परिच्छेद -१०१
[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]
🙏🙏श्रीरामकृष्ण तथा मायावाद🙏🙏
(१)
दक्षिणेश्वर मन्दिर में मनमोहन, महिमा आदि भक्तों के साथ
चलो भाई, फिर उनके दर्शन करने चलें । उन्हीं बालकस्वरूप महापुरुष को देखें, जो माँ के सिवा और कुछ भी नहीं जानते - जो हमारे लिए ही शरीर धारण करके आये हैं । वही बतलायेंगे, इस कठिन जीवन-समस्या की पूर्ति कैसे होगी । वे संन्यासी को बतलायेंगे और गृहस्थ को भी बतलायेंगे , उनका द्वार सभी के लिए खुला हुआ है । वे दक्षिणेश्वर के काली-मन्दिर में हमारे लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं, चलो, चलकर उनके दर्शन करें ।
वे अनन्त गुणों के आधार हैं, वे प्रसन्नमूर्ति हैं, उनकी बातों को सुनकर आँखों से आँसू बह चलते हैं।
चलो भाई, वे अहेतुक-कृपा-सिन्धु हैं, प्रियदर्शन हैं, ईश्वर के प्रेम में दिन रात मस्त रहनेवाले उन सहास्यमूर्ति श्रीरामकृष्ण के दर्शन कर हम अपने इस मनुष्य-जन्म को सार्थक करें ।
आज रविवार है, 26 अक्टूबर 1884। कार्तिक की शुक्ला सप्तमी; हेमन्तकाल है । दिन का दूसरा पहर है । श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । कमरे के साथ मिला हुआ पश्चिम की ओर अर्धगोलाकार एक बरामदा है । बरामदे के पश्चिम ओर बगीचे का रास्ता है जो उत्तर-दक्षिण की ओर गया हुआ है । रास्ते के पश्चिम ओर फुलवाड़ी है, आगे पवित्र सलिला जाह्नवी दक्षिणवाहिनी हो रही हैं ।
भक्तों में से कितने ही आये हुए हैं । आज आनन्द का हाट लगा है । आनन्दमय श्रीरामकृष्ण का ईश्वर-प्रेम भक्तों के मुखदर्पण में प्रतिबिम्बित हो रहा है ! कितना आश्चर्य है । केवल भक्तों ही के मुखदर्पण में नहीं, बाहर के उद्यानों में, वृक्षपत्रों में, खिले हुए अनेक प्रकार के फूलों में, विशाल भागीरथी के हृदय में, सूर्य की किरणों से दीप्तिमान नीलिमामय नभोमण्डल में, भगवान विष्णु के चरणों से च्युत हुई गंगाजी के जलकणों को छूकर प्रवाहित होती हुई शीतल वायु में यही आनन्द प्रतिभासित हो रहा था !
कितने आश्चर्य की बात है ! 'मधुमत् पार्थिवं रजः’ सचमुच उद्यान की धूलि भी मधुमय हो रही है ! - इच्छा होती है, गुप्त भाव से या भक्तों के साथ इस धूलि पर लोटपोट हो जायँ । इच्छा होती है, इस उद्यान के एक ओर खड़े होकर दिन भर इस मनोहर गंगावारि के दर्शन करें । इच्छा होती है, लता-गुल्म और पत्रपुष्पों से लदे हुए, सुशोभित हरे-भरे वृक्षों को अपना आत्मीय समझ उनसे मधुर सम्भाषण करें उन्हें हृदय से लगा लें । इसी धूलि के ऊपर से श्रीरामकृष्ण के कोमल चरण चलते हैं । इन्हीं पेड़ों के भीतर से वे सदा आया-जाया करते हैं । इच्छा होती है, ज्योतिर्मय आकाश की ओर टकटकी लगाये हेरते रहें; क्योंकि जान पड़ता है, भूलोक और द्युलोक [^* भूलोक (पृथ्वी) द्युलोक (आकाश या स्वर्ग)], दोनों ही प्रेम और आनन्द में तैर रहे हैं ।
श्रीठाकुर-मन्दिर के पुजारी, दरवान, परिचारक, सब को न जाने क्यों आत्मीय कहने की इच्छा होती है । - क्यों यह जगह, बहुत दिनों के बाद देखी गयी जन्मभूमि की तरह मधुर लग रही है ? आकाश, गंगा, देवमन्दिर, उद्यान-पथ, वृक्ष, लता, गुल्म, सेवकगण, आसन पर बैठी हुई भक्तमण्डली, सब मानो एक ही वस्तु से बनाये हुए जान पडते हैं । जिस वस्तु से श्रीरामकृष्ण बनाये गये हैं, जान पड़ता है, ये भी उसी वस्तु से बनाये गये हैं । जैसे एक मोम का बगीचा हो, पेड़, पल्लव, फूल, फल, सब मोम के ! बगीचे के रास्ते, बगीचे के माली, बगीचे के निवासी, बगीचे के भीतर का गृह, सब मोम के ! यहाँ का सब कुछ मानो आनन्द ही से रचा गया है !
श्रीमनमोहन, श्रीयुत महिमाचरण और मास्टर वहाँ बैठे हुए थे, क्रमशः ईशान, हृदय और हाजरा भी आये । और भी बहुत से भक्त बैठे हुए थे । बलराम और राखाल इस समय वृन्दावन में थे । इस समय कुछ नये भक्त भी आते-जाते थे - नारायण, पल्टू, छोटे नरेन्द्र, तेजचन्द्र, विनोद, हरिपद बाबूराम कभी कभी यहीं आकर रह जाते हैं । राम, सुरेश, केदार और देवेन्द्र आदि भक्तगण प्राय: आते हैं - कोई एक हप्ते के बाद - कोई दो हप्ते के बाद ।
लाटू यहीं रहते हैं । योगीन का घर नजदीक है, वे प्रायः रोज आया-जाया करते हैं । नरेन्द्र कभी कभी आते हैं, आते ही आनन्द का मानो हाट लग जाता है । नरेन्द्र जब अपने उस देवदुर्लभ कण्ठ से ईश्वर का नामगुण गाते हैं, तब श्रीरामकृष्ण को अनेक प्रकार के भावों का आवेश होता रहता है - समाधि होती है, जैसे एक उत्सव हो । श्रीरामकृष्ण की बड़ी इच्छा है कि लड़कों में से कोई उनके पास रहे, कि वे शुद्धात्मा हैं, संसार में विवाहादि के बन्धनों में नहीं पड़े । बाबूराम से श्रीरामकृष्ण रहने के लिए कहते हैं; वे कभी कभी रहते भी हैं । श्रीयुत अधर सेन प्रायः आया करते हैं । कमरे के भीतर भक्तगण बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण बच्चे की तरह खड़े होकर कुछ सोच रहे हैं । भक्तगण उनकी ओर देख रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (मनमोहन से) - सब राममय देख रहा हूँ, तुम लोग सब बैठे हुए हो, देखता हूँ, सब राम ही हैं, एक एक अलग अलग ।
मनमोहन - राम ही सब हुए हैं, परन्तु आप जैसा कहते हैं, 'आपो नारायणः', जल नारायण है, परन्तु कोई जल पिया जाता है, किसी जल से मुँह धोना तक चल सकता है और किसी जल से बर्तन साफ किये जाते हैं ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, परन्तु देखता हूँ, वे ही सब कुछ हैं । जीव जगत् वे ही हुए हैं ।
यह बात कहते हुए श्रीरामकृष्ण अपनी छोटी खाट पर जा बैठे ।
श्रीरामकृष्ण - (महिमाचरण से) - क्यों जी, सच बोलना है इसलिए मुझे कहीं शुचिता का रोग तो नहीं हो गया । अगर एकाएक कह दूँ कि मैं न खाऊँगा, तो भूख लगने पर भी फिर खाना न होगा। अगर कहूँ, झाऊतल्ले में मेरा लोटा लेकर अमुक आदमी को जाना होगा, तो यदि कोई दूसरा आदमी ले जाता है तो उसे लौटा देना पड़ता है । यह क्या हुआ भाई इसका क्या कोई उपाय नहीं है ?
“साथ भी कुछ लाने की शक्ति नहीं । पान, मिठाई, कोई वस्तु साथ नहीं ला सकता । इस तरह संचय होता है न ? हाथ से मिट्टी भी नहीं ला सकता ।"
इसी समय किसी ने आकर कहा, महाराज, 'हृदय' यदु मल्लिक के बगीचे में आया है, फाटक के पास खड़ा है, आपसे मिलना चाहता है ।'श्रीरामकृष्ण भक्तों से कह रहे हैं, ‘हृदय से जरा मिल लूँ ? तुम लोग बैठो ।’यह कहकर काले रंग की चट्टी पहनकर पूर्ववाले फाटक की ओर चले । साथ में केवल मास्टर हैं ।
लाल सुरखी की राह है । उसी राह से श्रीरामकृष्ण पूर्व की ओर जा रहे हैं । रास्ते में खजानची खड़े थे, उन्होंने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया । दाहिनी ओर आँगन का फाटक छूट गया, वहाँ लम्बी दाढ़ीवाले सिपाही बैठे हुए थे । बायीं ओर 'कोठी' है - बाबुओं का बैठकखाना, पहले यहाँ नील की कोठी थी, इसीलिए इसे कोठी कहते हैं । इसके आगे रास्ते के दोनों ओर फूल के पेड़ हैं । थोड़ी ही दूर पर रास्ते के बिलकुल दक्षिण ओर गाजीतल्ला और काली-मन्दिर का तालाब है, पक्के घाट की सीढ़ियाँ दिखायी पड़ती है । क्रमशः आगे पूर्व द्वार आया, उसके बायीं ओर दरवान का घर है और दाहिनी ओर तुलसी का चौरा । उद्यान के बाहर आकर देखा, यदु मल्लिक के बगीचे के फाटक के पास हृदय खड़ा था ।
[हृदय ^*ह्रदय मुखोपाध्याय सम्पर्के ठाकुरेर भागिनेय : हृदय मुखोपाध्याय रिश्ते में ठाकुरदेव के भगिना लगते थे। ठाकुरदेव के जन्मस्थान कामारपुकुर के पास शिहोड़ के ग्राम में ह्रदय का घर था। लगभग 20 वर्षों तक लगातार ठाकुर देव के साथ उनके निजी सहायक (P .A. personal assistant-सेवक महाराज) के रूप में रहते हुए, उन्होंने दक्षिणेश्वर काली-मन्दिर में काली की पूजा और श्रीरामकृष्ण की सेवा की थी। बाद में दक्षिणेश्वर बगीचे के मालिक उनके किसी कार्य से असन्तुष्ट होकर, बगीचे में प्रवेश करने से मना कर दिया था। हृदयेर मातामही ठाकुरेर पीसी। ह्रदय की नानी ठाकुर की बुआ लगती थीं। (*हृदय श्रीरामकृष्ण की जन्मभूमि कामारपुर के पास सिहोड ग्राम में रहते थे । बीस साल तक लगातार श्रीरामकृष्ण के पास रहकर दक्षिणेश्वर काली-मन्दिर में उन्होंने काली की पूजा और श्रीरामकृष्ण की सेवा की थी । बगीचे के मालिकों के असन्तोष का कोई काम कर बैठने के कारण उनका बगीचे के भीतर आना बन्द कर दिया गया था । हृदय की दादी श्रीरामकृष्ण की बुआ थी ।)
(२)
[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101]
हृदय का आगमन
[সেবক সন্নিকটে — হৃদয় দণ্ডায়মান]
हृदय हाथ जोड़कर खड़े हैं । श्रीरामकृष्ण को राजपथ पर देखते ही उन्होंने साष्टांग प्रणाम किया - दण्डवत् भूमि पर लेट गये, श्रीरामकृष्ण ने उठने के लिए कहा । हृदय फिर हाथ जोड़कर बालक की तरह से रो रहे हैं ।
आश्चर्य है कि श्रीरामकृष्ण भी रो रहे हैं । नेत्र में कई बूँद आँसू दीख पड़े । उन्होंने हाथ से आँसू पोंछ डाले - जैसे आँसू आये ही न हों । जिस हृदय ने उन्हें इतना कष्ट दिया था, उसी के लिए वे दौड़े आयें और रो रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - इस समय तू कैसे आया ?
हृदय - (रोते हुए) - आप ही से भेंट करने के लिए आया हूँ । अपना दुःख मैं और किससे कहूँ ?
श्रीरामकृष्ण - (सान्त्वनार्थ, सहास्य) - संसार में ऐसा दु:ख लगा ही है । संसार में रहो तो सुख और दुःख होते ही रहते हैं । (मास्टर को दिखाकर) ये लोग कभी कभी इसीलिए आते हैं । आकर ईश्वर की दो बातें सुनते हैं तो मन में शान्ति आ जाती है । तुझे किस बात का दुःख है ?
हृदय - (रोते हुए) - आपका संग छूटा हुआ है, यही दुःख है ।
श्रीरामकृष्ण - तू ने ही तो कहा था – ‘तुम्हारा मनोभाव तुम्हीं में रहे, मेरा – मुझमें ।’
हृदय - हाँ, ऐसा कहा तो था, परन्तु मैं इतना क्या जानू ?
श्रीरामकृष्ण - आज अब तू यहीं-कहीं रह जा । कल बैठकर हम दोनों बातचीत करेंगे । आज रविवार है, बहुत से आदमी आये हैं । वे सब बैठे हैं, इस बार देश में धान कैसा हुआ ?
हृदय – हाँ, एक तरह से पैदावार बुरी नहीं रही ।
श्रीरामकृष्ण - तो आज तू जा, किसी दूसरे दिन आना ।
हृदय ने फिर श्रीरामकृष्ण को साष्टांग प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण उसी रास्ते से लौटने लगे । मास्टर साथ हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - इसने मेरी सेवा जितनी की है मुझे कष्ट भी उतना ही दिया है । जब पेट की बीमारी से मेरी देह में बस दो हाड़ रह गये थे, कुछ खाया नहीं जाता था, तब इसने मुझसे कहा - यह देखो, मैं किस तरह खाता हूँ । अपने ही गुणों से तुमसे नहीं खाया जाता ।' फिर कहता था - 'अक्ल के दुश्मन ! मैं अगर न होता, तो तुम्हारी साधुगिरी निकल गयी होती ।' एक दिन तो इसने इतना कष्ट दिया कि मैं पोस्ता के ऊपर से ज्वार के पानी में प्राण छोड़ देने के लिए चला गया था ।
मास्टर यह सब सुनकर आश्चर्यचकित हो गये । सोचने लगे, इस तरह के आदमी के लिए भी ये रो रहे थे !
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - अच्छा इतनी सेवा करता था, फिर उसे ऐसा क्यों हुआ ? जिस तरह आदमी बच्चे की देखरेख करते हैं, इसने उसी तरह मेरी की थी । मैं दिन-रात बेहोशी की हालत में रहता था, तिस पर बहुत दिनों तक बीमार पड़ा था । वह जिस तरह मुझे रखता था, मैं उसी तरह रहता था ।
मास्टर क्या कहते ! चुप थे । वे शायद सोच रहे थे कि हृदय ने निष्काम भाव से श्रीरामकृष्ण की सेवा नहीं की ।
बातचीत करते हुए श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में आये । भक्तगण प्रतीक्षा कर रहे थे । श्रीरामकृष्ण फिर छोटी खाट पर बैठ गये ।
(३)
[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101]
🔆🙏भाव, महाभाव का गूढ़ तत्व🔆🙏
श्रीयुत महिमाचरण आदि कोन्नगर के कई भक्त आये हैं; इनमें से एक ने कुछ देर तक श्रीरामकृष्ण के साथ विचार किया ।
श्रीरामकृष्ण - श्रीमती (राधिका) को महाभाव होता था, जब कोई सखी छूने के लिए बढ़ती तब दूसरी कहती - इस कृष्ण के विलास- अंग को न छू, इनके शरीर में इस समय कृष्ण विलास कर रहे हैं । ईश्वर का अनुभव हुए बिना भाव या महाभाव नहीं होता । गहरे जल से मछली के निकलने पर पानी हिलता है, अगर मछली बड़ी हुई तो पानी में उथल-पुथल मच जाती है । इसीलिए कहा है, भक्त भाव में [प्रेमोन्मत्त होकर] हँसता है, नाचता है, रोता है, गाता है ।
"बड़ी देर तक भाव में नहीं रहा जाता । आईने के पास बैठकर केवल मुँह देखते रहने से लोग पागल कहेंगे ।"
कोत्रगर के भक्त – मैंने सुना है, महाराज , आप ईश्वर-दर्शन करते रहते हैं तो हमें भी करा दीजिये।
श्रीरामकृष्ण - सब कुछ ईश्वर के अधीन है - भला आदमी क्या कर सकता है ? उनका नाम लेते हुए कभी अश्रुधारा बहती है, कभी नहीं । उनका ध्यान करते हुए कभी कभी खूब उद्दीपन होता है - किसी दिन कुछ भी नहीं होता । "कर्म चाहिए, तब दर्शन होते हैं ।
एक दिन भावावेश में मैंने हालदार तालाब देखा । देखा, एक निम्न जाति का आदमी काई हटाकर पानी भर रहा है । उसने दिखाया, काई हटाये बिना पानी नहीं भरा जा सकता । कर्म बिना किये भक्ति नहीं होती, ईश्वर दर्शन नहीं होता । ध्यान, जप, यही सब कर्म हैं, उनके नाम और गुणों का कीर्तन करना भी कर्म है, और दान, यज्ञ, ये भी सब कर्म ही हैं ।
“मक्खन अगर चाहते हो तो दूध को लेकर दही जमाना चाहिए । फिर निर्जन में रखना चाहिए । फिर दही जमने पर मेहनत करके उसे मथना चाहिए, तब कहीं मक्खन निकलता है ।"
महिमाचरण - जी हाँ, कर्म तो चाहिए ही । बड़ा परिश्रम करना पड़ता है, तब कहीं वस्तु-लाभ होता है । पढ़ना भी कितना पड़ता है - अनन्त शास्त्र हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (महिमा से) - शास्त्र कितना पढ़ोगे ? सिर्फ विचार करने से क्या होगा ? पहले उनके लाभ करने की चेष्टा करो, गुरु की बात पर विश्वास करके कुछ कर्म करो । गुरु न रहे, तो ईश्वर से व्याकुल होकर प्रार्थना करो, वे कैसे हैं - वे खुद समझा देंगे ।
"पुस्तकें पढ़कर क्या जानोगे ? जब तक बाजार नहीं जाया जाता, तब तक दूर से बस हो-हल्ला सुन पड़ता है । बाजार पहुँचने पर एक और तरह की बात होती है । तब सब साफ दीख पड़ता है और साफ सुन पड़ता है; 'आलू लो’ और ‘पैसे दो’ साफ सुनायी देगा ।
“दूर से समुद्र के हरहराने का ही शब्द सुन पड़ता है । पास जाने पर कितने ही जहाजों को जाते हुए, कितने ही पक्षियों को उड़ते हुए और उठती हुई कितनी ही तरंगें देखोगे ।
"पुस्तक पढ़कर ठीक अनुभव नहीं होता । बड़ा अन्तर है । उनके दर्शनों के बाद पुस्तक, शास्त्र और साइन्स (विज्ञान) सब तिनके-जैसे जान पड़ते हैं ।
"बड़े बाबू [जमीन्दार बाबू] के साथ परिचय की आवश्यकता है । उनकी कितनी कोठियाँ हैं, कितने बगीचे हैं, कम्पनी का कागज कितने का है, यह सब पहले से जानने के लिए इतने उतावले क्यों हो रहे हो ?
नौकरों के पास जाते हो तो वे खड़े भी नहीं रहने देते - कम्पनी के कागज की खबर भला क्या देंगे! परन्तु किसी तरह बड़े बाबू से एक बार मिल भर लो, चाहे धक्के खाकर मिलो और चाहे चारदीवारी लाँघकर, तब उनके कितने मकान हैं, कितने बगीचे हैं, कितने का कम्पनी-कागज हैं, वे खुद बतला देंगे । बाबू से भेंट हो जाने पर नौकर और दरवान सब सलाम करेंगे ।" (सब हँसते हैं ।)
भक्त - अब बड़े बाबू से भेंट भी कैसे हो ? (हास्य)
श्रीरामकृष्ण - इसीलिए कर्म चाहिए । ईश्वर है, यह कहकर बैठे रहने से कुछ न होगा । किसी तरह उनके पास तक जाना होगा । निर्जन में उन्हें पुकारो, प्रार्थना करो, 'दर्शन दो' कह कहकर व्याकुल होकर रोओ ! कामिनी और कांचन के लिए पागल होकर घूम सकते हो, तो उनके लिए भी कुछ पागल हो जाओ । लोग कहें कि ईश्वर के लिए अमुक व्यक्ति पागल हो गया है । कुछ दिन, सब कुछ छोड़कर उन्हें अकेले में पुकारो ।
"केवल वे हैं, यह कहकर बैठे रहने से क्या होगा ? हालदार तालाब में बहुत बड़ी बड़ी मछलियाँ हैं, परन्तु तालाब के किनारे केवल बैठे रहने से क्या कहीं मछली पकड़ी जा सकती है ? पानी में मसाला डालो, क्रमशः गहरे पानी से मछलियाँ निकलकर मसाले के पास आयेंगी, तब पानी भी हिलता-डुलता रहेगा । तब तुम्हें आनन्द होगा । कभी किसी मछली का कुछ अंश दिखलायी पड़ा, मछली उछली और पानी में एक शब्द हुआ । जब देखा, तब तुम्हें और भी आनन्द मिला ।
"दूध जमाकर दही मथोगे तभी तो मक्खन निकलेगा । (महिमा से) यह अच्छी बला सिर चढ़ी, ईश्वर से मिला दो और आप चुपचाप बैठे रहेंगे ! मक्खन निकालकर मुँह के पास रखा जाय ! (सब हँसते हैं ।) अच्छी बला आयी, मछली पकड़कर हाथ में रख दी जाय !
"एक आदमी राजा से मिलना चाहता है । सात ड्योढ़ियों के बाद राजा का मकान है । पहली ड्योढ़ी को पार करते ही वह पूछता है - 'राजा कहाँ है ?’ जिस तरह का प्रबन्ध है, उसी के अनुसार सातों ड्योढ़ियों को पार करना होगा या नहीं?"
महिमाचरण - किस कर्म से हम उन्हें प्राप्त कर सकते हैं ?
श्रीरामकृष्ण - उन्हें अमुक कर्म से आदमी पाता है और अमुक से नहीं, यह बात नहीं । उनका मिलना उनकी कृपा पर अवलम्बित है । हाँ, व्याकुल होकर कुछ कर्म करते रहना चाहिए । विकलता के रहने पर उनकी कृपा होती है ।
“कोई सुयोग मिलना चाहिए, चाहे साधु-संग हो या विवेक हो या सद्गुरु की प्राप्ति । कभी इस तरह का सुयोग मिल जाता है कि बड़े भाई ने संसार का कुल भार ले लिया, या स्त्री 'विद्याशक्ति' धर्मात्मा निकली, या विवाह ही न हुआ, इस तरह संसार में न फँसना पड़ा । इस प्रकार के शुभ संयोग के मिलने पर काम बन जाता है ।
"किसी के घर में सख्त बीमारी थी - अब-तब हो रहा था । किसी ने कहा 'स्वाति नक्षत्र में बरसात का पानी अगर मुर्दे की खोपड़ी में गिरकर रुक जाय और एक साँप मेंढ़क का पीछा करे, साँप के लपककर पकड़ते समय मेंढ़क खोपड़ी के उस पार उछलकर चला जाय और साँप का विष उसी खोपड़ी में गिर जाय, उसी विष की दवा यदि बनायी जाय और वह दवा अगर मरीज को दी जा सके तो वह बच सकता है ।'
तब जिसके यहाँ बीमारी थी, वह आदमी दिन, मुहूर्त, नक्षत्र आदि देखकर घर से निकला , और व्याकुल होकर यही सब खोजने लगा । मन ही मन वह ईश्वर को पुकारकर कहता गया - 'हे ईश्वर ! तुम अगर सब इकट्ठा कर दो तो हो सकता है ।’ इस तरह जाते जाते सचमुच ही उसने देखा कि एक मुर्दे की खोपड़ी पड़ी हुई है । देखते ही देखते थोड़ा पानी भी बरस गया । तब उसने कहा - 'हे गुरु ! मुर्दे की खोपड़ी मिली और थोड़ा पानी भी बरस गया और उसकी खोपड़ी में जमा भी हो गया । अब कृपा करके और जो दो-एक योग हैं, उन्हें भी पूरा कर दो, भगवान् !'
"व्याकुल होकर वह सोच ही रहा था कि इतने में उसने देखा कि एक विषधर साँप आ रहा है । तब उसे बड़ा आनन्द हुआ । वह इतना व्याकुल हुआ कि छाती धड़कने लगी, और कहने लगा, 'हे गुरु !' साँप भी आ गया है । कई योग तो पूरे हो गये । कृपा करके और जो बाकी हैं, उन्हें भी पूर्ण कर दो ।' कहते ही कहते मेंढ़क भी आ गया । सौंप मेंढ़क को खदेरने भी लगा । मुर्दे के सिर के पास साँप ने ज्योंही उस पर चोट करना चाहा कि मेंढ़क उछलकर इधर से उधर हो गया, और विष उसी खोपड़ी में गिर गया । तब वह आदमी तालियाँ बजाने और नाचने लगा ।
"इसीलिए कहता हूँ, व्याकुलता के होने पर सब हो जाता है ।"
(४)
[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101
🔆🙏संन्यास तथा गृहस्थाश्रम । ईश्वर-लाभ और त्याग🔆🙏
श्रीरामकृष्ण - मन से सम्पूर्ण त्याग के हुए बिना (कामिनी -कांचन से अनासक्त हुए बिना) ईश्वर नहीं मिलते । साधु संचय नहीं कर सकता । कहते हैं, `पक्षी और दरवेश' , ये दोनों संचय नहीं करते । यहाँ का तो भाव यह है कि हाथ में मिट्टी लगाने के लिए मैं मिट्टी भी नहीं ले जा सकता । पानदान में पान भी नहीं ले जा सकता । हृदय जब मुझे बड़ी तकलीफ दे रहा था, तब मेरी इच्छा हुई, यहाँ से काशी चला जाऊँ । सोचा, कपड़े तो लूँगा, परन्तु रुपये कैसे लूँगा ? इसीलिए फिर काशी जाना भी न हुआ । (सब हँसते हैं ।)
(महिमा से) “तुम लोग संसार में हो, तुम लोग यह भी रखते हो और वह भी रखते हो । संसार भी रखते हो और धर्म भी ।"
महिमाचरण - यह और वह दोनों कभी रह सकते हैं ?
श्रीरामकृष्ण – मैंने पंचवटी के पास गंगाजी के तट पर, 'रुपया मिट्टी है - मिट्टी ही रुपया है - रुपया ही मिट्टी है,’ इस तरह विचार करते हुए, जब रुपया गंगाजी में फेंक दिया, तब पीछे से कुछ भय भी हुआ ! सोचा, मैं बिना लक्ष्मी के कहीं अभागा तो न हो जाऊँगा, माता लक्ष्मी अगर भोजन बन्द कर दें तो फिर क्या होगा ? तब हाजरा की तरह पटवारी बुद्धि (ruse-छलबुद्धि) आयी । मैंने कहा - 'माँ, तुम हृदय में रहना।’ एक आदमी की तपस्या पर सन्तुष्ट हो भगवती ने कहा, तुम वरदान लो । उसने कहा, 'माँ, अगर तुम्हें वरदान देना है तो यह वर दो कि मैं नाती के साथ सोने की थाली में भोजन करूँ ।' एक ही वर में नाती, ऐश्वर्य, सोने की थाली, सब कुछ हो गया ! (लोग हँसते हैं ।)
“मन से कामिनी-कांचन का जब त्याग हो जाता है तब ईश्वर की ओर मन जाता है, तब मन उन्हीं में लिप्त भी रहता है । जो बद्ध हैं, उन्हीं में मुक्त होने की शक्ति भी है । ईश्वर से विमुख होने के कारण ही वे बद्ध हैं । काँटे की दो सुइयों में कब अन्तर होता है ? यह तभी होता है जब एक पल्ला किसी भार से नीचे दबता है । कामिनी और कांचन ही भार है ।
"बच्चा पैदा होते ही क्यों रोता है ? 'मैं गर्भ में था तब योग में था ।' भूमिष्ठ होकर यही कहकर रोता है - 'कहाँ यह - कहाँ यह - यह मैं कहाँ आया, ईश्वर के पादपद्मों की चिन्ता कर रहा था, यह मैं कहाँ आया !
"तुम लोग मन से त्याग करो, अनासक्त होकर संसार में रहो ।"
महिमा - उन पर मन जाय तो क्या फिर संसार रह सकता है ?
श्रीरामकृष्ण - यह क्या ? संसार में नहीं रहोगे तो जाओगे कहाँ ? मैं देखता हूँ, मैं जहाँ रहता हूँ, वह राम की अयोध्या है । यह संसार राम की अयोध्या है । श्रीरामचन्द्रजी ने ज्ञान प्राप्त करके गुरु से कहा, मैं संसार का त्याग करूँगा । दशरथ ने उन्हें समझाने के लिए वशिष्ठ को भेजा ।
वशिष्ठ ने देखा, राम को तीव्र वैराग्य है । तब कहा, 'राम ! पहले मेरे साथ कुछ विचार कर लो, फिर संसार छोड़ना । अच्छा, प्रश्न यह है, क्या संसार ईश्वर से कोई अलग चीज है ? अगर ऐसा हो तो तुम इसका त्याग कर सकते हो ।’ राम ने देखा, ईश्वर ही जीव और जगत् सब कुछ हुए हैं । उनकी सत्ता के कारण सब कुछ सत्य जान पड़ता है । तब श्रीरामचन्द्रजी चुप हो रहे ।
“संसार में काम और क्रोध, इन सब के साथ लड़ाई करनी पड़ती है, कितनी ही वासनाओं से संग्राम करना पड़ता है, आसक्तियों से भिड़ना पड़ता है । लड़ाई किले में रहकर की जाय तो सुवधाएँ हैं । घर से लड़ना ही अच्छा है । भोजन मिलता है – धर्मपत्नी भी बहुत कुछ सहायता करती है । कलिकाल में प्राण अन्नगत है – अन्न के लिए दस जगहों में मारे-मारे फिरने (संन्यासी को भिक्षाटन करना पड़ता है) की अपेक्षा एक जगह रहना ही अच्छा है । घर में, किले के भीतर रहकर लड़ना अच्छा है ।
"और संसार में आंधी में उड़ती हुई जूठी पत्तल की तरह रहो । जूठी पत्तल को आँधी कभी घर के भीतर ले जाती है, कभी नाबदान (कूड़ेदान या dustbin) में । हवा का रुख जिस ओर होता है, पत्तल भी उसी ओर उड़ती है । कभी अच्छी जगह पर गिरती है और कभी बुरी जगह पर । तुम्हें इस समय उन्होंने संसार में डाल रखा है । अच्छा है, इस समय यहीं रहो । फिर जब यहाँ से उठाकर अच्छी जगह ले जायेंगे, तब देखा जायेगा, जो होगा सो होता रहेगा ।
"संसार में रखा है, तो क्या करोगे ? सब कुछ उन्हें अर्पित कर दो - उन्हें आत्मसमर्पण कर दो तो फिर कोई झंझट नहीं रह जायेगी । तब देखोगे, वे ही सब कुछ कर रहे हैं ।सभी 'राम की इच्छा’ है ।"
एक भक्त - `राम की इच्छा' यह कैसी कहावत है ?
श्रीरामकृष्ण - किसी गाँव में एक जुलाहा रहता था । वह बड़ा धर्मात्मा था । सब को उस पर विश्वास था और सब लोग उसे प्यार भी करते थे । जुलाहा बाजार में कपड़े बेचा करता था । जब खरीददार दाम पूछते तो वह कहता, 'राम की इच्छा से सूत का दाम हुआ एक रुपया, मेहनत चार आने की, राम की इच्छा से मुनाफा दो आने, और कुल कीमत राम की इच्छा से एक रुपया छः आने ।’
लोगों का उस पर इतना विश्वास था कि उसी समय वे दाम देकर कपड़ा ले लेते थे । वह जुलाहा बड़ा भक्त था, रात को भोजन करके बड़ी देर तक चण्डी-मण्डप में बैठा ईश्वर-चिन्तन किया करता था । उनके नाम और गुणों का कीर्तन भी वहीं करता था । एक दिन बड़ी रात हो गयी, फिर भी उसकी आँख न लगी, वह बैठा हुआ था, कभी कभी तम्बाकू पीता था । उसी समय उस रास्ते से डाकुओं का एक दल डाका डालने के लिए जा रहा था ।
"उनमें कुलियों की कमी थी । उसे देखकर उन्होंने कहा, अबे, हमारे साथ चल । यह कहकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे ले चले । फिर एक गृहस्थ के यहाँ उन लोगों ने डाका डाला । कुछ चीजें जुलाहे पर लाद दीं, इतने में ही पुलिस आ गयी ! डाकू भाग गये, सिर्फ जुलाहा सिर पर गट्ठर लिये हुए पकड़ा गया ।
उस रात को उसे हवालात में रखा । दूसरे दिन मैजिस्ट्रेट साहब के कोर्ट में वह पेश किया गया । गाँव के आदमी मामला सुनकर कोर्ट में हाजिर हुए । उन सब लोगों ने कहा, हुजूर ! यह आदमी कभी डाका नहीं डाल सकता । साहब ने तब जुलाहे से पूछा, 'क्यों जी, तुम्हें क्या हुआ है ? कहो।'
"जुलाहे ने कहा, 'हुजूर ! राम की इच्छा से मैंने रात को रोटी खायी । इसके बाद राम की इच्छा से मैं चण्डी-मण्डप में बैठा हुआ था, राम की इच्छा से रात बहुत हो गयी । मैं राम की इच्छा से उनकी चिन्ता कर रहा था और उनके भजन गा रहा था । उसी समय राम की इच्छा से डाकुओं का एक दल उस रास्ते से आ निकला ।
राम की इच्छा वे लोग मुझे पकड़कर घसीट ले गये । राम की इच्छा से उन लोगों ने एक गृहस्थ के घर डाका डाला । राम की इच्छा से मेरे सिर पर गट्ठर लाद दिया । इतने में ही राम की इच्छा से पुलिस आ गयी । राम की इच्छा से मैं पकड़ा गया, तब मुझे राम की इच्छा से हवालात में पुलिस ने बन्द कर रखा । आज सुबह को राम की इच्छा से वह हुजूर के पास ले आयी है ।'
"उसे धर्मात्मा देखकर साहब ने जुलाहे को छोड़ देने की आज्ञा दी । जुलाहे ने रास्ते में अपने मित्रों से कहा, 'राम की इच्छा से मैं छोड़ दिया गया ।’
` संसार करना, संन्यास, यह भी सब राम की इच्छा से होता है, इसीलिए उन पर सब भार छोड़कर संसार का काम करना चाहिए । " इसके अतिरिक्त तुम और कर भी क्या सकते हो ?
"किसी क्लर्क को जेल हो गयी थी । मियाद पूरी हो जाने पर वह जेल से निकाल दिया गया । अब बताओ, वह जेल से निकलकर मारे आनन्द के नाचता रहे या फिर क्लर्की करे ?
“संसारी अगर जीवन्मुक्त हो जाय तो वह अनायास ही संसार में रह सकता है; जिसे ज्ञान की प्राप्ति हो गयी है, उसके लिए यहाँ-वहाँ नहीं है, उसके लिए सब बराबर है । जिसके मन में वहाँ है, उसके मन में यहाँ भी है ।
"जब मैंने पहले-पहल बगीचे में केशव सेन को देखा, तब कहा, इसकी पूँछ गिर गयी है ! सभा भर के आदमी हँस पड़े । केशव ने कहा, 'तुम लोग हँसो मत; इसका कोई अर्थ है, इनसे पूछता हूँ । मैंने कहा ‘जब तक मेंढ़क के बच्चे की पूँछ नहीं गिर जाती, तब तक उसे पानी में ही रहना पड़ता है; वह किनारे से चढ़कर सूखी जमीन में विचर नहीं सकता; ज्योंही उसकी पूँछ गिर जाती है त्योंही वह फिर उछल-कूदकर जमीन पर आ जाता है। तब वह पानी में भी रह सकता है और जमीन पर भी ।
उसी तरह आदमी की जब तक अविद्या की पूँछ नहीं गिर जाती, तब तक वह संसार रूपी जल में ही पड़ा रहता है । अविद्यारूपी पूँछ के गिर जाने पर - ज्ञान होने पर ही मुक्त भाव से मनुष्य विचरण कर सकता है और इच्छा होने पर संसार में भी रह सकता है ।’
(५)
[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]
🔆🙏निर्लिप्त संसारी 🔆🙏
श्रीयुत महिमाचरण आदि भक्तगण बैठे हुए श्रीरामकृष्ण के मधुर वचनामृत का पान कर रहे हैं । बातें क्या हैं, अनेक वर्णों के रत्न हैं । जिससे जितना हो सकता है, वह उतना ही संग्रह कर रहा है। अंचल भर गया है, इतना भारी हो रहा है कि उठाया नहीं जाता । छोटे छोटे आधारों से और अधिक धारणा नहीं होती ।
सृष्टि से लेकर आज तक मनुष्यों के हृदय में जितनी समस्याओं का उद्भव हुआ है, सब की पूर्ति हो रही है । पद्मलोचन, नारायण शास्त्री, गौरी पण्डित, दयानन्द सरस्वती आदि शास्त्रवेत्ता पण्डितों को आश्चर्य हो रहा है ।
दयानन्दजी ने जब श्रीरामकृष्ण और उनकी समाधि अवस्था को देखा था, तब उन्होंने उसे लक्ष्य करते हुए कहा था, "हम लोगों ने इतना वेद और वेदान्त पढ़ा, परन्तु उसका फल इस महापुरुष में ही नजर आया । इन्हें देखकर प्रमाण मिला कि सब पण्डितगण शास्त्रों का मन्थन कर केवल उसका मट्ठा पीते हैं; मक्खन तो ऐसे ही महापुरुष खाया करते हैं ।"
उधर अंग्रेजी के उपासक केशवचन्द्र सेन जैसे पण्डितों को भी आश्चर्य हुआ है । वे सोचते हैं, “कितने आश्चर्य की बात है, एक निरक्षर मनुष्य ये सब बातें कैसे कह रहा है ? यह तो बिलकुल मानो ईसा की बातें हैं, वही ग्रामीण भाषा, उसी तरह कहानियों में समझाना जिससे स्त्रीपुरुष, बच्चे, सब लोग आसानी से समझ सकें ।
ईसा पिता-पिता कहकर पागल हुए थे, ये 'माँ-माँ' कहकर पागल हुए हैं । केवल ज्ञान का भण्डार नहीं, ईश्वर-प्रेम की अविरल वर्षा हो रही है, फिर भी उसकी समाप्ति नहीं होती । ये भी ईसा की तरह त्यागी हैं, उन्हीं के जैसा अटल विश्वास इनमें भी मिल रहा है, इसलिए तो इनकी बातों में इतना बल है ।
संसारी आदमियों के कहने पर इतना बल नहीं आ सकता, क्योंकि वे त्यागी नहीं हैं, उनमें वह प्रगाढ़ विश्वास कहाँ ?" केशव सेन जैसे पण्डित भी यह सोचते हैं कि इस निरक्षर आदमी में इतना उदार भाव कैसे आया ? कितने आश्चर्य की बात है, इनमें किसी तरह का द्वेष-भाव नहीं । ये सब धर्मों के मनुष्यों का आदर करते हैं - इसी से वैमनस्य नहीं होता।
आज महिमाचरण के साथ श्रीरामकृष्ण की बातचीत सुनकर कोई कोई भक्त सोचते है - 'श्रीरामकृष्ण ने तो संसार का त्याग करने के लिए कहा नहीं, बल्कि कहते हैं, संसार किला है, किले में रहकर काम, क्रोध आदि के साथ लड़ाई करने में सुविधा होती है । फिर उन्होंने कहा, जेल से निकलकर क्लर्क अपना ही काम फिर करता है; इससे एक तरह यही बात कही गयी कि जीवन्मुक्त संसार में भी रह सकता है ।
परन्तु एक बात है, श्रीरामकृष्ण कहते हैं, कभी कभी एकान्त में रहना चाहिए । पौधे को घेरना चाहिए । जब वह बड़ा हो जायेगा, तब उसे घेरने की जरूरत न रह जायेगी, तब हाथी बाँध देने से भी वह उसका कुछ कर नहीं सकता । निर्जन में रहकर भक्तिलाभ या ज्ञानलाभ करने के पश्चात् संसार में रहने से भी फिर भय की कोई बात नहीं रह जाती ।
भक्तगण इसी तरह की बातें मन-ही-मन सोंच रहे हैं । केशव के बारे में बातचीत करके श्रीरामकृष्ण और दो-एक संसारी भक्तों की बातें कह रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (महिमाचरण से) - फिर 'सेजोबाबू' के साथ देवेन्द्रबाबू से मिलने गया था । सेजोबाबू से मैंने कहा, 'सुना है, देवेन्द्र ठाकुर (रवीन्द्रनाथ के पिता) ईश्वर की चिन्ता करता है , उसे देखने की मेरी इच्छा होती है ।’
सेजोबाबू ने कहा, 'अच्छा बाबा, मैं तुम्हे ले जाऊँगा, हम दोनों हिन्दू कालेज में एक साथ पढ़ते थे, मेरे साथ बड़ी घनिष्ठता है ।’
हमलोग देवेन्द्र के घर गए। सेजोबाबू से उनकी बहुत दिन बाद मुलाकात हुई थी। सेजोबाबू को देखकर देवेन्द्र ने कहा, 'तुम्हारा शरीर थोड़ा बदल गया है, तुम्हारे तोंद कुछ निकल आयी है ।’
सेजोबाबू ने मेरी बात कही । उन्होंने कहा, 'ये तुम्हें देखने के लिए आये हैं, ये ईश्वर के लिए पागल हो रहे हैं ।
लक्षण देखने के लिए मैंने देवेन्द्र से कहा, 'देखें जी तुम्हारी देह ।' देवेन्द्र ने देह से कुर्ता उतार डाला । मैंने देखा, गोरा रंग, तिस पर सेंदूर-सा लगाया हुआ, तब देवेन्द्र के बाल नहीं पके थे ।
"पहले पहल मैंने उसमें कुछ अभिमान देखा था। होना भी चाहिए -इतना ऐश्वर्य है, विद्या है, मान है। अभिमान देखकर सेजोबाबू से मैंने पूछा, 'अच्छा, अभिमान ज्ञान से होता है या अज्ञान से ? जिसे ब्रह्मज्ञान हो जाता है, उसे क्या 'मैं पण्डित हूँ, मैं ज्ञानी हूँ, मैं धनी हूँ, इस तरह का अभिमान हो सकता है ?’
"देवेन्द्र के साथ बातचीत करते हुए एकाएक मेरी वही अवस्था हो गयी । उस अवस्था के होने पर कौन आदमी कैसा है, यह मैं स्पष्ट देखता हूँ । मेरे भीतर से हँसी उमड़ पड़ी । जब यह अवस्था होती है तब पण्डित-फण्डित सब तिनके से जान पड़ते हैं । जब देखता हूँ, पण्डित में विवेक और वैराग्य नहीं है, तब वे सब घास-फूस जैसे जान पड़ते हैं । तब यही दिखता है कि गीध बहुत ऊँचे उड़ रहा है परन्तु उसकी नजर नीचे मरघट पर ही लगी हुई है ।
“देखा योग और भोग दोनों हैं, छोटे छोटे बहुत से लड़के थे, डाक्टर आया हुआ था - इसीसे सिद्ध है कि इतना ज्ञानी तो है, परन्तु संसार में रहना पड़ता है । मैंने कहा - 'तुम कलिकाल के जनक हो । जनक इधर-उधर दोनों ओर रहकर दूध का कटोरा खाली किया करते थे । मैंने सुना था, तुम संसार में रहकर भी ईश्वर पर मन लगाये हुए हो, इसीलिए तुम्हें देखने आया हूँ, मुझे कुछ ईश्वर की बातें सुनाओ ।"
"तब वेद से कुछ अंश उसने सुनाये । कहा, 'यह संसार एक दीपक के पेड़ के समान है और प्रत्येक जीव इस पेड़ का एक एक दीपक है ।' मैं जब यहाँ ध्यान करता था, तब बिलकुल इसी तरह देखता था । देवेन्द्र की बात से मेल हुआ, देखकर मैंने सोचा, तब तो यह बहुत बड़ा आदमी है । मैंने उसे व्याख्या करने के लिए कहा ।
उसने कहा, 'इस संसार को पहले कौन जानता था ? - ईश्वर ने अपनी महिमा को प्रकाशित कर दिखाने के उद्देश्य से मनुष्य की सृष्टि की । पेड़ के उजाले के न रहने पर सब अँधेरा हो जाता है, पेड़ भी नहीं दिख पड़ता ।
“बहुत कुछ बातें होने के बाद देवेन्द्र ने खुश होकर कहा, 'आपको उत्सव (ब्रह्मसमाज के वार्षिकोत्स्व) में आना होगा ।'
मैंने कहा, 'वह ईश्वर की इच्छा; मेरी यह अवस्था तो देख ही रहे हो - वे कभी किसी भाव में रखते हैं, कभी किसी भाव में ।'
देवेन्द्र ने कहा, 'नहीं, आना ही होगा । परन्तु धोती और चद्दर ये दोनों कपड़े आप जरूर पहने हुए हों, आपको ऊलजलूल देखकर अगर किसी ने कुछ कह दिया तो मुझे बड़ा कष्ट होगा ।' मैंने कहा, 'यह मुझसे न होगा, मैं बाबू न बन सकूगा !' देवेन्द्र और सेजोबाबू हँसने लगे ।
"उसके दूसरे ही दिन सेजोबाबू के पास देवेन्द्र की चिट्ठी आयी - मुझे उत्सव देखने के लिए जाने से उन्होंने रोका था । लिखा था, देह पर एक चद्दर भी न रहेगी तो असभ्यता होगी । (सब हँसते हैं ।)
(महिमा से) “एक और है – कप्तान । संसारी तो है परन्तु बड़ा भक्त है । तुम उससे मिलना । “कप्तान को वेद, वेदान्त, गीता, भागवत, यह सब कण्ठाग्र याद है । तुम बातचीत करके देखना ।
[कप्तान ^* नेपाल के निवासी श्री विश्वनाथ उपाध्याय, नेपाल राजा के वकील, एक शाही प्रतिनिधि, कलकत्ता में रहते थे। वे निष्ठावान ब्राह्मण तथा सुशिक्षित विद्वान् थे। उनके पिता भारतीय सेना के सूबेदार और धर्मनिष्ठ शैव थे।]
“बड़ी भक्ति है । मैं वराहनगर की राह से जा रहा था, वह मेरे ऊपर छाता लगाता था । अपने घर ले जाकर बड़ी खातिर की । - पंखा झलता था, पैर दबाता था और कितनी ही तरह की तरकारियाँ बना कर खिलाता था । मैं एक दिन उसके यहाँ पाखाने में बेहोश हो गया । वह इतना आचारी तो है, परन्तु पाखाने के भीतर मेरे पास जाकर मेरे पैर फैलाकर मुझे बैठा दिया । इतना आचारी है, परन्तु घृणा नहीं की ।
"कप्तान के पल्ले बड़ा खर्च है । उसके भाई बनारस में रहते हैं, उन्हें खर्च देना पड़ता है । उसकी बीबी पहले बड़ी कंजूस थी । अब इतनी पलट गयी है कि खर्च सँभाल नहीं सकती ।
"कप्तान की स्त्री ने मुझसे कहा, ‘इन्हें संसार अच्छा नहीं लगता, इसलिए एक बार इन्होंने कहा था कि संसार छोड़ दूंगा ।' हाँ, वह ऐसा बराबर कहा करता है ।
"उसका वंश ही भक्त है । उसका बाप लड़ाई में जाया करता था, मैंने सुना है लड़ाई के समय वह एक हाथ से शिव की पूजा करता था और दूसरे से तलवार चलाता था ।
"बड़ा आचारी आदमी है । मैं केशव सेन के पास जाता था, इसीलिए इधर महीने भर से नहीं आया। कहता है, 'केशव सेन के आचार भ्रष्ट हैं - अंग्रेजों के साथ भोजन करता है, उसने दूसरी जाति में अपनी लड़की का विवाह किया है, उसकी कोई जाति नहीं है ।'
मैंने कहा, 'मुझे उन सब बातों से क्या काम ? केशव सेन ईश्वर का नाम लेता है, इसलिए मैं उसे देखने जाया करता हूँ । ईश्वर की बातें सुनने के लिए वहाँ जाता हूँ - मैं बेर खाता हूँ, काँटों से मुझे क्या काम ?" फिर भी मुझे कप्तान ने न छोड़ा । कहा, 'तुम केशव सेन के यहाँ क्यों जाते हो ?'
तब मैंने कुछ चिढ़कर कहा, 'मैं रुपयों के लिए तो जाता नहीं - मैं ईश्वर का नाम सुनने के लिए जाया करता हूँ - और तुम लाट साहब के यहाँ कैसे जाया करते हो ? वे म्लेच्छ हैं । उनके साथ कैसे रहते हो ?' यह सब कहने के बाद कहीं वह रुका ।
"परन्तु उसमें बड़ी भक्ति है । जब पूजा करता है, तब कपूर की आरती करता है और पूजा करते हुए आसन पर बैठकर स्तवपाठ करता है । तब वह एक दूसरा ही आदमी रहता है, मानो तन्मय हो जाता है ।
(६)
[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]
🔆🙏वेदान्त-विचार। मायावाद और श्रीरामकृष्ण 🔆🙏
श्रीरामकृष्ण (महिमाचरण के प्रति) “वेदान्त के विचार से संसार मायामय है - स्वप्न की तरह सब मिथ्या है । जो परमात्मा हैं, वे (ईश्वर -आत्मा) साक्षीस्वरूप हैं - जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं के साक्षीस्वरूप ये सब तुम्हारे ही भाव की बातें हैं । स्वप्न जितना सत्य है, जागृति भी उतनी ही सत्य है। तुम्हारे भाव की एक कहानी कहता हूँ, सुनो ।
"किसी गाँव में एक किसान रहता था । वह बड़ा ज्ञानी था । किसानी करता था - स्त्री थी, एक लड़का बहुत दिनों के बाद हुआ था । नाम उसका हारू था । बच्चे पर माँ और बाप, दोनों का प्यार था, क्योंकि एकमात्र वहीं नीलमणि जैसा धन था ।
किसान धर्मात्मा था । गाँव के सब आदमी उसे चाहते थे । एक दिन वह मैदान में काम कर रहा था, किसी ने आकर खबर दी, हारू को हैजा हुआ । किसान ने घर जाकर उसकी बड़ी दवादारू की, परन्तु अन्त में लड़का गुजर गया ।
घर के सब लोगों को बड़ा शोक हुआ, परन्तु किसान को जैसे कुछ भी न हुआ हो । उल्टा वही सब को समझाता था कि शोक करने में कुछ नहीं है । फिर वह खेती करने चला गया । घर लौटकर उसने देखा, उसकी स्त्री रो रही है । उसने अपने पति से कहा, 'तुम बड़े निष्ठुर हो, लड़का जाता रहा और तुम्हारी आँखों से आँसू तक न निकले !'
तब उस किसान ने स्थिर होकर कहा, 'मैं क्यों नहीं रोता, बतलाऊँ ? कल मैंने एक बड़ा जीवन्त स्वप्न देखा । देखा कि मैं राजा हुआ हूँ और मेरे आठ बच्चे हुए हैं । बड़े सुख से हूँ फिर आँख खुल गयी । अब मुझे बड़ी चिन्ता है - अपने उन आठ लड़कों के लिए रोऊँ या तुम्हारे इस एक लड़के हारू के लिए रोऊँ ?'
"किसान ज्ञानी था, इसीलिए वह देख रहा था, स्वप्न की अवस्था जिस तरह मिथ्या थी, उसी तरह जागृति की अवस्था भी मिथ्या है, एक नित्य वस्तु केवल आत्मा ही है ।
"मैं सब कुछ लेता हूँ, तुरीय और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति - सब कुछ । मैं पिछली तीनों अवस्थाओं को मानता हूँ । ब्रह्म और माया, जीव-जगत्, सब लेता हूँ, यदि मैं कुछ कम लूँ तो मुझे पूरा वजन न मिले ।"
एक भक्त - वजन में क्यों घटता है ? (सब हँसते है ।)
श्रीरामकृष्ण – ब्रह्म जीवजगत् विशिष्ट हैं । पहले नेति नेति करते समय जीवजगत् को छोड़ देना पड़ता है । अहंबुद्धि जब तक है, तब तक वे ही सब हुए हैं, ऐसा भासित होता है - चौबीसों तत्त्व वे ही हुए हैं ।
“बेल का सार कहो तो उसका गूदा ही समझा जाता है, तब बीज और खोपड़ा निकाल देने पड़ते हैं; परन्तु बेल वजन में कितना था । इसके कहने की आवश्यकता हुई तो केवल गूदा तौलने से काम नहीं चल सकता । तौलते समय गूदा, बीज, खोपड़ा, सब कुछ लेना चाहिए । जिसका गूदा है, उसके बीज भी हैं और खोपड़ा भी । जिनकी नित्यता (Absolute) है, लीला (Relative)भी उन्हीं की है ।
"इसलिए मैं नित्यता और लीला सब मानता हूँ । संसार को माया कहकर मैं उसका अस्तित्व लोप नहीं करता । यदि मैं वैसा करूँ तो वजन पूरा न मिले ।"
महिमाचरण - यह बहुत अच्छा सामञ्जस्य है । नित्यता से ही लीला है और लीला से ही नित्यता है ।
"श्रीरामकृष्ण - ज्ञानी सब कुछ स्वप्नवत् देखते हैं । लेकिन भक्तगण सभी अवस्थाएँ मानते हैं । ज्ञानी दूध तो देते हैं, पर बूंद बूँद करके । (सब हँसते हैं ।) कोई कोई गौ ऐसी होती है कि घास चुन-चुनकर चरती है, इसलिए दूध भी थोड़ा थोड़ा करके देती है । जो गौएँ इतना चुनती नहीं और सब कुछ, जो आगे आया खा लेती हैं, वे दूध भी खूब खर्राटे के साथ देती हैं ।उत्तम भक्त नित्य और लीला दोनों ही मानता है ।
इसीलिए नित्य से मन के उतर आने पर भी वह उन्हें सम्भोग करने के लिए पाता है। उत्तम भक्त तेज खर्राटे के साथ दूध देता है ! (सब हँसते हैं ।)
महिमा - परन्तु दूध में कुछ बू आती है ! (हास्य)
श्रीरामकृष्ण – (मुस्कुराते हुए) - हाँ, आती है, परन्तु कुछ उबाल लेना पड़ता है । ज्ञानाग्नि पर दूध कुछ गरम कर लिया जाय तो फिर बू नहीं रह जाती । (सब हँसते हैं ।)
(महिमा से) "ओंकार की व्याख्या तुम लोग केवल यही करते हो – अकार, उकार, मकार ।"
महिमाचरण - अकार, उकार और मकार का अर्थ है सृष्टि, स्थिति (संरक्षण) और प्रलय ।
श्रीरामकृष्ण - मैं उपमा देता हूँ घण्टे की टंकार से ट - अ –अ - म् । लीला से नित्य में लीन होना, स्थूल, सूक्ष्म और कारण से महाकारण में लीन होना, जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से `तुरीय' में लीन होना । घण्टे का बजना मानो महासमुद्र में एक वजनदार चीज का गिरना है । फिर तरंगों का उठना शुरू होता है।
मानो नित्य से लीला का आरम्भ होता है; महाकारण से स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीर का उद्भव होता है; तुरीय से जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति ये सब अवस्थाएँ आती हैं । फिर महासमुद्र की तरंग महासमुद्र में ही लीन हो जाती है । नित्य से लीला है और लीला से नित्य । इसीलिए मैं टंकार की उपमा दिया करता हूँ ।
मैंने यह सब यथार्थ रूप में देखा है । मुझे उसने दिखाया है; चित्-समुद्र है, उसका ओर-छोर नहीं है । उसीसे ये सब लीलाएँ उठी है और फिर उसीमें लीन हो गयी है । चिदाकाश में करोड़ों ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति होकर वे फिर उसीमें लीन हो गये हैं । तुम्हारी पुस्तक में क्या लिखा है, यह सब मैं नहीं जानता ।
महिमा - जिन्होंने देखा है, उन्होंने शास्त्र लिखा ही नहीं, वे तो अपने ही भाव में मस्त रहते थे, शास्त्र कब लिखते ? लिखने बैठिये तो कुछ हिसाबी बुद्धि की जरूरत होती ही है । उनसे सुनकर दूसरों ने लिखा है ।
श्रीरामकृष्ण - संसारी पूछते हैं, कामिनी और कांचन की आसक्ति क्यों नहीं जाती ? अरे भाई, उन्हें प्राप्त करो तो आसक्ति चली जाय । अगर एक बार ब्रह्मानन्द मिल जाता है तो इन्द्रिय-सुखों या अर्थ या सम्मान आदि की ओर फिर मन नहीं जाता । "कीड़ा अगर एक बार उजाला देख लेता है, तो फिर अँधेरे में नहीं जाता ।
"रावण से किसी ने कहा था, तुम सीता के लिए माया से अनेक रूप तो धरते हो, एक बार राम-रूप धारण करके सीता के पास क्यों नहीं जाते ? रावण ने कहा, 'तुच्छं ब्रह्मपदं, परवधूसंगः कुतः – जब श्रीराम (साक्षात् अवतार के लीला) की चिन्ता करता हूँ, तब ब्रह्मपद भी तुच्छ जान पड़ता है, पराई स्त्री की तो बात ही क्या है ? अतएव राम का रूप धारण करके मैं क्या करूँगा ?’
(६-ii)
[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]
🔆🙏भक्ति से संसारासक्ति कम होती है🔆🙏
इसीके लिए साधन-भजन है । जितनी ही उनकी चिन्ता करेंगे, संसार की भोगवासना उतनी ही घटती जायेगी । उनके पादपद्मों में जितनी भक्ति होगी, उतनी ही आसक्ति घटती जायेगी, उतना ही देहसुख की ओर से मन हटता रहेगा, पराई स्त्री माता के समान जान पड़ेगी, अपनी स्त्री धर्म में सहायता देनेवाली मित्र जान पड़ेगी, पशुभाव दूर हो जायेगा, देवभाव आयेगा, संसार से बिलकुल अनासक्त हो जाओगे । तब संसार में रहने पर भी जीवन्मुक्त होकर विचरण करोगे । चैतन्यदेव जैसे भक्त अनासक्त होकर संसार में रहे थे ।
(महिमा से :) "जो सच्चा भक्त हैं, उसके पास चाहे हजार वेदान्त का विचार फैलाओ, और 'स्वप्नवत्' कहो, उसकी भक्ति जाने की नहीं । घूम-फिरकर कुछ न कुछ रहेगी ही । बेत के वन में एक मूसल पड़ा था, वही 'मूषलं कुलनाशनम्' हो गया था ।
"शिव के अंश से पैदा होने पर मनुष्य ज्ञानी होता है । ब्रह्म सत्य है और संसार मिथ्या, इसी भाव की ओर मन झुका रहता है । विष्णु के अंश से पैदा होने पर प्रेम और भक्ति होती है । वह प्रेम और वह भक्ति मिट नहीं सकती । ज्ञान और विचार के बाद यह प्रेम और भक्ति अगर घट जाय, तो एक दूसरे समय बड़े जोरों से बढ़ जाती हैं ।'
(७)
🔆🙏 मातृसेवा और श्रीरामकृष्ण। हाजरा महाशय🔆🙏
श्रीरामकृष्ण के कमरे के पूर्ववाले बरामदे में हाजरा महाशय ^* बैठकर जप करते हैं । उम्र ४६-४७ होगी । श्रीरामकृष्ण के देश के आदमी हैं । बहुत दिनों से वैराग्य है । बाहर बाहर घूमते हैं, कभी घर जाकर रहते हैं । घर में कुछ जमीन आदि है । उसी से उनकी स्त्री और लड़के बच्चे पलते हैं । परन्तु एक हजार रुपये के लगभग ऋण है । इसके लिए हाजरा महाशय को बड़ी चिन्ता रहती है कि कब ऋण का शोध हो । इसके लिए वे सदा प्रयत्नशील भी रहते हैं ।
श्रीयुत हाजरा महाशय कलकत्ता भी आया-जाया करते हैं । वहाँ ठनठनिया के ईशानचन्द्र मुखोपाध्याय महाशय उनकी बड़ी खातिर करते हैं और साधु की तरह सेवा भी करते हैं । श्रीरामकृष्ण ने उन्हें यत्नपूर्वक अपने पास रखा है, उनके कपड़े फट जाते हैं तो भक्तों से कहकर बनवा देते हैं । सदा उनकी खबर लेते हैं और सदा उनसे ईश्वरी प्रसंग किया करते हैं । हाजरा महाशय बड़े तार्किक हैं । प्राय: बातचीत करते हुए तर्क की तरंग में बहकर इधर से उधर हो जाते हैं । बरामदे में अपने आसन पर सदा माला लिये हुए जप किया करते हैं ।
हाजरा महाशय की माता के बीमार पड़ने का हाल आया है । रामलाल के आते समय उन्होंने (हाजरा की माँ ने) उनका हाथ पकड़कर बहुत तरह से कहा था, 'अपने चाचा (श्रीरामकृष्ण) से मेरी विनय सुनाकर कहना वे प्रताप (हाजरा महाशय) को किसी तरह घर भेज दें; एक बार मैं देख लूँ ।'
श्रीरामकृष्ण ने हाजरा महाशय से कहा था, 'एक बार घर जाकर अपनी माँ के दर्शन कर आओ । उन्होंने रामलाल से बहुत समझाकर कहा है, माँ को कष्ट देकर भी कभी ईश्वर को पुकारना हो सकता है ? मुलाकात करके चले आना ।
भक्तों के उठ जाने पर महिमाचरण हाजरा को साथ लेकर श्रीरामकृष्ण के पास आये । मास्टर भी हैं । महिमाचरण - (श्रीरामकृष्ण से, सहास्य) - महाराज, आपसे एक दुःख-निवेदन है, आपने हाजरा को घर जाने के लिए क्यों कहा ? फिर से संसार में जाने की उसकी इच्छा नहीं है ।
श्रीरामकृष्ण - उसकी माँ रामलाल के पास बहुत रोयी है । इसीलिए मैंने कहा, तीन ही दिन के लिए चले जाओ, एक बार मिलकर फिर चले आना । माता को कष्ट देकर क्या कभी ईश्वर की साधना होती है ? मैं वृन्दावन में रहता था, तब माँ की याद आयी, सोचा, माँ रोयेंगी, बस, सेजोबाबू के साथ यहाँ चला आया । संसार में जाते हुए ज्ञानी को क्या डर है ?
महिमाचरण - (सहास्य) - महाराज, हाजरा को ज्ञान जब हो तब न ?
श्रीरामकृष्ण – (सहास्य ) - हाजरा को सब कुछ हो गया है । संसार में थोड़ा सा मन है, कारण, बच्चे आदि हैं और कुछ ऋण है । ‘मामी की सब बीमारी अच्छी हो गयी है, एक नासूर रोग है !' (महिमाचरण आदि सब हँसते हैं ।)
महिमाचरण - कहाँ ज्ञान हुआ महाराज ?
श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) - नहीं जी, तुम नहीं जानते हो । सब लोग कहते हैं हाजरा एक विशेष व्यक्ति हैं, रासमणि की ठाकुरबाड़ी में रहते हैं । सब लोग हाजरा का ही नाम लेते हैं, यहाँ का (अपने को लक्ष्य कर) नाम कौन लेता है ?
हाजरा - आप निरुपम हैं, आपकी उपमा नहीं है, इसीलिए आपको कोई समझ नहीं पाता ।
श्रीरामकृष्ण - वही तो, निरुपम से कोई काम भी नहीं निकलता, अतएव यहाँ का नाम कोई क्यों लेने लगा ?
महिमा - महाराज, वह क्या जाने ? आप जैसी आज्ञा देंगे, वह वैसा ही करेगा ।
श्रीरामकृष्ण – नहीं, तुम चाहे उससे पूछ देखो, उसने मुझसे कहा है, मेरा तुमसे कोई लेना-देना नहीं है।
महिमा - तर्क बहुत करता है ।
श्रीरामकृष्ण - वह कभी कभी मुझे शिक्षा देता है । (सब हँसते हैं ।) लेकिन जब वह मुझसे बहस करने पर उतारू हो जाता करता है तब कभी मैं गाली दे बैठता हूँ । बहस के बाद कभी मसहरी के भीतर लेटा हुआ रहता हूँ, फिर यह सोचकर कि मैंने उसे कहीं नाराज तो नहीं कर दिया, निकल आता हूँ, हाजरा को प्रणाम कर जाता हूँ, तब चित्त स्थिर होता है ।
श्रीरामकृष्ण – (हाजरा से) - तुम शुद्धात्मा को ईश्वर क्यों कहते हो ? शुद्धात्मा निष्क्रिय है, तीनों अवस्थाओं का साक्षीस्वरूप है । जब हम सृष्टि, स्थिति और प्रलय के कार्यों की चिन्ता करते हैं, तभी ईश्वर को मानते हैं । शुद्धात्मा उसी तरह है जैसे दूर पर पड़ा हुआ चुम्बक पत्थर; सुई हिल रही है, परन्तु चुम्बक पत्थर चुपचाप पड़ा हुआ है - निष्क्रिय है ।
(८)
सन्ध्या हो रही है । श्रीरामकृष्ण टहल रहे हैं । मणि को अकेले बैठे हुए और कुछ सोचते हुए देखकर एकाएक श्रीरामकृष्ण ने उनसे स्नेह भरे स्वरों में कहा - "मरकीन के एक-दो कुर्ते ला देना, सब के कुर्ते मैं पहन भी नहीं सकता - कप्तान से कहने के लिए सोचा था, परन्तु अब तुम्हीं ला देना ।" मणि खड़े हो गये, कहा, “जो आज्ञा ।"
सन्ध्या हो गयी है । श्रीरामकृष्ण के कमरे में धूप दी गयी । वे देवताओं को प्रणाम करके, बीज मन्त्र जपकर, नामकीर्तन कर रहे हैं । घर के बाहर विचित्र शोभा है । आज कार्तिक की शुक्ला सप्तमी है । चन्द्रमा की निर्मल किरणों में एक ओर श्रीठाकुरमन्दिर जैसे हँस रहा है, दूसरी और भागीरथी सोते हुए शिशु के हृदय की तरह काँप रही है । ज्वार पूरा हो गया है ।
आरती का शब्द गंगा के स्निग्ध और उज्ज्वल प्रवाह से उठती हुई कलध्वनि से मिलकर बहुत दूर जाकर विलीन हो रहा था । श्रीठाकुर-मन्दिर में एक ही साथ तीन मन्दिरों में आरती हो रही है – काली-मन्दिर में, विष्णु-मन्दिर में और शिव-मन्दिर में । द्वाद्वश-शिव-मन्दिरों में एक एक के बाद आरती होती है ।
पुरोहित एक शिव-मन्दिर से दूसरे में जा रहे हैं, बायें हाथ में घण्टा है, दाहिने मे पंच प्रदीप, साथ में परिचारक है, हाथ में झाँझ लिये हुए । आरती हो रही है, उसके साथ श्रीठाकुर-मन्दिर के दक्षिण-पश्चिम के कोने से शहनाई की मधुर ध्वनि सुन पड़ रही है ।वहीं नौबतखाना है, सन्ध्या की रागिनी बज रही है ।
आनन्दमयी के नित्य उत्सव से जीवों को मानो यह शिक्षा मिल रही है, कोई निरानन्द न होना, ऐहिक भावों में सुख और दुःख तो हैं ही; जगदम्बा भी तो है; फिर क्या चिन्ता, आनन्द करो । दासी के लड़के को अच्छा भोजन और अच्छे कपड़े नहीं मिलते, न उसके अच्छा घर है, न अच्छा द्वार, फिर भी उसके हृदय में यह भरोसा रहता है कि उसके माँ है ।
एकमात्र माता की गोद उसका अवलम्ब है । यह बनी-बनायी माँ नहीं, अपनी निजी माँ है । मैं कौन हूँ, कहाँ से आया, कहाँ जाऊँगा, सब माँ जानती है । इतना सोचेगा कौन ? मैं जानना भी नहीं चाहता । अगर समझने की जरूरत होगी तो वे समझा देंगी ।
बाहर कौमुदी की उज्ज्वलता में संसार हँस रहा है और भीतर कमरे में भगवत्-प्रेमाभिलिप्त श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । कलकत्ते से ईशान आये हैं । फिर ईश्वरी प्रसंग हो रहा है । ईशान को ईश्वर पर बड़ा विश्वास है । वे कहते हैं, जो घर से निकलते समय एक बार भी दुर्गा नाम स्मरण कर लेते हैं, शूल हाथ में लिये हुए शूलपाणि उनके साथ जाया करते हैं । विपत्ति में फिर भय क्या है ? शिव स्वयं उसकी रक्षा करते हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (ईशान से) - तुम्हें बड़ा विश्वास है । हम लोगों को इतना नहीं है । (सब हँसते हैं ।) विश्वास से ही वे मिलते हैं ।
ईशान - जी हा ।
श्रीरामकृष्ण - तुम जप, सन्ध्या, उपवास, पुरश्चरण, यह सब कर्म कर रहे हो । यह अच्छा है । जिसकी ईश्वर पर अन्तर से लगन रहती है, उससे वे यह सब काम करा लेते हैं । फल की कामना न करके यह सब कर्म कर लेने से मनुष्य उन्हें अवश्य पाता है ।
“शास्त्रों में बहुत से निर्धारित अनुष्ठान का पालन करने का आदेश दिया है, इसलिए मैं कर रहा हूँ’ - इस तरह की भक्ति को वैधी भक्ति कहते हैं । एक और है, राग-भक्ति । वह अनुराग से होती है। ईश्वर पर प्रीति आने पर होती है, जैसे प्रह्लाद को हुई थी । उस भक्ति के आने पर फिर वैधी अनुष्ठानों (शास्त्र अनुमोदित जप, सन्ध्या, उपवास, पुरश्चरण आदि अनुष्ठानों ) की आवश्यकता नहीं होती ।"
(९)
🔆🙏सेवक (मणि) के विचार 🔆🙏
सन्ध्या होने के पूर्व 'मणि' घूम रहे हैं और सोच रहे हैं कि 'राम की इच्छा' यह तो बहुत अच्छी बात है । इससे तो प्रारब्ध (Predestination-भाग्य), स्वाधीन इच्छा(Free Will), स्वतन्त्रता (Liberty), आवश्यकता (Necessity), आदि सब का झगड़ा मिट जाता है ।
मुझे डाकुओं ने पकड़ लिया, इसमें भी 'राम की इच्छा’; फिर मैं तम्बाकू पीता हूँ इसमें भी 'राम की इच्छा', डाकूगिरी करता हूँ इसमें भी 'राम की इच्छा'; मुझे पुलिस ने पकड़ लिया, इसमें भी 'राम की इच्छा'; मैं साधु हो गया, इसमें भी 'राम की इच्छा’; मैं प्रार्थना करता हूँ कि हे प्रभु ! मुझे असदबुद्धि मत देना - मुझसे डकैती मत कराना, यह भी 'राम की इच्छा' है ।
सद् इच्छा और असद् इच्छा वे ही देते हैं । फिर भी एक बात है, असद् इच्छा वे क्यों देंगे ? - डकैती करने की इच्छा वे क्यों देंगे ? इसके उत्तर में श्रीरामकृष्णदेव ने कहा, “उन्होंने जानवरों में जिस प्रकार बाघ, सिंह, सर्प उत्पन्न किये हैं, पेड़ों में जिस प्रकार विष का भी पेड़ पैदा किया है, उसी प्रकार मनुष्यों में चोर-डाकू भी बनाये हैं । ऐसा उन्होंने क्यों किया ? इसे कौन कह सकता है? ईश्वर को कौन समझेगा ?
“किन्तु यदि उन्होंने ही सब किया है तो उत्तरदायित्व का भाग (Sense of Responsibility) नष्ट हो जाता है, पर वह क्यों होगा ? जब तक ईश्वर को न जानोगे, उनके दर्शन न होंगे, तब तक 'राम की इच्छा' इस बात का सोलह आने बोध नहीं होगा । उन्हें प्राप्त न करने से यह बात एक बार समझ में आती है, फिर भूल हो जाती है । जब तक पूर्ण विश्वास न होगा, तब तक पाप-पुण्य का बोध, उत्तरदायित्व (Responsibility) का बोध रहेगा ही ।
श्रीरामकृष्णदेव ने समझाया, 'राम की इच्छा' । तोते की तरह 'राम की इच्छा' मुँह से कहने से नहीं चल सकता । जब तक ईश्वर को नहीं जाना जाता, उनकी इच्छा से हमारी इच्छा का ऐक्य नहीं होता, जब तक 'मैं यन्त्र हूँ' ऐसा बोध नहीं होता, तब तक वे पाप-पुण्य का ज्ञान, सुख-दुःख का ज्ञान, पवित्र अपवित्र का ज्ञान, अच्छे-बुरे का ज्ञान नष्ट नहीं होने देते, उत्तरदायित्व का ज्ञान (Sense of Responsibility) नष्ट नहीं होने देते, ऐसा न होने से उनका मायामय संसार कैसे चलेगा ?
श्रीरामकृष्णदेव की भक्ति की बात जितनी सोचता हूँ, उतना ही अवाक् रह जाता हूँ । जब उन्होंने सुना कि केशव सेन हरिनाम लेते हैं, ईश्वर का चिन्तन करते हैं, तो ये तुरन्त उन्हें मिलने के लिए गये और केशव तुरन्त उनके आत्मीय भी हो गये । उस समय उन्होंने कप्तान की बातें नहीं सुनीं । केशव विलायत गये हैं, उन्होंने साहबों के साथ खाया है, कन्या को दूसरी जाति के पुरुष के साथ ब्याह दिया है - कप्तान की ये सब बातें गायब हो गयी ।
"भक्ति के सूत्र में साकारवादी और निराकारवादी एक हो जाते हैं; हिन्दू, मुसलमान, ईसाई एक हो जाते हैं; चारों वर्ण एक हो जाते हैं । भक्ति की ही जय होती है । धन्य श्रीरामकृष्ण ! तुम्हारी भी जय ! तुम्हीं ने सनातन धर्म के इस विश्वजनीन भाव को फिर से मूर्तिमान किया । इसीलिए समझता हूँ कि तुम्हारा इतना आकर्षण है !
सब धर्मावलम्बियों को तुम परम आत्मीय समझकर आलिंगन करते हो ! तुम्हारी भक्ति है । तुम सिर्फ देखते हो - अन्दर ईश्वर की भक्ति और प्रेम है या नहीं ? यदि ऐसा हो तो वह व्यक्ति तुम्हारा आत्मीय है - भक्तिमान यदि दिखायी पड़े तो वह जैसा तुम्हारा परम् आत्मीय है ।
मुसलमान को भी यदि अल्लाह के ऊपर प्रेम हो, तो वह भी तुम्हारा अपना आदमी होगा; ईसाई को यदि ईसा के ऊपर भक्ति हो, तो वह तुम्हारा परम आत्मीय होगा । तुम कहते हो कि सब नदियाँ भिन्न-भिन्न दिशाओं से बहकर समुद्र में गिरती हैं । सब का गन्तव्य स्थान एक समुद्र ही है ।
“ठाकुर देव ने शंकर की तरह जगत को स्वप्नवत नहीं कहा है। वे कहते हैं , 'बीज-खोपड़ा बाद देने से बेल का वजन कम जायेगा। ' मायावाद नहीं -विशिष्ट अद्वैतवाद ! श्रीरामकृष्ण जीव-जगत को माया (illusory -अवास्तविक) नहीं कहते हैं; दृष्टिगोचर जगत को मन का भ्रम नहीं कहते हैं। उनके अनुसार सब सच है - ईश्वर सत्य है , मनुष्य सत्य है , जगत सत्य है। बेल के बीज और खोपड़ा को बाद देने से, बेल का पूरा वजन नहीं मिलेगा !
"सुना है, यह जगत् ब्रह्माण्ड महाचिदाकाश में आविर्भूत होता है, फिर कुछ समय के बाद उसी में लय हो जाता है - महासमुद्र में लहर उठती है, फिर समय पाकर लय हो जाती है । आनन्द-सिन्धु के जल में अनन्त-लीला-तरंगें हैं । इन लीलाओं का आरम्भ कहाँ है ? अन्त कहाँ है?
उसे मुँह से कहा नहीं जाता - मन से सोचा नहीं जाता । मनुष्य की क्या शक्ति - उसकी बुद्धि की ही क्या शक्ति ! सुनते हैं, महापुरुष समाधिस्थ होकर उसी नित्य परम पुरुष का दर्शन करते हैं - नित्य लीलामय हरि का साक्षात्कार करते हैं । अवश्य ही करते हैं कारण, श्रीरामकृष्णदेव ऐसा कहते हैं ।
किन्तु चर्मचक्षुओं से नहीं, मालूम पड़ता है, - दिव्य चक्षु जिसे कहते हैं उसके द्वारा - जिन नेत्रों को पाकर अर्जुन ने विश्वरूप का दर्शन किया था, जिन नेत्रों से ऋषियों ने आत्मा का साक्षात्कार किया था जिस दिव्य चक्षु से ईसा अपने स्वर्गीय पिता का बराबर दर्शन करते थे । वे नेत्र कैसे प्राप्त होते हैं ?
श्रीरामकृष्णदेव के मुँह से सुना था, वह व्याकुलता के द्वारा होता है । इस समय वह व्याकुलता किस प्रकार हो सकती है ? क्या संसार का त्याग करना होगा ? ऐसा भी तो उन्होंने आज नहीं कहा !”
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[सेजोबाबू ^* - रानी रासमणि के दामाद, श्री माथुरनाथ विश्वास - रानी रासमणि की तीसरी बेटी करुणामयी के पति, मथुरामोहन (मथुरामोहन विश्वास)। उन्हें रानी के 'संझले दामाद' 'सेजोबाबू' के नाम से जाना जाता था। करुणामयी की मृत्यु के बाद, हालांकि रानी रासमणि की सबसे छोटी पुत्री श्रीमती जगदम्बा के साथ भी उनकी शादी हुई थी। वे श्री श्री ठाकुर देव के भक्त, शिष्य, सेवक और रसददार थे। (अर्थात श्री श्री ठाकुर देव की विद्यामाया से प्रेरित होकर,उनकी सांसारिक अवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले थे!) उन्होंने 18 बर्ष की दीर्घ अवधि तक श्री श्री ठाकुरदेव की सेवा की थी। ठाकुर के ऊपर उनका अटूट विश्वास और गहरी आस्था थी। ये मथुरबाबू ही थे जिन्होंने ठाकुर को (वेशकार के पद से पदोन्नति देकर) दक्षिणेश्वर की माँ-काली के पूजक पद पर नियुक्त किया था। कई प्रकार से ठाकुर की परीक्षा लेने और विवेक की कसौटी पर परखने के बाद वे इस तथ्य के प्रति पूर्णतया आश्वस्थ हुए थे कि ठाकुर कोई साधारण मनुष्य नहीं बल्कि एकअवतार हैं (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता हैं !) एक बार दक्षिणेश्वर में उन्होंने श्री रामकृष्ण के शरीर में शिव और कालीमूर्ति को एक साथ साक्षात् देखा था । और अन्ततोगत्वा ,कामिनी-कांचन त्यागी संन्यासी, त्यागियों के बादशाह श्री रामकृष्ण देव के श्री चरणों में आत्म-समर्पण कर दिया था। उन्होंने ठाकुर को अपने जीवन सर्वस्व (मार्गदर्शक नेता) के रूप में ग्रहण किया था और सभी मामलों में उनके ऊपर ही निर्भर रहते थे। दक्षिणेश्वर में ठाकुर के सभी प्रकार की साधना करके उनके मार्ग में आने वाली समस्त बाधाओं का अतिक्रमण कर सिद्धि- प्राप्ति के क्षेत्र में मथुरबाबू द्वारा की गयी महत्वपूर्ण सेवायें अनिवार्य थीं। सेजबाबू ने ठाकुर को विभिन्न तीर्थों का दर्शन करवाया था। ठाकुर की साधना के दौरान साधना में सभी प्रकार की सुविधा प्रदान करने की जिम्मेदारी उठाने के कारण ठाकुर उन्हें माँ जगदम्बा की लीला के प्रमुख रसददार समझते थे। श्री श्री ठाकुर और (माँ जगदम्बा की लीला के प्रमुख रसददार) मथुरबाबू के बीच जो अलौकिक सम्बन्ध था वह 'श्री रामकृष्ण लीला ' के समस्त अध्यायों में एक विशेष अध्याय था। 16 जुलाई 1871 ई. को उनका निधन हो गया था।]
[पद्मलोचन ** (पंडित पद्मलोचन तर्कालंकार) - वेदांत, न्यायशास्त्र में पारंगत थे ( लेकिन यहाँ इसका अर्थ jurisprudence से नहीं, उस प्रणाली का नाम है जिसमें वस्तुतत्व का निर्णय करने के लिए सभी प्रमाणों का उपयोग किया जाता है। गौतम ऋषि के न्यायसूत्र अबतक प्रसिद्ध हैं। इन सूत्रों पर वात्स्यायन मुनि का भाष्य है। इसके अतिरिक्त वे सांख्य आदि दर्शन में भी पारंगत थे ।) और श्री श्री ठाकुर के परम प्रशंसक थे । वे बर्दवान महाराज के सभा-पण्डित थे। पद्मलोचन की विद्वतापूर्ण प्रसिद्धि और ईश्वर की भक्ति के बारे में सुनकर, ठाकुर ने उन्हें देखने के लिए रुचि व्यक्त की थी । उस समय पंडित पद्मलोचन खराब स्वास्थ्य से उबरने के लिए अड़ियादह (Ariadah) के एक बगीचे (Garden house) में रह रहे थे। वे दोनों परस्पर मिलकर खुश हुए थे । ठाकुर के चेहरे पर उनके भावों की अभिव्यक्ति को देखकर और देवी माँ के गीतों को सुनकर वे अभिभूत हो गए थे । ठाकुर देव ने जब पद्मलोचन को देखकर ही उनकी सिद्धाई को समझ लिया तब, तब उन्होंने श्री श्रीठाकुर को अपना साक्षात् इष्टदेव मानकर उनकी स्तुति की थी। उन्होंने काशी में शरीर त्याग किया था।
गौरी पंडित ***(गौरीकांत भट्टाचार्य) - वे बाँकुड़ा जिले के इंदास गांव के निवासी थे। वे 'वीरभाव' के तांत्रिक साधक थे, और उनके पास कुछ सिद्धाई भी थी। वे ठाकुर से पहली बार 1865 ई. में दक्षिणेश्वर में मिले थे। धर्मग्रंथों के आधार पर श्री श्री ठाकुर की आध्यात्मिक अवस्था का निर्धारण करने के लिए मथुरबाबू ने दक्षिणेश्वर में पण्डितों की एक सभा बुलाई थी। इस अवसर पर (1870 में) गौरी पण्डित ने श्री श्री ठाकुर को अवतारों का स्रोत (भगवान का बाप-श्रीविष्णु) घोषित किया था । श्री श्री ठाकुर की सानिध्य में रहते हुए, दिन-ब-दिन क्रमशः उनका मन पाण्डित्य का अहंकार, लोकमन्यता का अहं, सिद्धाई आदि सभी वस्तुओं से घृणा करने लगा और भगवान के पादपद्मों भक्ति की ओर बढ़ने लगा। गौरी पण्डित दिन-ब-दिन ठाकुर के प्रेम से सम्मोहित होकर उनके परम प्रशंसक बन गए थे। ठाकुर के दिव्य सानिध्य में रहने से क्रमशः उन्हें तीव्र वैराग्य प्राप्त हो गया। एक बार उन्होंने श्री श्री ठाकुर को सजल नेत्रों से देखते हुए विदायी लिया और सदा के लिए गृह- त्याग कर दिया। इसके बाद काफी तलाश करने के बाद भी गौरी पंडित की कोई खोजखबर न मिल सकी।
महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती, (1824-1883) *** आधुनिक भारत के महान चिन्तक, समाज-सुधारक, तथा आर्य समाज के संस्थापक थे। उनके बचपन का नाम 'मूलशंकर' था।वेद-उपनिषद उन्हें कण्ठस्थ थे ; संस्कृत भाषा का उन्हें अगाध ज्ञान था। संस्कृत में वे धाराप्रवाह बोलते थे। साथ ही वे प्रचण्ड तार्किक थे। दयानन्द का मानना था कि मूर्तिपूजा वेद-विरोधी कार्य है, तथा मूल हिन्दू धर्म (सनातन धर्म) वेद पर आधारित है। उन्होंने ब्राह्मण , ईसाई और मुस्लिम धर्मग्रन्थों का भली-भांति अध्ययन-मन्थन किया था। 16 नवंबर 1869 को काशी नरेश तथा हजारों-हजारों लोगों की उपस्थिति में काशी के पण्डितों के साथ इनका शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें जीतने के बाद उनकी ख्याति हर जगह फैल गई। सन् 1872 ई. में दयानन्द जी कलकत्ता पधारे। वहां देवेन्द्रनाथ ठाकुर और केशवचन्द्र सेन ने उनका बड़ा सत्कार किया। ब्राह्म समाजियों से उनका विचार-विमर्श भी हुआ किन्तु ईसाइयत से प्रभावित ब्राह्म समाजी विद्वान पुनर्जन्म और वेद की प्रामाणिकता के विषय में स्वामी से एकमत नहीं हो सके। श्रीरामकृष्ण देव भी अपने भक्त कैप्टन बिश्वनाथ उपाध्याय के साथ उत्तर कोलकाता के सिंथी में देवेन्द्रनाथ टैगोर परिवार के नैनोर (सिंथी) वाले मनोरंजन उद्यान महर्षि दयानन्द से मिलने गए थे। स्वामी दयानंद ने नए स्वर्णिम समाज की स्थापना के उद्देश्य से 10 अप्रैल, सन 1875 (चौत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत 1932) को गिरगांव मुम्बई शहर में प्रथम ‘आर्य समाज’ नामक सुधार आन्दोलन की स्थापना की। अपनी मृत्यु से पहले, उन्होंने पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजपूताना और बॉम्बे में लगभग 100 आर्य समाज आश्रम स्थापित किए थे । उन्होंने वर्णाश्रम धर्म का पालन नहीं किया था । वे हमेशा स्त्री और पुरुषों के समान अधिकार के पक्षधर रहे, और महिलाओं की शिक्षा की आवश्यकता को स्वीकार किया था । उनकी प्रसिद्ध पुस्तक का नाम 'सत्यार्थ प्रकाश' है ।]
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