃ প্রেতো না সংশয়ঃ। ইতি প্রেমিক -পথিক সম্বাদ।  

বড় জের পর ঋষভ গান্ধারাদি সুর -সপ্তকে উঠিলে প্রেমিকের সুর-সিদ্ধির পরিচয় পাওয়া যায়। মায়ের ভক্ত সন্তান কেমন করিয়াই মার্গমের মধ্যে মাতৃত্ব উপলব্ধি করিয়া থাকেন। ভক্ত মাকে স্মরণ করিতে চেন - মা-মা ! কি না , সেই মা ! দুরাহবনে 'রে ' ভক্ত দূর হইতে মাকে আহবান করিতেছেন -রে মা ! তারপর কাছে পাইয়া , আদরে মাকে ডাকিতেছেন - গো মা ! মা গো ! তার উপর মায়ের পদকমল লোভে 'সা-পা ধা -নি' কি না 'ম পা ধনী ' হইয়া পর্দায় পর্দায় উঠিয়া গেলেন। যেন ধ্যানীর ধ্যানের মূর্ছনা ; মা'র ভক্তের কাছে আপনাদের সুপরিচিত ' সা -রে -গা -মা -পা - ধা -নি ' কি অপূর্ব আকারই ধারণ করে। প্রেমিক মহারাজ এইরূপ মা'র অধিষ্ঠান উপলব্ধি করিয়া মাতোয়ারা হইয়া তাঁহার 'কালী-কীর্তন ' এর পদাবলী রচনা করিয়া গিয়াছেন। সে কালীকীর্তন শুনিয়া সাহিত্য -গুরু ঈশ্বরচন্দ্র বিদ্যাসাগর চমৎকৃত হইয়াছিলেন , বঙ্গের ধর্মবীর বাগ্মী প্রবর বিবেকানন্দের আনন্দ উছলিয়া উঠিত ! 

পথিক সেই 'মাতৃ সন্ধানী ' প্রেমিক কে পুনর্বার প্রশ্ন করিল : মায়ের পদযুগলে কেন মহাকালের উপরি স্থাপিত হইল ? মহাকাল কি ? উত্তর - " অগ্রে গ্রাসে গ্রাসে কালের কলেবর কত দূর বৃদ্ধি পায় দেখ। অনুপলকে পল গ্রাসে করিতেছে , পলকে আবার প্রহর গ্রাস করতেছে। দিনকে আবার পক্ষ গ্রাসে করিতেছে। পক্ষ কে মাস গ্রাস করিতেছে , মাসকে আবার ঋতু গ্রাস করিতেছে।  ঋতু কে সংবৎসর গ্রাস করিতেছে।  সংবৎসর কে যুগ গ্রাস করিতেছে। যুগ কে কল্প গ্রাস করিতেছে। এই কল্প-গ্রাসি জগদাধর মহাকালকে আসন করিয়া দন্ডায়মান অর্থাৎ তিনি মহাকালের অতীত মহাকালী। এইরূপ কালী-কল্পনায় কাল -লোপের সঙ্গে-সঙ্গে স্থান ও লোপ পায়। তাই , লোল রসনায় কালী স্থান পান করিতেছেন। 

প্রশ্ন - আর, মা কালির ত্রিনয়ন ? 

উত্তর - সেও কালের নিয়ামক। রামপ্রসাদ কি গান বেঁধেছেন শোন। 

'সপ্ত হেতি সপ্ত পেতি সপ্ত বিংশ পতি -নয়না ! 

মানে ? 

মানে করে নিতে হবে 'সপ্তহেতি ' -অগ্নি ; কালী-করালী -মনোজবাদি সপ্তশিখ অগ্নি কালীর এক নয়নে জ্বলছে ! জাতকের সূতিকাগারে জ্বলিত অগ্নি রক্ষিত হইয়া শেষে শ্মশানে চিতাগ্নি রূপে তার দেহ দাহ করে  (এ প্রথা ছিল ) অগ্নি তাহা হইলে মানুষের আয়ুষ্কালের পরিমাপক। 'সপ্তপেতি ' সপ্ত সপ্তির ' র অপভ্ৰংশ = সূর্য - মা'র অপর নয়ন -দিবারাত্রির নিয়ামক। 'সপ্তবিংশ ' (তারা ) 'পতি' = চন্দ্র , তিথি প্রমাতা - দেবীর অন্যতম নয়ন - ত্রিনয়নে কালী কালেরই শাসন করছেন। 

পথিক তখন গানের ছলে প্রশ্ন করিতেছেন - ' যখন ব্রহ্মান্ড ছিল না মাগো ! মুণ্ডমালা কোথায় পেলি ? উত্তর - আকাশ তো ছিল। আকাশের গুন্ শব্দ।  শব্দ দ্বিবিধ -ধ্বনি ও বর্ন। বর্ন  -পঞ্চাশ।  এই অক্ষয় 

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১. স্থান ও কাল মনের (কল্পনা) যন্ত্র মাত্র - যাদ্বারা বহির্জগতের জ্ঞান হয়। জগতের যা কিছ , এই দুই মনোময় যন্ত্রে বিজস্ত্রিত হইয়া আমাদের গোচরীভূত হয়।  'যত্র যত্র মন যাতি তত্র তত্র ভবেদ ভবঃ। তত্র তত্র মনো যাতি তদ্ বিষ্ণুহ পরম পদম। ' মনশ্চালিত স্থান ও কালের অসদ ভাবে দৃশ্যমান বাহ্য জগতের বিলয় ঘটে , জার্মিনির দার্শনিক -শিরোমনি এমইনুল কান্ট ও ঠিক এই কথাই বলেন। মনের যন্ত্র স্থান ও কালের অসাধারন মনোমোক্ষ লাভ করিতে হয়। স্থান ও কালের অতীত সেই নিত্য-কালীর সাধনই মনোমোক্ষের পথ। 

২. ব্রহ্মময়ীর অন্যতম নাম 'প্রাকাশ ' ! 'যস্য সা পরমা দেবী শক্তির আকাশ স্থিতা। কর্ণে (আকাশস্য) 'শব্দ গুনং বিদুঃ। ইতি মনুঃ। 

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অক্ষর -মালাই মা'র মুণ্ডমালা। এই এক একটি অক্ষর এক একটি মন্ত্র -যাকে মন্ত্রমাত্রিকা বলে। অক্ষরই বা কেন, - ধ্বনি মাত্রই মা'র মন্ত্র। সেই রামপ্রসাদী গীতিতে আছে - 'যত শুনে বর্ণপুটে সবই মায়ের মন্ত্র বটে। 

 মহাকালির একশত আট মুন্ডমালার কথাও আছে। সত্য, ত্রেতা , দ্বাপর , কলি -চারি যুগে সংখ্যা উক্ত চতুর্বিংশতি তত্ব সমষ্টি তে জগৎ সৃষ্টি হয়। সাংখ্য আচার্যরা বলেন - ' পঞ্চবিংশ তিতা ত্ব জ্ঞেয় যত্র কুত্রা শ্রমে বসেৎ। জটি মুন্ডি শিখি বাপি মুচ্যতে নাত্র সংশয়। 

সৃষ্টির এই চতুবিংশতি তত্ব চারি যুগে ২৪/২৪ করিয়া ৯৬ টা হয়।  প্রতি যুগেরই সাক্ষী পুরুষ ও ক্রিয়াবতী প্রকৃতি -সর্ব সমেত ৮ , আর চারি যুগের ব্যবহারিক সৃষ্টিকর্তা চতুরানন ব্রহ্মা বা পাতঞ্জলি মতে ঈশ্বর - সর্ব যোগ ১০৮ , মুন্ডমালিনীর চতুর্যুগের শির্ক্ষা ভাব সূচিত করিতেছে। ইহাতে প্রশ্ন উঠিল - তবে কি দেবীর এবংবিধ রূপ দার্শনিক রূপক মাত্র ? ইহা কি তার স্বরূপ নহে ?   

আ-হা ! ব্রাহ্মময়ীর স্বরূপ ? - 'কে জানে কালী কেমন ! ষড়দর্শনে যাঁর না পায় দর্শন।' মায়ের স্বরূপ দর্শনের অদৃশ্য , গণিতের অগণ্য , বিজ্ঞানের অবিজ্ঞেয় ! তবে উপায় ? আমাদের মতো লোকের ? 'কালীকৃপা হি কেবলম ! ' 'সর্বত্র ভা সমা ভানো: সমা বৃষ্টি: পয়োমুচ:, সমা কৃপা ভগবথঃ সর্ব ভূতানি কাম্পিনি। সর্ব জীবের প্রতি অনুগ্রহ করিয়া জগন্মাতা বিগ্রহবতী। 'সাধকানাং হিতার্থায় ব্রহ্মণো রূপকল্পনা। ' সাধকের হিতের জন্য ব্রহ্মের রূপকল্পনা। এ রূপকল্পনার কর্তা কে ? সাধু বা পন্ডিতগন কি রূপকল্পনা করিয়াছিলেন ? না , 'ব্রহ্মণঃ রূপকল্পনা ' - এ স্থলে 'কর্তা' রি ষষ্ঠী বুঝিতে হইবে। ব্রহ্ম স্বয়ংই তাঁহার রূপ রচনা করিয়াছেন ; কেন ? 'সাধকানাং হিতার্থায় ' -ইহাতে ব্যাকরণের পান্ডিত্য কিছ নাই। ইহাই সঙ্গত অর্থ।  কেননা , পুনরুক্তি আছে - 'সাধকানাং হিতার্থায় ' অরূপা রূপধারিনী। ' -অরূপা স্বয়ং রূপ ধারণ করিয়াছেন।  পন্ডিতগণ বা সাধুগণ কিছুই করেন নাই ! ভয় নাই ! ' কা শঙ্কা স্যাৎ মনীষিনাম ? 'উপাসকানাং সিদ্ধাৰ্থং ' - উপাসক দিগের সিদ্ধির জন্য নিরূপপদ ব্রহ্মময়ী দয়া-ঘন  সিদ্ধেশ্বরী মূর্তি স্বীকার করিয়াছেন। রামপ্রসাদ আবার কটাক্ষ করিয়াছেন - 'ব্রাহ্ম নিরুপনের কথা শুধু দেন্তর হাসি ' - প্রেমিক মহারাজও স্বীয় 'কালীকীর্তন -এর পদ গাহিলেন - " ও সব সাংখ্য পাতঞ্জল - সেরে গেছে গোলমাল। " 

[অনুগ্রাহয় ভূতানাং গৃহীত দিব্য বিগ্রহে ! ' - কিঙ্কনি স্ত্রোত্র। ] 

পথিক -আপনার কালীরূপ তত্বের বিবৃদ্ধিত তাঁর আলুলায়িত চরণচুম্বি কেশ -কলাপের ব্যাখ্যা কেমন হবে ?  প্রেমিক - ব্যাখ্যা আর কি করিতে পারি ? এক ভক্তের কাছে শুনেছিলাম একটি সুন্দর ভাবের কথা। দেবীর ব্যোমব্যাপিনী দিগলয় -সংসপিনী মুক্তবেণী তাঁহার চরণে আসিয়া নামিয়াছে কেন ? উত্তরে ভক্ত বলেছিলেন - তেত্রিশকোটি দেবতা আসিয়া যখন দেবী -পদতলে পড়িয়া তাঁহার চরনবন্দন করিতে লাগিলো - দেববৃন্দ শিরোরত্ন নিঘৃষ্ট -চারণাম্বুজে ! ' তখন তাঁর মস্তকের কেশরাশি ভাবিলো - আমরাই বা বাকি থাকে কেন ? এমনি দলে দলে ঝাঁপাইয়া পড়িয়া মা'র চরণস্পর্শ করিয়া আনন্দে ঝুলিতে লাগিল। এইরূপে ভক্ত ভাব দিয়া মা'র ভাগবতী তনুর অনুভবনা করেন।  এখানে তর্কের কোন স্থান নেই। 

>>>>রটন্তী- নিশা ভ্রমন - ২ (আচার্য শিরীষচন্দ্র মুখোপাধ্যায়) : 

তবে তর্ক উঠে , শিবশক্তি তত্ব লইয়া। অদ্বেতবাদ -প্রধান শক্তি-তন্ত্রে শিব-শক্তি অভিন্ন। শিবেরও শক্তি নয় , শিব এবং শক্তিও নয় - দ্বন্দ্ব বা দুই নয় , যেই শিব সেই শক্তি ! রামেশ্বরের আখ্যান স্মরণ কর।  শ্রীরাম সেতুবন্ধে 'রামেশ্বর ' শিবলিঙ্গ প্রতিষ্ঠা করিয়া পূজাকালে 'রামের ঈশ্বর ' বলিয়া শিবের স্তব করিতেই শিব পাষান ভেদ করিয়া উত্থিত বলিলেন - না , আমি রামের ঈশ্বর 'রামেশ্বর ' নহি , ' রামই যাহার ঈশ্বর ' - এই অর্থে আমি 'রামেশ্বর ' নাম স্বীকার করি ! তখন শিব-রামে বিষম বিগ্রহ উপস্থিত হ'ল - সমাসের বিগ্রহ বাক্য নিয়ে !  রামের ষষ্ঠী তৎপুরুষ , না শিবের বহুব্রীহি সমাস -ঠিক ? আদি ব্যাকরণের শিব-সূত্র জালের জালিক শিবকে শ্রীরাম তর্কে আঁটিয়া উঠিতে পারিতেছিলেন না। তখন এই সমাসকুট- সমাধান করিতে ব্রহ্মলোক হইতে ব্রহ্মাকে আসিতে হইল।  ব্রহ্মা আসিয়া বলিলেন - এ ষষ্ঠী তৎপরুষও এখানে চলিবে না , ও বহুব্রীহি ও নয় ! এখানে কর্মধারয় সমাসই সঙ্গত - রামেশচ আসো ঈশ্বরশ্চেতি - যেই রাম , সেই ঈশ্বর - মহেশ্বর , শিব।  এখানেও তাই - যিনি শিব , তিনিই শক্তি , -অদ্বয় , উভয় নয় - 'চন্দ্রচন্দ্রিকা যথা অর্থা। যেমন , চনকের (ছোলার) মধ্যে দুইটি দল (ডাল) আলিঙ্গিত অথচ স্পষ্টত একটিই চনক (ছোলা) ; তেমনই , শিব শিবা মুখ্যত একই তত্ব ; খুলিয়া বুঝিতে গেলে দুই বলিয়া প্রতীয়মান হয়। আরও সূক্ষ্ম ন্যায়ে উঠে - 'অহিকুন্ডল' ইত্যাকার প্রতিতিতে অহি এক, এবং কুন্ডল আর , - এরূপ ধারণা হয় না ; কুন্ডলীকৃত অহি সর্বেব অহিই থাকে -এক। 

    প্রেমিক হাসিয়া আবার বলিলেন - শেষটা সাপ বেরিয়ে পড়ল ! দেখ, এমন সাধনার রাত্রিতে আর ন্যায়ের কচকচিতে কাজ নাই। পথিক বলিল - না, এবারে একটা আনুষ্ঠানিক ব্যাপারে কিছু জিজ্ঞাসা আছে। কালীপূজায় দেখি ঠাকুরের দক্ষিণ মুখ , আর পূজক উত্তরাস্যা হইয়া উপাসনা করে। এরূপ উত্তর দক্ষিণের কি বিশেষ কিছু আছে , যা পূর্ব -পশ্চিমে পাওয়া যায় না ? 

উত্তর - 'উপাসনা ' কি না সমীপবর্তী হউণ, সানিধ্য। উত্তর-দক্ষিণে পূজা -পূজকের ব্যবধান পূর্ব-পশ্চিমের ব্যবধান অপেক্ষা হ্রস্বতর হইবেই ! 

পথিক - 'হইবেই ' ! এ কি কথা হল , মহাশয় ? 

প্রেমিক - এই হল কথা ! আর কথান্তরে কাজ কি ? 

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১. শক্তিহীন শিব শব। প্রমান - 'শিবোহপি শবতাং যাতি কুন্ডলিংয়ে বিবাজ্জিতঃ। অপিচ - ' শক্তি বিনা শিবে সূক্ষ্ম নাম ধাম ন বিজ্ঞাতে। ' যোগিনী তন্ত্র 

২. 'যথা শিব স্থা দেবী যথা দেবী তথা শিবং। ' মান্যর রন্ত্রমগ বিদ্যাচন্দ্র-চন্দ্রিকা যথা। অপিচ 'আদ্যা সেকা পরা শক্তিসচিন্ময়ী শিব সংশ্রয়া। বৈশেষিক দর্শনে ভরদ্বাজ বৃত্তি ভাষায় উল্লিখিত। 

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পথিক অপ্রতিভ হইল। দেখিল -আর ওদিকে কথা চলে না তখন বলিল ও ! তাই দক্ষিণ মুখে মাকে রাখা হয় বলিয়া দক্ষিনাকালী নাম ? 

প্রেমিক - না ! দক্ষিনাকালী নাম কেবল সে জন্যে নয়। লক্ষ্য ক'র  সাধারণ স্ত্রীলোকের বাঁ পা আগে পড়ে - বামা কি না ? মার প্রতিমাতে দেখো , তাঁর দক্ষিণ পদ বাম পদের কিছু অগ্রে স্থাপিত। ধ্বনি এই যে তিনি সামান্য-নারী নহেন ; দক্ষিনাগ্রচরনা মা কালী -অসামান্যা নারী -নৃত্যমানা মহানারী -মূর্তি। যাঁর নামে দক্ষিণ দিকের অধিপতি যম -তিনিও সভায় সরিয়া যান ! দক্ষিণ দিগ্ ভয়হারিণী বলিয়া মা দক্ষিণাকালী ! আবার শিবকে বা মহাকাল কে বশীভূত বা প্রকট ও লীন করিতে 'দক্ষিনা' কিনা কুশলা বলিয়া দক্ষিণাকালী নাম। আরও একটু লক্ষ্য ক'র দক্ষিণাকালী -প্রতিমায় যে নর-কর-কাঞ্চি থাকে , সে কোমর পাটায় কেবল দ: হস্তের সারি গাঁথা। প্যাটদের প্রতিমা গড়নের সময় বলে দেওয়া উচিত যে ভুল না করে। 

পথিক - অপরূপ কথা ! 

প্রেমিক - কিন্তু তন্ত্রকে রূপকথা মনে ক'র না। সহস্র সহস্র বীর সাধক এই দক্ষিণাকালী -সাধন হৃদয়ের সর্বস্বধন -প্রাণ পর্যন্ত পন - করেছেন ! 

পথিক - এবার , শেষবার - আর একবার - কালী- কৃষনের অভেদ তত্ব শুনিতে চাই। সহজ কথায় - সে 'অহিকুন্ডল' -এর ন্যায় না হয় ! 

ঈষৎ হাসিয়া প্রেমিক মহারাজ তখন উপাখ্যানে তাহার ব্যাখ্যা করিতে লাগিলেন। 'কালো কালী কালো কৃষণঃ ক্লু গোপাল -কালিকা '. এক গ্রামে দুই সহোদর ভাই বাস করেন। জ্যেষ্ঠ কালীভক্ত , কনিষ্ঠ কৃষ্ণভক্ত। দুই ভাইয়ের দুইখানি কুটির - মধ্যে আঙিনা -সম্মুখের পর্ণশালায় ঠাকুরঘর। এদিকে জ্যেষ্ঠের উপাস্যা জগন্মাতার মূর্তি - জবা বিল্ব-দলে প্রপীড়িত যুগল চরণ কমল ! অপরদিকে কনিষ্ঠের সর্বস্বধন নন্দদুলাল - বালগোপাল -মূর্তি। আঙিনায় একটি আমগাছ আছে , তাহাতে এসময় একটি আম ফলিয়েছে। জ্যেষ্ঠ আশা করিয়া আছেন - আমটি সুপক্ব হইলে মাকে নিবেদন করিয়া দেবেন। কনিষ্ঠ সহোদর তাহার কিছুই জানেন না। তিনি মনে মনে সঙ্কল্প করিয়া আছেন -এই অসময়ের আমটি তাঁহার ইষ্টদেব বাল-গোপালছোট হইয়া  কে নিবেদন করিয়া দিবেন। দিনের পর দিন যায় -আমে আর রঙ ধরে না।  তখন  এমন এক বিষয়কার্য উপস্থিত হ'ল  উভয় ভ্রাতা কেই একসঙ্গে প্রবাসে না গেলে গ্রামঃচ্ছাদনের ব্যাপার বধঃ হইয়া যায়। অগত্যা প্রাতঃকালে উভয়ই আপন আপন ইষ্টদেবতা মনের অভিলাষ জানাইয়া বিদেশে যাত্রা করিলেন। 

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৩।  ২০ হাত মাপের একটি বাঁশ পূর্ব পশ্চিমে লম্বা করা শোয়ান আছে। বাঁশটা তুলিয়া উত্তর দক্ষিণে লম্বা করিয়া মাটিতে রাখিলে সামান্য কিছু ছোট হইয়া যাইবে। মাপকাঠি টাও উত্তর -দক্ষিণে লম্বা করিলে সঙ্গে সঙ্গে অতি সামান্য কিছু ছোট হইয়া যাইবে , কাজেই তাহা বাঁশের কমিটা ধরা পড়ে না। এ সভায় উপস্থিত বিজ্ঞানের ছাত্ররা হয় তো কথা টা বুঝিবেন। 

৪. নির্গুনঃ পুরুষঃ কাল্যা সরজতে লুপাতে যথাঃ।  এতাঃ সা দক্ষিণাকালী ত্রিযু লোকেষু গিয়তে। নির্বাণ তন্ত্রে। 

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বিষয়কার্যে বিদেশে এক পক্ষ কাল অতীত হল। তখন বিষয়কার্যে সফলকাম হইয়া উভয়ে ঊর্ধ্ব শ্বাসে গৃহ প্রবেশ করিয়াই আংগিনাযা গিয়ে দেখেন -গাছে সেই আমটি নাই। জ্যেষ্ঠ আপন ঘরে গিয়া গৃহনি কে বলিলেন -আঙিনার অসময়ের আমটি মা কালীকে নিবেদন করিয়া দিব মানস করিয়াছিলাম। হতভাগ্য আমি ! - তাহা আর হল না। গৃহিনী হাসিয়া কহিলেন তোমার মনস্কাময় সিদ্ধ হইয়াছে। কাল সন্ধ্যায় এমটিতে বেশ পাক ধরিয়াছে দেখিয়া ওপাড়ার সেই বামুনের ছেলেটিকে ডাকিয়া আনিয়া - দেখ না গিয়া ঠাকুর ঘরে -মা কালির কাছে আমটি নিবেদিত আছে। উচ্ছাস ভরে স্বামী বলিলেন -তুমি যথার্থই আমার সহধর্মিনী -সাধ্বী ! আমার মনের কথা জানিতে পার। ঠাকুরঘরে গিয়া দেখেন বরাভয় করার বর -করে আমটি শোভা পাইতেছে। 

এদিকে কনিষ্ঠ ভ্রাতা নিজ কুটির প্রবেশ করিয়া স্ত্রীর কাছে সুনীল যে আমটি ওপাড়ার বামুনের ছেলেটিটর দ্বারা বালগোপাল কে নিবেদিত হয়েছে। তখন স্বামী উচ্ছাসভরে স্ত্রীকে কহিলেন -একই বলে সহধর্মিনী -তুমি স্বামীর মনের কথা টের পাও ! তখন উল্লাসে ঠাকুরঘরে প্রবেশ করিয়া দেখেন যে , তাঁহার নাচুগোপালের হাতে নাড়ুর মতই আমটি শোভা পাইতেছে। আনন্দে অধীর হইয়া দাদার ঘরে গিয়া আনুপূর্বিক সমুদয় ঘটনা বিবৃত করিলেন। বড় ভাই বিস্মিত হইয়া বলিলেন সে কি ! আমি এইমাত্র ঠাকুরঘরে গিয়া দেখিয়া আসিয়াছি - মা কালীর হাতে সে আমটি রহিয়াছে। ছোট ভাই বললো না , দাদা ! আমি এইমাত্র আমার নাচুগোপালের হাতে সেই আমটি দেখিয়া তোমায় বলিতে আসলাম। তখন উভয় ভ্রাতা অতীব বিস্মিত হইয়া একসঙ্গে পুনর্বার ঠাকুরঘরে দিক সত্যাসত্য নিরুপনের জন্যে চলিলেন। উভয়েই ভক্ত। ভক্তবাঞ্ছা কল্পতরু পৃথক পৃথক ভাবে উভয়ের মনোবাঞ্ছা পূরণ কৈয়াছেন। তখন দুই ভক্ত একত্র হইয়া আসিতেছে। কি হয় ! কি হয় ! তখন যাহা হইবার নয় , তাহাই হইল ! দুই ভাই একযোগে ঠাকুরঘরে গিয়া দেখেন - উলঙ্গ কালী -কোলে উলঙ্গ গোপাল দোলে ! কৃষ্ণমাতা কাত্যায়নী বালগোপালকে কোলে লইয়া আপন কর-করের আমটি বালগোপালের মুখে ধরিয়া আছেন। পথিক তখন গাহিতে লাগিত - 

এমন শুনি নাই - শুনবো না হে ! 

উলঙ্গ কালী কোলে উলঙ্গ গোপাল দোলে ! 

এমন দেখি নাই - দেখবো না হে ! 

তুমি কৌল -বাউল - এক করেছো -

দেছ কালী কালার সমান সাজ ! 

জয় জয় জয় প্রেমিক মহারাজ !! 

কে দেখেছে কবে -

মুক্তকেশীর যুক্ত বেণী বেণীমাধবে !

একবার হৃদ মালানকে গুঁজে ধ্যেয় প্রেমিক অলি !  বসো আজ !

জয় জয় জয় প্রেমিক মহারাজ !!

এদিকে রটন্তী -নিশা অবসান প্রায়। ' বিচেইতারকা -প্ৰভাতকল্পা। ....শর্বরী ! 'সতার ব্যোমকালে' - রটন্তী- চতুর্দশী স্নান করিতে হয়। প্রেমিক আসন ছাড়িয়া উঠিয়া পড়িলেন। পথিক ইংরেজি -নবীশ , তবুও যেন সদ্যঃ -প্রাণস্পর্শিনী রটন্তীদেবী- শক্তির দ্বারা অভিভূত হইয়া সেই বিচেযতারকা রজনী কে অপূর্ব শক্তিমতী -মূর্তিমতী দেখিতে লাগিল। দেখিতে দেখিতে সম্বোধন পূর্বক বলিতে লাগিল -

Press close , bare -bosom's night ! 

Press close magnetic , nourishing night !

" Night of South winds! night of the large few stars ! 

" Still , nodding night !

" Earth of the limpid grey clouds .

brighter and clearer for my sake ! " 

---Walt Whitman . 

প্রেমিক মহারাজ পথিকের হাত ধরিয়া কহিলেন - ও আবার কি বকিতেছে ? রটন্তী চতুর্দশী তিথি , মহাতেম্যা জলরাশি পর্যন্ত আজ সৃক্ষনশক্তি যুক্ত। বিশ্বাস হয় না ? চল, চল , স্নানে চল।  শুন, শুন - ঐ সরস্বতীর  জলরাশি আজ কল্লোল করিয়া ডাকিয়া কি বলিতেছে - 'কে আছ ব্রহ্মহত্যার পাতকী , কে আছ চণ্ডাল , কে আছ পতিত , এস এস। আমাদের মধ্যে অবগাহন কর।  আজ যে আমরা তোমাদেরও পবিত্র করিয়া দিব। 

'মাঘে মাসি রটন্যাআপঃ কিঞ্চিৎ অভ্যুদিতে রবু। 

ব্রহ্মঘঁম্পি চন্ডালম কং পতনত : পুনিমোহে। 

রটন্তী চতুর্দশীতে দেহ-দুরিৎবরি বাড়ি রাশির রটনা -বাণী শ্রবণ কর। অত্রেব শিবম। 

(বিশ্ববানী -২৭ শ বর্ষ , ৯ম সংখ্যা )

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৫। এই রূপ বিস্ময়কর ঘটনা নবদ্বীপে কৃষ্ণানন্দ আগমবাগীশ-এর ভিটায় ঘটিয়াছিল বলিয়া জনশ্রুতি আছে। জ্যেষ্ঠ কৃষ্ণানন্দ শাক্ত কনিষ্ঠ মাধবানন্দ বৈষ্ণব ছিলেন। উভয় ভ্রাতার দেব দ্বন্দ্ব -সময়ের দেব উপায় সংঘটিত হয় বলিয়া 'নবদ্বীপ মহিমা ' -য বর্ণিত আছে। 

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এক গুচ্ছ শিরীষ কুসুম 

শ্রী নবনীহরন মুখোপাধ্যায়  

          ভাবতে কেমন লাগে , পঞ্চাশ বছর আগে আমরা দশম শ্রেণীর পাঠ শেষ করে বিদ্যালয় ছাড়লাম।  আজ তাদের মধ্যে যারা রয়েছি সেই বিদ্যালয় মিলিত হচ্ছি ---এক  অপূর্ব মিলনোৎসবে।  অভাবনীয় ! তবু যারা ভেবেছে তাদের কি বলে কৃতজ্ঞতা জানাবো জানিনা। কিন্তু সংসারে সুখ দুঃখ নিত্য সহচর। তাই বাধা বাজে , আমরা সবাই তো নেই।  একে একে কত জন চলে গেছে। আর এই মিলনবেলার আয়োজকদের প্রধান সঙ্কট এই সে দিন যেভাবে আকস্মাৎ আমাদের ছেড়ে চলে গেল , সে দুঃখ কথার বলে বোঝান সম্ভব নয় " বোঝে প্রাণ বোঝে যার। " 

যে দিন প্রথম এই মিলনোৎসবের কথা অসিতের চিঠিতে জানলাম আর তারপর দু-তিনবার কজনের সঙ্গে দেখা হল , তখন থেকে নয় সেটা যেন সুকুমার রায়ের অংকের মত হঠাৎ পঞ্চাশের বেশি কমে গেল। মনে হল ষাট বছর আগের কথা যখন প্রথম এই বিদ্যালয় দেখি। একটি শিক্ষকদের অনুষ্ঠানে আচার্যদেব এনেছিলেন। মনে আছে তখন কার পন্ডিত মশাই ক্ষেত্রমোহন চট্টোপাধ্যায় প্রমুখ শিক্ষক মশাইদের সংস্কৃতে তপোবন বর্ণন  (" আত্মলোকে পুত ধুমকেতু:.... ") শুনেয়েছিলাম। তিনি হাত ধরে কোলে নিয়ে বলেছিলেন " তোমার বাকসিদ্ধি " হবে। " তখন মানে বুঝিনি। বড় হয় মনে পড়লে এখনও ভয় হয়।  

        তারপর স্কুলে ভর্তি হওয়া ১৯৪৩ এ সপ্তম শ্রেণীতে। এ স্কুল যখন হয় তখন কলিকাতা বিশ্ববিদ্যালয়ের জন্ম হয়নি। প্রথম প্রধান শিক্ষক ছিলেন স্যার আশুতোষের জ্যেষ্ঠতাত। আচার্যদেব এ স্কুলের প্রধান শিকক্ষক পদে ব্রতীহন ১৯০১ সালে। ১৯০২ সালে স্বামী বিবেকানন্দের তিরোধান হল স্কুলে স্মৃতি সভায় স্বামিজীরব ব্যাক্তিত্ব ও বাগ্মিতা বিষয়ে আচার্যদেব যা বলেন তা শৈলেন্দ্রনাথ ধরে কৃত " A comprehensive Biography of Swami Vivekananda " তে লিপিবদ্ধ আছে।    

     আচার্যদেব তাঁর অভিজ্ঞতা বলেন , যে হেতু তিনি ১৮৯৭ খ্রিস্টাব্দে দক্ষিনেশ্বরে শ্রীরামকৃষ্ণের জন্মতিথি উপলক্ষ্যে স্বামীজীর বক্তিতা মহাকবি গিরিশ চন্দ্র ঘোষের সঙ্গে গিয়ে শুনেছিলেন। ১৯০৫ সালে বঙ্গভঙ্গ আন্দোলন সংগ্রামের ইন্ধন যোগায়। আচার্যদেব নির্দেশে ছাত্ররা বিদেশী পণ্যের বহনং সবে  যোগ দেয় স্কুলের নাম দিয়ে সে খবর ইংল্যান্ডের পত্রিকার প্রকাশিত হয় ও ফলে প্রধান শিককের নাম গ্রেপ্তারি পরোয়ানা জারি হয়। কিন্তু এক বাঘা ইংরেজ অফিসার গ্রেপ্তার করতে এসে স্কুলের অসাধারন শৃঙ্খলা দেখে ও প্রধান শিক্ষকের ব্যক্তিত্ব স্তম্ভিত হয়ে পরোয়ানা প্রত্যাহার করেন।

      সেই স্কুলে সপ্তম শ্রেণী তে পড়ছি। সুবোধ চট খন্ডি মহাশয় ভূগোল পড়াবেন। ব্ল্যাক বোর্ডে মেপ টাঙিয়ে চেয়ারে বসে বেশ গোলগাল মানুষটি বেত দিয়ে মেপ পয়েন্ট করে দেখিয়ে বুঝিয়ে পড়াতো। ব্ল্যাকবোর্ডে আমাদের পন্ডিত মশাই (ক্ষেত্রমোহন পন্ডিত মহাশয়ের পুত্র স্বনামধন্য ভারত বিখ্যাত। .....???পড়াতেন সপ্ত তীর্থ ) চানক্য শ্লোক মুখস্থ করতে দিয়ে ছিলেন , হয় ওঠেনি। না বলতে পবায় পেছনে বিশ্যুট ভূতনাথ উপর দাঁড় করিয়ে দিয়েছিলেন সারা পিনিয়টা। ফল বড় ভাল হয়েছিল সেই থেকে তিনি। ... বেঞ্চির যত শ্লোক বলেছেন সব এখন ও মুখস্থ আছে। সংস্কৃত ছন্দে আকর্ষণ আসে ও একটা ছোট। ....তিনি ক্লাশে বই ও ছন্দে হাত দিয়ে বেরিয়ে। তিনি ছিলেন শ্রদ্ধার মূর্তি।  তার কথা লিখতে হলে আমার ছোট সংস্কৃত স্মারকে ধরবে না। তিনি পরে কোলকাতা বিশ্ববিদ্যালয়ের অধ্যাপক হয় ছিলেন।  

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