मेरे बारे में

शनिवार, 18 जनवरी 2020

" स्वामी जी का वर्तमान भारत " (Swami ji's MODERN INDIA)

 भूमिका 
 'स्वामी जी का वर्तमान भारत ' शीर्षक यह महामण्डल पुस्तिका , स्वामी विवेकानन्द द्वारा रचित 'वर्तमान भारत ' पुस्तक पर कोई आलोचनात्मक मूल्यांकन (critical appraisal) नहीं है। बल्कि यह पुस्तिका स्वामी विवेकानन्द द्वारा लिखित 'वर्तमान भारत' (वि० सा० खण्ड ९ के पृष्ठ २०१ -२२८) की संक्षिप्त और कई जगहों पर उसका सरलीकृत रूप मात्र है।   
स्वामीजी की ऋषि दृष्टि दुनिया के प्रत्येक विषय को उसकी गहराई में पहुँचकर देखने में समर्थ थी , तथा उसके मर्म को सामान्य मनुष्यों के समक्ष उद्घाटित भी कर देती थी। सम्पूर्ण विश्व का धर्म , दर्शन , इतिहास, कला , साहित्य, सभ्यता-संस्कृति , विज्ञान ---कोई भी विषय ऐसा नहीं है , जिसके तह तक स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि न गयी हो। मनुष्य की सत्ता (उसका यथार्थ स्वरुप) , उसका मन , उसका समाज, मानव समाज की उन्नति, रीति-नीति तथा परिवर्तन (चार आश्रम, चार पुरुषार्थ, सोलह संस्कार में आधारित भारतीय संस्कृति के सिद्धांतों में युगानुकुल परिवर्तन), सामाजिक विकास धारा की क्रमागत उन्नति (Evolution) तथा उसके नियमों का विश्लेषण स्वामी विवेकानन्द ने किसी शोधकर्ता के रूप में बैठकर नहीं किया था, बल्कि वे समस्त विषय देखने मात्र से ही, स्वतः उनके 'प्रज्ञालोक' के समक्ष तत्काल उद्भाषित हो उठे थे ! योगसूत्र- (विभूतिपाद के 53 और 55 सूत्र) में, योगिणों की उस क्षमता को ही 'विवेकज-ज्ञान', 'तारक ज्ञान' (the saving knowledge या wisdom) कहा गया है। 
विवेकानन्द साहित्य के 10 खण्डों में जो कुछ भी हमलोग पढ़ते हैं, उसमें से अधिकांश विवेकानन्द जी द्वारा दिए गए मौखिक भाषण ही हैं। किन्तु जो थोड़ा बहुत उन्होंने स्वयं अपने हाथों से लिखा है -'वर्तमान भारत' ( MODERN  INDIA)  उनमें से एक है। उनकी यह रचना सर्वप्रथम रामकृष्ण मठ और मिशन की पाक्षिक पत्रिका ' उदबोधन' में धारावाहिक निबन्ध के रूप में प्रकाशित हुई थी। 
[ बताते चलें कि १४ जनवरी, १८९९ को मकर -संक्रांति के शुभ मुहूर्त पर कुमारी मैक्लॉड तथा अन्य एक-दो शिष्यों द्वारा दिए गए दान से एक मुद्रणालय खरीदकर 'उद्बोधन' नामक एक बंगाली पाक्षिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया गया। स्वामी जी गुरुभाई  स्वामी त्रिगुणातीतानंद को पत्रिका के व्यवस्थापन एवं प्रकाशन का कार्य सौंपा गया था। ]
1905 ईस्वी में जब यह धारावाहिक रचना पुस्तकाकार में पहली बार प्रकाशित हुई थी, तब उनके एक और गुरुभाई स्वामी सारदानन्दजी ने इस ग्रन्थ की भूमिका में लिखा था - " प्रस्तुत पुस्तक 'वर्तमान भारत' स्वामी विवेकानन्द की सर्वतोमुखी प्रतिभा द्वारा निसृत बंगाली साहित्य का एक अमूल्य हीरा  है। स्वामी जी ने अपने परिव्राजक जीवन में, पर्यटन के दौरान दीर्घ दिनों तक  गर्वित राजाओं के राजमहलों से लेकर गरीब प्रजा की कुटियों तक, सभी प्रकार के मनुष्यों के साथ समान भाव से (समदर्शी अवस्था में )   निवास किया था। भारत तथा उसके विभिन्न प्रांतों में प्रचलित रीति-रिवाज का, और इस प्रकार सम्पूर्ण राष्ट्रीय चरित्र का उन्होंने निरपेक्ष रूप से दर्शन किया था।
भारत की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति का, उन्होंने जो अंतहीन अध्यन किया था, उसके कारण उनके मन में अपने देशवासियों के प्रति असीम प्रेम और उनके दुःख के प्रति एक गहरी सहानुभूति उनके हृदय में उमड़ गयी थी। और उसके ही फलस्वरूप उनके मन में भविष्य के भारत का जो चित्र अंकित हुआ था , यह पुस्तिका 'वर्तमान भारत ' उसीका दिग्दर्शन स्वरूप है।" 
सभी देशों में सत्ता-परिवर्तन होने के बाद, आमतौर से वहां के पुराने शासन काल में लिखित इतिहास को बदलने की एक प्रवृत्ति  दिखाई देती है। किन्तु, यहाँ उस तरह की कोई सम्भावना नहीं है, क्योंकि इस रचना को ' मन और मुख ' एक करके ही लिखा गया है। इसलिए इसमें कटुव्यंग (Sarcasm-आक्षेप वाक्य) का पूर्ण आभाव है , किन्तु कहीं कहीं मजाकिया लहजे में कहे गए , गहरे व्यंग (satire) का भाव भी देखने को मिलता हैं। यहाँ एक और बात स्मरण रखने की जरूरत है। लगभग 100 वर्षों पूर्व लिखा निबन्ध होने से भी, यहाँ प्रस्तुत मानव-इतिहास की धारा का विश्लेषण सर्वकालिक है। अतः हमलोगों के समय के 'वर्तमान भारत ' की पतनावस्था के कारणों एवं उससे बाहर निकलने के उपायों को जानने के लिए स्वामी जी द्वारा रचित पुस्तक 'वर्तमान भारत ' का गहराई से अध्यन करना सर्वाधिक उपयोगी होगा। 
 जब यह रचना पहली बार प्रकाशित हुई थी, उस समय भी इस निबंध के भाषा की जटिलता और समझने में अस्पष्टता (incomprehensibility) को लेकर प्रबुद्ध समाज में एक चर्चा चली थी। और उस समय तो इसकी भाषा को लेकर बहस उठना बहुत स्वाभाविक भी था।  क्योंकि उस समय संस्कृत या अंग्रेजी भाषा पर पकड़ होना तो दूर की बात थी, बंगाल में भी बंगला भाषा में साहित्यिक गोष्ठियों के आयोजन की बहुत कमी थी। तथापि इस पुनर्लिखित संकलन में, इसकी भाषा और विश्लेषण की जटिलता बहुत व्यापक रूप में  दूर न होने पर भी, उसे यथासंभव सरल बनाने की कोशिश की गयी है।
इस लघु पुस्तिका का पाठ करके यदि वर्तमान भारत के थोड़े से युवा भी, स्वामी विवेकानंद के भारत- दर्शन से यदि थोड़ा भी आलोक प्राप्त कर सकें, तो इसके प्रकाशन में लगे मिहनत को सार्थक समझा जायेगा।
युवाओं के द्वारा बार बार सुने गए, स्वामी जी का प्रसिद्द 'स्वदेश मन्त्र ' इस 'वर्तमान-भारत ' पुस्तिका का अंतिम परिच्छेद है।   
-----प्रकाशक , श्री तनुलाल पाल,
 उपाध्यक्ष, अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल।
-------------------  
हिन्दी अनुवाद की भूमिका  
 इस निबंध के अनुवादक ने पहली बार 'स्वामी जी का वर्तमान भारत' नामक महामण्डल पुस्तिका का हिन्दी अनुवाद  10 मई 2013 को किया था। यद्यपि महामण्डल का राजनीती से दूर दूर तक कोई नाता नहीं है, तथापि  राजनीति -निरपेक्ष दृष्टि से देखने पर भी  - उस समय के भारत की कैसी अवस्था थी ? उसके ऊपर नजर पड़ना बिल्कुल स्वाभाविक है। 
तब उसने देखा था कि इस भारत का - वर्तमान प्रधानमंत्री, तो केवल नाईट-वाचमैन की भूमिका में है, और देश का वित्तमंत्री , गृहमंत्री ,रेल-मंत्री, कानून-मंत्री, दूरसंचार मंत्री आदि महा-घोटाला और भ्रष्टाचार  में लिप्त हैं। सुप्रीम कोर्ट सीबीआई को पिंजड़े का तोता कहता है। पार्लियामेन्ट सेसन के अंतिम दिन, एक 'तथाकथित सेक्युलर पार्टी'  का एम.पी. जब हमारे राष्ट्र-गीत 'वन्दे मातरम' की अवमानना करके सदन से उठकर चला जाता है, तो पार्लियामेन्ट की स्पीकर उसे बिना कोई उचित सजा दिये ही पार्लियामेन्ट बन्द करने की घोषणा कर देती हैं ! 
.... परन्तु, जब दादा उसी अनुवादक से आज 17 जनवरी 2020 को,   पुनः  इस 'स्वामी जी का वर्तमान भारत' नामक पुस्तिका का अनुवाद करवा रहे हैं, उस समय का आधुनिक भारत कैसा है ? ...  स्वामी विवेकान्द के जीवन और सन्देश से अनुप्रेरित एक चाय बेचने वाला लड़का (शूद्र) श्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी भारत का प्रधान मंत्री बना है। और जिसने अपने दूसरे टर्म में 2019 में, पुनः भारत का  प्रधान मंत्री बनते ही 70 वर्षों से चला आ रहे भारत के माथे पर लगे कलंक - धारा 370 और 35 A समाप्त कर दिया  हैं। और सैंकड़ों वर्षों से चला आ रहा रामजन्मभूमि विवाद  भी सुप्रीम कोर्ट के सर्वसम्मत निर्णय से सुलझाया जा चुका है। मोदी जी के सत्ता में आने से पहले जहाँ - प्रतिदिन अख़बार में अरबों रूपये के सरकारी घोटालों और भ्रष्टाचार की चर्चा ही दिखाई थी वहीँ अब , प्रत्येक भरतवासी विदेशों में भी 'वन्दे मातरम' और 'भारत माता की जय' बोलने में गर्व का अनुभव कर रहा है। 
इस महामण्डल पुस्तिका 'स्वामी जी का वर्तमान भारत' के परिच्छेद 5 और 9 में युवाओं के द्वारा बार उच्चारित संघमन्त्र या संगठन सूक्त क्या है ? उसकी व्याख्या भी की गयी है। ऋग्वेद का अंतिम सूक्त संगठन सूक्त (10.191) कहलाता है।  -" संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् l देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ll " -- हम सब एक साथ चलें; एक साथ बोलें; हमारे मन एक हो ,(अर्थात सभी भारतवासियों के मन में एक ही 'संकल्प'- समष्टि का कल्याण या भारत कल्याण हो l) प्राचीन समय में देवताओं का ऐसा आचरण रहा, इसी कारण वे सदैव वन्दनीय हैंl अर्थात हमारे देवगण यह जानते थे कि समाज की विकास धारा में (अभ्युदय) लौकिक उन्नति और (निःश्रेयस) आध्यात्मिक उन्नति दोनों महत्वपूर्ण हैं। समाज में 'त्यागेच्छा' के साथ -साथ 'भोगेच्छा' भी चलती है, और अधिकांश मनुष्यों के लिए चूँकि 'भोगेच्छा' ही प्रेरक शक्ति (motivational force) होती है। इसीलिए  संघमन्त्र के माध्यम से हमारे वैदिक ऋषियों का सन्देश यही है कि 'समष्टि' के कल्याण में ही 'व्यष्टि' का कल्याण है। इसी बात को इस रचना के 12 वें या अंतिम परिच्छेद में स्वामी विवेकानन्द रचित और प्रसिद्द ' स्वदेश मंत्र ' की व्याख्या में भी समझाया गया है।  स्वामी विवेकानन्द द्वारा रचित 'स्वदेश-मन्त्र' का वास्तविक मर्म  और उसकी सम्पूर्ण व्याख्या महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय (१५ अगस्त १९३१ -२६ सितम्बर २०१६) द्वारा की गयी है। 
इस लघु पुस्तिका का गहराई से अध्यन करके यदि 'वर्तमान भारत' के थोड़े से हिन्दीभाषी युवा भी, स्वामी विवेकानंद के भारत- दर्शन से थोड़ा भी आलोक प्राप्त कर सकें, तो इसके हिन्दी प्रकाशन में लगे मिहनत को सार्थक समझा जायेगा।
...प्रकाशक -श्री विजय कुमार सिंह, 
उपाध्यक्ष , अखिल भारत विवेकान्द युवा महामण्डल। 
---------------------------------
स्वामी विवेकानन्द का 'वर्तमान भारत'
[एक]
स्वामी विवेकानन्द का 'वर्तमान भारत ' उनकी मौलिक रचनाओं में से एक है। स्वामी जी द्वारा मूल बंगला भाषा में लिखित यह रचना सबसे पहले मार्च, 1899 में 'उद्बोधन' पत्रिका में धारावाहिक रूप से ७ अंकों में प्रकाशित हुई थी। बाद में इन रचनाओं को एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया गया था। इस पुस्तिका में स्वामी विवेकानन्द के इतिहास बोध या इतिहास दर्शन का अद्भुत परिचय प्राप्त होता है।
'ऐतिहासिक विश्लेषण प्रणाली ' (The Method of Historical Analysis) की दृष्टि से यदि देखा जाय तो यह अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि, तो इस निबंध में जो चर्चा का विषय है, वह धार्मिक इतिहास तो है, किन्तु विज्ञान-आधारित (Scientific History) है। इसलिए , इस छोटी सी पुस्तिका में  प्रागैतिहासिक काल (Prehistoric Era) से लेकर वर्तमान युग तक के मानव सभ्यता की ऐतिहासिक -धारा की पृष्ठभूमि में भारत के इतिहास की एक आदर्श और सम्पूर्ण छवि  प्रस्फुटित हुई  है। भारतवर्ष  की वह छवि, जो ' पश्चिमी शोधकर्ताओं और वामपन्थी इतिहासकारों की यशोलिप्स सूक्ष्म दृष्टि ' के लिए अभी तक अगोचर थी, भारत की वही  गौरवपूर्ण छवि भी इस ग्रन्थ के पाठकों के लिए  इन्द्रियगोचर प्रतीत होने की सम्भावना है। 
'इतिहास' को, कभी केवल बीते हुए कल की कहानी मात्र - ही नहीं समझना चाहिए। (ইতিহাস শুধু অতীত কখন নয় " - History is not just the past) वर्तमान में खड़े होकर, अतीत की घटनाओं का सिंहावलोकन करते हुए, उससे शिक्षा ग्रहण कर , भविष्य के सही मार्ग का संकेत देना ही वास्तविक इतिहास-लेखन का दायित्व है। स्वामी विवेकानन्द के इस निबन्ध में हमलोग भारत के अतीत, वर्तमान और भविष्य को जिस प्रकार यथार्थ और स्पष्ट रूप में देख पाते हैं, उस प्रकार से अन्य कहीं भी देख पाना कठिन है। 
 प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसकी अपनी जाति या राष्ट्र के वास्तविक इतिहास के विषय में समुचित ज्ञान का रहना , उसके व्यक्तिगत और सामुहिक उन्नति के लिए आवश्यक है। भारतीय सामाजिक संरचना का इतिहास , उसका वर्गीकरण, विशेष युग में विशेष वर्गों का प्रभुत्व (dominance), श्रेष्ठता  (supremacy) और प्रभाव (influence), उनके दोषो और गुणों का विश्लेषण, पूरे समाज पर उसका परिणाम , व्यक्ति और समाज का परस्पर सम्बन्ध , तथा भविष्य के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश, मानवीय मनीषा के सचेतन प्रयत्न की आवश्यकता और भविष्य का दिशानिर्धारण की ऐतिहासिक-वैज्ञानिक प्रक्रिया आदि विषय इस पुस्तिका में सन्निवेशित हैं।  
स्वामी जी ने जिस युग के भारत को 'वर्तमान भारत ' कहा था , उससे हमलोगों के वर्तमान भारत का विशेष कोई मौलिक परिवर्तन न दिखने से भी, स्वामी जी के इस निबंध की उपयोगिता में रंचमात्र की कमी नहीं हुई है। इस पुस्तिका में सन्निवेशित स्वामी जी के विचारों का क्रमवार ढंग से समीक्षा करना ही इस निबंध का उद्देश्य है।
   [दो ]
वैदिक पुरोहितों की शक्ति (ब्राह्मणों की शक्ति) मंत्रबल में थी। यज्ञ करते समय वे देवताओं का आह्वान वैदिक मंत्रों से किया करते थे। उनके मंत्रबल से देवता लोग स्वर्ग को छोड़कर, उनके द्वारा आहुति के रूप में अर्पित भोज्य और पेय ग्रहण करते और उनके यजमानों को वांछित फल प्रदान करते थे। इससे राजा और प्रजा दोनों ही अपने  सांसारिक सुख के लिए,  इन ब्राह्मण पुरोहितों का मुँह जोहा करते थे। जिसके परिणाम स्वरुप सामान्य जनता 'मनुष्य -बल' की अपेक्षा 'दैव-बल'  पर अधिक निर्भरशील हो गयी थी।" ९/२०१] 
पुरोहित लोग राजाओं को कभी डर दिखाकर आज्ञाएँ देते, कभी मित्र बनकर सलाह देते, कभी चतुर नीति की जाल बिछाकर उन्हें फँसाते थे। इन सबके आलावा उनका यश और उनके पूर्वजों की कीर्ति [राठौर, लोहतमियां आदि वर्गीकरण] इन्हीं पुरोहितों की लेखनी के अधीन थी। क्योंकि वे ही उस समय के इतिहासकार भी थे।       
एक ओर  'राजरवि' (सूर्य तुल्य राजा लोगकभी राज्य-रक्षा के नामपर, कभी अपने भोग-विलास के लिए, तो कभी अपने परिवार की पुष्टि के लिए और सबसे बढ़कर पुरोहितों के तुष्टिकरण के लिए, सूर्य की भाँति ही अपनी प्रजा के धन को सूखा दिया करते थे। फिर, 'वैश्य' लोग तो मानों राजा के लिए दुधारू गायों (milch cows) जैसे थे, अर्थात उनके धन का मुख्य स्रोत थे। शोषण के लिए कर उगाहने में मतामत प्रकट करने का कोई अधिकार प्रजावर्ग के पास नहीं था। प्रजा अपने सामर्थ्य को यदा-कदा अप्रत्यक्ष और अव्यवस्थित रूप प्रकट किया करती थी। " २०२ ]  
इस पुस्तिका के प्रारम्भ में ही स्वामी विवेकानन्द जिस 'शक्तितत्व' को प्रस्थापित करना चाह रहे हैं , वह यही है कि प्रजा आज भी अपनी शक्ति (व्यष्टि वोट की समष्टि शक्ति) के प्रति अनभिज्ञ है। जिस कौशल से छोटी छोटी शक्तियाँ आपस में मिलकर (व्यष्टि शक्तियों के एकीकरण द्वारा) प्रचण्ड ऊर्जा का केंद्र बन जाती हैं, उनका (मतैक्य -विद्या का) भी घोर अभाव था।  
एक ही उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए, सहमति या सम्मिलित बुद्धि की शक्ति (समष्टि शक्ति) कहते हैं, उस 'संयुक्त उद्यम' (संघ-शक्ति) का घोर अभाव था।  प्रजा के लिए यह सम्भव ही नहीं था कि वह ऐसी शिक्षा प्राप्त कर पाती, जिससे कि वह आपस में मिलकर (समष्टि शक्ति) के प्रयास से लोकहित के कार्यों में अपना नियोग कर पाती। अथवा राज-कर के रूप में लिए गए प्रजाधन (टैक्स आदि) या अपने ही धन पर अपना मालिकाना हक  रखने की बुद्धि उसमें उत्पन्न होती। अर्थात यह कि साधारण जनता के कल्याण के उद्देश्य से राष्ट्र के बजट या आय -व्यय के नियमन करने का अधिकार प्राप्त करने की इच्छा और उस प्रकार की  शिक्षा प्राप्त करने की सम्भावना भी उस समय के प्रजा वर्ग के पास नहीं था ।
राज-कार्य में वार्षिक आम बजट बनाकर, प्रजा से अनुमति लेने की पद्धति --जो आजकल के प्रजातांत्रिक व्यवस्था का मूलमंत्र है, --' इस देश में प्रजा का शासन , प्रजा के द्वारा और प्रजा के हित के लिए होगा ' --(government of the people of this country must be by the people and for the good of the people") — तात्कालीन भारत में वह नहीं थी, वैसी बात नहीं है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि ग्राम-पंचायतों में गणतांत्रिक शासन-पद्धति का बीज अवश्य था; और अब भी अनेक स्थानों में है।  पर वह बीज जहाँ बोया गया, वहाँ वह अंकुरित ही नहीं हो सका । और यह प्रजातांत्रिक विचारधारा गांव की पंचायतों "Government by the Five" को छोड़कर आम जनता तक कभी पहुँच ही न सकी
उस समय भी ऐसे राजा,जो हर प्रकार से प्रजा का केवल मंगल ही करना चाहते हों, थे ही नहीं -ऐसा कहना ठीक नहीं होगा। थे, किन्तु उनकी संख्या बहुत कम थी।  फिर कोरी पुस्तकों के नियमों में (संविधान, या मनुस्मृति में लिखित नियमों में) तथा उनके क्रियान्वन में ,आकाश -पाताल का अन्तर होता है। अनेक स्थानों में राजा लोग रक्षक न होकर भक्षक हुए हैं। औरंगजेब जैसे प्रजा-भक्षकों की अपेक्षा अकबर जैसे प्रजा-रक्षकों की संख्या सदैव बहुत कम ही होती है। दूसरी ओर देवतुल्य राजाओं के द्वारा बड़े यत्न से पाली हुई प्रजा भी कभी 'self - government' अर्थात स्वायत्त शासन सीख ही नहीं सीखती। सदा राजा का मुँह ताकने के कारण वह धीरे धीरे कमजोर और निकम्मी हो जाती है। ऐसा  पालन और रक्षण ही बहुत दिनों तक रहने से वही प्रजा की सत्यानाश का कारण बन जाता  है। 
[ तीन ]
इस रचना में स्वामी विवेकानन्द यह दिखाना चाह रहे हैं कि बौद्ध-धर्म का अभ्युदय होने के साथ ही साथ पुरोहित शक्ति का ह्रास (ब्राह्मणों की शक्ति का ह्रास) और राजशक्ति ( क्षत्रियों की शक्ति) का विकास हुआ था। क्योंकि , 'ब्राह्मण युग' ( Brahmin era) में मनुष्य-बल के ऊपर दैव -बल को स्थान दिया जाता था। [ क्योंकि मनुष्य -बल के केंद्र समझे जाने वाले राजा लोग, स्वयं उन्हीं पुरोहितों की कृपा के भिखारी थे।] वेदों में वह आदर्श -“नहि मानुषात् श्रेष्ठतर हि किंचित।" -- कि मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है"  रहने पर भी उसे कार्य में परिणत नहीं किया जा सका था। किन्तु बौद्ध-धर्म ने यह सिद्ध कर दिया था कि - 'बुद्धत्व' प्राप्ति में मनुष्य मात्र का ही अधिकार है !
इसलिए इस नवीन युग में, देव -बल की अपेक्षा मनुष्य-बल को अधिक सम्मान प्राप्त हुआ। स्वामी जी ने मज़ाकिया लहजे  में इस बात का उल्लेख किया है कि , बौद्धधर्म के उदय होने के साथ साथ वैदिक कर्मकाण्ड में कमी आने के कारण यज्ञ आहुती-भोजी देवताओं ( oblation-eating gods) के स्वास्थ्य में अवनति होने से उनकी प्रतिष्ठा भी घट रही थी इसीलिए,अब सैकड़ों ब्रह्मा और इन्द्र तुल्य देवगण भी 'बुद्धत्व -प्राप्त ' (विवेकज -ज्ञान अथवा तारक ज्ञान प्राप्त) नर -देव (नवनी दा) के चरणों पर लोटा करते हैं। ऐसा 'नवीन मनुष्य ' (ऐसे छे आज नतून मानुष, देखबी यदि चले आये !उन ब्रह्मविद शिक्षकों/ मानवजाति के भावी मार्गदर्शक नेताओं को  कहेंगे जो इस ज्ञान से सम्पन्न होंगे कि --- 'बुद्धत्वप्राप्ति पर मनुष्य मात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है', तथा प्रत्येक व्यक्ति इसी जीवन में इस अवस्था (भ्रममुक्त अवस्था) को प्राप्त भी कर सकता है !  
[The state of being a Buddha is superior to the heavenly positions of many a Brahmâ or an Indra, who vie with each other in offering their worship at the feet of the Buddha, the God-man! And to this Buddhahood, every man has the privilege to attain; it is open to all even in this life.]
बौद्ध काल के 'पुरोहित' (भिक्षु) संसार-त्यागी होते थे, वे अपने 'घरों' में नहीं, 'मठों' में वास करते थे, इसलिए ये नए पुरोहित 'ब्राह्मण' की पदवी को प्राप्त करने के बाद भी, उनकी तरह निजकुल के स्वार्थ से प्रेरित होकर, अध्यात्म जैसी श्रेष्ठ विद्या (मनःसंयोग और चरित्रनिर्माण की विद्या) को केवल अपने कुल तक के लाभ के लिए उपयोग करने के प्रति उदासीन थे। क्योंकि उन बौद्ध पुरोहितों (जीवनमुक्त शिक्षकों) के मन में भोग करने की इच्छा का सम्पूर्ण रूप से अभाव था। 
इसलिए, इस युग में राजा (क्षत्रिय) को ब्राह्मण पुजारीयों के लिए 'मनोरंजन का जुगाड़ ' करने के माध्यम से अपनी शक्ति का उपयोग नहीं करना पड़ता था। क्षत्रिय शक्ति में विकास के साथ साथ, वैसे चक्रवर्ती सम्राट जिनका शासन देश के एक छोर से दूसरे छोर तक विस्तृत था वे-अब जो क्षत्रिय राजा छोटी छोटी रियासतों पर राज्य करने वाले थे उन्हें, अपने बल से अधिकार में लेकर 'स्वच्छन्द विचरण ' करने लगे। बौद्ध काल में सम्राट चन्द्रगुप्त और धर्माशोक आदि सार्वभौम राजाओं,  जिससे भारत के गौरव में पर्याप्त वृद्धि हुई, की तरह भारत का गौरव बढ़ाने वाले दूसरे कोई राजा भारत के सिंहासन पर नहीं बैठा।  इसलिए वशिष्ठ या विश्वामित्र जैसे ऋषि-मुनि समाज के मार्गदर्शक नेता नहीं रहे, बल्कि इस युग में वे चक्रवर्ती सम्राट ही मानव-शक्ति के केन्द्र बने।  
जैन और बौद्धों के इस विप्लव के समय जो पुरोहित वर्ग ( the priest class- दिगम्बर जैन मुनि या बौद्ध भिक्षु आदि ) थे, वह सांसारिक भोगों के प्रति सम्पूर्ण रूप से उदासीन थे, इसलिए वैदिक काल से ब्राह्मणवादी पुरोहितों की शक्ति और क्षत्रियों की राजशक्ति के बीच अपना अपना अधिकार या प्रभुत्व ज़माने को लेकर जो पुराना वैर चला आ रहा था, वह मिट गया। अब वे दोनों प्रबल शक्तियाँ एक दूसरे की सहायक हो गयीं। परन्तु, उस समय  ब्राह्मणों के वैदिक स्थान पर जो बौद्ध भिक्षु लोग या श्रमण लोग आरूढ़ थे, उन बौद्ध भिक्षुओं या श्रमणों ने अपनी शक्ति और महिमा को कभी राजमहलों में बढ़ाने की चेष्टा नहीं की, इसलिए ब्राह्मणों  और राजाओं का यह तालमेल भी भंग हो गया था।    
दूसरी ओर, राजमहलों पर बौद्ध धर्म का प्रभाव पड़ने के कारण , क्षत्रियों में न तो वह क्षात्रवीर्य था और  राजशक्ति का केन्द्र ब्राह्मणों के बाहर चले जाने के कारण, न तो ब्राह्मणों में ही पहले के जैसा ब्रह्मतेज रह गया था। इसी युग के अन्त में 'आधुनिक हिन्दू धर्म और राजपूत आदि जातियों का अभ्युत्थान'  हुआ। इन लोगों के हाथों में पड़ने के फलस्वरूप भारत का राजदण्ड अपनी अखण्ड प्रतिष्ठा से गिरकर पुनः टुकड़े -टुकड़े हो गया। 
(ब्राह्मण और राजपूत) स्वार्थसिद्धि में एक दूसरे की सहायता करने, और विपक्षियों का दमन करने, तथा बौद्धों का नाम तक मिटा देने में अपनी शक्ति का क्षय करने के परिणाम स्वरुप, तथा धर्म के बहिरंग को लेकर यह हीनवीर्य हिन्दू -जाति प्राचीन राजाओं के राजसूय आदि यज्ञों की थोथी या हास्योद्दीपक नकल करते रहने [शतकुण्डी या हजार कुण्डी यज्ञों द्वारा] के कारण, पश्चिम से आये हुए मुसलमान आक्रमण-कारियों (Mohammeden invaders) के सहज शिकार बन गए। 
उसके साथ साथ जो पुरोहित शक्ति जैन और बौद्ध विप्लव के समय भारत के कर्म क्षेत्र से प्रायः लुप्त सी हो गयी थी , या जिसने उन बिधर्मियों की दासता को स्वीकार कर किसी तरह अपने प्राणों की रक्षा की थी, उन ब्राह्मणवादी शक्तियों ने अपना प्रभुत्व किसी भी प्रकार पुनः जमाने की चेष्टा में द्विधा किये बिना उन बर्बर सेनाओं के अधीन होकर उनकी घृणित रीती-नीतियों को अपने देश में भी प्रचलित कर दिया। उन निरक्षर बर्बरों को प्रसन्न रखने के लिए , ठगने के सरल उपाय, मंत्र-तंत्र की शरण लेकर अपनी विद्या, बल और सदाचार को बिल्कुल खोकर भारत को कुत्सित , गन्दे बर्बराचार का एक बड़ा दलदल बना दिया। इस प्रकार पुरोहित शक्ति ने स्वयं को और पूरे समाज को और भी हतवीर्य बना दिया। 
मुसलमानों के समय में इस पुरोहित शक्ति का फिर से सिर उठाना एक दम असम्भव था। मुहम्मद साहब स्वयं इसके कट्टर विरोधी थे। इस ब्राह्मणवाद को समूल नष्ट करने के लिए उन्होंने नियम आदि भी बना दिए थे। जिन इस्लामिक देशों में, जहाँ इस्लाम को राजधर्म मानाजाता है, इन देशों के कानून के अनुसार वहाँ का राजा स्वयं वहां का प्रधान पुरोहित - या ख़लीफ़ा (धर्मगुरु भी) माना जाता है। उनके लिए यहूदी (Jew) या ईसाई (Christian) अधिक घृणा के पात्र नहीं हैं; क्योंकि वे केवल अल्पविश्वासी ही हैं। परन्तु हिन्दू लोग तो काफ़िर और मूर्ति-पूजक होने से इस जीवन में हलाल करने योग्य और मृत्यु के बाद अनन्त नरक के भागी समझे जाते हैं। " ९/२०६  
[ The Prophet Mohammed himself was dead against the priestly class in any shape and tried his best for the total destruction of this power by formulating rules and injunctions to that effect. इसलिए वैसे मुसलमान जो सूफी परम्परा से नहीं आते, और शरीअत की मनमानी व्याख्या भी करते रहते हैं। एक हदीस के मुताबिक़ पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हदीस-वर्णनकर्ताओं को सख़्त चेतावनी दी थी कि- ‘‘जो व्यक्ति मुझ से संबंध लगाकर वह बात कहे जो मैंने नहीं कही, वह अपना ठिकाना जहन्नम (नर्क) में बना ले।’’
उस युग में राजशक्ति मुसलमान राजाओं के हाथों में चली गयी। जब राज शक्ति विधर्मी और भिन्न आचार वाले राजाओं के हाथों में चली गयी, तब इस देश की पुरोहित शक्ति, समाज-शासन के ऊँचे पद से और सम्पूर्ण हिन्दूजाति पर शासन करने के अधिकार से एकदम वंचित हो गयी। 
इसीलिए अब मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों के स्थान पर शरिया कानून की दण्डनीति आ डटी ! उसी युग में संस्कृत भाषा का स्थान भी अरबी और फ़ारसी भाषाओँ ने ग्रहण कर लिया। और संस्कृत भाषा अब गुलाम और घृणित हिन्दुओं के धार्मिक कृत्यों - विवाह या दाहसंस्कार आदि में काम आने वाले संस्कृत मंत्रों तक ही सिमट कर रह गयी। " ९/२०६   
[चार]  
[जातिचतुष्टय का आधार- त्रिगुण ] 
स्वामी विवेकानन्द ने यह दिखाया था कि -पुरोहित शक्ति के दबाव के कारण राजशक्ति का विकास वैदिक काल में तथा उसके कुछ दिनों बाद तक न हो सका था। हमलोग यह देख चुके हैं कि बौद्ध विप्लव के फलस्वरूप, पुरोहित शक्ति के पतन के साथ-साथ  किस प्रकार सम्राट चन्द्रगुप्त के शासनकाल में भारत में राजशक्ति का पूर्ण विकास सम्भव हुआ था। बौद्ध साम्राज्य के पतन और मुसलमान साम्राज्य की स्थापना के बीच, राजपूतों ने राजशक्ति को पुनः स्थापित करने की चेष्टा की थी, किन्तु वह इसलिए सफल न हो सकी, क्योंकि पुरोहित शक्ति ने उसका साथ नहीं दिया, बल्कि तंत्र-मंत्र का हास्यास्पद सहारा लेकर, फिर से स्वयं नया जीवन पाने का प्रयत्न किया था। " ९/२०६] 
भारत के इतिहास में यहाँ तक तो - स्वामी विवेकानन्द ने  ब्राह्मण और क्षत्रिय इन दो शक्तियों के द्वारा क्रमशः अपना अपना आधिपत्य स्थापित करने की चेष्टा और उसके परिणामों को दिखलाने की चेष्टा की है। इसी बीच उन्होंने बौद्ध युग में, राजपूतों और ब्राह्मणों का यह संघर्ष - कुछ समय के लिए सहअस्तित्व बनाये रखने की चेष्टा में परिणत होने से भी, थोड़ी सी सुविधा मिलते ही पुनः वह संघर्ष क्रियाशील हो उठा; तथा मुसलमान साम्राज्य के शासन काल में पुरोहित और राजा की एकता को पूर्णतया नष्ट होते हुए भी दिखलाया है। 
उसके भी पहले एक स्थान पर उन्होंने एक तृतीय श्रेणी- वैश्य श्रेणी का उल्लेख भी किया था; जो राजा की सहायता उसके खजाने को धन से भरने के लिए करता था, किन्तु वह भी सूर्य की भाँति प्रजा का धन को शोख लेने में -परोक्ष रूप से राजा की सहायता ही करता था।  अब इस तृतीय श्रेणी के अभ्युदय का समय आ जाता है। 
स्वामी जी कहते हैं - " बहुत प्राचीन काल से ही भारत का विशाल धन और इसकी हरी-भरी खेती विदेशियों के मन में अधिकार की लालसा उत्पन्न करती आ रही है। " जो वैश्य लोग धनवान होकर भी राजाओं की कौन कहे राजपरिवार के सदस्यों के सामने भी सदा भयभीत हो हाथ जोड़े खड़े रहते थे, उन्हीं में से कुछ लोगों का साथ मिलकर व्यापार करने की इच्छा से,  ईस्ट इण्डिया कम्पनी नामक वणिक दल गठित कर  इंग्लैण्ड से सात समुद्र पारकर के भारत आना। और अपनी कूटनीति और धनबल से धीरे धीरे लम्बे समय से भारत पर राज कर रहे हिन्दू-मुसलमान राजाओं को,द्वारा अपने हाथ की कठपुतली बना लेना, उनसे अपना दासत्व स्वीकार कराकर उनकी शूरता और विद्या को अपने लिए धन उपार्जन करने का साधन बना लेने, तथा सम्पूर्ण भारत पर राज्याधिकार प्राप्त कर लेने की घटना को स्वामीजी ने - अनोखा (Fancy) और अकल्पनीय (unthinkable) कहा है। 
[ From very ancient times, the fame of India's vast wealth and her rich granaries has enkindled in many powerful foreign nations the desire for conquering her. She has been, in fact, again and again conquered by foreign nations.We are talking of the occupation of India by England.]
स्वामी जी यहाँ दिखलाते हैं कि, पूरे विश्व के इतिहास में," वैश्यों या वाणिज्य से धनवान होनेवाले सम्प्रदाय" के हाथों में समाज का शासन -सूत्र  पहले पहल इंग्लैण्ड प्रमुख कुछ आधुनिक पाश्चात्य देशों में ही देखा जा सकता है। अन्य सभी राष्ट्रों में समाज की बागडोर प्रथम युग में ब्राह्मण या पुरोहित के हाथ में थी। दूसरे युग में क्षत्रियों का अर्थात राजकुल या एकाधिकारी राजाओं का आविर्भाव हुआ। इस तथ्य को उन्होंने भारत के लिए भी सही साबित किया है।   
स्वामी जी के मतानुसार - " सत्व (शान्त ज्ञान सम्पन्न), रज (क्रियाशीलता , उद्यम) और तम (जड़त्व) ये तीन गुण सभी मनुष्यों में रहते हैं। तथा इन तीन गुणों के तारतम्य (कम-बेसी होने) से सभी समाज में ब्राह्मण जाति, क्षत्रिय जाति , वैश्य जाति और शूद्र जाति के गुण रखने वाले चार श्रेणी के मनुष्य प्रत्येक सभ्य समाज में देखे जाते हैं। काल -प्रभाव से और  देश-भेद से किसी वर्ण की शक्ति या संख्या दूसरों की अपेक्षा बढ़ या घट सकती है। 
[According to the prevalence, in greater or lesser degree, of the three qualities of Sattva, Rajas, and Tamas in man, the four castes, the Brahmin, Kashatriya, Vaishya, and Shudra, are everywhere present at all times, in all civilised societies.] 
परन्तु विश्व के इतिहास का ध्यानपूर्वक अध्यन करने से यह पता चलता है कि प्राकृतिक नियमों के वश (माँ जगदम्बा की इच्छा से ?) ब्राह्मण. क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र चारो जाति, समुदाय, श्रेणी या वर्ण क्रमानुसार समाज पर अपना आधिपत्य स्थापित करेंगे। और समाज का नियामक शक्ति बनकर पृथ्वी पर राज करेंगे। स्वामी जी के 'इतिहास दर्शन ' का मौलिक और अत्यंत मूल्यवान सिद्धान्त यह है कि - " प्रत्येक वर्ण के प्रभुत्व काल में कुछ हितकर और कुछ अहितकर कार्य हो जाया करते हैं ! " ९/२१० ] 
उनके मतानुसार प्राचीन ट्रॉय (Troy-एशिया माइनर का एक प्राचीन शहर जो ट्रोजन युद्ध का स्थल था) और कार्थेज (Carthage-आधुनिक ट्यूनिस के पास उत्तरी अफ्रीकी तट पर एक प्राचीन शहर राज्य) या वेनिस (Venice-इटली का एक शहर) तथा अन्य छोटे छोटे व्यापार करने वाले ये देश भी यद्यपि  बड़े ही प्रतापशाली हुए थे , तथापि वैश्यों का यथार्थ अभ्युत्थान इन देशों में नहीं हुआ था। इन सब देशों में क्षत्रिय ही प्रधान थे। वैश्य उनके सहायक थे और उनकी आज्ञा का पालन करते थे।
मिश्र आदि प्राचीन देशों में ब्राह्मण-शक्ति थोड़े ही समय तक प्रधान शक्ति रही। उसके बाद वह राज-शक्ति के अधीन और उसकी सहकारी बनकर रहने लगी। चीन में कन्फूशियस की प्रतिभा द्वारा गठित राजशक्ति ढाई हजार वर्षों से भी अधिक काल से पुरोहित शक्ति को अपनी इच्छानुसार चलाती आ रही है। गत दो सौ वर्षों से तिब्बत के लामा लोग राजगुरु होकर भी सब प्रकार से चीनी सम्राट के अधीन होकर दिन काट रहे हैं। [आज भी दलाई लामा भारत के धर्मशाला नामक स्थान में शरणार्थी रूप से रह रहे हैं। ] 
उन्होंने यह भी दिखलाया है कि भारत में राजशक्ति या क्षत्रियों की जय और उन्नति दूसरे पुराने सभ्य देशों की तुलना में, बहुत बाद में हुई। इसीलिए चीन , मिश्र , बेबीलोन आदि साम्राज्यों के बहुत दिनों बाद भारत में किसी साम्राज्य की स्थापना हो सकी । किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं  कि इस देश में सभ्यता भी उन देशों के बाद आयी होगी ! क्योंकि इस देश (भारत) में ब्राह्मणों (पुरोहित शक्ति) की प्रधानता बहुत दीर्घकाल से स्थायी बनी हुई थी। 
इसी प्रसंग में स्वामी जी यहूदी (Jew) समस्या की व्याख्या भी करते हैं। और कहते हैं कि - एक मात्र यहूदी जाति ही ऐसी है, जहाँ राज-शक्ति (क्षत्रिय शक्ति) अनेक प्रयत्न करने पर भी पुरोहित शक्ति (ब्राह्मण वर्ग) पर अपना अधिकार बिल्कुल न जमा सकी। और वैश्यों ने भी उस देश में कभी प्रधान्य नहीं पाया। यद्यपि साधारण प्रजा (मुख्यतः शूद्र श्रेणी ) ने पुरोहितों के बंधनों से छूटने की चेष्टा की थी।  परन्तु भीतर में ईसाई (christian) आदि धर्म सम्प्रदायों के साथ संघर्ष करने, और बाहर के बलवान रोम -साम्राज्य के दबाव से वह यहूदी जाति मृतप्राय हो गयी। 
स्वामी जी दिखलाते हैं कि इस तृतीय युग में अर्थात वैश्य शक्ति के अभ्युदय युग में -" इस नयी शक्ति के प्रबल आघात से कितने ही राजमुकुट धूल में जा मिले, कितने ही राजदण्ड (क्षत्रिय शक्ति) सदा के लिए टूट गए। जहाँ कहीं पहले क्षत्रियों का राजसिंहासन किसी प्रकार बच गया था, उसके ऊपर भी क्षात्र शक्ति का प्रभाव नहीं था। ' 
वणिकों के प्रचुर धन से खरीदी हुई सामग्रियों के प्रभाव से वणिक लोग ही अमीर -उमरा बनकर अपना अपना गौरव दिखलाते रहते थे। वास्तव में ब्राह्मणो या क्षत्रियों का प्रधान्य नहीं था, वैश्य या बनिया लोग ही बाणिज्य द्वारा प्राप्त धनराशि का मुकुट पहनकर कर राजा थे और उनके सिंहासन के नियंता थे। 
स्वामी जी के मतानुसार - " भारत पर इंग्लैण्ड की विजय"  - जैसा हमलोग बचपन में सुना करते थे, ईसा मसीह या बाइबिल की विजय नहीं है। और न पठान-मुगल आदि बादशाहों के विजय की भाँति ही है। अर्थात धर्म या ब्राह्मण-शक्ति या पुरोहित शक्ति अथवा किसी क्षत्रिय शक्ति की विजय हो , ऐसी बात नहीं है। यह विजय सिर्फ और सिर्फ वैश्य शक्ति के द्वारा प्राप्त विजय है।
स्वामी जी के मतानुसार - " जिस शक्ति से इंग्लैण्ड ने भारत पर इस विजय को स्थापित किया था , उस इंग्लैण्ड की शक्ति-ध्वजाएं उसके फैक्ट्रियों की चिमनियाँ हैं, उसकी सेना व्यापारियों के जहाज हैं, उसकी लड़ाई का मैदान विश्व-बाजार (world market ) है, एवं इंग्लैण्ड की रानी स्वयं स्वर्णांगी 'श्री ' अर्थात लक्ष्मी हैं; क्योंकि " वाणिज्ये वसते लक्ष्मीः '- वाणिज्य में स्वयं लक्ष्मी निवास करती है ।" (सत्यानृतं तु वाणिज्यम् । वाणिज्य में सच और जूठ दोनों मिले होते हैं।) 
जिस शक्ति की विजय हुई थी वह वैश्य शक्ति थी। उस शक्ति की क्रिया अपने देश का माल, भारत  के कोने से दूसरे कोने तक अनायास पहुँचाते रहने में है। व्यापार में उत्पाद और सौदागर सर्वदा चलते रहते हैं,और परिणाम में विचारों का आदान -प्रदान भी होता रहता है। इसीलिए स्वामीजी ने भारत पर इंग्लैण्ड के अधिकार को एक बड़ी ही अभूतपूर्व घटना कहा है। तथा ऐसा व्यापार, जो वैश्य शक्ति को भारत जैसे विशाल देश पर अपना आधिपत्य ज़माने का अवसर प्रदान कर दे - विश्व के इतिहास में बिल्कुल अभूतपूर्व घटना है। 
इस नयी महाशक्ति (वैश्य शक्ति) के अभ्युदय के फल स्वरुप दो प्रकार की सभ्यताओं के संघर्ष से भारत में आगे चलकर कौन कौन से नए विप्लव और होंगे , तथा उनके परिणामस्वरूप क्या क्या नये परिवर्तन भारतीय समाज में घटित होंगे, इसका पूर्वानुमान वर्तमान भारत के पूर्वकालिक इतिहास को देखकर, लगा पाना सम्भव नहीं है। स्वामी विवेकानन्द ने ऐतिहासिक शक्ति केंद्र के फैलाव के जिस सूत्र का उल्लेख पहले किया था, केवल उसी केआधार पर इसके भावी परिणाम का अनुमान लगाना सम्भव है। 
अर्थात, अभी तक यही देखा गया है, कि (माँ जगदम्बा की इच्छा से ही ) विश्व के विभिन्न देशों में  ब्राह्मण और क्षत्रीय - एक के बाद दूसरे का का प्राधान्य होता हुआ आया है। और चूँकि,  केवल  तृतीय युग में पहली बार पिछले युगों की ऐतिहासिक साक्ष्य  के बिना ही वैश्य शक्ति का उदय दिखाई दिया है। अतः इसी तर्क के आधार पर,  इस बात का अनुमान भी लगाया जा सकता है, कि इसके बाद वाले चौथे युग में - 'शूद्र-शक्ति' का प्रधान्य होना अवश्यम्भावी है !  स्वामी जी के द्वारा यहाँ उल्लेखित युक्तियों और तर्क से यही तात्पर्य निकलता है। 
[पाँच ] 
अपनी रचना में स्वामी विवेकानन्द ने प्रत्येक श्रेणी , वर्ण , समुदाय या जातियों के गुण और दोषों का विश्लेषण भी किया था; तथा यह पाया था कि पुरोहित शक्ति  बुद्धिबल (intellectual strength) पर ही खड़ी है, न कि बाहुबल पर। अर्थात (ब्राह्मण युग में) पुरोहित शक्ति की नींव बुद्धिबल (मस्तिष्क तथा अनुभूति ) के विकास [ या एकाग्रता शक्ति (Head) तथा इन्द्रयतीत सत्य को अपने हृदय में देख लेने की शक्ति-अनुभूति (Heart) या 2H -के विकास परआधारित थी] , न कि बाहूबल (Hand-या physical strength) के विकास पर। [ ९ / २१० The foundation of the priestly power rests on intellectual strength, and not on the physical strength of arm. 4 /452 ] 
इसीलिए पुरोहितों के आधिपत्य के साथ ही साथ समाज में इन्द्रियातीत सत्य या (पारमार्थिक) ज्ञान को जानने की विद्या, अथवा बहुमूल्य आध्यात्मिक विद्या (मनःसंयोग और चरित्रनिर्माण की प्रक्रिया ) का  प्रचार-प्रसार होता है। क्योंकि जहाँ इन्द्रियों की गति नहीं है, जो 'सत्य' इन्द्रियातीत या मन और वाणी से भी परे है, उस आध्यात्मिक जगत (supersensuous spiritual world) की बातों को जानने और वहाँ की सहायता पाने के लिए साधारण मनुष्य सदा व्याकुल रहते हैं।
और चूँकि वह इन्द्रियातीत सत्य,  इन्द्रिय गोचर बाह्य जड़ -जगत (स्थूल जगत) और आंतरिक मनोजगत (सूक्ष्म जगत) से भी परे है, इसलिए साधारण मनुष्य उस (पारमार्थिक) ज्ञान तक आसानी से स्वयं नहीं पहुँच सकते। इसलिए वे इस विषय को जानने के लिए वे किसी सत्वगुण प्रधान , संयमी और मननशील ब्राह्मण या पुरोहित (जीवनमुक्त शिक्षक , मार्गदर्शक नेता , गुरु) की  शरण में जाते हैं। क्योंकि केवल संयमी और मन-इन्द्रियों के पार देखने वाले सत्वगुणी पुरुष (ब्रह्मविद गुरु) ही इन्द्रियातीत सत्य के राज्य में जाते हैं, वहाँ का समाचार लाते हैं, और दूसरों को भी वहाँ पहुँचने का मार्ग दिखाते हैं। इस क्षमता से सम्पन्न पुरोहित या ब्राह्मण ही 'मानव समाज  के प्रथम गुरु , नेता और परिचालक' हैं ! इसीलिए इस शक्ति के अधिकारी पुरोहित (ब्रह्मविद-ब्राह्मण) साधारण मनुष्यों के द्वारा 'देवता' के समान पूजे जाते हैं। २१०/ 
(These great souls are the priests, the primitive guides, leaders, and movers of human societies. The priest knows the gods and communicates with them; he is therefore worshipped as a god.
और चूँकि सब भोगों में अग्रभाग देवताओं को प्राप्य हैं, और देवताओं के मुख पुरोहित हैं।  समाज उन्हें जाने -अनजाने प्रचुर अवकाश देता है। इसलिए ब्राह्मणों को (ब्रह्मविद शिक्षकों/या मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं को ) साधारण जनता की तरह  धन कमाने, सेवा पाने या अन्न की व्यवस्था करने के लिए , एड़ी -चोटी का पसीना एक कर जीविका नहीं प्राप्त करनी पड़ती है। इससे वे लोग चिन्तशील हुआ करते हैं। इसी कारण ब्रह्म-विद्या (ब्रह्म को जानने की विद्या) की उन्नति पहले-पहल पुरोहितों के प्राधान्य काल में होती    है।    
 भयंकर सिंह जैसे राजा  (dreadful-खौफनाक क्षत्रिय) तथा उसके द्वारा शोषित भयाक्रान्त (terrified) भेंड़ों के झुण्ड जैसी प्रजा (अजा) के बीच में पुरोहित ही दण्डायमान रहने का सामर्थ्य रखते हैं। उनके हाथों में  आध्यात्मिक शक्ति (इन्द्रियातीत सत्य का ज्ञान, अद्वैत--बुद्धि) रूपी जो 'नियंत्रण छड़ी ' होती है, उसी के द्वारा वे  भयंकर शेर (राजा) की विनाशकारी छलांग पर अपना नियन्त्रण रखने में समर्थ होते है। इसीलिए , केवल पुरोहित ही अपनी आध्यात्म विद्या के बल से राजा  (dreadful-खौफनाक क्षत्रिय) को संयत रखते हुए प्रजा (अजा) का कल्याण करने में सक्षम होते हैं।
[ There stands the priest between the dreadful lion — the king — on the one hand, and the terrified flock of sheep — the subject people — on the other. The destructive leap of the lion is checked by the controlling rod of spiritual power in the hands of the priest. vol -4 /453 ]  
चूँकि, विवेक-प्रयोग के द्वारा जड़ (नश्वर शरीर और मन) से चैतन्य (अविनाशी आत्मा ) को अलग- अलग पहचान पाने में,  सबसे पहले ब्राह्मण ही समर्थ होते हैं। इसलिए इन्द्रियातीत जगत का समाचार, इन्द्रयगोचर जगत तक पहुँचाने में भी सर्वप्रथम वे सफल होते हैं। अतः देवताओं की तरफ से मनुष्य के पास भेजा गया पहला सन्देशवाहक (देवदूत या पैगम्बर) भी पुरोहित (ब्राह्मण) ही हैं। इसलिए त्यागनिष्ठ पुरोहित शक्ति (ब्राह्मण) के आधिपत्य युग में ही सभ्यता का प्रथम आविर्भाव होता है। और उनकी शिक्षा को अमल में लाने से ही पशुत्व के ऊपर देवत्व की प्रथम विजय , जड़ (matter) के ऊपर चैतन्य ( spirit)  का प्रथम अधिकार और प्रकृति के क्रीतदास (मन और इन्द्रियों के गुलाम) और जड़ पिण्डों जैसे मनुष्य शरीर में भी छिपे हुए ईश्वरत्व (अव्यक्त ब्रह्मत्व) का प्रथम विकास होता है। और चूँकि,  कितने ही कल्याणों के अंकुर - (भावी नेता) इन्हीं ब्राह्मणों के तपोबल , इन्हीं के विद्या-प्रेम , इन्हीं के त्याग और इन्हीं के प्राण-सिंचन से प्रस्फुटित होते हैं। इसीलिए सब देशों में पहली पूजा इन्हीं ने पायी है, और इसीलिए इनकी स्मृति भी हम लोगों के लिए पवित्र है। " २१० 
[ भगवान श्रीरामकृष्ण और भक्त (शिष्य-विवेकानन्द) के बीच का पुल (गुरु या नेता ) का काम भी वही पुरोहित (ब्राह्मण -नवनी दा ) करते हैं, इसलिए नवनीदा की स्मृति भी हमलोगों के लिए पवित्र है । and the first manifestation of the divine power which is potentially present in this very slave of nature)The priest is the first discriminator of spirit from matter,  the first to help to bring this world in communion with the next,the first messenger from the gods to man,  and the intervening bridge that connects the king with his subjects. The first offshoot of universal welfare and good is nursed by his spiritual power, by his devotion to learning and wisdom, by his renunciation, the watchword of his life and, watered even by the flow of his own life-blood. It is therefore that in every land it was he to whom the first and foremost worship was offered. It is therefore that even his memory is sacred to us!] 
पर साथ ही पुरोहित शक्ति के आधिपत्य युग में दोष भी चला आता है। प्राण-स्फुरित होने के साथ ही साथ मृत्यु का बीज भी बोया जाता है। अंधकार और प्रकाश साथ ही साथ चलते हैं। (Darkness and light always go together.) समय के प्रवाह में विशेष अधिकारों का भोग करते करते पुरोहित (ब्राह्मण) भी अपनी त्यागनिष्ठा का परित्याग करके स्वार्थबुद्धि के द्वारा प्रेरित होने लगता है। इसका फल यह होता है कि   कपटता , हृदय की घोर संकीर्णता , और सबसे अधिक हानिकारक प्रचण्ड ईर्ष्या से पैदा हुई असहिष्णुता आदी दुर्गुण उनमे चले आते हैं। इस घटना- चक्र में पड़कर मनुष्य का स्वभाव जैसा हो जाना चाहिए, वैसा ही , स्वभाव उन स्वार्थबुद्धि से प्रेरित ब्राह्मणों का भी हो जाता है। २११ / 
( for want of proper exercise and diffusion')
 अध्यात्म विद्या के अभ्यास में 'भाटा' (ebb tide) पड़ने तथा साधारण जनता के बीच उसके वितरण या प्रचार-प्रसार को बंद करके, गोपनीय बना लेने से। आध्यात्मिक विद्या (3H' विकास के 5 अभ्यास जैसे ब्रह्म को जानने की विद्या) को केवल पुरोहित कुल के हाथों में रखने के प्रति रुझान (tendency) या प्रवृत्ति दिखाई देने लगती है। वे कहते हैं - " बिना अभ्यास और वितरण के प्रायः सभी विद्यायें नष्ट हो जाती हैं" (. All knowledge, all wisdom is almost lost for want of proper exercise and diffusion) शक्ति -संचय जितना आवश्यक है, शक्ति का प्रसार या वितरण भी उतना ही या उससे भी अधिक आवश्यक है ! 
 हृदय रूपी ब्लडपम्पिंग मशीन में रक्त का एकत्र होना तो आवश्यक है, परन्तु उसका यदि सारे शरीर में संचालन न हुआ , तो मृत्यु निश्चित है। और आज सम्पूर्ण देश में जो चारित्रिक गिरावट दिखाई दे रही है, उस राष्ट्रिय चरित्र में पतन का और सामाजिक अवनति का मुख्य कारण बन जाती है। क्योंकि विद्या के 'अभ्यास और वितरण" के बिना प्रायः सभी विद्याएं (अष्टांग-योग -पद्धति भी) नष्ट हो जाती हैं।' उसके बाद वह विद्याहीन , पुरुषार्थहीन और अपने पूर्वजों का नाम मात्र रखने वाला पुरोहित-कुल अपने पैतृक अधिकार, पैतृक सम्मान और पैतृक आधिपत्य को बनाये रखने के लिए- जिस तिस उपाय से यत्न (चालाकी) करता है। [अर्थात भले ही वह स्वयं ब्रह्मविद न बन सका हो, पर चेष्टा करता है कि व्यासपीठ पर केवल उसके पुरोहित कुल का कोई वंशधर ही बैठे।] इस अवस्था में ब्राह्मणों के साथ अन्य जातियों  का संघर्ष शुरू हो जाता है।
बाध्य होकर ब्राह्मणों में से कई लोगों को दूसरे वर्ण की वृत्ति ( सरकारी- निजी नौकरी, वकालत या वैश्य -वृत्ति) करनी पड़ती है। जिसके फलस्वरूप उनकी और भी अवनति हो जाती है। गुजरात के नागर ब्राह्मण (पुरोहित -व्यवसायी सम्प्रदाय) और केवल 'नागर' (जो राज-कर्मचारी, वकील या वैश्य -वृत्ति के हैं ) - कहे जाने वाले ब्राह्मणों का उदाहरण देकर स्वामी जी कहते हैं,'आधी यूरोपीय पोशाक और रहन-सहन , तथा सँवारे हुए बाल रखने वाले ब्राह्मणों के ब्राह्मणत्व में समाज को विश्वास नहीं है। और इस प्रकार , अपने वंशगत पुरोहित -व्यवसाय को छोड़कर हजारों ब्राह्मण युवक अन्य जातियों की वृत्ति का अवलम्बन कर धनवान हो रहे हैं, साथ ही उन पुरोहित पूर्वजों के आचार -व्यवहार एकदम रसातल को जा रहे हैं। अटल प्राकृतिक नियमों के अनुसार ब्राह्मण जाति अपना समधि-मन्दिर आप ही बना रही है। यहाँ स्वामी जी अपना मत प्रकट करते हुए कहते है - "और यही कल्याणकर है, क्योंकि प्रत्येक ऊँची जाति के लिए अपने ही हाथों अपनी चिता बनाना प्रधान कर्तव्य है।" ९/२१३ 
["Nature favours the dying out of the unfit and the survival of the fittest.....  It is good and appropriate that every caste of high birth and privileged nobility should make it its principal duty to raise its own funeral pyre with its own hands.4/458] 
जिन ऐतिहासिक नियमों तथा शिक्षाओं को हमें अवश्य समझ कर ग्रहण कर लेना  चाहिए, स्वामी विवेकानन्द उपरोक्त उदाहरणों  के माध्यम से उसी विषय में  हमलोगों का ध्यान आकर्षित करना चाह रहे हैं। वे कहते हैं -" ब्राह्मणों ने अपनी उपार्जित ज्ञान शक्ति को केवल अपने भीतर आत्मगोपन करके रखा , और उस आध्यात्मिक विद्या  का वितरण नहीं किया, या उस ब्रह्मविद्या का विकिरण सामान्य मनुष्यों तक न करके [ दूसरों के भीतर भी उस विद्या-चर्चा  (3H विकास के 5 अभ्यास की प्रशिक्षण पद्धति " का समागम (Communion) नहीं  होने दिया]  ऐसा करके उन्होंने अपनी ही जाति और समुदाय का ही सर्वाधिक नुकसान पहुँचाया है ! तथा --similar situation या समान स्थिति में यही  अवस्था अन्य समस्त ऊँची जाति वाले समुदाय की होने वाली है। " 
समाज के कल्याण के लिए किसी कुल तथा जातिविशेष में विद्या और शक्ति का एकत्र होना कुछ समय के लिए परमावश्यक है; परन्तु उन्हें सदा यह स्मरण रखना चाहिए कि  वह शक्ति उन्हें पूरे समाज में वितरित करने के लिए ही प्राप्त हुई है। यदि ऐसा न हुआ तो, समाज-शरीर अवश्य तुरंत ही नष्ट हो जायेगा। "९/२१३  
ब्राह्मणों में संचित शक्ति का आधार, वह बुद्धिबल था जो उन्हें तपस्या , संयम , त्याग और सत्य को अपने जीवन में धारण करने के लिए -Inspired' या उत्प्रेरित करती रहती थी। और इन सब शक्तियों का मूलाधार था त्याग उन्हीं त्यागनिष्ठ ब्राह्मणों के आधिपत्य युग में सभ्यता की कोपलें -पहली बार प्रस्फुटित होती हैं। किन्तु इस जगत में 'त्याग' के साथ साथ और एक शक्ति कार्य करती है - वह है 'भोग' ! स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित मानव-समाज के इतिहास का विश्लेषण और गहन चिंतन-मनन करने से, जिस श्रेष्ठ सत्य तक हमारी दृष्टि पहुँच ही जाती है, वह यह है --- कि बहुत लम्बे समय से मानव-समाज में  'त्याग और भोग' के बीच संघर्ष  चलता  चला आ रहा है। और जब इस संघर्ष में (देवासुर संग्राम में) त्याग की जीत होती है, तभी साधारण जनता का मंगल या कल्याण साधित होता है।  और जिस युग में भोग. 'त्याग' को पराजित कर देता है, उस समय (प्रजा) साधारण जनता के दुःख में वृद्धि होती है।जिस समय कोई ब्राह्मण (जीवनमुक्त शिक्षक या नेता ) त्याग की महिमा को भूलकर भोगवृत्ति को प्रश्रय देने लगता है, और स्वार्थपरायण हो जाता है, उस समय पुरोहित शक्ति (ब्राह्मण) और समाज दोनों का अमंगल होता है। 
 राजा (या Leader जो प्रजा-समष्टि का शक्ति केन्द्र है) की शक्ति अभ्युदय के विषय को, तथा [ emergence of state power- (संघमन्त्र या संघशक्ति) ] राष्ट्र-शक्ति  के उद्भव  को स्वामी जी द्वारा प्रदत्त इसी ऐतिहासिक सूत्र का अनुसरण करके,भी समझा जा सकता है। " क्योंकि साधारण जनता में त्याग की अपेक्षा भोग करने की प्रवृत्ति (tendency) ही प्रबल होती है, इसीलिए सार्वजनिक अधिकारों की रक्षा के लिए (To protect the common right)- " समान प्रयत्न, समान आकूति (आकांक्षा)" रखते हुए व्यक्तिगत स्वार्थत्याग का भाव --  प्राचीन युग बात तो दूर , आज के समय भी किसी भी देश में सम्यक रूप से उपलब्ध नहीं है।" २१३ 
इसीलि स्वामीजी का विचार है कि -" समाज ने ही राजा रूपी शक्ति-केन्द्र की सृष्टि की है। " जो राजा प्रत्येक व्यक्ति को साधारण जनता (या संगठन) के कल्याणार्थ अपने क्षुद्र स्वार्थों को त्याग देने की शिक्षा देगा, या बाध्य कर देगा, वही भोग-विलास (enjoyment) को विधिवत नियंत्रण में रखते हुए, सामान्य जनता की सुख के सम्भावना में वृद्धि कर सकेगा। 
जिस प्रकार कोई यथार्थ ब्राह्मण (त्यागनिष्ठ और जीवनमुक्त शिक्षक, गुरु या नेता ) बचपन से ही ज्ञानेच्छा (अतीन्द्रिय सत्य को जानने की इच्छा-या wisdom) के द्वारा अभिप्रेरित (Motivated) होकर तपस्या और संयम की सहायता से आजीवन त्याग और सत्यमार्ग पर यत्नपूर्वक चलने की कोशिश करता है। ठीक उसी प्रकार कोई क्षत्रिय (राजा) भी स्वभावतः ही भोगेच्छा के द्वारा अभिप्रेरित होकर कार्य करता है। इसलिए जितने दिनों तक त्यागनिष्ठ ब्राह्मणों का प्रभाव क्षत्रिय राजा के ऊपर कार्य करता रहता है, उतने दिनों तक राजा की भोगेच्छा भी नियंत्रित रहती है, और प्रजा का कल्याण संभव होता रहता है। 
किन्तु ब्राह्मण जब स्वयं स्वार्थी होकर अपने प्रभाव को खो देते हैं, तब क्षत्रिय राजा अपने पूर्ण प्रभुत्व में अपनी भोगक्षाओं की पूर्ति करने में व्यस्त हो जाते हैं। और उस राजा की भोगेच्छा  में बाधा डालने से ही उन लोगों का सत्यानाश होता है। यदि वह विनीत होकर , राजा की आज्ञाओं को शिरोधार्य करे , तभी वे सकुशल रह सकते हैं। " 
[" धर्म , मंत्र और शास्त्र के बल से बलवान , शापरूपी अस्त्र से सज्जित , तथा सांसारिक स्पृहाशून्य तपस्वियों के भ्रू-भंग के सामने प्रतापी राजाओं का काँपना भारतवासी सनातन काल से देखते आये हैं। (जैसे दुर्वाशा मुनि के सामने सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र का काँपना) फिर सेना और शस्त्रों से सजे हुए वीर राजाओं के अकुण्ठित वीर्य और एकाधिकार के सामने प्रजा का -सिंह के सामने बकरियों की भाँति -सिर झुकाये खड़े रहना भी उन्होंने अवश्य देखा था।२०७ ]    
आमतौर पर समाज में  " ब्राह्मणों के प्राधान्य काल में ज्ञानेच्छा का पहला उन्मेष होता है ..... उसी प्रकार क्षत्रियों के प्रभुत्वकाल में भोगेच्छा की पुष्टि और उसकी सहायक (लौकिक , दुनियावी ) शिल्प कलाओं या आद्यौगिक विधाओं की सृष्टि तथा उन्नति होती है। और उसके साथ ही साथ पर्ण कुटियों के स्थान पर अट्टालिकाएँ बनने लगती हैं, औद्योगिक तकनीक की उन्नति होती है, वास्तुकला, सुंदर मूर्तियाँ, मधुर संगीत,  वाद्य यंत्र, महीन रेशमी कपड़े, आदि उत्पादों का पृथ्वी पर आगमन होता है। इसके कारण क्षत्रियों के आधिपत्य युग में ग्राम का गौरव जाता रहा और उसके बदले वड़े बड़े नगरों का आगमन (Advent)  होता है ।" ९/२१४ ] 
 (हर क्रिया की बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है, इसीलिए स्वार्थ-पूर्ति ही स्वार्थ-त्याग का पहला शिक्षक है बड़े बड़े नगरों के अत्यधिक भोग-सुखों की व्यर्थता का अनुभव कर चुकने के बाद, जब राजाओं के मन में  (राजा ययाति की तरह ) भोगों के प्रति तीव्र वैराग्य उत्पन्न हो गया;  तब वे विषय-भोगों से ऊबकर, वे लोग भी अध्यात्म-विद्या के विषय की गंभीर आलोचना करने में ध्यान देने लगे। गीता और उपनिषदों पर चर्चाएं होने लगीं। आध्यात्म विद्या पर गहरे चिंतन-मनन के फलस्वरूप उनमें (राजाओं में) पुरोहितों के मंत्र-तंत्र आधारित कर्मकाण्ड को देखकर अत्यन्त घृणा का भाव उत्पन्न होने लगा । 
 --अत्यधिक भोगों की प्रतिक्रिया स्वरूप जब राजा के मन में भी वैराग्य उत्पन्न हो गया, तब आध्यात्मिक शक्ति से वंचित (Deprived) और उनके ऊपर ही आश्रित ब्राह्मण लोग विभिन्न प्रकार के धार्मिक कर्मकाण्डों में प्रवृत्त हो गये । किन्तु उनके यजमान (क्षत्रिय) को अब उन कर्मकाण्ड के ढोंग में कोई रूचि नहीं  थी। फलस्वरूप ब्रह्मणों का वह रोजगार भी छीन लिया गया । 
इसीलिए पुरोहित शक्ति तब अपने प्राचीन कर्मकाण्डों (यज्ञ -बली आदि) की रक्षा करने के लिए कटिबद्ध हो गयी। जिसके फलस्वरूप पुरोहित शक्ति (त्याग विद्या -निवृत्ति मार्ग और राज शक्ति (भोग विद्या-प्रवृत्ति मार्ग) के बीच जो नया विवाद उत्पन्न हुआ उसने भारी कलह का रूप धारण कर लिया। [Janaka, backed by Kshatriya prowess as well as spiritual power. जिसका परिचय बौद्ध और जैन धर्मं के अभ्युदय से  (राजा + ऋषि ) राजर्षि जनक जैसे बाहुबल और आध्यात्मिक बल -सम्पन्न राजा की राज्य सभा में वेद-उपनिषद पर होने चर्चाओं को देखने से प्राप्त होता है। वहां जो ब्राह्मण तर्क में हार जाते थे तब उन्हें जेल में डाल दिया जाता था -अष्टावक्र मुनि के पिता को भी जेल भेज दिया था।] 
इस प्रकार हम देखते हैं कि भोगविद्या और त्याग विद्या, ' लौकिक और आध्यात्मिक ' (अभ्युदय और निःश्रेयस) दोनों विद्यायें प्रथम अवस्था में ब्राह्मण और क्षत्रिय जातियों में केन्द्रीभूत थी। हमारे शास्त्र भी प्रवृत्ति (धर्म, अर्थ और काम)  से होकर निवृत्ति (मोक्ष या बुद्धत्व प्राप्ति) में  बाधा नहीं देते।  किन्तु इसके पहले कहे गए ऐतिहासिक सूत्रानुसार, उसके बाद के युग में जब इन दोनों विद्याओं के अभ्यास और वितरण-पद्धति में युगानुकूल परिवर्तन नहीं करने के कारण वे साधारण मनुष्यों में संचारित न हो सकीं। इसलिए, हमारे पूर्वजों की जो विद्या 'लौकिक अभ्युदय और निःश्रेयस ' दोनों प्रदान करने में समर्थ थी, उन्हें पूरे मानव समाज के लिए (प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों मार्ग के अधिकारी मनुष्यों के लिए) प्रयुक्त होने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ। जब राजा भी युगानुकूल परिवर्तन करके इन दोनों विद्याओं को साधारण जनता तक संचारित करने में असफल हो गए ,तब साधारण जनता (प्रजा) अपनी उन्नति के प्रत्येक कार्य के लिए  पूर्ण रूप से राजा (सरकार) का मुँह देखने लगी। 
 [अर्थात जब राजर्षि जनक (राजा + ऋषि) जैसे राजा भी,  चार पुरुषार्थ , चार आश्रम , सोलह संस्कार में आधारित सामाजिक व्यवस्था के आधार पर प्रवृत्ति मार्ग (भोगेच्छा) से निवृत्ति मार्ग (त्यागेच्छा) में आने की पद्धति - 3'H' विकास के 5 अभ्यास पद्धति का प्रचार-प्रसार करने में असफल हो गए। तब  हमारे पूर्वजों की वह विद्या जिसे 'वर्णाश्रम धर्म' कहा जाता है, वह सम्पूर्ण भारत का कल्याण करने में सफल न हो सकीं।इसके फलस्वरूप  साधारण जनता (प्रजा) अपनी उन्नति के प्रत्येक कार्य के लिए  पूर्ण रूप से राजा (सरकार) का मुँह देखने लगी। ]
इसके ही फलस्वरूप प्रजा के साथ शासक वर्ग का संघर्ष प्रारम्भ हो गया। क्योंकि यह संघर्ष (Clash -विरोध या टकराव) साधारण जनता के साथ होता है , इसलिए इसके जय -पराजय के ऊपर ही सामाजिक अवस्था और सभ्यता की अवस्था (पतन या उन्नति ) भी निर्भर करती है।   
यहाँ पहुंचकर स्वामी जी, भारतीय समाज क सम्बन्ध में  ए और गहन सिद्धान्त को प्रस्तुत करते हैं। वह यह,  कि विभिन्न समाजों में अपनी अलग अलग प्राणशक्ति होती है।  जो उस समाज, देश या कौम की प्राणस्वरूप होती है। उसके दुर्बल अथवा क्षीण होने से समाज -शरीर भी दुर्बल होकर नाना व्याधियों से ग्रसित हो जाता है। और साधरण जनता की अवस्था में अवनति दिखाई पड़ने लगती है।  लेकिन प्राण शक्ति ठीक रहने से सबकुछ ठीक-ठाक बना रहता है। 
जिस देश की जो प्राणशक्ति है, उसकी बुनियाद पर कोई कार्य करने से वह कार्य सफल हो पाता है, इसीलिए समाज का परिवर्तन या उन्नति उसी -राष्ट्रिय प्राण-शक्ति के आधार पर करना आवश्यक है।  इसके अतिरिक्त आम जनता के लिए वही सामाजिक परिवर्तन या उन्नति बोधगम्य (understandable) तथा स्वीकार्य (acceptable ) होती है, जिसे वे राष्ट्र की जीवनी-शक्ति के अनुरूप या उसका पोषण करने वाली समझते हैं। इसीलिए  सामाजिक उन्नति या परिवर्तन के किसी भी पहलकदमी (initiative) को उसकी प्राणशक्ति पहचानकर, और उसी आधार पर लागु करना वांछनीय है। किसी समाज की चेष्टा या इच्छा की पहल कदमी को उस समाज की भाषा का नाम दिया जा सकता है, जिसे वह समाज अच्छी तरह से समझता है। 
भारतवर्ष की सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन लाने की उस प्राणशक्ति को स्वामी जी ने , धर्म में (धार्मिक-विप्लवदेखा था।  इसीलिए इस गहन सिद्धांत  को स्वामी जी ने इस प्रकार अभिव्यक्त किया था - " यह सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन विप्लव (सम्पूर्ण क्रान्ति) भारत में भी बार बार हुआ करता है, पर वह भी धर्म के नाम से ही हुआ करता है; क्योंकि भारतवर्ष धर्मप्राण है; धर्म ही इस देश की भाषा है अर्थात सब उद्योगों (पहलकदमी) का चिन्ह है। इसीलिए भारत की सामाजिक व्यवस्था में परविर्तन लाने के लिए अभी तक जितने भी आंदोलन या उपक्रम (initiative) किये गए हैं, उन सब के पीछे, सदैव हमारे राष्ट्र की प्राणशक्ति -धर्म को देखा जा सकता है।   
 किसी अन्य देश में यह राष्ट्रिय प्राणशक्ति राजनीति हो सकती है, या समाजनीति हो सकती है या अन्य कुछ (नक्सलिज्म) हो सकती है। किन्तु भारत के क्षेत्र में वह धर्म या आध्यात्मिक चेतना ही है। इसको स्पष्ट करते हुए स्वामी जी ने कहा था, " शासनकर्ता राजा (सरकार) और शासित साधारण जनता (प्रजा) के बीच पूर्वोल्लिखित विप्लव या संघर्ष बार बार हुआ है, किन्तु भारत में वह विप्लव भी सदैव धर्म को ही आधार बनाकर  सम्पादित (accomplished ) हुई है।
उदाहरण के लिए उन्होंने- चार्वाक , जैन और बौद्ध , शंकर , रामानुज और चैतन्य मार्ग , कबीर, नानक, ब्रह्मसमाज , आर्यसमाज आदि का उल्लेख किया था। और कहा था कि इन सभी सम्प्रदायों के आविर्भाव को ऊपरी तौर से देखने पर, वहाँ -  " धर्म की उत्ताल तरंगे ही वज्र की भाँति गर्जन करती हुई " दिखाई देती हैं, किन्तु वास्तव में उन समस्त (धार्मिक -आन्दोलनों या विप्लव) के माध्यम से 'सामाजिक अभावों की पूर्ति' ही होती है। " ९/२१५ ]
इसी प्रसंग में प्राचीन धर्म की निम्नीकृत अवस्था में अपनी जाति या वर्ण के स्वार्थ को किसी भी प्रकार पूर्ण करने के लिए कटिबद्ध होकर निरर्थक कर्मकाण्ड करने और पुरुषार्थ का पूर्णतया वहिष्कार करने की प्रवृत्ति की स्वामी जी निन्दा करते हैं। कहते हैं - "  यज्ञ आदि के नाम पर 'कुछ अर्थहीन शब्दों के उच्चारण' से ही यदि सारी कामनायें सिद्ध होती हैं, तो फिर अपनी इष्ट-सिद्धि के लिए कौन कष्ट-साध्य पुरुषकार (manliness) का सहारा लेगा ? और यदि यह रोग सारे समाज-शरीर में प्रवेश कर जाय तो समाज बिल्कुल उद्यमहीन होकर विनष्ट हो जायेगा। इसीलिए धार्मिक विप्लव के रूप में प्रत्यक्षवादी चार्वाकों की चुभने वाली चुटकियाँ शुरू हुईं। "
[चार्वाक सम्प्रदाय-who believed only in the reality of sense-perceptions and nothing beyond. केवल इन्द्रियगोचर सत्य को ही सत्य समझते थे, इसलिए इन्द्रियातीत सत्य की खोज करने में उनकी कोई रूचि नहीं थी। ]   
इन समस्त धार्मिक विप्लव के समसामयिक (Contemporary) युग में उस विप्लव की प्रयोजनीयता , और कार्यकारिता आदि को यद्यपि बहुत संक्षेप में, तथापि बहुत कुशल तर्क की सहायता से उन्होंने दिखाया है। प्राचीन धर्म में आयी गिरावट के फलस्वरूप जब ब्राह्मणों के .. पशुमेध, नरमेध , अश्वमेध आदि यज्ञ के विस्तृत कर्मकाण्ड से भारत भूमि रक्तरंजित हो रही थी, तब जैन और बौद्ध विप्लव (क्षत्रिय विप्लव) ने जैसे साधारण जनता का उद्धार किया था। 
उसी प्रकार,  कुछ समय बाद जब बौद्ध धर्म का महान सदाचार घोर अनाचार में परिणत हो गया और साम्यवाद (universal all-embracing spirit of equality) की अधिकता से उस सम्प्रदाय में आये हुए विभिन्न बर्बर जातियों के पैशाचिक नृत्य से समाज काँपने लगा।  तब पूर्व भाव को यथासम्भव पुनः स्थापित करने के लिए शंकर और रामानुज ने प्रयत्न किया। स्वामी जी का यह मानना था कि  -" उनके बाद यदि कबीर, गुरु नानक ,गुरु गोविन्द सिंह , चैतन्य सम्प्रदाय, ब्रह्मसमाज और आर्य समाज का यदि जन्म न होता , तो अधिकांश हिन्दुओं जबरन धर्मान्तरण हो जाता और आज भारत में हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमान और ईसाईयों की संख्या निःसन्देह बहुत अधिक होती। " ९/२१६ ] 
प्रत्येक वस्तु की तरह धर्म शब्द में भी 'सार और असार (अफ़ीम) ' मिश्रित है। सार को छोड़कर असार के आडम्बर में मन को निवेशित करने से अच्छी वस्तु भी शुभ फल नहीं देते, धर्म भी नहीं। यह सिद्धान्त इसी ऐतिहासिक पर्यालोचना से प्राप्त होता है। दूसरी ओर यह निष्कर्ष भी निकलता है कि भारत में धर्म ही सच्चे परिवर्तन और उन्नति का साधक है। 
[ छह ]
स्वामी जी ने व्यक्ति और समाज के बीच परस्पर सम्बन्ध के विषय में अपने विचारों को बड़े स्पष्ट रूप रखते हुए कहा था :   " समष्टि (समाज) के जीवन में व्यष्टि (व्यक्ति) का जीवन है; समष्टि के सुख में व्यष्टि का सुख है। समष्टि के बिना व्यष्टि का अस्तित्व ही असम्भव है, यही अनन्त सत्य जगत का मूल आधार है।अनन्त समष्टि के साथ सहानुभूति रखते हुए उसके सुख में सुख और उसके दुःख में दुःख मानकर धीरे धीरे आगे बढ़ना ही व्यष्टि का एकमात्र कर्तव्य है। और कर्तव्य ही क्यों ? इस नियम का उलँघन करने से उसकी मृत्यु होती है। और उसका पालन करने से वह अमर होता है। " ९/२१६
यहाँ 'मनुष्य' , जो एक सामाजिक प्राणी है, उसके सचेतन -प्रयास की दिशा क्या होना चाहिए - वह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है। मनुष्य के इस कर्तव्यबोध का आधार है वेदान्तिक सत्य - सभी मनुष्यों का एकत्व, ' the unity of all human beings'-- या अनेकता में एकता। जान बूझकर (Consciously) इसी एकत्व को प्रतिष्ठित करने की चेष्टा, समाज के कल्याणकारी इतिहास की रचना में सहायक होती है। इस वेदान्तिक एकत्व के सत्य - की अनुभूति ही हमलोगों के भीतर सभी मनुष्यों के प्रति-भाव को संचारित करती है। और केवल अपने ही लोगों को नहीं, बल्कि पराये लोगों का मंगल या सभी मनुष्यों के मंगल, या समष्टि के कल्याण के लिए स्वयं को पूर्णतः निःस्वार्थपर बना लेने के लिए अनुप्रेरित करती है। 
जब मनुष्य इस - 'प्रेम और निःस्वार्थपरता' (यहाँ पर स्वामी जी दो गुणों  universal love and self-denying compassion for all. का उल्लेख एक साथ किया था) उसको वर्जित (Exclude) कर देता है, और स्वार्थ के द्वारा चालित होकर प्रेम के बदले घृणा को प्रश्रय देने लगता है, तब इसके परिणामस्वरूप, समाज में बहुत सारा कचरा (ढोंगी नेता लोग) आ कर जमा हो जाता है।  किन्तु " समाज की आँखों पर बहुत दिनों तक पट्टी नहीं बाँधी जा सकती। समाज के ऊपरी हिस्से में कितना ही कूड़ा-करकट क्यों न इकट्ठा हो गया हो, परन्तु उस ढेर के नीचे प्रेमरूपी निःस्वार्थ सामाजिक जीवन का प्राण-स्पंदन होता ही रहता है। सब कुछ सहने वाली पृथ्वी की तरह भारतीय समाज भी बहुत सहता है। परन्तु एक न एक दिन वह जागता ही है, और उस जागृति के वेग से युगों की एकत्र मलिनता तथा स्वार्थपरता दूर जा गिरती है। " ९/ २१६ ] 
समाज विज्ञान का एक और गहन सत्य स्वामी जी की दृष्टि में उदभासित हो उठता है - " हम मनुष्य हजारों बार ठगे जाकर भी इस महान सत्य में विश्वास नहीं रखते। पागलों की तरह हम लोग कल्पना करते हैं कि हम प्रकृति को (माँ जगदम्बा को) धोखा दे सकते हैं। हमलोग अत्यन्त अल्पदर्शी हैं, समझते हैं कि स्वार्थ-साधन ही मनुष्य जीवन का चरम उद्देश्य है। हमें यह बात स्मरण नहीं रहती कि - विद्या, बुद्धि, धन , जन , बल, वीर्य जो कुछ प्रकृति (माँ जगदम्बा) हमलोगों के पास एकत्र करती है, वह फिर बाँटने के लिए है; सौंपे हुए धन में आत्म-बुद्धि हो जाती है, और बस इसी प्रकार हमारे विनाश का सूत्रपात होता है। २१७ "  
क्योंकि राजा (क्षत्रिय) जो प्रजा-समष्टि का शक्ति-केन्द्र है, वह बहुत जल्दी भूल जाता है कि शक्ति उसमें इसीलिए संचित हुई है कि वह फिर लोगों में हजार गुनी बंट जाय। ' राजा के स्वार्थी हो जाने से ' पालन के स्थान पर पीड़न ' चला आता है और 'रक्षण की जगह भक्षण' भी आप ही आप आ जाता है। २१७] 
इस अवस्था में यदि समाज बलहीन रहा तो सबकुछ चुपचाप सह लेता है। और राजा -प्रजा दोनों ही हीन से हीनतर अवस्था में गिरकर शीघ्र ही किसी दूसरी बलवान जाति के शिकार बन जाते हैं। (कश्मीरी पंडितों को भारत में ही रिफ्यूजी बनकर रहना पड़ता है।) 
पर यदि समाज शरीर बलवान रहा ( विवेकानन्द भक्त महामण्डल की शाखाएं सब जगह फ़ैल गयीं, तब) --शीघ्र ही अत्यंत प्रबल प्रतिक्रिया उपस्थित होती है - जिसकी चोट से छत्र , दण्ड , चँवर आदि बहुत दूर जा गिरते हैं, और सिंहासन अजायबघर में रखी हुई पुरानी अनूठी वस्तुओं के सदृश हो जाता है। अभी के समय में 'राजा ' कहने का अर्थ प्राचीन इतिहास से भिन्न, राजशक्ति ( किसी संगठन को चलाने की शक्ति) या राष्ट्र शक्ति -वह चाहे जैसे भी 'नेता' के हाथों में हो, उसी के सन्दर्भ में कही हुई बात ,-समझना होगा।   
[सात]
 इस रचना के अंतस्तल में यद्यपि वेदान्त बुद्धि जन्य शान्त रस ( परमात्मा के वास्तविक रूप का ज्ञान प्राप्त होने पर, मन को जो शान्ति मिलती है वहाँ पर शान्त रस की उत्पत्ति होती है,  जहाँ पर न दुःख होता है, न ही द्वेष होता है मनुष्य का मन सांसारिक कार्यों से मुक्त हो जाता है और मनुष्य वैराग्य प्राप्त कर लेता है।)  हर जगह विद्यमान है।  तथापि घने जंगल में पेड़ों के बीच से छन छन कर आने वाले सूर्य के किरणों की तरह, हास्यरस भी स्वामी जी की इस रचना में पर्याप्त है। किन्तु कहीं कहीं करुणरस की हल्की ध्वनि भी है जो वीभत्सरस के सामने पड़कर पल भर में ही निस्तब्ध हो जाती है। 
इस राजशक्ति (क्षत्रिय शक्ति) के बाद ही वैश्य-शक्ति का उत्थान या उद्भव होता है। " वैश्य कहता है, 'पागल, जिसको तुम 'अखण्डमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम' कहते हो वह मुद्रा-रूपी अनन्त शक्तिवान मेरे हाथों में है। देखो इसकी बदौलत मैं भी सर्वशक्तिमान हूँ। ब्राह्मणों , तुम्हारा तप-जप,  विद्या-बुद्धि मैं इसके प्रभाव से अभी कैसे मोल ले लेता हूँ। और क्षत्रियों तुम्हारा अस्त्र,शस्त्र, तेज वीर्य भी इसकी कृपा से मेरी सहायक बन जाती है। ये जो तुम बड़े बड़े कल-कारखाने आदि देख रहे हो, वे मेरे मधु के क्षत्ते हैं। वह देखो, असंख्य शूद्ररूपी मक्खियाँ उसमें रात-दिन मधु एकत्र करती हैं। परन्तु वह मधु कौन पियेगा ? - मैं ! " २१८] 
आत्मरक्षा करने के विषय में सभी वैश्य एकमत रहते हैं, क्योंकि " वैश्यों को सदा इस बात का डर लगा रहता है कि कहीं उस धन को ब्राह्मण ठग नहीं ले, और क्षत्रिय जबरदस्ती छीन न ले। इसी कारण वैश्य लोग अपनी रक्षा के लिए सदा एकमत रहते हैं। अपने रूपये के बल से राज-शक्ति को दबाये रखने के लिए वह सदा व्यस्त रहता है। परन्तु उसकी यह इच्छा बिल्कुल नहीं होती कि यह राज-शक्ति क्षत्रिय कुल से शूद्र कुल (श्रमिक वर्ग) में चली जाये। 
किन्तु वैश्य या वणिक लोग व्यापार करने के लिए एक देश से दूसरे देशों तक जाते रहते हैं, " जिसके फलस्वरूप जो विद्या , सभ्यता और कला-कौशल ब्राह्मणों और क्षत्रियों के अधिकार में समाज के केंद्रस्थल में जमा हुआ था , वह सर्वत्र संचारित होने लगा। 
[आठ ] 
किन्तु स्वामी विवेकानन्द के हृदय की समस्त सहानुभूति मानो शूद्रकुल (श्रमिक वर्ग) के प्रति थी। वे भारत के भावी नेताओं की आँखों को खोलने की शिक्षा देने के लिए कहते हैं - "जिनके शारीरिक परिश्रम के बल पर ही ब्राह्मणों का आधिपत्य , क्षत्रियों का ऐश्वर्य और वैश्यों का धन-धान्य निर्भर करता है, वे कहाँ हैं और किस स्थिति में हैं ? 
समाज का मुख्य अंग होकर भी जो लोग सदा सब देशों में - जघन्य प्रभवो हि सः' कहकर पुकारे जाते हैं, उनका क्या हाल है ? जो लोग समाज के समस्त ऐश्वर्य के मूल कारण हैं, वे लोग ही चिरकाल से उत्पीड़ित (oppressed), उपेक्षित , अपमानित (humiliated) किये जाते रहे हैं--यह बात मानो स्वामी जी के लिए बिल्कुल असहनीय थी। 
इतना ही नहीं , स्वामी जी के लिए सबसे बड़े दुःख की बात तो यह थी , कि अंग्रेजों के शासनकाल में मानो सभी भारतवासी ही शूद्रत्व की अवस्था तक पदावनत (Degraded) हो चुके हैं।  उनके प्रति अपनी गहरी सहानुभूति से उत्पन्न वेदना को स्वामी जी ने कैसी सुन्दर भाषा में व्यक्त किया था --" इस देश का हाल क्या कहा जाय ? शूद्रों की बात तो अलग रही, भारत का ब्राह्मणत्व अभी गोरे अध्यापकों में है, और उसका क्षत्रियत्व चक्रवर्ती अंग्रेजों में है। उसका वैश्यत्व भी अंग्रेजों के नस नस में है। भारतवासियों के लिए तो केवल भारवाही पशुत्व अर्थात शूद्रत्व ही रह गया है। घोर अंधकार ने अभी सबको सामान भाव से ढँक लिया है। अभी चेष्टा (पुरुषार्थ) में दृढ़ता नहीं है, उद्यम में साहस नहीं है, मन में बल नहीं है, अपमान में घृणा नहीं है, दासत्व में अरुचि नहीं है, हृदय में प्रीति नहीं है और प्राण में आशा नहीं है। और है क्या ? केवल प्रबल ईर्ष्या, स्वजातिद्वेष, दुर्बलों का जैसे-तैसे नाश करने और कुत्तों की तरह बलवानों के तलवे चाटने में है। इस समय तृप्ति , धन और ऐश्वर्य का नंगा प्रदर्शन करने में है, भक्ति स्वार्थ-साधन में है, ज्ञान अनित्य वस्तुओं के संग्रह में है, योग पैशाचिक आचार में है, कर्म दूसरों के दासत्व (नौकरी करने ?) में है, सभ्यता विदेशियों की नकल करने में है, वाक्पटुता कटुभाषण में है, और भाषा की उन्नति धनिकों की बेढंगी खुशामद में या जघन्य अश्लीलता के प्रचार में है। जब सारे देश में शूद्रत्व भरा हुआ है, तो शूद्रों के विषय में अलग से क्या कहा जाय। " ९/२१९ ]
  ---বর্তমান ভারতের কি নিখুঁত চিত্রণ !  वर्तमान भारत (Modern India) का कितना पूर्ण (Perfect) चित्रण है ! केवल इतना ही नहीं , स्वाधीनता के 70 साल बाद आज भी यही अवस्था समान रूप से या उससे भी अधिक सत्य है। किन्तु स्वामी जी ने वर्तमान भारत की वस्तुस्थिति का केवल पूर्ण चित्रांकन ही नहीं किया था, वे तो इस चित्र में वर्णित उत्पीड़ित और शोषित, भारत की साधारण जनता को इससे बाहर निकलने का मार्ग भी दिखलाना चाहते थे।
स्वामी विवेकानन्द ने देखा था कि यह शूद्र जाति दूसरे देशों में यद्यपि थोड़ा जाग उठी है;  किन्तु जाग उठने के बावजूद , जिस एकत्व-बोध (समत्व बोध ?) को अर्जित किये  बिना उनका वह जागरण मुक्ति में सहायक नहीं बन सकता , स्वामी जी उसी राष्ट्रिय एकता को स्थापित करने वाले महत्वपूर्ण सूत्र की तरफ हमारा ध्यान आकृष्ट करना चाहते थे, इसलिए वे कहते हैं - " अन्य देशों के शूद्र-कुल की नींद कुछ टूटी सी है, पर उनमें विद्या नहीं है। ... उनकी जनसंख्या यदि अधिक ही है, तो क्या ? जिस (वेदान्तिक) एकत्व के बल से दस मनुष्य, लाख मनुष्यों की शक्ति अर्जित कर लेते हैं , वह 'एकता' अभी शूद्रों से कोसों दूर है। इसलिए शूद्र जाति मात्र इसी प्राकृतिक नियम- स्वजातिद्वेश, के अनुसार अभी तक पराधीन है।' २१९ ] यहाँ केवल हमें स्वामी जी सहानुभूति ही नहीं दिखाई देती , बल्कि समस्याओं या वर्तमान अवस्था का ऐतिहासिक विश्लेषण तथा उसके भी ऊपर, वे इस अवस्था से बाहर निकलने का मार्ग भी दिखला देते हैं। 
[ जिस प्रकार गुरु गोविन्द सिंह  "वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतह" और  "सवा लाख से एक लड़ाऊं, चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊं, तबै गुरु गोबिंद सिंह नाम कहाऊं! "  का जयघोष करते थे , उसी प्रकार स्वामी जी अपने गुरु श्रीरामकृष्णदेव के नाम का जयघोष करते हुए - ब्रह्मविद मनुष्य/ नेता/ब्राह्मण/  बनने और बनाने की प्रशिक्षण पद्धति  "Be and Make " बतला रहे हैं।]  
इस युग में विभिन्न वर्णों के मनुष्यों के धर्म को अन्य वर्णों में जन्मे व्यक्तियों में संचारित होता हुआ देख कर वे आशावान हो जाते हैं। कहते हैं - " परन्तु फिर भी आशा है। काल के प्रभाव से ब्राह्मण आदि वर्ण भी शूद्रों का नीच स्थान प्राप्त कर रहे हैं, और शूद्र जाति ऊँचा स्थान पा रही है। शूद्रों से भरे , रोम के दास यूरोप ने क्षत्रियों का बल प्राप्त कर लिया है।  ... और नगण्य जापान हवा की तरह शूद्रत्व को झाड़ता हुआ ऊँची जातियों के गुणों पर अधिकार ले रहा है। महा बलवान चीन हमलोगों के सामने ही बड़ी शीघ्रता से शूद्रत्व प्राप्त कर रहा है। यहाँ ग्रीस (यूनान) और इटली तो क्षत्रियत्व के गुणों को अर्जित कर रहे हैं,किन्तु तुर्क, स्पेन आदि निम्न निचले स्तर पर क्यों जा रहे हैं? इसका कारण भी विचारणीय है। " २१९ इस प्रकार एक ही नजर में  विभिन्न जातियों के उत्थान और पतन के कारणों को समझ लेना बहुत कठिन है।किन्तु , स्वामी विवेकानन्द की समकालीन इतिहास का विश्लेषण करने और निरीक्षण करने की यही शक्ति, आधुनिक इतिहासकारों को, आश्चर्यचकित कर देती है। 
शूद्रत्व के कारणों का विश्लेषण करते हुए वे कहते हैं - " युगों से पिसते आ रहे शूद्र मात्र ही या तो कुत्तों की तरह धनवानों, दबंगों के तलवे चाटने वाले बन गए है, या वे हिंस्र पशुओं की तरह निर्दयी (नक्सलाईट) हो गए है। फिर बहुत दीर्घ समय से उनकी अभिलाषायें निष्फल होती आ रही हैं, इसलिए उनमें संकल्प की दृढ़ता और अध्यवसाय जैसे चारित्रिक गुण उनमें बिल्कुल नहीं है। " इसके पहले उन्होंने , जिस राष्ट्रिय एकता के महत्व को समझाया  था , उसे समझ जाने के परिणाम स्वरुप  सभी शूद्र (या यदि सिर्फ 100 भारत के युवा ) यदि क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज को अर्जित करके शक्तिशाली बन जाये , तब स्वामी जी की धारणा थी कि - " एक ऐसा समय आएगा, जब शूद्रत्व के गुणों के साथ ही समाज पर शूद्रों का आधिपत्य होगा। अर्थात आजकल  शूद्र जाति जिस प्रकार वैश्यत्व या क्षत्रियत्व के गुणों को अर्जित कर  अगड़े-पिछड़े को लड़वाने में अपना बल दिखला रहे हैं, उस प्रकार के जोर-जुल्म से नहीं, बल्कि अपने शूद्रोचित धर्म-कर्म के साथ ही समाज पर शूद्रों का आधिपत्य हो जायेगा।
 स्वामी जी की यह धारणा थी कि ... समाजवाद (Socialism- इसकी उत्पत्ति यूरोप में 1835 में हुई थी, इसके अनुसार देश के मूलधन और भूमि का स्वामित्व समाज का हो, न कि किसी व्यक्तिविशेष का, जो शासन प्रणाली रूस और चीन में अब भी अन्य रूप में चल रहा है), अराजकतावाद (Anarchism, अर्थात मनुष्य यदि अपनी प्रकृति के अनुसार ही चलना शुरू कर दे तो राजशासन या कानून की आवश्यकता नहीं है, 814 में इसका जन्म हुआ) , नाइलहिज्म (Nihilism-विनाशवाद, रूस में 1862 में जन्मा जिसके मतानुसार तीन चीजें मिथ्या हैं - ईश्वर, राजा का शासन और विवाह ?) आदि सम्प्रदाय- भविष्य में सत्य सिद्ध होने वाली इसी धार्मिक -विप्लव की आगे-आगे चलने वाली ध्वजायें हैं।
विश्व इतिहास का गहन विश्लेषण करने के बाद, स्वामी जी ने अपनी रचना में -दिखलाया है कि " समाज का नेतृत्व विद्या या ज्ञान-बल से बली ब्राह्मणों के अधिकार में हो, या बाहुबल के बली क्षत्रिय के अधिकार में हो, धन-बल से बली वैश्यों के अधिकार में ही क्यों न हो, .. उस शक्ति का आधार या उत्स तो शोषित प्रजा -मुख्यतः शूद्रकुल ही है।" २२१ /अतः " शासक वर्ग (चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो या वैश्य ही क्यों न हो) , इस शक्ति का उत्स या आधार (प्रजावर्ग) से अपने को जितना ही अलग रखेगा, या अपनी एक अलग पहचान बनाये रखना चाहेगा (वीआईपी कल्चर), उतना ही वह दुर्बल होगा। वे कहते हैं - " यह मानों माया की (माँ जगदम्बा की) ऐसी विचित्र लीला है कि जिनसे (प्रजा से ) प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीके से, छल-बल -कौशल से यह शक्ति अर्जित होती है , उसी जनता अपना मालिक मानने, या जनता को जनार्दन समझने की भावना वैसे सभी शासकों के मन से शीघ्र ही समाप्त हो जाती है। " 
और पुरोहित शक्ति जैसे ही अपने को प्रजा वर्ग से अलग करती है, उसी समय प्रजा से अपने को जोड़े रहने वाली क्षत्रिय शक्ति, पुरहितों को  (ब्राह्मणों को) शक्तिहीन करके या पराजित करके समाज का नेतृत्व करने की क्षमता से निष्कासित कर देती है। फिर उसी प्रकार, जब क्षत्रिय लोग भी , अपने को समाज का सर्वसमर्थ मुखिया मानकर, अपने और अपनी प्रजा के बीच लम्बी दुरी बना लेते हैं, तब साधारण प्रजा से कुछ अधिक सहायता पाने वाले वैश्य-कुल, राजशक्ति को (क्षत्रिय को) या तो नष्ट कर डालते हैं या अपने हाथ की कठपुतली बना लेते हैं।  
इस समय जब वैश्यकुल (ईस्ट इंडिया कंपनी) अपनी स्वार्थसिद्धि कर चुका है, इसलिए प्रजा को अनावश्यक समझकर वह अपने को प्रजा के सुख-दुःख से अपने अलग समझ रहा है, और प्रजाकुल (मुख्यतः शूद्रकुल ) से अपने को सम्पूर्णतः अलग कर लेने की चेष्टा कर रहा है, ... उस समय स्वामीजी बिल्कुल स्पष्ट रूप से देख रहे थे कि अब यह वैश्यशक्ति भी खुद अपनी मृत्यु का बीज बो रहा है। (और ठीक 50 वर्ष बाद उन्हें भारत छोड़कर भागना पड़ेगा।
फिर यह भी दिखाते हैं कि " साधारण प्रजा ( मुख्य रूप से शूद्र ) ही देश की सारी शक्ति का आधार है, किन्तु जाति -धर्म के नाम पर उन्होंने आपस में इतना भेद कर रखा है कि वह अपने सब अधिकारों से वंचित है। और जब तक ऐसा भाव रहेगा तब तक उसकी यही दशा रहेगी। वे सुख-शांति से वंचित ही रहेंगे। " 222 ] 
राष्ट्रिय एकता के उपादानों का विश्लेषण करके देखने के बाद स्वामीजी एक सिद्धान्त देते हुए कहते हैं -  " एक सामान कष्ट, घृणा या प्रीति ही परस्पर सहानुभूति का कारण होती है। " जिन देशों को एक ही प्रकार की विपत्ति- इस्लामिक आतंकवाद का सामना करना पड़ता है, जिनकी घृणा और नापसन्द के विषय एक होते हैं (बंगाल में मूर्तिपूजा में विघ्न और केरल में कांग्रेसियों द्वारा गौहत्या होते देखने से) उन देशों या व्यक्तियों के बीच परस्पर सहानुभूति और प्रीति का जन्म होता है। - जिस नियम से हिंस्र पशु दलबद्ध होकर शिकार करते फिरते हैं, उसी नियम से - सभी प्राणियों में श्रेष्ठ मनुष्य भी मिलकर रहते तथा जाति या राष्ट्र का संगठन करते हैं। " २२२] (हिन्दू) समाज -गठन का प्राथमिक स्थूल कारण यहाँ आकर प्रकट हो जाता है। 
इतिहास से उदाहरणों को उठाकर स्वामी जी ने दिखलाया है कि - " इसी स्वजाति प्रेम और परजाति विद्वेष ने प्रतिद्वंद्विता की सृष्टि कर , ईरान -द्वेषी यूनान को , कार्थेज -द्वेषी रोम को , काफ़िर -द्वेषी अरब जाति को, मूर -द्वेषी स्पेन को , स्पेन- द्वेषी फ़्रांस को, फ़्रांस -द्वेषी इंग्लैण्ड और जर्मनी को तथा इंग्लैण्ड द्वेषी अमेरिका को उन्नति के शिखर पर चढ़ाया है। "
[उस समय को और नजदीक लाने के उद्देश्य से पूज्य नवनी दा  1967 में " श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में (गुरु-शिष्य परम्परा में) भारत के युवाओं को लीडरशिप ट्रेनिंग देकर इससे बाहर निकलने के  उस मार्ग को उद्घाटित कर देते हैं। और भारत में वह समय 2014 में आ जाता है, जब - १३० करोड़ भारत वासी को जनार्दन मानकर, 'जनता जनार्दन की सेवा' करने का गुण, या ठाकुर की भाषा में 'शिवज्ञान से जीवसेवा' का गुण आने के साथ ही एक चाय बेचने वाले शूद्र लड़के 'नरेन्द्र मोदी' का भारत पर आधिपत्य हो जाता है। क्योंकि वे भी 'समत्व' (सबका साथ , सबका विकास) में प्रतिष्ठित थे - समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्। विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति॥१३- २७॥ परमात्मा सभी जीवों में एक से स्थित हैं। विनाश को प्राप्त होते इन जीवों में जो अविनाशी उन परमात्मा को देखता है, वही वास्तव में देखता है।] 

[नौ ]
कोई व्यक्ति (या देश) एकाकी होकर, जीवित नहीं रह सकता या उन्नति नहीं कर सकता। समाज से वियुक्त होकर (Isolated-दूधवाले भैया के बिना) तो अपने प्राणों की रक्षा करना भी कठिन है। इसीलिए 'व्यष्टि' के स्वार्थ (निजी-स्वार्थ) को कम करते हुए, 'समष्टि' के स्वार्थ पर ध्यान देने की आवश्यकता है।  क्योंकि  सच्चा स्वार्थ-बोध ही, हमें स्वार्थ-त्याग करने की शिक्षा देता है। इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए स्वामी जी अपनी भाषा में कहते हैं -" स्वार्थ ही स्वार्थ-त्याग का प्रधान शिक्षक है। " निःसंदेह , इस स्वार्थ की परिधि विभिन्न लोगों के लिये भिन्न-भिन्न  होती है। ( Of course, the circumference of this self-interest varies with different people.) 
तथापि, हमें यह बात एक दिन समझ में आ ही जाती है, कि 'स्वजाति (अपने गोत्रज- agnate) के स्वार्थ ' में ही अपना स्वार्थ है, 'स्वजाति के कल्याण में ही अपना कल्याण है। ' इसलिए जातिगत एकता, सहयोग, सहकारित्व का भाव, मिलकर लीन हो जाना (merger) तरक्की के लिए बहुत आवश्यक है।  
[ agnate : अपने गोत्रज या हिन्दू जाति जो इस बात पर गर्व करती हो कि मेरे पूर्वज वह भगवान श्रीराम थे, जो स्वयं भगवान (सर्वशक्तिमान) होकर भी सर्वत्यागी शंकर को ही अपना उपास्य देवता समझते थे। या वैसे मुसलमान जो यह समझते हों कि मेरे पूर्वज भी श्रीराम ही थे- और जो अरब से नहीं आये थे। वैसे हिन्दू-मुसलमानों के कल्याण में ही सम्पूर्ण भारतवर्ष का कल्याण है। Self-love is the first teacher of self-renunciation. The joining of friendly hands in mutual help for the protection of this self-interest is seen in every nation, and in every land.] किन्तु उन्होंने भारतवर्ष में इस समझ का अभाव देखा था। हमने परिच्छेद 5 में देखा था -  " राजा (या Leader जो प्रजा-समष्टि का शक्ति केन्द्र है) की शक्ति अभ्युदय के विषय को, तथा [ emergence of state power- (संघमन्त्र या संघशक्ति) ] राष्ट्र-शक्ति  के उद्भव  को स्वामी जी द्वारा प्रदत्त इसी ऐतिहासिक सूत्र का अनुसरण करके,भी समझा जा सकता है। " क्योंकि साधारण जनता में त्याग की अपेक्षा भोग करने की प्रवृत्ति (tendency) ही प्रबल होती है, इसीलिए सार्वजनिक अधिकारों की रक्षा के लिए (To protect the common right)- " समान प्रयत्न, समान आकूति (आकांक्षा)" रखते हुए व्यक्तिगत स्वार्थत्याग का भाव --  प्राचीन युग बात तो दूर , आज के समय भी किसी भी देश में सम्यक रूप से उपलब्ध नहीं है।" २१३ ]
किन्तु उन्होंने भारतवर्ष में इस समझ का अभाव देखा था, इसलिए क्षोभ व्यक्त करते हुए कहा था - " वंश-विस्तार करने , और किसी प्रकार अपना पेट भरने का अवसर पाने (आहार,निद्रा ,भय , मैथुन) से ही हम भारतवासियों की पूरी स्वार्थसिद्धि हो जाती है। और जो उच्च वर्ण के लोग हैं, वे इससे अधिक केवल इतना चाहते हैं कि -उनके धर्माचरण में कोई बाधा न पड़े। इसके अतिरिक्त उनकी मानों और कोई आकांक्षा ही नहीं है।"  २२२  
यहाँ प्रसंगवश 'अंग्रेज शासन -प्रणाली ' का उल्लेख करते हुए स्वामी जी कहते हैं- " सारे भारत पर एक ऐसे ' शक्तिशाली और सर्वव्यापी शासन-तन्त्र ' का प्रभाव है, जैसा प्रभाव इस देश में पाटलिपुत्र साम्राज्य के पतन के बाद कभी नहीं हुआ। वैश्य-आधिपत्य वाले शासन-तंत्र की जिस चेष्टा से उस देश का माल, अन्य देशों में पहुँचाया जा रहा है, उसी चेष्टा के फलस्वरूप पाश्चात्य संस्कृति के विदेशी भाव भी बलपूर्वक भारत की अस्थि-मज्जा (bone and marrow of India) में प्रवेश पा रहे हैं, उन भावों में कुछ तो बहुत ही लाभदायक हैं, कुछ हानिकारक हैं।
तब भी, स्वामी जी यही देखते थे कि, इन समस्त घटनाओं के कारण या इन समस्त वैचारिक -संघर्षों के परिणाम स्वरूप ही भारत अपनी दीर्घ कालीन निद्रा को त्याग कर, धीरे धीरे जाग्रत हो रहा है। और इस नवजागरण बेला में, यदि भारतवासियों से कुछ भूलें भी हो जाती है, तो उससे कोई बहुत बड़ी हानि होने की सम्भावना नहीं है । "
इसके कारण को स्पष्ट करते हुए, स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " हमारे अब तक किये गए सभी कार्यों में, भूल-भ्रम-प्रमाद ही हमारे सर्वोत्तम शिक्षक रहे हैं। (इंद्रियातीत) सत्य का पथ उसीको मिलता है, जिससे भूलें होती हैं। (अर्थात  सत्यान्वेषण की प्रथम अवस्था में जो केवल इन्द्रियगोचर सत्य को ही एकमात्र सत्य समझने की भूल करता है।) वृक्ष से भूल नहीं होती, पत्थर को भ्रम नहीं होता, पशुओं को भी कभी प्रकृति के निश्चित नियमों का उल्लंघन करते (transgress) नहीं देखा जाता है। लेकिन, सभी प्राणियों में केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जो पूर्णतः निःस्वार्थी बनने की चेष्टा में हजारों भूलों को करते-करते एक दिन ' ब्रह्म' को जानकर ब्रह्म ही बन जाता है। (बुद्धत्व को प्राप्त कर बुद्ध या नरदेव अर्थात सच्चा ब्राह्मण, God-on-earth, बन जाता है।)  यदि मुण्डन संस्कार , यज्ञोपवीत संस्कार आदि से लेकर, दाहसंस्कार तक, और जागने से लेकर सोने तक के हमारे सभी क्रिया-कलापों को दूसरे लोग ही निश्चित कर दे, और राजशक्ति का दबाव डालकर , हमें उन कठोर नियमों के बंधन में जकड़ दें, तब फिर हमलोगों को अपनी स्वतंत्र चिंतन क्षमता को विकसित करने का अवसर कैसे मिलेगा ?            
क्योंकि हमारे समाज की हर चेष्टा को बहुत दीर्घकाल से ही, नियमों से बांधकर रख दिया गया था। जिसके फलस्वरूप वह " मननशीलता " जिसके रहने से ही मनुष्य को मनुष्य, मनीषी और ऋषि-मुनि आदी कह कर उसका परिचय दिया जाता है; वही परिचय लुप्त होने के कागार तक आ पहुँचा  है। जिसके फलस्वरूप देश में जड़त्व या तमोगुण बहुत अधिक बढ़ गया है। और इन्हीं सब वैचारिक संघर्षों के बीच धर्मनेता और समाज-नेता समाज के लिए और भी कड़े कानून बनाने में ही व्यस्त हैं ! इस सबको देखकर स्वामी जी बड़े क्षोभ से प्रश्न करते हैं - " कोई मनुष्य प्रतिभाशाली या ऋषि कैसे बन जाता है ? क्या इसलिए नहीं कि वह विचार करता है, विवेक-प्रयोग करता है, और अपनी इच्छाशक्ति के विकास और प्रवाह पर अपना पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लेता है? क्या हम नहीं जानते कि मनःसंयोग (प्रत्याहार-धारणा) का अभ्यास नहीं करने से जड़-चेतन में 'विवेक-प्रयोग' करने की शक्ति ही लुप्त हो जाती है ? क्या ऐसा नहीं कि स्वयं को जड़ शरीर और मन समझ लेने से, जड़ता का जो गुण -'तमस ' है, वह हम पर हावी हो जाता है ? हमारा मन उत्साह-हीन और निष्क्रिय हो जाता है, और आत्मा ( साक्षी -चेतना, witness Consciousness) जड़ पदार्थ के स्तर तक नीचे गिर जाती है ? (Yet, even now) इतना सब कुछ हो जाने पर भी, प्रत्येक धर्म-नेता (मुल्ला-पंडित) और समाज-नेता समाज के लिए नियम बनाने (फ़तवा जारी करने) में ही व्यस्त है! देश में क्या नियमों की कमी है ? नियमों से पीसकर समाज जो अधोगति को प्राप्त हो रहा है, उसे कौन समझता है ? "२२३ (What makes a man a genius, a sage? Isn't it because he thinks, reasons, wills? Without exercise, the power of deep thinking is lost. Tamas prevails, the mind gets dull and inert, the spirit is brought down to the level of matter.')  
यहाँ स्वामी जी अंग्रेज शासन (English rule) के सम्बन्ध में और एक ऐतिहासिक सत्य की ओर वे हमारी दृष्टि को आकृष्ट करते हैं। वे कहते हैं -" सम्पूर्ण स्वाधीन और स्वेच्छाचारी सम्राट के अधीन विजित जाति विशेष घृणा का पात्र नहीं होती हैं। शक्तिशाली सम्राट की सब प्रजायें समान अधिकार रखती हैं--अर्थात किसी भी प्रजा को राज-शक्ति पर नियमन करने कोई अधिकार नहीं होता। परन्तु जहाँ प्रजा-नियंत्रित  राजशाही या प्रजातन्त्र विजित जाति पर राज्य करता है,(जैसे इंग्लैण्ड) वहाँ विजयी और विजितों के बीच बड़ा अन्तर हो जाता है। और जो शक्ति, विजितों के हित-साधन में पूरी तरह लगायी जाने से, थोड़े ही समय में  विजित जाति का बहुत कल्याण कर सकती थी, उस शक्ति का बहुत सा हिस्सा विजित जाति को जबरन अपने वश में रखने की चेष्टा में ही खर्च किया जाता है, और इस प्रकार वह व्यर्थ नष्ट हो जाती है। "  
उदाहरण स्वरुप स्वामी जी, प्रजातान्त्रिक रोम और रोमन सम्राट के अधीन रोम के द्वारा जीते देशों की विजातीय प्रजा (Foreign subjects) की अवस्था के बीच पार्थक्य का उदाहरण देते हुए कहते हैं- " विजयी और विजित जाति के बीच घृणा दोनों का अमंगल ही करती है। उसी प्रकार स्वजाति (भारत वासियों) में भी (जाति -धर्म के नाम पर) यदि परस्पर के प्रति घृणा का भाव हो, तो उससे भी समाज के सभी लोगों (हिन्दू -मुसलमान दोनों) को हानि ही पहुँचती है। 
 " यदि कोई अंग्रेज किसी भारतीय को 'काला ' या 'नेटिव ' अर्थात असभ्य कहकर घृणा व्यक्त करे तो उससे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि, हमलोगों में तो उससे कहीं अधिक जातिगत घृणा-बुद्धि है। पूर्वी आर्याव्रत में सब जातियाँ जो सामाजिक उन्नति के लिए आपस में कुछ सद्भाव रखती दिख पड़ती है, किन्तु महाराष्ट्र के ब्राह्मण  'मराठा ' जाति की स्तुति जिस रूप से करने लगे हैं, उसे छोटी जातियों के लोग अभी तक निःस्वार्थ भाव का फल नहीं समझते हैं। उसमें स्वामी जी ने निम्नजाति के लिए जिस घृणा भाव को अनुभव किया था, शायद उन्होंने देखा था कि पूर्वी आर्याव्रत में वह भाव अवर्तमान है। ???? -- । " २२४ ]
अंग्रेज भी यह समझ गए थे कि यदि भारत साम्राज्य उनके हाथ से निकल गया तो अंग्रेज जाति का विनाश हो जायेगा। अतः भारत पर अधिकार बनाये रखने के लिए -अंग्रेज जाति के 'गौरव' को भारतवासियों के हृदय सदा जाग्रत रखना अनिवार्य होगा। इस बात को स्वामीजी ने अंग्रेजों की बुद्धि के क्रमविकास के रूप लक्ष्य किया था।  किन्तु स्वामी जी का विचार यह था कि,  अंग्रेजों ने जिस वीर्य , अध्यवसाय और एकान्त स्वजाति-प्रेम के बल पर इस देश को हथिया लिया है, और जिस वाणिज्य-बुद्धि से उन्होने भारत जैसे सब प्रकार के धन-धान्य उत्पन्न करने वाले देश को भी अंग्रेजी माल का बाजार बना रखा है,' अंग्रेज यदि अपने किसी भी क्षेत्र में प्राप्त 'गौरव ' पर व्यर्थ में शोरगुल मचाने के बजाए,  इन सब चारित्रिक गुण, जो उनमें सन्निहित थे, उसका विकास और रक्षा करने की चेष्टा करते , तो वह चेष्टा अधिक फलदायक हो सकती थी।     
स्वामी जी का मानना था कि, अंग्रेजों ने अध्यवसाय , स्वजाति प्रेम तथा विज्ञान का सहारा लेकर जिस वाणिज्य -बुद्धि के बल पर भारत पर विजय प्राप्त कर लिया था, उनमें यदि वे गुण उनमें वैसे ही बने रहते, तो वह ऐसे अन्य कई विजय को सम्भव बना सकती थे। किन्तु ये गुण यदि घट जाएँ तो अपने गौरव (mere preservation of meaningless "prestige".) को लेकर शोरगुल करते रहे, तो उससे विजयी या विजित दोनों में किसी का भला नहीं हो सकता। 
[दस] 

इसी प्रसंग में, एक और दुर्बोध्य सिद्धान्त- 'जाति-प्रथा' के ऊपर भी थोड़ा प्रकाश डालते हुए, स्वामी  विवेकान्द कहते हैं - भारत में जो जातिचतुष्टय -बाह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि प्रचलित है, वैसी व्यवस्था सभी देशों में है। इस देश में पहले गुणानुसार वर्ण-व्यवस्था ही प्रचलित थी। बाद में यह जन्मगत व्यवस्था में परिणत हो गयी।
किन्तु , विश्व के दूसरे देश चूँकि इस गुणगत जातिव्यस्था में निहित तत्वों से परिचित नहीं थे, इसलिए वहाँ इसे कभी जन्मगत जाति -व्यवस्था में रूपांतरित नहीं किया जा सका। [ सांख्य शास्त्र में 'गुण' शब्द प्रकृति के तीन अवयवों के अर्थ में प्रयुक्त होता है। प्रकृति सत्त्व, रजस् तथा तमस् इन तीन गुणोंवाली है। गुणों की साम्यावस्था का ही नाम प्रकृति है। इन तीनों गुणों से अलग प्रकृति कुछ भी नहीं है। इसी कारण प्रकृति को त्रिगुणात्मिका कहते हैं। इन गुणों की प्रधानता के आधार पर व्यक्तियों की प्रकृति, आहार, कर्म आदि का भी विभाग किया जाता है। परंतु सांख्य के अनुसार पुरुष या आत्मा गुणातीत है। योग के अनुसार ईश्वर भी इन गुणों से परे है। सारे क्लेश, सांसारिक आनंद आदि का अनुभव गुणों के कारण होता है, अत: योग का चरम लक्ष्य निस्त्रैगुण्य अवस्था माना गया है।] 
यह जाति तत्व इतना दुर्बोध्य विषय है कि , अन्यत्र स्वामी जी कहते हैं - 'दस लाख में कोई एक व्यक्ति ही इस गुणगत 'जाति चतुष्टय ' के सिद्धान्त को समझ सकता है। ' गुणगत-जातिप्रथा, जो सभी देशों में प्रचलित है; तथा पहले इस देश में भी प्रचलित थी, तथा जन्मगत- जातिप्रथा जो इस समय देश में प्रचलित है - इन दोनों में ही कुछ गुण और कुछ दोष हैं।
 अपनी रचना में स्वामी जी ने उस विषय पर भी थोड़ा प्रकाश डाला है। किन्तु इस रचना का मुख्य स्वर यही है कि -  सभी समाजों में प्रत्येक जाति के गुण और दोषों के आधार पर क्रमानुसार जिस प्रकार एक एक जाति का आधिपत्य होता चला आ रहा है , उसी प्रकार भविष्य में शूद्र जाति का भी अभ्युत्थान और समाज पर आधिपत्य होना निश्चित है।
इस देश में गुणगत या गुणानुसार जो वर्ण-व्यवस्था प्राचीन काल में प्रचलित थी, उसीके चलते शूद्रकुल की कभी उन्नति न हो सकी।  शूद्रकुल का गुण (धर्म) शरीरिक श्रम करना था, दूसरों के लिए श्रम करते हुए वे सदैव शूद्र ही बने रह गए। यदि शायद ही कभी (কালেভদ্রে-rarely) एक-दो असाधारण मनुष्य शूद्रकुल में उत्पन्न भी होते, तो उच्च वर्ण उन्हें तुरंत ही महर्षि आदि की उपाधियाँ देकर अपनी मण्डली में खींच लेता था। 
इसलिए शूद्रकुल की विद्या का प्रभाव और धन का हिस्सा अन्य जातियों के ही काम आता था। उनके सजातीय (शूद्र लोग) उनकी विद्या, बुद्धि, और धन से कुछ लाभ नहीं उठा पाते थे। इतना ही नहीं , यदि उच्च वर्णों में यदि कोई गुणहीन पैदा हो जाता, तो उस निकम्मे मनुष्य को भी वे शूद्रकुल में ही मिला दिया करते थे। इसका उदाहरण देते हुए स्वामीजी कहते हैं - "वशिष्ठ , नारद , सत्यकाम जाबाल , व्यास , कृप , द्रोण, कर्ण, बिदुर आदि ने अपनी विद्या या वीरता के प्रभाव से ब्राह्मणत्व या क्षत्रियत्व प्राप्त किया था किन्तु इससे उनकी अपनी अपनी जाति या समुदाय उनके द्वारा अर्जित गुण का अंशभागि कभी नहीं हो सके। 
             इसीलिए आधुनिक भारत में जातिप्रथा इतनी कड़ी बना दी गयी है कि, शूद्रकुल में उत्पन्न बड़े से बड़ा व्यक्ति (मंत्री या करोड़पति) को भी अपना समाज छोड़ने का अधिकार नहीं है। जिसके फलस्वरूप उसकी विद्या-बुद्धि और धन उसी जाति में रह जाता है, तथा उन्हीं लोगों के समाज का कल्याण करने में प्रयुक्त होता है। इसीलिए , जाति चाहे जो भी हो (irrespective of caste,জাতি-নির্বিশেষে ), यदि देश में सभी के लिए एक ही कानून लागू हों, तो विद्या का प्रचार होने से, निम्नतर जातियों का अधिक विकास होना सम्भव हो जायेगा।    
[जब तक भारत में बिना जाति की परवाह किये दण्ड -पुरस्कार देनेवाला राजशासन रहेगा, तब तक नीच जातियों की इसी प्रकार उन्नति होती रहेगी। ] 
[ग्यारह]
वैश्य युग में विभिन्न विचारों का संचार होने के फलस्वरूप परस्पर के बीच विभिन्न  विचारों के प्रभाव या क्रिया के विश्लेषण के प्रसंग में स्वामीजी भारत में एक नए जागरण का उल्लेख करते हुए कहते हैं - " परदेशियों के संघर्ष से भारत धीरे धीरे जग रहा है, इस थोड़ी सी जाग्रति के फलस्वरूप स्वतंत्र विचार का थोड़ा उदय भी होने लगा है। " लेकिन, इसी असाधारण स्वतन्त्र-सोंच क्षमता में थोड़ी श्री वृद्धि होने के साथ साथ एक प्रकार का द्वन्द्व या संघर्ष भी दिखाई देता है।    
" एक ओर आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान है, जिसकी चमक सैकड़ों सूर्यों की ज्योति की तरह आँखों में चकाचौंध पैदा कर देती है। दूसरी ओर हमारे पूर्वजों का अपूर्व वीर्य , अमानवी प्रतिभा और और देवदुर्लभ अध्यात्म तत्व की कथाएं हैं। 
[एक ओर नये नये अदब-कायदे ,तथा नये नये फैशन , जिनके अनुसार सज-धज कर हमारे सामने आजकल की विदुषी नारी काफी निर्लज्जता पूर्ण स्वतन्त्रता से घूमती फिरती हैं। परन्तु फिर वह दृश्य बदलकर इसके स्थान पर एक दूसरा गंभीर दृश्य आ जाता है, और वह है सीता , सावित्री , व्रत-उपवास, तपोवन, जटाजूट, वल्कल , गैरिक वस्त्र , कौपीन , समाधि एवं आत्मोलब्धि की सतत चेष्टा। " ]   
इन दोनों भिन्न विचार-धाराओं  के संघर्ष के बीच में फंसकर वर्तमान भारत मानो एक बार सोचता है कि " भविष्य के संदिग्ध पारमार्थिक -हित (राम) के मोह में पड़कर मैं इस लोक (माया) का व्यर्थ नाश तो नहीं कर रहा हूँ ? ( अबतक तो मुझे न माया मिली ,न राम ही मिले ?) फिर मंत्रमुग्ध की तरह सुनता है- इति संसारे स्फुटतरदोषः कथमिह मानव तव सन्तोषः — (मोहमुद्गर-13) "Here, in this world of death and change, O man, where is thy happiness?"  यह संसार परिवर्तनशील होने के कारण नश्वर है, संसार में ये सब दोष--जन्म,जरा मृत्यु आदि भरे पड़े हैं, ऐ मनुष्यों , यहाँ और इसी जीवन में अविनाशी को प्राप्त किये बिना तुम्हें परमानन्द की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? संसार में इस जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसे रहते हुए -सचमुच सन्तोष या परितृप्ति कहाँ है ? 
स्वामी जी ने कहा था - 'पाश्चात्य जगत का उद्देश्य व्यक्तिगत स्वाधीनता है, भाषा अर्थकरि विद्या (money-making education) है, और उपाय राजनीति है। भारत का उद्देश्य मुक्ति है (मोक्ष या d-hypnotized हो जाना) है, भाषा वेद है -(Man-making education, अर्थात ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने वाली शिक्षा है) और उपाय त्याग है। " २२५ 
[ Of the West, the goal is individual independence, the language money-making education, the means politics; of India, the goal is Mukti, the language the Veda, the means renunciation. ]  
जीवन के सभी क्षेत्रों में यही द्वन्द्व वर्तमान भारत के मन को द्विधाग्रस्त कर रहा है। वह कभी सोंचता है कि 'हम भारतियों को भी पति-पत्नी चुनने में पाश्चात्यों के समान पूरी स्वंत्रता मिलनी चाहिए। यही नहीं भाव, भाषा, आहार-विहार, स्त्री-पुरुषों के बीच मेल-जोल या आचार-व्यवहार आदि में कोई रोक-टोक नहीं होनी चाहिए। ऐसा होने से ही हमलोग उन लोगों के जैसा बलवीर्य सम्पन्न बन सकेंगे। दूसरी ओर प्राचीन भारत की आज्ञा होती है, कि " विवाह इन्द्रिय-सुख के लिए नहीं है, वरन आर्य सन्तानोपत्ति के लिए है।"(Marriage is not for sense-enjoyment, but to perpetuate the race. ... मुर्ख ! नकल करने से भी कहीं दूसरों का भाव अपना हुआ है ? बिना उपार्जन किये कोई वस्तु अपनी नहीं होती। क्या सिंह की खाल पहनकर गधा कहीं सिंह हुआ है
"एक ओर नवीन भारत कहता है कि पाश्चात्य जातियाँ जो कुछ कह रही हैं, वही अच्छा है। यदि अच्छा नहीं है, तो वे बलवान कैसे हुए ? दूसरी ओर प्राचीन भारत कहता है कि बिजली की चमक तो खूब होती है, पर क्षणिक होती है। बालक ! तुम्हारी ऑंखें चौंधिया रही हैं -सावधान ! " २२६
तो क्या हमें पाश्चात्य जगत से कुछ भी सीखने को नहीं है ? स्वामी जी कहते हैं-' नहीं , सीखने को बहुत कुछ है। सीखने का प्रयत्न तो हमें जीवन भर करना चाहिए। प्रयत्न करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। श्री रामकृष्ण देव कहा करते थे, 'जब तक जिऊँ , तब तक सीखूं ' ("As long as I live, so long do I learn.) जिस व्यक्ति या समाज को कुछ सीखना नहीं है, वह मृत्यु के मुख में जा चुका है। सीखने को तो है, परन्तु भय भी है। 
O India, this is your terrible danger. हे भारत ! विकट भय का कारण यही है कि हमलोगों में पाश्चात्य जतियों की नकल करने की इच्छा ऐसी प्रबल होती जाती है, कि भले-बुरे (श्रेय-प्रेय) का निश्चय अब विवेक-प्रयोग, शास्त्र या हिताहित ज्ञान से नहीं किया जाता। गोरे लोग जिस भारतीय भाव या आचार की (योगा कहकर ) प्रशंसा करें, वही अच्छा है, और वे जिसकी निन्दा करें , वही बुरा ! अफ़सोस ! इससे बढ़कर मूर्खता का परिचय- अपने आत्मविश्वास के अभाव का परिचय - और क्या होगा ? 
" पाश्चात्य लोग यदि मूर्ति-पूजा का मजाक उड़ाते हैं,और एकेश्वरवाद को कल्याण-प्रद बताते हैं, इसलिए क्या हमें अपने देव-देवियों (अवतारों की मूर्तियों ) को गंगा जी में फेंक देना चाहिये ? पाश्चात्य लोग जातिभेद को आपत्तिजनक (obnoxious) समझते हैं, इसलिए सब वर्णों को मिला कर एक कर देना चाहिये ? ... यहाँ हम इस बात पर विवेक-विचार नहीं करते कि कोई प्रथा क्यों चलनी चाहिए , या क्यों रुकनी चाहिए ? परन्तु यदि पाश्चात्य लोगों की घृणा-दृष्टि के कारण ही हमारे रीति-रिवाज बुरे साबित होते हों, तो उसका प्रतिवाद अवश्य होना चाहिए। "  
स्वामी जी कहते हैं - " हमारे यहाँ की नारियों की लज्जाशीलता , बाल्य विवाह , वेशभूषा , खाद्य , मूर्तिपूजा , देव-देवी , जातिप्रथा आदि को चूँकि गोरे लोग खराब समझते हैं, इसीलिए क्या हमलोगों को भी उन्हें खराब समझ लेना चाहिए ? नहीं , हमे अवश्य इसका प्रतिवाद करना चाहिए।" 
 इतना ही नहीं, पाश्चात्य समाज की प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर स्वामीजी कहते हैं, " पाश्चात्य समाज और भारतीय समाज की मूल गति और उद्देश्य में इतना अंतर है कि पाश्चात्यों के अनुकरण पर गठित समाज इस देश में किसी काम का न होगा। जो लोग पाश्चात्य समाज में नहीं रहे हैं, वे बिल्कुल नहीं जानते कि स्त्रियों और पुरुषों के आपस में मिलने और स्त्रियों की पवित्रता की रक्षा के लिए ने के लिए,पाश्चात्य समाज में कौन-कौन से नियम और निषेध (rules and prohibitions) आदि प्रचलित हैं। किन्तु, उन नियमों और निषेधों को जाने बिना ही, जिस परिवार के लोग अपनी स्त्रियों को पुरुषों से बिना-टोक के मिलने देते हैं, (या लव जिहाद करने का मौका देते हैं), उन लोगों से हमारी रत्ती भर भी सहानुभूति नहीं है। २२७  
" बलवानों या धनिकों की नकल करने की दौड़ में सभी साधारण मनुष्य शामिल हो जाते हैं, दुर्बल मात्र की यही इच्छा रहती है कि बड़े लोगों के गौरव की छटा उसके भी शरीर में कुछ लग जाये। भारतवासियों को (I. A. S. आदी को जब मैं 'टाई -कोट ' में देखता हूँ , तब समझता हूँ कि ये लोग शायद अपने को 'रूलर क्लास' का समझते हैं, और पददलित , विद्याहीन , दरिद्र भारतवासियों के साथ अपनी सजातीयता स्वीकार करने में लज्जित होते हैं।   
पाश्चात्य देशों में मैंने देखा है कि दुर्बल जातियों की सन्तान जब इंग्लैण्ड में (आजकल अमेरिका में) जन्म लेती है, तो अपने को वह स्पेनिश , पोर्तुगीज , यूनानी आदि --जो कुछ वह वास्तव में हो, उस रूप में अपना परिचय न बताकर, स्वयं को भी अंग्रेज ही बतलाते हैं। कई भारतीय लोग जब अंग्रेजी या यूरोपीय वेशभूषा और अचार-व्यवहार की नकल करते-करते, उसीमें रम जाते हैं, तब अपने को भारतीय कहने में उन्हें भी लज्जा होती है। जैसे चौदह सौ वर्ष तक हिन्दुओं के रक्त से पलकर भी पारसी लोग अपने को 'नेटिव ' नहीं मानते हैं। " फिर पाश्चात्यों ने अब हमें यह भी सिखला दिया है कि यह जो 'केवल कमर में ही कपड़ा लपेटे रहने वाली ' - मूर्ख नीच जाति के (दलित हिन्दू) हैं, वे तो अनार्य (आदिवासी या द्रविड़) है, इसलिए वे लोग हमारे अपने नहीं हैं !!" 
(Again, the Westerners have now taught us that those stupid, ignorant, low-caste millions of India, clad only in loincloth, are non-Aryans. They are therefore no more our kith and kin!)
 स्वामीजी अपने इस निबंध के अंत में ,इस भेद-बुद्धि की घोर भर्तस्ना करते हुए, इस मानसिकता से बाहर निकलने और ऊपर उठने के लिए एक अद्भुत मंत्र देते हैं, जो आज 'स्वदेश मंत्र ' के नाम से प्रसिद्द है। और जब प्रत्येक भारत संतान (हिन्दू -मुसलमान दोनों) इसका प्रतिदिन स्मरण और उच्चारण (Everyday remembrance utterance) करने लगेगा , तब यह देश यथार्थ रूप में स्वाधीन हो जायेगा ! 
[बारह] 
 [स्वामी विवेकानन्द रचित -" स्वदेश मन्त्र" की व्याख्या]  
स्वामी जी के लिए भारतवर्ष एक पुण्यभूमि थी। विदेश भ्रमण के बाद इसका प्रत्येक धूलकण उनको पवित्रता का प्रतीक प्रतीत होता था। ...   कलकत्ता-वासियों के अभिनन्दन पत्र का उत्तर देते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " मनुष्य अपनी व्यक्तिगत सत्ता को, अपनी व्यष्टि चेतना को सार्वभौम चेतना में विलीन कर देना चाहता है, वैराग्य के महाकाश में उड़ जाना चाहता है। वह अपने समस्त पुराने दैहिक संस्कारों को सम्पूर्ण रूप से छोड़ने की चेष्टा करता है, यहाँ तक की वह एक देहधारी संवेदनशील मनुष्य है, इसे भी भूल जाने की प्राण-पण चेष्टा करता है। परन्तु उसे अपने ह्रदय के अंतस्तल में सदा ही एक मृदु अस्फुट ध्वनि सुनाई पड़ती है, उसके हृदयतंत्री में मानो सदा एक ही धुन गूंजती रहती है, न जाने कौन रात- दिन उसके कानों में मधुर स्वर में कहता रहता है- "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"। 
इसी क्रम में आगे कहते हैं- " मातृभूमि से बाहर आने के पहले मैं भारत को प्यार करता था, अब तो भारत का प्रत्येक धुल-कण भी मेरे लिए पवित्र है, भारत की हवा मेरे लिए पावन है, अब भारत मेरे लिए तीर्थ है, मेरी पुण्यभूमि है।"  
सारे पश्चिमी जगत का परिभ्रमण करने के बाद उन्होंने स्पष्ट रूप में देख लिया था कि पूरे विश्व में भारत ही एक मात्र ऐसा देश है जहाँ सम्पूर्ण-मानवता का कल्याण करने में सक्षम- "आध्यात्म-तत्व" का बीज पूर्णरूप से विकसित हुआ था और आज तक सुरक्षित है। विदेश-यात्रा के पूर्व, परिव्राजक बन कर उन्होंने भारत के गौरवशाली विरासत तथा उसके प्राचीन वैभवपूर्ण दीर्घकालीन इतिहास का गंभीर अनुसन्धान किया था और "वर्तमान-भारत" के पतनावस्था के मूल कारण को ढूंढ़ निकाला था। 
उन्होंने केवल वर्तमान-भारत के पतनावस्था का वर्णन करने में ही, अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर दी थी, बल्कि इसके- " पुनरुत्थान -मंत्र" कि भी रचना किये थे, जिसे आज " स्वदेश-मंत्र " के नाम से जाना जाता है, जो इस प्रकार है :-
" हे भारत ! यह परानुवाद ,परानुकरण , परमुखापेक्षा ,इन दासों की सी दुर्बलता ,इस घृणित ,जघन्य निष्ठुरता से ही, तुम बड़े बड़े अधिकार प्राप्त करोगे ? क्या इसी लज्जास्पद कापुरुषता से, तुम वीरभोग्या स्वाधीनता प्राप्त करोगे ?
हे भारत ! मत भूलना की ,तुम्हारी नारी जाति का आदर्श -सीता,सावित्री और दमयन्ती है। मत भूलना कि , तुम्हारे उपास्य -उमानाथ ! सर्वत्यागी शंकर हैं ! 
मत भूलना कि ,तुम्हारा विवाह ,धन,और तुम्हारा जीवन ,इन्द्रिय-सुख के लिए ,अपने व्यक्तिगत सुख के लिए नही है ! मत भूलना कि ,तुम जन्म से ही माता के लिए ,बलिस्वरूप रखे गए हो ! मत भूलना, कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया कि छाया मात्र है ! मत भूलना, कि नीच ,अज्ञानी ,चमार और मेहतर; तुम्हारा रक्त और तुम्हारे भाई हैं !
हे वीर ! साहस का अवलम्बन करो ,गर्व से बोलो , कि मै भारतवासी हूँ ! और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है। तुम गर्व से कहो, कि अज्ञानी भारतवासी ,दरिद्र भारतवासी ,ब्राह्मण भारतवासी ,चांडाल भारतवासी सब मेरे भाई हैं ! 
तुम भी कटिमात्र वस्त्रावृत हो कर ,गर्व से पुकार कर कहो, कि भारतवासी मेरे भाई हैं ! भारतवासी मेरे प्राण हैं! भारत के सभी देवी-देवता मेरे ईश्वर हैं! भारत का समाज मेरी शिशुशय्या ,मेरे यौवन का उपवन और मेरे वार्धक्य कि वाराणसी है।  
भाई,बोलो कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है ! भारत के कल्याण में, मेरा कल्याण है । और रात-दिन कहते रहो कि ; हे गौरीनाथ ! हे जदम्बे ! मुझे मनुष्यत्व दो ! माँ ! मेरी दुर्बलता और कापुरुषता दूर कर दो! माँ, मुझे मनुष्य बना दो !
----स्वामी विवेकानन्द  ।
" O India! Forget not that the ideal of thy womanhood is Sita, Savitri, Damayanti; forget not that the God thou worshippest is the great Ascetic of ascetics, the all-renouncing Shankara, the Lord of Umâ; 
forget not that thy marriage, thy wealth, thy life are not for sense-pleasure, are not for thy individual personal happiness; forget not that thou art born as a sacrifice to the Mother's altar; forget not that thy social order is but the reflex of the Infinite Universal Motherhood; 
forget not that the lower classes, the ignorant, the poor, the illiterate, the cobbler, the sweeper, are thy flesh and blood, thy brothers. Thou brave one, be bold, take courage, be proud that thou art an Indian, and proudly proclaim, "I am an Indian, every Indian is my brother."
Say, "The ignorant Indian, the poor and destitute Indian, the Brahmin Indian, the Pariah Indian, is my brother."
Thou, too, clad with but a rag round thy loins proudly proclaim at the top of thy voice: "The Indian is my brother, the Indian is my life, India's gods and goddesses are my God. 
India's society is the cradle of my infancy, the pleasure-garden of my youth, the sacred heaven, the Varanasi of my old age." Say, brother: "The soil of India is my highest heaven, the good of India is my good,"
 and repeat and pray day and night, "O Thou Lord of Gauri, O Thou Mother of the Universe, vouchsafe manliness unto me! O Thou Mother of Strength, take away my weakness, take away my unmanliness, and make me a Man!"
जिन शब्दों पर मनन करने से त्राण मिलता है उसी को "मंत्र " कहा जाता है। मनन करने में सुविधा हो इसी कारण मंत्र को संक्षिप्त ही रखा जाता है, किंतु उसका अर्थ तथा प्रभाव गंभीर सुदूर प्रसारी होता है। स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त " स्वदेश-मन्त्र " का मनन और तदनिर्देषित आचरण करने से भारत अपना खोया हुआ प्राचीन गौरव पुनः प्राप्त कर पुनः एक महान राष्ट्र (विश्वगुरु) बन सकता है। 
जिस प्रकार कुरुक्षेत्र में अर्जुन को किंकर्तव्यविमूढ़ देख कर, भगवान श्री कृष्ण ने ललकारते हुए कहा था- 
क्लैव्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
               क्षुद्रं  हृदयदौर्बल्यं  त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप ।। गीता २/ ३
" हे अर्जुन! ऐसे विषम समय में  आर्यों को शोभा न देने वाला, स्वर्ग-विरोधी और अपकीर्ति प्रदान करने वाला मोह तुम में कहाँ से आ गया है? गांडीवधारी पार्थ! नपुंसकों के जैसा आचरण तुझे शोभा नहीं देता, अतः ह्रदय की इस दुर्बलता को त्याग कर उठ खड़े हो जाओ!
ठीक उसी प्रकार हजारों वर्षों की गुलामी के फलस्वरूप जब सभी भारतवासी हताश और किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए थे, तब स्वामी विवेकानन्द ने उनको ... ठीक श्रीकृष्ण के अंदाज में  ललकारते हुए भारतवासियों से अपनी  समस्त दुर्बलताओं  को त्याग  देने का  आह्वान जिस " स्वदेश-मंत्र " के माध्यम से किया था - आइये उस मंत्र में प्रयुक्त शब्दों पर मनन किया जाय:- 

"परानुवाद",अर्थात दूसरों की हर बात में हाँ में हाँ मिलाना, चाटुकारिता।  "परानुकरण"- दूसरे (पाश्चात्य देश) की चाल-ढाल, वेश-भूषा का अन्धानुकरण करते हुए," परमुखापेक्षी होना" माने आत्मविश्वास खो कर हर बात के लिए पश्चिम (उस समय इंग्लैण्ड आज अमेरिका) का मुख देखने वाली मानसिकता। ये सभी शब्द उन भयंकर मानवीय  दुर्बलताओं के नाम  हैं, जो केवल दासों (गुलाम-जाति) में ही पायी जाती  हैं।

जो स्वयं को " उच्च शिक्षित और बुद्धिजीवी " समझ कर फूले नहीं समाते,  जरा आत्म-विश्लेष्ण कर के देखें, कि उन्होंने थोड़ा अर्थ कमाने वाली विद्या के साथ साथ,  धर्म के विषय में जो  कुछ अल्प-ज्ञान अर्जित किया  है, उसको  उन्होंने कहीं अपनी स्वार्थबुद्धि से  प्रेरित होकर, या सिर्फ इसीलिए तो अर्जित तो नहीं किया है कि  अपने अन्य भाइयों की अपेक्षा उन्हें  कुछ विशेषाधिकार भोगने (लाल बत्ती की गाड़ी) का अवसर मिल  जायेगा ? 

 "घृणित और जघन्य निष्ठुरता " से बड़े बड़े अधिकार प्राप्त करने की इच्छा का तात्पर्य-  यही है कि स्वयं को ' कुलीन ' वंश में उत्पन्न समझने वाले लोग, उन मनुष्यों के प्रति  जो  सामाजिक स्तर पर हम से पिछड़ गए हैं , मन में घृणा रखते हुए, हृदयहीन होकर उनके साथ निष्ठुर व्यवहार करते हैं, उनका शोषण और तिरस्कार रूपी जघन्य वृत्तियों का अवलंबन करते रहते हैं;  क्या इस प्रकार का आचरण करने से उन्हें कभी उच्चाधिकार प्राप्त हो सकता है? यह तो वीरता नहीं कापुरुषता है।

 'उच्चाधिकार ' तो केवल समदर्शी को ही प्राप्त हो सकता है।  यदि हम सचमुच सम्मान और बड़े-बड़े अधिकार पाना चाहते हों तो हमें समदर्शी बनना होगा। यह समझना होगा किऔर दूसरों को भी अपने ही जैसा मनुष्य समझ कर, सबों को अपना ही जानते हुए, एकात्मता एवं सहानुभूति को अपनाते हुए इस क्षूद्र स्वार्थ-बुद्धि को त्याग देना होगा। 

इसके लिये पहले हमें अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखने की विद्या अर्जित करनी होगी। दूसरों को सम्मान देने और सबों का कल्याण करने में तत्पर व्यक्ति को ही उच्चाधिकार प्राप्त होता है। मन और इन्द्रिय के दासों को उच्चाधिकार नहीं मिल सकता। स्वतंत्र तो वही है जो अपने इन्द्रिय-मन का गुलाम नहीं है, जिसने अपने मन को जीत लिया है, जो निजी स्वार्थ और कामना-वासना का दास नहीं है वही बड़े-बड़े अधिकार प्राप्त करने का योग्य पात्र है।

जिस कापुरुषता को भगवान श्री कृष्ण ने आर्यों (श्रेष्ठ जनों) के लिए अनुपयुक्त और अपकीर्तिकर कहते हुए धिक्कारा था, उसी को स्वामीजी "लज्जाकर" कहते हैं। ये दुर्बलताएं हैं, अर्थात मनुष्य होकर भी ' मन और इन्द्रियों गुलाम ' बने रहना ही लज्जाकर कापुरुषता है, जिन्हें दूर करना होगा। 

राष्ट्रीय परिप्रेक्ष में भी स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि ' दुर्बल तथा कापुरुष  ' मनुष्यों  के द्वारा स्वाधीनता कि प्राप्ति और रक्षा भी सम्भव नहीं  है। व्यक्तिगत और राष्ट्रीय स्वाधीनता का उपभोग, जिन्होंने अपने मन पर विजय प्राप्त कर लिया हो, केवल वैसे वीर पुरूष-ही कर सकते हैं। इसिलिये स्वमीजी ने अन्यत्र कहा था-" वीरानामेव करतल गता मुक्तिः ।" अर्थात मुक्ति (देहाध्यास से भ्रममुक्ति की अवस्था) भी केवल वीर पुरुष ही प्राप्त कर सकते हैं।

वर्तमान-भारत जिन मनुष्योचित मूल्यों को भूलता जा रहा है, स्वामीजी यहाँ उसका स्मरण भी करा देते हैं। अन्यत्र उन्हों ने कहा है- " जिस देश  में नारी जाती का आदर्श सुरक्षित नहीं रह पाता, उस देश का अधोपतन हो जाता है।" सतीत्व और मातृत्व के आदर्श को बचाये रखकर नारियों में जागृति लानी होगी, तभी उनका जीवन आलोकित होगा तथा भारत का भविष्य और भी उज्ज्वल होगा।  पर साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि नारियों का वास्तविक कल्याण, नारियों द्वारा ही सम्पादित होगा।
इसीलिए यहाँ वे भारत की नारी-जाती के "सतीत्व" की गौरवपूर्ण आदर्श प्रतीकों -सीता, सावित्री,दमयंती के नामों का स्मरण भी करा देते हैं।  पश्चिमी संस्कृति के अन्धानुकरण की दौड़ में फंस कर यदि नारी-जाती के सतीत्व गुण के इन महान आदर्शों को त्याग दिया गया तो भारत का पुनरुत्थान कभी सम्भव न होगा। 

हमारे देश में "रामायण" तथा "महाभारत" आदि शास्त्रों को भारत के इतिहास के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुआ है। नारी-आदर्श के तीनों उज्ज्वल नामों को स्वामीजी ने अपने इन्हीं ऐतिहासिक ग्रंथों से उधृत किया है।रामायण में 'सीता' के सतीत्व का अपूर्व वर्णन मिलता है, तथा महाभारत में- 'सावित्री' और 'दमयंती' के भव्य आदर्श को चित्रित किया गया है। सनातन भारतीय जीवन के इतिहास में इन तीनों सतियों के नाम, चिर काल से अमलिन और अक्षुण बने हुए हैं।

एक स्थान पर स्वामीजी कहते हैं- " महिमामयी सीता साक्षात् पवित्रता की अपेक्षा अधिक पवित्रतरा हैं, वे तो सहिष्णुता की चरम आदर्श हैं।" उन्हों ने सीता, सावित्री, दमयन्ती आदि नामों के साथ-साथ लीलावती, खना, मीरा, मैत्रेयी, गार्गी, झाँसी-की-रानी, आदि भारतीय नारी आदर्शों का उल्लेख बहुत श्रद्धा के साथ किया है। स्वामीजी अन्यत्र कहते हैं-" नारी-चरित्र के जितने भी आदर्श गुण हैं, वे सभी एक साथ 'माता सीता' के चरित्र में दृष्टिगोचर होते हैं।" फ़िर उन्हों ने -सीता,सावित्री और दमयन्ती इन तीन नामों का क्यों उल्लेख किया? क्योंकि इन तीनों नारी-आदर्शों में जो गुण मूल रूप में विद्दमान है, वह गुण है-"पवित्रता"। 
इनकी पवित्रता सैंकडों दुःखद परीक्षाओं से गुजरने पर भी कहीं पराभूत नहीं होती। सीता तो जन्म-दुःखिनी ठहरीं, परन्तु कोई भी दुःख उन नित्य-साध्वी, नित्य विशुद्ध-स्वभाव को आदर्श-पत्नी सत्ता से विचलित न कर सका। 
जबकि सावित्री और दमयन्ती जन्म-दुःखिनी नहीं  थीं, दोनों राजमहलों में पलीं और बढी थीं। किंतु सावित्री ने मन ही मन एक बार जब 'सत्यवान' को अपना पति मान लिया और  बाद में ज्ञात हुआ कि वर्ष के अंत में उनके पति का शरीर नहीं रहेगा, तब भी अपनी एकनिष्ठ पवित्रता को उन्हों ने नहीं त्यागा। पति से वियोग हो जाने के पश्चात् वह भी 'नचिकेता' के समान यमराज के समक्ष पहुँच कर उनकी जिज्ञाषा को संतुष्ट कर अपने पति के प्राण वापस लौटा लाती हैं। 
उधर दमयन्ती सुख-चैन से रहने कि आश ले कर 'रजा नल ' के साथ विवाह करतीं हैं, किंतु सर्वस्व हार चुके 'रजा-नल' के वन-गमन में उनकी अनुगामिनी होकर जाती हैं।  तथा वन में राजा नल के द्वारा त्याग दिए जाने पर भी पतिव्रत-धर्म कि अवमानना नहीं करतीं तथा सहिष्णु हो कर एकनिष्ठता रखते हुए 'बुद्धि-योग' का सहारा ले कर पति का प्रत्यावर्तन सम्भव कर लेतीं हैं। जीवन-वृतांतों में विभिन्नता रहने पर भी ये तीनों नारियाँ-पातिव्रत्य,सहिष्णुता, और मातृत्व में अनन्या स्मरणीय,पूज्या तथा आदर्शस्वरूपा हैं। ये ही भारतीय नारियों के लिए मूल प्रेरक आदर्श उदाहरण हैं।
भारत को उसके उपास्य देवता- "भगवान शंकर" के अनुकरणीय लक्षणों का स्मरण कराते हुए, उसे पुनः 'शिवत्व' या कल्याण की उपासना करने का निर्देश देते हैं। इनकी उपासना करने की सर्वश्रेष्ठ विधि है-अपने जीवन में 'त्याग' को धारण करना।  परम कल्याण की प्राप्ति सर्वस्व-त्याग से ही होती है, इसीलिए हमें अपने उस 'क्षुद्र-अहम्' (कच्चा मै) को त्याग देना चाहिए जो स्वार्थ,पशु-प्रवृत्ति, भोगसुख, निष्ठुरता और इन्द्रियों की गुलामी में ही आसक्त रहना चाहता है। क्योंकि इस 'क्षुद्र-अहम्' को त्याग देने पर ही परम-कल्याण या 'सार्वभौमिक-कल्याण'-"शिवत्व " की प्राप्ति हो सकती है। इसीलिए - "सर्वत्यागी भगवान 'शंकर' ही भारत के आदर्श या उपास्य देवता हैं।
 शक्ति के बिना कोई भी वस्तु प्राप्त नहीं की जा सकती, अतः शक्ति के महत्व को इंगित कराने के लिए कहा- " उमानाथ सर्वत्यागी भगवान शंकर" अर्थात वे परम-कल्याण रूपी शिव केवल "उमा" या शक्ति की कृपा से ही मिल सकते हैं। उपनिषदों में भी 'उमा हैमवती' के रूप में शक्ति के आविर्भूत होने की कथा मिलती है।  इसी कारण स्वामीजी हमें अपने प्राचीन शत्-शास्त्रों को विस्मृत करने से मना करते हैं। 
सांसारिक-जीवन में धन-अर्जन,विवाह, इन्द्रिय-सुख आदि के अवसर प्राप्त हो जाते हैं; परन्तु हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए की ये सभी केवल अपने निजी सुख-भोग प्राप्त करने के लिए नहीं है। ये सब भी समाज और देश का मंगल करने हेतु प्राप्त हुए हैं। मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन जाने-अंजाने आजन्म मातृभूमि की सेवा में समर्पित है, बलिस्वरूप है। 
क्योंकि यह सृष्टि कल्याणस्वरूप शंकर या ईश्वर की शक्ति- 'महामाया-उमा' की रचना है। यह मानव-समाज, देश, जगत सबकुछ उन्ही का प्रतिबिम्ब (परछाई या छाया) मात्र है। वे ही आदि-शक्ति, जगत-प्रसविनी, जगत-जननी माँ -'जगदम्बा' हैं। वस्तुतः "माता जगदम्बा" ही हमारी; "भारत-माता" हैं। यदि हम जन्म-जन्मान्तर तक स्वयं को उन्ही 'राष्ट्र-माता' के चरणों में समर्पित कर दें, अपने 'क्षुद्र-अहं ' को बलिस्वरूप बना कर सारे भारतवासियों के मंगल साधना का व्रत उठा लें; तभी समाज का यथार्थ कल्याण हमसे सम्भव होगा,और हमारा जीवन भी धन्य हो जाएगा। 
इस दृष्टि को प्राप्त कर लेने पर , हम फ़िर किसी को भी अपने से हीन समझ कर उसे अज्ञ, मूर्ख, नीच-जाती, अनार्य या मलेच्छ जैसे नामों से कैसे सम्बोधित कर सकते हैं? फ़िर हम किसी भी मनुष्य को उसकी,"जाति-धर्म" के आधार पर - " ये लोग हमारे नहीं हैं " कह कर अपने से भिन्न कैसे समझ सकते हैं? यही परम-उदार ज्ञानमयी दृष्टि सम्पूर्ण जगत को 'ब्रह्ममय' देखने लगती है।  यही दृष्टि कहती है- " कोई पराया नहीं, सम्पूर्ण जगत तुम्हारा अपना है।"...नीच जाति, मूर्ख, अज्ञ, दरिद्र, मोची और मेहतर सभी- "तुम्हारे रक्त " तथा तुम्हारे ही 'भाई' हैं। " 
परानुकरण करने में रत तत्कालीन-भारत"- स्वयं को भारतवासी कहने में भी संकोच करने लगा था, इसीलिए स्वामीजी साहसपूर्वक,गर्व के साथ स्वयं को "भारतवासी" कहने का निर्देश देते हैं।  चूँकि "समदर्शन " के इस सिद्धांत का आविष्कार प्राचीन काल में भारतवर्ष में ही हुआ है, इसी आध्यात्मिक ज्ञान के गौरव से भर कर घोषणा करने के लिए कहते हैं- " गर्व से कहो कि मैं भारतवासी हूँ ; और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है।" 
यह राष्ट्रीय एकता, राष्ट्र-पुनर्गठन, तथा एकत्वबोध का अनुपम सूत्र है। यहाँ मूर्ख, दरिद्र, ब्राह्मण, चाण्डाल सभी 'एकाकार' हो जाते हैं, वे सब मेरे भाई हैं, मेरे ही प्राणस्वरूप हैं। विदेशियों के बहकावे में आकर अपने देश के जाग्रत देवी-देवताओं को भूल मत जाना, वे सब हमारे सर्वमंगलदाता ईश्वर हैं, सर्वगत स्वरूप में 'वे' ही विराजित हैं। भारत के समाज में इतनी क्षमता है कि वह हमारे शैशव, यौवन, और बृद्धावस्था की समस्त आकांक्षाओं को पुरा कर सकता है, परमुखापेक्षी होने कि आवश्यकता नहीं है। यदि कहीं स्वर्ग है, तो देश कि मिट्टी ही स्वर्ग है। सम्पूर्ण भारत के कल्याण में ही मेरा व्यक्तिगत कल्याण भी निर्भर करता है। 
इस मंत्र में व्यक्ति का निजी शुभ-अशुभ पुरी तरह से देश के शुभाशुभ के साथ एकाकार हो गया है, इसीलिए यह स्वदेश-मंत्र है। 
इसी मंत्र के अनुचिंतन से भारत का पुनरुत्थान होगा, अतः हमे इसी मंत्र का ध्यान करना चाहिए। इसिकेलिए हमे एकाग्रमन से 'उमानाथ' के श्री चरणों में दिन-रात प्रार्थना करनी चाहिए। शक्तिस्वरूपा महामाया जगदम्बा से प्रार्थना है कि हमारी अकर्मण्यता, कापुरुषता आदि को दूर कर दें।
 एक बार फ़िर से भारतवर्ष अपनी तमोगुण जन्य पशुता और जड़ता के ऊपर विजय प्राप्त  कर- " मननशील, मनीषी, मुनि " बन जाये। भारत ने जिस आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास, आत्म-निर्भरता को खो दिया था उसे पुनः प्राप्त करने के लिए हमलोगों को 'जगदम्बा' से केवल इतनी ही  प्रार्थना करनी है कि- " माँ मुझे मनुष्य बना दो !" अर्थात हे माँ ! तू मुझे भी ऐसे  "मनुष्यत्व" का अधिकारी बना दे,जो अपनी शक्ति को जान ले,जो सब को अपना समझे, जो त्याग करने में समर्थ हो, जो परहित के लिए अपने प्राणों को भी न्योछावर करने को भी तत्पर रहे।
इसी मंत्र की साधना करने से ऐसे हजारों "नवीन मनुष्यों " -का निर्माण किया जा सकता है, जो यह विश्वास करेगा  कि बुद्धत्व-प्राप्ति पर मानवमात्र का अधिकार है। और उस अध्यात्म विद्या के प्रचार-प्रसार द्वारा भारत की वर्तमान अवस्था में परिवर्तन लाकर ही वर्तमान भारत को विश्व-गुरु भारत में रूपांतरित किया जा सकता है। 
================
(श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय लिखित मूल बंगला पुस्तिका- " स्वामिजीर वर्तमान भारत " के १२ वें परिच्छेद का हिन्दी भावानुवाद )
===============
ভূমিকা 
'স্বামীজীর বর্তমান ভারত ' স্বামী বিবেকানন্দ রচিত " বর্তমান ভারত " গ্রন্থের সমালোচনা -নিবন্ধ নয়। এটি ঐ গ্রন্থের সংক্ষিপ্ত ও অনেক স্থলে সরলীকৃত আকার মাত্র। স্বামীজীর দৃষ্টি সব কিছুরই গভীরতম প্রদেশ পর্যন্ত প্রবেশ করে তাদের মর্ম উদ্ধার করে সাধারনের কাছে তুলে ধরেছে। সারা পৃথিবীর ধর্ম , দর্শন, ইতিহাস, কলা , সাহিত্য, সভ্যতা , কৃষ্টি , বিজ্ঞান - কিছুই তাঁর দৃষ্টি এড়িয়ে যায় নি।  
মানুষের সত্তা, মন , সমাজ , সমাজের বিকাশ , রীতিনীতি ও তার পরিবর্তন , সমাজ-বিবর্তনের ধারা , ও নিয়ম গবেষকদের মত বসে বিশ্লেষণ না করলে ও দেখামাত্র তাৎক্ষণিক প্রজ্ঞার আলোকে তাঁর কাছে ধরা দিয়েছে। স্বামীজীর বাণী অধিকাংশই মুখনিঃসৃত।  সামান্য যা তিনি লিখেছিলেন ' বর্তমান ভারত ' তার অন্যতম। প্রথমে এ লেখা ধারাবাহিক ভাবে তখনকার পাক্ষিক পত্রিকা ' উদ্বোধনে ' প্রকাশিত হয়। 
১৯০৫ খ্রিস্টাব্দে স্বামী সারদানন্দ এই গ্রন্থের ভূমিকায় লিখেছিলেন , " স্বামী বিবেকানন্দের সর্বতোমুখী প্রতিভা - প্রসুত ' বর্তমান ভারত ' বঙ্গসাহিত্যের এক অমূল্য রত্ন। বহুল পরিভ্রমণ, গর্বিত রাজকুল হইতে -দরিদ্র প্রজা পর্যন্ত সকলের সহিত সমানভাবে মিলন , ভারত ও ভারততের দেশের আচার-ব্যবহার ও জাতীয়স্বাভাব সমূহের নিরপেক্ষ দর্শন, অশেষ অধ্যান এবং স্বদেশবাসীর প্রতি অপার প্রেম, ও তাহাদের দুঃখে গভীর সহানুভূতির ফলে স্বামীজীর মনে ভারতের যে চিত্র অংকিত হয়েছিল ' বর্তমান ভারত ' তাহারই নির্দেশনা স্বরূপ। " 
রাজ-পরিবর্তনের ইতিহাস পরিবর্তনের একটি প্রবণতা দেখা দেয়। এখানে তার কোনো সম্ভাবনা ছিল না , কারন এ  'মন মুখ এক ' করে লেখা।  তাই কটূবাক্যের একান্ত অভাব , বরং স্থলে স্থলে সত্য কটু বাক্য আছে।  আরও একটি বিষয় স্মরণ রাখা প্রয়োজন।  প্রায় শতবর্ষ পূর্বে লেখা হলেও এ মানবেতিহাস -ধারার বিশ্লেষণ সর্বকালের।  আমাদের বর্তমান ভারত কে বুঝতেও স্বামীজীর ' বর্তমান ভারত ' সমধিক উপকারী। 
এ লেখা যখন প্রথম প্রকাশিত হয় তখন ভাষার জটিলতা ও দুৰ্বোধ্যতার কথা ওঠেছিলো।  তখন আরও বেশি ওঠার কথা। কারন , সংস্কৃত বা ইংরেজি দূরের কথা, বাংলা ভাষার চর্চাও বড় অভাব।  এই সংকলনে সার্বিকভাবে না হলেও যথা সম্ভব ভাষা ও বিশ্লেষণের জটিলতাকে সরল করার প্রয়াস করা হয়েছে। এই সংক্ষিপ্ত পুস্তিকা পাঠে বর্তমান ভারতের কিছু যুবক ও যদি স্বামী বিবেকানন্দের ভারত-দর্শনের কিছু আলো লাভ করতে পারে , তবে এ প্রাকশনের শ্রম সার্থক হবে। 
যুবকদের বার বার শোনা স্বামীজীর বিখ্যাত 'স্বদেশমন্ত্র ' এই 'বর্তমান ভারত ' গ্রন্থেরই শেষ পরিচ্ছেদ।   
-----प्रकाशक , श्री तनुलाल पाल, उपाध्यक्ष, अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल।  
---------------------------------------------- 
স্বামীজীর 'বর্তমান ভারত ' 
[এক] 
স্বামী বিবেকানন্দের 'বর্তমান ভারত ' গ্রন্থখানি তাঁর মৌলিক রচনার অন্যতম।  .... ইতিহাস চেতনার বা ইতিহাস দর্শনের অদ্ভুত পরিচয় পাওয়া যায়।  ... ঐতিহাসিক বিশ্লেষণের প্রণালী দিক দিয়ে অবশ্যই এর আলোচনা বিজ্ঞান -ভিত্তিক ইতিহাস -ধর্মী ( Scientific History ) মানব সভ্যতার ইতিহাস -ধারার পটভূমিকায় প্রাগঐতিহাসিক যুগ থেকে বর্তমান কাল পর্যন্ত সমগ্র ভারত ইতিহাসের অল্প পরিসরে এক নিখুঁত চিত্র এ গ্রন্থে সুপরিস্ফূটিত , 'গবেষণাশীল যশোলিপ্স পাশ্চাত্য পণ্ডিতকুলের সূক্ষ্ম দৃষ্টি '- র যা অগোচর তা এ গ্রন্থের পাঠকের গোচরীভূত হবার কথা।  
বর্তমানে দাঁড়িয়ে অতীতা -বলোকনের সঙ্গে সঙ্গে ভবিষ্যতের যথার্থ ইঙ্গিত দেওয়াই ইতিহাসের কাজ। 
সমাজের গঠন , শ্রেণী বিন্যাস, শ্রেণী বিশেষের প্রাধান্য , আধিপত্য ও প্রভাব , সেগুলির দোষ -গুণাবলীর বিশ্লেষণ , সমগ্র সমাজে এইগুলির ফলশ্রুতি , ব্যক্তি ও সমাজের সম্পর্ক, ভবিষ্যতের সুস্পষ্ট ইঙ্গিত , মানব মনীষার সচেতন প্রয়াসের প্রয়োজনীয়তা ও ভবিষ্যের ডিং-নির্ণয়াদি ইতিহাস -বিজ্ঞান প্রণালী সাহাযে এ গ্রন্থে সন্নিবেশিত। প্রত্যেক ব্যক্তির নিজ জাতির যথার্থ্ ইতিহাস বিষয়ে সম্যক জ্ঞান ব্যষ্টি ও সমষ্টির বিকাশের জন্যে অত্যাবশ্যক।  
আবার বৈশ্যরা রাজার দুগ্ধবতী গাভী, অর্থাৎ প্রভূত ধনের উৎস। ..... প্রথমেই যে মস্ত একটি শক্তিতত্ব স্বামী বিবেকানন্দ এখানে উপস্থাপিত করেছেন তা হল -- প্রজা তার নিজের শক্তির অস্তিত্ব সম্বন্ধে অজ্ঞ। সমবায় বা যৌথ উদ্যোগের অভাব , সে কৌশল না জানায় ক্ষুদ্র ক্ষুদ্র শক্তির- ব্যষ্টি শক্তির সমাহারে , সমন্বয়ে যে প্রচন্ড বল সৃষ্টি হয় তার অভাব।  সহমতি  বা সমবেত বুদ্ধিযোগ (সমষ্টি শক্তি) যে রাজ -গৃহীত প্রজাধনে (করাদি ) সাধারণ স্বত্ব বুদ্ধি -অর্থাৎ প্রজার নিকট সংগৃহিত রাজধন ( রাজা কর্তক গৃহীত ধন ) যে সর্বসাধারণের কল্যাণ -সাধন উদ্দেশ্যেই ব্যবহার্য ) এবং তার আয় -ব্যয় নিয়মনে ও ( আদায় ও ব্যবহার ) যে প্রজার অধিকার আছে এ বিষয়ে প্রজা বর্গের শিক্ষার সম্ভাবনা ও নেই।
প্রজার মঙ্গল সর্বথা করেন এমন রাজা ছিলেন না তা নয় , তবে খুব কম। আবার নিয়ম বা আইন ও তার প্রয়োগের মধ্যে বৈষম্য যথেষ্ট।  অনেক ক্ষেত্রেই রাজা রক্ষক না হয় ভক্ষক হয়েছেন।  ভাল রাজার দ্বারা পালিত হলে ও রাজ্ -মুখাপেক্ষী হয় ক্রমে প্রজা বর্গ নিবীর্য ও শক্তিহীন , স্বাবলম্বনহীন হয় পড়ে। 
তিন : স্বামী বিবেকানন্দ দেখান , বৌদ্ধধর্মের উত্থানের ফলে পুরোহিতের (ব্রাহ্মণের ) শক্তির ক্ষয় ও রাজন্য বর্গের (ক্ষত্রিয়ের ) শক্তির বিকাশ ঘটে।
=================           
       










शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

'विश्व को समर्पित भारत का उपहार है : आध्यात्मिक संस्कृति।'[ 'Be and Make' Syllabus-2 ]

भारतीय संस्कृति की विशेषतायें 
1.हमारी जीवन-व्यवस्था ही हमारी संस्कृति हैसंसार में देश भेद से अनेक प्रकार के मनुष्य है। अतः उनकी संस्कृतियाँ भी अनेक हैं। संस्कृति का शब्दार्थ है - उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। यह अपने विवेक के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है। विचार और कर्म के क्षेत्रों में राष्ट्र का जो सृजन है वही उसकी संस्कृति है।  यही संस्कृति शब्द आगे अर्थानन्तर में 'सोडष संस्कार' शब्द को जन्म देती है।   हमारी जीवन-व्यवस्था ही हमारी संस्कृति है। भारत में रहने वाली, चार पुरुषार्थ,चार आश्रम और सोलह संस्कारों में आधारित हमारी जीवनव्यवस्था (वर्णाश्रम धर्म या संस्कृति) ही भारतीय संस्कृति कही जाती है।  मनुष्य जीवन रुकता नहीं, पीढ़ी-दर-पीढ़ी निरन्तर आगे बढ़ता रहता है। इसके साथ-साथ संस्कृति के रूपों का उत्तराधिकार भी हमारे साथ चलता है अत एव हमारे सनातन धर्म, दर्शन, कला तथा साहित्य आदि इसी संस्कृति के अंग हैं। 
सभ्यता (Civilization) से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति (Culture) से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है।
2.विश्व धर्म का आदर्श : भारतीय संस्कृति विश्व के प्रति अनन्त मैत्री की भावना का नाम है। आचार्य परम्परा (या श्रुति परम्परा) में आधारित हमारी यह प्राचीन संस्कृति ही है जो हमें दर्शन और धर्म के माध्यम से 'सत्य' के निकट लाती है।अपने से भिन्न प्रकार के मन और पूजा पद्धति का पालन करने वाले मनुष्यों को भी अपने प्रेमालिंगन में बाँध लेने सक्षम विश्व धर्म का आदर्श : अर्थात मेरा -तेरा संकीर्ण धर्म नहीं, सच्चा धर्म जिसकी अनुभूति मनुष्य को ब्रह्मविद बना देती है, और वह देहाध्यास जन्य 'व्यष्टि अहं' को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरित करके.... विभिन्न प्रकार के मन - शांत मन या सनकी मन के व्यक्तियों को भी  गले लगा लेने में समर्थ नेता/शिक्षक बन जाता है। क्योंकि तब उसे कोई पराया नहीं दीखता, सभी अपने हो जाते हैं।  " निषादराज को प्रेमालिंगन में बांधने वाले भगवान् राम तथा आधुनिक युग में 'शरद और अमजद' को एक समान देखने में सक्षम माँ सारदादेवी के जीवन में इसी धर्म का स्पष्ट दर्शन होता है। तभी तो महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं- राम मूर्तिमान् धर्म हैं---"रामो विग्रहवान् धर्म।"  
उसी 'विश्व धर्म का आदर्श' को परिभाषित करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा है -" धर्म अनुभूति का नाम है। वह बहस का विषय , मतवाद , या युक्तिमूलक कल्पना मात्र नहीं है, चाहे वह जितना भी सुंदर क्यों न हो। ' It is BEING AND BECOMING , not hearing or acknowledging' -अर्थात  इन्द्रियातीत सत्य या ब्रह्म को जानकर, तद्रूप हो जाना -उसका साक्षात्कार करना , यही धर्म है -वह केवल सुनने या मान लेने की वस्तु नहीं है। समस्त मन-प्राण विश्चास की वस्तु के साथ एक हो जायेगा। यही धर्म है।" [ख० 3.159] 
{ Religion is realisation; not talk, nor doctrine, nor theories, however beautiful they may be. It is BEING AND BECOMING , not hearing or acknowledging; it is the whole soul becoming changed into what it believes. That is religion."
(The Ideal of a Universal Religion : How It Must Embrace Different Types Of Minds And Methods.) 2/396 
धर्म कोई उपासना पद्धति न होकर एक विराट और विलक्षण जीवन-व्यवस्था है। यह दिखावा नहीं, दर्शन है। यह घुटनों की कवायद का प्रदर्शन नहीं, यह विवेक-प्रयोग है। यह चिकित्सा है मनुष्य को आधि, व्याधि, उपाधि से मुक्त कर सार्थक जीवन तक पहुँचाने की। यह स्वयं द्वारा स्वयं की खोज है।  धर्म, आदमी को पशुता से मानवता की ओर प्रेरित करता है। अनुशासन के अनुसार चलना धर्म है। हृदय की पवित्रता ही धर्म का वास्तविक स्वरूप है। धर्म का सार जीवन में संयम का होना है। 
इसी विश्व धर्म या धर्म के मौलिक स्वरूप की परिभाषा करते हुए महर्षि कणाद कहते हैं- "यतोऽभ्युदयः निःश्रेयस् सिद्धिः स धर्मः"अर्थात् जिसके धारण करने से व्यक्ति और समाज का अभ्युदय हो और जीवन का श्रेष्ठतम प्राप्तव्य प्राप्त हो सके वह धर्म है। 'अभ्युदय' का अर्थ है लौकिक सम्पदा और भौतिक उन्नति के माध्यम से अधिकाधिक विषयों के उपभोग के द्वारा सुख प्राप्त करना। तथा 'निःश्रेयस'  का अर्थ है अनात्मबंध से मोक्ष (d-hypnotized या भ्रममुक्त अवस्था की प्राप्ति।) धर्म उन सिद्धान्तों, तत्त्वों और जीवन प्रणाली को कहते हैं, जिसका पालन करने से  मानव जाति परमात्मा प्रदत्त शक्तियों के विकास से अपना लौकिक जीवन सुखी बना सके (अभ्युदय) तथा परलौकिक जीवन में जीवात्मा शान्ति का अनुभव (निःश्रेयस) भी प्राप्त  कर सके। इसमें मनुष्य अपने आत्मस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करता है जो सम्पूर्ण जगत् का अधिष्ठान है। इस स्वरूपानुभूति में संसारी जीव की समाप्ति और परमानन्द की प्राप्ति होती है। आत्मानुभवी पुरुष (ब्रह्मवेत्ता पुरुष) अपने आनन्दस्वरूप का अखण्ड अनुभव करता है। भोग अनित्य है और मोक्ष नित्य।  एक में संसार का पुनरावर्तन है तो अन्य में अपुनरावृत्ति। अभ्युदय में जीवभाव बना रहता है जबकि ज्ञान में आत्मभाव दृढ़ बनता है।  अर्थात जीवन के ऐहिक और पारलौकिक दोनों पक्षों से धर्म को जोड़ा गया था। धर्म की इससे अधिक उदार परिभाषा और क्या हो सकती है
इसी धर्म की व्याख्या करते हुए स्वामी विवेकानन्द अन्यत्र कहते हैं- " सत्य दो प्रकार का होता है: (१) इन्द्रिय ग्राह्य सत्य (Sensible Truthविज्ञान) - वह सत्य है जो मनुष्य की पंचेन्द्रियों के माध्यम से और उस पर आधारित तर्क द्वारा ग्रहण किया जाय। [ मनुष्य की पाँच इंद्रियों और उसके आधार पर तर्क द्वारा संज्ञानात्मक;जैसे सेव को नीचे गिरता हुआ देखकर न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत को आविष्कृत कर लिया था,  पूर्णिमा के चन्द्रमा का प्रकाश उसका अपना नहीं सूर्य का प्रतिबिम्बित प्रकाश है। इस तथ्य को तर्क से जान लेना विज्ञान है। ]
(२) अतीन्द्रिय सत्य (Supersensible truths-वेद) - वह सत्य जो इन्द्रियातीत सूक्ष्म योगज शक्ति द्वारा ग्रहण किया जाय। प्रथम उपाय से संकलित ज्ञान को 'विज्ञान' कहते हैं; और दूसरे प्रकार के संकलित ज्ञान को 'वेद' कहा जाता है। ..... यह अतीन्द्रिय शक्ति , जिस व्यक्ति (या आध्यात्मिक संगठन ?) में आविर्भूत अथवा प्रकाशित होती है, उसका नाम 'ऋषि' है, और उस शक्ति के द्वारा वे जिस अलैकिक सत्य की उपलब्धि करते हैं, उसका नाम 'वेद' है। यह ऋषित्व और वेद-दृष्टि का लाभ करना ही यथार्थ धर्मानुभूति है। जब तक यह अवस्था प्राप्त न हो, तब तक धर्म केवल कहने की बात है। और यही मानना पड़ेगा कि धर्मराज्य की प्रथम सीढ़ी भी हमने पैर नहीं रखा है। (हिन्दू धर्म और श्री रामकृष्ण' 10 . 139) 
{Truth is of two kinds: (1) that which is cognizable by the five ordinary senses of man, and by reasonings based thereon; (2) that which is cognizable by the subtle, supersensible power of Yoga.Knowledge acquired by the first means is called science; and knowledge acquired by the second is called the Vedas.The person in whom this supersensible  power is manifested is called a Rishi, and the supersensible truths which he realises by this power are called the Vedas.This Rishihood, this power of supersensible  perception of the Vedas, is real religion. And so long as this does not develop in the life of an initiate, so long is religion a mere empty word to him, and it is to be understood that he has not taken yet the first step in religion'Hinduism and Sri Ramakrishna' C.W.6.181 }
महर्षि पतंजलि विश्व भर के मानव इतिहास में सर्वाधिक अनूठे मनोवैज्ञानिक हैं। उन्हें मानव चेतना का सम्यक् ज्ञान है। महर्षि इस सच्चाई को अच्छी तरह जानते हैं कि गन्तव्य पता हो, तो ही चलने वाले के पाँवों में गति आती है। पहले मंजिल का पता, फिर राह की बातें महर्षि की यही नीति है।  योग साधक का प्राप्तव्य एवं गन्तव्य- वस्तु या लक्ष्य ही अपने यथार्थ स्वरुप से योग हो जाना है। इसी कारण वह पहले समाधिपाद के सूत्रों का बयान करते हैं, बाद में साधन- पाद के सूत्र बताते हैं। अन्य दोनों पादों का क्रम इनके बाद आता है। समाधिपाद के तीसरे सूत्र में महायोगी महर्षि बताते हैं- "तदा द्रष्टु: स्वरूपेऽवस्थानम्'' (तदा) उस अवस्था में (द्रष्टुः, स्वरूपे) परमात्मा के स्वरूप में (अवस्थानम्) स्थिति होती है। चित्त वृत्ति का निरोध हुआ यानि कि मन का शासन मिटा। तब उसको अपने वास्तविक स्वरूप का विशेष ज्ञान और ईश्वर (ब्रह्म) के वास्तविक स्वरूप का परिज्ञान होता है। और तब साधक- सिद्ध हो जाता है। वह योगी बनता है, द्रष्टा बनता है, साक्षी भाव को उपलब्ध होता है। वह स्वयं में, अपने अस्तित्व के केन्द्र में, अपनी आत्मचेतना में अवस्थित हो जाता है। यही बुद्धत्व का अनुभव है। योगिवर स्वामी विवेकानन्द ने इसी गन्तव्य पर पहुँचकर गाया था- 'नाही सूर्य नाही ज्योति ' ... सूर्य भी नहीं है, ज्योति- सुन्दर शशांक नहीं, छाया सा यह व्योम में यह विश्व नजर आता है। मनोआकाश अस्फुट, भासमान विश्व वहाँ, अहंकार स्रोत ही में तिरता डूब जाता है। धीरे- धीरे छायादल लय में समाया जब, धारा निज अहंकार मन्दगति बहाता है। बन्द वह धारा हुई, शून्य से मिला है शून्य, ‘अवाङ्गमनसगोचरम्’ वह जाने जो ज्ञाता है ! (आत्मा,अहं नहीं है)। मन के पार यही है—बोध की स्थिति। यही है अपने स्वरूप में अवस्थिति। इसी 'अतीन्द्रिय सत्य ' में स्थित होकर महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 अभ्यास करने वाला साधक द्रष्टा बनता है, योगी बनता है
हमारे युगनायक स्वामी विवेकानन्द व श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय ने महामण्डल के माध्यम से हमें धर्ममय विज्ञान से साक्षात्कार करवाया है । सदकर्मों के माध्यम से- अर्थात Be and Make ' आंदोलन के माध्यम से 3H ' विकास की ओर आरुढ़ होना तथा चलना हमारा धर्म है। अंत में इतना ही कि विज्ञान हमें विकास की राह पर ले जाकर विकास से हमारा साक्षात्कार कराता है । इसीलिए श्रुति ने सम्पूर्ण मानवजाति के कल्याण  के लिए, सम्पूर्ण समाज की नैतिक रक्षा के करने में समर्थ होने के कारण इस विश्व धर्म को ही सबसे श्रेष्ठ, समाज की आन्तरिक शक्तिरूप शासक होने से शासकों का भी शासक माना है। श्रुति (केनोपनिषद् - 2.1.5) के शब्दों में-
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।।2
जिस व्यक्ति ने मानव शरीर पाकर यदि इस जन्म में ही ईश्वर का अनुभव (परम सत्य का अनुभव) कर लिया तब तो  उसने जीवनसत्य (अविनाशी परमात्मा या ब्रह्म) को प्राप्त कर लिया। { जिस व्यक्ति ने इसी जन्म में अपने व्यष्टि अहं को  माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं बोध में रूपांतरित कर लिया, तब तो वह ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म ही हो गया।} और यदि इस जन्म में ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं किया तो बहुत बड़ी हानि हो जायेगी (अर्थात जन्म मरण के चक्कर में फंस कर अनन्त दुखों को भोगना पड़ेगा।) अतः सर्वत्र सभी प्राणियों में उस विशिष्ट रूप से व्याप्त चेतना (या सर्व व्यापक ब्रह्म) का बिशेष रूप से चिंतन करके बुद्धिमान महापुरुष इस शरीर (लोक) से मुक्त हो जाते हैं। 
याद रखें, यदि इस मनुष्य जन्म में आप भगवान का साक्षात्कार न कर सके तो ‘महतौ विनष्टिः’ सर्वस्वनाश हो जायगा। क्योंकि, जब दो रुपये की हानि की आशंका से रात को नींद नहीं आती तो सर्वस्वनाश की आशंका होने पर-महामण्डल द्वारा निर्देशित 3H विकास के लिए प्रार्थना, मनःसंयोग, व्यायाम, स्वाध्याय और विवेकप्रयोग आदि 5 अभ्यास करने में आलस्य कैसे सतायेगा? इस संबंध में एक और  वेदमंत्र (ईशावास्योपनिषद-6) में कहा गया है -
 यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते॥६॥
जो व्यक्ति सभी प्राणियों को अपने में (आत्मा मे) देखता है और सभी प्राणियों में अपने को (आत्मा को) 
देखता है तब वह इस [सर्वात्म दर्शन]- के कारण ही किसी से घृणा/या किसी की निन्दा नहीं करता ॥ 
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्म व्यक्ति का जीवन है, तथा धर्म ही राष्ट्र का और समाज का प्राण है। अभ्युदय और निःश्रेयस ये वे दो लक्ष्य हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए मनुष्य अपने जीवन में प्रयत्न (पुरुषार्थ ) करते हैं। इसी धार्मिक चेतना में स्थित होने से मनुष्य के हृदय का उद्गार फूट पड़ता  है - ‘संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।'
यह संस्कृति ही है जो हमें चरित्रवान मनुष्य  बनाती है और दूसरे मानवों के निकट सम्पर्क में लाती है और इसी के साथ हमें प्रेम, सहिष्णुता और शान्ति का पाठ पढ़ाती है।  संस्कृति के द्वारा हम दूसरों के साथ सन्तुलित स्थिति (poise- आत्मविश्वास, शांतचित्त)  प्राप्त करते हैं।
मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता। वह केवल भोजन से ही नहीं जीता, शरीर के साथ मन और आत्मा भी है। भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और आत्मा तो अतृप्त ही बने रहते हैं। इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए-  मनुष्य जब मन को एकाग्र करने और विवेक-प्रयोग करने का प्रशिक्षण प्राप्त करके अपने 3H को (शरीर,मन और हृदय को) विकसित और उन्नत बना लेता है, तब उस मनुष्य को सुसंस्कृत मनुष्य कहते हैं।  इस प्रकार हम देखते हैं कि मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं - शरीर (हैण्ड)  ,मन (हेड) और आत्मा (हार्ट्) । जिसको स्वामी विवेकानन्द 3'H' से इंगित करते थे ; इन तीनों को सुसमन्वित रूप से विकसित करके ही हम उन्नत मनुष्य या सुसंस्कृत मनुष्य बन सकते हैं। जबकि " Be and Make लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन " में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक/नेता भी लोक कल्याण के लिए कार्य करते हैं। 
धर्म (वेद) और विज्ञान एक-दूसरे के पूरक हैं : हां यह शत-प्रतिशत सत्य है कि भारत ही युगों-युगों से विश्व गुरु रहा है । वर्तमान युग में विज्ञान के क्षेत्र में अधिकांश उपलब्धि भारत की ही देन है। क्योंकि आज से लाखों वर्ष पूर्व जो विज्ञान भारत में था आज का विज्ञान सिर्फ उस दिशा में किया गया प्रयास भर है । यह विज्ञान हमारे यहां सतयुग, द्वापर व त्रेतायुग में अपने चरम पर था । हमारे यहां उस समय उन्नत प्रौद्द्योगिकी थी । सतयुग में (लाखों वर्ष पूर्व) हमारे यहां वायुयान बन गए थे । जो आजकल के वायुयानों से कई मायनों में उन्नत थे जोकि हमारे धर्मग्रन्थ रामायण में पुष्पक विमान के नाम से वर्णित हैं ।
फिर धीरे-धीरे कलयुग तक आते-आते यह धर्म ग्रन्थों में सीमित होकर रह गया। स्वामी जी के अनुसार रसोई की हांड़ी में सीमित होकर रह गया।  और कुछ सदियों पूर्व हमारे यहां हुए विदेशियों के आक्रमण के बाद तो ये संस्कृत में लिखे धर्मग्रन्थ भी विदेशी लोग अपने यहां ले गये, और इसीलिए खासतौर पर यूरोपीय देशों का विज्ञान नयी ऊंचाइयों पर पहुंच गया ।
रामायण काल में भगवान श्रीराम ने श्रीलंका जाने के लिए पुल का निर्माण करवाया था, जो कि आज की अभियान्त्रिकी से कई गुना विकसित थी । इस पुल के बारे में नासा द्वारा लिए गए चित्रों में स्पष्ट संकेत है, कि यह पुल 30 किलोमीटर लम्बा व 17 लाख वर्ष पुराना है जो कि रामायणकालीन बताया गया है जिसका नाम ‘एडम्सब्रिज’ रखा गया है ।
विज्ञान का क्षेत्र बहुत विस्तृत है, चाहे वह सामाजिक विज्ञान, राजनीति विज्ञान या जीवन विज्ञान ही क्यों न हो । ऐसे कई प्रकार और विज्ञान हमारे दैनिक जीवन के धर्मों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है । यदि इस विज्ञान को सुव्यवस्थित ढंग से संवारकर जीव-जगत के कल्याण के उपयोग में लाया जाये तो यह धर्म बन जाते है । कुछ व्यक्ति या संगठन धर्म के नाम पर अपने कुकृत्यों को सही ठहराते हैं जिसे किसी भी तरह सही नहीं ठहराया जा सकता ।
माना कि व्यक्ति जिस जगह रहता है, वहां के वातावरण व वहां की सांस्कृतिक रीतिरिवाज, पूजापाठ, सामाजिक बन्धनों में वह बन्धा रहता है । लेकिन, इन सब को एक अलग धर्म का नाम दे देना व इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अलग करके देखना यथार्थ नहीं है । कोई सम्प्रदाय इसके लिए, इसे ही सबकुछ समझकर जिये मरे यह उचित नहीं है । वैज्ञानिक सोच में तो धर्म का अर्थ ही अलग है । धर्म को इस परिभाषा में जीव जगत के समस्त प्राणियों के कल्याण की कामना की गयी है ।
हमारे धर्मग्रन्थों/ शास्त्रों  में कहा गया है, कि सुबह सोकर ब्रह्म-मूहूर्त में उठना चाहिए । ब्रह्म-मूहूर्त में उठने की वैज्ञानिक सोच यह है, कि दिन भर की कई क्रियाकलापों व प्रदूषित वातावरण के कारण हमें श्वसन सम्बन्धी रोग हो सकते हैं, इसलिए जब सुबह सूर्योदय से पहले उठकर हम अपनी दिनचर्या प्रारंभ करते हैं तो चूंकि सुबह हवा शुद्ध व प्रदूषण मुक्त होती है तथा यह आसानी से श्वसन क्रिया के माध्यम से अंदर जा सकती है । इससे श्वसन सम्बन्धी रोगों को दूर किया जा सकता है । सूर्योदय से पहले स्नान करना भी हमारे धर्मग्रन्थों में है, इसको भी विज्ञान स जोड़ने के पीछे वैज्ञानिक कारण हैं । रात्रि के समय जितने भी प्रदूषक होते हैं वे हमारे शरीर पर एकत्रित हो जाते हैं । इसीलिए उन्हें,जितना जल्दी हो सके हटाना अतिआवश्यक है । इसके पश्चात सूर्यनमस्कार, क्योंकि सूर्य की पहली किरण स्वास्थ्यवर्धक व ऊर्जामय होती है । इसलिए हमारे धर्मग्रन्थों में सूर्योदय से पहले स्नान व फिर सूर्यनमस्कार करना बताया गया है । व इसके साथ-साथ कुछ योगासन भी बताए गए हैं जो सूर्यनमस्कार में करने होते है । इसी तरह, चन्दन व सिन्दूर का टीका लगाना है । इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि हमारी दोनों आंखों के मध्य पीनीयल ग्रन्थी रहती है । व इसके थोड़ा पीछे पीटयूटरी ग्रन्थी होती है जोकि मास्टरग्रन्थी भी कहलाती है । सिन्दूर और चन्दन का टीका लगाने से यह सक्रिय हो जाती है । चूंकि चन्दन ठण्डी प्रवृत्ति के लोगों के लिए तथा सिन्दूर गर्म प्रवृत्ति के लोगों के लिए लाभदायक होते है ।
मानव जीवन को यदि  एक ऐसी तराजू  माने , जिसके दो पलड़े, पहले को धर्म व दूसरे को विज्ञान कहा जाय तो  कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । धर्म जीवन जीने की प्रेरणा देता है, और जीवन को किस तरह जीया जाये, उसका नाम विज्ञान है । सुनने में थोड़ा अजीब-सा लगेगा, कि जो भी हम दिन भर-अपना  कर्तव्य-कर्म  करते हैं, वही  हमारा धर्म है । बशर्ते कि वह सुकर्म हो,  या शास्त्र-सम्मत कर्म हो, निषिद्ध कर्म न हों, व जिसके द्वारा हम अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष भी प्राप्त कर सकते हों। वह विज्ञान है धर्म व विज्ञान का परस्पर सामंजस्य भारतवर्ष के अलावा हमें विश्व में कहीं भी नहीं दिखने को मिलता है ।
 भारत की संस्कृति विश्व की समस्त संस्कृतियों के लिए मार्ग-दर्शिका है। भारत की सनातन संस्कृति न केवल भारतीयों को एकजुट रखने में सामर्थ्यशालिनी है अपितु इस सार्वभौम संस्कृति में संसार के सभी राष्ट्रों को एकसूत्र में बाँधने का परम-तत्त्व भी समाया हुआ है। इस सनातन संस्कृति के चार मूल-सिद्धान्त हैं जो विश्व-शान्ति का मार्ग प्रशस्त करने में पूर्ण सक्षम है-
1. एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति - सत्य एक है, विद्वान् इसे विभिन्न माध्यमों से कहते हैं। 
2. वसुधैव कुटुम्बकम् - समस्त विश्व एक कुटुम्ब या परिवार है।
3. सर्वे भवन्तु सुखिनः - सभी का कल्याण हो, सभी सुखी होवें।
4. यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे - जो पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में है।
अध्यात्मिकता, त्याग, सत्य और अहिंसा पर आधारित यह संस्कृति मनुष्य के चरित्र को सुधार कर समाज में एकता और बन्धुत्व के भावों का समावेश करती है तथा देश और समाज से लेने की अपेक्षा देने की प्रेरणा देती है। भारतीय संस्कृति ईश्वर की सर्वव्यापक सत्ता को स्वीकार कर मनुष्य के व्यक्तित्व में त्याग भाव का आरोपण करती है -
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्। 
तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥
इसके अनुसार परमात्मा की स्थिति को निरन्तर अपने साथ समझते हुए, इस संसार में अनासक्त भाव से सांसारिक, विषयों, द्रव्यों एवं पदार्थों आदि का उपभोग करना चाहिए।  भारतीय संस्कृति ही है, जो हमें बताती है कि विषयों का उपभोग करने से कामना कभी भी शान्त नहीं होती अपितु अग्नि में घी के सदृश निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होती रहती है-
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाऽभिवर्धते॥ 
किन्तु जब तक मनुष्य वासनाओं, तृष्णाओं को सत्य मानकर चलता है तथा उसमें लिप्त रहता है, वह ‘ब्रह्म सत्य है-और जगत मिथ्या ’ इस सिद्धांत की कल्पना भी नहीं कर सकता। अभ्यास के लिए यह सत्य है किन्तु अभ्यास कि उपरान्त व्यावहारिक दृष्टि से ‘सर्व खल्विदं-ब्रह्म’ को ही उपयोगी मानना पड़ता है। जगत को मिथ्या मानने वाले अपने प्रति भले ही अत्याचार न करते हो किन्तु यह भावना बनाकर समाज का घोर अहित करते है। अन्य व्यक्ति भी उनके इस आचरण का अनुकरण करके सामाजिक उत्तरदायित्वों से विमुख होने लगते हैं। 
संसार को माया मानकर कर्म को त्यागकर बैठना, एक प्रकार का पलायनवाद है। इसे अपनाकर कोई भी पूर्णता का जीवन लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता। भारत की इस कर्म-प्रधान संस्कृति में अकर्मण्यता का कोई स्थान नहीं है। निष्काम भाव से किया हुआ कार्य न तो आत्मा को बाँधता है न ही उसे मलिन करता है। जीवन का अस्तित्व कर्म पर ही टिका है। कर्म के बिना तो एक क्षण भी नहीं रहा जा सकता है। प्रश्न यह नहीं है कि मैं क्या करूं कि मेरा उद्धार हो जाय वरन् यह है कि मैं किस भावना से कार्य करूं जिससे अपनी आत्मा को निर्लिप्त एवं निसर्ग रखने के साथ ही साथ संसार का परित्याग भी नहीं करना पड़े।  ‘ईशावास्योपनिषद्’ कर्मवाद का समर्थन करते हुए कहता है-कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः। ईशावास्योपनिषद-2/ कर्मयोग निष्ठा  के साथ जुड़े रहने से ही (अर्थात महामण्डल के  मनुष्यनिर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आंदोलन जैसे निष्काम कर्म के साथ जुड़े रहने से ही) मानव समाज शतजीवी हो सकता है। 
सांस्कृतिक विकास एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। हमारे पूर्वजों ने बहुत सी बातें अपने पुरखों से सीखी है। समय के साथ उन्होंने अपने अनुभवों से उसमें और वृद्धि की। जो अनावश्यक था, उसको उन्होंने छोड़ दिया। हमने भी अपने पूर्वजों से बहुत कुछ सीखा। जैसे-जैसे समय बीतता है, हम उनमें नए विचार, नई भावनाएँ जोड़ते चले जाते हैं और इसी प्रकार जो हम उपयोगी नहीं समझते उसे छोड़ते जाते हैं। इस प्रकार संस्कृति एक पीढी से दूसरी पीढी तक हस्तान्तरिक होती जाती है। 
‘जगत मिथ्या ?’ है की पारम्परिक मान्यता (conventional acceptance) से प्रभावित कोई व्यक्ति कर्म से विरत होकर नई खोज (innovation -नवाचार) और पुरुषार्थ या उद्यमिता (entrepreneurship) से विरत हो जाये, तो वह उस परम् सत्य की खोज कभी नहीं कर सकता।
पुरातन (Convention)और नूतन (innovation-नवाचार) के बीच हमेशा खींचातानी रहती है। जब भी कोई कुछ नया करना चाहता है तो एक वर्ग उसका मजाक उड़ाता है, विरोध करता है।" अधिकतर लोग कालीदास के ‘मेघदूत’ और ‘शकुन्‍तला’ के बारे में तो जानते हैं लेकिन बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि कालीदास ने अपने संस्कृत नाटक 'मालविकाग्निमित्रम्' **में दस्तूर (Convention) और नई खोज (innovation) के बारे में एक मजेदार बात कही है।  [ **नाटक की कथावस्तु राजकुमारी मालविका और विदिशा नरेश अग्निमित्र के मध्य प्रेम पर केन्द्रित है। विदर्भ राज्य की स्थापना अभी कुछ ही दिनों पूर्व हुई थी। इसी कारण इस नाटक में विदर्भ राज्य को "नवसरोपणशिथिलस्तरू" (जो सद्यः स्थापित है) कहा गया है। ]  इस नाटक के प्रारम्भ में ही कालिदास ने परम्परा और नई खोज (innovation-नवपरिवर्तन) के बारे में सूत्रधार से कहलवाया है -
पुराणमित्येव न साधु सर्वं, न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्।
 सन्त: परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते, मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः॥
अर्थात पुरानी होने से (ही न तो सभी वस्तुएँ अच्छी होती हैं और न नयी होने से बुरी तथा हेय। विवेकशील व्यक्ति अपनी बुद्धि से परीक्षा करके या विवेक-प्रयोग करने के बाद श्रेष्ठकर वस्तु को अंगीकार कर लेते हैं और मूर्ख लोग दूसरों द्वारा बताने पर ग्राह्य अथवा अग्राह्य का निर्णय करते हैं। इसलिए जो पुराना है उसे केवल इसी कारण अच्छा नहीं माना जा सकता और जो नया है उसका इसलिए तिरस्कार करना भी उचित नहीं।
वर्तमान समय में आवश्यकता है अपनी संस्कृति में निहित आत्मतत्त्व को पहचान कर उसे आत्मस्थ करने की जिससे भारतीय संस्कृति की जड़ें और भी विस्तार को प्राप्त करें। निरन्तर प्रगति करने तथा प्रगति का मार्ग खुला रखने के लिए आवश्यक यह भी होगा कि नये और पुराने सिद्धान्तों में सुलझा हुआ दृष्टिकोण रखकर उन्हें परस्पर संघर्ष से मुक्त रखा जाए। पुरातन (अध्यात्म) तथा नूतन (विज्ञान)  का जहाँ मेल होता है वहीं उच्च संस्कृति की उपजाऊ भूमि है।
इस मनुष्य जीवन में दो विभाग हैं एक तो इसके सामने पुराने कर्मों (प्रारब्ध) के फलरूप में अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है।  और दूसरा यह नया पुरुषार्थ (नये कर्म) करता है। मनुष्य शरीर में दो बातें हैं - प्रारब्ध का या पुराने कर्मों का फलभोग और नया पुरुषार्थ। जबकि दूसरी योनियों में केवल पुराने कर्मों का फलभोग है अर्थात् कीट-पतंग, पशु-पक्षी, देवता, से लेकर ब्रह्म-लोक तक की योनियाँ भोग योनियाँ हैं। इसलिये उनके लिये 'ऐसा करो और ऐसा मत करो' [do's and don't यम-नियम पालन] का  विधान नहीं है। अथवा  विवेक-प्रयोग करने के बाद ही कोई कार्य करो - ऐसा नियम नहीं है। परन्तु मनुष्य-शरीर तो केवल नये पुरुषार्थ के लिये ही मिला है; जिससे यह सर्वश्रेष्ठ प्राणी अपना उद्धार कर ले ! { अपना उद्धार करले अर्थात ब्रह्म (अपरिवर्तनीय परम् सत्य) को जानकर, (या अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव कर) ब्रह्म हो जाये - या स्वयं को विसम्मोहित( d-hypnotized) कर ले। }   यदि हर समय मन में यह भाव बना रहे कि - " मैं Exam Hall में बैठा हूँ और exam दे रहा हूँ" - इस मनोभाव के साथ विवेक-प्रयोग या विवेक-दर्शन करने के बाद ही नए कर्मों को करता है, तब  नये कर्मों के अनुसार ही इसके भविष्य का निर्माण होता है। इसलिये शास्त्र, सन्त-महापुरुषों का विधि-निषेध राज्य आदि का शासन केवल मनुष्यों के लिये ही होता है। क्योंकि मनुष्य योनि में पुरुषार्थ की प्रघानता है नये कर्मों को करने की स्वतन्त्रता है।
इसमें एक विशेष समझने की बात है कि इस मनुष्य जीवन में प्रारब्ध के अनुसार जो भी शुभ या अशुभ परिस्थिति (14 अप्रैल 1992 बनारस में एक्सीडेंट) अवश्य सामने आती है, किन्तु उस परिस्थिति से सुखी या दुःखी होना कर्मों का फल नहीं हैं प्रत्युत मूर्खता का फल है। कारण कि परिस्थिति तो बाहर से बनती हैऔर सुखी-दुःखी होता है (मृत्यु के भय डरता है?) यह स्वयं (आत्मा नहीं नामरूप में तादात्म्य रखने वाला अहं) । उस परिस्थिति के साथ तादात्म्य करके ही यह सुख-दुःख का भोक्ता बनता है। अगर मनुष्य उस परिस्थिति के साथ तादात्म्य न करके उसका सदुपयोग करे तो वही परिस्थिति उसका उद्धार करने के (आत्मसाक्षात्कार) लिये साधन-सामग्री बन जायगी। 
भारतीय संस्कृति के मूल तत्व : (The Foundations of Indian Culture) :[ सोलह संस्कार, 4 वर्णाश्रम, चार पुरुषार्थ। अनेकता (विविधता) में एकता - unity in diversity-भारत की विशेषता।  Samskaras, Varnashrama, Purusharthas.] भौगोलिक दृष्टि से भारत विविधताओं का देश है।  इस भौगोलिक विभिन्नता के अतिरिक्त इस देश में आर्थिक और सामाजिक भिन्नता भी पर्याप्त रूप से विद्यमान है।  फिर भी सांस्कृतिक दृष्टि से एक इकाई के रूप में इसका अस्तित्व प्राचीनकाल से बना हुआ है। भारत अनेक धर्मों, सम्प्रदायों, मतों और पृथक् आस्थाओं एवं विश्वासों का महादेश है, तथापि इसका सांस्कृतिक समुच्चय और 'विविधता  में एकता' (Unity in Diversity) का स्वरूप संसार के अन्य देशों के लिए विस्मय का विषय रहा है। वस्तुत: इन भिन्नताओं के कारण ही भारत में अनेक सांस्कृतिक उपधाराएँ विकसित होकर पल्लवित और पुष्पित हुई हैं। भाषाओं की विविधता अवश्य है फिर भी संगीत, नृत्य और नाट्य के मौलिक स्वरूपों में आश्चर्यजनक समानता है। संगीत के सात स्वर और नृत्य के त्रिताल सम्पूर्ण भारत में समान रूप से प्रचलित हैं।
भारतीय संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि हज़ारों वर्षों के बाद भी यह संस्कृति आज भी अपने मूल स्वरूप में जीवित है, जबकि मिस्र, असीरिया, यूनान और रोम की संस्कृतियों अपने मूल स्वरूप को लगभग विस्मृत कर चुकी हैं।  चीनी संस्कृति के अतिरिक्त पुरानी दुनिया की अन्य सभी –प्राचीन  मिस्र , यूनान और रोम की-संस्कृतियाँ काल के कराल गाल में समा चुकी हैं।  कुछ ध्वंसावशेष ही उनकी गौरव-गाथा गाने के लिए बचे हैं; किन्तु भारतीय संस्कृति कई हज़ार वर्ष तक काल के क्रूर थपेड़ों को खाती हुई आज तक जीवित है। इसीलिए मोहम्मद इक़बाल ने कहा था- कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा। " ---(वो) क्या बात है, कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ? 
 इसी विषय पर बोलते हुए  स्वामी जी कहते हैं -" क्या कारण है कि एक राष्ट्र जीवित रहता है, तथा दूसरा नष्ट हो जाता है ? जीवन तो अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करने का संग्राम है , और उस जीवनसंग्राम में घृणा टिक सकती है या प्रेम ? भोगविलास चिरस्थायी है अथवा त्याग ? भौतिकता टिक सकती है अथवा आध्यात्मिकता?  हमारी जीवन समस्या को हल करने का रास्ता है वैराग्य , त्याग, निर्भीकता तथा प्रेम। बस ये ही सब टिकने योग्य हैं। जो राष्ट्र इन्द्रियों की आसक्ति (कामिनी -कांचन में घोर आसक्ति का) त्याग कर देता है, वही टिक सकता है। और इसका प्रमाण यह है कि आज इतिहास हमें इस बात की गवाही दे रहा है कि प्रायः प्रत्येक सदी में बरसाती मेढकों की तरह नये राष्ट्रों का उत्थान तथा पतन होता रहता है। वे लगभग शून्य से प्रारम्भ करते हैं, कुछ दिनों तक खुराफात मचाते हैं, और फिर समाप्त हो जाते हैं।" 5 /100 ] 
"प्रत्येक व्यक्ति की तरह प्रत्येक राष्ट्र का भी एक ध्येय (साध्य) होता है, और उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए प्रत्येक राष्ट्र का एक विशेष निर्धारित मार्ग (साधन) भी होता है, जो उसके लिए संजीवनी बुट्टी की तरह कार्य करता है। और भारतवर्ष का विशेषत्व है धर्म !" (अर्थात चरित्रनिर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना ही भारत का धर्म है। ) वि० सा० 5 /99]
 जीवनसंग्राम में आने वाली चुनौतियों का सामना करने का भारतीय तरीका : ( Indian way to  'Face the Challenge of life): मनुष्य जीवन चुनौतियों का सामना करने के लिए उस संघर्ष या पुरुषार्थ का नाम है, जो कोई व्यक्ति अपनी अन्तर्निहित दिव्यता का अनावरण और विकास के लिए -(unfoldment and development of a being under the circumstances tending to press it down) या स्वयं को विसम्मोहित करने के लिए करता है।} 
 भारतीय आचार्य-परम्परा भौतिकता (अविद्या) एवं आध्यात्मिकता (विद्या) एवं  एक दूसरे का पूरक मानती है,  इसलिए भारतीय मनीषा ने जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए भौतिकता और आध्यात्मिकता में समन्वय बनाकर चलने की अपनी अनूठी जीवन-व्यवस्था आविष्कृत की है।  श्रुति-परम्परा (आचार्य परम्परा) में 'पुरुषार्थ' आधारित प्राचीन भारतीय संस्कृति में भौतिक सुखों को (कामिनी -कांचन को) आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति में साधक माना गया है, बाधक नहीं । दोनों घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं । दोनों का समन्वित स्वरूप पुरुषार्थों के माध्यम से प्रतिपादित किया गया है। पाश्चात्य संस्कृति जहाँ केवल भौतिकता को ही सर्वोच्च प्राथमिकता देती है, वहीँ चार पुरुषार्थ, चार आश्रम, चार वर्ण और १६ संस्कार में आधारित भारतीय संस्कृति में भौतिकता को महत्वपूर्ण मानते हुये भी आध्यात्मिकता को प्राथमिकता दी गयी है । आध्यात्मिकता और भौतिकता के इस समन्वय में भारतीय संस्कृति की वह विशिष्ट अवधारणा परिलक्षित होती है, जो मनुष्य के इस लोक और परलोक को सुखी बनाने के लिए भारतीय मनीषियों ने निर्मित की थी।  चार पुरुषार्थों के माध्यम से भारतीय मनीषा ने प्रवृत्ति एवं निवृत्ति, आसक्ति एवं त्याग के बीच सुन्दर समन्वय स्थापित किया है । हमारे पूर्वज ऋषि -मुनियों ने हमारी संस्कृति में जीवन के ऐहिक (कर्ममार्ग- प्रवृत्ति धर्म) और पारलौकिक (ज्ञानमार्ग -निवृत्ति धर्म)  दोनों पहलुओं के साथ धर्म को सम्बद्ध कर दिया है। 
भारतीय आचार्य-परम्परा (श्रुति परम्परा) भौतिक सुखों (कामिनी- कांचन) को क्षणिक मानते हुये भी उन्हें पूर्णतया त्याज्य नहीं समझती, बल्कि उनके प्रति अतिशय आसक्ति का ही विरोध करती है । पुरुषार्थों का उद्देश्य मनुष्य के भौतिक सुख (प्रवृत्ति धर्म) तथा आध्यात्मिक सुखों (निवृत्ति धर्म) के बीच सामंजस्य स्थापित करना है ।  मनुष्य भौतिक सुखों के संयमित उपभोग (त्याग पूर्वक भोग के)   द्वारा ही आध्यात्मिक सुख प्राप्त करता है । साहित्य, संगीत और कला की सम्पूर्ण विधाओं के माध्यम से भी भारतीय संस्कृति के इस आध्यात्मिक एवं भौतिक समन्वय को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। 
मनुष्य-जीवन का उद्देश्य है - पुरुषार्थचतुष्टय (The Object of Human Pursuit) : भारतीय मनीषा ने मनुष्य तथा समाज की उन्नति के निमित्त जिन आदर्शों का विधान प्रस्तुत किया उन्हें “पुरुषार्थ” की संज्ञा दी जाती है। इसलिए इन्हें 'पुरुषार्थचतुष्टय' भी कहते हैं। पुरुषार्थों का सम्बन्ध मनुष्य तथा समाज दोनों से है । वस्तुतः चारो पुरुषार्थ मनुष्य एवं समाज एवं उनके अन्तर्सम्बन्धों के नियामक हैं । ये मनुष्य तथा समाज के बीच सम्बन्धों की व्याख्या करते हैं, उन्हें नियमित बनाते हैं तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धों को नियन्त्रित भी करते हैं । वे मनुष्य तथा समाज के बीच के सम्बन्धों की व्याख्या करते हुए उन्हें न्यायसंगत बनाते हैं । दोनों के उचित सम्बन्धों पर वे प्रकाश डालते हैं तथा उनके अनुचित सम्बन्धों को उजागर भी करते हैं ताकि मनुष्य उनसे बच सके ।
 पुरुषार्थ (Efforts)  = पुरुष+अर्थ, अर्थात मानव को 'क्या' प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए?  दूसरे शब्दों में मनुष्य के जीवन का उद्देश्य (The Object of Human Pursuit) क्या होना चाहिए ? मनुष्य के लिये वेदों में प्रायः चार पुरुषार्थों का नाम लिया गया है - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।  
इनमें धर्म की स्थिति सर्वोच्च है । अर्थ तथा काम का उचित उपभोग धर्म के माध्यम से ही सम्भव है । प्रारंभ के तीन पुरुषार्थों को साध लेने के बाद ही मनुष्य मोक्ष को साधने में (भ्रममुक्त या d-hypnotized हो जाने में) समर्थ होता है। अपने कर्तव्य कर्मों का (अर्थात धर्म का) पालन किए बिना मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकती। मनुष्य मात्र को चाहिए कि वह धर्म के पथ पर चलते हुए , अर्थ अर्थात धन प्राप्त करें । उस अर्थ के द्वारा अपनी कामनाओं को, आवश्यकताओं को पूरा करें। इसीलिए हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति में जीवन के ऐहिक और पारलौकिक दोनों पहलुओं से धर्म को सम्बद्ध किया गया है। यहाँ काम तथा अर्थ साधन है जबकि धर्म एवं मोक्ष साध्य स्वरूप हैं । त्रिवर्ग में तीनों पुरुषार्थों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है ।  भारतीय संस्कृति  में मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य स्वीकार किया गया है जिसकी प्राप्ति सभी चारो वर्णों में जन्मे मनुष्यों का परम लक्ष्य है ।
मोक्ष का अर्थ है पुनर्जन्म अथवा आवागमन चक्र से मुक्ति प्राप्त कर आत्मा का परमात्मा में विलीन हो जाना।शरीर नश्वर है, आत्मा अमर है, यह अमरता मोक्ष से जुड़ी हुई है।  और यह मोक्ष पाने के लिए अर्थ और काम के पुरुषार्थ करना भी जरूरी है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति में धर्म और मोक्ष आध्यात्मिक सन्देश एवं अर्थ और काम की भौतिक अनिवार्यता परस्पर सम्बद्ध है।
मनुस्मृति में त्रिवर्ग -धर्म,अर्थ, काम के समन्वय पर बल दिया गया है । मनुस्मृति के अनुसार ‘कुछ कहते हैं कि मनुष्य का लाभ धर्म तथा अर्थ में है, कुछ के अनुसार यह काम तथा अर्थ में है, जबकि कुछ लोग केवल धर्म में ही मनुष्य का लाभ देखते हैं । किन्तु वस्तु-स्थिति यह है कि मनुष्य का कल्याण तीनों पुरुषार्थों के समुचित समन्वय में ही निहित है ।’ मनुस्मृति में विहित है कि इन्द्रिय विरोधी राग-द्वेष रहित तथा अहिंसा परायण व्यक्ति ही मोक्ष की प्राप्ति करता है । चार्वाक् के अतिरिक्त अन्य सभी विचारधारायें इस सत्य को स्वीकार करती हैं- कि आत्मा अजर, अमर एवं परमात्मा का ही अंश है । पुराणों में मोक्ष के लिये दया, प्राणियों में समभाव, क्षमा, अक्रोध, सत्य, लोभ, मोह, कामादि का त्याग आदि गुणों का आचरण आवश्यक बताया गया है । इन्द्रिय, मन तथा बुद्धि पर नियंत्रण रखने वाले व्यक्ति को मोक्ष स्वयंमेव प्राप्त हो जाता है ।
मनुस्मृति के टीकाकार कुल्लूक भट्ट का विचार है कि लौकिक दृष्टि से अर्थ एवं काम महत्वपूर्ण हैं किन्तु पारलौकिक दृष्टि से विचार करने पर मोक्ष ही एकमात्र अभीष्ट रह जाता है तथा अन्य पुरुषार्थ इसकी प्राप्ति में सहायक बन जाते हैं ।
गीता ज्ञान के स्थान पर भक्ति को प्रधानता देती है तथा मोक्ष के लिये ईश्वर की कृपा को आवश्यक बताती है। कृष्ण अर्जुन से कहते है कि सभी धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आओ । मैं तुम्हें सभी  पापों से मुक्त कर दूँगा । जैन तथा बौद्ध दर्शन में भी अविद्या के विनाश को ही मोक्ष का उपाय माना गया है । जैन इसके लिये त्रिरत्नों (सम्यक् दर्शन, ज्ञान तथा चरित्र) एवं बौद्ध अष्टांगिक मार्ग (सम्यक दृष्टि, संकल्प, वाक्, कर्मान्त, आजीव, व्यायाम, स्मृति तथा समाधि) का विधान प्रस्तुत करते हैं ।
चार आश्रमों के द्वारा जीवनयापन करता हुआ (पुरुषार्थ करता हुआ) चारो वर्णों का व्यक्ति, अपनी रूचि और प्रवृत्ति के अनुसार चार पुरुषार्थों के माध्यम से समाज एवं परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का पूर्ण निर्वाह करता है । चार पुरुषार्थ कहे गए हैं -धर्म, अर्थ ,काम और अंतिम तथा सबसे महत्वपूर्ण पुरुषार्थ है "मोक्ष" !  तीन प्रकार के= (आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक) दुःखों से सर्वथा छूट जाना पुरुष= आत्मा का अन्तिम लक्ष्य है, (इसी को मुक्ति कहते हैं)। इसी से समस्त दुखों की निवृत्ति होती है। यहां यह शंका स्वाभाविक है कि मोक्ष से ही समस्त दुखों की निवृत्ति क्यों ? धर्म, अर्थ और काम से क्यों नहीं?इसका समाधान यह है कि सांसारिक साधनों से एक दुख दूर होता है तो दूसरा नया दुख उत्पन्न हो जाता है। किंतु मोक्ष मिल जाने से समस्त दुख एक साथ ही छूट जाते हैं । इस लोक में तीन प्रकार के दुःख आध्यात्मिक, अधिभौतिक, एवं अधिदैविक नाम से प्रसिद्ध हैं। तीन प्रकार के दुखों से अत्यन्त निवृत्ति अर्थात पूर्णरूपेण मुक्ति - या सदा के लिए दुःखो का तिरोभाव ही अत्यन्त पुरूषार्थ अर्थात मोक्ष हैं ।
इसीलिए सांख्य-दर्शन के प्रथम सूत्र में मोक्ष को ही समूल दुख निवृत्ति का या  सब प्रकार के दुःखों से छुटकारा पाने के लिए प्रयत्न करने को परम पुरुषार्थ (Supreme effort) कहा गया है।   'सांख्य' का शाब्दिक अर्थ है - 'संख्या सम्बंधी' या विश्लेषण। भारतीय संस्कृति में किसी समय सांख्य दर्शन का अत्यंत ऊँचा स्थान था। देश के उदात्त मस्तिष्क सांख्य की विचार पद्धति से सोचते थे। इसकी सबसे प्रमुख धारणा सृष्टि के प्रकृति-पुरुष से बनी होने की है। यहाँ प्रकृति (यानि पञ्चमहाभूतों से बनी) जड़ है और पुरुष (यानि जीवात्मा) चेतन। भारतीय दर्शन के छः प्रकारों में से सांख्य भी एक है। परम पुरुषार्थ (Supreme effort) अर्थात मनुष्य के 'उद्यम' का उद्देश्य क्या होना चाहिए है ?
सांख्य-दर्शन का प्रथम सूत्र कहता है - अथ त्रिविधदुख: खात्यन्त: निवृत्तिरत्यन्त पुरूषार्थ:।। १।।  
- अर्थात् अब इस ग्रन्थ में हम तीनों प्रकार के -आधिभौतिक (शारीरिक), आधिदैविक एवं आध्यात्मिक दु:खों  से स्थायी एवं निर्मूल रूप से छुटकारा पाने के लिए सर्वोकृष्ट प्रयत्न (Supreme effort- परम पुरुषार्थ) का वर्णन कर रहे हैं।
त्रिविध दुःखों की निवृत्ति को साख्य में अत्यंत पुरुषार्थ कहा है। प्रधान दुःख जरा और मरण है जिनसे लिंगशरीर अर्थात महाभूत के शरीर की निवृत्ति के बिना चेतन (witness consciousness) या पुरुष मुक्ती नहीं पा सकता है । इस प्रकार की मुक्ति या अत्यंत दुःख निवृत्ति तत्वज्ञान द्वारा— प्रकृति और पुरुष के भेद ज्ञान (प्रकृति और पुरुष के विवेकज-ज्ञान)  द्वारा—ही संभव है । वेदांत ने सुखदुःख ज्ञान को अविद्या कहा है । इसकी निवृत्ति ब्रह्माज्ञान (विद्या)  द्वारा हो जाती है ।
 १) आधिभौतिक दुःख :-   यह मनुष्य को होने वाली शारीरिक दु:ख है - जैसे बीमारी, अपाहिज होना इत्यादि। आधिभौतिक दुःख वह हैं जो स्थावर, जंगम (पशु, पक्षी, साँप, मच्छड़ आदि) भूतों के द्वार अर्थात पंच महाभूत के शरीर द्वारा उत्पन्न होता है।सर्प, व्याघ्र आदि के काटने ,चोट लगने, धन चोरी हो जाने आदि से प्राप्त होने वाले दुख को आधिभौतिक दुख कहते हैं। 
२) आधिदैविक दुःख :- यहां दैविक शब्द देवता शक्ती संबंध से जो विपादा उत्पन्न होता हैं या प्रकृति के संयोग वश कोई प्राणघाती दुर्घटना उत्पन्न होता हैं उसे भी आधिदैविक कहते हैं। यह देवी प्रकोपों द्वारा होने वाले दु:ख है जैसे बाढ़, आंधी, तूफान, भूकंप इत्यादि के प्रकोप ।  तथा अतिवृष्टि, अनावृष्टि ,वज्रपात ,आग लगने, बाढ़ आने आदि प्राकृतिक आपदाओं से उत्पन्न होने वाले दुख को आधिदैविक दुख कहते हैं। 
३) अध्यात्मिक दुःख –  आत्मा को शरीर या मन से प्राप्त होने वाले दुख को आध्यात्मिक दुख है। यह दु:ख सीधे मनुष्य की आत्मा को होते हैं।  जैसे कि कोई मनुष्य शारीरिक व दैविक दु:खों के होने पर भी दुखी होता है। उदाहरणार्थ-कोई अपनी संतान अपना माता-पिता के बिछुड़ने पर दु:खी होता है अथवा कोई अपने समाज की अवस्था को देखकर दु:खी होता है।
भारतीय संस्कृति के मूल तत्त्व हैं - संस्कार, वर्णाश्रम व्यवस्था और पुरुषार्थ चतुष्टय। यहाँ गर्भधान से मृत्यु तक १६ संस्कारों (षोडश संस्कार) का उल्लेख किया जाता है जो मानव को उसके गर्भ में जाने से लेकर मृत्यु के बाद तक किए जाते हैं।  इनमें से विवाह या पाणिग्रहण संस्कार और  यज्ञोपवीत आदि संस्कार बड़े धूमधाम से मनाये जाते हैं।  जब  युवक-युवतियों में परिवार निर्माण के प्रति कर्त्तव्य-निर्वाह की आर्थिक योग्यता और शारीरिक तथा मानसिक परिपक्वता आ जाती है, तब वैसे सद्गृहस्थ बनने  योग्य   युवक-युवतियों का विवाह संस्कार कराया जाता है। समाज के सम्भ्रान्त व्यक्तियों की, गुरुजनों की, कुटुम्बी-सम्बन्धियों की, देवताओं की उपस्थिति इसीलिए इस धर्मानुष्ठान के अवसर पर आवश्यक मानी जाती है।  पति-पत्नी इन सन्भ्रान्त व्यक्तियों के सम्मुख अपने निश्चय की, प्रतिज्ञा-बन्धन की घोषणा करते हैं। यह प्रतिज्ञा समारोह ही विवाह संस्कार या पाणिग्रहण संस्कार है। ताकि दोनों में से कोई यदि इस कत्तर्व्य-बन्धन की उपेक्षा करे, तो गुरुजन उन्हें  रोकें और गृहस्थों के धर्म या विवाह के उद्देश्य का स्मरण करा सकें। इसीलिए भारत में तलाक का दर पाश्चत्य देशों की अपेक्षा बहुत कम है।
 पश्चिमी देशों के मुक़ाबले भारत में महिलाओं का विवाहित जीवन ज़्यादा सुरक्षित हैं और उनकी देख-रेख बहेतर तरीक़े से होती है।  कई बार तो लड़कियां  माता पिता के घर से ज़्यादा खुश ससुराल में रहती हैं।  उनकी परेशानियां और दर्द उनके परिवार में सुलझा लिया जाता है। हो सकता है कि परिवार से उनका सामंजस्य कभी कभार बहुत बुरा रहता हो, लेकिन इन सबके बाद भी परिवार बना रहता है। बहुत बड़ी आबादी के बीच तो तलाक़ की कभी कोई चर्चा भी नहीं होती है, क्योंकि भारतीय समाज इसे निंदनीय समझता है। 'Unified Lawyers ' नामक एक फर्म  की रिपोर्ट के हिसाब से भारत में सिर्फ 1% शादियां टूटती हैं और ये दुनिया के सबसे कम डिवोर्स रेट वाले देशों में से एक है। और इसी रिपोर्ट में दावा किया गया है कि यूरोपीय देश लक्समबर्ग (Luxembourg) में सबसे ज्यादा शादियां टूटती हैं. लक्समबर्ग में करीब 87% शादियां तलाक में बदल जाती हैं। 
ऋग्वेद में कहा भी गया है -समानी व आाकूतिः समाना हृदयानि वः। समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति॥  संस्कृति के द्वारा हम स्थूल भेदों के भीतर व्याप्त एकत्व के अन्तर्यामी सूत्र तक पहुँचने का प्रयत्न करते हैं और उसे पहचान कर उसके प्रति अपने मन को विकसित करते हैं। अतः भारतीय संस्कृति का अध्यन और अनुशीलन जीवन-गठन के लिए परम आवश्यक है।
भाग्य और पुरुषार्थ एक दूसरे के पूरक हैं :  पुरुषार्थी अथवा कर्मवीर व्यक्ति जीवन में आने वाली बाधाओं व समस्याओं को सहजता से स्वीकार करते हैं । कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी वे विचलित नहीं होते हैं अपितु साहसपूर्वक उन कठिनाइयों का सामना करते हैं । जीवन संघर्ष में वे निरंतर विजय की ओर अग्रसित होते हैं और सफलता की ऊँचाइयों तक पहुंचते हैं। वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो भाग्यवादी होते हैं । ये व्यक्ति थोड़ी-सी सफलता अथवा खुशी मिलने पर अत्यंत खुश हो जाते हैं परंतु दूसरी ओर कठिनाइयों से बहुत ही शीघ्र विचलित हो जाते हैं । उनमें निराशा घर कर जाती है, फलत: सफलता सदैव उनसे दूर रहती है । इन परिस्थितियों में वे स्वयं की कमियों को खोजने तथा उनका हल ढूँढ़ने के स्थान पर अपने भाग्य को दोष देते हैं । इतिहास में ऐसे अनगिनत मनुष्यों की गाथाएँ हैं जिन्होंने अपने पुरुषार्थ के बल पर असाध्य को साध्य कर दिखाया है ।
यदि हम विश्व के अग्रणी देशों का इतिहास जानने की कोशिश करें तो हम देखते हैं कि यहाँ के नागरिक अधिक स्वावलंबी हैं । वे भाग्य पर नहीं बल्कि पुरुषार्थ पर विश्वास रखते हैं । जापान भौगोलिक दृष्टि से बहुत ही छोटा देश है परंतु विकास की राह पर जिस तीव्रता से यह अग्रसर हुआ है वह अन्य विकासशील देशों के लिए अनुकरणीय है । अत: यदि हमें अपने परिवार, समाज और देश को उन्नत बनाना है तो यह आवश्यक है कि देश के नवयुवक भाग्य पर नहीं अपितु अपने पुरुषार्थ पर विश्वास करें एवं स्वावलंबी बनें । दूसरों पर आश्रित रहने की प्रवृत्ति को त्यागें । 
गीता में श्रीकृष्ण ने सच ही कहा है :“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन: ।”कर्म का मार्ग पुरुषार्थ का मार्ग है । धैर्यपूर्वक अपने कर्तव्य पथ पर अडिग रहना ही पुरुषार्थ को दर्शाता है । पुरुषार्थी व्यक्ति ही जीवन में यश अर्जित करता है । वह स्वयं को ही नहीं अपितु अपने परिवार, समाज तथा देश को गौरवान्वित करता है । पर कभी-कभी अपने भाग्य को (हरि की इच्छा और हरिकृपा को)  स्वीकार कर लेना ही श्रेयस्कर है क्योंकि इस स्थिति में हमें संतोष और धैर्य का अनायास ही साथ मिल जाता है जो जीवन में उन्नति के लिए आवश्यक है । 
भीष्म पितामह कहते हैं - बेटा युधिष्ठिर! तुम सदा पुरुषार्थ के लिये प्रयत्नशील रहना। पुरुषार्थ के बिना केवल प्रारब्ध (भाग्य)  राजाओं का प्रयोजन नहीं सिद्ध कर सकता। यद्यपि कार्य की सिद्धी में प्रारब्ध और पुरुषार्थ - ये दोनों साधारण कारण माने गये है, तथापि मैं पुरुषार्थ को ही प्रधान मानता हूँ। प्रारब्ध तो पहले से ही निश्चित बताया गया है। अतः यदि आरम्भ किया हुआ कार्य पूरा न हो सके अथवा उसमें बाधा पड़ जाय तो इसके लिये तुम्हें अपने मन में दुःख नहीं मानना चाहिये। तुम सदा अपने आपको पुरुषार्थ में ही लगाये रखो। यही राजाओं की सर्वोत्तम नीति है। सत्य के सिवा दूसरी कोई वस्तु राजाओं के लिये सिद्धिकारक नहीं है। सत्यपरायण राजा इहलोक और परलोक में भी सुख पाता है। 
‘चरैवेति-चरैवेति’ : भारतीय संस्कृति में धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूपी पुरुषार्थ-चतुष्टय का सिद्धान्त ही जीवन को सार्थक करने और लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर करता है। निरन्तर गति मानव जीवन का वरदान है। व्यक्ति हो अथवा राष्ट्र जो भी एक पड़ाव पर टिक जाता है, उसका जीवन ढलने लगता है। भारतीय संस्कृति का ‘चरैवेति-चरैवेति’ सिद्धान्त जीवन को निरन्तर गतिमान् रखता है। अतः इसकी धुन जब तक भारतीय संस्कृति की आचार्य परम्परा रूपी रथ-चक्रों में गूँजती रहेगी तब तक व्यक्ति तथा राष्ट्र में निरन्तर उन्नति होती रहेगी।
भारतीय संस्कृति का जो साधना पक्ष है, तप उसका प्राण है - तपोमयं जीवनम्। तप का तात्पर्य है तत्त्व का साक्षात् दर्शन करने का सत्य प्रयत्न - सत्यपरिपालनम्। तप हमारी संस्कृति का मेरुदण्ड है। तप की शक्ति के बिना भारतीय संस्कृति में जो कुछ ज्ञान है वह स्वादहीन रह जाता है। तप से ही यहाँ का चिन्तन सशक्त और रसमय बना है। उसका मुख्य कारण - भारतीय संस्कृति में पुरूषार्थ-चतुष्टय का विशिष्ट स्थान रहा है। रंभा रुपसुंदरी है और शुकदेवजी मुनि शिरोमणि ! रंभा यौवन और शृंगार का वर्णन करते नहीं थकती, तो शुकदेवजी ईश्वरानुसंधान का । दोनों के बीच हुआ संवाद अति सुंदर है।  रम्भा कहती है : हे मुनि ! हर मार्ग में (जीवन नदी के हर मोड़ पर)  पाँच बाणों को धारण करनेवाले कामदेव मन को बेचेन बनाते हैं । शुकदेवजी कहते हैं - 
मार्गे मार्गे जायते साधुसङ्गः , सङ्गे सङ्गे श्रूयते कृष्णकीर्तिः ।
कीर्तौ कीर्तौ नस्तदाकारवृत्तिः,वृत्तौ वृत्तौ सच्चिदानन्द भासः ॥ 
हे रंभा ! हर मार्ग में साधुजनों का संग होता है, (जीवन नदी के हर मोड़ पर जिसको Be and Make शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित नेता C-IN-C नवनीदा का संग - अर्थात मार्गदर्शन प्राप्त होता रहता है। उसको)  उन हर एक सत्संग में भगवान कृष्णचंद्र के गुणगान (अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण देव-माँ सारदा देवी -स्वामी विवेकानन्द का जीवन चरित)  सुनने मिलते हैं । हर गुणगाण सुनते वक्त हमारी चित्तवृत्ति भगवान के ध्यान में लीन होती है, और हर वक्त सच्चिदानंद का आभास होता है ।
सुरुपं शरीरं नवीनं कलत्रं,धनं मेरुतुल्यं वचश्चारुचित्रम् ।
हरस्याङ्घि युग्मे मनश्चेदलग्नं,ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥
हे Body is handsome, the wife is attractive,Fame spread far and wide, wealth is enormous and stable like Mount Meru;But if the mind is not immersed in devotion to the lotus feet of the Guru Vivekananda, Really of what use is all these, what use, what use, what use?हे रंभा ! शरीर युवा और सुंदर हो, पत्नी आकर्षक हो, प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई हो, मेरु पर्वत की तरह धन-संपत्ति विशाल और स्थिर बनी हुई हो; लेकिन अगर मन अपने गुरु देव (मार्गदर्शक नेता C-IN-C नवनीदा) के चरण कमलों की भक्ति में डूबा नहीं है, तो वास्तव में इन सभी का क्या उपयोग है, क्या उपयोग, क्या उपयोग? अर्थात स्वामी विवेकानन्द के दर्शन का अभ्यास किये बिना इन सबका कोई महत्व नहीं है। 
वस्तुत: इन पुरुषार्थों ने ही भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिकता के साथ भौतिकता का एक अदभुत समन्वय कर दिया है। कर्म और तप, अध्यात्म और दर्शन, धर्म और शिक्षा की विशिष्ट साधना पद्धतियों के माध्यम से अनन्त सर्वव्यपाक रस-तत्त्व तक पहुँचने की सतत चेष्टा (पुरुषार्थ) भारतीय संस्कृति में पायी जाती है।  जिसमें आध्यात्मिक भावना, वर्णाश्रम व्यवस्था, कर्मवाद, पुनर्जन्मवाद, मोक्ष, अहिंसापालन, मातृ-पितृ-गुरु भक्ति और स्त्री समादर इत्यादि का समावेश रहता है।  इस प्रकार प्राचीन आश्रम व्यवस्था में आधारित भारतीय संस्कृति में 'मोक्ष' को ही मनुष्य जीवन  का चरम लक्ष्य माना गया है । ब्रह्मचर्य आश्रम में ही विद्यार्थी को इसका बोध हो जाता था तथा जीवन-पर्यन्त वह अपनी समस्त क्रियाओं को उसी ओर नियोजित करता था । जीवन के अन्तिम संन्यास आश्रम से इस लक्ष्य की पूर्ण प्राप्ति होती थी ।
सुखी मानव-जीवन का निर्माण करने के लिए ऐसी जीवन-व्यवस्था विश्व की अन्य संस्कृतियाँ में प्राप्य नहीं हैं। परिवर्तनशील आश्रम - व्यवस्था के साथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे चार पुरुषार्थों के द्वारा आध्यात्मिकता एवं भौतिकता का समन्वय, प्राचीन भारतीय संस्कृतिकी अपनी व्यवस्था है- जो विश्व की अन्य संस्कृतियों में सर्वथा अप्राप्य है ।  एक महान आध्यात्मिक संस्कृति हम भारतवासियों को अपने पूर्वजों से विरासत में प्राप्त हुई है, जिसको हमें पूरे विश्व को दानस्वरूप देना होगा; क्योंकि आज पूरी दुनिया उदग्रीव होकर इसकी प्रतीक्षा कर रही है। 
इसीलिए विवेकानन्द ने कहा था -" भारत ही वह भूमि है , जहाँ से उमड़ती हुई बाढ़ की तरह धर्म और आध्यात्मिक संस्कृति ने सम्पूर्ण विश्व को बार -बार आप्लावित कर दिया था। और यही वह भूमि है , जहाँ से पुनः ऐसी ही (आध्यात्मिक) तरंगे उठेंगी और विश्व के निस्तेज मनुष्यों में शक्ति और जीवन का संचार कर देंगी। " 5.179/
------------------------------





















सोमवार, 9 दिसंबर 2019

"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः" [ 'Be and Make' Syllabus-1 ]

स्त्रियों के प्रति मानसिक व्यभिचार (Mental adultery) या वाचिक हिंसा रोकना प्रथम धर्म है। 
हैदराबाद में डॉक्टर बिटिया के साथ हुई वारदात के बाद ... दुष्कर्मियों के पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने से देशभर की स्त्रियों ने राहत की साँस ली है। लेकिन सबसे जरुरी है, उस मानसिकता को जड़ से खत्म करना, जिसकी वजह से स्त्रियों के प्रति ऐसे गंभीर अपराध होते हैं। वरिष्ठ साहित्यकार नीरजा माधव का मानना है कि ऐसे घिनौने अपराधों का 'बीज-तत्व ' है स्त्रियों से जुड़े अपशब्दों का समाज में बड़े ही सहज भाव और धड़ल्ले से प्रयोग। बोल-चाल की यह बदजुबानी कब बदनीयती में बदल जाती है , पता ही नहीं चलता ... 
अन्ततः हैदराबाद की दुःखद घटना का पटाक्षेप हो गया। डॉक्टर बिटिया के दुष्कर्मियों को 9 दिन के अंदर ही उनके किये कर्मों की सजा मिल गई। इस 'सफाई ' के बाद अब जरूरत है विचारों की सफाई के लिए एक आंदोलन या अभियान छेड़ने की; उन नारी-सूचक अपशब्दों के विरोध में, जिन्हें पूरा का पूरा स्त्री-समाज [मातायें -बहने -बेटियाँ ] न जाने कब से से पचाती और नजर-अंदाज करती या दृष्टि-ओझल करतीं, सुनकर भी अनसुना करती चली आ रही हैं। ये नारी -सूचक शब्द का प्रयोग करके, (slang) बोलने या अपशब्द बोलने की कूप्रथा,या गवाँरु भाषा में गाली -गलौज (slang) करने की कूप्रथा-- कुछ इस प्रकार हमारे समाज की जुबान पर रच-बस गए कि, आज  [गया जिला ?] के पढ़े-लिखे व्यक्ति भी इसका धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं। उन्हें इस बात का थोड़ा भी ध्यान नहीं रहता कि इससे पूरे स्त्री-समाज का (मातृ-जाति) का अपमान हो रहा है।
शर्मनाक पहलु: इस प्रकार आजादी के बाद भी मानसिक व्यभिचार (Mental adultery) या वाचिक हिंसा होती रहती है और हमलोग चुपचाप उसे देखते -सुनते रहते हैं। दो मित्र यदि आपस में चुहल कर रहे हों, तो बेधड़क माँ -बहन के लिए अक्सर अपशब्दों का प्रयोग होता है। आपस में विवाद (dispute -तकरार) हो तो ऐसे ही अपशब्दों की बौछार होती है। पुलिस वाले , टैक्सी -रिक्शेवाले, बसड्राइवर -खलासी , पढ़े-लिखे या अनपढ़ , स्कूली छात्र या झुग्गी-झोपडी में रहने वाले युवा, बच्चे-बूढ़े सभी किसी न किसी बात में एक दूसरे की माँ ,बहन या बेटी के लिए अपशब्दों का प्रयोग करते हैं। और इस बात की तनिक परवाह नहीं करते वहीँ सामने की सीट पर मातायें -बहने -बेटियां भी बैठी हुई हैं या नहीं ? भारत की आधी आबादी स्त्रियों की है, किन्तु पूरी आबादी इन अपशब्दों को सुनने के लिए अभिशप्त होती है। यौनिक संबन्धों के सूचक इन अपशब्दों का प्रयोग स्कूलों -कॉलेजों और पढ़े-लिखे वर्ग में भी किया जाता है। अब तो अधिक आधुनिक कहलाने की होड़ में छात्राओं ने भी अपने सहपाठियों के लिए ऐसे अपशब्दों का प्रयोंग करना सीख लिया है। यदि हिन्दी में अपशब्द नहीं होंगे तो अंग्रेजी के अपशब्द होंगे -पर होंगे जरूर। चाहे प्यार में हों, या तकरार में। यह शर्मनाक पहलु है।
मानसिक-व्यभिचार और वाचिक हिंसा ही शारीरिक हिंसा के लिए उसकाने का काम करती हैं - मनुष्य ही नहीं , अपितु पशु या निर्जीव वस्तुओं की भी माँ, बहन , बेटियों भद्द पिटती रहती है। तांगे का घोडा या बैलगाड़ी का बैल यदि दायें -बायें मुड़ जाये तो चालक का अभद्र रिश्ता बैलों की माँ-बहन-बेटी से जुड़ जाता है। स्कूटर-चालक के सामने बाधा आने पर उनके जुबान को सुनने से क्षोभ होता है। नाविक लोगों का झगड़ा हो, या उच्च स्तर के प्रोफेसर का -स्त्रियों से सम्बंधित अपशब्द बोलने में कोई वर्ग पीछे नहीं है। हाँ , आश्चर्यजनक ढंग से इन स्त्री-सूचक अपशब्दों में पत्नी का कोई स्थान नहीं है। शायद सामने वाले का खून माँ-बहन-बेटी के लिए अपमान जनक शब्द सुनने पर ही खौल सकता है, यह सोच हावी हो ? 
भारतीय समाज का स्वाभाविक रूप से अपशब्द को बर्दास्त करते रहना ही वह मूल कारण है, जिसके चलते कोई बच्चा या युवा स्त्रियों के प्रति असम्मान सूचक शब्दों को सामान्य बोलचाल की भाषा समझ लेता है। वह मातृजाति की मर्यादा के प्रति सजग हो ही नहीं पाता , क्योंकि उसे बचपन से ही स्त्रियों के इसी रूप को बार-बार देखने और सुनने का परिवेश मिलता रहा है। स्त्रियों के प्रति यही वाचिक हिंसा उसे क्रूर शारीरिक हिंसा या बलात्कार जैसे कुकृत्यों के लिए उकसाती है। 
खो गयी वेदों की वाणी : यह सब देखकर आश्चर्य होता है, कि क्या हम उसी भारतीय संस्कृति के अंग हैं, जहाँ के शास्त्रों में स्त्रियों के लिए सम्मान प्रकट करते हुए मनु महाराज कहते हैं - "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।  यत्र तु एताः न पूज्यन्ते तत्र सर्वाः क्रियाः अफलाः (भवन्ति) । मनुस्मृति ३/५६ ।।
जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नही होती है, उनका सम्मान नही होता है वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं। भारतीय नारी हमेशा कुलदेवी समझी जाती है। वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति सभी प्रकार से अच्छी थी। उनको एक ऊँचा स्थान प्राप्त था। लड़कियाँ भी जब गुरु के आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने जाती थीं, तब ब्रह्मचर्य का पालन करती थीं।
[ शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् । न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा ।। मनुस्मृति ३/५७ ।।जिस कुल में स्त्रियाँ कष्ट भोगती हैं ,वह कुल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है और जहाँ स्त्रियाँ प्रसन्न रहती है वह कुल सदैव फलता फूलता और समृद्ध रहता है । (परिवार की पुत्रियों, बधुओं, नवविवाहिताओं आदि जैसे निकट संबंधिनियों को ‘जामि’ कहा गया है ।)]
पत्नी के द्वारा ही धर्म, अर्थ, काम आदि त्रिवर्ग का फल प्राप्त होता है। गृह का निवास, सुख के लिए होता है और घर के सुख का मूल पत्नी ही है। भारतीय मनीषा ने नारी सम्मान और राष्ट्र की प्रगति को एक-दूसरे से जुड़ा हुआ माना है। पुराणों और स्मृतियों में भी नारी सम्मान का उल्लेख बार बार मिलता है। विष्णुपुराण में नारी का अपमान न करने का उपदेश देते हुए कहा है -'योषिता नावमन्येत । '[विष्णुपुराण ३.१२.३०] 
अर्थात योषिता = स्त्री, युवती का / नावमन्येत = न अवमन्येत  / नारियों का असम्मान नहीं करना चाहिए। ऋग्वेद और अथर्ववेद में कहा गया है कि नारी के सम्मान और सुरक्षा के बिना कोई भी राष्ट्र सुरक्षित नहीं रह सकता। अथर्ववेद में पत्नी को ‘रथ की धुरी’ कहकर गृहस्थ का आधार माना गया है। आधुनिक युग के कवी जयशंकर प्रसाद ने लिखा है - 'नारी! तुम केवल श्रद्धा हो,विश्वास-रजत-नग पगतल में।पीयूष-स्रोत-सी बहा करो,जीवन के सुंदर समतल में।' स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा है कि वे ही देश उन्नति कर सकते हैं, जहाँ स्त्रियों को उचित सम्मान प्राप्त होता है।
 माँ की ममता का वह आंचल जो सबको आश्रय देता है, सभी रिश्ते उससे जुड़कर ही सार्थक होते हैं। किन्तु क्या हम वास्तव में नारी समुदाय को सम्मान या श्रद्धा दे पा रहे हैं ? आज समाचार-पत्र खोलते ही स्त्री उत्पीडन की बातें ही दिखाई देती हैं। माँ , बहन के प्रति किये गए अश्रद्धापूर्ण व्यवहार से क्या हम प्रतिदिन अपने राष्ट्र का चरित्र कलंकित नहीं कर रहे हैं। वह राष्ट्र जिसकी वंदना हम माता के रूप में करते हैं, किन्तु दो दोस्त आपस में बातचीत करते हुए भी एक-दूसरे की माँ , बहन का अपमान करते हैं। वे इन अपशब्दों का उच्चारण करने में इतने अभ्यस्त हो गए हैं, अब वही उनकी प्रवृत्ति बन गयी है, और उन्हें इसमें कुछ भी बुरा या अश्लील नहीं दिखाई देता। जबकि यही वाचिक हिंसा क्रमशः कर्म में परिवर्तित होने की दिशा में अग्रसर होने लगता है। 
उदार-दृष्टि के नाम पर, आजादी के बाद एक खास विचारधारा से प्रभावित साहित्य प्रचुर मात्रा में लिखा गया जिसमें यथार्थ-उदारता के नामपर अपशब्दों और नग्नता का भरपूर चित्रण किया गया। बिना यह परवाह किये कि, उनके इस विकृत सृजन का भावी पीढ़ी के युवाओं पर क्या मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ेगा। इस प्रकार के साहित्य पाठ्यक्रमों में भी शामिल किये गए, जिसके फलस्वरूप पूर्ण विकृत मानसिकता वाली एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो गयी, जो स्त्रियों की मर्यादा के प्रति असंवेदनशील रही। भाषा की शुचिता , सह शिक्षा में परस्पर पवित्र व्यवहार जैसे विराट उद्देश्य साहित्य से दूर होते चले गए। और एक संक्रामक बीमारी की तरह स्त्रियों के प्रति अपमानजनक शब्दों ने पूरे समाज को अपनी जकड़ में ले लिया। 
यहाँ मूक हर आवाज क्यों ? आश्चर्य होता है कि जो बुद्धिजीवी , साहित्यकार , कथाकार, राजनेता , टीआरपी बढ़ाने वाली मिडिया जो बच्चियों और स्त्रियों के प्रति प्रायः घटने वाली दुराचार , हिंसा के विरोध में मोमबत्तियां लेकर जुलुस निकालते हैं, वे कभी स्त्री-सूचक अमर्यादित अपशब्दों को अपने संज्ञान में क्यों नहीं लेते ? इसके लिए टीवी चैनलों पर आज तक कोई बहस नहीं दिखाई पड़ी। वाचिक हिंसा , भाषायी अश्लीलता के विरोध में कभी कोई संगठन खड़ा नहीं हुआ। स्त्रियों के हित में कानून बना है, पर उनकी इज्जत को तार तार करते इन क्रूर अपशब्दों का प्रयोग करने के विरोध में और अपशब्द कहने वाले को सजा देने के पक्ष में कोई कानून क्यों नहीं बना ? हर बात पर अनर्गल फतवे जारी करने वाले मुल्लाओं ने भी इन अपशब्दों को बंद करने के लिए कोई फतवा आजतक जारी नहीं किया है।
मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के प्रचार-प्रसार की अनिवार्यता : नारियों को इस शब्द हिंसा से बचाने के लिए , राजनीतिज्ञों से पहले धार्मिक नेताओं को [अर्थात  " Be and Make वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित जीवन्मुक्त शिक्षकों को] आगे आना होगा। उनके जीवन को पहले गठित करना होगा। भाषा के संस्कार को समझना होगा। लोगों को 3'H' --(हैण्ड,हेड,हार्ट्) को विकसित कर मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा देनी होगी। समाज के लिए भाषा का संस्कार और शुचिता क्यों आवश्यक है , इसके लिए साहित्यकारों, साधु-संतों को आगे आना होगा। सर्वप्रथम भाषायी उत्पीड़न को रोकना होगा तब स्त्रियों के प्रति अपराध रुकेंगे। 
सबसे अधिक पुलिस वालों को अपनी भाषा के प्रति सतर्क होना होगा, जिनकी जुबान पर स्त्री-सूचक गालियाँ लॉ ऐंड ऑर्डर मेन्टेन करने के नाम पर सबसे पहले आती हैं। यह कैसी विडंबना है ? शिक्षण संस्थानों को भी इसके लिए आगे आना होगा कि नैतिकता का पाठ,रित्र-निर्माण की प्रशिक्षण पद्धति नई पीढ़ी को सीखने के लिए वे ही अनुप्रेरित कर सकते हैं। जब से चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के पाठ हमारे पाठ्यक्रमों से कम हुए हैं, समाज में अराजकता बढ़ी है। स्त्रियों के प्रति वाचिक -शारीरिक अत्याचार और शोषण की घटनाएं बढ़ी हैं। 
जनसंख्या वृद्धि के जो दुष्परिणाम होते हैं, उसके कारण भारत में अशिक्षितों और असंस्कारित लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग रहता है,  जो स्त्रियों के प्रति अपशब्दों का प्रयोग साँस लेने की क्रिया के तरह करता रहता है। स्त्री इन अपशब्दों के मकड़जाल में फंसी कसमसा रही है। वह अब सोच रही है कि क्या अशिक्षित, शिक्षित , अमीर -गरीब , हिन्दू-मुसलमान , सिख-ईसाई अर्थात समाज के सभी वर्ग में जड़ें जमाये इन स्त्री-सूचक अपशब्दों पर क्या कभी रोक लग सकती है ? क्या स्त्री को अकारण अपमानित करने का यह देशव्यापी रोग समाप्त हो सकता है ? कौन पहल करेगा इसे रोकने के लिए ? कानून, समाज या स्वयं स्त्री ? आशा की एकमात्र किरण है, कि इन अपशब्दों को अपने अपने स्तरों से रोकने का एक अभियान  छिड़ सके। संकल्प कठिन है, पर असम्भव नहीं है। हो सकता है कि कुछ समय लगे, पर स्त्रियों की मर्यादा को लेकर सभी एकजुट होंगे और स्त्री -सूचक अपशब्दों का अपने जीवन , समाज के जीवन और राष्ट्र के जीवन से भी बहिष्कार करेंगे तो स्त्रियों के प्रति हो रही अस्वाभाविक गंदी घटनाओं और हिंसा पर रोक लग सकेगी। अपशब्दों को रोकना ही शारीरिक हिंसा को रोकने का प्रारम्भ बिंदु है।                
-------------
[साभार : 'हम भारत के बदजुबान लोग' -नीरजा माधव/मधुवन, एस ए 14/598, सारंगनाथ कॉलोनी, सारनाथ, वाराणसी, 221007 (उ. प्र.)/ neerjamadhav@gmail.com/ दैनिक जागरण / 8 दिसंबर 2019 /91-542-2595344, 91-9792411451/]