*परिच्छेद -१०४*
*स्टार थियेटर में प्रह्लाद-चरित्र का अभिनय-दर्शन*
[(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]
(१)
🔆🙏समाधि में🔆🙏
श्रीरामकृष्ण आज स्टार थिएटर में प्रह्लाद-चरित्र का अभिनय देखने आये हैं । साथ में राम मास्टर, नारायण आदि हैं । तब स्टार थिएटर बिडन स्ट्रीट में था । बाद में इसी रंगमंच पर एमरेल्ड थिएटर और क्लासिक थिएटर का अभिनय होता था ।
आज रविवार है । १४ दिसम्बर, १८८४ । श्रीरामकृष्ण एक बाक्स में उत्तर की ओर मुँह किये हुए बैठे हैं । रंगमंच रोशनी से जगमगा रहा है । श्रीरामकृष्ण के पास बाबूराम, मास्टर और नारायण बैठे हैं । गिरीश आये हैं, अभी अभिनय का आरम्भ नहीं हुआ है । श्रीरामकृष्ण गिरीश से बातचीत कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) - वाह, तुमने तो यह सब बहुत अच्छा लिखा है ।
गिरीश – महाराज, धारणा कहाँ ? सिर्फ लिखता गया हूँ ।
श्रीरामकृष्ण - नहीं, तुम्हें धारणा है । उसी दिन तो मैंने तुमसे कहा था, भीतर भक्ति हुए बिना कोई मनुष्य 'भगवान की दिव्य लीला' का ऐसा चित्र नहीं खींच सकता ।
" इसके लिए भी धारणा होनी चाहिए । केशव के यहाँ मैं नव-वृन्दावन नाटक देखने गया था । मैंने वहाँ एक डिप्टी मजिस्ट्रेट को देखा जो आठ सौ रुपये महीने कमाता था। सब लोगों ने कहा, बड़ा पण्डित है; परन्तु देखा वह गोद में एक बच्चा लिए हैरान-परेशान हो रहा था ।
क्या किया जाय जिससे बच्चा अच्छी जगह बैठे, अच्छी तरह नाटक देखे, इसी के लिए वह व्याकुल हो रहा था । इधर ईश्वरी बातें हो रही थीं, उसका जी नहीं लगता था । बच्चा बार बार पूछ रहा था, 'बाबूजी, यह क्या है ? वह क्या है ?' वह भी बच्चे के साथ उलझा हुआ था। उसने बस पुस्तकें पढ़ी हैं, धारणा नहीं हुई है ।"
गिरीश - दिल में आता है अब थियेटर-सिएटर छोड़ दूँ , क्या करूँ ?
श्रीरामकृष्ण - नहीं, नहीं, इसका रहना जरूरी है, इससे लोकशिक्षा होगी ।
अभिनय होने लगा । प्रह्लाद पाठशाला में पढ़ने के लिए आये हैं । प्रह्लाद को देखकर श्रीरामकृष्ण 'प्रह्लाद प्रह्लाद' कहते हुए एकदम समाधिमग्न हो गये ।
प्रह्लाद को हाथी के पैरों के नीचे देखकर श्रीरामकृष्ण रो रहे हैं । अग्निकुण्ड में जब वे फेंक दिये गये तब भी श्रीरामकृष्ण के आँसू बह चले । गोलोक में लक्ष्मीनारायण बैठे हैं | प्रह्लाद के लिए नारायण सोच रहे हैं ! यह दृश्य देखकर श्रीरामकृष्ण फिर समाधिमग्न हो गये ।
[(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]
(2)
🔆🙏 ईश्वरदर्शन का उपाय। कर्मयोग तथा चित्तशुद्धि🔆🙏
[गृहस्थ जीवन में सोने से पहले पवित्र-वाणी श्रवण अनिवार्य है। ]
थियेटर -भवन के जिस कमरे में गिरीश रहते हैं , अभिनय हो जाने पर श्रीरामकृष्ण को वहीं ले गए। गिरीश ने पूछा- 'महाराज, क्या आप " विवाह-विभ्राट" प्रहसन देखना चाहेंगे ?
श्रीरामकृष्ण ने कहा , " नहीं , प्रह्लाद -चरित्र के बाद यह सब क्या है ? मैंने इसीलिए गोपाल उड़िया के दल से कहा था -" तुम लोग प्रोग्राम खत्म होने के बाद अन्त में कुछ ईश्वरी बातें किया करो। " बहुत अच्छी ईश्वरी बातें हो रही थीं , फिर 'विवाह -विभ्राट ' --संसार की बात आ गयी ! "जो मैं था , वही हो गया ? " फिर वही पहले के भाव आ जाते हैं। " श्रीरामकृष्ण गिरीश आदि के साथ ईश्वरी बातें कह रहे हैं।
गिरीश पूछ रहे हैं , " महाराज , आपने कैसा देखा ? "
श्रीरामकृष्ण - साक्षात् वे ही सबकुछ हुए हैं। नाटक में जो नटी विभिन्न स्त्रि पात्रों की भूमिका निभा रही थीं, मैंने उन्हें साक्षात् आनन्दमयी माता के अवतार के रूप में देखा। और जो लोग गोलोक -धाम के गोपाल बने थे , उन्हें मैंने साक्षात् श्रीमन्नारायण देखा। वे ही सब कुछ हुए हैं।
परन्तु ईश्वर- दर्शन ठीक होता है या नहीं इसके लक्षण हैं। एक लक्षण तो आनन्द है। दूसरा , संकोच का लोप हो जाना। जैसे समुद्र में ऊपर तो हिलोरें और आवर्त उठ रहे हैं , परन्तु भीतर गंभीर जल है।
जिसे ईश्वर के दर्शन हो चुके हैं , वह कभी पागल की तरह रहता है , कभी पिशाच की तरह। शुचि और अशुचि में भेद नहीं रहता है ; कभी जड़ की तरह है , क्योंकि भीतर और बाहर ईश्वर के दर्शन करके आश्चर्यचकित हो गया है।
कभी बालकवत है , दृढ़ता नहीं है , जैसे बालक बगल में धोती दबाये घूमता है। इस अवस्था में कभी तो बाल्य-भाव होता है, कभी तरुणभाव - तब दिल्लगी सूझती है , कभी युवाभाव - तब कर्म करता है, लोक-शिक्षा देता है, तब वह सिंहतुल्य है।
जीवों में अहंकार है , इसीलिए वे ईश्वर को नहीं देख पाते। मेघों के उमड़ने पर फिर सूर्य नहीं दिख पड़ता। सूर्य दिख नहीं पड़ता इसलिए क्या कभी यह कहना चाहिए कि सूर्य है ही नहीं ? सूर्य अवश्य है।
" परन्तु बालक के 'मैं ' में दोष नहीं , बल्कि उपकार है। साग के खाने से बीमारी होती है , परन्तु 'हींचा' साग के खाने से उपकार होता है। इसीलिए हींचा की गिनती साग में नहीं है। इसी प्रकार मिश्री की गिनती भी मिठाइयों में नहीं होती। दूसरी मिठाइयों से बीमारी होती है , परन्तु मिश्री से कफ का दोष होता ही नहीं।
" इसीलिए मैंने केशव सेन से कहा था , तुम्हें और अधिक कहने से फिर यह दल न रह जायेगा। केशव डर गया। तब मैंने कहा , बालक का 'मैं ' , दास का 'मैं ' - इनमें दोष नहीं है।
" जिन्होंने ईश्वर का दर्शन किया है , वे देखते हैं , ईश्वर ही जीव और जगत हुए हैं। सब कुछ वे ही हैं। उन्हें ही उत्तम भक्त कहते हैं। "
गिरीश - (सहास्य) - सब कुछ तो वे ही हैं , परन्तु जरा सा 'मैं ' रह जाता है , इसमें कोई दोष नहीं है।
श्रीरामकृष्ण - (हँसकर ) - हाँ , इससे हानि नहीं। वह 'मैं ' केवल सम्भोग के लिए है। 'मैं ' अलग और 'तुम ' अलग जब होता है , तभी सम्भोग हो सकता है , सेव्य-सेवक के भाव से।
" और मध्यम दर्जे के भी भक्त हैं। वे देखते हैं , ईश्वर सब भूतों में अन्तर्यामी के रूप में विराजमान हैं। अधम दर्जे के भक्त कहते हैं , --वे हैं - अर्थात आकाश के उस पार ! (सब हँसे)
"गोलोक के गोपालों को देखकर मुझे यह ज्ञात हुआ कि वे ही सब कुछ हुए हैं । जिन्होंने ईश्वर को देखा है वे स्पष्ट देखते हैं, ईश्वर ही कर्ता हैं, वे ही सब कुछ कर रहे हैं ।”
गिरीश - महाराज, मैंने ठीक समझा है कि वे ही सब कुछ कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - मैं कहता हूँ, 'माँ, मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री हो, मैं जड़ हूँ, तुम चेतना भरनेवाली हो; तुम जैसा कराती हो, मैं वैसा ही करता हूँ; जैसा कहलाती हो, वैसा ही कहता हूँ ।' जो अज्ञान दशा में हैं, वे कहते हैं, 'कुछ तो वे करते हैं, कुछ मैं करता हूँ ।'
गिरीश - महाराज, मैं और करता ही क्या हूँ ? और अब कर्म ही क्यों किये जायँ ?
श्रीरामकृष्ण - नहीं जी, कर्म करना अच्छा है । जमीन जुती हुई हो तो उसमें जो कुछ बोओगे वही होगा । परन्तु इतना है कि कर्म निष्काम भाव से करना चाहिए ।
🙏तन्नो हंस: प्रचोदयात् 🙏
"परमहंस दो तरह के हैं । ज्ञानी परमहंस और प्रेमी परमहंस । जो ज्ञानी हैं, उन्हें अपने काम से काम । जो प्रेमी हैं, जैसे शुकदेवादि, वे ईश्वर को प्राप्त करके फिर लोक-शिक्षा देते हैं । कोई अपने आप ही आम खाकर मुँह पोंछ डालता है, और कोई और पाँच आदमियों को खिलाता है ।
कोई कुआँ खोदते समय टोकरी और कुदार अपने घर उठा ले जाते हैं, कोई कुआँ खुद जाने पर टोकरी और कुदार उसी कुएँ में डाल देते हैं; कोई दूसरों के लिए रख देते हैं ताकि पड़ोसियों के ही काम आ जाय । शुकदेव आदि ने दूसरों के लिए टोकरी और कुदार रख दी ।
(गिरीश से) तुम भी दूसरों के लिए रखना ।"
गिरीश - तो आप आशीर्वाद दीजिये ।
श्रीरामकृष्ण - तुम माता के नाम पर विश्वास करना, बस हो आयेगा ।
गिरीश - मैं पापी तो हूँ ।
श्रीरामकृष्ण - जो सदा पाप पाप सोचा करता है, वह पापी हो जाता है ।
गिरीश - महाराज, मैं जहाँ बैठता था, वहाँ की मिट्टी भी अशुद्ध है ।
श्रीरामकृष्ण - यह क्या ! हजार साल के अँधेरे घर में अगर उजाला आता है तो क्या जरा जरा करके उजाला होता है या एकदम ही प्रकाश फैल जाता है ?
गिरीश - आपने आशीर्वाद दिया ।
श्रीरामकृष्ण - तुम्हारे अन्दर से अगर यही बात हो तो मैं इस पर क्या कह सकता हूँ ? मैं तो खाता-पीता हूँ और उनका नाम लिया करता हूँ ।
गिरीश - आन्तरिकता है नहीं, परन्तु यह कृपया आप दे जाइये ।
श्रीरामकृष्ण - क्या मैं ? नारद, शुकदेव, ये लोग होते तो दे देते ।
गिरीश - नारदादि तो दृष्टि के सामने हैं नहीं, पर आप मेरे सामने हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - अच्छा, तुम्हें विश्वास है !
सभी कुछ देर चुप रहे । फिर बातचीत होने लगी ।
गिरीश - एक इच्छा है, अहेतुकी भक्ति की ।
श्रीरामकृष्ण - अहेतुकी भक्ति ईश्वर-कोटि को होती है । जीव-कोटि को नहीं होती ।
श्रीरामकृष्ण ऊर्ध्वदृष्टि हैं । आप ही आप गाने लगे – "श्यामा को क्या सब लोग पाते हैं ? नादान मन समझाने पर भी नहीं समझता । उन सुरंजित चरणों से मन लगना शिव के लिए भी असाध्य साधन है । जो माता की चिन्ता करता है, उसके लिए इन्द्रादि का सुख और ऐश्वर्य भी तुच्छ हो जाता है । अगर वे कृपा की दृष्टि फेरती हैं, तो भक्त सदा ही आनन्द में मग्न रहता है । योगीन्द्र, मुनीन्द्र और इन्द्र उनके श्रीचरणों का ध्यान करके भी उन्हें नहीं पाते । निर्गुण में रहकर भी कमलाकान्त उन चरणों की चाह रखता है ।"
गिरीश - निर्गुण में रहकर भी कमलाकान्त उन चरणों की चाह रखता है !
[(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]
(३)
* क्या संसार में ईश्वर लाभ होता है ?*
श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) - तीव्र वैराग्य के होने पर वे मिलते हैं । प्राणों में विकलता होनी चाहिए। शिष्य ने गुरु से पूछा था, क्या करूँ जो ईश्वर को पाऊँ ? गुरु ने कहा, मेरे साथ आओ । यह कहकर गुरु ने उसे एक तालाब में डुबाकर ऊपर से पकड़ रखा ।
कुछ देर बाद उसे पानी से निकाल लिया और पूछा, 'पानी के भीतर तुम्हें कैसा लगता था ?' महाराज, मेरे प्राण डूबते-उतराते थे, जान पड़ता था अभी प्राण निकलना चाहते हैं ।' गुरु ने कहा, 'देखो, इसी तरह ईश्चर के लिए जब जी डूबता उतराता है तब उनके दर्शन होते हैं।'
“इस पर मैं कहता हूँ, जब तीनों आकर्षण एकत्र होते हैं तब ईश्वर मिलते हैं । विषयी का जैसा आकर्षण विषय की ओर है, सती का पति की ओर तथा माता का सन्तान की ओर, इन तीनों को अगर एक साथ मिलाकर कोई ईश्वर को पुकार सके तो उसी समय उनके दर्शन हो जायँ ।
'मन ! जिस तरह पुकारा जाता है उस तरह तू पुकार तो सही, देखूं भला कैसे माँ श्यामा रह सकती है ?' उस तरह व्याकुल होकर पुकारने पर उन्हें दर्शन देना ही होगा ।
"उस दिन तुमसे मैंने कहा था - भक्ति का अर्थ क्या है । वह है मन, वाणी और कर्म से उन्हें पुकारना । कर्म - अर्थात् हाथों से उनकी पूजा और सेवा करना, पैरों से उनके स्थानों तक जाना, कानों से भगवान और उनके नाम, गुणों और भजनों को सुनना, आँखों से (हर चेहरे में) उनकी मूर्ति के दर्शन करना और खुश रहना । और मन से सदा उनका ध्यान - उनकी चिन्ता करना तथा उनकी लीलाओं का स्मरण करना। वाणी से उनकी स्तुतियाँ पढ़ना, उनके भजन गाना।
[“সেদিন তোমায় যা বললুম ভক্তির মানে কি — না কায়মনোবাক্যে তাঁর ভজনা।]
"कलिकाल के लिए नारदीय भक्ति है - सदा उनके नाम और गुणों का कीर्तन करना । जिन्हें समय नहीं है, उन्हें कम से कम शाम को तालियाँ बजाकर एकाग्र चित्त हो 'श्रीमन्नारायण नारायण नारायण -हरि हरि ' कहकर उनके नाम का कीर्तन करना चाहिए ।
"भक्ति के 'मैं' में अहंकार नहीं होता । वह अज्ञान नहीं लाता, बल्कि ईश्वर की प्राप्ति करा देता है। यह 'मैं' में नहीं गिना जाता, जैसे 'हिंचा' साग नहीं गिना जाता । दूसरे सागों से बीमारी हो सकती है, परन्तु 'हिंचा' साग पित्तनाशक है; इससे उपकार ही होता है । मिश्री मिठाइयों में नहीं गिनी जाती । दूसरी मिठाइयों के खाने से अपकार होता है, परन्तु मिश्री के खाने से अम्लविकार हटता है।
"निष्ठा के बाद भक्ति होती है । भक्ति की परिपक्व अवस्था भाव है । भाव के घनीभूत होने पर महाभाव होता है । सब से अन्त में है प्रेम ।
"प्रेम रज्जु है । प्रेम के होने पर भक्त के निकट ईश्वर बँधे रहते हैं, फिर भाग नहीं सकते । साधारण जीवों को केवल भाव तक होता है । ईश्वर-कोटि के हुए बिना महाभाव या प्रेम नहीं होता। प्रेम चैतन्यदेव को हुआ था ।
"ज्ञान वह है, जिस रास्ते से चलकर मनुष्य स्वरूप का पता पाता है । ब्रह्म ही मेरा रूप है, यह बोध होना चाहिए । [It is the path by which a man can realize the true nature of his own Self; it is the awareness that Brahman alone is his true nature. ]
"प्रह्लाद कभी स्वरूप (Oneness) में रहते थे । कभी देखते थे 'एक मैं हूँ और एक तुम', तब वे भक्तिभाव में रहते थे । [Prahlada sometimes was aware of his identity with Brahman. And sometimes he would see that God was one (समुद्र) and he another (तरंग) ; at such times he would remain in the mood of bhakti.]
"हनुमान ने कहा था, 'राम, कभी देखता हूँ, तुम पूर्ण हो, मै अंश हूँ; कभी देखता हूँ, तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ; और राम, जब तत्त्वज्ञान होता है, तब देखता हूँ, तुम्हीं मैं हो, मैं ही तुम हूँ ।'
गिरीश - अहा !
श्रीरामकृष्ण - संसार में होगा क्यों नहीं ? परन्तु विवेक और वैराग्य चाहिए । ईश्वर ही वस्तु है, और सब अनित्य और अवस्तु - दो दिन के लिए है, यह विचार दृढ़ रहना चाहिए । ऊपर -ऊपर उतराते रहने से न होगा । डुबकी मारनी चाहिए ।
"एक बात और याद रखना; समुद्र में काम आदि घड़ियालों का भय है ।"
गिरीश - परन्तु यम का भय मुझे नहीं है ।
श्रीरामकृष्ण - नहीं, काम आदि घड़ियालों का भय है । इसीलिए हलदी लगाकर डुबकी मारनी चाहिए - हलदी है विवेक और वैराग्य ।
"संसार में किसी किसी को ज्ञान होता है । इस पर दो तरह के योगियों की बात कही गयी है - गुप्त योगी और व्यक्त योगी । जिन लोगों ने संसार का त्याग कर दिया है, वे व्यक्त योगी हैं, उन्हें सब लोग पहचानते हैं । गुप्त योगी व्यक्त नहीं होता । जैसे नौकरानी - सब काम तो करती है, परन्तु मन अपने देश में बालबच्चों पर लगाये रहती है ।
और जैसा मैंने तुमसे कहा है, व्यभिचारणी औरत घर का कुल काम तो बड़े उत्साह से करती है, परन्तु मन से वह सदा अपने यार की याद करती रहती है । विवेक और वैराग्य का होना बड़ा मुश्किल है, 'मैं कर्ता हूँ' और 'ये सब चीजें मेरी हैं’, यह भाव बड़ी जल्दी दूर नहीं होता ।
"एक डिप्टी मजिस्ट्रेट को मैंने देखा, आठ सौ रुपया महीना पाता है; ईश्वरी बातें हो रही थीं, उधर उसका जरा भी मन नहीं लगा । वह अपने लड़कों में से एक लड़के को अपने साथ ले आया था, उसे कभी यहाँ बैठाता था, कभी वहाँ । मैं एक और आदमी को जानता हूँ, उसका नाम न लूँगा, खूब जप करता था, परन्तु दस हजार रुपयों के लिए उसने झूठी गवाही दी थी ।
"इसीलिए कहा, विवेक और वैराग्य के होने पर संसार में भी ईश्वर प्राप्ति होती है ।”
गिरीश - इस पापी के लिए क्या होगा ?
श्रीरामकृष्ण ऊर्ध्वदृष्टि हो गाने लगे –
"ऐ जीवो, उस नरकान्तकारी श्रीकान्त का चिन्तन करो, इस तरह कृतान्त के भय का अन्त हो जायेगा । उनका स्मरण करने पर भवभावना दूर हो जाती है, उस त्रिभंग के एक ही भ्रूभंग से मनुष्य इस घोर तरंग को पार कर जाता है । सोचो तो, किस तत्त्व की प्राप्ति के लिए तुम इस मर्त्यलोक में आये, पर यहाँ आकर चित्त में बुरी वृत्तियाँ भरना शुरू कर दिया ! यह कदापि उचित नहीं, इस तरह तुम अपने को डुबा दोगे । अतएव उस नित्यपद की चिन्ता करके अपने इस चित्त का प्रायश्चित्त करो ।"
श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) उस त्रिभंग के एक ही भ्रूभंग से मनुष्य इस घोर तरंग को पार कर जाता है ।
"महामाया के द्वार छोड़ने पर उनके दर्शन होते हैं, महामाया की दया चाहिए । इसीलिए शक्ति की उपासना की जाती है । देखो न, पास ही भगवान हैं, फिर भी उन्हें जानने के लिए कोई उपाय नहीं, बीच में महामाया है, इसलिए राम, सीता और लक्ष्मण जा रहे हैं; आगे राम हैं, बीच में सीता और पीछे लक्ष्मण । राम बस ढाई हाथ के फासले पर हैं, फिर भी लक्ष्मण उन्हें नहीं देख पाते ।
"उनकी उपासना करने के लिए एक भाव का आश्रय लिया जाता है । मेरे तीन भाव हैं, सन्तानभाव, दासीभाव और सखीभाव । दासीभाव और सखीभाव में मैं बहुत दिनों तक था । उस समय स्त्रियों की तरह गहने और कपड़े पहनता था । सन्तानभाव बहुत अच्छा है ।
"वीरभाव अच्छा नहीं। मुण्डे और मुण्डियाँ , भैरव और भैरवियाँ, ये सब वीरभाव के उपासक हैं, अर्थात् प्रकृति को स्त्रीरूप से देखना और रमण के द्वारा उसे प्रसन्न करना - - इस भाव में प्रायः पतन हुआ करता है ।"
गिरीश - मुझ में एक समय वही भाव आया था ।
श्रीरामकृष्ण चिन्तित हुए-से गिरीश को देखने लगे ।
गिरीश - इस भाव का कुछ अंश अब भी शेष है । अब उपाय क्या है, बतलाइये ।
श्रीरामकृष्ण - (कुछ देर चिन्ता करके) - उन्हें `आम मुखत्यारी' दे दो, उनकी जो इच्छा हो, वे करें।
[(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]
(4)
🔆🙏सत्त्वगुण तथा ईश्वरलाभ🔆🙏
श्री रामकृष्ण भक्त बालकों की बातें कर रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) - ध्यान करता हुआ मैं उनके सब लक्षण देख लेता हूँ। 'घर सँवारूँगा' यह भाव उनमें नहीं है। स्त्री-सुख की इच्छा नहीं है। जिनके स्त्री है भी , वे उसके साथ नहीं सोते। बात यह है कि रजोगुण के बिना गये, शुद्ध सत्त्वगुण के बिना आये , ईश्वर पर मन स्थिर नहीं होता, उन पर प्यार नहीं होता , उन्हें मनुष्य पा नहीं सकता।
गिरीश: आपने मुझे आशीर्वाद दिया है।
श्रीरामकृष्ण – कब ? परन्तु हाँ, यह कहा है कि आन्तरिकता के होने पर सब हो जायेगा ।
बातचीत करते हुए श्रीरामकृष्ण 'आनन्दमयी' कहकर समाधिलीन हो रहे हैं । बड़ी देर तक समाधि की अवस्था में रहे । जरा समाधि से उतरकर कह रहे हैं - "ये सब कहाँ गये ?” मास्टर बाबूराम को बुला लाये । श्रीरामकृष्ण बाबूराम और दूसरे भक्तों की ओर देखकर बोले - “सच्चिदानन्द ही अच्छा है, और कारणानन्द?"
इतना कहकर श्रीरामकृष्ण गाने लगे –
“अबकी बार मैंने अच्छा सोचा है । एक अच्छे सोचनेवाले से मैंने सोचने का ढंग सीखा है । जिस देश में रात नहीं है, मुझे उसी देश का एक आदमी मिला है । दिन की तो बात ही न पूछो, सन्ध्या को भी मैंने बन्ध्या बना डाला है । मेरी आँखें खुल गयी हैं, अब क्या फिर मैं सो सकता हूँ ? मैं योग और याग में जाग रहा हूँ । माँ, योगनिद्रा तुझे देकर नींद को ही मैंने सुला दिया है। सोहागा और गन्धक को पीसकर मैंने बड़ा ही सुन्दर रंग चढ़ाया है, आँखों की कूँची बनाकर मैं मणि-मन्दिर को साफ कर लूँगा । रामप्रसाद कहते हैं, भुक्ति और मुक्ति दोनों को सिर पर रखे हुए हूँ और 'काली ही ब्रह्म है' यह मर्म समझकर धर्म और अधर्म, दोनों को मैंने छोड़ दिया है ।"
फिर उन्होंने दूसरा गाना गाया ।
"यदि 'काली काली' कहते मेरी मृत्यु हो जाय तो गंगा, गया, काशी, कांची, प्रभासादि क्षेत्रों में मैं क्यों जाऊँ ?"
फिर वे कहने लगे, “मैंने माँ से प्रार्थना करते हुए कहा था, माँ, मैं और कुछ नहीं चाहता, मुझे शुद्धा भक्ति दो ।"
गिरीश का शान्त भाव देखकर श्रीरामकृष्ण को प्रसन्नता हुई है । वे कह रहे हैं, "तुम्हारी यही अवस्था अच्छी है । सहज अवस्था ही उत्तम अवस्था है ।"
श्रीरामकृष्ण नाट्यभवन के मैनेजर के कमरे में बैठे हुए हैं । एक ने आकर पूछा, "क्या आप 'विवाह-विम्राट' देखेंगे ? अब अभिनय हो रहा है ?"
श्रीरामकृष्ण ने गिरीश से कहा, "यह तुमने क्या किया ? प्रह्लाद-चरित्र के बाद विवाह-विभ्राट ? पहले खीर देकर पीछे से कड़वी तरकारी ?"
अभिनय समाप्त हो जाने पर गिरीश के आदेश से रंगमंच की अभिनेत्रियाँ (actresses) श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करने आयीं । सब ने भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया । भक्तगण कोई खड़े, कोई बैठे हुए देख रहे हैं । उन्हें देखकर आश्चर्य होने लगा । अभिनेत्रियों में कोई-कोई श्रीरामकृष्ण के पैरों पर हाथ रखकर प्रणाम कर रही हैं । पैरों पर हाथ रखते समय श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, "माँ, बस हो गया - माँ बस, रहने दो ।" बातों में करुणा सनी हुई थी ।
उनके प्रणाम करके चले जाने पर श्रीरामकृष्ण भक्तों से कह रहे हैं - "सब वही हैं - एक एक अलग रूप में। "
अब श्रीरामकृष्ण गाड़ी पर चढ़े। गिरीश आदि भक्तों ने उनके साथ चलकर उन्हें गाड़ी पर चढ़ा दिया। गाड़ी पर चढ़ते ही श्रीरामकृष्ण गम्भीर समाधि में लीन हो गये । नारायण आदि भक्त भी गाड़ी में बैठे । गाड़ी दक्षिणेश्वर की ओर चल दी ।
=============
[सबरी के बैर सुदामा के तण्डुल / विद्यापति]
श्रीमन्नारायण नारायण नारायण,
सबरी के बैर सुदामा के तण्डुल,
रुचि-रुचि भोग लगाबायन।
शिब नारायण-नारायण-नारायण…..
श्रीमन्नारायण नारायण नारायण।।
=======================