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शुक्रवार, 4 जून 2021

*Lust and Gold *श्री रामकृष्ण दोहावली (6) * साधक और कांचनरूपी विघ्न * ~ रुपया को नहीं मानिये , जीवन का उद्देश्य, कर ले हरि की चाकरी ,भज ले सीता राम।धन का गरब न कीजिये , जग में धनी अनेक/ विषयासक्ति पर विजय पाने का उपाय ~कनक काम के पंक में , मगन सकल संसार।~मंत्र विवेक विराग पढ़ , घर ले आया साँप।

                              श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(6)

  * साधक और कांचनरूपी विघ्न * 

59 रुपया को नहीं मानिये , जीवन का उद्देश्य। 

93 दाल भात बस देत है, और अंत में क्लेश।।

रूपये से दाल-रोटी भर का प्रबन्ध हो सकता है। उसे अपने जीवन का चरम उद्देश्य मत समझ बैठो। 

60 धन दौलत अरु नाम यश , दो दिन का है भोग। 

94 मरण काल छोड़त सबै , तोड़त हरि से योग।।

कई लोग अपने धन -सामर्थ्य , नाम यश या सामाजिक उच्चपद का गर्व करते हैं ; किन्तु ये सभी दो दिनों के लिए हैं (भू०पू० लिखते हैं ?) , मरते समय इनमें से कोई भी साथ नहीं जायेगा। 

58 गरब वचन है बोलता , छोड़ विनय का बोल। 

92 अकड़ अकड़ पथ में चले ,पा रुपया बहु मोल।। 

रुपया भी एक बड़ी भारी उपाधि है। रुपया आते ही मनुष्य दूसरी तरह का बन जाता है -पहले जैसा नहीं रह जाता। पहले वहाँ (दक्षिणेश्वर में) एक ब्राह्मण बीच बीच में आया-जाया करता था। वैसे तो वह बड़ा विनयी और नम्र मालूम होता। बाद में उसका आना-जाना बन्द हो गया , और न उसकी कोई खबर ही मिली। फिर एक दिन हमलोग कोन्नगर गये , हृदय साथ था। नाव से उतरते ही हमने देखा कि वह ब्राह्मण किनारे बड़े मजे में बैठा हुआ हवा खा रहा था। हमें देखकर वह बड़े गर्व भरे स्वर से बोला , " क्यों महाराज , कहो कैसे हो ? " उसके पूछने का ढंग , उसकी आवाज सुनकर मैंने हृदय से कहा , " अरे हृदय , इस आदमी को धन हो गया है। देख , आवाज भी कैसे बदल गयी है। " हृदय खूब हँसने लगा। 

57 धिक धिक जग  चाकरी , धिक धिक् जग का काम। 

90 कर ले हरि की चाकरी ,भज ले सीता राम।।

 और अधिक धन कमा लेने की लालसा मनुष्य को ईश्वर के मार्ग से दूर ले जाती है।  इस प्रसंग में श्री रामकृष्ण देव ने अपने एक युवक शिष्य से कहा , " संसारी मनुष्य की तरह तू भी नौकरी तो कर रहा है , किन्तु एक फर्क जरूर है। तूने अपनी माँ की देखभाल (भारत माता की सेवा) अच्छी तरह करने के लिए नौकरी/ बिजनेस स्वीकार की है। नहीं तो मैं कहता , " छी ,छी , तुझे धिक्कार है , धिक्कार है ! " अन्त में उन्होंने कहा , " केवल ईश्वर (या भारत माता) की ही सेवा करने के उद्देश्य से  ही -चाकरी/व्यापार करनी चाहिए।"

61 हमरे रहत मरिहब नहि , कहै वैद्य लबार। 

95 सुन सुन प्रभु अचरज करै , हँसे ठहाका मार।।

62 जमीन नाप भाई कहै , इत मोर उत तोर। 

95 झूठ वचन सुन हरि हँसै , कहे जगत सब मोर।।

ईश्वर दो बार हँसते हैं। एक बार उस समय , जब किसी को कठिन बीमारी हो गयी हो और वह मरने ही वाला हो ,और ऐसे समय में वैद्य आकर रोगी की माता से कहे , 'घबड़ाओ मत माँजी , चिन्ता की कोई बात नहीं है; तुम्हारे बेटे को बचाने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर है।" और दूसरी बार तब , जब भाई-भाई रस्सी पकड़ कर जमीन का बँटवारा करते हुए कहते हैं , " इधर का हिस्सा मेरा , और उधर वाला तेरा। "  

63 धन का गरब न कीजिये , जग में धनी अनेक। 

96 पूनम चाँद मलिन पड़े , सुबह सूरज को देख।।

धन का गर्व कभी नहीं करना चाहिए। अगर कहो कि 'मैं बहुत धनी आदमी हूँ' , तो तुमसे भी बढ़कर धनी हैं , ऐसे-ऐसे धनी हैं जिनकी तुलना में तुम भिखारी जैसे लगोगे। 

साँझ होने के बाद जुगनू उड़ने लगते हैं , तो सोचते हैं कि 'हमीं लोग  इस दुनिया  को उजेला दे रहे हैं। ' पर ज्योंही तारे चमकने लगते हैं त्योंही उनका सारा घमण्ड चूर हो जाता है। तब तारे सोचने लगते हैं कि 'हमीं लोग जगत को प्रकाशित कर रहे हैं। ' परन्तु जब गगन में चन्द्रमा का उदय होता है तो उसकी शुभ्र चाँदनी के सामने तारे मानो लज्जा से मलिन हो जाते हैं। फिर चाँद मन ही मन सोचता है कि ' मेरे ही प्रकाश से उद्भासित होकर जग मानो मुसकरा रहा है। ' परन्तु देखते ही देखते पूर्व गगन को रंजीत कर अरुणोदय हो जाता है और चन्द्रमा मलिन होकर थोड़े ही समय में कहाँ अदृश्य हो जाता है। 

      अपने को धनवान समझनेवाले लोग यदि प्रकृति के इन सत्यों पर विचार करें , तो फिर उन्हें धन का घमण्ड नहीं रह जायेगा।    

 "  विषयासक्ति पर विजय पाने का उपाय " 

53 कनक काम के पंक में , मगन सकल संसार। 

86 बिन बुझे मन वासना , नहि दरस नहि पार।।

कामिनी और कांचन ने सारे संसार को पाप -पंक में डुबो रखा है। स्त्रियों की ओर यदि तुम भगवती जगदम्बा की दृष्टि से देखो तो तुम उनके हाथ से बच सकते हो। जब तक कामिनी -कांचन की तृष्णा नहीं बुझ जाती तब तक भगवान के दर्शन नहीं हो सकते।  

52 जैसे विषधर साँप से, जन रहहि सावधान। 

83 तैसे कांचन काम से , हरि के भगत सुजान।।

 विषैले साँपों से भरे घर में रहने वाला व्यक्ति जैसे सदा सावधान रहता है , वैसे ही संसार में मनुष्यों को काम -कांचन के मोहक आकर्षण से सदैव सावधान रहना चाहिए। 

54 जो भगवन को पाइया , रख मन में वैराग। 

87 नारि से तेहि भय नहीं , एक तृण एक आग।।

यदि एक बार कोई तीव्र वैराग्य के द्वारा भगवान की प्राप्ति कर ले , तो फिर उसमें स्त्रियों के प्रति आसक्ति नहीं रह जाती। यहाँ तक कि घर में रहकर अपनी स्त्री से भी उसे कोई भय नहीं रहता। अगर लोहे के एक ओर बड़ा और दूसरी ओर छोटा चुम्बक हो तो लोहे को कौन खींचेगा ? निःसन्देह बड़ा चुम्बक ! ईश्वर बड़ा चुम्बक है और कामिनी छोटा चुम्बक। ईश्वर के आकर्षण के सामने भला कामिनी क्या कर सकती है ! 

55 मंत्र विवेक विराग पढ़ , घर ले आया साँप। 

88 हो निर्भय संसार कर , बांधे न माया आप।। 

अगर तुम साँप को पकड़ने जाओ तो वह तुम्हें अवश्य काट खायेगा ; पर जो मंत्र जानता है , उसके लिए अत्यन्त आसान बात है। वह यदि चाहे तो एक ही साथ सात साँपों को गले में लपेटकर खूब खेल दिखा सकता है। वैसे ही , विवेक -वैराग्यरूपी मंत्र सीखकर यदि कोई संसार में रहे तो संसार की माया -ममता उसे बाँध नहीं सकती। 

56 तैरत तेल जस अंत में , जल में ही सड़ जाय। 

89 तस निष्पाप पापी बने , कुसंगत में पड़ जाय।। 

एक दिन एक मारवाड़ी भक्त दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने आया और उसने उनकी सेवा के लिए दस हजार रूपये देने की इच्छा प्रकट की। परन्तु श्री रामकृष्ण देव ने इस पर तीव्र विरोध करते हुए कहा , " मैं तुम्हारे रूपये नहीं लूँगा। क्योंकि यदि मैं वे रूपये लूँ तो मेरे मन हमेशा उन्हीं की फ़िक्र में लगा रहेगा। " तब उस भक्त ने वह रुपया श्री राकृष्ण की सेवा के लिए उनके भानजे हृदय के नाम रखना चाहा। किन्तु श्री रामकृष्णदेव बोले , " नहीं , यह भी नहीं होगा।  यह तो कपटाचार हुआ।  और फिर मेरे मन में तो सदा यही भाव बना रहेगा कि यह मेरा ही रुपया है- अमुक के पास रखा गया है।

उक्त भक्त फिर भी आग्रह करने लगा। उसने श्री रामकृष्ण के ही वचन उद्धृत करते हुए कहा , ' आप ही तो कहा करते हैं कि मन यदि तेल की तरह हो जाये तो फिर वह कामिनी-कांचन रूपी समुद्र में न डूबकर ऊपर ही तैरता रहेगा। ' 

इस पर श्री रामकृष्ण ने कहा , " सो तो ठीक है , पर तेल बहुत अधिक दिनों तक पानी में तैरता रहे तो अन्त में वह भी सड़ने लगता है। इसी तरह , मन यदि कामिनी -कांचन रूपी समुद्र में तैरता भी रहे तो भी बहुत दीर्घ समय तक लगातार उसके सम्पर्क में रहने से अन्त में वह अवश्य ही अशुद्ध हो जायेगा और उसमें से दुर्गन्ध आने लगेगी।  " 

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*Two powers of Maya* श्री रामकृष्ण दोहावली (5) माया = नाम -रूप (cover and deflection) हरि की शक्ति है , धर शक्ति का ध्यान/१२ वर्ष तक कामवासना को वसीभूत करने से मेधा नाड़ी ** नाम की एक सूक्ष्म नाड़ी उत्पन्न होती है, वह निम्नगामी शक्ति को उर्ध्वगामी बना देती है।" माया क्या है ? यह काम या भोगासक्ति ही है, जो आध्यात्मिक उन्नति में विघ्नस्वरूप है/ निचला काँटा (मन) उपरवाले काँटे (T) /

 

 श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(5)

* विद्या माया *

42 माया हरि की शक्ति है , धर शक्ति का ध्यान। 

63 जो किरपा हो शक्ति की , पावोगे भगवान।।

ईश्वर में विद्या -माया और अविद्या-माया दोनों है। विद्या-माया जीव को ईश्वर की ओर ले जाती है , और अविद्या -माया ईश्वर से दूर। ज्ञान, भक्ति , दया , वैराग्य -यह विद्या -माया का ही खेल है। इन्हीं का आश्रय ले मनुष्य ईश्वर के समीप पहुँच सकता है। 

*अविद्या माया*
  
36 ब्रह्म जीव के बीच रह , माया करहहिं आड़। 

55 कर किरपा माया हटे , खुले ज्ञान किवाड़।।

राम , सीता और लक्ष्मण वनवास को निकले। आगे-आगे राम चले , बीच में सीता और पीछे-पीछे लक्ष्मण। राम का पूर्ण दर्शन पाने के लिए लक्ष्मण व्याकुल थे पर बीच में सीता के होने के कारण यह सम्भव न था। तब लक्ष्मण ने मईया सीता से प्रार्थना की कि वे तनिक बाजु हट जाएँ ; सीता के थोड़ा बाजू हटते ही लक्ष्मण की इच्छा पूरी हुई - उन्हें राम के दर्शन हुए। यही हाल ब्रह्म , माया और जीव का भी है। जब तक माया हट न जाय तब तक जीव ब्रह्म के दर्शन नहीं पा सकता।  
{माया (अज्ञान) की दो शक्तियां हैं : १.आवरण २. विक्षेप (name and form)
आवरण शक्ति :  का अर्थ है पर्दा , जो दृष्टि में अवरोधक बन जाय. जिसके कारण वास्तविकता नहीं दिखायी दे। जैसे शाम के धुंधले प्रकाश में पड़ी हुई रस्सी को देखकर सर्प का भ्रम हो हो जाता है। अथवा जैसे बादल का एक टुकड़ा पृथ्वी से कई गुने बड़े सूर्य को ढक लेता है। उसी प्रकार माया की आवरण शक्ति सीमित होते हुए भी परम आत्मा के ज्ञान हेतु अवरोधक बन जाती है।  परमात्म को जानने वाली जो शुद्ध-बुद्धि है, उस शुद्धबुद्धि और आत्मतत्त्व के बीच अज्ञान का आवरण आ जाता है। 
विक्षेप शक्ति  -यह विज्ञानमय कोश में स्थित रहती है।  आत्मा की अति निकटता के कारण यह अति प्रकाशमय है।  माया की यह शक्ति भ्रम पैदा करती है। (एक ही वस्तु को अलग अलग रूपों में दिखाती है।) इससे ही संसार के सारे व्यवहार होते हैं।  जीवन की सभी अवस्थाएं, संवेदनाएं इसी विज्ञानमय कोश अथवा विक्षेप शक्ति के कारण हैं। यह  चैतन्य की प्रतिविम्बित शक्ति चेतना (reflected consciousness) है।  यह विक्षेप शक्ति  सूक्ष्म शरीर से लेकर ब्रह्मांड तक सम्पूर्ण संसार की रचना करती है। 
साभार /BASANT PRABHAT JOSHI/ 
http://bhagwadgeeta1.blogspot.com/2011/11/}

39 जस बादल सूरज ढके , तस माया भगवान। 

59 हटत बदरिया हरि मिले , कहे संत सुजान।। 

जिस प्रकार बादल सूरज को ढक देता है , उसी प्रकार माया ने ईश्वर को ढक रखा है। बादल के हट जाते ही सूरज दीखने लगता है , वैसे ही माया के दूर होते ही ईश्वर प्रकट हो जाते हैं। 

                        37 माया मुखौटा ब्रह्म की , जगत सकल भरमाय। 

57 जो जाना निज रूप तो माया छू हो जाये।।

हरि जब सिंह का मुखौटा लगा लेता है तो सचमुच बड़ा डरावना दिखने लगता है। वह अपनी खेलती हुई छोटी बहन के पास जाकर सिंह की आवाज में उसे डराने लगता है तो वह बच्ची चौंककर मारे डर के चीखती हुई भागने लगती है। लेकिन जब हरि वह मुखौटा हटा लेता है , तो घबड़ाई हुई बच्ची तुरन्त अपने प्यारे भाई को पहचानकर उसकी ओर चिल्लाती हुई दौड़ पड़ती है - " अरे , ये तो भैया हैं ! " 

मनुष्यों का भी यही हाल है। माया के आवरण में ब्रह्म ही छिपा हुआ है , फिर भी माया की शक्ति से लोग मुग्ध और भयभीत होकर कितनी ही चीजें करने को विवश हो जाते हैं। लेकिन जब ब्रह्म के स्वरुप पर से यह माया का पर्दा हट जाता है तब वह , ब्रह्म भयंकर , कठोर शासक के रूप में प्रतीत नहीं होता - तब तो अपनी ही प्रियतम अन्तरात्मा के रूप में उसका अनुभव होता है।
  
38 जस काई तलाव ढके , तस माया जीव नैन। 
58 कर साधन काई हटा , निरख प्रभु निज नैन।।

ईश्वर यदि सर्वत्र विराजमान हैं , तो हम उन्हें देख क्यों नहीं पाते ? काई से ढके तालाव के किनारे खड़े होकर देखने पर तुम्हें उसमें पानी नहीं दिखाई देगा। अगर तुम पानी देखना चाहते हो तो तालाब पर से काई को हटा दो। माया के परदे से ढँकी हुई आँखों से देखकर तुम लोग कहते हो कि हमें ईश्वर क्यों नहीं दिखाई देते। अगर तुम ईश्वर को देखना ही चाहते हो , तो आँखों पर से माया का परदा हटा डालो। 
 
40 जस पानी अरु दूध मिले , तस माया भगवान। 
60 तज पानी पय पान करे , परमहंस सुजान।। 

किंवदन्ती है कि अगर दूध में पानी मिला हो तो हंस उसमें से दूध पीकर पानी को वैसा ही छोड़ देता है।  पर दूसरे पक्षी ऐसा नहीं कर सकते। इसी प्रकार ईश्वर माया के साथ मिले हुए हैं। साधारण मनुष्य उन्हें माया से अलग करके नहीं देख पाते , केवल जो परमहंस होते हैं वे ही माया को त्याग कर ईश्वर का ग्रहण करते हैं।   

41 पहचानत माया भगे , जस जागत घर चोर। 
61 कर सतसंगत जान ले , घर हिय नाम अंजोर।। 

यदि तुम माया को पहचान लो तो वह स्वयं ही तुम्हें छोड़कर भाग जाएगी। जैसे गृहस्थ यदि जान जाये कि घर में चोर आया है , तो चोर अपने आप भाग जाता है।  
 
*विषयाशक्ति ही आध्यात्मिक उन्नति में बाधा *

49 साध साध बन कामजित, खुलहहि मेधा द्वार। 

79 आत्मज्ञान हो कटहि पुनि , हृदय ग्रंथि हजार।। 

कामवासना को पूरी तरह से वशीभूत करने की कोशिश  करो। ऐसा करने में यदि कोई सफल हो सके तो उसके भीतर मेधा नाड़ी ** नाम की एक सूक्ष्म नाड़ी उत्पन्न होती है, वह निम्नगामी शक्ति को उर्ध्वगामी बना देती है। इस मेधा नाड़ी के खुलने के बाद ही सर्वोच्च परमात्मज्ञान प्राप्त होता है। 

 मेधा नाड़ी ** खुलने का अर्थ है कि वह व्यक्ति किसी भी चीज को चाहे वह पाठ्य हो, श्रव्य हो ,अथवा दृश्य एक बार पढ़ने, सुनने, अथवा देखने मात्र से ही उसको हमेशा के लिए इस तरह से याद हो जाती है, जिस तरह से किसी कंप्यूटर में कोई फाइल लोड कर दी जाती है। उस व्यक्ति की मेधा इतनी ज्वलंत हो जायेगी के वह किताब के पन्ने को एक बार मात्र देखने से सदा के लिए याद रख सकेगा।  इसे फ़ोटो मेमोरी भी कहते है।  ब्रह्मचर्य के पालन से मस्तिष्क की शक्ति बढ़ने के साथ-साथ शारीरिक शक्ति में भी वृद्धि होती है।(जो केवल संतान प्राप्ति के लिए विवाह करे तो वह गृहस्थ स्त्री-पुरुष भी ब्रह्मचारी कहे गए हैं।) 
46 जो चाहत हरि भजन नर , जो चाहत भगवान। 
75 काम कांचन से हे मनुवा , सदा रहो सावधान।।

जो ईश्वरप्राप्ति के लिये साधन भजन करना चाहते हैं , उन्हें कामिनी- कांचन की आसक्ति से बचने के लिए विशेष रूप से सावधान रहना चाहिये , अन्यथा उन्हें सिद्ध-अवस्था कभी नहीं मिल सकती।   
47 काम कांचन के भार से , नर झुकत जग ओर। 
77 छूटत सकल आराधना , टूटत भगति डोर।। 

जब तराजू का एक पल्ला दूसरे पल्ले से भारी होकर झुक जाता है तो उसका निचला काँटा (मन)  उपरवाले काँटे (T) से अलग हट जाता है। इसी प्रकार जब मनुष्य का मन कामिनी -कांचन के भार से संसार की और झुक जाता है तो वह ईश्वर में एकाग्र नहीं हो पाता , वह उनसे दूर हट जाता है।

48 जस हंडी के छेद से , बून्द बून्द बहे जल। 
78 तस विषयन आसक्त के , सब साधन के फल।। 

अगर घड़े में कहीं एक छोटासा भी छेद रहे तो उसका सारा पानी धीरे-धीरे बह जाता है। उसी प्रकार साधक के भीतर यदि थोड़ी सी संसार -आसक्ति रह जाये तो उसकी सब साधना व्यर्थ हो जाती है। 
 
50 आसक्ति से छूटत नर , छूटत विषय के राग। 
81 हिय गुह उपजहि भगति अरु , नित नव अनुराग।।

मन जब भोग्य वस्तुओं की आसक्ति से मुक्त हो जाता है तब वह ईश्वराभिमुख होते हुए ईश्वर में ही लीन हो जाता है। इस तरह बद्ध जीव भी मुक्त हो जाता है। जो ईश्वर से विमुख होकर दूर हो जाता है वही बद्ध जीव है। 

51 कनक काम की आसक्ति , सहज मिटे नहि रोग। 
82 जो मिटे फिर शेष क्या , केवल आनन्द भोग।।

यदि जीव के मन से काम -कांचन की आसक्ति मिट गयी , तो फिर उसके लिए शेष ही क्या रह गया ? --केवल ब्रह्मानन्द !
43 काम कांचन हैं प्रबल अति , माया के दो रूप। 
66 कर मोहित सब जीव को , बिसराया स्वरुप।।
माया क्या है ? यह काम या भोगासक्ति ही है, जो आध्यात्मिक उन्नति में विघ्नस्वरूप है। 

*विषयाशक्ति का बन्धन *

44 जीव फँसा जग जाल में , पावे दुःख हजार। 
        68 माया डोर है प्रबल अति , भजत न हरि इक बार।।
 
संसार-जाल में फँसे हुए जीव विषयासक्ति के कारण हजारों दुःख-कष्ट भोगते हैं किन्तु फिर भी वे कामिनी-कांचन के मोह को छोड़कर भगवान में मन नहीं  लगाते। 

45 काम कांचन है प्रबल अस , नर को जग में डुबाय। 
73 भटकावे भव जाल में , भगवत भजन न भाय।।

कामिनी -कांचन ही मनुष्य को संसार में डुबो रखते हैं , ईश्वर की ओर जाने नहीं देते। कितने अचरज की बात है कि सभी लोग अपनी पत्नी की तारीफ ही करते हैं , चाहे वह भली हो या बुरी।

ब्रह्मशक्ति  माया " 

34 बिन माटी बिन पानी के , घड़ा बनत नहीं एक। 
     51 तस बिन शिव बिन शक्ति के , होत न सृष्टि अनेक।।

सृष्टि के लिये शिव तथा शक्ति दोनों की आवश्यकता है। कुम्हार सूखी मिट्टी से घड़ा नहीं बना सकता , पानी भी चाहिये। इसी प्रकार शक्ति की सहायता के बिना केवल शिव के द्वारा सृष्टि नहीं हो सकती। 
 
35 भगवन में माया बसे , विष बसे जनु साँप। 
53 माया मुग्ध करे जग को , मुग्ध न होवे आप।। 

साँप के दाँतों में विष है , लेकिन जब वह स्वयं खाता है तो उस पर विष का असर नहीं होता ; किन्तु जब वह दूसरों को काट खाता है तो उस व्यक्ति पर विष चढ़ जाता है। इसी प्रकार , भगवान में माया है तो अवश्य , पर वह उन्हें मुग्ध नहीं कर सकती , किन्तु सारे संसार को मुग्ध कर लेती है।  
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[ बुधवार, 8 फ़रवरी 2012" विवेकानन्द और युवा आन्दोलन " (समस्त ४२ निबन्ध का १७ वां निबंध /आत्मसमीक्षा - अपने भीतर की भोगासक्ति एक पलड़े पर और दूसरे पलड़े पर त्याग को रखकर तौले , अथवा एक पलड़े पर भीतर के स्वार्थ और दूसरे पलड़े पर भीतर के परमार्थ को रखकर तौलें तो कौन सा पलड़ा भारी होगा ? पृष्ठ 60 ]  

*Death and Rebirth*श्री रामकृष्ण दोहावली (4) " मृत्यु तथा पुनर्जन्म " / गीता [ श्लोक ८ / २४ -२५ ] " अंतमति - सोगति" /पुनरावृत्ति के मार्ग को पितृयाण (पितरों का मार्ग) कहते हैं।बद्धजीव मृत्यु के समय में भी संसार की ही बातें करते हैं। यदि जीवन भर ईश्वर-चिन्तन का अभ्यास किया जाय तो 'अन्त समय' * में भी मन में ईश्वर का ही विचार आएगा।

 श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित-श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(4) 

 *मृत्यु  तथा पुनर्जन्म * 

30 जीवन भर जो हरि भजे , करे हरि का ध्यान। 

44 अंत समय सुमिरत सहज , जानहु तेहि महान।।

जो संसार में आसक्त बद्धजीव हैं , वे मृत्यु के समय भी संसार की ही बातें करते हैं। ईश्वर में भक्ति -विश्वास नहीं है , इसीलिये तो जीव को इतना कर्मभोग भोगना पड़ता है। जिससे देह त्यागते समय मन में ईश्वर का चिंतन चले , इसके लिए पहले से ही उपाय करना चाहिए। वह उपाय है अभ्यास योग। यदि जीवन भर ईश्वर-चिन्तन का अभ्यास किया जाय तो 'अन्त समय' * में भी मन में ईश्वर का ही विचार आएगा। 

31 मरन समय जस सोच करे , पावे तस पुनि देह। 

45 भज मनवा नित नाथ को , हो जा मुक्त विदेह।।

         ठीक मृत्यु के क्षण मनुष्य जो कुछ सोचता है , उसी के अनुसार उसका अगला जन्म होता है। इसीलिए साधना की अत्यन्त आवश्यकता है। निरन्तर अभ्यास करते हुए जब मन सब तरह की सांसारिक चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है , तो उसमें सब समय केवल ईश्वर का ही चिन्तन होने लगता है ; फिर मृत्यु के समय भी वह नहीं छूटता। 

{भरत मुनि की आसक्ति मृगशावक में थी, अतः उन्हें अगला जन्म मृगशावक का ही मिला। उस जन्म में भी उन्हें विगत जन्म स्मृत था। " अंतमति - सोगति"  अर्थात मृत्यु के समय जिसकी जैसी बुद्धि होती है, जिसकी जैसी भावना होती है, उसी के अनुरूप उसे अगले जन्म की प्राप्ति होती है। परन्तु देहांत के समय ,अपनी इच्छा -अनुसार बात नहीं हो सकती , देव -गति से जो जिसे प्राप्त हो जाये , सो सही। इसीलिए कहा गया है कि मृत्यु काल में परमात्मा का स्मरण करना चाहिए।}  

32 कच्ची हांडी चाक चढ़े , पुनि पुनि बार हिं बार। 

46 तस ज्ञान के रहत नर , जनम मरण बहु बार।।

अगर कच्ची मिट्टी की हाँड़ी फूट जाय तो कुम्हार उस मिट्टी से फिर नई हाँड़ी बना सकता है। किन्तु लाल पकी हुई हाँड़ी फूट जाने पर ऐसा नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार , अज्ञान -अवस्था में मृत्यु होने से मनुष्य को फिर जन्म लेना पड़ता है। किन्तु ज्ञानाग्नि में अच्छी तरह पक जाने के बाद यदि मृत्यु हो तो उसका पुनर्जन्म नहीं होता। 

33 उबले धान उगे नहीं , कर लो जतन हजार। 

47 सिद्ध योगी तस फिरत नहि , तजत देह संसार।।

सिद्ध (भुना हुआ ) धान बोने से अंकुर नहीं निकलता , असिद्ध (बिना भुने ) धान से ही अंकुर आते हैं। इसी प्रकार 'सिद्ध ' होकर मरने से मनुष्य को फिर जन्म नहीं लेना पड़ता। परन्तु यदि ' असिद्ध ' अवस्था में मरे तो उसे बार बार जन्म लेना पड़ता है।   

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{ **अंतमति - सोगति : विद्या का सूत्र यह है – सा विद्या या विमुक्तये, जो मुक्त करे वह विद्या है। शास्त्रों में प्रकाश-मार्ग से ब्रह्म-प्राप्ति ,सायुज्य-मुक्ति बताई गई है तथा धूम्र -मार्ग से पुनर्जन्म प्राप्त होता है।  गीता [ श्लोक ८ / २४ -२५ ] पुनरावृत्ति के मार्ग को पितृयाण (पितरों का मार्ग) कहते हैं। 

हमारे सभी पूर्वज, हमारे वंश/खानदान के सभी मृत व्यक्ति पितरों * कि श्रेणी में आते हैं। ऋग्वेद में भी दिवंगत पूर्वजों के लिए पितर ** शब्द प्रयोग हुआ है। ये आत्माएं मृत्यु के बाद 1 से लेकर 100 वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म की मध्य की स्थिति में रहती हैं।  हमारे पूर्वगत तीन पूर्वज -पिता, पितामह, प्रपितामह। पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है। धर्मशास्त्रों के अनुसार पितरों का निवास चंद्रमा के उर्ध्वभाग में माना गया है।  इसका अधिष्ठाता देवता है चन्द्रमा जो जड़ पदार्थ जगत् का प्रतीक है। 

जो लोग उपासनारहित पुण्य कर्मों को जिनमें समाज सेवा तथा यज्ञयागादि कर्म सम्मिलित हैं करते हैं वे मरणोपरान्त पितृलोक को प्राप्त होते हैं जिसे प्रचलित भाषा में स्वर्ग कहते हैं। पुण्यकर्मों के फलस्वरूप प्राप्त इस स्वर्गलोक में विषयोपभोग करने पर जब पुण्यकर्म क्षीण हो जाते हैं तब इन स्वर्ग के निवासियों को अपनी अवशिष्ट वासनाओं के अनुसार उचित शरीर को धारण करने के लिए पुनः संसार में आना पड़ता है।  

 श्रीविष्णुपुराण (१-१९-४१) में कहा गया है -

" तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये। 

आयासायापरं कर्म विद्यऽन्या शिल्पनैपुणम्॥ 

अर्थात  कर्म वह है जो बंधन में न डाले - विद्या वह है जो मुक्त कर दे। अन्य कर्म (स्वार्थपूर्ण कर्म ) केवल श्रम मात्र हैं - और अन्य विद्याएँ केवल यांत्रिक निपुणता हैं।  जो मुक्ति का कारण बनती है वही सच्ची विद्या है । शेष कर्म तो बंधन का ही कारण बन जाते हैं जिनके करने से प्राय चिन्ता और कष्ट ही प्राप्त होते हैं। 

इसीलिए ऋग्वेद में देवी सरस्वती से प्रार्थना की गयी है -- "हे  देवी सरस्वती ! हमें लक्ष्मी दें। हे देवी लक्ष्मी! हमारी विद्या बढ़े। **"  द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च मर्त्यं चामृतं च स्थितं च यच्च सच्च त्यच्च ॥ १ ॥ (बृहदारण्यकोपनिषत् २-३-१) 

अर्थ-  'द्वे वाव  ब्रह्मणः रूपे ' ब्रह्म के दो स्वरूप होते हैं – पंच भूतों के दो ही रूप हैं। ( मूर्तं च अमूर्तं  च) मूर्त- मतलब -स्थूल  और सूक्ष्म।  (मर्त्यं च अमृतम् च) मरने वाला व न मरने वाला (स्थितम् च यत् च) ठहरा हुआ और चलने वाला (सत् च त्यत् च) व्यक्त और अव्यक्त।

 व्याख्या- 'ब्रह्म' शब्द अनेकार्थक है। 'ब्रह्म' शब्द यहाँ पंचभूत समुदाय के लिए प्रयुक्त हुआ है।  पंचभूत समुदाय के दो रूप हैं एक मूर्त , दूसरा अमूर्त -दोनों के विशेषण इस प्रकार हैं- (१) मूर्त -मरने वाला, ठहरा हुआ और व्यक्त अमूर्त -न मरने वाला, चलने वाला और अव्यक्त।

 "हरि ॐ" शब्द रूप दोनों स्वरूपों की स्मृति है "हरि" सगुन रूप विष्णु हैं तो "ॐ" निराकार ब्रह्म हैं।  "ॐ तत्सत्"  शब्द परमात्मा की ओर किया गया एक निर्देश है।  इस शब्द का प्रयोग गीता के हरेक अध्याय के अंत में किया गया है, जैसे  " ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्याय: ।। 1 ।। इस शब्द का विशेष प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के सत्रहवें अध्याय के २३ वें श्लोक में किया है - ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः। गीता  १७:२३।। 

सृष्टि के आरम्भ से  'ऊँ, तत् सत्' ऐसा यह ब्रह्म का त्रिविध निर्देश (नाम) कहा गया है; उसी से आदिकाल में (पुरा) ब्राहम्ण, वेद और यज्ञ निर्मित हुए हैं।। [ Verily, there are two forms of Brahman: gross and subtle, mortal and immortal, limited and unlimited, definite and indefinite.] इसका भावार्थ है :-  सृष्टि के आरम्भ से ब्रह्म को उच्चारण के रूप में  तीन प्रकार का ...., "ॐ" (परम-ब्रह्म), "तत्‌" (वह), "सत्‌" (शाश्वत) इस प्रकार से निर्दिष्ट किया जाता है।  ॐ तत्सत् द्वारा निर्दिष्ट ब्रह्म से ही समस्त वर्ण, धर्म, वेद और यज्ञ उत्पन्न हुए हैं। अध्यस्त सृष्टि का कारण उसका अधिष्ठान ही होता है।  ' ॐ '  शब्द उस आत्मतत्त्व का प्रतीक है जो अजन्मा, अविनाशी, सर्व उपाधियों के अतीत और शरीरादि उपाधियों का अधिष्ठान है। किसी व्यक्ति को निर्देश (तत् = वह) करने के लिये उसका नाम कहते हैं।  'तत् ' शब्द परब्रह्म का सूचक है। उपनिषदों के प्रसिद्ध महावाक्य 'तत्त्वमसि ' में तत् उस परम सत्य को इंगित करता है,  जो सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और लय का स्थान है। अर्थात् जगत्कारण ब्रह्म तत् शब्द के द्वारा इंगित किया गया है। सत् का अर्थ त्रिकाल अबाधित सत्ता। यह सत्स्वरूप सर्वत्र व्याप्त है। इस प्रकार, ॐ  तत्सत् इन तीन शब्दों के द्वारा विश्वातीत , विश्वकारण और विश्व व्यापक परमात्मा का स्मरण करना ही उसके साथ तादात्म्य करना है। ईश्वर स्मरण से हमारे कर्म शुद्ध हो जाते हैं। इसीलिए ब्राह्मणों द्वारा इन तीनों शब्दों का प्रयोग यज्ञ करते समय  वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करके ब्रह्म को संतुष्ट करने के लिये किया जाता है। 

हम सबके कर्म ऊपर से देखने पर एक समान प्रतीत हो सकते हैं,  तथापि एक व्यक्ति को प्राप्त फल दूसरे से भिन्न होता है। ॐ के अर्थ को समझकर कर्म करने का फल , जो नहीं समझता उससे भिन्न होगा। अनात्म उपाधियों से तादात्म्य को त्यागने से ही हम अपने परमात्म स्वरूप में स्थित हो सकते हैं।  जिस मात्रा में हमारे कर्म निस्वार्थ होंगे उसी मात्रा में प्राप्त पुरस्कार भी शुद्ध होगा। अहंकार के नाश के लिए साधक को अपनी आध्यात्मिक प्रतिष्ठा का बोध होना आवश्यक है।  [ अनात्म उपाधियों M/F के नाम-रूप से तादात्म्य को त्यागने से (मिथ्या अहं में आसक्ति त्यागने से)  ही हम अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं '- बोध में रूपांतरित कर सकते हैं, अर्थात  परमात्म स्वरूप में स्थित रह सकते हैं।

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*Wrong Identification -अस्मिता * श्री रामकृष्ण दोहावली (3) * जीव तथा बन्धन * तीन प्रकार की गुड़ियाँ हैं - एक नमक की , एक कपड़े की और एक पत्थर की। नमक की गुड़िया : मानो (जीव कोटि का मनुष्य ) अपने अस्तित्व को सर्वव्यापी विराट ब्रह्म के अस्तित्व में लीन कर उसके साथ एकरूप हो जाता है, मार्गदर्शन के लिए वापस नहीं लौटता । कपड़े की गुड़िया : मानो भक्ति रस से सराबोर उस माँ काली के भक्त मार्गदर्शक नेता 'C-IN-C नवनीदा' का प्रतीक है; जो भावी पीढ़ी का मार्गदर्शन करने के लिए निर्विकल्प समाधि का भी त्याग कर (अर्थात अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं '-बोध में रूपांतरित कर) वापस लौट आता है ! पत्थर की गुड़िया : मानो बद्ध संसारी जीव की प्रतिक है *सभी मनुष्य स्वरूपतः सच्चिदानन्द ही हैं , अवस्थाभेद से चार श्रेणी के होते हैं --बद्ध , मुमक्षु , मुक्त और नित्यमुक्त ! मनुष्य वास्तव में सच्चिदानन्द-स्वरुप ही है, लेकिन अहं के आवरण से अपने यथार्थ स्वरुप को भूल बैठा है !

 

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

 स्वामी राम'तत्वानन्द रचित -श्री रामकृष्ण दोहावली 

* जीव तथा बन्धन *   

23 रामकृष्ण कह जीव के , हौवत चार प्रकार। 

34 बद्ध मुमुक्षु मुक्त और नित्य-मुक्त जग सार।। 

वस्तुतः सभी जीवों का यथार्थ स्वरुप एक-सच्चिदानन्द ही है , किन्तु अवस्थाभेद से वे चार श्रेणी के होते हैं --बद्ध , मुमक्षु , मुक्त और नित्यमुक्त ! 

24 बद्ध जीव तेहि जानिये , प्रिय जाको संसार। 

35 जाल सहित कीच में रहे , तिन्ह महँ सुख हजार।।

"किसी मछुए ने नदी में जाल डाला। जाल में बहुत सी मछलियाँ फँसी। कुछ मछलियाँ तो जाल में पड़कर एकदम शान्त, निश्चेष्ट पड़ी रहीं -उन्होंने बाहर निकलने की बिल्कुल कोशिश नहीं की ; कुछ ने भागने की बहुत कोशिश की , काफी उछल-कूद मचाई किन्तु वे भाग न पाईं ; और कुछ किसी तरह कूद -फाँदकर भाग निकली। इसी प्रकार संसार में भी तीन प्रकार के जीव होते हैं - बद्ध जीव , जो कभी मुक्त होने का प्रयत्न नहीं करते ; मुमुक्षु जीव , और मुक्त -जिन्होंने मुक्ति प्राप्त कर ली है।" 

25 मुमुक्षु तिन्हको जानिये , हरि से करे लगाव। 

35 देख जाल छटपट करे , करत प्रयास बचाव।। 

26 मुक्त जीव तेहि जानिए , कर साधना हजार। 

35 कूद जाल जो बच चले , भवसागर के पार। 

27 नित्य-मुक्त है मुक्त सदा , बंधे न माया जाल। 

35 जस नारद शुकदेव जस , मुक्त सदा त्रिकाल।

 तीन प्रकार की गुड़ियाँ हैं - एक नमक की , एक कपड़े की और एक पत्थर की। यदि इन तीनों को समुद्र में डुबो दिया जाए तो पहली, नमक की गुड़िया बिल्कुल घुल जाएगी , उसके आकार (नाम-रूप) का अस्तित्व ही नहीं रहेगा। दूसरी कपड़े की गुड़िया बहुत सा पानी सोख लेगी ,लेकिन उसका आकार पूरा नष्ट नहीं होगा

 नमक की गुड़िया : मानो (जीव कोटि का मनुष्य ) मुक्त जीव की प्रतीक है ; जो अपने अस्तित्व को सर्वव्यापी विराट ब्रह्म के अस्तित्व में लीन कर उसके साथ एकरूप हो जाता है, (मार्गदर्शन के लिए वापस नहीं लौटता ) । 

कपड़े की गुड़िया : कपड़े की गुड़िया मानो भक्ति रस से सराबोर उस माँ काली के भक्त मार्गदर्शक नेता (लोक-शिक्षक) का, ईश्वर-कोटि के मनुष्य (विज्ञानी, नेता, जीवनमुक्त शिक्षक 'C-IN-C नवनीदा' ) का प्रतीक है; जो भावी पीढ़ी का मार्गदर्शन करने के लिए निर्विकल्प समाधि का भी त्याग कर (अर्थात अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं '-बोध में रूपांतरित कर) वापस लौट आता है ! वैसा जीवन्मुक्त शिक्षक/ नेता  ईश्वरीय आनन्द और ज्ञान से सदैव परिपूर्ण रहता है।[कपड़े की गुड़िया = भक्त अर्थात विज्ञानी (जीवनमुक्त) ]   

 पत्थर की गुड़िया : मानो बद्ध संसारी जीव की प्रतिक है , जो यथार्थ ज्ञान का कण मात्र भी आत्मसात नहीं करता। 

चेतावनी 38 :- जिस प्रकार सभी गुझियाँ (पेंड़किया) ऊपर से एक ही मैदे से बनी हुई होती हैं; पर उनके भीतर अलग-अलग किस्म की पीठी भरी हुई होती है - किसी के भीतर सूजी , किसीके भीतर नारियल की , तो किसी में खोये की। पीठी के भेद से गुझियों के प्रकार भिन्न हो जाते हैं। उसी प्रकार सभी मनुष्य एक ही उपादान से निर्मित होते हुए भी अन्तःकरण की पवित्रता के तारतम्य से गुण में भिन्न हो जाते हैं।   

20 जीव सदा आनन्दमय , सच्चिदानन्द स्वरुप। 

28 पर अधीन हो अहम के, भूल  बैठा निज रूप।। 

जीव वास्तव में सच्चिदानन्द-स्वरुप है, किन्तु 'अहंभाव' के कारण वह विभिन्न उपाधियों (अस्मिता -  wrong identification) में उलझकर अपने यथार्थ स्वरुप को भूल बैठा है। 

21 साँप , केंचुली अलग जस , तस आत्मा अरु देह। 

30 नाशवान है देह सदा , आत्मा अमर विदेह।।

जिस प्रकार साँप केंचुली से अलग होता है , उसी प्रकार आत्मा भी देह से अलग होती है।  

22 धुँआ रंगे दीवार को , रंग न सके आकाश। 

32 तस सुख दुःख बस देह को , नहिं आत्मा अविनाश ।। 

वेदान्तवादी कहते हैं कि आत्मा पूर्ण निर्लिप्त है। अविनाशी आत्मा पर सुख -दुःख, पाप-पुण्य आदि  कोई प्रभाव नहीं डाल सकते ; किन्तु देहाभिमानी व्यक्ति को क्लेश दे सकते हैं। जिस प्रकार धुआँ दीवार को काला कर सकता है , पर आकाश को कुछ नहीं कर सकता।     

28 दुष्ट सज्जन सन्त सब , मानहु एक एक खोल। 

37 रुई रूप हरि बसत नित , सकल हृदय अनमोल।।

मनुष्य मानो तकिये के गिलाफ जैसे हैं।  ऊपर से देखने पर कोई गिलाफ लाल , कोई नीला, तो कोई काला होता है। परन्तु सभी के भीतर एक ही रुई है। उसी प्रकार , कोई मनुष्य देखने में सुन्दर है , तो कोई काला , कोई सज्जन है तो कोई दुष्ट , किन्तु सब के भीतर एक ही परमात्मा विराजमान हैं। 

       चेतावनी 40 :- यह ठीक है कि बाघ के भीतर भी परमेश्वर विद्यमान है , पर इसके कारण उसके गले लगने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। क्योंकि बाघ को नहीं मालूम कि उसके भीतर परमेश्वर हैं। उसी प्रकार यद्यपि अत्यन्त दुर्जन व्यक्तियों के भीतर भी ईश्वर विराजमान हैं , तथापि उनकी संगति करना उचित नहीं। 

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*Magician true and magic false*श्री रामकृष्ण दोहावली -२/*जादूगर सच और जादू झूठ * १ -अंक ईश्वर बिना सौ शुन भी शून्य है * जैसे आग के कारण आलू -परवल उछलते हैं , ब्रह्मशक्ति (आत्मा की शक्ति) के कारण ही मन, बुद्धि , इन्द्रियाँ कार्य करती हैं

  भगवान श्री रामकृष्ण देव के उपदेशों का संग्रह - 'अमृतवाणी '  पर आधारित  

स्वामी राम'तत्वानन्द द्वारा रचित- 'श्री रामकृष्ण दोहावली' -2 

 [इस दोहावली में दोहा के पूर्व दी हुई प्रथम नम्बर क्रम संख्या दर्शाती है, और दूसरी नम्बर अमृतवाणी पर सम्बन्धित उपदेश नम्बर।]

 *जीव का सच्चा स्वरुप*

18 जादूगर बन श्री प्रभु, करै जादू का खेल। 

26 जादूगर ही सत्य सदा , मिथ्या जादू खेल।। 

ईश्वर स्वयं ही मनुष्य के रूप में अवतरित होकर लीला करते हैं। वे बड़े जादूगर हैं - यह जीवजगत -रूपी इंद्रजाल उन्हीं के जादू का खेल है। केवल जादूगर ही सत्य है और जादू मिथ्या।   

19 आग शक्ति से नाचहहिं , जैसे परवल पानी। 

27 तस नाचत हरि शक्ति से , मन बुद्धि जीव रानी।।

      मनुष्य की देह मानो एक हाँड़ी है और मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ मानो पानी , चावल और आलू के समान हैं। हांड़ी में पानी, चावल और छोड़कर उसे आग पर रख देने से वे तप्त होकर खदकने लगते हैं।  उन्हें हाथ लगाए तो हाथ जल जाता है। वास्तव में जलाने की शक्ति हाँड़ी, पानी ,चावल या आलू -परवल में से किसी में नहीं है , वह तो उस आग में है; फिर भी उनसे हाथ जलता है।  इसी प्रकार मनुष्य के भीतर विद्यमान रहने वाली ब्रह्मशक्ति (आत्मा की शक्ति) के कारण ही मन, बुद्धि , इन्द्रियाँ कार्य करती हैं, और जैसे ही इस ब्रह्मशक्ति का अभाव हो जाता है वैसे ही ये मन , बुद्धि , इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं।

12 भगवन जानहु अंक सम , जीवहि शून्य समान। 

16 अंक बिना शुन शून्य है , अंक रहे दस मान।।   

संख्या ' १ ' के बाद शून्य लगाते हुए चाहे जितनी बड़ी संख्या पाई जा सकती है ; पर यदि उस 'एक ' को मिटा दिया जाए तो शून्यों का कोई मूल्य नहीं होता  उसी प्रकार जब तक जीव उस 'एक' -स्वरुप ईश्वर के साथ युक्त नहीं होता तब तक उसकी कोई कीमत नहीं होती। कारण , जगत में सभी वस्तुओं को ईश्वर सहित सम्बन्ध होने पर ही मूल्य प्राप्त होता है। जब तक जीव जगत के पीछे अवस्थित उस मूल्य प्रदान करने वाले ईश्वर के साथ संयुक्त रहते हुए , उन्हीं के लिए कार्य करता रहता है , तब तक तो उसे अधिकाधिक श्रेय प्राप्त होता रहता है; लेकिन इसके विपरीत जब वह ईश्वर की उपेक्षा करते हुए  अपने स्वयं के गौरव के लिए बड़े -बड़े कार्य सिद्ध करने में भिड़ जाता है , तब उसे कोई लाभ नहीं मिलता।    

14 हरि चुम्बक जीव लोह सम , माया पंक सामान। 

18 असुंवन धोवहि पंक जब , तब खींचहि भगवान।। 

        ईश्वर (माँ काली) और जीव का बहुत ही निकट का सम्बन्ध है -जैसे लोहे और चुम्बक का। किन्तु ईश्वर जीव को आकर्षित क्यों नहीं करता ? जैसे लोहे पर बहुत अधिक कीचड़ लिपटा हो तो वह चुम्बक के द्वारा आकर्षित नहीं होता। वैसे ही जीव मायारुपी कीचड़ से में अत्यधिक लिपटा हो तो उस पर ईश्वर के आकर्षण का असर नहीं होता। फिर जिस प्रकार कीचड़ को जल से धो डालने पर लोहा चुम्बक की ओर खिंचने लगता है , उसी प्रकार जब जीव अविरत प्रार्थना और पश्चाताप के आँसुओं से इस संसार बन्धन में डालने वाली माया के पंक को धो डालता है , तब वह तेजी से ईश्वर की ओर खिंचता जाता है।

13 बिन तेल नहीं दीप जले , तेल दीप का प्राण। 

17 तस पल भर नर जीयत नहिं , बिन हरि बिन भगवान।। 

जिस प्रकार तेल न हो तो दीप जल नहीं सकता , उसी प्रकार ईश्वर न हों तो मनुष्य जी नहीं सकता। 

15 आत्मा मायाबद्ध जो, पराधीन है जीव।

 20 पाश मुक्त स्वतन्त्र जो , आनन्दमय शुभ शिव।।

 मायापाश में बद्ध आत्मा 'जीव ' है, पाशमुक्त आत्मा ही  'शिव ' (ईश्वर) है। [अर्थात एक ही जीव (मनुष्य) की दो अवस्थायें है -- पाशबद्ध (Hypnotized) और पाशमुक्त (De -Hypnotized)]  

17 जीव सिमित शिव अनन्त है , कैसे पावहि थाह। 

25 जैसे नमक की गुड़िया , अरु सागर अथाह।।

ईश्वर अनन्त है और जीव सान्त। भला सान्त जीव अनन्त की धारणा कैसे कर सकता है ? यह तो मानो नमक की गुड़िया का समुद्र की गहराई नापने का प्रयास है। नमक की गुड़िया समुद्र की गहराई की थाह लेने ज्यों ही पानी में उतरी त्योंही घुलकर विलीन हो गयी। उसी प्रकार जीव भी ईश्वर की थाह लेने, उन्हें जानने जाकर अपना पृथक अस्तित्व खो बैठता है। 

16 जैसे जल अरु बुलबुला , तैसे ब्रह्म अरु जीव। 

22 एक पराधीन सीमित है , एक असीम जग नींव।।

पानी और बुलबुला वस्तुतः एक ही हैं । बुलबुला पानी में ही उत्पन्न होता है , पानी में ही रहता है और अन्त में पानी में ही समा जाता है। उसी प्रकार जीवात्मा और परमात्मा वस्तुतः एक ही हैं। उनमें अन्तर केवल उपाधि के तारतम्य का है : एक सान्त -सीमित है तो दूसरा अनन्त -असीम ; एक आश्रित है तो दूसरा स्वतन्त्र।  

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*Purpose of life *श्री रामकृष्ण दोहावली -1 [ श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर ~ स्वामी राम'तत्वानन्द रचित श्री रामकृष्ण दोहावली]

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

 [ स्वामी राम'तत्वानन्द रचित श्री रामकृष्ण दोहावली]      

  विवेकानन्द विद्यापीठ, रामकृष्ण परमहंस नगर , कोटा, रायपुर (छत्तीसगढ़) -Pin -492010] द्वारा प्रकाशित स्वामी राम'तत्वानन्द जी द्वारा रचित 'श्रीरामकृष्ण दोहावली ' के ग्रंथकार का निवेदन : 

        किसी समय उत्तरकाशी के शिखर पर , शिखरेश्वर महादेव के पादपद्मों में बैठ , प्रभु श्री रामकृष्ण देव के लीला चिंतन करते हुए कुछ दिन व्यतीत किया था।  इसी समय नागपुर मठ द्वारा प्रकाशित 'अमृतवाणी ' (भगवान श्री रामकृष्ण देव के उपदेशों का संग्रह) के कुछ अंशों को दोहा रूप दिया था। 

         श्री रामकृष्ण देव के जीवन एवं सन्देश रूपी सुगंध विभिन्न माध्यमों से होते हुए मनुष्य एवं समाज को प्रभावित कर रही है , यह दोहावली भी अगर उन अनन्त माध्यमों की कड़ी मात्र साबित हो तो यह प्रभु का आशीर्वाद माना जावे।  यह दोहावली रूपी माला प्रभु को ही समर्पित करते हुए उनके चरणों में बारम्बार प्रणाम निवेदित करता हूँ।  -- दोहा के पूर्व दी हुई प्रथम नम्बर क्रम संख्या दर्शाती है, और दूसरी नम्बर अमृतवाणी पर सम्बन्धित उपदेश नम्बर।

" ॐ श्री रामकृष्णापर्णमस्तु " 

 अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के हिन्दी विभाग के प्रकाशक को यह दोहा-पुस्तक  7 मार्च 2021 को हजारीबाग विवेकानन्द युवा महामण्डल के सचिव तथा " पुनर्जागरण " फिल्म के निर्माता श्री गजानन्द पाठक के द्वारा फिल्म के प्रीमियर शो पर दी गयी थी । इस फिल्म में भगवान श्री रामकृष्ण के मुख से दोहामय उपदेश सुनकर सभी हिन्दी भाषी दर्शक भाव विभोर हो गए थे।  नागपुर मठ द्वारा प्रकाशित 'अमृतवाणी ' के उपदेशों को, दोहा में सुनने के साथ -साथ उसका अर्थ भी हिन्दी में लिखा रहने से अधिक लाभ होगा, इसी उद्देश्य से उन दोहों के हिन्दी अर्थ को भी साथ -साथ दिया जा रहा है। उसी प्रकार इस श्रीरामकृष्ण दोहावली को और भी जन-उपयोगी बनाने तथा अपने हृदय को सुख पहुँचाने के लिए इसमें " श्रीरामकृष्ण वचनामृत " (सम्पूर्ण) ग्रन्थ को भी परिच्छेद संख्या तथा दिनांक के अनुसार इसके साथ जोड़ा जा रहा है। 

" स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा " :  श्री रामायण जी सम्पूर्ण करने के उपरांत, सन्त  तुलसीदास जी से किसी ने पूछा, " किन्तु महाराज,  इसमें यह कमी रह गई, आपको अमुक का  चरित्र- चित्रण भी करना चाहिए था , उसके बिना अमुक अमुक काण्ड अपूर्ण जैसा प्रतीत होता है। "  इसके उत्तर में उन्होंने कहा , " देखो भाई , मैंने यह रामचरित मानस ग्रन्थ आपकी या किसी अन्य विद्वान् की किंतु -परन्तु सुनने के लिए नहीं लिखा है, यह तो हमने " स्वान्तः सुखाय " अपने अंतर के सुख , अपने ह्र्दय के आनन्द के लिए लिखा है, तुम को इसमें से जो कुछ अच्छा लगे तो ,  इसमें से ग्रहण करो, अन्यथा मत करो। " 

विशेष द्रष्टव्य : अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के कार्यकताओं के लिए उपयोगी,  भगवान श्री रामकृष्ण देव के उपदेशों का संग्रह - 'अमृतवाणी '  पर आधारित तथा स्वामी राम'तत्वानन्द द्वारा रचित इस दोहावली में दोहा के पूर्व दी हुई प्रथम नम्बर क्रम संख्या दर्शाती है, और दूसरी नम्बर अमृतवाणी पर सम्बन्धित उपदेश नम्बर।

--सचिव झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल।

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 (श्री रामकृष्ण दोहावली-1)

* जीवन का उद्देश्य * 

{क्या तुम भविष्य के वैश्विक धर्म ~ "The would be Global Religion- Be and Make " का  नेता [प्रचारक (preacher),पैगंबर (prophet)] बनना चाहते हो ? तो जगतगुरु श्रीरामकृष्ण की सलाह है - 

2 हरि दरसन को तरस नहि , करत न एक प्रयास। 

 2 दुर्लभ नर तन वृथा भयो , भज हरि तज जग आस।। 

     इस दुर्लभ मनुष्य-जन्म को पाकर जो इसी जीवन में ईश्वरलाभ के लिए चेष्टा नहीं करता , उसका जन्म लेना ही व्यर्थ है। 

5 पहले प्रभु का दरस कर , फिर जग का सुधार। 

         7 जो अस होय शान्ति है , नहि तो क्लेश अपार।।  

7 -" तुम समाज-सुधार करना चाहते हो ?* ठीक है, यह तुम भगवत्प्राप्ति करने के बाद भी कर सकोगे। स्मरण रखो कि भगवान को प्राप्त करने के लिए प्राचीनकाल के ऋषियो ने संसार को  त्याग दिया था। भगवत्प्राप्ति ही सबसे आवश्यक वस्तु है। यदि तुम चाहो तो तुम्हें अन्य सभी वस्तुएं मिल जाएँगी। पहले भगवत्प्राप्ति कर लो # फिर लेक्चर देने या समाज-सुधार आदि की बात सोचना। 

6 विश्राम घर श्री नाथ है, नर तू राही एक।

 8 कर निश्चित डेरा प्रथम , फिर शहर घूम देख।।     

8 -मुसाफिर को नये शहर  में पहुँचकर , रात बिताने के लिये पहले किसी सुरक्षित डेरे का बन्दोबस्त कर लेना चाहिए। अपना सामान रखकर वह निश्चिन्त होकर शहर देखते हुए घूम सकता है।   परन्तु यदि रहने का बन्दोबस्त न हो तो रात के समय अँधेरे में विश्राम के लिए जगह खोजने में उसे बहुत तकलीफ उठानी पड़ती है। उसी प्रकार , इस संसाररूपी विदेश में आकर मनुष्य को पहले ईश्वररूपी (सच्चिदानन्द रूपी ) चिर विश्रामधाम प्राप्त कर लेना चाहिए , फिर वह निर्भय होकर अपने नित्य कर्तव्यों को करते हुए संसार में भ्रमण कर सकता है। किन्तु यदि ऐसा न हो तो जब मृत्यु की घोर अंधकार पूर्ण भयंकर रात्रि आएगी तब उसे अत्यन्त क्लेश और दुःख भोगना पड़ेगा।   

11 ज्ञान प्रदीप जलाइए , देह मन्दिर के द्वार। 

15 ब्रह्ममयी का दरस कर , ज्ञान नयन उघार।। 

15 - केवल धनसंचय करके कोई धनी नहीं होता। ठीक-ठीक धनी का लक्षण यह है कि उसके घर में हरएक कमरे में दीया जलता है। गरीब आदमी इतना तेल खर्च नहीं कर पाता , इसलिए वह इतने दीयों का प्रबन्ध नहीं कर सकता है। अपने देह -मन्दिर को कभी भी अँधेरे में नहीं रखना चाहिए , उसमें ज्ञान का दीप जला देना चाहिए। ' ज्ञान -प्रदीप जला निज घर में , ब्रह्ममयी का मुख देखो न ! ' हरेक व्यक्ति ज्ञानलाभ कर सकता है। हरएक जीवात्मा का परमात्मा के साथ संयोग है। हरएक घर में गैस की नली होती है, जिसके द्वारा गैस कम्पनी से गैस आ सकता है। सियालदह में उसका ऑफिस है। बस , योग्य अधिकारी को अर्जी भेजो , गैस भिजवाने का प्रबन्ध हो जायेगा, और तुम्हारे घर में गैसबत्ती (गैस का चूल्हा ?) जलने लग जाएगी। (सब हँसते हैं) (6 /1 मन्मथ मुखर्जी रो,सियालदह में महामण्डल का सिटी ऑफिस है। )

3 जैसी जिसकी भावना , उसको वैसा लाभ। 

     3 जो जस चाहत तस मिले , कल्पवृक्ष प्रभु आप।। 

3 - जैसी जिसकी भावना होगी वैसा ही उसे लाभ होगा। भगवान मानो कल्पवृक्ष हैं। उनसे जो जो माँगता है , उसे वही प्राप्त होता है। " गरीब का लड़का पढ़लिखकर तथा कड़ी मेहनत कर हाईकोर्ट का जज बन जाता है और मन ही मन सोचता है,' अब मैं मजे में हूँ। मैं उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर आ पहुँचा हूँ। अब मुझे आनन्द है। " भगवान भी तब कहते हैं , " तुम मजे में ही रहो। " किन्तु जब वह हाईकोर्ट का जज सेवानीवृत्त होकर पेंशन लेते हुए अपने विगत जीवन की ओर देखता है तो उसे लगता है कि उसने अपना सारा जीवन व्यर्थ ही गुजार दिया।  तब वह कहता है, 'हाय , इस जीवन में मैंने कौन सा उल्लेखनीय काम किया ?' भगवान भी तब कहते हैं ,' ठीक ही तो, तुमने किया ही क्या ! '

4 पहले प्रभु का दरस कर , पाछे जग प्रवेश। 

         6 जो अस होय तो शान्ति है , नहि तो अनन्त क्लेश।। 

 पहले ईश्वरलाभ करो , फिर धन कमाना ; इसके विपरीत पहले धनलाभ करने की कोशिश मत करो। यदि तुम भगवत्प्राप्ति कर लेने  के बाद संसार में (गृहस्थ -जीवन में) प्रवेश करो , तो तुम्हारे मन की शान्ति कभी नष्ट नहीं होगी।  

7 ब्रह्मानन्द के द्वार में , विषयन भोग अनेक।

 9 चखत हि नर भव में फंसे , तजत ब्रह्म सुख एक।। 

बड़े -बड़े गोदामों में चूहों को पकड़ने के लिए दरवाजे के पास चूहेदानी रखकर उसमें लाही -मुरमुरे रख दिए जाते हैं। उसकी सोंधी-सोंधी महक से आकृष्ट हो चूहे गोदाम में रखे हुए कीमती चावल का स्वाद चखने की बात भूल जाते हैं और लाही खाने के चेष्टा में चूहेदानी में फंसकर मारे जाते हैं।  जीव का भी ठीक यही हाल है। कोटि-कोटि विषयसुखों के  समष्टिस्वरूप ब्रह्मानन्द [existence-consciousness-bliss] के द्वारदेश पर अवस्थित होते हुए  भी जीव उस आनन्द को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न न कर संसार के क्षुद्र विषयसुखों में लुब्ध हो माया के फंदे में फंसकर मारा जाता है।        

                                8 जीव खिलौना खेलहि , ले धन जन यश मान। 

12 वृथा लगे सब जानिए , दरसत श्री भगवान।। 

छोटा बच्चा घर में अकेले ही बैठे बैठे खिलौने लेकर मनमाने खेल खेलता रहता है , उसके मन में कोई भय या चिन्ता नहीं होती।  किन्तु जैसे ही उसकी माँ वहाँ आती है वैसे ही वह सारे खिलौने छोड़कर 'माँ , माँ ' कहते हुए उसकी ओर दौड़ जाता है। तुमलोग भी इस समय धन-मान -यश के खिलौने लेकर संसार में निश्चिन्त होकर सुख से खेल रहे हो , कोई भय या चिन्ता नहीं है। पर यदि तुम एक बार भी उस आनन्दमयी माँ को देख पाओ तो फिर तुम्हें धन-मान -यश नहीं भायेंगे , तब तुम सब फेंककर उन्हीं की ओर दौड़ जाओगे। 

9 डूब डूब नर खोज ले , सागर रत्न की खान। 

13 धर धीरज तस साध ले , पाओगे भगवान।। 

रत्नाकर (समुद्र ) में अनेक रत्न हैं , पर उन्हें पाने के लिए तुम्हें कठिन परिश्रम करना होगा। यदि एक ही डुबकी में तुम्हें रत्न न मिले तो समुद्र को रत्न से रहित मत समझ बैठो। बार-बार डुबकी लगाओ , डुबकी लगाते लगाते अंत में तुम्हें रत्न जरूर मिलेगा। उसी प्रकार भगवत्प्राप्ति के पथ में यदि तुम्हारे शुरू शुरू के प्रयत्न असफल सिद्ध हों, यदि थोड़ी साधना कर तुम्हें ईश्वर के दर्शन न हों , तो हताश न होओ , धीरज के साथ साधना करते रहो। अंत में , ठीक समय पर , तुम्हें उनके दर्शन अवश्य होंगे। 

1 जो न दिखे तारा दिन में , जनि कह तारा नाहि। 

       1 तस तम वश हरि दरस बिन , मान न हरि जग नाहि।। 

     तुम रात को आकाश में कितने तारे देखते हो , परन्तु सूरज उगने के बाद उन्हें नहीं देख पाते।  किन्तु इस कारण क्या तुम यह कह सकोगे कि दिन में आकाश में तारे नहीं होते ! हे मानव अज्ञान-अवस्था में तुम्हें ईश्वर के दर्शन नहीं होते इसलिए ऐसा न कहो कि ईश्वर हैं ही नहीं।  

10 दिन दिन जस जस घटहि नर , विषय भोग का राग। 

14 तस तस बाढ़हि प्रभु चरण , प्रेम भगति अनुराग।।

चैतन्यस्वरूप , आनंदस्वरूप ईश्वर का ध्यान करो , तुम्हें आनंद प्राप्त होगा। यह आनंद वास्तव में नित्य ही विद्यमान है , किन्तु अज्ञान के कारण आच्छन्न होकर वह मानो लुप्त हो गया है।  इन्द्रिय-भोग्य विषयों के प्रति तुम्हारा आकर्षण जितना कम होगा , ईश्वर के प्रति तुम्हारा अनुराग उतना ही अधिक बढ़ेगा। 

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