श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(6)
* साधक और कांचनरूपी विघ्न *
59 रुपया को नहीं मानिये , जीवन का उद्देश्य।
93 दाल भात बस देत है, और अंत में क्लेश।।
रूपये से दाल-रोटी भर का प्रबन्ध हो सकता है। उसे अपने जीवन का चरम उद्देश्य मत समझ बैठो।
60 धन दौलत अरु नाम यश , दो दिन का है भोग।
94 मरण काल छोड़त सबै , तोड़त हरि से योग।।
कई लोग अपने धन -सामर्थ्य , नाम यश या सामाजिक उच्चपद का गर्व करते हैं ; किन्तु ये सभी दो दिनों के लिए हैं (भू०पू० लिखते हैं ?) , मरते समय इनमें से कोई भी साथ नहीं जायेगा।
58 गरब वचन है बोलता , छोड़ विनय का बोल।
92 अकड़ अकड़ पथ में चले ,पा रुपया बहु मोल।।
रुपया भी एक बड़ी भारी उपाधि है। रुपया आते ही मनुष्य दूसरी तरह का बन जाता है -पहले जैसा नहीं रह जाता। पहले वहाँ (दक्षिणेश्वर में) एक ब्राह्मण बीच बीच में आया-जाया करता था। वैसे तो वह बड़ा विनयी और नम्र मालूम होता। बाद में उसका आना-जाना बन्द हो गया , और न उसकी कोई खबर ही मिली। फिर एक दिन हमलोग कोन्नगर गये , हृदय साथ था। नाव से उतरते ही हमने देखा कि वह ब्राह्मण किनारे बड़े मजे में बैठा हुआ हवा खा रहा था। हमें देखकर वह बड़े गर्व भरे स्वर से बोला , " क्यों महाराज , कहो कैसे हो ? " उसके पूछने का ढंग , उसकी आवाज सुनकर मैंने हृदय से कहा , " अरे हृदय , इस आदमी को धन हो गया है। देख , आवाज भी कैसे बदल गयी है। " हृदय खूब हँसने लगा।
57 धिक धिक जग चाकरी , धिक धिक् जग का काम।
90 कर ले हरि की चाकरी ,भज ले सीता राम।।
और अधिक धन कमा लेने की लालसा मनुष्य को ईश्वर के मार्ग से दूर ले जाती है। इस प्रसंग में श्री रामकृष्ण देव ने अपने एक युवक शिष्य से कहा , " संसारी मनुष्य की तरह तू भी नौकरी तो कर रहा है , किन्तु एक फर्क जरूर है। तूने अपनी माँ की देखभाल (भारत माता की सेवा) अच्छी तरह करने के लिए नौकरी/ बिजनेस स्वीकार की है। नहीं तो मैं कहता , " छी ,छी , तुझे धिक्कार है , धिक्कार है ! " अन्त में उन्होंने कहा , " केवल ईश्वर (या भारत माता) की ही सेवा करने के उद्देश्य से ही -चाकरी/व्यापार करनी चाहिए।"
61 हमरे रहत मरिहब नहि , कहै वैद्य लबार।
95 सुन सुन प्रभु अचरज करै , हँसे ठहाका मार।।
62 जमीन नाप भाई कहै , इत मोर उत तोर।
95 झूठ वचन सुन हरि हँसै , कहे जगत सब मोर।।
ईश्वर दो बार हँसते हैं। एक बार उस समय , जब किसी को कठिन बीमारी हो गयी हो और वह मरने ही वाला हो ,और ऐसे समय में वैद्य आकर रोगी की माता से कहे , 'घबड़ाओ मत माँजी , चिन्ता की कोई बात नहीं है; तुम्हारे बेटे को बचाने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर है।" और दूसरी बार तब , जब भाई-भाई रस्सी पकड़ कर जमीन का बँटवारा करते हुए कहते हैं , " इधर का हिस्सा मेरा , और उधर वाला तेरा। "
63 धन का गरब न कीजिये , जग में धनी अनेक।
96 पूनम चाँद मलिन पड़े , सुबह सूरज को देख।।
धन का गर्व कभी नहीं करना चाहिए। अगर कहो कि 'मैं बहुत धनी आदमी हूँ' , तो तुमसे भी बढ़कर धनी हैं , ऐसे-ऐसे धनी हैं जिनकी तुलना में तुम भिखारी जैसे लगोगे।
साँझ होने के बाद जुगनू उड़ने लगते हैं , तो सोचते हैं कि 'हमीं लोग इस दुनिया को उजेला दे रहे हैं। ' पर ज्योंही तारे चमकने लगते हैं त्योंही उनका सारा घमण्ड चूर हो जाता है। तब तारे सोचने लगते हैं कि 'हमीं लोग जगत को प्रकाशित कर रहे हैं। ' परन्तु जब गगन में चन्द्रमा का उदय होता है तो उसकी शुभ्र चाँदनी के सामने तारे मानो लज्जा से मलिन हो जाते हैं। फिर चाँद मन ही मन सोचता है कि ' मेरे ही प्रकाश से उद्भासित होकर जग मानो मुसकरा रहा है। ' परन्तु देखते ही देखते पूर्व गगन को रंजीत कर अरुणोदय हो जाता है और चन्द्रमा मलिन होकर थोड़े ही समय में कहाँ अदृश्य हो जाता है।
अपने को धनवान समझनेवाले लोग यदि प्रकृति के इन सत्यों पर विचार करें , तो फिर उन्हें धन का घमण्ड नहीं रह जायेगा।
" विषयासक्ति पर विजय पाने का उपाय "
53 कनक काम के पंक में , मगन सकल संसार।
86 बिन बुझे मन वासना , नहि दरस नहि पार।।
कामिनी और कांचन ने सारे संसार को पाप -पंक में डुबो रखा है। स्त्रियों की ओर यदि तुम भगवती जगदम्बा की दृष्टि से देखो तो तुम उनके हाथ से बच सकते हो। जब तक कामिनी -कांचन की तृष्णा नहीं बुझ जाती तब तक भगवान के दर्शन नहीं हो सकते।
52 जैसे विषधर साँप से, जन रहहि सावधान।
83 तैसे कांचन काम से , हरि के भगत सुजान।।
विषैले साँपों से भरे घर में रहने वाला व्यक्ति जैसे सदा सावधान रहता है , वैसे ही संसार में मनुष्यों को काम -कांचन के मोहक आकर्षण से सदैव सावधान रहना चाहिए।
54 जो भगवन को पाइया , रख मन में वैराग।
87 नारि से तेहि भय नहीं , एक तृण एक आग।।
यदि एक बार कोई तीव्र वैराग्य के द्वारा भगवान की प्राप्ति कर ले , तो फिर उसमें स्त्रियों के प्रति आसक्ति नहीं रह जाती। यहाँ तक कि घर में रहकर अपनी स्त्री से भी उसे कोई भय नहीं रहता। अगर लोहे के एक ओर बड़ा और दूसरी ओर छोटा चुम्बक हो तो लोहे को कौन खींचेगा ? निःसन्देह बड़ा चुम्बक ! ईश्वर बड़ा चुम्बक है और कामिनी छोटा चुम्बक। ईश्वर के आकर्षण के सामने भला कामिनी क्या कर सकती है !
55 मंत्र विवेक विराग पढ़ , घर ले आया साँप।
88 हो निर्भय संसार कर , बांधे न माया आप।।
अगर तुम साँप को पकड़ने जाओ तो वह तुम्हें अवश्य काट खायेगा ; पर जो मंत्र जानता है , उसके लिए अत्यन्त आसान बात है। वह यदि चाहे तो एक ही साथ सात साँपों को गले में लपेटकर खूब खेल दिखा सकता है। वैसे ही , विवेक -वैराग्यरूपी मंत्र सीखकर यदि कोई संसार में रहे तो संसार की माया -ममता उसे बाँध नहीं सकती।
56 तैरत तेल जस अंत में , जल में ही सड़ जाय।
89 तस निष्पाप पापी बने , कुसंगत में पड़ जाय।।
एक दिन एक मारवाड़ी भक्त दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने आया और उसने उनकी सेवा के लिए दस हजार रूपये देने की इच्छा प्रकट की। परन्तु श्री रामकृष्ण देव ने इस पर तीव्र विरोध करते हुए कहा , " मैं तुम्हारे रूपये नहीं लूँगा। क्योंकि यदि मैं वे रूपये लूँ तो मेरे मन हमेशा उन्हीं की फ़िक्र में लगा रहेगा। " तब उस भक्त ने वह रुपया श्री राकृष्ण की सेवा के लिए उनके भानजे हृदय के नाम रखना चाहा। किन्तु श्री रामकृष्णदेव बोले , " नहीं , यह भी नहीं होगा। यह तो कपटाचार हुआ। और फिर मेरे मन में तो सदा यही भाव बना रहेगा कि यह मेरा ही रुपया है- अमुक के पास रखा गया है। "
उक्त भक्त फिर भी आग्रह करने लगा। उसने श्री रामकृष्ण के ही वचन उद्धृत करते हुए कहा , ' आप ही तो कहा करते हैं कि मन यदि तेल की तरह हो जाये तो फिर वह कामिनी-कांचन रूपी समुद्र में न डूबकर ऊपर ही तैरता रहेगा। '
इस पर श्री रामकृष्ण ने कहा , " सो तो ठीक है , पर तेल बहुत अधिक दिनों तक पानी में तैरता रहे तो अन्त में वह भी सड़ने लगता है। इसी तरह , मन यदि कामिनी -कांचन रूपी समुद्र में तैरता भी रहे तो भी बहुत दीर्घ समय तक लगातार उसके सम्पर्क में रहने से अन्त में वह अवश्य ही अशुद्ध हो जायेगा और उसमें से दुर्गन्ध आने लगेगी। "
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