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गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

🔆🙏$$परिच्छेद ~10 , [(October 16,1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 10] *Embodiment of Spirit-You are Kha.* पहले ईश्वरलाभ (चपरास ), उसके बाद लोकशिक्षा* “ तमेवैकं जानथ आत्मानम्, अन्या वाचो विमुञ्चथ ”/[17 अक्टूबर, 1882 ]

*परिच्छेद~ १०*

(१)

*पूर्ववृत्त 1858 : श्रीरामकृष्ण की प्रथम प्रेमोन्मत्त अवस्था का स्वमुख वर्णन *

  [(October 16, 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 10]  

🔆🙏दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में `श्रीरामकृष्ण - नरेन्द्रनाथ वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण'🔆🙏

[C-IN-C नवनी दा एवं नेतृत्व प्रशिक्षण- 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' का वर्णन] 

[C-IN-C Navani Da and Leadership Training 

- Interspersing Description of 'Life at every turn of the river' 

आज श्रीरामकृष्ण बड़े आनन्द में हैं । दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में नरेन्द्र आए हैं । और भी कुछ अन्तरंग भक्त हैं। नरेन्द्र ने यहाँ आकर स्नान किया और प्रसाद पाया । 
[আজ ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ মহানন্দে আছেন। দক্ষিণেশ্বর কালীবাড়িতে নরেন্দ্র আসিয়াছেন। আরও কয়েকটি অন্তরঙ্গ আছেন। নরেন্দ্র ঠাকুরবাড়িতে আসিয়া স্নান করিয়া প্রসাদ পাইয়াছেন।

आज आश्विन की शुक्ला चतुर्थी है- १६ अक्टूबर १८८२, सोमवार आगामी गुरुवार को सप्तमी है, दुर्गापूजा होगी । श्रीरामकृष्ण के पास राखाल, रामलाल और हाजरा हैं । नरेन्द्र के साथ एक-दो और ब्राह्म लड़के आए हैं । आज मास्टर भी आए हैं । 

[আজ (৩১ শে) আশ্বিন, শুক্লা চতুর্থী তিথি; ১৬ই অক্টোবর ১৮৮২, সোমবার। আগামী বৃহস্পতিবার সপ্তমী তিথিতে শ্রীশ্রীদুর্গাপূজা। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের কাছে রাখাল, রামলাল ও হাজরা আছেন। নরেন্দ্রের সঙ্গে আর দু-একটি ব্রহ্মজ্ঞানী ছোকরা আসিয়াছেন। আজ মাস্টারও আসিয়াছেন।
It was Monday (October 16, 1882), a few days before the Durga Puja, the festival of the Divine Mother. Sri Ramakrishna was in a very happy state of mind, for Narendra was with him. Narendra had brought two or three young members of the Brahmo Samaj to the temple garden. Besides these, Rakhal, Ramlal, Hazra, and M. were with the Master.

" नरेन्द्र ने श्रीरामकृष्ण के पास ही भोजन किया । भोजन हो जाने पर श्रीरामकृष्ण ने अपने कमरे में बिस्तर लगा देने को कहा, जिस पर नरेन्द्र आदि भक्त-विशेषकर नरेन्द्र-आराम करेंगे । चटाई के ऊपर रजाई और सफ़ेद चादर बिछाकर तकिये लगाए गए हैं । श्रीरामकृष्ण भी बालक की भाँति नरेन्द्र के पास बिस्तर पर आ बैठे । भक्तों से, विशेषकर नरेन्द्र से, और उन्हीं की ओर मुँह करके, हँसते हुए बड़े आनन्द से बातचीत कर रहे हैं । बातों बातों में  [उनके चेहरे को रोशन करती उज्ज्वल मुस्कान के साथ], नरेन्द्र से अपनी अवस्था और अपने चरित्र का वर्णन कर रहे हैं।" 
[নরেন্দ্র ঠাকুরের কাছেই আহার করিলেন। আহারান্তে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ তাঁহার ঘরের মেঝেতে বিছানা করিয়া দিতে বলিলেন, নরেন্দ্র আদি ভক্তেরা বিশেষতঃ নরেন্দ্র বিশ্রাম করিবেন। মাদুরের উপর লেপ ও বালিশ পাতা হইয়াছে। ঠাকুরও বালকের ন্যায় নরেন্দ্রের কাছে বিছানায় বসিলেন। ভক্তদের সহিত, বিশেষতঃ নরেন্দ্রের দিকে মুখ করিয়া হাসিমুখে মহা আনন্দে কথা কহিতেছেন। নিজের অবস্থা, নিজের চরিত্র, গল্পচ্ছলে বলিতেছেন।

Narendra had his midday meal with Sri Ramakrishna (C-IN-C). Afterwards a temporary bed was made on the floor of the Master's room so that the disciples might rest awhile. A mat was spread, over which was placed a quilt covered with a white sheet. A few cushions and pillows completed the simple bed. Like a child, the Master sat near Narendranath on the bed. He talked with the devotees in great delight. With a radiant smile lighting his face, and his eyes fixed on Narendra, he was giving them various spiritual teachings, interspersing these with incidents from his own life.



    [(October 16, 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 10] 

🔆🙏शास्त्र पढ़ने की अपेक्षा गुरुमुख से श्रवण करना अच्छा है 🔆🙏  
 
श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र आदि भक्तों से)- मेरी इस अवस्था के बाद मुझे केवल ईश्वरी बातें सुनने की व्याकुलता होती थी । भागवत, अध्यात्मरामायण, महाभारत- कहाँ इनका पाठ हो रहा है, यही सब ढूँढ़ता फिरता था । आरियादह के कृष्णकिशोर के पास अध्यात्मरामायण सुनने जाया करता था । 

{শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রাদি ভক্তের প্রতি) — আমার এই অবস্থার পর কেবল ঈশ্বরের কথা শুনিবার জন্য ব্যাকুলতা হত। কোথায় ভাগবত, কোথায় অধ্যাত্ম, কোথায় মহাভারত খুঁজে বেড়াতাম। এঁড়েদার কৃষ্ণকিশোরের কাছে অধ্যাত্ম শুনতে যেতাম।
MASTER: "After I had experienced samadhi , my mind craved intensely to hear only about God. I would always search for places where they were reciting or explaining the sacred books, such as the Bhagavata, the Mahabharata, and the Adhyatma Ramayana. I used to go to Krishnakishore to hear him read the Adhyatma Ramayana.]  

“कृष्णकिशोर का कैसा विश्वास है ! वह वृन्दावन गया था, वहाँ एक दिन उसे प्यास लगी । कुएँ के पास जाकर उसने देखा कि एक आदमी खड़ा है । पूछने पर उसने जवाब दिया, ‘मैं नीच जाति का हूँ और आप ब्राह्मण हैं; मैं कैसे आपको पानी निकाल दूँ?’ कृष्णकिशोर ने कहा, *‘तू कह ‘शिव’ । शिव शिव कहने से ही तू शुद्ध हो जाएगा ।’* (`ॐ नमः शिवाय ' का पवित्र नाम जपने से ही मनुष्य शुद्ध हो जाएगा।)’ उसने शिव शिव कहकर पानी ऊपर निकाला । वैसा निष्ठावान् ब्राह्मण होकर भी उसने वही जल पीया । कैसा विश्वास है ! 

[“কৃষ্ণকিশোরের কি বিশ্বাস! বৃন্দাবনে গিছিল, সেখানে একদিন জলতৃষ্ণা পেয়েছিল। কুয়ার কাছে গিয়ে দেখে, একজন দাঁড়িয়ে রয়েছে। জিজ্ঞাসা করাতে সে বললে, ‘আমি নীচ জাতি, আপনি ব্রাহ্মণ; কেমন করে আপনার জল তুলে দেব?’ কৃষ্ণকিশোর বললে, ‘তুই বল শিব। শিব শিব বললেই তুই শুদ্ধ হয়ে যাবি।’ সে ‘শিব’ ‘শিব’ বলে জল তুলে দিলে। অমন আচারী ব্রাহ্মণ সেই জল খেলে! কি বিশ্বাস!
"What tremendous faith Krishnakishore had! Once, while at Vrindavan, he felt thirsty and went to a well. Near it he saw a man standing. On being asked to draw a little water for him, the man said: 'I belong to a low caste, sir. You are a brahmin. How can I draw water for you?' Krishnakishore said: Take the name of Siva. By repeating His holy name you will make yourself pure.' The low-caste man did as he was told, and Krishnakishore, orthodox brahmin that he was, drank that water. What tremendous faith!

    [(October 16, 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 10] 

🔆🙏माँ काली के भक्त का शरीर ~ 'चिन्मय ' होता है 🔆🙏

[ माँ काली के अवतार के भक्त का शरीर ( जैसे जीवनमुक्त शिक्षक, नेता, C-IN-C नवनीदा का शरीर) ,  ‘मिट्टी का पिंजरा’ (cage of clay) नहीं;  "चिन्मय"  -अर्थात  ' आत्मा का अवतार या  मूर्तरूप (embodiment of Spirit)' होता है।] 

“आरियादह के घाट पर एक साधु आया था । हमने सोचा कि एक दिन देखने जाएँगे । कालीमन्दिर में मैंने हलधारी से कहा, ‘कृष्णकिशोर और हम साधु-दर्शन को जाएँगे । तुम चलोगे?’ हलधारी ने कहा, ‘एक मिट्टी का पिंजरा देखने जाने से क्या होगा?’ हलधारी गीता और वेदान्त पढ़ता था न? इसी से उसने साधु-शरीर को ‘मिट्टी का पिंजरा’ (cage of clay) बताया!” 

[“এঁড়েদার ঘাটে একটি সাধু এসেছিল। আমরা একদিন দেখতে যাব ভাবলুম। আমি কালীবাড়িতে হলধারীকে বললাম, কৃষ্ণকিশোর আর আমি সাধু দেখতে যাব। তুমি যাবে? হলধারী বললে, ‘একটা মাটির খাঁচা দেখতে গিয়ে কি হবে?’ হলধারী গীতা-বেদান্ত পড়ে কি না! তাই সাধুকে বললে ‘মাটির খাঁচা। 
"Once a holy man came to the bank of the Ganges and lived near the bathing-ghat at Ariadaha, not far from Dakshineswar. We thought of paying him a visit. I said to Haladhari; 'Krishnakishore and I are going to see a holy man. Will you come with us?' Haladhari replied, 'What is the use of seeing a mere human body, which is no better than a cage of clay?' Haladhari was a student of the Gita and Vedanta philosophy, and therefore referred to the holy man as a mere 'cage of clay'.

मैंने जाकर कृष्णकिशोर से वह बात कही तो वह बड़े क्रोध में आ गया । उसने कहा, ‘क्या ! हलधारी ने ऐसी बात कही है? जो ईश्वर-चिन्तन करता है, राम-चिन्तन करता है, और जिसने उसी उद्देश्य से सर्वत्याग किया है, क्या उसका (वैसे संन्यासी का) शरीर मिट्टी का पिंजरा ~ "cage of clay"ठहरा ? हलधारी नहीं जानता कि (माँ काली के अवतार के ) भक्त का शरीर चिन्मय होता है ! (अर्थात embodiment of Spirit- आत्मा का मूर्तरूप होता है। ) उसे इतना क्रोध आ गया था कि, कालीमन्दिर में फूल तोड़ने आया करता था, पर हलधारी से भेंट होने पर मुँह फेर लेता था। उससे बोलता तक न था

[কৃষ্ণকিশোরকে গিয়ে আমি ওই-কথা বললাম। সে মহা রেগে গেল। আর বললে, ‘কি! হলধারী এমন কথা বলেছে? যে ঈশ্বর চিন্তা করে, যে রাম চিন্তা করে, আর সেইজন্য সর্বত্যাগ করেছে, তার দেহ মাটির খাঁচা। সে জানে না যে, ভক্তের দেহ চিন্ময়।’ এত রাগ — কালীবাড়িতে ফুল তুলতে আসত, হলধারীর সঙ্গে দেখা হলে মুখ ফিরিয়ে নিত! কথা কইবে না!
 I repeated this to Krishnakishore. With great anger he said: "How impudent of Haladhari to make such a remark! How can he ridicule as a "cage of clay" the body of a man who constantly thinks of God, who meditates on Rama, and has renounced all for the sake of the Lord? Doesn't he know that such a man is the embodiment of Spirit?' He was so upset by Haladhari's remarks that he would turn his face away from him whenever he met him in the temple garden, and stopped speaking to him.

    [(October 16, 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 10] 

🔆🙏आश्विन की आँधी ~ निर्विकल्प समाधि से व्युत्थान के बाद की अवस्था का वर्णन🔆🙏   

“उसने मुझसे कहा था, ‘तुमने जनेऊ क्यों फेंक दिया?’ जब मेरी यह अवस्था हुई तब आश्विन की आँधी *^ [अम्फान महाचक्रवात (Cyclone Amphan)] की तरह का एक भाव आकर वह सब कुछ न जाने कहाँ उड़ा ले गया , कुछ पता ही न चला ! पहले की एक भी निशानी न रही । होश नहीं थे। जब कपड़ा ही खिसक जाता था, तो जनेऊ कैसे रहे? मैंने कहा, ‘एक बार तुम्हें भी उन्माद हो जाय तो तुम समझो !’ 

[“আমায় বলেছিল, ‘পৈতেটা ফেললে কেন?’ যখন আমার এই অবস্থা হল, তখন আশ্বিনের ঝড়ের মতো একটা কি এসে কোথায় কি উড়িয়ে লয়ে গেল! আগেকার চিহ্ন কিছুই রইল না। হুঁশ নাই! কাপড় পড়ে যাচ্ছে, তা পৈতে থাকবে কেমন করে! আমি বললাম, ‘তোমার একবার উন্মাদ হয়, তাহলে তুমি বোঝ!’
{"Once Krishnakishore asked me, 'Why have you cast off the sacred thread?' In those days of God-vision I felt as if I were passing through the great storm (महाचक्रवात  of Aswin), (The Master referred to the great cyclone of 1864.) and everything had blown away from me. No trace of my old self was left. I lost all consciousness of the world. I could hardly keep my cloth on my body, not to speak of the sacred thread! I said to Krishnakishore, 'Ah, you will understand if you ever happen to be as intoxicated with God as I was.' } 

आश्विन की आँधी *^ श्रीरामकृष्ण ने 1864 में आये बंगाल में आये अम्फान महाचक्रवात (Cyclone Amphan) का उल्लेख यहाँ किया था। वह अम्फान महाचक्रवात की तरह का एक भाव 'प्रेमोन्माद'~जीवन में ...... 12 जनवरी 1985 और उसकी परिणति `सर्वं खल्विदं ब्रह्म' 14.4.1992 को बनारस (ऊँच) में आया था ?? 
सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत ।
अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथाक्रतुरस्मिँल्लोके
पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत॥ (छान्दोग्योपनिषद-३. १४. १)
   यह सब कुछ (दृष्टिगोचर जगत)  ब्रह्म ही है (क्योंकि ब्रह्म और शक्ति अभिन्न है)। यह समस्त संसार उत्पत्तिकाल में इसी से उत्पन्न हुआ है, स्थिति काल में इसी से प्राण रूप अर्थात जीवित है, और अनंतकाल में इसी में लीन हो जायेगा । ऐसा ही जान कर उपासक (भक्त) को शांतचित्त और रागद्वेष रहित होकर परब्रह्म (सगुण ब्रह्म ठाकुर देव -माँ -स्वामीजी) की उपासना सदैव करना चाहिए । जो मृत्यु के पूर्व जैसी उपासना करता है, वह जन्मांतर वैसा ही हो जाता है।
All this is Brahman. From It the universe comes forth, in It the universe merges and in It the universe breathes. Therefore a man should meditate on Brahman with a calm mind. Now, verily, a man consists of will (अब =निर्विकल्प से व्युत्थान होने परब्रह्म वेत्ता मनुष्य में इच्छाशक्ति युक्त हो जाती है.)   As he wills in this world, so does he become when he has departed hence. (जैसे वह इस लोक में- 'अमृत' चाहता है, वैसे ही जब वह इस लोक से चला जाता है तो वह 'अमृत ' ही बन जाता है। उसे इस ज्ञान को ध्यान में रखकर अपनी इच्छा को मोड़ देना चाहिए।)  Let him with this knowledge in mind form his will.
 इह चेत् अवेदीत् अथ सत्यम् अस्ति न चेत् इह अवेदीत् महती विनष्टिः।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्य अस्मान् लोकात् अमृता भवन्ति।। 
( केन उपनिषद  २. ५) 
पदार्थ—(चेत्) यदि (इह) इस मानव-जीवन में (अवेदीत्) ब्रह्म को जान लिया (अथ) तब तो (सत्यम् अस्ति) मनुष्य-जन्म सार्थक है।  (चेत्) यदि (इह) इस जन्म में (न, अवेदीत्) ब्रह्म को नहीं जाना तो (महती विनष्टिः) बहुत बड़ी हानि है।  अर्थात् निरन्तर विभिन्न पशु- पक्षियों की योनियों के चक्र में घूमते रहने से उत्तम सुख का विनाश है। इसलिए (धीराः) ध्यानशील योगी पुरुष (भूतेषु-भूतेषु) सब चराचर जगत् में (विचिन्त्य) ब्रह्म का विवेचन करके तथा उसका साक्षात्कार करके ;  (अस्मात् लोकात्) इस प्रत्यक्ष संसार से (प्रेत्य) देह-त्याग करके (अमृताः) मृत्यु आदि दुःखों से मुक्त (भवन्ति) हो जाते हैं ।

भावार्थ—मानव-जीवन का परम लक्ष्य (चतुर्थ पुरुषार्थ)  है—`मोक्ष-प्राप्ति' । यदि इस उत्तम योनि को प्राप्त करके ब्रह्म को नहीं जाना, और सांसारिक भोग भोगकर ही यह जीवन बिता दिया तो दूसरी पशु-पक्षियों की योनियों तथा मानव-योनि में क्या अन्तर हुआ ? अतः मनुष्यों का यह परम कर्त्तव्य है कि उस ब्रह्म की शक्ति (माँ जगदम्बा) को संसार की प्रत्येक वस्तु में निहित जानकर ब्रह्म-विषयक ज्ञान को प्राप्त करें और दुःखपाश से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करने का अनवरत प्रयत्न करते रहें । इस मन्त्र में ‘अवेदीत्’ प्रयोग छन्दोवत् मानकर सार्वकालिक है, भूतकालिक नहीं। आचार्य शङ्कर ने यहां लिखा है— अमृता भवन्ति=ब्रह्मैव भवन्ति । अर्थात् ब्रह्म ही हो जाते हैं। समीक्षा—‘अमृत’ शब्द का अर्थ मृत्यु आदि दुःखों से रहित होना है, ब्रह्म होना नहीं ।  आत्मसाक्षात्कार के बाद यदि जीव का पृथक् अस्तित्व ही नहीं रहता तो मोक्ष के सुख का कौन भोग करता है ? और उपनिषदों में जो मोक्ष की दशा में मुक्त जीवों का वर्णन किया है, वह सब मिथ्या ही हो जायेगा । जैसे— (क) यं यं लोकं मनसा संविभाति विशुद्धसत्त्वः कामयते यांश्च कामान् । (मुण्डक०) अर्थात् मुक्त जीव मोक्ष में स्वेच्छा से विचरण करते हैं और स्वाभीष्ट कामनाओं को प्राप्त करते हैं । (ख) ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृतात् परिमुच्यन्ति सर्वे ॥ (मुण्डक०) अर्थात् मुक्तजीव (ईश्वरकोटि के जीव) मोक्ष में परान्तकाल=मोक्ष की पूर्णावधि होने के बाद मोक्ष से वापस संसार में आ जाते हैं । इत्यादि वर्णनों से स्पष्ट है कि मोक्ष में (ईश्वरकोटि के) जीवों का ब्रह्म में लय कदापि नहीं होता । वे पृथक् रहकर ही मोक्षानन्द को भोगते हैं । अतः अद्वैतवाद के प्रवर्त्तक आचार्य शङ्कर की व्याख्या भी कल्पित नहीं /है।] 

   
    [(October 16, 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 10] 

🔆🙏माँ काली का प्रेमोन्मत्त भक्त निष्कपट और स्पष्ट वक्ता होता है 🔆🙏 

“फिर हुआ भी वैसा ! उसे उन्माद हो गया । तब वह केवल ‘ॐ ॐ’ कहा करता और एक कोठरी में चुपचाप बैठा रहता था । यह समझकर कि वह पागल हो गया है, लोगों ने वैद्य बुलाया । नाटागढ़ का राम कविराज आया, कृष्णकिशोर ने उससे कहा, ‘मेरी बीमारी तो अच्छी कर दो, पर देखो मेरे ॐकार को मत छुड़ाना !’ (सब हँसे ।)
[তাই হল! তার নিজেরই উন্মাদ হল। তখন সে কেবল ‘ওঁ ওঁ’ বলত আর একঘরে চুপ করে বসে থাকত। সকলে মাথা গরম হয়েছে বলে কবিরাজ ডাকলে। নাটাগড়ের রাম কবিরাজ এল। কৃষ্ণকিশোর তাকে বললে, ‘ওগো, আমার রোগ আরাম কর, কিন্তু দেখো, যেন আমার ওঁকারটি আরাম করো না।’ (সকলের হাস্য)
"And it actually came to pass. He too passed through a God-intoxicated state, when he would repeat only the word 'Om' and shut himself up alone in his room. His relatives thought he was actually mad, and called in a physician. Ram Kaviraj of Natagore came to see him. Krishnakishore said to the physician, 'Cure me, sir, of my malady, if you please, but not of my Om.' (All laugh.)

“एक दिन मैंने जाकर देखा कि वह बैठा सोच रहा है । पूछा ‘क्या हुआ है?’ उसने कहा, ‘टैक्सवाले आए थे, इसीलिए सोच में पड़ा हूँ । उन्होंने कहा है रुपया न देने से घर का माल बेच लेंगे ।’ मैंने कहा, ‘तो सोचकर क्या होगा? अगर सब उठा ले जायँ तो ले जाने दो । अगर बाँधकर ही ले जायँ तो तुम्हें थोड़े ही ले जा सकेंगे । तुम तो ‘ख’ (आकाश) हो !’ (नरेन्द्र आदि हँसे।) कृष्णकिशोर कहा करता था कि मैं आकाशवत् हूँ । वह अध्यात्मरामायण पढ़ता था न ! बीच बीच में उसे ‘तुम ख हो’ कहकर दिल्लगी करता था । सो हँसते हुए मैंने कहा, ‘तुम ख हो; टैक्स तो तुमको खींच कर नहीं ले जा सकेगा ।’

[“একদিন গিয়ে দেখি, বসে ভাবছে। জিজ্ঞাসা করলাম, ‘কি হয়েছে?’ বললে ‘টেক্সোয়ালা এসেছিল — তাই ভাবছি। বলেছে টাকা না দিলে ঘটি-বাটি বেচে লবে।’ আমি বললাম, কি হবে ভেবে? না হয় ঘটি-বাটি লয়ে যাবে। যদি বেঁধে লয়ে যায় তোমাকে তো লয়ে যেতে পারবে না। তুমি তো ‘খ’ গো! (নরেন্দ্রাদির হাস্য) কৃষ্ণকিশোর বলত, আমি আকাশবৎ। অধ্যাত্ম পড়ত কিনা। মাঝে মাঝে ‘তুমি খ’ বলে, ঠাট্টা করতাম। হেসে বললাম, ‘তুমি খ’; টেক্স তোমাকে তো টানতে পারবে না।
 "One day I went to see him and found him in a pensive mood. When I asked him about it, he said: 'The tax-collector was here. He threatened to dispose of my brass pots, my cups, and my few utensils, if I didn't pay the tax; so I am worried.' I said: 'But why should you worry about it? Let him take away your pots and pans. Let him arrest your body even. How will that affect you? For your nature is that of Kha!' (Narendra and the others laugh.) He used to say to me that he was the Spirit, all-pervading as the sky. He had got that idea from the Adhyatma Ramayana. I used to tease him now and then, addressing him as 'Kha'. Therefore I said to him that day, with a smile: You are Kha. Taxes cannot move you!'
[कृष्णकिशोर (कृष्णकिशोर भट्टाचार्य) - वे राम के भक्त और आड़ियादह के निवासी श्री श्री ठाकुर के गृहस्थ भक्त थे। श्री रामकृष्ण उनके घर अध्यात्मनारायण का पाठ सुनने जाते थे। रामनाम और शिवनाम में उनकी गहरी आस्था थी। वृद्धावस्था में वे अपने पुत्र के दु:ख से दु:खी थे, लेकिन ईश्वर के प्रति उनकी भक्ति अटूट थी।
কৃষ্ণকিশোর (কৃষ্ণকিশোর ভট্টাচার্য) — ইনি আড়িয়াদেহ নিবাসী সদাচারনিষ্ঠ রামভক্ত সাধক ও শ্রীশ্রীঠাকুরের গৃহীভক্ত ছিলেন। শ্রীরামকৃষ্ণ তঁহার বাড়িতে অধ্যাত্মনারায়ণ পাঠ শুনিতে যাইতেন। তাঁহার “রামনাম ও শিবনামে” গভীর বিশ্বাস ছিল। বৃদ্ধবয়সে পুত্রশোকে কাতর হইলেও তাঁহার ভগবৎ বিশ্বাস অটুট ছিল ।]

“उन्माद की दशा में मैं सच सच बातें- स्पष्ट बातें कह देता था । किसी की परवाह न करता था। अमीरों (IAS आदि ?) को देखकर मुझे डर नहीं लगता था ।
{“উন্মাদ অবস্থায় লোককে ঠিক ঠিক কথা, হক কথা, বলতুম! কারুকে মানতাম না। বড়লোক দেখলে ভয় হত না।
"In that state of God-intoxication I used to speak out my mind to all. 'पद और धन के आधार पर '---I was no respecter of persons. Even to men of position I was not afraid to speak the truth.}

“यदु मल्लिक के बाग में यतीन्द्र [कलकत्ता का  अभिजातवर्ग का आन्दोलनजीवी ] आया था ।  मैं भी वहीँ था । मैंने उससे पूछा, ‘कर्तव्य क्या है? क्या ईश्वर का चिन्तन करना ही हमारा कर्तव्य नहीं है?’ यतीन्द्र ने कहा, ‘हम संसारी आदमी हैं । हमारे लिए मुक्ति कैसी ! राजा युधिष्ठर को भी नरक दर्शन करना पड़ा था !’ तब मुझे बड़ा क्रोध आया । मैंने कहा, ‘तुम भला कैसे आदमी हो, युधिष्ठर का सिर्फ नरकदर्शन ही तुमने याद रखा है? युधिष्ठर का सत्यवचन, क्षमा, धैर्य, विवेक, वैराग्य, ईश्वर की भक्ति-यह सब बिलकुल याद नहीं आता !’ और भी बहुत कुछ कहने जाता था, पर हृदय ने मेरा मुँह दबा लिया । थोड़ी देर बाद यतीन्द्र यह कहकर कि जरा काम है, चला गया ।”

{“যদু মল্লিকের বাগানে যতীন্দ্র এসেছিল। আমিও সেখানে ছিলাম। অমি তাকে বললাম, কর্তব্য কি? ইশ্বরচিন্তা করাই আমাদের কর্তব্য কি না? যতীন্দ্র বললে, ‘আমরা সংসারী লোক। আমাদের কি আর মুক্তি আছে! রাজা যুধিষ্ঠিরই নরক দর্শন করেছিলেন!’ তখন আমার বড় রাগ হল। বললাম, ‘তুমি কিরকম লোক গা! যুধিষ্ঠিরের কেবল নরকদর্শনই মনে করে রেখেছ? যুধিষ্ঠিরের সত্যকথা, ক্ষমা, ধৈর্য, বিবেক, বৈরাগ্য, ঈশ্বরের ভক্তি — এ-সব কিছু মনে হয় না। আরও কত কি বলতে যাচ্ছিলাম। হৃদে আমার মুখ চেপে ধরলে। যতীন্দ্র একটু পরেই ‘আমার একটু কাজ আছে’ বলে চলে গেল।
"One day Jatindra (A titled aristocrat of Calcutta.) came to the garden of Jadu Mallick. I was there too. I asked him: 'What is the duty of man? Isn't it our duty to think of God?' Jatindra replied: 'We are worldly people. How is it possible for us to achieve liberation? Even King Yudhisthira had to have a vision of hell.' This made me very angry. I said to him: 'What sort of man are you? Of all the incidents of Yudhisthira's life, you remember only his seeing hell. You don't remember his truthfulness, his forbearance, his patience, his discrimination, his dispassion, his devotion to God.' I was about to say many more things, when Hriday stopped my mouth. After a little while Jatindra left the place, saying he had some other business to attend to.}

“बहुत दीनों बाद मैं कप्तान के साथ सौरीन्द्र ठाकुर के घर गया था । उसे देखकर मैंने कहा, ‘तुम्हें राजा-वाजा कह नहीं सकूँगा, क्योंकि वह झूठ बात होगी ।’ उसने मुझसे थोड़ी बातचीत की । फिर मैंने देखा कि साहब लोग आने-जाने लगे । वह रजोगुणी आदमी है, बहुत कामों में लगा रहता है । यतीन्द्र को खबर भेजी गयी । उसने जवाब दिया, ‘मेरे गले में दर्द हुआ है ।’

{“অনেকদিন পরে কাপ্তেনের সঙ্গে সৌরীন্দ্র ঠাকুরের বাড়ি গিছলাম। তাকে দেখে বললাম, ‘তোমাকে রাজা-টাজা বলতে পারব না, কেননা, সেটা মিথ্যাকথা হবে।’ আমার সঙ্গে খানিকটা কথা কইলে। তারপর দেখলাম, সাহেব-টাহেব আনাগোনা করতে লাগল। রজোগুণী লোক, নানা কাজ লয়ে আছে। যতীন্দ্রকে খবর পাঠানো হল। সে বলে পাঠালে, ‘আমার গলায় বেদনা হয়েছে।
"Many days later I went with Captain to see Raja (A title conferred on Sourindra by the Government of India. The word "raja" really means "ruler of a kingdom".) Sourindra Tagore. As soon as I met him, I said, 'I can't address you as "Raja", or (रायसाहब) by any such title, for I should be telling a lie.' He talked to me a few minutes, but even so our conversation was interrupted by the frequent visits of Europeans and others. A man of rajasic temperament, Sourindra was naturally busy with many things. Jatindra, his eldest brother, had been told of my coming, but he sent word that he had a pain in his throat and couldn't go out.} 

“उस उन्माद की दशा में एक दिन वराहनगर के घाट पर मैंने देखा कि जय मुकर्जी जप कर रहा है, पर अनमना होकर । तब मैं पास जाकर दो थप्पड़ लगा दिए ।” 

{“সেই উন্মাদ অবস্থায় একদিন বরানগরের ঘাটে দেখলাম, জয় মুখুজ্জে জপ করছে, কিন্তু অন্যমনস্ক! তখন কাছে গিয়ে দুই চাপড় দিলাম!
"One day, in that state of divine intoxication, I went to the bathing-ghat on the Ganges at Baranagore. There I saw Jaya Mukherji repeating the name of God; but his mind was on something else. I went up and slapped him twice on the cheeks.}

“एक दिन रासमणि दक्षिणेश्वर में आयी । कालीमाता के मन्दिर में आयी । वह पूजा के समय आया करती और मुझसे एक दो गीत गाने को कहती थी । मैं गीत गा रहा था, देखा कि वह अनमनी होकर फूल चुन रही है । बस, दो थप्पड़ जमा दिए तब होश सम्हालकर हाथ बाँधे रही ।”

 {“একদিন রাসমণি ঠাকুরবাড়িতে এসেছে। কালীঘরে এল। পূজার সময় আসত আর দুই-একটা গান গাইতে বলত। গান গাচ্ছি, দেখি যে অন্যমনস্ক হয়ে ফুল বাচ্ছে। অমনি দুই চাপড়। তখন ব্যস্তসমস্ত হয়ে হাতজোড় করে রইল।
"At one time Rani Rasmani was staying in the temple garden. She came to the shrine of the Divine Mother, as she frequently did when I worshipped Kali, and asked me to sing a song or two. On this occasion, while I was singing, I noticed she was sorting the flowers for worship absent-mindedly. At once I slapped her on the cheeks. She became quite embarrassed and sat there with folded hands.

“हलधारी से मैंने कहा, ‘भैया, यह कैसा स्वभाव हो गया ! क्या उपाय करूँ? फिर माँ को पुकारता पुकारते वह स्वभाव दूर हुआ ।”

{“হলধারীকে বললাম, দাদা এ কি স্বভাব হল! কি উপায় করি, তখন মাকে ডাকতে ডাকতে ও-স্বভাব গেল।”
"Alarmed at this state of mind myself, I said to my cousin Haladhari: 'Just see my nature! How can I get rid of it?' After praying to the Divine Mother tor some time with great yearning, I was able to shake off this habit.}

    [(October 16, 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 10] 

🔆🙏काशी तीर्थ यात्रा 1868 : विषयसम्बन्धी चर्चा सुनकर श्रीरामकृष्ण का रुदन🔆🙏

उस अवस्था में ईश्वरीय प्रसंग के सिवा और कुछ अच्छा नहीं लगता था । वैषयिक चर्चा होते सुनकर मैं बैठा रोया करता था । जब मथुरबाबू मुझे अपने साथ तीर्थों को ले गए, तब थोड़े दिन हम वाराणसी में राजाबाबू के मकान पर रहे । मथुरबाबू के साथ बैठकखाने में मैं बैठा था और राजाबाबू भी थे । मैंने देखा कि वे सांसारिक बातें कह रहे हैं । ‘इतने रुपये का नुकसान हुआ है’ –ऐसी ऐसी बातें । मैं रोने लगा- कहा, ‘माँ, मुझे यह कहाँ लायी ! मैं रासमणि के मन्दिर में कहीं अच्छा था । तीर्थ करने को आते हुए भी वे ही कामिनी-कांचन की बातें ! पर वहाँ (दक्षिणेश्वर में) तो विषय-चर्चा सुननी नहीं पड़ती थी ।”
[“ওই অবস্থায় ঈশ্বরকথা বই আর কিছু ভাল লাগে না। বিষয়ের কথা হচ্ছে শুনলে বসে বসে কাঁদতাম। মথুরবাবু যখন সঙ্গে করে তীর্থ লয়ে গেল, তখন কাশীতে রাজাবাবুর বাড়িতে কয়দিন আমরা ছিলাম। মথুরবাবুর সঙ্গে বৈঠকখানায় বসে আছি, রাজাবাবুরাও বসে আছে। দেখি তারা বিষয়ের কথা কইছে। এত টাকা লোকসান হয়েছে — এই সব কথা। আমি কাঁদতে লাগলাম, বললাম, ‘মা, কোথায় আনলে! আমি যে রাসমণির মন্দিরে খুব ভাল ছিলাম, তীর্থ করতে এসেও সেই কামিনী-কাঞ্চনের কথা। কিন্তু সেখানে (দক্ষিণেশ্বরে) তো বিষয়ের কথা শুনতে হয় নাই।”
"When one gets into such a state of mind, one doesn't enjoy any conversation but that about God. I used to weep when I heard people talk about worldly matters. When I accompanied Mathur Babu on a pilgrimage, we spent a few days in Benares at Raja Babu's house. One day I was seated in the drawing-room with Mathur Babu, Raja Babu, and others. Hearing them talk about various worldly things, such as their business losses and so forth, I wept bitterly and said to the Divine Mother: 'Mother, where have You brought me? I was much better off in the temple garden at Dakshineswar. Here I am in a place where I must hear about "woman and gold". But at Dakshineswar I could avoid it.'"

श्रीरामकृष्ण ने भक्तों से, विशेषकर नरेन्द्र से, जरा आराम लेने के लिए कहा, और आप भी छोटे तखत पर थोड़ा आराम करने चले गए । 

[ঠাকুর ভক্তদের, বিশেষতঃ নরেন্দ্রকে, একটু বিশ্রাম করিতে বলিলেন। নিজেও ছোট খাটটিতে একটু বিশ্রাম করিতে গেলেন।
The Master asked the devotees, especially Narendra, to rest awhile, and he himself lay down on the smaller couch.


(२)

    [(October 16, 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 10] 

🔆🙏नरेन्द्र आदि के साथ कीर्तनानन्द, नरेन्द्र का प्रेमालिंगन🔆🙏

तीसरा प्रहर हुआ है । नरेन्द्र गाना गा रहे हैं । राखाल, लाटू, मास्टर, नरेन्द्र के ब्राह्म मित्र प्रिय, हाजरा आदि सब हैं । नरेन्द्र ने कीर्तन गाया, मृदंग बजने लगा-

चिन्तय मम मानस हरि चिद्घन निरंजन।
किबा अनूपम भाति, मोहन मूरति, भकत-हृदय-रंजन॥

नव रागे रंजित कोटि शशी बिनिन्दित,
(किबा) बिजली चमके, सेरूप आलोके, पूलके शिहरे जीवन॥

हृदि-कमलासने, भाब तांर चरण,
देखी शांत मने, प्रेम नयने, अपरूप प्रिय-दर्शन।
चिदानंद-रसे भक्तियोगाबेशे हो ओ रे चिर मगन॥ 

(भावार्थ)-“ऐ मन, तू चिद्घन हरि का चिन्तन कर । उनकी मोहनमूर्ति की कैसी अनुपम छटा है ! –वह श्रीहरि भक्तों का हृद्यधन उसकी सौंदर्य सुषमा कोट्यवधि चन्द्रमाओं को लज्जित करेगी ! उसके लावण्य दर्शन से प्राण पुलकित हो जाते हैं । हृत्कमलासन में उसके श्रीचरणों का चिन्तन कर, शान्तिपूर्ण मन से तथा प्रेमनेत्रों से उस अपरूप प्रियदर्शन का दर्शन कर भक्ति के आवेग से उस चिदानन्द रस में चिरनिमग्न हो जा ।......

[বৈকাল হইয়াছে — নরেন্দ্র গান গাহিতেছেন — রাখাল, লাটু, মাস্টার, নরেন্দ্রের ব্রাহ্মবন্ধু প্রিয়, হাজরা — সকলে আছেন। নরেন্দ্র কীর্তন গাহিলেন, খোল বাজিতে লাগিল:

চিন্তয় মম মানস হরি চিদঘন নিরঞ্জন;
কিবা অনুপম ভাতি, মোহন মূরতি, ভকত-হৃদয়-রঞ্জন।
নবরাগে রঞ্জিত, কোটি শশী-বিনিন্দিত,
(কিবা) বিজলি চমকে, সেরূপ আলোকে, পুলকে শিহরে জীবন।
হৃদি-কমলাসনে ভাব তাঁর চরণ,
দেখ শান্ত মনে, প্রেমনয়নে, অপরূপ প্রিয়দর্শন।
চিদানন্দরসে, ভক্তিযোগাবেশে, হও রে চিরমগন।
Late in the afternoon Narendra sang. Rakhal, Latu, (A young disciple of the Master, who later became a monk under the name of Swami Adbhutananda.) M., Hazra, and Priya, Narendra's Brahmo friend, were present. The singing was accompanied by the drum:" Meditate, O my mind, on the Lord Hari, The Stainless One, Pure Spirit through and through. How peerless is the light that in Him shines! How soul-bewitching is His wondrous form! How dear is He to all His devotees! . . 
 
नरेन्द्र ने फिर गाया-
सत्यम- शिव- सुंदर भाति हृदि मंदिरे। 
निरखि निरखि अनूदिन मोरा डूबिबो रुपसागरे।
(शे दिन कोबे होबे) (दिनजनेर भाग्य नाथ)। 

ज्ञान- अनन्तरुपे पोशिबे नाम मम हृदे,
अबाक होईये अधीर मन शरण लोईबे श्रीपदे। 

आनंद अमृतरुपे उदिबे हृदय आकाशे। 
चंद्र उदिले चकोर जेमोन क्रिड़ये मन हरषे ,
आमरा ओ नाथ, तेमनि कोरे मातिबो तव प्रकाशे। 

            शांत शिव अद्वितिय राज- राज- चरणे, 
बिकाईबो ओहे प्राणसखा, सफल कोरिबो जीवने। 
एमोन अधिकार, कोथा पाबो आर, स्वर्गभोग जीवने (सशरीरे)।

शुद्धम पापविध्दम रुप, हेरिये नाथ तोमार,
आलोक देखिले आँधार जेमोन जाय, पलाइये सत्वर,
तेमनि नाथ तोमार प्रकाशे, पलाइबे पाप-आँधार। 

ओहे ध्रुव-तारा-सम हृदे ज्वलंत विश्वास हे,
ज्वालि दिये दिनबंधू पुराओ मनेर आश; 

आमि निशीदिन प्रेमानंदे मगन होईये हे, 
आपनार भूले जाबो, तोमार पाईये हे। 

(शे दिन कोबे होबे हे। )

(भावार्थ)-“सत्य-शिव-सुन्दर का रूप हृदय-मन्दिर में शोभायमान है, जिसे नित्य देखकर हम उस रूप के समुद्र में डूब जाएँगे । वह दिन कब आएगा? हे प्रभो, मुझ दीन के भाग्य में यह कब होगा? हे नाथ, कब अनन्त ज्ञान के रूप में तुम हमारे हृदय में विराजोगे और हमारा चंचल मन निर्वाक होकर तुम्हारी शरण लेगा? कब अविनाशी आनन्द के रूप में तुम हृदयाकाश में उदित होंगे? 
चन्द्रमा के उदय होने पर चकोर जैसे उल्लसित होता है, वैसे हम भी तुम्हारे प्रकट होने पर मस्त हो जाएँगे । तुम शान्त, शिव, अद्वितीय और राजराज हो । हे प्राणसखा, तुम्हारे चरणों में हम बिक जाएँगे और अपने जीवन को सफल करेंगे । ऐसा अधिकार और ऐसा जीते जी ऐसा स्वर्गभोग हमें और कहाँ मिलेगा? 
तुम्हारा शुद्ध और अपापविद्ध रूप हम देखेंगे । जिस तरह प्रकाश को देखकर अँधेरा जल्द भाग जाता है, उसी तरह तुम्हारे प्रकट होने से पापरूपी अन्धकार भाग जायगा । तुम ध्रुवतारा हो, हे दीनबन्धो, हमारे हृदय में ज्वलन्त विश्वास का संचार कर मन की आशाएँ पूरी कर दो । तुम्हें प्राप्त कर हम अहर्निश प्रेमानन्द में डूबे रहेंगे और अपने आपको भूल जाएँगे । वह दिन कब आएगा, प्रभो?”
{নরেন্দ্র আবার গাহিলেন:
     (১)     সত্যং শিব সুন্দর ভাতি হৃদি মন্দিরে।
নিরখি নিরখি অনুদিন মোরা ডুবিব রূপসাগরে।
(সেদিন কবে হবে) (দীনজনের ভাগ্যে নাথ)।
জ্ঞান-অনন্তরূপে পশিবে নাম মম হৃদে,
অবাক্‌ হইয়ে অধীর মন শরণ লইবে শ্রীপদে।
আনন্দ-অমৃতরূপে উদিবে হৃদয়-আকাশে,
চন্দ্র উদিলে চকোর যেমন ক্রীড়য়ে মন হরষে,
আমরাও নাথ, তেমনি করে মাতিব তব প্রকাশে।
শান্তং শিব অদ্বিতীয় রাজ-রাজ-চরণে,
বিকাইব ওহে প্রাণসখা, সফল করিব জীবনে।
এমন অধিকার, কোথা পাব আর, স্বর্গভোগ জীবনে (সশরীরে)।
শুদ্ধমপাপবিদ্ধং রূপ, হেরিয়ে নাথ তোমার,
আলোক দেখিলে আঁধার যেমন যায় পলাইয়ে সত্বর;
তেমনি নাথ তোমার প্রকাশে পলাইবে পাপ-আঁধার।
ওহে ধ্রুবতারা-সম হৃদে জ্বলন্ত বিশ্বাস হে,
জ্বালি দিয়ে দীনবন্ধু পুরাও মনের আশ;
আমি নিশিদিন প্রেমানন্দে মগন হইয়ে হে;
আপনার ভুলে যাব, তোমারে পাইয়ে হে।
(সেদিন কবে হবে হে।)

After this song Narendra sang:
"Oh, when will dawn for me that day of blessedness, When He who is all Good, all Beauty, and all Truth, Will light the inmost shrine of my heart? When shall I sink at last, ever beholding Him, Into that Ocean of Delight? Lord, as Infinite Wisdom Thou shalt enter my soul, And my unquiet mind, made speechless by Thy sight, Will find a haven at Thy feet. In my heart's firmament, O Lord, Thou wilt arise As Blissful Immortality; And as, when the chakora beholds the rising moon, It sports about for very joy, So, too, shall I be filled with heavenly happiness When Thou appearest unto me. Thou One without a Second, all Peace, the King of Kings! At Thy beloved feet I shall renounce my life, And so at last shall gain life's goal; I shall enjoy the bliss of heaven while yet on earth! Where else is a boon so rare bestowed? Then shall I see Thy glory, pure and untouched by stain; As darkness flees from light, so will my darkest sins, Desert me at Thy dawn's approach. Kindle in me, O Lord, the blazing fire of faith, To be the pole-star of my life; O Succour of the weak, fulfil my one desire! Then shall I bathe both day and night, In the boundless bliss of Thy Love, and utterly forget, Myself, O Lord, attaining Thee.} 
गाना 2 ,
आनंदवदने बोलो मधूर ब्रह्मनाम। 
नामे उथलिबे सुधासिंधू प्रिय अविराम। (पान करो आर दान करो हे)

जदि होय कखोन शुष्क हृदय, करो नामगान। 
(विषय- मरिचिकाय पोड़े हे) (प्रेमें हृदय, सरस होबे हे)
(देखो जेनो भूलो ना रे शेई महामंत्र।)

विपदकाले डाके तारे दयाल पिता बोले,
सब हुंकारिये छिन्न करो पापेर बंधन। (जय ब्रह्म जय बोले हे)
एशो ब्रह्मानंदे माति सबे होई पूर्णकाम। (प्रेमजोगे जोगी होये हे)

(भावार्थ)-“आनन्द से मधुर ब्रह्मनाम का उच्चारण करो । नाम से सुधा का सिन्धु उमड़ आयगा-उसे लगातार पीते रहो आप पीते रहो और दूसरों को पिलाते रहो । विषयरूपी मृगजल में पड़कर यदि कभी हृदय शुष्क हो जाय तो नामगान करना । प्रेम से हृदय सरस हो उठेगा । देखना, वह महामन्त्र नहीं भूलना । संकट के समय उसे दयालु पिता कहकर पुकारना । हुंकार से पाप का बन्धन तोड़ डालो। जय ब्रह्म कहकर आओ, सब मिलकर ब्रह्मानन्द में मस्त होवें और सब कामनाओं को मिटा दें । प्रेमयोग के योगी बनें ।”
{(২)     আনন্দবনে মল মধুর ব্রহ্মনাম।
নামে উথলিবে সুধাসিন্ধু পিয় অবিরাম। (পান কর আর দান কর হে)।
যদি হয় কখন শুষ্ক হৃদয়, কর নামগান।
(বিষয়-মরীচিকায় পড়ে হে) (প্রেমে হৃদয়, সরস হবে হে)
(দেখ যেন ভুল না রে সেই মহামন্ত্র)।
সবে হুঙ্কারিয়ে ছিন্ন কর পাপের বন্ধন। (জয় ব্রহ্ম জয় বল হে)।
এস ব্রহ্মানন্দে বাতি সবে হই পূর্ণকাম। (প্রেমযোগে যোগী হয়ে হে)।
With beaming face chant the sweet name of God, Till in your heart the nectar overflows. Drink of it ceaselessly and share it with all! If ever your heart runs dry, parched by the flames, Of worldly desire, chant the sweet name of God, And heavenly love will moisten your arid soul. Be sure, O mind, you never forget to chant, His holy name: when danger stares in your face, Call on Him, your Father Compassionate; With His name's thunder, snap the fetters of sin! Come, let us fulfil our hearts' desires, By drinking deep of Everlasting Joy, Made one with Him in Love's pure ecstasy.} 
मृदंग और करताल के साथ कीर्तन हो रहा है । नरेन्द्र आदि भक्त श्रीरामकृष्ण को घेरकर कीर्तन कर रहे हैं । कभी गाते हैं- “हे मेरे मन , जो शुद्ध सत्य, ज्ञान और आनन्द स्वरुप हैं , उस प्रेम-सागर में चिरदिन के लिए मग्न हो जा ।’
फिर कभी गाते हैं- "ओह, मेरे लिए वह धन्य दिन कब उदय होगा, जब वे जो सत्य-शिव- और सुन्दर के  प्रतिमूर्ति (अवतार वरिष्ठ)  हैं ,मेरे ह्रदय-मंदिर  को प्रकाशित कर देंगे ? "  

[খোল করতাল লইয়া কীর্তন হইতেছে। নরেন্দ্রাদি ভক্তেরা ঠাকুরকে বেড়িয়া বেড়িয়া কীর্তন করিতেছেন। কখন গাহিতেছেন, “প্রেমানন্দ রসে হও রে চিরগমন!” আবার কখন গাহিতেছেন, “সত্যং শিব সুন্দররূপ ভাতি হৃদিমন্দিরে।”

{Now Narendra and the devotees began to sing kirtan, accompanied by the drum and cymbals. They moved round and round the Master as they sang:
Immerse yourself for evermore, O mind,In Him who is Pure Knowledge and Pure Bliss. 
Oh, when will dawn for me that day of blessedness, When He who is all Good, all Beauty, and all Truth, Will light the inmost shrine of my heart? . . .} 
अन्त में नरेन्द्र ने स्वयं मृदंग उठा लिया और मतवाले होकर श्रीरामकृष्ण के साथ गाने लगे-
 'आनंदवदने बोलो मधूर ब्रह्मनाम। ‘आओ भाइयो , हमलोग मुस्कुराते हुए चेहरे से (ब्रह्म-शक्ति स्वरुप) भगवान श्रीरामकृष्ण के मधुर नाम का जाप करें।
[অবশেষে নরেন্দ্র নিজে খোল ধরিয়াছেন ও মত্ত হইয়া ঠাকুরের সঙ্গে গাহিতেছেন, “আনন্দবদনে বল মধুর হরিনাম।”
At last Narendra himself was playing on the drums, and he sang with the Master, full of joy: . .With beaming face chant the sweet name of God . ..’ 
कीर्तन समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र को बार-बार छाती से लगाया और कहा- “अहा, आज तुमने मुझे कैसा आनन्द दिया !”
[কীর্তনান্তে নরেন্দ্রকে ঠাকুর অনেকক্ষণ করিয়া বারবার আলিঙ্গন করিলেন! বলিতেছেন, “তুমি আজ আমায় আনন্দ দিলে!!!”
When the music was over, Sri Ramakrishna held Narendra in his arms a long time and said, "You have made us so happy today!"

 आज श्रीरामकृष्ण के हृदय में प्रेम का स्त्रोत (विवेक-स्रोत उद्घाटित) उमड़ रहा है । रात के आठ बजे होंगे, तो भी प्रेमोन्मत्त होकर बरामदे में अकेले टहल रहे हैं । उत्तरवाले लम्बे बरामदे में आए हैं और अकेले एक छोर से दूसरे छोर तक जल्दी जल्दी टहल रहे हैं । बीच बीच में जगन्माता के साथ कुछ बातचीत कर रहे हैं । एकाएक उन्मत्त की भाँति बोल उठे, “तू मेरा क्या बिगाड़ेगी ?” क्या आप यही कह रहे हैं कि 'जगन्माता जिसे सहारा दे रही है, माया उसका क्या बिगाड़ सकती है ?

{আজ ঠাকুরের হৃদয়মধ্যস্থ প্রেমের উৎস উচ্ছ্বসিত হইয়াছে। রাত প্রায় আটটা। তথাপি প্রেমোন্মত্ত হইয়া একাকী বারান্দায় বিচরণ করিতেছেন। উত্তরের লম্বা বারান্দায় আসিয়াছেন ও দ্রুতপদে বারান্দার এক সীমা হইতে অন্য সীমা পর্যন্ত পাদচারণ করিতেছেন। মাঝে মাঝে মার সঙ্গে কি কথা কহিতেছেন। হঠাৎ উন্মত্তের ন্যায় বলিয়া উঠিলেন, “তুই আমার কি করবি?”মা যার সহায় তার মায়া কি করিতে পারে। এই কথা কি বলিতেছেন?
The flood-gate (विवेक-स्रोत उद्घाटित) of the Master's heart was open so wide, that night, that he could hardly contain himself for joy. It was eight o'clock in the evening. Intoxicated with divine love, he paced the long verandah north of his room. Now and then he could be heard talking to the Divine Mother. Suddenly he said in an excited voice, "What can you do to me?" Was the Master hinting that maya was helpless before him, since he had the Divine Mother for his support?
     नरेन्द्र, प्रिय और मास्टर रात को रहेंगे । नरेन्द्र रहेंगे- बस, श्रीरामकृष्ण फूले नहीं समाते । रात का भोजन तैयार हुआ । श्रीश्रीमाँ  (The Holy Mother) (१.श्रीरामकृष्णदेव की धर्मपत्नी श्रीसारदादेवी) नौबतखाने में हैं-आपने अपने भक्तों के लिए रोटी, दाल आदि बनाकर भेज दिया है। भक्त लोग बीच बीच में रहा करते हैं; गृही भक्त सुरेन्द्र (Suresh Mitra) प्रतिमास कुछ खर्च देते हैं । 
कमरे के दक्षिण-पूर्ववाले बरामदे में भोजन के चौके लगाए जा रहे हैं। 
{নরেন্দ্র, মাস্টার, প্রিয় রাত্রে থাকিবেন। নরেন্দ্র থাকিবেন; ঠাকুরের আনন্দের সীমা নাই। রাত্রিকালীন আহার প্রস্তুত। শ্রীশ্রীমা নহবতে আছেন। রুটি ছোলার ডাল ইত্যাদি প্রস্তুত করিয়া ভক্তেরা খাইবেন বলিয়া পাঠাইয়াছেন। ভক্তেরা মাঝে মাঝে থাকেন; সুরেন্দ্র মাসে মাসে কিছু খরচ দেন। আহার প্রস্তুত। ঠাকুরের ঘরের দক্ষিণ-পূর্ব বারান্দায় জায়গা হইতেছে।
Narendra, M., and Priya were going to spend the night at the temple garden. This pleased the Master highly, especially since Narendra would be with him. The Holy Mother, (By this name Sri Ramakrishna's wife was known among his devotees.) who was living in the nahabat, had prepared the supper. Surendra (The name by which Sri Ramakrishna addressed Suresh Mitra, a beloved householder disciple.) bore the greater part of the Master's expenses. The meal was ready, and the plates were set out on the southeast verandah of the Master's room.}
 
    [(October 16, 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 10] 

🔆🙏नरेन्द्रादि को स्कूल या अन्य स्थान में विषय- चर्चा करने का निषेध 🔆🙏 

[विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर -युवा चरित्र निर्माणकारी संस्था की अनिवार्यता]     

पूर्ववाले दरवाजे के पास नरेन्द्र आदि शिष्य आपस में बातचीत कर रहे हैं ।

[ঘরের পুর্বদিকের দরজার কাছে নরেন্দ্রাদি গল্প করিতেছেন।
Near the east door of his room Narendra and the other devotees were gossiping.

नरेन्द्र - आजकल के लड़कों को आप कैसा देख रहे हैं ?

[নরেন্দ্র — আজকাল ছোকরারা কিরকম দেখছেন?
NARENDRA: "How do you find the young men nowadays?"

मास्टर- बुरे नहीं, पर धर्म के उपदेश कुछ नहीं पाते हैं ।

{মাস্টার — মন্দ নয়, তবে ধর্মোপদেশ কিছু হয় না।
M: "They are not bad; but they don't receive any religious instruction."} 

नरेन्द्र- मैंने खुद जो देखा है उससे तो जान पड़ता है कि सब बिगड़ रहे हैं । चुरट पीना, ठट्टेबाजी, ठाटबाट, स्कुल से भागना- ये सब हरदम होते देखे जाते हैं; यहाँ तक कि खराब जगहों में भी जाया करते हैं ।
{নরেন্দ্র — নিজে যা দেখেছি, তাতে বোধ হয় সব অধঃপাতে যাচ্ছে। বার্ডসাই, ইয়ার্কি, বাবুয়ানা, স্কুল পালানো — এ-সব সর্বদা দেখা যায়। এমন কি দেখেছি যে, কুস্থানেও যায়।
NARENDRA: "But from my experience I feel they are going to the dogs. They smoke cigarettes, indulge in frivolous talk, enjoy foppishness, play truant, and do everything of that sort. I have even seen them visiting questionable places."} 

मास्टर- जब हम पढ़ते थे तब तो ऐसा न देखा, न सुना ।

[মাস্টার — যখন পড়াশুনা করতাম, আমরা তো এরূপ দেখি নাই, শুনি নাই।
M: "I didn't notice such things during our student days."

नरेन्द्र- शायद आप उतना मिलते-जुलते नहीं थे । मैंने यह भी देखा कि खराब लोग उन्हें नाम से पुकारते हैं । कब उनसे मिले हैं, कौन जाने !

{নরেন্দ্র — আপনি বোধ হয় তত মিশতেন না। এমন দেখেছি যে, খারাপ লোকে নাম ধরে ডাকে; কখন আলাপ করেছে কে জানে!
NARENDRA: "Perhaps you didn't mix with the students intimately. I have even seen them talking with people of immoral character. Perhaps they are on terms of intimacy with them."

मास्टर- क्या आश्चर्य की बात ! 

[মাস্টার — কি আশ্চর্য!
M: "It is strange indeed."

नरेन्द्र- मैं जानता हूँ कि बहुतों का चरित्र बिगड़ गया है । स्कुल के संचालक और लड़कों के अभिभावक इस विषय पर ध्यान दें तो अच्छा हो ।

{নরেন্দ্র — আমি জানি, অনেকের চরিত্র খারাপ হয়ে গেছে। স্কুলের কর্তৃপক্ষীয়েরা ও ছেলেদের অভিভাবকেরা এ-সব বিষয় দেখেন তো ভাল হয়।
NARENDRA: "I know that many of them form bad habits. It would be proper if the guardians of the boys, and the authorities, kept their eyes on these matters."

{अर्थात विद्यार्थियों को मुण्डक उपनिषद में निर्देशित ब्रह्म या परम् सत्य को जानने की पद्धति विषय में चर्चा छोड़कर अन्य चर्चा में आसक्त होने से बचना चाहिए। 

प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्‌ तन्मयो भवेत्‌ ॥
( मुण्डकोपनिषत् २ -२-४) 
ॐ (प्रणव) है धनुष तथा आत्मा है बाण, और 'वह', अर्थात् 'ब्रह्म' को लक्ष्य के रूप में कहा गया है। 'उसका' प्रमाद रहित होकर वेधन करना चाहिये; जिस प्रकार शर अर्थात् बाण अपने लक्ष्य में विलुप्त हो जाता है उसी प्रकार मनुष्य को 'उस' में (ब्रह्म में) तन्मय हो जाना चाहिये।
यस्मिन्‌ द्यौः पृथिवी चान्तरिक्षमोतं मनः सह प्राणैश्च सर्वैः।
तमेवैकं जानथ आत्मानमन्या वाचो विमुञ्चथामृतस्यैष सेतुः ॥  (२-२-५)
यस्मिन् [अ-क्षरे] द्यौः पृथिवी अन्तर्-इक्षं च [समष्टितः] ओतं [समर्पितम्], सर्वैः प्राणैः [करणैः] सह मनस् च [व्यष्टितः ओतम्] – तम् एव [सर्व-आश्रयम्] एकं आत्मानं जानथ। [ज्ञात्वा] अन्याः [अ-पर-विद्या-रूपाः] वाचः विमुञ्चथ। [यतः] एषः अ-मृतस्य सेतुः [इव]॥
The heavens, the earth and the space between are woven in this brahman (as an expanded form that is only the thread which is its reality), along with the mind and all the prāṇas. May you know that non-dual (eka) to be oneself. Any words or ideas that differ, give them up. This alone is the bridge (setu, across the ocean of saṃsāra) to the immortal. 
पदार्थ- (अस्मिन्) परमात्मा के भीतर (द्यौः) सूर्य, चन्द्र, सब लोक अर्थात् ग्रह (पृथ्वी) भूमि (अन्तरिक्षं) जिसके सहारे वायु और मेघ रहते हैं अर्थात् आकाश (ओतम्) जिस प्रकार माला की गुरियों में तागा होता है, ऐसे पिरोया हुआ (मनः) मन (सह प्राणैः) सपूर्ण प्राणों के साथ (च) और (सर्वे) सब इन्द्रियां इत्यादि (तम्) उस (एव) ही (एक) एक को (जानथ) पुरुषार्थ करके साधनों के द्वारा जानो (आत्मानम्) एक परमात्मा है (अन्याः) दूसरी (वाचः) वाणी (विमुञ्चथ) नितान्त त्याग दो (अमृतस्य) मुक्ति का (एषः) यह (सेतुः) पुल है। 
भावार्थ- परमात्मा में सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, तारे इत्यादि समस्त लोक रहते हैं, उसी के भीतर आकाश रहता है। प्रयोजन यह है जो पृथिवी, चन्द्र, सूर्य, तारे, आकाश इत्यादि के योग से भी बड़ा है और जिसमें सपूर्ण इन्द्रियों के साथ प्राण पिरोये हुए हैं, जिस प्रकार तागे में माला के मनके, हम उस एक को पुरुषार्थ करके जानें। क्योंकि वह आत्मा ही संसार रूपी सागर से पार उतारने के लिये पुल है। जो इस आत्मा को नहीं जानता, वह दुःखसागर से काी पार नहीं हो सकता। क्योंकि जिस प्रकार अन्धकार को दूर करने के लिये प्रकाश के अतिरिक्त अन्य साधन नहीं, शीत को दूर करने के लिये गरमी के अतिरिक्त दूसरा उपाय नहीं। प्रकृति जड़ अर्थात् परतन्त्र होने से दुःख स्वरूप ही है जिसमें दुःख ही है, उससे दुःख किस प्रकार दूर हो सकता है? जीवात्मा सुख-दुःख दोनों से पृथक् है, वह स्वाभाविक सुखी है न दुःखी। इसलिये जीवात्मा से दुःख दूर होना भी सभव नहीं, केवल परमात्मा (परम् सत्य-शिव-सुन्दर)  ही आनन्द-स्वरुप है, उन्हीं से दुःख छूट सकता है। इसीलिये विद्यार्थियों को परमात्मा (परम् सत्य ) को जानने की पद्धति (3H विकास के 5 अभ्यास) पर चर्चा करने अतिरिक्त और सब बातों पर चर्चा में आसक्त नहीं रहना चाहिए , विषय-चर्चा को तो बिल्कुल त्याग ही देना चाहिए।}

     [(October 16, 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 10]
 
🔆🙏ईश्वर-चर्चा ही असल। तमेवैकं जानथ आत्मानम्, अन्या वाचो विमुञ्चथ🔆🙏

इस तरह बातें हो रही थीं कि श्रीरामकृष्ण कोठरी के भीतर से उनके पास आये और हँसते हुए कहते हैं, “भला तुम्हारी क्या बातचीत हो रही है?” 

[এইরূপ কথাবার্তা চলিতেছে, ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ঘরের ভিতর হইতে তাঁহাদের কাছে আসিলেন ও হাসিতে হাসিতে বলিতেছেন, “কি গো, তোমাদের কি কথা হচ্ছে?” 
They were talking thus when Sri Ramakrishna came to them and asked with a smile, "Well, what are you talking about?"

नरेन्द्र ने कहा, “इनसे स्कूल की चर्चा हो रही थी । लड़कों का चरित्र ठीक नहीं रहता ।”

[নরেন্দ্র বলিলেন, “এঁর সঙ্গে স্কুলের কথাবার্তা হচ্ছিল। ছেলেদের চরিত্র ভাল থাকে না।”
NARENDRA: "I have been asking M. about the boys in the schools. The conduct of students nowadays isn't all that it should be."
 
श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर तक उन बातों को सुनकर मास्टर से गम्भीर भाव से कहते हैं, “ऎसी बातचीत अच्छी नहीं । ईश्वर की बातों को छोड़ दूसरी बातें अच्छी नहीं । तुम इनसे उम्र में बड़े हो, तुम सयाने हुए हो, तुम्हें ये सब बातें उठने देना उचित न था ।”
उस समय नरेन्द्र की उम्र उन्नीस-बीस रही होगी और मास्टर की सत्ताईस-अट्ठाईस । मास्टर लज्जित हुए, नरेन्द्र आदि भक्त चुप रहे ।
[ঠাকুর একটু ওই সকল কথা শুনিয়া মাস্টারকে গম্ভীরভাবে বলিতেছেন, “এ-সব কথাবার্তা ভাল নয়। ঈশ্বরের কথা বই অন্য কথা ভাল নয়। তুমি এদের চেয়ে বয়সে বড়, বুদ্ধি হয়েছে, তোমার এ-সব কথা তুলতে দেওয়া উচিত ছিল না।” (নরেনেদ্রর বয়স তখন ১৯/২০; মাস্টারের ২৭/২৮) মাস্টার অপ্রস্তুত। নরেন্দ্রাদি ভক্তগণ চুপ করিয়া রহিলেন।
The Master became grave and said to M. rather seriously: "This kind of conversation is not good. It isn't desirable to indulge in any talk but talk of God. You are their senior, and you are intelligent. You should not have encouraged them to talk about such matters."
Narendra was then about nineteen years old, and M. about twenty-eight. Thus admonished, M. felt embarrassed, and the others also fell silent.

श्रीरामकृष्ण खड़े होकर हँसते हुए नरेन्द्र आदि भक्तों को भोजन कराते हैं । आज उनको बड़ा आनन्द हुआ है ।

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ দাঁড়াইয়া হাসিতে হাসিতে নরেন্দ্রাদি ভক্তগণকে খাওয়াইতেছেন। ঠাকুরের আজ মহা আনন্দ।
While the devotees were enjoying their meal, Sri Ramakrishna stood by and watched them with intense delight. That night the Master's joy was very great.

भोजन के बाद नरेन्द्र आदि भक्त श्रीरामकृष्ण के कमरे में फर्श पर बैठे विश्राम कर रहे हैं और श्रीरामकृष्ण से बातें कर रहे हैं । आनन्द का मेला-सा लग गया है । बातों बातों में श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र से कहते हैं- ‘चिदाकाश में पूर्ण प्रेमचन्द्र का उदय हुआ’ जरा इस गाने को तो गा ।

[নরেন্দ্রাদি ভক্তেরা আহার করিয়া ঠাকুরের ঘরের মেঝেতে বসিয়া বিশ্রাম করিতেছেন ও ঠাকুরের সঙ্গে গল্প করিতেছেন। আনন্দের হাট বসিয়াছে। কথা কহিতে কহিতে নরেন্দ্রকে ঠাকুর বলিতেছেন, “চিদাকাশে হল পূর্ণ প্রেমচন্দ্রোদয় হে এই গানটি একবার গা না।”
After supper the devotees rested on the mat spread on the floor of the Master's room. They began to talk with him. It was indeed a mart of joy. The Master asked Narendra to sing the song beginning with the line: "In Wisdom's firmament the moon of Love is rising full."

नरेन्द्र ने गाना शुरू किया । साथ ही अन्य भक्त मृदंग और करताल बजाने लगे ।

चिदाकाशे होलो पूर्ण प्रेमचंद्रोदय हे, 
उथलिलो प्रेमसिंधू कि आनंदमय हे। 
(जय दयामय, जय दयामय, जय दयामय )

चारिदिके झलमल कोरे भक्त ग्रहदल, 
भक्तसंगे भक्तसखा लीलारसमय हे। 
(जय दयामय, जय दयामय, जय दयामय )

स्वर्गेर दुआर खुली, आनंद-लहरी तूली;
नवविधान- वसंत- समीरन बय,
छूटे ताहे मंद मंद लीलारस प्रेमगंध,
घ्राणे जोगिवृंद जोगानंदे मत्त होये हे। 
(जय दयामय, जय दयामय, जय दयामय)

भवसिंधू जले, विधान कमले, आनंदमयी विराजे,
आवेशे आकूल, भक्त अलिकूल, पिये सूधा तार माझे। 
देखे देखे मायेर प्रसन्न वदन, चित्त- विनोदन भूवन- मोहन, 
पदतले दले दले साधुगण, नाचे गाय प्रेमे होईये मगन;
किबा अपरूप आहा मरी मरी जुडाईलो प्राण दरशन कोरी।
प्रेमदासे बोले सबे पाये धोरी, गाओ भाई मायेर जय।।

 गीत का आशय इस प्रकार था-
“चिदाकाश में पूर्ण प्रेमचन्द्र का उदय हुआ । क्या ही आनन्दपूर्ण प्रेमसिन्धु उमड़ आया ! जय दयामय, जय दयामय, जय दयामय ! चारों ओर भक्तरूपी ग्रह जगमगाते हैं । भक्तसखा भगवान् भक्तों के संग लीलारसमय हो रहे हैं । जय दयामय ! स्वर्ग का द्वार खोल, आनन्द का तूफान उठाते हुए नवविधान१ (१.श्री केशव सेन द्वारा स्थापित ब्राह्मसमाज का नाम) रूपी वसन्त-समीर चल रहा है । उससे लीलारस और प्रेमगन्धवाले कितने ही फूल खिल जाते हैं जिनकी महक से योगीवृन्द योगानन्द में मतवाले हो जाते हैं । जय दयामय ! संसार-हृद के जल पर नवविधान * -रूपी कमल में आनन्दमयी माँ विराजती हैं, और भावावेश से आकुल भक्तरुपी भौंरे उसमें सुधापान कर रहे हैं । वह देखो माता  का प्रसन्न वदन-जिसे देखकर चित्त खिल उठता है और जगत् मुग्ध हो जाता है और देखो-माँ के श्रीचरणों के पास साधुओं का समूह, वे मस्त होकर नाच-गा रहे हैं । अहा, कैसा अनुपम रूप है-जिसे देखकर प्राण शीतल हो गए। ‘प्रेमदास’ सब के चरण पकड़कर कहता है कि भाई, सब मिलकर माँ की जय गाओ ।

{নরেন্দ্র গাহিতে আরম্ভ করিলেন। অমনি সঙ্গে সঙ্গে খোল করতাল অন্য ভক্তগণ বাজাইতে লাগিলেন:
চিদাকাশে হল পূর্ণ প্রেমচন্দ্রোদয় হে।
উথলিল প্রেমসিন্ধু কি আনন্দময় হে।
(জয় দয়াময়, জয় দয়াময়, জয় দয়াময়)
চারিদিকে ঝলমল করে ভক্ত গ্রহদল,
ভক্তসঙ্গে ভক্তসখা লীলারসময় হে।
(জয় দয়াময়, জয় দয়াময়, জয় দয়াময়)
স্বর্গের দুয়ার খুলি, আনন্দ-লহরী তুলি;
নববিধান-বসন্ত-সমীরণ বয়,
ছুটে তাহে মন্দ মন্দ লীলারস প্রেমগন্ধ,
ঘ্রাণে যোগিবৃন্দ যোগানন্দে মত্ত হয় হে।
(জয় দয়াময়, জয় দয়াময়, জয় দয়াময়)
ভবসিন্ধুজলে, বিধান-কমলে, আনন্দময়ী বিরাজে,
আবেশে আকুল, ভক্ত অলিকুল, পিয়ে সুধা তার মাঝে।
দেখ দেখ মায়ের প্রসন্নবদন চিত্ত-বিনোদন ভুবন-মোহন,
পদতলে দলে দলে সাধুগণ, নাচে গায় প্রেমে হইয়ে মগন;
কিবা অপরূপ আহা মরি মরি, জুড়াইল প্রাণ দরশন করি
প্রেমদাসে বলে সবে পায়ে ধরি, গাও ভাই মায়ের জয় ৷৷
কীর্তন করিতে করিতে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ নৃত্য করিতেছেন। ভক্তেরাও তাঁহাকে বেড়িয়া নৃত্য করিতেছেন।
Narendra sang, and other devotees played the drums and cymbals: 

"In Wisdom's firmament the moon of Love is rising full,And Love's flood-tide, in surging waves, is flowing everywhere.O Lord, how full of bliss Thou art! Victory unto Thee!
On every side shine devotees, like stars around the moon;
Their Friend, the Lord All-merciful, joyously plays with them.
Behold! the gates of paradise today are open wide.
The soft spring wind of the New Day raises fresh waves of joy;
Gently it carries to the earth the fragrance of God's Love,
Till all the yogis, drunk with bliss, are lost in ecstasy.
Upon the sea of the world unfolds the lotus of the New Day,
And there the Mother sits enshrined in blissful majesty.
See how the bees are mad with joy, sipping the nectar there!
Behold the Mother's radiant face, which so enchants the heart
And captivates the universe! About Her Lotus Feet
Bands of ecstatic holy men are dancing in delight.
What matchless loveliness is Hers! What infinite content
Pervades the heart when She appears! O brothers, says Premdas,I humbly beg you, one and all, to sing the Mother's praise!
Sri Ramakrishna sang and danced, and the devotees danced around him.
 [(October 16, 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 10]

🔆🙏पानी के नीचे एक पुल है, जो माँ काली की नगरी 'भवानीपुर' तक जाता है🔆🙏

" जलस्य अधः सेतुः ~ 'मन्त्रदीक्षा' अस्ति !"  

[There is a bridge under the water, 
 going 'To Bhawanipur', the city of the Divine Mother!]

कीर्तन करते करते श्रीरामकृष्ण नृत्य कर रहे हैं । भक्त भी उन्हें घेरकर नाच रहे हैं । कीर्तन समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण उत्तर—पूर्ववाले बरामदे में टहल रहे हैं । श्रीयुत हाजरा उसी के उत्तर भाग में बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण जाकर वहाँ बैठे । मास्टर भी वहीँ बैठे हैं और हाजरा से बातचीत कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने एक भक्त से पूछा, “ क्या तुम कोई स्वप्न भी देखते हो ? ”

[কীর্তনান্তে ঠাকুর উত্তর-পূর্ব বারান্দায় বেড়াইতেছেন। হাজরা মহাশয় বারান্দার উত্তরাংশে বসিয়া আছেন। ঠাকুর সেখানে গিয়া বসিলেন; মাস্টার সেইখানে বসিয়াছেন ও হাজরার সঙ্গে কথা কহিতেছেন। ঠাকুর একটি ভক্তকে জিজ্ঞাসা করিলেন, “তুমি স্বপ্ন-টপ্ন দেখ?”
When the song was over, the Master walked up and down the northeast verandah, where Hazra was seated with M. The Master sat down there. He asked a devotee, "Do you ever have dreams?"

भक्त- एक अद्भुत स्वप्न मैंने देखा हैं- यह जगत् जलमय हो गया है । अनन्त जलराशि ! कुछ एक नावें तैर रही थीं, एकाएक बाढ़ से डूब गयीं । मैं और कुछ और आदमी एक जहाज पर चढ़े हैं कि इतने में उस अकूल समुद्र के ऊपर से चलते हुए एक ब्राह्मण दिखायी पड़े । मैंने पूछा, ‘आप कैसे जा रहे हैं?’ ब्राह्मण ने जरा हँसकर कहा, ‘यहाँ कोई तकलीफ नहीं है; जल के नीचे बराबर पुल है।  मैंने पूछा, ‘आप कहाँ जा रहे हैं ?’ उन्होंने कहा, ‘भवानीपुर जा रहा हूँ ।’ मैंने कहा,जरा ठहर जाइए; मैं भी आपके साथ चलूँगा ।’

{ভক্ত — একটি আশ্চর্য স্বপ্ন দেখেছি; এই জগৎ জলে জল। অনন্ত জলরাশি! কয়েকখানা নৌকা ভাসিতেছিল; হঠাৎ জলোচ্ছ্বাসে ডুবে গেল। আমি আর কয়টি লোক জাহাজে উঠেছি; এমন সময়ে সেই অকূল সমুদ্রের উপর দিয়ে এক ব্রাহ্মণ চলে যাচ্ছেন। আমি জিজ্ঞাসা করলাম, “আপনি কেমন করে যাচ্ছেন?” ব্রাহ্মণটি একটু হেসে বললেন, “এখানে কোন কষ্ট নাই; জলের নিচে বরাবর সাঁকো আছে।” জিজ্ঞাসা করলাম, “আপনি কোথায় যাচ্ছেন?” তিনি বললেন, “ভবানীপুর যাচ্ছি।” আমি বললাম, “একটু দাঁড়ান; আমিও আপনার সঙ্গে যাব।”
DEVOTEE: "Yes, sir. The other day I dreamt a strange" dream. I saw the whole world enveloped in water. There was water on all sides. A few boats were visible, but suddenly huge waves appeared and sank them. I was about to board a ship with a few others, when we saw a brahmin walking over that expanse of water. I asked him, 'How can you walk over the deep?' The brahmin said with a smile: 'Oh, there is no difficulty about that. There is a bridge under the water.(वही पुल जिस पर चलकर तोतापुरी जी गंगा के उस पार चले गए थे ?) I said to him, 'Where are you going?' 'To Bhawanipur, the city of the Divine Mother', he replied. 'Wait a little', I cried. 'I shall accompany you.'"

श्रीरामकृष्ण- यह सब सुनकर मुझे रोमांच हो रहा है !

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আমার এ-কথা শুনে রোমাঞ্চ হচ্ছে!
{MASTER: "Oh, I am thrilled to hear the story!"}

भक्त- ब्राह्मण ने कहा, ‘मुझे अब फुरसत नहीं हैं; तुम्हें नाव से उतरने में देर लगेगी । अब मैं चलता हूँ । यह रास्ता देख लो, तुम पीछे आना ।’

{ভক্ত — ব্রাহ্মণটি বললেন, “আমার এখন তাড়াতাড়ি; তোমার নামতে দেরি! এখন আসি। এই পথ দেখে রাখ, তুমি তারপর এস।”
DEVOTEE: "The brahmin said: 'I am in a hurry. It will take you some time to get out of the boat. Good-bye. Remember this path and come after me.'}

श्रीरामकृष्ण- मुझे रोमांच हो रहा है ! तुम जल्दी मन्त्रदीक्षा ले लो ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ — আমার রোমাঞ্চ হচ্ছে! তুমি শীঘ্র মন্ত্র লও।
MASTER: "Oh, my hair is standing on end! Please be initiated by a guru as soon as possible."} 

रात के ग्यारह बज गए हैं । नरेन्द्र आदि भक्त श्रीरामकृष्ण के कमरे में फर्श पर बिस्तर लगाकर लेट गये।
[রাত এগারটা হইয়াছে। নরেন্দ্রাদি ভক্তগণ ঠাকুরের ঘরের মেঝেতে বিছানা করিয়া শয়ন করিলেন।
Shortly before midnight Narendra and the other devotees lay down on a bed made on the floor of the Master's room.


(३)

[(17 अक्टूबर, 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 10]  

🔆🙏श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण का मनःसंयोग -क्लास🔆🙏   

     नींद खुलने पर भक्तों में से कोई कोई देखते हैं कि सबेरा हुआ है (मंगलवार, 17 अक्टूबर, 1882)। श्रीरामकृष्ण बालक की भाँति दिगम्बर हैं, और देव-देवियों के नाम उच्चारण करते हुए कमरे में टहल रहे हैं । आप कभी गंगादर्शन करते हैं, कभी देव-देवियों के चित्रों के पास जाकर प्रणाम करते हैं, और कभी मधुर स्वर में नामकीर्तन करते हैं । कभी कहते हैं- वेद, पुराण, तन्त्र, गीता, गायत्री, भागवत, भक्त, भगवान् । गीता को लक्ष्य करके अनेक बार कहते हैं- ‘त्यागी, त्यागी, त्यागी, त्यागी ।’ (गीता का सार है त्याग - कामिनी -कांचन में आसक्ति का त्याग) फिर कभी-‘तुम्हीं ब्रह्म हो, तुम्हीं शक्ति; तुम्हीं पुरुष; तुम्हीं प्रकृति; तुम्हीं विराट हो, तुम्हीं स्वराट् (स्वतन्त्र अद्वितीय सत्ता)-तुम्हीं नित्य हो, तुम्हीं लीलामयी; तुम्हीं (सांख्य के) चौबीस तत्त्व हो ।’

[নিদ্রাভঙ্গের পর ভক্তেরা কেউ কেউ দেখিতেছেন যে, প্রভাত হইয়াছে (১৭ই অক্টোবর, ১৮৮২; মঙ্গলবার, ১লা কার্তিক, শুক্লা পঞ্চমী)। শ্রীরামকৃষ্ণ বালকের ন্যায় দিগম্বর, ঠাকুরদের নাম করিতে করিতে ঘরে বেড়াইতেছেন। কখন গঙ্গাদর্শন, কখন ঠাকুরদের ছবির কাছে গিয়া প্রণাম, কখন বা মধুর স্বরে নামকীর্তন। কখন বলিতেছেন, বেদ, পুরাণ, তন্ত্র, গীতা, গায়ত্রী, ভাগবত-ভক্ত-ভগবান। গীতা উদ্দেশ করিয়া অনেকবার বলিতেছেন, ত্যাগী ত্যাগী ত্যাগী ত্যাগী। কখন বা — তুমিই ব্রহ্ম, তুমিই শক্তি; তুমিই পুরুষ, তুমিই প্রকৃতি; তুমিই বিরাট, তুমিই স্বরাট; তুমিই নিত্য, তুমিই লীলাময়ী; তুমিই চতুর্বিংশতি তত্ত্ব।

{At dawn some of the devotees were up. They saw the Master, naked as a child, pacing up and down the room, repeating the names of the various gods and goddesses. His voice was sweet as nectar. Now he would look at the Ganges, now stop in front of the pictures hanging on the wall and bow down before them, chanting all the while the holy names in his sweet voice. He chanted: "Veda, Purana, Tantra; Gita, Gayatri; Bhagavata, Bhakta, Bhagavan." Referring to the Gita, he repeated many times, "Tagi, tagi, tagi." (This word is formed by reversing the letters of "Gita". "Tagi" means "one who has renounced". Renunciation is the import of this sacred book.) Now and then he would say: "O Mother, Thou art verily Brahman, and Thou art verily Sakti. Thou art Purusha and Thou art Prakriti. Thou art Virat. Thou art the Absolute, and Thou dost manifest Thyself as the Relative. Thou art verily the twenty-four cosmic principles."

इधर कालीमन्दिर और राधाकान्त के मन्दिर में मंगलारती हो रही है और शंख-घण्टे बज रहे हैं । भक्त उठकर देखते हैं कि मन्दिर की फुलवाड़ी में देव-देवियों की पूजा के लिए फूल तोड़े जा रहे हैं, और प्रभाती रागों की लहरें फैलाती हुई नौबत बज रही है । नरेन्द्र आदि भक्त प्रातःक्रिया से निपटकर श्रीरामकृष्ण के पास आए । श्रीरामकृष्ण सहास्यमुख हो उत्तर-पूर्ववाले बरामदे में पश्चिम की ओर खड़े हैं। 

[এদিকে ৺কালীমন্দিরে ও ৺রাধাকান্তের মন্দিরে মঙ্গল আরতি হইতেছে ও শাঁখঘন্টা বাজিতেছে। ভক্তেরা উঠিয়া দেখিতেছেন কালীবাড়ির পুষ্পোদ্যানে ঠাকুরদের পূজার্থ পুষ্পচয়ন আরম্ভ হইয়াছে ও প্রভাতী রাগের লহরী উঠাইয়া নহবত বাজিতেছে।
In the mean time the morning service had begun in the temples of Kali and Radhakanta. Sounds of conch-shells and cymbals were carried on the air. The devotees came outside the room and saw the priests and servants gathering flowers in the garden for the divine service in the temples. From the nahabat floated the sweet melody of musical instruments, befitting the morning hours.

नरेंद्र आदि भक्तगण प्रातः क्रिया से निपटकर श्रीरामकृष्ण के पास पहुंचे। श्रीरामकृष्ण सहास्य-मुख हो उत्तर-पूर्वी बरामदे के पश्चिम दिशा में खड़े हैं।

[নরেন্দ্রাদি ভক্তগণ প্রাতঃকৃত্য সমাপন করিয়া ঠাকুরের কাছে আসিয়া উপস্থিত হইলেন। ঠাকুর হাস্যমুখ, উত্তর-পূর্ব বারান্দার পশ্চিমাংশে দাঁড়াইয়া আছেন।
Narendra and the other devotees finished their morning duties and came to the Master. With a sweet smile on his lips Sri Ramakrishna was standing on the northeast verandah, close to his own room.

नरेन्द्र- (आते वक्त) मैंने देखा कि पंचवटी में कुछ नानकपन्थी साधु बैठे हैं ।

[নরেন্দ্র — পঞ্চবটীতে কয়েকজন নানাকপন্থী সাধু বসে আছে দেখলুম।
NARENDRA: "We noticed several sannyasis belonging to the sect of Nanak in the Panchavati."

श्रीरामकृष्ण- हाँ, वे कल आए थे । (नरेन्द्र से) तुम सब एक साथ चटाई पर बैठो, मैं देखूँ ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, তারা কাল এসেছিল! (নরেন্দ্রকে) তোমরা সকলে একসঙ্গে মাদুরে বস, আমি দেখি।
MASTER: "Yes, they arrived here yesterday. (To Narendra) I'd like to see you all sitting together on the mat."

सब भक्तों के चटाई पर बैठने के बाद श्रीरामकृष्ण आनन्द से देखने और उनसे बातचीत करने लगे। नरेन्द्र ने साधना (spiritual discipline) की बात छेड़ी । 

[ভক্তেরা সকলে মাদুরে বসিলে ঠাকুর আনন্দে দেখিতে লাগিলেন ও তাঁহাদের সহিত গল্প করিতে লাগিলেন। নরেন্দ্র সাধনের কথা তুলিলেন।
MASTER: "Yes, they arrived here yesterday. (To Narendra) I'd like to see you all sitting together on the mat."

[(17 अक्टूबर, 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 10]  

🔆🙏 वीरभाव की साधना कठिन है, सन्तानभाव अतिशुद्ध है 🔆🙏

[नरेन्द्रादि निवृत्ति- मार्ग  (त्यागी मार्ग) के अधिकारी शिष्यों को 'वीरभाव' 
से साधना करने का निषेध - 'सन्तानभाव' अतिशुद्ध]  
.
श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र आदि से)- भक्ति ही सार वस्तु है । ईश्वर को (के सगुण ब्रह्म श्रीरामकृष्ण को) प्यार करने से विवेक-वैराग्य आप ही आप आ जाते हैं ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রাদির প্রতি) — ভক্তিই সার। তাঁকে ভালবাসলে বিবেক বৈরাগ্য আপনি আসে।
MASTER: "Bhakti, love of God, is the essence of all spiritual discipline. Through love one acquires renunciation and discrimination naturally."}
 
[माँ काली के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण को प्यार करने से - अर्थात उनके प्रिय शिष्य स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मन को एकाग्र करने से - नवनीदा की भाषा में  - "विवेक-दर्शन " का अभ्यास करने से `विवेक-स्रोत ' स्वतः उद्घाटित हो जाता है ! 
মা কালীর জ্যেষ্ঠ অবতার শ্রী রামকৃষ্ণ কে ভালবাসার মাধ্যমে - অর্থাৎ, তার প্রিয় শিষ্য স্বামী বিবেকানন্দের প্রতি মনকে কেন্দ্রীভূত করার মাধ্যমে - নবনিদার ভাষায় - "বিবেক-দর্শন" অনুশীলনের মাধ্যমে 'বিবেক উত্স' স্বয়ংক্রিয়ভাবে খুলে যায়!
By loving Sri Ramakrishna, an incarnation of Maa Kali - that is, by concentrating the mind on the image of his beloved disciple Swami Vivekananda - in the language of Navnida - by practicing "Vivek-darshan" the 'Vivek-source' automatically opens!]
 
नरेन्द्र- एक बात पूछूँ- क्या तन्त्रों में औरतों से मिलकर साधना करना कहा गया है?

[नरेंद्र: "क्या यह सच नहीं है कि तंत्र-मार्ग में स्त्री को साथ में रखकर आध्यात्मिक साधना करने का निर्देश दिया गया है?"}

{নরেন্দ্র — আচ্ছা, স্ত্রীলোক নিয়ে সাধন তন্ত্রে আছে?
NARENDRA: "Isn't it true that the Tantra prescribes spiritual discipline in the company of woman?"} 

श्रीरामकृष्ण- वे सब अच्छे रास्ते नहीं; बड़े कठिन हैं, और उनसे प्रायः पतन हुआ करता है । तीन प्रकार की साधनाएँ हैं- वीरभाव, दासीभाव, मातृभाव । मेरी मातृभाव की साधना है । दासीभाव भी अच्छा है । `वीरभाव की साधना ' बड़ी कठिन है । सन्तानभाव (दिव्यभाव) बड़ा शुद्ध भाव है ।

[ किसी स्त्री को अपनी 'Mistress' (गुरुवाइन या रखैल) मानकर आध्यात्मिक साधना करना अत्यन्त कठिन है, उससे प्रायः मनुष्य देवभाव (100 %निःस्वार्थपरता) से पुनः  पशुभाव (0 % निःस्वार्थपरता) में पतित हो जाता है। सन्तान भाव शुद्ध भाव है। ]    

{শ্রীরামকৃষ্ণ — ও-সব ভাল পথ নয়, বড় কঠিন, আর পতন প্রায়ই হয়। বীরভাবে সাধন, দাসীভাবে সাধন, আর মাতৃভাবে সাধন! আমার মাতৃভাব। দাসীভাবও ভাল। বীরভাবে সাধন বড় কঠিন। সন্তানভাব বড় শুদ্ধভাব।
MASTER: "That is not desirable. It is a very difficult path and often causes the aspirant's downfall. There are three such kinds of discipline. One may regard woman (Woman is the symbol of the Divine Mother.) as one's mistress or look on oneself as her handmaid or as her child. I look on woman as my mother. To look on oneself as her handmaid is also good; but it is extremely difficult to practise spiritual discipline looking on woman as one's mistress. To regard oneself as her child is a very pure attitude."}

नानकपन्थी साधुओं ने आकर श्रीरामकृष्ण को ‘नमो नारायण’ कहकर अभिवादन किया । श्रीरामकृष्ण ने उनसे बैठने को कहा ।

[নানাকপন্থী সাধুরা ঠাকুরকে অভিবাদন করিয়া বলিলেন, “নমো নারায়ণায়।” ঠাকুর তাঁহাদের আসন গ্রহণ করিতে বলিলেন।
The sannyasis belonging to the sect of Nanak entered the room and greeted the Master, saying "Namo Narayanaya." ("Salutations to God." This is the way sadhus greet one another.) Sri Ramakrishna asked them to sit down.

[(17 अक्टूबर, 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 10]
  
🔆🙏ईश्वर- कोटि के लिए सुई के छेद में ऊँट-हाथी घुसाना और निकालना सम्भव है🔆🙏

[ঈশ্বরে সব সম্ভব — Miracles]

श्रीरामकृष्ण कहते हैं- “ईश्वर के लिए कुछ भी असम्भव नहीं । उनका यथार्थ स्वरूप कोई नहीं बता सकता । सभी सम्भव है । दो योगी थे, ईश्वर की साधना करते थे । नारद ऋषि जा रहे थे । उनका परिचय पाकर एक ने कहा ‘तुम नारायण के पास से आते हो? वे क्या कर रहे हैं?’ नारदजी ने कहा, ‘मैं देख आया कि वे एक सुई के छेद में ऊँट-हाथी घुसाते हैं और फिर निकालते हैं ।’ उस पर एक ने कहा, इसमें आश्चर्य ही क्या है? उनके लिए सभी सम्भव है ।’ पर दूसरे ने कहा, ‘भला ऐसा कभी हो सकता है? तुम वहाँ गए ही नहीं ।’

{ঠাকুর বলিতেছেন, ঈশ্বরের পক্ষে কিছুই অসম্ভব নয়। তাঁর স্বরূপ কেউ মুখে বলতে পারে না। সকলই সম্ভব। দুজন যোগী ছিল, ঈশ্বরের সাধনা করে। নারদ ঋষি যাচ্ছিলেন। একজন পরিচয় পেয়ে বললেন, “তুমি নারায়ণের কাছ থেকে আসছ, তিনি কি করছেন?” নারদ বললেন, “দেখে এলাম, তিনি ছুচের ভিতর দিয়ে উট হাতি প্রবেশ করাচ্ছেন, আবার বার করছেন।” একজন বললে, “তার আর আশ্চর্য কি! তাঁর পক্ষে সবই সম্ভব।” কিন্তু অপরটি বললে, “তাও কি হতে পারে! তুমি কখনও সেখানে যাও নাই।”
MASTER: "Nothing is impossible for God. Nobody can describe His nature in words. Everything is possible for Him. There lived at a certain place two yogis who were practising spiritual discipline. The sage Narada was passing that way one day. Realizing who he was, one of the yogis said: 'You have just come from God Himself. What is He doing now?' Narada replied, 'Why, I saw Him making camels and elephants pass and repass through the eye of a needle.' At this the yogi said: 'Is that anything to wonder at? Everything is possible for God.' But the other yogi said: 'What? Making elephants pass through the eye of a needle — is that ever possible? You have never been to the Lord's dwelling-place.'} 

दिन के नौ बजे होंगे । श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में बैठे हैं । कोन्नगर से मनोमोहन सपरिवार आए हैं। उन्होंने प्रणाम करके कहा, “ इन्हें कलकत्ते ले जा रहा हूँ ! ” कुशल प्रश्न पूछने के बाद श्रीरामकृष्ण ने कहा, “आज माह का पहला दिन है और तुम तो कलकत्ते जा रहे हो; -क्या जाने कहीं कुछ खराबी न हो!” यह कहकर जरा हँसे और दूसरी बात कहने लगे ।

[বেলা প্রায় নয়টা। ঠাকুর নিজের ঘরে বসিয়া আছেন। মনোমহন কোন্নগর হইতে সপরিবারে আসিয়াছেন। মনোমোহন প্রণাম করিয়া বলিলেন, “এদের কলকাতায় নিয়ে যাচ্ছি।” ঠাকুর কুশল প্রশ্ন করিয়া বলিলেন, “আজ ১লা, অগস্ত্য, কলকাতায় যাচ্ছ; কে জানে বাপু!” এই বলিয়া একটু হাসিয়া অন্য কথা কহিতে লাগিলেন।
At nine o'clock in the morning, while the Master was still sitting in his room, Manomohan arrived from Konnagar with some members of his family. In answer to Sri Ramakrishna's kind inquiries, Manomohan explained that he was taking them to Calcutta. The Master said: "Today is the first day of the Bengali month, an inauspicious day for undertaking a journey. I hope everything will be well with you." With a smile he began to talk of other matters.



[(17 अक्टूबर, 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 10]

🔆🙏नरेन्द्र को मग्न होकर ध्यान करने का उपदेश🔆🙏
 
[নরেন্দ্রকে মগ্ন হইয়া ধ্যানের উপদেশ ]

नरेन्द्र और उनके मित्र स्नान करके आए । श्रीरामकृष्ण ने व्यग्र होकर नरेन्द्र से कहा, “जाओ, बट के नीचे जाकर ध्यान करो । आसन दूँ?”

[নরেন্দ্র ও তাঁহার বন্ধুরা স্নান করিয়া আসিলেন। ঠাকুর ব্যগ্র হইয়া নরেন্দ্রকে বলিলেন, “যাও বটতলায় ধ্যান কর গে, আসন দেব?”
When Narendra and his friends had finished bathing in the Ganges, the Master said to them earnestly: "Go to the Panchavati and meditate there under the banyan-tree. Shall I give you something to sit on?"

नरेन्द्र और उनके कुछ मित्र पंचवटी के नीचे ध्यान कर रहे हैं । करीब साढ़े दस बजे होंगे । थोड़ी देर में श्रीरामकृष्ण वहाँ आए; मास्टर भी साथ हैं । 

[নরেন্দ্র ও তাঁহার কয়টি ব্রাহ্মবন্ধু পঞ্চবটীমূলে ধ্যান করিতেছিলেন। বেলা প্রায় সাড়ে দশটা। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ কিয়ৎক্ষণ পরে সেইখানে উপস্থিত; মাস্টারও আসিয়াছেন। ঠাকুর কথা কহিতেছেন —
About half past ten Narendra and his Brahmo friends were meditating in the Panchavati. After a while Sri Ramakrishna came to them. M., too, was present.

श्रीरामकृष्ण कहते हैं- (ब्राह्म भक्तों से)- “ध्यान करते समय ईश्वर में डूब जाना चाहिए, ऊपर ऊपर तैरने से क्या पानी के नीचेवाले लाल मिल सकता है न?”
फिर आपने रामप्रसाद का एक गीत गाया-

डूब दे रे मन काली बोले। हृदी-रत्नाकरेर अगाध जले। 
रत्नाकर नय शून्य कोखोन, दू -चार डूबे धन ना पेले, 
तुमि दम- सामर्थ्ये एकडूबे जाओ, कूलकुंडलिनीर कूले। 

ज्ञान-समुद्रेर माझे रे मन, शांतिरुपा मुक्ता फले,
तुमि भक्ती कोरे कूड़ाये पाबे, शिवजुक्ती मतो चाइले। 

कामादी छय कुम्भीर आछे, आहार- लोभे सदाई चोले, 
तुमि विवेक- हलदी गाये मेखे जाओ, छोबे ना तार गंध पेले। 

रतन- माणिक्य कोतो पड़े आछे शेइ जले,
रामप्रसाद बोले झांप दिले, मिलबे रतन फले फले। 

 जिसका आशय इस प्रकार है- “ऐ मन, काली कहकर हृदयरूपी रत्नाकर के अथाह जल में डुबकी लगा । यदि दो ही चार डुबकियों में धन हाथ न लगा, तो भी रत्नाकर शून्य नहीं हो सकता । पूरा दम लेकर एक ऐसी डुबकी लगा कि तू कुलकुण्डलिनी के पास पहुँच जाय । ऐ मन, ज्ञानसमुद्र में शक्तिरूपी मुक्ताएँ पैदा होती हैं । यदि तू शिव की युक्ति के अनुसार भक्तिपूर्वक ढूँढ़ेगा तो तू उन्हें पा सकेगा । उस समुद्र में काम आदि छः घड़ियाल हैं, जो खाने के लोभ से सदा ही घूमते रहते हैं । 
[ ^षड्रिपु  - (संस्कृत-अर्थ:छह शत्रु) कहते है, जो है: काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद (अहं) और मात्सर्य (ईर्ष्या)^The six passions: lust (काम का अर्थ है अत्यधिक लालसा। (कामना,वासना), anger ( क्रोध का अर्थ है गुस्सा और चिड़चिड़ाहट), avarice (लोभ का अर्थ है लालच), delusion ( मोह का अर्थ है लगाव,आकर्षण, क्षणभंगुर वस्तुओं के साथ मन का जुड़ाव), pride ( मद का अर्थ हैअभिमान, अहंकार), and envy (मात्सर्य का अर्थ है ईर्ष्या, घृणा, जलन, दूसरों की समृद्धि और प्रगति सहन न होना। ये सभी नकारात्मक लक्षण है, जो मनुष्य को मोक्ष या मोक्ष प्राप्त करने से रोकते हैं।इन भावनाओं के कारण मन अशांत रहता है और एकाग्र नहीं हो पाता।]
तो तू विवेक -प्रयोग (covishield vaccine) रूपी हल्दी  बदन में चुपड़ ले-उसकी बू से वे तुझे छुएँगे नहीं। कितने ही लाल और मणिक उस जल में पड़े हैं । रामप्रसाद का कहना है कि यदि तू कूद पड़ेगा तो तुझे वे सब के सब मिल जाएँगे ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ (ব্রাহ্মভক্তদের প্রতি) — ধ্যান করবার সময় তাঁতে মগ্ন হতে হয়। উপর উপর ভাসলে কি জলের নিচে রত্ন পাওয়া যায়?
এই বলিয়া ঠাকুর মধুর স্বরে গান গাহিতে লাগিলেন:
ডুব দে মন কালী বলে। হৃদি-রত্নাকরের অগাধ জলে।
রত্নাকর নয় শূন্য কখন, দু-চার ডুবে ধন না পেলে,
তুমি দম-সামর্থ্যে একডুবে যাও, কুলকুণ্ডলিনীর কূলে।
জ্ঞান-সমুদ্রের মাঝে রে মন, শান্তিরূপা মুক্তা ফলে,
তুমি ভক্তি করে কুড়ায়ে পাবে, শিবযুক্তি মতো চাইলে। 
কামাদি ছয় কুম্ভীর আছে, আহার-লোভে সদাই চলে,
তুমি বিবেক-হলদি গায়ে মেখে যাও, ছোঁবে না তার গন্ধ পেলে।
রতন-মাণিক্য কতপড়ে আছে সেই জলে,
রামপ্রসাদ বলে ঝম্প দিলে, মিলবে রতন ফলে ফলে।
The Master said to the Brahmo devotees: "In meditation one must be absorbed in God. By merely floating on the surface of the water, can you reach the gems lying at the bottom of the sea?"Then he sang:

" Taking the name of Kali, dive deep down, O mind, Into the heart's fathomless depths, Where many a precious gem lies hid. But never believe the bed of the ocean bare of gems, If in the first few dives you fail; With firm resolve and self-control, Dive deep and make your way to Mother Kali's realm. Down in the ocean depths of heavenly Wisdom lie, The wondrous pearls of Peace, O mind; And you yourself can gather them. If you but have pure love and follow the scriptures' rule.  Within those ocean depths, as well, Six alligators lurk ^lust, anger, and the rest —Swimming about in search of prey. Smear yourself with the turmeric of discrimination; The very smell of it will shield you from their jaws. Upon the ocean bed lie strewn, Unnumbered pearls and precious gems; Plunge in, says Ramprasad, and gather up handfuls there!} 

* ब्राह्मसमाज वक्तृता और समाज संस्कार (Social Reforms)*

[(17 अक्टूबर, 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 10]

🔆🙏 पहले ईश्वरलाभ (चपरास ), उसके बाद लोकशिक्षा 🔆🙏

[ব্রাহ্মসমাজ, বক্তৃতা ও সমাজসংস্কার (Social Reforms)
 — আগে ঈশ্বরলাভ, পরে লোকশিক্ষা প্রদান ]

    नरेन्द्र और उनके मित्र पंचवटी के चबूतरे से उतरे और श्रीरामकृष्ण के पास खड़े हुए । श्रीरामकृष्ण दक्षिणमुख होकर उनसे बातचीत करते करते अपने कमरे की तरफ आ रहे हैं ।

[নরেন্দ্র ও তাঁহার বন্ধুগণ পঞ্চবটীর চাতাল হইতে অবতরণ করিলেন ও ঠাকুরের কাছে আসিয়া দাঁড়াইলেন। ঠাকুর দক্ষিণাস্য হইয়া নিজের ঘরের দিকে তাঁহাদের সহিত কথা কহিতে কহিতে আসিতেছেন।
Narendra and his friends came down from their seats on the raised platform of the Panchavati and stood near the Master. He returned to his room with them. 

श्रीरामकृष्ण- “गोता लगाने से तुम्हें घड़ियाल पकड़ सकते हैं, पर हल्दी चुपड़ने से वे नहीं छू सकते। हृदयरूपी रत्नाकर के अथाह जल में काम आदि छः घड़ियाल रहते हैं, पर विवेक-वैराग्यरूपी हल्दी चुपड़ने से वे फिर तुम्हें नहीं छुएँगे ।” 
{ঠাকুর বলিতেছেন, “ডুব দিলে কুমির ধরতে পারে, কিন্তু হলুদ মাখলে কুমির ছোঁয় না। ‘হৃদি-রত্নাকরের অগাধ জলে’ কামাদি ছয়টি কুমির আছে। কিন্তু বিবেক, বৈরাগ্যরূপ হলুদ মাখলে তারা আর তোমাকে ছোঁবে না।
"When you plunge in the water of the ocean, you may be attacked by alligators. But they won't touch you if your body is smeared with turmeric. There are no doubt six alligators — lust, anger, avarice, and so on — within you, in the 'heart's fathomless depths'. But protect yourself with the turmeric of discrimination and renunciation, and they won't touch you.
     “केवल पण्डिताई या लेक्चर से क्या होगा यदि विवेक-वैराग्य (अनासक्ति)  न हुआ? ईश्वर सत्य हैं और सब कुछ अनित्य; वे ही वस्तु हैं, शेष सब अवस्तु-इसी का नाम विवेक है ।”

{“পাণ্ডিত্য কি লেকচার কি হবে যদি বিবেক-বৈরাগ্য না আসে। ঈশ্বর সত্য আর সব অনিত্য; তিনিই বস্তু আর সব অবস্তু; এর নাম বিবেক।
"What can you achieve by mere lecturing and scholarship without discrimination and dispassion? God alone is real, and all else is unreal. God alone is substance, and all else is nonentity. That is discrimination.

         “पहले हृदय-मन्दिर में उनकी प्रतिष्ठा करो । वक्तृता, लेक्चर आदि जी चाहे तो उसके बाद करना खाली ‘ब्रह्म ब्रह्म’ कहने से क्या होगा, यदि विवेक-वैराग्य न रहा? वह तो नाहक शंख फूकना हुआ!”
{“তাঁকে হৃদয়মন্দিরে আগে প্রতিষ্ঠা কর। বক্তৃতা, লেকচার, তারপর ইচ্ছা হয়তো করো। শুধু ব্রহ্ম ব্রহ্ম বললে কি হবে, যদি বিবেক-বৈরাগ্য না থাকে? ও তো ফাঁকা শঙ্খধ্বনি?
"First of all set up God in the shrine of your heart, and then deliver lectures as much as you like. How will the mere repetition of 'Brahma' profit you if you are not imbued with discrimination and dispassion? It is the empty sound of a conch-shell.

   “ किसी गाँव में पद्मलोचन नाम का एक लड़का था । लोग उसे पदुआ कहकर पुकारते थे । उसी गाँव में एक जीर्ण मन्दिर था । अन्दर देवता का कोई विग्रह न था-मन्दिर की दीवारों पर पीपल और अन्य प्रकार के पेड़-पौधे उग आए थे । मन्दिर के भीतर चमगीदड़ अड्डा जमाये हुए थे। फर्श पर गर्द और चमगीदड़ों की विष्ठा पड़ी रहती थी । मन्दिर में लोगों का समागम नहीं होता था।”
{“এক গ্রামে পদ্মলোচন বলে একটি ছোকরা ছিল। লোকে তাকে পোদো পোদো বলে ডাকত। গ্রামে একটি পোড়ো মন্দির ছিল, ভিতরে ঠাকুর-বিগ্রহ নাই — মন্দিরের গায়ে অশ্বত্থগাছ, অন্যান্য গাছপালা হয়েছে। মন্দিরের ভিতরে চামচিকা বাসা করেছে। মেঝেতে ধুলা ও চামচিকার বিষ্ঠা। মন্দিরে লোকজনের আর যাতায়াত নাই।
 "There lived in a village a young man named Padmalochan. People used to call him 'Podo', for short. In this village there was a temple in a very dilapidated condition. It contained no image of God. Aswattha and other plants sprang up on the ruins of its walls. Bats lived inside, and the floor was covered with dust and the droppings of the bats. The people of the village had stopped visiting the temple.}  
      “एक दिन सन्ध्या के थोड़ी देर बाद गाँववालों ने शंख की आवाज सुनी । मन्दिर की तरफ से भों भों शंख बज रहा है । गाँववालों ने सोचा कि किसी ने देवता-प्रतिष्ठा की होगी, और सन्ध्या के बाद आरती हो रही है । लड़के, बूढ़े, औरत, मर्द, सब दौड़ते हुए मन्दिर के सामने हाजिर हुए-देवता के दर्शन करेंगे और आरती देखेंगे ।
      उनमें से एक ने मन्दिर का दरवाजा धीरे से खोलकर देखा कि पद्मलोचन एक बगल में खड़ा होकर भों भों शंख बजा रहा है । देवता की प्रतिष्ठा नहीं हुई- मन्दिर में झाडू तक नहीं लगाया गया-चमगीदड़ों की विष्ठा पड़ी हुई है । तब वह चिल्लाकर कहता है- मन्दिरे तोर नाहिक माधब ! पोदो , शँख फूँके तुई कोरली गोल ! ताय चामचिके ग्यारह जोना , दिवानिशि दीच्छे खाना। ‘तेरे मन्दिर में माधव कहाँ ! पदुआ, तूने तो नाहक शंख फूँककर हुल्लड़ मचा दिया है । उसमें ग्यारह, चमगीदड़ रातदिन गश्त लगा रहे हैं-
{“একদিন সন্ধ্যার কিছু পরে গ্রামের লোকেরা শঙ্খধ্বনি শুনতে পেলে। মন্দিরের দিক থেকে শাঁখ বাজছে ভোঁ ভোঁ করে। গ্রামের লোকেরা মনে করলে, হয়তো ঠাকুর প্রতিষ্ঠা কেউ করেছে, সন্ধ্যার পর আরতি হচ্ছে। ছেলে, বুড়ো, পুরুষ, মেয়ে — সকলে দৌড়ে দৌড়ে মন্দিরের সম্মুখে গিয়ে উপস্থিত। ঠাকুরদর্শন করবে আর আরতি দেখবে। তাদের মধ্যে একজন মন্দিরের দ্বার আস্তে আস্তে খুলে দেখে, পদ্মলোচন একপাশে দাঁড়িয়ে ভোঁ ভোঁ শাঁখ বাজাচ্ছে। ঠাকুর প্রতিষ্ঠা হয় নাই — মন্দির মার্জনা হয় নাই — চামচিকার বিষ্ঠা রয়েছে। তখন সে চেঁচিয়া বলছে:
 “মন্দিরে তোর নাহিক মাধব!
     পোদো, শাঁখ ফুঁকে তুই করলি গোল!
তায় চামচিকে এগার জনা, দিবানিশি দিচ্ছে থানা —
One day after dusk the villagers heard the sound of a conch-shell from the direction of the temple. They thought perhaps someone had installed an image in the shrine and was performing the evening worship. One of them softly opened the door and saw Padmalochan standing in a corner, blowing the conch. No image had been set up. The temple hadn't been swept or washed. And filth and dirt lay every where. Then he shouted to Podo: 
You have set up no image here,
Within the shrine, O fool!
Blowing the conch, you simply make
Confusion worse confounded.
Day and night eleven bats
Scream there incessantly. . . . }  

      “यदि हृदय-मन्दिर में माधव-प्रतिष्ठा की इच्छा हो, यदि ईश्वर का लाभ करना चाहो तो, सिर्फ भों भों शंख फूँकने से क्या होगा ! पहले चित्तशुद्धि चाहिए । मन शुद्ध हुआ तो भगवान् उस पवित्र आसन पर आ विराजेंगे । चमगीदड़ की विष्ठा रहने से माधव नहीं लाए जा सकते । ग्यारह चमगीदड़ का अर्थ है ग्यारह इन्द्रियाँ-पाँच ज्ञान की इन्द्रियाँ, पाँच कर्म की इन्द्रियाँ और मन । पहले माधव-प्रतिष्ठा, बाद में इच्छा हो तो वक्तृता, लेक्चर आदि देना ।

[“যদি হৃদয়মন্দিরে মাধব প্রতিষ্ঠা করতে চাও, যদি ভগবানলাভ করতে চাও, শুধু ভোঁ ভোঁ করে শাঁখ ফুঁকলে কি হবে! আগে চিত্তশুদ্ধি। মন শুদ্ধ হলে ভগবান পবিত্র আসনে এসে বসবেন। চামচিকার বিষ্ঠা থাকলে মাধবকে আনা যায় না। এগার জন চামচিকে একাদশ ইন্দ্রিয় — পাঁচ জ্ঞানেন্দ্রিয়, পাঁচ কর্মেন্দ্রিয় আর মন। আগে মাধব প্রতিষ্ঠা, তারপর ইচ্ছা হয় বক্তৃতা লেকচার দিও!
"There is no use in merely making a noise if you want to establish the Deity in the shrine of your heart, if you want to realize God. First of all purify the mind. In the pure heart God takes His seat. One cannot bring the holy image into the temple if the droppings of bats are all around. The eleven bats are our eleven organs: five of action, five of perception, and the mind.
“ पहले डुबकी लगाओ । गोता लगाकर लाल उठाओ, फिर दूसरे काम करो ।” “कोई गोता लगाना नहीं चाहता ! न साधन, न भजन, न विवेक-वैराग्य-दो चार शब्द सीख लिए, बस लगे लेक्चर देने ! शिक्षा देना कठिन काम है । ईश्वर-दर्शन के बाद यदि कोई उनका आदेश पाए, तो वह लोगों को शिक्षा दे सकता है ।”
{“আগে ডুব দাও। ডুব দিয়ে রত্ন তোল, তারপর অন্য কাজ।“কেউ ডুব দিতে চায় না। সাধন নাই, ভজন নাই, বিবেক-বৈরাগ্য নাই, দু-চারটে কথা শিখেই অমনি লেকচার! “লোকশিক্ষা দেওয়া কঠিন। ....ভগবানকে দর্শনের পর যদি কেউ তাঁর আদেশ পায়, তাহলে লোকশিক্ষা দিতে পারে।”
"First of all invoke the Deity, and then give lectures to your heart's content. First of all dive deep. Plunge to the bottom and gather up the gems. Then you may do other things. But nobody wants to plunge. People are without spiritual discipline and prayer, without renunciation and dispassion. They learn a few words and immediately start to deliver lectures. It is difficult to teach others. Only if a man gets a command from God, after realizing Him, is he entitled to teach."}

     [(17 अक्टूबर, 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 10]

🔆🙏अविद्या स्त्री : सच्ची भक्ति हो तो सभी वश में आ जाते हैं ।🔆🙏

[অবিদ্যা স্ত্রী — আন্তরিক ভক্তি হলে সকলে বশে আসে ]

 बातें करते हुए श्रीरामकृष्ण उत्तरवाले बरामदे के पश्चिम भाग में आ खड़े हुए । मणि पास खड़े हैं । श्रीरामकृष्ण बारम्बार कह रहे हैं, ‘बिना विवेक-वैराग्य के भगवान् नहीं मिलेंगे ।’ मणि विवाह कर चुके हैं इसीलिए व्याकुल होकर सोच रहे हैं कि क्या उपाय होगा । उनकी उम्र अट्ठाईस वर्ष की है, कालेज में पढ़कर उन्होंने कुछ अंग्रेजी शिक्षा पायी है । वे सोच रहे हैं- क्या विवेक वैराग्य (अनासक्ति) का अर्थ कामिनी-कांचन का त्याग है ?

{কথা কহিতে কহিতে ঠাকুর উত্তরের বারান্দার পশ্চিমাংশে আসিয়া দাঁড়াইলেন। মণি কাছে দাঁড়াইয়া। ঠাকুর বারবার বলিতেছেন, “বিবেক-বৈরাগ্য না হলে ভগবানকে পাওয়া যায় না।” মণি বিবাহ করিয়াছেন, তাই ব্যাকুল হইয়া ভাবিতেছেন, কি হইবে! বয়স ২৮, কলেজে পড়িয়া ইংরেজী লেখাপড়া কিছু শিখিয়াছেন। ভাবিতেছেন, বিবেক-বৈরাগ্য মানে কি কামিনী-কাঞ্চন ত্যাগ?
Sri Ramakrishna had repeated again and again that God cannot be realized without discrimination and renunciation . This made M. extremely worried. He had married and was then a young man of twenty-eight, educated in college in the Western way. Having a sense of duty, he asked himself, "Do discrimination and dispassion mean giving up 'woman and gold'?" He was really at a loss to know what to do.

मणि (श्रीरामकृष्ण से)- यदि स्त्री कहे कि आप मेरी देखभाल नहीं करते हैं, मैं आत्महत्या करूँगी, तो कैसा होगा ?
{মণি (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — স্ত্রী যদি বলে, আমায় দেখছ না, আমি আত্মহত্যা করব; তাহলে কি হবে?
M. (to the Master): "What should one do if one's wife says: 'You are neglecting me. I shall commit suicide.?"} 

श्रीरामकृष्ण(गम्भीर स्वर से)- ऐसे स्त्री को त्यागना चाहिए, जो ईश्वर की राह में विघ्न डालती हो, चाहे वह आत्महत्या करे, चाहे ओर कुछ ।“जो स्त्री ईश्वर की राह में विघ्न डालती है, वह अविद्या स्त्री ( ungodly wife) है ।”

\{শ্রীরামকৃষ্ণ (গম্ভীরস্বরে) — অমন স্ত্রী ত্যাগ করবে, যে ঈশ্বরের পথে বিঘ্ন করে। আত্মহত্যাই করুক, আর যাই করুক।“যে ঈশ্বরের পথে বিঘ্ন দেয়, সে অবিদ্যা স্ত্রী।”
MASTER (in a serious tone): "Give up such a wife if she proves an obstacle in the way of spiritual life. Let her commit suicide or anything else she likes. The wife that hampers her husband's spiritual life is an ungodly wife."} 

गहरी चिन्ता में डूबे हुए मणि दीवार से टेककर एक तरफ खड़े रहे । नरेन्द्र आदि भक्त भी थोड़ी देर निर्वाक् हो रहे ।

[গভীর চিন্তামগ্ন হইয়া মণি দেওয়ালে ঠেসান দিয়া একপাশে দাঁড়াইয়া রহিলেন। নরেন্দ্রাদি ভক্তগণও ক্ষণকাল অবাক্‌ হইয়া রহিলেন।
Immersed in deep thought, M. stood leaning against the wall. Narendra and the other devotees remained silent a few minutes.

श्रीरामकृष्ण उनसे जरा बातचीत कर रहे हैं । एकाएक मणि के पास आकर एकान्त में मृदु स्वर से कहते हैं, “परन्तु जिसकी ईश्वर पर सच्ची भक्ति है, उसके वश में सभी आ जाते हैं-राजा, बुरे आदमी, स्त्री-सब । यदि किसी की भक्ति सच्ची हो तो स्त्री भी क्रम से ईश्वर की राह पर जा सकती हैं । आप अच्छे हुए तो ईश्वर की इच्छा से वह भी अच्छी हो सकती है ।”

\{ঠাকুর তাঁহাদের সহিত একটু কথা কহিতেছেন, হঠাৎ মণির কাছে আসিয়া একান্তে আস্তে আস্তে বলিতেছেন, “কিন্তু যার ঈশ্বরে আন্তরিক ভক্তি আছে, তার সকলেই বশে আসে — রাজা, দুষ্ট লোক, স্ত্রী। নিজের আন্তরিক ভক্তি থাকলে স্ত্রীও ক্রমে ঈশ্বরের পথে যেতে পারে। নিজে ভাল হলে ঈশ্বরের ইচ্ছাতে সেও ভাল হতে পারে।”
Immersed in deep thought, M. stood leaning against the wall. Narendra and the other devotees remained silent a few minutes. The Master exchanged several words with them; then, suddenly going to M., he whispered in his ear: "But if a man has sincere love for God, then all come under his control — the king, wicked persons, and his wife. Sincere love of God on the husband's part may eventually help the wife to lead a spiritual life. If the husband is good, then through the grace of God the wife may also follow his example."

मणि की चिन्ताग्नी पर पानी बरसा । वे अब तक सोच रहे थे-स्त्री आत्महत्या कर ले तो करने दो, मैं क्या कर सकता हूँ ?
{মণির চিন্তাগ্নিতে জল পড়িল। তিনি এতক্ষণ ভাবিতেছিলেন, আত্মহত্যা করে করুক, আমি কি করব?
This had a most soothing effect on M.'s worried mind. All the while he had been thinking: "Let her commit suicide. What can I do?"}

मणि (श्रीरामकृष्ण से) - संसार में बड़ा डर रहता है ।

[মণি (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — সংসারে বড় ভয়!

M. (to the Master): "This world is a terrible place indeed."

श्रीरामकृष्ण-(मणि और नरेन्द्र से)- इसी से तो चैतन्यदेव ने कहा था, ‘सुनो भाई नित्यानन्द, संसारी जीवों के लिए कोई उपाय नहीं ।’

{শ্রীরামকৃষ্ণ (মণি ও নরেন্দ্রাদির প্রতি) — তাই চৈতন্যদেব বলেছিলেন, “শুন শুন নিত্যানন্দ ভাই সংসারী জীবের কভু গতি নাই।”
MASTER (to the devotees): "That is the reason Chaitanya said to his companion Nityananda, 'Listen, brother, there is no hope of salvation for the worldly-minded.'} 

(मणि से, एकान्त में)- “यदि ईश्वर पर शुद्ध भक्ति न हुई तो कोई उपाय नहीं । यदि कोई ईश्वर का लाभ करके संसार में रहे तो उसे कुछ डर नहीं । यदि बीच बीच में एकान्त में साधना करके (महामण्डल शिविर का निर्जनवास ) कोई शुद्धा भक्ति प्राप्त कर सके तो संसार में रहते हुए भी उसे कोई डर नहीं । चैतन्यदेव के संसारी भक्त भी थे । वे तो कहने भर के लिए संसारी थे । वे अनासक्त होकर रहते थे ।”
[(মণির প্রতি একান্তে একদিন বলিয়াছিলেন) — “ঈশ্বরেতে শুদ্ধাভক্তি যদি না হয়, তাহলে কোন গতি নাই। কেউ যদি ঈশ্বরলাভ করে সংসারে থাকে, তার কোন ভয় নাই। নির্জনে মাঝে মাঝে সাধন করে যদি শুদ্ধাভক্তিলাভ করতে পারে, সংসারে থাকলে তার কোন ভয় নাই! চৈতন্যদেবের সংসারী ভক্তও ছিল। তারা সংসারে নামমাত্র থাকত। অনাসক্ত হয়ে থাকত।”
On another occasion the Master had said to M. privately: "Yes, there is no hope for a worldly man if he is not sincerely devoted to God. But he has nothing to fear if he remains in the world after realizing God. Nor need a man have any fear whatever of the world if he attains sincere devotion by practising spiritual discipline now and then in solitude. Chaitanya had several householders among his devotees, but they were householders in name only, for they lived unattached to the world."

देव-देवियों की भोग-आरती हो चुकी, वैसे ही नौबत बजने लगी । अब उनके विश्राम का समय हुआ । श्रीरामकृष्ण भोजन करने बैठे । नरेन्द्र आदि भक्त आज भी आपके पास प्रसाद पाएँगे ।

[ঠাকুরদের ভোগারতি হইয়া গেল। অমনি নহবত বাজিতে লাগিল। এইবার তাঁহারা বিশ্রাম করিবেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ আহারে বসিলেন। নরেন্দ্রাদি ভক্তগণ আজও ঠাকুরের কাছে প্রসাদ পাইবেন।
It was noon. The worship was over, and food offerings had been made in the temple. The doors of the temple were shut. Sri Ramakrishna sat down for his meal, and Narendra and the other devotees partook of the food offerings from the temple.


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