(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(9 )
" विद्या का यथार्थ उद्देश्य "
97 गीता गीता कहत कहत , त्यागी त्यागी होहि।
166 त्याग गीता का सार है , कह ठाकुर निरमोही।।
'गीता शब्द का लगातार उच्चारण करने से 'गीतागी तागी तागी ..... ' अर्थात 'त्यागी त्यागी ' निकलने लगता है। अर्थात गीता यही कहती है कि 'हे जीव , सर्वस्व का त्याग कर ईश्वर के पादपद्मों में चित्त लगा। '
लेकिन गीता में त्याग का मतलब हमारे रोजमर्रा के जीवन के कर्तव्यों को छोड़ना और एक मठ का संन्यासी जीवन व्यतीत करने के लिए एक वैरागी बनना नहीं है। न ही इसका मतलब दुनिया और इसके मामलों के प्रति उदासीनता (वैराग्य) भी नहीं है।
गीता में त्याग कृत्य के त्याग करने को संदर्भित नहीं करती है अपितु यह कृत्य में अभिमान के त्याग का संकेत देती है। इसका मतलब है अपना कर्तव्य निभाना लेकिन एक वैरागी मन के साथ सभी कृत्यों को केवल भगवान को समर्पित करते हुए सांसारिक लाभ के बारे में सोचे बिना। यह समर्पण त्याग का सबसे महत्वपूर्ण घटक है। कोई भी व्यक्ति मानवता की सेवा करने में तभी सक्षम होता है जब वह अपने कृत्यों को कुशलता के साथ, दक्षता से और परिणाम की चिंता किए बिना करता है।
Dos and Don'ts *: कृत्यों का त्याग नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि "इस बात का विचार करने में कई कठिनाइयां पैदा होती हैं कि क्या किया जाना चाहिए *, और क्या नहीं किया जाना चाहिए "? [What should be done*, and what should not be done"?] क्योंकि कृत्यों को क्रियान्वित करने में समस्याएं आती हैं। एक बार हमको पता चल जाए कि लोकसमाग्रह या जन कल्याण के लिए क्या अच्छा है, हमें फिर पूरी ईमानदारी के साथ और सफलता या विफलता की चिंता किए बिना खुद को संलग्न करना होगा, कथित कृत्य को करने में पूरे विश्वास के साथ।
96 आम बगीचे आये हो , खा लो जी भर आम।
164 कितने पत्ते पेड़ में , गिनने का क्या काम।।
दो मित्र किसी अमराई में घूमने गए। उनमें से एक , जिसकी सांसारिक बुद्धि प्रबल थी , अमराई में पहुँचते ही वहाँ कितने आम के पेड़ हैं , किस पेड़ पर कितने आम लगे हैं , समूची अमराई की कीमत कितनी होनी चाहिए , आदि नाना बातों का हिसाब करने लगा। दूसरे ने जाकर अमराई के मालिक के साथ जाकर मित्रता कर ली और एक पेड़ के नीचे बैठकर बड़े मजे से आम तोड़ तोड़कर खाने लगा।
अब बताओ , इन दोनों में बुद्धिमान कौन है ? आम खाओ ! उससे पेट भरेगा। पेड़ -पत्तों को गिनने और हिसाब -किताब करने से क्या लाभ ? जो ज्ञानाभिमानी होते हैं वे निरर्थक तर्क-युक्ति द्वारा सृष्टि की कारणमीमांसा आदि में ही व्यस्त रहते हैं। परन्तु यथार्थ बुद्धिमान भक्तजन सृष्टिकर्ता परमेश्वर की कृपा प्राप्त कर संसार में परमानन्द का उपभोग करते हैं।
95 ग्रंथन्ह मार्ग ही कहहि बस , पढ़ पढ़ मनवा जान।
159 कर ले साधन प्रेम सहित , पा ले ईश्वर ज्ञान।।
शास्त्र-ग्रन्थादि ईश्वर के निकट पहुँचने का मार्ग भर बताते हैं। एक बार मार्ग --उपाय जान लेने पर फिर शास्त्र -ग्रंथों की क्या जरूरत ? तब तो ईश्वरलाभ के लिए साधना स्वयं करनी चाहिए।
'आपकी पोथी में क्या है ? ' --किसी ने एक साधु से पूछा। साधु ने उसे खोलकर दिखाया। हरएक पन्ने में 'ॐ रामः " लिखा था , और कुछ नहीं।
किसी व्यक्ति को गाँव से चिट्ठी मिली। उसमें रिश्तेदारों के यहाँ कुछ चीजें सौगात के रूप में भेजने की बात लिखी थी। चीजें मँगवाते समय उसने एक बार फिर उस चिट्ठी को देखना चाहा ताकि उसमें लिखा समान ठीक ठीक मंगवाया जा सके ; परन्तु वह चिट्ठी दिखाई नहीं दी। तब उसने बहुत व्यग्र होकर चिट्ठी को खोजना शुरू किया। बहुत से लोग द्वारा मिलकर काफी देर तक खोजने के बाद अंत में वह चिट्ठी मिल गयी। तब उस व्यक्ति को बड़ा आनंद हुआ और उसने बड़ी उत्सुकता से हाथ में लेकर चिट्ठी पढ़ना शुरू किया। उसमें लिखा था , पांच सेर मिठाई , 100 संतरा , 8 धोतियाँ , और अमुक अमुक समान भेजना है। यह जान लेने के बाद फिर चिट्ठी की जरूरत नहीं रही। चिट्ठी छोड़कर वह आदमी उन चीजों का प्रबंध करने चल दिया।
चिट्ठी की जरूरत कब तक है ? जब तक उसमें लिखी वस्तुओं के विषय में जान न लिया जाये। एक बार वह जान लेने के बाद अगला काम है , वह सब प्राप्त करने की चेष्टा करना।
इसी तरह , शास्त्रों में केवल ईश्वर के पास पहुँचने के मार्ग का निर्देश भर दिया हुआ है, उनकी प्राप्ति के उपाय भर बताये गए हैं। वह सब जान लेने के बाद अगला काम* है , लक्ष्य-प्राप्ति के लिए निर्देशानुसार अभ्यास शुरू कर देना। तभी वस्तु लाभ होगा।
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“सत्यं वद | धर्मं चर |”
* सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो *
राजा ययाति बुढ़े हो गये थे , पर संसार के पदार्थों से उनका मन तृप्त नहीँ हुआ था । उपभोग की इच्छा और बलवती होती गयी । एक दिन अपने आज्ञाकारी पुत्र (पुरु) से कहा -बेटा ! तुम अपनी तरुणाई मुझे दे दो और मेरा बुढ़ाया स्वयं ले लो । मुझे और अभी ... । पिता की बात सुनते ही पुत्र ने पिता की इच्छा को पूरा किया । देखते ही देखते महाराज तरुण हो गये और राजकुमार बुढ़ा हो गया । इस पर तुलसीदास ने " वशिष्ठ-भरत संवाद, श्री रामजी को लाने के लिए चित्रकूट जाने की तैयारी" (अयोध्याकांड~ 4) के प्रसंग में बड़ा अच्छा लिखा है -
तनय जजातिहि जौबनु दयऊ।
पितु अग्याँ अघ अयस न भयऊ ॥
भावार्थ:- राजा ययाति के पुत्र ने पिता को अपनी जवानी दे दी। पुत्र असमय ही वार्द्धक्य ( बुढ़ापे ) का बोझा ढोता रहा और पिता तरुणाई का स्वाद लेता रहा । फिर भी पिता की आज्ञा पालन करने से उन्हें पाप और अपयश नहीं हुआ॥4॥
लेकिन एक दिन महाराज ययाति ने अपने पुत्र को बुलाया और उसका यौवन लौटाते हुए बोला -वत्स ! मैँने तो सोचा था कि तुम्हारी तरुणाई लेकर मैँ वासनाओँ और वैषयिक इच्छाएँ पूरी कर लुँगा , पर मैँ पाता हुँ कि दिन-व-दिन प्रतिपल प्रतिक्षण मेरी इच्छाएँ और बलवती होती जा रही हैँ ।
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥
( भागवत ९-१९-१४/ मनुस्मृति (२/९४ )
भावार्थ - भोग करने से कभी भी कामवासना शान्त नहीं होती है, परन्तु जिस प्रकार हवनकुण्ड में जलती हुई अग्नि में घी आदि की आहुति देने से अग्नि और भी प्रज्ज्वलित हो जाती है वैसे ही कामवासना भी और अधिक भड़क उठती है। अत: तुम अपनी जवानी वापस ले लो ।
धर्म शब्द को परिभाषा में बांधना कठिन ही नहीं बल्कि दुष्कर है। एक लाख में एक व्यक्ति भी यदि धर्म को परिभाषित कर दे बहुत समझा जायेगा। भारतीय संस्कृति का मूल धर्म ही है। बल्कि कहना चाहिए कि भारतीय संस्कृति का प्राण धर्म है। दूसरे देशों की संस्कृति में जहां भौतिक तत्व की प्रधानता है, वहीं भारतीय संस्कृति में धर्म की प्रधानता है। इसलिए भारतीय संस्कृति एक आध्यात्मिक संस्कृति है। महाभारत में धर्म को अर्थ और काम का स्रोत माना गया है, महर्षि वेदव्यास महाभारत के स्वर्गारोहण पर्व में कहते हैं-
ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येश न च कश्चिन्छृणोति मे ।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते ।।
‘मैं दोनों हाथ ऊपर उठाकर पुकार-पुकार कर कह रहा हूँ, पर मेरी बात कोई नहीं सुनता । धर्म से 'मोक्ष' तो सिद्ध होता ही है 'अर्थ और काम ' भी सिद्ध होते हैं तो फिर उस धर्म का किस लिए पालन नहीं किया जाता?
हिन्दू जीवन दर्शन में अर्थ को दूसरा पुरुषार्थ कहा गया है। भारत में कभी भी अर्थ को उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा गया। बल्कि इसे धर्म का साधन कहा गया है। कर्तव्य -निर्वहण में अर्थ की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। संस्कृत में एक श्लोक है-
विद्या ददाति विनयं, विनयात् याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति, धनाद् धर्मं ततः सुखम्।।
विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता आती है, पात्रता से धन आता है, धन से धर्म होता है, और धर्म से सुख प्राप्त होता है। धनात् धर्मं अर्थात् धन से धर्म की सिद्धि होती है। मतलब अर्जित धन से उचित अंश में धर्म ( परहित, यज्ञ, ग़रीबों की सेवा, अपाहिजों की सेवा आदि) करने से ही सुख की प्राप्ति होती है , मात्र धन अर्जन व उसे अपने व्यसन में खर्च करने से सुख की प्राप्ति नहीं होगी, क्षणिक मज़ा ज़रूर मिलेगा फिर नीरस !!
मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताएं रोटी, कपड़ा और मकान अर्थ से ही पूरी होती हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और सुविधा भी अर्थ से ही पूरी होती हैं। इसी लिए भारतीय धर्मशास्त्रों में मनुष्य की दूसरी अवस्था (गृहस्थ आश्रम) में धन कमाना मनुष्य का लक्ष्य कहा गया है। एक श्लोक में कहा गया है कि -
प्रथमेनार्जिता विद्या,
द्वितीयेनार्जितं धनं ।
तृतीयेनार्जितः कीर्तिः,
चतुर्थे किं करिष्यति ॥
जिस मनुष्य ने अपनी पहली अवस्था (ब्रह्मचर्य आश्रम) में विद्या नहीं ग्रहण की, दूसरी अवस्था (गृहस्थ आश्रम) में धन नहीं अर्जित किया, तीसरी अवस्था (वानप्रस्थ आश्रम) में तप नहीं किया, तो वह चौथी अवस्था (संन्यास आश्रम) में क्या कर सकेगा ? ... अर्थात् उसका जन्म व्यर्थ है।
अर्थात- मनुष्य के जीवन में चार आश्रम होते है ब्रम्हचर्य, गृहस्थ ,वानप्रस्थ और सन्यास। जिसने पहले तीन आश्रमों में निर्धारित कर्तव्य का पालन किया, उसे चौथे आश्रम / सन्यास में मोक्ष के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता है।
तीसरा पुरुषार्थ 'काम' है। इसका शाब्दिक अर्थ है-‘इच्छा '। पुरुषार्थ के रूप में काम से अभिप्राय: मनुष्य की उन सभी शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा कलात्मक इच्छाओं की पूर्ति से है जो उसके संपूर्ण विकास और जीवन के परम लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त करने में सहायक हैं। इच्छा सभी कार्यों की प्रेरक शक्ति होती है। इस प्रकार हर कार्य के पीछे काम (इच्छा) का होना एक अनिवार्य शर्त है। इस काम को भारतीय मनीषी ने तीन श्रेणियों में रखा है-सात्विक, राजसिक और तामसिक। सात्विक काम फल की प्रत्याशा के बिना स्वधर्मानुसार (विवेकानुसार) संपन्न किया जाता है। इस तरह का काम धर्मसम्मत होता है।
धर्म शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की 'धृ' धातु से हुई है। जिसका अर्थ है-धारण करना। 'धारणात् धर्ममित्याहुरू धर्मो धारयति प्रजा: '--अर्थात् धारण करने वाले को धर्म कहते हैं, धर्म प्रजा को धारण करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म व्यक्ति ही नहीं धारण करता बल्कि स्वयं धर्म भी व्यक्ति को धारण किए हुए है। पंचतंत्र का श्लोक उद्धृत है-
आहार निद्रा भय मैथुनंच सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणम्।
धर्मों हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीना: पशुभिर्समाना॥
पंचतंत्र में धर्म की परिभाषा मनुष्य को अन्य जीवधारियों से अलग करने वाले तत्व के रूप में की गई है। खाना, सोना, भय और वंशविस्तार करना मनुष्य और पशुओं में एक समान है। इन क्रियाओं के करने में मनुष्य और पशु दोनों एक ही स्तर पर हैं। लेकिन धर्म मनुष्य को अन्य जीवधारियों से अलग करता है। यदि मनुष्य से धर्म तत्व को अलग कर दिया जाए तो मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं है।
अपने गीता रहस्य में बाल गंगाधर तिलक Dos and Don'ts * को लेकर एक कदम और आगे जाते हैं, उनके अनुसार कर्म का नियम एक ऊर्जावान सिद्धांत है क्योंकि जब तक कोई कर्म या कृत्य न किया जाए, तब तक अगोचर का गोचर बनना या गुणवत्ता रहित का गुणवत्ता युक्त बनना (इन्द्रियातीत सत्य का गोचर सत्य, ' जीव ही शिव है '-- यह बोध होना) संभव नहीं है। इसलिये समाज और राष्ट्र के एक योग्य नागरिक होने के नाते तुम सदैव करणीय कर्तव्यों को सम्यक् प्रकार से करो। यहाँ फिर एक बार सब कर्मों में अनासक्त रहने पर बल दिया गया है। आसक्ति अहंकार अहंकारमूलक इच्छा। अत: अनासक्ति का अर्थ है अहंकार और स्वार्थ का परित्याग।
गीता में मन और इंद्रियों पर नियंत्रण रखते हुए काम को तृप्त करने के लिए कहा गया है। यदि चित्त को वश में किये बिना कोई मनुष्य वस्तुओं का (कामिनी -कांचन का) परित्याग कर दे तो उसे शान्ति के बदले क्षोभ और दुःख प्राप्त होगा। यही कारण है सैकड़ों युवा साधु अपने वेश के प्रतिकूल आचरण करने लगते हैं। केवल मान बड़ाई अथवा यशः प्राप्ति के लिए छोड़ा हुआ संसार थोड़े ही समय में उनके हृदय पर ऐसा आकर्षण करता है कि वे बेचारे अपने आवेगों को सहने में असमर्थ हो जाते हैं। यदि बाह्य वस्तुओं की ममता नहीं घटी है तो उनका परित्याग करना ही मूर्खता है। मानसिक शाँति को नष्ट करने वाले बाह्य पदार्थ नहीं हैं। अपने हृदय में इन पदार्थों के प्रति जो इच्छा उत्पन्न होती है, वही सुख और शान्ति को चुराने वाली है।
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।। गीता 3.19।।
इसलिए, तुम अनासक्त होकर सदैव कर्तव्य कर्म का सम्यक् आचरण करो; क्योकि, अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ परमात्मा को प्राप्त होता है।।
[अर्थात गृहस्थाश्रम में भोगों में आसक्ति के निस्सारता को समझकर , वानप्रस्थ आश्रम में " निवृत्ति अस्तु महफला " में चित्त लगा।]
" गीता का अर्थ क्या है ? उसे दस बार कहने से जो होता है वही। दस बार 'गीता ' 'गीता ' कहने से 'त्यागी ' 'त्यागी ' निकल आता है। गीता यही शिक्षा दे रही है कि हे जीव , तू सब कुछ छोड़कर ईश्वर-लाभ की चेष्टा कर। कोई संन्यासी हो या गृहस्थ मन से सारी आसक्ति दूर करनी चाहिए।
" तुम जो काम कर रहे हो , ये सब अच्छे कर्म हैं। यदि 'मैं कर्ता हूँ ' इस भाव को छोड़कर निष्काम भाव से कर सको तो और भी अच्छा है। यह कर्म करते करते ईश्वर पर भक्ति और प्रीति होगी। इस प्रकार निष्काम कर्म करते जाओ तो ईश्वर -लाभ भी होगा। (माँ काली के सक्षात दर्शन भी होंगे !) मनुस्मृति कहती है -
न मांस भक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला॥5.56॥
मांस-भक्षण करने , मद्य ( शराब आदि ) पीने तथा मैथुन करने मेँ प्राय: जीवोँ की प्रवृति है और अज्ञानवश इसमेँ दोष नहीँ मानते है ; परंतु इन सब का परित्याग महाफल देनेवाला है । मनुस्मृति का यह श्लोक सार्वकालीन है। यही कारण है कि भारतीय मनीषा ने यह स्वीकार किया है कि यौन संबंधी इच्छाओं की तृप्ति जीवन का एक सहज, स्वाभाविक या मूल प्रवृत्यात्मक अंग है। इसकी संतुष्टि के लिए विवाह का विधान है। इसको पढ़ने पर " धर्माऽविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ " - गीताचार्य का यह वचन स्मृतिपटल पर आता है।
श्रीकृष्ण कहते हैं - हे भरत श्रेष्ठ ! मैं बलवानों का कामना तथा आसक्ति से रहित बल हूँ और सब भूतों में धर्म के अविरुद्ध अर्थात् अनुकूल काम हूँ।। स्पष्ट है कि यहाँ सामान्य बल की बात नहीं कही गयी है। इस कथन से मानों उन्हें सन्तोष नहीं होता है और इसलिये वे आगे और कहते हैं प्राणियों में धर्म के अनुकूल काम मैं हूँ। व्यवहार में जो कर्म शास्त्रों के अनुसार निषिद्ध कर्म नहीं हैं , अर्थात जो विचार भावना और कर्म मनुष्य दिव्य स्वरूप के विरुद्ध नहीं है, वैसे समस्त कर्म धर्म के अन्तर्गत आते हैं।
कामना और आसक्ति इन दो प्रेरक वृत्तियों के बिना हम किसी बल की कल्पना भी नहीं कर पाते हैं। यद्यपि सतही दृष्टि से काम और राग में हमें भेद नहीं दिखाई देता है तथापि शंकराचार्य अपने भाष्य में उसे स्पष्ट करते हुये कहते हैं। अप्राप्त वस्तु की इच्छा काम है और प्राप्त वस्तु में आसक्ति राग कहलाती है। मन की इन्हीं दो वृत्तियों के कारण व्यक्ति या परिवार समाज या राष्ट्र अपनी सार्मथ्य को प्रकट करते हैं। धर्म के अविरुद्ध कामना से तात्पर्य साधक की उस इच्छा तथा क्षमता से है जिसके द्वारा वह अपनी दुर्बलताओं को समझकर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करता है और आत्मोन्नति की सीढ़ी पर ऊपर चढ़ता जाता है। भगवान् के कथन को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि मैं साधक नहीं वरन् उसमें स्थित आत्मज्ञान की प्रखर जिज्ञासा हूँ।
जिन विचारों एवं कर्मों से (विवाह संस्कार -गृहस्थ धर्म का पालन करने से ) अपने आत्मस्वरूप को पहचानने में सहायता मिलती है उन्हें धर्म कहा जाता है; और इसके विपरीत कर्म अधर्म कहलाते हैं। क्योंकि वे उसकी आत्मविस्मृति को दृढ़ करते हैं। उनके वशीभूत होकर मनुष्य पतित होकर पशुवत् व्यवहार करने लगता है।
जिसके कारण वस्तु का अस्तित्व होता है वह उसका धर्म कहलाता है। धर्म की परिभाषा को ध्यान में रखकर इस श्लोक के अध्ययन से उसका अर्थ स्पष्ट हो जाता है। व्यवहार में जो विचार भावना और कर्म उसके दिव्य स्वरूप के विरुद्ध नहीं है वे धर्म के अन्तर्गत आते हैं। मनुष्य का अस्तित्व चैतन्य आत्मा के बिना नहीं हो सकता अतः वह उसका वास्तविक धर्म या स्वरूप है।
आदिशंङ्कराचार्यकृत प्रश्नोत्तरमाला :
अपारसंसार समुद्रमध्ये सम्मज्जतो मे शरणं किमस्ति।
गुरो कृपालो कृपया वदैतद्विश्वेशपादाम्बुजदीर्घनौका।।
प्र: हे दयामय गुरुदेव ! कृपा करके यह बताइये कि अपार संसार रुपी समुद्र में मुझ डूबते हुए का आश्रय क्या है?
उ: विश्वपति परमात्मा (अवतार वरिष्ठ भगवान श्री रामकृष्ण देव) के चरणकमलरूपी जहाज।
* बद्धो हि को यो विषयानुरागी, का वा विमुक्तिर्विषये विरक्तिः।
प्रश्न : वास्तव में बंधा कौन है? -उ: जो विषयों में आसक्त है। प्र: विमुक्ति क्या है?
उ: विषयों से वैराग्य।
* शेते सुखं कस्तु समाधिनिष्ठो जागर्ति को व सदसद्विवेकी।
के शत्रवः सन्ति निजेन्द्रियाणि तान्येव मित्राणि जितानि यानि।।
प्र: (वास्तव में) सुख से कौन सोता है ?
उ: जो परमत्मा के स्वरुप में स्थित है ।
प्र: और कौन जागता है ?
उ: सत, असत और मिथ्या के तत्व का जानने वाला ।
प्र: शत्रु कौन हैं ?
उ: अपनी इन्द्रियां; परन्तु जो जीती हुई हों तो वही मित्र हैं ।
* को वा दरिद्रो हि विशालतृष्णः श्रीमांश्च को यस्य समस्ततोषः।
जीवन्मृतः कस्तु निरुद्यमो यः किं वामृतं स्यात्सुखदा निराशा।।
प्र: दरिद्र कौन है ?
उ: जिसकी तृष्णा बहुत विशाल है ।
प्र: धनवान कौन है ?
उ: जिसे सब तरह से संतोष है ।
प्र: (वास्तव में) जीते जी मरा हुआ कौन है ?
उ: जो पुरुषार्थहीन है ।
प्र: अमृत क्या हो सकता है ?
उ: सुख देने वाली निराशा (व्यर्थ की आशा से रहित होना) ।
* किं भूषणाद्भूषणमस्ति शीलं, तीर्थं परं किं स्वमानो विशुद्धं।
किमत्र हेयं कनकं च कान्ता, श्राव्यं सदा किं गुरुवेदवाक्यं ।।
प्र: भूषणो में उत्तम भूषण क्या है ?
उ: उत्तम चरित्र ।
प्र: सबसे उत्तम तीर्थ क्या है ?
उ: अपना मन जो विशेष रूप से शुद्ध किया हुआ हो ।
प्र: इस संसार में त्यागने योग्य क्या है ?
उ: काञ्चन और कामिनी ।
प्र: सदा (मन लगाकर) सुनने योग्य क्या है ?
उ: वेद और गुरु का वचन ।
* शूरान्महाशूरतमोऽस्ति को वा, मनोजबाणैर्व्यथितो न यस्तु।
प्राज्ञोऽथ धीरश्च समस्तु को वा , प्राप्तो न मोहं ललनाकटाक्षैः।।
प्र: वीरों में सबसे बड़ा वीर कौन है ?
उ: जो कामबाणों से पीड़ित नहीं होता ।
प्र: बुद्धिमान, समदर्शी और धीरपुरुष कौन है ?
उ: जो स्त्रियों के कटाक्षों से मोह को प्राप्त (भेंड़त्व या Hypnotized) न हो ।
कस्यास्ति नाशे मनसो हि मोक्षः, क्व सर्वथा नास्ति भयं विमुक्तौ।
शल्यं परं किं निजमूर्खतैव, के के ह्युपास्या गुरुदेव वृद्धाः।।
प्र: किसके नाश में मोक्ष है ?
उ: मन के ही ।
प्र: किस्में सर्वथा भय नहीं है ?
उ: मोक्ष में ।
प्र: सबसे अधिक चुभने वाली चीज़ कौन सी है ?
उ: अपनी मूर्खता ही ।
प्र: उपासना के योग्य कौन कौन हैं ?
उ: देवता, गुरु और वृद्ध ।
के दस्यवः सन्ति कुवासनाख्याः, कः शोभते यः सदसि प्रविद्यः।
मातेव का या सुखदा सुविद्या, किमेधते दानवशात्सुविद्या।।
प्र: डाकू कौन हैं ?
उ: बुरी वासनाएं ।
प्र: सभा में शोभा कौन पाता है ?
उ: जो अच्छा विद्वान है ।
प्र: माता के समान सुख देनेवाली कौन है ?
उ: उत्तम विद्या ।
प्र: देने से क्या बढ़ती है ?
उ: अच्छी विद्या ।
पशोः पशुः को न करोति धर्मं, प्राधीतशास्त्रोऽपि न चात्मबोधः।
किन्तद्विषं भाति सुधोपमं स्त्री, के शत्रवो मित्रवदात्मजाद्याः।।
प्र: पशुओं से भी बढ़कर पशु कौन है ?
उ: शास्त्र का खूब अध्ययन करके जो धर्म का पालन नहीं करता और जिसे आत्मज्ञान नहीं हुआ ।
प्र: वह कौन सा विष है जो अमृत सा जान पड़ता है ?
उ: नारी ।
प्र: शत्रु कौन है जो मित्र सा लगता है ?
उ: पुत्र,पुतोह आदि ।
अहर्निशं किं परिचिन्तनीयं, संसारमिथ्या त्वशिवात्मतत्त्वम् ।
किं कर्म यत्प्रीतिकरं मुरारेः, क्वास्था न कार्या सततं भवाब्धौ ।।
प्र: रात-दिन विशेषरूप से क्या चिन्तन करना चाहिए ?
उ: संसार का मिथ्यापन और कल्याणरूप परमात्मा का तत्त्व ।
[प्रसंग विद्यासागर से मुलाकात :[5 अगस्त 1882 : श्रीरामकृष्ण वचनामृत] : एक बार महामण्डल के "स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा -'Be and Make " में '3'-H विकास के 5 अभ्यास " का प्रशिक्षण प्राप्त कर लेने के बाद अगला काम है - 'ब्रह्मविद मनुष्य ' बनने और बनाने की साधना -स्वयं करनी चाहिए। तभी तो वस्तु लाभ होगा ]
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