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सोमवार, 20 जून 2022

$$$🔆🙏परिच्छेद ~104 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]🔆सहज अवस्था ही उत्तम अवस्था है ।🙏 उन्हें आम मुख्त्यारी दे दो , उनकी जो इच्छा हो , वे करें ! 🙏उस त्रिभंग के एक ही भ्रूभंग से मनुष्य इस घोर तरंग को पार कर जाता है ।🙏ईश्वर ही वस्तु है, और सब अनित्य और अवस्तु - दो दिन के लिए है,🙏विवेक और वैराग्य के होने पर संसार में भी ईश्वर प्राप्ति होती है ।,🙏शक्ति की उपासना में सन्तानभाव बहुत अच्छा है वीरभाव अच्छा नहीं। 🙏भक्ति का अर्थ है-मन, वाणी और कर्म से उन्हें पुकारना ।🔆तुम माता के नाम पर विश्वास करना, बस हो आयेगा ।🙏अहेतुकी भक्ति ईश्वर-कोटि को होती है । जीव-कोटि को नहीं होती 🙏

*परिच्छेद -१०४*

*स्टार थियेटर में प्रह्लाद-चरित्र का अभिनय-दर्शन*

[(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

(१)

🔆🙏समाधि में🔆🙏 

श्रीरामकृष्ण आज स्टार थिएटर में प्रह्लाद-चरित्र का अभिनय देखने आये हैं । साथ में राम मास्टर, नारायण आदि हैं । तब स्टार थिएटर बिडन स्ट्रीट में था । बाद में इसी रंगमंच पर एमरेल्ड थिएटर और क्लासिक थिएटर का अभिनय होता था ।

आज रविवार है । १४ दिसम्बर, १८८४ । श्रीरामकृष्ण एक बाक्स में उत्तर की ओर मुँह किये हुए बैठे हैं । रंगमंच रोशनी से जगमगा रहा है । श्रीरामकृष्ण के पास बाबूराम, मास्टर और नारायण बैठे हैं । गिरीश आये हैं, अभी अभिनय का आरम्भ नहीं हुआ है । श्रीरामकृष्ण गिरीश से बातचीत कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) - वाह, तुमने तो यह सब बहुत अच्छा लिखा है ।

गिरीश – महाराज, धारणा कहाँ ? सिर्फ लिखता गया हूँ ।

श्रीरामकृष्ण - नहीं, तुम्हें धारणा है । उसी दिन तो मैंने तुमसे कहा था, भीतर भक्ति हुए बिना कोई मनुष्य 'भगवान की दिव्य लीला' का ऐसा चित्र नहीं खींच सकता ।

इसके लिए भी धारणा होनी चाहिए । केशव के यहाँ मैं नव-वृन्दावन नाटक देखने गया था । मैंने वहाँ एक डिप्टी मजिस्ट्रेट को देखा जो आठ सौ रुपये महीने कमाता था। सब लोगों ने कहा, बड़ा पण्डित है; परन्तु देखा वह गोद में एक बच्चा लिए हैरान-परेशान हो रहा था ।

क्या किया जाय जिससे बच्चा अच्छी जगह बैठे, अच्छी तरह नाटक देखे, इसी के लिए वह व्याकुल हो रहा था । इधर ईश्वरी बातें हो रही थीं, उसका जी नहीं लगता था । बच्चा बार बार पूछ रहा था, 'बाबूजी, यह क्या है ? वह क्या है ?' वह भी बच्चे के साथ उलझा हुआ था। उसने बस पुस्तकें पढ़ी हैं, धारणा नहीं हुई है ।" 

गिरीश - दिल में आता है अब थियेटर-सिएटर छोड़ दूँ , क्या करूँ ?

श्रीरामकृष्ण - नहीं, नहीं, इसका रहना जरूरी है, इससे लोकशिक्षा होगी ।

अभिनय होने लगा । प्रह्लाद पाठशाला में पढ़ने के लिए आये हैं । प्रह्लाद को देखकर श्रीरामकृष्ण 'प्रह्लाद प्रह्लाद' कहते हुए एकदम समाधिमग्न हो गये ।

प्रह्लाद को हाथी के पैरों के नीचे देखकर श्रीरामकृष्ण रो रहे हैं । अग्निकुण्ड में जब वे फेंक दिये गये तब भी श्रीरामकृष्ण के आँसू बह चले । गोलोक में लक्ष्मीनारायण बैठे हैं | प्रह्लाद के लिए नारायण सोच रहे हैं ! यह दृश्य देखकर श्रीरामकृष्ण फिर समाधिमग्न हो गये ।


 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

(2)

🔆🙏 ईश्वरदर्शन का उपाय। कर्मयोग तथा चित्तशुद्धि🔆🙏

[गृहस्थ जीवन में सोने से पहले पवित्र-वाणी श्रवण अनिवार्य है। ]

थियेटर -भवन के जिस कमरे में गिरीश रहते हैं , अभिनय हो जाने पर श्रीरामकृष्ण को वहीं ले गए।  गिरीश ने पूछा- 'महाराज, क्या आप  " विवाह-विभ्राट" प्रहसन देखना चाहेंगे ? 

श्रीरामकृष्ण ने कहा , " नहीं , प्रह्लाद -चरित्र के बाद यह सब क्या है ? मैंने इसीलिए गोपाल उड़िया के दल से कहा था -" तुम लोग प्रोग्राम खत्म होने के बाद अन्त में कुछ ईश्वरी बातें किया करो। " बहुत अच्छी ईश्वरी बातें हो रही थीं , फिर 'विवाह -विभ्राट ' --संसार की बात आ गयी ! "जो मैं था , वही हो गया ? " फिर वही पहले के भाव आ जाते हैं।  " श्रीरामकृष्ण गिरीश आदि के साथ ईश्वरी बातें कह रहे हैं।

गिरीश पूछ रहे हैं , " महाराज , आपने कैसा देखा ? " 

श्रीरामकृष्ण - साक्षात् वे ही सबकुछ हुए हैं। नाटक में जो नटी  विभिन्न स्त्रि पात्रों की भूमिका निभा रही थीं, मैंने उन्हें साक्षात् आनन्दमयी माता के अवतार के रूप में देखा। और जो लोग गोलोक -धाम के गोपाल बने थे , उन्हें मैंने साक्षात् श्रीमन्नारायण देखा। वे ही सब कुछ हुए हैं। 

परन्तु ईश्वर- दर्शन ठीक होता है या नहीं इसके लक्षण हैं। एक लक्षण तो आनन्द है। दूसरा , संकोच का लोप हो जाना। जैसे समुद्र में ऊपर तो हिलोरें और आवर्त उठ रहे हैं , परन्तु भीतर गंभीर जल है। 

जिसे ईश्वर के दर्शन हो चुके हैं , वह कभी पागल की तरह रहता है , कभी पिशाच की तरह। शुचि और अशुचि में भेद नहीं रहता है ; कभी जड़ की तरह है , क्योंकि भीतर और बाहर ईश्वर के दर्शन करके आश्चर्यचकित हो गया है। 

कभी बालकवत है , दृढ़ता नहीं है , जैसे बालक बगल में धोती दबाये घूमता है। इस अवस्था में कभी तो बाल्य-भाव होता है, कभी तरुणभाव - तब दिल्लगी सूझती है , कभी युवाभाव - तब कर्म करता है, लोक-शिक्षा देता है, तब वह सिंहतुल्य है।     

जीवों में अहंकार है , इसीलिए वे ईश्वर को नहीं देख पाते। मेघों के उमड़ने पर फिर सूर्य  नहीं दिख पड़ता।  सूर्य दिख नहीं पड़ता इसलिए क्या कभी यह कहना चाहिए कि सूर्य है ही नहीं ? सूर्य अवश्य है।  

" परन्तु बालक के 'मैं ' में दोष नहीं , बल्कि उपकार है। साग के खाने से बीमारी होती है , परन्तु 'हींचा' साग के खाने से उपकार होता है। इसीलिए हींचा की गिनती साग में नहीं है। इसी प्रकार मिश्री की गिनती भी मिठाइयों में नहीं होती। दूसरी मिठाइयों से बीमारी होती है , परन्तु मिश्री से कफ का दोष होता ही नहीं। 

" इसीलिए मैंने केशव सेन से कहा था , तुम्हें और अधिक कहने से फिर यह दल न रह जायेगा। केशव डर गया।  तब मैंने कहा , बालक का 'मैं ' , दास का 'मैं ' - इनमें दोष नहीं है। 

" जिन्होंने ईश्वर का दर्शन किया है , वे देखते हैं , ईश्वर ही जीव और जगत हुए हैं। सब कुछ वे ही हैं। उन्हें ही उत्तम भक्त कहते हैं। "   

गिरीश - (सहास्य) - सब कुछ तो वे ही हैं , परन्तु जरा सा 'मैं ' रह जाता है , इसमें कोई दोष नहीं है। 

श्रीरामकृष्ण - (हँसकर ) - हाँ , इससे हानि नहीं। वह 'मैं ' केवल सम्भोग के लिए है।  'मैं ' अलग और 'तुम ' अलग जब होता है , तभी सम्भोग हो सकता है , सेव्य-सेवक के भाव से।  

" और मध्यम दर्जे के भी भक्त हैं। वे देखते हैं , ईश्वर सब भूतों में अन्तर्यामी के रूप में विराजमान हैं। अधम दर्जे के भक्त कहते हैं , --वे हैं - अर्थात आकाश के उस पार ! (सब हँसे)  

"गोलोक के गोपालों को देखकर मुझे यह ज्ञात हुआ कि वे ही सब कुछ हुए हैं । जिन्होंने ईश्वर को देखा है वे स्पष्ट देखते हैं, ईश्वर ही कर्ता हैं, वे ही सब कुछ कर रहे हैं ।

गिरीश - महाराज, मैंने ठीक समझा है कि वे ही सब कुछ कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - मैं कहता हूँ, 'माँ, मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री हो, मैं जड़ हूँ, तुम चेतना भरनेवाली हो; तुम जैसा कराती हो, मैं वैसा ही करता हूँ; जैसा कहलाती हो, वैसा ही कहता हूँ ।' जो अज्ञान दशा में हैं, वे कहते हैं, 'कुछ तो वे करते हैं, कुछ मैं करता हूँ ।'

गिरीश - महाराज, मैं और करता ही क्या हूँ ? और अब कर्म ही क्यों किये जायँ ?

श्रीरामकृष्ण - नहीं जी, कर्म करना अच्छा है । जमीन जुती हुई हो तो उसमें जो कुछ बोओगे वही होगा । परन्तु इतना है कि कर्म निष्काम भाव से करना चाहिए ।

🙏तन्नो हंस: प्रचोदयात् 🙏

"परमहंस दो तरह के हैं । ज्ञानी परमहंस और प्रेमी परमहंस । जो ज्ञानी हैं, उन्हें अपने काम से काम । जो प्रेमी हैं, जैसे शुकदेवादि, वे ईश्वर को प्राप्त करके फिर लोक-शिक्षा देते हैं । कोई अपने आप ही आम खाकर मुँह पोंछ डालता है, और कोई और पाँच आदमियों को खिलाता है । 

कोई कुआँ खोदते समय टोकरी और कुदार अपने घर उठा ले जाते हैं, कोई कुआँ खुद जाने पर टोकरी और कुदार उसी कुएँ में डाल देते हैं; कोई दूसरों के लिए रख देते हैं ताकि पड़ोसियों के ही काम आ जाय । शुकदेव आदि ने दूसरों के लिए टोकरी और कुदार रख दी ।

 (गिरीश से) तुम भी दूसरों के लिए रखना ।"
गिरीश - तो आप आशीर्वाद दीजिये ।
श्रीरामकृष्ण - तुम माता के नाम पर विश्वास करना, बस हो आयेगा ।

गिरीश - मैं पापी तो हूँ ।

श्रीरामकृष्ण - जो सदा पाप पाप सोचा करता है, वह पापी हो जाता है ।

गिरीश - महाराज, मैं जहाँ बैठता था, वहाँ की मिट्टी भी अशुद्ध है ।

श्रीरामकृष्ण - यह क्या ! हजार साल के अँधेरे घर में अगर उजाला आता है तो क्या जरा जरा करके उजाला होता है या एकदम ही प्रकाश फैल जाता है ?

गिरीश - आपने आशीर्वाद दिया ।

श्रीरामकृष्ण - तुम्हारे अन्दर से अगर यही बात हो तो मैं इस पर क्या कह सकता हूँ ? मैं तो खाता-पीता हूँ और उनका नाम लिया करता हूँ ।

गिरीश - आन्तरिकता है नहीं, परन्तु यह कृपया आप दे जाइये ।

श्रीरामकृष्ण - क्या मैं ? नारद, शुकदेव, ये लोग होते तो दे देते ।

गिरीश - नारदादि तो दृष्टि के सामने हैं नहीं, पर आप मेरे सामने हैं ।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - अच्छा, तुम्हें विश्वास है !

सभी कुछ देर चुप रहे । फिर बातचीत होने लगी ।

गिरीश - एक इच्छा है, अहेतुकी भक्ति की ।

श्रीरामकृष्ण - अहेतुकी भक्ति ईश्वर-कोटि को होती है । जीव-कोटि को नहीं होती ।

श्रीरामकृष्ण ऊर्ध्वदृष्टि हैं । आप ही आप गाने लगे – "श्यामा को क्या सब लोग पाते हैं ? नादान मन समझाने पर भी नहीं समझता । उन सुरंजित चरणों से मन लगना शिव के लिए भी असाध्य साधन है । जो माता की चिन्ता करता है, उसके लिए इन्द्रादि का सुख और ऐश्वर्य भी तुच्छ हो जाता है । अगर वे कृपा की दृष्टि फेरती हैं, तो भक्त सदा ही आनन्द में मग्न रहता है । योगीन्द्र, मुनीन्द्र और इन्द्र उनके श्रीचरणों का ध्यान करके भी उन्हें नहीं पाते । निर्गुण में रहकर भी कमलाकान्त उन चरणों की चाह रखता है ।"

गिरीश - निर्गुण में रहकर भी कमलाकान्त उन चरणों की चाह रखता है !

 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

(३)

* क्या संसार में ईश्वर लाभ होता है ?*

श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) - तीव्र वैराग्य के होने पर वे मिलते हैं । प्राणों में विकलता होनी चाहिए। शिष्य ने गुरु से पूछा था, क्या करूँ जो ईश्वर को पाऊँ ? गुरु ने कहा, मेरे साथ आओ । यह कहकर गुरु ने उसे एक तालाब में डुबाकर ऊपर से पकड़ रखा ।

कुछ देर बाद उसे पानी से निकाल लिया और पूछा, 'पानी के भीतर तुम्हें कैसा लगता था ?' महाराज, मेरे प्राण डूबते-उतराते थे, जान पड़ता था अभी प्राण निकलना चाहते हैं ।' गुरु ने कहा, 'देखो, इसी तरह ईश्चर के लिए जब जी डूबता उतराता है तब उनके दर्शन होते हैं।'

“इस पर मैं कहता हूँ, जब तीनों आकर्षण एकत्र होते हैं तब ईश्वर मिलते हैं । विषयी का जैसा आकर्षण विषय की ओर है, सती का पति की ओर तथा माता का सन्तान की ओर, इन तीनों को अगर एक साथ मिलाकर कोई ईश्वर को पुकार सके तो उसी समय उनके दर्शन हो जायँ ।

     'मन ! जिस तरह पुकारा जाता है उस तरह तू पुकार तो सही, देखूं भला कैसे माँ श्यामा रह सकती है ?' उस तरह व्याकुल होकर पुकारने पर उन्हें दर्शन देना ही होगा ।

"उस दिन तुमसे मैंने कहा था - भक्ति का अर्थ क्या है । वह है मन, वाणी और कर्म से उन्हें पुकारना । कर्म - अर्थात् हाथों से उनकी पूजा और सेवा करना, पैरों से उनके स्थानों तक जाना, कानों से भगवान और उनके नाम, गुणों और भजनों को सुनना, आँखों से (हर चेहरे में) उनकी मूर्ति के दर्शन करना और खुश रहना । और मन से सदा उनका ध्यान - उनकी चिन्ता करना तथा उनकी लीलाओं का स्मरण करना। वाणी से उनकी स्तुतियाँ पढ़ना, उनके भजन गाना।    

[“সেদিন তোমায় যা বললুম ভক্তির মানে কি — না কায়মনোবাক্যে তাঁর ভজনা।]  
 
"कलिकाल के लिए नारदीय भक्ति है - सदा उनके नाम और गुणों का कीर्तन करना । जिन्हें समय नहीं है, उन्हें कम से कम शाम को तालियाँ बजाकर एकाग्र चित्त हो 'श्रीमन्नारायण नारायण नारायण -हरि हरि ' कहकर उनके नाम का कीर्तन करना चाहिए । 

"भक्ति के 'मैं' में अहंकार नहीं होता । वह अज्ञान नहीं लाता, बल्कि ईश्वर की प्राप्ति करा देता है। यह 'मैं' में नहीं गिना जाता, जैसे 'हिंचा' साग नहीं गिना जाता । दूसरे सागों से बीमारी हो सकती है, परन्तु 'हिंचा' साग पित्तनाशक है; इससे उपकार ही होता है । मिश्री मिठाइयों में नहीं गिनी जाती । दूसरी मिठाइयों के खाने से अपकार होता है, परन्तु मिश्री के खाने से अम्लविकार हटता है।

"निष्ठा के बाद भक्ति होती है । भक्ति की परिपक्व अवस्था भाव है । भाव के घनीभूत होने पर महाभाव होता है । सब से अन्त में है प्रेम ।

"प्रेम रज्जु है । प्रेम के होने पर भक्त के निकट ईश्वर बँधे रहते हैं, फिर भाग नहीं सकते । साधारण जीवों को केवल भाव तक होता है । ईश्वर-कोटि के हुए बिना महाभाव या प्रेम नहीं होता। प्रेम चैतन्यदेव को हुआ था
"ज्ञान वह है, जिस रास्ते से चलकर मनुष्य स्वरूप का पता पाता है । ब्रह्म ही मेरा रूप है, यह बोध होना चाहिए । [It is the path by which a man can realize the true nature of his own Self; it is the awareness that Brahman alone is his true nature. ] 

"प्रह्लाद कभी स्वरूप (Oneness) में रहते थे । कभी देखते थे 'एक मैं हूँ और एक तुम', तब वे भक्तिभाव में रहते थे । [Prahlada sometimes was aware of his identity with Brahman. And sometimes he would see that God was one (समुद्र)  and he another (तरंग) ; at such times he would remain in the mood of bhakti.]

"हनुमान ने कहा था, 'राम, कभी देखता हूँ, तुम पूर्ण हो, मै अंश हूँ; कभी देखता हूँ, तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ; और राम, जब तत्त्वज्ञान होता है, तब देखता हूँ, तुम्हीं मैं हो, मैं ही तुम हूँ ।'
गिरीश - अहा ! 

श्रीरामकृष्ण - संसार में होगा क्यों नहीं ? परन्तु विवेक और वैराग्य चाहिए । ईश्वर ही वस्तु है, और सब अनित्य और अवस्तु - दो दिन के लिए है, यह विचार दृढ़ रहना चाहिए । ऊपर -ऊपर उतराते रहने से न होगा । डुबकी मारनी चाहिए

"एक बात और याद रखना; समुद्र में काम आदि घड़ियालों का भय है ।"

गिरीश - परन्तु यम का भय मुझे नहीं है ।

श्रीरामकृष्ण - नहीं, काम आदि घड़ियालों का भय है । इसीलिए हलदी लगाकर डुबकी मारनी चाहिए - हलदी है विवेक और वैराग्य

"संसार में किसी किसी को ज्ञान होता है । इस पर दो तरह के योगियों की बात कही गयी है - गुप्त योगी और व्यक्त योगी । जिन लोगों ने संसार का त्याग कर दिया है, वे व्यक्त योगी हैं, उन्हें सब लोग पहचानते हैं । गुप्त योगी व्यक्त नहीं होता । जैसे नौकरानी - सब काम तो करती है, परन्तु मन अपने देश में बालबच्चों पर लगाये रहती है ।
और जैसा मैंने तुमसे कहा है, व्यभिचारणी औरत घर का कुल काम तो बड़े उत्साह से करती है, परन्तु मन से वह सदा अपने यार की याद करती रहती है । विवेक और वैराग्य का होना बड़ा मुश्किल है, 'मैं कर्ता हूँ' और 'ये सब चीजें मेरी हैं’, यह भाव बड़ी जल्दी दूर नहीं होता
    
   "एक डिप्टी मजिस्ट्रेट को मैंने देखा, आठ सौ रुपया महीना पाता है; ईश्वरी बातें हो रही थीं, उधर उसका जरा भी मन नहीं लगा । वह अपने लड़कों में से एक लड़के को अपने साथ ले आया था, उसे कभी यहाँ बैठाता था, कभी वहाँ । मैं एक और आदमी को जानता हूँ, उसका नाम न लूँगा, खूब जप करता था, परन्तु दस हजार रुपयों के लिए उसने झूठी गवाही दी थी ।

 "इसीलिए कहा, विवेक और वैराग्य के होने पर संसार में भी ईश्वर प्राप्ति होती है ।”

गिरीश - इस पापी के लिए क्या होगा ?

श्रीरामकृष्ण ऊर्ध्वदृष्टि हो गाने लगे –

 "ऐ जीवो, उस नरकान्तकारी श्रीकान्त का चिन्तन करो, इस तरह कृतान्त के भय का अन्त हो जायेगा । उनका स्मरण करने पर भवभावना दूर हो जाती है, उस त्रिभंग के एक ही भ्रूभंग से मनुष्य इस घोर तरंग को पार कर जाता है । सोचो तो, किस तत्त्व की प्राप्ति के लिए तुम इस मर्त्यलोक में आये, पर यहाँ आकर चित्त में बुरी वृत्तियाँ भरना शुरू कर दिया ! यह कदापि उचित नहीं, इस तरह तुम अपने को डुबा दोगे । अतएव उस नित्यपद की चिन्ता करके अपने इस चित्त का प्रायश्चित्त करो ।"
श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से)  उस त्रिभंग के एक ही भ्रूभंग से मनुष्य इस घोर तरंग को पार कर जाता है ।
"महामाया के द्वार छोड़ने पर उनके दर्शन होते हैं, महामाया की दया चाहिए । इसीलिए शक्ति की उपासना की जाती है । देखो न, पास ही भगवान हैं, फिर भी उन्हें जानने के लिए कोई उपाय नहीं, बीच में महामाया है, इसलिए राम, सीता और लक्ष्मण जा रहे हैं; आगे राम हैं, बीच में सीता और पीछे लक्ष्मण । राम बस ढाई हाथ के फासले पर हैं, फिर भी लक्ष्मण उन्हें नहीं देख पाते ।

"उनकी उपासना करने के लिए एक भाव का आश्रय लिया जाता है । मेरे तीन भाव हैं, सन्तानभाव, दासीभाव और सखीभाव । दासीभाव और सखीभाव में मैं बहुत दिनों तक था । उस समय स्त्रियों की तरह गहने और कपड़े पहनता था । सन्तानभाव बहुत अच्छा है ।

"वीरभाव अच्छा नहीं। मुण्डे और मुण्डियाँ , भैरव और भैरवियाँ, ये सब वीरभाव के उपासक हैं, अर्थात् प्रकृति को स्त्रीरूप से देखना और रमण के द्वारा उसे प्रसन्न करना - - इस भाव में प्रायः पतन हुआ करता है ।"

गिरीश - मुझ में एक समय वही भाव आया था । 

श्रीरामकृष्ण चिन्तित हुए-से गिरीश को देखने लगे ।

गिरीश - इस भाव का कुछ अंश अब भी शेष है । अब उपाय क्या है, बतलाइये ।

श्रीरामकृष्ण - (कुछ देर चिन्ता करके) - उन्हें `आम मुखत्यारी' दे दो, उनकी जो इच्छा हो, वे करें।

  [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

(4)

🔆🙏सत्त्वगुण तथा ईश्वरलाभ🔆🙏

श्री रामकृष्ण भक्त बालकों की बातें कर रहे हैं। 
श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) - ध्यान करता हुआ मैं उनके सब लक्षण देख लेता हूँ। 'घर सँवारूँगा' यह भाव उनमें नहीं है। स्त्री-सुख की इच्छा नहीं है। जिनके स्त्री है भी , वे उसके साथ नहीं सोते। बात यह है कि रजोगुण के बिना गये, शुद्ध सत्त्वगुण के बिना आये , ईश्वर पर मन स्थिर नहीं होता, उन पर प्यार नहीं होता , उन्हें मनुष्य पा नहीं सकता।     

गिरीश: आपने मुझे आशीर्वाद दिया है।

श्रीरामकृष्ण – कब ? परन्तु हाँ, यह कहा है कि आन्तरिकता के होने पर सब हो जायेगा ।

    बातचीत करते हुए श्रीरामकृष्ण 'आनन्दमयी' कहकर समाधिलीन हो रहे हैं । बड़ी देर तक समाधि की अवस्था में रहे । जरा समाधि से उतरकर कह रहे हैं - "ये सब कहाँ गये ?” मास्टर बाबूराम को बुला लाये । श्रीरामकृष्ण बाबूराम और दूसरे भक्तों की ओर देखकर बोले - “सच्चिदानन्द ही अच्छा है, और कारणानन्द?"

इतना कहकर श्रीरामकृष्ण गाने लगे –

“अबकी बार मैंने अच्छा सोचा है । एक अच्छे सोचनेवाले से मैंने सोचने का ढंग सीखा है । जिस देश में रात नहीं है, मुझे उसी देश का एक आदमी मिला है । दिन की तो बात ही न पूछो, सन्ध्या को भी मैंने बन्ध्या बना डाला है । मेरी आँखें खुल गयी हैं, अब क्या फिर मैं सो सकता हूँ ? मैं योग और याग में जाग रहा हूँ । माँ, योगनिद्रा तुझे देकर नींद को ही मैंने सुला दिया है। सोहागा और गन्धक को पीसकर मैंने बड़ा ही सुन्दर रंग चढ़ाया है, आँखों की कूँची बनाकर मैं मणि-मन्दिर को साफ कर लूँगा । रामप्रसाद कहते हैं, भुक्ति और मुक्ति दोनों को सिर पर रखे हुए हूँ और 'काली ही ब्रह्म है' यह मर्म समझकर धर्म और अधर्म, दोनों को मैंने छोड़ दिया है ।"
फिर उन्होंने दूसरा गाना गाया ।
"यदि 'काली काली' कहते मेरी मृत्यु हो जाय तो गंगा, गया, काशी, कांची, प्रभासादि क्षेत्रों में मैं क्यों जाऊँ ?"
फिर वे कहने लगे, “मैंने माँ से प्रार्थना करते हुए कहा था, माँ, मैं और कुछ नहीं चाहता, मुझे शुद्धा भक्ति दो ।"

गिरीश का शान्त भाव देखकर श्रीरामकृष्ण को प्रसन्नता हुई है । वे कह रहे हैं, "तुम्हारी यही अवस्था अच्छी है । सहज अवस्था ही उत्तम अवस्था है ।"

श्रीरामकृष्ण नाट्यभवन के मैनेजर के कमरे में बैठे हुए हैं । एक ने आकर पूछा, "क्या आप 'विवाह-विम्राट' देखेंगे ? अब अभिनय हो रहा है ?"

श्रीरामकृष्ण ने गिरीश से कहा, "यह तुमने क्या किया ? प्रह्लाद-चरित्र के बाद विवाह-विभ्राट ? पहले खीर देकर पीछे से कड़वी तरकारी ?"

अभिनय समाप्त हो जाने पर गिरीश के आदेश से रंगमंच की अभिनेत्रियाँ (actresses) श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करने आयीं । सब ने भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया । भक्तगण कोई खड़े, कोई बैठे हुए देख रहे हैं । उन्हें देखकर आश्चर्य होने लगा । अभिनेत्रियों में कोई-कोई श्रीरामकृष्ण के पैरों पर हाथ रखकर प्रणाम कर रही हैं । पैरों पर हाथ रखते समय श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, "माँ, बस हो गया - माँ बस, रहने दो ।" बातों में करुणा सनी हुई थी ।
उनके प्रणाम करके चले जाने पर श्रीरामकृष्ण भक्तों से कह रहे हैं - "सब वही हैं - एक एक अलग रूप में।
अब श्रीरामकृष्ण गाड़ी पर चढ़े। गिरीश आदि भक्तों ने उनके साथ चलकर उन्हें गाड़ी पर चढ़ा दिया। गाड़ी पर चढ़ते ही श्रीरामकृष्ण गम्भीर समाधि में लीन हो गये । नारायण आदि भक्त भी गाड़ी में बैठे । गाड़ी दक्षिणेश्वर की ओर चल दी ।
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[सबरी के बैर सुदामा के तण्डुल / विद्यापति]
श्रीमन्नारायण नारायण नारायण, 
सबरी के बैर सुदामा के तण्डुल, 
रुचि-रुचि भोग लगाबायन। 
शिब नारायण-नारायण-नारायण…..
श्रीमन्नारायण नारायण नारायण।।  
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गुरुवार, 9 जून 2022

$$$ BANKIM CHANDRA*🔆🙏परिच्छेद ~103 [(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]🙏उनके दर्शन देकर आदेश न देने तक प्रचार नहीं होता🔆 ईश्वर वस्तु है, बाकी सभी अवस्तु - यह बुद्धि न होने पर शुद्धा भक्ति नहीं होती । 🙏 दान आदि सभी राम की इच्छा पर निर्भर है🔆🙏

परिच्छेद -१०३

श्रीरामकृष्ण तथा श्री बंकिमचन्द्र

(শ্রীরামকৃষ্ণ ও শ্রীযুক্ত বঙ্কীম)

(१)

 [(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]

🔆🙏बंकिम और राधाकृष्ण ; युगल -रूप की व्याख्या 🔆🙏

आज श्रीरामकृष्णदेव अधर के मकान पर पधारे हैं; मार्गशीर्ष की कृष्ण चतुर्थी है, शनिवार ६ दिसम्बर, सन् १८८४ । श्रीरामकृष्ण पुष्य नक्षत्र में आये हैं । 

अधर विशेष भक्त हैं; वे डिप्टी मैजिस्ट्रेट हैं । उम्र २९-३० होगी । श्रीरामकृष्ण उनसे विशेष प्रेम रखते हैं । अधर की भी कैसी भक्ति है ! सारा दिन आफिस के परिश्रम के बाद मुँह-हाथ धोकर प्रायः प्रतिदिन ही सन्ध्या के समय श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने जाया करते थे । मकान शोभाबाजार बेनेटोला में है । वहाँ से दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में श्रीरामकृष्ण के पास गाड़ी करके जाते थे । इस प्रकार प्रतिदिन प्रायः दो रुपये गाडीभाड़ा देते थे । केवल श्रीरामकृष्ण का दर्शन करेंगे, यही आनन्द है । 

उनके श्रीमुख की वाणी सुनने का अवसर प्रायः नहीं होता था । पहुँचकर श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ हो प्रणाम करते थे; कुशल प्रश्न आदि के बाद में माँ काली का दर्शन करने जाते थे । बाद में जमीन पर चटाई बिछी रहती थी, उस पर विश्राम करते थे । श्रीरामकृष्ण स्वयं ही उनको विश्राम करने को कहते थे ।अधर का शरीर परिश्रम के कारण इतना क्लान्त हो जाता था कि वे थोड़े ही समय में सो जाते थे । रात के ९-१० बजे उन्हें उठा दिया जाता था । वे भी उठकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर फिर गाड़ी पर सवार होते और घर लौट जाते थे ।

अधर श्रीरामकृष्ण को अक्सर शोभाबाजार में अपने घर पर ले जाते थे । श्रीरामकृष्णदेव के आने पर वहाँ उत्सव लग जाता था । श्रीरामकृष्ण तथा अन्य भक्तों के साथ अधर खूब आनंद मनाते थे और अनेक प्रकार उन्हें तृप्ती के साथ भोजन कराते थे ।

एक दिन श्रीरामकृष्ण उनके घर पर पधारे । अधर ने कहा, “आप बहुत दिनों से इस मकान पर नहीं आये थे; घर बड़ा मैला पड़ा था, न जाने कैसी दुर्गन्ध पैदा हो गयी थी; आज देखिये, घर की कैसी शोभा हुई है और कैसी सुगन्ध फैली हुई है ! मैंने आज ईश्वर को बहुत पुकारा था । यहाँ तक कि आँखों से आँसू निकल पड़े थे ।" श्रीरामकृष्ण बोले, "कहते क्या हो जी" और यह कहकर अधर की ओर स्नेह-भरी दृष्टि से देखकर हँसने लगे ।

आज भी उत्सव होगा । श्रीरामकृष्ण भी आनन्दमय है, भक्तगण भी आनन्द से पूर्ण हैं; क्योंकि जहाँ श्रीरामकृष्ण उपस्थित हैं, यहाँ ईश्वर की चर्चा के अतिरिक्त और कोई भी बात न होगी । भक्तगण आये हैं और श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए अनेक नये नये व्यक्ति आये हैं।  अधर स्वयं डिप्टी मैजिस्ट्रेट हैं । वे अपने कुछ मित्र तथा डिप्टी मैजिस्ट्रेट को आमन्त्रित करके लाये हैं । वे स्वयं श्रीरामकृष्ण को देखेंगे और कहेंगे, वास्तव में वे महापुरुष है या नहीं । 

श्रीरामकृष्ण हँसमुख हो भक्तों के साथ बातचीत कर रहे हैं । इसी समय अधर अपने कुछ मित्रों को साथ लेकर श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे । 

अधर - (बंकिम को दिखाकर, श्रीरामकृष्ण के प्रति) - महाराज, ये बड़े विद्वान है; अनेक पुस्तकें लिखी हैं । आपको देखने आये हैं । इनका नाम है बंकिमबाबू

{'बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय [Bankim Chandra Chattopadhyay : (1838-1894)] - "वंदे मातरम्" संगीत के रचयिता साहित्य सम्राट बंकिमचंद्र कलकत्ता विश्वविद्यालय के पहले स्नातक थे। उन्होंने अपने साहित्यिक अभियान के माध्यम से बंगाल के लोगों को बौद्धिक रूप से प्रेरित किया। भारत को अपना राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् आनंदमठ से मिला। बंगाल में वर्ष 1770 के भीषण अकाल के बाद संन्यासी विद्रोह शुरू हुआ जिससे घोर अराजकता और दुर्दशा उत्पन्न हुई। उनका महाकाव्य उपन्यास आनंदमठ, संन्यासी विद्रोह (1770-1820) की पृष्ठभूमि से प्रभावित था। आधुनिक बंगाली साहित्य के प्रमुख रचनाकारों में से एक बंकिमचंद्र पेशे से डिप्टी मजिस्ट्रेट थे, तथा  बंगदर्शन पत्रिका के संस्थापक भी थे । बंकिमचंद्र का जन्म 24 परगना जिले के कांठाल पाड़ा नामक गांव में हुआ था।  श्री रामकृष्ण देव से उनकी मुलाकात 6 दिसंबर 1884 ईस्वी को अधरलाल सेन के  शोभाबाजार स्थित घर पर हुई थी । बंकिमचंद्र ने उस दिन ठाकुर से धर्म के विषय में विभिन्न प्रश्न पूछे थे और उनके उचित उत्तर को सुनकर संतुष्ट हुए थे। दक्षिणेश्वर में एक बार श्रीरामकृष्ण देव ने महेन्द्रनाथ गुप्त को  बंकिमचंद्र द्वारा लिखित पुस्तक 'देवी चौधुरानी' को पढ़कर सुनाने के लिए कहा था, तथा उस पुस्तक में गीतोक्त निष्काम कर्म का उल्लेख होते देखकर अपनी प्रशंसा व्यक्त की थी। श्रीरामकृष्ण वचनामृत में उल्लिखित ठाकुर देव के साथ हुए उनके वार्तालाप और उपदेशों को सुनकर बंकिम बाबू अध्यात्म के विषय में गहराई से चिंतन करने को विवश हो गए थे। बाद के दिनों में ठाकुर देव के निर्देशानुसार मास्टर महाशय और गिरीश बाबू ने बंकिम बाबू के सानकी- भांगा घर पर जाकर श्रीरामकृष्ण देव के उपदेशों की चर्चा विस्तार से की थी। ] 

श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए) – बंकिम ! तुम फिर किसके भाव में बंकिम हो गए हो भाई !

[बंकिम, तिरछा-bent या टेढ़ा] 

बंकिम - (हँसते हँसते) - जी महाराज, जूते की चोट से ! (सभी हँसे) अंग्रेज साहब के जूते की चोट से टेड़ा ।

श्रीरामकृष्ण - नहीं जी, श्रीकृष्ण प्रेम से बंकिम बने थे । श्रीमती राधा के प्रेम से त्रिभंग हुए थे । कृष्ण-रूप की व्याख्या कोई कोई करते हैं, श्रीराधा के प्रेम से त्रिभंग ।

"श्री कृष्ण काला (नील कलेवर) क्यों है जानते हो ? और साढ़े तीन हाथ - उतने छोटे क्यों है ?

"जब तक ईश्वर दूर हैं, तब तक काले दिखते हैं; जैसा समुद्र का जल दूर से नीला दिखता है । समुद्र के जल के पास जाने से और हाथ में उठाने से फिर जल काला नहीं रहता, उस समय बहुत साफ-सफेद दिखता है । सूर्य दूर है, इसलिए छोटा दिखता है; पास जाने पर फिर छोटा नहीं रहता, ईश्वर का स्वरूप ठीक जान लेने पर फिर काला भी नहीं रहता, छोटा भी नहीं रहता । यह बहुत दूर की बात है । समाधिमग्न न होने से उन्हीं की सब लीला है यह समझ में नहीं आता । 'मैं' 'तुम' है तब तक नाम-रूप भी हैं । उन्हीं की सब लोला है । 'मैं’ ‘तुम' जब तक रहते हैं, तब तक वे अनेक रूपों में प्रकट होते हैं ।" 
"श्रीकृष्ण पुरुष हैं, श्रीमती राधा उनकी शक्ति हैं - आद्याशक्ति । पुरुष और प्रकृति युगल मूर्ति का अर्थ क्या है ? पुरुष और प्रकृति अभिन्न हैं । उनमें भेद नहीं है । पुरुष प्रकृति के बिना नहीं रह सकता, प्रकृति भी पुरुष के बिना नहीं रह सकती । एक का नाम करने से ही दूसरे को उसके साथ ही समझना होगा । जिस प्रकार अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति । दाहिका शक्ति को छोड़कर अग्नि का चिन्तन नहीं किया जा सकता और अग्नि को छोड़कर दाहिका शक्ति का भी चिन्तन नहीं किया जा सकता ।

" इसलिए युगल-मूर्ति में श्रीकृष्ण की दृष्टि श्रीमती की ओर, और श्रीमती की दृष्टि श्रीकृष्ण की ओर है । श्रीमती का गौर वर्ण है, बिजली की तरह श्रीमती ने नीली साड़ी पहनी है और उन्होंने नीलकान्त मणि से अंग को सजाया है । श्रीमती के चरणों में नुपुर है, इसलिए श्रीकृष्ण ने भी नुपुर पहने हैं, अर्थात् प्रकृति के साथ पुरुष का अन्दर तथा बाहर मेल है ।"

ये सब बातें समाप्त हुईं । अब अधर के बंकिम आदि मित्रगण अंग्रेजी में धीरे धीरे बातें करने लगे । श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए बंकिम आदि के प्रति) - क्या जी आप लोग अंग्रेजी में क्या बातचीत कर रहे हैं ? (सभी हँसे ।)
अधर - जी, इसी विषय में जरा बात हो रही थी, कृष्णरूप की व्याख्या की बात !

श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए सभी के प्रति) - एक कहानी की याद आने से मुझे हँसी आ रही है । सुनो कहानी कहूँ । नाई हजामत बनाने गया था । एक भद्र पुरुष हजामत बनवा रहे थे । अब हजामत बनवाते बनवाते उन्हें जरा कहीं अस्तुरा लग गया और उस भद्र पुरुष ने कहा 'डैम' (damn) परन्तु नाई तो डैम का मतलब नहीं जानता था । जाड़े का दिन था, उसने अस्तुरा आदि छोड़-छाड़कर अपनी कमीज की अस्तीन उठाकर कहा 'तुमने मुझे डैम कहा, अब कहो, इसका मतलब क्या है ?'
उस व्यक्ति ने कहा, 'अरे, तू हजामत बना न ! उसका मतलब विशेष कुछ भी नहीं है, परन्तु जरा होशियारी से बनाना !' नाई भी छोड़नेवाला न था । वह कहने लगा, 'डॅम का मतलब यदि अच्छा है, तो मैं डॅम, मेरा बाप डॅम, मेरे चौदह पुरुष डॅम हैं । (सभी हँसे ।) और डॅम का मतलब यदि खराब हो तो तुम डॅम, तुम्हारा बाप डॅम, तुम्हारे चौदह पुरुष डॅम हैं । (सभी हँसे ।) फिर केवल डॅम ही नहीं - डॅम डॅम डॅम डॅम ।’ (सभी जोर से हँसे ।)

 [(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]

(२) 

🔆🙏 श्रीरामकृष्ण और प्रचारकार्य 🔆🙏


सब की हँसी बन्द होने पर बंकिम ने फिर बातचीत प्रारम्भ की ।

बंकिम - महाराज, आप प्रचार क्यों नहीं करते ?

श्रीरामकृष्ण - (हँसते हँसते ) – " प्रचार ? वह सब गर्व की बातें हैं । मनुष्य तो क्षुद्र जीव है । प्रचार वे ही करेंगे । जिन्होंने चन्द्र-सूर्य पैदा करके इस जगत् को प्रकाशित किया है । प्रचार करना क्या साधारण बात है ? उनके दर्शन देकर आदेश न देने तक प्रचार नहीं होता ।" हाँ ,परन्तु प्रचार करने से तुम्हें कोई रोक नहीं सकता । 
तुम्हें आदेश नहीं मिला, फिर भी तुम बक-बक कर रहे हो; वही दो दिन लोग सुनेंगे फिर भूल जायेंगे । जैसे एक लहर । जब तक तुम कह रहे हो, तब तक लोग कहेंगे, 'अहा, अच्छा कह रहे हैं वे ।’ तुम रुकोगे, उसके बाद कहीं कुछ भी न होगा ।

“जब तक दूध की कढ़ाई के नीचे आग जलती रहेगी, तब तक दूध खौल करके उबल उठता है । लकड़ी खींच लो, दूध भी ज्यों का त्यों नीचे उतर गया
“और साधना करके अपनी शक्ति बढ़ानी चाहिए, नहीं तो प्रचार नहीं होता । 'अपने सोने के लिए जगह नहीं पाता और ऊपर से शंकरा को पुकारता हैं ।' अपने ही सोने के लिए स्थान नहीं, फिर पुकारता है, 'अरे शंकरा, आओ मेरे पास आकर सोओ ।'

"उस देश में हालदारों के तालाब के किनारे लोग रोज शौच को जाते थे, सबेरे लोग आकर देखते थे और गाली-गलौज करते थे । लोग गाली देते थे, फिर भी लोगों का शौच जाना बन्द नहीं होता था । अन्त में मुहल्लेवालों ने अर्जी भेजकर कम्पनी को सूचित किया ।

`उन्होंने एक नोटिस लगा दिया, 'यहाँ पर शौच जाना या पेशाब करना मना है, जो ऐसा करेगा उसे सजा दी जायेगी ।’ उसके बाद सब एकदम बन्द और फिर कोई गड़बड़ी नहीं । कम्पनी का हुक्म - सभी को मानना होगा । "उसी प्रकार ईश्वर का साक्षात्कार होने पर यदि वे आदेश दें, तभी प्रचार होता है, लोकशिक्षा होती है, नहीं तो तुम्हारी बात कौन सुनेगा ?"

 इन बातों को सभी गम्भीर भाव से स्थिर होकर सुनने लगे।

श्रीरामकृष्ण - (बंकिम के प्रति ) - अच्छा, आप तो बड़े पण्डित हैं, और कितनी पुस्तकें लिखी हैं आपने ! आप क्या कहते हैं, मनुष्य का क्या कर्तव्य है ? साथ क्या जायेगा ? परकाल तो है न ?

बंकिम – परकाल ? वह क्या चीज है ?

श्रीरामकृष्ण -" हाँ, ज्ञान के बाद और दूसरे लोक में जाना नहीं पड़ता, पुनर्जन्म नहीं होता । परन्तु जब तक ज्ञान नहीं होता, ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती, तब तक संसार में लौटकर आना पड़ता है, बचने का कोई भी उपाय नहीं है । तब तक परलोक भी है । ज्ञान प्राप्त होने पर, ईश्वर का दर्शन होने पर मुक्ति हो जाती है - और आना नहीं पड़ता ।
"उबाला हुआ धान बोने से फिर पौधा नहीं होता । ज्ञानरूपी अग्नि से यदि कोई उबाला हुआ हो, तो उसे लेकर और सृष्टि का खेल नहीं होता । वह गृहस्थी कर नहीं सकता, उसकी तो कामिनी-कांचन में आसक्ति नहीं है । उबाले हुए धान को फिर खेत में बोने से क्या होगा ?
बंकिम - (हँसते हँसते) - हाँ महाराज, और घास-पतवार से भी तो पेड़ का कार्य नहीं होता !
श्रीरामकृष्ण - परन्तु ज्ञानी घास-पतवार नहीं हैं । जिसने ईश्वर का दर्शन किया है, उसने अमृतफल प्राप्त किया है - वह कोई कद्दू-कोंहड़ा फल नहीं है ! उसका पुनर्जन्म नहीं होता । पृथ्वी कहो, सूर्यलोक कहो, चन्द्रलोक कहो - कहीं पर भी उसे आना नहीं पड़ता । 
"उपमा एकदेशी है। तुमने न्यायशास्त्र नहीं पढ़ा ? बाघ की तरह भयानक कहने से , बाघ की तरह एक भारी दुम या बड़े भारी मुख से अर्थ हो, सो नहीं। (सभी हँसे)  
"मैंने केशव सेन से वही बात कही थी । केशव ने पूछा - 'महाराज, क्या परलोक हैं ?' मैंने न इधर बताया और न उधर कहा, कुम्हार लोग मिट्टी के बर्तन बनाकर सूखने के लिए बाहर रखते हैं। उनमें पक्के बर्तन भी है और फिर कच्चे बर्तन भी । कभी कोई जानवर आकर उन्हें कुचलकर चले जाते हैं ।
" पक्के बर्तन टूट जाने पर कुम्हार उन्हें फेंक देता है, परन्तु कच्चे बर्तन टूट जाने पर उन्हें कुम्हार फिर घर में लाता है, लाकर पानी मिलाता है और उसे गीला करके रगड़कर फिर चाक पर चढ़ाता और नया बर्तन बना लेता है; छोड़ता नहीं । इसीलिए केशव से कहा, जब तक कच्चा रहेगा तब तक कुम्हार नहीं छोड़ेगा, जब तक ज्ञान प्राप्त नहीं होता, जब तक ईश्वर का दर्शन नहीं मिलता, तब तक कुम्हार फिर चाक पर डालेगा; छोड़ेगा नहीं । अर्थात् लौट-लौटकर इस संसार में आना पड़ेगा - छुटकारा नहीं । 
"उन्हें प्राप्त करने पर तब मुक्ति होती है, तब कुम्हार छोड़ देता है, क्योंकि उसके द्वारा माया की सृष्टि का कोई काम नहीं होता । ज्ञानी माया के परे चले गये हैं; वे फिर माया के संसार में क्या करेंगे ?
"परन्तु किसी किसी को [`C-IN-C' नवनीदा को ?]वे माया के संसार में रख देते हैं, लोक शिक्षा के लिए । लोगों को शिक्षा देने के लिए ज्ञानी विद्यामाया का सहारा लेकर रहते हैं । ईश्वर ही अपने काम के लिए उन्हें रख छोड़ते हैं, जैसे शुकदेव, शंकराचार्य । 
श्रीरामकृष्ण (बंकिम के प्रति सहास्य ) - " अच्छा, आप क्या कहते हैं, मनुष्य का क्या कर्तव्य है?”

बंकिम – (हँसते हँसते) - यदि आप पूछते ही हैं तो उसका कर्तव्य है, आहार, निद्रा और मैथुन ।

श्रीरामकृष्ण - (विरक्त होकर) – ओह ! "तुमि तो बोड़ो छैंछड़ा " तुम बहुत ही बेहूदे हो ! तुम दिन-रात जो करते हो वही तुम्हारे मुख से निकल रहा है । लोग जो कुछ खाते हैं उसी की डकार आती है । मूली खानेपर मूली की डकार आती है । नारियल खाने पर नारियल की डकार आती है। कामिनी-कांचन में दिन-रात रहते हो और वही बात मुख से निकल रही है । केवल विषय का चिन्तन करने से हिसाबी स्वभाव बन जाता है, मनुष्य कपटी बन जाता है । ईश्वर का चिन्तन करने पर सरल होता है, ईश्वर का साक्षात्कार होने पर ऐसी बातें कोई नहीं कहेगा । 

 "यदि ईश्वर का चिन्तन न हो, यदि विवेक-वैराग्य न हो तो केवल विद्वत्ता रहने से क्या होगा ? यदि कामिनी-कांचन में मन रहे, तो केवल पण्डिताई से क्या होगा ?

"गिद्ध बहुत ऊँचाई पर उड़ता है, परन्तु दृष्टि उसकी केवल मरघट पर ही रहती है । पण्डितजी अनेक पुस्तकें, शास्त्र पढ़ते हैं, श्लोक झाड़ सकते हैं, कितनी ही पुस्तकें लिखते हैं, परन्तु औरत के प्रति आसक्त हैं, धन और मान को सार समझते हैं, वह फिर कैसा पण्डित ? ईश्वर में यदि मन न रहा तो फिर क्या पण्डित और क्या उसकी पण्डिताई ?

      "कोई-कोई समझते हैं कि ये लोग केवल ईश्वर-ईश्वर कर रहे हैं; पगले हैं ! ये लोग बौरा गये हैं । हम कैसे चालाक हैं, कैसे सुख भोग रहे हैं - धन-सम्मान, इन्द्रिय-सुख । कौआ भी समझता है, मैं बहुत चालाक हूँ, परन्तु सबेरे उठकर ही दूसरों की विष्ठा खाता हैं । कौओं को नहीं देखते हो, कितनी ऐंठ के साथ घुमते-फिरते हैं, बड़े सयाने ! (सभी चुप हैं ।)
 
"जो लोग ईश्वर का चिन्तन करते हैं, विषय में आसक्ति, कामिनी-कांचन में प्रेम दूर करने के लिए दिन-रात प्रार्थना करते हैं, जिन्हें विषय का रस कडुवा लगता है, हरि-पाद पद्म की सुधा को छोड़कर जिन्हें और कुछ भी अच्छा नहीं लगता, उनका स्वभाव हंस का सा होता है । हंस के सामने दूध-जल मिलाकर रखो, जल छोड़कर दूध पी जायगा । हंस की चाल देखी है ? एक ओर सीधा चला जायेगा ।
" और शुद्ध भक्ति की गति भी केवल ईश्वर की ओर होती है । वह और कुछ नहीं चाहता । उसे और कुछ भी अच्छा नहीं लगता । (बंकिम के प्रति कोमल भाव से) आप कुछ बुरा न मानियेगा ।"

बंकिम - जी, मैं यहाँ मीठी बातें सुनने नहीं आया हूँ ।

 [(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]

(३)

*जगत् का उपकार तथा कर्मयोग*

श्रीरामकृष्ण - (बंकिम के प्रति) – कामिनी-कांचन ही संसार है । इसी का नाम माया है । ईश्वर को देखने तथा उसका चिन्तन नहीं करने देती । एक-दो बच्चे होने पर स्त्री के साथ भाई-बहन के सदृश रहना चाहिए और आपस में सदा ईश्वर की बातचीत करनी चाहिए ।  इससे दोनों का ही मन उनकी ओर जायेगा और स्त्री धर्म की सहायक बनेगी । पशुभाव न मिटने पर ईश्वर के आनन्द का आस्वादन हो नहीं सकता । ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि जिससे पशुभाव दूर हो । व्याकुल होकर प्रार्थना । वे अन्तर्यामी हैं, अवश्य ही सुनेंगे - यदि प्रार्थना आन्तरिक हो ।

"फिर 'कांचन' । मैंने पंचवटी में गंगा के किनारे पर बैठकर 'रुपया मिट्टी' 'रुपया मिट्टी' 'मिट्टी ही रुपया' 'रुपया ही मिट्टी' कहकर दोनों जल में फेंक दिये थे ।”
बंकिम - रुपया मिट्टी ! महाराज, चार पैसे रहे तो गरीब को दिये जा सकते हैं । रुपया यदि मिट्टी है तो फिर दया परोपकार कैसे होगा ?

श्रीरामकृष्ण - (बंकिम के प्रति ) – दया ! परोपकार ! तुम्हारी क्या शक्ति है कि तुम परोपकार करो ? मनुष्य का इतना घमण्ड, परन्तु जब सो जाता है, तो यदि कोई खड़े होकर उसके मुँह में पेशाब भी कर दे, तो पता नहीं लगता । उस समय अहंकार, गर्व, दर्प कहाँ जाता है ?
"संन्यासी को कामिनी-कांचन का त्याग करना पड़ता है । उसे फिर वह ग्रहण नहीं कर सकता । थूक को फेंककर फिर उसे चाटना नहीं चाहिए । संन्यासी यदि किसी को कुछ देता है तो वह ऐसा नहीं समझता कि उसने स्वयं दिया । दया ईश्वर की है, मनुष्य बेचारा क्या दया करेगा ? दान आदि सभी राम की इच्छा पर निर्भर है ।

यथार्थ संन्यासी मन से भी `कामिनी -कांचन' का त्याग करता है, और बाहर से भी त्याग करता है। वह गुड़ नहीं खाता, उसके पास गुड़ रहना भी ठीक नहीं । पास गुड़ रहते यदि वह कहे कि ‘न खाओ’ तो लोग सुनेंगे नहीं ।
   
“गृहस्थ लोगों को रुपयों की आवश्यकता है, क्योंकि स्त्री बच्चे हैं । उन्हें संचय करना चाहिए – स्त्री-बच्चों को खिलाना होगा । संचय नहीं करेंगे केवल पंछी और दरवेश, अर्थात् चिड़िया और संन्यासी । परन्तु चिड़िये का बच्चा होने पर वह मुँह में उठाकर खाना लाती है । उसे भी उस समय संचय करना पड़ता है । इसीलिए गृहस्थ लोगों को धन की आवश्यकता है - परिवार का पालन-पोषण करना चाहिए ।

"गृहस्थ लोग यदि शुद्ध भक्त हों तो अनासक्त होकर कर्म कर सकते हैं । यह कर्म का फल, हानि, लाभ, सुख, दुःख ईश्वर को समर्पित करता है । और उनसे दिन-रात भक्ति की प्रार्थना करता है, और कुछ भी नहीं चाहता । इसी का नाम है 'निष्काम कर्म’ - अनासक्त होकर कर्म करना । संन्यासी के सभी कर्म निष्काम होने चाहिए । परंतु संन्यासी गृहस्थों की तरह विषयकर्म नहीं करता।
"गृहस्थ व्यक्ति निष्काम भाव से यदि किसी को कुछ दान दे, तो वह अपने ही उपकार के लिए होता है । परोपकार के लिए नहीं । सर्व भूतों में हरि विद्यमान है, उन्हीं की सेवा होती है । हरि सेवा होने से अपना ही उपकार हुआ, 'परोपकार' नहीं

" यही सर्व भूतों में हरि की सेवा है - केवल मनुष्य की नहीं, जीवजन्तुओं में भी हरि की सेवा यदि कोई करे, और यदि वह मान, यश, मरने के बाद स्वर्ग न चाहे, जिनकी सेवा कर रहा है उनसे बदले में कोई उपकार न चाहे - इस प्रकार यदि सेवा करे, तो उसका निष्काम कर्म, अनासक्त कर्म होता है । "इस प्रकार निष्काम कर्म करने पर उसका अपना कल्याण होता है । इसी का नाम कर्मयोग है । यह कर्मयोग भी ईश्वर को प्राप्त करने का एक उपाय है, परन्तु यह मार्ग है बड़ा कठिन । कलियुग के लिए नहीं है । 

"इसलिए कहता हूँ, जो व्यक्ति अनासक्त होकर इस प्रकार कर्म करता है, दया दान करता है, वह अपना ही भला करता है । दूसरों का उपकार, दूसरों का कल्याण - यह सब ईश्वर करते हैं जिन्होंने जीव के लिए चन्द्र, सूर्य, माँ बाप, फल, फूल, अनाज पैदा किया है । पिता आदि में जो स्नेह देखते हो, वह उन्हीं का स्नेह है, जीव की रक्षा के लिए ही उन्होंने यह स्नेह दिया है । दयालु के भीतर जो दया देखते हो, वह उन्हीं की दया है, उन्होंने असहाय जीव की रक्षा के लिए दी है । तुम दया करो या न करो, वे किसी न किसी उपाय से अपना काम करेंगे ही । उनका काम रुका नहीं रह सकता । 
"इसीलिए जीव का कर्तव्य क्या है ? वह यह कि उनकी शरण में जाना, और जिससे उनकी प्राप्ति हो, उनका दर्शन हो उसी के लिए व्याकुल होकर उनसे प्रार्थना करना - और दूसरा क्या ?

"शम्भू ने कहा था, 'मेरी इच्छा होती है कि अनेक डिस्पेन्सरियाँ (दवाखाने), अस्पताल बनवा दूँ । इससे गरीबों का बहुत उपकार होगा ।’ मैंने कहा, 'हाँ, अनासक्त होकर यदि यह सब करो तो बुरा नहीं ।’ परन्तु ईश्वर पर आन्तरिक भक्ति न रहने पर अनासक्त बनना बड़ा कठिन है ।

"फिर अनेक काम बढ़ा लेने से न जाने किधर से आसक्ति आ जाती है, जाना नहीं जाता । मन में सोचता हूँ कि निष्काम भाव से काम कर रहा हूँ, परन्तु सम्भव है, यश की इच्छा हुई, ख्याति प्राप्त करने की इच्छा हुई । फिर जब (नाम-यश के चक्कर में) अधिक कर्म करने को जाता है, तो कर्म की भीड़ में ईश्वर को भूल जाता है ।

" और कहा 'शम्भू ! तुमसे एक बात पूछता हूँ । यदि ईश्वर तुम्हारे सामने आकर प्रकट हों तो क्या तुम उनसे कुछ डिस्पेन्सरियाँ या अस्पताल माँगोगे या स्वयं उन्हें माँगोगे ?' उन्हें प्राप्त करने पर और कुछ भी अच्छा नहीं लगता । मिश्री का शरबत पीने पर फिर गुड़ का शरबत अच्छा नहीं लगता ।

"जो लोग अस्पताल, डिस्पेन्सरी खोलेंगे और इसी में आनन्द अनुभव करेंगे, वे भी भले आदमी हैं । परन्तु उनकी श्रेणी अलग है । जो शुद्ध भक्त है, वह ईश्वर के अतिरक्त और कुछ भी नहीं चाहता; अधिक कर्म के बीच में यदि वह पड़ जाय तो व्याकुल होकर प्रार्थना करता है, 'हे ईश्वर, दया करके मेरा कर्म कम कर दो, नहीं तो, जो मन रातदिन तुम्हीं में लगा रहेगा, वह मन व्यर्थ में इधर-उधर खर्च हो रहा है । उसी मन से विषय का चिन्तन किया जा रहा है ।’

"शुद्धा भक्ति की श्रेणी अलग ही होती है । ईश्वर वस्तु है, बाकी सभी अवस्तु - यह बुद्धि न होने पर शुद्धा भक्ति नहीं होती । यह संसार अनित्य है, दो दिन के लिए है, और इस संसार के जो कर्ता हैं, वे ही सत्य हैं; नित्य हैं । यह ज्ञान न होने पर शुद्धा भक्ति नहीं होती ।
"जनक आदि ने आदेश पाने पर ही कर्म किया है ।"

 [(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]

(४)

🔆🙏पहले विद्या (Science) या पहले ईश्वर🔆🙏

[আগে বিদ্যা (Science) না আগে ঈশ্বর]

श्रीरामकृष्ण - (बंकिम के प्रति) कोई कोई समझते हैं कि बिना शास्त्र पढ़े अथवा पुस्तकों का अध्ययन किये ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता । वे सोचते हैं, पहले जगत् के बारे में, जीव के बारे में जानना चाहिए, पहले साइन्स(Science) पढ़ना चाहिए । (सभी हँसे ।) वे कहते हैं, ईश्वर की यह सारी सृष्टि समझे बिना ईश्वर को जाना नहीं जाता । तुम क्या कहते हो ? पहले साइन्स या पहले ईश्वर ?

बंकिम - जी हाँ, पहले जगत् के बारे में दस बातें जान लेनी चाहिए । थोड़ा इधर का ज्ञान हुए बिना ईश्वर को कैसे जानूँगा ? पहले पुस्तकें पढ़कर कुछ जान लेना चाहिए ।

श्रीरामकृष्ण - वही तुम लोगों का एक (उल्टा>) ख्याल है पहले ईश्वर, उसके बाद सृष्टि । उन्हें प्राप्त करने पर, आवश्यक हो तो सभी जान सकोगे ।  किसी भी तरह यदु मल्लिक के साथ बातचीत कर सकोगे फिर यदि तुम यह जानना चाहोगे कि उसके कितने मकान हैं, कितने कम्पनी के कागज हैं, कितने बगीचे हैं, तो यह सब भी जान सकोगे । यदु मल्लिक ही खुद सब बता देगा ।
     " परन्तु यदि उसके साथ पहले से कोई जान-पहचान न हो,  बतचीत न हो, और मकान के अन्दर घुसना चाहोगे, तो दरवान लोग घुसने ही न देंगे । फिर ठीक-ठीक  कैसे जानोगे कि उसके कितने मकान है, कितने कम्पनी के कागजात हैं, कितने बगीचे हैं आदि आदि ? उन्हें जान लेने पर सब कुछ जाना जा सकता है । परन्तु उन्हें जान लेने के बाद  फिर मामूली चोजें जानने की इच्छा नहीं रहती
" वेद में भी यही बात है । जब तक किसी व्यक्ति को (माँ जगदम्बा को) देखा नहीं जाता तब तक उसके गुणों की बातें बतायी जा सकती है; जब वह सामने आ जाता है, उस समय वे सब बातें बन्द हो जाती हैं । लोग उसे ही लेकर मस्त रहते हैं । उसके साथ हो बातचीत करते हुए विभोर हो जाते हैं, उस समय दूसरी बाते नहीं सूझतीं ।

"पहले ईश्वर की प्राप्ति, उसके बाद सृष्टि या दूसरी बातचीत । वाल्मीकि को राममन्त्र का जप करने को कहा गया, परन्तु उनसे कहा गया, 'मरा' 'मरा' का जप करो । 'म' अर्थात् ईश्वर और 'रा' अर्थात् जगत् । पहले ईश्वर, उसके बाद जगत्, एक को जानने पर सभी जाना जा सकता है । एक के बाद यदि पचास शून्य रहे तो संख्या बढ़ जाती हैं । १ को मिटा देने से कुछ भी नहीं रहता। एक को लेकर ही अनेक है । पहले एक, उसके बाद अनेक; पहले ईश्वर, उसके बाद जीव-जगत्।
 
"तुम्हारी आवश्यकता है ईश्वर को प्राप्त करने की । तुम इतना जगत्, सृष्टि, साइन्स-फाइन्स यह सब क्या कर रहे हो ? तुम्हें आम खाने से मतलब । बगीचे में कितने सौ पेड़ हैं, कितने हजार टहनियाँ, कितने लाख करोड़ पत्ते हैं - इन सब हिसाबों से तुम्हारा क्या काम ?
" तुम आम खाने आये हो, आम खाकर चले आओ । इस संसार में मनुष्य आया है भगवान को प्राप्त करने के लिए । उसे भूलकर अन्य विषयों में मन लगाना ठीक नहीं। आम खाने के लिए आये हो, आम खाकर ही चले जाओ ।"

बंकिम - आम पाता हूँ कहाँ?

श्रीरामकृष्ण - उनसे व्याकुल होकर प्रार्थना करो, आन्तरिक प्रार्थना होने पर वे अवश्य सुनेंगे । सम्भव है कि ऐसा कोई सत्संग जुटा दें, जिससे सुभीता हो जाय । सम्भव है कोई कह दें, ऐसा-ऐसा करो,तो ईश्वर को पाओगे ।

बंकिम – कौन ? गुरु ? वे अच्छे आम स्वयं खाकर मुझे खराब आम देते हैं ! (हंसी ।)

श्रीरामकृष्ण - क्यों जी ! जिसके पेट में जो सहन होता है । सभी लोग कलिया खाकर पचा सकते हैं ? घर में अच्छी चीज बनने पर माँ सभी बच्चों को पुलाव-कलिया नहीं देती । जो कमजोर है, जिसे पेट की बीमारी है, उसे सादी तरकारी देती है; तो क्या माँ उस बच्चे से कम स्नेह करती है ?

[One must have faith in the guru's words. God Himself is the Guru.] 

"गुरुवाक्य में विश्वास करना चाहिए । गुरु ही सच्चिदानन्द, सच्चिदानन्द ही गुरु हैं; उनकी बात पर विश्वास करने से, बालक की तरह विश्वास करने से, ईश्वरप्राप्ति होती है । बालक का क्या हो विश्वास है ! माँ ने कहा, 'वह तेरा भाई लगता है’, उसी समय जान लिया, 'वह मेरा भाई है ।' एकदम पूरा पक्का विश्वास ।
"ऐसा भी हो सकता है कि वह लड़का ब्राह्मण के घर का है, और वह 'भाई' सम्भव है कि किसी दूसरी जाति का हो।" माँ ने कहा, उस कमरे में 'जूजू' है । बस, पक्का जान लिया, उस कमरे में 'जूजू' है । यही बालक का विश्वास है; गुरुवाक्य में इसी प्रकार विश्वास चाहिए । सयानी बुद्धि, हिसाबी बुद्धि, विचार बुद्धि करने से ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता । विश्वास और सरलता होनी चाहिए, कपटी होने से न होगा । सरल के लिए वे बहुत सहज हैं । कपटी से वे बहुत दूर हैं ।

"परन्तु बालक जिस प्रकार माँ को न देखने से बेचैन हो जाता है, लड्डू मिठाई हाथ पर लेकर चाहे भुलाने की चेष्टा करो परन्तु वह कुछ भी नहीं चाहता, किसी से नहीं भूलता और कहता है, 'नहीं, मैं माँ के ही पास जाऊँगा,' इसी प्रकार ईश्वर के लिए व्याकुलता चाहिए ।

"अहा ! कैसी स्थिति ! - बालक जिस प्रकार 'माँ माँ' कहकर पागल हो जाता है, किसी भी तरह नहीं भूलता ! जिसे संसार के ये सब सुखभोग फीके लगते हैं, जिसे अन्य कुछ भी अच्छा नहीं लगता, वही हृदय से 'माँ माँ' कहकर कातर होता है । उसी के लिए माँ को फिर सभी कामकाज छोड़कर दौड़ आना पड़ता है ।
"यही व्याकुलता (restlessness) है । किसी भी पथ से क्यों न जाओ, हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, शाक्त, ब्राह्म - किसी पथ से जाओ, यह व्याकुलता ही असली बात है । वे तो अन्तर्यामी हैं, यदि भूल पथ में भी चले गये हो तो भी दोष नहीं है - पर व्याकुलता रहे । वे ही फिर ठीक पथ में उठा लेते हैं ।

"फिर सभी पथों में भूल है - सभी समझते हैं, मेरी घड़ी ठीक जा रही है, पर किसी की घड़ी ठीक नहीं चलती । तिस पर भी किसी का काम बन्द नहीं रहता । व्याकुलता हो तो साधु-संग मिल जाता है, साधु-संग से अपनी घड़ी बहुत कुछ मिला ली जा सकती है ।”

 [(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]

(५)

🔆🙏 श्री रामकृष्ण कीर्तनानंद में🔆🙏
 
শ্রীরামকৃষ্ণ কীর্তনানন্দে

ब्राह्म समाज के श्री त्रैलोक्य गाना गा रहे हैं ।  श्रीरामकृष्ण कीर्तन सुनते-सुनते एकाएक खड़े हो गये और ईश्वर के आवेश में बाह्यज्ञान-शून्य हो गये । एकदम अन्तर्मुख, समाधिमग्न । खड़े खड़े समाधिमग्न । सभी लोग घेरकर खड़े हुए । बंकिम व्यस्त होकर भीड़ हटाकर श्रीरामकृष्ण के पास जाकर एकदृष्टि से देख रहे हैंउन्होंने कभी समाधि नहीं देखी थी

"थोड़ी देर बाद थोड़ा बाह्य ज्ञान होने के बाद श्रीरामकृष्ण प्रेम से उन्मत्त होकर नृत्य करने लगे । मानो श्रीगौरांग श्रीवास के मन्दिर में भक्तों के साथ नृत्य कर रहे हैं । वह अदभुत नृत्य बंकिम आदि अंग्रेजी पढ़े लोग देखकर दंग रह गये

"क्या आश्चर्य ! क्या इसी का नाम प्रेमानन्द है ? ईश्वर से प्रेम करके क्या मनुष्य इतना मतवाला हो जाता है ? क्या ऐसा ही नृत्य नवद्वीप में श्रीगौरांग ने किया था ? क्या इसी तरह उन्होंने नवद्वीप में और श्रीक्षेत्र में (पुरी में) प्रेम का बाजार बैठाया था ? इसमें तो ढोंग नहीं हो सकता ।

" ये सर्वत्यागी हैं, इन्हें धन, मान, यश - किसी चीज की आवश्यकता नहीं है । तो क्या यही जीवन का उद्देश्य है ? किसी ओर मन न लगाकर ईश्वर से प्रेम करना ही क्या जीवन का उद्देश्य है ? अब उपाय क्या है ? उन्होंने कहा, 'माँ के लिए बेचैन होकर व्याकुल होना, व्याकुलता, प्रेम करना ही उपाय है, प्रेम ही उद्देश्य है । सच्चा प्रेम आते ही दर्शन होता है ।’

"भक्तगण इसी प्रकार चिन्तन करने लगे और उस अद्भुत देवदुर्लभ नृत्य एवं कीर्तन का आनन्द प्रत्यक्ष करने लगे । - सभी श्रीरामकृष्ण के चारों ओर खड़े हैं - और एकटक उन्हें देख रहे हैं ।
      कीर्तन के बाद श्रीरामकृष्ण भूमिष्ठ होकर प्रणाम कर रहे हैं । ‘भागवत-भक्त-भगवान' इस कथन का उच्चारण करके कह रहे हैं, 'ज्ञानी, योगी, भक्त' - सभी के चरणों में प्रणाम ।' फिर सब लोग उनके चारों और घेरकर बैठ गये ।

 [(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]

(६) 

🔆🙏श्री बंकिम और भक्ति योग। ईश्वरप्रेम🔆🙏

बंकिम - (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - महाराज, भक्ति का क्या उपाय है ?
श्रीरामकृष्ण – व्याकुलता । लड़का जिस प्रकार माँ के लिए, माँ को न देखकर बेचैन होकर रोता है, उसी प्रकार व्याकुल होकर ईश्वर के लिए रोने से ईश्वर को प्राप्त तक किया जाता है।
 
   "अरुणोदय होने पर पूर्व दिशा लाल हो जाती है, उस समय समझा जाता है कि सूर्योदय मे अब अधिक विलम्ब नहीं है । उसी प्रकार यदि किसी का प्राण ईश्वर के लिए व्याकुल देखा जाय, तो भलीभांति समझा जा सकता है कि इस व्यक्ति का ईश्वर प्राप्ति में अधिक विलम्ब नहीं है ।
"एक व्यक्ति ने गुरु से पूछा था, 'महाराज, ईश्वर को कैसे प्राप्त करूं, बता दीजिये ।' गुरु ने कहा, ‘आओ, मैं तुम्हें बता देता हूँ ।' यह कहकर वे उसे एक तालाब के किनारे ले गये । दोनों जल में उतर पड़े । इतने में ही एकाएक गुरु ने शिष्य का सिर पकड़कर उसे जल में डुबो दिया और कुछ देर पानी में डुबाकर रखा । फिर थोड़ी देर बाद उसे छोड़ दिया ।

शिष्य सिर उठाकर खड़ा हो गया । गुरु ने पूछा, 'कहो, तुम्हें कैसा लग रहा था ?' शिष्य ने कहा, 'ऐसा लग रहा था कि अभी प्राण जाते ही हैं, प्राण बेचैन हो रहे थे ।' तब गुरु ने कहा, 'ईश्वर के लिए जब प्राण इसी प्रकार बेचैन होंगे, तभी जानो कि अब उनके साक्षात्कार में विलम्ब नहीं है ।'
       " तुमसे कहता हूँ, ऊपर ऊपर बहने से क्या होगा ? जरा गोता लगाओ । गहरे जल के नीचे रत्न है, जल के ऊपर हाथ पैर पटकने से क्या होगा ? यथार्थ मणि भारी होता है, वह जल पर तैरता नहीं; वह जल के नीचे डूबा हुआ रहता है । असली मणि प्राप्त करना हो तो जल के भीतर गोता लगाना पड़ेगा ।"
बंकिम - महाराज, क्या करूँ, पीठ पर काग बँधी हुई है । (सभी हँसे) वह डूबने नहीं देती ।

श्रीरामकृष्ण - उनका स्मरण करने से सभी पाप कट जाते हैं । उनके नाम से काल का फन्दा कट जाता है । गोता लगाना होगा, नहीं तो रत्न नहीं मिलेगा । एक गाना सुनो –
 (भावार्थ) "रे मेरे मन, रूप के समुद्र में गोता लगा । ओ रे, तल, अतल, पाताल खोजने पर प्रेमरूपी धन को पायेगा । ढूँढो, ढूँढो, ढूँढ़ने पर हृदय के बीच में वृन्दावन पाओगे और हृदय में सदाज्ञान का दीपक जलता रहेगा । कबीर कहते हैं, सुन सुन, गुरु के श्रीचरणों का चिन्तन कर ।"
श्रीरामकृष्ण ने अपने देवदुर्लभ मधुर कण्ठ से इस गाने को गाया । सभा के सभी लोग आकृष्ट होकर एक-मन से गाना सुनने लगे । गाना समाप्त होने पर फिर वार्तालाप शुरू हुआ ।

श्रीरामकृष्ण - (बंकिम के प्रति) - कोई कोई गोता लगाना नहीं चाहते । वे कहते हैं, 'ईश्वर ईश्वर करके ज्यादती करके अन्त में क्या पागल हो जाऊँ ?' जो लोग ईश्वर के प्रेम में मस्त हैं, उन्हें कहते हैं 'बौरा गये हैं', परन्तु ये सब लोग इस बात को नहीं समझते कि सच्चिदानन्द अमृत का समुद्र है। 
"मैंने एकबार नरेन्द्र से पूछा था, 'मान लो कि एक बर्तन रस है, और तू मक्खी बना है, तो तू कहाँ पर बैठकर रस पीयेगा ?' नरेन्द्र ने कहा, 'किनारे पर बैठकर मुँह बढ़ाकर पीऊँगा ।' मैंने कहा, क्यों ? बीच में जाकर डूबकर पीने में क्या हर्ज है ?' नरेन्द्र ने कहा, 'फिर तो रस में डूबकर मर जाऊँगा ।'

तब मैंने कहा, 'भैया, सच्चिदानन्द-रस ऐसा नहीं है, यह रस अमृत रस है । इसमें डूबने से मनुष्य मरता नहीं, अमर हो जाता है ।'

"तभी कह रहा हूँ, 'गोता लगाओ । कोई भय नहीं है । डूबने से अमर हो जाओगे ।"

अब बंकिम ने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया । वे बिदा लेंगे ।

बंकिम - महाराज, मुझे आपने जितना बड़ा मूर्ख समझा है, उतना नहीं हूँ । एक प्रार्थना है, दया करके मेरी कुटिया में एक बार पधार कर, उसे अपनी चरणधूलि से पवित्र कर दीजिये ।

श्रीरामकृष्ण - ठीक तो है, यदि ईश्वर की इच्छा हुई तो जाऊंगा।

बंकिम - वहाँ पर भी देखेंगे, भक्त हैं ।

श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए) - कैसा भक्त जी ? कैसे सब भक्त है वहाँ पर ? जिन्होंने गोपाल गोपाल, केशव केशव कहा था, उनकी तरह हैं क्या ? - (सभी हँसे ।)

एक भक्त - महाराज, गोपाल गोपाल की कहानी क्या है ?

श्रीरामकृष्ण - (हँसते हँसते) - अरे वह कहानी ! अच्छा सुनो । एक स्थान पर एक सुनार की दुकान है । वे लोग परम वैष्णव है, गले में माला, तिलक है । हमेशा हाथ में हरिनाम का झोला और मुख में सदैव हरिनाम ।
उन्हें कोई भी साधु ही कहेगा और सोचेगा कि वे पेट के लिए ही सुनार का काम करते हैं, क्योंकि औरत-बच्चों को पालना ही है । परम वैष्णव जानकर अनेक ग्राहक उन्हीं की दूकान में आते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि इनकी दूकान में सोने-चांदी में गड़बड़ी न होगी ।

ग्राहक दुकान में आते ही देखता है कि वे मुख से हरिनाम जप रहे हैं और बैठे हुए कामकाज भी कर रहे हैं । खरीददार ज्यों जाकर बैठा कि एक आदमी बोल उठा, ‘केशव ! केशव ! केशव !' थोड़ी देर बाद एक दूसरा कह उठा, ‘गोपाल ! गोपाल ! गोपाल !' फिर थोड़ी देर बातचीत होने पर एक तीसरा व्यक्ति कह उठा, ‘हरि हरि हरि ।'

अब जेवर बनाने की बातचीत एक प्रकार से समाप्त हो रही है । इतने में ही एक व्यक्ति बोल उठा, 'हर हर हर ।' इसीलिए तो इतनी भक्ति प्रेम देखकर वे लोग इन सुनारों के पास अपना रुपया पैसा देकर निश्चिन्त हो जाते हैं । सोचा कि वे लोग कभी न ठगेंगे ।

"परन्तु असली बात क्या है जानते हो ? ग्राहक के आने के बाद जिसने कहा था, 'केशव केशव' उसका मतलब है, ये सब लोग कौन हैं ? अर्थात् ये ग्राहक लोग कौन हैं ? जिसने कहा, 'गोपाल गोपाल’ - उसका मतलब है, ये लोग गाय के दल हैं । जिसने कहा, 'हरि हरि', इसका मतलब है, ये लोग मूर्ख हैं, तो फिर 'हरि' अर्थात् हरण करूँ ? और जिसने कहा, 'हर हर', इसका मतलब है, इनका सब कुछ हरण कर लो । ऐसे वे परम भक्त साधु थे !" (सभी हँसे ।)

बंकिम ने बिदा ली । परन्तु अन्यमनस्क होकर वे न जाने क्या सोच रहे थे । कमरे में दरवाजे के पास आकर देखते हैं, चद्दर छोड़ आये हैं । केवल कमीज पहने हैं । एक बाबू ने चादर उठा ली और दौड़कर उनके हाथ में दे दी । बंकिम क्या सोच रहे होंगे ?
राखाल आये हैं । वे बलराम के साथ श्रीवृन्दावनधाम गये थे । वहाँ से कुछ दिन हुए लोटे हैं । श्रीरामकृष्ण ने शरत् और देवेन्द्र के पास उनकी बात कही थी और उनसे कहा था कि उनके साथ बातचीत करें । इसीलिए वे राखाल के साथ परिचय करने के लिए उत्सुक होकर आये हैं । सुना, इन्हीं का नाम राखाल है ।
शरत् और सान्याल ब्राह्मण हैं और अधर हैं जाति के सुवर्ण वणिक् (बनिया) । कहीं उनके घरवाले भोजन करने के लिए न बुला लें इसीलिए जल्दी से भाग गये । नये आये हैं; अभी नहीं जानते कि श्रीरामकृष्ण अधर से कितना स्नेह करते हैं । श्रीरामकृष्ण का कहना है, भक्तों की एक अलग जाति है । उनमें जातिभेद नहीं है ।
अधर ने श्रीरामकृष्ण को तथा उपस्थित भक्तों को अत्यन्त आदर के साथ बुलाकर सन्तोषपूर्वक भोजन कराया । भोजन के बाद भक्तगण श्रीरामकृष्ण के मधुर वचनों का स्मरण करते करते उनका विचित्र प्रेममय चित्र हृदय में धारण कर घर लौटे
अधर के घर शुभागमन के दिन श्री बंकिम ने श्रीरामकृष्णदेव से उनके मकान पर पधारने का अनुरोध किया था । अतएव थोड़े दिनों के बाद श्रीरामकृष्ण ने श्री गिरीश व मास्टर को उनके कलकत्ते के मकान पर भेज दिया था । उनके साथ श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में काफी बातचीत हुई। बंकिम ने श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने के लिए फिर आने की इच्छा प्रकट की थी, परन्तु काम में व्यस्त रहने के कारण न आ सके ।
 [(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]

🔆🙏पंचवटी के नीचे 'देवी चौधरानी’ का पाठ🔆🙏

ता. ६ दिसम्बर, १८८४ ई. को श्रीरामकृष्ण ने श्री अधर के घर पर शुभागमन किया था और श्री बंकिम बाबू के साथ वार्तालाप किया था । प्रथम से षष्ठ विभाग तक ये ही सब बातें विवृत हुई ।
इस घटना के कुछ दिनों के बाद अर्थात् २७ दिसम्बर, शनिवार को श्रीरामकृष्ण ने पंचवटी के नीचे भक्तों के साथ बंकिम रचित 'देवी चौधरानी' के कुछ अंश का पाठ सुना था और गीतोक्त निष्काम धर्म के बारे में अनेक बातें कही थीं ।
श्रीरामकृष्ण पंचवटी के नीचे चबूतरे पर अनेक भक्तों के साथ बैठे थे । मास्टर से पढ़कर सुनाने के लिए कहा । केदार, राम, नित्यगोपाल, तारक (शिवानन्द), प्रसन्न (त्रिगुणातीतानन्द), सुरेन्द्र आदि अनेक भक्त उपस्थित थे ।
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