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शुक्रवार, 4 जून 2021

श्री रामकृष्ण दोहावली (11) * संसारी जीव (सम्मोहित-Hypnotized मनुष्य) के लक्षण * मनुष्य दो प्रकार के होते हैं - 'मानुष' और 'मन-होश'।सम्भोगसुख और ब्रह्मानन्द

                         श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(11) 

" संसरासक्त लोगों का जीवन "  

* संसारी जीव (सम्मोहित-Hypnotized मनुष्य) के लक्षण *   

110 दुर्जन चलनी समान है , रखे असार तज सार। 

190 धरहि सज्जन सार सदा , सूप सम तजे असार।।

जिस प्रकार चलनी सारयुक्त वस्तुओं को छानकर बाहर निकाल देती है ; और असार वस्तुओं को अपने में रख लेती है, उसी प्रकार दुर्जन व्यक्ति (Hypnotized-व्यक्ति) अच्छी बातों को तो छोड़ देते हैं पर बुरी बातों को अपने में रख लेते हैं। सूप का स्वभाव ठीक इसके विपरीत होता है। सज्जनों का स्वभाव (De -Hypnotized, विसम्मोहित  व्यक्ति का स्वभाव) सूप ही की तरह सारग्राही होता है।  

इसी आधार पर मनुष्य दो प्रकार के होते हैं -  'मानुष' और 'मन-होश'। जो मनुष्य भगवान के लिए व्याकुल होते हैं वे 'मन-होश ' हैं ; और जो 'कामिनी -कांचन ' के पीछे पागल बने रहते हैं वे साधारण 'मानुष' हैं।  

111 जिनका नहि कछु भार है , जिनको नहि कछु बन्ध। 

191 म्याऊँ पोष प्रपंच करे , माया प्रबल प्रबन्ध।। 

संसार में कुछ लोग ऐसे होते हैं , जिनके जीवन में किसी प्रकार का बन्धन नहीं होता , किन्तु ऐसा होते हुए भी वे स्वयं ही किसी न किसी वस्तु से नाता जोड़कर स्वयं को आसक्ति के बन्धन में बाँध लेते हैं। वे मुक्त होना नहीं चाहते। अगर किसी व्यक्ति के स्वयं का कोई परिवार नहीं है , और न उस पर सगे-सम्बन्धियों की देखरेख का भार ही है , तो वह कोई कुत्ता , बिल्ली , बन्दर या तोता पाल लेता है , और किसी तरह अपनी संसार तृष्णा को तृप्त करना चाहता है। मनुष्य पर माया का ऐसा ही जबरदस्त प्रभाव है।   

112 जस बालक को भोग सुख, समझा सके न कोय। 

193 तस विषयी को ब्रह्म सुख , बिरथा श्रम बस होय।।

जिस प्रकार छोटे बालक या बालिका को सम्भोगसुख क्या है , यह नहीं समझाया जा सकता, उसी प्रकार विषयासक्त संसारी जीव को ब्रह्मानन्द नहीं समझाया जा सकता।  

113 संसारी जग में रहे , झेले दुःख अपार। 

194 तदपि नहि जप तप भजन , अति प्रबल संस्कार।।

संसारी जीव संसार में सदा असह्य दुःख-क्लेश भोगता है किन्तु किन्तु फिर भी वह कामिनी-कांचन का चस्का छोड़कर भगवान में मन नहीं लगा पाता।  

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श्री रामकृष्ण दोहावली (10) ~ नेतृत्व की उत्पत्ति और अवधारणा ~ 'गुरुर्गरीयान्' का तात्पर्य : "सच्चिदानन्द ही सब के गुरु हैं" हे प्रचारक (Leader) , क्या तुम्हें बिल्ला (badge of Leadership) मिला है ?

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(10)

*नेतृत्व का उद्गम और नेतृत्व की अवधारणा *

 [The Origin and Concept of Leadership] 

98 जो चाहत प्रचार करन , कर तू साक्षात्कार। 

168 जब देवहिं चपरास हरि , होवहि खूब प्रचार।।

99 कर साधन पा ज्ञान अरु , पा हरि का चपरास। 

168 तब धरहि उपदेश जग , प्रचार अनायास।।

हे प्रचारक (Leader) , क्या तुम्हें बिल्ला (badge of Leadership) मिला है ? राजा का मोहर मारा हुआ बिल्ला जिसको मिलता है , भले ही वह एक सामान्य प्यादा हो - उसका कहना लोग भय और श्रद्धा के साथ सुनते हैं। वह व्यक्ति अपना बिल्ला दिखाकर बड़ा दंगा तक रोक सकता है। हे प्रचारक , तुम पहले भगवान का साक्षात्कार कर उनकी प्रेरणा और आदेश प्राप्त कर लो , बिल्ला पा लो। बिना बिल्ला (badge of 'C-IN-C') मिले यदि तुम सारा जीवन भी प्रचार करते रहो, तो उससे कुछ न होगा, तुम्हारा सारा श्रम व्यर्थ होगा।   

" लोकशिक्षा देना बड़ा कठिन है। यदि ईश्वर का साक्षात्कार हो और वे आदेश दें , तो यह संभव हो सकता है। नारद ,शुकदेव आदि को आदेश हुआ था , शंकराचार्य को आदेश हुआ था। आदेश न मिलने से तुम्हारी बात कौन सुनेगा ? 

     ... परन्तु आदेश मिला है यह केवल मन में सोच लेने से नहीं चलता। ईश्वर सचमुच ही दर्शन देते हैं और बातचीत करते हैं ! इसी अवस्था में आदेश प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार आदेशप्राप्त व्यक्ति की बातों में कितना जोर होता है ! पर्वत भी टल जाता है। सिर्फ लेक्चर से क्या होगा ? लोग कुछ दिन सुनेंगे , फिर भूल जायेंगे ; उसके अनुसार चलेंगे नहीं। 

    " उस ओर हालदरपुकुर नाम का एक तालाब है। कुछ लोग उसके किनारे रोज सवेरे दिशा-मैदान किया करते थे। जो लोग सबेरे स्नानादि के लिए आते वे यह देखकर उनके नाम से खूब चिल्लाते , खूब कोसते। पर दूसरे दिन फिर वही हाल। दिशा-मैदान करना बंद नहीं होता था। तब लोगों ने कम्पनी को यह शिकायत भेजी। कम्पनी वालों ने एक चपरासी को भेजा। जब उस चपरासी ने ढोल पीटकर एक कागज चिपका दिया - 'यहाँ शौच करना दण्डनीय अपराध है ' --तब सब बंद हो गया।)

   " लोकशिक्षा देना हो तो चपरास चाहिए। नहीं तो वह हास्यास्पद बात हो जाती है। खुद को तो मिली नहीं , दूसरों को देने चला। एक अँधा दूसरे अंधे को राह बताते हुए ले चला है। (हास्य) इससे हित होने के बजाय विपरीत ही होता है। ईश्वरलाभ होने पर अन्तर्दृष्टि प्राप्त होती है। उसी समय किसे कौन सा रोग है , यह समझ में आ जाता है , योग्य उपदेश भी दिया जा सकता है। 

" आदेश न मिलने पर 'मैं लोगों को शिक्षा दे रहा हूँ ' -इस प्रकार का अहंकार होता है। अहंकार होता है अज्ञान के कारण , अज्ञान से ऐसा लगता है कि मैं कर्ता हूँ। ईश्वर ही कर्ता हैं , ईश्वर ही सबकुछ कर रहे हैं, मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ - यह बोध जिसको हो गया , वह मनुष्य तो जीवन्मुक्त ही हो गया ! 'मैं कर्ता (गुरु /नेता) हूँ ' --इस बोध के कारण ही इतना दुःख , इतनी अशांति (groupism, गुटबंदी) पैदा होती है। 

गीता 11 /43 में 'गुरुर्गरीयान्'  का तात्पर्य : "सच्चिदानन्द ही सब के गुरु हैं"  अर्जुन श्रीकृष्ण के प्रति भावावेश के कारण अवरुद्ध कण्ठ से, अत्यादर के साथ कहता है कि - " पितासि लोकस्य चराचरस्य , त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्। "  कि मनुष्यमात्र को व्यवहार और परमार्थ में जहाँ-कहीं भी गुरुजनों से शिक्षा मिलती है, उन शिक्षा देने वाले गुरुओं के भी महान् गुरु आप ही हैं। अर्थात्  शिक्षा, ज्ञान और नेतृत्व का उद्गम-स्थान मात्र आप ही हैं।  

[जब आपके समान भी कोई दूसरा नहीं है , तब आपसे भी अधिक वजनदार (weightier- weighty) गुरु कौन है ?  श्रीरामकृष्ण वचनामृत प्रसंग : गुरुगिरि और ब्राह्मसमाज। केशवचन्द्र सेन के साथ : 27 अक्टूबर 1882] 

106 फूल खिलहि पराग हित , आवे मधुप हजार। 

181 तस ज्ञानी के ज्ञान को , बिन न्योते संसार।।

फूल के पूरी तरह खिल जाने पर उसकी सुगन्ध से मधुमक्खियाँ अपने आप खींची चली आती हैं। कहीं मिठाई रखी हो तो वहाँ चीटियाँ आप ही चली आती हैं।  इसके लिए उन्हें आमंत्रण नहीं देना पड़ता। इसी प्रकार जब साधक पूर्ण , सिद्ध  हो जाता है , तो उसके चरित्र की मधुर सुगन्ध चारों ओर फ़ैल जाती है और सत्यप्राप्ति की स्पृहा रखनेवाले व्यक्ति अपने आप उसकी ओर आकर्षित होते हैं। उसे उपदेश सुनाने के लिए श्रोता की तलाश नहीं करनी पड़ती। 

{ जो जिज्ञासु युवा परमसत्य (ईश्वर) को प्राप्त करने की स्पृहा रखते हैं, वे अपने आप "स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त 'Be and Make " शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा -  में प्रशिक्षित और महामण्डल के (C-IN-C होने का) चपरास प्राप्त नेता (नवनीदा)  की ओर आकर्षित होते हैं ! इसीलिए महामण्डल द्वारा आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में प्रशिक्षणार्थियों की तलाश नहीं करनी पड़ती। दोहा नंबर 108 -स्वामीजी भावधारा से मेल नहीं खाती। } 

107 बिन आदेश प्रचार में , प्रेरक शक्ति न होय। 

182 सुन श्रोता पछतावहि , आप वृथा श्रम खोय।।

कहीं मिठाई के कण भी पड़े हों तो चीटियाँ वहाँ अपने आप आ जुटती हैं। तुम स्वयं मिश्री बनने का प्रयत्न करो, अर्थात भगवद-बोध का माधुर्य प्राप्त करने की चेष्टा करो , फिर तुम्हारे निकट भक्तगण चीटियों की तरह आप ही चले आएंगे। 

अगर तुम ईश्वरीय आदेश बिना पाये प्रचार करने लगो तो तुम्हारे प्रचार में प्रेरणा शक्ति नहीं होगी , उसे कोई नहीं सुनेगा। भक्ति , ज्ञान या अन्य किसी भी साधन के द्वारा पहले ईश्वरलाभ कर लेना चाहिये।  फिर यदि ईश्वर का आदेश मिले तो चाहे जितना प्रचार किया जा सकता है। इससे ईश्वरीय शक्ति और सामर्थ्य प्राप्त होती है और तभी ठीक -ठीक प्रचार कार्य हो सकता है। 

                    109 कमी पड़त नहीं ज्ञान की, देवहि जब भगवान। 

185 ठेलत ज्ञान की राशि है , धान की ढेर समान।। 

जब किसी बड़े व्यापारी की आढ़त में अनाज तौला जाता है , तो तौलनेवाला बिना रुके तौलता ही जाता है , और एक व्यक्ति उसके आगे अनाज की ढेरी सतत ढकेलता जाता है , ताकि कहीं कम न पड़े। परन्तु छोटी दुकान का अनाज देखते देखते ही देखते खत्म हो जाता है। इसी प्रकार , अपने भक्तों को भगवान स्वयं सतत स्फूर्ति देते रहते हैं , उसमें नये -नये भाव प्रेरित करते रहते हैं , इसलिए उसके भावों में कभी कमी नहीं पड़ती। किन्तु जो केवल किताबी ज्ञान के भरोसे रहते हैं , उनके भाव छोटी दुकान के रसद के समान देखते ही देखते खत्म हो जाते हैं। 

103 जिसने हरि को देख लिया , किया हरि से बात। 

177 उपदेशक ठीक ठीक वही , कहहि सटिक  सब बात।।

दुनिया में ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने बर्फ के बारे में सिर्फ सुना है , बर्फ को आँखों से देखा नहीं है ; इसी प्रकार ऐसे अनेक धर्मप्रचारक हैं जिन्होंने ईशवरीय -तत्व के बारे शास्त्र में पढ़ा भर है , अपने जीवन में अनुभव नहीं किया। फिर ऐसे भी कई लोग हैं , जिन्होंने बर्फ देखी तो है पर चखी नहीं ; इसी प्रकार ऐसे अनेक प्रचारक हैं जिन्हें ईश्वर की महिमा का दूर से थोड़ा सा आभास तो मिला है , परन्तु उनके यथार्थ स्वरुप का बोध नहीं हुआ है। जिसने बर्फ खाई हो वही बर्फ के गुणधर्म ठीक-ठीक बता सकता है ! इसी तरह जिसने शान्त , दास्य , सख्य, मधुर आदि विभिन्न सम्बन्धों के द्वारा ईश्वर के विभिन्न भावों को प्राप्त किया है , जो उनमें विलीन होकर एक हो गया है, वही उनके गुणों का यथार्थ रूप से वर्णन कर सकता है।

 * यथार्थ नेता (Leader या आचार्य) कौन है * 

102 उपदेशक तेहि जानिए , जिन्हको हुआ ज्ञान। 

176 जिन्हको हरि दरसन हुआ , दूर सकल अज्ञान।।

 ठीक-ठीक आचार्य वही है जिसे सम्यक ज्ञान का आलोक ~ (गुरु एक मात्र सच्चिदानन्द हैं!) मिला है।    

104 भरी गगरिया चुप रहे , खाली करे आवाज। 

179 अज्ञानी तस वाद करे , ज्ञानी रहे निर्वाक।।

घड़ा अगर पानी से भरा हो तो आवाज नहीं करता। ब्रह्मज्ञान हो जाने पर मनुष्य चुप हो जाता है , ज्यादा नहीं बोलता। यदि कहो कि नारदादि का तो ऐसा नहीं था ;  तो कहा जा सकता है कि हाँ , नारद , शुकदेव आदि ने समाधि के पश्चात जीव के प्रति प्रेम और करुणा से प्रेरित हो उस भूमि से कुछ सीढियाँ नीचे उतर आकर लोकशिक्षा दी थी।   

105 एक साधत है मौन सदा , पावत ब्रह्मानन्द। 

180 दूजा लुटाये और को अमृतमय आनंद।।

सिद्ध पुरुष दो श्रेणियों के होते हैं। एक प्रकार के सिद्ध ज्ञानलाभ करने के बाद चुप हो जाते हैं और दूसरे की चिंता न कर स्वयं ही आनन्द का उपभोग करते हैं , और दूसरे ऐसे होते हैं जिन्हें ज्ञानप्राप्ति का आनंद अकेले ही लूटने में मजा नहीं आता , वे सबको जोर से पुकारते हुए कहते हैं , " आओ , आओ , मेरे साथ तुम भी आनन्द लूटो ! " 

100 भगवद पद हिय प्रेम नहीं , नहीं विवेक विराग। 

169 पोथी पढ़ भाषण करे , पावे जग उपहास।।

कोई भी व्यक्ति भगवत्प्रेम की गहराई में डूबना नहीं चाहता -कोई इतना धीरज नहीं रखता। विवेक-वैराग्य की साधना की किसी को परवाह तक नहीं है। दो -चार किताबें पढ़ते ही सभी भाषण देने और प्रचार करने में भिड़ जाते हैं। कितना आश्चर्य  है ! लोकशिक्षा देना कितना कठिन काम है ! जिसने ईश्वर का साक्षात्कार कर उनसे आदेश पाया है , वही लोकशिक्षा दे सकता है।  

101 जस मन्दिर में देव नहीं , शंख फूके हजार। 

173 तस होय विवेक-विराग नहीं , उपदेशहि संसार।।  

पहले हृदयमन्दिर में भगवान को प्रतिष्ठित कर लो, उनके दर्शन कर लो ; बाद में इच्छा हो तो लेक्चर देना। संसार (कामिनी -कांचन) में आसक्ति के रहते और विवेक-वैराग्य के न रहते सिर्फ 'ब्रह्म ब्रह्म ' कहने से क्या होने वाला है ? मंदिर में देवता तो हैं नहीं , व्यर्थ शंख फूँकने से क्या होगा ?

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श्री रामकृष्ण दोहावली (9) " विद्या का यथार्थ उद्देश्य "~ “सत्यं वद | धर्मं चर |” * सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो * ग्रंथन्ह मार्ग ही कहहि बस , पढ़ पढ़ मनवा जान। / एक बार मार्ग --उपाय जान लेने पर फिर शास्त्र -ग्रंथों की क्या जरूरत ? त्याग गीता का सार है , कह ठाकुर निरमोही/ महाभारत में धर्म को अर्थ और काम का स्रोत माना गया है/

                        श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(9 )

 " विद्या का यथार्थ उद्देश्य " 

97 गीता गीता कहत कहत , त्यागी त्यागी होहि। 

166 त्याग गीता का सार है , कह ठाकुर निरमोही।।

'गीता शब्द का लगातार उच्चारण करने से 'गीतागी तागी तागी ..... ' अर्थात 'त्यागी त्यागी ' निकलने लगता है। अर्थात गीता यही कहती है कि 'हे जीव , सर्वस्व का त्याग कर ईश्वर के पादपद्मों में चित्त लगा।  '      

      लेकिन गीता में त्याग का मतलब हमारे रोजमर्रा के जीवन के कर्तव्यों को छोड़ना और एक मठ का संन्यासी जीवन व्यतीत करने के लिए एक वैरागी बनना नहीं है। न ही  इसका मतलब दुनिया और इसके मामलों के प्रति उदासीनता (वैराग्य) भी नहीं है।    

     गीता में त्याग कृत्य के त्याग करने को संदर्भित नहीं करती है अपितु यह कृत्य में अभिमान के त्याग का संकेत देती है। इसका मतलब है अपना कर्तव्य निभाना लेकिन एक वैरागी मन के साथ सभी कृत्यों को केवल भगवान को समर्पित करते हुए सांसारिक लाभ के बारे में सोचे बिना। यह समर्पण त्याग का सबसे महत्वपूर्ण घटक है। कोई भी व्यक्ति मानवता की सेवा करने में तभी सक्षम होता है जब वह अपने कृत्यों को कुशलता के साथ, दक्षता से और परिणाम की चिंता किए बिना करता है।

       Dos and Don'ts *: कृत्यों का त्याग नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि "इस बात का विचार करने में कई कठिनाइयां पैदा होती हैं कि क्या किया जाना चाहिए *, और क्या नहीं किया जाना चाहिए "? [What should be done*, and what should not be done"?] क्योंकि कृत्यों को क्रियान्वित करने में समस्याएं आती हैं। एक बार हमको पता चल जाए कि लोकसमाग्रह या जन कल्याण के लिए क्या अच्छा है, हमें फिर पूरी ईमानदारी के साथ और सफलता या विफलता की चिंता किए बिना खुद को संलग्न करना होगा, कथित कृत्य को करने में पूरे विश्वास के साथ।  

96 आम बगीचे आये हो , खा लो जी भर आम। 

164 कितने पत्ते पेड़ में , गिनने का क्या काम।।

दो मित्र किसी अमराई में घूमने गए। उनमें से एक , जिसकी सांसारिक बुद्धि प्रबल थी , अमराई में पहुँचते ही वहाँ कितने आम के पेड़ हैं , किस पेड़ पर कितने आम लगे हैं , समूची अमराई की कीमत कितनी होनी चाहिए , आदि नाना बातों का हिसाब करने लगा।  दूसरे ने जाकर अमराई के मालिक के साथ जाकर मित्रता कर ली और एक पेड़ के नीचे बैठकर बड़े मजे से आम तोड़ तोड़कर खाने लगा। 

अब बताओ , इन दोनों में बुद्धिमान कौन है ? आम खाओ ! उससे पेट भरेगा। पेड़ -पत्तों को गिनने और हिसाब -किताब करने से क्या लाभ ? जो ज्ञानाभिमानी होते हैं वे निरर्थक तर्क-युक्ति द्वारा सृष्टि की कारणमीमांसा आदि में ही व्यस्त रहते हैं। परन्तु यथार्थ बुद्धिमान भक्तजन सृष्टिकर्ता परमेश्वर की कृपा प्राप्त कर संसार में परमानन्द का उपभोग करते हैं।

95 ग्रंथन्ह मार्ग ही कहहि बस , पढ़ पढ़ मनवा जान। 

159 कर ले साधन प्रेम सहित , पा ले ईश्वर ज्ञान।।  

शास्त्र-ग्रन्थादि ईश्वर के निकट पहुँचने का मार्ग भर बताते हैं।  एक बार मार्ग --उपाय जान लेने पर फिर शास्त्र -ग्रंथों की क्या जरूरत ? तब तो ईश्वरलाभ के लिए साधना स्वयं करनी चाहिए। 

'आपकी पोथी में क्या है ? ' --किसी ने एक साधु से पूछा। साधु ने उसे खोलकर दिखाया। हरएक पन्ने में 'ॐ रामः " लिखा था , और कुछ नहीं। 

       किसी व्यक्ति को गाँव से चिट्ठी मिली। उसमें रिश्तेदारों के यहाँ कुछ चीजें सौगात के रूप में भेजने की बात लिखी थी।  चीजें मँगवाते समय उसने एक बार फिर उस चिट्ठी को देखना चाहा ताकि उसमें लिखा समान ठीक ठीक मंगवाया जा सके ; परन्तु वह चिट्ठी दिखाई नहीं दी। तब उसने बहुत व्यग्र होकर चिट्ठी को खोजना शुरू किया।  बहुत से लोग द्वारा मिलकर काफी देर तक खोजने के बाद अंत में वह चिट्ठी मिल गयी।  तब उस व्यक्ति को बड़ा आनंद हुआ और उसने बड़ी उत्सुकता से हाथ में लेकर चिट्ठी पढ़ना शुरू किया। उसमें लिखा था , पांच सेर मिठाई , 100 संतरा , 8 धोतियाँ , और अमुक अमुक समान भेजना है।  यह जान लेने के बाद फिर चिट्ठी की जरूरत नहीं रही। चिट्ठी छोड़कर वह आदमी उन चीजों का प्रबंध करने चल दिया। 

    चिट्ठी की जरूरत कब तक है ? जब तक उसमें लिखी वस्तुओं के विषय में जान न लिया जाये।  एक बार वह जान लेने के बाद अगला काम है , वह सब प्राप्त करने की चेष्टा करना। 

       इसी तरह , शास्त्रों में केवल ईश्वर के पास पहुँचने के मार्ग का निर्देश भर दिया हुआ है, उनकी प्राप्ति के उपाय भर बताये गए हैं। वह सब जान लेने के बाद अगला काम* है , लक्ष्य-प्राप्ति के लिए निर्देशानुसार अभ्यास शुरू कर देना। तभी वस्तु लाभ होगा।  

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 “सत्यं वद | धर्मं चर |” 

* सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो *

राजा ययाति बुढ़े हो गये थे , पर संसार के पदार्थों से उनका मन तृप्त नहीँ हुआ था । उपभोग की इच्छा और बलवती होती गयी । एक दिन अपने आज्ञाकारी पुत्र (पुरु) से कहा -बेटा ! तुम अपनी तरुणाई मुझे दे दो और मेरा बुढ़ाया स्वयं ले लो । मुझे और अभी ... । पिता की बात सुनते ही पुत्र ने पिता की इच्छा को पूरा किया । देखते ही देखते महाराज तरुण हो गये और राजकुमार बुढ़ा हो गया । इस पर तुलसीदास ने " वशिष्ठ-भरत संवाद, श्री रामजी को लाने के लिए चित्रकूट जाने की तैयारी"  (अयोध्याकांड~ 4) के प्रसंग में बड़ा अच्छा लिखा है -

तनय जजातिहि जौबनु दयऊ। 

पितु अग्याँ अघ अयस न भयऊ ॥

भावार्थ:- राजा ययाति के पुत्र ने पिता को अपनी जवानी दे दी। पुत्र असमय ही वार्द्धक्य ( बुढ़ापे ) का बोझा ढोता रहा और पिता तरुणाई का स्वाद लेता रहा । फिर भी पिता की आज्ञा पालन करने से उन्हें पाप और अपयश नहीं हुआ॥4॥

 लेकिन एक दिन महाराज ययाति ने अपने पुत्र को बुलाया और उसका यौवन लौटाते हुए बोला -वत्स ! मैँने तो सोचा था कि तुम्हारी तरुणाई लेकर मैँ वासनाओँ और वैषयिक इच्छाएँ पूरी कर लुँगा , पर मैँ पाता हुँ कि दिन-व-दिन प्रतिपल प्रतिक्षण मेरी इच्छाएँ और बलवती होती जा रही हैँ ।

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।

हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥ 

( भागवत ९-१९-१४/ मनुस्मृति (२/९४ )

भावार्थ -  भोग करने  से  कभी  भी कामवासना शान्त नहीं  होती है, परन्तु जिस प्रकार हवनकुण्ड में जलती हुई अग्नि में घी आदि की आहुति देने से अग्नि और भी प्रज्ज्वलित हो जाती है वैसे ही कामवासना भी और अधिक भड़क उठती है। अत: तुम अपनी जवानी वापस ले लो ।

धर्म शब्द को परिभाषा में बांधना कठिन ही नहीं बल्कि दुष्कर है। एक लाख में एक व्यक्ति भी यदि धर्म को परिभाषित कर दे बहुत समझा जायेगा। भारतीय संस्कृति का मूल धर्म ही है। बल्कि कहना चाहिए कि भारतीय संस्कृति का प्राण धर्म है। दूसरे देशों की संस्कृति में जहां भौतिक तत्व की प्रधानता है, वहीं भारतीय संस्कृति में धर्म की प्रधानता है। इसलिए भारतीय संस्कृति एक आध्यात्मिक संस्कृति है। महाभारत में धर्म को अर्थ और काम का स्रोत माना गया है, महर्षि वेदव्यास महाभारत के स्वर्गारोहण पर्व में कहते हैं- 

ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येश न च कश्चिन्छृणोति मे ।

धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते ।।

 मैं दोनों हाथ ऊपर उठाकर पुकार-पुकार कर कह रहा हूँ, पर मेरी बात कोई नहीं सुनता । धर्म से 'मोक्ष' तो सिद्ध होता ही है 'अर्थ और काम ' भी सिद्ध होते हैं तो फिर उस धर्म का किस लिए पालन नहीं किया जाता? 

    हिन्दू जीवन दर्शन में अर्थ को दूसरा पुरुषार्थ कहा गया है। भारत में कभी भी अर्थ को उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा गया। बल्कि इसे धर्म का साधन कहा गया है। कर्तव्य -निर्वहण में अर्थ की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। संस्कृत में एक श्लोक है- 

विद्या ददाति विनयं, विनयात् याति पात्रताम्।

पात्रत्वात् धनमाप्नोति, धनाद् धर्मं ततः सुखम्।।

विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता आती है, पात्रता से धन आता है, धन से धर्म होता है, और धर्म से सुख प्राप्त होता है। धनात् धर्मं अर्थात् धन से धर्म की सिद्धि होती है। मतलब अर्जित धन से उचित अंश में धर्म ( परहित, यज्ञ, ग़रीबों की सेवा, अपाहिजों की सेवा आदि) करने से ही सुख की प्राप्ति होती है , मात्र धन अर्जन व उसे अपने व्यसन में खर्च करने से सुख की प्राप्ति नहीं होगी, क्षणिक मज़ा ज़रूर मिलेगा फिर नीरस !!

मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताएं रोटी, कपड़ा और मकान अर्थ से ही पूरी होती हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और सुविधा भी अर्थ से ही पूरी होती हैं। इसी लिए भारतीय धर्मशास्त्रों में मनुष्य की दूसरी अवस्था (गृहस्थ आश्रम) में धन कमाना मनुष्य का लक्ष्य कहा गया है। एक श्लोक में कहा गया है कि -

प्रथमेनार्जिता विद्या,

द्वितीयेनार्जितं धनं ।

तृतीयेनार्जितः कीर्तिः,

चतुर्थे किं करिष्यति ॥

जिस मनुष्य ने अपनी पहली अवस्था (ब्रह्मचर्य आश्रम) में विद्या नहीं ग्रहण की, दूसरी अवस्था (गृहस्थ आश्रम) में धन नहीं अर्जित किया, तीसरी अवस्था (वानप्रस्थ आश्रम) में तप नहीं किया, तो वह चौथी अवस्था (संन्यास आश्रम) में क्या कर सकेगा ? ... अर्थात् उसका जन्म व्यर्थ है। 

अर्थात- मनुष्य के जीवन में चार आश्रम होते है ब्रम्हचर्य, गृहस्थ ,वानप्रस्थ और सन्यास। जिसने पहले तीन आश्रमों में निर्धारित कर्तव्य का पालन किया, उसे चौथे आश्रम / सन्यास में मोक्ष के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता है।

तीसरा पुरुषार्थ 'काम' है। इसका शाब्दिक अर्थ है-‘इच्छा '। पुरुषार्थ के रूप में काम से अभिप्राय: मनुष्य की उन सभी शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा कलात्मक इच्छाओं की पूर्ति से है जो उसके संपूर्ण विकास और जीवन के परम लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त करने में सहायक हैं। इच्छा सभी कार्यों की प्रेरक शक्ति होती है। इस प्रकार हर कार्य के पीछे काम (इच्छा) का होना एक अनिवार्य शर्त है इस काम को भारतीय मनीषी ने तीन श्रेणियों में रखा है-सात्विक, राजसिक और तामसिक। सात्विक काम फल की प्रत्याशा के बिना स्वधर्मानुसार (विवेकानुसार) संपन्न किया जाता है। इस तरह का काम धर्मसम्मत होता है। 

 धर्म शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की 'धृ' धातु से हुई है। जिसका अर्थ है-धारण करना। 'धारणात् धर्ममित्याहुरू धर्मो धारयति प्रजा: '--अर्थात् धारण करने वाले को धर्म कहते हैं, धर्म प्रजा को धारण करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म व्यक्ति ही नहीं धारण करता बल्कि स्वयं धर्म भी व्यक्ति को धारण किए हुए है। पंचतंत्र का श्लोक उद्धृत है-

आहार निद्रा भय मैथुनंच सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणम्।

धर्मों हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीना: पशुभिर्समाना॥

पंचतंत्र में धर्म की परिभाषा मनुष्य को अन्य जीवधारियों से अलग करने वाले तत्व के रूप में की गई है। खाना, सोना, भय और वंशविस्तार करना  मनुष्य और पशुओं में एक समान है। इन क्रियाओं के करने में मनुष्य और पशु दोनों एक ही स्तर पर हैं। लेकिन धर्म मनुष्य को अन्य जीवधारियों से अलग करता है। यदि मनुष्य से धर्म तत्व को अलग कर दिया जाए तो मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं है।

अपने गीता रहस्य में बाल गंगाधर तिलक Dos and Don'ts * को लेकर एक कदम और आगे जाते हैं,  उनके अनुसार कर्म का नियम एक ऊर्जावान सिद्धांत है क्योंकि जब तक कोई कर्म या कृत्य न किया जाए, तब तक अगोचर का गोचर बनना या गुणवत्ता रहित का गुणवत्ता युक्त बनना (इन्द्रियातीत सत्य का गोचर सत्य, ' जीव ही शिव है '-- यह बोध होना) संभव नहीं है। इसलिये समाज और राष्ट्र के एक योग्य नागरिक होने के नाते तुम सदैव करणीय कर्तव्यों को सम्यक् प्रकार से करो। यहाँ फिर एक बार सब कर्मों में अनासक्त रहने पर बल दिया गया है। आसक्ति अहंकार अहंकारमूलक इच्छा। अत: अनासक्ति का अर्थ है अहंकार और स्वार्थ का परित्याग। 

        गीता में मन और इंद्रियों पर नियंत्रण रखते हुए काम को तृप्त करने के लिए कहा गया है। यदि चित्त को वश में किये बिना कोई मनुष्य वस्तुओं का (कामिनी -कांचन का)  परित्याग कर दे तो उसे शान्ति के बदले क्षोभ और दुःख प्राप्त होगा। यही कारण है सैकड़ों  युवा साधु अपने वेश के प्रतिकूल आचरण करने लगते हैं। केवल मान बड़ाई अथवा यशः प्राप्ति के लिए छोड़ा हुआ संसार थोड़े ही समय में उनके हृदय पर ऐसा आकर्षण करता है कि वे बेचारे अपने आवेगों को सहने में असमर्थ हो जाते हैं। यदि बाह्य वस्तुओं की ममता नहीं घटी है तो उनका परित्याग करना ही मूर्खता है। मानसिक शाँति को नष्ट करने वाले बाह्य पदार्थ नहीं हैं। अपने हृदय में इन पदार्थों के प्रति जो इच्छा उत्पन्न होती है, वही सुख और शान्ति को चुराने वाली है। 

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।

असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।। गीता 3.19।।

 इसलिए,  तुम अनासक्त होकर सदैव कर्तव्य कर्म का सम्यक् आचरण करो;  क्योकि,  अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ परमात्मा को प्राप्त होता है।।

[अर्थात  गृहस्थाश्रम में भोगों में आसक्ति के निस्सारता को समझकर , वानप्रस्थ आश्रम में " निवृत्ति अस्तु महफला " में चित्त लगा।]

 " गीता का अर्थ क्या है ? उसे दस बार कहने से जो होता है वही। दस बार 'गीता ' 'गीता ' कहने से 'त्यागी ' 'त्यागी ' निकल आता है। गीता यही शिक्षा दे रही है कि हे जीव , तू सब कुछ छोड़कर ईश्वर-लाभ की चेष्टा कर। कोई संन्यासी हो या गृहस्थ मन से सारी आसक्ति दूर करनी चाहिए। 

" तुम जो काम कर रहे हो , ये सब अच्छे कर्म हैं। यदि 'मैं कर्ता हूँ ' इस भाव को छोड़कर निष्काम भाव से कर सको तो और भी अच्छा है। यह कर्म करते करते ईश्वर पर भक्ति और प्रीति होगी। इस प्रकार निष्काम कर्म करते जाओ तो ईश्वर -लाभ भी होगा। (माँ काली के सक्षात दर्शन भी होंगे !) मनुस्मृति कहती है -

न मांस भक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।

प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला॥5.56॥

मांस-भक्षण करने , मद्य ( शराब आदि ) पीने तथा मैथुन करने मेँ प्राय: जीवोँ की प्रवृति है और अज्ञानवश इसमेँ दोष नहीँ मानते है ; परंतु इन सब का परित्याग महाफल देनेवाला है । मनुस्मृति का यह श्लोक सार्वकालीन है।  यही कारण है कि भारतीय मनीषा ने यह स्वीकार किया है कि यौन संबंधी इच्छाओं की तृप्ति जीवन का एक सहज, स्वाभाविक या मूल प्रवृत्यात्मक अंग है। इसकी संतुष्टि के लिए विवाह का विधान है। इसको पढ़ने पर " धर्माऽविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ " - गीताचार्य का यह वचन स्मृतिपटल पर आता है।

श्रीकृष्ण कहते हैं - हे भरत श्रेष्ठ ! मैं बलवानों का कामना तथा आसक्ति से रहित बल हूँ और सब भूतों में धर्म के अविरुद्ध अर्थात् अनुकूल काम हूँ।।  स्पष्ट है कि यहाँ सामान्य बल की बात नहीं कही गयी है। इस कथन से मानों उन्हें सन्तोष नहीं होता है और इसलिये वे आगे और कहते हैं प्राणियों में धर्म के अनुकूल काम मैं हूँ। व्यवहार में जो कर्म शास्त्रों के अनुसार निषिद्ध कर्म नहीं हैं , अर्थात जो विचार भावना और कर्म मनुष्य दिव्य स्वरूप के विरुद्ध नहीं है,  वैसे समस्त कर्म धर्म के अन्तर्गत आते हैं।   

         कामना और आसक्ति इन दो प्रेरक वृत्तियों के बिना हम किसी बल की  कल्पना भी नहीं कर पाते हैं। यद्यपि सतही दृष्टि से काम और राग में हमें भेद नहीं दिखाई देता है तथापि शंकराचार्य अपने भाष्य में उसे स्पष्ट करते हुये कहते हैं।  अप्राप्त वस्तु की इच्छा काम है और प्राप्त वस्तु में आसक्ति राग कहलाती है। मन की इन्हीं दो वृत्तियों के कारण व्यक्ति या परिवार समाज या राष्ट्र अपनी सार्मथ्य को प्रकट करते हैं। धर्म के अविरुद्ध कामना से तात्पर्य साधक की उस इच्छा तथा क्षमता से है जिसके द्वारा वह अपनी दुर्बलताओं को समझकर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करता है और आत्मोन्नति की सीढ़ी पर ऊपर चढ़ता जाता है। भगवान् के कथन को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि मैं साधक नहीं वरन् उसमें स्थित आत्मज्ञान की प्रखर जिज्ञासा हूँ। 

     जिन विचारों एवं कर्मों से (विवाह संस्कार -गृहस्थ धर्म का पालन करने से अपने आत्मस्वरूप को पहचानने में सहायता मिलती है उन्हें धर्म कहा जाता है; और इसके विपरीत कर्म अधर्म कहलाते हैं।  क्योंकि वे उसकी आत्मविस्मृति को दृढ़ करते हैं। उनके वशीभूत होकर मनुष्य पतित होकर पशुवत् व्यवहार करने लगता है।      

    जिसके कारण वस्तु का अस्तित्व होता है वह उसका धर्म कहलाता है। धर्म की परिभाषा को ध्यान में रखकर इस श्लोक के अध्ययन से उसका अर्थ स्पष्ट हो जाता है। व्यवहार में जो विचार भावना और कर्म उसके दिव्य स्वरूप के विरुद्ध नहीं है वे धर्म के अन्तर्गत आते हैं। मनुष्य का अस्तित्व चैतन्य आत्मा के बिना नहीं हो सकता अतः  वह उसका वास्तविक धर्म या स्वरूप है।  

आदिशंङ्कराचार्यकृत प्रश्नोत्तरमाला : 

अपारसंसार समुद्रमध्ये सम्मज्जतो मे शरणं किमस्ति। 

गुरो कृपालो कृपया वदैतद्विश्वेशपादाम्बुजदीर्घनौका।। 

प्र: हे दयामय गुरुदेव ! कृपा करके यह बताइये कि अपार संसार रुपी समुद्र में मुझ डूबते हुए का आश्रय क्या है?

उ: विश्वपति परमात्मा (अवतार वरिष्ठ भगवान श्री रामकृष्ण देव)  के चरणकमलरूपी जहाज। 

* बद्धो हि को यो विषयानुरागी, का वा विमुक्तिर्विषये विरक्तिः।

प्रश्न : वास्तव में बंधा कौन है? -उ: जो विषयों में आसक्त है। प्र: विमुक्ति क्या है? 

उ: विषयों से वैराग्य।

* शेते सुखं कस्तु समाधिनिष्ठो जागर्ति को व सदसद्विवेकी।

के शत्रवः सन्ति निजेन्द्रियाणि तान्येव मित्राणि जितानि यानि।।

प्र: (वास्तव में) सुख से कौन सोता है ?

उ: जो परमत्मा के स्वरुप में स्थित है ।

 प्र: और कौन जागता है ?

 उ: सत, असत और मिथ्या के तत्व का जानने वाला ।

प्र: शत्रु कौन हैं ?

 उ: अपनी इन्द्रियां; परन्तु जो जीती हुई हों तो वही मित्र हैं ।

* को वा दरिद्रो हि विशालतृष्णः श्रीमांश्च को यस्य समस्ततोषः।

जीवन्मृतः कस्तु निरुद्यमो यः किं वामृतं स्यात्सुखदा निराशा।।

प्र: दरिद्र कौन है ?

 उ: जिसकी तृष्णा बहुत विशाल है ।

 प्र: धनवान कौन है ?

उ: जिसे सब तरह से संतोष है ।

 प्र: (वास्तव में) जीते जी मरा हुआ कौन है ?

 उ: जो पुरुषार्थहीन है ।

 प्र: अमृत क्या हो सकता है ?

 उ: सुख देने वाली निराशा (व्यर्थ की आशा से रहित होना) ।

* किं भूषणाद्भूषणमस्ति शीलं, तीर्थं परं किं स्वमानो विशुद्धं। 

किमत्र हेयं कनकं च कान्ता, श्राव्यं सदा किं गुरुवेदवाक्यं ।।

प्र: भूषणो में उत्तम भूषण क्या है ? 

उ: उत्तम चरित्र ।

 प्र: सबसे उत्तम तीर्थ क्या है ?

 उ: अपना मन जो विशेष रूप से शुद्ध किया हुआ हो ।

 प्र: इस संसार में त्यागने योग्य क्या है ?

 उ: काञ्चन और कामिनी । 

प्र: सदा (मन लगाकर) सुनने योग्य क्या है ? 

उ: वेद और गुरु का वचन ।

* शूरान्महाशूरतमोऽस्ति को वा,  मनोजबाणैर्व्यथितो न यस्तु।

प्राज्ञोऽथ धीरश्च समस्तु को वा , प्राप्तो न मोहं ललनाकटाक्षैः।।

प्र: वीरों में सबसे बड़ा वीर कौन है ? 

उ: जो कामबाणों से पीड़ित नहीं होता ।

 प्र: बुद्धिमान, समदर्शी और धीरपुरुष कौन है ?

 उ: जो स्त्रियों के कटाक्षों से मोह को प्राप्त (भेंड़त्व या Hypnotized) न हो ।

कस्यास्ति नाशे मनसो हि मोक्षः,  क्व सर्वथा नास्ति भयं विमुक्तौ।

शल्यं परं किं निजमूर्खतैव, के के ह्युपास्या गुरुदेव वृद्धाः।

प्र: किसके नाश में मोक्ष है ?

 उ: मन के ही ।

 प्र: किस्में सर्वथा भय नहीं है ? 

उ: मोक्ष में । 

प्र: सबसे अधिक चुभने वाली चीज़ कौन सी है ?

 उ: अपनी मूर्खता ही । 

प्र: उपासना के योग्य कौन कौन हैं ?

 उ: देवता, गुरु और वृद्ध ।

के दस्यवः सन्ति कुवासनाख्याः, कः शोभते यः सदसि प्रविद्यः।

मातेव का या सुखदा सुविद्या,  किमेधते दानवशात्सुविद्या।।

प्र: डाकू कौन हैं ? 

उ: बुरी वासनाएं ।

 प्र: सभा में शोभा कौन पाता है ?

 उ: जो अच्छा विद्वान है । 

प्र: माता के समान सुख देनेवाली कौन है ?

 उ: उत्तम विद्या ।

 प्र: देने से क्या बढ़ती है ? 

उ: अच्छी विद्या ।

शोः पशुः को न करोति धर्मं,  प्राधीतशास्त्रोऽपि न चात्मबोधः।

किन्तद्विषं भाति सुधोपमं स्त्री, के शत्रवो मित्रवदात्मजाद्याः।।

प्र: पशुओं से भी बढ़कर पशु कौन है ? 

उ: शास्त्र का खूब अध्ययन करके जो धर्म का पालन नहीं करता और जिसे आत्मज्ञान नहीं हुआ ।

 प्र: वह कौन सा विष है जो अमृत सा जान पड़ता है ? 

उ: नारी ।

 प्र: शत्रु कौन है जो मित्र सा लगता है ? 

उ: पुत्र,पुतोह आदि ।

अहर्निशं किं परिचिन्तनीयं, संसारमिथ्या त्वशिवात्मतत्त्वम् ।

किं कर्म यत्प्रीतिकरं मुरारेः,  क्वास्था न कार्या सततं भवाब्धौ ।।

प्र: रात-दिन विशेषरूप से क्या चिन्तन करना चाहिए ?

 उ: संसार का मिथ्यापन और कल्याणरूप परमात्मा का तत्त्व ।       

[प्रसंग विद्यासागर से मुलाकात :[5 अगस्त 1882 : श्रीरामकृष्ण वचनामृत] : एक बार महामण्डल के "स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा -'Be and Make " में  '3'-H विकास के 5 अभ्यास " का  प्रशिक्षण प्राप्त कर लेने के बाद अगला काम है - 'ब्रह्मविद मनुष्य ' बनने और बनाने की साधना -स्वयं करनी चाहिए। तभी तो वस्तु लाभ होगा  ]

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*Argument is useless *श्री रामकृष्ण दोहावली (8) *धर्म के सिद्धांतों पर तर्क-वितर्क करना व्यर्थ है *यही समझना चाहिए कि उसे धर्मामृत का स्वाद नहीं मिला, ज्ञानी व्यक्ति का जीवन चरित्रगत धर्म की अभिव्यक्ति है /*विद्याध्यन का बन्धन *

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(8)

*धर्म के सिद्धांतों पर तर्क-वितर्क करना व्यर्थ है *  

91 अज्ञानी बोले बहुत , जीवे धर्म अत्यल्प। 

152 ज्ञानी जन आचरण करे , बोलत है बहु अल्प।।

साधारण लोग 'थैलाभर ' धर्म की बातें करते रहते हैं पर उसका 'रत्तीभर ' भी चरित्र में नहीं उतारते। ज्ञानी व्यक्ति बोलते बहुत कम हैं , किन्तु उनका सम्पूर्ण जीवन चरित्रगत धर्म की  अभिव्यक्ति ही होती है।  

84 'मुँह' से सरल 'कर ' से कठिन , जस तबला की बोल। 

141 कहत सरल आचरत कठिन , तसहि धरम अनमोल।।

मृदंग या तबले के बोल मुँह से निकालना आसान है , किन्तु प्रत्यक्ष बजाना कठिन। इसी तरह धर्म की बात मुंह से कहना तो सरल है , किन्तु आचरण में लाना कठिन।  

93 तर्क वितर्क जो करे बहु , धर्म स्वाद से दूर।  

154 चखत स्वाद नहि शब्द करे , आनन्द रस भरपूर।।

मधुमक्खी जबतक 'गुन गुन ' करती हुई फूल के चारों ओर मँडराती रहती है , तब तक यह समझना चाहिए कि उसे फूल का मधु नहीं मिला है। अगर एक बार उसे मधु मिल जाये तो फिर उसका गुनगुनाना भी रुक जाता है। और वह शांत होकर फूल पर बैठकर मधुपान करने लगती है। इसी तरह , मनुष्य जब तक धर्म के सिद्धान्तों को लेकर तर्क-वितर्क करता रहता है , तब तक यही समझना चाहिए कि उसे धर्मामृत का स्वाद नहीं मिला है। एक बार यदि वह उस अमृत का स्वाद चख ले तो फिर वह शांत [विवेकानन्द !] हो जाता है।  

90 बिन दरसन बहु तर्क करे , अध् जल गगरी समान। 

151 दरस पाई आनन्द मगन , शान्त सदा सुजान।।

खाली गड़ुए में पानी भरते समय 'भक ', ' भक ' आवाज होती है।  पर गड़ुआ भर जाने पर कोई आवाज नहीं होती। इसी प्रकार , जिन्हें भगवान की प्राप्ति नहीं हुई है , वे ही भगवान के स्वरुप के सम्बन्ध में नाना प्रकार के निरर्थक तर्क-वितर्क किया करते हैं , किन्तु जिसने भगवान का दर्शनलाभ कर लिया है , वह शान्त और स्थिर होकर दिव्य ईश्वरीय आनन्द का उपभोग करता है। 

92 जस जस हरि की ओर बढ़े , घटहि तर्क बहु जान। 

153 मिलत प्रभु से सकल मिटे , प्रगटत हिय में ज्ञान।।

घर-भोज के प्रारम्भ में बहुत गप-गपाड़ा सुनाई देता है , पर जब सभी पत्तल पर बैठ जाते हैं , तब हो-हल्ला बहुत कुछ घट जाता है। फिर जब पूड़ी -सब्जी परोस दी जाती है , और लोग खाना शुरू कर देते हैं , उस समय शोर बारह आना कम हो जाता है। जब मिठाइयाँ परोसी जाने लगती हैं , तो आवाज और भी कम हो जाती है। और अन्त में जब 'चटनी ' की बारी आती है तब केवल 'सप्प सप्प ' की आवाज सुनाई देने लगती है। फिर भोजन के बाद निद्रा (compulsory rest)! तब सबकुछ बिलकुल शान्त हो जाता है। 

मनुष्य ईश्वर के जितने नजदीक आता है , तर्क-विचार और प्रश्न करने की प्रवृत्ति उतनी ही घट जाती है। जब ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है , उनके प्रत्यक्षः दर्शन हो जाते हैं , तब तर्क-विचार आदि का शोरगुल पूरी तरह शांत हो जाता है। यह मानो निद्रा की स्थिति है ; निद्रा अर्थात समाधि --ईश्वर के साथ युक्त होने की दिव्य आनंदमय अवस्था !    

94 कच्ची पूड़ी शब्द करे , पकत होत अति शान्त। 

157 तस अज्ञानी तर्क बहु , ज्ञानी सदा प्रशान्त।।

गरम घी में कच्ची पूड़ी छोड़ने पर 'छन -छन्न ' की आवाज होती है। पर पूड़ी जैसे जैसे पकती जाती है, वैसे वैसे आवाज कम होती जाती है , और जब वह पूरी तरह पक जाती है तब तो आवाज बिलकुल बन्द हो जाती है। इसी तरह , थोड़ा से ज्ञान मिलने पर मनुष्य खूब व्याख्यान देने और प्रचार करने लगता है , किन्तु पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाने पर सारा बाह्याडम्बर समाप्त हो जाता है।  वृथा तर्क मत करो। तर्क करके तुम किसी को उसकी भूल नहीं समझा सकते।  जब माँ जगदम्बा की कृपा हो जाती है, तभी मनुष्य अपनी गलतियों को समझ पाता है। 

 "  किताबी ज्ञान का खोखलापन "   

 82 गिद्ध उड़े आकाश में , ढूँढे सड़ी लाश। 

       137 तस शास्त्री मन वासना , होत न ज्ञान प्रकाश।।

एक दिन केशवचन्द्र सेन दक्षिणेश्वर आये और उन्होंने श्री रामकृष्णदेव से पूछा , " बहुत से पण्डित शास्त्रों का समूचा पुस्तकालय ही पढ़ डालते हैं , परन्तु फिर भी उनमें आध्यात्मिक जीवन सम्बन्धी इतना घना अज्ञान कैसे बना रहता है ? " इस पर श्री रामकृष्णदेव ने उत्तर दिया , " चील-गिद्ध बहुत ऊँचा उड़ते हैं ; पर उनकी नजर मरे जानवरों की सड़ी लाश पर गड़ी रहती है।  इसी प्रकार अनेक शास्त्रों का पाठ करने के बावजूद इन तथाकथित पण्डितों का मन सदा सांसारिक विषयों में , कामिनी -कांचन में आसक्त रहता है,इसीलिए उन्हें ज्ञानलाभ नहीं होता। " 

83 कंचन काम है प्रिय जेहि , है जग पर आसक्ति। 

139 शास्त्र पढ़न से लाभ नहीं , नहीं ज्ञान नहिं मुक्ति।।

कोरे पाण्डित्य से क्या लाभ ? पण्डितों को बहुत सारे शास्त्र , अनेकों श्लोक कंठस्थ हो सकते हैं , पर वह सब केवल रटने और दुहराने से क्या लाभ ? अपने जीवन में शास्त्रों में निहित सत्यों की प्रत्यक्ष उपलब्धि होनी चाहिए। जब तक संसार के प्रति आसक्ति है , कामिनी -कांचन पर प्रीति है , तब तक चाहे जितने शास्त्र पढ़ो , ज्ञानलाभ नहीं होगा , मुक्ति नहीं मिलेगी।   

85 परम् तत्व के ज्ञान बिन , वृथा शास्त्र का ज्ञान। 

143 पंजी निचोड़त जल न मिले , धर ले मनुवा ध्यान।।

क्या धार्मिक ग्रन्थ पढ़कर भगवद-भक्ति प्राप्त की जा सकती है ? पंचांग में लिखा होता है कि अमुक दिन इतना पानी बरसेगा ; परन्तु समूचे पंचांग को निचोड़ने से तुम्हें एक बून्द भी पानी नहीं मिलता। इसी प्रकार , पोथियों में धर्मसम्बन्धी अनेक बातें लिखी होती हैं , पर उन्हें केवल पढ़ने से धर्मलाभ नहीं होता , उसके लिए इन तत्वों को लेकर साधना करनी होती है। 

86 भांग भांग मनुवा रटे , नशा चढ़े नहि एक। 

146 हरि हरि रटत न हरि मिले , बिन साधना विवेक।।

'भाँग भाँग ' कहकर कितना भी चिल्लाओ , उससे नशा नहीं चढ़ने वाला। भाँग ले जाओ , उसे घोंटो , पियो , तभी उसका नशा चढ़ेगा।  सिर्फ 'भगवान भगवान ' कहकर चिल्लाने से क्या लाभ ? नियमित रूप से साधना करो [3H विकास के 5 अभ्यास करो ] , तभी तुम्हें सिद्धि मिलेगी।   

87 धन विद्या का गरब जिन्हें , जिन्हें अहम अभिमान। 

147 सपनेउ तिन्ह हरिदर्शन नहि , होवत नहि कछु ज्ञान।।

जिसे विद्या या धन का गर्व हो उसे ईश्वरलाभ नहीं हो सकता। ऐसे व्यक्ति से यदि तुम पूछो, " अमुक स्थान पर एक अच्छे साधु हैं , उनके दर्शन के लिए चलोगे ? " तो अवश्य ही वह बहाने बनाते हुए कहेगा, " मैं नहीं जा सकता। " वह सोचता है - 'मैं इतना बड़ा आदमी ! मैं उसके पास जाऊंगा ! ' अज्ञान के कारण ही यह अहंकार होता है।  

88 बिना विवेक विराग बिन , बिना सत्य अनुराग। 

149 ग्रन्थ पढ़े भव गांठ बढ़े , बढ़े अहम कुभाग।। 

ग्रन्थ सब समय ग्रन्थ का काम न कर ग्रन्थि (गाँठ ) का ही काम करते हैं। यदि ग्रंथों का अध्यन 'सत्य ' प्राप्ति की स्पृहा लेकर , विवेक-वैराग्य युक्त अन्तःकरण से न पढ़ा जाए  तो उनके पठन से पाण्डित्य अभिमान , औ अहंकार की गाँठ ही पक्की होती जाती है। 

89 गरम राख में पड़त जल , जसहि तुरत उड़ जाहि। 

150 तस दम्भी के ध्यान भजन , बिन फल सकल नशाहि।।

गरम राख की ढेरी पर पानी डालते ही सबका सब पानी उड़ जाता है। अभिमान-दाम्भिकता भी राख की ढेरी के समान है। दाम्भिक अन्तःकरण लेकर ध्यान -भजन , प्रार्थना आदि करने से कोई फल नहीं मिलता। 

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*'I' of the devotee*श्री रामकृष्ण दोहावली (7) " माया -अहंकार " / *अहंकार के दोष ~ 'जीव' 'ब्रह्म' के बीच में , पड़ा 'अहम' अज्ञान। /अहम् मेघ जब तक रहै , हृदय रूप आकाश।तब तक भगवन सूर्य का , होत न उदय प्रकाश।'मैं ' मरतहि बला टले , टले जगत जंजाल। /* अहंकार पर विजय पाना आसान नहीं है ~71 पीपल को जो काटिये , कल पुनि कोपल आय।

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(7) 

*'पक्का मैं ' और 'कच्चा मैं '*

73 'जीव' 'ब्रह्म' के बीच में , पड़ा 'अहम' अज्ञान। 

118 मिटा सको जो अहम हिय , मिटे भेद अज्ञान।।

जो 'मैं ' मनुष्य को संसारी बनाता है , कामिनी-कांचन में आबद्ध करता है , वह 'दुष्ट मैं ' है। जीव और ब्रह्म में भेद बस इसलिए है कि उनके बीच यह 'मैं ' खड़ा हुआ है। पानी पर अगर एक लाठी डाल दी जाये तो पानी दो भागों में बँटा हुआ -सा दीख पड़ता है।  'अहं ' या 'मैं ' पन ही वह लाठी है ; इसे उठा लो तो जल एक ही रह जायेगा। 

74 'मैं '-पन से है प्रीत तो , और बढ़ा लो मीत। 

120 जग सकल अपना कर लो , यही प्रीत की रीत।।

शंकराचार्य के एक शिष्य था। वह कई दिनों से सेवा कर रहा था पर आचार्य ने उसे अब तक एक भी उपदेश नहीं दिया था। एक दिन आचार्य अपने आसन पर बैठे हुए थे , ऐसे तो रहने दो उसे समय किसी के आने की आहट हुई।  आचार्य ने पूछा , 'कौन है ?'  शिष्य बोला -"मैं। " तब आचार्य बोले , " मैं ' यदि तुम्हें इतना ही प्रिय है तो उसे और बढ़ा ले  (अर्थात 'सारा जगत मैं ही हूँ ' -यह धारणा कर ले ) , नहीं तो फिर उसे पूरी तरह त्याग दे।

75 'मैं ' पन अगर न जाहिं तो , बन जा प्रभु का दास। 

121 दास 'मैं ' जे  हिय बसे , ते हिय हरि प्रकाश।।   

यदि देखो कि 'मैं ' नहीं दूर होता तो रहने दो उसे 'दास मैं ' बना हुआ। " हे ईश्वर ! तुम प्रभु हो मैं दास हूँ " इसी भाव में रहो। " मैं ईश्वर का दास हूँ , मैं माँ का भक्त हूँ " ऐसे मैं में दोष नहीं।  मिठाई खाने से अम्लरोग होता है , पर मिश्री इसका अपवाद है। 'दास मैं ' , 'भक्त का मैं ' या 'बालक का मैं ' ये सब मानो जलराशि पर खींची गयी रेखा के समान है। यह 'मैं ' अधिक देर नहीं ठहरता। 

'मैं ' पर विचार करते करते दिखाई देता है कि 'मैं ' केवल एक शब्द भर है। किन्तु फिर भी इसे दूर करना अत्यंत कठिन है। इस कारण यही कहना चाहिए कि " अरे दुष्ट 'मैं ' ! तू जब किसी हालत में नहीं जायेगा तो फिर ईश्वर का दास बनकर रह ! " मैं ईश्वर का दास हूँ" यह 'पक्का मैं ' है। 

76 ईश्वर सब कुछ कर रहे ,करता इक भगवान। 

125 जीवन्मुक्त तेहि जानिए , जिन्हके हिय अस ज्ञान।।

ईश्वर ही सब कुछ कर रहे हैं , वे यन्त्री हैं , मैं यन्त्र हूँ --यह विश्वास यदि किसी में आ जाए तब तो वह जीवन्मुक्त ही हो गया। " हे प्रभो , तुम्हारा कर्म तुम्हीं करते हो , पर लोग कहते हैं मैं करता हूँ। " 

77 जिन्हको हुआ समाधि है , जिन्हको ईश्वर ज्ञान। 

127 तिन्हके हिय नहिं तिल भर , 'मैं ' -मेरा अज्ञान।।

अपनी निम्न-प्रकृति के साथ बहुत संग्राम करने के पश्चात , आत्मज्ञान के लिए तीव्र साधना करने के बाद ही समाधि अवस्था प्राप्त होती है। समाधि होने पर 'मैं ', 'मेरा' कुछ नहीं रह जाता। किन्तु ऐसी समाधि बहुत मुश्किल है। 'मैं ' बड़ा बलवान होता है -किसी तरह  जाना नहीं चाहता। तभी तो हमें फिर-फिरकर संसार में जन्म लेना पड़ता है।  

*अहंकार आवरण है, जो हृदय में विराजमान भगवान को देखने नहीं देता *  

64 अहम् मेघ जब तक रहै , हृदय रूप आकाश। 

99 तब तक भगवन सूर्य का , होत न उदय प्रकाश।। 

सूर्य वैसे तो सारे संसार को प्रकाश और ताप देता है , पर यदि वह मेघ से आच्छन्न हो जाये तो ऐसा नहीं कर पाता। इसी भाँति जब तक हृदय अहंकार के आवरण से आच्छादित रहता है तब तक उसमें भगवान प्रकाशित नहीं हो पाते।     

65 गुरु कृपा ते जब नशे , अहम् बुद्धि अज्ञान। 

100 उदयमान तब होवहिं , पूर्ण ब्रह्म भगवान।। 

यह 'अहं ' मेघ की तरह है।  इसी के कारण हम ईश्वर को नहीं देख पाते। यदि श्रीगुरु की कृपा से अहं-बुद्धि दूर हो जाये तो फिर ईश्वर के पूर्ण दर्शन हो जाते हैं। जैसे , सिर्फ ढाई हाथ की दुरी पर ही साक्षात् पूर्ण ब्रह्म श्रीरामचन्द्र जी हैं , किन्तु बीच में सीता रूपिणी माया का आवरण होने के कारण लक्ष्मण-रूपी जीव को ईश्वर राम के दर्शन नहीं होते। 

66 'मैं ' मरतहि बला टले , टले जगत जंजाल। 

101 हरि कृपा बिन कटे नहिं , कर्तापन का जाल।।  

प्रश्न - महाराज , हम लोग इस तरह बद्ध क्यों हुए हैं ? हम ईश्वर को क्यों नहीं देख पाते ? 

श्री रामकृष्ण - जीव का अहंकार ही माया है। यही अहंकार सब आवरण का मूल है। 'मैं ' के मरने पर ही  सारा जंजाल दूर होगा। अगर किसी को ईश्वर [माँ काली ] की कृपा से ' मैं  कर्ता नहीं हूँ ' यह 'ज्ञान' हो जाये , तब तो वह जीवन्मुक्त ही हो गया। फिर उसे किसी बात का भय नहीं।  

      [ गुरूगीरी और गुमाश्तागीरी : अगर किसी को माँ की कृपा से , यह धारणा हो गयी कि, 'व्यष्टि अहं, माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं'- बोध का यंत्र (agency-गुमाश्तागीरी) है ', तो वह जीवनमुक्त (De -Hypnotized) ही हो गया। फिर उसे किसी बात का भय नहीं।]  

67 हरि निकट से निकट है , पर हम देख न पाहिं। 

102 अहम् आवरण बीच में , बिन हरि कृपा न जाहिं।। 

अगर मैं अपने को इस अँगोछे की ओट कर लूँ तो तुम मुझे नहीं देख सकते।  पर मैं तुम्हारे बिलकुल नजदीक ही हूँ। इसी भाँति , और सब चीजों की अपेक्षा ईश्वर ही तुम्हारे सबसे ज्यादा निकट हैं , किन्तु इस अहंरूपी आवरण के कारण तुम उनके दर्शन नहीं पाते। 

68 जीव हृदय अहम् बसे , जब तक अहम न जाहि। 

103 भक्ति मुक्ति नहिं ज्ञान कछु , पुनि पुनि जग मँह आहि।।

जब तक अहंकार रहता है , तब तक न ज्ञान होता है , न मुक्ति मिलती है ; इस संसार में बार- बार आना-जाना पड़ता है। 

69 ऊँच जमीं जल रहत नहि , रहत नीच भू माहिं। 

105 तस किरपा नहिं अहम हिय , नम्र हृदय समाहिं।  

बरसात का पानी ऊँची जमीन पर नहीं ठहर पाता , बहकर नीची जगह में ही जमता है। वैसे ही ईश्वर की कृपा भी नम्र व्यक्तियों के हृदय में ठहरती है , अहंकार -अभिमानपूर्ण हृदय में नहीं।  

* अहंकार पर विजय पाना आसान नहीं है * 

70 मांज मांज थक जाहि पर , लहसुन गंध न जाय। 

111 तस जतन कर लाख पर , 'मैं ' -पन नहि फुराय।।

जिस कटोरे में लहसुन पीस कर रखा जाता है उसकी गंध सौ बार मांजने पर भी नहीं जाती। 'मैं '- पन भी ऐसा ही पाजी है , चाहे जितनी कोशिश करो , वह जाते नहीं जाता।  

71 पीपल को जो काटिये , कल पुनि कोपल आय। 

113 तस विचार कर लाख पर , अहम बोध नहिं जाय।।

यह सच है कि एक-दो जनों को समाधि प्राप्त होकर उनका 'अहं ' चला जाता है ; परन्तु साधारणतया 'अहं ' जाता नहीं है। लाख विचार करो , पर 'अहं ' घूम -फिरकर फिर से हाजिर हो जाता है। पीपल की पेड़ को आज काट डालो , कल सुबह ही देखोगे कि फिर अंकुर निकल आया है।  

72 अज्ञानी जग में फिरे , 'मैं मैं ' करे पुकार। 

114 ज्ञानवान 'तुम तुम ' कहे , हरि तुम केवल सार।। 

जो अपना नाम-यश चाहते हैं , वे भ्रम में  हैं। वे यह भूल जाते हैं कि एकमात्र ईश्वर की ही इच्छा से सब कुछ हो रहा है , वही सबका नियामक है। ज्ञानवान व्यक्ति कहता है , 'प्रभो , तुम , तुम ' ; मूढ़ अज्ञानी (भेंड़त्व को प्राप्त सिंहशावक) ही 'मैं, मैं ' करता है। 

*सिद्ध पुरुष का अहंकार* 

78 होवत दरस अहम झड़े , रहे अल्प निशान। 

129 ताते होत अनिष्ट नहि , होत सदा कल्याण।।

क्या 'अहं ' कभी पूरी तरह से नहीं जायेगा ? नारियल की डाली (कमल की पंखुड़ियाँ ?) समय पर झड़ जाती हैं , लेकिन उनका निशान रह जाता है। इसी प्रकार जब मनुष्य ईश्वर का साक्षात्कार कर लेता है , तो उसका अहंकार पूरी तरह नष्ट हो जाता है , पर उसका थोड़ा दाग रह जाता है , किन्तु उस अहंकार से कोई अनिष्ट नहीं होता।  

79 जगहित जग के काज कछु , रखहि अहम कै ज्ञान। 

134 समाधिस्थ ज्ञानी पुरुष , जस आचार्य महान।।

समाधि के बाद भी कोई-कोई 'मैं ' को रख छोड़ते हैं - 'दास मैं ' या 'भक्त का मैं।' शंकराचार्य ने लोकशिक्षा के लिए 'विद्या का मैं ' रख छोड़ा था।  

80 जस सनक जस सनत्कुमार , जस नारद हनुमान। 

135 ब्रह्मदर्शी जगहित रखें , दास अहम का मान।।

हनुमान को ईश्वर के साकार और निराकार दोनों स्वरुप के दर्शन हुए थे , किन्तु इन दर्शनों के बाद उन्होंने 'दास मैं ' रख छोड़ा था।

 नारद , सनक , सनन्दन , सनातन और सनत्कुमार आदि ने भी इसी तरह ब्रह्मदर्शन के बाद भी 'दास मैं', 'भक्त मैं ' रख छोड़ा था। 

एक भक्त ---'क्या नारदादि केवल भक्त थे या ज्ञानी भी थे ? 

श्रीरामकृष्ण - नारदादि को ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ था , किन्तु फिर भी वे कलनादिनी निर्झरणी की तरह भगवन्महिमा का गुणगान करते हुए विचरण करते रहते थे। लोकशिक्षा और धर्म- रक्षा के लिए उन्होंने 'विद्या का मैं ' रख छोड़ा था , ब्रह्म में पूर्ण विलीन न होकर अपने अलग अस्तित्व का मानो थोड़ा चिन्ह रख छोड़ा था। 

81 देह धारण सत्संग अरु , करन जगत कल्याण। 

136 माँ जगदम्बा स्वयं रखी , मुझमें अहम का ज्ञान।। 

एक बार श्री रामकृष्ण देव ने अपने एक शिष्य से विनोद में पूछा , " क्यों, क्या तुम्हें मुझमें कोई अभिमान नजर आता है ? क्या मुझमें अभिमान है ? 

शिष्य ने कहा , " जी महाराज , थोड़ा सा है। पर आप में उतना अभिमान इन कारणों से रखा गया है -१) देहधारण के लिए ; २) भगवद-भक्ति के उपभोग के लिए ;३) भक्तों के साथ सत्संग करने के लिए ; और ४) लोगों को उपदेश देने के लिए। फिर यह भी तो है कि इस 'अहं ' को रखने के लिए आपने काफी प्रार्थना की है। वैसे देखा जाय तो आपके मन की स्वाभाविक प्रवृत्ति समाधि की ओर है। इसी से मैं कह रहा हूँ कि आपमें जो 'अहं ' या अभिमान बचा है वह आपकी प्रार्थना का ही फल है। " 

तब श्री रामकृष्णदेव बोले , " ठीक है, लेकिन इस 'मैं ' को बनाये रखनेवाला मैं नहीं , जगदम्बा है। प्रार्थना को स्वीकार करना जगदम्बा के ही हाथ में है। " 

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[(14.4. 1992) के बाद रोहणिया , बनारस , ऊँच -शरीर में लौट पाना माँ अन्नपूर्णा के ?]