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रविवार, 24 अप्रैल 2022

🔆🙏 🔆🙏 🔆🙏 परिच्छेद~ 101 [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ] (श्रीरामकृष्ण तथा मायावाद)*

श्रीरामकृष्ण तथा मायावाद

(१)

  [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]

🙏श्रीरामकृष्ण के चेहरे से माँ जगदम्बा के निश्चिन्त बालक की दिव्यता विकीर्ण होती है🙏

[অদ্বারিত দ্বার শ্রীরামকৃষ্ণ দক্ষিণেশ্বরের কালীবাড়িতে আমাদের জন্য অপেক্ষা করছেন।

चलो भाई, फिर उनके (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण के ) दर्शन करने चलें । उन्हीं महापुरुष बालकस्वरूप को देखें, जो माँ के सिवा और कुछ भी नहीं जानते - जो हमारे लिए ही शरीर धारण करके आये हैं । वही बतलायेंगे, इस कठिन जीवन-समस्या की पूर्ति कैसे होगी । वे संन्यासी को बतलायेंगे और गृहस्थ को भी बतलायेंगे , उनका द्वार सभी के लिए खुला हुआ है । वे दक्षिणेश्वर के काली-मन्दिर में हमारे लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं, चलो, चलकर उनके दर्शन करें । वे अनन्त गुणों के आधार हैं, वे प्रसन्नमूर्ति हैं, उनकी बातों को सुनकर आँखों से आँसू बह चलते हैं।

[`अद्वारित दरवाजा ' : महामण्डल के नेता CINC-नवनीदा,  - खुला दरवाजा हैं : वे कोन्नगर में अपने जीवन से निवृत्ति मार्ग के अधिकारी लोगों का मार्गदर्शन और प्रवृत्तिमार्ग के अधिकारी लोगों का भी मार्गदर्शन करने के लिए हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं ! )  

[চল ভাই, আবার তাঁকে দর্শন করিতে যাই। সেই মহাপুরুষকে, সেই বালককে দেখিব, যিনি মা বই আর কিছু জানেন না; যিনি আমাদের জন্য দেহধারণ করে এসেছেন — তিনি বলে দেবেন, কি করে এই কঠিন জীবন-সমস্যা পূরণ করতে হবে! সন্ন্যাসীকে বলে দেবেন, গৃহীকে বলে দেবেন! অদ্বারিত দ্বার (खुला दरवाजा) ! দক্ষিণেশ্বরের কালীবাড়িতে আমাদের জন্য অপেক্ষা করছেন। চল, চল, তাঁকে দেখব।“অনন্ত গুণাধার প্রসন্নমূরতি, শ্রবণে যাঁর কথা আঁখি ঝরে!”] 

चलो भाई, वे अहेतुक-कृपा-सिन्धु हैं, प्रियदर्शन हैं, ईश्वर के प्रेम में दिन रात मस्त रहनेवाले उन सहास्यमूर्ति श्रीरामकृष्ण के दर्शन कर हम अपने इस मनुष्य-जन्म को सार्थक करें ।

[চল ভাই, অহেতুক-কৃপাসিন্ধু, প্রিয়দর্শন, ঈশ্বরপ্রেমে নিশিদিন মাতোয়ারা, সহাস্যবদন শ্রীরামকৃষ্ণকে দর্শন করে মানব-জীবন সার্থক করি!

आज रविवार है, 26 अक्टूबर 1884। कार्तिक की शुक्ला सप्तमी; हेमन्तकाल है दिन का दूसरा पहर है । श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । कमरे के साथ मिला हुआ पश्चिम की ओर अर्धगोलाकार एक बरामदा है । बरामदे के पश्चिम ओर बगीचे का रास्ता है जो उत्तर-दक्षिण की ओर गया हुआ है । रास्ते के पश्चिम ओर फुलवाड़ी है, आगे पवित्र सलिला जाह्नवी दक्षिणवाहिनी हो रही हैं ।

[আজ রবিবার, ২৬শে অক্টোবর, ১৮৮৪; হেমন্তকাল। কার্তিকের শুক্লা সপ্তমী তিথি। দু’প্রহর বেলা। ঠাকুরের সেই পূর্বপরিচিত ঘরে ভক্তেরা সমবেত হইয়াছেন। সে ঘরের পশ্চিম গায়ে অর্ধচন্দ্রাকার বারান্দা। বারান্দার পশ্চিমে উদ্যানপথ; উত্তর-দক্ষিণে যাইতেছে। পথের পশ্চিমে মা-কালীর পুষ্পোদ্যান, তাহার পরই পোস্তা, তৎপরে পবিত্র-সলিলা দক্ষিণবাহিনী গঙ্গা

भक्तों में से कितने ही आये हुए हैं । आज आनन्द का हाट लगा है । आनन्दमय श्रीरामकृष्ण का ईश्वर-प्रेम भक्तों के मुखदर्पण में प्रतिबिम्बित हो रहा है ! कितना आश्चर्य है । केवल भक्तों ही के मुखदर्पण में नहीं, बाहर के उद्यानों में, वृक्षपत्रों में, खिले हुए अनेक प्रकार के फूलों में, विशाल भागीरथी के हृदय में, सूर्य की किरणों से दीप्तिमान नीलिमामय नभोमण्डल में, भगवान विष्णु के चरणों से च्युत हुई गंगाजी के जलकणों को छूकर प्रवाहित होती हुई शीतल वायु में यही आनन्द प्रतिभासित हो रहा था !

कितने आश्चर्य की बात है ! 'मधुमत् पार्थिवं रजः’ ^* सचमुच उद्यान की धूलि भी मधुमय हो रही है ! - इच्छा होती है, गुप्त भाव से या भक्तों के साथ इस धूलि पर लोटपोट हो जायँ । इच्छा होती है, इस उद्यान के एक ओर खड़े होकर दिन भर इस मनोहर गंगावारि के दर्शन करें । इच्छा होती है, लता-गुल्म और पत्रपुष्पों से लदे हुए, सुशोभित हरे-भरे वृक्षों को अपना आत्मीय समझ उनसे मधुर सम्भाषण करें उन्हें हृदय से लगा लें । इसी धूलि के ऊपर से श्रीरामकृष्ण के कोमल चरण चलते हैं । इन्हीं पेड़ों के भीतर से वे सदा आया-जाया करते हैं । इच्छा होती है, ज्योतिर्मय आकाश की ओर टकटकी लगाये हेरते रहें; क्योंकि जान पड़ता है, भूलोक और द्युलोक ^* , दोनों ही प्रेम और आनन्द में तैर रहे हैं ।

[ভক্তেরা অনেকেই উপস্থিত। আজ আনন্দের হাট। আনন্দময় ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের ঈশ্বরপ্রেম ভক্তমুখদর্পণে মুকুরিত হইতেছিল। কি আশ্চর্য! আনন্দ কেবল ভক্তমুখদর্পণে কেন? বাহিরের উদ্যানে, বৃক্ষপত্রে, নানাবিধ যে কুসুম ফুটিয়া রহিয়াছে তন্মধ্যে, বিশাল ভাগীরথী বক্ষে, রবিকর প্রদীপ্ত নীলনভোমণ্ডলে, মুরারিচরণচ্যুত গঙ্গা-বারিকণাবাহী শীতল সমীরণ মধ্যে, এই আনন্দ প্রতিভাসিত হইতেছিল। 

কি আশ্চর্য! সত্য সত্যই “মধুমৎ পার্থিবং রজঃ” — উদ্যানের ধূলি পর্যন্ত মধুময়! — ইচ্ছা হয়, গোপনে বা ভক্তসঙ্গে এই ধূলির উপর গড়াগড়ি দিই! ইচ্ছা হয়, এই উদ্যানের একপার্শ্বে দাঁড়াইয়া সমস্ত দিন এই মনোহারী গঙ্গাবারি দর্শন করি। ইচ্ছা হয়, এই উদ্যানের তরুলতাগুল্ম ও পত্রপুষ্পশোভিত স্নিগ্ধোজ্জ্বল বৃক্ষগুলিকে আত্মীয়জ্ঞানে সাদর সম্ভাষণ ও প্রেমালিঙ্গন দান করি। এই ধূলির উপর দিয়া কি ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ পাদচারণ করেন! এই বৃক্ষলতাগুল্মমধ্যে দিয়া তিনি কি অহরহ যাতায়াত করেন! ইচ্ছা করে জ্যোতির্ময় গগনপানে অনন্যদৃষ্টি হইয়া তাকাইয়া থাকি! কেননা দেখিতেছি ভূলোক-দ্যুলোক সমস্তই প্রেমানন্দে ভাসিতেছে!

श्रीठाकुर-मन्दिर के पुजारी, दरवान, परिचारक, सब को न जाने क्यों आत्मीय कहने की इच्छा होती है । - क्यों यह जगह, बहुत दिनों के बाद देखी गयी जन्मभूमि की तरह मधुर लग रही है ? आकाश, गंगा, देवमन्दिर, उद्यान-पथ, वृक्ष, लता, गुल्म, सेवकगण, आसन पर बैठी हुई भक्तमण्डली, सब मानो एक ही वस्तु से बनाये हुए जान पडते हैं ।

ঠাকুরবড়ির পূজারী, দৌবারিক, পরিচারকম সকলকে কেন পরমাত্মীয় বোধ হইতেছে — কেন এ-স্থান বহুদিনানন্তে দৃষ্ট জন্মভূমির ন্যায় মধুর লাগিতেছে? আকাশ, গঙ্গা, দেবমন্দির, উদ্যানপথ, বৃক্ষ, লতা, গুল্ম, সেবকগণ, আসনে উপবিষ্ট ভক্তগণ, সকলে যেন এক জিনিসের তৈয়ারী বোধ হইতেছে।

जिस वस्तु से श्रीरामकृष्ण बनाये गये हैं, जान पड़ता है, ये भी उसी वस्तु से बनाये गये हैं । जैसे एक मोम का बगीचा हो, पेड़, पल्लव, फूल, फल, सब मोम के ! बगीचे के रास्ते, बगीचे के माली, बगीचे के निवासी, बगीचे के भीतर का गृह, सब मोम के ! यहाँ का सब कुछ मानो आनन्द (Existence -Consciousness-Bliss) ही से रचा गया है !     

 যে জিনিসে নির্মিত শ্রীরামকৃষ্ণ, এঁরাও বোধ হইতেছে সেই জিনিসের হইবেন। যেন একটি মোমের বাগান, গাছপালা, ফল, পাতা, সব মোমের; বাগানের পথ, বাগানের মালী, বাগানের নিবাসীগণ, বাগান মধ্যস্থিত গৃহ সমস্তই মোমের। এখানকার সব আনন্দ দিয়ে গড়া!

श्रीमनमोहन, श्रीयुत महिमाचरण और मास्टर वहाँ बैठे हुए थे, क्रमशः ईशान, हृदय और हाजरा भी आये । और भी बहुत से भक्त बैठे हुए थे । बलराम और राखाल इस समय वृन्दावन में थे । इस समय कुछ नये भक्त भी आते-जाते थे - नारायण, पल्टू, छोटे नरेन्द्र, तेजचन्द्र, विनोद, हरिपद बाबूराम कभी कभी यहीं आकर रह जाते हैं । राम, सुरेश, केदार और देवेन्द्र आदि भक्तगण प्राय: आते हैं - कोई एक हप्ते के बाद - कोई दो हप्ते के बाद ।

[শ্রীমনোমোহন, শ্রীযুক্ত মহিমাচরণ, মাস্টার উপস্থিত ছিলেন। ক্রমে ঈশান, হৃদয় ও হাজরা। এঁরা ছাড়া অনেক ভক্তেরা ছিলেন। বলরাম, রাখাল, এঁরা তখন শ্রীবৃন্দাবনধামে। এই সময়ে নূতন ভক্তেরা আসেন যান; নারাণ, পল্টু, ছোট নরেন, তেজচন্দ্র, বিনোদ, হরিপদ। বাবুরাম আসিয়া মাঝে মাঝে থাকেন। রাম, সুরেশ, কেদার ও দেবেন্দ্রাদি ভক্তগণ প্রায় আসেন — কেহ কেহ সপ্তাহান্তে, কেহ দুই সপ্তাহের পার। 

[IT WAS AFTERNOON, and many devotees were present in the Master's room. Among them were Manomohan, Mahimacharan, and M. They were joined later by Ishan and Hazra. Balaram and Rakhal were still staying at Vrindavan. The many young boys who at this time began to seek the Master's company later became his intimate disciples. Latu lived with the Master, and Jogin, (^A monastic disciple of Sri Ramakrishna, later known as Swami Jogananda.)who lived in the village, was a frequent visitor.

लाटू यहीं रहते हैं । योगीन का घर नजदीक है, वे प्रायः रोज आया-जाया करते हैं । नरेन्द्र कभी कभी आते हैं, आते ही आनन्द का मानो हाट लग जाता है । नरेन्द्र जब अपने उस देवदुर्लभ कण्ठ से ईश्वर का नामगुण गाते हैं, तब श्रीरामकृष्ण को अनेक प्रकार के भावों का आवेश होता रहता है - समाधि होती है, जैसे एक उत्सव हो ।

[লাটু থাকেন। যোগীনের বাড়ি নিকটে, তিনি প্রায় প্রত্যহ যাতায়াত করেন। নরেন্দ্র মাঝে মাঝে আসেন, এলেই আনন্দের হাট। নরেন্দ্র তাঁহার সেই দেবদুর্লভ কণ্ঠে ভগবানের নামগুণগান করেন, অমনি ঠাকুরের নানাবিধ ভাব ও সমাধি হইতে থাকে। একটি যেন উৎসব পড়িয়া যায়। 

 [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]

🔆🙏दक्षिणेश्वर के कालीबाड़ी में श्रीरामकृष्ण हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं 🔆🙏

श्रीरामकृष्ण की बड़ी इच्छा है कि लड़कों में से कोई उनके पास रहे, कि वे शुद्धात्मा हैं, संसार में विवाहादि के बन्धनों में नहीं पड़े । बाबूराम से श्रीरामकृष्ण रहने के लिए कहते हैं; वे कभी कभी रहते भी हैं । श्रीयुत अधर सेन प्रायः आया करते हैं । कमरे के भीतर भक्तगण बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण बच्चे की तरह खड़े होकर कुछ सोच रहे हैं । भक्तगण उनकी ओर देख रहे हैं ।

[ঠাকুরের ভারী ইচ্ছা, ছেলেদের কেহ তাঁর কাছে রাত্রিদিন থাকেন, কেননা তারা শুদ্ধাত্মা, সংসারে বিবাহাদিসূত্রে বা বিষয়কর্মে আবদ্ধ হয় নাই। বাবুরামকে থাকিতে বলেন; তিনি মাঝে মাঝে থাকেন। শ্রীযুক্ত অধর সেন প্রায় আসেন।ঘরের মধ্যে ভক্তেরা বসিয়া আছেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ বালকের ন্যায় দাঁড়াইয়া কি ভাবছেন। ভক্তেরা চেয়ে আছেন।

Sri Ramakrishna, happy child of the Divine Mother that he was, radiated a joy and peace that were reflected in the hearts of his devotees and found expression in their happy faces. They were seated on the floor and had their eyes fixed on the Master, who was standing in a pensive mood, like a boy.

[(26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101]

🔆🙏अव्यक्त (साम्य-Undifferentiated) और व्यक्त (विविधता-Differentiated)🔆🙏 

[অব্যক্ত ও ব্যক্ত — The Undifferentiated and the Differentiated ]

श्रीरामकृष्ण - (मनमोहन से) - सब राममय देख रहा हूँ, तुम लोग सब बैठे हुए हो, देखता हूँ, सब राम ही हैं, एक एक अलग अलग ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মনোমোহনের প্রতি) — সব রাম দেখছি! তোমরা সব বসে আছ, দেখছি রামই সব এক-একটি হয়েছেন।

MASTER (to Manomohan): "I see Rama in all things. You are all sitting here, but I see only Rama in every one of you."

मनमोहन - राम ही सब हुए हैं, परन्तु आप जैसा कहते हैं, 'आपो नारायणः', जल नारायण है, परन्तु कोई जल पिया जाता है, किसी जल से मुँह धोना तक चल सकता है और किसी जल से बर्तन साफ किये जाते हैं ।

[মনোমোহন — রামই সব হয়েছেন; তবে আপনি যেমন বলেন, “অপো নারায়ণ”, জলই নারায়ণ; কিন্তু কোন জল খাওয়া যায়, কোন জলে মুখ ধোয়া চলে, কোন জলে বাসন মাজা।

MANOMOHAN: "Yes, sir. It is Rama who has become everything. But, as you say, though all water is Narayana, yet some water is fit for drinking, some for washing the hands and face, and some only for cleaning pots and pans."

श्रीरामकृष्ण - हाँ, परन्तु देखता हूँ, वे ही सब कुछ हैं । जीव जगत् वे ही हुए हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, কিন্তু দেখছি তিনিই সব। জীবজগৎ তিনি হয়েছেন।

MASTER: "It is true. But I see that it is God Himself who has become everything — the universe and its living beings."

यह बात कहते हुए श्रीरामकृष्ण अपनी छोटी खाट पर जा बैठे ।

[এই কথা বলিতে বলিতে ঠাকুর ছোট খাটটিতে বসিলেন।

Presently the Master sat down on the small couch near his bed.

🔆🙏श्री रामकृष्ण के सत्य की टेक और संचय में बाधा🔆🙏

[শ্রীরামকৃষ্ণের সত্যে আঁট ও সঞ্চয়ে বিঘ্ন ]

श्रीरामकृष्ण - (महिमाचरण से) - क्यों जी, सच बोलना है इसलिए मुझे कहीं शुचिता का रोग (mania-सनक) तो नहीं हो गया । अगर एकाएक कह दूँ कि मैं न खाऊँगा, तो भूख लगने पर भी फिर खाना न होगा। अगर कहूँ, झाऊतल्ले में मेरा लोटा लेकर अमुक आदमी को जाना होगा, तो यदि कोई दूसरा आदमी ले जाता है तो उसे लौटा देना पड़ता है । यह क्या हुआ भाई इसका क्या कोई उपाय नहीं है ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মহিমাচরণের প্রতি) — “হ্যাঁগা, সত্যকথা কহিতে হবে বলে কি আমার শুচিবাঈ হল নাকি! যদি হঠাৎ বলে ফেলি, খাব না, তবে খিদে পেলেও আর খাবার জো নাই। যদি বলি ঝাউতলায় আমার গাড়ু নিয়ে অমুক লোকের যেতে হবে, — আর কেউ নিয়ে গেলে তাকে আবার ফিরে যেতে বলতে হবে। একি হল বাপু! এর কি কোন উপায় নাই।

MASTER (to Mahimacharan): "There is no question of my being truthful; but must I develop a mania for it? If I once say that I shall not eat, then it is impossible for me to eat, even if I am hungry. Again, if I ask a particular man to take my water-jug to the pine-grove, he alone must carry it. If another man carries it, he will have to take it back. What a fix I am in! Is there no way out of it?

“साथ भी कुछ लाने की शक्ति नहीं । पान, मिठाई, कोई वस्तु साथ नहीं ला सकता । इस तरह संचय होता है न ? हाथ से मिट्टी भी नहीं ला सकता ।"

[“আবার সঙ্গে করে কিছু আনবার জো নাই। পান, খাবার — কোন জিনিস সঙ্গে করে আনবার জো নাই। তাহলে সঞ্চয় হল কিনা। হাতে মাটি নিয়ে আসবার জো নাই।”

"Besides, I can't carry anything with me, neither food nor betel-leaf; for that means laying up for the future. I can't carry a little clay in my hand."

इसी समय किसी ने आकर कहा, महाराज, 'हृदय' यदु मल्लिक के बगीचे में आया है, फाटक के पास खड़ा है, आपसे मिलना चाहता है ।'

श्रीरामकृष्ण भक्तों से कह रहे हैं, ‘हृदय से जरा मिल लूँ ? तुम लोग बैठो ।’

यह कहकर काले रंग की चट्टी पहनकर पूर्ववाले फाटक की ओर चले । साथ में केवल मास्टर हैं ।

[এই সময় একটি লোক আসিয়া বলিল, মহাশয়! হৃদয়১ যদু মল্লিকের বাগানে এসেছে, ফটকের কাছে দাঁড়িয়ে; আপনার সঙ্গে দেখা করতে চায়। শ্রীরামকৃষ্ণ ভক্তদের বলিতেছেন, হৃদের সঙ্গে একবার দেখা করে আসি, তোমরা বসো। এই বলিয়া কালো বার্নিশ করা চটি জুতাটি পরে পূর্বদিকের ফটক অভিমুখে চলিলেন। সঙ্গে কেবল মাস্টার।

Just then a man entered the room and told the Master that Hriday was waiting to see him in Jadu Mallick's garden, near the gate.The Master said to the devotees: "I shall have to see Hriday. Please don't leave the room." He put on his slippers and went toward the east gate of the temple garden, M. accompanying him.

लाल सुरखी की राह है । उसी राह से श्रीरामकृष्ण पूर्व की ओर जा रहे हैं । रास्ते में खजानची खड़े थे, उन्होंने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया । दाहिनी ओर आँगन का फाटक छूट गया, वहाँ लम्बी दाढ़ीवाले सिपाही बैठे हुए थे । बायीं ओर 'कोठी' है - बाबुओं का बैठकखाना, पहले यहाँ नील की कोठी थी, इसीलिए इसे कोठी कहते हैं ।

[ লাল সুরকির উদ্যান-পথ। সেই পথে ঠাকুর পূর্বাস্য হইয়া যাইতেছেন। পথে খাজাঞ্চী দাঁড়াইয়াছিলেন ঠাকুরকে প্রণাম করিলেন। দক্ষিণে উঠানের ফটক রহিল, সেখানে শ্মশ্রুবিশিষ্ট দৌবারিকগণ বসিয়াছিল। বামে কুঠি — বাবুদের বৈঠকখানা; আগে এখানে নীলকুঠি ছিল তাই কুঠি বলে। 

The road through the garden was covered with red brick-dust. The manager of the temple, who was standing on the road, saluted Sri Ramakrishna. The Master passed the north entrance of the temple compound, where the bearded sentries sat. On his left he passed the kuthi, the building used by the proprietors of the temple

इसके आगे रास्ते के दोनों ओर फूल के पेड़ हैं । थोड़ी ही दूर पर रास्ते के बिलकुल दक्षिण ओर गाजीतल्ला और काली-मन्दिर का तालाब है, पक्के घाट की सीढ़ियाँ दिखायी पड़ती है । क्रमशः आगे पूर्व द्वार आया, उसके बायीं ओर दरवान का घर है और दाहिनी ओर तुलसी का चौरा । उद्यान के बाहर आकर देखा, यदु मल्लिक के बगीचे के फाटक के पास हृदय ^* खड़ा था ।

[हृदय ^*ह्रदय मुखोपाध्याय सम्पर्के ठाकुरेर भागिनेय :  हृदय मुखोपाध्याय रिश्ते में ठाकुरदेव के भगिना लगते थे। ठाकुरदेव के जन्मस्थान कामारपुकुर के पास शिहोड़ के ग्राम में ह्रदय का घर था। लगभग 20 वर्षों तक  लगातार ठाकुर देव के साथ उनके निजी सहायक (P .A. personal assistant-सेवक महाराज) के रूप में रहते हुए, उन्होंने दक्षिणेश्वर काली-मन्दिर में काली की पूजा और श्रीरामकृष्ण की सेवा की थी। बाद में दक्षिणेश्वर बगीचे के मालिक उनके किसी कार्य से असन्तुष्ट होकर, बगीचे में प्रवेश करने से मना कर दिया था। हृदयेर मातामही ठाकुरेर पीसी। ह्रदय की नानी ठाकुर की बुआ लगती थीं। (*हृदय श्रीरामकृष्ण की जन्मभूमि कामारपुर के पास सिहोड ग्राम में रहते थे । बीस साल तक लगातार श्रीरामकृष्ण के पास रहकर दक्षिणेश्वर काली-मन्दिर में उन्होंने काली की पूजा और श्रीरामकृष्ण की सेवा की थी । बगीचे के मालिकों के असन्तोष का कोई काम कर बैठने के कारण उनका बगीचे के भीतर आना बन्द कर दिया गया था । हृदय की दादी श्रीरामकृष्ण की बुआ थी ।)

[তৎপরে পথের দুইদিকে কুসুম বৃক্ষ, — অদূরে পথের ঠিক দক্ষিণদিকে গাজীতলা ও মা-কালীর পুষ্করিণীর সোপানাবলিশোভিত ঘাট। ক্রমে পূর্বদ্বার, বামদিকে দ্বারবানদের ঘর ও দক্ষিণে তুলসীমঞ্চ। উদ্যানের বাহিরে আসিয়া দেখেন, যদু মল্লিকের বাগানে ফটকের কাছে হৃদয় দণ্ডায়মান।

Then he walked on down the road which was lined on both sides with flowering trees, passing the reservoir on his right, and went outside the temple garden. He found Hriday waiting for him near the gate of Jadu Mallick's garden.

(२)

[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101]

हृदय का आगमन

[সেবক সন্নিকটে — হৃদয় দণ্ডায়মান]

हृदय हाथ जोड़कर खड़े हैं । श्रीरामकृष्ण को राजपथ पर देखते ही उन्होंने साष्टांग प्रणाम किया - दण्डवत् भूमि पर लेट गये, श्रीरामकृष्ण ने उठने के लिए कहा । हृदय फिर हाथ जोड़कर बालक की तरह से रो रहे हैं ।

[হৃদয় কৃতাঞ্জলিপুটে দণ্ডায়মান। দর্শনমাত্র রাজপথের উপর দণ্ডের ন্যায় নিপতিত হইলেন। ঠাকুর উঠিতে বলিলেন। হৃদয় আবার হাতজোড় করিয়া বালকের মতো কাঁদিতেছেন।

At the sight of the Master, Hriday, who had been standing there with folded hands, prostrated himself before him. When the Master told him to get up, he rose and began to cry like a child

आश्चर्य है कि श्रीरामकृष्ण भी रो रहे हैं । नेत्र में कई बूँद आँसू दीख पड़े । उन्होंने हाथ से आँसू पोंछ डाले - जैसे आँसू आये ही न हों । जिस हृदय ने उन्हें इतना कष्ट दिया था, उसी के लिए वे दौड़े आयें और रो रहे हैं ।

[কি আশ্চর্য! ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণও কাঁদিতেছেন! চক্ষের কোণে কয়েক ফোঁটা জল দেখা দিল! তিনি অশ্রুবারি হাত দিয়া মুছিয়া ফেলিলেন — যেন চক্ষে জল পড়ে নাই। একি! যে হৃদয় তাঁকে কত যন্ত্রণা দিয়াছিল তার জন্য ছুটে এসেছেন! আর কাঁদছেন!

How strange! Tears also appeared in the Master's eyes. He wiped them away with his hands. Hriday had made him suffer endless agonies, yet the Master wept for him.] 

श्रीरामकृष्ण - इस समय तू कैसे आया ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — এখন যে এলি?

MASTER: "Why are you here now?"

हृदय - (रोते हुए) - आप ही से भेंट करने के लिए आया हूँ । अपना दुःख मैं और किससे कहूँ ?

[হৃদয় (কাঁদিতে কাঁদিতে) — তোমার সঙ্গে দেখা করতে এলাম। আমার দুঃখ আর কার কাছে বলব?

HRIDAY (weeping): "I have come to see you. To whom else shall I tell my sorrows?"

श्रीरामकृष्ण - (सान्त्वनार्थ, सहास्य) - संसार में ऐसा दु:ख लगा ही है । संसार में रहो तो सुख और दुःख होते ही रहते हैं । (मास्टर को दिखाकर) ये लोग कभी कभी इसीलिए आते हैं । आकर ईश्वर की दो बातें सुनते हैं तो मन में शान्ति आ जाती है । तुझे किस बात का दुःख है ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সান্ত্বনার্থ সহাস্যে) — সংসারে এইরূপ দুঃখ আছে। সংসার করতে গেলেই সুখ-দুঃখ আছে। (মাস্টারকে দেখাইয়া) এঁরা এক-একবার তাই আসে; এসে ঈশ্বরীয় কথা দুটো শুনলে মনে শান্তি হয়। তোর কিসের দুঃখ?

Sri Ramakrishna smiled and said to him by way of consolation: "One cannot avoid such sorrows in the world. Pleasure and pain are inevitable in worldly life. (Pointing to M.) That is why they come here now and then. They get peace of mind by hearing about God. What is your trouble?"

हृदय - (रोते हुए) - आपका संग छूटा हुआ है, यही दुःख है ।

[হৃদয় (কাঁদিতে কাঁদিতে) — আপনার সঙ্গ ছাড়া, তাই দুঃখ!

HRIDAY (weeping): "I am deprived of your company and so I suffer."

श्रीरामकृष्ण - तू ने ही तो कहा था – ‘तुम्हारा मनोभाव तुम्हीं में रहे, मेरा – मुझमें ।’

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তুই তো বলেছিলি, ‘তোমার ভাব তোমাতে থাক আমার ভাব আমাতে থাক।’

MASTER: "Why, was it not you who said to me, 'You follow your ideal and let me follow mine'?"

हृदय - हाँ, ऐसा कहा तो था, परन्तु मैं इतना क्या जानू ?

[হৃদয় — হাঁ, তা তো বলেছিলাম — আমি কি জানি?

HRIDAY: "Yes, I did say that. But what did I know?"

श्रीरामकृष्ण - आज अब तू यहीं-कहीं रह जा । कल बैठकर हम दोनों बातचीत करेंगे । आज रविवार है, बहुत से आदमी आये हैं । वे सब बैठे हैं, इस बार देश में धान कैसा हुआ ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আজ এখন তবে আয়, আর-একদিন তখন বসে কথা কহিব। আজ রবিবার অনেক লোক এসেছে, তারা বসে রয়েছে। এবার দেশে ধান-টান কেমন হয়েছে?

MASTER: "I shall say good-bye to you now. Come another day and we shall talk together. Today is Sunday and many people have come to see me. They are waiting in my room. Have you had a good crop in the country?"

हृदय – हाँ, एक तरह से पैदावार बुरी नहीं रही ।

[হৃদয় — হাঁ, তা একরকম মন্দ হয় নাই।

HRIDAY: "It isn't bad."

श्रीरामकृष्ण - तो आज तू जा, किसी दूसरे दिन आना ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আজ তবে আয়, আবার একদিন আসিস।

MASTER: "Let me say good-bye. Come another day."

हृदय ने फिर श्रीरामकृष्ण को साष्टांग प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण उसी रास्ते से लौटने लगे । मास्टर साथ हैं ।

[হৃদয় আবার সাষ্টাঙ্গ হইয়া প্রণাম করিল। ঠাকুর সেই পথ দিয়া ফিরিয়া আসিতে লাগিলেন। সঙ্গে মাস্টার।

Hriday again prostrated himself before the Master, who started back to his room with M.

[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101]

🔆🙏सेवा-धर्म और ह्रदय के व्यंगबाण🔆🙏 

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - इसने मेरी सेवा जितनी की है मुझे कष्ट भी उतना ही दिया है । जब पेट की बीमारी से मेरी देह में बस दो हाड़ रह गये थे, कुछ खाया नहीं जाता था, तब इसने मुझसे कहा - यह देखो, मैं किस तरह खाता हूँ । अपने ही गुणों से तुमसे नहीं खाया जाता ।' फिर कहता था - 'अक्ल के दुश्मन ! मैं अगर न होता, तो तुम्हारी साधुगिरी निकल गयी होती ।' एक दिन तो इसने इतना कष्ट दिया कि मैं पोस्ता के ऊपर से ज्वार के पानी में प्राण छोड़ देने के लिए चला गया था ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — আমার সেবাও যত করেছে, যন্ত্রণাও তেমনি দিয়েছে! আমি যখন পেটের ব্যারামে দুখানা হাড় হয়ে গেছি — কিছু খেতে পারতুম না তখন আমায় বললে, “এই দেখ আমি কেমন খাই, তোমার মনের গুণে খেতে পারো না।” আবার বলতো, “বোকা — আমি না থাকলে তোমার সাধুগিরি বেরিয়ে যেত।” একদিন এরকম করে যন্ত্রণা দিলে যে পোস্তার উপর দাঁড়িয়ে জোয়ারের জলে দেহত্যাগ করতে গিয়েছিলুম!

MASTER (to M.): "He tormented me as much as he served me. When my stomach trouble had reduced my body to a couple of bones and I couldn't eat anything, he said to me one day: 'Look at me — how well I eat! You've just taken a fancy that you can't eat.' Again he said: 'You are a fool! If I weren't living with you, where would your profession of holiness be?' One day he tormented me so much that I stood on the embankment ready to give up my body by jumping into the Ganges, which was then at flood-tide."

मास्टर यह सब सुनकर आश्चर्यचकित हो गये । सोचने लगे, इस तरह के आदमी के लिए भी ये रो रहे थे !

[মাস্টার শুনিয়া অবাক্‌! বোধ হয় ভাবিতেছেন, কি আশ্চর্য! এমন লোকের জন্য ইনি অশ্রুবারি বিসর্জন করিতেছিলেন!

M. became speechless at these words of the Master. For such a man he had shed tears a few minutes before!

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - अच्छा इतनी सेवा करता था, फिर उसे ऐसा क्यों हुआ ? जिस तरह आदमी बच्चे की देखरेख करते हैं, इसने उसी तरह मेरी की थी । मैं दिन-रात बेहोशी की हालत में रहता था, तिस पर बहुत दिनों तक बीमार पड़ा था । वह जिस तरह मुझे रखता था, मैं उसी तरह रहता था ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — আচ্ছা, অত সেবা করত, — তবে কেন ওর এমন হল? ছেলেকে যেমন মানুষ করে, সেইরকম করে আমাকে দেখেছে। আমি তো রাতদিন বেহুঁশ হয়ে থাকতুম, তার উপর আবার অনেকদিন ধরে ব্যামোয় ভুগেছি। ও যেরকম করে আমায় রাখত, সেইরকম আমি থাকতুম।

MASTER (to M.): "Well, he served me a great deal; then why should he have fallen on such evil days? He took care of me like a parent bringing up a child. As for me, I would remain unconscious of the world day and night. Besides, I was ill for a long time. I was completely at his mercy."

मास्टर क्या कहते ! चुप थे । वे शायद सोच रहे थे कि हृदय ने निष्काम भाव से श्रीरामकृष्ण की सेवा नहीं की ।

[মাস্টার কি বলিবেন, চুপ করিয়া রহিলেন। হয়তো ভাবিতেছিলেন, হৃদয় বুঝি নিষ্কাম হইয়া ঠাকুরের সেবা করেন নাই!

M. did not know how to answer Sri Ramakrishna; so he kept silent.

बातचीत करते हुए श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में आये । भक्तगण प्रतीक्षा कर रहे थे । श्रीरामकृष्ण फिर छोटी खाट पर बैठ गये ।

[কথা কহিতে কহিতে ঠাকুর নিজের ঘরে পৌঁছিলেন। ভক্তেরা প্রতীক্ষা করিতেছিলেন। ঠাকুর আবার ছোট খাটটিতে বসিলেন।

Sri Ramakrishna returned to his room and sat on the small couch.

(३)

 [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101]   

🔆🙏भाव, महाभाव (ecstasy -परमानन्द की अनुभूति) का गूढ़ तत्व🔆🙏

श्रीयुत महिमाचरण आदि कोन्नगर के कई भक्त आये हैं; इनमें से एक ने कुछ देर तक श्रीरामकृष्ण के साथ विचार किया ।

[শ্রীযুক্ত মহিমাচরণ প্রভৃতি ছাড়া কয়েকটি কোন্নগরের ভক্ত আসিয়াছেন; একজন শ্রীরামকৃষ্ণের সঙ্গে কিয়ৎকাল বিচার করেছিলেন।

Sri Ramakrishna returned to his room and sat on the small couch. The devotees had been waiting for him eagerly. Several devotees from Konnagar had arrived. One of them came forward to question the Master.

कोन्नगर के भक्त - महाराज, मैंने सुना है, आपको भावावेश होता है, समाधि होती है । क्यों होती है, किस तरह होती है, हमें समझाइये ।

[কোন্নগরের ভক্ত — মহাশয় শুনলাম যে, আপনার ভাব হয়, সমাধি হয়। কেন হয়, কিরূপে হয়, আমাদের বুঝিয়ে দিন।

DEVOTEE: "Sir, we hear that you go into samadhi and experience ecstasy(परमानन्द की अनुभूति) . Please explain why and how you get into that mood."

[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]

🔆🙏ईश्वर का अनुभव हुए बिना भाव या महाभाव नहीं होता🔆🙏

[ঈশ্বর অনুভব না হলে ভাব বা মহাভাব হয় না।] 

[Withaout realization of God no one experience Bhava or Mahabhava]  

श्रीरामकृष्ण - श्रीमती (राधिका) को महाभाव होता था, जब कोई सखी छूने के लिए बढ़ती तब दूसरी कहती - इस कृष्ण के विलास- अंग को न छू, इनके शरीर में इस समय कृष्ण विलास कर रहे हैं । ईश्वर का अनुभव हुए बिना भाव या महाभाव नहीं होता । गहरे जल से मछली के निकलने पर पानी हिलता है, अगर मछली बड़ी हुई तो पानी में उथल-पुथल मच जाती है । इसीलिए कहा है, भक्त भाव में [प्रेमोन्मत्त होकर] हँसता है, नाचता है, रोता है, गाता है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — শ্রীমতীর মহাভাব হত, সখীরা কেহ ছুঁতে গেলে অন্য সখী বলত, ‘কৃষ্ণবিলাসের অঙ্গ ছুঁসনি — এঁর দেহমধ্যে এখন কৃষ্ণ বিলাস করছেন।’ ঈশ্বর অনুভব না হলে ভাব বা মহাভাব হয় না। গভীর জল থেকে মাছ এলে জলটা নড়ে, — তেমন মাছ হলে জল তোলপাড় করে। তাই ‘ভাবে হাসে কাঁদে, নাচে গায়।’

MASTER: "Sri Radha used to experience mahabhava. If any of her companions wanted to touch her while she was in that state, another of them would say: 'Please do not touch that body, the playground of Sri Krishna. Krishna is now sporting in her body.' It is not possible to experience bhava or mahabhava without the realization of God. When a fish comes up from a great depth, you see a movement on the surface of the water; and if it is a big one there, is much splashing about. That is why a devotee 'laughs and weeps and dances and sings in the ecstasy of God'.

[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]

🔆🙏अधिक देर तक भाव में रहना ठीक नहीं -लोग पागल कहेंगे🔆🙏 

"बड़ी देर तक भाव में (मुग्धावस्था में ^*) नहीं रहा जाता । आईने के पास बैठकर केवल मुँह देखते रहने से लोग पागल कहेंगे ।"

[भाव या मुग्धावस्था * लोग कहै मीरा भई बावरी सास कहै कुलनासी रे। विष का प्याला राणाजी भेज्या पीवत मीरा हाँसी रे।। पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे।

[“অনেকক্ষণ ভাবে থাকা যায় না। আয়নার কাছে বসে কেবল মুখ দেখলে লোকে পাগল মনে করবে।”

"One cannot remain in bhava very long. People take a man to be crazy if he sits before a mirror and looks at his face all the time."

[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]

🔆🙏 कर्म अथवा साधना  किये बिना ईश्वर का दर्शन नहीं होता🔆🙏

[কর্ম বা সাধনা না করলে ঈশ্বরদর্শন হয় না ]

कोत्रगर के भक्त – मैंने सुना है, महाराज , आप ईश्वर-दर्शन करते रहते हैं तो हमें भी करा दीजिये।

[কোন্নগরের ভক্ত — শুনেছি, মহাশয় ঈশ্বরদর্শন করে থাকেন, তাহলে আমাদের দেখিয়ে দিন।

DEVOTEE: "Sir, we hear that you see God. If you do, please show Him to us."

श्रीरामकृष्ण - सब कुछ ईश्वर के अधीन है - भला आदमी क्या कर सकता है ? उनका नाम लेते हुए कभी अश्रुधारा बहती है, कभी नहीं । उनका ध्यान करते हुए कभी कभी खूब उद्दीपन होता है - किसी दिन कुछ भी नहीं होता । "कर्म चाहिए, तब दर्शन होते हैं । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সবই ঈশ্বরাধীন — মানুষে কি করবে? তাঁর নাম করতে করতে কখনও ধারা পড়ে; কখনও পড়ে না। তাঁর ধ্যান করতে এক-একদিন বেশ উদ্দীপন হয় — আবার একদিন কিছুই হল না। “কর্ম চাই, তবে দর্শন হয়। " 

MASTER: "Everything depends on God's will. What can a man do? While chanting God's name, sometimes tears flow and at other times the eyes remain dry. While meditating on God, some days I feel a great deal of inner awakening, and some days I feel nothing." A man must work. Only then can he see God.

एक दिन भावावेश में मैंने हालदार तालाब देखा । देखा, एक निम्न जाति का आदमी (अमजद ?)  काई हटाकर पानी भर रहा है । उसने दिखाया, काई हटाये बिना पानी नहीं भरा जा सकता । कर्म बिना किये भक्ति नहीं होती, ईश्वर दर्शन नहीं होता । ध्यान, जप, यही सब कर्म हैं, उनके नाम और गुणों का कीर्तन करना भी कर्म है, और दान, यज्ञ, ये भी सब कर्म ही हैं ।

[“কর্ম চাই, তবে দর্শন হয়। একদিন ভাবে হালদার-পুকুর১ দেখলুম।  একদিন ভাবে হালদার-পুকুর১ দেখলুম। দেখি, একজন ছোটলোক পানা ঠেলে জল নিচ্ছে, আর হাত তুলে এক-একবার দেখছে। যেন দেখালে, পানা না ঠেললে জল দেখা যায় না — কর্ম না করলে ভক্তিলাভ হয় না, ঈশ্বরদর্শন হয় না। ধ্যান, জপ, এই সব কর্ম, তাঁর নাম গুণকীর্তনও কর্ম — আবার দান, যজ্ঞ এ-সবও কর্ম।

One day, in an exalted mood, I had a vision of the Haldarpukur. I saw a low-caste villager drawing water after pushing aside the green scum. Now and then he took up the water in the palm of his hand and examined it. In that vision it was revealed to me that the water cannot be seen without pushing aside the green scum that covers it; that is to say, one cannot develop love of God or obtain His vision without work. Work means meditation, japa, and the like. The chanting op God's name and glories is work too. You may also include charity, sacrifice, and so on.

“मक्खन अगर चाहते हो तो दूध को लेकर दही जमाना चाहिए । फिर निर्जन में रखना चाहिए । फिर दही जमने पर मेहनत करके उसे मथना चाहिए, तब कहीं मक्खन निकलता है ।"

[“মাখন যদি চাও, তবে দুধকে দই পাততে হয়। তারপর নির্জনে রাখতে হয়। তারপর দই বসলে পরিশ্রম করে মন্থন করতে হয়। তবে মাখন তোলা হয়।”

"If you want butter, you must let the milk turn to curd. It must be left in a quiet place (निर्जनवास या कैम्प) . When the milk becomes curd, you must work hard to churn it. Only then can you get butter from the milk."

महिमाचरण - जी हाँ, कर्म तो चाहिए ही । बड़ा परिश्रम करना पड़ता है, तब कहीं वस्तु-लाभ होता है । पढ़ना भी कितना पड़ता है - अनन्त शास्त्र हैं ।

[মহিমাচরণ — আজ্ঞা হাঁ, কর্ম চাই বইকি! অনেক খাটতে হয়, তবে লাভ হয়। পড়তেই কত হয়! অনন্ত শাস্ত্র।

MAHIMACHARAN: "That is true, sir. Work is certainly necessary. One must labour hard. Only then does one succeed. There is so much to read! The scriptures are endless."

  [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]

🔆🙏किताब पढ़कर क्या समझोगे ? किसी और चीज से पहले ईश्वर-दर्शन आवश्यक 🔆🙏 

[আগে বিদ্যা (জ্ঞানবিচার) — না আগে ঈশ্বরলাভ? ]

श्रीरामकृष्ण - (महिमा से) - शास्त्र कितना पढ़ोगे ? सिर्फ विचार करने से क्या होगा ? पहले उनके लाभ करने की चेष्टा करो, गुरु की बात पर विश्वास करके कुछ कर्म करो । गुरु न रहे, तो ईश्वर से व्याकुल होकर प्रार्थना करो, वे कैसे हैं - वे खुद समझा देंगे ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মহিমার প্রতি) — শাস্ত্র কত পড়বে? শুধু বিচার করলে কি হবে? আগে তাঁকে লাভ করবার চেষ্টা কর, গুরুবাক্যে বিশ্বাস করে কিছু কর্ম কর। গুরু না থাকেন, তাঁকে ব্যাকুল হয়ে প্রার্থনা কর, তিনি কেমন — তিনিই জানিয়ে দিবেন।"

MASTER (to Mahimacharan): "How much of the scriptures can you read? What will you gain by mere reasoning? Try to realize God before anything else. Have faith in the guru's words, and work. If you have no guru, then pray to God with a longing heart. He will let you know what He is like.

  [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]

🔆🙏नवनीदा के कैम्प (निर्जनवास) में अमजद- माँ सारदा का दर्शन होता है🔆🙏

[अमजद -माँ सारदा के दर्शनों के बाद शास्त्र और साइन्स (विज्ञान) सब तिनके-जैसे]

[তাঁকে দর্শনের পর বই, শাস্ত্র, সায়েন্স সব খড়কুটো বোধ হয়।]    

"किताब पढ़कर क्या समझोगे ? जब तक बाजार (कैम्प) नहीं जाया जाता, तब तक दूर से बस हो-हल्ला सुन पड़ता है । बाजार पहुँचने पर एक और तरह की बात होती है । तब सब साफ दीख पड़ता है और साफ सुन पड़ता है; 'आलू लो’ और ‘पैसे दो’ साफ सुनायी देगा ।

[“বই পড়ে কি জানবে? যতক্ষণ না হাটে পৌঁছানি যায় ততক্ষণ দূর হতে কেবল হো-হো শব্দ। হাটে পৌঁছিলে আর-একরকম। তখন স্পষ্ট দেখতে পাবে, শুনতে পাবে। ‘আলু নাও’ ‘পয়সা দাও’ স্পষ্ট শুনতে পাবে।

What will you learn of God from books? As long as you are at a distance from the market-place you hear only an indistinct roar. But it is quite different when you are actually there. Then you hear and see everything distinctly. You hear people saying: 'Here are your potatoes. Take them and give me the money.'

“दूर से समुद्र के हरहराने का ही शब्द सुन पड़ता है । पास जाने पर कितने ही जहाजों को जाते हुए, कितने ही पक्षियों को उड़ते हुए और उठती हुई कितनी ही तरंगें देखोगे । 

[“সমুদ্র দূর হতে হো-হো শব্দ করছে। কাছে গেলে কত জাহাজ যাচ্ছে, পাখি উড়ছে, ঢেউ হচ্ছে — দেখতে পাবে।"

From a distance you hear only the rumbling noise of the ocean. Go near it and you will see many boats sailing about, birds flying, and waves rolling. 

[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]

🔆🙏छः दिवसीय कैम्प में जाकर चपरास प्राप्त (C-IN-C) से भेंट करो !🔆🙏  

"पुस्तक पढ़कर ठीक अनुभव नहीं होता । बड़ा अन्तर है । उनके दर्शनों के बाद पुस्तक, शास्त्र और साइन्स (विज्ञान) सब तिनके-जैसे जान पड़ते हैं ।

[“বই পড়ে ঠিক অনুভব হয় না। অনেক তফাত। তাঁকে দর্শনের পর বই, শাস্ত্র, সায়েন্স সব খড়কুটো বোধ হয়।

"One cannot get true feeling about God from the study of books. This feeling is something very different from book-learning. Books, scriptures, and science appear as mere dirt and straw after the realization of God.

"बड़े बाबू [जमीन्दार बाबू]  के साथ परिचय की आवश्यकता है । उनकी कितनी कोठियाँ हैं, कितने बगीचे हैं, कम्पनी का कागज कितने का है, यह सब पहले से जानने के लिए इतने उतावले क्यों हो रहे हो ?

नौकरों के पास जाते हो तो वे खड़े भी नहीं रहने देते - कम्पनी के कागज की खबर भला क्या देंगे! परन्तु किसी तरह बड़े बाबू से एक बार मिल भर लो, चाहे धक्के खाकर मिलो और चाहे चारदीवारी लाँघकर, तब उनके कितने मकान हैं, कितने बगीचे हैं, कितने का कम्पनी-कागज हैं, वे खुद बतला देंगे । बाबू से भेंट हो जाने पर नौकर और दरवान सब सलाम करेंगे ।" (सब हँसते हैं ।)

[“বড়বাবুর সঙ্গে আলাপ দরকার। তাঁর ক’খানা বাড়ি, ক’টা বাগান, কত কোম্পানির কাগজ, এ আগে জানবার জন্য অত ব্যস্ত কেন? চাকরদের কাছে গেলে তারা দাঁড়াতেই দেয় না, — কোম্পানির কাগজের খবর কি দিবে! কিন্তু জো-সো করে বড়বাবুর সঙ্গে একবার আলাপ কর, তা ধাক্কা খেয়েই হোক, আর বেড়া ডিঙ্গিয়েই হোক, — তখন কত বাড়ি, কত বাগান, কত কোম্পানির কাগজ, তিনিই বলে দিবেন। বাবুর সঙ্গে আলাপ হলে আবার চাকর, দ্বারবান সব সেলাম করবে।”২ (সকলের হাস্য)

"The one thing needful is to be introduced to the master of the house. Why are you so anxious to know beforehand how many houses and gardens, and how many government securities, the master possesses? The servants of the house would not allow you even to approach these, and they would certainly not tell you about their master's investments. Therefore, somehow or other become acquainted with the master, even if you have to jump over the fence or take a few pushes from the servants. Then the master himself will tell you all about his houses and gardens and his government securities. And what is more, the servants and the door-keeper will salute you when you are known to the master." (All laugh.)

भक्त - अब बड़े बाबू से (चपरास प्राप्त नेता या `C-IN-C' से) भेंट भी कैसे हो ? (हास्य)

[ভক্ত — এখন বড়বাবুর সঙ্গে আলাপ কিসে হয়? (সকলের হাস্য)

DEVOTEE: "Now the question is how to become acquainted with `the Master." (Laughter.)

श्रीरामकृष्ण - इसीलिए कर्म चाहिए । ईश्वर है, यह कहकर बैठे रहने से कुछ न होगा । किसी तरह उनके पास तक जाना होगा । निर्जन में उन्हें पुकारो, प्रार्थना करो, 'दर्शन दो' कह कहकर व्याकुल होकर रोओ ! कामिनी और कांचन के लिए पागल होकर घूम सकते हो, तो उनके लिए भी कुछ पागल हो जाओ । लोग कहें कि ईश्वर के लिए अमुक व्यक्ति पागल हो गया है । कुछ दिन, सब कुछ छोड़कर उन्हें अकेले में पुकारो

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তাই কর্ম চাই। ঈশ্বর আছেন বলে বসে থাকলে হবে না। “জো-সো করে তাঁর কাছে যেতে হবে। " নির্জনে তাঁকে ডাকো, প্রার্থনা কর; ‘দেখা দাও’ বলে ব্যাকুল হয়ে কাঁদো। কামিনী-কাঞ্চনের জন্য পাগল হয়ে বেড়াতে পার; তবে তাঁর জন্য একটু পাগল হও। লোকে বলুক যে ঈশ্বরের জন্য অমুক পাগল হয়ে গেছে। দিন কতক না হয়ে সব ত্যাগ করে তাঁকে একলা ডাকো।

MASTER: "That is why I say that work is necessary. It will not do to say that God exists and then idle away your time. You must reach God somehow or other. Call on Him in solitude and pray to Him, 'O Lord! reveal Thyself to me.' Weep for Him with a longing heart. You roam about in search of 'woman and gold' like a madman; now be a little mad for God. Let people say, 'This man has lost his head for God.' Why not renounce everything for a few days and call on God in solitude?

[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]

🔆🙏यदि आस्तिक हो तो ईश्वर का दर्शन करने की चेष्टा क्यों नहीं करते ?🔆🙏 

[ঈশ্বরকে দেখিয়ে দাও, আর উনি চুপ করে বসে থাকবেন।]

(Simply saying that God exists and doing nothing about it?)

"केवल वे हैं, यह कहकर बैठे रहने से क्या होगा ? हालदार तालाब में बहुत बड़ी बड़ी मछलियाँ हैं, परन्तु तालाब के किनारे केवल बैठे रहने से क्या कहीं मछली पकड़ी जा सकती है ? पानी में मसाला डालो, क्रमशः गहरे पानी से मछलियाँ निकलकर मसाले के पास आयेंगी, तब पानी भी हिलता-डुलता रहेगा । तब तुम्हें आनन्द होगा । कभी किसी मछली का कुछ अंश दिखलायी पड़ा, मछली उछली और पानी में एक शब्द हुआ । जब देखा, तब तुम्हें और भी आनन्द मिला ।

[“শুধু ‘তিনি আছেন’ বলে বসে থাকলে কি হবে? হালদার-পুকুরে বড় মাছ আছে। পুকুরের পাড়ে শুধু বসে থাকলে কি মাছ পাওয়া যায়? চার করো, চারা ফেলো, ক্রমে গভীর জল থেকে মাছ আসবে আর জল নড়বে। তখন আনন্দ হবে। হয়তো মাছটার খানিকটা একবার দেখা গেল — মাছটা ধপাঙ্‌ করে উঠল। যখন দেখা গেল, তখন আরও আনন্দ।

"What will you achieve by simply saying that God exists and doing nothing about it? There are big fish in the Haldarpukur; but can you catch them by merely sitting idly on the bank? Prepare some spiced bait and throw it into the lake. Then the fish will come from the deep water and you will see ripples. That will make you happy. Perhaps a fish will jump with a splash and you will get a glimpse of it. Then you will be so glad!

"दूध जमाकर दही मथोगे तभी तो मक्खन निकलेगा । (महिमा से) यह अच्छी बला सिर चढ़ी, ईश्वर से मिला दो और आप चुपचाप बैठे रहेंगे ! मक्खन निकालकर मुँह के पास रखा जाय ! (सब हँसते हैं ।) अच्छी बला आयी, मछली पकड़कर हाथ में रख दी जाय !

[“দুধকে দই পেতে মন্থন করলে তবে তো মাখন পাবে। (মহিমার প্রতি) — “এ তো ভাল বালাই হল! ঈশ্বরকে দেখিয়ে দাও, আর উনি চুপ করে বসে থাকবেন। মাখন তুলে মুখের কাছে ধরো। (সকলের হাস্য) ভাল বালাই — মাছ ধরে হাতে দাও।

"Milk must be turned to curd and the curd must be churned. Only then will you get butter. (To Mahima) What a nuisance! Someone must show God to a man, while he himself sits idly by all the while! Someone must extract the butter and hold it in front of his mouth! (All laugh.) What a bother! Someone else must catch the fish and give it to him!

"एक आदमी राजा से मिलना चाहता है । सात ड्योढ़ियों ^*  के बाद राजा का मकान है । पहली ड्योढ़ी को पार करते ही वह पूछता है - 'राजा कहाँ है ?’ जिस तरह का प्रबन्ध है, उसी के अनुसार सातों ड्योढ़ियों को पार करना होगा या नहीं?"

[“একজন রাজাকে দেখতে চায়। রাজা আছেন সাত দেউড়ির পরে। প্রথম দেউড়ি পার না হতে হতে বলে, ‘রাজা কই?’ যেমন আছে, এক-একটা দেউড়ি তো পার হতে হবে!”

"A man wanted to see the king. The king lived in the inner court of the palace, beyond seven gates. No sooner did the man pass the first gate than he exclaimed, 'Oh, where is the king?' But there were seven gates, and he must pass them one after another before he could see the king."

[सात ड्योढ़ियों ^* सात गेट, सात पर्दा अर्थात सात चक्र - हमारे शरीर में सात चक्र होते हैं, मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्त्रार। 

`शनै: कंथा शनै: पंथा, शनै: शनै: गिरि पर्वता। 

शनै: गुरु शनै चेला, शनै: ज्ञान सु प्राप्त :॥१॥ 

शनै: शनै: गुदड़ी तैयार होती है । शनै: शनै: मार्ग कटता है । शनै:शनै: छोटे पर्वतों पर चढा जाता है । शनै: शनै: गुरु और शिष्य के लक्षण आते हैं । और शनै: शनै: साधन द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है । साभार / https://aneela-daduji.blogspot.com/2022/03/]

[(26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101]

🔆🙏 ईश्वर दर्शन का उपाय - व्याकुलता 🔆🙏

[ঈশ্বরলাভের উপায় — ব্যাকুলতা ]

[The vision of God depends on His grace.]

(ईश्वर का दर्शन मिलना उनकी कृपा पर निर्भर है।)

महिमाचरण - किस कर्म से हम उन्हें प्राप्त कर सकते हैं ?

[মহিমাচরণ — কি কর্মের দ্বারা তাঁকে পাওয়া যেতে পারে?

MAHIMACHARAN: "By what kind of work can one realize God?"

श्रीरामकृष्ण - उन्हें अमुक कर्म से आदमी पाता है और अमुक से नहीं, यह बात नहीं । उनका मिलना उनकी कृपा पर अवलम्बित है । हाँ, व्याकुल होकर कुछ कर्म करते रहना चाहिए । विकलता के रहने पर उनकी कृपा होती है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — এই কর্মের দ্বারা তাঁকে পাওয়া যাবে, আর এ-কর্মের দ্বারা পাওয়া যাবে না, তা নয়। তাঁর কৃপার উপর নির্ভর। তবে ব্যাকুল হয়ে কিছু কর্ম করে যেতে হয়। ব্যাকুলতা থাকলে তাঁর কৃপা হয়।

MASTER: "It is not that God can be realized by this work and not by that. The vision of God depends on His grace. Still a man must work a little with longing for God in his heart. If he has longing he will receive the grace of God.

[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]

🔆🙏ईश्वर की कृपा से शुभ संयोग के मिलने पर सब काम बन जाता है 🔆🙏

“कोई सुयोग मिलना चाहिए, चाहे साधु-संग हो या विवेक हो या सद्गुरु की प्राप्ति । कभी इस तरह का सुयोग मिल जाता है कि बड़े भाई ने संसार का कुल भार ले लिया, या स्त्री 'विद्याशक्ति' धर्मात्मा निकली, या विवाह ही न हुआ, इस तरह संसार में न फँसना पड़ा । इस प्रकार के शुभ संयोग के मिलने पर काम बन जाता है ।

[“একটা সুযোগ হওয়া চাই। সাধুসঙ্গ, বিবেক, সদ্‌গুরুলাভ, হয়তো একজন বড়ভাই সংসারে ভার নিলে; হয়তো স্ত্রীটি বিদ্যাশক্তি, বড় ধার্মিক; কি বিবাহ আদপেই হল না, সংসারে বদ্ধ হতে হল না; — এই সব যোগাযোগ হলে হয়ে যায়।

"To attain God a man must have certain favourable conditions: the company of holy men, discrimination, and the blessings of a real teacher. Perhaps his elder brother takes the responsibility for the family; perhaps his wife has spiritual qualities and is very virtuous; perhaps he is not married at all or entangled in worldly life. He succeeds when conditions like these are fulfilled.

"किसी के घर में सख्त बीमारी थी - अब-तब हो रहा था । किसी ने कहा 'स्वाति नक्षत्र में बरसात का पानी अगर मुर्दे की खोपड़ी में गिरकर रुक जाय और एक साँप मेंढ़क का पीछा करे, साँप के लपककर पकड़ते समय मेंढ़क खोपड़ी के उस पार उछलकर चला जाय और साँप का विष उसी खोपड़ी में गिर जाय, उसी विष की दवा यदि बनायी जाय और वह दवा अगर मरीज को दी जा सके तो वह बच सकता है ।'

[“একজনের বাড়িতে ভারী অসুখ — যায় যায়। কেউ বললে, স্বাতী নক্ষত্রে বৃষ্টি পড়বে, সেই বৃষ্টির জল মড়ার-মাথার খুলিতে থাকবে, আর একটা সাপ ব্যাঙকে তেড়ে যাবে, ব্যাঙকে ছোবল মারবার সময় ব্যাঙটা যেই লাফ দিয়ে পালাবে, অমনি সেই সাপের বিষ মড়ার মাথার খুলিতে পড়ে যাবে; সেই বিষের ঔষধ তৈয়ার করে যদি খাওয়াতে পার, তবে বাঁচে। 

"In a certain family a man lay seriously ill. He was at the point of death. Someone said: 'Here is a remedy: First it must rain when the star Svati is in the ascendant; then some of that rain-water must collect in a human skull; then a frog must come there and a snake must chase it; and as the frog is about to be bitten by the snake, it must jump away and the poison of the snake must drop into the skull. You must prepare a medicine from this poison and give it to the patient. Then he will live.' 

तब जिसके यहाँ बीमारी थी, वह आदमी दिन, मुहूर्त, नक्षत्र आदि देखकर घर से निकला (स्वाति नक्षत्र कब से कब तक रहेगा ?), और व्याकुल होकर यही सब खोजने लगा । मन ही मन वह ईश्वर को पुकारकर कहता गया - 'हे ईश्वर ! तुम अगर सब इकट्ठा कर दो तो हो सकता है ।’ इस तरह जाते जाते सचमुच ही उसने देखा कि एक मुर्दे की खोपड़ी पड़ी हुई है । देखते ही देखते थोड़ा पानी भी बरस गया । तब उसने कहा - 'हे गुरु ! मुर्दे की खोपड़ी मिली और थोड़ा पानी भी बरस गया और उसकी खोपड़ी में जमा भी हो गया । अब कृपा करके और जो दो-एक योग हैं, उन्हें भी पूरा कर दो, भगवान् !'

[তখন যার বাড়িতে অসুখ, সেই লোক দিন-ক্ষণ-নক্ষত্র দেখে বাড়ি থেকে বেরুল, আর ব্যাকুল হয়ে ওই সব খুঁজতে লাগল। মনে মনে ঈশ্বরকে ডাকছে, ‘ঠাকুর! তুমি যদি জোটপাট করে দাও, তবেই হয়!’ এইরূপে যেতে যেতে সত্য সত্যই দেখতে পেলে, একটা মড়ার মাথার খুলি পড়ে রয়েছে। দেখতে দেখতে একপশলা বৃষ্টিও হল। তখন সে ব্যক্তি বলছে, ‘হে গুরুদেব! মরার মাথার খুলিও পেলুম, স্বাতীনক্ষত্রে বৃষ্টিও হল, সেই বৃষ্টির জলও ওই খুলিতে পড়েছে; এখন কৃপা করে আর কয়টির যোগাযোগ করে দাও ঠাকুর।’

The head of the family consulted the almanac about the star and set out at the right moment. With great longing of heart he began to search for the different ingredients. He prayed to God, 'O Lord, I shall succeed only if You bring together all the ingredients.' As he was roaming about he actually saw a skull lying on the ground. Presently there came a shower of rain. Then the man exclaimed: 'O gracious Lord, I have got the rain-water under Svati, and the skull too. What is more, some of the rain has fallen into the skull. Now be kind enough to bring together the other ingredients.' 

"व्याकुल होकर वह सोच ही रहा था कि इतने में उसने देखा कि एक विषधर साँप आ रहा है । तब उसे बड़ा आनन्द हुआ । वह इतना व्याकुल हुआ कि छाती धड़कने लगी, और कहने लगा, 'हे गुरु !' साँप भी आ गया है । कई योग तो पूरे हो गये । कृपा करके और जो बाकी हैं, उन्हें भी पूर्ण कर दो ।' कहते ही कहते मेंढ़क भी आ गया । सौंप मेंढ़क को खदेरने भी लगा । मुर्दे के सिर के पास साँप ने ज्योंही उस पर चोट करना चाहा कि मेंढ़क उछलकर इधर से उधर हो गया, और विष उसी खोपड़ी में गिर गया । तब वह आदमी तालियाँ बजाने और नाचने लगा ।

[ ব্যাকুল হয়ে ভাবছে। এমন সময় দেখে একটা বিষধর সাপ আসছে। তখন লোকটির ভারী আহ্লাদ; সে এন ব্যাকুল হল যে বুক দুরদুর করতে লাগল; আর সে বলতে লাগল, ‘হে গুরুদেব! এবার সাপও এসেছে; অনেকগুলির যোগাযোগও হল। কৃপা করে এখন আর যেগুলি বাকী আছে, সেগুলি করিয়ে দাও!’ বলতে বলতে ব্যাঙও এল, সাপটা ব্যাঙ তাড়া করে যেতেও লাগল; মড়ার মাথার খুলির কাছে এসে যেই ছোবল দিতে যাবে, ব্যাঙটা লাফিয়ে ওদিকে গিয়ে পড়ল আর বিষ অমনি খুলির ভিতর পড়ে গেল। তখন লোকটি আনন্দে হাততালি দিয়ে নাচতে লাগল।

He was reflecting with a yearning heart when he saw a poisonous snake approaching. His joy knew no bounds. He became so excited that he could feel the thumping of his own heart. 'O God,' he prayed, 'now the snake has come too. I have procured most of the ingredients. Please be gracious and give me the remaining ones.' No sooner did he pray thus than a frog hopped up. The snake pursued it. As they came near the skull and the snake was about to bite the frog, the frog jumped over the skull and the snake's poison fell into it. The man began to dance, clapping his hands for joy. 

"इसीलिए कहता हूँ, व्याकुलता के होने पर सब हो जाता है ।"

“তাই বলছি ব্যাকুলতা থাকলে সব হয়ে যায়।”

— So I say that one gets everything through yearning.

(४)

[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 

🔆🙏संन्यास तथा गृहस्थाश्रम । ईश्वर-लाभ और त्याग🔆🙏

[সন্ন্যাস ও গৃহস্থাশ্রম — ঈশ্বরলাভ ও ত্যাগ — ঠিক সন্ন্যাসী কে?]

🌝🌞`पक्षी और दरवेश', ये दोनों संचय नहीं करते-पर माँ तुम ह्रदय में रहना 🌝🌞

श्रीरामकृष्ण - मन से सम्पूर्ण त्याग के हुए बिना (कामिनी -कांचन से अनासक्त हुए बिना) ईश्वर नहीं मिलते । साधु संचय नहीं कर सकता । कहते हैं, `पक्षी और दरवेश' , ये दोनों संचय नहीं करते । यहाँ का तो भाव यह है कि हाथ में मिट्टी लगाने के लिए मैं मिट्टी भी नहीं ले जा सकता । पानदान में पान भी नहीं ले जा सकता । हृदय जब मुझे बड़ी तकलीफ दे रहा था, तब मेरी इच्छा हुई, यहाँ से काशी चला जाऊँ । सोचा, कपड़े तो लूँगा, परन्तु रुपये कैसे लूँगा ? इसीलिए फिर काशी जाना भी न हुआ । (सब हँसते हैं ।)

[শ্রীরামকৃষ্ণ — মন থেকে সব ত্যাগ না হলে ঈশ্বরলাভ হয় না। সাধু সঞ্চয় করতে পারে না। সঞ্চয় না করে “পন্‌ছী আউর দরবেশ।” পাখি আর সাধু সঞ্চয় করে না। এখানকার ভাব, — হাতে মাটি দেবার জন্য মাটি নিয়ে যেতে পারি না। বেটুয়াটা করে পান আনবার জো নাই। হৃদে যখন বড় যন্ত্রণা দিচ্ছে, তখন এখান থেকে কাশী চলে যাব মতলব হল। ভাবলুম কাপড় লব — কিন্তু টাকা কেমন করে লব? আর কাশী যাওয়া হল না। (সকলের হাস্য)

"A man cannot realize God' unless he renounces everything mentally. A sadhu cannot lay things up. 'Birds and wandering monks'  do not make provision for the morrow.' Such is the state of my mind that I cannot carry even clay in my hand. Once, when Hriday tormented me, I thought of leaving this place and going to Benares. I thought of taking some clothes with me. But how could I take money? So I could not go to Benares. (All laugh.)

(महिमा से) “तुम लोग संसार में हो, तुम लोग यह भी रखते हो और वह भी रखते हो । संसार भी रखते हो और धर्म (सुन्दर चरित्र) भी ।"

[(মহিমার প্রতি) — “তোমরা সংসারী লোক। এও রাখ, অও রাখ। সংসারও রাখ, ধর্মও রাখ।”

(To Mahima) "You are a householder. Therefore you should hold both to 'this' and to 'that' — both to the world and to God."

महिमाचरण - यह और वह दोनों कभी रह सकते हैं ?

[মহিমা — ‘এ, ও’ কি আর থাকে?

MAHIMA: "Sir, can one who holds to 'that' also hold to 'this'?"

श्रीरामकृष्ण – मैंने पंचवटी के पास गंगाजी के तट पर, 'रुपया मिट्टी है - मिट्टी ही रुपया है - रुपया ही मिट्टी है,’ इस तरह विचार करते हुए, जब रुपया गंगाजी में फेंक दिया, तब पीछे से कुछ भय भी हुआ ! सोचा, मैं बिना लक्ष्मी के कहीं अभागा तो न हो जाऊँगा, माता लक्ष्मी अगर भोजन बन्द कर दें तो फिर क्या होगा ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি পঞ্চবটীর কাছে গঙ্গার ধারে ‘টাকা মাটি, মাটিই টাকা, টাকাই মাটি’, এই বিচার করতে করতে যখন গঙ্গার জলে ফেলে দিলুম, তখন একটু ভয় হল। ভাবলুম, আমি কি লক্ষ্মীছাড়া হলুম! মা-লক্ষ্মী যদি খ্যাঁট বন্ধ করে দেন, তাহলে কি হবে। 

MASTER: "Once, sitting on the bank of the Ganges near the Panchavati, holding a rupee in one hand and clay in the other, I discriminated, 'The rupee is the clay — the clay is verily the rupee, and the rupee is verily the clay', and then threw the rupee into the river. But I was a little frightened. 'How foolish of me to offend the goddess of fortune!' I thought. 'What shall I do if she doesn't provide me with food any more?' 

तब हाजरा की तरह पटवारी बुद्धि (ruse-छलबुद्धि)  आयी । मैंने कहा - 'माँ, तुम हृदय में रहना।’ एक आदमी की तपस्या पर सन्तुष्ट हो भगवती ने कहा, तुम वरदान लो । उसने कहा, 'माँ, अगर तुम्हें वरदान देना है तो यह वर दो कि मैं नाती के साथ सोने की थाली में भोजन करूँ ।' एक ही वर में नाती, ऐश्वर्य, सोने की थाली, सब कुछ हो गया ! (लोग हँसते हैं ।)

[তখন হাজরার মতো পাটোয়ারী করলুম। বললুম, মা! তুমি যেন হৃদয়ে থেকো! একজন তপস্যা করাতে ভগবতী সন্তুষ্ট হয়ে বললেন, তুমি বর লও। সে বললে, মা যদি বর দিবে, তবে এই কর যেন আমি নাতির সঙ্গে সোনার থালে ভাত খাই। এক বরেতে নাতি, ঐশ্বর্য, সোনার থাল সব হল! (সকলের হাস্য)

Then, like Hazra, I sought help in a ruse. I said to the goddess, 'Mother, may you dwell in my heart.' Once the Divine Mother was pleased with a man's austerities and said to him, 'You may ask a favour of Me.' 'O Mother,' said he, 'if You are so pleased with me, then grant that I may eat from a gold plate with my grandchildren.' Now, in one boon the man got everything: grandchildren, wealth, and gold plate. (All laugh.)

[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]

🔆🙏 वजन का समान वितरण तराजू के निचले काँटे (मन)  को ऊपरी काँटे (विवेक)

 पर स्थिर और सीधा (एकाग्र) रखने में सक्षम बनाता है !  🔆🙏

[An even distribution of weight enabling balance to remain upright and steady.भार का एक बराबर वितरण संतुलन को सीधा और स्थिर रहने में सक्षम बनाता है।]

ईश्वर (विवेक-वैराग्य) से विमुख होने के कारण मनुष्य बद्ध है !  

[मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । 

बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥ 

कामिनी-कांचन में आसक्त मन बन्धन का कारण है,

 और कामिनी -कांचन से विरक्त मन मोक्ष का कारण है |”

“मन से कामिनी-कांचन का जब त्याग हो जाता है तब ईश्वर की ओर मन जाता है, तब मन उन्हीं में लिप्त भी रहता है । जो बद्ध हैं, उन्हीं में मुक्त होने की शक्ति भी है । ईश्वर से विमुख होने के कारण ही वे बद्ध हैं । काँटे की दो सुइयों में कब अन्तर होता है ? यह तभी होता है जब एक पल्ला किसी भार से नीचे दबता है । कामिनी और कांचन ही भार है ।

[मन और ईश्वर का ऐक्य : जब मन (नीचे का काँटा)`कामिनी-कांचन ' की आसक्ति रूपी (भार) से मुक्त हो जाता है, तब मन स्वतः ऊपर वाले काँटे ईश्वर की ओर जाने लगता है; और उन्हीं में (विवेकदर्शन) तल्लीन भी रहता है। जो बद्ध है, वही मुक्त हो जाता है। जिस क्षण मन (नीचे वाला काँटा) ईश्वर से (ऊपर वाले काँटे से) विमुख होता है, वह (कामिनी -कांचन की आसक्ति  में) बद्ध हो जाता है। तराजू का निचला काँटा ऊपरी काँटे से थोड़ा भी क्यों सरकता है ? ऐसा तभी होता है जब एक पलड़ा किसी भार से नीचे झुकता है। कामिनी और कांचन ही भार है।

[“মন থেকে কামিনী-কাঞ্চনত্যাগ হলে ঈশ্বরে মন যায়, মন গিয়ে লিপ্ত হয়। যিনি বদ্ধ, তিনিই মুক্ত হতে পারেন। ঈশ্বর থেকে বিমুখ হলেই বদ্ধ — নিকতির নিচের কাঁটা উপরের কাঁটা থেকে তফাত হয় কখন, যখন নিকতির বাটিতে কামিনী-কাঞ্চনের ভার পড়ে।

"When the mind is freed from 'woman and gold', it can be directed to God and become absorbed in Him. It is the bound alone who can be freed. The moment the mind turns away from God, it is bound. When does the lower needle of a pair of scales move away from the upper one? When one pan is pressed down by a weight. 'Woman and gold' is the weight.

"बच्चा पैदा होते ही क्यों रोता है ? 'मैं गर्भ में था तब योग में था ।' भूमिष्ठ होकर यही कहकर रोता है - 'कहाँ यह - कहाँ यह - यह मैं कहाँ आया, ईश्वर के पादपद्मों की चिन्ता कर रहा था, यह मैं कहाँ आया !

[“ছেলে ভূমিষ্ঠ হয়ে কেন কাঁদে? `গর্ভে ছিলাম, যোগে ছিলাম’। ভূমিষ্ঠ হয়ে এই বলে কাঁদে — কাঁহা এ, কাঁহা এ; এ কোথায় এলুম, ঈশ্বরের পাদপদ্ম চিন্তা করছিলাম, এ আবার কোথায় এলাম।

"Why does a child cry on coming out of its mother's womb? With its cry it says, as it were: 'Just see where I am now! In my mother's womb I was meditating on the Lotus Feet of God; but see where I am now!'

"तुम लोग मन से त्याग करो, अनासक्त होकर संसार में रहो ।"

[“তোমাদের পক্ষে মনে ত্যাগ — সংসার অনাসক্ত হয়ে কর।”

(To Mahima) "You should renounce mentally. Live the life of a householder in a spirit of detachment."

[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]

🔆🙏क्या संसार का त्याग करना आवश्यक है-मैं जहाँ रहता हूँ, वह राम की अयोध्या है🔆🙏

[সংসার ত্যাগ কি দরকার?]

[Is it necessary to leave home? ]

महिमा - उन पर मन जाय तो क्या फिर संसार रह सकता है ?

[মহিমা — তাঁর উপর মন গেলে আর কি সংসার থাকে?

MAHIMA: "Can a man live in the world if his mind is once directed to God?"

श्रीरामकृष्ण - यह क्या ? संसार में नहीं रहोगे तो जाओगे कहाँ ? मैं देखता हूँ, मैं जहाँ रहता हूँ, वह राम की अयोध्या है । यह संसार राम की अयोध्या है । श्रीरामचन्द्रजी ने ज्ञान प्राप्त करके गुरु से कहा, मैं संसार का त्याग करूँगा । दशरथ ने उन्हें समझाने के लिए वशिष्ठ को भेजा ।

वशिष्ठ ने देखा, राम को तीव्र वैराग्य है । तब कहा, 'राम ! पहले मेरे साथ कुछ विचार कर लो, फिर संसार छोड़ना । अच्छा, प्रश्न यह है, क्या संसार ईश्वर से कोई अलग चीज है ? अगर ऐसा हो तो तुम इसका त्याग कर सकते हो ।’ राम ने देखा, ईश्वर ही जीव और जगत् सब कुछ हुए हैं । उनकी सत्ता के कारण सब कुछ सत्य जान पड़ता है । तब श्रीरामचन्द्रजी चुप हो रहे ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সে কি? সংসারে থাকবে না তো কোথায় যাবে? আমি দেখছি যেখানে থাকি, রামের অযোধ্যায় আছি। এই জগৎসংসার রামের অযোধ্যা। রামচন্দ্র গুরুর কাছে জ্ঞানলাভ করবার পর বললেন, আমি সংসারত্যাগ করব। দশরথ তাঁকে বুঝাবার জন্য বশিষ্ঠকে পাঠালেন। বশিষ্ঠ দেখলেন, রামের তীব্র বৈরাগ্য। তখন বললেন, “রাম, আগে আমার সঙ্গে বিচার কর, তারপর সংসারত্যাগ করো। আচ্ছা, জিজ্ঞাসা করি, সংসার কি ঈশ্বর ছাড়া? তা যদি হয় তুমি ত্যাগ কর।” রাম দেখলেন, ঈশ্বরই জীবজগৎ সব হয়েছেন। তাঁর সত্তাতে সমস্ত সত্য বলে বোধ হচ্ছে। তখন রামচন্দ্র চুপ করে রইলেন।

[MASTER: "Why not? Where will he go away from the world? I realize that wherever I live I am always in the Ayodhya of Rama. This whole world is Rama's Ayodhya. After receiving instruction from His teacher, Rama said that He would renounce the world. Dasaratha sent the sage Vasishtha to Rama to dissuade Him. Vasishtha found Him filled with intense renunciation. He said to Rama: 'First of all, reason with me, Rama; then You may leave the world. May I ask You if this world is outside God? If that is so, then You may give it up.' Rama found that it is God alone who has become the universe and all its living beings. Everything in the world appears real on account of God's reality behind it. Thereupon Rama became silent.

“संसार में काम और क्रोध, इन सब के साथ लड़ाई करनी पड़ती है, कितनी ही वासनाओं से संग्राम करना पड़ता है, आसक्तियों से भिड़ना पड़ता है । लड़ाई किले में रहकर की जाय तो सुवधाएँ हैं । घर से लड़ना ही अच्छा है । भोजन मिलता है – धर्मपत्नी भी बहुत कुछ सहायता करती है । कलिकाल में प्राण अन्नगत है – अन्न के लिए दस जगहों में मारे-मारे फिरने (संन्यासी को भिक्षाटन करना पड़ता है) की अपेक्षा एक जगह रहना ही अच्छा है । घर में, किले के भीतर रहकर लड़ना अच्छा है ।

[“সংসারে কাম, ক্রোধ এই সবের সঙ্গে যুদ্ধ করতে হয়, নানা বাসনার সঙ্গে যুদ্ধ করতে হয়, আসক্তির সঙ্গে যুদ্ধ করতে হয়। যুদ্ধ কেল্লা থেকে হলেই সুবিধা। গৃহ থেকে যুদ্ধই ভাল; — খাওয়া মেলে, ধর্মপত্নী অনেকরকম সাহায্য করে। কলিতে অন্নগত প্রাণ — অন্নের জন্য সাত জায়গায় ঘুরার চেয়ে এক জায়গাই ভাল। গৃহে, কেল্লার ভিতর থেকে যেন যুদ্ধ করা।

"In the world a man must fight against passions like lust and anger, against many desires, against attachment. It is convenient to fight from inside a fort — from his own home. At home he gets his food and other help from his wife. In the Kaliyuga the life of a man depends entirely on food. It is better to get food at one place than to knock at seven doors for it.2 Living at home is like facing the battle from a fort.

"और संसार में आंधी में उड़ती हुई जूठी पत्तल की तरह रहो । जूठी पत्तल को आँधी कभी घर के भीतर ले जाती है, कभी नाबदान (कूड़ेदान या dustbin) में । हवा का रुख जिस ओर होता है, पत्तल भी उसी ओर उड़ती है । कभी अच्छी जगह पर गिरती है और कभी बुरी जगह पर । तुम्हें इस समय उन्होंने संसार में डाल रखा है । अच्छा है, इस समय यहीं रहो । फिर जब यहाँ से उठाकर अच्छी जगह ले जायेंगे, तब देखा जायेगा, जो होगा सो होता रहेगा ।

[“আর সংসারে থাকো ঝড়ের এঁটো পাত হয়ে। ঝড়ের এঁটো পাতাকে কখনও ঘরের ভিতরে লয়ে যায়, কখনও আঁস্তাকুড়ে। হাওয়া যেদিকে যায়, পাতাও সেইদিকে যায়। কখনও ভাল জায়গায়, কখনও মন্দ জায়গায়! তোমাকে এখন সংসারে ফেলেছেন, ভাল, এখন সেই স্থানেই থাকো — আবার যখন সেখান থেকে তুলে ওর চেয়ে ভাল জায়গায় লয়ে ফেলবেন, তখন যা হয় হবে।”

"Live in the world like a cast-off leaf in a gale. Such a leaf is sometimes blown inside a house and sometimes to a rubbish heap. The leaf goes wherever the wind blows — sometimes to a good place and sometimes to a bad. Now God has put you in the world. That is good. Stay here. Again, when He lifts you from here and puts you in a better place, that will be time enough to think about what to do then.

[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]

🔆🙏संसार (प्रवृत्ति) करना, संन्यास (निवृत्ति), यह सब राम की इच्छा से होता है🔆🙏

[जिसे ज्ञान की प्राप्ति हो गयी है, जो चौथा नेता -दीवाल के उस पार के अनन्त मैदान को देखकर भी इस पार लौट आता है, ब्रह्मज्ञान के बाद भी उसका शरीर रहा, लोकशिक्षा के लिए - जैसे अवतार/नेता आदि का; उसके लिए यहाँ-वहाँ नहीं है! जीवनमुक्त गृहस्थ के लिये बद्री-केदार के उस पार जो है, वही इस पार भी है। ज्ञान (ब्रह्मज्ञान) होने पर वे दोनों `ब्रह्म और शक्ति' एक ही जान पड़ते हैं । ‘एकमेवाद्वितीयम् ।’] 

"संसार में रखा है, तो क्या करोगे ? सब कुछ उन्हें अर्पित कर दो - उन्हें आत्मसमर्पण कर दो तो फिर कोई झंझट नहीं रह जायेगी । तब देखोगे, वे ही सब कुछ कर रहे हैं ।सभी 'राम की इच्छा’ है ।"

[“সংসারে রেখেছেন তা কি করবে? সমস্ত তাঁকে সমর্পণ করো — তাঁকে আত্মসমর্পণ করো। তাহলে আর কোন গোল থাকবে না। তখন দেখবে, তিনিই সব করছেন। সবই রামের ইচ্ছা।”

"God has put you in the world. What can you do about it? Resign everything to Him. Surrender yourself at His feet. Then there will be no more confusion. Then you will realize that it is God who does everything. All depends on 'the will of Rama'."

एक भक्त - `राम की इच्छा' वाली कथा क्या  है ?

 [Total cost =(price + labor + profit]

[একজন ভক্ত — ‘রামের ইচ্ছা’ গল্পটি কি?

A DEVOTEE: "What is that story about 'the will of Rama'?"

श्रीरामकृष्ण - किसी गाँव में एक जुलाहा रहता था । वह बड़ा धर्मात्मा था । सब को उस पर विश्वास था और सब लोग उसे प्यार भी करते थे । जुलाहा बाजार में कपड़े बेचा करता था । जब खरीददार दाम पूछते तो वह कहता, 'राम की इच्छा से सूत का दाम हुआ एक रुपया, मेहनत चार आने की, राम की इच्छा से मुनाफा दो आने, और कुल कीमत (=दाम +मेहनत +मुनाफा) राम की इच्छा से एक रुपया छः आने ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কোন এক গ্রামে একটি তাঁতী থাকে। বড় ধার্মিক, সকলেই তাকে বিশ্বাস করে আর ভালবাসে। তাঁতী হাটে গিয়ে কাপড় বিক্রি করে। খরিদ্দার দাম জিজ্ঞাসা করলে বলে, রামের ইচ্ছা, সুতার দাম একটাকা, রামের ইচ্ছা মেহন্নতের দাম চারি আনা, রামের ইচ্ছা, মুনাফা দুই আনা। কাপড়ের দাম রামের ইচ্ছা একটাকা ছয় আনা।

MASTER: "In a certain village there lived a weaver. He was a very pious soul. Everyone trusted him and loved him. He used to sell his goods in the market-place. When a customer asked him the price of a piece of cloth, the weaver would say: 'By the will of Rama the price of the yarn is one rupee and the labour four annas; by the will of Rama the profit is two annas. The price of the cloth, by the will of Rama, is one rupee and six annas.' 

लोगों का उस पर इतना विश्वास था कि उसी समय वे दाम देकर कपड़ा ले लेते थे । वह जुलाहा बड़ा भक्त था, रात को भोजन करके बड़ी देर तक चण्डी-मण्डप में बैठा ईश्वर-चिन्तन किया करता था । उनके नाम और गुणों का कीर्तन भी वहीं करता था । एक दिन बड़ी रात हो गयी, फिर भी उसकी आँख न लगी, वह बैठा हुआ था, कभी कभी तम्बाकू पीता था । उसी समय उस रास्ते से डाकुओं का एक दल डाका डालने के लिए जा रहा था ।

[ লোকের এত বিশ্বাস যে তৎক্ষণাৎ দাম ফেলে দিয়ে কাপড় নিত। লোকটি ভারী ভক্ত, রাত্রিতে খাওয়াদাওয়ার পরে অনেকক্ষণ চণ্ডীমণ্ডপে বসে ঈশ্বরচিন্তা করে, তাঁর নামগুণকীর্তন করে। একদিন অনেক রাত হয়েছে, লোকটির ঘুম হচ্ছে না, বসে আছে, এক-একবার তামাক খাচ্ছে; এমন সময় সেই পথ দিয়ে একদল ডাকাত ডাকাতি করতে যাচ্ছে

Such was the people's faith in the weaver that the customer would at once pay the price and take the cloth. The weaver was a real devotee of God. After finishing his supper in the evening, he would spend long hours in the worship hall meditating on God and chanting His name and glories. Now, late one night the weaver couldn't get to sleep. He was sitting in the worship hall, smoking now and then, when a band of robbers happened to pass that way.

 "उनमें कुलियों की कमी थी । उसे देखकर उन्होंने कहा, अबे, हमारे साथ चल । यह कहकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे ले चले । फिर एक गृहस्थ के यहाँ उन लोगों ने डाका डाला । कुछ चीजें जुलाहे पर लाद दीं, इतने में ही पुलिस आ गयी ! डाकू भाग गये, सिर्फ जुलाहा सिर पर गट्ठर लिये हुए पकड़ा गया ।

[ তাদের মুটের অভাব হওয়াতে ওই তাঁতীকে এসে বললে, আয় আমাদের সঙ্গে — এই বলে হাত ধরে টেনে নিয়ে চলল। তারপর একজন গৃহস্থের বাড়ি গিয়ে ডাকাতি করলে। কতকগুলো জিনিস তাঁতীর মাথায় দিলে। এমন সময় পুলিশ এসে পড়ল।  ডাকাতেরা পালাল, কেবল তাঁতীটি মাথায় মোট ধরা পড়ল।

 They wanted a man to carry their goods and said to the weaver, 'Come with us.' So saying, they led him off by the hand. After committing a robbery in a house, they put a load of things on the weaver's head, commanding him to carry them. Suddenly the police arrived and the robbers ran away. But the weaver, with his load, was arrested. 

 उस रात को उसे हवालात में रखा । दूसरे दिन मैजिस्ट्रेट साहब के कोर्ट में वह पेश किया गया । गाँव के आदमी मामला सुनकर कोर्ट में हाजिर हुए । उन सब लोगों ने कहा, हुजूर ! यह आदमी कभी डाका नहीं डाल सकता । साहब ने तब जुलाहे से पूछा, 'क्यों जी, तुम्हें क्या हुआ है ? कहो।'

[ সে রাত্রি তাকে হাজতে রাখা হল। পরদিন ম্যাজিস্টার সাহেবের কাছে বিচার। গ্রামের লোক জানতে পেরে সব এসে উপস্থিত। তারা সকলে বললে, ‘হুজুর! এ-লোক কখনও ডাকাতি করতে পারে না’। সাহেব তখন তাঁতীকে জিজ্ঞাসা করলে, ‘কি গো, তোমার কি হয়েছে বল’।

He was kept in the lock-up for the night. Next day he was brought before the magistrate for trial. The villagers learnt what had happened and came to court. They said to the magistrate, 'Your Honour, this man could never commit a robbery.' Thereupon the magistrate asked the weaver to make his statement.

"जुलाहे ने कहा, 'हुजूर ! राम की इच्छा से मैंने रात को रोटी खायी । इसके बाद राम की इच्छा से मैं चण्डी-मण्डप में बैठा हुआ था, राम की इच्छा से रात बहुत हो गयी । मैं राम की इच्छा से उनकी चिन्ता कर रहा था और उनके भजन गा रहा था । उसी समय राम की इच्छा से डाकुओं का एक दल उस रास्ते से आ निकला ।

[ তাঁতী বললে, ‘হুজুর! রামের ইচ্ছা, আমি রাত্রিতে ভাত খেলুম। তারপরে রামের ইচ্ছা, আমি চণ্ডীমণ্ডপে বসে আছি, রামের ইচ্ছা অনেক রাত হল। আমি, রামের ইচ্ছা, তাঁর চিন্তা করছিলাম আর তাঁর নাম গুনগাণ করছিলাম। এমন সময়ে রামের ইচ্ছা, একদল ডাকাত সেই পথ দিয়ে যাচ্ছিল।

"The weaver said: 'Your Honour, by the will of Rama I finished my meal at night. Then by the will of Rama I was sitting in the worship hall. It was quite late at night by the will of Rama. By the will of Rama I had been thinking of God and chanting His name and glories, when by the will of Rama a band of robbers passed that way.

राम की इच्छा वे लोग मुझे पकड़कर घसीट ले गये । राम की इच्छा से उन लोगों ने एक गृहस्थ के घर डाका डाला । राम की इच्छा से मेरे सिर पर गट्ठर लाद दिया । इतने में ही राम की इच्छा से पुलिस आ गयी । राम की इच्छा से मैं पकड़ा गया, तब मुझे राम की इच्छा से हवालात में पुलिस ने बन्द कर रखा । आज सुबह को राम की इच्छा से वह हुजूर के पास ले आयी है ।'

[ রামের ইচ্ছা তারা আমায় ধরে টেনে লয়ে গেল। রামের ইচ্ছা, তারা এক গৃহস্থের বাড়ি ডাকাতি করলে। রামের ইচ্ছা, আমার মাথায় মোট দিল। এমন সময় রামের ইচ্ছা, পুলিস এসে পড়ল। রামের ইচ্ছা, আমি ধরা পড়লুম। তখন রামের ইচ্ছা, পুলিসের লোকেরা হাজতে দিল। আজ সকালে রামের ইচ্ছা, হুজুরের কাছে এনেছে’।

 By the will of Rama they dragged me with them; by the will of Rama they committed a robbery in a house; and by the will of Rama they put a load on my head. Just then, by the will of Rama the police arrived, and by the will of Rama I was arrested. Then by the will of Rama the police kept me in the lock-up for the night, and this morning by the will of Rama I have been brought before Your Honour.' 

"उसे धर्मात्मा देखकर साहब ने जुलाहे को छोड़ देने की आज्ञा दी । जुलाहे ने रास्ते में अपने मित्रों से कहा, 'राम की इच्छा से मैं छोड़ दिया गया ।’ 

[“অমন ধার্মিক লোক দেখে, সাহেব তাঁতীটিকে ছেড়ে দিবার হুকুম দিলেন। তাঁতী রাস্তায় বন্ধুদের বললে, রামের ইচ্ছা, আমাকে ছেড়ে দিয়েছে।

The magistrate realized that the weaver was a pious man and ordered his release. On his way home the weaver said to his friends, 'By the will of Rama I have been released.'

` संसार (प्रवृत्ति) करना, संन्यास (निवृत्ति), यह भी सब राम की इच्छा से होता है, इसीलिए उन पर सब भार छोड़कर संसार का काम करना चाहिए । " इसके अतिरिक्त तुम और कर भी क्या सकते हो ?

[সংসার করা, সন্ন্যাস করা, সবই রামের ইচ্ছা। তাই তাঁর উপর সব ফেলে দিয়ে সংসারে কাজ কর। “তা না হলে আর কিই বা করবে?

"Whether a man should be a householder or a monk depends on the will of Rama. Surrender everything to God and do your duties in the world. What else can you do?

"किसी क्लर्क को जेल हो गयी थी । मियाद पूरी हो जाने पर वह जेल से निकाल दिया गया । अब बताओ, वह जेल से निकलकर मारे आनन्द के नाचता रहे या फिर क्लर्की करे ?

[“একজন কেরানি জেলে গিছিল। জেল খাটা শেষ হলে, সে জেল থেকে বেরিয়ে এল। এখন জেল থেকে এসে, সে কি কেবল ধেই ধেই করে নাচবে? না, কেরানিগিরিই করবে?

A clerk was once sent to prison. After the prison term was over he was released. Now, what do you think he did? Cut capers or do his old clerical work?

“संसारी अगर जीवन्मुक्त हो जाय तो वह अनायास ही संसार में रह सकता है; जिसे ज्ञान की प्राप्ति हो गयी है, उसके लिए यहाँ-वहाँ नहीं है, उसके लिए सब बराबर है । जिसके मन में वहाँ है, उसके मन में यहाँ भी है ।

[“সংসারী যদি জীবন্মুক্ত হয়, সে মনে করলে অনায়াসে সংসারে থাকতে পারে। জার জ্ঞানলাভ হয়েছে, তার এখান সেখান নাই। তার সব সমান। যার সেখানে আছে, তার এখানেও আছে।"

If the householder becomes a jivanmukta, then he can easily live in the world if he likes. A man who has attained Knowledge does not differentiate between 'this place' and 'that place'. All places are the same to him. He who thinks of 'that place' also thinks of 'this place'.

[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]

🔆🙏 पारिवारिक जीवन में -जीवनमुक्त (ब्रह्मज्ञानी) कैसे रहता है 🔆🙏 

"जब मैंने पहले-पहल बगीचे में केशव सेन को देखा, तब कहा, इसकी पूँछ गिर गयी है ! सभा भर के आदमी हँस पड़े । केशव ने कहा, 'तुम लोग हँसो मत; इसका कोई अर्थ है, इनसे पूछता हूँ । मैंने कहा ‘जब तक मेंढ़क के बच्चे (tadpole-बेंगची)  की पूँछ नहीं गिर जाती, तब तक उसे पानी में ही रहना पड़ता है; वह किनारे से चढ़कर सूखी जमीन में विचर नहीं सकता; ज्योंही उसकी पूँछ गिर जाती है त्योंही वह फिर उछल-कूदकर जमीन पर आ जाता है। तब वह पानी में भी रह सकता है और जमीन पर भी ।

[“যখন কেশব সেনকে বাগানে প্রথম দেখলুম, বলেছিলাম — ‘এরই ল্যাজ খসেছে’। সভাসুদ্ধ লোক হেসে উঠল। কেশব বললে, তোমারা হেসো না, এর কিছু মানে আছে, এঁকে জিজ্ঞাসা করি। আমি বললাম, যতদিন বেঙাচির ল্যাজ না খসে, তার কেবল জলে থাকতে হয়, আড়ায় উঠে ডাঙায় বেড়াতে পারে না; যেই ল্যাজ খসে, আমনি লাফ দিয়ে ডাঙায় পড়ে। তখন জলেও থাকে, আবার ডাঙায়ও থাকে।

"When I first met Keshab at Jaygopal's garden house (garden house of Jaygopal Sen at Belgharia)I remarked, 'He is the only one who has dropped his tail.' At this people laughed. Keshab said to them: 'Don't laugh. There must be some meaning in his words. Let us ask him.' Thereupon I said to Keshab: 'The tadpole, so long as it has not dropped its tail, lives only in the water. It cannot move about on dry land. But as soon as it drops its tail it hops out on the bank; then it can live both on land and in water. 

उसी तरह आदमी की जब तक अविद्या की पूँछ नहीं गिर जाती, तब तक वह संसार रूपी जल में ही पड़ा रहता है । अविद्यारूपी पूँछ के गिर जाने पर - ज्ञान होने पर ही मुक्त भाव से मनुष्य विचरण कर सकता है और इच्छा होने पर संसार में भी रह सकता है ।’

 [তেমনি মানুষের যতদিন অবিদ্যার ল্যাজ না খসে, ততদিন সংসার-জলে পড়ে থাকে। অবিদ্যার ল্যাজ খসলে — জ্ঞান হলে, তবে মুক্ত হয়ে বেড়াতে পারে, আবার ইচ্ছা হলে সংসারে থাকতে পারে।”

Likewise, as long as a man has not dropped his tail of ignorance, he can live only in the water of the world. But when he drops his tail, that is to say, when he attains the Knowledge of God, then he can roam about as a free soul, or live as a householder if he likes.'"

(५) 

 [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]

🔆🙏सृष्टि से लेकर अभी-तक की समस्त समस्याओं का उत्तर देंगे श्रीरामकृष्ण 🔆🙏

[Sri Ramakrishna will answer all the problems from creation till now.] 

श्रीयुत महिमाचरण आदि भक्तगण बैठे हुए श्रीरामकृष्ण के मधुर वचनामृत का पान कर रहे हैं । बातें क्या हैं, अनेक वर्णों के रत्न हैं । जिससे जितना हो सकता है, वह उतना ही संग्रह कर रहा है। अंचल भर गया है, इतना भारी हो रहा है कि उठाया नहीं जाता । छोटे छोटे आधारों से और अधिक धारणा नहीं होती ।

[শ্রীযুক্ত মহিমাচরণাদি ভক্তেরা বসিয়া শ্রীরামকৃষ্ণের হরিকথামৃত পান করিতেছেন। কথাগুলি যেন বিবিধ বর্ণের মণিরত্ন, যে যত পারেন কুড়াইতেছেন — কিন্তু কোঁচড় পরিপূর্ণ হয়েছে, এত ভার বোধ হচ্ছে যে উঠা যায় না। ক্ষুদ্র ক্ষুদ্র আধার, আর ধারণা হয় না। 

Mahimacharan and the other devotees remained spellbound, listening to the Master's words.

सृष्टि से लेकर आज तक मनुष्यों के हृदय में जितनी समस्याओं का उद्भव हुआ है, सब की पूर्ति हो रही है पद्मलोचन *, नारायण शास्त्री, गौरी पण्डित *, दयानन्द सरस्वती आदि शास्त्रवेत्ता पण्डितों को आश्चर्य हो रहा है ।

[সৃষ্টি হইতে এ পর্যন্ত যত বিষয়ে মানুষের হৃদয়ে যতরকম সমস্যা উদয় হয়েছে, সব সমস্যা পূরণ হইতেছে। পদ্মলোচন, নারায়ণ শাস্ত্রী, গৌরী পণ্ডিত, দয়ানন্দ সরস্বতী ইত্যাদি শাস্ত্রবিৎ পণ্ডিতেরা অবাক্‌ হয়েছেন। 

दयानन्दजी ने जब श्रीरामकृष्ण और उनकी समाधि अवस्था को देखा था, तब उन्होंने उसे लक्ष्य करते हुए कहा था, "हम लोगों ने इतना वेद और वेदान्त पढ़ा, परन्तु उसका फल इस महापुरुष में ही नजर आया । इन्हें देखकर प्रमाण मिला कि सब पण्डितगण शास्त्रों का मन्थन कर केवल उसका मट्ठा पीते हैं; मक्खन तो ऐसे ही महापुरुष खाया करते हैं ।"

[দয়ানন্দ ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণকে যখন দর্শন করেন ও তাঁহার সমাধি অবস্থা দেখিলেন, তখন আক্ষেপ করে বলেছিলেন, আমরা এত বেদ-বেদান্ত কেবল পড়েছি, কিন্তু এই মহাপুরুষে তাহার ফল দেখিতেছি; এঁকে দেখে প্রমাণ হল যে পণ্ডিতেরা কেবল শাস্ত্র মন্থন করে ঘোলটা খান, এরূপ মহাপুরুষেরা মাখনটা সমস্ত খান। 

[पद्मलोचन ** (पंडित पद्मलोचन तर्कालंकार) - वेदांत, न्यायशास्त्र में पारंगत थे ( लेकिन यहाँ इसका अर्थ jurisprudence से नहीं, उस प्रणाली का नाम है जिसमें वस्तुतत्व का निर्णय करने के लिए सभी प्रमाणों का उपयोग किया जाता है।  गौतम ऋषि के न्यायसूत्र अबतक प्रसिद्ध हैं। इन सूत्रों पर वात्स्यायन मुनि का भाष्य है। इसके अतिरिक्त वे सांख्य आदि दर्शन में भी पारंगत थे ।)  और श्री श्री ठाकुर के परम प्रशंसक थे । वे बर्दवान महाराज के सभा-पण्डित थे। पद्मलोचन की विद्वतापूर्ण प्रसिद्धि और ईश्वर की भक्ति के बारे में सुनकर, ठाकुर ने उन्हें देखने के लिए रुचि व्यक्त की थी । उस समय पंडित पद्मलोचन खराब स्वास्थ्य से उबरने के लिए अड़ियादह (Ariadah) के एक बगीचे (Garden house) में रह रहे थे। वे दोनों परस्पर मिलकर खुश हुए थे । ठाकुर के चेहरे पर उनके भावों की अभिव्यक्ति को देखकर और देवी माँ के गीतों को सुनकर वे अभिभूत हो गए थे । ठाकुर देव ने जब पद्मलोचन को देखकर ही उनकी सिद्धाई को समझ लिया तब, तब उन्होंने श्री श्रीठाकुर को अपना साक्षात् इष्टदेव मानकर उनकी स्तुति की थी। उन्होंने काशी में शरीर त्याग किया था। 

गौरी पंडित ***(गौरीकांत भट्टाचार्य) - वे बाँकुड़ा जिले के इंदास गांव के निवासी थे। वे 'वीरभाव' के तांत्रिक साधक थे, और उनके पास कुछ सिद्धाई भी थी। वे ठाकुर से पहली बार 1865 ई. में दक्षिणेश्वर में मिले थे। धर्मग्रंथों के आधार पर श्री श्री ठाकुर की आध्यात्मिक अवस्था का निर्धारण करने के लिए मथुरबाबू ने  दक्षिणेश्वर में पण्डितों की एक सभा बुलाई थी। इस अवसर पर (1870 में) गौरी पण्डित ने श्री श्री ठाकुर को अवतारों का स्रोत (भगवान का बाप-श्रीविष्णु) घोषित किया था । श्री श्री ठाकुर की सानिध्य में रहते हुए, दिन-ब-दिन क्रमशः उनका मन पाण्डित्य का अहंकार, लोकमन्यता का अहं, सिद्धाई आदि सभी वस्तुओं से घृणा करने लगा और भगवान के पादपद्मों भक्ति की ओर बढ़ने लगा। गौरी पण्डित दिन-ब-दिन ठाकुर के प्रेम से सम्मोहित होकर उनके परम प्रशंसक बन गए थे। ठाकुर के दिव्य सानिध्य में रहने से क्रमशः उन्हें तीव्र वैराग्य प्राप्त हो गया। एक बार उन्होंने श्री श्री ठाकुर को सजल नेत्रों से देखते हुए विदायी लिया और सदा के लिए गृह- त्याग कर दिया। इसके बाद काफी तलाश करने के बाद भी गौरी पंडित की कोई खोजखबर न मिल सकी।  

महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती, (1824-1883) *** आधुनिक भारत के महान चिन्तक, समाज-सुधारक, तथा आर्य समाज के संस्थापक थे। उनके बचपन का नाम 'मूलशंकर' था।वेद-उपनिषद उन्हें कण्ठस्थ थे ; संस्कृत भाषा का उन्हें अगाध ज्ञान था। संस्कृत में वे धाराप्रवाह बोलते थे। साथ ही वे प्रचण्ड तार्किक थे। दयानन्द का मानना था कि मूर्तिपूजा वेद-विरोधी कार्य है, तथा मूल हिन्दू धर्म (सनातन धर्म) वेद पर आधारित है। उन्होंने ब्राह्मण , ईसाई और मुस्लिम धर्मग्रन्थों का भली-भांति अध्ययन-मन्थन किया था। 16 नवंबर 1869 को काशी नरेश तथा हजारों-हजारों लोगों की उपस्थिति में  काशी के पण्डितों के साथ इनका शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें जीतने के बाद उनकी ख्याति हर जगह फैल गई। सन् 1872 ई. में दयानन्द जी कलकत्ता पधारे। वहां देवेन्द्रनाथ ठाकुर और केशवचन्द्र सेन ने उनका बड़ा सत्कार किया। ब्राह्म समाजियों से उनका विचार-विमर्श भी हुआ किन्तु ईसाइयत से प्रभावित ब्राह्म समाजी विद्वान पुनर्जन्म और वेद की प्रामाणिकता के विषय में स्वामी से एकमत नहीं हो सके। श्रीरामकृष्ण देव भी अपने भक्त कैप्टन बिश्वनाथ उपाध्याय के साथ उत्तर कोलकाता के सिंथी में देवेन्द्रनाथ टैगोर परिवार के नैनोर (सिंथी) वाले मनोरंजन उद्यान महर्षि दयानन्द से मिलने गए थे।  स्वामी दयानंद ने नए स्वर्णिम समाज की स्थापना के उद्देश्य से 10 अप्रैल, सन 1875 (चौत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत 1932) को गिरगांव मुम्बई शहर में प्रथम ‘आर्य समाज’ नामक सुधार आन्दोलन की स्थापना की। अपनी मृत्यु से पहले, उन्होंने पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजपूताना और बॉम्बे में लगभग 100 आर्य समाज आश्रम स्थापित किए थे । उन्होंने वर्णाश्रम धर्म का पालन नहीं किया था । वे हमेशा स्त्री और पुरुषों के समान अधिकार के पक्षधर रहे, और महिलाओं की शिक्षा की आवश्यकता को स्वीकार किया था । उनकी प्रसिद्ध पुस्तक का नाम 'सत्यार्थ प्रकाश' है ।] 

उधर अंग्रेजी के उपासक केशवचन्द्र सेन जैसे पण्डितों को भी आश्चर्य हुआ है । वे सोचते हैं, “कितने आश्चर्य की बात है, एक निरक्षर मनुष्य ये सब बातें कैसे कह रहा है ? यह तो बिलकुल मानो ईसा की बातें हैं, वही ग्रामीण भाषा, उसी तरह कहानियों में समझाना जिससे स्त्रीपुरुष, बच्चे, सब लोग आसानी से समझ सकें ।

[আবার ইংরেজী পড়া কেশবচন্দ্র সেনাদি পণ্ডিতেরাও ঠাকুরকে দেখে অবাক্‌ হয়েছেন। ভাবেন, কি আশ্চর্য, নিরক্ষর ব্যক্তি এ-সব কথা কিরূপে বলছেন। এযে ঠিক যীশুখ্রীষ্টের মতো কথা! গ্রাম্য ভাষা। সেই গল্প করে বুঝান — যাতে পুরুষ, স্ত্রী, ছেলে সকলে অনায়াসে বুঝিতে পারে।

ईसा पिता-पिता कहकर पागल हुए थे, ये 'माँ-माँ' कहकर पागल हुए हैं । केवल ज्ञान का भण्डार नहीं, ईश्वर-प्रेम की अविरल वर्षा हो रही है, फिर भी उसकी समाप्ति नहीं होती । ये भी ईसा की तरह त्यागी हैं, उन्हीं के जैसा अटल विश्वास इनमें भी मिल रहा है, इसलिए तो इनकी बातों में इतना बल है ।

[ যীশু ফাদার (পিতা) ফাদার (পিতা) করে পাগল হয়েছিলেন, ইনি মা মা করে পাগল। শুধু জ্ঞানের অক্ষয় ভাণ্ডার নহে, — ঈশ্বরপ্রেম ‘কলসে কলসে ঢালে তবু না ফুরায়’। ইনিও যীশুর মতো ত্যাগী, তাঁহারই মতো ইঁহারও জ্বলন্ত বিশ্বাস। তাই কথাগুলির এত জোর। 

संसारी आदमियों के कहने पर इतना बल नहीं आ सकता, क्योंकि वे त्यागी नहीं हैं, उनमें वह प्रगाढ़ विश्वास कहाँ ?" केशव सेन जैसे पण्डित भी यह सोचते हैं कि इस निरक्षर आदमी में इतना उदार भाव कैसे आया ? कितने आश्चर्य की बात है, इनमें किसी तरह का द्वेष-भाव नहीं । ये सब धर्मों के मनुष्यों का आदर करते हैं - इसी से वैमनस्य नहीं होता। 

[সংসারী লোক বললে তো এত জোর হয় না; তারা ত্যাগী নয়, তাদের জ্বলন্ত বিশ্বাস কই? কেশব সেনাদি পণ্ডিতেরা আরও ভাবেন, — এই নিরক্ষর লোকের এত উদারভাব কেমন করে হল! কি আশ্চর্য! কোনরূপ বিদ্বেষভাব নাই! সব ধর্মাবলম্বীদের আদর করেন — কাহারও সহিত ঝগড়া নাই।

आज महिमाचरण के साथ श्रीरामकृष्ण की बातचीत सुनकर कोई कोई भक्त सोचते है - 'श्रीरामकृष्ण ने तो संसार का त्याग करने के लिए कहा नहीं, बल्कि कहते हैं, संसार किला है, किले में रहकर काम, क्रोध आदि के साथ लड़ाई करने में सुविधा होती है । फिर उन्होंने कहा, जेल से निकलकर क्लर्क अपना ही काम फिर करता है; इससे एक तरह यही बात कही गयी कि जीवन्मुक्त संसार में भी रह सकता है [गृही आदर्श- क्या केशव सेन हो सकते हैं ????? उनको तो ठाकुर ने एकबार कहा था, "तुम्हारी पूंछ गिर गई है - अन्य किसी का वैसा नहीं हुआ है।"   

[আজ মহিমাচরণের সহিত ঠাকুরের কথাবার্তা শুনিয়া কোন ভক্ত ভাবছেন, ঠাকুর তো সংসারত্যাগ করতে বললেন না — বরং বলছেন সংসার কেল্লাস্বরূপ, এই কেল্লায় থেকে কাম, ক্রোধ ইত্যাদির সহিত যুদ্ধ করিতে পারা যায়। আবার বলছেন, সংসারে থাকবে না তো কোথায় থাকবে? কেরানি জেল থেকে বেরিয়ে এসে কেরানির কাজই করে। অতএব একরকম বলা হল জীবন্মুক্ত সংসারেও থাকতে পারে। আদর্শ — কেশব সেন? তাঁকে বলেছিলেন, “তোমারই ল্যাজ খসেছে — আর কারুর হয় নাই।” 

परन्तु एक बात है, श्रीरामकृष्ण कहते हैं, कभी कभी एकान्त में (छः दिवसीय शिविर में ) रहना चाहिए । पौधे को घेरना चाहिए । जब वह बड़ा हो जायेगा, तब उसे घेरने की जरूरत न रह जायेगी, तब हाथी बाँध देने से भी वह उसका कुछ कर नहीं सकता । निर्जन में रहकर भक्तिलाभ या ज्ञानलाभ करने के पश्चात् संसार में रहने से भी फिर भय की कोई बात नहीं रह जाती । इसीलिए अपने भक्तों के निर्जनवास पर, उनका जोर अधिक रहता है। 

(इसीलिए तीन-तीन महीने पर SPTC के निर्जन में लीडरशिप क्लास पर नवनीदा का जोर अधिक रहता है।

[কিন্তু একটা কথা আছে, ঠাকুর কেবল বলছেন, মাঝে মাঝে নির্জনে থাকতে হবে। চারাগাছে বেড়া দিতে হবে — নচেৎ ছাগল-গরুতে খেয়ে ফেলবে। গাছের গুঁড়ি হয়ে গেলে চারিদিকের বেড়া ভেঙে দাও আর না দাও; এমন কি হাতি বেঁধে দিলেও গাছের কিছু হবে না। নির্জনে থেকে থেকে জ্ঞানলাভ করে — ঈশ্বরে ভক্তিলাভ করে সংসারে এসে থাকলে কিছু ভয় নাই। তাই নির্জনবাস কথাটি কেবল বলছেন।

भक्तगण इसी तरह की बातें मन-ही-मन सोंच रहे हैं । केशव के बारे में बातचीत करके श्रीरामकृष्ण और दो-एक संसारी भक्तों की बातें कह रहे हैं ।

[ভক্তেরা এরূপ চিন্তা করিতেছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ কেশবের কথার পর, আর দু-একটি সংসারী ভক্তের কথা বলিতেছেন।

[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]  

🔆🙏श्री देवेन्द्रनाथ टैगोर (रवीन्द्रनाथ टैगोर के पिता) का योग और भोग🔆🙏 

श्रीरामकृष्ण - (महिमाचरण से) - फिर 'सेजोबाबू'^* के साथ देवेन्द्रबाबू से मिलने गया था । सेजोबाबू से मैंने कहा, 'सुना है, देवेन्द्र ठाकुर (रवीन्द्रनाथ टैगोर के पिता) ईश्वर की चिन्ता करता है , उसे देखने की मेरी इच्छा होती है ।’

[सेजोबाबू ^* - रानी रासमणि के दामाद, श्री माथुरनाथ विश्वास - रानी रासमणि की तीसरी बेटी करुणामयी के पति, मथुरामोहन (मथुरामोहन विश्वास) उन्हें रानी के 'संझले दामाद' 'सेजोबाबू' के नाम से जाना जाता था। करुणामयी की मृत्यु के बाद, हालांकि रानी रासमणि की सबसे छोटी पुत्री श्रीमती जगदम्बा के साथ भी उनकी शादी हुई थी। वे श्री श्री ठाकुर देव के भक्त, शिष्य, सेवक और रसददार थे। (अर्थात श्री श्री ठाकुर देव की विद्यामाया से प्रेरित होकर,उनकी सांसारिक अवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले थे!) उन्होंने 18 बर्ष की दीर्घ अवधि तक श्री श्री ठाकुरदेव की सेवा की थी। ठाकुर के ऊपर उनका अटूट विश्वास और गहरी आस्था थी। ये मथुरबाबू ही थे जिन्होंने ठाकुर को (वेशकार के पद से पदोन्नति देकर) दक्षिणेश्वर की माँ-काली के पूजक पद पर नियुक्त किया था। कई प्रकार से ठाकुर की परीक्षा लेने और विवेक की कसौटी पर परखने के बाद वे इस तथ्य के प्रति पूर्णतया आश्वस्थ हुए थे कि ठाकुर कोई साधारण मनुष्य नहीं बल्कि एकअवतार हैं (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता हैं !एक बार दक्षिणेश्वर में उन्होंने श्री रामकृष्ण के शरीर में शिव और कालीमूर्ति को एक साथ साक्षात् देखा था । और अन्ततोगत्वा ,कामिनी-कांचन त्यागी संन्यासी, त्यागियों के बादशाह श्री रामकृष्ण देव के श्री चरणों में आत्म-समर्पण कर दिया था। उन्होंने ठाकुर को अपने जीवन सर्वस्व (मार्गदर्शक नेता)  के रूप में ग्रहण किया था और सभी मामलों में उनके ऊपर ही निर्भर रहते थे। दक्षिणेश्वर में ठाकुर के सभी प्रकार की साधना करके उनके मार्ग में आने वाली समस्त बाधाओं का अतिक्रमण कर सिद्धि- प्राप्ति के क्षेत्र में मथुरबाबू द्वारा की गयी महत्वपूर्ण सेवायें अनिवार्य थीं। सेजबाबू ने ठाकुर को विभिन्न तीर्थों का दर्शन करवाया था। ठाकुर की साधना के दौरान साधना में सभी प्रकार की सुविधा प्रदान करने की जिम्मेदारी उठाने के कारण ठाकुर उन्हें माँ जगदम्बा की लीला के प्रमुख रसददार समझते थे। श्री श्री ठाकुर और (माँ जगदम्बा की लीला के प्रमुख रसददार) मथुरबाबू के बीच जो अलौकिक सम्बन्ध था वह 'श्री रामकृष्ण लीला ' के समस्त अध्यायों में एक विशेष अध्याय था। 16 जुलाई 1871 ई. को उनका निधन हो गया था।]          

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মহিমাচরণাদির প্রতি) — আবার সেজোবাবুর১ সঙ্গে দেবেন্দ্র ঠাকুরকে দেখতে গিছলাম। সেজোবাবুকে বললুম, “আমি শুনেছি দেবেন্দ্র ঠাকুর ঈশ্বরচিন্তা করে, আমার তাকে দেখবার ইচ্ছা হয়।”

MASTER: "Once I visited Devendranath Tagore (The father of Rabindranath Tagore.) with Mathur Babu. I said to Mathur: 'I have heard that Devendra Tagore thinks of God (भगवान का स्मरण- मनन करता है ). I should like to see him.' 

सेजोबाबू ने कहा, 'अच्छा बाबा, मैं तुम्हे ले जाऊँगा, हम दोनों हिन्दू कालेज में एक साथ पढ़ते थे, मेरे साथ बड़ी घनिष्ठता है ।’ 

[সেজোবাবু বললে, “আচ্ছা বাবা, আমি তোমায় নিয়ে যাব, আমরা হিন্দু কলেজে একক্লাসে পড়তুম, আমার সঙ্গে বেশ ভাব আছে।” 

'All right,' said Mathur, 'I will take you to him. We were fellow students in the Hindu College and I am very friendly with him.' 

हमलोग देवेन्द्र के घर गए। सेजोबाबू से उनकी बहुत दिन बाद मुलाकात हुई थी। सेजोबाबू को देखकर देवेन्द्र ने कहा, 'तुम्हारा शरीर थोड़ा बदल गया है, तुम्हारे तोंद कुछ निकल आयी है ।’

[সেজোবাবুর সঙ্গে অনেকদিন পরে দেখা হল। দেখে দেবেন্দ্র বললে, তোমার একটু বদলেছে — তোমার ভুঁড়ি হয়েছে। 

We went to Devendra's house. Mathur and Devendra had not seen each other for a long time. Devendra said to Mathur: 'You have changed a little. You have grown fat around the stomach.'

सेजोबाबू ने मेरी बात कही । उन्होंने कहा, 'ये तुम्हें देखने के लिए आये हैं, ये ईश्वर के लिए पागल हो रहे हैं ।

[সেজোবাবু আমার কথা বললে, ইনি তোমায় দেখতে এসেছেন — এনি ঈশ্বর ঈশ্বর করে পাগল। 

 Mathur said, referring to me: 'He has come to see you. He is always mad about God.' 

लक्षण देखने के लिए मैंने देवेन्द्र से कहा, 'देखें जी तुम्हारी देह ।' देवेन्द्र ने देह से कुर्ता उतार डाला । मैंने देखा, गोरा रंग, तिस पर सेंदूर-सा लगाया हुआ, तब देवेन्द्र के बाल नहीं पके थे ।

[আমি লক্ষণ দেখবার জন্য দেবেন্দ্রকে বললুম, “দেখি গা, তোমার গা।” দেবেনদ্র গায়ের জামা তুললে, দেখলাম — গৌরবর্ণ, তার উপর সিঁদুর ছড়ানো। তখন দেবেন্দ্রের চুল পাকে নাই।

 I wanted to see Devendra's physical marks and said to him, 'Let me see your body.' He pulled up his shirt, and I found that he had very fair skin tinted red. His hair had not yet turned grey.

"पहली झलक में ही मुझे उसमें कुछ अहम्मन्यता (vanity) दृष्टिगोचर हुई। और उसमें यह होना   स्वाभाविक भी था। क्योंकि उसके पास इतना धन, ऐसी विद्वता, ऐसा नाम और इतनी प्रसिद्धि जो थी!

[“প্রথম যাবার পর একটু অভিমান দেখেছিলাম। তা হবে না গা? অত ঐশ্বর্য, বিদ্যা, মান-সম্ভ্রম?

"At the outset I noticed a little vanity in Devendra. And isn't that natural? He had such wealth, such scholarship, such name and fame!

[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]  

🙏अहम्मन्यता की जो लकीर (streak) चित्त में पड़ जाती है वह ज्ञान से या अज्ञान से ?🙏

[Streak of vanity on Chitta ] 

अभिमान देखकर सेजोबाबू से मैंने पूछा, 'अच्छा, अभिमान (vanity) ज्ञान से होता है या अज्ञान से ? जिसे ब्रह्मज्ञान हो जाता है, उसे क्या 'मैं पण्डित हूँ, मैं ज्ञानी हूँ, मैं धनी हूँ, इस तरह का अभिमान हो सकता है ?’

[^In the case of an ordinary aspirant the body drops off after he attains the Knowledge of Brahman, but this is not so in the case of a Divine Incarnation, because He is born, with a special mission to teach mankind........ 

" जो नेता/ईश्वरकोटि का मनुष्य ऊँची चहारदीवारी के उस पार, (बद्री-केदार के उस पार) अनन्त मैदान को देखकर ‘हो हो’ करके हँसता हुआ दूसरी ओर कूद नहीं जाता;  वापस लौटकर दूसरों को उसकी खबर देता है , उसके लिए हनुमान/ विवेकानन्द के दास्य-भाव के अनुरूप अपना जीवन गठन करना आवश्यक है।  ब्रह्मज्ञान के बाद भी उसका शरीर रहा, लोकशिक्षा के लिए - जैसे अवतार/नेता आदि का अभिमान -' तस्य दासा  दासो अहं ' का होता है -दासोऽस्म्यहम् (दास: + अस्मि + अहम्) = ___ मैं प्रभु श्रीरामकृष्ण के सेवक का सेवक हूँ (I am a servant of Sri Ramakrishna's srevent ) ...  अहं श्रीरामकृष्णस्य  दासः अस्मि। घमण्ड बिल्कुल नहीं होता!]

[অভিমান দেকে সেজোবাবুকে বললুম, আচ্ছা অভিমান জ্ঞানে হয়, না অজ্ঞানে হয়? যার ব্রহ্মজ্ঞান হয়েছে তার কি ‘আমি পণ্ডিত’, ‘আমি জ্ঞানী’, ‘আমি ধনী’; বলে অভিমান থাকতে পারে?

Noticing that streak of vanity, I asked Mathur: 'Well, is vanity the outcome of knowledge or ignorance? Can a knower of Brahman have such a feeling as, "I am a scholar; I am a jnani; I am rich"?'

[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]   

🔆🙏 विवेक-वैराग्य-भक्ति से रहित ज्ञानी गिद्ध समान, उंचि उड़ान नजर मुर्दे पर🔆🙏   

"देवेन्द्र के साथ बातचीत करते हुए एकाएक मेरी वही अवस्था हो गयी । उस अवस्था के होने पर कौन आदमी कैसा है, यह मैं स्पष्ट देखता हूँ । मेरे भीतर से हँसी उमड़ पड़ी । जब यह अवस्था होती है तब पण्डित-फण्डित सब तिनके से जान पड़ते हैं । जब देखता हूँ, पण्डित में विवेक और वैराग्य नहीं है, तब वे सब घास-फूस जैसे जान पड़ते हैं । तब यही दिखता है कि गीध बहुत ऊँचे उड़ रहा है परन्तु उसकी नजर नीचे मरघट पर ही लगी हुई है ।

[“দেবেন্দ্রের সঙ্গে কথা কইতে কইতে আমার হঠাৎ সেই অবস্থাটি হল। সেই অবস্থাটি হলে কে কিরূপ লোক দেখতে পাই। আমার ভিতর থেকে হি-হি করে একটা হাসি উঠল। যখন ওই অবস্থাটা হয়, তখন পণ্ডিত-ফণ্ডিত তৃণ-জ্ঞান হয়! যদি দেখি, পণ্ডিতের বিবেক-বৈরাগ্য নাই, তখন খড়কুটোর মতো বোধ হয়। তখন দেখি যেন শকুনি খুব উঁচুতে উঠেছে কিন্তু ভাগাড়ের দিকে নজর।

"While I was talking to Devendra, I suddenly got into that state of mind in which I can see a man as he really is. I was convulsed with laughter inside. In that state I regard scholars and the book-learned as mere straw. If I see that a scholar has no discrimination and renunciation, I regard him as worthless straw. I see that he is like a vulture, which soars high but fixes its look on a charnel-pit down below.

“देखा योग और भोग दोनों हैं, छोटे छोटे बहुत से लड़के थे, डाक्टर आया हुआ था - इसीसे सिद्ध है कि इतना ज्ञानी तो है, परन्तु संसार में रहना पड़ता है । मैंने कहा - 'तुम कलिकाल के जनक हो । जनक इधर-उधर दोनों ओर रहकर दूध का कटोरा खाली किया करते थे । मैंने सुना था, तुम संसार में रहकर भी ईश्वर पर मन लगाये हुए हो, इसीलिए तुम्हें देखने आया हूँ, मुझे कुछ ईश्वर की बातें सुनाओ ।"

[“দেখলাম, যোগ ভোগ দুই-ই আছে; অনেক ছেলেপুলে, ছোট ছোট; ডাক্তার এসেছে; তবেই হল, অত জ্ঞানী হয়ে সংসার নিয়ে সর্বদা থাকতে হয়। বললুম, তুমি কলির জনক। ‘জনক এদিক উদিক দু’দিক রেখে খেয়েছিল দুধের বাটি’। তুমি সংসারে থেকে ঈশ্বরে মন রেখেছো শুনে তোমায় দেখতে এসেছি; আমায় ঈশ্বরীয় কথা কিছু শুনাও

"I found that Devendra had combined both yoga and bhoga in his life. He had a number of children, all young. The family physician was there. Thus, you see, though he was a jnani, yet he was preoccupied with worldly life. I said to him: 'You are the King Janaka of this Kaliyuga.He drank his milk from a brimming cup, Holding to one as well as the other' I have heard that you live in the world and think of God; so I have come to see you. Please tell me something about God.'

[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]   

🔆🙏गीता का विभूति योग 🔆🙏

"तब वेद से कुछ अंश उसने सुनाये । कहा, 'यह संसार एक दीपक के पेड़ के समान है और प्रत्येक जीव इस पेड़ का एक एक दीपक है ।' मैं जब यहाँ ध्यान करता था, तब बिलकुल इसी तरह देखता था । देवेन्द्र की बात से मेल हुआ, देखकर मैंने सोचा, तब तो यह बहुत बड़ा आदमी है । मैंने उसे व्याख्या करने के लिए कहा

उसने कहा, 'इस संसार को पहले कौन जानता था ? - ईश्वर ने अपनी महिमा को प्रकाशित कर दिखाने के उद्देश्य से मनुष्य की सृष्टि की । पेड़ के उजाले के न रहने पर सब अँधेरा हो जाता है, पेड़ भी नहीं दिख पड़ता ।'

[“তখন বেদ থেকে কিছু কিছু শুনালে। বললে, এই জগৎ যেন একটি ঝাড়ের মতো, আর জীব হয়েছে — এক-একটি ঝাড়ের দীপ। আমি এখানে পঞ্চবটীতে যখন ধ্যান করতুম ঠিক ওইরকম দেখেছিলাম। দেবেন্দ্রের কথার সঙ্গে মিলল দেখে ভাবলুম, তবে তো খুব বড়লোক। ব্যাখ্যা করতে বললাম — তা বললে ‘এ জগৎ কে জানত? — ঈশ্বর মানুষ করেছেন, তাঁর মহিমা প্রকাশ করবার জন্য। ঝাড়ের আলো না থাকলে সব অন্ধকার, ঝাড় পর্যন্ত দেখা যায় নাঞ্চ।”

"He recited some texts from the Vedas. He said, 'This universe is like a chandelier and each living being is a light in it.' Once, meditating in the Panchavati, I too had had a vision like that. I found his words agreed with my vision, and I thought he must be a very great man. I asked him to explain his words. He said; 'God has created men to manifest His own glory; otherwise, who could know this universe? Everything becomes dark without the lights in the chandelier. One cannot even see the chandelier itself.'

  [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]  

🔆ब्रह्म समाज में 'असभ्यता' -गृहस्थ भक्त (राजर्षि?) कप्तान🔆

[ব্রাহ্মসমাজে ‘অসভ্যতা’ — কাপ্তেন, ভক্ত গৃহস্থ ]

“बहुत कुछ बातें होने के बाद देवेन्द्र ने खुश होकर कहा, 'आपको उत्सव (ब्रह्मसमाज के वार्षिकोत्स्व) में आना होगा ।' मैंने कहा, 'वह ईश्वर की इच्छा; मेरी यह अवस्था तो देख ही रहे हो - वे कभी किसी भाव में रखते हैं, कभी किसी भाव में ।'

[“অনেক কথাবার্তার পর দেবেন্দ্র খুশি হয়ে বললে, ‘আপনাকে উৎসবে (ব্রহ্মোৎসবে) আসতে হবে!’ আমি বললাম, সে ঈশ্বরের ইচ্ছা; আমার তো এই অবস্থা দেখছ! — কখন কি ভাবে রাখেন।’ 

"We talked a long time. Devendra was pleased and said to me, 'You must come to our Brahmo Samaj festival.' 'That', I said, 'depends on the will of God. You can see the state of my mind. There's no knowing when God will put me into a particular state.' 

देवेन्द्र ने कहा, 'नहीं, आना ही होगा । परन्तु धोती और चद्दर ये दोनों कपड़े आप जरूर पहने हुए हों, आपको ऊलजलूल देखकर अगर किसी ने कुछ कह दिया तो मुझे बड़ा कष्ट होगा ।' मैंने कहा, 'यह मुझसे न होगा, मैं बाबू न बन सकूगा !' देवेन्द्र और सेजोबाबू हँसने लगे ।

[দেবেন্দ্র বললে, ‘না আসতে হবে; তবে ধুতি আর উড়ানি পরে এসো, — তোমাকে এলোমেলো দেখে কেউ কিছু বললে, আমার কষ্ট হবে।’ আমি বললাম, ‘তা পারব না। আমি বাবু হতে পারব না।’ দেবেন্দ্র, সেজোবাবু সব হাসতে লাগল।

Devendra insisted: 'No, you must come. But put on your cloth and wear a shawl over your body. Someone might say something unkind about your untidiness, and that would hurt me.' 'No,' I replied, 'I cannot promise that. I cannot be a babu.' Devendra and Mathur laughed.

"उसके दूसरे ही दिन सेजोबाबू के पास देवेन्द्र की चिट्ठी आयी - मुझे उत्सव देखने के लिए जाने से उन्होंने रोका था । लिखा था, देह पर एक चद्दर भी न रहेगी तो असभ्यता होगी । (सब हँसते हैं ।)

[“তারপরদিনই সেজোবাবুর কাছে দেবেন্দ্রর চিঠি এল — আমাকে উৎসব দেখতে যেতে বারণ করেছে। বলে — অসভ্যতা হবে, গায়ে উড়ানি থাকবে না। (সকলের হাস্য)

"The very next day Mathur received a letter from Devendra forbidding me to go to the festival. He wrote that it would be ungentlemanly of me not to cover my body with a shawl. (All laugh.)

(महिमा से) “एक और है – कप्तान ^*। संसारी तो है परन्तु बड़ा भक्त है । तुम उससे मिलना । “कप्तान को वेद, वेदान्त, गीता, भागवत, यह सब कण्ठाग्र याद है । तुम बातचीत करके देखना ।

[(মহিমার প্রতি) — “আর-একটি আছে — কাপ্তেন।২ সংসারী বটে, কিন্তু ভারী ভক্ত। তুমি আলাপ করো।“কাপ্তেনের বেদ, বেদান্ত, শ্রীমদ্ভাগবত, গীতা অধ্যাত্ম — এ-সব কণ্ঠস্থ। তুমি আলাপ করে দেখো।

""There is another big man: Captain. Though a man of the world, he is a great lover of God. (To Mahima) Talk to him some time. He knows the Vedas, the Vedanta, the Bhagavata, the Gita, the Adhyatma Ramayana, and other scriptures by heart. You will find that out when you talk to him.

[कप्तान ^* नेपाल के निवासी श्री विश्वनाथ उपाध्याय, नेपाल राजा के वकील, एक शाही प्रतिनिधि, कलकत्ता में रहते थे। वे निष्ठावान ब्राह्मण तथा सुशिक्षित विद्वान् थे। उनके पिता भारतीय सेना के सूबेदार और धर्मनिष्ठ शैव थे।]  

“बड़ी भक्ति है । मैं वराहनगर की राह से जा रहा था, वह मेरे ऊपर छाता लगाता था । अपने घर ले जाकर बड़ी खातिर की । - पंखा झलता था, पैर दबाता था और कितनी ही तरह की तरकारियाँ बना कर खिलाता था । मैं एक दिन उसके यहाँ पाखाने में बेहोश हो गया । वह इतना आचारी तो है, परन्तु पाखाने के भीतर मेरे पास जाकर मेरे पैर फैलाकर मुझे बैठा दिया । इतना आचारी है, परन्तु घृणा नहीं की ।

[“খুব ভক্তি! আমি বরাহনগরে রাস্তা দিয়ে যাচ্ছি, তা আমায় ছাতা ধরে! ওর বাড়িতে লয়ে গিয়ে কত যত্ন! বাতাস করে — পা টিপে দেয় — আর নানা তরকারি করে খাওয়ায়। আমি একদিন ওর বাড়িতে পাইখানায় বেহুঁশ হয়ে গেছি। ও তো আচারী, পাইখানার ভিতর আমার কাছে গিয়ে পা ফাঁক করে বসিয়ে দেয়। অত আচারী, ঘৃণা করলে না।

"He has great piety. Once I was going along a street in Baranagore (जानिबीघा) and he (दयानन्द) held an umbrella over my head. He invites me to his house and shows me great attention. He fans me, massages my feet, and feeds me with various dishes. Once at his house I went into samadhi in the toilet; and he took care of me there though he is so particular about his orthodox habits. He didn't show any abhorrence for the place.

"कप्तान के पल्ले बड़ा खर्च है । उसके भाई बनारस में रहते हैं, उन्हें खर्च देना पड़ता है । उसकी बीबी पहले बड़ी कंजूस थी । अब इतनी पलट गयी है कि खर्च सँभाल नहीं सकती ।

[“কাপ্তেনের অনেক খরচা। কাশীতে ভায়েরা থাকে, তাদের দিতে হয়। মাগ আগে কৃপণ ছিল, এখন এত বিব্রত হয়েছে যে সবরকম খরচ করতে পারে না।

"He has many expenses. He supports his brothers who live in Benares. His wife was a miserly woman at first. Now she is so burdened by the expenses of the family that she cannot spend all the money she would like to.

"कप्तान की स्त्री ने मुझसे कहा, ‘इन्हें संसार अच्छा नहीं लगता, इसलिए एक बार इन्होंने कहा था कि संसार छोड़ दूंगा ।' हाँ, वह ऐसा बराबर कहा करता है ।

[“কাপ্তেনের পরিবার আমায় বললে যে, সংসার ওঁর ভাল লাগে না। তাই মাঝে বলেছিল, সংসার ছেড়ে দেব। মাঝে মাঝে ছেড়ে দেব, ছেড়ে দেব করত।

"Captain's wife said to me: 'He doesn't enjoy worldly life. That is why he once said he would renounce the World.' True, every now and then he expressed that desire.

"उसका वंश ही भक्त है । उसका बाप लड़ाई में जाया करता था, मैंने सुना है लड़ाई के समय वह एक हाथ से शिव की पूजा करता था और दूसरे से तलवार चलाता था ।

[“ওদের বংশই ভক্ত। বাপ লড়ায়ে যেত। শুনেছি লড়ায়ের সময় এক-হাতে শিবপূজা, একহাতে তরবার খোলা, যুদ্ধ করত।

"Captain was born in a family of devotees. His father was a soldier. I have heard that on the battle-field he would worship Siva with one hand and hold a naked sword in the other.

"बड़ा आचारी आदमी है । मैं केशव सेन के पास जाता था, इसीलिए इधर महीने भर से नहीं आया। कहता है, 'केशव सेन के आचार भ्रष्ट हैं - अंग्रेजों के साथ भोजन करता है, उसने दूसरी जाति में अपनी लड़की का विवाह किया है, उसकी कोई जाति नहीं है ।'

[“লোকটা ভারী আচারী। আমি কেশব সেনের কাছে যেতুম, তাই এখানে একমাস আসে নাই। বলে, কেশব সেন ভ্রষ্টাচার — ইংরাজের সঙ্গে খায়, ভিন্ন জাতে মেয়ের বিয়ে দিয়েছে, জাত নাই।

"Captain is a strong upholder of orthodox conventions. Because of my visiting Keshab Chandra Sen, he stopped coming here for a month. He said to me that Keshab had violated the social conventions: he dined with the English, had married his daughter into another caste, and had lost his own caste.

मैंने कहा, 'मुझे उन सब बातों से क्या काम ? केशव सेन ईश्वर का नाम लेता है, इसलिए मैं उसे देखने जाया करता हूँ । ईश्वर की बातें सुनने के लिए वहाँ जाता हूँ - मैं बेर खाता हूँ, काँटों से मुझे क्या काम ?" फिर भी मुझे कप्तान ने न छोड़ा । कहा, 'तुम केशव सेन के यहाँ क्यों जाते हो ?'

[আমি বললুম, আমার সে সবের দরকার কি? কেশব হরিনাম করে, দেখতে যাই, ঈশ্বরীয় কথা শুনতে যাই — আমি কুলটি খাই, কাঁটায় আমার কি কাজ? তবুও আমায় ছাড়ে না; বলে তুমি কেশব সেনের ওখানে কেন যাও?

 I said to Captain: 'What do I care for such things? Keshab chants the name of God; so I go to him to hear about God. I eat only the plum; what do I care about the thorns?' But Captain remained stubborn. He said to me, 'Why do you see Keshab?' 

तब मैंने कुछ चिढ़कर कहा, 'मैं रुपयों के लिए तो जाता नहीं - मैं ईश्वर का नाम सुनने के लिए जाया करता हूँ - और तुम लाट साहब के यहाँ कैसे जाया करते हो ? वे म्लेच्छ हैं । उनके साथ कैसे रहते हो ?' यह सब कहने के बाद कहीं वह रुका ।

[ তখন আমি বললুম, একটু বিরক্ত হয়ে, আমি তো টাকার জন্য যাই না — আমি হরিনাম শুনতে যাই — আর তুমি লাট সাহেবের বাড়িতে যাও কেমন করে? তারা ম্লেচ্ছ, তাদের সঙ্গে থাকো কেমন করে? এই সব বলার পর তবে একটু থামে।

I answered him rather sharply: 'But I don't go to him for money; I go there to hear the name of God. And how is it that you visit the Viceroy's house? He is a mlechchha. How can you be in his company?' That silenced him a little.

"परन्तु उसमें बड़ी भक्ति है । जब पूजा करता है, तब कपूर की आरती करता है और पूजा करते हुए आसन पर बैठकर स्तवपाठ करता है । तब वह एक दूसरा ही आदमी रहता है, मानो तन्मय हो जाता है ।

[“কিন্তু খুব ভক্তি। যখন পূজা করে, কর্পূরের আরতি করে। আর পূজা করতে করতে আসনে স্তব করে। তখন আর-একটি মানুষ। যেন তন্ময় হয়ে যায়।”

"But he is a great devotee. When he worships he performs arati with camphor. When he recites hymns he becomes a totally different person. He becomes absorbed.

(६)

 [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]

🔆🙏वेदान्त के विचार से ~ जाग्रत अवस्था भी स्वप्न के जितनी सत्य है🔆🙏

বেদান্ত বিচারে-স্বপ্নও যত সত্য, জাগরণও সেইরূপ সত্য।

[In the light of Vedantic reasoning The waking state is only as real as the dream.]

श्रीरामकृष्ण (महिमाचरण के प्रति) “वेदान्त के विचार से संसार मायामय है - स्वप्न की तरह सब मिथ्या है । जो परमात्मा हैं, वे (आत्मा) साक्षीस्वरूप हैं - जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं के साक्षीस्वरूप ये सब तुम्हारे ही भाव की बातें हैं । स्वप्न जितना सत्य है, जागृति भी उतनी ही सत्य है। तुम्हारे भाव की एक कहानी कहता हूँ, सुनो ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মহিমাচরণের প্রতি) — বেদান্ত বিচারে, সংসার মায়াময়, — স্বপ্নের মতো, সব মিথ্যা। যিনি পরমাত্মা, তিনি সাক্ষিস্বরূপ — জাগ্রত, স্বপন, সুষুপ্তি তিন অবস্থারই সাক্ষিস্বরূপ। এ-সব তোমার ভাবের কথা। স্বপ্নও যত সত্য, জাগরণও সেইরূপ সত্য। একটা গল্প বলি শোন। তোমার ভাবের —

(To Mahimacharan) "In the light of Vedantic reasoning the world is illusory, unreal as a dream. The Supreme Soul is the Witness — the witness of the three states of waking, dream, and deep sleep. These things are in your line of thought. The waking state is only as real as the dream. Let me tell you a story that agrees with your attitude.

"किसी गाँव में एक किसान रहता था । वह बड़ा ज्ञानी था । किसानी करता था - स्त्री थी, एक लड़का बहुत दिनों के बाद हुआ था । नाम उसका हारू था । बच्चे पर माँ और बाप, दोनों का प्यार था, क्योंकि एकमात्र वहीं नीलमणि जैसा धन था ।

[“এক দেশে একটি চাষা থাকে। ভারী জ্ঞানী। চাষবাস করে — পরিবার আছে, একটি ছেলে অনেকদিন পরে হয়েছে; নাম হারু। ছেলেটির উপর বাপ-মা দুজনেরই ভালবাসা; কেননা, সবে ধন নীলমণি। 

["There was a farmer who lived in the countryside. He was a real jnani. He earned his living by farming. He was married, and after many years a son was born to him, whom he named Haru. The parents loved the boy dearly. This was natural, since he was the one precious gem in the family.

किसान धर्मात्मा था । गाँव के सब आदमी उसे चाहते थे । एक दिन वह मैदान में काम कर रहा था, किसी ने आकर खबर दी, हारू को हैजा हुआ । किसान ने घर जाकर उसकी बड़ी दवादारू की, परन्तु अन्त में लड़का गुजर गया ।

[চাষাটি ধার্মিক, গাঁয়ের সব লোকেই ভালবাসে। একদিন মাঠে কাজ করছে, এমন সময় একজন এসে খপর দিলে, হারুর কলেরা হয়েছে। চাষাটি বাড়ি গিয়ে অনেক চিকিৎসা করালে কিন্তু ছেলেটি মারা গেল। 

 On account of his religious nature the farmer was loved by the villagers. One day he was working in the field when a neighbour came and told him that Haru had had an attack of cholera. The farmer at once returned home and arranged tor treatment for the boy. But Haru died. 

घर के सब लोगों को बड़ा शोक हुआ, परन्तु किसान को जैसे कुछ भी न हुआ हो । उल्टा वही सब को समझाता था कि शोक करने में कुछ नहीं है । फिर वह खेती करने चला गया । घर लौटकर उसने देखा, उसकी स्त्री रो रही है । उसने अपने पति से कहा, 'तुम बड़े निष्ठुर हो, लड़का जाता रहा और तुम्हारी आँखों से आँसू तक न निकले !'

[বাড়ির সকলে শোকে কাতর কিন্তু চাষাটির যেন কিছুই হয় নাই। উলটে সকলকে বুঝায় যে, শোক করে কি হবে? তারপর আবার চাষ করতে গেল। বাড়ি ফিরে এসে দেখে, পরিবার আরও কাঁদছে। পরিবার বললে, ‘তুমি নিষ্ঠুর — ছেলেটার জন্য একবার কাঁদলেও না?’

The other members of the family were grief-stricken, but the farmer acted as if nothing had happened. He consoled his family and told them that grieving was futile. Then he went back to his field. On returning home he found his wife weeping even more bitterly. She said to him: 'How heartless you are! You haven't shed one tear for the child.' 

तब उस किसान ने स्थिर होकर कहा, 'मैं क्यों नहीं रोता, बतलाऊँ ? कल मैंने एक बड़ा जीवन्त  स्वप्न देखा । देखा कि मैं राजा हुआ हूँ और मेरे आठ बच्चे हुए हैं । बड़े सुख से हूँ फिर आँख खुल गयी । अब मुझे बड़ी चिन्ता है - अपने उन आठ लड़कों के लिए रोऊँ या तुम्हारे इस एक लड़के हारू के लिए रोऊँ ?'

[ চাষা তখন স্থির হয়ে বললে, ‘কেন কাঁদছি না বলব? আমি কাল একটা ভারী স্বপ্ন দেখেছি। দেখলাম যে, রাজা হয়েছি আর আট ছেলের বাপ হয়েছি — খুব সুখে আছি। তারপর ঘুম ভেঙে গেল। এখন মহা ভাবনায় পড়েছি — আমার সেই আট ছেলের জন্য শোক করব, না, তোমার এই এক ছেলে হারুর জন্য শোক করব?’

The farmer replied quietly: 'Shall I tell you why I haven't wept? I had a very vivid dream last night. I dreamt I had become a king; I was the father of eight sons and was very happy with them. Then I woke up. Now I am greatly perplexed. Should I weep for those eight sons or for this one Haru?'

"किसान ज्ञानी था, इसीलिए वह देख रहा था, स्वप्न की अवस्था जिस तरह मिथ्या थी, उसी तरह जागृति की अवस्था भी मिथ्या है, एक नित्य वस्तु केवल आत्मा ही है ।

[“চাষা জ্ঞানী, তাই দেখছিল স্বপ্ন অবস্থাও যেমন মিথ্যা, জাগরণ অবস্থাও তেমনি মিথ্যা; এক নিত্যবস্তু সেই আত্মা।

"The farmer was a jnani; therefore he realized that the waking state is as unreal as the dream state. There is only one eternal Substance, and that is the Atman.

 [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]

🔆🙏 श्रीरामकृष्ण का मायावाद- `तुरीय का पूरा वजन' लो !🔆🙏

 [Mayavada of Sri Ramakrishna-"Accept the The full weight of Turiya!]

[मैं सभी को स्वीकार करता हूं - ब्रह्म और माया, ब्रह्माण्ड और उसके जीव]

[আমি তিন অবস্থাই লই। ব্রহ্ম আবার মায়া, জীব, জগৎ আমি সবই লই।]

(I accept all — Brahman and also maya, 

the universe, and its living beings.)

"मैं सब कुछ लेता हूँ, तुरीय और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति - सब कुछ । मैं पिछली तीनों अवस्थाओं को मानता हूँ । ब्रह्म और माया, जीव-जगत्, सब लेता हूँ, यदि मैं कुछ कम लूँ तो मुझे पूरा वजन न मिले ।"

[“আমি সবই লই। তুরীয় আবার জাগ্রত, স্বপ্ন, সুষুপ্তি। আমি তিন অবস্থাই লই। ব্রহ্ম আবার মায়া, জীব, জগৎ আমি সবই লই। সব না নিলে ওজনে কম পড়ে।”

"But for my part I accept everything: Turiya and also the three states of waking, dream, and deep sleep. I accept all three states. I accept all — Brahman and also maya, the universe, and its living beings. If I accepted less I should not get the full weight."

एक भक्त - वजन में क्यों घटता है ? (सब हँसते है ।)

[একজন ভক্ত — ওজনে কেন কম পড়ে? (সকলের হাস্য)

A DEVOTEE: "The full weight? How is that?" (All laugh.)

[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]   

🔆🙏जबतक अहं बुद्धि है -तब तक हाथी नारायण है तो महावत भी नारायण है🔆🙏

[`सियाराम मय सकल जग जानी'^*जिनकी नित्यता है, लीला भी उन्हीं की है । ]

“যাঁরই নিত্য, তাঁরই লীলা।

(The Nitya and the Lila belong to the same Reality.) 

श्रीरामकृष्ण – ब्रह्म जीवजगत् विशिष्ट हैं । पहले नेति नेति करते समय जीवजगत् को छोड़ देना पड़ता है । अहंबुद्धि जब तक है, तब तक वे ही सब हुए हैं, ऐसा भासित होता है - चौबीसों तत्त्व वे ही हुए हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ব্রহ্ম — জীবজগৎবিশিষ্ট। প্রথম নেতি নেতি করবার সময় জীবজগৎকে ছেড়ে দিতে হয়। অহংবুদ্ধি যতক্ষণ, ততক্ষণ তিনিই সব হয়েছেন, এই বোধ হয়, তিনিই চতুর্বিংশতি তত্ত্ব হয়েছেন।

MASTER: "Brahman is qualified by the universe and its living beings. At the beginning, while following the method of 'Not this, not this', one has to eliminate the universe and its living beings...... But as long as 'I-consciousness' remains, one cannot but feel that it is God Himself who has become everything. He alone has become the twenty-four cosmic principles. 

[एक तथाकथित सेक्यूलर प्रश्न जब तुलसीदास जी ऐसा कहते हैं, "सियाराम मय सब जग जानी" तो जय श्रीराम कहने वालों को अपने देश के लोगों में सियाराम क्यों नहीं दिखाई देते हैं?🔆🙏जबतक अहं बुद्धि है -तब तक  ऐसा भासित होता है कि 'वे ही सब हुए हैं -`यदि रामभक्तों की शोभायात्रा पर पत्थर फेंकने वालों में (गोरखपुर के आतंकी मुर्तजा में ) नारायण हैं , तो उनकी पहचान कर उनके घरों पर बुलडोजर चलने वाले बाबा बुलडोजर नाथ भी नारायण हैं ! ' जबतक अहं बुद्धि है -तब तक यदि 'पागल हाथी' नारायण है, तो उससे बचो कहने वाला 'महावत' भी नारायण है।] 

“बेल का सार कहो तो उसका गूदा ही समझा जाता है, तब बीज और खोपड़ा निकाल देने पड़ते हैं; परन्तु बेल वजन में कितना था । इसके कहने की आवश्यकता हुई तो केवल गूदा तौलने से काम नहीं चल सकता । तौलते समय गूदा, बीज, खोपड़ा, सब कुछ लेना चाहिए । जिसका गूदा है, उसके बीज भी हैं और खोपड़ा भी । जिनकी नित्यता (Absolute) है, लीला (Relative)भी उन्हीं की है ।

[“বেলের সার বলতে গেলে শাঁসই বুঝায়। তখন বিচি আর খোলা ফেলে দিতে হয়। কিন্তু বেলটা কত ওজনে ছিল বলতে গেলে শুধু শাঁস ওজন করলে হবে না। ওজনের সময় শাঁস, বিচি, খোলা সব নিতে হবে। যারই শাঁস, তারই বিচি, তারই খোলা।“যাঁরই নিত্য, তাঁরই লীলা।

"When a man speaks of the essential part of the bel-fruit, he means its flesh only, and not the seeds and shell. But if he wants to speak of the total weight of the fruit, it will not do for him to weigh only the flesh. He must accept the whole thing: seeds and shell and flesh. Seeds and shell and flesh belong to one and the same fruit."The Nitya and the Lila belong to the same Reality. 

"इसलिए मैं नित्यता और लीला सब मानता हूँ । संसार को माया कहकर मैं उसका अस्तित्व लोप नहीं करता । यदि मैं वैसा करूँ तो वजन पूरा न मिले ।"

[“তাই আমি নিত্য, লীলা সবই লই। মায়া বলে জগৎসংসার উড়িয়ে দিই না। তাহলে যে ওজনে কম পড়বে।”

Therefore I accept everything, the Relative as well as the Absolute. I don't explain away the world as maya. Were I to do that I should get short weight."

[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]

🔆🙏उत्तम भक्त सर्वत्र आत्मा का (अद्वैत का) अनुभव करता है🔆🙏 

[मायावाद और विशिष्टाद्वैतवाद - ज्ञान योग और भक्ति योग]

[মায়াবাদ ও বিশিষ্টাদ্বৈতবাদ — জ্ঞানযোগ ও ভক্তিযোগ ]

महिमाचरण - यह बहुत अच्छा सामञ्जस्य है । नित्यता से ही लीला है और लीला से ही नित्यता है ।

[মহিমাচরণ — এ বেশ সামঞ্জস্য, — নিত্য থেকেই লীলা, আবার লীলা থেকেই নিত্য।

MAHIMACHARAN: "It is a good synthesis: from the Absolute to the Relative, and from the Relative to the Absolute.

"श्रीरामकृष्ण - ज्ञानी सब कुछ स्वप्नवत् देखते हैं । लेकिन भक्तगण सभी अवस्थाएँ मानते हैं । ज्ञानी दूध तो देते हैं, पर बूंद बूँद करके । (सब हँसते हैं ।) कोई कोई गौ ऐसी होती है कि घास चुन-चुनकर चरती है, इसलिए दूध भी थोड़ा थोड़ा करके देती है । जो गौएँ इतना चुनती नहीं और सब कुछ, जो आगे आया खा लेती हैं, वे दूध भी खूब प्रवाह के साथ देती हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — জ্ঞানীরা দেখে সব স্বপ্নবৎ। ভক্তেরা সব অবস্থা লয়। জ্ঞানী দুধ দেয় ছিড়িক ছিড়িক করে। (সকলের হাস্য) এক-একটা গরু আছে — বেছে বেছে খায়; তাই ছিড়িক ছিড়িক দুধ। যারা অত বাছে না আর সব খায়, তারা হুড়হুড় করে দুধ দেয়। 

MASTER: "The jnanis regard everything as illusory, like a dream; but the bhaktas accept all the states. The milk flows only in dribblets from the jnani. (All laugh.) There are some cows that pick and choose their fodder; hence their milk flows only in dribblets. But cows that don't discriminate so much, and eat whatever they get, give milk in torrents.

 उत्तम भक्त^* नित्य (Absolute) और लीला (Relative) दोनों ही मानता है । इसीलिए नित्य से मन के उतर आने पर भी वह परमात्मा का आनन्द सर्वत्र लेने में सक्षम होता है । उत्तम भक्त तेज बौछार (torrent) के साथ दूध देता है ! (सब हँसते हैं ।)

[उत्तम भक्त^*यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति। गीता (6.30) :  जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता। जैसे 'स्वप्नद्रष्टा पुरुष' जागने पर स्वयं 'जाग्रत् पुरुष' बन जाता है वह जाग्रत् पुरुष को उससे भिन्न रहकर कभी नहीं जान सकता। वैसे ही इन्द्रियातीत आत्मा (परम सत्य) का अनुभव उससे भिन्न रहकर नहीं होता, वरन् जीव पाता है कि वह स्वयं आत्मस्वरूप (शिवोऽहम्) है।आत्मविस्मृति के कारण ही परमात्मा जीवभाव को प्राप्त हुआ सा प्रतीत होता है , इसीलिए आत्मज्ञान के द्वारा जीव पुनः परमात्मस्वरूप को प्राप्त हो सकता है। अनात्म उपाधियों से तादात्म्य (आसक्ति) को त्यागने पर योगी स्वयं परमात्मस्वरूप बन जाता है।  जैसे कोई अभिनेता रंगमंच पर भिक्षुक का अभिनय करते हुए भी वास्तव में भिक्षुक नहीं बन जाता, और नाटक की समाप्ति पर भिक्षुक के वेष को त्यागकर पुनः स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।  वैसे ही आत्मज्ञान के विषय में भी जीव का ब्रह्मरूप होना है। द्वैतवादी लोग अपने जीवभाव और देहात्मभाव की दृढ़ता के कारण इस अद्वैत स्वरूप को स्वीकार नहीं कर पाते। परन्तु भारत की गुरु-शिष्य परम्परा (Be and Make) ने इसी सत्य की पुष्टि की है कि एक व्यक्ति (गुरु)  के हृदय में स्थित आत्मा ही सर्वत्र सभी नाम-रूपों (शिष्य) में स्थित है। ]

[উত্তম ভক্ত১ — নিত্য লীলা দুই লয়। তাই নিত্য থেকে মন নেমে এলেও তাঁকে সম্ভোগ করতে পারে। উত্তম ভক্ত হুড়হুড় করে দুধ দেয়। (সকলের হাস্য)

[উত্তম ভক্ত — যো মাং পশ্যতি সর্বত্র সর্বঞ্চ ময়ি পশ্যতি।

                     তস্যাহং ন প্রণশ্যামি স চ মে নে প্রণশ্যতি।                       [গীতা, ৬।৩০]

 A superior devotee of God accepts both the Absolute and the Relative; therefore he is able to enjoy the Divine even when his mind comes down from the Absolute. Such a devotee is like the cows that give milk in torrents." (All laugh.)

महिमा - परन्तु विवेकरहित होकर खाने वाली गाय की दूध में कुछ बू आती है ! (हास्य)

[মহিমা — তবে দুধে একটু গন্ধ হয়। (সকলের হাস্য)

MAHIMA: "But the milk of a cow that eats without discrimination smells a little." (Laughter.)

श्रीरामकृष्ण – (मुस्कुराते हुए) - हाँ, आती है, परन्तु कुछ उबाल लेना पड़ता है । ज्ञानाग्नि पर दूध कुछ गरम कर लिया जाय तो फिर बू नहीं रह जाती । (सब हँसते हैं ।)

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — হয় বটে, তবে একটু আওটাতে হয়। আগুনে আউটে নিতে হয়। জ্ঞানাগ্নির উপর একটু দুধটা চড়িয়ে দিতে হয়, তাহলে আর গন্ধটা থাকবে না। (সকলের হাস্য)

MASTER (with a smile): "That's true, no doubt. Therefore that milk should be boiled. One should boil such milk over the fire a little while; there will be no smell whatever if you boil the milk over the fire of Knowledge. (All laugh)

[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ] 

🔆🙏 ओंकार रूपी टंकार `ट - अ –अ - म्' से नित्य-लीला योग 🔆🙏

[ওঁকার ও নিত্য-লীলা যোগ ]

[लीला से नित्य में लीन होना, मतलब -- जाग्रत (स्थूल) , स्वप्न (सूक्ष्म) और सुषुप्ति (कारण) से `तुरीय' (महाकारण)  में लीन होना मुझे उसने दिखाया है; चित्-समुद्र है, उसका ओर-छोर नहीं है । उसीसे ये सब लीलाएँ उठी है और फिर उसीमें लीन हो गयी है ।]  

(महिमा से) "ओंकार की व्याख्या तुम लोग केवल यही करते हो – अकार, उकार, मकार ।"

[(মহিমার প্রতি) — “ওঁকারের ব্যাখ্যা তোমরা কেবল বল ‘অকার উকার মকার’।”

(To Mahima) "You explain 'Aum' with reference to 'a', 'u', and 'm' only."

महिमाचरण - अकार, उकार और मकार का अर्थ है सृष्टि, स्थिति (संरक्षण) और प्रलय ।

[মহিমাচরণ — অকার, উকার, মকার — কিনা সৃষ্টি, স্থিতি, প্রলয়।

MAHIMA: "'A', 'u', and 'm' mean creation, preservation, and destruction."

श्रीरामकृष्ण - मैं उपमा देता हूँ घण्टे की टंकार से ट - अ –अ - म् । लीला से नित्य में लीन होना, स्थूल, सूक्ष्म और कारण से महाकारण में लीन होना, जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से `तुरीय' में लीन होना । घण्टे का बजना मानो महासमुद्र में एक वजनदार चीज का गिरना है । फिर तरंगों का उठना शुरू होता है। 

मानो नित्य से लीला का आरम्भ होता है; महाकारण से स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीर का उद्भव होता है; तुरीय से जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति ये सब अवस्थाएँ आती हैं । फिर महासमुद्र की तरंग महासमुद्र में ही लीन हो जाती है । नित्य से लीला है और लीला से नित्य । इसीलिए मैं टंकार की उपमा दिया करता हूँ ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি উপমা দিই ঘন্টার টং শব্দ। ট-অ-অ-ম-ম-। লীলা থেকে নিত্যে হয়; স্থূল, সূক্ষ্ম, কারণ থেকে মহাকারণে লয়। জাগ্রত, স্বপ্ন, সুষুপ্তি থেকে তুরীয়ে লয়। আবার ঘণ্টা বাজল, যেম মহাসমুদ্রে একটা গুরু জিনিস পড়ল আর ঢেউ আরম্ভ হল। নিত্য থেকে লীলা আরম্ভ হল, মহাকারণ থেকে স্থূল, সূক্ষ্ম, কারণ শরির দেখা দিল — সেই তুরীয় থেকেই জাগ্রত, স্বপ্ন, সুষুপ্তি সব অবস্থা এসে পড়ল। আবার মহাসমুদ্রের ঢেউ মহাসমুদ্রেই লয় হল। নিত্য ধরে ধরে লীলা, আবার লীলা ধরে নিত্য।২ আমি টং শব্দ উপমা দিই।

MASTER: "But I give the illustration of the sound of a gong: 'torn',^*t—o—m (^The "o" is to be pronounced as "aw" in dawn.)

It is the merging of the Lila in the Nitya: the gross, the subtle, and the causal merge in the Great Cause; waking, dream, and deep sleep merge in Turiya. The striking of the gong is like the falling of a heavy weight into a big ocean.

These waves arising from the Great Ocean merge again in the Great Ocean. From the Absolute to the Relative, and from the Relative to the Absolute. Therefore I give the illustration of the gong's sound, 'tom'. 

मैंने यह सब यथार्थ रूप में देखा है । मुझे उसने दिखाया है; चित्-समुद्र है, उसका ओर-छोर नहीं है । उसीसे ये सब लीलाएँ उठी है और फिर उसीमें लीन हो गयी है । चिदाकाश में करोड़ों ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति होकर वे फिर उसीमें लीन हो गये हैं । तुम्हारी पुस्तक में क्या लिखा है, यह सब मैं नहीं जानता ।

[ আমি ঠিক এই সব দেখেছি। আমায় দেখিয়ে দিয়েছে চিৎ সমুদ্র, অন্ত নাই। তাই থেকে এইসব লীলা উঠল, আর ওইতেই লয় হয়ে গেল। চিদাকাশে কোটি ব্রহ্মাণ্ডের উৎপত্তি, আবার ওইতেই লয় হয়, তোমাদের বইয়ে কি আছে, অত আমি জানি না।

I have clearly perceived all these things. It has been revealed to me that there exists an Ocean of Consciousness without limit. From It come all things of the relative plane, and in It they merge again. Millions of Brahmandas rise in that Chidakasa and merge in It again. All this has been revealed to me; I don't know much about what your books say."

महिमा - जिन्होंने देखा है, उन्होंने शास्त्र लिखा ही नहीं, वे तो अपने ही भाव में मस्त रहते थे, शास्त्र कब लिखते ? लिखने बैठिये तो कुछ हिसाबी बुद्धि की जरूरत होती ही है । उनसे सुनकर दूसरों ने लिखा है ।

[মহিমা — যাঁরা দেখেছেন, তাঁরা তো শাস্ত্র লেখেন নাই। তাঁরা নিজের ভাবেই বিভোর, লিখবেন কখন! লিখতে গেলেই একটু হিসাবী বুদ্ধির দরকার। তাঁদের কাছে শুনে অন্য লোকে লিখেছে।

MAHIMA: "Those to whom such things were revealed did not write the scriptures. They were rapt in their own experiences; when would they write? One needs a somewhat calculating mind to write. Others learnt these things from the seers and wrote the books."

[(26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]

'तुच्छं ब्रह्मपदं, परवधूसंगः कुतः' 

🔆🙏विवेक-दर्शन का अभ्यास करने से, मोक्ष (अमरपद) भी तुच्छ जान पड़ता है 🔆🙏

 [फतिंगा (moth) अगर एक बार उजाला देख लेता है, तो फिर अँधेरे में नहीं जाता ]

(If the moth once sees the light, it no longer goes into the darkness.)  

[সংসারাসক্তি কতদিন — ব্রহ্মানন্দ পর্যন্ত-`তুচ্ছং ব্রহ্মপদং পরবধূসঙ্গঃ কুতঃ'  ]

(বাদুলে পোকা যদি একবার আলো দেখে, তাহলে আর অন্ধকারে যায় না।)

श्रीरामकृष्ण - संसारी पूछते हैं, कामिनी और कांचन की आसक्ति क्यों नहीं जाती ? अरे भाई, उन्हें प्राप्त करो तो आसक्ति चली जाय । अगर एक बार ब्रह्मानन्द मिल जाता है तो इन्द्रिय-सुखों या अर्थ या सम्मान आदि की ओर फिर मन नहीं जाता । "कीड़ा (moth-फतिंगा) अगर एक बार उजाला देख लेता है, तो फिर अँधेरे में नहीं जाता ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সংসারীরা বলে, কেন কামিনী-কাঞ্চনে আসক্তি যায় না? তাঁকে লাভ করলে আসক্তি যায়।৩ যদি একবার ব্রহ্মানন্দ পায়, তাহলে ইন্দ্রিয়সুখ ভোগ করতে বা অর্থ, মান-সম্ভ্রমের জন্য, আর মন দৌড়ায় না।“বাদুলে পোকা যদি একবার আলো দেখে, তাহলে আর অন্ধকারে যায় না।

MASTER: "Worldly people ask why one does not get rid of attachment to 'woman and gold'. That attachment disappears after the realization of God. If a man once tastes the Bliss of Brahman, then his mind no longer runs after the enjoyment of sense pleasures or wealth or name and fame. If the moth once sees the light, it no longer goes into the darkness.

"रावण से किसी ने कहा था, तुम सीता के लिए माया से अनेक रूप तो धरते हो, एक बार राम-रूप धारण करके सीता के पास क्यों नहीं जाते ? रावण ने कहा, 'तुच्छं ब्रह्मपदं, परवधूसंगः कुतः – जब श्रीराम (साक्षात् अवतार के लीला) की चिन्ता करता हूँ, तब ब्रह्मपद भी तुच्छ जान पड़ता है, पराई स्त्री की तो बात ही क्या है ? अतएव राम का रूप धारण करके मैं क्या करूँगा ?’

[“রাবণকে বলেছিল, তুমি সীতার জন্য মায়ার নানারূপ ধরছো, একবার রামরূপ ধরে সীতার কাছে যাও না কেন? রাবণ বললে, তুচ্ছং ব্রহ্মপদং পরবধূসঙ্গঃ কুতঃ — যখন রামকে চিন্তা করি, তখন ব্রহ্মপদ তুচ্ছ হয়, পরস্ত্রী তো সামান্য কথা! তা রামরূপ কি ধরব!”

"Some friends said to Ravana: 'You have been assuming different forms4 for Sita. Why don't you go to her in the form of Rama?' Ravana replied: 'When I contemplate Rama, even the position of Brahma appears insignificant to me, not to speak of the company of another man's wife! How could I take the form of Rama for such a purpose?'

[^ During the period when Sita was kept in prison in his capital, Ravana used to visit her in various forms in order to court her favour.

महा बली रावण ने माता जानकी को धोखे से बंदी बना लिया। माँ ने स्वयं को अशोक- वाटिका में सीमित कर लिया।  परंत रावण उनको मोहित करने के उद्देश्य से भाँति-भाँति के रूप धारण करके उनके पास जाता। वे सारे उपाय विफल गए और माता जानकी ने भगवान श्रीराम के अतिरिक्त और किसी पर कोई ध्यान नहीं दिया। यह देख मन्दोदरी ने अपने पति रावण से कहा - " यदि तुम्हें सीता को रानी बनाने की इतनी चाह है , तो तुम एक बार अपनी माया से राम का रूप धारण उसके सामने क्यों नहीं जाते ?" रावण ने कहा, छी ! [" तुच्छं ब्रह्मपदं, परवधूसंगः कुतः "- अवतार वरिष्ठ के नाम-रूप-लीला-धाम का चिंतन करते ही ह्रदय में ऐसे अपूर्व आनन्द का अनुभव होने लगता है कि उसके आगे ब्रह्मपद -[मोक्ष, अमरपद, निर्वाण ] भी तुच्छ जान पड़ता है, फिर पराई स्त्री की बात ही क्या ?" अवतार वरिष्ठ के दास (SV)  के दास (CINC नवनीदा) के भक्त को पराई स्त्री माता के समान जान पड़ेगी, अपनी स्त्री धर्म में सहायता देनेवाली मित्र जान पड़ेगी, पशुभाव दूर हो जायेगा, देवभाव (दैवीगुण -चरित्र के सभी 24 गुण ) आयेगा, संसार से बिलकुल अनासक्त हो जाओगे । तब संसार में रहने पर भी जीवन्मुक्त होकर विचरण करोगे । नेता विवेकानन्द का चिंतन करने वाला (कैप्टन सेवियर) अगले जन्म में ब्रह्मानंद (ब्रह्मपद -अमरपद-मोक्ष -निर्वाण) छोड़ कर, (C-IN-C नवनीदा) बनकर  लौट आता है !] 

[ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ] 

🔆🙏 अवतार वरिष्ठ की भक्ति से संसारासक्ति कम होती है~ नवनीदा निर्लिप्त गृहस्थ 🔆🙏

[যত ভক্তি বাড়ে, সংসারাসক্তি কমে — শ্রীচৈতন্যভক্ত নির্লিপ্ত ] 

इसीके लिए साधन-भजन है । जितनी ही उनकी चिन्ता करेंगे, संसार की भोगवासना उतनी ही घटती जायेगी । उनके पादपद्मों में जितनी भक्ति होगी, उतनी ही आसक्ति घटती जायेगी, उतना ही देहसुख की ओर से मन हटता रहेगा, पराई स्त्री माता के समान जान पड़ेगी, अपनी स्त्री धर्म में सहायता देनेवाली मित्र जान पड़ेगी, पशुभाव दूर हो जायेगा, देवभाव आयेगा, संसार से बिलकुल अनासक्त हो जाओगे । तब संसार में रहने पर भी जीवन्मुक्त होकर विचरण करोगे । चैतन्यदेव (CINC नवनीदा) जैसे भक्त अनासक्त होकर संसार में (गृहस्थ जीवन में भी) रहे थे ।

[" तुच्छं ब्रह्मपदं, परवधूसंगः कुतः "- अवतार वरिष्ठ के नाम-रूप-लीला-धाम का चिंतन करते ही ह्रदय में ऐसे अपूर्व आनन्द का अनुभव होने लगता है कि उसके आगे ब्रह्मपद -[मोक्ष, अमरपद, निर्वाण ] भी तुच्छ जान पड़ता है, फिर पराई स्त्री की बात ही क्या ?" अवतार वरिष्ठ के दास (SV)  के दास (CINC नवनीदा) के भक्त को पराई स्त्री माता के समान जान पड़ेगी, अपनी स्त्री धर्म में सहायता देनेवाली मित्र जान पड़ेगी, पशुभाव दूर हो जायेगा, देवभाव (दैवीगुण -चरित्र के सभी 24 गुण ) आयेगा, संसार से बिलकुल अनासक्त हो जाओगे । तब संसार में रहने पर भी जीवन्मुक्त होकर विचरण करोगे  

[“তাই জন্যই সাধন-ভজন। তাঁকে চিন্তা যত করবে, ততই সংসারের সামান্য ভোগের জিনিসে আসক্তি কমবে। তাঁর পাদপদ্মে যত ভক্তি হবে, ততই বিষয়বাসনা কম পড়ে আসবে, ততই দেহের সুখের দিকে নজর কমবে; পরস্ত্রীকে মাতৃবৎ বোধ হবে, নিজের স্ত্রীকে ধর্মের সহায় বন্ধু বোধ হবে, পশুভাব চলে যাবে, দেবভাব আসবে, সংসারে একেবারে অনাসক্ত হয়ে যাবে। তখন সংসারে যদিও থাক জীবন্মুক্ত হয়ে বেড়াবে। চৈতন্যদেবের ভক্তেরা অনাসক্ত হয়ে সংসারে ছিল।”

"All worship and spiritual discipline are directed to one end alone, namely, to get rid of worldly attachment. The more you meditate on God, the less you will be attached to the trifling things of the world. The more you love the Lotus Feet of God, the less you will crave the things of the world or pay heed to creature comforts. You will look on another man's wife as your mother and regard your own wife as your companion in spiritual life. You will get rid of your bestial desires and acquire godly qualities. You will be totally unattached to the world. Though you may still have to live in the world, you will live as a jivanmukta. The disciples of Sri Chaitanya lived as householders in a spirit of detachment.

 [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ] 

🔆🙏ज्ञानी कवि (ब्रह्मविद-शंकर और भक्त कवि (विवेकानन्द) का अन्तर🔆🙏 

['मूषलं कुलनाशनम्' ~ भक्ति जाने की नहीं । घूम-फिरकर कुछ न कुछ रहेगी ही ]

पत्थर की अभिलाषा : Stone Desire:

'तू जो तराशेगा तो पूजेगा जमाना मुझको ,
 रास्ते में पड़ा पत्थल हूँ उठा ले मुझको '

[জ্ঞানী ও ভক্তের গূঢ় রহস্য ]

(महिमा से :) "जो सच्चा भक्त हैं, उसके पास चाहे हजार वेदान्त का विचार फैलाओ, और 'स्वप्नवत्' कहो, उसकी भक्ति जाने की नहीं । घूम-फिरकर कुछ न कुछ रहेगी ही । बेत के वन में एक मूसल पड़ा था, वही 'मूषलं कुलनाशनम्' हो गया था ।

[ (মহিমার প্রতি) — “যে ঠিক ভক্ত, তার কাছে হাজার বেদান্ত বিচার কর, আর ‘স্বপ্নবৎ’ বল তার ভক্তি যাবার নয়। ফিরে-ঘুরে একটুখানি থাকবেই। একটা মুষল ব্যানা বনে পড়েছিল, তাতেই ‘মুষলং কুলনাশনম্‌’।

"You may quote thousands of arguments from Vedanta philosophy to a true lover of God, and try to explain the world as a dream, but you cannot shake his devotion to God.^* In spite of all your efforts he will come back to his devotion.

[devotion to God.^*^According to the non-dualistic Vedanta the Personal God (इष्टदेव -अवतार वरिष्ठ) is as illusory as the relative universe; but to a bhakta, a devotee, He is real.

[^ अद्वैतवादी वेदांत के अनुसार व्यक्तिगत ईश्वर सापेक्ष ब्रह्मांड के जैसा अवास्तविक (illusory-स्वप्नवत, मायिक या मिथ्या) है; लेकिन एक भक्त के लिए, वह (अवतार वरिष्ठ, CINC नेता नवनीदा ) वास्तविक (परम् सत्य) है। ]

"शिव के अंश से पैदा होने पर मनुष्य ज्ञानी होता है । ब्रह्म सत्य है और संसार मिथ्या, इसी भाव की ओर मन झुका रहता है । विष्णु के अंश से पैदा होने पर प्रेम और भक्ति होती है । वह प्रेम और वह भक्ति मिट नहीं सकती । ज्ञान और विचार के बाद यह प्रेम और भक्ति अगर घट जाय, तो एक दूसरे समय बड़े जोरों से बढ़ जाती हैं ।'

[“শিব অংশে জন্মালে জ্ঞানী হয়; ব্রহ্ম সত্য, জগৎ মিথ্যা — এই বোধের দিকে মন সর্বদা যায়। বিষ্ণু অংশে জন্মালে প্রেমভক্তি হয়, সে প্রেমভক্তি যাবার নয়। জ্ঞানবিচারের পর এই প্রেমভক্তি যদি কমে যায়, আবার এক সময় হু হু করে বেড়ে যায়; যদুবংষ ধ্বংস করেছিল মুষল, তারই মতো।”

"A man born with an element of Siva becomes a jnani; his mind is always inclined to the feeling that the world is unreal and Brahman alone is real. But when a man is born with an element of Vishnu he develops ecstatic love of God. That love can never be destroyed. It may wane a little now and then, when he indulges in philosophical reasoning, but it ultimately returns. to him increased a thousandfold."

(७)

 [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ] 

🔆🙏 मातृभक्ति पुत्र को आत्म-अनुशासन (विवेकज ज्ञान) में रखती है🔆🙏 

[Mother's devotion keeps the son in self-discipline

(discretionary knowledge)] 

श्रीरामकृष्ण के कमरे के पूर्ववाले बरामदे में हाजरा महाशय ^* बैठकर जप करते हैं । उम्र ४६-४७ होगी । श्रीरामकृष्ण के देश के आदमी हैं । बहुत दिनों से वैराग्य है । बाहर बाहर घूमते हैं, कभी घर जाकर रहते हैं । घर में कुछ जमीन आदि है । उसी से उनकी स्त्री और लड़के बच्चे पलते हैं । परन्तु एक हजार रुपये के लगभग ऋण है । इसके लिए हाजरा महाशय को बड़ी चिन्ता रहती है कि कब ऋण का शोध हो । इसके लिए वे सदा प्रयत्नशील भी रहते हैं ।

[प्रताप चंद्र हाजरा - श्री रामकृष्ण के ग्राम हुगली जिले के कमारपुकुर से कुछ मील पश्चिम  मड़ागेड़े  नामक गाँव में उनका घर था । शिहड़ ग्राम में ह्रदय के मकान पर उन्होंने सबसे पहले ठाकुरदेव को देखा था। ] 

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের ঘরের পূর্ব বারান্দায় হাজরা মহাশয় বসিয়া জপ করেন। বয়স ৪৬।৪৭ হইবে। ঠাকুরের দেশের লোক। অনেকদিন হইতে বৈরাগ্য হইয়াছে — বাহিরে বাহিরে বেড়ান, কখন কখন বাড়িতে গিয়া থাকেন। বাড়িতে কিছু জমি-টমি আছে, তাতেই স্ত্রী-পুত্রকন্যাদের ভরণপোষণ হয়। তবে প্রায় হাজার টাকা দেনা আছে, তজ্জন্য হাজরা মহাশয় সর্বদা চিন্তিত থাকেন ও কিসে শোধ যায়, সর্বদা চেষ্টা করেন। 

श्रीयुत हाजरा महाशय कलकत्ता भी आया-जाया करते हैं । वहाँ ठनठनिया के ईशानचन्द्र मुखोपाध्याय महाशय उनकी बड़ी खातिर करते हैं और साधु की तरह सेवा भी करते हैं । श्रीरामकृष्ण ने उन्हें यत्नपूर्वक अपने पास रखा है, उनके कपड़े फट जाते हैं तो भक्तों से कहकर बनवा देते हैं । सदा उनकी खबर लेते हैं और सदा उनसे ईश्वरी प्रसंग किया करते हैं । हाजरा महाशय बड़े तार्किक हैं । प्राय: बातचीत करते हुए तर्क की तरंग में बहकर इधर से उधर हो जाते हैं । बरामदे में अपने आसन पर सदा माला लिये हुए जप किया करते हैं ।

[কলিকাতায় সর্বদা যাতায়াত আছে, সেখানে ঠনঠনে নিবাসী শ্রীযুক্ত ঈশানচন্দ্র মুখোপাধ্যায় মহাশয় তাঁহাকে সাতিশয় যত্ন করেন ও সাধুর ন্যায় সেবা করেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ তাঁহাকে যত্ন করে রেখেছেন, কাপড় ছিঁড়ে গেলে কাপড় কিনে দেওয়ান, সর্বদা সংবাদ লন ও ঈশ্বরীয় কথা তাঁহার সঙ্গে সর্বদা হয়ে থাকে। হাজরা মহাশয় বড় তার্কিক। প্রায় কথা কহিতে কহিতে তর্কের তরঙ্গে ভেসে একদিকে চলে যেতেন। বারান্দায় আসন করে সর্বদা জপের মালা লয়ে জপ করতেন।

हाजरा महाशय की माता के बीमार पड़ने का हाल आया है । रामलाल के आते समय उन्होंने (हाजरा की माँ ने) उनका हाथ पकड़कर बहुत तरह से कहा था, 'अपने चाचा (श्रीरामकृष्ण) से मेरी विनय सुनाकर कहना वे प्रताप (हाजरा महाशय) को किसी तरह घर भेज दें; एक बार मैं देख लूँ ।'

[হাজরা মহাশয়ের মাতাঠাকুরানীর অসুখ সংবাদ আসিয়াছে। রামলালকে দেশ থেকে আসবার সময় তিনি হাতে ধরে অনেক করে বলেছিলেন, খুড়ো মহাশয়কে আমার কাকুতি জানিয়ে বলো তিনি যেন প্রতাপকে বলে-কয়ে দেশে পাঠিয়ে দেন; একবার যেন আমার সঙ্গে দেখা হয়।

श्रीरामकृष्ण ने हाजरा महाशय से कहा था, 'एक बार घर जाकर अपनी माँ के दर्शन कर आओ । उन्होंने रामलाल से बहुत समझाकर कहा है, माँ को कष्ट देकर भी कभी ईश्वर को पुकारना हो सकता है ? मुलाकात करके चले आना ।

[ ঠাকুর তাই হাজরাকে বলেছিলেন, “একবার বাড়িতে গিয়ে মার সঙ্গে দেখা করে এসো; তিনি রামলালকে অনেক করে বলে দিয়েছেন। মাকে কষ্ট দিয়ে কখন ঈশ্বরকে ডাকা হয়? একবার দেখা দিয়ে বরং চলে এসো।”

भक्तों के उठ जाने पर महिमाचरण हाजरा को साथ लेकर श्रीरामकृष्ण के पास आये । मास्टर भी हैं । महिमाचरण - (श्रीरामकृष्ण से, सहास्य) - महाराज, आपसे एक दुःख-निवेदन है, आपने हाजरा को घर जाने के लिए क्यों कहा ? फिर से संसार में जाने की उसकी इच्छा नहीं है ।

[ভক্তের মজলিস ভাঙিলে পর, মহিমাচরণ হাজরাকে সঙ্গে করিয়া ঠাকুরের কাছে উপস্থিত হইলেন। মাস্টারও আছেন। মহিমাচরণ (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি, সহাস্যে) — মহাশয়! আপনার কাছে দরবার আছে। আপনি কেন হাজরাকে বাড়ি যেতে বলছেন? আবার সংসারে যেতে ওর ইচ্ছা নাই।

[After the devotees had left the Master, Mahimacharan brought Hazra to the room. M. was present. Mahima said to Sri Ramakrishna: "Sir, I have a complaint against you. Why have you asked Hazra to go home? He has no desire to return to his family."

 [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ] 

🔆🙏विवेकज ज्ञान हो जाने पर परिवार में रहने से भी कोई भय नहीं🔆🙏

श्रीरामकृष्ण - उसकी माँ रामलाल के पास बहुत रोयी है । इसीलिए मैंने कहा, तीन ही दिन के लिए चले जाओ, एक बार मिलकर फिर चले आना । माता को कष्ट देकर क्या कभी ईश्वर की साधना होती है ? मैं वृन्दावन में रहता था, तब माँ की याद आयी, सोचा, माँ रोयेंगी, बस, सेजोबाबू के साथ यहाँ चला आया । संसार में जाते हुए ज्ञानी को क्या डर है ? ^*

[ ^* एक प्रासंगिक प्रश्न (a pertinent question)  विवेकज ज्ञान होने के पहले माँ से बिना पूछे यदि बेटा उनसे दूर रहे तो माँ छड़ी से पीटेंगी और खुद रोयेंगी ?]

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ওর মা রামলালের কাছে অনেক দুঃখ করেছে; তাই বললুম, তিনদিনের জন্য না হয় যাও, একবার দেখা দিয়ে এসো; মাকে কষ্ট দিয়ে কি ইশ্বরসাধনা হয়? আমি বৃন্দাবনে রয়ে যাচ্ছিলাম, তখন মাকে মনে পড়ল; ভাবলুম — মা যে কাঁদবে; তখন আবার সেজোবাবুর সঙ্গে এখানে চলে এলুম। “আর সংসারে যেতে জ্ঞানীর ভয় কি?”

MASTER: "His mother has told Ramlal how much she is suffering on account of his being away from home; so I have asked Hazra to go home, at least for three days, and see her. Can anyone succeed in spiritual discipline if it causes suffering to his mother? While visiting Vrindavan I had almost made up my mind to live there, when I remembered my mother. I said to myself, 'My mother will weep if I stay away from her.' So I returned here with Mathur Babu. Besides, why should a jnani like Hazra be afraid of going back to the world?"

महिमाचरण - (सहास्य) - महाराज, हाजरा को ज्ञान (विवेकज ज्ञान) जब हो तब न ?

[মহিমাচরণ (সহাস্যে) — মহাশয়! জ্ঞান হলে তো।

MAHIMA (with a smile): "Sir, that would be a pertinent question if Hazra were a jnani."

 [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ] 

🔆🙏मेरी मामी अब पूर्ण स्वस्थ हैं, वे केवल थोड़ी सी बीमार हैं!🔆🙏

[মামীর সব অসুখ সেরে গেছে, একটু কসুর আছে!

My aunt is now in perfect health, only she is slightly ill.] 

श्रीरामकृष्ण – (सहास्य ) - हाजरा को सब कुछ हो गया है । संसार में थोड़ा सा मन है, कारण, बच्चे आदि हैं और कुछ ऋण है । ‘मामी की सब बीमारी अच्छी हो गयी है, एक नासूर रोग है !' (महिमाचरण आदि सब हँसते हैं ।)

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — হাজরার সবই হয়েছে, একটু সংসারে মন আছে — ছেলেরা রয়েছে, কিছু টাকা ধার রয়েছে। মামীর সব অসুখ সেরে গেছে, একটু কসুর আছে! (মহিমাচরণ প্রভৃতি সকলের হাস্য)

MASTER (smiling): "Oh, Hazra has attained everything. He has just a little attachment to the world because of his children and a small debt. As people say, my aunt is now in perfect health, only she is slightly ill!"

महिमाचरण - कहाँ ज्ञान हुआ महाराज ?

[মহিমা — কোথায় জ্ঞান হয়েছে, মহাশয়?

MAHIMA: "Where, sir, is Hazra's knowledge?"

श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) - नहीं जी, तुम नहीं जानते हो । सब लोग कहते हैं हाजरा एक विशेष व्यक्ति हैं, रासमणि की ठाकुरबाड़ी में रहते हैं । सब लोग हाजरा का ही नाम लेते हैं, यहाँ का (अपने को लक्ष्य कर) नाम कौन लेता है ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিয়া) — না — গো তুমি জান না। সব্বাই বলে, হাজরা একটি লোক, রাসমণির ঠাকুরবাড়িতে আছে। হাজরারই নাম করে, এখানকার নাম কেউ করে? (সকলের হাস্য)

MASTER (smiling): "Oh, you don't know! Everybody says Hazra is quite a man. Everybody knows that he lives in the Dakshineswar temple garden. People talk of nothing but Hazra. Who would bother to mention my name?" (All laugh.)

 [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ] 

🔆🙏निरुपम की लीला हाजरा (जटिला -कुटिला) को प्रणाम किये बिना पुष्ट नहीं होती 🔆🙏

हाजरा - आप निरुपम हैं, आपकी उपमा नहीं है, इसीलिए आपको कोई समझ नहीं पाता ।

[হাজরা — আপনি নিরুপম — আপনার উপমা নাই, তাই কেউ আপনাকে বুঝতে পারে না।

HAZRA: "You, sir, are incomparable. You have no peer in the world. Therefore nobody understands you."

श्रीरामकृष्ण - वही तो, निरुपम से कोई काम भी नहीं निकलता, अतएव यहाँ का नाम कोई क्यों लेने लगा ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তবেই নিরুপমের সঙ্গে কোন কাজ হয় না; তা এখানকার নাম কেউ করবে কেন?

MASTER: "There you are! To be sure, no one can have dealings with the incomparable. So why should people mention me at all?"

महिमा - महाराज, वह क्या जाने ? आप जैसी आज्ञा देंगे, वह वैसा ही करेगा ।

[মহিমা — মহাশয়! ও কি জানে? আপনি যেরূপ উপদেশ দেবেন ও তাই করবে।

MAHIMA: "What does he know, sir? He will do your bidding."

श्रीरामकृष्ण – नहीं, तुम चाहे उससे पूछ देखो, उसने मुझसे कहा है, मेरा तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন, তুমি ওকে বরং জিজ্ঞাসা কর; ও আমায় বলেছে, তোমার সঙ্গে আমার লেনা-দেনা নাই।

MASTER: "That is not so. You had better ask him about it. He said to me, 'You and I are on even terms.'"

महिमा - तर्क बहुत करता है ।

[মহিমা — ভারী তর্ক করে!

MAHIMA: "He argues a great deal."

श्रीरामकृष्ण - वह कभी कभी मुझे शिक्षा देता है । (सब हँसते हैं ।) लेकिन जब वह मुझसे बहस करने पर उतारू हो जाता  करता है तब कभी मैं गाली दे बैठता हूँ । बहस के बाद कभी मसहरी के भीतर लेटा हुआ रहता हूँ, फिर यह सोचकर कि मैंने उसे कहीं नाराज तो नहीं कर दिया, निकल आता हूँ, हाजरा को प्रणाम कर जाता हूँ, तब चित्त स्थिर होता है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ও মাঝে মাঝে আমায় আবার শিক্ষা দেয়। (সকলের হাস্য) তর্ক যখন করে, হয়তো আমি গালাগালি দিয়ে বসলুম। তর্কের পর মশারির ভিতর হয়তো শুয়েছি; আবার কি বলেছি মনে করে বেরিয়ে এসে হাজরাকে প্রণাম করে যাই, তবে হয়!

MASTER: "Now and then he teaches me a lesson. (All laugh.) Sometimes I scold him when he argues too much. Later, when I am lying in bed inside the mosquito curtain, I feel unhappy at the idea of having offended him. So I leave the bed, go to Hazra, and salute him. Then I feel peace of mind.

 [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ] 

[वेदांत,शुद्धात्मा और ईश्वर ]

🔆🙏 चुंबक शुद्धआत्मा स्थिर है, सुई रूपी (मन की तीनों अवस्थाओं) का साक्षी है🔆🙏  

श्रीरामकृष्ण – (हाजरा से) - तुम शुद्धात्मा को ईश्वर क्यों कहते हो ? शुद्धात्मा निष्क्रिय है, तीनों अवस्थाओं का साक्षीस्वरूप है । जब हम सृष्टि, स्थिति और प्रलय के कार्यों की चिन्ता करते हैं, तभी ईश्वर को मानते हैं । शुद्धात्मा उसी तरह है जैसे दूर पर पड़ा हुआ चुम्बक पत्थर; सुई हिल रही है, परन्तु चुम्बक पत्थर चुपचाप पड़ा हुआ है - निष्क्रिय है

(হাজরার প্রতি) — “তুমি শুদ্ধাত্মাকে ঈশ্বর বল কেন? শুদ্ধাত্মা নিষ্ক্রিয়, তিন অবস্থার সাক্ষিস্বরূপ। যখন সৃষ্টি, স্থিতি প্রলয় কার্য ভাবি তখন তাঁকে ঈশ্বর বলি। শুদ্ধাত্মা কিরূপ — যেমন চুম্বক পাথর অনেক দূরে আছে, কিন্তু ছুঁচ নড়ছে — চুম্বক পাথর চুপ করে আছে নিষ্ক্রিয়।”

(To Hazra) "Why do you address the Pure Atman as 'Isvara'? The Pure Atman is inactive and is the Witness of the three states. When I think of the acts of creation, preservation, and destruction, then I call the Pure Atman 'Isvara'. What is the Pure Atman like? It is like a magnet lying at a great distance from a needle. The needle moves, but the magnet lies motionless, inactive."

[“तराजू में किसी ओर कुछ रख देने से नीचे की सुई और ऊपर की सुई दोनों बराबर नहीं रहतीं। नीचे की सुई मन है और ऊपर की सुई ईश्वर । नीचे की सुई का ऊपर की सुई से एक होना ही योग है।” कठोपनिषद (1.3.3 ) में मनुष्य-शरीर की तुलना घोड़ागाड़ी से की गई है। इसमें आत्मा गाड़ी का मालिक अर्थात सवार है। बुद्धि सारथी अर्थात् कोचवान है, मन लगाम है, 5 इन्द्रियाँ घोड़े हैं। इन्द्रियों के 5 विषय वे मार्ग हैं, जिन पर इन्द्रियाँरूपी घोड़े दौड़ते हैं। आत्मारूपी सवार अपने लक्ष्य (ईश्वर या परमात्मा) तक तभी पहुँचेगा, जब बुद्धिरूपी सारथी मनरूपी लगाम को अपने वश में रखकर इन्द्रियाँरूपी घोड़ों को सन्मार्ग पर चलाएगा

(८)

 [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ] 

🔆🙏सन्ध्या-संगीत और ईशान से संवाद🔆🙏

सन्ध्या हो रही है । श्रीरामकृष्ण टहल रहे हैं । मणि को अकेले बैठे हुए और कुछ सोचते हुए देखकर एकाएक श्रीरामकृष्ण ने उनसे स्नेह भरे स्वरों में कहा - "मरकीन के एक-दो कुर्ते ला देना, सब के कुर्ते मैं पहन भी नहीं सकता - कप्तान से कहने के लिए सोचा था, परन्तु अब तुम्हीं ला देना ।" मणि खड़े हो गये, कहा, “जो आज्ञा ।"

[সন্ধ্যা আগতপ্রায়। ঠাকুর পাদচারণ করিতেছেন। মণি একাকী বসিয়া আছেন ও চিন্তা করিতেছেন দেখিয়া, ঠাকুর হঠাৎ তাঁহাকে সম্বোধন করিয়া সস্নেহে বলিতেছেন, “গোটা দু-এক মার্কিনের জামা দিও, সকলের জামা তো পরি না — কাপ্তেনকে বলব মনে করেছিলাম, তা তুমিই দিও।” মণি দাঁড়াইয়া উঠিয়াছিলেন, বলিলেন, “যে আজ্ঞা।”

Toward evening Sri Ramakrishna was pacing the room. M. was sitting alone, thinking. Suddenly the Master said to him tenderly: "Please give me a couple of linen shirts. As you know, I cannot use everybody's things. I thought of asking Captain for the shirts, but you had better give them to me." M. felt highly gratified and said, "As you please, sir."

सन्ध्या हो गयी है । श्रीरामकृष्ण के कमरे में धूप दी गयी । वे देवताओं को प्रणाम करके, बीज मन्त्र जपकर, नामकीर्तन कर रहे हैं । घर के बाहर विचित्र शोभा है । आज कार्तिक की शुक्ला सप्तमी है । चन्द्रमा की निर्मल किरणों में एक ओर श्रीठाकुरमन्दिर जैसे हँस रहा है, दूसरी और भागीरथी सोते हुए शिशु के हृदय की तरह काँप रही है । ज्वार पूरा हो गया है । 

[সন্ধ্যা হইল। শ্রীরামকৃষ্ণের ঘরে ধুনা দেওয়া হইল। তিনি ঠাকুরদের প্রণাম করিয়া, বীজমন্ত্র জপিয়া, নামগান করিতেছেন। ঘরের বাহিরে অপূর্ব শোভা! কার্তিক মাসের শুক্লপক্ষের সপ্তমী তিথি। বিমল চন্দ্রকিরণে একদিকে ঠাকুরবাড়ি হাসিতেছে, আর-একদিকে ভাগীরথীবক্ষ সুপ্ত শিশুর বক্ষের ন্যায় ঈষৎ বিকম্পিত হইতেছে। জোয়ার পূর্ণ হইয়া আসিল। 

आरती का शब्द गंगा के स्निग्ध और उज्ज्वल प्रवाह से उठती हुई कलध्वनि से मिलकर बहुत दूर जाकर विलीन हो रहा था । श्रीठाकुर-मन्दिर में एक ही साथ तीन मन्दिरों में आरती हो रही है – काली-मन्दिर में, विष्णु-मन्दिर में और शिव-मन्दिर में । द्वाद्वश-शिव-मन्दिरों में एक एक के बाद आरती होती है ।

[আরতির শব্দ গঙ্গার স্নিগ্ধোজ্জ্বল প্রবাহসমুদ্ভূত কলকলনাদ সঙ্গে মিলিত হইয়া বহুদূর পর্যন্ত গমন করিয়া লয়প্রাপ্ত হইতেছিল। ঠাকুরবাড়িতে এককালে তিন মন্দিরে আরতি — কালীমন্দিরে, বিষ্ণুমন্দিরে ও শিবমন্দিরে। দ্বাদশ শিবমন্দিরে এক-একটি করিয়া শিবলিঙ্গের আরতি।

पुरोहित एक शिव-मन्दिर से दूसरे में जा रहे हैं, बायें हाथ में घण्टा है, दाहिने मे पंच प्रदीप, साथ में परिचारक है, हाथ में झाँझ लिये हुए । आरती हो रही है, उसके साथ श्रीठाकुर-मन्दिर के दक्षिण-पश्चिम के कोने से शहनाई की मधुर ध्वनि सुन पड़ रही है ।वहीं नौबतखाना है, सन्ध्या की रागिनी बज रही है ।

[ পুরোহিত শিবের একঘর হইতে আর-একঘরে যাইতেছেন। বাম হস্তে ঘণ্টা, দক্ষিণ হস্তে পঞ্চপ্রদীপ, সঙ্গে পরিচারক — তাহার হস্তে কাঁসর। আরতি হইতেছে, তৎসঙ্গে ঠাকুরবাড়ির দক্ষিণ-পশ্চিম কোণ হইতে রোশনচৌকির সুমধুর নিনাদ শুনা যাইতেছে। সেখানে নহবতখানা, সন্ধ্যাকালীন রাগরাগিণী বাজিতেছে। 

At dusk incense was burnt in Sri Ramakrishna's room, and, as usual, he bowed before the pictures of gods and goddesses on the walls and chanted their names softly. From outside one could hear the murmuring of the Ganges and the music of the evening worship in the temples of Kali, Vishnu, and Siva. Through the door one could see the priest at a distance moving from one temple to another, a bell in his left hand and a light in his right, an attendant carrying the gong. 

आनन्दमयी के नित्य उत्सव से जीवों को मानो यह शिक्षा मिल रही है, कोई निरानन्द न होना, ऐहिक भावों में सुख और दुःख तो हैं ही; जगदम्बा भी तो है; फिर क्या चिन्ता, आनन्द करो । दासी के लड़के को अच्छा भोजन और अच्छे कपड़े नहीं मिलते, न उसके अच्छा घर है, न अच्छा द्वार, फिर भी उसके हृदय में यह भरोसा रहता है कि उसके माँ है ।

[আনন্দময়ীর নিত্য উৎসব — যেন জীবকে স্মরণ করাইয়া দিতেছে — কেহ নিরানন্দ হইও না — ঐহিকের সুখ-দুঃখ আছেই; থাকে থাকুক — জগদম্বা আছেন। আমাদের মা আছেন! আনন্দ কর! দাসীপুত্র ভাল খেতে পায় না, ভাল পরতে পায় না, বাড়ি নাই ঘর নাই, — তবু বুকে জোর আছে; তার যে মা আছে। 

एकमात्र माता की गोद उसका अवलम्ब है । यह बनी-बनायी माँ नहीं, अपनी निजी माँ है । मैं कौन हूँ, कहाँ से आया, कहाँ जाऊँगा, सब माँ जानती है । इतना सोचेगा कौन ? मैं जानना भी नहीं चाहता । अगर समझने की जरूरत होगी तो वे समझा देंगी ।

[মার কোলে নির্ভর। পাতানো মা নয়, সত্যকার মা। আমি কে, কোথা থেকে এলাম, আমার কি হবে, আমি কোথায় জাব, সব মা জানেন। কে অত ভাবে! আমার মা জানেন — আমার মা, যিনি দেহ, মন, প্রাণ, আত্মা দিয়ে আমায় গড়েছেন। আমি জানতেও চাই না। যদি জানবার দরকার হয় তিনি জানিয়ে দিবেন। অত কে ভাবে? মায়ের ছেলেরা সব আনন্দ কর!

The evening melody was in harmony with the spirit of the hour and place and with the innermost thoughts of the worshippers. For the time being the sordid things of daily life were forgotten.

 [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ] 

🔆🙏ईश्वर पर विश्वास से ईश्वर की प्राप्ति - ईशान को कर्मयोग का उपदेश🔆🙏 

[বিশ্বাসে ঈশ্বরলাভ — ঈশানকে কর্মযোগ উপদেশ ]

बाहर कौमुदी की उज्ज्वलता में संसार हँस रहा है और भीतर कमरे में भगवत्-प्रेमाभिलिप्त श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । कलकत्ते से ईशान आये हैं । फिर ईश्वरी प्रसंग हो रहा है । ईशान को ईश्वर पर बड़ा विश्वास है । वे कहते हैं, जो घर से निकलते समय एक बार भी दुर्गा नाम स्मरण कर लेते हैं, शूल हाथ में लिये हुए शूलपाणि उनके साथ जाया करते हैं । विपत्ति में फिर भय क्या है ? शिव स्वयं उसकी रक्षा करते हैं ।

[বাহিরে কৌমুদীপ্লাবিত জগৎ হাসিতেছে; কক্ষমধ্যে শ্রীরামকৃষ্ণ হরিপ্রেমানন্দে বসিয়া আছেন। ঈশান কলিকাতা হইতে আসিয়াছেন, আবার ইশ্বরীয় কথা হইতেছে। ঈশানের ভারী বিশ্বাস। বলেন, একবার যিনি দুর্গানাম করে বাড়ি থেকে যাত্রা করেন, তাঁর সঙ্গে শূলপাণি শূলহস্তে যান। বিপদে ভয় কি? শিব নিজে রক্ষা করেন।

Later Sri Ramakrishna was seated in his room in his usual blissful mood. Ishan had come from Calcutta. He had burning faith in God. He used to say, "If a man leaves the house with the hallowed name of Durga on his lips, then Siva Himself protects him with His celestial weapons."

श्रीरामकृष्ण - (ईशान से) - तुम्हें बड़ा विश्वास है । हम लोगों को इतना नहीं है । (सब हँसते हैं ।) विश्वास से ही वे मिलते हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (ঈশানের প্রতি) — তোমার খুব বিশ্বাস — আমাদের কিন্তু অত নাই। (সকলের হাস্য) বিশ্বাসেই তাঁকে পাওয়া যায়।

MASTER (to Ishan): "You nave great faith. But I haven't so much. (All laugh.) God can be realized only through faith."

ईशान - जी हा ।

[ঈশান — আজ্ঞা হাঁ।

ISHAN: "Yes, sir."

श्रीरामकृष्ण - तुम जप, सन्ध्या, उपवास, पुरश्चरण, यह सब कर्म कर रहे हो । यह अच्छा है । जिसकी ईश्वर पर अन्तर से लगन रहती है, उससे वे यह सब काम करा लेते हैं । फल की कामना न करके यह सब कर्म कर लेने से मनुष्य उन्हें अवश्य पाता है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি জপ, আহ্নিক, উপবাস, পুরশ্চরণ — এই সব কর্ম করছ তা বেশ। যার আন্তরিক ঈশ্বরের উপর টান থাকে, তাকে দিয়ে তিনি এই সব কর্ম করিয়ে লন। ফলকামনা না করে এই সব কর্ম করে জেতে পারলে নিশ্চিত তাঁকে লাভ হয়।

MASTER: "You practise religious rites — japa, fasting, and the like. That is very good. If a man feels sincerely drawn to God, then God makes him practise all these disciplines. The devotee will certainly realize God if he practises them without desiring their results.

 [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ] 

*सन्ध्या-संगीत और ईशान से संवाद

🔆🙏वैधि भक्ति और राग-भक्ति, वैधी-अनुष्ठान (सन्ध्या,पुश्चरण) कब छूट जाते है?🔆🙏 

[বৈধীভক্তি ও রাগভক্তি — কর্মত্যাগ কখন? ]

“शास्त्रों में बहुत से निर्धारित अनुष्ठान का पालन करने का आदेश दिया है, इसलिए मैं कर रहा हूँ’ - इस तरह की भक्ति को वैधी भक्ति कहते हैं । एक और है, राग-भक्ति । वह अनुराग से होती है। ईश्वर पर प्रीति आने पर होती है, जैसे प्रह्लाद को हुई थी । उस भक्ति के आने पर फिर वैधी अनुष्ठानों (शास्त्र अनुमोदित जप, सन्ध्या, उपवास, पुरश्चरण आदि अनुष्ठानों ) की आवश्यकता नहीं होती ।"

[“শাস্ত্র অনেক কর্ম করতে বলে গেছে — তাই করছি; এরূপ ভক্তিকে বৈধীভক্তি বলে। আর-এক আছে, রাগভক্তি। সেটি অনুরাগ থেকে হয়, ঈশ্বরে ভালবাসা থেকে হয় — যেমন প্রহ্লাদের। সে ভক্তি যদি আসে, আর বৈধী কর্মের প্রয়োজন হয় না।

 A devotee observes many rites because of the injunctions of the scriptures. Such devotion is called vaidhi-bhakti. But there is a higher form of devotion known as raga-bhakti, which springs from yearning and love for God. Prahlada had such devotion. When the devotee develops that love, he no longer needs to perform prescribed rites."

*(३) 

 [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ] 

🔆🙏सेवक (मणि) का विचार मंथन🔆🙏

सन्ध्या होने के पूर्व 'मणि' घूम रहे हैं और सोच रहे हैं कि 'राम की इच्छा' यह तो बहुत अच्छी बात है । इससे तो प्रारब्ध (Predestination-अदृष्ट), स्वाधीन इच्छा(Free Will), स्वतन्त्रता (Liberty), आवश्यकता (Necessity), आदि सब का झगड़ा मिट जाता है ।

[সন্ধ্যার পূর্বে মণি বেড়াইতেছেন ও ভাবিতেছেন — “রামের ইচ্ছা” এটি তো বেশ কথা! এতে তো Predestination আর Free will, Liberty আর — Necessity এ-সব ঝগড়া মিটে যাচ্ছে। 

मुझे डाकुओं ने पकड़ लिया, इसमें भी 'राम की इच्छा’; फिर मैं तम्बाकू पीता हूँ इसमें भी 'राम की इच्छा', डाकूगिरी करता हूँ इसमें भी 'राम की इच्छा'; मुझे पुलिस ने पकड़ लिया, इसमें भी 'राम की इच्छा'; मैं साधु हो गया, इसमें भी 'राम की इच्छा’; मैं प्रार्थना करता हूँ कि हे प्रभु ! मुझे असदबुद्धि मत देना - मुझसे डकैती मत कराना, यह भी 'राम की इच्छा' है ।

[ আমায় ডাকাতে ধরে নিলে “রামের ইচ্ছায়”; আবার আমি তামাক খাচ্ছি “রামের ইচ্ছায়”, আমি ডাকাতি করছি “রামের ইচ্ছায়। আমায় পুলিসে ধরলে “রামের ইচ্ছায়”, আমি সাধু হয়েছি “রামের ইচ্ছায়”, আমি প্রার্থনা করছি, “হে প্রভু আমায় অসদ্বুদ্ধি দিও না — আমাকে দিয়ে ডাকাতি করিয়ো না” — এও “রামের ইচ্ছা”

सद् इच्छा और असद् इच्छा वे ही देते हैं । फिर भी एक बात है, असद् इच्छा वे क्यों देंगे ? - डकैती करने की इच्छा वे क्यों देंगे ? इसके उत्तर में श्रीरामकृष्णदेव ने कहा, “उन्होंने जानवरों में जिस प्रकार बाघ, सिंह, सर्प उत्पन्न किये हैं, पेड़ों में जिस प्रकार विष का भी पेड़ पैदा किया है, उसी प्रकार मनुष्यों में चोर-डाकू भी बनाये हैं । ऐसा उन्होंने क्यों किया ? इसे कौन कह सकता है ? ईश्वर को कौन समझेगा ?

[ সৎ ইচ্ছা, অসৎ ইচ্ছা তিনি দিচ্ছেন। তবে একটা কথা আছে, অসৎ ইচ্ছা তিনি কেন দিবেন — ডাকাতি করবার ইচ্ছা তিনি কেন দিবেন? তার উত্তরে ঠাকুর বলেন এই, — তিনি জানোয়ারের ভিতর যেমন বাঘ, সিংহ, সাপ করেছেন; গাছের ভিতর যেমন বিষগাছও করেছেন, সেইরূপ মানুষের ভিতর চোর, ডাকাতও করেছেন। কেন করেছেন? কেন করেছেন, তা কে বলবে? ঈশ্বরকে কে বুঝবে?

 [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ] 

🔆🙏जब तक मैं यंत्र हूँ ऐसा बोध नहीं होता, विवेक-प्रयोग करना होगा🔆🙏  

“किन्तु यदि उन्होंने ही सब किया है तो उत्तरदायित्व का भाग (Sense of Responsibility) नष्ट हो जाता है, पर वह क्यों होगा ? जब तक ईश्वर को न जानोगे, उनके दर्शन न होंगे, तब तक 'राम की इच्छा' इस बात का सोलह आने बोध नहीं होगा । उन्हें प्राप्त न करने से यह बात एक बार समझ में आती है, फिर भूल हो जाती है । जब तक पूर्ण विश्वास न होगा, तब तक पाप-पुण्य का बोध, उत्तरदायित्व (Responsibility) का बोध रहेगा ही ।

[“কিন্তু তিনি যদি সব করেছেন, Sense of responsibility তো যায়; তা কেন যাবে? ঈশ্বরকে না জানলে, তাঁর দর্শন হলে “রামের ইচ্ছা”, এটি ষোল আনা বোধই হবে না। তাঁকে লাভ না করলে এটি এক-একবার বোধ হয়; আবার ভূল হয়ে যাবে। যতক্ষণ না পূর্ণ বিশ্বাস হয়, ততক্ষণ পাপ-পুণ্য বোধ, responsibility বোধ, থাকবেই থাকবে। 

श्रीरामकृष्णदेव ने समझाया, 'राम की इच्छा' । तोते की तरह 'राम की इच्छा' मुँह से कहने से नहीं चल सकता । जब तक ईश्वर को नहीं जाना जाता, उनकी इच्छा से हमारी इच्छा का ऐक्य नहीं होता, जब तक 'मैं यन्त्र हूँ' ऐसा बोध नहीं होता, तब तक वे पाप-पुण्य का ज्ञान, सुख-दुःख का ज्ञान, पवित्र अपवित्र का ज्ञान, अच्छे-बुरे का ज्ञान नष्ट नहीं होने देते, उत्तरदायित्व का ज्ञान (Sense of Responsibility) नष्ट नहीं होने देते, ऐसा न होने से उनका मायामय संसार कैसे चलेगा ?

[ঠাকুর বুঝালেন, “রামের ইচ্ছা”। তোতা পাখির মতো “রামের ইচ্ছা” মুখে বললে হয় না। যতক্ষণ ঈশ্বরকে জানা না হয়, তাঁর ইচ্ছায় আমার ইচ্ছায় এক না হয়, যতক্ষণ না “আমি যন্ত্র” ঠিক বোধ হয়, ততক্ষণ তিনি পাপ-পুণ্য বোধ, সুখ-দুঃখ বোধ, শুচি-অশুচি বোধ, ভাল-মন্দ বোধ রেখে দেন; Sense of responsibility রেখে দেন; তা না হলে তাঁর মায়ার সংসার কেমন করে চলবে?

 [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ] 

🔆🙏 सनातन धर्म की वैश्विक अवधारणा ~ अंतिम विजय भक्ति की ही होती है🔆🙏   

 [সনাতন ধর্মের বিশ্বজনীন ভাব ~  ভক্তিরই জয়। ধন্য শ্রীরামকৃষ্ণ!] 

[ Universal concept of Sanatan Dharma~

 Final victory is of devotion only.]   

श्रीरामकृष्णदेव की भक्ति की बात जितनी सोचता हूँ, उतना ही अवाक् रह जाता हूँ । जब उन्होंने सुना कि केशव सेन हरिनाम लेते हैं, ईश्वर का चिन्तन करते हैं, तो ये तुरन्त उन्हें मिलने के लिए गये और केशव तुरन्त उनके आत्मीय भी हो गये । उस समय उन्होंने कप्तान की बातें नहीं सुनीं । केशव विलायत गये हैं, उन्होंने साहबों के साथ खाया है, कन्या को दूसरी जाति के पुरुष के साथ ब्याह दिया है - कप्तान की ये सब बातें गायब हो गयी ।

[“ঠাকুরের ভক্তির কথা যত ভাবিতেছি, ততই অবাক্‌ হইতেছি। কেশব সেন হরিনাম করেন, ঈশ্বরচিন্তা করেন, অমনি তাঁকে দেখতে ছুটেছেন, — অমনি কেশব আপনার লোক হলেন। তখন কাপ্তেনের কথা আর শুনলেন না। তিনি বিলাতে গিয়াছিলেন, সাহেবদের সঙ্গে খেয়েছেন, কন্যাকে ভিন্ন জাতিতে বিবাহ দিয়াছেন — এ-সব কথা ভেসে গেল!

"भक्ति के सूत्र में साकारवादी और निराकारवादी एक हो जाते हैं; हिन्दू, मुसलमान, ईसाई एक हो जाते हैं; चारों वर्ण एक हो जाते हैं । भक्ति की ही जय होती है । धन्य श्रीरामकृष्ण ! तुम्हारी भी जय ! तुम्हीं ने सनातन धर्म के इस विश्वजनीन भाव को फिर से मूर्तिमान किया । इसीलिए समझता हूँ कि तुम्हारा इतना आकर्षण है !

[ ভক্তিসূত্রে সাকারবাদী, নিরাকারবাদী এক হয়; হিন্দু মুসলমান, খ্রীষ্টান এক হয়; চারি বর্ণ এক হয়। ভক্তিরই জয়। ধন্য শ্রীরামকৃষ্ণ! তোমারই জয়। তুমি সনাতন ধর্মের এই বিশ্বজনীন ভাব আবার মূর্তিমান করিলে।তাই বুঝি তোমার এত আকর্ষণ! 

सब धर्मावलम्बियों को तुम परम आत्मीय समझकर आलिंगन करते हो ! तुम्हारी भक्ति है । तुम सिर्फ देखते हो - अन्दर ईश्वर की भक्ति और प्रेम है या नहीं ? यदि ऐसा हो तो वह व्यक्ति तुम्हारा आत्मीय है - भक्तिमान यदि दिखायी पड़े तो वह जैसा तुम्हारा परम् आत्मीय है ।

[সকল ধর্মাবলম্বীদের তুমি পরমাত্মীয়-নির্বিশেষে আলিঙ্গন করিতেছ! তোমার এক কষ্টিপাথর ভক্তি। তুমি কেবল দেখ — অন্তরে ঈশ্বরে ভালবাসা ও ভক্তি আছে কিনা। যদি তা থাকে অমনি সে তোমার পরম আত্মীয়

मुसलमान को भी यदि अल्लाह के ऊपर प्रेम हो, तो वह भी तुम्हारा अपना आदमी होगा; ईसाई को यदि ईसा के ऊपर भक्ति हो, तो वह तुम्हारा परम आत्मीय होगा । तुम कहते हो कि सब नदियाँ भिन्न-भिन्न दिशाओं से बहकर समुद्र में गिरती हैं । सब का गन्तव्य स्थान एक समुद्र ही है ।

[ — হিন্দুর যদি ভক্তি দেখ, অমনি সে তোমার আত্মীয় — মুসলমানের যদি আল্লার উপর ভক্তি থাকে, সেও তোমার আপনার লোক — খ্রীষ্টানদের যদি যীশুর উপর ভক্তি থাকে, সেও তোমার পরম আত্মীয়। তুমি বল যে, সব নদীই ভিন্ন দিগ্‌দেশ হইতে আসিয়া এক সমুদ্রমধ্যে পড়িতেছে। সকলেরই উদ্দেশ্য এক সমুদ্র।

   [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ] 

🔆🙏भक्ति-वेदान्त: ब्रह्म, जीव और जगत तीनों सत्य हैं- (रामानुजाचार्य)🔆🙏

“ठाकुर देव ने शंकर की तरह जगत को स्वप्नवत नहीं कहा है। वे कहते हैं , 'बीज-खोपड़ा बाद देने से बेल का वजन कम जायेगा। ' मायावाद नहीं -विशिष्ट अद्वैतवाद ! श्रीरामकृष्ण जीव-जगत को माया (illusory -अवास्तविक) नहीं कहते हैं; दृष्टिगोचर जगत को मन का भ्रम नहीं कहते हैं। उनके अनुसार सब सच है - ईश्वर सत्य है , मनुष्य सत्य है , जगत सत्य है। बेल के बीज और खोपड़ा को बाद देने से, बेल का पूरा वजन नहीं मिलेगा !

[“ঠাকুর এই জগৎ স্বপ্নবৎ বলছেন না। বলেন, ‘তাহলে ওজনে কম পড়ে’। মায়াবাদ নয়। বিশিষ্টাদ্বৈতবাদ। কেন না, জীবজগৎ অলীক বলছেন না, মনের ভুল বলছেন না। ঈশ্বর সত্য আবার মানুষ সত্য, জগৎ সত্য। জীবজগৎবিশিষ্ট ব্রহ্ম। বিচি খোলা বাদ দিলে সব বেলটা পাওয়া যায় না।

       

"सुना है, यह जगत् ब्रह्माण्ड महाचिदाकाश में आविर्भूत होता है, फिर कुछ समय के बाद उसी में लय हो जाता है - महासमुद्र में लहर उठती है, फिर समय पाकर लय हो जाती है । आनन्द-सिन्धु के जल में अनन्त-लीला-तरंगें हैं । इन लीलाओं का आरम्भ कहाँ है ? अन्त कहाँ है?


[“শুনিলাম, এই জগৎব্রহ্মাণ্ড মহাচিদাকাশে আবির্ভূত হইতেছে আবার কালে লয় হইতেছে — মহাসমুদ্রে তরঙ্গ উঠিতেছে আবার কালে লয় হইতেছে! আনন্দসিন্ধুনীরে অনন্ত-লীলাহরী! এ লীলার আদি কোথায়? অন্ত কোথায়? 

उसे मुँह से कहा नहीं जाता - मन से सोचा नहीं जाता । मनुष्य की क्या शक्ति - उसकी बुद्धि की ही क्या शक्ति ! सुनते हैं, महापुरुष समाधिस्थ होकर उसी नित्य परम पुरुष का दर्शन करते हैं - नित्य लीलामय हरि का साक्षात्कार करते हैं । अवश्य ही करते हैं कारण, श्रीरामकृष्णदेव ऐसा कहते हैं ।

[তাহা মুখে বলিবার জো নাই — মনে চিন্তা করিবার জো নাই। মানুষ কতটুকু! তার বুদ্ধিই বা কতটুকু! শুনিলাম মহাপুরুষেরা সমাধিস্থ হয়ে সেই নিত্য পরমপুরুষকে দর্শন করেছেন — নিত্য লীলাময় হরিকে সাক্ষাৎকার করেছেন। অবশ্য করেছেন, কেননা ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণও বলিতেছেন। 

किन्तु चर्मचक्षुओं से नहीं, मालूम पड़ता है, - दिव्य चक्षु जिसे कहते हैं उसके द्वारा - जिन नेत्रों को पाकर अर्जुन ने विश्वरूप का दर्शन किया था, जिन नेत्रों से ऋषियों ने आत्मा का साक्षात्कार किया था जिस दिव्य चक्षु से ईसा अपने स्वर्गीय पिता का बराबर दर्शन करते थे । वे नेत्र कैसे प्राप्त  होते हैं ?

[তবে এ-চর্মচক্ষে নয়, বোধ হয় দিব্যচক্ষু যাহাকে বলে তাহার দ্বারা; যে দিব্যচক্ষুপাইয়া অর্জুন বিশ্বরূপ-দর্শন করেছিলেন, যে চক্ষুর দ্বারা ঋষিরা আত্মার সাক্ষাৎকার করেছিলেন, যে দিব্যচক্ষুর দ্বারা ঈশা তাঁহার স্বর্গীয় পিতাকে অহরহ দর্শন করিতেন। সে চক্ষু কিসে হয়?

श्रीरामकृष्णदेव के मुँह से सुना था, वह व्याकुलता के द्वारा होता है । इस समय वह व्याकुलता किस प्रकार हो सकती है ? क्या संसार का त्याग करना होगा ? ऐसा भी तो उन्होंने आज नहीं कहा !”

[ ঠাকুরের মুখে শুনিলাম ব্যাকুলতার দ্বারা হয়। এখন সে ব্যাকুলতা হয় কেমন করে, সংসার কি ত্যাগ করতে হবে? কই, তাও তো আজ বললেন না।”

[सृष्टि की रचना : रामानुजाचार्य ने कहा कि जिस प्रकार एक मकड़ी अपने अंदर से जाला बुनती है, उसी प्रकार ब्रह्म भी अपने अंदर से इस सृष्टि की रचना करता है।  वही इस जगत का नियन्‍ता है, और प्रत्‍येक प्राणी को उसके कर्मों के अनुसार जीवन प्रदान होता है।  उन्‍होंने ब्रह्म को सगुण यानी कि गुणयुक्‍त माना।  इनका ब्रह्म केवल निराकार ही नहीं है,  वह साकार रूप भी धारण कर सकता  है।  उसमें जीवों की तरह ज्ञान, शक्ति, कल्‍याण तथा करूणा के गुण मौजूद हैं,  वह सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है, और सर्वव्‍यापी है। 

`सनातन धर्म की वैश्विक अवधारणा - भक्ति की ही अंतिम विजय होगी '  की नींव पर रामानुजाचार्य ने भक्ति की ईमारत खड़ी करके भविष्‍य के भक्तिकाल (श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा-Be and Make ') के लिए मार्ग प्रशस्‍त किया।  वे विष्‍णु के उपासक यानी कि वैष्‍णव संत थे।  उन्‍होंने पूरी निडरता के सा‍थ यह घोषणा की कि विष्‍णु की आराधना करने वाला प्रत्‍येक भक्त समान है, क्‍योंकि चाहे वे ऊँची जाति वाले हों, या नीची जाति वाले हों, सभी ब्रह्म की ही अभिव्‍यक्ति हैं। इसी दर्शन की अभिव्यक्ति हमें हमारे संविधान के मूल अधिकारों में हुई है, विशेषकर अनुच्छेद 14,15,16 और 18 में।

रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत वाद :  ब्रह्म एक विशिष्ट वस्तु है, जिसमें जीव और जगत् विशेषण रूप से स्थित हैं। ब्रह्म आत्मा या केन्द्रीभूत तत्व है। जीव और जगत् ब्रह्म के देह हैं। ब्रह्म, जीव और जगत् यद्यपि भिन्न हैं, तथापि तीनों सत्य हैं।  परन्तु इन तीनों में केवल ब्रह्म ही स्वाधीन है तथा जीव और जगत् ब्रह्मधीन एवं ब्रह्म द्वारा नियंत्रित हैं।  इस दृष्टि से आचार्य रामानुजाचार्य की प्रतिमा को ‘स्‍टेच्‍यू ऑफ इक्‍वैलिटी’ कहना एकदम सटीक है। दरअसल, रामानुजाचार्य का मूल उद्देश्‍य जाति एवं वर्ण व्‍यवस्‍था के कारण विभाजित भारतीय समाज में व्‍याप्‍त असमानता को दूर करना था।  समाज मूलभूत चार जातिवर्ग में विभाजित था।  इनमें चतुर्थ वर्ग, विशेषकर अस्‍पृश्‍य मान लिये गये वर्ग की आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्‍कृतिक स्थिति पशुओं से भी बदतर थी।  स्वयं ब्राह्मण होते हुए भी रामानुजाचार्य ने  इस असमानता को दूर करने का बीड़ा उठाया था। इसके लिए उन्‍होंने जो दार्शनिक पद्धति दी थी , वह विशिष्‍टाद्वैतवाद कहलाई।  यह दार्शनिक पद्धति आदि शंकराचार्य के अद्वैतवाद की प्रतिक्रया में आई थी। रामानुजाचार्य ने शंकराचार्य का विरोध करते हुए कहा कि ‘नहीं, यह जो संसार है, वह भ्रम नहीं है।  चाहे वह ब्रह्म हो, जीव हो या जगत हो, ये तीनों सत्‍य हैं, यथार्थ हैं।  जिसे हम देख रहे हैं, छू सकते हैं, वह भ्रम कैसे हो सकता है ? इन तीनों में उन्‍होंने ब्रह्म को श्रेष्‍ठ मानते हुए कहा कि ब्रह्म और जीव, यानी कि ब्रह्म और मनुष्‍य एक नहीं हैं।  ब्रह्म सम्‍पूर्ण है, और जीव इसका एक अंश मात्र है।  फिर सम्‍पूर्ण और अंश, दोनों बराबर कैसे हो सकते हैं।  चूंकि उन्‍होंने ब्रह्म और जीव को भिन्‍न-भिन्‍न माना, शंकराचार्य की तरह दोनों को अभिन्‍न (अद्वैत – को नहीं) नहीं माना, इसलिए उनका यह दर्शन विशिष्‍टाद्वैत (विशिष्ट +अद्वैत) कहलाया।


 अस्‍पृश्‍य जाति के एक भक्‍त थे – तिरुप्‍पन आलवार, जिन्‍होंने ‘तिरु वैमोली’ नामक ग्रन्‍थ रचा था।  रामानुजाचार्य ने उस समय के महापंडितों के विरोध की परवाह न करते हुए इस ग्रन्‍थ को वेद के रूप में स्‍वीकार किया।  लेकिन यह सब आसान नहीं था।  उनका जबर्दस्‍त विरोध हुआ।  मंदिर के पुजारियों द्वारा उन्‍हें विष देकर मारने का षड़यंत्र किया गया।  किन्‍तु उन्‍होंने 120 वर्ष की आयु पूरी करके सन् 1137 में अंतिम सांस ली।  इस पूरे दौर में वे इस सामाजिक एवं धार्मिक समानता के लिए वैचारिक युद्ध करते रहे।

 

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बशीर बद्र : 

देने वाले ने दिया सब कुछ अजब अंदाज से,

सामने दुनिया पड़ी है और उठा सकते नहीं।

हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है,

जिस तरफ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जायेगा।

दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे

जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिंदा न हों।

कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, यूं ही कोई बेवफ़ा नहीं होता।]

'हाथी नारायण-माहुत नारायण' की दृष्टांत कथा

The so-called secular question: When Tulsidas ji says , "Siyaram May Sab Jag Jani", then why do those who say Jai Shri Ram do not see Siyaram in their country's (stone pelters?) people?

तथाकथित सेक्यूलर प्रश्न : जब तुलसीदास जी ऐसा कहते हैं, "सियाराम मय सब जग जानी" तो जय श्रीराम  कहने वालों को अपने देश के 'पत्थरबाज' लोगों में भी सियाराम क्यों नहीं दिखाई देते हैं?

उत्तर : हम भारतीयों में एक कमी है, हम अच्छे विचार सुनते है परन्तु उन्हें कार्य में परिणित नहीं कर पातें। इसी परिप्रेक्ष्य में श्रीरामकृष्ण देव ने बताया हुआ 'हाथी नारायण-माहुत नारायण' का दृष्टांत स्मरणीय है।

एक गुरुकुल में गुरुदेव ने अपने शिष्यों को शिक्षा दी कि नारायण सभी जीवों में वास करते है। एक दिन एक शिष्य आश्रम के लिए लकड़ी आदि चीजे लाने बहर गया। उसी समय उस रास्ते से एक पागल हाथीभी जा रहा था। हाथीपर बैठा माहुत चिल्लाकर कह रहा था - रास्ते से हट जाईये, पागल हाथी आरहा है ! बाकी सारे लोग रास्ते से हट गये परन्तु यह शिष्य माहुत कि बात सुनकर भी नारायण स्तुति करते हुए हाथी के सामने खड़ा रहा।

हाथी को तो यह वेदान्त का उच्च विचार पता नहीं था। हाथीने उस शिष्य को उठाकर फेंक दिया और आगे चला गया। यह घटना सुनकर गुरु और अन्य शिष्य उसके पास आये और उसे होश में लाया गया। गुरुदेव ने उसे पुछा कि बाकी सब लोग रास्ते से हट गये परन्तु तुम क्यूँ हाथी के सामने खड़े रहे ? शिष्य ने उत्तर दिया :- यह सब आपकी कृपा है, आपने कहा था सर्व भूतों में नारायण है; इसलिए मै वहाँ नारायण स्तुति गाते खड़ा रहा। गुरुदेव ने कहा :- तुम मूर्ख हो ! नारायण तो हाथी में निश्चित रूप से है, परन्तु माहुत में भी तो नारायण है। तुमने माहुत नारायण कि बात क्यूँ नहीं सुनी ? यह है चातुर्यपूर्ण व्यवहार !इस तरह अनेक दृष्टांत के माध्यम से श्रीरामकृष्ण देव ने विचार को कार्यरूप में परिणत करने के उपदेश दिए है ।" --स्वामी रंगनाथानन्द। 

गुरु निस्पृहता : सदगुरु वही है जिसे शिष्यादि की कामना  नहीं होती और शिष्य वही है जो बिना शिखा छेदनादि के ही भाव से होता है । इस प्रकार के गुरु-शिष्य होने पर उन्हें शिष्य बनाने और गुरु बनाने का दोष नहीं देना चाहिए । ऐसे गुरु शिष्य तो मिल कर ज्ञानामृत का पान करते हैं ।

✦ जैसे कमल कोश अपने आप ही खिलता है, उस के मन में यह नहीं है कि - मेरे पर भ्रमर आवे किन्तु भ्रमर आप ही आकर कमल की सुगंध में ऐसे फंस जाता है कि अपने को भी भूल जाता है ।

 वैसे ही गुरु नहीं चाहते कि - मेरे पास शिष्य आवें किन्तु शिष्य स्वयं ही अपने कल्याणार्थ गुरु के पास आते हैं ।


Ans : One of our weaknesses in India is that we hear a teaching but don’t know how to apply it intelligently. In this connection, Sri Ramakrishna’s parable of the Elephant Narayana and Mahut Narayana is helpful to us.

`A guru was living in an ashrama with his disciple. He had taught them that Narayana (God) is present in all beings. One day, the disciples went out to secure fuel and other things for the ashrama. Just then a mad elephant was passing on the road with the mahut on its back shouting: ‘Clear the way; a mad elephant is coming!’ Hearing this warning, all the disciples except one moved away to safety. That one disciple stood facing the elephant, chanting hymns to Narayana, disregarding the mahut’s constant warning to move away. The elephant, unfortunately, did not know this high Vedanta! It took hold of the youth, threw him aside and went on its way. 

Hearing about the incident, the guru and his other disciples came to where he was, brought him back to consciousness, and the guru asked him why, when all others moved away from the path of the mad elephant, he alone stood there. The disciple replied, ‘It is all your grace. You taught us that Narayana is in all beings; so I stood there worshipping the Elephant Narayana.’ The guru said, ‘What a fool you are! Narayana is certainly in the elephant, but is He not also in the mahut? Why did you not listen to the words of the Mahut Narayana?’ This is intelligent application of a teaching. Like this, there are many parables of significance in Sri Ramakrishna’s teachings./ Swami Ranganathananda. 

तुलसीदास जी जब “रामचरितमानस” लिख रहे थे, तो उन्होंने एक चौपाई लिखी:

💝सिय राम मय सब जग जानी,

करहु प्रणाम जोरी जुग पानी ।।💝

अर्थात –पूरे संसार में श्री राम का निवास है, सबमें भगवान हैं और हमें उनको हाथ जोड़कर प्रणाम कर लेना चाहिए।

चौपाई लिखने के बाद तुलसीदास जी विश्राम करने अपने घर की ओर चल दिए। रास्ते में जाते हुए उन्हें एक लड़का मिला और बोला –अरे महात्मा जी, इस रास्ते से मत जाइये आगे एक बैल गुस्से में लोगों को मारता हुआ घूम रहा है। और आपने तो लाल वस्त्र भी पहन रखे हैं तो आप इस रास्ते से बिल्कुल मत जाइये।

तुलसीदास जी ने सोचा – ये कल का बालक मुझे चला रहा है। मुझे पता है – सबमें राम का वास है। मैं उस बैल के हाथ जोड़ लूँगा और शान्ति से चला जाऊंगा। लेकिन तुलसीदास जी जैसे ही आगे बढे तभी बिगड़े बैल ने उन्हें जोरदार टक्कर मारी और वो बुरी तरह गिर पड़े। अब तुलसीदास जी घर जाने की बजाय सीधे उस जगह पहुंचे जहाँ वो रामचरित मानस लिख रहे थे। और उस चौपाई को फाड़ने लगे, तभी वहां हनुमान जी प्रकट हुए और बोले – श्रीमान ये आप क्या कर रहे हैं?

तुलसीदास जी उस समय बहुत गुस्से में थे, वो बोले – ये चौपाई बिल्कुल गलत है। ऐसा कहते हुए उन्होंने हनुमान जी को सारी बात बताई। हनुमान जी मुस्कुराकर तुलसीदास जी से बोले – श्रीमान, ये चौपाई तो शत प्रतिशत सही है। आपने उस बैल में  तो श्री राम को देखा लेकिन उस बच्चे में राम को नहीं देखा जो आपको बचाने आये थे। भगवान तो बालक के रूप में आपके पास पहले ही आये थे लेकिन आपने देखा ही नहीं।

ऐसा सुनते ही तुलसीदास जी ने हनुमान जी को गले से लगा लिया।

*घर पर रहे शायद यही राम जी की इच्छा हो*

*जो मोदी जी ने कहा/ योगी जी ने किया वो राम जी ने कहा/किया  हो*

💝गंगा बड़ी, न गोदावरी, न तीर्थ बड़े प्रयाग।

सकल तीर्थ का पुण्य वहीं, जहाँ हदय राम का वास।।💝

!!🚩 बोल सियापति रामचन्द्र की जय 🚩!!

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भगवद गीता, भगवान का गीत, स्वामी मुकुंदानंद की व्याख्या : (Bhagavad Gita The Song of God, Commentary by Swami Mukundananda)

भगवद्गीता में कुल अठारह अध्याय हैं। इन्हें तीन खंडों में संयोजित किया जा सकता  है। प्रथम खण्ड के छः अध्यायों में निष्काम कर्म (कर्मयोग) का वर्णन किया गया है। दूसरे खण्ड के छह अध्याओं में निष्काम भक्ति (भक्तियोग) की महिमा को पोषित करने का वर्णन हुआ है। यह भगवान के ऐश्वर्यों की ओर भी ध्यान आकर्षित करता है। तीसरे खण्ड के छः अध्यायों में तत्त्वज्ञान (ज्ञानयोग) पर व्याख्या की गयी है। 

अध्याय-एक/अर्जुन विषाद योग : युद्ध के परिणाम पर शोक प्रकट करना (='अहिंसा परमो धर्मः' का राग अलापना)। 

भगवद्गीता का प्रकटीकरण राजा धृतराष्ट्र और उसके मंत्री संजय के बीच हुए वार्तालाप से आरम्भ होता है। चूंकि धृतराष्ट्र नेत्रहीन था इसलिए वह व्यक्तिगत रूप से युद्ध में उपस्थित नहीं हो सका। अत: संजय उसे युद्धभूमि पर घट रही घटनाओं का पूर्ण सजीव विवरण सुना रहा था। संजय महाभारत के प्रख्यात रचयिता वेदव्यास का शिष्य था। ऋषि वेदव्यास ऐसी चमत्कारिक शक्ति से संपन्न थे जिससे वह दूर-दूर तक घट रही घटनाओं को प्रत्यक्ष रूप से देखने में समर्थ थे। अपने गुरु की अनुकंपा से संजय ने भी दूरदृष्टि की दिव्य चमत्कारिक शक्ति प्राप्त की थी। इस प्रकार से वह युद्ध भूमि में घटित सभी घटनाओं को दूर से देख सका। भगवद्गीता का उपदेश एक ही वंश के दो परिवारों के चचेरे भाइयों कौरव और पाण्डवों के मध्य हुए महाभारत के युद्ध की रणभूमि पर दिया गया। जिसमें शारीरिक बल के प्रयोग से इस झगड़े का निपटारा करना था। लेकिन श्रीकृष्ण तो 'भवरोग-वैद्य' थे, वे अर्जुन को बतलाते हैं कि अवतार (गुरु या जीवनमुक्त मार्गदर्शक नेता) की शरण में रहकर जो युद्ध करता है, विजय उसकी ही होगी।  

अध्याय दो/सांख्य योग : विश्लेषणात्मक ज्ञान का योग। निष्काम या निःस्वार्थ कर्म, निष्काम भक्ति और ज्ञान (अर्थात नित्य-अनित्य विवेक) के सम्मिलन से मोक्ष-प्राप्ति। [अर्थात कर्म और भक्ति के साथ विवेक-प्रयोग का सम्मिलन  (नित्य-अनित्य विवेक, सत्य-असत्य-मिथ्या विवेक के सम्मिलन) से मोक्ष-(D-hypnotized अवस्था, स्थित प्राज्ञ अवस्था की) प्राप्ति।)    

इस अध्याय में अर्जुन श्रीकृष्ण को अपना नेता मानकर  उचित मार्गदर्शन प्रदान करने की प्रार्थना करता है। प्रभु उसे विवेक-प्रयोग की शिक्षा देते हुए कहते हैं, कि `शरीर अनित्य और आत्मा जन्म-मृत्यु रहित तथा नित्य है; शरीर के नष्ट होने पर भी वह नहीं मरती ! अर्जुन को अमरत्व की शिक्षा'  देकर दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं। आत्मा एक जन्म से दूसरे जन्म में उसी प्रकार से शरीर परिवर्तित करती है जिस प्रकार से मनुष्य पुराने वस्त्र त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है। इसके पश्चात श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि स्वधर्म-पालन मनुष्य का अवश्यमेव कर्तव्य है। क्षत्रिय के सामाजिक दायित्त्वों  को स्मरण कराते हैं कि धर्म की मर्यादा हेतु योद्धा के रूप में युद्ध लड़ना उसका कर्त्तव्य है। वे स्पष्ट करते हैं कि किसी के द्वारा अपने नैतिक कर्तव्यों का पालन करना एक पुण्य का कार्य है जो स्वर्ग जाने का द्वार खोलेगा किन्तु कर्त्तव्यों से विमुख होने से केवल तिरस्कार और अपयश प्राप्त होगा। 

अध्याय तीन/कर्मयोग : कर्म का विज्ञान क्या है ? कर्म के रहस्य को जान लेना। 'दुःख कामिनी -कांचन में आसक्ति से आता है , कर्म से नहीं ....।' 'मैं ' और 'मेरा ' भाव ही दुःख का कारण है। अतः सभी कर्म श्रीभगवान को अर्पित करना , और कर्तापन के अभिमान का त्याग करना -ये दोनों साधनायें अनिवार्य हैं।  गृहस्थ यदि निःस्वार्थ भक्त हो , ....अर्थात ठाकुर-माँ -स्वामीजी का भक्त तो वह अनासक्त होकर कर्म करता है। गृहस्थ यदि निःस्वार्थभाव से किसीको कुछ देता है (ज्ञान-दान, अन्नदान) तो वह अपने ही उपकार के लिए; परोपकार के लिए नहीं।  सब भूतों में हरि की ही सेवा करता है, केवल मनुष्यों की नहीं , बल्कि जीव-जंतुओं में भी। दूसरों का उपकार और दूसरों का कल्याण तो ईश्वर करते हैं -जिन्होंने जीव की रक्षा के लिए सूर्य , चन्द्र, माता-पिता और उनकी निःस्वार्थ ममता, फल-फूल , अन्न-जल , आदि दिए हैं। दयालु व्यक्ति के भीतर जो दया देखते हो, वह उन्हीं की दया है, निःसहाय जीव की रक्षा के लिए उन्हीं की देन है। तुम चाहे दया [रिलीफ वर्क ] करो या न करो , वे किसी न किसी तरह से अपना काम कर ही लेंगे, उनका काम रुका नहीं रहेगा। सेवाधर्म या निःस्वार्थ कर्म मनुष्य को श्रीभगवान के समीप पहुंचा देता है।

इस अध्याय में श्रीकृष्ण यह समझाते हैं कि जो निवृत्ति मार्ग के अधिकारी नहीं हुए हों , किन्तु गेरुए वस्त्र धारण कर बाह्य रूप से वैराग्य प्रदर्शित करते हैं; लेकिन आंतरिक रूप से इन्द्रिय विषयों के भोगों के प्रति आसक्ति रखते हैं, वे ढोंगी हैं। जो प्रवृत्ति मार्ग के अधिकारी कर्मयोग का अनुपालन करते हुए बाह्य रूप से निरन्तर कर्म करते रहते हैं लेकिन उनमें आसक्त नहीं होते, वे उनसे श्रेष्ठ हैं।  जब हम भगवान के प्रति आभार व्यक्त करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं तब ऐसे कर्म यज्ञ बन जाते हैं। वे जो इस सृष्टि चक्र में अपने उत्तरदायित्व को स्वीकार नहीं करते, वे पापी हैं। वे केवल इन्द्रिय सुख प्राप्त करने के लिए जीवित रहते हैं और उनका जीवन व्यर्थ हो जाता है।

श्रीकृष्ण कहते हैं शेष जीवकोटि के मनुष्यों से भिन्न ऐसी प्रबुद्ध आत्माएँ जो ईश्वरकोटि की हों और आत्मज्ञान में स्थित रहती हैं, उन  ज्ञानी पुरुषों (ब्रह्मवेत्ता नेता)  को संसार के अनुसरणार्थ उच्च आदर्श प्रस्तुत करने के लिए बिना किसी प्रयोजन और बिना व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए निरन्तर कर्म करना होगा। यह अज्ञानी को अपरिपक्व अवस्था में ही अपने नियत दायित्वों का त्याग करने से रोकेगा।  प्राचीन युग में महान राजर्षियों जैसे कि राजा जनक और अन्य राजाओं (बिजनेसमैन या उद्यमी)  का यही उद्देश्य था जिन्होंने अपने सांसारिक दायित्वों का निर्वाहन किया था।

तत्पश्चात अर्जुन पूछता है कि लोग अनिच्छा से पापपूर्ण कर्मों में (घूस खाने में - या adultery, परस्त्री -गमन में) प्रवत्त क्यों होते हैं? क्या उन्हें बलपूर्वक पाप कर्मों में लगाया जाता है। परम प्रभु श्रीकृष्ण बताते हैं कि संसार का सर्वभक्षी पाप-पूर्ण शत्रु केवल काम-वासना (कामिनी-कांचन में आसक्ति) ही है। जिस प्रकार से अग्नि धुंए से ढकी रहती है, दर्पण धूल से ढका रहता है उसी प्रकार से कामना-वासना (कामिनी -कांचन में घोर आसक्ति या तीनो ऐषणाएँ) मनुष्य के आत्म- ज्ञान पर आवरण डाल देती है। और उसकी बुद्धि का विनाश कर देती है-  मनुष्य विवेक खोकर पशुओं जैसा आचरण करने लगता है। फिर श्रीकृष्ण अर्जुन से आह्वान करते हैं कि वह इस कामना रूपी शत्रु (कामिनी-कांचन में आसक्ति)  का संहार कर दें जो पाप का मूर्तरूप है और अपनी इन्द्रिय, मन और बुद्धि को वश में करें, (गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त नेता, `C-IN-C नवनीदा' के निर्देशानुसार मनःसंयोग का अभ्यास या विवेकदर्शन का अभ्यास करें )। 

अध्याय चार/ज्ञान कर्म संन्यास योग : ज्ञान का योग और कर्म का अनुशासन। 

चौथे अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन को विवेकज-ज्ञान (दिव्य ज्ञान ) में पहुँचने के उपाय रूप से सनातन गुरु-शिष्य परम्परा, अवतार तत्व (नेता या गुरुतत्व) के मार्गदर्शन में मनःसंयोग (मानसिक एकाग्रता विधि =लीडरशिप -ट्रेनिंग, Mental Concentration Method या विवेक-दर्शन का अभ्यास) के आदिकालीन स्रोत (स्वयं भगवान विष्णु का एक नाम नेता क्यों है), के रहस्य को प्रकट करते हुए उसमें उसके विश्वास को पुष्ट करते हैं। वे अर्जुन को बताते हैं कि यह~ 'मनःसंयोग पद्धति का प्रशिक्षण' ही वह शाश्वत ज्ञान है जिसका उपदेश उन्होंने आरम्भ में सर्वप्रथम सूर्यदेव को दिया था और फिर परम्परागत पद्धति से यह ज्ञान निरन्तर राजर्षियों तक पहँचा। 

तब अर्जुन प्रश्न करता है कि वे श्रीकृष्ण जो वर्तमान में उसके सम्मुख खड़े हैं वे इस ज्ञान का उपदेश युगों पूर्व सूर्यदेव को कैसे दे सके? इसके प्रत्युत्तर में श्रीकृष्ण अपने अवतारों का रहस्य ( तथा ईश्वरकोटि के मनुष्यों में अन्तर का रहस्य) प्रकट करते हैं। भक्तिमार्ग में श्रीभगवान (नेता) का 'अवतारतत्व ' इस अध्याय का एक श्रेष्ठ अवदान है। अवतार तथा उनके लिला-सहचरों के जीवनभर के कर्म और साधना का एकमात्र लक्ष्य है - `लोक-कल्याण -साधन। ' केवल 'भारत का कल्याण' के उद्देश्य को सामने रखकर केवल परार्थ या सम्पूर्ण मानवजाति के कल्याण के लिए कोई युवा-आंदोलन खड़ा किया जा सकता है, इसको केवल उसके संस्थापक नेता नवनीदा के व्यावहारिक जीवन को देखकर समझा जा सकता है।  वे बताते हैं कि भगवान अजन्मा और सनातन हैं फिर भी वे अपनी योगमाया शक्ति द्वारा धर्म की स्थापना के लिए पृथ्वी पर प्रकट होते हैं . लेकिन उनके जन्म और कर्म दिव्य होते हैं, और वे भौतिक विकारों से दूषित नहीं हो सकते। जो इस रहस्य को जानते हैं वे अगाध श्रद्धा के साथ उनकी भक्ति में तल्लीन रहते हैं और उन्हें प्राप्त कर फिर इस संसार में पुनः जन्म नहीं लेते। 

इसके पश्चात निष्काम -कर्म की प्रकृति का व्याख्यान करते हुए कहते हैं, कि कर्मयोगी (Be and Make ' आंदोलन का नेता) अनेक प्रकार के सांसारिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए अकर्मा की अवस्था प्राप्त कर लेते हैं; और इसलिए वे कार्मिक प्रतिक्रियाओं में नहीं फंसते। इसी ज्ञान के साथ प्राचीन काल में राजर्षि जनक सफलता और असफलता, सुख-दुख से प्रभावित हुए बिना केवल भगवान (अपने इष्टदेव) के सुख के लिए यज्ञ के रूप में कर्म करते थे। 

जब यज्ञ (`Be and Make ' युवा प्रशिक्षण शिविर) पूर्ण समर्पण की भावना से सम्पन्न किए जाते हैं तब इनके (यज्ञ के) अवशेष अमृत के समान बन जाते हैं-नेवले का आधा शरीर सोने का बन गया था । ऐसे अमृत का पान करने से साधक के भीतर की अशुद्धता समाप्त हो जाती है-और एकदिन माँ जगदम्बा के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण  तथा उनके लिला-सहचरों के जीवन भर के कर्म और साधना का एक मात्र लक्ष्य है -`लोक-कल्याण साधन ' अर्थात ठाकुर के जन्मतिथि से ही 'सत्य युग ' का प्रारम्भ हो चुका है (जीवनमुक्त नेता CINC नवनीदा द्वारा स्थापित महामण्डल की जन्मतिथि-23 अक्टूबर 1967 से 'सत्य युग ' को चरित्रनिर्माण आंदोलन द्वारा स्थापित करने का कार्य प्रारम्भ हो चुका है), हमें केवल उसके प्रचार- प्रयास का निमित्त बनकर अपना जीवन धन्य करना--सार्थक करना या आत्मसाक्षात्कार की अनुभूति करना है ! और  उन्हीं की कृपा से उन्हें  आत्मसाक्षात्कार की अनुभूति होती है। इसलिए यज्ञों का अनुष्ठान पूर्ण निष्ठा और ज्ञान के साथ करना चाहिए। ऐसा दिव्य ज्ञान (मनःसंयोग का प्रशिक्षण) वास्तविक आध्यात्मिक गुरु/नेता CINC नवनीदा से प्राप्त करना चाहिए जो परम सत्य को जान चुका हो। श्रीकृष्ण गुरु के रूप में अर्जुन से कहते हैं कि ज्ञान की खड्ग से अपने हृदय में उत्पन्न हुए सन्देहों को काट दो, उठो और युद्ध लड़ने के अपने कर्त्तव्य का पालन करो

अध्याय पाँच/ कर्म संन्यास योग : वैराग्य आदि साधन चतुष्टय का योग। 

ब्रह्मविद बनना या वेदान्त का अधिकारी बनना सामान्य जीवकोटि के लिए सम्भव नहीं है। साधन चतुष्टय से सम्पन्न व्यक्ति ही ब्रह्मविद्या लाभ के अधिकारी हैं।  स्वयं को बन्धन से मुक्त करने का पहला साधन है-"नित्यानित्यवस्तुविवेक"-' ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है' ऐसा जो निश्चय है यही नित्यानित्यवस्तुविवेक कहलाता है। दूसरा साधन है वैराग्य. वैराग्य किसे कहेंगे? अनित्य पदार्थों के प्रति भोगाकर्षण की समाप्ति हीं वैराग्य है। तीसरा साधन है षट्सम्पत्ति का अर्जन। आचार्य शंकर  ने शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा (शास्त्र और गुरूवाक्यों में -'आस्तिक्यबुद्धि) , समाधान (अपनी बुद्धि को सब प्रकार शुद्ध ब्रह्म में ही सदा स्थिर रखना इसी को 'समाधान' कहा है। चित्त की इच्छापूर्ति का नाम समाधान नहीं है।)  जो स्वयं को बन्धन से मुक्त करना चाहता हो वह इन सम्पत्ति का अर्जन करे। -चौथा साधन है  "मुमुक्षता" अर्थात् बन्धन से मुक्त होने की इच्छा।  जब तक बंधन से मुक्त होने की इच्छा का उदय नहीं होता उपरोक्त तीनों साधन अपने आप में मोक्ष दिलाने में असमर्थ होते हैं। 

इस अध्याय में कर्म संन्यास के मार्ग (निवृत्ति मार्ग) की तुलना कर्मयोग के मार्ग (प्रवृत्ति-मार्ग)  के साथ की गयी है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि दोनों मार्ग (धर्म) एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं और हम इनमें से किसी एक का चयन कर सकते हैं। लेकिन कर्म का त्याग तब तक पूर्णरूप से नहीं किया जा सकता। जब तक मन पूर्णतः शुद्ध न हो जाए।  और (चित्त शुद्धि) केवल भक्ति के साथ कर्म करने से प्राप्त होती है। इसलिए कर्मयोग (प्रवृत्ति मार्ग) बहुसंख्यक लोगों के लिए उपयुक्त विकल्प है। 

अध्याय छह/ध्यानयोग : ध्यान का योग। प्रत्येक योग का एक ही उद्देश्य है - जीवात्मा का उद्धार या आत्मानुभूति, या भूमानन्द में प्रतिष्ठा ! उस अवस्था में सर्वत्र ब्रह्मदर्शन (विवेक-दर्शन) होता है। अर्थात `एकमेवाद्वितीयं ', 'नेह नानास्ति किंचन ', ऐसी अनुभूति होती है।   

छठे अध्याय में श्री कृष्ण कहते हैं कि ध्यान  द्वारा योगी मन को वश में करने का प्रयास करते हैं क्योंकि अप्रशिक्षित मन हमारा सबसे बुरा शत्रु है और प्रशिक्षित मन हमारा प्रिय मित्र है।आगे फिर वे मन को भगवान में एकीकृत (एकाग्र)  करने के लिए साधना (विवेक-दर्शन के अभ्यास की पद्धति-पंचांग योग)  का वर्णन करते हैं। जिस प्रकार से वायु रहित स्थान पर रखे दीपक की ज्वाला में झिलमिलाहट नहीं होती। ठीक उसी प्रकार साधक को मन साधना में स्थिर रखना चाहिए। वास्तव में मन को वश में करना कठिन है लेकिन अभ्यास और वैराग्य द्वारा इसे नियंत्रित किया जा सकता है। वैराग्य अभ्यास से भी अधिक अनिवार्य है , इसलिए मन जहाँ कहीं भी भटकने लगे तब हमें वहाँ से इसे वापस लाकर निरन्तर भगवान में केंद्रित करना चाहिए। जब मन शुद्ध हो जाता है तब यह अलौकिकता में स्थिर हो जाता है। आनन्द की इस अवस्था को समाधि कहते हैं जिसमें मनुष्य असीम दिव्य आनन्द प्राप्त करता है। इसके पश्चात अर्जुन उस साधक के भाग्य के संबंध में प्रश्न करता है जो इस मार्ग का अनुसरण करना आरम्भ तो करता है लेकिन अस्थिर मन के कारण लक्ष्य तक पहुँचने में असमर्थ रहता है। 

श्रीकृष्ण उसे पुनः आश्वस्त करते हैं कि, " न हि कल्याणकृत् कश्चित् दुर्गतिं तात गच्छति ॥"हे पार्थ ! आत्मोद्वार के लिये अर्थात् भगवत्प्राप्ति के लिये कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता ।। (गीता 6 - 40)  पूर्व जन्मों में संचित हमारे आध्यात्मिक गुणों का लेखा-जोखा भगवान सदैव रखते हैं और अगले जन्मों में उस ज्ञान को पुनः जागृत करते हैं ताकि हमने अपनी यात्रा को जहाँ से छोड़ा था उसे वहीं से पुनः आगे जारी रख सकें। अनेक पूर्व जन्मों से अर्जित पुण्यों और गुणों के साथ योगी अपने वर्तमान जीवन में भगवान तक पहुँचने में समर्थ हो सकता है। इस अध्याय का समापन इस उद्घोषणा के साथ होता है कि  योगियों में से जो भक्ति में तल्लीन रहता है वह सर्वश्रेष्ठ होता है।

अध्याय सात/ज्ञान विज्ञान योग : दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग। श्रीरामकृष्ण ने कहा था --" ईश्वर हैं , जो इतना जान गया हो -उसका नाम है ज्ञानी। लकड़ी में निश्चित आग है , इसको जानने वाला ज्ञानी है। किन्तु लकड़ी जलाकर रसोई पकाना और खाना तथा पूर्ण परितृप्त हो जाना , जिसको होता है , उसका नाम विज्ञानी है। " अर्थात ब्रह्म (अवतार) को शब्द और अर्थ से जानने का नाम है -ज्ञान।  और ब्रह्म को विशेषरूप से जानकर उसमें निरंतर विलास करना , ब्रह्मानन्द में डूबा रहना है विज्ञान। " विज्ञानी के 8 पाश (बंधन) खुल जाते हैं , काम-क्रोध आदि का आकार मात्र रहता है। विज्ञानी सदा ईश्वर (ब्रह्म) का दर्शन करते हैं, इसीलिए ऐसा रेलपेल (उन्मत्त) भाव है। ऑंखें खोल कर भी देखते हैं। कभी नित्य में और कभी लीला में रहते हैं , फिर कभी लीला से नित्य में जाते हैं। 

" किसी ने दूध का नाम सुना है , किसी ने देखा है और किसी ने पिया है। विज्ञानी ने  दूध पिया है। और पीकर आनन्द -लाभ किया है और हृष्टपुष्ट भी हुए हैं। ईश्वर विज्ञानी (नेता या ईश्वरकोटि ) में आत्माभिन्न ब्रह्म की अपरोक्षानुभूति के बाद भी कुछ 'मैं ' छोड़ रखते हैं -लोकशिक्षा के लिए। .... नारद आदि आचार्य विज्ञानी थे। जो लोग केवल ज्ञानी होते हैं -वे भयभीत रहते हैं ; किन्तु विज्ञानी को किसी का भय नहीं होता। उन्होंने साकार और निराकार ब्रह्म के दोनों रूपों  साक्षात्कार किया है , ईश्वर के साथ वार्तालाप भी किया है , ईश्वर के आनन्द का पूर्ण उपभोग भी किया है !! साधारण मनुष्य ज्ञानी तक हो सकता है, विज्ञानी की अवस्था में नहीं पहुँच सकता।ईश्वर-कोटि अथवा आधिकारिक पुरुष जैसे नारद ,शुकदेव , बुद्ध, आचार्य शंकर आदि , वे विज्ञानी की अवस्था में पहुँच सकते हैं और बाद में श्रीभगवान की विशेष इच्छा से -जीवनभूमि 'में उतर आते हैं , केवल लोक-कल्याण के लिए।               

यह अध्याय भगवान की शक्तियों के भौतिक (अविद्या माया) और आध्यात्मिक आयामों (विद्या माया) के वर्णन के साथ आरम्भ होता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि उनका वास्तविक स्वरूप उनकी दिव्य योगमाया शक्ति के आवरण द्वारा आच्छादित रहता है और इसलिए उनके अविनाशी दिव्य स्वरूप को सब (जीवकोटि के मनुष्य) नहीं जान सकते।  उनकी दैवी शक्ति माया पर विजय प्राप्त करना अत्यंत दुष्कर है लेकिन वे (ईश्वरकोटि) जो भगवान के शरणागत हो जाते हैं वे उनकी कृपा प्राप्त करते हैं और इस पर सरलता से विजय पा लेते हैं। यदि हम उनकी शरण ग्रहण करते हैं तब वे हमें उन्हें जानने का अपना दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं। 

अध्याय आठ/अक्षर ब्रह्म योग : अविनाशी भगवान का योग। 

आठवें अध्याय  में कुछ महत्वपूर्ण शब्दों और अवधारणाओं का वर्णन करता है जिनका उपनिषदों में विस्तार से उल्लेख किया गया है। इसमें यह वर्णन भी किया गया है कि मृत्यु के पश्चात आत्मा के गन्तव्य का निर्धारण किस प्रकार से होता है। `यह तत्व ' जानकर कि समस्त काम्य कर्मों के द्वारा अर्जित स्वर्ग (72 हूरें और शराब) आदि अनित्य हैं, और वहाँ भोगों का अंत होने के बाद पुनः संसार में जन्म लेना अनिवार्य है - यह तत्व जानकर कि नाशवान स्वर्ग-फल  तुच्छ हैं , को समझ लेने के बाद योगी निःस्वार्थ भाव से योगनिष्ठ होकर विष्णु के परम पद को प्राप्त करते हैं।    

देह का त्याग करते समय यदि हम भगवान का स्मरण करते हैं तब हम निश्चित रूप से उसे पा लेंगे। इस अध्याय में भौतिक क्षेत्र में स्थित कुछ लोकों की चर्चा की गयी है। इसमें बताया गया है कि सृष्टि के चक्र में ये लोक और इन पर निवास करने वाले असंख्य प्राणी कैसे इनमें प्रकट होते हैं और प्रलय के समय पुनः अव्यक्त हो जाते हैं।किन्तु इस व्यक्त और अव्यक्त सृष्टि से परे भगवान का दिव्य लोक है। वे जो प्रकाश के मार्ग का अनुसरण करते हैं, वे अंततः दिव्यलोक में पहुँचते हैं और फिर कभी नश्वर संसार में लौट कर नहीं आते जबकि अंधकार के मार्ग का अनुसरण करने वाले लोग जन्म, रोग, बुढ़ापे और मृत्यु के अनन्त चक्रों में देहान्तरण करते रहते हैं। इसलिए अपने दैनिक कार्यों को सम्पन्न करने के साथ-साथ हमें सदैव उसकी विशेषताओं, गुणों और दिव्य लीलाओं का चिन्तन करना चाहिए। जब हम अनन्य भक्ति से अपने मन को भगवान में पूर्णतया तल्लीन कर लेते हैं, तब हम भौतिक आयामों से परे आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। 

अध्याय नौ/राज विद्या योग : 'राज विद्या' द्वारा योग।  केवल भक्ति से ही परमात्मा का दर्शन सम्भव हैं।  जीवों के कल्याण के लिये मनुष्यदेह धारण भी उनकी एक लीला है ; और इसीको अवतार-लीला कहते हैं। .... आद्या शक्ति की सहायता से अवतार-लीला होती है। अवतार  देखना और ईश्वर को देखना एक ही बात है। उनके अवतार को देखने से ही उनका दर्शन हो जाता है। 'मनुष्य को प्रेम,भक्ति सिखलाने के लिए ईश्वर समय-समय पर मनुष्य-देह धारण कर अवतीर्ण होते हैं। अवतार 10 हैं , 24 अवतार भी हैं , फिर अवतार असंख्य भी हैं। अवतार या अवतार के अंश (अपने लोग) सभी ईश्वरकोटि हैं , साधारण मनुष्यों को जीवकोटि कहते हैं। जो लोग जीवकोटि हैं , वे साधन करते हैं , ईश्वर-लाभ तक कर सकते हैं। किन्तु वे निर्विकल्प समाधिस्थ होने पर फिर लौट नहीं सकते। जो लोग ईश्वरकोटि हैं वे मानो राजपुत्र हैं ,सातों फाटक की कुंजी उनके हाथ में है।  वे सातवें मंजिल तक चढ़ जाते हैं और इच्छानुसार नीचे उतर सकते हैं। जीवकोटि मानो छोटे कर्मचारी हैं। 7 मंजिले मकान के कुछ मंजिलों तक ही वे चढ़ सकते हैं , बस। " 

अवतार (नेता) के हाथ में मुक्ति की कुंजी है। वे (अवतारी पुरुष) स्पर्श से , यहाँ तक कि  केवल इच्छामात्र से (आँखों में भीतर झाँक कर) दूसरे के भीतर धर्मशक्ति (आत्मस्मृति) संचारित कर सकते हैं। उनकी शक्ति से हीनतम अधर्माचारी व्यक्ति भी क्षणभर में साधु बन जाता है। " [नवनीदा के जीवन में इसका प्रमाण मिलता है। दादा ने एक बार कहा था - "तुम यदि राजपुत्र हो, तो क्या मैं राजा नहीं हूँ ? "] अनन्त भगवान 'साढ़े तीन हाथ ' मनुष्य बनकर संसार में आते हैं और मनुष्यों की तरह व्यवहार करते हैं ' --यह मानो एकदम अविश्वनीय घटना है। साधन-भजन के द्वारा इसका रहस्योद्घाटन सम्भव नहीं है। अवतार को देखकर ही -अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम्। नारद भ ० सू ० -५१ " इस वाक्य का आशय समझना कुछ सम्भव है। "चैतन्य चरितामृत" ग्रन्थ में मिलता है - 

' कृष्णेर यतेक खेला, सर्वोत्तम नरलीला, नरवपु ताहार स्वरुप।" 

-- कृष्ण के जितने खेल हैं उसमें नर-लीला सर्वोत्तम है। उसमें मनुष्य शरीर ही उनका स्वरुप है।                  

नौवें अध्याय में उन्होंने अपनी परम महिमा का व्याख्यान किया है जिससे विस्मय, श्रद्धा और भक्ति उत्पन्न होती है। वे यह बोध कराते हैं कि यद्यपि वे अर्जुन के सम्मुख साकार रूप में खड़े हैं किन्तु उन्हें (गुरु/नेता को) मनुष्य के रूप में मानने की दुर्भावना धारण नहीं करनी चाहिए।  केवल भगवान ही आराधना का एक मात्र लक्ष्य हैं। इसे स्पष्ट करते हुए भगवान श्रीकृष्ण बहु हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा के मिथ्या भ्रम का समाधान करते हैं। "विभिन्न देवदेवियों (साईंबाबा आदि) के हाथों में भगवान मुक्ति की कुंजी नहीं देते। जीव  मुक्तिदान रूप विशेषाधिकार उन्होंने अपने हाथ में रखा है।  वे स्पष्ट कहते हैं कि वे समस्त प्राकृतिक शक्तियों के अध्यक्ष हैं और सृष्टि सृजन के आरम्भ में अनगिनत जीवों के जीवन रूपों को उत्पन्न करते हैं और प्रलय के समय वापस उन्हें अपने में विलीन कर लेते हैं तथा सृष्टि के अगले चक्र में उन्हें पुनः प्रकट करते हैं। 

आगे श्रीकृष्ण दृढ़तापूर्वक कहते हैं कि वे न तो किसी का पक्ष लेते हैं और न ही किसी की उपेक्षा करते हैं। वह सभी प्राणियों के प्रति निष्पक्ष रहते हैं। यहाँ तक कि अधम पापी भी यदि उनकी शरण में आते हैं तब भी वे प्रसन्नता से उनको अपनाते हैं और उन्हें शीघ्र सद्गुणी बनाकर पवित्र कर देते हैं। वे वचन देते हैं कि उनके भक्त का कभी पतन नहीं हो सकता। 

गीता अध्याय दस: विभूति योग- भगवान के अनन्त वैभवों की स्तुति द्वारा प्राप्त योग ! इस अध्याय में श्रीकृष्ण ने अपनी भव्य और दीप्तिमान महिमा का वर्णन किया है जिससे अर्जुन को भगवान में अपना ध्यान केन्द्रित करने में सहायता मिल सके। नौवें अध्याय में श्रीकृष्ण ने भक्ति योग या प्रेममयी भक्ति की व्याख्या करते हुए अपने कुछ वैभवों का वर्णन किया था। यहाँ इस अध्याय में वे आगे अर्जुन के भीतर श्रद्धा भक्ति को बढ़ाने के प्रयोजनार्थ अपनी अनन्त महिमा का पुनः वर्णन करते हैं। इन श्लोकों को पढ़ने से आनन्द की अनुभूति होती है और इनका श्रवण करने से मन प्रफुल्लित हो जाता है। 

श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे सृष्टि में प्रकट प्रत्येक अस्तित्व का स्रोत हैं। मनुष्यों में विविध प्रकार के गुण उन्हीं से उत्पन्न होते हैं। सात महर्षि, चार महान ऋषि और चौदह मनुओं का जन्म उनके मन से हुआ और बाद में संसार के सभी मनुष्य इनसे प्रकट हुए। जो यह जानते हैं कि सबका उद्गम भगवान हैं, वे अगाध श्रद्धा के साथ उनकी भक्ति में तल्लीन रहते हैं। ऐसे भक्त उनकी महिमा की चर्चा कर पूर्ण संतुष्टि एवं मानसिक शांति प्राप्त करते हैं और अन्य लोगों को भी जागृत करते हैं क्योंकि उनका मन उनमें एकीकृत हो जाता है। इसलिए भगवान उनके हृदय में बैठकर उन्हें दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं ताकि वे उन्हें सुगमता से प्राप्त कर सकें। 

श्रीकृष्ण से यह सब सुनकर अर्जुन कहता है कि उसे पूर्ण रूप से भगवान की सर्वोच्च स्थिति का बोध हो गया है और वह यह घोषणा करता है कि भगवान श्रीकृष्ण संसार के परम स्वामी हैं। फिर वह भगवान से विनम्र अनुरोध करता है कि वे पुनः अपनी अनुपम महिमा का और अधिक से अधिक वर्णन करें जिसका श्रवण करना अर्जुन के लिए अमृत का सेवन करने के समान है। श्रीकृष्ण प्रकट करते हैं क्योंकि वे ही सभी का आदि, मध्य और अन्त हैं इसलिए सभी अस्तित्व उनकी शक्तियों की अभिव्यक्ति हैं। वे सौंदर्य, वैभव, शक्ति, ज्ञान और समृद्धि का अनन्त महासागर हैं। जब हम कहीं किसी असाधारण ज्योति को देखते हैं जो हमारी कल्पना को हर्षोन्माद कर देती है और हमें आनन्द में निमग्न कर देती है तब हमें उसे और कुछ न मानकर भगवान की महिमा का स्फुलिंग मानना चाहिए। वे ऐसे विद्युत गृह के समान हैं जहाँ से मानवजाति के साथ-साथ ब्रह्माण्ड में सभी पदार्थ अपनी ऊर्जा प्राप्त करते हैं। तत्पश्चात शेष अध्याय में वे उन सभी श्रेष्ठ पदार्थों, व्यक्तित्वों और क्रियाओं का मनमोहक वर्णन करते हैं जो उनके विशाल वैभव को प्रदर्शित करते हैं। इस प्रकार से वे यह कह कर इस सुन्दर अध्याय का समापन करते हैं कि उन्होंने अभी तक अपनी जिस अनुपम महिमा का वर्णन किया है उससे उनकी अनन्त महिमा के महत्व का अनुमान नहीं लगाया जा सकता क्योंकि वे ही अनन्त ब्रह्माण्डों को अपने दिव्य स्वरूप के एक अंश के रूप में धारण किए हुए हैं। इसलिए हम मानवों को भगवान, जो सभी प्रकार के वैभवों का स्रोत हैं, उन्हें ही अपनी आराधना का लक्ष्य मानना चाहिए।

[सृष्टि की रचना में परमेश्‍वर का उद्देश्य क्या था ? परमेश्‍वर का उद्देश्य एक ऐसे संसार की रचना करना था जिसमें उसकी महिमा पूरी तरह से अपनी पूर्णता के साथ प्रकट हो सके। God's purpose was to create a world in which His glory could be manifest in all it's fullness./मौसम की अनुमति से सूर्यास्त के बाद मिल्की वे का जादू अपनी महिमा में प्रकट होता है।Weather permitting after sunset the magic of the Milky Way unfolds in all its glory./मनुष्य क्या है ? मनुष्य  पशु और भगवान के बीच एक क्रॉस है और टिटियन की तस्वीर में यह अपनी पूर्ण महिमा में प्रकट होता है। Man is a cross between a beast and a god and in the picture of Titian ^* this is manifested in all its glory./हम उस भगवान की महिमा प्रकट करने के लिए पैदा हुए थे जो हमारे भीतर है। We were born to make manifest the glory of God that is within us./तब प्रभु-ईश्वर की महिमा प्रकट हो जायेगी और सब शरीरधारी उसे देखेंगे क्योंकि प्रभु ने ऐसा ही कहा है।/ The glory of the Lord will be revealed and all flesh will see the salvation of God; it must be so for the mouth of the Lord has spoken it./TITAN= इन्द्र जैसा शक्तिशाली/अत्यंत महत्वपूर्ण व्यक्ति, TITANIC= बहुत बड़ा, असाधारण/   

अध्याय ग्यारह/विश्वरूप दर्शन योग : भगवान के विराट रूप के दर्शन का योग। 

इस अध्याय में अर्जुन श्रीकृष्ण से प्रार्थना करता है कि वे उसे अपने विश्व रूप या सभी ब्रह्माण्डों में व्याप्त अपने अनंत ब्रह्माण्डीय विराट रूप का दर्शन कराएँ। श्रीरामकृष्ण देव ने finally कहा है - "उन्हें स्थूल चक्षुओं से देखा नहीं जा सकता। साधन करते करते - ईश्वर (राम) की कृपा से - एक प्रेम का शरीर बनता है, उसके प्रेम के चक्षु और प्रेम के कान होते हैं। उन चक्षुओं से मनुष्य उन्हें (रामेश्वरम -विवेकानन्द) को देखता है और उन कर्णों से उनकी वाणी सुनता है। .... बहुत अधिक प्रेम होने पर चारों ओर ईश्वरमय देखता है। दिनरात उन्हीं चिंतन करने से चारों ओर वही दिखाई देते हैं। ... अर्जुन को विश्वरूप दर्शन के लिए श्रीठाकुर ने दिव्य चक्षु दिए थे ..... पाने के लिए माँगना अत्यन्त आवश्यक है। भगवान से मांगना होता है , " दर्शन दो , दर्शन दो " इस प्रकार पुकार पुकार कर रोना होता है -भगवान से व्याकुल प्रार्थना करनी होगी , तभी वे दर्शन देंगे। तब श्रीकृष्ण उस पर कृपा करते हुए उसे अपनी दिव्य दृष्टि (चिन्मय दृष्टि) प्रदान करते हैं जिसे प्राप्त कर अर्जुन देवों के देव श्रीकृष्ण के शरीर में सम्पूर्ण सृष्टि का अवलोकन करता है। 

ब्रह्म के स्वरुप की स्तुति करते हुए वेद में कहा है - 'तत् सर्वम भवत्'- वही सबकुछ हुए हैं।    -भूत, वर्तमान तथा भविष्य अर्थात् जो कुछ था, जो कुछ है तथा जो कुछ होगा, वह 'ओम्' है। इसी प्रकार 'काल' (त्रिकाल) की सीमा से परे जो कुछ भी हो सकता है वह भी 'ओम्' ही है।

🔆🙏सः इदं सर्वम् असृजत, तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्‌।🔆🙏

[`सोऽकामयत।बहु स्यां प्रजायेयेति। सः तपः तप्त्वा इदं सर्वम् असृजत - यत् इदं किंच। तत् सृष्ट्वा तत् एव अनुप्राविशत्। तत् अनुप्रविश्य सत् च त्यत् च अभवत्। 'तदात्मानं स्वयंकुरुत।' -तैत्तरीय उपनिषद] 

'परमात्म तत्त्व' ने आदिकाल में कामना की ''मैं अपनी प्रजा के जन्म के हेतु बहुरूप हो जाऊँ।" अतः 'उसने' 'स्वयं' को पूर्णतया चिन्तन में एकाग्र किया, तथा 'अपने' चिन्तन की शक्ति से, अपने तप से 'उसने' इस समस्त विश्व की सृष्टि की, हाँ, जो कुछ भी विद्यमान है, उसको रचा। और फिर जब 'उसने' यह रच डाला तो जो 'उसने' रचा उसी में 'वह ' प्रवेश कर गया, तथा प्रविष्ट होकर यहाँ 'है' (सत्) बन गया वहाँ 'सम्भाव्य' (त्यच्) बन गया; 'वह' 'निरुक्त' (निर्वचनीय) तथा 'अनिरुक्त' (अनिर्वचनीय) बन गया; 'वह' 'निलयन' अर्थात् आवासभूत तत्त्व तथा 'अनिलयन' अर्थात् आवासरहित तत्त्व बन गया; वही 'ज्ञान' बन गया तथा 'वही' 'अज्ञान' बन गया; 'वही' 'सत्य' बन गया तथा 'वही' अनृतं अर्थात् असत्य बन गया। उन्होंने ही अपने को ही परिदृश्यमान संसार के रूप में रूपायित कर लिया ! 

इन वेद-वाक्यों में विरोधाभास होने पर भी उनका सामंजस्य दिखाने के लिए ही श्रीभगवान ने उस प्रकार अपना विश्वरूप प्रकट किया। और तब अर्जुन भगवान के अद्भुत अनंत स्वरूप में अनगनित मुख, आँखें, भुजाएँ, उदर देखता है। उनके विराट रूप का कोई आदि और अन्त नहीं है और वह प्रत्येक दिशा में अपरिमित रूप से बढ़ रहा है। उस रूप का तेज आकाश में एक साथ चमकने वाले सौ सूर्यों के प्रकाश से अधिक है। उस विराट रूप को देखकर अर्जुन के शरीर के रोम कूप सिहरने लगे। वह देखता है कि भगवान के नियम के भय से तीनों लोक भय से कांप रहें हैं। उसने देखा कि स्वर्ग के सभी देवता भगवान में प्रवेश कर उनकी शरण ग्रहण कर रहे हैं।  और सिद्धजन पवित्र वैदिक मंत्रों, प्रार्थनाओं और स्रोतों का पाठ कर भगवान की स्तुति कर रहे हैं।

 अर्जुन स्वीकार करता है कि भगवान के विश्व रूप को देखकर उसका हृदय भय से कांप रहा है और उसने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है। भयतीत अर्जुन श्रीकृष्ण से उनके इस भयानक रूप की वास्तविकता जानना चाहता है  इसका उत्तर देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे काल (माँ जगदम्बा काली)  के रूप में तीनों लोकों के संहारक हैं। वे घोषणा करते हैं कि कौरव पक्ष के महायोद्धा पहले ही उनके द्वारा मारे जा चुके हैं इसलिए अपनी विजय को सुनिश्चित मानते हुए उठो और युद्ध करो। श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि अर्जुन भगवान के जिस विश्वरूप को देख चुका है उसका दर्शन करना अत्यंत कठिन हैं। वेदों के अध्ययन करने से उनके साकार रूप को देखा नहीं जा सकता। उनके साकार रूप को न तो वेदों के अध्ययन द्वारा और न ही तपस्या, दान या अग्निहोत्र यज्ञों द्वारा देखा जा सकता है लेकिन अर्जुन, मैं जिस रूप में तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ उसे केवल विशुद्ध और अनन्य भक्ति से देखा जा सकता है और उसमें एकीकृत हुआ जा सकता है

अध्याय बारह/भक्तियोग : भक्ति का विज्ञान। 

इस छोटे अध्याय में आध्यात्मिक साधनाओं के अन्य मार्गों की अपेक्षा भक्ति मार्ग की सर्वोत्कृष्टता के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। कर्म, उपासना , मनःसंयोग या ज्ञान -इनमें से एक  एकाधिक अथवा सभी उपायों से ईश्वरलाभ या ब्रह्मस्वरूपता में प्रतिष्ठित होना सम्भव है। अर्जुन के प्रश्न - सगुण ब्रह्मोपासना और निर्गुण ब्रह्मोपासना --इन दोनों मार्गों में कौन सहज या श्रेष्ठ है ? श्रीभगवान बोले कि यद्यपि दोनों ही मार्गों से एक ही वस्तु प्राप्य है - ' सच्चिदानन्द ' , तो भी सगुण ब्रह्मोपासना या भक्ति का मार्ग श्रेष्ठ और सुगम है।  वे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मायाबद्ध देह धारियों के लिए उनके निराकार अव्यक्त रूप की आराधना करना कष्टदायक और अत्यंत कठिन है।  जबकि साकार रूप की आराधना करने वाले भक्त अपनी चेतना के साथ भगवान में विलीन हो जाते हैं और उनके प्रत्येक कर्म भगवान को समर्पित होते हैं।  तथा वे शीघ्रता से जीवन मरण के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण अर्जुन को अपनी बुद्धि उन्हें समर्पित करने और अपने मन को केवल उनकी प्रेममयी भक्ति में स्थिर करने के लिए कहते हैं। 

किन्तु ऐसा प्रेम (भक्ति)  संघर्षमयी आत्मा (साधक) को प्रायः लभ्य नहीं होता। इसलिए श्रीकृष्ण अन्य विकल्प देते हुए कहते हैं कि यदि अर्जुन तुरन्त अपने मन को पूर्ण रूप से भगवान (स्वामी विवेकानन्द या माँ, ठाकुर )  में एकाग्र करने की अवस्था प्राप्त नहीं कर सकता तब उसे निरन्तर अभ्यास और वैराग्य द्वारा पूर्णता की अवस्था को प्राप्त करने के लिए एकाग्रता का प्रयास (प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास) करना चाहिए। भक्ति कोई रहस्यमयी उपहार नहीं है। इसे निरन्तर प्रयास से पोषित किया जा सकता है। इस अध्याय के श्लोकों में उनके प्रिय भक्तों के अद्भुत गुणों का वर्णन किया गया है जो भगवान को अत्यन्त प्रिय हैं। सच्चिदानन्दस्वरूप ईश्वर के दर्शन के लक्षण के सम्बन्ध में श्रीरामकृष्णदेव ने कहा है - " ईश्वरदर्शन (विवेकानन्द -दर्शन) के कुछ लक्षण हैं। ज्योति दिखाई पड़ती है , आनन्द होता है , छाती के भीतर तुबड़ी की तरह गुड़गुड़ करते हुए महावायु उठती है। जिसके भीतर अनुराग (ईश्वर-प्रेम) के ऐश्वर्य का प्रकाश हो रहा है , उसके ईश्वरलाभ में अधिक विलम्ब नहीं है। अनुराग के ऐश्वर्य क्या -क्या हैं ? नित्यनित्यविवेक , वैराग्य (कामिनी-कांचन में अनासक्ति) ,जीवों पर दया, साधुसेवा , साधुसंग , ईश्वर का नामगुण -कीर्तन , सत्य वचन , यही सब। " भक्त के ह्रदय में इस प्रकार के लक्षण प्रगट होने पर समझा जायेगा कि ईश्वर-दर्शन या परमानन्द -प्राप्ति में और अधिक विलम्ब नहीं है।    

अध्याय तेरह/क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग : योग द्वारा क्षेत्र (प्रकृति) और क्षेत्र के ज्ञाता (पुरुष) के विभेद को जानना।

यह तीसरे खण्ड के छह अध्यायों में जहाँ तत्वज्ञान की चर्चा की गयी है उसका यह  प्रथम अध्याय है। यह दो शब्दों क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (शरीर का ज्ञाता) से परिचित कराता है। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ अर्थात शरीर और आत्मा का भेद-दर्शन ही मुक्ति (d-hyonotized होना) है। देहात्मबोध अर्थात  इस नश्वर देह (M/F) में आत्मज्ञान ही अज्ञान तथा सारे बंधनों कारण है। `देहात्म-विवेक ' ---अर्थात अविनाशी आत्मा , नश्वर देह से पृथक है -इस ज्ञान से ही निर्वाण मुक्ति होती है।     

शरीर कहने से  इसमें स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के शरीर आ जाते हैं। सूक्ष्म शरीर में  मन, बुद्धि, चित्त , अहंकार और माया (प्राकृत) शक्ति के अन्य सभी घटक भी सम्मिलित हैं जिनसे हमारा व्यक्तित्त्व निर्मित होता है। व्यापक ज्ञान के आधार पर देह के क्षेत्र में आत्मा को छोड़कर जो कि 'शरीर की ज्ञाता' है, हमारे व्यक्तित्व के सभी पहलू (मिथ्या अहं भी) सम्मिलित हैं। जिस प्रकार किसान खेत में बीज बो कर खेती करता है। उसी प्रकार हम जो कुछ बोते हैं, बस वही पाते हैं। इसी प्रकार से हम अपने शरीर को शुभ-अशुभ विचारों और कर्मों से पोषित करते हैं और परिणाम स्वरूप अपना भाग्य बनाते हैं। 

मनुष्य सामान्यत: भाग्यवादी होता है। 'भाग्य शब्द से ऐसा कुछ ध्वनित होता है, जिस पर मनुष्य का बस न चलता हो, जो उसके जीवन का ऐसा तत्व हो, जो बाहर से उस पर लादा गया हो। पर वह भाग्य नहीं है। भाग्य का असल तात्पर्य है प्रारब्ध ; और यह प्रारब्ध हमारे स्वयं का बनाया होता है। अतएव अपने भाग्य का निर्माण हम स्वयं करते हैं, इसके लिए अन्य कोई दूसरा उत्तरदायी नहीं होता।

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, ''साधारणत: मनुष्य अपने दोषों और भूलों को पड़ोसियों पर लादना चाहता है; और इसमें भी यदि सफल न हुआ, तो फिर भाग्य नामक एक 'भूत की कल्पना है और उसी को उन सबके लिए उत्तरदायी बनाकर निश्चिन्त हो जाता है। पर प्रश्न यह है कि 'भाग्यनामक वह वस्तु है क्या और कहां है? हम जो कुछ बोते हैं, बस वही पाते हैं। हम स्वयं अपने भाग्य के विधाता है। हमारा भाग्य यदि खोटा हो, तो भी कोई दूसरा दोषी नहीं, और यदि हमारा भाग्य अच्छा हो, तो भी दूसरा प्रशंसा का पात्र नहीं। वायु सर्वदा बह रही है। जिन-जिन जहाजों के पाल खुले रहते हैं, वायु उन्हीं का साथ देती है और वे आगे बढ़ जाते हैं। पर जिनके पाल नहीं खुले रहते, उन पर वायु नहीं लगती। तो क्या यह वायु का दोष है?

अतएव भाग्य और कुछ नहीं, बल्कि पूर्वजन्म में हमारे द्वारा किए गए कर्मों का ही फल है। और जब यह मान लिया जाय कि हमारे जीवन में आने वाले कष्ट हमारे अपने ही कर्मों के फल हैं, तो यह भी स्वयंसिद्ध हो जाता है कि वे फिर हमारे द्वारा नष्ट भी किये जा सकते हैं। जो कुछ हमने सृष्ट किया हैै, उसका हम ध्वंस भी कर सकते है; जो कुछ दूसरों ने किया है, उसका नाश हमसे कभी नहीं हो सकता।

स्वामी विवेकानन्द असफलता को भी सकारात्मक मानते हैं, कहते हैं, ''असफलताओं से निराश न होओ! उनके बिना जीवन भला क्या होता! असफलताओं से ही ज्ञान का उदय होता है। दीवाल को देखो। क्या वह कभी मिथ्या भाषण करती है? पर उसकी उन्नति भी कभी नहीं होती- वह दीवाल की दीवाल ही रहती है। मनुष्य मिथ्या भाषण करता है, किन्तु उसमें देवता बनने की भी क्षमता है। नर नारायण भी बन सकता है। इसलिए हमें सदैव क्रियाशील-प्रयत्नशील बने रहना चाहिए। गाय कभी झूठ नहीं बोलती, पर वह सदैव गाय ही बनी रहती है। इसलिए क्रियाशील बनो, कुछ-न-कुछ करते रहो।

स्वामीजी पुरुषार्थ के ऐसे पक्षधर हैं कि एक स्थान पर कहते हैं, ''मुझे विश्वास है कि ईश्वर उस व्यक्ति को क्षमा कर दे सकता है, जो अपनी बुद्धि का प्रयोग करता है और आस्था नहीं रखता,र वह उसे क्षमा नहीं करेगा, जो उसकी दी हुई शक्ति का उपयोग किये बिना ही विश्वास कर लेता है।

इसलिए स्वामी विवेकानन्द हमारा आह्वान करते हुए कहते हैं, ''अपने हाथों अपना भविष्य गढ़ डालो। 'गतस्य शोचना नास्ति- सारा भविष्य तुम्हारे सामने पड़ा हुआ है। तुम सदैव यह बात स्मरण रखो कि तुम्हारा प्रत्येक विचार, प्रत्येक कार्य (संस्कार या चरित्र के रूप में) संचित रहेगा; और यह भी याद रखो कि जिस प्रकार तुम्हारे बुरे विचार और बुरे कार्य शेरों की तरह तुम पर कूद पडऩे की ताक में हैं, उसी प्रकार तुम्हारे भले विचार और भले कार्य भी हजारों देवताओं की शक्ति लेकर सर्वदा तुम्हारी रक्षा के लिए तैयार हैं।

सवाल केवल नजरिया बदलने का है…` नजरें बदलीं तो नजारे बदल गए, किश्ती का रुख मोड़ा तो किनारे बदल गए।' नजर को बदलो तो नजारे बदल जाते है, सोचको बदलो तो सितारे बदल  जाते है ! कश्तियाँ बदलने की जरुरत नहीं, दिशा को बदलो तो किनारे खुद व् खुद बदल जाते है।   मनुष्य प्रकृति के विरुद्ध युद्ध और संघर्ष करता रहता है… वह अनेक भूलें करता है, कष्ट भोगता है, परन्तु अंत में प्रकृति पर विजय प्राप्त करता है और अपनी मुक्ति प्राप्त कर लेता है। .. जब वह मुक्त हो जाता है, तब प्रकृति उसकी दासी बन जाती है… इसलिए अपने हाथों अपना भविष्य गढ़ डालो… सारा भविष्य तुम्हारे सामने पड़ा हुआ है… दुर्भाग्य की बात है कि अधिकांश व्यक्ति इस संसार में बिना किसी आदर्श के ही जीवन के इस अंधकारमय पथ पर भटकते फिरते हैं… जिसका एक निर्दिष्ट आदर्श है, वह यदि एक हजार भूलें करे तो यह निश्चित है कि जिसका कोई भी आदर्श नहीं, वह दस हजार भूलें करेगा… अतएव एक आदर्श रखना अच्छा है।

स्वामी विवेकानन्द  किसी भी काम को आत्मविश्वास से पूरा करते थे, उनका स्पष्ट मत था कि “तुम जो कुछ सोचोगे, वही हो जाओगे.. यदि तुम अपने को दुर्बल समझोगे तो तुम दुर्बल हो जाओगे… बलवान सोचोगे तो बलवान बन जाओगे..”

स्वामी विवेकानन्द ने यह व्याख्या की है-" मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का विधाता है ! हम जो सोचते हैं वही हमारे सामने परिणाम के रूप में आता है" इसलिए हम जैसे सोचते हैं वैसे बन जाते हैं। महान अमेरिकी विचारक राल्फ वाल्डो हमर्सन ने कहा है-"विचार ही सभी कर्मों का जनक है।" इसलिए हमें शुभ एवं उचित विचारों और कर्मों से अपने शरीर को पोषित करने की विधि सीखनी चाहिए। इसके लिए शरीर और शरीर के ज्ञाता के बीच के भेद को जानना आवश्यक है।

" देह में आत्मबोध अज्ञान है , देहात्म-विवेक अर्थात देह और आत्मा का पृथक ज्ञान ही `बोध ' है। जिसे ऐसा ब्रह्मज्ञान हुआ है , वह जीवनमुक्त है। वह ठीक समझ सकता है कि आत्मा पृथक और देह पृथक है। भगवान का दर्शन कर लेने पर देहात्मबुद्धि नहीं रहती। "    

अध्याय चौदह/गुण त्रय विभाग योग : प्राकृतिक शक्ति के तीन गुणों द्वारा योग का ज्ञान। 

पिछले अध्याय में आत्मा और भौतिक शरीर के बीच के अन्तर को विस्तार से समझाया गया था। इस अध्याय में श्रीकृष्ण बताते हैं कि स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीर के उपादान हैं प्राकृतिक शक्ति के तीन गुण - सत्व, रजस, और तमस । `यह चराचर विश्व-ब्रह्माण्ड प्रकृति का ही परिणाम है , परमेश्वर का सृष्टि-संकल्प ही प्रकृति में गर्भाधान है, और उससे सृष्टि होती है। "  

हम जीवों में गुणों का मिश्रण हमारे व्यक्तित्व के स्वरूप का निर्धारण करता है। सत्व गुण शांत स्वभाव, सद्गुण और शुद्धता को चित्रित करता है।  तथा रजो गुण अन्तहीन कामनाओं और सांसारिक आकर्षणों के लिए अतृप्त महत्वाकांक्षाओं को बढ़ाता है।  एवं तमो गुण भ्रम, आलस्य, नशे और निद्रा का कारण है। जब तक आत्मा जागृत नहीं होती तब तक उसे प्राकृतिक शक्ति की प्रबल शक्तियों से निपटना सीखना चाहिए। मुक्ति इन तीन गुणों से परे है। "त्रिगुणातीत न होने से ब्रह्मज्ञान नहीं होता। त्रिगुणातीत अवस्था में सर्वत्र समत्वबुद्धि , सुख-दुःख , मान-अपमान , स्तुति-निंदा , शत्रु-मित्र सभी समान हैं। " 

भगवान श्रीकृष्ण  बताते हैं कि प्रबुद्ध मनुष्य सदैव संतुलित रहते हैं और वे संसार में तीन गुणों के कार्यान्वयन को देखकर व्यक्तियों, पदार्थों तथा परिस्थितियों में प्रकट होने वाले उनके प्रभाव से विचलित नहीं होते। वे सभी पदार्थों को भगवान की शक्ति की अभिव्यक्ति के रूप में देखते हैं जो अंततः उनके नियंत्रण में होती है। इसलिए सांसारिक परिस्थितियाँ न तो उन्हें हर्षित और न ही उन्हें दुखी कर सकती हैं। इस प्रकार बिना विचलित हुए वे अपनी आत्मा में स्थित रहते हैं। श्रीकृष्ण हमें पुनः भक्ति की महिमा और हमें तीन गुणों से परे ले जाने की इसकी क्षमता का स्मरण कराते हुए इस अध्याय का समापन करते हैं।

अध्याय-पन्द्रह/पुरुषोत्तम योग : सर्वोच्च दिव्य स्वरूप योग। 

 इस अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन की संसार के प्रति (कामिनी -कांचन में आसक्ति के प्रति)   वैराग्य विकसित करने में उसकी सहायतार्थ उसे भौतिक संसार की प्रकृति को प्रतीकात्मक शैली में समझाते हैं।  यहाँ वे भौतिक संसार की तुलना ऊपर से नीचे 'अश्वत्थ' बरगद के वृक्ष से करते हैं।इस वृक्ष की जड़ें ऊपर की ओर होती हैं क्योंकि इसका स्रोत भगवान में है। वेदों में वर्णित सकाम कर्मफल इसके पत्तों के समान हैं। इस वृक्ष को प्राकृत शक्ति के तीनों गुणों से सींचा जाता है। ये गुण इन्द्रिय विषयों को जन्म देते हैं जोकि वृक्ष की ऊपर लगी कोंपलों के समान हैं। कोंपलों से वायवीय जड़ें फूट कर प्रसारित होती हैं जिससे वृक्ष और अधिक विकसित होता है।देहधारी आत्मा इस वृक्ष के भौतिक अस्तित्व की प्रकृति की अज्ञानता के कारण निरंतर संसार के बंधनो में फंसी रहकर भौतिक जगत के कष्ट सहन कर रही है। देहधारी आत्मा इस वृक्ष की उत्पत्ति के स्रोत और यह कब से अस्तित्व में है और कैसे बढ़ रहा है, को समझे बिना एक जन्म से दूसरे जन्म में इस वृक्ष की शाखाओं के ऊपर नीचे घूमती रहती है। 

इसलिए श्रीकृष्ण समझाते हैं कि वैराग्य की कुल्हाड़ी से पहले इस वृक्ष को काट डालना चाहिए। तब फिर (मनःसंयोग के अभ्यास द्वारा)  हमें वृक्ष के आधार (जड़) की खोज करनी चाहिए जोकि स्वयं परमेश्वर हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि यद्यपि आत्मा दिव्य है किन्तु Hypnotized होने के कारण  वह इन्द्रिय विषयों के भोग का (कामिनी -कांचन का) आनंद लेती है। श्रीकृष्ण यह भी बताते हैं कि मृत्यु होने पर आत्मा अपने वर्तमान जीवन के मन और सूक्ष्म इन्द्रियों सहित किस प्रकार से नये शरीर में देहान्तरण करती है। अज्ञानी न तो शरीर में आत्मा की उपस्थिति को अनुभव करते हैं और न ही मृत्यु होने पर उन्हें आत्मा के देह को त्यागने का आभास होता है, किन्तु योगी ज्ञान चक्षुओं और मन की शुद्धता के साथ इसका अनुभव करते हैं। इसी प्रकार से भगवान भी अपनी सृष्टि में व्याप्त हैं लेकिन ज्ञान चक्षुओं से ही उनकी उपस्थिति को अनुभव किया जा सकता है। 

इस अध्याय का समापन क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम शब्दों की व्याख्या के साथ होता है। क्षर भौतिक जगत की नश्वर वस्तुएँ हैं। अक्षर भगवान के लोक में निवास करने वाली मुक्त आत्माएँ हैं। पुरुषोत्तम का अर्थ दिव्य सर्वोच्च व्यक्तित्व (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) है जो संसार का नियामक और निर्वाहक है। वह विनाशकारी और अविनाशी पदार्थों से परे है। हमें अपना सर्वस्व उस पर न्योछावर करते हुए उसकी आराधना करनी चाहिए।

अध्याय सोलह/देवासुर संपद विभाग योग : दैवीय और आसुरी प्रकृति में भेद द्वारा योग का ज्ञान। 

इस अध्याय में श्रीकृष्ण मनुष्यों में दैवीय और आसुरी दो प्रकार की प्रकृति का वर्णन करते हैं। दैवीय गुण धार्मिक ग्रंथों के उपदेशों के अनुसरण, सत्वगुण को पोषित करने और अध्यात्मिक अभ्यास द्वारा मन को शुद्ध करने से विकसित होते हैं। इसके विपरीत संसार में आसुरी प्रवृत्ति भी पायी जाती है जो मोह अर्थात आसक्ति और अज्ञानता के गुणों की संगति से तथा भौतिक विचारों को अंगीकार करने से विकसित होती है। यह किसी के व्यक्तित्व में प्रतिकूल लक्षणों का पोषण करती है और अंततः आत्मा को नारकीय अस्तित्वों में धकेलती है। श्रीकृष्ण इस अध्याय का समापन करते हुए कहते हैं कि क्या किया जाना चाहिए और क्या नहीं किया जाना चाहिए, इसका निर्णय करने का अधिकार केवल वेद शास्त्रों का ही माना जाता है अतः हमें भी वेदों के वाक्यों को (उपनिषद के महावाक्यों को) स्वीकार करना चाहिए। हमें इन वैदिक शास्त्रों के विधि-निषेधों को समझना चाहिए और तदानुसार इस संसार में अपने कार्यों का निष्पादन और दायित्वों का निर्वहन करना चाहिए। " स्वधर्म पालन ही श्रेष्ठ धर्म है , तथा धर्माधर्म के निर्णय में शास्त्र ही प्रमाण है। " 

अध्याय सत्रह/श्रद्धा त्रय विभाग योग : श्रद्धा के तीन विभागों को समझते हुए योग का अनुसरण करना। 

इस सत्रहवें अध्याय में श्रीकृष्ण विस्तारपूर्वक गुणों के प्रभाव के संबंध में बताते हैं। सर्वप्रथम वह श्रद्धा के विषय पर चर्चा करते हैं और यह बताते हैं कि कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो श्रद्धा विहीन हो क्योंकि यह मानवीय प्रकृति का एक अविभाज्य स्वरूप है।  लेकिन मन की प्रकृति के अनुसार व्यक्तियों की श्रद्धा सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक गुणों के अनुरूप होती है। उनकी श्रद्धा की प्रकृति ही उनकी जीवन शैली का निर्धारण करती है। लोग अपनी रूचि के अनुसार ही अपने भोजन का चयन करते हैं। 

श्रीकृष्ण भोजन को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत करते हैं तथा प्रत्येक भोजन के हमारे स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव की चर्चा करते हैं। तपस्याओं की श्रेणी में प्रत्येक तपस्या का स्वरूप सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण के प्रभाव के कारण भिन्न होता है। तत्पश्चात दान पर चर्चा की गई है तथा इसके तीन विभागों का वर्णन किया गया है। 

अंततः श्रीकृष्ण तीन गुणों से भी आगे बढ़ते हैं तथा “हरि ॐ -तत्-सत्" शब्दों की प्रासंगिकता तथा अर्थ के विषय पर प्रकाश डालते हैं जो परम सत्य के विभिन्न रूपों के प्रतीक हैं। 'ओउम' शब्दांश ईश्वर के निराकार रूप की अभिव्यक्ति है। 'तत्' शब्दांश का उच्चारण, परमपिता परमात्मा को अर्पित की जाने वाली क्रियाओं तथा वैदिक रीतियों के लिए किया जाता है, 'सत्' शब्दांश का तात्पर्य सनातन भगवान तथा धर्माचरण से है। एक साथ प्रयोग करने पर ये अलौकिकता की अवधारणा की ओर ले जाते हैं। इस अध्याय का अंत इस बात पर बल देते हुए होता है कि यदि यज्ञ, तप और दान धर्मग्रन्थों के विधि-निषेधों की उपेक्षा करते हुए किए जाते हैं तब ये सभी कृत्य निरर्थक सिद्ध होते हैं।

अध्याय अठारह/मोक्ष संन्यास योग : संन्यास में पूर्णता और त्याग में शरणागति के माध्यम से योग।

भगवद्गीता का अंतिम अध्याय सबसे बड़ा है और इसमें कई विषयों को सम्मिलित किया गया है। इस अध्याय में यह अवगत कराया गया है कि लोगों के उद्देश्यों और कर्मों में भिन्नता क्यों पाई जाती है? तत्पश्चात इसमें प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म और कर्ता की श्रेणियों का वर्णन किया गया है। संन्यासी वह है जो गृहस्थ जीवन में भाग नहीं लेता और समाज को त्याग कर साधना का अभ्यास करता है। त्यागी वह (कामिनी -कांचन में अनासक्त गृहस्थ) है जो कर्म में संलग्न रहता है लेकिन कर्म-फल का भोग करने की इच्छा का त्याग करता है। (यही गीता की वाणी का मुख्य अभिप्राय है।) श्रीकृष्ण दूसरे प्रकार के त्याग की संतुति करते हैं। वे परामर्श देते हैं कि यज्ञ, दान, तपस्या और कर्त्तव्य पालन संबंधी कार्यों का कभी त्याग नहीं करना चाहिए क्योंकि ये ज्ञानी को भी शुद्ध करते हैं। इनका संपादन केवल कर्त्तव्य पालन की दृष्टि से करना चाहिए क्योंकि इन कार्यों को कर्म फल की आसक्ति के बिना संपन्न करना आवश्यक होता है। 

इसके बाद यह अध्याय उन लोगों का चित्रण करता है जिन्होंने आध्यात्मिक जीवन में पूर्णता की अवस्था प्राप्त कर ली है और ब्रह्म की अनुभूति में लीन हो गए हैं। आगे इस अध्याय में यह कहा गया है कि ऐसे पूर्ण योगी भी भक्ति में तल्लीनता द्वारा अपनी पूर्णता का अनुभव करते हैं। इसलिए भगवान के दिव्य व्यक्तित्त्व के रहस्य को केवल मधुर भक्ति द्वारा जाना जा सकता है। इसके बाद श्रीकृष्ण अर्जुन को स्मरण कराते हैं कि भगवान सभी जीवों के हृदय में स्थित हैं। और उनके कर्मों के अनुसार वे उनकी गति को निर्देशित करते हैं। यदि हम उनका स्मरण करते हैं और अपने सभी कर्म उन्हें समर्पित करते हैं तथा उनका आश्रय लेकर उन्हें अपना लक्ष्य बनाते हैं तब उनकी कृपा से हम सभी प्रकार की कठिनाईयों को पार कर लेंगे। लेकिन यदि हम अपने अभिमान से प्रेरित होकर अपनी इच्छानुसार कर्म करते है तब हम सफलता प्राप्त नहीं कर पाएंगे। तत्पश्चात श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो अल्पज्ञानी है वे स्वयं को अपने कार्यों का कारण मानते हैं लेकिन विशुद्ध बुद्धि युक्त प्रबद्ध आत्माएँ न तो स्वयं को अपने कार्यों का कर्ता और न ही भोक्ता मानती हैं। अपने कर्मों के फलों से सदैव विरक्त रहने के कारण वे कार्मिक प्रतिक्रियाओं के बंधन में नहीं पड़ते। 

अंत में श्रीकृष्ण यह प्रकट करते हैं कि सभी प्रकार की धार्मिकता का त्याग करना और केवल भगवान की भक्ति के साथ-साथ उनके समक्ष शरणागत होना (श्रीरामकृष्ण का शरणागत होना) ही अति गुह्यतम ज्ञान है। तथापि यह ज्ञान उन्हें नहीं प्रदान करना चाहिए जो आडम्बर-हीन और भक्त नहीं हैं, क्योंकि वे इसकी अनुचित व्याख्या करेंगे और इसका दुरूपयोग कर अनुत्तरदायिता से कर्मों का त्याग करेंगे। यदि हम यह गुह्य ज्ञान पात्र जीवात्मा को प्रदान करते है तब यह अति प्रेमायुक्त बन जाता है और भगवान को अति प्रसन्न करता है।

इसके बाद अर्जुन भगवान को सूचित करता है कि उसका मोह नष्ट हो गया है, सिंह-शावक भ्रममुक्त और De-hypnotized हो गया है , उसको अपने यथार्थ स्वरुप की स्मृति लौट आयी है और अब वह उनकी आज्ञाओं का पालन करने के लिए तत्पर है। गहन कथन के साथ  भगवद्गीता का समापन करते हुए संजय कहता है कि विजय सदैव वहीं होती है जहाँ भगवान और उसके भक्त होते हैं और इस प्रकार से अच्छाई, प्रभुता और समृद्धि भी वहीं होगी क्योंकि परम सत्य का प्रकाश सदैव असत्य के अंधकार को परास्त कर देता है।

एक बार स्वामी विवेकानन्द के एक युवा शिष्य ने उनसे पूछा-“ हम लोगों को इस समय कैसा आदर्श ग्रहण करना उचित है?” स्वामी विवेकानन्द ने कहा - "महावीर हनुमान के चरित्र को ही तुम्हें इस समय आदर्श मानना पड़ेगा। देखो न; वे राम की आज्ञा से समुद्र लांघकर चले गए!जीवन-मृत्यु की परवाह कहाँ ? महाजितेंद्रिय, महाबुद्धिमान, दास्य भाव के उस महान् आदर्श से तुम्हें अपना जीवन गठन करना होगा। वैसा करने पर दूसरे भावों का विकास स्वयं ही हो जाएगा। दुविधा छोड़कर गुरु की आज्ञा का पालन और ब्रह्मचर्य की रक्षा - यही हैं सफलता का रहस्य! नान्य पन्था: विद्यते अयनाय अर्थात् अवलंबन करने योग्य और दूसरा पथ नहीं। एक और हनुमान जी के जैसा सेवाभाव और दुसरी ओर उसी प्रकार त्रैलोक्य को भयभीत कर देनेवाला सिंह जैसा विक्रम !" स्वामी विवेकानंद की बहुत इच्छा थी कि बंगाल में ब्रह्मचर्य-मूर्ति हनुमानजी कि उपासना प्रचलित हो।  इसीलिए उनके साथियों ने मठ में श्रीराम-नाम संकीर्तन के पूर्व महावीरजी की आराधना का नियम बनाया था। 

स्वामी विवेकानंद को बचपन से ही हनुमानजी के प्रति गहरा भक्ति भाव था।  उन्हें हनुमानजी का चरित्र और क्रिया-कलाप बहुत प्रिय लगते थे।  एक बार उनकी माता ने उनसे कहा था कि महावीर हनुमानजी अजर-अमर हैं और इस समय भी जीवित हैं।  इसका विवेकानंद (तब नरेंद्र) के बाल मन पर बहुत प्रभाव हुआ। वे उनके दर्शन के लिए व्याकुल हो गये।  एक बार नरेंद्र गाँव में रामायण की कथा सुनने गये।  कथावाचक के पास जाकर पूछा कि-“महाशय! आपने कहा है कि हनुमानजी केला खाना पसंद करते हैं और केले के बगीचे में रहते हैं।  क्या मैं वहाँ जाकर उनको देख सकता हूँ?” बालबुद्धि को देखकर कथावाचक ने कहा कि- “ हाँ! तुम केले के बगीचे में उन्हें पा सकते हो। ” उस दिन नरेंद्र घर नहीं लौटे , वह सचमुच ही घर के पास केले के बगीचे में घुसकर केले के पौधों के नीचे बैठकर हनुमानजी का इन्तजार करने लगे। बहुत समय बीतने पर भी जब हनुमानजी नहीं आये, तो नरेंद्र निराश होकर घर लौट आये।  नरेंद्र ने अपनी माता से सब बातें कहीं और हनुमानजी के न आने का कारण पूछा।  माताजी ने कहा कि तुम दुःख मत करना, आज हो सकता  है हनुमानजी भगवान श्रीराम के कार्य से कहीं चले गये हों, पर किसी दिन वह अवश्य मिलेंगे। नरेंद्र मन में शांत हो गये।

 स्वामीजी के मन में यह विशवास आजीवन बना रहा और उन्हें इससे बहुत संबल भी मिला।  जब नरेंद्र युवा हुए तो वह हर एक युवक को हनुमानजी को अपना आदर्श माने और उनके समान ब्रह्मचारी बनने का उपदेश देते थे।  हनुमानजी की कथा कहते हुए उनके चेहरे पर एक विचित्र चमक आ जाती थी।  एक बार स्वामीजी सिंह के समान गरजते हुए बोले-“ देश के कोने-कोने में महावीर हनुमान की पूजा चलाओ।  दुर्बल जाति के सामने इस महावीर का उदाहरण उपस्थित करो।  देह में बल नहीं, ह्रदय में साहस नहीं, तो फिर क्या होगा इस जड़ पिंड (शरीर) को धारण करने से ? मेरी इच्छा है कि घर-घर में हनुमानजी की पूजा हो ! 

[जिस समय अशोकवाटिका से हनुमानजी को बंदी बनाकर राजदरबार में रावण के सामने खडा किया गया, उस समय राक्षसों ने उनसे पूछा ‘तू कौन है ? अपना परिचय बता । तब हनुमान जी ने कहा कि, ‘मैं त्रिलोकी पति प्रभु श्रीरामचंद्र का दास और सेवक हुनमान हूं और रावण के पास श्रीराम का दूत बनकर आया हूं ।’हनुमानजी की पूर्ण श्रद्धा थी कि स्वयं में जो भी सामर्थ्य है, अपना जो भी प्रभाव है, वह सब श्रीराम जी की कृपा का ही परिणाम है । वह श्रीराम की कृपा ही है । संक्षेप में हनुमानजी का जीवन स्वयं के लिए था ही नहीं । राम सेवा यही उनका जीवन था । एक बार श्रीराम ने हनुमान से पूछा कि तुममें  और मुझमें क्या संबंध है ?’हनुमानजी ने श्रीरामजी से कहा,-

‘देहदृष्ट्या तू दासोऽहं जीवदृष्ट्या त्वदंशकः ।

आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहं इति मे निश्‍चला मतिः ।।

अर्थ :१. देह दृष्टि से मैं आपका दास हूं । आप जो कहेंगे मैं वह करूंगा (कर्मयोग)। २. जीव दृष्टि से मैं आपका अंश हूं (भक्ति योग)। ३. आत्मदृष्टि से आप और मैं एक ही हैं; क्योंकि सभी की आत्मा एक ही है (ज्ञानयोग)। 

ईश्‍वर को मन से स्वामी स्वीकार कर स्वयं को उनका दास समझना दास्य भक्ति है । ईश्‍वर की सेवा कर प्रसन्न होना । भगवान को अपना सर्वस्व मान लेना ‘दास्य भक्ति’ कहलाता है । हनुमानजी और स्वामीजी  दास्य भाव के भक्त हैं । इसमें भक्त जो भी करता है, पूजा, अर्चना, किसी मंदिर की सेवा, ईश्‍वर का कीर्तन अथवा वंदन, वह यही समझकर करता है कि मैं ईश्‍वर का तुच्छ सेवक हूं । तन, मन, धन, वाणी आदि से स्वयं का ईश्‍वर की सेवा में समर्पित करने को आतुर रहता है । हम कोई भी भक्ति करें, उसमें दास्य भाव का होना आवश्यक है । तभी हमारे अहं का नाश होकर भक्त ईश्‍वर की कृपा का पात्र बनता है । 

जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय ।

तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस ॥

   (मानस –मंगलाचरण - किष्किन्धाकाण्ड ॥ ४/सो॰) 

 जिस भीषण हलाहल विषसे सब देवतागण जल रहे थे उसको जिन्होंने स्वयं पान कर लिया, रे मन्द मन ! तू उन शंकरजीको क्यों नहीं भजता ? उनके समान कृपालु (और) कौन है ? 

(गीताप्रेस, गोरखपुर)

केवल बुद्धि धूर्तता, चालाकी-सियार भाव, काक भाव पैदा करता है। केवल विद्या बौद्धिकता बढ़ाती है, ज्ञान नहीं; अहंकार में वृद्धि होती है और व्यक्ति सत्य से दूर भाग जाता है।

`अहङ्कार की अग्नि में, जरत सकल संसार। 

तुलसी  बांचे सन्त जन, केवल “शान्ति" अधार ॥श्रीभक्तमाल ५॥  

शिव भाव से सभी जीवों को देखने वाला राम अपने अनुज से कहता है -'भरत भाई , कपि से उऋण हम नाहीं'। "हनुमान का  दास्य-भाव अनुपम है। 'दासोहं कौशलेन्द्रस्य----' ब्रह्माण्ड में दास्य-भाव का ऐसा उदाहरण दुर्लभ है. जब तक जांबवान जैसा कोई  वुजुर्ग आदेश / याद न दिलावे तब तक पहल न करने की शिष्टता हनुमान में ही हो सकती है-' का चुप साधि रहौं बलवाना, पवन तनय बल पवन समाना'। ' मर्यादा का सम्मान, वुद्धि का समुचित उपयोग और लक्ष्य प्राप्ति के विना विश्राम नहीं करना' के मूर्त रूप हैं हनुमान- "राम काज किन्हे विना मोहि कहाँ विश्राम"?सर्वशक्तिमान रहते हुए दासत्व का ऐसा अभिनय विश्वमंच पर अनुपम है. वे एकादश रूद्र हैं, इस दृष्टि से राम से किसी भी मायने में कम नहीं हैं. लेकिन अभिनय के लिए जो पार्ट मिला है उसे आदर्श ढंग से पूरा करना है। ] 

 भूलोक और द्युलोक ^*.....ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्यः धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्!! “तेजस्वी, सर्वश्रेष्ठ, वंदनीय तीनों लोकों पृथ्वी, अंतरिक्ष और द्युलोक में विचरण करने वाले भगवान सूर्य हमारी बुद्धियों को सन्मार्ग में प्रेरित करें। ”  भूलोक (पृथ्वीलोक), भुवर्लोक (अंतरिक्ष) और स्वर्लोक (द्युलोक) कहा जाता है। इन्हें समग्र रूप से त्रिलोक कहा गया है।द्युलोक अर्थात् तारे और सूर्य जैसे प्रकाशमान द्युत पदार्थों का लोक । श्रीमदभागवत पुराण में श्री शुकदेव जी के अनुसार भूलोक तथा द्युलोक के मध्य में अन्तरिक्ष लोक है। इस द्युलोक में सूर्य भगवान नक्षत्र तारों के मध्य में विराजमान रह कर तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं। उत्तरायण, दक्षिणायन तथा विषुक्त नामक तीन मार्गों से चलने के कारण कर्क, मकर तथा समान गतियों के छोटे, बड़े तथा समान दिन रात्रि बनाते हैं। मनुष्य को जो अभी तक की जानकारी है, उसके अनुसार पृथ्वीलोक, अंतरिक्ष और द्युलोक, इन तीनों में जितने भी ग्रह-नक्षत्र हैं, इनमें जीवन केवल पृथ्वी पर है। पृथ्वी के जीवन को बहुत तरीके से यह प्रकृति सँभालती है। उसे आगे बढ़ाने के लिये ही ऋतुओं का चक्र है। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है, इसलिये दिन-रात होते हैं। पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है, इसलिये ऋतुएँ होती हैं। वह अपने अक्ष पर झुकी हुई है, इसलिये सारे विश्व में एक समय व एक समान ऋतुएँ नहीं होती हैं।

भूलोक तथा द्युलोक के मध्य में अंतरिक्ष लोक है। इस द्युलोक में सूर्य भगवान नक्षत्र तारों के मध्य में विराजमान रहकर तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं। पुराणों के अनुसार सूर्य देवता के पिता का नाम महर्षि कश्यप व माता का नाम अदिति है। इनकी पत्नी का नाम संज्ञा है, जो विश्वकर्मा की पुत्री है। सूर्य देवता की पत्नी संज्ञा से यम नामक पुत्र और यमुना नामक पुत्री तथा इनकी दूसरी पत्नी छाया से इनको एक महान प्रतापी पुत्र हुए जिनका नाम शनि है।— feeling awesome.

जब कुछ नहीं था—तब क्या था? 

धरती नहीं थी, आकाश नहीं था, सूर्य नहीं था, चंद्र नहीं था, तब क्या था? यह चिंतन की परंपरा कहाँ तक जाती है? सबसे पहले क्या आया? उसे महाकाल की संज्ञा हमने ऐसे ही नहीं दी है। इसका आरंभ कहाँ से है? अंत कहाँ है? आज तक यह कोई नहीं जान पाया। इसलिये समय को हमारे यहाँ चक्राकार स्थिति में अनुभव किया गया है ।  इस अखंड समय (महाकाल) के भीतर हमारा देश है, संपूर्ण ब्रह्मांड है, सौर मंडल है। यह ब्रह्मांड भी उस महाकाल में ही स्थित है। उस महाकाल के संकेत पर सब अपनी-अपनी गति में क्रियाशील हैं। एक घंटा यदि सूर्य न निकले तो संपूर्ण विश्व में हाहाकार मच जाए। सब अपने-अपने नियम से बँधे हुए क्रियाशील हैं, जिसे 'ऋत' कहा जाता है। ऋत को संचालित करनेवाला कोई सत्य (इन्द्रियातीत सत्य-परम सत्य-ब्रह्म ?) है, जो ये सब नहीं थे, तब भी था और ये सब नहीं रहेंगे, तब भी रहेगा। इसे 'सत्य' कहते हैं। जिसके इशारे पर यह सब कुछ चल रहा है, निर्मित हो रहा है, संचालित हो रहा है, रचित हो रहा है, सर्जित हो रहा है, उस नियमावली को 'ऋत' कहा जाता है। ऋत और सत्य दो तत्त्व हैं, जिसे हमारी भारतीय मनीषा ने मानवी सभ्यता के विकास और प्राकृतिक ऊर्जा के विकास में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है।

  सृष्टि की उत्पत्ति की अवधारणा में हम ऐसा मानते हैं कि जो जल है, वह सृष्टि के विकास-क्रम का प्राणतत्त्व है, बीजतत्त्व है। 'क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा, पंच रचित यह अधम शरीरा।' पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इन पाँचों से ही सारी सृष्टि बनी है। जलतत्त्व सबमें सर्वाधिक है। इसका एक प्रमाण तो यह है कि पृथ्वी के ऊपर भी जल तीन-चौथाई मात्रा में है। उसी तरह सारे चेतन प्राणियों में जलतत्त्व की मात्रा अन्य तत्त्वों से अधिक है। 

सृष्टि के आरंभ के भी बहुत पहले कुछ नहीं था। शून्य था। अँधेरा था। महामौन था। उत्पत्ति की अनेक अवधारणाओं में से एक यह भी है कि सबसे पहले जल की उत्पत्ति हुई। जल से ही सारी सृष्टि का विकास हुआ। भारतीय चिंतन में विशेषकर, जो दस अवतारों की अवधारणा है, उनका क्रम ध्यान देने योग्य है—मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्की। डार्विन का विकासवाद बाद में आया। डार्विन की भूमि पर ही वह खारिज कर दिया गया।

पश्चिमी विश्व में जब बसंत आता है, वहाँ का व्यक्ति खुशी मनाता है। हमारे यहाँ मेघों की मनुहार, कोयल की मनुहार, वर्षा की मनुहार, इंद्र की मनुहार, यह सब क्यों होता है? सृष्टि की अनादि यात्रा में वर्षा पहली बार कहीं-न-कहीं तो हुई होगी? जल आया कैसे? जिस दिन पहली बरखा हुई होगी, उसी दिन धरती की गोद से किसी नन्हे अंकुर ने आकाश की तरफ पृथ्वी की सारी सर्जन-क्षमता के साथ आँख उठाकर उत्साह से देखा होगा। जल नहीं होता तो सर्जन नहीं होता। जल के साथ सर्जन का मूल रूप जुड़ा हुआ है। मूलतः सर्जन के साथ जल का संबंध है।

माना  कि पृथ्वी का जन्म सूर्य से ही हुआ है। करोड़ों वर्षों तक यह ठंडी होती-होती पृथ्वी के रूप में रूपायित हुई—मिट्टी बनी, पहाड़ बने, कछार बने, घाटियाँ बनीं। उस समय जो पहली वर्षा नहीं हुई होती तो क्या हमें वानस्पतिक संसार प्राप्त होता? वनस्पति मनुष्य से करोड़ों वर्षों पहले आई है। उसके बाद मनुष्य का जीवन आया है। सबसे पहला सर्जन कहाँ होता है? सबसे पहला सृजन  अग्नि, वायु, जल—इन तीनों के सम्मिश्रण से आकाश में होता है। जयशंकर प्रसाद ने 'कामायनी' में महाजलप्लावन का संदर्भ रूपायित किया है। हम कल्पना करें कि कितनी बारिश हुई होगी? सारी पृथ्वी जलमग्न हो गई। सबसे पहली वर्षा पृथ्वी की रचना के बाद हुई। सर्जनात्मकता सृष्टि के कल्याण और मंगलविधान से जुड़ी हुई हो। पावस (वर्षा ऋतू) लोकमंगल से जुड़ा हुआ है। हमारा सर्जन भी लोकमंगल का विधान रचनेवाला हो, तभी पावस और सर्जन के संदर्भ सार्थक और अमर होंगे।

[साभार-पावस और सर्जन- श्रीराम परिहार/ http://www.abhivyakti-hindi.org/snibandh/lalit_nibandh/2021/pawas_aur_sarjan.htm]

🔆🙏अव्यक्त (साम्य-Undifferentiated) और व्यक्त (विविधता-Differentiated)

' सांख्य दर्शन का एक अध्यन ' (यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे- वि ० साहित्य ० खण्ड 4 पेज 201) : व्यक्त (मूर्त-विविधता -Differentiated) से अव्यक्त (अमूर्त,साम्य-Undifferentiated) की ओर व्यक्ति ( 3'H') की एक आध्यात्मिक यात्रा :  [अवचेतन, चेतन एवं अतिचेतन A study of the Sankhya Philosophy,व्यक्त, अव्यक्त और पुरुष/ ( १-८-१८९६ को न्यूयार्क में स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिया गया भाषण ) मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014/ https://vivek-jivan.blogspot.com/2014/02/study-of-sankhya-philosophy.html)] :

सांख्य दार्शनिकों ने प्रकृति को अव्यक्त कहा है, और उसकी परिभाषा उसके अन्तर्गत समस्त उपादानों (सत-रज-तम) की साम्यावस्था के रूप में की है। इससे स्वभावतः यह  निष्कर्ष निकलता है कि पूर्ण साम्यावस्था में किसी प्रकार की गति नहीं हो सकती। 

आद्द्य अवस्था (primal state) में, किसी अभिव्यक्ति के पूर्व जब कि कोई गति नहीं थी, अपितु पूर्ण साम्यावस्था थी, तब यह प्रकृति भी अविनाशी (indestructible) थी, क्योंकि विघटन, अथवा विनाश परिवर्तन से ही होता है।

सांख्य का यह मत भी है कि परमाणु आरम्भिक अवस्था के रूप नहीं हैं।  इस जगत् की उत्पत्ति परमाणुओं से नहीं होती : वे दूसरी या तीसरी अवस्था हो सकते हैं। सम्भव है कि आदिकालीन पदार्थ (The primordial material) परमाणुओं का रूप धारण कर स्थूलतर होता हुआ विशालतर वस्तुओं में परिणत हो जाता है। जहाँ तक आधुनिक अनुसन्धानों का सम्बन्ध है; वे भी यथार्थतः इसी निष्कर्ष का संकेत करते हैं। So the atomic theory cannot be final.  इसलिये परमाणुवाद (atomic theory) सृष्टि का अन्तिम सिद्धान्त नहीं हो सकता। सांख्य के अनुसार प्रकृति सर्वव्यापी है। वह एक सर्वव्यापी जड़-राशिस्वरूप है, जिसमें इस जगत की समस्त वस्तुओं के कारण विद्यमान हैं। 

🔆🙏तुम्हें स्मरण रखना चाहिये कि ब्रह्माण्ड में इस प्रकृति की प्रथम अभिव्यक्ति सांख्य के शब्दों में 'महत' है। हम इसे बुद्धि कह सकते हैं। `The first change in Prakriti is this intelligence' --प्रकृति में जो प्रथम परिवर्त्तन हुआ, उससे तार्किक-बुद्धि की उत्पत्ति हुई। चेतना (Consciousness) इस बुद्धि का अंश मात्र है। 'महत' सर्वव्यापी (universal) है। मन की ये सभी अवस्थायें - 'अवचेतन' (sub-consciousness) 'चेतन' (consciousness) और 'अतिचेतन' (super-consciousness) सब इसके (महत के ) अन्तर्गत आ जाते हैं। `so any one state of consciousness, as applied to this Mahat, would not be sufficient.'  अतः चेतना के किसी एक अवस्था के लिए ही इस 'महत' शब्द का प्रयोग करना पर्याप्त न होगा।   उदाहरण के लिये तुम अपनी आँखों के सामने बाह्य प्रकृति में कुछ परिवर्तन घटित होते हुए देखते हो, जिन्हें तुम देखकर समझ भी सकते हो, किन्तु कुछ परिवर्तन - [जैसे मन का अहं में रूपान्तरण] इतने सूक्ष्मतर होते हैं, कि कोई मानव प्रत्यक्षतः उनको पकड़ नहीं सकता ! किन्तु वे एक ही कारण से उदभूत होते हैं; वही 'महत' इन समस्त परिवर्तनों (व्यष्टि अहं)  की जननी है

`Out of Mahat comes universal egoism. महत से ही सर्वव्यापी अहं-तत्व (universal egoism- माँ जगदम्बा के मातृहृदय का सर्वव्यापी विराट अहं)की उत्पत्ति हुई है।There is no difference between matter and mind, except in degree.  महत से ही सर्वव्यापी अहं-तत्व (universal egoism) की उत्पत्ति हुई है। ये सब द्रव्य (substance) हैं। जड़-तत्व और मन (matter and mind) में परिणामगत भेद के अतिरिक्त और कोई भेद नहीं है। सूक्ष्म एवं स्थूल स्वरूप में एक ही पदार्थ होता है, एक दूसरे में रूपांतरित हो जाता है, और इसका आधुनिक शरीरविज्ञान के निष्कर्षों से पूर्ण साम्य है। इस शिक्षा में विश्वास करने से कि 'मन' मस्तिष्क (Brain) से पृथक नहीं है, तुम बहुत से द्वंद्व और संघर्षों से बच जाओगे। (By believing in the teaching that the mind is not separate from the brain, you will be saved from much fighting and struggling. `A STUDY OF THE SANKHYA PHILOSOPHY/ Volume 2,page 442 ) 

अहंभाव (Egoism) दो प्रजातियों में रूपान्तरित  हो जाता है। इसकी एक प्रजाति इंद्रियों में परिवर्तित हो जाती है। इंद्रियाँ दो प्रकार की होती हैं: संवेदक इंद्रियाँ (organs of sensation-5 ज्ञानेन्द्रियाँ ) और प्रतिक्रियात्मक इंद्रियाँ (organs of reaction-5 कर्मेन्द्रिय)। वे आँख और कान (आदि उपकरण-ज्ञानेन्द्रियाँ) नहीं हैं, बल्कि इनके पृष्ठ भाग हैं, जिन्हें मस्तिष्क-केन्द्र (brain-centers) और स्नायु-केन्द्र (nerve-centers) आदि कहा जाता है। यह अहंभाव (egoism),यह पदार्थ ही परिवर्तित हो जाता है, और इसी पदार्थ से मस्तिष्क में ये केन्द्र आदि निर्मित होते हैं।

फिर इसी पदार्थ (अहंभाव) से दूसरी प्रजाति के रूप में तन्मात्राओं ( Tanmatras - fine particles of matter)- पदार्थ के सूक्ष्म कणों का निर्माण होता है, जो अभिज्ञता प्रदान करने वाली हमारी संवेदक-इंद्रियों पर आघात करते हैं, और संवेदना उत्पन्न होती है।( the Tanmatras, fine particles of matter, which strike our organs of perception and bring about sensations.)  तुम उन्हें देख नहीं सकते, मात्र जानते हो कि वे हैं। तन्मात्राओं से स्थूल पदार्थ -- 'क्षिति, जल,पावक, गगन, समीर' तथा उन सब वस्तुओं का  (नाम-रूप,रस,गंध,शब्द, स्पर्श), जिन्हें हम देखते और अनुभव करते हैं, निर्माण होता है। `All these things (also the origin of sense organs and tanmatra etc. from ego) are things related to the creation of the universe.ये सब (अहंभाव से इन्द्रिय और तन्मात्रा आदि की उत्पत्ति भी) ब्रह्माण्ड की रचना से सम्बंधित बातें हैं। यह बात मैं तुम्हारे मन में बैठा देना चाहता हूँ।   I myself had a tremendous difficulty, being educated in Western philosophy in my boyhood. These are all cosmic things. इसे समझना बहुत कठिन है, क्योंकि पश्चिमी देशों में मन एवं पदार्थ के विषय में विचार बहुत विचित्र हैं। उन प्रभावों को अपने मस्तिष्क से दूर करना बहुत कठिन है।  पाश्चात्य दर्शन में अपने बाल्य काल में प्रशिक्षित होने से मुझे स्वयं को बड़ी कठिनाई हुई थी। 

ब्रह्माण्ड रचना में प्रथम रूपान्तरण को- 'महत' कहा जाता है। एक अविभक्त (अव्यक्त -साम्य  -undifferentiated), अखण्डित द्रव्य, की कल्पना करो, जो प्रत्येक वस्तु की प्रथम अवस्था है।उसी 'महत' से यह ब्रह्माण्डीय विस्तार (universal extension), उसी प्रकार रूपान्तरित होने लगता है, जिस प्रकार दूध परिवर्तित होकर (विविधता या व्यक्त differentiated रूप में) दही (मट्ठा) बन जाता है। महत पदार्थ स्थूलतर पदार्थ, जिसे अहंभाव (egoism) कहते हैं,में रूपान्तरित हो जाता है। इसका तीसरा रूपान्तरण सार्वभौम संवेदक इन्द्रियों ( universal sense-organs) तथा सार्वभौम तन्मात्राओं (universal fine particles) के रूप में अभिव्यक्त होता है, और ये अंतिम वस्तुएँ पुनः संयुक्त होकर इस स्थूल जगत में, जिसे हम अपनी आँख, नाक तथा कान से देखते, सूँघते और सुनते हैं, (यन्त्र ) में परिणत हो जाती हैं। सांख्य के अनुसार यही वह 'cosmic plan' ब्रह्माण्डीय योजना है, वह विधान है-कि>यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे  " जो-जो इस ब्रह्माण्ड (cosmos) में है वही सब अवश्य हमारे शरीर में, इस पिण्ड (microcosmic) में भी है।      

   इन पंचमहाभूतों की पंचतन्मात्राएँ हैं मनुष्य में भी ये सभी पंचतन्मात्राएँ  विद्यमान हैं-  आकाश की तन्मात्रा शब्द है। मनुष्य अपने कानों से सुनता है। वायु की तन्मात्रा स्पर्श है। मनुष्य अपने शरीर पर स्पर्श का अनुभव करता है। अग्नि की तन्मात्रा ताप है। अग्नि तत्त्व मनुष्य के शरीर में है जिससे वह भोजन पचाता है और अग्नि जैसा तेज उसके चेहरे पर रहता है। जल की तन्मात्रा रस है। मनुष्य के मुँह से निकलने वाला रस भोजन को स्वादिष्ट बनाता है और शरीर को पुष्ट करता है। पृथ्वी की तन्मात्रा गंध है। पृथ्वी में हर स्थान पर गंध बिखरी हुई है। मनुष्य अपनी घ्राण शक्ति (नाक) से गंध को सूंघता है और आनन्दित होता है।

इन पंचमहाभूतों के पाँच गुण हैं जो मनुष्य शरीर में भी होते हैं- आकाश का गुण अप्रतिघात (non resistance) है। आकाश की तरह पूरे शरीर पर त्वचा का आवरण (covering) है। हमारे शरीर के छिद्रों से जहाँ प्रतिघात होता है उसे आकाश तत्त्व से उपचार से रोका जाता है। वायु का गुण चलत्व (mobility) है। हमारा शरीर भी वायु की तरह चलायमान है। इधर-उधर आता-जाता है। अग्नि का गुण उष्णत्व (heating) है। अग्नि के समान उष्णता मनुष्य में होती है तभी वह जीवित रहता है। यदि उसकी उष्णता समाप्त हो जाए तो वह इस दुनिया से कूच कर जाता है।ब्रह्माण्ड और शरीर में समानता है पर अंतर केवल स्थूल व सूक्ष्म का है। जितने मूर्तिमान भाव विशेष इस लोक में हैं वे सब मनुष्य में हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो लोक या प्रकृति तथा पुरुष में समानता है।

यह भौतिक संसार पंचमहाभूतों से बना है-  आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। उसी प्रकार हमारा हमारा यह शरीर भी इन्हीं पाँचों महाभूतों से बना हुआ है। जब जीव की मृत्यु होती है तो उसके उपरान्त ये पाँचों महातत्त्व अपने-अपने तत्त्व में जाकर मिल जाते हैं।

 कारण का क्या तात्पर्य है ? कारण व्यक्त अवस्था कि सूक्ष्म दशा है --उस वस्तु की अनभिव्यक्त अवस्था (Undifferentiated state-साम्यावस्था), जो अभिव्यक्ति (-Differentiated अवस्था) प्राप्त करती है।

आधुनिक भौतिक विज्ञान के अनुसार यह, जिसे कपिल ने युगों पूर्व कहा था, सिद्ध किया जा सकता है कि - `नाशः कारण लयः' अर्थात समस्त विनाश (मृत्यु) कारण में प्रत्यावर्तन मात्र है। यदि तुम्हारे पास मिटटी का कोई बरतन है और तुम उस पर आघात करो, तो वह विनष्ट हो जायेगा। इसका तात्पर्य यह है कि कार्य का उसके मूल स्वरुप में प्रत्यावर्तन हो जाता है, जिन उपादानों से बरतन बना था, वे अपने मूल स्वरुप में लौट जाते हैं। विनाश (मृत्यु) का तात्पर्य सूक्ष्मतर अवस्था में रूपान्तरण  ही है, और कुछ नहीं। यदि तुम्हारे पास मिटटी का कोई बरतन है और तुम उस पर आघात करो, तो वह विनष्ट हो जायेगा। इसका तात्पर्य यह है कि कार्य का उसके मूल स्वरुप में प्रत्यावर्तन हो जाता है, जिन उपादानों से बरतन बना था, वे अपने मूल स्वरुप में लौट जाते हैं। विनाश का इस भाव से परे यदि कोई अन्य भाव, उन्मूलन (annihilation) आदि का लिया जाता है, तो वह स्पष्टतः असंगत है।

तुम जानते हो कि एक प्रयोगशाला में यह कैसे सिद्ध किया जा सकता है कि ' Matter is indestructible.(E=M) ' भौतिक पदार्थ अविनाशी हैं। हमारे ज्ञान की वर्तमान स्थिति में यदि कोई मनुष्य यह कहता है कि भौतिक पदार्थ अथवा इस आत्मा का उन्मूलन हो जाता है, तो वह अपने को मात्र हास्यास्पद बनाता है।  केवल अशिक्षित, मूर्खलोग ही ऐसी प्रस्थापना प्रस्तुत कर सकते हैं। विचित्र बात यह है कि आधुनिक विज्ञान का प्राचीन दार्शनिकों की शिक्षा से साम्य है। ऐसा होना ही चाहिये, सत्यता का यही प्रमाण है। इन्द्रियातीत सत्य की अवस्था में पहुँचकर  हम देखेंगे कि किन्तु अहंभाव का इन्द्रियों, यंत्रों और जड़ तन्मात्राओं में रूपान्तरित होना या दो विभिन्न प्रजातियों में विभक्त हो जाना, केवल विवर्त है, परिणाम नहीं है। [ १-८-१८९६ को न्यूयार्क में स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिया गया भाषण : > सभी धर्मों के धार्मिक-सिद्धान्तों के सत्यता की कसौटी यही होनी चाहिये।)]  

 ब्रह्माजी का कार्यभार एवं कार्यप्रणाली तथा सृष्टि की उत्पत्ति और लय का वर्णन इन गीता - (8.18,19) के दो श्लोकों में किया गया है।  यहाँ कहा गया है कि ब्रह्माजी का दिन में जो कि एक सहस्र युग का है वे सृष्टि करते हैं और उनकी रात्रि का जैसे ही आगमन होता है वैसे ही सम्पूर्ण सृष्टि पुनः अव्यक्त में लीन हो जाती है।

अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।

रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके।।8.18।।

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।

रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे।।8.19।।

।।8.18।। ब्रह्माजी के दिन का उदय होने पर अव्यक्त से यह व्यक्त प्राणी समुदाय (चराचर जगत्) उत्पन्न होता है; और ब्रह्माजी की रात के आगमन पर उसी अव्यक्त में लीन हो जाता है।।

।।8.19।। हे पार्थ ! वही यह  भूतग्राम, है जो पुनः पुनः उत्पन्न होकर लीन होता है। अवश हुआ (यह भूतग्राम) ब्रह्मा की रात्रि के आगमन पर लीन तथा  ब्रह्मा के दिन के उदय होने पर व्यक्त होता है।।

वही भूतग्राम का अर्थ है वही वासनायें। जीव अपनी वासनाओं से भिन्न नहीं होता। वासनाक्षय के लिए जीव विभिन्न लोकों में विभिन्न प्रकार के शरीर धारण करता है। इसमें वह अवश है। अवश एक प्रभावशाली शब्द है जो यह सूचित करता है कि अपनी दृढ़ वासनाओं के फलस्वरूप यह जीव स्वयं को अपने भूतकाल से वियुक्त करने में असमर्थ होता है।  जब हम ज्ञान के प्रकाश की ओर पीठ करके चलते हैं तब हमारा भूतकाल का जीवन हमारे मार्ग को अन्धकारमय करता हुआ हमारे साथ ही चलता है। ज्ञान के प्रकाश की ओर अभिमुख होकर चलने पर वही भूतकाल नम्रतापूर्वक संरक्षक देवदूत के समान आत्मान्वेषण के मार्ग में हमारा साथ देता है। 

व्यक्ति जब जन्म लेता है तब वह अव्यक्त से व्यक्त में आता है। जब वह मृत्यु को प्राप्त करता है तो पुन: व्यक्त से अव्यक्त बन जाता है। एक देह को त्यागकर जीव का अस्तित्व उसी प्रकार बना रहता है जैसे नाटक की समाप्ति पर राजा के वेष का त्याग कर अभिनेता का। नाटक के पश्चात् वह अपनी पत्नी के पति और बच्चों के पिता के रूप में रहता है। एक देह विशेष को धारण कर कर्मों के रूप में अपने मन की वासनाओं या विचारों का गीत गाना ही सृष्टि है और उपाधियों को त्यागने पर विचारों का अव्यक्त होना ही लय है। वीणावादक अपने वाद्य के माध्यम से अपने संगीत के ज्ञान को व्यक्त करता है किन्तु जब वीणा को बन्द कर दिया जाता है तो उस वादक का संगीतज्ञान अव्यक्त अवस्था में रहता है। 

व्यक्त का अर्थ है प्रकट होना और अव्यक्त का अर्थ है अदृश्य हो जाना । मनुष्य को व्यक्ति शब्द मिला ही इसी लिए है कि वह प्रकट है,वह व्यक्त है । मनुष्य व्यक्त होने से पहले अव्यक्त था अर्थात  वह इस संसार में दृश्यमान नहीं था । जाग्रत अवस्था में मनुष्य व्यक्त में रहता है, जबकि निद्रा व स्वप्न अवस्था में वह स्थूल कर्मेन्द्रियों से परे चला जाता है। यह भी लगभग अव्यक्त वाली ही स्थिति है। तो जब वह व्यक्त नहीं था तो क्या वह अव्यक्त था ? इस प्रश्न का जवाब मिलते ही यह व्यक्त-अव्यक्त की पहेली सुलझ जाएगी। इस प्रश्न का उत्तर हमें अपने से बाहर जाकर खोजने से नहीं मिलेगा बल्कि स्वयं के अंदर प्रवेश करने पर मिल जायेगा । अपने से बाहर सिर्फ यह भौतिक संसार है और भौतिकता केवल व्यक्त से सम्बंधित होती है । अव्यक्त से उसका दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होता है । भौतिकता के अनुसार प्राणी का जन्म मात्र ही उसका व्यक्त स्वरुप है और शरीर की मृत्यु होना उस प्राणी का अव्यक्त हो जाना है । संसार में जितनी भी निर्जीव वस्तुएँ है ,क्या वे प्रकट या व्यक्त नहीं है ? नहीं, वे भी व्यक्त ही है। जब  एक पहाड़ को तोडा जाता है तब भी वह पत्थर के रूप में व्यक्त है और जब उसी पत्थर को पीसा जाता है तब वह मिट्टी के रूप में व्यक्त है । उस मिट्टी से जब मकान बनाया जाता है तब वह उस मकान के रूप में  व्यक्त है । ठीक इसी प्रकार जब मनुष्य के स्थूल शरीर की मृत्यु होती है तो वह किसी अन्य प्राणी या पुनः मनुष्य के रूप में सदैव ही व्यक्त ही रहता है ।  इससे हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि अव्यक्त होने या व्यक्त होने का सम्बन्ध कम से कम इस स्थूल शरीर की जन्म-मृत्यु से तो नहीं है।

सामान्यतः जगत् में सृष्टि शब्द का अर्थ होता है किसी नवीन वस्तु की निर्मिति। परन्तुर्शनशास्त्र की दृष्टि से सृष्टि का अभिप्राय अधिक सूक्ष्म है तथा अर्थ उसके वास्तविक स्वभाव का परिचायक है। कोई कुम्हार मिट्टी से (उपादान कारण या कच्चा माल से) विभिन्न नाम का  धड़ा , सुराही या कुल्हड़ का निर्माण कर सकता है , लकिन लड्डू का नहीं। क्योंकि लड्डू नाम रूपी आकार के उपादान कारण में जो विशेष गुण होते हैं वे मिट्टी में नहीं होते। विचार करने पर (मनन करने पर)  ज्ञात होगा कि जो निर्मित नाम-रूप है (घड़ा या लड्डू) वह अपने गुण के साथ पहले से ही अपने कारण में अव्यक्त रूप से विद्यमान था। मिट्टी में घटत्व था किन्तु लड्डुत्व नहीं इस कारण मिट्टी से घट की निर्मिति तो हो सकी परन्तु लड्डू का एक कण भी नहीं बनाया जा सका। अतः वेदान्ती इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सृष्टि का अर्थ है अव्यक्त नाम-रूप और गुणों का व्यक्त हो जाना

कोई भी व्यक्ति (उसका चरित्र) वर्तमान में जिस स्थिति में रहता दिखाई देता है वह उसके असंख्य बीते हुये दिनों का परिणाम है। भूतकाल के विचार भावना तथा कर्मों (आदत और प्रवृत्ति)  के अनुसार उनका वर्तमान (चरित्र या व्यक्तित्व)  होता है। मनुष्य के बौद्धिक विचार एवं जीवन मूल्यों के अनुरूप होने वाले कर्म अपने संस्कार (चरित्र के गुण)  उसके अन्तःकरण (चित्त पर छाप ) में छोड़ जाते हैं। यही संस्कार (चरित्र) उसके भविष्य के निर्माता और नियामक होते हैं।

जिस प्रकार विभिन्न जाति के प्राणियों की उत्पत्ति में सातत्य का विशिष्ट नियम कार्य करता है उसी प्रकार विचारों के क्षेत्र में भी वह लागू होता है। मेढक से मेढक की, मनुष्य से मनुष्य की तथा आम्रफल के बीज से आम्र की ही उत्पत्ति होती है। ठीक इसी प्रकार शुभ विचारों से सजातीय शुभ विचारों की ही धारा मन में प्रवाहित होगी और उसमें उत्तरोत्तर बृद्धि होती जायेगी।  मन में अंकित इन विचारों के संस्कार इन्द्रियों के लिए अव्यक्त रहते हैं और प्रायः मन बुद्धि भी उन्हें ग्रहण नहीं कर पाती।ये अव्यक्त संस्कार ही विचार शब्द तथा कर्मों (चरित्र) के रूप में व्यक्त होते हैं। संस्कारों का गुणधर्म कर्मों (व्यक्ति के चरित्र) में भी व्यक्त होता है। 

उदाहरणार्थ किसी विश्रामगृह में चार व्यक्ति चिकित्सक वकील सन्त और डाकू सो रहे हों तब उस स्थिति में देह की दृष्टि से सबमें ताप श्वास रक्त मांस अस्थि आदि एक समान होते हैं। वहाँ डाक्टर और वकील या सन्त और डाकू का भेद स्पष्ट नहीं होता। यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति की विशिष्टता (चरित्र) को हम इन्द्रियों से देख नहीं पाते तथापि वह प्रत्येक में अव्यक्त रूप में विद्यमान रहती है उनसे उसका अभाव नहीं हो जाता है। उन लोगों के अव्यक्त स्वभाव क्षमता और प्रवृत्तियाँ (चरित्र का अन्तर) उनके जागने पर ही व्यक्त होती हैं। विश्रामगृह को छोड़ने पर सभी अपनीअपनी प्रवत्ति के अनुसार कार्यरत हो जायेंगे। अव्यक्त से इस प्रकार व्यक्त होना ही दर्शनशास्त्र की भाषा में सृष्टि है

सृष्टि की प्रक्रिया को इस प्रकार ठीक से समझ लेने पर सम्पूर्ण ब्रह्मांड की सृष्टि और प्रलय को भी हम सरलता से समझ सकेंगे। समष्टि मन (ब्रह्माजी) अपने सहस्त्र युगवाधि के दिन की जाग्रत् अवस्था में सम्पूर्ण अव्यक्त सृष्टि को व्यक्त करता है और रात्रि के आगमन पर भूतमात्र अव्यक्त में लीन हो जाते हैं। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण इस पर विशेष बल देते हुये कहते हैं कि वही भूतग्राम पुनः पुनः अवश हुआ उत्पन्न और लीन होता है। अर्थात् प्रत्येक कल्प के प्रारम्भ में नवीन जीवों की उत्पत्ति नहीं होती। जब तक  दैवी संस्कार शिष्य में अव्यक्त रूप में न हों, तब तक कोई भी गुरु उपदेश के द्वारा उसे तत्काल ही सन्त पुरुष नहीं बना सकता। 

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।

अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।2.28।।

।।2.28।। हे भारत ! सभी प्राणी जन्म से पहले अप्रकट (अव्यक्त ) थे और मरने के बाद अप्रकट हो जायँगे, केवल बीच में ही प्रकट (व्यक्त) दीखते हैं। अतः इसमें शोक करनेकी बात ही क्या है?

इस भौतिक जगत् में कार्यकरण का नियम अबाधरूप से कार्य करते हुए अनुभव में आता है। कार्य की उत्पत्ति कारण से होती है। सामान्यत कार्य व्यक्त रूप में दिखाई देता है और कारण अव्यक्त रहता है। अत सृष्टिका अर्थ है वस्तुओं का अव्यक्त अवस्था से व्यक्त अवस्था में आ जाना। यही क्रम निरन्तर नियमपूर्वक चलता रहता है।

इस प्रकार आज का व्यक्त इसके पूर्व  कल अव्यक्त था वर्तमान में वह व्यक्त रूप में उपलब्ध है परन्तु भविष्य में फिर अव्यक्त अवस्था में विलीन हो जायेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि वर्तमान स्थिति अज्ञात से आयी और पुन अज्ञात में लीन हो जायेगी। ऐसा समझने पर दुख का कोई कारण नहीं रह जाता क्योंकि एक चक्र के आरे निरन्तर घूमते हुए नीचे भी आते हैं तो केवल बाद में ऊपर उठने के लिए ही।उदाहरणार्थ स्वप्न के पत्नी और शिशु पहले अव्यक्त थे और जागने पर फिर लुप्त हो जाते हैं तो एक ब्रह्मचारी को उस पत्नी और शिशु के लिए शोक करने का क्या कारण है जिसके साथ उसका विवाह कभी हुआ ही नहीं था और जिस शिशु का कभी जन्म ही नहीं हुआ था ?

 भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा इस जगत् की उत्पत्ति और लय का चक्र निरन्तर एक पारमार्थिक नित्य अविकारी सत्य के रूप में ही चल रहा है; तो क्या कारण है कि उस सत्य को बारम्बार बताने पर भी हम समझ नहीं पाते ?  श्रीशंकराचार्य के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण यह विचार करते हैं कि इस सत्य को न समझने के लिए अर्जुन को दोष देना उचित नहीं है।

🔆🙏व्यक्त, अव्यक्त और पुरुष के ज्ञान से दुःख की निवृत्ति अधिक उत्तम होती है : 

यह प्रकृति त्रिगुणात्मक है। प्रकृति की त्रिगुणात्मक साम्यावस्था सत्व, रज, और तमो गुण है। इन गुणों में चेतन के संयोग से वैषम्य होने लगता है। प्रकृति की त्रिगुणात्मक अवस्था से पूर्व सृष्टि का सारा कार्य जगत् इसी में अव्यक्त रूप से रहता है, इसलिए इसे अव्यक्त कहते है। इसी से सर्ग यानी निर्माण, सृजन, रचना, स्वभाव, संकल्प, प्रयत्न या फिर चेष्टा से जीवन को आगे बढ़ाने का काम प्रारंभ होता है अतः इसे मूल प्रकृति या प्रधान कहते हैं। चेतन पुरुष के संसर्ग से प्रकृति में विक्षोभ होता है और प्रकृति की साम्यावस्था टूटती है और प्रकृति अव्यक्त से व्यक्त होने लगती है। जब तक जीवन है तब तक वह व्यक्त है और मृत्यु के पश्चात् वह पुनः अव्यक्त हो जाता है| यह व्यक्त होने की प्रक्रिया सूक्ष्म से स्थूल की ओर होती है। 

अब प्रश्न यह उठता है कि जब व्यक्त-अव्यक्त का सम्बन्ध इस स्थूल शरीर के जन्म-मृत्यु से नहीं है तो फिर गीता में भगवान श्री कृष्ण ने ऐसे कैसे कह दिया कि सभी मनुष्य जन्म से पहले भी अव्यक्त थे और मृत्यु के बाद भी अव्यक्त हो जाने वाले हैं केवल बीच में ही प्रकट या व्यक्त होते हैं। 

अतः हे अर्जुन ! तुम्हे इस बारे में किसी भी प्रकार के शोक करने की आवश्यकता नहीं है । इसके दो कारण  है । पहला कारण तो यह कि ऐसा गीता के प्रारम्भ में ही कहा गया है जब अर्जुन की मनोदशा अपने सगे -सम्बन्धियों की युद्ध के दौरान होने वाली संभावित मृत्यु को सोचकर ख़राब हो रही थी ।

 उस कारण से भगवान को इस भौतिक शरीर की मृत्यु और जन्म का उदाहरण देकर ही समझाना पड़ा क्योंकि अर्जुन की बुद्धि इसी लायक थी । हालाँकि भगवान ने जन्म -मृत्यु के लिए शरीर का नाम नहीं लिया परन्तु श्री कृष्ण यह जानते थे कि अर्जुन इस शरीर की मृत्यु और जन्म के बारे में ही समझेगा । दूसरा कारण यह कि अर्जुन शुरुआत में चाहे इसको इस स्थूल शरीर के जन्म-मृत्यु के बारे में समझे परन्तु जब उसकी मनोदशा सही हो जाएगी  तब वह इस बात की गूढता को समझ लेगा । इसी प्रकार इस श्लोक की गूढता को भी वही व्यक्ति भली भांति समझ पाया है जिसकी मनोदशा इस भौतिक संसार के दायरे से बाहर निकल कर स्वयं के भीतर प्रवेश कर गई हो। जब भीतर जाकर स्वयं को जानने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी ,इस श्लोक का गूढ़ार्थ प्रकट होने लगेगा अन्यथा इसका भावार्थ भी सदैव अव्यक्त ही रहेगा ।

अर्जुन का मन हारा हुआ था, वह युद्ध न लड़ने के लिए अनेक तर्क प्रस्तुत कर रहा था। कृष्ण ने अनेक तर्क सुनने के बाद एक राम-बाण का प्रयोग किया, उनने कहा-कौरवों को तो मैंने पहले ही मार रखा है, वे तो मृतकवत हैं। तू तो निमित्त मात्र बनने की भूमिका निभा और विजयश्री का वरण कर।’तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व, जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।मयैवैते निहताः पूर्वमेव,निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।। गीता 11.33।।' 

`तस्मात् त्वम् उत्तिष्ठ ! यशो लभस्व ! जित्वा शत्रून् ! भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्!!   

मया एव एते निहताः पूर्वम् एव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥] 

` न दैन्यं न पलायनं ' : ये सभी मेरे द्वारा पहले से ही मारे हुए हैं। इसलिये तुम युद्ध के लिये खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो तथा शत्रुओं को जीतकर धन-धान्य से सम्पन्न राज्य को भोगो।  हे सव्यसाचिन् !  तुम निमित्तमात्र बन जाओ। अर्जुन को कृष्ण के वचनों पर पूर्ण विश्वास था, वह सभी उलझनों का परित्याग करके, मोह-मुक्त होकर तत्काल ही युद्ध में प्रवृत्त हो गया।

मूल रूप में व्यक्ति का अस्तित्व अथवा व्यक्तित्व तीन स्तरों पर कार्यशील रहता है। एक स्थूल कर्मेन्द्रियों वाला उसका स्थूल शरीर (Hand)  है, जो मांस-मज्जा और अस्थियों से निर्मित है। दूसरा व्यक्तित्व उसके मन-मस्तिष्क और विवेक (Head) वाला है, जो स्थूल शरीर पर ही आधारित है। जो हमारे जाग्रत होने पर, सक्रिय रहने पर ही हमारे साथ होता है। व्यक्तित्व के तीसरा स्तर सूक्ष्मातिसूक्ष्म किसी चेतन ज्योति बिंदु की तरह विद्यमान रहता है, जिसको आत्मा, रूह या स्पिरिट (Heart) कहा जाता है। यह ज्योति बिंदु जब तक अपनी सूक्ष्म काया के साथ यह हमारे स्थूल शरीर में निवास करता है, तब तक हमारा स्थूल शरीर जीवित रहता है, जब यह ज्योति बिंदु अपने सूक्ष्म शरीर के साथ हमारे स्थूल शरीर से बाहर निकल आता है, स्थूल शरीर मृत हो जाता है। यह सूक्ष्म शरीर और आत्मा अव्यक्त हैं। हम उसके अस्तित्व को अपनी इंद्रियों के माध्यम से नहीं जान सकते, लेकिन वही चेतन ज्योर्तिबिंदु आत्मा मनुष्य के व्यक्तित्व और जीवन का केंद्रबिंदु है।  निराकारी चेतन ज्योर्तिबिंदु आत्मा का मूल गुण व धर्म ही शांति, प्रेम, पवित्रता, आनंद और ज्ञान है। इस निराकारी आत्मा का नियमित मनन-चिंतन एवं अनुभूति ही व्यक्ति के मन, बुद्धि और संस्कार आदि को संतुलित एवं सुखदायी बनाती है।मनुष्य जितना इन आत्मिक गुणों में रमण करता है अर्थात् अंतर्मुखी हो आत्मदर्शन में स्थित होकर सांसारिक कर्म में प्रवृत्त रहता है, उतना ही वह अपने व्यक्त भाव में बाहरी प्रभावों और विकारों से मुक्त अलौकिक अव्यक्त स्थिति का रसास्वादन करता है।  इसी अव्यक्त मनोभाव एवं स्थिति को अपना सहज स्वभाव बनाने का आधार है भारत का प्राचीन आध्यात्मिक ज्ञान, राजयोग या मनःसंयोग। सकारात्मक तथा स्वस्थ जीवन शैली या प्रतिदिन के अभ्यास (24X7 के यम और नियम, आसन, प्रत्याहार -धारणा-विवेकदर्शन के अभ्यास) द्वारा हम इसकी अनुभूति प्राप्त कर सकते हैं।

 परन्तु एक समय (14 अप्रैल 1986, महेन्द्रयोग में हरिद्वार कुम्भ का शाही स्नान) ऐसा आता है जब सब कुछ ठीक होने लगता है। साधक सब कुछ निभाने करने में सक्षम हो जाता है। 

[परमात्मा के गुणों का समावेश - वर्चस् [ वर्चस्वान्, वर्चस्वी] - रूप, तेज, प्रताप , कांति, दीप्ति, शक्ति और शौर्य से युक्त। परमब्रह्म परमात्मा तक पहुचने से पहले साधक को लम्बे समय देवत्व से जुड़ कर ओजस, तेजस, एवं वर्चस को धारण करने में स्वयं को समर्थ बनाना होता है। इसके लिए सदाचार, सदभावना व संयम को दृढ़ता से अपनाना होता है। अन्यथा किसी भी छिद्र (विकार) से ऊर्जा का क्षरण प्रारम्भ हो जाता है व साधक का परिश्रम उसे लक्ष्य तक नहीं पहुँचता। आत्म निरीक्षण द्वारा किसी नवनीदा जैसे C-IN-C के मार्गदर्शन में 3H विकास के 5 अभ्यास का मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्मयकारी प्रशिक्षण प्राप्त करते-करते इन छिद्रों को बन्द करना होता है। धैर्यपूर्वक, विवेकपूर्वक अपने लक्ष्य के लिए पूर्ण मनोयोग से जुटे रहना होता है। 

पथ में बाधाएँ बहुत हैं। घर-परिवार, रिश्ते-नातेदार, मित्र, आस-पास का वातावरण, व्यक्ति के अपने प्रारब्ध, उसका व्यक्तित्व व रोजगार बहुत तरह की समस्याएँ साधना को प्रभावित करती हैं। इन सभी का हल ढूंढना होता है। यदि साधना में अधिक समय दिया तो घर का खर्चा कैसे चलेगा, (विद्या माया और अविद्या माया दोनों को जीतने में किसी रसददार (भाई-या होटल तारा टॉवर की मदद के बिना) बच्चों की देखभाल कैसे होगी आदि अनेक प्रश्न उठ खड़े होते हैं। यदि विवाह न करें तो वासनाएँ एक से बढ़कर एक रूप (Bh का रूप)  धरकर व्यक्ति को हैरान-परेशान करती हैं। इतना साहस और पराक्रम तो बिरलों में ही होता है, जो आँधी तूफानों के बीच भी अपनी आशा का दीपक जलाए रह सकें। सृजन प्रयोजनों के लिए साथियों का सहयोग न जुट पाते हुए भी सुधार संभावना के लिए एकाकी साहस संजोए रह सकें, उलटे को उलटकर सीधा कर देने की योजना बनाते और कार्य करते हुए अडिग बने रहें, गतिशीलता में कमी न आने दें, ऐसे व्यक्तियों को महामानव-देवदूत कहा जाता है। ऐसे अनेकानेक प्रकरण इतिहास में भरे पड़े हैं। हनुमान के नेतृत्व में रीछ-वानरों का समुदाय समुद्र सेतु बाँधने और लंकादमन की विजयश्री का विश्वास लेकर इस प्रकार उमगा कि उसने दुर्दान्त दानवों को चकित और परास्त कर दिया। गोवर्धन पर्वत उठा सकने का विश्वास मानस की गहराई तक जमा लेने के उपरांत ही ग्वाल-बाल कृष्ण के असंभव लगने वाले प्रयास को परिपूर्ण करने में जुट गए। एक उँगली के इशारे पर ग्वाल-बालों द्वारा लाठियों के सहारे गोवर्धन पर्वत उठाए जाने की कथा आज भी हर किसी को प्रेरणा देती है, उसे ऐतिहासिक विश्वस्त घटना के रूप में ही मान्यता मिल गई है।

14 -4 - 1986:  महाकुंभ में गुरु की खोज,  महाकुंभ: क्या था 14 अप्रैल 1986 का वो श्रापित मिथक, जो इस बार टूट गया? 14 अप्रैल को बैसाखी के दिन शाही स्नान के दौरान हुई हैं दुर्घटनाएं। ....  उस समय मैं सहारनपुर के संन्यासी के मार्गदर्शन में महेन्द्र योग में कुम्भ का शाही स्नान कर रहा था ...... Laksar Junction (LRJ), हरिद्वार स्टेशन पहुँचा रात्रि २.३० बजे एक अद्भुत संन्यासी खड़े थे, महेन्द्र योग में कुम्भ का शाही स्नान ,...... 'तन्नो हंसः प्रचोदयात ' डायरी खरीदा , सारे अनुभव लिखता गया।सहारनपुर के साधु का अनुसरण, मेला साईट ? देवराहा बाबा मेरे गुरु नहीं हो सकते ,..... माँ का दर्शन?......  आ आ राजीव गाँधी कछु ना करिहउँ सब हम करिहउँ -मेरा नाम सबसुख-दास , रामसुख दास ? जब याद करोगे मिल जाऊँगा।  युवा नागा संन्यासी , माँ तारा संयासिनी , चिलम मत पीना , ..... कनखल आश्रम, जगह नहीं , समान रख दो, आदमी का समुद्र लेकिन सब चिन्मय ]   जिस वस्तु (अस्ति-भाति -प्रिय) से अवतार वरिष्ठ (C-IN-C) निर्मित हुए हैं, हरिद्वार कुम्भ स्थल भी उसी वस्तु से निर्मित हुआ है। मानो कोई मोम का बागीचा है ,....12 साल से एक हाथ उठाया साधु का हाथ लकड़ी जैसा सूख गया , पर दर्द नहीं होता ?आजादी के बाद पहला कुम्भ 1950 में हुआ था. उस कुम्भ में बैसाखी यानी 14 अप्रैल के शाही स्नान में हर की पौडी में बैरियर टूटने से 50 से 60 श्रद्धालुओं की मृत्यु हो गयी थी। सन् 1986 के हरिद्वार महाकुंभ में हुआ हादसा वीवीआईपी श्रद्धालुओं के कुंभ स्नान प्रेम के कारण हुआ । इस कुंभ के मुख्य पर्व स्नान 14 अप्रैल, 1986 को उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह सहित कई राज्यों के मुख्यमंत्री एवं दो दर्जन से ज्यादा सांसद स्नान करने आ धमके । उन्हें हर की पैड़ी पर स्नान कराने हेतु रास्ता सवा तीन घंटे तक बंद रखा गया । इस कारण भीड़ का दबाव बढ़ने से आगे खड़े कुछ लोग गिर गए और भगदड़ मच गई । इस भगदड़ में करीब 200 लोग मारे गए थे। इस दुर्घटना की जांच के लिए बनी श्री वासुदेव मुखर्जी रिपोर्ट में कहा गया था कि मुख्य स्नान पर्व पर अतिविशिष्ट लोगों को नहीं आना चाहिए।]

उसका अन्तर्मन माँ सारदा के प्यार में लीन होने लगता है तथा बहिरमन से वह अपने कर्त्तव्य उचित प्रकार करने लगता है। परन्तु यह सब कुछ साधने में समय लगता है, ठाकुर की इच्छा माँ की कृपा का आशीर्वाद और स्वामीजी के  उत्साह  से सम्भव हो जाता है।

तेजोऽसि तेजो मयि धेहि । वीर्यमसि वीर्यम् महि धेहि ।

बलमसि बलं मयि धेहि । ओजोस्योजो मयि धेहि ।

मन्युरसि मन्युम मयि धेहि । सहोऽसि सहो मयि धेहि । यजुर्वेद (19/9)

हे परमात्मा ! आप तेजरूप हैं , हमें तेज से संपन्न बनाइये । आप वीर्यवान हैं , हमें पराक्रमी साहसी बनाइये । आप बलवान हैं , हमे बलशाली बनाइये । आप ओजवान हैं , हमें ओजश्वी बनाइये । आप मन्यु रूप हैं (मन्यु अर्थात् क्रोध,आवश्यकता पड़ने पर थोड़ा क्रोध करना भी आवश्यक है।), हमें भी अनीति का प्रतिरोध करने की क्षमता दीजिये । आप कठिनाइयों को सहन करने वाले हैं , हमें भी कठिनाइयों में अडिग रहने की , उन पर विजय पाने की शक्ति दीजिये ।

दुष्टजन आसानी से गिरोह बना लेते हैं। आपस में सहयोग भी करते हैं। किंतु तथाकथित सज्जन मात्र अपने काम से काम रखते हैं। लोकहित के प्रयोजन के लिए संगठित और कटिबद्ध होने से कतराते हैं। उनकी यही एक कमजोरी अन्य सभी गुणों और सामर्थ्यों को बेकार कर देती है। मन्यु की कमी ही इसका मूल कारण है।

-🔆🙏 'मधुमत् पार्थिवं रजः’ ^*:– ऋग्वेद में मधुमय जीवन की प्रार्थना : ऋग्वेद के प्रथम मंडल में कुछ ऋचाएं हैं जिनमें मधु शब्द का बारम्बार  प्रयोग हुआ है । आम जन मधु शब्द को सामान्यतः शहद के लिए प्रयोग में लेते हैं । किंतु इन ऋचाओं में उसे व्यापक अर्थ में लिया गया है । मधु का अर्थ है जो मिठास लिए हो, जिससे सुखानुभूति हो, जो आनंदप्रद हो, अथवा जो श्रेयस्कर हो । 

"फिर हम किसके लिये किस पुरुषार्थ को करें ?, इस विषय को स्पष्ट करते हुए ऋषि कहते है -

`मधु वाता ऋतायते मधुं क्षरन्ति सिन्धवः । 

माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः॥ 

ऋग्वेद, मंडल 1.90. 6॥ 

(मधु वाताः ऋत-अयते, मधुं क्षरन्ति सिन्धवः, माध्वीः नः सन्तु ओषधीः ।)

हम चाहते हैं कि प्रत्येक सत्यसाधक के ऊपर मधु बरसे, मधु का झरना झरे।  पवन अपनी शीतल मन्द लहरियों के साथ मधु बहा कर लायें। कल-कल-निनादिनी सरिताएँ  मधु क्षरित करें। ओषधियाँ हमारे लिए मधुमय हों।   

मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः । 

मधु द्यौरस्तु नः पिता ॥(ऋ० 1.90.7) 

(मधु नक्तम् उत उषसः, `मधुमत् पार्थिवम् रजः', मधु द्यौः अस्तु नः पिता ।)

हे विद्वानो ! जैसे (नः) हम लोगों के लिये (नक्तम्) रात्रि (मधु) मधुर (उषसः) दिन मधुर गुणवाले (पार्थिवम्) पृथिवी में (रजः) अणु और त्रसरेणु आदि छोटे-छोटे भूमि के कणके (मधुमत्) मधुर गुणों से युक्त सुख करनेवाले (उत) और पिता के समान पालन करने वाली (द्यौः) सूर्य्य की कान्ति (मधु) मधुर गुणवाली (अस्तु) हो, वैसे तुम लोगों के लिये भी हो ॥ ७ ॥

कभी अपने श्याम आँचल से माता के समान सबको आच्छादित करती हुई, और कभी शान्त, मधुर चन्द्रिका छिटकाती हुई विश्रामदायिनी रात्रियाँ हमारे लिए मधुमती हों।  जागृति और नवस्फूर्ति देने वाली स्वर्णिल उषाएँ मधुमयी हों।  समस्त पार्थिव लोक- अणु और त्रसरेणु आदि छोटे छोटे धूलिकण मधुमय हो।  पितृतुल्य  पालनकर्ता द्युलोक भी मधुमय हो।  

मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमान् अस्तु सूर्यः ।

 माध्वीर्गावो भवन्तु नः ॥ (ऋ० 1.90.8)

(मधुमान् नः वनस्पतिः, मधुमान् अस्तु सूर्यः, माध्वीः गावः भवन्तु नः ।)

हरित पत्रों का दुकूल ओढ़े हुए ये वृक्ष-वनस्पति हमारे लिए मधुमय हों । रश्मियों से जगत्‌ को प्रकाशित करने वाला पावक सूर्य मधुमय हो।  स्तनों से अमृतोपम दूध क्षरित करने वाली गौएँ मधुमयी हों।  

अथर्ववेद-संहिता 

अथ प्रथमं काण्डं 

[34 – मधु विद्या सूक्त ] 

जैसे हम परस्पर शुभकामनाएं व्यक्त करते हैं उसी प्रकार दैवी शक्तियों को संबोधित करते हुए इन ऋचाओं में सुखद एवं सफल जीवन की कामना या कल्पना का भाव निहित है। यह भावना आधुनिक समय में अधिक प्रासंगिक हो चला है । 

मधु का अर्थ होता है - मीठा।  जैसे ईख का पोर - पोर मीठा होता है।  उसी तरह हमारे जीवन का हरेक काल खंड मधुर कैसे हो तथा ये जगत हमारे लिए मधुर हो अर्थात आनंदकारी हो यही मधु विद्या का मधुर संदेश है। 

इसके लिए चार बातें होनी चाहिए -1. स्वयं मीठे स्वभाव का होना।  2. मीठे स्वभाव वाले से संबंध करना।  3. स्वयं मधुर जीवन व्यतीत करना।  4. दूसरों को मीठा बना देना। 

जैसे-

1. ईख स्वयं मीठे स्वाभाव का होता है।  2. मीठा उत्पन्न करने वाले किसानों से मित्रता होती है। 3. स्वयं मीठा रस अपने साथ लाता है। 4. ईख जिसके साथ मिलता है उसे मीठा बना देताहै।  अर्थात हम अपना जीवन पूर्णतया मुधर बनाये। 

कैसे-

1. हमारा चिंतन मुधर हो - हम प्रार्थना करें- सभी, जड़- चेतन, सुखी हो।  आनंदित हो ये नदियां पृथ्वी, पर्वत आकाश, पेड़- पौधे, जीव- जंतु,मनुष्य आदि सभी आनंदित हो।  2. हमारी वाणी मधुर हो- जगत में सभी के साथ मीठी वाणी का प्रयोग करें चाहे हमारे मत भिन्न- भिन्न ही क्यों न हो।  3. हमारे व्यवहार में मुधरता हो - जिससे हमारा जीवन मधुर हो।  4. हमारे पास रहने वाले लोग भी मधुर हो जाय। अर्थात हमारे चारों ओर मधुरता ही मधुरता हो।  

ईख का खेत हो तो खेत में बाड़ लगाने होते है।  ये बाड़ भी मीठी हो।  ये बाड़  अपने मन में सुविचारों कि हो , इन्द्रियों के संयम हो, घर तथा समाज में प्रेम हो, सभी मित्र भी मधुरता फ़ैलाने वाले हो तो ऐसी बाड़ हमारे अंदर की मधुरता को सुरक्षित रखेगा। सम्पूर्ण जगत में आनन्द का ही साम्राज्य होगा। यही हमारे वैदिक ऋषियों का मधुर संदेश है - हम सभी जीवों के लिए है। यह मधु विद्या हम सभी के जीवन में मधुरता लाये। अस्तु। .......[अथर्ववेद कांड ( 1 ) सूक्त ( 34 ) मंत्र ( 1- 5 ) ऋषिः - अथर्वा , देवता - मधुवल्ली। ]

इय॑ वीरून्मधुजाता, मधुना त्वा खनामसि।।  

मधघोरधि प्रजातासि, सा नो मघुमतस्कृधि।। अथर्ववेद  (34.1) 

देखो, यह सामने मधुमयी लता दिखाई दे रही हैं।  यह 'मधुयष्टि' अपने अन्दर मधुरस लेकर उत्पन्न हुई है।  हे मधुलता।  मधु के लिए हम तुझे खनन करते हैं।  तू मधुमय है । हमें भी मधुमय कर।

जिह्वाया अग्रे मधु मे जिह्वामुले मधूलकम् ।

ममेदह क्रतावसो मम चित्तमुपायसि ।।-- अथर्ववेद (1-34- 2)

मेरी जिह्वा के अग्र भाग में मधु (माधुर्य) हो । मेरी जिह्वा के मूल में मधुरता हो।  हे मधु ! तुम मेरे एक-एक संकल्प में, एक-एक कर्म में रम जाओ। और हे माधुर्य ! मेरे हृदय में बस जाओ ! 

विस्तारपूर्वक विचार से इस मंत्र में जिह्या के अग्रभाग में मधुरता रहने का अभिप्राय है कि मेरी वाणी से मधुर शब्द ही निकले। इतना ही नहीं मेरे कर्म भी मधुरतापूर्ण हो व्यवहार ही नही, मेरा चित्त भी मधुर हो, जब चित्त मधुर होगा तो चिन्तन-विचार भी मधुर होगा ! जब बिचार मधुर होगा तो व्यवहार भी मधुर होगा, जब व्यहार मधुर होगा, तो वाणी भी मधुर होगी। इस प्रकार चित्त के विचार व वाणी के उच्चार एक रुप होकर मधुर बन गये तो आचार- व्यहार अर्थात् कर्म और हमारा चरित्र भी मीठे बन जायेंगे। चिन्तन, उच्चारण, व्यवहार - अर्थात चरित्र से सभी ओर मधुरता व्यापत होगी। 

वाचं वदत भद्रया (अथर्ववेद ३-३०-३):'सदा कल्याणकारी मधुर वाणी बोलो। मानव की वाणी का सम्बन्ध द्यु लोक से होता है। द्युलोक का सम्बन्ध मानव के चित्त से होता है। चित्त का सम्बन्ध अहंकार से और अहंकार का सम्बन्ध बुद्धि से होता है। बुद्धि का मन से और मन का सम्बन्ध वाणी से होकर वाक्य रूप धारण कर लेता है। 

चित्त में जैसे संस्कार होते है उसी के अनुसार शब्दों की रचना द्युलोक से इस मानव शरीर में होने लगती है।  जैसे भाव होते हैं, उन्हीं में सिक्त होकर शब्द निकलते हैं और तदनुसार प्रभाव डालते हैं। दुर्भाव में डूबे शब्द जहरीले हो जाते हैं और विषदंश का काम करके सारी शारीरिक और मानसिक प्रणाली को जहरीला करते हैं। सद्भाव में डूबे शब्द अमृत का काम करते हैं अतः वाणी के तीनों रूप; वचांशु, उपांशु और मनांशु; रस, माधुर्य और सत्य सिक्त होकर अमृत का संचार करें। प्रभु मुझे वाणी का माधुर्य दो

द्यु लोक से मानव शरीर तक वाणी को आते-आते महत सूक्ष्म और बृहत यात्रा का संविधान प्रकृति से संरचित है।  जिसे पार करके ही मानव अपने चित्त के संस्कारों के अनुसार ही बोल पाता है , या भावों को स्वर दे पाता है। जिसका पसारा नीचे स्थावर तक और ऊपर ब्रह्म तक है। अर्थात जिस महत सूक्ष्म यात्रा को पार करके वाणी हम तक आती है वैसे ही वापस लौट कर भी जाती है।

क्योंकि नाद ब्रह्म है, जिसका नाश नहीं होता। जैसे किसी कुएं या घाटी में बोला हुआ वाक्य उसकी दीवारों से टकरा कर लौट कर आता है, जो बोला जाता है वही लौट कर सुना जाता है। कुएं की दीवारों से इस तथ्य का परीक्षण का ही विस्तृत रूप है कि –जो हम बोलते हैं वह आकाश में जाता है और हम तक पुनः आता है। हम तत्क्षण और प्रत्यक्ष तथ्य के आदी है तो ये विलक्षण सत्य हमें समझ में नहीं आते क्योंकि हम तत्कालदर्शी हैं

आकाश की तन्मात्रा ध्वनि है जिसका कभी नाश नहीं होता –नाद ब्रह्म है।एक और प्रमुख तत्व कि सृष्टि के आदि में केवल नाद ही था, शब्द बाद की संरचना है। अतः वाणी –आपके अंतस का परिचय है। आपकी चिंतन वृत्ति का दर्पण है। वाणी ब्रह्म के नाद तत्व की सम्प्रेष्णा है। भाषा आपकी प्रवृति (चरित्र) को उजागर करती है

स्वर –आपके भावों के आवेग और प्रवाह से प्रभावित होते हैं। स्व —का अर्थ है अपना।र–का अर्थ है प्रवाह;  वाणी का धर्म सत्य का उच्चारण है। अर्थात जो आपके अंतस में है, वाणी उसी की बाहरी सत्य अभिव्यक्ति है। वाणी को अंतस का दर्पण भी कह सकते है। मीठी वाणी, मधुर वचन, अमिय वचन , वाणी का माधुर्य अमृत के समान है–इससे अधिक महत्तम तुलना वाणी के माधुर्य की नहीं हो सकती। तुलसी कृत रामायण में अमिय वचन बहुत ही बार आया है। ‘अमिय वचन बोले रघुराई। ‘ 

तुलसी मीठे वचन सों, सुख उपजत चहुँ ओर।

वशीकरण यह मन्त्र है , तज दे वचन कठोर। —तुलसी दास

मीठे वचनों की अपार शक्ति का कितने ही धर्म गर्न्थों में विवरण है। सत्य बहुधा कडुवा होता है। सुभाषितानी में ‘सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयात ‘ सत्य भी प्रिय और मधुर होना चाहिए

कटु वचन कई जन्मों तक पीछा करते है। इसके संस्कार विषम और इतने गहरे होते हैं कि इस जन्म के साथ-साथ आगामी जन्म में भी इसके दुष्परिणाम होते हैं। कटु शब्द कितने हिंसक, मारक और अभिशापित होते हैं कि जब भी कुटिल वचन याद आते हैं तो सुनने वाले के मन की बार-बार नए सिरे से हत्या होती है। द्रौपदी के य़े शब्द कि ‘अंधे के अंधे ही संतान होती है’ यही कटु वचन दुर्योधन को बार-बार सालते रहे, जो कुरुक्षेत्र तक ले गय़े।

[आज न तो हमारे जिह्वा के अग्र में मधु है, न जिह्वा-मूल में मिठास है। न अपने किये हुए कार्यों में माधुर्य है, न अपने चित्त में माधुर्य। आखिर ऐसा क्यों हुआ? जब से आधुनिकता आई है, न रस रहा, न मधु। एक हवस बच गई है जो बेशुमार छटपटाहटों से भरी हुई है। बुजुर्ग  बहुत बेचैन हैं, कि नई पीढ़ी के छोकरे कितने पागल हो गए हैं। असल में इन बुजुर्गवार साहब के लार टपक रही थी।  असल में ऐसे लोगों के कारण जो `पचासा पार करने पर भी'  इतने अतृप्त और परेशान हैं कि अकेली स्त्री को गलियों से निकलना मुश्किल हो जाता है।  असल में हुआ यह है कि हवस और अतृप्ति के कारण लोगों के पास सुंदरता को कुछ देर तक सहने की शक्ति ही नहीं बची है।प्राचीन भारत में ऐसा नहीं था। वहाँ छक कर मधुपान था इसलिए छककर सौंदर्य देखने का साहस और शक्ति थी। रस आखिर है क्या? चैतन्य का चमत्कार ही तो। कहते हैं कि परब्रह्म जो अद्वितीय, चैतन्यस्वरूप और ज्योतिर्मय है, उसका सहज आनंद, चमत्कार और प्रकाश ही एकाकार होकर रस बनता है। यानी रस उसी में होगा जो अपने कार्यों से आनंद, चेतना और प्रकाश दे। क्या ये गुण ही इस बात का प्रमाण नहीं हैं कि हमारे अंदर इन तीनों ही चीजों का परम अभाव हो गया है। मैं बार-बार पूछता हूँ कि आर्यों के पूर्वज जिस मधुरता को अपने जीवन का सबसे आवश्यक तत्व मानकर उसकी भरपूर प्राप्ति के लिए भगवान से प्रार्थना किया करते थे, उनकी संततियाँ इस प्रकार के माधुर्य से वंचित क्यों हो गईं?  प्राचीन भारत को देखिए और आपकी आँख खुल जाएगी। हिंदुस्तान जब समृद्ध था तभी उसके यहाँ अध्यात्म भी अपनी अंतिम चोटी पर पहुँचा। हिंदुस्तान में जब वेदांत सूत्र लिखा गया तब कामसूत्र रचा जा चुका था। हिंदुस्तान में जब तुलसी और सूर पैदा हुए तब भुवनेश्वर और खजुराहो के मंदिर बन चुके थे। हिंदुस्तानी अध्यात्म ने कभी भी भौतिक आनंद की गहराइयों में उतरने से हिंदुस्तानी को रोका नहीं। क्योंकि हिंदुस्तान की आत्मा की यह विशेषता है कि वह जीवन के खूब जरूरी दो अतिवादी छोरों के बीच अच्छा समन्वय कर लेती है। हिंदुस्तानी न सिर्फ भौतिक मधु को लगातार इकट्ठा करता रहा, बल्कि उसे उपभोग में लाने के सूक्ष्म तरीके खोजता रहा। इस मधु का आस्वादन कितनी मुद्राओं और कितने आसनों से संभव है, उससे पूछ लीजिए। पुराना हिंदुस्तानी इसीलिए कम से कम सौ शरद जीने की कामना करता था ताकि वह इस मधु का छककर पान कर सके। साभार /शिवप्रसाद सिंह/ https://www.shodhadarsh.page/2019/11/ChPXpe.html]

मधुमन्मे निक्रमणं, मधुमन्मे परायणम्‌|    

वाचा वदामि मधुमद्‌, मूयासं मधुसन्दृश: |। अथर्ववेद  (1.34.3)   

मेरा घर से निकलना मधुमय हो, कार्यक्षेत्र में पग रखना और दूर-दूर जाना मधुमय हो।  मैं वाणी से मधुमय बोलूँ।  मैं मधुतुल्य हो जाऊँ।  

इस मंत्र के मध्यम से प्रतिज्ञा की गई है कि जिस समय मेरे विचार व आचार में स्वाभाविक अकृतिम मधुरता प्रवाहित होने लगेंगी उस समय मैं माधुर्य की प्रतिमूर्ति बन जाऊँगा । मनुष्य मधुरता के साथ जीवन व्यतीत करे अर्थात व्यतिगत जीवन को हर प्रकार से मधुर बनाये। इसके लिए उसे उठने-बैठने, चलने, बोलने, विचारने व व्यवहार में मधुरता लानी चाहिए।

मधुमान् भवति मधुमदस्याहार्य भवति।

मधुमतो लोकान् जयति य एव वेद।

जो यह जानता है वह मधुवाला होता है। उसका सब संग्रह मधु युक्त होता है। मधुमय लोकों को जीत लेता है।

दिवस्पृथिव्या अन्तरिक्षात्‌ समुद्रादग्नेर्वातान्मधुकशा हि जज्ञे।  

तां चायित्वामृतं वसानां हृद्ठि: प्रजा: प्रति  सर्वा:|| अथर्ववेद  9.4.] 

द्युलोक से, पृथिवी से, अन्तरिक्ष से, समुद्र से, अग्नि से, वायु से मधुकशा (मधुमयी वाणी) उत्पन्न होती है, अर्थात्‌ मधुर वाणी में इन सबकी विशेषताएँ होती हैं। वह द्युलोक के समान प्रकाशक, पृथिवी के समान धारक, अन्तरिक्ष के समान मध्यस्थ, समुद्र के समान गम्भीर, अग्नि के समान ज्योतिर्मयी और वायु के समान प्राणदायिनी होती हैं।  उसके अन्दर अमृत भरा होता है। उसे अपना कर सब प्रजाएं आनन्दित हो जाती हैं।  

मधु जनिषीय मधु वंशिषीय।  

पयस्वानग्न आगमं त॑ मा सं सृज वर्चसा।। अथर्ववेद  (9.4) 

मैं मधु उत्पन्न करूँ, मधु चाहूँ। हे जलों में विद्यमान अग्नि ! मैं तेरे समीप आया हूँ तू मुझे वर्चस्‌ के मधु से संयुक्त कर।  

यथा मधु मधुकृत: संमरन्ति मधावधि।  

एवा मे अशिवना वर्च आत्मनि घ्रियताम्‌ || अथर्ववेद  (9.6) 

जैसे शहद बनाने वाली मधुमक्खियाँ छत्ते के मधु में मधु मिलाती रहती हैं, वैसे ही हे अशिवनो। हे प्राणापानो ! तुम मेरे मधुमय आत्मा में और अधिक 'वर्चस्‌' का मधु मिलाते रहो। 

यजुर्वेद- १२५ :  

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। 

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।

 त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्ध पतिवेदनम्। 

उर्वारुकमिव बन्धनादित मुक्षीय मामृतः ॥

(यजुर्वेद संहिता-125.60 ॥)

तीनों दृष्टियों ( आधिभौतिक आधिदैविक तथा आध्यात्मिक) से युक्त रुद्रदेव की उपासना हम करते हैं। वे देव जीवन में सुगन्धि (सदाशयता) एवं पुष्टि (समर्थता) अथवा (पतिवेदनम्)- संरक्षक सत्ता का प्रत्यक्ष बोध कराने वाले हैं। जिस प्रकार पका हुआ फल स्वयं इण्ट्रल से अलग हो जाता है, उसी प्रकार हम मृत्यु भय से मुक्त हों; किन्तु अमृतत्व से दूर न हों, साथ ही यहाँ (भवबन्धन) से मुक्त हो जाएँ, यहाँ (स्वर्गीय आनन्द) में नहीं ॥६० ।। 

जीव कौन है ? आत्मा क्या है ? - 

त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी।

त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि त्वं जातो भवति विश्वतो मुखः ॥ 

(अथर्व० १० । ८ । २७)

शब्दार्थ- हे आत्मन् ! (त्वं स्त्री) तू स्त्री है (त्वम् पुमान् असि) तू पुरुष है (त्वं कुमारः) तू कुमार है (उत वा) अथवा (कुमारी) तू कुमारी है (त्वं जीर्णः) तू बूढ़ा होकर (दण्डेन वचसि) दण्ड हाथ में लेकर चलता है (त्वम्) तू ही (जातः) शरीर-रूप में उत्पन्न होकर, शरीर के साथ संयुक्त होकर (विश्वत: मुखः) नाना प्रकार का (भवति) हो जाता है। 

भावार्थ-आत्मा क्या है ? उसका न कोई रंग है न रूप, न ही कोई लिंग  है। वह जैसा शरीर धारण कर लेता है वैसा ही कहा और 'पुकारा जाता है।  जब आत्मा का संयोग पुरुष-शरीर के साथ हो जाता है तो उसे 'पुरुष कहकर सम्बोधित किया जाता है। जब आत्मा स्त्री-शरीर में प्रविष्ट हो जाता है तो उसे स्त्री कहकर पुकारा जाता है । इसी प्रकार अवस्था के अनुसार उसे `कुमार' अथवा `कुमारी' कहा जाता है । जब मनुष्य बूढ़ा होकर दण्ड लेकर चलता है तो उसे `वृद्ध' कहते हैं।   इस प्रकार आत्मा शरीर के साथ संयुक्त होकर नाना प्रकार का हो जाता है। 

🔆🙏चार सींग वाला बद्ध बैल :~ `रोरवीति महो देवो' - अर्थात " पंचभूतेर फाँदे ब्रह्म पड़े कांदे। "  

चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य।

त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्यां आ विवेश । 

(ऋ० ४। ५८ । ३)

शब्दार्थ- एक वृषभ है (अस्य) इसके (चत्वारि शृंगाः) चार सींग हैं (त्रयः पादाः) तीन पैर हैं (द्वे शीर्षे) दो सिर हैं और (अस्य) इसके (सप्त हस्तास:) सात हाथ हैं। वह (त्रिधा बद्धः) तीन प्रकार से बँधा हुआ है। वह (वृषभः) वृषभ (रोरवीति) रोता है। वह (महःदेवः) महादेव (मान् आ विवेश) मनुष्यों में प्रविष्ट है। 

भावार्थ-   क्या आपने संसार में ऐसा अद्भुत वृषभ बैल देखा है ? यदि नहीं तो आइए, आपको इसके दर्शन कराएँ।  वर्षणशील होने के कारण अथवा वीर्यवान् = पराक्रमी होने के कारण आत्मा ही वृषभ है। मन्त्र में इसी वर्षणशील आत्मा का वर्णन है।  मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार--इसके चार सींग हैं। भूत, वर्तमान और भविष्यत्-इसके तीन पैर हैं। ज्ञान और प्रयत्न-ये दो सिर हैं।  पॉच ज्ञानेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इसके -सात हाथ हैं। सत्त्व, रज और तमरूपी तीन पाशों से यह बँधा हुआ है।  इन पाशों मे, बन्धनों में बँधा होने के कारण वह रोता और चिल्लाता है। यह महादेव मरणधर्मा शरीरों में प्रविष्ट हुआ करता है।  यह आत्मा इस शरीर-बन्धन से मुक्त कैसे हो ? वेद ने इसके छुटकारे का उपाय भी बता दिया है। वह यह कि मनुष्य अपने स्वरूप को समझे। वह महादेव है, मन और इन्द्रियों का अधिष्ठाता है, स्वामी है। मन के गुलाम या दास न बनकर, यदि  स्वामी बनो तो त्रिगुणों से त्राण पाकर मोक्ष के अधिकारी (Dehypnotized होने के अधिकारी)   बन जाओगे। 

🔆🙏`Be and Make ' : इन्द्र बनो और बनाओ :  

इन्द्रो जयाति न परा जयाता अधिराजो राजसु राजयातै ।

चर्कृत्य ईड्यो वन्धश्चोप सद्यो नमस्यो भवेह ॥ 

(अथर्व० ६ । ९८ । १)

शब्दार्थ- (इन्द्रः) इन्द्र, आत्मशक्ति से सम्पन्न मनुष्य (जयाति) विजय प्राप्त करता है (न परा जयात) उसकी कभी भी पराजय नहीं होती (राजसु)  राजाओं  में (अधिराजः) वह अधिराज बनकर (राज यात) चमकता और दमकता है । अपने जीवन में उस इन्द्र का शासन स्थापित करके ऐ मानव ! तू भी (इह) इस संसार में (चर्कृत्यः) अपने विरोधियों को परास्त कर दे, आदर्श, श्रेष्ठ एवं शुभ कर्म कर। तू (ईड्यः) सबके लिए स्तुत्य (वन्द्यः) वन्दनीय (उपसद्यः) पास बैठने योग्य, अशरणों की शरण (च) और (नमस्यः) आदरणीय (भव) हो, बन । 

भावार्थ- इन्द्र का, आत्मवान् व्यक्ति का सर्वत्र विजय होता है। वह जहाँ भी जाता है विजयश्री उसके गले में विजयमाला डालने के. लिए खड़ी रहती है। आत्मवान् व्यक्ति का पराजय नहीं होता। राजाओं में वह अधिराज बनकर सबसे ऊपर स्थित होता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में इन्द्र का शासन स्थापित करना चाहिए। ऐसा करने से वह विष्णु जैसा नेता १. अपने शत्रुओं को दबाने में समर्थ होगा और शुभ तथा अनु करणीय कर्म करने योग्य बनेगा। २. ऐसा व्यक्ति लोगों की प्रशंसा का पात्र बन जाता है। वह सभी के लिए वन्दनीय हो जाता है। लोग उसके पास बैठकर उसे अपना दुःख-दर्द सुनाते हैं इस प्रकार वह अशरणों की शरण बन जाता है। ऐसा व्यक्ति सभी के लिए आदरणीय होता है।

🔆🙏मा भेर्मा संविक्था।। संघर्षपूर्ण जीवन जीने से डर मत, पराक्रम कर ! >

मा भेर्मा संविक्था ऊर्ज धत्स्व घिषणे वीड़वीसती वीडयेथामूर्ज दधाथाम् । पाप्मा हतो न सोमः ॥ 

(यजु० ६ । ३५)

शब्दार्थ- (मा भेः) हे मानव ! डर मत (मा संविक्था) कम्पायमान मत हो, मत घबड़ा। (ऊर्जम् धत्स्व) बल, साहस, पराक्रम धारण कर। (धिषणे) वाणी और विद्या का आश्रय लेकर और इन दोनों के आश्रय से (वीवीसती) बलवान् होकर (वीडयेथाम्) पुरुषार्थ करो (ऊर्जम् दधाथाम्) पराक्रम करो, जौहर दिखायो ! (पाप्मा:) पाप करनेवाला शत्रु, पापी (हतः) मारा जाए, नष्ट हो जाए (न सोमः) सौम्यगुणयुक्त, सदाचारी पुरुषों का नाश न हो। 

भावार्थ- यदि संसार में पाप, अनाचार, भ्रष्टाचार, पाखण्ड, दम्भ, अधर्म बढ़ गया है, यदि दस्युओं, अनार्यों, अधर्मात्मानों और पाखण्डियों ने संसार के लोगों को आतंकित कर रक्खा है तो डरो मत, भयभीत मत होओ, घबराओ मत । उठो, खड़े हो जायो और पराक्रम करो।  विद्याबल से अपने को विभूषित करो, वाणी का बल सम्पादन करो। विद्या और वाणी का आश्रय लेकर- इन दोनों से बलवान् बन कर दानवता को दग्ध करने के लिए, मानवता का त्राण करने के लिए संसार में कूद पड़ो, जौहर कर दो।  ऐसा पराक्रम करो कि जितने भी पापी, अत्याचारी, अनाचारी और पाखण्डी हैं उनमें से एक भी जीवित न रह पाए। पापियों को नष्ट-भ्रष्ट कर दो। जो सौम्य हैं, पुण्यात्मा हैं, सदाचारी और श्रेष्ठ पुरुष हैं उनकी रक्षा करो।

🔆🙏 उन्नति करना प्रत्येक का अधिकार : > 

अनुहूतः पुनरेहि विद्वानुदयनं पथः ।

आरोहणमाक्रमणं जीवतो जीवतोऽयनम् ॥ 

(अथर्व० ५ । ३० । ७)

शब्दार्थ- हे मानव ! (पथः) मार्ग के (उत् अयनम्) चढ़ाव को (विद्वान्) जानता हुुआ और (अनुहूतः) प्रोत्साहित किया हुआ तू (पुनः) फिर (एहि) इस पथ पर आरोहण कर क्योंकि (आरोहणम्) उन्नति करना (आक्रमणम्) आगे बढ़ना (जीवत: जीवतः) प्रत्येक जीव का, प्रत्येक मनुष्य का (अयनम्) मार्ग है, उद्देश्य है, लक्ष्य है। 

भावार्थ-मन्त्र में हारे-थके और निरुत्साही व्यक्ति के लिए एक दिव्य सन्देश है - 

१. हे मानव ! यदि तू प्रयत्न करके थक गया है तो क्या हुआ ! तू हतोत्साह मत हो। उत्साह के घट रीते मत होने दे। आशा को अपने जीवन का सम्बल बनाकर फिर इस मार्ग पर आरोहण कर। 

२. मार्ग की चढ़ाई को देखकर घबरा मत । सदा स्मरण रख कि तेरे लिए चढ़ाई का मार्ग ही नियत है। आशा और उत्साह से इस मार्ग पर आगे-ही-आगे बढ़ता जा। आगे बढ़ना, उन्नति करना ही जीवन-मार्ग है । पीछे हटना, अवनति करना मृत्यु-मार्ग है। पथ कठिन है तो क्या हुआ ! परीक्षा तो कठिनाई में ही होती है। 

३. निराश और हताश होने की आवश्यकता नहीं। आगे बढ़, उन्नति कर, क्योंकि आगे बढ़ना और उन्नति करना प्रत्येक जीव का अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति की उन्नति होगी। हाँ, उसके लिए बल लगाने की, पुरुषार्थ करने की तथा निराशा और दुर्बलता को मार भगाने की आवश्यकता है।  

🔆🙏प्रेम, माधुर्य और पराक्रम >

यद् वदामि मधुमत् तद् वदामि यदीक्षे तद् वनन्ति मा।

त्विषोमानस्मि जूतिमानवान्यान् हन्मि दोधतः । 

(अथर्व० १२ । १ । ५८)

शब्दार्थ- (यद्) जब (वदामि) बोलूं (तत्) तब (मधुमत्) मधु, माधुर्य से युक्त, मीठे वचन ही (वदामि) बोलू (यद्) जब (ईक्षे) देखू (तत्) तब (मा) मुझे लोग (वनन्ति) प्रेम की दृष्टि से देखें। मैं (त्विषीमान) कान्तिमान, तेजस्वी और (जूूूतिमान्) वेगवान्, उत्साही (अस्मि) हूँ। (दोधतः) मेरे प्रति क्रोध करनेवाले (अन्यान्) अन्यों को, शत्रुओं को (अवहन्मि) नीचे गिराता हूँ। 

भावार्थ- मन्त्र में निम्न शिक्षाएँ हैं --

१. हम जब भी बोलें, जो कुछ भी बोलें वह मीठा, मधुर, सत्य, प्रिय एवं हितकर ही हो। २. जो कुछ भी देखें उसे प्रेममयी दृष्टि से देखना चाहिए । ३. जब हमारी वाणी में माधुर्य होगा और हमारी दृष्टि प्रेममयी होगी तब सभी मनुष्य, मनुष्य ही नहीं प्राणिमात्र हमसे प्रेम करेंगे। ४. प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा आत्मविश्वास रखना चाहिए कि मैं तेजस्वी हूँ, पराक्रमी, पुरुषार्थी और उत्साही हूँ। ५. जो हमारे प्रति अकारण , वैर, विरोध, ईर्ष्या, द्वेष एवं क्रोध की भावनाएँ रखते हैं उन्हें हम मार भगाने में समर्थ हों। 

🔆🙏प्रेय और श्रेय विवेक  > 

इदमहं रुशन्तं ग्राभं तनूदूषिमपोहामितनू ।

यो भद्रो रोचनस्तमुदचामि ॥

(अथर्व० १४ । १।३८) 

शब्दार्थ-(अहम्) मैं (इदम् रुशन्तम्) इस चमकीले-भड़कीले (तनदूषिम्) शरीर को दूषित करनेवाले (ग्राभम्) संसार-ग्राह को (अप ऊहामि) छोड़ता हूँ, त्यागता हूँ और (यः भद्रः) जो सुखकर तथा कल्याणमय तथा (रोचनः) सुन्दर, कान्तिमय है (तम्) उसको (उत्) उत्कृष्ट जीवनवाला होकर (अचामि) प्राप्त होता हूँ। 

भावार्थ-जीवन के दो मार्ग हैं-प्रेय और श्रेय । मन्त्र में इन दोनों मार्गों का सुन्दर निरूपण है। 

१. मन्त्र में संसार की उपमा ग्राह=मगर से दी गई है। यह संसाररूपी ग्राह बहुत ही चमकीला और भड़कीला है। अपनी चमक और दमक से यह लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। 

२. जो मनुष्य इस ग्राह की ओर आकर्षित हो जाते हैं उनका शरीर दूषित हो जाता है.--'भोगे रोगभयम्' (भर्त० वै० ३२)--भोग का परिणाम रोग स्वाभाविक है। ३. रुश् का अर्थ हिंसा भी है। भोगी संसार-ग्राह के ग्रास बनकर नष्ट-भ्रष्ट और समाप्त हो जाते हैं। यह है प्रेय-मार्ग का वर्णन । 

मन्त्र के उत्तरार्द्ध में श्रेय-मार्ग का वर्णन है। 

१. परमात्मा भद्र और कल्याणकारी है। उसे प्राप्त करने के लिए संसार-ग्राह को (कामिनी -कांचन में आसक्ति को) त्यागना चाहिए। संसार को छोड़ने की आवश्यकता नहीं, उसे ग्राह मत बनने दो। २. अपने जीवन को उत्कृष्ट बनाना चाहिए। ३. शान्त, सदाचारी, तपस्वी और जितेन्द्रिय व्यक्ति ही ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। 

अकाल मृत्यु को पुरुषार्थ से दबा दो : 

इमं जीवेभ्यः परिधि दधामि मैषां नुगादपरो अर्थमेतम् ।

शतं जीवन्तु शरदः पुरूचीरन्तर्मृत्युं दधतां पर्वतेन ॥ 

(ऋ० १० । १८ । ४)

शब्दार्थ-परमात्मा उपदेश देते हैं-मैं (जीवेभ्यः) मनुष्यों के लिए (इमम् परिधिम) इस सौ वर्ष की आयु-मर्यादा को (दधामि) निश्चित करता हूँ (एषाम्) इनमें (अपरः) कोई भी (एतं अर्थम्) इस अवधि को, इस जीवनरूप धन को (मा, गात्, नु) न तोड़े, उल्लंघन न करे । सभी मनुष्य (शतम् शरदः) सौ वर्ष (पुरूची:) और उससे भी अधिक (जीवन्तु) जिएँ और (अन्तः मृत्युम्) अकाल मृत्यु को (पर्वतेन) पुरुषार्थ से (दधताम) दूर कर दे, दबा दे। 

भावार्थ- १. परमात्मा ने मनुष्य के लिए सौ वर्ष की जीवन मर्यादा निश्चित की है। 

२. किसी भी मनुष्य को इस मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए अर्थात् सौ वर्ष की अवधि से पूर्व नहीं मरना चाहिए। 

३. प्रत्येक मनुष्य को सौ वर्ष तक तो जीना ही चाहिए। उसे अपना खान-पान, आहार-विहार और समस्त दिनचर्या इस प्रकार की बनानी चाहिए कि वह अदीन रहते हुए सौ वर्ष से भी अधिक जीवन धारण कर सके। 

४. मनुष्य को पुरुषार्थी होना चाहिए। यदि अकाल मृत्यु बीच में ही पा जाए तो उसे अपने पुरुषार्थ से परास्त कर देना चाहिए। मनुष्य को सतत् कर्मशील होना चाहिए। जब मृत्यु भी द्वार पर आए तो यह देखकर लौट जाए कि अभी तो इसे अवकाश ही नहीं है। 

🔆🙏तीन देवियाँ >

इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः । बहिः सीदन्त्व स्त्रिधः॥

(ऋ० १ । १३ । ९)

शब्दार्थ-(इळा) मातृभाषा (सरस्वती) मातृसभ्यता एवं संस्कृति और (मही) मातृभूमि (तिस्रः देवी:) ये तीनों देवियाँ (मयोभुवः) कल्याण करनेवाली हैं, अतः ये तीनों (अस्रधिः) सम्मान एवं आदर पूर्वक, अहिंसित होती हुई (बर्हिः) अन्तःकरण में, हृदय-मन्दिर में (सीदन्तु) बैठे, विराजमान हों। 

भावार्थ-प्रत्येक मनुष्य को अपनी मातृभाषा में श्रद्धा रखनी चाहिए, अपनी भाषा का आदर करना चाहिए। हम अन्य देशों की भाषाएँ भी सीखें परन्तु अपनी देश-भाषा को प्रमुख गौरव और महत्त्व प्रदान करें। पहले अपनी भाषा का ज्ञान कर फिर अन्य भाषाओं का अभ्यास करें; अपनी भाषा की उपेक्षा और पराई भाषा से प्यार करना घणित है। हम अपना सारा कार्य अपनी मातृभाषा में ही करें, इसी में हमारा गौरव है।  प्रत्येक मनुष्य को अपनी सभ्यता और संस्कृति से प्यार होना चाहिए। हमारा रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, सभी-कुछ अपनी सभ्यता और संस्कृति के अनुकूल होना चाहिए। आज कुछ व्यक्ति पाश्चात्यों का अनुकरण करने में अपना गौरव समझते हैं, यह उनकी भूल है। भारतीय संस्कृति किसी भी संस्कृति से हीन नहीं है, अपितु बढ़-चढ़कर है। भारतीय संस्कृति तो संसार की सर्वप्रथम संस्कृति है। यजुर्वेद ७ । १४ में कहा है . 'सा प्रथमा संस्कृतिविश्ववारा।' हमें अपनी संस्कृति और सभ्यता पर गर्व होना चाहिए।   प्रत्येक मनुष्य को अपनी मातृ-भूमि से प्रेम होना चाहिए। अपनी मातभूमि के लिए मर-मिटने की भावना होनी चाहिए।  ये तीनों देवियाँ हमारा कल्याण करनेवाली हैं, अतः हमारे हृदयों में इनके लिए सम्मान होना चाहिए। 

 माँ सारदा :  शिक्षा की गरिमा-बौद्धिक विकास की आवश्यकता जन-जन को समझाने के लिए सरस्वती पूजा की परम्परा है। देवी सरस्वती हिन्दू धर्म की प्रमुख देवियों में से एक हैं। वे ब्रह्मा की मानसपुत्री हैं जो विद्या की अधिष्ठात्री देवी मानी गई हैं। इनका नामांतर 'शतरूपा' भी है। इसके अन्य पर्याय हैं, वाणी, वाग्देवी, भारती, शारदा, वागेश्वरी इत्यादि। ये शुक्लवर्ण, श्वेत वस्त्रधारिणी, वीणावादनतत्परा तथा श्वेतपद्मासना कही गई हैं। लोक चर्चा में सरस्वती को शिक्षा की देवी माना गया है। शिक्षा संस्थाओं में वसंत पंचमी को सरस्वती का जन्म दिन समारोह पूर्वक मनाया जाता है। पशु को मनुष्य बनाने का - अंधे को नेत्र मिलने का श्रेय शिक्षा को दिया जाता है। मनन से मनुष्य बनता है। मनन बुद्धि का विषय है। भौतिक प्रगति का श्रेय बुद्धि-वर्चस् (तेज,प्रताप) को दिया जाना और उसे सरस्वती का अनुग्रह माना जाना उचित भी है। इस उपलब्धि के बिना मनुष्य को नर-वानरों की तरह वनमानुष जैसा जीवन बिताना पड़ता है।  बौद्धिक क्षमता विकसित करने, चित्त की चंचलता एवं अस्वस्थता दूर करने के लिए सरस्वती साधना की विशेष उपयोगिता है। भारत में कोई भी शैक्षणिक कार्य के पहले इनकी पूजा की जाती हैं। इनकी उपासना करने से मूर्ख भी विद्वान् बन सकता है। कहते हैं कि महाकवि कालिदास, वरदराजाचार्य, बोपदेव आदि मंद बुद्धि के लोग सरस्वती उपासना के सहारे उच्च कोटि के विद्वान् बने थे। माघ शुक्ल पंचमी को इनकी पूजा की परिपाटी चली आ रही है। देवी भागवत के अनुसार ये ब्रह्मा की स्त्री हैं।

🔆🙏" विवेकानन्द और युवा आन्दोलन " (समस्त ४२ निबन्ध )/बुधवार, 8 फ़रवरी 2012/ https://vivek-jivan.blogspot.com/2012/02/blog-post.html]

***********শ্রীশ্রীরামকৃষ্ণকথামৃতে উল্লিখিত ব্যক্তিবৃন্দের পরিচয়****