*परिच्छेद~ ६९*
(१)
🔆🙏यथार्थवादी (Pragmatist) अर्जुन की दुविधा :गीता के उपदेष्टा कौन ?🔆🙏
[The dilemma of the pragmatist Arjun]
महाभारत ग्रंथ की रचना पूर्ण करने के बाद वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम अपने पुत्र शुकदेव को इस ग्रंथ का अध्ययन कराया था। उसके बाद उन्होंने वैशम्पायन, पैल, जैमिनि, असित- देवल आदि अन्य शिष्यों को इसका अध्ययन कराया था। देवर्षि नारद ने इस महाकाव्य को देवताओं को अध्यन कराया था। असित-देवल ने यह महाकाव्य पितरों को सुनाया था। और जनमेजय के यज्ञ समारोह में वैशम्पायन जी ने मनुष्यों, तथा सूतजी सहित कई ऋषि-मुनियों को महाभारत कथा पर प्रवचन दिया था। शुकदेव जी ने गन्धर्वों, यक्षों और राक्षसों को इसका अध्ययन कराया।
सम्पूर्ण गीता में श्रीकृष्ण स्वयं को आत्मस्वरूप में ही प्रकट करते हैं, न कि सामान्य मानव- समाज के एक सदस्य के रूप में। लेकिन अर्जुन के सम्मुख खड़े होकर गीता का जो उपदेश दे रहे थे, वे वास्तव में कौन थे ? अर्जुन यह समझ नहीं पाया कि जो उसके समकालीन श्रीकृष्ण उसके सम्मुख खड़े होकर गीता का उपदेश दे रहे थे , जिन्हें वह कई वर्षों से जानता था और जो उसके सम्बन्धी भी थे, वही कृष्ण भला अनन्त, परम, जन्मरहित और सर्वव्यापी -ब्रह्म किस प्रकार हो सकते हैं ? गीता के उपदेष्टा श्रीकृष्ण केवल वसुदेव के पुत्र, गोपियों के प्रियतम, अर्जुन के सम्बन्धी ही नहीं हैं , श्रीकृष्ण तो परमात्मा हैं , माँ काली के अवतार हैं । परन्तु श्रीकृष्ण को सदैव मित्र या प्रेमी अथवा एक विश्वसनीय बुद्धिमान्, कूटनीतिज्ञ के रूप में देखते रहने से अर्जुन आत्मस्वरूप श्रीकृष्ण को पहचान नहीं पाया। यथार्थवादी अर्जुन (Pragmatist Arjun) भगवान् श्रीकृष्ण को अपने चर्म चक्षुओं से देखता है और इसलिए उसे, उनका केवल शरीर ही दिखाई देता है।
' अर्जुन उवाच '
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।।
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ॥
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥
(गीता विभूति योग - १०/१२ -१३)
[अर्जुन उवाच---आहुः त्वाम् ऋषयः सर्वे देवर्षिः नारदः तथा असितः देवलः व्यासः स्वयं च एव ब्रवीषि मे ॥ १३ ॥ भवान् (तुम) परं ब्रह्म, परं धाम, परमं पवित्रम् । देवर्षिः नारदः असितः देवलः व्यासः इति सर्वे ऋषयः त्वां शाश्वतं दिव्यं पुरुषम् आदिदेवम् अजं विभुम् आहुः । तथा स्वयं च एव मे ब्रवीषि ।]
[ऋषि और देवर्षि (Rishi and Devarshi) : यहाँ असित, देवल, व्यास आदि को ऋषि और नारद को देवर्षि क्यों कहा गया है ? :जिस मनुष्य ने अपने मन और इन्द्रियों को पूर्णतः अनुशासित और पवित्र कर लिया है , वही आत्मा (परम् सत्य) को समझ सकता है। इसलिए उन्हें ऋषि (या सत्य-द्रष्टा) कहा जाता है। और निरन्तर श्रीहरि के सानिध्य में रहने से जिस ऋषि की अन्तर्निहित दिव्यता सामान्य ऋषियों से अधिक विकसित जाती है, उन्हें देवर्षि कहा जाता है ! Rishi is a holy sage of disciplined mind and senses. Devarshi A divine sage more highly evolved than a Rishi.]
अपने सामने बैठे हुए भगवान की स्तुति करते हुए अर्जुन (pragmatist-व्यावहारिक व्यक्ति) कहते हैं कि मेरे पूछने पर जिसको आपने परम ब्रह्म, परम धाम और महान् पवित्र कहा है, वह परम ब्रह्म तो आप ही हैं ! आप शाश्वत, दिव्य पुरुष, आदिदेव, अजन्मा और विभु (व्यापक) हैं -- ऐसा आपको समस्त ऋषिगण कहते हैं। और वैसा ही देवर्षि नारद, असित तथा देवल ऋषि ^ तथा व्यास भी कहते हैं। और स्वयं आप भी मुझसे ऐसा ही कह रहे हैं।
(গুহ্যকথা)
🔆🙏श्रीरामकृष्ण के गूढ़ उपदेश 🔆🙏
[পরদিন ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ঝাউতলায় মণির সহিত একাকী কথা কহিতেছেন। বেলা আটটা হইবে। সোমবার, কৃষ্ণপক্ষের দশমী তিথি। ২৪শে ডিসেম্বর, ১৮৮ত খ্রীষ্টাব্দ। আজ মণির প্রভুসঙ্গে একাদশ দিবস।শীতকাল। সূর্যদেব পূর্বকোণে সবে উঠিয়াছেন। ঝাউতলার পশ্চিমদিকে গঙ্গা বহিয়া যাইতেছেন, এখন উত্তরবাহিনী — সবে জোয়ার আসিয়াছে। চর্তুদিকে বৃক্ষলতা। অনতিদূরে সাধনার স্থান সেই বিল্বতরুমূল দেখা যাইতেছে। ঠাকুর পূর্বাস্য হইয়া কথা কহিতেছেন। মণি উত্তরাস্য হইয়া বিনীতভাবে শুনিতেছেন। ঠাকুরের ডানদিকে পঞ্চবটী ও হাঁসপুকুর। শীতকাল, সূর্যোদয়ে জগৎ যেন হাসিতেছে। ঠাকুর ব্রহ্মজ্ঞানের কথা বলিতেছেন।
At eight o'clock in the morning Sri Ramakrishna and M. were talking together in the pine-grove at the northern end of the temple garden. This was the eleventh day of M.'s stay with the Master. It was winter. The sun had just risen. The river was flowing north with the tide. Not far off could be seen the bel-tree where the Master had practised great spiritual austerities. Sri Ramakrishna faced the east as he talked to his disciple and told him about the Knowledge of Brahman.]
[(24 दिसंबर, 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 69 ]
[তোতাপুরীর ঠাকুরের প্রতি ব্রহ্মজ্ঞানের উপদেশ ]
🔆🙏तोतापुरी ^***-श्रीरामकृष्ण 'Be and Make' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा 🔆🙏
[नमक का पुतला समुद्र की थाह लेने गया था । लौटकर उसने (जीवकोटि ने) खबर नहीं दी ।]
[A salt doll entered the ocean to measure its depth;
but it did not return to tell others how deep the ocean was.]
श्रीरामकृष्ण – निराकार भी सत्य है और साकार भी सत्य है ।
“नागा उपदेश देता था; सच्चिदानन्द ब्रह्म कैसे हैं – जैसे अनन्त सागर है, ऊपर नीचे, दाहिने-बायें, पानी ही पानी है । वह कारण-सलिल है – स्थिर पानी है । कार्य के होने पर उसमें तरंगें उठने लगीं । सृष्टि, स्थिति और प्रलय यही कार्य है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — নিরাকারও সত্য, সাকারও সত্য।“ন্যাংটা উপদেশ দিত, — সচ্চিদানন্দ ব্রহ্ম কিরূপ। যেমন অনন্ত সাগর — ঊর্ধ্বে নিচে, ডাইনে বামে, জলে জল। কারণ — সলিল। জল স্থির। — কার্য হলে তরঙ্গ। সৃষ্টি-স্থিতি-প্রলয় — কার্য।
"The formless God is real, and equally real is God with form. Nangta used to instruct me about the nature of Satchidananda Brahman. He would say that It is like an infinite ocean — water everywhere, to the right, left, above, and below. Water enveloped in water. It is the Water of the Great Cause, motionless. Waves spring up when It becomes active. Its activities are creation, preservation, and destruction.
“फिर कहता था, विचार जहाँ पहुँचकर रुक जाय, वही ब्रह्म है । जैसे कपूर जलाने पर उसका सर्वांश जल जाता है, जरा भी राख नहीं रह जाती ।
[“আবার বলত, বিচার যেখানে গিয়ে থেমে যায় সেই ব্রহ্ম। যেমন কর্পূর জ্বালালে পুড়ে যায়, একটু ছাইও থাকে না।"
Again, he used to say that Brahman is where reason comes to a stop. There is the instance of camphor. Nothing remains after it is burnt — not even a trace of ash.
“ब्रह्म मन और वचन के परे हैं । नमक का पुतला समुद्र की थाह लेने गया था । लौटकर उसने खबर नहीं दी । समुद्र में गल गया ।
[“ব্রহ্ম বাক্য-মনের অতীত। লুনের পুতুল সমুদ্র মাপতে গিছল। এসে আর খবর দিলে না। সমুদ্রেতেই গলে গেল।
"Brahman is beyond mind and speech. A salt doll entered the ocean to measure its depth; but it did not return to tell others how deep the ocean was. It melted in the ocean itself.
[श्रीरामकृष्ण के नागा कौन थे ? सारा विश्व जानता है कि स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस थे। 18 फरवरी सन् 1836 को पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के गांव कामारपुकुर में एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में एक बालक ने जन्म लिया, जिसका नाम रखा गया गदाधर । यही बालक आगे चलकर पूरी दुनिया में रामकृष्ण परमहंस के नाम से जाना गया। बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी है कि गदाधर (श्रीरामकृष्ण) के गुरु हरियाणा की पावन भूमि के शहर कैथल के समीप गांव `बाबा लदाना ' के नागा बाबा तोतापुरी जी महाराज थे। जिन्होंने गदाधर को सन् 1865 में अद्वैत वेदांत की शिक्षा-दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाया और उसे नाम दिया रामकृष्ण। हरियाणा के धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र के 48 कोस के इलाके को अति पावन एवं देव तुल्य भूमि के रूप में जाना जाता है। इसी देवतुल्य भूमि पर कैथल नगर के निकट गांव बाबा लदाना एक प्रसिद्ध स्थान है। बाबा तोतापुरी जी महाराज का डेरा आज भी कैथल शहर के चन्दाना गेट से सीधी सड़क पर 5 किलोमीटर की दूरी पर विद्यमान है। आम बोलचाल की भाषा में लोग इसे 'बाबे का लदाना' कहते हैं। इसके प्रांगण में पांच मंदिर हैं। पहला धूनी का मंदिर है, जिसके मध्य में धूनी निरंतर जलती रहती है।
Dera Baba Rajpuri (BabaTotapuri or Naga Baba) : Baba Rajpuri, also known as Baba Totapuri or Naga Baba, was the guru of Sri Ram Krishan Paramhans. Sri Ram Krishan Paramhansâs most famous disciple has been Swami Vivekananda.
In 18th Century, a child named Raju was born in an agriculturist family in Village Baba Ladana . Right from childhood, Raju stood out on account of his thought process and deep understanding. After having his initial education from Sarswati puri Maharaj in adjoining Village Batta in Kaithal (Haryana) , this child started residing in a dera just outside Village Baba Ladana. Here, he achieved inner salvation and explored the minutes intricacies of Nature and philosophy. He became famous as Baba Rajpuri or BabaTotapuri. During his travels, Pandit Gadadhar of Bengal was attracted to this ascetic with his overwhelming personality and Baba Rajpuri baptized him as Swami Ram Krishan Paramhans.Till date, Baba Rajpuriâs dera in Village Baba Ladana is a source of insurmountable belief and reverence.]
[(24 दिसंबर, 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 69]
🔆🙏 नित्य और लीला -दोनों ही सत्य हैं ! अवतारी पुरुषों को सभी पहचान नहीं सकते🔆🙏
“ऋषियों ने राम से कहा था, - ‘राम, भरद्वाजादि तुम्हें अवतार कह सकते हैं, परन्तु हम लोग नहीं कहते। हम लोग शब्दब्रह्म (ॐ) की उपासना करते हैं । हम मनुष्य-स्वरूप को नहीं चाहते ।’ राम कुछ हँसकर प्रसन्न हो उनकी पूजा लेकर चले गए ।
{“ঋষিরা রামকে বলেছিলেন, ‘রাম, ভরদ্বাজাদি তোমাকে অবতার বলতে পারেন। কিন্তু আমরা তা বলি না। আমরা শব্দব্রহ্মের উপাসনা করি। আমরা মানুষরূপ চাই না।’ রাম একটু হেসে প্রসন্ন হয়ে, তাদের পূজা গ্রহণ করে চলে গেলেন।”
"The rishis once said to Rama: 'O Rama, sages like Bharadvaja may very well call you an Incarnation of God, but we cannot do that. We adore the Word-Brahman. (Om, the symbol of Brahman.) We do not want the human form of God.' Rama smiled and went away, pleased with their adoration.}
“परन्तु नित्यता जिनकी है, लीला भी उन्हीं की है । जैसे छत और सीढ़ियाँ ।
“ईश्वरलीला, देवलीला, नरलीला, जगत्-लीला । नरलीला में ही अवतार होता है । नरलीला कैसी है, जानते हो ? जैसे बड़ी छत का पानी नल से जोर-शोर से गिर रहा हो । वही सच्चिदानन्द हैं – उन्हीं की शक्ति एक रास्ते से – नल के भीतर से आ रही है । केवल भरद्वाजादि बारह ऋषियों ने ही राम को पहचाना था कि ये अवतारी पुरुष हैं । अवतारी पुरुषों को सभी पहचान नहीं सकते ।”
[“কিন্তু যাঁরই নিত্য তাঁরই লীলা। যেমন বলেছি, ছাদ আর সিঁড়ি। ঈশ্বরলীলা, দেবলীলা, নরলীলা, জগৎলীলা। নরলীলায় অবতার। নরলীলা কিরূপ জান? যেমন বড় ছাদের জল নল দিয়ে হুড়হুড় করে পড়ছে। সেই সচ্চিদানন্দ, তাঁরই শক্তি একটি প্রণালী দিয়ে — নলের ভিতর দিয়ে আসছে। কেবল ভরদ্বাজাদি বারজন ঋষি রামচন্দ্রকে অবতার বলে চিনেছিলেন। অবতারকে সকলে চিনতে পারে না।”
"But the Nitya and the Lila are the two aspects of the same Reality. As I have said before, it is like the roof and the steps leading to it. The Absolute plays in many ways: as Isvara, as the gods, as man, and as the universe. The Incarnation is the play of the Absolute as man. Do you know how the Absolute plays as man? It is like the rushing down of water from a big roof through a pipe; the power of Satchidananda — nay, Satchidananda Itself — descends through the conduit of a human form as water descends through the pipe. Only twelve sages, Bharadvaja and the others, recognized Rama as an Incarnation of God. Not everyone can recognize an Incarnation.]
[ब्रह्मज्ञान की बातें ~`द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे ~The Two Forms of Brahman
`नित्य और लीला दोनों सत्य हैं' -- इस रहस्य को कौन बता सकते हैं ?^*** >> समुद्र की थाह लेकर लौटा हुआ नमक का पुतला (गुरु , ईश्वरकोटि / नेता /C-IN-C /नवनीदा ही बता सकते हैं।) यहाँ जो अवतारवरिष्ठ/ श्रीरामकृष्ण स्वयं (यहाँ भावी नेता मणि को) ब्रह्मज्ञान (अद्वैत वेदान्त) के विषय में उपदेश दे रहे हैं ---------
[(24 दिसंबर, 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 69]
🌼अवतार लोग (ईश्वरकोटि) ज्ञान -भक्ति का उपदेश अवश्य देते हैं 🌼
[ তিনি অবতার হয়ে জ্ঞান ভক্তি শিক্ষা দেন।]
[God incarnates Himself as man to teach people the way of love and knowledge. ]
श्रीरामकृष्ण(मणि से) – वे अवतीर्ण होकर ज्ञान-भक्ति की शिक्षा देते हैं । अच्छा, मुझे तुम क्या समझते हो ?
“मेरे पिता गया गए थे । वहाँ रघुवीर ने स्वप्न दिखलाया, मैं तेरा पुत्र बनकर जन्म लूँगा । पिता ने स्वप्न देखकर कहा, देव, मैं दरिद्र ब्राह्मण हूँ, मैं तुम्हारी सेवा कैसे करूँगा ? रघुवीर ने कहा, सेवा हो जाएगी।
“दीदी – हृदय की माँ – पुष्प-चन्दन लेकर मेरे पैर पूजती थी । एक दिन उसके सिर पर पैर रखकर (मैंने) कहा, तेरी वाराणसी में ही मृत्यु होगी ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — তিনি অবতার হয়ে জ্ঞান ভক্তি শিক্ষা দেন। আচ্ছা, আমাকে তোমার কিরূপ বোধ হয়?
“আমার বাবা গয়াতে গিছলেন। সেখানে রঘুবীর স্বপন দিলেন, আমি তোদের ছেলে হব। বাবা স্বপন দেখে বললেন, ঠাকুর, আমি দরিদ্র ব্রাহ্মণ, কেমন করে তোমার সেবা করব! রঘুবীর বললেন — তা হয়ে যাবে।
“দিদি — হৃদের মা — আমার পা পূজা করত ফুল-চন্দন দিয়ে। একদিন তার মাথায় পা দিয়ে (মা) বললে, তোর কাশীতেই মৃত্যু হবে।]
"It is God alone who incarnated Himself as man to teach people the ways of love and knowledge. Well, what do you think of me?
"Once my; father went to Gaya. There Raghuvir said to him in a dream, 'I shall be born as your son.' Thereupon my father said to Him: 'O Lord, I am a poor brahmin. How shall I be able to serve You?' 'Don't worry about it', Raghuvir replied. 'It will be taken care of.'
"My sister, Hriday's mother, used to worship my feet with flowers and sandal-paste. One day I placed my foot on her head and said to her, 'You will die in Benares.']
[(24 दिसंबर, 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 69]
🔆🙏श्रीरामकृष्ण देव का आत्मपरिचय~ देह तो आवरण मात्र है🔆🙏
[শ্রীরামকৃষ্ণ দেবের আত্মপরিচয় ~ দেহ একটি আবরণ মাত্র]
[Self-introduction of Sri Ramakrishna ~ The body is just a cover!]
“मथुर बाबू ने कहा, ‘बाबा, तुम्हारे भीतर और कुछ नहीं है, वही ईश्वर हैं । देह तो आवरण मात्र है, जैसे बाहर कद्दू का आकार है, परन्तु भीतर गूदा, बीज, कुछ भी नहीं है । तुम्हें देखा, मानो घूँघट डालकर कोई चला जा रहा है ।’
“पहले ही से मुझे सब दिखा दिया जाता है । बटतल्ले (पंचवटी) में मैंने गौरांग के संकीर्तन का दल देखा था । उसमें शायद बलराम को देखा था और तुम्हें भी शायद देखा था ।
[“সেজোবাবু বললে, বাবা, তোমার ভিতরে আর কিছু নাই, — সেই ঈশ্বরই আছেন। দেহটা কেবল খোল মাত্র, — যেমন বাহিরে কুমড়োর আকার কিন্তু ভিতরের শাঁস-বিচি কিছুই নাই। তোমায় দেখলাম, যেন ঘোমটা দিয়ে কেউ চলে যাচ্ছে।“আগে থাকতে সব দেখিয়ে দেয়। বটতলায় (পঞ্চবটীতলায়) গৌরাঙ্গের সংকীর্তনের দল দেখেছিলাম। তার ভিতর যেন বলরামকে দেখেছিলাম, — আর যেন তোমায় দেখেছিলাম।
"Once Mathur Babu said to me: 'Father, there is nothing inside you but God. Your body is like an empty shell. It may look from outside like a pumpkin, but inside there is nothing — neither flesh nor seed. Once I saw you as someone moving with a veil on.'
(To M.) "I am shown everything beforehand. Once I saw Gauranga and his devotees singing kirtan in the Panchavati. I think I saw Balaram there and you too.]
“मैंने गौरांग का भाव जानना चाहा था । उसने दिखाया, उस देश में – श्यामबाजार में । पेड़ पर और चारदीवार पर आदमी ही आदमी – दिनरात साथ साथ आदमी । सात दिन शौच के लिए जाना भी मुश्किल हो गया ! तब मैंने कहा, माँ, बस, अब रहने दो । इसीलिए अब भाव शान्त है ।
[“গৌরাঙ্গের ভাব জানতে চেয়েছিলাম। ও-দেশে — শ্যামবাজারে — দেখালে। গাছে পাঁচিলে লোক, — রাতদিন সঙ্গে সঙ্গে লোক! সাতদিন হাগবার জো ছিল না। তখন বললাম, মা, আর কাজ নাই। তাই এখন শান্ত।
"I wanted to know the experiences of Gauranga and was shown them at Syambazar in our native district. A crowd gathered; they even climbed the trees and the walls; they stayed with me day and night. For seven days I had no privacy whatever. Thereupon I said to the Divine Mother, 'Mother, I have had enough of it.'
“मुझे एक बार और आना होगा । इसीलिए पार्षदों को सब ज्ञान मैं नहीं देता । (हँसते हुए) तुम्हें अगर सब ज्ञान दे दें, तो फिर तुम लोग सहज ही मेरे पास क्यों आओगे ?
[“আর একবার আসতে হবে। তাই পার্ষদদের সব জ্ঞান দিচ্ছি না। (সহাস্যে) তোমাদের যদি সব জ্ঞান দিই — তাহলে তোমরা আর সহজে আমার কাছে আসবে কেন?
"I am at peace now. I shall have to be born once more. Therefore I am not giving all knowledge to my companions. (With a smile) Suppose I give you all knowledge; will you then come to me again so willingly?
[(24 दिसंबर, 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 69]
🔆🙏ईश्वर ही गुरु/नेता के रूप में अवतरित होकर व्यक्ति को उसका स्वरुप बता देते हैं।🔆🙏
“तुम्हें मैं पहचान गया, तुम्हारा `चैतन्य-भागवत' ^* पढ़ना सुनकर । तुम अपने आदमी हो । एक ही सत्ता है, जैसे पिता और पुत्र । यहाँ सब आ रहे हैं, जैसे कल्मी की बेल - एक जगह पकड़कर खींचने से सब आ जाता है । परस्पर सब आत्मीय हैं, जैसे भाई भाई । राखाल, हरीश आदि जगन्नाथ-दर्शन के लिए पुरी गए हैं, और तुम भी गए हो, तो क्या कभी तुम्हारा 'ठहराव' ( तुम्हारा निवास-स्थान) अलग अलग हो सकता है ?
[“তোমায় চিনেছি — তোমার চৈতন্য-ভাগবত পড়া শুনে। তুমি আপনার জন — এক সত্তা — যেমন পিতা আর পুত্র। এখানে সব আসছে — যেন কলমির দল, — এক জায়গায় টানলে সবটা এসে পড়ে। পরস্পর সন আত্মীয় — যেমন ভাই ভাই। জগন্নাথে রাখাল, হরিশ-টরিশ গিয়েছে, আর তুমিও গিয়েছ — তা কি আলাদা বাসা হবে?
"I recognized you on hearing you read the Chaitanya Bhagavat. (A life of Chaitanya.) You are my own. The same substance, like father and son. All of you are coming here again. When you pull one part of the kalmi creeper, all the branches come toward you. You are all relatives — like brothers. Suppose Rakhal, Harish, and the others had gone to Puri, and you were there too. Would you live separately?
[(24 दिसंबर, 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 69]
🔆🙏बाघ-शावक द्वारा मन-दर्पण में अपना सच्चा मुँह देखना – स्वरूप को पहचानना है !🔆🙏
“जब तक तुम यहाँ नहीं आये थे , तब तक अपने को भूले हुए थे, अब अपने को पहचान सकोगे । वे गुरु के रूप में आकर जता देते हैं ।
[“যতদিন এখানে আস নাই, ততদিন ভুলে ছিলে; এখন আপনাকে চিনতে পারবে। তিনি গুরুরূপে এসে জানিয়ে দেন।”
"Before you came here, you didn't know who you were. Now you will know. It is God who, as the guru, makes one know.'
“नागे ने बाघ और बकरी की कहानी कही थी । एक बाघिन बकरियों के झुण्ड पर टूट पड़ी । किसी बहेलिये (Hunter-शिकारी) ने दूर से उसे देखकर मार डाल । उसके पेट में बच्चा था, वह पैदा हो गया। वह बच्चा बकरियों के बीच में बढ़ने लगा । पहले बच्चा बकरियों का दूध पीता था । इसके बाद जब कुछ बड़ा हुआ तब घास चरने लगा और बकरियों की तरह ‘में में’ करने लगा ।
धीरे धीरे वह बहुत बड़ा हो गया और तब भी वह घास ही चरता और ‘में में’ करता । कोई जानवर जब आक्रमण करता, तब बकरों की तरह डरकर भागता ! एक दिन एक भयंकर बाघ बकरियों पर टूट पड़ा। उसने आश्चर्य में आकर देखा, उनमें एक बाघ भी घास चर रहा है और उसे देखकर बकरियों के साथ वह भी दौड़कर भागा । तब बकरियों से कुछ छेड़छाड़ न करके घास चरनेवाले उस बाघ को ही उसने पकड़ा । वह ‘में में’ करने लगा और भागने की कोशिश करता गया ।
तब बाघ उस पानी के किनारे खींचकर ले गया और उससे कहा, ‘इस पानी में अपना मुँह देख । हण्डी की तरह मेरा मुँह जितना बड़ा है, उतना ही बड़ा तेरा भी है ।’ फिर उसके मुँह में थोड़ा सा माँस खोंस दिया । पहले वह किसी तरह खाता ही न था, फिर कुछ स्वाद पाकर खाने लगा । तब बाघ ने कहा, ‘तू बकरियों के बीच में था और उन्ही की तरह घास खाता था ! धिक्कार है तुझे’ तब उसे बड़ी लज्जा हुई ।
[“ন্যাংটা বাঘ আর ছাগলের পালের গল্প বলেছিল! একটা বাঘিনী ছাগলের পাল আক্রমণ করেছিল। একটা ব্যাধ দূর থেকে দেখে ওকে মেরে ফেললে। ওর পেটে ছানা ছিল, সেটা প্রসব হয়ে গেল। সেই ছানাটা ছাগলের সঙ্গে বড় হতে লাগল। প্রথমে ছাগলদের মায়ের দুধ খায়, — তারপর একটু বড় হলে ঘাস খেতে আরম্ভ করলে। আবার ছাগলদের মতো ভ্যা ভ্যা করে।
ক্রমে খুব বড় হল — কিন্তু ঘাস খায় আর ভ্যা ভ্যা করে। কোন জানোয়ার আক্রমণ করলে ছাগলদের মতো দৌড়ে পালায়!“একদিন একটা ভয়ংকর বাঘ ছাগলদের পাল আক্রমণ করলে। সে অবাক্ হয়ে দেখলে যে, ওদের ভিতর একটা বাঘ ঘাস খাচ্ছিল, — ছাগলদের সঙ্গে সঙ্গে দৌড়ে পালাল!
তখন ছাগলদের কিছু না বলে ওই ঘাসখেকো বাঘটাকে ধরলে। সেটা ভ্যা ভ্যা করতে লাগল! আর পালাবার চেষ্টা করতে লাগল। তখন সে তাকে একটা জলের ধারে টেনে নিয়ে গেল। আর বললে, ‘এই জলের ভিতর তোর মুখ দেখ। দেখ, আমারও যেমন হাঁড়ির মতো মুখ, তোরও তেমনি।’ তারপর তার মুখে একটু মাংস গুঁজে দিলে। প্রথমে, সে কোনমতে খেতে চায় না — তারপর একটু আস্বাদ পেয়ে খেতে লাগল। তখন বাঘটা বললে, ‘তুই ছাগলদের সঙ্গে ছিলি আর তুই ওদের মতো ঘাস খাচ্ছিলি! ধিক্ তোকে!’ তখন সে লজ্জিত হল।
"Nangta told the story of the tigress and the herd of goats. Once a tigress attacked a herd of goats. A hunter saw her from a distance and killed her. The tigress was pregnant and gave birth to a cub as she expired. The cub began to grow in the company of the goats. At first it was nursed by the she-goats, and later on, as it grew bigger, it began to eat grass and bleat like the goats. Gradually the cub became a big tiger; but still it ate grass and bleated. When attacked by other animals, it would run away, like the goats. One day a fierce-looking tiger attacked the herd. It was amazed to see a tiger in the herd eating grass and running away with the goats at its approach. It left the goats and caught hold of the grass-eating tiger, which began to bleat and tried to run away. But the fierce tiger dragged it to the water and said: 'Now look at your face in the water. You see, you have the pot-face of a tiger; it is exactly like mine.' Next it pressed a piece of meat into its mouth. At first the grass-eating tiger refused to eat the meat. Then it got the taste of the meat and relished it. At last the fierce tiger said to the grass-eater: 'What a disgrace! You lived with the goats and ate grass like them!' And the other was really ashamed of itself.
[(24 दिसंबर, 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 69]
🔆🙏बाघ शिशु की चार अवस्थायें और श्रीरामकृष्ण के जन्मतिथि से स्वर्णयुग का प्रारम्भ🔆🙏
[ नवनीदा के संस्मरण : महामण्डल की स्थापना से स्वर्णयुग (O Golden Age !) का प्रारम्भ ]
श्रीरामकृष्ण - (मणि के प्रति) “जब तक तुम यहाँ नहीं आये थे , तब तक अपने को भूले हुए थे, अब अपने को पहचान सकोगे । वे गुरु के रूप में आकर जता देते हैं ।
[“যতদিন এখানে আস নাই, ততদিন ভুলে ছিলে; এখন আপনাকে চিনতে পারবে। তিনি গুরুরূপে এসে জানিয়ে দেন।”
Sri Ramakrishna - (To Mani)"Before you came here, you didn't know who you were. Now you will know. It is God who, as the guru, makes one know.'
“घास खाना है कामिनी-कांचन लेकर रहना । बकरियों की तरह ‘में में’ करना और भागना है – सामान्य जीवों की तरह आचरण करना । बाघ के साथ जाना है – गुरु (नेता /C-IN-C/) , जिन्होंने ज्ञान की आँखें खोल दीं, उनके शरणागत होना, उन्हें ही आत्मीय समझना । अपना सच्चा मुँह देखना है – अपने स्वरूप को पहचानना ।”
[“ঘাস খাওয়া কি না কামিনী-কাঞ্চন নিয়ে থাকা। ছাগলের মতো ভ্যা ভ্যা করে ডাকা, আর পালানো — সামান্য জীবের মতো আচরণ করা। বাঘের সঙ্গে চলে যাওয়া, — কি না, গুরু যিনি চৈতন্য করালেন; তাঁর শরণাগত হওয়া, তাঁকেই আত্মীয় বলে জানা; নিজের ঠিক মুখ দেখা কি না স্ব-স্বরূপকে চেনা।”
"Eating grass is like enjoying 'woman and gold'. To bleat and run away like a goat is to behave like an ordinary man. Going away with the new tiger is like taking shelter with the guru, who awakens one's spiritual consciousness, and recognizing him alone as one's relative. To see one's face rightly is to know one's real Self.']
[🌼🔆🙏 नवनीदा के संस्मरण : ओ स्वर्णयुग (O Golden Age !) लीडरशिप क्लास में पहली बार दादा के मुख से सुना था कि," आत्मपरिचय की कथा प्रथम युवा नेता श्रीरामकृष्ण 'बाघ-शिशु की कहानी ' सुनाते थे और उसी कहानी को 'गुरु ' स्वामी विवेकानन्द `सिंह-शावक की कथा' के नाम से सुनाते थे!" और नवनीदा [विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित दादा (C-IN-C श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय] इसमें जोड़ देते थे कि चार युगों की अवधारणा भी तुम्हारी चेतना के चार चरण हैं , समय के नहीं।
कलि श्यानो भवति संजिहानस्तु द्वापर:।
उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन्:।।
चरैवेति। चरैवेति। -(ऐतरेय ब्राह्मण)
..... 'जो सो रहा है वह कलियुग में जी रहा है, निद्रा से उठ बैठने वाले का द्वापर है, उठकर खड़ा हो जाने वाला त्रेता है, लेकिन जो चल पडता है, उसके लिए कृतयुग, सतयुग, स्वर्ण —युग का प्रारम्भ हो जाता है। अत: व्यक्ति, देश या जाति को जागृत होकर चलते रहना चाहिए।’
1. घास खाना = `घास खावा कि ना कामिनी -कांचन निये थाका।' .. “ঘাস খাওয়া কি না কামিনী-কাঞ্চন নিয়ে থাকা। 'कामिनी -कांचन' में आसक्त रहना अपने स्वरुप को भूल कर घास खाने जैसा है = ' -- Eating grass is like enjoying 'woman and gold'=`कलि: शयानो भवति -- वह मोहनिद्रा (delusions,माया भ्रम) में सोये रहने का द्योतक है। जो सोया है ,उसके लिये कलियुग चल रहा है। जो कामिनी-कांचन में आसक्त है वह (स्वर्णमृग के पीछे दौड़ रहा है।) वह अगर हजार साल पहले भी था तो भी कलियुग में था, और यदि दस हजार साल पहले भी था तो भी कलियुग में था। उसके सोये रहने में ही कलियुग है। 'जो जागकर भी सो रहा है, उसके लिए कलि है।’ who is in a coma, is unconscious - जो कोमा में है , वह मूर्छित है !
2. बकरी जैसा ‘में में’ करना और भागना' > छागलेर मतो में में करे डाका , आर पालनो - सामान्य जीवेर मतो आचरण करा। ছাগলের মতো ভ্যা ভ্যা করে ডাকা, আর পালানো — সামান্য জীবের মতো আচরণ করা। To bleat and run away like a goat is to behave like an ordinary man = संजिहानस्तु द्वापर: सारे सिंह-शावक अपने को भेंड़ समझ कर - `bleat and run away' शिकायत भरी आह निकालना है = उन्हें यह भी पता नहीं वे कौन हैं, क्यों हैं, किसलिए हैं, कहां से आते हैं, कहां जाते हैं, क्या है उनका स्वभाव? अपने से परिचित होने की पहली किरण—जब तुम नींद से उठ बैठे, आंख खोली, बैठ गए; तो द्वापर का प्रारंभ। [ईश्वर कोटि नेता के समान सत्तावान होकर भी अपने को सामान्य 'जीवकोटि' का मनुष्य समझकर मृत्यु से भयभीत बने रहना। (सिंह-शावक = C-IN- C नवनीदा का अनुज जैसा निर्विकल्प से लौट आने पर भी, अपने को मरणधर्मा शरीर समझकर भ्रम या माया से सम्मोहित रहना। ]
3. बाघ के साथ जाना= " बाघेर संगे चले जावा- कि ना , गुरु जिनि चैतन्य करालेन ; तांर शरणागत होवा , ताँकेई आत्मीय बोले जाना।" বাঘের সঙ্গে চলে যাওয়া, — কি না, গুরু যিনি চৈতন্য করালেন; তাঁর শরণাগত হওয়া, তাঁকেই আত্মীয় বলে জানা; Going away with the new tiger is like taking shelter with the guru, who awakens one's spiritual consciousness, and recognizing him alone as one's relative. उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति' स्वामी विवेकानन्द जी के आह्वान - 'उत्तिष्ठत जाग्रत ' को सुनकर अनुप्रेरित होना और महामण्डल युवा प्रशिक्षण शिविर में प्रथम बार जाना (1987) तथा वहाँ --मनःसंयोग आदि 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण लेना है बाघ (महामण्डल) से जुड़ जाना।
मडंगलाचरणम् --
ध्यान मूलं गुरु (विवेकानन्द) मूर्ति, पूजा मूलं गुरु (विवेकानन्द) पदम्।
मंत्र मूलं गुरु (विवेकानन्द) वाक्यं, मोक्ष मूलं गुरु (विवेकानन्द) कृपा॥१॥
जिन्होंने अपने उपदेशों से ज्ञान की आँखें खोल दीं, उनके गुरु (नेता /C-IN-C/ नवनीदा के ) , शरणागत होना, और एकमात्र उन्हें ही अपना आत्मीय समझना । तब उसके जीवन में त्रेता युग चलने लगता है।
4.अपना सच्चा मुँह देखना=निजेर ठीक मुख देखा कि ना स्व-स्वरूपके चेना। নিজের ঠিক মুখ দেখা কি না স্ব-স্বরূপকে চেনা।”To see one's face rightly is to know one's real Self.' अपने अविनाशी स्वरूप को पहचान लेना (ब्रह्मविद बनना) , और ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने के आंदोलन "Be and Make " से जुड़ जाना ~ है `कृतं संपद्यते चरन्।’ सतयुग में कोई पैदा नहीं होता। सतयुग अर्जित करना होता है। पैदा तो हम सब कलियुग में होते हैं। फिर हममें से जो उठ बैठता है वह द्वापर है, और जो जाग जाता है, वह त्रेता। जो चल पडता है, वह कृत। उठो! निद्रा छोड्कर बैठो। उठकर खड़े हो जाओ और फिर चलो। जो चल पड़ता है, वही कृतयुग बन जाता है। अतः चरैवेति चरैवेति ! चलते रहो, चलते रहो। कहीं रुकना नहीं है। जो चल पड़ा, वह कृतयुग है। उसके जीवन में स्वर्ण—विहान आ गया। गति आ गयी तो जीवन आ गया। गत्यात्मकता आ गयी तो उषा आ गयी! तो रात टूट गयी, पूरी तरह टूट गयी... अतः चरैवेति चरैवेति ! चलते रहो, चलते रहो। कहीं रुकना नहीं है। रुके कि मरे। रुके कि सड़े। बहते रहे तो स्वच्छ रहे। बहता पानी निर्मला।
अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता – अकेला व्यक्ति कोई बड़ा काम (महामण्डल के मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी आंदोलन का प्रचार -प्रसार) नहीं कर सकता। इसलिए महामण्डल का संघमन्त्र है - ` संगच्छध्वं संवदध्वं,सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।।
`कलि: शयानो भवति.. .. 'जो सो रहा है उसके लिए कलि है।’ who is in a coma, is unconscious - जो कोमा में है , मूर्छित है ! जो मोहनिद्रा (delusions,माया भ्रम) में मूर्छित है, वह अगर हजार साल पहले भी था तो भी कलियुग में था, और यदि दस हजार साल पहले भी था तो भी कलियुग में था। उसके सोये रहने में ही कलियुग है।
`संजिहानस्तु द्वापर:' ....सो रहे हैं सारे लोग। मूर्च्छित हैं सारे लोग ! " सारे सिंह शावक अपने को भेंड़ समझ रहे हैं।" अपने स्वरुप से अपरिचित रहना ही मूर्च्छा है। उन्हें यह भी पता नहीं वे कौन हैं, क्यों हैं, किसलिए हैं, कहां से आते हैं, कहां जाते हैं, क्या है उनका स्वभाव? अपने से परिचित होने की पहली किरण—जब तुम नींद से उठ बैठे, आंख खोली, बैठ गए; तो द्वापर का प्रारंभ।
`उतिष्ठस्त्रेता भवति...।’ और जो उठ खड़ा हुआ वह त्रेता है।’ यह मूर्च्छा छोडो। थोड़ा होश सम्हालो। मनःसंयोग सहित 3H विकास के 5 अभ्यास की सारी प्रक्रियाएं होश को सम्हालने की प्रक्रियाएं हैं। मनःसंयोग या एकाग्रता के अभ्यास से ही ये सूत्र पूरा हो सकता है - 'कलि: शयानो भवति।' एकाग्रता का अभ्यास करने से ही तो तुम उठोगे। प्रत्याहार - धारणा के अभ्यास (से ध्यान-समाधि होगी) से ही तो तुम उठोगे। यह विचारों की तंद्रा तभी तो —टूटेगी। तभी तो खोपड़ी में भरा यह —'सदियों का, ज्ञान की अग्नि में जलेगा। एकाग्रता की अग्नि ही इसे राख कर सकती है।जो युवा स्वामी विवेकानन्द के आह्वान -'उत्तिष्ठत जाग्रत ' को सुनकर महामण्डल -आंदोलन से जुड़ जाता है, युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लेकर मनुष्य बनने और बनाने' Be and Make ' के लिए - उठ खड़ा होता है; उसके लिये त्रेता युग का प्रारम्भ हो जाता है।
`कृतं संपद्यते चरन्।’ और जो चल पड़ता है वह कृतयुग बन जाता है।’ सतयुग में कोई पैदा नहीं होता। सतयुग अर्जित करना होता है। पैदा तो हम सब कलियुग में होते हैं। फिर हममें से जो उठ बैठता है वह द्वापर है, और जो जाग जाता है, वह त्रेता। जो चल पडता है, वह कृत। उठो! निद्रा छोड्कर बैठो। उठकर खड़े हो जाओ और फिर चलो। जो चल पड़ता है, वही कृतयुग बन जाता है। और जो चलता ही रहता है, वही भगवान है, वही भगवत्ता को उपलब्ध है। इसलिए भगवत्ता को उपलब्ध व्यक्ति के साथ चलना भी मुश्किल हो जाता है। वह चलता ही जाता है। सोना, उठ बैठना, उठ कर खड़े हो जाना , और चल पड़ना—जो चल पड़ा, वह कृतयुग है। उसके जीवन में स्वर्ण—विहान आ गया। गति आ गयी तो जीवन आ गया। गत्यात्मकता आ गयी तो उषा आ गयी! तो रात टूट गयी, पूरी तरह टूट गयी...
अतः चरैवेति चरैवेति ! चलते रहो, चलते रहो। कहीं रुकना नहीं है। रुके कि मरे। रुके कि सड़े। बहते रहे तो स्वच्छ रहे। बहता पानी निर्मला। ( हीरानंद सच्चिदानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ पूर्व सुनिश्चित यात्रा और अनियोजित यात्रा के बीच का अंतर बताया है। यात्रा करने के दो तरीके बताए हैं-एक तरीका तो यह कि आप पहले से ही यात्रा संबंधित पूरी योजना बना लें , और दूसरी यह कि आप योजना तो कहीं और जाने की बनाइए और निकल कहीं और जाइए। नक्शे के साथ यात्रा करने में काफी सहूलियत मिलती है। नक्शा हमें सही रास्ता, दूरी, नियत स्थान आदि के बारे में पूरी जानकारी देता है। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता – अकेला व्यक्ति कोई बड़ा काम नहीं कर सकता। इसलिए -संगच्छध्वं संवदध्वं,सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।। )
उपनिषद् का यह सूत्र - लक्ष्य प्राप्ति का मंत्र देता है : चलते रही, चलते रहो। रुकना ही मत। अनंत यात्रा है। इसकी कोई मंजिल नहीं। यात्रा ही मंजिल है। यात्रा का हर कदम मंजिल है। अगर तुम हर कदम को उसकी परिपूर्णता में जीओ तो कहीं और मंजिल नहीं; यहीं है, अभी है, वर्तमान में है—भविष्य में नहीं, अतीत में नहीं। तुम्हारे बोध में है, तुम्हारे बोध की समग्रता में है।
भगवान् व्यास-पुत्र श्री शुकदेव जी ने राजा परीक्षित से कहा था , ‘त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि’ अर्थात्, हे राजन्! ऐसा सोचना कि मैं मरूँगा, या मन, बुद्धि, अहंकार से अतीत अजर, अमर, अखण्ड सच्चिदानन्द परब्रह्म का अंश-स्वरूप मैं मर रहा हूँ , यह पशु बुद्धि (भेँड़बुद्धि) है, इसका त्याग कर दो। गुरु (बड़ा सिंह /नेता -C-IN-C, नवनीदा), शिष्य को (बाघ-शावक या Would be Leader को मनो दर्पण में विवेक-दर्शन की पद्धति का प्रशिक्षण देकर यह) बता देता है कि - वह वास्तव में क्या है ?...तुम अपने आदमी हो, सत्ता एक ही है - जैसे पिता-पुत्र ! भाई-भाई जैसे राम-लक्ष्मण !
[ यतो वाचो निवर्तन्ते । अप्राप्य मनसा सह ।
आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् । न बिभेति कुतश्चन।
एतꣳ ह वाव न तपति -
किमहꣳसाधु नाकरवम् ? अहं किं पापम् अकरवम् इति।
सः यः एवं विद्वान् एते उभे आत्मानं स्पृणुते।
यः एवम् वेद एषः आत्मानं स्पृणुते। इति उपनिषद् ॥ १॥
[इति नवमोऽनुवाकः ॥॥ इति ब्रह्मानन्दवल्ली समाप्ता ॥ (तैत्तिरीय 2.9)]
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
'ब्रह्म' का वह `आनन्द ' जहाँ से कुछ भी प्राप्त किए बिना वाणी वापिस लौट आती है, तथा मन भी जहाँ पहुँच कर विस्मय से चकित होकर लौट आता है, 'ब्रह्म' के उस आनन्द का जिसने साक्षात्कार कर लिया है, प्रत्यक्ष आत्मस्वरूप से जान लिया है; उसके लिए भय का कोई कारण ही नहीं रह जाता, वह सबका आत्मा हो जाता है। वह चाहे इस जगत् में, चाहे अन्यत्र, कहीं भी, भयभीत नहीं होता।
वास्तव में उसको कोई सन्ताप (दुःख) नहीं होता तथा ये पीड़ापूर्ण भाव उसके मन में नहीं आते- कि ''मैंने सत्कर्म को करना क्यों छोड़ दिया तथा मैंने 'उस पापकर्म' का आचरण को क्यों किया? क्योंकि जो ब्रह्मविद है , जो 'नित्यब्रह्म' को जानता है वह इन्हें जानता है, वह यह जानता है कि ये उसके 'आत्मतत्त्व' के समान ही हैं। हाँ,वह जानता है कि ये शुभ एवं अशुभ दोनों क्या हैं तथा 'ब्रह्म' को ऐसा जानते हुए वह आत्मा को मुक्त करता है। और यही है उपनिषद्, यही है वेद का रहस्य।
'वह' हम दोनों की एक साथ रक्षा करे; 'वह' एक साथ हम दोनों को अपने अधीन कर ले, हम एक साथ शक्ति एवं वीर्य अर्जित करें। हम दोनों का अध्ययन हमारे लिए तेजस्वी हो, प्रकाश एवं शक्ति से परिपूरित हो। हम कदापि विद्वेष न करें। ॐ शान्तिः शान्तिः। शान्तिः। हरिः ॐ।
He who knows the Bliss of Brahman from which all words return without reaching, It, together with the mind, is no more afraid of anything. Such thoughts ‘Why have I not done what is good? Why have I committed a sin,’ do not certainly come to distress a man of experience of the Truth. He who knows thus, regards both these as the Atman. Verily, both these are regarded by him who knows thus as only Atman. This is the Upanisad. Here ends the Brahmananda chapter.
Om. May He protect us both. May He help us both to enjoy the fruits of scriptural study. May we both exert together to find the true meaning of the sacred text. May our studies be fruitful. May we never quarrel with each other.Om. Peace! Peace! Peace!
[(24 दिसंबर, 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 69]
🔆🙏श्री रामकृष्ण की तपोस्थली - पंचवटी के वटवृक्ष के नीचे बने चबूतरे को प्रणाम 🔆🙏
"श्रीरामकृष्ण खड़े हो गए । चारों ओर सन्नाटा है । सिर्फ झाऊ के पेड़ों की सनसनाहट और गंगाजी की कलकल-ध्वनि सुन पड़ रही है । वे रेलिंग पार करके पंचवटी के भीतर से अपने कमरे की ओर मणि से बातचीत करते हुए जा रहे हैं । मणि मन्त्रमुग्ध की तरह पीछे पीछे जा रहे हैं ।
[ঠাকুর দণ্ডায়মান হইলেন। চতুর্দিক নিস্তব্ধ। কেবল ঝাউগাছের সোঁ-সোঁ শব্দ ও গঙ্গার কুলুকুলু ধ্বনি। তিনি রেল পার হইয়া পঞ্চবটীর মধ্য দিয়া নিজের ঘরের দিকে মণির সহিত কথা কইতে কইতে যাইতেছেন। মণি মন্ত্রমুগ্ধের ন্যায় সঙ্গে সঙ্গে যাইতেছেন।
Sri. Ramakrishna stood up. There was silence all around, disturbed only by the gentle rustling of the pine-needles and the murmuring of the Ganges. The Master went to the Panchavati and then to his room, talking all the while with M. The disciple followed him, fascinated.
पंचवटी में आकर, जहाँ उसकी एक डाल टूटी पड़ी है, वहीँ खड़े होकर, पूर्वास्य हो, बरगद के मूल पर बँधे हुए चबूतरे पर सिर टेककर प्रणाम किया । यह स्थान उनकी साधना का स्थान है । यहाँ पर उन्होंने व्याकुल होकर कितना क्रन्दन किया है कितने ही ईश्वरी रूपों के दर्शन किए हैं, और माता के साथ कितनी बातें की है ! क्या इसीलिए जब वे यहाँ आते हैं तो प्रणाम करते हैं ?”
[পঞ্চবটীতে আসিয়া, যেখানে ডালটি পড়ে গেছে, সেইখানে দাঁড়াইয়া পূর্বাস্য হইয়া বটমূলে, চাতাল মস্তক দ্বারা স্পর্শ করিয়া প্রণাম করিলেন। এই স্থান সাধনের স্থান; — এখানে কত ব্যাকুল ক্রন্দন — কত ঈশ্বরীয় রূপ দর্শন। আর মার সঙ্গে কত কথা হইয়াছে! — তাই কি ঠাকুর এখানে যখন আসেন, তখন প্রণাম করেন?
At the Panchavati Sri Ramakrishna touched with his forehead the raised platform around the banyan-tree. This was the place of his intense spiritual discipline, where he had wept bitterly for the vision of the Divine Mother, where he had held intimate communion with Her, and where he had seen many divine forms.
बकुलतल्ला होकर वे नौबतखाने के निकट आए । मणि साथ ही हैं ।
[বকুলতলা হইয়া নহবতের কাছে আসিয়াছেন। মণি সঙ্গে।
नौबतखाने के पास आकर हाजरा को देखा । श्रीरामकृष्ण उनसे कह रहे हैं – “अधिक न खाते जाना (घास ? ) और बाह्य शुद्धि की ओर इतना ध्यान देना छोड़ दो। (अर्थात मिमियाना (To bleat) > शिकायत भरी आह निकालना। छोड़ दो) जिन्हें बेकार यह धुन सवार रहती है उन्हें ज्ञान नहीं होता । आचार उतना ही चाहिए जितने की जरूरत है । बहुत ज्यादा अच्छा नहीं ।” श्रीरामकृष्ण ने अपने कमरे में पहुँचकर आसन ग्रहण किया ।
[जब तक लौकैषणा, वित्तेष्णा, पुत्रैषणा से पुर्णतः विनिर्मुक्त न हो जाय; या जब तक भगवत् कथामृत श्रवण में पूर्ण श्रद्धा जाग्रत न हो जाय, तब तक श्रद्धा-भक्ति के साथ कर्म-काण्ड का सम्पादन करना चाहिए। भगवत् कथामृत रसास्वादन-हेतु कर्म-काण्ड, उपासना, अनुष्ठान आदि के द्वारा तदनुसार योग्यता का सम्पादन अपेक्षित है।साभार krishnakosh.org]
[নহবতের কাছে আসিয়া হাজরাকে দেখিলেন। ঠাকুর তাঁহাকে বলিতেছেন, “বেশি খেয়ো না। আর শুচিবাই ছেড়ে দাও। যাদের শুচিবাই, তাদের জ্ঞান হয় না! আচার যতটুকু দরকার, ততটুকে করবে। বেশি বাড়াবাড়ি করো না।” ঠাকুর নিজের ঘরে গিয়া উপবেশন করিলেন।
The Master and M. passed the cluster of bakul-trees and came to the nahabat. Hazra was there. The Master said to him: "Don't eat too much, and give up this craze for outer cleanliness. People with a craze do not attain Knowledge. Follow conventions only as much as necessary. Don't go to excess." The Master entered his room and sat on the couch.
(२)
[(24 दिसंबर, 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 69]
🌼शिवसंहिता में योग की बातें हैं – षट्चक्रों की बात है 🌼
भोजन के बाद श्रीरामकृष्ण जरा विश्राम कर रहे हैं । बड़े दिन की छुट्टी लग गयी है । कलकत्ते से सुरेन्द्र, राम आदि भक्तगण धीरे धीरे आ रहे हैं ।दिन के एक बजे का समय होगा । मणि अकेले झाऊतल्ले में टहल रहे हैं । इसी समय रेलिंग के पास खड़े होकर हरीश उच्च स्वर से मणि को पुकारकर कह रहे हैं – “श्रीठाकुर देव आपको बुलाते हैं, शिव-संहिता ^* पढ़ी जायगी । शिवसंहिता में योग की बातें हैं – षट्चक्रों की बात है ।
[আহারান্তে ঠাকুর একটু বিশ্রাম করিতেছেন। আজ ২৪শে ডিসেম্বর। বড়দিনের ছুটি আরম্ভ হইয়াছে। কলিকাতা হইতে সুরেন্দ্র, রাম প্রভৃতি ভক্তেরা ক্রমে ক্রমে আসিতেছেন।বেলা একটা হইবে। মণি একাকী ঝাউতলায় বেড়াইতেছেন, এমন সময় রেলের নিকট দাঁড়াইয়া হরিশ উচ্চৈঃস্বরে মণিকে বলিতেছেন — প্রভু ডাকছেন, — শিবসংহিতা পড়া হবে।শিবসংহিতায় যোগের কথা আছে, — ষট্চক্রের কথা আছে।
Sri Ramakrishna was resting after his middav meal when Surendra, Ram, and other devotees arrived from Calcutta. It was about one o'clock. While M. was strolling alone under the pine-trees, Harish came there and told him that the Master wanted him in his room. Someone was going to read from title Siva Samhita, a book containing instructions about yoga and the six centres.
मणि श्रीरामकृष्ण के कमरे में आकर प्रणाम करके बैठे । श्रीरामकृष्ण छोटे तख्त पर तथा भक्तगण जमीन पर बैठे हुए हैं । इस समय शिवसंहिता का पाठ नहीं हुआ । श्रीरामकृष्ण स्वयं ही बातचीत कर रहे हैं ।
[মণি ঠাকুরের ঘরে আসিয়া প্রণাম করিয়া উপবেশন করিলেন। ঠাকুর খাটের উপর, ভক্তেরা মেঝের উপর বসিয়া আছেন। শিবসংহিতা এখন আর পড়া হইল না। ঠাকুর নিজেই কথা কহিতেছেন।
M. entered the room and saluted the Master. The devotees were seated on the floor, but no one was reading the book. Sri Ramakrishna was talking to the devotees.]
[(24 दिसंबर, 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 69]
🌼 अवतार और नरलीला>ईश्वर जब मनुष्य बनतें हैं, तब ठीक मनुष्य की तरह व्यवहार करते हैं 🌼
[नेता जैसा रोल मिला है , वैसी एक्टिंग करते हैं ,Leaders act as they have got the role.]
श्रीरामकृष्ण – गोपियों की प्रेमाभक्ति थी । प्रेमाभक्ति में दो बातें रहती हैं । - ‘अहंता’ और ‘ममता’ । यदि मैं श्रीकृष्ण की सेवा न करूँ तो उनकी तबियत बिगड़ जाएगी – यह अहंता है । इसमें ईश्वरबोध नहीं रहता ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — গোপীদের প্রেমাভক্তি। প্রেমাভক্তিতে দুটি জিনিস থাকে, — অহংতা আর মমতা। আমি কৃষ্ণকে সেবা না করলে কৃষ্ণের অসুখ হবে, — এর নাম অহংতা। এতে ঈশ্বরবোধ থাকে না।
MASTER: "The gopis cherished ecstatic love for Krishna. There are two elements in such love: 'I-ness' and 'my-ness'. 'I-ness' is the feeling that Krishna will be ill if 'I' do not serve Him. In this attitude the devotee does not look upon his Ideal as God.]
“ममता है ‘मेरा मेरा’ करना । गोपियों की ममता इतनी बढ़ी हुई थी कि कहीं पैरों में जरासी चोट न लग जाय, इएलिए उनका सूक्ष्मशरीर श्रीकृष्ण के श्रीचरणों के नीचे रहता था ।
[“মমতা, — ‘আমার আমার’ করা। পাছে পায়ে কিছু আঘাত লাগে, গোপীদের এত মমতা, তাদের সূক্ষ্ম শরীর শ্রীকৃষ্ণের চরণতলে থাকত।"
'My-ness' is to feel that the Beloved is 'my' own. The gopis had such a feeling of 'my-ness' toward Krishna that they would place their subtle bodies under His feet lest His soles should get hurt.
“यशोदा ने कहा, ‘तुम्हारे चिन्तामणि ^* श्रीकृष्ण को मैं नहीं जानती । - मेरा तो वह गोपाल ही है ।’ उधर गोपियाँ भी कहती हैं, ‘कहाँ हैं मेरे प्राणवल्लभ – हृदयवल्लभ’ ईश्वरबोध उनमें नहीं था ।
"Yasoda remarked: 'I don't understand your Chintamani Krishna. To me He is simply Gopala.' The gopis also said: 'Oh, where is Krishna, our Beloved? Where is Krishna, our Sweetheart?' They were not conscious of His being God.
“जैसे छोटे छोटे लड़के, मैंने देखा है, कहते हैं, ‘मेरे बाबा’ । यदि कोई कहता है, ‘नहीं, तेरे बाबा नहीं हैं’ तो वे कहते हैं, ‘क्यों नहीं – मेरे बाबा तो हैं ।’
[“যেমন ছোট ছেলেরা, দেখেছি, বলে, ‘আমার বাবা’। যদি কেউ বলে, ‘না, তোর বাবা নয়’; — তাহলে বলবে ‘না, আমার বাবা।’
"It is like a small child saying 'my daddy'. If someone says to the child, 'No, he is not your daddy', the child says, 'Yes, he is my daddy.'
“नरलीला करते समय अवतारी पुरुषों को ठीक आदमी की तरह आचरण करना पड़ता है, - इसीलिए उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता है । नररूप धारण किया है तो प्राकृत नरों की तरह ही आचरण करेंगे । वही भूख-प्यास, रोग-शोक, वही भय – सब प्रकृत मनुष्यों की तरह । श्रीरामचन्द्र सीताजी के वियोग में रोए थे । गोपाल ने नन्द की जूतियाँ सिर पर ढोयी थीं – पीढ़ा ढोया था ।
[“নরলীলায় অবতারকে ঠিক মানুষের মতো আচরণ করতে হয়, — তাই চিনতে পারা কঠিন। মানুষ হয়েছেন তো ঠিক মানুষ। সেই ক্ষুধা-তৃষ্ণা, রোগশোক, কখন বা ভয় — ঠিক মানুষের মতো। রামচন্দ্র সীতার শোকে কাতর হয়ছিলেন। গোপাল নন্দের জুতো মাথায় করে নিয়ে গিছলেন — পিঁড়ে বয়ে নিয়ে গিছলেন।
"God, incarnating Himself as man, behaves exactly like a man. That is why it is difficult to recognize an Incarnation. When God becomes man, He is exactly like man. He has the same hunger, thirst, disease, grief, and sometimes even fear. Rama was stricken with grief for Sita. Krishna carried on His head the shoes and wooden stool of His father Nanda.
“थियेटर में साधु बनते हैं तो साधुओं का-सा ही व्यवहार करते हैं – जो राजा बनता है, उसकी तरह व्यवहार नहीं करते । जो कुछ बनते हैं वैसा ही अभिनय भी करते हैं ।
[“থিয়েটারে সাধু সাজে, সাধুর মতই ব্যবহার করবে, — যে রাজা সেজেছে তার মতো ব্যবহার করবে না। যা সেজেছে তাই অভিনয় করবে।
"In the theatre, when an actor comes on the stage in the role of a holy man, he behaves like one, and not like the actor who is taking the part of the king. He plays his own role.
“कोई (लड़का फ़ैंसीड्रेस प्रयोगिता में) बहुरुपिया साधु बना था, - त्यागी साधु । श्वाँग उसने ठीक बनाकर दिखलाया था, इसलिए बाबुओं ने उसे एक रुपया देना चाह । उसने न लिया, ‘ऊँहूँ’ कहकर चला गया । देह और हाथ-पैर धोकर अपने सहज स्वरूप में जब आया तब उसने रुपया माँगा । बाबुओं ने कहा, ‘अभी तो तुमने कहा, रुपया न लेंगे और चले गए, अब रुपया लेने कैसे आए ?’ उसने कहा, ‘तब मैं साधु बना हुआ था, उस समय रुपया कैसे ले सकता था !’
“इसी तरह ईश्वर जब मनुष्य बनतें हैं, तब ठीक मनुष्य की तरह व्यवहार करते हैं ।
[“একজন বহুরূপী সেজেছে, ‘ত্যাগী সাধু’। সাজটি ঠিক হয়েছে দেখে বাবুরা একটি টাকা দিতে গেল। সে নিলে না, উঁহু করে চলে গেল। গা-হাত-পা ধুয়ে যখন সহজ বেশে এলো, বললে, ‘টাকা দাও’। বাবুরা বললে, ‘এই তুমি টাকা নেবো না বলে চলে গেলে, আবার টাকা চাইছ?’ সে বললে, ‘তখন সাধু সেজেছি, টাকা নিতে নাই।’“তেমনি ঈশ্বর, যখন মানুষ হন, ঠিক মানুষের মতো ব্যবহার করেন।
"Once an impersonator dressed himself as a world-renouncing monk. Pleased with the correctness of his disguise, some rich people offered him a rupee. He did not accept the money but went away shaking his head. Afterwards he removed his disguise and appeared in his usual dress. Then he said to the rich people, 'Please give me the rupee.' They replied: 'Why, you went away refusing our present. Why do you ask for it now?' The man said: 'But then I was in the role of a holy man. I could not accept money.' Likewise, when God becomes man He behaves exactly like a man.
“वृन्दावन जाने पर कितने ही लीला के स्थान दीख पड़ते हैं ।”
[“বৃন্দাবনে গেলে অনেক লীলার স্থান দেখা যায়।”
"At Vrindavan one sees many places associated with Krishna's life."]
[(24 दिसंबर, 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 69]
🌼 किसी 'मंगता' के सामने आने पर, कार का शीशा नहीं चढ़ाना चाहिए दान देना चाहिये 🌼
सुरेन्द्र – हम लोग छुट्टी में (वृन्दावन) गए थे । वहाँ मँगते इतने हैं कि ‘पैसा दीजिए’, ‘पैसा दीजिए’ की रट लगा देते हैं । ‘दीजिए’ ‘दीजिए’करने लगे – पण्डे भी और दूसरे भी । उनसे मैंने कहा, हम कल कलकत्ता जाएँगे; यह कहकर उसी दिन वहाँ से नौ-दो-ग्यारह !
[সুরেন্দ্র — আমরা ছুটিতে গিছলাম; বড় “পয়সা দাও”, “পয়সা দাও” করে। ‘দাও’ ‘দাও’ করতে লাগল — পাণ্ডারা আর সব। তাদের বললুম, ‘আমরা কাল কলকাতা যাব’। বলে, সেই দিনই পলায়ন।
SURENDRA: "We were there during the holidays. Visitors were continually pestered for money. The priests and others asked for it continually. We told them that we were going to leave for Calcutta the next day, but we fled from Vrindavan that very night."
श्रीरामकृष्ण – यह क्या है ? कल जाएँगे कहकर आज ही भागना ! छिः !
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ও কি! ছি! কাল যাব বলে আজ পালানো! ছি!
MASTER: "What is that? Shame! You said you would leave the place the next day and ran away that very day. What a shame!"
सुरेन्द्र(लज्जित होकर) – उन लोगों में भी कहीं कहीं साधुओं को देखा था ! निर्जन में बैठे हुए साधन-भजन कर रहे थे ।
[সুরেন্দ্র (লজ্জিত হইয়া) — বনের মধ্যে মাঝে মাঝে বাবাজীদের দেখেছিলাম, নির্জনে বসে সাধন-ভজন করছে।
SURENDRA (embarrassed): "Here and there we saw the babajis in the woods practising spiritual discipline in solitude."
श्रीरामकृष्ण – साधुओं को कुछ दिया ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ — বাবাজীদের কিছু দিলে?
MASTER: "Did you give them anything?"
सुरेन्द्र – जी नहीं ।
श्रीरामकृष्ण – यह अच्छा काम नहीं किया । साधु (संन्यासियों को ) -भक्तों को कुछ दिया जाता है । जिनके पास धन है, उन्हें उस तरह के आदमी को सामने पड़ने पर कुछ देना चाहिए ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ও ভাল কর নাই। সাধুভক্তদের কিছু দিতে হয়। যাদের টাকা আছে, তাদের ওরূপ লোক সামনে পড়লে কিছু দিতে হয়।
MASTER: "That was not proper of you. One should give something to monks and devotees. Those who have the means should help such persons when they meet them.
[(24 दिसंबर, 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 69]
🌼 1868 में श्रीरामकृष्ण का मथुरबाबू और ह्रदय के साथ श्री वृंदावन-दर्शन 🌼
(मथुरा का ध्रुवघाट, द्वादशवन ,श्यामकुण्ड और राधाकुण्ड आदि का दर्शन)
“मैं भी वृन्दावन गया था, मथुरबाबू के साथ । ज्योंही मथुरा का ध्रुवघाट ^* मैंने देखा कि उसी समय दर्शन हुआ, वसुदेव श्रीकृष्ण को गोद में लेकर यमुना पार कर रहे हैं ।
[“মথুরার ধ্রুবঘাট যাই দেখলাম অমনি দপ্ করে দর্শন হল, বসুদেব কৃষ্ণ কোলে যমুনা পার হচ্ছেন।
"I went to Vrindavan with Mathur Babu. The moment I came to the Dhruva Ghat3 at Mathura, in a flash I saw Vasudeva crossing the Jamuna with Krishna in his arms.
“फिर शाम को यमुना के तट पर टहल रहा था । बालू पर छोटे छोटे झोपड़े थे, बेर के पेड़ बहुत थे । गोधूली का समय था, गौएँ चरागाह से लौट रही थीं । देखा, उतरकर यमुना पार कर रही हैं । इसके बाद कुछ चरवाहे गौओं को लेकर पार होने लगे । ज्योंही यह देखा कि ‘कृष्ण कहाँ है ?’ कहकर बेहोश हो गया ।
[“আবার সন্ধ্যার সময় যমুনাপুলিনে বেড়াচ্ছি, বালির উপর ছোট ছোট খোড়োঘর। বড় কুলগাছ। গোধূলির সময় গাভীরা গোষ্ঠ থেকে ফিরে আসছে। দেখলাম হেঁটে যমুনা পার হচ্ছে। তারপরেই কতকগুলি রাখাল গাভীদের নিয়ে পার হচ্ছে।“যেই দেখা, অমনি ‘কোথায় কৃষ্ণ!’ বলে — বেহুঁশ হয়ে গেলাম।
"One evening I was taking a stroll on the beach of the river. There were small thatched huts on the beach and big plum-trees. It was the 'cow-dust' hour. The cows were returning from the pasture, raising dust with their hoofs. I saw them fording the river. Then came some cowherd boys crossing the river with their cows. No sooner did I behold this scene than I cried out, 'O Krishna, where are You?' and became unconscious.
“श्यामकुण्ड ^* और राधाकुण्ड ***** के दर्शन करने की इच्छा हुई थी । पालकी पर मुझे मथुरबाबू ने भेज दिया। रास्ता बहुत दूर है । पालकी के भीतर पूड़ियाँ और जलेबियाँ रख दी गयी थीं । मैदान पार करते समय यह सोचकर रोने लगा, ‘वे सब स्थान तो हैं, पर कृष्ण, तू ही नहीं है ! – यह वही भूमि है जहाँ तू गौएँ चराता था ।
[শ্যামকুণ্ড, রাধাকুণ্ড দর্শন করতে ইচ্ছা হয়েছিল। পালকি করে আমায় পাঠিয়ে দিলে। অনেকটা পথ; লুচি, জিলিপি পালকির ভিতরে দিলে। মাঠ পার হবার সময় এই ভেবে কাঁদতে লাগলাম, ‘কৃষ্ণ রে! তুই নাই, কিন্তু সেই সব স্থান রয়েছে! সেই মাঠ, তুমি গোরু চরাতে!’
"I wanted to visit Syamakunda and Radhakunda; so Mathur Babu sent me there in a palanquin. We had a long way to go. Food was put in the palanquin. While going over the meadow I was overpowered with emotion and wept: 'O Krishna, I find everything the same; only You are not here. This is the very meadow where You tended the cows.'
“हृदय रास्ते में साथ साथ पीछे आ रहा था । मेरी आँखों से आँसूओं की धारा बह रही थी । कहारों को खड़े होने के लिए भी न कह सका ।
[“হৃদে রাস্তায় সঙ্গে সঙ্গে পেছনে আসছিল। আমি চক্ষের জলে ভাসতে লাগলাম। বিয়ারাদের দাঁড়াতে বলতে পারলাম না!
Hriday followed me on foot. I was bathed in tears. I couldn't ask the bearers to stop the palanquin.
“श्यामकुण्ड और राधाकुण्ड में जाकर देखा, साधुओं ने एक एक झोपड़ी-सी बना रखी है, - उसी के भीतर पीठ फेरकर साधन-भजन कर रहे हैं । पीठ इसलिए फेर बैठे हैं कि कहीं लोगों पर उनकी दृष्टि न जाए । द्वादशवन देखने लायक है ।
[শ্যামকুণ্ড, রাধাকুণ্ডতে গিয়ে দেখলাম, সাধুরা একটি একটি ঝুপড়ির মতো করেছে; — তার ভিতরে পিছনে ফিরে সাধন-ভজন করছে — পাছে লোকের উপর দৃষ্টিপাত হয়। দ্বাদশ বন দেখবার উপযুক্ত।
"At Syamakunda and Radhakunda I saw the holy men living in small mud huts. Facing away from the road lest their eyes should fall on men, they were engaged in spiritual discipline. One should visit the 'Twelve Grove'.
बाँकेबिहारी ^** को देखकर मुझे भाव हो गया था; मैं उन्हें पकड़ने चला था । गोविन्दजी को दुबारा देखने की इच्छा नहीं हुई । मथुरा में जाकर राखाल-कृष्ण का स्वप्न देखा था । हृदय और मथुरबाबू ने भी देखा था ।”
[বঙ্কুবিহারীকে দেখে ভাব হয়েছিল, আমি তাঁকে ধরতে গিছিলাম। গোবিনজীকে দুইবার দেখতে চাইলাম না। মথুরায় গিয়ে রাখাল-কৃষ্ণকে স্বপন দেখেছিলাম। হৃদে ও সেজোবাবুও দেখেছিল।”
"I went into samadhi at the sight of the image of Bankuvihari. In that state I wanted to touch it. I did not want to visit Govindaji twice. At Mathura I dreamt of Krishna as the cowherd boy. Hriday and Mathur Babu had the same dream.
[(24 दिसंबर, 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 69]
🔆🙏जगतजननी माँ काली के भक्त को चारो पुरुषार्थ प्राप्त होता है🔆🙏
[माँ तारा का पुत्र 'धर्म और मोक्ष' दोनों पाता है, तथा 'अर्थ' और 'काम' का भोग भी करता है]
(सुरेन्द्र ^ *से) – “ तुम्हारे योग भी है और भोग भी है ।
[“তোমাদের যোগও আছে, ভোগও আছে।
(To Surendra) "You have both — yoga and bhoga.
{सुरेन्द्र - [सुरेन्द्रनाथ मित्र (1850 - 1890) ] - ठाकुर के गृही भक्त, चार रसददारों में से एक । निष्कपट वक्ता (candid-स्पष्टवादी)। अपने प्रारंभिक जीवन में वे नास्तिक थे और डस्ट कंपनी के मुख्य कार्यपालक अधिकारी थे। लगभग तीस साल की उम्र में बहुत सन्देहपूर्ण और अविश्वासी मन के साथ अपने मित्र रामचंद्र दत्त और मनोमोहन मित्रा के कहने पर श्रीठाकुर देव का दर्शन करने के लिए दक्षिणेश्वर गए थे। किन्तु ठाकुर देव के अमृत-रूपी वाणी को सुनकर उनका मुर्झाया हुआ मन, शुष्क ह्रदय हरा हो उठा , सबकुछ भूलकर उन वचनों से अभिभूत हो गए। इसी उम्र से वे निरंतर श्रीरामकृष्ण के स्मरण -मनन में डूबे रहने लगे थे । ठाकुरदेव का सानिध्य प्राप्त करने के लिए वे अक्सर दक्षिणेश्वर जाते रहते थे ; और स्वयं श्री श्री रामकृष्ण भी उनपर कृपादृष्टि रखते थे और अपने प्रियभक्त के घर पर पधारते थे। इस महामिलन के फलस्वरूप , सुरेन्द्र का अस्तव्यस्त-अशांत जीवन शान्त हो गया और उन्होंने ठाकुर को अपने 'गुरु' (मार्गदर्शक नेता C-IN-C) के रूप में ग्रहण कर लिया। सुरेन्द्र के घर पर माँ अन्नपूर्णा, माँ जगधात्री आदि देवियों की पूजा की जाती थी। उन्हीं के घर पर ठाकुरदेव ने पहली बार नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द ) के गाने सुने थे। इन उत्सवों को आयोजित करने में बहुत खर्च होता था , किन्तु सुरेन्द्र बहुत प्रसन्नता के साथ सम्पूर्ण खर्च का वहन करते थे। जिस समय श्रीरामकृष्ण काशीपुर उद्यान बाड़ी में रह रहे थे , उसका अधिकांश खर्च वे ही वहन करते थे। ठाकुर उन्हें 'रसददार ' कहकर सम्बोधित करते थे। 'रामकृष्ण जन्मोत्स्व ' का प्रारम्भ सुरेन्द्रनाथ ने ही ठाकुर देव के जीवनकाल में ही 1881 ई. में प्रथम बार किया था , तथा बाद में भी आयोजित इस उत्सव का अधिकांश खर्च वे ही वहन किया करते थे। ठाकुरदेव के शरीर-त्याग करने के बाद, उनके त्यागी सन्तानों की सेवा के लिए सुरेन्द्र ने काफी धन दिया था। 25 मई 1890 को कलकत्ता में श्रीश्री ठाकुर के परम् भक्त सुरेन्द्रनाथ की मृत्यु हुई।]
“ब्रह्मर्षि, देवर्षि और राजर्षि । ब्रह्मर्षि जैसे शुकदेव – एक भी पुस्तक पास नहीं है । देवर्षि जैसे नारद । राजर्षि जैसे जनक – निष्काम कर्म करते हैं ।
[“ব্রহ্মর্ষি, দেবর্ষি, রাজর্ষি। ব্রহ্মর্ষি, যেমন শুকদেব — একখানি বইও কাছে নাই। দেবর্ষি, যেমন নারদ। রাজর্ষি জনক, — নিষ্কামকর্ম করে।
There are different classes of sages: the brahmarshi, the devarshi, and the rajarshi. Sukadeva is an example of the brahmarshi. He didn't keep even one book with him. An example of the devarshi is Narada. Janaka was a rajarshi, devoted to selfless work.
“देवीभक्त (माँ तारा का बेटा) 'धर्म और मोक्ष' दोनों पाता है। तथा 'अर्थ और काम' का भी भोग करता है।
[“দেবীভক্ত ধর্ম, মোক্ষ দু-ই পায়। আবার অর্থ, কামও ভোগ করে।
"The devotee of the Divine Mother attains dharma and moksha. He enjoys artha and kama as well.
[(24 दिसंबर, 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 69]
🌼श्रीरामकृष्ण को घाट पर एक देवीभक्त का दर्शन- नवीन नियोगी को योग और भोग 🌼
[ঘাটে ঠাকুরের দেবীভক্তদর্শন — নবীন নিয়োগীর যোগ ও ভোগ ]
“तुम्हें एक दिन मैंने देवीपुत्र (the child of the Divine Mother.) देखा था । तुम्हारे दोनों हैं, योग और भोग । नहीं तो तुम्हारा चेहरा (countenance-मुखड़ा) सूखा हुआ होता ।
“তোমাকে একদিন দেবীপুত্র দেখেছিলাম। তোমার দুই-ই আছে — যোগ আর ভোগ। না হলে তোমার চেহারা শুষ্ক হত।”
Once I saw you in a vision as the child of the Divine Mother. You have both — yoga and bhoga; otherwise your countenance (मुखमण्डल) would look dry.]
“सर्वत्यागी का चेहरा सूखा हुआ होता है । एक देवीभक्त (माँ का बेटा-Mother's child) को घाट पर मैंने देखा था । भोजन करते हुए ही वह देवीपूजा कर रहा था । उसका सन्तान-भाव था ।
[“সর্বত্যাগীর চেহারা শুষ্ক। একজন দেবীভক্তকে ঘাটে দেখেছিলাম। নিজে খাচ্ছে আর সেই সঙ্গে দেবীপূজা কচ্ছে। সন্তানভাব!
"The man who renounces all looks dry. Once I saw a devotee of the Divine Mother at the bathing-ghat on the Ganges. He was eating his meal and at the same time worshipping the Mother. He looked on himself as the Mother's child .
[वह स्वयं को माँ का प्यारा-(आँखों का तारा) बेटा समझता था। .....जूठे हाथ से माँ की पूजा कर रहा था , दक्षिणेश्वर घाट पर नहाते समय बोल रहा था- `माँ बाड़ी दे, नय तो गाड़ी दे !']
[(24 दिसंबर, 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 69]
🌼यदि देवीभक्त नहीं रहो और अत्यधिक धन हो जाये- तब अहं बढ़ जायेगा 🌼
“परन्तु अधिक धन होना अच्छा नहीं । यदु मल्लिक^* को इस समय देखा, डूब गया है । अधिक धन हो गया है न ।
“नवीन नियोगी ^* के भी योग-भोग दोनों हैं । दुर्गापूजा के समय मैंने देखा, पिता-पुत्र दोनों चँवर डुला रहे थे ।”
[“তবে বেশি টাকা হওয়া ভাল নয়। যদু মল্লিককে এখন দেখলাম ডুবে গেছে! বেশি টাকা হয়েছে কি না।
“নবীন নিয়োগী, — তারও যোগ ও ভোগ দুই-ই আছে। দুর্গাপূজার সময় দেখি, বাপ-ব্যাটা দুজনেই চামর কচ্ছে।”
"But it isn't good to have much money. I find that Jadu Mallick is drowned in worldliness. It is because he has too much money. Nabin Niyogi, too, has both yoga and bhoga. I saw him and his son waving the fan before the image of the Divine Mother at the time of the Durga Puja."
[यदुलाल मल्लिक (1844 - 1894) - पथुरियाघाट , कलकत्ता के निवासी मोतीलाल मल्लिक के दत्तक पुत्र थे धनी, वाक्पटु और ईश्वर -भक्त थे । 1861 ई. में प्रवेश परीक्षा पास करने के बाद B.A. तक की पढाई पूरी की थी। उन्होंने कुछ समय तक कानून की पढ़ाई भी की थी । `ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन' के सदस्य तथा 'कलकत्ता नगर पालिका' के अध्यक्ष पद पर रहते समय,उच्च पदस्थ सरकारी अधिकारियों की कठोर आलोचना के लिए कोलकाता नगरपालिका के चेयर मैन सर हेनरी हैरिसन ने उन्हें "The Fighting Cock" (लड़ाकू आदमी)" कहा था । वे दानशील थे और शिक्षा के प्रति पर्याप्त उदार थे। श्री रामकृष्ण देव भक्तों के साथ 21 जुलाई 1883 ई. को यदूबाबू के पथुरीयाघाट वाले मकान पर गए थे और नित्यसेविता देवी सिंह वाहिनी का दर्शन करके समाधिस्त हो गए थे। दक्षिणेश्वर कालीमंदिर के दक्षिण में गंगा के तट पर स्थित यदुबाबू के तीन मंजिला मकान का कुछ हिस्सा पश्चिम बंगाल सरकार ने श्रीरामकृष्ण महामण्डल को बेच दिया है। इस समय उस स्थल पर महामण्डल द्वारा संचालित एक `अंतरराष्ट्रीय गेस्ट हाउस' तथा ठाकुर की एक संगमरमर की मूर्ति एक मंदिर में स्थापित है। उसी उद्यान बाड़ी के ड्राइंग-रूम की दीवाल पर लगी `मदर मेरी की गोद में बालक ईसा मसीह' की एक छवि को देखकर वे (श्रीरामकृष्ण) ईसाई भाव में अनुप्रेरित हुए थे, और उसी भाव में आवेशित रहते हुए पंचवटी में लगातार तीन दिनों तक पंचवटी में प्रभु ईसा मसीह का दिव्यदर्शन प्राप्त किये थे। ठाकुर ने एकबार इसी ड्राइंग-रूम में भावावस्था में नरेन्द्रनाथ का स्पर्श किया था, तब उनकी बाह्यचेतना (होश) चली गयी थी, और श्री रामकृष्ण के पूछने पर नरेन्द्रनाथ ने इस धरती पर जन्म लेने और ठाकुर के विशेष लीला सहायक की भूमिका निभाने की बात कही थी। श्री रामकृष्ण अक्सर यदुबाबू के उस ड्राइंग-रूम में जाया करते तथा उनके पथुरियाघाट वाले निवासस्थान पर पधार कर उनके परिवार को धन्य किया था। ]
[नवीन नियोगी (दक्षिणेश्वर निवासी भक्त नवीन चंद्र नियोगी) - अक्सर ठाकुर से मिलने आते थे। 5 अक्टूबर 1884 ई. को नवीन नियोगी के घर पर 'नीलकण्ठ मुखर्जी की जात्रा ' (गीति आलेख) आयोजित हुआ था , उस अवसर पर श्री ठाकुरदेव उनके घर पर पधारे थे। उस दिन ठाकुर नवीन चंद्र और उनके पुत्र की देवीभक्ति की प्रशंसा कर रहे थे। ठाकुर ने कहा था कि उनके योग और भोग दोनों हैं। दुर्गापूजा के समय नवीन और उनके पुत्र दोनों माँ दुर्गा को चँवर डुलाते थे। साधना के दौरान , ठाकुर देव ने जब भैरवी ब्राह्मणी को 'मण्डल घाट' पर रहने का अनुरोध किया था; उस समय नवीन नियोगी की धर्मनिष्ठ पत्नी ने उनकी सेवा और देखभाल की अच्छी व्यवस्था की थी। ]
[(24 दिसंबर, 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 69]
🔆🙏माँ जगदम्बा का स्मरण-मनन (विवेक-दर्शन) करते रहने से ध्यान हो जाता है🔆🙏
सुरेन्द्र – अच्छा महाराज, ध्यान क्यों नहीं होता ?
[সুরেন্দ্র — আজ্ঞা, ধ্যান হয় না কেন?
SURENDRA: "Sir, why can't I meditate?"
श्रीरामकृष्ण – स्मरण-मनन तो है न ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ — স্মরণ-মনন তো আছে? (अर्थात विधिवत मनःसंयोग या प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास तो करते हो न ?
MASTER: "You remember God and think of Him, don't you?"
सुरेन्द्र – जी हाँ, ‘माँ माँ’ कहता हुआ सो जाता हूँ ।
[সুরেন্দ্র — আজ্ঞা, মা মা বলে ঘুমিয়ে পড়ি।
SURENDRA: "Yes, sir. I go to sleep repeating the word 'Mother'."]
श्रीरामकृष्ण – बहुत अच्छा है, स्मरण-मनन रहने से ही हुआ ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — খুব ভাল। স্মরণ-মনন থাকলেই হল।
MASTER: "That is very good. It will be enough if you remember God and think of Him."
श्रीरामकृष्ण (माँ काली) ने सुरेन्द्र का भार ले लिया है; अब उन्हें चिन्ता किस बात की ?
[ঠাকুর সুরেন্দ্রের ভার লইয়াছেন। আর তাঁহার ভাবনা কি?
Sri Ramakrishna had taken Surendra's responsibilities on himself. Why should Surendra worry about anything?]
(३)
[(24 दिसंबर, 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 69]
🔆🙏शिवसंहिता- छह मानसिक केन्द्र (The six psychic centers )🔆🙏
[শিব সংহিতায় যোগের বিষয় — ষট্চক্র ]
[The six psychic centers - Siva Samhita.]
सन्ध्या के बाद श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । मणि भी भक्तों के साथ जमीन पर बैठे हैं । योग के सम्बन्ध में, षट्चक्रों के सम्बन्ध में बातचीत हो रही है । ये सब बातें शिवसंहिता में हैं ।
[সন্ধ্যার পর ঠাকুর ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। মণিও ভক্তদের সহিত মেঝেতে বসিয়া আছেন। যোগের বিষয় — ষট্চক্রের বিষয় — কথা কহিতেছেন। শিব সংহিতায় সেই সকল কথা আছে।
It was evening. The Master was sitting on the floor of his room with the devotees. He was talking to them about yoga and the six centres. These are described in the Siva Samhita.
श्रीरामकृष्ण – इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना – सुषुम्ना (नाड़ी -Nerve) के भीतर सब पद्म हैं – सभी चिन्मय ! जैसे मोम का पेड़, – डाल, पत्ते फल, – सब मोम के! मूलाधार पद्म में कुण्डलिनी-शक्ति है!
वह पद्म चतुर्दल है! जो आद्याशक्ति हैं, वही कुण्डलिनी के रुप में सब की देह में विराजमान हैं – जैसे सोता हुआ साँप कुण्डलाकार पड़ा रहता है! ‘प्रसुप्तभुजगाकारा आधारपद्मवासिनी!‘
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ঈড়া, পিঙ্গলা, সুষুম্নার ভিতর সব পদ্ম আছে — চিন্ময়। যেমন মোমের গাছ, — ডাল, পালা, ফল, — সব মোমের। মূলাধার পদ্মে কুলকুণ্ডলিনী শক্তি আছেন। চর্তুদল পদ্ম। যিনি আদ্যাশক্তি তিনিই সকলের দেহে কুলকুণ্ডলিনীরূপে আছেন। যেন ঘুমন্ত সাপ কুণ্ডলী পাকিয়ে রয়েছে! “প্রসুপ্ত-ভুজগাকারা আধারপদ্মবাসিনী!”
MASTER: "Ida, Pingala, and Sushumna are the three principal nerves. All the lotuses are located in the Sushumna. They are formed of Consciousness, like a tree made of wax — the branches, twigs, fruits, and so forth all of wax. The Kundalini lies in the lotus of the Muladhara. That lotus has fourteen petals. The Primordial Energy resides in all bodies as the Kundalini. She is like a sleeping snake coiled up — 'of the form of a sleeping snake, having the Muladhara for Her abode'. ]
(मणि से) भक्तियोग से कुलकुण्डलिनी शीघ्र जागृत होती है । इसके बिना जागृत हुए ईश्वर के दर्शन नहीं होते ।
तुम एकाग्रता के साथ निर्जन में गाया करना –
जागो माँ कुलकुण्डलिनी,
तुमि ब्रह्मानन्दस्वरूपिणी, तुमि नित्यानन्दस्वरूपिणी,
प्रसुप्त्-भुजगाकारा आधारपद्मवासिनी।
त्रिकोणे ज्वले कृशानु, तापिता होइलो तनु,
मूलाधार त्यज शिवे स्वयन्भू-शिव-वेष्टिनी।
गच्छ सुषुम्नारि पथ, स्वाधिष्ठाने होओ उदित,
मणिपुर अनाहत विशुध्दाज्ञा संचारिणी।
शिरसि सहस्त्रदले, पर शिवेते मिले,
क्रीडा करो कुतूहले, सच्चिदानन्ददायिनी।
" ओ माँ कुलकुण्डलिनि, तुम जागो! तुम नित्यानन्द- स्वरूपिणी हो, ब्रह्मानन्द-स्वरूपिणी हो; ऐ मूलाधार - पद्म में बसनेबाली माँ, तुम् सर्प के समान सोयी हुई हो। त्रितापरूपी अग्नि से, ओ माँ, मेरा तन - मन जला जा रहा है। ऐ स्वयम्भू शिव की सहचरी शिवे, मूलाधार को छोड स्वाधिष्ठान में उदित होकर सुषुम्ना के पथ से ऊपर उठो। फिर माँ मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा चक्रो में से होते हुए मस्तक में सहस्रार में पहुँचकर परमशिव के साथ युक्त हो जाओ, और हे माँ सच्चिदानन्ददायिनी, वहाँ पर आनन्द के साथ क्रिडा करो।
[(মণির প্রতি) — ভক্তিযোগে কুলকুণ্ডলিনী শীঘ্র জাগ্রত হয়। কিন্তু ইনি জাগ্রত না হলে ভগবানদর্শন হয় না। গান করে করে একাগ্রতার সহিত গাইবে — নির্জনে গোপনে —‘জাগো মা কুলকুণ্ডলিনী! তুমি নিত্যানন্দ স্বরূপিণী, প্রসুপ্ত-ভুজগাকারা আধারপদ্মবাসিনী।’
—(To M.) The Kundalini is speedily awakened if one follows the path of bhakti. God cannot be seen unless She is awakened. Sing earnestly and secretly in solitude: "Waken, O Mother! O Kundalini, whose nature is Bliss Eternal! Thou art the serpent coiled in sleep, in the lotus of the Muladhara.]
“गाना गाकर ही रामप्रसाद सिद्ध हुए थे । व्याकुल होकर गाना गाने पर ईश्वरदर्शन होते हैं ।”
मणि – जी हाँ, यह सब एक बार करने से ही मन का खेद मिट जाता है ।
[মণি — আজ্ঞা, এ-সব একবার করলে মনের খেদ মিটে যায়!
M: "Grief and distress of mind disappear if one has these experiences but once."
श्रीरामकृष्ण – अहा ! खेद मिट जाता है – सत्य है । “योग के सम्बन्ध की दो-चार बातें तुम्हें बतला देनी चाहिए ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — আহা! খেদ মেটেই বটে। “যোগের বিষয় গোটাকতক মোটামুটি তোমায় বলে দিতে হবে।”
MASTER: "That is true. Distress of mind disappears for ever. I shall tell you a few things about yoga.
[(24 दिसंबर, 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 69]
🔆🙏 आध्यात्मिक उन्नति के लिए उचित समय आने पर गुरु (=T) ही सब कुछ करते हैं !!🔆🙏
[অহংকার, ত্যাগ হলেই, গুরুই সব করেন, সময় হলেই পাখি ডিম ফুটোয়।]
[Proper time for spiritual unfoldment.as soon as he gets rid of ego]
“बात यह है कि अण्डे के भीतर चूजा जब तक बड़ा नहीं हो जाता तब तक चिड़िया उसे नहीं फोड़ती ।
“परन्तु कुछ साधना करनी चाहिए । गुरु ही सब कुछ करते हैं, परन्तु अन्त में कुछ साधना भी करा लेता हैं । बड़े पेड़ को आरी से काटते समय जब काटना लगभग समाप्त होने पर रहता है, तो कुछ हटकर खड़ा हुआ जाता है । पेड़ फिर आप ही हरहराकर टूट जाता है ।
“কি জান, ডিমের ভিতর ছানা বড় না হলে পাখি ঠোকরায় না। সময় হলেই পাখি ডিম ফুটোয়।“তবে একটু সাধনা করা দরকার। গুরুই সব করেন, — তবে শেষটা একটু সাধনা করিয়ে লন। বড় গাছ কাটবার সময় প্রায় সবটা কাটা হলে পর একটু সরে দাঁড়াতে হয়। তারপর গাছটা মড়মড় করে আপনিই ভেঙে পড়ে।
MASTER: But you see, the mother bird doesn't break the shell until the chick inside the egg is matured. The egg is hatched in the fullness of time. It is necessary to practise some spiritual discipline. The guru [गुरु =T, SV, Mother, C-IN-C नवनीदा) no doubt does everything for the disciple; but at the end he makes the disciple work a little himself. When cutting down a big tree, a man cuts almost through the trunk; then he stands aside for a moment, and the tree falls down with a crash.]
“जब नाली काटकर पानी लाया जाता है, और जब वह समय आता है कि थोड़ासा ही काटने से नहर के साथ नाली का योग हो जाय, तब नाली काटनेवाला कुछ हटकर खड़ा ही जाता है । तब मिट्टी भीगकर धँस जाती है और नहर का पानी हरहराकर नाली में घुस पड़ता है ।
[“যখন খাল কেটে জল আনে, আর-একটু কাটলেই নদীর সঙ্গে যোগ হয়ে যাবে, তখন যে কাটে সে সরে দাঁড়ায়, তখন মাটিটা ভিজে আপনিই পড়ে যায়, আর নদীর জল হুড়হুড় করে খালে আসে।
"The farmer brings water to his field through a canal from the river. He stands aside when only a little digging remains to be done to connect the field with the water. Then the earth becomes soaked and falls of itself, and the water of the river pours into the canal in torrents.
“अहंकार, उपाधि, इन सब का त्याग होने के साथ ही ईश्वर के दर्शन होते हैं । मैं पण्डित हूँ, मैं अमुक का अपुत्र हूँ, मैं धनी हूँ, मैं मानी हूँ, इन सब उपाधियों को त्याग देने से ही ईश्वर के दर्शन होते हैं ।
[“অহংকার, উপাধি — এ-সব ত্যাগ হলেই ঈশ্বরকে দর্শন করা যায়। ‘আমি পণ্ডিত’, ‘আমি অমুকের ছেলে’, ‘আমি ধনী’, ‘আমি মানী’ — এ-সব উপাধি ত্যাগ হলেই দর্শন।
"A man is able to see God as soon as he gets rid of ego and other limitations. He sees God as soon as he is free from such feelings as 'I am a scholar', 'I am the son of such and such a person', 'I am wealthy', 'I am honourable', and so forth.]
[(24 दिसंबर, 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 69]
🔆🙏अहं मिटते ही नित्यानित्य विवेक होता है, विवेक हुए बिना महावाक्य ग्रहण नहीं🔆🙏
[ সংসার , দর্শন, — স্পর্শন, — সম্ভোগ! অনিত্য — এর নাম বিবেক]
[Vision — touch — enjoyment- the world is illusory' — that is discrimination.]
“ईश्वर ही सत्य हैं और सब अनित्य – संसार अनित्य है – इसे विवेक कहते हैं । विवेक के हुए बिना उपदेशों का ग्रहण नहीं होता ।
[“ঈশ্বর সত্য আর সব অনিত্য, সংসার অনিত্য — এর নাম বিবেক। বিবেক না হলে উপদেশ গ্রাহ্য হয় না।"
'God alone is real and all else unreal; the world is illusory' — that is discrimination. One cannot assimilate spiritual instruction without discrimination.]
“साधना करते करते ही उनकी कृपा से लोग सिद्ध होते हैं । कुछ परिश्रम भी करना चाहिए । इसके बाद दर्शन और आनन्द ।
‘अमुक स्थान पर सोने का घड़ा गड़ा हुआ है, यह सुनते ही मनुष्य दौड़ पड़ता है और खोदने लग जाता है । खोदते खोदते सिर से पसीना निकल जाता है । बहुत देर तक खोदने के बाद कहीं कुदार में ठनकार आती है । तब कुदार फेंककर वह देखने लगता है कि घड़ा निकला या नहीं ? घड़ा अगर दीख पड़ा तब तो उसके आनन्द का पारावार नहीं रह जाता – वह नाचने लगता है ।
“घड़ा बाहर लाकर उसमें से मुहरें निकालकर वह गिनता है । तब कितना आनन्द होता है ! दर्शन, स्पर्श और संभोग – क्यों ?”
[“সাধনা করতে করতে তাঁর কৃপায় সিদ্ধ হয়। একটু খাটা চাই। তারপরই দর্শন ও আনন্দলাভ। “অমুক জায়গায় সোনার কলসী পোতা আছে শুনে লোক ছুটে যায়। আর খুঁড়তে আরম্ভ করে। খুঁড়তে খুঁড়তে মাথায় ঘাম পড়ে। অনেক খোঁড়ার পর এক জায়গায় কোদালে ঠন্ করে শব্দ হল; কোদাল ফেলে দেখে, কলসী বেরিয়েছে কি না। কলসী দেখে নাচতে থাকে। “কলসী বার করে মোহর ঢেলে, হাতে করে গণে — আর খুব আনন্দ ! দর্শন, — স্পর্শন, — সম্ভোগ! — কেমন?”
"Through the practice of spiritual discipline one attains perfection, by the grace of God. But one must also labour a little. Then one sees God and enjoys bliss. If a man hears that a jar filled with gold is buried at a certain place, he rushes there and begins to dig. He sweats as he goes on digging. After much digging he feels the spade strike something. Then he throws away the spade and looks for the jar. At the sight of the jar he dances for joy. Then he takes up the jar and pours out the gold coins. He takes them into his hand, counts them, and feels the ecstasy of joy. Vision — touch — enjoyment. Isn't it so?"]
[(24 दिसंबर, 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 69]
🔆🙏जो अपना आदमी है, उसको तिरस्कार करने पर भी वह नाराज नहीं होता 🔆🙏
मणि – जी हाँ ।
श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप हो रहे । फिर कहने लगे –
“जो मेरे अपने आदमी हैं, उन्हें डाँटने पर भी वे आएँगे ।
“अहा ! नरेन्द्र का कैसा स्वभाव है ! माँ काली को पहले उसके जी में जो आता था वही कहता था मैंने चिढ़कर एक दिन कहा था ‘मूर्ख, तू अब यहाँ न आना ।’ तब वह धीरे धीरे जाकर कुछ काम करने लगा। जो अपना आदमी है, उसको तिरस्कार करने पर भी वह नाराज नहीं होता – क्यों ?”
[“আমার যারা আপনার লোক, তাদের বকলেও আবার আসবে।“আহা, নরেন্দ্রের কি স্বভাব। মা-কালীকে আগে যা ইচ্ছা তাই বলত; আমি বিরক্ত হয়ে একদিন বলেছিলাম, ‘শ্যালা, তুই আর এখানে আসিস না।’ তখন সে আস্তে আস্তে গিয়ে তামাক সাজে। যে আপনার লোক, তাকে তিরস্কার করলেও রাগ করবে না। কি বল?”
MASTER: "Those who are my own will come here even if I scold them. Look at Narendra's nature! At first he used to abuse my Mother Kali very much. One day I said to him sharply, 'Rascal! Don't come here any more.' He slowly left the room and prepared a smoke. He who is one's own will not be angry even if scolded. What do you say?"]
मणि – जी हाँ ।
श्रीरामकृष्ण – नरेन्द्र स्वतः सिद्ध है । निराकार पर उसकी निष्ठा है ।
मणि(सहास्य) – जब आता है तब एक महाभारत रच लाता है ।
श्रीरामकृष्ण आनन्द से हँसते हुए कहते हैं – “हाँ सच हैं ।”
(४)
[(24 दिसंबर, 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 69]
🔆🙏`एकादशी करने से मन बहुत पवित्र होता है और ईश्वर पर भक्ति होती है'🔆🙏
दूसरे दिन मंगलवार, २५ दिसम्बर, कृष्णपक्ष की एकादशी है । दिन के ग्यारह बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण ने अभी भोजन नहीं किया । मणि और राखाल आदि भक्त श्रीरामकृष्ण के कमरे में बैठे हुए हैं ।
[পরদিন মঙ্গলবার, ২৫শে ডিসেম্বর, কৃষ্ণপক্ষের একাদশী। বেলা প্রায় এগারটা হইবে। ঠাকুরের এখনও সেবা হয় নাই। মণি রাখালাদি ভক্তেরা ঠাকুরের ঘরে বসিয়া আছেন।
The following day was Tuesday; the ekadasi day of the lunar fortnight. It was eleven o'clock in the morning and the Master had not yet taken his meal. M., Rakhal, and other devotees were sitting in the Master's room.
श्रीरामकृष्ण(मणि से) – एकादशी करना अच्छा है । इससे मन बहुत पवित्र होता है और ईश्वर पर भक्ति होती है, समझे ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — একাদশী করা ভাল। ওতে মন বড় পবিত্র হয়, আর ঈশ্বরেতে ভক্তি হয়। কেমন?
MASTER (to M.): "One should fast on the eleventh day of the lunar fortnight. That purifies the mind and helps one to develop love of God. Isn't that so?"
मणि – जी हाँ ।
মণি — আজ্ঞা, হাঁ।
M: "Yes, sir."
श्रीरामकृष्ण – मुढ़ी (चूड़ा) और दूध – यही खाओगे, क्यों ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ — খই-দুধ খাবে, — কেমন?
MASTER: "But you may take milk and puffed rice. Don't you think so?"]
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`देर कभी नहीं होती , जब जागो तभी सवेरा।'
ओ भाई ! उठो, जागो, अब खोलो आँखे ! जरा देश-दुनिया को देखो; बहुत सो लिया, बहुत खो लिया, अब कुछ करके दिखलाओ। ये समय जो हाथों से निकल जाएगा, फिर वापस आने वाला नहीं है। इस बहुमूल्य युवावस्था को बेकार की मोह-माया में फस कर क्यों बर्बाद कर रहे हो? कुछ अपने सपने पूरे करो, करो कुछ परोपकार, इन बंद आँखों से पट्टी हटाके देखो बाहर एक बार ।। बुढ़ापे में खुद को कोशते रह जाओगे जब एक ग्लास भी ना उठाया जाएगा। बहु-बेटे, दामाद-बेटी, नाती-पोते सब अपने मे मस्त होंगे। जो आज तक किया है, तुमने कल तुम्हें वही वापस मिल जाएगा। 6 मई, 1971 से 6 मई , 2022 तक कुल 52 test match खेलने के बाद अब अद्वैत ज्ञान को आँचल में बाँधकर दूसरी पारी`Second innings' खेलने के लिए तैयार हो जाओ !
हिंदू पंचांग के अंतर्गत प्रत्येक माह की 11वीं तीथि को एकादशी कहा जाता है। एकादशी को भगवान विष्णु को समर्पित तिथि माना जाता है। एकादशी व्रत की बड़ी महिमा है। एक ही दशा में रहते हुए अपने आराध्य देव का पूजन व वंदन करने की प्रेरणा देने वाला व्रत ही एकादशी व्रत कहलाता है। प्रत्येक महीने में एकादशी दो बार आती है–एक शुक्ल पक्ष के बाद और दूसरी कृष्ण पक्ष के बाद। पूर्णिमा के बाद आने वाली एकादशी को कृष्ण पक्ष की एकादशी और अमावस्या के बाद आने वाली एकादशी को शुक्ल पक्ष की एकादशी कहते हैं। मोहिनी एकादशी के दिन व्रत रखने से कई लाभ मिलते हैं। व्रत रखने वाला व्यक्ति मोह के बंधन से मुक्त हो जाता है। साथ ही हजार गायों के बराबर पुण्य मिलता है। इस साल मोहिनी एकादशी 12 मई गुरुवार को है।
1.मोहिनी एकादशी [Mohini Ekadashi गुरुवार, 12 मई ,2022]:>
मोहिनी अवतार : मोहिनी भगवान विष्णु का एकमात्र स्त्री रूप अवतार है। इसमें उन्हें ऐसे स्त्री रूप में दिखाया गया है जो सभी को मोहित कर ले। पुराणों में जिन्हें पुराण पुरुष कहा गया है, वह भगवान विष्णु भुवन मोहिनी मुस्कान के साथ सारे संसार का पालन कर रहे हैं, यही उनका काम और कर्तव्य भी बताया जाता है। आखिर, उस पुराण - पुरुष को स्त्री का अवतार क्यों लेना पड़ा? अवतार शब्द को थोड़ा आसान कर दें तो इसे ऐसे कहीं कि पुरुष को रूप बदलकर स्त्री क्यों बनना पड़ा? जबकि कई सुंदर स्त्रियों के नाम मौजूद थे ? जैसे इंद्र की सभा में रंभा, मेनका जैसी अप्सराएं अपार सुंदर थीं। वह नृत्य और गान की भी महारथी थीं। लेकिन एक तर्क ऐसा हो सकता है कि यह अप्सराएं देव-दानवों दोनों की परिचित थीं। अमृत-कलश वाली कथा में एक ऐसा खूबसूरत स्त्री किरदार चाहिए था, जिसे कोई जानता न हो। हुआ भी यही, असुर उसकी सुंदरता से इतने मोहित हुए कि नाम-गांव तो पूछना भूल गए उल्टा अमृत कलश सौंप दिया। इस प्रसंग को पौराणिक स्त्री-जासूसी गतिविधि [मोहिनी अवतार कभी सिन्दूर नहीं लगाती यही है Bh की पहचान ?] का एक उदाहरण माना जा सकता है। उसके प्रेम में वशीभूत होकर कोई भी सब भूल जाता है, चाहे वह भगवान शिव ही क्यों न हों। कभी महादेव को भस्मासुर से बचाने के लिए तो कभी असुरों से अमृत लेकर देवताओं को पिलाने के लिए श्रीहरि ही मोहिनी अवतार लेते हैं। इस अवतार का उल्लेख महाभारत में भी आता है।
महर्षि शुकदेव ने बताया मोहिनी का रहस्य- (कई असुरों का अंत स्त्री शक्ति ने किया) वर्तमान में भागवत कथा में इस प्रसंग को सुनाते हुए आधुनिक संत-महात्मा भी इस प्रसंग का संकेत समझने की ओर इशारा करते हैं। ठीक उसी तरह जैसे राजा जन्मेजय को भागवत और पुराण की कथा सुनाते हुए ऋषि शुकदेव जी मोहिनी अवतार की बात पर रुक गए। क्या है मोहिनी का संकेत ? यहां वह इस बात पर जोर देते हुए कहते हैं कि राजन, यह सिर्फ इतनी सी बात नहीं है कि जगदीश ने मोहिनी अवतार लिया, बल्कि इसके जरिए वह संकेत करते हैं कि इस संसार में स्त्री ही शक्ति है। प्रकृति का जो भी रूप है वह स्त्री रूप है। यानी हर पुरुष में लालन-पालन, प्रेम, दया, करुणा और क्रोध का जो आंतरिक भाव होता है, जिसके ऊपर वह अपनी कठोरता का आवरण चढ़ाता है, वह स्त्री का ही दिया हुआ है। हर पुरुष की शक्ति है स्त्री। तुम राजा हो और सद् विचारों से अपनी प्रजा का ध्यान रखते हो, तो यह तुम्हारे अंदर छिपी हुई वत्सला और ममता है, इससे कोई अछूता नहीं रह सकता। यह अवतार महज शिव को भस्मासुर से बचाने के लिए नहीं है, और न ही केवल देवताओं को अमृत पिलाने के लिए है, बल्कि यह अवतार बताता है कि पुरुष को जब अपने बाहुबल और वर्चस्व पर घमंड हो जाए तो बस एक बार वह खुद को कई परतों के नीचे झांक कर देख ले।
यही वजह है कि आगे चलकर कई कामी और पाप के पर्याय हो चले असुरों का अंत स्त्री शक्ति ने किया, जिन्होंने खुद को प्रकृति से अलग ही मान लिया था। ऋषि शुकदेव के इस कथन पर छद्म नारीवादी सवाल , सेक्युलरवादी सामाजिक न्याय के पैरोकार, सिर उठाएं इससे पहले ही साफ कर देना जरूरी है कि अनुशासन हीनता और अपराध करने वाला, आतंकवादी न पुरुष रह जाता है न ही स्त्री, न हिन्दू न मुसलमान। उसे इन सबसे परे सिर्फ अपराधी ही समझना चाहिए.
बह्म वैवर्त पुराण ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की रचना का वर्णन करता है। उस दौरान सबसे पहले एक स्त्री का अवतरण हुआ। इसी स्त्री की मुस्कान से प्रेरित होकर ब्रह्नांड की रचना की गई। ब्रह्माण्ड और पद्म पुराण भी यह बताते हैं कि विष्णु के आज्ञाचक्र में निवास करने वाली देवी ही विश्व मोहिनी हैं, जिनके कारण प्राणि की बुद्धि, स्मृति और मेधा शक्ति होती है। यही देवी नींद, भूख, प्यास को भी जगाती हैं और नियंत्रण में रखती हैं। शाक्त परंपरा में इसे ही स्वतंत्र रूप में त्रिपुर सुंदरी कहा गया है। वायु पुराण में मधु - कैटभ राक्षसों के वध से पहले मोहिनी ही प्रकट होकर विष्णु की सहायता करती हैं। मोहिनी की ही माया के प्रभाव में राक्षसों ने विष्णु से खुद की ही मृत्यु का वर मांग लिया।
समुद्र मंथन के समय जब देवताओं व असुरों को सागर से अमृत मिल चुका था, तब देवताओं को यह डर था कि असुर कहीं अमृत पीकर अमर न हो जायें। तब वे भगवान विष्णु के पास गये व प्रार्थना की कि ऐसा होने से रोकें। तब भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लेकर अमृत देवताओं को पिलाया व असुरों को मोहित कर अमर होने से रोका।
वैशाख शुक्ल एकादशी को मोहिनी एकादशी मनाई जाती है। कहते हैं कि इस दिन भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया था, जिसे देखकर शिवजी भी कामातुर हो गए थे। इसके पीछे एक पौराणिक कथा है कि जब देवासुर संग्राम हुआ था तो उसमें देवताओं को दैत्यों के राजा बलि ने पराजित करके उनसे स्वर्ग लोक छीन लिया था। देवराज इंद्र जब भगवान विष्णु के पास समाधान के लिए पहुंचे तब विष्णु भगवान ने उन्हें क्षीरसागर में विविध रत्न होने की जानकारियां दीं और साथ-साथ यह भी बताया कि समुद्र में अमृत भी छुपा हुआ है। तब विष्णु भगवान ने देवराज इंद्र को देवों और असुरों के लिए समुद्र मंथन का प्रस्ताव रखने के लिए कहा था । इंद्र, विष्णु जी का प्रस्ताव लेकर दैत्यराज बलि के पास गए और समुद्र मंथन के लिए उन्हें राजी किया। फिर क्षीर सागर में समुद्र मंथन हुआ। जिसमें कुल 14 रत्न मिले। उनमें धन्वंतरी वैद्य अमृत कलश लेकर प्रकट हुए।उसअमृत-कलश को लेकर देवताओं और राक्षसों में विवाद हो गया। दैत्यों ने अमृत कलश देवताओं से छीन लिया। फिर दैत्य आपस में उसे हासिल करने के लिए झपटने लगे। भगवान विष्णु को जब पता चला तो उन्होंने एक सुंदर स्त्री का अवतार धारण किया। उसका नाम मोहिनी था। मोहिनी इतनी ज्यादा सुंदर और कामुक थीं कि अच्छे से अच्छा तपस्वी भी उसे देखकर अपना आपा खो बैठे।
अमृत कलश को लेकर आपस में लड़ रहे दैत्यों के बीच जब मोहिनी पहुंची तो दैत्यों में खलबली मच गई। मोहिनी को देखकर सभी दैत्यों कीं आंखें एक ही जगह टिक गई। मोहिनी के पास योगमाया शक्ति थी। कहते हैं कि तीनों लोकों में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं था, जिसे मोहिनी अपने वश में नहीं कर सकती थी। दैत्य उसे देखते ही मोहित हो गए। उन्होंने मोहिनी से उनका झगड़ा मिटाने का अनुरोध की। दैत्यों ने अमृत कलश मोहिनी के हाथों में थमा दिया। मोहिनी ने कहा कि वह अमृत सभी लोगों में बराबर बांट देगी। दैत्य मोहिनी की बातों में आ गए। मोहिनी कलश से अमृत बांटने लगी। वह देवताओं को अमृत पिलाती और दैत्यों को सिर्फ अमृत देने का नाटक करती। दैत्यों को लगा कि वह अमृत पी रहे हैं, मगर वे सिर्फ मोहिनी के रंग-रूप में खोए हुए थे।
[श्री विष्णु की अवतार तथा विश्व-मोहित करने वाली देवी मोहिनी, अस्त्र-मोहकता एवं सुदर्शन चक्र!] जब शिव को इस बारे में पता चला तो वे भी वहां पहुंच गए। जब मोहिनी शिवजी के सामने आई तो वह भी उससे मोहित हो गए। वह मोहिनी की अदाओं को एकटक देखते रहे। उनका अपने मन पर नियंत्रण न रहा। वे कामातुर हो गए। वह सभी बातें भूल मोहिनी के पीछे-पीछे भागने लगे। जहां-जहां मोहिनी जाती, शिव उनके पीछे आ जाते। इस दौरान कई जगहों पर शिव का वीर्य स्खलित हुआ। कहा जाता है कि धरती पर जहां-जहां शिव का वीर्य गिरा, वहां शिवलिंग और सोने की खदानें बन गईं।
जिस दिन भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण किया था। उस दिन वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि थी। इसलिए इस एकादशी को मोहिनी एकादशी कहते हैं। हिंदू पंचांग के अनुसार,वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि- मोहिनी एकादशी 11 मई 2022 को शाम 7 बजकर 31 मिनट से शुरू होकर 12 मई 2022 की शाम 6 बजकर 51 मिनट तक रहेगी। ज्योतिषाचार्यों के अनुसार उदया तिथि 12 मई को होने के कारण मोहिनी एकादशी का व्रत इसी दिन रखा जाएगा। साथ ही बता दें कि मोहिनी एकादशी व्रत का पारण 13 मई 2022 को सुबह 5 बजकर 32 मिनट से 8 बजकर 14 मिनट के बीच किया जाएगा।
मोहिनी एकादशी व्रत कथा : एक समय श्रीराम अपने गुरु वशिष्ठ जी से बोले कि हे गुरुदेव! कोई ऐसा व्रत बताइए, जिससे समस्त पाप और दु:ख का नाश हो जाए। मैंने सीताजी के वियोग में बहुत दु:ख भोगे हैं। महर्षि वशिष्ठ बोले: हे राम! आपने बहुत सुंदर प्रश्न किया है। आपकी बुद्धि अत्यंत शुद्ध तथा पवित्र है। यद्यपि आपका नाम स्मरण करने से मनुष्य पवित्र और शुद्ध हो जाता है, तब भी लोकहित में यह प्रश्न अच्छा है। वैशाख मास में जो एकादशी आती है उसका नाम मोहिनी एकादशी है। इसका व्रत करने से मनुष्य सब पापों तथा दु:खों से छूटकर मोहजाल से मुक्त हो जाता है। मैं इसकी कथा कहता हूँ। ध्यानपूर्वक सुनो।
सरस्वती नदी के तट पर भद्रावती नाम की एक नगरी में द्युतिमान नामक चंद्रवंशी राजा राज करता था। वहाँ धन-धान्य से संपन्न व पुण्यवान धनपाल नामक वैश्य भी रहता है। वह अत्यंत धर्मालु और विष्णु भक्त था। उसने नगर में अनेक भोजनालय, प्याऊ, कुएँ, सरोवर, धर्मशाला आदि बनवाए थे। सड़कों पर आम, जामुन, नीम आदि के अनेक वृक्ष भी लगवाए थे। उसके 5 पुत्र थे- सुमना, सद्बुद्धि, मेधावी, सुकृति और धृष्टबुद्धि। इनमें से पाँचवाँ पुत्र धृष्टबुद्धि महापापी था। वह देवता -पितर आदि को नहीं मानता था। वह वेश्या, दुराचारी मनुष्यों की संगति में रहकर जुआ खेलता और पर-स्त्री के साथ भोग-विलास करता तथा मद्य-मांस का सेवन करता था। इसी प्रकार अनेक कुकर्मों में वह पिता के धन को नष्ट करता रहता था।
इन्हीं कारणों से त्रस्त होकर पिता ने उसे घर से निकाल दिया था। घर से बाहर निकलने के बाद वह अपने गहने एवं कपड़े बेचकर अपना निर्वाह करने लगा। जब सब कुछ नष्ट हो गया तो वेश्या और दुराचारी साथियों ने उसका साथ छोड़ दिया। अब वह भूख-प्यास से अति दु:खी रहने लगा। कोई सहारा न देख चोरी करना सीख गया।
एक बार वह पकड़ा गया तो वैश्य का पुत्र जानकर चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। मगर दूसरी बार फिर पकड़ में आ गया। राजाज्ञा से इस बार उसे कारागार में डाल दिया गया। कारागार में उसे अत्यंत दु:ख दिए गए। बाद में राजा ने उसे नगरी से निकल जाने का कहा।वह नगरी से निकल वन में चला गया। वहाँ वन्य पशु-पक्षियों को मारकर खाने लगा। कुछ समय पश्चात वह बहेलिया बन गया और धनुष-बाण लेकर पशु-पक्षियों को मार-मारकर खाने लगा।
एक दिन भूख-प्यास से व्यथित होकर वह खाने की तलाश में घूमता हुआ कौण्डिन्य ऋषि के आश्रम में पहुँच गया। उस समय वैशाख मास था और ऋषि गंगा स्नान कर आ रहे थे। उनके भीगे वस्त्रों के छींटे उस पर पड़ने से उसे कुछ सद्बुद्धि प्राप्त हुई। वह कौण्डिन्य मुनि से हाथ जोड़कर कहने लगा कि: हे मुने! मैंने जीवन में बहुत पाप किए हैं। आप इन पापों से छूटने का कोई साधारण बिना धन का उपाय बताइए। उसके दीन वचन सुनकर मुनि ने प्रसन्न होकर कहा कि तुम वैशाख शुक्ल की मोहिनी एकादशी का व्रत करो। इससे अनेक जन्मों के किये हुए मेरु पर्वत जैसे समस्त महापाप भी नष्ट हो जाते हैं | मुनि के वचन सुनकर वह अत्यंत प्रसन्न हुआ और उनके द्वारा बताई गई विधि के अनुसार व्रत किया। हे राम! इस व्रत के प्रभाव से उसके सब पाप नष्ट हो गए और अंत में वह गरुड़ पर बैठकर विष्णुलोक को गया। इस व्रत से मोह आदि सब नष्ट हो जाते हैं। संसार में इस व्रत से श्रेष्ठ कोई व्रत नहीं है। इसके माहात्म्य को पढ़ने से अथवा सुनने से एक हजार गौदान का फल प्राप्त होता है।
एकादशी व्रत का नियम : यह व्रत सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक किया जाता है। एकादशी व्रत का भोजन सात्विक होना चाहिए। दशमी के दिन से ही श्रद्धालुओं को मांस-मछली, प्याज, दाल (मसूर की) और शहद जैसे खाद्य-पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। - ताजे फल, मेवे, साबूदाना, सूजी, मूढ़ी, दूध,चीनी,अदरक, काली मिर्च,सेंधा नमक,आलू, या शकरकंद को भोजन के रूप में ग्रहण कर सकते हैं। एकादशी तिथि भगवान विष्णु को समर्पित है। ये भोलेनाथ के परम भक्त और मुख्य गण कहे जाते हैं। भगवान विष्णु के हाथ में स्थित सुदर्शन चक्र इन्हें महादेव की भक्ति से ही वरदान स्वरूप मिला था। सार यही है कि श्रीहरि विष्णु के कारण अपने आराध्य महाकाल के रूप में शिवलिंग स्वरूप चावल न खाने की परम्परा चल पड़ी हो। एकादशी व्रत में भूलकर भी चावल न खाएं क्योंकि चावल का स्वरूप शिवलिंग की तरह होता है। एकादशी के दिन चावल खाना महर्षि मेधा के मांस और रक्त के सेवन करने जैसा माना जाता है। मेधा हमारे विवेकज-ज्ञान, या विवेक -प्रयोग को भी कहते हैं। इसलिए एकादशी के दिन चावल के भक्षण से विवेक-प्रयोग शक्ति भ्रष्ट और कमजोर होने लगती है। जिससे हमारे निर्णय (श्रेय-प्रेय विवेक) सटीक नहीं बैठते। जो लोग किसी मेडिकल कारण से एकादशी व्रत नहीं रखते हैं, उन्हें एकादशी के दिन भोजन में चावल का प्रयोग नहीं करना चाहिए तथा झूठ एवं परनिंदा से बचना चाहिए। रात के समय भोग-विलास से दूर रहते हुए, पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। एकादशी के दिन यथाशक्ति गाय-नन्दी, बैल, श्वान आदि को अन्न खिलाना चाहिए अन्य दान भी करना चाहिए। यह परंपरा उत्तर भारत में ज्यादा है, क्योंकि यहां वैष्णव सम्प्रदाय को मानने वाले ज्यादा है। यह भगवान विष्णु की धरती है। दक्षिण भारत को सदाशिव भूमि मानते हैं। दक्षिण भारत में गेहूं न खाने के पीछे मान्यता यह है कि-गेहूं का आकार योनि की तरह होता है। इसके उपभोग से आलस्य-प्रमाद, सुस्ती तथा सेक्सुअल विचार आते हैं।
मोहिनी एकादशी व्रत विधि- एकादशी के दिन सूर्योदय से पहले उठकर नहाएं और हो सके तो गंगाजल को पानी में डालकर नहाना चाहिए। इसके बाद साफ कपड़े पहनकर भगवान की पूजा करनी चाहिए।भगवान की मूर्ति के सामने घी का दीप जलाएं और फिर व्रत का संकल्प लें। विष्णु भगवान का गंगा जल से अभिषेक करें। इसके बाद विष्णु भगवान को साफ- स्वच्छ वस्त्र पहनाएं। विष्णु भगवान की आरती करें और भोग लगाएं। विष्णु भगवान के भोग में तुलसी को जरूर शामिल करें। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार बिना तुलसी के विष्णु भगवान भोग स्वीकार नहीं करते हैं। साथ ही एकादशी तिथि को बाल, नाखून करना या दाढ़ी बनवाना भी वर्जित है। इस बात का विशेष ध्यान रखें कि भगवान को सिर्फ सात्विक चीजों का भोग लगाया जा सकता है।
#एकादशी व्रत के मई 2022 से कुल दिनांक [New Delhi, India, Tara Plastics से Tara Towers तक की यात्रा में -AA200422015985J dated 06-05-2022/ Unique ID is 20AAOFH8462M1ZY. LOGIN CREDENTIALS HAVE BEEN SENT TO THE REGISTERD e-mail ID.GSTN.] :
2. गुरुवार, 26 मई> अपरा एकादशी
3. शनिवार, 11 जून> निर्जला एकादशी
4. शुक्रवार, 24 जून> योगिनी एकादशी
5. रविवार, 10 जुलाई> देवशयनी एकादशी
6. रविवार, 24 जुलाई > कामिका एकादशी
7. सोमवार, 08 अगस्त> श्रावण पुत्रदा एकादशी
8. मंगलवार, 23 अगस्त> अजा एकादशी
9. मंगलवार, 06 सितंबर> परिवर्तिनी एकादशी
10. बुधवार, 21 सितंबर> इन्दिरा एकादशी
11. गुरुवार, 06 अक्टूबर> पापांकुशा एकादशी
12. शुक्रवार, 21 अक्टूबर> रमा एकादशी
13. शुक्रवार, 04 नवंबर> देवुत्थान एकादशी
14. रविवार, 20 नवंबर> उत्पन्ना एकादशी
15. शनिवार, 03 दिसंबर> मोक्षदा एकादशी
16. सोमवार, 19 दिसंबर> सफला एकादशी
बाँकेबिहारी जी का मंदिर ^**बाँके बिहारी मंदिर भारत में मथुरा जिले के वृंदावन धाम में रमण रेती पर स्थित है। स्वामी हरिदासजी के द्वारा निधिवन स्थित विशाखा कुण्ड से श्रीबाँकेबिहारी जी प्रकटित हुए थे। इस मन्दिर में कृष्ण के साथ श्रीराधिका विग्रह की स्थापना नहीं हुई। वैशाख मास की अक्षय तृतीया के दिन श्रीबाँकेबिहारी के श्रीचरणों का दर्शन होता है। पहले ये निधिवन में ही विराजमान थे। यह भारत के प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। बाँके बिहारी कृष्ण का ही एक रूप है जो इसमें प्रदर्शित किया गया है। इसका निर्माण १८६४ में स्वामी हरिदास ने करवाया था।स्वामी हरिदास जी संगीत के प्रसिद्ध गायक एवं तानसेन के गुरु थे। युगल किशोर सरकार की मूर्ति राधा कृष्ण की संयुक्त छवि या ऐकीकृत छवि के कारण बाँके बिहारी जी के छवि के मध्य ऐक अलौकिक प्रकाश की अनुभूति होती है,जो बाँके बिहारी जी में राधा तत्व का परिचायक है।
श्याम कुंड और राधा कुण्ड ***** राधा कुंड का अपना ही महत्व है. मथुरा नगरी से लगभग 26 किलोमीटर दूर गोवर्धन परिक्रमा में राधा कुंड स्थित है जो कि परिक्रमा का प्रमुख पड़ाव है। इस कुंड के बारे में एक पौराणिक मान्यता यह भी है कि निसंतान दंपत्ति कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी की मध्य रात्रि को राधा कुंड में एक साथ स्नान करते हैं तो उन्हें संतान की प्राप्ति होती है। इस दिन पति और पत्नि दोनों ही निर्जला व्रत रखते हैं और मध्य रात्रि में राधा कुंड में डूबकी लगाते हैं। राधा कुंड क्षेत्र पहले राक्षस अरिष्टासुर की नगरी अरीध वन थी. चूंकि श्रीकृष्ण ने अरिष्टासुर का वध गौवंश के रूप में किया था, इसलिए राधा जी ने श्रीकृष्ण को चेताया कि उन्हे गौवंश हत्या का पाप लगेगा. यह सुनकर श्रीकृष्ण ने अपनी बांसुरी से एक कुंड खोदा और उसमें स्नान किया. इस पर राधा जी ने भी बगल में अपने कंगन से एक दूसरा कुंड खोदा और उसमें स्नान किया. श्रीकृष्ण के खोदे गए कुंड को श्याम कुंड ^* और राधाजी के कुंड को राधा कुंड कहते हैं.
उड़ीसा और श्री जगन्नाथ का सम्बन्ध :
जगन्नाथ शब्द का अर्थ “जगत् का नाथ” नहीं, (जगत् न अथ) है। कारण नाथ शब्द भर्ता, ईश्वर आदि के अर्थमें व्यवहार किया जाता है, जिसमें ब्रह्म और विश्व – यह द्वैत के भावना होती है। (यतो वाचो निवर्तन्ते। अप्राप्य मनसा सह। आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्। न बिभेति कुतश्चनेति।)। यहाँ आनन्द शक्ति का अर्थ सर्व स्वातन्त्र्य है। इसीलिए जगन्नाथ का अपूर्व मूर्ति, जो अचिन्त्य, अप्रमेय, निर्गुण ब्रह्म का सगुण चिन्तन का परिप्रकाश है, विश्व के अन्य सब देवताओं के मूर्ती से विलक्षण है। अथ शब्द आनन्तर्यवाची है। अतः विश्व के साथसाथ जो अनकहा तत्त्व है (जगत् न अथ), उस तत्वको जगन्नाथ कहते हैं। यही जगन्नाथके साथ ओडिआ जाति का आत्मिक सम्बन्धको दिखाता है, तथा उनके लक्षण (न बिभेति कुतश्चन, कलिङ्गाः साहसिकाः) को भी दर्शाता है।
पूर्व भारत में बाली नामक एक राजा हुए। वह निःसन्तान थे। दीर्घतमा नामक वैदिक ऋषि के कृपा से उनके पाञ्च सन्तान हुए, जिनके नाम थे – अङ्ग, बङ्ग, कलिङ्ग, पुण्ड्र ओर सुम्हु। इनके नाम से पाञ्च जनपद (अङ्ग, बङ्ग, कलिङ्ग आदि) स्थापित हुए। यह आख्यायिका शतपथब्राह्मणम्, मनुसंहिता, बौधायन धर्मसूत्रम्, अष्टाध्यायी, आदि ग्रन्थों में मिलता है। कलिङ्ग के राजा श्रुतायु और श्रुतसेन महाभारत युद्ध में भाग लिया था। कपिलपुराण और एकाम्र पुराण केवल ओडिशा के विषय में है। अलर्कचन्द्र (Alexander) जिन प्राच्य (Prasioi) राजाओं का विक्रम तथा उनके गजारोही सैन्यों के विषय में सुन कर भयभीत हुये थे, वह कलिङ्गराज ही थे। कारण केवल कलिङ्गराज को आज पर्यन्त गजपति सम्बोधन किया जाता है – अन्य राजाओं को नहीं। आन्ध्र के विजयनगरम् (Vizianagaram) और विजयवाहुडा (Vijaywada) दोनों नगर तथा सिम्हाचलम् के वराहलक्ष्मीनृसिंह मन्दिर तथा विजयवाडा के कनकदुर्गा मन्दिर भी कलिङ्ग राजाओं ने वनाया है।उत्कल तथा कलिङ्ग का नामकरण तत्कालीन राजाओं के नाम पर हुआ था। परन्तु ओड्र नाम गुणवाची है। इसीलिए, भरत के नाट्यशास्त्रमें देशप्रवृत्ति में ओड्र नाम आता है। क्लीव लिङ्ग में ओड्र शब्द का अर्थ जवापुष्प है, जो अपने लालरङ्ग के कारण प्रसिद्ध है (ॐ जवाकुसुम सङ्काशं काश्यपेयं महाद्युतिम्)। रक्तवर्ण क्षात्रधर्म और वीरता का प्रतीक है।
सिंहल के प्राचीन इतिहास दीपवंस और महावंस के मत में सिंहलद्वीप का स्थापना सिंहवाहु पुत्र विजयसिंह ने किया था। सिंहलीय प्राचीन कवि धर्मकीर्त्ति के मत में सिंहवाहु कलिङ्ग के राजा थे। दीपवंस में सिंहवाहु को लाल वंश का सम्राट कहागया है। यहाँ लाल का अर्थ ओड्र है।साधनमाला ग्रन्थ के अनुसार वज्रयान के चार प्रमुख पीठों में से उड्डीयान (ओडिशा) एक है। कोणार्क सूर्यमन्दिर में जिराफ़ का छवि प्रमाण करता है कि ओडिशा के लोग विदेश के विषय में ज्ञान रखते थे। पालुर एक प्रसिद्ध बंदरगाह था, जो चिलिका के निकट स्थित है और जहाँ से ओडिशा के वणिक पूर्वी एसिया के देशों में जाते थे। पालुर बन्दर से जाने के कारण उनके भाषा को पाली कहा जाता था। भाषा के अर्थ में पालि शब्द का व्यवहार वहीं से आरम्भ हुआ। आज भी उसके स्मृति में कार्तिकपूर्णिमा के दिन साधववोहु (वणिकों के पत्नियाँ) “आ का मा भै” कह कर नावों का वन्दन (बोइत बन्दाण) करते है, जहाँ “आ का” का अर्थ है “आषाढ में आये थे। कार्तिक में जा रहे हैं”। वणिक अपने पत्नियों को आश्वस्त कर के कहते हैं “मा भै” – भय नहीं करो। “आ का मा भै” के पश्चात् “पान गुआ खाइ” कहते है जिसका अर्थ पान ओर सुपारी खाना है। बालि यात्रा, जो महानदी के तीर में प्रत्येक वर्ष मनाये जाने वाला एक प्रसिद्ध पर्व है, समारोहपूर्वक बाली द्वीप (Bali island) को जाने का स्मृति है। जाभा (Java) के बोरोबुद्दुर मन्दिर तथा काम्बोडिया के आङ्गकरवट मन्दिर भी ओडिशा के शैली में वनाये गये हैं। बाली में विदेशियों को क्लीङ्ग कहते हैं, जो कलिङ्ग का अपभ्रंश है। ज्ञात रहे कि गौतम बुद्ध के प्रथम शिष्य तपसु और भल्लिक थे, जो कलिङ्ग के वणिक थे।
ऋषि अगस्त्य ने जो तमिल भाषा प्रणयन किया था वह संस्कृत के समकालीन है और उस प्राचीन तमिल को सेन्तमिल कहते हैं। थिरुक्कुराल इसी भाषा में लिखा गया है, जो आधुनिक तमिल से भिन्न है। प्राकृत के समकालीन भाषा को कोडुन्तमिल कहते हैं। तमिलनाडु के अन्यतम प्रसिद्ध भाषा तोलकप्पियम् उसी परम्परा में आता है (ऐन्दिर निरैन्द तोलकप्पियम्)। पालि उसी समय के पूर्व-प्राकृत भाषा है। उसी से आधुनिक ओडिआ भाषा का विस्तार हुआ।अशोक के ओडिशा में प्राप्त शिलालेख पालि में है, परन्तु अन्यत्र स्थानीय भाषा में है। तिव्वती भाषा ओडिआ भाषा के शैली में वनाया गया है।
`चैतन्य-भागवत' ^* श्री चैतन्य भागवत चैतन्य महाप्रभु के उपदेशों पर लिखा एक ग्रन्थ है। चैतन्य भागवत में यह वर्णन है कि ईश्वरपुरी के निकट दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात श्री चैतन्य महाप्रभु गयासे नवद्वीप धाम जाते समय यहां प्रथम बार भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन किये तथा उससे आलिंगनबद्ध हुए। इस कारण से इस स्थान का नाम कालान्तर में कन्हैयास्थान पड़ा। उक्त कन्हाई नाटयशाला में राधाकृष्ण एवं चैतन्य महाप्रभु के पदचिह्न आज भी मौजूद है।
[ शिवसंहिता योग से सम्बन्धित संस्कृत ग्रन्थ है। इसके रचनाकार के नाम के बारे में पता नहीं है। इस ग्रन्थ में शिव जी पार्वती को सम्बोधित करते हुए योग की व्याख्या कर रहे हैं। इस ग्रन्थ में कुल पाँच पटल दिये गये हैं जिसमें प्रथम पटल में आत्मा का लयत्व वर्णन, द्वितीय पटल में तत्त्वज्ञानोपदेश, तृतीय पटल में योगाभ्यास कथन, चतुर्थ पटल में मुद्रावर्णन और पंचम पटल में योगसाधना कथन नामक शीर्षक से योग साधक के सभी विघ्नों का विस्तृत निरूपण किया गया है ।]
स्वामी विवेकानन्द 13 नवम्बर , 1895 को स्वामी अखण्डानन्द को लिखित एक पत्र में कहते हैं - " माँ कुण्डलिनी की प्रार्थना करने से ] 'महाशक्ति का तुममें संचार होगा - कदापि भयभीत मत होना। पवित्र होओ, विश्वासी होओ, और आज्ञापालक होओ।" (वि.स.४/३६१) ]
ब्रह्माण्डीय सिद्धान्त * के अनुसार - व्याकुलता के साथ प्रार्थना करने से , विश्राम करती हुई शक्ति अथवा कुण्डलिनी अवश्य जाग्रत होगी। विज्ञान का यही सत्य देवी माँ काली के चित्र में बताया गया है- यहाँ सदाशिव जो की शुद्ध चित्त की स्थिर पृष्ठभूमि है, निष्क्रिय है, उनके वक्ष पर गतिमान शक्ति के रूप में माँ काली चल रही है। गुणमयी माँ सभी कार्य करती है।
हे देवि माँ कुण्डलिनी, अर्थात वह दैवी ब्रह्माण्डीय ऊर्जा (Primordial Cosmic Energy-मौलिक ब्रह्माण्डीय ऊर्जा, आद्या शक्ति ) जो पुरुष में गुप्त है। तुम ही काली, दुर्गा, आद्याशक्ति (आदि शक्ति), राजराजेश्वरी, त्रिपुरसुंदरी, महालक्ष्मी, महासरस्वती हो।।तुमने ही सभी नाम और रूपों को धारण किया है। इस विश्व में जितनी भी शक्तियाँ कार्यरत हैं प्राण, विद्युत्, बल, चुम्बकत्व, संयोग, गुरूत्वाकर्षण आदि वह सब तुम ही हो।ये सम्पूर्ण विश्व तुम्हारी गोद में विश्राम कर रहा है। आपको करोड़ो प्रणाम । हे जगन्माता मुझे सुषुम्ना नाड़ी को जाग्रत करने तथा उसे षट्चक्रों से तथा सहस्त्रार चक्र तक ले जाने हेतु तथा स्वयं को आप मे और आपके स्वामी भगवान् शिव में विलीन करने हेतु मेरा पथ प्रदर्शन करे।।
{ इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना – सुषुम्ना (नाड़ी -Nerve) : अस्तित्व में सभी कुछ जोड़ों में मौजूद है - स्त्री-पुरुष, दिन-रात, तर्क-भावना आदि। इस दोहरेपन को द्वैत भी कहा जाता है। हमारे अंदर इस द्वैत का अनुभव हमारी रीढ़ में बायीं और दायीं तरफ मौजूद नाड़ियों से पैदा होता है। आइये जानते हैं इन नाड़ियों के बारे में...अगर आप रीढ़ की शारीरिक बनावट '∞' के बारे में जानते हैं, तो आप जानते होंगे कि रीढ़ के दोनों ओर दो छिद्र होते हैं, जो वाहक नली की तरह होते हैं, जिनसे होकर सभी धमनियां गुजरती हैं। ये इंगला (इड़ा-चंद्र ) और पिंगला (सूर्य) , यानी बायीं और दाहिनी नाड़ियां हैं।
शरीर के अन्दर रक्त को ले जाने तथा लाने वाली वाहिकाओं को नस या Blood Duct कहते हैं। तथा संवेदना-सूचना आदि को ले जाने एवं लाने वाली वाहिकाओं को नाड़ी या Nerves कहते हैं। मनुष्य के शरीर में 3.5 लाख रोम है और व सब नाड़ियों के मुख है जहां से पसीना आता है व उतनी ही (3.5 लाख) नाड़ियां है। [ प्राणमय-कोष में 72,000 नाड़ियां होती हैं। ये 72,000 नाड़ियां तीन मुख्य नाड़ियों- बाईं, दाहिनी और मध्य यानी इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना से निकलती हैं।] किन्तु उनमें प्रधानता मात्र 14 ही की होती है.–
सार्द्धलक्षत्रयं नाड्यः सन्ति देहान्तरे नृणाम।
प्रधानभूता नाड्यस्तु तासु मुख्याश्चतुर्दश।।-शिवसंहिता 2/13
जैसे किसी सड़े हुए पीपल के पत्ते पर साफ़ साफ़ नसें दिखाई देती हैं ठीक वैसे ही शरीर में ये नाड़ियाँ फैली हुई हैं. ये प्रधान चौदह नाड़ियाँ निम्न हैं-
“सुषुम्नेडा पिंगला च गांधारी हस्तिजिह्विका।
कुहूः सरस्वती पूषा शंखिनी च पयस्विनी।।
वारुण्यलम्बुषा चैव विश्वोदरी यशस्विनी।
एतासु त्रिस्रो मुख्याः स्युः पिंगलेडासुषुम्निकाः।।
–शिवसंहिता 2/14-15
इंगला, पिंगला, सुषुम्ना, गांधारी, हस्तजिह्वा, कुहू, सरस्वती, पूषा, शंखिनी, पयस्विनी, वारुणी, अलम्बुषा, विश्वोदरी और यशस्विनी, इन चौदह नाड़ियों में इंगला, पिंगला और सुषुम्ना तीन प्रधान हैं। क्योंकि बाकी सभी नाड़ी इसी का आश्रय लेकर शरीर में रहती है। ( Today it is known as Spinal Cord ).
ये तीनों मेरुदण्ड से जुड़े हैं। इसके आलावे गांधारी - बाईं आँख से, हस्तिजिह्वा दाहिनी आँख से, पूषा दाहिने कान से, यशस्विनी बाँए कान से, अलंबुषा मुख से, कुहू जननांगों से तथा शंखिनी गुदा से जुड़ी होती है।
इनमें भी सुषुम्ना सबसे मुख्य है। इन चौदह नाड़ियों में सात ऊपर की तरफ जाने वाली तथा सात नीचे की तरफ जाने वाली होती हैं। जैसे कुहू नाड़ी सुषुम्ना के बायीं तरफ से होते हुए मेढ्रदेश तक चली जाती है जब कि यशस्विनी नाड़ी कुण्डलिनी से दाहिने पैर के अंगूठे की नोक तक जाती है।
इस प्रकार शरीर में स्थित चौदहों भुवन तक ये चौदह नाड़ियाँ विस्तारित हैं। इनका क्रम निम्न प्रकार है- ॐ भू भुव, स्व, मह, तप एवं सत्य लोक; ये ऊपर के लोक हैं। इसके नीचे अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल एवं पाताल हैं। ॐ अर्थात कुण्डलिनी तक तो सब को जाना या वही आकर समाप्त हो जाना है। जैसे सुषुम्ना एक स्वतंत्र नाड़ी होते हुए भी सबकी संवेदना-सूचना-आज्ञा स्वयं एकत्र करती है, वैसे भी ॐ पृथक लोक होते हुए भी यह सबमें समाहित है या सब इसी में समाहित हैं। यह नाड़ी अपनी सूचना तो रखती ही है इसके अलावा सब नाड़ियों की सूचना भी अपने पास एकत्र रखती है।
कुण्डलिनी का स्थान मलमार्ग एवं मूत्र मार्ग जहाँ से पृथक होते हैं उसी संधि के पास आत्मशक्ति स्वरूपा कुण्डलिनी रहती है। जो समस्त नाड़ियो को जन्म देती है तथा सबसे सूचना-संवेदना एकत्र कर अपने ऊपर पर्दा या आवरण स्वरुप धारण किये रहती है।
यही वह स्थान है जहाँ से वीर्य या शुक्र (semen) एक सम्पूर्ण शरीर को जन्म देने में सक्षम होता है। यह एक अतीव ज़टिल तथा रहस्यमय तंत्रिकात्मक संयंत्र (Highest Technical Mechinery) है। जिसे हम वीर्य या रज कहते हैं, वह मूल रूप में किरण रूप में कुण्डलिनी में रहता है। इंगला पर ऋण आवेश (Negative Charge), पिंगला पर धनावेश (Positive Charge),तथा सुषुम्ना पर कोई आवेश नहीं (Neutral) होता है।
किन्तु उस अवस्था में यह पदार्थ तीन रूप में होता है क्योकि जो नाड़ी अर्थात इंगला का पदार्थ इंगला के स्वभाव वाला-इसे चन्द्रनाड़ी भी कहा जाता है। इसकी प्रकृति शीतल, विश्रामदायक और चित्त को अंतर्मुखी करनेवाली मानी जाती है। पिंगला का पिंगला के स्वभाव वाला, इसको सूर्यनाड़ी भी कहा जाता है। यह शरीर में जोश, श्रमशक्ति का वहन करती है और चेतना को बहिर्मुखी बनाती है। तथा सुषुम्ना का सुषुम्ना के प्रभाव वाला होता है, सुषुम्ना सबसे मुख्य है। सुषुम्ना नाड़ी जिससे श्वास, प्राणायाम और ध्यान विधियों से ही प्रवाहित होती है। सुषुम्ना नाड़ी से श्वास प्रवाहित होने की अवस्था को ही 'योग' कहा जाता है।सुषुम्ना नाड़ी मूलाधार (Basal plexus) से आरंभ होकर यह सिर के सर्वोच्च स्थान पर अवस्थित सहस्रार तक आती है। सभी चक्र सुषुम्ना में ही विद्यमान हैं।
जब नाड़ियो में विक्षोभ उत्पन्न होता है-जैसे कोई विकार स्वरुप मनोभाव नाड़ियों द्वारा इस कुण्डलिनी तक पहुँचता है; तब ये किरण रूप वाले तीनो पदार्थ परस्पर मिलकर द्रव रूप में परिवर्तित होकर वीर्य या रज का रूप धारण कर लेते है। और जब इनका रूप द्रव में परिवर्तित हो जाता है तब यह दूषित हो जाता है। और कुण्डलिनी का अधस्रहण भाग इसे अपने पास से निकाल बाहर फेंक देता है। क्योकि कोई भी दूषित या अपवित्र वस्तु या पदार्थ इसके निकट नहीं रह सकता।
नाड़ियों का सम्बन्ध इन्द्रियों से होता है। इन्द्रियाँ मन से संचालित होती हैं। मन की आज्ञा के अनुसार इन्द्रियाँ कार्य करती हैं। जैसा कार्य होता है उसकी सूचना नाड़ियाँ कुण्डलिनी तक पहुंचाती हैं। और उसके बाद कुण्डलिनी उसका उचित अनुचित निर्णय लेकर उन संग्रहीत सूचनाओं के ऊपर निर्णय लेती है। अतः जब इन्द्रियों के विक्षोभ को नाड़ियाँ कुण्डलिनी तक पहुंचाती हैं तो उनके द्वारा एकत्र पूर्ववर्ती सूचनाओं में हलचल या विक्षोभ उत्पन्न होता है। और जब यह विक्षोभ दूषित हुआ तब यह तीनो पदार्थो से बना तत्व या पदार्थ अधस्रहण द्वारा बाहर फेंक दिया जाता है। ये ही सारे पदार्थ यदि अपना आवरण कुण्डलिनी पर से हटा दें तो कुण्डलिनी पर पडा दबाव स्वरुप बोझ समाप्त हो जाता है तथा कुण्डलिन हलकी होकर ऊपर उठाते हुए मूलाधार से स्वाधिष्ठान, नाभि, अनाहत, विशुद्धि एवं आज्ञाचक्र होते हुए ब्रह्मरंध्र में जाकर स्थिर हो जाता है। और जब तक इस कुण्डलिनी पर विविध नाड़ियों द्वारा एकत्रित संवेदनाओं-सूचनाओं का बोझ लदा रहेगा, कुण्डलिनी वही दबी रहेगी। और मनुष्य विविध दुश्चक्र में फँसा रह जाएगा।
अधिकांश लोग लोग इड़ा और पिंगला में जीते और मरते हैं और मध्य स्थान सुषुम्ना निष्क्रिय बना रहता है। इड़ा (इंगला) और पिंगला जीवन की बुनियादी द्वैतता की प्रतीक हैं। जीवन की रचना भी इसी के आधार पर होती है। इन दोनों गुणों के बिना, जीवन ऐसा नहीं होता, जैसा वह अभी है। सृजन से पहले की अवस्था में सब कुछ मौलिक रूप में होता है। उस अवस्था में द्वैत नहीं होता। लेकिन जैसे ही सृजन होता है, उसमें द्वैतता आ जाती है।आप इसे बस पुरुषोचित और स्त्रियोचित कह सकते हैं, या यह आपके दो पहलू – लॉजिक या तर्क-बुद्धि और इंट्यूशन या सहज-ज्ञान हो सकते हैं। आप भले ही पुरुष हों, लेकिन यदि आपकी इड़ा नाड़ी अधिक सक्रिय है, तो आपके अंदर स्त्री-प्रकृति यानि स्त्रियोचित गुण हावी हो सकते हैं। आप भले ही स्त्री हों, मगर यदि आपकी पिंगला अधिक सक्रिय है, तो आपमें पुरुष-प्रकृति यानि पुरुषोचित गुण हावी हो सकते हैं।अभी आप चाहे काफी संतुलित हों, लेकिन अगर किसी वजह से बाहरी स्थिति अशांतिपूर्ण हो जाए, तो उसकी प्रतिक्रिया में आप भी अशांत हो जाएंगे क्योंकि इड़ा और पिंगला का स्वभाव ही ऐसा होता है।
अगर आप इड़ा या पिंगला के प्रभाव में हैं तो आप बाहरी स्थितियों को देखकर प्रतिक्रिया करते हैं। लेकिन एक बार सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश हो जाए, तो आप एक नए किस्म का संतुलन पा लेते हैं, एक अंदरूनी संतुलन, जिसमें बाहर चाहे जो भी हो, आपके अंदर एक खास जगह होती है, जो किसी भी तरह की हलचल में कभी अशांत नहीं होती, जिस पर बाहरी स्थितियों का असर नहीं पड़ता। आप चेतनता की चोटी पर सिर्फ तभी पहुंच सकते हैं, जब आप अपने अंदर यह स्थिर अवस्था बना लें।अगर आप इड़ा और पिंगला के बीच संतुलन बना पाते हैं तो दुनिया में आप प्रभावशाली हो सकते हैं। इससे आप जीवन के सभी पहलुओं को अच्छी तरह संभाल सकते हैं। अधिकतर लोग इड़ा और पिंगला में जीते और मरते हैं, मध्य स्थान सुषुम्ना निष्क्रिय बना रहता है। लेकिन सुषुम्ना मानव शरीर-विज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। जब ऊर्जा सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है, जीवन असल में तभी शुरू होता है।मूल रूप से सुषुम्ना गुणहीन होती है, उसकी अपनी कोई विशेषता नहीं होती। वह एक तरह की शून्यता या खाली स्थान है। अगर शून्यता है तो उससे आप अपनी मर्जी से कोई भी चीज बना सकते हैं। सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश होते ही, आपमें वैराग्य आ जाता है। ‘राग’ का अर्थ होता है, रंग। ‘वैराग्य’ का अर्थ है, रंगहीन यानी आप पारदर्शी हो गए हैं। आप निष्पक्ष हो जाते हैं। आप जहां भी रहें, आप वहीं का एक हिस्सा बन जाते हैं लेकिन कोई चीज आपसे चिपकती नहीं। आप जीवन के सभी आयामों को खोजने का साहस सिर्फ तभी करते हैं, जब आप आप वैराग की स्थिति में होते हैं।
समस्त योगशास्त्रों का यही अभिमत है कि जब तक कुन्डलिनी निद्रित है तब तक मनुष्य को एक सामान्य पशु के समान ही माना जाता है। क्योंकि ऐसा व्यक्ति साधना सम्बन्धी करोड़ों उपाय करके भी आत्मसाक्षात्कार प्राप्त नहीं कर सकता है।
प्रसुप्तभुजगाकारा पद्मतन्तुनिभा शुभा |
प्रबुद्धा वह्नियोगेन व्रजत्यूर्ध्वं सुषुम्णया || ४९ ||
prasupta-bhujagākārā padma-tantu-nibhā śubhā |
prabuddhā vahni-yogena vrajaty ūrdhvaṃ suṣumṇayā || 1.49 ||
'जागो माँ कुल कुण्डलिनी ' नामक पुस्तक स्वामी शिवानन्द सरस्वती के शिष्य , स्वामी सत्यानन्द सरस्वती द्वारा 1956- 62 की अवधि में अपने एक प्रिय शिष्य को लिखे गये पत्रों का संकलन है । इस पुस्तक में संकलित पत्र गुरु- शिष्य परम्परा के एक ऐसे ही पुनीत सम्बन्ध का वास्तविक विवरण हैं । इन पत्रों में यौगिक एवं आध्यात्मिक प्रशिक्षण पद्धति के विस्तृत एवं गहन वर्णन द्वारा पाठक को गुरु शिष्य सम्बन्ध के विकास की दुर्लभ झलक तथा चेतना की जागृति हेतु क्रमिक साधना के परिपालन का शक्तिशाली साधन प्राप्त होता है । एक दृष्टि से देखा जाए तो ये पत्र सद्गुरु के आध्यात्मिक सम्प्रेषण की भौतिक अभिव्यक्ति हैं । मूलत ये स्वामी सत्यानन्द सरस्वती द्वारा अपने एक निकट शिष्य को लिखे गये व्यक्तिगत निर्देश हैं, पर इनमें निहित संदेशों और शिक्षाओं में असीम संभावनाएँ हैं कि ये आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले सभी नैष्ठिक साधकों का मार्गदर्शन कर सकें ।
साभार http://rahulnathosgy.blogspot.com/2017/04/blog-post_9.html}
[ स्वामी सत्यानन्द सरस्वती का जन्म उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा ग्राम में 1923 में हुआ । 1943 में उन्हें ऋषिकेश में अपने गुरु स्वामी शिवानन्द के दर्शन हुए । 1947 में गुरु ने उन्हें परमहंस संन्याय में दीक्षित किया । 1956 में उन्होंने परिव्राजक संन्यासी के रूप में भ्रमण करने के लिए शिवानन्द आश्रम छोड़ दिया । तत्पश्चात् 1956 में ही उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय योग मित्र मण्डल एवं 1963 मे बिहार योग विद्यालय की स्थापना की ।
*ब्रह्माण्डीय सिद्धान्त (Cosmic principle) या महाविस्फोट सिद्धांत ( Big Bang Theory ) –यह सिद्धांत ब्रह्मांड की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सर्वाधिक मान्य सिद्धांत है। इसके अनुसार, लगभग 15 अरब वर्ष पूर्व सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक परमाण्विक इकाई के रूप में था। उसमें अचानक एक महाविस्फोट ( Big Bang ) हुआ जिससे सामान्य पदार्थों का निर्माण आरम्भ हुआ और अत्यधिक ऊर्जा का उत्सर्जन हुआ। जिस कारण इसमें निरन्तर विस्तार हो रहा है। इसकी पुष्टि आकाशगंगाओं के बीच बढ़ती दूरी से होती है। इस महाविस्फोट के पश्चात् ही विभिन्न ब्रह्माण्डीय पिण्डों, तथा आकाशगंगाओं का सृजन हुआ। इसी प्रक्रिया से कालांतर में ग्रहों का निर्माण भी हुआ। महाविस्फोट के मात्र 1.43 सेकंड के बाद भौतिकी के नियम लागू होने लग गए थे। सन् 2001 ई. में NASA ने MAP ( Microwave Anisotropy Probe ) नामक अनुसन्धान में इसकी पुष्टि की।
संक्षिप्त भविष्य पुराण : सूर्योपासना और उसके महत्त्व का जैसा व्यापक वर्णन ‘भविष्य पुराण ' में प्राप्त होता है। वैसा किसी अन्य पुराण में नहीं उपलब्ध होता। इसलिए इस पुराण को ‘सौर ग्रंथ’ भी कहते हैं। इस पुराण में दो हज़ार वर्ष का अत्यन्त सटीक विवरण प्राप्त होता है।इस पुराण को चार खण्डों में विभाजित किया गया है- ब्राह्म पर्व, मध्यम पर्व, प्रतिसर्ग पर्व और उत्तर पर्व।
ब्राह्म पर्व : में इस पुराण की महिमा, वेदों तथा पुराणों की उत्पत्ति, काल गणना, युगों का विभाजन, गर्भाधान के समय से लेकर यज्ञोपवीत संस्कारों तक की संक्षिप्त विधि, भोजन विधि,ओंकार एवं गायत्री जप का महत्त्व, अभिवादन विधि, माता-पिता तथा गुरु की महिमा का वर्णन, विवाह योग्य स्त्रियों के शुभ-अशुभ लक्षण, पंच महायज्ञों, पुरुषों एवं राजपुरुषों के शुभ-अशुभ लक्षण, व्रत-उपवास पूजा विधि, सूर्योपासना का माहात्म्य और उनसे जुड़ी कथाओं का विवरण प्राप्त होता है। ब्रह्मा जी कार्तिकेय से कहते हैं, कि जिस स्त्री की ग्रीवा में रेखाएं हों और नेत्रों के कोरों का कुछ सफ़ेद भाग लाली लिए हो; वह स्त्री जिस घर में जाती है, उस घर की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। जिसके बाएं हाथ, कान या गले पर तिल या मस्सा हो; उसकी पहली सन्तान पुत्र होती है।
मध्यम पर्व :इस पर्व में मुख्य रूप से यज्ञ कर्मों का शास्त्रीय विवेचन प्राप्त होता है। इसी पर्व में उद्यानों, गोचर भूमियों, जलाशयों, तुलसी और मण्डप आदि की प्रतिष्ठा की शास्त्रीय विधियों का उल्लेख किया गया है। इसी पर्व में दस प्रकार के यज्ञ कुण्डों का वर्णन भी किया गया है।गृहस्थाश्रम की उपयोगिता, सृष्टि, पाताल लोक, भूगोल, ज्योतिष, ब्राह्मणों की महानता, माता-पिता एवं गुरुओं की महिमा, वृक्षारोपण का महत्त्व आदि का विस्तार से वर्णन है। चार प्रकार के मासों-चन्द्र मास,सौर मास,नक्षत्र मास और श्रावण मास का वर्णन भी इस पर्व में किया गया है।शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक का मास ‘चन्द्र मास’,सूर्य द्वारा एक राशि में संक्राति से दूसरी संक्राति में प्रवेश करने का समय ‘सौर मास’,आश्विन नक्षत्र से रेवती नक्षत्र पर्यन्त ‘नक्षत्र मास’ औरपूरे तीस दिन का या किसी तिथि को लेकर तीस दिन बाद आने वाली तिथि तक का समय ‘श्रावण मास’ कहलाता है।
प्रतिसर्ग पर्व :इस पर्व में भारत के लगभग एक सहस्त्र वर्ष के इतिहास पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है। इस वजह से इस पुराण को वर्तमान भारतीय संस्कृति, धर्म और सभ्यता का महान् ग्रन्थ कहना अनुचित नहीं होगा। प्रसंगवश इसमें ‘मार्कण्डेय पुराण’ की भांति ‘दुर्गा सप्तशती’ के चरित्रों का भी वर्णन प्राप्त होता है। ‘श्री सत्यनारायण व्रत कथा’ का उल्लेख इसी पर्व के तेइसवें से उनतीसवें अध्याय में किया गया हें। यह कथा हिन्दुओं के सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन के लिए अत्यन्त लोकोपकारी, मंगलकारी और पुण्य देने वाली है। यह पर्व इतिहास का सुन्दर विवेचन प्रस्तुत करता है। इसमें आधुनिक घटनाओं का क्रमवार वर्णन है। हिंदुकुश पर्वत का सत्य – भविष्य पुराण में जिक्र आता है कि एक समय जब हिन्दुस्तान की सीमा हिंदकुश पर्वत तक थी तो वहां प्रसिद्ध शिव मंदिर था। कहा जाता है कि इसके बाद खलिफाओं के आक्रमण ने अफगान और हिन्दुकुश पर्वतमाला के पास रहने वाले 15 लाख हिन्दुओं का सामूहिक नरसंहार किया था। इसी के कारण यहां के पर्वत श्रेणी को हिन्दुकुश नाम दिया गया, जिसका अर्थ है ‘हिंदुओं का वध।’ आज हिंद्कुश पर्वत और आसपास का क्षेत्र भूकंप के आने का केंद्र बना हुआ है। इसमें ईसा मसीह (Jesus) के जन्म, उनकी भारत यात्रा में कहा है - उन आस्थाहीनों के बीच मैं मसीहा के रूप में प्रकट हुआ हूं। भविष्य पुराण अध्याय 2 में कहा गया है – ‘म्लेच्छदेश मसीहो हं समागत।। ईसा मसीह इति च ममनाम प्रतिष्ठितम् ।। मुहम्मद साहब का आविर्भाव, इस पुराण में महारानी विक्टोरिया की 1857 में भारत साम्राज्ञी बनने का भी वर्णन है। तथा यह भी बताया गया है कि अंग्रेजी यहाँ की प्रमुख भाषा हो जायेगी और संस्कृत प्रायः लुप्त हो जायेगी। सत युग के राजवंशों का वर्णन, त्रेता युग के सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी राजाओं का वर्णन , द्वापर युग के चन्द्रवंशी राजाओं का वर्णन, कलि युग में होने वाले म्लेच्छ राजाओं एवं उनकी भाषाओं का वर्णन, नूह की प्रलय गाथा, मगध के राजवंश राजा नन्द, बौद्ध राजाओं तथा चौहान व परमार वंश के राजाओं तक का वर्णन इसमें प्राप्त होता है। इस पुराण में प्रसिद्ध बेताल कथाओं (विक्रम-बैताल कथाएं) या वेताल पच्चीसी की कथाओं का उल्लेख भी मिलता हैं। जीमूतवाहन और शंखचूड़ की प्रसिद्ध कथा भी इस पुराण में उपलब्ध होती है।
उत्तर पर्व : इस पर्व में विष्णु-माया से मोहित नारद का वर्णन है। भविष्य पुराण तत्कालीन समाज-व्यवस्था पर भी अच्छा प्रकाश डालता है। उस काल की जाति-व्यवस्था के बारे में यह पुराण कहता है-‘जाति न तो जन्म से होती है, न वंश से और न ही व्यवसाय से, बल्कि कर्म तथा आचरण से होती है।ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास में मिल जाएंगे, जो शूद्र कुल में जन्म लेकर भी सत्कर्म के आधार पर पूजनीय बने। स्वयं कृष्ण द्वैपायन व्यासजी महर्षि पराशर और मत्स्य कन्या सत्यवती के संसर्ग से उत्पन्न हुए थे। ‘भविष्य पुराण’ के अनुसार वर्ण-व्यवस्था ईरान के ब्राह्मणों की देन है। उन्होंने ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जातियों में समाज को बांटा था। यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि ईरानी पुरोहित मग ज्योतिष विद्या में पारंगत थे। मग ब्राह्मणों के अतिरिक्त भोजक और अग्नि उपासक भी ईरान से यहाँ आए थे। ‘भविष्य पुराणकी सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसका पारायण और रचना मग ब्राह्मणों (मिश्रा) द्वारा की गई है। ये मग ब्राह्मण ईरानी पुरोहित थे, जो ईसा की तीसरी शताब्दी में भारत आकर बस गए थे। ये सूर्य के उपासक थे। सूर्य की उपासना वैदिक काल से भारत में होती रही है। मग ब्राह्मणों ने सूर्योपासना के साथ ‘खगोल विद्या’ और ‘ज्योतिष’ का प्रचलन किया। ज्योतिष शास्त्र के प्रसिद्ध आचार्य वराह मिहिर,खगोल विद्या के ज्ञाता मग ब्राह्मण ही थे। ये मग ब्राह्मण शनै:-शनै: भारतीय जन-जीवन में पूरी तरह से घुल-मिल गए।‘भविष्य पुराण’ के अनुसार दक्ष की पुत्री संज्ञा का विवाह सूर्य के साथ हुआ था। उसी से यम और यमुना पैदा हुए। इस पुराण में सूर्य पूजा की विधि विस्तार से बताई गई है। रक्त चन्दन, करवीर पुष्प तथा गुड़ से बनी खाद्य-सामग्री सूर्योपासना में उपयुक्त मानी गई है।मन्दिरों के निर्माण में स्थापत्य कला का विशद वर्णन भी इस पुराण में प्राप्त होता है। सूर्य मन्दिर में सूर्य प्रतिमाओं के बारे में भी विस्तार से बताया गया है। समाज की आर्थिक स्थिति के बारे में ‘भविष्य पुराण ’ में अधिक जानकारी नहीं उपलब्ध होती। केवल कुछ प्रकार की मज़दूरी का उल्लेख प्राप्त होता है। यदि पहले से मज़दूरी तय न हो तो कुल किए गए काम का हिसाब लगाकर मज़दूरी देनी चाहिए। साधारण तौर पर उस काल में मज़दूरी ‘पण’ के रूप में दी जाती थी। बीस कौड़ी की एक काकिणी और चार काकिणी का एक पण होता था। भविष्य पुराण की कथा राखी (रक्षाबन्धन) -भविष्य पुराण की एक कथा के अनुसार गुरु बृहस्पति के सुझाव पर इंद्र की पत्नी महारानी शची ने श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन विधि-विधान से व्रत करके रक्षासूत्र तैयार किए और स्वास्तिवाचन के साथ ब्राह्मण की उपस्थिति में इंद्राणी ने वह सूत्र इंद्र की दाहिनी कलाई में बांधा जिसके फलस्वरुप भगवान विष्णु राजा बलि के द्वारपाल का कार्य छोड़ कर गोलोक जा सके। रक्षा विधान के समय निम्न लिखित मंत्रोच्चार किया गया था जिसका आज भी विधिवत पालन किया जाता है:"येन बद्धोबली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।दानवेन्द्रो मा चल मा चल।।"इस मंत्र का भावार्थ है कि दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे, उसी से तुम्हें बांधता हूँ। हे रक्षे! (रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो।यह रक्षा विधान श्रवण मास की पूर्णिमा को प्रातः काल संपन्न किया गया यथा रक्षा-बंधन अस्तित्व में आया और श्रवण मास की पूर्णिमा को मनाया जाने लगा।
शिक्षा-प्रणाली " गुरु -शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ' Be and Make ' के बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए ‘भविष्य पुराण ’ कहता है कि केवल पांच प्रकार के गुरु होते हैं। आचार्य जो वेदों का रहस्य समझाएं। उपाध्याय जो जीविकोपार्जन हेतु वेद पाठ कराएं। गुरु या पिता जो अपने शिष्यों और सन्तान को शिक्षित करें तथा उनमें किसी तरह का भेदभाव न करें। ऋत्विक जो अग्निहोत्र या यज्ञ कराएं। महागुरु/ `ब्रह्मवेत्ता नेता ' (अवतार ) जो गुरुओं का भी गुरु हो; जिसने ‘वेद’, ‘पुराण’, ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ की पूरी तरह अध्ययन किया हो तथा सूर्य, शिव, विष्णु आदि की उपासना विधियों का पूरा ज्ञान रखता हो।]
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